संपादकीय
महिलाओं को लेकर भारतीय समाज में पुरूषों की जो आम सोच है, वह कदम-कदम पर सामने आती है। हजारों बरस से मर्द की जो हिंसक सोच हिन्दुस्तानी औरत को कुचल रही है, वह कहीं गई नहीं है। एक वक्त गुफा में जीने वाले इंसानों पर बने कई कार्टून बताते थे कि गुफा का आदमी अपनी औरत के बाल पकड़कर उसे घसीटते हुए ले जा रहा है। गुफाओं में जीना हजारों बरस पहले खत्म हो गया, लेकिन आदमी की मुट्ठी से औरत के बाल नहीं निकल पाए। और तो और जजों की कुर्सी पर बैठे हुए लोग भी अपनी मुट्ठी तब से लेकर अब तक भींचे हुए हैं, यह एक अलग बात है कि हिन्दुस्तानी औरतों का एक तबका उस मुट्ठी के बाहर अपने बाल कैंची से काटकर, शरद यादव जैसे समाजवादी और अमूमन सुलझे हुए नेताओं से परकटी कहलवाने का खतरा लेते हुए भी मुट्ठी से दूर हो चुका है। फिर भी हिन्दुस्तानी मर्द है कि मुट्ठी में दबी बालों की लट को अपनी जीत मानकर मन ही मन औरत को घसीटते हुए चलता है। लेकिन ऐसे में जब यह मर्द किसी हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट के जज की कुर्सी पर बैठ जाता है, तो दिक्कत खड़ी हो जाती है।
अभी कर्नाटक हाईकोर्ट में बलात्कार का एक मामला पहुंचा तो वहां के जज, जस्टिस कृष्ण एस. दीक्षित ने अपने फैसले में शिकायत करने वाली महिला के चाल-चलन के बारे में कई किस्म के लांछन लगाए। उन्होंने इस महिला के बारे में कहा- महिला का यह कहना कि वह बलात्कार के बाद सो गई थी, किसी भारतीय महिला के लिए अशोभनीय है। महिलाएं बलात्कार के बाद ऐसा व्यवहार नहीं करती हैं।
यह कहते हुए जज ने आरोपी की अग्रिम जमानत मंजूर कर दी। जज ने इस मामले में कई ऐसी टिप्पणियां कीं जिनका आरोप से कोई संबंध नहीं है, और जिनसे महिला के चाल-चलन के बारे में एक बुरी तस्वीर बनती है। जस्टिस दीक्षित ने कहा- शिकायतकर्ता ने यह नहीं बताया है कि वे रात 11 बजे उनके दफ्तर क्यों गई थीं, उन्होंने आरोपी के साथ अल्कोहल लेने पर एतराज नहीं किया, और उन्हें अपने साथ सुबह तक रहने दिया। शिकायतकर्ता का यह कहना कि वह अपराध होने के बाद थकी हुई थीं, और सो गई थीं, भारतीय महिलाओं के लिए अनुपयुक्त है। हमारी महिलाएं बलात्कार के बाद ऐसा व्यवहार नहीं करतीं। शिकायतकर्ता ने तब अदालत से संपर्क क्यों नहीं किया जब आरोपी ने कथित तौर पर उन पर यौन संबंध के लिए दबाव बनाया था?
यह सोच चूंकि हाईकोर्ट जज की कुर्सी से निकली है, इसलिए बहुत भयानक है। इस कुर्सी तक बलात्कार के शायद तीन चौथाई मामलों पर आखिरी फैसले हो जाते हैं, और इसके ऊपर की अदालत तक शायद बहुत कम फैसले जाते होंगे। ऐसे में बलात्कार का आरोप लगाने वाली एक महिला की मानसिक और शारीरिक स्थिति, बलात्कार के साथ उसके सामाजिक और आर्थिक संबंधों की बेबसी की कोई समझ अदालत के इस अग्रिम-जमानत आदेश में नहीं दिखती। जज की बातों में एक महिला के खिलाफ भारतीय पुरूष का वही पूर्वाग्रह छलकते दिखता है जो कि अयोध्या में सीता पर लांछन लगाने वाले का था। एक महिला के खिलाफ भारत में पूर्वाग्रह इतने मजबूत हैं कि उसके पास अपने सच के साथ धरती से फटने की अपील करते हुए उसमें समा जाने के अलावा बहुत ही कम विकल्प बचता है। जब देश का कानून शब्दों और भावनाओं दोनों ही तरह से किसी महिला को बलात्कार के मामले में पुरूष के मुकाबले अधिक अधिकार देता है, तब उसकी नीयत पर शक करते हुए, उसकी शारीरिक और मानसिक स्थिति की एक डॉक्टर और मनोचिकित्सक जैसी व्याख्या करते हुए एक जज ने जैसी बातें कही हैं, वे सुप्रीम कोर्ट में जाकर पूरी तरह से खारिज होने लायक हैं। बलात्कार के कानून का बेजा इस्तेमाल होता होगा, ऐसे मामले के आरोपी को जमानत या अग्रिम जमानत देना जज का विशेषाधिकार होता ही है, लेकिन ये टिप्पणियां तमाम भारतीय महिलाओं के लिए बहुत बुरी अपमानजनक हैं, और भारतीय पुरूषवादी सोच का नमूना है जो यह तय करती है कि भारतीय महिला का आचरण कैसा होना चाहिए, उसके तौर-तरीके कैसे होने चाहिए, उसे किसके साथ, कब और कहां शराब पीनी चाहिए, कब नहीं पीनी चाहिए, और बलात्कार के बाद उसे थक जाने का कोई हक नहीं है, उसे सो जाने का कोई हक नहीं है। अदालत उस महिला पर यह सवाल भी खड़ा करती है कि जब उससे यौन संबंध के लिए दबाव बनाया गया था, उसी वक्त वह अदालत क्यों नहीं आई।
जज की इन बातों से भारतीय समाज की हकीकत, और उसमें महिलाओं की कमजोर स्थिति, पुरूष की हिंसा के बारे में उनकी कोई समझ दिखाई नहीं पड़ती है। उनके अपने पूर्वाग्रह जरूर चीखते हुए दिखाई पड़ते हैं, लेकिन ये न्याय से कोसों दूर हैं, और तकलीफ की बात यह भी है कि ये अपने आपमें अकेले नहीं हैं, इसके पहले भी बहुत से जजों ने बलात्कार की शिकार महिला के बारे में ऐसी ही पुरूषवादी और हिंसक सोच दिखाई है, जिसके चलते वहां से किसी महिला को इंसाफ मिलना नामुमकिन सा लगता है। इससे एक और बात भी उठती है। हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों को न सिर्फ इस मामले में बल्कि कई दूसरे किस्म के मामलों में भी उनके पूर्वाग्रह से परे कैसे रखा जा सकता है? यह बात तो तय है कि किसी के पूर्वाग्रह आसानी से नहीं मिटाए जा सकते। लेकिन यह तो हो सकता है कि पूर्वाग्रहों की अच्छी तरह शिनाख्त पहले ही हो जाए, और फिर यह तय हो जाए कि ऐसे जजों के पास किस तरह के मामले भेजे ही न जाएं।
जिन लोगों को अमरीका में जजों की नियुक्ति के बारे में मालूम है वे जानते हैं कि बड़ी अदालतों के जज नियुक्त करते हुए सांसदों की कमेटी उनकी लंबी सुनवाई करती है, और यह सुनवाई खुली होती है, इसका टीवी पर प्रसारण होता है। और यहां पर सांसद ऐसे संभावित जजों से तमाम विवादास्पद और संवेदनशील मुद्दों पर उनकी राय पूछते हैं, उनसे जमकर सवाल होते हैं, उनके निजी जीवन से जुड़े विवादों पर चर्चा होती है, और देश की अदालतों के सामने कौन-कौन से मुद्दे आ सकते हैं उन पर उनकी राय भी पूछी जाती है। कुल मिलाकर निजी जीवन और निजी सोच इनको पूरी तरह उजागर कर लेने के बाद ही उनकी नियुक्ति होने की गुंजाइश बनती है। दूसरी तरफ हिन्दुस्तान में हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट जजों की नियुक्ति सुप्रीम कोर्ट ने अपने हाथ में रखी है, और वहीं से नाम तय होकर प्रस्ताव सरकार को जाते हैं। ऐसे में जजों की सामूहिक सोच से परे किसी और तरह की सोच आने की गुंजाइश नहीं रहती। भारत में भी जजों की नियुक्ति पर न्यायपालिका के ऐसे एकाधिकार के खिलाफ बात उठती रहती है, लेकिन न्यायपालिका इस एकाधिकार को मजबूती से थामे रखती है।
संसद में लोकसभा में निर्वाचित होकर जो सांसद पहुंचते हैं, उनकी जमीनी हकीकत की समझ किसी भी जज से अधिक होती है। लेकिन उनकी उस समझ का कोई इस्तेमाल जजों को बनाने में नहीं होता। हमारा ख्याल है कि हिन्दुस्तान में जजों के सारे पूर्वाग्रह पहले ही उजागर हो जाने चाहिए। और इसके साथ ही यह भी दर्ज हो जाना चाहिए कि उन्हें किस किस्म के मामले न दिए जाएं, या कि उन्हें नियुक्त ही न किया जाए।
हमारा यह भी मानना है कि देश के सुप्रीम कोर्ट को अलग-अलग राज्यों के हाईकोर्ट के फैसलों की ऐसी व्यापक असर वाली बातों का खुद होकर नोटिस लेना चाहिए, और इसके लिए कौन सा सुधार किया जा सकता है उसका एक रास्ता निकालना चाहिए। एक तरफ तो देश में सामाजिक आंदोलनकारी बरसों तक बिना जमानत जेल में सड़ते हैं, दूसरी तरफ बलात्कार के आरोप से घिरे लोग इस तरह अग्रिम जमानत पा रहे हैं, यानी गिरफ्तारी के पहले ही उन्हें जमानत मिल जा रही है। यह पूरा सिलसिला देश की न्याय व्यवस्था में खामियों और कमजोरियों का एक नमूना है, और अगर न्यायपालिका इसे खुद दूर करने में सक्षम नहीं है, तो संसद को सामने आना चाहिए, यह एक अलग बात है कि संसद के पास देश के असल मुद्दों के लिए कोई समय नहीं है, और बहस के लिए संसद के विपक्ष के पास पर्याप्त संख्या नहीं है। ऐसे में सत्ता की मर्जी के बिना कुछ हो पाना मुमकिन नहीं है, और सत्ता की प्राथमिकता पता नहीं कभी जनता की ऐसी जरूरतों, उसके साथ ऐसे इंसाफ तक पहुंच पाएगी या नहीं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
