विचार/लेख
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
गुजरात के उप-मुख्यमंत्री नितीन पटेल ने कल अपने एक भाषण में बड़ी विचारोत्तेजक बहस छेड़ दी। उन्होंने सवाल उठाया कि यदि भारत में हिंदुओं की बहुसंख्या नहीं होती तो क्या होता ? उन्होंने कहा कि यदि वैसा होता तो देश में न कोई धर्म-निरपेक्षता होती, न कानून का राज होता, न संविधान होता और न ही कोई मानव अधिकार होते। पटेल के इस कथत का आंतरिक अर्थ यह हुआ कि भारत हिंदू राष्ट्र है। इसीलिए यह वैसा है जैसा कि ऊपर बताया गया है। इसी कथन का दूसरा पहलू यह है कि दुनिया के जिन राष्ट्रों में दूसरे मजहबियों का बहुमत है, वहां की शासन-व्यवस्थाओं में वे सभी खूबियाँ नदारद हैं, जो भारत में हैं। नहीं, ऐसा नहीं है। यूरोप और अमेरिका जैसे राष्ट्रों में हिंदू बहुसंख्या में नहीं है लेकिन उदारता के वहां वे सब लक्षण विद्यमान हैं, जो भारत में हैं। लेकिन पटेल का इशारा कुछ दूसरी तरफ है। उनका असली प्रश्न यह है कि यदि भारत मुस्लिम बहुसंख्यक देश होता तो क्या यहां वे सब स्वतंत्रताएं होतीं जो आज हैं ? उन्होंने साथ-साथ यह भी कह दिया कि भारत के मुसलमान और ईसाई देशभक्त हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है।
उनका यह कथन बिल्कुल सही है। मुस्लिम देशों के बारे में उन्होंने जो कहा है, वह बहुत हद तक सही है लेकिन उसके कुछ अपवाद भी हैं। इसमें शक नहीं कि दुनिया के ज्यादातर मुस्लिम देशों में आज हजार-डेढ़ हजार साल पुराने अरबी कानून इस्लाम के नाम पर चल रहे हैं। जो क्रांतिकारी आधुनिकता पैगंबर मोहम्मद खुद लाए थे, गए—बीते अरबी कानूनों और परंपराओं में, उस आधुनिकता की प्रवृत्ति पर आज भी कई इस्लामी देश आँख मूंदे हुए हैं लेकिन मैंने स्वयं अफगानिस्तान, ईरान, दुबई, एराक और लेबनान जैसे देशों में अब से 50-55 साल पहले अपनी आंखों से देखा है कि उन देशों में कई लोगों की जीवन-पद्धति भारतीय भद्रलोक से भी ज्यादा आधुनिक थी। इन देशों के गैर-इस्लामी लोग कुछ अतियों की शिकायत जरुर करते थे लेकिन कुल मिलाकर वे भारत के अल्पसंख्यकों की तरह खुश दिखाई पड़ते थे। यहां तक कि जिन्ना और भुट्टो के मंत्रिमंडल में कुछ हिंदू भी थे। अफगान बादशाह अमानुल्लाह की सरकार में कई हिंदू काफी बड़े पदों पर रहे हैं। लेकिन यह सच है कि भारत-जैसी धर्म-निरपेक्षता दुनिया में कहीं नहीं रही हैं। स्पेन में महारानी ईसावेल ने मस्जिदों का और तुर्कों ने गिरजों का क्या हाल किया था ? यूरोप के मध्यकालीन केथोलिक शासकों के जुल्मों की कहानियां रोंगटे खड़े कर देती हैं। हिटलर के राज में यहूदियों का जीवन कितना नारकीय हो गया था ? आज भी चीन के उइगर मुसलमानों, रूस के चेचन्या मुसलमानों और फ्रांस और जापान के विधर्मियों के साथ जैसी निर्मम सख्ती हो रही है, क्या वैसी भारत में हो रही है या कभी हुई है क्या ? हम लोगों को, चाहे हम हिंदू हो, मुसलमान हों, ईसाई हों, हमें गर्व होना चाहिए कि हम भारतीय हैं।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-कनुप्रिया
अपनी पीएचडी के लिए लैब जाना शुरू किया कुछ समय से। बीटीयू नई यूनिवर्सिटी है, सरकारी यूनिवर्सिटी है, फंड्स की कमी है, लैब बस ठीक ठाक है फिर भी बीटेक के छात्रों को देखती हूँ तो मनोयोग से लगे रहते हैं, कम सुविधा में भी प्रोजेक्ट्स पर काम कर रहे होते हैं उसी तरह जैसे कम सुविधा में भी हमारे गरीब खिलाड़ी लगे रहते हैं अपने लक्ष्य के लिए।
इन छात्रों को बढिय़ा लैब्स, बढिय़ा दिशा-निर्देश मिले तो ये क्या न कर दें, न बुद्धि की कमी है, न लगन की, न मन की, ये दुनिया के किसी विकसित देश के छात्रों से कम नहीं।
मगर हम क्या कर रहे हैं? हम दुनिया से तकनीक, विज्ञान, शिक्षा में मुकाबला नहीं कर रहे, हम जहालत में मुकाबला कर रहे हैं । हमारी चिंता में ये नही है कि हमारे बच्चों के पास वर्ल्ड क्लास यूनिवर्सिटीज नहीं हैं, हमारी चिंता में ये है कि मुसलमान मदरसे में पढ़ रहे तो हम गुरुकुल में क्यों नहीं। होना ये था कि मुसलमान को भी मुख्यधारा में शामिल करना था, क्या वहाँ ब्रेन्स की कमी है? मगर पहले हमने उन्हें महज धर्म और मौलवियों के हवाले किया ताकि वो पढ़-लिख न सकें और अब ये सरकार वही हिन्दुओ के साथ भी कर रही है।
बीजेपी के नेता फेसबुक पर लिख रहे हैं हम हिंदू जगाने आए हैं। सवाल ये है कि जगाकर आप करेंगे क्या? मॉब लिंचिंग करवाएंगे, अपनी राजनीतिक सत्ता का गुंडा बनाएंगे, हिंदू मुहल्ले में मुसलमान की पिटाई करवाएंगे और क्या करेंगे आप जगाकर। न आपके पास उनके लिये ढंग की शिक्षा व्यवस्था है, न आपके पास विजऩ है कि दुनिया के सबसे जवान देश की युवा आबादी को आखिऱ करना क्या है?न आपके पास उनके लिये नौकरियाँ हैं, न स्किल डेवलपमेंट पर मैंने कोई काम होते देखा। कितने स्टार्टअप सफल हैं? इतना ब्रेन, इतनी ऊर्जा, इतनी शक्ति के लिये क्या प्रोग्राम है आपके पास? अगर सरकारी यूनिवर्सिटीज़ न हों तो मामूली पृष्ठभूमि से आए ये होनहार छात्र क्या करेंगे, महज सडक़ों पर कुंठित होकर दंगा ही करेंगे, हिन्दू मुसलमान करेंगे।
मैं कुछ समय बाद नाराज होकर हिन्दू मुसलमान करने वालों को दफा करती हूँ अपनी लिस्ट से, आप खुद सरकारी स्कूलों में पढ़ लिए, सरकारी कॉलेजों में पढ़े, सरकारी नौकरियाँ कीं, अब जब नई पीढ़ी की बारी आई तो आप कमाने-खाने वाले हो गए, बच्चों को ऊँची फीस दे सकते हैं तब हिन्दू मुसलमान करने लग गए, क्या चाहते हैं आप क्या हो इस देश मे दंगे के सिवा।
अफसोस है कि इस देश के खाए अघाये अधेड़ों के पास कोई विजन नही हिन्दू राष्ट्र के सिवा, आप सोचते हैं कि देश का वातावरण खराब करके महज आपके बच्चे बच जाएँगे, विदेश भिजवा दिए जाएँगे, मगर आपकी लगाई आग कभी तो आप तक भी पहुँचेगी।
-रमेश अनुपम
किशोर साहू इससे पहले कांग्रेस के मार्च 1939 के त्रिपुरी कांग्रेस अधिवेशन में हिस्सा ले चुके थे। उस अधिवेशन के बारे में लिखते हुए उन्होंने कहा है ‘उस समय गांधी और सुभाष चंद्र बोस दो नायक थे पर लोगों की नजरें पण्डित नेहरू से हटती नहीं थी।’
किशोर साहू त्रिपुरी अधिवेशन में तीन दिनों तक शामिल रहे। वे मात्र सिनेमाई नहीं थे बल्कि स्वाधीनता की चेतना से भरे हुए नौजवान भी थे। देश की राजनीति में उनकी गहरी दिलचस्पी थी।
इसलिए जाहिर है उन्होंने अपनी फिल्म ‘वीर कुणाल’ के उद्घाटन के लिए लौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल को चुना। पर मुश्किल यह थी कि जिस दिन (1 दिसंबर 1945 ) नावेल्टी थियेटर में ‘वीर कुणाल’ का उद्घाटन होना था, उसी दिन शाम को कलकत्ता में कांग्रेस की वर्किंग कमेटी की बैठक भी थी, जिसमें सरदार वल्लभ भाई पटेल को भी शामिल होना जरूरी था।
सरदार वल्लभ भाई पटेल ‘वीर कुणाल’ के उद्घाटन में शरीक होना चाहते थे। किशोर साहू उन्हें भा गए थे। सो तय हुआ कि 1 दिसंबर को सरदार पटेल ‘वीर कुणाल’ का उद्घाटन करेंगे और मध्यांतर तक फिल्म देखने के बाद स्पेशल चार्टर प्लेन से कलकत्ता निकल जायेंगे।
बंबई कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष एस.के.पाटिल ने सरदार पटेल की इच्छा के अनुरूप ऐसा ही कार्यक्रम सुनिश्चित किया।
1 दिसंबर सन 1945 को नॉवेल्टी थियेटर बंबई में ‘वीर कुणाल’ का शानदार प्रीमियर शो हुआ। सरदार वल्लभ भाई पटेल ने फिल्म से पहले भाषण दिया। अंग्रेजों को ललकारते हुए उन्होंने कहा-‘जिस दिन विदेशी पूंजीपति हमारे देश में आकर स्टूडियो खोलने की कोशिश करेंगे, कांग्रेस पूरी ताकत के साथ उसका विरोध करेगी।’
भाषण के बाद सरदार पटेल मध्यांतर तक ‘वीर कुणाल’ देखते रहे, इसके बाद ही वे कलकत्ता की बैठक के लिए रवाना हुए।
‘वीर कुणाल’ ऐतिहासिक रूप से एक सफल फिल्म साबित हुई।
6 जनवरी 1946 को किशोर साहू की सुपुत्री नयना का जन्म हुआ। नयना साहू जो बाद में उनकी फिल्म ‘हरे कांच की चूडिय़ां’ की नायिका बनी।
इसके बाद किशोर साहू ने फिल्मिस्तान के बैनर तले ‘सिंदूर’ फिल्म का निर्देशन किया। नायक वे स्वयं थे नायिका थी शमीम। नायिका शमीम उस जमाने में एक फ्लॉप
हीरोइन मानी जा रही थी। फिल्मिस्तान के निर्माता राय बहादुर चुन्नीलाल शमीम की जगह किसी दूसरी हीरोइन को इस फिल्म में लेना चाहते थे, पर किशोर साहू इसके पक्ष में नहीं थे।
राय बहादुर चुन्नीलाल को लगा किशोर साहू उनकी बात न मानकर उनकी लुटिया डुबो देंगे। इसलिए उन्होंने इस फिल्म में पैसा लगाना बंद कर दिया और अपने प्रोडक्शन की दूसरी फिल्म ‘शहनाई’ जिसका निर्देशन प्यारे लाल संतोषी कर रहे थे में ज्यादा से ज्यादा पैसा लगाने लगे।
‘सिंदूर’ 7 जून 1947 को रॉक्सी थियेटर में रिलीज हुई। यह फिल्म अद्भुत रूप से सफल रही। यह फिल्म 32 सप्ताह तक टॉकीज से नहीं उतरी। सिल्वर जुबली से भी आगे 7 सप्ताह ज्यादा चली। इस फिल्म को देखकर कई लोगों ने विधवा विवाह किया। ‘शहनाई’ फिल्म फ्लॉप फिल्म साबित हुई।
राय बहादुर चुन्नीलाल ने प्यारेलाल संतोषी द्वारा निर्देशित फिल्म ‘शहनाई’ के प्रचार-प्रसार में पानी की तरह पैसा बहाया था और पूरी बंबई नगरी को इस फिल्म के पोस्टर से पाट दिया था। जबकि ‘सिंदूर’ के प्रचार-प्रसार में एक ढेला भी खर्च नहीं किया। राय बहादुर चुन्नीलाल को लग रहा था कि ‘सिंदूर’ एक फ्लॉप फिल्म साबित होगी और ‘शहनाई’ एक सुपर-डुपर हिट फिल्म। लेकिन हुआ ठीक इसके उल्टा ही।
किशोर साहू आगे की सोच रखने वाले एक प्रगतिशील और गंभीर फिल्म निर्देशक थे। वह जमाना ही कुछ और था, आज जैसी मसाला और फूहड़ फिल्मों का दौर नहीं था, सोद्देश्य फिल्मों का जमाना था।
यह था किशोर साहू की फिल्मों का जादू जो बीसवीं सदी के 30 और 40 के दशक में लोगों के सिर चढक़र बोलता था। हिंदी सिनेमा के दर्शक और पूरी फिल्मी दुनिया किशोर साहू की फिल्मों की दीवानी हो चुकी थी। किशोर साहू तब तक हिंदी सिनेमा के आकाश में ध्रुव तारे की तरह चमकने लगे थे।
यह बात बहुत कम ही लोगों को मालूम है कि हिंदी सिनेमा के महान अभिनय सम्राट कहे जाने वाले ट्रेजडी किंग यूसुफ खान उर्फ दिलीप कुमार का फिल्मी कैरियर पचास के दशक में गर्दिश में था।
‘ज्वारभाटा’ (सन 1944) और ‘जुगनू’ (सन् 1947) जैसी फिल्में दिलीप कुमार के कैरियर में कुछ खास नहीं कर पाई थी।
नए नवेले दिलीप कुमार की नैया मंझधार में हिचकोले खा रही थी। उस समय फिल्मी दुनिया में नए-नए आए हुए दिलीप कुमार को एक ऐसे प्रतिभाशाली निर्देशक की जरूरत थी जो उसके भीतर छिपी हुई अभिनय प्रतिभा को समझकर उसे एक नया जीवनदान दे सके।
दिलीप कुमार के ऐसे दुर्दिनों में ही उनके जीवन में किशोर साहू एक फरिश्ता बनकर आए। जिसके चलते दिलीप कुमार आजीवन किशोर साहू के मुरीद हो गए।
दिलीप साहब आजीवन किशोर साहू की यादों को अपने दिल में संजोए रहें।
किशोर साहू द्वारा निर्मित और निर्देशित फिल्म ‘नदिया के पार’ (सन 1948) दिलीप कुमार के लिए वरदान साबित हुई।
(बाकी अगले हफ्ते)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
काबुल हवाई अड्डे पर सैकड़ों लोगों के हताहत होने की खबर ने सारी दुनिया का दिल दहला दिया है। सबसे ज्यादा अमेरिका की इज्जत को धक्का लगा है, क्योंकि यह हमला काबुल हवाई अड्डे पर हुआ है और काबुल हवाई अड्डा पूरी तरह से अमेरिका के अधिकार क्षेत्र में है। इस हमले में कई अमेरिकी, तालिबानी और अफगान मारे गए हैं। अमेरिकी खुफिया विभाग की यह असाधारण असफलता है कि उसे पता ही नहीं लग पाया कि हवाई अड्डे पर इतने बड़े दो हमले हो जाएंगे। हमले को रोकने की जिम्मेदारी उन अमेरिकी सैनिकों की थी, जो काबुल हवाई अड्डे पर डटे हुए थे। अब अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन को भयंकर गुस्सा आ गया है। वे कह रहे हैं कि वे हत्यारों को छोड़ेंगे नहीं। उन्हें ढूंढेंगे और मारेंगे। कैसे मारेंगे ? यदि उन आतंकवादियों को मारना है तो आप 31 अगस्त को अपने हर जवान को काबुल से हटाकर उन्हें कैसे मारेंगे ?
