विचार/लेख
-ओम थानवी
बरस दिल्ली में बीते, पर कभी यह अहसास नहीं हुआ कि लोदी बाग में नवरोज के मौके पर हर साल फारसी समुदाय का मेला-सा जुटता है।
सिर्फ पारसी (जरथुस्त्र धर्म वाले) नहीं, फारसी बोलने वाले अफगान, उज्बेक, ताजिक और ईरानी भी। बल्कि अफगान सबसे ज्यादा, क्योंकि रूस और अमेरिका के दखल से उजड़े चमन वालों को राहत की जमीन भारत में ही नसीब हुई। दिल्ली की दूरस्थ बस्तियों में ऐसे शरणार्थी बड़ी संख्या में हैं।
नवरोज-21 मार्च-को वसंत ढलता है, रात और दिन बराबर हो जाते हैं। मौसम के इस खुशगवार बदलाव के साथ नया फारसी साल शुरू होता है। नवरोज कहलाता है।
बुजुर्ग पत्रकार जाविद लईक पिछले तीस साल से मार्च की इस तारीख़ को लोदी गार्डन आते हैं। उनके इस जिक्र भर से सोमवार की शाम मैं भी उनके साथ हो लिया।
कैसा अद्भुत नजारा था। चप्पे-चप्पे पर फूलों भरी जाजम बिछाए लोग। खाते-पीते-गाते-हँसते। खेलते हुए बच्चे और किशोर। उम्रदराज दोस्तों की बतरस। मानो दिल्ली के इस विशाल बाग में एक रोज के लिए कोई परदेस पिछवाड़े से आ बसा हो। अपने सारे गम भुलाकर।
मगर कभी इस मेले पर मैंने टीवी पर कोई हलचल आज तक नहीं देखी। आपने देखी?
एक बड़े परिवार से रूबरू हुआ। पुलाव और कबाब की दावत चल रही थी। साथ में पत्ती वाली चाय। इतना प्यार से पूछा गया कि चाय के लिए मैंने मना नहीं किया, बल्कि दूर पेड़ की छाँव में बैठे लईक साहब के लिए भी ले आया। बिना दूध और चीनी की अनूठी चाय, जिसका स्वाद मैं काबुल, इस्तांबुल, काहिरा आदि में खूब ले चुका हूँ। इस बार कुछ दालचीनी की-सी महक भी अनुभव हुई।
लेकिन सबसे मुग्ध करने देने वाली महक तो नवरोज मना रहे उन लोगों की मुस्कान में थी। खूबसूरत चेहरे, वतन से दूर, मगर अनचाहे प्रवास में भी उत्सव की कैसी सहज उमंग। चाय पेश करने वाले बुजुर्गवार ने कहा था — पीछे अमन नहीं है न, इसलिए उड़ानें बंद हैं। वरना यहाँ रौनक कई गुना होती।
शुक्रिया लईक साहब। मेरे समक्ष दिल्ली में एक नई दिल्ली के दरवाजे अकस्मात् खोलने के लिए।
दुनिया अब भी कितनी निश्छल है-कितना सौंदर्य, आत्मीयता और जिंदादिली का ताप समेटे हुए। और बाँटते हुए।
चुपचाप। किसी एक रोज। नवरोज।
-कार्टूनिस्ट कैप्टन
कार्टूनिस्ट कैसे कार्टून बनाता है ये बहुत हद तक संपादक तय करता है, अगर संपादक कार्टून का शौकीन है तो फिर कहने ही क्या और अगर कार्टून की समझ ही न हो तब तो क्या कीजे... ऐसे ही एक संपादक जी से पाला पड़ा था, कार्टून में उनको कोई खास रुचि न थी, उन्हें पता तक नहीं था कि कौन कार्टून बनाता है अलबत्ता ये तक नहीं पता था कि कार्टून को कार्टून भी बोला जाता है, एक बार उन्होंने डेस्क से बैठे बैठे जोर से आवाज लगाई...अरे वो डायग्राम बनाने वाला कहाँ है?भेजो जरा उसे...मैं उनके पास गया तो कहने लगे कि फला जगह एक्सीडेंट हुआ है वहां रिपोर्टर के साथ जाओ और घटना स्थल का डायग्राम बना कर लाओ...मैं थोड़ी देर खड़ा रहा फिर धीरे से कहा...सर वो मेरी जगह फोटोग्राफर को भेजें तो ज़्यादा अच्छा होगा...खैर ये तो हो गई एक बात, अब दूसरे संपादक जी की कहानी...अपने शुरुआती दौर में एक अखबार में काम करता था वहां के डाक एडिशन के संपादक भयंकर कार्टून के शौकीन थे ,इतने की कार्टून में अतिशयोक्ति कर देते...एक बार धार जिले में किसी 99 साल के आदमी का निधन हुआ, वो वसीयत में ये लिखकर गया कि मेरी शव यात्रा बैंडबाजे के साथ निकाली जाए...बस! फिर क्या आगए संपादक जी मेरे पास की इस पर कार्टून बनाओ की लोग शवयात्रा में नाच रहे हैं और एक आदमी सडक़ पर नागिन डांस करते हुए कहा रहा है कि ये बारात नहीं मय्यत है...मैंने लाख समझाया कि सर अच्छा नहीं लगेगा, उसके घर वाले क्या सोचेंगे...पर नहीं! उनके दबाव में मुझे कार्टून बनान पड़ा...कुछ समय बाद ऑफिस बॉय आया कि सर वो आपके सारे कार्टून दे दो क्योंकि यहाँ सारे कार्टून लेकर लाइब्रेरी में जमा होते हैं,...एक दम मुझे मय्यत वाले कार्टून का खयाल आया और मैंने उस कार्टून के पीछे एक नोट लिखा कि...ये कार्टून मैं बनाना नहीं चाहता था, किसी की मय्यत पर इस तरह का कार्टून असंवेदनशील है, फला फला सर ने मुझसे ये जबरदस्ती बनवाया है... ये नोट लिखकर कार्टून दे दिया ताकि कल को कोई लाइब्रेरी छाने और मेरे कार्टून नजऱ आए तो उसे पता हो कि मैं कैसे काम करता था...
हर वर्ष की भांति इस वर्ष भी इंटरनेशनल थिएटर इंस्टीटूट द्वारा विश्व रंगमंच दिवस 2022 पर दुनियाभर के रंगकर्मियों के लिए संदेश ज्ञापित किया गया है। हर वर्ष दुनिया के एक प्रतिष्ठित रंगकर्मी द्वारा संदेश लिखा जाता है। इस बार मशहूर अमेरिकी रंगकर्मी पीटर सेलर्स द्वारा रंगकर्मियों के नाम संदेश आया है जो कि मूल रूप से अंग्रेज़ी में है. हिंदी अनुवाद यह रहा।
प्रिय मित्रों,
जब यह दुनिया न्यूज रिपोर्ट्स के रोज़ाना ड्रिप फीड पर घंटे और मिनट के हिसाब से लटकी हुई है, ऐसे समय मे क्या मैं हम सबको आमंत्रित कर सकता हूँ? हम सब, रचनाकारों के रूप में, इस महकाव्यात्मक समय में, अपने अपने उचित दायरे, क्षेत्र और परिप्रेक्ष्य में एक महाकाव्यात्मक बदलाव, महाकाव्यात्मक जागरूकता, महाकाव्यात्मक प्रतिबिंब, और महाकाव्यात्मक दृष्टि के साथ प्रवेश करने के लिए आमंत्रित कर सकता हूँ?
हम मानव इतिहास के एक अनोखे समय में रह रहे हैं जहाँ हम मानवीय संबंधों के गहरे और परिणामी परिवर्तनों को एक दूसरे के संग अनुभव कर रहे हैं।
हम 24 घंटे के समाचार चक्र में नहीं रह रहे हैं, हम समय की नोंक पर रह रहे हैं। जिन चीजों से हम गुजर रहे हैं उन्हें प्रस्तुत करने में या उन चीजों से निपटने मे समाचार पत्र और मीडिया पूरी तरह से असमर्थ है।
जो हम वास्तव मे जी रहे हैं वो भाषा कहां है, वह चाल क्या हैं और ऐसी कौन सी छवियां हैं जो दिखा सकें कि हम ‘सच में’ क्या अनुभव कर रहे हैं?
हम रंगकर्मी उन गहरे बदलावों और टूटन को बखूबी समझते हैं जो हम अनुभव कर रहे हैं और हम उन्हें व्यक्त कर सकते हैं। कैसे हम अपने जीवन की घटनाओं को तमाम रिपोर्ताज के रूप में नहीं बल्कि अनुभव के रूप में सामने ला सकते हैं?
रंगमंच अनुभव की कला है।
विशाल प्रेस अभियानों, बनावटी अनुभवों, भयानक भविष्यवाणियों और लगातार दोहराई जाने वाली संख्याओं से अभिभूत इस दुनिया में हम लगातार एक जीवन, एक एकोसिस्टम, दोस्ती या कहें एक विस्तृत और अजनबी आकाश में एक छोटी सी प्रकाश किरण की उपस्थिति को कैसे बचा सकते हैं? दो वर्षों से COVID-19 ने लोगों के होश उड़ा दिए हैं, उनके जीवन को संकुचित कर दिया है, संबंधों को तोड़ दिया है और हमें मानव बसावट के एक अजीब ग्राउंड जीरो पर डाल दिया है।
ऐसे समय में हमें पहचानना होगा कि किन बीजों को रोपने और फिर से लगाने की आवश्यकता है और वे कुकुरमुत्ते सी उगी कौन सी हमलावर नस्लें हैं जिन्हें पूरी तरह उखाड़ फेंकने की आवश्यकता हैं? बहुत से लोग दांव पर हैं, बहुत अधिक मात्रा में तर्कहीन हिंसा भड़क रही है। बहुत से प्रतिष्ठित संस्थान क्रूरता की संरचना के रूप में सामने आए हैं।
हमारे स्मरणोत्सव कहाँ हैं? हमें क्या याद रखना चाहिए? वे रंगसंस्कार कहाँ हैं जो हमें घटनाओं को री-इमैजिन करने और हमारे कदमों को उठाने और उन्हीं घटनाओं की रिहर्सल करने की अनुमति देते हैं जो हमने पहले कभी नहीं उठाए हैं?
महाकाव्यात्मक दृष्टि, उद्देश्य, पुनर्प्राप्ति, मरम्मत और देखभाल के रंगमंच को नए संस्कारों की आवश्यकता है। हमें मनोरंजन करवाने की आवश्यकता नहीं है। हमें इकट्ठा होने की जरूरत है। हमें स्थान साझा करने की आवश्यकता है, और हमें उस साझा स्थान को विकसित करने की आवश्यकता है जहाँ बात को गहराई से सुना जा सके और जहाँ समानता हो।
रंगमंच पृथ्वी पर मनुष्य, देवताओं, पौधों, जानवरों, के बीच समानता का सृजनशील स्थान है। जहाँ बारिश की बूँदें, आंसुओं को महसूस करते हुए रचनात्मकता परिपक्व होती है। एक ऐसा स्थान जहाँ समानता और गहराई से सुनने की कला अदृश्य रूप से खतरे, समभाव, ज्ञान, क्रियात्मकता और धैर्य का सामना करते हुए जगमगाती रहती है।
पुष्प आभूषण सूत्र में बुद्ध ने मानव जीवन में धैर्य के दस सूत्र बताए हैं जिनमे एक सबसे प्रभावशाली सूत्र है "दुनियां को मृगतृष्णा की तरह देखने समझने का धैर्य"। रंगमंच ने जीवन को मृगतृष्णा की तरह ही प्रस्तुत करने का प्रयास किया है जिसमें हम हर तरह के भ्रम को साफ साफ देखने मे सक्षम होते हैं तथा बड़ी सफाई और ताकत से गलत को गलत कह सकते हैं।
हम जो देख रहे हैं और जिस तरह से देख रहे हैं, उसके बारे में हम इतने निश्चित हैं कि हम वैकल्पिक वास्तविकताओं, नई संभावनाओं, अलग दृष्टिकोण, अदृश्य संबंधों और कालातीत संबंधों को देखने-समझने में असमर्थ हैं।
यह समय हमारे मन, इंद्रियों, कल्पनाओं, इतिहास और भविष्य को एक नई ताजगी देने का समय है। यह काम अकेले काम करने वाले और अलग-थलग रहने वाले लोग नहीं कर सकते। ये वो काम है जो हमें एक साथ करने की जरूरत है। रंगमंच इस काम को एक साथ करने का निमंत्रण है।
आपके काम के लिए आपको तहे दिल से धन्यवाद।
मूल लेखक - पीटर सेलर्स (अंग्रेजी)
अनुवाद – सिग्मा कुमकुम (रायपुर, छत्तीसगढ़)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
चीनी विदेश मंत्री वांग यी ने दो दिन तक विशेष अतिथि रहकर इस्लामाबाद में इस्लामी सहयोग संगठन के सम्मेलन में भाग लिया। अब वे भारत आ रहे हैं और फिर वे श्रीलंका जाएंगे। वे भारतीय विदेश मंत्री जयशंकर से पहले भी मिल चुके हैं। गलवान घाटी की मुठभेड़ से जन्मे तनाव को दोनों विदेश मंत्रियों की भेंट जरा भी कम नहीं कर पाई। इसी तरह दोनों देशों के सैन्य अफसरों की कई लंबी-लंबी बैठकों से भी कोई हल नहीं निकला। पिछले दो साल में सीमा की इस मुठभेड़ ने दोनों देशों के बीच जैसी बदमजगी पेश की है, वैसे 1962 के बाद कभी-कदाक ही हुई। गंभीर सीमा-विवाद के बावजूद दोनों राष्ट्रों के बीच व्यापार जिस गति से बढ़ता रहा, परस्पर यात्राएं होती रहीं और दोनों देशों के नेताओं के बीच जैसा संवाद चलता रहा, वह सारी दुनिया में चर्चा का विषय बनता रहा। भारत और चीन कई ज्वलंत अंतरराष्ट्रीय प्रश्नों पर समान रवैया अपनाकर परिपक्व नीतियों का उत्तम उदाहरण प्रस्तुत करते रहे हैं लेकिन गलवान घाटी के मुद्दे पर यह तनाव इतना लंबा कैसे खिंच गया?