एक अभिनेता सुशांत राजपूत की खुदकुशी के बाद से लगातार सोशल मीडिया पर लोग मुम्बई के टीवी और फिल्म उद्योग को कोस रहे हैं, वहां पर चल रहे भाई-भतीजावाद, बेटा-बेटीवाद को गालियां दे रहे हैं, और सोशल मीडिया से परे भी फिल्म-टीवी उद्योग के कुछ बड़े चेहरे इस दुनिया में कुनबापरस्तीतले कुचलने वाली प्रतिभाओं की यादें सामने रख रहे हैं। यह पहला मौका नहीं है जब बॉलीवुड के लिए इन बातों को याद किया गया है, और न ही यह आखिरी मौका होगा, दिक्कत यही है कि लोग एक कारोबार को कुनबापरस्ती से आजाद देखना चाहते हैं।
हमें यह मानने में कोई दिक्कत नहीं है कि फिल्म-टीवी उद्योग में, संगीत की दुनिया में लोग अपने परिवार के लोगों को बढ़ावा देते होंगे। दूसरी तरफ इसी मुम्बई में आधी सदी से यह कहानी खूब जमी हुई है कि किस तरह लता मंगेशकर ने अपनी ही सगी छोटी बहन आशा भोंसले को कभी आगे नहीं बढऩे दिया, कदम-कदम पर रोड़े अटकाए। और मुम्बई में एक फिल्म भी इन दोनों के इस पहलू को लेकर बनी थी। फिल्म, टीवी और संगीत एक खालिस कारोबार हैं। इनमें ढेर सारा पैसा पहले लगाना पड़ता है, और उसके बाद कुछ चुनिंदा फिल्मों या टीवी सीरियलों को कमाई होती है, जिन्हें देखकर बाकी लोग इधर-उधर से जुटाकर पूंजीनिवेश करते रहते हैं, और डूबते रहते हैं। अब कोई कारोबार धर्मार्थ काम तो हो नहीं सकता कि उसमें फायदे की उम्मीद के बिना पैसा डाला जाए। फिर दूसरी बात यह भी है कि दुनिया का कौन सा ऐसा कारोबार है जिसमें कारोबारी अपनी अगली पीढ़ी को आगे नहीं बढ़ाते, और विरासत देकर नहीं जाते? डॉक्टरों की संतानें बनते कोशिश मेडिकल साईंस पढ़कर उनके अस्पताल सम्हालती हैं, वकीलों की संतानें वकील बनकर उनके चेम्बर की प्रैक्टिस सम्हालती हैं, और बहुत सारे, तकरीबन हर कारोबार में अगली पीढ़ी के लिए, या अगली पीढ़ी की पहली पसंद पारिवारिक पेशा होता है। इसलिए अगर लोग अपने पूंजीनिवेश से अपनी औलादों को आगे बढ़ाते हैं, तो इसमें कोई अटपटी बात नहीं है। हिन्दुस्तान जैसे देश में सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में वकालत करने वाले लोगों में एक तबका ऐसे लोगों का रहता है जो कि जजों के परिवार के होते हैं, उनके रिश्तेदार होते हैं, या जजों के दोस्तों की संतानें होती हैं। ऐसे में देश की सबसे बड़ी अदालतों में अंकल-जज की एक संस्कृति जगह-जगह सुनाई पड़ती है, और शायद ही कोई जज इस चर्चा से इंकार कर पाए। हिन्दुस्तान के मीडिया कारोबार को देखें तो दो-दो, तीन-तीन पीढिय़ां मालिकाना हक पा रही हैं, और एक के बाद एक पीढ़ी संपादक भी बन जा रही है, प्रकाशक भी बन जा रही है। इसलिए सिर्फ फिल्म उद्योग को तोहमत देना तो बहुत ही नाजायज होगा। फिर यहभी है कि फिल्म उद्योग कला, तकनीक, रचनात्मक लेखन, पूंजीनिवेश, और मार्केटिंग का इतना जटिल कारोबार है कि उसमें हर किसी की अपनी पसंद हो सकती है, अपनी प्राथमिकता हो सकती है। किसी फिल्म में किसी कलाकार की भूमिका को कम या अधिक करना कुनबापरस्ती के तहत भी हो सकता है, और किसी रचनात्मकता के तहत भी। इसलिए फिल्म और टीवी को कारोबार के प्रचलित तौर-तरीकों से अलग देखने की उम्मीद निहायत ही आदर्शवाद की बात होगी, कोई दुकानदार अपनी औलाद को गद्दी देने के बजाय क्या दुकान के सबसे काबिल या सबसे पुराने नौकर को मालिक बनाकर जाता है?
चूंकि फिल्म, टीवी, और संगीत खबरों में आसानी से सुर्खियां पा जाते हैं, इसलिए वहां विवाद न रहने पर भी विवाद ढूंढकर, या खड़ा करके खबरें बना ली जाती हैं। लता मंगेशकर की एक मिसाल हमने दी है, दूसरी और भी कई तरह मिसालें सामने हैं जो बताती हैं कि किसी बड़े कामयाब फिल्मकार की औलाद होने से ही सब कुछ नहीं हो जाता। ऐसा अगर होता तो आज 77 बरस की उम्र में देर रात और सुबह तक ओवरटाईम करने वाले अमिताभ बच्चन क्या अपने बेटे को और अधिक फिल्में दिलवाने की चाहत नहीं रखते? अभिषेक बच्चन फिल्म उद्योग के सबसे बड़े और सबसे कामयाब अभिनेता के बेटे होने के बावजूद तकरीबन बेरोजगार हैं। अभी कुनबापरस्ती के चल रहे विवाद में भी उन्होंने इस बात को कहा है। ऐसी मिसालों को भी अनदेखा नहीं करना चाहिए क्योंकि जिस एकता कपूर के बनाए सीरियल्स से हिन्दुस्तानी टीवी चैनल चलते हैं, उसी एकता कपूर का भाई फिल्मों में तीसरे-चौथे या छठवें किरदार से ऊपर कभी कुछ नहीं पा सका। इस परिवार के पास तो पैसा भी था, खुद का प्रोडक्शन हाऊस भी था लेकिन घर का लड़का छोटे-मोटे काम पाकर रह गया।
जहां तक भेदभाव और मुकाबले की बात है, तो जिंदगी के हर पेशे और हर दायरे में इस तरह की बात होती है। मीडिया को ही देखें तो इसमें हमेशा से यह तोहमत लगती रही है कि किस बड़े संपादक की पसंद के कौन से रिपोर्टरों को चर्चित मामलों पर काम करने मिलता था, क्यों मिलता था, समर्पण न करने पर किस तरह काम नहीं भी मिलता था। यह बात यूनिवर्सिटी और कॉलेज में बड़े प्रोफेसरों के मातहत जूनियरों तक भी रहती है कि किसको मर्जी के विषय पढ़ाने मिलते हैं, किसे शोध करने मिलता है, किसे कौन सा प्रोजेक्ट मिलता है। भारतीय राजनीति में देखें तो कुनबापरस्ती की मिसालें इतनी अधिक और इतनी भयानक हैं कि उनकी फेहरिस्त से यह पूरा पन्ना ही भर जाए। और तो और सांस्कृतिक, सामाजिक, और समाजसेवी संगठनों में भी लोग पीढ़ी-दर-पीढ़ी कायम रहते हैं।
हमारा ख्याल है कि फिल्म-टीवी उद्योग और संगीत का कारोबार बहुत ही जटिल धंधा हैं, और इनमें व्यक्तिगत पसंद, या व्यक्तिगत नापसंद दिखने वाली बहुत सी बातें हो सकता है कि न्यायसंगत भी हों, तर्कसंगत भी हों। यह भी हो सकता है कि वे पसंद और नापसंद की बुनियाद पर टिकी हों जैसी बुनियाद हर कारोबार और हर पेशे में दिखाई पड़ती है। फिल्मों की खबरें खूब बिकती हैं, इसलिए वहां से खूब सारा झूठ, खूब सारी गंदगी, और खूब सारी तोहमतें सभी सामने आती हैं। उसकी हकीकत वे ही लोग जानें, लेकिन ऐसी बातें अगर सच भी हैं तो वे सिर्फ इसी ग्लैमरस दुनिया तक सीमित बातें नहीं हैं, और उन्हें उतना ही महत्व दिया जाना चाहिए जितना कि कोर्ट में अंकल-जज संस्कृति को दिया जाता है, या मीडिया में एमजे अकबर संस्कृति को दिया गया है। चारों तरफ हाल एक सा है, यह दुनिया खबरों में कुछ अजीब है, बस। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
कल ट्विटर पर एक नौजवान जोड़े ने अपना एक वीडियो पोस्ट किया, और देश के एक सबसे बड़े अखबार की वेबसाईट पर आई खबर को दिखाया जिसमें इन दोनों की तस्वीर दिख रही थी। खबर बड़ी खराब थी, परिवार के भीतर ही हत्या और आत्महत्या जैसी कोई बात इसमें थी। उन्होंने वीडियो पर कहा कि वे दोनों जिंदा हैं, और खबर में जिस युवक और युवती, पति-पत्नी का जिक्र है, उनके नाम देखकर फेसबुक से इस दूसरे जोड़े का फोटो निकाल लिया गया, और पोस्ट कर दिया गया। एक दूसरी खबर जो खबर की शक्ल में सामने नहीं आई, लेकिन ट्रांसजेंडर तबके को सोशल मीडिया पर आकर एक बड़े अखबार के खबर का खंडन करना पड़ा। इस अखबार की वेबसाईट पर बहुत ही प्रमुखता से एक शहर की एक खबर पोस्ट हुई कि शहर के एक मुहल्ले में एक समलैंगिक नौजवान कोरोना पॉजिटिव निकला है, और उसने पिछले दिनों 34 लोगों से देहसंबंध बनाए थे, और सरकार में हड़कम्प मच गया है, और इन 34 लोगों को तलाशा जा रहा है। चूंकि शहर के मुहल्ले का भी नाम छपा हुआ था, इसलिए खतरा यह था कि उस मुहल्ले में अगर सचमुच ही कोई समलैंगिक नौजवान लोगों की जानकारी में हो, तो उसकी मॉबलिचिंग भी हो सकती थी कि वह इस तरह सेक्स बेचकर कोरोना फैला रहा है। खबर में बड़े खुलासे से जिक्र था कि किस तरह एक ब्रिटिश समलैंगिक डेटिंग एप्प से यह नौजवान ग्राहक ढूंढता था। इस खतरे को देखते हुए शहर के ट्रांसजेंडर समुदाय ने इस खबर की जड़ ढूंढी कि दिल्ली में ऐसी कोई खबर छपी थी, और उस खबर से दिल्ली हटाकर दूसरा शहर और दूसरा मुहल्ला जोड़ दिया गया, और उसे पोस्ट कर दिया गया।