क्या बाइडन को अब समझ में आया कि अमेरिका की फौजी वापसी का निर्णय जल्दबाजी भरा और अपरिपक्व था। वे अपने आप को डोनाल्ड ट्रंप से अधिक चतुर सिद्ध करने के चक्कर में इस दुख और शर्मिंदगी का सामना कर रहे हैं। अमेरिका ने पिछले दो साल में काबुल सरकार और तालिबान के साथ सांठ-गांठ करके अपना पिंड छुड़ाने की जो रणनीति बनाई थी, वह बहुत चालाकीभरी थी लेकिन अमेरिका के नीति-निर्माताओं ने इस तथ्य पर ध्यान नहीं दिया कि एक तो तालिबान कई गुटों में बंटे हुए हैं। दूसरा, तालिबान के अलावा अफगानिस्तान में जो सबसे खतरनाक गिरोह सक्रिय हैं, वह हैं- 'विलायते खुरासान और इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक एंड लेवांतÓ। इनका सीधा संबंध 'अल कायदाÓ से भी है और पाकिस्तान की शक्तिशाली गुप्तचर एजेंसी आईएसआई से भी है। काबुल हवाई अड्डे पर खून-खराबे के लिए यह खुरासानी गिरोह ही जिम्मेदार है। तालिबान ने खुद उसकी भर्त्सना की है। तालिबान, खुरासानी गिरोह और पाकिस्तानी फौज की पहले अच्छी-खासी सांठ-गांठ रही है लेकिन अब इस गिरोह ने तालिबान और पाकिस्तान की घोषणाओं पर भी पानी फिरवा दिया है। दोनों की छवि सारे संसार में खराब हो गई है।
तालिबान की इस घोषणा पर अफगान लोग कितना विश्वास करेंगे कि उनके राज में हर अफगान सुरक्षित रहेगा। किसी को भी देश से भागने की जरुरत नहीं है। अब तालिबान ने यह भी कह दिया है कि जो अफगान नागरिक बाहर जाना चाहें, उन्हें बाहर जाने की छूट दी जाएगी। पिछले 10-12 दिन में उनका जोर इस बात पर था कि अफगान लोग देश छोड़कर भागें नहीं, क्योंकि सारे योग्य लोग भाग गए तो देश कैसे चलेगा ? लेकिन काबुल हवाई अड्डे की दुर्घटना ने तालिबान को भी नरम कर दिया है। वे अमरुल्लाह सालेह और अहमद मसूद से भी बात कर रहे हैं। वे एक मिली-जुली सरकार बनाने की कोशिश कर रहे हैं। आशा है कि करजई और अब्दुल्ला नजरबंद नहीं किए गए हैं। काबुल हवाई अड्डे के इस हमले की भर्त्सना पाकिस्तान तथा लगभग सभी इस्लामी राष्ट्रों ने की है लेकिन अब वे इस खुरासानी गिरोह (आईएसकेपी) पर काबू करने की कोशिश क्यों नहीं कर रहे?
(लेखक, अफगान मामलों के विशेषज्ञ हैं। वे अफगान नेताओं के साथ सतत संपर्क में हैं।)
(नया इंडिया की अनुमति से)
-शंभूनाथ
मुझे लगता है, हिंदी के विश्वविद्यालय-बाहर का साहित्य 10 साल बाद मामूली मुनाफा भी नहीं देगा। अच्छी मासिक और द्वै-मासिक साहित्यिक पत्रिकाएं (गैर-सरकारी) शायद ही रह जाएं। इधर सोशल मीडिया ने पुस्तकें पढऩे की प्रवृत्ति पर बड़ी चोट की है और बौद्धिक सतहीकरण को एक बड़ी मात्रा प्रदान की है। कई हैं जो कुछ पुस्तकें खरीद जरूर लेते हैं, पर सोचते हैं-कभी पढ़ेंगे! साहित्य की दुनिया अभी से सिकुड़ती जा रही है। फिर लेखक का शोषण करने वाले कहां-कहां होंगे, इस पर लेखक को सोचना चाहिए।
आज हिंदी के जो लेखक चेतन भगत की शैली में अपना भाव लगा रहे हैं, उन्हें जरा शांति से आने वाले दिनों के संकट के बारे में सोच लेने में हर्ज नहीं है। मेरा खयाल है, आज का सबसे बड़ा हिंदी साहित्यकार भी लिखकर 25 हजार रुपए महीना भी शायद ही कमाता हो। आज हिंदी में लिखकर अपनी जीविका चलाना तो दूर कोई सब्जी का खर्च भी नहीं निकाल सकता।
10 साल बाद साहित्य के हिंदी पाठक खोजने होंगे, पारिश्रमिक पाना तो बहुत दूर की बात है। इस मामले में अभी से सोचना चाहिए, मिलजुलकर रास्ता निकालना चाहिए।
इसपर विचार करना चाहिए कि जब लेखक को शोषण करने वाले भी नहीं मिलेंगे, तब वे क्या करेंगे? क्या लिखना बंद कर देंगे ? वे यशपाल और अश्क की तरह अपना निजी प्रकाशन शायद ही शुरू करें। अपनी अच्छी नौकरी से बड़ा वेतन पाते हुए भी शायद ही 4-5 व्यक्तियों से ज्यादा हों जो अपनी गांठ से खर्च करके साहित्यिक पत्रिका निकालें या कोई साहित्यिक आयोजन करें। अधिकांश तो हिंदी का सेवन करेंगे।
जिन साहित्यकारों के सजग बेटे-बेटियां न होंगे, शायद उनके मरने के कुछ सालों बाद उनका कोई नामलेवा नहीं होगा।
व्यापारी काफी पहले साहित्य से त्यागपत्र दे चुके हैं। संस्थाओं की हालात सामान्यत: खराब होती जा रही है। क्या तब यही होगा कि लेखक अपने पैसा से डेटा खरीदें, फेसबुक, ब्लॉग जैसी जगहों पर कुछ क्षणभंगुर लिखते रहें और इन्हीं पर परम अभिव्यक्ति का सुख हासिल करते रहें! यह सचमुच एक दयनीय स्थिति होगी।
साहित्य की दुनिया में बड़े व्यावसायिक प्रकाशनों के अलावा बाकी क्षेत्रों में साहित्य का काम हमेशा नुकसान से भरा रहा है। प्रकाशक भी साहित्य की सरकारी खरीद के मंद और धीरे-धीरे बंद होते ही लेखकों को नमस्कार करते नजर आएंगे। हिंदी के 5-7 बड़े प्रकाशकों को छोड़ दें,तो छोटे प्रकाशन कुटीर उद्योग की तरह हैं। ज्यादातर किताबें पैसे लेकर छापी जाती हैं और ये मुश्किल से बिकती हैं। हिंदी में 6 महीने में 1000 प्रतियां बिक गईं तो वह बेस्ट सेलर है! इस मामले में भी झूठा प्रचार ज्यादा है।
गौर कीजिए तो बहुत कम लेखक होंगे जो किताबें या पत्रिकाएं खरीद कर पढ़ते होंगे। कई की दृष्टि यह है कि यदि दूसरा लेखक मित्र नहीं है तो उसकी किताब पढऩा अपना अपमान करना है! यह है दशा।
इन सबके बावजूद क्या किसी भी युग में रचनाकार में लिखने की छटपटाहट कम हो सकेगी? लेकिन जब साहित्य के क्षेत्र में शोषण करने वाले ही न होंगे (!) भारतीय भाषाओं के साहित्य का बाजार ही सिकुड़ जाएगा, तब लेखक क्या करेगा?
प्राय: बड़े हिंदी अखबारों ने अपने पन्नों से साहित्य को पहले ही हटा दिया है।मैं नहीं जानता, नई स्थितियों में प्रकाशक अपने को कितना बदलेंगे और पाठक आंदोलन तैयार करेंगे। लेकिन इतना साफ है कि पढऩे की संस्कृति को बचाना सबसे बड़ी जरूरत है और यह सामूहिक प्रयास से ही होगा।
वस्तुत: साहित्य कर्म हर युग में अपने को लुटाने का काम रहा है, कम से कम हिंदी की दुनिया में साहित्य से कमाकर अंग्रेजी लेखकों की तरह अमीर बनने की संभावना नहीं है।
लेखक समाज से क्या पाएगा, यह अब इसपर निर्भर करेगा कि वह अपनी रचनाओं और बड़े-बड़े विचारों के अलावा समाज को क्या दे रहा है।
हिंदी क्षेत्र के पढ़े-लिखे स्मार्ट नौजवान बड़े पैमाने पर अंग्रेजी और तकनीक की दुनिया में चले गए हैं। आमतौर पर साहित्यकारों के खुद उनके अपने बच्चे ही उनकी किताबें नहीं पढ़ते, भले ऐसे भोले साहित्यकारों की गहरी इच्छा हो कि पूरी दुनिया उनकी किताब पढ़े! ऐसी विडंबनापूर्ण स्थितियां नहीं बदलीं तो 10 साल बाद साहित्य के हिंदी पाठक टॉर्च लाइट लेकर खोजने होंगे, पारिश्रमिक पाना तो बहुत दूर की बात है।
इस मामले में अभी से सोचना चाहिए, बल्कि मिलजुलकर रास्ते खोजने चाहिए। दरअसल अंग्रेजी छोडक़र दूसरी किसी भाषा में अब साहित्य मुनाफे का काम नहीं है! कमाने के लिए जो लेखन की दुनिया में आना चाहते हैं, वे कविता, कथा, आलोचना छोडक़र मिथ्या प्रचार के वीडियो बनाएं-इसकी मांग इधर बढ़ी है!ं
-गिरीश मालवीय
नेशनल मोनेटाइजेशन पाइपलाइन को लॉन्च किए गए चार दिन हो गए हैं। हिंदी मीडिया ने सरकारी विज्ञप्ति छापने के अलावा एक लेख भी उसका विश्लेषण करने वाला नहीं लिखा जिसमें इस योजना के हानि लाभ की कोई चर्चा हो।
देश की सम्पति को इतने बड़े पैमाने पर ठिकाने लगाने की स्कीम आज से पहले किसी सरकार ने नही घोषित की है, क्या हिंदी मीडिया का यह दायित्व नहीं बनता है कि अपने पाठकों अपने पाठकों/दर्शकों को इस योजना के बारे में सरकार के पक्ष से इतर विश्लेषणात्मक, तुलनात्मक जानकारी दे?
चलिए हिंदी मीडिया भी छोड़ दीजिए अंग्रेजी मीडिया में जो एक मात्र ढंग का लेख इस विषय मे आया है वह भी विदेशी मीडिया में आया है जिसे सभी साभार प्रस्तुत कर रहे हैं वह लेख है एंडी मुखर्जी का जो शायद ब्लूमबर्ग के लिए सबसे पहले लिखा गया है।
इस लेख में नेशनल मोनेटाइजेशन पाइपलाइन की तुलना साल 2013 में ऑस्ट्रेलिया सरकार द्वारा में घोषित एसेट रीसाइक्लिंग प्लान से की गई है।
इस लेख में बताया गया है कि ऑस्ट्रेलिया के कंपटीशन एवं कंज्यूमर कमिशन चेयरमैन ने पिछले महीने ही इस विषय मे बयान दिया है, ‘संस्थानों का निजीकरण उनकी कार्य क्षमता और अर्थव्यवस्था की एफिशिएंसी बढ़ाने के लिए किया जाना चाहिए। सभी सरकारी संपत्ति का निजीकरण नहीं किया जाना चाहिए।’
इस लेख में रेलवे में मोनेटाइजेशन स्कीम को लेकर सिंगापुर का उदाहरण दिया सिंगापुर सरकार को अपनी सबअर्बन ट्रेन का वापस से नेशनलाइजेशन करना पड़ा क्योंकि जिस प्राइवेट ऑपरेटर को उन्होंने लीज पर दिया उसने उसमे इसमें जरूरी निवेश नहीं किया, जिसकी वजह से बार-बार ब्रेकडाउन होने लगे थे और लोगों में गुस्सा बढ़ रहा था।
पॉवर के क्षेत्र में मोनेटाइजेशन पॉलिसी के दुष्परिणाम को भी इस लेख में आस्ट्रेलिया के न्यू साउथ वेल्स इलाके के उदाहरण से समझाया गया है कि वहां पिछले 5 साल में इलेक्ट्रिसिटी की कीमत दोगुनी हो चुकी है। बिजली के खंभे और तार समेत पूरे सिस्टम का निजीकरण कर दिया गया था जब बिजली महंगी होने लगी और लोगों में गुस्सा बढऩे लगा तो सरकार को एनर्जी अफॉर्डेबिलिटी पैकेज लाकर लोगों के बढ़ते भार को कम करना पड़ा।
इस लेख से स्पष्ट है कि अन्य देशों में ऐसी पॉलिसी का विश्लेषण यह बताता है कि यह प्रयोग इतना सफल नहीं हुआ है, अफसोस की बात है कि अनुवाद के अलावा ऐसे ही अन्य लेख कम से कम हिंदी में तो बिल्कुल भी उपलब्ध नहीं है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत सरकार की अफगान नीति पर हमारे सभी राजनीतिक दल और विदेश नीति के विशेषज्ञ काफी चिंतित हैं। उन्हें प्रसन्नता है कि तालिबान भारतीयों को बिल्कुल भी तंग नहीं कर रहे हैं और भारत सरकार उनकी वापसी में काफी मुस्तैदी दिखा रही है। वह जो भी कर रही है, वह तो किसी भी देश की सरकार का अनिवार्य कर्तव्य है लेकिन उसके कर्तव्य की इतिश्री यहीं नहीं हो जाती है। अफगानिस्तान में भारतीय राष्ट्रहितों की रक्षा करना उसका पहला धर्म है। इस मामले में भारत सरकार लगातार चूकती हुई दिखाई पड़ रही है। विदेश मंत्री जयशंकर ने ताजा बैठक में आज जो सफाई पेश की है, वह बिल्कुल भी संतोषजनक नहीं है। उनका कहना था कि तालिबान ने दोहा में जो समझौता किया था, उसका पालन नहीं हुआ है और भारत सरकार ने अभी तक 'बैठे रहो और देखते रहोÓÓ (वेट एंड वाच) की नीति अपना रखी है।
पता नहीं उस बैठक में आए नेताओं ने जयशंकर की इस मुद्दे पर खिंचाई की या नहीं ? उन्हें जयशंकर से पूछना चाहिए था कि तालिबान और अफगान सरकार के बीच समझौता किसने करवाया था ? क्या भारत सरकार ने करवाया था ? वह समझौता अमेरिका ने करवाया था। समझौता लागू न होने पर अमेरिका को नाराज़ होना था लेकिन उसकी जगह आप नाराज़ हो रहे हैं? यह नाराजी फर्जी है या नहीं ? अमेरिका का सर्वोच्च जासूसी अफसर विलियम बर्न्स काबुल जाकर तालिबान नेताओं से बात कर रहा है और आप यहाँ दुम दबाए बैठे हैं। आप तो भागे हुए राष्ट्रपति अशरफ गनी से भी ज्यादा डरपोक निकले। उसे तो अपनी जान की पड़ी हुई थी। आपको तालिबान से क्या खतरा था? क्या दोहा समझौते के बाद तालिबान ने एक भी भारत—विरोधी बयान दिया है ? काबुल की आम जनता तालिबान से जितनी डरी हुई है, उससे ज्यादा आप डरे हुए हैं।
आप हामिद करजई और डॉ. अब्दुल्ला जैसे भारत के परम मित्रों की मदद करने से भी डर रहे हैं। यदि आपकी यह दब्बू नीति कुछ हफ्ते और बनी रही तो निश्चय ही तालिबान को चीन और पाकिस्तान की गोद में बैठने के लिए आप मजबूर कर देंगे। जरा ध्यान दें कि कल लंदन में हुई जी-7 की बैठक में अध्यक्ष ब्रिटिश सांसद टोम टगनधाट ने क्या कहा है। उन्होंने कहा है कि इस समूह में भारत को भी जोड़ा जाना चाहिए, क्योंकि अफगान-उथल-पुथल का सबसे ज्यादा दुष्प्रभाव भारत-जैसे देश पर ही पड़ेगा। यह कितनी बड़ी विडंबना है कि विदेश सेवा का एक अनुभवी अफसर हमारा विदेश मंत्री है और हमारे पड़ौस में हो रहे इतने गंभीर उथल-पुथल के हम मूक दर्शक बने हुए हैं। अफसोस तो हमारे राजनीतिक दलों के नेताओं पर ज्यादा है, जो अपने विवेक का इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं। नौकरशाहों की नीति है- बैठे रहो और देखते रहो। लेकिन नेताओं की नीति है कि बैठे रहो और सोते रहो।
(लेखक, अफगान मामलों के विशेषज्ञ हैं। वे अफगान नेताओं के साथ सतत संपर्क में हैं।) (नया इंडिया की अनुमति से)
-गिरीश मालवीय
राखी जैसे पवित्र त्यौहार के ठीक दो दिन पहले एक अफगान महिला सांसद के दिल्ली में जो सुलूक किया गया वह बिल्कुल ठीक नहीं था.
