दयाशंकर मिश्र

धारणा के उलट !
02-Sep-2020 11:10 AM
धारणा के उलट !

अपनों के प्रेम, अनुराग पर भरोसा कीजिए। संकट साथ मिलकर सहने से कम होता जाता है। हर अंधेरी रात की सुबह है। बस रात से डरना नहीं और सुबह में यकीन रखना है।

आसान नहीं है, बनी-बनाई लकीर के पार चले जाना! आसान नहीं है, जो दिमाग सोच ले, उससे बाहर जाकर कुछ सोच लेना। जिंदगी में धारणा के विपरीत जाना सबसे मुश्किल काम है। जीवन फूल की तरह हो, बस खिलने पर जोर, दूसरे से होड़ नहीं! हम जो कुछ एक बार सोच लेते हैं, उसमें स्वादानुसार नमक मिलाते जाते हैं! धारणा के विपरीत जाना साहस का काम है, इसे बढ़ाने के बारे में सोचना है! ‘जीवन संवाद’ को राजस्थान के जोधपुर से एक ईमेल मिला है। इसमें कोरोना के कारण अपने व्यापार में भारी घाटा उठा रहे युवा उद्योगपति ने अपने संकट का जिक्र करते हुए सुझाव मांगे हैं। वह जीवन से उतने अधिक निराश नहीं थे, जितने इस बात से निराश थे कि अचानक आए संकट ने उन्हें कई दशक पीछे धकेल दिया। उनके साथ के लोग कहीं आगे निकल गए। भारी आर्थिक कर्ज के बीच उनका मानसिक स्वास्थ्य निरंतर अस्थिर हो रहा है।

उनसे लंबी बातचीत से लग रहा था कि वह इस बात के लिए व्याकुल हैं कि किसी तरह शहर से कुछ दिनों के लिए अपना कारोबार समेटकर बाहर चले जाएं। जिससे उधार मांगने वालों से किसी तरह खुद को बचा सकें। उनकी चिंता स्वाभाविक है। वह संकट को हल करने में लगे थे, लेकिन उनका दिमाग धीरे-धीरे सारे रास्ते बंद करता जा रहा था। उनका कहना था कि उनकी पत्नी बहुत कमजोर हैं और आर्थिक संकट, कर्ज-वसूली करने वालों के सामने संभावित अपमान से वह अपने आपको संभाल नहीं पाएंगी। मैं भी उनकी चिंता से कुछ-कुछ सहमत था, लेकिन मैं इस बात के लिए राजी नहीं था कि बिना उनको बताए अचानक शहर से बाहर आने की योजना बनाई जाए। वह मुझे तरह-तरह के तर्क देते रहे, लेकिन मैं सहमत नहीं था।

कल अंतत: मेरे कई बार अनुरोध के बाद उन्होंने अपनी पत्नी से मेरी बात कराई। मैं उनकी पत्नी की बातें सुनकर प्रसन्नता और आनंद से भर गया। उनकी पत्नी ने जो कुछ कहा, वह मेरी अपेक्षा से बहुत आगे बढक़र था। उन्होंने कहा, हम जोधपुर छोडक़र कहीं नहीं जाना चाहते।


हम संघर्ष करना चाहते हैं, क्योंकि सामने संघर्ष की मिसाल रखना चाहते हैं। नए शहर में इतना कुछ नया होगा कि हमें अपनी जड़ें जमाने में बरसों बीत जाएंगे। हम कर्ज में जरूर हैं, लेकिन हम हारना नहीं चाहते। वह भी बिना लड़े।

लगभग 60 मिनट की बातचीत में 55 मिनट उनकी पत्नी बोलती रहीं। मैं चुपचाप आनंद से सुनता रहा। उनकी पत्नी के पास पति के हर संकट की जानकारी थी। बस तनाव नहीं था। जबकि उनके पति निरंतर मुझसे यही कहते, वह बहुत कमजोर हैं। संकट का सामना नहीं कर पाएंगी। मुश्किल को सह नहीं पाएंगी। बिना कुछ कहे हम कितना कुछ दिमाग में ‘घर’ कर लेते हैं। दो महीने से यह युवा उद्योगपति मन ही मन घुट रहा था। जीवन के बहुत ही खतरनाक मोड़ पर पहुंच चुका था। केवल यही सोचकर कि उसकी पत्नी कमजोर हैं। वह तनाव और संघर्ष को नहीं सह पाएंगी। कितना कम जानते हैं हम अपने परिवारवालों को!

सोशल मीडिया के जमाने में हम रात-दिन दुनिया को जानने का दावा करते रहते हैं, लेकिन अपने ही लोगों के प्रेम, शक्ति से अपरिचित रहते हैं। इस अपरिचय के कारण बहुत सारा तनाव ओढ़ लेते हैं। अपनों के प्रेम, अनुराग पर भरोसा कीजिए। संकट साथ मिलकर सहने से कम होता जाता है। हर अंधेरी रात की सुबह है। बस रात से डरना नहीं और सुबह में यकीन रखना है।  (hindi.news18)
-दयाशंकर मिश्र

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