पहली खबर तो एक चूक हो सकती है कि डिजिटल मीडिया इन दिनों अपनी पल-पल की हड़बड़ी के चलते फेसबुक पर उन्हीं नामों वाले किसी दूसरे जोड़े की तस्वीर निकालकर उसे पोस्ट कर दिया, लेकिन दूसरी खबर भयानक है। भयानक इसलिए कि इसके भयानक नतीजे हो सकते थे। यह कुछ उसी किस्म की थी कि किसी के बारे में यह अफवाह फैलाई जाए कि उसके घर गोमांस रखा है, और फिर उसे घर से निकालकर पीट-पीटकर मार डाला जाए, और वह उसके घर की बात ही न हो। आमतौर पर मीडिया के बारे में लिखने से मीडिया बचता है। लेकिन हम किसी एक नाम को बदनाम करना नहीं चाहते, महज आज खड़े हो गए एक खतरे को गिनाकर लोगों को चौकन्ना करना चाहते हैं क्योंकि डिजिटल इंडिया जाने के लिए नहीं आया है, वह रहने के लिए, और राज करने के लिए आया है। ऐसे में अगर उसकी गलतियों, या इसके गलत कामों को शुरू से ही रोकना-टोकना नहीं किया जाएगा, तो आगे जाकर नौबत खराब हो जाएगी।
शुरूआत से ही अखबारों को आपाधापी में रचा गया साहित्य कहा जाता था। बाकी देशों का तो नहीं मालूम, हिन्दुस्तान में, हिन्दी में यह बात जरूर पढ़ाई जाती थी। हालांकि हकीकत यह है कि पत्रकारिता और साहित्य का आपस में कोई सीधा रिश्ता नहीं होता, और साहित्य न पढ़े हुए लोग भी अच्छे पत्रकार बन सकते हैं, और बड़े दिग्गज साहित्यकार भी बड़े बकवास संपादक साबित हो चुके हैं। इसलिए यह लाईन जरूर किसी साहित्यकार ने गढ़ी होगी कि पत्रकारिता एक किस्म का साहित्य है, जबकि उसका साहित्य से कोई लेना-देना नहीं था। एक वक्त जरूर था जब अखबारों के संपादकों का भी साहित्यकार होना अनिवार्य सा मान लिया गया था, लेकिन हिन्दी पत्रकारिता में भी वैसे दिनों को लदे हुए आधी सदी हो चुकी है। इसलिए अब यह किसी तरह का साहित्य नहीं है, लेकिन यह आपाधापी में किया गया काम जरूर है। अखबारों के वक्त यह आपाधापी कम रहती थी, फिर टीवी के वक्त थोड़ी बढ़ी कि हर घंटे में एक नया बुलेटिन आता था, और उसने खबर आ जानी चाहिए। लेकिन यह ताजा आपाधापी इंटरनेट पर डिजिटल समाचार-मीडिया की वजह से आई है कि खबर पोस्ट करने में एक पल की भी देर नहीं होनी चाहिए। और अब खबर पोस्ट करने के लिए न कोई दफ्तर लगता, न कम्प्यूटर लगते, और न ही कम्प्यूटर-ऑपरेटर लगते। अब तो रिपोर्टर मौके पर से अपने मोबाइल फोन से ही न सिर्फ टाईप की हुई खबर, बल्कि फोटो और वीडियो भी पोस्ट कर देते हैं, और इस तरह खबरों के डिजिटल मीडिया के सामने एक अजीब सा नया गलाकाट मुकाबला खड़ा हो गया है जिसमें एक-एक सेकंड मायने रखता है। लेकिन घड़ी की यह रफ्तार खबरों के मिजाज के साथ मेल नहीं खाती। खबरें उन्हें ठोक-बजाकर जानकारी को सच पा लेने के बाद बनती हैं। इन दिनों हो यह रहा है कि लोग पोस्ट पहले करते हैं, पुष्टि बाद में करते हैं। सबसे पहले न्यूज ब्रेक करने की हड़बड़ी में खबरों के सारे कायदे छूट गए हैं, और उस मेहनत से बच जाने और बरी हो जाने से लोग खुश भी बहुत हैं। अखबारनवीसों को खबर पर जो घंटों मेहनत करनी होती थी, वह मिनटों से होते हुए अब पूरी तरह से गैरजरूरी मान ली गई है, क्योंकि गलत साबित हो जाने पर उसे पल भर में मिटा देने और हटा देने का रास्ता खुल गया है। छपे हुए अखबार की कतरनें लोग पूरी जिंदगी सम्हालकर रखते थे, और बनाई गई खबर पूरी जिंदगी का बोझ रहती थी। आज डिजिटल शब्दों का कोई वजह नहीं होता, एक वक्त अखबारों के छपने के लिए सीसे जैसी धातु के बने टाईप लगते थे जिनसे छपाई होती थी, उनका खासा वजन होता था, और उतना ही वजन जिम्मेदारी का भी रहता था। इन दिनों अखबारों की जगह जो समाचार वेबसाईटें हैं, उनका कोई वजन नहीं रहता, और न ही जिम्मेदारी का बोझ ही ढोना पड़ता।
आने वाले वक्त में सब कुछ डिजिटल जिंदा रहने वाला है। दुनिया के एक किसी भविष्यशास्त्री ने कई बरस पहले लिखा था कि अगर कोई नया काम शुरू करने जा रहे हैं, तो कौन-कौन से किस्म के काम नहीं करने चाहिए वह ध्यान रखें। उन्होंने जो आधा दर्जन काम गिनाए थे, उनमें से एक यह भी था कि ऐसा कोई काम शुरू न करें जिसमें कागज लगता हो। और आज वह हालत कोरोना के इन दो-तीन महीनों में ही दिख गई जब महानगरों के हाथियों जैसे भारी-भरकम अखबार अब हड्डी-हड्डी खच्चर की तरह दस-बारह पेज के रह गए हैं। ऐसे में कोरोना के बाद भी डिजिटल का आगे बढऩा तय है, और ऐसे में उसकी विश्वसनीयता को बढ़ाने के लिए अभी से मेहनत करने की जरूरत है। दरअसल खबरों का डिजिटल मीडिया, और सोशल मीडिया, इन दोनों के बीच कोई सरहद नहीं रह गई है, और दोनों एक-दूसरे से कई जगह मिल जा रहे हैं। ठीक उसी तरह जिस तरह की हिन्दुस्तान और चीन के बीच सरहद को लेकर झगड़ा चलते ही रहता है। सोशल मीडिया को अगर अखबारों की पुरानी जुबान में कहें, तो वह संपादकीय पेज के पाठकों के पत्र कॉलम जैसा रहना था, लेकिन वह पहले पन्ने तक पसर गया है। ऐसे में डिजिटल समाचार मीडिया को अपने खुद पर नजर रखने के लिए कोई तरीका निकालना चाहिए, वरना पिछले जरा से बरसों में जिस तरह भारत के हिन्दी टीवी समाचार चैनलों की साख चौपट हुई है, उससे अधिक रफ्तार से डिजिटल समाचार मीडिया की साख चौपट होगी। इस मीडिया के औजार इतने धार वाले हैं कि अगर सम्हलकर इस्तेमाल नहीं किया गया, तो वे समाचार-विचार का निशाना लगने के पहले ही खुद को घायल कर जाएंगे।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से लगे हुए अभनपुर नाम के कस्बे में तीन सैलून मालिक कोरोना पॉजिटिव मिले जो खुद लोगों के बाल काटते थे, हजामत बनाते थे। अब सैलून के बाकी कर्मचारियों और उनके परिवारों की भी कोरोना जांच हो रही है, लेकिन इन्होंने अपने ग्राहकों के रजिस्टर नहीं रखे थे, इसलिए जिन सैकड़ों लोगों ने लॉकडाऊन खत्म होने के बाद बाल कटाने और हजामत बनवाने के लिए दौड़ लगाई थी, वे लोग भी अब खतरे में होंगे। यह बात सही है कि लॉकडाऊन के चलते हुए लोगों के रोजगार बुरी तरह से खत्म हुए थे, जिनमें सैलून और पार्लर चलाने वाले लोग भी थे। जब उन्हें काम करने की छूट मिली, तो जाहिर है कि भूखों मरने के बजाय उन्होंने खतरा उठाकर भी काम शुरू किया। सैलून और पार्लर के काम करने के तरीके सबके देखे हुए हैं, और शारीरिक संपर्क के बिना, चेहरे को छुए बिना, उन्हीं सामानों को अधिक लोगों पर इस्तेमाल किए बिना इनका काम नहीं चल सकता। सरकार के नियम कागजों पर रहते हैं, और अधिकतर नियमों पर अमल करवाना खुद सरकार के बस में नहीं रहता। लागू न करवाए जा सकने वाले नियमों के आधार पर जिंदगी को खतरे में डालना सरकार की बहुत बड़ी चूक थी, और आज भी है। यह जरूर है कि हर पेशे के लोग काम पर लौटने के लिए बेसब्र हैं ताकि घर पर चूल्हा जल सके, लेकिन पंक्चर बनाने वाले और मालिश करने वाले से लोगों को हो सकने वाले खतरे में बड़ा फर्क है, और इसे ध्यान में रखते हुए ही सरकार को भी छूट देनी थी, और लोगों को भी इन जगहों पर जाना था।
दरअसल हिन्दुस्तानियों के बीच से कोरोना का डर खत्म हो गया है। सरकारी शराब दुकानों पर जिस तरह की भीड़ और धक्का-मुक्की दिखती है उससे भी लोगों को लगता है कि अब सरकार ने ही धक्का-मुक्की की छूट दे दी है, तो फिर किसी भी काम को क्यों छोड़ा जाए? हम सैलून और पार्लर की बेरोजगारी के साथ पूरी हमदर्दी रखते हुए भी यह कहना चाहते हैं कि जिनकी जिंदगी इनके बिना चल ही नहीं सकती थी, उनका तो वहां जाना ठीक था, लेकिन इनके बिना किसकी जिंदगी नहीं चल सकती थी? क्यों खतरा उठाकर बाल कटाना या हजामत बनवाना जरूरी था? जाहिर तौर पर जो आम लोगों के लिए ऐसी जगहें रहती हैं, वहां पर साफ-सफाई की हिफाजत बड़ी सीमित ही रहती है, और सैलून-पार्लर चलाने वालों का तो काम से पेट जुड़ा हुआ था, जिनके सिर या चेहरों पर बाल इक_ा हो गए थे, वे तो भूख से नहीं मर रहे थे? जिसका रोजगार छिन गया है, वह तो काम ढूंढेंगे ही, ग्राहक ढूंढेंगे, लेकिन जिन्हें जरूरत नहीं है, वे तो ऐसे खतरे के बिना काम चला लें!