अफगान संसद की सदस्य रंगिना कारगर ने कहा कि अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे के पांच दिन बाद 20 अगस्त को वह तुर्की के इस्तांबुल से सीधे नई दिल्ली चली गई थी. लेकिन उन्हें नई दिल्ली के इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे से डिपोर्ट कर दिया गया.
रंगिना कारगर फरयाब प्रांत का प्रतिनिधित्व करने वाली वोलेसी जिरगा की सदस्य हैं. इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के मुताबिक, उन्होंने कहा कि वह 20 अगस्त की शुरुआत में इस्तांबुल से फ्लाई दुबई फ्लाइट से इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर पहुंची थीं. उनके पास एक राजनयिक/आधिकारिक पासपोर्ट था, जो भारत के साथ पारस्परिक व्यवस्था के तहत वीजा मुक्त यात्रा की सुविधा देता है. सांसद कारगर ने बताया कि उन्होंने पहले भी इस पासपोर्ट पर कई बार भारत की यात्रा की है. पहले कभी कोई दिक्कत नहीं गई, लेकिन इस बार इमीग्रेशन अधिकारियों ने उन्हें रोक लिया. उन्हें इंतजार करने के लिए कहा गया. कारगर ने कहा कि अधिकारियों ने उसने कहा कि उन्हें इसको लेकर अपने सीनियर से बात करनी होगी. उन्हें दो घंटे इंतजार कराया गया और उसके बाद, उन्हें उसी एयरलाइन द्वारा दुबई के रास्ते इस्तांबुल वापस भेज दिया गया.
जबकि महिला सांसद के डिपोर्ट होने के दो दिन बाद, भारत ने दो अफगान सिख सांसदों, नरिंदर सिंह खालसा और अनारकली कौर होनारयार का भारत में स्वागत किया गया और उन्हें जमकर मीडिया कवरेज दिया गया.
महिला सांसद ने बताया, ‘उन्होंने मुझे डिपोर्ट कर दिया, मेरे साथ एक अपराधी जैसा व्यवहार किया गया. मुझे दुबई में मेरा पासपोर्ट नहीं दिया गया. यह मुझे सीधे इस्तांबुल में वापस दिया गया.’
2010 से सांसद रही रंगिना कारगर ने कहा, ‘कि भारत की सरकार ने जो मेरे साथ किया वह अच्छा नहीं था. काबुल में स्थिति बदल गई है और मुझे उम्मीद थी कि भारत सरकार अफगान महिलाओं की मदद करेगी.’
उन्होंने कहा कि ‘मैंने गांधीजी के भारत से इसकी कभी उम्मीद नहीं की थी. हम हमेशा भारत के दोस्त हैं, भारत के साथ हमारे सामरिक संबंध हैं, भारत के साथ हमारे ऐतिहासिक संबंध हैं. लेकिन इस स्थिति में उन्होंने एक महिला और एक सांसद के साथ ऐसा व्यवहार किया है.’
अपशब्दों के इस्तेमाल के लिए केंद्रीय मंत्री की गिरफ्तारी राजनीति और कानून व्यवस्था दोनों पर टिप्पणी है. यह भारत की कानून व्यवस्था का जेल प्रेम ही तो है जिसकी बदौलत जेलों में तीन लाख से ज्यादा अंडरट्रायल कैदी बंद हैं.
डॉयचे वेले पर चारु कार्तिकेय की रिपोर्ट
नारायण राणे होना अपने आप में शायद आसान नहीं होता होगा. पहली पार्टी छोड़ कर दूसरी में जाना, फिर दूसरी छोड़ कर तीसरी में जाना, काफी इंतजार के बाद केंद्रीय मंत्री बनाए जाना और फिर गिरफ्तार होने वाला 20 सालों में पहला केंद्रीय मंत्री बनने का इतिहास लिखना - कितने लोग एक जीवनकाल में इतना सब कुछ हासिल कर पाते होंगे?
और गिरफ्तार हुए भी तो किस लिए, वो भी एक विडंबना है. राणे के चुनावी ऐफिडेविट के अनुसार उनके खिलाफ अपहरण, जबरन कैद करना, हमला और आपराधिक साजिश के आरोपों तहत एक 20 साल पुराना मामला लंबित है.
केंद्रीय मंत्री की गिरफ्तारी
लेकिन इतिहास रचने वाली उनकी गिरफ्तारी हुई महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को अपशब्द कहने के मामले में. उन्होंने एक बयान में कह दिया था कि ठाकरे को यह भी नहीं मालूम कि भारत कब स्वतंत्र हुआ था और इसके लिए उन्हें एक झापड़ जड़ दिया जाना चाहिए.
बयान निश्चित रूप से निंदनीय था. राजनीति में उपयोग होने वाली भाषा का स्तर वैसे ही नीचे गिरता जा रहा है. ऐसे में एक केंद्रीय मंत्री एक मुख्यमंत्री को चांटा लगाने की इच्छा सार्वजनिक रूप से जाहिर कर दे, तब तो समझिए भाषा ही नहीं राजनीति में व्यवहार का भी बेड़ा गर्क हो चुका है.
लेकिन राणे की पूर्व पार्टी के कार्यकर्ताओं को उनके मौजूदा नेता के खिलाफ कही गई यह बात इतनी बुरी लग गई कि इस बयान पर महाराष्ट्र में राणे के खिलाफ तीन अलग स्थानों पर सीधे एफआईआर ही दर्ज करा दी गई.
भारतीय दंड संहिता की जो धाराएं उनके खिलाफ लगाई गईं, उनमें 153ए (1) (दंगे भड़काना), 506 (धमकाना) और 189 (सरकारी मुलाजिम को चोट पहुंचाने की धमकी देना) शामिल हैं.
बीस साल पहले
और फिर देखते ही देखते वो हो गया जो पिछले 20 सालों में नहीं हुआ था. इससे पहले 2006 में यह उपलब्धि लगभग तत्कालीन केंद्रीय कोयला मंत्री शिबू सोरेन के नाम लिख दी गई होती अगर उन्होंने गिरफ्तार होने से पहले मंत्रिपरिषद से इस्तीफा ना दे दिया होता.
महाराष्ट्र में जो हुआ ऐसा ही घटनाक्रम 2001 में तमिलनाडु में जे जयललिता की सरकार के कार्यकाल में हुआ था, जब तमिलनाडु पुलिस ने तत्कालीन केंद्रीय मंत्री मुरासोली मारन और टीआर बालू को गिरफ्तार कर लिया था. यह भारत के इतिहास में केंद्रीय मंत्रियों की गिरफ्तारी का सबसे पहला मामला था.
हालांकि बाद में उन गिरफ्तारियों पर अदालत ने काफी सवाल उठाए और सरकारी अधिकारी और पुलिस दोनों को फटकार लगाई. राणे का मामला देखना होगा कहां तक जाता है लेकिन अभी तक जो हुआ उसमें अदालत की भूमिका भी सवाल खड़े कर गई है.
अदालत की भूमिका
पुणे, नाशिक, और रायगढ़ के महाड़ में राणे के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई. गिरफ्तारी की संभावना जब बढ़ गई तो उन्होंने रत्नागिरी सेशंस कोर्ट में गिरफ्तारी से पहले की जमानत की याचिका डाली. लेकिन वहां उन्हें राहत नहीं मिली. अदालत ने कहा कि मामला उसके क्षेत्र के बाहर का है.
फिर रत्नागिरी पुलिस जब उन्हें गिरफ्तार करने उनके दरवाजे तक पहुंच गई तो उन्होंने बॉम्बे हाई कोर्ट से मदद की गुहार लगाई. इसका बस अनुमान ही लगाया जा सकता है कि "मैं कोई साधारण आदमी नहीं हूं" कहने वाले केंद्रीय मंत्री को कैसा लगा होगा जब उनके वकील को अदालत ने बाकी सब की तरह लाइन में लगने, आवेदन देने और सुनवाई का इंतजार करने को कहा.
आखिरकार गिरफ्तारी के कुछ घंटों बाद महाड़ के ही एक मजिस्ट्रेट ने राणे को 15,000 रुपयों की जमानत पर बरी कर दिया. राणे के खिलाफ शिव सेना ने राजनीतिक हिसाब तो सीधा कर लिया, लेकिन नुकसान हुआ न्याय व्यवस्था का.
लिबर्टी बनाम जेल
भारत में अदालतें बार बार कहती हैं कि जमानत ही कायदा है और जेल अपवाद, लेकिन देश की कानून व्यवस्था अपने जेल प्रेम के लिए बदनाम है. देश की जेलों में 70 प्रतिशत कैदी अंडरट्रायल हैं और इसके बावजूद ट्वीट करने, कार्टून बनाने और बयान देने जैसे कारणों से आज भी लोगों को गिरफ्तार किया जा रहा है.
चाहे कोई विद्यार्थी, प्रोफेसर हो, पत्रकार हो या एक्टिविस्ट, राजनीतिक अजेंडा हो तो पुलिस का गलत इस्तेमाल कर किसी को भी आसानी से ना सिर्फ गिरफ्तार करवाया जा सकता है, बल्कि उसके खिलाफ राजद्रोह और आतंकवाद जैसे संगीन आरोप भी लगाए जा सकते हैं.
ऐसे में संभव है कि कल को जब किसी "साधारण आदमी" की गिरफ्तारी के खिलाफ अदालत में अपील की जाए तो अभियोजन पक्ष यह दलील दे सकता है कि जब केंद्रीय मंत्रियों को गिरफ्तार किया जा सकता है तो आम आदमी को क्यों नहीं? (dw.com)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अफगानिस्तान के मामले में भारत सरकार के रवैए में इधर थोड़ी जागृति आई है, यह प्रसन्नता की बात है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जर्मन चांसलर एंजला मर्केल और रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पूतिन से बात की। संयुक्त राष्ट्रसंघ और अंतरराष्ट्रीय मानव आयोग में भी हमारे प्रतिनिधियों ने भारत का दृष्टिकोण स्पष्ट किया। हमारे प्रधानमंत्री और प्रतिनिधियों ने अपनी बातचीत और भाषणों में कहीं भी तालिबान का नाम तक नहीं लिया। उन्होंने काबुल में किसी की भर्त्सना नहीं की लेकिन उन्होंने बड़े पते की बात बार-बार दोहराई। उन्होंने कहा कि हम काबुल की सरकार से अपेक्षा करते हैं कि वह आतंकवाद को बिल्कुल भी प्रश्रय नहीं देगी। वह अफगानिस्तान की जमीन को किसी भी मुल्क के खिलाफ इस्तेमाल नहीं होने देगी और वहां ऐसी सरकार बनेगी कि जो सबको मिलाकर चले। ये जो बातें हमारी तरफ से कही गई हैं, बिल्कुल ठीक हैं।
भारत ने चीन की तरह अमेरिका के मत्थे अधकचरी वापसी और अराजकता का ठीकरा नहीं फोड़ा है और न ही उसने पाकिस्तान पर कोई हमला किया है, हालांकि पाकिस्तान तालिबान को पहले भारत के खिलाफ इस्तेमाल करता रहा है। इस समय भारत के लिए सही नीति यही है कि उसका रवैया रचनात्मक रहे और सावधानीपूर्ण रहे। याने वे देखे कि तालिबान जो कह रहे हैं, उसे वे कितना कार्यरूप दे रहे हैं ? हमें सिर्फ यही नहीं देखना है कि कश्मीर और अफगानिस्तान में हमारे निर्माण-कार्यों के बारे में उनका रवैया क्या है ? वह तो ठीक ही है। वे हमारे नागरिकों को और गैर-मुस्लिम अफगानों को भी कोई नुकसान नहीं पहुँचा रहे हैं लेकिन यह काफी नहीं है। हमें देखना है कि काबुल की नई सरकार का रवैया अफगान जनता के प्रति क्या है ? यदि उसका रवैया वही 25 साल पुराना रहता है तो हम न सिर्फ उनको मान्यता न दें बल्कि अफगान जनता के पक्ष में विश्वव्यापी अभियान भी चलाएं। इस वक्त बेहतर होगा कि हमारे कूटनीतिज्ञ काबुल में सक्रिय सभी पक्षों के नेताओं से सीधा संवाद करें और वहां एक मिली-जुली शासन-व्यवस्था स्थापित करवाने की कोशिश करें।
यदि अमेरिकन गुप्तचर एजेंसी सीआई के प्रमुख विलियम बर्न्स काबुल जाकर तालिबान नेताओं से बात कर रहे हैं तो हम हाथ पर हाथ धरे क्यों बैठे रहें ? यदि सरकार गहरे असमंजस में है तो कुछ प्रमुख भारतीय भी गैर-सरकारी पहल कर सकते हैं। तालिबान ने अपनी अंतरिम मंत्रिपरिषद की घोषणा कर दी है। हमारी कोशिश होनी चाहिए कि उमसें कुछ भारतप्रेमी अफगान भी शामिल हो सकें। काबुल की नई सरकार को देश चलाने के लिए इस समय पैसे की बहुत जरुरत होगी। मार्गदर्शन की भी। इन दोनों कामों में भारत सरकार उसकी जमकर मदद कर सकती है लेकिन उसे अपने दिमाग से डर निकालना होगा। अफगानिस्तान की आम जनता में भारत के प्रति बड़ा सम्मान है। भारत के प्रति उसके दिल में वैसी शिकायतें नहीं हैं, जैसी पाकिस्तान के लिए हैं। लेकिन देखना यह है कि भारत जरुरी सक्रियता निभाता है या नहीं ?
