धमतरी
‘छत्तीसगढ़’ संवाददाता
नगरी, 20 जून। भीतररास सिहावा में 11 वीं सदी का निर्माण हुआ मंदिर है जहां पूर्व में राम जानकी की मूर्ति स्थापित थी जिसकी पूजा अर्चना की जाती थी ओडिशा जगन्नाथ पुरी से एक पंडा महाराज का आगमन हुआ भीतररास सिहावा में उन्होंने भगवान जगन्नाथ बलभद्र जी एवं सुभद्रा माता की मूर्ति स्थापित की और पूजा अर्चना प्रारंभ किया उस समय से सिहावा भीतररास भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा प्रारंभ हुई।
बताया जाता है कि पंडा महाराज जोकि ओडिशा के जगन्नाथ पुरी से उनका आगमन हुआ था, उनकी स्थापित मूर्ति आज भी भीतर रास सिहावा में रथ यात्रा के दिन रथ में सवार होकर सिहावा एवं भीतर रास की गलियों में गुजरती है जहां लोगों का दर्शन के लिए अपार भीड़ उपस्थित रहती है।
मंदिर पुजारी ईश्वर दास वैष्णव ने बताया कि मैं लगभग 50 वर्षों से पूजा कर रहा हूं इसके पूर्व मेरे पिताश्री कृष्ण दास जी वैष्णव यहां पूजा पाठ किया करते थे उनके द्वारा बताया गया कि यह मूर्ति जो स्थापित है वह लगभग 200 साल पुरानी है और यहां जिसमें रथयात्रा भगवान जगन्नाथ का निकलता है वह वह आज भी उसी समय की है जिसका समय समय पर मरम्मत किया जाता है।
ग्राम के सेवानिवृत्त शिक्षक जितेंद्र वीर नाग ने बताया कि मेरी उम्र 86 साल हो चुकी है और यहां पर लगभग 200 साल पूर्व पंडा महाराज द्वारा स्थापित भगवान जगन्नाथ, भगवान बलभद्र, एवं सुभद्रा जी की मूर्ति रथ में स्थापित कर सिहावा एवं भीतर राशि के गलियों में लगभग 200 साल से निकल रही है। उन्होंने जानकारी दी कि पंडा महाराज जो कि काफी साधना वाले थे वे रोज भगवान जगन्नाथ को खिचड़ी का भोग लगाया करते थे, तत्पश्चात वह अपना भोजन किया करते थे वे स्वयं से बना भोजन ही खाया करते थे।
सरपंच रंजना सूर्यवंशी ने बताया कि आज भी यहां रथ यात्रा निकलता है तो प्रत्येक घर से चंदा इक_ा किया जाता है एवं उसी चंदे से भगवान जगन्नाथ रथ यात्रा के खर्च में उपयोग किया जाता है जो कि हमारे गांव के प्रत्येक वर्ष की परंपरा है।
उन्होंने बताया कि भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा भीतररास स्थित जगन्नाथ मंदिर से प्रारंभ होकर बस स्टैंड सिहावा से वापस आकर सिहावा के गलियों से गुजर कर कर्णेश्वर मंदिर जाती है, जहां पर 15 दिन तक भगवान विश्राम करते हैं तत्पश्चात वापसी की जाती है। उन्होंने बताया कि रात में जितने पुजारी विराजमान होते हैं वह भी 15दिन तक भगवान जगन्नाथ के साथ कर्णेश्वर मंदिर में निवासरत होते हैं जोकि200 सालों से यह परंपरा को संजो कर रखा गया है।