यह ठीक है कि भारत के 20 सैनिक मारे गए लेकिन समझा जाता है कि चीन के भी कम से कम 50 सैनिक हताहत हुए। जहां तक चीनी सैनिकों द्वारा भारतीय जमीन पर कब्जा करने का सवाल है, स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्र के नाम अपने संदेश में कहा था कि भारत ने चीन को अपनी एक इंच जमीन पर भी कब्जा नहीं करने दिया है। तो फिर झगड़ा किस बात का है? गलतफहमियों और दोनों तरफ के स्थानीय फौजी कमांडरों की भूल से यदि मुठभेड़ हो गई और उसमें अत्यंत दुखद मौतें हो गईं तो दोनों तरफ से अफसोस जाहिर किया जा सकता है और मामले को हल माना जा सकता है। जहां तक सीमाओं के उल्लंघन का सवाल है, दोनों देशों के सैनिक और नागरिक साल में सैकड़ों बार एक-दूसरे की सीमा में घुस जाते हैं। सीमाओं पर न कोई दीवार बनी हुई है और न ही तार लगे हुए हैं। यह मामला तो छोटा है लेकिन इसने काफी गंभीर रुप धारण कर लिया है। दोनों राष्ट्र एक-दूसरे के आगे झुकते हुए नजर नहीं आना चाहते हैं।
इसके फलस्वरुप कई कठिनाइयां पैदा हो गई हैं। भारत के लगभग 20 हजार छात्र और नागरिक, जो चीन में कार्यरत थे, वे महामारी के कारण भारत आ गए थे, वे अब लौटना चाहते हैं। कई चीनी कंपनियों का व्यापार ठप्प हो गया है। वे भी भारत लौटना चाहती हैं। भारत की चिंता यह है कि द्विपक्षीय व्यापार में उसका असंतुलन 80 बिलियन डॉलर तक हो गया है। इसके अलावा आजकल पाकिस्तान के साथ चीन की घनिष्टता भी बढ़ती चली जा रही है। इस समय यूक्रेन-संकट के मामले में भारत और चीन लगभग एक-जैसा रवैया अपनाए हुए हैं। हालांकि चीन ऐसा कोई अवसर अपने हाथ से जाने नहीं देता है कि जिससे वह अमेरिका पर कूटनीतिक हमला बोल सके। वांग यी की दिल्ली-यात्रा कितनी सफल होगी, कहा नहीं जा सकता। यदि नरेंद्र मोदी अपने परम मित्र चीनी राष्ट्रपति शी चिन फिंग से सीधे बात करें तो गाड़ी आसानी से पटरी पर आ सकती है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-डॉ.संजय शुक्ला
देश पिछले दो साल से कोरोना महामारी की विभीषिका से जूझते रहा है इस त्रासदी ने अब तक 5.17 लाख लोगों की जान ले ली वहीं करोड़ों के हाथों से नौकरियां भी छिनी है। दरअसल देश में बेरोजगारी एक परंपरागत समस्या बनी हुई है लेकिन अब यह समस्य लोगों के सामाजिक और आर्थिक जीवन को इस कदर प्रभावित कर रहा है कि अब वे आत्महत्या के लिए मजबूर हो रहे हैं। संसद के जारी बजट सत्र में सरकार ने राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो के हवाले बताया है कि साल 2018 से 2020 यानि बीते तीन सालों में बेरोजगारी से 9 हजार तथा रोजगार छीनने के कारण कर्ज के बोझ तले दबे 16 हजार लोगों ने खुदकुशी कर ली है। साल 2020 से अब तक कोरोना महामारी ने सबसे ज्यादा असर रोजगार के क्षेत्र में डाला है फलस्वरूप एनसीबी के अगले रिपोर्ट में बेरोजगारी के चलते आत्महत्या के मामले में और इजाफा होने की उम्मीद है।इधर सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी यानि सीएमआईई के मुताबिक गांवों में काम की कमी के कारण पिछले महीने फरवरी में देश में बेरोजगारी दर छह महीने के रिकॉर्ड स्तर 8.1 फीसदी पर पहुंच गया है जबकि शहरों में स्तर 7.55 फीसदी रहा जो पिछले चार महीनों का सबसे निचला स्तर है। कोरोना महामारी से ठीक पहले फरवरी में बेरोजगारी दर 7.76 फीसदी थी वहीं पिछले साल मई में यह 11.84 के उच्च स्तर पर थी। यह वह समय था जब देश में महामारी की दूसरी लहर का साया था और गांव व शहर दोनों में लॉकडाउन था। सीएमआईई के अनुसार बीते साल दिसंबर तक देश में कुल 5.3 करोड़ बेरोजगार थे जिसमें महिलाओं की संख्या काफी ज्यादा है। भारत सरकार के मुताबिक कोरोना की दूसरी लहर में शहरी बेरोजगारी बढ़ी है। महामारी की पहली तिमाही में 1.45 करोड़ लोगों की नौकरी खत्म हुई तो दूसरी लहर में 52 लाख तथा तीसरी लहर में 18 लाख लोगों की नौकरियां गई। आंकड़ों के मुताबिक 2020 से अब तक 2.15 करोड़ लोगों के हाथों से रोजगार छिन गया।बहरहाल यह महज बेरोजगारी का आंकड़ा भर नहीं है बल्कि यह देश की अर्थव्यवस्था की तस्वीर है। भारत युवा आबादी के लिहाज से दुनिया में अव्वल है लेकिन युवाओं के ऊर्जा और प्रतिभाओं का समुचित उपयोग नहीं हो रहा है फलस्वरूप या तो वे परदेस पलायन के लिए विवश हैं अथवा कुंठाग्रस्त हो रहे हैं। एक रिपोर्ट के मुताबिक हमारे देश में हर साल एक करोड़ युवा वर्कफोर्स में शामिल हो जाते हैं लेकिन इस अनुपात में रोजगार सृजन नहीं हो पाता। देश में शिक्षित के साथ-साथ अशिक्षित बेरोजगारी भी बड़ी समस्या है।
गौरतलब है कि बढ़ती बेरोजगारी कल के भारत की खौफनाक तस्वीर पेश कर रही है। महामारी से पहले ही देश में आर्थिक मंदी, नोटबंदी,जीएसटी और वैश्विक मांग कम होने होने के कारण बेकारी की समस्या अपने रिकॉर्ड स्तर पर थी और शिक्षित बेरोजगारों की लंबी कतार मौजूद थी। कोरोना लॉकडाउन ने बेरोजगारों के सामने अनेक दुश्वारियां पैदा कर दी है। देश में बेरोजगारी दो तरह से बढ़ रही है पहला वह जिसमें शिक्षित युवा हैं जो पहले से ही रोजगार की कतार में हैं दूसरे वे जिनके हाथ पहले नौकरी या रोजगार था लेकिन महामारी ने इनका रोजगार छीन लिया। महामारी ने पर्यटन, विमानन, परिवहन, होटल,रेस्तरां से लेकर रेहड़ी पटरी पर छोटे व्यापार करने वालों को बुरी तरह से प्रभावित किया है तो दूसरी ओर आर्थिक बदहाली के चलते सरकारी और निजी क्षेत्र में नौकरी के दरवाजे लगभग बंद ही हैं। हालांकि महामारी की तीसरी लहर के ढलान के साथ ही अब इन क्षेत्रों में रौनक लौटने लगी है जिससे उम्मीद जगी है।
बहरहाल बेरोजगारी और कर्ज से आत्महत्या करने का मामला न केवल देश के लिए चिंताजनक है बल्कि मानवता को शर्मसार करने वाला है। हालिया दौर में बेरोजगारी देश के सामने सबसे बड़ी चुनौती बनकर उभरी है जिसने लाखों युवाओं के सुनहरे सपनों पर पानी फेर दिया है। देश के राजनीतिक इतिहास पर गौर करें तो बेरोजगारी जैसा बड़ा मुद्दा सियासत और चुनावी राजनीति में धर्म व जाति के मुद्दे के सामने बौना साबित हो रहे हैं। विडंबना है कि बेरोजगारी पर संसद में कभी भी गंभीर बहस नहीं हुई तो दूसरी ओर सरकार बेरोजगारों को महज कुछ हजार बेरोजगारी भत्ता देकर अपने जिम्मेदारी की इतिश्री मान लेती हैं। देश और प्रदेश की सरकारें बेरोजगारों के सामने रोजगार के लिए नई नीति या योजना परोसकर अथवा समिति बनाकर झूठा दिलासा दे रहीं हैं। गौरतलब है कि 1990 के दशक में जब देश में निजीकरण और आर्थिक उदारीकरण की नीतियां लागू किया गया तब दावा किया गया था कि इससे सबको रोजगार मिलेगा और देश खुशहाल बनेगा लेकिन स्थिति में कोई खासा बदलाव नहीं आया बल्कि शहरीकरण और औद्योगिकीकरण के कारण गांवों में खेती की जमीन कम हुई है फलस्वरूप गांवों में रोजगार के अवसर घटे हैं तथा शहरों की ओर पलायन बढ़ा है।
चिंतनीय है कि बढ़ती बेरोजगारी का दुष्प्रभाव असर अब समाज और परिवार पर दिखाई दे रहा है।बेरोजगार युवा बड़ी नशाखोरी, अपराध, अवसाद जैसे मानसिक रोग के गिरफ्त में आ रहे हैं या आत्महत्या के लिए विवश हो रहे हैं वहीं महिलाएं घरेलू हिंसा का शिकार हो रहे हैं। देश में महिला शिक्षा और सशक्तिकरण के तमाम नारों और दावों के बावजूद महिलाओं के लिए रोजगार के अवसर लगातार घट रहे हैं दरअसल इसके लिए हमारी रूढ़िवादी सामाजिक सोच भी जिम्मेदार है। देश में बेरोजगारी की समस्या के लिये प्रमुख रूप से जनसंख्या में वृद्धि, गरीबी, अशिक्षा, लचर शिक्षा व्यवस्था, खराब कौशल, कृषि क्षेत्र की लगातार उपेक्षा, कुटीर और लघु उद्योगों का खात्मा, मशीनीकरण, सरकारी लालफीताशाही और लायसेंस राज और बाजार गत परिस्थितियां जिम्मेदार हैं। शिक्षा और बेरोजगारी का गहरा संबंध है देश की एक बड़ी आबादी अभी भी अशिक्षित हैं खासकर बालिका शिक्षा में देश फिसड्डी साबित हो रहा है वहीं बीच में पढ़ाई छोड़ने वालों की तादाद दिनोदिन बढ़ रही है।
वैश्विक अर्थव्यवस्था के गलाकाट प्रतिस्पर्धा के दौर में भारत के युवाओं को तकनीकी और व्यवसायिक तौर पर उच्च कौशल उन्नयन की जरूरत है।वाणिज्यिक संगठन फिक्की के अनुसार देश में 21 से 35 आयु वर्ग के लगभग 10 करोड़ लोग हैं। एक अन्य रिपोर्ट के मुताबिक 25 फीसदी भारतीय ग्रेजुएट ही संगठित क्षेत्र में रोजगार के लायक हैं। एक सर्वे के अनुसार कौशल में कमी के कारण 48 फीसदी भारतीय कंपनियों को नौकरियां देने में दिक्कत आ रही है वहीं 36 फीसदी कंपनियों को कर्मचारी चयन करने के बाद उन्हें प्रशिक्षित करना पड़ता है। नि: संदेह यह परिस्थितियां देश के उच्च और तकनीकी शिक्षा के कमजोर गुणवत्ता के कारण बन रही है। देश के स्कूली से लेकर उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रमों में बदलती दुनिया के साथ तालमेल बिठाते हुए इसे रोजगारोन्मुख बनाने और कौशल उन्नयन हेतु प्रशिक्षण कक्षाओं पर जोर देने की जरूरत है। हमारी प्रतिभाएं नौकरी और उच्च शिक्षा के लिए परदेस पलायन न करें बल्कि वे रोजगार प्रदाता बनें इसके लिए अनुकूल वातावरण तैयार करते हुए देश के तकरीबन 50 विश्वविद्यालयों को विश्वस्तरीय बनाना होगा।
बहरहाल सरकार को बेरोजगारी के समाधान के लिए दूरगामी उपाय करने होंगे। रोजगार के अवसर पैदा हों इसके लिए केन्द्र सरकार को "राष्ट्रीय रोजगार नीति" बनाने की दरकार है, इस नीति के अंतर्गत शहर और गाँव के समावेशी आर्थिक विकास के साथ रोजगार के अवसरों को प्रोत्साहित करना होगा। चूंकि किसी भी सरकार के लिए सभी को सरकारी नौकरी देना संभव नहीं है लिहाजा युवाओं को स्वरोजगार, इन्फ्रास्ट्रक्चर और मैन्यूफैक्चरिंग उद्योग की दिशा में आगे बढ़ना होगा। देश की पूर्ववर्ती और वर्तमान सरकारों ने बेरोजगारी खत्म करने व स्वरोजगार को प्रोत्साहित करने के लिए दर्जनों योजनाएं लागू की है लेकिन इन योजनाओं की जमीनी हकीकत सबको मालूम है। सरकार को इन सभी योजनाओं को मिलाकर रोजगारपरक शिक्षा और कौशल उन्नयन पर योजना बनानी होगी ताकि लोगों को स्थायी रोजगार मिल सके। इसके अलावा मध्यम एवं कुटीर उद्योगों के पर्याय संरक्षण की दिशा में ईमानदार प्रयास करनी होगी। गांव आज भी 60 फीसदी लोगों को रोजगार मुहैया करा रहा है लिहाजा युवाओं को ग्रामीण रोजगार के संसाधन जैसे कृषि, फल-फूल बागवानी, डेयरी, मछलीपालन, मिट्टी, काष्ठ और लौह शिल्प के प्रति प्रोत्साहित करने के लिए सरल और उत्प्रेरक नीति बनानी होगी। गांवों में रोजगार की उपलब्धता सुनिश्चित के लिए मनरेगा और श्रम कानूनों को और प्रभावी बनाना होगा। ग्रामीण क्षेत्रों में अधोसंरचना और सूचना प्रौद्योगिकी विकास में तेजी लानी होगी ताकि आज के शिक्षित युवा ग्रामीण जीवन को अपना सकें।
-आशुतोष भारद्वाज
सोते हुए जख्म में तब्दील हो चुका बचपन का घर आपकी आहट से उठ जाता है। इस जख्म के कई निशान हैं। शायद सबसे तीखी कसक उन किताबों की है जो बेसमेंट में जमा होती गयीं। आप शहर और मकान बदलते रहे, हर बार घर लौटते वक्त गाड़ी में भरकर किताबें आती रहीं, बेसमेंट में इकट्ठा होती गईं। अशक्त होते माता-पिता इस घाव की पहरेदारी करते रहे।
किताबों की मेरी स्मृति चार बरस की उम्र से वीर बालक, महापुरुषों की कथाएँ, कॉमिक्स इत्यादि से शुरू होती है। इन किताबों और किरदारों ने मेरी कल्पना को रंग दिए, लेकिन जिन किताबों ने मुझे झकझोर दिया वे चमत्कार की तरह आठ-नौ की उम्र में आईं। घर की अलमारी में रखे शरत चंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास जो बहुत बाद में पता चला नानाजी ने माँ-पिता को शायद विवाह की वर्षगाँठ पर दिये थे-परिणीता, बैकुंठ का दानपत्र, अकेली और बिंदु का बेटा।
इनमें से आखिरी उपन्यास न मालूम कहाँ खो गया, तीन साथ रहे आए। इन उपन्यासों की तरलता बहुत देर तक साथ रही, जब तक यह एहसास नहीं हुआ कि अब वही किताबें पढऩे की उम्र है, जो कोई बीता घाव भर दें, या नया घाव दे जायें।
कुछ बरस पहले दीपावली की छुट्टी में घर जाने पर पाया कि किताबों पर दीमक लग गई है। कई सारी किताबें मिट्टी हो गई थीं, उनमें शरत चन्द्र के तीन उपन्यास भी थे। जीवन में नयी किताबें आती गयीं, पिछली किताबें बेसमेंट में जमा होती गयीं। माँ-पिता कब तक नीचे सीढिय़ाँ उतर कर जाते? इतनी उपेक्षा कोई स्वाभिमानी किताब कैसे सहती? उसे तो छोडक़र जाना था।
उसके बाद की दीपावली पर मैंने बढ़ई को बुलाकर घर के हॉल में छत तक जाती कई शेल्फ बनवा लीं। यहाँ माँ-पिता की निगाह रोज जाती थी, किताबें सुरक्षित थीं, लेकिन अब मैंने उनकी बैठक में अपनी उन किताबों को स्थापित कर दिया था, जिन्हें मैं अपने साथ नहीं रख पा रहा था। ऐसा भी नहीं था कि जिन शहरों के जिन मकानों में रहता आया था, वहाँ इन किताबों को नहीं रख सकता था। लेकिन चूँकि खटका लगा रहता था कि यह मकान और यह शहर कभी भी छूट सकते हैं, किताबें इस आशंकित जीवन से हारती गईं, बचपन के घर का जख्म गहरा होता गया।
जब भी घर जाना होता है, मसलन पिछले हफ्ते होली पर, यह घाव गुनाह की तरह दिखाई देता है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
आस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री स्कॉट मोरिसन ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ हुई अपनी द्विपक्षीय वार्ता में वही बात कही, जो जापान के प्रधानमंत्री फ्यूमिओ किशिदा ने कही थी। दोनों प्रधानमंत्रियों ने यूक्रेन के सवाल पर रूस की आलोचना की और यह भी कहा कि रूस ने यूरोप में जो खतरा पैदा किया है, वैसा ही खतरा एशिया में चीन पैदा कर सकता है। इन दोनों देशों में कई नेताओं ने यह साफ-साफ कहा है कि यूक्रेन पर जैसा हमला रूस ने किया है, वैसा ही ताइवान पर चीन कर सकता है। चीन पर यह दोष तो पहले से ही मढ़ा हुआ है कि वह चीनी दक्षिण सागर और जापान के एक टापू पर अपना अवैध वर्चस्व जमाए हुआ है। इन दोनों नेताओं के साथ मोदी ने इसी बात पर जोर दिया कि सभी देशों की स्वतंत्रता और संप्रभुता की रक्षा की जानी चाहिए और हमले की बजाय बातचीत को पसंद किया जाना चाहिए।
दोनों नेताओं ने भारत को यूक्रेन के दलदल में घसीटने की कोशिश जरुर की लेकिन भारत अपनी नीति पर अडिग रहा। जापान और आस्ट्रेलिया ने अंतरराष्ट्रीय मंचों पर रूस के खिलाफ मतदान किया और उस पर थोपे गए प्रतिबंधों का समर्थन किया लेकिन भारत ने अमेरिका के इशारे पर थिरकने से मना कर दिया। भारत को डराने के लिए इन राष्ट्रों ने चीन का घडिय़ाल भी बजाया लेकिन आश्चर्य है कि इन्होंने अपनी पत्रकार-परिषद और संयुक्त वक्तव्य में एक बार भी गलवान घाटी में चीनी अतिक्रमण का जिक्र तक नहीं किया। इसका अर्थ यही निकला कि हर राष्ट्र अपने राष्ट्रीय स्वार्थो की ढपली बजाता रहता है और यह भी चाहता है कि दूसरे राष्ट्र भी उसका साथ दें।
