विचार/लेख
-कृष्ण कांत
आपको पाकिस्तान या तालिबान की कट्टरता से चिढ़ है? अच्छी बात है। कट्टरता से चिढऩा चाहिए। लेकिन इस पर भी ध्यान दीजिए कि आपको भी वैसा ही बनाने का प्रयास क्यों चल रहा है? क्या आप वैसे बनना चाहते हैं? भारत और पाकिस्तान में हाल की कुछ घटनाओं पर गौर फरमाएं।
हाल ही में जब हमारी दिल्ली में एक समुदाय को ‘काटने और मारने’ का नारा लगाया गया और कानपुर में एक छोटी बच्ची के और उसके पिता को प्रताडि़त किया गया, उसी दौरान पाकिस्तान में भी एक मामले ने तूल पकड़ा था।
पाकिस्तान में एक 8 साल के हिंदू बच्चे ने गलती से किसी मजार के पास पेशाब कर दिया। उसके खिलाफ ईशनिंदा का केस दर्ज कराया गया। पुलिस ने बच्चे को पकडक़र जेल में डाल दिया। कोर्ट ने दो दिन बाद उस बच्चे को छोड़ दिया। कई लोग ये मान रहे थे कि छोटा बच्चा है, गलती हो गई। ऐसा उसने जानबूझकर नहीं किया।
हमारे वाले अभी ट्रेनिंग पर हैं, लेकिन पाकिस्तानी जाहिल तो कई दशक पहले ट्रेंड हो चुके हैं। तो कोर्ट के निर्णय के विरुद्ध भीड़ एकत्र हुई। इन लोगों ने रहीमयार खान इलाके के एक मंदिर में घुसकर तोडफ़ोड़ और आगजनी की। मूर्तियों को क्षतिग्रस्त किया। ये मामला काफी चर्चा में आ गया। पाकिस्तान की फजीहत शुरू हो गई। इस पर सक्रिय हुई पुलिस ने 90 लोगों को गिरफ्तार किया। पाकिस्तान के गृहमंत्री ने कहा, ‘हिंदू मंदिर को अपवित्र करने की घटना निंदनीय और दुखद है। इस तरह की घटनाएं इस्लाम और पाकिस्तान को पूरी दुनिया में बदनाम करती हैं। दूसरे धर्मों के पूजा स्थल को अपवित्र करना पूरी तरह से इस्लाम की शिक्षाओं के खिलाफ है। धार्मिक नफरत फैलाने और अल्पसंख्यकों के प्रति हिंसा भडक़ाने वालों के खिलाफ कार्रवाई की जाएगी। हम देश के सभी धार्मिक अल्पसंख्यकों की सुरक्षा सुनिश्चित करेंगे।’
वहां की संसद में ये मामला उठाया गया तो सर्वसम्मति इसके खिलाफ प्रस्ताव पास किया गया। तोड़े गए मंदिर की तुरंत मरम्मत कराई गई। पाकिस्तान हिंदू काउंसिल के सदस्यों ने जाकर फिर से मंदिर का उद्घाटन किया और फिर से पूजा शुरू हो गई। हालांकि, बच्चे के ऊपर दर्ज केस नहीं वापस लिया गया, लेकिन हिंदुओं को भरोसा है कि वह नादान है। केस मुख्य न्यायाधीश के पास है और उसे माफ कर दिया जाएगा। प्रशासन ने भी हिंदू नेताओं से कहा कि बच्चे के खिलाफ कोई सबूत नहीं है। उसे बरी कर दिया जाएगा। सरकार ने कहा कि रहीमयार खान में मंदिर को फिर से खोलना इस बात को दर्शाता है कि पाकिस्तान सरकार द्वारा अल्पसंख्यकों के धार्मिक विश्वासों का सम्मान करना हमारी मूल नीति है और हम सुनिश्चित करेंगे कि सभी नागरिक पाकिस्तान के संविधान के अनुसार जीवन और स्वतंत्रता का आनंद लें।
दूसरी घटना लाहौर में महाराजा रणजीत सिंह की मूर्ति तोडऩे का है। ये मूर्ति एक कट्टरपंथी संगठन के किसी एक सनकी शख्स ने तोड़ दी। इस घटना का वीडियो वायरल हुआ जिसमें वहीं कुछ लोगों ने उसे ऐसा करने से रोका। उस सनकी को गिरफ्तार कर लिया गया। प्रधानमंत्री इमरान खान के करीबी मंत्री चौधरी फवाद हुसैन ने लिखा, ‘शर्मनाक, अनपढ़ों का यह झुंड दुनिया में पाकिस्तान की छवि के लिए वाकई खतरनाक है।’
सनकी तो सब जगह हैं। अपराध हर कहीं होता है। असली मसला है कि अपराध रोकने के लिए क्या किया जा रहा है।
इन दो वाकयों को मैं सिर्फ इसलिए बता रहा हूं कि क्यों हम पाकिस्तान से ऐसी उदारताओं की उम्मीद नहीं करते। वह अपने अल्पसंख्यकों पर जुल्म के लिए दुनिया भर में बदनाम है। लेकिन उनकी सरकार दिखावे के लिए ही सही, उदार या लोकतांत्रिक दिखने की कोशिश कर रही है।
हमारे भारत की विविधता पर दुनिया भर में सैकड़ों किताबें लिखी गई हैं। हमारी पहचान दुनिया के एकमात्र ऐसे देश की है जहां सभी धर्म, 3000 जातियां, 1500 भाषाएं हैं और फिर भी हम सब साथ रहते हैं। आजादी मिली तो अंग्रेजी विद्वान कहते थे कि इतनी विविधता है कि ये इंडियन एक साथ रह ही नहीं सकते। भारत जल्दी ही टूट जाएगा। हम सबने उन्हें गलत साबित किया है।
लेकिन क्या कानपुर की उस छोटी बच्ची को वही उदार लोकतंत्र मिला है जिसका हम 70 सालों से मजा ले रहे हैं? क्या जंतर मंतर पर हुई जहरीली नारेबाजी पर कानून ने सही काम किया है? क्या हमारी सरकार के किसी बड़े नेता ने कभी किसी घटना के बाद ये भरोसा दिया है कि हम अल्पसंख्यकों को पूरी सुरक्षा देंगे? क्या लिंच मॉब को माला पहनाने वाले मंत्री को दंड मिला था? क्या लिंचिंग में मारे गए सैकड़ों लोगों को इस उदार और मजबूत लोकतंत्र ने न्याय दिलाया है? कौन है जो हमारे महान लोकतंत्र की लिंचिंग करके लिंच मॉब को माला पहना रहा है? एक पार्टी का सम्मानित नेता ऐसा करने की हिम्मत कहां से लाता है?
ऐसा क्यों है कि अपनी उदारता और ‘विविधिता में एकता’ के महान सूत्र से हमारा भरोसा हिलने लगा है? कौन है जो भारत को फिरकापरस्ती और कट्टरता की तरफ धकेल रहा है? कौन है जो भारत के युवाओं को तालिबानी सोच से लैस करना चाहता है?
गृह मंत्री की हैसियत से सरदार पटेल ने कहा था कि अगर हम अपने अल्पसंख्यकों को सुरक्षा का भरोसा न दे सकें तो हम इस लोकतंत्र के लायक नहीं हैं। हम सरदार पटेल, गांधी और नेहरू का भरोसा क्यों तोड़ रहे हैं ?
इधर कई घटनाएं आई हैं जिनसे लगता है कि पाकिस्तान लोकतंत्र बनने की कोशिश कर रहा है और हम 7 दशक के स्थापित लोकतंत्र की जड़ खोदने के सारे प्रयास कर रहे हैं। अपनी लाख खामियों के साथ भारत ऐतिहासिक संघर्ष करके एक महान लोकतंत्र बना है। भारत को कट्टरता की ओर धकेला गया तो यह बर्बाद हो जाएगा। धार्मिक कट्टरता ने इस दुनिया में अब तक ऐसा कोई देश नहीं बनाया जो हमारे लिए नजीर बन सके।
-ध्रुव गुप्त
शहनाई के जादूगर उस्ताद बिस्मिल्लाह खां अपने दौर की तीन गायिकाओं के मुरीद थे। उनमें पहली थी बनारस की रसूलन बाई। किशोरावस्था में वे बड़े भाई शम्सुद्दीन के साथ काशी के बालाजी मंदिर में रियाज़ करने जाते थे। रास्ते में रसूलनबाई का कोठा पड़ता था। वे बड़े भाई से छुपकर अक्सर कोठे पर पहुंच जाते। जब रसूलन गाती थीं तो वे मुग्ध होकर उन्हें सुनते थे। रसूलन की खनकदार आवाज में नए राग. ठुमरी, टप्पे, दादरा सुनकर उन्होंने भाव, खटका और मुर्की सीखी थी। एक दिन भाई ने उनकी चोरी पकडऩे के बाद जब कहा कि ऐसी नापाक जगहों पर आने से अल्लाह नाराज होता है तो उनका जवाब था-दिल से निकली आवाज में भी कहीं पाक-नापाक होता है? उस्ताद रसूलन बाई को बहुत सम्मान के साथ याद करते थे।
लता मंगेशकर और बेगम अख्तर उनकी दूसरी प्रिय गायिकाएं थीं। लता को वे देवी सरस्वती का रूप कहते थे। उन्होंने बताया कि लता के गायन में त्रुटियां निकालने की उन्होंने बहुत कोशिशें की, लेकिन असफल रहे। लता जी का एक गीत ‘हमारे दिल से न जाना, धोखा न खाना’ वे अक्सर गुनगुनाया करते थे। बेगम अख्तर की गायिकी को वे एक ख़ास त्रुटि के लिए पसंद करते थे। एक रात लाउडस्पीकर से आ रही एक आवाज़ ने उन्हें चौंकाया था। गज़़ल थी- ‘दीवाना बनाना है, तो दीवाना बना दे’ और आवाज़ थी बेगम अख्तर की। ऊंचे स्वर पर जाकर बेगम की आवाज़ टूट जाया करती थी। संगीत की दुनिया में इसे ऐब समझा जाता है, लेकिन उस्ताद को बेगम का यह ऐब खूब भाता था। बेगम को सुनते वक्त उन्हें उसी ऐब वाले लम्हे का इंतजार होता था। वह लम्हा आते ही उनके मुंह से बरबस निकल जाता था-अहा!
आज शहनाई उस्ताद बिस्मिल्लाह खां की पुण्यतिथि पर उनकी स्मृतियों को नमन !
-रमेश अनुपम
22 अगस्त को किशोर साहू की इकतालिसवीं पुण्यतिथि है। उनकी स्मृति को छत्तीसगढ़ सादर प्रणाम करता है।
छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले में 22 अक्टूबर सन 1915 को कन्हैया लाल साहू के परिवार में जन्म लेने वाले रायगढ़, सक्ति की मिट्टी और धूल में खेलकर बचपन बिताने वाले और राजनांदगांव के स्कूल में पढ़ाई करने वाले किशोर साहू एक दिन हिंदी सिनेमा के इतने बड़े स्टार बन जायेंगे, यह किसी ने सपने में भी नहीं सोचा होगा।
यह भी किसने सोचा होगा कि मात्र बाईस साल का छत्तीसगढ़ का यह छैल छबीला, तीखे नैन नक्श और पांच फुट साढ़े आठ इंच का बांका नौजवान सन 1937 में हिंदी सिनेमा की च्ीन और हर दिल अजीज नायिका देविका रानी के साथ बॉम्बे टॉकीज की फिल्म ‘जीवन प्रभात’ में हीरो की मुख्य भूमिका अदा करेगा और रातों रात लाखों लोगों के दिलों में अपनी जगह बना लेगा।
आज यह सोचकर विश्वास नहीं होता है कि छत्तीसगढ़ के इस सपूत ने केवल तेईस वर्ष की उम्र में बॉम्बे टॉकीज के समानांतर अपना खुद का एक प्रोडक्शन हाउस बॉम्बे में खोलकर और उसके बैनर में ‘बहूरानी’ जैसी सुपर-डुपर हिट फिल्म बनाकर हिंदी सिनेमा जगत में देगा।
गौरतलब है कि इस फिल्म का निर्देशन भी उन्होंने स्वयं किया था। इस फिल्म की नायिका उस दौर की मशहूर हिरोइन अनुराधा और मिस रोज थीं।
बाईस साल की उम्र में उस समय की मशहूर अदाकारा ब्यूटीच्ीन देविका रानी के साथ बॉम्बे टॉकीज की फिल्म में हीरो होना और 23 साल की उम्र में अपने खुद का प्रोडक्शन हाउस खोलकर ‘बहूरानी’ जैसी फिल्म का निर्माण तथा निर्देशन करना साथ में नायक की प्रमुख निभाना क्या अपने आप में कोई कम आश्चर्य की बात नहीं है।
चमत्कार का दौर केवल यहीं थमने वाला नहीं था। सन 1940 में उनकी दो फिल्में रिलीज हुई ‘बहूरानी’ और ‘पुनर्मिलन’। ‘पुनर्मिलन’ बॉम्बे टॉकीज की फिल्म थी।
देविका रानी को एक बार फिर बॉम्बे टॉकीज की फिल्म में किशोर साहू को बतौर हीरो लेने के लिए बाध्य होना पड़ा था। इस बार उसके साथ हीरोइन थी स्नेहप्रभा प्रधान, उस जमाने की सबसे सुंदर और चर्चित नायिका। तब तक हिमांशु राय का निधन हो चुका था। बॉम्बे टॉकीज की सारी जिम्मेदारी देविका रानी के ऊपर आ गई थी।
‘बहूरानी’ और ‘पुनर्मिलन’ ने हिंदी सिनेमा में किशोर साहू की अभिनय प्रतिभा के झंडे गाड़ दिए थे। बॉम्बे की सिनेमा नगरी में चारों ओर अगर किसी का शोर मच रहा था तो वह थे हर दिल अजीज हमारे किशोर साहू का।
इसके बाद ‘कुंवारा बाप’ और ‘शरारत’ जैसी फिल्में आई दोनों के हीरो थे किशोर साहू और उनके साथ खूबसूरत हीरोइन थीं प्रतिमा दास गुप्ता। दोनों ही फिल्में खूब चलीं। इसके बाद तो जैसे किशोर साहू हिंदी सिनेमा के सिरमौर बन गए।
वह हिंदी सिनेमा का शुरुवाती और स्वर्णिम दौर था। हिंदी सिनेमा को एक नई मंजिल की तलाश थी और किशोर साहू, अशोक कुमार जैसे हीरो हिंदी सिनेमा के मंजिल थे। दोनों ही मध्यप्रदेश के कोहिनूर थे। एक खंडवा के तो दूसरे छत्तीसगढ़ के।
फिर सन 1943 में ‘राजा’ जैसी बेहतरीन फिल्म आई। जिसके निर्माता, निर्देशक, नायक कोई और नहीं किशोर साहू थे।
उस समय ‘राजा’ फिल्म ने जैसे हिंदी सिनेमा में उथल-पुथल मचा दी थी। देश के सारे बड़े अखबार किशोर साहू की इस फिल्म की प्रशंसा से भरे पड़े थे।
‘टाईम्स ऑफ इंडिया’ ने लिखा- ‘राजा’ अभिनेता निदेशक किशोर साहू की महान व्यैक्तिक उपलब्धि है।’
‘अमृत बाजार पत्रिका’ में छपा- ‘राजा’ निर्माण और भाव की गहराई की महानतम नवीनता प्रदर्शित करता है और यही नहीं, दिग्दर्शन में भी बढिय़ा सफाई और भव्यता है।’
हिंदी सिनेमा के बेमिसाल अभिनेता, निर्देशक, निर्माता, पटकथा लेखक किशोर साहू का जीवन सफलता के नए-नए शिखरों को छूने के लिए बना हुआ था।
सम्राट अशोक के पुत्र कुणाल के जीवन पर आधारित फिल्म ‘वीर कुणाल’ किशोर साहू के लिए किसी महान उपलब्धि से कम नहीं थी। ‘वीर कुणाल’ के निर्माता, निर्देशक, लेखक और अभिनेता कोई और नहीं स्वयं किशोर साहू थे। उनके इस फिल्म की नायिका थी उस जमाने की मशहूर अदाकारा शोभना समर्थ, जो नूतन और तनुजा की मां और काजोल की नानी थी।
1 दिसंबर सन 1945 को यह फिल्म बंबई की नॉवेल्टी थियेटर में शान से रिलीज की गई। उस दिन इस फिल्म का उद्घाटन जिसके द्वारा हुआ वह वाक्या भी कम रोमांचक और दिलचस्प नहीं है।
सरदार वल्लभ भाई पटेल उन दिनों अपने सुपुत्र दया भाई पटेल के यहां बंबई आए हुए थे। दयाभाई पटेल उन दिनों मरीन ड्राइव में रहते थे। किशोर साहू को लगा ‘वीर कुणाल’ जैसी ऐतिहासिक महत्व की फिल्म के उद्घाटन के लिए सरदार पटेल से बड़ा और बेहतर नाम और कोई दूसरा नहीं हो सकता है। उन दिनों पंडित जवाहरलाल नेहरु और सरदार वल्लभ भाई पटेल स्वाधीनता आंदोलन और कांग्रेस के बड़े नायक थे।
(शेष अगले हफ्ते)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
यह तो अच्छी बात है कि भारत सरकार की तालिबान से दूरी के बावजूद उन लोगों ने अभी तक भारतीय नागरिकों को किसी भी तरह का नुकसान नहीं पहुंचाया है। हमारा दूतावास सुरक्षित है। हमारे जहाज सुरक्षित हैं और हमारे लोगों को भी भारत लौटने दिया जा रहा है। भारत सरकार और हमारा उड्डयन मंत्रालय भी पर्याप्त सक्रिय हैं। यह ध्यान देने लायक है कि अमेरिका और यूरोपीय देशों की तरह अपने नागरिकों को काबुल से निकालने के लिए हमें फौजें नहीं भेजनी पड़ रही हैं। इन सब राष्ट्रों का तालिबान से सीधे और गोपनीय संपर्क बने हुए हैं, जिनका फायदा हमें अपने आप मिल रहा है। भारत सरकार अभी तक असमंजस में पड़ी हुई है। वह यह तय ही नहीं कर पा रही है कि काबुल के इस नए परिदृश्य से कैसे निपटे ? उसका यह असमंजस स्वाभाविक है, क्योंकि जब पिछले दो साल से अमेरिका, चीन, रूस, तुर्की जैसे देश उनसे सीधी बात कर रहे थे तो हम अमेरिका के भरोसे बैठे रहे। अभी भी हमारे विदेश मंत्री जयशंकर न्यूयार्क में बैठकर संयुक्तराष्ट्र संघ में अपनी 25 साल पुरानी बीन ही बजा रहे हैं। उन्होंने सही बात कही है कि अब काबुल दुबारा आतंकवाद का शरण-स्थल नहीं बनना चाहिए लेकिन यह असली मुद्दा नहीं है।
असली मुद्दा यह है कि काबुल में इस समय ऐसी सरकार कैसे बने, जो सर्वसमावेशी हो, जिसमें सभी 14-15 कबीलों और जातियों को प्रतिनिधित्व मिल जाए। राजनीतिक दृष्टि से उसमें जाहिरशाही, खल्की, परचमी, नादर्न एलायंस, तालिबानी, हजारा और सभी छोटे-मोटे गुटों के लोग शामिल हो जाएं। लगभग 40 साल बाद काबुल मेें ऐसी सरकार बने, जैसी कभी दोस्त मोहम्मद, अमीर अब्दुर रहमान, अमानुल्लाह, जाहिरशाह या सरदार दाऊद की रही है। अफगानिस्तान में जब तक एक स्वतंत्र, आत्मनिर्भर और विदेशी दबाव से मुक्त सरकार नहीं बनेगी, वहाँ शांति और स्थिरता आ ही नहीं सकती। भारत ऐसी सरकार बनवाने में सार्थक भूमिका अदा कर सकता है। पिछले 200 साल में ब्रिटेन, रूस और अमेरिका को पठान धूल चटा चुके हैं। अब शायद चीन की बारी है। पाकिस्तान को मोहरा बनाकर यदि अब चीन अपनी चाल चलेगा तो वह भी मुँह की खाएगा।
पाकिस्तान को अफगान चरित्र की खूब समझ है। इसीलिए वह कोशिश कर रहा है कि काबुल में एक सर्वसमावेशी सरकार बन जाए लेकिन यह आसान नहीं है। हम देख रहे हैं कि जलालाबाद में तालिबान और स्थानीय पठानों में जानलेवा भिड़त हो गई। सच्चाई तो यह है कि तालिबान का भी कोई अनुशासित एकरुप संगठन नहीं है। उनमें भी जगह-जगह खुदमुख्तार नेता सक्रिय हैं। वे मनमानी करते हैं। क्वेटा, शूरा, पेशावर शूरा और मिरान्शाह शूरा तो प्रसिद्ध हैं ही, गैर-पठान क्षेत्रों में भी तालिबान सक्रिय हैं। इसीलिए जहां-तहां वे हिंसा और तोडफ़ोड़ भी करते हुए दिखाई पड़ रहे हैं लेकिन कुल मिलाकर अभी हालत चिंताजनक नहीं हैं। काबुल और विदेशों में बसे कुछ अफगान नेताओं ने मुझे फोन पर बताया है कि उन्हें विश्वास नहीं हो रहा हैं कि तालिबान जैसी घोषणाएं कर रहे हैं, उन पर वे वैसा अमल करेंगे। यदि तालिबान का अमल 1996-2001 जैसा रहा तो इस बार उनका 4-5 साल चलना भी मुश्किल हो जाएगा। वे 1929 की बच्चा-ए-सक्का की 9 माह की सरकार की तरह अगऱ् पर काबिज होंगे और जल्दी ही खिसक लेंगे।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-कृष्ण कान्त
पिता पूजा करता है. बेटा नमाज पढ़ता है. पिता का नाम शंकर है. बेटे का नाम अब्दुल है. पिता का नाम जवाहर है तो बेटे का नाम सलाउद्दीन है. पति का नाम मोहन तो पत्नी का नाम रूबीना. पिता हिंदू है, लेकिन बेटा मुसलमान है. मां मुसलमान है लेकिन बेटा या बेटी हिंदू है. एक ही आंगन में दिया भी जलता है और नमाज भी अदा होती है. वे नवरात्र भी रखते हैं और रोजा भी रखते हैं. वे भगवान की पूजा भी करते हैं, वे अल्लाह की इबादत भी करते हैं.
