विचार/लेख
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक का लिखा-
मौत के मुंह में फंसे लोगों की जान बचाने के किस्से अक्सर सुनने में आते रहते हैं। कुएं में गिरे हुए बच्चों को बाहर निकाल लाने, धंसे हुए मकानों में से लोगों को बाहर खींच लाने, डूबते हुए बच्चों को बचा लाने आदि की खबरें हम पढ़ते ही रहते हैं। हमारे देश में ऐसे बहादुर लोगों की कोई कमी नहीं है लेकिन भोपाल का यह किस्सा तो रोंगटे खड़े कर देने वाला है। पुराने भोपाल में रेल की पटरियां कुछ ऐसी बनी हुई हैं कि उन्हें पैदल पार किए बिना आप एक तरफ से दूसरी तरफ जा ही नहीं सकते। न तो वहां कोई भूमिगत रास्ते हैं और न ही पटरियों के ऊपर पुल बने हुए हैं।
ऐसी ही पटरी पार करके स्नेहा गौड़ नामक एक 24 साल की लड़की दूसरी तरफ जाने की कोशिश कर रही थी। उस समय पटरी पर 24 डिब्बों वाली मालगाड़ी खड़ी हुई थी। जैसे ही स्नेहा ने दो डिब्बों के बीच की खाली जगह में पांव धरे, मालगाड़ी अचानक चल पड़ी। वह वहीं गिर गई। उसे गिरता हुआ देखकर एक 37 वर्षीय अनजान आदमी भी कूदकर उस पटरी पर लेट गया। उसका नाम है- मोहम्मद महबूब! महबूब ने उस लड़की का सिर अपने हाथ से दबाए रखा ताकि वह उठने की कोशिश न करे। यदि उसका सिर जरा भी ऊंचा हो जाता तो रेल के डिब्बे से वह पिस जाता।
स्नेहा का भाई पटरी के दूसरी तरफ खड़ा-खड़ा चिल्ला रहा था। उसके होश उड़े हुए थे। उसे स्नेहा शांत करना चाहती थी लेकिन वह खुद गड़बड़ न कर बैठे, इसलिए महबूब बार-बार उसे कह रहा था- ''बेटा, तू डरे मत, मैं हूँ।ÓÓ रेल निकल गई और दोनों बच गए। जब स्नेहा और उसके भाई ने यह किस्सा घर जाकर अपनी मां को बताया तो वह इसे कोई मनगढ़त कहानी समझने लगी। स्नेहा के भाई ने अपनी मां को वह फोटो दिखाया, जो उसने अपने मोबाइल से खींचा था। उस फोटो में स्नेहा के सिर को अपने हाथ से दबाते हुए महबूब दिखाई पड़ रहा है।
मोहम्मद महबूब ने अपनी जान पर खेलकर एक बेटी की जान बचाई। उसे कितना ही बड़ा पुरस्कार दिया जाए, कम है। मैं तो मप्र के मुख्यमंत्री भाई शिवराज चौहान से कहूंगा कि महबूब का नागरिक सम्मान किया जाना चाहिए। महबूब एक गरीब बढ़ई है। उसके पास मोबाइल फोन तक नहीं है। वह एक सात-सदस्यीय परिवार का बोझ ढोता रहता है। स्नेहा की रक्षा का यह किस्सा रेल मंत्रालय को भी सावधान कर रहा है। उसे चाहिए कि भोपाल जंक्शन से डेढ़ किमी दूर स्थित इस एशबाग नामक स्थान पर वह तुरंत एक पुल बनवाए।
इस स्थान पर पिछले साल इसी तरह 18 मौतें हुई हैं। यदि रेल मंत्रालय इस मामले में कुछ ढिलाई दिखा रहा है तो मप्र की सरकार क्या कर रही है? मुझे तो हमारी खबरपालिका से भी शिकायत है। यह बहादुरी और बुद्धिमत्ता की ऐसी विलक्षण घटना है, जिसे हमारे टीवी चैनलों और अखबारों पर जमकर दिखाया जाना चाहिए था लेकिन दिल्ली के सिर्फ एक अंग्रेजी अखबार में ही यह घटना सचित्र छपी है, जिसे मोहम्मद महबूब पढ़ भी नहीं सकता। इस घटना ने यह भी सिद्ध किया है कि इंसानियत से बड़ी कोई चीज नहीं है। मजहब, जाति, हैसियत वगैरह इंसानियत के आगे ये सब कुछ बहुत छोटे हैं। आज हमारे देश में हिजाब को लेकर सांप्रदायिक नौटंकियां जोरों पर हैं। ऐसे में इस घटना से भी कुछ सबक जरुर लिया जा सकता है। (नया इंडिया की अनुमति से)
-अपूर्व गर्ग
वैलेंटाइन डे क्या ?
सिर्फ़ प्रेम का इज़हार और हँसी ख़ुशी के पल
इस पर भी जिस समाज में लट्ठ चले, तनाव पैदा किया जाए समझ लीजिये भावना शून्य ही नहीं असहनशील होता जा रहा है वो समाज.
वैलेंटाइन डे तो दूर की बात हास्य- परिहास और सेंस ऑफ़ ह्यूमर ख़तम होता जा रहा.
गांधी ने कहा था कि 'सेंस ऑफ़ ह्यूमर' के बिना मैं आत्महत्या कर लेता ...मुझे नहीं पता आज संसद से लेकर सड़क तक जब 'सेंस ऑफ़ ह्यूमर' की चिड़िया विलुप्त हो चुकी है , तब आज गाँधी जी होते तो क्या करते !!
जवाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा में लिखा है- 'जिसने महात्माजी की हास्य मुद्रा नहीं देखी, वह बेहद कीमती चीज़ देखने से वंचित रह गया है.'
बर्मिंघम के बिशप ने एक बहस के दौरान गाँधीजी से कहा था 'मैं तो दिन भर में केवल एक घंटे शारीरिक काम करता हूं और बाकी वक्त बौद्धिक काम में लगा
रहता हूं.' इस पर गांधीजी ने हंसते हुए कहा, 'मैं जानता हूं. लेकिन अगर सभी लोग बिशप बन जाएंगे तो आपका धंधा ही चौपट हो जाएगा.'
गांधीजी के सैकड़ों किस्से हैं बड़ा कमाल का सेंस ऑफ़ ह्यूमर था गांधीजी का . सिर्फ़ गांधीजी ही नहीं नेहरूजी का इतिहास भी जोरदार सेंस ऑफ़ ह्यूमर के किस्सों का है.
दरअसल, सेंस ऑफ़ ह्यूमर इंसान के ज़िंदा होने यानी ज़िंदादिली का सबूत है और गाँधी -नेहरू पूरे ज़िंदा दिल थे.
पी.डी .टंडन बताते है किसी पार्टी में नेहरूजी ने देखा एक व्यक्ति की प्लेट नॉन वेग से लबा -लब भरी है .नेहरूजी खुद को रोक नहीं पाए उसके पास गए और धीमे से कहा 'प्यारे दोस्त, ये जीव तो बेचारे मरे हुए हैं, इन्हे थोड़ा-थोड़ा, चैन से खाइये, ये भाग कर कहीं नहीं जा रहे हैं.'
लाल बहादुर वर्मा सर ने सेंस ऑफ़ ह्यूमर की ज़रूरत पर बहुत सुंदर टिप्पणी करी है. वो लिखते हैं, वास्तव में सेंस ऑफ़ ह्यूमर मानसिक ही नहीं शारीरिक स्वास्थ्य के लिए भी बेहद ज़रूरी है. कम्युनिस्ट बनने के लिए दो बातें बेहद ज़रूरी हैं सेंस ऑफ़ बैलेंस और सेंस ऑफ़ ह्यूमर.
वैसे दक्षिण पंथियों में भावनाएं ही नहीं हैं तो हास्य बोध क्या होगा पर आजकल नयी वाम पीढ़ी भी सेंस ऑफ़ ह्यूमर की 'डेफिशियेंसी' से अच्छी खासी जूझ रही है.
भैया मेरे,
इंसान का रूप पाना ही पूर्णता नहीं है, इंसान की तरह पूरे गुण भी होने चाहिए वर्ना गांधीजी का कहा मान लो. सेंस ऑफ़ ह्यूमर इंसानों में होना ही चाहिए वर्ना खाना पीना, सोना और क्रोधित होना तो जानवर भी जानता है ...जस्ट चिल यार..
अब देखिये एक गर्म सुबह पंतजी इलाहबाद में उठते हैं और बच्चनजी पर सारी गर्मी निकाल कर मज़े लेते हुए 1-5-64 को लिखते हैं-
''आशा है सपरिवार प्रसन्न हो. तुम्हारे नौकर चले गए दुःख है. कहो तो अपनी बुढ़िया को भेज दूँ, वह तुम्हे पालना भी झुलाएगी और दूध की शीशी भी भरकर तुम्हारे मुँह पर लगा देगी ......''
पाकिस्तान पर विजय के बाद जिस सभा में अटलजी ने इंदिरा गाँधी को नवदुर्गा कहा था उसी में बच्चन जी इंदिरा जी से यह कहने से न चूके ---
''उस की बेटी ने उठा रक्खी है दुनिया सर पर
यह तो अच्छा हुआ अँगूर के बेटा न हुआ''
गोरखपुर के हिंदी साहित्य सम्मलेन में सभापति गणेश शंकर विद्यार्थी जी ने बनारसी दास चतुर्वेदी से मज़ाक कर कहा 'अरे भाई, तुमने ये क्या घासलेट का झगड़ा खड़ा कर दिया है.'
न चूकते हुए चतुर्वेदीजी ने कहा-- "एक औरत थी. उसने नया कंगन बनवाया. किसी ने पूछा भी नहीं! बस उसने अपनी झोपड़ी में आग लगा दी. और हाथ उठा - उठाकर आग बुझाने के लिए चिल्लाने लगी.
लोग बुझाने आये... एक ने पूछा तुमने ये कंगन कब बनवाया? उस औरत ने कहा अगर ये तुम पहले ही पूछ लेते तो झोपड़ी में आग क्यों लगती ?'
सो आप पहले ही पूछ लेते तो यह घासलेट आंदोलन क्यों खड़ा होता?
यह सुन कर विद्यार्थी जी खूब खिल-खिलाकर हँसते रहे .."
तो भाइयों,
ज़िंदा हैं तो ज़िंदा दिली रखिये . इंसान हैं तो इंसानियत रखिये और सेंस ऑफ़ ह्यूमर इंसानियत का आवश्यक लक्षण है .ज़िंदगी ज़िंदा-दिली का है और आपका हास्य बोध दूसरों को भी ज़िंदा रखता है, भूलिए मत..
'दिलों में ज़ख़्म होंठों पर तबस्सुम
उसी का नाम तो ज़िंदा-दिली है'
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक का लिखा-
अमेरिकी सरकार ने दुनिया के देशों की धार्मिक स्वतंत्रता की देख-रेख के लिए एक व्यापक राजदूत (एंबेसाडर एट लार्ज) नियुक्त किया हुआ है। उसका नाम है- रशद हुसैन। भारतीय मूल के इन राजदूत महोदय ने हिजाब के पक्ष में अपना फतवा जारी कर दिया है। उन्होंने कहा है कि कर्नाटक के स्कूलों में हिजाब पर पाबंदी धार्मिक स्वतंत्रता का उल्लंघन है। यह औरतों और युवतियों के साथ अन्याय है। यही बात अमेरिका की इस्लामी परिषद ने भी कही है। प्रसिद्ध अमेरिकी बुद्धिजीवी नोम चोम्स्की ने उक्त बयानों का समर्थन तो किया ही है, साथ ही यह भी कह दिया है कि मोदी सरकार भारत की धर्म-निरपेक्षता को प्रयत्नपूर्वक खत्म कर रही है और मुसलमानों को 'प्रताडि़त अल्पसंख्यकोंÓ में परिणत कर रही है।
चोम्सकी का निर्भीक बुद्धिजीवी के तौर पर मैं काफी सम्मान करता हूं लेकिन यह बयान तो उन्होंने अज्ञानवश ही दे डाला है। उन्हें इस विवाद के बारे में पूरी जानकारी ही नहीं है। पहली बात तो यह है कि मोदी की केंद्र सरकार का इस विवाद से कुछ लेना-देना नहीं है। केंद्र सरकार ने इसके संबंध में कोई आदेश जारी नहीं किया है। दूसरी बात यह है कि यह सामान्य रुप से हिजाब पहनने पर नहीं, स्कूलों में हिजाब पहनने पर बहस है। तीसरी बात यह है कि यह मामला अभी भी अदालत में है। इसीलिए चोम्स्की और हुसैन के भारत-विरोधी बयान उनके पूर्वाग्रह के सूचक हैं। पाकिस्तानी नेताओं के बयानों पर क्या टिप्पणी की जाए?
वैसे भी दुनिया के सिर्फ दो तीन इस्लामी देशों, जैसे अफगानिस्तान और ईरान में ही महिलाओं पर हिजाब पहनने की अनिवार्यता है। सउदी अरब और पाकिस्तान में भी हिजाब अनिवार्य नहीं है जबकि सउदी अरब इस्लाम का जन्म स्थान है और पाकिस्तान दुनिया का ऐसा अकेला देश है, जो इस्लाम के नाम पर बना है। दुनिया के लगभग दर्जन भर देशों- जैसे चीन, श्रीलंका, फ्रांस, स्विटजरलैंड, डेनमार्क, आस्ट्रिया, हालैंड, बेल्जियम आदि में हिजाब पर सिर्फ स्कूलों में ही नहीं, घर के बाहर कहीं भी हिजाब पहनने पर पाबंदी है। कनाडा के प्रांत क्यूबेक में फातिमा अनवरी नामक एक अध्यापिका को सिर्फ इसीलिए नौकरी से निकाल दिया गया कि वह हिजाब लगाकर स्कूल में आती थी। 2019 में क्यूबेक में मुस्लिमों के हिजाब, यहूदियों के किप्पा और सिखों की पगड़ी पर कानूनन प्रतिबंध लगा दिया गया है। यह अध्यापकों, वकीलों, जजों और सरकारी अफसरों पर विशेषत: लागू होगा।
वैसे मैं यह मानता हूं कि यदि कोई महिला हिजाब या बुर्का या नकाब या घूंघट पहनना चाहती है तो उस पर कोई प्रतिबंध नहीं होना चाहिए। इस मामले में तो भारत इतना उदार है कि हजारों नंगे साधुओं के गंगा-स्नान और दिगंबर जैन मुनियों के विचरण पर कोई भी आपत्ति नहीं करता है तो अपना शरीर और मुंह ढकनेवाली महिलाओं पर वह एतराज क्यों करेगा? एतराज बस इसी बात पर है कि स्कूल-कालेजों और सरकारी दफ्तरों में इस पोंगापंथी परंपरा को क्यों स्वीकार किया जाए? क्या घूंघटधारी हिंदू महिला अध्यापिकाएं और महिला पुलिस अफसर मजाक का विषय नहीं बन जाएंगी? और अब तो यह मामला बिल्कुल सांप्रदायिक बन गया है। हिजाब वगैरह डेढ़ हजार साल पुरानी अरब देशों की मजबूरी थी। उस समय वह ठीक और जरुरी भी थी। उसका इस्लाम के मूल सिद्धांतों से कुछ लेना-देना नहीं है। प्राचीन अरबों की अंधी नकल करना एक बात है और इस्लाम के क्रांतिकारी सिद्धांतों का मानना दूसरी बात है। (नया इंडिया की अनुमति से)
-चिन्मय मिश्र
अमरीकी पत्रकार लुई फिशर ने महात्मा गांधी की जीवनी ‘‘दि लाईफ ऑफ महात्मा गाँधी’’ (हिन्दी में गांधी की कहानी) के अध्याय वेदना की पराकाष्ठा में लिखा हैं, ‘‘वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के करीब पांच सौ सदस्यों की एक सभा में गए। भाषण के बाद एक प्रश्न आया, ‘क्या हिन्दू धर्म अत्याचारी को मारने की अनुमति देता है?’ गांधी जी ने उत्तर दिया, ‘‘एक अत्याचारी दूसरे अत्याचारी को सजा नहीं दे सकता, सजा देना सरकार का काम है जनता का नहीं।’’ इसी समयकाल में वह यह भी कहते हैं, ‘‘जिस समय प्रासंगिक हो, उस समय सच बोलना ही पड़ता है, चाहे वह कितना ही नागवार क्यों न हो। अगर पाकिस्तान में मुसलमानों के कुकृत्यों को रोकना या बंद करना अभीष्ट है, तो भारतीय संघ में हिंदुओं के कुकृत्यों का छत पर खड़े होकर एलान करना होगा।’’ लुई फिशर लिखते हैं, हिन्दू होने के नाते गांधी जी हिन्दुओं के प्रति सबसे अधिक निष्ठुर थे।
2 फरवरी 2022 को राहुल गांधी ने लोकसभा में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर बोलते हुए जो कुछ कहा उससे वर्तमान राजनीति में भूचाल सा आ गया है। उनके भाषण से असहमति होना एक स्वाभाविक लोकतांत्रिक प्रक्रिया है। परंतु उस भाषण का प्रतिउत्तर जिस अशालीन व असंसदीय भाषा में दिया जा रहा है, वह यह जतला रहा है कि भाषण की चोट काफी तीव्रता से महसूस की गई। भारतीय राजनीतिक परिदृष्य के परिप्रेक्ष्य में देखें तो समझ में अत है कि विराट प्रश्नों के बेहद बौने और अप्रासंगिक उत्तर सामने आए हैं। इन्हें उत्तर माना भी जाए या नहीं इसमें भी शंका है। राहुल गांधी ने कुछ मूलभूत लोकतांत्रिक मूल्यों को लेकर अपनी बात रखी थी और उस पर सत्ता पक्ष, विशेषकर प्रधानमंत्री से प्रत्युत्तर की अपेक्षा थी। परंतु वहां तो जैसे निराशा का विस्फोट ही हो गया। टुकड़े-टुकड़े गैंग और शहरी (अरबन) नक्सली जैसे शब्दों की झड़ी प्रधानमंत्री के मुंह से झड़ पड़ी और उन्होंने संसदीय बहस को किसी विद्यालय की वाद-विवाद प्रतियोगिता जिसके विषय थे, कांग्रेस बनाम भाजपा और आजाद भारत के चौदह प्रधानमंत्री और नरेंद्र मोदी में बदल डाला। उन्होंने यह सिद्ध करने का सायास प्रयास किया कि पूर्व प्रधानमंत्रियों ने पिछले 70 वर्षों में या तो कुछ नहीं किया या किया भी तो उनके अवतरण को समारोहित करने के लिए किया। वर्तमान प्रधानमंत्री भारतीय राजनीति के ऐसे अनूठे अवतार हैं कि भारत के पिछले सात दशकों के सारे अच्छे कार्य सिमट कर पिछले सात वर्षों में समा गए हैं और पिछले सात वर्षों में सामने आई सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक व सांस्कृतिक विषमताओं की जिम्मेदारी उनके पूर्वजों या पूर्व प्रधानमंत्रियों पर डाल दी गई है। वे अपने अलावा किसी को भी देश में हुए अच्छे कार्य का श्रेय नहीं देते, भले ही उनके ही दल के प्रधानमंत्री रहें हों या उनका दल उस सरकार में शामिल रहा हो। अतएव कांग्रेस व निपक्ष को बहुत विचलित होने की आवश्यकता भी नहीं है। इस लिहाज से तो वर्तमान प्रधानमंत्री से ज्यादा समतावादी और कोई है ही नहीं 7 गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर, ‘‘भारत में राष्ट्रवाद’’ निबंध में लिखते हैं, ‘‘मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि जिन्हें प्रेम की नैतिक शक्ति व आत्मीय एकता का वरदान प्राप्त है, जिनमें परायों के प्रति भी शत्रुता की भावना नहीं है और परायों की जगह खुद को रखकर सहानुभूतिपूर्ण अंतदृष्टि से काम लेते हैं, वे ही आने वाले युग में स्थायी जगह पाने के योग्यतम सिद्ध होंगे। जबकि वे, जो परायों से झगडऩे व उनके प्रति असहनशीलता का भाव बनाए रखते हैं, वे विलुप्त हो जाएंगे।’’ संदर्भित संदसीय बहस को यदि उपरोक्त नजरिए से देखते हैं तो काफी राहत महसूस होती है। अपने भाषण में राहुल गांधी ने भारत के विरुद्ध चीन व पाकिस्तान के लगातार मजबूत होते गठजोड़ को सबसे खतरनाक घटना के रूप में सामने रखा था। प्रधानमंत्री ने तो इस पर चर्चा नहीं की, लेकिन तमाम प्रबुद्ध लोग जिसमें दि हिन्दू के पूर्व संपादक एन.राम जैसे बड़े पत्रकार भी शामिल हैं, उनके इस विश्लेषण से सहमत नहीं थे। परंतु भाषण के तीन दिनों के भीतर ही चीन पाकिस्तान आर्थिक कॉरिडोर ही नहीं बल्कि कश्मीर को लेकर पाकिस्तान व चीन के जो बयान सामने आए हैं, उससे स्थिति स्पष्ट हो जाती है। भाषण की एक और बात, भारत के अलग थलग पड़ जाने, पर विचार कीजिए। आजादी के बाद से चली आ रही भारतीय विदेश नीति की वजह से पूरे विश्व में संभवत: भारत एकमात्र ऐसा देश है, जिसके रूस, अमेरिका, यूरोप व यूक्रेन सभी से बेहतरीन रिश्ते हैं। सभी से जीवंत व्यापारिक व सांस्कृतिक संबंध भी बने हुए हैं। परंतु यूक्रेन विवाद निपटाने में हमारी कोई भूमिका नहीं है। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की इससे बुरी स्थिति क्या हो सकती है ?
