विचार/लेख
-बादल सरोज
26 अगस्त को नौ महीने पूरे कर रहे किसान आंदोलन को किसी परिचय या भूमिका की आवश्यकता नहीं है। यहां सीधे इसकी कुछ विशेषताओं पर आते हैं। इस असाधारण किसान आन्दोलन की इन सबसे भी कहीं ज्यादा बुनियादी और दूरगामी छाप छोड़ने वाली विशेषतायें पाँच हैं।
पहली है : इस लड़ाई का नीतिगत सवालों पर पूरी तरह से स्पष्ट होना। आम किसानों से लेकर नेताओं तक हरेक की जुबान पर एक ही बात है : खरीद में कारपोरेट, खेती में ठेका और उपज की जमाखोरी-कालाबाजारी वाले तीनों कृषि कानूनों और बिजली संबंधी प्रस्तावित क़ानून की पूरी तरह से वापसी। उनकी पक्की राय है कि ये सिर्फ किसानों का नहीं, भारत की जनता का सर्वनाश करने वाले क़ानून हैं और चूँकि जिंदगी और मौत के बीच कोई बीच का रास्ता नहीं होता, इसलिए इनकी वापसी के अलावा कोई बीच का रास्ता नहीं है। इसके साथ उनकी मांग है न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के आधार पर निर्धारित करना और उसे कानूनी दर्जा देकर उससे कम पर खरीदना दंडनीय अपराध बनाना। इन मांगो पर उनकी जानकारियां एकदम अपडेटेड हैं, जिन्हे वे गजब की सरलता से बताते भी हैं। ध्यान देने की बात है कि यह माँगे नहीं हैं - ये नवउदारीकरण के अश्वमेध यज्ञ के घोड़े की नकेल पकड़ उसे पीछे लौटाने जैसी बात है। नीतियों को उलटने और देश की जरूरत के हिसाब से नीतियां बनवाने की बात है।
दूसरी यह कि वे असली गुनहगारों को भी भलीभाँति पहचानते हैं, इसलिए उनके आंदोलन के निशानों में सिर्फ चिरकुट नेता नहीं हैं, अडानी के शोरूम और अम्बानी के पेट्रोल पम्प और संस्थान भी हैं। उन्हें पता है कि राक्षस की जान किस गिद्ध में है। "दिल्ली चलो" में भी वे कारपोरेट नियंत्रित मोदी के गोदी मीडिया से बात तक नहीं कर रहे हैं। उसे अपने घेराव के डेरों में आने नहीं दे रहे हैं। हर आव्हान में देश भर में एक-डेढ़ लाख से ज्यादा जगहों पर इस तिकड़ी - मोदी, अडानी, अम्बानी - के पुतले फूंके गए। आंदोलन के हर आव्हान का निशाना कारपोरेट रहा। यह हालिया दौर के संघर्षों के हिसाब से बहुत नयी और साहसी बात है।
तीसरी असाधारणता है हुक्मरान भाजपा-आरएसएस जिसे अपना ब्रह्मास्त्र मानती है, उस धर्माधारित साम्प्रदायिक विभाजन के मामले में पूरी तरह स्पष्ट होना। छहों सीमाओं पर और उनके समर्थन में देश भर में चलने वाली सभाओं में तकरीबन हर वक्ता किसानों की मुश्किलों और इन तीन-चार कानूनों पर अपनी बात कहने के साथ ही भाजपा और मोदी के विभाजनकारी एजेंडे का पर्दाफ़ाश जरूर करता है। उसे समझने की जरूरत पर जोर देता है और सभी धर्मों को मानने वालों से इस साजिश को समझने की अपील करता है। जिन्होंने पहले कभी इनकी संगत की थी, वे अब बाकायदा माफियां मांगते और भविष्य में ऐसा न करने की कसम खाते घूम रहे हैं। सिर्फ कहने में ही नहीं, बरतने में भी यही सदभाव और सौहार्द्र नजर आता है। हिन्दू, मुस्लिम, सिख मिलकर लंगर चलाते हुए साफ़ नजर आते हैं। इस तरह यह संघर्ष बिना किसी सैद्धांतिक सूत्रीकरण में जाए ही साम्प्रदायिकता के जहर के उतार की दवाई भी दे रहा है और बिना किसी अतिरंजना के कहा जा सकता है कि आज के समय में यह एक बड़ी बात है।
जन के विभाजन का एक और रूप जातिगत ऊंच नीच की जीवित सलामत बजबजाती कीच है। इस आंदोलन ने -- कम-से-कम दिल्ली बॉर्डर्स पर तथा स्थानीय लामबन्दियों में -- इसे शिथिल होते हुए देखा है। आंदोलन के नेताओं के भाषणों में यह मुद्दा बना है। इस मामले में दिल्ली की सीमाओं पर बसे प्रदेशों के गाँवों की दशा को देखते हुए यह काफी उल्लेखनीय बात है।
चौथी और सबसे नुमाया खूबी है इसकी जबरदस्त चट्टानी एकता। मंदसौर गोलीकाण्ड के बाद लगातार संघर्षरत करीब ढाई सौ संगठनों वाली अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति (एआईकेएससीसी) इसकी धुरी है। पंजाब, हरियाणा और उत्तरप्रदेश की अलग-अलग किसान यूनियनें और राष्ट्रीय किसान महासंघ इसके साझे मोर्चे में हैं। अलग-अलग विचारधाराओं और नेताओं के आग्रहों के बावजूद इस लड़ाई के मामले में एकजुटता में ज़रा सी भी कसर नहीं है। यह एकता रातों रात नहीं बनी। इसके पीछे जहां कृषि संकट की भयावहता और कार्पोरेटी हिन्दुत्व वाली सरकार की निर्लज्ज नीतियों को तेजी से लागू करने की हठधर्मिता से उपजी वस्तुगत (ऑब्जेक्टिव) परिस्थितियाँ हैं, तो वहीँ इनके खिलाफ आक्रोश को आकार देने के लिए, सबको जोड़ने की अखिल भारतीय किसान सभा और उसकी ओर से उसके महासचिव हन्नान मौल्ला द्वारा धीरज के साथ की गयी कोशिशें हैं और नाशिक से मुम्बई तक किसान सभा के पैदल मार्च और राजस्थान के किसान आन्दोलन से बना असर भी हैं। ऐसी एकता बनाना कम मुश्किल नहीं है, मगर उसे चलाना और बनाये रखना और भी कठिन है। इन 200 दिनों ने इन सारी मुश्किलों और कठिनाईयों को आसानी के साथ निबाहते हुए ऐसी स्थिति पैदा कर दी है कि अब एकाध-दो के इधर-उधर विचलन के बाद भी किसान नहीं डिगने वाला।
यही एकता इस आंदोलन के मंच - संयुक्त किसान मोर्चा - के किये आव्हानों के साथ हो रही लामबंदी के रूप में दिखती है। मेहनतकश संगठनों की ऊपर कही जा चुकी बात अलग भी रख दें, तो हाल के दौर में यह पहला मौक़ा था जब 24 विपक्षी दल इकठ्ठा होकर भारत बंद के समर्थन में उतरे।
पाँचवीं विशेषता इसकी राजनीतिक सर्वानुमति है, जिसका घोषित एकमात्र उद्देश्य है कारपोरेट परस्त, किसान विरोधी मोदी सरकार को हटाना -- भाजपा को हराना। पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में यह अभियान चलाया जा चुका है और मिशन उत्तरप्रदेश-उत्तराखंड के नाम पर इसका आगाज़ 5 सितम्बर को मुज़फ्फरनगर से होने वाला है। तिकड़मों के बादशाहों, थैलियों के भामाशाहों और सीबीआई-ईडी के घोड़ों पर सवार नादिरशाहों की हुकूमत के खिलाफ यह कम बड़ी बात नहीं है। यही संकल्पबध्दता है, जिसने देश के 19 राजनीतिक पार्टियों को इसकी मांगों के समर्थन में सड़कों पर उतरने की प्रेरणा दी है। एनडीए में शामिल कई दल भी किसानों के पक्ष में बोलने के लिए मजबूर हुए।
उत्तरकाण्ड
एक आम सवाल यह पूछा जाता है कि आखिर कब तक चलेगा यह आंदोलन? यह हमदर्दों और शुभाकांक्षियों का प्रश्न है, इसलिए इसे संज्ञान में लिया जाना चाहिए।
पंजाब से शुरू हुए इस आंदोलन का जल्दी ही हरियाणा और पश्चिमी उत्तरप्रदेश में असरदार हो जाना पुरानी बात हो गयी। यह स्वाभाविक था। ये वे इलाके हैं, जहां कृषि अपेक्षाकृत विकसित है और तीन-चौथाई सरकारी खरीद यहीं से होती है। किन्तु इस बीच यह देश के बाकी प्रदेशों में भी पहुँच चुका है। जिन प्रदेशों में एमएसपी पर खरीद का सरकारी ढाँचा तकरीबन है ही नहीं -- वहां भी इसकी धमक सुनाई दे रही है। व्यापकता और विस्तार के ये आयाम दिल्ली बॉर्डर पर डटे किसानों की ताकत और हौंसला बढ़ाने वाले हैं।
दूसरी और तीसरी पारस्परिक संबद्ध अहम् बातें है इस आंदोलन से बना माहौल और इसके नेतृत्व का राजनीतिक हस्तक्षेप का महत्त्व समझना, बेझिझक उसे करना। जो किसानों की मांगों और आंदोलन से सहमत नहीं है, उनका भी मानना है कि इस संघर्ष ने देश के 90 फीसदी किसानो के मन में यह बात बिठा दी है कि ये क़ानून उसके खिलाफ है और यह भी कि नरेंद्र मोदी किसान विरोधी है। हाल में हुए 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों और उसके थोड़े से पहले हुए पंजाब, उत्तरप्रदेश और केरल के स्थानीय निकाय चुनावों में भाजपा का सूपड़ा साफ़ होना इस आंदोलन से बने प्रभाव का नतीजा है। संयुक्त किसान मोर्चे द्वारा अगले वर्ष होने वाले चुनावों के मद्देनजर "मिशन उत्तरप्रदेश-उत्तराखण्ड" का एलान किया जा चुका है। अब बात निकल ही चुकी है, तो उसका दूर तक जाना तय है।
(लेखक पाक्षिक 'लोकजतन' के संपादक और अ.भा. किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं। वे सीपीएम के वरिष्ठ पदाधिकारी हैं।)
-गिरीश मालवीय
देश के ओर इलाकों के बारे में तो नही पता लेकिन मध्यप्रदेश के इस मालवा के इलाके के बारे में तो कह सकता हूँ कि यहां घर घर चूड़ी बेचने का काम अधिकतर काम मुस्लिम भाई ही करते है, दरसअल उत्तर भारत मे कांच की चूडिय़ां मुख्य रूप से यूपी के फिरोजाबाद में बनती है वहाँ भी बड़े पैमाने पर मुस्लिम इस कारोबार में लगे हुए है इस शहर को सुहाग नगरी का नाम से भी जाना जाता है। यही से तमाम उत्तर भारत के बड़े शहरों गाँव कस्बो में बनी हुई रंगबिरंगी चूडिय़ों की सप्लाई होती है मुस्लिम आबादी का एक तबका सैकड़ों सालों से यह काम कर रहा है यह उनका खानदानी पेशा है।
इंदौर के एक पुराने मोहल्ले में जहाँ मेरा बचपन बीता है वहाँ भी मुस्लिम चूड़ीवाले की एक दुकान थी उनके बच्चे भी हमारे साथ खेलने आते थे, एक- डेढ़ साल पहले एक दिन मेरी पत्नी ने आकर मुझसे आकर कहा आज मुहल्ले में चूड़ी पहनाने वाला एक ठेला लेकर आया था और वह कह रहा था कि वह आपको अच्छी तरह से जानता है, एक पल मैं भी चौक गया, फिर पत्नी ने मुझे उसका नाम बताया तो मुझे उसकी याद आ गई। मैंने कहा हॉं मैं भी उसे जानता हूँ, शायद हमीद उसका नाम था।
कुछ साल पहले जब टाटा के तनिष्क ब्रांड के एक विज्ञापन, जिसमें उन्होंने एक मुस्लिम सास को अपनी हिंदू बहू की गोद भराई की रस्म करते दिखाया था, पर बड़ा बवाल हुआ। उसे लेकर द वायर में अनुराग मोदी ने एक लेख लिखा था। अनुराग जी भी हमारे इसी मालवा के इलाके से ताल्लुक रखते हैं उन्होंने अपने इस लेख बशीर चूड़ी वाले को याद किया है वे लिखते हैं।
‘मेरे बचपन (आज से 45 साल पहले) में बशीर चूड़ीवाला हमारे मोहल्ले में चूडिय़ां बेचने आता था। सब उन्हें मुसलमान चूड़ीवाले के रूप में नहीं बल्कि बशीर चाचा के नाम से जानते थे। जब मैं थोड़ा बड़ा हो गया तो कई अवसरों पर हमारे घर में बड़े गर्व से यह बात होती थी कि बशीर चाचा सावन पर हमारी बुआ को अपनी बेटी मानकर मुफ्त में चूडिय़ां पहनाते थे। और जब शादी के दो साल बाद ही वो विधवा हो गईं, तो उन्होंने हमारे मोहल्ले में आकर चूडिय़ां बेचना ही बंद कर दिया।
बशीर चूड़ीवाले को चूड़ी बेचना बंद किए और इस दुनिया से गए जमाना हो गया। मगर एक हिंदू बेटी के प्रति उनके इस स्नेह की कहानी आज भी न सिर्फ भी मेरे जेहन में बल्कि मेरी मां के ज़हन में ताजा है।
82 साल की मेरी बूढ़ी मां को तनिष्क नहीं मालूम, न ही यह सब विज्ञापन का बवाल, लेकिन इस लेख को लिखने के पहले जब मैंने उन्हें फोन किया और पूछा कि वो कौन-सा चूड़ीवाला था, जो बुआ को मुफ्त चूड़ी पहनाता था, तो उन्होंने बड़े मीठे से कहा कि बशीर चूड़ीवाला!
और साथ ही स्नेह के भाव से से यह भी बताया कि वो सिर्फ बुआ को ही नहीं बल्कि हर साल दिवाली में उन्हें भी चूड़ी पहनाकर जाते थे, जो मुझे नहीं मालूम था।
अनुराग मोदी लिखते हैं कि सिवनी मालवा जैसे कस्बे, जहां पिछले 30 साल से मंदिर की राजनीति के चलते धर्म के नाम पर ध्रुवीकरण चरम पर है, हमारे घर में सब उस राजनीति से प्रभावित हैं, तब भी बशीर चूड़ीवाले का नाम मेरी मां की स्मृति में आज भी उसी स्नेह के रूप में दर्ज है, कि कैसे एक मुसलमान चूड़ीवाला उन्हें अपनी बहू मानकर दिवाली पर याद से चूड़ी पहनाकर जाता था।
वे आगे लिखते हैं कि ‘असल में जिस पीढ़ी ने बंटवारे और हिंदू-मुस्लिम दंगे देखे, उसने हिंदू-मुस्लिम का इंसानी प्रेम भी देखा है इसलिए यह पीढ़ी तमाम ध्रुवीकरण और राजनीतिक झुकाव के बाद आज भी अपने ज़हन में कहीं न कहीं उन यादों को भी जगह दिए हुए है।
लेकिन नई पीढ़ी, जो अपनी अधिकतर सूचनाएं ऑनलाइन लेती है, जो रात दिन टीवी डिबेट और देश के प्रधानमंत्री से लेकर तमाम बड़े नेताओं के भाषण में हिंदू-मुस्लिम रिश्तों को दो अलग-अलग ध्रुव पर देखती है, जिसके पास मेरी मां या मेरी तरह ऐसे कोई व्यक्तिगत अनुभव नहीं हैं, वो हिंदू-मुस्लिम स्नेह के इंसानियत के रिश्ते को कैसे समझेगी?
अनुराग मोदी ने अंत मे जो लिखा है वह हम सबको समझने की जरूरत है, दरअसल नयी पीढ़ी जिसके दिमाग में व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी दिन रात जहर उंडेलती रहती है वह बशीर चूड़ी वाले को न जानना चाहती है न समझना चाहती है।
-गिरीश मालवीय
मोदी सरकार इसी कार्यकाल में ऐसा काम करके जाएगी कि हमारी आने वाली पीढिय़ां प्राइवेट सेक्टर की गुलाम बन जाएगी। मोदी सरकार ने कल विभिन्न क्षेत्रों की सरकारी संपत्तियों में मोनेटाइजेशन कर कुल 6 लाख करोड़ रु. जुटाने के लक्ष्य की घोषणा की है।
आलोचना होने पर कहा है कि हम बेच थोड़ी न रहे हैं हम तो लीज पर दे रहे हैं और लीज एक तय समयसीमा के लिए होगी। उसके बाद पूरा इन्फ्रास्ट्रक्चर सरकार के पास आ जाएगा। जिन रोड, रेलवे स्टेशन या एयरपोर्ट्स को लीज पर दिया जाएगा, उनका मालिकाना हक सरकार के पास ही रहेगा।
अब सवाल यह उठता है कि यह लीज आखिर कितने सालो के लिए दी जा रही है ? आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि एयरपोर्ट के मामले में यह लीज 50 साल की है और रेलवे स्टेशन और उससे लगी जमीनें 100 साल के लिए निजी कंपनियों को लीज पर दी जाएगी
जी हां पूरे 100 सालों के लिए!
