संपादकीय
दो दिन पहले आजादी की सालगिरह के जलसे की तैयारी के बीच हमने देश के ऐसे कुछ तबकों को याद किया था जिनके लिए आजादी आज भी नहीं है। जिस 14 अगस्त की दोपहर हम यह लिख रहे थे, और इसके साथ गुजरात के उना में दलितों के साथ हुई हिंसा की तस्वीरों से तिरंगा बना रहे थे, ठीक उसी समय उत्तरप्रदेश के लखीमपुर खीरी में दिल दहलाने वाली एक और हिंसा दलितों के साथ हो रही थी। तेरह बरस की एक बच्ची दोपहर शौच के लिए गन्ने की खेतों की तरफ गईं, और उसके साथ दो युवकों ने बलात्कार किया, उसकी जीभ काट ली, उसकी आंखें निकाल लीं, और उसके गले में फंदा डालकर खेत में घसीटा, और फिर उसे मार डाला। गांव के ही संतोष यादव और संजय गौतम पर रेप का आरोप लगा है, और पुलिस ने पोस्टमार्टम में गैंगरेप पाए जाने के बाद इन दोनों को रेप-हत्या में गिरफ्तार कर लिया है।
हिन्दुस्तान में परिवार और जान-पहचान से परे जितने बलात्कार होते हैं, उनके पीछे एक बात खुलकर दिखती है कि वे समाज में ऊंची समझी जाने वाली जातियों के लोगों द्वारा उनसे नीची समझी जाने वाली जातियों के लोगों पर किए जाते हैं। ऐसा ही कुछ हत्या या हिंसा के दूसरे मामलों में भी होता है कि अपने से कमजोर जाति पर हिंसा के मामलों में दिखता है, हालांकि प्रदेशों की सरकारें और भारत सरकार के आंकड़े ऐसी व्यक्तिगत हिंसा के पीछे जाति के आधार पर विश्लेषण करके सामने रखते नहीं हैं, लेकिन आए दिन आने वाली ऐसी खबरों को देखें तो यह बात साफ दिखती है कि सबसे अधिक निजी हिंसा इस देश में दलितों के खिलाफ होती है, उसके बाद आदिवासियों के खिलाफ, और उसके बाद दूसरी कमजोर जातियों के खिलाफ। जो लोग जातिवादी व्यवस्था के अस्तित्व को मानना नहीं चाहते, वे इसके खिलाफ कुछ तर्क आसानी से ढूंढकर निकाल सकते हैं कि ऐसी हिंसा किसी जाति के आधार पर नहीं होती, बल्कि संपन्नता के आधार पर होती है, और संपन्न लोग विपन्न लोगों के साथ ऐसी ज्यादती इसलिए अधिक करते हैं क्योंकि वे प्रतिरोध करने की हालत में नहीं रहते। हो सकता है कि ऐसा हो, लेकिन यह भी समझने की जरूरत है कि दलित आबादी का अधिकांश हिस्सा सबसे गरीब है, उसके बाद आदिवासियों का अधिकांश हिस्सा गरीब है। लेकिन आदिवासियों के साथ एक बात रहती है कि उन्हें हिन्दू समाज का सवर्ण हिस्सा अछूत नहीं मानता, और उनके साथ उतने जुल्म उन्हें जरूरी नहीं लगते जितने कि दलितों के साथ लगते हैं। मध्यप्रदेश में आज भी बहुत से इलाकों के किसी भी गांव में कोई दलित दूल्हा घोड़ी पर चढक़र नहीं निकल सकता, और हर बरस ऐसे में हिंसा की कई वारदातें सामने आती हैं, पुलिस की सुरक्षा में ऐसी बारात निकाली जाती है, और अभी कुछ समय पहले की तस्वीरें याद पड़ती हैं जिनमें घोड़ी पर चढ़ा दलित दूल्हा, और हिफाजत करते चल रही पुलिस सवर्ण पत्थरों से बचने के लिए हेलमेट लगाए हुए थे।
लेकिन उत्तरप्रदेश में अभी जिस दलित बच्ची के साथ यह बलात्कार और हिंसा हुई है, उसे देखकर कुछ और बातों पर भी सोचने को दिल करता है। पहली बात तो यह कि क्या ऐसे जुर्म देखते हुए भी हमें मौत की सजा के खिलाफ अपनी सोच को बदल नहीं देना चाहिए? हमारी सोच महज सोच है, देश का कानून तो ऐसे बलात्कारी-हत्यारों को मौत की सजा दे ही सकता है क्योंकि आज उसका प्रावधान है। बच्ची से सामूहिक बलात्कार, उसके बाद उसकी जीभ काटना, उसकी आंखें निकालना, उसे खेत में घसीटना, और उसे मार डालना, ये सारे काम मौत की सजा से कम किसी लायक नहीं हैं, और जब कभी इस पर फैसला आएगा, हमारा अंदाज है कि मौत की सजा ही होगी। लेकिन उससे कमजोर तबकों पर, कमजोर जातियों पर, बच्चियों पर खतरा कम नहीं हो जाता। उत्तर भारत और मध्यप्रदेश ऐसी दलित ज्यादतियों की अधिक वारदातों वाले राज्य हैं। उत्तरप्रदेश के बारे में यह कहा जाता है कि वहां पुलिस का साम्प्रदायीकरण भी हुआ है, और जातिकरण भी हुआ है। समाजवादी पार्टी के मुलायम-अखिलेश की सरकारों के चलते वहां की पुलिस का यादवीकरण लिखा जाता था। अभी पुलिस की धर्मान्ध और जातिवादी सोच के चलते अल्पसंख्यक तबके, और दलित लगातार समाज और पुलिस दोनों के निशानों पर बने हुए हैं। यह सिलसिला खत्म करने की नीयत उत्तरप्रदेश की किसी पार्टी में नहीं दिखती है, और कमोबेश यही हाल मध्यप्रदेश में भी है।
दलितों और आदिवासियों की हिफाजत के लिए अलग से कानून बने हुए हैं, और अभी कुछ समय पहले उसके कुछ प्रावधानों की धार भोथरी करने की कोशिश की गई थी, लेकिन पूरे देश में उसका जमकर विरोध हुआ, और वह सिलसिला वापिस लेना पड़ा। दिक्कत यह है कि सरकार, संसद, और न्यायपालिका, मीडिया और दूसरी संवैधानिक संस्थाओं में अगर इन कमजोर तबकों के लोग भी बैठे हुए हैं, तो भी वे खुद ताकत पाकर सत्ता की एक सोच से लैस हो जाते हैं, और जिन तबकों से वे आते हैं, उनके वर्गहित के खिलाफ काम करने लगते हैं।
पिछले दो दिनों से देश में आजादी के बहुत गीत गाए जा रहे हैं, प्रधानमंत्री ने भी कल आजाद हिन्दुस्तान के इतिहास का सबसे लंबा भाषण दिया है। लेकिन देश में दलितों की जो हालत है, उन पर हिंसा की वारदातों के चलते हुए भी प्रधानमंत्री सहित बहुत से नेताओं के मुंह नहीं खुलते हैं। गुजरात के उना में दलितों पर जुल्म के जो नजारे सामने आए, उन्होंने पूरी दुनिया में हिन्दुस्तान के लिए शर्मिंदगी पैदा की थी। लेकिन इस देश में फैसले लेने की ताकत रखने वाले तबकों को कोई शर्म नहीं आती, उन्हें आजादी के जलसे मनाने में फख्र जरूर होता है।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
आज जब बाकी दुनिया के साथ-साथ खतरे में जुटा हुआ, आशंका से घिरा हुआ, और सहमा हुआ हिन्दुस्तान अपनी आजादी की सालगिरह मनाने जा रहा है, तो इसके ठीक पहले आज की एक खबर मानो यह साबित करने के लिए आई कि आजादी किनके लिए नहीं है। दिल्ली की खबर है कि वहां महिला आयोग ने पुलिस के साथ मिलकर ढाई महीना की एक बच्ची को बरामद किया है जो पिछले कुछ महीनों में चार बार बिक चुकी है। अमनप्रीत नाम के एक आदमी ने तीसरी बेटी होने पर इसे 40 हजार रूपए में बेच दिया था, और उसके बाद बच्ची एक ग्राहक से दूसरे ग्राहक के पास चार बार बिक गई।
कल इसी वक्त जिस दिल्ली के लालकिले से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपना पांचवां या छठवां भाषण देंगे, उस दिल्ली का यह मामला दिल दहला देता है। आज जब लोग अपने बच्चों को कलेजे से लगाए घर बैठे हैं वे कहीं कोरोना की पकड़ में न आ जाएं, तब ढाई महीने की यह बच्ची एक सामान की तरह आगे, और आगे बिकती चली गई!
अब आजादी की पौन सदी के करीब यह लगता है कि देश में कौन-कौन आजाद नहीं हैं? लड़कियां तो बिल्कुल आजाद नहीं हैं कि वे लडक़ों के इंतजार में पैदा की जाती हैं, या पैदा होने के पहले मार डाली जाती हैं, या पैदा होने के बाद बेच दी जाती है, या घर पर भूखी रह जाती हैं, बिना पढ़ाई रह जाती हैं। महिलाएं भी बिल्कुल आजाद नहीं है जिनकी कोख से जन्मी बच्ची को बाप इस तरह बेच दे रहा है, और वह शायद अपनी बची दो बच्चियों को किसी तरह बचाकर घर पर चुप बैठी होगी।
इस देश की आजादी ने इतने दशकों में बच्चियों और महिलाओं को कोई हिफाजत नहीं दी। इसने धार्मिक अल्पसंख्यकों के सिर पर से खतरे उठाने में कामयाबी हासिल की भी थी, तो वह कामयाबी हाल के बरसों में मिट्टी में मिल गई। आम लोगों को काफी हद तक मन की बात कहने का हक हिन्दुस्तान में मिला हुआ था, लेकिन अब इस हक के लिए उनका प्रधानमंत्री होना जरूरी कर दिया गया है। बाकी लोगों के खिलाफ मन की कोई लोकतांत्रिक बात भी सामने आने पर उन्हें जेल भेजने का इंतजाम सरकारें अपनी-अपनी मर्जी से कर रही हैं।
लोगों को जो आजादी मिली है, वह भी सामने है। हाल के महीनों में यह आजादी खुलकर सामने आई जब महानगरों और कारखाना-शहरों से अपने गांव लौटते मजदूरों को पैदल-सफर करने की पूरी आजादी मिली। उन्हें रात-दिन पैदल चलने से किसी ने नहीं रोका, बल्कि कई लोगों को तो आजादी की इतनी छूट मिली कि वे अपने बीमार मां-बाप या बीमार बीवी-बच्चों को भी लादकर हजारों किलोमीटर चलते हुए आए, लेकिन राह में उन्हें किसी ने नहीं रोका। इतनी आजादी भला किसे मिलती है, कोई और विकसित देश होता तो ऐसे इंसानों को ओवरलोड गाड़ी के दर्जे में गिनकर उनका चालान कर दिया जाता, लेकिन हिन्दुस्तान की सरकार ने, यहां के सूबों की सरकारों ने देश-प्रदेश की जनता को पूरी आजादी दी। हालांकि यूपी-बिहार जैसे कुछ प्रदेश ऐसे भी रहे जिन्होंने लौट रहे मजदूरों को सूबे की सरहद पर पीटा कि अभी तो स्वतंत्रता दिवस खासा दूर है, और अभी से इतनी आजादी क्यों ले रहे हैं?
आजादी की सालगिरह पल-पल याद दिलाती है कि आजादी कहां-कहां खत्म हो रही है। अब कल की ही बात है, एक टीवी चैनल पर एक हिन्दू आदमी तिलक लगाकर चले गया, तो उस पर एक विरोधी हिन्दू पार्टी के विशाल-तिलकधारी प्रवक्ता ने इतने हमले किए, इतने हमले किए कि वह मर गया। अब 70 बरस के बाद भी अगर तिलक की आजादी नहीं मिल पाई है, एक हिन्दू को भी तिलक लगाने पर गालियां मिल रही हैं, तो फिर धार्मिक आजादी किसे और कैसे मिलेगी?
भारतमाता की रक्षा करने के लिए जो फौजी बड़ी-बड़ी कसमें खाते हैं, मूंछों पर ताव देते हैं, ऐसे एक रिटायर्ड फौजी जनरल वाईडस्क्रीन टीवी की स्क्रीन से भी चौड़ी मूंछों के साथ टीवी स्टूडियो में बैठे थूक के साथ जंग के फतवे छिडक़ते हुए नफरत की आग लगाने के लिए जाने जाते हैं। और जब किसी दूसरे की बात से असहमत हुए, तो लाईव टेलीकास्ट पर ही उसे मां की गाली देने लगे। अब सवाल यह है कि उस दूसरे की मां भारतमाता से किस तरह अलग हुई? और अगर यह फौजी जनरल रिटायर होने के बाद भी देश की महिलाओं की इज्जत नहीं सीख पाया, तो वह भारतमाता की हिफाजत क्या खाकर करेगा? तो इस देश को आजादी के सात दशक पूरे करने के बाद भी मां की गाली से आजादी नहीं मिली जो कि इस देश की सबसे अधिक लोकप्रिय गाली है। इसके बाद परिवार की दूसरी लड़कियों के लिए भी गालियां बनाई गई हैं, और वही वजह है कि तीसरी बेटी होते ही उसे बेच देने का हौसला हो जाता है। अब जाहिर है कि एक परिवार अपने कितने सदस्यों के लिए दुनिया से रिटायर्ड फौजियों से, मां-बहन की गालियां झेल सकता है? यहां एक बच्ची की हिफाजत करना मुश्किल है, जहां बलात्कारियों को बचाने के लिए डंडों पर तिरंगे झंडे सजाकर लोग निकल पड़ते हैं, वहां लडक़ी को पालना कुछ खतरे की बात तो है ही। फिर गरीब बाप अपने मन की बात किसे सुनाए, तो उसने बेटी को आगे बेचकर हाथ धो लिए, और शायद वह चौथी संतान बेटा होने की कोशिश में जुट भी चुका होगा।
अदम गोंडवी ने लिखा था- सौ में सत्तर आदमी फिलहाल जब नाशाद हैं, दिल पे रखकर हाथ कहिए देश क्या आजाद है? आजादी की सालगिरह यह याद दिलाती है कि उसे हासिल करने वाले लोगों की लाश गिराने के बाद अब उनकी इज्जत को भी गोलियों से भूनकर गिराया जा रहा है। और जिसने उनकी देह को गोलियां मारकर गिराया था, उसके मंदिर बनाए जा रहे हैं। तो यह किस तरह की आजादी है? अगर आजादी का जलसा नहीं होने वाला रहता, तो शायद ये बातें नहीं खटकतीं, लेकिन चूंकि आजादी-आजादी चारों तरफ हवा में है, तो जाहिर है कि ऐसे में ही तो वे तबके सबसे पहले दिखेंगे जिन्हें आजादी नहीं है। कश्मीर में आजादी को सस्पेंड किए एक पूरा बरस हो गया है, लेकिन बाकी हिन्दुस्तान में धरती की जन्नत कहे जाने वाले इस कश्मीर के इन हालातों पर चर्चा करने वाले कितने हैं? जितने लोग सैलानी होकर कश्मीर हो आए हैं, और कश्मीरी पोशाक पहनकर तस्वीरें खिंचवा लाए हैं, उनके एक फीसदी लोग भी कश्मीर को लेकर एक भी सवाल नहीं करते। कश्मीर से बेदखल कश्मीरी पंडित उनके मुद्दे को सबसे तल्खी से उठाने वाली भाजपा की अटल सरकार के छह बरस पहले देख चुके, और अब मोदी सरकार के छह बरस देख रहे हैं, और अब भी वे कश्मीर को दूर से देख रहे हैं, वे शायद जाकर अपने घर, अपनी जमीन को भी देखने की हालत में इन दो सरकारों के इन बारह बरसों में नहीं आए हैं। ये दो अलग-अलग तबके हैं, दशकों पहले कश्मीर से बेदखल पंडित, और आज कश्मीर में बाकी बचे तकरीबन तमाम मुस्लिम, इन दोनों की आजादी का सवाल भी इस मौके पर याद पड़ता है।
हिन्दुस्तान की जिन दलितों ने हिन्दू धर्म से आधी सदी पहले आजादी हासिल की, और बौद्ध हो गए, उन्हें आज भी हिन्दुस्तानी समाज के भीतर दबंग हिन्दुओं की गुंडागर्दी से कोई आजादी नहीं मिल पाई है। आए दिन दलितों की लड़कियों से बलात्कार होते हैं, उन्हें जूतों से पीटा जाता है, उनके मुंह में पेशाब की जाती है, उनका कत्ल किया जाता है, और इस मुल्क का सुप्रीम कोर्ट इन दलितों की ऐसी गुलामी को देखने के बजाय एक-एक जायज ट्वीट में अपनी बेइज्जती ढूंढते बैठा है। अगर जज की बेइज्जती एक काबिल वकील के एक ट्वीट से हो रही है, तो जिस जाति की लड़कियों से रेप हो रहे हैं, जिन लोगों को सडक़ों पर मार-मारकर मार डाला जा रहा है, वह क्या हो रहा है? मरे जानवरों की खाल उतारने वाले एक दलित को पीट-पीटकर मार डालने से उसकी जो बेइज्जती होती है, क्या उससे भी अधिक बेइज्जती सुप्रीम कोर्ट की हो रही है जो कि बड़ा चौकन्ना होकर एक-एक ट्वीट पढ़ रहा है। यह समझने की जरूरत है इस देश में किसको क्या आजादी है, और कौन किसके गुलाम हैं? कानून की देवी जिस सुप्रीम कोर्ट के गुलाम की तरह जी रही है, उस सुप्रीम कोर्ट को पूरे हिन्दुस्तान से अपने आपको काटकर, महज अपनी इज्जत की आजादी सुहा रही है? क्या यही मुल्क की आजादी है? (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
कांग्रेस पार्टी के एक राष्ट्रीय प्रवक्ता राजीव त्यागी की कल मौत हो गई। वे एक समाचार चैनल की बहस पर थे, और वहां भाजपा के एक प्रवक्ता अपनी आदत के मुताबिक कांग्रेस प्रवक्ता पर जहरीले आरोप लगा रहे थे। जिससे कि हो सकता है वे विचलित भी हुए हों, लेकिन इसी वजह से उन्हें दिल का दौरा पड़ा और वे चल बसे, और इसे लेकर भाजपा प्रवक्ता संबित पात्रा पर जुर्म कायम करने की मांग कुछ कांग्रेस समर्थक, और कुछ भाजपा-पात्रा विरोधी कर रहे हैं। कांग्रेस के भूतपूर्व, और शायद भावी, अध्यक्ष राहुल गांधी ने अपने इस प्रवक्ता के जाने पर ट्वीट किया है कि कांग्रेस ने आज अपना एक बब्बर शेर खो दिया। हालांकि उन्होंने भाजपा प्रवक्ता या चैनल के बारे में कोई टिप्पणी नहीं की है। देश के बहुत से समझदार लोगों ने सोशल मीडिया पर तुरंत ही यह मांग की है कि समाचार चैनलों पर ऐसी जहरीली बहसें बंद की जाएं जो कि दर्शक संख्या बढ़ाने के मकसद से स्टूडियो में इस किस्म की नफरती जंग छिड़वाती हैं। अभी कुछ ही वक्त हुआ है जब हिन्दुस्तानी फौज के एक रिटायर्ड जनरल ने ऐसी ही एक बहस के बीच एक दूसरे पैनलिस्ट को मां की गाली दी, और वह टेलीकास्ट भी हुई। उस वक्त हमने इस अखबार में यह लिखा भी था कि बाकी समाचार चैनलों के सामने यह गाली एक बहुत बड़ी चुनौती बन गई है कि इससे आगे वो और कौन सी गाली किससे किसे दिलवा सकते हैं। पाकिस्तान इस मामले में हिन्दुस्तान से जरा सा आगे है, जरा अधिक कामयाब है, वहां टीवी स्टूडियो में पैनलिस्ट एक-दूसरे से मारपीट करने पर उतर आते हैं, और वह नजारा टेलीकास्ट से परे भी चारों तरफ समाचार चैनल के शोहरत दिलवाता है। यह धंधा ही ऐसा है कि जिसमें बदनाम हुए तो क्या नाम न हुआ, का फॉर्मूला चलता है। हिन्दुस्तानी समाचार चैनलों में से अब काफी कुछ ऐसे हो गए हैं जो कि अर्नब गोस्वामी को आदर्श मानकर लाईफ टेलीकास्ट में अधिक से अधिक हिंसा की, अधिक से अधिक फूहड़, और अधिक से अधिक गंदी, साम्प्रदायिक बातें करते हैं, कि शायद इन्हीं तौर-तरीकों से वे राज्यसभा में जा सकेंगे, या पद्मश्री पा सकेंगे। कुछ चैनलों के लोग तो हर घंटे इतना साम्प्रदायिक जहर आसमान में तरंगों के रास्ते फैलाते हैं जितना कि कानपुर के सारे कारखाने महीने भर में भी गंगा में नहीं डाल सकते।
अब इस सिलसिले में कुछ लोगों ने सोशल मीडिया पर कई तरह की सलाह भी दी है। एक सलाह यह है कि कांग्रेस ऐसे चैनलों पर अपने प्रवक्ता भेजती ही क्यों है जहां पर लोगों को घोर साम्प्रदायिक, घोर हिंसक, और घोर धर्मान्ध बातें कहने के लिए छूट मिलती है, या बढ़ावा मिलता है। कुछ चैनलों पर मुर्गा लड़ाई की तरह लोगों को भिड़ाया जाता है, और पुराने जमाने के एक आदिम खेल की तरह मजा लिया जाता है, खून के प्यासे दर्शकों की प्यास बुझाई जाती है, या उन्हें इस खून की लत लगाई जाती है। दूसरी तरफ जिस तरह स्पेन में बुलफाईट होती है, और एक लड़ाका सांड को तलवार से कोंच-कोंचकर मारता है, और इस खूनी खेल को देखने के लिए पूरा स्टेडियम खून के आदी लोगों से भरा रहता है। जिस तरह लोगों ने इतिहास में पढ़ा है कि इटली के रोम में कोलोसियम में स्टेडियम की तरह दर्शक भरे रहते थे, और बीच में एक गुलाम और शेर के बीच लड़ाई करवाई जाती थी, जिसका अंत, जाहिर है कि गुलाम की मौत ही होता था। और लोग इसका मजा उठाते थे। वैसा ही कुछ हिन्दुस्तानी टीवी चैनलों में से अधिकतर की बहस के साथ होता है, और हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए तलवार उठाए हुए कुछ ऐसे धर्मान्ध और साम्प्रदायिक टीवी चैनल भी हैं जिन्हें राष्ट्रीय सुरक्षा कानून में हमेशा के लिए उसके संपादक के साथ बंद कर देना चाहिए, लेकिन उसका हाल के बरसों में बड़ा बोलबाला है।
ऐसे खूनी माहौल में लोगों के पास बड़े आसान विकल्प भी हैं। राजनीतिक दलों के पास भी, और टीवी के दर्शकों के पास भी। लोगों को याद होगा कि एक वक्त हिन्दुस्तान में मनोहर कहानियां नाम की एक अपराध कथा पत्रिका निकलती थी। जिसे लोग आमतौर पर सफर के लिए खरीदते थे, या अकेले पढऩे के लिए। इसे कभी इज्जतदार पत्रिका नहीं माना गया, और सेलून-पानठेला छोड़ दें, तो और किसी भी जगह इस पत्रिका को खुले में नहीं रखा जाता था। एक वक्त ऐसा था जब इस पत्रिका का प्रसार इंडिया टुडे जैसी प्रतिष्ठित और अच्छी समाचार पत्रिका से भी अधिक था। लेकिन धीरे-धीरे लोगों को समझ आया कि गंदगी से अधिक यारी उन्हें, उनकी सोच को गंदा बनाकर छोड़ेगी, तो उन्होंने यह पत्रिका पढऩा बंद कर दिया, और अब तो 10-20 बरस से इसका कोई नामलेवा भी कहीं नहीं दिखा है। जो दर्शक टीवी की ऐसी हिंसा-साम्प्रदायिकता, और फूहड़-अश्लीलता से थके हुए हैं, उनके सामने ऐसे चैनल देखने की कोई मजबूरी तो है नहीं। वे अपना वक्त कुछ दूसरे बेहतर चैनलों, या टीवी से परे इंटरनेट पर बेहतर समाचार-विचार पाने में लगा सकते हैं। हिन्दुस्तान में आज भी आम अखबार आम टीवी चैनलों के मुकाबले अधिक जिम्मेदार हैं, और इंटरनेट पर बहुत सारे समाचार-माध्यम बहुत अच्छे विचार भी रखते हैं, और लोग अपनी जरूरत की जानकारी, और सोच वहां से पा सकते हैं। लोगों को यह बात अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि जिंदगी के रोज के चौबीस घंटों में से आठ घंटे तो सोते निकल जाते हैं, आठ घंटे औसतन काम रहता ही है, बचे आठ घंटों में भी रोज के कुछ जरूरी काम आधा वक्त ले ही लेते हैं। इस तरह इंसान के पास अपनी पसंद के अधिक से अधिक चार घंटे ही पढऩे, लिखने, देखने के लिए बचते हैं। इन चार घंटों में वे कैसा साहित्य पढ़ें, कौन से अखबार देखें, वॉट्सऐप पर आने वाली गंदगी के लिए कितना वक्त रखें, अपने सोशल मीडिया के लिए कितना वक्त रखें, और टीवी चैनल या इंटरनेट पर कितना वक्त लगाएं, उन पर किस पर वक्त लगाएं, यह एक बहुत बड़ा सवाल है। लोग टीवी चैनल पर औसतन अधिक से अधिक एक घंटा लगा पाते हैं, और इसी एक घंटे में अगर वे गंदगी और बहते हुए लहू को देखना चाहते हैं, एक नफरतजीवी रिटायर्ड फौजी जनरल के मुंह से अपने बच्चों सहित बैठकर मां की गालियां सुनना चाहते हैं, तो वे हमारी हमदर्दी के हकदार हैं। उन्हें दिमागी इलाज की जरूरत है, क्योंकि एक वक्त हिन्दुस्तान में अपराध की पत्रिकाओं को खरीदकर लोग हत्या और बलात्कार का ब्यौरा बड़ी दिलचस्पी से पढ़ते थे, फिर वही तबका टीवी समाचार चैनलों के आखिर में अपराध पर आने वाले बुलेटिन के लिए आंखों को धोकर तैयार बैठता था। ऐसे लोगों के लिए हमारे पास हमदर्दी है कि उनकी मानसिक स्थिति के इलाज के लिए हिन्दुस्तान में पर्याप्त मनोचिकित्सक नहीं है। यही बात हम कुछ गंदे और घटिया समाचार चैनलों की बहसों पर टकटकी लगाने वाले लोगों के बारे में कहना चाहेंगे कि अगर उनके पास फीस देने की ताकत है, तो दिमाग के किसी डॉक्टर से उनको इलाज जरूर कराना चाहिए।
दूसरी तरफ कांग्रेस या दूसरे राजनीतिक दल, जिनको भी यह लगता है कि टीवी चैनलों में से अधिकतर उनके खिलाफ एक अभियान चलाने का कारोबार कर रहे हैं, उन्हें भी अपने हिसाब से आजादी है कि वे ऐसे चैनलों पर न जाएं। गंदगी में शामिल होना किसी की मजबूरी नहीं है, और लोकतंत्र हर पार्टी को यह आजादी तो देता ही है कि वे ऐसे चैनलों का, ऐसी बहसों का बहिष्कार करें जो कि असहमति पर लोगों को आनन-फानन गद्दार, देशद्रोही करार देते हैं, और हिंसक फतवों से अपना टीआरपी बढ़ाते हैं।
बात महज कुछ, या अधिक चैनलों के खिलाफ नहीं है, अगर अखबारों और पत्रिकाओं में भी कुछ लोगों का धंधा महज ब्लैकमेल करना है, तो उनसे भी लोगों को बात क्यों करनी चाहिए? उन्हें क्यों खरीदना चाहिए? लोकतंत्र में गंदगी के ऊपर एक सीमा से अधिक रोक नहीं लग सकती। इस देश में प्रेस कौंसिल बरसों से एक मुर्दे से भी कम हलचल वाली संस्था है, अदालतें ऐसी हैं कि जहां आधी सदी पुराने केस चल रहे हैं, ऐसे में मीडिया के खिलाफ और कोई तरीका नहीं हो सकता सिवाय इसके कि लोग बुरे मीडिया का बहिष्कार करें, और सरोकार वाले, जिम्मेदार, ईमानदार मीडिया का साथ दें। अगर मुंबई में लोग दाऊद के मालिकाना हक वाले रेस्त्रां जाना बंद नहीं करेंगे, तो शरीफों के रेस्त्रां तो बंद होंगे ही होंगे। यही हाल मीडिया का भी है, मीडिया के गंदे हिस्से का सामाजिक बहिष्कार होना चाहिए, तभी बेहतर मीडिया जिंदा भी रह पाएगा। फिलहाल आज का यह लिखना जिस घटना की वजह से हो रहा है, उस बारे में भी समझ लेना चाहिए कि हम पार्टियों के पेशेवर राष्ट्रीय प्रवक्ताओं को इतने कच्चे दिल का नहीं मानते कि उन्हें कोई गद्दार कह दे, देशद्रोही कह दे, और वे इस सदमे में चल बसें। आज बहुत से हिन्दुस्तानी टीवी चैनलों का हाल यह है कि वहां जाने वाले पैनलिस्ट को मां-बहन की गालियां भी सुनने के लिए तैयार रहना चाहिए। भाजपा से असहमत, या कांग्रेस पार्टी के प्रवक्ता को गद्दार सुनने से कोई सदमा नहीं लग सकता, यह तो आज देश की तमाम असहमत आबादी के लिए एक आम विशेषण बन चुका है, हाल के कुछ बरसों से। यह मौत ऐसी बहस के तुरंत बाद जरूर हुई है, लेकिन संबित पात्रा जैसों की मौजूदगी में ऐसी गालियां उम्मीद से परे तो नहीं ही रही होंगी। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