समाधानमूलक उत्तर न दे पाने की स्थिति में उलझ जाने से प्रधानमंत्री एकदम विचलित हो गए और उन्होंने कोरोना काल में मददगार की भूमिका निभाने के लिए कांग्रेस की जमकर आलोचना की। यह तर्क समझ से परे है कि जब रेल संचालन केंद्र सरकार का विशेषाधिकार है तो कांग्रेस ने ठप्प पड़ी रेल व्यवस्था में किन्हें टिकट खरीदकर वापस घर भेजा ? इस दौरान उन्होंने एक नया व मौलिक सिद्धांत भी गढ़ दिया कि संकटग्रस्त व्यक्ति की सहायता करना अब ‘‘पाप’’ की श्रेणी में आएगा। लाखों लाख भारतीयों का हजारों हजार किलोमीटर भूखेप्यासे अपने घर लौटने को ‘संकट’ की नहीं बल्कि ‘‘प्रलय’’ की श्रेणी में गिना जाएगा। सडक़ पर बच्चे को जन्म देती माँ की स्थिति को तो समझिए। वह प्रसव के कुछ ही घंटे बाद उस नवजात को गोदी में लिए पुन: प्रवास पर चल पड़ती है। वे ढूंढे उस बच्चे को जिसका नाम एनएच-3 रखा गया, क्योंकि उसका जन्म मुंबई-आगरा राजमार्ग पर हुआ था।
राहुल गांधी का भाषण पिछले 6-7 वर्षों का संसद में दिया गया सर्वाधिक सारगर्भित भाषण था। असहमति की गुंजाइश तो हमेशा रहती है, लेकिन उसे दूर किए जाने की कोशिश की जानी चाहिए। परंतु प्रधानमंत्री की भाषा ने तो जैसे संवाद के रास्ते ही बंद कर दिए। सत्ताधारी दल के 300 सांसदों में से एक ने भी परोक्ष रूप से भी प्रधानमंत्री के संबोधन पर कोई प्रश्न खड़ा नहीं किया। वहीं इस भाषण के बाद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ द्वारा हरिद्वार संसद में दिए गए अप्रिय भाषणों की निंदा की गई। इतना ही नहीं उन्होंने हिजाब विवाद में भी उग्र विरोध करने वालों से मतभेद को स्पष्ट तौर पर जाहिर किया। यह स्वागत योग्य है। राहुल गांधी ने अपने भाषण में केंद्र राज्य संबंधों पर विस्तृत प्रकाश डालते हुए संघवाद की भावना की बात की थी। परंतु प्रधानमंत्री ने अपने प्रत्यारोप में जिस लहजे और भाषा में दिल्ली और महाराष्ट्र का जिक्र किया, वह वास्तव में अचंभित करने वाला है। कोई राष्ट्र प्रमुख अपने लोकतांत्रिक राष्ट्र के एक भूभाग पर यदि कोई और वैचारिक मत का शासन है तो क्या ऐसे शब्दों व भावना की अभिव्यक्ति कर सकता है? उनके इस कथन ने राजनीति को नये निम्न (न्यू लो) तक पहुंचा दिया है। यह दुर्भावना उन तक ही सीमित नहीं रही। उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री ने जिस गंदे तरीके से केरल, पश्चिम बंगाल व कश्मीर को कोसा है, वह भारतीय लोकतंत्र की अभूतपूर्व घटना है, जिसमें एक राज्य का मुख्यमंत्री दूसरे राज्यों से इस तरह से संबोधित हो रहा है।
राहुल गांधी के संबोधन ने भारतीय जनता पाटी की वैचारिक शून्यता को पूरी तरह से उधेडक़र रख दिया। इसके समर्थकों ने अनजाने ही ‘‘शहंशाह’’ की अवधारणा को सही सिद्ध कर दिया है। अपने वैचारिक विरोधियों पर व्यक्तिगत छींटाकशी हमेशा अनैतिक ही कहलाएगी। यह तो पता नहीं कि, राहुल गांधी को ‘‘पप्पू’’ और ‘‘बाबा’’ कहने के पीछे क्या आधार था। परंतु संसद में उनके भाषण के बाद आई प्रतिक्रियाओं ने यह बता दिया है कि भाजपा में ‘‘पप्पुओं’’ और ‘‘बाबाओं’’ की पूरी सेना अस्तित्वमान है। वैसे डा. मनोज झा और महुआ मोइत्रा के भाषणों तथा दिग्विजय सिंह और पी. चिदंबरम के भाषणों के जवाब भी प्रधानमंत्री के पास नहीं थे। उन्होंने अपने पूरे जवाब को मैं बनाम कांग्रेस व मैं बनाम गाधीं - नेहरु परिवार पर केंद्रित कर उन महत्वपूर्ण सवालों से पीछा छुड़ाने का असफल प्रयास किया जो निजी तौर पर उन पर और साथ ही साथ उनकी सरकार पर उठाए गए थे। आरोपों का समाधान होना चाहिए। प्रत्यारोप कोई समाधान नहीं होता बल्कि यह लगाए गए आरोपों को औचित्यपूर्ण ही ठहरा देता है।
सुकरात कहते हैं, ‘‘मैं ज्ञानी इस अर्थ में हूँ कि मैं जानता हूँ कि मैं कुछ नहीं जानता।’’ भारतीय उपनिषदों में लेखक (जिनका नाम ज्ञात नहीं है) कहता है, ऐसा मैंने जानने वालों से जाना है। परंतु प्रधानमंत्री का सर्वज्ञाता होने का भरोसा वास्तव में भारत के वर्तमान संकटों, भूख, भुखमरी, बीमारी, बेरोजगारी, सांप्रदायिता के पीछे का एक बड़ा कारण है। आज भारत में नागरिक फेसबुक पर सजीव दिखाकर आत्महत्या कर रहे हैं और वर्तमान नीतियों को इसके लिए जिम्मेदार ठहरा रहे है। पिछले 3 वर्षों में बीस हजार से ज्यादा बेरोजगार युवा और कर्जा न चुका पाने वाले आत्महत्या कर चुके हैं। भारत की समस्याओं को लेकर सर्वदलीय बैठकें तो इतिहास बन चुकी हैं और अब तो संसद में भी उनपर बहस नहीं हो पाती। यह बेहद डरावनी स्थिति है। पेगासस में संसदीय समिति का गठन न होना यहीं दर्शाता है। तीनों किसान कानूनों को जारी करते समय और वापस लेते समय बहस से इंकार समझा रहा है कि भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था रीतती जा रही है।
मुझसे एक भूल हो रही थी कि प्रधानमंत्री ने राहुल गांधी के एक भी प्रश्न या बात का जवाब नहीं दिया। याद करिए राहुल गांधी ने अपने भाषण में ‘ए फेक्टर’ यानी अंबानी - अडानी का जिक्र किया था। प्रधानमंत्री ने इसका पुरजोर जवाब देकर ‘‘उनकी’’ (अडानी-अंबानी) की स्थिति स्पष्ट की। इसके लिए उन्हें साधुवाद। यह दोस्ती का अनुकरणीय उदाहरण है।’’ सच्चिदानंद सिन्हा, ने बड़ी मार्मिक बात लिखी है, ‘‘समाज के संभ्रांत लोगों में जिनके घरों में आसुँओं से गुँथी रोटियां खाने की मजबूरी नहीं होती, राजनीतिक भ्रष्टाचार की चर्चाएं अतिआवश्यक चटकारा होती हैं, जिससे मध्यवर्गीय जीवन की एकरसता मिटाई जाती है। इस वर्ग के ‘फील गुड’ के लिए स्केंडल उतना ही अपरिहार्य है जितना कि इसकी कारों के लिए चमचमाती सडक़ें।’’ राहुल गांधी इसी बढ़ती असमानता की बात तो कर रहे थे। इसका भी जवाब नहीं मिला।
सत्ताधारी दल पर इस भाषण का असर होता है या नहीं, यह महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण यह है कि कांग्रेस के कार्यकर्ता क्या इस भाषण का पाठ करेंगे और उस दिशा में आगे बढऩे की वैचारिक व संगठनात्मक तैयारी शुरु करेंगे ? कोई भी सीख दूसरे से ज्यादा स्वयं के लिए होती है। आज की सबसे बड़ी जरुरत है, कांग्रेस को अपनीं आजादी से पहले की भूमिका का गहन अध्ययन कर उस पर अमल कर इस देश को पुन: एकसूत्र में जोडऩे में जुटना। तभी इस भाषण की सार्थकता भी सिद्ध होगी। विनोबा एक बड़ी महत्वपूर्ण बात कहते हैं, ‘कला संबंधी एक पुस्तक में मूर्ति को अपूर्ण से पूर्ण की ओर ले जाने की पद्धति का निषेध किया गया है। लेखक का मत है, इस भाव से कार्य न करे कि मिट्टी को कैसा अंतिम आकार प्राप्त होगा। बल्कि इस ढंग से निर्माण का कार्य करे कि आदि से लेकर अंत तक किसी भी समय कोई उसे देखे, तो वह समझ जाए कि क्या चल रहा है। ऐसा होने पर ही मूर्ति में कला का संचार होता है।’
हमें लोकतंत्र को मजबूत बनाने में इसी पारदर्शी प्रक्रिया को अपनाने का प्रयत्न करना होगा।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक का लिखा-
यूक्रेन को लेकर रूस और अमेरिका के बीच जैसा मुठभेड़ का माहौल बना हुआ है, उसमें मुझे लग रहा था कि चौगुटे (क्वाड) की बैठक में भारत को भी रुस-विरोधी रवैया अपनाने के लिए मजबूर किया जाएगा। यह चौगुटा अमेरिका, भारत, जापान और आस्ट्रेलिया का मैत्रीपूर्ण गठबंधन है। मेलबर्न में हुई इसके विदेश मंत्रियों की बैठक में ऐसा कुछ नहीं हुआ। उस बैठक के बाद जो संयुक्त वक्तव्य जारी हुआ, उसमें यूक्रेन का कहीं नाम तक नहीं है। भारत के अलावा तीनों देश यूक्रेन के मामले में रूस-विरोधी रवैया अपनाए हुए हैं। उनके शासनाध्यक्ष और विदेश मंत्री लगभग रोज ही कोई मौका नहीं छोड़ते रूस पर आरोप लगाने का। शायद भारत के तटस्थ रूख के कारण क्वाड की बैठक इस मसले पर मौन रही है। जहां तक पाकिस्तान का प्रश्न है, तीनों राष्ट्रों के विदेश मंत्रियों ने भारत का स्पष्ट समर्थन पहली बार इतने जोरदार शब्दों में किया है।
संयुक्त वक्तव्य में साफ-साफ कहा गया है कि हम सीमा-पार से आनेवाले हर आतंकवाद की भर्त्सना करते हैं। हम मुंबई और पठानकोट में हुए आतंकी हमलों की निंदा करते हैं। इस संयुक्त वक्तव्य में पाकिस्तान का नाम लिये बिना भारत की तरह शेष तीनों देशों ने उस पर जमकर शाब्दिक आक्रमण किया है। इसी अमेरिकी आक्रमण की तरफ इशारा करते हुए पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान ने कहा है कि अमेरिका को शीतयुद्ध के दौरान जब पाकिस्तान की जरुरत थी, उसने उसे जमकर इस्तेमाल किया और अब उसे (निरोध की तरह) इस्तेमाल करके फेंक दिया। इन देशों ने अपने बयान में अफगानिस्तान के सवाल पर भी पाकिस्तान की खिंचाई की है। उन्होंने कहा है कि किसी अन्य देश की भूमि को आतंकवाद का अड्डा बनाने के लिए इस्तेमाल करना गलत है। भारत भी अफगानिस्तान को लेकर बराबर यही बात कहता आ रहा है।
जहां तक चीन का सवाल है, इन चारों देशों ने चीन पर भी इशारों-इशारे में हमला बोला है। साफ-साफ आक्रमण नहीं किया है। पत्रकार परिषद में हर विदेश मंत्री ने चीन के खिलाफ दो-टूक रवैया अपनाया है लेकिन शायद भारत का लिहाज रखते हुए संयुक्त वक्तव्य में सिर्फ यही कहा गया है कि हिंद प्रशांत क्षेत्र को खुला और नियंत्रण-मुक्त रखा जाना चाहिए ताकि विभिन्न राष्ट्र अपने हितों की रक्षा कर सकें। लेकिन इस रवैए की भी चीनी सरकार के प्रवक्ता ने की भर्त्सना की है। उसने कहा है कि यह चौगुटा बनाया ही इसलिए गया है कि चीन का विरोध किया जाए। म्यांमार के मामले में भी हमारे विदेश मंत्री जयशंकर ने कहा कि म्यांमार में हम लोकतंत्र और नागरिक आजादी का समर्थन करते हैं लेकिन उस पर हम अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंध लगाने के हक में नहीं हैं। भारत का यह संतुलित रवैया इसलिए ठीक है कि म्यांमार हमारा पड़ौसी देश है और हमारे बहुत से हित उससे जुड़े हुए हैं। कुल मिलाकर सभी मुद्दों पर चौगुटे की बैठक में भारत का रवैया ठीक रहा, लेकिन समझ में नहीं आता कि यूक्रेन और म्यांमार के मामलों में भारत सक्रियता क्यों नहीं दिखा रहा है? वह प्रभावशाली मध्यस्थ बन सकता है, लेकिन ऐसा लगता है कि उसके आत्मविश्वास में कुछ कमी है। (नया इंडिया की अनुमति से)
-प्रियंका मंजरी
इंसानियत जब अपने सर्वोच्च स्तर पर पहुंचता है तब उसका नाम"महबूब" होता है । भोपाल के महबूब वही शख्स है जिन्होंने बरखेड़ी फाटक के पास मालगाड़ी के नीचे आई नाबालिग लड़की को बचाने के लिए खुद मालगाड़ी के नीचे घुस गया और धड़धड़ाकर तेज चलती ट्रेन के बीच लडक़ी के सिर को झुकाते हुए पकड़कर पटरी के नीचे लेट गए। लडक़ी खड़ी मालगाड़ी के नीचे से ट्रैक पार कर रही थी,अचानक ट्रेन चलने से पैर फंस गया और चीखने लगी,सामने कारपेंटर का काम करने वाले महबूब थे,उन्होंने लड़की की जिंदगी बचाने के लिए जान की बाजी लगा दी।लोगों ने इसका वीडियो बना दिया जो अब वायरल हो गया है।पुलिस अधिकारियों से पुरुस्कृत होते महबूब के सिर में सफेद टोपी और लंबी दाढ़ी है।वही टोपी और दाढ़ी जिससे आपको नफ़रत करने पिछले 7 साल से रोज सरकार और मीडिया दम लगा रही है।महबूब के पास मोबाइल नहीं है,महबूब को पता नहीं होगा उन जैसे टोपी और दाढ़ी लगे आदमी के व्हाट्सएप में कई करोड़ नफ़रत भरे मैसेज रोज हिंदुओं के ग्रुप में फारवर्ड होते हैं।या पता भी होगा तो महबूब को फर्क नहीं पड़ता होगा।क्यों महबूब के पास ईमान है,महबूब नहीं जानता था सामने जिसकी जिंदगी वे बचा रहे हैं वे "राम" को मानने वाले है कि "अल्लाह" को ।लेकिन जो उन जैसे दाढ़ी और टोपी लगे आदमी का फोटो लगा नफरती मैसेज फारवर्ड करते हैं उनके नीचे जरूर लिखा होता है " जय श्री राम" !
26 मार्च को बस्तर गोलीकांड की खबर पूरे देश भर में आग की तरह फैल चुकी थी। पूरा देश इस खबर को सुनकर स्तब्ध था। किसी को इस पर विश्वास नहीं हो रहा था कि बस्तर के संत की तरह महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव को मार डाला गया है।
देश भर में केवल एक ही चर्चा हो रही थी बस्तर के लोकप्रिय महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव पुलिस की गोलियों के शिकार हुए हैं।
बस्तर महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की क्रूर हत्या को लेकर 27 मार्च को पूरा जगदलपुर शहर जैसे शोक में डूब गया था।
शहर की एक भी दुकान उस दिन नहीं खुली थी। सड़कें वीरान थी, चौक-चौराहे सूने थे। यहां तक की रिक्शे वालों ने भी उस दिन अपना रिक्शा चलाना बंद रखा था।
बद्री विशाल पित्ती के कुशल संपादन में हैदराबाद से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ' कल्पना ’ में एक विशेष टिप्पणी के साथ दुष्यंत कुमार की एक कविता ' ईश्वर को सूली '
(बस्तर गोलीकांड पर एक प्रतिक्रिया) प्रकाशित की गई जिसकी कुछ पंक्तियां इस प्रकार है :
"ईश्वर उस आदिवासी ईश्वर पर रहम करें
सत्ता के लंबे नाखूनों ने जिसका जिस्म नोच लिया
घुटनों पर झुका हुआ भक्त
अब क्या
उस निरंकुशता को माथा टेकेगा
जिसने
भक्तों के साथ प्रभु को सूली पर चढ़ा दिया ”
बस्तर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार
लाला जगदलपुरी की एक कविता 'दंडकारण्य समाचार ' में प्रकाशित हुई। जिसका शीर्षक था 'प्रशासक बन गए ऐसे कसाई, अहिंसा तिलमिलाई छटपटाई’। इसकी प्रारंभिक पंक्तियां इस तरह हैं :
"दुखी मनुष्यत्व के वे पहरुवे थे
प्रताड़ित स्वत्व के वे पहरूवे थे
अनाहत सत्य के वे पहरुवे थे
अकल्पित तथ्य के वे पहरुवे थे
हृदय की दृष्टि के आदर्श थे वे
प्रकृति की सृष्टि के आदर्श थे वे..
प्रशासक बन गए ऐसे कसाई
अहिंसा तिमिलाई छटपटाई
विगत शासक प्रवीर उदार दानी
बहादुर कष्ट दर्शी स्वाभिमानी
कि जो थे नयनतारे आदिमों के
कि जो थे प्राण प्यारे आदिमो के
रुधिर उनका बहाया गोलियों से
उन्हें छलनी बनाया गोलियों से
फकत अन्याय पर था रोष उनका
नहीं था और कोई दोष उनका...
उन्हें बागी कहा लांछन लगाया
उन्हें दागी कहा लांछन लगाया
बहुत विश्वास था परमात्मा पर
करारी चोट बैठी आत्मा पर
उन्हें खोकर बहुत व्याकुल चमन है
उन्हें श्रद्धा सहित मेरा नमन है ”
31 मार्च को महाराजा प्रवीरचंद भंजदेव के अनुज विजय चंद्र भंजदेव ने एक लिखित बयान जारी किया जिसमें उन्होंने अपने भाई की मृत्यु की न्यायिक जांच करवाए जाने की मांग करते हुए कहा :
" मेरे पूज्य बड़े भाई श्रद्धेय श्री प्रवीर चंद्र भंजदेव भूतपूर्व महाराजा बस्तर की गोलीकांड में हुई दुखद मृत्यु के समाचार से मुझे ममित्व पीड़ा हुई। जानकारी मिलते ही हम लोग अपने पुराने राजमहल पहुंचे और वहां भूतपूर्व महाराजा प्रवीर चंद्र के अंतिम दर्शन किए। अंत्येष्टि क्रिया के लिए उनकी लाश मुझे अधिकारियों द्वारा दी गई और मैंने अपने परिवार की परंपरा के अनुसार स्वर्गीय बड़े भाई की अंत्येष्टि क्रिया का भी प्रबंध किया। मैं तथा मेरे परिवार के लोग शोकाकुल थे। यह कहना कि मैंने यह प्रतिज्ञा की है कि मैं अपने भाई की मृत्यु का बदला लूंगा। एकदम गलत है। मैंने यह अवश्य कहा था कि मेरे स्वर्गीय बड़े भाई की मृत्यु के कारणों की न्यायालीन जांच करवाई जाए। ”
अगर महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव के अनुज विजय चंद्र भंजदेव बस्तर गोली कांड की न्यायालीन जांच की मांग नहीं करते तब भी शासन खानापूर्ति के नाम पर यह सब जरूर करती।
मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के.एल.पांडेय की सिंगल इंक्वारी कमीशन को बस्तर गोलीकांड की जांच की जिम्मेदारी सौंपी गई।
न्यायविद कन्हैया लाल पांडेय की सिंगल इंक्वारी कमीशन की जांच के दौरान अनेक तथ्यों का खुलासा हुआ। रहस्य के अनेक आवरणों से पर्दा भी उठा।
शेष अगले सप्ताह...
-डॉ. लखन चौधरी
छत्तीसगढ़ सरकार ने सुशासन यानी गुड गवर्नेंस को लेकर पिछले दिनों मंत्रालय, सचिवालय सहित तमाम सरकारी कार्यालयों में पांच दिवसीय साप्ताहिक कार्यदिवस की नई शुरूआत की थी। सरकार को उम्मीद थी कि इससे न केवल सरकारी कामकाज में सुधार आयेगा; बल्कि बिजली, पानी, पेट्रोल, डीजल इत्यादि ईंधन के लाखों रूपयों के संचालन खर्चों में कमी आयेगी। इससे सरकार का वित्तीय बोझ भी कम होगा। दूसरी ओर अधिकारियों एवं कर्मचारियों को सप्ताह में दो दिन आराम मिलने से प्रशासनिक एवं कार्यालयीन कामकाज में कसावट आयेगी एवं कामकाज की गुणवत्ता सुधरेगी।
सरकार इस निर्णय से पर्याप्त मात्रा में संतुष्ट दिख रही थी। सरकार ने एक कदम और आगे बढक़र यह बयान तक दे दिया था कि इससे राज्य का वित्तीय भार कम हो सकेगा। लगातार दो दिन अवकाश मिलने से अधिकारी एवं कर्मचारी सपिरवार अपने गांव, अपने आसपास के दर्शनीय स्थलों में घूमने जा सकते हैं, जिससे राज्य में पर्यटन को भी बढ़ावा मिल सकेगा। इससे रोजगार के अवसर बढ़ेंगे, सैकड़ों बेरोजगार लोगों को काम मिलेगा तथा राज्य की आर्थिक स्थिति सुधर सकती है।
सरकार की सोच सैद्धांतिक तौर पर सही है। सरकार की ओर से जितनी और जिस तरह से उम्मीदें जतीई जा रही थी, वह भी तथ्यात्मक तौर पर सही है, मगर सप्ताह भर पहले ही लागू व्यवस्था हांपने या दम तोडऩे लगी है तो सवाल उठना लाजिमी है कि क्या नई व्यवस्था में कोई कमी या खामी है ? या नई व्यवस्था में राज्य के अधिकारी एवं कर्मचारी समायोजित नहीं हो पा रहे हैं ?
सवाल यह भी उठता है कि क्या इस नई व्यवस्था को लागू करने के पहले सरकार ने अधिकारियों एवं कर्मचारियों से कोई सलाह-मश्विरा लिया था? क्या अधिकारी एवं कर्मचारी इस नई व्यवस्था के लिए तैयार थे? यदि तैयार थे, तो फिर अब इस व्यवस्था को लेकर पुन: पुरानी व्यवस्था लागू करने के लिए कहने की बातें क्यों हो-आ रही हैं? क्या यह नई व्यवस्था राज्य में असफल होकर रह जायेगी? क्या सरकार इस नई व्यवस्था को कड़ाई से लागू करने से पीछे हट सकती है? आखिरकार इसके लिए जिम्मदार कौन है?