आप सोच रहे हैं कि ये क्या घनचक्कर है! लेकिन ये हिंदुस्तान का सच है. हिंदुस्तान ऐसा ही है. हमने-आपने इसे ठीक से देखा-समझा नहीं है.
कुछ दिन पहले जिस राजधानी में लोगों को काटने का नारा लगाया गया है, वहां से कुछ ही घंटे की दूरी तय करके अजमेर पहुंचिए. आपको ऐसे परिवार मिल जाएंगे जो हिंदू भी हैं और मुस्लिम भी हैं. राजस्थान के करीब चार जिलों में एक समुदाय रहता है चीता मेहरात समुदाय. ये ऐसा समुदाय है, जहां एक ही परिवार में हिंदू और मुस्लिम दोनों होते हैं. कभी कभी तो एक ही व्यक्ति दोनों धर्म को एक साथ मानता है. ज्यादातर परिवार होली, दिवाली, ईद सब मनाते हैं. राजस्थान में इस समुदाय की संख्या करीब 10 लाख तक बताई जाती है.
माना जाता है कि इस समुदाय का ताल्लुक चौहान राजाओं से रहा है. इन्होंने करीब सात सौ साल पहले इस्लाम की कुछ प्रथाओं को अपनाया था. तबसे यह समुदाय एक ही साथ हिंदू मुसलमान दोनों है.
अजमेर के अजयसर गांव के जवाहर सिंह बताते हैं, 'मैं हिंदू हूं लेकिन मेरे बेटे का नाम सलाउद्दीन है. हमारे यहां भेद नहीं है. हम शादियां भी इसी तरह से करते हैं, सैकड़ों वर्षों से यही होता आ रहा है.
इस गांव में एक ही जगह मंदिर और मस्जिद दोनों हैं. शादियों में जब लड़के की बारात निकलती है तो मंदिर और मस्जिद दोनों जगहों पर आशीर्वाद लिया जाता है. लड़कियों की शादी में कलश पूजन होता है, उसके बाद आपका मन हो तो फेरे लीजिए, मन हो निकाह कीजिए, मन हो तो दोनों कर लीजिए.
सिर्फ यही नहीं, असम के मतिबर रहमान भगवान शंकर के मंदिर की देखभाल करते हैं. यह काम उन्हें उनके पुरखों ने सौंपा है. 500 साल पुराने इस मंदिर की देखभाल मतिबर रहमान के पुरखे ही करते आए हैं. नीचे फोटो उन्हीं की है.
मैंने इधर बीच गौर किया कि कई लोग गंगा जमुनी तहजीब का मजाक उड़ाते हैं. सावरकर और जिन्ना की जोड़ी से प्रभावित कुछ लोगों का कहना है कि भारत में हिंदू-मुस्लिम एकता की बात राजनीतिक है. वास्तव में दोनों अलग-अलग हैं. लेकिन अगर आप देखना चाहेंगे तो पाएंगे कि दोनों एक-दूसरे में इतने घुले-मिले हैं, कि फर्क करना मुश्किल है.
जो लोग हिंदू-मुस्लिम विभाजन का सपना देखते हैं, वे चीता मेहरात समुदाय को किस तरफ रखेंगे? समाज और संस्कृति की सुंदरता तो इसी में है कि जो जैसा है, उसे वैसा ही रहने दिया जाए. जब कोई नेता या पार्टी धार्मिक विभाजन का प्रयत्न करे तो आपको लाखों करोड़ों के बारे में सोचना चाहिए कि वे किधर जाएंगे? जो जैसे हैं, उनको वैसे रहने दीजिए. फिर हम आप सदियों तक गर्व से कह पाएंगे कि मैं उस हिंदुस्तान का बाशिंदा हूं जहां पर हर धर्म और हर भाषा के लोग घुलमिल कर रहते हैं और यही हमारी ताकत है: 'विविधता में एकता'.
कोई है जो हमारी अपनी सुंदरता को मिटाने पर तुला है लेकिन दुनिया भर की विद्रूपता को हम पर थोपना चाहता है. आपको अपनी यही सुंदरता बचानी है.
-गिरीश मालवीय
तालिबान शब्द सुनते ही आपके जहन में क्या छवि उभरती है? जाहिर है कि एक ऐसा आदमी जो बड़ी सी दाढ़ी के साथ है, ऊपर कुर्ता है, ऊंचा पायजामा पहने हुए हैं और पगड़ीनुमा एक कपड़ा सिर पर लपेटे हंै जिसका एक सिरा कंधे पर गिर रहा है और सबसे जरूरी कि कंधे पर बंदूक टँगी हुई है।
और यही सच्चाई है यहां कोई प्रोपेगैंडा नहीं है, दरअसल हम जिस देश की बात कर रहे हैं उसे साम्राज्यों की कब्रगाह कहा जाता है। यहाँ जिस छवि की बात की जा रही है वह एक अफगान पुरूष की वैश्विक छवि है।
तालिबान अरबी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है छात्र, आपको जानकर आश्चर्य होगा कि तालिबान के पास अफगानिस्तान सिर्फ पांच साल ही रहा है। 1990 के दशक की शुरुआत से ही सोवियत संघ के अफगानिस्तान के जाने के बाद वहां पर कई गुटों में आपसी संघर्ष शुरू हो गया था। 1994 आते आते तालिबान सबसे शक्तिशाली गुट में परिवर्तित हो चुका था। 1996 में आखिरकार तत्कालीन अफगान राष्ट्रपति मोहम्मद नजीबुल्लाह की जघन्य हत्या के साथ ही तालिबान ने समूचे अफगानिस्तान पर आधिपत्य स्थापित कर लिया 1998 में जब तालिबान ने अफगानिस्तान की राजधानी काबुल पर कब्जा कर देश पर शासन शुरू किया तो कई फरमान जारी किए। पूरे देश में शरिया कानून लागू कर दिया गया।
दरअसल अफगानिस्तान के 99 फीसदी लोगों को शरिया कानून पसंद है तथा यह बात 2013 में दुनिया में कई तरह के सामाजिक सर्वेक्षण करने वाली संस्था प्यू रिसर्च सेंटर के एक शोध में सामने आई थी।
शरिया कानून इस्लाम की कानूनी प्रणाली है, जो कुरान और इस्लामी विद्वानों के फैसलों पर आधारित है, और मुसलमानों की दिनचर्या के लिए एक आचार संहिता के रूप में कार्य करता है। शरिया कानून मुसलमानों के जीवन के हर पहलू को प्रभावित कर सकता है, लेकिन, यह इस बात पर निर्भर करता है कि कौन सा वर्जन लागू किया जाता है और इसका कितनी सख्ती से पालन किया जाता है।
दरअसल पाकिस्तान को छोडक़र लगभग हर मुस्लिम मुल्क ने अपने-अपने तरीके से शरिया को अपने यहां लागू किया है, मुस्लिम ब्रदरहुड के लिए शरिया कुछ अलग स्वरूप लिए है सलाफियों के लिए अलग है और तालिबान, आईएस, बोको हरम के लिए कुछ अलग ही है।’
तालिबान ने अफगानिस्तान में अपने पाँच सालो के कार्यकाल में शरिया का सबसे सख्त स्वरूप लागू किया। तालिबान ने दोषियों को कड़ी सजा देने की शुरुआत की। हत्या के दोषियों को फांसी दी जाती तो चोरी करने वालों के हाथ-पैर काट दिए जाते। पुरुषों को दाढ़ी रखने के लिए कहा जाता तो स्त्रियों के लिए बुर्का पहनना अनिवार्य कर दिया गया था.
शरिया कानून के तहत ‘अंग-भंग और पत्थरबाजी’ को भी सही ठहराया है और इस कानून के तहत क्रूर सजाओं के साथ-साथ विरासत, पहनावा और महिलाओं से सारी स्वतंत्रता छीन लेने को भी जायज ठहराया जाता है।
शरिया कानून के तहत तालिबान ने देश में किसी भी प्रकार की गीत-संगीत को बैन कर दिया था। इस बार भी कंधार रेडियो स्टेशन पर कब्जा करने के बाद तालिबान ने गीत बजाने पर पाबंदी लगा दी है। वहीं, पिछली बार चोरी करने वालों के हाथ काट लिए जाते थे।
महिलाओं पर तालिबान शासन का प्रभाव तालिबान के शासन के तहत महिलाओं को प्रभावी रूप से नजरबंद कर दिया गया था और उनकी पढ़ाई-लिखाई पर पाबंदी लगा दी गई थी। वहीं, आठ साल की उम्र से ऊपर की सभी लड़कियों के लिए बुर्का पहनना अनिवार्य था और वो अकेले घर से बाहर नहीं निकल सकती थीं।
कमाल की बात यह है कि इस्लाम में औरतों को कई सारे अधिकार दिए गए हैं। उन्हें पढऩे का, काम पर जाने का, अपनी मर्जी के मुताबिक शादी करने का, संपत्ति का अधिकार तक है. लेकिन जितने भी कट्टरपंथी व्याख्याए है वह इन सारे कानूनों को अपने हिसाब से तोड़-मरोडक़र केवल अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करती है, उनका पूरा जोर आधी आबादी की स्वतंत्रता और अधिकारों को कुचलने में लगा रहता है, सारे शरिया कानून को ही यदि आपको मानना है उसका ही समर्थन करना है तो इसका साफ मतलब यही है कि आप अभी भी धर्म के आधार पर शासित होना चाहते हैं और धर्म के नाम पर शासन करना लोकतांत्रिक व्यवस्था बिल्कुल नहीं है यह मूलत: विकास विरोधी विचार है।
आप ही बताइए कि जिन मुस्लिम देशों में शरिया कानून लागू है वहाँ कौन सी ऐसी यूनिवर्सिटी है जहाँ पढऩे के लिए भारत का मुसलमान अपने बच्चों को भेजना चाहेगा ? दुनिया की सारी टॉप यूनिवर्सिटी यूरोप अमेरिका में है और वो टॉप इसलिए ही बन पाई क्योंकि उन्होंने धर्म को बिल्कुल अलग कर दिया।’
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत के लोग समझ रहे हैं कि काबुल में तालिबान के आ जाने से पाकिस्तान की पो-बारह हो गई है। यह ठीक है कि यदि पाकिस्तान मदद नहीं करता तो तालिबान का जिंदा रहना ही मुश्किल हो जाता। पाकिस्तान ने उन्हें हथियार, पैसा, प्रशिक्षण और रहने को जगह दी है। इसका अर्थ सारी दुनिया ने यह लगाया कि तालिबान उसकी कठपुतली बनकर रहेगा लेकिन ऐसा समझने वाले लोग अफगान पठानों का मूल चरित्र नहीं समझते। अफगानों से बढ़कर आजाद स्वभाव वाले लोग सारी दुनिया में नहीं हैं। उन्होंने 1842 में ब्रिटिश सेना के 16000 जवानों में से 15999 को मौत के घाट उतार दिया था। अन्य दो हमलों में फिर उसने ब्रिटेन को मात दी। उसके बाद उसने 30-40 साल पहले रूस के हजारों सैनिकों को मार भगाया और अब 20 साल छकाने के बाद अमेरिकी फौज को धूल चटा दी।
दुनिया के तीन बड़े साम्राज्यों की नाक नीची करने वाले अफगान क्या पाकिस्तान की 'पंजाबी फौजÓ के आगे अपनी नाक रगड़ेगें ? कदापि नहीं। पाकिस्तान के नेता, फौजी और इतिहास के विद्वान इन तथ्यों से अनजान नहीं हैं। इसीलिए वे जश्न तो मना रहे हैं लेकिन उनसे पूछिए कि वे कितने पसीने में तर हो गए हैं ? यदि तालिबान पाकिस्तान की कठपुतली होते तो क्या वजह है कि अभी तक काबुल में नई सरकार शपथ नहीं ले सकी है? पाकिस्तान के हुक्मरानों को डर है कि यदि काबुल में तालिबान की निरंकुश इस्लामी सत्ता कायम हो गई तो वह पाकिस्तान का सबसे बड़ा सिरदर्द होगा। तालिबान पर पाकिस्तान नहीं, पाकिस्तान पर तालिबान चड्डी गांठेगें। वे उससे पूछेंगे कि सारी दुनिया में इस्लाम के नाम पर बनने वाला अकेला राष्ट्र पाकिस्तान है लेकिन 'ए पंजाबियों, तुम कितने इस्लामी हो?Ó तालिबान आंदोलन में कई फिरके हैं। 'तहरीके-तालिबान पाकिस्तानÓ तो पाकिस्तान के अंदर रह कर उसके खिलाफ कार्रवाई करता रहा है। 1983 में जब पेशावर के जंगलों में मैं पहली बार मुजाहिदीन नेताओं से मिला तो वे कहते थे कि पेशावर तो हम पठानों का है। पाकिस्तान के पंजाबियों ने उस पर जबरन कब्जा कर रखा है। वे 1893 में अंग्रेजों द्वारा खींची गई डूरेंड सीमा-रेखा को बिल्कुल नहीं मानते।
आज तक किसी भी अफगान सरकार ने उसे मान्यता नहीं दी है बल्कि सरदार दाऊद के प्रधानमंत्री काल में तीन बार पाक-अफगान युद्ध की नौबत आ खड़ी हुई थी। इसीलिए अब पाकिस्तान फूंक-फूंककर कदम रख रहा है। उसकी कोशिश है कि काबुल में अब एक मिली-जुली सरकार कायम हो जाए। उसे पता है कि यदि काबुल में कोहराम मच गया तो लाखों अफगान शरणार्थी उनके यहां घुस आएंगे। उसकी अर्थ-व्यवस्था पहले ही डांवाडोल है। वह संकट में फंस जाएगी। यदि काबुल की सरकार स्थिर और मजबूत हो तो अफगानिस्तान खनिजों का भंडार है। वह दक्षिण एशिया का सबसे मालदार देश बन सकता है। पिछले 40 साल में पहली बार काबुल में अब ऐसी सरकार बन सकती है, जो सचमुच संप्रभु, स्वायत्त और पूर्णरूपेण स्वदेशी हो। यदि काबुल की सत्ता अनुभवहीन, अल्पदृष्टि और संकुचित हाथों में चली गई तो अफगानिस्तान अस्थिरता के गहरे कीचड़ में फिसल सकता है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-अजीत साही
अफ़ग़ानिस्तान में भारतीय राजदूत, दूतावास के अन्य कर्मचारी और उनके परिवार काबुल से कैसे निकले?
जवाब: मोदी सरकार ने तालिबान से मदद माँगी और तालिबान ने उनके बाहर निकलने में मदद की और उनको हवाई अड्डे तक सुरक्षा कवच देकर पहुँचाया.
ये ख़बर दुनिया की जानीमानी फ़्रांसीसी समाचार एजेंसी AFP ने छापी है.
हुआ ये कि अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान के क़ब्ज़े के बाद भारतीय दूतावास में खलबली मच गई. जिस वक़्त ये मालूम पड़ा कि हवाई अड्डे तक पहुँचने के रास्ते पर तालिबान मौजूद हैं तो हौसले और पस्त हो गए. दूतावास वाले मुहल्ले में भी तालिबान ही तालिबान मौजूद थे.
घबराहट की वजह ये भी थी कि भारत शुरू से ही तालिबान विरोधी रहा है. बयालीस साल पहले जब सोवियत यूनियन अफ़ग़ानिस्तान में घुसा था तो भारत कम्युनिस्टों के साथ था. जब सोवियत संघ का पिट्ठू राष्ट्रपति नजीबुल्लाह अफ़ग़ानिस्तान पर राज कर रहा था तो भारत उसके साथ था. जब तालिबान आया था तो भारत अफ़ग़ानिस्तान छोड़ गया था. जब 2001 में अमेरिका ने तालिबान को भगा दिया था तो फिर भारत अफ़ग़ानिस्तान लौट आया था. अब जब तालिबान दोबारा आया है तो भारत ने फटाफट अपना दूतावास फिर बंद करने का फ़ैसला कर लिया.
कल दूतावास के अंदर डेढ़ सौ से ज़्यादा लोग फंसे थे, जिनमें AFP का रिपोर्टर भी था जिसने बाद में ये ख़बर लिखी. सभी अधिकारियों के चेहरे पर हवाइयाँ थीं. मरता क्या न करता. इन अधिकारियों ने तालिबान से संपर्क किया और उनसे निवेदन किया कि वो भारतीयों को एयरपोर्ट तक जाने में मदद दें.
फिर क्या था. पलक झपकते ही हथियार से लैस दर्जनों तालिबान भारतीय दूतावास के बाहर जमा हो गए. ज्यों ही क़रीब दो दर्जन गाड़ियाँ दूतावास के कर्मचारियों और उनके परिवार वालों को लेकर निकलीं बाहर खड़े तालिबान उनकी ओर देखकर मुस्कराए और हाथ हिलाकर "वेव" करने लगे. भारतीय क़ाफ़िले के साथ तालिबान भी अपनी गाड़ियों में चल पड़े.
एयरपोर्ट सिर्फ़ पाँच किलोमीटर दूर था लेकिन पूरा रास्ता जाम था, हज़ारों अफ़ग़ान एयरपोर्ट जाने की कोशिश कर रहे थे. इतनी ज़रा सी दूरी तय करने में भारतीय क़ाफ़िले को पाँच घंटे लग गए. जगह जगह तालिबान की दूसरी टुकड़ियों ने चेक-प्वाइंट लगा रखे थे. AFP के रिपोर्टर के मुताबिक़ कई बार जब भीड़ बहुत अधिक हो जाती थी तो भारतीय क़ाफ़िले के सुरक्षा कवच बने तालिबान अपनी गाड़ियों से उतर कर हवाई फ़ायर कर दे रहे थे जिससे कि भारतीय क़ाफ़िले को आगे बढ़ने में मदद हो सके.
भारतीय क़ाफ़िला जब एयरपोर्ट पहुँच गया तब तालिबान वापस लौट गए.
-अजीत साही
इसमें दो राय नहीं कि तालिबान का इतिहास और विचारधारा हिंसक है, लेकिन हिंदुस्तान में आज तालिबानियों के खिलाफ चल रही बहस के बीच एक सवाल जायज होगा। क्या अमेरिका को वहाँ और रुकना चाहिए था? इसके बावजूद कि अमेरिका एक आक्रांता था, जिसने पूरे अफगानिस्तान में कत्लेआम करके ऐसा आतंक फैलाया कि करोड़ों लोग उससे नफरत करने लगे थे, उसे वहाँ काबिज रहते रहना चाहिए था तालिबान को रोकने के लिए? अमेरिका तो रुकना नहीं चाह रहा था। पैसे उसके खर्च हुए आपके नहीं। सैनिक उसके मरे आपके नहीं। फिर आखऱि क्या संभावना बननी चाहिए थी आपके हिसाब से?
आप कह रहे हैं कि तालिबान को सत्ता में नहीं आना चाहिए था। चलिए मान लिया। तो फिर आपके हिसाब से अमेरिका के जाने पर किसे राज करना चाहिए था? अशरफ गनी की सरकार तो पूरी तरह लचर और भ्रष्ट थी। बल्कि सरकार ही फर्जी थी क्योंकि उसका चुनाव ही फर्जी था। तो जनता के बीच जब उसकी वैधता ही नहीं थी तो वो सरकार कैसे टिकी रहती? क्या आपने खबरें नहीं पढ़ी थीं कि अफगान सेना को खाने का राशन नहीं मिल रहा था? पूरी पगार नहीं मिल रही थी? कि अशरफ गनी और उसके आसपास लोग अरबों डॉलर खा चुके थे? ये सब आपको मंजूर था? ऐसी सरकार का प्रशासन पर कुछ भी प्रभाव या दबाव रहा होगा? आपको क्या लगता है?
दरअसल बात ये है कि अशरफ गनी की सरकार की पहले ही कोई नहीं सुन रहा था। काबुल के आसपास छोडक़र और दो-तीन शहर छोड़ कर वैसे भी अलग-अलग सूबों में अलग-अलग स्थानीय मिलिशिया का प्रभाव था। अमेरिका के जाने पर अशरफ गनी की सरकार का और भी अधिक लचर हो जाना निश्चित था। फिर क्या होता? पूरे देश में गृहयुद्ध छिड़ जाता। हजारों-हजार लोग मारे जाते। क्या वो आपको मंजूर था? उन हजारों लोगों में औरतें भी होतीं, बच्चे भी होते। हजारों परिवार बेघर हो जाते। लाखों बच्चे अनाथ हो जाते। हजारों लड़कियों के साथ दुष्कर्म होता। वो सब आपको मंज़ूर था? स्कूल बंद हो जाते। धंधा ठप हो जाता। लूटपाट होती। ये सब ठीक होता?