जो लोग सुशांत राजपूत की खबरों को, अफवाहों को पढ़-पढक़र थके हुए हैं, वे न घबराएं इसलिए यह खुलासा कर देना जरूरी है कि आज यहां लिखा जा रहा कि यह सुशांत राजपूत के बारे में नहीं है, यह निजता के बारे में है, प्रायवेसी के बारे में है। मुम्बई में सुशांत राजपूत की खुदकुशी की जो जांच चल रही है, उसमें उनकी दोस्त रही रिया चक्रवर्ती के टेलीफोन की जांच तो होना ही था। आज के वक्त मामूली छेडख़ानी के किसी मामले में भी पुलिस सबसे पहले जुड़े हुए तमाम लोगों के मोबाइल फोन के कॉल डिटेल्स निकालने में जुट जाती है, और पहला मौका मिलते ही सबके फोन जब्त कर लेती है। ऐसे में जांच करने वाली किसी एजेंसी की तरफ से ही यह खबर बाहर निकली है कि रिया के कॉल रिकॉर्ड्स में एक बड़े फिल्मी सितारे का नाम आया है जिन्हें रिया ने एक बार फोन किया था, और इसके बाद उसने उन्हें तीन एसएमएस किए थे। एक और एक्टर का नाम आया है कि रिया ने उसे 30 कॉल की थी, और उसकी तरफ से 14 कॉल आई। इन दोनों के बीच दो एसएमएस भी आए-गए। ऐसे दर्जन भर लोगों के नाम टेलीफोन कॉल्स की कम्प्यूटर से निकाली गई जानकारी के साथ छपे हैं कि किससे कितने बार बात हुई, किसने कितनी कॉल लगाई, कितने मैसेज किए।
अब सवाल यह उठता है कि अगर इनमें से किसी फिल्मी सितारे या दूसरे किसी व्यक्ति के परिवार में उसकी रिया से दोस्ती को लेकर पहले से तनातनी चल रही हो, तो ऐसी ठोस खबर से उस घर में आग ही लग जाए। जो भी एजेंसी जांच कर रही हो, और जिस किसी से ऐसे कॉल रिकॉर्ड्स बाहर आए हैं, उनसे यह बुनियादी सवाल उठता है कि इन लोगों का क्या गुनाह है जो इनकी जिंदगी की प्रायवेसी इस तरह खत्म की जा रही है? और तो और जांच के घेरे में जो रिया चक्रवर्ती है, वह अगर जांच और मुकदमे के बाद कुसूरवार साबित भी होती है, तो भी यह बुनियादी सवाल तो खड़ा ही रहेगा कि उसने लोगों से फोन पर बात करके या मैसेज भेजकर कोई गुनाह तो किया नहीं है कि उसे इसे लेकर बदनाम किया जा रहा है? और यह खबर फिल्मी दुनिया की किसी पत्रिका के किसी गॉसिप कॉलम की न होकर देश की एक सबसे बड़ी, पेशेवर, और गंभीर समाचार एजेंसी की है। इस एजेंसी ने सीडीआर, कॉल डिटेल्स रिकॉर्ड, के हवाले से यह खबर बनाई है।
हमारा ख्याल है कि जो जांच एजेंसियां ऐसे कॉल डिटेल्स निकालती हैं, उनकी यह कानूनी जिम्मेदारी रहती है कि वे डिटेल उसके कब्जे से बाहर न जाएं। अदालत का कोई फैसला हो जाने तक भी, और फैसले के बाद भी किसी जांच एजेंसी का यह हक नहीं है कि वह किसी संदिग्ध व्यक्ति, आरोपी, या किसी मुजरिम के कॉल डिटेल्स भी अदालत से परे, मुकदमे की जरूरत से परे उजागर करे। आज हिन्दुस्तान में दस एजेंसियों को लोगों के फोन टैप करने, उनके कॉल डिटेल्स निकलवाने का कानूनी अधिकार मिला हुआ है। लोगों को याद होगा कि जिस वक्त हाल ही में गुजरे हुए सांसद अमर सिंह की कई कॉल रिकॉर्डिंग्स सामने आई थीं जो कि गैरकानूनी रूप से हासिल की गई थीं, तो अमर सिंह को सुप्रीम कोर्ट से स्थगन मिला था कि मीडिया उन रिकॉर्डिंग्स का कोई इस्तेमाल नहीं कर सकता। गैरकानूनी रूप से चारों तरफ फैल चुकीं इन रिकॉर्डिंग्स में कुछ फिल्म अभिनेत्रियों से अमर सिंह की कुछ विवादास्पद बातचीत थी, और कुछ इन अभिनेत्रियों के बारे में किन्हीं और से बातचीत थी। अब आज जब मुम्बई की यह अभिनेत्री सीबीआई और ईडी जैसी एजेंसियों, मुम्बई पुलिस की जांच के घेरे में है, तो आज वह अपनी निजता का दावा करते हुए इन एजेंसियों से भला क्या टक्कर ले लेगी कि उसके कॉल डिटेल्स इस तरह सार्वजनिक कैसे हो रहे हैं?
आज हिन्दुस्तान में हालत यह है कि केन्द्र सरकार की दस बड़ी एजेंसियां तो दूर की बात हैं, राज्यों की पुलिस अपने स्तर पर तरह-तरह तरकीबें निकालकर किसी के भी फोन के कॉल डिटेल्स निकाल लेती हैं, और उनमें कोई नाजुक बात होती है, तो उसे लेकर लोगों को तुरंत दबाव में ले आती हैं। अब अगर कोई दो लोग रोज देर रात घंटों बात करते हैं, तो उसके महज कॉल डिटेल्स उन्हें ब्लैकमेल करने के लिए काफी हो सकते हैं, लोग अगर अपने जीवनसाथी की जानकारी के बिना किसी और से लगातार और नियमित रूप से लंबी बात करते हैं, तो हो सकता है कि उनमें कई बातें उनकी जिंदगी तबाह करने को काफी हो।
हिन्दुस्तान में टेक्नालॉजी में पुलिस और बाकी जांच एजेंसियों की आसान दखल, और यहां के कानून में लोगों की निजता, उनकी प्रायवेसी के लिए जरा भी सम्मान न होने ने मिलकर एक ऐसी नौबत ला दी है कि लोगों को मानो चौराहे पर नंगा कर दिया गया हो। फिर जांच एजेंसियां अपने से परे मीडिया में भी ऐसी बातें आमतौर पर सोच-समझकर लीक करती हैं कि जिसकी जांच की जा रही है, वे दबाव में आ जाएं, और जल्दी टूट जाएं।
यह सिलसिला खत्म होना चाहिए। लोगों की निजी जिंदगी को बिना कानूनी अधिकार, और बिना कानूनी जरूरत, गैरकानूनी तरीके से उजागर करना छोटा जुर्म नहीं है, और इस पर जब तक जांच एजेंसियों के लोगों को सजा नहीं होगी, तब तक यह सिलसिला बढ़ते ही चलेगा।
असम में कल दो केस दर्ज हुए हैं। वहां के भाजपा विधायक शिलादित्य देव पर आरोप है कि अयोध्या में शिलान्यास के दिन उन्होंने असम में हुए साम्प्रदायिक तनाव पर बोलते हुए वहां के एक कवि और उपन्यासकार सैय्यद अब्दुल मलिक को बुद्धिजीवी जेहादी कहा था। इस टिप्पणी के खिलाफ बहुत से संगठनों ने शिकायत दर्ज कराई थी। पद्मश्री स्व. सैय्यद अब्दुल मलिक का बड़ा सम्मान है, और उनके खिलाफ ऐसी ओछी बातें कहने पर राज्य की भाजपा सरकार मेें भी यह शिकायत दर्ज कराई गई है। भाजपा के कुछ नेताओं ने भी अपने इस विधायक के ऐसे बयान के खिलाफ बयान दिए हैं, और कांग्रेस ने कहा है कि यह भाजपा विधायक पागल है जिसे पागलखाने भेजना चाहिए। यह भाजपा विधायक इस तरह के मुस्लिम-विरोधी बयान देने के लिए ही पहचाना जाता है। पार्टी में पहले भी उसे ऐसे बयानों के खिलाफ चेतावनी दी हुई है। अब दूसरा मामला असम का ही है, और वहां पर एक प्राध्यापक अनिंद्य सेन के खिलाफ अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के एक कार्यकर्ता ने शिकायत दर्ज कराई है कि अनिंद्य सेन की एक फेसबुक पोस्ट धार्मिक भावनाओं को आहत करने वाली है। इस फेसबुक पोस्ट में लिखा था कि यह सारा नाटक उस व्यक्ति के लिए हो रहा है जिसने अपनी पत्नी को निकाल फेंका था। इस डर से कि लोग क्या कहेंगे। इस पोस्ट में सवाल-जवाब की तर्ज पर आगे यह भी लिखा हुआ था कि अच्छा, यह श्रीरामचन्द्र के बारे में हैं? इस मामले में पुलिस ने कई धाराओं के तहत जुर्म दर्ज कर लिया है। शिकायतकर्ता ने यह भी लिखाया था कि अनिंद्य सेन देश के प्रधानमंत्री और गृहमंत्री जैसे संवैधानिक पदों का भी अपमान करते हैं।
हम असम में वहां के गुजर चुके विद्वान लेखक-कवि के बारे में अधिक नहीं जानते, लेकिन लगता है कि उनसे सभी पार्टियों के लोगों की भावनाएं जुड़ी हुई थीं, और इसलिए जब उन्हें बुद्धिजीवी जेहादी कहा गया, तो उसके खिलाफ भाजपा तक में प्रतिक्रिया हुई। दूसरी तरफ दूसरी फेसबुक पोस्ट राम के बारे में हिन्दू धार्मिक ग्रंथों में ही स्थापित एक सत्य या तथ्य को ही लिख रही है कि राम ने अपनी पत्नी को घर से निकाल दिया था। क्या यह तथ्य विवादास्पद है? क्या इस पर धार्मिक भावनाएं आहत होने का जुर्म थाने के स्तर पर तय होगा? अगर ऐसा है तो रामायण और रामचरित मानस की हर प्रति भावनाओं को आहत करने वाली है, और उन पर ठीक वैसी ही कार्रवाई होनी चाहिए जैसी कि किसी के घर पर नक्सल-साहित्य मिलने पर होती है। सच को इतना नकार देना भी कोई बात है कि खुद हिन्दू धार्मिक गं्रथों में, रामकथा वाले हर ग्रंथ में यह बात लिखी हुई है कि अपनी प्रजा के एक आदमी की कही हुई ओछी बात को सुनकर राम ने सीता को घर से निकाल दिया था। और यह निकालना भी उस वक्त था जब सीता गर्भवती थी, और बाद में लव-कुश का जन्म हुआ था। इस बात का जिक्र भारत में महिलाओं की स्थिति को बताने के लिए दर्जनों बार हमने इस अखबार में भी किया है। धार्मिक भावनाओं की इतनी तंग व्याख्या अगर की जाएगी, तो सबसे पहले तो सारे धार्मिक ग्रंथ ही प्रतिबंधित करने पड़ेंगे क्योंकि किसी में इस तरह की बेइंसाफी है, किसी और में किसी और देवता द्वारा किसी दूसरी महिला के साथ ज्यादती का जिक्र है, और बेइंसाफी तो कई किस्म की चारों तरफ धर्मग्रंथों में दर्ज है ही। तो क्या उसकी चर्चा ही न की जाए? यह पूरा सिलसिला इतना खतरनाक है कि लोग धीरे-धीरे धर्मग्रंथों से परहेज करने लगेंगे, उनकी चर्चा बंद करने लगेंगे।
जिस दूसरी खबर का जिक्र किया गया है उसमें बयान के जिस हिस्से को लेकर बवाल खड़ा है, वह एक गुजरे हुए लेखक को बुद्धिजीवी-जेहादी कहने पर है। इन दोनों शब्दों के अलग-अलग अर्थ देखे जाएं, तो शाब्दिक अर्थ में तो यह बात साम्प्रदायिक नहीं है, लेकिन विवादास्पद भाजपा विधायक ने अपने लंबे इतिहास के मुताबिक जिस साम्प्रदायिक तनाव के बीच ऐसा बयान दिया है, उसे उसी की पार्टी, भाजपा ने वहां पर गलत माना है, और उसका विरोध करने की खुली चेतावनी दी है। ये दो शब्द जो कि किसी दूसरे संदर्भ में लोकतांत्रिक सीमा में माने जा सकते थे, वे भी एक साम्प्रदायिक तनाव के संदर्भ में हिंसा को बढ़ाने वाले दिखते हैं, एक गुजरे हुए लेखक-कवि के अपमान के तो माने ही गए हैं।
राम हों या कृष्ण, या किसी और धर्म के दूसरे ईश्वर माने जाने वाले लोग, जिन धर्मों को लेकर खुली चर्चा की परंपरा रही है, उन धर्मों के लोगों की यह नई तंगदिली अधिक खतरनाक है। हिन्दुस्तान में जाने कितने ही विश्वविद्यालयों में रामचरित मानस के महिला चरित्रों पर पीएचडी हुई है। राम के चरित्र पर पीएचडी हुई है, जिसमें अब तक सैकड़ों, हजारों जगह यह तथ्य लिखा गया है कि राम ने अपनी पत्नी को घर से निकाल दिया था, क्योंकि प्रजा के एक व्यक्ति ने एक संदेह जाहिर किया था, और राम का मानना था कि राजा को संदेह से परे होना चाहिए। जिस बात के लिए राम को महिलाविरोधी करार दिया जाता है, उसी बात के लिए राम को मर्यादा पुरूषोत्तम भी कहा जाता है। ऐसे में रामकथा की शुरुआत से ही जो निर्विवाद तथ्य उसमें चले आ रहा है, उसे लिखने पर धार्मिक भावनाएं आहत होने की बात किसी राजनीतिक दल को तो ठीक लग सकती है, लेकिन एक प्राध्यापक के खिलाफ इस बिना पर जुर्म दर्ज कर लेना कानून का बहुत ही बेजा इस्तेमाल है, और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर परले दर्जे का हमला है।
धार्मिक भावनाओं के आहत होने का तर्क बड़ा ही अजीब है। हिन्दुस्तान में हिन्दू धर्म के भीतर नास्तिकों की एक शाखा है जिसमें ईश्वर को न मानने वाले लोग हैं। जिस हिन्दू धर्म में अपने भीतर नास्तिकों को मान्यता देने का इतिहास है, उसी हिन्दू धर्म का बेजा इस्तेमाल करके लोग आज अपनी राजनीति की गोटी बिठा रहे हैं, लोगों पर हमले कर रहे हैं। दूसरे कई धर्म हिन्दू धर्म के मुकाबले अधिक कट्टर हैं, और उनमें कट्टरता का एक इतिहास पूरी दुनिया में है। लेकिन हिन्दू धर्म में पहले जो उदारता थी, वह पिछले कुछ दशकों में धीरे-धीरे खत्म की गई है, और चुनावी राजनीति का एक हथियार उसे बना लिया गया है।
राम के चरित्र की व्याख्या अपनी पत्नी सीता को घर से निकाले बिना भला कैसे पूरी हो सकती है? (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
राजस्थान से कल ही एक दिल दहलाने वाली खबर आई थी कि पाकिस्तान से आए हुए विस्थापित परिवार के 11 लोगों की लाशें एक साथ मिली थीं। और कुछ न भी हो तो इतनी बड़ी संख्या और कहीं सुनाई पड़ी हो ऐसा याद नहीं पड़ता। हादसे के वक्त बाहर गए हुए परिवार के एक जिंदा रह गए सदस्य से आज पता लगा कि पूरा परिवार भारी तनाव से गुजर रहा था, परिवार की एक बहू के साथ पूरे घर की मुकदमेबाजी चल रही थी, और दोनों तरफ से बहुत सारी रिपोर्ट की गई थीं, बहुत से मुकदमे चल रहे थे, और यह परिवार उससे त्रस्त था। ऐसे में इस परिवार की एक लडक़ी, जो कि पाकिस्तान में प्रशिक्षित नर्स थी, उसने बारी-बारी से 10 लोगों को जहर का इंजेक्शन लगाया, और आखिर में खुद भी अपने को इंजेक्शन लगाकर मर गई। यह बयान पोस्टमार्टम रिपोर्ट से मेल खाता है जिसमें सभी 11 लोगों की मौत जहरीले इंजेक्शन से होना बताई गई है। यह परिवार खेत में एक मकान में रहता था, और शायद वहीं मजदूरी का काम करता था। ये दोनों परिवार कई तरह के जादू-टोने में भी फंसे हुए बताए गए हैं, और गरीबी के शिकार भी थे।
लोगों का अगर ध्यान न गया हो, तो यह सोचने और समझने का मौका है कि लॉकडाऊन और कोरोना के चलते आत्महत्याएं बढ़ रही हैं। सीधे-सीधे इसका कोरोना से रिश्ता चाहे न हो, लेकिन बेकारी, बेरोजगारी, और बीमारी की दहशत जैसी कई बातें लोगों के पहले से चले आ रहे किसी और किस्म के तनाव से जुडक़र इतना बड़ा असर बन रही हैं कि लोग आत्महत्या कर रहे हैं।
हिन्दुस्तान वैसे भी निजी और सामाजिक वजहों से ऐसी आत्महत्याओं का शिकार है जो कि दुनिया के बहुत से सभ्य और विकसित देशों में बिल्कुल नहीं हैं। लडक़ा-लडक़ी एक-दूसरे से प्रेम करते हैं, और समाज, परिवार उन्हें शादी की इजाजत नहीं देता, और वे जाकर खुदकुशी कर लेते हैं कि साथ जी न सके तो क्या हुआ, साथ मर तो सकते हैं। छत्तीसगढ़ में कल ही एक ऐसा दर्दनाक हादसा हुआ है जिसमें एक प्रेमीजोड़ा ट्रेन के सामने कूद गया, लडक़ी मर गई, और लडक़ा अस्पताल में है। आए दिन कहीं न कहीं प्रेमीजोड़े एक साथ किसी पेड़ से टंग जाते हैं, किसी और तरीके से एक साथ जान दे देते हैं। हिन्दुस्तान में किसानों की आत्महत्या कुछ समय पहले तक बहुत बड़ा मुद्दा थी, और फिर राजनीतिक असुविधा से बचने के लिए राज्यों की सत्तारूढ़ पार्टियों ने किसानों की आत्महत्या को किसानी से जोडक़र लिखना ही बंद कर दिया, और कई राज्यों में तो किसानों की आत्महत्या को अवैध संबंधों, या प्रेमसंबंधों की वजह से लिखा जाने लगा। तोहमत सरकार से हटकर किसान पर ही आ गई, और उसका चाल-चलन मरने के बाद भी खराब कर दिया गया।
हिन्दुस्तान की मनोचिकित्सा की, और परामर्श की क्षमता इतनी सीमित है कि शहरी और संपन्न तबके से परे आमतौर पर यह बाकी लोगों को नसीब नहीं होती। जब मानसिक परेशानियां हिंसक होने लगती हैं, तभी गांव के लोग और गरीब लोग किसी तरह किसी मनोचिकित्सक के पास पहुंचते हैं, और यह हमारा खुद का देखा हुआ है कि कामयाब और व्यस्त मनोचिकित्सक एक-एक दिन में सौ-पचास मरीजों को देखते हैं, उन्हें अंधाधुंध दवाईयों पर रखते हैं, और परामर्श से जो चिकित्सा होनी चाहिए उसे भी समय की कमी की वजह से दवाईयोंं की तरफ धकेल दिया जाता है। कुल मिलाकर हालत यह है कि आत्महत्या की कगार पर पहुंचने के पहले तक लोगों को परिवार, समाज, आसपास के बराबरी के लोग, इनसे किसी से परामर्श नहीं मिल पाते, और न ही निजी संबंधों को लेकर किसी परामर्श का कोई रिवाज है, इसलिए जब लोगों पर पारिवारिक और सामाजिक दबाव बढ़ता है, तनाव बढ़ता है तो वे बहुत रफ्तार से आत्महत्या की तरफ बढ़ जाते हैं।
भारतीय समाज के साथ एक दिक्कत यह है कि लोगों को अपनी मर्जी से शादी करने की छूट तो परिवार से मिलती नहीं है, जवान हो चले बच्चे किस रंग का फोन खरीदें, किस रंग का दुपहिया लें, इस पर भी उनकी नहीं चलती है। मां-बाप और बाकी परिवार मानो पूरी जिंदगी अपने जवान बच्चों को बच्चे ही बनाकर रखना चाहते हैं, और देश में शायद आत्महत्या की सबसे बड़ी वजहों में से एक यह भी है। नौजवान पीढ़ी को किसी तरह की आजादी न मिलना जानलेवा साबित हो रहा है।
लेकिन निजी दिक्कतों से परे यह समझने की जरूरत है कि देश में आज बहुत से ऐसे धर्म और जाति के लोग हैं जो लगातार तनाव और दहशत में जी रहे हैं। जिन पर उनके धर्म की वजह से लगातार हमले होते हैं, जिनको उनकी जाति की वजह से लगातार मारा जाता है, और इस देश का मुर्दा हो चला संविधान, और पहले से नेत्रहीन चली आ रही न्यायपालिका मिलकर भी इनके लिए कुछ नहीं कर पा रहे। ऐसे तनाव इन समाजों के लोग अगर अधिक संख्या में आत्महत्या कर रहे हैं तो हम उसे कोई निजी वजह नहीं मानते, यह साफ-साफ देश के खराब माहौल की वजह से पैदा तनाव है, और सरकार-समाज इसके लिए पूरी तरह जिम्मेदार हैं। फिर आज देश की अर्थव्यवस्था जिस तरह चौपट हुई है, करोड़ों लोग रोजगार खो रहे हैं, करोड़ों लोग पहले से रोजगार की तलाश में थे, लोगों के पास खाने-पीने की भी दिक्कत हो रही है, बाकी जरूरतें तो मानो सपने की बात हैं। ऐसे परिवारों के लोग भी आत्महत्या कर रहे हैं।
फिर हमारे सरीखे अखबारनवीस, और बाकी मीडिया के लोग हैं जो आत्महत्याओं की खबरों को इतने खुलासे से, टंगी हुई लाशों की तस्वीरों के साथ छापते हैं, कि जिन्हें पढक़र, देखकर, या सुनकर तनावग्रस्त लोगों को वह एक रास्ता दिखता है कि और लोग भी आत्महत्या कर रहे हैं। पिछले कुछ महीनों में हमने लगातार जानकार विशेषज्ञ लोगों से राय लेकर इस अखबार में ऐसी खबरों को अधिक सावधानी के साथ बनाने, और छापने, या पोस्ट करने का काम किया है, जो कि इस जागरूकता के पहले तक नहीं किया था। देश में स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करने वाले कुछ गैरसरकारी संगठन लगातार मीडिया के प्रशिक्षण का काम कर रहे हैं, ताकि उन्हें इस बारे में अधिक संवेदनशील बनाया जा सके। लेकिन इस मोर्चे पर और भी बहुत कुछ करने की जरूरत है क्योंकि मीडिया में जो लोग ऐसी खबरों को बनाते हैं, उन्हें एक सनसनीखेज सुर्खी की गुंजाइश इसमें दिखती है, और संवेदनशीलता की कोई सीख-समझ उन्हें मिली नहीं रहती।
कुल मिलाकर हिन्दुस्तान में आज आत्महत्याओं की जो हालत है उसे देखते हुए हमें अपनी एक पुरानी नसीहत दुहराना जरूरी लग रहा है कि मनोचिकित्सकों के पहले परामर्शदाताओं की बहुत बड़ी संख्या की जरूरत है जिससे कि मनोचिकित्सा की नौबत कम आए। और ऐसे परामर्शदाताओं को तैयार करने के लिए विश्वविद्यालयों में मनोविज्ञान के तहत ऐसे कोर्स शुरू करने पड़ेंगे, उसमें बड़ी संख्या में लोगों को तैयार करना पड़ेगा, और ऐसे शिक्षित-प्रशिक्षित लोगों के लिए सरकार और समाज को रोजगार या स्वरोजगार के बारे में भी सोचना पड़ेगा। ऐसा जब तक नहीं होगा, तब तक समाज के लोगों को भी खुद होकर अपनी संवेदनशून्यता नहीं दिखेगी।
छत्तीसगढ़ में आज कमरछठ का त्यौहार मनाया जा रहा है। यह पर्व संतान प्राप्ति, और अपने बच्चों की लंबी जिंदगी की कामना के लिए किया जाता है, और जाहिर है कि नियमों के पालन और उपवास वाला पर्व है, तो इसे तो महिला को ही मानना पड़ता है, आदमी तो पैदा होने से लेकर मरने तक एक भी दिन भूखा रहे बिना जिंदगी गुजार सकता है, उस पर तो कोई बंदिश होती नहीं है। अपने बच्चों की मंगलकामना के लिए मनाए जाने वाले कमरछठ या हलषष्ठी के दिन एक बात याद आ रही है कि इसी छत्तीसगढ़ में बहुत से बूढ़े मां-बाप बेसहारा छोड़ दिए जाते हैं, ठीक बाकी हिन्दुस्तान की तरह, और ठीक बाकी दुनिया की भी तरह। लेकिन वृद्धाश्रम में रहते हुए भी बूढ़ी मां को अगर कमरछठ का यह त्यौहार याद होगा तो वह बिना चूके अपने बच्चों की लंबी और अच्छी जिंदगी के लिए पूजा भी कर रही होगी, और उपवास भी कर रही होगी।
आज महिलाओं के पूजा के दिन इस मुद्दे पर लिखना थोड़ा सा अटपटा लग सकता है, लेकिन इस अटपटेपन के बीच यही सही मौका है जब लोगों को याद दिलाया जाए कि औलाद पर भरोसा, और उस पर निर्भर रहने की एक सीमा रहनी चाहिए। एक दूसरी सीमा रहनी चाहिए कि अपने बेटों और बेटियों के बीच फर्क न करने की। हिन्दुस्तान के अधिकतर हिस्से में कामना होती है तो पुत्र प्राप्ति की, कन्यारत्न की प्राप्ति के लिए कोई कामना नहीं होती, और हिन्दुस्तान के कम से कम, हिन्दुओं के बीच, कन्या को नवरात्रि के बाद के कन्यापूजन, देवी प्रतिमाओं के रूप में तो माना जाता है, लेकिन बाकी मामलों में कन्या की कोई जगह नहीं रहती। जब जमीन-जायदाद की वसीयत की बात आती है तो लोग लडक़ी को पराये घर की मानकर सब कुछ बेटों के नाम कर जाते हैं। इसलिए इस बात को कभी नहीं भूलना चाहिए कि वृद्धाश्रम में जितने मां-बाप हैं, अगर उनके पास कुछ छोडऩे लायक रहा होगा, तो यह साफ है कि वह बेटों के लिए ही छोड़ा गया होगा। और अगर वृद्धाश्रम जाने से लोग बचे हैं, तो उनमें से बहुत से ऐसे होंगे जो बेटियों की वजह से बचे हैं, और बेटियों के साथ हैं।
लोगों की अपने बेटों के लिए सब कुछ छोड़ जाने की हसरत कभी खत्म भी नहीं होती। कारोबारी हिन्दू परिवारों में आमतौर पर यह मान लिया जाता है कि लडक़ी का जो हक बनता है, वह उसकी शादी के वक्त उसे दे दिया जाता है, और बाकी तो फिर लडक़ों के ही बीच बंटना रहता है। आज कमरछठ के दिन अपनी संतानों की मंगल कामना के लिए पूजा करने वाली तमाम महिलाओं को, और इस त्यौहार को न मानने वाले मां-बाप के लिए भी यह समझना जरूरी है कि सबसे पहले अपनी दौलत को अपने जीते-जी पूरी तरह से संतानों को नहीं दे देना चाहिए। सबसे पहले उन्हें अपने पैरों पर खड़ा होने का मौका देना चाहिए, जिंदगी के संघर्ष की आंच में तपने देना चाहिए, इसके बाद ही अपनी वसीयत में ऐसा इंतजाम करना चाहिए कि अपनी पूरी जिंदगी अपने दम पर पार करने के लायक पैसे अपने पास रखें, और बाकी को सारी संतानों में बराबर बांटना चाहिए, न कि सिर्फ बेटों में।
भारत में उत्तराधिकार के कई कानून इस सोच के करीब हैं। हिन्दू उत्तराधिकार कानून शायद लड़कियों के हक को कुछ कम मान्यता देता है, लेकिन मान्यता देता तो है। और यह बात भी सच है कि हिन्दू लडक़ी को अपना हक पाने के लिए अक्सर ही अदालती लड़ाई तक जाना पड़ता है, उसे उसका हक न तो मां-बाप के रहते मिलता, और बाद में भाईयों से कुछ हासिल करना तो नामुमकिन सा रहता है।
लोगों के पास धन-दौलत कम हो, या अधिक हो, जिंदगी सबके पास बड़ी लंबी रहती है, उसकी कोई सीमा नहीं रहती। अभी-अभी छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में कोरोना से वहां की जेल की एक महिला कैदी एक बड़े निजी अस्पताल में गुजर गई। वह 90 बरस की थी। अब यह सोचें कि 90 बरस तक उसे जेल में रखकर देश और कानून को आखिर क्या हासिल हो रहा है? और मान लें कि ऐसा कोई कानून भी बने जो इस उम्र में कैदी को अनिवार्य रूप से रिहा कर दे, तो सोचें कि वह इस उम्र में बाहर निकलकर कहां जाएगी? बहुत से ऐसे परिवार हैं जिनमें इस बुढिय़ा को मंजूर नहीं किया जाएगा, और शायद वह जेल के मुकाबले भी अधिक बुरी हालत में आ जाएगी क्योंकि जेल में दो वक्त खाना तो मिल ही जाता है। अब यह बात हमारी कल्पना से परे की है कि इस उम्र की महिला ने अपने लिए कुछ बचाकर रखा होगा। यह भी मुमकिन नहीं है कि जेल के भीतर उसने रोज मजदूरी करके थोड़ी सी रकम जुटाकर रखी हो और छूटने पर वह उसके काम आती। अब तो खैर वह कोरोना की मेहरबानी से जेल, बदन, और दुनिया सबसे छूट गई है, लेकिन क्या ऐसे बुजुर्ग लोग कभी अपनी मौत तक का इंतजाम करके रखते हैं?