(लेखक, अफगान मामलों के विशेषज्ञ हैं। वे अफगान नेताओं के साथ सतत संपर्क में हैं।)
(नया इंडिया की अनुमति से)
-गिरीश मालवीय
बहुत से लोगो को यह बात समझ नहीं आ रही होगी उनके लिए बता देता हूँ कि सरकार ने देश भर के तमाम बड़े छोटे ज्वेलर्स के लिये एक नई व्यवस्था लागू की है इसे एचयूआईडी व्यवस्था कहा जा रहा है एचयूआईडी का अर्थ है हॉलमार्क यूनिक आइडेंटिफिकेशन। ये एक 9 अंक का अल्फान्यूमेरिक कोड है, जो अब से हर ज्वेलरी पर लगाया जाएगा ताकि गहने की एक विशिष्ट पहचान सुनिश्चित की जा सके।
एचयूआईडी सिस्टम में देश के हर ज्वेलर्स / सुनार को दो ग्राम या इससे अधिक भार वाला आभूषण बनाने पर बेचने पर हर उत्पाद का विवरण बीआईएस पोर्टल पर देने के साथ उसे किस ग्राहक को बेचा, ये बताना होगा। उत्पाद की फोटो भी साइट पर अपलोड करनी होगी। इसमे सराफा कारोबारी का नाम, पता, हॉलमार्क सेंटर, उसका नंबर, वजन, यूनिक नंबर, गहने की शुद्धता और उसकी बिक्री का भी ब्योरा दर्ज करना होगा।
जैसे हर व्यक्ति आधार नंबर होता है यह कुछ वैसी ही व्यवस्था है इस नए नौ अंकों की अल्फा न्यूमेरिक विशिष्ट पहचान संख्या (यूआईएन) कोड को क्यूआर कोड रीडर या एक मोबाइल एप्लिकेशन के साथ पढ़ा जा सकता है, इसमें ज्वेलर्स की तो ट्रैकिंग होगी ही साथ ही कस्टमर की भी ट्रैकिंग होगी जिससे ग्राहक की निजता को भी बड़ा खतरा है।
देश भर के ज्वेलर्स ने इसका विरोध करते हुए 23 अगस्त को एक दिन की हड़ताल की। ज्वेलर्स का कहना है कि हॉलमार्क तो ठीक है। लेकिन एचयूआईडी को वो लोग स्वीकार नहीं करेंगे
यहां पर आप ध्यान इस बात पर दे कि यह हॉलमार्क नहीं है यह एक उससे इतर व्यवस्था है हॉलमार्क वाले आभूषणों पर पहले से ही बीआईएस लोगो, हॉलमार्क जारी करने वाला लैब कोड, गहना की शुद्धता, हॉलमार्क का वर्ष और जौहरी विवरण होता है। उससे किसी को भी प्रॉब्लम नहीं है क्योंकि हॉलमार्क एक तरह की गारंटी है। इसके तहत हर गोल्ड ज्वैलरी पर भारतीय मानक ब्यूरो (बीआईएस) अपने मार्क के द्वारा शुद्धता की गारंटी देता है। यदि गहनों पर हॉलमार्क है तो इसका मतलब है कि उसकी शुद्धता प्रमाणित है इससे ज्वेलर्स को बिल्कुल इंकार नहीं है उन्हें हर ज्वेलरी की यूनिक आइडेंटिटी से प्रॉब्लम है।
यह ज्वेलर्स को क्लर्क बनाने की कवायद है. दुकान में अगर एक ज्वेलरी पर एचयूआईडी नहीं मिला तो रजिस्ट्रेशन या लाइसेंस रद्द करने, बीआईएस एक्ट, 2016 के सेक्शन 29 के तहत एक साल तक की जेल या एक लाख रुपये से अधिक का जुर्माना भरना पड़ सकता है, तलाशी और जब्ती के ऐसे कड़े नियम से गोल्ड इंडस्ट्री में इंस्पेक्टर राज आ जाएगा, वर्तमान में देश के 256 जिलों में ही हॉलमार्क सेंटर हैं। जबकि यूआईडी डालने के लिए हर जिले में 10 हॉलमार्क सेंटर की जरूरत है।
यानी ज्वेलर्स के भी अच्छे दिन आ रहे है! यही वर्ग सबसे आगे रहकर मोदी सरकार को खुलकर समर्थन देता आया है इसलिए इनसे रत्ती भर की सहानुभूति कम से कम मुझे तो नहीं है!
इस नियम के लागू होने के बाद छोटा मोटा ज्वेलर्स तो साफ ही हो जाएगा और बाजार पर बड़े ब्रांड का कब्जा हो जाएगा।
मुझे सिर्फ एक बात समझ नहीं आ रही है कि आखिर वे कौन से व्यक्ति है या ऐसे कौन से संगठन है जिन्होंने इस नियम को लागू करने की माँग की थी? साफ है ज्वेलर्स ने तो यह माँग की नहीं होगी न किसी उपभोक्ता संगठन ने ऐसी कोई माँग सरकार के सामने रखी होगी?
अब यदि मैं कहूँ कि यह न्यू वल्र्ड ऑर्डर के तहत किया जा रहा है तो बहुत से लोगों को इसमे भी कांस्पिरेसी थ्योरी नजर आने लगेगी।
इस देश में सोने को एक संपत्ति के रूप में जाना जाता है, जैसे जमीन जायदाद है वैसे ही सोना भी है, सरकार जल्द ही हर जमीन/मकान/दुकान/फ्लैट आदि के लिए भी एक सेंट्रलाइज्ड यूनिक आइडेंटिटी की व्यवस्था लागू कर रही है, जिसे वह आधार से जोड़ेगी ओर सोने की छोटे से छोटी ज्वेलरी को एक यूनिक आइडेंटिटी देकर इस व्यवस्था की नींव डाली जा रही है।
यह एक टोलेटोरियन स्टेट की शुरुआत है जिसमे राज्य आपके जीवन के हर पहलू पर कड़ा नियंत्रण रखना चाहता है, यह फासीवाद की शुरुआत है, जहाँ क्रोनी कैपटलिज्म के हित ओर राज्य की तमाम व्यवस्था एक उद्देश्य की तरफ बढ़ते हैं ओर वह है निजी स्वतंत्रता का अपहरण!
-अभिक देब
कल शाम Reuters ने दानिश सिद्दीकी के मौत, उस घटना से जुड़े तथ्य और उसके lead-up पर एक खोजी रिपोर्ट छापी है। महज़ investigative report के तौर पर ही यह शानदार है।
लेकिन इस रिपोर्ट के जिस पहलू ने मुझे सबसे ज़्यादा प्रभावित किया वो यह कि Reuters ने किस संजीदा मगर पेशेवर तरीके से दानिश की मौत में अपने उत्तरदायित्व को समझा है।
अव्वल तो यह कि इस रिपोर्ट पर सिर्फ़ उन लोगों ने काम किया जो सिद्दीकी को अफगान assignment पर भेजने और उसके दौरान लिए गए editorial decisions का हिस्सा नहीं थे।
इसका परिणाम यह हुआ कि Reuters में कार्यरत रहने के बावजूद भी Devjyot Ghoshal और Stephen Grey ने अपनी रिपोर्ट में Reuters की decision making पर सवाल उठाएं।
उन्होंने इस बात पर ज़ोर दी कि काबुल में Reuters के रक्षा विशेषज्ञ नहीं होने के बावजूद दानिश को ऐसे मिशन पर क्यों भेजा गया। इस बात को भी उजागर किया कि दानिश के assignment पर दक्षिण एशिया से जुड़े संपादकों की सहमति नहीं ली गई। यह भी पूछा कि जब मौत से तीन दिन पहले, 13 जुलाई को, दानिश एक RPG हमले के शिकार हो चुके थे, उसके बाद भी उन्हे वापस क्यो नहीं बुलाया गया।
सिर्फ रिपोर्ट ही नहीं, घोषाल और ग्रे ने अपने Twitter पर लंबे threads लिखें इन सवालों को ले कर।
हालांकि रिपोर्ट में इस बात की भी ज़िक्र है कि Reuters लगातार दानिश के संपर्क मे थी और risk assessment चल रही थी। वहाँ बने रहने के निर्णय में दानिश की ख़ुद की सहमति थी, और उसके तजुर्बे और assignment के लिए ज़रूरी resources की मौजूदगी को भी तवज्जो दी गई।
मुद्दा है संवाद संस्थान के accountability का। न्यूज़रूम के अंदर की स्वतंत्रता की। Reuters की यह रिपोर्ट उन सारे संस्थानों के लिए सबक है जो अपने पत्रकारों पर social media conduct के नाम पर शिकंजा कसे रहते हैं और मौका आने पर उन्हें नौकरी से निकालने से भी नही चूकते। भले वो सरकार के खिलाफ पोस्ट के लिए हो, या संस्थान के ही किसी ग़लत निर्णय के खिलाफ।
बाकि इस रिपोर्ट को पढ़ कर दानिश और पत्रकारिता से एक बार फिर इश्क़ कर सकते हैं। अपने आखिरी assignment पर जाने से पहले दानिश के शब्द थे: "If we don't go, who will?"
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
यह अच्छी बात है कि हमारा विदेश मंत्रालय सभी प्रमुख पार्टियों के नेताओं को अफगानिस्तान के बारे में जानकारी देगा। क्या जानकारी देगा ? वह यह बताएगा कि उसने काबुल में हमारा राजदूतावास बंद क्यों किया ? दुनिया के सभी प्रमुख दूतावास काबुल में काम कर रहे हैं तो हमारे दूतावास को बंद करने का कारण क्या है ? क्या हमारे पास कोई ऐसी गुप्त सूचना थी कि तालिबान हमारे दूतावास को उड़ा देनेवाले थे? यदि ऐसा था तो भी हम अपने दूतावास और राजनयिकों की सुरक्षा के लिए पहले से जो स्टाफ था, उसे क्यों नहीं मजबूत बना सकते थे ? हजार-दो हजार अतिरिक फौजी जवानों को काबुल नहीं भिजवा सकते थे ?
यदि पिछले 10 दिनों में हमारे एक भी नागरिक को किसी तरह का नुकसान नहीं पहुंचाया गया है तो वे हमारे राजदूतावास को नुकसान क्यों पहुंचाते अर्थात वर्तमान स्थिति के बारे में हमारी सरकार का मूल्यांकन ठीक नहीं निकला। जहाँ तक नागरिकों की वापसी का सवाल है, चाहे वह देर से ही की गई लेकिन हमारी सरकार ने दुरुस्त किया। हमारी वायुसेना को बधाई लेकिन दूतावास के राजनयिकों को हटाने के बारे में विदेश मंत्रालय संसदीय नेताओं को संतुष्ट कैसे करेगा ?
इसके अलावा बड़ा सवाल यह है कि काबुल में सरकार बनाने की कवायद पिछले 10 दिन से चल रही है और भारत की भूमिका उसमें बिल्कुल शून्य है। शून्य क्यों नहीं होगी ? काबुल में इस समय हमारा एक भी राजनयिक नहीं है। मान लिया कि हमारी सरकार तालिबान से कोई ताल्लुक नहीं रखना चाहती लेकिन पूर्व राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री हामिद करजई और डॉ. अब्दुल्ला तो हमारे मित्र हैं। वे मिली-जुली सरकार बनाने में जुटे हुए हैं। उनकी मदद हमारी सरकार क्यों नहीं कर रही है ? हम अफगानिस्तान को पाकिस्तान और चीन के हवाले होने दे रहे हैं। हमारी सरकार की भूमिका इस समय काबुल में पाकिस्तान से भी ज्यादा महत्वपूर्ण हो सकती थी, क्योंकि तालिबान खुद चाहते हैं कि एक मिली-जुली सरकार बने।
इसके अलावा तालिबान ने आज तक एक भी भारत-विरोधी बयान नहीं दिया है। उन्होंने कश्मीर को भारत का अंदरुनी मामला बताया है और अफगानिस्तान में निर्माण-कार्य के लिए भारत की तारीफ की है। यह सोच बिल्कुल पोंगापंथी और राष्ट्रहित विरोधी है कि हमारी सरकार तालिबान से सीधा संवाद करेगी तो भाजपा के हिंदू वोट कट जाएंगे या भाजपा मुस्लिमपरस्त दिखाई पडऩे लगेगी। तालिबान अपनी मजबूरी में पाकिस्तान का लिहाज़ करते हैं, वरना पठानों से ज्यादा आजाद और स्वाभिमानी लोग कौन हैं ? मोदी सरकार ने सुरक्षा परिषद की अध्यक्षता करते हुए वह अवसर भी खो दिया, जबकि वह काबुल में सं.रा. शांति सेना भिजवा सकती थी। विदेश मंत्री जयशंकर को अपनी खिंचाई के लिए पहले से तैयार रहना होगा और अब जरा मुस्तैदी से काम करना होगा, क्योंकि भाजपा के पास विदेश नीति को जानने-समझनेवाले नेताओं का बड़ा टोटा है।
(लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष और अफगान मामलों के विशेषज्ञ हैं)
(नया इंडिया की अनुमति से)
-बादल सरोज
26 अगस्त को नौ महीने पूरे कर रहे किसान आंदोलन को किसी परिचय या भूमिका की आवश्यकता नहीं है। यहां सीधे इसकी कुछ विशेषताओं पर आते हैं। इस असाधारण किसान आन्दोलन की इन सबसे भी कहीं ज्यादा बुनियादी और दूरगामी छाप छोड़ने वाली विशेषतायें पाँच हैं।
पहली है : इस लड़ाई का नीतिगत सवालों पर पूरी तरह से स्पष्ट होना। आम किसानों से लेकर नेताओं तक हरेक की जुबान पर एक ही बात है : खरीद में कारपोरेट, खेती में ठेका और उपज की जमाखोरी-कालाबाजारी वाले तीनों कृषि कानूनों और बिजली संबंधी प्रस्तावित क़ानून की पूरी तरह से वापसी। उनकी पक्की राय है कि ये सिर्फ किसानों का नहीं, भारत की जनता का सर्वनाश करने वाले क़ानून हैं और चूँकि जिंदगी और मौत के बीच कोई बीच का रास्ता नहीं होता, इसलिए इनकी वापसी के अलावा कोई बीच का रास्ता नहीं है। इसके साथ उनकी मांग है न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के आधार पर निर्धारित करना और उसे कानूनी दर्जा देकर उससे कम पर खरीदना दंडनीय अपराध बनाना। इन मांगो पर उनकी जानकारियां एकदम अपडेटेड हैं, जिन्हे वे गजब की सरलता से बताते भी हैं। ध्यान देने की बात है कि यह माँगे नहीं हैं - ये नवउदारीकरण के अश्वमेध यज्ञ के घोड़े की नकेल पकड़ उसे पीछे लौटाने जैसी बात है। नीतियों को उलटने और देश की जरूरत के हिसाब से नीतियां बनवाने की बात है।
दूसरी यह कि वे असली गुनहगारों को भी भलीभाँति पहचानते हैं, इसलिए उनके आंदोलन के निशानों में सिर्फ चिरकुट नेता नहीं हैं, अडानी के शोरूम और अम्बानी के पेट्रोल पम्प और संस्थान भी हैं। उन्हें पता है कि राक्षस की जान किस गिद्ध में है। "दिल्ली चलो" में भी वे कारपोरेट नियंत्रित मोदी के गोदी मीडिया से बात तक नहीं कर रहे हैं। उसे अपने घेराव के डेरों में आने नहीं दे रहे हैं। हर आव्हान में देश भर में एक-डेढ़ लाख से ज्यादा जगहों पर इस तिकड़ी - मोदी, अडानी, अम्बानी - के पुतले फूंके गए। आंदोलन के हर आव्हान का निशाना कारपोरेट रहा। यह हालिया दौर के संघर्षों के हिसाब से बहुत नयी और साहसी बात है।