फाईव डे वीक को लेकर अधिकारियों एवं कर्मचारियों के रवैये से सरकार किस तरह निपटेगी या निपटने वाली है? इस नई व्यवस्था के प्रति अधिकारियों एवं कर्मचारियों की लापरवाही या लेटलतीफी के क्या मायने हैं? अब, जब राज्य भर से शिकायतें आनी आरंभ हो चुकी हैं, तब क्या इस विवाद में अधिकारियों एवं कर्मचारियों का संगठन आगे आयेगा? जिन अधिकारियों एवं कर्मचारियों पर कार्रवाई हो रही है, उनके बचाव के लिए संगठन क्या करेगा? क्या सरकार अधिकारियों एवं कर्मचारियों के आगे झुकेगी? कई तरह के सवाल हैं।
दरअसल में पिछले साल सुशासन दिवस 25 दिसम्बर के अवसर पर केंद्र सरकार द्वारा जारी ‘गुड गवर्नेंस इंडेक्स-2021’ जारी किया गया था, जिसमें ग्रुप बी के राज्यों में छत्तीसगढ़ पहले स्थान पर था। भारत सरकार के प्रशासनिक सुधार और लोक शिकायत विभाग की ओर से तैयार इस सूचकांक को राज्यों को सुशासन की कसौटी पर कसने के लिए जारी किया जाता है। इसमें छत्तीसगढ़ को मिले अग्रणी दर्जे से उत्साहित होकर सरकार ने एक और कदम उठाते हुए फाईव डे वीक व्यवस्था को लागू करने का फैसला किया था।
हांलाकि कुछ को कहना है कि सरकार ने बगैर विस्तृत सलाह-मश्विरा किये एवं बिना रोडमैप के इस नई व्यवस्था को लागू करने की घोषणा की थी। जिसे तत्काल अमल में लागू कर दिया गया। जिसका परिणाम यह हुआ या हो रहा है कि राज्य के अधिकारी एवं कर्मचारी इस नई व्यवस्था को अपना नहीं पा रहे हैं। कहा जाये कि इस फाईव डे वीक की नई व्यवस्था के अनुरूप अपने आप को ढाल नहीं पा रहे हैं।
इधर जब इस नई फाईव डे वीक वर्किंग व्यवस्था को इसी महिने लागू की गई, तो अनेक अधिकारियों एवं कर्मचारियों ने ही सवाल उठाया था कि मात्र आधा घंटा बढ़ाने से क्या होगा? पांच कार्यदिवस में मात्र ढाई घंटा बढ़ाने से पूरे एक दिन के कामकाज की भरपाई कैसे होगी? जहां आधे घंटे के लंच में अधिकारी एवं कर्मचारी घंटों बाहर रहते हैं, समय पर कार्यालय कभी नहीं आते हैं एवं अक्सर समय के पहले निकल जाते हैं, ऐसे में एक दिन का कार्यदिवस और कम कर देने से कामकाज कैसे होगा? गंभीर सवाल उठता है।
सार यह है कि हमारे राज्य के अधिकारी एवं कर्मचारी भी इस लोकतंत्र के महान वोटर हैं। ये भी रोज देख रहे हैं कि जब नौकरशाह, राजनेता एवं वोटर लोकतंत्र की मलाई खा रहे हैं, तो भला अधिकारी एवं कर्मचारी ही इससे वंचित क्यों रहें? सप्ताह में एक दिन और आराम करना एवं बाकि के दिनों में भी अपनी मर्जी से आना-जाना आखिर उनका भी तो लोकतांत्रिक अधिकार है? कौन क्या करेगा? सरकार की इतनी हिम्मत कहां है कि कोई कार्रवाई कर सके? मीडिया का काम हल्ला करना है, करे। जनता जागेगी तब व्यवस्था सुधरेगी। जनता कब जागेगी? इंतजार रहेगा!
कांग्रेसी, समाजवादी और कम्युनिस्ट विचारधारा के समर्थक बुद्धिजीवियों का यह फतवा कि संघ और भाजपा परिवार के अंदर बुद्धिजीवी हैं ही नहीं। मुझे नागवार गुजरता रहा है। मैं यह बात कभी नहीं मान सका कि देश की बड़ी राजनीतिक पार्टी और उसकी मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिंदू महासभा में बुद्धिजीवियों का अकाल ही रहा है। फिर भी उनकी प्रसिद्धि और सफलता की धरती इतनी उर्वर कैसे होती चली गई कि वह आज केंद्रीय सत्ता पर काबिज है। बल्कि बहुत मजबूती से काबिज है। अब पूरा खेल ही उसके हाथ आ गया लगता है। वे ही खेल के नियम तय करते हैं। वे ही फैसला भी करते हैं। बाकी लोग आलोचना करने के वैचारिक दलदल में फंसा दिए गए हैं। उनमें कुछ अपने मुंह मियां मि_ू बनने की आदत पाल चुके हैं। अपने हाथों आत्ममुग्ध होकर अपनी पीठ ठोंकने की अदा को लगता है कि दक्षिणपंथी विचारधारा के ‘नुमाइन्दों’ में जनता के मन को समझने वाले लोग नहीं हैं। हो लेकिन उलटा ही रहा है।
तथाकथित दक्षिणपंथी निजाम और विचारधारा ऐसा एजेंडा लागू करते हैं जो देशहित में न होकर समय के खिलाफ होता है। वामपंथी बुद्धिजीवी लेकिन अपनी सार्थक, तटस्थ और वस्तुपरक भूमिका से छिटक जाते हैं। राजनीतिक पार्टियां भी बेपरवाह हो जाती हैं। फिर भी उन्हें लगता है कि कभी तो दक्षिणपंथी विचारधारा को मुकम्मिल तौर पर परास्त कर सकेंगे। लगातार चुनावों के परिणाम बता रहे हैं कि यह हसीन मुगालता है। हालिया कर्नाटक में एक मुस्लिम छात्रा को हिजाब लगाकर अपने कॉलेज जाने से श्रीराम सेने के कुछ ‘उत्साही’ (हालांकि वे कूढ़मगज हैं) छात्रों ने रोकने की कोशिश की। विरोध में अपनी देह पर भगवा दुपट्टे लहराए। ‘जय श्री राम’ का घातक संदेश बनाकर नारा लगाया। उनसे बिना डरे जवाब में छात्रा ने भी ‘अल्लाह हू अकबर’ नारा लगाया। ‘जय श्री राम’ तो हिंसक नारा बना दिया गया है। हिंदू अतिवादिता ने उसे खास तौर पर मुसलमानों के गर्दन को हलाल करने की तरह चलाया है। ‘अल्लाह हू अकबर’ लेकिन उसका इलाज नहीं है। छात्रा मुस्कान द्वारा ‘अल्लाह हू अकबर’ का उद्घोष प्रतिरोधी सांप्रदायिकता की गूंज है। उसकी अनावष्यक तारीफ नहीं की जा सकती। सेकुलरिज्म का तो दोनों ओर से नुकसान होता है। भारत के समझदार नागरिकों को ठंडे दिमाग से तटस्थ और वस्तुपरक ढंग से सोचना होगा। हिन्दुत्व की सांप्रदायिकता बनाम इस्लामिक कठमुल्लापन से देश को वैचारिक श्मशान बनाम कब्रिस्तान ही मिल रहे हैं। नारेबाज इतिहास नहीं रचते। जानना चाहिए हिंदुस्तान में संविधान के मकसद और सांप्रदायिकता बनाम सेकुलरिज्म को लेकर पिछले 75 वर्षों से ज्यादा से खेला हो रहा है। उसकी बुनियाद में कई जज्ब की गई यूरो अमेरिकी मान्यताएं हैं। नागरिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक जीवन जहरीला किया जा रहा है। यह तो जाहिर है कि संविधान में यूरोपीय नस्ल का सेकुलरिज्म एक नये संवैधानिक विचार के रूप में इंजेक्ट किया गया है। पहले शब्दों में नहीं किया जा सका क्योंकि राजनीतिक परिस्थितियां और इतिहास के घटनाचक्र प्रतिकूल रहे हैं। विभाजन मुख्य घाव था। इंदिरा गांधी ने उसे 42 वें संशोधन संविधान संशोधन के जरिए शब्द में उच्चारित किया। सेकुलरिज्म की अवधारणा नेहरू की अगुवाई में आई थी। सबसे निर्णायक पद पर बिठाए गए डॉक्टर अंबेडकर समर्थक थे। कई कांग्रेसी ढके, मुंदे तौर पर विरोध करना चाहते थे, लेकिन नेहरू के कद्दावर व्यक्तित्व के सामने सब चुप रहे। और अंबेडकर ने कबूल किया कि कांग्रेस और नेहरू के संविधान बनाने में सहूलियत हुई। वह सहूलियत अब सेकुलरिज्म और समाजवाद के नारे का मलीदा बनाते तत्वों को हजम नहीं हो पा रही है। नफरत का घाव पक गया है। कई शब्दों पर ही हिंदुत्व समर्थकों का कब्जा हो गया है जबकि वे अपने गर्भगृह में संप्रदायवादी नहीं हैं। यह देश हिंदुओं का तो है। इसमें कहां शक है? हिंदू इस देश के निवासी हैं। लेकिन हिंदू होने का अभिप्राय क्या है? सनातनी हिंदू से याने जब कोई विदेशी भारत में नहीं आया था। या जब सब बाहरी लोग भारत आ चुके थे? पीढिय़ों से रचे बसे लोग हिंदू की समावेशी व्यापक परिभाषा में हैं कि वे सब भारतवासी हैं। मजहब नहीं इतिहास के चश्मे के लिहाज से अपने देश की संतान हैं।
संविधान में भारत विभाजन की पृष्ठभूमि में कई प्रावधान बनाए गए। अन्यथा देश में आगे विभाजन और खतरा था। कई अनुच्छेदों में अल्पसंख्यकों के संवैधानिक अधिकारों को पुष्ट करने साफ-साफ ऐलान किए गए। अनुच्छेद 14 भारत के राज्य क्षेत्र में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता से वंचित नहीं करेगा। इसमें हिंदू मुसलमान विभाजन को बहिष्कृत किया गया है। अनुच्छेद 15 में भी धर्म मूल वंश जाति लिंग या जन्म स्थान के आधार पर विभेद की पूरी मनाही है। अनुच्छेद 25 में अंत:करण और धर्म को मानने, आचरण करने और प्रचार की आजादी दी गई है। जिससे खास तौर पर अल्पसंख्यकों को धार्मिक और संवैधानिक सुरक्षा का भाव महसूस हो। मसलन कृपाण धारण करना और लेकर चलना सिक्ख धर्म को मानने का अंग समझा जाएगा। अनुच्छेद 26 में धर्म प्रयोजनों के लिए संस्थाओं की स्थापना की जा सकती है। विशेष धर्म की शिक्षा देने के संबंध में भी है। भारत के किसी भी इलाके में नागरिकों के किसी भी विभाग को, जिसकी अपनी विशेष भाषा लिपि है, संस्कृति है, उसे बनाए रखने का अधिकार होगा। धर्म या भाषा पर आधारित अल्पसंख्यक वर्गों को अपनी रुचि की शिक्षा संस्थाओं की स्थापना और प्रशासन का अधिकार होगा।
कर्नाटक के हुबली के शिक्षा संस्थान में हुआ यह कि एक मुस्लिम लडक़ी को हिजाब पहनकर जाने से रोका गया है। उसे कहा जा रहा है कि वह उस संस्था का ड्रेस कोड है। केंद्र सरकार और भाजपा के नुमाइंदे छाती ठोंक कर कह रहे हैं कि प्रत्येक शिक्षण संस्थान को अपना ड्रेस कोड बनाने का हक है। विद्यार्थियों को उसे मानना जरूरी होगा। किसी भी व्यक्ति को और लड़कियों को भी अपनी पसंद, रुचि और परंपरा की पोशाक पहनने का अधिकार तो संविधान के साथ ही पारंपरिक है। उसे रोका नहीं जा सकता। उलट तर्क है कि ड्रेस कोड लगाने का अधिकार शिक्षा संस्थान को है। शिक्षा संस्थान को ड्रेस कोड लगाने का अधिकार लेकिन संविधान नहीं देता है। ड्रेस कोड लगाने का अधिकार एक व्यावसायिक, प्रषासनिक या स्वविवेक का है। बंदिश लगाने के अधिकार से इनकार तो नहीं किया जा सकता। लेकिन ऐसी बंदिशें लगाने का अधिकार सरकार को भी तब है जब संविधान इजाजत दे, अन्यथा नहीं। डे्रस कोड पसंद नहीं है तो मत पढि़ए कहना घातक और असंवैधानिक है। सेना के सभी अंगो का ड्रेस कोड बदला गया है। उसका कर्नाटक के दृष्टांत से कोई समानांतर नहीं है। सेना संवैधानिक निकाय ही है। राज्य को अधिकार है कि अपने कानून और निर्देश बनाए और उनको मानना आवश्यक होगा। लाल टोपी समाजवादी पार्टी का, खादी का धोती कुर्ता, टोपी कांग्रेस का, भगवा दुपट्टा, झंडा, रंग संघ परिवार का स्वैच्छिक आचरण रहा है। लाल झंडा कम्युनिस्ट पार्टी का पूरी दुनिया में है। पोशाकों या प्रतीकों से प्रेम ही मौलिक अधिकार है। वह किसी अन्य व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का हनन नहीं करता। भगवा दुपट्टा काले हिजाब के लिए दी ग्रेट खली क्यों बनाया जा रहा है। यह एक असंवैधानिक आचरण का नमूना है। अब तो हालत है कि धार्मिक आस्थाओं और संविधान की आयतों पर चौधरियों की मनाही है। बाबरी मस्जिद गिरने के बाद राम मंदिर मामले में पांच जजों की बेंच ने भी आस्था को हिन्दू तर्कों का आधार माना। उसका कोई वैज्ञानिक परीक्षण नहीं हुआ है। तब यदि मुसलमान कहते हैं कि हिजाब पहनना उनके धर्म, परंपरा और धार्मिक अनुभवों के कारण आचरण में आया है, तो यह फतवा नहीं दिया जा सकता कि धार्मिक आस्थाओं पर ड्रेस कोड का बुलडोजर चढ़ा देंगे। संविधान सभा में समान नागरिकता के सिद्धांत पर बहस में केवल मुसलमान सदस्यों ने विरोध किया। एक भी हिंदू सदस्य ने समर्थन नहीं किया। इसके ठीक उलट एक भी मुसलमान सदस्य इतना उदार नहीं था कि यूनिफॉर्म सिविल कोड के प्रस्ताव का समर्थन करता। दोनों धर्म के मानने वाले आजादी की राजनीति के सिपहसालार भी इतने संकुचित थे कि देश हित में समान वैज्ञानिक सिद्धांतों पर आगे नहीं आ पाए। यही कमजोरी संघ परिवार ने पकड़ ली। इसीलिए जब व्याप्त कुरीति तीन तलाक की परम्परा को खारिज किया। तो मुस्लिम औरतों का उनको पष्चिम उत्तरप्रदेश से खासतौर पर इतना समर्थन मिला। कम से कम चार बार सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र शासन को हिदायत दी है कि सामाजिक गतिशीलता के हित में यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करे। परंपरा हर वक्त जायज नहीं होती। पारंपरिक पोशाक अपरिवर्तनषील भी नहीं होती। निजी संस्थान कह सकते हैं ड्रेस कोड नहीं मानना है तो नौकरी मत करिए। लेकिन जहां शिक्षा पाना मौलिक अधिकार है। शिक्षा देना एक कर्तव्य है। वहां इतनी आसानी से फतवा नहीं दिया जा सकता। संविधान बनाने में हिंदू मुस्लिम एकता की कलई खुली। उड़ीसा के सदस्य लोकनाथ मिश्र ने सेकुलरिज्म का इतना मजाक उड़ाया कि उसे पढऩे से कोफ्त होती है। उन्होंने इस्लाम और ईसाइयत की इतनी बुराइयां निकालीं कि उसे वह संविधान सभा की पोथी का वायरस लगता है। कभी सरदार पटेल तक ने कह दिया था कि मुसलमानों को इतनी रियासतें हमने दे दी हैं। फिर भी लोग खुश नहीं हैं। उनके लिए बस एक ही जगह है और वह है पाकिस्तान। यही आज गिरिराज सिंह विकृत अर्थ में लगातार उगलते रहते हैं। नागरिकता के मामले में पंजाब राव देशमुख ने भी अल्पसंख्यकों के खिलाफ जो कुछ कहा था पढऩे में बहुत बुरा लगता है। 1955 में जब नेहरू हिंदू कोड बिल लेकर आए जिसमें हिंदुओं के पारंपरिक अधिकारों के बदले अधिनियमित अधिकार देने की बात कही गई। तब मुसलमानों की उनकी परंपराओं की बुराई करते करते भी एमएस गोलवलकर और करपात्री जी ने हिंदू धर्म में किसी भी तरह के कानूनी हस्तक्षेप की बात को कबूल नहीं किया। लोग कहते हैं कि धर्म हमारी आस्था का विषय है और धार्मिक मामलों को लेकर संविधान को हस्तक्षेप करने की आजादी नहीं देते। हम संविधान ही बदल देंगे। केंद्र सरकार में लोग बहुत सयाने और चतुर हैं। वह एजेंडा सेट करते हैं और विपक्षी अपने आप को बहुत विद्वान समझते भाजपा संघ के जमावड़े को कम बुद्धि का समझते हैं पीछे पीछे दौडऩे लगते हैं। जम्मू कश्मीर विवाद, अनुच्छेद 370, कर्नाटक का ड्रेस कोड, कब्रिस्तान बनाम श्मशान, जय श्री राम, हिंदू राष्ट्र का आव्हान, संविधान में इंडिया दैट इज़ भारत, मदरसों में कठमुल्लापन, लव जिहाद जैसे ठनगन मोदी सरकार सेट करती है। बाकी पार्टियां पीछे दौड़ती भी गाल बजाती हैं कि हिंदू धार्मिक जमावड़े में बुद्धिजीवियों की कमी है। हद है कि गाय, गंगा, गीता, हिंदू, हिंदुत्व, श्रीराम, जय श्रीराम, मथुरा, बनारस, वाराणसी, काशी जैसे सैकड़ों शब्द भाजपा संघ की डिक्शनरी के कॉपीराइट में हैं।
अचरज है कि हिंदू महासभा के तत्कालीन नेता डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने उप समिति की बैठक में प्रस्ताव में दिया था। उसमें अल्पसंख्यकों को बहुत अधिकार देने की बात की थी। उसे संविधान सभा ने नेहरू और अंबेडकर की अगुवाई में और यहां तक कि बाद में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और जनसंघ के नेताओं ने भुला दिया। वरना आज अल्पसंख्यकों को इतने संवैधानिक अधिकार होते कि हिंदू मुस्लिम का पचड़ा ही देश में खत्म हो गया होता। हिंदुत्व और हिंदू सांप्रदायिकता का बखान करने आलोचना करने के साथ-साथ मुस्लिम कठमुल्लापन पर खुलकर बात करनी चाहिए। अन्यथा सेकुलरिज्म का अर्थ तुष्टीकरण है कहना सरल हो जाता है। क्या मुस्लिम परंपराएं अनुमति देती हैं कि संविधान उनकी परंपराओं के खिलाफ है। कहीं भी संविधान प्रतिबंध नहीं लगा सकता? एक विद्यार्थी को हिजाब नहीं पहनने को लेकर सरकार तक अनुच्छेद 19 के तहत कानून नहीं बना सकती। तब स्कूल या कॉलेज कब बना सकता है। चित और पट दोनों कैसे चल सकते हैं।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
देश के पांच राज्यों में मतदान की शुरुआत हो गई है। इस बार लगभग सभी पार्टियों ने मतदाताओं को रिझाने के लिए बड़ी-बड़ी चूसनियां लटका दी हैं। फर्क इतना ही है कि इस बार ये चूसनियां बहुत देर से लटकाई गई हैं। हर पार्टी इंतजार करती रही कि देखें दूसरी पार्टी कौनसी और कौनसी चूसनियां लटकाती हैं। हम उससे अधिक मीठी और सुंदर चूसनी लटकाएंगे। इन सभी राजनीतिक दलों से कोई पूछे कि आपकी राज्य सरकारें इन चूसनियों के लिए पैसा कहां से लाएंगी? जो वायदे पांच साल पहले किए गए थे, वे आज तक पूरे नहीं हुए तो इन नए वायदों का एतबार क्या है?
