विचार/लेख
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक का लिखा-
मैंने कल लिखा था कि यूक्रेन में रूस अपनी कठपुतली सरकार जब तक नहीं बिठा लेगा, वह चैन से नहीं बैठेगा। यूक्रेन के नेता कितनी ही बहादुरी के बयान झाड़ते रहें, उनकी हालत खस्ता हो चुकी है। सैकड़ों लोग मर चुके हैं, कई भवन ध्वस्त हो गए हैं और राजधानी कीव पर भी रूसी कब्जा बढ़ता चला जा रहा है। सुरक्षा परिषद में रूसी वीटो ने संयुक्तराष्ट्र संघ को नाकारा बना दिया है। बड़ी-बड़ी डींग मारनेवाले नाटो राष्ट्रों और अमेरिका ने यूक्रेन की रक्षा के लिए अभी तक अपना एक भी सैनिक नहीं भेजा है।
रूसी नेता पूतिन को पता है कि नाटो राष्ट्रों के भरोसे खम ठोकनेवाले यूक्रेनी राष्ट्रपति वोलोदोमीर झेलेंस्की का मनोबल गिर चुका है। उन्हें इस बात का अंदाज है कि यह युद्ध लंबा खिंच गया तो यूक्रेन 30-40 साल पीछे चला जाएगा और हजारों लोग मारे जाएंगे। स्वयं झेलेंस्की और उनके मंत्रियों का जिंदा रहना भी मुश्किल हो जाएगा। इसीलिए पूतिन का बातचीत का निमंत्रण तो झेलेंस्की ने स्वीकार कर लिया है लेकिन वे यह शांति-वार्ता बेलारुस में नहीं करना चाहते हैं।
उनका आरोप है कि रूसी हमले में बेलारुस की भूमिका सबसे ज्यादा घृणित रही है। उन्होंने ऐसे कई देशों के वैकल्पिक नाम सुझाएं हैं, जो सोवियत संघ के वारसा पेक्ट के सदस्य भी रहे हैं और पड़ौसी यूरोपीय देश भी हैं। मुझे लगता है कि पूतिन मान जाएंगे। यदि वे मान गए तो यूरोप को ही नहीं, सारी दुनिया की अर्थव्यवस्था को गड्ढ़े में गिरने से वे बचा लेंगे।
यदि यह युद्ध एक हफ्ते भी चलता रहा तो यूक्रेन और रूस तो आत्मघात का मार्ग अपने लिए खोल ही लेंगे, नाटो राष्ट्रों की भी बधिया बैठने लगेगी। यूरोप की संकटग्रस्त अर्थ-व्यवस्था से भारत जैसे राष्ट्रों को भी भारी नुकसान उठाना पड़ेगा। एशिया, अफ्रीका और लातीनी अमेरिका के कई राष्ट्र भी रूस की तरह डंडे के जोर पर अपने पड़ौसियों से निपटने के लिए प्रेरित होंगे। शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद राष्ट्रों के सैन्य-खर्च में जो कटौती हुई थी, वह अब दुगुने जोश के साथ बढ़ सकती है।
अन्तरराष्ट्रीय राजनीति के वर्तमान समीकरणों को भी यूक्रेन का युद्ध नई दिशा में ठेल रहा है। अब रूस और चीन मिलकर विश्व राजनीति पर अपना वर्चस्व जमाने की पूरी कोशिश करेंगे। अब शायद भारत को नेहरु, नासिर और नक्रूमा की गुट-निरपेक्षता को फिर से जिंदा करने की जरुरत पड़ सकती है। यह केवल संयोग नहीं है कि अमेरिका के बाइडन, रूस के पूतिन और यूक्रेन के झेलेंस्की ने भी मोदी से बात करना जरुरी समझा। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक का लिखा-
यूक्रेन को पानी पर चढ़ाकर अमेरिका और यूरोपीय राष्ट्र अब उसके साथ झूठी सहानुभूति प्रकट कर रहे हैं। सुरक्षा परिषद में अमेरिका ने रूस की निंदा का प्रस्ताव रखा लेकिन उसे क्या यह पता नहीं था कि उसका प्रस्ताव औंधे मुंह गिर पड़ेगा? अभी तो सुरक्षा परिषद के 15 सदस्यों में से 11 ने ही उसका समर्थन किया था, यदि पूरी सुरक्षा परिषद याने सभी 14 सदस्य भी उसका समर्थन कर देते तो भी वह प्रस्ताव गिर जाता, क्योंकि रूस तो उसका निषेध (वीटो) करता ही!
वर्तमान अमेरिकी प्रस्ताव पर तीन राष्ट्रों—भारत, चीन और यू.ए.ई. ने परिवर्जन (एब्सटैन) किया याने वे तटस्थ रहे। इसका अर्थ क्या हुआ? यही कि ये तीनों राष्ट्र रूसी हमले का न समर्थन करते हैं और न ही विरोध करते हैं। चीन ने अमेरिकी प्रस्ताव का विरोध नहीं किया, यह थोड़ा आश्चर्यजनक है, क्योंकि इस समय चीन तो अमेरिका का सबसे कड़क विरोधी राष्ट्र है। रूस तो उम्मीद कर रहा होगा कि कम से कम चीन तो अमेरिकी निंदा-प्रस्ताव का विरोध जरुर करेगा।
जहां तक भारत का सवाल है, उसका रवैया उसके राष्ट्रहित के अनुकूल है। वह रूस-विरोधी प्रस्ताव का समर्थन कैसे करता? अमेरिका और नाटो राष्ट्रों के साथ बढ़ते हुए संबधों के बावजूद आज भी भारत को सबसे ज्यादा हथियार देने वाला राष्ट्र रूस ही है। रूस वह राष्ट्र है, जिसने शीतयुद्ध-काल में भारत का लगभग हर मुद्दे पर समर्थन किया है। गोवा और सिक्किम का भारत में विलय का सवाल हो, कश्मीर या बांग्लादेश का मुद्दा हो, परमाणु बम का मामला हो— रूस ने हमेशा खुलकर भारत का समर्थन किया है जबकि यूक्रेन ने संयुक्तराष्ट्र संघ में जब भी भारत से संबंधित कोई महत्वपूर्ण मामला आया, उसने भारत का विरोध किया है।
चाहे परमाणु-परीक्षण का मामला हो, कश्मीर का हो या सुरक्षा परिषद में भारत की सदस्यता का मामला हो, यूक्रेन ने भारत-विरोधी रवैया ही अपनाया है। भारत ने उससे जब भी यूरेनियम खरीदने की पहल की, वह उसे किसी न किसी बहाने टाल गया। ऐसी हालत में भारत यूक्रेन को रूस के मुकाबले ज्यादा महत्व कैसे दे सकता था? उसने खुले-आम रूस का साथ नहीं दिया, यह अपने आप में काफी रहा।
भारत ने मध्यस्थता का मौका खो दिया, यह उसकी मजबूरी थी, क्योंकि उसके पास कोई अनुभवी और अंतरराष्ट्रीय दृष्टि से प्रतिष्ठित नेता या राजनयिक ही नहीं है लेकिन वह चाहता तो अपने 20 हजार छात्रों को युद्ध के पहले ही वहां से निकाल लाता। यदि उसके पास व्यावसायिक जहाज उपलब्ध नहीं हैं और उनका किराया बहुत ज्यादा है तो हमारी वायुसेना के जहाज क्या दूध दे रहे हैं? सरकार उन्हें सैकड़ों उड़ान भरने के लिए क्यों नहीं कहती?
कीव स्थित हमारे दूतावास की निश्चिंतता सचमुच आश्चर्यजनक है। मुझे नहीं लगता कि रूस का यह हमला कुछ घंटों में खत्म हो जाएगा। यह तब तक चलेगा, जब तक कीव में रूसपरस्त सरकार की स्थापना नहीं हो जाती। यदि वैसा हो गया तो अमेरिका के गले में नई फांस फंस जाएगी। अरबों-खरबों डालरों की मदद की जो घोषणाएं नाटो राष्ट्र अभी कर रहे हैं, क्या तब भी वह यूक्रेन को मिलती रहेगी? रूस पर प्रतिबंधों की घोषणाएं जरुर हो रही हैं लेकिन नाटो राष्ट्रों के लिए भी ये घोषणाएं दमघोंटू ही सिद्ध होंगी। (नया इंडिया की अनुमति से)
-अंजलि मिश्रा
अपने शरीर से अलग होने पर उस कटे हुए हिस्से का दर्द सदा साथ रहता है।
पाकिस्तान के अलग हो जाने का दर्द हर भारतीय जानता है। पीड़ा तब और बढ़ जाती है जब अपने देश से अलग हुवा वो हिस्सा किसी और के बहकावे में आकर हमारे लिए खतरा बन जाए। पाकिस्तान का यहाँ भी उदाहरण दिया जा सकता है।
यही हाल यूक्रेन का भी है। यूक्रेन को अमेरिका ने बहकाया विश्वास दिलाया उसकी रक्षा करेगा उसे नाटो में शामिल करेगा, बदले में यूक्रेन की जो सीमा रूस के सबसे नजदीक थी वहाँ तक अमेरिकी सेनाओं ने अपने सैनिकों की गतिविधि शुरू कर दी।
रूस का विघटन होने पर उससे अलग हुए देशों का रूस के बदले अमेरिका की तरफ झुकना रूस के लिए सुखदायी तो नहीं ही था।
लेकिन अमरीका ने रूस के विघटन को एक अवसर के रूप में लिया उसने इसे दो बड़े देशों के बीच संघर्ष का अंत ना मानते हुए शांत रहने के बदले अपने फायदे में इस अवसर को तबदील करने में ज्यादा रुचि ली।
आज लोग रूस जो कर रहा है उसे देख रहे लेकिन रूस के विघटन के बाद अमेरिका ने क्या क्या किया वो भूल गए।
आज यूक्रेन को युद्ध में ढकेल कर अमेरीका सिर्फ बयानबाजी में लगा है।
अलग होकर भी देश अलग नहीं होते कुछ जुड़ा रहता है। जैसे हम पाकिस्तान से जुड़े है।
पाकिस्तान के जरिए आतंकवाद का भारत में आना पाकिस्तान का चीन का साथ देना ये सब हम देख चुके हैं आज आम भारतीयों के मन में पाकिस्तान को लेकर नफरत की भावना है।
पाकिस्तान के साथ क्रिकेट मैच जीतना नाक का सवाल बन जाता है। नेताओं ने इस भावना को कैश करवाया वो हर बात में पाकिस्तान के प्रति बयानबाजी करते ही रहते है।
हमारी इस नफरत का फायदा पाकिस्तान के सियासतदारों और भारत के दोनों ने काफी उठाया है। अलग होने के इतने वर्षों बाद भी हम मन से पाकिस्तान से अलग नहीं हो पाये, हो जाते तो उसके प्रति असंवेदनशील बन जाते लेकिन हम पाकिस्तान में क्या बुरा हुआ इसकी ज्यादा चिंता करते है इसके इतर यूक्रेन पर जब रूस ने हमला किया तो वहा के हजारों नागरिक नो वार की तखती टांगे सडक़ पर पुतिन के विरोध में खड़े दिखे। वो पुतिन को हीरो मानते है फिर भी उन्होंने युद्ध का विरोध किया, पुतिन का साथ नहीं दिया।
इस दुनिया ने युद्ध की विभीषिका देखी है कोई भी सभ्य देश युद्ध को आज जायज नहीं मानता हर कोई जानता है कि युद्ध में आम लोग ही परेशानी झेलते है।
हमारे देश में कई ऐसे समाचार चैनल है जो भारत और चीन के बीच विवाद होते ही मोदी चीन को धूल चटा दिए युद्ध को लेकर जरूरत से ज़्यादा उन्मादी दिखते है। फेसबुक में युद्ध विरोधी बयान पर लोग देशद्रोही बोल कर पाकिस्तानी चले जाओ कि बात करते दिखने लगते है।
रूसी लोग हमसे बेहतर मिसाल रख कर दिखा दिए कि नेताओं की सोच जनता की सोच नहीं होती।
युद्ध विरोधी बनिए।
-हेमंत कुमार झा
80 के दशक में रोनाल्ड रीगन के नेतृत्व में अमेरिका अपनी शक्ति के चरमोत्कर्ष पर था।
शीत युद्ध अपने अंतिम दौर में था और सोवियत बिखराव ने दुनिया को दो ध्रुवीय से एक ध्रुवीय में बदल दिया था।
अब अमेरिका दुनिया का दारोगा था और ब्रिटेन उसका सबसे विश्वासप्राप्त हवलदार। कभी कभार किसी मुद्दे पर ना नुकुर करते फ्रांस और जर्मनी भी उसकी हवलदारी ही करते रहे।
अपनी एकछत्र दबंगई का अमेरिका ने जम कर दुरुपयोग किया। नाटो कहने को कई देशों का सैन्य संगठन था लेकिन मर्जी मूलत: अमेरिका की ही चलती रही। जिधर अमेरिकी हांक पड़ी, नाटो की सेना ने उधर कूच किया।
अपनी एकछत्रता के साथ ही आर्थिक और सैन्य ताकत का दुरुपयोग करते हुए अमेरिका ने तमाम विश्व संस्थाओं को अपना बंधक बना लिया और भूमंडलीकरण के बहाने आर्थिक उदारवाद के अश्वमेध के घोड़े को दुनिया के तमाम देशों में विचरने भेज दिया।
‘ढांचागत समायोजन’...यही वे शब्द थे जो किसी भी वैश्विक वित्तीय संस्थान से कर्ज लेने वाले गरीब देशों के लिये शर्त्त के तौर पर कहे जाते थे।
यानी...हमारी कम्पनियों के लिए बाजार खोलो, हमारी आर्थिक शर्ते मानो, अपने मजदूरों के श्रम अधिकारों को छीनो, उन्हें आदमी मानना बंद करो, हमारी कंपनियां अपनी शर्तों पर उनसे काम लेंगी और फिर एक दिन निचोड़ कर बाहर फेंक देंगी।
दुनिया के तमाम तेल भंडारों और अन्य संसाधनों पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों का कब्जा कायम करने के लिये न जाने कितने निर्मम रक्तपात किए गए, विरोध करने वाले कितने राष्ट्र प्रमुखों को कुर्सी से बेदखल किया गया, उनकी निर्मम हत्या की गई।
भूमंडलीकरण अमेरिकीकरण का ही एक दूसरा रूप बन कर दुनिया के सामने आया।
नैतिक पतन ने अमेरिका को एक दिन इस मुकाम पर पहुंचा दिया कि डोनाल्ड ट्रंप जैसा नेता वहां का राष्ट्रपति बना।
फिर...बाइडन साहब आए।
इस बीच गंगा, नील, अमेजन आदि नदियों में बहुत सारा पानी बह चुका।
कभी नाटो का द्वंद्व सोवियत झंडे तले ‘वारसा पैक्ट’ नामक सैन्य समझौते से जुड़े देशों के साथ था। सोवियत विघटन के साथ ही वारसा पैक्ट अस्तित्वहीन हो गया।
लेकिन...नाटो बना रहा, जबकि विश्व राजनीति की नैतिकता का तकाजा था कि इसे भी भंग हो जाना चाहिए था।
पर, दुनिया को अपनी मु_ी में करने और रखने के लिए नाटो को बनाए रखना जरूरी था।
खाड़ी युद्ध नाटो की बर्बरता और अनैतिकता का ऐतिहासिक दस्तावेज बना।
नाटो को न सिर्फ बनाए रखा गया बल्कि इसका विस्तार करते हुए नए-नए देशों को इससे जोड़ा भी जाता रहा।
जिस मुक्त आर्थिकी और बाजार की निर्ममता के सिद्धांतों पर अमेरिका चलता रहा, उसे बड़ी चुनौती 2008 की मंदी से मिली। वह सोचने पर मजबूर हुआ लेकिन सोचने से अधिक करने की जरूरत थी। वह किया नहीं जा सका। अमेरिका में बेरोजगारी का आलम और निम्न मध्यवर्ग का असंतोष बढ़ता ही गया।
बढ़ती बेरोजगारी और मांग-आपूर्ति का संकट मजबूत से मजबूत अर्थतंत्र को हिला देता है। अमेरिका भी हिलने लगा।
अब उसके राष्ट्रपति की वह धमक नहीं रही जो पहले हुआ करती थी। बराक ओबामा अंतिम अमेरिकी राष्ट्रपति हुए जिनकी इज़्जत दुनिया करती थी। उनके उत्तराधिकारी ट्रम्प ने दुनिया के इस सर्वाधिक शक्तिशाली पद की गरिमा को जी भर कर पलीता लगाया। फिर, बाइडन के आते-आते अमेरिका अपनी बढ़ती हुई भीतरी कमजोरी को भांप दुनिया भर में फैले अपने जाल को समेटने की कोशिश में लगा।
अफगानिस्तान से अमेरिकी सैन्य वापसी ने तालिबान को मौका मुहैया कराया ही, अमेरिकी प्रतिष्ठा को भी बट्टा लगाया।
नाटो का विस्तार करते-करते वह यूक्रेन को इसमें शामिल करने की मंशा तक पहुंच गया। रूस विरोधी और उससे भी अधिक पुतिन विरोधी यूक्रेनी नेता जेलेन्स्की को अमेरिका पर भरोसा था कि वह संकट में साथ देगा। नाटो के बल का भ्रम उन्हें ऐसा हुआ कि उन्होंने पुतिन की चुनौती को हल्के में ले लिया।
इधर पुतिन, जो मूलत: तानाशाह हैं, को अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने, रूस की सत्ता पर अपनी पकड़ बनाए रखने के लिये कुछ न कुछ खुराफात तो करते ही रहना है।
जिस पुतिन ने कभी बिल क्लिंटन को कहा था कि रूस को भी नाटो में शामिल कर लो, उन्हें यूक्रेन के नाटो में शामिल होने की संभावना से ही भारी प्रतिक्रिया हुई। यह स्वाभाविक भी था। यूक्रेन की सत्ता रूस विरोधी राजनीति की ही उपज है। रूस कैसे स्वीकार करता कि उसे नाटो का संरक्षण मिले।
पुतिन ने रूस को आर्थिक स्तरों पर कम, सैन्य स्तरों पर बहुत अधिक मजबूत किया। आज रूस इतना शक्तिशाली है कि उसने यूक्रेन पर हमला कर दिया और तमाम यूरोपीय देश राजनाथ टाइप ‘कड़ी निंदा’ से आगे नहीं बढ़ पाए। रूस से सैन्य पंगा लेने के अपने खतरे हैं जिन्हें यूरोप के लोकतांत्रिक नेतागण समझते हैं। पुतिन का क्या है, वे तो तानाशाह हैं। जलते हुए रूस के ऊपर पियानो बजाती अपनी तस्वीर डालने में भी उन्हें संकोच नहीं होगा।
यूक्रेन संकट ने अमेरिका की रही सही प्रतिष्ठा में भी बट्टा लगा दिया। राष्ट्रपति बाइडन की यह घोषणा कि ‘अमेरिका रूस-यूक्रेन युद्ध में सीधा सैन्य हस्तक्षेप नहीं करेगा’, यूक्रेन के लिए बड़ा धोखा है। अमेरिका और नाटो के बल पर ही तो वह पुतिन को आंखें दिखा रहा था। अब यूक्रेन के राष्ट्रपति विलाप कर रहे हैं कि उनके देश को अकेला छोड़ दिया गया।
यूक्रेनी नेता का यह विलाप इस बात का घोषणापत्र है कि अब अमेरिका दुनिया का दारोगा नहीं रहा। दुनिया अब एकध्रुवीय नहीं रही।
रीगन से बाइडन तक की अमेरिकी यात्रा महज तीन-साढ़े तीन दशकों की ही रही। कभी तेज चमक बिखेरता अमेरिका अब मद्धिम पडऩे लगा है। बीते कई दिनों से बाइडन पुतिन को चेतावनी दे रहे थे। अब जब, संकट सर पर आ गया तो ‘कड़ी निंदा’ और साधारण से प्रभाव छोडऩे वाले आर्थिक प्रतिबंध आदि से आगे बढऩे का साहस वे नहीं दिखा सके।
अमेरिका के पराक्रम का यह पराभव है। यह सिर्फ सैन्य मामलों में ही नहीं, आर्थिक सिद्धांतों के मामले में भी दिखेगा। क्योंकि, वह स्वयं आर्थिक रूप से भी कमजोर हो रहा है। न वह बेरोजगारी से पार पा रहा है न बढ़ती हुई भीषण आर्थिक विषमता से।
अमेरिकी पराभव ने पूरी दुनिया को विचारों के एक चौराहे पर ला कर खड़ा कर दिया है। यहां से मानवता को नए रास्तों की तलाश करनी होगी।
- रमेश अनुपम
20 जून सन् 1966
के.एल.पांडेय जांच आयोग की सुनवाई में बस्तर पुलिस सुप्रीटेंडेंट राजेंद्रजीत खुराना उपस्थित हुए।
राजेंद्रजीत खुराना ने जांच आयोग को बताया कि ‘अपरान्ह 1.30 बजे के आसपास नियंत्रण कक्ष में उन्हें कलेक्टर ने बताया कि भोपाल से मुख्य सचिव का मैसेज आया है कि प्रवीर चंद्र भंजदेव को डी.आई.आर के अंतर्गत गिरफ्तार कर लिया जाए।’ इस पर बस्तर कलेक्टर की प्रतिक्रिया थी कि प्रवीर चंद्र भंजदेव को गिरफ्तार करने का यह उपयुक्त समय नहीं है।
मध्यान्ह भोजन के पश्चात गोरेलाल झा एडवोकेट द्वारा पुलिस सुप्रीटेंडेंट राजेंद्रजीत खुराना से कुछ सवाल पूछे गए।
जिसके जवाब में खुराना ने कहा कि ‘उन्हें यह विदित नहीं है कि महाराजा प्रवीरचंद्र भंजदेव 25 मार्च को 4.30 या 5.00 बजे के बीच राजमहल के बाहर आए थे या नहीं।’
उन्होंने आयोग से यह भी कहा कि ‘उन्हें इस बात की कोई जानकारी नहीं है कि पुलिस वालों ने महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव को धक्के देकर राजमहल के भीतर धकेल दिया था।’
पुलिस सुप्रीटेंडेंट राजेंद्रजीत खुराना ने इस बात से इंकार किया कि ‘उस समय पुलिस द्वारा दो बार फायर भी किए गए थे।’
आगे उन्होंने इस बात से भी मना किया कि ‘उन्होंने एस.एस.पी को फोन पर यह कहा है कि प्रवीर चंद्र भंजदेव दुस्साहसी हैं तथा वे आत्मसमर्पण नहीं करेंगे।’
गोरेलाल झा द्वारा यह पूछने पर कि क्या पुलिस द्वारा राजमहल के अहाते में स्थित कंकालीन मंदिर पर कोई फायरिंग की गई है ?
