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अमेरिकी लैब के रिटायर चिंपैंजियों की दुखद कहानी
27-Apr-2022 5:08 PM
अमेरिकी लैब के रिटायर चिंपैंजियों की दुखद कहानी

लाइबेरिया के वीरान द्वीपों पर रिटायर हो चुके चिंपैंजी रहते हैं. लैब में परीक्षण के लिए इस्तेमाल हुए चिंपैंजी लंबे समय इंसानों के साथ रहने के कारण अब ना तो खुद की रक्षा करने और ना ही अपने लिये खाना जुटाने लायक बचे हैं.

(dw.com) 

लाइबेरियाई द्वीपों के पास एक नाव पर सवार पशुओं के डॉक्टर रिचर्ड सुना बड़े ध्यान से संरक्षकों को देखते हैं जो किनारों की तरफ फल उछाल रहे हैं और चिंपैंजियों को आवाज लगा रहे हैं.

बीच खाली है मगर यहां चिंपैंजियों की गुर्राहट और भुनभुनाहट सुनाई दे रही है. धीरे धीरे एक बड़ा चिंपैंजी पैरों की उंगलियों पर चलता हुआ बीच पर खाना उठाने के लिए आता है. सुना बताते हैं कि यह अपने गुट में वरिष्ठ है, उसके पीछे दूसरे चिंपैंजी भी आते हैं. जो कम उम्र वाले हैं. वे उछलकूद करते खुशी से चहकते हुए केले, खजूर और कसावा उठाते हैं.

अटलांटिक सागर के पास मौजूद छोटे द्वीपों में से एक इस वीरान द्वीप समूह पर इंसानों की कोई बस्ती नहीं लेकिन 65 चिंपैंजियों का बसेरा जरूर है. पश्चिम अफ्रीकी देश की राजधानी मोनरोविया से यह करीब 55 किलोमीटर दूर है. हालांकि आज इन्हें खाना देकर जो खुश किया जा रहा है उसका एक काला अतीत है.

परीक्षण के लिये चिंपैंजी

ये उन 400 चिंपैंजियों के समूह के सदस्य हैं जिन्हें अमेरिकी धन से चलने वाले एक रिसर्च प्रोजेक्ट के लिए परीक्षणों में इस्तेमाल किया गया. कई दशकों तक इनके शरीर पर प्रयोग चलते रहे. कुछ जीवों की तो कई सौ बार बायोप्सी हुई है. ह्यूमन सोसायटी इंटरनेशनल यानी एचएसआई के निदेशक सुना कहते हैं, "इन्हें बहुत चोट पहुंचाई गई है." यह संगठन अब इन जीवों का ख्याल रखता है.

लाइबेरिया में चिंपैंजियों पर परीक्षण 1974 में शुरू हुआ. तब न्यू यॉर्क ब्लड सेंटर यानी एनवाईबीसी ने फर्मिंग्टन नदी के किनारे बने परिसर में हिपेटाइटिस बी और दूसरी बीमारियों से जुड़े बायोमेडिकल रिसर्च की शुरुआत की थी. सन् 1989 से लेकर 2003 तक लाइबेरिया में चले गृहयुद्ध के दौरान चिंपैंजियों के भूखे मरने की नौबत आ गई थी क्योंकि उनके आस पास पूरा देश युद्ध में झुलस रहा था. गरीब देश में रिसर्च स्टाफ अपनी जेब से पैसे खर्च करके किसी तरह इन्हें जिंदा रख रहे थे. इक्कीसवीं सदी के पहले दशक के मध्य में बहुत से चिंपैंजियों को रिटायर कर दिया गया लेकिन उनकी मुसीबतें खत्म नहीं हुईं.

