विचार/लेख
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पेगासस-जासूसी के मामले में हमारी सरकार ऐसी फंस गई है कि उसे कोई रास्ता ही नहीं सूझ रहा है। संसद का काम-काज लगभग ठप्प हो चुका है और संसद की तकनीकी सूचना समिति की जो बैठक उसके अध्यक्ष और कांग्रेसी सदस्य शशि थरुर ने बुलाई थी, उसका भाजपा सांसदों और अफसरों ने बहिष्कार कर दिया। भाजपा सांसद थरुर को हटाने की बातें कर रहे हैं और थरुर भी उन पर गंभीर आक्षेप कर रहे हैं। इस मुद्दे को लेकर संसद के बाहर भी प्रदर्शनों और बयानों का तांता लगा हुआ है। सरकार के लिए चिंता की बात यह है कि दो प्रसिद्ध पत्रकारों ने सर्वोच्च न्यायालय में पेगासस के मामले में याचिका लगा दी है, जिसकी सुनवाई अगले हफ्ते होनी है।
हमारे विरोधी दल सोच रहे हैं कि जैसे अमेरिका में वाटरगेट कांड राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन की कुर्सी ले बैठा था, बिल्कुल वैसे ही पेगासस को वे नरेंद्र मोदी के गले का पत्थर बना देंगे। लेकिन शायद यह संभव नहीं होगा, क्योंकि पिछले कांग्रेसी, जनता दल और जनता पार्टी के शासनों के दौरान भी जासूसी के कई गंभीर मामले सामने आते रहे हैं। यदि पेगासस तूल पकड़ेगा तो पता नहीं कितने गड़े मुर्दे उखाड़े जाएंगे इसके अलावा सबसे बड़ा सवाल यह है कि जासूसी कौनसी सरकार नहीं करती? राष्ट्रहित की दृष्टि से सबसे अच्छा यह होगा कि सत्ता और विपक्ष के नेता बंद कमरे में गोपनीय बैठक करें। सरकार ने यदि गल्तियां की हैं तो वह नम्रतापूर्वक क्षमा मांगे।
यह सारा मामला यदि खुले-आम चलता रहा तो बहुत से राष्ट्रीय रहस्य भी अपने आप खुल पड़ेंगे, जो कि भारत के लिए नुकसानदेह होगा। इसमें शक नहीं कि यदि पेगासस की सूची में पत्रकारों, नेताओं, वकीलों, उद्योगपतियों आदि के नाम हैं तो मानना पड़ेगा कि यह सरकार की आपराधिक कार्रवाई है और असंवैधानिक है। इस तरह की कार्रवाई के खिलाफ खुद इस्राइल में आवाजें उठ रही हैं।
फ्रांसीसी राष्ट्रपति इमेनुअल मेक्रों के घावों पर मरहम लगाने के लिए इस्राइली रक्षा मंत्री बेनी गांट्ज खुद पेरिस पहुंच गए हैं। ब्रिटिश सरकार भी इस मामले पर जांच बिठा रही है। पेगासस ने अपनी खाल बचाने के लिए यह दांव मारा है कि कई सरकारों को दी जा रही उसकी सेवाओं पर उसने रोक लगा दी है और वह जांच कर रही है कि जो जासूसी-यंत्र उसने आतंकवादियों और अपराधियों पर निगरानी के लिए बेचा था, कई सरकारें उसका दुरुपयोग कैसे कर रही हैं?
(नया इंडिया की अनुमति से)
हिंदी और उर्दू के पाठकों की तीन पीढ़ियां इब्न-ए-सफी और उनके उपन्यासों से मोहब्बत करती रही हैं. लेकिन लेखकों की कल्पना कई बार पाठकों के जीवन में गहरी छाप भी छोड़ जाती हैं.
डॉयचे वैले पर चारु कार्तिकेय की रिपोर्ट
कल्पना कीजिए 1960 के दशक के बिहार में एक छोटे से गांव की. विकास की दौड़ में यह गांव उस समय कितना पिछड़ा रहा होगा इसका अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि वहां नियमित बिजली और पक्की सड़क 2000 के बाद ही पहुंच पाई. मेरे पापा का परिवार गांव के चंद पढ़े लिखे परिवारों में से था, लेकिन खुद पापा और उनके सभी भाई-बहनों को भी हाई स्कूल जाने के लिए रोज 10 किलोमीटर पैदल चलना पड़ता था.
इस तरह के हालात में पल रहे एक किशोर मन के सपने किस तरह के हो सकते हैं? एक रूढ़िवादी समाज में तथाकथित "ऊंची" जाति का होने का यह विशेष लाभ जरूर था कि इस परिवार को शिक्षा के अवसर उपलब्ध थे. फिर भी आप सोच सकते हैं कि कच्ची-पक्की सड़कों पर चप्पल पहने, रास्ते में कांच की गोलियों के खेल खेलते हुए स्कूल जा रहे इन बच्चों की कल्पना को उड़ान देने के लिए प्रेरणा के कितने और कैसे स्त्रोत होते होंगे?
पापा और उनके भाई-बहनों की यह खुशकिस्मती थी कि उनके परिवार में ना सिर्फ पढ़ाई तक पहुंच बल्कि पढ़ाई को लेकर एक चाव पिछली कई पीढ़ियों से मौजूद था. घर में पाठ्यक्रम की किताबों के अलावा भी पढ़ने के लिए काफी सामग्री हमेशा उपलब्ध रहती थी.
लड़कपन तक पहुंचते पहुंचते इन लोगों का तुलसीदास और वेद व्यास के अलावा, देवकी नंदन खत्री, प्रेम चंद, आशापूर्णा देवी और यहां तक कि लियो टॉलस्टॉय, मैक्सिम गोर्की जैसे नामों की अद्भुत श्रंखला से भी परिचय हो चुका था. उस समय पापा को भनक भी नहीं की थी कि इसी श्रृंखला का एक नाम उनके जीवन पर ऐसा असर छोड़ जाएगा कि "जिंदगी में क्या करोगे" वाला यक्ष प्रश्न जब उनके सामने आएगा तो उसका जवाब उन्हें उसी लेखक की कल्पनाओं में मिलेगा.
तीन पीढ़ियों की पसंद
यह नाम था असरार अहमद उर्फ इब्न-ए-सफी का. इब्न-ए-सफी उर्दू शायर, लेखक और उपन्यासकार थे, लेकिन उनके उपन्यासों का नियमित हिंदी रूपांतरण भी होता था. इस वजह से 1940 से लेकर 1970 के दशकों तक उनके लिखे 125 उपन्यासों की श्रृंखला "जासूसी दुनिया" ने मेरे दादा और पापा जैसे हिंदी के पाठकों की कम से कम तीन पीढ़ियों के दिलों पर राज किया था.
इब्न-ए-सफी का जन्म 1928 में इलाहाबाद जिले में हुआ था. 1940 के दशक में उन्होंने हिंदुस्तान में लिखा लेकिन 1952 में वे पाकिस्तान में बस गए और उसके बाद वहीं से लिखा. इसलिए आज दोनों मुल्कों के पाठकों के बीच इलाहाबाद में जन्मे और कराची में दफन इस लेखक की साझा विरासत है. उन दिनों रेलवे स्टेशनों पर किताबों की चलती फिरती दुकान चलाने वाली कंपनी ए एच व्हीलर इब्न-ए-सफी के उपन्यासों की वितरक थी.
मोतिहारी रेलवे स्टेशन पर ऐसी ही एक दुकान चलाने वाला ए एच व्हीलर का एक मुलाजिम पापा के बड़े भाई का परिचित था. उसे एक रुपया बतौर जमानत दे कर "जासूसी दुनिया" और उस समय के दूसरे जासूसी उपन्यास उधार ले कर दो-तीन दिनों के लिए हासिल कर लिए जाते थे. बाद में दोनों भाई इब्न-ए-सफी से बहुत प्रभावित हुए और हर महीने निकलने वाले उनके उपन्यासों के अंकों को इकठ्ठा करने लगे.
बॉलीवुड पर असर
इब्न-ए-सफी की कल्पना का लोहा लगभग सभी बड़े लेखक मानते हैं. बल्कि साहित्य ही नहीं हिंदी फिल्मों पर भी विशेष रूप से उनके उपन्यासों के किरदारों का प्रभाव है. 1970 और 80 के दशक की कई मशहूर हिंदी फिल्मों की पटकथाएं लिखने वाली जोड़ी सलीम-जावेद के जावेद अख्तर भी खुद को उनका मुरीद बताते हैं.
अख्तर कहते हैं कि उन्होंने इब्न-ए-सफी के उपन्यासों से ही किरदारों को जीवन से बड़ा गढ़ने की अहमियत सीखी. वो मानते हैं कि उन्हें "शोले" के गब्बर सिंह, "शान" के शाकाल और "मिस्टर इंडिया" के मोगैम्बो जैसे किरदारों को गढ़ने की प्रेरणा इब्न-ए-सफी से ही मिली.
लेकिन इस अद्भुत लेखक के उपन्यासों के जिस पहलू का मेरे जीवन से गहरा ताल्लुक है वो है उनके कथानक यानी प्लॉट. उनकी कहानियों में अक्सर अलग अलग देशों का ना सिर्फ जिक्र बल्कि विस्तृत विवरण होता था. कभी यूरोप, कभी दक्षिण अमेरिका, कभी अफ्रीका, कभी चीन- उनके उपन्यास जैसे पढ़ने वालों के लिए पूरी दुनिया के झरोखे खोल देते थे.
अंतरराष्ट्रीय कथानक
ऐसे ही एक उपन्यास "खूनी बवंडर" में पापा ने पहली बार दक्षिण अमेरिका के बारे में पढ़ा. 'इंका' साम्राज्य के गुप्त खजाने को हासिल करने में लगे एक चीनी और एक अमेरिकी अपराधी का पीछा करते हुए जासूस कर्नल विनोद इक्वाडोर की राजधानी क्विटो पहुंचते हैं. फिर वहां से निकल दुर्गम घने जंगलों से होते हुए साहसिक यात्रा करते हैं.
अब आप सोचिए. कहां हिंदुस्तान के एक पिछड़े राज्य के एक छोटे से गांव में रहने वाले मेरे पापा और कहां हजारों किलोमीटर दूर की एक प्राचीन सभ्यता और एक ऐसा महाद्वीप जो उस समय तो क्या आज भी एक आम हिन्दुस्तानी की कल्पनाओं में शामिल नहीं है. पापा तुरंत उस सुदूर महाद्वीप को लेकर मंत्रमुग्ध हो गए. स्कूल गुजरा, फिर कॉलेज बीता, लेकिन लैटिन अमेरिका के बारे में और जानने की ललक ने उनका सालों तक पीछा नहीं छोड़ा.
उच्च शिक्षा की बारी आने पर यही ललक उन्हें दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय तक ले आई. उन्होंने वहां अंतरराष्ट्रीय संबंधों में एमए किया. उसके बाद भी प्यास नहीं बुझी तो दिल्ली विश्वविद्यालय से दक्षिण अमेरिका पर पीएचडी ही कर डाली.
उन दिनों दिल्ली के सीएसडीएस संस्थान के तत्कालीन निदेशक प्रोफेसर बशीरुद्दीन अहमद पापा से कहा करते थे कि उनके पिता अगर राजनयिक सेवा में होते तब तो उनकी दक्षिण अमेरिका में यह रुचि समझ में आती. उन्हें इस बात पर घोर आश्चर्य हुआ था कि एक गांव में पले बढ़े एक युवक को इन देशों के बारे में आखिर पता कैसे चला.
ललक अब भी बाकी है
बहरहाल, उन्हीं के सहयोग से पापा ने सीएसडीएस में ही डॉक्टरल फेलो के तौर पर अपनी पीएचडी पूरी की. उसके बाद उनके जीवन में कई तरह के मोड़ आए और वो दूसरे क्षेत्रों में चले गए, लेकिन लैटिन अमेरिका और इब्न-ए-सफी ने उनके जहन में अपनी जगह बनाए रखी. दक्षिण अमेरिका की मोहब्बत में ही स्पैनिश भाषा भी सीखी.
2019 में रिटायर होने के ठीक पहले उस समय न्यू यॉर्क में रह रहे मेरे छोटे भाई ने जब उन्हें मेक्सिको की यात्रा करवाई, तो इब्ने-ए-सफी के इक्वाडोर को देखने की उनकी ललक बाकी रह गई. रिटायर होने के बाद पापा अब जितना समय मिल सके उतना पढ़ने और लिखने में ही बिताते हैं. इतना कुछ है पढ़ने को लेकिन उन्हें अपने लड़कपन के प्रिय लेखक और उनके उपन्यासों की याद लगातार सताती रहती है.
"जासूसी दुनिया" की पुरानी प्रतियों को गांव में वीरान पड़े हमारे पुश्तैनी मकान में दीमक लग गई और हिंदी में नई प्रतियां अब छपती नहीं. लेकिन हमें हाल ही में एक बड़ी कामयाबी हाथ लगी. इंटरनेट पर खोजते खोजते हमें इब्ने सफी हिंदी नाम से वेबसाइट मिली. वेबसाइट से एक ईमेल पता मिला और फिर ईमेल से मोबाइल नंबर मिला.
सपने का पूरा होना
फोन किया तो हिमाचल प्रदेश के नूरपुर में रहने वाले योगेश कुमार से मेरा परिचय हुआ. उन्होंने बताया कि वो भी इब्न-ए-सफी के चाहने वालों में से हैं. योगेश बड़े जतन से अपने प्रिय लेखक के उपन्यासों की लावारिस प्रतियों को ढूंढ निकालते हैं, फिर उनकी मरम्मत करवाते हैं और डिजिटाइज भी करवा कर रख लेते हैं.
जब मेरे जैसे जरूरतमंद उन तक पहुंचते हैं तब वो आर्डर ले कर उपन्यास की एक प्रति छपवा देते हैं और डाक से भिजवा देते हैं. उनसे कई महीनों की बातचीत के बाद हाल ही में हमारी कोशिशें रंग लाई. जिस किताब से मेरे पापा के सपनों की शुरुआत हुई मैं वही किताब एक बार फिर उनके हाथों में पहुंचा सका.
वो आजकल "खूनी बवंडर" दोबारा पढ़ रहे हैं. लड़कपन में देखे सपने से दोबारा रूबरू होने की खुशी के साथ साथ उन्हें इस बात का हल्का मलाल भी है कि योगेश कुमार ने मुझसे पैसे ज्यादा ले लिए. पापा की शिकायत योगेश तक अभी तक पहुंचा नहीं पाया हूं, लेकिन सोच रहा हूं कि जब अगला उपन्यास आर्डर करूंगा तो क्या वो मुझे डिस्काउंट देंगे? (dw.com)
म्यांमार में दुनिया की सबसे कमजोर स्वास्थ्य रक्षा प्रणाली है. कोविड और एक सैन्य तख्तापलट के संयुक्त प्रभाव ने इसे इस हद तक गंभीर बना दिया है कि यह लगभग नष्ट होने के कगार पर है.
डॉयचे वैले पर माऊंग बो की रिपोर्ट
कोरोनोवायरस की तीसरी लहर से करीब चार महीने पहले जब म्यांमार में रोजाना सैकड़ों लोगों की मौत हो रही थी, सो मो नौंग (बदला हुआ नाम) नाम के एक व्यवसायी ने सोशल मीडिया पर पोस्ट किया कि उसने और उसके परिवार ने एक सार्वजनिक टीकाकरण केंद्र में टीका लगवाया था.
व्यवसायी ने अपने साथियों से भी टीका लगवाने की अपील की थी. लेकिन इस संदेश का असर नौंग पर उल्टा पड़ा और उन्हें अपनी पोस्ट को छिपाने पर मजबूर कर दिया.
उनके आलोचकों का मानना है कि टीका लगवाना कुछ मायनों में फरवरी में सैन्य तख्तापलट को वैध बनाता है, जिसके कारण आंग सान सू ची की नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी (एनएलडी) पार्टी के नेतृत्व वाली लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई सरकार को उखाड़ फेंका गया था.
सो मो नौंग खुद एनएलडी के समर्थक हैं और उन्होंने इन वजहों को भी स्पष्ट किया था कि वो टीका लगवाने के लिए क्यों राजी हुए. वह कहते हैं, "एनएलडी सरकार ने म्यांमार के लोगों के लिए टीकों का अधिग्रहण किया था. यह हर एक नागरिक का अधिकार है. टीकाकरण एक अलग मुद्दा है और इसका राजनीति से कोई संबंध नहीं है.”
सो मो नौंग इस मामले में व्यावहारिक हो सकते हैं लेकिन उनके विचार से म्यांमार में बहुत कम लोग ही सहमति रखते हैं.
टीकाकरण न कराकर सेना को ललकारना
1 फरवरी को तख्तापलट के बाद से पूरे म्यांमार में कई लोग सेना के विरोध के तौर पर टीका लेने से इनकार कर रहे हैं. यांगून की रहने वाली ह्नीन यी ऑन्ग कहती हैं, "मेरी मां ने बुढ़ापे के बावजूद टीका नहीं लगवाया, शायद इसलिए कि उनके बेटे यानी मेरे भाई ने कहा है कि 'क्रांति अभी खत्म नहीं हुई है.”
उनका भाई एक सार्वजनिक अस्पताल में डॉक्टर है और पिछले कई महीनों से सविनय अवज्ञा आंदोलन (सीडीएम) में भाग ले रहा है.
कुछ अन्य लोगों ने लोकतंत्र समर्थक समूहों और बहिष्कार के डर से टीकाकरण नहीं कराने का विकल्प चुना है. जिन लोगों ने टीका लगवाया है वे अक्सर सोशल मीडिया आोलचनाओं और विरोध का शिकार हो जाते हैं जिसमें उनका नाम लेकर उनके प्रति शर्मिंदगी जताई जाती है और मजाक उड़ाया जाता है.
स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में कई लोग काम करना बंद करने और सेना के खिलाफ सविनय अवज्ञा आंदोलन में शामिल होने वाले पहले लोगों में से थे. सार्वजनिक क्षेत्र के अन्य कर्मचारियों ने भी ऐसा ही किया और प्रशासन को एक बड़ा झटका दिया.
इस वजह से सरकार को काम पर लौटने के लिए सरकारी कर्मचारियों पर दबाव बढ़ाना पड़ा जबकि सेना ने असंतुष्ट स्वास्थ्य कर्मियों को गिरफ्तार करना शुरू कर दिया. इस वजह से कई लोग सेना के डर से छिप गए.
सीडीएम से जुड़े कुछ डॉक्टरों ने शुरू में निजी प्रतिष्ठानों में मरीजों का इलाज किया लेकिन अपने निजी क्लीनिकों के पास सैनिकों और पुलिस की तैनाती को देखकर रुक गए.
दीन-हीन व्यवस्था का कोविड से सामना
इसका मतलब यह था कि जब कोविड की तीसरी लहर आई, तो म्यांमार की उस सेना को स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली के साथ संकट से निपटने के लिए छोड़ दिया गया था जिस पर व्यापक रूप से नफरत फैलाने के आरोप थे. स्वास्थ्य सेवाएं न केवल आवश्यक दवाओं और उपकरणों के मामले में, बल्कि चिकित्सा कर्मचारियों के मामले में भी बड़ी कमी का सामना कर रही थीं.
हजारों नए संक्रमण और बढ़ती मौतों के साथ ही देश की व्यवस्था जल्द ही आपातकाल के घेरे में आ गई. आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, सिर्फ 25 जुलाई को ही कोविड से संबंधित बीमारियों के कारण यहां 355 लोगों की मौत हो गई और अब तक मरने वालों की कुल संख्या 7100 से ज्यादा है. मौतों की यह संख्या सिर्फ वही दर्ज है जो अस्पतालों में हुई है.
सेना के प्रमुख, मिन आंग हलिंग ने हाल ही में असंतुष्ट स्वास्थ्यकर्मियों से काम पर लौटने के लिए एक सार्वजनिक अपील जारी करते हुए कहा कि सभी स्वास्थ्यकर्मियों को कोविड आपातकाल से निपटने के लिए मिलकर काम करना चाहिए.
सीडीएम से जुड़े स्वास्थ्यकर्मियों ने हालांकि इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया है और सेना से कहा है कि वो लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई सरकार को सत्ता वापस कर दे. इन लोगों ने सोशल मीडिया पर यह कहना शुरू किया है, "हम तभी काम पर वापस आएंगे, जब आप लोग अपनी बैरकों में वापस चले जाएंगे.”
फिर जनता पर दबाव
म्यांमार में पहले से ही स्वास्थ्य व्यवस्था सबसे कमजोर स्थिति में है और यह दुनिया की सबसे खराब स्वास्थ्य प्रणालियों में से एक है, वहीं कोविड संक्रमण और सैन्य तख्तापलट के संयुक्त प्रभाव ने इसे लगभग खत्म कर देने की स्थिति में ला खड़ा किया है.
हाल के हफ्तों में अस्पतालों में ऑक्सीजन की भारी कमी हो गई है. अपने प्रियजनों के लिए ऑक्सीजन की आपूर्ति सुरक्षित करने के लिए हताश रिश्तेदारों की तस्वीरें वायरल हो रही हैं.