लोगों को एक सामाजिक परामर्श की जरूरत है क्योंकि जिन संतानों के लिए कमरछठ की जाती है, वे संतानें ही मां-बाप का भावनात्मक दोहन करके उन्हें जीते-जी इतना निचोड़ लेते हैं कि वे मरने तक महज एक गुठली की जिंदगी जीते रह जाते हैं, एक कप चाय या दो बिस्किट के लिए आल औलाद के मोहताज होने वाले मां-बाप हमने देखे हुए हैं। आज कमरछठ के मौके पर लोगों को न सिर्फ संतानों की लंबी और अच्छी जिंदगी की कामना करनी चाहिए, बल्कि यह कामना भी करनी चाहिए कि उनकी औलादें उनके प्रति भी जवाबदेह बनी रहें, जिम्मेदार बनी रहें, और समाज के प्रति भी। समाज के भीतर लोगों को एक-दूसरे को ऐसी जिम्मेदारी और सावधानी सुझानी चाहिए, जिम्मेदारी आल-औलाद को, और सावधानी बुजुर्ग मां-बाप को। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
कल का दिन केरल के लिए बहुत ही खराब दिन था। इस राज्य का पर्यटन का एक नारा है- गॉड्स ओन कंट्री, यानी ईश्वर का अपना प्रदेश। वहां जाएं तो उसकी खूबसूरती देखकर सचमुच यही लगता है। लेकिन कल के दिन को देखें तो लगता है कि अगर यह ईश्वर का अपना प्रदेश है तो ईश्वर कल कुछ खुदकुशी करने बैठा था। दिन में वहां पहाड़ी से जमीनें और चट्टानें बहकर नीचे आईं, और दर्जन भर से अधिक लोग मारे गए। रात वहां एक विमान उतरते-उतरते हवाई पट्टी पर फिसलकर खाई में जा गिरा, और उसमें भी डेढ़ दर्जन या अधिक लोग मारे गए। एक ही दिन में केरल में ये दो बड़ी विपदाएं हुईं, और एक किस्म से दोनों ही मौसम की वजह से हुईं, खूब बारिश से भूस्खलन हुआ, और खूब बारिश के बीच विमान उतारते हुए एक बहुत ही अनुभवी पायलट विमान को बचा नहीं पाया। इन दोनों को देखें तो लगता है कि कुदरत की ताकत कितनी है!
ये दोनों हादसे उत्तराखंड में कुछ बरस पहले की बाढ़ और भूस्खलन के मुकाबले बहुत छोटे से हैं, हमने उस वक्त हजारों मौतों को देखा था, और हजारों को लापता होते भी देखा था जिनकी अब कोई चर्चा भी नहीं होती कि वे मिले हैं, या नहीं मिले हैं। दूसरी तरफ हिन्दुओं के चार तीर्थों को जोड़ते हुए चारोंधाम के बीच जैसी चौड़ी सडक़ें बनाई जा रही हैं, वे इन पहाड़ी इलाकों में बहुत बड़ा जमीनी फेरबदल कर रही हैं, जिसकी वजह से पर्यावरण और भौगोलिक तकनीकी जानकारी रखने वाले लोग बहुत फिक्रमंद हैं। दुनिया में बहुत सी जगहों पर भूकंप का बड़े बांधों से रिश्ता जोड़ा जाता है, नदियों में बाढ़ का रिश्ता नदियों के किनारे शहरी विकास, पेड़ों की कटाई, और नदियों में गाद भर जाने से जोड़ा जाता है। इंसान अपनी हरकतों से या अपनी लापरवाही से कुदरत को एक ऐसी कगार पर ले जाकर खड़ा कर देते हैं कि वहां से आगे का रास्ता केवल तबाही की तरफ बढ़ता है।
एक तो धरती की अपनी बनावट कुछ ऐसी है कि उसमें कुछ किस्म की तबाही रोकी नहीं जा सकती। हर तबाही के पीछे इंसान जिम्मेदार हों ऐसा भी नहीं है, बहुत किस्म के भूकंप बिना किसी इंसानी योगदान के सिर्फ धरती के भीतर के ढांचे की वजह से होते हैं, और इंसान शायद चाहें तो भी उसे रोक नहीं सकते। सारा विज्ञान और सारी तकनीक मिलाकर भी इंसान इतना ही कर पा रहे हैं कि भूकंप के खतरे वाले इलाकों की शिनाख्त हो जाती है, और उन इलाकों में ऐसी तकनीक से मकान और इमारतों को बनाया जाता है कि भूकंप को वे कुछ हद तक झेल सकें, और इंसानों की जिंदगी पर खतरा घटे। लेकिन इंसानों ने कुदरत को कई जगह अपना गुलाम सा मानकर काम किया है। अब कल केरल में जिस पहाड़ी एयरपोर्ट पर यह प्लेन ठीक से लैंड नहीं कर पाया, उस किस्म के एयरपोर्ट टेबलटॉप कहे जाते हैं, यानी पहाड़ी के बीच बनाई गई एक हवाई पट्टी ऐसी रहती है जिसकी जगह बहुत सीमित रहती है। अब ऐसी जगह पर हवाई पट्टी बनाना और उस पर विमान उतारना हमेशा ही थोड़े से खतरे की बात रहती है, लेकिन कल तो भारी बारिश थी, दूर तक दिख नहीं रहा था, और यह काबिल, एक पुराना एयरफोर्स पायलट, दो बार कोशिश करके भी विमान वहां उतार नहीं पाया था, और तीसरी बार में यह हादसा हुआ जिसमें विमान के दो टुकड़े हो गए, और दोनों पायलटों सहित 18-20 मौतें हो गईं, दर्जनों लोग बुरी तरह जख्मी हो गए।
अब यह सोचने की जरूरत है कि इंसानों का शहरी विकास किस कीमत पर हो और उसके लिए कितने खतरे उठाए जाएं? एक तरफ समंदर के किनारे इतने करीब तक शहरी बसाहट हो रही है कि समंदर की लहरों और तूफान से बचने की जो प्राकृतिक सुरक्षा थी, वह भी खत्म हो जा रही है, और सुनामी जैसी अभूतपूर्व तबाही सामने आ रही है जिससे बचाव का कोई जरिया विज्ञान और इंसानों के पास नहीं है। आज भी दुनिया के अनगिनत शहरों के सामने यह खतरा कायम है कि अगले सौ-पचास बरस में वे समंदर के बढ़ते हुए जलस्तर के मुकाबले नीचे आ जाएंगे, और वे शहर डूब जाएंगे। अब कोई शहर अगर सौ-दो सौ बरस की जिंदगी भी नहीं रखता है, तो उस शहर का रहना ही अपने आपमें खतरनाक है क्योंकि शहर रहेगा, तो आगे और बसेगा, आगे और बढ़ेगा, जबकि उसकी जिंदगी सीमित है, और अगर वैज्ञानिकों का हिसाब-किताब थोड़ा सा गड़बड़ साबित हुआ, समंदर के पानी के ऊपर जाने की रफ्तार बढ़ी तो हो सकता है कि ये शहर कुछ और पहले डूब जाएं।
इंसान ने अपनी सोच के साथ विज्ञान से मिले औजारों को हथियारों की तरह इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है, और धरती को, कुदरत को अपना गुलाम मान लिया। अब केरल की जिस पहाड़ी पर यह एयरपोर्ट बनाया गया था, क्या सचमुच वहां ऐसे मौसम में विमान को ले भी जाना चाहिए था? क्या उत्तराखंड और अगल-बगल के प्रदेशों के पहाड़ों पर चारधाम के लिए ऐसी चौड़ी फोरलेन सडक़ों को पहाड़ काटकर बनाना चाहिए? क्या नदियों के किनारे बाढ़ की जद में आने वाले इलाकों पर बसाहट करनी चाहिए? क्या समंदर के करीब तक जाकर बसाहट जरूरी है? इंसान कुदरत की बांह मरोडक़र उससे कई किस्म की रियायतें हासिल करने के इतने आदी हो गए हैं, उन्हें इतनी लत पड़ गई है कि कुदरत की विशाल विकराल ताकत के सामने उन्हें अपनी तकनीक के ज्ञान का घमंड होने लगा है। एक वक्त था जब कहा जाता था कि दुनिया की सभ्यता नदियों के किनारे विकसित हुई है। आज कम से कम हिन्दुस्तान जैसे देश को देखें तो लगता है कि नदियों के किनारे असभ्यता विकसित हो चुकी है, कानपुर जैसे औद्योगिक शहरों का अंतहीन जहर सीधे गंगा में छोड़ा जा रहा है, गंगा या बाकी किसी भी नदी के किनारे बसे हुए शहरों की रोजाना की गंदगी सीधे नदियों में छोड़ी जा रही है, और तमाम धरती का प्लास्टिक-प्रदूषण इन नदियों के पानी के साथ होकर समंदर को प्रदूषित कर रहा है। अभी-अभी एक वैज्ञानिक हिसाब सामने आया था कि कितने बरस बाद समंदर में वहां के प्राणियों से अधिक प्लास्टिक हो जाएगा।
केरल की तो एक छोटी सी बात थी जहां से हमने लिखना शुरू किया था, लेकिन सच यह है कि कुदरत से लड़ते हुए बारिश के बीच किसी पहाड़ी एयरपोर्ट के छोटे से रनवे पर विमान उतारने का ऐसा दुस्साहस कानूनी रूप से बंद कर देना चाहिए। अधिक से अधिक क्या होता, कुछ सौ किलोमीटर के किसी सुरक्षित एयरपोर्ट पर प्लेन उतारा जाता, और वहां से लोग कुछ घंटों में अपने घर पहुंच जाते। कुदरत की ताकत, उसकी विकरालता, और उसके बेकाबू मिजाज को लेकर इंसानों को बहुत आजादी नहीं लेनी चाहिए।
हिन्दुस्तान का सारा मौसम विज्ञान, और सारी अंतरिक्ष मौसम प्रणाली, भूकंप नापने की मशीनें, और हिन्दुस्तान के विश्व विख्यात संस्थानों के जानकार लोग मिलकर भी उत्तराखंड की तबाही का अंदाज नहीं लगा पाए थे। अब धरती को छेडऩे, कोंचने का जो काम चल रहा है, वह भी आगे-पीछे किसी दिन आत्मघाती साबित होगा। हाल के बरसों में हिन्दुस्तान में पर्यावरण तो किसी भी किस्म की प्राथमिकता से हटाकर कचरे की टोकरी में फेंक दिया गया है क्योंकि कारखानेदारों को पर्यावरण नाम की सावधानी से परहेज है। अभी-अभी पिछले कुछ महीनों में पर्यावरण के मुद्दे उठाने वाले लोगों के खिलाफ कई किस्म की कार्रवाई भी की गई है। हिन्दुस्तान को इतनी समझदारी की जरूरत है कि यह मौसम की जैसी बुरी मार से हर बरस गुजर रहा है, उसे और लापरवाह होने की इजाजत नहीं लेनी चाहिए, और अधिक चौकन्ना होना चाहिए। असम से लेकर बिहार तक जिस किस्म की बाढ़ से हर बरस देश की एक बड़ी आबादी घिर जाती है, बेदखल हो जाती है, उसे देखते हुए ही पर्यावरण को तबाह करने वाले फैसले थमना चाहिए, उन्हें पलटना चाहिए। इन बातों का केरल के कल के हादसे से अधिक लेना-देना नहीं है, सिवाय इसके कि इतनी प्रतिकूल परिस्थितियों में एयरपोर्ट बनाना, इतने प्रतिकूल मौसम में उड़ानों को जारी रखना, इतनी विकराल बाढ़ के बावजूद उसके आसपास इंसानी बसाहट करना किसी भी किस्म से समझदारी नहीं है, और यह सिलसिला खत्म करना चाहिए। लोग कुदरत और धरती दोनों को अपने अंदाज जितना ही मानकर चलते हैं, और इन दोनों ने बार-बार यह साबित किया है कि इनकी नाराजगी जब होती है, तो उसकी कोई सीमा नहीं रहती है। यह वक्त आज चारों तरफ विकास के नाम पर कुदरत और धरती के विनाश के चल रहे सिलसिले को थामने का है, वरना धरती को इससे कुछ फर्क नहीं पड़ेगा कि उस पर से कुछ करोड़ लोग घट जाएं। आज कोरोना के चलते हुए ही हो सकता है कि कुछ करोड़ लोग पॉजिटिव होकर मरें, और कई करोड़ लोग इसकी वजह से आगे चलकर दूसरी बीमारियों से मरें। हिन्दुस्तान जैसे देश को पर्यावरण को अनदेखा करके अपनी आने वाली पीढिय़ों के नाम जानलेवा खतरे की एक विरासत नहीं छोडऩी चाहिए। समझदारी की बात तो यह है कि यह धरती इंसानों को बस जीने के लिए मिली है, और इसे तबाह किए बिना अपनी अगली पीढ़ी को देने के लिए मिली है, यह धरती इंसानों की किसी पीढ़ी को तबाह करने के लिए नहीं मिली है। हिन्दुस्तान में आज ठीक यही हो रहा है, और फैसले लेने वाले नेता और अफसर बेफिक्र हैं कि जिस दिन तोहमत की नौबत आएगी, वे तो धरती पर रहेंगे नहीं।
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छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले की पुलिस ने राखी के दिन लोगों को मास्क बांटने का एक रिकॉर्ड कायम किया है। और आए दिन आसानी से रिकॉर्ड का सर्टिफिकेट बांट देने वाली एक संस्था, गोल्डन बुक ऑफ वल्र्ड रिकॉर्ड्स ने सीमित 6 घंटों में सबसे अधिक 12 लाख से अधिक मास्क बांटने का रिकॉर्ड रायगढ़ पुलिस के नाम दर्ज किया है। जाहिर है कि ये मास्क ढूंढ-ढूंढकर गरीब और जरूरतमंद को तो दिए नहीं गए होंगे, 6 घंटे में 12 लाख मास्क बांटने का मकसद व्यस्त जगहों पर हर किसी को मास्क दिया गया होगा। वर्ष 2011 की जनगणना में रायगढ़ जिले की आबादी 15 लाख से कम थी। इन 10 बरसों में आबादी बढ़ी भी होगी, तो भी 12 लाख मास्क बांटने के लिए जिले के आधे से अधिक लोगों को इन्हें दिया गया होगा, और 6 घंटों में जिले की आधे से अधिक आबादी कैसे कवर हुई होगी, यह एक अलग हैरानी की बात है। लेकिन इस दावे और दर्ज रिकॉर्ड को चुनौती देना हमारा मकसद नहीं है। हम तो पुलिस के ऐसे मास्क बांटने के बारे में बात करना चाहते हैं।
राह चलते लोगों को मास्क देकर पुलिस ने उन पर एक उपकार तो किया है, यह एक अलग बात है कि पुलिस ने यह इंतजाम अपने या दूसरों के पैसों से कैसे किया होगा, और क्यों किया होगा? इन दिनों जब पुलिस की साख को चौपट करने के लिए हिंसा के एक-दो वीडियो ही देश भर में काफी होते हैं, तो छत्तीसगढ़ में पुलिस कई तरह के अच्छे काम करके अपनी छवि को बेहतर भी बनाने की कोशिश करती है, और हो सकता है कि सचमुच ही जनसेवा की उसकी नीयत हो। लोगों को याद होगा कि कई महीने पहले राजधानी रायपुर की पुलिस ने इसी तरह 15 हजार लोगों को हेलमेट बांटे थे, और उसमें खासे संपन्न लोग भी वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक के हाथों हेलमेट लेकर मुस्कुराते हुए तस्वीर खिंचवा रहे थे। वे हेलमेट भी जनता के बीच कारोबारी संगठनों से जुटाए गए थे जिन्होंने पुलिस के कहे एक समाजसेवा करने की नीयत से, या मजबूरी से वे हेलमेट दिए थे।
हमारे पाठकों को याद होगा कि उस वक्त भी हमने इस बात को लेकर लिखा था कि जो लोग लाख-पचास हजार रूपए की मोटरसाइकिल पर चलते हैं लेकिन हजार रूपए से कम में मिलने वाले हेलमेट खरीदकर अपनी जान बचाने, और जुर्माने का खर्च बचाने की जिन्हें न परवाह है, न जिम्मेदारी की नीयत है, उन पर पुलिस समाज का पैसा क्यों खर्च करे? अगर पुलिस के पास इतनी ही अतिरिक्त क्षमता है, तो सोच-समझकर गैरजिम्मेदारी दिखाने वाले, और नियम तोडऩे वाले लोगों का चालान करना चाहिए, और सरकारी खजाने में जमा होने वाले उस पैसे का ट्रैफिक सुधार में या दूसरे नियमों के पालन में कोई इस्तेमाल करना चाहिए। जब सक्षम और संपन्न लोग अपनी गैरजिम्मेदारी और लापरवाही के एवज में पुलिस से तोहफा पाने लगें, तो यह तारीफ की नहीं फिक्र की बात है, कि सरकार की कोई एजेंसी ऐसा क्यों कर रही है? रायगढ़ की पुलिस ने हर आते-जाते को मास्क बांटे होंगे तभी 12 लाख से अधिक मास्क 6 घंटों में बांटे जा सके। क्या सचमुच ही इन तमाम लोगों को मास्क खरीदने की ताकत नहीं थी? और मास्क तो कोई खरीदकर भी बांधना जरूरी नहीं रहता, कोई गमछा भी बांधा जा सकता है, या गरीब लोग घर के किसी पुराने कपड़े के टुकड़े को भी बांधकर काम चला रहे हैं।
पुलिस में ऐसे कामों के लिए, लौटते हुए मजदूरों में खाना बांटने के लिए उत्साह बहुत अधिक रहता है। पुलिस के अफसरों के कहे हुए लोग ऐसी मदद देने के लिए तैयार हो जाते हैं, और पुलिस के इलाके में लोगों को धंधा करना है, तो वे उसकी किसी बात पर आमतौर पर मना भी नहीं करते। लेकिन अपने इस दबदबे का ऐसा अंधाधुंध बेजा इस्तेमाल ठीक नहीं है। समाज में मुफ्तखोरी की आदत इतनी नहीं बढ़ जानी चाहिए कि कार-स्कूटर वाले लोग भी, काफी कमाने वाले लोग भी मुफ्त बंटते हुए सामान को लेने के लिए खड़े हो जाएं।
हिन्दुस्तान के बहुत से शहरों में मंदिरों और दूसरे धर्मस्थलों के आसपास कई दानदाता रोज मुफ्त में खाना बांटने के लिए खड़े हो जाते हैं, और राह चलते गैरगरीब भी कतार में लग जाते हैं कि मुफ्त में मिल रहा है। इस सिलसिले के खिलाफ भी हम कई बार लिख चुके हैं कि दान के नाम पर, ईश्वर के नाम पर, प्रसाद या मदद के नाम पर हर किसी को मुफ्त खिलाना गलत सिलसिला है। यह इसलिए भी है कि दानदाताओं के पास असली जरूरतमंदों की शिनाख्त करने, वहां तक पहुंचने का कोई आसान जरिया नहीं है। इसलिए कई बार सचमुच ही लोगों की सेवा करने की हसरत वाले, और कई बार अपने किसी अपराध या पाप के बोझ से मुक्ति पाने के लिए लोग ऐसे भंडारे खोल लेते हैं, खाना बांटने लगते हैं। गैरजरूरतमंदों की ऐसी मदद उन्हें और नालायक, और निकम्मा बनाने के अलावा कुछ नहीं करती, और ऐसा खर्च करने वाले लोगों को मन में यह झूठी राहत मिलती है कि उन्होंने पुण्य का कोई काम किया है। ऐसे दानदाताओं की नजरों से दूर सचमुच के भूखे लोग भूखे रह जाते हैं, और शहर के आते-जाते लोग मोटरसाइकिलें रोक-रोककर खाने की कतार में लग जाते हैं।
लॉकडाऊन और कोरोना जैसे खतरों के चलते हुए समाज में कई किस्म की मदद की जरूरत भी है। लेकिन यह मदद मुफ्तखोरी को बढ़ाने वाली नहीं होनी चाहिए। आधी आबादी को मास्क बांटने का मतलब यही है कि बहुत से लोग खरीदने की ताकत रखने के बावजूद या तो मास्क लगा नहीं रहे थे, या मुफ्त में मिल रहा है तो लेकर चले गए थे। न पुलिस न किसी दूसरे विभाग को ऐसे काम में पडऩा चाहिए। जो सबसे ही गरीब लोग हैं उन्होंने भी अब तक मास्क या चेहरा बांधने का कपड़़ा न होने की कोई शिकायत नहीं की है। पुलिस अगर दानदाता जुटाकर उनसे कोई काम करवा सकती है, तो वह सार्वजनिक हित के होने चाहिए, निजी गैरजरूरी मदद वाले नहीं।
सुप्रीम कोर्ट के एक चर्चित वकील और सामाजिक मुद्दों को लेकर अदालत के बाहर भी खड़े दिखने वाले प्रशांत भूषण को अदालत की अवमानना में सुप्रीम कोर्ट ने कटघरे में खड़ा किया है। इसकी एक वजह तो न्यायपालिका के बारे में ट्विटर पर उनकी की गई आलोचनात्मक टिप्पणियां हैं, और दूसरी वजह मुख्य न्यायाधीश के एक महंगी विदेशी मोटरसाइकिल पर बैठी तस्वीर को न्यायपालिका का अपमान बताने वाला ट्वीट है। उनके खिलाफ 10 बरस से अधिक पुराना एक अवमानना केस और खोल लिया गया है जिसमें उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के कई जजों को भ्रष्ट बताया था, और माफी मांगने से इंकार कर दिया था।
मौजूदा मुख्य न्यायाधीश लॉकडाऊन के वक्त नागपुर में अपने घर पर रहते हुए ऑनलाईन अदालती काम कर रहे हैं, और इसी दौरान सुबह घूमते हुए उन्हें एक महंगी विदेशी मोटरसाइकिल दिखी, तो वे उस पर सवार होकर बैठने का लालच छोड़ नहीं पाए। बाद में पता लगा कि वे अपनी वकालत के दिनों में भी एक भारी-भरकम मोटरसाइकिल चलाने के शौकीन रहे हुए हैं, और अभी जिस विदेशी मोटरसाइकिल पर वे बैठे थे, वह भाजपा के एक बड़े नेता की थी। वैसे तो सार्वजनिक जगह पर किसी मोटरसाइकिल पर बैठकर उसे देखना इतना बड़ा मुद्दा नहीं बनना चाहिए था, लेकिन उसकी तस्वीरें आकर्षक थीं, और मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक लोगों को उस पर कहने के लिए कुछ न कुछ था। कुछ को अदालतों से कोई शिकवा-शिकायत चले आ रही थी, तो कुछ को जज का ऐसी महंगी, और भाजपा नेता के बेटे की विदेशी फटफटी पर बैठना अटपटा लगा।
अब प्रशांत भूषण की ओर से सुप्रीम कोर्ट को कहा गया है कि जो अवमानना का कानून हिन्दुस्तान में चले आ रहा है वह एक लोकतांत्रिक-संविधान के अनुकूल नहीं है। इसे लेकर अदालत में संविधान पर एक बुनियादी बहस चलनी है, और उसके तकनीकी पहलुओं पर हम यहां जाना नहीं चाहते, लेकिन इतना जरूर कहना चाहते हैं कि अदालतों के जजों को बात-बात पर अपनी अवमानना देखना बंद करना चाहिए। अपने आपको किसी टूथपेस्ट के इश्तहार के सुरक्षाचक्र के भीतर हिफाजत से रखने की सोच लोकतांत्रिक नहीं है। प्रशांत भूषण के लगाए हुए आरोपों पर अदालत ने पिछले 10 बरस से कार्रवाई रोक रखी थी, और अब उसे फिर से खोलना भी इसलिए अटपटा है कि उनकी ताजा आलोचना सुप्रीम कोर्ट के मौजूदा मुख्य न्यायाधीश की है।
लेकिन इस मुद्दे पर लिखने आज हम नहीं बैठे होते अगर कल राम मंदिर का भूमिपूजन नहीं हुआ रहता, और वह भूमिपूजन नहीं हुआ रहता अगर पिछले मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने कमर कसकर रात-दिन सुनवाई चलाकर इस मामले में फैसला न दिया होता। हम जजों के ओवरटाईम के खिलाफ भी नहीं हैं, क्योंकि अदालतों में 50-50 साल से मुकदमे खड़े और पड़े हुए हैं। लेकिन कल दिन भर राम का नाम सुनते हुए और देखते हुए यह लगा कि जिस रंजन गोगोई की बेंच के सुनाए फैसले की वजह से राम को यह मंदिर नसीब हो रहा है, वह राम सुप्रीम कोर्ट के फैसलों, और उसके अपने चाल-चलन में कहां हैं?