तीसरी असाधारणता है हुक्मरान भाजपा-आरएसएस जिसे अपना ब्रह्मास्त्र मानती है, उस धर्माधारित साम्प्रदायिक विभाजन के मामले में पूरी तरह स्पष्ट होना। छहों सीमाओं पर और उनके समर्थन में देश भर में चलने वाली सभाओं में तकरीबन हर वक्ता किसानों की मुश्किलों और इन तीन-चार कानूनों पर अपनी बात कहने के साथ ही भाजपा और मोदी के विभाजनकारी एजेंडे का पर्दाफ़ाश जरूर करता है। उसे समझने की जरूरत पर जोर देता है और सभी धर्मों को मानने वालों से इस साजिश को समझने की अपील करता है। जिन्होंने पहले कभी इनकी संगत की थी, वे अब बाकायदा माफियां मांगते और भविष्य में ऐसा न करने की कसम खाते घूम रहे हैं। सिर्फ कहने में ही नहीं, बरतने में भी यही सदभाव और सौहार्द्र नजर आता है। हिन्दू, मुस्लिम, सिख मिलकर लंगर चलाते हुए साफ़ नजर आते हैं। इस तरह यह संघर्ष बिना किसी सैद्धांतिक सूत्रीकरण में जाए ही साम्प्रदायिकता के जहर के उतार की दवाई भी दे रहा है और बिना किसी अतिरंजना के कहा जा सकता है कि आज के समय में यह एक बड़ी बात है।
जन के विभाजन का एक और रूप जातिगत ऊंच नीच की जीवित सलामत बजबजाती कीच है। इस आंदोलन ने -- कम-से-कम दिल्ली बॉर्डर्स पर तथा स्थानीय लामबन्दियों में -- इसे शिथिल होते हुए देखा है। आंदोलन के नेताओं के भाषणों में यह मुद्दा बना है। इस मामले में दिल्ली की सीमाओं पर बसे प्रदेशों के गाँवों की दशा को देखते हुए यह काफी उल्लेखनीय बात है।
चौथी और सबसे नुमाया खूबी है इसकी जबरदस्त चट्टानी एकता। मंदसौर गोलीकाण्ड के बाद लगातार संघर्षरत करीब ढाई सौ संगठनों वाली अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति (एआईकेएससीसी) इसकी धुरी है। पंजाब, हरियाणा और उत्तरप्रदेश की अलग-अलग किसान यूनियनें और राष्ट्रीय किसान महासंघ इसके साझे मोर्चे में हैं। अलग-अलग विचारधाराओं और नेताओं के आग्रहों के बावजूद इस लड़ाई के मामले में एकजुटता में ज़रा सी भी कसर नहीं है। यह एकता रातों रात नहीं बनी। इसके पीछे जहां कृषि संकट की भयावहता और कार्पोरेटी हिन्दुत्व वाली सरकार की निर्लज्ज नीतियों को तेजी से लागू करने की हठधर्मिता से उपजी वस्तुगत (ऑब्जेक्टिव) परिस्थितियाँ हैं, तो वहीँ इनके खिलाफ आक्रोश को आकार देने के लिए, सबको जोड़ने की अखिल भारतीय किसान सभा और उसकी ओर से उसके महासचिव हन्नान मौल्ला द्वारा धीरज के साथ की गयी कोशिशें हैं और नाशिक से मुम्बई तक किसान सभा के पैदल मार्च और राजस्थान के किसान आन्दोलन से बना असर भी हैं। ऐसी एकता बनाना कम मुश्किल नहीं है, मगर उसे चलाना और बनाये रखना और भी कठिन है। इन 200 दिनों ने इन सारी मुश्किलों और कठिनाईयों को आसानी के साथ निबाहते हुए ऐसी स्थिति पैदा कर दी है कि अब एकाध-दो के इधर-उधर विचलन के बाद भी किसान नहीं डिगने वाला।
यही एकता इस आंदोलन के मंच - संयुक्त किसान मोर्चा - के किये आव्हानों के साथ हो रही लामबंदी के रूप में दिखती है। मेहनतकश संगठनों की ऊपर कही जा चुकी बात अलग भी रख दें, तो हाल के दौर में यह पहला मौक़ा था जब 24 विपक्षी दल इकठ्ठा होकर भारत बंद के समर्थन में उतरे।
पाँचवीं विशेषता इसकी राजनीतिक सर्वानुमति है, जिसका घोषित एकमात्र उद्देश्य है कारपोरेट परस्त, किसान विरोधी मोदी सरकार को हटाना -- भाजपा को हराना। पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में यह अभियान चलाया जा चुका है और मिशन उत्तरप्रदेश-उत्तराखंड के नाम पर इसका आगाज़ 5 सितम्बर को मुज़फ्फरनगर से होने वाला है। तिकड़मों के बादशाहों, थैलियों के भामाशाहों और सीबीआई-ईडी के घोड़ों पर सवार नादिरशाहों की हुकूमत के खिलाफ यह कम बड़ी बात नहीं है। यही संकल्पबध्दता है, जिसने देश के 19 राजनीतिक पार्टियों को इसकी मांगों के समर्थन में सड़कों पर उतरने की प्रेरणा दी है। एनडीए में शामिल कई दल भी किसानों के पक्ष में बोलने के लिए मजबूर हुए।
उत्तरकाण्ड
एक आम सवाल यह पूछा जाता है कि आखिर कब तक चलेगा यह आंदोलन? यह हमदर्दों और शुभाकांक्षियों का प्रश्न है, इसलिए इसे संज्ञान में लिया जाना चाहिए।
पंजाब से शुरू हुए इस आंदोलन का जल्दी ही हरियाणा और पश्चिमी उत्तरप्रदेश में असरदार हो जाना पुरानी बात हो गयी। यह स्वाभाविक था। ये वे इलाके हैं, जहां कृषि अपेक्षाकृत विकसित है और तीन-चौथाई सरकारी खरीद यहीं से होती है। किन्तु इस बीच यह देश के बाकी प्रदेशों में भी पहुँच चुका है। जिन प्रदेशों में एमएसपी पर खरीद का सरकारी ढाँचा तकरीबन है ही नहीं -- वहां भी इसकी धमक सुनाई दे रही है। व्यापकता और विस्तार के ये आयाम दिल्ली बॉर्डर पर डटे किसानों की ताकत और हौंसला बढ़ाने वाले हैं।
दूसरी और तीसरी पारस्परिक संबद्ध अहम् बातें है इस आंदोलन से बना माहौल और इसके नेतृत्व का राजनीतिक हस्तक्षेप का महत्त्व समझना, बेझिझक उसे करना। जो किसानों की मांगों और आंदोलन से सहमत नहीं है, उनका भी मानना है कि इस संघर्ष ने देश के 90 फीसदी किसानो के मन में यह बात बिठा दी है कि ये क़ानून उसके खिलाफ है और यह भी कि नरेंद्र मोदी किसान विरोधी है। हाल में हुए 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों और उसके थोड़े से पहले हुए पंजाब, उत्तरप्रदेश और केरल के स्थानीय निकाय चुनावों में भाजपा का सूपड़ा साफ़ होना इस आंदोलन से बने प्रभाव का नतीजा है। संयुक्त किसान मोर्चे द्वारा अगले वर्ष होने वाले चुनावों के मद्देनजर "मिशन उत्तरप्रदेश-उत्तराखण्ड" का एलान किया जा चुका है। अब बात निकल ही चुकी है, तो उसका दूर तक जाना तय है।
(लेखक पाक्षिक 'लोकजतन' के संपादक और अ.भा. किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं। वे सीपीएम के वरिष्ठ पदाधिकारी हैं।)
-गिरीश मालवीय
देश के ओर इलाकों के बारे में तो नही पता लेकिन मध्यप्रदेश के इस मालवा के इलाके के बारे में तो कह सकता हूँ कि यहां घर घर चूड़ी बेचने का काम अधिकतर काम मुस्लिम भाई ही करते है, दरसअल उत्तर भारत मे कांच की चूडिय़ां मुख्य रूप से यूपी के फिरोजाबाद में बनती है वहाँ भी बड़े पैमाने पर मुस्लिम इस कारोबार में लगे हुए है इस शहर को सुहाग नगरी का नाम से भी जाना जाता है। यही से तमाम उत्तर भारत के बड़े शहरों गाँव कस्बो में बनी हुई रंगबिरंगी चूडिय़ों की सप्लाई होती है मुस्लिम आबादी का एक तबका सैकड़ों सालों से यह काम कर रहा है यह उनका खानदानी पेशा है।
इंदौर के एक पुराने मोहल्ले में जहाँ मेरा बचपन बीता है वहाँ भी मुस्लिम चूड़ीवाले की एक दुकान थी उनके बच्चे भी हमारे साथ खेलने आते थे, एक- डेढ़ साल पहले एक दिन मेरी पत्नी ने आकर मुझसे आकर कहा आज मुहल्ले में चूड़ी पहनाने वाला एक ठेला लेकर आया था और वह कह रहा था कि वह आपको अच्छी तरह से जानता है, एक पल मैं भी चौक गया, फिर पत्नी ने मुझे उसका नाम बताया तो मुझे उसकी याद आ गई। मैंने कहा हॉं मैं भी उसे जानता हूँ, शायद हमीद उसका नाम था।
कुछ साल पहले जब टाटा के तनिष्क ब्रांड के एक विज्ञापन, जिसमें उन्होंने एक मुस्लिम सास को अपनी हिंदू बहू की गोद भराई की रस्म करते दिखाया था, पर बड़ा बवाल हुआ। उसे लेकर द वायर में अनुराग मोदी ने एक लेख लिखा था। अनुराग जी भी हमारे इसी मालवा के इलाके से ताल्लुक रखते हैं उन्होंने अपने इस लेख बशीर चूड़ी वाले को याद किया है वे लिखते हैं।
‘मेरे बचपन (आज से 45 साल पहले) में बशीर चूड़ीवाला हमारे मोहल्ले में चूडिय़ां बेचने आता था। सब उन्हें मुसलमान चूड़ीवाले के रूप में नहीं बल्कि बशीर चाचा के नाम से जानते थे। जब मैं थोड़ा बड़ा हो गया तो कई अवसरों पर हमारे घर में बड़े गर्व से यह बात होती थी कि बशीर चाचा सावन पर हमारी बुआ को अपनी बेटी मानकर मुफ्त में चूडिय़ां पहनाते थे। और जब शादी के दो साल बाद ही वो विधवा हो गईं, तो उन्होंने हमारे मोहल्ले में आकर चूडिय़ां बेचना ही बंद कर दिया।
बशीर चूड़ीवाले को चूड़ी बेचना बंद किए और इस दुनिया से गए जमाना हो गया। मगर एक हिंदू बेटी के प्रति उनके इस स्नेह की कहानी आज भी न सिर्फ भी मेरे जेहन में बल्कि मेरी मां के ज़हन में ताजा है।
82 साल की मेरी बूढ़ी मां को तनिष्क नहीं मालूम, न ही यह सब विज्ञापन का बवाल, लेकिन इस लेख को लिखने के पहले जब मैंने उन्हें फोन किया और पूछा कि वो कौन-सा चूड़ीवाला था, जो बुआ को मुफ्त चूड़ी पहनाता था, तो उन्होंने बड़े मीठे से कहा कि बशीर चूड़ीवाला!
और साथ ही स्नेह के भाव से से यह भी बताया कि वो सिर्फ बुआ को ही नहीं बल्कि हर साल दिवाली में उन्हें भी चूड़ी पहनाकर जाते थे, जो मुझे नहीं मालूम था।
अनुराग मोदी लिखते हैं कि सिवनी मालवा जैसे कस्बे, जहां पिछले 30 साल से मंदिर की राजनीति के चलते धर्म के नाम पर ध्रुवीकरण चरम पर है, हमारे घर में सब उस राजनीति से प्रभावित हैं, तब भी बशीर चूड़ीवाले का नाम मेरी मां की स्मृति में आज भी उसी स्नेह के रूप में दर्ज है, कि कैसे एक मुसलमान चूड़ीवाला उन्हें अपनी बहू मानकर दिवाली पर याद से चूड़ी पहनाकर जाता था।
वे आगे लिखते हैं कि ‘असल में जिस पीढ़ी ने बंटवारे और हिंदू-मुस्लिम दंगे देखे, उसने हिंदू-मुस्लिम का इंसानी प्रेम भी देखा है इसलिए यह पीढ़ी तमाम ध्रुवीकरण और राजनीतिक झुकाव के बाद आज भी अपने ज़हन में कहीं न कहीं उन यादों को भी जगह दिए हुए है।
लेकिन नई पीढ़ी, जो अपनी अधिकतर सूचनाएं ऑनलाइन लेती है, जो रात दिन टीवी डिबेट और देश के प्रधानमंत्री से लेकर तमाम बड़े नेताओं के भाषण में हिंदू-मुस्लिम रिश्तों को दो अलग-अलग ध्रुव पर देखती है, जिसके पास मेरी मां या मेरी तरह ऐसे कोई व्यक्तिगत अनुभव नहीं हैं, वो हिंदू-मुस्लिम स्नेह के इंसानियत के रिश्ते को कैसे समझेगी?
अनुराग मोदी ने अंत मे जो लिखा है वह हम सबको समझने की जरूरत है, दरअसल नयी पीढ़ी जिसके दिमाग में व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी दिन रात जहर उंडेलती रहती है वह बशीर चूड़ी वाले को न जानना चाहती है न समझना चाहती है।
-गिरीश मालवीय
मोदी सरकार इसी कार्यकाल में ऐसा काम करके जाएगी कि हमारी आने वाली पीढिय़ां प्राइवेट सेक्टर की गुलाम बन जाएगी। मोदी सरकार ने कल विभिन्न क्षेत्रों की सरकारी संपत्तियों में मोनेटाइजेशन कर कुल 6 लाख करोड़ रु. जुटाने के लक्ष्य की घोषणा की है।
आलोचना होने पर कहा है कि हम बेच थोड़ी न रहे हैं हम तो लीज पर दे रहे हैं और लीज एक तय समयसीमा के लिए होगी। उसके बाद पूरा इन्फ्रास्ट्रक्चर सरकार के पास आ जाएगा। जिन रोड, रेलवे स्टेशन या एयरपोर्ट्स को लीज पर दिया जाएगा, उनका मालिकाना हक सरकार के पास ही रहेगा।
अब सवाल यह उठता है कि यह लीज आखिर कितने सालो के लिए दी जा रही है ? आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि एयरपोर्ट के मामले में यह लीज 50 साल की है और रेलवे स्टेशन और उससे लगी जमीनें 100 साल के लिए निजी कंपनियों को लीज पर दी जाएगी
जी हां पूरे 100 सालों के लिए!
अब यह बेचे जाने से कैसे कम है आप ही फैसला कीजिए? जब देश के पहले रेलवे स्टेशन हबीबगंज को प्राइवेट करने का फैसला हुआ तो यह लीज 45 सालों के लिए दी गई लेकिन निजी कंपनियों को यह रास नहीं आया। उन्होंने जिद करके सरकार से बाकी तमाम रेलवे स्टेशन को 99 सालो के लिए लीज पर देने की शर्तों को अनुबंध में डलवा दिया।
कल वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने जो योजना प्रस्तुत की है उसके अंतर्गत 400 स्टेशन, 90 पैसेंजर ट्रेन, 1400 किमी के ट्रैक वह लीज पर देंने जा रही हैं, साथ ही पहाड़ी इलाकों में रेलवे संचालन भी प्राइवेट कंपनियों को सौपा जा रहा है इसमे कालका-शिमला, दार्जिलिंग, नीलगिरी, माथेरन जैसे ट्रैक शामिल हैं। इसके अलावा देश भर मे रेलवे के 265 गुड्स शेड लीज पर दिए जाएंगे। साथ ही 673 किमी डीएफसी भी निजी क्षेत्र को दी जाएगी। इनके अलावा चुनिंदा रेलवे कॉलोनी, रेलवे के 15 स्टेडियम का संचालन भी लीज पर दिया जाएगा।
हम सब जानते हैं कि तेल तिलों से ही निकलता है प्राइवेट कंपनियां जनता का ही तेल निकालकर ठेके की रकम की वसूली करेगी। इसके लिए मोदी सरकार ने रेलवे के यात्रियों पर यूजर चार्ज लगाने का प्रावधान पहले से ही कर दिया है शुरुआत में देश के 15 फीसदी रेलवे स्टेशनों पर यूजर चार्ज लगाया जाना है। दिल्ली में हवाई अड्डा पर देखें तो घरेलू और अंतरराष्ट्रीय (इंटरनेशनल) यात्रियों से अलग अलग यूजर चार्ज लिया जाता है। वह करीब 500 रुपये के करीब होता है।
यानी आप भी रेलवे स्टेशन पर लगभग 500 रु यूजर चार्ज देने की तैयारी कर लीजिए!