पुलिस सुप्रीटेंडेंट ने इस बात से इंकार करते हुए जांच आयोग को बताया कि ‘पुलिस द्वारा कंकालीन मंदिर में कोई फायरिंग नहीं की गई है।’
गोरेलाल झा ने जस्टिस के.एल.पांडेय को बताया कि ‘कंकालीन मंदिर के खंभों पर 4 गोलियों के निशान अब भी मौजूद हैं। उन्होंने आयोग को बताया कि उन्होंने तथा आर.एस.वाजपेयी ने राजमहल के अहाते में स्थित कंकालीन मंदिर में जाकर मंदिर की दीवारों पर चार गोलियों के निशान स्वयं देखे हैं।’
जस्टिस के.एल.पांडेय ने वकील गोरेलाल झा को आश्वासन दिया कि वे स्वयं कंकालीन मंदिर जाकर उन गोलियों के निशान को देखना चाहेंगे।
गोरेलाल झा के एक सवाल के जवाब में पुलिस सुप्रीटेंडेंट राजेंद्रजीत खुराना ने आयोग को बताया कि ‘उनकी जानकारी में यह तथ्य नहीं है कि 25 मार्च को पूरे राजमहल में अंधेरा था। विद्युत आपूर्ति और जल प्रदाय को पूरी तरह से स्थानीय प्रशासन द्वारा बाधित कर दिया गया था।’
उन्होंने आयोग को यह भी बताया कि ‘उन्हें इस बात की कोई जानकारी नहीं है कि पुलिस के जवानों के लिए 50 टॉर्च लाइट इसलिए खरीदे गए थे ताकि वे राजमहल के भीतर घुस सकें।’
जस्टिस के. एल.पांडे द्वारा बार-बार यह पूछने पर कि बस्तर महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की मृत्यु कब और कैसे हुई है ?
पुलिस सुप्रीटेंडेंट राजेंद्रजीत खुराना द्वारा बार-बार यही दोहराया गया कि ‘प्रवीर चंद्र भंजदेव की मृत्यु कैसे और कब हुई उसकी कोई जानकारी उन्हें नहीं है।’
पुलिस सुप्रीटेंडेंट राजेंद्रजीत खुराना ने जांच आयोग को यह अवश्य बताया कि ‘26 मार्च से लेकर 7 अप्रैल तक दोनों राजमहल पुलिस के अधिकार क्षेत्र में थे।’
28 जून 1966 को तत्कालीन बस्तर कलेक्टर एस.पी.सिंह जांच आयोग के समक्ष उपस्थित हुए।
एस.पी.सिंह ने 2 जून को मोहम्मद अकबर से कलेक्टर का चार्ज लिया था। इससे पहले वे बस्तर में ही एडिशनल कलेक्टर के पद पर आसीन थे। बस्तर गोलीकांड के समय वे बस्तर में ही पदस्थ थे।
कलेक्टर एस.पी.सिंह ने जांच आयोग को बताया कि ‘25 मार्च को अपरान्ह 11.15 बजे जब वे पुलिस स्टेशन में बैठे हुए थे, उसी समय पुलिस सुप्रीटेंडेंट राजेंद्रजीत खुराना के पास ए.ओ.एम. मुक्तेश्वर सिंह का एक टेलिफोनिक मैसेज आया। जिसमें मुक्तेश्वर सिंह ने पुलिस सुप्रीटेंडेंट को बताया कि राजमहल में एकत्र आदिवासियों ने पुलिस पार्टी पर अटैक कर दिया है। मुक्तेश्वर सिंह ने अतिरिक्त पुलिस बल की मांग भी की थी।’
इसकी सूचना टेलीफोन के माध्यम से तत्कालीन कलेक्टर मोहम्मद अकबर को दी गई। कलेक्टर ने कहा कि हमें एक बार राजमहल जाकर वस्तुस्थिति का निरीक्षण करना चाहिए।
कलेक्टर मोहम्मद अकबर, पुलिस सुप्रीटेंडेंट राजेंद्रजीत खुराना तथा अन्य उच्च अधिकारी राजमहल पहुंचे। उन्होंने देखा कि शहर की सभी दुकानें बंद है और स्थिति काफी तनावपूर्ण है।
एस.पी.सिंह ने जांच आयोग को बताया कि ‘कलेक्टर मोहम्मद अकबर और पुलिस सुप्रीटेंडेंट राजेंद्रजीत खुराना ने देखा कि पच्चीस तीस आदिवासी तीर कमान लेकर राजमहल के गेट पर खड़े हुए हैं और पुलिसवालों पर तीर बरसा रहे हैं।’
तत्कालीन कलेक्टर एस.पी.सिंह ने जांच आयोग को बताया कि ‘कलेक्टर मोहम्मद अकबर ने उन्हें उस समय पेट्रोलिंग ड्यूटी का कार्यभार सौंपा था।
इसलिए वे जब राजमहल पहुंचे तो उन्होंने देखा कि एक भारी-भरकम पुलिसवाला खून से लथपथ लाठी लेकर राजमहल के गेट से बाहर ‘मार डाला मार डाला ‘चिल्लाता हुआ भाग रहा है।’
दोपहर 1.30 से लेकर 4.30 बजे तक उन्होंने देखा कि कुछ निहत्थे आदिवासी जो बिना किसी अस्त्र-शस्त्र के थे, वे राजमहल छोडक़र वापस लौट रहे थे।
उन्होंने आयोग को बताया कि ‘पश्चिमी गेट पर तैनात पुलिस बल को उन्होंने निर्देश दिया कि जो आदिवासी राजमहल छोडक़र जा रहे हैं उन्हें जाने दिया जाए।’
जांच आयोग को आगे की जानकारी देते हुए कलेक्टर एस.पी.सिंह ने बताया कि ‘3 बजे के आस-पास उत्तरी गेट पर रविशंकर वाजपेयी और लाडली मोहन निगम को पुलिस वालों ने राजमहल के भीतर जाने से रोक रखा था। पुलिसवालों ने उन्हें यह भी जानकारी दी कि ये लोग आदिवासियों को उकसाने का काम कर रहे हैं। उन्होंने पुलिस वालों को निर्देश दिया कि इन्हें तत्काल पुलिस स्टेशन ले जाया जाए।’
(बाकी अगले हफ्ते)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक का लिखा-
यूक्रेन के मामले में अमेरिका और नाटो बुरी तरह से मात खा गए हैं। अमेरिका ने अपनी बेइज्जती यहां पहली बार नहीं कराई है। इसके पहले भी वह क्यूबा, वियतनाम और अफगानिस्तान में धूल चाट चुका है। रूसी नेता व्लादिमीर पूतिन ने दुनिया के सबसे शक्तिशाली और सबसे संपन्न सैन्य गुट को चारों खाने चित करके रख दिया है। जो देश रूस से टूटकर नाटो में शामिल हो गए थे, अब उनके भी रोंगटे खड़े हो गए होंगे। उन्हें भी यह डर लग रहा होगा कि यूक्रेन के बाद अब कहीं उनकी बारी तो नहीं आ रही है।
अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन का यह बयान कितना बेशर्मीभरा है कि उनकी सेनाएं सिर्फ नाटो देशों की रक्षा करेगी। वे अपनी सेनाएं यूक्रेन नहीं भेजेंगे। पूतिन ने पहले यूक्रेन के तीन टुकड़े कर दिए और फिर उन्होंने वहां अपनी 'शांति सेनाÓ भिजवा दी। यदि नाटो राष्ट्र ईमानदार और दमदार होते तो वह तत्काल ही अपनी फौजें वहां भेजकर यूक्रेनी संप्रभुता की रक्षा करते लेकिन उनका बगलें झांकना सारी दुनिया को चकित कर गया। मुझे तो उसी वक्त लगा कि अमेरिका और नाटो अब तक जो धमकियां दे रहे थे, वे शुद्ध नपुंसकता के अलावा कुछ नहीं थीं।
अमेरिका के गुप्तचर विभाग ने पहले से दावा किया था कि रूस तो यूक्रेन पर हमले की तैयारी कर चुका है। इसलिए बाइडन और उनके रक्षा मंत्री यह नहीं कह सकते कि यूक्रेन पर अब रूसी हमला अचानक हुआ है। इसका अर्थ क्या हुआ? क्या यह नहीं कि अमेरिका और नाटो गीदड़भभकियां देते रहे। इसका दूरगामी अभिप्राय यह भी है कि रूस को अब नई विश्व शक्ति बन जाने का अवसर अमेरिका ने प्रदान कर दिया है। यूक्रेन तो समझ रहा था कि अमेरिका उसका संरक्षक है लेकिन अमेरिका ने ही यूक्रेन को मरवाया है।
यदि अमेरिका उसे पानी पर नहीं चढ़ाता तो उसके राष्ट्रपति वी. झेलेंस्की हर हालत में पूतिन के साथ कोई न कोई समझौता कर लेते और यह विनाशकारी नौबत आती ही नहीं। जर्मनी और फ्रांस के नेताओं ने मध्यस्थता की कोशिश जरुर की लेकिन वह कोशिश विफल ही होनी थी, क्योंकि ये दोनों राष्ट्र नाटो के प्रमुख स्तंभ हैं और नाटो यूक्रेन को अपना सदस्य बनाने पर आमादा है, जो कि इस झगड़े की असली जड़ है।
इस सारे विवाद में सबसे उत्तम मध्यस्थ की भूमिका भारत निभा सकता था लेकिन दोनों पक्षों से वह सिर्फ शांति की अपील करता रहा, जो शुद्ध लीपापोती या खानापूरी के अलावा कुछ नहीं है। मैं पिछले कई हफ्तों से कहता रहा हूं कि भारत कोई पहल जरुर करे लेकिन हमारा दुर्भाग्य है कि हमारे पास पक्ष या विपक्ष में कोई ऐसा नेता नहीं है, जो इतनी बड़ी पहल कर सके।
हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पूतिन से बात की, यह अच्छा किया लेकिन यही काम वे बाइडन के साथ भी महिना भर पहले करते तो उसकी कुछ कीमत होती। अब तो भारत का राष्ट्रहित इसी में है कि हमारे 20 हजार छात्र और राजनयिक लोग यूक्रेन में सुरक्षित रहें और हम तैल के बढ़े हुए भावों को बर्दाश्त कर सकें। (नया इंडिया की अनुमति से)
-हेमन्त झा
80 के दशक में रोनाल्ड रीगन के नेतृत्व में अमेरिका अपनी शक्ति के चरमोत्कर्ष पर था।
शीत युद्ध अपने अंतिम दौर में था और सोवियत बिखराव ने दुनिया को दो ध्रुवीय से एक ध्रुवीय में बदल दिया था।
अब अमेरिका दुनिया का दारोगा था और ब्रिटेन उसका सबसे विश्वासप्राप्त हवलदार। कभी कभार किसी मुद्दे पर ना नुकुर करते फ्रांस और जर्मनी भी उसकी हवलदारी ही करते रहे।
अपनी एकछत्र दबंगई का अमेरिका ने जम कर दुरुपयोग किया। नाटो कहने को कई देशों का सैन्य संगठन था लेकिन मर्जी मूलतः अमेरिका की ही चलती रही। जिधर अमेरिकी हांक पड़ी, नाटो की सेना ने उधर कूच किया।
अपनी एकछत्रता के साथ ही आर्थिक और सैन्य ताकत का दुरुपयोग करते हुए अमेरिका ने तमाम विश्व संस्थाओं को अपना बंधक बना लिया और भूमंडलीकरण के बहाने आर्थिक उदारवाद के अश्वमेध के घोड़े को दुनिया के तमाम देशों में विचरने भेज दिया।
'ढांचागत समायोजन'...यही वे शब्द थे जो किसी भी वैश्विक वित्तीय संस्थान से कर्ज लेने वाले गरीब देशों के लिये शर्त्त के तौर पर कहे जाते थे।
यानी...हमारी कम्पनियों के लिये बाजार खोलो, हमारी आर्थिक शर्त्तें मानो, अपने मजदूरों के श्रम अधिकारों को छीनो, उन्हें आदमी मानना बंद करो, हमारी कंपनियां अपनी शर्त्तों पर उनसे काम लेंगी और फिर एक दिन निचोड़ कर बाहर फेंक देंगी।
दुनिया के तमाम तेल भंडारों और अन्य संसाधनों पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों का कब्जा कायम करने के लिये न जाने कितने निर्मम रक्तपात किये गए, विरोध करने वाले कितने राष्ट्र प्रमुखों को कुर्सी से बेदखल किया गया, उनकी निर्मम हत्या की गई।
भूमंडलीकरण अमेरिकीकरण का ही एक दूसरा रूप बन कर दुनिया के सामने आया।
नैतिक पतन ने अमेरिका को एक दिन इस मुकाम पर पहुंचा दिया कि डोनाल्ड ट्रंप जैसा नेता वहां का राष्ट्रपति बना।
फिर...बाइडन साहब आए।
इस बीच गंगा, नील, अमेजन आदि नदियों में बहुत सारा पानी बह चुका।
कभी नाटो का द्वंद्व सोवियत झंडे तले 'वारसा पैक्ट' नामक सैन्य समझौते से जुड़े देशों के साथ था। सोवियत विघटन के साथ ही वारसा पैक्ट अस्तित्वहीन हो गया।
लेकिन...नाटो बना रहा, जबकि विश्व राजनीति की नैतिकता का तकाजा था कि इसे भी भंग हो जाना चाहिए था।
पर, दुनिया को अपनी मुट्ठी में करने और रखने के लिये नाटो को बनाए रखना जरूरी था।
खाड़ी युद्ध नाटो की बर्बरता और अनैतिकता का ऐतिहासिक दस्तावेज बना।
नाटो को न सिर्फ बनाए रखा गया बल्कि इसका विस्तार करते हुए नए-नए देशों को इससे जोड़ा भी जाता रहा।
जिस मुक्त आर्थिकी और बाजार की निर्ममता के सिद्धांतों पर अमेरिका चलता रहा, उसे बड़ी चुनौती 2008 की मंदी से मिली। वह सोचने पर मजबूर हुआ लेकिन सोचने से अधिक करने की जरूरत थी। वह किया नहीं जा सका। अमेरिका में बेरोजगारी का आलम और निम्न मध्यवर्ग का असंतोष बढ़ता ही गया।
बढ़ती बेरोजगारी और मांग-आपूर्त्ति का संकट मजबूत से मजबूत अर्थतंत्र को हिला देता है। अमेरिका भी हिलने लगा।
अब उसके राष्ट्रपति की वह धमक नहीं रही जो पहले हुआ करती थी। बराक ओबामा अंतिम अमेरिकी राष्ट्रपति हुए जिनकी इज़्ज़त दुनिया करती थी। उनके उत्तराधिकारी ट्रम्प ने दुनिया के इस सर्वाधिक शक्तिशाली पद की गरिमा को जी भर कर पलीता लगाया। फिर, बाइडन के आते-आते अमेरिका अपनी बढ़ती हुई भीतरी कमजोरी को भांप दुनिया भर में फैले अपने जाल को समेटने की कोशिश में लगा।
अफगानिस्तान से अमेरिकी सैन्य वापसी ने तालिबान को मौका मुहैया कराया ही, अमेरिकी प्रतिष्ठा को भी बट्टा लगाया।
नाटो का विस्तार करते-करते वह यूक्रेन को इसमें शामिल करने की मंशा तक पहुंच गया। रूस विरोधी और उससे भी अधिक पुतिन विरोधी यूक्रेनी नेता जेलेन्स्की को अमेरिका पर भरोसा था कि वह संकट में साथ देगा। नाटो के बल का भ्रम उन्हें ऐसा हुआ कि उन्होंने पुतिन की चुनौती को हल्के में ले लिया।
इधर पुतिन, जो मूलतः तानाशाह हैं, को अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने, रूस की सत्ता पर अपनी पकड़ बनाए रखने के लिये कुछ न कुछ खुराफात तो करते ही रहना है।
जिस पुतिन ने कभी बिल क्लिंटन को कहा था कि रूस को भी नाटो में शामिल कर लो, उन्हें यूक्रेन के नाटो में शामिल होने की संभावना से ही भारी प्रतिक्रिया हुई। यह स्वाभाविक भी था। यूक्रेन की सत्ता रूस विरोधी राजनीति की ही उपज है। रूस कैसे स्वीकार करता कि उसे नाटो का संरक्षण मिले।
पुतिन ने रूस को आर्थिक स्तरों पर कम, सैन्य स्तरों पर बहुत अधिक मजबूत किया। आज रूस इतना शक्तिशाली है कि उसने यूक्रेन पर हमला कर दिया और तमाम यूरोपीय देश राजनाथ टाइप 'कड़ी निंदा' से आगे नहीं बढ़ पाए। रूस से सैन्य पंगा लेने के अपने खतरे हैं जिन्हें यूरोप के लोकतांत्रिक नेतागण समझते हैं। पुतिन का क्या है, वे तो तानाशाह हैं। जलते हुए रूस के ऊपर पियानो बजाती अपनी तस्वीर डालने में भी उन्हें संकोच नहीं होगा।
यूक्रेन संकट ने अमेरिका की रही सही प्रतिष्ठा में भी बट्टा लगा दिया। राष्ट्रपति बाइडन की यह घोषणा कि "अमेरिका रूस-यूक्रेन युद्ध में सीधा सैन्य हस्तक्षेप नहीं करेगा", यूक्रेन के लिए बड़ा धोखा है। अमेरिका और नाटो के बल पर ही तो वह पुतिन को आंखें दिखा रहा था। अब यूक्रेन के राष्ट्रपति विलाप कर रहे हैं कि उनके देश को अकेला छोड़ दिया गया।
यूक्रेनी नेता का यह विलाप इस बात का घोषणापत्र है कि अब अमेरिका दुनिया का दारोगा नहीं रहा। दुनिया अब एकध्रुवीय नहीं रही।
रीगन से बाइडन तक की अमेरिकी यात्रा महज तीन-साढ़े तीन दशकों की ही रही। कभी तेज चमक बिखेरता अमेरिका अब मद्धिम पड़ने लगा है। बीते कई दिनों से बाइडन पुतिन को चेतावनी दे रहे थे। अब जब, संकट सर पर आ गया तो 'कड़ी निंदा' और साधारण से प्रभाव छोड़ने वाले आर्थिक प्रतिबंध आदि से आगे बढ़ने का साहस वे नहीं दिखा सके।
अमेरिका के पराक्रम का यह पराभव है। यह सिर्फ सैन्य मामलों में ही नहीं, आर्थिक सिद्धांतों के मामले में भी दिखेगा। क्योंकि, वह स्वयं आर्थिक रूप से भी कमजोर हो रहा है। न वह बेरोजगारी से पार पा रहा है न बढ़ती हुई भीषण आर्थिक विषमता से।
अमेरिकी पराभव ने पूरी दुनिया को विचारों के एक चौराहे पर ला कर खड़ा कर दिया है। यहां से मानवता को नए रास्तों की तलाश करनी होगी।
अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने कहा है कि रूस के साथ रक्षा संबंधों को लेकर भारत के साथ उनके मतभेद अभी सुलझे नहीं हैं और उन पर बातचीत चल रही है.