कुछ हालात ऐसे होते हैं जिनके लिए अंग्रेज़ी का जुमला है there are no good answers so you look for the least bad answer। आप बताइए, क्या लीस्ट बैड आंसर होता आपके हिसाब से अफगानिस्तान के लिए आज के हालात में?
आप कह सकते हैं कि जो बातें मैंने ऊपर लिखी हैं वो तो तालिबान के रहते भी हो सकती हैं। बिल्कुल सही बात है। ज़रूर हो सकती हैं। लेकिन पिछले एक हफ्ते में हुई हैं क्या? ये सही है कि पूरे अफगानिस्तान में महिलाएँ घबराई हुई हैं। उनका भय बिल्कुल समझ आता है। लेकिन तालिबान नहीं होता अभी और सरकार गिर चुकी होती और गृहयुद्ध चल रहा होता तो वो महिलाएँ हंस-खेल रही होतीं? तालिबान नहीं होता और गृहयुद्ध होता तो क्या सैकड़ों अफगान अमेरिकी विमान पर चढक़र नहीं मर रहे होते? भाग नहीं रहे होते? अगर आप थोड़ा भी पढ़े-लिखे हैं तो आपको याद होगा कि 2003 में जब अमेरिका ने इराक पर हमला किया था तो पहले दो महीनों में पूरे देश में भयानक अराजकता फैल गई थी क्योंकि अमेरिका ने सोचा ही नहीं था कि सद्दाम के भागने पर शासन कौन चलाएगा। आज भी इराक में उसके दुष्परिणाम जाहिर हैं।
देखिए, एक बुनियादी बात समझिए। किसी भी मुल्क में, समाज में बाहर से आए आक्रांता के खिलाफ उस समाज की पहली लड़ाई होती है। ये अफसोस की बात है कि न आपको अमेरिका का अफगानिस्तान पर कब्जा बुरा लगता है और न ही आपको मालूम है कि जितना अत्याचार और जितनी हिंसा अमेरिका ने किया उसका एक-चौथाई भी तालिबान ने नहीं किया। अमेरिका ने घर-घर घुस-घुसकर आठ-आठ साल के लडक़ों की हत्या करवाई है। हवाई बम गिराए हैं। कार्पेट बाम्बिंग की है। टैंक से गोलीबारी की है। बेगुनाह लोगों को महीनों बंद करके यातना दी है। उनके ऊपर पेशाब किया है। उनकी उँगली काटते थे। सैनिकों को कहते थे कि प्रैक्टिस के लिए सिविलियन को मारो। आप चाहते हैं कि जिन्होंने अपना सब कुछ खोया है, वो अपना दर्द, अपमान सब भूल जाएँ और अमेरिका को सपोर्ट करते रहें?
तालिबान गुड आंसर नहीं है। ये समझने के लिए पीएचडी की जरूरत नहीं है। लेकिन आज के हालात में अब तक वही लीस्ट बैंड आंसर है। अब तालिबान कैसे हटेगा? तो अगर रूस, चीन, अमेरिका, पाकिस्तान ने अफगानिस्तान में अपना गंदा खेल नहीं जारी रखा तो अफगान लोगों को मौका मिलेगा कि वो ख़ुद अपने को धीरे-धीरे मजबूत करें और अपने हकूक के लिए लोकतांत्रिक लड़ाई लड़े। इसमें वक्त लग सकता है और लगेगा भी। दस साल। बीस साल। लेकिन इसी समाज की महिलाओं से, श्रमिकों से, युवाओं से असली लोकतंत्र का बीज फूटेगा। अमेरिका के कब्जे में मिली आजादी वैसी ही आजादी थी जैसी की ब्रिटिश काल में भारतीयों को मिली आजादी थी। अगर आपको लगता है कि पराधीनता में दोयम दजऱ्े का नागरिक बनने में ही खुशी है तो फिर आप गुलाम मानसिकता के हैं। लिबरल और प्रोग्रेसिव तो बिल्कुल ही नहीं हैं।
पिछले एक हफ्ते में जो हमने तालिबान को देखा है वो पच्चीस साल पहले हमने तालिबान में नहीं देखा था। हमने कई-कई समाजों में देखा है कि परिस्थितियाँ बदलती हैं तो किरदार भी बदलते हैं। जीसस, मुहम्मद, बुद्ध, गाँधी सबकी शिक्षा यही है कि हर इंसान बदलाव के काबिल है। और इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा है।
असली बात ये है कि लोकतंत्र कोई बाहर से आकर नहीं थोप सकता। स्वाभिमान विदेशी नहीं पैदा कर सकता। यूएन और अमेरिका अफगानिस्तान को तालिबान से आजादी नहीं दिला सकते। अफगानिस्तान के लोगों को खुद मजबूत होकर अपनी लड़ाई लडऩी होगी।
-प्रकाश दुबे
पिछले सहस्राब्द में जनता ने अपना राजा ऐसा चुना जिसकी हाजिरजवाबी, मिलनसारिता और पारदर्शिता से प्रजा अधिक प्रभावित थी, बजाय राजदंड और राज्यसत्ता के। इस लोकप्रिय सत्ताधीश के माथे पर कलंक के घाव का ऐसा निशान बना, जिसके लिए वह स्वयं कतई जिम्मेदार नहीं था। उस कालखंड के अंतिम दिनों में पुष्पक विमान का अपहरण हो गया। वह भी ऐसे पड़ोसी राष्ट्र से, जिसे सत्ता के वैचारिक पुरोहित अपनी मातृशक्ति के कारण ननिहाल का मान देते थे। अपहरणकर्ता खंडित भारत को अधिक खंडित करने में जुटे बंदी राक्षस को मुक्त कराने की मांग कर रहे थे। इस राक्षस ने समूचे आर्यावर्त में आतंक मचा रखा था। वह निरपराधों को सताता। हत्या करता। सत्ता संभाल रहा जननेता अपहर्ताओं के समक्ष झुकने के लिए तैयार नहीं था। लेकिन माध्यम का एक नुमाइंदा चीख-चीखकर हर पल ढिंढोरा पीटकर सैकड़ों निरपराधों के प्राण बचाने की दुहाई दे रहा था। सत्ताधीश का संकल्प और साहस की मर्यादा टूटी। राजा के वनवास का कारण यह कलंक स्वर्गवास के बावजूद आज तक माथे से पोंछा नहीं जा सका।
राक्षस का नाम मसूद अजहर है। कंधार में तालिबान के दखल के बाद वर्ष 1999 के आखिरी दिन रिहा होने के बाद पाकिस्तान में जन्मभूमि के शहर बहावलपुर में ऐश कर रहा है। भारत के विदेश मंत्री जसवंत सिंह और नागरिक उड्डयन मंत्री शरद यादव को बेबसी में तालिबान की शर्तों के आगे कंधार में झुकना पड़ा। कूटनय और इतिहासकार विश्लेषण करें कि करगिल में घुसपैठ का मुंहतोड़ जवाब देने वाले देश को पाकिस्तान में किसकी मदद से भेजा गया। अफगानिस्तान में न तो रूस की लाल सेना के दबाव वाली सरकार चली और न अमेरिका की तिजारत, चंदा, रिश्वत और गोली काम आई। अमेरिका ने रूस के विरुद्ध तालिबान को धन, शस्त्रबल और रणनीतिक सहायता दी। अमेरिकी सैनिकों की वापसी के बाद तालिबानी काबुल पर परचम फहरा चुके हैं। मौसम और सत्ता के साथ विशेषज्ञ बदलते हैं। कुछ सदाबहार अपवाद हर मौसम और सत्ता के सलाहकार बने रहते हैं। कंधार विमान अपहरण के दौरान ढिंढोरा पीटकर भारतवासी और सरकार का मनोबल गिराने वाले माध्यम के स्वामी का ससम्मान कानून बनाने वाली संसद में प्रवेश हो चुका हैं। उनके चाकरों तक को विशेष सुरक्षा और सम्मान मुहैया कराया जाता है। ओलम्पिक में भारत को एकमात्र स्वर्ण पदक मिलते देखने वाले देश के युवा खेल मंत्री के पास मौजूद दो टीवी चैनल नुमाइंदों के चेहरे याद करिए। इसी धारा में डुबकी लगाने वाले अफगानिस्तान विशेषज्ञ ने तालिबान से बात करने की मुफ्त सलाह दी है। यह मनोहारी विरोधाभास परोसने वाले विशेषज्ञ किसी वक्त डॉ. राम मनोहर लोहिया के भारत-पाकिस्तान एका महासंघ के मुरीद थे। इन दिनों अखंड आर्यावर्त का शंख फूंक रहे हैं। मुंबई बम विस्फोट के सरगना धुर आतंकवादी हाफिज इब्राहिम से उन्होंने पाकिस्तान जाकर मुलाकात की। 20 जुलाई 2014 को भेंट का पता लगने पर चर्चा थी कि पत्रकार महोदय नरेन्द्र मोदी सरकार के दूत बनकर गए थे। मोदी सरकार की पहली विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने संसद में इस अफवाह का खंडन किया। सुषमा ने तल्ख स्वर में कहा-हम इन पचड़ों में नहीं पड़ते। सुरक्षा परिषद के निर्णय के अनुसार अजहर और इब्राहिम को संयुक्त राष्ट्रसंघ ने वर्ष 2019 में अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी घोषित किया। अंतरराष्ट्रीय गतिविधियों पर नजर रखने वालों को पता है कि विदेश मंत्री जयशंकर कहां कहां और कब कब तालिबान के प्रतिनिधियों से सीधे मिले। अकेले ही नहीं, मुलाकात के समय कई मर्तबा तीसरा पक्ष उपस्थित था। भारत घुटना टेकू वार्ता से असहमत है। पत्रकारीय परामर्श देते समय जयशंकर पहल का तथ्य उजागर नहीं किया गया। सलाह से नया भ्रम फैलेगा-देखो, हमारी आपकी सोच समान है। भोली जनता वाहवाही करेगी-ऐसा विश्लेषक भविष्यवक्ता संभवति युगे युगे।
सिर्फ इसी बात का डर नहीं है। डर इस बात का है कि भारत जब इतिहास के पुनर्लेखन में व्यस्त है, उस समय पड़ोस की ताकतें हमारी आंख के सामने भूगोल बदलने में जुटी हैं। इंदिरा गांधी ने दो बार भूगोल बदला। आपात्काल के दौरान सिक्किम का भारत में विलय किया। बांग्लादेश की मुक्ति में सहयोग किया। दो प्रधानमंत्रियों की चूक का नुकसान अब तक भुगत रहे हैं। चेतावनी के बावजूद जवाहर लाल नेहरू की अनदेखी के कारण चीन ने तिब्बत को गड़प किया। भारत के भूभाग पर चीन ने कब्जा किया। लाल बहादुर शास्त्री को ताशकंद में विजित क्षेत्र छोडऩे पर हामी भरनी पड़ी। कश्मीर मुद्दे पर समाधान की शर्त नहीं जुड़वा सके। तनाव में उनका देहावसान हुआ। अमेरिका को विश्व ठेकेदार समझकर भारत चुनाव प्रचारक तक बना। अब उसी से कहना पड़ता है कि अभी न जाओ छोड़ कर। कोई संप्रभु देश इस तरह की बात कर सकता है? हमें याद रखना है कि कश्मीर मुद्दे पर हम किसी मध्यस्थ को सहन नहीं करेंगे। भय अकारण नहीं है। बड़ी उम्मीदों के साथ ब्रिक्स का गठन हुआ था। रूस और चीन दोनों इस वक्त तालिबान के साथ खड़े हैं। परखा हुआ मित्र रूस बिफर कर भारत से दूर हो चुका है। ब्रिक्स परवान नहीं चढ़ा। ब्राजील और दक्षिण आफ्रीका में चीन का निवेश भारत से अधिक है। सुरक्षा परिषद में किसके बूते प्रवेश करेंगे?
गैरराजनीतिक कारण भी डराते हैं। दो दिन पहले इस अखबार ने शीर्षक दिया-उफ!! गानिस्तान। अनेक ने सराहा। कुछ पाठक कुपित हुए। खिजाया। रवीन्द्रनाथ ठाकुर का काबुलीवाला भुलाने के कारण ऐसा हुआ। वही काबुलीवाला जो भारतीय बच्ची में अपनी बेटी की छवि देखकर गाता था-अय मेरे प्यारे वतन, अय मेरे बिछड़े चमन, तुझपे दिल कुर्बान। निडर बनने के लिए निश्चय और निर्णय चाहिए। तालिबान से नहीं, आम अफगानी से मेरे प्यारे वाला नाता भी।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
यह खुशी की बात है कि अफगानिस्तान से भारतीय नागरिकों की सकुशल वापसी हो रही है। भारत सरकार की नींद देर से खुली लेकिन अब वह काफी मुस्तैदी दिखा रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह कथन प्रशंसनीय है कि अफगानिस्तान के हिंदू और सिख तथा अफगान भाई-बहनों का भारत में स्वागत है। कहकर उन्होंने सीएए कानून को नई ऊंचाईयाँ प्रदान कर दी है। लेकिन भारत सरकार अब भी असमंजस में है। कुछ समझ में नहीं आ रहा है कि वह क्या करे। भारत सरकार की अफगान नीति वे मंत्री और अफसर बना रहे हैं, जिन्हें अफगानिस्तान के बारे में मोटे-मोटे तथ्य भी पता नहीं हैं। हमारे विदेश मंत्री इस समय न्यूयार्क में बैठे हैं और ऐसा लगता है कि हमारी सरकार ने अपनी अफगान-नीति का ठेका अमेरिकी सरकार को दे दिया है। वह तो हाथ पर हाथ धरे बैठी है।
भारत अफगानिस्तान का पड़ौसी है और उसने वहां 3 बिलियन डॉलर खर्च भी किए हैं, इसके बावजूद काबुल की नई सरकार बनवाने में उसकी कोई भूमिका नहीं है। पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई और पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. अब्दुल्ला अब्दुल्ला भारत के मित्र हैं। वे तालिबान से बात करके काबुल में संयुक्त सरकार बनाने की कोशिश कर रहे हैं और पाकिस्तान इस मामले में तगड़ी पहल कर रहा है लेकिन भारत ने अपने संपूर्ण दूतावास को दिल्ली बुला लिया है। मोदी सरकार के पास कोई ऐसा नेता या अफसर या बुद्धिजीवी नहीं है, जो काबुल के कोहराम को शांत करने में कोई भूमिका अदा करे और एक संयुक्त सरकार खड़ी करने में मदद करे। तालिबान से सभी प्रमुख राष्ट्रों ने खुले और सीधे संवाद बना रखे हैं लेकिन भारत अब भी बगलें झांक रहा है। उसकी यह अपंगता काबुल में चीन और पाकिस्तान को जबर्दस्त मजबूती प्रदान करेगी। भारत अपनी 25 साल पुरानी मांद में खर्राटे खींच रहा है। सरकार को पता ही नहीं है कि पिछले 25 साल में तालिबान कितना बदल चुके हैं।
पहली बात तो यह कि उनके बीच नई पीढ़ी के नौजवान आ चुके हैं, जो पश्चिमी जीवन-पद्धति और आधुनिकता से परिचित हैं। दूसरी बात यह कि उनके प्रवक्ता ने आधिकारिक घोषणा की है कि अफगान महिलाओं के साथ वैसी ज्यादतियां नहीं की जाएंगी, जैसे पहले की गई थीं और उनकी सरकार सर्वहितकारी व सर्वसमावेशी होगी। तीसरी बात यह है कि सिख गुरूद्वारे में जाकर तालिबान नेताओं ने हिंदू और सिखों को सुरक्षा का वचन दिया है। चौथी, सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि उन्होंने कई बार दोहराया है कि कश्मीर भारत का आंतरिक मामला है और भारत ने अफगानिस्तान में जो नव-निर्माण किया है, उसके लिए तालिबान उनके आभारी हैं। उनके प्रवक्ता ने यह भी भरोसा दिलाया है कि किसी भी देश को वे यह सुविधा नहीं देंगे कि वह किसी अन्य देश के विरुद्ध अफगान भूमि का इस्तेमाल कर सके। याने न तो भारत पाकिस्तान के और न ही पाकिस्तान भारत के विरुद्ध अफगानों के जरिए आतंक फैला सकेगा। यदि तालिबान सरकार अपने पुराने ढर्रे पर चलने लगे तो भारत को उसका विरोध करने से किसने रोका है?
(नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे के बाद अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन ने राष्ट्र के नाम जो संदेश दिया, उसका मुख्य उद्देश्य दुनिया को यह बताना था कि उन्होंने अफगानिस्तान से निकलना क्यों जरुरी समझा। उन्होंने अमेरिका की इस फौजी निकासी का मूल निर्णय करनेवाले डोनाल्ड ट्रंप को कोई श्रेय नहीं दिया। उन्होंने इस भयंकर तथ्य की भी कोई जिम्मेदारी नहीं ली कि वे अफगानिस्तान को राम भरोसे छोड़कर क्यों भाग खड़े हुए ? जैसे 1975 में अमेरिका दक्षिण वियतनाम को उत्तर वियतनाम के भरोसे छोड़कर भाग आया था, वैसे ही उसने अफगानिस्तान को तालिबान के भरोसे छोड़ दिया। वैसे अमेरिका ने ही मुजाहिदीन और तालिबान को पिछले 40 साल में खड़ा किया था। ज्यों ही काबुल में बबरक कारमल की सरकार बनी, रूसियों को टक्कर देने के लिए अमेरिका ने पाकिस्तान को उकसाया और पाकिस्तान ने अफगान बागियों को शरण दी।
पाकिस्तान के जरिए अमेरिका ने पेशावर, मिरान्शाह और क्वेटा में टिके पहले मुजाहिदीन और फिर तालिबान को हथियार और डॉलर दिए। ये तथ्य मुझे 1983 में इन नेताओं ने पेशावर में खुद बताए थे। आतंक फैलाने का प्रशिक्षण भी दिया। लेकिन इन्हीं तालिबान ने जब अल-कायदा से हाथ मिलाया और उसने अमेरिका पर हमला कर दिया तो अमेरिका ने काबुल से तालिबान को उखाडऩे के लिए अपनी और नाटो की फौजें भेज दीं। अब 20 साल बाद अपने लगभग ढाई हजार सैनिकों की जान गंवाने और खरबों डॉलर बर्बाद करने के बाद उन्हीं तालिबान के साथ उसने वाशिंगटन, पेशावर, काबुल, दोहा आदि में बात शुरु कर दी। इस बात का लक्ष्य सिर्फ एक था। किसी तरह अफगानिस्तान से अपना पिंड छुड़ाना। उसकी बला से कि उसके पीछे कुछ भी होता रहे। अब यही हो रहा है।
तालिबान को पहले भी अमेरिका लाया था और अब भी वही लाया है। अगर बाइडन प्रशासन और तालिबान में पहले से सांठगांठ नहीं होती तो क्या अमेरिकी वापसी इतनी शांतिपूर्ण ढंग से हो सकती थी ? अभी तक किसी भी अमेरिकी पर या अमेरिकी दूतावास पर कोई हमला नहीं हुआ है। कई दूतावास बंद हो गए हैं लेकिन क्या वजह है कि अमेरिकी दूतावास काबुल हवाई अड्डे पर खुल गया है ? कोई तो वजह है, जिसके चलते 5-6 हजार अमेरिकी सैनिक काबुल पहुंच गए हैं और उन पर एक भी गोली तक नहीं चली है? क्या वजह है कि राष्ट्रपति गनी ओमान होते हुए अमेरिका पहुंच रहे हैं ? क्या वजह है कि राष्ट्रपति बाइडन ने अपने संबोधन में तालिबान की जऱा भी भर्त्सना नहीं की है। उल्टे, वे इस बात का श्रेय ले रहे हैं कि उन्होंने अमेरिकी फौजियों की जानें और अमेरिकी डॉलर बचा लिये हैं। बाइडन प्रशासन ने बड़ी चतुराई से गनी सरकार और तालिबान, दोनों को साधकर अपना मतलब सिद्ध किया है। अब दुनिया के देश अमेरिका को कोस रहे हैं तो कोसते रहें ! दुनिया अमेरिका के लिए चाहे कहती रहे कि 'बड़े बेआबरु होकर तेरे कूचे से हम निकले।
(नया इंडिया की अनुमति से)
मेरा नाम सहारा करीमी है और मैं एक फिल्म निर्देशक हूं। साथ ही अफगान फिल्म की वर्तमान महानिदेशक हूं, जो 1968 में स्थापित एकमात्र सरकारी स्वामित्व वाली फिल्म कंपनी है।
मैं इसे टूटे दिल के साथ लिख रही हूं और इस गहरी उम्मीद के साथ कि आप मेरे खूबसूरत लोगों को, खासकर फिल्ममेकर्स को तालिबान से बचाने में शामिल होंगे। तालिबान ने पिछले कुछ हफ्तों में कई प्रांतों पर कब्जा कर लिया है। उन्होंने हमारे लोगों का नरसंहार किया, कई बच्चों का अपहरण किया। कई लड़कियों को चाइल्ड ब्राइड के रूप में अपने आदमियों को बेच दिया। उन्होंने एक महिला की हत्या उसकी पोशाक के लिए की। उन्होंने हमारे पसंदीदा हास्य कलाकारों में से एक को प्रताडि़त किया और मार डाला, उन्होंने एक ऐतिहासिक कवि को मार डाला। उन्होंने सरकार के कल्चर और मीडिया हेड को मार डाला। उन्होंने सरकार से जुड़े लोगों को मार डाला। उन्होंने कुछ आदमियों को सार्वजनिक रूप से फांसी पर लटका दिया। उन्होंने लाखों परिवारों को विस्थापित कर दिया। इन प्रांतों से भागने के बाद, परिवार काबुल में शिविरों में हैं, जहां वे बदहाली की स्थिति में हैं। वहां इन शिविरों में लूटपाट हो रही है। दूध के अभाव में बच्चों की मौत हो रही है। यह एक मानवीय संकट है। फिर भी दुनिया खामोश है।
हमें इस चुप्पी की आदत है, लेकिन हम जानते हैं कि यह उचित नहीं है। हम जानते हैं कि हमारे लोगों को छोडऩे का यह फैसला गलत है। 20 साल में हमने जो हासिल किया है वह अब सब बर्बाद हो रहा है। हमें आपकी आवाज की जरूरत है। मैंने अपने देश में एक फिल्म निर्माता के रूप में जिस चीज के लिए इतनी मेहनत की है, उसके टूटने की संभावना है। यदि तालिबान सत्ता संभालता है, तो वे सभी कलाओं पर प्रतिबंध लगा देंगे। मैं और अन्य फिल्म निर्माता उनकी हिट लिस्ट में अगले हो सकते हैं। वे महिलाओं के अधिकारों का हनन करेंगे और हमारी अभिव्यक्ति को मौन में दबा दिया जाएगा।
जब तालिबान सत्ता में था, तब स्कूल जाने वाली लड़कियों की संख्या शून्य थी। तब से स्कूल में 9 मिलियन से अधिक अफगान लड़कियां हैं। तालिबान द्वारा जीते गए तीसरे सबसे बड़े शहर हेरात में इसके विश्वविद्यालय में 50 फीसदी महिलाएं थीं। ये अविश्वसनीय उपलब्धियां हैं, जिन्हें दुनिया नहीं जानती। इन कुछ हफ्तों में तालिबान ने कई स्कूलों को तबाह कर दिया है और 20 लाख लड़कियों को फिर से स्कूल से निकाल दिया है।
‘मैं इस दुनिया को नहीं समझती। मैं इस चुप्पी को नहीं समझती। मैं खड़ी हो जाऊंगी और अपने देश के लिए लड़ूंगी, लेकिन मैं इसे अकेले नहीं कर सकती। मुझे आप जैसे सहयोगी चाहिए। हमारे साथ क्या हो रहा है, इस पर ध्यान देने में इस दुनिया की मदद करें। अपने देशों के प्रमुख मीडिया को अफगानिस्तान में क्या हो रहा है, यह बताकर हमारी मदद करें। अफगानिस्तान के बाहर हमारी आवाज बनें। यदि तालिबान काबुल पर कब्जा कर लेता है, तो हमारे पास इंटरनेट या संचार के किसी अन्य माध्यम तक पहुंच नहीं हो सकती है।’
कृपया अपने फिल्म निर्माताओं और कलाकारों को हमारी आवाज के रूप में समर्थन दें, इस तथ्य को अपने मीडिया के साथ साझा करें और अपने सोशल मीडिया पर हमारे बारे में लिखें। दुनिया हमारी ओर नहीं देखती है। हमें अफगान महिलाओं, बच्चों, कलाकारों और फिल्म निर्माताओं की ओर से आपके समर्थन और आवाज की जरूरत है। यह सबसे बड़ी मदद है जिसकी हमें अभी जरूरत है। कृपया हमारी मदद करें। इस दुनिया को अफगानों को छोडऩे न दें। कृपया काबुल में तालिबान के सत्ता में आने से पहले हमारी मदद करें। हमारे पास केवल कुछ दिन हैं। बहुत-बहुत धन्यवाद।’
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पिछले दो हफ्तों से मैं बराबर लिख रहा हूं और टीवी चैनलों पर बोल रहा हूं कि काबुल पर तालिबान का कब्जा होने ही वाला है लेकिन मुझे आश्चर्य है कि हमारा प्रधानमंत्री कार्यालय, हमारा विदेश मंत्रालय और हमारा गुप्तचर विभाग आज तक सोता हुआ क्यों पाया गया है ? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले से बहुत लंबा-चौड़ा भाषण दे डाला और 15 अगस्त को जिस समय उनका भाषण चल रहा था, तालिबान काबुल के राजमहल (कांरवे-गुलिस्तां) पर कब्जा कर रहे थे लेकिन ऐसा नहीं लगा कि भारत को जऱा-सी भी उसकी चिंता है। अफगानिस्तान में कोई भी उथल-पुथल होती है तो उसका सबसे ज्यादा असर पाकिस्तान और भारत पर होता है लेकिन ऐसा लग रहा था कि भारत खर्राटे खींच रहा है जबकि पाकिस्तानी अपनी गोटियाँ बड़ी उस्तादी के साथ खेल रहा है।
एक तरफ वह खून-खराबे का विरोध कर रहा है और पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई और अशरफ गनी के समर्थक नेताओं का इस्लामाबाद में स्वागत कर रहा है और दूसरी तरफ वह तालिबान की तन, मन, धन से मदद में जुटा हुआ है बल्कि ताजा खबर यह है कि अब वह काबुल में एक कमाचलाऊ संयुक्त सरकार बनाने में जुटा हुआ है। भारत की बोलती बिल्कुल बंद है। वह तो अपने डेढ़ हजार नागरिकों को भारत भी नहीं ला सका है। वह सुरक्षा परिषद का अध्यक्ष है लेकिन वहाँ भी उसके नेतृत्व में सारे सदस्य जबानी जमा-खर्च करते रहे। मेरा सुझाव था कि अपनी अध्यक्षता के पहले दिन ही भारत को अफगानिस्तान में संयुक्तराष्ट्र की एक शांति-सेना भेजने का प्रस्ताव पास करवाना था। यह काम वह अभी भी करवा सकता है। कितने आश्चर्य की बात है कि जिन मुजाहिदीन और तालिबान ने रूस और अमेरिका के हजारों फौजियों को मार गिराया और उनके अरबों-खरबों रुपयों पर पानी फेर दिया, वे तालिबान से सीधी बात कर रहे हैं लेकिन हमारी सरकार की अपंगता और अकर्मण्यता आश्चर्यजनक है।
मोदी को पता होना चाहिए कि 1999 में हमारे अपहृत जहाज को कंधार से छुड़वाने में तालिबान नेता मुल्ला उमर ने हमारी सीधी मदद की थी। प्रधानमंत्री अटलजी के कहने पर पीर गैलानी से मैं लंदन में मिला, वाशिंगटन स्थित तालिबान राजदूत अब्दुल हकीम मुजाहिद और कंधार में मुल्ला उमर से मैंने सीधा संपर्क किया और हमारा जहाज तालिबान ने छोड़ दिया। तालिबान पाकिस्तान के प्रगाढ़ ऋणी हैं लेकिन वे भारत के दुश्मन नहीं हैं। उन्होंने अफगानिस्तान में भारत के निर्माण-कार्य का आभार माना है और कश्मीर को भारत का आतंरिक मामला बताया है। हामिद करजई और डॉ. अब्दुल्ला हमारे मित्र हैं। यदि वे तालिबान से सीधी बात कर रहे हैं तो हमें किसने रोका हुआ है? अमेरिका ने अपनी शतरंज खूब चतुराई से बिछा रखी है लेकिन हमारी पास दोनों नहीं है। न शतरंज, न चतुराई !
(लेखक, पाक—अफगान मामलों के विशेषज्ञ हैं)
(नया इंडिया की अनुमति से)
-कृष्ण कांत
इमामुद्दीन का गंगा देवी से कोई रिश्ता नहीं था, लेकिन प्रेम रिश्ते का मोहताज नहीं होता।
यह कहानी 33 साल पहले शुरू हुई थी। इमामुद्दीन और आयशा बानो मियां बीवी थे। दोनों मज़दूरी करते थे और एक हिंदू के घर में किराये पर रहते थे।
घर मालिक चंद्रभान की अचानक मौत हो गई। उनकी पत्नी गंगा देवी बेसहारा हो गईं। गंगा को कोई औलाद भी नहीं थी। भाग्य ने उनके साथ और खेल खेला। उन्हें लकवा मार गया।
गंगा की जिंदगी एक चारपाई में सिमट गई तो उनके अपनों ने भी उनका साथ छोड़ दिया।
इमामुद्दीन के बचपन में ही सिर से मां का साया उठ गया था। उन्हें गंगा देवी में अपनी मां दिखाई दी। इमामुद्दीन और उनकी बीवी आयशा दोनों बेघर मज़दूर थे तो क्या हुआ, दिल में खूब जगह थी। दोनों ने गंगा देवी की देखभाल शुरू कर दी।
गंगा के इलाज पर मोटा माल खर्च हुआ जिसके लिए इमामुद्दीन ने अपनी जमा पूंजी सब खर्च कर दी।
दोनों मियां बीवी मजदूरी करते और साथ साथ गंगा की सेवा भी। आयशा और इमामुद्दीन के लिए गंगा अब उनकी मां थी। उन्हें नहलाना, कपड़े बदलना, अपने हाथों से खाना खिलाना, दवा कराना, सारी जिम्मेदारी इन दोनों की थी।
साथ लंबा हुआ तो रिश्ता और गाढ़ा होता गया। आयशा बहू की तरह मां के पैर दबाती तो बेटा इमामुद्दीन उन्हें कुर्सी पर बैठाकर घुमा लाता। ऐसा वे किसी दबाव या लालच में नहीं कर रहे थे।
समय बीतता गया। इमामुद्दीन ने अपना छोटा सा घर बनवा लिया। तब तक गंगा का घर भी खंडहर हो गया था। अब गंगा इमामुद्दीन के साथ नये घर में आ गईं।
इमामुद्दीन से लोगों ने पूछा कि ये सब करने की क्या ज़रूरत है? इमामुद्दीन ने कहा, उसे मेरी नहीं, मुझे उसकी जरूरत है।
गंगा लोगों से कहतीं, भगवान ने मुझे औलाद नहीं दी थी, लेकिन अब मिल गई है। अब यही दोनों मेरे बहू बेटे हैं।
लकवा मारने के बाद गंगा ने 33 साल लंबी ज़िंदगी जी ली। हाल ही में गंगा की मौत हो गई।
जब देश भर में हिंदू मुस्लिम का खेला चल रहा है, तब इमामुद्दीन ने गंगा का हिंदू रीति से अंतिम संस्कार किया है और गंगा की अस्थियां हरिद्वार में विसर्जित करके लौटे हैं। उन्होंने दान पुण्य क्रिया कर्म सब वैसे ही निभाया जैसा होना चाहिए था।
इमामुद्दीन ने बुढ़िया गंगा को मथुरा काशी के वृद्धाश्रम में नहीं डाला। ताउम्र उसकी सेवा की। गंगा की अस्थियां अब गंगा में मिल चुकी हैं और हिंदुओं की देवी गंगा ने इमामुद्दीन के हाथ से अस्थि कलश स्वीकार कर लिया है।
यह कहानी काल्पनिक नहीं है। यह कहानी राजस्थान के नीमकाथाना की है, जिसके पड़ोसी राज्य से शुरू हुआ नफरत और बंटवारे का कारोबार आज पूरे देश को त्रस्त किये हुए है।
मेरे पास ऐसी सैकड़ों कहानियां हैं। हिन्दुस्तान की हर गली में ऐसी लाखों लाख कहानियां हैं। शौक-ए-दीदार अगर है तो नजर पैदा कर...।
-राहुल कुमार सिंह
अंग्रेजी का शब्द है लेगैसी, जिसका अर्थ, पैतृक संपत्ति होता है और बोलचाल में बपौती। इन दिनों संस्कृति विभाग, बपौती के लिए चर्चा में है। इसलिए प्रसंगवश कुछ बातें याद आ रही हैं। संस्कृति विभाग, छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद, महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय में स्थापित-संचालित है और यह लगभग 150 साल पुरानी संस्था, हमारी प्राचीन संस्कृति और परंपराओं के साथ सरकार को जोड़े-जुड़े रहने का केन्द्र है। इसलिए संस्कृति विभाग और यह संग्रहालय, दोनों एक-दूसरे के पर्याय की तरह देखे जा रहे हैं।
यहां इस भवन-संस्था की परंपरा, इतिहास और ‘बपौती' पर कुछ बातें। रायपुर शहर का एक पुराना नक्शा सन 1868 का है, जिसमें वर्तमान महाकोशल कला वीथिका, अष्टकोणीय भवन को म्यूजियम दर्शाया गया है। उस भवन के साथ एक शिलालेख हुआ करता था, जो अब वर्तमान महंत घासीदास संग्रहालय के प्रवेश पर लगा है। इसमें लेख है कि ‘सन् 1875 ईसवी में तामीर पाया बसर्फे महंत घासीदास रईस नांदगांव'। यह छत्तीसगढ़ के गौरव का अभिलेख है।
देश में सन 1784 में कलकत्ता में एशियाटिक सोसायटी आफ बंगाल की स्थापना हुई और इससे जुड़कर सन 1796, देश में संग्रहालय शुरुआत का वर्ष माना जाता है, लेकिन सन 1814 में डॉ. नथैनिएल वैलिश की देखरेख में स्थापित संस्था ही वस्तुतः पहला नियमित संग्रहालय है। संग्रहालय-शहरों की सूची में फिर क्रमानुसार मद्रास, करांची, बंबई, त्रिवेन्द्रम, लखनऊ, नागपुर, लाहौर, बैंगलोर, फैजाबाद, दिल्ली?, मथुरा के बाद सन 1875 में रायपुर का नाम शामिल हुआ। वैसे इस बीच मद्रास संग्रहालय के अधीन छः स्थानीय संग्रहालय भी खुले, लेकिन उनका संचालन नियमित न रह सका। रायपुर, इस सूची का न सिर्फ सबसे कम (सन 1931 में) 45390 आबादी वाला शहर था, बल्कि निजी भागीदारी से बना देश का पहला संग्रहालय भी गिना जाता है।
इस संग्रहालय का एक खास उल्लेख मिलता है 1892-93 के भू-अभिलेख एवं कृषि निर्देशक जे.बी. फुलर के विभागीय वार्षिक प्रशासकीय प्रतिवेदन में। 13 फरवरी 1894 के नागपुर से प्रेषित पत्र के भाग 9, पैरा 33 में उल्लेख है कि नागपुर संग्रहालय में इस वर्ष 101592 पुरुष, 79701 महिला और 44785 बच्चे यानि कुल 226078 दर्शक आए, वहीं रायपुर संग्रहालय में पिछले वर्ष के 137758 दर्शकों के बजाय इस वर्ष 128500 दर्शक आए।
सन 1953 में इस नये भवन का उद्घाटन हुआ और सन 1955 में संग्रहालय इस भवन में स्थानांतरित हुआ। राजनांदगांव राजा के दान से निर्मित संग्रहालय, उनके नाम पर महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय कहलाने लगा। इस संस्था का पूरा क्षेत्र, मूलतः वर्तमान परिसर के अतिरिक्त गुरु तेग बहादुर संग्रहालय व हॉल, साक्षरता बगीचा, भी था। सन 1956 में मध्यप्रांत और बरार का पुनर्गठन हुआ और मध्यप्रदेश बना। इस नये प्रदेश के शासकीय डेढ़ मुख्यालय रायपुर में हुआ करते थे। एक संचालनालय ‘भौमिकी एवं खनिकर्म‘ और संचालनालय ‘पुरातत्व एवं संग्रहालय’ का आधा हिस्सा, संग्रहालय, रायपुर में रहा। रायपुर संग्रहालय में तब बंटवारे के फलस्वरूप, मध्यप्रदेश हिस्से के और विशेषकर छत्तीसगढ़ के ऐसे पुरावशेष, जो नागपुर संगग्रहालय में थे, रायपुर संग्रहालय में आ गए। आज भी संग्रहालय में जबलपुर-कटनी अंचल के कारीतलाई, बिलहरी की कलाकृतियां संग्रहित, प्रदर्शित हैं। पूरे देश में मिलने वाले सिक्कों के दफीने का एक निश्चित हिस्सा बंटवारे में इस संग्रहालय का मिलता था।
संग्रहालय की पुरानी इमारत को आमतौर पर भूत बंगला, अजैब बंगला या अजायबघर नाम से जाना जाता। भूत की स्मृतियों को सहेजने वाले नये भवन के साथ भी इन नामों का भूत लगा रहा। साथ ही पढ़े-लिखों में भी यह एक तरफ महंत घासीदास के बजाय गुरु घासीदास कहा-लिखा जाता है और दूसरी तरफ महंत घासीदास मेमोरियल के एमजीएम को महात्मा गांधी मेमोरियल म्यूजियम अनुमान लगा लिया जाता है। बहरहाल, रायपुर का महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय, ताम्रयुगीन उपकरण, विशिष्ट प्रकार के ठप्पांकित व अन्य प्राचीन सिक्कों, किरारी से मिले प्राचीनतम काष्ठ अभिलेख, ताम्रपत्र और शिलालेखों और सिरपुर से प्राप्त अन्य कांस्य प्रतिमाओं सहित मंजुश्री और विशाल संग्रह के लिए पूरी दुनिया के कला-प्रेमी और पुरातत्व-अध्येताओं में जाना जाता है।
रायपुर संग्रहालय की सिरपुर से प्राप्त मंजुश्री कांस्य प्रतिमा अन्य देशों में आयोजित भारत महोत्सव में प्रदर्शित की जा चुकी है, इसी प्रकार सिरपुर से प्राप्त अन्य कांस्य प्रतिमाओं और स्वर्ण एवं अन्य धातुओं के सिक्कों का अमूल्य संग्रह संग्रहालय में है। ऐसे पुरावशेष जन-सामान्य तो क्या, विशेषज्ञों और राज्य की संस्कृति और विरासत से जुड़े गणमान्य, इससे लगभग अनभिज्ञ हैं, तथा उनके लिए भी सहज उपलब्ध नहीं है। उल्लेखनीय है कि हार्वर्ड विश्वविद्यालय के भारतीय कला के मर्मज्ञ प्रोफेसर प्रमोदचंद्र ने मंजुश्री प्रतिमा को छत्तीसगढ़ की प्राचीन कला का सक्षम प्रतिनिधि उदाहरण माना था। इसके पश्चात 1987 में देश के महान कलाविद और संग्रहालय विज्ञानी राय कृष्णदास के पुत्र आनंद कृष्ण रायपुर पधारे और तत्कालीन प्रभारी श्री वी.पी. नगायच से विनम्रतापूर्वक सिरपुर की कांस्य प्रतिमाओं को देखने का यह कहते हुए आग्रह किया कि उनके बारे में बस पढ़ा है, चित्र देखे हैं। इन प्रतिमाओं को एक-एक कर हाथ में लेते हुए भावुक हो गए, नजर भर कर देखते और माथे से लगाते गए।
इस संस्था को पुरातत्व, संगीत, साहित्य, कला के मर्मज्ञ संस्कारित करते रहे हैं। देश के मूर्धन्य विद्वान शोध-अध्ययन, संगोष्ठी, प्रदर्शन के लिए यहां पधारते रहे हैं, जिनकी उपस्थिति से यह संस्था संस्कारित होती रही है, जो अब क्षीण हो रही है। स्थानीय महानुभावों में सर्व आदरणीय रामनिहाल शर्मा, हरि ठाकुर, विष्णु सिंह ठाकुर, लक्ष्मीशंकर निगम, गुणवंत व्यास, वसंत तिमोथी, सरयूकांत झा, केयूर भूषण, बसंत दीवान, पीडी आशीर्वादम, राजेन्द्र मिश्र, यदा-कदा विनोद कुमार शुक्ल जैसे नाम हैं, जिनका रिश्ता इस संस्था से बना रहता था। वे संस्था की बेहतरी के लिए पहल करते थे और बदले में उनकी पूछ-परख होती थी। राज्य गठन के बाद अपने रायपुर प्रवास पर हबीब तनवीर इस संस्था के लिए समय अवश्य निकालते थे, जिनकी जयंती मनाए जाने के प्रसंग में ‘बपौती‘ की अवांछित स्थिति चर्चा में है।
इस संस्था से जुड़े विशेष कर्तव्यस्थ अधिकारी एम.जी. दीक्षित ने सिरपुर उत्खनन कराया। अधिकारी विद्वान बालचंद्र जैन, सहायक संग्रहाध्यक्ष पद पर रहते हुए सन 1960-61 में ‘उत्कीर्ण लेख‘ पुस्तक तैयार की, जो वस्तुतः संग्रहालय के अभिलेखों का सूचीपत्र है, किंतु इस प्रकाशन से न सिर्फ संग्रहालय, बल्कि प्राचीन इतिहास के माध्यम से पूरे छत्तीसगढ़ की प्रतिष्ठा उजागर हुई। साठादि के दशक में इस परिसर का बगीचा, शहर का सबसे सुंदर बगीचा होता था। राज्य निर्माण के बाद डॉ. के.के. चक्रवर्ती, डॉ. इंदिरा मिश्र और प्रदीप पंत, आरंभिक अधिकारियों ने राज्य में शासकीय विभाग के कामकाज की दृष्टि से संस्कृति-पुरातत्व की मजबूत बुनियाद तैयार कर दी थी। विभाग के कई अल्प वेतन भोगी सदस्य रहे हैं, जलहल सिंह, राजकुमार पांडेय, मूलचंद, बाबूलाल, भगेला, प्रेमलाल, महेश, चंदराम, कमल, लताबाई, फेंकनबाई, तिरबेनी बाई ऐसे कुछ नाम हैं, जिन्होंने इस संस्था की परवाह, अपनी बपौती से भी अधिक मान कर की है, इसे सहेजा है।
रायपुर संग्रहालय के पुरावशेषों का पिछले कई वर्षों से वार्षिक भौतिक सत्यापन, पंजियों-नस्तियों के आधार पर नहीं हुआ है, जो संग्रहालय प्रबंधन की बुनियादी आवश्यकता है। राज्य के 150 वर्ष पुराने इस संग्रहालय से वस्तुएं गुम होने की शिकायत विभाग के अधिकारियों द्वारा हुई है, इसके बावजूद भी इसकी जांच एवं भौतिक सत्यापन नहीं कराया जा सका है। उल्लेखनीय है कि इस संग्रहालय में 15000 से भी अधिक बहुमूल्य पुरावशेष संग्रहित हैं, जिनकी ठीक पहचान और मिलान के लिए वर्तमान में कुछ ही पूर्व अधिकारी और विशेषज्ञ रह गए हैं, जो इसकी भरोसेमंद ढंग से पहचान और पुष्टि कर सकते हैं।
देश के सबसे पुराने संग्रहालयों में से एक रायपुर का यह महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय अब तक इंटरनेशनल कौंसिल आफ म्यूजियम्स, इंडिया (आइकॉम) का सदस्य नहीं है। राज्य के पुरातत्व और प्राचीन कला-संस्कृति की अंतरराष्ट््रीय स्तर पर नियमित और प्रभावी उपस्थिति के लिए यह आवश्यक है, जिसके अभाव में अत्यंत महत्वपूर्ण और पुरानी संस्था होने के बावजूद भी यह संग्रहालय अंतरराष्ट््रीय स्तर पर पहचान में पिछड़ जाता है। आइकॉम, इंडिया की सदस्यता, संक्षिप्त कागजी औपचारिक कार्यवाही से ली जा सकती है, इसमें कोई वित्तीय प्रशासकीय अतिरिक्त भार नहीं होगा।
वर्तमान महंत घासीदास संग्रहालय, संचालनालय संस्कृति एवं पुरातत्व तथा संस्कृति भवन (कुछ वर्षों से ‘गढ़ कलेवा‘ वाला!) के रूप में जाना जाता है। ध्यान रहे की मूर्तियां मौन होती हैं, शिकायत नहीं करतीं, इसलिए उनकी देखरेख के लिए अधिक संवेदनशीलता, समझ और खुली-सजग निगाहों की जरूरत होती है। अपनी जिम्मेदारियों के सम्यक निर्वाह के लिए यह पता रहना और याद करते रहनाआवश्यक होता है कि हम किस विरासत-लेगैसी के धारक-संवाहक हैं, इसकी गुरुता ही कर्तव्य-निर्वाह का उपयुक्त मार्ग प्रशस्त करती है। यह संग्रहालय-संस्कृति भवन, राज्य के साथ हम सबकी ऐसी बपौती है, जिसे यथासंभव बेहतर बना कर और नहीं तो कम से कम यथावत, अगली पीढ़ी को सौंपने की परवाह बेहद जरूरी है।
(लेखक पुरातत्व एवं संस्कृति अध्येता हैं)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
15 अगस्त को लालकिले से प्रधानमंत्री ने जो लंबा भाषण दिया, जहाँ तक भाषण का सवाल है, उसकी जितनी भी तारीफ की जाए, कम है। अब तक मैंने जितने भी प्रधानमंत्रियों के भाषण लाल किले से सुने हैं, उनमें यह भाषण मुझे सबसे अधिक प्रभावशाली लगा। इस भाषण की सबसे बड़ी खूबी यह रही कि मोदी ने उस भारत का नक्शा देश के सामने रखा, जो अब से 25 साल बाद होगा। उसे हम मोदी के सपनों का भारत कह सकते हैं। वह भारत ऐसा होगा, जिसमें कोई बेरोजगार नहीं होगा, कोई भूखा नहीं रहेगा, कोई दवा के अभाव में नहीं मरेगा, हर बच्चे को शिक्षा मिलेगी, सबको न्याय मिलेगा। देश भ्रष्टाचारमुक्त होगा। इससे बढिय़ा सपना क्या हो सकता है लेकिन उस सपने को सच में बदलने के लिए हमारी पिछली सरकारों और वर्तमान सरकार ने कौनसे ठोस कदम उठाए हैं ?