कुल मिलाकर हाल यह दिख रहा है कि लोग बेफिक्र हो गए हैं। कल जिस तरह सुप्रीम कोर्ट में केन्द्र सरकार ने एक ऐसी नौबत खड़ी कर दी कि ओडिशा सरकार को भी अनमने ढंग से केन्द्र की हां में हां मिलाकर रथयात्रा को अदालती मंजूरी दिलवाने पर मजबूर होना पड़ा। वरना ओडिशा का प्रारंभिक रूप रथयात्रा के पक्ष में नहीं दिख रहा था। पिछले महीने जब लॉकडाऊन से केन्द्र सरकार ने शराब कारोबार को छूट दी, तो राज्य सरकारों ने भी आनन-फानन दारू बेचना या बिकवाना शुरू कर दिया। जब तक केन्द्र की बंदिश थी, दारूबंदी रही, और बिना दारू के लोग कोई मर नहीं गए। देश भर में इक्का-दुक्का लोगों ने कहीं खुदकुशी कर ली, तो उससे सौ गुना अधिक शराबी नशे में रोज हत्या-आत्महत्या करते हैं। एक बार केन्द्र सरकार ढीली हुई, तो राज्य सरकारों से लेकर नाई तक, और शराबियों से लेकर पार्लर जाने वालों तक, किसी को भी रोकना, किसी को भी सावधानी की उम्मीद करना पानी में बह जाता है। आज दुनिया और देश कोरोना के जिस तरह के खतरे से गुजर रहे हैं, उसमें लॉकडाऊन को इस तरह के कामों के लिए तो बिल्कुल ही नहीं खोलना था जिनसे कोरोना फैलने का खतरा खड़ा होना ही था। आज दारू की दुकानों पर जैसी धक्का-मुक्की दिखती है, वहां से कोरोना फैलने के आंकड़े आसानी से सामने नहीं आएंगे, लेकिन यह मानना ही नासमझी होगी कि दारू दुकानों के बाहर कोरोना खुशी से नाच नहीं रहा होगा। अभी भी वक्त है कि राज्य सरकारों को केन्द्र से मिली छूट के बाद भी अपनी अक्ल का इस्तेमाल करते हुए कुछ काम-धंधों पर रोक लगानी चाहिए क्योंकि वहां सावधानी बरतना मुमकिन ही नहीं है। यह जरूर है कि हमारी यह सलाह ऐसे कारोबारियों के साथ बहुत बड़ी बेइंसाफी होगी अगर सरकार इन्हें काम न करने के एवज में कोई मुआवजा न दे। सरकार के लिए ऐसा इंतजाम करना भारी पड़ेगा लेकिन ऐसी किसी सैलून या पार्लर से अगर कोरोना फैलेगा, तो वैसे भी पूरे इलाके को क्वारंटीन करने में धंधा बंद ही हो जाएगा, और सरकार-समाज के पास दर्जनों या सैकड़ों कोरोनाग्रस्त लोग रह जाएंगे। छत्तीसगढ़ में ही राजनांदगांव शहर की एक छोटी सी बस्ती में कोरोनाग्रस्त लोग एक से बढ़कर पचास हो चुके हैं, और मौत भी एक से बढ़कर आगे पहुंच चुकी है। यह नौबत दूसरे शहरों के दूसरे इलाकों में न आए वही बेहतर होगा।
आखिर में यह कड़वी सलाह देना जरूरी है कि सैलून या पार्लर के बिना किसी का काम नहीं रूकता, और अगले कुछ महीने घर में गुजार लें। बाहर सड़कों पर या दूसरी जगहों पर खाए बिना किसी का काम नहीं रूकता, और घर पर खा लें। दारू पिए बिना तो देश में एक महीने से ज्यादा वक्त सबके लिए बहुत सेहतमंद था, और दारू दुकान के बाहर एक-दूसरे से कोरोना लेने-देने के बजाय उन पैसों से अपने बच्चों के लिए कुछ बेहतर सामान खाने-पीने को खरीदें, तो यह सबको बचाना होगा। तरह-तरह की लापरवाही, और तरह-तरह का रोमांच करने के लिए याद रखें कि डॉक्टर, स्वास्थ्य कर्मी, पुलिस और सफाईकर्मी, एम्बुलेंस ड्राइवर और मेडिकल स्टोर वाले आपकी जिंदगी को बचाने के लिए अपने आपको खतरे में डालकर काम कर रहे हैं। आप न सिर्फ खुद को, अपने घर-दफ्तर, कारोबार-कारखाने को खतरे में डालते हैं, बल्कि समर्पित जीवनरक्षकों की जिंदगी की खतरे में डाल रहे हैं। अकेले दिल्ली शहर में 2200 से अधिक स्वास्थ्यकर्मी कोरोना पॉजिटिव हो चुके हैं। जो लोग आज लापरवाह हैं वे बेकसूर मौतों के जिम्मेदार भी रहेंगे। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
यह हिन्दुस्तान की न्यायपालिका के इतिहास का पहला मौका होगा जब सुप्रीम कोर्ट के जज अलग-अलग शहरों से अपने घर में बैठे हुए वीडियो पर एक बड़े मुद्दे की सुनवाई कर रहे हैं, जिसकी तरफ करोड़ों लोगों की नजरें टिकी हुई हैं। ओडिशा के जगन्नाथ पुरी में कल रथयात्रा निकलनी है, और देश में कोरोना फैला हुआ है। इस रथयात्रा की पुरानी तस्वीरें देखें तो लाखों भक्तजन कंधे से कंधा भिड़ाते हुए इस रथ को खींचते हैं, और इंसानों का मानो एक समंदर ही इस रथ के रास्ते में बिछा रहता है। इस मामले पर दो दिन पहले मुख्य न्यायाधीश, जस्टिस एस.ए. बोवड़े ने यह कहा था कि अगर इस बरस रथयात्रा की इजाजत दी गई, तो भगवान जगन्नाथ कभी माफ नहीं करेंगे। लेकिन एक पुनर्विचार याचिका लगाई गई और भाजपा के प्रवक्ता, ओडिशा के संबित पात्रा ने रथयात्रा की इजाजत देने के लिए अदालत में वकील खड़े किए हैं। केन्द्र सरकार का रूख बड़ा साफ है कि सदियों से चली आ रही रथयात्रा की इस परंपरा को नहीं रोका जाना चाहिए, और भक्तजन वहां न पहुंचें इसलिए राज्य सरकार जगन्नाथपुरी में कफ्र्यू लगाकर रथयात्रा की इजाजत दे सकती है, और कोरोना निगेटिव पुजारी-मंदिर सेवक इसमें शामिल हो सकते हैं। अभी हम अदालत का फैसला आने के पहले ही इस मुद्दे पर इसलिए लिख रहे हैं कि ऐसी नौबत की सोचते हुए ही हमने इस महीने के शुरू में ही इसी जगह पर धर्मस्थलों को लॉकडाऊन से छूट देने के खतरों के प्रति आगाह किया था। महीना पूरा नहीं हुआ, और तीन हफ्तों के भीतर ही एक खतरा सामने आ गया जो कि देश में किसी भी धार्मिक आयोजन में जुटने वाली सबसे बड़ी भीड़ का है, और इसकी कल्पना करते हुए कोरोना मन ही मन खुश भी हो रहा होगा।
हमने धर्मस्थलों को खोलने की घोषणा होते ही लिखा था- ''एक खतरनाक काम जो शुरू हो रहा है वह 8 जून से धार्मिक स्थलों को शुरू करना। आज देश की कमर वैसे भी टूटी हुई है, क्योंकि वह अपनी वर्दी की नियमित जिम्मेदारी से परे कोरोना-ड्यूटी में भी रात-दिन खप रही है। ऐसी पुलिस को अगर धर्मस्थलों और धार्मिक आयोजनों की कट्टर, धर्मान्ध, हिंसक, और पूरी तरह अराजक भीड़ से जूझने में भी लगा दिया जाएगा, तो पता नहीं क्या होगा। वैसे भी जब इस देश में कुछ महीने बिना धर्मस्थलों के गुजार लिए हैं, तो यह सिलसिला अभी जारी रहने देना था, और देश की सेहत पर यह नया खतरा नहीं डालना था। सिवाय मंदिरों के पुजारियों के और किसी की कोई मांग सामने नहीं आई थी, और जहां तक हमारी जानकारी है किसी भी धर्म के ईश्वर ने वापिस आने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई थी, सभी को कोरोना से अपनी जान को खतरा है। जिस तरह कई और तबकों को केन्द्र और राज्य सरकारें मदद कर रही हैं, मनरेगा में रोजगार दे रही हैं, वैसा ही रोजगार मंदिरों के पुजारियों को, और दूसरे धर्मस्थलों के ऐसे ही दूसरे लोगों को भी देना चाहिए था। ईश्वरों के दरबारों में लगातार व्यंजन खाकर इन तमाम लोगों की सेहत वैसे भी खतरे में बनी रहती है इन्हें भी कुछ शारीरिक मेहनत करके रोजी-रोटी कमाने का मौका देना चाहिए ताकि वे लंबा जीवन जी सकें, और ईश्वर की अधिक समय तक सेवा कर सकें।''
''दूसरा यह कि जिन लोगों का देश की जनता पर बड़ा असर है, जिनकी कही बातों को सुनकर लोग दस्त लगे होने पर भी शंख बजाने को तैयार हो जाते हैं, उन्हें तो यह चाहिए था कि वे अपनी अपील में इसे जोड़ते कि लोग अपने धर्मस्थानों के कर्मचारियों के जिंदा रहने का इंतजाम करें, क्योंकि अगर ये ही जिंदा नहीं रहे, तो एक तो ईश्वरों की साख बड़ी चौपट होगी कि अपने सीधे नुमाइंदों को भी वे नहीं बचा पा रहे हैं, और फिर भक्तों के सामने भी यह दिक्कत रहेगी कि वे दुबारा अपने ईश्वर तक कैसे पहुंचेंगे। लेकिन देश के नाम आधा दर्जन या अधिक संदेशों में भी धर्मस्थलों पर ईश्वरों की उपासना का पेशा करने वाले लोगों के लिए ऐसी कोई अपील नहीं की गई।''
''आज जगह-जगह अलग-अलग धर्मों के लोग सारे लॉकडाऊन के चलते, चार से अधिक की भीड़ के खिलाफ लागू धारा 144 के चलते हुए भी जिस तरह से जलसे मना रहे हैं, वह देखना भयानक है। कम से कम हम तो ईश्वरों के भक्तों को ऐसा थोक में कोरोनाग्रस्त होते देखना नहीं चाहते क्योंकि कल के दिन कोरोना के पास तो इंसानों को मारने का एक लंबा रिकॉर्ड रहेगा, ऐसे में ईश्वर तो बिना भक्तों के रह जाएगा, और बिना प्रसाद, पूजा-पाठ, प्रशंसा-स्तुति के ईश्वर पता नहीं कैसे जी पाएगा। इसलिए भक्तों को बचाना बहुत जरूरी है। धर्मस्थलों पर से जो रोक हटाई जा रही है, वह आस्थावान लोगों के लिए एक बड़ा खतरा लेकर आएगी, और आस्थावानों में से भी जो सचमुच ही सक्रिय धर्मालु हैं, उन पर अधिक बड़ा खतरा रहेगा। केन्द्र की मोदी सरकार में बैठे हुए किसी नास्तिक ने ही ऐसा धर्मविरोधी फैसला लिया होगा जो कि धर्म को, और उसके धर्मालुओं को खतरे में डाल सकता है। अभी देश ने करोड़ों मजदूरों को सैकड़ों मील का पैदल सफर करते देखा, लेकिन सामने आई लाखों तस्वीरों, और हजारों वीडियो में से एक में भी कोई मजदूर किसी ईश्वर को याद करते नहीं दिखे। ऐसे में उन मजदूरों की मदद करना, और धर्मस्थल जाने वाले धर्मालुओं को खतरे में डालना बहुत ही खराब बात है।''