डॉयचे वैले पर विवेक कुमार की रिपोर्ट-
यूक्रेन में रूसी कार्रवाई पर भारत का नपातुला रुख अमेरिका को ज्यादा रास नहीं आ रहा है. गुरुवार को जब पत्रकारों ने अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन से यह सवाल पूछा, तो उन्होंने बहुत कम शब्दों में इस ओर इशारा किया कि अमेरिका भारत के रुख से ज्यादा संतुष्ट नहीं है.
बाइडेन सरकार की चीन को लेकर कड़ी नीति के तहत भारत अमेरिका के लिए एक अहम साझीदार के तौर पर उभरा है, लेकिन रूस के साथ उसकी नजदीकियों और यूक्रेन में रूसी सैन्य कार्रवाई पर भारत की चुप्पी ने दोनों देशों के बीच एक असहज स्थिति पैदा कर दी है.
यूक्रेन पर भारत का रुख
यूक्रेन पर भारत ने अब तक खुलकर कुछ नहीं कहा है. हालांकि गुरुवार को भारतीय प्रधानमंत्री ने रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से बातचीत में हिंसा रोकने का आग्रह किया था. किंतु, बीते मंगलवार को पेरिस में एक विचार गोष्ठी में भारत के विदेश मंत्री डॉ. एस जयशंकर ने कहा कि यूक्रेन के मुद्दे पर जो कुछ हो रहा है, वह नाटो के विस्तार और सोवियत-युग के बाद रूस के पश्चिमी देशों के संबंधों से जुड़ा है. जबकि हिंद-प्रशांत यूरोपीय फोरम में शामिल अन्य विदेश मंत्रियों की तरह जापानी विदेश मंत्री योशीमासा हायाशी ने रूस की कड़ी निंदा की, भारतीय विदेश मंत्री ने अपना पूरा ध्यान चीन द्वारा पैदा किए गए कथित खतरों पर केंद्रित रखा.
इससे पहले सुरक्षा परिषद में भी भारत ने जिस तरह का बयान दिया था, उसे रूस का पक्षधर माना गया. यूक्रेन पर भारत ने कहा था कि सारे पक्षों की रक्षा संबंधी चिंताओं पर ध्यान दिया जाना चाहिए. रूस ने भारत के इस रुख का स्वागत करते हुए कहा है कि यूक्रेन के हिस्सों को मिली मान्यता अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत वैध है.
भारत को लेकर संदेह
रूस के साथ भारत के संबंध काफी पुराने हैं लेकिन बीते कुछ सालों में अमेरिका और भारत की नजदीकियां बढ़ी हैं. फिर भी, रूस भारत के लिए सबसे बड़ा रक्षा साझीदार बना हुआ है.
भारत 15 सदस्यीय संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का सदस्य है, जहां शुक्रवार रूस की निंदा में एक प्रस्ताव पर मतदान हो सकता है. संभावना जताई जा रही है कि रूस इस प्रस्ताव पर वीटो करेगा जबकि अमेरिका इस वीटो का इस्तेमाल रूस को अलग-थलग करने के लिए कर सकता है. अमेरिका को उम्मीद है कि मौजूदा गणित में 13 सदस्य उसके पक्ष में वोट करेंगे जबकि चीन गैरहाजिर रहना चुनेगा. लेकिन भारत अमेरिका के पक्ष में मतदान करेगा या नहीं, यह पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता. इस मुद्दे पर एक बार पहले भी इसी महीने मतदान हो चुका है जिसमें भारत ने गैरहाजिर रहना चुना था.
अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडेन ने कहा कि जो भी देश रूस के यूक्रेन पर आक्रमण को सहन करता है, उस पर रूस के सहयोग का कलंक लगेगा. जब बाइडेन से पूछा गया कि क्या भारत अमेरिकी रणनीति से सहमत है, तो उन्होंने कहा, "हम आज भारत से सलाह-मश्विरा कर रहे हैं. हमने यह मामला अब तक पूरी तरह नहीं सुलझाया है."
एक बयान जारी कर अमेरिकी विदेश मंत्रालय ने बताया है कि विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकेन ने भारतीय विदेश मंत्री डॉ. सुब्रमण्यम जयशंकर से गुरुवार को बातचीत की और "रूस के आक्रमण की सामूहिक निंदा और फौरी तौर पर युद्ध विराम व सेनाओं की वापसी की जरूरत पर बल दिया."
एक ट्वीट में जयशंकर ने कहा कि उन्होंने यूक्रेन में हुई गतिविधियों पर ब्लिंकेन से बात की है. साथ ही उन्होंने कहा कि वह रूसी विदेश मंत्री सर्गई लावरोव से भी बात कर चुके हैं और जोर देकर कह चुके हैं कि "कूटनीति और बातचीत ही आगे बढ़ने का सबसे अच्छा रास्ता है."
भारत-रूस संबंध
भारत की रूस के साथ करीबियां कुछ समय से अमेरिका को परेशान करती रही हैं. बीते साल दिसंबर में पुतिन ने भारत का दौरा किया था जिसमें दोनों देशों के बीच कई रक्षा समझौतों पर दस्तखत हुए थे. तभी भारत ने पुष्टि की थी कि रूस ने जमीन से हवा में मार करने वालीं एस-400 मिसाइलों की सप्लाई शुरू कर दी है.
रूस लंबे समय से भारत को हथियारों की सप्लाई करता रहा है. एस-400 मिसाइलों की सप्लाई को भारतीय सेना को आधुनिक बनाने की दिशा में एक अहम कदम माना जा रहा है. भारतीय विदेश सचिव हर्षवर्धन श्रृंगला ने दोनों पक्षों की बैठक के बाद कहा, "सप्लाई इस महीने शुरू हो गई है और जारी रहेगी.”
2018 में हुआ यह समझौता पांच अरब डॉलर से भी ज्यादा का है लेकिन इस पर अमेरिका की नाराजगी की तलवार अब भी लटक रही है. अमेरिका ने ‘काउंटरिंग अमेरिकाज एडवर्सरीज थ्रू सैंक्शंस एक्ट' (CAATSA) नामक कानून के तहत इस समझौते को आपत्तिजनक माना है.
रूस से ये सिस्टम खरीदने के कारण भारत पर कड़े अमेरिकी प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं. काट्सा - काउंटरिंग अमेरिकाज अडवर्सरीज थ्रू सैंक्शंस ऐक्ट (CAATSA) में रूस को उत्तर कोरिया और ईरान के साथ उन देशों की सूची में रखा गया है जिन्हें अमेरिका ने अपना बैरी बताया है. इसकी वजह यूक्रेन में रूस की कार्रवाई, 2016 के अमेरिकी चुनावों में दखलअंदाजी और सीरिया की मदद जैसी रूसी गतिविधियां बताई गईं.
हालांकि अमेरिका में भी भारत के पक्ष में बड़ी लॉबी काम कर रही है, जिसके चलते कांग्रेस में भारत को इन प्रतिबंधों के दायरे से बाहर रखने की मांग होती रही है. लेकिन जानकारों का मानना है कि यूक्रेन पर भारत का रुख अमेरिका में उसके विरोध में सक्रिय लॉबी को मजबूत कर सकता है.
इस बारे में अमेरिका भी खुले तौर पर कोई टिप्पणी करने से बच रहा है. सवाल पूछे जाने पर विदेश मंत्रालय ने इतना ही कहा, "हम यूक्रेन पर रूसी आक्रमण खिलाफ एक सामूहिक प्रतिक्रिया के लिए भारत में अपने समकक्षों से विचार-विमर्श कर रहे हैं." (dw.com)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक का लिखा-
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान आज रूस पहुंच गए हैं। लगभग 22 साल पहले प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के बाद किसी पाकिस्तानी प्रधानमंत्री की यह पहली मास्को-यात्रा है। इमरान और रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पूतिन की ऐसे संकट के समय इस भेंट पर लोगों को बहुत आश्चर्य हो रहा है, क्योंकि पाकिस्तान कई दशकों तक उस समय अमेरिका का दुमछल्ला बना हुआ था, जब अमेरिका और सोवियत संघ का शीतयुद्ध चल रहा था। सोवियत संघ के बिखराव के बाद जब अमेरिका और रूस के बीच का तनाव थोड़ा घटा था, तब पाकिस्तान ने रूस के साथ संबंध बनाने की कोशिश की थी। वरना अफगानिस्तान में चल रही बबरक कारमल की सरकार के विरुद्ध मुजाहिदीन की पीठ ठोककर पाकिस्तान तो अमेरिकी मोहरे की तरह काम कर रहा था। उन्हीं दिनों अमेरिका अपने संबंध चीन के साथ भी नए ढंग से परिभाषित कर रहा था। इसी का फायदा पाकिस्तान ने उठाया। द्बद्वह्म्ड्डठ्ठ द्मद्धड्डठ्ठ ह्म्ह्वह्यह्यद्बड्ड 1द्बह्यद्बह्ल
वह भारत के प्रतिद्वंदी चीन के साथ तो कई वर्षों से जुड़ा ही हुआ था। उसने कश्मीर की हजारों मील ज़मीन भी चीन को सौंप रखी थी। अब जबकि चीन और रूस के संबंध घनिष्ट हो गए तो उसका फायदा उठाने में पाकिस्तान पूरी मुस्तैदी दिखा रहा है। पिछले दिनों ओलम्पिक खेलों के उदघाटन के अवसर पर पूतिन के साथ-साथ इमरान भी पेइचिंग गए थे। अब इमरान उस समय मास्को पहुंच रहे हैं, जबकि पूतिन ने यूक्रेन के तीन टुकड़े कर दिए हैं। मास्को पहुंचनेवाले वे पहले मेहमान हैं। उन्होंने एक रूसी चैनल को दिए इंटरव्यू में कहा है कि उनका यूक्रेन-विवाद से कुछ लेना-देना नहीं है। वे सिर्फ रूस-पाकिस्तान द्विपक्षीय संबंधों पर अपना ध्यान केंद्रित करेंगे। मुझे ऐसा लगता है कि यूक्रेन के सवाल पर भारत की तरह तटस्थता का ही रूख अपनाएंगे या घुमा-फिराकर कई अर्थों वाले बयान देंगे।
वे रूस को नाराज़ करने की हिम्मत नहीं कर सकते। वे चाहते हैं कि रूस 2.5 बिलियन डॉलर लगाकर कराची से कसूर तक की गैस पाइपलाइन बनवा दे। मास्को की मन्शा है कि तुर्कमानिस्तान से भारत तक 1800 किमी की गैस पाइपलाइन बन जाए। रूस चाहता है कि वह पाकिस्तान को अपने हथियार भी बेचे। अफगानिस्तान से अमेरिकी वापसी के मामले में भी रूस और पाकिस्तान का रवैया एक-जैसा रहा है। रूस का तालिबान के प्रति भी नरम रवैया रहा है। ओबामा-काल में ओसामा बिन लादेन की हत्या से पाक-अमेरिकी दूरी बढ़ गई थी। रूस ने उन दिनों पाकिस्तान को कुछ हथियार और हेलिकॉप्टर भी बेचे थे और दोनों राष्ट्रों की फौजों ने संयुक्त अभ्यास भी किया था। अब देखना है कि इमरान-पूतिन भेंट पर भारत और अमेरिका की प्रतिक्रिया क्या होती है? हम यहां यह न भूलें कि 1965 के युद्ध के बाद भारत-पाक ताशकंद समझौता रूस ने ही करवाया था। (नया इंडिया की अनुमति से)
-स्टीव रोजनबर्ग
ब्रिटिश फिल्मकार अल्फ्रेड हिचकॉक ने असमंजस, दुविधा या सस्पेंस के विषय पर एक बार कहा था- जितना संभव हो सके दर्शकों को परेशान करें।’
ऐसा लगता है कि व्लादिमीर पुतिन हिचकॉक की फिल्में खूब देख रहे हैं। महीनों तक पुतिन ने दुनिया को अनुमान लगाने दिया कि वह यूक्रेन पर हमला करेंगे या नहीं। शीत युद्ध के बाद यूरोप में जो सुरक्षा व्यवस्था बनी थी, उसे नष्ट करने की योजना बना रहे हैं या नहीं?
जब उन्होंने इसी हफ्ते पूर्वी यूक्रेन के दो अलगाववादी इलाकों को स्वतंत्र क्षेत्र के रूप में मान्यता दी तो कई लोग हैरान रह गए। लेकिन पुतिन अब क्या करेंगे? अभी कुछ देर पहले ही पुतिन ने पूर्वी यूक्रेन में सैनिक भेजने की घोषणा कर दी है। हमले की खबरें भी आ रही हैं।
‘पुतिन्स रशा’ किताब की लेखिका लिलिया श्वेतसोवा कहती हैं कि पुतिन के लिए सस्पेंस सबसे पसंदीदा उपकरण है।
श्वेतसोवा कहती हैं, ‘पुतिन आग लगाकर और बुझाकर, तनाव बनाए रखेंगे। अगर वह अपने मानसिक तर्क पर बने रहते हैं तो पूरी तरह से हमला नहीं करेंगे। लेकिन उनके पास संभावित कदम उठाने के लिए अलग-अलग कई चीजें हैं। जैसे साइबर हमला और दक्षिणी अमेरिकी अजगर की तरह यूक्रेन को आर्थिक रूप से दबोचते रहेंगे। रूसी सेना पूरे दोनेत्स्क और लुहांस्क को भी अपने नियंत्रण में ले सकती है। वह बिल्ली की तरह चूहे के साथ खेलते रहेंगे।’
रूस की सत्ता की दीवार के पीछे क्या चल रहा है, इसकी थाह लेना बेहद मुश्किल काम है। पुतिन के दिमाग को पढऩा या समझना अब भी उतना ही चुनौतीपूर्ण है।
पुतिन की आगामी योजना
लेकिन पुतिन के बयानों और उनके भाषणों से उनकी सोच का कुछ अंदाजा लगता है। शीत युद्ध का जिस तरह से अंत हुआ, उससे पुतिन बहुत नाराज रहते हैं।
शीत युद्ध का अंत सोवियय संघ के बिखरने और उसके प्रभाव के अंत की कहानी है। नेटो का विस्तार पूरब तक हुआ और पुतिन की कड़वाहट बढ़ती गई। पुतिन उस व्यक्ति तरह लग रहे हैं, जो पूरी शक्ति के साथ एक मिशन पर लगा हो। पुतिन का मिशन है- यूक्रेन को रूस के साथ किसी भी तरह से लाना।
यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन में सीनियर रिसर्च असोसिएट व्लादिमीर पस्तुखोव कहते हैं, ‘वह रूस के फेडरल सिक्यॉरिटी सर्विस के एक अधिकारी से ज्यादा अयातुल्लाह लग रहे हैं। वह इतिहास में अपनी खास जगह के लिए किसी धार्मिक आस्था की तरह लगे हुए हैं। वह कदम दर कदम काम करेंगे। पहले अलगाववादी इलाकों को मान्यता दी। अब वहां सेना भेजेंगे। फिर दोनों इलाकों में अपने हिसाब से रूस में शामिल होने के लिए जनमत संग्रह की घोषणा करेंगे। इसके बाद यहाँ स्थानीय सैन्य अभियान चलेगा और पुतिन 2014 से पहले का सीमा विस्तार करेंगे।’
व्लादिमीर पस्तुखोव कहते हैं, ‘अगर अपने नियम से पुतिन को खेल खेलने की आजादी मिली तो इसे वह जहाँ तक संभव होगा, लंबा ले जाएंगे। वह धीमी आँच पर मांस पकाएंगे।’ पश्चिम के नेताओं को लग रहा है कि नए प्रतिबंध गेम-चेंजर होंग लेकिन पुतिन बहुत ही सख्ती दिखा रहे हैं।
रूस की प्रतिष्ठा
रूसी विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता मारिया जखारोवा ने बीबीसी से कहा, ‘हम इन प्रतिबंधों को अवैध मानते हैं। हम लंबे समय से इसे देख रहे हैं और पश्चिम हमारी प्रगति को रोकने के लिए इसी टूल का बार-बार इस्तेमाल करता है। हमें पता था कि प्रतिबंध लगेगा, चाहे कुछ भी हो। यह कोई मायने नहीं रखता है कि हमने कुछ किया है या नहीं। उनका प्रतिबंध अनिवार्य है।’
लेकिन क्या रूस पश्चिम में अपनी अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा की परवाह नहीं करता है, जो कि लगातार निचले स्तर पर जा रही है। आपके मुल्क को एक हमलावर के तौर पर देखा जा रहा है? इस सवाल के जवाब में मारिया कहती हैं, ‘हमारी इस प्रतिष्ठा की खोज आप कर रहे हैं। पश्चिम की प्रतिष्ठा के बारे में आप क्या सोचते हैं? जो कि ख़ून से रंगा हुआ है।’
कहा जा रहा है कि मारिया जख़ारोवा को भी यूरोपियन यूनियन की प्रतिबंध सूची शामिल किया गया है। हिचकॉक की थ्रिलर फिल्में एंटरटेन करती है लेकिन पुतिन की यूक्रेन थ्रिलर रूस के लोगों को नर्वस कर रही है।
रूस के लोग क्या सोच रहे हैं?