अब यह बेचे जाने से कैसे कम है आप ही फैसला कीजिए? जब देश के पहले रेलवे स्टेशन हबीबगंज को प्राइवेट करने का फैसला हुआ तो यह लीज 45 सालों के लिए दी गई लेकिन निजी कंपनियों को यह रास नहीं आया। उन्होंने जिद करके सरकार से बाकी तमाम रेलवे स्टेशन को 99 सालो के लिए लीज पर देने की शर्तों को अनुबंध में डलवा दिया।
कल वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने जो योजना प्रस्तुत की है उसके अंतर्गत 400 स्टेशन, 90 पैसेंजर ट्रेन, 1400 किमी के ट्रैक वह लीज पर देंने जा रही हैं, साथ ही पहाड़ी इलाकों में रेलवे संचालन भी प्राइवेट कंपनियों को सौपा जा रहा है इसमे कालका-शिमला, दार्जिलिंग, नीलगिरी, माथेरन जैसे ट्रैक शामिल हैं। इसके अलावा देश भर मे रेलवे के 265 गुड्स शेड लीज पर दिए जाएंगे। साथ ही 673 किमी डीएफसी भी निजी क्षेत्र को दी जाएगी। इनके अलावा चुनिंदा रेलवे कॉलोनी, रेलवे के 15 स्टेडियम का संचालन भी लीज पर दिया जाएगा।
हम सब जानते हैं कि तेल तिलों से ही निकलता है प्राइवेट कंपनियां जनता का ही तेल निकालकर ठेके की रकम की वसूली करेगी। इसके लिए मोदी सरकार ने रेलवे के यात्रियों पर यूजर चार्ज लगाने का प्रावधान पहले से ही कर दिया है शुरुआत में देश के 15 फीसदी रेलवे स्टेशनों पर यूजर चार्ज लगाया जाना है। दिल्ली में हवाई अड्डा पर देखें तो घरेलू और अंतरराष्ट्रीय (इंटरनेशनल) यात्रियों से अलग अलग यूजर चार्ज लिया जाता है। वह करीब 500 रुपये के करीब होता है।
यानी आप भी रेलवे स्टेशन पर लगभग 500 रु यूजर चार्ज देने की तैयारी कर लीजिए!
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
शिव सेना के सांसद संजय राउत का यह कहना काफी अजीब सा है कि नाथूराम गोडसे ने गांधी की बजाय जिन्ना को मार डाला होता तो भारत-विभाजन शायद रूक जाता, लेकिन राउत भूल गए कि गांधीजी की हत्या विभाजन के ठीक साढ़े पाँच महिने बाद हुई थी। यदि भारत-विभाजन के पहले जिन्ना को मार दिया जाता तो खून-खराब कितना ज्यादा होता, इसकी कल्पना भी किसी को है या नहीं ? खून-खराबा तो होता ही और पाकिस्तान 1947 की बजाय उसके पहले ही बन जाता। लेकिन प्रधानमंत्री द्वारा 14 अगस्त को 'विभाजन विभीषिका स्मृति दिवसÓ के रुप में मनाना भी आश्चर्यजनक है। 14 अगस्त तो पाकिस्तान का स्वाधीनता दिवस है, जैसे कि 15 अगस्त हमारा है। तो क्या इन दोनों दिवसों को हम विभीषिका-दिवस के तौर पर मनाएँ? पाकिस्तानी 15 अगस्त को और हम 14 अगस्त को! मेरे ख्याल से ये दोनों बातें गलत हैं।
ये दोनों यदि विभीषिका दिवस हैं तो दोनों देशों के प्रधानमंत्री इन दिवसों पर एक-दूसरे को बधाई क्यों भेजते हैं? राउत ने मोदी से सवाल पूछा है कि आप यदि अखंड भारत चाहते हैं तो आप उसमें पाकिस्तान के मुसलमानों का क्या करेंगे ? इसमें बांग्लादेश के मुसलमानों को राउत क्यों भूल गए? सच्चाई तो यह है कि मालदीव और श्रीलंका के मुसलमान भी भारत के ही अंग थे। यदि अखंड भारत वह है, जिस पर अंग्रेजों का राज था तो इन पड़ौसी देशों को भी उसमें जोडऩा पड़ेगा लेकिन अंग्रेजों के भारत को अखंड भारत कहना तो हमारे प्राचीन इतिहास की उपेक्षा ही है। उसके अनुसार अखंड भारत नहीं, हमें आर्यावर्त्त की बात करना चाहिए, जिसका जिक्र हमें महावीर स्वामी, गौतम बुद्ध, महर्षि दयानंद के कथनों और पांडवों-कौरवों तथा सम्राट अशोक के साम्राज्यों में मिलता है। यह आर्यावर्त्त अराकान (म्यांमार) से खुरासान (ईरान) और त्रिविष्टुप (तिब्बत) से मालदीव तक फैला हुआ है।
इसमें मध्य एशिया के पांचों गणतंत्र भी जोड़े जा सकते हैं। भारत को सिर्फ अंग्रेजों का 1947 का अखंड भारत ही खड़ा नहीं करना है बल्कि सदियों पुराना आर्यावर्त्त पुनर्जीवित करना है, जिसे आजकल 'दक्षेसÓ भी कहा जाता है। इस सारे दक्षिण और मध्य एशिया के क्षेत्र में यूरोप की तरह एक साझा बाजार, साझी संसद, साझी सरकार और साझा महासंघ बनाना हमारा लक्ष्य होना चाहिए। ऐसा महासंघ जो फिऱकापरस्ती, जातिवाद, संकीर्ण राष्ट्रवाद, मजहबी उन्माद और तरह-तरह के भेदभावों से मुक्त हो। उसके लिए भारत आदर्श राष्ट्र है। भारत में हम अप्रतिम सहनशीलता और उदारता देखते हैं। यदि अखंड भारत का नारा देनेवाले लोग इन्हीं गुणों को बढ़ाएं तो निश्चय ही अखंड भारत ही नहीं, अखंड आर्यावर्त्त बनने में भी देर नहीं लगेगी।
(नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
आजादी के 75 वें साल में भी भारत की हालत क्या है, इसका पता उस खबर से चल रहा है, जो ओडिशा की जगन्नापुरी से आई है। पुरी से 20 किमी दूर एक द्वीप में बसे गांव ब्रह्मपुर के दलितों की दशा की यह दर्दनाक कहानी आप चाहें तो देश के हर प्रांत में कमोबेश ढूंढ सकते हैं। ब्रह्मपुर में रहनेवाले 40 दलित परिवारों को अपना गांव छोड़कर भागना पड़ा है, क्योंकि बरसों से चली आ रही इस प्रथा को उन्होंने मानने से इंकार कर दिया था कि ऊँची जातियों के वर-वधु को डोलियाँ उन्हीं के कंधों पर निकाली जाएं। ये डोलियाँ वे बरसों से ढोते रहे और बदले में उन्हें दाल-चावल खाने को दे दिए जाते हैं। जब इन दलितों के बच्चे थोड़े पढ़-लिख गए तो उन्होंने अपने माता-पिता को यह बेगार करने से मना कर दिया। नतीजा यह हुआ कि गांव की ऊँची जातियों के लठैतों ने इन दलितों को मछली पकडऩे से वंचित कर दिया। उन्हें खाने के लाले पड़ गए। उनकी आमदनी के सारे रास्ते बंद हो गए। उन्हें गांव छोडऩा पड़ा और अब वे पास के एक अन्य गांव में अपने घासं-फूस के झोपड़े बनाने का इंतजाम कर रहे हैं। कई लोग भागकर बेंगलूरू और चेन्नई में मजदूरी की तलाश में भटकने लगे हैं।
यह झगड़ा तब तूल पकड़ गया, जब एक दलित ने नशे की हालत में मिठाई खरीदते वक्त एक ऊँची जात के दुकानदार के साथ जरा ठसके से बात की। उस गांव के सारे दलितों को कुए का पानी बंद कर दिया गया और उनकी नावों को ठप्प कर दिया गया। इसी प्रकार ओडिशा के कुछ अन्य गांवों में नाइयों और धोबियों पर भी अत्याचार हो रहे हैं। कई गांवों में इन जातियों को स्त्रियों के साथ बलात्कार तक हो जाते हैं लेकिन उन बलात्कारियों को दंडित करना तो दूर, उनकी रपट तक नहीं लिखी जाती है। 1976 में बंधुआ मजदूरी विरोधी कानून पारित हुआ था लेकिन आज भी सुदूर गांवों में यह कुप्रथा जारी है। हमारे नेता लोग चुनाव के मौसम में गांव-गांव घर-घर जाकर वोट मांगने में जऱा भी नहीं हिचकते लेकिन इन दलितों और बंधुआ मजदूरों पर होनेवाले अत्याचारों के खिलाफ यदि वे सक्रिय हो जाएं तो ही मैं मानूंगा कि वे भारत की स्वतंत्रता के 75 वाँ साल का उत्सव सही मायने में मना रहे हैं। यदि भारत के करोड़ों दलित, आदिवासी और गरीब लोग जानवरों की जिंदगी जियें तो ऐसी स्वतंत्रता का अर्थ क्या रह जाता है?
(नया इंडिया की अनुमति से)
-अजीत सिंह
अगर आप चाहते हैं कि वो जिसे इस्लामिक आतंकवाद कहा जाता है समाप्त हो जाए तो आपको कामना करनी चाहिए कि तमाम मुस्लिम मुल्कों में बादशाहत और तानाशाही ख़त्म हो और जम्हूरियत यानी चुनावी लोकतंत्र क़ायम हो.
दरअसल सऊदी अरब, जॉर्डन, मोरक्को, ईजिप्ट (मिस्र), सीरिया, यूएई, क़तर, बहरीन, ओमान जैसे तमाम मुस्लिम देशों में अमेरिका, यूरोप या अन्य देशों के पिट्ठू तानाशाह बैठे हैं जो दशकों से वहाँ के आवाम को दबा कर रखे हुए हैं.
इन क्रूर शासकों ने पचासों साल से लाखों आंदोलनकारियों की हत्याएँ करवाई हैं और दर्जनों आंदोलनों को बर्बरता के साथ कुचला है सिर्फ़ इसलिए कि उनका राज बना रहे.
आज इन देशों में मुँह खोल कर बोलने की आज़ादी तक नहीं है.
और पश्चिम के देश ऐसे तानाशाहों को न केवल सहयोग देते हैं बल्कि उनको असले और मोटी रक़म के साथ साथ अत्याचार करने के लिए गुप्त सूचना और तकनीक भी देते हैं.
अब आप पूछेंगे कि पश्चिम के देश ऐसा क्यों करते हैं? तो इसका जवाब है कि पश्चिम के देश इन इलाक़ों में तेल जैसे सभी संसाधनों पर अपना क़ब्ज़ा बना कर रखना चाहते हैं.
दरअसल आदमज़ात की शुरूआत से जंग की सारी वजह ही यही रही हैं: संसाधन पर क़ब्ज़ा. बग़ैर ज़मीन पर क़ब्ज़ा किए संसाधन पर क़ब्ज़ा नहीं मिलता है. ज़मीन पर क़ब्ज़ा बनाए रखने के लिए पिट्ठू तानाशाह की ज़रूरत होती है.
यहाँ ये कहना ज़रूरी है कि सिर्फ़ पश्चिम के देश ही नहीं बल्कि पूर्व सोवियत संघ, और उसका उत्तराधिकारी रूस, भी यही करता है. चीन भी तानाशाहों को पसंद करता है, हालाँकि अब तक चीन सीधे तौर पर जंगी राजनीति में नहीं उतरा है.
जिन मुस्लिम देशों में चुनाव होते हैं, जैसे तुर्की, ईरान और इंडोनेशिया, वहाँ आवामी राजनीति ने पिछले दशकों में जड़ें गहरी की हैं. सोचने वाली बात ये है कि अमेरिका को तुर्की और ईरान दोनों ही नहीं पसंद आते हैं जबकि वो कभी भी सऊदी अरब या जॉर्डन को बुरा नहीं कहता है.
वजह ये है कि लोकतांत्रिक विधा वाला समाज किसी विदेशी शक्ति के दबाव में इतनी आसानी से नहीं आता है जितना कि एक तानाशाह आता है.
लेकिन जो देश धार्मिक कट्टरपन की ओर बढ़ रहे हैं, जैसे भारत और तुर्की, वहाँ लोकतंत्र कमज़ोर होने का ख़तरा बढ़ता जाता है. इसीलिए ऐसे देशों के सत्ताधारी नेताओं का व्यवहार तानाशाह जैसा होने लगता है.
मूल बात ये कि तानाशाही और बादशाहत की जगह चुनावी लोकतंत्र हो. और चुनावी लोकतंत्र में जनता के मुद्दे क़ाबिज़ हों न कि धार्मिक मुद्दे.
-रुचिर गर्ग
ये उस दिन की बात है जिस दिन उन्होंने किसानों के सवाल पर आर्थिक नाकेबंदी का आह्वान किया था.
पार्टी के नेता – कार्यकर्ता बड़ी तादाद में जुटे थे, लेकिन उनमें से ही उनके एक करीबी नेता को कुछ खटक रहा था. उस नेता ने धीरे से आ कर पूछा –‘ हम किसानों के सवाल पर यहां इकट्ठा हुए हैं पर किसान तो बहुत कम नजर आ रहे हैं !’
उन्होंने कहा –‘ जिस दिन यहां इतनी ही तादाद में किसान आ गए उस दिन हम पूरे बहुमत के साथ सरकार में होंगे ! ’
इसके बाद का संघर्ष सबने देखा.
सबने देखा कि पांच साल वो सड़क पर थे,गलियों में थे, गांवों में थे..वो जुलूस में थे, प्रदर्शनों में थे!
सबने देखा कि हर आह्वान की धार क्या थी !
जिन्हें नतीजा नजर नहीं आ रहा था उन्हें इतना तो नजर आ ही रहा था कि अब किसान कहां खड़ा हो रहा है!
...और नतीजा भी वही था जैसा उन्होंने कहा था. इस नतीजे में बाकी तबके तो थे ही पर गांव और किसान तो मानो फिजां बदलने ही निकले थे !
फिजां बदली और अब सत्ता की कमान उनको सौंपी गई.
वो अब भी गांवों में हैं, खेतों, गलियों और सड़कों पर हैं. अब अपनी सरकार के फैसलों के साथ. तब जनाकांक्षाएं लड़ाई को धार दे रहीं थीं, आज वही जनाकांक्षाएँ परीक्षा ले रहीं हैं...हर रोज !
हर रोज़ वो लोकतंत्र की इस परीक्षा का मुकाबला कर रहे हैं पर जनाकांक्षाओं का सफर तो चुनौतियों से भरा और अंतहीन है!
इसमें रियायत भी कहां...इस पथ पर तो बिना थके जो चल सके मंजिल उसकी ही होगी...और ये इरादा तो उन्होंने उसी दिन अपने उस करीबी साथी के सामने जाहिर कर दिया था कि चुनौती बड़ी है, सफर लंबा है!
चुनौती सिर्फ़ राजनीति के क्षितिज में उभरने की नहीं थी बल्कि प्रदेश और देश के सामाजिक - आर्थिक जीवन में बदलाव के विकल्प तराशने की भी थी। छत्तीसगढ़ का स्वाभिमान जगाने और अस्मिता के सवालों का सीधा हल देने की भी थी. आज समाधान आपकी पहचान बनकर उभरे हैं.इस पहचान को भी जनाकांक्षा का ही एक हिस्सा जानिए!
आपका जन्मदिन यह कामना करने का अवसर दे रहा है – शुभ यात्रा मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल !
आप पर भरोसे की वजह कोई शोध का विषय नहीं बल्कि एक सीधी कार्यप्रणाली है, जो जरूरतों की समझ और उसे कर गुजरने की मजबूत इच्छा शक्ति है.
जनता की कामना है कि उसकी उम्मीदें पूरी होती रहें...हम सब की भी यही शुभकामना है कि इस सफर पर आप बाधाओं का मुकाबला करते अनथक चलें..यही इरादे तो आपकी ताकत भी हैं.
पुनः जन्मदिन की अनंत शुभकामनाएं!
रुचिर गर्ग
(लेखक मुख्यमंत्री के मीडिया सलाहकार हैं, उनके फेसबुक पेज से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
इधर जो प्रामाणिक सर्वेक्षण हुए हैं, उनसे पता चलता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता में भारी गिरावट हुई है लेकिन विपक्षी नेताओं की लोकप्रियता तो उस गिरावट से भी ज्यादा गिरी हुई है। उसमें तो किसी तरह का उठान दिख ही नहीं रहा है। इसके बावजूद लगभग सभी विपक्षी नेता मोदी के विरुद्ध एकजुट होने की कोशिश कर रहे हैं। पिछले कुछ हफ्तों में ऐसी कई पहल हो चुकी हैं लेकिन इस बार सबसे प्रमुख विरोधी दल कांग्रेस की अध्यक्ष सोनिया गांधी ने पहल की है। उनकी पहल में कुछ ऐसे दल भी एक साथ आए हैं, जो प्रांतों में एक-दूसरे के खिलाफ, लड़ रहे हैं। उनकी इस बैठक में यह बात बहुत जोर से कही गई कि इस विपक्षी गठबंधन का नेता कौन हो, यह प्रश्न इस समय ध्यान देने लायक नहीं है।
अभी तो एक ही बात पर सब अपना ध्यान केंद्रित करें कि सब मिलकर एक हो जाएं। यह एकता किसलिए हो, यह कोई साफ-साफ नहीं बता रहा। लेकिन इसे सब साफ-साफ समझ रहे हैं। इस एकता का लक्ष्य सिर्फ एक है। वह है, सत्ता हथियाना। सारे विपक्षी दल इसी सोच में खोए हुए हैं कि भाजपा-गठबंधन ने मुश्किल से 35-40 प्रतिशत वोट लिये हैं और वह सरकार बनाकर गुलछर्रे उड़ा रही है और हम विपक्ष में बैठे खट्टी छाछ बिलो रहे हैं। हमारे विपक्षी दलों की दो समस्याएं सबसे बड़ी हैं। एक तो उनके पास एक भी नेता ऐसा नहीं है जो मोदी की टक्कर में खड़ा हो सके और दूसरी बात यह कि विपक्ष के हाथ अभी तक कोई ऐसा मुद्दा नहीं लगा है, जिसके दम पर वह मोदी सरकार को अपदस्थ कर सके। इसमें शक नहीं कि किसी भी स्वस्थ लोकतंत्र के लिए सशक्त विपक्ष का होना बहुत जरुरी है और यह भी सच है कि इस समय देश की समस्याओं के विकराल रुप को देखते हुए लग रहा है कि देश को सुयोग्य नेतृत्व की जरुरत है लेकिन हमारे विपक्ष के पास खाली झुनझुने के अलावा क्या है ?