''हम धर्म और ईश्वर की हिफाजत के लिए, पुजारियों और आस्थावानों की हिफाजत के लिए यह चाहते हैं कि मंदिर-मस्जिद, चर्च-गुरुद्वारे, और बाकी धर्मस्थल तभी खोले जाएं जब कोरोना पूरी तरह से चले जाने के वैज्ञानिक सुबूत सामने आएं। वैसे भी इतने महीनों में एक भी देववाणी तो ऐसी हुई नहीं कि ईश्वर कोरोना से निपटने के लिए तैयार है, रामायण की तरह तीर चलाकर कोरोना को निपटा देगा, या ऐसा भी कुछ नहीं दिखा कि कोरोना ईश्वर से डरकर दुनिया छोड़कर जाने की सोच रहा है। ऐसे माहौल में ईश्वर के दरवाजे भक्तों के लिए खोलना एक धर्मविरोधी काम है, एक खतरनाक काम है, और यह बिल्कुल नहीं होना चाहिए।''
''हिन्दुस्तान ही नहीं पूरी दुनिया का यह इतिहास है कि जंगों से अधिक मौतें धर्म से होती हैं, और आज अदृश्य कोरोना और अदृश्य ईश्वर को आमने-सामने करने से, जो भीड़ लगेगी उससे मानव जाति पर अदृश्य हो जाने का खतरा खड़ा हो जाएगा। केन्द्र सरकार ने चाहे जो हुक्म निकाला हो, राज्यों को इस पर अमल नहीं करना चाहिए। केन्द्र सरकार ने दारू की छूट दी थी, और आज तो शराब की बिक्री, शराब पीने वाले लोगों की हालत देखते ही यह समझ में आता है कि कोरोना को एक शराबी में बड़ी उपजाऊ जमीन दिख रही होगी। केन्द्र की दी गई छूट कोई बंदिश नहीं है कि उस पर पालन किया जाए। जो राज्य समझदार होंगे, जिन्हें अपने इंसानों की अधिक फिक्र होगी, उन्हें धर्मस्थलों को खोलना और कुछ महीनों के लिए टालना चाहिए क्योंकि इन महीनों में भक्त और ईश्वर दोनों ही एक-दूसरे के आमने-सामने हुए बिना जीना कुछ हद तक तो सीख ही चुके हैं।''
अब आज जब सुप्रीम कोर्ट के तीन जज दुबारा इस मामले को सुन रहे हैं, और किसी भी पल अदालत का फैसला आ सकता है, तो हम उसके पहले ही अपनी बात लिख देना चाहते हैं। जिस ओडिशा में यह आयोजन होना है वहां की सरकार ने तो खुलकर यह कहा है कि सुप्रीम कोर्ट का जो आदेश होगा वो उसे मानेगी। लेकिन केन्द्र सरकार का रूख प्रतिबंधों के साथ रथयात्रा निकालने का है, फिर चाहे इसके लिए कफ्र्यू लगाकर लोगों को घरों में बंद रखा जाए। हमारे हिसाब से इंसानों के लिए इतने बड़े पैमाने पर खतरे का कोई धार्मिक आयोजन नहीं किया जाना चाहिए, धार्मिक परंपराएं आगे जारी रह सकती हैं, और हम 18 जून को मुख्य न्यायाधीश का यह कहा हुआ सही मानते हैं कि आज अगर रथयात्रा की इजाजत दी गई, तो भगवान जगन्नाथ कभी माफ नहीं करेंगे। सुप्रीम कोर्ट को अपने इस रूख पर कायम रहना चाहिए क्योंकि यही इंसानों की जिंदगी को बचा सकता है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
जिन लोगों को अभी तक छत्तीसगढ़ सबसे सुरक्षित लग रहा था, और देश के बाकी राज्यों के मुकाबले यह कोरोना से बचा हुआ भी था, वह वक्त गुजर गया है। अब तो थोक में कोरोनाग्रस्त लोगों की शिनाख्त हो रही है, और एक-एक करके शहर, कस्बे, गांव की बस्तियां कंटेनमेंट जोन घोषित होती जा रही हैं। एक सबसे घने बसे हुए शहर राजनांदगांव के एक मोहल्ले में ही 49 पॉजिटिव निकल गए हैं, वह एक भयानक नौबत है। और कोरोना के खतरे को सिर्फ जिंदगी और मौत से जोड़कर देखना ठीक नहीं है, हर मोहल्ले के कंटेनमेंट के पीछे दर्जनों पुलिस कर्मचारी झोंके जाते हैं, दर्जनों म्युनिसिपल कर्मी, दर्जनों स्वास्थ्य कर्मचारी वहां लग जाते हैं। ऐसे एक-एक मोहल्ले के सैकड़ों नमूनों की जांच में लैब व्यस्त हो जाती है, और शासन-प्रशासन हर किसी का वक्त, उसकी ताकत, उसका पैसा सब कुछ उस पर खर्च होता है। यह भी याद रखना चाहिए कि लॉकडाऊन खुलने के बाद जिस तरह से कारोबार पटरी पर लाने की कोशिश हो रही है, वह ट्रेन आगे बढऩे के पहले ही फिर बेपटरी हो जा रही है। इन इलाकों में कारोबार बंद, इन इलाकों से लोगों की आवाजाही बंद, और इन इलाकों की जिंदगी एक किस्म से स्थगित। यह नौबत एक-एक पखवाड़े तक तो चलना ही है। और यह पखवाड़ा अर्थव्यवस्था के बिना रहेगा, पढ़ाई के बिना रहेगा, किसी कामकाज के बिना रहेगा।
आज चूंकि देश के दूसरे प्रदेशों में मौतें बड़ी अधिक संख्या में हो रही हैं, इसलिए छत्तीसगढ़ लोगों को सुरक्षित लग रहा है। लेकिन कोरोना के जाने में अभी कई हफ्तों से लेकर कई महीनों तक का वक्त लग सकता है, और ऐसे में सरकार की क्षमता भी चुक सकती है, और लोगों के शरीर की प्रतिरोधक क्षमता भी। आज भी अगर ईमानदारी से बड़े पैमाने पर कोरोना की जांच हो जाए, तो इस प्रदेश की सारी तैयारी धरी रह जाएगी, और 10-15 हजार मरीजों को रखने की क्षमता हफ्ते भर में ही खत्म हो जाएगी। हो सकता है कि सरकार ने अघोषित रूप से यह फैसला लिया हो कि जांच इतनी अधिक न की जाए कि वह भर्ती करने की क्षमता को खत्म कर दे। हो सकता है कि सरकार में कुछ लोगों का यह सोचना हो कि बहुत से पॉजिटिव लोग बिना जांच, और बिना किसी गंभीर इलाज से अपने आप ही ठीक हो जाएंगे, लेकिन इससे नौबत बहुत अधिक खतरनाक ही हो सकती है। बिना शिनाख्त के कोरोना पॉजिटिव लोग चारों तरफ घूमते रहेंगे, जैसा कि कल राजनांदगांव में सामने आया है, और एक व्यक्ति से दर्जनों तक पहुंचने में चार दिन ही लगेंगे, फिर चाहे शिनाख्त में हफ्ते-दो हफ्ते ही क्यों न लग जाएं। इसलिए सरकार के तौर-तरीकों पर भरोसा करने के बजाय लोगों को अपनी खुद की सावधानी पर भरोसा करना चाहिए और अपनी जिंदगी को इस हिसाब से ढालना चाहिए कि कोरोना के साथ जीना सीखना है।
भारत के बहुत से ऐसे राज्य रहे हैं जहां पर 16-16 घंटे का पॉवरकट रहता है। लोगों ने वहां उसके साथ जीना सीख लिया है। बिजली आते ही कौन-कौन से काम तेजी से निपटाने हैं, उनके दिमाग में पुख्ता बैठ चुका है। जब बिजली नहीं है तब किस ठिकाने पर मोबाइल चार्ज हो सकता है, यह भी लोगों को अच्छी तरह समझ आ गया है। कोरोना के साथ जीना कुछ उसी तरह सीखना पड़ेगा, सावधानी बरतने को मिजाज में ही बैठाना पड़ेगा, गैरजरूरी मटरगश्ती को आत्मघाती मानना पड़ेगा, और लापरवाह-दुस्साहसियों को आत्मघाती दस्ता मानकर उनसे परहेज भी करना पड़ेगा। आज लापरवाह लोग खुद अकेले नहीं मरने जा रहे। वे उस शराबी बस ड्राइवर की तरह हैं जिसके साथ 50 जिंदगियां और भी जुड़ी हुई हैं। ऐसे में आज जब लोग लापरवाह होते दिख रहे हैं, तो यह याद रखने की जरूरत है कि कोरोना के मुकाबले भी लापरवाही अधिक संक्रामक है। एक लापरवाह इंसान सौ सतर्क इंसानों की सतर्कता खत्म करने की प्रेरणा देते हैं। ऐसे में लोगों को कतरा-कतरा लापरवाही के बजाय कतरा-कतरा सावधानी बरतनी चाहिए, आसपास के लोगों को एकदम कड़ाई से सावधान करना चाहिए। मोहल्ले या किसी इमारत में एक कोरोनाग्रस्त निकलने पर हजारों लोगों पर एक पखवाड़े की जो रोक लग रही है, उससे उनकी निजी जिंदगी की और देश की उत्पादकता बहुत बुरी तरह बर्बाद हो रही है। अभी यह बात खुलकर सामने नहीं आई है, लेकिन ऐसे लॉकडाऊन और ऐसे कंटेनमेंट से लोग मानसिक रूप से विचलित हो रहे हैं, और खुदकुशी तक कर रहे हैं। इसलिए राज्य सरकार या केन्द्र सरकार की दी गई छूट को इस्तेमाल करना ही है, ऐसी लापरवाही से लोगों को बचना चाहिए। सरकारी छूट जनता को मिला अधिकार भर है, उसे अनिवार्य रूप से इस्तेमाल करना उस पर कोई जिम्मेदारी नहीं है। इसलिए सरकारी नसीहत से अधिक सावधानी बरतें, घर-परिवार और दफ्तर-कारोबार में अधिक से अधिक सावधानी रखें, और उसके बाद भी बुरी से बुरी नौबत के लिए तैयार भी रहें।