लेवाडा पब्लिक ऑपिनियन एजेंसी के डेनिस वोल्कोव कहते हैं, ‘ज़्यादातर लोग यह नहीं जानना चाहते हैं कि क्या हो रहा है। लोगों के लिए यह डराने वाला है। ये सुनना नहीं चाहते हैं। लोग युद्ध से डरे हुए हैं। हमने जो सर्वे किया है, उनमें से आधे लोगों ने कहा है कि युद्ध की आशंका है।’
रूस के कुछ लोगों ने सार्वजनिक रूप से सरकार की लाइन का विरोध किया है। कुछ शीर्ष के रूसी बुद्धिजीवियों ने एक पीटिशन पर हस्ताक्षर किया है और यूक्रेन में अनैतिक, गैर-जिम्मेदार के साथ आपराधिक युद्ध से बचने की सलाह दी है। इनका दावा है कि रूसी आपराधिक दु:साहसवाद के बंधक बन गए हैं।
पीटिशन में अपना नाम दर्ज कराने वाले प्रोफेसर एंद्रेई जबोव ने कहा कि रूस में लोग अपनी सरकार या संसद को रोकने में सक्षम नहीं हैं। जबोव ने कहा, ‘लेकिन मैंने अपनी राय रखने के लिए यह हस्ताक्षर किया है। मैंने रूस के शासक वर्ग वाले आभिजात्यों से खुद को दूर कर लिया है। यह वर्ग अंतरराष्ट्रीय नियमों को तोड़ रहा है।’ लेकिन पुतिन के रूस में समर्थक भी हैं।
सोवियत आर्मी के एक पूर्व कमांडर एलेक्सी ने कहा, ‘केवल यूक्रेन नहीं है जो रूस में लौटेगा। पोलैंड, बुल्गारिया और हंगरी भी हैं। ये सभी देश हमारे हुआ करते थे।’ एलेक्सी को 1990 के दशक की आर्थिक उथल-पुथल याद है लेकिन अब उन्हें लगता है कि रूस अपने घुटनों पर खड़ा हो गया है।
एलेक्सी कहते हैं, ‘यह एक जैविक प्रक्रिया है। जब एक बच्चा बीमार पड़ता है तो बीमारी से लडऩे की और क्षमता विकसित कर लेता है। 1990 के दशक में रूस इसी बीमारी से ग्रस्त हुआ था। लेकिन बीमारी ने हमें और मज़बूत बना दिया है। हमें नेटो को दूर जाने के लिए मनाने की जरूरत नहीं है। वह ख़ुद ही सब छोड़ देगा।’ (bbc.com/hindi)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक का लिखा-
भारत को धर्म-निरपेक्ष नहीं, धर्म-सापेक्ष राष्ट्र बनाएं, यह बात मैं कई दशकों से कहता रहा हूं लेकिन इसी बात को बलपूर्वक कह कर जैन मुनि विद्यासागरजी महाराज ने इस धारणा में चार चांद लगा दिए हैं। विद्यासागरजी दिगंबर जैन मुनि हैं। उनकी मातृभाषा कन्नड़ है, लेकिन हिंदी और संस्कृत में उन्होंने विलक्षण दर्शन ग्रंथों की रचना की है। उनके प्रति सभी जैन-संप्रदाय तो भक्तिभाव रखते ही हैं, लाखों हिंदू, मुसलमान, ईसाई, सिख आदि भी उन्हें पूजनीय मानते हैं।
भारत को धर्म-सापेक्ष बनाएं, यह बात उन्होंने म.प्र. के कुंडलपुर में आयोजित पंचकल्याणक समारोह में कही। वहां लाखों भक्तों के अलावा देश के जाने-माने नेता भी उपस्थित थे। भारत को धर्म-सापेक्ष बनाने का अर्थ उसे वेटिकन-जैसा राज्य बनाना नहीं है। उसे किसी रिलीजन या संप्रदाय या मत या पंथ का अनुयायी बना देना नहीं है बल्कि ऐसा राष्ट्र बनाना है, जिसका प्रत्येक नागरिक और सरकार भी धार्मिक है। भारत के संविधान में कहीं भी धर्म-निरपेक्ष शब्द नहीं आया है। उसकी प्रस्तावना में भारत को 'पंथ-निरपेक्षÓ कहा गया है। लेकिन हमारे देश के नेता धर्म-निरपेक्ष शब्द का ही प्राय: इस्तेमाल करते रहते हैं।
इसका असली कारण अंग्रेजी भाषा की गुलामी ही है, क्योंकि अंग्रेजी में धर्म को 'रिलीजन' ही कहते हैं। 'सेक्युलर' शब्द यूरोप में चलता है। आप सेक्यूलर हैं याने धर्म-निरपेक्ष हैं। मैं तो कहता हूं कि जो लोग सचमुच सेक्यूलर हैं याने किसी भी पंथ, संप्रदाय या भगवान को भी नहीं मानते, वे भी परम धार्मिक हो सकते हैं। धर्म का अर्थ है— धारण करने योग्य। मनुष्य का, पशु का, पक्षी का, राजा का, प्रजा का, मालिक का, नौकर का— सबका अपना धर्म होता है। सब अपने-अपने कर्तव्य का पालन करें, यही धर्म है।
मंदिर, मस्जिद, गिरजे, गुरूद्वारे और साइनेगाग में जाना धर्म नहीं है। वह पंथ-भक्ति है। धर्म क्या है? इसकी परिभाषा मनुस्मृति में कितनी अच्छी है। मनु महाराज ने धर्म के दस लक्षण बताए हैं— धीरज, क्षमा, मन-नियंत्रण, चोरी या लालच से बचना, शरीर-मन-बुद्धि को शुद्ध रखना, इंद्रिय-संयम, बुद्धिप्रधान रहना, सत्याचरण और क्रोध-नियंत्रण! क्या कोई मजहब, पंथ या संप्रदाय धर्म के इन दस लक्षणें को अनुचित बता सकता है? दुनिया के हर संप्रदाय या रिलीजन का भक्त इस धर्म का अनुसरण कर सकता है। इसे ही वेदों में मानव-धर्म कहा है।
ऋग्वेद कहता है— मनुर्भव भव! याने मनुष्य बनो। कोई भी मनुष्य किसी भी मजहब या पंथ का अनुयायी हो या किसी का भी न हो, वह भी इन दस लक्षणों को धारण कर सकता है। इनको धारना ही धर्म है। इनका जो उल्लंघन करे और अपने आप को वह किसी भी रिलीजन या संप्रदाय का परम भक्त कहे तो वह किसी भी हालत में धार्मिक व्यक्ति नहीं कहला सकता।
रिलीजनों और संप्रदायों ने दुनिया में जितनी खून की नदियां बहाई हैं, उतनी बादशाहों, राजाओं और राजनीति ने भी नहीं बहाई हैं। सच्ची नैतिकता ही धर्म है। जिसमें नैतिकता नहीं, वह विचार और कर्म अधर्म ही है। ऐसे अधर्म को हम छोड़े और भारत ही नहीं, दुनिया के सारे राष्ट्र धर्म-सापेक्ष बनें तो यह पृथ्वी ही स्वर्ग बन जाएगी।
(नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक का लिखा-
कर्नाटक के शिमोगा में बजरंग दल के हर्ष नामक एक कार्यकर्ता की हत्या हो गई! उसकी हत्या करने के लिए 10 लाख रु. का इनाम रखा गया था। इनाम रखने वाले और हत्यारों के नाम अभी तक प्रकट नहीं किए गए हैं लेकिन कर्नाटक के एक मंत्री ने कहा है कि ''हर्ष की हत्या मुस्लिम गुंडों ने की है। इस हत्या के लिए कांग्रेसी नेता डी.के. शिवकुामर ने उकसाया था।ÓÓ जवाब में शिवकुमार ने कहा है कि ''भाजपा धर्म के नाम पर दंगा करवा रही है। उस मंत्री के खिलाफ तुरंत मुकदमा दर्ज होना चाहिए।ÓÓ याने यह मामला अब पार्टीबाजी का शिकार हो रहा है।
यह अपने आप में बड़ी शर्मनाक बात है। यहां असली सवाल यह है कि हर्ष की हत्या क्यों हुई है? हर्ष कर्नाटक के बजरंग दल का सक्रिय कार्यकर्ता था। उसके परिवारवालों का कहना है कि वह बजरंग दल छोड़ चुका था लेकिन उसने कर्नाटक में हिजाब को लेकर चल रही मुठभेड़ पर कोई ऐसी टिप्पणी कर दी थी, जिसे इस्लाम-विरोधी समझा गया। उसे दो बार धमकियां भी मिली थीं। इस तरह की यह हत्या पहली नहीं है। इस्लाम और ईसाइयत के पिछले दो हजार साल के इतिहास में ऐसी सैकड़ों-हजारों घटनाएं होती रही हैं। धर्म का मामला ही कुछ ऐसा संगीन है।
हजार-डेढ़ हजार साल के भारत के इतिहास पर गौर करें तो जो मजहब भारत में पैदा हुए हैं, उनमें भी ऐसे कम लेकिन कई अतिवादी हिंसक और शर्मनाक किस्से होते रहे हैं। आर्यसमाज के संस्थापक महर्षि दयानंद को ज़हर किसने पिलाया? किसी मुसलमान या ईसाई ने नहीं, एक हिंदू रसोइए ने! दयानंद तो दया की मूर्ति थे। उन्होंने उस हत्यारे जगन्नाथ को 500 रु. कल्दार दिए और कहा कि तू नेपाल भाग जा। वरना पुलिस तुझे पकड़कर फांसी पर लटका देगी। लेकिन क्या ऐसे दयालु लोग आज भारत में हैं। भारत में तो क्या, सारी दुनिया में नहीं हैं। पूरे इतिहास में भी नहीं हैं।
लेकिन आज भारत का हाल क्या है? आप किसी भी मजहबी परंपरा के विरुद्ध तर्क करें या किसी भी तथाकथित महापुरुष में कोई दोष देख लें तो उनके अनुयायी आपकी हत्या के लिए तैयार हो जाते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि आप अपनी अक्ल पर ताला जड़ दें और आंख मींचकर किसी भी अनर्गल, तर्कहीन, मूर्खतापूर्ण और अश्लील बात को मानते चले जाएं। और जो न माने, उसे अपमान, प्रताडऩा और हत्या का भी सामना करना पड़े। मैं तो यह मानता हूं कि जो सचमुच महापुरुष है, उसे निंदा या आलोचना कभी भी परेशान नहीं कर सकती। इसके अलावा लगभग सभी धर्मों के धर्मग्रंथ इतने पुराने हो गए हैं कि उनमें लिखी हर बात को आज का कोई भी इंसान पूरी तरह लागू नहीं कर सकता।
यदि धर्मग्रंथों की कुछ बातों के विरुद्ध कोई बुद्धिजीवी तर्क करता है तो उस तर्क को आप अपने बुद्धिबल से काट क्यों नहीं डालते? अपनी कलम या जुबान चलाने की जगह यदि आप बंदूक या छुरा चलाते हैं तो आप यह सिद्ध करते हैं कि आपका दिमाग खाली है और सामने वाला आदमी सच बोल रहा है। उस आदमी के खिलाफ हिंसा करके आप यह संदेश दे रहे हैं कि आपका पक्ष बिल्कुल कमजोर है। इसका अर्थ यह नहीं है कि लोगों को धर्मग्रंथों, ऋषियों, नबियों, पोपों, पादरियों और गुरुओं का अपमान करने की छूट हो लेकिन शिष्टतापूर्ण सत्य को जाने बिना तो मनुष्य जीवन पशुतुल्य बन जाता है। (नया इंडिया की अनुमति से)
क्रेडिट स्विस स्विट्जरलैंड का दूसरा सबसे बड़ा बैंक है. इससे जुड़े लीक से पता चला कि इसके ग्राहकों में तानाशाह, अपराधी और भ्रष्ट राजनेता शामिल थे. उनके माध्यम से आ रहे अवैध फंड पर कार्रवाई करने में बैंक नाकाम रहा.
क्रेडिट स्विस दुनिया के सबसे बड़े प्राइवेट बैंकों में से एक है. आरोप है कि उसके ग्राहकों में तानाशाह, ड्रग डीलर, संदिग्ध युद्ध अपराधी और मानव तस्कर भी शामिल रहे हैं. यह जानकारी एक डाटा लीक के माध्यम से बाहर आई है. इस 'क्रेडिट स्विस लीक' में बैंक के ग्राहकों से जुड़े करीब 30 हजार खातों का ब्योरा सामने आया है. इससे पता चला है कि अपराधी भी इस बैंक में अपने खाते खोल पा रहे थे या यहां पहले से खुले अपने खातों को चला पा रहे थे, जबकि बैंक को उस ग्राहक के अपराधी होने की जानकारी होती थी.
कैसे लीक हुआ डाटा?
यह डाटा एक अज्ञात विसल ब्लोअर ने जर्मन अखबार 'ज्यूडडॉयचे त्साइटुंग' (एसजेड) को लीक किया. इसके बाद 'ऑर्गेनाइज्ड क्राइम एंड करप्शन रिपोर्टिंग प्रोजेक्ट' (ओसीसीआरपी) के तहत दुनिया के करीब 46 मीडिया संस्थानों ने साझा तौर पर इस लीक हुए डाटा का विश्लेषण किया. इन संस्थानों ने 20 फरवरी को इससे जुड़ी रिपोर्ट छापी. लीक करने वाले विसल ब्लोअर ने अपने बयान में कहा, "मेरा मानना है कि स्विस बैंकिंग के गोपनीयता से जुड़े कानून अनैतिक हैं. यह कानून वित्तीय निजता की सुरक्षा के नाम पर स्विस बैंकों की शर्मनाक भूमिका को ढकने का काम करता है."
लीक डाटा में जिन खातों का ब्योरा है, उनमें करीब दो तिहाई खाते ऐसे हैं जो साल 2000 के बाद खुलवाए गए. इनमें से कई अब भी चालू हैं. कई खाते दशकों पुराने भी हैं. इनमें फिलिपींस का एक मानव तस्कर, रिश्वतखोरी के लिए जेल भेजा गया हांगकांग स्टॉक एक्सचेंज का एक प्रमुख, लेबनान की रहने वाली अपनी पॉप स्टार गर्लफ्रेंड की हत्या का आदेश देने वाला मिस्र का एक अरबपति और वेनेजुएला की सरकारी तेल कंपनी को लूटने वाले अधिकारी शामिल हैं.
लीक में जॉर्डन के किंग अब्दुल्लाह द्वितीय, इराक के पूर्व उपप्रधानमंत्री अयाद अल्लावी, अल्जीरिया के निरंकुश शासक अब्दल अजीज बुतफ्लिका और अर्मेनिया के पूर्व राष्ट्रपति आरमेन सारकिसिन के गोपनीय खातों का ब्योरा भी शामिल हैं. एसजेड ने कुछ महीनों पहले क्रेडिट स्विस के सीक्रेट खाते को लेकर सारकिसिन से उनका पक्ष पूछा था. इसके कुछ ही दिन बाद जनवरी 2022 में सारकिसिन ने पद से इस्तीफा दे दिया. लीक में वैटिकन से जुड़ा एक खाता भी शामिल है, जिससे 350 मिलियन यूरो की रकम खर्च करके लंदन की एक प्रॉपर्टी में निवेश किया गया. यह वही खरीद है, जिसे लेकर जुलाई 2021 में वैटिकन ने एक कार्डिनल 10 लोगों पर जबरन वसूली, धोखाधड़ी और पद के बेजा इस्तेमाल का मुकदमा चलाने का एलान किया था.
अपने ऊपर लगे आरोपों पर बैंक की प्रतिक्रिया
लीक से पता चलता है कि बैंक संदिग्ध ग्राहकों की अच्छी तरह जांच करने में नाकाम रहा. ना ही उसने संदिग्ध ग्राहकों और गैरकानूनी फंड जमा करने वालों का खाता खोलने से इनकार किया. लीक से जुड़ी रिपोर्ट्स छापने वाले पत्रकारों ने क्रेडिट स्विस के कई पूर्व कर्मचारियों से भी बात की. उनका कहना था कि बैंक में अमीर और बेहद अमीर ग्राहकों के लिए अलग नियम-कायदे थे. क्रेडिट स्विस ने अपने ऊपर लगे आरोपों से इनकार किया है. उसका कहना है कि लीक में सामने आए 90 प्रतिशत खाते पहले ही बंद किए जा चुके हैं.
स्विट्जरलैंड दुनिया के सबसे क्रीम 'टैक्स हैवन' में गिना जाता है. यह एक बड़ा अंतरराष्ट्रीय वित्तीय केंद्र है, मगर इसका सिस्टम पारदर्शी नहीं है. पॉपुलर कल्चर में स्विस बैंक अपने ग्राहकों के प्रति बेहद वफादार माने जाते हैं. कहा जाता है कि आपका पैसा इससे ज्यादा सुरक्षित कहीं नहीं रहता. भारत जैसे देशों में भी स्विस बैंक राजनीतिक कहावतों के रूप में इस्तेमाल होते हैं. उन्हें ब्लैक मनी से जोड़कर पेश किया जाता है.
मगर पिछले करीब एक दशक से चीजों में थोड़ा बदलाव आया है. स्विट्जरलैंड ने मनी लॉन्ड्रिंग और गबन किए गए सरकारी फंड को छुपाकर रखने के ठिकाने के तौर पर अपनी छवि को बदलने की कोशिश की है. 2018 में टैक्स में चोरी से लड़ने के लिए गठित एक अंतरराष्ट्रीय एक्सजेंच सिस्टम के तहत स्विट्जरलैंड ने अपने बैंकों से अपने ग्राहकों की सूची कुछ विदेशी अथॉरिटीज के साथ साझा करने को कहा.
इसे स्विस बैंकिंग के लिए मील का पत्थर बताया गया. मगर खबरें बताती हैं कि चीजें अब भी पूरी तरह पारदर्शी नहीं हैं. टैक्स चोरी और धोखाधड़ी से निपटने के लिए बने ग्लोबल एक्सेंज प्रोग्राम के तहत स्विस बैंक अपने ग्राहकों की सूची कुछ देशों के साथ साझा करते हैं. लेकिन कई विकासशील और गरीब देशों को इस एक्सचेंज प्रोग्राम से दूर रखा जाता है.
एसएम/ओएसजे (डीपीए, एपी)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक का लिखा-
केरल में कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) की सरकार है और पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की सरकार है। इन दोनों राज्यों के राज्यपालों और मुख्यमंत्रियों की बीच सतत मुठभेड़ का माहौल बना रहता है। इन दोनों प्रदेशों से आए दिन ऐसी खबरें दिल्ली के अखबारों में मुखपृष्ठों पर छाए रहती हैं कि जो वहां किसी न किसी संवैधानिक संकट का संदेह पैदा करती रहती हैं। भारत की संघात्मक व्यवस्था पर भी ये मुठभेड़ें पुनर्विचार के लिए विवश करती हैं। यदि केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान ने अपने निजी स्टाफ में किसी व्यक्ति को नियुक्त कर लिया तो उन्हीं के वरिष्ठ अधिकारी को यह हिम्मत कहां से आ गई कि वह राज्यपाल को पत्र लिखकर उसका विरोध करे?
जाहिर है कि मुख्यमंत्री पिनरायी विजयन के इशारे के बिना वह यह दुस्साहस नहीं कर सकता था। इस पर राज्यपाल की नाराजगी स्वाभाविक है। राज्यपाल आरिफ खान का तर्क है कि केरल में मंत्री लोग अपने 20-20 लोगों के व्यक्तिगत स्टाफ को नियुक्त करने में स्वतंत्र हैं। उन्हें किसी से पूछना नहीं पड़ता है तो राज्यपाल को अपना निजी सहायक नियुक्त करने की स्वतंत्रता क्यों नहीं होनी चाहिए? उन्होंने एक गंभीर दांव-पेंच को भी इस बहस के दौरान उजागर कर दिया है। दिल्ली के केंद्रीय मंत्री अपने निजी स्टाफ में लगभग दर्जन भर से ज्यादा लोगों को नियुक्त नहीं कर सकते लेकिन केरल में 20 लोग की नियुक्ति की सुविधा क्यों दी गई है?