यह अच्छा है कि भारत ने कई बार दो-टूक शब्दों में कह दिया है कि चौगुटा (क्वाड) नाटो की तरह सामरिक गठबंधन नहीं है लेकिन चीनी नेता इस चौगुटे को नाटो से भी बुरा सैन्य-गठबंधन ही मानते हैं। वे इसे ‘एशियन नाटो’ कहते हैं। उनका मानना है कि शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद नाटो जैसे सैन्य संगठन को विसर्जित कर दिया जाना चाहिए था लेकिन उसके साथ पहले तो रूस के पूर्व प्रांतों को जोड़ लिया गया और अब यूक्रेन को भी शामिल किया जाना था। अमेरिका की यही आक्रामक नीति ‘क्वाड’ के नाम से एशिया में थोपी जा रही है। चीन को पता है कि अमेरिका की यह आक्रामकता यूरोप और एशिया, दोनों का भयंकर नुकसान करेगी। चीन के विदेश मंत्री शीघ्र ही भारत आनेवाले हैं। इस समय यूक्रेन पर भारत और चीन का रवैया लगभग एक-जैसा ही है। (नया इंडिया की अनुमति से)
-डॉ. परिवेश मिश्रा
समाजसेवा और धर्मार्थ कार्य करने में उद्यत मारवाड़ी जब रायगढ़ और सारंगढ़ जैसे जनहितैशी आदिवासी राजाओं के इलाकों में बसे (उत्तर के जशपुर राज्य में व्यवसायी वर्ग अधिकतर जैन धर्म का था और बिहार के हजारीबाग जैसे इलाकों से पहुंचा था) तो सामाजिक व्यवस्था में जो कई असर नजऱ आये, उनमें प्रमुख था : राज्य-संरक्षण में होने वाली जनकल्याणकारी और परोपकारी गतिविधियों में घुलमिल कर ‘धरम-करम’ की व्यक्तिगत परम्परा का समाजीकरण होना।
पहला बड़ा उपक्रम 1935-36 में रायगढ़ में सामने आया। मारवाडिय़ों की ओर से पहल हुई और राजा चक्रधर सिंहजी के द्वारा दान की गयी भूमि पर एक अनाथालय स्थापित किया गया। नामकरण में कोई समस्या नहीं थी। 'श्री चक्रधर अनाथालय' अब भी रायगढ़ की पहचान है।
धीरे-धीरे दानदाताओं की संख्या बढ़ी, शहर के सेठ तथा अन्य लोगों के अलावा गावों से सम्पन्न किसान भी जुड़ते चले गये और 1954 में सेठ पालूराम धनानिया की अध्यक्षता में इसे एक पंजीकृत ट्रस्ट का रूप दे दिया गया। सेठ किरोड़ीमल शुरुआती दानदाता थे। बीस वर्षों में सेठ जगतनारायण, सेठ पुरुषोत्तम दास मोड़ा, सेठ हरिश्चंद्र, श्री किशोरीमोहन त्रिपाठी, रामस्वरूप रतेरिया जैसे नामों की लिस्ट लम्बी होती चली गयी थी। इलाके में शायद ही कोई छूटा होगा जिसके पास कुछ धन हो और उसने दान न दिया हो। आज़ादी के बाद बाहर से आनेवाले मंत्री और नेताओं के लिए यहां दान देना उतना ही आवश्यक मान लिया गया जितना विदेश से आने वाले राजनेता के लिए कभी राजघाट पर पुष्पार्पण होता था। राज्य और केन्द्र के समाज कल्याण विभागों से भी बहुत सहायता मिली।
राजा चक्रधर सिंह की मृत्यु के बाद उनके बड़े पुत्र ललित कुमार सिंह जी राजा बने। राज्य का भारतीय संघ में विलय हुआ और राजा ललित कुमार सिंहजी पहले और दूसरे आमचुनावों में कांग्रेस की ओर से घरघोड़ा (रायगढ़ के पास) क्षेत्र से विधायक निर्वाचित हुए। विधायक के रूप में उन्हे 150 रुपये का भत्ता प्रतिमाह मिलता था। अपने पूरे कार्यकाल में प्राप्त इस राशि को वे अनाथालय के लिए दान करते रहे।
उस दौरान सारंगढ़ से राजा नरेशचन्द्र सिंहजी विधायक (और मंत्री) थे। (प्रथम दो आमचुनावों में एक व्यवस्था थी जिसके अंतर्गत आरक्षित सीटें सामान्य सीटों से अलग नहीं थीं। अनेक विधानसभा और लोकसभा क्षेत्र ऐसे थे जहां से दो-दो प्रत्याशी निर्वाचित होते थे। प्रत्येक वोटर दो वोट देता था - एक सामान्य उम्मीदवार के लिए दूसरा आरक्षित वर्ग के लिए)। सारंगढ़ में सामान्य कोटे से राजा साहब और आरक्षित कोटे से 1951 में श्री वेदराम तथा 1957 में इलाके की एकमात्र महिला उम्मीदवार श्रीमती नान्हू दाई चुनी गयी थीं।)
तीसरा आमचुनाव (1962) आते तक स्थितियां बदल गयीं। संविधान के प्रावधान के अनुसार हर दस वर्ष में होने वाली जनगणना भी हो चुकी थी और विधान सभा/लोक सभा के क्षेत्रों का परिसीमन भी हो चुका था। (दोनों मामलों में, देश की सरकारें अब इस प्रति-दस-वर्ष वाले नियम से बचने के रास्ते/बहाने ढूंढऩे लगी हैं)।
परिसीमन के बाद एक नया विधानसभा क्षेत्र अस्तित्व में आया जिसका नाम था पुसौर। महानदी के दोनों ओर फैला हुआ - उत्तर में पुराना रायगढ़ राज और दक्षिण में सारंगढ़ का इलाका। एक परिवर्तन और आया था। राजा ललित कुमार सिंह कांग्रेस छोडक़र रामराज्य परिषद में शामिल हो गये थे। घरघोड़ा से कांग्रेस ने राजा ललित के छोटे (मंझले) भाई श्री सुरेन्द्र कुमार सिंह को टिकिट दिया (और वे विजयी भी हुए)।
आज़ादी के बाद के दिनों में छत्तीसगढ़ में कुछ राजे-रजवाड़े अखिल भारतीय रामराज्य परिषद में शामिल हुए थे। 1948 में स्वामी करपात्री जी ने एक हिन्दु-राष्ट्रवादी राजनैतिक पार्टी के रूप में इस पार्टी का गठन किया था।
उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जि़ले में हरनारायण ओझा के नाम से जीवन शुरु करने वाले स्वामी हरिहरानन्द सरस्वती जी को स्वामी करपात्री या करपात्री महाराज के रूप में जाना गया था। उनकी एक विशिष्ट आदत थी : वे केवल उतना ही भोजन ग्रहण करते थे जो पात्र के रूप में फैली उनकी हथेली (‘कर’) में समा जाए। कुछ राजाओं के जुडऩे का लाभ अवश्य मिला किन्तु एक राजनैतिक पार्टी के रूप में रामराज्य परिषद की अपनी स्वतंत्र जड़ें समाज में नहीं थीं।
इस तीसरे चुनाव में राजा ललित कुमार सिंहजी ने राम राज्य परिषद के उम्मीदवार के रूप में नये अस्तित्व में आये पुसौर क्षेत्र से लडऩे का फ़ैसला किया। इधर परिसीमन का प्रभाव सारंगढ़ सीट पर भी पड़ा था। क्षेत्र आरक्षित घोषित हो गया था। राजा नरेशचन्द्र सिंहजी को नयी सीट पर लडऩा था और कांग्रेस ने उन्हे पुसौर सीट पर प्रत्याशी बनाया।
यहां उल्लेख करते चलें कि राजा नरेशचन्द्र सिंहजी की बहन बसन्तमाला जी का विवाह सन 1932 में बड़ी धूमधाम के साथ रायगढ़ के राजा चक्रधर सिंह के साथ हुआ था। पुराने किस्से सुनाने वाले लोग बताते थे कि शादी के बाद मेहमानों और दहेज का सामान ले जाने वाली पहली बैलगाड़ी जब रायगढ़ पहुंची तब तक कतार में चल रही अंतिम गाड़ी सारंगढ़ से रवाना नहीं हो पायी थी।
चुनाव अभियान शुरू हुआ तो पब्लिक मीटिंग भी होने लगीं। ऐसी ही एक सभा में राजा ललित कुमार सिंह जी ने कांग्रेस के उम्मीदवार राजा नरेशचन्द्र सिंह जी के बारे में कुछ ऐसा कहा जिसे मसखरी में की गयी आलोचना जैसा कहा जा सकता है।
चूंकि उनकी पार्टी उनके इर्द-गिर्द के लोगों की ही अधिक थी, इसलिए स्वाभाविक था उनके प्रचारक साथियों में स्थापित और अनुभवी राजनैतिक कार्यकर्ताओं के स्थान पर दरबारी किस्म के लोगों की बहुतायत होती थी। सभा में राजा ललित कुमारजी के भाषण के बाद जो वक्ता बोलने आये वे कुछ समय पहले रायगढ़ में हुए फज़ऱ्ीवाड़े के एक चर्चित काण्ड में लिप्त पाये जाने के कारण कांग्रेस से निष्कासित किये जा चुके थे। इस काण्ड की जांच प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरुजी के व्यक्तिगत आदेश पर की गयी थी। पं. नेहरू तक इस फज़ऱ्ीवाड़े की जानकारी राजा साहब सारंगढ़ के माध्यम से पहुंची थी (यह कहानी कभी और)। निष्कासित नेताजी इस चुनाव में राजा ललित जी के समर्थक के रूप में अवतरित थे। मंच पर बोलने का अवसर मिला तो शायद अतिउत्साह में या अपने राजा को प्रसन्न करने की गरज से, अपने भाषण में विरोधी पार्टी कांग्रेस के उम्मीदवार राजा नरेशचन्द्र सिंह जी का नाम ले कर कुछ कहना शुरू कर दिया।
शब्द उनके मुंह से बाहर आये ही थे कि गुस्से से तमतमाये चेहरे के साथ राजा ललित कुमार सिंह खड़े हो गये। उन्होंने अपने वक्ता समर्थक के चेहरे पर एक थप्पड़ चस्पा किया था और कहा : ‘सारंगढ़ राजा साहब मेरे मामा हैं। मैं जो चाहे बोलूं मुझे क्षम्य है। पर अपनी पार्टी की बात छोडक़र उनके बारे में अपशब्द बोलने वाले आप कौन होते हैं?’
कम से कम पहले तीन आमचुनावों में किसी विरोधी उम्मीदवार के लिए व्यक्तिगत टिप्पणी किये जाने का (और उसकी असरकारी परिणति का) मेरे लिए यह एकमात्र ज्ञात वाकया है। अनेक उदाहरण बताते हैं उन दिनों राजनैतिक संबंधों की परिभाषा अलग थी।
डॉ खूबचंद बघेल छत्तीसगढ़ के बहुत वरिष्ठ और सम्मानित नेता रहे हैं। जीवन भर तो वे कांग्रेस में थे लेकिन 1950 में आचार्य कृपलानी के साथ कांग्रेस छोडक़र नवगठित ‘कृषक मजदूर प्रजा पार्टी’ में चले गये थे। (1957 का चुनाव आते तक इस पार्टी ने प्रजा सोशलिस्ट पार्टी का रूप ले लिया था)। 1957 के दूसरे आमचुनाव में सारंगढ़ का इलाका बलौदा बाज़ार नामक लोक सभा का हिस्सा था। ( 1951 में महासमुंद का था)। इस क्षेत्र से कांग्रेस के दो उम्मीदवार थे - सामान्य कोटे से श्री विद्याचरण शुक्ल तथा आरक्षित से श्रीमती मिनीमाता। प्रजा सोशलिस्ट पार्टी की ओर से प्रचार करते घूम रहे श्री खूबचंद बघेल सारंगढ़ क्षेत्र में भी आये। कुछ गांवों में सभाएं की, लोगों से मिले, उनका नज़रिया जाना और उसके बाद वे सीधे राजा नरेशचन्द्र सिंह जी के पास पहुंचे। राजा साहब ने अपने से वरिष्ठ बघेल जी का स्वागत किया। एक दूसरे के हालचाल पूछे गये, बघेल जी ने भोजन किया, विश्राम किया और वापस चले गये। उनके अनुसार यहां प्रचार करना बेमानी था। यह राजा साहब का प्रभाव क्षेत्र था। उन्होने किसी और क्षेत्र में समय का अधिक प्रभावी उपयोग करना बेहतर समझा। जाते समय यह बात स्वीकार करने में उन्हे कोई झिझक नहीं हुई थी।
राजनैतिक प्रतिबद्धताओं की अपेक्षा आपसी रिश्तों को प्राथमिकता देने के उदाहरण बाद में भी मिले।
1980 में सुश्री पुष्पा देवी सिंहजी पहली बार रायगढ़ क्षेत्र से कांग्रेस की ओर से चुनाव लडऩे के लिए मैदान में थीं। अपने घर से लगभग तीन सौ किलोमीटर दूर जशपुर के पहाड़ी क्षेत्र में प्रचार और जनसम्पर्क के दौरान एक दिन सामने से जशपुर के राजा विजयभूषण सिंह देव जी की गाड़ी आते दिखी।
राजा साहब पहले दोनों आमचुनावों में जशपुर से विधायक रह चुके थे। तीसरा आमचुनाव परिसीमन के बाद हुआ था। लोकसभा के लिए रायगढ़ पहली बार एक स्वतंत्र (अनारक्षित) सीट बनी थी (1951 और 1957 में इसे सरगुजा-रायगढ़ कहा जाता था)। राजा साहब इस तरह रायगढ़ लोकसभा क्षेत्र से पहले सांसद थे। उस समय उनकी पार्टी थी राम राज्य परिषद। उस चुनाव में इस पार्टी से केवल दो सांसद लोकसभा में पहुंचे थे। राजा साहब उनमें से एक थे। बाद में इस पार्टी का जनसंघ में विलय हो गया था। किन्तु 1980 का चुनाव ऐसे समय में हो रहा था जब न जनसंघ थी न भाजपा। जनसंघ के जनता पार्टी में विलीन हुए तीन वर्ष हो चुके थे और दोबारा एक नये नाम 'भारतीय जनता पार्टी' के साथ उदय होने में तीन माह बाकी थे। मोरारजी देसाई के नेतृत्व वाली सरकार में मंत्री रहे और मूलत: जनसंघ के नेता श्री नरहरि साय जनता पार्टी की ओर से सामने थे।
राजा विजयभूषण सिंह देव, जशपुर
पुष्पा देवीजी ने कार से उतर कर राजा साहब को झुक कर प्रणाम किया। राजा साहब ने आशीर्वाद दिया, दोनों ने एक दूसरे के परिवार की कुशलक्षेम पूछी। राजा साहब ने पूछा रहने की क्या व्यवस्था है? और खाने-पीने की ? कोई अन्य तकलीफ तो नहीं है? और फिर जाते जाते कहा ‘फलां गांव में आपके कार्यकर्ता कमज़ोर हैं’। राजनैतिक प्रतिबद्घता एक तरफ, सामाजिक और व्यक्तिगत शिष्टता राजा विजयभूषण सिंह देव जी के बाद की पीढिय़ों में भी बरकरार रही। आज भी है।
समय के साथ सामाजिक जीवन के हर पहलू में बदलाव आया है तो राजनीति कैसे अछूती रहे ?
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने भारतीय विदेश नीति की खुले-आम तारीफ करके अपना फायदा किया है या नुकसान, कुछ कहा नहीं जा सकता। इस वक्त पाकिस्तान की फौज और उनके गठबंधन के कुछ सांसद उनसे इतने नाराज़ हैं कि उनकी सरकार अधर में लटकी हुई है। यदि इस्लामी सहयोग संगठन (ओआईसी) के सम्मेलन में 50 देश भाग लेने के लिए इस्लामाबाद नहीं पहुंच रहे होते तो इमरान सरकार शायद अब तक गुडक़ जाती। लगभग उनके दो दर्जन सांसदों ने बगावत का झंडा खड़ा कर दिया है। पाकिस्तानी संसद में वे सिर्फ 9 सांसदों के बहुमत से अपनी सरकार चला रहे हैं।
पाकिस्तान के पत्रकारों ने मुझे बताया कि इमरान के बागी सांसद तभी पार्टी का साथ देंगे जबकि इमरान की जगह उनके विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी या परवेज खट्टक को प्रधानमंत्री बना दिया जाए। इनके नामों पर फौज सहमत हो सकती है। फौज के घावों पर इमरान ने यह कहकर नमक छिडक़ दिया है कि पाकिस्तानी विदेश नीति हमेशा किसी न किसी महाशक्ति की गुलामी करती रही है जबकि भारत हमेशा आजाद विदेश नीति चलाता रहा है। भारत ने यूक्रेन के मामले में भी अमेरिका और नाटो देशों का समर्थन नहीं किया है।
अमेरिका के साथ भारत के सामरिक रिश्ते घनिष्ट हैं लेकिन वह रूस से तेल आयात कर रहा है। जो यूरोपीय देशों के राजदूत पत्र लिखकर पाकिस्तान को उपदेश दे रहे हैं कि वह रूस की निंदा करे, वे ये ही सलाह भारत को देने की हिम्मत क्यों नहीं करते? पाकिस्तान को उन्होंने क्या गरीब की जोरु समझ रखा है? उन्होंने कहा है कि मैं पाकिस्तान का सिर ऊँचा रखूंगा। न किसी के आगे कभी झुका हूं, न पाकिस्तान को झुकने दूंगा।
इमरान ने यह भी याद दिलाया कि अगस्त में जब अमेरिकी अफगानिस्तान खाली कर रहे थे तो उन्होंने पाकिस्तान से एक सैन्य अड्डे की सुविधा मांगी थी तो उन्होंने साफ इंकार कर दिया था। प्रधानमंत्री इमरान से जब—जब मेरी भेंट हुई है, भारत के प्रति उनका रवैया अन्य पाकिस्तानी नेताओं से मुझे भिन्न मालूम पड़ा है। प्रधानमंत्री बनने के तुरंत बाद उन्होंने भारत के बारे में जो बयान दिए थे, उसमें भी वह प्रकट हुआ था। लेकिन पाकिस्तान की फौज और नेतागण हमेशा भारत से इतने डरे रहते हैं कि वे कभी अमेरिका या कभी चीन की गोद में बैठकर ही अपने आप को सुरक्षित समझते हैं।
प्रधानमंत्री के तौर पर इमरान खान भी अभी तक इसी नीति पर चलते रहे हैं। दो-चार साल तक प्रधानमंत्री बने रहने पर हर पाकिस्तानी नेता फौज के वर्चस्व से मुक्त होना चाहता है लेकिन हमने बेनजीर भुट्टो और नवाज़ शरीफ का हश्र देखा है। क्या मालूम, इमरान खान भी उसी तरह उछालकर फेंक दिए जाएं। उन्हें तख्ता-पलट के द्वारा नहीं, वोट-पलट के द्वारा उलट दिया जा सकता है। (नया इंडिया की अनुमति से)
21 मार्च विश्व वानिकी दिवस पर वरिष्ठ पत्रकार प्राण चड्ढा ने लिखा
जब कोई बच्चा जन्म लेता है तो यह माना जाता है कि भगवान अभी मानव जाति से नाराज नहीं, असीम प्यार रखता है। छतीसगढ़ के अचानकमार टाइगर रिजर्व में तो अपवाद स्वरूप बाइसन मां दो नवजात शावकों के संग वीडियो रिकार्ड की गई। अर्थात इस पार्क के संवारने में प्रकृति मां का स्नेह बरकरार है।
लेकिन जब तक अधिकारी दफ्तर में रहेंगे तो पार्क के हालात से कैसे वाकिफ होंगे? यह भी मान लो कि समस्या की सारी जानकारी उनको है, तो फिर समस्या का हल क्यों नहीं पार्क की जमीन पर दिखता।
जहां सैलानियों की जिप्सी से वन्य जीवों को शिकार के लिए लगाया गया फंदा टकरा जाए और वन विभाग के गार्ड भी दूसरा फंदा खोज लाये तो न जाने कितने फंदे अभी और लगे होंगे। 19 गांव इस पार्क के सीने में अंगद के पांव समान जमे हैं। वर्षों हो गए गांव वाले भी अपने बेहतर भविष्य के लिए पार्क छोड़ने को तैयार हैं तो फिर देर किस बात की। क्यों नहीं विस्थापन की समस्या का निदान सरकार कर रही?