आज दुनिया में देश के और बाहर के जो जानकार-विशेषज्ञ ऐसी भविष्यवाणी कर रहे हैं कि हिन्दुस्तान में कोरोना की सर्वाधिक संख्या जुलाई अंत में या अगस्त में किसी समय आ सकती है, उन्हें कोई ढकोसले वाला ज्योतिषी मानकर न चलें। ये लोग वैज्ञानिक आधार पर एक अनुमान बता रहे हैं, जो कि अगर थोड़ा गलत होगा तो यह भी हो सकता है कि कोरोना की सर्वाधिक संख्या और एक-दो महीने आगे तक खिसक जाए। ऐसे में कई महीनों की सावधानी के लिए लोगों को शारीरिक, मानसिक, और आर्थिक रूप से तैयार रहना चाहिए। कभी सुशांत राजपूत, तो कभी चीन की खबरों को ऐसा हावी नहीं होने देना चाहिए कि जिंदगी में कोरोना से परे भी बहुत सी चीजें हैं। लोगों की निजी जिंदगी में आज सबसे जरूरी यही है कि वे अपनी सेहत कोरोना से बचाकर रखें, और उसके लिए खुद की सावधानी के अलावा आसपास के सारे दायरे की सावधानी के लिए भी मेहनत करना जरूरी है। जैसा कि सड़क किनारे ट्रैफिक के बोर्ड पर लिखा रहता है, सावधानी हटी, दुर्घटना घटी, ठीक वैसी ही नौबत कोरोना को लेकर है। चिट्ठी को मौत का तार समझना, वरना बीमार को पार समझना। आगे आप खुद समझदार हैं। (जिनको तार शब्द का मतलब नहीं मालूम है, एक वक्त सबसे तेज खबर पहुंचाने के लिए इस्तेमाल होने वाले टेलीग्राम को तार कहा जाता था)। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
कल शाम से लेकर आज दोपहर तक भारतीय मीडिया में कल की सर्वदलीय बैठक में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की कही हुई बातों पर हैरानी भरी सनसनी फैली हुई थी। बैठक के बाद प्रधानमंत्री कार्यालय के उनके कहे हुए जो छोटे-छोटे से पौन दर्जन वाक्य जारी हुए थे, उन्होंने लोगों को हैरान कर दिया था। खासकर उनमें से एक वाक्य जिसमें कहा गया था-''पूर्वी लद्दाख में जो हुआ, न वहां से हमारी सीमा में कोई घुस आया है, और न ही कोई घुसा हुआ है, न ही हमारी पोस्ट किसी दूसरे के कब्जे में है।''
चूंकि यह लिखित बात खुद प्रधानमंत्री कार्यालय से जारी हुई थी, और पीएमओ की ओर से ट्वीट भी की गई थी, इसलिए इस पर कोई शक करने की गुंजाइश नहीं थी, और न है। लेकिन जब मीडिया ने पिछले चार-पांच दिनों में विदेश मंत्रालय के कई बयान के साथ इसे मिलाकर देखा, तो दोनों के बीच एक बड़ा साफ और पूरी तरह का विरोधाभास नजर आया। लोगों ने कल से सोशल मीडिया पर लिखा और समाचारों का मीडिया भी इससे भरा रहा कि मोदी ने तो चीन के पक्ष की बात कही है, और यह साफ-साफ कह दिया कि भारत की जमीन पर न कोई कब्जा है, न कोई यहां पर है। अब इन शब्दों के एक मायने यह निकल रहे थे कि भारतीय सेना चीन के कब्जे वाले इलाके में घुसी थी, और लड़ाई वहां पर हुई। दूसरी तरफ चीन का यह साफ बयान एक से अधिक बार आ गया है कि जिस गलवान घाटी की बात हो रही है, वह उसकी निर्विवाद जमीन है।
शब्दों के अधिक न जाएं, तो भी यह बात कुछ अटपटी लगती है कि कल प्रधानमंत्री कार्यालय से जो लिखित टिप्पणी बैठक के बाद जारी हुई थी, उस पर बनी खबरों के बाद आज भारत सरकार की तरफ से एक बहुत लंबा लिखित स्पष्टीकरण जारी हुआ है कि प्रधानमंत्री ने बैठक में क्या कहा, और उसका मतलब क्या था। यह एक अलग बात है कि यह लंबा बयान भी कल के प्रधानमंत्री के लिखित शब्दों के बारे में पूरी तरह मौन है, और उन्हें छू भी नहीं रहा है। आज के बयान में कहीं यह खंडन भी नहीं किया गया कि कल के पीएमओ के बयान के शब्द प्रधानमंत्री ने बैठक में कहे थे, या नहीं कहे थे। यह बात कुछ नहीं, खासी अटपटी है क्योंकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एक-एक घंटा लंबा बोलने के आदी हैं, और किसी और को उनकी कही बातों का मतलब समझाने की जरूरत पड़े, ऐसा तो किसी ने कभी सोचा नहीं था। फिलहाल कल से लेकर आज तक न सिर्फ मोदी के आलोचक, बल्कि फौज और विदेश नीति के बहुत से जानकार भी इस बात पर हैरान हैं कि भारतीय प्रधानमंत्री के शब्द चीन को क्लीनचिट देने वाले कैसे हैं? यह बात खासकर अधिक तल्खी के साथ इसलिए उठी कि अभी तो देश में तमाम 20 शहीदों की अर्थियां भी उठी ही हैं, और ऐसे में लोग यह सुनकर हक्का-बक्का थे कि सर्वदलीय बैठक में प्रधानमंत्री ने ऐसा कैसे कह दिया? क्या इन 20 फौजियों की शहादत कोई मायने नहीं रखती? ऐसे तमाम असुविधाजनक और आलोचना भरे सवाल उठे।
हम अपनी तरफ से इस विवाद पर अधिक कुछ कहना नहीं चाहते, लेकिन यह याद रखना भी जरूरी है कि इस बड़ी शहादत के काफी पहले से यह बात उठ रही थी कि चीनी सरहद पर क्या चल रहा है, इस बारे में केन्द्र सरकार देश के सामने बताए। हमने दो-चार दिन पहले इसी जगह यह बात जरूर लिखी थी कि फौजी स्तर पर जो बातचीत चल रही थी, वह जाहिर तौर पर नाकाफी साबित हुई, क्योंकि उसके चलते हुए ही इतनी बड़ी हिंसक फौजी झड़़प हुई, और जिसमें कम से कम हिन्दुस्तान के तो 20 फौजी शहीद हुए ही हैं, चीन का क्या हुआ है यह तो अब तक सामने आया नहीं है, न उनके बयानों में, न ही किसी और सुबूत में। जब देश के सामने बहुत से सवाल ही सवाल खड़े थे, तब एक सर्वदलीय बैठक में प्रधानमंत्री की कही हुई बातों के एक दर्जन शब्दों को लेकर आज भारत सरकार को दो-चार सौ से भी अधिक शब्दों का एक ऐसा स्पष्टीकरण जारी करना पड़ा है, जो किसी बात को स्पष्ट नहीं कर रहा है, बल्कि रहस्य को और गहरा रहा है, धुंध को और गहरा कर रहा है, कि प्रधानमंत्री ने ऐसा क्या कहा था, और ऐसा क्यों किया था, जिसे कि आज इतने लंबे खुलासे की जरूरत पड़ रही है, और जो कि कुछ भी नहीं खोल पा रहा है।
चीन की सरहद के फौजी मोर्चे पर देश की इतनी बड़ी शहादत कोई रहस्यमय अस्पष्ट बात नहीं चाहती, बहुत साफ-साफ शब्दों में केन्द्र सरकार को यह खुलासा करना चाहिए कि हुआ क्या है, और यह भी कि सरकार इस पर क्या करने जा रही है, यह बात भी तभी जब यह सरकार की किसी गोपनीय कार्रवाई से जुड़ी हुई न हो। कल प्रधानमंत्री की लिखित जारी की गई बात से लोगों को बड़ा सदमा लगा था, और आज उसके स्पष्टीकरण से उससे भी बड़ी हैरानी हुई है। सरकार कितनी बार अपनी ही बात, या अपने ही स्पष्टीकरण का स्पष्टीकरण जारी करेगी? खासकर ऐसे वक्त जब देश में सामान्य जिज्ञासा के सवाल गद्दार करार दिए जा रहे हैं। जब सामान्य, गैरगोपनीय जानकारी मांगना भी एक जुर्म करार दिया जा रहा है। यह माहौल अधिक सवाल करने का नहीं छोड़ा गया है। ऐसे में जब सवाल पसंद नहीं है, तो खुद होकर तो जवाब देना ही होगा, और वह जवाब बड़ा साफ और बड़ा स्पष्ट होना चाहिए। इस मुद्दे और क्या कहें, सरकार साफ-साफ कहे, अपने शब्दों में कहे, और ऐसे शब्दों में कहे कि जिसकी भावना आगे जाकर हिन्दी के इम्तिहान में किसी कविता की व्याख्या की तरह बखान न करनी पड़े।
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अभी दस मिनट पहले की खबर आई है कि भारत के वायुसेना चीफ ने लद्दाख जाकर वहां तनाव का जायजा लिया। तीन दिन पहले ही वहां हिन्दुस्तान ने चीन के साथ झड़प में अपने 20 सैनिक और अफसर खोए थे। तब से भारत की सरकार में एक अजीब किस्म का सन्नाटा छाया हुआ है, और लोगों ने इन 20 शहादतों के बाद प्रधानमंत्री के तीन-चार सौ शब्दों के बयान को गिनकर शब्द लिखे हैं कि उनमें कहीं भी चीन का नाम भी नहीं लिया गया। प्रधानमंत्री ने चाहे कुछ न कहा हो, लेकिन उन्हें यह बात अच्छी तरह मालूम है कि हिन्दुस्तान की आबादी का एक बड़ा हिस्सा हिन्दुस्तानी सैनिकों की मौत का बदला लेना चाह रहा है, और सरकार से यह उम्मीद कर रहा है कि वह चीन को सबक सिखाए। दूसरी तरफ चीन लगातार चौथे दिन अपनी इसी बात पर कायम है कि भारत के सैनिकों ने उसकी जमीन पर घुसकर भड़काऊ नौबत लाई जिसकी वजह से यह मुठभेड़ हुई है। उसने अपने सैनिकों की मौत या उनके जख्मी होने की कोई बात नहीं मानी है।
अब सवाल यह है कि पांच हफ्तों से अधिक चीन की सरहद पर यह तनाव चल रहा था, दूसरी तरफ भारत और चीन के बीच के नेपाल के साथ भारत की बड़ी तनातनी कागज की लकीरों को लेकर चल ही रही है, ऐसे में चीन के साथ ऐसा खूनी संघर्ष बड़ी फिक्र खड़ी करता है। लोग याद कर रहे हैं कि साढ़े तीन हजार किलोमीटर लंबी भारत-चीन सीमा पर 1975 के बाद पहली बार फौजी लहू बहा है।
