विचार/लेख
-सरोज सिंह
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में सोमवार को आखिरी चरण की वोटिंग खत्म हो गई है। इसके साथ ही यूपी, पंजाब, गोवा, उत्तराखंड और मणिपुर में अगली विधानसभा की तस्वीर साफ होने में बस कुछ घंटों का समय बचा है।
जीत और हार जिस भी पार्टी की हो, आने वाले दिनों में भारतीय राजनीति में कई घटनाक्रम इन चुनावों के नतीजों से प्रभावित होने वाले हैं। इसके साथ ही इन चुनावों के नतीजों पर क्षेत्रीय पार्टियों के साथ-साथ बीजेपी, कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय दलों का बहुत कुछ दांव पर लगा है।
इस वजह से ये जानना अहम हो जाता है कि इन राज्यों में हुए चुनाव का असर किन पर कैसे पड़ेगा।
राज्यसभा में सीटों का समीकरण
सबसे पहले बात राज्यसभा की।
वरिष्ठ पत्रकार अनिल जैन कहते हैं, राज्यसभा की 245 सीटों में फि़लहाल आठ सीटें खाली हैं। बीजेपी के पास इस समय 97 सीटें हैं और उनके सहयोगियों को मिला कर ये आँकडा 114 पहुँच जाता है। इस साल अप्रैल से लेकर अगस्त तक राज्यसभा की 70 सीटों के लिए चुनाव होना है, जिसमें असम, हिमाचल प्रदेश, केरल के साथ साथ यूपी, उत्तराखंड और पंजाब भी शामिल हैं।
यूपी की 11 सीटें, उत्तराखंड की एक सीट और पंजाब की दो सीटों के लिए चुनाव इसी साल जुलाई में होना है। इससे साफ हो जाता है कि इन तीनों राज्यों में चुनाव के नतीजे सीधे राज्यसभा के समीकरण को प्रभावित करेंगे।
अनिल जैन कहते हैं, ‘यूं तो बहुमत के आँकड़े से राज्यसभा में बीजेपी पहले भी दूर थी। लेकिन पाँच राज्यों के नतीजे अगर बीजेपी के लिए पहले से अच्छे नहीं रहे, तो आने वाले दिनों में वो बहुमत से और दूर हो जाएंगे। और इसका सीधा असर राष्ट्रपति चुनाव पर भी पड़ेगा।’
राष्ट्रपति चुनाव पर असर
भारत में अगला राष्ट्रपति चुनाव इस साल जुलाई में होना है।
निर्वाचन अप्रत्यक्ष मतदान से होता है। जनता की जगह जनता के चुने हुए प्रतिनिधि राष्ट्रपति को चुनते हैं।
राष्ट्रपति का चुनाव एक निर्वाचन मंडल या इलेक्टोरल कॉलेज करता है। इसमें संसद के दोनों सदनों और राज्यों की विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्य शामिल होते हैं।
राष्ट्रपति चुनाव में अपनाई जाने वाली आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली की विधि के हिसाब से प्रत्येक वोट का अपना वेटेज होता है।
सांसदों के वोट का वेटेज निश्चित है मगर विधायकों के वोट का अलग-अलग राज्यों की जनसंख्या पर निर्भर करता है।
जैसे देश में सबसे अधिक जनसंख्या वाले राज्य उत्तर प्रदेश के एक विधायक के वोट का वेटेज 208 है तो सबसे कम जनसंख्या वाले प्रदेश सिक्किम के वोट का वेटेज मात्र सात।
प्रत्येक सांसद के वोट का वेटेज 708 है। इस लिहाज से भी पाँच राज्यों के नतीजों पर हर पार्टी की नजर है।
कुल सांसद और उनके वोट
भारत में कुल 776 सांसद हैं। 776 सांसदों के वोट का वेटेज है- 5,49,408 (लगभग साढ़े पाँच लाख)
भारत में विधायकों की संख्या 4120 है। इन सभी विधायकों का सामूहिक वोट है, 5,49,474 (लगभग साढ़े पाँच लाख)
इस प्रकार राष्ट्रपति चुनाव में कुल वोट हैं - 10,98,882 (लगभग 11 लाख)
वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी कहती हैं कि इन पाँच राज्यों के चुनाव के नतीजे ये तय करेंगे की बीजेपी आसानी से अपने उम्मीदवार को जीता पाती है या नहीं। अगर बीजेपी उत्तर प्रदेश में तुलनात्मक रूप से 2017 से अच्छा नहीं कर पाती है तो राष्ट्रपति चुनाव का गणित बिगड़ जाएगा।
वहीं अनिल जैन कहते हैं कि राष्ट्रपति चुनाव में बीजेपी के उम्मीदवार को वोट कम जरूर मिल सकते हैं, लेकिन उनके उम्मीदवार को जीतने में दिक्कत नहीं होगी।
उनके मुताबिक बीजेपी के पास अभी 398 सांसद हैं और सभी राज्यों में विधायकों की संख्या मिला दें तो तकरीबन 1500 के आसपास है। इनमें से ज्यादातर उन राज्यों में हैं, जिनके वोट का मूल्य राष्ट्रपति चुनाव में ज्यादा है।
राष्ट्रपति चुनाव जीतने के लिए साढ़े पाँच लाख से कुछ ज्यादा वोट की जरूरत पड़ती है। बीजेपी के पास अपने साढ़े चार लाख वोट हैं और बाकी उनके सहयोगी पार्टियों की मदद से हासिल होंगे। कुछ उन राज्यों और सांसदों से भी मिल सकते हैं, जो मुद्दों के आधार पर बीजेपी का समर्थन करते हैं। इस वजह से बीजेपी के लिए मुश्किल ज्यादा नहीं होगी।
ब्रैंड मोदी-योगी पर असर
पाँच राज्यों में सबसे ज़्यादा चर्चा यूपी चुनाव की है और वहाँ मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की साख दांव पर है।
नीरजा चौधरी कहती हैं, यूपी के नतीजे ये तय करेंगे कि योगी आदित्यनाथ भविष्य में प्रधानमंत्री पद के दावेदार होते हैं या नहीं। अगर योगी अच्छे मार्जिन से जीतते हैं तो भविष्य में प्रधानमंत्री पद की उनकी दावेदारी मजबूत होगी। अगर वो हार जाते हैं या बहुत कम मार्जिन से जीतते हैं तो वो यूपी के मुख्यमंत्री बन पाएंगे या नहीं या उनकी जगह कोई और आएगा, ये देखने वाली बात होगी।
पीएम मोदी के लिए नीरजा कहती हैं, अगर बीजेपी यूपी जीत गई तो ये साबित होगा कि मोदी की लोकप्रियता अब भी बरकरार है, उनकी अलग-अलग योजनाओं के लाभार्थी उनके साथ खड़े हैं। और अगर ऐसा नहीं होता है तो ब्रैंड मोदी पर असर पड़ेगा।
वहीं वरिष्ठ पत्रकार अदिति फडनीस कहती हैं, नतीजे जैसे भी आएं, दोनों सूरत में असर ब्रैंड योगी पर पड़ेगा और ब्रैंड मोदी पर भी। ‘बहुत कयास लगाए जा रहे हैं कि बीजेपी नेताओं की वरीयता सूची योगी में आदित्यनाथ फिलहाल पांचवें पायदान पर हैं। अगर वो जीत जाते हैं तो वो नंबर दो बन सकते हैं। लेकिन अगर वो हार जाते हैं तो शीर्ष नेतृत्व से सवाल पूछे जाएंगे कि बाहर के चेहरे को उठा कर बीजेपी का मुख्यमंत्री कैसे बना दिया। पाँच साल के बाद ये नतीजा है, तो हम क्या बुरे थे? यानी यूपी जीते तो ब्रैंड मोदी-योगी और मजबूत होगा और सीटें घटी तो नीचे जा सकते हैं।’
अदिति आगे ये भी कहती हैं कि इसका सीधा असर बीजेपी के केंद्र के फैसलों पर भी पड़ेगा। अगर बीजेपी का प्रदर्शन पहले के मुकाबले अच्छा ना रहे तो आगे केंद्र सरकार को फूंक-फूंककर कदम रखना होगा। कृषि कानून को तो केंद्र सरकार ने संसद में तो पास करा लिया, लेकिन किसान और जनता के सामने वो हार गए। इससे पर्सेप्शन की लड़ाई पर असर तो पड़ेगा और विपक्ष और मजबूत होगा।
पंजाब का गणित और आम आदमी पार्टी का भविष्य
वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी, यूपी के बाद पंजाब के नतीजों को काफ़ी अहम मानती हैं। वो कहती हैं, ‘अगर आम आदमी पार्टी पंजाब में सरकार बना लेती है तो रातोरात उनकी भारतीय राजनीति में साख बदल सकती है। उनकी पार्टी ज्वाइन करने वाले इच्छुक लोगों की कतार भी बढ़ सकती है।
अभी तक तीसरे मोर्चे में आम आदमी पार्टी को वो ट्रीटमेंट नहीं मिलती थी, लेकिन पंजाब चुनाव में जीत उनके लिए बहुत बड़ी छलांग होगी। विपक्ष के तौर पर अलग-अलग राज्यों में अरविंद केजरीवाल को अलग तरह से आंका जाएगा। और केजरीवाल को ये बढ़त, कांग्रेस के बूते मिलेगी। अगर केजरीवाल पंजाब में सरकार नहीं बना पाते तो उनके पास खोने के लिए कुछ खास नहीं है।’
कांग्रेस पर असर
इन पाँच राज्यों के नतीजे राहुल, प्रियंका के लिए काफी अहमियत रखते हैं। वरिष्ठ कांग्रेस पत्रकार रशीद किदवई कहते हैं, ‘कांग्रेस के लिए उत्तराखंड और पंजाब दो राज्य सबसे महत्वपूर्ण होने वाले हैं। पंजाब में दलित मुख्यमंत्री के चेहरे के साथ कांग्रेस मैदान में उतरी थी। अगर उस राज्य में कांग्रेस हारती है तो पार्टी और खासतौर पर राहुल गांधी की बहुत किरकिरी होगी। ये ऐसा कांग्रेस शासित राज्य था, जहाँ भाजपा के साथ उनका सीधा मुकाबला नहीं था। इसका सीधा असर आने वाले दिनों में राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस की विपक्ष वाली छवि पर पड़ेगा।’
तीसरे मोर्चे में कांग्रेस की बारगेनिंग पावर
अपनी बात को आगे विस्तार से समझाते हुए रशीद किदवई कहते हैं, ‘किसी मोर्चे में किसी भी राजनीतिक दल की अहमियत, उसकी मजबूती के आधार पर तय होती है, ना कि कमजोरी के आधार पर। कांग्रेस अगर कुछ राज्यों में अपनी सरकार बनाने में या फिर सरकार बचाने में कामयाब होगी, तो इसी आधार पर कांग्रेस की आगे की भूमिका तय होगी। भारत की 200 लोकसभा सीटें ऐसी हैं, जिस पर कांग्रेस की सीधे बीजेपी के साथ टक्कर है।
पाँच राज्यों में कांग्रेस के सामने चुनौती पंजाब में अपना किला बचाने की है। उत्तराखंड में जहाँ बीजेपी ने चुनाव से पहले अपना सीएम बदला, वहाँ कांग्रेस फेरबदल नहीं कर पाई, तो कांग्रेस पर आरोप लगेगा की अवसर को भुनाने में वो चूक जाती है।’
राहुल प्रियंका के नेतृत्व पर असर
रशीद आगे कहते हैं कि इस चुनाव के नतीजे कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति पर भी व्यापक असर डालेंगे। पंजाब और उत्तराखंड जीतने में अगर कांग्रेस सफल हुई तो राहुल और प्रियंका की जोड़ी को चुनौती देने वाला पार्टी में कोई नहीं होगा। उनका दबदबा पार्टी में बढ़ जाएगा। हो सकता है कुछ बड़े नेता पार्टी छोड़ कर चले जाएं। लेकिन अगर कांग्रेस पाँच राज्यों में कहीं भी सरकार बनाने में कामयाब नहीं होती है तो कांग्रेस में कई फाड़ हो सकते हैं और उससे कई क्षेत्रीय दल बन सकते हैं। (bbc.com/hindi)
यूपी के नतीजे किस करवट बैठने वाले हैं? अपनी विश्वसनीयता को लेकर हर चुनाव के दौरान विवादों में घिरे रहने वाले एग्जिट पोल ही अगर दस मार्च की शाम तक अंतिम रूप से भी सही साबित होने वाले हैं तो फिर नरेंद्र मोदी को 2024 में भी 2014 और 2019 जैसी ही जीत दोहराने के लिए अग्रिम बधाई अभी से दे देनी चाहिए। मान लिया जाना चाहिए कि जो तमाम सदृश्य और अदृश्य ताक़तें यूपी में संघ और भाजपा के बुलडोज़री-हिंदुत्व को फिर फिर सत्ता में ला रही हैं वे ही लोकसभा के लिए भी अपनी दोगुना शक्ति और संसाधनों के साथ दिल्ली-मिशन में जुटने वाली हैं।
कोई तो अज्ञात कारण अवश्य होना चाहिए कि इतनी ज़बरदस्त एंटी-इंकम्बेंसी के बावजूद अमित शाह , जे पी नड्डा और योगी आदित्यनाथ सभी का सार्वजनिक रूप से यही दावा क़ायम है कि सरकार तो भाजपा की ही बनेगी। बलिया ज़िले के एक थाना प्रभारी ने तो एक बड़े भाजपा नेता को कथित रूप से कैबिनेट मंत्री बनने की अग्रिम शुभकामनाएँ भी दे दीं। लखनऊ में अफ़सरों के बंगलों के रंग फिर से भगवा होना शुरू हो गए होंगे। अखिलेश के सत्ता में आने के यूपी के देसी पत्रकारों के दावों को चुनौती देते हुए अंग्रेज़ी के नामी-गिरामी जर्नलिस्ट राजदीप सरदेसाई ने तो एग्जिट पोल के पहले ही लिख दिया था कि भाजपा की जीत साफ़ दिखाई पड़ रही है। उन्होंने उसके कारण भी गिनाए हैं। बड़े पत्रकार अपनी बात पुख़्ता सूत्रों के आधार पर ही करते हैं इसलिए राजदीप के दावे में कुछ सच्चाई ज़रूर होगी ऐसा दस मार्च तक के लिए माना जा सकता है।
एग्जिट पोल्स के दावों के विपरीत जो लोग अखिलेश यादव की जीत का सट्टा लगा रहे हैं उनके पास भी अपने कुछ तर्क हैं। मसलन, प.बंगाल के बाद से भाजपा ज़्यादातर चुनाव हार ही रही है। उसके जीतने का सिलसिला काफ़ी पहले से बंद हो चुका है। एग्जिट पोल्स के अनुमानों के ख़िलाफ़, पश्चिम बंगाल में हुई करारी हार के बाद पिछले साल के अंत में हिमाचल सहित दस राज्यों के उपचुनावों में भाजपा को अपनी पहले जीती हुई कुछ सीटें भी उस कांग्रेस के हवाले करना पड़ीं थीं जिसे वह ख़त्म करने का दावा आये दिन करती रहती है। एनडीए के बचे-खुचे घटक दल भी एक-एक करके भाजपा का साथ छोड़ रहे हैं। मुमकिन है बिहार वाले ‘सुशासन बाबू’ भी दस मार्च की प्रतीक्षा कर रहे हों।
सपा के पक्ष में सटोरियों के उत्साह का दूसरा बड़ा कारण अखिलेश-प्रियंका की रैलियों में भीड़ और मोदी-शाह-योगी की सभाओं में कुर्सियों का ख़ाली नज़र आना बताया गया है। कहा जा रहा है कि पश्चिमी यूपी में मुसलिमों और जाटों के बीच खून ख़राबे का सफलतापूर्वक आज़माया जा चुका प्रयोग इस बार काठ की हांडी साबित हो गया। महंगाई, बेरोज़गारी और कोरोना से मौतों को लेकर लोगों की नाराज़गी चरम सीमा पर है। पूछा जा रहा है कि अपने कामों को लेकर भाजपा अगर इतनी ही आश्वस्त थी तो यूक्रेन सहित सारे ज़रूरी काम ताक पर रखकर पीएम को बनारस में तीन दिन क्यों गुज़ारना पड़ गए? क्या उन्हें डर पैदा हो गया था कि अपने संसदीय क्षेत्र की कुछ सीटों पर हार का सामना करना पड़ा या उन पर जीत का मार्जिन कम हो गया तो उसे उनकी लोकप्रियता के ग्राफ़ से जोड़ लिया जाएगा?
कोई छुपी हुई बात नहीं है कि यूपी में चुनाव के सातों चरणों के दौरान भाजपा को जिस तरह के जन-विरोध की लहर का सामना करना पड़ा पार्टी उसके लिए वह क़तई तैयार नहीं थी। पार्टी अपने इस भय को भी ख़ारिज नहीं कर सकती कि एग्जिट पोल्स के दावों के विपरीत अगर सरकार नहीं बनी तो जिस तरह के दल-बदल का ( स्वामीप्रसाद मौर्य, ओम् प्रकाश राजभर, दारा सिंह चौहान,आदि) उसे चुनाव के पहले सामना करना पड़ा था उससे कहीं और बड़ा पश्चिम बंगाल की तर्ज़ पर यूपी में झेलना पड़ जाएगा। प.बंगाल की भगदड़ का असर चाहे कहीं और नहीं हुआ हो, यूपी का असर उन सब हिंदी-भाषी राज्यों पर पड़ेगा, जहां 2024 के पहले चुनाव होने हैं। लोक सभा के पहले ग्यारह राज्यों में विधानसभा चुनाव होना हैं।
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि भाजपा में एक ‘साइलेंट मायनोरिटी’ ऐसी भी है जो ‘पार्टी’ को 2024 में जिताने के लिए ‘व्यक्तियों’ के कमजोर होने को ज़रूरी मानती है। इस माइनॉरिटी के अनुसार, यूपी में पार्टी की हार लोकसभा के लिए अहंकार-मुक्त नेतृत्व प्रदान करने का काम भी कर सकती है। यूपी में एग्जिट पोल्स के अनुमान सही साबित होने की स्थिति में विपक्ष तो निराश- हताश होगा ही, भाजपा के कई दिग्गजो को मार्गदर्शक मंडल में जाना पड़ सकता है।
वोटिंग मशीनों में अंतिम समय पर (मूर्तियों के दूध पीने वाले चमत्कार की तरह) कोई आसमानी-सुलतानी नहीं हो जाए तो ज़मीनी नतीजों का रुझान तो इस समय भाजपा के ख़िलाफ़ जाने का ही है। इसके बावजूद, ज़्यादा अंदरूनी जानकारी उन अनुभवी पत्रकारों, चुनावी-विश्लेषकों और टी वी एंकरों को ही हो सकती है जो डंके की चोट मुनादी कर रहे हैं कि जीत तो भाजपा की ही होने जा रही है।
यूपी में सत्तारूढ़ भाजपा के ख़िलाफ़ बेहद प्रतिकूल मौजूदा परिस्थितियों के बावजूद अगर सपा गठबंधन स्पष्ट बहुमत प्राप्त करने से चूक जाता है तो फिर आगे आने वाले समय में यूपी और देश में विपक्ष की राजनीति का चेहरा कैसा बनेगा उसकी भी कल्पना की जा सकती है। उसमें यह भी शामिल रहेगा कि मोदी को फिर 2024 में दुनिया की कोई भी ताक़त नहीं रोक पाएगी यूपी की जनता अगर ऐसा ही चाहती तो उसके फैसले पर पूरे देश की प्रतिक्रिया जानने के लिए थोड़ी प्रतीक्षा की जानी चाहिए।
MINIMUM 80, 2/3RD MAJORITY… MAY TOUCH 100
-Adv. Sudiep Shrivastava
THE RESULT WILL SHIFT FOCUS FROM BSP(Bijli Sadak Pani) to HEEF (Health Education Employment and Farmer)
Punjab is a State where a multi corner contest has happened in which at least three players of different combinations appears to be contesting closely. However at the end it’s the Aam Aadmi Party emerging as clear winner. The Congress despite being in the Government, the Akali Dal – BSP combine could not have impressed upon the majority voters who have referred AAP. Naturally the Amrindar-BJP fails to cut much ice in this contest.