सवाल अब नई पीढ़ी का है। छोटे बच्चे अचानकमार में मन्दिर के सामने कुछ पाने की आस से कतार में खड़े हैं। यहां के रहवासी पशुपालन युग में जीते हैं जहाँ कोर जॉन का बोर्ड लगा है। वही इनकी दर्जनों भैंसे चरती दिखती हैं। बेहतर हो गांव वालों को गांव के आसपास चराई के लिए भूमि बता दी जाए और मवेशी तथा वन्यजीवों के बची दूरी बनी रहे, जिससे एक दूसरे में चपका- खुरहा जैसे रोगों के फैलाव की आशंका भी नहीं रहेगी।
अचानकमार के इलाके में जंगली हाथी आ गए हैं उनको हटाया जाना कठिन है। लेकिन उनके भय से शिकारी और लकड़ी कटाई की घटनाओं में कमी होगी। सिंहावल में जब तक पालतू हाथियों को बंद करके रखा जायेगा, जंगली हाथी उनसे मिलने आते-जाते रहेंगे। यहां के हाथियों के जंगली हाथियों से मिला सके तो उनका पुनर्वास हो सकता है।
वन्यजीवों के लिए पानी को जो व्यवस्था की गई है, वह आने वाली गर्मी में नाकाफी होगी। अचानकमार पार्क पहाड़ों पर बसा है। मनियारी नदी सहित यहां से बरसात का पानी बह कर नीचे मैदानी इलाके में चल जाता है। इससे पार्क में इन दिनों पानी की कमी बन जाती है। इसके लिए सौर ऊर्जा संचालित पंपों की संख्या बढ़नी होगी और सूखे गड्ढों में टैंकर से पानी भरना होगा जिसकी तैयारी करने विलम्ब नहीं हो तो बेहतर होगा।
जंगल के महुआ फूल अब बस टपकने वाले हैं। उनको एकत्र करने पालतू कुत्तों के साथ ग्रामीण जंगल में प्रवेश के करते हैं। भालू भी महुआ फूलों के शौकीन होते हैं। महुआ फूल एकत्रित करने गांव वाले जमीन पर गिरे पत्ते जला देते है, ताकि महुआ सहज दिखे और जल्दी एकत्र हो, पर यह अग्नि दावानल बन कर जंगल भी जला देती है। ऐसी घटनाएं वन्यजीवों की सुरक्षा के मद्देनजर रोकनी होंगी। पार्क के पास स्टाफ है अगर सही मॉनिटरिंग हुई तो गर्मी में पार्क की सेहत को बड़ा लाभ होगा।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
जापान के नए प्रधानमंत्री फ्यूमियों किशिदा ने अपनी पहली विदेश यात्रा के लिए भारत को चुना, यह अपने आप में महत्वपूर्ण है। भारत और जापान के बीच कुछ दिन पहले चौगुटे (क्वाड) की बैठक में ही संवाद हो चुका था लेकिन इस द्विपक्षीय भेंट का महत्व इसलिए भी था कि यूक्रेन-रूस युद्ध अभी तक चला हुआ है। दुनिया यह देख रही थी कि जो जापान दिल खोलकर भारत में पैसा बहा रहा है, कहीं वह यूक्रेन के सवाल पर भारत को फिसलाने की कोशिश तो नहीं करेगा लेकिन भारत सरकार को हमें दाद देनी होगी कि मोदी-किशिदा वार्ता और संयुक्त बयान में वह अपनी टेक पर अड़ी रही और अपनी तटस्थता की नीति पर टस से मस नहीं हुई।
यह ठीक है कि जापानी प्रधानमंत्री ने अगले पांच साल में भारत में 42 बिलियन डॉलर की पूंजी लगाने की घोषणा की और छह मुद्दों पर समझौते भी किए लेकिन वे भारत को रूस के विरुद्ध बोलने के लिए मजबूर नहीं कर सके। भारत ने राष्ट्रों की सुरक्षा और संप्रभुता को बनाए रखने पर जोर जरुर दिया और यूक्रेन में युद्धबंदी की मांग भी की लेकिन उसने अमेरिका के सुर में सुर मिलाते हुए जबानी जमा-खर्च नहीं किया।
अमेरिका और उसके साथी राष्ट्रों ने पहले तो यूक्रेन को पानी पर चढ़ा दिया। उसे नाटो में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित किया और रूस ने जब हमला किया तो सब दुम दबाकर बैठ गए। यूक्रेन को मिट्टी में मिलाया जा रहा है, लेकिन पश्चिमी राष्ट्रों की हिम्मत नहीं कि वे रूस पर कोई लगाम कस सकें। किशिदा ने मोदी के साथ बातचीत में और बाद में पत्रकारों से बात करते हुए रूस की काफी भर्त्सना की लेकिन मोदी ने कोरोना महामारी की वापसी की आशंकाओं और विश्व राजनीति में आ रहे बुनियादी परिवर्तनों की तरफ ज्यादा जोर दिया। जापानी प्रधानमंत्री ने चीन की विस्तारवादी नीति की आलोचना भी की। उन्होंने दक्षिण चीनी समुद्र का मुद्दा तो उठाया लेकिन उन्होंने गलवान घाटी की भारत-चीन मुठभेड़ का जिक्र तक नहीं किया। भारत सरकार अपने राष्ट्रहितों की परवाह करे या दुनिया भर के मुद्दों पर फिजूल की चौधराहट करती फिरे ? चीनी विदेश मंत्री वांग यी भी भारत आ रहे हैं। चीन और भारत, दोनों की नीतियां यूक्रेन के बारे में लगभग एक-जैसी हैं। भारत कोई अतिवादी रवैया अपनाकर अपना नुकसान क्यों करें? भारत-जापान द्विपक्षीय सहयोग के मामले में दोनों पक्षों का रवैया रचनात्मक रहा। (नया इंडिया की अनुमति से)
-समीर चौगांवकर
1930 में महात्मा गांधी जेल में थे और उसी साल दिसंबर 1930 में अपनी पत्रिका के लिए ‘मैन ऑफ द ईयरज् (वर्ष का व्यक्तित्व) के चुनाव के लिए टाइम के संपादकों की एक बैठक हुई। जो लोग टाइम पर्सन ऑफ द ईयर के लिए दावेदार थे उसमें गोल्फ खिलाड़ी ‘बॉबी जोन्स’ जिसने चार प्रमुख चैम्पियनशिप जीते थे, दूसरे ‘सिनक्लेयर लेविस’ जो 1929 में साहित्य के नोबेल पुरस्कार जीतने वाले पहले अमेरिकी थे, तीसरे शख्सियत थे ‘जोसेफ स्टालिन’ जो पोलित ब्यूरो में अपने सारे प्रतिस्पर्धिर्यो को परास्त करते हुए अब 15 करोड़ लोगों के भाग्य का संपूर्ण रूप से स्वामी थे और चौथे दावेदार के रूप में दूनिया का सबसे खतरनाक अपराधी ‘अल कोपेन’ था जो 1930 में ही जेल से रिहा किया गया था। महात्मा गांधी का नाम इन चार नामों जिन पर विचार होना था, में नहीं था।
टाइम के संपादकों ने जब ‘टाइम पर्सन ऑफ द ईयरज् के लिए विचार करना शुरू किया तो संपादकों ने एक स्वर में महसूस किया कि इन चारो दावेदारों के बाहर पूरी दुनिया में एक ऐसा व्यक्ति भी है जिसके विराट व्यक्तित्व और अपार लोकप्रियता का सिर्फ हिन्दुस्तान ही नहीं दुनिया में कोई मुकाबला नहीं है। टाइम के संपादकों ने माना कि हिन्दुस्तान के जेल में बंद उस अर्धनग्न आदमी ने 1930 में विश्व इतिहास पर इतनी गहरी छाप छोड़ी है कि उसका मुकाबला किसी से नहीं किया जा सकता। इस अकेले व्यक्ति ने अपने अहिंसा और सत्याग्रह से अंग्रेजी सरकार के भीमकाय शरीर में करंट और कंपकंपी पैदा कर दी हैं।
उसी साल 1930 में ही गांधी की आत्मकथा ‘महात्मा गांधी: हिज ओन स्टोरी’ के नाम से अमेरिका में मैकमिलन द्वारा प्रकाशित किया गया था। टाइम पत्रिका ने गांधी की आत्मकथा को असाधारण रूप से स्पष्टवादी करार दिया जबकि उस दौर में प्रथम विश्वयुद्ध के वरिष्ठ सेनानायकों, मशहूर नायिकाओं और दुनिया के जाने माने राजनीतिज्ञों की आत्मकथाओं की बाढ़ आई हुई थी।
टाइम पत्रिका ने अपनी संपादकीय में लिखा कि गांधी की आत्मकथा पढ़ते वक्त पाठक बहुत सारी सनसनीखेज घटनाओं, आश्चर्यो, सहानुभूतियों और प्रशंसाओं का अनुभव करेंगे, लेकिन आखिरकार उनके मन में प्रशंसा ही बची रह जाएंगी जब वह याद करेगा कि कितने कम आत्मकथा लेखकों ने अपने निजी जीवन की कमजोरियों को छुपाने का कोई प्रयास नहीं किया।
और इस तरह वर्ष 1930 के लिए मोहन दास करमचंद गांधी को टाइम पत्रिका की तरफ से ‘मैन आफ द ईयर’ चुना गया। 1931 मे टाइम का अंक छपकर बाहर आया तब भी गांधी जेल में थे। टाइम मैगजीन का अंक हाथों हाथ बिक गया और टाइम के संपादकों पर इस बात का दबाव था कि वह और अंक प्रकाशित करें।
1940 आते आते हमारे बापू पूरी दुनिया में लोकप्रिय हो चुके थे। महात्मा गांधी ने कभी भी अमेरिका की धरती पर कदम नहीं रखा, लेकिन उनका लिखा सबसे ज्यादा अमेरिका में पढ़ा जाता था। दुनिया के तमाम बड़े अखबार महात्मा गांधी पर संपादकीय लिखते थे। दुनिया का हर बड़ा व्यक्ति महात्मा गांधी से मिलने को बेचैन और उत्सुक रहता था।
महात्मा की यही महानता थी और इसलिए हमारे राष्ट्रपिता हमारे लिए और दुनिया के लिए सम्माननीय हैं और रहेंगे।
गांधी अपनी पहचान के लिए किसी विदेशी के बनाई फिल्म के मोहताज नहीं हैं।
रमेश अनुपम
छत्तीसगढ़ एक खोज में बस्तर महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव पर लिखते हुए मुझे लगा कि खाली उपलब्ध तथ्यों को खंगालते हुए किसी नए तथ्य का अनुसंधान कर पाना मेरे लिए संभव नहीं है। मुझे लगा कि इसके लिए एक बार मुझे जगदलपुर जाकर ग्राउंड रिपोर्ट भी करनी चाहिए।
सो ‘देशबंधु’ के पूर्व पत्रकार भरत अग्रवाल जिनका एक लंबा अरसा बस्तर में बीता है, उनके साथ मैं बस्तर की यात्रा पर निकल पड़ा महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की तलाश में।
जगदलपुर में मदन आचार्य से इस यात्रा को लेकर पहले ही बात हो गई थी। इसलिए जगदलपुर में उनके साथ होने से लोगों से संपर्क स्थापित करना मेरे लिए आसान हो गया था।
बस्तर की यात्रा मेरे लिए एक बेहद जरूरी यात्रा थी। यह यात्रा एक तरह से इतिहास के उन गुम हो चुके पन्नों की खोज में थी जिससे कि मैं बस्तर गोलीकांड की धमक को जो अब भी गूंज रही हैं, उसे सुन सकूं।
आदिवासियों की करुण चीत्कार अब भी धीमी-धीमी ही सही राजमहल के आसपास सुनाई देती है जिसे मैं महसूस कर सकूं।
यह यात्रा बेहद काम की सिद्ध हुई। ऐसे कई बुजुर्गों से मुलाकात हुई जो इसके प्रत्यक्षदर्शी थे। जिन्होंने उस समय महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव को और 25 मार्च 1966 के बस्तर गोलीकांड को निकट से देखा था।
जगदलपुर में राजमहल के पास ही रहने वाले छियानबे वर्षीय शिक्षाविद, पत्रकार, संपादक श्री बसंत लाल झा से मिलना, उस दौर के एक ऐसे दुर्लभ शख्स से मिलना था, जिनकी स्मृतियों में अब भी महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव और बस्तर गोलीकांड के धूसर बिम्ब चमक उठते हैं । जिनकी आंखों में आज भी उन दिनों की यादें एक-एक कर घिर आती हैं।
96 वर्षीय श्री बसंत लाल झा के पास उन दिनों की ढेर सारी यादें और बातें हैं। गनीमत है कि उम्र ने अब तक उनकी स्मृतियों के साथ कोई छेड़-छाड़ नहीं की है जैसा कि एक लंबी उम्र के बाद होता है।
श्री बसंत लाल झा महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव से मिलते-जुलते रहते थे। जगदलपुर में शिक्षा का अलख जगाने के उद्देश्य से उनके साथ मिलकर सन् 1956 में प्रवीर शिक्षा समिति का गठन भी किया था। महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव इसके अध्यक्ष थे और श्री बसंत लाल झा इसके सचिव।
श्री बसंत लाल झा बताते हैं कि महाराजा रेशमी वस्त्र के शौकीन थे। कुर्ता पजामा उनका प्रिय परिधान था। सौम्य और आकर्षक व्यक्तित्व के वे धनी थे।
श्री बसंत लाल झा महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव को याद करते हुए कहते हैं : “ He is very nice person. He is realy prince .He is very handsom and lovely.”