आज आम हिन्दुस्तानियों की सोच बदले की हो गई है, जिसमें बहुतायत मोदी-समर्थकों की है, लेकिन मोदी-विरोधी भी कम नहीं हैं, वे मोदी के पुराने बयान, उनके पुराने वीडियो, उनकी पार्टी के प्रवक्ता के पुराने वीडियो निकालकर याद दिला रहे हैं कि बिना किसी हिन्दुस्तानी सैनिक की मौत के, महज चीनियों की सरहद में घुसपैठ को लेकर मोदी ने किस तरह प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का मखौल बनाया था, और उन्हें कमजोर प्रधानमंत्री साबित किया था। मोदी-समर्थक आज उन्हें मजबूत प्रधानमंत्री मानते ही हैं, और मोदी-विरोधी आज उन्हें एक निहायत कमजोर प्रधानमंत्री साबित करने पर आमादा हैं। जो बीच के समझदार लोग हैं, वे यह गिना रहे हैं कि मोदी और चीनी राष्ट्रपति कितनी बार हिन्दुस्तान में मिले, कितनी बार चीन में, और कितनी बार दूसरे देशों में। लोग उन तस्वीरों और वीडियो को पोस्ट कर रहे हैं, इनमें चीनी-प्रमुख के दक्षिण भारत आने पर वहां भाजपा के नेता भारत और चीन दोनों के झंडे लगाए हुए बोट दौड़ा रहे थे, और चीनी राष्ट्रपति के पोस्टर हिला रहे थे। तैश की तमाम बातें होनी ही थीं क्योंकि देश में लगातार एक उग्र राष्ट्रवाद को पनपाया गया है, और आज वह फन फैलाए हुए देख रहा है कि किस-किसको डसा जाए। मोदी-विरोधियों को एक मौका मिला है कि वे इस सरकार की विदेश नीति की नाकामयाबी, इस सरकार की फौजी नीति और तैयारी की नाकामयाबी को गिना सकें, और मोदी को एक फ्लॉप शो साबित कर सकें। लेकिन इस पर लिखना आज समर्थन और विरोध के नारों पर लिखना नहीं है, आज हिन्दुस्तान की जरूरत पर लिखना है।
आज चीन के साथ जंग के फतवे देना तो आसान है, लेकिन उसके नतीजों के बारे में सोचना और समझना कम ही लोगों की फिक्र का सामान है। आम नागरिक बुनियादी रूप से गैरजिम्मेदारी की हद तक भड़क उठते हैं, ऐसा इसलिए भी होता है कि उन्हें लगातार भड़कने का चारा खिला-खिलाकर पाला-पोसा जाता है। अपने देश को, उसकी एक-एक इंच जमीन को, उस जमीन को अपनी माता का दर्जा देने को, और चीर देने, काट देने, फाड़ देने की हिंसक सोच को जब एक आम सोच बना दिया जाता है, तो वैसी सोच आज चीन के साथ सरहदी तनाव के वक्त तो भड़कनी थी ही, क्योंकि आज तो इस सोच ने अपनी पूरी जिंदगी का सबसे बड़ा फौजी नुकसान इस सरहद पर देखा है। 1962 की जंग की हार भी आज बहुत से लोगों को याद नहीं है, और वैसे भी उसकी तोहमत तो नेहरू पर लगाने के लिए आज भी लोग रात-रात में नींद से उठकर सोशल मीडिया पर पोस्ट कर ही रहे हैं। आज लोगों को सैनिकों की लाशें दिख रही हैं जो कि देश में आधा-एक दर्जन प्रदेशों में जा रही हैं। यह समझने की जरूरत है कि इस राष्ट्रवादी तबके का सारा शिक्षण-प्रशिक्षण ही देश के नाम पर सरहद से हजारों किलोमीटर दूर मरने-मारने के फतवों तक ही सीमित है। इस तबके को न अंतरराष्ट्रीय चीजों की समझ है, न ही देश की अर्थव्यवस्था, और न ही चीन की ताकत का अहसास है। चीन चाइनीज-नूडल्स का एक प्याला नहीं है जिसे खाया जा सके, वह एक परमाणु-महाशक्ति भी है, जो फौजी पैमानों पर भारत से बहुत ऊपर है। ऐसे में चीन के साथ जंग का सपना हथियारों के सौदागर देखें वहां तक तो ठीक है, सत्ता के दलाल देखें वह भी जायज है, लेकिन जिस जनता के टैक्स से यह जंग लड़ा जाएगा, उस जनता का सबसे मूढ़ और सबसे हिंसक तबका ही जंग के फतवे दे रहा है।
हम मीडिया या राजनीति के तमाम मोदी-आलोचकों से भी यह अपील करेंगे कि प्रधानमंत्री को घेरने का मौका मानकर आज चीन के साथ टकराव की चुनौती देना बंद करें, इन दोनों देशों के हित में फौजी तनाव का बढऩा बहुत नुकसानदेह होगा। आज हिन्दुस्तान वैसे भी कूटनीतिक रूप से बहुत ही नाकामयाब साबित हो चुका है जो कि साढ़े तीन हजार किलोमीटर लंबी सरहद के एक छोटे से हिस्से को लेकर ऐसे तनाव में उलझा कि बातचीत के बजाय अपने सैनिकों की शहादत पाकर रह गया। पिछले छह बरस में प्रधानमंत्री मोदी की चीनी राष्ट्रपति के साथ यारी के तमाम किस्से मीडिया के झूलों में झूलते आए हैं, लेकिन वे सारे फ्लॉप शो साबित हुए हैं क्योंकि प्रधानमंत्री तो दूर, मंत्री तो दूर, फौजी चीफ तो दूर, चौथे-पांचवे नंबर के अफसर आपस में बात करते रहे, और दोनों देशों के तथाकथित प्रगाढ़ संबंध किसी काम नहीं आए। आज भी किसी देश के लिए बड़प्पन एक हमले से साबित नहीं होता, शांति बनाए रखने से साबित होता है। हिन्दुस्तानी सैनिकों की कुर्बानी बेकार नहीं जाएगी, ऐसा सरकारी दिलासा किसी काम का नहीं है। हिन्दुस्तान की सरकार को चाहिए कि सरहद के तनाव को खत्म करने के लिए खुले दिल से चीन के साथ बात करे, और जंग के भड़कावे, जंग के उकसावे से अपने को बेअसर रखे। सरकार की सोच वैसी नहीं होनी चाहिए जैसी कि विपक्ष में रहते हुए इन्हीं प्रधानमंत्री-मंत्रियों ने बार-बार दिखाई थी, या कि आज के विपक्ष के कुछ नेता दिखा रहे हैं। यह सोच भड़कावे से उपजी हुई नहीं होनी चाहिए। यह सोच बदला निकालने की नहीं होनी चाहिए, क्योंकि 20 सैनिकों की शहादत तो हो ही चुकी है, सरहद पर किसी जंग से सैकड़ों-हजारों की शहादत और हो सकती है, और फैसले लेने वाले नेता और बड़े अफसर राजधानियों में महफूज बैठे रहेंगे। यह सिलसिला खतरनाक है, लोग सरकार को भड़काना बंद करें, सरकार किसी उकसावे में नहीं आए, और इन शहादतों से सबक लेकर सरकार को, दोनों देशों की सरकारों को चाहिए कि वे सरहद पर झगड़े खत्म करें क्योंकि जैसा कि चीनी प्रवक्ता ने पिछले दो दिनों में कहा है, दोनों देशों के बीच सरहद पर टकराव के मुकाबले दोनों के साझा हित बहुत अधिक हैं। हिन्दुस्तान को यह सबक जरूर लेना चाहिए कि बातचीत की नौबत रहने तक उसका इस्तेमाल न करना कितना महंगा साबित हुआ है। आज भी बातचीत की बची हुई नौबत का इस्तेमाल करना चाहिए, और किसी देश के सामानों के बहिष्कार के फतवे पूरी तरह से फर्जी रहते हैं क्योंकि हिन्दुस्तान की अर्थव्यवस्था, लोगों की जिंदगी रातों-रात चीनी सामानों के बिना, चीनी कच्चे माल के बिना नहीं चल सकती। इसलिए सरकार जिम्मेदारी से काम ले, और चीन से धैर्य से बात करे। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
भारत और चीन के बीच तनाव को लेकर दो दिन पहले हमने जब यहां लिखा था, उस वक्त भारत के तीन फौजियों के मारे जाने की खबर थी। फिर देर रात तक सरकार ने यह खुलासा किया कि 20 हिन्दुस्तानी शहीद हुए हैं। यह भी खबर आई कि गोलियां नहीं चलीं, और पत्थर-लाठियों से यह टकराव हुआ है। बात थोड़ी अजीब थी, लेकिन जंग के मोर्चे पर लोगों को अपने देश की सरकार से परे की जानकारी कम मिल पाती है, और मीडिया को भी अपने देश की फौज के रास्ते ही जानकारी मिल पाती है।
शुरुआती खबरों के मुकाबले बाद की हकीकत बहुत ही भयानक है, और हिन्दुस्तान हिल गया है। चीन की फौज को हुए नुकसान के बारे में वहां की सरकार ने कोई खुलासा नहीं किया है, लेकिन हिन्दुस्तानी फौज का कहना है कि उससे दुगुने लोग चीनी फौज के हताहत हुए हैं। फौजी जुबान में कैजुअल्टी यानी हताहत होने का मतलब बड़ा ही फैला हुआ होता है। सैनिक की मौत से लेकर उसकी बीमारी या उसके जख्मी होने तक को इस एक शब्द हताहत में गिना जाता है, इसलिए भारत के मुकाबले चीन का नुकसान अभी साफ नहीं है, और चीन ने अपने एक भी सैनिक की मौत की घोषणा नहीं की है। ऐसे में यह सिलसिला थोड़ा सा अजीब लग रहा है कि सरहद पर इतनी तनातनी के बीच दो परमाणु-हथियार संपन्न देशों के बीच टकराव लाठियों और पत्थरों से हुआ। आज एक भारतीय प्रतिरक्षा विशेषज्ञ ने भारतीय फौज के जब्त करके लाए गए जो हथियार दिखाए हैं, उनकी तस्वीर और भी हैरान करती है कि महीने भर से अधिक से चले आ रहे तनाव से निपटने के लिए, इतने टकराव के बाद क्या छड़ों में कीलें जोड़कर चीनी फौज लडऩे पहुंची थी? भारत सरकार बहुत रहस्यमय ढंग से बड़ी चुप्पी साधे हुए है, और जहां तक चीन का सवाल है वहां तो सब कुछ सरकार-नियंत्रित है, इसलिए वहां से कोई जानकारी सरकार से परे बाहर नहीं आ पाती।
अब हिन्दुस्तान के भीतर-भीतर की बात करें, तो 15-16 जून की मध्य रात्रि इतने भारतीय सैनिकों की शहादत पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी 19 जून की शाम एक सर्वदलीय वीडियो कांफ्रेंस करने जा रहे हैं। इतने हफ्तों से जो तनाव चल रहा था, उस पर देश उम्मीद कर रहा था कि प्रधानमंत्री कुछ बोलेंगे। अपने इन 6 बरसों में मोदी ने चीनी राष्ट्रपति के साथ शायद डेढ़ दर्जन मुलाकात की है, और दोनों ने एक-दूसरे को अपने-अपने देश में अपने-अपने शहर में मेहमान बनाया हुआ है। दोस्ताना संबंधों की इससे बड़ी नुमाइश आजाद हिन्दुस्तान के इतिहास में पहले कभी नहीं हुई थी, लेकिन सरहद पर चल रहे टकराव के बीच यह कहीं पता नहीं लगा कि इन दोनों नेताओं के निजी दूतों ने भी कोई मुलाकात की हो, कोई बात की हो। जबकि भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल पहले भी कुछ नाजुक मुद्दों पर बात करने के लिए चीन जा चुके हैं, और वे तब्लीगी जमात से लेकर दूसरे देशों तक केन्द्र सरकार की तरफ से कई किस्म की पहल करते आए हैं, जो कि एक सलाहकार की भूमिका से बढ़कर भी रही हैं। लेकिन चीन के इस पूरे मुद्दे से वे भी गायब रहे, प्रधानमंत्री ने 20 सैनिकों की शहादत हो जाने के बाद पहली बार इस मुद्दे पर मुंह खोला। नतीजा यह हुआ कि इस घोर अप्रिय नौबत का सामना करने के लिए प्रतिरक्षा मंत्री राजनाथ सिंह अकेले ही सामने रहे।