वह उसी तरह अल्पदृष्टि है, जैसी वर्तमान सरकार है। उसके पास कौनसी ऐसी वैकल्पिक दृष्टि है, जो जनता का लाभ कर सकती है या उसे तुरंत आकर्षित कर सकती है? उसके पास सत्तारुढ़ दल की तरह ही दूरदृष्टि का अभाव है। कोरोना महामारी के संकट में भाजपा सरकार को दोषी ठहरानेवाले दलों की प्रांतीय सरकारों ने कौनसा अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया? बेरोजगार लोगों के लिए उन्होंने कौनसी बेहतर राहत पहुँचाई? पिछले दो वर्षों में आई चुनौतियों के सामने यदि विपक्ष की प्रांतीय सरकारें कोई चमत्कारी काम करके दिखा देतीं तो उनका सिक्का अपने आप दौडऩे लगता। हमारे विपक्षी दलों के पास कुल मिलाकर करोड़ों सदस्य हैं लेकिन वे प्रदर्शनों, धरनों और तोडफ़ोड़ के अलावा क्या करते हैं ? क्या उन्होंने कभी सामाजिक बुराइयों के खिलाफ जन-आंदोलन चलाया? क्या वे कभी शिक्षा के प्रचार और लोक-सुविधाओं के विस्तार में कोई सक्रियता दिखाते हैं ? ऐसा लगता है कि समाज-सेवा और समाज-सुधार से उनका कोई वास्ता नहीं है। उनका लक्ष्य बस एक ही है। वह है, सत्ता कैसे हथियाना? इस दृष्टि से जैसा पक्ष है, वैसा विपक्ष है और जैसा विपक्ष है, वैसा ही पक्ष है। दोनों एक सिक्के के ही दो पहलू हैं।
(नया इंडिया की अनुमति से)
सन् 1978 में अफगानिस्तान की कम्युनिस्ट सरकार और इस्लामी मुजाहिदीन के बीच का संघर्ष गृहयुद्ध में बदल गया। इसके एक वर्ष पश्चात तत्कालीन सोवियत संघ ने अफगानिस्तान पर आक्रमण कर सत्ता पर कम्युनिस्टों की पकड़ को बनाए रखने का प्रयास किया।
-चिन्मय मिश्रा
अफगानिस्तान की वर्तमान स्थिति ने मौजूदा वैश्विक शासन व्यवस्था को उधेड़कर रख दिया है। इस कम आबादी वाले बड़े देश में जो कुछ हुआ है, हो रहा है और होने वाला है, वह बेहद सशंकित कर देने वाला है। दुनिया के बड़े और छोटे, अमीर व गरीब, विकसित, विकासशील व अल्पविकसित देश ही नहीं तमाम वैश्विक संस्थाएं जिस तरह की प्रतिक्रियाएं दे रहीं हैं, उसे देख सुन व पढ़कर लगता है कि अफगानिस्तान इस पृथ्वी ग्रह का हिस्सा न होकर सुदूर किसी अन्य अंतरिक्ष मंडल का भाग है। वहां सामान्य मनुष्य नहीं बल्कि एलियन रहते हैं, जिनकी भाषा, आचार व्यवहार हम पृथ्वीवासियों से एकदम भिन्न है ? पर क्या वास्तव में ऐसा ही है ?
अफगानिस्तान की वर्तमान स्थिति पर गौर करें तो समझ में आता है कि अब अमेरिका स्वयं को मुक्त महसूस कर रहा है। रूस अपनी तरह से आश्वस्त है। चीन अब उन्मुक्त होने के कगार पर है। पाकिस्तान तो मदमस्त हो ही चुका है और भारत कमोवेश सुस्त और पस्त है। वहीं हमारी पूरी दुनिया इक्कीसवीं शताब्दी के इस तीसरे दशक में कितनी भोली और मासूम हो गई है कि उसे इस बात का भान ही नहीं हो पाया कि उस देश के भीतर क्या चल रहा है। तालिबान एकाएक इतना ताकतवर और व्यापक प्रभाव व प्रन्मुत्ववान कैसे बन गया ? क्या कोई आसमानी शक्ति ने उन्हें यानी तालीबानियों को एकाएक महाबली बना दिया ? दुनिया के नामीगिरामी देश यह भविष्यवाणी करते रहे हैं कि काबुल के पतन में 30 से 90 दिनों का समय लग सकता है। परंतु वास्तव में उसके पतन में 30 घंटे से भी कम लगा। इस तथ्य पर गौर करिए। अमेरिका में सीआईए के अलावा करीब 15 अन्य गुप्तचर एजेंसियां हैं। रूस में 6, चीन में 4, ब्रिटेन में 4, फ्रांस में 6, पाकिस्तान में 4 इजराईल में 4, ऑस्ट्रेलिया में 5, ईरान में 16 और भारत में 6 सुसज्जित व आधुनिकतम उपकरणों से लैस महाकाय गुप्तचर एजेंसियां है। इन 70 एजेंसियों में से किसी को भी इस बात का आभास नहीं लग पाया कि तालिबान की सामरिक शक्ति कितनी है और उन्हें कहां-कहां से मदद मिल रही है।
अफगानिस्तान में जो कुछ घंटा उसे समझने के लिए लेबनानी विचारक जिब्रान की कहानी "शैतान" याद आ रही है। कहानी बहुत लंबी है। परंतु इसका लब्बलुआव यह है कि एक दयालू पादरी इस्मान एक गांव से दूसरे गांव जाकर धार्मिक उपदेश देते हैं। उनके उपदेशों को सोने चांदी से खरीदा जाता था। एक दिन जब वे एक जंगल से गुजर रहे थे, उन्हें एक बेहद गंभीर घायल व लहुलुहान व्यक्ति कराहते हुए मिला। वे सशंकित हुए और काफी विमर्श के बाद उन्होंने उससे पूछा "तुम कौन हो ?” घायल ने कहा "मैं शैतान हूँ।" पादरी ने उसकी मदद से इंकार कर दिया और कहा तू मनुष्यता का शत्रु है, आदि-आदि। शैतान बेहद रुचिकर जवाब देता है कि मुझ पर दया न करना चाहो, सहायता न करना चाहो, यह तुम्हारी मर्जी है। इसके बाद वह चेताता है, किन्तु तुम मेरे साये में ही जीवित रहते हो और फलते-फूलते हो। वह यहीं कहता है, "तुमने मेरे अस्तित्व को एक बहाना बनाया है और अपनी जीवन वृति के लिये एक अस्त्र और अपने कर्मों को न्यायोचित बताने के लिए तुम लोगों से मेरा नाम लेते फिरते हो।" वह बात को आगे बढ़ाते हुए पादरी से कहता है, "क्या तुम्हें पता नहीं कि यदि मेरा अंत हो गया तो तुम भी भूखे मर जाओगे ? यदि आज तुम मुझे मर जाने दोगे तो कल को तुम क्या करोगे ? अगर मेरा नाम ही दुनिया से मिट गया तो तुम्हारी जीविका का क्या होगा ?" यह दृष्टांत हमें समझा रहा है कि पिछले 20 वर्षों से अमेरिका के अघोषित शासन और उसके पहले के भी करीब 20 वर्ष अफगानिस्तान में ऐसे ही युद्ध में बीते हैं।
सन् 1978 में अफगानिस्तान की कम्युनिस्ट सरकार और इस्लामी मुजाहिदीन के बीच का संघर्ष गृहयुद्ध में बदल गया। इसके एक वर्ष पश्चात तत्कालीन सोवियत संघ ने अफगानिस्तान पर आक्रमण कर सत्ता पर कम्युनिस्टों की पकड़ को बनाए रखने का प्रयास किया। सोवियत संघ व मुजाहिदीन के बीच सात वर्षों तक लगातार युद्ध चला और अंततः सन 1987 में सोवियत संघ की सेना अफगानियों से हारकर वापस लौट गई। इसके बाद सन् 1994 में तालिबान का शक्तिशाली होना प्रारंभ हो गया। गौरतलब है रूसी सेना के आक्रमण के पहले ही रुसी जनरल निकोलाई ओग्राकोव ने लियोनेड ब्रेजनेव व तत्कालीन रुसी सरकार को सलाह दी थी कि अफगानिस्तान पर आक्रमण न करें क्योंकि उस देश को जीता ही नहीं जा सकता।
रुसी सेना प्रमुख कोई हवाई बात नहीं कर रहे थे। वे जानते थे कि सन् 1842 ईस्वी में अफगानिस्तान ने ब्रिटिश सेना की वहां पर उपस्थिति को नेस्तनाबूत कर दिया था। स्थानीय लड़ाकों ने ब्रिटेन की शक्तिशाली फौज के पूरे के पूरे 21000 (इक्कीस हजार) सैनिकों को मार डाला था और एक सैनिक विलियम ब्रायडन को महज इसलिए जिन्दा छोड़ा कि वह वापस जाकर यहां की कहानी ब्रिटेन के सैन्य अधिकारियों को सुना सके। विलियम ईस्ट इंडिया कंपनी में सहायक शल्म चिकित्सक थे। वे सन् 1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम के दौरान लखनऊ में भी पदस्थ रहे। बहरहाल बात यहीं खत्म नहीं होती। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को भी अमेरिकी सेनाध्यक्षों ने सलाह दी थी वे जितना जल्दी हो सके इस स्थान से बाहर निकल आयें अन्यथा उन्हें वियतनाम की ही तरह बेइज्जत होकर वहां से निकलना पड़ सकता है। वैसे फ्रांस सन् 2014 में अपने को अफगानिस्तान से निकाल चुका है, बिना कुछ हासिल किए। इस तरह से अफगानिस्तान अब तक 4 महाशक्तियों ब्रिटेन, अमेरिका, रूस व फ्रांस से निपट चुका है। अब चीन की बारी है। चीन की चालाकी भी वहां बुरी तरह मात खाएगी।
अफगानिस्तान कभी कंधार कहलाता था और वह वृहत्तर भारत का हिस्सा था। आईने अकबरी के अनुसार यह काबुल प्रांत व्यापक सिंध क्षेत्र में लाहौर (पंजाब) व मुलतान जैसा ही एक प्रदेश था। कहने को तो यहां मुगलों का शासन था, परंतु यहां से उन्हें बहुत ही कम राजस्व मिल पाता था। इसलिए वे वहां पर राज करने को लेकर बहुत गंभीर भी नहीं थे। वहां मुगलों का शासन भी नादिर शाह के आक्रमण के साथ समाप्त हो गया। इस दौरान सिंध के अलावा तत्कालीन पश्चिमी पंजाब का कुछ हिस्सा भी नादिर शाह के सिपहसालार अहमद शाह अब्दाली ने अपने कब्जे में ले लिया। अब्दाली को आधुनिक अफगानिस्तान का संस्थापक माना जाता है। यह संभवतः सन् 1735 ई. की बात है, जब अफगानिस्तान का निर्माण हुआ। इसके पहले का 2500 का इतिहास बताता हैं कि भारत और ईरान हमेशा एकदूसरे की सीमाओं का सम्मान करते रहे थे। परंतु नादिर शाह ने इसे भारत से अलग कर दिया और भारतीयों से इस इलाके को भूल जाने को कहा। बात यहीं पर नहीं रुकी। अहमद शाह अब्दाली लगातार पंजाब और दिल्ली पर हमला करता रहा। इसे रोकने के लिए पंजाब के महाराजा रंजीत सिंह ने फ्रांसीसियों, इटालियनों, ग्रीक, रूसी, जर्मन व आस्ट्रिया के सैनिकों की सहायता से एक दमदार सेना का निर्माण किया। उन्होंने सन् 1818 में मुलतान व 1819 ई. में कश्मीर को जीता। सन् 1820 में डेरा गाजी खान, सन् 1821 में डेरा इस्माइल खान, सन् 1819 ई. में काबुल और सन् 1834 में पेशावर को अपने राज्य में मिला लिया। यह जानना इसलिए भी जरुरी है कि महाराजा रंजीत सिंह ने कमोवेश नई अंतराष्ट्रीय सीमा रेखा रच दी थी। सोचिए उपरोक्त प्रांत यदि तत्कालीन भारत में नहीं मिलाए जाते, तो वर्तमान में पाकिस्तान का क्या स्वरूप होता बिना मुलतान और पेशावर का पाकिस्तान ?