ऐसा नहीं है कि हमारी सभी सरकारें निकम्मी रही हैं। सभी सरकारों ने आम जनता की भलाई के लिए कुछ न कुछ कदम जरुर उठाए हैं। इसी का नतीजा है कि 1947 के मुकाबले देश में गरीबी, अशिक्षा, बीमारी, गंदगी, भुखमरी आदि घटी हैं लेकिन क्या हम पिछले 74 साल में ऐसा देश बना पाए हैं, जिसका सपना महर्षि दयानंद, महात्मा गांधी, योगी अरविंद, सुभाष बोस, नेहरु और डॉ. लोहिया जैसे महापुरुषों ने देखा था ? इसका मूल कारण यह रहा कि हमारे नेताओं का सारा ध्यान तात्कालिक समस्याओं के तुरंत हल में लगा रहा, जो कि स्वाभाविक है और वे समस्याएं उन्होंने कई अर्थों में सफलतापूर्वक हल भी कर डालीं लेकिन उन समस्याएं की जड़ें ज्यों की त्यों कायम रहीं। उन जड़ों को म_ा पिलाने का काम अभी भी बाकी है। ऐसा नहीं है कि हमारे सभी प्रधानमंत्रियों या अन्य नेताओं को इन समस्याओं का ज्ञान नहीं है।
उन्हें पता है लेकिन अपनी कुर्सी बचाने और बढ़ाने के लालच में फंसकर वे बुनियादी परिवर्तनों की तरफ ध्यान ही नहीं दे पाते। वे कोरी नारेबाजी या शब्दों की नौटंकियों में खो जाते हैं। जैसे कभी गरीबी हटाओ नारा था और आजकल सबका साथ, सबका विकास है। उसमें अब सबका विश्वास और सबका प्रयास भी जुड़ गया है। सरकार से कोई पूछे कि भारत में भ्रष्टाचार, सांप्रदायिकता, जातिवाद और आर्थिक विषमता, बेरोजगारी, पार्टियों की आंतरिक तानाशाही और न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधानपालिका में अंग्रेजी की गुलामी आज भी ज्यों की त्यों क्यों चली आ रही है? उन्हें खत्म करने और भारत का प्राचीन वैभव और गौरव लौटाने के लिए आपके पास कोई कार्य-योजना है या नहीं ? सपने तो हर आदमी देखता है लेकिन सरकारों से उम्मीद की जाती है कि वे उन्हें साकार करेंगी।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-पुष्य मित्र
सबसे पहले मन बंटता है, फिर भूगोल बंटता है। ऐसा सिर्फ मुल्कों के मामले में ही नहीं परिवारों के मामले में भी होता है। और अक्सर ऐसा होता है कि भूगोल बंट जाने पर भी मन का विभाजन कम नहीं होता, वह जस का तस बना रहता है और कई दफा बढ़ता भी रहता है। ऐसा ही 1947 में भी हुआ और आज भी हो रहा है।
हिंदुस्तान का मन क्यों बंटा? क्योंकि कुछ लोगों को लगता था कि भारत एक राष्ट्र नहीं है। यह दो राष्ट्र हैं। हिन्दू और मुसलमान। दोनों दो अलग-अलग राष्ट्र हैं। ऐसा सोचने वाले कौन थे, यह जानने के लिये इतिहास के पन्नों को पलटिए। एक तरह मुस्लिम लीग था तो दूसरी तरह कथित हिन्दू राष्ट्रवादी। जो एक दूसरे से लड़ते-झगड़ते रहने के बावजूद इस बात को लेकर सहमत थे कि हिन्दू और मुसलमान कभी एक देश में, एक झंडे के तले साथ नहीं रह सकते। उनके मन के इसी विभाजन की परिणति 1947 में देश के भौगोलिक विभाजन के रूप में हुई।
हमें यह भी जानना चाहिये कि उस वक़्त कौन था जो इस द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत से असहमत था। तो वह कांग्रेस पार्टी थी। उसमें शामिल राष्ट्रवादी हिन्दू और मुसलमान थे। दोनों मानते थे कि हम हमेशा से एकसाथ रहे हैं और आजादी के बाद भी एक दूसरे के साथ बराबरी का व्यवहार करते हुए साथ रह सकते हैं। इसलिये कांग्रेस आखिर तक विभाजन के खिलाफ रहा। हां, यह जरूर हुआ कि आखिर-आखिर में उसके कई बड़े नेताओं ने घुटने टेक दिये और खून खराबे के भय से विभाजन को बुझे मन से स्वीकार कर लिया मगर एक इंसान आखिर तक यह सब रोकने के लिये लड़ता रहा।
वह नोआखली से लेकर बिहार तक, कोलकाता से दिल्ली तक भागता रहा।लोगों के मन को जोड़ता रहा। क्योंकि उसे मालूम था कि मन को जोड़ना जरूरी है। जब मन जुड़ जायेगा तो भूगोल का विभाजन खुद रुक जायेगा। न भी रुके तो बेमतलब हो जायेगा। वह गांधी था।
कोरोना के दोनों लहरों के बीच में लगातार इन्हीं किस्सों को पढ़ता रहा हूं, इसलिये यह सब समझ पा रहा हूं। नोआखली में नंगे पांव घूमना, बिहार में दंगा पीड़ितों को फिर से उनके गांव में बसाने के लिये चन्दा जुटाना। कोलकाता में मार काट को रोक देना। दिल्ली की भंगी बस्ती में बैठकर जहरीले मन को जहर मुक्त करने की कोशिश करना और यह तय कर लेना कि मेरी शहादत से ही मन का विभाजन रुकेगा। यह सब पढ़ते हुए झुरझुरी होती है।
हम आज भी उतने ही बंटे हुए हैं जितने पिछ्ली सदी के तीसरे-चौथे दशक में थे। और अब तो यह बंटवारा लोगों के लिये सत्ता पाने और बनाये रखने का उपकरण हो गया है। मगर उस इंसान के पास जिसे हम राष्ट्रपिता कहते हैं, एक फार्मूला जरूर था बंटे हुए मन को जोड़ने का।
विभाजन का दंश याद करने की चीज नहीं है। वह सबक लेने की चीज है कि कैसे राजनेताओं की महत्वाकांक्षाओं की कीमत लाखों लोग चुकाते हैं। वह यह सीखने का अवसर देता है कि लड़ने से नहीं प्रेम करने से दुनिया बेहतर होती है। जिन्ना ने अपने समर्थकों को लड़कर पाकिस्तान बनाना सिखाया, गांधी ने प्रेम से टूटे दिलों को जोड़ने का प्रयोग किया। अब यह आपके हाथ में है कि आप जिन्ना के प्रयोग को सीखते हैं या गांधी के।
मैने तो कल तय किया है कि मैं गांधी के उस आखिरी प्रयोग की कहानी लिखूंगा जिसने उन्होने प्रेम और शहादत के औजारों से टूटे हुए दिलों को जोड़ने की कोशिश की थी। मन का विभाजन खत्म करने की कोशिश की थी।
आजादी के अमृत वर्ष में अपने लिये यही लक्ष्य तय किया है। देखिये, मुमकिन हो भी पाता है या नहीं।
-चिन्मय मिश्र
राहत भाई के एक काव्य संग्रह का शीर्षक ह ‘मेरे बाद’ परंतु मुझे महसूस होता है कि उनके चले जाने के बाद वह पहले से भी ज्यादा हमारे साथ हो गए हैं। आदमी जब आपके नजदीक होता है, आसपास होता है ए तो वह होता तो है, महसूस नहीं होता। न दिख पाने के बाद वह महसूस होने लगता है, वह आपका ही नहीं, आपकी परछाई का भी हिस्सा बन जाता है, जो हमेशा अपनी मौजूदगी का एहसास कराती रहती है। राहत भाई से पहली मुलाकात मिल्की वे टॉकीज के अहाते की साइनबोर्ड पेंटिंग की दुकान में हुई थी। तब वे इस काम को छोड़ चुके थे। वहां उनकी बैठक मोहन पेंटर की दुकान पर थी। हम वहां मालवा उत्सव के होर्डिंग बनवाने जाते थे। उनकी ठहाकेदार मौजूदगी और होर्डिंग बनाने में उनका रचनात्मक सहयोग बताता था कि चित्रकला की उनकी समझ कितनी रंगभरी है। उनसे आखिरी मुलाकात अक्टूबर 2017 में छोटे भाई आदिल के अंतिम संस्कार के दौरान छोटी खजरानी कब्रिस्तान में हुई थी। तब वे नहीं उनके आंसू बोल रहे थे। उस दिन उनके ठंडे हाथों का बहुत ठंडा एहसास आज फिर महसूस हो रहा है। राहत भाई भी उसी कब्रिस्तान में सुपुर्द ए खाक हुए। दोनों भाई के ठहाकों से कब्रिस्तान की गहराई शायद अभी भी गूंजती रहती हो।
हमने सीखी नहीं है किस्मत से,
ऐसी उर्दू जो फारसी भी लगे।
राहत भाई की शायरी की सबसे बड़ी खासियत शायद यही थी कि वह हमेशा सम्प्रेषणी यही होती थी। इसका सबसे बड़ा फायदा यह था कि आप उनकी शायरी से असहमत भी हो सकते थे। सीधी बात को सीधे तरीके से रखने के वे कायल थे। शेर कहने का उनका अनूठा अंदाज आपको कहीं और भटकने नहीं देता था। साथ ही बीच-बीच में उनकी आती. जाती टिप्पणियां आपको कुछ क्षण के लिए शायरी की डूब से बाहर निकाल लेती थीं। वह आपको डूबने नहीं देती थी। शायद वे चाहते थे कि हम उनकी शायरी में डूबे नहीं तैरें। कुछ उद्यम करें। पानी को पहचाने, धारा के विपरीत तैरने की कोशिश यानी उन्हें समझने की, उनकी शायरी को समझने कोशिश करें। जर्मनी के प्रसिद्ध नाट्यकार बर्तोल्तब्रेख्त कहते हैं, कि उन्हें अच्छा नहीं, समझदार अभिनेता चाहिए। राहत साहब को भी समझदार श्रोता और दर्शक चाहिए होते थे, इसीलिए वे उन्हें उस तन्द्रा जिसकी वजह वे खुद ही थे ऐसे बाहर निकालना चाहते थे। वे हमें अपने से दूर करके अपनी शायरी से जोडऩा चाहते थे, समझदार बनाना चाहते थे।
एक और बात जो उन्हें बेहद महत्वपूर्ण बनाती है, वह है,
‘जो तौर है दुनिया का उसी तौर से बोलो,
बहरों का इलाका है, जरा जोर से बोलो।’
उनका सुनाने का अंदाज कमोबेश यही तो जतलाता चाहता था। राहत भाई की शब्द संरचना अपने आप में अनूठी थी वे तमाम प्रचलित शब्दों को नए सिरे से डालने में माहिर थे। इस शेर को ही लीजिए,
‘अपने हाकिम की फकीरी पे तरस आता हैए
जो गरीबों से पसीने की कमाई मांगे।’
या फिर इस शेर को देखें
‘उसकी याद आई है सांसों जरा आहिस्ता चलो,
धडक़नों से भी इबादत में खलल पड़ता है।’
राहत भाई ने अपनी धडक़ने रोक लीं, पर वह हमसे इबादत जारी रखने की उम्मीद रख गए हैं। एक रचनात्मक व्यक्तित्व की अमरता का मानदंड तय कर पाना बेहद कठिन कार्य है। परंतु उनके लेखन की सहजता कई बार महानकथाकार प्रेमचंद की याद दिलाती है। कितना मुश्किल होता है सहज होना, सरल लिखना और ऐसा लगातार लिखते रहना। ऐसा शायद तभी संभव है जब आप जान लें कि,
‘दोस्ती जब किसी से भी की जाए,
दुश्मनों की भी राय ली जाए।’
वे किसी को अपना बनाते-बनाते अपने विलोम को नजरअंदाज नहीं करते। इन पंक्तियों को देखें-
श्रोजपत्थर की हिमायत में गज़़ल लिखते हैं,
रोज शीशे से कोई काम निकल आता है।’
अपने आपको किसी ध्वंस से रोक लेने का इससे बेहतर तरीका और क्या हो सकता है। उनका सिद्ध होना इस बात का सबूत है कि वे तीन जीवंत पीढिय़ों के पसंदीदा शायर हैं। वे बहुत शिद्दत से कहते हैं,
‘यह हादसा तो किसी दिन गुजरने वाला था,
मैं बच भी जाता तो एक रोज मरने वाला था।
मगर फि राक साहब कहते हैं,
‘यह माना जिंदगी चार दिन की, बहुत होते हैं यारों चार दिन भी। राहत भाई की सांसों से हमारा साथ भले ही चार दिन का रहा हो लेकिन उनकी रूह यानी शायरी से तो अनंत तक साथ बना रहेगा।
-रमेश अनुपम
रतनपुर में जो तीन रत्न हुए उनमें से एक हैं बाबू रेवाराम। रतनपुर के अनमोल रत्न बाबू रेवाराम की गाथा के बिना छत्तीसगढ़ की खोज संभव नहीं है।
बाबू रेवाराम बहुमुखी प्रतिभा के धनी साहित्यकार थे। संस्कृति के क्षेत्र में भी उनके असाधारण योगदान को भुलाया नहीं जा सकता है।
रतनपुर और छत्तीसगढ़ की जगह अगर वे किसी अन्य प्रदेश में जन्म लेते, तो उनकी स्मृति में क्या कुछ नहीं हो गया होता। अब तो रतनपुर में ही उनकी कीर्ति गाथा को जानने वाले कितने लोग बचे होंगे, यह कह पाना कठिन है।
जिस रतनपुरिया गम्मत को उन्होंने जन्म दिया और पल्लवित किया उसे ही आज छत्तीसगढ़ में जानने वाले कितने लोग होंगे?
जिस साहित्यकार के लिखे हुए भजन के बिना आज भी रतनपुर में कोई सामाजिक या धार्मिक अनुष्ठान पूर्ण नहीं होता है, उस बाबू रेवाराम को आज छत्तीसगढ़ में कौन याद करता है?