वे बताते हैं कि महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की बहन की शादी के समय जितने भी राजा-महाराजा जगदलपुर में सम्मिलित हुए थे उनमें सबसे सुंदर और आकर्षक केवल बस्तर महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव ही थे।
श्री बसंत लाल झा महाराजा के बेहद निकट थे। एक घटना के विषय में जानकारी देते हुए वे बताते हैं कि महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव से कांग्रेस के लोग इसलिए नाराज रहते थे क्योंकि वे कांग्रेस के अपोज में थे।
एक बार कांग्रेस के दुर्ग अधिवेशन में महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री पंडित रविशंकर शुक्ल से मिले और कोर्ट ऑफ वार्ड्स के अधीन जब्त की गई अपनी संपत्ति की चर्चा की। पर मुख्यमंत्री ने दो टूक शब्दों में उनसे कह दिया था कि जब तक वे कांग्रेस में शामिल नहीं होंगे उन्हें एक धेला भी नहीं मिलेगा।
महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की लाइब्रेरी की चर्चा करते हुए श्री बसंत लाल झा बताते हैं कि उनकी लाइब्रेरी बहुत समृद्ध थी। अंग्रेजी की ढेर सारी और महत्वपूर्ण किताबें उनकी लाइब्रेरी में थी। उनकी लाइब्रेरी में एंथ्रोपोलॉजी की एक पूरी सीरीज थी।
जगदलपुर के वरिष्ठ पत्रकार श्री राजेंद्र वाजपेयी के पास भी उन दिनों की ढेर सारी स्मृतियां आज भी सुरक्षित हैं।
बस्तर महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव के बारे में वे बताते हैं कि लोग उन्हें पागल समझते थे, जबकि वे ऐसा कदापि नहीं थे। जो उन्हें पागल समझते थे दरअसल वे लोग ही पागल थे।
जगदलपुर के वरिष्ठ पत्रकार श्री राजेंद्र वाजपेयी उन दिनों की याद करते हुए हमें बताते हैं कि उन दिनों वे बी.ए. प्रथम वर्ष के छात्र थे। 25 मार्च सन् 1966 को उनकी परीक्षा थी। महाविद्यालय राजमहल परिसर में ही संचालित होता था। अचानक 11 बजे राजमहल परिसर में गोली चलने की आवाज सुनाई देने लगी। सभी छात्र-छात्राएं इससे डर गए और पेपर छोड़ कर बाहर की ओर भागने लगे। भागने वाले छात्र-छात्राओं में वे भी शामिल थे।
इस गोलीकांड से मरने वाले आदिवासियों को लेकर उनका मानना है कि पुलिस द्वारा जिस बर्बरतापूर्वक गोलियां चलाईं गई थी उससे 10-12 लोग ही मारें गए हों ऐसा संभव नहीं है। इसमें कम से कम 100-150 आदिवासी तो मारे ही गए होंगे। वे बताते हैं कि गोलीकांड के अगले दिन 26 मार्च को राजमहल के दलपत सागर की ओर खुलने वाले गेट पर 8-10 लाशें देखी गई थी।
वरिष्ठ पत्रकार श्री राजेंद्र वाजपेयी ने बस्तर महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव के कोर्ट ऑफ वार्ड्स के अन्तर्गत जब्त की गई संपत्ति के विषय में एक नया रहस्यौद्घाटन कर हम सबको चौंका दिया था।
श्री राजेंद्र वाजपेयी ने इस रहस्य से पर्दा उठाते हुए बेहद गंभीरता के साथ मुझे जानकारी दी कि बस्तर महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की कोर्ट ऑफ वार्ड्स के तहत जब्त की गई संपत्ति उन्हें कभी भी वापस नहीं की गई।
उन्होंने बताया कि यह संपत्ति आज भी जिला कोषालय में अपनी मुक्ति का इंतजार कर रही है।
महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की कोर्ट ऑफ वार्ड्स के अंतर्गत जब्त की गई टी संपत्ति को लेकर यह मेरे लिए एक नई और चौकाने वाली जानकारी है।
कोषालय के एक सेवानिवृत अधिकारी ने भी इसकी पुष्टि करते हुए मुझे फोन पर बताया कि बस्तर महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की कोर्ट ऑफ वार्ड्स के अंतर्गत जब्त की गई संपत्ति आज भी बॉक्स में जिला कोषालय में रखी हुई है।
अंत में एक सवाल तो पूछा ही जा सकता है कि अगर यह सौ प्रतिशत सच है ? तो क्या कोषालय में कोर्ट ऑफ वार्ड्स के अंतर्गत जब्त कर रखी हुई उस संपत्ति में क्या सब कुछ सुरक्षित और ठीक-ठीक अवस्था में है ?
इसका आखिरी बार निरीक्षण कब किया गया है ?
कोर्ट ऑफ वार्ड्स का निर्धारण आखिरकार कब और कैसे किया जाएगा ?
इन सारे सवालों का जवाब जिला प्रशासन और शासन दोनों को ही देना चाहिए।
(बाकी अगले हफ्ते)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
संयुक्त राष्ट्र संघ महासभा ने सर्वसम्मति से यह तय किया है कि हर साल 15 मार्च को सारी दुनिया में ‘‘इस्लामघृणा-विरोधी दिवस’ मनाया जाए याने इस्लामोफोबिया का विरोध किया जाए। दुनिया के कई देशों में इस्लाम के प्रति घृणा का भाव है। उनके मुसलमानों के साथ सिर्फ भेदभाव ही नहीं होता है बल्कि वे तरह-तरह के जुल्मों के शिकार भी होते हैं। चीन में लाखों उइगर मुसलमान यातना शिविरों में बंद हैं। अब से लगभग 20 साल पहले जब मैं शिनच्यांग की राजधानी उरुमची में गया था तो वहां के मुसलमानों की दुर्दशा देखकर दंग रह गया। यही हाल सोवियत संघ के ज़माने में मध्य एशिया के गणराज्यों में रहनेवाले मुसलमानों का था।
मैं जब इन गणराज्यों में जाया करता था तो इनके मुसलमान मुझे रूसी और फारसी भाषाओं में अपना दर्द खुलकर बयान कर देते थे, क्योंकि मुझे रूसी अनुवादक की जरुरत नहीं होती थी। व्लादिमीर पूतिन ने चेचन्या के मुसलमानों का हाल यूक्रेनियों से भी बुरा कर दिया था। फ्रांस, हालैंड और जापान आदि देशों में भी मुसलमानों पर तरह-तरह के प्रतिबंध लगे हुए हैं। इसीलिए इस्लाम घृणा का विरोध जरुरी तो है लेकिन यह घृणा सिर्फ इस्लाम के खिलाफ ही नहीं, कई धर्मों, रंगों और जातियों के खिलाफ भी सारी दुनिया में देखी जाती है। इस्लामी देशों में तो इसका उग्रतम रुप देखा जाता है। सुन्नी देशों में शियाओं, हिंदुओं, ईसाइयों, यहूदियों और सिखों के साथ जो बर्ताव वहां की सरकारें और जनता करती है, यदि उसे आप देख लें तो आप दंग रह जाएंगे। मैं पिछले 50-55 साल में दर्जनों इस्लामी राष्ट्रों में रहा हूं, वहां मैंने इस्लाम के उत्कृष्ट मानवीय तत्वों को भी देखा है और विधर्मी अल्पसंख्यकों के साथ उनके अमानवीय व्यवहार को भी देखा है।
ऐसा नहीं है कि यह प्रकृति सिर्फ इस्लामी देशों में ही है। मैंने कई बौद्ध, इसाई और यहूदी राष्ट्रों में भी देखा है कि वे अपने मुसलमान अल्पसंख्यकों के साथ ही नहीं, समस्त विद्यर्मियों के साथ बहुत सख्ती से पेश आते हैं। संयुक्तराष्ट्र के प्रस्ताव को मैं अधूरा इसीलिए मानता हूं कि यह सिर्फ इस्लाम से घृणा के खिलाफ है। क्या सिर्फ इस्लाम से ही लोग घृणा करते हैं? यह सभी धर्मों से घृणा के खिलाफ होना चाहिए। भारत तो सर्वधर्म समभाव का देश है। सहिष्णुता ही इसकी विशेषता है। ऐसा नहीं है कि यहां विधर्मियों के साथ सदा न्याय ही होता है। कई लोग मनमानी भी करते हैं लेकिन भारत की कोई भी सरकार किसी एक धर्म की रक्षा करे और बाकी के साथ अन्याय करे, यह नहीं हो सकता। इसीलिए संयुक्त राष्ट्र में भारत के प्रतिनिधि ने स्पष्ट शब्दों में इस प्रस्ताव के अधूरेपन को उजागर किया है। उसने विरोध नहीं किया, यह ठीक है लेकिन मैं तो कहता हूं कि पाकिस्तान द्वारा लाए गए इस प्रस्ताव पर संयुक्तराष्ट्र पुनर्विचार करे और इसे रचनात्मक रूप में पारित करे ताकि दुनिया का कोई भी व्यक्ति धार्मिक, सांप्रदायिक, जातीय, वर्ण आदि की घृणा का शिकार न हो। यदि इस्लामी राष्ट्र ही इसकी पहल करें तो इस्लामी-जगत की छवि में चार चांद लग जाएंगे।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-पंकज चतुर्वेदी
कल यानी 20 मार्च को सुबह सूरज पूर्व दिशा में निकलेगा ! यह सौर मंडल की एक अद्भुत घटना है !!
आप तो यही कहेंगे न कि इसमें क्या अद्भुत है, सूरज तो रोज ही पूरब में उदय होता है .लेकिन विचित्र किन्तु सत्य यही है कि हर रोज सूरज ठीक पूर्व दिशा में नहीं उगता, साल में केवल दो बार ही ऐसा होता है- इसे "मार्च एक्विनोक्स " कहा जाता हैं , सूरज, सौर मंडल का सबसे बड़ा तारा है जिस पर धरती का अस्तित्व टिका है . असल में हर दिन सूर्योदय पूर्व दिशा के आसपास होता हैं जैसे इन दिनों सूर्योदय की दिशा दक्षिण-पूर्व है, कल के बाद यह उत्तर-पूर्व हो जायेगी.
कल यानी 20 March को सूर्य भूमध्य रेखा के ठीक ऊपर होगा, अर्थात धरती पर सभी जगह सूर्योदय ठीक पूर्व दिशा में होगा .
इसके बाद इसी साल 23 सितम्बर को भी यह खगोलीय घटना होगी, तब सूरज दक्षिण-पूर्व हो जाएगा ,.“एक आम कहावत है कि परछाई कभी साथ नहीं छोड़ती, पर खगोल वैज्ञानिकों के मुताबिक साल के दो दिन ऐसे होते हैं, जब परछाई भी साथ छोड़ देती है।”,
हो सकता है कि किसी की आस्था को ठेस लगे, लेकिन हकीकत यही है कि सूर्य की दिशा मकर संक्राति को नहीं बल्कि "मार्च इक्विनोक्स " के समय ही बदलती है . इक्विनोक्स शब्द लैटिन के एक्वुअस (बराबर) और नॉक्स (रात) से बना है।
इक्विनोक्स के आस-पास दिन और रात तकरीबन समान अवधि की होती है क्योंकि सूर्य की किरणें सीधी विषुवत रेखा पर पड़ती हैं। अर्थात इस दिन दिन और रात की अवधि बराबर होती है , इसे स्प्रिंग या वसंत का पहला दिन भी कहते हैं.
हर साल यह परिवर्तन लगभग इन्हीं तारीखों के आसपास होते हैं
तो कल जल्दी उठ कर थी पूरब का सूरज देखने से मत चूकना
-रमेश अनुपम
आजकल झूठ को भी सच का लिबास पहनाकर, इस खूबसूरती और सुनियोजित प्रचार-प्रसार के साथ पेश किया जा रहा है कि आप इसे ही सच मान लें। वैसे भी आज झूठ ही सच है और सच झूठ।
इतिहास में जाने की या उसे गंभीरतापूर्वक पढऩे या समझने की हिमाकत इन दिनों चलन से बाहर है। इतिहास को अब अपने-अपने ढंग से तोड़-मरोड़ कर फायदे या नुकसान की दृष्टि से लिखे जाने का दौर है ताकि तथाकथित हिंदू नजरिए से देश को अधिक सांप्रदायिक, अधिक कट्टर और अधिक मुस्लिम ईसाई विरोधी बनाकर वोट बैंक में इजाफा किया जा सके।
कश्मीर को हम कितना जानते हैं ? ‘कश्मीर फाइल्स’ को इन दिनों जानबूझकर प्रचारित किया जा रहा है। कश्मीरी पंडित का मुद्दा एक पार्टी विशेष के लिए बेहद फायदेमंद है।
जिन लोगों ने अशोक कुमार पांडेय की किताब ‘कश्मीर नामा’ (राजपाल एंड संस) और ‘कश्मीर और कश्मीरी पंडित’ (राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली) नहीं पढ़ी है उन्हें यह जरूर पढऩी चाहिए। ये दोनों किताबें बेहद परिश्रम के साथ इतिहास और उपलब्ध तथ्यों का परीक्षण करते हुए ईमानदारी के साथ लिखी गई हैं।
इसलिए ’कश्मीर फाइल्स’ में दिखाई गई घटनाओं और दृश्यों को भी अगर हम झूठ के चश्मे से देखेंगे तो गड़बडिय़ां तो होंगी ही और हम जाने अनजाने कट्टरपंथियों की साजिश का एक हिस्सा बन जायेंगे।
कश्मीर में 370 हटाए जाने के एक साल बाद कश्मीर में कितनी शांति बहाल हुई है और कश्मीर में कितना विकास इससे हुआ है, यह सवाल जरूर पूछा जाना चाहिए?
कश्मीर को मिली हुई स्वायत्तता कश्मीर की जनता के लिए कितनी जरूरी थी इसे भी हमने समझने की कोशिश नहीं की है। इसे भी हम तथाकथित हिंदू धर्म के चश्मे से ही देखने और समझने की कोशिश करते हैं ।
कश्मीर को लेकर हमारे पास जो भी ज्ञान है वह बेहद अधकचरा है। घाटी में रहने वाले 96 फीसदी कश्मीरी मुसलमान केवल मेहनत मजदूरी करने और कालीन बुनने के लिए ही पैदा हुए है।
370 और 35 ए हटाए जाने के बाद इन 96 फीसदी गरीब मुसलमानों की जमीन अब देश के बड़े पूंजीपति कौडिय़ों के भाव में खरीद सकेंगे।
वैसे भी कश्मीर के गरीब मुसलमान राजा हरिसिंह से लेकर आज तक केवल मजदूरी करने के लिए ही पैदा हुए हैं। राज तो उन पर 4 फीसदी कश्मीरी पंडित ही करते रहें हैं जो बड़े-बड़े सरकारी ओहदों में विराजमान थे।
अशोक कुमार पाण्डेय ने अपनी किताब ‘कश्मीर और कश्मीरी पंडित’ में गजेटियर और अनेक साक्ष्यों के आधार पर यह प्रमाणित किया है कि 1981 की जनगणना रिपोर्ट के अनुसार कश्मीर में कुल 1,32,453 (एक लाख बत्तीस हजार चार सौ तिरपन) कश्मीरी पंडित थे। जिसमें से लगभग 1,24,000 (एक लाख चौबीस हजार) कश्मीरी पंडितो ने जगमोहन राज में बहकावे में आकर कश्मीर छोड़ दिया था।
इसके साथ ही पचास हजार कश्मीरी मुसलमानों ने भी उस समय कश्मीर छोड़ दिया था। जिसकी चर्चा आज कोई नहीं करता है। केवल कश्मीरी पंडितों के पलायन का ही राग बजाया जाता है।
आज तथाकथित अंधभक्त कश्मीरी पंडितों की संख्या जिन्होंने कश्मीर से पलायन किया था कोई पांच लाख बता रहा है, तो कोई दस लाख। जबकि कश्मीर में उनकी कुल आबादी ही 1,32, 453 (एक लाख बत्तीस हजार चार सौ तिरपन मात्र थी )
हमारे देश में वैसे भी कौवा कान लेकर भाग गया सुनकर कौवा के पीछे भागने वाले व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी से दीक्षित युवाओं और अंध भक्तों की कमी नहीं है, जो न कश्मीर का इतिहास जानते हैं और न ही अपने इस महान देश भारत की गौरवशाली विरासत को।
वैसे भी उन्हें अपने देश और समाज से क्या मतलब है? उनके अनपढ़ और अज्ञानी गुरु जो स्वयं इस देश की गौरवशाली परंपरा और संस्कृति को नहीं जानते हैं उनके अंधभक्त शिष्य उन्हीं का अनुकरण करने में ही अपनी भलाई समझते हैं।
-मनोरमा सिंह
आज लोकसभा में कांग्रेस सांसद सोनिया गांधी ने सोशल मीडिया के दुरुपयोग पर बड़ा बयान दिया, उन्होंने कहा कि फेसबुक और ट्विटर जैसी कंपनियों का गलत इस्तेमाल किया जा रहा है। राजनीतिक एजेंडे के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। फेसबुक के जरिए सामाजिक सौहार्द खत्म करने की कोशिशें की जा रही हैं और लोकतंत्र को कमजोर करने की साजिश रची जा रही है। सत्ता की मिली भगत से सामाजिक सौहार्द खराब किया जा रहा है। इस तरह की प्रवृत्ति पर लगाम लगाने की जरूरत है।
लेकिन क्या सोनिया गाँधी ने ऐसे ही ये कहा है? कल -परसों से मीडिया में इस आशय की ख़बरें हैं, जिनके मुताबिक कई बाते हैं जिस पर गौर किया जाना चाहिए जैसे, फेसबुक ने बीजेपी से चुनावी विज्ञापनों के लिए दूसरों की तुलना में कम शुल्क लिया, कम शुल्क के कारण भाजपा को फेसबुक का सबसे बड़ा राजनीतिक ग्राहक होने में मदद मिली और कम पैसे में अधिक मतदाताओं तक पहुंचने की सहुलियत मिली। गौरतलब है कि भारत में फेसबुक का सबसे बड़ा राजनीतिक क्लाइंट बीजेपी है।
बहरहाल, भारत की एक गैर-लाभकारी मीडिया संगठन,द रिपोर्टर्स कलेक्टिव (TRC), और ad.watch, के द्वारा सोशल मीडिया पर राजनीतिक विज्ञापनों के अध्ययन की एक शोध परियोजना के तहत फरवरी 2019 और नवंबर 2020 के बीच एड लाइब्रेरी एप्लिकेशन प्रोग्रामिंग इंटरफेस (एपीआई), मेटा प्लेटफॉर्म्स इंक के 'पारदर्शिता' टूल के माध्यम से डेटा एक्सेस करते हुए, जो अपने प्लेटफॉर्म पर राजनीतिक विज्ञापन डेटा तक पहुंच की अनुमति देता है, फेसबुक पर डाले गए 536,070 राजनीतिक विज्ञापनों के डेटा का विश्लेषण किया गया और इस आधार पर निष्कर्ष दिया गया कि 22 महीने की कुल अवधि और 10 चुनावों के दौरान के विज्ञापन खर्च के विश्लेषण के अनुसार, फेसबुक का एल्गोरिदम अन्य राजनीतिक दलों के मुकाबले भाजपा को सस्ते दर पर विज्ञापन अनुबंध प्रदान करता है। 2019 के केंद्र के चुनावों सहित, 10 में से नौ चुनावों में, जिसमें भाजपा ने जीत हासिल की, पार्टी से अपने विरोधियों की तुलना में विज्ञापनों के लिए कम शुल्क लिया गया। इसके कारण बीजेपी को कम पैसे में ज्यादा से ज्यादा वोटर्स तक पहुंचने में मदद मिलती है, जिससे इसे चुनाव अभियानों में पैर जमाने में मदद मिलती है।
इसके अलावा ये भी रिपोर्ट है कि रिलायंस-वित्त पोषित फर्म ने विज्ञापनों के माध्यम से फेसबुक पर भाजपा समर्थक टॉकिंग पॉइंट्स को ऊपर उठाने में मदद की। 2019 के लोकसभा चुनावों से पहले, NEWJ ( न्यू इमर्जिंग वर्ल्ड ऑफ जर्नलिज्म लिमिटेड) के लिए फेसबुक पर विज्ञापनों की एक श्रृंखला के लिए भुगतान किया गया जिसके तहत नरेंद्र मोदी और भाजपा की छवि को चमकाने और विपक्ष की छवि धूमिल करने के लिए टारगेटेड कंटेंट बनाये और चलाये गए।
द रिपोर्टर्स कलेक्टिव (TRC) ने अपनी जाँच में पाया कि NEWJ, ( न्यू इमर्जिंग वर्ल्ड ऑफ जर्नलिज्म लिमिटेड) Jio Platforms Ltd की एक सहायक कंपनी है - जिसका स्वामित्व रिलायंस समूह के मुकेश अंबानी के पास है।
इस सन्दर्भ में तीसरी गौर करने वाली खबर ये है कि 23 फेसबुक घोस्ट एडवरटाइजर्स ने बीजेपी के 'प्रमोशन' में 5 करोड़ रु खर्च किये, इसके द्वारा कुल 34,884 राजनीतिक विज्ञापनों ने विपक्ष की रीच को कम करके 22 महीनों में 10 चुनावों में भाजपा की पहुंच को दोगुना कर दिया।
बाकी आप द रिपोर्टर्स कलेक्टिव (TRC) की रिपोर्ट में विस्तार से पढ़ सकते हैं, और हां आप चाहें तो अब भी तसल्ली दे सकते हैं खुद को कि ये 1947 से पहले की गुलामी और उससे पहले का कंपनी राज का दौर नहीं है, बल्कि 2014 में जो हासिल हुई उस नई आज़ादी के दौर का है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कर्नाटक उच्च न्यायालय ने स्कूल-कालेजों में हिजाब पर प्रतिबंध को सही ठहरा दिया है। मेरी राय में हिजाब पहनना और हिजाब पर प्रतिबंध, दोनों ही गैर-जरुरी हैं। हमें उससे आगे की सोचना चाहिए। मुसलमान औरतें हिजाब पहनें, हिंदू चोटी-जनेऊ रखें, सिख पगड़ी-दाढ़ी-मूंछ रखें और ईसाई अपने गले में क्रास लटकाएं- ये निशानियां धर्म का अनिवार्य अंग कैसे हो सकती हैं? धर्म तो शाश्वत और सर्वकालिक होता है और इस तरह की ये बाहरी निशानियाँ देश-काल से बंधी होती हैं।
आप जिस देश में जिस काल में रहते हैं, उसकी जरुरतों को देखते हुए इन बाहरी चीज़ों का प्रावधान कर दिया जाता है। इन्हें सार्वकालिक और सार्वदेशिक बना देना तो बड़ा ही हास्यास्पद है। यदि कनाडा की भयंकर ठंड में कोई पुरोहित सिर्फ धोती या लुंगी पहनकर पूजा-पाठ कराए या विवाह-संस्कार करवाए तो उसे ढेर होने से उसका परमात्मा भी नहीं बचा सकता। कनाडा में सिख पगड़ी पहनें तो वहां के मौसम में वह धक सकती है लेकिन अरब देशों में वह आरामदेह रहेगी क्या?