म्यांमार में तख्तापलट के विरोध में बनी राष्ट्रीय एकता की सरकार ने अंतरराष्ट्रीय दबाव बनाने के लिए अंतरराष्ट्रीय समुदाय को एक खुला पत्र लिखा है जिसमें ऑक्सीजन की कमी और सुरक्षा बलों की ओर से पैदा की गई ऑक्सीजन उत्पादन की खतरनाक और अमानवीय स्थिति की ओर ध्यान दिलाया गया है.
सुरक्षा सेवाओं के खिलाफ भी आरोप लगाए गए हैं कि वे अक्सर ऑक्सीजन की आपूर्ति को जब्त कर लेते हैं और लोगों को उन्हें सुरक्षित रखने से रोकते हैं. हालांकि सैन्य सरकार इन आरोपों को झूठा और राजनीति से प्रेरित बता रही है.
सरकार के स्वामित्व वाले मीडिया ने बताया कि हाल ही में कोविड की स्थिति का आकलन करने के लिए हुई एक बैठक में, जुंटा प्रमुख ने कहा कि राजनीतिक लाभ के लिए सोशल मीडिया पर स्वास्थ्य आपातकाल के दुरुपयोग और उसे गलत तरीके से प्रस्तुत किया जा रहा है.
अधिकारियों ने यह भी कहा कि सरकार ने मांग में वृद्धि को पूरा करने के लिए पोर्टेबल ऑक्सीजन सांद्रता और कोविड से संबंधित अन्य उपकरणों की पर्याप्त मात्रा का आयात किया है.
इस बीच, चीन से हाल ही में टीके आने के बाद 25 जुलाई को सार्वजनिक टीकाकरण कार्यक्रम फिर से शुरू हुआ. उन लोगों पर फिर से दबाव है जो अभी तक यह तय नहीं कर पाए हैं कि उन्हें टीका लेना है या नहीं.
ह्नीन यी ऑन्ग कहती हैं, "मैं अपनी मां से इस बार वैक्सीन लेने के लिए आग्रह करूंगी. हालांकि यह उनके और हमारे परिवार पर निर्भर है.” (dw.com)
-गिरीश मालवीय
कल सरकार ने राज्यसभा में बयान देते हुए कहा कि पिछले पांच साल के दौरान हाथ से मैला साफ करने वाले किसी भी व्यक्ति की मौत नहीं हुई।
यह बहुत बड़ा बयान था। मैं देखना चाहता था कि इस विषय को हमारा मीडिया कितना महत्व देता है, लेकिन इस विषय पर किसी ने एक शब्द तक नही कहा! सरकार का यह बयान सोशल मीडिया पर भी उपेक्षित ही रहा, सोशल मीडिया के बड़े बड़े दिग्गज जो दलित ओर पिछड़ी जातियों से जुड़े उठाने में विशेषज्ञ माने जाते हैं वे भी इस मुद्दे पर चुप ही रहे!
मुझे आर्टिकल 15 फि़ल्म का वह दृश्य याद है जिसमे गटर का मेन होल जो गंदे पानी से लबालब है, सफाई कर्मी उसमे पूरा डूबकर उसे साफ करता है, वह सीन हमे अंदर तक हिला देता है।
दरअसल राज्यसभा के एक सवाल के जवाब में कल केंद्रीय सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता राज्यमंत्री रामदास अठावले ने कहा है कि हाथ से मैला उठाने वाले 66,692 लोगों की पहचान हुई है। यह प्रश्न किए जाने पर कि हाथ से मैला ढोने वाले ऐसे कितने लोगों की मौत हुई है,पर उन्होंने कहा, ‘‘हाथ से सफाई के कारण किसी के मौत होने की सूचना नहीं है।’’
इस बयान पर सीपीएम नेता सीताराम येचुरी ने मोदी सरकार की कड़ी आलोचना की है, सीताराम येचुरी ने ट्वीट करते हुए लिखा कि भारत ने कभी ऐसी केंद्र सरकार नहीं देखी जो बेशर्मी से संसद के सामने झूठ बोलती हो। फरवरी के बजट सत्र में केंद्रीय मंत्री ने लोकसभा को सूचित किया था कि पिछले पांच वर्षों के दौरान इस प्रतिबंधित कुप्रथा के कारण 340 मौतें हुई हैं।
दरअसल एक आंकड़े के मुताबिक भारत में सीवर और सेप्टिक टैंक की सफाई के दौरान हर पांच दिन में औसतन एक आदमी की मौत होती है।
2019 में सुप्रीम कोर्ट ने सीवर नालों की हाथ से सफाई के दौरान लोगों की मृत्यु होने पर कहा था कि दुनिया में कहीं भी लोगों को मरने के लिए गैस चैंबर में नहीं भेजा जाता। इस वजह से हर महीने चार-पांच व्यक्तियों की मृत्यु हो जाती है। पीठ ने कहा कि संविधान में प्रावधान है कि सभी मनुष्य समान हैं, लेकिन प्राधिकारी उन्हें समान सुविधाएं मुहैया नहीं कराते। उसने इस स्थिति को ‘अमानवीय’ करार देते हुए कहा कि इन लोगों को सुरक्षा के लिए कोई भी सुविधा नहीं दी जाती और वे सीवर व मैनहोल की सफाई के दौरान अपनी जान गंवाते हैं।
पीठ ने कहा था कि संविधान में देश में अस्पृश्यता समाप्त करने के बावजूद मैं आप लोगों से पूछ रहा हूं क्या आप उनके साथ हाथ मिलाते हैं? इसका जवाब नकारात्मक है। हम इसी तरह का आचरण कर रहे हैं। इस हालात में बदलाव होना चाहिए।’
किसी व्यक्ति द्वारा स्वयं के हाथों से मानवीय अपशिष्टों (Human Excreta) की सफाई करने या सर पर ढोने की प्रथा को हाथ से मैला ढोने की प्रथा या मैनुअल स्कैवेंजिंग (Manual Scavenging) कहते हैं।
यह प्रथा संविधान के अनुच्छेद 15, 21, 38 और 42 के प्रावधानों के भी खिलाफ है महात्मा गाँधी और डॉ. अंबेडकर, दोनों ने ही हाथ से मैला ढोने की प्रथा का पुरजोर विरोध किया था। आजादी के 7 दशकों बाद भी इस प्रथा का जारी रहना देश के लिये शर्मनाक है, सीवर की सफाई एक ऐसा काम है जिसको करने के लिए मशीनों की मदद ली जा सकती है लेकिन 21वीं सदी के भारत में आज भी सीवर को साफ करने के लिए इंसान उतर रहे हैं ओर मर रहे हैं लेकिन सरकार उनकी मौत का संज्ञान तक नहीं ले रही है। जिन लोगों की मौत हुई है उनकी गरिमा मरने के बाद भी छीनी जा रही है।
आजकल बाजारवाद और विज्ञापनवाद के दौर में लोगों में यह मानसिकता घर करती जा रही है, या लोगों के मन में यह बात बैठाई जा रही है कि किसी भी बीमारी या समस्या के लिए बीमा योजना लेकर निश्चित रहा जा सकता है। किसी भी तरह की दुर्घटना, आगजनी, चोरी, डकैती, अवर्षा, सूखा, बाढ़ अथवा अन्य कोई भी दूसरी बीमारी या आशंकाओं के लिए बीमा एक त्वरित समाधान के तौर पर लोगों को विकल्प उपलब्ध करा रहा है। लेकिन क्या इन सभी समस्याओं का समाधान ‘बीमा’ में है, या बीमा है?
-डॉ. लखन चौधरी
कोरोना कालखण्ड से बमुश्किल निकले हैं या निकल रहे हैं। कोरोना की त्रासदियों से निकलने, उबरने का प्रयास कर ही रहे हैं, और उबरने की दिशा में जोर आजमाइश चल ही रही है, इसी बीच सेहत एवं स्वास्थ्य को लेकर लोगों की चिंताएं लगातार बढऩे लगी हैं। इस समय मौसमी सर्दी-जुकाम, खांसी, दमा-अस्थमा, एलर्जी आदि परेशानियों से लोग बाग त्रस्त हैं। सर्दी के मौसम में सर्दी गायब है। इस तरह के मौसम में निश्चित तौर पर यह चिंता का कारण तो है, पर चिंतन की ओर भी ले जाता है कि आखिरकार इसके पीछे का कारण क्या है? तापमान सामान्य से चार-पांच डिग्री उपर होना प्रकृति के साथ-साथ इंसानों के लिए भी ठीक नहीं है। चौंकाने वाली खबर यह है कि छत्तीसगढ़ में पिछले साल के इन्हीं दिनों-महीनों की तुलना में इस बार का न्यूनतम तापमान बहुत अधिक है, और यही इन सभी परेशानियों का कारण है।
वैसे तो जलवायु एवं मौसम का बदलना जिस तरह प्रकृति की एक आवश्यक प्रक्रिया एवं प्रतिक्रिया है। इसी तरह समय, मौसम के साथ-साथ लोगों की जीवनशैली में बदलाव आना भी प्रकृति का एक अनिवार्य नियम है। इधर पिछले कुछ वर्षों से जलवायु परिवर्तन एवं पर्यावरणीय बदलाव के कारण प्रकृति के मिजाज में तेजी के साथ बदलाव एवं परिवर्तन देखने को मिल रहे हैं। इसका सीधा प्रभाव लोगों की जीवनशैली में परिलक्षित हो रहा है, और इसका असर लोगों की सेहत एवं स्वास्थ्य पर स्पष्ट रूप से दिखने लगता है। पिछले कुछ समय से देखने को मिल रहा है कि लोगों की बजट का सबसे बड़ा हिस्सा बीमारियों के इलाज में खर्च होने लगा है। इसके कारण जहां एक ओर लोगों के अन्य खर्चों पर इसका असर पड़ रहा है, वहीं इसका सीधा प्रभाव रहन-सहन एवं जीवनशैली पर भी दिखने लगा है।
इन दिनों सबसे ताज्जुब की बात यह देखने को मिल रही है कि लोग-बाग अपनी हर छोटी-बड़ी समस्या के लिए बीमा कंपनियों पर आवश्यकता से अधिक निर्भर होते जा रहे हैं। हर संक्रमण काल में आजकल अस्थमा, डेंगू, मलेरिया, पीलिया, खांसी जैसी खतरनाक वायरल बीमारियों का प्रकोप तेजी से बढऩे लगा है। देश में रोजाना दर्जनों लोगों की मौतें हो रहीं हैं। बार-बार इस तरह की जानलेवा बीमारियों के फैलने से सवाल उठता है कि आखिर इस तरह की घटनाएं लगातार होती क्यों रहती हैं? इस तरह की घटनाओं की पुनरावृत्ति के लिए क्या सिर्फ मौसमी एवं जलवायु परिवर्तन जिम्मेदार हैं? क्या लोगों में व्यक्तिगत सेहत एवं स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता एवं चेतना है? या इसका अभाव है? अथवा सेहत एवं स्वास्थ्य के प्रति लापरवाही एवं अज्ञानता है? क्या इस तरह की बीमारियों के लिए जीवनशैली में आया बदलाव जिम्मेदार नहीं है?
जब तक इन तथ्यों की पड़ताल नहीं की जायेगी या नहीं होगी तब तक समस्या के जड़ तक पहुंचना मुश्किल है।
आजकल बाजारवाद और विज्ञापनवाद के दौर में लोगों में यह मानसिकता घर करती जा रही है, या लोगों के मन में यह बात बैठाई जा रही है कि किसी भी बीमारी या समस्या के लिए बीमा योजना लेकर निश्चित रहा जा सकता है। किसी भी तरह की दुर्घटना, आगजनी, चोरी, डकैती, अवर्षा, सूखा, बाढ़ अथवा अन्य कोई भी दूसरी बीमारी या आशंकाओं के लिए बीमा एक त्वरित समाधान के तौर पर लोगों को विकल्प उपलब्ध करा रहा है। लेकिन क्या इन सभी समस्याओं का समाधान ’बीमा’ में है? क्या बीमा पॉलिसी लेना इनका समाधान है? आज यह गंभीरता से सोचने, विचारने एवं चिंतन करने की आवश्यकता है। बीमा की पॉलिसी लेकर बेपरवाह हो जाना, बीमा के भरोसे रहना समाधान नहीं है। बीमा पर आवश्यकता से अधिक निर्भरता न केवल घातक, खतरनाक है बल्कि जानलेवा भी हो सकती है, क्योंकि बीमा लेने के बाद लोगबाग ऐसे निश्चित हो जाते हैं जैसे अब उन्होंने अमृत ले लिया है, तथा अब उन्हें कोई चिंता, डर, भय या फिक्र नहीं है। आज इस तरह की मानसिकता एवं प्रवृत्तियों से बचने की जरूरत है।
देश में अब अच्छी सेहत और स्वास्थ्य के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों, बड़े-बड़े कार्पोरेट्स एवं औद्योगिक घरानों की बड़ी-बड़ी बीमा कंपनियों पर लोगों की निर्भरता बढ़ती जा रही है। निहायत निजी एवं वैयक्तिक सेहत और स्वास्थ्य के लिए लोगों का बीमा कंपनियों की बीमा योजनाओं पर बढ़ती निर्भरता निहायत ही मूर्खतापूर्णं ही कही जा सकती है। आजकल बीमा कंपनियों का कारोबार खूब फलने-फूलने लगा है। अब तो कोरोना जैसी वैश्विक महामारियों से भी बचने के लिए बीमा कंपनियों ने लोगों को गुमराह करना आरंभ कर दिया है, और बाजार में धड़ल्ले से बीमा पॉलिसी बिकने लगी है।
दरअसल में व्यक्तियों की अच्छी सेहत और स्वास्थ्य का मसला उस व्यक्ति के निजी आदतों, खान-पान, रहन-सहन और उनकी जीवनशैली पर निर्भर करता है, ना कि बीमा कंपनियों की योजनाओं पर। लेकिन आज लोगों ने यह मान लिया है कि अच्छी सेहत और स्वास्थ्य के लिए बीमा योजनाएं अधिक जरूरी है। बीमा कंपनियों की स्वास्थ्य बीमा योजनाएं लेने के बाद लोगों को लगता है कि चूंकि अब उनके पास अच्छी से अच्छी बीमा योजना है, इसलिए डरने या घबराने की कोई जरूरत नहीं है। खान-पान, रहन-सहन और जीवनशैली की मनमानियों पर कोई रोक-टोक एवं लगाम की जरूरत नहीं है। इसका नतीजा यह हो रहा है कि बीमारियां रूकने का नाम नहीं ले रही हैं।
अच्छी सेहत और स्वास्थ्य के संबंध में समय-समय पर किये गये शोध निष्कर्षों से भी यह साफ एवं स्पष्ट है कि सेहत एवं स्वास्थ्य का सीधा संबंध व्यक्ति की जीवनशैली से जुड़ी आदतों, साफ-सफाई एवं स्वच्छता से होता है। आज व्यस्त जीवनशैली की आपाधापी का बहाना बनाकर लोग सेहत एवं स्वास्थ्य की दृष्टि से बुरी एवं गलत आदतों को छोडऩा नहीं चाहते हैं, जिसके कारण बहुत ही कम उम्र में तरह-तरह की नई-नई बीमारियों के शिकार हो रहे हैं। व्यस्ततम कामकाज एवं जीवनशैली का बहाना बनाकर प्रकृति एवं प्राकृतिक जीवन शैली के विपरीत अपनी आदतों को बिगाडक़र न केवल अपनी सेहत एवं स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं, बल्कि अपनी आमदनी का भारी भरकम हिस्सा खर्च कर इसकी आर्थिक कीमत भी चुका रहे हैं।
याद रहे, अच्छी सेहत और स्वास्थ्य के साथ रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने एवं बनाये रखने के लिए बीमा योजनाओं पर निर्भरता बढ़ाना बेहद घातक एवं खतरनाक है। इन पर निर्भरता बढ़ाने के बजाय अपनी आदतों को सुधारकर जीवनशैली सुधारना अधिक श्रेयस्कर एवं हितकारी है। लोग इस सच्चाई को जितना जल्दी समझ जायेगें उतना ही यह हितकारी रहेगा, अन्यथा स्वास्थ्य की कीमत आर्थिक रूप से भारी पड़ेगी। निष्कर्ष यह है कि कोरोना इत्यादि जानलेवा प्राकृतिक घातक बीमारियों से स्वयं को एवं अपने परिवार को बचाने के लिए बीमा पॉलिसियों पर निर्भरता के बजाय प्राकृतिक एवं अनुशासित जीवन शैली अपनाने में अधिक बेहतरी है।
-हरिशंकर परसाई
जन्मदिन : मुंशी प्रेमचंद
प्रेमचंद का एक चित्र मेरे सामने है, पत्नी के साथ फोटो खिंचा रहे हैं। सिर पर किसी मोटे कपड़े की टोपी, कुरता और धोती पहने हैं। कनपटी चिपकी है, गालों की हड्डियां उभर आई हैं, पर घनी मूंछें चेहरे को भरा-भरा बतलाती हैं।
पांवों में कैनवास के जूते हैं, जिनके बंद बेतरतीब बंधे हैं। लापरवाही से उपयोग करने पर बंद के सिरों पर की लोहे की पतरी निकल जाती है और छेदों में बंद डालने में परेशानी होती है। तब बंद कैसे भी कस लिए जाते हैं।
दाहिने पाँव का जूता ठीक है, मगर बाएँ जूते में बड़ा छेद हो गया है जिसमें से अँगुली बाहर निकल आई है।
मेरी दृष्टि इस जूते पर अटक गई है। सोचता हूँ – फोटो खिंचवाने की अगर यह पोशाक है, तो पहनने की कैसी होगी? नहीं, इस आदमी की अलग-अलग पोशाकें नहीं होंगी – इसमें पोशाकें बदलने का गुण नहीं है। यह जैसा है, वैसा ही फोटो में खिंच जाता है।
मैं चेहरे की तरफ देखता हूँ। क्या तुम्हें मालूम है, मेरे साहित्यिक पुरखे कि तुम्हारा जूता फट गया है और अंगुली बाहर दिख रही है? क्या तुम्हें इसका जरा भी अहसास नहीं है? जऱा लज्जा, संकोच या झेंप नहीं है? क्या तुम इतना भी नहीं जानते कि धोती को थोड़ा नीचे खींच लेने से अँगुली ढक सकती है? मगर फिर भी तुम्हारे चेहरे पर बड़ी बेपरवाही, बड़ा विश्वास है! फोटोग्राफर ने जब ‘रेडी-प्लीज’ कहा होगा, तब परंपरा के अनुसार तुमने मुस्कान लाने की कोशिश की होगी, दर्द के गहरे कुएँ के तल में कहीं पड़ी मुस्कान को धीरे-धीरे खींचकर ऊपर निकाल रहे होंगे कि बीच में ही ‘क्लिक’ करके फोटोग्राफर ने ‘थैंक यू’ कह दिया होगा। विचित्र है यह अधूरी मुस्कान। यह मुस्कान नहीं, इसमें उपहास है, व्यंग्य है!
यह कैसा आदमी है, जो खुद तो फटे जूते पहने फोटो खिंचा रहा है, पर किसी पर हंस भी रहा है!
फोटो ही खिंचाना था, तो ठीक जूते पहन लेते या न खिचाते। फोटो न खिंचाने से क्या बिगड़ता था। शायद पत्नी का आग्रह रहा हो और तुम, ‘अच्छा, चल भई’ कहकर बैठ गए होंगे। मगर यह कितनी बड़ी ‘ट्रेजडी’ है कि आदमी के पास फोटो खिचाने को भी जूता न हो। मैं तुम्हारी यह फोटो देखते-देखते, तुम्हारे क्लेश को अपने भीतर महसूस करके जैसे रो पडऩा चाहता हूँ, मगर तुम्हारी आँखों का यह तीखा दर्द भरा व्यंग्य मुझे एकदम रोक देता है।
तुम फोटो का महत्व नहीं समझते। समझते होते, तो किसी से फोटो खिंचाने के लिए जूते माँग लेते। लोग तो मांगे के कोट से वर-दिखाई करते हैं। और मांगे की मोटर से बारात निकालते हैं। फोटो खिंचाने के लिए तो बीवी तक मांग ली जाती है, तुमसे जूते ही मांगते नहीं बने! तुम फोटो का महत्व नहीं जानते। लोग तो इत्र चुपडक़र फोटो खिंचाते हैं जिससे फोटो में खुशबू आ जाए! गंदे-से-गंदे आदमी की फोटो भी खुशबू देती है!
टोपी आठ आने में मिल जाती है और जूते उस ज़माने में भी पांच रुपये से कम में क्या मिलते होंगे। जूता हमेशा टोपी से कीमती रहा है। अब तो जूते की कीमत और बढ़ गई है और एक जूते पर पचीसों टोपियां न्योछावर होती हैं। तुम भी जूते और टोपी के आनुपातिक मूल्य के मारे हुए थे। यह विडंबना मुझे इतनी तीव्रता से पहले कभी नहीं चुभी, जितनी आज चुभ रही है, जब मैं तुम्हारा फटा जूता देख रहा हूं। तुम महान कथाकार, उपन्यास-सम्राट, युग-प्रवर्तक, जाने क्या-क्या कहलाते थे, मगर फोटो में भी तुम्हारा जूता फटा हुआ है!