इतना ही नहीं, ये 20 व्यक्ति प्राय: मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य होते हैं और इन्हें ढाई साल की नौकरी के बाद जीवन भर पेंशन मिलती रहती है। यह पार्टीबाजी का नया पैंतरा सरकारी कर्मचारियों के कुल खर्च में सेंध लगाता है। राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच इस बात को लेकर भी पिछले दिनों सख्त विवाद छिड़ गया था कि किसी विश्वविद्यालय में उप-कुलपति की नियुक्ति करने का अधिकार राज्यपाल को है या नहीं? मुख्यमंत्री तो प्रस्तावित नामों की सूची भर भेजते हैं। आरिफ खान कुछ अनुपयुक्त नामों से इतने तंग हो गए थे कि वे अपने इस अधिकार को ही तिलांजलि देने को तैयार थे।
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अब केरल के कम्युनिस्ट नेताओं ने यह गुहार लगाना भी शुरु कर दिया है कि राज्यपाल का पद ही खत्म कर दिया जाए या विधानसभा को अधिकार हो कि उसे वह बर्खास्त कर सके। उसकी सहमति से ही राज्यपाल की नियुक्ति हो। यदि केरल के कम्युनिस्ट नेताओं को इस बात को मान लिया जाए तो भारत का संघात्मक ढांचा ही चरमराने लग सकता है। प्रदेशों के कई राज्यपाल और मुख्यमंत्री मेरे व्यक्तिगत मित्र है। वे ऐसे विवादों का जिक्र अक्सर करते हैं। ऐसे विवादग्रस्त प्रांतों, खासकर राज्यपाल जगदीप धनकड़ और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के तनाव की खबरें पढ़कर मुझे बहुत दुख होता है।
ममताजी कई बार अपने भाषणों और क्रिया-कलापों में मर्यादा लांघ जाती हैं। अन्य राज्यों से भी ऐसी शिकायतें आती रहती हैं। राज्यपाल का पद मुख्यमंत्री से ऊँचा होता है। इसलिए प्रत्येक मुख्यमंत्री के लिए यह जरुरी है कि वह किसी मुद्दे पर अपने राज्यपाल से असहमत हो तो भी वह शिष्टता का पूरा ध्यान रखे। इसी तरह से राज्यपालों को भी चाहिए कि निरंतर तनाव में रहने की बजाय अपने मुख्यमंत्री को सही और संवैधानिक मर्यादा बताकर उसे अपने हाल पर छोड़ दें। वह जो भी उटपटांग काम करेगा, उसका फल भुगते बिना नहीं रहेगा। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक का लिखा-
2008 में अहमदाबाद में हुए आतंकी हमले के अपराधियों को विशेष अदालत ने जो सजा सुनाई है, वह स्वतंत्र भारत की सबसे बड़ी सजा है। इसमें 38 अपराधियों को मृत्युदंड, 11 को उम्रकैद और 48 पर 2.85 लाख का जुर्माना लगाया गया है। इसके पहले 1991 में राजीव गांधी हत्याकांड में 26 लोगों को सजा-ए-मौत हुई थी। इस आतंकवादी हमले में 56 लोग मारे गए थे और 240 लोग घायल हुए थे। 70 मिनिट में 21 बम फटे थे। यदि सूरत में मिले 29 बम और फट जाते तो पता नहीं कितने लोग मरते। इस मुकदमे का फैसला आने में 14 साल लग गए, यह अपने आप में अच्छी बात नहीं है। इन अपराधियों को यदि साल-दो साल में ही फांसी पर लटका दिया जाता तो इस सजा का कहीं ज्यादा असर होता लेकिन सैकड़ों गवाहों से पूछताछ और पुलिस की खोजबीन अच्छी तरह से इसीलिए की गई कि न्याय में कमी न रह जाए। न्यायाधीशों ने गहराई में जाकर निष्पक्ष फैसला करने की कोशिश की है।
7 हजार पृष्ठ के इस फैसले में 77 आरोपियों में से 22 को बरी कर दिया गया है। यदि यह फैसला जल्दबाजी में होता तो ये 22 लोग भी लटका दिए जाते। इस फैसले को सांप्रदायिक नजरिए से देखना भी उचित नहीं है। इस आतंकी हमले की सारी पोल जिसने खोली है, वह भी एक मुसलमान ही है। उसका नाम अयाज़ सय्यद है। भारत के औसत मुसलमानों को भी इस आतंकवादी हादसे ने बुरी तरह आहत किया था। इस हमले की जिम्मेदारी 'इंडियन मुजाहिदीन' और 'स्टूडेंटस इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया' नामक संगठनों ने ली थी। पुलिस की जांच-पड़ताल से पता चला है कि इसमें गुजरात, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्र, केरल और कर्नाटक के आतंकवादी भी शामिल थे। एक अर्थ में यह देश के सभी मुसलमानों को बदनाम करनेवाले संगठन थे। इनके सज़ायाफ्ता लोग में 21 से 40 साल के लोग भी हैं। ये लोग गोधरा कांड के बाद हुए दंगों का बदला लेने पर उतारु थे। इन्होंने अपने आतंकी विस्फोटों की झड़ी भारत के दूसरे शहरों में भी लगाई थी।
इन्हें शायद पता नहीं है कि इनके विस्फोटों में मरे लोगों में हिंदू और मुसलमान दोनों ही थे। इन आतंकियों ने अपना निशाना तो गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी, अमित शाह और अन्य मंत्रियों को बना रखा था। जऱा सोचिए कि यदि ये लोग अपने इरादों को अंजाम दे पाते तो देश के करोड़ों निर्दोष मुसलमानों की दशा क्या होती? 2002 में गुजरात के दंगों में मारे गए मुसलमानों के प्रति देश के सभी हिंदुओं और मुसलमानों को काफी अफसोस था लेकिन आतंकवादी हरकतों ने उस अफसोस को भी नदारद कर दिया। इन आतंकवादियों को अब जो कड़ी सजा मिल रही है, उसके कारण बहुत-से घरों में अंधेरा हो जाएगा लेकिन लोगों को बड़े पैमाने पर सबक भी मिलेगा। सबक यह है कि कोई भी आतंकी कितनी ही चालाकी करे, वह न्याय के शिकंजे में फंसे बिना नहीं रहेगा। जिन परिवारों ने इस आतंकी हमले में अपने प्रियजनों को खोया है, उनके घावों पर यह मरहम भी कुछ काम नहीं करेगा। कुछ मुस्लिम संगठन अदालत के इस फैसले पर सांप्रदायिक रंग चढ़ा रहे हैं लेकिन उन्हें पता होना चाहिए कि भारत की अदालतें अपने फैसले जाति और मजहब के आधार पर नहीं करती हैं। आतंकवादी कोई हो, हिंदू या मुसलमान, उसे कठघरे में खड़े होना ही पड़ेगा और अपने किए का फल भुगतना ही पड़ेगा। इस फैसले ने यह सिद्ध किया है और इसका यही संदेश है कि आतंक का जवाब आतंक नहीं हो सकता। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक का लिखा-
भारत और संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) के बीच जो व्यापारिक समझौता अभी-अभी हुआ है, वह इतना महत्वपूर्ण है कि कुछ ही वर्षों में हमारे इन दोनों देशों का व्यापार न सिर्फ दुगुना हो जाएगा बल्कि मैं यह कह दूं तो आश्चर्य नहीं होगा कि भारत का व्यापार और परस्पर विनिवेश शायद दुनिया में सबसे ज्यादा यूएई के साथ भी हो सकता है। इस समय दोनों का आपसी व्यापार 50 बिलियन डॉलर के आस-पास है। इसे 100 बिलियन डॉलर होने में पांच साल भी नहीं लगेंगे, क्योंकि यूएई अपने आप में छोटा देश है लेकिन यह सारे अरब देशों और सारे अफ्रीकी महाद्वीप का मुहाना है।
इसके जरिए आप इन दोनों क्षेत्रों में आसानी से पहुंच सकते हैं। दूसरे शब्दों में अबू धाबी से व्यापार करने का अर्थ है, दर्जनों देशों से लगभग सीधे जुडऩा। भारत का ज्यादातर माल जो कराची और लाहौर के बाजारों में बिकता है, वह कहां से आता है? वह दुबई से ही निर्यात होता है। यूएई में भारत के लगभग 40 लाख लोग रहते हैं। एक करोड़ की जनसंख्या में 40 लाख भारतीय, 15 लाख पाकिस्तानी और शेष पड़ौसी राष्ट्रों के लाखों नागरिकों को दुबई-अबू धाबी में देखकर यह लगता ही नहीं है कि हम विदेश में हैं।
यूएई छोटा-मोटा भारत ही लगता है। ऐसा भारत जो संपन्न है, सुशिक्षित है और जिसमें सांप्रदायिक सदभाव है। यूएई एक मुस्लिम राष्ट्र होते हुए भी भारत की तरह अत्यंत उदार और सर्वसमावेशी राष्ट्र है। इसमें रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति को अपने धर्म पालन की पूर्ण स्वतंत्रता है। अबू धाबी के शेख नाह्यान मुबारक भारतीयों के बीच अत्यंत लोकप्रिय हैं। वे स्वयं मुझे कई बार मंदिरों में साथ लेकर गए हैं। वे अपनी मजलिसों के प्रीति-भोज कई बार हमारी खातिर शुद्ध शाकाहारी भी रखते हैं। हमारे व्यापार मंत्री पीयूष गोयल ने वहां जाकर जो एतिहासिक व्यापारिक समझौता किया है, वह भारत के व्यापार को तो बढ़ाएगा ही, वह लगभग डेढ़ लाख नए रोजगार भी पैदा करेगा।
भारत के 90 प्रतिशत निर्यात पर कोई टैक्स नहीं लगेगा। कुछ ही वर्षों में यह कर-मुक्ति शत प्रतिशत हो जाएगी। पिछले दिनों जम्मू-कश्मीर के उप-राज्यपाल मनोज सिंहा भी दुबई गए थे। उन्होंने विनियोग के लिए कश्मीर के दरवाजे खोल दिए हैं। जब यूएई के करोड़ों-अरबों रु. कश्मीर में लगने लगेंगे तो कश्मीर की हालत कहीं बेहतर हो जाएगी। यूएई और सउदी अरब, दोनों ने धारा 370 के मामले में पाकिस्तान की आवाज में आवाज नहीं मिलाई है। वे अब भारत के ज्यादा नजदीक आते जा रहे हैं।
भारत और यूएई एक-दूसरे के इतने नजदीक आते जा रहे हैं कि मैं तो सोचता हूं कि सात देशों के इस यूएई संघ को भी जन-दक्षेस के 16 देशों में जोड़ लिया जाना चाहिए। आजकल पिछले छह-सात साल से चले भारत-पाक विवाद के कारण दक्षेस (सार्क) ठप्प हो गया है। इसका विकल्प जन-दक्षेस ही है। जन-दक्षेस में दक्षेस के आठ राष्ट्रों के अलावा म्यांमार, ईरान, मोरिशस और मध्य एशिया के पांचों गणतंत्रों के साथ-साथ यदि यूएई को भी जोड़ लिया जाए तो यह यूरोपीय संघ से भी ज्यादा शक्तिशाली महासंघ बन सकता है। (नया इंडिया की अनुमति से)
-रमेश अनुपम
बस्तर गोलीकांड की न्यायिक जांच के लिए उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के.एल.पांडेय की एकल जांच समिति की घोषणा हो चुकी थी।
इसी बीच देश के सुप्रसिद्ध स्वतंत्रता संग्राम सेनानी आचार्य जे. बी. कृपलानी बस्तर आए। वे जगदलपुर में हुए नरसंहार से बेहद क्षुब्ध थे। बस्तर महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव और निरीह आदिवासियों की हत्या से बहुत आहत थे।
जे.बी.कृपलानी ने 10 मई सन 1966 को जगदलपुर में एक विशाल आम सभा को भी संबोधित किया।
बस्तर के इतिहास में यह आमसभा स्वर्ण अक्षरों में लिखे जाने लायक है। इस विशाल आमसभा को आज भी याद किया जाता है।
आमसभा को संबोधित करते हुए प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के सांसद
(सन् 1951 में उन्होंने कांग्रेस पार्टी से इस्तीफा दे दिया था)
आचार्य जे.बी.कृपलानी ने कहा था-
‘जगदलपुर हत्याकांड को लेकर कांग्रेसी चुप क्यों हैं? अंग्रेजों के जमाने में यह हुआ होता तो क्या वे चुप रहते? कमीशन की नियुक्ति से लेकर कमीशन के आगमन (6 अप्रैल 1966) तक लगभग पैंतीस दिनों तक जगदलपुर में धारा 144 लगाना तथा प्रशासन की बागडोर पुलिस के हाथों में होना। साक्ष्यों को पुलिस द्वारा नष्ट किया जाना और राजमहल के खून के दागों को मिटाना, यह आखिर क्या साबित करता है ?
इसी तरह महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव के साथ केवल बारह आदिवासियों की मौत की कहानी भी अपने आप में संदेहजनक है।
प्रखर नेता जीवटराम भगवानदास कृपलानी ने बस्तर महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव का विशेष रूप से उल्लेख करते हुए आगे अपने भाषण में कहा था :
यदि बस्तर महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव कांग्रेसी शासन का तख्ता पलटने वाले थे तो केंद्र को इसकी खबर कैसे नहीं लगी? आदिवासी तीर और बांस की नुकीली कमचियों से तख्ता पलटने वाले थे यह बात ही अपने आप में मूर्खतापूर्ण और हास्यास्पद प्रतीत होती है।
यह सोचने लायक बात है कि इतनी शक्तिशाली सरकार आदिवासियों के तीर और कमान से इतनी भयभीत कैसे हो गई। यह भी अपने आप में संदेहास्पद है कि जब इतनी भारी मात्रा में यहां बलवा होने वाला था तो स्थानीय कांग्रेस पार्टी ने राज्य और केंद्र सरकार को समय रहते सूचित क्यों नहीं किया ?
आचार्य जे. बी कृपलानी ने तत्कालीन केंद्रीय गृहमंत्री गुलजारी लाल नंदा को भी आड़े हाथों लेते हुए कहा था-
‘26 मार्च की गोली कांड के विषय में पूरी जानकारी देने के लिए गृहमंत्री गुलजारी लाल नंदा ने देश से 48 घंटों का समय क्यों मांगा?’
जगदलपुर में 10 मई को आयोजित विशाल जनसभा को संबोधित करते हुए जे.बी. कृपलानी ने गोली कांड में लिप्त अधिकारियों के अब तक अन्यत्र स्थांतरण न किए जाने पर भी क्षोभ व्यक्त करते हुए कहा था-
‘बस्तर गोली कांड से संबंधित अधिकारी अभी भी बस्तर में क्यों पदस्थ हैं? जब कि उनका तुरंत ट्रांसफर हो जाना चाहिए था।
यही कारण है कि शासन की इस नीति के फलस्वरूप गुनाहगार अधिकारी अपने गुनाह छिपाने के लिए इस खुली छूट का फायदा उठा रहें हैं।’
आचार्य जे.बी.कृपलानी का यह भाषण बस्तर गोली कांड के विषय में अनेक सवालों को जन्म देता है।
इस वीभत्स गोली कांड को लेकर आचार्य जे.बी. कृपलानी राज्य और केंद्र दोनों ही सरकारों को कटघरे में खड़े करने की कोशिश करते हैं।
राज्य और केंद्र दोनों ही सरकारों की जवाबदेही पर वे प्रश्न चिन्ह भी खड़े करते हैं।
यहां एक अवांतर टिप्पणी करने के मोह से मैं स्वयं को नहीं रोक पा रहा हूं। यह अवांतर टिप्पणी भी जे.बी. कृपलानी और बस्तर गोली कांड से संबंधित है।
मई 1966 में जब जे.बी.कृपलानी बस्तर गोली कांड के सिलसिले में जगदलपुर जा रहे थे। यह उसी समय की एक रोमांचक घटना है जो आज भी मेरे जेहन में कैद है।
मैं 1966 में चौदह वर्ष का एक किशोर था। धमतरी में आठवीं कक्षा का विद्यार्थी था। यह घटना शायद 9 या 10 मई की है।
धमतरी के मकई चौक पर स्थित अमर टाकीज के पास सुबह से ही लोगों की भारी भीड़ लगी हुई थी।
किशोर सुलभ जिज्ञासा से मैं भी उस भीड़ के साथ खड़ा हो गया। जब मैंने यह जानने की कोशिश की कि यहां भीड़ क्यों लगी हुई है? मुझे बताया गया कि जे.बी.कृपलानी अभी कुछ ही देर में यहां से होकर गुजरने वाले हैं।
भीड़ को जे. बी. कृपलानी का उत्सुकतापूर्वक इंतजार था जो बस्तर गोली कांड के सिलसिले में जगदलपुर जा रहे थे। वे रायपुर से कार से निकल चुके थे। मैं भी किशोर सुलभ उत्सुकतावश इस भीड़ में शामिल हो गया था ।
थोड़ी ही देर बाद रायपुर से आ रही एक कार को भीड़ ने घेर लिया था। कार के रुकते ही जे.बी.कृपलानी उस कार से बाहर निकले । लोग उनकी जय-जयकार के नारे लगाने लगे। लोगों ने उनसे कुछ बोलने का निवेदन भी किया। पर वे किस तरह इस आकस्मिक भीड़ को संबोधित करें यह किसी के समझ में नहीं आ रहा था।
तभी किसी ने सुझाव दिया कि जे. बी. कृपलानी कार के ऊपर चढ़ कर भाषण दें, ताकि सभी लोग उन्हें देख और सुन सकें। यह तरकीब काम आ गई ।
आनन-फानन में उन्हें जैसे-तैसे कार के ऊपर चढ़ाया गया। जे.बी. कृपलानी ने कार पर खड़े होकर अपना भाषण दिया। जाहिर है वह भाषण बस्तर गोली कांड को लेकर था। इस भाषण के बाद ही धमतरी से उनकी विदाई हुई और वे जगदलपुर के लिए सकुशल रवाना हो पाए थे।
मैं इसका चश्मदीद गवाह बन सका था, यही क्या मेरे लिए कम है।
बाद में सन 1967 के लोकसभा चुनाव में रायपुर लोकसभा सीट से जे.बी.कृपलानी ने निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में चुनाव भी लड़ा, किंतु कांग्रेस के लखन लाल गुप्ता के हाथों उन्हें पराजित होना पड़ा था।
(बाकी अगले हफ्ते)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक का लिखा-
सोश्यल मीडिया आज की जिंदगी में इतना महत्वपूर्ण बन गया है कि कई लोग 5 से 8 घंटे रोज तक अपना फोन या कंप्यूटर थामे रहते हैं। यदि हम मालूम करें कि वे क्या पढ़ते और देखते रहते हैं तो हमें आश्चर्य और दुख, दोनों होंगे। ऐसा नहीं है कि सभी लोग यही करते हैं। सोश्यल मीडिया की अपनी उपयोगिता है। गूगल तो आजकल विश्व महागुरु बन गया है। दुनिया की कौनसी जानकारी नहीं है, जो पलक झपकते ही उस पर नहीं मिल सकती। गूगल ने दुनिया के शब्द-कोशों, ज्ञान ग्रंथों और साक्षात गुरुओं का स्थान ग्रहण कर लिया है। उसके माध्यम से करोड़ों लोगों तक आप चुटकी बजाते ही पहुंच सकते हैं लेकिन इसी सोश्यल मीडिया ने भयंकर एंटी-सोश्यल भूमिका निभानी भी शुरु कर दिया है। इसके जरिए न केवल झूठी अफवाहें फैलाई जाती हैं बल्कि अपमानजनक, अश्लील, उत्तेजक और घृणित सामग्री भी फैलाई जाती है। इसके कारण दंगे फैलते हैं, भयंकर जन-आंदोलन उठ खड़े होते हैं और राष्ट्रों के बीच जहर भी फैल जाता है।
सोश्यल मीडिया के जरिए सबसे विनाशकारी काम बच्चों के विरुद्ध होता है। छोटे-छोटे बच्चे भी अपने मोबाइल फोन के जरिए दिन भर अश्लील चित्रों और दृश्यों को देखते रहते हैं। वे गंभीर अपराध करने के गुर भी इसी से सीखते हैं। वे कई किशोर इंटरनेट के आदेशों का पालन इस हद तक करते हैं कि वे आत्महत्या तक कर लेते हैं। पिछले साल भर में ऐसी कई खबरें भारत के अखबारों और टीवी चैनलों पर देखने में आई हैं। बच्चों को संस्कारविहीन बनाने में सोश्यल मीडिया का विशेष योगदान है। वे अपनी पढ़ाई-लिखाई में समय लगाने के बजाय अश्लील चित्र-कथाओं में अपना समय बर्बाद करते हैं। बैठे-बैठे लगातार कई घंटों तक कंप्यूटर और मोबाइल देखते रहने से उनकी शारीरिक गतिविधियां भी घट जाती है। उसका दुष्परिणाम उनके स्वास्थ्य पर भी प्रकट होता है। वे निष्क्रियता और अकर्मण्यता के भी शिकार बन जाते हैं।
भारत में अभी यह जहरीली बीमारी बच्चों में थोड़ी सीमित है लेकिन अमेरिका और यूरोप के बच्चे बड़े पैमान पर इसके शिकार हो रहे हैं। इसने वहां महामारी का रुप धारण कर लिया है। अमेरिकी सांसद इससे इतने अधिक चिंतित हैं कि उन्होंने अब इस सोश्यल मीडिया पर नियंत्रण के लिए कठोर कानून बनाने का संकल्प कर लिया है। वे शीघ्र ही ऐसा कानून बनाना चाहते है कि जिससे पता चल सके कि 16 साल से कम के बच्चे कितनी देर तक सोश्यल मीडिया देखते हैं। उनके माता-पिता को यह जानने की सुविधा होगी कि उनके बच्चे इंटरनेट पर क्या-क्या देखते हैं और कितनी देर तक देखते हैं। वे इंटरनेट पर जानेवाली हर प्रकार की आपत्तिजनक सामग्री पर प्रतिबंध लगाएंगे। इस तरह की कई अन्य मर्यादाएं लागू करना अमेरिका में ही नहीं, भारत और दक्षिण एशिया के देशों में उनसे भी ज्यादा जरुरी है। यदि भारत सरकार इस मामले में देरी करेगी तो भारतीय संस्कृति की जड़ें उखडऩे में ज्यादा देर नहीं लगेगी। मैं तो चाहता हूं कि भारत का अनुकरण दुनिया के सारे देश करें। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक का लिखा-
कर्नाटक के उच्च न्यायालय में हिजाब के मुद्दे पर अभी बहस जारी है लेकिन अंतरराष्ट्रीय इस्लामी सहयोग संगठन (ओआईसी) ने भारत के खिलाफ अपना बयान जारी कर दिया है। उसने पहले धारा 370 हटाने के विरोध में भी बयान जारी किया था। पाकिस्तान के मुल्ला-मौलवी और नेता भी एकतरफा बयान जारी करने में एक-दूसरे से आगे निकल रहे हैं। कर्नाटक की अदालत में हिजाब का पक्ष रखने वाले वकील हिंदू हैं और वे जो तर्क दे रहे हैं, वे ऐसे हैं, जिन पर खुले दिमाग से विचार किया जाना चाहिए।
उनका तर्क यह है कि जब हिंदू औरत के सिंदूर, बिंदी और चूडिय़ों, सिखों की दाढ़ी-मूंछ और पगड़ी तथा ईसाइयों के क्रास पहनने पर कोई प्रतिबंध नहीं है तो मुस्लिम महिलाओं के बुर्के और हिजाब पर प्रतिबंध की क्या तुक है? क्या ऐसा करना पूर्णत: सांप्रदायिक कदम नहीं है? क्या यह इस्लाम और मुसलमानों पर सीधा आक्रमण नहीं है? हिजाब के बहाने यह मुस्लिम लड़कियों को शिक्षा से वंचित करने का कुप्रयास नहीं है? ये तर्क बहुत वाजिब दिखाई पड़ते हैं लेकिन अभी कर्नाटक में हिजाब के सवाल ने जैसा सांप्रदायिक और राजनीतिक रुप धारण कर लिया है, यदि हम उससे जऱा अलग हटकर सोचें तो यह मूलत: नर-नारी समता का सवाल है! यदि हिजाब धार्मिक चिन्ह है तो इसे औरतों के साथ-साथ मर्द भी क्यों नहीं पहनते?