जो भी हो ये पांच राज्यों के चुनाव अगले आम चुनाव की भूमिका लिखेंगे। जो पार्टी भी, खास तौर से उत्तरप्रदेश में जीतेगी, वह 2024 में दनदनाएगी, इसमें जरा भी शक नहीं है। वहां कांग्रेस और बसपा की तो दाल काफी पतली होनेवाली है लेकिन यदि भाजपा जीत गई तो राष्ट्रीय स्तर पर योगी आदित्यनाथ का सिक्का दनदनाने लगेगा और उस जीत का सेहरा नरेंद्र मोदी के माथे बंध जाएगा। और यदि समाजवादी पार्टी जीत गई तो अखिलेश यादव के नेतृत्व या पहल पर देश के सारे विरोधी दल एक होने की कोशिश करेंगे और 2024 के आम चुनाव में मोदी-विरोधी मोर्चा खड़ा कर लेंगे।
यह असंभव नहीं कि भाजपा-गठबंधन की छोटी-मोटी पार्टियां भी टूटकर विपक्ष की इस बारात में शामिल हो जाएं। उ.प्र. का यह प्रांतीय चुनाव इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि देश के सबसे ज्यादा सांसद (80) इसी प्रदेश से आते हैं। इन चुनावों की एक अन्य विचित्रता यह भी है कि ये किंही राजनीतिक सिद्धांतों के आधार पर नहीं लड़े जा रहे हैं। जातिवाद और सांप्रदायिकता का जितना ढोल इन चुनावों में पिटा है, शायद किसी अन्य चुनाव में नहीं पिटा। योगी और मोदी हिंदू वोट बैंक पर लार टपका रहे हैं और सपा की कोशिश है कि पिछड़े, मुसलमान और दलित वोटों पर वह कब्जा कर ले।
इन दोनों पार्टियों में से जो भी सरकार बनाएगी, अब अगले पांच साल उसका राज चलाना मुश्किल हो जाएगा। गठबंधन में घुसे नेता और दल अपनी सरकारों को बीच मझदार में डुबाकर चले जा सकते हैं। जहां तक किसानों का सवाल है, उनके वोट तो विपक्ष को मिलने ही है। सत्ता में जो भी आए, पंजाब और उत्तरप्रदेश के किसान उसका जीना हराम कर देंगे। दूसरे शब्दों में इन पांच राज्यों के चुनाव 2024 के आम-चुनाव के प्रतिबिंब तो बनेंगे ही लेकिन वे जिस तरह से हो रहे हैं, वह भारतीय लोकतंत्र के लिए चिंता का विषय है। अगर ये शांतिपूर्ण ढंग से संपन्न होते हैं तो हम कम से कम यह संतोष कर सकेंगे कि हमारे ये चुनाव हिंसा और फर्जी मतदान से मुक्त रहे हैं। (नया इंडिया की अनुमति से)
-डॉ राजू पाण्डेय
वित्तीय वर्ष 2022-23 के स्वास्थ्य बजट से इस क्षेत्र के जानकार आहत, दुःखित और आक्रोशित हैं। पूर्व स्वास्थ्य सचिव भारत सरकार के. सुजाता राव कहती हैं- "कोविड-19 के कारण 30 लाख लोगों की मृत्यु होने का अनुमान है जो किसी भी दृष्टि से अस्वीकार्य है। मौत का यह आंकड़ा कम हो सकता था, लोगों की अकल्पनीय पीड़ा में भी कमी लाई जा सकती थी यदि हमारा स्वास्थ्य तंत्र ठीक ठीक काम कर रहा होता।" के. सुजाता राव ने कहा -"स्वास्थ्य क्षेत्र की जैसी उपेक्षा बजट में की गई है उससे मैं हतप्रभ हूँ। 2021-22 का आर्थिक सर्वेक्षण कोविड-19 की छाया में लिखा गया है। पिछले दो वर्षों ने हमें अनेक जख्म दिए हैं। मुझे उम्मीद थी कि स्वास्थ्य पर भरपूर ध्यान दिया जाएगा किंतु बजट में देश के नाकाम स्वास्थ्य तंत्र में सुधार लाने का कोई प्रयास नहीं दिखता।"
एसएलजी हॉस्पिटल के कार्यपालक निर्देशक सोमा राजू ने कहा कि सरकार को आवश्यक रूप से स्वास्थ्य क्षेत्र में या तो स्वयं निवेश करना चाहिए अथवा निजी क्षेत्र को निवेश के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए तभी हम अर्ध शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता सुनिश्चित कर सकेंगे।
इन्फेक्शन कंट्रोल अकादमी के अध्यक्ष रंगा रेड्डी बुर्री की राय में बजट में प्राइमरी हेल्थकेयर की उपेक्षा की गई है और इसके परिणाम स्वरूप आने वाले दिनों में लोगों पर वित्तीय भार पड़ेगा।
महामारी विशेषज्ञ चंद्रकांत लहरिया के अनुसार डेल्टा वैरिएंट की दूसरी लहर के दौरान देश बुरी तरह प्रभावित हुआ था। इस भयानक अनुभव के बाद वित्त मंत्री से स्वास्थ्य क्षेत्र को बड़ी आशाएं थीं जो पूरी नहीं हुईं।
स्वास्थ्य बजट की चर्चा से पहले बजट-पूर्व आर्थिक सर्वेक्षण में सरकार द्वारा किए गए इस दावे का परीक्षण आवश्यक है कि स्वास्थ्य पर व्यय विगत दो वर्षों में बढ़कर जीडीपी का 2.1 फीसदी हो चुका है और सरकार 2025 तक इसे जीडीपी के 2.5 प्रतिशत के स्तर पर पहुंचाने के लिए प्रतिबद्ध है।
पिछले वित्तीय वर्ष 2021-22 के बजट में सरकार ने स्वास्थ्य सेवाओं से अप्रत्यक्ष रूप से संबंधित उन सभी हिस्सों का समावेश स्वास्थ्य व्यय में कर दिया था जो स्वास्थ्य मंत्रालय के अधीन नहीं आते थे। स्वास्थ्य सेवाओं के बजट में अलग से कोई इजाफा नहीं किया गया बल्कि पोषण, जल एवं स्वच्छता के व्यय को स्वास्थ्य व्यय में जोड़ देने के कारण ऐसा प्रतीत होने लगा कि स्वास्थ्य पर सरकार जमकर खर्च कर रही है। विगत वर्ष आयुष मिनिस्ट्री, डिपार्टमेंट ऑफ ड्रिंकिंग वॉटर एंड सैनिटेशन और कोरोना वैक्सीन पर होने वाले खर्च को भी स्वास्थ्य के खर्चे में जोड़ा गया था। इस वर्ष भी सरकार के स्वास्थ्य बजट में 135 फीसदी इजाफे के दावों को इन तथ्यों के प्रकाश में देखा जाना चाहिए।
अनेक विशेषज्ञों का आकलन है कि स्वास्थ्य सेवाओं के लिए वर्ष 2021-22 का वास्तविक स्वास्थ्य बजट जीडीपी का .34 प्रतिशत था जो 2022-23 में .06 प्रतिशत की मामूली वृद्धि के बाद .40 प्रतिशत हो गया है। विगत वर्ष बजट में स्वास्थ्य की हिस्सेदारी 2.35 प्रतिशत थी जो अब घटकर 2.26 प्रतिशत रह गई है। वित्तीय वर्ष 2021-22 के संशोधित अनुमान में स्वास्थ्य हेतु 85915 करोड़ रुपए का आबंटन था। वित्तीय वर्ष 2022-23 के बजट अनुमान में मामूली सी वृद्धि के साथ स्वास्थ्य के लिए 86606 करोड़ रुपए आबंटित किए गए हैं। मुद्रा स्फीति और जीडीपी के प्रभाव को समायोजित करने पर स्वास्थ्य बजट कम ही हुआ है।
स्वास्थ्य को बजट में प्राथमिकता देने के मामले में हम 189 देशों में 179वें स्थान पर हैं। स्वयं स्वास्थ्य राज्य मंत्री अनुप्रिया पटेल ने सितंबर 2019 में लोकसभा में पूछे गए एक प्रश्न के लिखित उत्तर में विश्व के कुछ प्रमुख देशों के स्वास्थ्य व्यय संबंधी आंकड़े भी सदन के समक्ष रखे थे। इनके अनुसार वर्ष 2015-16 में अमेरिका ने स्वास्थ्य पर अपनी जीडीपी का 17.43 फीसदी,जापान ने 10.90 फीसदी, फ्रांस ने 11.67 प्रतिशत एवं चीन ने 5.88 प्रतिशत व्यय किया।
सरकार ने वर्तमान बजट में कोविड संबंधी आबंटन में भारी कटौती की है। वित्तीय वर्ष 2020-21 में कोविड विषयक व्यय 11940 करोड़ रुपए था। जबकि वित्तीय वर्ष 2021-22 हेतु संशोधित अनुमान 16545 करोड़ रुपए था। वर्ष 2022-23 में कोविड विषयक गतिविधियों हेतु केवल 226 करोड़ रुपए का आबंटन है। कोविड की तीसरी लहर अभी खत्म नहीं हुई है। पहली एवं दूसरी लहर की विनाशकता और सरकारी प्रयासों की अपर्याप्तता को हम सबने देखा है। इन परिस्थितियों में सरकार को यह स्पष्ट करना चाहिए कि कोविड विषयक आबंटन में भारी कमी के पीछे उसका तर्क क्या है। पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया के विशेषज्ञ के.श्रीनाथ रेड्डी के अनुसार ऐसा लगता है कि सरकार अपने बजट के जरिये यह संकेत दे रही है कि अब कोविड खतरनाक नहीं रहा। जन स्वास्थ्य अभियान के अमूल्य निधि, रवि दुग्गल तथा अमिताभ गुह ने कोविड टीकाकरण के लिए आबंटन में भारी कटौती पर चिंता व्यक्त करते हुए यह आशंका व्यक्त की है कि इसके कारण शत प्रतिशत आबादी के टीकाकरण के लक्ष्य को प्राप्त करने में कठिनाई हो सकती है। उल्लेखनीय है कि इस वर्ष कोविड टीकाकरण के लिए राज्यों को सहायता देने हेतु 5000 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है जबकि वित्तीय वर्ष 2021-22 का संशोधित आकलन 39000 करोड़ रुपए का है। यह भारी कटौती आशंका उत्पन्न करती है कि क्या टीकाकरण में निजी क्षेत्र का प्रवेश होने वाला है?
वित्तीय वर्ष 2022-23 में चिकित्सा एवं सार्वजनिक स्वास्थ्य पर सरकार का प्रस्तावित व्यय 2021-22 के संशोधित अनुमान की तुलना में 45 प्रतिशत कम है। वर्ष 2021-22 में चिकित्सा एवं सार्वजनिक स्वास्थ्य पर व्यय 74820 करोड़ रुपए था जबकि वित्तीय वर्ष 2022-23 में चिकित्सा तथा सार्वजनिक स्वास्थ्य पर 41,011 करोड़ रुपए का व्यय प्रस्तावित है। एक बजट दस्तावेज़ के अनुसार यह कटौती कोविड टीकाकरण की घटती आवश्यकता के कारण की गई है।
स्वास्थ्य अनुसंधान विभाग के बजट में केवल 3.9 प्रतिशत की वृद्धि की गई है। यदि स्वास्थ्य बजट में स्वास्थ्य अनुसंधान की हिस्सेदारी की बात करें तो इसमें पिछले वर्षों की तुलना में मामूली गिरावट ही दिखाई देती है। वर्ष 2021-22 के बजट में संशोधित आकलन में स्वास्थ्य अनुसंधान के लिए 3080 करोड़ रुपए का प्रावधान था जो वर्ष 2022-23 में 3300 करोड़ रुपए किया गया है। सम्पूर्ण कोविड महामारी के दौरान आईसीएमआर ने शोध और अन्वेषण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी किंतु इसका आबंटन घटा दिया गया है। वित्तीय वर्ष 2021-22 में आईसीएमआर के लिए आबंटन 2538 करोड़ रुपए था जिसे इस वित्तीय वर्ष में 17 प्रतिशत की कटौती के साथ 2198 करोड़ कर दिया गया है। के. सुजाता राव के अनुसार भारत की कोविड-19 से निपटने में नाकामी का एक बड़ा कारण उपयुक्त अनुसंधान केंद्रों का अभाव था जिसके कारण सही समय पर डाटा और प्रमाण उपलब्ध नहीं कराए जा सके एवं निर्णय लेने में देरी हुई। अगर हमें बीएसएल थ्री लैबों की श्रृंखला तैयार करनी है तो इसके लिए बहुत धन आवश्यक होगा।
ऐसा लगता है कि सरकार कोविड-19 को समाप्त मान रही है तभी उसे नए वैरिएंट्स के लिए नए टीकों और नई औषधियों की खोज के लिए खर्च करना अनावश्यक लग रहा है। हम कोविड-19 से मुकाबले के लिए विश्व के अन्य सभी देशों की भांति एलोपैथिक चिकित्सा का आश्रय ले रहे हैं। स्वास्थ्य मामलों के जानकार इस बात पर आश्चर्य व्यक्त कर रहे हैं कोविड-19 के इस दौर में पारंपरिक और प्राकृतिक तथा वैकल्पिक चिकित्सा प्रणालियों के लिए आयुष के बजट में 14.5 प्रतिशत का इजाफा किया गया है।
नेशनल हेल्थ मिशन के बजट में 1.8 प्रतिशत की मामूली वृद्धि की गई है और वर्ष 2021-22 के 37130 करोड़ की तुलना में यह 2022-23 में 37800 करोड़ रुपए है। यदि मुद्रा स्फीति और जीडीपी को ध्यान में रखा जाए तो यह बजट असल में घटा है न कि इसमें वृद्धि हुई है। पापुलेशन फाउंडेशन ऑफ इंडिया के विशेषज्ञों के अनुसार नेशनल हेल्थ मिशन के बजट में कमी का सीधा प्रभाव राज्यों के स्वास्थ्य कार्यक्रमों के लिए फण्ड की कमी के रूप में देखने में आता है। विकसित राज्यों के पास तो स्वास्थ्य कार्यक्रमों के लिए अपने संसाधन होते हैं किंतु केंद्र की सहायता पर आश्रित पिछड़े राज्यों के लिए एनएचएम के आबंटन में कटौती परेशानी का सबब बनती है। एनएचएम 2005 से भारत सरकार का प्रमुख और सफलतम स्वास्थ्य कार्यक्रम रहा है तथा स्वास्थ्य मानकों पर भारत के प्रदर्शन में सुधार हेतु इसे श्रेय दिया जाता है, आश्चर्यजनक है कि यह कार्यक्रम सरकार की प्राथमिकताओं में नहीं है।
कोविड-19 के दौरान संसाधनों को कोविड से मुकाबला करने के लिए पूरी तरह झोंक दिया गया था जिसके कारण शिशु टीकाकरण,प्रजनन स्वास्थ्य सेवाएं,टीबी, एचआईवी तथा अन्य रोग नियंत्रण कार्यक्रम बहुत बुरी तरह बाधित हुए थे। इनके लिए अलग से बढ़े हुए बजट प्रावधानों की आवश्यकता थी।
जन स्वास्थ्य अभियान के विशेषज्ञों के अनुसार एनएचएम का घटता बजट प्रजनन और बाल स्वास्थ्य कार्यक्रमों पर विपरीत प्रभाव डालेगा।
जन स्वास्थ्य अभियान का मानना है कि सरकार ने बजट में पारदर्शिता नहीं बरती है। वित्तीय वर्ष 2015-16 से पूर्व एनएचएम की वित्तीय प्रबंधन रिपोर्ट सार्वजनिक की जाती थी जिसमें विभिन्न शीर्षों और उप शीर्षों का विस्तृत ब्यौरा दिया जाता था। किंतु अब ऐसा नहीं होता। इसी प्रकार पीएम केअर फण्ड की अपारदर्शिता को लेकर सवाल उठते रहे हैं जो अनुत्तरित ही हैं।
सरकार पोषण और मातृत्व संबंधी योजनाओं को लेकर गंभीर नहीं दिखती। सक्षम आंगनवाड़ी और पोषण 2.0 के लिए वित्तीय वर्ष 2022-23 में 20263 करोड़ रुपए का बजट अनुमान है जो 2021-22 के 20105 करोड़ रुपए से जरा ही अधिक है। सरकार के अनुसार सक्षम आंगनबाड़ी केंद्र उन्नत संसाधनों और तकनीकी से लैस होंगे किंतु सरकार की इनके डिजिटलीकरण संबंधी योजनाओं से विपरीत पिछड़े ग्रामीण इलाकों की स्याह हकीकत यह है कि आंगनबाड़ी केंद्रों में पानी, शौचालय और मूल भूत अधोसंरचना का भी अभाव है। अनेक विशेषज्ञों के अनुसार यदि बजट यथावत रखा गया है तब वेतन और पेंशन में बढ़ोतरी का परिणाम पोषण योजनाओं के लिए घटते आबंटन के रूप में दिखेगा।
एनएफएचएस 5(2019-21) के आंकड़े दर्शाते हैं कि 15 से 49 वर्ष आयु वर्ग की 57 प्रतिशत महिलाएं एनीमिया की शिकार हैं जबकि खून की कमी से जूझ रहे बच्चों का प्रतिशत 67.1 है। एनएफएचएस 4 में एनीमिया ग्रस्त महिलाओं का प्रतिशत 53.1 और बच्चों का 58.6 था। किंतु बजट में इस भयावह स्थिति से निपटने की कोई कार्य योजना नहीं दिखती।
मध्याह्न भोजन कार्यक्रम अर्थात प्रधानमंत्री पोषण शक्ति निर्माण के बजट में 11 प्रतिशत की कटौती की गई है और अब यह 2021-22 के 11500 करोड़ रुपए से घटकर 10233.75 करोड़ रुपए रह गया है। कोविड-19 के कारण मध्याह्न भोजन कार्यक्रम अस्तव्यस्त हो गया है। चर्चा तो यह हो रही थी कि इसमें सुबह का नाश्ता भी शामिल किया जाए। 5000 करोड़ का अतिरिक्त बजट अपेक्षित था। किंतु सरकार ने उलटे कटौती कर दी। क्या सरकार यह जान रही है कि इस वर्ष भी स्कूल कोविड-19 के कारण बंद रहेंगे? यदि सरकार कोविड-19 की उपस्थिति को स्वीकार रही है तब कोविड प्रबंधन और टीकाकरण का बजट क्यों घटाया गया है?
अनेक विशेषज्ञों ने यह रेखांकित किया है कि प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना कोविड काल में निर्धनों और वंचित समुदायों को स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराने में नाकाम रही। वर्ष 2021-22 में इसके लिए आबंटन 6400 करोड़ रुपए था किंतु केवल 3199 करोड़ रुपए ही उपयोग में लाए गए। इसके बावजूद वित्तीय वर्ष 2022-23 में इसके लिए 6412 करोड़ रुपए आबंटित किए गए हैं। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि फरवरी 2020 तक प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना के 75 प्रतिशत भुगतान निजी क्षेत्र को हुए थे।
वर्ष 2022 के बजट में चिकित्सकीय उपकरण निर्माण क्षेत्र के स्थानीय निर्माताओं को बढ़ावा देने के लिए रणनीति का पूर्ण अभाव है, परिणामतः इनमें भारी असंतोष है। कोविड-19 के दौर में जब आयात बंद था तब इन्हीं स्थानीय चिकित्सा उपकरण निर्माताओं पर कोविड संबंधी उपकरणों और सामग्री के लिए सरकार पूरी तरह निर्भर थी। कोविड-19 के प्रारंभिक दौर में सरकार इन निर्माताओं पर आत्मनिर्भर बनने के लिए जोर लगा रही थी किंतु भारतीय चिकित्सा उपकरण निर्माण उद्योग की प्रमुख मांगों पर इस बजट में कोई ध्यान नहीं दिया गया है। इन निर्माताओं की टैरिफ पालिसी, कस्टम ड्यूटी और जीएसटी में परिवर्तन तथा रिसर्च एवं डेवलपमेंट के लिए करों में छूट की मांग को सरकार ने नजर अंदाज कर दिया है।
सरकार डिजिटल हेल्थ मिशन के माध्यम से प्रत्येक नागरिक को एक यूनिक हेल्थ आई डी प्रदान करने के लिए आतुर है और इसीलिए इसके बजट में भारी वृद्धि कर इसे 2021-22 के 75 करोड़ से बढ़ाकर 2022-23 में 200 करोड़ कर दिया गया है। किंतु डाटा सुरक्षा को लेकर चिंताएं जाहिर की गई हैं तथा इस डाटा का दुरुपयोग निजी कंपनियों द्वारा किए जाने की आशंकाएं भी व्यक्त की गई हैं।
कुल मिलाकर ऐसा लगता है कि कोविड-19 के भयंकर दौर से सरकार ने कोई सबक नहीं सीखा है बल्कि वह तो अपनी पीठ खुद थपथपाने में लगी हुई है।
(रायगढ़, छत्तीसगढ़)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
हिजाब को लेकर कर्नाटक में जबर्दस्त खट-पट चल पड़ी है। यदि मुस्लिम लड़कियां हिजाब पहनने को लेकर प्रदर्शन कर रही हैं तो हिंदू लडक़े भगवा दुपट्टा लगाकर नारे जड़ रहे हैं। उन्हें देख-देखकर दलित लडक़े नीले गुलूबंद डटाकर नारे लगा रहे हैं। अच्छा है कि वहां समाजवादी नहीं हैं। वरना वे लाल टोपियां लगाकर शोर-शराबा मचाते। समझ में नहीं आता कि शिक्षा-संस्थाओं में सांप्रदायिकता का यह जहर क्यों फैलता जा रहा है? न हिजाब पहनना अपने आप में बुरा है, न भगवा दुपट्टा लपेटना और न ही लाल टोपी लगाना लेकिन यदि आपकी वेशभूषा, खान-पान और
भाषा-बोली यदि आपस में बैर करना सिखाती है तो मेरा निवेदन है कि आप उसे तुरंत तज दीजिए। इकबाल ने क्या खूब लिखा था, ‘‘मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना, हिंदी हैं, हम वतन हैं, हिंदोंस्तां हमारा।
अब मजहबी संकीर्णता और जिद का प्रदर्शन हिजाब, दुपट्टे और टोपी से हो रहा है। कोई इनसे पूछे कि कौनसे धर्मग्रंथ में- वेद में, बाइबिल में, कुरान में, पुराण में, जिंदावस्ता में या त्रिपिटक में— कहां लिखा है कि आप फलां चीज खाएं या न खाएं, फलां कपड़ा पहनें या न पहनें, इस करवट सोएं या उस करवट सोएं? इन सब रोजमर्रा के मुद्दों को धर्म या पंथ या संप्रदाय से जोडक़र खून बहाना कौनसी ईश्वर-भक्ति है? यदि यही ईश्वर भक्ति है तो ऐसा विभाजनकारी और विभेदकारी ईश्वर तो ईश्वर हो ही नहीं सकता। वह जगतपिता कैसा जगतपिता है, जो अपनी बच्चों के बीच ही लड़ाई के बीज बो देता है।
सारे मजहब मानते हैं कि ईश्वर एक ही है। कोई उसे गॉड, कोई ईश्वर, कोई अल्लाह, कोई खुदा, कोई यहोवा, कोई अहुरमज्द कहता है। रोजमर्रा की जिंदगी हम किस शैली में गुजारते हैं, इससे उसका क्या लेना-देना है? सारी दुनिया के लोग जो अलग-अलग ढंग के कपड़े पहनते हैं, अलग-अलग ढंग के खाने खाते हैं, अलग-अलग शैली के गाने गाते हैं, वे सब अपने देश-काल से संचालित होते हैं। जो धर्म या पंथ जब और जहां पैदा हुआ है, उस पर उस देश (स्थान) और काल (समय) का असर बना रहता है लेकिन उसे दुनिया के हर स्थान और सैकड़ों वर्षों बाद भी जस का तस अपनाने की बात करना घोर अंधविश्वास के अलावा क्या है?
क्या भारत के लेाग अब भी राजा दशरथ की तरह तीन पत्नियां और द्रौपदी की तरह पांच पति रख सकते हैं? क्या आप भारत में किसी ऐसे मुसलमान पुरुष को जानते हैं, जिसकी चार-चार पत्नियां हों? क्या आप किसी ऐसे घोर ईश्वरभक्त को जानते हैं, जो कोई आकाशवाणी सुनकर संत इब्राहिम की तरह अपने प्यारे बेटे इजहाक को कुर्बान करने के लिए तैयार हो जाए? हिंदू पुराण-ग्रंथ तो गप्पों की दुकान ही मालूम पड़ते हैं।
उनकी कहानियां सुन-सुनकर हम बचपन में आश्चर्यचकित हो जाते थे कि ये भी कोई धर्मग्रंथ हो सकते हैं? मनुष्य जाति का इतिहास बताता है कि मजहबों, पंथों या तथाकथित धर्मों ने जहां करोड़ों मनुष्यों को नैतिकता और मर्यादा का पाठ पढ़ाया है, वहीं उन्होंने राजनीति से भी ज्यादा गंदी भूमिका अदा की है।
इसीलिए जरुरी है कि हम मजहब, पंथ, संप्रदाय और धर्म के नाम पर आपस में लडऩे से बाज आएं। जो लोग ईश्वर और अल्लाह के नाम पर खून बहाने को तैयार रहते हैं, वे उस परम शक्ति के अस्तित्व के प्रति अविश्वास पैदा कर देते हैं। वह ईश्वर ही क्या है, जो अपने भक्तों के बीच झगड़े करवाता है? (नया इंडिया की अनुमति से)
गुजरात और दिल्ली की सत्ता में निर्विघ्न इक्कीस साल गुजार लेने, विपक्ष को अपनी ज़रूरत जितना पंगु बना देने और पार्टी के आंतरिक असंतोष को ‘मार्गदर्शक मंडल ‘ में सफलतापूर्वक रवाना कर देने के बावजूद नरेंद्र मोदी को उस कांग्रेस की ओर से अपने लिए इतनी चुनौती क्यों महसूस करना चाहिए जिसे कि वे मई 2014 में प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के पहले ही लगभग समाप्त कर चुके थे? कोई तो गहरा कारण अवश्य होना चाहिए कि प्रधानमंत्री को गांधी परिवार के प्रति संसद के दोनों सदनों में सात साल के बाद इतनी कड़वाहट के साथ असहिष्णुता व्यक्त करना पड़ रही है ! वे चाहते तो यह काम अपने प्रथम कार्यकाल के पहले बजट सत्र में ही कर सकते थे !