DEMOGRAPHY :
The demography of the State has 32% Dalit Voters most of them are within Sikh Fold who are still struggling to be recognised as powerful voting block as the politics of the State is still under the grip of the Jatt Sikh who are roughly 21% of the total population. The Hindu Upper caste consists of around 12 % whereas other minorities are only about 4%. The Rajput Sikhs are treated as OBC and they are also around 10%. While the other OBCs are 21% of the total population. On religious line Sikhism is the dominant religion with 58% population is following the same whereas 38% follow Hindu Dharm. Another 1.9% Muslim and 1.3% Christian while rest 0.8 % are Jains and Bouddhs.
Following are the main castes of different religions.
Sikhism : Jatt Sikh, Rajput Sikh, Mazahabi Sikh, Ramdasia Sikh
Hinduism-Brahmin, Rajput, Bania, Khatri-Arora-Sood, Sunar, Kamboj, Labana, Tarkhan/Ramgarhia, Kumhar/Prajapati, Arain, Gurjar Teli, Banjara, Lohar, Bhat, Chamar Ad-Dharmi - Balmiki Bhanghi Bazigar
Traditionally the Congress vote bank is in to Jatt Sikh and Dalit voters apart from some Hindu voters post Khalistan movement whereas the BJP-Akali combine counted on the Jatt Sikh and Hindutva preferring Hindus combination. It was only in 2017 the Aam Aadmi Party has made inroads in to the State specially in the Malwa region by winning 18 seats mostly in this region while securing almost 24% of the polled votes. Congress despite loss in vote share by 1.4% and securing just 38.5% of the polled votes won 77 of 117 seats in this triangular fight and Akali-BJP combine could manage just 18 seats with 30.6% votes. BSP despite 32% Dalit population could not win a single seat and ended up with just 2.8% votes.
REGIONS OF THE STATE :
The Punjab is divided into three major geographical regions, Majha, Doaba and Malwa. The Distribution of the districts in to these areas are as follows;
The Amrinder Rule and his ouster :
Captain Amrinder Singh remained the top Congress leader in 2017 and despite High Command’s reluctance, became the Chief Minister. He has promised the voters to deal with, the Drug Menace, Accused of “Be-Adabi of Guru Granth Sahib, Misrule of Badal led Akali Government, with Iron Hands, however he failed to perform on all these counts. The failure to generate employment which is forcing Sikh Youths to migrate abroad only added fuel to this. He was ultimately removed but too later. It did not give enough time to the new incumbent Charanjeet Singh Channi, a Dalit Sikh to mobilise his community en-block for which he was preferred over the challenger Navjot Singh Sidhu. The choice of a Dalit Sikh as CM over traditional Jatt Sikh has not gone down fully well in this short time and it was further fuelled by the periodic outburst of the flamboyant Sidhu.
Akali – BSP combine became irrelevant :
For decades the Punjab politics was hovering between two Political forces i.e. Akali, and Congress. BJP always played second fiddle with Akali while BSP fails to make much impact despite the state having 30% Dalit population. In the Congress Rule of last five years, the Amrinder Government was seen soft towards Badals, and that has led to a belief amongst general voters that both Congress and Akalis are having a tacit understanding between them. This has resulted in continuance of the Anti Incumbency towards Akalis for their 10 year rule between 2007 to 2017. Voters now want to get rid of both the traditional parties and that is why the AAP is getting a decisive mandate.
WHY AAP IS WINNING WITH SUCH A BIG MAJORITY :
There are three main reasons for AAP sweeping the Punjab almost the way it did in Delhi. First reason is AAP was very much a contender in 2017 as well, but because of Amrinder led Congress also being in opposition and very vocal against the Akali Government, voters chose a tried a tested Leader and Party instead of AAP which had shied away from declaring the CM Face, leaving the speculation that Kejriwal himself wants to be CM of the State. The Second reason is that the Congress Government did not acted on the major promises it made with the voters and was seen as saving the Badals, leaving with no other choice for voters but to chose AAP as no one was willing to have Akali’s at the helm again. Third reason is the major infighting in the Congress after appointment of the Charanjeet Singh Channi as CM of the State. The Jatt Sikh dominated State Congress, could not digest the elevation of a Dalit Sikh and Channi got too little time to manage, and win over the dissidents in the party. It is common perception that Amrinder should have been removed at least a year before if he was to be. The Sidhu and Sunil Jakhar’s utterances make the life tough for Channi and made the easy way for AAP which is still enjoying sizeable Dalit support. The BJP and Congress both tried to link AAP with Khalistani but on ground no body was willing to listen such an argument considering the anger they have against Congress and Akalis both.
BSP to HEEF
Big Punjab Win for AAP will prove and establish one thing that except Such States which have more than 30% BPL families, the expectations of voters have changed from BSP (Bijli Sadak Pani) to HEEF (Health Education Employment Farmer). It will also prove that showcasing your good work in another State like the AAP did on Education and Health in Delhi and showcased the same in Punjab can bring voters and supporters.
(Writer is a practicing lawyer in Chhattisgarh High Court, and a familiar face on national television election analysis.)
-पुष्य मित्र
आज भी इस दुनिया के ज्यादातर पुरुष अपनी सबसे करीबी स्त्रियों के कन्धों पर किसी बेताल की तरह लटके हैं।
हम पुरुषों का अपना जीवन सरल और सुविधाजनक हो, इस कोशिश में हम स्त्रियों को अपने साथ बांधे रहते हैं। जबर्दस्ती, ताकत की जोर पर, परम्पराओं और सामाजिक नियमों के नाम पर या प्रेम, भावुकताओं के सहारे।
हर पुरुष को एक स्त्री चाहिए, जो उसकी गैरहाजिरी-हाजिरी दोनों में उसके घर को सुव्यवस्थित और चलायमान बनाये रखे। जहां काम और मौज-मस्ती के बाद पुरुष लौटे तो उसे खाना, आराम और शांति मिल सके। ताकि फिर से वह तरोताजा होकर बाहर निकल सके। उसे एक ऐसी स्त्री चाहिये जो उसके बच्चों, उसे और यहां तक कि उसके माता-पिता को भी संभाल सके। ताकि वह अपनी इन तमाम जिम्मेदारियां से थोड़ा आजाद हो सके।
आज भी हर पुरुष अपनी सबसे करीबी स्त्री से कमोबेश यही चाहता है। और जाने-अनजाने हर स्त्री अपनी पीठ पर किसी न किसी बेताल पुरुष को लटका महसूस करती है। उसे ढोती रहती है। उसकी पीठ दुखती है, मगर वह सौ में निन्यानवे मर्तबा चुप रह जाती है।
अगर हम पुरुष आज के दिन सचमुच अपनी प्रिय स्त्रियों के लिये कुछ करना चाहते हैं तो बस इतना करें कि उनकी पीठ से उतर जायें। वे खुद तनकर खड़ी हो जायेंगी। फिर किसी महिला दिवस की न जरूरत होगी, न प्रासंगिकता।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक का लिखा-
इस समय सारी दुनिया का ध्यान यूक्रेन पर लगा हुआ है लेकिन इस संकट के दौरान चीन की चतुराई पर कितने लोगों ने ध्यान दिया है? इस समय पिछले कुछ वर्षों से चीन और अमेरिका के बीच भयंकर अनबन चल रही है। चीन पर लगाम लगाने के लिए अमेरिका ने चार देशों— भारत, आस्ट्रेलिया, जापान और अमेरिका का चौगुटा (क्वाड) खड़ा कर लिया है। 'आकुसÓ का सैन्य संगठन पहले से बना ही हुआ है। चीनी-अमेरिकी व्यापार, ताइवान और दक्षिण चीनी समुद्र के सवाल पर इन दोनों देशों में तनातनी चल रही है।
चीन में हुए ओलंपिक खेलों का भी अमेरिका और उसके साथी राष्ट्रों ने बहिष्कार किया है लेकिन इन सब चीन-विरोधी हरकतों के बावजूद यूक्रेन के सवाल पर जब-जब वोट देने का सवाल आया, चीन ने कभी भी अमेरिकी प्रस्ताव के विरुद्ध वोट नहीं दिया। उसने भारत की तरह तटस्थता दिखाई। परिवर्जन (एब्सटेन) किया। क्यों किया? क्या वह अमेरिका से डरता है? नहीं! उसे अमेरिका से कोई डर नहीं है। वे आर्थिक और सामरिक दृष्टि से भी अमेरिका के मुकाबले सीना तानकर खड़ा हो सकता है।
वह अमेरिका के लिए रूस से कई गुना बड़ा खतरा बन सकता है। आजकल चीन और रूस का संबंध वैसा कटु नहीं है, जैसे माओ और ख्रुश्चौफ के जमाने में था। आजकल ये दोनों राष्ट्र गलबहियां डाले हुए हैं। चीन की फौज और अर्थव्यवस्था इस समय इतनी बड़ी है कि चीन जब चाहे रूस की सहायता कर सकता है। चीन और रूस शांघाई सहयोग संगठन के सदस्य भी हैं।
इसके बावजूद यूक्रेन के सवाल पर चीन ने कभी रूस के समर्थन में वोट नहीं दिया। जब भी सुरक्षा परिषद, महासभा या मानव अधिकार परिषद में यूक्रेन का मामला उठा तो उसने खुलकर रूस के समर्थन में एक शब्द भी नहीं बोला। इस सावधानी का रहस्य क्या है? वह भारत की तरह तटस्थ क्यों हो गया है? भारत की तो मजबूरी है, क्योंकि रूस और अमेरिका, दोनों के ही भारत से अच्छे संबंध हैं। यों भी भारत अपनी गुट-निरपेक्षता या तटस्थता के लिए जाना जाता रहा है।
चीन की तटस्थता का जो रहस्य मुझे समझ में आता है, वह यह है कि वह रूस के इस अतिवादी कदम का समर्थन करके दुनिया में अपनी छवि खराब नहीं करवाना चाहता है। वह अपने आप को विश्व की महाशक्ति मनवाना चाहता है। इतना काफी है कि वह रूस का विरोध नहीं कर रहा है। दूसरी बात यह है कि अमेरिका के साथ वह अपने दरवाजे खुले रखना चाहता है।
यदि वह रूस का अंध-समर्थन करने पर उतारु हो जाता तो चौगुटे के चारों देशों और यूरोपीय राष्ट्रों के साथ चल रहा उसका अरबों-खरबों डॉलर का व्यापार भी चौपट हो सकता था। चीन इस समय दुनिया का सबसे बड़ा व्यापारी देश है। इसीलिए वह महाजनी बुद्धि से काम कर रहा है। (नया इंडिया की अनुमति से)
जस्टिस के. एल. पांडेय के समक्ष दिए गए बयान में एक शिक्षा शास्त्री का बयान अत्यंत महत्वपूर्ण है। शिक्षा शास्त्री के इस बयान को मैं ज्यों का त्यों यहां उद्धृत कर रहा हूं :
1. दिनांक 25. 3.1966 को लगभग 10:45 बजे दिन को जब मैं अपने निवास स्थान की बैठक में लिखा-पढ़ी का कार्य कर रहा था, मैंने सर्वप्रथम माइक्रोफोन से 144 धारा नगर में लागू होने की उद्घोषणा सुनी। फिर थोड़ी देर बाद धमाकों की आवाजें हुई और राजवाड़ा के दक्षिणी दरवाजे के पास हवा में टियर गैस शेल्स फूटते देखा। मैं दौड़ा-दौड़ा घर के पास के पेट्रोल पंप में फोन करने गया क्योंकि मुझे पुराने राजमहल के विद्यालयों के बच्चों और शिक्षकों के विषय में घोर चिंता हुई। पुराने राजमहल के फोन पर थोड़ी-थोड़ी देर में संपर्क स्थापित किया। फिर चिंता, भय, आकुलतावश राजबाड़े के पूर्वी दीवार के पास एक अर्धनिर्मित झोपड़ी पर चढ़कर अंदर का हाल जानने हेतु देखने लगा। उस वक्त राजमहल के सामने के बगीचे में आदिवासियों और पुलिस में संघर्ष छिड़ा हुआ था। धमाकों की आवाजें हो रही थी और आदिवासी वृक्षों व झाड़ियों की आड़ लेकर उत्तर की ओर पीछे हट रहे थे। कुछ भाग रहे थे। एक दो लोग तीर भी चला रहे थे। थोड़ी देर के बाद वहां से उतर कर मैं पुनः अपने घर, सामने की सड़क, पड़ोस की छत आदि से यथासंभव राजवाड़े के भीतर-बाहर की घटना का अवलोकन करने लगा। इस बीच राजमहल के पूर्वी और उत्तरी भू-भाग पर काफी पुलिस वालों का फैलाव हो रहा था। आदिवासी अब बाहर नहीं दिख रहे थे। फिर राजमहल के पिछले भू-भाग बगीचे की ओर टियर गैस शेल्स के फूटने की ध्वनियां हुई, धुवां दिखाई दिया।
राजवाड़ा के उत्तरी दरवाजे पर तीर से घायल सिपाही को बेदम होते, आदिवासी को पुलिस तथा एक ऑफिसर द्वारा बुरी तरह पिटते, भीतरी हिस्से में एक आदिवासी को दौड़ते और उसके पीछे गोली की आवाज भी मैने अधखुले दरवाजे से देखी सुनी। पुनः लगभग चार बजे के बाद राजमहल के ऊपरी छत पर कई पुलिस वाले दृष्टिगोचर हुए। फिर थोड़ी देर बाद काफी हल्ला-गुल्ला सुनाई दिया।
माइक से यह भी उद्घोषणा हुई कि महल के भीतर के आदिवासी आत्मसमर्पण कर दें। मुझे समीप की छत पर से यह दृष्टिगोचर हो रहा था कि कुछ आदिवासी नए राजमहल के सामने के एक दरवाजे से निकल कर बाहर आंगन में आ रहे थे और उन्हें बैठा कर, घेर कर काफी पुलिस वाले उन्हें लाठियों से अंधाधुंध मार रहे थे। कोई भी मार से बच कर भागने की कोशिश करता उसके पीछे कई-कई पुलिसवाले दौड़ते और मनमानी पीटते। एक दो भागते हुए आदिवासियों पर गोलियां भी चलाई गई। दृश्य बहुत ही कारुणिक था।
2. संध्या तक यह क्रम चलता रहा। रात्रि में भी रुक-रुक कर कई बार गोलियां चलने की आवाजें आती रहीं। एक गोली की बड़े जोरों की आवाज तड़के सुबह भी आई।
3. प्रातःकाल 26 . 3 . 1966 को माइक से उद्घोषणा के बाद शांतिपूर्ण ढंग से आदिवासियों का आत्मसमर्पण, उनकी गिरफ्तारियां, शाम को श्री प्रवीर चंद्र भंजदेव की शव यात्रा आदि मैंने देखी। शमशान घाट में स्वर्गीय प्रवीर चंद्र भंजदेव के चेहरे को काफी समीप से मैंने देखा। चेहरा विकृत हो गया था। उसमें खून के दाग़ थे।
अब जगदलपुर के एक प्रतिष्ठित डॉक्टर का बयान भी मैं यहां उद्धृत करना चाहूंगा, जो उन्होंने उस समय पांडेय कमीशन के समक्ष दिया था।
डॉक्टर द्वारा दिया गया यह बयान बेहद महत्वपूर्ण है और बस्तर गोलीकांड की सच्चाइयों से पर्दा उठाता है। यह बयान यहां उद्धृत किया जा रहा है ताकि पाठक सच और झूठ का विवेक सम्मत निर्णय स्वयं ले सकें :
1. यह कि मैं दिनांक 25.3. 1966 को लगभग 10.30 बजे व्यवहार न्यायालय आया था।
2. यह कि राजमहल का मुख्यद्वार जो घटनास्थल था, वह सत्र न्यायालय और व्यवहार न्यायालय से लगभग 100 गज की दूरी पर है।
3. यह कि ज्यों ही मैं व्यवहार न्यायालय की ओर जाता हुआ नगर पालिका कार्यालय के समक्ष से गुजरा त्योंहि मैंने एक आरक्षी जीप और मोटर को राजमहल के मुख्य द्वार के समक्ष खड़े होते देखा तथा उनमें से श्री मोहन सिंह इंस्पेक्टर, श्री सिंह ए.डी.एम. जगदलपुर तथा दो या तीन पुलिस इंस्पेक्टर और सशस्त्र सेना के कुछ बंदूकधारी व लाठीधारी जवानों को उतरते हुए मैंने देखा।
4. यह कि उतरने के पश्चात सशस्त्र पुलिस ने स्वयं को दो भागों में बांट कर मुख्य द्वार के दोनों ओर अपनी स्थिति बनाई।
5. यह कि उस समय 20 या 25 आदिवासी महिलाएं दंतेश्वरी मंदिर के समीपस्थ उद्यान के घेरे के पास खड़ी थी जो स्थान राजमहल क्षेत्र के अंतर्गत है। इसके उपरांत मैंने एक जीप को प्रसाद के मुख्य द्वार की ओर नगरपालिका न्यायालय के सामने वाले राजमार्ग से आते देखा। इस जीप द्वारा दंड प्रक्रिया संहिता की 144 धारा का उद्घोष किया जा रहा था। सशस्त्र पुलिस जिसने अपनी स्थिति मुख्य द्वार के दोनों ओर बना ली थी उसने अब मुख्य द्वार के भीतर प्रवेश किया और दंतेश्वरी मंदिर के समक्ष खड़ी हो गई।
6. यह कि उसी समय पुलिस के कुछ सिपाही उद्यान के घेरे के समीप स्थित आदिवासी महिलाओं के समीप गए। इससे आदिवासी महिलाएं राजप्रसाद की ओर भाग गईं।
7. यह कि कुछ क्षण पश्चात पुलिस के अधिकारी तथा सिपाही तीर-तीर चिल्लाते हुए मुख्य द्वार से बाहर
निकले। तत्पश्चात पुलिस ने राजप्रसाद के भीतर मुख्य द्वार से अपनी बंदूकों के द्वारा दो या तीन फायर किए तथा अश्रु गैस छोड़ना प्रारंभ कर दिया।
8. यह कि उसके उपरांत पुलिस के आदमियों ने मुख्य द्वार के भीतर पुनः प्रवेश किया और तुरंत तीर-तीर चिल्लाते हुए बाहर निकल आए। उस समय तक कोई व्यक्ति घायल नहीं हुआ था।
शेष अगले सप्ताह ...