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
शिव सेना के सांसद संजय राउत का यह कहना काफी अजीब सा है कि नाथूराम गोडसे ने गांधी की बजाय जिन्ना को मार डाला होता तो भारत-विभाजन शायद रूक जाता, लेकिन राउत भूल गए कि गांधीजी की हत्या विभाजन के ठीक साढ़े पाँच महिने बाद हुई थी। यदि भारत-विभाजन के पहले जिन्ना को मार दिया जाता तो खून-खराब कितना ज्यादा होता, इसकी कल्पना भी किसी को है या नहीं ? खून-खराबा तो होता ही और पाकिस्तान 1947 की बजाय उसके पहले ही बन जाता। लेकिन प्रधानमंत्री द्वारा 14 अगस्त को 'विभाजन विभीषिका स्मृति दिवसÓ के रुप में मनाना भी आश्चर्यजनक है। 14 अगस्त तो पाकिस्तान का स्वाधीनता दिवस है, जैसे कि 15 अगस्त हमारा है। तो क्या इन दोनों दिवसों को हम विभीषिका-दिवस के तौर पर मनाएँ? पाकिस्तानी 15 अगस्त को और हम 14 अगस्त को! मेरे ख्याल से ये दोनों बातें गलत हैं।
ये दोनों यदि विभीषिका दिवस हैं तो दोनों देशों के प्रधानमंत्री इन दिवसों पर एक-दूसरे को बधाई क्यों भेजते हैं? राउत ने मोदी से सवाल पूछा है कि आप यदि अखंड भारत चाहते हैं तो आप उसमें पाकिस्तान के मुसलमानों का क्या करेंगे ? इसमें बांग्लादेश के मुसलमानों को राउत क्यों भूल गए? सच्चाई तो यह है कि मालदीव और श्रीलंका के मुसलमान भी भारत के ही अंग थे। यदि अखंड भारत वह है, जिस पर अंग्रेजों का राज था तो इन पड़ौसी देशों को भी उसमें जोडऩा पड़ेगा लेकिन अंग्रेजों के भारत को अखंड भारत कहना तो हमारे प्राचीन इतिहास की उपेक्षा ही है। उसके अनुसार अखंड भारत नहीं, हमें आर्यावर्त्त की बात करना चाहिए, जिसका जिक्र हमें महावीर स्वामी, गौतम बुद्ध, महर्षि दयानंद के कथनों और पांडवों-कौरवों तथा सम्राट अशोक के साम्राज्यों में मिलता है। यह आर्यावर्त्त अराकान (म्यांमार) से खुरासान (ईरान) और त्रिविष्टुप (तिब्बत) से मालदीव तक फैला हुआ है।
इसमें मध्य एशिया के पांचों गणतंत्र भी जोड़े जा सकते हैं। भारत को सिर्फ अंग्रेजों का 1947 का अखंड भारत ही खड़ा नहीं करना है बल्कि सदियों पुराना आर्यावर्त्त पुनर्जीवित करना है, जिसे आजकल 'दक्षेसÓ भी कहा जाता है। इस सारे दक्षिण और मध्य एशिया के क्षेत्र में यूरोप की तरह एक साझा बाजार, साझी संसद, साझी सरकार और साझा महासंघ बनाना हमारा लक्ष्य होना चाहिए। ऐसा महासंघ जो फिऱकापरस्ती, जातिवाद, संकीर्ण राष्ट्रवाद, मजहबी उन्माद और तरह-तरह के भेदभावों से मुक्त हो। उसके लिए भारत आदर्श राष्ट्र है। भारत में हम अप्रतिम सहनशीलता और उदारता देखते हैं। यदि अखंड भारत का नारा देनेवाले लोग इन्हीं गुणों को बढ़ाएं तो निश्चय ही अखंड भारत ही नहीं, अखंड आर्यावर्त्त बनने में भी देर नहीं लगेगी।
(नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
आजादी के 75 वें साल में भी भारत की हालत क्या है, इसका पता उस खबर से चल रहा है, जो ओडिशा की जगन्नापुरी से आई है। पुरी से 20 किमी दूर एक द्वीप में बसे गांव ब्रह्मपुर के दलितों की दशा की यह दर्दनाक कहानी आप चाहें तो देश के हर प्रांत में कमोबेश ढूंढ सकते हैं। ब्रह्मपुर में रहनेवाले 40 दलित परिवारों को अपना गांव छोड़कर भागना पड़ा है, क्योंकि बरसों से चली आ रही इस प्रथा को उन्होंने मानने से इंकार कर दिया था कि ऊँची जातियों के वर-वधु को डोलियाँ उन्हीं के कंधों पर निकाली जाएं। ये डोलियाँ वे बरसों से ढोते रहे और बदले में उन्हें दाल-चावल खाने को दे दिए जाते हैं। जब इन दलितों के बच्चे थोड़े पढ़-लिख गए तो उन्होंने अपने माता-पिता को यह बेगार करने से मना कर दिया। नतीजा यह हुआ कि गांव की ऊँची जातियों के लठैतों ने इन दलितों को मछली पकडऩे से वंचित कर दिया। उन्हें खाने के लाले पड़ गए। उनकी आमदनी के सारे रास्ते बंद हो गए। उन्हें गांव छोडऩा पड़ा और अब वे पास के एक अन्य गांव में अपने घासं-फूस के झोपड़े बनाने का इंतजाम कर रहे हैं। कई लोग भागकर बेंगलूरू और चेन्नई में मजदूरी की तलाश में भटकने लगे हैं।
यह झगड़ा तब तूल पकड़ गया, जब एक दलित ने नशे की हालत में मिठाई खरीदते वक्त एक ऊँची जात के दुकानदार के साथ जरा ठसके से बात की। उस गांव के सारे दलितों को कुए का पानी बंद कर दिया गया और उनकी नावों को ठप्प कर दिया गया। इसी प्रकार ओडिशा के कुछ अन्य गांवों में नाइयों और धोबियों पर भी अत्याचार हो रहे हैं। कई गांवों में इन जातियों को स्त्रियों के साथ बलात्कार तक हो जाते हैं लेकिन उन बलात्कारियों को दंडित करना तो दूर, उनकी रपट तक नहीं लिखी जाती है। 1976 में बंधुआ मजदूरी विरोधी कानून पारित हुआ था लेकिन आज भी सुदूर गांवों में यह कुप्रथा जारी है। हमारे नेता लोग चुनाव के मौसम में गांव-गांव घर-घर जाकर वोट मांगने में जऱा भी नहीं हिचकते लेकिन इन दलितों और बंधुआ मजदूरों पर होनेवाले अत्याचारों के खिलाफ यदि वे सक्रिय हो जाएं तो ही मैं मानूंगा कि वे भारत की स्वतंत्रता के 75 वाँ साल का उत्सव सही मायने में मना रहे हैं। यदि भारत के करोड़ों दलित, आदिवासी और गरीब लोग जानवरों की जिंदगी जियें तो ऐसी स्वतंत्रता का अर्थ क्या रह जाता है?
(नया इंडिया की अनुमति से)
-अजीत सिंह
अगर आप चाहते हैं कि वो जिसे इस्लामिक आतंकवाद कहा जाता है समाप्त हो जाए तो आपको कामना करनी चाहिए कि तमाम मुस्लिम मुल्कों में बादशाहत और तानाशाही ख़त्म हो और जम्हूरियत यानी चुनावी लोकतंत्र क़ायम हो.
दरअसल सऊदी अरब, जॉर्डन, मोरक्को, ईजिप्ट (मिस्र), सीरिया, यूएई, क़तर, बहरीन, ओमान जैसे तमाम मुस्लिम देशों में अमेरिका, यूरोप या अन्य देशों के पिट्ठू तानाशाह बैठे हैं जो दशकों से वहाँ के आवाम को दबा कर रखे हुए हैं.
इन क्रूर शासकों ने पचासों साल से लाखों आंदोलनकारियों की हत्याएँ करवाई हैं और दर्जनों आंदोलनों को बर्बरता के साथ कुचला है सिर्फ़ इसलिए कि उनका राज बना रहे.
आज इन देशों में मुँह खोल कर बोलने की आज़ादी तक नहीं है.
और पश्चिम के देश ऐसे तानाशाहों को न केवल सहयोग देते हैं बल्कि उनको असले और मोटी रक़म के साथ साथ अत्याचार करने के लिए गुप्त सूचना और तकनीक भी देते हैं.
अब आप पूछेंगे कि पश्चिम के देश ऐसा क्यों करते हैं? तो इसका जवाब है कि पश्चिम के देश इन इलाक़ों में तेल जैसे सभी संसाधनों पर अपना क़ब्ज़ा बना कर रखना चाहते हैं.
दरअसल आदमज़ात की शुरूआत से जंग की सारी वजह ही यही रही हैं: संसाधन पर क़ब्ज़ा. बग़ैर ज़मीन पर क़ब्ज़ा किए संसाधन पर क़ब्ज़ा नहीं मिलता है. ज़मीन पर क़ब्ज़ा बनाए रखने के लिए पिट्ठू तानाशाह की ज़रूरत होती है.
यहाँ ये कहना ज़रूरी है कि सिर्फ़ पश्चिम के देश ही नहीं बल्कि पूर्व सोवियत संघ, और उसका उत्तराधिकारी रूस, भी यही करता है. चीन भी तानाशाहों को पसंद करता है, हालाँकि अब तक चीन सीधे तौर पर जंगी राजनीति में नहीं उतरा है.
जिन मुस्लिम देशों में चुनाव होते हैं, जैसे तुर्की, ईरान और इंडोनेशिया, वहाँ आवामी राजनीति ने पिछले दशकों में जड़ें गहरी की हैं. सोचने वाली बात ये है कि अमेरिका को तुर्की और ईरान दोनों ही नहीं पसंद आते हैं जबकि वो कभी भी सऊदी अरब या जॉर्डन को बुरा नहीं कहता है.
वजह ये है कि लोकतांत्रिक विधा वाला समाज किसी विदेशी शक्ति के दबाव में इतनी आसानी से नहीं आता है जितना कि एक तानाशाह आता है.
लेकिन जो देश धार्मिक कट्टरपन की ओर बढ़ रहे हैं, जैसे भारत और तुर्की, वहाँ लोकतंत्र कमज़ोर होने का ख़तरा बढ़ता जाता है. इसीलिए ऐसे देशों के सत्ताधारी नेताओं का व्यवहार तानाशाह जैसा होने लगता है.
मूल बात ये कि तानाशाही और बादशाहत की जगह चुनावी लोकतंत्र हो. और चुनावी लोकतंत्र में जनता के मुद्दे क़ाबिज़ हों न कि धार्मिक मुद्दे.
-रुचिर गर्ग
ये उस दिन की बात है जिस दिन उन्होंने किसानों के सवाल पर आर्थिक नाकेबंदी का आह्वान किया था.
पार्टी के नेता – कार्यकर्ता बड़ी तादाद में जुटे थे, लेकिन उनमें से ही उनके एक करीबी नेता को कुछ खटक रहा था. उस नेता ने धीरे से आ कर पूछा –‘ हम किसानों के सवाल पर यहां इकट्ठा हुए हैं पर किसान तो बहुत कम नजर आ रहे हैं !’
उन्होंने कहा –‘ जिस दिन यहां इतनी ही तादाद में किसान आ गए उस दिन हम पूरे बहुमत के साथ सरकार में होंगे ! ’
इसके बाद का संघर्ष सबने देखा.
सबने देखा कि पांच साल वो सड़क पर थे,गलियों में थे, गांवों में थे..वो जुलूस में थे, प्रदर्शनों में थे!
सबने देखा कि हर आह्वान की धार क्या थी !
जिन्हें नतीजा नजर नहीं आ रहा था उन्हें इतना तो नजर आ ही रहा था कि अब किसान कहां खड़ा हो रहा है!
...और नतीजा भी वही था जैसा उन्होंने कहा था. इस नतीजे में बाकी तबके तो थे ही पर गांव और किसान तो मानो फिजां बदलने ही निकले थे !
फिजां बदली और अब सत्ता की कमान उनको सौंपी गई.
वो अब भी गांवों में हैं, खेतों, गलियों और सड़कों पर हैं. अब अपनी सरकार के फैसलों के साथ. तब जनाकांक्षाएं लड़ाई को धार दे रहीं थीं, आज वही जनाकांक्षाएँ परीक्षा ले रहीं हैं...हर रोज !
हर रोज़ वो लोकतंत्र की इस परीक्षा का मुकाबला कर रहे हैं पर जनाकांक्षाओं का सफर तो चुनौतियों से भरा और अंतहीन है!
इसमें रियायत भी कहां...इस पथ पर तो बिना थके जो चल सके मंजिल उसकी ही होगी...और ये इरादा तो उन्होंने उसी दिन अपने उस करीबी साथी के सामने जाहिर कर दिया था कि चुनौती बड़ी है, सफर लंबा है!
चुनौती सिर्फ़ राजनीति के क्षितिज में उभरने की नहीं थी बल्कि प्रदेश और देश के सामाजिक - आर्थिक जीवन में बदलाव के विकल्प तराशने की भी थी। छत्तीसगढ़ का स्वाभिमान जगाने और अस्मिता के सवालों का सीधा हल देने की भी थी. आज समाधान आपकी पहचान बनकर उभरे हैं.इस पहचान को भी जनाकांक्षा का ही एक हिस्सा जानिए!
आपका जन्मदिन यह कामना करने का अवसर दे रहा है – शुभ यात्रा मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल !
आप पर भरोसे की वजह कोई शोध का विषय नहीं बल्कि एक सीधी कार्यप्रणाली है, जो जरूरतों की समझ और उसे कर गुजरने की मजबूत इच्छा शक्ति है.
जनता की कामना है कि उसकी उम्मीदें पूरी होती रहें...हम सब की भी यही शुभकामना है कि इस सफर पर आप बाधाओं का मुकाबला करते अनथक चलें..यही इरादे तो आपकी ताकत भी हैं.
पुनः जन्मदिन की अनंत शुभकामनाएं!
रुचिर गर्ग
(लेखक मुख्यमंत्री के मीडिया सलाहकार हैं, उनके फेसबुक पेज से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
इधर जो प्रामाणिक सर्वेक्षण हुए हैं, उनसे पता चलता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता में भारी गिरावट हुई है लेकिन विपक्षी नेताओं की लोकप्रियता तो उस गिरावट से भी ज्यादा गिरी हुई है। उसमें तो किसी तरह का उठान दिख ही नहीं रहा है। इसके बावजूद लगभग सभी विपक्षी नेता मोदी के विरुद्ध एकजुट होने की कोशिश कर रहे हैं। पिछले कुछ हफ्तों में ऐसी कई पहल हो चुकी हैं लेकिन इस बार सबसे प्रमुख विरोधी दल कांग्रेस की अध्यक्ष सोनिया गांधी ने पहल की है। उनकी पहल में कुछ ऐसे दल भी एक साथ आए हैं, जो प्रांतों में एक-दूसरे के खिलाफ, लड़ रहे हैं। उनकी इस बैठक में यह बात बहुत जोर से कही गई कि इस विपक्षी गठबंधन का नेता कौन हो, यह प्रश्न इस समय ध्यान देने लायक नहीं है।
अभी तो एक ही बात पर सब अपना ध्यान केंद्रित करें कि सब मिलकर एक हो जाएं। यह एकता किसलिए हो, यह कोई साफ-साफ नहीं बता रहा। लेकिन इसे सब साफ-साफ समझ रहे हैं। इस एकता का लक्ष्य सिर्फ एक है। वह है, सत्ता हथियाना। सारे विपक्षी दल इसी सोच में खोए हुए हैं कि भाजपा-गठबंधन ने मुश्किल से 35-40 प्रतिशत वोट लिये हैं और वह सरकार बनाकर गुलछर्रे उड़ा रही है और हम विपक्ष में बैठे खट्टी छाछ बिलो रहे हैं। हमारे विपक्षी दलों की दो समस्याएं सबसे बड़ी हैं। एक तो उनके पास एक भी नेता ऐसा नहीं है जो मोदी की टक्कर में खड़ा हो सके और दूसरी बात यह कि विपक्ष के हाथ अभी तक कोई ऐसा मुद्दा नहीं लगा है, जिसके दम पर वह मोदी सरकार को अपदस्थ कर सके। इसमें शक नहीं कि किसी भी स्वस्थ लोकतंत्र के लिए सशक्त विपक्ष का होना बहुत जरुरी है और यह भी सच है कि इस समय देश की समस्याओं के विकराल रुप को देखते हुए लग रहा है कि देश को सुयोग्य नेतृत्व की जरुरत है लेकिन हमारे विपक्ष के पास खाली झुनझुने के अलावा क्या है ?