‘विश्व गुरु’ बनने जा रहे भारत देश के प्रधानमंत्री को अगर अपना बहुमूल्य तीन घंटे का समय सिर्फ़ एक निरीह विपक्षी दल के इतिहास की काल-गणना के लिए समर्पित करना पड़े तो मान लिया जाना चाहिए कि समस्या कुछ ज़्यादा ही बड़ी है। आम जनता की समझ से इसके पीछे दो ही कारण हो सकते हैं : या तो ‘पप्पू’ करार दिए गए राहुल गांधी द्वारा राष्ट्रपति के अभिभाषण पर पेश किए गए धन्यवाद प्रस्ताव पर लोकसभा में दिए गए अद्भुत भाषण ने सत्ता की चूलों को हिला दिया है या फिर उत्तर प्रदेश की सड़कों पर प्रियंका गांधी के रूप में इंदिरा गांधी का जो ‘लड़की हूँ, लड़ सकती हूँ, वाला जो अवतार प्रकट हुआ है उसे लेकर सत्तारूढ़ दल बेचैन है।
प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से लगाकर तेरहवें प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह तक के संसद के बजट सत्रों में तत्कालीन राष्ट्रपतियों के अभिभाषणों पर बहसों के जवाब में (सम्भवतः) किसी भी प्रधानमंत्री ने दोनों सदनों के फ़ोरम का उपयोग किसी एक विपक्षी दल की चमड़ी को सार्वजनिक रूप से उघाड़कर उसके ज़ख्मों को लहूलुहान करने में नहीं किया होगा जैसा कि सात और आठ फ़रवरी 2022 को देश और दुनिया के करोड़ों लोगों ने टी वी के पर्दों पर देखा और सुना।
प्रधानमंत्री कार्यालय में दिन-रात संघर्षरत रहने वाली टीम की सराहना की जानी चाहिए कि उसने इतना कठोर परिश्रम करके गोवा मुक्ति-संग्राम को लेकर नेहरू द्वारा कहे गए कथन से लगाकर ‘तानाशाह’ कांग्रेसी हुकूमतों द्वारा समय-समय पर बर्खास्त की गई विपक्षी राज्य सरकारों की सूची, उसके नेताओं द्वारा अपमानित किए गए लोगों के नाम और उन तमाम घटनाओं के प्रामाणिक ब्यौरे तैयार करने में अपनी सम्पूर्ण ताक़त झोंक दी जिन्हें हथियार बनाकर प्रधानमंत्री अपना ओजस्वी भाषण संसद के दोनों सदनों में दे सके। सत्तारूढ़ दल के सांसदों ने इतनी अधिक बार पहले कभी ‘शेम-शेम’ नहीं उच्चारित किया होगा और न ही इस क़दर मेज़ें थपथपाई होंगी !
प्रधानमंत्री ने अपने दोनों भाषणों में क्या कहा उसे इसलिए दोहराने की ज़रूरत नहीं कि ऐसा करने से अटल बिहारी वाजपेयी सहित वे तमाम विभूतियाँ संसदीय इतिहास के कठघरों में खड़ी की जाने लगेंगी जिन्होंने किसी विपक्षी दल या नेता द्वारा अपनी सरकार गिरा दिए जाने पर भी इस तरह के भाषण संसद में नहीं दिए। जिन अटल जी का उल्लेख प्रधानमंत्री ने उनकी रचना के माध्यम से किया (‘व्याप्त हुआ बर्बर अंधियारा, किन्तु चीरकर तम की छाती, चमका हिन्दुस्तान हमारा।शत-शत आघातों को सहकर, जीवित हिन्दुस्तान हमारा। जग के मस्तक पर रोली सा, शोभित हिन्दुस्तान हमारा।’) उन्हीं अटल जी ने नेहरू के निधन के बाद अपनी श्रद्धांजलि में संसद में कहा था :’ एक सपना था जो अधूरा रह गया, एक गीत था जो गूंगा हो गया, एक लौ थी जो अनंत में विलीन हो गई। मानवता आज खिन्न हो गयी'।
प्रधानमंत्री ने जो कुछ कहा उसे दोहराने से ज़्यादा ज़रूरी यह समझना हो सकता है कि मोदी जनता के किस वर्ग या समूह को सम्बोधित करना चाह रहे होंगे ! नेहरू से लगाकर आज दिन तक के कांग्रेस के ‘काले इतिहास’ से (जिसमें कि 1975 में डेमोक्रेसी का गला घोंटा जाना भी शामिल है) क्या प्रधानमंत्री अपनी ही पार्टी के सांसदों और विधायकों को अवगत कराना चाह रहे थे? या उस ग़ैर-कांग्रेसी विपक्ष को आगाह करना चाह रहे थे, जो कांग्रेस को धुरी बनाकर 2024 में केंद्र की सत्ता में क़ाबिज़ होने की तैयारी कर रहा है? या फिर वे ‘गांधी परिवार’ को उसके गौरवशाली अतीत के प्रति भी शर्मसार करना चाह रहे होंगे?
प्रधानमंत्री को तो कांग्रेस का केवल इसलिए ही आभार व्यक्त कर देना चाहिए था कि अगर इंदिरा गांधी ने 1975 में डेमोक्रेसी का गला नहीं घोंटा होता तो न तो तानाशाह शासकों को कभी यह पता चल पाता कि जनता का मौन भी सत्ताओं का परिवर्तन कर सकता है और न ही केंद्र में विपक्षी दलों की ऐसी साझा सरकार के बनने का क्षण उपस्थित होता जिसमें जनसंघ (वर्तमान की भाजपा) की भी भागीदारी थी।इसी सरकार में अटल जी विदेश मंत्री और आडवाणी सूचना व प्रसारण मंत्री थे।
इस बात की छानबीन की जा सकती है कि आज़ादी के बाद की कांग्रेस के ‘काले’ राजनीतिक अतीत की इतनी शोधपूर्ण जानकारी दक्षिण भारत (केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक, उड़ीसा, तेलंगाना, पुडुचेरी, आदि); उत्तर-पूर्व के राज्यों (असम, मेघालय, मणिपुर, सिक्किम, नगालैंड, अरुणाचल, मिज़ोरम, आदि) और कश्मीर-लद्दाख़ आदि क्षेत्रों में निवास करने वाली करोड़ों की जनसंख्या क्या ठीक से सुन, समझ और स्वीकार कर पाई होगी? अगर नहीं तो क्यों? मोदी तो देश के 28 राज्यों और आठ केंद्र-शासित प्रदेशों में बसने वाले सभी एक सौ तीस करोड़ नागरिकों के प्रधानमंत्री हैं ! तो क्या इन राज्यों की जनता की अपने प्रधानमंत्री के भाषणों में कोई रुचि ही नहीं रही होगी?
अनुमान लगा पाना मुश्किल नहीं कि प्रधानमंत्री के उद्बोधन के केंद्र में वे राज्य रहे होंगे जहां प्रथम चरण का मतदान प्रारम्भ हो गया है, वे राज्य जहां इस साल के अंत में और अगले बजट भाषण के पहले चुनाव होने हैं, भाजपा-शासित वे प्रदेश जहां डबल-इंजिन की सरकारों के ख़िलाफ़ ज़बरदस्त एंटी-इंकम्बेंसी है और पार्टी और संघ के वे लाखों कार्यकर्ता जो कोविड की त्रासदी से पीड़ित जनता का सामना करने से ख़ौफ़ खा रहे हैं।
इसे प्रधानमंत्री के उद्बोधनों की विशेषता माना जा सकता है कि बजट और ‘ दो हिन्दुस्तानों’ को लेकर राहुल गांधी द्वारा पूछे गए असुविधाजनक सवालों के संतोषजनक जवाब देने के बजाय वे अपनी ओर से इतने आत्मविश्वास के साथ कांग्रेस के ही ख़िलाफ़ ढेर सारे सवाल खड़े कर रहे थे।कांग्रेस के इतने निराशाजनक और राष्ट्र-विरोधी अतीत तथा उसके संगठन पर एक ही परिवार के आधिपत्य के खुलासे के बाद भी अगर जनता प्रधानमंत्री की सलाह मानकर उसके पक्ष में मतदान करना बंद नहीं करती है तो फिर यही मान लिया जाना चाहिए कि भाजपा और संघ की असली समस्या कांग्रेस और ‘परिवार’ नहीं बल्कि देश की जनता है। उस स्थिति में तो प्रधानमंत्री को इलाज जनता का ही करना पड़ेगा।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
संसद के नए सत्र में राष्ट्रपति का भाषण राष्ट्रीय ज्यादा, राजनीतिक कम ही होता है लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने धन्यवाद प्रस्ताव में कांग्रेसी सांसदों के धुर्रे उड़ाकर रख दिए। उन्होंने अपनी सरकार की उपलब्धियां भारी-भरकम आंकड़ों के साथ गिनाई हीं, उनके साथ-साथ उन्होंने कांग्रेस पर इतने भीषण प्रहार किए कि आनेवाले कई दिनों तक कांग्रेसी नेताओं के घाव हरे रहेंगे। कांग्रेसी नेता राहुल ने भी यों तो कोई कमी नहीं छोड़ी थी, मोदी सरकार की टांग खींचने में लेकिन राहुल का भाषण शायद कुछ नौसिखियों ने तैयार करवाया था, जिसकी महापंडिताई के कारण राहुल मजाक के पात्र बन गए।
मोदी के नीति-निर्माण सलाहकार जैसे भी हों लेकिन उनके भाषण-सलाहकार उत्तम कोटि के हैं, उसमें कोई शक नहीं है। मोदी ने अपने भाषण में कांग्रेस की दयनीति दशा को प्रकट करने में तथ्यों का अंबार लगा दिया। उन्होंने कहा कि लगभग 60 साल तक भारत पर एकछत्र राज करनेवाली कांग्रेस पार्टी ने अब संकल्प कर लिया है कि वह अब अगले सौ साल तक सत्ता में नहीं आएगी। उसे नागालैंड में शासन किए 24 साल, ओडिशा में 27 साल, झारखंड में 37 साल और तमिलनाडु में 50 साल हो गए हैं। जिन राज्यों में 2014 और 2019 के पहले भी उसका राज्य रहा, वह भी कभी रहा, कभी नहीं रहा।
बंगाल, केरल, कश्मीर, म.प्र., उ.प्र., राजस्थान, गोवा आदि में भी बराबर फेर-बदल होता रहा। जो तेलंगाना उसने बनाया, उसमें भी वह पिट गई। यह इसीलिए हो रहा है कि वह ऊर्ध्वमूल हो गई है याने उसके जड़े जमीन में नहीं, जनता में नहीं, ऊपर याने हवा याने नेताओं याने गांधी परिवार में हो गई है। मेरे शब्दों में कहूं तो वह प्राइवेट लिमिटेड कंपनी बन गई है। उसे जनता के दुख-दर्द से कोई मतलब नहीं है। उसने अपने आंखों पर पट्टी बांध रखी है। सरकार ने जिस बहादुरी से कोरोना को हराया है, मंहगाई को काबू में रखा है, करोड़ों असमर्थ लोगों को अनाज बांटा है, आयकरदाताओं की संख्या दुगुनी कर दी है, इस कोरोना-काल में नए-नए करोड़ों काम-धंधे लोगों को शुरु करवाए हैं, वे सब कांग्रेस को दिखते ही नहीं हैं।
अगर कांग्रेस को आईना दिखाएं तो अपना चेहरा देखने की बजाय वह आईने को ही तोड़ देना पसंद करेगी। कांग्रेस के जमाने में जैसे भ्रष्टाचार ही शिष्टाचार बन गया था, क्या भाजपा सरकार पर कोई उंगली भी उठा सकता है? किसानों ने अनाज-उत्पादन के नए रिकॉर्ड कायम किए हैं। छोटे किसानों की दशा सुधारने के लिए सरकार ने कई पहल की हैं लेकिन कांग्रेस मोटे किसानों को भडक़ाती रही। मोदी ने उत्तरप्रदेश के चुनाव का जिक्र किए बिना वहां किए गए भाजपा के कई लोक-कल्याणकारी कार्यों का उल्लेख किया।
उन्होंने जवाहरलाल नेहरु द्वारा उनके जमाने में बढ़ी हुई मंहगाई पर दी गई सफाई का भी मजाक उड़ाया। भाजपा पर कांग्रेस विभाजनकारी राजनीति का जो आरोप लगाती आ रही है, उसी टोपी को मोदी ने कांग्रेस के सिर पर मढ़ दिया। मोदी ने कांग्रेस को ‘बांटो और राज करो’ की नीतिवाली पार्टी बताया। कहा कि वह एक राष्ट्र की अवधारणा में विश्वास नहीं करती। वह टुकड़े-टुकड़े गेंग बन गई है। इसमें शक नहीं है कि कांग्रेस के पास प्रतिभाशाली और प्रभावशाली वक्ताओं की कमी नहीं है लेकिन अफसोस है कि वे इंदिरा गांधी परिवार के सदस्य नहीं हैं।
(नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पेइचिंग के ओलंपिक समारोह में रुस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान भी शामिल हुए। भारत ने उसका बहिष्कार कर रखा है। इसमें आशंका यह थी कि चीन पुतिन को पटाएगा और कोई न कोई भारत-विरोधी बयान उससे जरुर दिलवाएगा। ऐसा इसलिए भी होगा कि भारत आजकल अमेरिका के काफी नजदीक चला गया है और रूस व अमेरिका, दोनों ही यूक्रेन को लेकर आमने-सामने हैं। इसके अलावा इमरान खान भारत-विरोधी बयान पेइचिंग में जारी नहीं करवाएंगे तो कहां करवाएंगे?
आजकल कश्मीर पर सउदी अरब, यूएई और तालिबान भी लगभग चुप हो गए हैं तो अब बस चीन ही एक मात्र सहारा बचा है लेकिन आप यदि चीन-पाक संयुक्त वक्तव्य ध्यान से पढ़ें तो आपको चीन की चतुराई का पता चल जाएगा। चीन ने अपना रवैया इतनी तरकीब से प्रकट किया है कि आप उसका जैसा अर्थ निकालना चाहें, निकाल सकते हैं। तीन-चार दशक पहले वह जिस तरह से कश्मीर पर पाकिस्तान का स्पष्ट समर्थन करता था, वैसा अब नहीं करता है।
उसने यह तो जरुर कहा है कि कश्मीर समस्या का हल सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव, संयुक्त राष्ट्र घोषणा-पत्र और आपसी समझौतों से हल किया जाना चाहिए। इसका मतलब क्या हुआ? सुरक्षा परिषद के जनमत-संग्रह के प्रस्ताव को तो उसके महासचिव खुद ही अप्रासंगिक घोषित कर चुके हैं और कह चुके हैं कि आपसी समझौते के लिए बातचीत का रास्ता ही सर्वश्रेष्ठ है। मैं तो पाकिस्तान के राष्ट्रपतियों और प्रधानमंत्रियों से हमेशा यही कहता रहा हूं कि युद्ध और आतंकवाद के जरिए कश्मीर को हथियाना आपके लिए असंभव है लेकिन भारत और पाकिस्तान आपस में मिल-बैठकर समाधान निकालें तो कश्मीर का हल निकल सकता है।
इस चीन-पाक संयुक्तवक्तव्य के अगले पैरे में यही बात साफ-साफ कही गई है। यह साफ है कि किसी बाहरी महाशक्ति की दखलंदाजी का परिणाम कुछ नहीं होगा। उल्टे, वह राष्ट्र पाकिस्तान को बुद्धू बनाता रहेगा और अपना उल्लू सीधा करता रहेगा। चीन का यह कहना कि कश्मीर में ‘एकतरफा कार्रवाई’ ठीक नहीं है। यह सुनकर पाकिस्तान खुश हो सकता है कि चीन ने धारा 370 के खात्मे के विरुद्ध बयान दे दिया है। लेकिन चीन ने यहां गोलमाल भाषा का इस्तेमाल किया है।
इस मुद्दे पर भी वह साफ-साफ नहीं बोल रहा है। अगर वह बोलेगा तो भारत उसके सिंक्यांग प्रांत के उइगर मुसलमानों पर हो रहे अत्याचारों पर चुप क्यों रहेगा? जहां तक रूस का सवाल है पुतिन ने कोई लिहाजदारी नहीं बरती, चीन की तरह! उसने साफ़-साफ़ कह दिया कि कश्मीर द्विपक्षीय मामला है। दिल्ली के रूसी दूतावास ने एक बयान में यह भी स्पष्ट कर दिया कि ‘रेडफिश चैनल’ नामक एक रूसी चैनल के इस कथन से वह बिल्कुल भी सहमत नहीं है कि कश्मीर अब फिलस्तीन बनता जा रहा है।
रूस का यह रवैया चीन के मुकाबले दो-टूक है लेकिन चीन के उलझे हुए रवैए का रहस्य यही है कि उसे पश्चिम एशिया और यूरोप तक रेशम महापथ बनाने के लिए पाकिस्तान को साधे रखना बेहद जरुरी है। यह रेशम महापथ ‘कब्जाए हुए कश्मीर’ में से ही होकर आगे जाता है। (नया इंडिया की अनुमति से)
लताजी पर मैंने कोई बीस-इक्कीस वर्ष पहले एक आलेख लिखा था। अवसर था इंदौर में ‘माई मंगेशकर सभागृह ‘के निर्माण का। उसमें मैंने लताजी के साथ उसके भी सोलह वर्ष पूर्व(1983) इंदौर की एक होटल में तब उनके साथ हुई भेंटवार्ता का जिक्र किया था। उस आलेख का शीर्षक दिया था ‘खुशबू के शिलालेख पर लिखी हुई प्रकृति की कविता’। आलेख की शुरुआत कुछ इस तरह से की थी- ‘लता एक ऐसी अनुभूति हैं जैसे कि आप पैरों में चंदन का लेप करके गुलाब के फूलों पर चल रहे हों और प्रकृति की किसी कविता को सुन रहे हों।’ अपने बचपन के शहर इंदौर की उनकी यह आखिरी सार्वजनिक यात्रा थी। (वे बाद में कोई पंद्रह साल पहले स्व.भय्यू महाराज के आमंत्रण पर उनके आश्रम की निजी आध्यात्मिक यात्रा पर इंदौर आईं थीं)। इंदौर और उसका प्रसिद्ध सराफा बाजार उनकी यादों में हमेशा बसा रहता था जिसका कि वे मुंबई में भी जिक्र करती रहती थीं।
वर्ष 1983 की इस मुलाकात के बाद लताजी से फोन पर कोई बारह-तेरह साल पहले बात हुई थी। तब मैंने ‘दैनिक भास्कर’ के एक आयोजन में समारोह में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया था और उन्होंने अपने खराब स्वास्थ्य का हवाला देते हुए असमर्थता व्यक्त कर दी थी। उनकी 1983 की इंदौर यात्रा कई मायनों में अविस्मरणीय कही जा सकती है। मैं तब ‘नई दुनिया’ हिंदी दैनिक को छोड़ देने के बाद अंग्रेजी दैनिक ‘फ्री प्रेस जर्नल’ के साथ काम कर रहा था।
लताजी तब इंदौर के एकमात्र अच्छे होटल श्रीमाया में ठहरी हुईं थीं। मैं उनके साथ जिस समय चर्चा कर रहा था, उनके नाम के साथ जुडक़र होने जा रहे लता मंगेशकर समारोह का तब के बहुत बड़े कांग्रेस नेता स्व.सुरेश सेठ विरोध कर रहे थे। सेठ साहब का विरोध लताजी के प्रति नहीं बल्कि समारोह के आयोजक समाचार पत्र (नई दुनिया) के प्रति था। सेठ साहब का विरोध अपनी चरम सीमा पर था। होटल के बाहर काफी हलचल थी। खासा पुलिस बंदोबस्त था। अर्जुन सिंह तब प्रदेश के मुख्यमंत्री थे। सेठ साहब (शायद) उनकी सरकार में वरिष्ठ मंत्री भी थे।
बहरहाल, श्रीमाया होटल के अपने छोटे से कमरे में प्रशंसकों से घिरी हुईं स्वर साम्राज्ञी के चेहरे पर बाहर जो कुछ चल रहा था उसके प्रति कोई विक्षोभ नहीं था। मन अंदर से निश्चित ही दुखी हो रहा होगा। मैं सवाल पूछता गया और वे अपनी चिर-परिचित मुस्कान के साथ जवाब देती रहीं। वे जब तक जवाब देतीं, सोचना पड़ता था कि अगला प्रश्न क्या पूछा जाए। लताजी को जैसे पहले से ही पता चल जाता था कि आगे क्या पूछा जाने वाला है। वे जानतीं थीं कि दुनिया भर के पत्रकार एक जैसे ही सवाल पूछते हैं। प्रत्येक साक्षात्कार का पहला सवाल भी यही होता है कि आपको यहाँ (इंदौर) आकर कैसा लग रहा है ?
इतने वर्षों के बाद सोचता हूँ कि इंदौर की बेटी को उसके शहर में आकर कैसा लगा होगा, क्या यह भी कोई पूछने की बात थी? शायद इसलिए थी कि उन्हें अपने ही गृह-नगर में इस तरह के विरोध की उम्मीद नहीं रही होगी। और निश्चित ही डरते-डरते पूछा गया आखिरी सवाल भी वही था जो उनसे लाखों बार पूछा गया होगा-‘आप पर आरोप लगता रहता है कि आप नई गायिकाओं को आगे बढऩे का मौका नहीं देतीं?’ चेहरे पर कोई शिकन नहीं। हरेक सवाल का जवाब वैसे ही दे दिया जैसे किसी ने निवेदन कर दिया हो कि अपनी पसंद का कोई गाना या भजन गुनगुना दीजिए। और फिर एक खिलखिलाहट, पवित्र मुस्कान जिसके सामने आगे के तमाम प्रश्न बिना पूछे ही खत्म हो जाते हैं।
भारत के ख्यातिप्राप्त क्रांतिकारी कवि, साहित्यकार और अपने जमाने की प्रसिद्ध पत्रिका ‘कर्मवीर’ के सम्पादक पंडित माखनलाल चतुर्वेदी से मैं उनके निधन (30 जनवरी,1968) के पहले खंडवा में जाकर मिला था। वे उन दिनों वहाँ एक अस्पताल में भर्ती थे। बातों ही बातों में उन्होंने लताजी का जिक्र किया। उनका कहना था कि ‘ईथर वेव्ज’ के रूप में लता (जी) आज हमारे चारों ओर उपस्थित हैं। उनके कहने का आशय था कि हमारे हृदय में अगर रेडियो की तरह कोई रिसीवर हो तो हम चौबीसों घंटे हर स्थान पर सुनते रह सकते हैं। स्वर साम्राज्ञी के प्रति इससे बड़ा सम्मान और क्या हो सकता था!