-डॉ राजू पाण्डेय
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर पिछले कुछ वर्षों में बाजार की पैनी नजर रही है और इसे बहुत चतुराई से एक बाजार संचालित उत्सव में बदल दिया गया है। इस दिवस के आयोजन के पीछे निहित मूल भावना से एकदम विपरीत दृष्टिकोण रखने वाली सरकारों और कॉरपोरेट्स द्वारा इस अवसर पर किए जाने वाले भव्य आयोजन अनेक बार वितृष्णा उत्पन्न करते हैं।
संयुक्त राष्ट्र द्वारा 1975 में मान्यता दिए जाने के बाद वैश्विक स्तर पर नियमित रूप से आयोजित होने वाले अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की 2022 की थीम 'जेंडर इक्वालिटी टुडे फॉर ए सस्टेनेबल टुमारो' चुनी गई है। किंतु भारत में लैंगिक समानता एक असंभव स्वप्न की भांति लगती है।
आर्थिक अवसरों, राजनीति, शिक्षा एवं स्वास्थ्य के क्षेत्र में स्त्रियों की भागीदारी को आधार बनाने वाली वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की जेंडर गैप रिपोर्ट 2021 भारत में स्त्रियों की उत्तरोत्तर दयनीय होती स्थिति की ओर संकेत करती है। हम विगत वर्ष की तुलना में 28 पायदानों की गिरावट के साथ 156 देशों में 140 वें स्थान पर पहुंच गए हैं। इस गिरावट के लिए कोविड जन्य परिस्थितियों को उत्तरदायी माना गया है।
यह जांचा परखा सिद्धांत भी है कि महामारी और युद्ध की मार उन वर्गों पर सबसे ज्यादा पड़ती है जो सर्वाधिक कमजोर हैं जैसे महिलाएं। लिंकेडीन अपॉर्चुनिटी इंडेक्स दर्शाता है कि कोविड-19 का नकारात्मक प्रभाव भारत की महिलाओं पर शेष विश्व की महिलाओं की तुलना में अधिक पड़ा। उन्हें एशिया प्रशांत देशों में सर्वाधिक लैंगिक भेदभाव झेलना पड़ा और वे समान वेतन तथा समान अवसरों के लिए संघर्ष करती नजर आईं।
वर्ल्ड जेंडर गैप रिपोर्ट 2021 कहती है कि यदि हालात ऐसे ही रहे तो दुनिया को लैंगिक समानता का लक्ष्य हासिल करने में 135.6 वर्ष लग जाएंगे। भारत के संबंध यह अवधि कितनी होगी इसकी कल्पना करते भी भय लगता है।
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस का प्रारंभिक इतिहास सीधे सीधे कामकाजी महिलाओं और श्रमिकों से जुड़ता है जब 8 मार्च 1908 को न्यूयॉर्क की सड़कें 15000 महिलाओं के विरोध प्रदर्शन की गवाह बनी थीं। इनकी मांगें काम के घण्टों में कमी और वेतन वृद्धि से जुड़ी थीं। अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की लंबी यात्रा के बावजूद नारी श्रम को स्वीकृति और सम्मान नहीं मिल पाया है।
नारी श्रम को तुच्छ, महत्वहीन और नगण्य समझना पुरुषवादी अर्थ व्यवस्था की सहज प्रवृत्ति है। एनएफएचएस 5 के अनुसार पिछले 12 महीनों में 15-49 आयु वर्ग की काम करने वाली महिलाओं में से केवल 25.4 प्रतिशत को नकद भुगतान मिला। ऑक्सफेम की 2019 की "माइंड द गैप :स्टेट ऑफ एम्प्लायमेंट इन इंडिया" रिपोर्ट के अनुसार भारतीय महिलाएं समेकित रूप से प्रतिदिन 1640 करोड़ घंटो का ऐसा कार्य करती हैं जिसके बदले में उन्हें कुछ नहीं मिलता। ओईसीडी के आंकड़े कहते हैं कि भारतीय पुरुष प्रतिदिन केवल 56 मिनट घरेलू कार्य को देते हैं जबकि महिलाओं के लिए यह अवधि 353 मिनट प्रतिदिन है। भारत सरकार का टाइम यूज़ सर्वे 2019 बताता है कि कामकाजी आयु की 92 प्रतिशत महिलाएं औसतन प्रतिदिन पांच घण्टे पन्द्रह मिनट घरेलू कार्यों में व्यतीत करती हैं। विशेषज्ञों द्वारा किए गए अध्ययन हमारी 35 करोड़ घरेलू महिलाओं के श्रम के मूल्य को 613 अरब डॉलर तक आंकते हैं। इन सारे आंकड़ों की विचित्रता यह है कि पुरुष चाहे अनपढ़ हो या उच्च शिक्षित घरेलू कार्य से दूरी बनाकर रखता है और उच्च शिक्षित महिला पर भी अनपढ़ महिला जितना ही घरेलू कार्य का बोझ रहता है।
हाल ही में हुए कुछ सर्वेक्षण दर्शाते हैं कि अनेक मानकों पर हमारी महिलाओं की स्थिति जरा बेहतर हुई है। एनएसएस (75 वां दौर, जुलाई 2017 – जून 2018) के अनुसार अब भारत की महिलाओं में साक्षरता दर 70 प्रतिशत है। भारत सरकार का आल इंडिया सर्वे ऑन हायर एजुकेशन 2019-20 कहता है कि उच्च शिक्षा में भी महिलाओं का नामांकन पुरुषों के समान स्तर पर पहुंच रहा है और उच्च शिक्षा में नामांकित विद्यार्थियों में महिलाओं की संख्या अब 39 प्रतिशत है। लेकिन यह भी गौरतलब है कि मेडिकल और इंजीनियरिंग की शिक्षा में महिलाओं की उपस्थिति नगण्य सी ही है।
एनएफएचएस 5 के आंकड़े भी कुछ क्षेत्रों में महिलाओं की बेहतर स्थिति का संकेत देते हैं। एनएफएचएस-4 के अनुसार 84 प्रतिशत विवाहित भारतीय महिलाएं परिवार के महत्वपूर्ण निर्णयों में हिस्सेदारी करती थीं जबकि अब यह 88.7 प्रतिशत हैं। एनएफएचएस-4 के अनुसार 45.9 प्रतिशत महिलाओं के पास मोबाइल फोन था जो अब बढ़कर 54 प्रतिशत हो गया है। जबकि वे महिलाएं जिनके बैंक खाते हैं उनकी संख्या एनएफएचएस-4 के 53 प्रतिशत से बढ़कर 78.6 प्रतिशत हो गई है।
किंतु इन तमाम मानकों में आए मामूली सुधार का असर महिलाओं की बढ़ती आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक शक्ति के रूप में क्यों नहीं दिखता, इसका अन्वेषण आवश्यक है।
यदि विगत कुछ वर्षों के एनएसएसओ और पीरियाडिक लेबर फ़ोर्स सर्वे को आधार बनाया जाए तो पिछले तीन दशकों के दौरान लेबर फ़ोर्स में महिलाओं की उपस्थिति में भारी कमी आई है। कार्यबल में महिलाओं की हिस्सेदारी 1999-2000 में 41 प्रतिशत थी जो 2011-12 में घटकर 32 प्रतिशत रह गई और 2019 के आंकड़ों के अनुसार यह 20.3 प्रतिशत है। बांग्लादेश और श्रीलंका के लिए यह आंकड़े क्रमशः 30.5 और 33.7 प्रतिशत हैं। मैकिंसी की 2018 की एक रिपोर्ट के अनुसार कार्यबल में महिलाओं की संख्या में दस प्रतिशत की वृद्धि हमारी जीडीपी में 770 बिलियन डॉलर का इजाफा कर सकती है।
इस गिरावट की अनेक व्याख्याएं हैं। नवउदारवादी अर्थव्यवस्था के पैरोकार यह मानते हैं कि यह आर्थिक समृद्धि का द्योतक है। परिवार में कमाने वाले पुरुषों की आय बढ़ी है, इस कारण महिलाओं को काम पर जाने की जरूरत नहीं है। इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली एवं कुछ अन्य संस्थाओं के सर्वेक्षण बताते हैं कि यदि परिवार में पुरुष की कमाई ठीक ठाक है तो लगभग 40 प्रतिशत पुरुष और महिलाएं दोनों यह चाहते हैं कि महिलाएं घर पर रहें। गरीबी और भुखमरी के तांडव तथा बढ़ती बेरोजगारी एवं घटती पगार के बीच यह व्याख्या पूर्णतः अस्वीकार्य है।
दरअसल लेबर पार्टिसिपेशन रेट में गिरावट को सरल शब्दों में समझाएं तो यह कहा जा सकता है कि भारत में कार्य करने योग्य आयु की 80 प्रतिशत महिलाएं जीविकोपार्जन न करते हुए घरेलू तथा अन्य अवैतनिक कार्यों में लगी हुई हैं। कृषि महिलाओं को रोजगार देने का सबसे बड़ा जरिया था किंतु कृषि के निजीकरण ने यंत्रीकरण को बढ़ावा दिया है और मानव श्रम की आवश्यकता कम हुई है। कृषि में महिलाओं और पुरुषों दोनों के लिए रोजगार के अवसर कम हुए हैं। पुरुष तो छोटे-मझोले शहरों एवं महानगरों को पलायन कर प्रवासी मजदूर बन गए हैं, महिलाएं गांवों में छूट गई हैं। बड़ी संख्या में सस्ते पुरुष श्रमिक, महिलाओं के सम्मुख चुनौती प्रस्तुत कर रहे हैं और महिलाओं के लिए आरक्षित समझे जाने वाले कार्यों को छोड़कर अन्य कार्यों में उन्हें महिलाओं पर वरीयता भी मिल रही है। कृषि के बाद टेक्सटाइल और रेडीमेड गारमेंट्स इंडस्ट्री महिलाओं को रोजगार देने के मामले में दूसरे क्रम पर हैं, जहाँ कार्यरत साढ़े चार करोड़ श्रमिकों में 75 प्रतिशत महिलाएं हैं किंतु वहां भी बड़े खिलाड़ियों के प्रवेश ने रोजगार घटाए हैं। अनेक कार्य कानूनन और अन्य अनेक कार्य परंपरा द्वारा पुरुषों के लिए आरक्षित हैं और इनमें महिलाओं को अवसर देने पर विचार तक नहीं किया जाता।
नेशनल काउंसिल ऑफ अप्लाइड इकोनॉमी रिसर्च का आकलन है कि भारत में 97 प्रतिशत महिला श्रमिक असंगठित या अनौपचारिक क्षेत्र में कार्यरत हैं। आईएलओ के विशेषज्ञों के अनुसार असंगठित क्षेत्र हेतु निर्मित की वाली नीतियों की सबसे बड़ा दोष यह है कि इनके निर्माण के पूर्व विभिन्न क्षेत्रों में कार्यरत महिलाओं की संख्या से संबधित डाटा एकत्र नहीं किया जाता है। महिला श्रमिकों की घटती संख्या के सरकारी आंकड़ों पर चर्चा करते समय यह भी ध्यान रखना चाहिए कि वह क्षेत्र जिनमें महिला श्रमिकों की संख्या सर्वाधिक है इन आंकड़ों का हिस्सा नहीं है। यदि घरेलू कार्य विषयक आंकड़ों का ही समावेश इनमें कर दिया जाए तो महिलाओं का लेबर फ़ोर्स पार्टिसिपेशन 81 प्रतिशत हो जाएगा।
समान मजदूरी, सामाजिक सुरक्षा, मातृत्व अवकाश एवं मातृत्व से जुड़ी अन्य सुविधाएं तथा यौन शोषण से सुरक्षा तो असंगठित क्षेत्र में कार्य करने वाली महिलाओं के लिए एक सपना भर हैं।वैसे भी हमारी न्याय व्यवस्था एवं कानूनों में पितृसत्ता की गहरी छाप है किंतु कुछ कानून जो महिलाओं के पक्ष में बनाए भी गए हैं उनके क्रियान्वयन को भी व्यवस्था में व्याप्त पुरुष वर्चस्व बाधित करता है और इन्हें अप्रभावी बना देता है।
अध्ययनों के अनुसार हमारा श्रम बाजार पुरुषों की तुलना में महिलाओं को उनके श्रम की आधी कीमत ही देता है। यहां तक कि निजी क्षेत्र में सुपरवाइजर स्तर पर भी महिलाओं को भी उनके पुरुष समकक्षों से 20 प्रतिशत कम वेतन मिलता है।
मातृत्व लाभ (संशोधन) अधिनियम, 2017 में 26 हफ्ते के सवैतनिक प्रसूति अवकाश के साथ-साथ अनिवार्य क्रैच सुविधा का प्रावधान किया गया है। इसका परिणाम यह देखने में आया कि निजी क्षेत्र के नियोक्ता महिलाओं को काम पर रखने से परहेज करने लगे और गर्भवती महिलाओं के लिए ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न करने लगे कि वे नौकरी छोड़ दें। सरकार ने नवंबर 2018 में घोषणा भी की कि अब वह महिलाओं को मिलने वाले मातृत्व अवकाश के 7 हफ्ते का वेतन कंपनियों को लौटाएगी। किंतु वस्तु स्थिति यह है कि हर वर्ष लगभग तीन करोड़ महिलाएं गर्भवती होती हैं लेकिन इस कानून का लाभ केवल एक लाख महिलाओं को मिलता है।
ह्यूमन राइट्स वॉच(अक्टूबर 2020) का एक सर्वेक्षण यौन उत्पीड़न कानून लागू करने के सीमित सरकारी प्रयासों की चर्चा करता है और यह विशेष उल्लेख करता है कि अनौपचारिक या असंगठित क्षेत्र की महिलाओं एवं सरकारी के कल्याणकारी कार्यक्रमों के क्रियान्वयन में लगे महिला कार्यबल की तो इस संबंध में लगभग अनसुनी ही की जाती है। लगभग यही नतीजे इंडियन नेशनल बार एसोसिएशन द्वारा कराए गए सर्वेक्षण(2017) के हैं। इसके अनुसार रोजगार के विभिन्न क्षेत्रों में यौन उत्पीड़न की मौजूदगी है। अधिकांश महिलाएं लांछन, प्रतिशोध के भय, लज्जा, रिपोर्ट दर्ज कराने विषयक नीतियों के बारे में जागरूकता के अभाव अथवा निराकरण तंत्र के प्रति अविश्वास के कारण उत्पीड़न की रिपोर्ट ही दर्ज नहीं करातीं।
यौन उत्पीड़न के विषय में न तो कोई प्रामाणिक अध्ययन किया गया है, न ही कोई अधिकृत आंकड़े इसके विषय में हैं। परिवार में इसका जिक्र डर के कारण नहीं किया जाता, डर इस बात का कि अधिकांश मामलों में परिवार नौकरी ही छुड़वा देता है। यह बताना भी कठिन है कि यौन उत्पीड़न कितने प्रतिशत महिलाओं के नौकरी छोड़ने हेतु उत्तरदायी है।
इंटरनेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ पापुलेशन साइंसेज(नोडल एजेंसी,एनएफएच 4) और आईसीएफ,यूएसए के अनुसार, भारत में कामकाजी महिलाओं के शारीरिक हिंसा का सामना करने की आशंका अधिक है। शारीरिक हिंसा झेलने वाली ग़ैर–कामकाजी महिलाओं की संख्या 26 प्रतिशत है जबकि 40 प्रतिशत कामकाजी महिलाओं को शारीरिक हिंसा झेलनी पड़ी है।
एक भ्रम यह भी फैलाया जाता है कि नव उदारवादी अर्थव्यवस्था महिलाओं की आर्थिक मुक्ति का कारण बनेगी। जबकि सच्चाई यह है कि इसके कारण संगठित क्षेत्र सिकुड़ा है और असंगठित क्षेत्र की शोषणमूलक प्रवृत्तियां खुलकर अपनाई जा रही हैं। ठेका पद्धति और संविदा नियुक्ति की परिपाटी बढ़ी है और महिलाएं इनका आसान शिकार बनीं हैं क्योंकि निरीह, असंगठित महिलाओं से कम वेतन पर मनमाना काम लिया जा सकता है और जब चाहे इन्हें नौकरी से हटाया जा सकता है। रैंडस्टड का जेंडर परसेप्शन सर्वे 2019 दर्शाता है कि 63 प्रतिशत महिलाओं ने निजी क्षेत्र में नौकरी पर रखते समय लैंगिक भेदभाव का या तो सामना किया है या वे ऐसी किसी महिला को जानती हैं जो नियुक्ति के दौरान लैंगिक भेदभाव का शिकार हुई है। यह भेदभाव वेतनवृद्धि और पदोन्नति में भी देखा गया है।
