महासमुन्द
गांववालों की वर्षों पुरानी मान्यताओं ने इस जंगल को आज भी हरा-भरा रखा है
एक पहाड़ को शीत बाबा के रूप में जाना जाता है
उत्तरा विदानी
महासमुंद, 26 फरवरी (‘छत्तीसगढ़’ संवाददाता )। महासमुंद के जंगल ऐतिहासिक और धार्मिक धरोहरों से भरे पड़े हैं। इन जंगलों से जुड़ी कई रोचक और रहस्यमयी कथाएं आज भी प्रचलित हैं। ऐसी ही रहस्यमयी कहानी मामा-भांचा जंगल से जुड़ी है।
जिले के बसना ब्लॉक अंतर्गत खोकसा और लोहाड़ीपुर के बीच घना जंगल है, इसमें दो पहाड़ आपस में जुड़े हैं। जिसका नाम मामा-भांचा है। वैैसे तो इस जंगल में तीन पहाड़ हैं। एक पहाड़ को शीत बाबा के रूप में जाना जाता है। स्थानीय लोग मानते हैं कि ये पहाड़ कभी मानव थे और कालांतर में पहाड़ के रूप में स्थिर हो गए। लिहाजा लोग इन्हें देव के रूप में पूजते हैं और हर साल यहां बड़े मेले का आयोजन होता है।
हालांकि इस घटना का कहीं कोई लिखित प्रमाण नहीं है। लेकिन गांववालों की वर्षों पुरानी मान्यताओं ने इस जंगल को आज भी हरा-भरा रखा है। मामा-भांचा आश्रम में रहने वाले बाबा अरक्षित बैरागी कहते हैं-कई वर्षों पहले रिश्ते में मामा-भांचा दो शिकारी खोकसा गांव के पास अपनी फसल की रखवाली कर रहे थे। तभी शीत बाबा जंगली सुअर का रूप धारण कर मामा-भांचा के खेत में लगी फसल को खाने लगे। शिकारी मामा-भांचा ने जंगली सुअर का पीछा किया। वे एक स्थान पर पहुंचे थे और जंगली सुअर को मारना चाह रहे थे। तभी वह अपने असली रूप शीत बाबा बनकर सामने आए।
शीत बाबा ने मामा-भांचा से कहा कि तुम शिकारी का काम छोड़ दो। हम तीनों यहां एक साथ रहेंगे। बाबा ने मामा-भांचा से कहा कि लोग हमारी पूजा करेंगे और मामा-भांचा का नाम लेकर लोगों की मनोकामना पूरी करेंगे। इसके बाद तीनों अलग-अलग पहाड़ के रूप में हमेशा के लिए वहीं खड़े हो गए।
वर्तमान में लोहाड़ीपुर-खोकसा के बीच स्थित मामा-भांचा जंगल किसी परिचय का मोहताज नहीं है। हर वर्ष शरद पूर्णिमा में यहां मेले का आयोजन होता है। लोहाड़ीपुर, पतेरापाली, खोकसा, संतपाली,पलसाभाड़ी, भंवरपुर समेत महासमुंद के अलग-अलग गांवों के लोग यहां पहुंचते हैं। ग्रामीणों ने मुख्यमंत्री और शासन-प्रशासन से भी इसे पर्यटन स्थल घोषणा करने की मांग की है। अभी इस प्रसिद्ध धरोहर को सहेजने की दिशा में कोई प्रयास नहीं किया गया है।