छत्तीसगढ़ की प्राचीन राजधानी रतनपुर में सन 1813 में जन्म लेने वाले बाबू रेवाराम हिंदी, संस्कृत, मराठी और फारसी भाषा के विद्वान थे।
बाबू रेवाराम रतनपुर के स्कूल में शिक्षक थे। उन्होंने हिंदी, संस्कृत और फारसी में लगभग तेरह ग्रंथों की रचना की है। इसके साथ ही ज्योतिष शास्त्र में भी बाबू रेवाराम को महारत हासिल थी।
संस्कृत में उन्होंने पांच अमूल्य ग्रंथों की रचना की है ‘सार रामायण दीपिका’, ‘ब्राह्मण स्रोत’, ‘गीत माधव’, ‘नर्मदाष्टक’ तथा ‘गंगा लहरी’।
हिंदी में लिखे काव्य ग्रंथों में ‘रामाअश्वमेध’, ‘विक्रम विलास’, ‘रत्न परीक्षा’, ‘दोहावली’ , ‘मातासेवा के भजन’ और ‘कृष्ण लीला गुटका’ प्रमुख हैं।
इसके अतिरिक्त ‘लोक लावण्य वृत्तांत’ तथा ‘रतनपुर का इतिहास’ उनके दो प्रमुख ग्रंथ हैं।
बाबू रेवाराम द्वारा लिखित ‘कृष्ण लीला गुटका’ को रतनपुर तथा आस-पास के गावों में उसकी हस्तलिखित प्रति बनाकर एक धार्मिक ग्रंथ की तरह सहेज कर रखा जाता रहा है।
रतनपुर निवासी बाबू रेवाराम द्वारा लिखित कृष्ण लीला भजन को रतनपुर तथा आस-पास के गांवों में प्रत्येक धार्मिक पर्व तथा अनुष्ठान के अवसर पर गायन, वादन और नर्तन के द्वारा प्रस्तुत किया जाता रहा है।
एक छोटी सी जगह में रहते हुए बाबू रेवाराम ने जिस तरह से साहित्य साधना की, वह विरल और प्रणम्य है।
आज यह सोचकर हमें विस्मय हो सकता है कि उन्नीसवीं शताब्दी में रतनपुर में बैठकर एक साहित्य साधक किस तरह से संस्कृत, हिंदी और फारसी की रचना में निमग्न रहा होगा।
शारीरिक व्याधि से पीडि़त एक साहित्य सर्जक किस तरह से सरस्वती की एकांतिक आराधना में लीन रहे होंगे, बिना लोगों के उपालंभ की परवाह किए।
छत्तीसगढ़ की माटी के इस महान सपूत ने गम्मत की एक नई परंपरा को जन्म दिया जिसे रतनपुरिया गम्मत के नाम से जाना गया। रतनपुरिया गम्मत कभी इस प्रदेश की जान, शान और पहचान रहा है।
पर दुखद यह कि जिस तरह से छत्तीसगढ़ की बहुमूल्य लोक संस्कृति, संस्कृति विभाग के कूपमंडुक अधिकारियों और कर्मचारियों की लोक संस्कृति के प्रति अज्ञानता तथा बेरुखी के चलते लुप्त होती चली गई, उसी तरह रतनपुरिया गम्मत और रहस भी इन्हीं अधिकारियों के चलते लुप्त प्राय होता चला गया।
नाचा, भरथरी, बांसगीत, चंदैनी का हश्र आज हम सब देख ही रहे हैं।
बाबू रेवाराम की साहित्यिक-सांस्कृतिक विरासत को सहेजने, समेटने में प्रदेश के संस्कृति विभाग की क्या भूमिका रही है ? यह भी इनसे पूछा जाना चाहिए।
बाबू रेवाराम की मेधा को पंडित लोचन प्रसाद पांडेय बखूबी पहचान गए थे। वे बाबू रेवाराम को छत्तीसगढ़ का प्रथम गद्य लेखक मानते हैं। उनके मतानुसार ‘रतनपुर का इतिहास’ इस प्रांत (सी.पी.एंड.बरार) का प्रथम गद्य रचना है। उन्होंने इसका रचनाकाल सन 1856 माना है।
कहा जाता है कि रतनपुर के दाऊ कृपाराम के जीवन काल में एक बार पंडित लोचन प्रसाद पांडेय का रतनपुर आगमन हुआ था। पंडित लोचन प्रसाद पांडेय बाबू रेवाराम के जन्मस्थल तक गए जो उस समय तक एक खंडहर में तब्दील हो चुका था, उन्होंने वहां की मिट्टी को अपने माथे पर लगाया और उस भूमि को दंडवत प्रणाम किया।
रतनपुर के इस अनमोल रत्न का देहावसान सन 1873 में साठ वर्ष की आयु में हुआ।
रतनपुर आज भी उनके रतनपुरिया गम्मत, उनके रहस, उनके कृष्ण लीला, मातासेवा के भजन तथा उनके द्वारा रचित अनेक अन्य भजनों और गीतों को अपने प्राणों में समेटे हुए है।
उस महान साहित्यकार और छत्तीसगढ़ के अनमोल रत्न बाबू रेवाराम को श्रद्धांजलि स्वरूप उन्हीं की दो रचनाएं (हिंदी तथा फारसी में ) यहां प्रस्तुत है-
‘जावो जावो री दीवानी बृज नारियां
बृज नारियां सुकुमारियां
मतबारियां दिलदारियां
तुम्हें लाजहुं न आई
निज सुत गहि लाई
अस कहत
तिहारी ये कन्हईया
मेरो नन्हा सा मुरार
देखो खेलन पगार
किसने कियो तेरो गृह लंगराइयाँ
तुम जोबन की माती
सब पर छर घाती
चलो हटो नहि देऊंगी मैं गारियां’
‘आशिक यार दिदार दोस्त
सकुनत
जो थी अव्वल कास ही
जो जाहिर भर मस्त
मुससिल हुई
यारी दिदारी जिमन
दानाई दिन बढै़ नरमई
नादा नंदा निस्तदा
नादानी हस्बुल हरे कन
नहिं
जी किस्त मुस्तै दही।’
(अगले सप्ताह छत्तीसगढ़ का अनमोल सपूत और हिंदी सिनेमा का महानायक किशोर साहू...)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
हमारे विपक्षी दल एकजुट होने के लिए क्या-क्या द्राविड़ प्राणायाम नहीं कर रहे हैं? अब कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने 20 अगस्त को विपक्षी दलों के शीर्ष नेताओं की बैठक बुलाई है। इसके पहले कांग्रेसी नेता कपिल सिब्बल ने अपने घर पर विपक्षी नेताओं का प्रीति-भोज रखा था, जिसमें लगभग सभी दलों के नेता थे, सिवाय सोनिया और राहुल के। उसके पहले ममता बेनर्जी और शरद पवार ने भी विरोधी दलों को एक करने की कवायद की थी। यों भी पूर्व प्रधानमंत्री ह.डो. देवगौड़ा भी विरोधी नेताओं से बराबर मिलते जा रहे हैं। संसद के दोनों सदनों को ठप्प करने और हुड़दंग मचाने में विपक्षी नेताओं ने जिस एकजुटता का प्रदर्शन किया है, वह अपूर्व है लेकिन इन सब नौटंकियों का नतीजा क्या निकलेगा ? इसमें शक नहीं कि विपक्षी दल जिन मुद्दों को उठा रहे हैं, उनका जवाब देने में सरकार कतरा रही है और उसका बर्ताव लोकतांत्रिक बिल्कुल नहीं है।
यदि उसमें लचीलापन और अंहकारमुक्तता होती तो वह पेगासस-जासूसी और किसान समस्या पर विपक्ष के साथ बैठकर नम्रतापूर्वक सारे मामले को सुलझा सकती थी लेकिन पक्ष और विपक्ष दोनों दंगलप्रेमी बन चुके हैं लेकिन असली सवाल यह है कि क्या विपक्ष एकजुट हो पाएगा और क्या वह मोदी सरकार को हटा सकता है? पहली बात तो यह कि देश के कई राज्यों में विपक्षी दल आपस में ही एक-दूसरे से भिड़े हुए हैं। जैसे उप्र में कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, बसपा में तथा केरल में कम्युनिस्ट पार्टी और कांग्रेस में सीधी टक्कर है। कुछ अन्य राज्यों में विरोधी दल ताकतवर हैं लेकिन वे तटस्थ हैं। दूसरा, विरोधी दलों के हाथ कोई ऐसा मुद्दा नहीं लग रहा है, जो आपात्काल या बोफोर्स या राम मंदिर या भारी भ्रष्टाचार— जैसा हो, जिन्होंने इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, नरसिंहराव या मनमोहनसिंह के खिलाफ जनमत तैयार कर दिया हो और विरोधी दलों को एक कर दिया है। तीसरा, इस समय विरोधी दलों के पास कोई जयप्रकाश नारायण जैसे सर्वस्वत्यागी नेता नहीं है।
उनके पास विश्वनाथप्रतापसिंह की तरह भाजपा में कोई बागी नेता भी नहीं है। विरोधी दलों के पास अटलबिहारी वाजपेयी की तरह सर्व-स्वीकार्य उदारपुरुष भी कोई नहीं है। उनके पास चंद्रशेखर या लालकृष्ण आडवाणी की तरह भारत-यात्रा करनेवाला भी कोई नही हैं। यह ठीक है कि नरेंद्र मोदी का राज 40 प्रतिशत से भी कम वोटों पर चल रहा है और भाजपा का भी कांग्रेसीकरण हो चुका है। मोदी सरकार में देश की समाज-व्यवस्था और अर्थ-व्यवस्था में बुनियादी परिवर्तन करने की क्षमता भी नहीं है। वह नौकरशाहों पर निर्भर है। लेकिन 60 प्रतिशत वोटोवालें विपक्षी दल ऐसे लगते हैं, जैसे कई लकवाग्रस्त मरीज मिलकर किसी पहलवान को पटकने की कोशिश कर रहे हैं।
(नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
यह देखकर तो अच्छा लगा कि संसद के दोनों सदनों ने अन्य पिछड़ा वर्ग की जनगणना के विधेयक को शांतिपूर्वक पारित कर दिया। अब राज्यों को यह अधिकार मिल गया है कि वे अन्य पिछड़े वर्ग की जन-गणना करवा सकें। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को उलटने का अधिकार राज्य को देकर संसद ने असाधारण कार्य किया है। यह फैसला संसद के दोनों सदनों ने सर्वसम्मति से किया है। पिछले 75 साल में ऐसे कितने कानून बने हैं, जिनका विरोध या सुधार (संशोधन) एक भी सदस्य ने नहीं किया है?
यह ऐसा ही विलक्षण कानून है। ऐसा क्यों हुआ ? खासकर तब जबकि संसद के सदन निरंतर स्थगित होते रहे, कागज फाड़े गए, शीशे तोड़े गए, सांसदों ने मार-पिटाई भी की और राज्यसभा-अध्यक्ष तंग आकर रो भी पड़े। ऐसा हमारी संसद में पहले कभी नहीं हुआ लेकिन ऐसी अराजकता के बीच पक्ष और विपक्ष पिछड़ों की जन-गणना के मुद्दे पर एक क्यों हुए ? क्योंकि वे पिछड़ों के वोट थोक में चाहते हैं। उनकी राजनीति का आधार जातिवाद बन गया है। जातिवाद के इस हम्माम में सभी नंगे है।
प्रधानमंत्री ने तो अपने नए मंत्रिमंडल के सदस्यों का जातिवार परिचय करवाने में भी कोई संकोच नहीं किया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी उक्त जनगणना का दो-टूक समर्थन कर दिया जबकि बिहार के चुनाव के दौरान संघ-प्रमुख ने जातीय आरक्षण का विरोध किया था। यह गणना सरकारी नौकरियों में कितनी तकलीफ पैदा करेगी, इसका अंदाज हमारे सांसदों को शायद नहीं है। 2012 में सरकार ने 30 लाख लोगों को नौकरियां दी थीं लेकिन 2020 में उसकी संख्या सिकुड़कर 18 लाख रह गई।
हर साल आरक्षित नौकरियों की संख्या लाखों में नहीं होती। मुश्किल से हजारों में होती हैं। वे कई थोक जातियों में बंट जाती हैं। अन्य पिछड़ों को पाँच-सात सौ नौकरियों के लालच में फंसाकर देश के 80-90 करोड़ वंचितों और दलितों के थोक वोट पटाने के धंधे में सभी पार्टियां जुटी हुई हैं। यह उनके साथ बड़ा धोखा है। कुछ सौ लोगों को विशेष अवसर और करोड़ों लोगों को उनकी बदहाली में सडऩे देना कौनसा न्याय है? लेकिन इस मौके पर सबसे खुशी इस बात की है कि सामाजिक न्याय मंत्री ने साफ़-साफ़ शब्दों में कहा है कि फिलहाल सरकार का जातीय जनगणना करवाने का कोई इरादा नहीं है और 2011 की जातीय जनगणना के आंकड़ों को सार्वजनिक नहीं किया जाएगा।
जब मैंने 2010 में जातीय जनगणना के विरुद्ध आंदोलन छेड़ा था तो लगभग सभी दलों ने उसका समर्थन किया था और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने जातीय जनगणना बीच में ही रुकवा दी थी और उसके जो भी आंकड़े उपलब्ध थे, उन्हें भी प्रकट न करने की घोषणा कर दी थी। मोदी सरकार को 'मेरी जाति हिंदुस्तानीÓ आंदोलन की तरफ से हार्दिक बधाई। मुझे उम्मीद है कि सरकार अपने इस संकल्प से डिगेगी नहीं।
(नया इंडिया की अनुमति से)
2011 की जनगणना के अनुसार आदिवासियों (अनुसूचित जनजातियों) की जनसंख्या 10,42,81, 034 है। वह देश की कुल जनसंख्या का 8.6 प्रतिशत है। बोलियों, भाषाओं, जनसंख्या तथा रहन-सहन आदि को लेकर आदिवासियों में कई विविधताएं हैं। पूर्वोत्तर राज्य समूह मोटे तौर पर तिब्बती, बर्मन, माॅन-खमेर तथा भारतीय-यूरोपीय जैसे तीन मुख्य समूहों में वर्गीकृत किये जाते हैं। कुछ जनजातियां बहुत पिछड़ेपन के कारण अतिसंवेदनशील जनजातीय समूहों में रखी गई हैं।
आदिवासियों ने राष्ट्रीय जीवन में ज्यादातर एकांत में रहते सुदूर तथा बीहड़ जंगली क्षेत्रों में लगभग आत्मनिर्भर जीवन व्यतीत किया है। प्रशासनिक तंत्र उनको अलग थलग रखने और राष्ट्रीय जीवन की मुख्यधारा से नहीं जोड़ने की रुचि में रहता आया है। स्वतंत्रता के बाद संविधान ने जनजातीय लोगों को विशेष दर्जा देने के लिए कई प्रावधान बनाए। संसद ने कई सुरक्षात्मक कानून बनाकर उनके हितों को सुरक्षित रखने के लिए सजग प्रयास किये। सभी कोशिशों के बावजूद सच यही है कि आदिवासियों के जीवन स्तर में केवल मामूली सुधार आ पाया है। अनुसूचित जनजाति का मानव विकास सूचकांक (एच.डी.आई.) बाकी जनसंख्या की तुलना में बहुत कम है। साक्षरता दर में भी अंतर बहुत है। गरीबी रेखा के नीचे अन्य समुदायों की अपेक्षा अनुसूचित जनजातीय परिवार ज्यादा हैं। आरक्षण के प्रावधान के बावजूद सरकारी नौकरियों में उनका प्रतिशत उनकी जनसंख्या के अनुपात में नहीं ही है। इस तरह उनकी हालत बाकी लोगों की अपेक्षा काफी खराब है।
आदिवासियों के लिए बनाए गए (1) अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 (FRA), (2) अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989, (3) निःशुल्क और अनिवार्य बाल शिक्षा (आरटीई) अधिनियम, 2009, (4) भूमि अर्जन, पुनर्वास और पुनरव्यवस्थापन में उचित प्रतिकर और पारदर्शिता अधिकार अधिनियम, 2003, (5) पंचायत के प्रावधान अनुसूची क्षेत्रों में विस्तारण अधिनियम, 1996 (PESA), तथा (6) संविधान की पांचवीं एवं छठी अनुसूची के प्रावधान कठोरतापूर्वक लागू नहीं किये जाते। उसके चलते उनके विधिक अधिकारों का उल्लंघन होता है।
जनजातियों में साक्षरता की कमी है। आदिवासी अपने कल्याण हेतु सरकार द्वारा चलाई जा रही योजनाओं की जानकारी नहीं रखते। कई जनजातीय लोग कथित रूप से नक्सली कहकर जेलों में डाले जाते हैं। न्यायिक कार्यवाहियां तो जनजातियों को अदालतों में डराती ही हैं। वे प्रशासनिक अराजकता से भी पीड़ित होते हैं। कई अनुसूचित जनजातियां वनवासी हैं। उनके निवास क्षेत्र आरक्षित वन तथा सुरक्षित वन घोषित कर दिए गये हैं। उन्हें बिना मुआवजा हटा दिया जाकर बेदखल कर दिया जाता है। सभी जनजातियां अनुसूचित जनजातियों का दर्जा भी नहीं प्राप्त कर सकी हैं। इसके चलते इन जनजातियों की हालत खराब है। उन्हें पांचवीं अनुसूची एवं पेसा के प्रावधानों द्वारा दिए गये अधिकार एवं सुरक्षा नहीं मिलते। इन वर्गों के लिए वन अधिकार अधिनियम ढीले ढाले तौर पर लागू किया है।
जंगल तथा पहाड़ियां जनजातीय पहचान के मुख्य स्त्रोत हैं। भूमियों का एक बड़ा भाग वन क्षेत्रों में आता है। दूरदराज क्षेत्र की अधिकतर जनजातियां उन जमीनों में बिना किसी अधिकार, हक हुकूक एवं हित के वन भूमि पर रहती आई हैं। उन बेघर जनजातियों हेतु वन अधिकारों की मान्यता अधिनियम, 2006 के अंतर्गत उनके अधिकारों की सुरक्षा एवं बसाहट हेतु कोई स्पष्ट और अमलकारी विधिक प्रावधान नहीं हैं। भूमि अधिग्रहण, पुनरुद्धार एवं पुनर्वास में उचित मुआवजे एवं पारदर्शिता अधिकार अधिनियम 2013 के तहत जनजातियों को दिया गया मुआवजा अक्सर कम होता है। जनजातियों के साथ एक अन्य समस्या और है। भूमि पर एकल अधिकार की जगह वे सामुदायिक अधिकार में विश्वास रखते हैं। इसलिए भूमि संबंधित मामलों में उनके पास स्वामित्व का लिखित प्रमाण नहीं होता। जनजातियों के दावे अधिकतर मौखिक साक्ष्य पर ही आधारित होते हैं। नतीजतन उनके मालिकी हक स्थापित करने में कठिनाइयां उत्पन्न होती हैं। जनजातियों को प्रमाणीकरण एवं दावों के निपटारे के पहले ही बेदखल कर दिया जाता है। इसके चलते उनकी आर्थिक स्थिति और पारंपरिक वन प्रथाओं में गिरावट आ रही है।
शिक्षा, टरेनिंग, नगरी सभ्यता से वंचित तथा औपचारिक संचार संसाधनों वगैरह की कमी के बावजूद आदिवासी वन के एडवेंचर पर ही निर्भर रहा है। आदिवासियों ने सदियों में दुर्लभ खेती करने की अपनी पद्धति का आविष्कार भी कर लिया। खेती भी उनके आर्थिक जीवन का एक बुनियादी साधन है। कृषि की कई नई देशज तक्नालाॅजी और प्रविधियों को भी उन्होंने एक तरह से स्वयमेव ईजाद किया। उनकी दैहिक तथा दैनिक जरूरतें न्यूनतम होती हैं। उन्हें आजकल के लोकप्रिय अंगरेजी शब्द ‘मिनिमल‘ (अल्पतम) के अर्थ में औद्योगिक पश्चिमी सभ्यता के दंश से पीड़ित लोग भी आदत में शुमार कर रहे हैं।
सुंदर और दुरूह पहाड़ियों तथा जंगलों के माहौल में आदिवासी न जाने हजारों वर्षों से जीवित और स्वायत्त रहते आए हैं। प्रकृति के कई आकस्मिक प्रकोप मसलन भूकंप, ज्वालामुखी, भूस्खलन, सूखा, अतिवृष्टि वगैरह भी उन्हें विचलित नहीं कर पाए। प्रकृति को जीतने का उनमें न तो कोई नवसाम्राज्यवादीनुमा अहंकार रहा और न ही उन्होंने उस प्रकोप को खुद की किसी पापजनित गतिविधि का दंड समझा। राज्य की किसी भी केन्द्रीय शक्ति या संस्था से उनका सरोकार बेरुख होने के कारण नहीं रहा है। राज्यशक्ति ने भी उनसे भौतिक, सामाजिक और आधिकारिक दूरी बनाए रखी। हालांकि उन्हें उपेक्षित करने का विचार शुरुआती राज्यतंत्र का अनिवार्य अंग भी नहीं बना।