बीसवीं शताब्दी के मध्य तक पश्चिमी देशों के सामने अफगान लड़ाकों की वीरता एक दंत कथा के समान थी। उनके मन में विचार उठता था कि क्या अफगानी के होते हैं ? परंतु अफगानिस्तान की सरजमीन लड़ाकों की ही नहीं रही । जलालुद्दीन रूमी सरीखे महान सूफी भी हुए हैं। उनका जन्म सन् 1207 ई. में हुआ 3/4 यह देश भारत का ही हिस्सा था। रूमी कहते हैं, "बंद हो अगर दोस्त का दरवाजा तो वापस मत चले आना।" अफगानिस्तान का एक देश के रूप में बहुत संगठित हो पाना हमेशा से कठिन हो रहा है। अपनी कबीलाई पहचान से यहां लोगों को जबरदस्त मोह है। अफगानिस्तान में कुल 14 जातीय (नृजातीय या इथेनिक) समूह निवास करते हैं। इसमें से सर्वाधिक 40 से 42 प्रतिशत पश्तो हैं अपनी पहचान के प्रति इनका लगाव अफगान के राष्ट्रगान में भी सुनाई देता है। (वैसे पिछली एक शताब्दी में यहां पांच राष्ट्रगान बदल चुके हैं।) भारतीय राष्ट्रगान में हम प्रदेशों जैसे पंजाब, सिंध, गुजरात, मराठा, द्राविड उत्कल, बंग को याद करते हैं। वहीं अफगानिस्तान के राष्ट्रगान में सभी जातीय समूहों का जिक्र आता है।
संविधान का अनुच्छेद 20 स्पष्ट करता है कि अफगानिस्तान का राष्ट्रगान पश्तों में होगा और इसमें "ईश्वर है महान" के साथ ही साथ सभी जातीय समूहों का उल्लेख होगा। इसे कुछ इस तरह रचा गया है। "यह देश प्रत्येक जातीय समूह का है, यह बलोच और उज्बेक पश्तून और हजारा, तुर्कमानियों और ताजिकों की भूमि है। इनके साथ अरब और गुज्जर, पामिरी, नूरिस्तानी, ब्राहुइस और विझल्बाश है, साथ ही अमिक्स और पाशाई भी हैं। अतएव जिस राष्ट्र में जातीय पहचान को इतना महत्व दिया जाता हो इसे इतनी आसानी से समझ पाना और उस पर शासन कर पाना बेहद कठिन है।
इस लेख के पीछे मकसद यही है कि हम पश्चिमी देशों की गलत धारणा हिसाब से ही वर्तमान अफगानी समस्या को समझने के बजाए उसे इस देश के जातीय व सांस्कृतिक दृष्टिकोण के अनुसार देखने की कोशिश करें। खलील जिब्रान की कहानी, शैतान के अंत में तमाम शास्त्रार्थ के पश्चात पादरी शैतान के उपचार को राजी हो गए। जिब्रान लिखते हैं, "उन घाटियों के बीच सन्नाटे से घिरे और अन्धकार के आवरण से सुशोभित पिता इस्मान अपने गांव की ओर चले जा रहे थे। उनकी कमर उनके ऊपर के बोझ से झुकी जा रही थी और उनकी काली पोशाक तथा लंबी दाढ़ी पर से बह रही थी, किन्तु उनके कदम सतत आगे बढ़ते जा रहे थे और उनके होंठ मृतपाय शैतान के जीवन के लिए ईश्वर से प्रार्थना कर रहे थे।"
समझ रहे हैं कि कौन किसको और क्यों बचा रहा है। अफगानिस्तान की बदहाली और अराजकता आज वैश्विक अनिवार्यता क्यों बन गई हैं ? (humsamvet.com)
-कृष्ण कांत
आपको पाकिस्तान या तालिबान की कट्टरता से चिढ़ है? अच्छी बात है। कट्टरता से चिढऩा चाहिए। लेकिन इस पर भी ध्यान दीजिए कि आपको भी वैसा ही बनाने का प्रयास क्यों चल रहा है? क्या आप वैसे बनना चाहते हैं? भारत और पाकिस्तान में हाल की कुछ घटनाओं पर गौर फरमाएं।
हाल ही में जब हमारी दिल्ली में एक समुदाय को ‘काटने और मारने’ का नारा लगाया गया और कानपुर में एक छोटी बच्ची के और उसके पिता को प्रताडि़त किया गया, उसी दौरान पाकिस्तान में भी एक मामले ने तूल पकड़ा था।
पाकिस्तान में एक 8 साल के हिंदू बच्चे ने गलती से किसी मजार के पास पेशाब कर दिया। उसके खिलाफ ईशनिंदा का केस दर्ज कराया गया। पुलिस ने बच्चे को पकडक़र जेल में डाल दिया। कोर्ट ने दो दिन बाद उस बच्चे को छोड़ दिया। कई लोग ये मान रहे थे कि छोटा बच्चा है, गलती हो गई। ऐसा उसने जानबूझकर नहीं किया।
हमारे वाले अभी ट्रेनिंग पर हैं, लेकिन पाकिस्तानी जाहिल तो कई दशक पहले ट्रेंड हो चुके हैं। तो कोर्ट के निर्णय के विरुद्ध भीड़ एकत्र हुई। इन लोगों ने रहीमयार खान इलाके के एक मंदिर में घुसकर तोडफ़ोड़ और आगजनी की। मूर्तियों को क्षतिग्रस्त किया। ये मामला काफी चर्चा में आ गया। पाकिस्तान की फजीहत शुरू हो गई। इस पर सक्रिय हुई पुलिस ने 90 लोगों को गिरफ्तार किया। पाकिस्तान के गृहमंत्री ने कहा, ‘हिंदू मंदिर को अपवित्र करने की घटना निंदनीय और दुखद है। इस तरह की घटनाएं इस्लाम और पाकिस्तान को पूरी दुनिया में बदनाम करती हैं। दूसरे धर्मों के पूजा स्थल को अपवित्र करना पूरी तरह से इस्लाम की शिक्षाओं के खिलाफ है। धार्मिक नफरत फैलाने और अल्पसंख्यकों के प्रति हिंसा भडक़ाने वालों के खिलाफ कार्रवाई की जाएगी। हम देश के सभी धार्मिक अल्पसंख्यकों की सुरक्षा सुनिश्चित करेंगे।’
वहां की संसद में ये मामला उठाया गया तो सर्वसम्मति इसके खिलाफ प्रस्ताव पास किया गया। तोड़े गए मंदिर की तुरंत मरम्मत कराई गई। पाकिस्तान हिंदू काउंसिल के सदस्यों ने जाकर फिर से मंदिर का उद्घाटन किया और फिर से पूजा शुरू हो गई। हालांकि, बच्चे के ऊपर दर्ज केस नहीं वापस लिया गया, लेकिन हिंदुओं को भरोसा है कि वह नादान है। केस मुख्य न्यायाधीश के पास है और उसे माफ कर दिया जाएगा। प्रशासन ने भी हिंदू नेताओं से कहा कि बच्चे के खिलाफ कोई सबूत नहीं है। उसे बरी कर दिया जाएगा। सरकार ने कहा कि रहीमयार खान में मंदिर को फिर से खोलना इस बात को दर्शाता है कि पाकिस्तान सरकार द्वारा अल्पसंख्यकों के धार्मिक विश्वासों का सम्मान करना हमारी मूल नीति है और हम सुनिश्चित करेंगे कि सभी नागरिक पाकिस्तान के संविधान के अनुसार जीवन और स्वतंत्रता का आनंद लें।
दूसरी घटना लाहौर में महाराजा रणजीत सिंह की मूर्ति तोडऩे का है। ये मूर्ति एक कट्टरपंथी संगठन के किसी एक सनकी शख्स ने तोड़ दी। इस घटना का वीडियो वायरल हुआ जिसमें वहीं कुछ लोगों ने उसे ऐसा करने से रोका। उस सनकी को गिरफ्तार कर लिया गया। प्रधानमंत्री इमरान खान के करीबी मंत्री चौधरी फवाद हुसैन ने लिखा, ‘शर्मनाक, अनपढ़ों का यह झुंड दुनिया में पाकिस्तान की छवि के लिए वाकई खतरनाक है।’
सनकी तो सब जगह हैं। अपराध हर कहीं होता है। असली मसला है कि अपराध रोकने के लिए क्या किया जा रहा है।
इन दो वाकयों को मैं सिर्फ इसलिए बता रहा हूं कि क्यों हम पाकिस्तान से ऐसी उदारताओं की उम्मीद नहीं करते। वह अपने अल्पसंख्यकों पर जुल्म के लिए दुनिया भर में बदनाम है। लेकिन उनकी सरकार दिखावे के लिए ही सही, उदार या लोकतांत्रिक दिखने की कोशिश कर रही है।
हमारे भारत की विविधता पर दुनिया भर में सैकड़ों किताबें लिखी गई हैं। हमारी पहचान दुनिया के एकमात्र ऐसे देश की है जहां सभी धर्म, 3000 जातियां, 1500 भाषाएं हैं और फिर भी हम सब साथ रहते हैं। आजादी मिली तो अंग्रेजी विद्वान कहते थे कि इतनी विविधता है कि ये इंडियन एक साथ रह ही नहीं सकते। भारत जल्दी ही टूट जाएगा। हम सबने उन्हें गलत साबित किया है।
लेकिन क्या कानपुर की उस छोटी बच्ची को वही उदार लोकतंत्र मिला है जिसका हम 70 सालों से मजा ले रहे हैं? क्या जंतर मंतर पर हुई जहरीली नारेबाजी पर कानून ने सही काम किया है? क्या हमारी सरकार के किसी बड़े नेता ने कभी किसी घटना के बाद ये भरोसा दिया है कि हम अल्पसंख्यकों को पूरी सुरक्षा देंगे? क्या लिंच मॉब को माला पहनाने वाले मंत्री को दंड मिला था? क्या लिंचिंग में मारे गए सैकड़ों लोगों को इस उदार और मजबूत लोकतंत्र ने न्याय दिलाया है? कौन है जो हमारे महान लोकतंत्र की लिंचिंग करके लिंच मॉब को माला पहना रहा है? एक पार्टी का सम्मानित नेता ऐसा करने की हिम्मत कहां से लाता है?
ऐसा क्यों है कि अपनी उदारता और ‘विविधिता में एकता’ के महान सूत्र से हमारा भरोसा हिलने लगा है? कौन है जो भारत को फिरकापरस्ती और कट्टरता की तरफ धकेल रहा है? कौन है जो भारत के युवाओं को तालिबानी सोच से लैस करना चाहता है?
गृह मंत्री की हैसियत से सरदार पटेल ने कहा था कि अगर हम अपने अल्पसंख्यकों को सुरक्षा का भरोसा न दे सकें तो हम इस लोकतंत्र के लायक नहीं हैं। हम सरदार पटेल, गांधी और नेहरू का भरोसा क्यों तोड़ रहे हैं ?
इधर कई घटनाएं आई हैं जिनसे लगता है कि पाकिस्तान लोकतंत्र बनने की कोशिश कर रहा है और हम 7 दशक के स्थापित लोकतंत्र की जड़ खोदने के सारे प्रयास कर रहे हैं। अपनी लाख खामियों के साथ भारत ऐतिहासिक संघर्ष करके एक महान लोकतंत्र बना है। भारत को कट्टरता की ओर धकेला गया तो यह बर्बाद हो जाएगा। धार्मिक कट्टरता ने इस दुनिया में अब तक ऐसा कोई देश नहीं बनाया जो हमारे लिए नजीर बन सके।
-ध्रुव गुप्त
शहनाई के जादूगर उस्ताद बिस्मिल्लाह खां अपने दौर की तीन गायिकाओं के मुरीद थे। उनमें पहली थी बनारस की रसूलन बाई। किशोरावस्था में वे बड़े भाई शम्सुद्दीन के साथ काशी के बालाजी मंदिर में रियाज़ करने जाते थे। रास्ते में रसूलनबाई का कोठा पड़ता था। वे बड़े भाई से छुपकर अक्सर कोठे पर पहुंच जाते। जब रसूलन गाती थीं तो वे मुग्ध होकर उन्हें सुनते थे। रसूलन की खनकदार आवाज में नए राग. ठुमरी, टप्पे, दादरा सुनकर उन्होंने भाव, खटका और मुर्की सीखी थी। एक दिन भाई ने उनकी चोरी पकडऩे के बाद जब कहा कि ऐसी नापाक जगहों पर आने से अल्लाह नाराज होता है तो उनका जवाब था-दिल से निकली आवाज में भी कहीं पाक-नापाक होता है? उस्ताद रसूलन बाई को बहुत सम्मान के साथ याद करते थे।
लता मंगेशकर और बेगम अख्तर उनकी दूसरी प्रिय गायिकाएं थीं। लता को वे देवी सरस्वती का रूप कहते थे। उन्होंने बताया कि लता के गायन में त्रुटियां निकालने की उन्होंने बहुत कोशिशें की, लेकिन असफल रहे। लता जी का एक गीत ‘हमारे दिल से न जाना, धोखा न खाना’ वे अक्सर गुनगुनाया करते थे। बेगम अख्तर की गायिकी को वे एक ख़ास त्रुटि के लिए पसंद करते थे। एक रात लाउडस्पीकर से आ रही एक आवाज़ ने उन्हें चौंकाया था। गज़़ल थी- ‘दीवाना बनाना है, तो दीवाना बना दे’ और आवाज़ थी बेगम अख्तर की। ऊंचे स्वर पर जाकर बेगम की आवाज़ टूट जाया करती थी। संगीत की दुनिया में इसे ऐब समझा जाता है, लेकिन उस्ताद को बेगम का यह ऐब खूब भाता था। बेगम को सुनते वक्त उन्हें उसी ऐब वाले लम्हे का इंतजार होता था। वह लम्हा आते ही उनके मुंह से बरबस निकल जाता था-अहा!
आज शहनाई उस्ताद बिस्मिल्लाह खां की पुण्यतिथि पर उनकी स्मृतियों को नमन !
-रमेश अनुपम
22 अगस्त को किशोर साहू की इकतालिसवीं पुण्यतिथि है। उनकी स्मृति को छत्तीसगढ़ सादर प्रणाम करता है।
छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले में 22 अक्टूबर सन 1915 को कन्हैया लाल साहू के परिवार में जन्म लेने वाले रायगढ़, सक्ति की मिट्टी और धूल में खेलकर बचपन बिताने वाले और राजनांदगांव के स्कूल में पढ़ाई करने वाले किशोर साहू एक दिन हिंदी सिनेमा के इतने बड़े स्टार बन जायेंगे, यह किसी ने सपने में भी नहीं सोचा होगा।
यह भी किसने सोचा होगा कि मात्र बाईस साल का छत्तीसगढ़ का यह छैल छबीला, तीखे नैन नक्श और पांच फुट साढ़े आठ इंच का बांका नौजवान सन 1937 में हिंदी सिनेमा की च्ीन और हर दिल अजीज नायिका देविका रानी के साथ बॉम्बे टॉकीज की फिल्म ‘जीवन प्रभात’ में हीरो की मुख्य भूमिका अदा करेगा और रातों रात लाखों लोगों के दिलों में अपनी जगह बना लेगा।
आज यह सोचकर विश्वास नहीं होता है कि छत्तीसगढ़ के इस सपूत ने केवल तेईस वर्ष की उम्र में बॉम्बे टॉकीज के समानांतर अपना खुद का एक प्रोडक्शन हाउस बॉम्बे में खोलकर और उसके बैनर में ‘बहूरानी’ जैसी सुपर-डुपर हिट फिल्म बनाकर हिंदी सिनेमा जगत में देगा।
गौरतलब है कि इस फिल्म का निर्देशन भी उन्होंने स्वयं किया था। इस फिल्म की नायिका उस दौर की मशहूर हिरोइन अनुराधा और मिस रोज थीं।
बाईस साल की उम्र में उस समय की मशहूर अदाकारा ब्यूटीच्ीन देविका रानी के साथ बॉम्बे टॉकीज की फिल्म में हीरो होना और 23 साल की उम्र में अपने खुद का प्रोडक्शन हाउस खोलकर ‘बहूरानी’ जैसी फिल्म का निर्माण तथा निर्देशन करना साथ में नायक की प्रमुख निभाना क्या अपने आप में कोई कम आश्चर्य की बात नहीं है।
चमत्कार का दौर केवल यहीं थमने वाला नहीं था। सन 1940 में उनकी दो फिल्में रिलीज हुई ‘बहूरानी’ और ‘पुनर्मिलन’। ‘पुनर्मिलन’ बॉम्बे टॉकीज की फिल्म थी।
देविका रानी को एक बार फिर बॉम्बे टॉकीज की फिल्म में किशोर साहू को बतौर हीरो लेने के लिए बाध्य होना पड़ा था। इस बार उसके साथ हीरोइन थी स्नेहप्रभा प्रधान, उस जमाने की सबसे सुंदर और चर्चित नायिका। तब तक हिमांशु राय का निधन हो चुका था। बॉम्बे टॉकीज की सारी जिम्मेदारी देविका रानी के ऊपर आ गई थी।
‘बहूरानी’ और ‘पुनर्मिलन’ ने हिंदी सिनेमा में किशोर साहू की अभिनय प्रतिभा के झंडे गाड़ दिए थे। बॉम्बे की सिनेमा नगरी में चारों ओर अगर किसी का शोर मच रहा था तो वह थे हर दिल अजीज हमारे किशोर साहू का।
इसके बाद ‘कुंवारा बाप’ और ‘शरारत’ जैसी फिल्में आई दोनों के हीरो थे किशोर साहू और उनके साथ खूबसूरत हीरोइन थीं प्रतिमा दास गुप्ता। दोनों ही फिल्में खूब चलीं। इसके बाद तो जैसे किशोर साहू हिंदी सिनेमा के सिरमौर बन गए।
वह हिंदी सिनेमा का शुरुवाती और स्वर्णिम दौर था। हिंदी सिनेमा को एक नई मंजिल की तलाश थी और किशोर साहू, अशोक कुमार जैसे हीरो हिंदी सिनेमा के मंजिल थे। दोनों ही मध्यप्रदेश के कोहिनूर थे। एक खंडवा के तो दूसरे छत्तीसगढ़ के।
फिर सन 1943 में ‘राजा’ जैसी बेहतरीन फिल्म आई। जिसके निर्माता, निर्देशक, नायक कोई और नहीं किशोर साहू थे।
उस समय ‘राजा’ फिल्म ने जैसे हिंदी सिनेमा में उथल-पुथल मचा दी थी। देश के सारे बड़े अखबार किशोर साहू की इस फिल्म की प्रशंसा से भरे पड़े थे।
‘टाईम्स ऑफ इंडिया’ ने लिखा- ‘राजा’ अभिनेता निदेशक किशोर साहू की महान व्यैक्तिक उपलब्धि है।’
‘अमृत बाजार पत्रिका’ में छपा- ‘राजा’ निर्माण और भाव की गहराई की महानतम नवीनता प्रदर्शित करता है और यही नहीं, दिग्दर्शन में भी बढिय़ा सफाई और भव्यता है।’
हिंदी सिनेमा के बेमिसाल अभिनेता, निर्देशक, निर्माता, पटकथा लेखक किशोर साहू का जीवन सफलता के नए-नए शिखरों को छूने के लिए बना हुआ था।
सम्राट अशोक के पुत्र कुणाल के जीवन पर आधारित फिल्म ‘वीर कुणाल’ किशोर साहू के लिए किसी महान उपलब्धि से कम नहीं थी। ‘वीर कुणाल’ के निर्माता, निर्देशक, लेखक और अभिनेता कोई और नहीं स्वयं किशोर साहू थे। उनके इस फिल्म की नायिका थी उस जमाने की मशहूर अदाकारा शोभना समर्थ, जो नूतन और तनुजा की मां और काजोल की नानी थी।
1 दिसंबर सन 1945 को यह फिल्म बंबई की नॉवेल्टी थियेटर में शान से रिलीज की गई। उस दिन इस फिल्म का उद्घाटन जिसके द्वारा हुआ वह वाक्या भी कम रोमांचक और दिलचस्प नहीं है।
सरदार वल्लभ भाई पटेल उन दिनों अपने सुपुत्र दया भाई पटेल के यहां बंबई आए हुए थे। दयाभाई पटेल उन दिनों मरीन ड्राइव में रहते थे। किशोर साहू को लगा ‘वीर कुणाल’ जैसी ऐतिहासिक महत्व की फिल्म के उद्घाटन के लिए सरदार पटेल से बड़ा और बेहतर नाम और कोई दूसरा नहीं हो सकता है। उन दिनों पंडित जवाहरलाल नेहरु और सरदार वल्लभ भाई पटेल स्वाधीनता आंदोलन और कांग्रेस के बड़े नायक थे।
(शेष अगले हफ्ते)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
यह तो अच्छी बात है कि भारत सरकार की तालिबान से दूरी के बावजूद उन लोगों ने अभी तक भारतीय नागरिकों को किसी भी तरह का नुकसान नहीं पहुंचाया है। हमारा दूतावास सुरक्षित है। हमारे जहाज सुरक्षित हैं और हमारे लोगों को भी भारत लौटने दिया जा रहा है। भारत सरकार और हमारा उड्डयन मंत्रालय भी पर्याप्त सक्रिय हैं। यह ध्यान देने लायक है कि अमेरिका और यूरोपीय देशों की तरह अपने नागरिकों को काबुल से निकालने के लिए हमें फौजें नहीं भेजनी पड़ रही हैं। इन सब राष्ट्रों का तालिबान से सीधे और गोपनीय संपर्क बने हुए हैं, जिनका फायदा हमें अपने आप मिल रहा है। भारत सरकार अभी तक असमंजस में पड़ी हुई है। वह यह तय ही नहीं कर पा रही है कि काबुल के इस नए परिदृश्य से कैसे निपटे ? उसका यह असमंजस स्वाभाविक है, क्योंकि जब पिछले दो साल से अमेरिका, चीन, रूस, तुर्की जैसे देश उनसे सीधी बात कर रहे थे तो हम अमेरिका के भरोसे बैठे रहे। अभी भी हमारे विदेश मंत्री जयशंकर न्यूयार्क में बैठकर संयुक्तराष्ट्र संघ में अपनी 25 साल पुरानी बीन ही बजा रहे हैं। उन्होंने सही बात कही है कि अब काबुल दुबारा आतंकवाद का शरण-स्थल नहीं बनना चाहिए लेकिन यह असली मुद्दा नहीं है।
असली मुद्दा यह है कि काबुल में इस समय ऐसी सरकार कैसे बने, जो सर्वसमावेशी हो, जिसमें सभी 14-15 कबीलों और जातियों को प्रतिनिधित्व मिल जाए। राजनीतिक दृष्टि से उसमें जाहिरशाही, खल्की, परचमी, नादर्न एलायंस, तालिबानी, हजारा और सभी छोटे-मोटे गुटों के लोग शामिल हो जाएं। लगभग 40 साल बाद काबुल मेें ऐसी सरकार बने, जैसी कभी दोस्त मोहम्मद, अमीर अब्दुर रहमान, अमानुल्लाह, जाहिरशाह या सरदार दाऊद की रही है। अफगानिस्तान में जब तक एक स्वतंत्र, आत्मनिर्भर और विदेशी दबाव से मुक्त सरकार नहीं बनेगी, वहाँ शांति और स्थिरता आ ही नहीं सकती। भारत ऐसी सरकार बनवाने में सार्थक भूमिका अदा कर सकता है। पिछले 200 साल में ब्रिटेन, रूस और अमेरिका को पठान धूल चटा चुके हैं। अब शायद चीन की बारी है। पाकिस्तान को मोहरा बनाकर यदि अब चीन अपनी चाल चलेगा तो वह भी मुँह की खाएगा।
पाकिस्तान को अफगान चरित्र की खूब समझ है। इसीलिए वह कोशिश कर रहा है कि काबुल में एक सर्वसमावेशी सरकार बन जाए लेकिन यह आसान नहीं है। हम देख रहे हैं कि जलालाबाद में तालिबान और स्थानीय पठानों में जानलेवा भिड़त हो गई। सच्चाई तो यह है कि तालिबान का भी कोई अनुशासित एकरुप संगठन नहीं है। उनमें भी जगह-जगह खुदमुख्तार नेता सक्रिय हैं। वे मनमानी करते हैं। क्वेटा, शूरा, पेशावर शूरा और मिरान्शाह शूरा तो प्रसिद्ध हैं ही, गैर-पठान क्षेत्रों में भी तालिबान सक्रिय हैं। इसीलिए जहां-तहां वे हिंसा और तोडफ़ोड़ भी करते हुए दिखाई पड़ रहे हैं लेकिन कुल मिलाकर अभी हालत चिंताजनक नहीं हैं। काबुल और विदेशों में बसे कुछ अफगान नेताओं ने मुझे फोन पर बताया है कि उन्हें विश्वास नहीं हो रहा हैं कि तालिबान जैसी घोषणाएं कर रहे हैं, उन पर वे वैसा अमल करेंगे। यदि तालिबान का अमल 1996-2001 जैसा रहा तो इस बार उनका 4-5 साल चलना भी मुश्किल हो जाएगा। वे 1929 की बच्चा-ए-सक्का की 9 माह की सरकार की तरह अगऱ् पर काबिज होंगे और जल्दी ही खिसक लेंगे।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-कृष्ण कान्त
पिता पूजा करता है. बेटा नमाज पढ़ता है. पिता का नाम शंकर है. बेटे का नाम अब्दुल है. पिता का नाम जवाहर है तो बेटे का नाम सलाउद्दीन है. पति का नाम मोहन तो पत्नी का नाम रूबीना. पिता हिंदू है, लेकिन बेटा मुसलमान है. मां मुसलमान है लेकिन बेटा या बेटी हिंदू है. एक ही आंगन में दिया भी जलता है और नमाज भी अदा होती है. वे नवरात्र भी रखते हैं और रोजा भी रखते हैं. वे भगवान की पूजा भी करते हैं, वे अल्लाह की इबादत भी करते हैं.