मेरा जूता भी कोई अच्छा नहीं है। यों ऊपर से अच्छा दिखता है। अंगुली बाहर नहीं निकलती, पर अंगूठे के नीचे तला फट गया है। अंगूठा ज़मीन से घिसता है और पैनी मिट्टी पर कभी रगड़ खाकर लहूलुहान भी हो जाता है। पूरा तला गिर जाएगा, पूरा पंजा छिल जाएगा, मगर अंगुली बाहर नहीं दिखेगी। तुम्हारी अंगुली दिखती है, पर पांव सुरक्षित है। मेरी अंगुली ढकी है, पर पंजा नीचे घिस रहा है। तुम परदे का महत्त्व ही नहीं जानते, हम परदे पर कुर्बान हो रहे हैं!
तुम फटा जूता बड़े ठाठ से पहने हो! मैं ऐसे नहीं पहन सकता। फोटो तो जि़ंदगी भर इस तरह नहीं खिचाऊं, चाहे कोई जीवनी बिना फोटो के ही छाप दे।
तुम्हारी यह व्यंग्य-मुस्कान मेरे हौसले पस्त कर देती है। क्या मतलब है इसका? कौन सी मुस्कान है यह?
क्या होरी का गोदान हो गया?
क्या पूस की रात में नीलगाय हलकू का खेत चर गई?
क्या सुजान भगत का लडक़ा मर गया; क्योंकि डॉक्टर क्लब छोडक़र नहीं आ सकते?
नहीं, मुझे लगता है माधो औरत के कफन के चंदे की शराब पी गया। वही मुस्कान मालूम होती है।
मैं तुम्हारा जूता फिर देखता हूँ। कैसे फट गया यह, मेरी जनता के लेखक?
क्या बहुत चक्कर काटते रहे?
क्या बनिये के तगादे से बचने के लिए मील-दो मील का चक्कर लगाकर घर लौटते रहे?
चक्कर लगाने से जूता फटता नहीं है, घिस जाता है। कुंभनदास का जूता भी फतेहपुर सीकरी जाने-आने में घिस गया था। उसे बड़ा पछतावा हुआ। उसने कहा- ‘आवत जात पन्हैया घिस गई, बिसर गयो हरि नाम।’
और ऐसे बुलाकर देने वालों के लिए कहा था—‘जिनके देखे दुख उपजत है, तिनको करबो परै सलाम!’
चलने से जूता घिसता है, फटता नहीं। तुम्हारा जूता कैसे फट गया?
मुझे लगता है, तुम किसी सख्त चीज़ को ठोकर मारते रहे हो। कोई चीज़ जो परत-पर-परत सदियों से जम गई है, उसे शायद तुमने ठोकर मार-मारकर अपना जूता फाड़ लिया। कोई टीला जो रास्ते पर खड़ा हो गया था, उस पर तुमने अपना जूता आज़माया।
तुम उसे बचाकर, उसके बगल से भी तो निकल सकते थे। टीलों से समझौता भी तो हो जाता है। सभी नदियां पहाड़ थोड़े ही फोड़ती हैं, कोई रास्ता बदलकर, घूमकर भी तो चली जाती है।
तुम समझौता कर नहीं सके। क्या तुम्हारी भी वही कमज़ोरी थी, जो होरी को ले डूबी, वही ‘नेम-धरम’ वाली कमजोरी? ‘नेम-धरम’ उसकी भी ज़ंजीर थी। मगर तुम जिस तरह मुस्कुरा रहे हो, उससे लगता है कि शायद ‘नेम-धरम’ तुम्हारा बंधन नहीं था, तुम्हारी मुक्ति थी!
तुम्हारी यह पांव की अंगुली मुझे संकेत करती-सी लगती है, जिसे तुम घृणित समझते हो, उसकी तरफ हाथ की नहीं, पांव की अंगुली से इशारा करते हो?
तुम क्या उसकी तरफ इशारा कर रहे हो, जिसे ठोकर मारते-मारते तुमने जूता फाड़ लिया?
मैं समझता हूं। तुम्हारी अंगुली का इशारा भी समझता हूं और यह व्यंग्य-मुस्कान भी समझता हूं।
तुम मुझ पर या हम सभी पर हंस रहे हो, उन पर जो अंगुली छिपाए और तलुआ घिसाए चल रहे हैं, उन पर जो टीले को बरकाकर बाजू से निकल रहे हैं। तुम कह रहे हो- मैंने तो ठोकर मार-मारकर जूता फाड़ लिया, अंगुली बाहर निकल आई, पर पांव बच रहा और मैं चलता रहा, मगर तुम अंगुली को ढांकने की चिंता में तलुवे का नाश कर रहे हो। तुम चलोगे कैसे?
मैं समझता हूं। मैं तुम्हारे फटे जूते की बात समझता हूं, अंगुली का इशारा समझता हूं, तुम्हारी व्यंग्य-मुस्कान समझता हूं!
-डॉ. शारिक़ अहमद ख़ान
मुंशी प्रेमचंद,तांगे से हवाख़ोरी और ग़म की मूरत औरत। आज से सौ बरस पहले की बात होगी। गोरखपुर में रघुपति सहाय ‘फिऱाक़ गोरखपुरी’ और मुंशी प्रेमचंद को एक दूसरे की शब-ओ-सुब्ह-ओ-शाम की क़ुर्बत हासिल थी।उस वक्त फिऱाक़ सिफऱ् रघुपति सहाय हुआ करते थे।आज हम फिऱाक़ साहब के निवास लक्ष्मी भवन पर प्रेमचंद,फिऱाक़ और मजनूँ गोरखपुरी की एक बैठकी का जिक़्र करते हैं। उसके बयान से पहले फिऱाक़ और प्रेमचंद की दोस्ती पर कुछ रोशनी डालना हम मुनासिब समझते हैं। प्रेमचंद के एक यहाँ एक उर्दू की पत्रिका आया करती थी, जिसमें अक्सर लेखक नासिर अली ‘फिऱाक़’ का नाम शाया होता।रघुपति सहाय को ये नाम ‘फिऱाक़’ पसंद आया और उन्होंने इसे अपना तख़ल्लुस बना लिया। रघुपति सहाय अब रघुपति सहाय ‘फिऱाक़ गोरखपुरी’ हो गए। शायर हो गए और धूम मचा दी। मुंशी प्रेमचंद से फिऱाक़ की दोस्ती पुरानी थी। फिऱाक़ पीसीएस में चयनित हुए फिर आईसीएस हो गए।
फिर महात्मा गांधी की पुकार पर स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े और नौकरी से इस्तीफ़ा दे दिया। जेल भेज दिए गए। जेल से फिऱाक़ साहब ने हिंदी अख़बारों और रिसालों में छपने के लिए अपने लेख मुंशी प्रेमचंद को भेजे। वजह कि उर्दू अख़बार और रिसाले मुआवज़ा नहीं देते थे।मुफ़्त में लेख छापा करते। मुंशी प्रेमचंद ने फिऱाक़ के लेखों को हिंदी अख़बारों और रिसालों में छपवा दिया। इन लेखों से आमदनी हुई तो फिऱाक़ जेल में सिगरेट जैसे छोटे-मोटे ख़र्च चला लिया करते थे। जब फिऱाक़ आज़ादी की जंग लडऩे की वजह से जेल में बंद रहे तो मुंशी प्रेमचंद ने फिऱाक़ की इस तरह से मदद की। ख़ैर,अब हम सीधे फिऱाक़ के यहाँ गुजऱे मुंशी जी के एक दिन की बात करते हैं। ये कऱीब सौ बरस पहले का एक ख़ूबसूरत दिन था। फिऱाक़ साहब के यहाँ उर्दू आलोचक मजनूँ गोरखपुरी और मुंशी प्रेमचंद तशरीफ़ रखते थे। चर्चा का दौर जारी था। नोक-झोंक भी चल रही थी। सियासत पर भी चर्चा हो रही थी और जि़क्र-ए-बदहाली-ए-हिंद भी था। ग़ुलामी की जज़ीरें कैसे तोड़ी जाएं इसके लिए किसी ख़ास दर्शन को अपनाने की बात भी हो रही थी। यूँ तो मुंशी प्रेमचंद को मज़दूरों और किसानों की शायरी में कम दिलचस्पी थी लेकिन सबकी नजऱ में समाजवादी दर्शन आज़ाद हिंद के लिए जंच रहा था। प्रेमचंद को डिकेंस पसंद थे और फिऱाक़ ‘अंकल टॉमस केबिन’ और हैरियट बीचर का जिक़्र कर रहे थे। प्रेमचंद ने कहा कि डिकेंस की साहित्य में वो हैसियत है कि सूखे पेड़ को भी छू लें तो हरा हो जाता है, जंगल हो जाता है, ख़ुशरंग फलों-फूलों से लद जाता है और परिंदों का बसेरा हो जाता है। मजनूँ गोरखपुरी इकबाल की आलोचना कर रहे थे और फिऱदौसी की बातें कर रहे थे।
प्रेमचंद ने पूछा कि कॉक एंड बुल स्टोरी की शुरूआत कहाँ से हुई। फिऱाक़ साहब ने कहा कि बकिंघम शायर से जहाँ स्टोनी स्टेट फ़ोर्डस् हाई स्ट्रीट में काक और बुल नाम की दो पुरानी सरायें थीं। वहीं से कॉक एंड बुल स्टोरी की दागबेल पड़ी। मुंशी प्रेमचंद ने कहा कि रघुपति के पास बैठकर नायाब जानकारियाँ हासिल होती हैं। फिऱाक़ कहते कि यूँ तो मुंशी प्रेमचंद मेरे पिता की उम्र के नहीं थे लेकिन पिता के गुजऱने के बाद मुझे दिमाग़ी ख़ुराक देने में मुंशी जी का बहुत योगदान है।वो मेरे लिए फ़ादर्ली फिगर जैसे ही थे। मुझसे गीता के कई हिस्सों का अनुवाद नज़्म के तौर पर करवाया और वो भी छपवा दिया। मुझे फिऱाक़ के रूप में स्थापित करने में मुंशी प्रेमचंद का बहुत बड़ा योगदान है।लेकिन मैं उनसे कहा करता कि आपकी चेतना कुछ लिजलिजी है और आप देहाती किस्म के इंसान हैं। मुंशी प्रेमचंद बहुत ज़ोर-ज़ोर से और ठहाका मारकर हंसते। ख़ैर,अब फिर फिऱाक़ की उस बैठक में चलते हैं जहाँ प्रेमचंद -फिऱाक़ और मजनूँ की तिकड़ी जमा है।
प्रेमचंद ने कहा कि कुछ भूख सी लग आई है।गोरखपुर में उन दिनों हालसीगंज चिडिय़ों और मछली की बहुत अच्छी बाज़ार हुआ करती थी। वहीं से बटेर आई, लालसर चिडिय़ा लायी गई, उम्दा किस्म की मछली आई और पकाई गई। भिंडी की सब्ज़ी,कबाब ख़ुश्का चावल और पुलाव पका। केलनर के यहाँ से जिन और लेमनेड वग़ैरह आ गई।कबाब के साथ जिन पी गई और बटेर-लालसर-मछली वग़ैरह नोश फऱमाई गई। फिऱाक़ गावतकिए के सहारे अधलेटे हुए जिन पी रहे थे और उनके पैराडॉक्सिकल बयानात जारी थे। मजनूँ को कबाब बहुत पसंद आए और प्रेमचंद तो हर चीज़ की तारीफ़ करते रहे। फिऱाक़ बाग़-बाग़ हो गए। फिऱाक़ ने मुंशी प्रेमचंद से पूछा कि आपने कभी मोहब्बत की है। प्रेमचंद ने कहा कि एक घास काटने वाली से मोहब्बत थी लेकिन इज़हार नहीं कर पाया।वो हमारे यहाँ घास काटने आती थी। मैं उससे बस यही बता पाया कि यहाँ भी हरी घास है,वहाँ भी है। ये सुन वो हरी घास काट लेती। बहरहाल, थोड़े आराम के बाद उम्दा किस्म के जाफरान और किवाम की तंबाकू वाला हुक्का जगाया गया। फिर इलाही तांगे वाले का इक्का आया। फिऱाक़ ने इक्के पर सवार होते ही कहा कि इस घोड़ी की पीठ पर पड़ा एक भी हंटर मेरी पीठ पर पड़ा हंटर होगा। घोड़ी को चाबुक ना मारा जाए।इशारे से चलाया जाए। इलाही तांगेवाले ने कहा कि ऐसा ही होगा। तांगे पर प्रेमचंद-फिऱाक़ और मजनूँ सवार थे। सैर करते हुए एक जगह सबने देखा कि एक बेहद ख़ूबसूरत और जवान औरत एक आम के दरख़्त की डाल पकड़े खड़ी है और दुख की मूरत बनी है। ना जाने किस ख़्याल में डूबी है और ग़मज़दा मालूम देती है। फिऱाक़ ने इलाही तांगेवाले से बस इतना ही कहा कि ‘भई इक्का घुमाकर वापस ले चलो।’ रास्ते भर फिऱाक़-प्रेमचंद और मजनूँ ख़ामोश रहे। सबके दिलों में दर्द की हूक सी उठ रही थी।शाम गहरा गई और ग़म बढ़ता ही चला गया। सब यही सोचते रहे कि आखिऱ क्या ग़म होगा उस ख़ूबसूरत औरत को। शायद गऱीबी,या कोई मनहूस घटना, चूल्हे में आग का ना होना, शौहर की बीमारी और पैसे का ना होना, ना जाने क्या-क्या सोचते हुए सब तांगे पर हिचकोले खाते रहे। पूरा सफऱ सांय-सांय करने लगा। तभी आसमान में स्याही उभर आयी। सब तांगे से उतरे। कोई किसी से एक शब्द नहीं बोला। प्रेमचंद अपनी राह गए। मजनूँ ने अपनी राह पकड़ी। फिऱाक़ ने तांगे वाले इलाही से बस इतना कहा कि ‘जाओ भई तुम भी जाओ।’ फिऱाक़ लक्ष्मी भवन में वापस आ गए। जैसे त्योहार के बाद शाम सूनी और उदास होती है, वैसी कैफिय़त माहौल पर तारी हो गई। जबकि अभी दिन में ही तो प्रेमचंद की मौजूदगी में बज़्मे-तरब की महफि़ल ने रंग जमाया था।
लखनऊ के एक तांगे की तस्वीर मेरे कैमरे से।
-गिरीश मालवीय
राम कदम ने इस गेम के बारे में विस्तार से बताते हुए कहा, ‘राज कुंद्रा की विआन इंडस्ट्री के नाम पर कंपनी है, जिसमें वह डायरेक्टर है। विआन कंपनी का एक ऑनलाइन गेम है, जिसका नाम है GOD (Game of Dots )। इस गेम को वैध खेल बताया गया है। इस खेल का प्रमोशन करते हुए पहले बताया गया था कि यह गेम सरकार की तरफ से मान्यताप्राप्त है। इस खेल में प्राइज मनी देने की बात भी की गई थी। गेम का नाम पर लोगों से पैसे ठगे गए। 2500 से 3000 करोड़ का घोटाला विआन इंडस्ट्री ने किया है।
दरअसल G.O.D ऑनलाइन गेम है जो पारंपरिक ‘स्पॉट-द-बॉल’ गेम से प्रेरित है। इसमे एक चित्र में क्रिकेट गेंद की स्थिति निर्धारित कर उसका स्पॉट ढूंढना होता है दो दिन पहले अहमदाबाद गुजरात के रहने वाले व्यापारी हीरेन परमार ने राज कुंद्रा पर धोखाधड़ी करने का आरोप लगाया था .....हिरेन को राज कुंद्रा की कम्पनी के इस गेम का डिस्ट्रीब्यूटर बनने को कहा गया था और इसके लिए उनसे तकरीबन 3 लाख रुपए भी लिए गए थे। लेकिन उन्हें डिस्ट्रीब्यूटरशिप आज तक नहीं दी गयी।
यह चित्र 2019 का है जब राज कुंद्रा को चैम्पियंस ऑफ चेंज अवॉर्ड से नवाजा गया था, उन्हें मोदी सरकार की ओर से पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने ये अवॉर्ड दिया था जो स्वच्छ भारत मिशन उनके योगदान के लिये दिया गया था।
वाकई राज कुंद्रा ‘चैम्पियंस ऑफ चेंज’ अवार्ड के हकदार है।
-रमेश अनुपम
छत्तीसगढ़ एक उर्वर और रत्नगर्भा भूमि है जिसकी कोख में न जाने कितने अनमोल रत्न छिपे हुए हैं। जगन्नाथ प्रसाद ‘भानु’ छत्तीसगढ़ के एक ऐसे ही अनमोल रत्न हैं।
जगन्नाथ प्रसाद ‘भानु’ छत्तीसगढ़ के ही नहीं, संपूर्ण हिंदी साहित्य गैलेक्सी के एक उज्ज्वल सितारे हैं। इस गैलेक्सी के उन तीन उज्ज्वल सितारों में (ठाकुर जगमोहन सिंह तथा माधवराव सप्रे सहित) वे भी शामिल हैं। तीनों ही समकालीन, तीनों ही अभिन्न मित्र, तीनों ही छत्तीसगढ़ गैलेक्सी के सबसे उज्ज्वल सितारे।
जगन्नाथ प्रसाद ‘भानु’ के बिना छत्तीसगढ़ का इतिहास लिखा जाना कभी संभव न होगा। वे छत्तीसगढ़ के दुर्लभ और मूल्यवान रत्न थे। बिलासपुर और छत्तीसगढ़ को संस्कारित किए जाने में उनके अमूल्य अवदान को आज छत्तीसगढ़ ने ही भुला दिया है।
आज छत्तीसगढ़ में ही जगन्नाथ प्रसाद ‘भानु’ को कितने लोग जानते होंगे? कितने लोग उनके बहुमूल्य योगदान के बारे में जानकर प्रमुदित होते होंगे कि हमारे इस राज्य में उनके जैसा एक बहुमूल्य रत्न भी था, जिससे हमारा अंचल बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में गौरवान्वित हुआ करता था।
बिलासपुर का नाम पूरे देश और दुनिया में रौशन करने वाले जगन्नाथ प्रसाद ‘भानु’, ई राघवेंद्र राव, बैरिस्टर छेदीलाल और पंडित सत्यदेव दुबे जैसे छत्तीसगढ़ के बेशकीमती हीरों को जानने तथा पहचानने वाले आज कितने लोग बिलासपुर तथा छत्तीसगढ़ में बचे होंगे ?