आजकल औरत और मर्द- सभी मुखपट्टी (मास्क) पहनते हैं, वैसे ही वे हिजाब भी पहन सकते हैं। सिर्फ औरतें ही क्यों हिजाब पहनें? उनका गुनाह क्या है? और फिर मुस्लिम औरतों को ही यह सजा क्यों है ? हिंदू और ईसाई औरतें भी इसे क्यों नहीं पहनें? हिजाब, बुर्का, घूंघट, सिंदूर, बिंदी, चूड़ी, भगवान दुपट्टा आदि इनमें से किसी भी चीज को पहनने का आदेश किसी ईश्वर, अल्लाह या अहुरमज्द का नहीं है। ये सब परंपराएं मुनष्यों की बनाई हुई हैं और ये देश-काल के मुताबिक चलती हैं। हिजाब और बुर्के का औचित्य डेढ़ हजार साल पुराने अरब देश में बिल्कुल ठीक था लेकिन आज की दुनिया में इसका कोई महत्व नहीं रह गया है।
यदि हिजाब और बुर्का इस्लाम का अनिवार्य अंग है तो क्या बेनज़ीर भुट्टो, मरियम नवाज शरीफ, शेख हसीना, काबुल की शहजादियां मुसलमान नहीं हैं? मैंने तो उन्हें कभी भी अपना चेहरा छिपाते हुए नहीं देखा! शरीर के गुप्तांग औरत और मर्द सभी ढकें, यह तो जरुरी है लेकिन चेहरे को छिपाए रखने की पीछे तर्क क्या है? चेहरा तो आपकी पहचान है। चेहरा तो वो ही छिपाता फिरता है, जो चोर, डाकू, तस्कर या अपराधी हो। किसी तिलक, बिंदी, चोटी, जनेऊ, दाढ़ी-मूंछ, पगड़ी, दुपट्टा, तुर्की टोपी, शेरवानी, सलवार-कमीज, गतरा (अरब), चोंगा (ईसाई), किप्पा (यहूदी टोपी) आप पहनना चाहें तो जरुर पहनें।
आप अपनी मजहबी या सांप्रदायिक या जातीय पहचान का दिखावा करना चाहते हैं तो जरुर करें। लेकिन कोई भी औरत या मर्द अपना मुंह क्यों छिपाए? मुखपट्टी तो जैन मुनि भी लगाते हैं लेकिन उसका उद्देश्य अपना मुंह या पहचान छिपाना नहीं है बल्कि उनकी गर्म सांस से कोई जीव-हिंसा न हो जाए, उनका यह उद्देश्य रहता है। औरतों पर हिजाब, नकाब और बुर्का लादना तो उनकी हैसियत को नीचे गिराना है।
मुस्लिम कन्याओ को छात्र-काल से ही हीनता-ग्रंथि से ग्रस्त कर देना कहां तक ठीक है? मुस्लिम कन्याओं का मनोबल भी उतना ही ऊंचा रहना चाहिए, जितना देश की अन्य लड़कियों का रहता है। क्या वे भी भारत माता की प्रिय बेटियां नहीं हैं (नया इंडिया की अनुमति से)
-चैतन्य नागर
1929 का साल थियोसोफिकल सोसाइटी के इतिहास में हमेशा याद किया जायेगा। जिद्दू कृष्णमूर्ति ने समूची दुनिया के सामने ऐलान किया कि वह आर्डर ऑफ़ द स्टार को भंग कर रहे हैं। संगठन का धन और सैकड़ों एकड़ की संपत्ति उन्होंने वापस कर दी और एक वक्तव्य दिया जिसे धर्म के इतिहास का सबसे क्रांतिकारी वक्तव्य कहा जा सकता है। इसका एक ख़ास पहलू यह भी है कि कृष्णमूर्ति ने जब यह वक्तव्य दिया तब उन्हें एक मसीहा, एक जगद्गुरु और एक अवतार माना जा चुका था। दुनिया में लाखों की संख्या में लोग इसकी प्रतीक्षा में थे कि कृष्णमूर्ति उन्हें जल्दी ही जीवन के मूलभूत सिद्धांतों से फिर से परिचित कराएँगे, जैसा कि हज़ारों साल पहले बुद्ध और क्राइस्ट ने किया था। संगठन को भंग करते समय उन्होंने जो बयान दिया उसका सक्षिप्त रूप यह है :
"मेरा मानना है कि सत्य एक पथविहीन भूमि है। किसी धर्म या सम्प्रदाय के माध्यम से आप इस तक नहीं पहुँच सकते। सत्य को आप संगठित नहीं कर सकते और इसलिए लोगों के नेतृत्व के लिए और उन्हें जबरदस्ती किसी मार्ग पर चलाने के लिए कोई संगठन नहीं बनाया जाना चाहिए। मत पूरी तरह एक व्यक्तिगत मामला है, और आपको इसे कभी भी संगठित नहीं करना चाहिए। जैसे ही आप इसे संगठित करते हैं वह एक मृत चीज़ बन जाता है, वह एक संप्रदाय, एक धर्म बन जाता है। दुनिया में सभी यही करने की कोशिश में लगे हैं। ..…यदि इस उद्देश्य से कोई संगठन बनता भी है, तो वह एक वैशाखी बन जाता है, एक कमज़ोरी, एक बंधन और व्यक्ति को पंगु बना देता है, उसे आगे बढ़ने से, अपने अनूठेपन को जीने से रोकता है।….संगठन आपको मुक्त नहीं कर सकते। बाहर से कोई व्यक्ति आपको मुक्ति नहीं दे सकता, न ही संगठित पूजा पाठ, न ही किसी महान कार्य के लिए कोई बलिदान आपको मुक्त कर सकता है। आप टाइपराइटर का इस्तेमाल करते हैं पत्र लिखने के लिए, पर वेदी पर रख कर उसकी पूजा नहीं करते। जब संगठन आपकी मुख्य चिंता बन जाते हैं, तो आप ऐसा ही करते हैं। …आप दूसरे संगठन बना सकते हैं और किसी से कुछ अपेक्षाएं रख सकते हैं। मेरा इससे कोई मतलब नहीं। मैं नए पिंजरे बनाना नहीं चाहता, न ही पिंजरों को नए ढंग से सजाना चाहता हूँ। मेरी तो एक ही फिक्र है: इंसान को परम रूप से, बगैर किसी शर्त सभी पिंजरों से मुक्त कर देना।"
कृष्णमूर्ति फाउंडेशन के किसी भी केंद्र या स्कूल में आज का दिन ख़ास तौर पर नहीं मनाया जाता। न ही उनकी किसी तस्वीर पर माला चढ़ाई जाती है, न ही लोग उनकी याद में मातम मानते हैं, न ही किसी व्याख्यान का आयोजन होता है। हर दिन की तरह यह दिन भी होता है—साधारण भी, असाधारण भी। १९२३ से लेकर करीब साथ वर्षों तक, १७ फ़रवरी १९८६ में अपनी मृत्यु तक कृष्णमूर्ति पूरी दुनिया में घूम घूम कर जन सभाएं करते रहे, छोटे बड़े समूह में लोगों से बातें करते रहे। ईश्वर या भगवान जैसे शब्दों से हमेशा परहेज किया। किसी धर्म ग्रन्थ की पवित्रता को मानने से इंकार किया। नोबेल विजेता ऑल्डस हक्सले ने कृष्णमूर्ति की किताब 'फर्स्ट एंड लास्ट फ्रीडम' की भूमिका में कहा कि कृष्णमूर्ति को सुनना बुद्ध को सुनने के सामान है। उन्होंने मृत्यु के बाद जीवन, आत्मा और इस तरह की अस्पष्ट बातों पर कभी कुछ नहीं कहा, और बुद्ध की तरह अपने आतंरिक कलह, दुःख और समाज में उसकी अभिव्यक्ति को समझने और ख़त्म करने के बारे में ही बोलते रहे। कुछ लोग उन्हें रेशनलिस्ट मानते हैं; कम्युनिस्ट उन्हें अधार्मिक रहस्यवादी कहते हैं। पर सच्चाई यह है कि कृष्णमूर्ति के दर्शन और चिंतन को किसी श्रेणी में रखा ही नहीं जा सकता। किसी भी मत या वाद को वह विभाजन का कारण मानते थे। समाज सुधार को वह एक सतही चीज़ मानते थे और मौलिक परिवर्तन पर ज़ोर देते थे। उनका मानना था कि वैश्विक संकट की जड़ें वास्तव में मानव चेतना में हैं, और बदलाव वहीँ होना चाहिए। बाहरी अव्यवस्था एक अपरीक्षित, अव्यवस्थित चेतना की ही अभिव्यक्ति है और वाह्य भले ही कितना ही व्यवस्थित क्यों न कर दिया जाए, यदि आतंरिक पर ध्यान न दिया जाये, तो वह वाह्य को नष्ट कर सकता है और अभी तक हुई सामाजिक, राजनैतिक क्रांतियों का यही हश्र हुआ है। इन आंदोलनों ने इंसान को बदलने के स्थान पर संस्थागत, व्यवस्थागत परिवर्तन को अपनी ऊर्जा दी, पर उसकी बेतरतीब, अव्यवस्थित चेतना को नहीं छुआ। कृष्णमूर्ति ने इस बात पर ज़ोर दिया कि व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन की दिशा और गति वास्तव में चित्त की आड़ी-तिरछी रेखाएं ही तय करती हैं। इस चित्त की दशा को न समझ कर यदि कोई बाहरी परिवर्तन किया जाए, तो न सिर्फ वह सतही और अस्थायी होगा, बल्कि एक बहुत बड़े भ्रम को भी जन्म देगा। एक तरफ तो कृष्णमूर्ति भारतीय दार्शनिक परंपरा से कहीं जुड़े हुए प्रतीत होते हैं, क्योंकि प्राच्य दर्शन हमेशा से व्यक्तिगत चेतना में परिवर्तन की बात करता आया है, पर दूसरी ओर कृष्णमूर्ति अलग से कई ऐसे बिंदु उठाते हैं, जो उन्हें हर तरह की परंपरा से अलग भी करते है, और किसी नयी परंपरा का निर्माण भी नहीं करते। हिन्दू धर्म की मुख्यधारा की परंपरा और बागी परंपरा—दोनों से छिटक कर वह दूर खड़े होते हैं और नए सिरे से जीवन और उसके बुनियादी सवालों पर संवाद करते प्रतीत होते हैं।
क्या कृष्णमूर्ति नास्तिक हैं? क्या वह मूल रूप से एक मनोवैज्ञानिक हैं ? क्या उन्होंने दर्शन, धर्म और मनोविज्ञान का एक मिला जुला मिश्रण हमारे सामने प्रस्तुत किया? क्या कृष्णमूर्ति की शिक्षाएं बौद्धिकता में इतनी डूबी हुई हैं, कि वह बुद्धिजीवियों के सामने एक नयी तरह की चुनौती प्रस्तुत करते हैं और आखिर में बुद्धि को भी नकार देते हैं ? ऐसे कई सवाल हैं जो कृष्णमूर्ति के बारे में लोग उठाते हैं। पर एक छोटे लेख में इन प्रश्नो के साथ ईमानदारी के साथ बात नही की जा सकती। यह ज़रूर कहा जा सकता है कि संगठित धर्मों का, गुरु शिष्य परंपरा का, धर्म ग्रंथों का इतना कठोर विरोध धर्म के इतिहास में किसी ने नहीं किया।
कुछ लोगों का मानना है कि कृष्णमूर्ति एक तरह से चरमपंथी या अब्सोल्युटिस्ट थे। वह अनर्किज़्म के अंतिम छोर पर खड़े प्रतीत होते हैं। इसलिए सतही समाज सुधार में उनका कोई भरोसा नहीं था। न ही वह किसी धार्मिक संगठन के थे, न ही राजनैतिक समूह के, न ही संप्रदाय के, न किसी देश के। अमेरिका की कम्युनिस्ट पार्टी ने उनसे जब कहा कि वह तो कम्युनिस्टों की भाषा बोलते हैं, उन्हें कम्युनिस्ट पार्टी में होना चाहिए, तो उन्होंने साफ़ कहा कि वह किसी भी संगठन का हिस्सा नहीं बन सकते। उनका मानना था कि मत और वाद, संगठन और संप्रदाय विभाजन और युद्ध का कारण हैं। वह बार बार कहते रहे कि हम हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई नहीं बल्कि मानव हैं, शेष मानवता का हिस्सा हैं, एक दूसरे से बिलकुल भी अलग नहीं। उनका सवाल था: क्या हम इस धरती पर हलके से चलते फिरते रह सकते हैं, बगैर उसे नष्ट किये, खुद को और पर्यावरण को कोई नुकसान पहुंचाए बगैर?
कृष्णमूर्ति की बातें कुदरत के साथ कमज़ोर होते हमारे रिश्तों पर चिंता व्यक्त करती हैं। वह कहते हैं: जब कुदरत के साथ रिश्ता कमज़ोर हो जाये, तो हम क्रूर बन जाते हैं। उनकी शिक्षाएं मानव-निर्मित मतों और सिद्धांतों, राष्ट्रवादी भावनाओं से पर जाकर इंसान की ज़िन्दगी के बुनियादी सवालों पर संवाद करती हैं। सत्य के लिए इंसान की खोज को एक नयी दिशा भी देते हैं कृष्णमूर्ति। आधुनिक समाज के लिए पूरी तरह प्रासंगिक होने के अलावा उनकी बातें सीधे मानव चेतना को सीधे संबोधित करती हैं, हर देश, काल और परिस्थिति में रहने वाले व्यक्ति और समाज को। कृष्णमूर्ति ने कभी एक गुरु की तरह बात नहीं की। उन्होंने एक मित्र की तरह ही लोगों के साथ संवाद किया। पिछली सदी के कई महान भौतिकविदों, मनोवैज्ञानिकों और अलग अलग क्षेत्रों के महारथियों से वह मिले और अपनी अंतर्दृष्टियां साझा कीं। ये अंतर्दृष्टियां किसी अध्ययन पर आधारित नहीं थीं। ये उनके प्रत्यक्ष अवलोकन और समझ पर आधारित अंतर्दृष्टियां थीं। इसलिए उनमे एक ख़ास किस्म की ताज़गी और नयापन है।
- अपूर्व गर्ग
गोर्की ने लिखा है अन्तोन चेख़व के जनाजे वाली बात मैं भूल नहीं सकता. उस दिन मास्को के स्टेशन पर भारी भीड़ इकट्ठी हुई. लोगों ने आश्चर्य से देखा चेख़व के शव को भारी मिलिट्री ठाठ के साथ निकाला जा रहा है पर ये भारी भूल थी.
उस दिन जनरल केलर का जनाजा मंचूरिया से लाया गया था, जो ठीक उसी समय पहुंचा था. चेख़व के जनाजे के लिए तो माल ढोने वाली गाड़ी लायी गयी थी और कुछ ही लोग थे.
गोर्की बताते हैं वो भड़कीले कपड़े पहने दो वकीलों के पीछे चल रहे थे जो कुत्ते की होशियारी पर लेक्चर बघार रहे थे. एक महिला किसी बुड्ढे को विश्वास दिलाना चाहती थी कि मृतक एक योग्य लेखक था और ये सुनकर वृद्ध महाशय ने अविश्वासपूर्ण खाँसना शुरू कर दिया था ...सारा दृश्य साधारण और बाज़ारू लग रहा था.
चेख़व का जनाजा 15 जुलाई 1904 को निकला था तब रूस में रूसी जार निकोलस द्वितीय का शासन था.
वहीं जब गोर्की का जनाजा 18 जून 1936 को निकला था तब समाजवादी सोवियत संघ था और करीब 800,000 लोग उनकी अंतिम यात्रा में शामिल थे. इनमें स्वयं स्टालिन और मोलोतोव भी शामिल थे.
समाजवादी व्यवस्था और पूंजीवादी व्यवस्था में बस इतना सा ही फर्क है !!
और ज़्यादा बेहतर समझना चाहते हैं तो कोरोना काल में दवा, इलाज और ऑक्सीजन के अभाव में दम तोड़ चुके हमारे देश के ही शीर्षस्थ साहित्यकारों को याद कर लीजिये और ठीक उसी पल याद करिये कैसे क्यूबा अपने डॉक्टर्स को दुनिया भर में भेज रहा था.
योगी आदित्यनाथ को समझना चाहिए केरल ऐसे ही केरल नहीं है. शैलजा टीचर जो कोरोना काल में हीरो बनी ऐसे ही नहीं बनी.