इसी तरह पैगंबर मोहम्मद के जमाने में श्रेष्ठी महिलाओं को दुष्कर्मियों से बचाने के लिए और चालू औरतों से अलग दिखाने के लिए हिजाब का चलन शुरु किया गया था। अब उसी परंपरा को डेढ़ हजार साल बाद दुनिया के सभी देशों की मुसलमान औरतों पर थोप देना कहां तक उचित है? दुनिया के कई मुस्लिम और यूरोपीय देशों ने हिजाब पर प्रतिबंध लगा रखा है, क्योंकि चेहरे को छिपाने के पीछे दो गलत कारण काम करते हैं। एक तो अपराधियों को शै मिलती है और दूसरा सामूहिक अलगाव प्रकट होता है। सांप्रदायिकता पनपती है।
मैं तो सोचता हूं कि हिंदू पर्दा और मुस्लिम हिजाब, दोनों ही औरतों के अधिकारों का हनन भी है। ऐसी असामयिक और अनावश्यक प्रथाओं का त्याग करवाने का अभियान धर्मध्वजियों को आगे होकर चलाना चाहिए। स्कूल-कालेजों में यदि विशेष वेश-भूषा का प्रावधान है तो उसे सबको मानना चाहिए लेकिन यदि कोई छात्रा हिजाब पहनकर कक्षा में आना चाहती है तो वह अपने आप को खुद मजाक का केंद्र बनाएगी। उसका हिजाब अपने आप उतर जाएगा। उसकी अक्ल पर पड़े हिजाब को आप अपने आप क्यों नहीं उतरने देते?
तीन-चार हजार छात्र-छात्राओं के कॉलेज में पांच-छह लड़कियां हिजाब पहनकर आती रहें तो उससे क्या फर्क पडऩा है? यह हिजाबबाज़ी घोर सांप्रदायिकता, घोर अज्ञान और घोर पोंगापंथ के कारण भी हो सकती है। हमारी मुसलमान माँ-बहनें स्कूलों में ही नहीं, सर्वत्र इससे बचें, इसके लिए कानून से भी ज्यादा जिम्मेदारी है, हमारे मुल्ला मौलवियों की। वे यदि इस्लाम को आधुनिक बनाने और उसके बुनियादी सर्वहितकारी सिद्धांतों को मुसलमानों में लोकप्रिय करने का जिम्मा ले लें तो किसी कानून की जरुरत ही नहीं पड़ेगी। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत हिंदू बहुल राष्ट्र है लेकिन यह हिंदू राष्ट्र उसी तरह नहीं बना है जैसे कि दुनिया के कई मुस्लिम या ईसाई या यहूदी राष्ट्र बने हुए हैं। इसका संविधान भी इसे धर्म-निरपेक्ष राष्ट्र ही कहता है। इसके बावजूद भारत में हर प्रकार की सांप्रदायिकता विद्यमान है। यह वही सांप्रदायिकता है, जिसके चलते भारत के टुकड़े हुए लेकिन भारत सरकार, वह चाहे नेहरुजी की हो या अटलजी की और मनमोहनसिंहजी की हो या नरेंद्र मोदी की हो, उसकी कोशिश होती है कि वह मजहब के आधार पर कोई भेद-भाव नहीं करे।
इसका प्रमाण वे छात्रवृत्तियां हैं, जो धार्मिक अल्पसंख्यकों के बच्चों को दी जाती हैं। 2016 से 2021 के इन पांच वर्षों में लगभग 3 करोड़ छात्रवृत्तियां भारत सरकार ने दी हैं। उनमें से अकेले मुसलमान छात्रों को 2 करोड़ 30 लाख छात्रवृत्तियां मिली हैं। ईसाई छात्रों को 37 लाख, सिखों को 25 लाख, बौद्धों को 7 लाख, जैनों को 4 लाख, पारसियों को लगभग 5 हजार छात्रवृत्तियां मिली हैं। मोदी सरकार पर आरोप लगाया जाता है कि यह मुस्लिम-विरोधी है लेकिन उक्त आंकड़ा इस तर्क को सिरे से रद्द करता है। मोदी की विचारधारा और दृष्टि कुछ भी हो सकती है लेकिन यह छात्रवृत्ति नरेंद्र मोदी नहीं दे रहे हैं, मोदी सरकार (भारत सरकार) दे रही है।
यह छात्रवृत्ति ऐसे छात्रों को मिलती है, जिनके माता-पिता की आमदनी 1 लाख रु. साल से कम हो और उस छात्र को 50 प्रतिशत से ज्यादा नंबर मिले हों। अब ऐसे 5 करोड़ छात्रों को यह आर्थिक सहायता मिला करेगी। मुस्लिम छात्राओं को बेगम हजरतमहल छात्रवृत्ति मिलेगी। इस मद पर अभी सरकार ने लगभग 10 हजार करोड़ रु. खर्च किए हैं। अगले पांच वर्ष में यह राशि दुगुनी होने की उम्मीद है। जऱा सोचें कि अल्पसंख्यकों में मुसलमान छात्र-छात्राओं को ही इतनी ज्यादा छात्रवृत्तियां क्यों मिली हैं?
एक तो उनकी संख्या अन्य अल्पसंख्यकों के मुकाबले कई गुना है। इससे भी बड़ी बात यह है कि सबसे ज्यादा गरीब तबके मुसलमानों में ही हैं। इनके मुसलमान बनने का सबसे बड़ा कारण भी यही रहा है कि या तो ये लोग बहुत गरीब रहे या अछूत रहे या अशिक्षित रहे। इस्लाम कुबूल करने के बावजूद इनकी गरीबी, इनकी जातीय जकड़ और शिक्षा-स्तर में ज्यादा फर्क नहीं आया।
इनका मूल वंचित चरित्र इस्लाम कुबूल करने के बावजूद आज तक बना हुआ है। इस्लाम इन्हें कोई राहत नहीं दिला सका। ये मूलत: वंचित लोग हैं। इन्हें जाति, मजहब, रंग या भाषा के आधार पर नहीं, बल्कि इनकी प्रंवचना के आधार इनको प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
(नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक का लिखा-
पांच राज्यों के चुनाव में करारी हार के बाद कांग्रेस की कार्यसमिति की बैठक में वही हुआ, जो पहले भी हुआ करता था। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने कहा कि यदि पार्टी कहे तो हम तीनों (माँ, बेटा और बेटी) इस्तीफा देने को तैयार हैं। पांच घंटे तक चली इस बैठक में एक भी कांग्रेसी की हिम्मत नहीं पड़ी कि वह नेतृत्व-परिवर्तन की बात खुलकर कहता। जो जी-23 समूह कहलाता है, जिस समूह ने कांग्रेस के पुनरोद्धार के लिए आवाज बुलंद की थी, उसके कई मुखर सदस्य भी इस बैठक में मौजूद थे लेकिन जी-23 अब जी-हुजूर-23 ही सिद्ध हुए।
उनमें से एक आदमी की भी हिम्मत नहीं पड़ी कि वह कांग्रेस के नए नेतृत्व की बात छेड़ता। सोनिया गांधी का रवैया तो प्रशंसनीय है ही और उनके बेटे राहुल गांधी को मैं दाद देता हूं कि उन्होंने कांग्रेस-अध्यक्ष पद छोड़ दिया लेकिन मुझे कांग्रेसियों पर तरस आता है कि उनमें से एक भी नेता ऐसा नहीं निकला, जो खम ठोककर मैदान में कूद जाता। वह कैसे कूदे? पिछले 50-55 साल में कांग्रेस कोई राजनीतिक पार्टी नहीं रह गई है। वह पोलिटिकल पार्टी की जगह प्राइवेट लिमिटेड कंपनी बन गई है।
उसमें कई अत्यंत सुयोग्य, प्रभावशाली और लोकप्रिय नेता अब भी हैं लेकिन वे नेशनल कांग्रेस (एनसी) याने ‘नौकर-चाकर कांग्रेस’ बन गए हैं। मालिक कुर्सी खाली करने को तैयार हैं लेकिन नौकरों की हिम्मत नहीं पड़ रही है कि वे उस पर बैठ जाएं। उन्हें दरी पर बैठे रहने की लत पड़ गई है। यदि कांग्रेस का नेतृत्व लंगड़ा हो चुका है तो उसके कार्यकर्ता लकवाग्रस्त हो चुके हैं। कांग्रेस की यह बीमारी हमारे लोकतंत्र की महामारी बन गई है। देश की लगभग सभी पार्टियां इस महामारी की शिकार हो चुकी हैं।
भारतीय मतदाताओं के 50 प्रतिशत से भी ज्यादा वोट प्रांतीय पार्टियों को जाते हैं। ये सब पार्टियां पारिवारिक बन गई हैं। कांग्रेस चाहे तो आज भी देश के लोकतंत्र में जान फूंक सकती है। देश का एक भी जिला ऐसा नहीं है, जिसमें कांग्रेस विद्यमान न हो। देश की विधानसभाओं में आज भाजपा के यदि 1373 सदस्य हैं तो कांग्रेस के 692 सदस्य हैं। लेकिन पिछले साढ़े छह साल में कांग्रेस 49 चुनावों में से 39 चुनाव हार चुकी है। उसके पास नेता और नीति, दोनों का अभाव है।
मोदी सरकार की नीतियों की उल्टी-सीधी आलोचना ही उसका एक मात्र धंधा रह गया है। उसके पास भारत को महासंपन्न और महाशक्तिशाली बनाने का कोई वैकल्पिक नक्शा भी नहीं है। कांग्रेस अब पचमढ़ी की तरह नया ‘चिंतन-शिविर’ करनेवाली है। उसे अब चिंतन शिविर नहीं, चिंता शिविर करने की जरुरत है। यदि कांग्रेस का ब्रेक फेल हो गया तो भारतीय लोकतंत्र की गाड़ी कहां जाकर टकराएगी, कुछ नहीं कहा जा सकता।
(नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक का लिखा-
मोहम्मद अली जिन्ना को पाकिस्तान का राष्ट्रपिता कहा जाता है, जैसे गांधी को भारत का राष्ट्रपिता माना जाता है लेकिन भारत के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की नजर में जिन्ना से अधिक घृणित व्यक्ति कौन रहा है? जून 2005 में जब भाजपा के अध्यक्ष और पूर्व उप-प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी कराची स्थित जिन्ना की मजार पर गए तो भारत में इतना जबर्दस्त हंगामा हुआ कि उन्हें अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा। लेकिन अब देखिए कि सरसंघचालक मोहन भागवत के नेतृत्व में संघ का रवैया कितना उदारवादी हो गया है। अहमदाबाद में आजकल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा का अधिवेशन चल रहा है। उस अधिवेशन की प्रदर्शनी में गुजरात के 200 विशिष्ट व्यक्तियों के चित्र लगाए गए हैं।
उसमें महात्मा गांधी के साथ मोहम्मद अली जिन्ना का चित्र भी लगा हुआ है। उसके नीचे लिखा है, जिन्ना पक्के राष्ट्रभक्त थे लेकिन बाद में धर्म के आधार पर उन्होंने भारत का विभाजन करवाया। सच्चाई तो यह है कि जिन्ना अगर नहीं होते तो भारत के टुकड़े ही नहीं होते। भारत के लोगों को यह पता ही नहीं है कि जिन्ना कांग्रेस के सबसे कट्टर धर्म-निरपेक्ष नेताओं में से एक रहे थे। वे सच्चे अर्थों में मुसलमान भी नहीं थे। वे गाय और सूअर के गोश्त में फर्क नहीं करते थे। न उन्हें उर्दू आती थी और न ही नमाज़ पढऩा। वे कहते थे, ‘मैं भारतीय पहले हूं, मुसलमान बाद में।’ उन्होंने तुर्की के खलीफा के समर्थन में चल रहे ‘खिलाफत आंदोलन’ का विरोध किया था जबकि इस घोर सांप्रदायिक आंदोलन का गांधी समर्थन कर रहे थे। 1920 में नागपुर के कांग्रेस के अधिवेशन में इस मुद्दे पर जिन्ना को इतना अपमानित किया गया कि वे बागी हो गए! गांधी और जिन्ना की यह टक्कर ही आगे जाकर पाकिस्तान के जन्म का कारण बनी।
गांधी और जिन्ना, दोनों गुजराती, दोनों वकील, दोनों बनिए और दोनों की एक ही प्रारंभिक भक्तिन सरोजिनी नायडू! कट्टरपंथी मुल्ला जिन्ना को ‘काफिरे-आजम’ कहते थे और सरोजनी नायडू उन्हें ‘हिन्दू-मुस्लिम एकता का राजदूत’ कहती थीं। जब ये तथ्य मैंने सप्रमाण 1983 में कराची की जिन्ना एकेडमी में रखे थे तो बड़े—बड़े श्रोतागण हैरत में पड़ गए। वे भारत में फैले गांधीजी के वर्चस्व से इतना खफा हो गए थे कि राजनीति से संन्यास लेकर वे लंदन में जा बसे थे लेकिन लियाकत अली खान और उनकी बीवी शीला पंत उन्हें 1933 में लंदन से भारत खींच लाए। उन्होंने मुस्लिम लीगी नेता के तौर पर सारे भारत को भट्टी पर चढ़ा दिया, खून की नदियां बह गईं और भारत के टुकड़े हो गए लेकिन जिन्ना ने खुद स्वीकार किया कि ‘यह उनके जीवन की सबसे बड़ी भूल थी।’ पाकिस्तान की संविधान सभा में उन्होंने अपने पहले एतिहासिक भाषण में धर्म-निरपेक्षता की गुहार लगाई, हिंदू-मुस्लिम भेदभाव को धिक्कारा और पाकिस्तान को प्रगतिशाली राष्ट्र बनाने का आह्वान किया। क्या आज का पाकिस्तान वही है, जिसका सपना जिन्ना ने देखा था? पहले उसने अपने दो टुकड़े कर लिये और जब से वह पैदा हुआ है, उसका जीवन कभी अमेरिका और कभी चीन की चाकरी में ही बीत रहा है। (विस्तार से देखिए, लेखक की पुस्तक ‘भाजपा, हिंदुत्व और मुसलमान)
(नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक का लिखा-
रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पूतिन के इस दावे का यूक्रेन ने खंडन कर दिया है कि रूस-यूक्रेन वार्ता में कुछ प्रगति हुई है। इधर तुर्की में रूस और यूक्रेन के विदेश मंत्रियों के बीच पिछले तीन दिनों से बराबर संवाद चल रहा है। जब यूक्रेन पर रूस का हमला शुरु हुआ था तो ऐसा लग रहा था कि दो-तीन दिन में ही झेलेंस्की-सरकार धराशायी हो जाएगी और यूक्रेन पर रूस का कब्जा हो जाएगा लेकिन दो हफ्तों के बावजूद यूक्रेन ने अभी तक घुटने नहीं टेके हैं। उसके सैनिक और सामान्य नागरिक रूसी फौजियों का मुकाबला कर रहे हैं। इस बीच सैकड़ों रूसी सैनिक मारे गए हैं और उसके दर्जनों वायुयान तथा अस्त्र-शस्त्र मार गिराए गए हैं। यूक्रेनी लोग भी मर रहे हैं और कई भवन भी धराशायी हो गए हैं।
यूक्रेन का इतना विध्वंस हुआ है कि उससे पार पाने में उसे कई वर्ष लगेंगे। अमेरिका और यूरोपीय राष्ट्र उसकी क्षति-पूर्ति के लिए करोड़ों-अरबों डॉलर दे रहे हैं। रूसी जनता को भी समझ में नहीं आ रहा है कि इस हमले को पूतिन इतना लंबा क्यों खींच रहे हैं? जब झेलेंस्की ने नाटो से अपने मोहभंग की घोषणा कर दी है और यह भी कह दिया है कि यूक्रेन नाटो में शामिल नहीं होगा तो फिर अब बचा क्या है? पूतिन अब भी क्यों अड़े हुए हैं? शायद वे चाहते हैं कि नाटो के महासचिव खुद यह घोषणा करें कि यूक्रेन को वे नाटो में शामिल नहीं करेंगे। इस झगड़े की जड़ नाटो ही है। नाटो के सदस्य यूक्रेन की मदद कर रहे हैं, यह तो अच्छी बात है लेकिन वे अपनी नाक नीची नहीं होना देना चाहते हैं। उन्हें डर है कि यदि नाटो ने अपने कूटनीतिक हथियार डाल दिए तो उसका असर उन राष्ट्रों पर काफी गहरा पड़ेगा, जो पूर्वी यूरोप और सोवियत संघ के हिस्सा थे। लेकिन अमेरिका और नाटो अब भी संकोच करेंगे तो यह हमला और इसका प्रतिशोध लंबा खिंच जाएगा, जिसका बुरा असर सारी दुनिया की अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा। यूरोपीय राष्ट्रों को अभी तक रूसी गैस और तेल मिलता जा रहा है।
उसके बंद होते ही उनकी अर्थव्यवस्था लंगड़ाने लगेगी। एशियाई और अफ्रीकी राष्ट्र भी उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहेंगे। जहां तक रूस का सवाल है, उसकी भी दाल पतली हो जाएगी। पूतिन के खिलाफ रूस के शहरों में प्रदर्शन होने शुरु हो गए हैं। प्रचारतंत्र पर तरह-तरह के प्रतिबंध लग गए हैं। पूतिन ने यूक्रेन में युद्धरत आठ कमांडरों को बर्खास्त कर दिया है। पूतिन को यह समझ में आ गया है कि यूक्रेन पर रूसी कब्जा बहुत मंहगा पड़ेगा। कीव में थोपी गई कठपुतली सरकार ज्यादा कुछ नहीं कर पाएगी। खुद पूतिन की लोकप्रियता को रूस में धक्का लगेगा। यूक्रेन में होनेवाली फजीहत का असर मध्य एशिया के गणतंत्रों के साथ रूस के संबंधों पर भी पड़ेगा। यूक्रेनी संकट के समारोप का यह बिल्कुल सही समय है। रूसी और अमेरिकी खेमों, दोनों को अब यह सबक सीखना होगा कि एक फर्जी मुद्दे को लेकर इतना खतरनाक खेल खेलना उचित नहीं है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
15 मार्च- विश्व उपभोक्ता अधिकार दिवस विशेष
-डॉ राजू पाण्डेय
15 मार्च को मनाया जाने वाला विश्व उपभोक्ता अधिकार दिवस उपभोक्ताओं के अधिकारों एवं उनकी आवश्यकताओं के विषय में वैश्विक स्तर पर जागरूकता उत्पन्न करने का एक अवसर है। यही वह तिथि थी जब 1962 में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी ने अमेरिकी कांग्रेस को उपभोक्ता अधिकारों के महत्व से अवगत कराते हुए इनकी रक्षा पर बल दिया था। उपभोक्ता आंदोलन ने पहली बार इस तिथि को 1983 में चिह्नित किया।
इस वर्ष कंज़्यूमर इंटरनेशनल के 100 देशों में फैले हुए 200 कंज़्यूमर समूहों ने "फेयर डिजिटल फाइनेंस" को विश्व उपभोक्ता अधिकार दिवस की थीम के रूप में चुना है। कंज़्यूमर इंटरनेशनल यह महसूस करता है कि तेजी से बढ़ती डिजिटल बैंकिंग जहां उपभोक्ताओं और व्यवसायों के लिए नए अवसर उत्पन्न कर रही है वहीं इसके तीव्र प्रसार के कारण सर्वाधिक संवेदनशील समूहों के पीछे छूट जाने का खतरा भी बना हुआ है। आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के लिए साइबर फ्रॉड तब घातक सिद्ध होते हैं जब उनकी जिंदगी भर की जमा पूंजी पल भर में गायब हो जाती है।
फेयर डिजिटल फाइनेंस उपलब्ध कराना सरकारों और सेवा प्रदाताओं के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती रहा है। वित्तीय सेवाओं का स्वरूप तेजी से डिजिटल हुआ है। 2007 से 2009 के मध्य आए वित्तीय संकट के बाद नए स्टार्ट अप्स और वित्तीय कंपनियों ने आम जनता एवं विभिन्न व्यवसायों को सीधे वित्तीय उत्पाद एवं सेवाएं देना प्रारंभ कर दिया।
धीरे धीरे फिनटेक की अवधारणा सामने आई। फिनटेक वह बिंदु है जहाँ पर वित्तीय सेवाओं और तकनीक का मिलन होता है। मोबाइल आधारित इंटरनेट सेवा और ई कॉमर्स ने फिनटेक के प्रसार में बहुत बड़ा योगदान दिया है। फिनटेक सेवाओं का स्वरूप बहुत व्यापक है। इनमें बचत, निजी वित्तीय प्रबंधन सुविधा, निवेश और संपदा प्रबंधन, उधार एवं अनसिक्योर्ड क्रेडिट,मोर्टगेज, भुगतान, धन का प्रेषण, ई कॉमर्स हेतु डिजिटल वॉलेट उपलब्ध कराना, बीमा, क्रिप्टो करेंसी एवं ब्लॉक चेन्स आदि विविध प्रकार की सेवाएं शामिल हैं।
मैकिंसी का आकलन है कि वैश्विक स्तर पर कम से कम 2000 फिनटेक स्टार्टअप्स परंपरागत एवं नई वित्तीय सेवाएं उपलब्ध करा रहे हैं जबकि लगभग 12000 फिनटेक फर्म्स अस्तित्व में हैं।
एक्सेंचर का 2020 का सर्वेक्षण दर्शाता है कि अब 50 प्रतिशत उपभोक्ता हफ्ते में कम से कम एक बार मोबाइल एप या वेबसाइट के जरिए अपने बैंक से लेनदेन करते हैं जबकि दो वर्ष पहले ऐसे उपभोक्ताओं की संख्या 32 प्रतिशत थी।
दरअसल कोविड-19 के कारण डिजिटल लेनदेन लगभग अनिवार्य बन गया। हमारे देश के ग्रामीण इलाकों में जहां डिजिटल साक्षरता बहुत कम है और डिजिटल संसाधनों का अभाव है वहां भी लोग डिजिटल लेनदेन के लिए बाध्य हो गए। इस कारण डिजिटल बैंकिंग और डिजिटल लेनदेन में तो बड़ी वृद्धि हुई किंतु साथ ही साइबर फ्रॉड, फिशिंग और डाटा चोरी एवं एक विशेष उद्देश्य से एकत्रित डाटा का अन्य उद्देश्य के लिए प्रयोग किए जाने की घटनाएं बढ़ीं।
आरबीआई के नवीनतम आंकडों के अनुसार वित्तीय वर्ष 2020-21 में डिजिटल भुगतान में 30.19 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज की गयी। नवगठित डिजिटल भुगतान सूचकांक (आरबीआई-डीपीआई) मार्च 2020 के अंत में 207.84 था जो मार्च 2021 के आखिर में बढ़कर 270.59 हो गया।
इलेक्ट्रॉनिक्स एवं आईटी राज्य मंत्री राजीव चंद्रशेखर ने नवम्बर 2021 में लोकसभा में एक प्रश्न के लिखित उत्तर में बताया कि वित्त वर्ष 2019 में डिजिटल लेनदेन की संख्या 3134 करोड़ थी जो वित्त वर्ष 2020 में बढ़कर 4572 करोड़ हो गई। वित्त वर्ष 2021 में इसमें और बढ़ोतरी हुई और यह 5554 करोड़ हो गई। जबकि वित्त वर्ष 22 में नवंबर के मध्य तक 4683 करोड़ डिजिटल लेनदेन हो चुके थे।
अप्रशिक्षित भारतीय उपभोक्ताओं ने कोविड-19 के कारण डिजिटल बैंकिंग की दुनिया में झिझकते- सहमते प्रवेश तो ले लिया किंतु उनका पहला अनुभव अनेक बार अच्छा नहीं रहा। उन्हें ऑनलाइन धोखाधड़ी का सामना करना पड़ा।
ऑनलाइन फ्रॉड पर लोकसभा में पूछे गए एक प्रश्न के उत्तर में वित्त राज्य मंत्री अनुराग ठाकुर ने बताया कि 2019 में केवल 3 महीनों(अक्टूबर से दिसंबर) में ऑनलाइन बैंक फ्रॉड की 21041 घटनाएं हुईं जिनमें 129 करोड़ रुपए की धोखाधड़ी हुई।
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े भी यह दर्शाते हैं कि कोविड-19 ने लोगों को डिजिटल लेनदेन के लिए बाध्य किया और इस कारण साइबर अपराधियों की बन आई। वर्ष 2019 में ऑनलाइन फ्रॉड के लगभग 2000 मामले दर्ज हुए थे जो 2020 में बढ़कर चार हजार की संख्या को पार कर गए।
फरवरी 2021 में तत्कालीन इलेक्ट्रॉनिक्स एवं आई टी राज्य मंत्री संजय धोत्रे ने राज्य सभा को बताया था कि सन 2020 में डिजिटल बैंकिंग क्षेत्र में साइबर सुरक्षा से संबंधित 290445 घटनाएं दर्ज की गईं थीं।
मेडिसी ग्लोबल की जून 2020 की रिपोर्ट के अनुसार भारत में लगभग 40,000 हज़ार साइबर हमलों ने बैंकिंग क्षेत्र के आईटी बुनियादी ढाँचे को निशाना बनाया।
इस तरह के ऑनलाइन बैंक फ्रॉड न केवल ग्राहक या कंपनी को वित्तीय क्षति पहुंचाते हैं बल्कि इनके कारण ग्राहक का भरोसा ऑनलाइन लेनदेन और संबंधित कंपनी के प्रति कम होता है। कंपनी का व्यवसाय प्रभावित होता है और उसकी साख पर बुरा असर पड़ता है।
कंज्यूमर यूनिटी एंड ट्रस्ट सोसाइटी इंटरनेशनल के कंज़्यूमर सर्वे ऑन डाटा प्राइवेसी एटीट्यूड इन इंडिया के अनुसार भारत में डाटा प्राइवेसी बहुत निचले स्तर पर है और उपभोक्ताओं में डाटा सुरक्षा की अवधारणा के विषय में समझ कम है, उनमें इस बारे में जागरूकता का अभाव है। वे इस विषय में उतनी सक्षमता भी नहीं रखते। कट्स इंटरनेशनल द्वारा किए गए सर्वे से ज्ञात हुआ कि उपभोक्ता सामान्य तौर पर अपना निजी डाटा साझा करने में असुविधा का अनुभव करते हैं। उपभोक्ता अपनी फाइनेंसियल डिटेल्स,ब्राउजिंग एवं कम्युनिकेशन हिस्ट्री और लोकेशन को साझा करने के लिए सर्वाधिक अनिच्छुक होते हैं किंतु सेवा प्रदाताओं को वे यह निजी डाटा अवश्य उपलब्ध कराते हैं। इन उपभोक्ताओं का यह भी मानना है कि किसी खास उद्देश्य से लिए गए डाटा का उपयोग किसी अन्य असंगत उद्देश्य के लिए नहीं किया जाना चाहिए। भारत सरकार द्वारा पर्सनल डाटा प्रोटेक्शन बिल का ड्राफ्ट तैयार करने हेतु गठित एक्सपर्ट कमेटी को भी कट्स इंटरनेशनल के सर्वेक्षण के निष्कर्षों से अवगत कराया गया है।
यह उम्मीद कि कोविड-19 पर हमारी निर्णायक विजय के बाद हम पारंपरिक फाइनेंस और बैंकिंग की ओर लौट जाएंगे पूरी होती नहीं दिखती। वित्तीय सेवाओं का डिजिटलीकरण एक वैश्विक प्राथमिकता है और हमारा देश कोई अपवाद नहीं है। भारत सरकार ने डिजिटल अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने के उद्देश्य से इस बार के बजट में अधिसूचित व्यावसायिक बैंकों के माध्यम से देश भर के 75 जिलों में डिजिटल बैंकिंग यूनिट्स की स्थापना का प्रस्ताव दिया है।
प्रश्न केवल यह है कि इस परिवर्तन की गति क्या हो? वित्तीय सेवा प्रदाताओं और आम उपभोक्ता को इसके लिए कैसे तैयार किया जाए? आम उपभोक्ता की सीमाओं और कमजोरियों को ध्यान में रखकर सरल, सुरक्षित और सुविधाजनक डिजिटल फाइनेंस सेवाओं को किस प्रकार डिज़ाइन किया जाए? आम उपभोक्ता को किस प्रकार साइबर हमलों से सुरक्षित रखा जाए? धोखाधड़ी का शिकार होने पर उपभोक्ता को रकम की वापसी और दोषी को दंड सुनिश्चित कैसे किया जाए?