आधुनिक बिलासपुर के निर्माण में जिस मनीषी की सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका रही हैं उसी को आज हम सबने भुला दिया है।
जगन्नाथ प्रसाद ‘भानु’ ने ही सन 1915 में देश की आजादी से बत्तीस वर्ष पूर्व बिलासपुर नगर में को-ऑपरेटिव बैंक की स्थापना की तथा मध्यप्रदेश में (हालांकि तब तक यह सी.पी.एंड बरार. का एक हिस्सा भर था) सहकारिता आंदोलन को जन्म दिया।
जगन्नाथ प्रसाद ‘भानु’ जितने उच्चकोटि के साहित्यकार थे उतने ही समाज में अपनी अग्रणी भूमिका निभाने वाले एक महान और सच्चे सपूत भी थे।
यह उल्लेखनीय है कि हिंदी, अंग्रेजी और उर्दू के विद्वान जगन्नाथ प्रसाद ‘भानु’ ने लगभग पंद्रह ग्रंथों की रचनाएं की है, जो हिंदी साहित्य की अमूल्य निधि मानी जाती है। ‘भानु’ जी काव्य शास्त्र के निष्णात पंडित थे।
हिंदी में लिखे गए महत्वपूर्ण ग्रंथों में ‘छंद प्रभाकर’, ‘काव्यप्रभाकर’, ‘छंद सारावली’, ‘हिंदी काव्यालंकार’, ‘काव्यप्रबंध’, ‘काव्य कुसुमांजलि’, ‘रस रत्नाकर’ और ‘अलंकार दर्पण’ उनके काव्य शास्त्र संबंधी सुप्रसिद्ध ग्रंथ हैं।
इसके अतिरिक्त ‘नवपंचामृतरामायण’, श्री तुलसी तत्व प्रकाश’, ‘रामायण वर्णावली’, ‘श्री तुलसी भाव प्रकाश’, ‘काल प्रबोध’, ‘अंक विलास’ उनके उल्लेखनीय ग्रंथ हैं।
इनके अतिरिक्त ‘जयहरीचालीसा’ तथा ‘तुम ही तो हो’ दो अन्य काव्य ग्रंथ है।
अंग्रेजी में लिखे गए ग्रंथों में ‘की टू परपेचुवल कैलेंडर बी सी’, ‘की टू परपेचुवल कैलेंडर ए डी’, ‘कॉम्बिनेशन एंड परमुरेशन ऑफ फिंगर्स’ प्रसिद्ध ग्रंथ हैं।
‘भानु’ जी के दो उर्दू में भी कलाम हैं ‘गुलजारे सुखन’ और ‘गुलजारे फैज’।
‘गुलजार ए सुखन’ और ‘गुलजार ए फैज’ दोनों का हिंदी लिप्यांतरण सन 2007 तक उपलब्ध नहीं था। जब मैं छत्तीसगढ़ के छ: सौ वर्षों की काव्य यात्रा पर काम कर रहा था, उन्हीं दिनों मैंने उर्दू के विद्वान डॉ. मुहम्मद खालिद अली इकबाल जो बिलासपुर के ही कॉलेज में उर्दू पढ़ा रहे थे उनसे अनुरोध कर ‘गुलजार ए सुखन’ के कुछ गजलों का हिंदी में तर्जुमा करवाया था और उसे ‘जल भीतर इक बृच्छा उपजै’ में प्रकाशित भी किया था।
सुप्रसिद्ध पिंगलाचार्य जगन्नाथ प्रसाद ‘भानु’ का जन्म 8 अगस्त सन 1859 को नागपुर के एक प्रतिष्ठित परिवार में हुआ था।
वे बचपन से ही अपने पिता बख्शी राम जी के साथ छत्तीसगढ़ के बिलासपुर आ गए थे। उनकी शिक्षा-दीक्षा भी बिलासपुर में ही संपन्न हुई थी।
सन 1880 में बिलासपुर में शिक्षा विभाग में उन्हें नौकरी भी मिल गई थी। मेधावी होने के फलस्वरूप उन्हें शासकीय सेवा में लगातार पदोन्नतियां मिलती चली गई। कालांतर में वे बिलासपुर में ही असि.सेटलमेंट ऑफिसर के पद पर नियुक्त किए गए। बिलासपुर में ही वे 17 वर्षों तक आनरेरी मजिस्ट्रेट के पद पर कार्य करते रहे।
हिंदी साहित्य के प्रति जगन्नाथ प्रसाद ‘भानु’ के समर्पण को देखते हुए हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा सन 1938 में महात्मा गांधी, डॉ. ग्रियर्सन तथा पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी के साथ भानु जी को भी च् साहित्य वाचस्पति ’ की उपाधि से सम्मानित किया गया था।
भारत सरकार द्वारा उनकी अद्वितीय प्रतिभा के फलस्वरूप उन्हें सन 1940 में ‘महा महोपाध्याय’ जैसी गौरवशाली उपाधि से विभूषित किया गया था।
(बाकी अगले हफ्ते)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
सरकार ने मेडिकल की पढ़ाई में अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए 27 प्रतिशत और आर्थिक रुप से कमजोर वर्ग के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण की घोषणा की है। यह आरक्षण एमबीबीएस, एमडी, एमएस, डिप्लोमा, बीडीएस और एमडीएस आदि सभी कक्षाओं में मिलेगा। आरक्षण का यह प्रावधान सरकारी मेडिकल कालेजों पर लागू होगा। इस आरक्षण के फलस्वरुप स्नातक सीटों पर 1500 और स्नात्तकोत्तर सीटों पर 2500 सीटों का लाभ अन्य पिछड़ा वर्ग को मिलेगा।
सरकार का कहना है कि इस नई व्यवस्था से सामान्य वर्ग के छात्रों का कोई नुकसान नहीं होगा, क्योंकि एमबीबीएस की 2014 में 54 हजार सीटें थीं, वे 2020 में बढ़कर 84000 हो गई हैं और एमडी की सीटें 30 हजार से बढ़कर 54000 हो गई हैं। पिछले सात वर्षों में 179 नए मेडिकल कालेज खुले हैं। सरकार का यह कदम उसे राजनीतिक फायदा जरुर पहुंचाएगा, क्योंकि उत्तरप्रदेश के चुनाव सिर पर है और वहां पिछड़ों की संख्या सबसे ज्यादा है।
ये अलग बात है कि अनुसूचितों और पिछड़ों के लिए जितनी सीटें नौकरियों और शिक्षा-संस्थाओं में आरक्षित की जाती हैं, वे ही पूरी नहीं भर पाती हैं। नौकरियों में योग्यता के मानदंडों को शिथिल करके जाति या किसी भी बहाने से आरक्षण देना देश के लिए हानिकर है। वह तो तुरंत समाप्त होना ही चाहिए लेकिन शिक्षा और चिकित्सा में आरक्षण देना और ये दोनों चीजें आरक्षितों को मुफ्त उपलब्ध करना बेहद जरुरी है। आजकल स्कूलों और अस्पतालों में जैसी खुली लूटपाट मची हुई है, वह कैसे रुकेगी?
यह आरक्षण 70-80 प्रतिशत तक भी चला जाए तो इसमें कोई बुराई नहीं है लेकिन इसका आधार जाति या मजहब बिल्कुल नहीं होना चाहिए। इसका एकमात्र आधार जरुरत याने गरीबी होना चाहिए। पिछड़ा तो पिछड़ा है, उसकी जाति चाहे जो भी हो। मेडिकल की पढ़ाई में गरीबों को 10 प्रतिशत की जगह 70-80 प्रतिशत आरक्षण मिले तो हम सभी जातियों, सभी धर्मों और सभी भारतीय नागरिकों को उचित और विशेष अवसर दे सकेंगे।
सैकड़ों वर्षों से अन्याय के शिकार हो रहे हर नागरिक को विशेष अवसर अवश्य मिलना चाहिए लेकिन विशेष का उचित होना भी अत्यंत जरुरी है। जो अनुसूचित और पिछड़े लोग करोड़पति हैं या मंत्री, मुख्यमंत्री, डॉक्टर, प्रोफेसर या उद्योगपति रहे हैं, उनके बच्चों को विशेष अवसर देना तो इसका मजाक बनाना है। लेकिन देश की किसी भी राजनीतिक पार्टी में इतना दम नहीं है कि वह इस कुप्रथा का विरोध करे।
हर पार्टी थोक वोट के लालच में फंसी रहती है। इसीलिए जातिवाद का विरोध करेनवाली भाजपा और संघ के प्रधानमंत्री को भी अपने नए मंत्रिमंडल के सदस्यों का जातिवादी परिचय कराना पड़ गया। भारत की राजनीति के शुद्धिकरण का पहला कदम यही है कि जाति और मजहब के नाम पर चल रहा थोक वोटों का सिलसिला बंद हो।
(नया इंडिया की अनुमति से)
वर्ल्ड इकॉनमिक फोरम की लैंगिक समानता दिखाने वाली 'ग्लोबल जेंडर गैप इंडेक्स' रिपोर्ट में भारत 156 देशों की लिस्ट में नीचे से 17वें स्थान पर चला गया है. जिसका मतलब हुआ कि यहां महिलाओं की स्थिति लगातार खराब हो रही है.
डॉयचे वैले पर अविनाश द्विवेदी की रिपोर्ट
भारत की इन दो तस्वीरों को देखिए. हाल ही में भारत सरकार ने मंत्रिमंडल में बदलाव किए, जिसके बाद केंद्र सरकार में महिला मंत्रियों की संख्या बढ़कर 11 हो गई. इसकी काफी तारीफ हुई और सोशल मीडिया पर सभी महिला मंत्रियों की एक-साथ ली गई तस्वीर शेयर की जाती रही.
दूसरी ओर साल 2021 में वर्ल्ड इकॉनमिक फोरम की लैंगिक समानता दिखाने वाली 'ग्लोबल जेंडर गैप इंडेक्स' रिपोर्ट में भारत 156 देशों की लिस्ट में नीचे से 17वें स्थान पर चला गया. जिसका मतलब हुआ कि यहां महिलाओं की स्थिति लगातार खराब हो रही है.
इस बात को उतनी तवज्जो नहीं मिल सकी. महिलाओं के प्रतिनिधित्व के मामले में भारत दक्षिण एशिया में सबसे खराब प्रदर्शन करने वाले देशों में से एक है. इससे खराब प्रदर्शन सिर्फ पाकिस्तान और अफगानिस्तान का रहा है जबकि बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका, मालदीव और भूटान सभी उससे आगे निकल चुके हैं.
वहीं महिलाओं के राजनीतिक रूप से सशक्त होने की बात करें तो भारत की रैंक इस साल 51 हो चुकी है, जो पिछले साल 18 थी. यह सारी चर्चा इसलिए क्योंकि फिलहाल भारत में महिलाओं से जुड़े कुछ जरूरी कानून बनाए जा रहे हैं, जिन्हें बनाने में महिलाएं की संख्या न के बराबर है.
बेहद जरूरी कानून
ये कानून हैं, यूनीफॉर्म सिविल कोड और जनसंख्या नियंत्रण कानून. जनसंख्या नियंत्रण कानून असम और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में तैयार किया जा चुका है जबकि कई अन्य बीजेपी शासित राज्य ऐसे कानून बनाने की अभी तैयारी कर रहे हैं. जनसंख्या नियंत्रण कानून में दो से ज्यादा बच्चे पैदा करने पर चुनाव लड़ने से रोक और सरकारी सब्सिडी खत्म किए जाने का प्रावधान है जबकि यूनिफॉर्म सिविल कोड सभी समुदायों के लिए शादी और तलाक संबंधी एक जैसे नियमों की वकालत करता है.
फिलहाल भारत में सुगबुगाहट है कि हर साल 5 अगस्त को बड़े कदम उठाने के लिए चर्चित वर्तमान बीजेपी सरकार इस साल यूनीफॉर्म सिविल कोड लागू कर सकती है. महिलाओं के लिए बेहद जरूरी माने जा रहे इन कानूनों में जानकार दो स्तरों पर समस्या देख रही हैं.
पहली, इन्हें बनाने में महिलाओं का योगदान नगण्य है और दूसरी कि इस बात की गारंटी नहीं है कि इन कानूनों के बन जाने से एक ऐसा समाज बनाया जा सकेगा, जिसमें लैंगिक न्याय सुनिश्चित हो.
दूसरा डर भी पहले डर से ही जुड़ा है. कई जानकार यह सवाल पूछती हैं कि क्या ये कानून सिर्फ पुरुषों द्वारा महिलाओं के लिए बनाए गए कानून नहीं होंगे. उनके डर के लिए पर्याप्त वजहें भी उपलब्ध हैं. हाल ही में भारत के पांच राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में हुए विधानसभा चुनावों में महिलाओं की हिस्सेदारी नहीं बढ़ सकी.
ज्यादातर राज्यों में कुल मतदाताओं की करीब 50% महिलाएं हैं लेकिन इन चुनावों में महिला उम्मीदवार मात्र 10 फीसदी रहीं. केरल में 9 फीसदी, असम में 7.8 फीसदी महिलाएं ही उम्मीदवार थीं जबकि तमिलनाडु, पुद्दुचेरी में करीब 11 फीसदी उम्मीदवार महिलाएं रहीं.
पुरुष ले रहे महिलाओं से जुड़े फैसले
ऐसा नहीं है कि भारत में महिलाएं राजनीति को लेकर उदासीन हैं. केरल की कांग्रेस नेता लतिका सुभाष इस बात की मिसाल हैं. पिछले विधानसभा चुनावों में टिकट न मिलने के विरोध में उन्होंने अपना मुंडन करा लिया था. एक मीडिया बातचीत में उन्होंने कहा, "मैंने उम्मीदवारों में महिलाओं के लिए कम से कम 20 फीसदी टिकट रिजर्व किए जाने की बात की थी. ऐसा नहीं है कि भारत के बड़े राजनीतिक दलों में महिलाओं का अभाव है लेकिन उन्हें लगातार नजरअंदाज किया जाता है और पार्टी चुनाव लड़ने के लिए टिकट नहीं देती."
भारत में कई महिलाएं बड़े राजनीतिक पद भी संभाल चुकी हैं लेकिन लोकसभा और सभी राज्यों की विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 फीसदी सीटें आरक्षित करने वाला महिला आरक्षण बिल साल 2010 से ही राज्यसभा में पास होने के बाद से ही लटका हुआ है.
जनसंख्या कानून बनाने वाले असम और उत्तर प्रदेश को ही ले लेते हैं, जिनकी विधानसभाओं में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 10% से भी कम है. असम की 126 सदस्यीय विधानसभा में महिलाओं की संख्या मात्र 6 है जबकि उत्तर प्रदेश की 403 सीटों वाली विधानसभा में मात्र 38 महिला विधायक हैं.
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की पोलित ब्यूरो सदस्य कविता कृष्णन इसके लिए भारतीय समाज की पुरुषवादी सोच को जिम्मेदार मानती हैं. वह कहती हैं, "हम समझ सकते हैं 90% से ज्यादा पुरुषों वाली कोई संस्था महिलाओं के लिए कितने संवेदनशील कानून बनाएगी."
वहीं कुछ जानकार यह तर्क भी देती हैं कि अगर पुरुष महिलाओं को समान अधिकार देने वाला 'आदर्श' कानून बना भी लेते हैं तो भारत में कानून लागू कराने वाले प्रशासन की जो पुरुषवादी मानसिकता है क्या वह इन्हें प्रभावी रहने देगी?
कानूनों में गड़बड़ी के पर्याप्त आसार
यूनिफॉर्म सिविल कोड की बात भारतीय संविधान के अनुच्छेद 44 में आती है लेकिन यह कैसा होगा, इसे संविधान में साफ नहीं किया गया है, न ही संविधान सभा ने इसे लेकर स्पष्टता दिखाई है. जानकार डर जताती हैं कि पुरुषों के बनाए कानून के गोवा के यूनिफॉर्म सिविल कोड (पुर्तगाली सिविल प्रोसीजर कोड) जैसे हो जाने का डर है.
इसमें कैथलिक लोगों पर अन्य समुदाय से अलग नियम लागू होते हैं. गोवा का यह कानून हिंदू मर्दों को अब भी विषेश परिस्थितियों में दो शादियां करने का अधिकार देता है जैसे कि तब, जब उसकी पत्नी बच्चे न पैदा कर सकती हो.
नारीवादी कार्यकर्ता कविता कृष्णन कहती हैं, "भारत की ज्यादातर समस्याओं की जड़ संसाधनों का असामान्य वितरण है, न कि गरीबी और जनसंख्या. ऐसे में सबसे जरूरी है कि कानून लोकतांत्रिक हो न कि महिलाओं के अधिकारों पर प्रतिबंध लगाने वाला. कानून का लक्ष्य महिलाओं को ज्यादा से ज्यादा शिक्षा, नौकरियां और सुविधाएं देने वाला होना चाहिए, न कि अधिकारों से रोक देने वाला. जबकि वर्तमान जनसंख्या कानून इससे उलट हैं."
फायदे नहीं, नुकसान कई
जानकारों के मुताबिक फिलहाल जिस रूप में जनसंख्या नियंत्रण कानूनों को पेश किया जा रहा है, उससे महिलाओं के स्वास्थ्य पर बुरा असर होने का डर है. इन कानूनों के लागू होने के बाद भारत के पुरुषवादी समाज में लड़के की चाहत में महिलाओं को बार-बार गर्भपात कराने पर मजबूर किया जा सकता है, जबकि पहले ही भारत में दूसरे और तीसरे बच्चे के तौर पर लड़कियों का अनुपात लगातार तेजी से गिर रहा है.
कविता कृष्णन कहती हैं, 'यूपी सरकार की ओर से बताया गया है कि बिल पर 8,500 लोगों ने प्रतिक्रिया दी है, जिनमें से सिर्फ 0.5 फीसदी ही इसके खिलाफ हैं. मैं मान लेती हूं कि प्रतिक्रिया देने वालों में महिलाएं भी शामिल होगीं लेकिन यह इस बात की गारंटी नहीं कि कानून लागू होने पर उनपर बुरा असर नहीं होगा. हम अंदाजा लगा सकते हैं कि जब भारत में घर के फैसले लेने में महिलाओं का योगदान बेहद कम है, तो गर्भधारण और गर्भपात जैसे अहम फैसलों में उनकी कितनी सुनी जाएगी.'
जानकार यह भी मानते हैं कि इस कानून का सबसे बुरा असर समाज में हाशिए पर पड़ी महिलाओं को झेलना होगा और यह राजनीति में उनके दखल को बढ़ाने के बजाए कम करने का काम करेगा. पिछले कुछ सालों से भारत में स्थानीय निकायों और पंचायतों में महिलाओं की भागीदारी बढ़ रही थी, इन कानूनों से उस पर भी बुरा असर होने का डर बन गया है.
नये कानूनों के मुताबिक 15-49 की उम्र की महिलाओं को अगर तीसरा बच्चा पैदा होता है, तो न सिर्फ उनकी राजनीतिक भागीदारी बल्कि सामाजिक सुरक्षा, जैसे सब्सिडी आदि भी छीन ली जाएगी. (dw.com)
बाइडेन प्रशासन के दो महत्वपूर्ण पदाधिकारी - विदेशमंत्री एंटनी ब्लिंकेन और उपविदेश मंत्री वेंडी शर्मन ने बीते दिनों एशिया का दिलचस्प दौरा किया. इन दौरों का हासिल क्या रहाय़
डॉयचे वैले पर राहुल मिश्र की रिपोर्ट
अमेरिकी विदेशमंत्री एंटनी ब्लिंकेन 27 जुलाई को अपनी दो- दिवसीय यात्रा पर भारत आये तो वहीं उपविदेश मंत्री वेंडी शर्मन 25 और 26 जुलाई को चीन के दौरे पर रहीं.
अपनी भारत यात्रा के दौरान ब्लिंकेन विदेशमंत्री एस जयशंकर, राष्ट्रीय रक्षा सलाहकार अजीत डोभाल, और प्रधानमंत्री मोदी से भी मिले और कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर भारत-अमेरिका संबंधों की महत्ता पर काफी प्रकाश डाला. ब्लिंकेन की यात्रा से भारत और अमेरिका संबंधों में और मजबूती आयी है.
दोस्ती की चाशनी में और मिठास घोलने की कोशिश के तहत ब्लिंकेन ने अमेरिकी सरकार की तरफ से भारत को वैक्सीन की खरीद के लिए 2.5 करोड़ अमेरिकी डॉलर की मदद की भी घोषणा की. दोस्त वही है जो बुरे वक़्त में जो साथ दे - अच्छे वक़्त में तो सब यार हैं. कोविड काल की मार झेल चुके अमेरिका और भारत इस बात से अच्छी तरह वाकिफ हैं. जब अमेरिका में कोविड महामारी का प्रकोप अपने चरम पर था तब भारत ने भी अपनी क्षमतानुसार अमेरिका की मदद की थी.
क्वॉड पर जोर
ब्लिंकेन की भारत यात्रा जयशंकर की मई 2021 यात्रा की दोस्ताना रिटर्न विजिट के तौर पर हुई है. ब्लिंकेन से पहले अमेरिकी रक्षा मंत्री लॉयड ने भी मार्च 2021 में भारत का सफल दौरा किया था और अप्रैल में जलवायु परिवर्तन से जुड़े मामलों पर अमेरिकी प्रशासन के विशेष दूत केरी ने भी अप्रैल 2021 में भारत का दौरा किया था.
ब्लिंकेन की यात्रा अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन के इस वक्तव्य के मद्देनजर काफी महत्वपूर्ण हो जाती है जिसमें उन्होंने अमेरिका, जापान, भारत और आस्ट्रेलिया के साझा सामरिक गठबंधन क्वॉड्रिलेटरल सिक्योरिटी डायलॉग – क्वॉड की शिखर वार्ता आयोजित करने की पेशकश की.
माना जा रहा है कि क्वॉड की यह शिखर वार्ता संयुक्त राष्ट्र संघ की जनरल असेम्बली की बैठक की साइडलाइन में आयोजित होगी. गौरतलब है कि अगस्त में भारत संयुक्त राष्ट्र संघ सुरक्षा परिषद की अध्यक्षता भी करेगा. उम्मीद की जा रही है किॉक्वाड शिखर सम्मलेन के अलावा भारत और अमेरिका के बीच भी एक द्विपक्षीय शिखर बैठक भी होगी हालांकि इस सन्दर्भ में सुनिश्चित तौर पर कुछ कहने में अभी समय है.
क्वॉड को धीरे- धीरे संस्थागत रूप देने की बाइडेन प्रशासन की कवायद लगातार जारी है और इस कोशिश में धीरे-धीरे ही सही, क्वॉड के चारों सदस्य देशों को सफलता भी मिल रही है. क्वॉड वैक्सीन इनिशिएटिव को 2022 की शुरुआत तक लॉन्च करने पर भी दोनों देशों के नेताओं के बीच बात हुई. यह एक महत्त्वपूर्ण कदम है जिसकी सराहना की जानी चाहिए.
भारत का वैश्विक महत्व
इस सन्दर्भ में भारत और अमेरिका के बीच सुदृढ़ संबंध बुनियाद का काम करते हैं. इस बात का जिक्र और भारत-अमेरिका सामरिक साझेदारी का बखान प्रधानमंत्री मोदी ने ब्लिंकेन से मुलाकात के बाद सोशल मीडिया पर भी किया. इसकी झलक अमेरिकी विदेश मंत्री ब्लिंकेन के वक्तव्यों में भी देखने को मिली, खास तौर पर तब जब उन्होंने यह कहा कि बहुत कम ही रिश्ते हैं जो भारत और अमेरिका के रिश्तों से भी महत्वपूर्ण हैं.
इस वक्तव्य के दोनों ही पहलू दिलचस्प हैं - एक तो यह कि भारत और अमेरिका के सम्बन्ध खास हैं और महत्वपूर्ण भी, लेकिन यह भी कि इन संबंधों से भी महत्वपूर्ण कुछ और रिश्ते हैं और शायद भारत और अमेरिका को आपसी संबंधों को और मजबूत करने की कोशिश करनी चाहिए.