हमारे देश में मात्र 20% उद्यमों पर महिलाओं का स्वामित्व है। केवल 6% महिलाएंँ भारतीय स्टार्टअप्स की संस्थापक हैं। महिला संस्थापकों वाले स्टार्टअप्स सकल इन्वेस्टर फंडिंग का सिर्फ 1.43% भाग ही प्राप्त कर सके। 69 प्रतिशत महिलाओं का मानना है कि सांस्कृतिक एवं निजी अवरोध एक उद्यमी के रूप में उनकी यात्रा को कठिन बनाते हैं। एक विश्लेषण के अनुसार उद्योगों में महिला नेतृत्वकर्ताओं की संख्या पुरुषों की तुलना में आधे से भी कम है।
भारत में लैंगिक समानता की राह इस कारण भी कठिन है कि एक तो स्त्रियों का प्रतिनिधित्व राजनीति में कम है दूसरे जो महिलाएं राजनीति के शीर्षस्थ पदों पर मौजूद हैं वे भी सत्ता संचालन में पुरुषवादी दृष्टिकोण का आश्रय लेती हैं। वर्तमान संसद में केवल 14 प्रतिशत महिलाएं हैं। इनमें से कुछ केंद्र सरकार में वरिष्ठ पदों पर भी हैं। किंतु यह भी उस विचारधारा का समर्थन करती दिखती हैं जो हमारे संविधान को मनुस्मृति से प्रतिस्थापित करने का स्वप्न रखती है, वही मनुस्मृति जिसके अनुसार महिलाओं को बाल्यावस्था में पिता, वयस्क होने पर पति और वृद्धावस्था में बेटों के नियंत्रण में रखना आवश्यक है।
रायगढ़, छत्तीसगढ़
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक का लिखा-
विदेश मंत्रालय की सलाहकार समिति में भारत के पक्ष और विपक्ष के नेता भारत की यूक्रेन-नीति के बारे में एक-दूसरे से सहमत दिखाई पड़े। ये बात दूसरी है कि भारतीय छात्रों को यूक्रेन से बाहर निकाल लाने के सवाल पर कुछ विरोधी नेता अब भी सरकार की खिंचाई कर रहे हैं। असलियत तो यह है कि चाहे शुरु में भारत सरकार ने थोड़ी लापरवाही दिखाई लेकिन अब हमारे चार-चार केंद्रीय मंत्री और दूतावासों के सारे कर्मचारी अपने छात्रों को सुरक्षित लौटाने में जुटे हुए हैं। यह संतोष का विषय है कि हमारे बहुत ज्यादा नौजवान हताहत नहीं हुए हैं। एक नौजवान की जो मृत्यु हुई, वह भी बहुत दुखद रही लेकिन हमारे कई नौजवान कुछ यूक्रेनी शहरों में अभी भी फंसे हुए हैं। कुछ परिचितों ने मुझे यह भी बताया कि यूक्रेन के पड़ौसी देशों में हमारे दूतावास के फोन तक नहीं उठते। लेकिन बहुत-से नौजवानों और उनके माता-पिता ने उनके सुरक्षित लौट आने पर बेहद प्रसन्नता प्रकट की है। भारत सरकार ने अपने छात्रों की वापसी पर तो काफी ध्यान दिया है।
यदि वह ध्यान नहीं देती तो भारत में उसे काफी बदनामी मोल लेनी पड़ती। उसने अपने प्रयत्नों का प्रचार भी जमकर किया है ताकि चुनाव के मौसम में उसका फायदा भी मिल सके। लेकिन जहां तक विदेश नीति का सवाल है, दुनिया के कई छोटे-मोटे देशों के मुकाबले भारत पिछड़ गया है। जब से यूक्रेन पर रूस का हमला हुआ है, फ्रांस और जर्मनी दोनों पक्षों से लगातार बात कर रहे हैं। तुर्की और इस्राइल जैसे छोटे-मोटे देश भी मध्यस्थता की कोशिश कर रहे हैं। इस्राइल के प्रधानमंत्री नफ्ताली बेनेट तो खुद मास्को पहुंच गए हैं। उन्होंने रूस और यूक्रेन के बीच मध्यस्थता की कोशिश भी की है। इसका कारण यह भी हो सकता है कि यूक्रेन के राष्ट्रपति व्लोदीमीर झेलेंस्की यहूदी हैं।
लेकिन सारा संसार जानता है कि इस्राइल तो अमेरिका का घनिष्टतम मित्र है और तुर्की नाटो का सदस्य है जबकि भारत न तो रूस से बंधा हुआ है और न ही अमेरिका से। दोनों से उसके रिश्ते बराबरी के हैं। वह दोनों से हथियार खरीदता है तो उसका मूल्य भी चुकाता है। वह किसी के भी दबाव में नहीं है। उसने अभी तक किसी का भी पक्ष नहीं लिया है। मान लिया कि हमारे प्रधानमंत्री अभी तक उत्तर प्रदेश आदि के चुनाव में व्यस्त और चिंतित थे लेकिन अब भी मौका है, जबकि वे सक्रियता दिखाएं तो यूक्रेन-संकट पर विराम लग सकता है। वरना इसका सबसे ज्यादा फायदा चीन उठाकर दुनिया की अत्यंत प्रभावशाली महाशक्ति बनकर उभरेगा, जो कि भारत का बड़ा सिरदर्द बन सकता है। (नया इंडिया की अनुमति से)
-डॉ. लखन चौधरी
इस सत्र की महाविद्यालयीन परीक्षाओं को भी ऑनलाईन करने की मांग पर सरकार की चुप्पी समझ से परे है। सरकार के इस कदम से जहां एक ओर होनहार विद्यार्थियों का हौसला पस्त हो रहा है, वहीं दूसरी ओर 'सब कुछ मुफ्त पाने वाले वोटरों' की तरह बिना परीक्षा दिये यानि बगैर मेहनत किये डिग्री पाने वाले विद्यार्थियों की एक फौज खड़ी हो रही है, जो शैक्षणिक संस्थानों के इर्दगिर्द रहकर माहौल खराब करने के काम में लगे रहते हैं।
छत्तीसगढ़ के विश्वविद्यालयों में ऑनलाईन परीक्षाओं के लिए छात्र संगठनों की लामबंदी एक बार फिर आरंभ हो गई है। इस बार ऑफलाईन परीक्षाएं समय पर आरंभ करने के लिए सारी तैयारियां पूरी हो चुकी हैं, लेकिन ऐन वक्त छात्र संगठनों के इस तरह के विरोध के चलते सारा मामला पेशोपेश में पड़ गया है। सरकार अनिर्णय की स्थिति में है, जिसके चलते इस सत्र की परीक्षाओं में अनावश्यक विलंब होता जा रहा है। जबकि अब कोरोना के मामले पूरी तरह खात्मे की ओर हैं।
जब 10वीं एवं 12वीं की स्कूली परीक्षाएं पूरी तरह ऑफलाईन मोड में अच्छी तरह चल रही हैं, ऐसे में महाविद्यालयों के लिए ऑनलाईन परीक्षाओं की मांग करना एवं इस पर सरकार की चुप्पी समझ से परे है। सरकार के इस तरह के निर्णयों से जहां एक ओर होनहार विद्यार्थियों का हौसला पस्त होता जा रहा है, वहीं दूसरी ओर 'सब कुछ मुफ्त पाने वाले वोटरों' की तरह बिना परीक्षा दिये यानि बगैर मेहनत किये डिग्री पाने वाले विद्यार्थियों की एक फौज खड़ी होती जा रही है, जो शैक्षणिक संस्थानों के इर्दगिर्द रहकर माहौल खराब करने के काम में लगे रहते हैं।
कोरोना संक्रमण की तीसरी लहर को बड़ी वजह मानकर छत्तीसगढ़ सहित तमाम सरकारें फरवरी महिने तक ऑनलाईन परीक्षाओं को बढ़ावा देती रहीं हैं। कभी चुनींदा विद्यार्थियों की मांग को लेकर, तो कभी कुछेक पालकों की मांग को लेकर सरकारें इसे गंभीर मसला न मानते हुए टालती रही हैं। कभी छात्र संगठनों की मांग को लेकर सरकारों ने परीक्षाओं को टालने में देरी नहीं की, जिसका नतीजा यह हो रहा है कि अब विद्यार्थियों का एक समूह तैयार हो गया है जो अभी भी ऑफलाईन परीक्षा देने के लिए तैयार नहीं हो रहा है।
अब जब तीसरी लहर भी खत्म हो चुकी है उसके बावजूद छात्र संगठनों का एक समूह ऑनलाईन परीक्षाओं के लिए अड़ा हुआ है, और जगह-जगह प्रदर्शन कर रहा है। ऑनलाईन परीक्षाओं की वजह से पिछले दो सालों में उच्चशिक्षित बेरोजगारों की बड़ी फौज खड़ी हो चुकी है। उच्चशिक्षित बेरोजगारों की यह फौज भविष्य में सरकार के लिए ही मुसीबत बनने वाली है। इस वक्त सरकारें कोई जोखिम ना लेते हुए सबको डिग्री बांटने का जो उपक्रम कर रहीं हैं, यह ना तो सरकारों के लिए सही है, और ना ही स्वयं विद्यार्थियों या युवाओं के लिए उचित है। इसके बावजूद कोरोना की आड़ में धड़ल्ले से डिग्री बांटने का काम चल रहा है।
उच्चशिक्षा में ऑनलाईन परीक्षाएं उन विद्यार्थियों के लिए वरदान साबित हो रहीं हैं, जिन्हें ज्ञान, अनुभव नहीं चाहिए; या कहा जाये कि इनकी तुलना में जिनके लिए डिग्रियां अधिक महत्व रखती हैं। सरकार के ऑनलाईन परीक्षाओं के इस निर्णय से बहुत से विद्यार्थी खुश एवं संतुष्ट हैं, लेकिन विद्यार्थियों का ही एक वर्ग है जो इस निर्णय से इत्तफाक नहीं रखता है। जो पढऩे-लिखने वाला समूह है, वह सरकार के इस निर्णय से बिल्कुल सहमत नहीं है। इसकी वजह यह है कि इस पद्धति से हासिल उपाधि या प्राप्त डिग्री कॅरियर अथवा जीवन के लिए कतई सहायक नहीं है, और ना ही रोजगार, स्वरोजगार के लिए मददगार है।
गलाकाट प्रतियोगिता के युग में ऑनलाईन पद्धति से हासिल डिग्री का क्या मोल या मतलब है ? एक-एक पदों की नौकरियों के लिए हजारों-हजार की तादाद में बेरोजगारों की फौज खड़ी है, ऐसे में डिग्रियों की कितनी कीमत है ? जहां सारी भर्तियां प्रतिस्पर्धी परीक्षाओं के माध्यम से होने लगीं हैं, वहां प्राप्तांकों की क्या कीमत है ?
इस पद्धति से जहां एक ओर समाज में बेतहाशा शिक्षित बेरोजगारी बढ़ रही है, वहीं दूसरी ओर उच्चशिक्षा की लगातार गिरती गुणवत्ता एवं गुणात्मकता दूसरा मसला है, जो इससे अधिक महत्वपूर्णं है। दरअसल में उच्चशिक्षा की महत्ता कॅरियर या रोजगार या स्वरोजगार के लिए जितनी महत्वपूर्णं होती है; उससे कहीं अधिक उपयोगी जीवन की समस्याओं एवं चुनौतियों के निपटने के लिए होती है। सरकारों को यह गंभीरता से सोचना चाहिए कि आखिरकार ऑनलाईन पद्धति से थोक में डिग्रियां बांटकर उच्चशिक्षित बेरोजगारों की बड़ी फौज खड़ी करने के अतिरिक्त सरकारें कर क्या रहीं है ? इस तरह की फौज खड़ी करके सरकारें किसका भला कर रही हैं ?
तात्पर्य यह है कि ऑनलाईन परीक्षाओं के लिए छात्र संगठनों की एक बार फिर लामबंदी जहां एक ओर गैर जरूरी है, वहीं दूसरी तरफ यह निरर्थक और अनुपयोगी भी है। सरकार को इस पर तत्काल निर्णय लेते हुए सारी परीक्षाओं को ऑफलाईन करने के लिए आदेश जारी करना चाहिए, जिससे समय पर परीक्षाएं पूरी हो सकें एवं अगला शिक्षण सत्र समय पर आरंभ हो सके।
आशुतोष भारद्वाज
मेरी अभी विनोद कुमार शुक्ल जी से लम्बी बात हुई। उन्होंने रॉयल्टी स्टेटमेंट और प्रकाशक के साथ हुए पत्र मुझे भेजे हैं। उनकी इच्छानुसार कुछ तथ्य सार्वजनिक रहा हूँ।
वाणी से उनकी तीन किताबें प्रकाशित हैं- दीवार में एक खिडक़ी रहती थी, अतिरिक्त नहीं, कविता चयन। दो किताबों के शायद ईबुक संस्करण भी हैं। मई 1996 से लेकर अगस्त 2021, यानी पच्चीस वर्षों में उन्हें वाणी से कुल 1 लाख पैंतीस हजार, अर्थात सालाना करीब पाँच हजार मिले। इसमें से एक किताब को साहित्य अकादमी सम्मान मिला है, बेहिसाब हिंदी लेखकों-पाठकों के घर यह किताब मिल जायेगी।
राजकमल से उनकी छह किताबें हैं- हरिदास की छप्पर वाली झोंपड़ी, नौकर की कमीज, सब कुछ होना बचा रहेगा, कविता से लम्बी कविता, प्रतिनिधि कवितायेँ, कभी के बाद अभी। (सातवीं हाल ही प्रकाशित हुई है।)
उनके अनुसार राजकमल ने उन्हें अप्रैल 2016 से मार्च 2020 तक, चार वर्षों में छह किताबों के करीब 67000 दिए हैं, यानी प्रतिवर्ष सत्रह हजार। पिछले कई वर्षों से रॉयल्टी स्टेटमेंट में कविता संग्रह ‘कभी के बाद अभी’ का जिक्र नहीं है।
(मुझे लगता था कि ‘नौकर की कमीज’ बहुत अधिक बिकी होगी, हर जगह दिखाई दे जाती है।)
लेकिन सबसे त्रासद यह कि वे छह वर्षों से प्रकाशक को लगातार लिख रहे हैं कि ‘मेरी किताब न छापें’, ‘मेरी अनुमति के बगैर नया संस्करण न छापें क्योंकि प्रूफ की कई गलतियाँ हैं’, ‘मेरा अनुबंध समाप्त कर दें।’ लेकिन कोई सुनवाई नहीं।
इन अति-सम्मानित बुजुर्ग लेखक की पीड़ा को समझने के लिए सितम्बर 2019 के इस खत को पढ़ें- ‘मैंने आपको स्पीड-पोस्ट तथा ईमेल भेजा था कि बिना मेरी अनुमति के नया संस्करण नहीं निकालें। इस संबंध में मैंने जब तब फोन से भी अनुरोध किया था, लेकिन आपने फिर नया संस्करण निकाल दिया। इसके पूर्व भी जितने संस्करण निकले हैं, उसकी पूर्व-सूचना मुझे कभी नहीं दी गयी। मैं इससे दुखी हूँ।’
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक का लिखा-
यूक्रेन की राजधानी कीव के गिरने में अब ज्यादा देर नहीं लगेगी। बस, एक-दो दिन की बात है। कीव पर कब्जा होते ही यूक्रेन के राष्ट्रपति झेलेंस्की भी अर्न्तध्यान हो जाएंगे। नाटो और अमेरिका अपना जबानी जमा-खर्च करते रह जाएंगे। नाटो के महासचिव ने तो साफ-साफ कह दिया है कि वे रूस के साथ युद्ध नहीं लडऩा चाहते हैं। फ्रांस और जर्मनी की भी बोलती बंद है। झेलेंस्की ने नाटो की नपुंसकता पर पहली बार मुंह खोला है। यह उनकी अपरिपक्वता ही है कि उन्होंने नाटो पर अंधविश्वास किया और उसके उकसावे में आकर रूसी हमला अपने पर करवा लिया।
अमेरिका ने रूस पर चार-पांच नए प्रतिबंध भी घोषित कर दिए हैं। अमेरिका और यूरोपीय देशों में चल रहे रूसी सेठों के करोड़ों डॉलरों के खातों को जब्त कर लिया गया है। जो बाइडन से कोई पूछे कि क्या इसके डर के मारे पूतिन अपना हमला रोक देंगे? क्या रूसी फौजें कीव के दरवाजे से वापस लौट जाएंगी? यूरोपीय संघ की सदस्यता के लिए भेजी गई झेलेंस्की की औपचारिक अर्जी को आए हुए तीन-चार दिन हो गए। अभी तक उस पर यूरोपीय संघ खर्राटे क्यों खींचे हुआ है?