यही कारण है कि इस वर्ष के विश्व उपभोक्ता अधिकार दिवस की थीम -फेयर डिजिटल फाइनेंस- भारत के संदर्भ में विशेष रूप से महत्वपूर्ण एवं प्रासंगिक है।
वित्तीय अपराधों से निपटने में हमारा तंत्र अभी सक्षम नहीं हो पाया है। एक समाचार समूह द्वारा आरटीआई के तहत बैंक फ्रॉड के विषय में मांगी गई जानकारी प्रदान करते हुए आरबीआई ने बताया कि वित्त वर्ष 2021 में प्रतिदिन 229 बैंकिंग फ्रॉड हुए जिनमें 1.38 लाख करोड़ रुपए की राशि की हेराफेरी हुई, इसमें से केवल 1031.31 करोड़ रुपए की रिकवरी की जा सकी।
साइबर फ्रॉड में अपराधियों से राशि वापस हासिल करना और उन्हें सजा देना बहुत कठिन है। कानून के जानकार बताते हैं कि दुनिया के अन्य देशों में साइबर क्राइम की शिकायत फ्रॉड का शिकार हुए उपभोक्ता के बैंक या उसके मोबाइल सेवा प्रदाता द्वारा दर्ज कराई जाती है, जबकि हमारे देश में यह काम पीड़ित उपभोक्ता को ही करना पड़ता है। पीड़ित का बैंक और मोबाइल सेवा प्रदाता उसे कोई भी सहयोग देने से इनकार कर देते हैं। न्यायिक क्षेत्राधिकार का अलग अलग होना पुलिस के लिए बाधा बनता है। प्रायः साइबर फ्रॉड के जरिए निकाली गई रकम देश के दूसरे भागों में खोले गए खातों में स्थानांतरित कर दी जाती है। इन खातों के एकाउंट होल्डर ही फेक होते हैं। असली दोषी तक पहुंचना बहुत कठिन होता है।
भारत में अब तक कोई विशेष साइबर सुरक्षा कानून नहीं बनाया गया है। आईटी एक्ट 2000 के तहत ही मामले दर्ज किए जाते हैं। एनसीआरबी की 2020 की एक रिपोर्ट बताती है कि पुलिस के स्तर पर साइबर क्राइम के मामलों में चार्जशीट फ़ाइल करने की दर महज 47.5 प्रतिशत है जबकि पेंडेंसी रेट 71 प्रतिशत है। न्यायिक स्तर पर कन्विक्शन रेट 68 प्रतिशत और पेंडेंसी रेट 89 प्रतिशत है।
प्रशिक्षित पुलिस कर्मियों की कम संख्या, प्रशिक्षित पुलिस कर्मियों के बार बार तबादले, मामलों की अधिकता और संसाधनों की कमी के कारण साइबर क्राइम की जांच प्रभावित होती है। छले गए उपभोक्ता के लिए यह स्थिति बहुत पीड़ादायक होती है।
उपभोक्ता शिक्षा के बारे में आरबीआई ने कुछ महत्वपूर्ण प्रयास किए हैं। आरबीआई का प्रोजेक्ट फाइनेंसियल लिटरेसी विभिन्न लक्षित समूहों, यथा स्कूल और कॉलेज में पढ़ने वाले विद्यार्थी, महिलाएँ, ग्रामीण तथा शहरी निर्धन जन,रक्षा कर्मी व वरिष्ठ नागरिक गण आदि को केंद्रीय बैंक एवं सामान्य बैंकिंग अवधारणाओं के बारे में जानकारी देने से संबंधित है।
इसी प्रकार का एक कार्यक्रम सेबी और एनआईएसएम द्वारा चलाया जा रहा है। पॉकेट मनी नामक यह कार्यक्रम स्कूली विद्यार्थियों के बीच वित्तीय साक्षरता बढ़ाने पर केंद्रित है।
नीति आयोग और मास्टरकार्ड की 2021 की ‘कनेक्टेड कॉमर्स: क्रिएटिंग ए रोडमैप फॉर ए डिजिटल इन्क्लूसिव भारत’रिपोर्ट में इस बात का उल्लेख है कि डिजिटल लेनदेन में वृद्धि से उपभोक्ताओं एवं कंपनियों दोनों हेतु संभावित सुरक्षा उल्लंघनों का खतरा बढ़ गया है। रिपोर्ट में सुझाव दिया गया है कि फ्रॉड रिपॉज़िटरी’ समेत सूचना साझाकरण प्रणाली निर्मित की जाए और इस बात को सुनिश्चित किया जाए कि ऑनलाइन डिजिटल कॉमर्स प्लेटफॉर्म उपभोक्ताओं को धोखाधड़ी के खतरे के प्रति सतर्क करने के लिये चेतावनी जारी करें।
फेयर डिजिटल फाइनेंस का लक्ष्य तभी हासिल किया जा सकता है जब सरकार की नियामक संस्थाओं से उपभोक्ता संगठन संवाद करें और उपभोक्ताओं के दृष्टिकोण को उन तक पहुंचाएं। यह भी आवश्यक है कि विधि निर्माण हेतु गठित निकायों और समितियों की बैठकों में उपभोक्ता संगठनों को निमंत्रित किया जाए और उनसे सूचनाएं एवं आंकड़े प्राप्त किए जाएं।
उपभोक्ता शिकायतों की प्रकृति का अध्ययन किया जाए जिससे यह ज्ञात हो सके कि किस प्रकार की शिकायतें सर्वाधिक हैं और तदनुसार नई नीतियां निर्मित की जा सकें।
भविष्य ग्रीन फाइनेंस का है। उपभोक्ता संगठन वर्तमान पारंपरिक वित्तीय सेवाओं के ग्रीन फाइनेंस में बदलाव के संवाहक बन सकते हैं और सेवा प्रदाताओं, सरकारों तथा नियामकों को उपभोक्ता केंद्रित नीति बनाने को प्रेरित कर सकते हैं।
(रायगढ़, छत्तीसगढ़)
-रमेश अनुपम
9. यह कि इस समय तक पुलिस पर्याप्त शक्तिशाली हो गई थी, क्योंकि अत्यधिक संख्यां में सशस्त्र पुलिस वाले जिनके पास बंदूकें लाठियां और ढाल थे वहां पहुंच चुके थे और तत्पश्चात वे सशस्त्र पुलिस वाले अत्यधिक फायर करते हुए और बहुत अश्रु गैस छोड़ते हुए महल के मुख्य द्वार से प्रसाद क्षेत्र में प्रविष्ट हुए।
10. यह कि तत्पश्चात यह सुना गया कि एक सशस्त्र पुलिस का हवलदार घायल हो गया और लॉकअप रक्षक हेड कांस्टेबल भी घायल हुआ है। फिर सशस्त्र पुलिस वाले मुख्य प्रसाद स्थल के भीतर गए और रुक-रुक कर अंधाधुंध गोली चालन निरंतर दिनांक 26.3.1966 के प्रात: 4:00 बजे तक करते रहे।
11. यह कि 25 .3.1966 को रात्रि के लगभग 11.30 बजे तक निरंतर अंधाधुंध गोली चालन की ध्वनि राजप्रसाद के भीतर सुनी जाती रही।
12. यह कि सशस्त्र पुलिस बल द्वारा दिनांक 25.3. 1966 के 11.30 बजे मध्यान्ह से दिनांक 26 .3.1966 की सुबह लगभग 4.00 बजे तक जो प्रभूत, निरंतर तथा रुक-रुक कर राजप्रसाद के भीतर गोली चालन किया गया। वहां जिस प्रकार और जितना गोली चालन हुआ उसको कदापि न्याय संगत नहीं कहा जा सकता है।
13. यह कि पुलिस द्वारा इस स्थिति पर काबू पाने के लिए जितनी शक्ति का उपयोग किया गया वह आवश्यकता और सीमा से अधिक थी।
14. यह कि रात्रि में इस घटना से संबंधित अधिकारियों और पुलिस वालों ने राजप्रसाद के चारों मुख्य द्वारों पर एक-एक सर्च लाइट लगा दी थी, जिसका प्रकाश राजप्रसाद की ओर जाता था उक्त रात्रि में राज प्रसाद के भीतर अंधकार था।
15. यह कि मैं अपने उपरोक्त वक्तव्य की पुष्टि हेतु लगभग 50 साक्षियों का साक्ष्य दूंगा और इन साक्षियों को जांच के समय प्रस्तुत करूंगा। में पुलिस के अवैधानिक कार्यकलापों के कारण उन साक्षियों की नामावली अपने इस वक्तव्य के साथ नहीं प्रकट करना चाहता।
पूर्व में दिए गए एक शिक्षा शास्त्री और एक चिकित्सक के बयान को गंभीरतापूर्वक पढ़े जाने की आवश्यकता है। इन दोनों बयानों के अतिरिक्त एडवोकेट गोरेलाल झा द्वारा शासकीय अधिकारियों से किए गए जिरह पर भी गौर किए जाने की जरूरत है।
इन बयानों से यह है स्पष्ट हो जाता है कि 25 मार्च सन 1966 को बस्तर राजमहल में जो दुर्भाग्यपूर्ण गोलीकांड हुआ है वह अनावश्यक था। इस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति को आसानी के साथ टाला भी जा सकता था। महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव और अनेक बेकसूर आदिवासियों की मौत केवल शासन प्रशासन के अविवेकपूर्ण निर्णय का ही एक घातक परिणाम था।
क्या बस्तर गोलीकांड शासन-प्रशासन का एक पूर्व नियोजित षड्यंत्र नहीं था? आदिवासियों के देवतुल्य महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव को सदा-सदा के लिए चुप करवा दिए जाने की क्या यह कोई गहरी साजिश नहीं थी?
बस्तर के आदिवासियों की पीड़ा और शोषण को लेकर सरकार से सवाल जवाब करना क्या कोई जघन्य अपराध की श्रेणी में आता है ?
स्वतंत्रता के पश्चात भी बस्तर के आदिवासियों को न्याय नहीं मिल पाना, उनके जल, जंगल और जमीन को गैर आदिवासियों द्वारा लूटा जाना न्यायोचित है ?
मालिक मकबूजा के नाम पर उनके बेशकीमती पेड़ों को औने-पौने दामों में बिचौलियों द्वारा खरीदना, अपने पीने के लिए बनाए गए महुवा से बने शराब को जब्त कर उन्हें पुलिस द्वारा प्रताडि़त किया जाना, क्या एक लोकतांत्रिक सरकार को शोभा देता है?
अगर आजादी के बाद हमारे द्वारा चुनी गई सरकारें आदिवासियों के हितों का ध्यान रखती। उन्हें हर तरह की लूट और शोषण से बचाए रखने की कोशिश करती, तो बस्तर जैसा वीभत्स गोली कांड की कभी नौबत ही नहीं आती।
बस्तर महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव के विषय में अक्सर यह प्रचारित किया जाता रहा है कि उनका मानसिक संतुलन ठीक नहीं था। महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव के विक्षिप्त होने के संबंध में अनेक प्रकार के झूठे किस्से भी गढ़े गए हैं। बस्तर के आदिवासियों को शासन-प्रशासन की खिलाफ उकसाने के अनेक अफसाने भी उनके विरुद्ध लिखे गए हैं।
महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की शिक्षा-दीक्षा ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में हुई थी। वे काफी पढ़े-लिखे थे।उनकी अपनी एक समृद्ध लाइब्रेरी भी राजमहल में थी।
21, 22 तथा 23 अक्टूबर सन् 1950 में तीन दिवसीय मध्य प्रादेशिक हिंदी साहित्य सम्मेलन का चतुर्दश वार्षिक अधिवेशन जो बस्तर महाराजा के राजमहल में संपन्न हुआ उसके वे स्वागत समिति के अध्यक्ष भी थे। इस अधिवेशन की सारी जिम्मेदारी महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव के द्वारा उठाई गई थी।
डॉ . सुनीति कुमार चैटर्जी, आचार्य क्षिति मोहन सेन, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, भदंत आनंद कौशल्यायन , डॉ. बाबूराम सक्सेना, डॉ . बलदेव प्रसाद मिश्र, भवानी प्रसाद मिश्र जैसी महान विभूतियां उस अधिवेशन में सम्मिलित थे।
ऐसी महान विभूति को मानसिक रूप से विक्षिप्त घोषित किया जाना किस तरह की मानसिकता का परिचायक है? इसे आसानी से समझा जा सकता है।
बस्तर महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव साहित्यिक एवं अध्यात्मिक प्रवृति के व्यक्ति थे। उन्होंने ‘योग के आधार’
(सिंघई प्रेस जबलपुर), ‘योग तत्व’ तथा ‘भगवत तत्व’
(राजेंद्र प्रेस चारामा) ‘लोहंडीगुड़ा तरंगिनी’ तथा ‘आई प्रवीर द आदिवासी गॉड’ (लक्ष्मी प्रिंटिंग प्रेस रायपुर) जैसी महत्वपूर्ण कृतियों की रचना की थी।
ऐसे संवेदनशील प्रवीर चंद्र भंजदेव की छवि को धूमिल करने वाले कभी क्षमा के पात्र नहीं हो सकते हैं।
शेष अगले सप्ताह बस्तर से एक ग्राउंड रिपोर्ट..
The Gandhis, as these assembly polls show, are a gift to the BJP
-Ramachandra Guha
Every electoral contest is a story of winners and losers. While much of the commentary on the results of the recent assembly elections will inevitably highlight their major winners, this column shall instead focus on the principal loser. For, beyond the comfortable re-election of Yogi Adityanath and the Bharatiya Janata Party in Uttar Pradesh and the impressive victory of the Aam Aadmi Party in Punjab, this latest series of assembly elections confirms — yet again — the steady and possibly irreversible decline of the Congress Party.
Consider, to begin with, India’s largest state, Uttar Pradesh, which sends as many as 80 MPs to the Lok Sabha. In colonial times, this state was an epicentre of the Congress-led freedom movement. After Independence, it provided India with its first three prime ministers. However, in the late 1960s, the Congress’s hold on the politics of Uttar Pradesh began to visibly weaken, and for at least thirty years now it has been a marginal player in the state.
This time, the latest Nehru-Gandhi to enter politics, Priyanka Gandhi, took it upon herself to seek to revive the party’s fortunes in Uttar Pradesh. Although she declined to shift her home base from Delhi to Lucknow and refused to fight an assembly seat herself, Priyanka made regular trips to the state. These were met with breathless excitement by those sections of the media (and social media) that still haven’t stopped seeing the Nehru-Gandhis as an Indian version of the House of Windsor. Every visit, every press conference, every announcement was reported by these dynasty-worshippers as presaging an electoral resurgence of the party in Uttar Pradesh. In the event, the Congress under Priyanka Gandhi obtained a vote share of just over 2 per cent and won even fewer seats than it had in the last assembly elections.
In Uttar Pradesh, Priyanka Gandhi at least got some marks for effort, if none for impact. In Punjab, where the Congress was in power, her brother, Rahul, threw away his party’s chances of re-election through the capricious replacement of the incumbent chief minister less than a year before the polls. Although he was not popular with a section of the MLAs, Amarinder Singh had wide experience in politics, and, more importantly, had taken a strong stand in favour of the farmers’ movement. A year ago, the Congress and the AAP both had equal chances of winning Punjab. But then Amarinder’s replacement by the relatively unknown Charanjit Singh Channi, and Channi’s undermining by Rahul Gandhi’s indulgence of the destructive Navjot Singh Sidhu, threw the entire state unit in disarray. In the event, the Congress was comprehensively defeated by the AAP in Punjab.
Turn next to Goa and Uttarakhand. In both states, the BJP was in power but its governments were deeply unpopular, seen as corrupt and unfeeling. In Uttarakhand, the BJP changed two chief ministers in a bid to stem discontent. In both states, the Congress was the principal Opposition party; yet in each case, it was not able to mount a strong enough challenge to regain power. Nor, finally, could the Congress make a significant impact in Manipur, once a state where it was the natural party of governance, and where (as I send this column to press) it appears to have won twenty fewer seats than last time.
The latest round of elections confirms, yet again, what some of us have known for a long time — that at least under its current leadership, the Congress is incapable of ever again becoming a major player in national politics. After leading the party to a humiliating loss in the 2019 general election, Rahul Gandhi resigned as Congress president. His mother, Sonia Gandhi, then became ‘acting’ president of the party; two-and-a-half-years on, the party still hasn’t taken any steps to choose a successor. The Congress has remained under the de facto control of the Family; with the results that we are now seeing.
Back in 2019, the Congress had a chance to reinvent itself; it threw it away. What might it do now? I believe that for the good of the party, as well as for the good of Indian democracy, the Gandhis must not just exit from the party’s leadership but retire from politics altogether. For it is not merely that Rahul and Priyanka Gandhi have shown themselves markedly incapable of making the party a competitive force in state and national elections. It is also that their very presence in the Congress makes it easy for Narendra Modi and the BJP to deflect attention from the government’s failures in the present by resorting to debates about the past. Thus, charges of corruption in defence deals are answered with reference to Rajiv Gandhi and Bofors; charges of suppressing the media and incarcerating activists are met with references to Indira Gandhi and the Emergency; charges of losing Indian land and soldiers to the Chinese army with reference to Jawaharlal Nehru and the war of 1962 and so on.
In its eight years in power, the Modi government has made many boasts and offered many promises. Yet, when reckoned by objective criteria, its record in office has been underwhelming. It has overseen a decline in growth rates (visible even before the pandemic set in) and a surge in unemployment; it has savagely set Hindus against Muslims; it has allowed our status to decline in the neighbourhood and in the world; it has corrupted and corroded our most important institutions; it has ravaged the natural environment. In sum, the actions of the Modi government have damaged India economically, socially, institutionally, internationally, ecologically, and morally.
Despite all these failures, if Narendra Modi and the BJP remain in pole position to win re-election in 2024, a key reason is that it still has as its principal ‘national’ Opposition the Congress under the Nehru-Gandhis. Parties such as the TMC, the BJD, the YSRC, the TRS, the DMK, the CPI(M) and the AAP can mount an effective electoral challenge to the BJP in areas where they are the main Opposition to it. This the Congress cannot really do — as the latest results from Goa, Manipur, and Uttarakhand once again show. The weaknesses of a Congress led by the Nehru-Gandhis are particularly visible during general elections. For instance, in the 191 seats in the 2019 elections when they were in a head-to-head fight with the BJP, the Congress won just sixteen. With Rahul Gandhi posited as its prime ministerial alternative to Narendra Modi, the Congress’s strike rate was a mere 8 per cent.
So far as the BJP is concerned, the Gandhis are a gift that keeps on giving. On the one hand, they do not remotely represent an effective electoral challenge to it. On the other hand, the Gandhis allow and encourage the BJP to dictate the terms of the national political debate — by locating it in the past rather than in the present.
In an India that is becoming less feudalistic by the day, having fifth-generation dynasts at the head of India’s most storied party is a problem. What is a serious disadvantage becomes a crippling one once we juxtapose with unearned privilege a lack of political intelligence. Living as they do in the closed circle of their sycophants, the Gandhis have little understanding of how Indians in the twenty-first century actually think. In the harsh but depressingly accurate characterization by Aatish Taseer, Rahul Gandhi is an “unteachable mediocrity”, his utter unsuitability to the politics of the present manifest in his repeated references to his father, grandmother, and great-grandfather.
Whether they know it or not, whether they sense it or not, the Gandhi family has become active facilitators of Hindutva authoritarianism. If they depart, even if the Congress disintegrates, someone or something else with more political credibility shall take their place. Then those of us who oppose Hindutva will be better placed to think of, and struggle for, a future for India beyond the awful present.