राम का नाम हिन्दुस्तान में बहुत सम्मान के साथ मर्यादा पुरूषोत्तम कहकर लिया जाता है। उन्होंने सार्वजनिक जीवन की मर्यादाओं को, प्रजा की अपेक्षाओं को, इतनी बारीकी से और इतनी बेरहम हद तक जाकर निभाया था कि किसी एक गैरजिम्मेदार नागरिक के उछाले हुए सवाल पर उन्होंने अपनी गर्भवती पत्नी तक को घर और राज से बाहर निकाल दिया था। रंजन गोगोई रामजन्म भूमि मामले की सुनवाई करते हुए कई हजार बार राम के बारे में सुन चुके रहे होंगे। दूसरी तरफ जब रंजन गोगोई के निजी स्टाफ की एक महिला कर्मचारी ने उन पर सेक्स-शोषण का आरोप लगाया था, तो रंजन गोगोई ने सार्वजनिक जीवन की आम मर्यादा, और देश के कानून के तहत आम जांच-नियमों को कुचलते हुए उस महिला की सुनवाई करने के लिए खुद ही जजों की बेंच में बैठना तय किया था। हमारी कानून की बहुत ही साधारण समझ यह कहती है कि उनका यह काम पूरी तरह से नाजायज था, और कानून के खिलाफ था। उनकी उस हरकत से पूरे सुप्रीम कोर्ट की इज्जत मिट्टी में मिली थी, और हिन्दुस्तान की आम महिला के मन में अपने खुद के अधिकारों के प्रति भरोसा चकनाचूर हो गया था। उस वक्त कुछ और जज रंजन गोगोई के साथ बेंच पर बैठने के लिए तैयार भी थे, बैठे भी, उन्होंने रंजन गोगोई को उम्मीदों के मुताबिक बेकसूरी का सर्टिफिकेट भी दे दिया, और दूसरी तरफ उस शिकायतकर्ता महिला की नौकरी भी बहाल कर दी। यह पूरा सिलसिला कीचड़ में मिला दिए गए पानी की तरह इतना गंदला था कि लोगों को इसके मुकाबले डबरे का कीचड़ अधिक पारदर्शी दिख रहा था। रामजन्म भूमि मामले की सुनवाई करने वाले, और अपने कार्यकाल में उस फैसले को सुना देने के लिए कसम खाकर बैठे चीफ जस्टिस रंजन गोगोई ने राम के चाल-चलन से पूरी तरह अछूते रहते हुए अपने खुद पर लगी सबसे बुरी तोहमत के केस में कटघरे में खड़े रहते हुए भी जज की कुर्सी पर बैठना तय किया था जो कि न्याय के सामान्य और प्राकृतिक सिद्धांतों के भी खिलाफ बात थी।
अब ऐसी न्यायपालिका अगर अपने आपको अवमानना की फौलादी ढाल के पीछे छुपाकर, बचाकर रखना चाहती है, तो क्या यही लोकतांत्रिक न्याय व्यवस्था है? प्रशांत भूषण के मामलों की तकनीकी बहस आगे चलेगी, और उस पर हम कानूनी बारीकियों के जानकार नहीं हैं। लेकिन बहुत से ऐसे मौके रहते हैं जब कानून का कम जानकार होना कानून के प्रति एक बुनियादी और स्वाभाविक समझ में मदद करता है। हमारा मानना है कि सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश या किसी दूसरे जज की आलोचना, उनके व्यक्तिगत चाल-चलन, उनकी संदिग्ध ईमानदारी की आलोचना किसी कोने से भी अदालत की आलोचना नहीं कही जा सकती। जज कभी न्यायपालिका नहीं हो सकते। अगर ऐसा है तो फिर मोदी देश हैं, एक समय इंदिरा देश थीं, कभी सरकार को राष्ट्र मान लेने की चूक होगी, और कभी सरकार की आलोचना को राष्ट्रविरोध करार दे दिया जाएगा। यह सिलसिला निहायत अलोकतांत्रिक है कि किसी ओहदे पर बैठे हुए व्यक्ति को ही वह ओहदा मान लिया जाए, वह संस्था मान लिया जाए।
आज जब चारों तरफ मर्यादा पुरूषोत्तम राम की धुन बज रही है, लोग दो-तीन दिन कोरोना को भी भूलकर महज शिलान्यास और भूमिपूजन की चर्चा में डूब गए, जब पूरा देश टीवी पर मंदिर ही देखता रह गया, तो सुप्रीम कोर्ट के जजों को भी यह समझना चाहिए कि जिनके हाथों में राम राज चलाने जैसे अधिकार होते हैं, उन्हें अपना निजी जीवन किस तरह पारदर्शी रखना पड़ता है। अवमानना का पहला शिकार पारदर्शिता होती है। यह कानून लोकतंत्र के साथ कदम मिलाकर नहीं चल सकता। इसे खत्म किया जाना चाहिए, और हो सकता है कि प्रशांत भूषण के मामले की सुनवाई चलते-चलते सुप्रीम कोर्ट के जजों को किसी बोधिवृक्ष के तले बैठने जैसा कोई असर हो, और देश की न्यायपालिका पारदर्शी और लोकतांत्रिक हो सके। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
अयोध्या में आज प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने रामजन्म भूमि पर मंदिर बनाने की औपचारिक शुरुआत की है, और देश के उन तमाम हिन्दुओं के लिए यह पिछले दशकों का सबसे बड़ा मौका है जो इस जगह को रामजन्म भूमि मानते थे, और वहां मौजूद बाबरी मस्जिद, या उसका ढांचा, जो भी कहें, गिराकर भी मंदिर बनाने के हिमायती थे। अदालतों में लंबे वक्त तक मुकदमेबाजी के बाद जब सुप्रीम कोर्ट ने कमर कसी, और अब भाजपा के सांसद बने हुए जस्टिस रंजन गोगोई ने अपना कार्यकाल खत्म होने के पहले इस मामले को निपटाने का बीड़ा उठाया, तो फिर सब कुछ तेजी से चला। अदालत ने माना कि बाबरी मस्जिद को गिराना गलत था, लेकिन उसका फैसला यह रहा कि यह जमीन मंदिर ट्रस्ट को दी जाए, और मुस्लिमों को अयोध्या में कहीं मस्जिद बनाने जमीन दी जाए। इस फैसले को लेकर बहुत तरह की असहमति भी लिखी गई, इसकी कड़ी आलोचना भी की गई, और रंजन गोगोई के भाजपा की तरफ से राज्यसभा पहुंचने को भी उससे जोडक़र देखा गया, लेकिन सुप्रीम कोर्ट अड़े रहा, उसने किसी पुनर्विचार याचिका की कोई गुंजाइश नहीं मानी, और मंदिर अब हकीकत है। आज से मंदिर बनना शुरू भी हो गया है, और अगले आम चुनाव के पहले शायद वहां से प्रसाद मिलना शुरू हो जाएगा, और जाहिर है कि पहला लड्डू प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को हासिल होगा।
आज जब नरेन्द्र मोदी ने यहां भूमिपूजन किया, तो यह साफ नहीं है कि मंदिर के लिए देश में रथयात्रा निकालने वाले लालकृष्ण अडवानी टीवी पर भूमिपूजन देख रहे होंगे, या वकीलों के साथ बैठे बाबरी मस्जिद गिराने के केस में अदालत में पूछे गए सवालों के जवाब तैयार कर रहे होंगे। अडवानी के साथ-साथ मुरली मनोहर जोशी, और कई दूसरे भाजपा के, हिन्दू नेताओं पर बाबरी मस्जिद गिराने का मुकदमा अभी चल ही रहा है। यह अपने आपमें भारतीय न्यायपालिका के भीतर का एक दिलचस्प पहलू है कि बाबरी मस्जिद गिराने का मुकदमा तो अभी निचली अदालत में ही चल रहा है, और उस मस्जिद के गिराने के बाद जो रास्ता खुला था, उस पर चलकर सुप्रीम कोर्ट ने भव्य मंदिर बनाने का हुक्म दिया, जिस पर अमल भी शुरू हो गया। अडवानी, जोशी, उमा भारती, कल्याण सिंह जैसे कई नेता अभी कटघरे में हैं, और जिस मंदिर के लिए अडवानी ने यात्रा निकाली, जिस यात्रा की वजह से देश में दंगे भडक़े, जिसकी वजह से बड़ी संख्या में मौतें हुईं, वह मामला अभी किसी किनारे नहीं है, उसमें कोई गुनहगार साबित भी हों, तो उनके सामने हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक का इतना लंबा सफर बाकी रहेगा, कि उनकी बाकी की उम्र उसके लिए छोटी पड़ेगी।
यह सिलसिला भारतीय लोकतंत्र और न्यायपालिका में कई किस्म के विरोधाभास उजागर करता है। मस्जिद गिराने के 25-30 बरस बाद भी ट्रायल कोर्ट का काम जारी है, और जुर्म का फैसला होने के पहले मंदिर बनना शुरू हो गया। लोकतंत्र में अदालत में एक सीमा तक ही लड़ा जा सकता है, उसके बाद अदालत के फैसले को मान लेना सबके लिए जरूरी हो जाता है, चाहे वह इंसाफ हो, या महज फैसला। देश में आबादी का अधिकतर हिस्सा ऐसा है जो जटिल मुद्दों के महज अतिसरलीकरण को ही समझ पाता है, फिर चाहे ऐसी अतिसरल व्याख्या सही हो, या न हो। फिर जब किसी जटिल मुद्दे से बहुसंख्यक आबादी का धर्म जुड़ा रहता है, जब देश में आपातकाल के दौरान भी न्यायपालिका के सरकार से प्रतिबद्ध होने की उम्मीद की जा रही थी, तो आज अगर ऐसे जटिल मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला बहुसंख्यक आबादी के साथ दिखता है, तो भी क्या किया जा सकता है। बहुसंख्यक तबके की आस्था के मुताबिक, सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद अब केन्द्र सरकार पर सत्तारूढ़ गठबंधन की मुखिया पार्टी के लिए भारी सहूलियत के वक्त पर मंदिर निर्माण शुरू हुआ है, और देश की प्रमुख विपक्षी पार्टियों के पास भी इस मौके पर सिवाय राम-नाम जपने के और कुछ रह नहीं गया है।
लोकतंत्र के हित में अब बस यही उम्मीद की जा सकती है कि धार्मिक उग्रवाद का नारा लगाने वाले लोगों के कहे हुए अब देश के दूसरे धर्मस्थलों के विवाद पर कोई समुदाय आक्रामक तरीके से काम न करे। यह बात हम भी जानते और समझते हैं कि धार्मिक उन्माद से ऐसी उम्मीद करना फिजूल की बात होती है, लेकिन फिर भी लोकतंत्र में कुछ अच्छा होने की उम्मीद पूरी तरह छोड़ देना ठीक नहीं होता, इसलिए हम उम्मीदें जारी रखते हैं। हिन्दू समाज के लिए आज का दिन बड़ा ही ऐतिहासिक दिन है, और ऐसे दिन इसके धर्मालु लोगों को मंदिर भूमिपूजन और शिलान्यास की खुशी मनाते हुए मर्यादा पुरूषोत्तम कहे जाने वाले भगवान राम के व्यक्तित्व की उन बातों पर जरूर विचार करना चाहिए जिनकी वजह से उन्हें मर्यादा-पुरूषोत्तम कहा गया है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिन्दुस्तान में अभी लोग यह भी समझने को तैयार नहीं हैं कि कोरोना का कोई दूसरा दौर भी आ सकता है। बल्कि लोग तो अभी पहले दौर से भी अपने आपको अछूता मानकर चलते हैं कि यह तो दूसरों को ही हो सकती है, वे तो बहुत सावधान हैं। दुनिया के कुछ देशों ने कोरोना के दूसरे दौर को भी भुगता है, वहां इसके पांव पहले पड़े थे, और इसलिए एक बार फारिग होकर वे दुबारा इसके जाल में फंसे। जापान जैसे देश के बारे में कहा गया कि वहां के लोगों ने लंबे समय तक साफ-सफाई की सावधानी बरती, संक्रमण से बचने की कोशिश की, लेकिन आखिर में जाकर लोग सफाई की सावधानी से थक गए, और लापरवाह हो गए। अब कुछ वैसी ही खबर हांगकांग से आ रही है, जो कि उससे बढक़र है, और जिससे हिन्दुस्तान के लोगों को बहुत कुछ सीखने की जरूरत है।
हांगकांग में अभी ऐसी आशंका है कि वहां कोरोना का तीसरा दौर आ सकता है, और उस दौर में अस्पतालों की क्षमता चुक जाएगी। हांगकांग में जनवरी से ही कोरोना पहुंच गया था, लेकिन यहां मामले तेजी से नहीं बढ़े। हम यहां हांगकांग की मिसाल को लेकर बातें अधिक बारीकी से इसलिए लिख रहे हैं कि इनमें से बहुत सी बातें हिन्दुस्तान पर भी लागू हो रही है, और लोगों को, सरकारों को, समाज को यहां के बारे में भी सोच लेना चाहिए। वहां पर मार्च में संक्रमण का दूसरा दौर आया जब विदेश से छात्र और नागरिक लौटने लगे। हांगकांग एक विकसित जगह है, इसलिए वहां बाहर से आए लोगों की कलाई पर ऐसे पट्टे पहनाए गए जिससे उन पर नजर रखी जा सके, और उन्हें घर पर ही रखा गया। लेकिन अभी पिछले 9 दिनों से लगातार वहां कोरोना के सौ से अधिक मामले रोजाना दर्ज हो रहे हैं, और इसे लेकर वहां तीसरी लहर की आशंका खड़ी हो रही है।
वहां के विशेषज्ञों का यह मानना है कि कोरोना पॉजिटिव लोगों को जब घरों में क्वारंटीन किया गया, तो उन पर तो बाहर निकलने पर रोक थी, लेकिन परिवार के दूसरे लोग बाहर आ-जा रहे थे। उनकी वजह से भी खतरा बढ़ा। फिर वहां के कुछ किस्म के कारोबार में काम करने वाले लाखों लोगों को हांगकांग आने पर टेस्टिंग और क्वारंटीन में राहत दी गई थी ताकि कारोबार चलता रह सके। इससे भी खतरा बढ़ा। एक बार नौबत खतरनाक होने के बाद अब फिर ऐसे कारोबार पर रोक लगा दी गई है। महीनों से चले आ रहे प्रतिबंधों के बाद जून में हांगकांग में सामूहिक समारोहों में 50 लोगों तक की छूट दी, और नतीजा यह हुआ कि प्रतिबंधों से थके हुए लोग दोस्तों और रिश्तेदारों से मिलने लगे।
हांगकांग और हिन्दुस्तान की स्थितियां एक जैसी नहीं है, लेकिन अलग-अलग स्थितियों के बावजूद एक-दूसरे से सीखने का तो सबके पास कुछ न कुछ रहता है। हिन्दुस्तान में प्रतिबंधों को लागू करने या छूट देने पर अमल का जिम्मा और अधिकार राज्यों का है। इसलिए यहां के राज्यों को यह समझना चाहिए कि कैसे खतरों को घटाया जा सकता है। अभी-अभी ब्रिटेन की यह खबर सामने आई है कि वहां कोरोना के दूसरे दौर की आशंका को देखते हुए पूरे देश में एक नए लॉकडाऊन की तैयारी चल रही है जिसमें 50 बरस से अधिक उम्र के दसियों लाख लोगों को घरों में ही रहने के लिए कहा जा सकता है। 50 बरस से अधिक उम्र के लोगों पर खतरा अधिक रहता है, और देश के अस्पतालों के ढांचे पर से बोझ कम करने के लिए उन्हें घरों में रखना जरूरी समझा जा सकता है।
कुछ मामलों को लेकर हम पहले भी लिखते आए हैं, और एक बार और लिखने में कोई हर्ज नहीं है कि देश भर में जहां-जहां शराबबंदी नहीं है, वहां पर शराब की बिक्री शुरू करने से खतरा बढ़ा है। शराबियों में बड़ा अनुपात गरीबों का है जिनके झोपड़े भी छोटे हैं, वहां पर कोई शारीरिक दूरी हो नहीं सकतीं, और नशे में लौटे हुए लोग किसी नियम का क्या ख्याल रख सकते हैं? इसलिए शराब दुकानों पर अंधाधुंध धक्का-मुक्की से लेकर शराबियों के जाहिर तौर पर गैरजिम्मेदार बर्ताव को देखते हुए शराब की छूट देना केन्द्र सरकार का एक बहुत खराब फैसला रहा, और कमाई न कर पा रहे राज्यों ने इस फैसले को लपककर हाथोंहाथ लिया, और दारू की बिक्री शुरू कर दी। यह सिलसिला जानलेवा साबित हो रहा है। सरकारें अंधाधुंध खर्च को बेबस हैं, कमाई बंद है, केन्द्र सरकार जीएसटी का बकाया देने से बताया जा रहा है कि हाथ उठा चुकी है, और ऐसे में दारू ही सरकारों का एक सहारा है। लेकिन अब यह बोलने वाले लोग लगातार बढ़ते जा रहे हैं कि सरकारों की तमाम कोशिशें दारू में बह जाएंगी, और कोरोना खुशी में बोतल खोल लेगा। दूसरी चूक लॉकडाऊन के दूसरे, तीसरे, या चौथे दौर में यह हो रही है कि बाजारों में जरूरी सामानों की दुकानों को भी सीमित घंटों के लिए खोला जा रहा है जिससे उन पर भीड़ टूट पड़ रही है। कारोबार के दीवाला होने की नौबत अलग रही, हम जनता की सेहत की बात करें, तो वह भी ऐसी भीड़ की वजह से खतरे में पड़ रही है। सीमित घंटों से असीमित खतरा बढ़ रहा है। जरूरी सामानों की दुकानें, सब्जी बाजार तो काफी अधिक समय तक खोलने की जरूरत है ताकि वहां भीड़ न लगे। इन बातों को हम पहले भी लिख चुके हैं, लेकिन आज जब दूसरे देशों से कोरोना के दूसरे और तीसरे दौर की खबरें आ रही हैं, तो हिन्दुस्तान के इलाज-इंतजाम को देखते हुए यह आशंका लगती है कि प्रशासनिक चूक से, सरकार की नीतियों की चूक से कोरोना का खतरा न बढ़े। आज तो कोरोना का हमला, और स्वास्थ्य सेवा का इंतजाम एक-दूसरे से भिड़े हुए हैं। ऐसे में अगर शासन-प्रशासन के फैसलों की गलती से कोरोना को मौका मिलता है, तो महीनों से थके हुए अस्पतालों पर उसका बोझ कितना बढ़ेगा, इसका अंदाज लगाना आसान नहीं है। सरकार की कमाई जरूर मारी जाएगी, लेकिन दारू को बंद इसलिए भी करना चाहिए कि बिना मजदूरी, बिना कारोबार गरीब लोग आखिर परिवार का पेट काटकर ही दारू खरीद रहे हैं। यह सिलसिला चला, और बेरोजगारी जारी रही, तो जितने लोग कोरोना से मरेंगे, उतने ही लोग कुपोषण से भी मारे जाएंगे। भारत का इंतजाम, उसकी क्षमता कहीं से भी दूसरे और तीसरे दौर के लायक नहीं है, और ऐसे में भारत सरकार को ही देश में शराबबंदी लागू करनी चाहिए। छत्तीसगढ़ का तजुर्बा सामने है कि यहां महीने-दो महीने की दारूबंदी से भी कोई मौतें नहीं हुईं। केन्द्र सरकार ने शराब की बिक्री करने को नहीं कहा था, उसने बिक्री की छूट दी थी। यह राज्यों के अपने फैसले पर था कि वे बिक्री शुरू करते हैं या नहीं। लेकिन कोई भी राज्य ऐसा नहीं था जिसने शराब बिक्री पर रोक जारी रखी। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिन्दुस्तान में आज राखी का त्यौहार मनाया जा रहा है जो कि एक ऐसा अनोखा त्यौहार है जिसकी जड़ें किसी धर्म में नहीं है, महज सामाजिक रिवाजों में है। दुनिया में शायद ही दूसरे देशों में ऐसा त्यौहार हो जिसमें बहन भाई की कलाई पर राखी या रेशमी डोरी बांधकर उससे अपनी सुरक्षा का वादा ले। रक्षाबंधन अपने शब्दों के मायने, और परंपरा दोनों हिसाब से यही कहता है कि बहन अपनी हिफाजत के लिए भाई को राखी बांधती है।
अब सवाल यह है कि यह रिवाज जब बना होगा तब बना होगा, और शायद कुछ सौ साल पहले से तो इसका इतिहास भी है। लेकिन यह समाज की उस वक्त की सोच को बताने वाला रिवाज भी है कि एक लडक़ी या महिला को हिफाजत के लिए भाई की जरूरत पड़ती है। फिर चाहे आज के माहौल में भाई बहन की मदद को जाते हों या न जाते हों, मां-बाप की जायदाद में बंटवारे के लिए बहन पर हमला करते हों, जो भी हो राखी की यह सामाजिक परंपरा चली आ रही है। आज के मुद्दे से हटकर एक दूसरी बात का जिक्र यहां करना जरूरी लग रहा है कि हाल के 20-25 बरसों में जब से हिन्दूवादी आक्रामक संगठनों को पश्चिमी प्रेम की संस्कृति से अपने देश को बचाना जरूरी लगा है, तब से फ्रेंडशिप डे पर, और वेलेंटाइन डे पर बाग-बगीचों में और सार्वजनिक जगहों पर बैठे हुए लडक़े-लड़कियों को ट्वीट कर उनमें राखी बंधवाई जाती है। यानी जो लडक़ा लडक़ी के साथ रहता है, और जो उसे हिफाजत से लेकर बैठा है, उसको राखी बंधवाई जा रही है कि वह उस लडक़ी की हिफाजत करेगा। तो उसका सीधा मतलब तो यही निकलता है कि अगर उस लडक़े में ताकत हो तो ऐसे धर्मान्ध और हिंसक राष्ट्रवादी गिरोह के लोगों को वह अकेले पीट-पीटकर भगाए, क्योंकि जिसे उसकी बहन बनाया गया है, उसे वह गिरोह ही तो परेशान कर रहा है, वही उसकी बेइज्जती कर रहा है।