भारतीय आदिवासी जीवन में सबसे पहला, बड़ा, परिणामकारी और घुमावदार मोड़ ब्रिटिश हुकूमत के भारत में पैर जमाने के बाद आया। आदिवासियों ने कथित नागरिक सभ्यता के धारकों से कहीं पहले वीरोचित अर्थ में बर्तानवी अत्याचार का खुलकर मैदानी मुकाबला भी किया। ब्रिटिश शासन ने ‘अपवर्जित क्षेत्र‘ और ‘आंशिक अपवर्जित क्षेत्र‘ का वर्गीकरण आदिवासी इलाकों के लिए प्रशासनिक व्यवस्था को चुस्तदुरुस्त करने की आड़ में किया। पूर्वोत्तर राज्यों के लिए ‘अपवर्जित क्षेत्र‘ और शेष भारत के आदिवासी इलाकों के लिए ‘आंशिक अपवर्जित क्षेत्र‘ की शासकीय परिभाषा रची गई। संविधान की छठी अनुसूची इसी बात को ध्यान में रखकर पूर्वोत्तर के सघन आदिवासी इलाकों के संदर्भ में अधिनियमित की गई। उसके तहत आदिवासियों की परंपराओं, रूढ़ियों, संस्कृति, सामाजिक प्रबंधन, आर्थिक तंत्र और वन तथा वनोत्पादों के अधिकारों सहित कृषि के पुराने पैटर्न ने कम से कम मात्रा में छेड़छाड़ करना शामिल किया। शेष भारत के आदिवासी क्षेत्रों के लिए पूर्वोत्तर के मुकाबले नागर सभ्यता से बेहतर संपर्क, आवागमन के साधन, अन्य संचार व्यवस्था, भौगोलिक रचना और ज्ञात अज्ञात कई कारणों से पांचवीं अनुसूची की रचना का कूटनीतिक फैसला ब्रिटिश बुद्धि की प्रेरणा से भारतीय संविधान सभा ने अधिनियमित कर दिया। उसके अनुसार केन्द्र अथवा राज्य शासन तथा राज्यपाल के संवैधानिक उत्तरदायित्व के तहत आदिवासी विकास के नाम पर उनकी कथित यथास्थिति की सदियों पुरानी जीवन पद्धति को ही खंडित कर दिया।
भारत वैसे भी सदियों से ग्रामीण सभ्यता, लोकसंस्कृति, गणतांत्रिक व्यवस्था, प्रकृति-निर्भर जीवन पद्धति और नए जीवन मूल्यों को विकसित करने की प्रजातांत्रिक परंपराओं से जूझते रहने का इतिहास रचता रहा। इतर आदिवासी इलाके के ग्रामीण क्षेत्रों तथा उनके बरक्स आदिवासी इलाकों में परिवर्तन के ढांचे के मूलभूत तत्वों में काफी अंतर देखने में आता रहा है। नागर सभ्यता में वर्ग और वर्ण की व्यवस्था के उद्भव तथा विकास हो जाने के कारण समाज अपने तकनीकी, तात्विक, वास्तविक और संगठनात्मक स्तर पर विभाजित और खंडित होते होते अब तो लगभग खंडित हो ही गया है।
आदिवासी जीवन की आवश्यकताएं शासकीय, शहरी या अन्य तथाकथित सभ्य इलाके में औपचारिक रूप से विकसित बाजारतंत्र के अर्थशास्त्र पर निर्भर नहीं रही हैं। न ही उन्हें उसकी ज़रूरतें महसूस हो पाईं। एक लंबे अरसे तक उनके लिए कुदरत और जंगल तथा अन्य वन स्त्रोत और वन-उत्पाद ही सामाजिक, आर्थिक और वास्तविक जीवन का आधार रहे हैं। उनमें गरीब और अमीर, साधनसंपन्न और साधनविहीन, उच्च वर्ग या अकिंचन जैसे अन्दरूनी भेद विभेद नहीं रहे। इस कारण उनका कोई एक उपवर्ग या हिस्सा गरीबी और भुखमरी की कगार पर खड़ा होने को मजबूर नहीं हुआ। इसके ठीक उलट आधुनिक सभ्यता ने विभाजन, विग्रह और विसंगत दंश झेले हैं। शासक, नगरसेठ, नौकरशाह, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, दलित, अछूत और अकिंचन जैसे सैकड़ों शहरी विशेषण हैं। ये कथित विकसित और आधुनिक सभ्यताओं के माथे पर कलंक की तरह चिपकाए जा सकते हैं। जंगल आदिवासी के केवल आर्थिक सहकार का परिवेश नहीं रहा। अपनी प्राकृतिक संरचना के कारण आदिवासी जीवन संगीत, संस्कृति, कलात्मक उद्भव और पशु पक्षियों के प्रति प्रेम और अनुकूलन जैसी अब तक अबूझ और अनोखी अंतर्लय को विकसित करते रहने का विश्वविद्यालय होता गया है। जंगल से आदिवासी का विलग होना कल्पनातीत बात रही है। उसने कभी भी वन की सरहदों को लक्ष्मणरेखा की तरह स्वीकार नहीं किया। ब्रिटिश हुकूमत व्यवस्था से शुरू होकर आज तक उसी शासन पद्धति का दबदबा कमोबेश कायम है। इस प्रकल्प का भारतीय आदिवासी जीवन पर सीधा और घातक असर अंगरेजों के शासन काल से शुरू होकर स्थायी होता लग रहा है।
आदिवासियों ने सदियों में सिद्ध किया कि जीवन की सामूहिकता, मनुष्यों की अंतनिर्भरता के साथ साथ सामाजिक मूल्यों के उद्भव, विकास और अनुपालन के लिए अकादेमिक शिक्षण, मशीनी शासन तंत्र और जीवन मूल्यों को समझने की दृष्टियों के उन्नयन की आड़ में विग्रहों को अंतस्थ करना कतई आवश्यक नहीं है। आदिवासी को तथाकथित विकास योजनाओं के नाम पर सदियों से निवास कर रहे स्थानों से बेदखल करना, उन्हें आवासहीन बनाकर शहरी परिवेश में लगभग प्रदूषित इलाकों में स्थानांतरित कर मजदूरी वगैरह के अनिच्छुक कामों में जबरिया खपा देना और आदिवासी इलाकों में सिंचाई उद्योग, वन प्रबंधन, विद्युत वगैरह के कई उपादानों का काॅरपोरेटी सरंजाम खड़ा कर आदिवासी क्षेत्रों की सामाजिक संरचना को शहरी संपर्क से जोड़कर क्षतिग्रस्त करना भी तो हुआ।
यूरोपीय जीवन पद्धति, विदेशों में आवागमन तथा शिक्षण और व्यापार के लिए भारतीयों का प्रवास, आर्थिक व्यवस्था में मशीनीकृत ढांचे का उपयोग और उद्भव, शिक्षा के ढांचे में मूलभूत और मशीनी व्यवस्था पर निर्भर तंत्र आधारित विकास, व्यापार के नाम पर बाजारवाद का नया ककहरा ये सब कारक रहे हैं। ऐसे सोच को जब भारतीय शहरी साभ्यतिक जीवन से ही कोई परहेज नहीं था, तो आदिवासियों की निपट निरक्षरता, सादगी, अहिंसकता और मासूमियत के रहते उनका शोषण कर लेना अपेक्षाकृत सरल था।
एक कुटिल विधायन भारतीय वन अधिनियम के नाम से किया गया। आदिवासियों के पुश्तैनी व्याकरण में छूट, कंसेशन, लाइसेंस, परमिट, अनुमति आदि नए शब्दों को ठूंसते उनमें अधिकारविहीनता, लाचारी, निराशा और लुट जाने का मनोवैज्ञानिक भावबोध इंजेक्ट कर दिया गया। प्रशासनिक कुटैव द्वारा लादी गई यह मानसिकता तात्कालिक नहीं, स्थायी चरित्र की हो गई है। आजादी के बाद जनप्रतिनिधियों द्वारा रचित इतिहास के पहले संविधान में भी वह समीकरण हल नहीं किया गया जो पेचीदा प्रबंधन अंगरेज स्वातंत्र्योत्तर भारत के शासकों को सौंप देने के लिए कैबिनेट मिशन योजना के कुटिल चक्र में फंसाकर चले गए थे। कुदरती परंपराओं, स्मृति संचयन, व्यावहारिक बुद्धि और आंतरिक आग्रहों को दाखिलखारिज करते वन विभाग नाम का शासन तंत्र का प्रतिनिधिक रोबोट आदिवासी जीवन की मुश्कें बांधने के लिए जंगलों का एकाधिकारी बना दिया गया। जैसे जैसे समय बीतता गया। सरकारी बेड़ियां आदिवास को अपनी भृकुटि, तांत्रिकता, शोषण और दोहन की मुद्राओं में लगभग क्रूर होकर जकड़ती चली गईं। नए दौर के युवा आदिवासियों तथा कई ठूंठ बना दी गई पुश्तैनी व्यवस्थाओं ने यह भी अहसास कर लिया है कि शासन उनके पुश्तैनी आत्मानुशासन के मुकाबले शायद श्रेष्ठतर विकल्प है। उसके सामने झुकने और आज्ञाकारी बनते रहने के अलावा अब उनके जीवन में कोई ठौर नहीं है।
शासनतंत्र जानबूझकर ऐतिहासिकता पर क्रूरता का पोचारा फेरता रहा है कि व्यापक भारतीय सामाजिक जीवन का सबसे ज्यादा अनोखा, मानवीय, प्रकृतिसंपन्न, दार्शनिक वृत्तियों का जीवनांश ही यादों के इतिहास से धुंधला होता होता पूरी तौर पर मिटाया जा रहा है। सत्ता नाम का शब्द सभ्यता, संस्कृति, संगीत, सामाजिकता और सामूहिकता पर इस कदर हावी हो गया है जैसे मनुष्य जीवन के सभी स्वाभाविक अवयव अपनी निर्दोषिता, मासूमियत और सकारात्मकता के बावजूद मानो किसी आॅक्टोपस की जकड़ में कैद हो जाएं।
आदिवासी जीवन में हस्तक्षेप करने उसके विस्थापन का भ्रूम इंजेक्ट कर दिया गया। ऐसे तिलिस्म के भविष्य की आदिवासी कल्पना ही नहीं कर सकता था। भूमि का आदिवासी-अर्थ उसके लिए ऐसा क्षेत्र या इलाका है, जहां सहकार और सामूहिकता के जरिए ही संपत्ति का बोध उसके सामाजिक अधिकार का अहसास बनकर उसमें समाता रहा है। सरकारी हुक्मनामे के कारण आदिवासी अपनी पुश्तैनी समझ से ही बेदखल कर दिया गया। उसे समझ नहीं आया कि जिस भूमि पर वह कभी कभार, यूं ही या अमूमन हर सम्भावित स्थिति में भी समाज के अंश के रूप में काश्त करता था, अब भूमि का उतना टुकड़ा ही उसका खुद का अधिकार कहलाएगा। यह तो भूमिस्वामी को ही एक तरह से खुद की भूमि का नया मुख्तारनामा पाना सिद्ध हुआ। उस कथित स्वामित्व का सीधा रिश्ता सरकार नामक अदृश्य लेकिन हर जगह उपस्थित दमनकारी संस्था से हो गया।
मालिक बनी संस्था ने पटवारी नाम का स्थानीय राजस्व अधिकारी बनाया। पटवारी के अधिकार दस्तावेजों, रजिस्टर और कई तरह के कागजातों का अंबार, भूमि के रखरखाव, परिवर्तन, वर्णन या परिभाषित करने के लिए चित्रगुप्त और यमराज के लेखे से कम नहीं थे। पटवारी कागजातों में ही दर्ज हो सकता था कि अमुक भूमि का मालिकी हक, कब्जा, विस्थापन, सरकारी स्वामित्व में ला दी गई भूमियों पर अतिक्रमण, जोत का अधिकार वगैरह शामिल माना जाए।
आदिवासी की खुद ईजाद की गई अर्थव्यवस्था में कई तत्वों का समावेश रहा है। इन सामूहिक गतिविधियों में शिकार करना, कृषि के लिए खेतों या क्षेत्र में परिवर्तन या अदल बदल भी करना, कुछ चुने हुए भूखंडों में स्वेच्छा से सामाजिक समझदारी के तहत खेती करना तथा पशुओं से संबंधित हर तरह की गतिविधि का लगातार उन्नयन करते रहना उसके अर्थशास्त्र के क्रमिक विकास के अलग अलग पड़ाव समझे जाते रहे हैं। गैरखेतिहर गतिविधियों में पेड़ों का बहुत महत्वपूर्ण उपयोग, दोहन तथा निस्तार होता रहा है। राज्य द्वारा इस अर्थशास्त्र को अपने कानूनी तथा अधिनियमित तंत्र से जकड़कर एक तरह से अधिकारों की समझ पर ही डकैती कर दी गई। शुरू में तो यही लगा कि राज्य का अधिकार केवल प्रतीकात्मक तौर पर कायम करने के लिए रचा गया है। फिर दृश्य पर वन विभाग के अधिकारियों का प्रवेश और हस्तक्षेप होने लगा। शांत और स्वैच्छिक चले आ रहे आदिवासी अधिकारों में कटौती कर दी गई। परम्पराओं को नये प्रयोग के सामने घुटने टेकने पर मजबूर किया जाने लगा। आदिवासियों में नया भावबोध उगा कि उनके जीवन के मुख्य लक्षण सामूहिकता को ही खत्म कर दिया जाना नया शगल या फितूर है। उन्हें मजबूर किया गया कि वे जंगल के उत्पादों और परिवेश का उपभोग और दोहन बहुत कम और जरूरी निजी हितों के लिए ही सरकारी नियंत्रण में रहकर कर सकेंगे।
राज्य ने उसे मुद्रा या करेंसी के आंकड़ों की अंकगणित में फंसाते आदिवासी जीवन के अहसास को ही एक तरह से विस्थापित कर नियंत्रित और संकुचित कर दिया। वन का उपभोग तथा प्रबंधन करने के नाम पर कड़े नियमों के जरिए आदिवास को ही जकड़ दिया गया। यह दबाव या हुक्म भी जारी किया गया कि आदिवासी वन अधिकारियों के स्वागत और उन्हें सुविधाएं देने के लिए कानूनबद्ध है। इसके एवज में उसे बतौर टोकन या कभी कभी तो पूूरी तौर से बेगार लेते अहसान से लाद दिया जाता। मानो उसका जीवन अब इन्हीं अनुभवों को महसूस करते रहने के लिए सरकार ने बंधक रख लिया है। सरकारी नियमों और अफसरों के दमन का एक असर और हुआ। उससे त्रस्त होकर कुछ आदिवासियों को यह विकल्प बेहतर और कारगर लगा कि वे और ज्यादा घने जंगलों की ओर पीछे हटते कूच करें जिससे सरकारी षड्यंत्र और आदेशों का कोड़ा उनकी पीठ पर न पड़े। वे उस परिवेश से उखड़ते रहे, जहां वे अपना पुश्तैनी आशियाना बनाए बैठे थे। घने जंगलों में नई बसाहट बनाने की मजबूरियों में उन्हें जीवनयापन के पहले से न्यूनतर साधनों पर गुजारा करने के लिए मजबूर होना पड़ने लगा।
व्यापारिक और औद्योगिक जरूरतों के कारण कुदरती जंगल काटे जाने लगे। पूंजीवाद के इस चेहरे ने सरकारी विधायन को ही अपना केचुल बनाकर उसमें प्रवेश किया। इसी कुटिलता ने आखिरकार अपने ही परिवेश और जीवन की चली आ रही सामूहिकता से आदिवासियों की बेदखली पूरी तौर पर सुनिश्चित कर दी। यदि वह रहना भी चाहता, तो उसे बरायनाम कुछ वेतन या पारिश्रमिक दिया जाकर अहसास कराया जाता कि वह अपने ही क्षेत्र की कुदरत का स्वामी रहा आने के बावजूद सरकारी व्यवस्था में बेबस बना दिया गया है। आदिवासी क्षेत्रों में (स्वाभाविक ही) जनसंख्या का घनत्व बिरला होता है। इस वजह से व्यापारिक पैटर्न पर वन संपत्ति का दोहन शुरू करने के बाद सरकारों को बाहरी मजदूरों को लाने की जरूरत महसूस हुई। बाहरी मजदूरों को कुछ बेहतर वेतन या सेवा शर्तों के प्रलोभन के साथ साथ प्रभावित आदिवासी इलाकों में अस्थायी कारणों के बावजूद भविष्य की स्थितियों के लिए भी बसाहट की तरह रखी जाने लगी। अर्धशहरी क्षेत्रों या अन्य गांवों, कस्बों से लाए गए श्रमिकों का बेहद मासूम और भोले आदिवासियों से थोपा गया सामाजिक सहकार होने की नई परिघटना के कारण आदिवासियों को अपनी मानसिकता में कुंठा और घुटन होनी स्वयमेव महसूस होने लगी। यह जबरिया हस्तक्षेप सरकारों, कानूनों, पूंजीपतियों, नौकरशाहों और चुने हुए लेकिन निहित स्वार्थों के एजेन्ट बनते, लगते आदिवासी जनप्रतिनिधियों के द्वारा भी पुष्पित, पल्ल्वित और पोषित होता रहा। वन विभाग के अधिकारी, प्रबंधक और निगम आदि के वनों के शोषक व्यापारियों के अलग अलग तरह के चेहरे और संस्करण ही रहे हैं। उन्हें पुलिसिया ताकतों से भी लैस किया जाने लगा।
अंगरेजी हुकूूमत के कठोर आदेशों के खिलाफ भारत के इतिहास में सबसे पहले और सबसे ज्यादा मर्दानगी का विद्रोह आदिवासियों ने ही किया है। उन्हें पूरी तौर पर कुचल दिये जाने या दबाये जाने का अहसास और भरोसा अंगरेज हाकिमों को नहीं होता था। फिर भी शोषण की प्रक्रिया बदस्तूर जारी रही। वन क्षेत्रों में लोकनिर्माण के कार्याे जैसे सड़क, पुल, भवन आदि बनाने में आदिवासियों को श्रमिकों के रूप में तब्दील किया जाना भी आवश्यक ही होता रहा। पारिश्रमिक बतौर धन का लालच देने पर भी आदिवासी मजदूर मुनासिब संख्या में काम करने नहीं आते थे। आदिवासी के लिए इस तरह से व्यापक तौर पर नियमित आदत बतौर नयी मूल्य व्यवस्था के तहत शराब पीना नया, निजी और फिर सामाजिक अनुभव बनाया जाता रहा। शहरी सभ्यता ने उनका मनोवैज्ञानिक शोषण करते शराबखोरी के जंगल में उन्हें धकेल दिया। आदिवासी के जीवन में स्वैच्छिक मदिरापान का अपना अनोखा सांस्कृतिक इतिहास और अहसास रहा है। उन्होंने उसे कभी भी उद्योग, व्यापार या सामाजिक दुर्गण नहीं समझा। पहले ब्रिटिश और बाद में भारतीय शहरी सभ्यता की कुटिल निगाहों से उसकी यह मासूम प्रथा भी विकृत की जाने लगी। एक आत्मनिर्भर मदिरा उपभोग की पारंपरिकता को सरकार और व्यवस्था पर निर्भर मदिरापान की नई साजिश में ढाल दिया जाए।
इस तरह आदिवासी समाज को धीरे धीरे कानूनतोड़क समाज में बदलता देखा जाने लगा। मदिरापान किए बिना न तो उसकी जरूरतें, परंपराएं और तीज त्यौहार सार्थक हो सकते थे। न ही वह ऐसे छोटे अपराध किए बिना अपनी मदिरा उपभोग की यथास्थिति कायम रख सकता था। आदिवासी के जीवन में सरकारी अपराधविज्ञान ने पूरी धमक के साथ अपने दखल की दस्तक दी। मुकदमे हजारों की संख्या में पैदा किए जाने लगे जिनका कोई औचित्य नहीं था। वे एक तरह से कैंसर की तरह भी उगाए गए।
शुरूआत में तो आदिवासी के उपचेतन की मानसिकता को सरकार द्वारा ईजाद की या थोपी गई अधिकार हस्तक्षेप की परिघटना असुविधाजनक लगने के बावजूद आपत्तिजनक नहीं लगी। तब तक उसने भी जीवनयापन के लिए उपलब्ध होते रहे सभी तरह के वनउत्पादों के कारण शाल वृक्षों की कटाई को किसी खतरे की घंटी नहीं समझा था। जंगल से आध्यात्मिक तथा मनोवैज्ञानिक रोमांस आदिवासी का सदियों पुराना रोमांचकारी अनुभव रहा है। वह अनुभव धीरे धीरे एक तरह की जीवन-अनुभूति में बदल चुका था। जीवन से ऐसी आंतरिक संगति उसे प्राकृतिक वन-संगीत की सिम्फनी से लबरेज रखती थी। वह आत्मतुष्ट स्वाभाविक जीवन पद्धति का आदी हो चुका था। जंगल उसके जीवन में एक तरह का एडवेंचर, उन्माद, उत्साह और उत्फुल्लता का स्वाभाविक और बुनियादी कारक रहे हैं। उसका यह अहसास आज तक कायम है। सरकारी स्तर पर ठूंस दी गई व्यापारिक नस्ल की शराबखोरी आदिवास के जीवन में बहुत घातक और परिवतर्नकारी हस्तक्षेप होती गई है। वनों का विनाश और ठेकेदारी के जरिए उसका व्यापारीकरण साहूकारों के साथ गलबहियां कर आदिवासी जीवन को उसे नष्ट करने के लिए कैंसर की तरह उगाई गई प्रवृत्तियां ही समझी जा सकती हैं।
नए तरह के तत्व और व्यक्ति आदिवासी जीवन में हस्तक्षेप, प्रयोग, परिवर्तन या प्रोन्नति के नाम पर आए या भेजे गए। जनजातियों को मजबूर किया गया कि अपनी खेतिहर उपजें और कुदरती वन उत्पाद बाजार नामक नई व्यावसायिक एजेंसी को ऐसी दरों पर बेचने के लिए मजबूर हों जिन्हें सरकार और बाजार ने अपने अधिकारों के जरिए खरीदने के लिए तय किया है। आदिवासी तो क्या शहरी नागरिक जीवन को भी कभी समझ नहीं आ पाया कि ऋणग्रस्तता कितना बड़ा स्थायी अभिशाप और किस तरह है। कर्ज में लिये मूल धन की ब्याज सहित अदायगी के बावजूद वह कैसा चक्रवृद्धि ब्याज है जो कर्जदार की गर्दन पर फांसी के फंदे की तरह जल्लाद साहूकारों के हाथों में हर वक्त मचलता रहता है। ऐसे भयावह शोषण की हालत में धीरे धीरे अपने कृषि और वनोपज से वंचित होता, शराबखोरी और ऋणग्रस्तता में जकड़ा जाता आदिवासी समाज उन आधारभूत संरचनाओं तक को बेच देने तक के लिए लाचार कर दिया गया जो उसके जीवनयापन की ही बुनियाद रही हैं। स्त्रियों के शील और सम्मान के प्रति चरित्रवान रहा आदिवासी समाज कथित सभ्य लोगों के कुटैव के कारण उनसे ही स्त्रियों के शील की रक्षा कर पाने में लाचार होना भी महसूस करता रहा। धीरे धीरे उसमें यह मानसिकता तपेदिक के बीमार की तरह घर करती गई कि वह दिखने में तो आदिवासी परंपराओं से संपृक्त लगता अपने अतीत का वर्तमान है, लेकिन दरअसल उसे अपनी स्वायत्तता, इयत्ता, पहचान और प्रकृति से तादात्म्य को लगभग पूरी तौर पर खो देना पड़ा है।