यूरोपीय राष्ट्रों ने यूक्रेन के परमाणु संयंत्र पर रूसी हमले की खबर को बढ़ा-चढ़ाकर इतना फैलाया कि सारी दुनिया में सनसनी फैल गई लेकिन अभी तक कोई परमाणु प्रदूषण नहीं फैला। 1986 में चेर्नोबिल की तरह मौत की कोई लहर नहीं उठी। मास्को ने स्पष्ट किया कि नाटो ने यह झूठी खबर इसलिए फैला दी थी कि रूस को फिजूल बदनाम किया जाए। रूस ने झापोरीझजिया के परमाणु संयंत्र पर कब्जा जरुर कर लिया है।
यह असंभव नहीं कि वह यूक्रेन में बिजली की सप्लाय पर रोक लगाकर सारे देश में अंधेरा फैला दे। अफवाहें ये भी हैं कि झेलेंस्की अमेरिका राजदूतावास में जाकर छिप गए हैं। अंतरराष्ट्रीय मानव अधिकार परिषद में फिर से रूस की भर्त्सना का प्रस्ताव पारित हो गया है। भारत ने फिर परिवर्जन (एब्सटेन) किया है लेकिन सिर्फ तटस्थ रहना काफी नहीं है।
तटस्थ तो तुर्की भी है लेकिन वह मध्यस्थता की कोशिश भी कर रहा है। मध्यस्थता तो बहुत अच्छा बहाना भी है, अपनी तटस्थता को सही सिद्ध करने के लिए। यदि हम सिर्फ तटस्थ रहते हैं और साथ में निष्क्रिय भी रहते हैं तो यह तो घोर स्वार्थी और डरपोक राष्ट्र होने का प्रमाण-पत्र भी अपने आप बन जाएगा। भारत की कूटनीति में भव्यता और गरिमा का समावेश होना बहुत जरुरी है। (नया इंडिया की अनुमति से)
प्रवीर चंद्र भंजदेव : एक अभिशप्त नायक या आदिवासियों के देवपुरुष
-रमेश अनुपम
जस्टिस के. एल. पांडेय के समक्ष दिए गए बयान में एक शिक्षा शास्त्री का बयान अत्यंत महत्वपूर्ण है। शिक्षा शास्त्री के इस बयान को मैं ज्यों का त्यों यहां उद्धृत कर रहा हूं :
दिनांक 25. 3.1966 को लगभग 10.45 बजे दिन को जब मैं अपने निवास स्थान की बैठक में लिखा-पढ़ी का कार्य कर रहा था, मैंने सर्वप्रथम माइक्रोफोन से 144 धारा नगर में लागू होने की उद्घोषणा सुनी। फिर थोड़ी देर बाद धमाकों की आवाजें हुई और राजवाड़ा के दक्षिणी दरवाजे के पास हवा में टियर गैस शेल्स फूटते देखा। मैं दौड़ा-दौड़ा घर के पास के पेट्रोल पंप में फोन करने गया क्योंकि मुझे पुराने राजमहल के विद्यालयों के बच्चों और शिक्षकों के विषय में घोर चिंता हुई। पुराने राजमहल के फोन पर थोड़ी-थोड़ी देर में संपर्क स्थापित किया। फिर चिंता, भय, आकुलतावश राजबाड़े के पूर्वी दीवार के पास एक अर्धनिर्मित झोपड़ी पर चढक़र अंदर का हाल जानने हेतु देखने लगा। उस वक्त राजमहल के सामने के बगीचे में आदिवासियों और पुलिस में संघर्ष छिड़ा हुआ था। धमाकों की आवाजें हो रही थी और आदिवासी वृक्षों व झाडिय़ों की आड़ लेकर उत्तर की ओर पीछे हट रहे थे। कुछ भाग रहे थे। एक दो लोग तीर भी चला रहे थे। थोड़ी देर के बाद वहां से उतर कर मैं पुन: अपने घर, सामने की सडक़, पड़ोस की छत आदि से यथासंभव राजवाड़े के भीतर-बाहर की घटना का अवलोकन करने लगा। इस बीच राजमहल के पूर्वी और उत्तरी भू-भाग पर काफी पुलिस वालों का फैलाव हो रहा था। आदिवासी अब बाहर नहीं दिख रहे थे। फिर राजमहल के पिछले भू-भाग बगीचे की ओर टियर गैस शेल्स के फूटने की ध्वनियां हुई, धुवां दिखाई दिया।
राजवाड़ा के उत्तरी दरवाजे पर तीर से घायल सिपाही को बेदम होते, आदिवासी को पुलिस तथा एक ऑफिसर द्वारा बुरी तरह पिटते, भीतरी हिस्से में एक आदिवासी को दौड़ते और उसके पीछे गोली की आवाज भी मैने अधखुले दरवाजे से देखी सुनी। पुन: लगभग चार बजे के बाद राजमहल के ऊपरी छत पर कई पुलिस वाले दृष्टिगोचर हुए। फिर थोड़ी देर बाद काफी हल्ला-गुल्ला सुनाई दिया।
माइक से यह भी उद्घोषणा हुई कि महल के भीतर के आदिवासी आत्मसमर्पण कर दें। मुझे समीप की छत पर से यह दृष्टिगोचर हो रहा था कि कुछ आदिवासी नए राजमहल के सामने के एक दरवाजे से निकल कर बाहर आंगन में आ रहे थे और उन्हें बैठाकर, घेर कर काफी पुलिस वाले उन्हें लाठियों से अंधाधुंध मार रहे थे। कोई भी मार से बच कर भागने की कोशिश करता उसके पीछे कई-कई पुलिसवाले दौड़ते और मनमानी पीटते। एक दो भागते हुए आदिवासियों पर गोलियां भी चलाई गई। दृश्य बहुत ही कारुणिक था।
संध्या तक यह क्रम चलता रहा। रात्रि में भी रुक-रुक कर कई बार गोलियां चलने की आवाजें आती रहीं। एक गोली की बड़े जोरों की आवाज तडक़े सुबह भी आई।
प्रात:काल 26 . 3 . 1966 को माइक से उद्घोषणा के बाद शांतिपूर्ण ढंग से आदिवासियों का आत्मसमर्पण, उनकी गिरफ्तारियां, शाम को श्री प्रवीर चंद्र भंजदेव की शव यात्रा आदि मैंने देखी। शमशान घाट में स्वर्गीय प्रवीर चंद्र भंजदेव के चेहरे को काफी समीप से मैंने देखा। चेहरा विकृत हो गया था। उसमें खून के दाग थे।
अब जगदलपुर के एक प्रतिष्ठित डॉक्टर का बयान भी मैं यहां उद्धृत करना चाहूंगा, जो उन्होंने उस समय पांडेय कमीशन के समक्ष दिया था।
डॉक्टर द्वारा दिया गया यह बयान बेहद महत्वपूर्ण है और बस्तर गोलीकांड की सच्चाइयों से पर्दा उठाता है। यह बयान यहां उद्धृत किया जा रहा है ताकि पाठक सच और झूठ का विवेक सम्मत निर्णय स्वयं ले सकें-
यह कि मैं दिनांक 25.3. 1966 को लगभग 10.30 बजे व्यवहार न्यायालय आया था।
यह कि राजमहल का मुख्यद्वार जो घटनास्थल था, वह सत्र न्यायालय और व्यवहार न्यायालय से लगभग 100 गज की दूरी पर है।
यह कि ज्यों ही मैं व्यवहार न्यायालय की ओर जाता हुआ नगर पालिका कार्यालय के समक्ष से गुजरा त्योंहि मैंने एक आरक्षी जीप और मोटर को राजमहल के मुख्य द्वार के समक्ष खड़े होते देखा तथा उनमें से श्री मोहन सिंह इंस्पेक्टर, श्री सिंह ए.डी.एम. जगदलपुर तथा दो या तीन पुलिस इंस्पेक्टर और सशस्त्र सेना के कुछ बंदूकधारी व लाठीधारी जवानों को उतरते हुए मैंने देखा।
यह कि उतरने के पश्चात सशस्त्र पुलिस ने स्वयं को दो भागों में बांट कर मुख्य द्वार के दोनों ओर अपनी स्थिति बनाई।
यह कि उस समय 20 या 25 आदिवासी महिलाएं दंतेश्वरी मंदिर के समीपस्थ उद्यान के घेरे के पास खड़ी थी जो स्थान राजमहल क्षेत्र के अंतर्गत है। इसके उपरांत मैंने एक जीप को प्रसाद के मुख्य द्वार की ओर नगरपालिका न्यायालय के सामने वाले राजमार्ग से आते देखा। इस जीप द्वारा दंड प्रक्रिया संहिता की 144 धारा का उद्घोष किया जा रहा था। सशस्त्र पुलिस जिसने अपनी स्थिति मुख्य द्वार के दोनों ओर बना ली थी उसने अब मुख्य द्वार के भीतर प्रवेश किया और दंतेश्वरी मंदिर के समक्ष खड़ी हो गई।
यह कि उसी समय पुलिस के कुछ सिपाही उद्यान के घेरे के समीप स्थित आदिवासी महिलाओं के समीप गए। इससे आदिवासी महिलाएं राजप्रसाद की ओर भाग गईं।
यह कि कुछ क्षण पश्चात पुलिस के अधिकारी तथा सिपाही तीर-तीर चिल्लाते हुए मुख्य द्वार से बाहर निकले। तत्पश्चात पुलिस ने राजप्रसाद के भीतर मुख्य द्वार से अपनी बंदूकों के द्वारा दो या तीन फायर किए तथा अश्रु गैस छोडऩा प्रारंभ कर दिया।
यह कि उसके उपरांत पुलिस के आदमियों ने मुख्य द्वार के भीतर पुन: प्रवेश किया और तुरंत तीर-तीर चिल्लाते हुए बाहर निकल आए। उस समय तक कोई व्यक्ति घायल नहीं हुआ था।
(बाकी अगले हफ्ते)
-श्रवण गर्ग
‘विश्वगुरु’ भारत को अगर यह गलतफहमी हो गई थी कि ह्यूस्टन (टेक्सास, अमेरिका) की रैली में ‘भक्तों’ से ‘अब की बार ट्रम्प सरकार’ का नारा लगवा देने भर से रिपब्लिकन मित्र डॉनल्ड ट्रंप की अमेरिका में फिर से सरकार बन जाएगी; रूस और यूक्रेन दोनों से शांति की अपील कर देने भर से ही तानाशाह मित्र पुतिन अपनी सेनाएँ वापस बुला लेंगे; और उसके एक इशारे पर पोलैंड, रोमानिया, स्लोवाकिया और मोल्डोवा की सरकारें और वहाँ के नागरिक कीव आदि युद्धग्रस्त क्षेत्रों से अपनी जानें बचाकर पहुँचे हमारे हजारों छात्रों को आँखों में काजल की तरह रचा लेंगे तो वह अब पूरी तरह से समाप्त हो जाना चाहिए।
यूक्रेन के रेल्वे स्टेशनों, सडक़ों और पोलैंड की सीमाओं पर हमारे छात्रों को जिस तरह का व्यवहार झेलना पड़ रहा है वह इस बात का प्रमाण है कि सरकार में बैठे जिम्मेदार लोगों ने अपने स्व-आरोपित आत्मविश्वास के चलते हजारों बच्चों को कितनी गंभीर त्रासदी में धकेल दिया है । इन पंक्तियों के लिखे जाने तक यूक्रेन में अध्ययनरत दो छात्रों (एक कर्नाटक से और दूसरा पंजाब से) द्वारा रूसी सैन्य कार्रवाई में जानें गंवा देने के समाचार हैं।
सरकारी दावों के विपरीत यूक्रेन से बाहर निकलने के लिए संघर्षरत सभी सैकड़ों या हजारों बच्चों की कुशल-क्षेम के ईमानदार समाचार प्राप्त होना अभी भी बाक़ी हैं। हजारों बच्चे अभी भी वहाँ फँसे हुए बताए जाते हैं और उन्हें ज्ञान दिया जा रहा है कि युद्ध क्षेत्र के बंकरों में संकट का सामूहिक रूप से सामना कैसे करना चाहिए ! भारतीय छात्र-छात्राओं द्वारा युद्धग्रस्त यूक्रेन और उसकी पश्चिमी सीमाओं से लगे पड़ोसी देशों में भुगती गईं/जा रहीं यातनाओं को ठीक से समझने के लिए इस घटनाक्रम को भी जानना जरूरी है।
काबुल से अपने सभी नागरिकों और समर्थकों को वक्त रहते सुरक्षित निकाल पाने की कोशिशों में दूध से जले राष्ट्रपति बाइडन ने दस फरवरी (तारीख़ ध्यान में रखें)को ही यूक्रेन में रह रहे सभी अमरीकियों के लिए चेतावनी जारी कर दी थी कि वे रूसी आक्रमण की आशंका वाले देश को तुरंत ही छोड़ दें। उन्होंने चेतावनी में यह भी कहा कि रूसी हमले की स्थिति में उनका प्रशासन नागरिकों को बाहर नहीं निकाल पाएगा।अमेरिका ही नहीं, ब्रिटेन, जर्मनी, आस्ट्रेलिया, इटली, इजऱाइल, जापान सहित कोई दर्जन भर देशों ने भी अपने नागरिकों, राजनयिक स्टाफ और उनके परिवारजनों को यूक्रेन तुरंत ही खाली करने को कह दिया था। सिर्फ हमारी ही दिल्ली स्थित सरकार और कीव स्थित भारतीय दूतावास बैठे रहे।
भारतीय नागरिकों के हितों की रक्षा के लिए जवाबदेह हमारे दूतावास ने क्या किया? उसने पंद्रह फऱवरी (तारीख पर ध्यान दें) यानी बाइडन की अपने नागरिकों को दी गई चेतावनी के पाँच दिन बाद भारतीय छात्रों को ‘सलाह’ दी कि-’ मौजूदा अनिश्चित स्थिति को देखते हुए, भारतीय नागरिक, विशेषकर छात्र जिनका कि वहाँ रहना जरूरी नहीं है, यूक्रेन को अस्थाई तौर पर छोडऩे पर विचार कर सकते हैं।’ वहाँ निवास कर रहे भारतीय मूल के नागरिकों को यह सलाह भी दी गई कि यूक्रेन के भीतर भी उन्हें गैर-जरूरी यात्राएँ नहीं करना चाहिए। उक्त सलाहें भी इन आशंकाओं के बीच जारी कीं गईं कि रूसी हमला किसी भी समय हो सकता है।
भारतीय दूतावास द्वारा ‘सलाहपत्र’ जारी किए जाने के वक्त तक लगभग सभी देशों की विमान सेवाओं ने यूक्रेन से अपनी उड़ानें बंद कर दीं थीं। जो एक-दो बचीं भी थीं उनमें भी सीटें नहीं मिल रहीं थीं और किराए दो गुना से ज़्यादा हो गए थे। एक छात्र ने तब टिप्पणी की थी कि दूतावास ने सूचना इतने विलम्ब से जारी की है कि वे यूक्रेन छोड़ ही नहीं सकते। रूसी सेनाओं की बमबारी के बीच छात्रों से जो कहा जा रहा था उसका अर्थ यह था कि वे हजार-पंद्रह सौ किलो मीटर की यात्रा किसी भी साधन से पूरी करके पड़ोसी देशों में पहुँचें।
यूक्रेन के घटनाक्रम पर विचार करते समय स्मरण किया जा सकता है कि जिन तारीखों में छात्र अपनी जानें बचाने के लिए संघर्ष कर रहे थे, उन तारीखों (मतदान के चरणों) में सरकार और सत्ताधारी पार्टी के बड़े नेता यूपी में सरकार बचाने के लिए संघर्ष कर रहे थे। यूक्रेन पर जब 24 फऱवरी को तीन तरफ़ से आक्रमण हो ही गया तब केंद्र सरकार पूरी तरह से हरकत में आई पर तब तक देश की अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा और नागरिकों के आत्म-विश्वास को जो चोट पहुँचना थी, पहुँच चुकी थी। भारतीय छात्रों के दर्द को सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर शेयर की जा रही व्यथाओं में पढ़ा जा सकता है।
यूक्रेन से अपने नागरिकों को समस्त संसाधनों का उपयोग करके सुरक्षित तरीके से समय रहते निकाल लेने में उसी तरह की लापरवाही बरती गई जैसी कि तालिबानी हमले के समय काबुल से या उसके भी पहले कोरोना के पहले विस्फोट के तुरंत बाद वुहान (चीन) से भारतीयों को निकालने के दौरान देखी गई थी।वुहान में रहने वाले भारतीयों द्वारा अपने अपार्टमेंट्स से मदद के लिए जारी की गई वीडियो अपीलों और यूक्रेन के छात्रों के वीडियो सम्बोधनों में एक जैसी पीड़ाएँ तलाशी जा सकती हैं। याद दिलाने की जरूरत नहीं कि 1990 में वी पी सिंह की राजनीतिक रूप से कमजोर और आर्थिक तौर पर लगभग दीवालिया सरकार ने भी किस तरह से युद्धरत देशों कुवैत और इराक़ से एक लाख सत्तर हज़ार भारतीयों को सफलतापूर्वक बाहर निकाल लिया था।
जिस समय हमारे हज़ारों बच्चे यूक्रेन की कठिन परिस्थितियों से संघर्ष करते हुए घरों को लौटने की जद्दोजहद में लगे हैं , हमारी आँखों के सामने उन लाखों प्रवासी मजदूरों ,नागरिकों और बच्चों के चेहरे तैर रहे हैं जिन्होंने बिना किसी तैयारी और पूर्व सूचना के थोपे गए लॉकडाउन में सडक़ों पर भूखे-प्यासे सैकड़ों किलोमीटर पैदल यात्राएँ कीं थीं ।
पंचवटी’, ‘यशोधरा’ और ‘साकेत’ जैसी अद्वितीय रचनाओं के शिल्पकार और ‘भारत भारती’ जैसी प्रसिद्ध काव्यकृति के रचनाकार मैथिलीशरण गुप्त ने वर्ष 1912-13 में जो सवाल किया था वह आज भी जस का तस कायम है-’ हम कौन थे क्या हो गये हैं और क्या होंगे अभी!’ अंग्रेजी अखबार ‘द टेलिग्राफ’ ने यूक्रेन के कारण भारत पर आई मुसीबत से सम्बंधित एक खबर का शीर्षक यूँ दिया है;’ आपदा में अवसर उलटा पड़ गया।’
-ध्रुव गुप्त
आज मीडिया पर एक सनसनीखेज खबर देखी कि रूस-यूक्रेन युद्ध के बीच रूस की साइबर सेना दुनिया के कई देशों की सरकारों के वेबसाइट और सबसे शक्तिशाली लोगों के सोशल मीडिया एकाउंट्स हैक कर रही है। सरकारों की चिंता सरकारें करें, मुझे अपने सहित देश के असंख्य कवियों-कवयित्रियों की चिंता हुई। बचपन से सुनता रहा हूं कि हम कवि लोग ही दुनिया के सबसे शक्तिशाली लोग होते हैं जो अपनी कविताओं से जब चाहे दुनिया बदल सकते हैं। रात इसी चिंता में डूबे-डूबे नींद आई ही थी कि सूट-बूट में पुतिन महोदय हाजिर हो गए। चेहरे पर वही आत्मविश्वास और चाल-ढाल में वही दंभ। उन्होंने पूछा-'आपने मुझे याद किया। कहिए, मैं क्या मदद कर सकता हूं आपकी?'
मैंने उनके सामने अपनी और अपने कवि मित्रों की निजता पर हमले संबंधी अपनी चिंताओं से उन्हें अवगत कराया और हाथ जोड़कर उनके लिए अभयदान की मांग की। उनका जवाब था- आपके कवियों ने लोगों का जीना दूभर कर रखा है। जब भी फेसबुक खोलता हूं, एक साथ आप सबकी सैकड़ों कविताएं सर पर हथौड़ों की तरह बजती हैं। कभी-कभी अवसाद में भी चला जाता हूं। दरअसल बम मैं आप कवि लोगों पर ही गिराना चाहता था, लेकिन मोदी जी से मेरे मित्रतापूर्ण संबंधों ने मुझे रोक लिया। दुर्भाग्य से मेरे गुस्से के शिकार यूक्रेन के लोग हो गए। लेकिन मैं आप हिंदुस्तानी कवियों को माफ कर दे सकता हूं बशर्ते आप मेरी एक मदद करें।'
मैंने उत्साहित होकर कहा- 'आदेश करें, कामरेड?' पुतिन ने कहा- 'यूक्रेन के साथ लंबे खिंचते युद्ध में मेरे सैनिक थकने लगे हैं। आगे लड़ाकों की भारी किल्लत हो सकती है। आप हमारे पक्ष में लडऩे के लिए अपने देश के कुछ वीर कवियों के नाम सुझा सकते हैं?' मेरे लिए आपदा को अवसर में बदलने का मौका था। मैंने अपनी मित्र-सूची से वीर रस के युद्धोन्मत सौ राष्ट्रवादी कवियों और सौ क्रांतिकारी वामपंथी कवियों की सूची उन्हें सौंपते हुए कहा-'हुज़ूर, आप इन्हें उठवा लें। युद्ध में अपनी कविताएं सुना-सुनाकर ये आपके तमाम दुश्मनों को आत्महत्या को मजबूर कर दे सकते हैं।ज् उन्होंने इन बीर-बांकुरे कवियों की फीस पूछी तो मैंने कहा- 'इन्हें बदले में आपसे कुछ नहीं चाहिए। बस उनका एक-एक कविता संग्रह प्रकाशित करवा दें। यहां के प्रकाशक एक-एक किताब के लिए पच्चीस से पचास हजार रुपयों तक मांग रहे हैं।'
पुतिन ने हामी भरी और सहयोग के लिए मुझे थैंक्स कहकर मुड़े ही थे कि मैंने पूछ लिया- 'हुज़ूर, एक आखिरी अनुरोध। हम फेसबुकिया कवि बहुत गरीब लोग हैं। दिन-रात मेहनत कर फेसबुक को समृद्ध कर रहे हैं, मगर वह अमरीकी जुकरबर्ग हमें फूटी कौड़ी भी नहीं देता। कभी किसी साहित्यिक पत्रिका या अखबार में कविता छप भी जाय तो कुछ हाथ नहीं लगता। उल्टे संपादकों को ही धन्यवाद देना पड़ता है। आप चाहें तो हमारे लिए कुछ कर सकते हैं।' उन्होंने सवालिया निगाहों से मुझे देखा तो मैंने सकुचाते हुए कहा-'मुझे पता है कि आपके और आपके खरबपति मित्रों की दुनिया भर के बैंकों में जमा अवैध कमाई की अथाह रकम नाटो देशों ने जब्त कर ली हैं। आप कहें तो अपनी कविताएं सुनाने की धमकी देकर नाटो देशों के राष्ट्रध्यक्षों को हम उस रकम को मुक्त करने के लिए मजबूर कर दे सकते हैं। हम ऐसा कर सकें तो क्या आप उस रकम में से एक-एक लाख हम भारतीय कवियों को...।' मेरा इतना कहना था कि पुतिन ने अपनी अटैची से एक छोटा-सा एटम बम निकाला और मुझ पर छोड़ दिया। अच्छी बात यह हुई कि बम विस्फोट के ठीक पहले मुहल्ले से गुजरने वाली नगर निगम की गाड़ी के इस गीत से मेरी आंखें खुल गई-गाड़ीवाला आया, घर से कचरा निकाल!