यूपी में तो साहित्य जगत के सशक्त हस्ताक्षरों को अस्पताल में बेड तक नहीं मिल रहा था ...
दरअसल, जब साहित्यकारों के प्रतिरोध पर उन्हें गैंग करार देकर दुश्मन समझा जाए तो ऐसी व्यवस्था और
रूसी जार की व्यवस्था में कोई फ़र्क नहीं रहेगा और ये लोग सम्मान नहीं सिर्फ दमन ही करेंगे.
ये भी याद रहे...
1902 में चेखव को 'सम्मानित अकदमीशियन' की उपाधि मिली; लेकिन जब 1902 में रूसी जार निकोलस द्वितीय ने गोर्की को इसी प्रकार की उपाधि देने के फैसले को रद्द कर दिया तब चेखव ने विरोधस्वरुप अपना अवार्ड भी त्याग दिया था.
ये और बात है जार कितना भी दमनकारी था पर चेख़व को अवार्ड वापसी गैंग नहीं कहा था !
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक का लिखा-
यूक्रेन का माहौल अभी तक कुछ ऐसा बना हुआ है कि वहां क्या होनेवाला है, यह कोई भी निश्चित रुप से नहीं कह सकता। रूसी नेता व्लादिमीर पूतिन ने यह घोषणा तो कर दी है कि वे अपनी कुछ फौजों को यूक्रेन-सीमांत से हटा रहे हैं लेकिन उनकी बात पर कोई विश्वास नहीं कर रहा है। भारत के विदेश मंत्रालय ने यूक्रेन में पढ़ रहे अपने 20 हजार छात्रों को सलाह दी है कि वे कुछ दिनों के लिए भारत चले आएं। उधर 'नाटोÓ के महासचिव जेंस स्टोलनबर्ग ने रूसी फौजों की वापसी को अभी एक बयान भर बताया है। उन्होंने कहा है कि वे उनकी वापसी होते हुए देखेंगे, तभी पूतिन के बयान पर भरोसा करेंगे। पहले भी रूसी फौजी वापिस गए हैं लेकिन अभी की तरह वे अपने हथियार वहीं छोड़ जाते हैं ताकि दुबारा सीना ठोकने में उन्हें जरा भी देर न लगे।
इसी मौके पर यूक्रेन की सरकार ने दावा किया है कि उनके रक्षा मंत्रालय और दो बैंकों पर कल जो साइबर हमला हुआ है, वह रूसियों ने ही करवाया है। पूतिन की घोषणा पर अमेरिका और कुछ नाटो सदस्यों को अभी भी भरोसा नहीं हो रहा है लेकिन रूसी सरकार के प्रवक्ता ने आधिकारिक घोषणा की है कि रूस का इरादा हमला करने का बिल्कुल नहीं है। वह सिर्फ एक बात चाहता है। वह यह कि यूक्रेन को नाटो में शामिल न किया जाए। यह ऐसा मुद्दा है, जिस पर फ्रांस, जर्मनी, रूस और यूक्रेन ने भी 2015 में एक समझौते के द्वारा सहमति जताई थी। रूसी फौजों के आक्रामक तेवरों से यूरोप में हड़कंप मचा हुआ है। पहले फ्रांस के राष्ट्रपति मेक्रों ने पूतिन से बात की और अब जर्मनी के चांसलर ओलफ शोल्ज खुद पूतिन से मिलने मास्को गए। इसके पहले वे यूक्रेन की राजधानी कीव जाकर राष्ट्रपति व्लोदीमीर झेलेंस्की से भी मिले। वे एक सच्चे मध्यस्थ की भूमिका निभा रहे थे। इसमें उनका राष्ट्रहित निहित है, क्योंकि युद्ध छिड़ गया तो और कुछ हो या न हो, जर्मनी को रूसी तेल और गैस की सप्लाय बंद हो जाएगी। उसकी अर्थव्यवस्था घुटनों के बल बैठ जाएगी।
ऐसा लगता है कि शोल्ज की कोशिशों का असर पूतिन पर हुआ जरुर है। शोल्ज ने पूतिन को आश्वस्त किया होगा कि वे यूक्रेन को नाटो में मिलाने से मना करेंगे। यों भी अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने पूतिन से चली अपनी बातचीत में भी कहा था कि नाटो की सदस्य-संख्या बढ़ाने का उनका कोई विचार नहीं है। और अमेरिकी सरकार ने यह भी साफ-साफ कहा था कि वह यूक्रेन में दूरमारक प्रक्षेपास्त्र तैनात नहीं करेगा। लंदन में यूक्रेन के राजदूत ने भी कहा है कि यूक्रेन अब नाटो में शामिल होने के इरादे को छोडऩेवाला है। राष्ट्रपति झेलेंस्की ने भी कहा है नाटो की सदस्यता उनके लिए ''एक सपने की तरह है।ÓÓ यूरोप, अमेरिका और रूस तीनों को पता है कि यदि यूक्रेन को लेकर युद्ध छिड़ गया तो वह द्वितीय महायुद्ध से भी अधिक भयंकर हो सकता है। ऐसी स्थिति में अब यह मामला थोड़ा ठंडा पड़ता दिखाई पड़ रहा है लेकिन रूसी संसद ने अभी एक प्रस्ताव पारित करके कहा है कि यूक्रेन के जिन इलाकों में अलगाव की मांग हो रही है, उन्हें रूस अपने साथ मिला ले। लगता है, रूस, कुल मिलाकर जबर्दस्त दबाव की कूटनीति कर रहा है। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक का लिखा-
हमारे पड़ौसी देशों की एक बड़ी खूबी है। वह यह कि जब भी वहाँ की सत्तारुढ़ पार्टियाँ और नेताओं को अपनी कुर्सी के लाले पडऩे लगते हैं, उन्हें भारत की याद आ जाती है। भारत ही उन्हें जनता के गुस्से से बचा पाता है। होता यह है कि वे कोई न कोई ऐसा बहाना ढूंढ निकालते हैं, जो उन्हें भारत के विरुद्ध ज़हर उगलने के लिए तैयार कर देता है। यह प्रवृत्ति हम नेपाल, श्रीलंका और मालदीव— जैसे पड़ौसी मित्र-राष्ट्रों में कई बार देख चुके हैं लेकिन पाकिस्तान में तो यह नेताओं का ब्रह्मास्त्र है। अब आजकल इमरान खान बिना किसी कारण ही आए दिन भारत पर आक्रमण करते रहते हैं। कश्मीर की धारा 370 को लेकर कभी इस्लामाबाद और कभी न्यूयार्क में संयुक्तराष्ट्र संघ के मंच पर ऐसे बयान दिए जाते हैं, जैसे कि वह धारा भारत के एक प्रांत से नहीं, पाकिस्तान से ही हटाई गई है। हिजाब के सवाल को लेकर भारत की इस्लामी संस्थाएं और मौलाना वगैरह काफी संजीदा रुख अपनाए हुए हैं लेकिन पाकिस्तान के नेताओं ने भारत पर जबर्दस्त बम-वर्षा की है।
उन्हें चाहिए था कि वे पाकिस्तान को जिन्ना के सपनों का एक आदर्श इस्लामी राज्य बना देते और पाकिस्तानी मुसलमानों को दुनिया का सर्वश्रेष्ठ मुसलमान कहलवा देते लेकिन हुआ क्या? इस्लाम के नाम पर बना दुनिया का यह एक मात्र राष्ट्र अपने आप को डेढ़ हजार साल पुरानी अरबों की बासी परंपराओं में घसीट कर ले जा रहा है। अगर हिजाब इस्लाम का अनिवार्य पहनावा है तो बेनज़ीर भुट्टो को तो मैंने कभी हिजाब या बुर्का पहने हुए नहीं देखा। वे मुझसे दुबई, लंदन, लाहौर और दिल्ली में कई बार मिली हैं। मियां नवाज़ शरीफ की बेटी मरियम बड़ी-बड़ी जनसभाओं में क्या हिजाब पहनकर भाषण देती हैं? क्या बेनज़ीर और मरियम मुसलमान नहीं हैं? क्या पाकिस्तान की फिल्मों में सारी हिरोइनें हिजाब पहने रहती हैं? पाकिस्तान के नेताओं को हिजाब या बेहिजाब से कोई परेशानी नहीं है। वे तो बस भारत-विरोध का बहाना ढूंढते रहते हैं। वैसे इमरान खान खुद काफी प्रगतिशील मुसलमान हैं लेकिन आजकल उनकी दाल थोड़ी पतली हो रही है।
उनकी पार्टी से यदि दो अन्य पार्टियों के 12 सांसदों का समर्थन हट जाए तो 342 सदस्यों की संसद में उनकी सरकार गिर सकती है। पाकिस्तान की आर्थिक स्थिति पहले ही बहुत खराब है। अमेरिका उसे कांटे से भी छूने के लिए तैयार नहीं है। इमरान अब चीन के बाद रूस की शरण में जाने को तैयार हैं। पाकिस्तान में श्रीलंका के नागरिक प्रियंतकुमार की तौहीन-कुरान के नाम पर जिस तरह हत्या की गई, पिछले हफ्ते मुश्ताक अहमद नामक विक्षिप्त व्यक्ति को पत्थर मार-मारकर खत्म किया गया और अब एक शिया बुद्धिजीवी पर डंडों की बरसात की गई, उससे यही लगता है कि इमरान-जैसे प्रगतिशील विचारों का नेता भी बिल्कुल बेबस है। बुतपरस्ती (जड़ पूजा) का विरोध करनेवाले इस्लामी देश में यह कैसी बुतपरस्ती चल रही है? आम इंसान का बर्ताव भी बुतों (जड़ या पत्थरों) की तरह हो गया है। (नया इंडिया की अनुमति से)
- राम पुनियानी
हाल में रिलीज हुई फिल्म ‘वाय आई किल्ड गांधी’ महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे का महिमामंडन करने का प्रयास है। इस फिल्म की एक क्लिप, जो पंजाब हाईकोर्ट में नाथूराम गोडसे की गवाही के बारे में है, सोशल मीडिया पर वायरल की जा रही है। इसमें गोडसे को घटनाक्रम का एकदम झूठा विवरण प्रस्तुत करते हुए और इस पूरे मामले को सांप्रदायिक रंग देते हुए दिखाया गया है।
काफी समय से आम लोगों के दिमाग में यह ठूंसा जा रहा है कि महात्मा गांधी ने क्रांतिकारी भगत सिंह की जान बचाने के लिए कोई प्रयास नहीं किया। तथ्य इसके विपरीत हैं। वायसराय लार्ड इर्विन ने अपने विदाई भाषण में कहा था कि महात्मा गांधी ने बहुत कोशिश की थी कि भगत सिंह की मौत की सजा को उम्रकैद में बदल दिया जाए।
इर्विन ने 26 मार्च 1931 को कहा था, ‘‘जब मिस्टर गांधी मुझसे काफी जोर देकर यह आग्रह कर रहे थे कि सजा को कम कर दिया जाए तब मैं यह सोच रहा था कि अहिंसा का एक दूत इतने आग्रहपूर्वक ऐसे लोगों की पैरवी क्यों कर रहा है जो उसकी विचारधारा के एकदम विपरीत सोच रखते हैं। परंतु मेरा यह मानना है कि इस तरह के मामलों में मैं अपने निर्णय को शुद्ध राजनैतिक कारणों से प्रभावित नहीं होने दे सकता। मैं ऐसे किसी दूसरे मामले की कल्पना भी नहीं कर सकता जिसमें कोई व्यक्ति कानून के अंतर्गत उसे दिए गए दंड के लिए प्रत्यक्ष रूप से इतना पात्र हो।’’
गोडसे ने अपने बयान में कहा कि गांधीजी लगातार क्रांतिकारियों के खिलाफ लिख रहे थे और यह भी कि उनके विरोध के बावजूद कांग्रेस अधिवेशन में भगत सिंह के बलिदान और देशभक्ति की प्रशंसा करते हुए प्रस्ताव पारित किया गया था। सच यह है कि भगत सिंह की प्रशंसा करते हुए जो प्रस्ताव कांग्रेस ने पारित किया था उसका मसविदा गांधीजी ने ही तैयार किया था।
प्रस्ताव में कहा गया था कि ‘‘कांग्रेस किसी भी रूप में या किसी भी प्रकार की राजनैतिक हिंसा से स्वयं को अलग करते हुए और उसका अनुमोदन न करते हुए भी दिवंगत सरदार भगत सिंह और उनके साथियों सुखदेव और राजगुरू की वीरता और बलिदान पर अपनी प्रशंसा दर्ज करना चाहती है। इन जिंदगियों को खोने वाले परिवारों के साथ हम भी शोकग्रस्त हैं। कांग्रेस की यह राय है कि इन तीन मृत्युदंडों का कार्यान्वयन अकारण की गई बदले की कार्यवाही है और देश की उनके दंड को कम करने की सर्वसम्मत मांग का जानबूझकर अनादर किया गया है।‘‘
क्रांतिकारियों और गांधी को एक-दूसरे का विरोधी बताते हुए गोडसे यह भी भूल जाता है कि गांधीजी ने सावरकर बंधुओं की रिहाई के लिए भी प्रयास किए थे। ‘कलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी’ खण्ड-20 के पृष्ठ 369-371 में गांधीजी का एक लेख प्रकाशित है जिसमें उन्होंने यह कहा है कि सावरकर बंधुओं को रिहा किया जाना चाहिए और उन्हें देश की राजनीति में अहिंसक तरीके से भागीदारी करने की अनुमति दी जानी चाहिए।
जो वीडियो क्लिप सोशल मीडिया पर दिखाई जा रही है उसमें गांधी और बोस को एक-दूसरे का विरोधी बताया गया है। यह सच है कि गांधी और बोस में कुछ मुद्दों पर मतभेद थे, परंतु दोनों भारत को स्वतंत्रता दिलवाने के प्रति पूर्णत: प्रतिबद्ध थे। गांधीजी ने सन् 1939 में बोस के कांग्रेस अध्यक्ष चुने जाने का विरोध किया था। बोस का तर्क था कि हमें अंग्रेजों से लडऩे के लिए जापान और जर्मनी के साथ गठबंधन करना चाहिए। गांधीजी का मानना था कि स्वाधीनता हासिल करने के लिए हमें ब्रिटेन के खिलाफ संघर्ष करना चाहिए।
कांग्रेस की केन्द्रीय समिति के अधिकांश सदस्य इस मामले में गांधी के साथ थे। इन मतभेदों के बावजूद गांधी और बोस दोनों के मन में एक-दूसरे के प्रति अथाह सम्मान था। जब गांधीजी के नेतृत्व में भारत छोड़ो आंदोलन प्रारंभ हुआ तब बोस ने इस पर प्रसन्नता जाहिर की। बोस ने आजाद हिन्द फौज की सफलता के लिए गांधीजी का आशीर्वाद मांगा था। बोस ने ही महात्मा के लिए राष्ट्रपिता शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग किया और आजाद हिन्द फौज की एक टुकड़ी का नाम गांधी बटालियन रखा। बोस के प्रति गांधीजी के मन में सम्मान का भाव था और वे उन्हें ‘प्रिंस अमंग पेट्रियट्स’ कहते थे। वे आजाद हिन्द फौज के कैदियों से मिलने जेल भी गए थे।
आरएसएस-हिन्दू महासभा के दुष्प्रचार के अनुरूप गोडसे यह आरोप भी लगाता है कि गांधी हिन्दुओं के विरोधी और मुसलमानों के समर्थक थे और देश के विभाजन के लिए जिम्मेदार थे। हम जानते हैं कि देश के विभाजन के पीछे अनेक जटिल कारण थे। अंग्रेजों की ‘फूट डालो और राज करो‘ की नीति को सफल बनाने के लिए मुस्लिम और हिन्दू सांप्रदायवादियों ने कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी थी।
गोडसे द्वारा बोस की प्रशंसा मगरमच्छी आंसू बहाने के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। जब बोस अंग्रेजों के खिलाफ लड़ रहे थे तब हिन्दू महासभा ब्रिटिश आर्मी में भारतीयों को भर्ती कराने का अभियान चला रही थी। गोडसे के अखबार ‘अग्राणी‘ ने उस समय एक कार्टून छापा था जिसमें सावरकर को रावण को मारते हुए दिखाया गया था। रावण महात्मा गांधी थे और उनका एक सिर बोस था। अगर गोडसे क्रांतिकारियों से इतना ही प्रभावित था तो उसे आजाद हिन्द फौज में शामिल होने से किसने रोका था?