आप सोच रहे हैं कि ये क्या घनचक्कर है! लेकिन ये हिंदुस्तान का सच है. हिंदुस्तान ऐसा ही है. हमने-आपने इसे ठीक से देखा-समझा नहीं है.
कुछ दिन पहले जिस राजधानी में लोगों को काटने का नारा लगाया गया है, वहां से कुछ ही घंटे की दूरी तय करके अजमेर पहुंचिए. आपको ऐसे परिवार मिल जाएंगे जो हिंदू भी हैं और मुस्लिम भी हैं. राजस्थान के करीब चार जिलों में एक समुदाय रहता है चीता मेहरात समुदाय. ये ऐसा समुदाय है, जहां एक ही परिवार में हिंदू और मुस्लिम दोनों होते हैं. कभी कभी तो एक ही व्यक्ति दोनों धर्म को एक साथ मानता है. ज्यादातर परिवार होली, दिवाली, ईद सब मनाते हैं. राजस्थान में इस समुदाय की संख्या करीब 10 लाख तक बताई जाती है.
माना जाता है कि इस समुदाय का ताल्लुक चौहान राजाओं से रहा है. इन्होंने करीब सात सौ साल पहले इस्लाम की कुछ प्रथाओं को अपनाया था. तबसे यह समुदाय एक ही साथ हिंदू मुसलमान दोनों है.
अजमेर के अजयसर गांव के जवाहर सिंह बताते हैं, 'मैं हिंदू हूं लेकिन मेरे बेटे का नाम सलाउद्दीन है. हमारे यहां भेद नहीं है. हम शादियां भी इसी तरह से करते हैं, सैकड़ों वर्षों से यही होता आ रहा है.
इस गांव में एक ही जगह मंदिर और मस्जिद दोनों हैं. शादियों में जब लड़के की बारात निकलती है तो मंदिर और मस्जिद दोनों जगहों पर आशीर्वाद लिया जाता है. लड़कियों की शादी में कलश पूजन होता है, उसके बाद आपका मन हो तो फेरे लीजिए, मन हो निकाह कीजिए, मन हो तो दोनों कर लीजिए.
सिर्फ यही नहीं, असम के मतिबर रहमान भगवान शंकर के मंदिर की देखभाल करते हैं. यह काम उन्हें उनके पुरखों ने सौंपा है. 500 साल पुराने इस मंदिर की देखभाल मतिबर रहमान के पुरखे ही करते आए हैं. नीचे फोटो उन्हीं की है.
मैंने इधर बीच गौर किया कि कई लोग गंगा जमुनी तहजीब का मजाक उड़ाते हैं. सावरकर और जिन्ना की जोड़ी से प्रभावित कुछ लोगों का कहना है कि भारत में हिंदू-मुस्लिम एकता की बात राजनीतिक है. वास्तव में दोनों अलग-अलग हैं. लेकिन अगर आप देखना चाहेंगे तो पाएंगे कि दोनों एक-दूसरे में इतने घुले-मिले हैं, कि फर्क करना मुश्किल है.
जो लोग हिंदू-मुस्लिम विभाजन का सपना देखते हैं, वे चीता मेहरात समुदाय को किस तरफ रखेंगे? समाज और संस्कृति की सुंदरता तो इसी में है कि जो जैसा है, उसे वैसा ही रहने दिया जाए. जब कोई नेता या पार्टी धार्मिक विभाजन का प्रयत्न करे तो आपको लाखों करोड़ों के बारे में सोचना चाहिए कि वे किधर जाएंगे? जो जैसे हैं, उनको वैसे रहने दीजिए. फिर हम आप सदियों तक गर्व से कह पाएंगे कि मैं उस हिंदुस्तान का बाशिंदा हूं जहां पर हर धर्म और हर भाषा के लोग घुलमिल कर रहते हैं और यही हमारी ताकत है: 'विविधता में एकता'.
कोई है जो हमारी अपनी सुंदरता को मिटाने पर तुला है लेकिन दुनिया भर की विद्रूपता को हम पर थोपना चाहता है. आपको अपनी यही सुंदरता बचानी है.
-गिरीश मालवीय
तालिबान शब्द सुनते ही आपके जहन में क्या छवि उभरती है? जाहिर है कि एक ऐसा आदमी जो बड़ी सी दाढ़ी के साथ है, ऊपर कुर्ता है, ऊंचा पायजामा पहने हुए हैं और पगड़ीनुमा एक कपड़ा सिर पर लपेटे हंै जिसका एक सिरा कंधे पर गिर रहा है और सबसे जरूरी कि कंधे पर बंदूक टँगी हुई है।
और यही सच्चाई है यहां कोई प्रोपेगैंडा नहीं है, दरअसल हम जिस देश की बात कर रहे हैं उसे साम्राज्यों की कब्रगाह कहा जाता है। यहाँ जिस छवि की बात की जा रही है वह एक अफगान पुरूष की वैश्विक छवि है।
तालिबान अरबी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है छात्र, आपको जानकर आश्चर्य होगा कि तालिबान के पास अफगानिस्तान सिर्फ पांच साल ही रहा है। 1990 के दशक की शुरुआत से ही सोवियत संघ के अफगानिस्तान के जाने के बाद वहां पर कई गुटों में आपसी संघर्ष शुरू हो गया था। 1994 आते आते तालिबान सबसे शक्तिशाली गुट में परिवर्तित हो चुका था। 1996 में आखिरकार तत्कालीन अफगान राष्ट्रपति मोहम्मद नजीबुल्लाह की जघन्य हत्या के साथ ही तालिबान ने समूचे अफगानिस्तान पर आधिपत्य स्थापित कर लिया 1998 में जब तालिबान ने अफगानिस्तान की राजधानी काबुल पर कब्जा कर देश पर शासन शुरू किया तो कई फरमान जारी किए। पूरे देश में शरिया कानून लागू कर दिया गया।
दरअसल अफगानिस्तान के 99 फीसदी लोगों को शरिया कानून पसंद है तथा यह बात 2013 में दुनिया में कई तरह के सामाजिक सर्वेक्षण करने वाली संस्था प्यू रिसर्च सेंटर के एक शोध में सामने आई थी।
शरिया कानून इस्लाम की कानूनी प्रणाली है, जो कुरान और इस्लामी विद्वानों के फैसलों पर आधारित है, और मुसलमानों की दिनचर्या के लिए एक आचार संहिता के रूप में कार्य करता है। शरिया कानून मुसलमानों के जीवन के हर पहलू को प्रभावित कर सकता है, लेकिन, यह इस बात पर निर्भर करता है कि कौन सा वर्जन लागू किया जाता है और इसका कितनी सख्ती से पालन किया जाता है।
दरअसल पाकिस्तान को छोडक़र लगभग हर मुस्लिम मुल्क ने अपने-अपने तरीके से शरिया को अपने यहां लागू किया है, मुस्लिम ब्रदरहुड के लिए शरिया कुछ अलग स्वरूप लिए है सलाफियों के लिए अलग है और तालिबान, आईएस, बोको हरम के लिए कुछ अलग ही है।’
तालिबान ने अफगानिस्तान में अपने पाँच सालो के कार्यकाल में शरिया का सबसे सख्त स्वरूप लागू किया। तालिबान ने दोषियों को कड़ी सजा देने की शुरुआत की। हत्या के दोषियों को फांसी दी जाती तो चोरी करने वालों के हाथ-पैर काट दिए जाते। पुरुषों को दाढ़ी रखने के लिए कहा जाता तो स्त्रियों के लिए बुर्का पहनना अनिवार्य कर दिया गया था.
शरिया कानून के तहत ‘अंग-भंग और पत्थरबाजी’ को भी सही ठहराया है और इस कानून के तहत क्रूर सजाओं के साथ-साथ विरासत, पहनावा और महिलाओं से सारी स्वतंत्रता छीन लेने को भी जायज ठहराया जाता है।
शरिया कानून के तहत तालिबान ने देश में किसी भी प्रकार की गीत-संगीत को बैन कर दिया था। इस बार भी कंधार रेडियो स्टेशन पर कब्जा करने के बाद तालिबान ने गीत बजाने पर पाबंदी लगा दी है। वहीं, पिछली बार चोरी करने वालों के हाथ काट लिए जाते थे।
महिलाओं पर तालिबान शासन का प्रभाव तालिबान के शासन के तहत महिलाओं को प्रभावी रूप से नजरबंद कर दिया गया था और उनकी पढ़ाई-लिखाई पर पाबंदी लगा दी गई थी। वहीं, आठ साल की उम्र से ऊपर की सभी लड़कियों के लिए बुर्का पहनना अनिवार्य था और वो अकेले घर से बाहर नहीं निकल सकती थीं।
कमाल की बात यह है कि इस्लाम में औरतों को कई सारे अधिकार दिए गए हैं। उन्हें पढऩे का, काम पर जाने का, अपनी मर्जी के मुताबिक शादी करने का, संपत्ति का अधिकार तक है. लेकिन जितने भी कट्टरपंथी व्याख्याए है वह इन सारे कानूनों को अपने हिसाब से तोड़-मरोडक़र केवल अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करती है, उनका पूरा जोर आधी आबादी की स्वतंत्रता और अधिकारों को कुचलने में लगा रहता है, सारे शरिया कानून को ही यदि आपको मानना है उसका ही समर्थन करना है तो इसका साफ मतलब यही है कि आप अभी भी धर्म के आधार पर शासित होना चाहते हैं और धर्म के नाम पर शासन करना लोकतांत्रिक व्यवस्था बिल्कुल नहीं है यह मूलत: विकास विरोधी विचार है।
आप ही बताइए कि जिन मुस्लिम देशों में शरिया कानून लागू है वहाँ कौन सी ऐसी यूनिवर्सिटी है जहाँ पढऩे के लिए भारत का मुसलमान अपने बच्चों को भेजना चाहेगा ? दुनिया की सारी टॉप यूनिवर्सिटी यूरोप अमेरिका में है और वो टॉप इसलिए ही बन पाई क्योंकि उन्होंने धर्म को बिल्कुल अलग कर दिया।’
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत के लोग समझ रहे हैं कि काबुल में तालिबान के आ जाने से पाकिस्तान की पो-बारह हो गई है। यह ठीक है कि यदि पाकिस्तान मदद नहीं करता तो तालिबान का जिंदा रहना ही मुश्किल हो जाता। पाकिस्तान ने उन्हें हथियार, पैसा, प्रशिक्षण और रहने को जगह दी है। इसका अर्थ सारी दुनिया ने यह लगाया कि तालिबान उसकी कठपुतली बनकर रहेगा लेकिन ऐसा समझने वाले लोग अफगान पठानों का मूल चरित्र नहीं समझते। अफगानों से बढ़कर आजाद स्वभाव वाले लोग सारी दुनिया में नहीं हैं। उन्होंने 1842 में ब्रिटिश सेना के 16000 जवानों में से 15999 को मौत के घाट उतार दिया था। अन्य दो हमलों में फिर उसने ब्रिटेन को मात दी। उसके बाद उसने 30-40 साल पहले रूस के हजारों सैनिकों को मार भगाया और अब 20 साल छकाने के बाद अमेरिकी फौज को धूल चटा दी।
दुनिया के तीन बड़े साम्राज्यों की नाक नीची करने वाले अफगान क्या पाकिस्तान की 'पंजाबी फौजÓ के आगे अपनी नाक रगड़ेगें ? कदापि नहीं। पाकिस्तान के नेता, फौजी और इतिहास के विद्वान इन तथ्यों से अनजान नहीं हैं। इसीलिए वे जश्न तो मना रहे हैं लेकिन उनसे पूछिए कि वे कितने पसीने में तर हो गए हैं ? यदि तालिबान पाकिस्तान की कठपुतली होते तो क्या वजह है कि अभी तक काबुल में नई सरकार शपथ नहीं ले सकी है? पाकिस्तान के हुक्मरानों को डर है कि यदि काबुल में तालिबान की निरंकुश इस्लामी सत्ता कायम हो गई तो वह पाकिस्तान का सबसे बड़ा सिरदर्द होगा। तालिबान पर पाकिस्तान नहीं, पाकिस्तान पर तालिबान चड्डी गांठेगें। वे उससे पूछेंगे कि सारी दुनिया में इस्लाम के नाम पर बनने वाला अकेला राष्ट्र पाकिस्तान है लेकिन 'ए पंजाबियों, तुम कितने इस्लामी हो?Ó तालिबान आंदोलन में कई फिरके हैं। 'तहरीके-तालिबान पाकिस्तानÓ तो पाकिस्तान के अंदर रह कर उसके खिलाफ कार्रवाई करता रहा है। 1983 में जब पेशावर के जंगलों में मैं पहली बार मुजाहिदीन नेताओं से मिला तो वे कहते थे कि पेशावर तो हम पठानों का है। पाकिस्तान के पंजाबियों ने उस पर जबरन कब्जा कर रखा है। वे 1893 में अंग्रेजों द्वारा खींची गई डूरेंड सीमा-रेखा को बिल्कुल नहीं मानते।
आज तक किसी भी अफगान सरकार ने उसे मान्यता नहीं दी है बल्कि सरदार दाऊद के प्रधानमंत्री काल में तीन बार पाक-अफगान युद्ध की नौबत आ खड़ी हुई थी। इसीलिए अब पाकिस्तान फूंक-फूंककर कदम रख रहा है। उसकी कोशिश है कि काबुल में अब एक मिली-जुली सरकार कायम हो जाए। उसे पता है कि यदि काबुल में कोहराम मच गया तो लाखों अफगान शरणार्थी उनके यहां घुस आएंगे। उसकी अर्थ-व्यवस्था पहले ही डांवाडोल है। वह संकट में फंस जाएगी। यदि काबुल की सरकार स्थिर और मजबूत हो तो अफगानिस्तान खनिजों का भंडार है। वह दक्षिण एशिया का सबसे मालदार देश बन सकता है। पिछले 40 साल में पहली बार काबुल में अब ऐसी सरकार बन सकती है, जो सचमुच संप्रभु, स्वायत्त और पूर्णरूपेण स्वदेशी हो। यदि काबुल की सत्ता अनुभवहीन, अल्पदृष्टि और संकुचित हाथों में चली गई तो अफगानिस्तान अस्थिरता के गहरे कीचड़ में फिसल सकता है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-अजीत साही
अफ़ग़ानिस्तान में भारतीय राजदूत, दूतावास के अन्य कर्मचारी और उनके परिवार काबुल से कैसे निकले?