प्रकृतिसम्पन्न जीवन-स्वायत्त आदिवासी धीरे धीरे आर्थिक पैमानों पर गरीब होता चला गया। उसकी कृषि भूमियां भी उससे छीनी जाने लगीं। जिन वनोत्पादों पर वह निर्भर था, वे भी उससे जबरिया खरीद लिए जाते रहे। शहरी सभ्यता का आदिवासी जीवन से पूरी तौर पर अजनबीपन, अपरिचय और अलगाव रहने से उस कथित आर्य नागर जीवन का प्रत्यक्ष आक्रमण वन संस्कृति पर नहीं हुआ था। अछूत या दलित वर्ग की सामाजिक संरचना और जीवनानुभव लेकिन उच्च वर्गों से दैनिक सहकार के साथ अलगाव की मनोवैज्ञानिक स्थितियों के ठहराव के लिए सदियों का समय लगा था। वनों में गैरआदिवासी वर्गसमूह शासक, ठेकेदार, व्यापारी या अन्य चेहरों और चोचलों में पहुंचा। वह अपनी बौद्धिक श्रेष्ठता, सियासी हुनर, आर्थिक तंत्र और व्यापारिक कुटिलता के चलते प्रकृति के सभी स्त्रोतों पर कब्जा जमाता वनों के परिवेश में नया वर्चस्वकारी शासक वर्ग बनता गया। इस वर्ग का शहरी सभ्यता, सरकार, नौकरशाहों, आधुनिक प्रविधियों और उन सब जीवन संसाधनों से सरोकार था जो उसे लगातार समृद्ध बनाते रह सकते थे। सरकार ने तथाकथित कानूनों की रचना के माध्यम से गैरकुलशील समझे जाते अशिक्षित, निरक्षर, मासूम और सीधे साधे आदिवासियों को कानूनी व्यवस्थाओं में जकड़कर इतना लाचार कर दिया कि क्रूर, कुटिल और कथित कुलशील आक्रामकों ने बहुत तेजी से उनकी बर्बादी का दस्तूर कायम रखा।
यह सब अब तो भारत के अनुसूचित जनजाति क्षेत्रों को बेहद तकलीफ के साथ झेलना पड़ रहा है। सरकारी व्यवस्था पर निर्भर होकर उन्हें अपने स्वामित्व से वंचित होकर किराएदार या लाइसेंसधारी बनाने का अजीबोगरीब प्रयोग किया गया है। शिक्षा और आधुनिक समझ से वंचित होने के कारण आदिवासी की बहुमूल्य संपत्तियां औने पौने और बरायेनाम दरों पर खरीदी जाने लगीं। मसलन उसके कब्जे का एक पेड़ काटकर उसे इतने कम मूल्य पर बेचने की समझाइश का कुचक्र रचा गया, मानो वह पेड़ उसके जीवन और अस्तित्व की अतिरिक्तता रहा हो। लकड़ी का एक टुकड़ा भी खेती के लिए हल बनाने के लिए यदि वह काट लेता, तो उसे जंगल विभाग के जंगली कानून वन उत्पाद की चोरी के आरोप में अपनी गिरफ्त में लेकर मुलजिम बनाकर उसका दमन और शोषण करते रहे। यदि वह विरोध करता तो उसे वन अधिनियम के अतिरिक्त भारतीय दंड संहिता के क्रूर कानूनों में परिभाषित कथित अपराधों के चंगुल में गिरफ्तार कर जेलों में ठूंस दिया जाने लगा। वहां से जमानत के अभाव में उसका छूटना लगभग असंभव होता रहा। फिर तो यह भी होता रहा कि निर्धारित अधिकतम सजा की अवधि के बाद भी आदिवासी का जेल से छूटना उसके अज्ञान, अशिक्षा और गरीबी के कारण उसके जीवन प्रारब्ध का अनिवार्य हिस्सा बनाया जाने लगा। बहुत कम संख्या में गैरआदिवासियों के कुछ मानव अधिकार संगठनों के अपवादों को छोड़कर सभ्यता, सरकार और समाजचेता व्यक्तियों से आदिवासियों को अपेक्षित सहायता मिलने का कोई उत्साहजनक या गौरवपूर्ण इतिहास-अनुभव पढ़ने में नहीं आता।
किताबी ज्ञान की तुलना में दुनियावी और प्राकृतिक स्त्रोतों से प्राप्त अनुभव ज्यादा प्रामाणिक होता है। यही तो आदिवास के जीवन ने साक्षर नागर समाज को लगातार अहसास कराया है। विशेषकर जनजातीय क्षेत्रों में सरकारों द्वारा जितने भी प्रोजेक्ट, परियोजनाएं और प्रयोग किए गए, उनमें पहले यह सम्यक परीक्षण नहीं किया गया कि वन जीवन की सभी बारीकियों से ऐसे अभिनव अभियान की कितनी और कब तक सुसंगति बैठ सकती है। कई बार ऐसे कार्यक्रम परिणामधर्मी और युगांतरकारी दिखते भर रहे, लेकिन उनमें खर्च की गई धनराशि के अनुपात में उपलब्धि का आंकड़ा लचर या सिफर ही रहा है। ऐसी भी परियोजनाएं लाई जाती रहीं जिनमें व्यय होने वाला शासकीय भार प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से आदिवासियों या उनके क्षेत्रों पर करारोपण के जरिए वसूल भी किया जाता रहा। आदिवासी तो क्या साक्षर व्यक्ति को भी पता नहीं होता कि वह क्यों और कैसे दस्तावेज पर अपना हस्ताक्षर या अंगूठा किन विपत्तियों को संभावित तौर पर आमंत्रित करने के लिए लगाने अभिशप्त है। फितरतें सरकारी योजनाओं को लगातार असफल करती ऐसे ढर्रे पर आ खड़ी हुई हैं जिन्हें सुधार पाना सरकारों के लिए अब संभव होता भी नहीं दिख रहा है। इसका फौरी दुष्परिणाम आदिवासी इलाकों में सरलता से देखने में आता है।
सरकारें हैं कि मासूम आदिवासियों की लूट के इस जश्न में अब तक लगातार जश्नजूं हैं। प्रशासनिक तंत्र में अधिक आधुनिकीकरण, मशीनीकरण और तकनालाॅजी का उद्भव और विकास हो गया है। वह तो औसत साक्षर नागरिकों तक को भी समझ नहीं आता। उस वजह से आदिवासी इलाकों में तो कथित हितग्राहियों को अपने अधिकारों से ज्यादा तेजी से च्युत होना पड़ रहा है। इसके अतिरिक्त भारत में विधायिका महत्वपूर्ण विधि उत्पादक संस्था है। आजादी के बाद केन्द्र और राज्य के स्तर पर इतनी अधिक संख्या में नए अधिनियमों का विधायन और पुराने अधिनियमों में संशोधन किया जाता रहा है कि अदालतें और वकील भी कानून की बारीकियों पर सही जगह उंगली नहीं रख पाते। इन सब बातों का खामियाजा बिना किसी प्रतिभागिता किए भी आदिवासियों को सबसे ज्यादा झेलना तो पड़ रहा है।
कई सरकारी अधिकारी आदिवासी क्षेत्रों में पदस्थापना से बचने के बावजूद स्थानांतरित कर दिए जाते हैं। तब वे नियोक्ता के प्रति उपजी अपनी प्रतिहिंसा का बदला आदिवासी समस्याओं के निदान करने में भुनाते रहते हैं। उनकी प्राथमिकता हर वक्त यही होती है कि जैसे भी हो उन्हें काला पानी के उस इलाके से स्थानान्तरित कर उनके वांछित शहरों में भेज दिया जाए। यह सोच, प्रकल्प और उद्यम यदि नीयतन ठीक भी हो तब भी अपनी प्रक्रियात्मक खोट के कारण उस छुरी की तरह है जो आदिवास के जीवन अहसास के खरबूजे पर उसे काटने के लिए ही गिरती है।
सदियों से आदिवासियों का इत्मीनान भी रहा है कि वे नागर सभ्यता के पूरक हैं, उसके अधीन या उससे कमतर नहीं। सदियों से नागर सभ्यता और सामंती शासन से दूर, मुक्त और निरपेक्ष रहे वन क्षेत्र प्राकृतिक संपदा से भरपूर होने के कारण सत्ता की लोलुपता के स्वाभाविक शिकार बने। तरह तरह के खनिज पदार्थ और वन उत्पाद उनमें सत्ताभिमुख महत्वाकांक्षाएं उगाते रहे कि बड़ी सिंचाई योजनाएं, विद्युत उत्पादन प्रकल्प और खनिज आधारित उद्योग लगाने के लिए वन क्षेत्र मानो उनके लिए इतिहास ने सदियों से सुरक्षित रखे थे। चपल, कुटिल और विरल बुद्धि के ब्रिटिश शासकों ने ऐसी तमाम परियोजनाओं को लगाने में अपनी तरफ से देर नहीं की। मशीनी सभ्यता का यह एक तरह से भारत के लिए अभिशाप और भविष्य के भारत के लिए वरदान भी रहा कि वह अपनी आजादी के बाद उसे प्राप्त और उपलब्ध वैज्ञानिक ज्ञान और अनुभव से किस तरह अपनी आर्थिक संरचना को चुस्तदुरुस्त करे। ब्रिटेन की औद्योगिक हविश के चलते आदिवासी इलाकों में पारंपरिक प्रविधियों के लिए कोई विकल्प शेष नहीं बचा। आदिवासियों और अन्य श्रमिकों का सभ्यता के प्रतिमानों पर लगातार हाशियाकरण होता रहा। वह स्थिति स्वतंत्रता के सत्तर वर्ष बाद भी जस की तस बिना थके अट्टहास कर रही है।
जितने भी आर्थिक, औद्योगिक और अन्य प्रकल्प शासकीय फाइलों में उपजते हैं, उनके किताबी ज्ञान में जमीनी हकीकत का संदर्भ काल्पनिक तो हो सकता है। वह आदिवासी परिवेश में ठहरी हुई सचाइयों से मुठभेड़ कर ही नहीं सकता। रूबरू भी नहीं होना चाहता। उसे अपनी किसी भी परियोजना के लिए आदिवासियों के सांस्कृतिक, मानवीय, तकनीकी और अनुभवसिद्ध कौशल की आवश्यकता महसूस नहीं होती। वह उन्हें केवल श्रमिक, कृषक या बेगार करने वाला कर्मी मानने के अतिरिक्त अपने प्रकल्पों को मनुष्य आधारित बनाने से परहेज करता है। इसकी भी पृष्ठभूमि में नौकरशाहों और राजनीतिज्ञों के साथ काॅरपोरेटी गठजोड़ की युति होती है। आदिवासी क्षेत्र तो केवल संदर्भ की तरह इस्तेमाल होते हैं। वजह यह है कि उनके ही पास धरती के नीचे हर तरह के खनिज और धरती के ऊपर हर तरह के वनोत्पाद और धरती पर सबसे सस्ती दरों पर अकुशल श्रमिक उपलब्ध होते हैं। इन सरकारी योजनाओं में एक और आग्रह है। अपना त्वरित लाभ प्राप्त करने के लिए नेता- नौकशाह-काॅरपोरेट गठजोड़ बहुत तेज गति से विकास करने का मुखौटा लगाए है। वह अपने आर्थिक लाभ का सपना साकार कर लेना चाहता है। ऐसा आर्थिक लाभ वह भविष्य की पीढ़ियों के लिए भी नहीं छोड़ना चाहता। तेज गति होने के कारण आदिवासी वृत्ति का सहकार नहीं हो पाता। इसलिए वह ऐसी परियोजनाओं में भागीदारी या सेवा करने के लिए बुलाया जाने पर भी झिझकता रहता है।
औद्योगिक, खनिज, सिंचाई और विद्युत प्रोजेक्ट आदिवासियों की छातियों पर ही अमूमन उगाए गए हैं, लेकिन ‘दिया तले अंधेरा‘ जैसी कहावत को चरितार्थ करते उन प्रकल्पों का सीधा लाभ उन्हें नहीं मिल पाया। अंगेजों के बनाए बदनाम भू अर्जन अधिनियम 1984 के तहत स्वेच्छया या जबरिया अर्जित भूमि का इतना कम मुआवजा दिया जाने लगा जो प्रभावित आदिवासी को मजबूर करता कि वह अपने प्रभावित परिवेश से विस्थापित होने पर लगभग मुफलिसी की जिंदगी जीने के लिए खुद ही विकल्प ढूंढे। उसका जीवन बूर्जुआ नौकरशाही की समझ और साम्राज्यवादी उद्योगधर्मिता के चारों और चकरघिन्नी की तरह घूमते रहने को मानो प्रतिशोधित किया गया। बरायनाम मिला क्षतिपूर्ति का धन आदिवासी से लूट लेने के लिए शराब ठेकेदार और साहूकार की उपस्थिति शासन ने पहले ही सुनिश्चित और स्थापित कर रखी थी। इस तरह एक सुरचित जीवन श्रृंखला अस्तित्वहीन नामालूम इकाइयों में सरकारी कुसमझ बल्कि षड़यंत्र के कारण बदलते रहने को भी आदिवासी जीवन कहा जाता है। आधुनिक अर्थशास्त्र स्थानापन्न किए जाते आदिवासियों को लगातर विपन्न बना रहा है। इसके बाद भी देश के कर्णधार कथित आर्थिक सूचकांक को संपन्न होने का प्रमाणपत्र जारी कर रहे हैं। एक सुगठित समाज यदि इकाइयों में टूट रहा है, तो उससे भी तो भारतीय सामाजिक संरचना को ही नई चुनौतियों का सामना करना पड़ा है।
-गिरीश मालवीय
ओला इलेक्ट्रिक 15 अगस्त से इलेक्ट्रिक मोबिलिटी सेक्टर में एंट्री करने वाली है। कहा जा रहा है कि ओला भारत में दुनिया की सबसे बड़ी स्कूटर फैक्ट्री बना रहा है। कंस्ट्रक्शन का पूरा काम तमिलनाडु के बरगुर के कृष्णागिरी डिस्ट्रिक्ट में चल रहा है। इसके प्रमोशन प्लान के जरिए रंग-बिरंगे स्कूटर लोगों की उत्सुकता बढ़ा रहे हैं लेकिन ओला अकेला नहीं है।
इसके अलावा गोगोरो जो ताइवान की कम्पनी है उसके साथ हीरो होंडा ने कोलेब्रेशन कर लिया है गोगोरो को दुपहिया वाहनों की टेस्ला कहा जाता है। बजाज चेतक इलेक्ट्रिक, एथर 450X और टीवीएस आईक्यूब भी मार्केट में धूम मचाने वाले हैं। होंडा भी जल्द अपनी इलेक्ट्रिक स्कूटर पेश करने वाला है।
पेट्रोल और ई-स्कूटर की तुलना की जाए तो पेट्रोल से चलने वाला कोई भी स्कूटर 2 रुपए प्रति किमी तक पड़ता है। वहीं, ई-व्हीकल 10 पैसे प्रति किमी पड़ता है। सबसे बड़ी बात इसमें किसी तरह का मेंटेनेंस नहीं है। यहाँ हम लिथियम बैटरी से चलने वाले स्कूटर की बात कर रहे हैं।
देश की राजधानी नई दिल्ली में पिछले हफ्ते 11वां इलेक्ट्रिक व्हीकल एक्सपो का आयोजन हुआ और इस बार यह खूब सुर्खियों में रहा एक्सपो में कुल 80 कंपनियां शामिल हुई इनमें चीन और जापान की भी 4 कंपनियां थी।
2018 में चीन में 13 लाख इलेक्ट्रिक वाहनों की बिक्री हुई जबकि भारत में सिर्फ 3600 वाहन ही बिके थे इसलिए इस मार्केट में संभावनाएं अपार है।
केंद्र सरकार योजना बना रही है कि ओला और उबर जैसी टैक्सी सेवा प्रदाता कंपनियां अपने काफिले में इलेक्ट्रिक वाहनों की संख्या बढ़ाए। इसके तहत ऐसी कंपनियों को अप्रैल 2026 तक 40त्न इलेक्ट्रिक गाडिय़ां रखने के निर्देश दिए जा सकते हैं।
सरकार ने बीते महीने ई-स्कूटर पर सब्सिडी को बढ़ाकर डेढ़ गुना कर दिया है। यानी पहले जहां प्रति किलोवॉट बैटरी पर 10,000 रुपए की छूट मिल रही थी, उसे बढ़ाकर 15,000 रुपए कर दिया गया है लेकिन ध्यान देने की बात यह है कि सरकार द्वारा जो सब्सिडी मिल रही है वो सिर्फ लिथियम बैटरी पर ही दी जा रही है।
लिथियम आयन बैटरी को मॉडर्न जमाने की बैटरी भी कहा जाता है क्योंकि ये कम जगह घेरती हैं, वजन में हल्की होती हैं साथ ही साथ इनकी रेंज भी काफी ज्यादा होती है। इन बैटरीज को चार्ज करने में 3 से 4 घंटे का समय लगता है। इन बैटरीज की सबसे बड़ी खासियत ये है कि इन्हें ज्यादा सर्विसिंग की जरूरत नहीं पड़ती है। हालांकि इन बैटरीज की लागत ज्यादा होती है जिसकी वजह से इनसे लैस वाहन महंगे होते हैं। हालांकि इन बैटरीज की लाइफ 4 से 5 साल तक होती जिसकी वजह से ग्राहकों को फायदा होता है। लिथियम आयन बैटरी को आप अपने स्कूटर से बाहर निकालकर इन्हें चार्ज कर सकते हैं और फिर खुद ही इसे इनस्टॉल भी कर सकते हैं। ज्यादातर लोग आजकल लिथियम आयन बैटरी वाले इलेक्ट्रिक स्कूटर ही खरीदना पसंद कर रहे हैं।
यह सब चेंज अभी टू व्हीलर मार्केट में ही हो रहा है फोर व्हीलर के लिए अभी थोड़ा रुकना ही बेहतर होगा। इस साल के अंत तक दोपहिया वाहनों में काफी ऑप्शन मौजूद होंगे लेकिन यह मान के चलिए कि एक अच्छे इलेक्ट्रिक स्कूटर की कीमत सवा लाख के ऊपर ही जाएगी।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
हमारे सर्वोच्च न्यायालय ने वह काम कर दिखाया है, जो हमारी संसद और विधानसभाओं को कभी से कर देना चाहिए था। उसने आदेश जारी कर दिया है कि चुनावी उम्मीदवारों के नाम तय होने के 48 घंटे में ही पार्टियों को यह भी बताना होगा कि उन उम्मीदवारों के खिलाफ कौन-कौन से मुकदमे चल रहे हैं और उसके पहले वे कौन-कौन से अपराधों में संलग्न रहे हैं। सभी पार्टियां अपने वेबसाइट पर उनका ब्यौरा डालें और उसका शीर्षक रहे, ''आपराधिक छविवाले उम्मीदवार का ब्यौराÓÓ। चुनाव आयोग ऐसा एक मोबाइल एप तैयार करे, जिसमें सभी उम्मीदवारों का विस्तृत विवरण उपलब्ध हो। आयोग आपराधिक उम्मीदवारों के बारे में जागरुकता अभियान भी चलाए।
पार्टियां पोस्टर छपवाएं, अखबारों में खबर और विज्ञापन दें। पार्टियां अपनी चालबाजी छोड़ें। छोटे-मोटे अखबारों में विज्ञापन देकर खानापूरी न करें। वे बड़े अखबारों और टीवी चैनलों पर भी आपराधिक उम्मीदवारों का परिचय करवाएं। इन सब बातों पर निगरानी रखने के लिए चुनाव आयोग एक अलग विभाग बनाए। अब देखना यह है कि सर्वोच्च न्यायालय के इन आदेशों का पालन कहां तक होता है। सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी निर्देश दिया है कि किसी भी नेता के विरुद्ध चल रहे आपराधिक मामलों को कोई भी राज्य सरकार तब तक वापस नहीं ले सकती, जब तक कि उस राज्य का उच्च न्यायालय अपनी अनुमति न दे दे। अभी क्या होता है? अभी तो सरकारें अपनी पार्टी के विधायकों और सांसदों के खिलाफ जो भी मामले अदालतों में चल रहे होते हैं, उन्हें वे वापस ले लेती हैं। ऐसे मामले पूरे देश में हजारों की संख्या में हैं।
इसीलिए नेता लोग बेखौफ होकर अपराध करते हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने इस फैसले से नेताओं, पार्टियों ओर सरकार के कान कस दिए हैं। बिहार के चुनाव में कांग्रेस, भाजपा और राजद के लगभग 70 प्रतिशत उम्मीदवारों के विरुद्ध आपराधिक मुकदमे चल रहे थे। इन पार्टियों ने अपने आपराधिक उम्मीदवारों का विवरण प्रकाशित ही नहीं किया। इसीलिए अदालत ने कुछ पार्टियों पर एक लाख और कुछ पर पांच लाख रु. का जुर्माना ठोक दिया है। सभी प्रमुख पार्टियां दोषी पाई गई हैं। हमारे लोकतंत्र के लिए यह कितने शर्म की बात है कि हमारे ज्यादातर सांसद और विधायक अपराधों में संलग्न पाए जाते हैं। यह तो सभी पार्टियों का प्रथम दायित्व है कि वे अपराधी पृष्ठभूमि के लोगों को अपना चुनाव उम्मीदवार बनाना तो दूर, उन्हें पार्टी का सदस्य भी न बनने दें। चुनाव आयोग ऐसे उम्मीदवारों पर पाबंदी इसलिए नहीं लगा सकता कि कई बार उन पर झूठे मुकदमे भी दर्ज करवा दिए जाते हैं और कई बार ऐसे अभियुक्त रिहा भी हो जाते हैं लेकिन पार्टियां चाहें तो ऐसे नेताओं की उम्मीदवारी पर प्रतिबंध लगा सकती हैं।
(नया इंडिया की अनुमति से)