ब्लिंकेन ने अपने वक्तव्य में न सिर्फ भारत-अमेरिका संबंधों को दुनिया के सबसे अहम द्विपक्षीय संबंधों में से एक करार दिया बल्कि बातचीत के दौरान उठे मुद्दों से भी इस वक्तव्य की सच्चाई का आभास होता है.
भारतीय शीर्ष नेताओं के साथ बैठकों के दौरान ब्लिंकेन ने सिर्फ द्विपक्षीय मुद्दों पर ही विचार विमर्श नहीं किया बल्कि वैश्विक महत्त्व के बड़े मुद्दों जैसे कि अफगानिस्तान, पाकिस्तान और आतंकवाद से जुड़े मुद्दे, इंडो-पैसिफिक, खाड़ी देशों से जुड़े मुद्दे, कोविड महामारी और वैक्सीन से जुड़े मुद्दे, म्यांमार में लोकतंत्र बहाली, और संयुक्त राष्ट्र संघ में सुधार जैसे मुद्दों पर भी चर्चा और चिंतन हुआ.
जहां तक ब्लिंकेन की भारत यात्रा का सवाल है तो उसकी बड़ी उपलब्धि यही है कि इस वार्ता ने आगामी चतुर्देशीय क्वॉड और द्विपक्षीय भारत-अमेरिका शिखर वार्ता की तैयारियों के साथ-साथ भारत को इस बात का एहसास भी दिलाना था कि वैश्विक मामलों में भी अमेरिका भारत को एक बड़ा साझेदार और जिम्मेदार स्टेकहोल्डर समझता है.
चीन में शर्मन
जहां एक और ब्लिंकेन की यात्रा ने भारत और अमेरिका के आपसी संबंधों के बेहतर दिनों की उम्मीद और बुलंद की, तो वहीं अमेरिकी उपविदेश मंत्री वेंडी शर्मन की चीन की यात्रा कुछ खास उपलब्धि हासिल नहीं कर पाई. एशिया की दो महाशक्तियों के दौरे पर आये अमेरिकी विदेश मंत्री और उपविदेश मंत्री की यात्रा बिना कुछ कहे ही कई सन्देश दे गई.
सबसे पहला तो यही है कि एशिया में होने के बावजूद मंत्री ब्लिंकेन ने भारत आने का निर्णय लिया और चीन (जापान, कोरिया, और मंगोलिया) की यात्रा का जिम्मा उपविदेश मंत्री वेंडी शर्मन के जिम्मे कर दिया. कूटनीतिक संकेतों के माहिर और अक्सर राजनय की बड़ी-बड़ी बातों को इशारों में कह जाने के लती चीन को यह बात तो जरूर अखरी होगी.
जो भी हो, वेंडी शर्मन का पिछले हफ्ते का पूर्वी एशिया दौरा अपने में महत्वपूर्ण स्थान रखता है. मार्च 2021 में अलास्का में हुए चीन और अमेरिका मंत्री-स्तरीय वार्ता के असफल होने के बाद तियानजिन में जुलाई 2021 में हुई बैठक से चीन-अमेरिका संबंधों के समर्थकों की उम्मीदें थीं कि शायद दोनों देश बातचीत के जरिये संबंधों को वापस पटरी पर लाने की कोशिश करेंगे.
अफसोस कि ऐसा हुआ नहीं. आशाओं के बिलकुल उलट दोनों देशों के बीच हुई वार्ता न सिर्फ असफल रही बल्कि शायद तल्खियों की बातें भी दुनिया के सामने आई हैं. अपनी यात्रा के दौरान शर्मन ने चीनी विदेश मंत्री वांग यी और अन्य प्रमुख नेताओं के साथ बातचीत की. दोनों पक्षों के बीच की बातचीत में डैमेज कंट्रोल की कवायद और उम्मीद छायी रही.
कलह टालने की कोशिश
बातें इस मुद्दे पर भी हुईं कि कैसे दोनों महाशक्तियां अपने संबंधों को जिम्मेदाराना ढंग से चला सकें और इसके सुचारु रूप से चलाने के लिए क्या नियम बनाए जाएं. बेतकल्लुफी के अंदाज में वेंडी शर्मन ने यह भी कहा कि चीन और अमेरिका एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा करें, यह तो सही है लेकिन अमेरिका यह हरगिज नहीं चाहता है कि चीन के साथ उसके संबंधों में कलह और विवाद पैदा हों.
शर्मन अपनी बैठकों में चीन और अमेरिका के शासन-प्रशासन और विदेश नीति से जुड़े मूलभूत मूल्यों में पनपते मूलभूत मतभेदों की और इंगित करना नहीं भूलीं. उन्होंने चीन में मानवाधिकार हनन के मुद्दों को उठाया जो निश्चित तौर पर चीन को रास नहीं आया.
अमेरिकी विदेश मंत्रालय के अनुसार मंत्री शर्मन ने साइबर हैकिंग, ताइवान की सुरक्षा, कोविड महामारी की वजह-सम्बन्धी विश्व स्वास्थ्य संगठन की जांच में सहयोग, पूर्वी और दक्षिण पूर्वी सागर में चीन की अतिक्रमण की गतिविधियों पर भी बाइडेन प्रशासन के विचार और चिंताएं जाहिर कीं. साथ ही कई साझा हितों के मुद्दों पर भी बातें हुई जिनमें अफगानिस्तान, उत्तरी कोरिया, ईरान, और म्यांमार जैसे मुद्दे छाए रहे.
वहीं दूसरी और चीनी समाचार एजेंसी शिन्हुआ के अनुसार चीनी नेताओं ने भी अमेरिका को दो टूक सुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. शिन्हुआ के अनुसार वांग यी ने शर्मन से कहा कि अमेरिका को चीन-सम्बन्धी अपने ‘मिसगाइडेड माइंडसेट' और ‘खतरनाक नीतियों' - दोनों को छोड़ना चाहिए. चीन और अमेरिका के बीच संबंधों में कितना उतार आ चुका है इसका अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि उपविदेश मंत्री शर्मन बाइडेन प्रशासन की तरफ से चीन की यात्रा करने वाली सबसे उच्चासीन पदाधिकारी हैं.
भारत बनाम चीन
शर्मन की यात्रा के पीछे कहीं न कहीं एक मकसद यह भी था कि अक्टूबर 2021 में रोम में होने वाली G-20 की शिखर बैठक के दौरान जो बाइडेन और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच बात-चीत का रास्ता तलाशा जाए.
लेकिन यह सब कुछ इतना आसान नहीं है. चीन अब इस बात के लिए तैयार नहीं दिखता कि अमेरिका अपने को सबसे बड़ी महाशक्ति के तौर पर देखे. इस सन्दर्भ में वांग यी का वक्तव्य गौरतलब है जिसमें उन्होंने कहा कि अमेरिका को खुद को बेहतर और चीन को कमतर कर आंकना छोड़ना पड़ेगा.
जो भी हो, ब्लिंकेन और शर्मन की यात्राओं से आगामी समय के सामरिक और कूटनीतिक समीकरणों की रूपरेखा और साफ हो रही है. भारत के साथ अमेरिका की बढ़ती नजदीकियों में जहां इंडो-पैसिफिक व्यवस्था में भारत की बड़ी भूमिका एक अच्छी खबर है तो वहीं चीन के साथ अमेरिका और भारत दोनों के असहज रिश्ते इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में शांति और समृद्धि पर गहरे काले मंडराते बादलों की तरह. (dw.com)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत की दृष्टि से इधर दो विदेश-यात्राएं ध्यान देने लायक हुई हैं। पहली अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन की दिल्ली यात्रा और दूसरी तालिबान के नेता मुल्ला अब्दुल गनी बरादर की चीन-यात्रा! इन दोनों यात्राओं का उद्देश्य एक ही है। अपने-अपने हितों के लिए दूसरे राष्ट्रों को पटाना। ब्लिंकन भारत इसीलिए आए हैं कि अफगानिस्तान में वे अपनी जगह भारत को फंसाना चाहते हैं। भारत किसी भी हालत में अपनी सेनाएं काबुल नहीं भेजेगा लेकिन वह अशरफ गनी सरकार की सैनिक साज-सामान से मदद करता रह सकता है। वह अफगानों को सैनिक प्रशिक्षण देता रहा है और देता रहेगा लेकिन असली सवाल यह है कि इस वक्त ब्लिंकन भारत क्यों आए हैं ?
यह ठीक है कि तालिबान से दोहा में चल रही बातचीत में भारत को दर्शक की तरह शामिल कर लिया गया था लेकिन अमेरिका ने भारत सरकार से यह क्यों नहीं कहा कि वह तालिबान से सीधे बातचीत करे और अफगान सरकार और तालिबान का झगड़ा सुलझाए? यदि ऐसी कोशिश अमेरिका, रूस, चीन, तुर्की, पाकिस्तान और ईरान कर सकते हैं तो भारत क्यों नहीं कर सकता है? भारत को हाशिए में रखकर उसे अपने राष्ट्रहित के लिए इस्तेमाल करने की अमेरिकी नीति से भारत सरकार सावधान जरुर है लेकिन अफगान-मामले में उसका दब्बूपना समझ के बाहर है। हमारे विदेश मंत्री जयशंकर ने ब्लिंकन द्वारा उठाए गए भारत के लोकतांत्रिक मामलों का उचित कूटनीतिक भाषा में जवाब दिया है और ब्लिंकन ने भी अपने रवैए में जऱा नरमी दिखाई है लेकिन उन्होंने इस यात्रा के दौरान चीन पर जमकर निशाना साधा है।
दलाई लामा के प्रतिनिधि से मिलना भी इसका स्पष्ट संकेत है। चीन ने भी उसके लोकतंत्र के बारे में ब्लिंकन की टिप्पणी को आड़े हाथों लिया है। अफगानिस्तान का मामला अब अमेरिका और चीन की प्रतिस्पर्धा का मामला बनता जा रहा है। मुल्ला बरादर की चीन-यात्रा से ही शायद खफा होकर ब्लिंकन ने कह दिया कि यदि तालिबान हिंसा फैलाकर काबुल पर कब्जा कर लेंगे तो अफगानिस्तान दुनिया का अस्पृश्य राष्ट्र बन जाएगा। इस बात से भारत की सरकार को भी थोड़ा मरहम लगेगा लेकिन मुल्ला बरादर ने चीनी विदेश मंत्री वांग यी से मिलने के बाद चीनी मदद के लिए तहे-दिल से आभार माना है और चीन के उइगर मुसलमानों के आंदोलन से तालिबान को अलग कर लिया है। उसने काबुल के पास आयनक नामक 60 लाख टन तांबे की खदान में 3 ?बिलियन डॉलर लगाने का वादा किया है। उसका रेशम महापथ तो अफगानिस्तान से गुजरेगा ही। वह नए अफगानिस्तान को बनाने में भारत को भी पीछे छोड़ देगा। जाहिर है कि अब तक के भारतीय महान योगदान पर चीन पानी फेरने की पूरी कोशिश करेगा। भारत को देखना है कि अफगानिस्तान में चलनेवाली चीन-अमेरिकी प्रतिस्पर्धा में वह कहां खड़ा रह पाएगा?
(लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं) (नया इंडिया की अनुमति से)
-कृष्ण कांत
उन्होंने कभी देश की आजादी के लिए भगत सिंह के साथ मिलकर सेंट्रल असेम्बली में बम फेंका था, ताकि ‘बहरों को सुनाया जा सके।’
भगत सिंह को फांसी हुई और उन्हें कालापानी की सजा। करीब आठ साल बाद छूटकर आए तो गांधी का साथ देने के लिए फिर से आंदोलन में कूद पड़े। फिर पकड़े गए और फिर जेल गए। कुल मिलाकर करीब 15 साल जेल में रहे।
बहरे अंग्रेजों को उन्होंने अपना धमाका सुना भी दिया था, लेकिन स्वदेशी भूरे अंग्रेजों से वे हार गए। देश आजाद हो गया। अब आजादी का यह नायक अपनी जिंदगी जीने की जद्दोजहद से जूझ रहा था।
पेट पालने के लिए इस महान क्रांतिकारी ने क्या क्या नहीं किया? सिगरेट कंपनी का एजेंट बनकर पटना में गुटखा-तंबाकू की दुकानों के चक्कर लगाए। बेकरी में बिस्कुट और डबलरोटी बनाने का काम किया। एक मामूली टूरिस्ट गाइड बनकर पेट पालने के लिए रोटी कमाई।
वे एक ऐसे देश के नायक थे जहां राह चलते लोगों को भगवान बनाकर पूजा जाता है। लेकिन लोग उन्हें भूल चुके थे। इस महान क्रांतिकारी का नाम था बटुकेश्वर दत्त।
एक बार उन्होंने सोचा कि पटना में अपनी बस सर्विस शुरू की जाए। परमिट लेने की ख़ातिर कमिश्नर से मिले। कमिश्नर ने उनसे कहा कि प्रमाण पेश करो कि तुम बटुकेश्वर दत्त हो।
1964 में बटुकेश्वर दत्त बीमार पड़े। उन्हें पटना के सरकारी अस्पताल ले जाया गया, जहां उन्हें बिस्तर तक नहीं नसीब नहीं हुआ। उनके इलाज को लेकर लापरवाही बरती गई।
अंतत: देर हो गई। हालत बिगडऩे पर उन्हें दिल्ली लाया गया। बटुकेश्वर दत्त ने पत्रकारों से कहा, ‘मैंने सपने में ही नहीं सोचा था कि जिस दिल्ली में मैंने बम फेंक कर इंकलाब जिंदाबाद की हुंकार भरी थी वहीं मैं अपाहिज की तरह लाया जाऊंगा’।
इस दौरान अस्पताल में पंजाब के मुख्यमंत्री बटुकेश्वर दत्त से मिलने पहुंचे। उन्होंने मदद की पेशकश की तो दत्त ने कहा, ‘हो सके तो मेरा दाह संस्कार वहीं करवा देना, जहां मेरे दोस्त भगत सिंह का हुआ था।’
20 जुलाई, 1965 को बटुकेश्वर दत्त अपने दोस्त भगत सिंह के पास चले गए।
बटुकेश्वर दत्त को याद करने की हिम्मत जुटाइये तो आपको रोना आ जाएगा। उन्होंने बलिदान, क्रांति, आंदोलन और इंकलाब का सर्वोच्च उदाहरण पेश किया था। लेकिन इस देश ने उनके साथ जो किया, वह नमकहरामी और कृतघ्नता का निकृष्टतम उदाहरण है।
बटुकेश्वर दत्त! हमारे खून का हर कतरा आपका कर्जदार है। नमन!
-दिव्या आर्य
टोक्यो ओलंपिक में भारत के लिए पदक की दावेदार पहलवान विनेश फोगाट का सबसे पहला ‘दंगल’ अपनी सहूलियत के कपड़े पहनने का था। टी-शर्ट और ट्रैक-पैंट में कुश्ती करना बेहतर था, लेकिन ऐसे कपड़ों में उनके शरीर के उभार दिखने से लोगों को परेशानी थी।
हरियाणा में पली-बढ़ी विनेश जब सलवार-कुर्ते की जगह चुस्त पोशाक पहनकर अभ्यास करती तो कई उंगलियां उठतीं कि लडक़ी को ऐसे कपड़े पहनकर घर से निकलने कैसे दिया गया।
यानी लडक़ी अगर खेल खेले, तो तन ढका रहे और वो दंगल के अखाड़े में पारंपरिक लडक़ी बनी रहे, अगर कुछ लोगों का बस चलता तो वे कुश्ती के मुकाबले में भी घूँघट की माँग करते।
विनेश की बात हरियाणा के गाँव की है और पंद्रह साल पुरानी है, लेकिन दुनिया के हर कोने में, हर दौर में महिला खिलाडिय़ों की पोशाक पर चर्चा कई बार उनकी मेहनत और लगन पर हावी हो जाती है।
टोक्यो ओलंपिक में भी अपनी सहूलियत के कपड़े पहनने का एक दंगल चल रहा है। जर्मनी की महिला जिमनास्टिक टीम ने जांघों से पहले खत्म होने वाली पोशाक ‘लियोटार्ड’ की जगह पूरा बदन ढँकने वाली ‘यूनीटार्ड’ पहनने का फैसला किया।
उनका तर्क ये है कि ढँके बदन में उन्हें ज़्यादा सहूलियत है और मर्दों की तरह उन्हें भी इसकी आज़ादी मिलनी चाहिए। अंतरराष्ट्रीय मुकाबलों में महिला खिलाडिय़ों की पोशाक अक्सर ऊंची, छोटी और तंग रहती है।
वहीं मर्दों की पोशाक के नियमों में शरीर को आकर्षक दिखाने वाले कोई कायदे नहीं हैं, सारा ध्यान खेलने की सहूलियत पर होता है। अभी तक ऐसा विवाद शायद नहीं हुआ, लेकिन अगर कोई महिला खिलाड़ी स्कर्ट की जगह, पुरुषों की तरह लंबे शॉर्ट्स में टेनिस खेलने आएगी तो न जाने क्या प्रतिक्रिया होगी?