जवाब: मोदी सरकार ने तालिबान से मदद माँगी और तालिबान ने उनके बाहर निकलने में मदद की और उनको हवाई अड्डे तक सुरक्षा कवच देकर पहुँचाया.
ये ख़बर दुनिया की जानीमानी फ़्रांसीसी समाचार एजेंसी AFP ने छापी है.
हुआ ये कि अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान के क़ब्ज़े के बाद भारतीय दूतावास में खलबली मच गई. जिस वक़्त ये मालूम पड़ा कि हवाई अड्डे तक पहुँचने के रास्ते पर तालिबान मौजूद हैं तो हौसले और पस्त हो गए. दूतावास वाले मुहल्ले में भी तालिबान ही तालिबान मौजूद थे.
घबराहट की वजह ये भी थी कि भारत शुरू से ही तालिबान विरोधी रहा है. बयालीस साल पहले जब सोवियत यूनियन अफ़ग़ानिस्तान में घुसा था तो भारत कम्युनिस्टों के साथ था. जब सोवियत संघ का पिट्ठू राष्ट्रपति नजीबुल्लाह अफ़ग़ानिस्तान पर राज कर रहा था तो भारत उसके साथ था. जब तालिबान आया था तो भारत अफ़ग़ानिस्तान छोड़ गया था. जब 2001 में अमेरिका ने तालिबान को भगा दिया था तो फिर भारत अफ़ग़ानिस्तान लौट आया था. अब जब तालिबान दोबारा आया है तो भारत ने फटाफट अपना दूतावास फिर बंद करने का फ़ैसला कर लिया.
कल दूतावास के अंदर डेढ़ सौ से ज़्यादा लोग फंसे थे, जिनमें AFP का रिपोर्टर भी था जिसने बाद में ये ख़बर लिखी. सभी अधिकारियों के चेहरे पर हवाइयाँ थीं. मरता क्या न करता. इन अधिकारियों ने तालिबान से संपर्क किया और उनसे निवेदन किया कि वो भारतीयों को एयरपोर्ट तक जाने में मदद दें.
फिर क्या था. पलक झपकते ही हथियार से लैस दर्जनों तालिबान भारतीय दूतावास के बाहर जमा हो गए. ज्यों ही क़रीब दो दर्जन गाड़ियाँ दूतावास के कर्मचारियों और उनके परिवार वालों को लेकर निकलीं बाहर खड़े तालिबान उनकी ओर देखकर मुस्कराए और हाथ हिलाकर "वेव" करने लगे. भारतीय क़ाफ़िले के साथ तालिबान भी अपनी गाड़ियों में चल पड़े.
एयरपोर्ट सिर्फ़ पाँच किलोमीटर दूर था लेकिन पूरा रास्ता जाम था, हज़ारों अफ़ग़ान एयरपोर्ट जाने की कोशिश कर रहे थे. इतनी ज़रा सी दूरी तय करने में भारतीय क़ाफ़िले को पाँच घंटे लग गए. जगह जगह तालिबान की दूसरी टुकड़ियों ने चेक-प्वाइंट लगा रखे थे. AFP के रिपोर्टर के मुताबिक़ कई बार जब भीड़ बहुत अधिक हो जाती थी तो भारतीय क़ाफ़िले के सुरक्षा कवच बने तालिबान अपनी गाड़ियों से उतर कर हवाई फ़ायर कर दे रहे थे जिससे कि भारतीय क़ाफ़िले को आगे बढ़ने में मदद हो सके.
भारतीय क़ाफ़िला जब एयरपोर्ट पहुँच गया तब तालिबान वापस लौट गए.
-अजीत साही
इसमें दो राय नहीं कि तालिबान का इतिहास और विचारधारा हिंसक है, लेकिन हिंदुस्तान में आज तालिबानियों के खिलाफ चल रही बहस के बीच एक सवाल जायज होगा। क्या अमेरिका को वहाँ और रुकना चाहिए था? इसके बावजूद कि अमेरिका एक आक्रांता था, जिसने पूरे अफगानिस्तान में कत्लेआम करके ऐसा आतंक फैलाया कि करोड़ों लोग उससे नफरत करने लगे थे, उसे वहाँ काबिज रहते रहना चाहिए था तालिबान को रोकने के लिए? अमेरिका तो रुकना नहीं चाह रहा था। पैसे उसके खर्च हुए आपके नहीं। सैनिक उसके मरे आपके नहीं। फिर आखऱि क्या संभावना बननी चाहिए थी आपके हिसाब से?
आप कह रहे हैं कि तालिबान को सत्ता में नहीं आना चाहिए था। चलिए मान लिया। तो फिर आपके हिसाब से अमेरिका के जाने पर किसे राज करना चाहिए था? अशरफ गनी की सरकार तो पूरी तरह लचर और भ्रष्ट थी। बल्कि सरकार ही फर्जी थी क्योंकि उसका चुनाव ही फर्जी था। तो जनता के बीच जब उसकी वैधता ही नहीं थी तो वो सरकार कैसे टिकी रहती? क्या आपने खबरें नहीं पढ़ी थीं कि अफगान सेना को खाने का राशन नहीं मिल रहा था? पूरी पगार नहीं मिल रही थी? कि अशरफ गनी और उसके आसपास लोग अरबों डॉलर खा चुके थे? ये सब आपको मंजूर था? ऐसी सरकार का प्रशासन पर कुछ भी प्रभाव या दबाव रहा होगा? आपको क्या लगता है?
दरअसल बात ये है कि अशरफ गनी की सरकार की पहले ही कोई नहीं सुन रहा था। काबुल के आसपास छोडक़र और दो-तीन शहर छोड़ कर वैसे भी अलग-अलग सूबों में अलग-अलग स्थानीय मिलिशिया का प्रभाव था। अमेरिका के जाने पर अशरफ गनी की सरकार का और भी अधिक लचर हो जाना निश्चित था। फिर क्या होता? पूरे देश में गृहयुद्ध छिड़ जाता। हजारों-हजार लोग मारे जाते। क्या वो आपको मंजूर था? उन हजारों लोगों में औरतें भी होतीं, बच्चे भी होते। हजारों परिवार बेघर हो जाते। लाखों बच्चे अनाथ हो जाते। हजारों लड़कियों के साथ दुष्कर्म होता। वो सब आपको मंज़ूर था? स्कूल बंद हो जाते। धंधा ठप हो जाता। लूटपाट होती। ये सब ठीक होता?
कुछ हालात ऐसे होते हैं जिनके लिए अंग्रेज़ी का जुमला है there are no good answers so you look for the least bad answer। आप बताइए, क्या लीस्ट बैड आंसर होता आपके हिसाब से अफगानिस्तान के लिए आज के हालात में?
आप कह सकते हैं कि जो बातें मैंने ऊपर लिखी हैं वो तो तालिबान के रहते भी हो सकती हैं। बिल्कुल सही बात है। ज़रूर हो सकती हैं। लेकिन पिछले एक हफ्ते में हुई हैं क्या? ये सही है कि पूरे अफगानिस्तान में महिलाएँ घबराई हुई हैं। उनका भय बिल्कुल समझ आता है। लेकिन तालिबान नहीं होता अभी और सरकार गिर चुकी होती और गृहयुद्ध चल रहा होता तो वो महिलाएँ हंस-खेल रही होतीं? तालिबान नहीं होता और गृहयुद्ध होता तो क्या सैकड़ों अफगान अमेरिकी विमान पर चढक़र नहीं मर रहे होते? भाग नहीं रहे होते? अगर आप थोड़ा भी पढ़े-लिखे हैं तो आपको याद होगा कि 2003 में जब अमेरिका ने इराक पर हमला किया था तो पहले दो महीनों में पूरे देश में भयानक अराजकता फैल गई थी क्योंकि अमेरिका ने सोचा ही नहीं था कि सद्दाम के भागने पर शासन कौन चलाएगा। आज भी इराक में उसके दुष्परिणाम जाहिर हैं।
देखिए, एक बुनियादी बात समझिए। किसी भी मुल्क में, समाज में बाहर से आए आक्रांता के खिलाफ उस समाज की पहली लड़ाई होती है। ये अफसोस की बात है कि न आपको अमेरिका का अफगानिस्तान पर कब्जा बुरा लगता है और न ही आपको मालूम है कि जितना अत्याचार और जितनी हिंसा अमेरिका ने किया उसका एक-चौथाई भी तालिबान ने नहीं किया। अमेरिका ने घर-घर घुस-घुसकर आठ-आठ साल के लडक़ों की हत्या करवाई है। हवाई बम गिराए हैं। कार्पेट बाम्बिंग की है। टैंक से गोलीबारी की है। बेगुनाह लोगों को महीनों बंद करके यातना दी है। उनके ऊपर पेशाब किया है। उनकी उँगली काटते थे। सैनिकों को कहते थे कि प्रैक्टिस के लिए सिविलियन को मारो। आप चाहते हैं कि जिन्होंने अपना सब कुछ खोया है, वो अपना दर्द, अपमान सब भूल जाएँ और अमेरिका को सपोर्ट करते रहें?
तालिबान गुड आंसर नहीं है। ये समझने के लिए पीएचडी की जरूरत नहीं है। लेकिन आज के हालात में अब तक वही लीस्ट बैंड आंसर है। अब तालिबान कैसे हटेगा? तो अगर रूस, चीन, अमेरिका, पाकिस्तान ने अफगानिस्तान में अपना गंदा खेल नहीं जारी रखा तो अफगान लोगों को मौका मिलेगा कि वो ख़ुद अपने को धीरे-धीरे मजबूत करें और अपने हकूक के लिए लोकतांत्रिक लड़ाई लड़े। इसमें वक्त लग सकता है और लगेगा भी। दस साल। बीस साल। लेकिन इसी समाज की महिलाओं से, श्रमिकों से, युवाओं से असली लोकतंत्र का बीज फूटेगा। अमेरिका के कब्जे में मिली आजादी वैसी ही आजादी थी जैसी की ब्रिटिश काल में भारतीयों को मिली आजादी थी। अगर आपको लगता है कि पराधीनता में दोयम दजऱ्े का नागरिक बनने में ही खुशी है तो फिर आप गुलाम मानसिकता के हैं। लिबरल और प्रोग्रेसिव तो बिल्कुल ही नहीं हैं।
पिछले एक हफ्ते में जो हमने तालिबान को देखा है वो पच्चीस साल पहले हमने तालिबान में नहीं देखा था। हमने कई-कई समाजों में देखा है कि परिस्थितियाँ बदलती हैं तो किरदार भी बदलते हैं। जीसस, मुहम्मद, बुद्ध, गाँधी सबकी शिक्षा यही है कि हर इंसान बदलाव के काबिल है। और इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा है।
असली बात ये है कि लोकतंत्र कोई बाहर से आकर नहीं थोप सकता। स्वाभिमान विदेशी नहीं पैदा कर सकता। यूएन और अमेरिका अफगानिस्तान को तालिबान से आजादी नहीं दिला सकते। अफगानिस्तान के लोगों को खुद मजबूत होकर अपनी लड़ाई लडऩी होगी।
-प्रकाश दुबे
पिछले सहस्राब्द में जनता ने अपना राजा ऐसा चुना जिसकी हाजिरजवाबी, मिलनसारिता और पारदर्शिता से प्रजा अधिक प्रभावित थी, बजाय राजदंड और राज्यसत्ता के। इस लोकप्रिय सत्ताधीश के माथे पर कलंक के घाव का ऐसा निशान बना, जिसके लिए वह स्वयं कतई जिम्मेदार नहीं था। उस कालखंड के अंतिम दिनों में पुष्पक विमान का अपहरण हो गया। वह भी ऐसे पड़ोसी राष्ट्र से, जिसे सत्ता के वैचारिक पुरोहित अपनी मातृशक्ति के कारण ननिहाल का मान देते थे। अपहरणकर्ता खंडित भारत को अधिक खंडित करने में जुटे बंदी राक्षस को मुक्त कराने की मांग कर रहे थे। इस राक्षस ने समूचे आर्यावर्त में आतंक मचा रखा था। वह निरपराधों को सताता। हत्या करता। सत्ता संभाल रहा जननेता अपहर्ताओं के समक्ष झुकने के लिए तैयार नहीं था। लेकिन माध्यम का एक नुमाइंदा चीख-चीखकर हर पल ढिंढोरा पीटकर सैकड़ों निरपराधों के प्राण बचाने की दुहाई दे रहा था। सत्ताधीश का संकल्प और साहस की मर्यादा टूटी। राजा के वनवास का कारण यह कलंक स्वर्गवास के बावजूद आज तक माथे से पोंछा नहीं जा सका।
राक्षस का नाम मसूद अजहर है। कंधार में तालिबान के दखल के बाद वर्ष 1999 के आखिरी दिन रिहा होने के बाद पाकिस्तान में जन्मभूमि के शहर बहावलपुर में ऐश कर रहा है। भारत के विदेश मंत्री जसवंत सिंह और नागरिक उड्डयन मंत्री शरद यादव को बेबसी में तालिबान की शर्तों के आगे कंधार में झुकना पड़ा। कूटनय और इतिहासकार विश्लेषण करें कि करगिल में घुसपैठ का मुंहतोड़ जवाब देने वाले देश को पाकिस्तान में किसकी मदद से भेजा गया। अफगानिस्तान में न तो रूस की लाल सेना के दबाव वाली सरकार चली और न अमेरिका की तिजारत, चंदा, रिश्वत और गोली काम आई। अमेरिका ने रूस के विरुद्ध तालिबान को धन, शस्त्रबल और रणनीतिक सहायता दी। अमेरिकी सैनिकों की वापसी के बाद तालिबानी काबुल पर परचम फहरा चुके हैं। मौसम और सत्ता के साथ विशेषज्ञ बदलते हैं। कुछ सदाबहार अपवाद हर मौसम और सत्ता के सलाहकार बने रहते हैं। कंधार विमान अपहरण के दौरान ढिंढोरा पीटकर भारतवासी और सरकार का मनोबल गिराने वाले माध्यम के स्वामी का ससम्मान कानून बनाने वाली संसद में प्रवेश हो चुका हैं। उनके चाकरों तक को विशेष सुरक्षा और सम्मान मुहैया कराया जाता है। ओलम्पिक में भारत को एकमात्र स्वर्ण पदक मिलते देखने वाले देश के युवा खेल मंत्री के पास मौजूद दो टीवी चैनल नुमाइंदों के चेहरे याद करिए। इसी धारा में डुबकी लगाने वाले अफगानिस्तान विशेषज्ञ ने तालिबान से बात करने की मुफ्त सलाह दी है। यह मनोहारी विरोधाभास परोसने वाले विशेषज्ञ किसी वक्त डॉ. राम मनोहर लोहिया के भारत-पाकिस्तान एका महासंघ के मुरीद थे। इन दिनों अखंड आर्यावर्त का शंख फूंक रहे हैं। मुंबई बम विस्फोट के सरगना धुर आतंकवादी हाफिज इब्राहिम से उन्होंने पाकिस्तान जाकर मुलाकात की। 20 जुलाई 2014 को भेंट का पता लगने पर चर्चा थी कि पत्रकार महोदय नरेन्द्र मोदी सरकार के दूत बनकर गए थे। मोदी सरकार की पहली विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने संसद में इस अफवाह का खंडन किया। सुषमा ने तल्ख स्वर में कहा-हम इन पचड़ों में नहीं पड़ते। सुरक्षा परिषद के निर्णय के अनुसार अजहर और इब्राहिम को संयुक्त राष्ट्रसंघ ने वर्ष 2019 में अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी घोषित किया। अंतरराष्ट्रीय गतिविधियों पर नजर रखने वालों को पता है कि विदेश मंत्री जयशंकर कहां कहां और कब कब तालिबान के प्रतिनिधियों से सीधे मिले। अकेले ही नहीं, मुलाकात के समय कई मर्तबा तीसरा पक्ष उपस्थित था। भारत घुटना टेकू वार्ता से असहमत है। पत्रकारीय परामर्श देते समय जयशंकर पहल का तथ्य उजागर नहीं किया गया। सलाह से नया भ्रम फैलेगा-देखो, हमारी आपकी सोच समान है। भोली जनता वाहवाही करेगी-ऐसा विश्लेषक भविष्यवक्ता संभवति युगे युगे।
सिर्फ इसी बात का डर नहीं है। डर इस बात का है कि भारत जब इतिहास के पुनर्लेखन में व्यस्त है, उस समय पड़ोस की ताकतें हमारी आंख के सामने भूगोल बदलने में जुटी हैं। इंदिरा गांधी ने दो बार भूगोल बदला। आपात्काल के दौरान सिक्किम का भारत में विलय किया। बांग्लादेश की मुक्ति में सहयोग किया। दो प्रधानमंत्रियों की चूक का नुकसान अब तक भुगत रहे हैं। चेतावनी के बावजूद जवाहर लाल नेहरू की अनदेखी के कारण चीन ने तिब्बत को गड़प किया। भारत के भूभाग पर चीन ने कब्जा किया। लाल बहादुर शास्त्री को ताशकंद में विजित क्षेत्र छोडऩे पर हामी भरनी पड़ी। कश्मीर मुद्दे पर समाधान की शर्त नहीं जुड़वा सके। तनाव में उनका देहावसान हुआ। अमेरिका को विश्व ठेकेदार समझकर भारत चुनाव प्रचारक तक बना। अब उसी से कहना पड़ता है कि अभी न जाओ छोड़ कर। कोई संप्रभु देश इस तरह की बात कर सकता है? हमें याद रखना है कि कश्मीर मुद्दे पर हम किसी मध्यस्थ को सहन नहीं करेंगे। भय अकारण नहीं है। बड़ी उम्मीदों के साथ ब्रिक्स का गठन हुआ था। रूस और चीन दोनों इस वक्त तालिबान के साथ खड़े हैं। परखा हुआ मित्र रूस बिफर कर भारत से दूर हो चुका है। ब्रिक्स परवान नहीं चढ़ा। ब्राजील और दक्षिण आफ्रीका में चीन का निवेश भारत से अधिक है। सुरक्षा परिषद में किसके बूते प्रवेश करेंगे?