-सुदीप ठाकुर
भाजपा के वरिष्ठ नेता अमित शाह ने जब जनवरी के आखिरी हफ्ते में राष्ट्रीय लोकदल और सपा के गठबंधन की घोषणा के बाद यह कहा था कि जयंत चौधरी गलत घर में चले गए, तब उनके इस बयान को चुनावी पैंतरे की तरह ही देखा गया था। जयंत चौधरी ने भी अमित शाह के बयान को तुरंत खारिज कर दिया था और कहा था कि यह मतदाताओं को भ्रम में डालने की कोशिश है। उसके बाद भी दोनों के बीच बयानबाजी होती रही। हाल ही में अमित शाह के एक और बयान ने ध्यान खींचा, जब उन्होंने कहा कि मायावती ने अपनी प्रासंगिकता नहीं खोई है और बसपा को अनेक सीटों पर मुस्लिम भी वोट करेंगे।
अमित शाह लगातार यह दावा भी कर रहे हैं कि उत्तर प्रदेश में योगी सरकार दोबारा सत्ता में आएगी। मगर उनके ये दो बयान उन संभावनाओं की ओर भी इशारा करते हैं, जो शायद दस मार्च के बाद के परिदृश्य में नजर आएं।
जिन पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव हो रहे हैं, उनमें उत्तर प्रदेश पर सबकी नजर है। बृहस्पतिवार को उत्तर प्रदेश में छठे चरण के चुनाव के बाद एक और चरण रह गया है। उत्तर प्रदेश आबादी और विधानसभा क्षेत्र के लिहाज से देश का सबसे बड़ा सूबा है, मगर इतनी लंबी चुनाव प्रक्रिया केंद्रीय चुनाव आयोग की क्षमता पर सवाल खड़ा करती है। वैसे चुनाव आयोग पर अलग से लिखे जाने की जरूरत है।
उत्तर प्रदेश में सात चरणों में फैली चुनाव प्रक्रिया ने नतीजों को लेकर लगाए जा रहे चुनावी पंडितों और विश्लेषकों के गणित को भी गड़बड़ा दिया है। असल में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के पहले चरण से लेकर पूर्वांचल के सातवें चरण के आते-आते गंगा, यमुना, गोमती, सरयू, गंडक, केन और बेतवा में काफी पानी बह चुका है!
चुनाव भारतीय लोकतंत्र का यदि सबसे पसंदीदा शगल है, तो उसके नतीजों की अटकलें दिलचस्प बाजी। शायद यही ठीक समय है, जब हम उत्तर प्रदेश के संभावित नतीजों पर बात कर सकते हैं। सात मार्च को अंतिम चरण के बाद खबरिया चैनलों में एक्जिट पोल आ ही जाएगा।
अव्वल तो यह कि उत्तर प्रदेश का यह चुनाव 2017 से इस मायने में अलग है, कि भाजपा ने स्पष्ट तौर पर योगी आदित्यनाथ के चेहरे पर चुनाव लड़ा है। 2017 में वह चुनाव जीतने के बाद परिदृश्य में आए थे। जाहिर है, इस बार सबसे बड़ा दांव उनका है। हालांकि उनके साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह और भाजपा तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पूरी मशीनरी लगी रही है।
अब आइये जरा संभावित नतीजों पर बात करते हैं। यदि भाजपा गठबंधन को पूर्ण बहुमत मिल जाता है, तो राज्यपाल के लिए कोई मुश्किल नहीं होगी और योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री बने रहेंगे। यदि सपा और रालोद के गठबंधन को पूर्ण बहुमत मिल जाता है, तो इसमें कोई शक नहीं है कि अखिलेश यादव मुख्यमंत्री बन जाएंगे, भले ही मंत्रिमंडल के अन्य सदस्यों के लिए खींचतान हो।
मगर विधानसभा में किसी भी दल या गठबंधन को बहुमत नहीं मिला, तब क्या होगा? राज्यपाल आनंदीबेन पटेल किसे आमंत्रित करेंगी?
आगे बढऩे से पहले नवंबर 2019 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव पर गौर किया जा सकता है। वहां 288 सदस्यीय विधानसभा में भाजपा 105 सीटों के साथ सबसे बड़े दल के रूप में उभरी थी। शिवसेना को 56, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी को 54 और कांग्रेस को 44 सीटें मिली थीं।
राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी ने 23 नवंबर, 2019 को नाटकीय तरीके से भाजपा के देवेंद्र फडणवीस को रातों-रात मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला तो दी, लेकिन कुछ घंटे के भीतर ही एनसीपी के उपमुख्यमंत्री अजित पवार ने पाला बदल लिया। तीन दिन के भीतर 26 नवंबर को सरकार गिर गई। उसी दिन शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस ने महाराष्ट्र विकास अघाड़ी का गठन कर लिया और उद्धव ठाकरे को अपना नेता चुन लिया। इस तरह पिछले ढाई साल से उद्धव ठाकरे महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री हैं।
उत्तर प्रदेश के सियासी समीकरण महाराष्ट्र से कम जटिल नहीं हैं। राज्यपाल आनंदीबेन पटेल संभावित नतीजों के आधार पर विधायी स्थितियों का आकलन कर ही रही होंगी। फिर भी, यह देखना दिलचस्प होगा कि यदि किसी भी गठबंधन को बहुमत नहीं मिला तब क्या होगा?
मोटे तौर पर इस तरह की कुछ तस्वीर उभर सकती है:
1. किसी भी गठबंधन को बहुमत नहीं, लेकिन भाजपा सबसे बड़ा दल।
2. किसी भी गठबंधन को बहुमत नहीं, लेकिन भाजपा गठबंधन को सर्वाधिक सीटें।
3. किसी भी गठबंधन को बहुमत नहीं, लेकिन सपा गठबंधन को सर्वाधिक सीटें।
4. किसी गठबंधन को बहुमत नहीं, लेकिन सपा सबसे बड़ी पार्टी
5. किसी गठबंधन को बहुमत नहीं, लेकिन सपा गठबंधन को कांग्रेस के साथ बहुमत
6. किसी को गठबंधन को बहुमत नहीं, लेकिन भाजपा गठबंधन को बसपा के साथ बहुमत
यदि हम गणित के प्रेम्यूटेशन एंड कॉमिनेशन के आधार पर गणना करें, तो और भी विकल्प उभर सकते हैं। मसलन बसपा यदि सबसे बड़े दल के रूप में उभरी तब? आखिर डेढ़ दशक पहले बसपा ने अपने दम पर उत्तर प्रदेश में बहुमत हासिल किया था। बेशक, संपूर्णानंद लगातार पांच साल 344 दिनों तक अविभाजित उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे थे, मगर लगातार दो कार्यकाल (28 दिसंबर, 1954 से 9 अप्रैल 1957 और फिर 10 अप्रैल, 1957 से छह दिसंबर, 1960 तक) के रूप में। मगर मायावती पांच साल का कार्यकाल पूरा करने वाली सूबे की पहली मुख्यमंत्री बनी थीं।
उत्तर प्रदेश के सियासी समीकरणों को समझने के लिए यह भी देख लें कि आखिर इस चुनाव में कौन से प्रमुख दल और गठबंधन मैदान में हैं: भाजपा गठबंधन में भाजपा, निषाद पार्टी, अपना दल (सोनेलाल) शामिल हैं। सपा गठबंधन में सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी, अपना दल (कमेरावादी), महान दल, राष्ट्रीय लोकदल शामिल हैं। इन दो बड़े गठबंधनों के अलावा बसपा, कांग्रेस और असदुद्दीन ओवैसी की एआईएमएम भी मैदान में है।
विधानसभा चुनाव में किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत न मिलने की स्थिति में सांविधानिक प्रावधानों और राज्यपाल की भूमिका पर गौर करने से पहले चार साल पहले 2018 के कर्नाटक विधानसभा चुनाव पर भी नजर डाली जा सकती है।
कर्नाटक में किसी को बहुमत नहीं मिला था। 104 सीटों के साथ भाजपा सबसे बड़ी पार्टी थी। कांग्रेस की अगुआई वाले यूपीए को 80 सीटें मिली थीं और जनता दल (एस) को 37। यूपीए और जनता दल (एस) की सीटें मिला दी जाएं तो उन्हें बहुमत हासिल था। मगर उनके दावे को तरजीह न देकर राज्यपाल वजूभाई वाला ने भाजपा के नेता येदियुरप्पा को 17 मई, 2018 को शपथ दिला दी और बहुमत साबित करने के लिए 15 दिन का समय दे दिया।
नाटकीय घटनाक्रम में मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया और देर रात चली सुनवाई के बाद येदियुरप्पा मुख्यमंत्री तो बने रहे, लेकिन छह दिन बाद 23 मई, 2018 को बहुमत न जुटा पाने के कारण उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। उनके हटने के बाद कांग्रेस के समर्थन से जनता जल (एस) के कुमारस्वामी मुख्यमंत्री बन गए।
कांग्रेस के विधायकों का एक धड़ा निकलने के बाद वहां फिर से भाजपा की सरकार बन गई, यह एक अलग कहानी है।
महाराष्ट्र हो या कर्नाटक, या ऐसे किसी राज्य में जहां विधानसभा चुनाव में किसी दल को बहुमत न मिला हो, सरकारिया कमीशन की सिफारिश पर भी गौर किया गया है। 1983 में पेश की गई अपनी रिपोर्ट में सरकारिया आयोग ने केंद्र राज्य संबंधों के साथ ही राज्यपाल की भूमिका को परिभाषित किया है।
इसके मुताबिक यदि किसी दल को विधानसभा चुनाव में बहुमत न मिले तो राज्यपाल निम्न तरह से किसी दल या गठबंधन को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित कर सकते हैं-
1. चुनाव पूर्व सबसे बड़े गठबंधन को यदि उसके पास बहुमत हो।
2. निर्दलीय सहित अन्य दलों के समर्थन से सरकार बनाने का दावा पेश करने पर सबसे बड़े दल को।
3. चुनाव बाद बने गठबंधन को, यदि सारे सहयोगी गठबंधन सरकार में शामिल हो रहे हों।
4. चुनाव बाद बने गठबंधन को जिसमें कुछ सहयोगी तो सरकार में शामिल हो रहे हों और बाकी उसे बाहर से समर्थन देने को तैयार हों।
वैसे जस्टिस मदन मोहन पुंछी की अगुआई वाले पुंछी आयोग ने भी 2010 में सौंपी गई अपनी रिपोर्ट में चुनाव के बाद राज्यपाल की भूमिका पर गौर किया। उनकी सिफारिशें भी सरकारिया आयोग की सिफारिश से मिलती-जुलती हैं।
बुनियादी बात यह है कि चुनाव के नतीजे आने के बाद राज्यपाल आश्वस्त हों कि किसी भी दल या बहुमत का जो दावा किया जा रहा है, उसे सदन में साबित किया जा सकेगा। यहीं पेंच फंसा हुआ है, क्योंकि एक बार सरकार बनाने के बाद समर्थन जुटाने के लिए जोड़तोड़ शुरू हो जाती है। गुडग़ांव से लेकर गुजरात और बेंगलुरु से लेकर देहरादून तक के सितारा होटल और रिसॉर्ट विधायकों की मेजबानी के लिए तैयार हो जाते हैं।
क्या उत्तर प्रदेश के भावी विधायकों को ऐसी पांच सितारा मेहमाननवाजी का मौका मिलेगा? इसका जवाब जानने के लिए दस मार्च तक इंतजार कीजिए।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक का लिखा-
यूक्रेन से भारत के छात्रों की वापसी हो रही है, यह संतोष का विषय है लेकिन वहां चल रहा युद्ध बंद नहीं हो रहा है, यह अफसोस की बात है। एक रूसी गुप्त दस्तावेज के अचानक प्रगट हो जाने से पता चला है कि रूस का युद्ध 15 दिन तक चलने वाला है। यदि यह अगले 6-7 दिन और चल गया तो यूक्रेन के अन्य शहर भी तबाह हो जाएंगे। रूस की सीमा से लगे कुछ शहरों पर तो रूसी फौजों का कब्जा हो चुका है। वहां के नागरिक बिजली-पानी, दवा-दारू और खाने-पीने के मोहताज हो रहे हैं। कई बड़े-बड़े भवन हवाई हमलों में ध्वस्त हो चुके हैं। दस लाख से ज्यादा लोग भागकर पड़ौसी देशों में शरणागत हो गए हैं।
भारत के तीन-हजार छात्र अभी भी कुछ शहरों में फंसे हुए हैं। उन्हें यह चिंता भी है कि भारत लौटने पर उनकी मेडिकल की पढ़ाई का क्या होगा? जो पैसे उनके माता-पिता ने उनकी पढ़ाई पर यूक्रेन में अब तक खर्च किए हैं, वे क्या डूबतखाते में चले जाएंगे? भारत में उनकी मेडिकल पढ़ाई का भारी खर्च कौन उठाएगा? भारत सरकार उनकी इस समस्या का भी हल निकालने में जुटी हुई है। प्रधानमंत्री मोदी ने मेडिकल की पढ़ाई हिंदी में शुरु करने की बात भी कही है।
इस कुप्रचार का खंडन रूस और यूक्रेन दोनों ने किया है कि दोनों देशों की सेनाएं भारतीय छात्रों को अपना कवच बना रही हैं। यूक्रेन के राष्ट्रपति झेलेंस्की पूरा खतरा डटकर झेल रहे हैं। वे डटे हुए हैं। झुक नहीं रहे हैं। वाग्बाण भी छोड़ रहे हैं। ऐसा लगता है कि रूस उन्हें या तो गिरफ्तार कर लेगा या मार डालेगा। यूक्रेन को नाटो देश काफी आक्रामक प्रक्षेपास्त्र भी दे रहे हैं लेकिन उन्होंने यूक्रेन को अपने हाल पर छोड़ दिया है।
अमेरिकी सीनेट में उसके कुछ सदस्य भारत के पक्ष में और कुछ विपक्ष में भी बोल रहे हैं। चौगुटे (क्वाड) की बैठक में भी भारत अपने रवैए पर कायम रहा। ऐसा लगता है कि भारत की तटस्थता को रूस और अमेरिका, दोनों ठीक से समझ रहे हैं। कोई तटस्थ राष्ट्र ही अच्छा मध्यस्थ बन सकता है।
हमारी सरकार अपने छात्रों को लौटा लाने का तो अच्छा प्रयत्न कर रही है लेकिन इस अवसर पर देश के पक्ष या विपक्ष में कोई अनुभवी और बुद्धिमान नेता होता तो भारत की भूमिका अद्वितीय हो सकती थी। यह सुखद संयोग है कि यूक्रेन के मसले पर भारत के पक्ष और विपक्ष में सर्वसम्मति है। यूक्रेन-संकट के बाद विश्व राजनीति जो शक्ल लेगी, उसमें भारत की भूमिका क्या होगी, इसकी चिंता हमें अभी से करनी होगी। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक का लिखा-
भारत सरकार के उड्डयन मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया और उनके साथ तीन मंत्री जिस तरह हजारों छात्रों को यूक्रेन से सुरक्षित वापिस ला रहे हैं, वह अत्यंत सराहनीय है लेकिन दुर्भाग्य है कि यूक्रेन पर रूसी हमला लंबा खिंचता चला जा रहा है। उसे बंद करवाने की ठोस पहल कोई भी राष्ट्र नहीं कर रहा है। अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडन अपने भाषणों में पूतिन की निंदा कर रहे हैं लेकिन वे यह भूल रहे हैं कि इस हमले को उकसाने का असली जिम्मेदार अमेरिका ही है। यदि वह यूक्रेन को नाटो में शामिल करने के लिए नहीं उकसाता तो इस रूसी हमले की नौबत ही नहीं आती।
यूक्रेनी राष्ट्रपति झेलेंस्की की औपचारिक अर्जी के बावजूद यूरोपीय संघ अभी तक मौन है। वह उसे अपना सदस्य बनाकर उसकी रक्षा के लिए अपनी फौज क्यों नहीं भेज रहा है? अब संयुक्तराष्ट्र महासभा ने भी 141 वोटों से रूस की भर्त्सना कर दी है। लेकिन यह भर्त्सना निरर्थक है। क्या इससे रूस सहम गया है? हमला तो जारी है। यहां आश्चर्य की बात यही है कि इस मतदान में चीन, भारत और पाकिस्तान— तीनों ने अपना वोट नहीं दिया। तीनों ने परिवर्जन (एब्सटैन) किया।
याने तीनों राष्ट्र अपने-अपने राष्ट्रहित की सुरक्षा में लगे हुए हैं। तीनों रूस और अमेरिका में से किसी का भी गुस्सा मोल लेना नहीं चाहते। जैसा कि मैंने हफ्ते भर पहले लिखा था, रूस शायद तब तक चैन से नहीं बैठेगा, जब तक वह यूक्रेन में अपनी कठपुतली सरकार कायम नहीं करवा देगा। बेलारूस में यूक्रेन और रूस का पहला संवाद अधूरा रह गया था, अब दूसरा संवाद आज शुरु होगा। ऐसी स्थिति में रूस यह मांग भी रख रहा है कि यूक्रेन में फलां-फलां अस्त्र नाटो तैनात न करे।
यह तो सबको पता है कि यूक्रेन में चेर्नोबिल का प्रसिद्ध परमाणु-केंद्र था लेकिन रूस ने यूक्रेन को परमाणुमुक्त करवा लिया था। अगर यूक्रेन के पास आज परमाणु शस्त्रास्त्र होते तो क्या पूतिन की उस पर हमला करने की हिम्मत पड़ती? इस समय पश्चिमी राष्ट्रों का कर्तव्य है कि पूतिन की मांगों पर गंभीरतापूर्वक विचार करें और रूस को आश्वस्त करें कि वे यूक्रेन को अपना मोहरा नहीं बनाएंगे।
यदि वे ऐसा करें तो यह विनाशकारी युद्ध तत्काल बंद हो सकता है। भारत अपने छात्रों को निकाल लाने का उद्यम जिस लगन के साथ कर रहा है, वही लगन वह इस हमले को रुकवाने में दिखाए तो उसके परिणाम चमत्कारी हो सकते हैं। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक का लिखा-
यूक्रेन में चल रहे युद्ध पर भारतीय लोगों की नजरें शुरु से गड़ी रही हैं लेकिन एक भारतीय छात्र की मौत ने देश के प्रचारतंत्र को हिलाकर रख दिया है। भारत सरकार की तरह भारत की जनता भी अब तक बिल्कुल तटस्थ थी। वह रूस और यूक्रेन के इस युद्ध को एक तटस्थ दर्शक की तरह देख रही थी लेकिन कर्नाटक के छात्र नवीन की हत्या रूसी गोली से हुई है, इस खबर ने सारे देश में रोष पैदा कर दिया है। लोगों ने यूक्रेन-युद्ध को अब अपनी आखें तरेरकर देखना शुरु कर दिया है। भारत से रूस के एतिहासिक गहन संबंधों के बावजूद अब लोगों ने रूसी हमले की आलोचना शुरु कर दी है। सरकार को तो अपने राष्ट्रहितों की चिंता करनी है लेकिन आम लोग किसी भी मुद्दे पर अपना दृष्टिकोण शुद्ध नैतिक आधार पर बना सकते हैं। लोग यह सवाल पूछ रहे हैं कि यूक्रेन-जैसे सार्वभौम और स्वतंत्र राष्ट्र पर इस तरह का हमला करने का अधिकार रूस को किसने दिया?