थोड़े दिनों बाद उक्त वार्ता मैंने माखनलालजी के अभिन्न सहयोगी रहे प्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार स्व. रामचंद्र जी बिल्लोरे को इंदौर में सुनाई। वे तब इंदौर क्रिश्चियन कॉलेज में हिंदी के विभागाध्यक्ष थे। डॉ. बिल्लोरे ने लताजी के प्रति माखनलाल जी के स्नेह और सम्मान का एक और प्रसंग याद करके मुझे बताया-
‘दादा (माखनलालजी) के बैठक कक्ष में दीवार पर दो तस्वीरें लगी हुईं थीं। इनमें एक महात्मा गांधी की थी और दूसरी किसी अन्य महापुरुष की थी। एक स्थान खाली था। दादा से पूछा गया कि खाली स्थान पर वे किसकी तस्वीर लगाएँगे तो उन्होंने जवाब दिया था कि लता मंगेशकर की।’
मराठी के प्रसिद्ध साहित्यकार विजय तेंडुलकर ने लताजी के बारे में एक बार कहा था-‘लडक़ी एक रोज गाती है। गाती रहती है-अनवरत। यह जगत व्यावहारिकता पर चलता है, तेरे गीतों से किसी का पेट नहीं भरता। फिर भी लोग सुनते ही जा रहे हैं पागलों की तरह।’
और लताजी गाए ही जा रही हैं-बिना रुके ,बिना थके। और लोग सुनते ही जा रहे हैं, पागलों की तरह। (सप्रेस)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कर्नाटक की भाजपा सरकार ने अपने स्कूलों और कालेजों में हिजाब (शिरोवस्त्र) पहनने पर रोक लगा दी है। इसका सीधा असर मुस्लिम छात्राओं पर पड़ेगा। वे अपने सिर पर हिजाब लगाकर पढऩे आती हैं। उनके अलावा हिंदू और ईसाई लड़कियां अपने सिर पर कुछ भी नहीं पहनतीं। कर्नाटक की सरकार का तर्क है कि उसने यह आदेश 1983 के अपने एक कर्नाटक शिक्षा कानून के तहत जारी किया है, जो कहता है कि छात्र-छात्राओं को वही वेशभूषा पहनकर आना होगा, जिसका प्रावधान सरकार या वह शिक्षा-संस्था करे। इस प्रावधान के विरुद्ध कुछ लोगों ने अदालत में याचिका भी लगा रखी है। Why is the hijab banned
सरकार का मानना है कि इस नियम से नागरिकों के मूल अधिकारों का उल्लंघन बिल्कुल नहीं होता। शिक्षा संस्थाओं में सारा वातावरण एकरुपतामय होना चाहिए। कक्षा में बैठने वालों के बीच जाति, मजहब, ऊँच-नीच आदि का कोई भेद नहीं होना चाहिए। सबको एक-जैसे वातावरण में रहकर ही शिक्षा-ग्रहण करनी चाहिए। यह बात बहुत ही आदर्शमंडित है लेकिन जहां तक हिजाब का सवाल है, उसमें कोई आपत्तिजनक तत्व दिखाई नहीं पड़ता। मुस्लिम महिलाएं ही नहीं, हिंदू महिलाएं भी गांवों में अभी तक घूंघट करती हैं और शहरों में तो वे सिर पर पल्लू भी रखती हैं, जैसे मुसलमान सिर पर तुर्की टोपी और अन्य लोग गोल टोपी या पगड़ी पहनते हैं। लेकिन यह सब काम शिक्षण-संस्थाओं में होता है तो वह अलगाववाद का प्रतीक बन जाता है।
जो लड़कियां हिजाब पहनती हैं, वे अलग से दिखाई पड़ती हैं कि वे मुसलमान हैं। वे अपने घर या बाजार में अन्यत्र हिजाब पहनें तो उसमें तो कोई बुराई नहीं है लेकिन शिक्षा-संस्थाओं में सबकी वेशभूषा एक-जैसी हो तो यह निश्चय ही बहुत अच्छा है। मैं जब इंदौर के क्रिश्चियन कॉलेज में पढ़ता था, मेरे खड़ाऊ पहनने पर प्राचार्य डेविड ने आपत्ति की तो मैं अपनी खड़ाऊ कालेज के बाहर उतारकर ही अंदर जाता था। इससे भी अलगाव एकदम खत्म नहीं होगा, क्योंकि अरबी-फारसी नामों में तो हर पल अलगाव का भाव होता ही है।
मेरा निवेदन है कि भारत के मुसलमानों को सिर्फ वेशभूषा में ही नहीं ,अपने नामकरण और खान-पान में भी अरबों की नकल करना जरुरी नहीं है। यदि वे नाम, वेशभूषा, खान-पान आदि भी एकदम भारतीय ढंग का रखें तो उनके उत्तम मुसलमान होने में जरा भी शक किसी को नहीं होगा। मैंने इंडोनेशिया के मुसलमानों के नाम संस्कृत में देखे हैं। उसके राष्ट्रपति का सुकर्ण था और उनकी बेटी का नाम मेघावती है। अब तो भारत के ईसाइयों ने भी अपने नाम अंग्रेजों की नकल पर रखना बंद कर दिए हैं। हिंदी या तमिल या मलयालम में नाम होने से ईसाई होने का कोई विरोध कैसे हो सकता है?
मैं तो भारत में मेरे मुसलमान और ईसाई मित्रों से कहता हूं कि यदि मांसाहार बंद कर दें तो बहुत-से हिंदुओं के लिए भी आप प्रेरणा-स्त्रोत बन जाएंगे। आप दुनिया के सर्वश्रेष्ठ मुसलमान और ईसाई कहलाएंगे। बाइबिल और कुरान में कहां लिखा है कि यदि आप मांस नहीं खाएंगे और अपने नाम अरबी व अंग्रेजी में नहीं रखेंगे तो आप घटिया मुसलमान या घटिया ईसाई माने जाएंगे। लेकिन यह तभी होगा जबकि भारत के हिंदू लोग अपने मुसलमान और ईसाई भाइयों के लिए आदर और प्रेम का भाव रखें। मैं तो ऐसा भारत देखने के लिए तरस रहा हूं, जहां ज्यादातर विवाह संबंध अंतरजातीय और अंतरधार्मिक हों। इसकी शुरुआत नाम, खान-पान और वेशभूषा से की जाए तो फिर भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र ही नहीं, दुनिया का सर्वश्रेष्ठ सर्वमावेशी राष्ट्र भी कहलाएगा। (नया इंडिया की अनुमति से)
-रेहान फ़ज़ल
भारतीय सिनेमा की स्वर कोकिला लता मंगेशकर का निधन हो गया है. उन्हें एक महीने पहले कोरोना संक्रमण के बाद मुंबई के ब्रीच कैंडी अस्पताल में भर्ती किया गया था जहाँ आज सुबह 8 बजकर 12 मिनट sबजकर उन्होंने अंतिम साँस ली. उनके जीवन के कुछ अनमोल पलों की याद दिलाती श्रद्धांजलि.
जवाहरलाल नेहरू के बारे में मशहूर था कि वो न तो कभी सार्वजनिक तौर पर रोते थे और न ही किसी दूसरे का इस तरह रोना पसंद करते थे. लेकिन 27 जनवरी, 1963 को जब लता मंगेशकर ने कवि प्रदीप का लिखा गाना 'ऐ मेरे वतन के लोगों' गाया तो वो अपने आँसू नहीं रोक पाए.
गाने के बाद लता स्टेज के पीछे कॉफ़ी पी रही थीं तभी निर्देशक महबूब ख़ाँ ने लता से आ कर कहा कि तुम्हें पंडितजी बुला रहे हैं.
महबूब ने लता को नेहरू के सामने ले जा कर कहा, "ये रही हमारी लता. आपको कैसा लगा इसका गाना?"
नेहरू ने कहा, "बहुत अच्छा. इस लड़की ने मेरी आँखों में पानी ला दिया." और उन्होंने लता को गले लगा लिया.
फ़ौरन ही इस गाने के मास्टर टेप को विविध भारती के स्टेशन पहुंचाया गया और रिकॉर्ड समय में एचएमवी उसका रिकार्ड बनवा बाज़ार में ले आई.
देखते देखते ये गाना एक तरह का 'नैशनल रेज'बन गया.
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भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के साथ लता मंगेशकर
1964 में जब नेहरू मुंबई आए तो लता ने उनके सामने ब्रेबोर्न स्टेडियम में आरज़ू फ़िल्म का गाना 'अजी रूठ कर कहाँ जाएंगे' गाया था.
तब नेहरू ने उनके पास एक चिट भिजवा कर एक बार फिर 'ऐ मेरे वतन के लोगों' सुनने की फ़रमाइश की थी और लता ने उसको पूरा किया था.
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संगीतकार मदन मोहन के साथ लता मंगेशकर
'बरसात' फ़िल्म के बाद लगे करियर में 'पंख'
1949 में अंदाज़ रिलीज़ होने के बाद से संगीत चार्ट के पहले पाँच स्थान हमेशा लता मंगेशकर के ही नाम रहे. हाँलाकि लता जब 80 साल की हुईं तो उन्होंने खुद स्वीकार किया कि उनके करियर में पंख लगे राज कपूर - नरगिस की फ़िल्म बरसात आने के बाद.
लता के बारे में मदन मोहन ने सोलह आने सच बात कही जब उन्होंने लिखा, "1956 में मेट्रो - मर्फ़ी की तरफ़ से हम संगीतकारों को टेलेंट पहचान के लिए पूरे भारत में भेजा गया. हम लोग कोई एक भी ऐसा न ढूंढ पाए जो प्रतिभा के मामले में लता मंगेशकर के आस-पास फटक सके. ये हमारा सौभाग्य था कि लता हमारे ज़माने में अवतरित हुईं."
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बड़े गुलाम अली ख़ाँ के साथ लता मंगेशकर
बड़े ग़ुलाम अली ख़ाँ की टिप्पणी
असल में जब 1948 में 'महल' रिलीज़ हुई तो गीता रॉय को छोड़ कर एक एक कर लता मंगेशकर के सभी प्रतिद्वंदी शमशाद बेगम, ज़ोहराबाई अंबालावाली, पारुल घोष और अमीरबाई कर्नाटकी उनके रास्ते से हटती चली गईं.
जब 1950 में जब उन्होंने 'आएगा आने वाला' गाया तो ऑल इंडिया रेडियो पर फ़िल्म संगीत बजाने पर मनाही थी. उस समय रेडियो सीलोन भी नहीं था. भारतवासियों ने पहली बार रेडियो गोआ पर लता की आवाज़ सुनी.
जानेमाने शास्त्रीय गायक पंडित जसराज एक दिलचस्प किस्सा सुनाते हैं, एक बार मैं बड़े गुलाम अली ख़ाँ से मिलने अमृतसर गया, हम लोग बाते ही कर रहे थे कि ट्राँजिस्टर पर लता का गाना 'ये ज़िंदगी उसी की है जो किसी का हो गया'सुनाई पड़ा. ख़ाँ साहब बात करते करते एकदम से चुप हो गए और जब गाना ख़त्म हुआ तो बोले, 'कमबख़्त कभी बेसुरी होती ही नहीं. इस टिप्पणी में पिता का प्यार भी था और एक कलाकार का रश्क भी."
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लता मंगेशकर अपने परिवार के साथ
पाँच साल की उम्र में पिता ने पहचानी प्रतिभा
लता के गाने की शुरुआत पाँच साल की उम्र में हुई थी. नसरीन मुन्नी कबीर की किताब 'लता इन हर ओन वॉएस' में खुद लता बताती हैं, "मैं अपने पिता दीनानाथ मंगेशकर को गाते देखती थी, लेकिन उनके सामने मेरी गाने की हिम्मत नहीं पड़ती थी. एक बार वो अपने एक शागिर्द को राग पूरिया धनाश्री सिखा रहे थे. किसी वजह से वो थोड़ी देर के लिए कमरे से बाहर चले गए. मैं बाहर खेल रही थी. मैंने बाबा के शिष्य को गाते हुए सुना. मुझे लगा कि लड़का ढ़ंग से नहीं गा रहा है. मैं उसके पास गई और उसके सामने गा कर बताया कि इसे इस तरह गाया जाता है."
वे बताती हैं, "जब मेरे पिता वापस आय़े तो उन्होंने दरवाज़े की ओट से मुझे गाते हुए सुना. उन्होंने मेरी माँ को बुला कर कहा, 'हमें ये पता ही नहीं था कि हमारे घर में भी एक अच्छी गायिका है.' अगले दिन सुबह छह बजे बाबा ने मुझे जगा कर कहा था तानपुरा उठाओ. आज से तुम गाना सीखोगी. उन्होंने पूरिया धनाश्ररी राग से ही शुरुआत की. उस समय मेरी उम्र सिर्फ़ पाँच साल थी."
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संगीतकार अनिल विश्वास के साथ लता मंगेशकर
ग़ुलाम हैदर और अनिल बिस्वास से सीखा
यूँ तो लता मंगेशकर ने कई संगीतकारों के साथ काम किया है लेकिन ग़ुलाम हैदर के लिए उनके मन में ख़ास जगह थी. उन्होंने उन्हें एक सीख दी थी कि 'बीट' पर आने वाले बोलों पर थोड़ा सा ज़्यादा वज़न देना चाहिए. इससे गाना उठता है.
अनिल बिस्वास से लता ने साँस पर नियंत्रण का गुर सीखा.
हरीश भिमानी अपनी किताब 'लता दीदी अजीब दास्ताँ है' ये में लिखते हैं, "अनिल दा इस बात पर बहुत ज़ोर देते थे कि गीत गाते समय साँस कहाँ पर तोड़नी चाहिए कि सुनने वाले को वो खटके नहीं. अनिल बिस्वास ने लता को सिखाया कि दो शब्दों के बीच साँस लेते समय हौले से चेहरा माइक्रोफ़ोन से दूर ले जाओ, साँस लो और तुरंत यथास्थान लौट कर गाना जारी रखो. माइक से आँख-मिचौली की इस प्रक्रिया में, आख़िरी शब्द का अंतिम अक्षर और नए शब्द का पहला अक्षर दोनों ज़...रा ज़ोर से गाने चाहिए."
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दिलीप कुमार के साथ लता मंगेशकर
लता के सुरीलेपन के अलावा उर्दू भाषा के उनके बेहतरीन तलफ़्फुज़ ने भी सब का ध्यान अपनी तरफ़ खींचा. इसका श्रेय कायदे से दिलीप कुमार को दिया जाना चाहिए.
हरीश भिमानी अपनी किताब 'लता दीदी अजीब दास्ताँ है' ये में लिखते हैं, 'एक दिन अनिल बिस्वास और लता मुंबई की लोकल ट्रेन से गोरेगाँव जा रहे थे. इत्तेफ़ाक से उसी ट्रेन में बाँद्रा स्टेशन से दिलीप कुमार चढ़े."
"जब अनिल बिस्वास ने नई गायिका का दिलीप कुमार से परिचय कराया तो वो बोले 'मराठी लोगों के मुंह से दाल भात की महक आती है. वो उर्दू का बघार क्या जाने?"
"इस बात को लता ने एक चुनौती की तरह लिया. इसके बाद शफ़ी साहब ने उनके लिए एक मौलवी उस्ताद की व्यवस्था की, जिनका नाम महबूब था. लता ने उनसे उर्दू की बारीकियाँ सीखीं."
इसके कुछ समय बाद फ़िल्म लाहौर की शूटिंग चल रही थी जहाँ जद्दनबाई और उनकी बेटी नरगिस भी मौजूद थीं. लता ने स्टूडियो में 'दीपक बग़ैर कैसे परवाने जल रहे हैं,' गीत की रिकार्डिंग शुरू की.
रिकार्डिंग के बाद जद्दनबाई ने लता को बुला कर कहा, "माशाअल्लाह क्या 'बग़ैर कहा है. ऐसा तलफ़्फ़ुज़ हर किसी का नहीं होता बेटा."
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महबूब ख़ाँ को फ़ोन पर 'रसिक बलमा' गा कर सुनाया
लता की आवाज़ की एक और ख़ासियत थी, उसका लगातार युवा होते जाना. 1961 में आई जंगली फ़िल्म में जब सायरा बानो के लिए उन्होंने 'काश्मीर की कली हूँ' गाया था, जब उनका स्वर जितना मादक और कमसिन लगा था, वो उतना ही उसके बारह बरस बाद फ़िल्म अनामिका में भी लगा था जब उन्होंने जया भादुड़ी के लिए 'बाहों में चले आओ' गाया था.
उनके बारे में एक कहानी मशहूर है कि 1958 में महबूब ख़ाँ अमरीका में ऑस्कर समारोह में भाग लेने लॉस एन्जेलेस गए हुए थे. समारोह के दो दिन बाद उन्हें दिल का दौरा पड़ा.
राजू भारतन लता मंगेशकर की जीवनी में लिखते हैं, "लता ने उन्हें बंबई से फ़ोन किया. कुशल-क्षेम के बाद महबूब साहब ने कहा कि आपका एक गीत सुनने का बहुत मन कर रहा है, पर इस मुल्क में उसका रिकॉर्ड कहाँ से लाऊँ? लता ने उनसे पूछा कि वो कौन सा गीत सुनना चाहते हैं और फिर महबूब साहब की फ़रमाइश पर टेलिफ़ोन पर ही 'रसिक बलमा' गुनगुना दिया. एक हफ़्ते बाद लता ने फिर एक बार वो गाना महबूब को सुनाया. महबूब साहब के ठीक होने में इस गाने का कितना योगदान था ये तो ईश्वर ही बता सकता है, लेकिन तब से लता के लिए ये गीत स्पेशल हो गया."
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नूरजहाँ के साथ लता मंगेशकर
नूरजहाँ और लता की वाघा सीमा पर मुलाक़ात
पहले भारत में रहीं और बाद में पाकिस्तान चली गईं नूरजहाँ और लता मंगेशकर के बीच क़रीबी दोस्ती थी.
एक बार जब लता 1952 में अमृतसर गईं तो उनकी इच्छा हुई कि वो नूरजहाँ से मिलें जो कि सिर्फ़ दो घंटे की दूरी पर लाहौर में रहती थीं. फ़ौरन उनको फ़ोन लगाया और दोनों ने घंटों फ़ोन पर बातें कीं और फिर तय हुआ कि दोनों भारत पाकिस्तान सीमा पर एक दूसरे से मिलेंगी.
मशहूर संगीतकार सी रामचंद्रन अपनी आत्मकथा में लिखते हैं, "मैंने अपने संपर्कों से ये बैठक 'अरेंज' कराई. ये मुलाक़ात वाघा सीमा के पास उस जगह हुई जिसे सेना की भाषा में 'नो मैन्स लैंड' कहा जाता है."
"जैसे ही नूरजहाँ ने लता को देखा वो दौड़ती हुई आईं और किसी बिछड़े हुए दोस्त की तरह उन्हें ज़ोर से भींच लिया. दोनों की आँखों से आँसू बह रहे थे. हम लोग भी जो ये नज़ारा देख रहे थे अपने आँसू नहीं रोक पाए. यहाँ तक कि दोनों तरफ़ के सैनिक भी रोने लगे."
"नूरजहाँ लता के लिए लाहौर से बिरयानी और मिठाई लाई थीं. नूरजहाँ के पति भी उनके साथ थे. लता के साथ उनकी दोनों बहनें मीना और ऊषा और उनकी एक दोस्त मंगला थी. ये घटना बताती है कि संगीत के लिए कोई भी चीज़ बाधा नहीं होती."
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रफी और मुकेश के साथ लता मंगेशकर
मोहम्मद रफ़ी से मनमुटाव
यूँ तो लता ने कई गायकों के साथ गाया लेकिन मोहम्मद रफ़ी के साथ गाए उनके गानों को लोगों ने बहुत पसंद किया.
रफ़ी के बार में बाते करते हुए लता ने एक दिलचस्प किस्सा सुनाया था, "एक बार मैं और रफ़ी साहब स्टेज पर गा रहे थे. गाने की लाइन थी 'ऐसे हँस हँस के ना देखा करो तुम सब की तरफ़ लोग ऐसी ही अदाओं पर फ़िदा होते हैं' रफ़ी साहब ने इस लाइन को पढ़ा 'लोग ऐसे ही फ़िदाओं पे अदा हैं.' ये सुनना था कि लोग ठहाका लगा कर हँस पड़े. रफ़ी साहब भी हँसने लगे और फिर मेरी भी हँसी छूट गई. नतीजा ये रहा कि हम लोग गाने को पूरा ही नहीं कर पाए और आयोजकों को पर्दा खींच कर उसे ख़त्म करवाना पड़ा."
साठ के दशक में उनके गानों की रॉयलटी को ले कर रफ़ी साहब से मतभेद हो गए. उस लड़ाई में मुकेश, तलत महमूद. किशोर कुमार और मन्ना डे लता के साथ थे जबकि आशा भोंसले मोहम्मद रफ़ी का साथ दे रही थीं.
चार सालों तक दोनों ने एक दूसरे का 'बॉयकॉट' किया और फिर सचिनदेव बर्मन ने दोनों की सुलह कराई.
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सचिनदेव बर्मन का लता को पान देना
सचिनदेव बर्मन भी लता को बहुत पसंद करते थे. जब वो उनके गाने से खुश होते तो उनकी पीठ थपथपाते और उन्हें पान पेश करते. सचिनदा पान के बहुत शौकीन थे और उनके साथ एक पानदान चला करता था. लेकिन वो किसी को भी अपना पान नहीं देते थे. अगर वो किसी को पान दे दें तो समझिए कि वो आप से बहुत खुश हैं. लेकिन एक बार सचिन देवबर्मन और लता मंगेशकर के बीच लड़ाई हो गई.
हुआ ये कि 'मिस इंडिया' फ़िल्म में लता ने एक गाना गाया. बर्मन ने कहा कि वो चाहते हैं कि लता इसे 'सॉफ़्ट मूड' में गाएं. लता ने कहा मैं गा दूँगी. लेकिन अभी मैं थोड़ा व्यस्त हूँ. कुछ दिनों बाद बर्मन ने किसी को लता के पास रिकार्डिंग की तारीख़ तय करने के लिए भेजा.
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एसडी बर्मन के साथ लता मंगेशकर
उस व्यक्ति ने सचिनदेव बर्मन से ये कहने की बजाए कि लता व्यस्त हैं, यह कह दिया कि लता ने ये गाना गाने से इनकार कर दिया. दादा नाराज़ हो गए और बोले कि वो लता के साथ फिर कभी काम नहीं करेंगे.
लता ने भी उन्हें फ़ोन कर कहा, "आपको ये एलान करने की ज़रूरत नहीं हैं. मैं खुद आपके साथ काम नहीं करूंगी."
कई सालों बाद दोनों के बीच ग़लतफ़हमी दूर हुई और फिर लता ने बंदिनी फ़िल्म में उनके लिए 'मोरा गोरा अंग लै ले' गाया.
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1974 की इस तस्वीर में लंदन के रॉयल अलबर्ट हॉल के बाहर लता मंगेशकर
क्रिकेट का शौक
लता मंगेशकर क्रिकेट की बहुत शौकीन थीं. उन्होंने पहली बार 1946 में मुंबई के ब्रेबोर्न स्टेडियम में भारत और आस्ट्रेलिया के बीच टेस्ट मैच देखा था. उन्होंने एक बार इंग्लैंड में ओवल मैदान पर इंग्लैंड और पाकिस्तान के बीच भी एक टेस्ट मैच देखा था.
क्रिकेट के महानतम खिलाड़ी डॉन ब्रेडमैन ने उन्हें अपना हस्ताक्षर किया हुआ चित्र भेंट किया था.
लता मंगेशकर के पास कारों का अच्छा कलेक्शन था. उन्होंने अपनी पहली कार सिलेटी रंग की हिलमेन ख़रीदी थी जिसके लिए उन्होंने उस ज़माने में 8000 रुपये ख़र्च किए थे.
उस ज़माने में उनको हर गाने के लिए 200 से 500 रुपये मिलते थे. 1964 में 'संगम' फ़िल्म से उनको हर गाने के लिए 2000 रुपये मिलने लगे थे. फिर उन्होंने हिलमेन बेच कर नीले रंग की 'शेवेरले' कार ख़रीदी थी.
जब लता ने यश चोपड़ा की फ़िल्म 'वीर ज़ारा' के लिए गाने गाए तो उन्होंने चोपड़ा द्वारा दिए गए पारिश्रमिक को ये कहते हुए स्वीकार नहीं किया कि वो उनके भाई की तरह हैं. जब ये फ़िल्म रिलीज़ हुई तो यश चोपड़ा ने उन्हें उपहार के तौर पर एक मर्सिडीज़ कार भिजवा दी. अपने जीवन के अंतिम दिनों तक लता उसी कार पर चढ़ती रहीं.
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हीरे और जासूसी उपन्यास पसंद
लता मंगेशकर को हीरे और पन्नों का बहुत शौक था. अपनी कमाई से उन्होंने 1948 में 700 रुपयों में अपने लिए हीरे की अंगूठी बनवाई थी. वो उसे अपने बांए हाथ की तीसरी उंगली में पहना करती थीं.