गैरराजनीतिक कारण भी डराते हैं। दो दिन पहले इस अखबार ने शीर्षक दिया-उफ!! गानिस्तान। अनेक ने सराहा। कुछ पाठक कुपित हुए। खिजाया। रवीन्द्रनाथ ठाकुर का काबुलीवाला भुलाने के कारण ऐसा हुआ। वही काबुलीवाला जो भारतीय बच्ची में अपनी बेटी की छवि देखकर गाता था-अय मेरे प्यारे वतन, अय मेरे बिछड़े चमन, तुझपे दिल कुर्बान। निडर बनने के लिए निश्चय और निर्णय चाहिए। तालिबान से नहीं, आम अफगानी से मेरे प्यारे वाला नाता भी।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
यह खुशी की बात है कि अफगानिस्तान से भारतीय नागरिकों की सकुशल वापसी हो रही है। भारत सरकार की नींद देर से खुली लेकिन अब वह काफी मुस्तैदी दिखा रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह कथन प्रशंसनीय है कि अफगानिस्तान के हिंदू और सिख तथा अफगान भाई-बहनों का भारत में स्वागत है। कहकर उन्होंने सीएए कानून को नई ऊंचाईयाँ प्रदान कर दी है। लेकिन भारत सरकार अब भी असमंजस में है। कुछ समझ में नहीं आ रहा है कि वह क्या करे। भारत सरकार की अफगान नीति वे मंत्री और अफसर बना रहे हैं, जिन्हें अफगानिस्तान के बारे में मोटे-मोटे तथ्य भी पता नहीं हैं। हमारे विदेश मंत्री इस समय न्यूयार्क में बैठे हैं और ऐसा लगता है कि हमारी सरकार ने अपनी अफगान-नीति का ठेका अमेरिकी सरकार को दे दिया है। वह तो हाथ पर हाथ धरे बैठी है।
भारत अफगानिस्तान का पड़ौसी है और उसने वहां 3 बिलियन डॉलर खर्च भी किए हैं, इसके बावजूद काबुल की नई सरकार बनवाने में उसकी कोई भूमिका नहीं है। पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई और पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. अब्दुल्ला अब्दुल्ला भारत के मित्र हैं। वे तालिबान से बात करके काबुल में संयुक्त सरकार बनाने की कोशिश कर रहे हैं और पाकिस्तान इस मामले में तगड़ी पहल कर रहा है लेकिन भारत ने अपने संपूर्ण दूतावास को दिल्ली बुला लिया है। मोदी सरकार के पास कोई ऐसा नेता या अफसर या बुद्धिजीवी नहीं है, जो काबुल के कोहराम को शांत करने में कोई भूमिका अदा करे और एक संयुक्त सरकार खड़ी करने में मदद करे। तालिबान से सभी प्रमुख राष्ट्रों ने खुले और सीधे संवाद बना रखे हैं लेकिन भारत अब भी बगलें झांक रहा है। उसकी यह अपंगता काबुल में चीन और पाकिस्तान को जबर्दस्त मजबूती प्रदान करेगी। भारत अपनी 25 साल पुरानी मांद में खर्राटे खींच रहा है। सरकार को पता ही नहीं है कि पिछले 25 साल में तालिबान कितना बदल चुके हैं।
पहली बात तो यह कि उनके बीच नई पीढ़ी के नौजवान आ चुके हैं, जो पश्चिमी जीवन-पद्धति और आधुनिकता से परिचित हैं। दूसरी बात यह कि उनके प्रवक्ता ने आधिकारिक घोषणा की है कि अफगान महिलाओं के साथ वैसी ज्यादतियां नहीं की जाएंगी, जैसे पहले की गई थीं और उनकी सरकार सर्वहितकारी व सर्वसमावेशी होगी। तीसरी बात यह है कि सिख गुरूद्वारे में जाकर तालिबान नेताओं ने हिंदू और सिखों को सुरक्षा का वचन दिया है। चौथी, सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि उन्होंने कई बार दोहराया है कि कश्मीर भारत का आंतरिक मामला है और भारत ने अफगानिस्तान में जो नव-निर्माण किया है, उसके लिए तालिबान उनके आभारी हैं। उनके प्रवक्ता ने यह भी भरोसा दिलाया है कि किसी भी देश को वे यह सुविधा नहीं देंगे कि वह किसी अन्य देश के विरुद्ध अफगान भूमि का इस्तेमाल कर सके। याने न तो भारत पाकिस्तान के और न ही पाकिस्तान भारत के विरुद्ध अफगानों के जरिए आतंक फैला सकेगा। यदि तालिबान सरकार अपने पुराने ढर्रे पर चलने लगे तो भारत को उसका विरोध करने से किसने रोका है?
(नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे के बाद अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन ने राष्ट्र के नाम जो संदेश दिया, उसका मुख्य उद्देश्य दुनिया को यह बताना था कि उन्होंने अफगानिस्तान से निकलना क्यों जरुरी समझा। उन्होंने अमेरिका की इस फौजी निकासी का मूल निर्णय करनेवाले डोनाल्ड ट्रंप को कोई श्रेय नहीं दिया। उन्होंने इस भयंकर तथ्य की भी कोई जिम्मेदारी नहीं ली कि वे अफगानिस्तान को राम भरोसे छोड़कर क्यों भाग खड़े हुए ? जैसे 1975 में अमेरिका दक्षिण वियतनाम को उत्तर वियतनाम के भरोसे छोड़कर भाग आया था, वैसे ही उसने अफगानिस्तान को तालिबान के भरोसे छोड़ दिया। वैसे अमेरिका ने ही मुजाहिदीन और तालिबान को पिछले 40 साल में खड़ा किया था। ज्यों ही काबुल में बबरक कारमल की सरकार बनी, रूसियों को टक्कर देने के लिए अमेरिका ने पाकिस्तान को उकसाया और पाकिस्तान ने अफगान बागियों को शरण दी।
पाकिस्तान के जरिए अमेरिका ने पेशावर, मिरान्शाह और क्वेटा में टिके पहले मुजाहिदीन और फिर तालिबान को हथियार और डॉलर दिए। ये तथ्य मुझे 1983 में इन नेताओं ने पेशावर में खुद बताए थे। आतंक फैलाने का प्रशिक्षण भी दिया। लेकिन इन्हीं तालिबान ने जब अल-कायदा से हाथ मिलाया और उसने अमेरिका पर हमला कर दिया तो अमेरिका ने काबुल से तालिबान को उखाडऩे के लिए अपनी और नाटो की फौजें भेज दीं। अब 20 साल बाद अपने लगभग ढाई हजार सैनिकों की जान गंवाने और खरबों डॉलर बर्बाद करने के बाद उन्हीं तालिबान के साथ उसने वाशिंगटन, पेशावर, काबुल, दोहा आदि में बात शुरु कर दी। इस बात का लक्ष्य सिर्फ एक था। किसी तरह अफगानिस्तान से अपना पिंड छुड़ाना। उसकी बला से कि उसके पीछे कुछ भी होता रहे। अब यही हो रहा है।
तालिबान को पहले भी अमेरिका लाया था और अब भी वही लाया है। अगर बाइडन प्रशासन और तालिबान में पहले से सांठगांठ नहीं होती तो क्या अमेरिकी वापसी इतनी शांतिपूर्ण ढंग से हो सकती थी ? अभी तक किसी भी अमेरिकी पर या अमेरिकी दूतावास पर कोई हमला नहीं हुआ है। कई दूतावास बंद हो गए हैं लेकिन क्या वजह है कि अमेरिकी दूतावास काबुल हवाई अड्डे पर खुल गया है ? कोई तो वजह है, जिसके चलते 5-6 हजार अमेरिकी सैनिक काबुल पहुंच गए हैं और उन पर एक भी गोली तक नहीं चली है? क्या वजह है कि राष्ट्रपति गनी ओमान होते हुए अमेरिका पहुंच रहे हैं ? क्या वजह है कि राष्ट्रपति बाइडन ने अपने संबोधन में तालिबान की जऱा भी भर्त्सना नहीं की है। उल्टे, वे इस बात का श्रेय ले रहे हैं कि उन्होंने अमेरिकी फौजियों की जानें और अमेरिकी डॉलर बचा लिये हैं। बाइडन प्रशासन ने बड़ी चतुराई से गनी सरकार और तालिबान, दोनों को साधकर अपना मतलब सिद्ध किया है। अब दुनिया के देश अमेरिका को कोस रहे हैं तो कोसते रहें ! दुनिया अमेरिका के लिए चाहे कहती रहे कि 'बड़े बेआबरु होकर तेरे कूचे से हम निकले।
(नया इंडिया की अनुमति से)
मेरा नाम सहारा करीमी है और मैं एक फिल्म निर्देशक हूं। साथ ही अफगान फिल्म की वर्तमान महानिदेशक हूं, जो 1968 में स्थापित एकमात्र सरकारी स्वामित्व वाली फिल्म कंपनी है।
मैं इसे टूटे दिल के साथ लिख रही हूं और इस गहरी उम्मीद के साथ कि आप मेरे खूबसूरत लोगों को, खासकर फिल्ममेकर्स को तालिबान से बचाने में शामिल होंगे। तालिबान ने पिछले कुछ हफ्तों में कई प्रांतों पर कब्जा कर लिया है। उन्होंने हमारे लोगों का नरसंहार किया, कई बच्चों का अपहरण किया। कई लड़कियों को चाइल्ड ब्राइड के रूप में अपने आदमियों को बेच दिया। उन्होंने एक महिला की हत्या उसकी पोशाक के लिए की। उन्होंने हमारे पसंदीदा हास्य कलाकारों में से एक को प्रताडि़त किया और मार डाला, उन्होंने एक ऐतिहासिक कवि को मार डाला। उन्होंने सरकार के कल्चर और मीडिया हेड को मार डाला। उन्होंने सरकार से जुड़े लोगों को मार डाला। उन्होंने कुछ आदमियों को सार्वजनिक रूप से फांसी पर लटका दिया। उन्होंने लाखों परिवारों को विस्थापित कर दिया। इन प्रांतों से भागने के बाद, परिवार काबुल में शिविरों में हैं, जहां वे बदहाली की स्थिति में हैं। वहां इन शिविरों में लूटपाट हो रही है। दूध के अभाव में बच्चों की मौत हो रही है। यह एक मानवीय संकट है। फिर भी दुनिया खामोश है।
हमें इस चुप्पी की आदत है, लेकिन हम जानते हैं कि यह उचित नहीं है। हम जानते हैं कि हमारे लोगों को छोडऩे का यह फैसला गलत है। 20 साल में हमने जो हासिल किया है वह अब सब बर्बाद हो रहा है। हमें आपकी आवाज की जरूरत है। मैंने अपने देश में एक फिल्म निर्माता के रूप में जिस चीज के लिए इतनी मेहनत की है, उसके टूटने की संभावना है। यदि तालिबान सत्ता संभालता है, तो वे सभी कलाओं पर प्रतिबंध लगा देंगे। मैं और अन्य फिल्म निर्माता उनकी हिट लिस्ट में अगले हो सकते हैं। वे महिलाओं के अधिकारों का हनन करेंगे और हमारी अभिव्यक्ति को मौन में दबा दिया जाएगा।
जब तालिबान सत्ता में था, तब स्कूल जाने वाली लड़कियों की संख्या शून्य थी। तब से स्कूल में 9 मिलियन से अधिक अफगान लड़कियां हैं। तालिबान द्वारा जीते गए तीसरे सबसे बड़े शहर हेरात में इसके विश्वविद्यालय में 50 फीसदी महिलाएं थीं। ये अविश्वसनीय उपलब्धियां हैं, जिन्हें दुनिया नहीं जानती। इन कुछ हफ्तों में तालिबान ने कई स्कूलों को तबाह कर दिया है और 20 लाख लड़कियों को फिर से स्कूल से निकाल दिया है।
‘मैं इस दुनिया को नहीं समझती। मैं इस चुप्पी को नहीं समझती। मैं खड़ी हो जाऊंगी और अपने देश के लिए लड़ूंगी, लेकिन मैं इसे अकेले नहीं कर सकती। मुझे आप जैसे सहयोगी चाहिए। हमारे साथ क्या हो रहा है, इस पर ध्यान देने में इस दुनिया की मदद करें। अपने देशों के प्रमुख मीडिया को अफगानिस्तान में क्या हो रहा है, यह बताकर हमारी मदद करें। अफगानिस्तान के बाहर हमारी आवाज बनें। यदि तालिबान काबुल पर कब्जा कर लेता है, तो हमारे पास इंटरनेट या संचार के किसी अन्य माध्यम तक पहुंच नहीं हो सकती है।’
कृपया अपने फिल्म निर्माताओं और कलाकारों को हमारी आवाज के रूप में समर्थन दें, इस तथ्य को अपने मीडिया के साथ साझा करें और अपने सोशल मीडिया पर हमारे बारे में लिखें। दुनिया हमारी ओर नहीं देखती है। हमें अफगान महिलाओं, बच्चों, कलाकारों और फिल्म निर्माताओं की ओर से आपके समर्थन और आवाज की जरूरत है। यह सबसे बड़ी मदद है जिसकी हमें अभी जरूरत है। कृपया हमारी मदद करें। इस दुनिया को अफगानों को छोडऩे न दें। कृपया काबुल में तालिबान के सत्ता में आने से पहले हमारी मदद करें। हमारे पास केवल कुछ दिन हैं। बहुत-बहुत धन्यवाद।’
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पिछले दो हफ्तों से मैं बराबर लिख रहा हूं और टीवी चैनलों पर बोल रहा हूं कि काबुल पर तालिबान का कब्जा होने ही वाला है लेकिन मुझे आश्चर्य है कि हमारा प्रधानमंत्री कार्यालय, हमारा विदेश मंत्रालय और हमारा गुप्तचर विभाग आज तक सोता हुआ क्यों पाया गया है ? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले से बहुत लंबा-चौड़ा भाषण दे डाला और 15 अगस्त को जिस समय उनका भाषण चल रहा था, तालिबान काबुल के राजमहल (कांरवे-गुलिस्तां) पर कब्जा कर रहे थे लेकिन ऐसा नहीं लगा कि भारत को जऱा-सी भी उसकी चिंता है। अफगानिस्तान में कोई भी उथल-पुथल होती है तो उसका सबसे ज्यादा असर पाकिस्तान और भारत पर होता है लेकिन ऐसा लग रहा था कि भारत खर्राटे खींच रहा है जबकि पाकिस्तानी अपनी गोटियाँ बड़ी उस्तादी के साथ खेल रहा है।
एक तरफ वह खून-खराबे का विरोध कर रहा है और पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई और अशरफ गनी के समर्थक नेताओं का इस्लामाबाद में स्वागत कर रहा है और दूसरी तरफ वह तालिबान की तन, मन, धन से मदद में जुटा हुआ है बल्कि ताजा खबर यह है कि अब वह काबुल में एक कमाचलाऊ संयुक्त सरकार बनाने में जुटा हुआ है। भारत की बोलती बिल्कुल बंद है। वह तो अपने डेढ़ हजार नागरिकों को भारत भी नहीं ला सका है। वह सुरक्षा परिषद का अध्यक्ष है लेकिन वहाँ भी उसके नेतृत्व में सारे सदस्य जबानी जमा-खर्च करते रहे। मेरा सुझाव था कि अपनी अध्यक्षता के पहले दिन ही भारत को अफगानिस्तान में संयुक्तराष्ट्र की एक शांति-सेना भेजने का प्रस्ताव पास करवाना था। यह काम वह अभी भी करवा सकता है। कितने आश्चर्य की बात है कि जिन मुजाहिदीन और तालिबान ने रूस और अमेरिका के हजारों फौजियों को मार गिराया और उनके अरबों-खरबों रुपयों पर पानी फेर दिया, वे तालिबान से सीधी बात कर रहे हैं लेकिन हमारी सरकार की अपंगता और अकर्मण्यता आश्चर्यजनक है।
मोदी को पता होना चाहिए कि 1999 में हमारे अपहृत जहाज को कंधार से छुड़वाने में तालिबान नेता मुल्ला उमर ने हमारी सीधी मदद की थी। प्रधानमंत्री अटलजी के कहने पर पीर गैलानी से मैं लंदन में मिला, वाशिंगटन स्थित तालिबान राजदूत अब्दुल हकीम मुजाहिद और कंधार में मुल्ला उमर से मैंने सीधा संपर्क किया और हमारा जहाज तालिबान ने छोड़ दिया। तालिबान पाकिस्तान के प्रगाढ़ ऋणी हैं लेकिन वे भारत के दुश्मन नहीं हैं। उन्होंने अफगानिस्तान में भारत के निर्माण-कार्य का आभार माना है और कश्मीर को भारत का आतंरिक मामला बताया है। हामिद करजई और डॉ. अब्दुल्ला हमारे मित्र हैं। यदि वे तालिबान से सीधी बात कर रहे हैं तो हमें किसने रोका हुआ है? अमेरिका ने अपनी शतरंज खूब चतुराई से बिछा रखी है लेकिन हमारी पास दोनों नहीं है। न शतरंज, न चतुराई !