लेकिन आज राखी के दिन यह सोचने की जरूरत है कि रक्षाबंधन नाम का यह शब्द तो ऐसे लोगों के लिए है जो रक्षा करते हैं, शब्द के मायने तो कहीं नहीं बताते कि भाई ही बहन की रक्षा करे, बहुत से मामलों में तो बहन भाई की मदद करती है, उसकी रक्षा करती है। दूसरी बात यह भी है कि सैकड़ों बरस पुराने इस रिवाज के पीछे जो मर्दाना सोच रही होगी, क्या आज 21वीं सदी में भी उसका सम्मान करना जरूरी है? यह शब्द समाज की सोच में इतने गहरे पैठा हुआ है कि इसमें लोगों को कोई खामी भी नहीं दिख पाती। लोगों को यह एक सामाजिक रिवाज लगता है, और इसकी किसी भी किस्म की आलोचना लोगों को हिन्दुस्तानी संस्कृति या हिन्दू धर्म का विरोध लगने लगेगी, इस रिवाज का हिन्दू धर्म से कोई लेना-देना नहीं है।
भारतीय समाज में ऐसे बहुत सारे भेदभाव से भरे हुए रिवाज चले आ रहे हैं। हिन्दुओं के बीच कुंवारी लडक़ी से 16 सोमवार के उपवास करवाए जाते हैं, ताकि उसे अच्छा पति मिले। हिन्दू धर्म में सैकड़ों बरस से चले आ रहे इस रिवाज को किसी ने बदलकर ऐसा बनाने की नहीं सोची कि लडक़े 16 सोमवार का उपवास करें ताकि वे बेहतर पति बन सकें। सुहागिन महिलाओं से करवाचौथ का व्रत करवाया जाता है, और पति की मंगलकामना करते हुए वे उपवास करती हैं, और रात में पति के चेहरे को देखकर चांद देखा मानकर फिर वे कुछ खाती हैं। आमतौर पर निर्जला व्रत का चलन है। पति चाहे साल में दो बार थाईलैंड जाकर आने वाला क्यों न हो, अपने ही देश और शहर में मौका मिलते ही इधर-उधर मुंह मारने वाला क्यों न हो, उसकी मंगलकामना के लिए, उसके लंबे जीवन के लिए, और खुद सुहागन मरने के लिए महिलाओं से करवाचौथ का व्रत करवाया जाता है।
महिलाओं को इस किस्म की सोच का कैदी बनाए रखने के रिवाज अंतहीन हैं। हिन्दू विवाह में लडक़ी के मां-बाप लडक़ी का कन्यादान करते हैं। अच्छे-भले प्रगतिशील सोच के लोग भी इस रिवाज से टकराने की नहीं सोचते कि रिवाज में फेरबदल करने से शादी करवा रहे पंडित पटरी से न उतर जाएं। जिस वक्त दूल्हे को यह समझ आता है कि उसे दुल्हन दान में मिल रही है, तो फिर वह उस दुल्हन के साथ दहेज में चारा भी चाहता है, दान में मिली उस बछिया को बांधने के लिए एक शेड भी चाहता है। ऐसी सोच के बाद ही दान से लेकर दहेज-प्रताडऩा और दहेज-हत्या तक की नौबत आती है।
हिन्दू और हिन्दुस्तानी समाज में महिला को नीचा दिखाने के तरीकों में कोई कमी नहीं रखी, और उसकी सोच को इस कदर कुचला कि वह बराबरी की कभी सोच भी न पाए। आबादी के एक बड़े हिस्से में बचपन से ही बच्चियों को घर का काम सीखने को कहा जाता है, और भईया, भईया तो पढऩे के लिए है, या कुर्सी पर बैठकर बहन से सामान मंगवाने के लिए है। बहुत से परिवारों में लडक़े और लड़कियों के खानपान में भी फर्क किया जाता है। छत्तीसगढ़ की एक तस्वीर को लेकर हमने कई बार इस बात को लिखा है कि गांवों की स्कूलों में लडक़े तो पालथी मारकर बैठकर दोपहर का खाना खाते हैं, लेकिन लड़कियां उकड़ू बैठकर खाती हैं। किसी ने इसके पीछे का तर्क बताया तो नहीं, लेकिन हमारा अंदाज है कि इस तरह बैठकर खाने पर लड़कियां कम खा पाती होंगी, और शायद किसी समय किसी इलाके में उनके इस तरह बैठने का रिवाज ऐसी ही सोच से शुरू हुआ होगा। क्योंकि आम हिन्दुस्तानी घरों में महिला खाने वाली आखिरी प्राणी होती है, ताकि जो बचा है उससे उसका काम चल सके बाकी तमाम लोगों को पहले पेटभर खाना मिल जाए। यह बात महिला से बढक़र परिवार की लड़कियों तक पहुंच जाती है, लेकिन पुरूष और लडक़े इससे अछूते रहते हैं। बहुत से परिवारों में लडक़े और लड़कियों के इलाज में भी फर्क किया जाता है। मुम्बई के सबसे बड़े कैंसर अस्पताल, टाटा मेमोरियल का एक सर्वे है कि वहां जिन बच्चों में कैंसर की शिनाख्त होती है, और जिन्हें आगे इलाज के लिए बुलाया जाता है, उनमें से लडक़े तो तकरीबन तमाम लाए जाते हैं, लेकिन बहुत सी लड़कियों को इलाज के लिए नहीं लाया जाता कि उनका इलाज कराने से क्या फायदा।
हिन्दुस्तानी समाज में महिलाओं से भेदभाव की मिसालें अंतहीन हैं, और उनमें से अधिकतर तो ऐसी हैं जो 15वीं सदी में शुरू हुई होंगी, या उसके भी हजार-पांच सौ बरस पहले, और आज 21वीं सदी तक चल ही रही हैं। एक वक्त पति को खोने के बाद महिला को सती बनाया जाता था, उसे चिता पर साथ ही जिंदा जला दिया जाता था। आज भी जब वृंदावन के विधवा आश्रमों को देखें, तो समझ पड़ता है कि विधवा महिलाओं के साथ समाज का क्या सुलूक है। जिन्हें विधवा आश्रम नहीं भेजा जाता, उनको भी घर में किस तरह पीछे के कमरों में, शुभ कार्यों से दूर, दावतों से दूर कैसे रखा जा सकता है, यह हिन्दुस्तान में देखने लायक है। एक लडक़ी अपने नाम के आगे कुमारी लिखकर कौमार्य का नोटिस लगाकर चलती है, शादी होते ही वह श्रीमती होकर अपने सुहाग की घोषणा करते चलती है। लेकिन पुरूष तो श्री का श्री ही रहता है। लडक़ी या महिला के नाम के साथ पहले पिता का नाम जुड़ा होता है, अगर शादीशुदा है तो पति का नाम जुड़ा होता है। बच्चों को नौ महीने पेट में रखकर पैदा मां करती है, लेकिन जब उनके नाम के साथ सरकारी कागजात में नाम लिखाना होता है, तो बाप का नाम पूछा जाता है, वल्दियत पूछी जाती है। हाल के बरसों में लंबी अदालती लड़ाई के बाद कुछ सरकारी और कानूनी कामकाज में कागजों पर मां का नाम लिखने का भी विकल्प दिया जाने लगा है, लेकिन हकीकत में उसके लिए कड़ा संघर्ष करना पड़ता है, और सरकारी मिजाज बाप के नाम के बिना आसानी से तसल्ली नहीं पाता।
अब सवाल यह है, और आज रक्षाबंधन के मौके पर यह सवाल अधिक जरूरी है कि सैकड़ों बरस से हिन्दुस्तानी लडक़ी और महिलाएं लडक़ों और आदमियों को राखियां बांधते आ रही हैं, और एवज में उन्हें कौन सी सुरक्षा मिली है? उनका रक्षाबंधन क्या इतनी सदियोंं में भी असरदार नहीं हो पाया? न पिता न भाई न पति, न अड़ोस-पड़ोस के दूसरे लडक़े, और न ही छेडख़ानी या बलात्कार के वक्त आसपास खड़े दूसरे लोग क्या किसी पर भी रक्षा के किसी बंधन का कोई असर नहीं हुआ? तो अगर यह रिवाज इस कदर बेअसर है, तो यह रिवाज क्यों है? क्या हिन्दुस्तानी समाज की मर्द-मानसिकता लडक़े-लड़कियों, आदमी-औरतों के बीच संबंधों को लेकर ऐसी दहशत में जीती थी कि उसने एक वर्जित-रिश्ता बनाने के लिए ऐसा रिवाज खड़ा किया जिसे आमतौर पर तमाम लोग वर्जित मानते ही हैं। यह हिन्दुस्तानी रीति-रिवाजों के और बहुत से पाखंडों की तरह एक और पाखंड बनकर रह गया है जिसके पीछे की नीयत कुछ और रहती है, और जिसे सामने कुछ और बनाकर पेश किया जाता है? रक्षाबंधन का यह सिलसिला हिन्दुस्तानी लडक़ी और महिला को कोई रक्षा तो नहीं दे पाता, उसे बंधन के लायक साबित करने का एक मजबूत रिवाज जरूर लागू करता है। भ्रूण हत्या से बचकर निकल गई कोई लडक़ी अगर जिंदा रह भी गई, तो उसे कभी भाई से रक्षा के बिना न रहने लायक साबित करो, कभी शादी की रस्म में दान के लायक मान लो, कभी उसे पति के गुजर जाने पर सती कर दो, सती करना मुमकिन नहीं रह गया है तो उसे सफेद कपड़ों में सिर मुंडाकर विधवा बनाकर मरने तक के लिए आश्रम भेज दो। इस समाज के मर्द सैकड़ों बरस से महिलाओं से राखी भी बंधवा रहे हैं, और उन्हें इसी दर्जे की रक्षा दे रहे हैं।
लंबे समय तक समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव से व्यक्तिगत रूप से जुड़े रहे, और पार्टी में आने-जाने, पार्टी की तरफ से संसद में आने-जाने वाले मौजूदा सांसद अमर सिंह कल गुजर गए। उनके जाने पर कुछ लोगों ने अफसोस भी जाहिर किया है। उनके एक वक्त के सबसे करीबी दोस्तों में से एक रहे अमिताभ बच्चन के ट्विटर पोस्ट को देखें तो उनसे कुछ कहते ही नहीं बना, और उन्होंने बस अपने झुके हुए चेहरे की तस्वीर पोस्ट कर दी थी, और आज सुबह अपने ब्लॉग पर दो लाईनें किसी फलसफे जैसी लिखी हैं।
हमारा विश्वास एक अखबार के रूप में न श्रद्धांजलि में है, न अभिनंदन में। औपचारिकता के लिए न तो हम किसी के गुजरने पर इस अखबार के पन्नों पर उसकी स्तुति में कुछ लिखते, न ही किसी के 60 या 75 बरस के हो जाने पर उसके अभिनंदन में। लोगों का आना-जाना कुदरत का एक सिलसिला है, और उसे उससे अधिक गंभीरता से नहीं देखा जाना चाहिए। जिन लोगों को अमर सिंह की जिंदगी और उनके व्यक्तित्व के बहुत से सकारात्मक पहलू सूझ रहे हों, उन्हें भी अमर सिंह का एक सम्पूर्ण और समग्र मूल्यांकन करना चाहिए। जाने वाले लोग भी कई ऐसी बातों की मिसाल छोड़ जाते हैं कि क्या-क्या करना चाहिए, और उससे भी अधिक अहमियत इस बात की रहती है कि वे कौन सी बातों की मिसाल छोड़ जाते हैं कि क्या-क्या नहीं करना चाहिए।
कुछ लोगों ने सोशल मीडिया पर अमर सिंह के बारे में लिखा है कि फिल्मी ग्लैमर, राजनीति की ताकत, और कार्पोरेट-दुनिया की दौलत, इन तीनों पर अमर सिंह की बराबरी की पकड़ थी। यह बात सही है कि उनकी पकड़ इन तीनों दायरों में थी, हिन्दुस्तान के बहुत से बड़े-बड़े कारोबारियों से उनके निजी रिश्ते थे, और राजनीति में वे जिस पार्टी में रहे, उससे परे के नेताओं तक भी उनकी पहुंच रही। कुछ ऐसे नाजुक मौके भी रहे जब संसद में कोई सरकार गिरने को थी, और अमर सिंह ने एक बहुत काबिल बिचौलिए की तरह कोई रास्ता निकाला, और सरकार को गिरने से बचाया। जब लोग अमर सिंह के बारे में अपमानजनक जुबान में बात करते थे, तो वे अपने आपको खुद होकर पॉवरब्रोकर या दलाल भी कह लेते थे। उन्हें हकीकत में इस बात का अहसास था कि वे क्या हैं।
फिल्मी दुनिया का ग्लैमर उनके साथ ऐसा जुड़ा हुआ था कि आज उनके न रहने पर लोगों को यह याद रखना चाहिए कि अपने करीबी लोगों के बारे में कैसी बातें न सोचना चाहिए, न कहना चाहिए। अमर सिंह की टेलीफोन पर कही गईं फूहड़ और अश्लील बातों की रिकॉर्डिंग जब सामने आईं, तो उन्हें उनका प्रकाशन रोकने के लिए शायद सुप्रीम कोर्ट तक जाना पड़ा था। अमर सिंह इस बात की ठोस मिसाल हैं कि लोगों को लापरवाही से बातचीत करते हुए कैसी घटिया और गंदी बातें नहीं करना चाहिए। कैसे अपने करीबी लोगों की बेइज्जती करने वाली बातें नहीं करनी चाहिए।
अमर सिंह की जिंदगी से सीखने का बहुत कुछ है। बहुत से लोग उन्हें देखकर और उनकी कही हुई बातों को याद करके यह भी सबक ले सकते हैं कि जिंदगी में इस किस्म के इंसान को लोगों को दोस्त क्यों नहीं बनाना चाहिए। खुद अमर सिंह के शब्दों में जिस अमिताभ बच्चन के परिवार की शादी में, शादी के कार्ड पर अमर सिंह के पूरे कुनबे का नाम घरवालों की तरह छपा था, उसी बच्चन परिवार की महिला के बारे में, बहू के बारे में, अमिताभ के बारे में अमर सिंह ने कैसी-कैसी घटिया बातें बार-बार कैमरों के सामने, सार्वजनिक रूप से नहीं कहीं? अपने दूसरे करीबी दोस्त मुलायम सिंह यादव के परिवार में फूट डालने की शोहरत अमर सिंह के नाम रही। यह तो उस परिवार का अपना सोचना होना चाहिए कि किसी के कहे वह फूटे कि न फूटे, लेकिन इस आदमी ने सार्वजनिक रूप से मुलायम-कुनबे के बारे में क्या-क्या अपमानजनक बातें नहीं कहीं, और बेटे को बाप से लड़वाने वाली बातें क्या-क्या नहीं कहीं, यह भी सोचने की जरूरत है। और हम किसी गॉसिप कॉलम में पढ़ी हुई बातें नहीं कह रहे हैं, हम खुद अमर सिंह के अनगिनत टीवी इंटरव्यू में देखी-सुनी बातों को कह रहे हैं।
जो अमर सिंह अपनी बहुत ही करीबी फिल्म अभिनेत्री जयाप्रदा को लेकर टेलीफोन पर गंदी बातें करते रिकॉर्ड हुआ हो, जिसने बीबीसी के एक रेडियो इंटरव्यू में अमिताभ की बहू के बारे में लापरवाही से नाजायज अंदाज में बातें कही हों, वैसा दोस्त बनाने से लोगों को कैसे और क्यों बचना चाहिए, यह भी अमर सिंह की मौत के मौके पर लोगों को समझना चाहिए।
किसी का गुजरना उसके परिवार के, करीबी लोगों के लिए तकलीफ की बात तो होती ही है लेकिन बाकी तमाम लोगों को ऐसे जाने वाले के बारे में तमाम बातों को याद करना चाहिए। भारतीय संसद और सरकार में, उत्तरप्रदेश की सरकार में, केन्द्र और राज्य दोनों जगह बहुत ही ताकतवर ओहदों पर रहने वाले मुलायम सिंह के परिवार में अमर सिंह ने जितनी ताकत भोगी है, और उसका जैसा-जैसा बेजा इस्तेमाल किया है, उसे अनदेखा करना अमर सिंह के साथ भी ज्यादती होगी। जो हिन्दुस्तान के सबसे मुंहफट लोगों में से एक रहा हो, उसे इस पर मलाल ही होगा कि उसे याद करते हुए लोग लिहाज करें। हमारा यह मानना रहता है कि जाने वाले किसी अतिरिक्त सम्मान के हकदार नहीं रहते, और अगर वे सार्वजनिक जीवन के प्रमुख व्यक्ति रहते हैं, तो वे एक खुले मूल्यांकन के हकदार जरूर रहते हैं। इसलिए अमर सिंह हमारी नजरों में एक ऐसी मिसाल बनकर गुजर गए हैं कि लोगों को कैसा-कैसा नहीं होना चाहिए, लोगों को कैसे-कैसे दोस्त नहीं बनाने चाहिए, और लोगों को अपने करीबी लोगों और परिवारों की निजी बातों को कैसे-कैसे सार्वजनिक नहीं करना चाहिए। आज के मौके पर अमर सिंह के परिवार के साथ हमदर्दी जताते हुए लोगों को उनके लंबे जीवन से ये तमाम सबक लेना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
छत्तीसगढ़ सरकार में तैनात भारतीय वन सेवा के कुछ अफसरों की बर्खास्तगी की चर्चा ही चर्चा 10-20 बरस से चल रही है। उनके भ्रष्टाचार जंगल से लेकर शहर की आरामिलों तक हर किसी की जानकारी में हैं, लेकिन वे हैरतअंगेज और रहस्यमय तरीके से अपने तमाम भ्रष्टाचार के साथ न सिर्फ बच जाते हैं, बल्कि दुबारा जंगल के राजा बनकर हजारों करोड़ के फंड और हजारों अरब के जंगलों को लूटते हैं। अभी भी दिल्ली और रायपुर के बीच में कुछ ऐसी फाइलें चल रही हैं जो कि कुछ सबसे बदनाम आईएफएस अफसरों को अनिवार्य सेवानिवृत्त करने की हैं, लेकिन ऐसी फाइलों पर दिल्ली से लेकर रायपुर तक, दोनों राजधानियों में मेहरबानियां ऐसे बरसती हैं कि मानो निर्मल बाबा के दरबार में सुझाई गई बातों के आधार पर कृपा बरस रही हो। अब यह तो नहीं पता कि परले दर्जे के ऐसे भ्रष्ट अफसर किस काले कुत्ते को रोटी डालते हैं, किस भूरी गाय को गुड़ खिलाते हैं, लेकिन उन पर कृपा बरसती ही रहती है, यह तय है।
छत्तीसगढ़ सरकार में बड़े ओहदों पर बैठे तमाम लोगों को यह मालूम है कि पिछली सरकार के वक्त एसीएस रहे हुए, और बीते कल एनएमडीसी से सीएमडी के ओहदे से रिटायर हुए एन.बैजेन्द्र कुमार ने इस राज्य के सबसे भ्रष्ट आईएएस अफसरों के भ्रष्टाचार के केस देखे थे, इनमें से एक को वे बरी कर गए थे, और बाकी दो को राज्य सरकार में उन्होंने माफी नहीं मिलने दी थी। उन्होंने बार-बार कार्रवाई की फाईल दिल्ली भेजी थी, और उनका तजुर्बा था कि दो दिनों के भीतर दिल्ली से फाईल वापिस सरकार के पाले में फेंक दी जाती थी, बजाय भ्रष्ट लोगों पर कोई कार्रवाई करने के।
छत्तीसगढ़ का वन विभाग राज्य बनने के बाद से किसी भी वक्त थोड़ा भी कम भ्रष्ट रहा हो, ऐसा किसी को याद नहीं है। विभाग का सचिव कोई भी हो, मंत्री कोई भी हो, इस संवेदनशील विभाग पर कब्जा भ्रष्ट लोगों का रहा, फिर चाहे किसी वक्त विभाग का मुखिया ईमानदार क्यों न रहा हो, विभाग तो भ्रष्ट ही लोग चलाते रहे। इस सरकार में भी मो.अकबर जैसे कड़ी पकड़ वाले मंत्री के रहते हुए हाल यह रहा कि आधे से ज्यादा फारेस्ट डिवीजन में गैरआईएफएस लोगों को तैनात किया गया, और जानकार लोगों का कहना था कि ऐसा करने वाला छत्तीसगढ़ देश में अकेला राज्य है। यह सिलसिला किसी भी कोने से मासूम नहीं कहा जा सकता क्योंकि एक-एक डिवीजन में पोस्टिंग पाने के लिए हमेशा से ही दसियों लाख रूपए का लेन-देन प्रचलन में रहा है, और वह आज भी जारी है। अब विभाग चलाने वाले लोग और राज्य चलाने वाले लोग यह देखें और तय करें कि अपात्र लोगों की ऐसी तैनाती किस दाम पर हुई थी, और वह रकम गई कहां थी।
यह केन्द्र में मोदी सरकार का छठवां बरस चल रहा है। कहने के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एक बड़े कडक़ प्रशासक कहे जाते हैं। लेकिन देश भर से भ्रष्ट अफसरों की फाइलें दिल्ली में जिस तरह धक्का खाती हैं, और बार-बार राज्यों को लौटकर आती हैं, वह देखने लायक है। अगर केन्द्र सरकार में बैठे हुए लोग छत्तीसगढ़ के एक आईएएस अफसर द्वारा अपने सरकारी बंगले में बनवाए गए स्वीमिंग पूल की देश भर में छपी तस्वीरों के बाद भी उस अफसर को बर्खास्त करने के लायक नहीं समझ रहे हैं, तो यह कौन सी कडक़ मोदी सरकार है?