उन्हें सोने से कभी प्यार नहीं रहा. हाँ वो सोने की पायल ज़रूर पहना करती थी. इसकी सलाह उन्हें मशहूर गीतकार नरेंद्र शर्मा ने दी थी. लता को जासूसी उपन्यास पढ़ने का भी बहुत शौक था और उनके पास शरलॉक होम्स की सभी किताबों का संग्रह था.
लता मंगेशकर को मिठाइयों में सबसे ज़्यादा जलेबी पसंद थी. एक ज़माने में उन्हें इंदौर का गुलाब जामुन और दही बड़ा भी बहुत भाते थे.
गोवन फ़िश करी और समुद्री झींगे की भी वो बहुत शौकीन थीं. वो सूजी का हलवा भी बहुत उम्दा बनाती थीं.
उनके हाथ का मटन पसंदा जिसने भी खाया था, वो उसे कभी नहीं भूल पाया. वो समोसे की भी शौकीन थीं, लेकिन आलू के नहीं, बल्कि कीमे के. कम लोग सोच सकते हैं कि लता मंगेशकर को गोलगप्पे बहुत पसंद थे. उन्हें नींबू का अचार और ज्वार की रोटी भी बहुत पसंद थी.
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2001 में भारत रत्न
आज भारत में लता मंगेशकर को पूजने की हद तक प्यार किया जाता है. बहुत से लोग उनकी आवाज़ को ईश्वर का सबसे बड़ा उपहार मानते हैं.
लता को फ़िल्मों के सबसे बड़े सम्मान दादा साहब फाल्के पुरस्कार से 1989 और भारत के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार भारत रत्न से 2001 में सम्मानित किया जा चुका है.
लता मंगेशकर को सबसे बड़ा ट्रिब्यूट दिया था मशहूर गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी ने. 'लता मंगेशकर' शीर्षक से लिखी नज़्म में उन्होंने लिखा था-
जहाँ रंग न ख़ुशबू है कोई
तेरे होठों से महक जाते हैं अफ़कार मेरे
मेरे लव्ज़ों को जो छू लेती है आवाज़ तेरी
सरहदें तोड़ कर उड़ जाते हैं अशआर मेरे.
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
इस साल के बजट पर मेरा लेख पढक़र पाठकों ने पूछा कि आपने भारत की आयकर अव्यवस्था पर सख्त टिप्पणी क्यों नहीं की? इस सवाल के जवाब में मैं यही कह सकता हूँ कि मैं तो कई वर्षों से कह रहा हूँ कि भारत में आयकर की जगह जायकर लगाना चाहिए। याने लोगों की आमदनी नहीं, खर्च पर टैक्स लगाना चाहिए ताकि लोग बचत करें और उस बचत की राशि का उपयोग राष्ट्र-निर्माण के लिए भी हो सके। दुनिया के लगभग एक दर्जन देशों में उनके नागरिकों पर आयकर नहीं थोपा जाता है। लेकिन आयकर की जगह जायकर की व्यवस्था लागू करने में काफी पेचीदगियां है और उसे लागू करने के लिए सरकारी कर्मचारियों का ईमानदार होना भी बहुत जरुरी है।
यदि भारत सरकार में इसे लागू करने का फिलहाल दम नहीं है तो कम से कम वह आयकर व्यवस्था को सुधारने की कोशिश तो करे। इस बजट में कोई कोशिश दिखाई नहीं पड़ी लेकिन पिछली सरकारों ने भी क्या किया? उन्होंने आयकर की सीमा में थोड़ा-बहुत फेर-बदल करके अपना पिंड छुड़ाया। उसका नतीजा क्या हुआ? उसका सबसे ज्यादा खामियाजा नौकरीपेशा मध्यम वर्ग ने भुगता। देश के 140 करोड़ लोगों में से सिर्फ लगभग 6 करोड़ लोगों ने आयकर के फार्म भरे। उनमें से लगभग आधे लोगों ने टैक्स दिया।
याने मुश्किल से 2 प्रतिशत लोग टैक्स भरते हैं, जबकि दुनिया के जापान, जर्मनी, फ्रांस, अमेरिका, ब्रिटेन जैसे समृद्ध देशों में लगभग 30 से 50 प्रतिशत लोग इनकम टैक्स भरते हैं। भारत के इन दो प्रतिशत लोगों में से डेढ़ प्रतिशत से भी ज्यादा लोग मध्यम वर्ग के नौकरीपेशा लोग हैं। वे अपनी आमदनी छिपा नहीं सकते लेकिन जो करोड़पति, अरबपति और खरबपति लोग हैं, उन पर इतना ज्यादा टैक्स थोप दिया जाता है कि वे टैक्स बचाने के एक से एक नए तरीके खोज लेते हैं। उन्हें टैक्स-चोरी के लिए मजबूर किया जाता है। लेकिन देश के किसानों पर कोई टैक्स नहीं है।
छोटे किसानों को जाने दें लेकिन 5-10 एकड़ से ज्यादा के किसानों पर टैक्स क्यों नहीं है? खेती के नाम पर नेताओं, अफसरों और मोटे पूंजीपति अपनी अरबों रु. की काली कमाई को उजली करते रहते हैं। जिन गरीब लोगों से सरकार आयकर नहीं लेती है, वे भी जीवन भर अपना पेट काटकर तरह-तरह के टैक्स भरते रहते हैं। इसीलिए मेरा सुझाव यह है कि आयकर की मात्रा काफी घटानी चाहिए और देश के कम से कम 60-70 करोड़ लोगों को आयकरदाता बनाना चाहिए। इसमें बड़े और मध्यम किसानों को भी जोडऩा चाहिए।
इसके अलावा देश के लगभग 14-15 करोड़ ऐसे लोगों को जो 60 साल से ऊपर हैं, उन्हें सरकार को कम से कम 10 हजार रु. प्रति मास मानदेय देना चाहिए। यह सर्वथा व्यावहारिक प्रस्ताव है। बशर्ते कि आयकर की व्यवस्था में क्रांतिकारी सुधार हो। इस लोक-कल्याणकारी प्रस्ताव के बारे में विस्तार से आगे कभी लिखेंगे। इस प्रस्ताव को लागू करने के लिए महाराष्ट्र में लातूर के प्रसिद्ध समाजसेवी अनिल बोकील ने जबर्दस्त अभियान शुरु किया है। मेरे परम प्रेमी मित्र थे वही बोकील हैं, जिनकी 2014 में मैंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से भेंट करवाई थी और जिनसे महाभारत के अभिमन्यु की तरह अधकचरा ज्ञान लेकर मोदी ने देश पर नोटबंदी थोप दी थी और अभिमन्यु की भांति चक्र—व्यूह में फंस गए।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-रमेश अनुपम
आखिरकार 25 मार्च सन 1966 का दिन बस्तर के लिए ही नहीं समूचे देश के लिए एक शर्मसार कर देने वाला दिन साबित हुआ।
25 मार्च आजादी के उन्नीस वर्षों बाद ही देशी हुक्मरानों के असली चेहरों को उजागर कर देने वाला एक काला दिन सिद्ध हुआ।
इस दिन सत्ता का चरित्र साफ-साफ दिखाई दे रहा था और आदिवासी हितों की पैरवी करने का दिखावा करने वाला सत्ता का मुखौटा भी उतर चुका था।
बस्तर के आदिवासियों के हितों की लड़ाई लडऩे वाले प्रवीर चंद्र भंजदेव जैसे महाराजा की जरूरत कांग्रेस को नहीं थी। पंडित जवाहरलाल नेहरू जैसे उदारमना प्रधानमंत्री की मृत्यु भी सन 1964 में हो चुकी थी।
महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री द्वारका प्रसाद मिश्र की आंखों में पहले से ही खटक रहे थे। बस्तर के कांग्रेसी नेताओं के लिए तो शुरू से ही महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव आंख की किरकिरी साबित हो रहे थे।
तो 25 मार्च सन 1966 की कहानी पहले ही लिखी जा चुकी थी, यहां तक कि पटकथा भी पहले से ही तैयार हो चुकी थी। केवल इसे अंजाम देना भर बाकी रह गया था।
25 मार्च की घटना के संबंध में यह भी सच है कि महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव के अनुज विजय चंद्र भंजदेव को जब महल में उत्पन्न विषम परिस्थितियों की जानकारी मिली तो वे तुरंत राजमहल की ओर दौड़ पड़े थे , पर पुलिसवालों ने उन्हें राजमहल के भीतर प्रवेश करने नहीं दिया।
विजय चंद्र भंजदेव लगातार बुदबुदा रहे थे कि पुलिस उनके भाई को मार डालेगी। वे पुलिस वालों से बार-बार राजमहल के भीतर जाने और अपने भाई से मिलने के लिए अनुनय-विनय कर रहे थे, पर पुलिस वाले तो पुलिस वाले थे ।
ऊपर से आला अधिकारियों का आदेश था कि राजमहल में परिंदे भी पर न मार पाएं क्योंकि आज जो कुछ भी राजमहल में होने जा रहा था उसकी भनक इंसान तो क्या परिंदे तक को भी न होने पाए ।
इसलिए महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव के अनुज विजय चंद्र भंजदेव को भी भीतर नहीं जाने दिया गया। उन्हें मुख्य द्वार से ही वापस लौटा दिया गया था।
25 मार्च की सायंकाल चार बजे तक महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव अपने राजमहल में जीवित थे।
25 मार्च को राजमहल के बाहर सशस्त्र पुलिस की अनेक टुकडिय़ां मौजूद थीं। बाहर लाउडस्पीकर पर घोषणा की जा रही थी कि आदिवासी राजमहल से बाहर निकल कर आत्मसमर्पण कर दें नहीं तो पुलिस को मजबूरन गोली चलानी पड़ेगी ।
महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव स्वयं राजमहल के भीतर पुलिस के डर से घुसे हुए आदिवासियों को अपने साथ बाहर निकालने लग गए थे ताकि कोई भी निर्दोष आदिवासी पुलिस की गोलियों का निशाना न बन सके।
वे सोच रहे थे कि पुलिस के सामने आत्मसमर्पण कर देने से भोले भाले आदिवासियों की जान बच जाएगी।
महाराजा इस मुश्किल समय में भी वे आदिवासियों की चिंता करना नहीं भूले थे।
महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव किसी तरह आदिवासियों को समझा बुझा कर अपने साथ राजमहल के भीतर से बाहर लाए।
आदिवासी ज्यों ही राजमहल के भीतर से निकल कर बाहर आए पुलिस वालों ने उन्हें घेर लिया और लाठियों से पीटना शुरू कर दिया। यही नहीं देखते ही देखते ताबड़तोड़ गोलियों की बरसात भी शुरू हो गई ।
महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव पुलिस की इस क्रूरता को देखकर दंग रह गए थे। वे यह सब अपनी आंखों से देखकर विचलित हो उठे थे।
आदिवासियों के लिए कुछ न कर पा सकने की असमर्थता उनके चेहरे पर साफ-साफ पर दिखाई देने लगी थी।
पुलिस जिस निर्ममता के साथ आदिवासियों को लाठियों से पीट रही थी वह उनके लिए कल्पनातीत था।
आजाद भारत में आजाद भारत की पुलिस अपने ही आदिवासी भाई बहनों पर लाठियां बरसा रही थीं ।
पुलिस की बंदूकें भी गूंजने लगी थी ।
महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव जैसे ही राजमहल के भीतर वापस जाने के लिए मुड़े कि पुलिस वालों ने उन पर भी गोली दाग दी। जैसे उन्हें महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव का ही अब तक इंतजार रहा हो कि कब वे राजमहल के बाहर निकलें और उन्हें निशाना बनाकर गोली दागी जा सके ।
गोली महाराजा के पावों को निशाना बनाकर दागी गई थीं । गोली लगते ही महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव लहुलुहान होकर लडख़ड़ाते हुए अपने शयनकक्ष की ओर भागे।
वे जैसे-तैसे घायल अवस्था में कराहते हुए खून से लथपथ शयनकक्ष तक पहुंचे।
अपने शयनकक्ष के भीतर पहुंचकर वे बिस्तर पर निढाल हो गए।
इससे पहले वे कुछ और सोच-समझ पाते कि दनदनाते हुए पुलिस की टुकड़ी उनके शयनकक्ष के भीतर घुस गई और बिस्तर पर निढाल महाराजा को गोलियों से छलनी कर दिया।
पुलिस ने अपनी इस बहादुरी के बाद शयनकक्ष से महाराजा के क्षत-विक्षत शव को किसी तरह ड्रॉइंग रूम में लाकर रख दिया ।
इसके बाद शयनकक्ष से खून और गोलियों के दाग मिटा दिए गए ताकि पुलिस के वहशी होने के सारे सबूत मिट जाए। सत्यमेव जयते’ ऐसे ही थोड़े पुलिस का लोगो माना जाता है ।
महाराजा के पुलिस की गोली से मारे जाने की सूचना पूरी रात लोगों से छिपा कर रखी गई।
लेकिन तब भी जगदलपुर की फिजाओं में महाराजा के गोली से मारे जाने की खबर लगभग फैल चुकी थी।
जगदलपुर और बस्तर ही नहीं पूरा देश इस जघन्य कांड को लेकर शर्मशार हो रहा था।
पर अभी महाराजा के मारे जाने की विधिवत सरकारी घोषणा होनी बाकी थी।
26 मार्च को दोपहर में प्रशासन की ओर से विजय चंद्र भंजदेव और शहर के कुछ प्रमुख नागरिकों और पत्रकारों को सूचना दी गई कि महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव और तेरह आदिवासी पुलिस की गोलियों से मारे गए हैं।
दोपहर तीन बजे के आस-पास विजय चंद्र भंजदेव और कुछ गणमान्य नागरिकों को भीतर जाकर महाराजा के अंतिम दर्शन की अनुमति प्रदान की गई।
शाम को महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की अंतिम यात्रा में थोड़े से लोगों को ही शामिल होने की अनुमति दी गई।
अंतिम यात्रा की खबर पाकर पूरा जगदलपुर शहर अपने प्रिय महाराजा को अंतिम विदाई देने उमड़ पड़ा था। अश्रूपूरित नयनों के साथ रास्ते के दोनों ओर लोग खड़े हुए थे।
लोग रो रहे थे, चीख रहे थे, विलाप कर रहे थे। उनके प्रिय महाराजा को पुलिस ने जो गोलियों से भून दिया था।
वे रुंधे हुए गले से बस एक ही सवाल बार बार पूछ रहे थे कि महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव जैसे देवता तुल्य महाराजा के साथ पुलिस और प्रशासन ने ऐसा बर्बरतापूर्ण व्यवहार क्यों किया ?
पुलिस और प्रशासन को ऐसे देव पुरुष पर गोलियां क्यों बरसानी पड़ी ?
क्या महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव देशद्रोही थे या बस्तर के भोले भाले आदिवासियों को लूट रहे थे ?
आखिरकार उनका गुनाह क्या था ?
पर इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं था। इस गोली कांड के पचपन वर्ष बीत जाने के बाद भी क्या इसका जवाब आज भी किसी के पास है?
देर शाम सात बजे महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव का अंतिम संस्कार किया गया।
लगभग इसी समय बी.बी.सी के माध्यम से पूरे देश और दुनिया ने जाना कि बस्तर के महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव अपने राजमहल में पुलिस की गोलियों के शिकार हो गए हैं।
पर एक गंभीर सवाल तो अब भी बस्तर की खामोश फिजाओं में गूंज रहा था कि क्या महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव के साथ केवल तेरह आदिवासी ही पुलिस की गोलियों के शिकार हुए थे ?
क्या 25 मार्च को पुलिस की गोलियों से मारे गए आदिवासियों की संख्यां सैकड़ों में नहीं थी ?
पर आदिवासियों को इंसान कौन मानता है ? अगर मानते तो क्या आज भी बस्तर के आदिवासी पुलिस और नक्सलियों की गोली के शिकार होने को मजबूर होते ?
(बाकी अगले हफ्ते)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
चीन की राजधानी पेइचिंग में शुरु हो रहे ओलंपिक खेलों का भारत बहिष्कार करेगा। हमारे कूटनीतिज्ञ न उसके उदघाटन और न ही सम्मान-समारोह में शामिल होंगे, क्योंकि चीन ने भारत को अपमानित करने के लिए एक नया पैंतरा मारा है। उसने ओलंपिक के आरंभिक जुलूस में अपनी फौज के उस कमांडर को मशालची बनाया है, जो गलवान घाटी में भारत पर हुए हमले का कर्ता-धर्त्ता था। की फाबाओ नामक इस कमांडर ने गलवान-मुठभेड़ के बाद एक इंटरव्यू में काफी शेखी बघारी थी और भारत के 20 जवानों को मारने का श्रेय अपने सिर लिया था। चीनी फौज ने उसे उसकी वीरता के लिए पुरस्कृत भी किया था।
ऐसे व्यक्ति को ओलम्पिक गेम्स का हीरो बनाना क्या इस बात का सूचक नहीं है कि चीन चोरी और सीनाजोरी पर उतारु है? इतना ही नहीं, पिछले माह चीनी फौजियों ने सीमांत के एक गांव से एक भारतीय नौजवान को अगुआ करके उसकी जमकर पिटाई की और भारत के विरोध करने पर उसे लौटा दिया लेकिन उसे अधमरा करके! चीनियों ने ये सब उटपटांग काम तब किए जबकि भारत ने नवम्बर 2021 में भारत-रूस-चीन के त्रिगुट की बैठक में ओलंपिक खेलों के स्वागत की घोषणा कर दी थी।
इसके अलावा उसकी जमीन कब्जाए जाने और उसके सैनिकों की हत्या के बावजूद वह चीन से शांतिपूर्वक संवाद भी कर रहा है। इसका अर्थ क्या यह नहीं है कि चीन अपनी दादागीरी पर उतारु हो गया है? उसे शायद यह बुरा लग रहा है कि भारत और अमेरिका एक-दूसरे के इतने नजदीक क्यों आ रहे हैं। चीनी ओलंपिक के उदघाटन में भाग लेने के लिए रुस से पुतिन, पाकिस्तान से इमरान खान और पांचों मध्य एशियाई गणतंत्रों के राष्ट्रपति पेइचिंग पहुंच रहे हैं। लेकिन अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया, बेल्जियम, डेनमार्क जैसे कई देशों ने इन खेलों का राजनयिक बहिष्कार पहले से इसलिए घोषित कर रखा है कि चीन में मानव अधिकारों का घोर उल्लंघन होता है।
एक अमेरिकी सीनेटर ने तो दो-टूक शब्दों में कहा है कि चीन की यह हरकत शर्मनाक है कि उसने ओलंपिक के जूलूस में ऐसे मशालची को शामिल किया है, जिसने उइगर मुसलमानों का कत्ले-आम किया है और भारतीय जवानों को भी मारा है। भारत ने ओलंपिक खेलों का यह बहिष्कार पहली बार किया है और सरकार इन खेलों को अब अपने दूरदर्शन के चैनलों पर भी नहीं दिखाएगी। चीन की इस हरकत ने भारत-चीन फौजी संवाद में एक नई कड़ुवाहट को जन्म दे दिया है। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कांग्रेस के नेता राहुल गांधी को महापंडित के अलावा क्या कहा जाए? संसद में उन्होंने चीन और पाकिस्तान को लेकर जो बयान दिया है, यदि आप उसे ध्यान से पढ़ें तो आप खुद से पूछ बैठेंगे कि भारत की महान पार्टी इस कांग्रेस का नेतृत्व किन हाथों में चला गया है? यदि देश के प्रमुख विपक्षी दल का नेता इतना तथ्यहीन और तर्कहीन बयान दे सकता है और बौद्धिक तौर पर वह इतना अपरिपक्व है तो हमारे लोकतंत्र का ईश्वर ही मालिक है। राहुल गांधी की पहली मुलाकात मुझसे 2005 में काबुल में हुई थी। प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहनसिंह मुझे काबुल अपने साथ ले गए थे। बादशाह जाहिरशाह की नातिन और शाहजादी मरियम की बेटी ने मेरे लिए राजमहल में शाकाहारी प्रीति-भोज का आयोजन किया था। वह राहुल को भी उसमें बुला लाई।
लगभग दो घंटे तक हम साथ रहे। राज परिवार के सदस्यों से मैं फारसी में और राहुल से हिंदी में बात करता रहा। राहुल की बातचीत और अत्यंत शिष्टतापूर्ण व्यवहार ने मुझे इतना प्रभावित किया कि मैं सोचता रहा कि यह नौजवान भारत की राजनीति में सक्रिय हो गया तो यह काफी आगे तक जा सकता है। शुरु के कुछ वर्षों में ऐसा लगने भी लगा था लेकिन अब पिछले कुछ वर्षों से मुझे ही नहीं, देश के कई वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं को भी यह लगने लगा है कि कांग्रेस का भविष्य अनिश्चित-सा हो गया है। इसका अर्थ यह नहीं है कि अन्य पार्टियों के नेता राहुल के मुकाबले महान बौद्धिक हैं। उनके और राहुल के बौद्धिक स्तर में ज्यादा अंतर नहीं है। वे भी अपने तथ्यों और तर्कों में हास्यास्पद भूलें करते रहे हैं लेकिन ऐसी भूलें वे अचानक या जल्दबाजी में करते हैं, संसद में भाषण देते हुए नहीं। राहुल ने कह दिया कि मोदी सरकार का ‘‘सबसे बड़ा अपराध’’ यह है कि उसने चीन और पाकिस्तान को एक-दूसरे का हमजोली बना दिया है। यह तो तथ्य है कि दो-ढाई साल पहले तक मोदी और चीनी नेता शी चिन फिंग ने जितनी गलबहियां एक-दूसरे के साथ कीं, आज तक दोनों देशों के किन्हीं भी नेताओं के बीच नहीं हुई।
लेकिन यह तो मोदी का स्वभाव ही है। फिर भी चीन और पाकिस्तान यदि एक-दूसरे के नजदीक हुए हैं तो वे इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और मनमोहनसिंह के शासनकाल में ही हुए हैं। 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद चीन जानेवाला पहला प्रधानमंत्री कौन था? क्या राहुल को पता है? उनके पूज्य पिता राजीव गांधी। जिन सलाहकारों के लिखे हुए भाषण बिना सोचे-समझे हमारे युवा-नेता लोग पढ़ मारते हैं, उन्हें अन्य बुजुर्ग नेताओं के आचरण से कुछ सीखना चाहिए। वे भी कोई परम बौद्धिक नहीं होते लेकिन वे हमेशा सतर्क और सावधान होते हैं। राजीव गांधी के असंगत तर्कों को काटने के लिए विदेश मंत्री जयशंकर के तर्कों को मैं यहां दोहराना नहीं चाहता हूं लेकिन राहुल गांधी का यह कथन भी अतिरंजित और हास्यास्पद ही है कि भारत में लोकतंत्र की बजाय राजतंत्र स्थापित हो रहा है। यहां एक राजा का राज चल रहा है। यह ठीक है कि सत्तारुढ़ भाजपा में अपेक्षित आंतरिक लोकतंत्र घट गया है लेकिन कांग्रेस में तो यह शून्य ही है। भारत की लगभग सभी पार्टियां प्राइवेट लिमिटेड कंपनियां बन चुकी हैं। इस खटकर्म की शुरुआत और पराकाष्ठा कांग्रेस ने ही आपात्काल लाकर की थी। बेहतर तो यह हो कि राहुल इस महान कांग्रेस पार्टी को माँ-बेटा पार्टी और भाई-बहन पार्टी होने से बचाएं। वरना न केवल भारत का लोकतंत्र अधोगति को प्राप्त होगा बल्कि राहुल गांधी को भारतीय राजनीति के महापंडित की उपाधि से भी सम्मानित कर दिया जाएगा। (नया इंडिया की अनुमति से)
-कनक तिवारी
राहुल गांधी के संसद में हालिया दिए गए अप्रत्याशित लेकिन परिपक्व भाषण से समर्थकों और विरोधियों दोनों के सामने गैरअनुमानित हालत पैदा हुई। कई बातों के अलावा राहुल ने ‘राष्ट्र‘ शब्द को रेखांकित करते कहा कि भारत को सीमित, एकांगी या केवल भाषायी अर्थ में राष्ट्र कहा या समझा नहीं जा सकता। भारत राज्यों का संघ है। राज्यों की संवैधानिक इकाइयों के रूप में स्वायत्त अहमियत है। राज्य केन्द्र के तहत शासित इकाई नहीं है। उसे लोकतंत्र की जरूरी धड़कन समझना आवश्यक होगा। इसी विचार बिन्दु से राष्ट्र, राष्ट्रीयता, राष्ट्रवाद, राष्ट्रीयकरण जैसे शब्दों का कुटुम्ब या परिधि बनाने की कोशिश करता है।
रवीन्द्रनाथ टैगोर को भी अपने समय के भारत की हालत देखते राष्ट्र शब्द मुफीद नजऱ नहीं आया था। ऊपरी तौर पर राहुल का कथन जुमला नज़र आता है। इसलिए उसे नासमझ हमलों का शिकार भी होना नामुमकिन नहीं है। निष्पक्ष, तटस्थ, वस्तुपरक और विचारमूलक नज़र से राष्ट्र जैसी अवधारणा को टटोलने पर उसमें मौजूदा भारत के संविधान और शासन संस्थाओं को लेकर पश्चिमी समझ का ही वातायन खुल पाता है। नई लोकतांत्रिक पारिभाषा के अनुसार भारत को बहुत पुराने इतिहास की खिड़कियां खोलकर इस तरह नहीं ढूंढ़ा जा सकता मानो राष्ट्र शब्द भारत के अस्तित्व की समझ के लिए निर्विकल्प रहा हो।
पश्चिमी नस्ल की डेमोक्रेसी और शासन प्रबंधन सहित हर तरह की सामाजिकी और अंततः संविधान रचने पर केवल शब्द छटा के आधार पर राजनीतिक थ्योरियां न तो गढ़ी जा सकती हैं और न ही उनसे सर्वमान्य राजनीतिक सिद्धांत स्थिर होते हैं। शब्दों, वाक्यों, उद्धरणों, कथनों और समझ की संभावनाएं विकसित करने के भी लिए लोकतांत्रिक गणराज्य में संवैधानिक जुमलों, फतवों वगैरह का हुक्मनामा नहीं है। उसे तरह तरह के रंगीन चश्मों से देखा, समझा जा सकता है। 300 सदस्यों के औसतन, तीन वर्ष के श्रम के बाद जो हासिल आया वही संविधान तय करता है कि आखिरकार राष्ट्र और राष्ट्रवाद जैसे शब्दों का सर्वमान्य साध्य या प्रमेय क्या बन सकता है?