यह अंतरराष्ट्रीय कानून का उल्लंघन है। इससे भी ज्यादा, भारत के लाखों लोग इस बात से खफा हैं कि उनके हजारों नौजवान यूक्रेन के विभिन्न शहरों में अपनी जान नहीं बचा पा रहे हैं। यह तो एक छात्र को गोली लगी है तो यह खबर सार्वजनिक हो गई लेकिन जो छात्र बंकरों में छिपकर अपनी जान बचा रहे हैं, उनको पेटभर रोटी और पीने को पानी तक नसीब नहीं है, उनका क्या होगा? पता नहीं, हमारे कितने छात्र भूख से मर जाएंगे, कितने यूक्रेन की सीमा पैदल पार करते हुए कुरबान हो जाएंगे और कितने ही रूसी बमों और गोलियों के शिकार होंगे। हमारे सैकड़ों छात्रों के फोटो भी प्रसारित हुए हैं, जो यूक्रेन की भयंकर ठंड में मौत के कगार पर पहुंच रहे हैं। हमारी सरकार इन छात्रों की सुरक्षा की जी-तोड़ व्यवस्था कर रही है लेकिन यदि वह सतर्क होती तो यह पहल वह दो हफ्ते पहले ही कर डालती। मुझे खुशी है कि तीन-चार दिन पहले मैंने वायु सेना के इस्तेमाल का जो सुझाव दिया था, उस पर सरकार ने अब अमल शुरु कर दिया है।
अब संयुक्तराष्ट्र महासभा और मानव अधिकार परिषद में भी वह क्या मौन धारण किए रहेगी? उसने फिलहाल, यह अच्छा किया है कि वह यूक्रेन को सीधी सहायता पहुंचा रही है जैसी कि उसने तालिबानी अफगानिस्तान को पहुंचाई थी। रूस और यूक्रेन या रूस और नाटो के बीच उसकी तटस्थता पूर्णरूपेण राष्ट्रहितसम्मत और तर्कसम्मत है लेकिन यही गुण उसे सर्वश्रेष्ठ मध्यस्थ बनने की योग्यता प्रदान करता है। वह रूस और अमेरिका, दोनों को अब भी समझा सकता है कि वे इस युद्ध को बंद करवाएं। यदि यह युद्ध लंबा खिंच गया तो रूस और यूक्रेन की बर्बादी तो हो ही जाएगी, जो बाइडन और पूतिन की प्रतिष्ठा भी पैंदे में बैठ जाएगी। यूक्रेन की जनता और उसके राष्ट्रपति झेलेंस्की अभी तक डटे हुए हैं, यह अपने आप में बड़ी बात है। भारत सरकार उनसे भी सीधे बात कर सकती है। (नया इंडिया की अनुमति से)
3 मार्च विश्व वन्यजीव दिवस
-प्राण चड्ढा
बड़ी खुशी की बात है कि धरती के श्रृंगार वन्यजीवों को बचाना आज एक महत्वपूर्ण अभियान का रूप ले रहा है लेकिन हम उनके रहवास को पर्यटन से जोडक़र उनके मौलिक स्वभाव को तब्दील करते जा रहे हैं। बाजारवाद जंगल में पहुंच कर अपना रंग दिखा रहा है। इस पर विचार करना जरूरी होगा कि हम अपने नेशनल पार्क और सेंचुरी के जीवों के स्वाभाव में जो तब्दीली ला रहे हैं वह क्या गुल खिलायेगा?
टाइगर जंगल का राजा है। आज जब कान्हा और बांधवगढ़ नेशनलपार्क में यह जिप्सी के सामने कैटवाक करते चलता है तब फोटो लेने वाले बेखौफ हो कर पर्यटक शॉट लेने जुट जाते हैं। वह तो जिप्सी में सवार गाइड और ड्राइवर की मेहबानी है कि सम्मानजनक दूरी बनाए टाइगर के आगे या फिर पीछे गाड़ी चलाता है।
बच्चे वाली टाइग्रेस की फोटो लेते समय शावक को यह सबक मिल जाता है कि चाहे तू जंगल का राजा बनेगा पर जिप्सी वाले तेरे से बड़े और मजबूत हैं तभी तुम्हारी मां इनको कुछ नहीं बोल रही। जिप्सी जंगल में तय गति सीमा पर चलती है लेकिन मोड़ पर यदि बच्चे वाली टाइग्रेस हो तो चार में दो या तीन बच्चे मां के साथ रह जाते हैं और शेष सडक़ पार कर जाते हैं। उधर जिप्सी बीच में फोटोग्राफी के लिए रुक जाती है। मां भी बच्चे का इंतज़ार करती दूसरी तरफ खड़ी रहती है। यह वह वक्त होता है जब पीछे रह गया शावक मां से अलग होकर भटक जाता है।
जंगल में अब हाथी पर चढक़र दिखाया जाने वाला टाइगर शो बन्द हो गया है। एक दशक पूर्व ये हाथी टाइगर को घेरे रहते थे और हाथी से सैलानियों को ले जाकर टाइगर दिखाया जाता था। इसके बावजूद अब भी कुछ जंगल में ऐसा है कि टाइगर झाडिय़ों के पीछे हो तो हाथी की सेवा मिल जाती है। यह भी बंद होनी चाहिए। जब सैलानी जंगल में हों तो हाथी और महावत के जंगल जाने पर रोक लगाई जा सकती है।
एक मार्च को छतीसगढ़ के वन मंत्री मोहम्मद अकबर ने प्रेस क्लब बिलासपुर में कहा कि अचानक मार टाइगर रिजर्व को कान्हा नेशनल पार्क के समान विकसित किया जाएगा। मुझे यह मजाक सुनने की आदत हो गई है। अचानकमार में गर्मी में वन्यजीव पानी को तरसते हैं, जबकि कान्हा में होलोन और बंजर नदी सदानीरा हैं। वहां बड़े-बड़े मैदान में आर्द्र भूमि है, जो बारहसिंघा की पहली पसंद है। शायद वन मंत्री को यह भी नहीं बताया गया होगा कि अचानकमार में दस दिनों से कोई डेढ़ दर्जन हाथी मटरगश्ती कर हैं और उनकी खौफ व सुरक्षा के मद्देनजर सैलानियों की जिप्सी सफारी बंद है।
हाथियों की जंगल में उपस्थिति जंगल और वन्यजीवों के लिए लाभदायक है। उनको अचानकमार में स्थायी रहवास बना लेना चाहिए। छतीसगढ़ के बारनवापारा सेंचुरी में कुछ साल पहले जंगली हाथी पहुंचे। इसके पहले सींग वाले जीव जब सफारी जिप्सी को देखते तो सरपट भाग निकलते थे, लेकिन हाथियों के आने का लाभ मिला। हाथियों ने बैरियर उखाड़ फेकें। सूचना के बोर्ड को झुका दिया। बस यह उनके आधिपत्य का संकेत था, जिसे जंगल में घुसकर शिकार करने वाले, लकड़ी काटने वाले की फिर हिम्मत नहीं हुई। महाकाय शाकाहारी हाथी की पनाह में धीरे-धीरे चीतल, सांभर बेखौफ दिखने लगे और उनकी संख्या भी बढ़ गई। यहां टाइगर नहीं लेकिन तेंदुए की शानदार उपस्थिति दर्ज होती है।
हाथी ऐसा जीव है जो आज तक अपने अस्तित्व और मानव द्वारा कब्जे में की गई जमीन के लिए लड़ रहा है। अचानकमार टाइगर रिजर्व में कुछ टाइगर हैं। यह नहीं कहा जा सकता कि वे यहां पैदा हुए हैं या फिर कान्हा से अचानकमार को जोडऩे वाले जंगल कॉरिडोर से इधर किन्हीं कारणों से पहुंचे हैं। हाथी यदि इस जंगल को अपना लेते हैं तब पार्क एरिया में बसे 19 गांववालों को सतर्क रहना होगा पर सींग और खुर वाले वन्यजीवों की बढ़ोत्तरी ठीक उसी तरह होगी जैसे बारनवापारा सेंचुरी में हुई है।
-बिल एटकिन
जब पहली बार मैंने गांव की भैंसों को लगभग खड़े पहाड़ पर चढ़ते देखा तो मैं दंग रह गया था। उन्हें ऊपर चढ़ाने के लिये पुचकारना और कई बार धकियाना पड़ता था ताकि वह रास्ते की बाधाओं को फांदें लेकिन जैसे-तैसे वह पिन्नाथ की चोटी तक पहुंच ही जाती थीं। इस जगह को बूढ़ा पिन्नाथ कहते हैं जहां एक प्राचीन मंदिर, भगवान शिव के धर्नुर्धारी रूप को समर्पित है।
पिन्नाथ के सम्मुख पहाड़ी पर नीचे की ओर चौड़ी कोसी जलधारा के साथ जाने पर आपको एक आकर्षक मंदिर मिलता है जिसे मध्यकाल में कुमाऊं के राजाओं ने बनाया था। नीचे बने पिन्नाथ मंदिर पर नदी से सीढिय़ां जाती हैं। मैं पूरा अंदाज़ा तो नहीं लगा सकता लेकिन इतना ज़रूर कह सकता हूं कि इस मंदिर को स्थापित करने में बहुत अधिक श्रम लगा होगा। यहां न तो पानी है और न ही यहां से बर्फ की कोई चोटी दिखती है। घने जंगल में बने इस मंदिर पर पहुंच कर लगता है कि वहां से आगे कोई रास्ता नहीं है लेकिन यहां से पुराने मंदिर पर पहुंचना हो तो आप एक खड़ी चढ़ाई पार कर जा सकते हैं। अगर तंत्र-मंत्र न करना हो तो इस सुदूर वीरान जगह मंदिर बनाने का कोई कारण मुझे समझ नहीं आता। मैं यहां रात को ठहरा और मैंने इस मंदिर से लिपटी भक्ति और समर्पण की बयार महसूस की फिर भी इसे यहां क्यों स्थापित किया गया। यह सवाल मरे लिये अनसुलझा ही रहा।
अपनी हिमायल यात्रा के दौरान मैंने शिव के धनुर्धर रूप को बहुत विराट और शक्तिशाली पाया है। वह कामदेव की तरह आसक्ति के तीर बरसाते हैं और एक बार वह किसी पर्वतारोही को लग गये तो वह हमेशा यहीं का होकर रहेगा। कभी-कभी तो लगता है कि ये पर्वत भी सम्मोहित करने के लिये ऐसे तीर बरसा रहे हों। बर्फ का धवल त्रिभुजाकार शिवलिंग गंगा का मुकुट-स्रोत है लेकिन मैंने उसे हमेशा एक हिम-ज्योति की तरह देखा है। जहां भी आपको शिव मिलेंगे वहां विरोधाभासी प्रतीकों का संगम भी होगा।
फक्कड़ मनमौजी स्वभाव और अपार ऊर्जा के स्रोत भगवान शंकर की छवि बर्फ से ढकी चोटियों से मेल खाती है जबकि संयमी और गंभीर भगवान विष्णु इसके बिल्कुल विपरीत हैं जिनका दैवीय अवतार सहज-सपाट मैदानों जैसा है। हिमालयी इलाकों में रहने वाले अधिकांश लोग शैव हैं और शायद इसके पीछे एक कारण वैष्णव उपासना पद्धति से जुड़ी तमाम कठिनाइयां हैं। पहाड़ों में मज़ाक में कहा जाता है कि विष्णु के अनुयायी नहाने से और शिव के खाने से मर जाते हैं। इस विनोद का चतुर संबंध दोनों के समाजशास्त्र और तौर तरीकों से भी जुड़ा है। अगर आप पहाड़ों पर स्नान कर्म अधिक करें तो मर सकते हैं। कठोर शिवभक्त मंदिर में मिलने वाले प्रसाद से गुजारा करते हैं लेकिन कभी-कभी वह खाने लायक नहीं होता और आपको मार भी सकता है।
अनुवाद - हृदयेश जोशी
महाशिवरात्रि जन्मदिन विशेष
-स्वामी सहजानन्द सरस्वती
महाशिवरात्रि स्वामी सहजानन्द सरस्वती की 134वीं जन्मतिथि है। वर्ष 1889 में इसी दिन गाजीपुर जिले के दुल्लहपुर रेलवे स्टेशन के पास एक छोटे से गाँव देवा में जन्मे नौरंगलाल के स्वामी सहजानन्द बनने की कथा आस्था पर विवेक, श्रद्धा पर विश्लेषण की जीत और खुद के अध्ययन तथा अनुभव से जीवन के प्रति दृष्टिकोण के विकास की जीती जागती कथा है।
संस्कृत और धर्मग्रंथों के प्रकाण्ड ज्ञानी एक धर्मालु स्वामी के सामाजिक बदलाव के प्रति समर्पित एक योद्धा और नायक बनने की दिलचस्प कहानी है। इसे पूरा पढ़ा जाना चाहिए; इसके लिए स्वयं सहजानन्द सरस्वती की लिखी किताब मेरा जीवन संघर्ष में मूल्यवान सामग्री है। इसे अवधेश प्रधानजी के संपादन में ग्रन्थ शिल्पी ने प्रकाशित किया है।
स्वामी सहजानन्द सरस्वती किसान आंदोलन को देशव्यापी नजरिया देने वाले, किसानों को आजादी की लड़ाई में शामिल करते हुए उन्हें सच्ची मुक्ति की लड़ाई के लिए तैयार करने वाले व्यक्ति थे। इन्हीं की पहल और अध्यक्षता में 11 अप्रैल 1936 को लखनऊ में अखिल भारतीय किसान सभा की स्थापना हुयी और वह आगे बढ़ी-आज भी मौजूदा किसान आंदोलन की सबसे मजबूत और भरोसेमंद आधार बनी हुयी है।
यहां स्वामीजी के पूरे विराट व्यक्तित्व और कृतित्व और योगदान को समेटना तो दूर उसे छुआ तक नहीं जा सकता। सिर्फ कुछ विलक्षण पहलू हैं जिनके बारे में इंगित किया जा सकता है।
1914 में स्वामीजी ने 'शास्त्रों के तंग दायरे से बाहर आकर सार्वजनिक जीवन के प्रवाह में प्रवेश किया।Ó और एक ऐसी हलचल खड़ी कर दी जिसे इससे पहले इतने व्यापक पैमाने पर इस देश ने कभी नहीं देखा था। सोये हुए और अक्सर हताश तथा रोये हुए दिखने वाले किसानों को उन्होंने संघर्ष की अगली कतार में लाकर खड़ा कर दिया। वर्ष 1929 के आते आते सामंतों के खिलाफ यह लड़ाई इतनी बढ़ गयी कि पहले उसने बिहार प्रांतीय किसान सभा और उसके बाद 1936 में अखिल भारतीय किसान सभा का सांगठनिक रूप धारण कर लिया। दोनों ही के शिल्पी स्वामी सहजानन्द सरस्वती थे।
ध्यान देने की बात यह है कि यह सब काम वे उस दौर में कर रहे थे जब ग्रामों पर क्रूर सामंती निजाम का वर्चस्व था और उसकी हिमायत में सिर्फ अंग्रेज भर नहीं थे बल्कि उस जमाने के सबसे बड़े नेता गांधी भी थे। इन तीनों से एक साथ लड़कर आंदोलन खड़ा करना, इन तीनों के विरोध के बावजूद रास्ता तलाशना बड़ा काम था- जो उन्होंने सफलता के साथ किया। राष्ट्रीय स्वतंत्रता के एजेंडे में किसानो और उनकी मांगों को शामिल करवाया।
मगर वे यहीं तक नहीं रुके। अखिल भारतीय किसान सभा के स्थापना सम्मेलन के उद्घाटन भाषण में ही उन्होंने साफ कर दिया कि 'किसान पूर्ण स्वतंत्रता के हामी हैं और किसान सभा की लड़ाई किसानों-मजदूरों और शोषितों को पूरी आर्थिक राजनीतिक ताकत दिलाने की लड़ाई है।' यह सिर्फ सत्ता हस्तांतरण तक सीमित मामला नहीं है।
दूसरी बात जिसे उन्होंने ठीक ठीक समझा और जोर देकर कहा वह थी उनकी वर्ग दृष्टि; उन्होंने कहा कि वर्गों में बँटे समाज में वर्गसंघर्ष ही परिवर्तन का जरिया है। वर्ग सहयोग या वर्ग समन्वय की समझदारी से कुछ भी हासिल नहीं हो सकता। एक वेदान्ती दण्डी स्वामी का इस समझदारी तक पहुंचना एक महत्वपूर्ण घटना विकास था- जो उन्होंने समाज को समझने के वैज्ञानिक नजरिये से हासिल किया था।
उन्होंने कहा था कि 'किसानों की तात्कालिक राजनीतिक, आर्थिक मांगों के लिए संघर्ष करते हुए राजनीतिक सत्ता हासिल करने की लड़ाई लड़ी जाएगी। इस लड़ाई के केंद्र में हर तरह की जमींदारी व्यवस्था के खात्मे, लगान की समाप्ति, टैक्स प्रणाली में बदलाव कर उसका ग्रेडेशन, जमीन जोतने वाले को, भूमिहीनों को जमीन तथा कर्ज मुक्ति की मांगे रहेंगी।'
स्वामी जी की तीसरी महत्वपूर्ण धारणा राजनीति में धर्म की घुसपैठ से उनकी सख्त असहमति थी। वे मानते थे कि 'धर्म एक नितांत निजी मामला है। इसे सामाजिक और राजनीतिक विषयों से दूर रखना ही चाहिये। जो ऐसा नहीं करते, धर्म को राजनीति की सीढ़ी बनाते हैं वे न धार्मिक हैं न सामाजिक।' इन दिनों जारी किसान आंदोलन के लिए यह एक बड़ा सूत्र है। धर्म और सामाजिक चेतना के संबंध में स्वामी जी ने लिखा है कि;
'प्रायेण देवमुनय: स्वविमुक्ति कामा-
मौनं चरन्ति विजने न परार्थनिष्ठां-
नैतान विहाय कृपणान विमुमुक्षु एको
नात्यत त्वदस्य शरणं भ्रमतोनुपश्ये!!'