एक वक्त गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए नरेन्द्र मोदी ने छत्तीसगढ़ के उस वक्त के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह को सलाह दी थी कि बड़े अफसर जितने कम रहें, राज्य उतना ही अच्छा चलेगा। उन्होंने रमन सिंह को प्रस्ताव दिया था कि छत्तीसगढ़ में जरूरत हो तो वे गुजरात से कुछ आईएएस और दूसरे अखिल भारतीय सेवा के अफसर भेज देते हैं। इस राज्य में आईएफएस अफसरों की अलग एसोसिएशन है, आईएएस की अलग, और आईपीएस की अलग। लेकिन इसी राज्य में पूरी जिंदगी गुजारने के बाद हमें याद नहीं पड़ता कि अपने किसी सदस्य-अफसर के खुले भ्रष्टाचार के खिलाफ एक शब्द भी इनमें से किसी ने कहा हो। ये सारी एसोसिएशन अपने सदस्यों पर हुए किसी हमले के खिलाफ सक्रिय होती हैं, और जब उनके सदस्य देश के, जनता के हितों पर हमलावर रहते हैं, तब ये सारे एसोसिएशन चैन की नींद सो जाते हैं।
छत्तीसगढ़ सरकार अगर अपने भीतर के बड़े अफसरों के भ्रष्टाचार पर काबू नहीं करेगी, तो उनके मातहत नीचे का अमला तो भ्रष्ट रहेगा ही रहेगा। गंगोत्री से गटर का पानी बहे, तो वह हरिद्वार में निर्मल गंगाजल नहीं हो सकता। राज्य सरकार को एक कड़ा रूख अपनाना चाहिए, और अपने भ्रष्ट लोगों को हटाना चाहिए। इसके बिना इस प्रदेश का हाल पिछले बीस बरस में सब देख ही रहे हैं कि किस तरह इसे लूटा जाता रहा है।
यह हाल महज इसी प्रदेश में नहीं है, देश की सबसे बड़ी सेवाओं के लोग गले-गले तक भ्रष्टाचार में डूबे रहते हैं, और केन्द्र की, राज्य की किसी भी कार्रवाई से बचे भी रहते हैं। छत्तीसगढ़ के कुछ अफसरों की जमीन-जायदाद की लिस्ट अगर देखें तो लगता है कि सामाजिक अन्याय का शिकार होने के बावजूद वे इसी राज्य में राज करते हुए 21वीं सदी के जमींदार हो गए हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिन्दुस्तान में किसी भी विवाद की चर्चा हो, और उसे धर्म और जाति से अलग रख दिया जाए, ऐसा मुश्किल से ही होता है। लोग इलाज में गड़बड़ी होने से तुरंत ही आरक्षण के फायदे से मेडिकल कॉलेज दाखिला पाने वाले लोगों की जात पर उतर आते हैं। सरकारी दफ्तरों में अगर कोई अफसर रिश्वत कम मांगते हैं, तो इसे लोग उनकी नीची समझी जाने वाली जात का असर बताते हैं कि पांच-पांच सौ रूपए ले लेता है। मानो ऊंची समझी जाने वाली जात का अफसर उसी काम के पांच हजार लेता तो बेहतर होता। लोग आरक्षण के खिलाफ बहस में खुलकर कहते हैं कि क्या किसी कोटे से डॉक्टर बनने वाले से अपना इलाज कराओगे? और आज दिल्ली की खबर है कि सबसे ऊंची समझी जाने वाली जाति का एक डॉक्टर जिसका नाम भी देवताओं के इन्द्र के नाम पर था, वह गरीबों का अपहरण करता था, किडनी निकालकर बेच देता था, और लाशों को मगरमच्छ को खिला देता था। हर दस दिन में ऐसी एक हत्या करते-करते वह सौ लोगों को मार चुका था, फिर गिनती गिनना बंद कर दिया था। ठीक भी है, किसी भी बात का शतक पूरा हो जाने के बाद उसे गिनना बंद कर देना चाहिए। सौ बरस के हो जाएं तो उसके बाद केक क्या काटना।
अब सवाल यह है कि धर्म और जाति को लेकर हिन्दुस्तान में लोगों के मन में बैठे हुए पूर्वाग्रह इतने पुख्ता और इतने हिंसक हैं कि अपनी जाति, अपने धर्म से परे के लोगों के गुनाह उन्हें आसमान पर चमकते दिखते हैं। और अपनी जाति के लोगों के गुनाह उन्हें जाति व्यवस्था के तहत जायज लगते हैं। यह समाज धर्म के आधार पर, जाति के आधार पर टुकड़े-टुकड़े हो चुका है। बहुत से शहरों में बहुत सी कॉलोनियों में, या रिहायशी इमारतों में, या मुहल्लों में कुछ धर्म के लोगों, कुछ जाति के लोगों को न किराए पर रहने दिया जाता, न ही उन्हें मकान खरीदने दिए जाते। बहुत सारे ऐसे लोग हैं जिन्हें नाम बदलकर मकान किराए पर लेना पड़ता है। कहने के लिए यह देश धर्मनिरपेक्ष है, और हिन्दुस्तान की गौरवगाथा का जब बखान करना होता है, तो लोग इसे 15 अगस्त और 26 जनवरी को विविधता में एकता वाला देश करार देते हैं। लेकिन साल के बाकी 363 दिन दूसरे धर्म, और दूसरी जाति को परहेज में जुट जाते हैं। हाल के महीनों में जब कोरोना की दहशत फैली, तो कई राज्यों में फल के ठेलों तक पर लोगों ने एक धर्म के बैनर लगा दिए कि यह हिन्दू फलवाले की दुकान है। दूसरी तरफ बहुत से शहरों में ऐसे खुले फतवे जारी किए गए, हिन्दुस्तान का सोशल मीडिया नफरत के फतवों से पट गया कि किसी मुस्लिम से कोई सामान न खरीदें। लेकिन देश-प्रदेशों की सरकारों ने इस पर कोई कार्रवाई की हो, ऐसा अधिक सुनाई नहीं पड़ा। ऐसे लाखों पोस्ट किए गए, लेकिन शायद ही कहीं किसी पर जुर्म कायम हुआ होगा, जबकि साइबर जुर्म में सुबूत तो अपने आप दर्ज होते चलते हैं, किसी गवाह की जरूरत नहीं रहती है।
उत्तरप्रदेश में हाल ही में विकास दुबे नाम के एक बहुत कुख्यात कहे जाने वाले पुराने मुजरिम को पुलिस ने एक कथित मुठभेड़ में मार गिराया। उसने इसके ठीक पहले अपने घर पहुंचे पुलिसवालों में से 8 को मार डाला था। विकास दुबे के साथ जुर्म के कारोबार में जितने लोग लगे थे, कुछ को पुलिस ने मारा, कुछ को गिरफ्तार किया, और बिना किसी अपवाद के ये सारे लोग एक ही जाति के थे। अब जुर्म में भी एक ही जाति के लोगों का ऐसा गिरोह बना, यह जुर्म के भीतर अपनी जाति से लगाव का मामला कहें, या फिर क्या कहें? हिन्दुस्तान में और भी कई जगहों पर दूसरे धर्म और दूसरी जातियों की जुर्म के लिए ऐसी एकजुटता दिखती है, लेकिन लोगों को दूसरे धर्म, दूसरी जाति के जुर्म ही दिखते हैं, अपने खुद के नहीं दिखते।
लोगों की सोच को तो एकदम से एक-दो सदी में बदला नहीं जा सकता, लेकिन हिन्दुस्तान जैसे लोकतांत्रिक देश में जब धर्म और जाति की व्यवस्था के तहत लोग दूसरे धर्म और दूसरी जाति के खिलाफ हिंसा के फतवे जारी करते हैं, तो उनके ट्विटर या फेसबुक खाते बंद करवाना काफी नहीं है, उन्हें उनके बदन को भी जेल में बंद करना जरूरी है।
जिन लोगों को सरकारी दामाद, पठान, चमार, आदिवासी, पिछड़े जैसे शब्दों की गालियां बनाना अच्छा लगता है, उन लोगों को देश के बड़े-बड़े जुर्म में लगे हुए लोगों के धर्म, और उनकी जाति जरूर देखनी चाहिए। गांधी का हत्यारा किस जाति का था, इंदिरा का हत्यारा किस जाति का था, देश का सबसे बड़ा शेयर घोटाला करने वाला किस जाति का था, देश का सबसे बड़ा बैंक लुटेरा किस जाति का था, और आज का यह ताजा मामला सामने है, जिन लोगों को रिजर्वेशन की बदौलत डॉक्टर या इंजीनियर बनने मिलता है, और फिर उनसे ऑपरेशन कराने में जिनका भरोसा नहीं बैठता, या जिनके बनाए हुए पुल गिर जाने का डर जिन्हें लगता है, उन लोगों को देश के बड़े-बड़े जुर्म करने वाले डॉक्टर, और बड़े-बड़े भ्रष्टाचार के निर्माण करने वाले इंजीनियरों के जाति-धर्म भी देखने चाहिए, हो सकता है कि हकीकत उनको पूर्वाग्रह के अपने बोझ से छुटकारा पाने में मदद करे। यह बात तो हिन्दुस्तान में एक बुनियादी सच है ही कि कुछ धर्मों और कुछ जातियों की ताकत इतनी होती है कि उनके मुजरिम बचते ही चले जाते हैं, पुलिस से भी, और अदालतों से भी। इसलिए ताकतवर समझे जाने वाले धर्म, और ऊंची समझी जाने वाली जातियों के लोगों को उनके साथ बेइंसाफी होने का तो खतरा रहता नहीं है। अब इसे तमाम लोग इतना ही करते चलें कि बड़े-बड़े जुर्म के साथ सामने आने वाले मुजरिमों के नाम और उपनाम भी देखते चलें, और अपने सिर पर सवार पूर्वाग्रहों को अपडेट भी करते रहें। पिछले दिनों जब उत्तरप्रदेश पुलिस के हाथों विकास दुबे नाम का वहां का एक बड़ा मुजरिम मारा गया तो सोशल मीडिया पर जिस तरह एक जातिवादी उन्माद से भरे हुए पोस्ट किए गए थे उन पर देश के जिम्मेदार मीडिया ने लेख भी लिखे थे, और उनकी दर्जनों मिसालें भी दी थीं। जब जाति का उन्माद सिर पर ऐसा सवार हो कि अपनी जाति के माफिया सरगना पर शर्म आने के बजाय उस पर गर्व होने लगे, तो ऐसी नौबत फिक्र का सामान तो है ही। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिन्दुस्तान में कोरोना का जो हाल चल रहा है, वह बहुत फिक्र पैदा करता है। कई प्रदेशों में अस्पतालों में जगह नहीं बची है, तो बड़े-बड़े स्टेडियमों में पलंग लगाकर कोरोना वार्ड बना दिए गए हैं। मौतें बहुत रफ्तार से इस देश में आगे नहीं बढ़ रही हैं, इसलिए लोग बेफिक्र हैं। यह एक अलग बात है कि पिछले चौबीस घंटों में 52 हजार से अधिक लोग पॉजिटिव निकले हैं, और दो सौ से अधिक मौतें भी हुई हैं।
देश में झारखंड ने मास्क न लगाने वालों पर एक लाख रूपए जुर्माना लगाया है। इसके पहले सबसे बड़ा जुर्माना केरल ने 10 हजार रूपए का लगाया था। इनसे परे देखें तो छत्तीसगढ़ जैसे बहुत से राज्य सौ-दो सौ रूपए का जुर्माना लगा रहे हैं जिसे लोग मजाक बनाकर चल रहे हैं। यह भी खबर सामने आ रही हैं कि किस तरह बड़े अफसर, मंत्री और विधायक, सांसदों से लेकर पार्षदों तक राजनीति के लोग लापरवाही दिखा रहे हैं। उनके आसार गड़बड़ दिख रहे हैं, लेकिन वे कोरोना टेस्ट के लिए नमूना देने के बाद घर बैठने के बजाय जनसंपर्क कर रहे हैं।
कहने के लिए तो महामारी का कानून बड़ा कड़ा है, और जानकारी छुपाने वालों के लिए सजा है, लापरवाही बरतने वालों के लिए भी सजा है। लेकिन सरकार में बैठे छोटे-छोटे कर्मचारियों, और पुलिस कर्मचारियों की इतनी हिम्मत कहां हो सकती है कि वे ताकतवर नेताओं और बड़े अफसरों के बारे में किसी कार्रवाई की सोच भी सकें। छत्तीसगढ़ में ताजा-ताजा मिसाल वन विभाग के एक सबसे छोटे कर्मचारी वनरक्षक की है जिसने अपने खासे बड़े अफसर को बांस की अवैध कटाई करते पकडक़र जुर्म दर्ज कर लिया था, अब उसी के खिलाफ कार्रवाई हो रही है। महामारी का खतरा और हिन्दुस्तान में छत्तीसगढ़ किस्म के दर्जनों राज्यों में राजनीतिक दबदबा मेल नहीं खा रहे हैं। महामारी से लापरवाह लोग अकेले नहीं बच सकते, वे औरों को साथ लेकर डूबते हैं, और अपने आसपास हम रात-दिन देखते हैं कि लोग किस तरह गैरजिम्मेदार हैं।
यह सिलसिला बहुत खतरनाक इसलिए है कि इसमें बेकसूर मारे जाएंगे, ठीक उसी तरह जिस तरह कि सडक़ पर नशे में कोई ड्राईवर गाड़ी चलाए, और बाकी लोगों की जिंदगी भी खतरे में आ जाए। आज एक-एक कोरोना पॉजिटिव निकलने पर जिस तरह सैकड़ों लोगों के काम छिन जा रहे हैं, लोग बेरोजगार हो जा रहे हैं, लॉकडाऊन फिर से लागू हो रहा है, उससे करे कोई, भरे कोई की नौबत आ रही है। जो लोग सरकारी तनख्वाह वाले हैं, या कमाई वाले कारोबारी हैं, उनको तो जिंदा रहने में कोई दिक्कत नहीं है, लेकिन बार-बार होते लॉकडाऊन की वजह से असंगठित कर्मचारी, तकरीबन तमाम मजदूर, और फेरीवाले, खोमचेवाले, छोटे-छोटे कारोबारी भूखे मरने की नौबत में हैं। कम से कम इन लोगों को देखते हुए सरकार को महामारी के प्रतिबंध बहुत कड़ाई से लागू करना चाहिए। छत्तीसगढ़ लॉकडाऊन के एक और दौर से गुजर रहा है, रोज सैकड़ों कोरोना पॉजिटिव की लिस्ट देखें, तो किसी भी दिन आधा दर्जन से कम पुलिसवाले, और आधा दर्जन से कम स्वास्थ्य कर्मचारी उसमें नहीं रहते। और ये अधिकतर स्वास्थ्य कर्मचारी सरकारी अस्पतालों के हैं। बहुत से सफाई कर्मचारी कोरोना पॉजिटिव निकल रहे हैं। ये सारे के सारे लोग जनसुविधाओं का काम करते हुए अपनी जान जोखिम में डाल रहे हैं। देश-प्रदेश में नियम और प्रतिबंध न होना खतरनाक होता है, लेकिन होने के बाद भी उनको लागू न करना, उन पर अमल न होना और भी खतरनाक होता है। छत्तीसगढ़ जैसे राज्य इसी लापरवाही और अनदेखी के शिकार हैं कि यहां हजारों लोग राजधानी में ही बिना मास्क घूम रहे हैं, और खतरा झेलकर पुलिस सडक़ों पर तैनात है, सफाई कर्मचारी से लेकर स्वास्थ्य कर्मचारी तक अपनी जिंदगी दांव पर लगाकर काम कर रहे हैं। लोग इस नौबत के खतरे को भी नहीं समझ रहे हैं कि कोरोना पॉजिटिव का आसार दिखने पर जांच होने में वक्त लग रहा है, और फिर रिपोर्ट आने में कई दिन लग रहे हैं। इसके बाद राजधानी में हाल यह है कि कोरोना पॉजिटिव घर बैठे एम्बुलेंस की राह देखते हैं जो तीन-चार दिनों तक नहीं आ पा रही है। इसके पीछे सरकारी विभागों में तालमेल की कमी है, या एम्बुलेंस की कमी है, इसे तो सरकार ही जाने, लेकिन ऐसी नौबत की सोच तक लोगों को अपने-आपको खतरे से दूर रखना चाहिए, लेकिन ऐसी कोई नीयत लोगों की दिख नहीं रही है।
अधिकतर लोग इस खुशफहमी में जीने वाले हैं कि खाली चम्मच पीटने से और शंख बजाने से कोरोना मर जाएगा, जबकि ऐसा पाखंड फर्जी साबित हो चुका है। इसके बाद तरह-तरह के दूसरे पाखंड इस्तेमाल हो रहे हैं। पिछले चार दिनों से देश इसमें डूबा है कि मानो नए आए लड़ाकू विमान रफाल से बम गिराकर कोरोना का मार दिया जाएगा। जब लोगों की वैज्ञानिक सोच ही खत्म हो जाती है, तो वे किसी भी पाखंड पर भरोसा करने लगते हैं, और वैज्ञानिक तर्कों को तेजी से खारिज करने लगते हैं, क्योंकि वैज्ञानिक बातों पर भरोसा करने का एक मतलब दिमाग पर जोर देना भी होता है, और जिम्मेदार बनना भी। भला कौन जिम्मेदार बनना चाहते हैं जब तरह-तरह के नारों से काम चल रहा है।
पॉजिटिव निकलने के बाद मौतें कम होने से लोग कोरोना से तो कम मर रहे हैं, लेकिन भुखमरी और बेरोजगारी से अधिक लोग मर रहे हैं, लॉकडाऊन के तनाव में आत्महत्याएं बढ़ती जा रही हैं, और गरीबी से लोग कुपोषण के शिकार होकर भी मरने वाले हैं जो कि सरकारी रिकॉर्ड में नहीं आएंगे। ऐसी नौबत में सरकार को चाहिए कि वह लापरवाह और गैरजिम्मेदार लोगों पर कड़ी कार्रवाई करे, ताकि कुछ लोगों को समझ आ सके। आज गैरजिम्मेदार लोगों के लिए मैदानी सरकारी अमला अपनी जान देते जुटा हुआ है, और ऐसे गैरजिम्मेदार लोग ऐसी सरकारी सेवा पाने के हकदार नहीं हैं। जिन लोगों को अपने पैसों का अधिक गुरूर है उन पर झारखंड की तरह लाख रूपए का जुर्माना न सही, केरल की तरह दस हजार रूपए का जुर्माना तो लगाना ही चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिन्दुस्तान के खासे ऊंचे दाम पर खरीदे गए लड़ाकू फौजी विमान, रफाल, की पहली खेप आज हिन्दुस्तान पहुंची है। यूपीए सरकार के समय बड़ी संख्या में रफाल को खरीदने का सौदा हुआ था, और बाद में मोदी सरकार ने सीमित संख्या में रफाल खरीदना तय किया, और उसमें से भी अभी पांच विमानों की पहली खेप हिन्दुस्तान पहुंची है। जब से इन विमानों की फ्रांस से रवानगी की पहली खबर आई है, तब से हिन्दुस्तानी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का एक बड़ा हिस्सा अठारहवीं सदी के पहले के वक्त में चले गया, और वीर रस प्रसारित करने लगा। हमने किस्से-कहानियों में ही सुना है कि पुराने वक्त के राजा-महाराजा अपने हाऊ इज जोश को बुलंद रखने के लिए ऐसे चारण और भाट रखते थे जो कि उनकी बहादुरी का बखान करते हुए एक-एक सांस में सौ-सौ विशेषण गाते थे, और उपमाएं ढूंढ-ढूंढकर लाते थे। अभी पिछले तीन दिनों से माहौल कुछ उसी किस्म का है।
आज सुबह आमतौर पर मोदी सरकार के प्रशंसक रहने वाले, एक भूतपूर्व, या शायद वर्तमान भी, पत्रकार ने सोशल मीडिया पर लिखा कि हिन्दुस्तानी टीवी समाचार चैनलों के संपादकों को अपने स्टूडियो के एंकरों पर कुछ काबू रखना चाहिए। हिन्दुस्तानी एयरफोर्स में रफाल का आना खुशी की बात है लेकिन टीवी चैनल अपने पेशे से की जाने वाली उम्मीदों से परे जाकर बावले हुए जा रहे हैं। बहुत से एंकर इस तरह चीख और चिल्ला रहे हैं कि मानो रफाल के अंबाला में लैंड करने के पहले ही चीन और पाकिस्तान भारत के सामने समर्पण कर देने वाले हैं। ये पत्रकार लंबे समय तक देशी-विदेशी मीडिया में काम करते रहे हैं, और अभी दूरदर्शन के साथ भी काम कर रहे हैं, उसके पहले भारत के बहुत से प्रकाशनों, और टीवी चैनलों में भी काम किया है। जब सरकारी टीवी दूरदर्शन के साथ काम करने वाले एक पत्रकार को यह बात खटक रही है, तो फिर बहुत से चैनलों का यह बावलापन पेशे से परे की बात है।
दुनिया में उन राजा-महाराजा का इतिहास शायद बहुत अच्छा नहीं रहा जिनके दरबारी उनके मुसाहिब थे, या जिन्होंने पेशेवर चारण और भाट रखकर अपने जोश के लिए वियाग्रा के काव्य संस्करण का इंतजाम रखा था। हिन्दुस्तान में अगर ऐसी वियाग्रा कामयाब होती, तो फिर मुगलों के सामने हिन्दुस्तानी राजाओं का यह हाल नहीं हुआ होता। दरअसल चारण और भाट फिल्म पाकीजा के राजकुमार की तरह होते हैं जो ट्रेन में सोई हुई मीना कुमारी के लिए पर्ची छोड़ जाता है कि आपके पांव बहुत खूबसूरत हैं, इन्हें जमीन पर मत उतारिएगा...। आज हिन्दुस्तानी टीवी चैनलों को देखें, तो यह लगेगा कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को चीन और पाकिस्तान को शिकस्त देने के लिए फौज की भी जरूरत नहीं है। और ये पांच विमान आ गए, तो जैसा कि ऊपर जिक्र वाले वरिष्ठ पत्रकार ने लिखा है, चीन और पाकिस्तान आत्मसमर्पण कर सकते हैं। अभी बहुत समय से हमें सरकारी टीवी दूरदर्शन, और मोदी-प्रशंसक या मोदी-समर्थक टीवी चैनलों की तुलना करने का मौका नहीं मिला है। फिर भी ऐसा अंदाज है कि दूरदर्शन चीन और पाकिस्तान के समर्पण जैसा माहौल नहीं बना रहा होगा। यह सिलसिला लोकतंत्र के लिए बहुत ही आत्मघाती है, और केन्द्र सरकार को भी यह समझना चाहिए कि इस किस्म के समर्थक, प्रशंसक, या भक्त 20वीं सदी के पहले-पहले आऊट ऑफ फैशन हो गए थे। रोजी कमाने के लिए ऐसे विशेषणों के गुलदस्तों का बाजार अब दुनिया में कहीं नहीं रह गया है क्योंकि एक-एक करके लोकतंत्रों ने यह समझ लिया है कि इनका काम डुबाने का होता है, बचाने का नहीं।
जब बात किसी पड़ोसी और खासकर दुश्मन देश के साथ तनातनी की होती है, तो इतिहास गवाह है कि उसमें सबसे पहले सच की मौत होती है। हिन्दुस्तान में आज तकरीबन पूरी आबादी को इस झांसे में रखा जा रहा है कि अगर चीन की बनी हुई राखियां न खरीदी गईं, तो वहां के लोग भूखे मर जाएंगे, और उनके खाने को चमगादड़ भी कम पड़ेंगे। इसी देश में इस हकीकत को कहने के लिए आज सरकार के और बाकी राजनीतिक दलों के लिए कोई लोग सामने नहीं आ रहे कि चीनी माल का बहिष्कार चीन पर एक कंकड़़ मारने की तरह होगा, लेकिन उससे हिन्दुस्तानी कारखानों और यहां के मजदूर-कारोबारियों के पेट पर ऐसी लात पड़ेगी कि ऑपरेशन से भी कटी हुई अतडिय़ां नहीं जुड़ पाएंगी। हिन्दुस्तान बिना चीनी माल के, कच्चे माल और पुर्जों के बिना दुनिया में अपना निर्यात खो बैठेगा, हिन्दुस्तान में करोड़ों मजदूर-कारीगर, कारखानेदार और कारोबारी बेरोजगार हो जाएंगे। लोगों को दीवाली पर चीनी लडिय़ों का बहिष्कार सूझता है, राखी पर राखियों का बहिष्कार, और होली पर चीनी पिचकारियों का। जब पड़ोसी देश से दुश्मनी को स्टूडियो के भीतर फौजी मोर्चा बनाकर निपटाया जाता है, तो ऐसे सारे बहिष्कार मीडिया को औजार की तरह काम आते हैं। यह सिलसिला बहुत ही भयानक है, मीडिया तो कुछ सदियों का लोकतांत्रिक विकास खो ही बैठा है, यह देश भी एक ऐसे अफीम के नशे का शिकार हो रहा है जिसकी डली नहीं आती जो डिश एंटिना के रास्ते उपग्रह से आता है, और टीवी के पर्दों से निकलकर लोगों का हाऊ इज जोश बढ़ा जाता है।
रफाल ने ऐसी कोशिशों को विशेषण गढऩे के लिए, तस्वीर बनाने के लिए एक ऐसा मौका जुटा दिया है जो रफाल बनाने वाले फ्रांस के इंजीनियरों को मालूम भी नहीं था। उन्होंने तो एक लड़ाकू विमान बनाया था, लेकिन वह विमान किसी देश के जोश के लिए वियाग्रा का काम भी करेगा, इसका उन्हें अंदाज भी नहीं था। उन्हें यह बात मालूम होती तो हो सकता है कि वे भारत सरकार से इसके दाम के साथ-साथ इस पर कुछ मनोरंजन कर भी ले लेते। अब और क्या लिखें, आने वाले दिन चीन और पाकिस्तान पर जीत के रहेंगे, देखते रहिए टीवी चैनल। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
कुछ दिन पहले अभी जब भारत के योग और आयुर्वेद के एक सबसे बड़े पाखंडी बाबा रामदेव ने अपनी कंपनी पतंजलि की नई दवाएं पेश करते हुए मीडिया और कैमरों के सामने दावा किया कि यह कोरोना का इलाज है, और तरह-तरह की सरकारी मंजूरियों और दवाओं के मानव-परीक्षण का दावा किया, तो अगले ही दिन इस भगवे गुब्बारे की हवा निकल गई। केन्द्र सरकार को नोटिस जारी करना पड़ा, और सफाई देनी पड़ी कि उसने कोई इजाजत नहीं दी है। जिस उत्तराखंड में बाबा का यह खरबपति कारोबार है, वहां की भाजपा सरकार को भी इस कंपनी को नोटिस जारी करना पड़ा। पुलिस में एक रिपोर्ट हुई, और शायद अदालत में भी एक केस किया गया। कुल मिलाकर बाबा इतनी बुरी तरह घिरा कि उसे तुरंत अपने उगले हुए शब्द निगलने पड़े कि यह कोरोना की दवाई है। उसके बाद से बाबा और उसकी कंपनी की बोलती बंद है। लेकिन सोशल मीडिया पर जो हिन्दुत्ववादी, राष्ट्रवादी फौज ओवरटाईम करती है, उसने तुरंत बाबा-ब्रांड आयुर्वेद के खिलाफ किसी भी कार्रवाई को तुरंत ही बहुराष्ट्रीय कंपनियों की साजिश करार दे दिया, और लगातार अभियान चलने लगा कि यह हिन्दुस्तान के गौरवशाली आयुर्वेद के खिलाफ पश्चिमी दवा कंपनियों की साजिश है। अब सवाल यह उठता है कि बाबा को नोटिस देने वाली केन्द्र की नरेन्द्र मोदी सरकार इस साजिश में भागीदार कही जाएगी या फिर उत्तराखंड की भाजपा सरकार?