खेल के नियम बनानेवालों और बाजार ने महिलाओं के शरीर को उनके खेल जितनी ही अहमियत जो दे रखी है। यानी लडक़ी खेल खेले, तो चाहे जितनी दौड़-भाग हो पर वो आकर्षक बनी रहे।
मर्दाना दुनिया में आकर्षक औरतें
खेल की दुनिया को हमेशा मर्दाना माना गया है। औरतों की कोमल समझी जाने वाली प्रवृत्ति से अलग, शारीरिक दम-खम बढ़ाने के लिए पसीने में भीगी, कठोर दिनचर्या वाली जिंदगी। लेकिन विडंबना ये कि उसमें भी औरत से सुंदरता और शारीरिक आकर्षण बनाए रखने की उम्मीद कायम रहती है। और हद तो ये है कि अगर वो आकर्षक बनी रहे तो खेल से ध्यान हटने का आरोप भी सबसे पहले उसी पर लगता है।
विनेश की बड़ी बहन गीता ने कुछ साल पहले एक इंटरव्यू में कहा था कि उनके करियर के शुरुआती समय में लोग घात लगाए रहते थे कि लडक़ी से कोई चूक हो जाए या कोई लडक़ा दोस्त बन जाए तो कैसे इनके मां-बाप को शर्मिंदा करके ये जता दिया जाए कि इन्हें छूट देना गलत था। यानी लडक़ी खेल खेले, और आकर्षक हो तो बदचलन भी हो सकती है।
बीमारी जाती नहीं
भारतीय महिला क्रिकेट टीम की कप्तान मिताली राज ने साल 2017 में जब बिना बाज़ू की टॉप में अपनी एक सेल्फी ट्विटर पर पोस्ट की तो उन पर ताने कसने वालों की कमी नहीं थी।
उन्हें ट्विटर पर तो ट्रोल किया ही गया, मीडिया में उनके बारे में छपे लेख की हेडलाइंस ने भी ‘पॉर्न स्टार’, ‘इनडीसेंट’ और ‘एक्सप्लोसिव’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया।
खेल की मर्दाना दुनिया में ‘मॉडर्न’ और ‘फॉर्वर्ड’ होने के ऐसे तमगे महिलाओं पर ही लगाए जाते हैं। उन्हीं के कपड़ों पर सवाल उठते हैं। चाहे वो मैदान पर हों या बाहर।
18 साल की उम्र में टेनिस की दुनिया में भारत का नाम करने वाली सानिया मिजऱ्ा की पोशाक भी मर्यादाओं के उल्लंघन के आरोप के घेरे में आई थी।
साल 2005 में सुन्नी उलेमा बोर्ड के एक मौलाना ने उनपर ‘अभद्र’ कपड़े पहनकर खेलने का आरोप लगाया जिससे उनके मुताबिक ‘नौजवान लड़कियों पर बुरा असर पड़ रहा था।’
उन्होंने फतवा जारी करके कहा था कि इस्लाम औरतों को छोटी निकर, स्कर्ट और बिना बाज़ू के कपड़े पहनने की इजाजत नहीं देता और सानिया जैसे कपड़े पहनती हैं वो शरीर के बड़े हिस्सों को ढँकती नहीं, जिसके बाद कल्पना करने के लिए कुछ नहीं बचता।
सानिया ने फतवे पर टिप्पणी देने से मना कर दिया और बस इतना कहा कि उनके कपड़ों पर इतना विवाद हो, ये उन्हें परेशान करता है।
परेशान तो करेगा ही। कभी धर्म तो कभी समाज और कभी बाजार, महिला खिलाड़ी के शरीर से नजर हटती ही नहीं है।
‘सेक्सिजम’ और हिंसा का संबंध
मर्दों की दुनिया में, खेल के कपड़ों में, अक्सर महिला खिलाडिय़ों को ‘अवेलेबल’ भी मान लिया जाता है। सुरक्षित माने जाने वाले ट्रेनिंग सेंटर्स और कोच के हाथों यौन उत्पीडऩ के किस्से आम हैं, लेकिन आवाज उठाना मुश्किल है और पहले से ही दुर्लभ मौकों को खोने का दबाव ज़्यादा।
महिला खिलाडिय़ों को उनके आकर्षण के चश्मे से देखने और इस हिंसा का गहरा ताल्लुक है।
जर्मन जिमनास्टिक्स टीम ने टोक्यो ओलंपिक से पहले, इसी साल अप्रैल में यूरोपियन आर्टिस्टिक जिमनास्टिक्स चैम्पियनशिप में पहली बार ‘यूनीटार्ड’ पहनकर अपना विरोध दर्ज किया था।
जर्मन फेडरेशन ने कहा था कि जिमनास्टिक्स में महिलाओं की ‘सेक्सुअलाइज़ेशन’ और यौन हिंसा रोकने के लिए ये कदम जरूरी है।
जिमनास्टिक्स की दुनिया में हिंसा का ताज़ा उदाहरण अमेरिकी महिला टीम के डॉक्टर रहे लैरी नासर का है, जिन पर 150 महिला खिलाडिय़ों ने यौन उत्पीडऩ का आरोप लगाया और जिन्हें अब 175 साल की जेल की सज़ा हो गई है। लेकिन ‘सेक्सिस्ट’ सोच और संस्कृति में बदलाव लाना आसान नहीं है।
पिछले सप्ताह नार्वे की महिला बीच-हैंडबॉल टीम ने भी जब अपनी सहूलियत को आगे रखते हुए बिकिनी शॉर्ट्स की जगह निकर पहनने का फैसला किया तो उन्हें पोशाक के नियम के उल्लंघन के लिए हर्जाना देना पड़ा, लेकिन महिला खिलाड़ी अकेली भी नहीं। अमेरिकी पॉप स्टार ‘पिंक’ ने इस हर्जाने का खर्च उठाने की पेशकश की है।
अपने ट्वीट में उन्होंने कहा कि हर्जाना तो ऐसे ‘सेक्सिस्ट’ नियम बनाने वाली फेडरेशन पर लगाया जाना चाहिए, ‘मुझे नॉर्वे की महिला टीम पर गर्व है, बढ़े चलो।’
वैसे इस ‘बढ़े चलो’ के नारे को जीने में अभी बहुत सारे दंगल बाकी हैं। (bbc.com/hindi)
-डॉ. संजय शुक्ला
छत्तीसगढ़ सरकार ने आगामी 2 अगस्त से कोविड संक्रमण से बचाव के लिए जरूरी सुरक्षा और सावधानियों के साथ स्कूल और कॉलेज खोलने का फैसला किया है। देश के अनेक राज्यों में भी अब शिक्षण संस्थान खुल रहे हैं। वैश्विक महामारी कोरोना के कारण बीते 15 महिनों से अमूमन देश के सभी स्कूल, कॉलेजों और यूनिवर्सिटी में तालाबंदी है।शिक्षा किसी भी राष्ट्र के आर्थिक और सामाजिक विकास की बुनियाद होती है लेकिन कोरोना ने इस बुनियाद पर ही आघात किया है। संयुक्त राष्ट्र और यूनिसेफ के आंकड़ों के मुताबिक कोरोना के कारण दुनिया के 160 करोड़ बच्चों की पढ़ाई प्रभावित हुई है। भारत में सरकारी शिक्षा पहले से ही बदहाल थी लेकिन इस महामारी ने इस व्यवस्था पर ‘दुबले पर दो आषाढ़’ की कहावत को चरितार्थ कर दिया है। कोरोनाकाल के दौरान देश के शिक्षा व्यवस्था पर नजर डालें तो सरकारों की प्राथमिकता में यह हाशिये पर ही रहा। सरकार और शिक्षा विभाग से जुड़े नीति नियंताओं ने शिक्षा के नाम पर ऑनलाइन शिक्षा, डिजिटल पाठ्य सामग्री, सिलेबस में कटौती और परीक्षाओं को रद्द कर जनरल प्रमोशन को ही इस चुनौती का हल मान लिया जबकि दुनिया भर के महामारी विशेषज्ञ लगातार यह चेताते रहे कि इस महामारी की मियाद तय नहीं है और यह आपदा लहर दर लहर कहर बरपाएगी। अहम सवाल यह कि रणनीतिकारों ने चेतावनी के लिहाज से शिक्षण और परीक्षा की कारगर योजना क्यों तैयार नहीं किया ? गौरतलब है कि दुनिया के तमाम विकसित और विकासशील देशों ने महामारी के लिहाज से अपने क्लासरूम से लेकर पढ़ाई और परीक्षा प्रणाली में व्यापक बदलाव किए हैं ताकि सभी छात्रों को समान शिक्षा का अवसर मिले लेकिन भारत अभी भी अपने पुराने ढर्रे पर ही चल रहा है जिसका खामियाजा देश के भविष्य को भोगना होगा। बहरहाल अनलॉक के इस दौर में जब देश भर के बाजार, मॉल, मल्टीप्लेक्स, जिम, स्वीमिंग पूल और धार्मिक स्थल खुल चुके हैं तब स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों की तालाबंदी खत्म करना आवश्यक है। गौरतलब है कि भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) के चौथे सीरो सर्वे के नतीजों के मुताबिक देश के 67.6 फीसदी लोगों में कोरोना एंटीबॉडी बन चुकी है तथा बच्चों में संक्रमण का खतरा कम है इसलिए अब स्कूल और कॉलेज खोलने पर विचार किया जा सकता है।
भारत में बुनियादी शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा व्यवस्था में शुरुआत से ही असमानता रही है, महामारी ने असमानता की इस खाई को और भी गहरा कर दिया है। एक तरफ संपन्न छात्र ऑनलाइन पढा़ई कर रहे हैं तो दूसरी ओर आर्थिक रूप से कमजोर छात्र इस वर्चुअल पढा़ई से कोसों दूर हैं। गौरतलब है कि कोरोना लॉकडाउन ने हजारों अभिभावकों के आजीविका और आय पर बुरा असर डाला है फलस्वरूप वे अपने बच्चों को ऑनलाइन पढ़ाई के लिए जरूरी कम्प्यूटर, स्मार्टफोन और इंटरनेट उपलब्ध नहीं करा पा रहे हैं। इन दुश्वारियों का परिणाम यह कि लाखों बच्चों और युवाओं की पढ़ाई बाधित हो रही है और उन्हें अपनी पढ़ाई छोडऩे के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। हमारे समाज में पहले से ही बालिका शिक्षा के प्रति भेदभाव था लेकिन अब महामारी और गरीबी के कारण लड़कियों की पढ़ाई छूटने की संभावना बढ़ रही है। एक शोध के मुताबिक आर्थिक रूप से कमजोर 70 फीसदी परिवारों ने माना है कि आर्थिक तंगी के कारण वे अपने बच्चों की पढ़ाई जारी रखने में दिक्कतों का सामना कर रहे हैं। इन परिस्थितियों में अहम सवाल यह कि गलाकाट प्रतिस्पर्धा के दौर में बिना पढा़ई के समान अवसर के गरीब छात्र साधन संपन्न छात्रों से कैसे मुकाबला करेंगे? आर्थिक आधार पर संसाधनों की कमी के कारण गरीब छात्रों के मेधा का क्षरण निश्चित तौर पर कल के भारत में सामाजिक और आर्थिक असमानता की खाई को चौड़ा करेगी। विचारणीय तथ्य यह भी कि मेडिकल, इंजीनियरिंग, विधि और नर्सिंग जैसे प्रोफेशनल कोर्स में वर्चुअल पढा़ई आखिरकार कैसे संभव है? इन पाठ्यक्रमों में तो सैद्धांतिक पक्ष के साथ प्रायोगिक अध्ययन भी अत्यावश्यक है। इन परिस्थितियों में इन कोर्सेज से निकलने वाले प्रोफेशनल की गुणवत्ता और दक्षता पर भी सवालिया निशान लगेंगे।
दूसरी ओर अभिभावकों के मुताबिक ऑनलाइन पढ़ाई उतना कारगर साबित नहीं हो रही है बल्कि बच्चे इंटरनेट पर आपत्तिजनक चीजें देखने और ऑनलाइन गेम के आदी बन रहे हैं। राष्ट्रीय बाल संरक्षण अधिकार आयोग के हाल ही में कराए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार 10 साल उम्र के 59.2 फीसदी बच्चे स्मार्ट फोन का इस्तेमाल सोशल मीडिया में चैटिंग के लिए कर रहे हैं और इनका सोशल नेटवर्किंग अकाउंट बन चुका है। आश्चर्यजनक रूप से केवल 10 फीसदी बच्चे ही मोबाइल फोन का उपयोग ऑनलाइन पढ़ाई के लिए कर रहे हैं। एक अन्य अध्ययन के अनुसार देश के लाखों अंध, मूक-बधिर छात्र वर्चुअल पढ़ाई में असमर्थ हैं। बुनियादी शिक्षा ही उच्च शिक्षा की बुनियाद होती है और शिक्षा का पूरा ढांचा उत्तरोत्तर एक समयबद्ध व्यवस्था में नियत है जिसका संचालन और मूल्यांकन शिक्षण और परीक्षा पर निर्भर है। बीते दो शिक्षा सत्रों के दौरान स्कूलों और कालेजों में कक्षा और परीक्षा दोनों बंद है। महामारी के कारण चौपट होती शिक्षा व्यवस्था की चिंता शिक्षाविदों, अध्यापकों और अभिभावकों को बहुत ज्यादा है। दरअसल बच्चे और युवा स्कूल व कॉलेज में पढ़ाई के साथ-साथ दोस्ती, धैर्य, आदर, सामूहिकता, विनम्रता और दूसरे की संस्कृति से परिचय इत्यादि सीखते हैं वे अपने शिक्षक और सहपाठियों से विषयों को समझते हैं लेकिन वे अभी इनसे वंचित हैं। स्कूल बंद होने तथा मोबाइल या कंप्यूटर स्क्रीन पर घंटों बैठने का असर बच्चों, किशोरों व युवाओं के शारीरिक और मानसिक सेहत पर पड़ रहा है। हमारी भावी पीढ़ी मोटापा, चिड़चिड़ापन, गुस्सा, भय, एकाकीपन,अनिद्रा और अवसाद जैसे रोगों का शिकार हो रहे हैं।
गौरतलब है कि शिक्षा के मूल में सीखने का कौशल, विषयों को समझना और विश्लेषण करना, शिक्षक और छात्र के बीच परस्पर सवाल -जवाब है जो वर्चुअल माध्यम में संभव नहीं है बल्कि फिजिकल स्कूल और क्लास ही इसके उपयुक्त माध्यम है। भारत जैसे कमजोर अर्थव्यवस्था वाले देश में ऑनलाइन शिक्षा ग्रामीण भारत और गरीबों के लिए दूर की कौड़ी है। दरअसल ऑनलाइन पढ़ाई एक मजबूरीवश व्यवस्था है, लिहाजा स्कूलों को सतर्कता के साथ खोलने पर विचार किया जाना चाहिए। दुनिया के 51 देशों में कोरोनारोधी सावधानियों के साथ स्कूल और कॉलेज खुल चुके हैं। भारत में भी लगातार अनलॉक और संक्रमण के कम होते मामलों के मद्देनजर शिक्षण संस्थानों को खोलने की दिशा में आगे बढऩा चाहिये, क्योंकि शिक्षा के पहिये को पीछे घुमाया नहीं जा सकता है। इस बीच विशेषज्ञों ने महामारी की तीसरी लहर और यह लहर बच्चों के लिए घातक होने संबंधी चेतावनी जारी की है हालांकि बच्चों पर प्रभाव के संबंध में मतभिन्नता है।बेशक बच्चों का स्वास्थ्य सर्वोच्च प्राथमिकता है और अधिकांश अभिभावक अपने बच्चों के सेहत के खातिर उन्हें स्कूल भेजने के लिए सहमत नहीं हैं। दूसरा पहलू यह भी कि महामारी की अनिश्चितता और बच्चों के भविष्य के लिहाज से अभिभावकों को साकारात्मक होना होगा और अपने
बच्चों को जिम्मेदार और जागरूक बनाना होगा ताकि वे भविष्य की चुनौतियों से जूझ सके।हालांकि छत्तीसगढ़ सरकार ने स्कूल खोलने व संचालन के लिए ग्राम पंचायत, पार्षद,स्कूल प्रबंधन और पालक समिति को जिम्मा सौंपा है यानि इनके सहमति और व्यवस्थानुसार स्कूल संचालित होंगे।
हालिया परिस्थिति में शिक्षकों और स्कूली स्टाफ का टीकाकरण कर बच्चों को संक्रमण से बचाव के लिए जरूरी सभी साधनों जैसे मास्क, सेनेटाइजर और सोशल डिस्टेसिंग का पालन सुनिश्चित करते हुए कालखंडों की अवधि कम कर स्कूल खोलने की दिशा में प्रयास होना चाहिये। स्कूलों में छात्रों के बीच सोशल डिस्टेसिंग कायम रखने के उद्देश्य से एक क्लास रूम में एक तिहाई छात्रों की बैच बनाकर हर बैच की एक दिन के अंतराल में कक्षाएँ लगाई जाएं तथा उन्हें अंतराल के बीच वाले दिन के लिए पर्याप्त होमवर्क दिए जाऐं ताकि छात्र घर में भी पढ़ाई करें। दरअसल यह देखा जा रहा है कि लगातार स्कूल बंद होने और जनरल प्रमोशन के कारण विद्यार्थियों में पढ़ाई के प्रति रूचि बहुत तेजी से खत्म हो रही है तथा वे पुस्तक-कापी से दूर हो रहे हैं। स्कूलों और कॉलेजों की कक्षाओं को साफ-सुथरा और हवादार रखते हुए नियमित सेनेटाइजिंग की व्यवस्था सुनिश्चित की जाए। रोगप्रतिरोधक क्षमता मजबूत रखने के उद्देश्य से स्कूली बच्चों को नियमित योगाभ्यास के साथ मध्याह्न भोजन में प्रोटीन और विटामिन सी युक्त पौष्टिक खाद्य सामग्री परोसे जाऐं। विचारणीय है कि शिक्षा से ही समाज में व्याप्त गरीबी, असमानता, भेदभाव, कुरूतियों और अंधविश्वास को दूर किया जा सकता है लेकिन जब समाज का ही एक हिस्सा शिक्षा के समान अवसर से अछूता रहेगा तो विसंगतियां कैसे खत्म होगी ? गौरतलब है कि महामारी की मियाद तय नहीं है लिहाजा सरकारों को अभिभावकों को भरोसे में लेकर शिक्षा को अनलॉक करने की दिशा में गंभीरता से विचार करना ही होगा आखिरकार यह भारत के भविष्य से जुड़ा मसला है।
(लेखक शासकीय आयुर्वेद कॉलेज, रायपुर में एसोसिएट प्रोफेसर हैं।)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
संसद का यह वर्षाकालीन सत्र अत्यधिक महत्वपूर्ण होना था लेकिन वह प्रतिदिन निरर्थकता की ओर बढ़ता चला जा रहा है। कोरोना महामारी, बेरोजगारी, अफगान-संकट, भारत-चीन विवाद, जातीय जनगणना आदि कई मुद्दों पर सार्थक संसदीय बहस की उम्मीद थी लेकिन पेगासस जासूसी कांड इस सत्र को ही लील गया है। पिछले लगभग दो सप्ताह से दोनों सदनों का काम-काज ठप्प है। दोनों सदन अनवरत शोर-शराबे के बाद रोज ही स्थगित हो जाते हैं। संसद चलाने का एक दिन का खर्च 44 करोड़ रु. होता है। लगभग 500 करोड़ रु. पर तो पानी फिर चुका है।
ये पैसा उन लोगों से वसूला जाता है जो दिन-रात अपना खून-पसीना एक करके कमाते हैं और सरकार का टैक्स भरते हैं। ऐसा लगता है कि संसद का सत्र चलाने की परवाह न तो सरकार को है और न ही विपक्ष को ! दोनों अपनी-अपनी टेक पर अड़े हुए हैं। ये शायद अड़ते नहीं लेकिन पेगासस जासूसी का मामला अचानक ऐसा उभरा कि पक्ष और विपक्ष दोनों एक-दूसरे के खिलाफ तलवारें भांजने लगे। क्या विपक्ष के लोगों को पता नहीं कि जासूसी किए बिना कोई सरकार क्या, कोई परिवार भी नहीं चल सकता?
वे खुद जब सत्ता में थे तो क्या वे जासूसी नहीं करते थे ? क्या कांग्रेसी शासन में उसके वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी ने अपने दफ्तर में ही जासूसी यंत्र लगे होने की शिकायत नहीं की थी? देश के प्रांतों में चल रही विरोधी दलों की सरकारें क्या जासूसी नहीं करतीं ? लेकिन जासूसी के मुद्दे पर संसद में बहस की मांग बिल्कुल जायज है और सरकार को यह बताना होगा कि फलां-फलां आदमी की जासूसी वह क्यों करती थी ? यदि उसने जानबूझकर या गलती से देश के कुछ निरापद और महत्वपूर्ण लोगों की जासूसी की है या उसके अफसरों ने उस सूची में कुछ मनमाने नाम जोड़ लिये हैं तो वह सार्वजनिक तौर पर क्षमा क्यों नहीं मांग लेती है?
जासूसी के मामले को वह जितना छिपाएगी, उसकी चादर उतनी ही उघड़ती चली जाएगी लेकिन विरोधी दलों को भी सोचना चाहिए कि यदि वे संसद को चलने ही नहीं देंगे तो जासूसी का यह मामला आया-गया-सा ही हो जाएगा। वे संसद का सत्र बाकायदा चलने क्यों नहीं देते ? वे प्रश्न पूछ सकते हैं, स्थगन-प्रस्ताव और ध्यानाकर्षण प्रस्ताव ला सकते हैं। वे बीच में हस्तक्षेप भी कर सकते हैं। विरोधी दल इस मुद्दे पर एकजुट होने की कोशिश कर रहे हैं और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने सांसदों से कह रहे हैं कि वे विरोधियों की पोल खोलें। इसका अर्थ क्या यह नहीं हुआ कि हमारे देश के सभी राजनीतिक दल सतही राजनीति में उलझ रहे हैं और संसद-जैसे लोकतंत्र के प्रकाश-स्तंभ की रोशनी को धुंधला करते चले जा रहे हैं ?
(नया इंडिया की अनुमति से)
-सुदामा चौधरी
शहर लखनऊ में बसे उपनगर गोमती नगर में एक बड़े आईएएस अफसर रहने के लिए आए जो हाल ही में सेवानिवृत्त हुए थे। ये बड़े वाले रिटायर्ड आईएएस अफसर हैरान परेशान से रोज शाम को पास के पार्क में टहलते हुए अन्य लोगों को तिरस्कार भरी नजरों से देखते और किसी से भी बात नहीं करते थे। एक दिन एक बुज़ुर्ग के पास शाम को गुफ़्तगू के लिए बैठे और फिर लगातार उनके पास बैठने लगे लेकिन उनकी वार्ता का विषय एक ही होता था- मैं इतना बड़ा आईएएस अफसर था कि पूछो मत, यहां तो मैं मजबूरी में आ गया हूं। मुझे तो दिल्ली में बसना चाहिए था और वो बुजुर्ग प्रतिदिन शांतिपूर्वक उनकी बातें सुना करते थे।
परेशान होकर एक दिन जब बुजुर्ग ने उनको समझाया-आपने कभी फ्यूज बल्ब देखे हैं? बल्ब के फ्यूज हो जाने के बाद क्या कोई देखता है? कि बल्ब किस कम्पनी का बना हुआ था या कितने वाट का था या उससे कितनी रोशनी या जगमगाहट होती थी? बल्ब के फ्यूज होने के बाद इनमें से कोई भी बात बिल्कुल ही मायने नहीं रखती है। लोग ऐसे बल्ब को कबाड़ में डाल देते हैं। है कि नहीं?