(मुनि लोग स्वामी बनकर अपनी ही मुक्ति के लिए एकांतवास करते हैं। लेकिन मैं ऐसा हरगिज नहीं कर सकता। सभी दुखियों को छोड़ मुझे सिर्फ अपनी मुक्ति नहीं चाहिए। मैं तो इन्ही के साथ रहूँगा, जीऊँगा और मरूँगा।)
यह स्वामी सहजानन्द सरस्वती थे जिनकी अध्यक्षता में अक्टूबर 1937 में कलकत्ता में हुयी अखिल भारतीय किसान सभा की सीकेसी बैठक ने लाल झण्डे को अपना झण्डा बनाया। इस बैठक में बोलते हुए स्वामी जी ने कहा था कि 'मुक्ति की लड़ाई अकेले किसानों की नहीं है। इसकी धुरी किसानों, खेत मजदूरों, गरीब किसानों और मजदूरों की एकता है। इसलिए उनके औजार ही इस झण्डे के प्रतीक निशान होने चाहिए।' इसके लिए उन्हें न केवल दूसरों बल्कि समाजवादियों से भी जूझना पड़ा था।
संगठन-व्यापक किसान संगठन के बारे में स्वामीजी की समझ द्वंद्वात्मक थी। वे एक तरफ एकजुट और व्यापक किसान संगठन के हामी थे वहीँ इसी के साथ वे किसान सभा को राजनीतिक पार्टी या उसके संलग्नक में बदलने के पक्ष में नहीं थे। वे स्वयं राजनीतिक मोर्चे पर सक्रिय रहते हुए और किसानो सहित आम मेहनतकशों को राजनीतिक भूमिका निबाहने के लिए प्रेरित करते हुए भी, मानते थे कि व्यापक और सर्वसमावेशी किसान एकजुटता वाले संघर्षों में शामिल होकर, अपने तजुर्बों से ही किसान सही राजनीतिक निष्कर्ष और मुकाम तक पहुंचेगा।
इसी के साथ वे मानते थे कि किसान सभा को असली पीडि़त किसानो का संगठन बनना चाहिए। वर्ष 1944 में अखिल भारतीय किसान सभा के सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए उन्होंने कहा था कि 'मध्यम और बड़े किसान आज किसान सभा का इस्तेमाल अपने फायदे के लिए कर रहे हैं जबकि हम उसका उपयोग सबसे गरीब और छोटे तबकों में वर्ग चेतना जगाने के लिए करना चाहते हैं। हमारे विचार में किसान वही हैं जो या तो भूमिहीन हैं या जिनके पास बहुत कम जमीन है। ऐसे ही सर्वहारा लोगों संगठन किसान सभा है और आखिर में वैसे ही लोग असली किसान सभा बनायेंगे। 'जमींदारों के खिलाफ स्वामी जी का मशहूर नारा था।' 'कैसे लोगे मालगुजारी, ल_ हमारा जिंदाबाद !!'
ऐसे स्वामी सहजानन्द सरस्वती भारत के किसान आंदोलन के पुरखे हैं- और जिनके ऐसे पुरखे होते हैं वे लड़ाईयों को जीतने तक जारी रखने का माद्दा रखते हैं।
-आयुष चतुर्वेदी
आस्तिकता और नास्तिकता के बीच जूझती मानवता में जब भी ईश्वर के बारे में सोचता हूँ तो पहला चेहरा शिव का दिखता है बचपन से ही। बाई डिफॉल्ट।
तमाम बहसें की जा सकती हैं कि शिव काल्पनिक हैं या वास्तविक। यह बहसें ज़रूरी भी हैं। लेकिन शिव लोक के देवता हैं। लोगों के देवता। आप उस गरीब किसान-मजदूर को नास्तिकता का कौन-सा चैप्टर पढ़ाएंगे जो रोजाही के बीस रुपये कमाकर भी बाबा को धन्यवाद देता है।
शिव उसके बाबा हैं। भोले बाबा। शंकर।
पिंडी पर टिकुली सटा के उसे शंकर बना देने वाले बच्चे से जबरन उसका शंकर कहाँ से छीन पाएंगे हम? चलिए थोड़ी-सी आस्तिकता बची रहने देते हैं उसके अंदर। और शिव सोने-चांदी वाले देवता नहीं हैं। हीरे-जवाहरात उनके लिए नाक के बाल बराबर हैं। शिव को देवों ने पूजा, दानवों ने भी। आज भी शिव को जमींदार भी पूजते हैं, मजदूर भी। लेकिन शिव मजदूरों के ही साथ हैं। अगर हैं तो!
जानवरों, पेड़-पौधों, बर्फ-पहाड़ के साथ जीने वाले शिव मजलूमों की नुमाइंदगी करते हैं। तमाम सवाल किए जा सकते हैं, तर्क दिए जा सकते हैं कि शिव थे ही नहीं। मैं भी कह रहा हूँ नहीं थे। लेकिन शिव के होने के लिए क्या शिव का होना जरूरी है?
क्या बर्फ, जानवर, साँप, नदी, चाँद, पहाड़ का होना शिव का होना नहीं है? आज के शिव यही हैं। तमाम पर्यावरणविदों से बड़े पर्यावरणविद। अपने-आप में एक क्रांतिकारी और एक विद्रोही-शंकर!
प्रकृति से प्रेम करना, दुनिया से प्रेम करना, लोगों से प्रेम करना, दबाए गए और उपेक्षित हुए लोगों से खासा स्नेह-सहानुभूति और सॉलिडैरिटी रखना भी शिव से सीखा जा सकता है। शिव कुछ नहीं तो एक प्रतीक हैं, एक ऐसे प्रतीक कि जिसके मूल्यों के बिना मनुष्य शव समान है।
और उन मूल्यों के साथ शिव समान।
शिव के नाम पर गांजा पीकर, सुट्टा मारकर, भांग पीसकर पीने से आप खुद के साथ-साथ शिव का भी गला घोंट रहे हैं। शिव के नाम पर दूध की नदियाँ ज़मीन पर बहाकर आप शिव को डुबा रहे हैं। शिव का होना यह होना नहीं है।
एक बच्चे की पूजा की अलमारी में छोटी-सी पत्थर की पिंडी ही शिव है। पत्थरों में शिव हैं, और उस पत्थर को पीसकर अपने कारखानों और इमारतों की बुनियाद बनाने वाले लोग ढोंगी हैं। वे शिव को पीस रहे हैं। इस सभ्यता ने शिव जैसों को पीसा ही तो है।
एक पेड़ को सोफा बनने से अगर आप बचा लेते हैं तो आप शिव को बचा लेते हैं। चिपको आंदोलन में पेड़ से चिपकना था। वो चिपकना बचा रहे, तभी शिव बचे रहेंगे।
और शिव करें, कि शिव को कभी राजनीति में न लाया जाए। और राम जैसा हश्र किसी देवता का न हो!
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक का लिखा-
यूक्रेन का संकट उलझता ही जा रहा है। बेलारूस में चली रूस और यूक्रेन की बातचीत का कोई नतीजा नहीं निकला। इतना ही नहीं, पूतिन ने परमाणु-धमकी भी दे डाली। इससे भी बड़ी बात यह हुई कि यूक्रेन के राष्ट्रपति झेलेंस्की ने यूरोपीय संघ की सदस्यता के लिए औपचारिक अर्जी भी भेज दी। झगड़े की असली जड़ तो यही है। झेलेंस्की की अर्जी का अर्थ यही है कि रूसी हमले से डरकर भागने या हथियार डालने की बजाय यूक्रेन के नेताओं ने गजब की बुलंदी दिखाई है।
रूस भी चकित है कि यूक्रेन की फौज तो फौज, जनता भी रूस के खिलाफ मैदान में आ डटी है। पूतिन के होश इस बात से फाख्ता हो रहे होंगे कि नाटो की निष्क्रियता के बावजूद यूक्रेन अभी तक रूसी हमले का मुकाबला कैसे कर पा रहा है। शायद इसीलिए उन्होंने परमाणु-युद्ध का ब्रह्मास्त्र उछालने की कोशिश की है।
संयुक्तराष्ट्र संघ की महासभा ने अपने इतिहास में यह 11 वीं आपात बैठक बुलाई थी लेकिन इसमें भी वही हुआ, जो सुरक्षा परिषद में हुआ था। दुनिया के गिने-चुने राष्ट्रों को छोड़कर सभी राष्ट्रों में रूस के हमले की निंदा हो रही है। खुद रूस में पूतिन के विरुद्ध प्रदर्शन हो रहे हैं। इस वक्त झेलेंस्की द्वारा यूरोपीय संघ की सदस्यता की गुहार लगाने से यह सारा मामला पहले से भी ज्यादा उलझ गया है।
अब अपनी नाक बचाने के लिए पूतिन बड़ा खतरा भी मोल लेना चाहेंगे। यदि झेलेंस्की कीव में टिक गए तो मास्को में पूतिन की गद्दी हिलने लगेगी। अभी यूक्रेन में शांति होगी या नहीं, इस बारे में कुछ भी कहना संभव नहीं है। ऐसी स्थिति में भारत के लगभग 20 हजार नागरिकों और छात्रों को वापस ले आना ही बेहतर रहेगा। इस संबंध में भारत के चार मंत्रियों को यूक्रेन के पड़ौसी देशों में तैनात करने का निर्णय नाटकीय होते हुए भी सर्वथा उचित है। हमारे लगभग डेढ़ हजार छात्र भारत आ चुके हैं और लगभग 8 हजार छात्र यूक्रेन के पड़ौसी देशों में चले गए हैं। हमारी हवाई कंपनियां भी डटकर सहयोग कर रही हैं।
यदि यह मामला लंबा खिंच गया तो भारत के आयात और निर्यात पर गहरा असर तो पड़ेगा ही, आम आदमी के उपयोग की चीजें भी मंहगी हो जाएंगी। भारत की अर्थ-व्यवस्था पर भी गहरा कुप्रभाव हो सकता है। इस संकट ने यह सवाल भी उठा दिया है कि भारत के लगभग एक लाख छात्र मेडिकल की पढ़ाई के लिए यूक्रेन, पूर्वी यूरोप और चीन आदि देशों में क्यों चले जाते हैं? क्योंकि वहां की मेडिकल पढ़ाई हमसे 10-20 गुना सस्ती है। क्या यह तथ्य भारत सरकार और हमारे विश्वविद्यालयों के लिए बड़ी चुनौती नहीं है? स्वयं मोदी ने 'मन की बातÓ में इस सवाल को उठाकर अच्छा किया लेकिन उसके लिए यह जरुरी है कि तत्काल उसका समाधान भी खोजा जाए। (नया इंडिया की अनुमति से)
- प्रकाश दुबे
चुनाव और होली के मौसम में गाली का बुरा नहीं मानते। इस सूची में अब संसद और विधानसभाएं शामिल होने की दावेदारी कर रही हैं। ताजी पेशकश राजस्थान विधानसभा में हुई। अशोक गहलोत सरकार के बजट का चीर हरण करते हुए सतीश पूनिया सौंदर्यशास्त्र की मिसाल देने लगे-काली औरत ब्यूटी पार्लर में जाकर चेहरा चमका सकती है। बजट का हाल वही है। यानी काली कलूटी का मेक अप कर दिया गया है। रंगभेद की नीति से गांधी जी लड़े थे। महात्मा गांधी की हत्या के 74 साल बाद महिलाएं भडक़ गईं। पूनिया का पद उनकी परेशानी बन गया। भाजपा की राजस्थान इकाई के अध्यक्ष होने के नाते अपनी पार्टी का ऐतराज ध्यान में आया। आपस में अनबन है। राज्य की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे का विरोध भारी पड़ता। सदन में विरोध के साथ साथ महिला आयोग की तलवार म्यान से निकल आई। पूनिया समझदार हैं। उन्होंने अपने काले कलूटे शब्द वापस लेने में ही खैर समझी।
टीचर्स स्पेशल
निराला, पंत, महादेवी, धर्मवीर भारती, फिराक गोरखपुरी समेत सैकड़ों कलम धनाढ्यों और शिक्षकों की भूमि में चुनाव प्रचार बस समाप्त होने वाला था। देश को सबसे अधिक नौकरशाह देने की शोहरत रखने वाला इलाहाबाद अब प्रयागराज है। विद्यार्थियों का जत्था प्रियंका गांधी के पास पहुंचा। उन्हें अपनी विपदा सुनाई। महामारी और कुंभ की डुबकी लगाने के कारण शिक्षा केन्द्र के विद्यार्थी गुरुजनों और संस्थान की शक्ल देखने से वंचित रह गए। कहने को केन्द्रीय विवि है और उसके सिवा दो और। विद्यार्थियों की समस्या है कि पढ़ाई तो आन लाइन हुई। अब परीक्षा आफ लाइन होगी यानी परीक्षा भवन में जाकर परचा देना होगा। विद्यार्थी इसके लिए तैयार नहीं हैं। प्रियंका को ज्ञापन देते समय वर्षा गायकवाड़ हाजिर थीं। वर्षा शिक्षा मंत्री हैं, परंतु महाराष्ट्र की। देश भर की शिक्षा की बागडोर संभालने वाले धर्मेन्द्र प्रधान विधानसभा चुनाव के प्रभारी हैं और युवा मामलों के मंत्री अनुराग ठाकुर सहप्रभारी।
आफिसर्स च्वाइस
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के पढ़ाकू जहां जाते हैं, अपनी छाप छोड़ते हैं। विवि को बदनाम करने वाले उनकी इस गुणवत्ता का ध्यान नहीं रखते। विजय कुमार का ही उदाहरण लो। भारतीय पुलिस सेवा की नौकरी में आने के बाद छत्तीसगढ़ के नक्सली उपद्रव ग्रस्त में पहुंचे। कलूरी जैसे उस्ताद के साथ काम करने का अवसर मिला। कलूरी तो पत्रकारों की ठुकाई के कारण बदनाम हुए। विजय कुमार को हाले कश्मीर दुरुस्त करने श्रीनगर रेंज का पुलिस महानरीक्षक बनाया गया। फुर्तीले विजय ने आतंकवादियों और उनकी नजऱ में शरारती पत्रकारों को दुरुस्त करना शुरु किया। दो टूक बोलने वाले पुलिस महानरीक्षक दो टूक बोलने से नहीं हिचके। उपराज्यपाल के किसी कथन पर कहा-नेता अपने तरीके से बात करते हैं। हम अपने तरीके से काम करते हैं। विजय कुमार को पदोन्नत कर अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक बनाने के प्रस्ताव पर विभागीय समिति की मुहर लग चुकी है। तरक्की नहीं हुई। केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह के उत्तर प्रदेश में व्यस्त होने के कारण नहीं। फिलहाल पद रिक्त नहीं है।
रायल चेलैंज
मौसम है घूमने फिरने का। नासमझ चुनाव प्रचार करते घूमते हैं। समझदार समितियों और सरकारी दौरों के बहाने लक्षदीप, कश्मीर और अंडमान एक करते हैं। नहीं नहीं। सावरकर और काला पानी जेल के कारण पर्यटन केन्द्र बने पोर्ट ब्लेयर पहुंचना आसान नहीं है। एकमात्र रन वे को दुरुस्त करने के लिए सप्ताह में चार पांच दिन हवाई अड्डे पर जहाजों के उडऩे उतरने पर रोक रहेगी। सैलानी नहीं पहुंचेंगे तो एकमात्र व्यापार से जुड़े लोगों की कमाई बंद। वैसे भी महामारी ने बेहाल कर रखा है। सांसद कुलदीप राय शर्मा ने उपराज्यपाल की देहरी पर दस्तक दी। बात नहीं बनी। प्रधानमंत्री से गुहार लगाई। उनका सुझाव है कि रोजाना चार पांच घंटे विमानों की आवाजाही जारी रखी जाए। सोशल मीडिया पर ज्योतिरादित्य महाराज को कहते दिखाया जा रहा है-एयर इंडिया का महाराजा टाटा कर गया। यूक्रेन से प्रवासी भारतीयों को कैसे लाऊं? राजीव गांधी भवन के तो पंख नहीं हैं। सोशल मीडिया के शैतान बहकावे में मत आना। केन्द्रीय नागरिक उड्डयन मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया प्रवासियों की वापसी में व्यस्त हैं।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक का लिखा-
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले सात-आठ वर्षों में न जाने कितनी बार अपने 'मन की बात' आकाशवाणी से प्रसारित की है। विपक्षी दलों ने यह कहकर कई बार उसकी मजाक भी उड़ाई है कि यह अपना प्रचार करने का एक नया पैंतरा मोदी ने मारा है। देश के ज्यादातर बुद्धिजीवी इस मन की बात पर कोई खास ध्यान भी नहीं देते लेकिन इस बार उन्होंने जो मन की बात कही है, वह वास्तव में मेरे मन की बात है। मातृभाषा दिवस पर ऐसी बात अब तक किसी प्रधानमंत्री ने की हो, ऐसा मुझे याद नहीं पड़ता। मोदी ने मातृभाषा के प्रयोग पर जोर देने के लिए सारे भारतीयों का आह्वान किया है। लेकिन उनसे मैं पूछता हूं कि पिछले 7-8 साल में सरकारी कामकाज में मातृभाषाओं का कितना काम-काज बढ़ा है। अभी भी हमारे विश्वविद्यालयों में ऊँची पढ़ाई और शोध-कार्य की भाषा अंग्रेजी ही है। देश की संसद के कानून अभी भी अंग्रेजी में ही बनते हैं। हमारी अदालतों की बहस और फैसले अंग्रेजी में ही होते हैं। जब सारे महत्वपूर्ण कार्य अंग्रेजी में ही चलते रहेंगे तो मातृभाषाओं को कौन पूछेगा?
अंग्रेजी महारानी और सारी मातृभाषाएं उसकी नौकरानियां बनी रहेंगी। अपने पूर्व स्वास्थ्य मंत्री श्री ज.प्र. नड्डा और डॉ. हर्षवर्द्धन ने मुझसे वायदा किया था कि मेडिकल की पढ़ाई वे हिंदी में शुरु करवाएंगे लेकिन केंद्र सरकार ने अभी तक कुछ नहीं किया। हॉं. मप्र की चौहान-सरकार इस मामले में चौहानी दिखा रही है। उसके स्वास्थ्य मंत्री विश्वास नारंग की पहल पर मेडिकल की पाठ्यपुस्तकें अब हिंदी में तैयार हो रही हैं। मैंने और सुदर्शनजी ने अटलबिहारी वाजपेयी विश्वविद्यालय भोपाल में इसी लक्ष्य के लिए बनवाया था लेकिन वह भी फिसड्डी साबित हो गया। जब आप राष्ट्रभाषा हिंदी में यह बुनियादी काम भी शुरु नहीं करवा सके तो अब आपके 'मन की बात' सिर्फ 'जुबान की बात' बनकर रह गई या नहीं? इस काम की आशा मैं डॉ. मनमोहनसिंह से तो कतई नहीं कर सकता था लेकिन यदि यह काम नरेंद्र मोदी जैसा राष्ट्रीय स्वयंसेवक नहीं करवा सकता तो कौन करवा सकता है? मोदी को यह भी पता होना चाहिए कि चीनी भाषा (मेंडारिन) चीन में ही सर्वत्र न समझी जाती है और न ही बोली जाती है। चीन के सैकड़ों गांवों और शहरों में घूम-घूमकर मैंने यह अनुभव किया है। जबकि भारत ही नहीं, दुनिया के लगभग दर्जन भर देशों में हिंदी बोली और समझी जाती है। हमारे नेता जिस दिन नौकरशाहों के वर्चस्व से मुक्त होंगे, उसी दिन हिंदी को उसका उचित स्थान मिल जाएगा। (नया इंडिया की अनुमति से)