दरअसल जब किसी ब्रांड को ही उस सामान का अकेला मालिक बना दिया जाता है, तो ऐसा ही होता है। हिन्दुस्तान में हजारों बरसों से आयुर्वेद और योग का इतिहास बताया जाता है। लेकिन इन दोनों की इतनी बुरी नौबत कभी नहीं आई थी क्योंकि इन दोनों को किसी साजिश के तहत इस तरह कभी नहीं भुनाया गया था। रामदेव के पहले न किसी ने योग को ऐसा दुहा था कि दूध के साथ खून भी निकल आए, और न ही आयुर्वेद को लेकर ऐसे अवैज्ञानिक दावे किसी ने किए थे। यह पहली बार हो रहा है कि देश की इन गौरवशाली परंपराओं के साथ ऐसा खिलवाड़ हो रहा है, और उन्हें टकसाल की तरह चलाने के लिए ऐसी भगवा साजिश हो रही है। अब जो लोग राष्ट्र को बाबा से जोडक़र देखना चाहते हैं, जो देश को बाबा-ब्रांड आयुर्वेद और योग से जोडक़र देखते हैं, उन्हें इस बाबा से कोई भी सवाल नाजायज और देश के साथ गद्दारी लगेंगे ही। यह समझने की जरूरत है कि जो लोग बाबा को राष्ट्रीयता और देश के गौरवशाली इतिहास का ब्रांड एम्बेसडर मानकर चलते हैं, उन्हें तो बाबा को सवालों से उसी तरह परे और ऊपर रखना है जिस तरह भारत माता से कोई सवाल नहीं हो सकता, भगवान राम से कोई सवाल नहीं हो सकता।
जिस आयुर्वेद की हिन्दुस्तान के बाहर भी खासी इज्जत थी, उस आयुर्वेद को फुटपाथ पर ताबीज बेचने वाले के अंदाज में बेचकर बाबा ने उसे मिट्टीपलीद कर दिया। जिसे अपने काम से काम रखना था, उसने योगी की तरह योग की बात करने के बजाय यूपीए सरकार के खिलाफ ऐसा भयानक आंदोलन छेड़ा था कि वह सलवार-कुर्ता पहनकर 35 रूपए लीटर में पेट्रोल बेच रहा था, दुनिया से सारा कालाधन वापिस ला रहा था, हर हिन्दुस्तानी के खाते में 15 लाख रूपए डाल रहा था, और डॉलर की कीमत 35 रूपए कर रहा था। इंटरनेट की मेहरबानी से रजत शर्मा के टीवी शो के बाबा के ये सब दावे और इन पर मौजूदा भीड़ की तालियां अभी भी देखी जा सकती हैं। नतीजा यह हुआ कि ये सब दावे झूठे साबित होने के साथ-साथ एक जनधारणा यह बनी कि शायद योग और आयुर्वेद भी ऐसे ही फर्जी सामान हैं, इस बाबा के दावों सरीखे।
लोकतंत्र में ऐसी कई हरकतों की गुंजाइश रहती है, इसलिए लोगों को यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि न आयुर्वेद, और न योग को लोकतंत्र और देश से जोडऩा चाहिए, मोदी सरकार के समर्थन से जोडऩा चाहिए, या कि पिछली यूपीए सरकार के विरोध का हथियार उन्हें बनाना चाहिए। जब कभी ऐसा बेजा इस्तेमाल होता है, बाबाओं की तो इज्जत क्या मिटेगी, देश के गौरवशाली इतिहास की चिकित्सा और जीवनशैली की इन बातों की इज्जत मिट्टी में मिलती है। जब पतंजलि जैसा कोई कारोबार अपने सामानों को बेचने को देश की सेवा साबित करता है, और उन्हें खरीदना देशभक्ति और राष्ट्रवाद का सुबूत बताता है, तो इससे राष्ट्र की इज्जत खतरे में पड़ती है। कोई कारोबार देशभक्ति नहीं हो सकता, और कोई ब्रांड राष्ट्रवाद नहीं हो सकता। योग या आयुर्वेद कभी लोकतंत्र का विकल्प नहीं हो सकते, और हिन्दुस्तान जैसे विविधतावादी देश में किसी एक धर्म को राष्ट्रवाद का एकाधिकार नहीं मिल सकता। यह पूरा सिलसिला कुछ उसी किस्म का है कि देशभक्ति की फिल्मों को बनाने और उनमें एक्टिंग करने को मनोज कुमार देश सेवा या राष्ट्रवाद मान लें।
न तो लोकतंत्र में, और न ही जिंदगी के किसी और दायरे में दो चीजों को मिलाना चाहिए। धर्म और आध्यात्म की दुकान चलाने वाले बड़े-बड़े बापू और बाबा जिस तरह आज जेलों में कैद हैं, उससे यह समझना चाहिए कि राजनीति में इनका इस्तेमाल गलत रहा, और बुरी बात रही। धर्म और आध्यात्म को अपनी दुकान अलग चलाने देना चाहिए, और प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्रियों को उसका फीता काटकर वहां से खरीददारी करने के धंधे में नहीं पडऩा चाहिए। जिन लोगों को यह लगता है कि इस बाबा रामदेव के अवैज्ञानिक और बेवकूफ बनाने वाले झूठे दावों का विरोध देश के इतिहास का विरोध है, देश के गौरव का विरोध है, वे इस अभियान को चलाने के लिए अगर कुछ कमा रहे हैं तब तो ठीक है, लेकिन अगर बिना कमाए वे यह अभियान चला रहे हैं, तो फिर यह अपनी खुद की साख के खिलाफ एक आत्मघाती काम कर रहे हैं। हिन्दुस्तान का लोकतंत्र किसी योग और आयुर्वेद का मोहताज नहीं है, वह किसी बाबा का मोहताज भी नहीं है। सच तो यह है कि इस लोकतंत्र के जन्म का इतिहास न तो अकेले भगत सिंह का मोहताज था, और न ही गांधी का। यह लोकतंत्र ऐसे लोगों की मेहनत से हासिल हुआ है जिनके लिए हिन्दू और मुस्लिमों में फर्क नहीं था, जिनके लिए अपनी कमाई हुई जायदाद देश के नाम करने में हिचक नहीं थी, जिनके मन में जेल अंग्रेजों की जेल जाने का, और वहां रहने का खौफ नहीं था, जिनके मन में अंग्रेज-जेल के फांसी के फंदे का डर नहीं था, और न ही गोडसे की गोलियों का डर था। ऐसी कुर्बानी देने वाले लोगों का हासिल किया हुआ यह लोकतंत्र पाखंडी बाबाओं का मोहताज तो कभी भी नहीं रहेगा। धर्म और योग के नाम पर भगवा पैकिंग में राष्ट्रवाद बेचने की ऐसी बाबाई साजिश से धर्म और योग का जितना बड़ा नुकसान हुआ है, उतना बड़ा नुकसान तो सैकड़ों बरस के मुगल राज में, और डेढ़ सौ बरस के अंग्रेजी राज में भी नहीं हुआ था। यह बात जिनको समझ नहीं पड़ती है, वे फुटपाथ पर ताबीज खरीदने की तरह ऐसे बाबाओं से अपने देशप्रेमी होने की रसीद लेने उनकी दुकान जाएं और खरीददारी करें।
अमिताभ बच्चन के लिखे एक-एक शब्द करोड़ों बार दुहराए जाते हैं। वे 25 शब्दों का ट्वीट करते हैं, तो वह हिन्दुस्तान के हर अखबार, हर टीवी चैनल, और हर समाचार पोर्टल पर खबर बन जाता है। प्रकृति ने कहीं-कहीं आवाज गूंजने वाली जगहें बनाई हैं, कहीं पहाड़ से, तो कहीं गुफा में लोग कुछ बोलकर अपनी ही आवाज वापिस सुन लेते हैं। अमिताभ बच्चन की पूरी जिंदगी ही ऐसी हो गई है कि आधी रात वे कुछ ट्वीट करें, और अगली सुबह तमाम अखबार उसमें काफी कुछ जोड़-घटाकर उसकी बड़ी सी खबर ले लें। टीवी चैनल एक-एक ट्वीट पर टूट पड़ते हैं, और कई मिनटों का एयरटाईम उसी को समर्पित हो जाता है। शोहरत लोगों को इतनी अहमियत दिला देती है कि उनके एक-एक शब्द बहुत मायने रखते हैं। विराट कोहली जैसे मशहूर क्रिकेटर, या प्रियंका चोपड़ा जैसी मशहूर एक्ट्रेस के बारे में चर्चा रहती है कि वे इंस्टाग्राम पर एक-एक पोस्ट के लिए करोड़ रूपए से अधिक पाते हैं। अब ऐसी खबरों की हकीकत तो महज ऐसे सितारे, या आयकर विभाग बता सकते हैं, लेकिन चर्चा तो ऐसी ही रहती है।
अब आज अमिताभ बच्चन की खबरों के सैलाब के बीच इस मुद्दे पर लिखा क्यों जा रहा है, यह भी एक सवाल है। और इसका जवाब यह है कि अमिताभ बच्चन की तंगदिली से, सामाजिक सराकारों से कोई वास्ता न रखने जैसी उनकी खामियों के बीच भी उनके व्यक्तित्व और उनकी जिंदगी की एक बात ऐसी है जिससे तमाम लोग काफी कुछ सीख सकते हैं। आज की पीढ़ी को शायद यह याद नहीं होगा कि कुछ दशक पहले अमिताभ बच्चन ने फिल्मों में काम करने से परे मनोरंजन उद्योग का कारोबार शुरू किया था, और उसमें वे लंबे घाटे में चले गए थे, डूब गए थे। किसी एक इंटरव्यू में उन्होंने बतलाया था कि कर्ज से उस दौर में फिल्म उद्योग के ही दूसरे लोग अपनी वसूली के लिए अमिताभ के पास लोग भेजकर उन्हें किस तरह बेइज्जत करते थे। लेकिन उस पूरे दौर में दो बातें अमिताभ के साथ रहीं, और जो किसी को भी कैसी भी मुसीबत से उबरने में मदद कर सकती हैं। अमिताभ ने हिम्मत नहीं छोड़ी, मेहनत नहीं छोड़ी, वे लगातार संघर्ष करते रहे, और आज भी फिल्म उद्योग में सबसे अधिक मेहनत करने वाले लोगों में से वे एक हैं, रात 3 बजे, 4 बजे वे किसी रिकॉर्डिंग या शूटिंग से लौटते हुए भी ट्वीट करते हैं, लौटकर ब्लॉग लिखते हैं। यह तो हुई एक बात, और दूसरी बात यह कि मुसीबत के उस दौर में हिन्दुस्तान के कुछ ताकतवर लोग उनके करीबी दोस्त थे, उनके साथ थे, और ऐसी चर्चा है कि उन्होंने कर्ज से उबरने में अमिताभ की मदद की थी।
जो भी हो, कम से कम अमिताभ बच्चन किसी जुर्म की कमाई से कर्ज से नहीं उबरे थे, और उन्होंने कर्ज चुकाने के बाद लगातार शोहरत और कामयाबी के नए रिकॉर्ड कायम किए, और वन मैन आर्मी की तरह वे लगातार आगे बढ़ते चले गए। इस किस्से को सुनाने का एक मकसद यह है कि जो लोग आज कर्ज में डूब गए हैं, परेशानी में फंसे हैं, जिन्हें रौशनी की कोई किरण नहीं दिख रही है, उन्हें भी अमिताभ का उबरना देखना चाहिए। वे हिन्दुस्तान की एक सबसे बड़ी मिसाल हैं कि सबसे बुरे हालात से उबरकर कैसे आसमान पर पहुंचा जाता है। लेकिन उनके उबरने में, जैसी कि चर्चा है, अगर उनके कुछ बहुत ताकतवर और अतिसंपन्न दोस्त उनके मददगार रहे, तो लोगों को जिंदगी में इस बात का ख्याल भी रखना चाहिए। वैसे तो आदर्श स्थिति यह है कि दोस्ती बिना मतलबपरस्ती के होना चाहिए, लेकिन हकीकत यह है कि दोस्तों में कम से कम कुछ तो ऐसे रहें जो कि आड़े वक्त पर आकर खड़े रह सकें, किसी काम आ सकें। सोच-समझकर किसी संपन्न से किसी मकसद से दोस्ती नहीं की जा सकती। लेकिन आसपास अपने दोस्तों को छोटी-छोटी परेशानियों के वक्त छोटी-छोटी बातों के लिए कसौटी पर कस लेना चाहिए कि क्या आड़े वक्त पर वे साथ खड़े रहेंगे? और बात महज पैसों की मदद की नहीं होती है, हौसले की भी होती है, और खराब वक्त में सार्वजनिक रूप से साथ देने की भी होती है। अधिकतर लोग इस खुशफहमी में जीते हैं कि उनके दोस्त इतने भरोसेमंद हैं कि जरूरत पडऩे पर वे उनके लिए अपनी जान भी दे देंगे, लेकिन जिनसे किडनी पाने की उम्मीद रखी जाती है, वे वक्त पर एक दिन के अपनी कार भी देने से परहेज करते हैं। इसलिए जिंदगी में इस बात के लिए भी तैयार रहना चाहिए कि अपने आसपास के लोगों को तौल लिया जाए कि बुरे वक्त वे कितना कंधा देने तैयार रहेंगे। बहुत पहले एक बार इसी पन्ने पर हमने लिखा था कि लोगों को दो चक्कों वाली एक अर्थी, या जनाजा, बनवाकर रखना चाहिए, ताकि चार लोग न जुटें, तो दो ही लोग उसे धकेलकर ले जा सकें। लोगों को ऐसी नौबत के खतरे को अनदेखा नहीं करना चाहिए, और उसके लिए तैयार भी रहना चाहिए।
इन दोनों बातों को मिला लें तो कुल मिलाकर बात यह बनती है कि दिन चाहे कितने ही खराब आ जाएं, हौसला नहीं छोडऩा चाहिए, उससे उबरना नामुमकिन नहीं मानना चाहिए। अंग्रेजी के शब्द इम्पॉसिबल के अंग्रेजी हिज्जों को तोडक़र ही एक दूसरा शब्द बनता है आई एम पॉसिबल। और इसकी एक बड़ी शानदार और अच्छी मिसाल अमिताभ बच्चन हैं। लेकिन ऐसी दूसरी भी बहुत सी मिसालें हैं जिन्हें लोगों ने दोनों पैर खो दिए, और दोनों नकली पैरों के साथ जो एवरेस्ट पर पहुंचे। ऐसे लोग जिनकी आंखें नहीं थीं, वे भी एवरेस्ट पर पहुंचे। कहीं कोई अकेली लडक़ी या महिला दुनिया के कई समंदर चीरते हुए एक बोट पर अकेले ही आधी दुनिया पार कर लेती है। ऐसे बहुत से असल जिंदगी के किस्से हैं, जो खालिस हकीकत हैं, और जो मुसीबत में फंसे लोगों को एक बढिय़ा रास्ता भी दिखाते हैं। अमिताभ बच्चन की बात चल रही है इसलिए यह भी याद करना ठीक होगा कि जिस वक्त वे मुंबई के फिल्म उद्योग में आए थे, उन्हें उनकी बहुत अधिक लंबाई के बारे में कहा गया था कि वे नीचे से पैर एक फीट कटाकर आएं। कोई उन्हें फिल्म देने तैयार नहीं थे। और आज उनकी हालत यह है कि हिन्दुस्तान के गहनों के सबसे बड़े ब्रांड की मॉडलिंग करके वे गहने बिकवाते हैं, और हिन्दुस्तान की सबसे बड़ी गिरवी रखने वाली कंपनी की मॉडलिंग करके सोने के गहने गिरवी भी रखवाते हैं। फिल्मों की कामयाबी, टीवी की शोहरत, मॉडलिंग और ब्रांड प्रमोशन के अलावा वे पता नहीं क्या-क्या करते हैं, और कैसे-कैसे कितना-कितना कमाते हैं। लेकिन यह याद रखने की जरूरत है कि एक फिल्म की शूटिंग के दौरान जख्मी होकर वे मौत के मुंह में जा चुके थे, और वहां से लौटकर आए थे। उन्हें पिछले दस-बीस बरस से एक बहुत गंभीर बीमारी चले आ रही है, और वे उसके साथ ही एक उद्योग की तरह रात-दिन काम करते रहते हैं। इसलिए महज दोस्तों से कुछ नहीं होता, महज संपन्न दोस्तों से कुछ नहीं होता, खुद का हौसला भी रहना जरूरी होता है, खुद मेहनत भी करनी होती है, और बुरे वक्त के लायक तैयार भी रहना होता है। यह बात हम आज इसलिए लिख रहे हैं कि आज चारों तरफ आम से काफी अधिक गिनती में आत्महत्याएं हो रही हैं, लोगों को ऐसा लगता है कि तकलीफ और दहशत के इस दौर में खुदकुशी बढ़ भी सकती है। लोगों को हौसला रखना चाहिए, और हो सके तो अपनी दीवारों पर उन लोगों की तस्वीरें चिपाककर रखनी चाहिए जिन्होंने दोनों नकली पैरों के साथ एवरेस्ट पर फतह हासिल की है।
सरकार और समाज दोनों को आज ऐसी योजना बनाने की जरूरत है कि जब कभी कोरोना का खतरा खत्म होगा, उस वक्त आज बनाए गए ढांचे का क्या इस्तेमाल होगा। दुनिया के तकरीबन हर देश, और हिन्दुस्तान के तकरीबन हर प्रदेश ने इस दौरान मेडिकल जांच की क्षमता कई गुना कर ली है, अस्पतालों में मरीजों को दाखिल करने की क्षमता अंधाधुंध बढ़ा ली है। सरकारों ने अपनी बहुत सी गैरजरूरी इमारतों को अस्पतालों में तब्दील कर दिया है, मेडिकल मशीनें खरीद ली गई हैं। इसी तरह कारोबार में भी एक संक्रामक रोग के चलते अपने तौर-तरीकों को बदल डाला है, कई नई चीजें ईजाद की गई हैं। सरकारी दफ्तरों में काम का अंदाज बदल गया है। लोग कागजों से परहेज करने लगे हैं। बहुत से काम कहीं गए बिना वीडियो कांफ्रेंस से होने लगे हैं। अब यह एक नई पटरी बिछ गई है जिस पर कोरोना-प्रतिरोधक एक्सप्रेस दौड़ रही है।
यह मौका बंद कमरों में बैठकर योजनाएं बनाने वाले लोगों के लिए है जो कि हो सकता है कि आज एक कमरे में बैठक करने के बजाय किसी वीडियो कांफ्रेंस पर दूसरे जानकार-विशेषज्ञों से बात करके इसकी तैयारी कर सकते हैं कि कोरोना के बाद की दुनिया और जिंदगी में आज खड़े किए गए ढांचे,जुटाए गए साधन, और सीखी गई नई तकनीकों का क्या इस्तेमाल हो सकता है। ऐसा लगता है कि सरकारें अगर अभी से योजना बनाएं तो साल-छह महीने बाद कोरोना का खतरा खत्म होने पर सरकारें सरकारी दफ्तरों में आवाजाही घटा सकती हैं, वहां पर लोगों का इंतजार खत्म कर सकती हैं, जगह-जगह लगने वाली कतारों का कोई इलाज निकाला जा सकता है, और सरकार कागजों का काम घटा सकती है। सरकारी काम का सरलीकरण इसलिए जरूरी है कि सरकारी दफ्तर कोरोना फैलने की एक बड़ी वजह अगर आज नहीं भी थे, तो भी कल किसी और संक्रामक रोग के समय ऐसा हो सकता है,इसलिए जनता को सरकार के पास कम से कम जाना पड़े, ऐसा प्रशासनिक सुधार अभी से सोचा जाना चाहिए। दूसरी बात यह कि जिन लोगों को भी एक-दूसरे से कागज लेने पड़ रहे हैं, नोट लेने पड़ रहे हैं, पहचानपत्र देखने के लिए लेना पड़ रहा है, उन सब रोजमर्रा के चीजों के ऐसे डिजिटल रास्ते निकालने की जरूरत है जिसमें लोग अपने मोबाइल फोन को दूर से दिखाकर ही काम चला सकें, या पहचानपत्र को सुरक्षाकर्मी के फोन पर भेज सकें,ताकि एक-दूसरे का फोन भी छूने की जरूरत न पड़े। दुनिया को यह मानना ही नहीं चाहिए कि कोरोना खत्म होने के साथ दुनिया से संक्रामक रोग खत्म हो जाएंगे, या कम से कम सौ बरस पहले की पिछली संक्रामक महामारी की तरह अब अगली संक्रामक महामारी सौ बरस बाद आएगी। लोगों को ऐसी खुशफहमी में नहीं जीना चाहिए। हो सकता है कि कोरोना का कुंभ के मेले में बिछुड़ा हुआ कोई भाई अगले बरस ही आ जाए जिसके तेवर इसके मुकाबले भी कई गुना अधिक खतरनाक हों, जो कि इंसानों के साथ-साथ जानवरों को भी प्रभावित करने वाला हो। ऐसी हालत में सावधानी की तैयारी आज से भी कई गुना अधिक लगेगी, और समाज से लेकर सरकार तक, और कारोबार तक सबको इसके लिए आज के सबक और आज की तैयारी का इस्तेमाल करना चाहिए।
आज सरकार और समाज सबकी जिंदगी एक बहुत बड़े घाटे में आ गई है। यह भी एक वजह है कि सबको ऐसे रास्ते निकालने चाहिए कि खर्च घटे, खपत घटे, काम आसान हो। सरकारें आज तो युद्धस्तर पर काम करके मरीजों को बिस्तर देने के संघर्ष में लगी हैं, और यह क्षमता भी खत्म हो चुकी है इसलिए उत्तरप्रदेश जैसे बड़े प्रदेश के मुख्यमंत्री ने भी यह कह दिया है कि वह कुछ किस्म के कोरोना पॉजिटिव मरीजों को कुछ शर्तों के आधार पर घर पर रहने की छूट देंगे। ऐसी ही बात बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी पहले ही कर चुकी हैं। छत्तीसगढ़ में भी नौबत इसके करीब पहुंच रही है, हालांकि यहां स्वास्थ्य मंत्री इस रियायत के खिलाफ अड़े हुए हैं। ऐसे में यह कल्पना कर लेना जरूरी है कि अगले ही बरस अगर इससे भी अधिक जानलेवा कोई दूसरा संक्रामक रोग आता है, तो उससे बचने के लिए सरकार कैसे तैयार रहे, और जनता कैसे तैयार रहे। कैसे सरकार इस तकलीफ से गुजर रही जनता के बर्बाद हो चुके इस पूरे साल की भरपाई के लिए उसकी जिंदगी आसान कर सकती है। सरकार को जनता से कागज भरवाना और कागज लेना खत्म करना चाहिए। यह सरकार की किफायत के लिए जरूरी है, जनता की बचत के लिए जरूरी है, और दोनों की जिंदगी बचाने के लिए भी जरूरी है। पूरे देश में सरकारी कामकाज के जानकार, टेक्नालॉजी के विशेषज्ञ, और सामाजिक कार्यकर्ता साथ बिठाए जाने चाहिए कि वे सरकारी और कारोबारी कागजी खानापूरी को शून्य करने की तरफ कैसे बढ़ें। यह बात आसान नहीं होगी क्योंकि सरकार में तो जितने रोड़े अटकाए जा सकते हैं, ऊपरी कमाई की संभावना उतनी ही बढ़ती है। लेकिन अपने कर्मचारियों और अधिकारियों की जनता की कतारें लगवाने की हसरतों को खत्म करना चाहिए, और लोग घर बैठे सरकारी काम करवा सकें, इसके पूरे तरीके अभी से शुरू कर देना चाहिए क्योंकि अगली महामारी तो जब आए तब आए, आज भी गैरजरूरी सरकारी औपचारिकताएं जानलेवा हैं ही।
इसी तरह स्कूलों को, आने-जाने के साधनों को, ट्रेनों के सफर और उनमें खानपान को आसान करने की जरूरत है। हर विभाग और हर क्षेत्र को यह कहना चाहिए कि वे अपने काम को आसान बनाने का काम तेजी से शुरू करें। हर घर-परिवार को सावधानी से यह सीखना चाहिए कि वे किसी भी संक्रमण से बचने के लिए किस तरह सावधान रहें। खरीददारी से लेकर किसी दूसरी बीमारी के लिए भी अस्पताल, डॉक्टर, या मेडिकल स्टोर जाना कैसे कम किया जा सकता है, इसकी भी तरकीबें लोगों को खुद सोचनी चाहिए।
हम घूम-फिरकर बार-बार बचाव की बातों पर इसलिए आ जाते हैं, और मसीहाई अंदाज में नसीहत और बिन मांगी सलाह इसलिए देने लगते हैं कि बचाव ही सबसे सस्ता है, और कई मायनों में तो बचाव ही है जिससे कि जिंदगी बच सकती है, वरना आज हम देख रहे हैं कि सुरक्षाबलों के सेहतमंद जवान भी कोरोना में मारे जा रहे हैं। जो लोग एकदम फिट हैं, उनकी भी प्रतिरोधक क्षमता कोरोना के सामने जवाब दे रही है, और छत्तीसगढ़ में किसी एक तबके के लोग सबसे अधिक संख्या में कोरोनाग्रस्त निकले हैं, तो वे केन्द्रीय सुरक्षाबलों के लोग हैं जिनका कि जनता से वास्ता बहुत कम पड़ता है, जो सेहतमंद रहते हैं, जिनका खानपान फिट रहता है, और जिन्हें इलाज हासिल रहता है।
इसलिए कोई भी लोग अपने आपको महफूज न मानें, खतरा सब पर है, और सबसे है। ऐसे में इस बार के कोरोना या अगले बार के उसके किसी जुड़वां भाई से बचाव के लिए हर किसी को लेन-देन, आवाजाही, कागजी कार्रवाई, कतारें, इन सबको घटाना चाहिए। आज वक्त रहते अगर देशों और प्रदेशों की सरकारों ने इस पर सोचना शुरू नहीं किया तो थोक में आती मौतों को रोकना नामुमकिन भी रहेगा, और अंधाधुंध महंगा भी पड़ेगा। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
इन दिनों एक नारा हवा में बड़ा तैर रहा है, आपदा में अवसर। बहुत बरस पहले हिन्दुस्तान में एक किसी बड़े रेल हादसे में बड़ी संख्या में मुसाफिर मारे गए थे, और आसपास के गांव के लोगों ने लाशों और जख्मियों के बदन से घड़ी और गहने उतार लिए थे, उसके बाद भी अगर वे उनकी जान बचाने में मदद करते तो भी उस लूट को अनदेखा किया जा सकता था, लेकिन उन्होंने सिर्फ लूटने का काम किया, मदद नहीं की। उन्होंने आपदा को अवसर में तब्दील कर लिया था। दुनिया के बहुत से देशों में ऐसा ही होता है, और अपने एक काल्पनिक इतिहास पर अपार गर्व करने वाले हिन्दुस्तान में कुछ अधिक होता है। जिस समाज में दलित अपने जन्म से ही आपदा में जीते और बड़े होते हैं, वहां उनके आसपास के ऊंची कही जाने वाली जातियों के दबंग इसे अपने लिए अवसर में तब्दील करते ही रहते हैं। लेकिन कोरोना के साथ शुरू हुए हिन्दुस्तानी लॉकडाऊन को देखें तो इस देश में कोरोना फैलने की शुरूआत अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप के अहमदाबाद प्रवास से हुई जो कि एक किस्म से अमरीका में बसे भारतवंशी वोटरों के बीच चुनाव प्रचार की शुरूआत थी, उसमें भी एक आपदा के बीच एक अवसर निकाल लिया था, और अवसर को निचोडऩे के बाद छिलकों की तरह कोरोना यहां छोडक़र चले गया था।