वह उसी तरह अल्पदृष्टि है, जैसी वर्तमान सरकार है। उसके पास कौनसी ऐसी वैकल्पिक दृष्टि है, जो जनता का लाभ कर सकती है या उसे तुरंत आकर्षित कर सकती है? उसके पास सत्तारुढ़ दल की तरह ही दूरदृष्टि का अभाव है। कोरोना महामारी के संकट में भाजपा सरकार को दोषी ठहरानेवाले दलों की प्रांतीय सरकारों ने कौनसा अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया? बेरोजगार लोगों के लिए उन्होंने कौनसी बेहतर राहत पहुँचाई? पिछले दो वर्षों में आई चुनौतियों के सामने यदि विपक्ष की प्रांतीय सरकारें कोई चमत्कारी काम करके दिखा देतीं तो उनका सिक्का अपने आप दौडऩे लगता। हमारे विपक्षी दलों के पास कुल मिलाकर करोड़ों सदस्य हैं लेकिन वे प्रदर्शनों, धरनों और तोडफ़ोड़ के अलावा क्या करते हैं ? क्या उन्होंने कभी सामाजिक बुराइयों के खिलाफ जन-आंदोलन चलाया? क्या वे कभी शिक्षा के प्रचार और लोक-सुविधाओं के विस्तार में कोई सक्रियता दिखाते हैं ? ऐसा लगता है कि समाज-सेवा और समाज-सुधार से उनका कोई वास्ता नहीं है। उनका लक्ष्य बस एक ही है। वह है, सत्ता कैसे हथियाना? इस दृष्टि से जैसा पक्ष है, वैसा विपक्ष है और जैसा विपक्ष है, वैसा ही पक्ष है। दोनों एक सिक्के के ही दो पहलू हैं।
(नया इंडिया की अनुमति से)
सन् 1978 में अफगानिस्तान की कम्युनिस्ट सरकार और इस्लामी मुजाहिदीन के बीच का संघर्ष गृहयुद्ध में बदल गया। इसके एक वर्ष पश्चात तत्कालीन सोवियत संघ ने अफगानिस्तान पर आक्रमण कर सत्ता पर कम्युनिस्टों की पकड़ को बनाए रखने का प्रयास किया।
-चिन्मय मिश्रा
अफगानिस्तान की वर्तमान स्थिति ने मौजूदा वैश्विक शासन व्यवस्था को उधेड़कर रख दिया है। इस कम आबादी वाले बड़े देश में जो कुछ हुआ है, हो रहा है और होने वाला है, वह बेहद सशंकित कर देने वाला है। दुनिया के बड़े और छोटे, अमीर व गरीब, विकसित, विकासशील व अल्पविकसित देश ही नहीं तमाम वैश्विक संस्थाएं जिस तरह की प्रतिक्रियाएं दे रहीं हैं, उसे देख सुन व पढ़कर लगता है कि अफगानिस्तान इस पृथ्वी ग्रह का हिस्सा न होकर सुदूर किसी अन्य अंतरिक्ष मंडल का भाग है। वहां सामान्य मनुष्य नहीं बल्कि एलियन रहते हैं, जिनकी भाषा, आचार व्यवहार हम पृथ्वीवासियों से एकदम भिन्न है ? पर क्या वास्तव में ऐसा ही है ?
अफगानिस्तान की वर्तमान स्थिति पर गौर करें तो समझ में आता है कि अब अमेरिका स्वयं को मुक्त महसूस कर रहा है। रूस अपनी तरह से आश्वस्त है। चीन अब उन्मुक्त होने के कगार पर है। पाकिस्तान तो मदमस्त हो ही चुका है और भारत कमोवेश सुस्त और पस्त है। वहीं हमारी पूरी दुनिया इक्कीसवीं शताब्दी के इस तीसरे दशक में कितनी भोली और मासूम हो गई है कि उसे इस बात का भान ही नहीं हो पाया कि उस देश के भीतर क्या चल रहा है। तालिबान एकाएक इतना ताकतवर और व्यापक प्रभाव व प्रन्मुत्ववान कैसे बन गया ? क्या कोई आसमानी शक्ति ने उन्हें यानी तालीबानियों को एकाएक महाबली बना दिया ? दुनिया के नामीगिरामी देश यह भविष्यवाणी करते रहे हैं कि काबुल के पतन में 30 से 90 दिनों का समय लग सकता है। परंतु वास्तव में उसके पतन में 30 घंटे से भी कम लगा। इस तथ्य पर गौर करिए। अमेरिका में सीआईए के अलावा करीब 15 अन्य गुप्तचर एजेंसियां हैं। रूस में 6, चीन में 4, ब्रिटेन में 4, फ्रांस में 6, पाकिस्तान में 4 इजराईल में 4, ऑस्ट्रेलिया में 5, ईरान में 16 और भारत में 6 सुसज्जित व आधुनिकतम उपकरणों से लैस महाकाय गुप्तचर एजेंसियां है। इन 70 एजेंसियों में से किसी को भी इस बात का आभास नहीं लग पाया कि तालिबान की सामरिक शक्ति कितनी है और उन्हें कहां-कहां से मदद मिल रही है।
अफगानिस्तान में जो कुछ घंटा उसे समझने के लिए लेबनानी विचारक जिब्रान की कहानी "शैतान" याद आ रही है। कहानी बहुत लंबी है। परंतु इसका लब्बलुआव यह है कि एक दयालू पादरी इस्मान एक गांव से दूसरे गांव जाकर धार्मिक उपदेश देते हैं। उनके उपदेशों को सोने चांदी से खरीदा जाता था। एक दिन जब वे एक जंगल से गुजर रहे थे, उन्हें एक बेहद गंभीर घायल व लहुलुहान व्यक्ति कराहते हुए मिला। वे सशंकित हुए और काफी विमर्श के बाद उन्होंने उससे पूछा "तुम कौन हो ?” घायल ने कहा "मैं शैतान हूँ।" पादरी ने उसकी मदद से इंकार कर दिया और कहा तू मनुष्यता का शत्रु है, आदि-आदि। शैतान बेहद रुचिकर जवाब देता है कि मुझ पर दया न करना चाहो, सहायता न करना चाहो, यह तुम्हारी मर्जी है। इसके बाद वह चेताता है, किन्तु तुम मेरे साये में ही जीवित रहते हो और फलते-फूलते हो। वह यहीं कहता है, "तुमने मेरे अस्तित्व को एक बहाना बनाया है और अपनी जीवन वृति के लिये एक अस्त्र और अपने कर्मों को न्यायोचित बताने के लिए तुम लोगों से मेरा नाम लेते फिरते हो।" वह बात को आगे बढ़ाते हुए पादरी से कहता है, "क्या तुम्हें पता नहीं कि यदि मेरा अंत हो गया तो तुम भी भूखे मर जाओगे ? यदि आज तुम मुझे मर जाने दोगे तो कल को तुम क्या करोगे ? अगर मेरा नाम ही दुनिया से मिट गया तो तुम्हारी जीविका का क्या होगा ?" यह दृष्टांत हमें समझा रहा है कि पिछले 20 वर्षों से अमेरिका के अघोषित शासन और उसके पहले के भी करीब 20 वर्ष अफगानिस्तान में ऐसे ही युद्ध में बीते हैं।
सन् 1978 में अफगानिस्तान की कम्युनिस्ट सरकार और इस्लामी मुजाहिदीन के बीच का संघर्ष गृहयुद्ध में बदल गया। इसके एक वर्ष पश्चात तत्कालीन सोवियत संघ ने अफगानिस्तान पर आक्रमण कर सत्ता पर कम्युनिस्टों की पकड़ को बनाए रखने का प्रयास किया। सोवियत संघ व मुजाहिदीन के बीच सात वर्षों तक लगातार युद्ध चला और अंततः सन 1987 में सोवियत संघ की सेना अफगानियों से हारकर वापस लौट गई। इसके बाद सन् 1994 में तालिबान का शक्तिशाली होना प्रारंभ हो गया। गौरतलब है रूसी सेना के आक्रमण के पहले ही रुसी जनरल निकोलाई ओग्राकोव ने लियोनेड ब्रेजनेव व तत्कालीन रुसी सरकार को सलाह दी थी कि अफगानिस्तान पर आक्रमण न करें क्योंकि उस देश को जीता ही नहीं जा सकता।
रुसी सेना प्रमुख कोई हवाई बात नहीं कर रहे थे। वे जानते थे कि सन् 1842 ईस्वी में अफगानिस्तान ने ब्रिटिश सेना की वहां पर उपस्थिति को नेस्तनाबूत कर दिया था। स्थानीय लड़ाकों ने ब्रिटेन की शक्तिशाली फौज के पूरे के पूरे 21000 (इक्कीस हजार) सैनिकों को मार डाला था और एक सैनिक विलियम ब्रायडन को महज इसलिए जिन्दा छोड़ा कि वह वापस जाकर यहां की कहानी ब्रिटेन के सैन्य अधिकारियों को सुना सके। विलियम ईस्ट इंडिया कंपनी में सहायक शल्म चिकित्सक थे। वे सन् 1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम के दौरान लखनऊ में भी पदस्थ रहे। बहरहाल बात यहीं खत्म नहीं होती। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को भी अमेरिकी सेनाध्यक्षों ने सलाह दी थी वे जितना जल्दी हो सके इस स्थान से बाहर निकल आयें अन्यथा उन्हें वियतनाम की ही तरह बेइज्जत होकर वहां से निकलना पड़ सकता है। वैसे फ्रांस सन् 2014 में अपने को अफगानिस्तान से निकाल चुका है, बिना कुछ हासिल किए। इस तरह से अफगानिस्तान अब तक 4 महाशक्तियों ब्रिटेन, अमेरिका, रूस व फ्रांस से निपट चुका है। अब चीन की बारी है। चीन की चालाकी भी वहां बुरी तरह मात खाएगी।
अफगानिस्तान कभी कंधार कहलाता था और वह वृहत्तर भारत का हिस्सा था। आईने अकबरी के अनुसार यह काबुल प्रांत व्यापक सिंध क्षेत्र में लाहौर (पंजाब) व मुलतान जैसा ही एक प्रदेश था। कहने को तो यहां मुगलों का शासन था, परंतु यहां से उन्हें बहुत ही कम राजस्व मिल पाता था। इसलिए वे वहां पर राज करने को लेकर बहुत गंभीर भी नहीं थे। वहां मुगलों का शासन भी नादिर शाह के आक्रमण के साथ समाप्त हो गया। इस दौरान सिंध के अलावा तत्कालीन पश्चिमी पंजाब का कुछ हिस्सा भी नादिर शाह के सिपहसालार अहमद शाह अब्दाली ने अपने कब्जे में ले लिया। अब्दाली को आधुनिक अफगानिस्तान का संस्थापक माना जाता है। यह संभवतः सन् 1735 ई. की बात है, जब अफगानिस्तान का निर्माण हुआ। इसके पहले का 2500 का इतिहास बताता हैं कि भारत और ईरान हमेशा एकदूसरे की सीमाओं का सम्मान करते रहे थे। परंतु नादिर शाह ने इसे भारत से अलग कर दिया और भारतीयों से इस इलाके को भूल जाने को कहा। बात यहीं पर नहीं रुकी। अहमद शाह अब्दाली लगातार पंजाब और दिल्ली पर हमला करता रहा। इसे रोकने के लिए पंजाब के महाराजा रंजीत सिंह ने फ्रांसीसियों, इटालियनों, ग्रीक, रूसी, जर्मन व आस्ट्रिया के सैनिकों की सहायता से एक दमदार सेना का निर्माण किया। उन्होंने सन् 1818 में मुलतान व 1819 ई. में कश्मीर को जीता। सन् 1820 में डेरा गाजी खान, सन् 1821 में डेरा इस्माइल खान, सन् 1819 ई. में काबुल और सन् 1834 में पेशावर को अपने राज्य में मिला लिया। यह जानना इसलिए भी जरुरी है कि महाराजा रंजीत सिंह ने कमोवेश नई अंतराष्ट्रीय सीमा रेखा रच दी थी। सोचिए उपरोक्त प्रांत यदि तत्कालीन भारत में नहीं मिलाए जाते, तो वर्तमान में पाकिस्तान का क्या स्वरूप होता बिना मुलतान और पेशावर का पाकिस्तान ?