(लेखक, पाक—अफगान मामलों के विशेषज्ञ हैं)
(नया इंडिया की अनुमति से)
-कृष्ण कांत
इमामुद्दीन का गंगा देवी से कोई रिश्ता नहीं था, लेकिन प्रेम रिश्ते का मोहताज नहीं होता।
यह कहानी 33 साल पहले शुरू हुई थी। इमामुद्दीन और आयशा बानो मियां बीवी थे। दोनों मज़दूरी करते थे और एक हिंदू के घर में किराये पर रहते थे।
घर मालिक चंद्रभान की अचानक मौत हो गई। उनकी पत्नी गंगा देवी बेसहारा हो गईं। गंगा को कोई औलाद भी नहीं थी। भाग्य ने उनके साथ और खेल खेला। उन्हें लकवा मार गया।
गंगा की जिंदगी एक चारपाई में सिमट गई तो उनके अपनों ने भी उनका साथ छोड़ दिया।
इमामुद्दीन के बचपन में ही सिर से मां का साया उठ गया था। उन्हें गंगा देवी में अपनी मां दिखाई दी। इमामुद्दीन और उनकी बीवी आयशा दोनों बेघर मज़दूर थे तो क्या हुआ, दिल में खूब जगह थी। दोनों ने गंगा देवी की देखभाल शुरू कर दी।
गंगा के इलाज पर मोटा माल खर्च हुआ जिसके लिए इमामुद्दीन ने अपनी जमा पूंजी सब खर्च कर दी।
दोनों मियां बीवी मजदूरी करते और साथ साथ गंगा की सेवा भी। आयशा और इमामुद्दीन के लिए गंगा अब उनकी मां थी। उन्हें नहलाना, कपड़े बदलना, अपने हाथों से खाना खिलाना, दवा कराना, सारी जिम्मेदारी इन दोनों की थी।
साथ लंबा हुआ तो रिश्ता और गाढ़ा होता गया। आयशा बहू की तरह मां के पैर दबाती तो बेटा इमामुद्दीन उन्हें कुर्सी पर बैठाकर घुमा लाता। ऐसा वे किसी दबाव या लालच में नहीं कर रहे थे।
समय बीतता गया। इमामुद्दीन ने अपना छोटा सा घर बनवा लिया। तब तक गंगा का घर भी खंडहर हो गया था। अब गंगा इमामुद्दीन के साथ नये घर में आ गईं।
इमामुद्दीन से लोगों ने पूछा कि ये सब करने की क्या ज़रूरत है? इमामुद्दीन ने कहा, उसे मेरी नहीं, मुझे उसकी जरूरत है।
गंगा लोगों से कहतीं, भगवान ने मुझे औलाद नहीं दी थी, लेकिन अब मिल गई है। अब यही दोनों मेरे बहू बेटे हैं।
लकवा मारने के बाद गंगा ने 33 साल लंबी ज़िंदगी जी ली। हाल ही में गंगा की मौत हो गई।
जब देश भर में हिंदू मुस्लिम का खेला चल रहा है, तब इमामुद्दीन ने गंगा का हिंदू रीति से अंतिम संस्कार किया है और गंगा की अस्थियां हरिद्वार में विसर्जित करके लौटे हैं। उन्होंने दान पुण्य क्रिया कर्म सब वैसे ही निभाया जैसा होना चाहिए था।
इमामुद्दीन ने बुढ़िया गंगा को मथुरा काशी के वृद्धाश्रम में नहीं डाला। ताउम्र उसकी सेवा की। गंगा की अस्थियां अब गंगा में मिल चुकी हैं और हिंदुओं की देवी गंगा ने इमामुद्दीन के हाथ से अस्थि कलश स्वीकार कर लिया है।
यह कहानी काल्पनिक नहीं है। यह कहानी राजस्थान के नीमकाथाना की है, जिसके पड़ोसी राज्य से शुरू हुआ नफरत और बंटवारे का कारोबार आज पूरे देश को त्रस्त किये हुए है।
मेरे पास ऐसी सैकड़ों कहानियां हैं। हिन्दुस्तान की हर गली में ऐसी लाखों लाख कहानियां हैं। शौक-ए-दीदार अगर है तो नजर पैदा कर...।
-राहुल कुमार सिंह
अंग्रेजी का शब्द है लेगैसी, जिसका अर्थ, पैतृक संपत्ति होता है और बोलचाल में बपौती। इन दिनों संस्कृति विभाग, बपौती के लिए चर्चा में है। इसलिए प्रसंगवश कुछ बातें याद आ रही हैं। संस्कृति विभाग, छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद, महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय में स्थापित-संचालित है और यह लगभग 150 साल पुरानी संस्था, हमारी प्राचीन संस्कृति और परंपराओं के साथ सरकार को जोड़े-जुड़े रहने का केन्द्र है। इसलिए संस्कृति विभाग और यह संग्रहालय, दोनों एक-दूसरे के पर्याय की तरह देखे जा रहे हैं।
यहां इस भवन-संस्था की परंपरा, इतिहास और ‘बपौती' पर कुछ बातें। रायपुर शहर का एक पुराना नक्शा सन 1868 का है, जिसमें वर्तमान महाकोशल कला वीथिका, अष्टकोणीय भवन को म्यूजियम दर्शाया गया है। उस भवन के साथ एक शिलालेख हुआ करता था, जो अब वर्तमान महंत घासीदास संग्रहालय के प्रवेश पर लगा है। इसमें लेख है कि ‘सन् 1875 ईसवी में तामीर पाया बसर्फे महंत घासीदास रईस नांदगांव'। यह छत्तीसगढ़ के गौरव का अभिलेख है।
देश में सन 1784 में कलकत्ता में एशियाटिक सोसायटी आफ बंगाल की स्थापना हुई और इससे जुड़कर सन 1796, देश में संग्रहालय शुरुआत का वर्ष माना जाता है, लेकिन सन 1814 में डॉ. नथैनिएल वैलिश की देखरेख में स्थापित संस्था ही वस्तुतः पहला नियमित संग्रहालय है। संग्रहालय-शहरों की सूची में फिर क्रमानुसार मद्रास, करांची, बंबई, त्रिवेन्द्रम, लखनऊ, नागपुर, लाहौर, बैंगलोर, फैजाबाद, दिल्ली?, मथुरा के बाद सन 1875 में रायपुर का नाम शामिल हुआ। वैसे इस बीच मद्रास संग्रहालय के अधीन छः स्थानीय संग्रहालय भी खुले, लेकिन उनका संचालन नियमित न रह सका। रायपुर, इस सूची का न सिर्फ सबसे कम (सन 1931 में) 45390 आबादी वाला शहर था, बल्कि निजी भागीदारी से बना देश का पहला संग्रहालय भी गिना जाता है।
इस संग्रहालय का एक खास उल्लेख मिलता है 1892-93 के भू-अभिलेख एवं कृषि निर्देशक जे.बी. फुलर के विभागीय वार्षिक प्रशासकीय प्रतिवेदन में। 13 फरवरी 1894 के नागपुर से प्रेषित पत्र के भाग 9, पैरा 33 में उल्लेख है कि नागपुर संग्रहालय में इस वर्ष 101592 पुरुष, 79701 महिला और 44785 बच्चे यानि कुल 226078 दर्शक आए, वहीं रायपुर संग्रहालय में पिछले वर्ष के 137758 दर्शकों के बजाय इस वर्ष 128500 दर्शक आए।
सन 1953 में इस नये भवन का उद्घाटन हुआ और सन 1955 में संग्रहालय इस भवन में स्थानांतरित हुआ। राजनांदगांव राजा के दान से निर्मित संग्रहालय, उनके नाम पर महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय कहलाने लगा। इस संस्था का पूरा क्षेत्र, मूलतः वर्तमान परिसर के अतिरिक्त गुरु तेग बहादुर संग्रहालय व हॉल, साक्षरता बगीचा, भी था। सन 1956 में मध्यप्रांत और बरार का पुनर्गठन हुआ और मध्यप्रदेश बना। इस नये प्रदेश के शासकीय डेढ़ मुख्यालय रायपुर में हुआ करते थे। एक संचालनालय ‘भौमिकी एवं खनिकर्म‘ और संचालनालय ‘पुरातत्व एवं संग्रहालय’ का आधा हिस्सा, संग्रहालय, रायपुर में रहा। रायपुर संग्रहालय में तब बंटवारे के फलस्वरूप, मध्यप्रदेश हिस्से के और विशेषकर छत्तीसगढ़ के ऐसे पुरावशेष, जो नागपुर संगग्रहालय में थे, रायपुर संग्रहालय में आ गए। आज भी संग्रहालय में जबलपुर-कटनी अंचल के कारीतलाई, बिलहरी की कलाकृतियां संग्रहित, प्रदर्शित हैं। पूरे देश में मिलने वाले सिक्कों के दफीने का एक निश्चित हिस्सा बंटवारे में इस संग्रहालय का मिलता था।
संग्रहालय की पुरानी इमारत को आमतौर पर भूत बंगला, अजैब बंगला या अजायबघर नाम से जाना जाता। भूत की स्मृतियों को सहेजने वाले नये भवन के साथ भी इन नामों का भूत लगा रहा। साथ ही पढ़े-लिखों में भी यह एक तरफ महंत घासीदास के बजाय गुरु घासीदास कहा-लिखा जाता है और दूसरी तरफ महंत घासीदास मेमोरियल के एमजीएम को महात्मा गांधी मेमोरियल म्यूजियम अनुमान लगा लिया जाता है। बहरहाल, रायपुर का महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय, ताम्रयुगीन उपकरण, विशिष्ट प्रकार के ठप्पांकित व अन्य प्राचीन सिक्कों, किरारी से मिले प्राचीनतम काष्ठ अभिलेख, ताम्रपत्र और शिलालेखों और सिरपुर से प्राप्त अन्य कांस्य प्रतिमाओं सहित मंजुश्री और विशाल संग्रह के लिए पूरी दुनिया के कला-प्रेमी और पुरातत्व-अध्येताओं में जाना जाता है।
रायपुर संग्रहालय की सिरपुर से प्राप्त मंजुश्री कांस्य प्रतिमा अन्य देशों में आयोजित भारत महोत्सव में प्रदर्शित की जा चुकी है, इसी प्रकार सिरपुर से प्राप्त अन्य कांस्य प्रतिमाओं और स्वर्ण एवं अन्य धातुओं के सिक्कों का अमूल्य संग्रह संग्रहालय में है। ऐसे पुरावशेष जन-सामान्य तो क्या, विशेषज्ञों और राज्य की संस्कृति और विरासत से जुड़े गणमान्य, इससे लगभग अनभिज्ञ हैं, तथा उनके लिए भी सहज उपलब्ध नहीं है। उल्लेखनीय है कि हार्वर्ड विश्वविद्यालय के भारतीय कला के मर्मज्ञ प्रोफेसर प्रमोदचंद्र ने मंजुश्री प्रतिमा को छत्तीसगढ़ की प्राचीन कला का सक्षम प्रतिनिधि उदाहरण माना था। इसके पश्चात 1987 में देश के महान कलाविद और संग्रहालय विज्ञानी राय कृष्णदास के पुत्र आनंद कृष्ण रायपुर पधारे और तत्कालीन प्रभारी श्री वी.पी. नगायच से विनम्रतापूर्वक सिरपुर की कांस्य प्रतिमाओं को देखने का यह कहते हुए आग्रह किया कि उनके बारे में बस पढ़ा है, चित्र देखे हैं। इन प्रतिमाओं को एक-एक कर हाथ में लेते हुए भावुक हो गए, नजर भर कर देखते और माथे से लगाते गए।
इस संस्था को पुरातत्व, संगीत, साहित्य, कला के मर्मज्ञ संस्कारित करते रहे हैं। देश के मूर्धन्य विद्वान शोध-अध्ययन, संगोष्ठी, प्रदर्शन के लिए यहां पधारते रहे हैं, जिनकी उपस्थिति से यह संस्था संस्कारित होती रही है, जो अब क्षीण हो रही है। स्थानीय महानुभावों में सर्व आदरणीय रामनिहाल शर्मा, हरि ठाकुर, विष्णु सिंह ठाकुर, लक्ष्मीशंकर निगम, गुणवंत व्यास, वसंत तिमोथी, सरयूकांत झा, केयूर भूषण, बसंत दीवान, पीडी आशीर्वादम, राजेन्द्र मिश्र, यदा-कदा विनोद कुमार शुक्ल जैसे नाम हैं, जिनका रिश्ता इस संस्था से बना रहता था। वे संस्था की बेहतरी के लिए पहल करते थे और बदले में उनकी पूछ-परख होती थी। राज्य गठन के बाद अपने रायपुर प्रवास पर हबीब तनवीर इस संस्था के लिए समय अवश्य निकालते थे, जिनकी जयंती मनाए जाने के प्रसंग में ‘बपौती‘ की अवांछित स्थिति चर्चा में है।
इस संस्था से जुड़े विशेष कर्तव्यस्थ अधिकारी एम.जी. दीक्षित ने सिरपुर उत्खनन कराया। अधिकारी विद्वान बालचंद्र जैन, सहायक संग्रहाध्यक्ष पद पर रहते हुए सन 1960-61 में ‘उत्कीर्ण लेख‘ पुस्तक तैयार की, जो वस्तुतः संग्रहालय के अभिलेखों का सूचीपत्र है, किंतु इस प्रकाशन से न सिर्फ संग्रहालय, बल्कि प्राचीन इतिहास के माध्यम से पूरे छत्तीसगढ़ की प्रतिष्ठा उजागर हुई। साठादि के दशक में इस परिसर का बगीचा, शहर का सबसे सुंदर बगीचा होता था। राज्य निर्माण के बाद डॉ. के.के. चक्रवर्ती, डॉ. इंदिरा मिश्र और प्रदीप पंत, आरंभिक अधिकारियों ने राज्य में शासकीय विभाग के कामकाज की दृष्टि से संस्कृति-पुरातत्व की मजबूत बुनियाद तैयार कर दी थी। विभाग के कई अल्प वेतन भोगी सदस्य रहे हैं, जलहल सिंह, राजकुमार पांडेय, मूलचंद, बाबूलाल, भगेला, प्रेमलाल, महेश, चंदराम, कमल, लताबाई, फेंकनबाई, तिरबेनी बाई ऐसे कुछ नाम हैं, जिन्होंने इस संस्था की परवाह, अपनी बपौती से भी अधिक मान कर की है, इसे सहेजा है।
रायपुर संग्रहालय के पुरावशेषों का पिछले कई वर्षों से वार्षिक भौतिक सत्यापन, पंजियों-नस्तियों के आधार पर नहीं हुआ है, जो संग्रहालय प्रबंधन की बुनियादी आवश्यकता है। राज्य के 150 वर्ष पुराने इस संग्रहालय से वस्तुएं गुम होने की शिकायत विभाग के अधिकारियों द्वारा हुई है, इसके बावजूद भी इसकी जांच एवं भौतिक सत्यापन नहीं कराया जा सका है। उल्लेखनीय है कि इस संग्रहालय में 15000 से भी अधिक बहुमूल्य पुरावशेष संग्रहित हैं, जिनकी ठीक पहचान और मिलान के लिए वर्तमान में कुछ ही पूर्व अधिकारी और विशेषज्ञ रह गए हैं, जो इसकी भरोसेमंद ढंग से पहचान और पुष्टि कर सकते हैं।
देश के सबसे पुराने संग्रहालयों में से एक रायपुर का यह महंत घासीदास स्मारक संग्रहालय अब तक इंटरनेशनल कौंसिल आफ म्यूजियम्स, इंडिया (आइकॉम) का सदस्य नहीं है। राज्य के पुरातत्व और प्राचीन कला-संस्कृति की अंतरराष्ट््रीय स्तर पर नियमित और प्रभावी उपस्थिति के लिए यह आवश्यक है, जिसके अभाव में अत्यंत महत्वपूर्ण और पुरानी संस्था होने के बावजूद भी यह संग्रहालय अंतरराष्ट््रीय स्तर पर पहचान में पिछड़ जाता है। आइकॉम, इंडिया की सदस्यता, संक्षिप्त कागजी औपचारिक कार्यवाही से ली जा सकती है, इसमें कोई वित्तीय प्रशासकीय अतिरिक्त भार नहीं होगा।
वर्तमान महंत घासीदास संग्रहालय, संचालनालय संस्कृति एवं पुरातत्व तथा संस्कृति भवन (कुछ वर्षों से ‘गढ़ कलेवा‘ वाला!) के रूप में जाना जाता है। ध्यान रहे की मूर्तियां मौन होती हैं, शिकायत नहीं करतीं, इसलिए उनकी देखरेख के लिए अधिक संवेदनशीलता, समझ और खुली-सजग निगाहों की जरूरत होती है। अपनी जिम्मेदारियों के सम्यक निर्वाह के लिए यह पता रहना और याद करते रहनाआवश्यक होता है कि हम किस विरासत-लेगैसी के धारक-संवाहक हैं, इसकी गुरुता ही कर्तव्य-निर्वाह का उपयुक्त मार्ग प्रशस्त करती है। यह संग्रहालय-संस्कृति भवन, राज्य के साथ हम सबकी ऐसी बपौती है, जिसे यथासंभव बेहतर बना कर और नहीं तो कम से कम यथावत, अगली पीढ़ी को सौंपने की परवाह बेहद जरूरी है।
(लेखक पुरातत्व एवं संस्कृति अध्येता हैं)