इन सबके बीच देखें तो सबसे बड़ा अवसर इस देश और इसके प्रदेशों की सरकारों ने निकाल लिया, उन्होंने इस आपदा को इस अवसर में बदल दिया कि देश-प्रदेश की तमाम दिक्कतें अब अनदेखी करनी चाहिए क्योंकि कोरोना का प्रकोप इतना अधिक है, और लॉकडाऊन से सरकारों की हालत इतनी खराब हो चुकी है कि वे इससे बेहतर कुछ नहीं कर सकते। तमाम सरकारों को आपदा के बीच यह एक अवसर मिल गया है, अपनी नाकामयाबी को अदृश्य कोरोना के पीछे छिपा लेने का। कुछ ऐसा ही अवसर हिन्दुस्तान के कारोबारियों ने ढूंढ निकाला है कि जब पहले से चली आ रही मंदी के बाद कोरोना और लॉकडाऊन से आई तबाही से धंधा चौपट हो ही गया है, तो उसे पूरी तरह चौपट बताया जाए, जहां सत्यानाश, वहां सवा सत्यानाश। बहुत से कारोबारी ऐसे रहे जिन्होंने बैंकों के कर्ज को न चुकाने का एक अवसर इस आपदा के बीच से ढूंढ निकाला, और अब बिना घोषणा के वे दीवाला का निकालने का तैयार बैठे हैं।
लेकिन ऐसी तमाम नकारात्मक बातों के बीच बहुत सी सकारात्मक बातें भी हुई हैं जिन्हें अनदेखा करना नाजायज होगा। जो समझदार लोग थे उन्होंने लॉकडाऊन के इन महीनों में खाली मिले वक्त से बहुत से नए हुनर सीखे, अपने पुराने हुनर को बेहतर किया, और मांज लिया। लोगों ने बकाया बेहतर किताबें पढऩे का काम पूरा कर लिया, जिन अच्छी फिल्मों को देखना था उनको देख लिया। घर के स्टोर रूम से लेकर कम्प्यूटर और मोबाइल फोन, हार्डडिस्क तक से कचरा साफ कर लिया। ऑनलाईन कई किस्म के हुनर सीख लिए, वीडियो कांफ्रेंस करना सीख लिया, वीडियो मीटिंग करना सीख लिया। जो लोग खबरों की दुनिया में हैं, उन्होंने ऑनलाईन बहुत सी बेहतर खबरों को ढूंढा, पढ़ा, और उनसे बहुत कुछ सीख भी लिया। लोगों ने साफ रहने की आदत बना ली, और चाहे मजबूरी में ही सही, गप्प मारते हुए फिजूल में वक्त बर्बाद करना बंद करना पड़ा, और बहुत से लोगों ने ऐसे बचे हुए वक्त का बेहतर इस्तेमाल करना सीख लिया। आपदा में से अवसर निकालना बहुत मुश्किल काम नहीं है, वह नारियल के मोटे छिलके के भीतर से मीठा गूदा निकालने जैसा मुश्किल काम नहीं है, जिस तरह कोई मुजरिम लाश पर से घड़ी उतार लेते हैं, उसी तरह भले इंसान ऐसी आपदा के बीच वक्त का बेहतर इस्तेमाल निकाल लेते हैं।
लेकिन पिछले कुछ महीनों में कई बार हमने इस जगह इस मुद्दे पर लिखा था कि लोगों को लॉकडाऊन के वक्त का बेहतर इस्तेमाल करना चाहिए। आज फिर इस बारे में लिख रहे हैं कि बहुत से लोगों ने ऐसा बेहतर इस्तेमाल किया है, और आने वाले कई महीने लोगों के पास सीमित व्यस्तता के असीमित खाली घंटे रहने वाले हैं, और जिन्होंने अब तक ऐसे खाली वक्त का बेहतर इस्तेमाल नहीं किया है, वे भी अब शुरू कर सकते हैं, क्योंकि कोरोना की मेहरबानी से, और हिन्दुस्तानी सरकार की हसरत से परे, वैक्सीन बनने में अभी कई महीने बाकी हैं, और लोगों को इनका बेहतर इस्तेमाल सोचना चाहिए। और कुछ नहीं है तो अपनी और परिवार की सामाजिक-राजनीतिक सोच को बेहतर-परिपक्व बनाने की कोशिश करनी चाहिए, जो कि हिन्दुस्तानियों की प्राथमिकता सूची में कहीं नहीं है। लॉकडाऊन के इस पूरे दौर में पांच-दस करोड़ प्रवासी मजदूरों को घरवापिसी के लिए, रास्ते में खाने-पीने के लिए, उनके कुछ घंटे आराम के लिए अगर राह के बाकी सौ करोड़ नागरिकों ने सोचा रहता, तो आज ऐसी बुरी हालत हिन्दुस्तान के लॉकडाऊन-इतिहास में दर्ज नहीं हुई होती। लोगों के सामाजिक सरोकार निर्वाचित लोगों की नीयत से भी अधिक कमजोर हैं, और अपनी बस्ती में बेबस गरीबों की लाशें गिर जाती हैं, तो भी लोगों के सरोकारों की नींद नहीं टूटती है। इसलिए महज हुनर को बेहतर बनाना आपदा को अवसर में बदलने का अकेला तरीका नहीं है, अपनी समझ को भी इंसानी बनाना जरूरी है, अपने परिवार और अपने दायरे को भी इंसाफपसंद बनाना जरूरी है। आज जब लोगों के पास पढऩे और पढ़ाने के लिए अधिक वक्त है, तो लोगों को इस आपदा को जागरूकता के ऐसे अवसर में भी बदल लेना चाहिए। दुनिया का इतिहास गवाह है कि भले लोगों को किसी अवसर के लिए किसी आपदा की जरूरत नहीं रहती, और बुरे लोगों को अपनी बुरी नीयत पूरी करने के लिए भी आपदा अनिवार्य नहीं रहती, लेकिन इन दोनों तबकों के बीच का जो बहुत बड़ा ढुलमुल तबका है, उसके लिए आपदा का अधिक इस्तेमाल है, और उसे इसका सकारात्मक उपयोग करना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
इन दिनों हत्या, आत्महत्या, और बलात्कार की खबरें कुछ महीने पहले के मुकाबले अधिक दिख रही हैं। अभी ऐसी तुलना करने के कोई आंकड़े तो नहीं हैं, लेकिन पहली नजर में ऐसा लगता है कि ऐसे अपराध, और आत्महत्या जैसे अब गैरअपराध करार दिए जा चुके मामले बढ़ रहे हैं। मनोवैज्ञानिक और मनोचिकित्सक भी यह बतला रहे हैं कि कोरोना और लॉकडाऊन, बीमारी की दहशत और बेरोजगारी-फटेहाली का मिलाजुला असर इसी किस्म से होने जा रहा है कि लोग तनाव और निराशा में ऐसे काम अधिक करेंगे।
एक अनदेखी-अनसुनी बीमारी की अंधाधुंध दहशत से लोग उबर नहीं पा रहे हैं। खासकर वे लोग जो कि कोरोना के खतरे को अधिक गंभीरता से ले रहे हैं, वे अधिक दहशत में हैं। जो लोग अधिक लापरवाह हैं, शायद उनकी दिमागी हालत बेहतर होगी, क्योंकि वे बेफिक्र हैं। लेकिन दुनिया पर से कोरोना का खतरा अभी घट नहीं रहा है, बल्कि बढ़ते चल रहा है। हिन्दुस्तान में हर दिन आज से पचास हजार या अधिक लोग कोरोनाग्रस्त मिल रहे हैं। किसी परिवार के एक व्यक्ति के कोरोनाग्रस्त होने से उस परिवार को जिस तरह घर में कैद रहना पड़ रहा है, जिस तनाव के बीच अस्पताल में अपने सदस्य को छोडऩा पड़ रहा है, जिस तरह अड़ोस-पड़ोस और समाज के लोगों की नजरों का सामना करना पड़ रहा है, उससे जाहिर है कि एक अभूतपूर्व और गंभीर तनाव सबके सामने है। किसी एक घर से किसी के कोरोनाग्रस्त होते ही आसपास के तमाम घरों का सुख-चैन, अगर अब तक थोड़ा सा बचा हुआ है तो, छिन जाता है। जो लोग इससे अब तक बेफिक्र हैं, उसमें भी बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है जिनका काम-धंधा बंद हो चुका है, रोजी छिन चुकी है, कर्ज बढ़ते चल रहा है, और जैसा कि किसी ने अभी-अभी सोशल मीडिया पर लिखा है, लंबी अंधेरी सुरंग के आखिर में जो रौशनी दिख रही है, वह बैटरी तकरीबन खत्म हो चुके फोन की स्क्रीन की रौशनी है, जाने कब पूरी तरह चल बसे। ऐसे में लोग अंधाधुंध तनाव में हैं। कल की ही खबर है कि उत्तर भारत में एक गरीब किसान ने अपनी गाय बेच दी क्योंकि स्कूल में शिक्षकों ने उसे यह कहा था कि बच्चों की ऑनलाईन पढ़ाई अगर करवानी है, तो उनके लिए स्मार्टफोन लेना पड़ेगा, और ऐसा फोन लेने का अकेला जरिया उसके पास गाय बेचकर ही निकल पाया। अब अगर देश में हो रहीं बहुत सी दूसरी आत्महत्याओं में यह भी एक जुड़ जाए तो क्या हैरानी होगी? बेरोजगारी की वजह से, घर में खाने का जुगाड़ न होने की वजह से तनाव में लोग आसपास के लोगों पर हिंसा कर बैठें, या अपने पर हिंसा करें, उसमें कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए।
आज पूरे देश में कोरोना से बचाव, कोरोना के इलाज, और लॉकडाऊन के असर से उबरने का संघर्ष ही चल रहा है। सरकारों से लेकर निजी लोग तक इसी में जुटे हुए हैं। ऐसे में लोगों की मानसिक स्थिति सरकार से लेकर घर-परिवार तक किसी की भी प्राथमिकता में नहीं है। आज कोई अपनी दिमागी परेशानी करीब के किसी के साथ बांटने की कोशिश भी करे, तो वे लोग खुद ही बेरोजगारी-फटेहाली में डूबे हुए हैं, कोरोना की दहशत में डूबे हुए हैं, और अधिकतर लोग इस बात पर हैरान होंगे कि जो आज जिंदा हैं, अस्पताल में नहीं हैं, खाना खा चुके हैं, उनके दिमाग में भी कोई परेशानी है!
ऐसे में तनाव जब बांटा नहीं जा सकता, तो वह बढ़ते-बढ़ते हिंसक या आत्मघाती हो रहा है। आने वाले महीनों में जब देश भर के आंकड़े सामने आएंगे, और पिछले बरस के इन्हीं महीनों से उनकी तुलना होगी, तो पता लगेगा कि हकीकत में हिंसा बढ़ी है या नहीं। लेकिन यह बात तो तय है कि पुलिस और नेशनल क्राईम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों से परे रहने वाली छोटी घरेलू हिंसा लगातार बढ़ रही है। दरअसल इंसानी मिजाज हजारों बरस की विकास यात्रा के बाद अब इस किस्म का रह नहीं गया है कि परिवार के तमाम लोग पूरे वक्त साथ रहें। इसके साथ-साथ इंसानी मिजाज ऐसा भी नहीं रह गया है कि लोग बाहर के अपने दोस्तों और दूसरे लोगों से मिले बिना रह सकें। बीमारी और फटेहाली का तनाव अलग है, और अचानक जिंदगी के तौर-तरीकों में आया यह बदलाव अलग है, इन दोनों का मिलाजुला असर लोगों पर बहुत बुरा हो रहा है। आज जब सरकार और समाज बीमारी और बेरोजगारी से ही जूझ रहे हैं, तो मनोवैज्ञानिक रास्ते निकालने और उन्हें समाज में प्रचलित करने की उम्मीद कुछ ज्यादती होगी। आज जरूरत यह है कि जिस तरह ऑनलाईन क्लास चल रही हैं, जिस तरह ऑनलाईन बैठकें चल रही हैं, उसी तरह ऑनलाईन मनोवैज्ञानिक परामर्श मुहैया कराया जाए ताकि लोग मानसिक अवसाद या मानसिक तनाव से बचे रह सकें। इसके लिए जानकार विशेषज्ञ और परामर्शदाता कुछ वीडियो बनाकर भी लोगों को भेज सकते हैं, इंटरनेट पर पोस्ट कर सकते हैं, और भडक़ाऊ वीडियो के बजाय लोगों को ऐसे वीडियो आगे बढ़ाने चाहिए। अभी इन सब तनावों के कई महीने और जारी रह सकते हैं, इसलिए सरकार न सही समाज से लोगों को रास्ते ढूंढने चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिन्दुस्तान में आज गिने-चुने मुद्दे ही खबरों में रह गए हैं। यह तो चीन की सरहद पर चीनी फौज की हिन्दुस्तान में घुसपैठ न होती तो महज कोरोना पढ़-सुनकर लोग थक गए होते। अब चीन के साथ तनातनी बैक बर्नर पर खिसका दी गई है क्योंकि राजस्थान से अधिक चटपटी और सनसनीखेज खबरें निकल रही हैं। एक प्रदेश जिसे आज पूरी ताकत से कोरोना से जूझना था वह अपनी ही पार्टी के विधायकों से जूझ रहा है। सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी के विधायक या तो जयपुर के किसी महंगे रिसॉर्ट में कैद हैं, या हरियाणा में। तरह-तरह के मामले दर्ज हो गए हैं, तरह-तरह से खरीद-बिक्री और सरकार पलटने की साजिश की खबरें हैं, और हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक कई पिटीशन दाखिल हो गई हैं, दोनों जगह सुनवाई चल रही है, दोनों जगह बड़े-बड़े दिग्गज अरबपति वकील खड़े हुए हैं। जिस बुनियादी जिम्मेदारी के लिए लोगों ने राजस्थान में कांग्रेस के विधायकों को चुना था, वह जिम्मेदारी गटर में फेंक दी गई है, और आपस में सत्ता की लूटपाट चल रही है।
यह किस किस्म का हिन्दुस्तानी लोकतंत्र हो गया है कि संसद और विधानसभाओं से बाहर रिसॉर्ट में मंत्री-मुख्यमंत्री और सांसद-विधायक इसी तरह अपने लोगों की हिफाजत करते बैठते हैं जैसे एक वक्त दुश्मन के हमले के खिलाफ लोग अपने किलों के पुल उठा लेते थे, और हथियार लेकर ऊपर की दीवारों पर जम जाते थे। उसी तरह का हाल आज हो गया है जब अपने विधायकों को भेड़-बकरी की तरह आंककर कोई इस बाड़े में ले जा रहे हैं, तो कोई किसी और बाड़े में। जानकारों ने यह भी लिखा है कि इस किस्म के दलबदल और सत्ता पलट के बारे में भारत के संविधान निर्माताओं ने कभी कल्पना नहीं की थी, वरना वे तबाही और गंदगी रोकने के कुछ और इंतजाम संविधान में करते।
आज जब पांच बरस के लिए निर्वाचित होने वाले विधायक अपनी देह को बेचते हुए घूम रहे हैं, और बेशर्मी से एक पार्टी से दूसरी पार्टी जा रहे हैं, अपनी सरकार को गिरा रहे हैं, और जिस जनता ने हाथ छाप पर वोट दिया था, उसे अब महज ठेंगा दिखा रहे हैं। ऐसे में इनको विधायक क्यों रहना चाहिए? पार्टी छोडऩे के साथ ही लोगों की विधानसभा या संसद की सदस्यता न सिर्फ खत्म हो जानी चाहिए, बल्कि पूरे पांच बरस के कार्यकाल में उनमें जनता के पास दुबारा जाने का मौका भी नहीं मिलना चाहिए। ऐसा हो जाए तो इस देश से दलबदल का दलदल कुछ या काफी घट जाएगी। आज हालत यह है कि जनता से एक पार्टी के निशान पर वोट मांगकर, उसी कार्यकाल के भीतर दूसरी पार्टी के निशान से वोट मांगकर मंत्री बनने और सत्ता को निचोड़ लेने का नंगा नाच चल रहा है, और कानून एक मूढ़ और मूर्ख की तरह बस देखने के लायक रह गया है। यह संविधान और यह कानून इस देश की संसदीय गंदगी को साफ करने की ताकत अब नहीं रखते क्योंकि यह गंदगी बहुत अधिक जहरीली हो गई है, बहुत अधिक हो गई है। यह सिलसिला खत्म होना चाहिए। यह भी कोई संसदीय लोकतंत्र है कि जनता वोट किसी पार्टी को दे, और सरकार किसी और पार्टी की बने? यह भी कोई संसद या विधानसभा है जिसके झगड़े स्थाई रूप से हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट को घेरे रहें? यह भी कोई सरकार है कि जब कर्नाटक बाढ़ में डूबा रहे, तो वहां के विधायक आन्ध्र के पांच सितारा होटलों में पड़े रहें, जब मध्यप्रदेश में कोरोना की सबसे बुरी मार चल रही हो, तब वहां के विधायकों मेें तोडफ़ोड़ करवाकर सत्ता गिरवाना चलता रहे? और आज जब राजस्थान में पूरी सरकार को ही एकजुट होकर कोरोना से लडऩा था, आर्थिक मोर्चे पर लोगों को भूखों मरने से बचाना था, तब वहां का उपमुख्यमंत्री और सत्तारूढ़ पार्टी का अध्यक्ष ही सरकार पलटने में जुट गया है। यह ऐसा हुआ कि मानो किसी कुर्सी के दो पाये उसके बाकी दो पायों को काटने में जुट जाएं। लोगों को अपना तन और अपना मन, अपना ईमान और अपना इतिहास, जो भी बेचना हो, उसकी उन्हें आजादी रहनी चाहिए, लेकिन संसद और विधानसभाओं को रेडलाईट एरिया बनने से रोकना चाहिए। और यह लिखना भी रेडलाईट एरिया की वेश्याओं का परले दर्जे का अपमान इसलिए है कि वे महज अपनी देह बेचती हैं, अपने चुनाव क्षेत्र के मतदाताओं का भरोसा नहीं। ऐसी गंदगी कम से कम जारी कार्यकाल तक तो सदन से बाहर फेंक देनी चाहिए, और हमारी सोच से अगर संविधान बने, तो जारी कार्यकाल के बाद एक और कार्यकाल चुनाव लडऩे पर रोक रहनी चाहिए, पल भर में इस देश में तन-मन की यह मंडी बंद हो जाएगी।
हिन्दुस्तानी लोकतंत्र एक बुरी तरह से बोगस और उजागर हो चुका झांसा रह गया है। सबसे पहले चुनावों के वक्त लोग दूसरी पार्टियों से उठाकर लाए गए मुजरिमों और भ्रष्ट लोगों, दंगाईयों और बलात्कारियों को टिकट देते हैं, फिर गरीब जनता को पैसे और दारू से लादकर उसका वोट छीन लेते हैं। यह सब होने के बाद भी अगर सदन में बहुमत नहीं रहता, तो उसके लिए जरूरत के लायक विधायकों या सांसदों को खरीद लेते हैं। यह भी कोई लोकतंत्र है? यह लोकतंत्र के नाम पर कलंक है, बड़ा सा काला धब्बा है, और जनता को दिया गया खालिस धोखा है। इस देश में इस चल बसे दलबदल-कानून की जगह एक बहुत साफ-सुथरे कानून की जरूरत है, वरना लोगों में राजनीति के लिए नफरत और अधिक बढ़ती ही जाएगी। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
छत्तीसगढ़ में आज से कई जिलों में एक हफ्ते का लॉकडाऊन शुरू हो रहा है क्योंकि कोरोना के मामले बढ़ते चल रहे थे, और इसके पहले कि वे एकदम बेकाबू हो जाते सरकार ने अलग-अलग जिलों पर फैसला छोड़ा कि वे कब से, कितना, कितना कड़ा लॉकडाऊन चाहते हैं। नतीजा यह हुआ कि पिछले कुछ दिनों की लगातार मुनादी के बाद आज दोपहर के करीब राजधानी रायपुर में आजादी के प्रतीक जयस्तंभ चौक से पुलिस ने एक फ्लैगमार्च किया। पुलिस के कई गाडिय़ों के काफिले में कमांडो दस्ते के जवान मुंह पर काला कपड़ा बांधे ऑटोमेटिक मशीनगनों से चारों तरफ निशाना लगाते हुए खुली गाडिय़ों पर सवार निकले ताकि लोग लॉकडाऊन को गंभीरता से लें।
नक्सलियों से लगातार टकराव की वजह से छत्तीसगढ़ पुलिस के पास बहुत किस्म के हथियार रहते हैं, इनमें से कई हथियार तो ऐसे रहते हैं जिनकी जरूरत गैरनक्सल इलाकों में शायद ही कभी पड़ती हो। राजधानी रायपुर में पिछली बार पुलिस को मामूली रायफल से भी गोली कब चलानी पड़ी थी, यह हमारे सरीखे इस शहर के बाशिंदे को भी याद नहीं पड़ रहा। किसी बदमाश को मुठभेड़ में मारने की शहर में एक घटना चौथाई सदी के भी पहले हुई थी। इस शहर में कभी किसी ने, किसी भीड़ ने पुलिस को मार डाला हो, ऐसा याद नहीं पड़ता। ऐसे में पुलिस दर्जनों ऑटोमेटिक हथियार लेकर आज किसे डराने निकली है? कोरोना को? घरों से बिना वजह बाहर निकले हुए लोगों को, या किसी और को? सवाल यह है कि लोगों के घर से निकलने पर कोई ऐसी रोक नहीं लगाई गई है कि उन्हें देखते ही गोली मारने का हुक्म जारी हुआ हो। अभी तो पिछले लॉकडाऊन के दौरान राजधानी में एक जगह पुलिस थानेदार की चलाई अंधाधुंध लाठियों की ही जांच अभी नहीं हो पाई है, तो फिर इतनी ऑटोमेटिक रायफलें लेकर पुलिस किसमें दहशत पैदा करने निकली है?
लोकतंत्र किसी भी कार्रवाई के अनुपात और संतुलन में रहने का नाम है, हर कार्रवाई जरूरत के मुताबिक न्यायसंगत और तर्कसंगत रहनी चाहिए। हिन्दुस्तान के तमाम शहरों से सबसे अधिक शांत दो-चार शहरों में रायपुर का नाम है। यहां पिछली भीड़त्या कब हुई थी किसी को याद नहीं है। पिछला कफ्र्यू कब लगा था, यह याद करने के लिए 1984 में जाना पड़ेगा, जब किसी सिक्ख की इस शहर में हत्या नहीं हुई थी। यहां साम्प्रदायिक दंगों की वजह से कब कफ्र्यू लगा, यह भी किसी को याद नहीं होगा। ऐसे में जो जनता पुलिस की मार खाकर भी चुप है, पुलिस के खिलाफ न कोई आंदोलन हुआ, न ही किसी ने अदालत में मुकदमा किया, वैसे शहर में बड़ी-बड़ी रायफलों का ऐसा अश्लील और हिंसक प्रदर्शन लोकतंत्र की समझ का जरा भी न होना है। अपनी ही जनता, अपनी ही शांतिप्रिय जनता की तरफ निशाना लगाकर ऐसी बंदूकों को लेकर एक फौजी फ्लैगमार्च उस शहर में तो ठीक है जहां पर दिल्ली के ताजा दंगों की तरह बस्तियां जल रही हैं, लोगों को थोक में मारा जा रहा है, और हिंसा बेकाबू है। आज जब डॉक्टरों की जरूरत अस्पताल में कोरोना के मरीजों की देखभाल के लिए है, उस वक्त अगर एम्बुलेंस की छत पर सवार होकर डॉक्टर और नर्सें ऑपरेशन के तरह-तरह के औजार हवा में लहराते हुए एक फ्लैगमार्च करें, तो उससे क्या साबित होगा, और उसका क्या असर होगा? क्या उससे कोरोना डर जाएगा? क्या उससे स्वस्थ लोगों के मन में अधिक सावधानी बरतने के लिए एक दहशत पैदा होगी?
आज दरअसल हिन्दुस्तान में लोकतंत्र की समझ इतनी कमजोर होती चल रही है कि अस्पतालों में भर्ती छोटे-छोटे से नेता भी वीआईपी दर्जा पाने को मरे पड़ रहे हैं, लोकतंत्र की ऐसी समझ के भीतर पुलिस की यह समझ राज कर रही है कि लोगों को घर बिठाने के लिए ऐसे कमांडो और ऐसी बंदूकों का बलप्रदर्शन किया जाए जो कि गिरती लाशों के बीच जलती बस्तियों के दंगाईयों को भीतर करने के लिए इन बंदूकों का खौफ पैदा किया जाए। यह पूरा सिलसिला लोकतंत्र की परले दर्जे की बेइज्जती है, और सत्ता पर बैठे लोगों में लोकतंत्र की बारीक समझ की कमी भी है। आज निर्वाचित सरकार ने अफसरों और स्थानीय प्रशासन को इस किस्म की छूट दे रखी है कि वे शांत इलाके की शांत जनता के बीच दहशत पैदा करने की यह पुलिसिया हरकत कर रहे हैं।
दरअसल पुलिस हो या कोई और बंदूकधारी फोर्स, उनके बीच इस तरह के तामझाम का चलन अंग्रेजों के वक्त से चले आ रहा है। अंग्रेजी राज के लिए तो यह बात जायज हो सकती थी कि गुलाम बनाए जा चुके हिन्दुस्तानियों को दहशत में रखा जाए। लेकिन आज आजादी की पौन सदी होने के करीब भी अगर पुलिस इस सोच से बाहर नहीं आ सकी है कि उसे जनता की सेवा करनी है, उसमें इस तरह खौफ पैदा नहीं करना है, तो यह वर्दी की कमसमझ तो हो सकती है, लेकिन उसे नियंत्रित करने वाले निर्वाचित लोगों की भी यह कमसमझ है जो कि खुद बंदूकों के तामझाम को अपनी शान मानते हैं। हमारा यह स्पष्ट मानना है कि जो प्रदेश शांत है, उसमें पुलिस का बंदूकें लेकर निकलना भी अलोकतांत्रिक है, और शांत जनता का अपमान भी। इसी राजधानी में अभी कुछ हफ्ते पहले पुलिस ने राह चलते गरीबों को बेदम पीटा था, चूंकि उसके वीडियो चारों तरफ तैर गए, और सरकार को बड़ी शर्मिंदगी हुई, इसलिए कुछ हफ्तों के लिए उस अफसर को किनारे किया गया, और उसके बाद उसे ले जाकर एक बड़े महत्वपूर्ण दफ्तर में स्थापित किया गया। आज तो सरकार और पुलिस जनता के प्रति इस बात के लिए जवाबदेह है कि लाठियों से की गई पिछली हिंसा की जांच का क्या हुआ, उस पर कार्रवाई का क्या हुआ, वह जवाब देना तो दूर रहा, आज इस शहर को भारी अशांत और भारी हिंसाग्रस्त साबित करने की यह हथियारबंद पुलिसिया फ्लैगमार्च निकाला जा रहा है! देश में किसी भी तरह की बंदूकधारी वर्दी हो, उसकी लोकतांत्रिक समझ में कमजोरी रहती है, लेकिन यह कमजोरी अगर निर्वाचित लोगों के मिजाज में भी आ जाए, तो आम जनता कहां जाएगी? बंदूकों का ऐसा अश्लील और हिंसक प्रदर्शन खत्म होना चाहिए, और सरकार के मन में लोकतंत्र के प्रति सम्मान हो तो ऐसा आदेश निकलना चाहिए जब तक कोई बेकाबू हिंसा न हो, जब तक गोलियां मारने की नौबत न हो, तब तक शांत जनता का ऐसा अपमान न किया जाए। हथियारों के ऐसे गैरजरूरी प्रदर्शन से शांत नागरिक इलाकों में पुलिस की बददिमागी भी बढ़ती है, और उसकी वजह से ही लोगों के साथ वह बदसलूकी करने लगती है। हथियारों को सिर पर नहीं चढऩे देना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)