भारत के भीतर आम जनता को लेकर राष्ट्रीय राजनीतिक दल तक भारतीय सैनिकों की इस तरह की मौत पर बहुत विचलित हैं। राहुल गांधी से लेकर दूसरे नेताओं तक ने सोशल मीडिया पर सरकार से कई तीखे और असुविधाजनक सवाल किए हैं। इन सवालों को लेकर उन्हें गद्दार भी माना जा रहा है, लेकिन लोकतंत्र के फायदे के लिए यूपीए सरकार के वक्त की एक चीनी घुसपैठ के समय एनडीए के एक बड़े प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद का एक वीडियो आज जिंदा है और तैर रहा है जिसमें वे सरकार से संसद और देश के सामने तथ्य रखने और जानकारी देने की मांग कर रहे हैं। उनके पूरे बयान को टाईप करके अगर उनका नाम हटा दिया जाए, और तारीख हटा दी जाए, तो आज भी वह पूरा बयान मोदी सरकार से एक सवाल की शक्ल में जायज है, और केन्द्र सरकार को देश के सामने तमाम बातों को रखना चाहिए।
जिन लोगों को अपने पसंदीदा लोगों से अपने नापसंद लोगों के सवाल नहीं सुहाते हैं, और जो बड़ी तेजी से इसे देश के साथ गद्दारी साबित करते हैं, पूछने वाले की बुद्धि को चीनपरस्त कहते हैं, तो कभी एक पप्पू की अक्ल करार देते हैं, वैसे लोगों को यह समझना चाहिए कि फौज से जुड़ी हुई, सरहद से जुड़ी हुई हर बात राष्ट्रीय सुरक्षा की गोपनीय जानकारी नहीं होती है, बहुत सी जानकारियां आम जनता के साथ बांटने के लायक होती हैं, और किसी भी लोकतांत्रिक सरकार को आम जनता को हकीकत से वाकिफ रखना भी चाहिए। बहुत ही सीमित बातें ऐसी होती हैं जिनका राष्ट्रीय हित में गोपनीय रहना जरूरी होता है, और हमारी जानकारी में देश के किसी भी नेता ने ऐसी कोई जानकारी केन्द्र सरकार को मांगी नहीं है। ऐसे में मोदी सरकार बहुत सी बातों के लिए विपक्षी दलों के मार्फत जनता के प्रति जवाबदेह है। और यह जवाबदेही किसी भी शक्ल में देश का विरोध तो दूर, सरकार का विरोध करार देना भी बड़ी नाजायज बात होगी। लोकतंत्र अगर अपने भीतर के देश के प्रति वफादार लोगों को बात-बात पर गद्दार करार देने लगे, तो वह लोकतंत्र के खात्मे की शुरुआत होती है।
किसी भी सरकार को चाहे वह देश की हो, चाहे किसी प्रदेश की, चाहे वह कोई म्युनिसिपल या पंचायत ही क्यों न हो, जवाबदेही उसे गलतियों और गलत कामों से बचाती है। आज भारत सरकार को अपने देश के भीतर लोगों की जिज्ञासा, लोगों की शंकाएं, इन सबको शांत करना चाहिए। राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े हुए जो गोपनीय पहलू हैं, उनकी आड़ लेकर आम जानकारी को भी आम जनता से दूर रखना लोगों के मन में कई किस्म के नाजायज शक भी पैदा करता है, जो किसी के हित में नहीं हैं।
सरकार को यह बात भी समझना चाहिए कि हिन्दुस्तानी जनता के कारोबारी हित, उसकी रोज की जरूरतें, उसके रोज के इस्तेमाल के सामान चीन से आकर बाजारों में पटे हुए हैं। भारत का बहुत सा मेन्युफेक्चरिंग तबका चीन के पुर्जों और कच्चे माल पर जिंदा है। ये तमाम सामान सरकार की नीतियों के तहत, सरकार की इजाजत से, और सरकार को टैक्स देकर लाए गए हैं। सरकार की चुप्पी बाजार को भी एक असमंजस से घेरती है, और ऐसे में देश का एक संगठित उपद्रवी तबका चीनी सामानों के बहिष्कार के फतवे को हिंसा की हद तक ले जाता है। ऐसे में कानूनी ढंग से कारोबार करने वाले देश के लाखों लोग, और उनसे जुड़े हुए करोड़ों पेट खतरे में पड़ते हैं। भारत सरकार को तुरंत ही देश के सामने न सिर्फ अपनी बात रखनी चाहिए, बल्कि विपक्ष के मुंह से देश के अलग-अलग तबकों की बात सुननी भी चाहिए। बेहतर तो यही होगा कि सरकार भारत-चीन तनाव पर एक बयान दे, और उसके बाद विपक्ष की राय को सुनने का काम ही करे।
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किसी एक अभिनेता की आत्महत्या पर लगातार तीन दिनों में दो बार इस जगह पर लिखना आज का मकसद नहीं है। लेकिन आज उससे जुड़े हुए एक अलग और नए पहलू पर लिखना है कि समाज में लोगों को दूसरों के बारे में अपनी राय बनाने के पहले क्या-क्या सोचना चाहिए, और कैसे इंसाफपसंद तरीके से सोचना चाहिए।
हुआ यह कि सुशांत राजपूत की खुदकुशी के बाद एक दूसरी अभिनेत्री सोनम कपूर ने ट्विटर पर लिखा कि किसी की मौत के लिए उसकी गर्लफ्रेंड, या भूतपूर्व गर्लफ्रेंड, परिवार, या सहकर्मियों को जिम्मेदार ठहराना अज्ञान का सुबूत है, और परले दर्जे का तंगनजरिया है। अब इस बात को लेकर सोशल मीडिया पर लोग उन पर टूट पड़े और उन्हें हजार किस्म की बातें गिनाने लगे। कई लोगों ने यह लिखा कि अगर सोनम कपूर अनिल कपूर जैसे बड़े बाप की बेटी न होतीं, तो कहीं झाड़ू-पोंछा करती रहतीं। जितने मुंह उतनी बातें। और फिर इन दिनों सोशल मीडिया पर नफरत और बकवास लिखने वाले लोगों की तो सुना है कि रोजी-रोटी भी वहां से निकल जाती है। ऐसे में जितनी भड़काऊ बातें कोई लिखें, उतनी ही मजदूरी बढ़ती भी है। यह बात तो जाहिर है कि किसी मशहूर की खुदकुशी बिना ढेर सारी चर्चा के कहीं जाने वाली नहीं थी, फिर भी उसके लिखे बिना, उसकी चिट्ठी सामने आए बिना अगर लोग अटकलें लगाकर आसपास के लोगों पर तोहमतें लगा रहे हैं, कोई किसी को खुदकुशी का जिम्मेदार ठहरा रहे हैं तो कोई और किसी और को, तो ऐसे में इस सलाह में भला क्या बुरा है कि लोगों पर ऐसी तोहमतें लगाना तंगनजरिया है? अभी तो पुलिस के हाथ खुदकुशी की चिट्ठी लग चुकी है, और मरने वाले को अपने जाने के पहले यह पूरा हक था कि अगर किसी पर तोहमत लगानी है तो वह लिखकर छोड़ जाए, उसके बाद अटकलों से तोहमतें बनाकर दूसरे लोगों को बदनाम करने का एक मतलब यह होता है कि लोग अपना-अपना हिसाब चुकता कर रहे हैं। जिसको जिससे नफरत है, उसका नाम जोड़कर उसे खुदकुशी का जिम्मेदार ठहरा दे रहे हैं। इसलिए ऐसी हरकत को एक तंगदिली या तंगनजरिया कहा जाना जायज है।
अब जहां तक सवाल किसी अभिनेता की निजी जिंदगी के इस हद तक कुरेदने का है, तो यह दुनिया का रिवाज ही है कि जो शोहरत पर जिंदा रहते हैं, मशहूर होना उनके पेशे की एक जरूरत है, वे लोगों की खुर्दबीनी निगाहों से इंकार नहीं कर सकते। मीठा-मीठा गप्प, और कड़वा-कड़वा थू नहीं हो सकता। इसलिए चाहे सुशांत राजपूत हो, चाहे सोनम कपूर हो, इन सबको अपने कहे और दिखे के लिए लोगों के प्रति जवाबदेह होना पड़ता है। और यह बात महज बॉलीवुड या हॉलीवुड की नहीं है, यह बात अनंतकाल से दुनिया में चली आ रही है, और राम को अयोध्या लौटने के बाद एक धोबी के ताने इसीलिए सुनने पड़े थे कि वे राजा थे। जिसे सम्मान मिलता है, जिसे शोहरत मिलती है, उन्हें ही अधिक जिम्मेदारी भी मिलती है, और उनकी ही अधिक जवाबदेही भी हो जाती है। इन दिनों तो सोशल मीडिया की मेहरबानी से ऐसे अखबारनवीस या पत्रकार भी हर किसी की तोहमतों के घेरे में रहते हैं, जो कि खुद ईमानदारी से अपना काम करते रहते हैं, उन्हें भी सौ किस्म के आरोप झेलने पड़ते हैं, उनके बारे में झूठी बातें गढ़कर चारों तरफ फैलाई जाती हैं।
लेकिन जहां पर किसी की जिम्मेदारी होने या न होने की बात वाली एक चिट्ठी मौजूद है, तो वहां पर लोगों को इंतजार करना चाहिए। जहां पर कुछ लोगों से टेलीफोन पर बातचीत की गई है, और उनसे जानकारी हासिल होना बाकी है, तो इंतजार करना चाहिए। ऐसी हालत में भी अटकलों पर टिकी तोहमतें ज्यादती हैं, और किसी जिम्मेदार व्यक्ति को उससे बचना चाहिए।
पुलिस की जांच जो कि शुरू हो चुकी है, उसका इंतजार करने से दुनिया नहीं पलट जा रही। बहुत से लोगों पर तोहमत लगाने से बेहतर है कि सुशांत राजपूत की चिट्ठी, और अगर कोई दूसरे लोगों के बयान हों, तो उनका इंतजार करना चाहिए। महज मीडिया की सनसनी के लिए तोहमतों की बौछार ठीक नहीं है।
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