गोडसे गांधीजी पर पाकिस्तान को 55 करोड़ रूपये दिलवाने का आरोप लगाता है। यह 55 करोड़ रुपये भारत और पाकिस्तान के संयुक्त खजाने में पाकिस्तान का हिस्सा था। गांधीजी ने इस मुद्दे पर उपवास किया था क्योंकि उनका मानना था कि अगर हम इस तरह का व्यवहार करेंगे तो दुनिया हमें किस नजर से देखेगी।
गोडसे गांधी पर इसलिए भी हमलावर है क्योंकि उन्होंने यह शर्त रखी थी कि वे अपना उपवास तभी तोड़ेंगे जब हिन्दू मुसलमानों की मस्जिदों और उनकी संपत्तियों से अपना बेजा कब्जा छोड़ देंगे। विभाजन की त्रासदी के बाद पूरे देश में हिंसा फैल गई थी। सांप्रदायिक तत्वों की मदद से हिन्दुओं ने मस्जिदों और मुसलमानों की संपत्तियों पर कब्जा कर लिया था। गोडसे गांधी को चुनौती देता है कि वे पाकिस्तान और मुसलमानों के मामले में ऐसी ही कार्यवाही करके दिखाएं। गोडसे भूल जाता है कि महात्मा गांधी ने नोआखली में दंगे रोकने के लिए अनेक कदम उठाए थे और नोआखली में दंगा पीडि़त मुख्यत: हिन्दू थे।
गांधीजी का मानना था कि अगर भारत में मुसलमान सुरक्षित रहेंगे तो वे पाकिस्तान के हिन्दुओं और सिक्खों के लिए बहुत कुछ कर सकते हैं। शांति और अहिंसा पर उनका जोर नैतिक सिद्धांतों पर आधारित था। ‘‘अगर हम दिल्ली में यह कर पाए तो मैं आपको आश्वस्त करता हूं कि पाकिस्तान में हमारी राह खुल जाएगी और इससे एक नया सफर शुरू होगा। जब मैं पाकिस्तान जाऊंगा तो मैं उन्हें आसानी से नहीं छोड़ूंगा। मैं वहां के हिन्दुओं और सिक्खों के लिए अपनी जान दे दूंगा‘‘।
फिल्म में गोडसे के बयान में सबसे बड़ा झूठ यह है कि गोडसे ने अकेले महात्मा गांधी की हत्या का षडय़ंत्र रचा था। सरदार पटेल ने कहा था कि गांधीजी की हत्या की योजना हिन्दू महासभा ने बनाई थी। आगे चलकर जीवनलाल कपूर आयोग भी इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि ‘‘इन सभी तथ्यों को एकसाथ देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि हत्या का षडय़ंत्र सावरकर और उसके साथियों के अतिरिक्त और किसी ने नहीं रचा था।
गांधीजी की हत्या का असली कारण यह था कि वे समावेशी राष्ट्रवाद के पैरोकार थे। उस राष्ट्रवाद के जिसका सपना भगत सिंह और बोस ने भी देखा था। गांधीजी की हत्या इसलिए की गई क्योंकि वे अछूत प्रथा और जातिगत ऊंच-नीच के खिलाफ संघर्ष कर रहे थे। गोडसे का हिन्दू राष्ट्रवाद जातिप्रथा का समर्थक और समावेशी राष्ट्रवाद का विरोधी था। गोडसे को जो कुछ कहते हुए दिखाया गया है वह हिन्दू राष्ट्रवादियों के असली एजेंडे को बताता है। (navjivanindia.com)
(लेख का अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया द्वारा)
-डॉ. राजू पाण्डेय
जब मीडिया शिक्षा के क्षेत्र में वित्त मंत्री द्वारा बजट बढ़ाए जाने को लेकर उनके प्रशस्ति गान में लगा हुआ है तब आंकड़ों की दुनिया की अजब गजब संभावनाओं पर चर्चा करने को जी करता है। आंकड़ों की अलग अलग प्रकार की तुलना अथवा एक खास ध्येय से उनके चयन के द्वारा खराब स्थिति की अच्छी तस्वीर दिखाई जा सकती है किंतु यह आंकड़े ही हैं जो इस अच्छी तस्वीर की सच्चाई को हम तक लाने का जरिया बनते हैं।
वित्त मंत्री ने अपने बजट भाषण में यह स्वीकार किया कि कोविड-19 के कारण ग्रामीण क्षेत्रों के विद्यार्थियों और विशेषकर अनुसूचित जाति और जनजाति के विद्यार्थियों की शिक्षा बुरी तरह प्रभावित हुई है किंतु उनकी यह स्वीकारोक्ति तब एक खोखले राजनीतिक जुमले में बदल गई जब हमने देखा कि पूरा शिक्षा बजट असमानता को बढ़ाने वाला है। इसमें वंचित समुदायों और महिलाओं के लिए कुछ भी नहीं है।
एक ही सरकार द्वारा प्रस्तुत किए जा रहे बजट एक श्रृंखला का हिस्सा होते हैं इनके माध्यम से उस सरकार के विजन और विकास की उसकी प्राथमिकताओं का ज्ञान होता है। किसी बजट को आइसोलेशन में देखना उचित नहीं है। इसी प्रकार जब हम शिक्षा, स्वास्थ्य या कृषि अथवा अन्य किसी क्षेत्र में बजट में वृद्धि की बात करते हैं तो हमें मुद्रा स्फीति का ध्यान रखना चाहिए। यह देखना भी जरूरी है कि जीडीपी और सम्पूर्ण बजट में उस क्षेत्र की हिस्सेदारी क्या है। यह जानना आवश्यक है कि विश्व के अन्य देश उस क्षेत्र विशेष में अपने बजट और जीडीपी का कितना हिस्सा व्यय करते हैं। हमें यह भी ध्यान में रखना होगा कि संबंधित मंत्रालय द्वारा कितना आबंटन मांगा गया था और उसे कितना आबंटन मिला है।
वित्त वर्ष 2020-21 के मूल बजटीय आवंटन में शिक्षा मंत्रालय को 99,311.52 करोड़ रूपए आबंटित किए गए थे। वित्त वर्ष 2021-22 में शिक्षा मंत्रालय का मूल बजटीय आबंटन घटाकर 93,224.31 करोड़ रूपए कर दिया गया था। इस वर्ष शिक्षा के लिए मूल बजटीय आबंटन 1 लाख 4 हजार 277 करोड़ रुपए है। यदि 2020-21 से तुलना करें तो यह वृद्धि अधिक नहीं है।
अनिल स्वरूप, पूर्व सचिव, शालेय शिक्षा एवं साक्षरता, भारत सरकार, के अनुसार पिछले वर्ष बड़े जोर शोर से राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 की घोषणा की गई थी यदि इसमें दिए सुझावों पर गौर करें तो एक सुझाव यह भी है कि शिक्षा क्षेत्र के लिए जीडीपी के 6 प्रतिशत का आबंटन किया जाए किंतु वास्तविकता यह है कि शिक्षा पर व्यय इससे कहीं कम है।
31 जनवरी 2022 को प्रस्तुत आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार 2019-20 में शिक्षा पर व्यय जीडीपी का 2.8 प्रतिशत था जबकि 2020-21 एवं 2021-22 में यह जीडीपी का 3.1 प्रतिशत था। शिक्षा बजट ने भले ही एक लाख करोड़ का आंकड़ा पार कर लिया हो किंतु अभी भी यह जीडीपी के 6 प्रतिशत के वांछित स्तर का लगभग आधा है।
अनेक शिक्षा विशेषज्ञ शालेय अधोसंरचना के बजट में कटौती को लेकर चिंतित हैं। इनके अनुसार यदि सरकार यह मान रही है कि सीखने की गैरबराबरी को टीवी चैनलों के जरिए दूर किया जा सकता है तो वह बहुत बड़े मुगालते में है। अविचारित डिजिटलीकरण सामाजिक असमानता को बढ़ावा देगा। इसके कारण शिक्षा के अवसर सब के लिए समान नहीं रह जाएंगे। महामारी का सबक यह था कि उन ग्रामीण इलाकों में जहाँ डिजिटल संसाधनों की कमी है अधिक शिक्षक, अधिक कक्षा भवन और बेहतर अधोसंरचना की व्यवस्था की जाती ताकि अगर भविष्य में किसी महामारी का आक्रमण हो तब भी शिक्षा बाधित न हो।
ऐसा लगता है कि सरकार देश में व्याप्त भयानक डिजिटल डिवाइड को स्वीकार नहीं करती। यूनेस्को की "स्टेट ऑफ द एजुकेशन रिपोर्ट - नो टीचर, नो क्लास- 2021"(5 अक्टूबर 2021) के अनुसार पूरे देश में स्कूलों में कंप्यूटिंग उपकरणों की कुल उपलब्धता 22 प्रतिशत है, शहरी क्षेत्रों (43 प्रतिशत) की तुलना में ग्रामीण क्षेत्रों में अत्यंत कम उपलब्धता (18 प्रतिशत) है। इसी प्रकार संपूर्ण भारत में स्कूलों में इंटरनेट की पहुंच 19 प्रतिशत है। शहरी क्षेत्रों में 42 प्रतिशत की तुलना में ग्रामीण क्षेत्रों में इंटरनेट की पहुंच केवल 14 प्रतिशत है।
अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय द्वारा वर्ष 2020 में 5 राज्यों की शासकीय शालाओं में पढ़ने वाले 80000 विद्यार्थियों पर किए गए सर्वेक्षण (मिथ्स ऑफ ऑनलाइन एजुकेशन) के नतीजे बताते हैं कि शासकीय शालाओं में अध्ययनरत 60% बच्चों के पास ऑनलाइन शिक्षा हेतु अनिवार्य साधन मोबाइल अथवा लैपटॉप नहीं हैं।
भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय द्वारा जुलाई 2020 में केंद्रीय विद्यालय संगठन, नवोदय विद्यालय समिति एवं सीबीएसई को सम्मिलित करते हुए एनसीईआरटी के माध्यम से कराए गए सर्वेक्षण के नतीजे कुछ भिन्न नहीं थे- 27 प्रतिशत विद्यार्थियों ने मोबाइल एवं लैपटॉप के अभाव का जिक्र किया जबकि 28 प्रतिशत ने बिजली का न होना, इंटरनेट कनेक्टिविटी का अभाव, इंटरनेट की धीमी गति आदि समस्याओं का जिक्र किया।
शिक्षा पर 2020 की एन.एस.ओ. की रिपोर्ट के अनुसार, वर्तमान में हमारी 5 प्रतिशत से भी कम ग्रामीण जनसंख्या की कम्प्यूटरों तक पहुंच है।
एकाउंटेबिलिटी इनिशिएटिव तथा सेंटर फॉर पालिसी रिसर्च द्वारा चलाया जा रहा इनसाइड डिस्ट्रिक्ट्स कार्यक्रम भी ऑनलाइन शिक्षा की कमोबेश इन्हीं बाधाओं का जिक्र करता है।
यूनिसेफ(सितंबर 2021) के अनुसार भारत में 6-13 वर्ष के बीच के 42 प्रतिशत बच्चों ने स्कूल बंद होने के दौरान किसी भी प्रकार की दूरस्थ शिक्षा का उपयोग नहीं करने की सूचना दी। इसका अर्थ है कि उन्होंने पढ़ाई के लिए पुस्तकें, वर्कशीट, फोन अथवा वीडियो कॉल, वॉट्सऐप, यूट्यूब, वीडियो कक्षाएं आदि का प्रयोग नहीं किया है। भारत में 14-18 वर्ष आयु वर्ग के कम से कम 80 प्रतिशत विद्यार्थियों ने कोविड-19 के दौरान सीखने के स्तर में गिरावट आने की सूचना दी, क्योंकि स्कूल बंद थे। 5-13 वर्ष आयु वर्ग के विद्यार्थियों के 76 प्रतिशत माता-पिता दूरस्थ शिक्षा के कारण सीखने के स्तर में गिरावट की बात स्वीकारते हैं।
"प्रथम" एजुकेशन फाउंडेशन की 25 राज्यों व 581 जिलों में 75,234 बच्चों की जानकारी पर आधारित शिक्षा की वार्षिक स्थिति रिपोर्ट- असर-2021- के अनुसार कोविड-19 के दौर में निजी विद्यालयों में विद्यार्थियों का नामांकन 8.1 प्रतिशत कम हुआ है जबकि शासकीय शालाओं में नामांकन में वृद्धि हुई है।
सरकार का बजट पूर्व आर्थिक सर्वेक्षण भी यह सुझाव देता है कि शासकीय शालाओं में विद्यार्थियों की बढ़ती संख्या को दृष्टिगत रखते हुए अधोसंरचना को बेहतर बनाते हुए बुनियादी सुविधाओं का विस्तार किया जाए। किंतु आरटीई फोरम के विशेषज्ञों और शिक्षा के लोकव्यापीकरण हेतु कार्य करने वाले बहुत से अन्य संगठनों ने इस बात पर चिंता व्यक्त की है कि बजट में देश के बदहाल पंद्रह लाख सरकारी स्कूलों की स्थिति सुधारने हेतु कोई प्रावधान नहीं किया गया है।भारत के ग्रामीण इलाकों और छोटे शहरों में स्कूलों की दयनीय दशा कोविड से पहले भी थी और आगे भी जारी रहेगी क्योंकि सरकार का बजट इस संदर्भ में मौन है।
बजट की एक बहुचर्चित एवं बहुप्रशंसित घोषणा यह थी कि पीएम ई विद्या स्कीम के तहत वन क्लास वन टीवी चैनल पहल का विस्तार किया जाएगा और इसे वर्तमान 20 चैनलों से बढ़ाकर 200 चैनल किया जाएगा। किंतु आश्चर्यजनक रूप से डिजिटल इंडिया ई लर्निंग प्रोग्राम के बजट में(जिसके अंतर्गत पीएम ई विद्या योजना आती है) भारी कटौती की गई है और 2021-22 के 645.61 करोड़ रुपए की तुलना में यह घटाकर 421.01 करोड़ रूपए कर दिया गया है।
शिक्षा विशेषज्ञों का मानना है कि टीवी उन इलाकों में जानकारी देने का जरिया जरूर बनेगा जहाँ हर विद्यार्थी के पास अपना डिजिटल गैजेट नहीं है। किंतु यह अधिगम स्तर में सुधार ला पाएगा ऐसा नहीं लगता क्योंकि यह सूचना देने की एकतरफा प्रक्रिया भर है, इसमें शिक्षक-विद्यार्थी अंतर्क्रिया के लिए कोई स्थान नहीं है।
इस वर्ष शिक्षक प्रशिक्षण और और प्रौढ़ शिक्षा के बजट में भारी कटौती की गई है और अब यह 2021-22 के 250 करोड़ रुपए से घटाकर 127 करोड़ रुपए कर दिया गया है। सेंटर फॉर बजट एंड गवर्नेंस एकाउंटेबिलिटी नई दिल्ली के विशेषज्ञ मानते हैं कि महामारी और उसके कारण बंद हुए स्कूलों ने बच्चों को मानसिक रूप से बहुत हद तक प्रभावित किया है। शिक्षकों की भूमिका अब शिक्षण तक ही सीमित नहीं है, बल्कि उनसे मेंटोर्स और काउंसलर की भूमिका निभाने की भी आशा है। इसके लिए उचित प्रशिक्षण की आवश्यकता है। विशेषज्ञों की इस राय को दृष्टिगत रखते हुए शिक्षक प्रशिक्षण के फण्ड में कटौती दुर्भाग्यपूर्ण है।
स्कूल टीचर्स फेडरेशन ऑफ इंडिया ने ब्रिज कोर्स तैयार करने को अत्यंत आवश्यक बताया है क्योंकि अधिगम की क्षति की भरपाई कुछ हद तक इसके माध्यम से संभव है। विशेषज्ञों के अनुसार कोविड-19 के बाद की परिस्थितियों से निपटने के लिए अध्यापकों को पुन: प्रशिक्षित करना और पाठ्यक्रम में सम्यक परिवर्तन करना आवश्यक है किंतु बजट में इस विषय में कोई सकारात्मक पहल नहीं की गई है।
सरकार ने अपने महत्वपूर्ण कार्यक्रम समग्र शिक्षा योजना के लिए बजट में 20 फीसदी इजाफा करते हुए इसे 2021-22 के 31050 करोड़ रुपए से बढ़ाकर 37383 करोड़ रुपए कर दिया है। यह योजना बहुत महत्वपूर्ण है और कोरोना का दौर समाप्त होने के बाद बच्चों को स्कूलों तक वापस लाने में इसकी अहम भूमिका है।
इंडिया स्पेंड की एक रिपोर्ट बताती है कि वित्त वर्ष 2022-23 में समग्र शिक्षा के लिए स्वीकृत राशि भले ही 2021-22 की तुलना में 20 प्रतिशत ज्यादा है लेकिन यह शिक्षा विभाग द्वारा 2021-22 में मांगी गई राशि की तुलना में भी 64.5 प्रतिशत कम है। आरटीई फोरम ने इस तथ्य की ओर ध्यानाकर्षण किया है कि इस वर्ष का 37383 करोड़ रुपए का आबंटन कोविड-19 के आक्रमण से पूर्व 2020-21 में आबंटित बजट 38860 करोड़ से भी कम है।
आरटीई फोरम ने शिक्षा बजट के संबंध में गंभीर आपत्तियां उठाई हैं। कोविड-19 ने अनुसूचित जाति एवं जनजाति की बालिकाओं की शिक्षा पर सर्वाधिक प्रतिकूल प्रभाव डाला है। देश में लगभग एक करोड़ बालिकाओं के स्कूली शिक्षा से बाहर हो जाने का खतरा है। लेकिन इस संबंध में 2008-2009 से जारी योजना -नेशनल स्कीम फॉर इनसेंटिव टू गर्ल्स फॉर सेकंडरी एजुकेशन- को बंद कर दिया गया है। वित्त वर्ष 2020-21 के बजट में इस योजना के लिए आबंटन 110 करोड़ रुपए था जो 2021-22 में घटाकर एक करोड़ रुपये कर दिया गया था। योजना को सरकार से वित्तीय सहायता प्राप्त संस्थान इंस्टिट्यूट ऑफ इकोनॉमिक ग्रोथ की नकारात्मक टिप्पणी के बाद बंद किया गया है। आई ई जी द्वारा योजना के विरुद्ध जो टिप्पणियां की गई हैं वे योजना के क्रियान्वयन की कमियों से संबंधित हैं। इन्हें आधार बनाकर योजना को बंद करना शरारत पूर्ण है। नेशनल कैंपेन फ़ॉर दलित ह्यूमन राइट्स की बीना पल्लिकल कहती हैं कि एसटी, एससी बालिकाओं की शिक्षा कोरोना से सर्वाधिक बाधित हुई है। जब इस योजना की सर्वाधिक जरूरत थी तब इसे बंद कर दिया गया है जो बहुत दुःखद है।
नई शिक्षा नीति 2020 में प्रस्तावित जेंडर इनक्लूजन फण्ड का बजट में उल्लेख ही नहीं है।
इतना ही नहीं वर्ष 2022-23 के बजट में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति तथा अन्य पिछड़े वर्गों को मिलने वाली छात्र वृत्ति के आबंटन में भी 2021-22 की तुलना में 30 प्रतिशत की कटौती की गई है।
एकेडमिक फार एक्शन एंड डेवलपमेंट ने छात्रों को दी जाने वाली वित्तीय सहायता को कम करने पर अपनी आपत्ति दर्ज कराई है। पिछले वित्त वर्ष में इस मद में 2482 करोड़ रुपए आबंटित किए गए थे, जिसे इस वर्ष घटाकर 2000 करोड़ रुपये कर दिया गया है।
मिड डे मील योजना अब प्रधानमंत्री पोषण शक्ति निर्माण योजना के नाम से जानी जाती है। वित्त वर्ष 2021-22 में इस योजना हेतु 11,500 करोड़ रुपए का आबंटन किया गया था,जिसे इस बजट में कम कर 10,233.75 करोड़ रुपए कर दिया गया है।
यूनेस्को की स्टेट ऑफ द एजुकेशन रिपोर्ट 2021 के अनुसार कार्यबल में 10 लाख से अधिक शिक्षकों का अभाव है। किंतु बजट में इस संबंध में कोई प्रस्ताव नहीं है। विशेषज्ञों के अनुसार प्राइमरी स्तर पर अध्यापकों की संख्या में वृद्धि कोविड पश्चात उत्पन्न स्थितियों को देखते हुए आवश्यक है।
अनेक छात्र संगठनों ने बजट में छात्रों को फीस में राहत न देने और शिक्षा ऋण की किस्तों में छूट न देने पर अपना विरोध दर्ज कराया है। कोविड-19 के कारण बंद पड़े शिक्षण संस्थानों और अस्तव्यस्त शिक्षा व्यवस्था के परिप्रेक्ष्य में छात्रों को फीस और एजुकेशन लोन में राहत की जायज उम्मीद थी। वैसे भी बहुत से पालक अपना रोजगार गंवा चुके हैं या उनकी आय में कमी आई है।
उच्च शिक्षा के लिए भी बजट में कुछ भी नहीं है। डेमोक्रेटिक टीचर्स फ्रंट ने जानना चाहा है कि आखिर डिजिटल विवि किस प्रकार उच्च शिक्षा के लिए लाभदायक सिद्ध हो सकता है? क्या छात्र टीवी और इंटरनेट पर आनलाइन अध्ययन द्वारा परिपक्व हो सकते हैं? बजट में न केवल विश्वविद्यालय अनुदान आयोग अपितु केंद्रीय विश्वविद्यालयों का बजट भी कम कर दिया गया है।
सरकार शिक्षा के प्रति कितनी गंभीर है इसका अंदाजा संसद में दिए गए केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान के उस बयान से लगाया जा सकता है जिसके अनुसार पिछले 11 वर्षों में आरटीई अनुपालन, जब से योजना की शुरुआत हुई है, केवल 25.5 प्रतिशत रहा है।
कोविड-19 ने शालेय शिक्षा के सम्मुख अनेक जटिल प्रश्न रखे हैं। बच्चों में अधिगम के लिए आवश्यक क्षमता का ह्रास हुआ है, इसकी भरपाई कैसे हो? शालाओं के वापस खुलने पर कोविड विषयक सुरक्षात्मक नॉर्म्स का पालन कैसे किया जाए? कक्षा की शिक्षा और डिजिटल शिक्षा को जोड़ने वाले हाइब्रिड शिक्षण मॉडल को किस प्रकार लचीला और कारगर बनाया जाए? इन प्रश्नों के सार्थक समाधान तभी मिल सकते हैं जब देश में डिजिटल शिक्षा की सीमाओं को समझा जाए और पारंपरिक शिक्षा की उपेक्षा न की जाए।
कोविड-19 के कारण शिक्षा व्यवस्था पर पड़े नकारात्मक प्रभावों का वस्तुनिष्ठ आकलन तथा देश में व्याप्त डिजिटल डिवाइड और सरकारी स्कूलों की खस्ताहाल स्थिति की बेबाक स्वीकृति ही हमारी शिक्षा विषयक योजनाओं को कारगर बना सकती है। किंतु सरकार शिक्षा की स्याह हकीकत से मुंह मोड़कर डिजिटल शिक्षा की बात कर रही है। सरकार की डिजिटल शिक्षा थोपने की जल्दबाजी को देखकर आशंका उत्पन्न होती है कि यह शिक्षा बजट, निजीकरण वाया डिजिटलीकरण जैसा कोई अप्रकट लक्ष्य तो नहीं रखता है।
(रायगढ़, छत्तीसगढ़)