बीसवीं शताब्दी के मध्य तक पश्चिमी देशों के सामने अफगान लड़ाकों की वीरता एक दंत कथा के समान थी। उनके मन में विचार उठता था कि क्या अफगानी के होते हैं ? परंतु अफगानिस्तान की सरजमीन लड़ाकों की ही नहीं रही । जलालुद्दीन रूमी सरीखे महान सूफी भी हुए हैं। उनका जन्म सन् 1207 ई. में हुआ 3/4 यह देश भारत का ही हिस्सा था। रूमी कहते हैं, "बंद हो अगर दोस्त का दरवाजा तो वापस मत चले आना।" अफगानिस्तान का एक देश के रूप में बहुत संगठित हो पाना हमेशा से कठिन हो रहा है। अपनी कबीलाई पहचान से यहां लोगों को जबरदस्त मोह है। अफगानिस्तान में कुल 14 जातीय (नृजातीय या इथेनिक) समूह निवास करते हैं। इसमें से सर्वाधिक 40 से 42 प्रतिशत पश्तो हैं अपनी पहचान के प्रति इनका लगाव अफगान के राष्ट्रगान में भी सुनाई देता है। (वैसे पिछली एक शताब्दी में यहां पांच राष्ट्रगान बदल चुके हैं।) भारतीय राष्ट्रगान में हम प्रदेशों जैसे पंजाब, सिंध, गुजरात, मराठा, द्राविड उत्कल, बंग को याद करते हैं। वहीं अफगानिस्तान के राष्ट्रगान में सभी जातीय समूहों का जिक्र आता है।
संविधान का अनुच्छेद 20 स्पष्ट करता है कि अफगानिस्तान का राष्ट्रगान पश्तों में होगा और इसमें "ईश्वर है महान" के साथ ही साथ सभी जातीय समूहों का उल्लेख होगा। इसे कुछ इस तरह रचा गया है। "यह देश प्रत्येक जातीय समूह का है, यह बलोच और उज्बेक पश्तून और हजारा, तुर्कमानियों और ताजिकों की भूमि है। इनके साथ अरब और गुज्जर, पामिरी, नूरिस्तानी, ब्राहुइस और विझल्बाश है, साथ ही अमिक्स और पाशाई भी हैं। अतएव जिस राष्ट्र में जातीय पहचान को इतना महत्व दिया जाता हो इसे इतनी आसानी से समझ पाना और उस पर शासन कर पाना बेहद कठिन है।
इस लेख के पीछे मकसद यही है कि हम पश्चिमी देशों की गलत धारणा हिसाब से ही वर्तमान अफगानी समस्या को समझने के बजाए उसे इस देश के जातीय व सांस्कृतिक दृष्टिकोण के अनुसार देखने की कोशिश करें। खलील जिब्रान की कहानी, शैतान के अंत में तमाम शास्त्रार्थ के पश्चात पादरी शैतान के उपचार को राजी हो गए। जिब्रान लिखते हैं, "उन घाटियों के बीच सन्नाटे से घिरे और अन्धकार के आवरण से सुशोभित पिता इस्मान अपने गांव की ओर चले जा रहे थे। उनकी कमर उनके ऊपर के बोझ से झुकी जा रही थी और उनकी काली पोशाक तथा लंबी दाढ़ी पर से बह रही थी, किन्तु उनके कदम सतत आगे बढ़ते जा रहे थे और उनके होंठ मृतपाय शैतान के जीवन के लिए ईश्वर से प्रार्थना कर रहे थे।"
समझ रहे हैं कि कौन किसको और क्यों बचा रहा है। अफगानिस्तान की बदहाली और अराजकता आज वैश्विक अनिवार्यता क्यों बन गई हैं ? (humsamvet.com)
-कृष्ण कांत
आपको पाकिस्तान या तालिबान की कट्टरता से चिढ़ है? अच्छी बात है। कट्टरता से चिढऩा चाहिए। लेकिन इस पर भी ध्यान दीजिए कि आपको भी वैसा ही बनाने का प्रयास क्यों चल रहा है? क्या आप वैसे बनना चाहते हैं? भारत और पाकिस्तान में हाल की कुछ घटनाओं पर गौर फरमाएं।
हाल ही में जब हमारी दिल्ली में एक समुदाय को ‘काटने और मारने’ का नारा लगाया गया और कानपुर में एक छोटी बच्ची के और उसके पिता को प्रताडि़त किया गया, उसी दौरान पाकिस्तान में भी एक मामले ने तूल पकड़ा था।
पाकिस्तान में एक 8 साल के हिंदू बच्चे ने गलती से किसी मजार के पास पेशाब कर दिया। उसके खिलाफ ईशनिंदा का केस दर्ज कराया गया। पुलिस ने बच्चे को पकडक़र जेल में डाल दिया। कोर्ट ने दो दिन बाद उस बच्चे को छोड़ दिया। कई लोग ये मान रहे थे कि छोटा बच्चा है, गलती हो गई। ऐसा उसने जानबूझकर नहीं किया।
हमारे वाले अभी ट्रेनिंग पर हैं, लेकिन पाकिस्तानी जाहिल तो कई दशक पहले ट्रेंड हो चुके हैं। तो कोर्ट के निर्णय के विरुद्ध भीड़ एकत्र हुई। इन लोगों ने रहीमयार खान इलाके के एक मंदिर में घुसकर तोडफ़ोड़ और आगजनी की। मूर्तियों को क्षतिग्रस्त किया। ये मामला काफी चर्चा में आ गया। पाकिस्तान की फजीहत शुरू हो गई। इस पर सक्रिय हुई पुलिस ने 90 लोगों को गिरफ्तार किया। पाकिस्तान के गृहमंत्री ने कहा, ‘हिंदू मंदिर को अपवित्र करने की घटना निंदनीय और दुखद है। इस तरह की घटनाएं इस्लाम और पाकिस्तान को पूरी दुनिया में बदनाम करती हैं। दूसरे धर्मों के पूजा स्थल को अपवित्र करना पूरी तरह से इस्लाम की शिक्षाओं के खिलाफ है। धार्मिक नफरत फैलाने और अल्पसंख्यकों के प्रति हिंसा भडक़ाने वालों के खिलाफ कार्रवाई की जाएगी। हम देश के सभी धार्मिक अल्पसंख्यकों की सुरक्षा सुनिश्चित करेंगे।’
वहां की संसद में ये मामला उठाया गया तो सर्वसम्मति इसके खिलाफ प्रस्ताव पास किया गया। तोड़े गए मंदिर की तुरंत मरम्मत कराई गई। पाकिस्तान हिंदू काउंसिल के सदस्यों ने जाकर फिर से मंदिर का उद्घाटन किया और फिर से पूजा शुरू हो गई। हालांकि, बच्चे के ऊपर दर्ज केस नहीं वापस लिया गया, लेकिन हिंदुओं को भरोसा है कि वह नादान है। केस मुख्य न्यायाधीश के पास है और उसे माफ कर दिया जाएगा। प्रशासन ने भी हिंदू नेताओं से कहा कि बच्चे के खिलाफ कोई सबूत नहीं है। उसे बरी कर दिया जाएगा। सरकार ने कहा कि रहीमयार खान में मंदिर को फिर से खोलना इस बात को दर्शाता है कि पाकिस्तान सरकार द्वारा अल्पसंख्यकों के धार्मिक विश्वासों का सम्मान करना हमारी मूल नीति है और हम सुनिश्चित करेंगे कि सभी नागरिक पाकिस्तान के संविधान के अनुसार जीवन और स्वतंत्रता का आनंद लें।
दूसरी घटना लाहौर में महाराजा रणजीत सिंह की मूर्ति तोडऩे का है। ये मूर्ति एक कट्टरपंथी संगठन के किसी एक सनकी शख्स ने तोड़ दी। इस घटना का वीडियो वायरल हुआ जिसमें वहीं कुछ लोगों ने उसे ऐसा करने से रोका। उस सनकी को गिरफ्तार कर लिया गया। प्रधानमंत्री इमरान खान के करीबी मंत्री चौधरी फवाद हुसैन ने लिखा, ‘शर्मनाक, अनपढ़ों का यह झुंड दुनिया में पाकिस्तान की छवि के लिए वाकई खतरनाक है।’
सनकी तो सब जगह हैं। अपराध हर कहीं होता है। असली मसला है कि अपराध रोकने के लिए क्या किया जा रहा है।
इन दो वाकयों को मैं सिर्फ इसलिए बता रहा हूं कि क्यों हम पाकिस्तान से ऐसी उदारताओं की उम्मीद नहीं करते। वह अपने अल्पसंख्यकों पर जुल्म के लिए दुनिया भर में बदनाम है। लेकिन उनकी सरकार दिखावे के लिए ही सही, उदार या लोकतांत्रिक दिखने की कोशिश कर रही है।
हमारे भारत की विविधता पर दुनिया भर में सैकड़ों किताबें लिखी गई हैं। हमारी पहचान दुनिया के एकमात्र ऐसे देश की है जहां सभी धर्म, 3000 जातियां, 1500 भाषाएं हैं और फिर भी हम सब साथ रहते हैं। आजादी मिली तो अंग्रेजी विद्वान कहते थे कि इतनी विविधता है कि ये इंडियन एक साथ रह ही नहीं सकते। भारत जल्दी ही टूट जाएगा। हम सबने उन्हें गलत साबित किया है।
लेकिन क्या कानपुर की उस छोटी बच्ची को वही उदार लोकतंत्र मिला है जिसका हम 70 सालों से मजा ले रहे हैं? क्या जंतर मंतर पर हुई जहरीली नारेबाजी पर कानून ने सही काम किया है? क्या हमारी सरकार के किसी बड़े नेता ने कभी किसी घटना के बाद ये भरोसा दिया है कि हम अल्पसंख्यकों को पूरी सुरक्षा देंगे? क्या लिंच मॉब को माला पहनाने वाले मंत्री को दंड मिला था? क्या लिंचिंग में मारे गए सैकड़ों लोगों को इस उदार और मजबूत लोकतंत्र ने न्याय दिलाया है? कौन है जो हमारे महान लोकतंत्र की लिंचिंग करके लिंच मॉब को माला पहना रहा है? एक पार्टी का सम्मानित नेता ऐसा करने की हिम्मत कहां से लाता है?
ऐसा क्यों है कि अपनी उदारता और ‘विविधिता में एकता’ के महान सूत्र से हमारा भरोसा हिलने लगा है? कौन है जो भारत को फिरकापरस्ती और कट्टरता की तरफ धकेल रहा है? कौन है जो भारत के युवाओं को तालिबानी सोच से लैस करना चाहता है?
गृह मंत्री की हैसियत से सरदार पटेल ने कहा था कि अगर हम अपने अल्पसंख्यकों को सुरक्षा का भरोसा न दे सकें तो हम इस लोकतंत्र के लायक नहीं हैं। हम सरदार पटेल, गांधी और नेहरू का भरोसा क्यों तोड़ रहे हैं ?
इधर कई घटनाएं आई हैं जिनसे लगता है कि पाकिस्तान लोकतंत्र बनने की कोशिश कर रहा है और हम 7 दशक के स्थापित लोकतंत्र की जड़ खोदने के सारे प्रयास कर रहे हैं। अपनी लाख खामियों के साथ भारत ऐतिहासिक संघर्ष करके एक महान लोकतंत्र बना है। भारत को कट्टरता की ओर धकेला गया तो यह बर्बाद हो जाएगा। धार्मिक कट्टरता ने इस दुनिया में अब तक ऐसा कोई देश नहीं बनाया जो हमारे लिए नजीर बन सके।
-ध्रुव गुप्त
शहनाई के जादूगर उस्ताद बिस्मिल्लाह खां अपने दौर की तीन गायिकाओं के मुरीद थे। उनमें पहली थी बनारस की रसूलन बाई। किशोरावस्था में वे बड़े भाई शम्सुद्दीन के साथ काशी के बालाजी मंदिर में रियाज़ करने जाते थे। रास्ते में रसूलनबाई का कोठा पड़ता था। वे बड़े भाई से छुपकर अक्सर कोठे पर पहुंच जाते। जब रसूलन गाती थीं तो वे मुग्ध होकर उन्हें सुनते थे। रसूलन की खनकदार आवाज में नए राग. ठुमरी, टप्पे, दादरा सुनकर उन्होंने भाव, खटका और मुर्की सीखी थी। एक दिन भाई ने उनकी चोरी पकडऩे के बाद जब कहा कि ऐसी नापाक जगहों पर आने से अल्लाह नाराज होता है तो उनका जवाब था-दिल से निकली आवाज में भी कहीं पाक-नापाक होता है? उस्ताद रसूलन बाई को बहुत सम्मान के साथ याद करते थे।
लता मंगेशकर और बेगम अख्तर उनकी दूसरी प्रिय गायिकाएं थीं। लता को वे देवी सरस्वती का रूप कहते थे। उन्होंने बताया कि लता के गायन में त्रुटियां निकालने की उन्होंने बहुत कोशिशें की, लेकिन असफल रहे। लता जी का एक गीत ‘हमारे दिल से न जाना, धोखा न खाना’ वे अक्सर गुनगुनाया करते थे। बेगम अख्तर की गायिकी को वे एक ख़ास त्रुटि के लिए पसंद करते थे। एक रात लाउडस्पीकर से आ रही एक आवाज़ ने उन्हें चौंकाया था। गज़़ल थी- ‘दीवाना बनाना है, तो दीवाना बना दे’ और आवाज़ थी बेगम अख्तर की। ऊंचे स्वर पर जाकर बेगम की आवाज़ टूट जाया करती थी। संगीत की दुनिया में इसे ऐब समझा जाता है, लेकिन उस्ताद को बेगम का यह ऐब खूब भाता था। बेगम को सुनते वक्त उन्हें उसी ऐब वाले लम्हे का इंतजार होता था। वह लम्हा आते ही उनके मुंह से बरबस निकल जाता था-अहा!
आज शहनाई उस्ताद बिस्मिल्लाह खां की पुण्यतिथि पर उनकी स्मृतियों को नमन !
-रमेश अनुपम
22 अगस्त को किशोर साहू की इकतालिसवीं पुण्यतिथि है। उनकी स्मृति को छत्तीसगढ़ सादर प्रणाम करता है।
छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले में 22 अक्टूबर सन 1915 को कन्हैया लाल साहू के परिवार में जन्म लेने वाले रायगढ़, सक्ति की मिट्टी और धूल में खेलकर बचपन बिताने वाले और राजनांदगांव के स्कूल में पढ़ाई करने वाले किशोर साहू एक दिन हिंदी सिनेमा के इतने बड़े स्टार बन जायेंगे, यह किसी ने सपने में भी नहीं सोचा होगा।
यह भी किसने सोचा होगा कि मात्र बाईस साल का छत्तीसगढ़ का यह छैल छबीला, तीखे नैन नक्श और पांच फुट साढ़े आठ इंच का बांका नौजवान सन 1937 में हिंदी सिनेमा की च्ीन और हर दिल अजीज नायिका देविका रानी के साथ बॉम्बे टॉकीज की फिल्म ‘जीवन प्रभात’ में हीरो की मुख्य भूमिका अदा करेगा और रातों रात लाखों लोगों के दिलों में अपनी जगह बना लेगा।
आज यह सोचकर विश्वास नहीं होता है कि छत्तीसगढ़ के इस सपूत ने केवल तेईस वर्ष की उम्र में बॉम्बे टॉकीज के समानांतर अपना खुद का एक प्रोडक्शन हाउस बॉम्बे में खोलकर और उसके बैनर में ‘बहूरानी’ जैसी सुपर-डुपर हिट फिल्म बनाकर हिंदी सिनेमा जगत में देगा।
गौरतलब है कि इस फिल्म का निर्देशन भी उन्होंने स्वयं किया था। इस फिल्म की नायिका उस दौर की मशहूर हिरोइन अनुराधा और मिस रोज थीं।
बाईस साल की उम्र में उस समय की मशहूर अदाकारा ब्यूटीच्ीन देविका रानी के साथ बॉम्बे टॉकीज की फिल्म में हीरो होना और 23 साल की उम्र में अपने खुद का प्रोडक्शन हाउस खोलकर ‘बहूरानी’ जैसी फिल्म का निर्माण तथा निर्देशन करना साथ में नायक की प्रमुख निभाना क्या अपने आप में कोई कम आश्चर्य की बात नहीं है।
चमत्कार का दौर केवल यहीं थमने वाला नहीं था। सन 1940 में उनकी दो फिल्में रिलीज हुई ‘बहूरानी’ और ‘पुनर्मिलन’। ‘पुनर्मिलन’ बॉम्बे टॉकीज की फिल्म थी।
देविका रानी को एक बार फिर बॉम्बे टॉकीज की फिल्म में किशोर साहू को बतौर हीरो लेने के लिए बाध्य होना पड़ा था। इस बार उसके साथ हीरोइन थी स्नेहप्रभा प्रधान, उस जमाने की सबसे सुंदर और चर्चित नायिका। तब तक हिमांशु राय का निधन हो चुका था। बॉम्बे टॉकीज की सारी जिम्मेदारी देविका रानी के ऊपर आ गई थी।
‘बहूरानी’ और ‘पुनर्मिलन’ ने हिंदी सिनेमा में किशोर साहू की अभिनय प्रतिभा के झंडे गाड़ दिए थे। बॉम्बे की सिनेमा नगरी में चारों ओर अगर किसी का शोर मच रहा था तो वह थे हर दिल अजीज हमारे किशोर साहू का।
इसके बाद ‘कुंवारा बाप’ और ‘शरारत’ जैसी फिल्में आई दोनों के हीरो थे किशोर साहू और उनके साथ खूबसूरत हीरोइन थीं प्रतिमा दास गुप्ता। दोनों ही फिल्में खूब चलीं। इसके बाद तो जैसे किशोर साहू हिंदी सिनेमा के सिरमौर बन गए।
वह हिंदी सिनेमा का शुरुवाती और स्वर्णिम दौर था। हिंदी सिनेमा को एक नई मंजिल की तलाश थी और किशोर साहू, अशोक कुमार जैसे हीरो हिंदी सिनेमा के मंजिल थे। दोनों ही मध्यप्रदेश के कोहिनूर थे। एक खंडवा के तो दूसरे छत्तीसगढ़ के।
फिर सन 1943 में ‘राजा’ जैसी बेहतरीन फिल्म आई। जिसके निर्माता, निर्देशक, नायक कोई और नहीं किशोर साहू थे।
उस समय ‘राजा’ फिल्म ने जैसे हिंदी सिनेमा में उथल-पुथल मचा दी थी। देश के सारे बड़े अखबार किशोर साहू की इस फिल्म की प्रशंसा से भरे पड़े थे।
‘टाईम्स ऑफ इंडिया’ ने लिखा- ‘राजा’ अभिनेता निदेशक किशोर साहू की महान व्यैक्तिक उपलब्धि है।’
‘अमृत बाजार पत्रिका’ में छपा- ‘राजा’ निर्माण और भाव की गहराई की महानतम नवीनता प्रदर्शित करता है और यही नहीं, दिग्दर्शन में भी बढिय़ा सफाई और भव्यता है।’
हिंदी सिनेमा के बेमिसाल अभिनेता, निर्देशक, निर्माता, पटकथा लेखक किशोर साहू का जीवन सफलता के नए-नए शिखरों को छूने के लिए बना हुआ था।
सम्राट अशोक के पुत्र कुणाल के जीवन पर आधारित फिल्म ‘वीर कुणाल’ किशोर साहू के लिए किसी महान उपलब्धि से कम नहीं थी। ‘वीर कुणाल’ के निर्माता, निर्देशक, लेखक और अभिनेता कोई और नहीं स्वयं किशोर साहू थे। उनके इस फिल्म की नायिका थी उस जमाने की मशहूर अदाकारा शोभना समर्थ, जो नूतन और तनुजा की मां और काजोल की नानी थी।
1 दिसंबर सन 1945 को यह फिल्म बंबई की नॉवेल्टी थियेटर में शान से रिलीज की गई। उस दिन इस फिल्म का उद्घाटन जिसके द्वारा हुआ वह वाक्या भी कम रोमांचक और दिलचस्प नहीं है।
सरदार वल्लभ भाई पटेल उन दिनों अपने सुपुत्र दया भाई पटेल के यहां बंबई आए हुए थे। दयाभाई पटेल उन दिनों मरीन ड्राइव में रहते थे। किशोर साहू को लगा ‘वीर कुणाल’ जैसी ऐतिहासिक महत्व की फिल्म के उद्घाटन के लिए सरदार पटेल से बड़ा और बेहतर नाम और कोई दूसरा नहीं हो सकता है। उन दिनों पंडित जवाहरलाल नेहरु और सरदार वल्लभ भाई पटेल स्वाधीनता आंदोलन और कांग्रेस के बड़े नायक थे।
(शेष अगले हफ्ते)