फिर जब उन रिटायर्ड आईएएस अधिकारी महोदय ने सहमति में सिर हिलाया तो बुजुर्ग फिर बोले-रिटायरमेंट के बाद हम सब की स्थिति भी फ्यूज बल्ब जैसी हो जाती है। हम कहां काम करते थे, कितने बड़े/छोटे पद पर थे, हमारा क्या रुतबा था, यह सब कुछ भी कोई मायने नहीं रखता। मैं सोसाइटी में पिछले कई वर्षों से रहता हूं और आज तक किसी को यह नहीं बताया कि मैं दो बार संसद सदस्य रह चुका हूं। वो जो सामने वर्मा जी बैठे हैं, रेलवे के महाप्रबंधक थे। वे सामने से आ रहे सिंह साहब सेना में ब्रिगेडियर थे। वो मेहरा जी इसरो में चीफ थे। ये बात भी उन्होंने किसी को नहीं बताई है, मुझे भी नहीं पर मैं जानता हूं सारे फ्यूज बल्ब करीब-करीब एक जैसे ही हो जाते हैं, चाहे जीरो वाट का हो या 50 या 100 वाट हो। कोई रोशनी नहीं तो कोई उपयोगिता नहीं। उगते सूर्य को जल चढ़ाकर सभी पूजा करते हैं। पर डूबते सूरज की कोई पूजा नहीं करता।
कुछ लोग अपने पद को लेकर इतने वहम में होते हैं कि रिटायरमेंट के बाद भी उनसे अपने अच्छे दिन भुलाए नहीं भूलते। वे अपने घर के आगे नेम प्लेट लगाते हैं- रिटायर्ड आइएएस/रिटायर्ड आईपीएस/रिटायर्ड पीसीएस/ रिटायर्ड जज आदि-आदि। अब ये रिटायर्ड आईएएस/आईपीएस/पीसीएस/तहसीलदार/ पटवारी/बाबू/प्रोफेसर/प्रिंसिपल/अध्यापक कौन-सी पोस्ट होती है। भाई माना कि आप बहुत बड़े ऑफिसर थे, बहुत काबिल भी थे, पूरे महकमे में आपकी तूती बोलती थी पर अब क्या? अब यह बात मायने नहीं रखती है बल्कि मायने रखती है कि पद पर रहते समय आप इंसान कैसे थे। आपने कितनी जिंदगियों को छुआ। आपने आम लोगों को कितनी तवज्जो दी। समाज को क्या दिया कितने लोगों की मदद की पद पर रहते हुए कभी घमंड आए तो बस याद कर लीजिए कि एक दिन सबको फ्यूज होना है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
यह कोई विचित्र संयोग नहीं है कि अमेरिका के विदेश मंत्री भारत आए हुए हैं और पाकिस्तान के विदेश मंत्री चीन गए हुए हैं। दोनों का मकसद एक-जैसा ही है। दोनों चाहते हैं कि अफगानिस्तान में खून की नदियां न बहें और दोनों का वहां वर्चस्व बना रहे। अमेरिका चाहता है कि इस लक्ष्य की पूर्ति में भारत उसकी मदद करे और पाकिस्तान चाहता है कि चीन उसकी मदद करे। हम पहले चीन को लें। चीन को तालिबान से क्या शिकायत है? उसे कौनसा डर है? उसे डर यह है कि यदि काबुल पर तालिबान का कब्जा हो गया तो चीन का सिंक्यांग (शिनच्यांग) प्रांत उसके हाथ से निकल सकता है। वहां पिछले कई दशकों से पूर्वी तुर्किस्तान आंदोलन चल रहा है।
वहां के उइगर मुसलमानों ने पहले च्यांग काई शेक और फिर माओ त्से तुंग की नाक में भी दम कर रखा था। वे अपना स्वतंत्र इस्लामी राष्ट्र चाहते हैं। माना जाता है कि चीनी सरकार ने लगभग 10 लाख उइगर मुसलमानों को अपने यातना-शिविरों में कैद कर रखा है। लगभग 10 साल पहले जब मैं इस प्रांत की राजधानी उरुमची में गया था तो उइगरों की बदहाली देखकर मैं दंग रह गया था। चीन को लग रहा था कि यदि काबुल में तालिबान आ गए तो वे चीन के विरुद्ध जिहाद छेड़ देंगे और कई अमेरिकापरस्त इस्लामी राष्ट्र उनका साथ दे देंगे। इसीलिए चीन ने तालिबान नेताओं को पेइचिंग बुलवाकर उनसे कहलवा लिया कि उइगर आंदोलन से उनका कुछ लेना-देना नहीं है।
लेकिन इसके बावजूद पाकिस्तानी विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी और चीनी विदेश मंत्री वांग यी के संयुक्त बयान में कहा गया है कि उनके दोनों देश मिलकर अफगान-संकट के शांतिपूर्ण समाधान की कोशिश करेंगे। गृहयुद्ध को रोकेंगे। पूर्वी तुर्किस्तान मुस्लिम आंदोलन और अफगानिस्तान के आतंकवाद को रोकेंगे। जान-बूझकर इस बयान में तालिबान का नाम नहीं लिया गया है, क्योंकि पाकिस्तान बड़ी दुविधा में है। हालांकि तालिबान उसी का पनपाया हुआ पेड़ है लेकिन उसको डर है कि काबुल में उनके आते ही लाखों अफगान शरणार्थी पाकिस्तान में डेरा डाल लेंगे।
तालिबान जरा मजबूत हुए नहीं कि वे पेशावर पर अपना दावा ठोक सकते हैं। इसके अलावा यदि बातचीत से मामला हल नहीं हुआ तो अफगानिस्तान में खून की नदियां बहेंगी। पिछले दो माह में लगभग 2500 अफगान मारे जा चुके हैं। सैकड़ों अफगान फौजी डर के मारे पहले ताजिकिस्तान और अब पाकिस्तान में जाकर छिप गए हैं। अमेरिका और चीन, दोनों ही अपने-अपने दांव चल रहे हैं। लेकिन पाकिस्तान जैसे चीन का पिछलग्गू बना हुआ है, वैसे भारत अमेरिका का नहीं बन सकता। इस वक्त भारत को अपने कदम बहुत फूंक-फूंककर रखने होंगे। अमेरिका लाख चाहे लेकिन भारत को अपनी फौजें काबुल नहीं भेजनी हैं। अमेरिका उजबेक और ताजिक हवाई अड्डों का इस्तेमाल करके गनी सरकार की मदद करना चाहे तो जरुर करे लेकिन बेहतर यही होगा कि काबुल में एक सर्वदलीय कामचलाऊ सरकार बने और चुनाव द्वारा भविष्य में उसकी लोकतांत्रिक राजनीति चले।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-रवीश कुमार
किसी भी शहर में एक्सप्रेस-वे के एलान के समय अगर इस तरह की हेडलाइन हो तब क्या असर होगा। अमर उजाला की एक ख़बर पढ़ते समय ख़्याल आया कि अगर ऐसी योजनाओं के एलान के समय इस तरह से छापा जाए कि ऑटो, दुपहिया वाहन, रिक्शा-ठेला, साइकिल और ट्रैक्टर के लिए नहीं है, केवल कार वालों के लिए है तो विकास को लेकर आम जनता के मन में कैसी छवि बनती। ख़बर छपती कि कार वाले दिल्ली से मेरठ पहुँचेंगे एक घंटे में लेकिन गाँव वाले ट्रैक्टर लेकर गए तो जाएँगे जेल। मेरठ पहुँचने में लग जाएँगे कि कई दिन। लेकिन होगी ज़मानत। तब फिर हम और आप विकास को किस नज़र से देखते। लेकिन जब ऐसी योजनाओं का एलान होता है तब ऐसी सूचनाएँ पीछे रह जाती हैं और होती ही नहीं हैं। आस-पास के लोगों को लगता है कि विकास आ रहा है। इलाक़े का विकास हो जाएगा।
अमर उजाला की इस ख़बर को पढ़ना चाहिए। कोई कमिश्नर हैं जो मेरठ-दिल्ली एक्सप्रेस-वे की प्रगति की समीक्षा कर रहे हैं। समीक्षा बैठक में उन्होंने कहा है कि "ऑटो, टू-व्हीलर, ट्रैक्टर और अन्य अनधिकृत वाहनों के चलाने पर एफआईआर की जाएगी। इसके लिए ट्रैफ़िक पुलिस को सख़्त निर्देश दिए। एक्सप्रेस-वे के पास अवैध होर्डिंग, ढाबे पर कार्रवाई करने के आदेश भी दिए गए।" क्या ऐसी योजनाओं के लाँच के समय अख़बार या चैनल का संवाददाता घोषणा के समय यह सवाल करता है कि कार वालों के लिए एक्सप्रेस-वे बन रहा है लेकिन ट्रैक्टर चालकों के लिए रास्ता क्या होगा, क्या कोई लेन बन रही है या उनकी चिन्ता ही नहीं है? या फिर घोषणा के वक़्त यह सब बताया ही नहीं जाता है। अख़बार में बड़ा सा विज्ञापन छप जाता है कि दिल्ली से मेरठ पहुँचना हुआ आसान।
एक्सप्रेस-वे के आते ही सबसे पहले जो चीज़ ग़ायब होती है वह स्थानीय लोगों के विकास की ही है। जिन सड़कों को पार कर गाँव के किसान इस खेत से उस खेत में चले जाते थे या रिश्तेदारों के यहाँ जाया करते थे अब वहाँ पहुँचने के लिए तीन किलोमीटर का लंबा यूँ-टर्न ले रहे हैं ताकि दूर से आने वाले जल्दी गुज़र सकें और जो नज़दीक के हैं वो देर से गुज़रा करें। जहां से भी एक्सप्रेस-वे गुज़रता है वहाँ के स्थानीय लोग उसके कारण अपने आने-जाने की जगहों से और दूर हो जाते हैं। वहाँ तक पहुँचने के लिए पहले से ज़्यादा पैसे भी ख़र्च करते हैं। आज कल पेट्रोल सौ रुपया लीटर है।कार वालों के लिए रफ़्तार ज़रूरी है तो फिर उसमें ऑटो और टू-व्हीलर के लिए लेन क्यों नहीं है।
एक्सप्रेस-वे होना चाहिए या नहीं होना चाहिए इस बहस को छोड़ कर इस पर बात कीजिए कि होना चाहिए तो कैसा होना चाहिए। क्या केवल कार वालों के लिए होना चाहिए। जिस एक्सप्रेस-वे के लिए किसानों की ज़मीन ली जाएगी उसी पर ट्रैक्टर के चलने की अनुमति नहीं होगी। कमिश्नर ने कहा है कि अनधिकृत वाहन नहीं चलेंगे। जब आप कोई भी गाड़ी ख़रीदते हैं तो रोड टैक्स देते हैं। आपका वाहन सड़क पर चलने के लिए अधिकृत होता है लेकिन एक्सप्रेस-वे बनने के बाद एक ख़ास रास्ते के लिए अनधिकृत हो जाता है।
दशकों पहले जब एक्सप्रेस-वे की धारणा जब आयात होकर भारत आई तो भारत में पहले से मौजूद सड़कों के अनुभवों और उनके किनारे विकसित आर्थिक गतिविधियों को उजाड़ दिया गया। धारणा बनी कि सड़क ऐसी हो जिस पर आगे-पीछे, अग़ल-बगल कार वाले ही दिखें। इससे कारें बिकेंगी। अब ऑटोमोबिल सेक्टर पहले की तरह रोज़गार नहीं देता है। सारी बड़ी कंपनियों की कार बनाने की प्रक्रिया रोबोट पर आधारित हो चुकी है। वहाँ आदमी की ज़रूरत पहले से काफ़ी कम हो गई है। लेकिन इस सेक्टर के लिए सड़कों पर मौजूद कारोबार को ख़त्म कर दिया गया। आप एक्सप्रेस वे से दायें-बायें कट नहीं सकते हैं। एक बार प्रवेश किया तो रास्ता उसी तरह से तय करना होगा जैसे सड़क बनाई गई है।
पहले क्या था। सड़क के किराने बहुत से ढाबे वाले होते थे। उन ढाबों पर रुकते समय स्थानीय उत्पादों को भी लोग ख़रीदा करते थे। इससे आस-पास के लोगों के लिए काम के छोटे-मोटे अवसर बनते होंगे और कुछ अमीर लोग भी पैदा होते होंगे। इसके अलावा इन ढाबों से ख़ास विशेषज्ञताएं भी पनपती हैं। किसी का पेठा लोकप्रिय होता है, किसी की लस्सी तो किसी का पराठा। एक्सप्रेस की अवधारणा से ढाबे ग़ायब हैं।कमिश्नर ने कहा है कि किनारे अवैध रुप से चलने वाले ढाबे पाए गए तो एफ आई आर होगी। आप लखनऊ एक्सप्रेस-वे पर जाइये। केवल सड़क दिखती है। ढाबे ग़ायब हैं। बहुत लंबा चलने के बाद एक ढाबा आता है जिसे ठेके पर किसी को दिया गया होता है। जहां कार पार्क करने की सुविधा है। चीज़ें इतनी महँगी हैं कि रोडवेज़ की बस में चलने वाले मुश्किल से ही कुछ ख़रीद सकते हैं।
मैंने जो कहा वह कोई नई बात नहीं है। दिल्ली में जब फ्लाईओवर का दौर शुरू हो रहा था तब प्रो दिनेश मोहन इन बातों को इसी तरह से रखा करते थे। पहले सड़क पर जाम लगता था अब फ्लाईओवर पर लगता है। बहुत कम अपवाद होंगे। उनकी बातें उस समय की थीं जब इन चीज़ों की अवधारणा को लेकर भारत में बेच कर विद्वान बन रहे थे। तब लगता था प्रो दिनेश मोहन पुराने ज़माने की बात कर रहे हैं। आज उनके उठाए सवालों को सच होते देख रहा हूँ। सरकार यही एक रिपोर्ट रख दे कि एक्सप्रेस-वे बनने के बाद उस इलाक़े का विकास कैसे होता है। विकास होता है या विकास के नाम पर विस्थापन होता है।
-गिरीश मालवीय
अरब स्प्रिंग क्या अब किसी को याद है ? कल जब ट्यूनीशिया में हुई हिंसा से जुड़ी खबरें सुर्खियों में आई तो मुझे इस आंदोलन की याद आयी ...दरअसल अरब स्प्रिंग की शुरुआत ट्यूनीशिया से ही हुई थी... हुआ यह था कि 17 दिसंबर 2010 को ट्यूनीशिया में मोहम्मद बउजिजि नाम के फल विक्रेता ने पुलिस और प्रशासन की 'नाइंसाफी' से परेशान होकर खुद को आग लगा ली थी, शासक जैनुल आबिदीन बेन अली की हुकूमत ट्यूनीशिया में 24 साल से चल रही थी। जाहिर है, लोगों का गुस्सा शांत करने की कोई जरूरत उसे नहीं महसूस हुई। ....बोआजिजी की मौत के महज 10 दिनों के भीतर ही पूरे ट्यूनिशिया में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए. लोगों में गुस्सा इतना ज्यादा था कि सरकार के खिलाफ हिंसा शुरू हो गई. राष्ट्रपति बेन अली को देश छोड़कर भागना पड़ा.
इस आंदोलन की आग ट्यूनिशिया तक नहीं रुकी बल्कि इसने देखते-देखते कई देशों को अपनी चपेट में ले लिया. ट्यूनिशिया के बाद लीबिया, मिस्र, यमन, सीरिया और बहरीन में भी हजारों लोग सरकार के खिलाफ सड़कों पर उतर आए. 2011 में मिस्र का तहरीर चौक अरब क्रांति की नई तस्वीर बन गई. न सिर्फ बेन अली, गद्दाफी, होस्नी मुबारक और अली अब्दुल्ला सालेह जैसे शासकों को सत्ता छोड़नी पड़ी. मोरक्को, इराक, अल्जीरिया, ईरान, लेबनान, जॉर्डन, कुवैत, ओमान तक प्रदर्शन देखने को मिले।
अरब स्प्रिंग के जरिए दुनिया को पहली बार सोशल मीडिया की संभावनाओं और ताकत का अंदाजा लगा था। इस विद्रोह में सोशल मीडिया ने प्रमुख भूमिका निभाई थी। लोगों ने यमन, सीरिया, लीबिया, मिस्र जैसे देशों से तस्वीरें और वीडियो ट्विटर, फेसबुक और YouTube पर अपलोड किए। दुनिया ने तानाशाही के मंजर को कभी रिकॉर्डेड तो कभी लाइव देखा. युवाओं ने संगठित होने के लिए सोशल मीडिया का इस्तेमाल किया. जिन बातों को सरकारें छुपाना चाहती थीं, वहीं दुनिया हर समय देख रही थी।
इस आंदोलन के ग्लोबल प्रभाव का अंदाजा इस बात से लगा सकते हैं कि अप्रैल 2011 में भारत में शुरू हुए जनलोकपाल आंदोलन में जंतर-मंतर की तुलना तहरीर चौक से अक्सर की जाती थी।
लेकिन कल ट्यूनीशिया से आई खबर बताती है कि अरब स्प्रिंग का आंदोलन अंदर से कितना खोखला था ट्यूनीशिया में हुए एक सर्वेक्षण के अनुसार, 70% से अधिक ट्यूनीशियाई सोचते हैं कि उनके बच्चों का भविष्य क्रांति से पहले की तुलना में बदतर है।
अरब स्प्रिंग की शुरुआत के दस साल बाद, फेसबुक, ट्विटर और गूगल जो क्रांति के प्रतीक हुआ करते थे वे अब विशाल विघटनकारी अभियानों को प्रश्रय देने वाले तंत्र में बदल गए हैं जिसमे उत्पीड़न है, सरकार की सेंसरशिप है, मानव अधिकार के कार्यकर्ताओं, पत्रकारों, और किसी भी असहमतिपूर्ण आवाज को दबाने की ताकत है...
-रवि सिन्हा
जवाबदेही लोकतंत्र का मूलभूत तत्व है और, माना जाता है कि अंतत: लोग ही लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं और तंत्रों के माध्यम से सत्ता में बैठे लोगों पर निगरानी रखते हैं। लेकिन हम यह भी जानते हैं कि लोकतंत्र में अक्सर क्या होता है। चुनावी प्रतिस्पर्धा ऐसी ‘तकनीकों’ (अक्सर धार्मिक, सांस्कृतिक और पहचान-आधारित) को जन्म देती है जो नागरिकों को ‘भक्त’ और उत्पाती सैनिकों के रूप में (हिटलर की ‘ब्राउन शर्ट्स’ याद करें) तब्दील कर देती है। लोकतंत्र का यह अँधेरा पहलू दूसरे पहलू की तुलना में अधिक बार उछल कर सामने आता है। आज हिंदुस्तान उसी तबाही के दौर से गुजर रहा है। अमेरिका में ट्रम्प इसी तरह की परिघटना का उदाहरण था।
लेकिन क्या आंदोलनों को भी किसी व्यक्ति या किसी विचार के प्रति जवाबदेह होना चाहिए? यह कहा जा सकता है कि आंदोलन अपने स्वयं के मिशन, मूल्यों, उद्देश्यों, तर्कों और रणनीतियों के प्रति जवाबदेह होते हैं। क्या इस हिसाब से कोई आंदोलनों का मूल्यांकन कर रहा है?
वामपंथी आंदोलन के लिए तो यह सच है कि उसका लेखा-जोखा पूरी दुनिया में पर्याप्त रूप से किया गया है। यहाँ तक कि, अधिकांश लोगों के लिए अब इसे टास्क के रूप में लेने की कोई ज़रूरत ही नहीं रह गई है। बहुतों के लिए तो वामपंथ ख़त्म ही हो गया है। जो ख़त्म हो गया है उस पर समय क्यों बर्बाद करना? लेकिन फिर भी,सबसे मजे की बात यह है कि वामपंथ अभी भी अधिकांश अन्य आंदोलनों और उनके बौद्धिक दिग्गजों की आलोचनाओं का पसंदीदा निशाना बना हुआ है जिसको जब चाहे कोड़े मारे जा सकते हैं। यहाँ भारत में दलित बुद्धिजीवियों का प्रिय शगल वामपंथी आंदोलन में सवर्ण (उच्च जाति) वर्चस्व को उजागर करना है और बहुत सी नारीवादियों का काम तो बस वामपंथियों के ‘स्त्री-द्वेष’ पर ही ध्यान केंद्रित करना है। मानो भारतीय समाज के किसी सर्वेक्षण में दलितों और महिलाओं के खिलाफ उत्पीडऩ और हिंसा के सबसे संभावित और सबसे बड़े अपराधियों के रूप में वामपंथी ही उभर कर आए हों! इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि वामपंथ को अपनी सभी बीमारियों और अपनी सभी विफलताओं की ख़बर लेनी चाहिए। लेकिन, क्या एक आंदोलन जिसे अक्सर ही मृत घोषित कर दिया जाता हो उसे आंदोलनों के मूल्यांकन के प्रमुख उदाहरण के रूप में लिया जाना चाहिए?
उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ने घोषणा की है कि यही वह पार्टी होगी जो वास्तव में राम मंदिर का निर्माण करेगी। यह पार्टी खुलेआम और जोर-शोर से एक जाति के रूप में ब्राह्मणों को अपने पाले में आने की अपील कर रही है। सभी जानते हैं कि बाबासाहेब अम्बेडकर ने जाति-उन्मूलन की बात की थी और घोषणा की थी कि हिंदू धर्म के तहत दलित मुक्ति की कोई गुंजाइश नहीं है। यह विडंबना बसपा तक ही सीमित नहीं है। वर्तमान शासन में एक दलित विनीत भाव से राष्ट्रपति बनता है और एक पूर्व दलित पैंथर एक मंत्री है। इन सब बातों की व्याख्या तो इस तरह की जाती है कि लोकतंत्र की बाध्यताएँ इस व्यावहारिक आचरण के लिए मजबूर करती हैं। लेकिन खुद उस आंदोलन के बारे में क्या कहा जाए? अम्बेडकर के मिशन का क्या हुआ?
सवाल और भी गहरा है। ऐसा कैसे हुआ कि दलित समुदायों में हिंदुत्व इस तरह की पैठ बनाने में सफल रहा? ‘दलित सांस्कृतिक दिमाग’ में ‘हिंदू सभ्यतात्मक दिमाग’ किस तरह और किस हद तक बैठ गया है? ऐसा क्यों है कि गुजरात नरसंहार के दौरान और अन्य जगहों पर भी दलित हिंदुत्व के ‘ब्राउन शर्ट’ बनने के उतने ही आकांक्षी रहे हैं जितना कि कोई अन्य समुदाय? ऐसा क्यों है कि दलितों के ऊपर अत्याचार की किसी घटना के बाद कोई दलित नेता किसी प्रज्ज्वलित उल्कापिंड की तरह सामने आता है, लेकिन सामाजिक और राजनीतिक क्षितिज से उतनी ही तेजी से गायब भी हो जाता है जबकि चुनावी खेल के खिलाड़ी जमीनी राजनीतिक अखाड़े पर अपना पूर्ण नियंत्रण बनाए रहते हैं?