‘राष्ट्र‘ शब्द को लेकर रवीन्द्रनाथ टैगोर, विवेकानन्द, गांधी, नेहरू सहित कई दक्षिणी और वामपंथी विचारकों ने भाषायी समझ की समवेत व्याख्याओं को अपनी अपनी समझ की मुट्ठी में भींचने की कोशिश की है। मौजूदा भारत के लिए किसी हवाई सर्वेक्षण या वायवी जुमलों में डूबे बिना बाबा साहेब अम्बेडकर ने राष्ट्र को एक ठहरी हुई उपपत्ति नहीं माना। उसे समय के आयाम में संभावित और भविष्यमूलक संदर्भों में भी साफ साफ रेखांकित किया। राहुल के शब्द अलग हैं। इसलिए जाहिर है उनकी समझ भी अलग होगी। संभव है उनकी बौद्धिक टीम ने अम्बेडकर के अधिकारिक और सर्वसम्मत पारित वक्तव्य में से राष्ट्र संबंधी थ्योरी को समकालीन बनाते राहुल को कुछ सूत्र दिए होंगे।
25 नवंबर 1949 को संविधान सभा में अपने आखिरी सम्बोधन में बाबा साहेब ने सर्वाधिक व्यापक वक्तव्य दिया। वह संविधान रचने की भूमिका, चुनौतियों, कठिनाइयों, संभावनाओं और आशंकाओं तक को लेकर वक्त की स्लेट पर एक ऐसी इबारत उकेरता है जो अमिट नहीं है, लेकिन उस समझ के आधारमूलक ढांचे को तोड़ा मरोड़ा नहीं जा सकता। तल्खी में अम्बेडकर ने कहा कुछ राजनीतिक प्रतिनिधियों ने संविधान के मुखड़े में ‘हम भारत के लोग‘ शब्दांश को रखे जाने की मुखालफत की थी। उसके एवज में ‘भारत एक राष्ट्र‘ शब्दांश को शामिल करने की पुरजोर पैरवी की। अम्बेडकर ने कहा मेरी राय है कि हम एक राष्ट्र हैं कहकर बड़े मायाजाल में खुद को फंसा रहे हैं। हजारों वर्षों से जातियों में बंटे फंसे लोग एक राष्ट्र कैसे हो सकते हैं?
जितनी जल्दी हम महसूस कर लें कि इस शब्द के सामाजिक और मनोवैज्ञानिक अर्थ में अब भी हम एक राष्ट्र नहीं हैं, उतना ही बेहतर होगा। तब ही महसूस कर सकेंगे कि राष्ट्र होने की क्या ज़रूरत है और उस अहसास को हासिल करने कौन से रास्ते और प्रविधियां अपनाई जाएं। बाबा साहेब ने कहा इस मकसद को हासिल करना अमेरिका जैसे राज्य के मुकाबले ज़्यादा कठिन है। संयुक्त राष्ट्र अमेरिका में कोई जाति समस्या नहीं है। भारत में उसके बरक्स जातियां ही जातियां हैं। जातियां ही एंटी नेशनल हैं। पहला कारण यह कि वे सामाजिक जीवन में अलगाव पैदा करती हैं। इसलिए भी एंटी नेशनल हैं क्योंकि एक जाति दूसरी जाति के खिलाफ जलन, द्वेष और नफरत पैदा करती है। हकीकत में हम यदि राष्ट्र बनना चाहते हैं, तो सबसे पहले इन कठिनाइयों पर जीत हासिल करनी होगी। बंधुत्व या बंधुता तब ही एक सच हो सकता है। राष्ट्र अस्तित्व में हो, तब ही बंधुता सही मायनों में हासिल हो सकती है। बंधुता के बिना बराबरी फकत किसी दीवार पर पुते पेन्ट की परतों से ज़्यादा कुछ नहीं है।
इस संदर्भ में ‘राष्ट्र‘ नामक शब्द के परखचे उखाडे़े बिना उसे नकली और उद्दाम देशभक्ति के पचड़े में नहीं डालें, तो राहुल का बयान अम्बेडकर की संवैधानिक पाठशाला में चुनौतीपूर्ण फलसफे की तरह क्यों नहीं पढ़ा जा सकता?
कई चेतावनियां अम्बेडकर ने इन्हीं सन्दर्भों में बिखेरी थीं। उनकी ओर आज़ादी के बाद अनदेखी है, और लापरवाही बल्कि ढिठाई सरकारों में कायम रही है। अम्बेडकर ने कहा रिश्तों के इस तिलिस्म को समझने के लिए नज़रों में मकड़जाले नहीं होने चाहिए।
राजनीतिक विश्लेषण और व्याख्या करते उन्होंने कहा यदि देश पर राजनीतिक पार्टियों की विचारधारा को अहम बनाकर लादा जाएगा तो लोकतांत्रिक अस्तित्व ही पराजित होगा। एक अलग बात उन्होंने कही कि संविधान के साथ साथ हमें संविधानवाद में भरोसा करना होगा।
उन्होंने ठोस सवाल पूछा सामाजिक लोकतंत्र क्या है सिवाय इसके कि वह एक ऐसा जीवन तंत्र है जिसमें आज़ादी, समानता और बंधुत्व ही बुनियादी आधार हो सकते हैं? 26 जनवरी 1950 को गणतंत्र घोषित होने वाले देश में भले ही हम समानता और एक व्यक्ति एक वोट की संवैधानिक बराबरी का दावा कर लें लेकिन देश का आर्थिक और सामाजिक ढांचा पहले ही चरमरा चुका है। उस विरोधाभास के रहते कैसे वंचित वर्गों को सामाजिक आर्थिक बराबरी पर नहीं लाने पर भी ठेंगा दिखाते रहेंगे। यदि लंबे अरसे तक यही चला तो ये वर्ग उस पूरे ढांचे को ही फूंक मारकर उड़ा देंगे।
अम्बेडकर ने अमेरिका का उदाहरण देते बताया एक गिरजाघर में अमेरिकन आज़ादी के बाद शुरुआती प्रार्थना में ईश्वर के लिए आह्वान जोड़ा जाने की तजवीज की गई, ‘हे ईश्वर हमारे राष्ट्र को आशीर्वाद दे।‘ इस पर इतनी आपत्तियां उठाई गईं कि ये शब्द छोड़कर यह लिखना पड़ा ‘हे ईश्वर इन संयुक्त राज्यों को आशीर्वाद दो।‘ इसी का समानांतर अन्वेषित करते अम्बेडकर ने दमदारी के साथ संविधान की उद्देशिका में उसका मकसद एक राष्ट्र बनाने के पहले राष्ट्र शब्द के समर्थकों की आपत्ति को समायोजित करते भी यह वाक्यांश मंजूर कराया, ‘सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय; विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता; प्रतिष्ठा और अवसर की समता; प्राप्त करने के लिए तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए।‘
इन ऐतिहासिक, संवैधानिक परिस्थितियों, तथ्यों को देखने के बाद राष्ट्र शब्द की एकांगी, पक्षपातपूर्ण, अवैज्ञानिक और संकुचित समझ बाधित होती है। जब तक सही संदर्भ में शब्द-व्युत्पत्ति के इतिहास को नहीं जज़्ब किया जाएगा, व्हाट्सएप विश्वविद्यालय से तरह तरह की डिग्री प्राप्त और फिर उनके राजनीतिक प्रशिक्षु हर शब्द को अपने वजूद के लिए पेटेंट कराते रहेंगे। भले ही देश, इतिहास, संविधान और भविष्य का कबाड़ा होता रहे।
प्रसिद्ध अमेरिकी अख़बार ‘न्यूयॉर्क टाईम्स’ के इस सनसनीखेज खुलासे पर प्रधानमंत्री, उनके मंत्रिमंडलीय सहयोगियों और सत्तारूढ़ दल के राष्ट्रीय प्रवक्ताओं ने चुप्पी साध रखी है कि अपने ही देश के नागरिकों की जासूसी के उद्देश्य से सैकड़ों करोड़ की लागत वाले उच्च-तकनीक के पेगासस सॉफ्टवेयर सरकार ने इजराइल की एक कम्पनी से खरीदे थे। अखबार की खबर के मुताबिक, दो अरब डॉलर मूल्य के आधुनिक हथियारों की खरीद के साथ ही नागरिकों के निजी मोबाइल फोन में उच्च तकनीकी के ज़रिए प्रवेश करके उनके क्रिया-कलापों की जासूसी करने में सक्षम सॉफ्टवेयर को भी हासिल करने का सौदा प्रधानमंत्री की जुलाई 2017 में हुई इजराइल यात्रा के दौरान किया गया था। किसी भी भारतीय प्रधानमंत्री की वह पहली इजराइल यात्रा थी।
उत्तर प्रदेश सहित पाँच राज्यों में होने जा रहे महत्वपूर्ण चुनावों के ऐन पहले अमेरिकी अखबार द्वारा किए गए उक्त खुलासे के पहले तक देश की सर्वोच्च संवैधानिक संस्था संसद, न्यायपालिका, विपक्षी पार्टियां और नागरिक पूरी तरह से आश्वस्त थे कि न तो सरकार ने पेगासस सॉफ्टवेयर की खरीदी की है और न ही उनके जरिए किसी तरह की जासूसी को अंजाम दिया गया। वह यकीन अब पूरी तरह से ध्वस्त हो गया है। ताजा खुलासे ने देश में लोकतंत्र को बनाए रखने और नागरिकों की निजी जिंदगी में उनकी अभिव्यक्ति की आजादी का सम्मान करने को लेकर सरकार की मंशाओं को कठघरे में खड़ा कर दिया है। यह एक अलग मुद्दा है कि प्रधानमंत्री, सरकार और अंतरराष्ट्रीय जगत में देश की प्रतिष्ठा को लेकर अब किस तरह के सवाल पूछे जाएँगे और यह भी कि करोड़ों की संख्या में विदेशों में बसने वाले भारतीय मूल के नागरिकों के पास देने के लिए क्या जवाब होंगे!
वर्तमान सूचना-प्रौद्योगिकी (आई टी) मंत्री अश्विनी वैष्णव ने जब पिछले साल संसद में भारत द्वारा पेगासस के इस्तेमाल किए जाने की खबरों को आधारहीन और सनसनीखेज बताते हुए खारिज कर दिया था तब उनके कहे पर शक की गुंजाइश के साथ यकीन कर लिया गया था। पूछा जा रहा है कि अब सरकार उसी संसद और उन्हीं विपक्षी सवालों का किस तरह से सामना करने वाली है? क्या उसके इतना भर जवाब दे देने से ही विपक्ष और देश की जनता विश्वास कर लेगी कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा पूरे मामले की जाँच करने के लिए गठित की गई समिति की रिपोर्ट मिलने तक किसी भी निष्कर्ष पर पहुँचने के पहले प्रतीक्षा की जानी चाहिए। तो क्या आजादी प्राप्ति के बाद के इस सबसे बड़े जासूसी कांड को लेकर सरकार और न्यायपालिका के बीच भी टकराव की आशंकाओं के लिए देश को तैयारी रखना चाहिए?
ताजा घटनाक्रम के परिप्रेक्ष्य में क्या सरकार से यह नहीं पूछा जाना चाहिए कि विदेशी ताकतों के लिए जासूसी करने को देशद्रोह का अपराध करार देने वाली व्यवस्था में अपने ही नागरिकों की जासूसी करने को अपराध की किस श्रेणी में रखा जा सकता है? ऐसे मामलों में नैतिकता का क्या तकाजा हो सकता है जिनमें विदेशी संसाधनों की मदद लेकर स्थापित लोकतंत्र की बुनियादों को कमजोर करने की नियोजित कोशिशें की जातीं हों?
पेगासस का मामला जब पहली मर्तबा उठा था रविशंकर प्रसाद केंद्र में सूचना-प्रौद्योगिकी मंत्री थे। उन्होंने जासूसी के आरोपों का खंडन करने के बजाय यह कहते हुए सरकार का बचाव किया था कि जब दुनिया के पैंतालीस देश पेगासस का इस्तेमाल कर रहे हैं तो उसे लेकर हमारे यहाँ इतना बवाल क्यों मचा हुआ है! उनके इस तरह के जवाब के बाद टिप्पणी की गई थी कि किसी दिन कोई और मंत्री खड़े होकर यह नहीं पूछ ले कि अगर दुनिया के 167 देशों के बीच ‘पूर्ण प्रजातंत्र’ सिर्फ तेईस मुल्कों में ही जीवित है और सत्तावन में अधिनायकवादी व्यवस्थाएँ हैं तो भारत को ही लेकर इतना बवाल क्यों मचाया जा रहा है ? ब्रिटेन के अग्रणी अखबार ‘द गार्डीयन’ ने तब लिखा था कि जो दस देश कथित तौर पर पेगासस के जरिए जासूसी के कृत्य में शामिल हैं वहाँ अधिनायकवादी हुकूमतें काबिज हैं।
‘न्यूयॉर्क टाईम्स’ ने अपनी साल भर की खोजबीन के बाद मैक्सिको,सऊदी अरब सहित जिन तमाम देशों में हुकूमतों द्वारा पेगासस सॉफ्टवेयर के जरिए सत्ता-विरोधियों की जासूसी करने का खुलासा किया है उसके प्रकाश में कल्पना की जा सकती है कि भारतीय लोकतंत्र को लेकर किस तरह की मान्यताएँ दुनिया में स्थापित हो सकतीं हैं। पेगासस जासूसी सॉफ्टवेयर के जरिए न सिर्फ पत्रकारों, विपक्षी नेताओं, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, न्यायपालिका और चुनाव आयोग से संबद्ध हस्तियों को ही निशाने पर लिए जाने के आरोप हैं, सरकार के ही कुछ मंत्री, उनके परिवारजन, घरेलू कर्मचारी और अफसरों का भी पीडि़तों की सूची में उल्लेख किया गया है।
अत्याधुनिक सॉफ्टवेयर की मदद से उस सरकार द्वारा अपने ही उन नागरिकों की जासूसी करना जिसे कि उन्होंने पूरे विश्वास के साथ अपनी रक्षा की जिम्मेदारी सौंप रखी है एक खतरनाक किस्म का खौफ उत्पन्न करता है। खौफ यह कि जो नागरिक अभी सत्ता के शिखरों पर बैठे अपने नायकों की क्षण-क्षण बदलती मुद्राओं से सिर्फ सार्वजनिक क्षेत्र में ही भयभीत होते रहते हैं उन्हें अब सरकारों द्वारा गुप्त तकनीकी उपकरणों, सॉफ्टवेयर की मदद से अपने निजी जीवन की जासूसी का शिकार बनने के लिए भी तैयार रहना पड़ेगा। सवाल यह उठता है कि क्या जनता के दिए जाने धन से किसी भी सरकार द्वारा उसके ही खिलाफ जासूसी करने के हथियार खरीदे जा सकते हैं? ऐसी स्थितियाँ तभी बनती है जब या तो जनता अपने शासकों का विश्वास खो देती है या फिर शासकों का शक इस बात को लेकर बढऩे लगता है कि एक बड़ी संख्या में लोग व्यवस्था के खिलाफ ‘षडय़ंत्र’ कर रहे हैं और उसमें पार्टी-संगठन के असंतुष्ट भी चोरी-छुपे साथ दे रहे हैं।’न्यूयॉर्क टाईम्स’ इस रहस्य का कभी खुलासा नहीं कर पाएगा कि संसद में पेश किए जाकर मंजूर होने वाले बजटों में जनता की जासूसी के लिए उपकरणों, सॉफ्टवेयर की खरीद के प्रावधान किन मदों से किए जाते होंगे!
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
हम भारतीयों को यह जानकर बहुत आश्चर्य होगा कि हमारे पड़ौसी देश मालदीव में आजकल एक जबर्दस्त अभियान चल रहा है, जिसका नाम है- ‘भारत भगाओ अभियान’! भारत-विरोधी अभियान कभी-कभी नेपाल और श्रीलंका में भी चलते रहे हैं लेकिन इस तरह के जहरीले अभियान की बात किसी पड़ौसी देश में पहली बार सुनने में आई है। इसका कारण क्या है, यह जानने के लिए हमें मालदीव की अंदरुनी राजनीति को जऱा खंगालना होगा। यह अभियान चला रहे हैं, पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन, जो लगभग डेढ़ माह पहले ही जेल से छूटे हैं। उन्हें रिश्वतखोरी और सरकारी लूट-पाट के अपराध में सजा हुई थी। उन्होंने सत्तारुढ़ मालदीव डेमोक्रेटिक पार्टी के खिलाफ जन-अभियान छेड़ दिया है। यह अभियान इसलिए भारत-विरोधी बन गया है कि ‘माडेपा’ के दो नेताओं राष्ट्रपति मोहम्मद सालेह और पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद को कट्टर भारत-समर्थक माना जाता है।
यामीन को अपना गुस्सा नशीद और सालेह पर उतारना है तो उन्हें भारत को ही मालदीव का दुश्मन घोषित करना जरुरी है। यामीन का यह भारत-विरोधी अभियान इतनी रफ्तार पकड़ता जा रहा है कि सत्तारुढ़ ‘माडेपा’ अब संसद से ऐसा कानून पास करवाना चाह रही है, जिसके तहत उन लोगों को छह माह की जेल और 20 हजार रु. जुर्माना भरना पड़ेगा, जो मालदीव पर यह आरोप लगाएंगे कि वह किसी विदेशी राष्ट्र के नियंत्रण में चला गया है। इसे वह राष्ट्रीय अपमान कहकर संबोधित कर रहे हैं। यह कानून आसानी से पास हो सकता है, क्योंकि संसद में सत्तारुढ़ दल के पास प्रचंड बहुमत है। यामीन की प्रोग्रेसिव पार्टी में कोई दम नहीं है कि वह सत्तारुढ़ पार्टी को संसद में नीचा दिखा सके लेकिन मालदीव की जनता में उसकी लोकप्रियता बढ़ती चली जा रही है। उसके कई कारण हैं। पहला कारण तो यही है कि सत्तारुढ़ ‘माडेपा’ में अंदरुनी खींचतान चरमोत्कर्ष पर है।
राष्ट्रपति सालेह और संसद-अध्यक्ष नशीद में चिक-चिक की खबरें रोज़ मालदीवी जनता को हैरत में डाल रही हैं। नशीद वास्तव में खुद जनाधार वाले नेता हैं। वे संविधान में परिवर्तन करके अपने लिए प्रधानमंत्री का पद पैदा करना चाहते हैं। सालेह और नशीद के मतभेद अन्य कई मुद्दों पर भी खुले-आम सबके सामने आ रहे हैं। इसका कुप्रभाव प्रशासन पर हो रहा है। सरकार पर से जनता का विश्वास घटता जा रहा है। दूसरा, मंहगाई और कोरोना बीमारी ने मालदीव की अर्थ-व्यवस्था को लगभग चौपट कर दिया है। तीसरा, यद्यपि भारत पूरी मदद कर रहा है लेकिन यामीन-राज में चीन ने जिस तरह से अपनी तिजोरियां खोलकर मालदीवी नेताओं की जेबें भर दी थीं और उन्हें अपनी जेब में डाल लिया था, वैसा नहीं होने के कारण वर्तमान नेतृत्व काफी सांसत में है। चौथा, सालेह-नशीद सरकार पर उसके विरोधी यह आरोप भी जड़ रहे हैं कि उसने भारत से सामरिक सहयोग करने के बहाने मालदीव की संप्रभुता को भारत के हाथ गिरवी रख दिया है। मालदीव में सक्रिय भारतीय नागरिकों को आजकल कई नई मुसीबतों का सामना करना पड़ा है। भारतीय राजदूतावास पर हमले की आशंकाएं भी बढ़ गई हैं। यह असंभव नहीं कि मालदीव में तख्ता-पलट की कोई फौजी कारवाई भी हो जाए। भारत के लिए यह गहन चिंता का विषय है। (नया इंडिया की अनुमति से)