लावारिस छोड़ा

2015 में न्यू यॉर्क ब्लड सेंटर ने अपनी फंडिंग में कटौती कर दी, इसका कारण अब भी साफ नहीं है. इसे लेकर काफी विवाद भी हुआ. चिंपैंजियों को छोटे छोटे ऐसे द्वीपों पर छोड़ दिया गया जो उन्हें नहीं पाल सकते थे. सामाजिक कार्यकर्ताओं ने अभियान छेड़ा जिसमें जैक्विन फिनीक्स और एलेन पेज जैसे हॉलीवुड सितारों ने याचिका पर दस्तखत किये कि ब्लड बैंक इनके लिए फंडिंग फिर से बहाल करे. अमेरिका में रहने वाले प्राइमेटोलॉजिस्ट ब्रायन हारे ने याचिका दायर की थी.  उसमें उन्होंने लिखा था, "वास्तव में उन्होंने इन गरीब चिंपैंजियों को भुखमरी और डिहाइड्रेशन से मरने के लिये छोड़ दिया है."

लाइबेरिया दुनिया के सबसे गरीब देशों में है. वर्ल्ड बैंक के अनुसार, यहां की 44 फीसदी आबादी प्रति दिन 1.90 डॉलर से कम खर्च पर गुजारा करती है.

एवाईबीसी के पैसा रोक लेने के बाद भी रिसर्च सेंटर के स्थानीय कर्मचारी चिंपैंजियों की मदद के लिए आगे आते रहे, यहां तक कि इबोला की महामारी के दौर में भी. सामाजिक संगठनों और अमेरिकी बैंक सिटीग्रुप ने भी मुश्किल दौर में राहत के लिए धन दिया.

दो वक्त का भोजन

दबाव बढ़ने पर आखिरकार एनवाईबीसी लंबे समय की देखरेख के लिए कुछ खर्च उठाने पर तैयार हुआ. 2017 में इसके लिए ह्यूमन सोसायटी के साथ एक समझौता हुआ जिसमें एनवाईबीसी ने 60 लाख अमेरिकी डॉलर देने का वादा किया. एनवाईबीसी ने पैसे रोकने के बारे में पूछे सवालों का जवाब नहीं दिया. बहरहाल अब बीते कुछ सालों से लैब में काम कर चुके चिंपैंजियों को पशु चिकित्सक की देखभाल और हर दिन दो वक्त का भोजन मिलता है.

हालांकि अब भी कई चिंपैंजी बीते दौर के जख्म अपने बदन और मन पर लिये घूमते हैं. डॉक्टर सुना ने दूसरे द्वीप पर एक चिंपैंजी को दिखाया जिसका एक हाथ नहीं था. सुना ने कहा कि यह पशु, "निश्चित रूप से अत्याचारों का पीड़ित है." इस चिंपैंजी का नाम बुलेट है, शिकारियों ने उसकी मां को मार दिया और उसका एक हाथ भी चला गया. बाद में वह रिसर्च लैब में आ गया.

इंसानों से कुछ खतरे भी

चिंपैंजियों का ख्याल रखने वालों को इनके साथ अच्छा व्यवहार करने और सौहार्द वाला रिश्ता बनाने के लिए प्रशिक्षित किया गया है. सुना बताते हैं कि कुछ उकसावे चिंपैंजियों की नकारात्मक यादों को उभार सकते हैं जैसा कि इंसानों में भी होता है. इन्हें अपना बचाव करना नहीं आता और इसके साथ ही इंसानों के संपर्क में आने पर बीमारियों के फैलने का खतरा है. इन चिंपैंजियों को जंगल में नहीं छोड़ा जा सकता और इन्हें अपनी बाकी जिंदगी इन्हीं द्वीपों पर गुजारनी है.

हर रोज इन्हें खाना खिलाना आसान नहीं है. देखभाल करने वाले हर सुबह 200 किलो और दोपहर में 120 किलो खाना तैयार करते हैं, यानी एक महीने में करीब 10 टन. इन्हें भोजन तब तक दिया जाएगा जब तक ये जिंदा हैं.

सुना का आकलन है कि करीब 50 साल तक इनकी देखभाल करनी होगी. कई चिंपैंजियों की उम्र करीब 20 साल है और ये लगभग 60 साल तक जीते हैं. इसके अलावा कुछ बच्चे भी हैं. एचएसआई नर चिंपैंजियों की नसबंदी करने की योजना बना रहा है ताकि और बच्चे ना पैदा हों.

सुना कहते हैं, "भविष्य उज्जवल है, क्योंकि हम इन्हें वापस जंगल में भेजना चाहते हैं. वे अब अच्छी जगह पर हैं."

एनआर/आरपी (एएफपी)

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