उम्मीद है कि कोलंबिया और हार्वर्ड विश्वविद्यालयों से लेकर जेएनयू और उस्मानिया तक के सामाजिक आंदोलनों के सिद्धांतकार- इस पहेली को गंभीरता से ले रहे हैं। हम सभी सरल और सामान्य बुद्धि के उत्तर जानते हैं, लेकिन वे पर्याप्त नहीं हैं। पहेली को एक गहरी व्याख्या की जरूरत है। सामाजिक आंदोलनों के बौद्धिक पैगम्बर कब तक इन आंदोलनों के इतिहास और इनके बचे रहने का जश्न मनाने से ही संतुष्ट रहेंगे?
दलित लेखक कब तक अन्य (सवर्ण) लेखकों की वंशावली पूछते रहेंगे और उनके जातिनामों के लिए उनपर इलज़ाम लगा कर संतुष्ट होते रहेंगे? वे कब तक दलित जीवन और उसके अनुभव के साहित्यिक चित्रण और उसकी सैद्धांतिक व्याख्या पर एकाधिकार की मांग भर करते रहेंगे? असली सवाल और असली चुनौतियों पर अभी ध्यान नहीं दिया जा रहा है।
(मूल अंग्रेजी से अनुवाद रूपाली सिन्हा)
- प्रकाश दुबे
ममता से मत कह देना कि दिल्ली दूर है। 26 जुलाई को दिल्ली में पग रखने से पहले ऐलान किया गया है-होशियार खबरदार। तृणमूल कांग्रेस संसदीय दल की माननीय अध्यक्ष दिल्ली दरबार में पधार रही हैं। मुख्यमंत्री यूं तो विधानसभा सदस्य भी नहीं हैं। सांसदों ने उन्हें फटाफट संसदीय दल का अध्यक्ष चुन लिया। मुलाकात से पहले प्रधानमंत्री जान लें कि लोकसभा के दो दर्जन और राज्यसभा के दर्जन भर से अधिक सांसदों की नेता हैं। हिंदी में पार्टी का नाम सर्वभारतीय तृणमूल कांग्रेस है। पहला अवसर नहीं है जब संसदीय दल का अध्यक्ष गैरसांसद को बनाया। लोकसभा में पार्टी नेता शरद पवार थे। संसदीय दल की अध्यक्ष सांनिया गांधी, जो बाद में सांसद बनीं। मुख्यमंत्री के पुराने भरोसेमंद और इन दिनों कट्टर विरोधी सुवेन्दु (शुभेन्दु) अधिकारी दिल्ली में डटे हैं। दिल्ली पहुंचने से पहले गृहमंत्री के साथ सुवेन्दु की बैठकों का हिसाब भाजपा अध्यक्ष के पास भी नहीं है।
जागो मोहन प्यारे
पूछने वाले बार-बार पूछ कर तंग करते रहे-त्यागपत्र मांगा है? दिल्ली में दिया क्या? कब दे रहे हो? डॉ. बूकनाकेरे सिद्धलिंगप्पा येदियुरप्पा सवालों से परेशान थे। दक्षिण में पार्टी की जड़ें मजबूत करने वाले येदि दक्षिण दिल्ली में बेटे-पोते के साथ साधारण कहवाघर में जाकर काफी पीने का दर्द भूल नहीं पाए। बंगलूरु में बड़ा झटका लगा। बंगलूरु के सितारा होटल में रविवार 25 जुलाई को विधायकों के मुंह का जायका बदलना चाहते थे। इस उम्मीद में कि इससे अगली बार मुंह मीठा करने का अवसर मिलेगा। मुख्यमंत्री पद पर दो साल पूरे करने का जश्न मनाने से आलाकमान ने रोक दिया। यही नहीं, प्रदेशाध्यक्ष नलिन कुमार कटिल के नाम से जारी छोटी सी क्लिपिंग में येदि की विदाई का ऐलान कर दिया गया। गद्दी के वारिस के रूप में तीन दावेदारों के नाम उछाल दिए। येदि पर मठ-महंतों की धमकी और संघ की कृपा काम नहीं आई। चली आलाकमान की। येदि की भी चली। इतनी कि पहले भोजन किया और फिर राजभवन गए।
वीणावादिनी कुलपति दे
डॉ. हरिसिंह गौर को समर्पित सागर के केन्द्रीय विश्वविद्यालय का नाम नामी गिरामी विश्वविद्यालयों की सूची में शामिल हो गया है। प्रधानमंत्री के चुनाव क्षेत्र के अंतर्गत बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में पूर्णकालिक कुलपति नहीं है। कार्यवाहक से काम चल रहा है। विचार की लड़ाई के प्रमुख केन्द्र जवाहरलाल नेहरू विवि के कुलपति का कार्यकाल जनवरी महीने में समाप्त हो चुका है। देश की राजधानी के दिल्ली विवि में अक्टूबर 2020 से कुलपति नहीं है। करेला और नीम चढ़ा यह कि केन्द्रीय विश्वविद्यालय सागर के कुलपति के लिए सुझाए गए नाम सरकार को पसंद नहीं आए। पांच महीने से सागर विवि कार्यवाहक कुलपति के भरोसे है। साल भर से विश्वविद्यालय असुरक्षित है-इस मायने में कि वहां कोई सुरक्षा व्यवस्था नहीं है। केन्द्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान से मध्य प्रदेश विशेष ध्यान देने की अपेक्षा करेगा ही। आषाढ़ महीने में देवता शयन करने चले जाते हैं। महामारी के कारण सिर्फ ऑनलाईन शिक्षार्थी ही जाग रहे होंगे। देवी सरस्वती जाग रही हों और मंत्री की कोशिश परवान चढ़ी तब भी दर्जन भर केन्द्रीय विश्वविद्यालयों को देवउठनी एकादशी तक कुलपति मिलने की गुंजाइश नजऱ नहीं आती।
मणिपुरी सती सावित्री
सत्यवान और सावित्री की कथा के कलयुगी और मणिपुरी रूप में यमराज के बजाय न्याय की देवी की भूमिका है। मणिपुर के पत्रकार किशोर चंद्र वांगखेम को राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के अंतर्गत 17 मई को गिरफ्तार किया गया। पत्नी रंजीता ने उच्च न्यायालय को पत्र लिखा। अदालत ने पत्र को याचिका के स्वीकार कर लिया। अदालत उठने से पहले शुक्रवार 23 जुलाई को पांच बजे तक रिहाई का आदेश जारी किया। उच्चतम न्यायालय ने सोशल मीडिया पर टिप्पणी कसने वाले समाज प्रबोधनकार एरेंद्रो लोचमबाम को कुछ दिन पहले रिहा करने का आदेश जारी किया था। एरेंद्रो और पत्रकार किशोर पर लगाए गए आरोप लगभग समान हैं। प्रदेश में सत्तारूढ़ पार्टी के प्रदेशाध्यक्ष का निधन हुआ। पत्रकार ने फब्ती कसी-गोबर और गोमूत्र काम नहीं आया। इसे लोग फूहड़ कह सकते हैं। मणिपुर की एन वीरेन्द्र सरकार ने इसे राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा माना। गिरफ्तार कर लिया। उनका दोष नहीं है। पार्टी कार्यकर्ता प्रेमानंद मैते का मान रखना मुख्यमंत्री का कर्तव्य है।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
1979 से लेकर अब तक के उपलब्ध आंकड़ों के हिसाब से पिछले 43 वर्षों में एक भी ऐसा साल नहीं गुजरा, जब बिहार में बाढ़ नहीं आई हो
पुष्य मित्र
बिहार राज्य के आपदा प्रबंधन विभाग द्वारा 23 जुलाई को जारी आंकड़ों के मुताबिक इस साल 18 जून से अब तक 16.61 लाख लोग बाढ़ से प्रभावित हो चुके हैं। 11 जिलों के 388 पंचायतों में बाढ़ की स्थिति है। 1.10 लाख लोगों को सुरक्षित निकाला जा चुका है, यानी ये बेघर हो चुके हैं। अगर इन आंकड़ों के हिसाब से सोचें तो बिहार में बाढ़ की स्थिति काफी गंभीर है, मगर विभाग ऐसा नहीं मानता। क्योंकि बिहार में अमूमन हर साल इससे अधिक बुरी स्थिति रहती है। अगर आपदा प्रबंधन विभाग के आंकड़ों पर ही गौर किया जाये तो हर साल बिहार में बाढ़ की वजह से 75 लाख लोग प्रभावित होते हैं। औसतन 18-19 जिलों में बाढ़ की स्थिति बनती है।
देश के कुल बाढ़ प्रभावित इलाकों में से 16.5 प्रतिशत क्षेत्रफल बिहार का है और कुल बाढ़ पीडि़त आबादी में 22.1 फीसदी बिहार में रहती है। राज्य के 38 में से 28 जिले बाढ़ प्रभावित हैं। 1979 से लेकर अब तक के उपलब्ध आंकड़ों के हिसाब से पिछले 43 वर्षों में एक भी ऐसा साल नहीं गुजरा, जब बिहार में बाढ़ नहीं आई हो। इस बाढ़ की वजह से बिहार में हर साल औसतन 200 इंसानों और 662 पशुओं की मौत होती है और तीन अरब सालाना का नुकसान होता है। राज्य सरकार बाढ़ सुरक्षा के नाम पर हर साल औसतन 600 करोड़ रुपये खर्च करती है और बाढ़ आने के बाद राहत अभियान में अमूमन दो हजार रुपये से अधिक की राशि खर्च होती है।
आखिर इसका समाधान क्या है, यह जानने के लिए डाउन टू अर्थ ने उन पांच जानकारों से बातचीत की जो इस संकट को समझते हैं।
आजादी के बाद से बिहार की बाढ़ और सूखे का सालाना विस्तृत इतिहास लिख रहे उत्तर बिहार की नदियों के विशेषज्ञ दिनेश कुमार मिश्र कहते हैं, समाधान ढूंढना सरकार का काम है, जिनके पास सैकड़ों इंजीनियरों की टोली है। हमलोग सिर्फ यही कह सकते हैं कि आजादी के बाद से बाढ़ का समाधान निकालने के लिए जो नीति अपनाई गई वह गलत साबित हो रही है। अभी सरकार नदियों के किनारे तटबंध बनाकर इसका समाधान करने की कोशिश करती है। मगर आंकड़े गवाह हैं कि आजादी के बाद से जैसे-जैसे तटंध बढ़े बिहार के बाढ़ पीडि़त क्षेत्र का दायरा भी बढ़ता चला गया। आजादी के वक्त जब राज्य में तटबंधों की कुल लंबाई 160 किमी थी तब राज्य का सिर्फ 25 लाख हेक्टेयर क्षेत्र बाढ़ पीडि़त था। अब जब तटबंधों की लंबाई 3731 किमी हो गया है तो राज्य की लगभग तीन चौथाई जमीन यानी 72.95 लाख हेक्टेयर भूमि बाढ़ प्रभावित है। यानी इलाज गलत है।
उत्तर बिहार की बाढ़ पर लगातार नजर रखने और बागमती नदी पर बन रहे तटबंध के विरोध में आंदोलन की अगुआई करने वाले अनिल प्रकाश कहते हैं, यह हमारा इलाका तो फ्लड प्लेन है ही। पंजाब से लेकर बंगाल तक हिमालय की तराई में बसा इलाका बाढ़ के साथ लाई मिट्टी से ही बना है, इसलिए सबसे पहले हमें इसे आपदा मानना बंद कर देना चाहिए। अगर ये आपदा होती तो इस पूरे इलाके में इतनी घनी आबादी नहीं होती। सीतामढ़ी जिले का उदाहरण लें, जहां हर साल बाढ़ आती है, मगर वहां आबादी का घनत्व 1500 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी है। जबकि देश की आबादी का धनत्व औसतन 462 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी है। अगर हमें अब भी इस संकट से बचना है तो बाढ़ के साथ जीने की कला को फिर से अपनाना पड़ेगा। सारे निर्माण इस तरह हों कि नदियों को बाढ़ के दिनों में बहने का सहज रास्ता मिल जाये। जहां बाढ़ का पानी सडक़ को तोड़े, वहां पुल बने और हर गांव में ऐसी ऊंची जगह बने, जहां लोग बाढ़ के दिनों में रह सकें।
नदियों के मुक्त प्रवाह के लिए संघर्ष कर रहे रणजीव भी कहते हैं, अगर सचमुच हम बाढ़ की आपदा से मुक्ति चाहते हैं तो हमें प्राकृतिक नदी तंत्र को फिर से जिंदा करना होगा। तथाकथित विकास के हस्तक्षेप ने नदी को रिसोर्स मान लिया है और उसे गटर में बदल दिया है। वे कहते हैं कि हिमालय से उतरने वाली नदी को समुद्र तक पहुंचाने के लिए गंगा नदी का विकास हुआ था। आज भी उसे 37 नदियां मिलती हैं। मगर हमने तटबंधन, सडक़, पुल-पुलिये और रेलवे का गलत तरीके से निर्माण कर उसके रास्ते को बाधित किया है। इसके अलावा नदियों के पेट में अवैध निर्माण हो रहा है। सीतामढ़ी में तो कलेक्टरियेट भी लखनदेई नदी के पेट में बना दिया गया है। यह अवैज्ञानिक विकास ही बाढ़ के आफत में बदलने की वजह है।
वहीं, बिहार के जलसंसाधन विभाग के पूर्व सचिव गजानन मिश्र कहते हैं कि हिमालयी नदियों की मुख्य समस्या यह है कि यह अपने साथ बड़े पैमाने पर सिल्ट लाती है। बारिश के चार महीने में अत्यधिक जल लाती है, जो उसके द्वारा पूरे साल में लाए गए पानी का लगभग 90 फीसदी होता है और इस पानी की गति काफी तेज होती है। इस तेज गति को मिट्टी का तटबंध झेल नहीं सकता और नदियां इतना सिल्ट लाती है कि उसकी पेटी लगातार भरती रहती है। मगर इसके बावजूद महज डेढ़ दो दशक पहले तक नदी की अपनी प्राकृतिक व्यवस्था ऐसी थी कि बाढ़ आपदा की तरह नहीं लगती। 1870-75 के पहले के किसी रिकार्ड में बाढ़ का जिक्र आपदा के रूप में नहीं मिलता। 1890 में पहली दफा बाढ़ की आपदा का जिक्र मिलता है, जब इस इलाके में रेलवे के निर्माण की वजह से इन नदियों की राह में जगह-जगह अवरोध खड़े होने लगते हैं। फिर सडक़ें बनती हैं, जो अमूमन उत्तर से दक्षिण की दिशा में बहने वाली धाराओं को जगह-जगह काटती हुई पूरब से पश्चिम की दिशा में बनती हैं। फिर सरकार बाढ़ नियंत्रण के नाम पर तटबंधों की नीति को अपनाती है, जिसका अंजाम हम देख चुके हैं।
अब अगर बाढ़ की आपदा से बचना है और हिमालय से आ रहे पानी और मिट्टी का सदुपयोग करना है तो नदियों को उसकी धाराओं और चौरों से जोडऩा होगा। अब इसमें इंजीनियर चाहें तो किसी आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल कर सकते हैं। यही सटीक समाधान हो सकता है।
बिहार में बाढ़ की बात जब होती है तो सबसे अधिक कोसी नदी की बात होती है, मगर हाल के वर्षों में गंडक-बूढ़ी गंडक और महानंदा के बेसिन में बाढ़ ने अधिक तबाही मचाई है। उस बेसिन में मसान और पंडई जैसी नदियों में साल में कई-कई बार बाढ़ आ जाती है। इन दिनों चंपारण के इलाके में बाढ़ के संकट को नजदीक से देख रहे मेघ पईन अभियान के संयोजक एकलव्य प्रसाद कहते हैं कि सबसे पहले तो हमें बाढ़ को एक सामान्य नजरिये से देखना बंद करना होगा। कोसी की बाढ़ अलग है और मसान और पंडई की बाढ़ अलग। हर नदी के बेसिन का अलग से अध्ययन करना और उसके लिए वहां के लोगों की राय के हिसाब से समाधान निकालना होगी।
वे कहते हैं कि बाढ़ तो आएगी ही और उसे न रोक सकते हैं, न ही रोकना उचित होगा। मगर हम उसके संकट को घटा सकते हैं और इसके लिए हमें अलग-अलग इलाके के सवाल को वहां जाकर, वहां के लोगों से बातकर समझना होगा, तभी समाधान निकलेगा। वे भी बाढ़ के साथ जीने की कला विकसित करने की बात कहते हैं और मानते हैं कि फ्लड रिजिलियेंस हैबिटाट तैयार करने का उपाय सुझाते हैं।
कुल मिलाकर सभी जानकार मानते हैं कि बाढ़ पहले आपदा नहीं थी। पिछले डेढ़ दशकों में हुए अवैज्ञानिक निर्माण, बाढ़ नियंत्रण के अवैज्ञानिक तरीके और नदियों के रास्ते में उत्पन्न अवरोधों ने इस बाढ़ को भीषण आपदा में बदल दिया है। अगर बिहार को इस आपदा से उबरना है तो नदियों की राह में से अवरोधों को हटाना पड़ेगा, बारिश के दिनों में भी उसे प्राकृतिक रूप से बहने और गंगा से मिलने का रास्ता देना होता। छोटी नदियों और चौरों को नदियों से फिर से जोडऩा होगा और लोगों को बाढ़ के साथ जीने की कला विकसित करना होगा। (downtoearth.org.in)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने मांग की है कि इस बार जातीय जन-गणना जरुर की जाए और उसे प्रकट भी किया जाए। पिछली बार 2010 में भी जातीय जन-गणना की गई थी लेकिन सरकार उसे सार्वजनिक नहीं कर पाई थी, क्योंकि हमने उसी समय 'मेरी जाति हिंदुस्तानी' आंदोलन छेड़ दिया था। देश की लगभग सभी प्रमुख पार्टियों का रवैया इस प्रश्न पर ढीला-ढाला था। कोई भी पार्टी खुलकर जातीय जन-गणना का विरोध नहीं कर रही थी लेकिन कांग्रेस, भाजपा, कम्युनिस्ट पार्टी के कई प्रमुख शीर्ष नेताओं ने हमारे आंदोलन का साथ दिया था। उसका नतीजा यह हुआ कि सरकार ने जातीय जन-गणना को बीच में रोका तो नहीं लेकिन श्रीमती सोनिया गांधी ने हमारी पहल पर उसे सार्वजनिक होने से रुकवा दिया।
2014 में मोदी सरकार ने भी इसी नीति पर अमल किया। गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर मोदी ने हमारा डटकर समर्थन किया था।अब कई नेता दुबारा उसी जातीय जन-गणना की मांग इसीलिए कर रहे हैं कि वे जातिवाद का पासा फेंककर चुनाव जीतना चाहते हैं। उनका तर्क यह है कि जातीय जन-गणना ठीक से हो जाए तो जो पिछड़े, गरीब, शोषित-पीडि़त लोग हैं, उन्हें आरक्षण जरा ठीक अनुपात में मिल जाए लेकिन वे यह क्यों नहीं सोचते कि 5-7 हजार नई सरकारी नौकरियों में आरक्षण मिल जाने से क्या 80-90 करोड़ वंचितों का उद्धार हो सकता है? यह जातीय आरक्षण-अयोग्यता, ईर्ष्या-द्वेष और अविश्वास को बढ़ाएगा ही। जरुरी यह है कि देश के 80-90 करोड़ लोगों को जिंदगी जीने की न्यूनतम सुविधाएं उपलब्ध करवाई जाएं।
उनका आधार जाति नहीं, जरुरत हो। जो भी जरुरतमंद हो, उसकी जाति, धर्म, भाषा आदि को पूछा न जाए। उसके लिए सरकार विशेष सुविधाएं जुटाए। जातीय आरक्षण एकदम खत्म किया जाए। अंग्रेज ने जातीय जन-गणना 1857 के बाद इसीलिए शुरु की थी कि वह भारतीयों की एकता को हजारों जातियों में बांटकर टुकड़े-टुकड़े कर दे। 1947 में उसने मजहब का दांव खेलकर भारत को दो टुकड़ों में बांट दिया। 1931 में कांग्रेस ने जातीय जन-गणना का इतना कड़ा विरोध किया था कि अंग्रेज सरकार को उसे बंद करना पड़ा था। स्वतंत्र भारत में डॉ. लोहिया ने 'जात तोड़ो' आंदोलन चलाया था। सावरकर और गोलवलकर ने जातिवाद को राष्ट्रवाद का शत्रु बताया था।
कबीर, नानक, दयानंद, विवेकानंद, गांधी, फुले, आंबेडकर आदि सभी महापुरुषों ने जिस जातिवाद का खंडन किया था, उसी जातिवाद का झंडा यह राष्ट्रवादी सरकार क्यों फहराएगी? बेहतर तो यह हो कि मोदी सरकार न सिर्फ जातीय आरक्षण खत्म करे बल्कि सरकारी कर्मचारियों के जातीय उपनामों पर प्रतिबंध लगाए, विभिन्न संगठनों, गांवों और मोहल्लों के जातीय नाम हटाए जाएं और देश के सभी वंचितों और पिछड़े को किसी भेद-भाव के बिना शिक्षा और चिकित्सा में विशेष सुविधाएं दी जाएं।
(नया इंडिया की अनुमति से)