विचार / लेख
जीवन के सरस दस बरस मैंने ‘जनसत्ता’ के चंडीगढ़ संस्करण का संपादन करते हुए बिताए। वास्तुकला में वह शहर दुनिया भर में जाना जाता है, जिसे मूल रूप से स्वीडी, मगर फ्रांस में रहने वाले शार्ल-एदुआ जेनेरे उर्फ ल कार्बूजिए ने आकार दिया था। यानी शहर की योजना और वास्तुशिल्प को उन्होंने अंजाम दिया। उन्हें पं. नेहरू ने पंजाब-हरियाणा की नई राजधानी बनाने का जिम्मा सौंपा था।
कार्बूजिए को पिछली सदी के महान वास्तुकारों में गिना जाता है। उन्होंने वास्तुकला को ‘शुचिता’ का सिद्धांत दिया। आज कई वास्तुकार उनके नक्शे-कदम पर चलते हैं। कुछ वास्तुकार कार्बूजिए सरीखा मोटे घेरे का बड़ा चश्मा लगाते हैं। चाल्र्स कोरिया भी लगाते थे।
इस्ताम्बुल की एक छोटी दुकान में बड़ी किताबों के बीच दुबकी दुर्लभ किताब मुझे मिली — तुर्की वास्तुकला और शहरीकरण, एल-सी की दृष्टि में। कार्बूजिए को अपनापे से लोग ‘एल-सी’ बोलते थे। किताब के लेखक रहे प्रो. (डॉ.) अनीस कोरतन। छोटी-छोटी टिप्पणियाँ। अंगरेजी, तुर्की और फ्रांसीसी में एक साथ।
इस्ताम्बुल से एथेंस के सफर में मैंने किताब को मनोयोग से पढ़ा। चंडीगढ़ में कार्बूजिए के बारे में बहुत सुना-पढ़ा था, मगर यह जिक्र कभी नहीं सुना कि कार्बूजिए ने वास्तुकला का पाठ इस्ताम्बुल में पाया था।
मारियो सल्वादोरी की एक सुंदर उक्ति है: ‘वास्तुकला को पढ़ाया नहीं जा सकता। मगर उसका अध्ययन किया जा सकता है।’ शायद यही वजह हो वास्तुकला के श्रेष्ठ अच्छे शिक्षण संस्थान नहीं हैं; मगर श्रेष्ठ वास्तुकार दुनिया में बहुत हैं।
कार्बूजिए ने कभी वास्तुकला की औपचारिक पढ़ाई नहीं की। मगर स्वैच्छिक अध्ययन खूब किया। बचपन में वे चित्र अच्छे बनाते थे। लडक़पन में वास्तुकला में दिलचस्पी पैदा हुई। रोम, विएना और लियों जाकर मशहूर वास्तुकारों के काम का अध्ययन किया। फिर पेरिस के ऑगस्त पेरे के साथ काम शुरू किया। पैरिस में रहते हुए कला में ‘घनवाद’ का भी गहन अध्ययन कर डाला।
1911 में चौबीस वर्ष की उम्र में कंधे पर झोला लटका कर अपने एक दोस्त के साथ कार्बूजिए जर्मनी, सर्बिया, रोमानिया और बुल्गारिया होते हुए तुर्की पहुंचे। सात महीने के उस शिक्षा-सफर को कार्बूजिए ने ‘पूरब की फलदायी मुसाफिरी’ की संज्ञा दी है।
उन्होंने तुर्की वास्तुशिल्प को देख सौ के ऊपर रेखाचित्र बनाए। और कुछ जलरंग-चित्र भी। 1948 में, जब वे एक वास्तुकार के रूप में प्रसिद्ध हो चुके थे, कुछ रोज के लिए फिर तुर्की गए तो उन्हें लगा कि अच्छा हो वे अपने सैंतीस साल पुराने उस सफर की डायरी के पन्ने भी पलटें। उन्होंने पलटे।
उस पहली यात्रा की डायरी में एक जगह उन्होंने लिखा था: ‘चाहे वास्तुकला हो, चित्रकला हो या मूर्तिकला—सफर में आप अपनी आंख से देखते हैं और हाथ से रेखाचित्र बनाते हुए अपने अनुभव आंकते हैं, दर्ज करते हैं। ...कैमरा तो निठल्लों के लिए है, जो चाहते हैं कि मशीन उनके लिए देखने का काम करे। जब आप अपने हाथ से कुछ उतारते हैं, उकेरते हैं, आकारों को सहेजते हैं, सतह को सुव्यवस्थित करते हैं — इस सबका अर्थ होता है कि आप पहले देखते हैं, फिर निरखते हैं और फिर शायद कुछ उद्घाटित कर पाते हैं। इसी में कुछ सार्थकता है। आविष्कार करना, रचना, अपने पूरे अस्तित्व को सक्रिय करना... इसी सक्रियता का महत्त्व है।’
लगता है रोदाँ के इस सच को कार्बूजिए ने बड़ी जवानी में आत्मसात कर लिया था कि आम आदमी नजर डालता है। जबकि कलाकार देखता है। इसी विचार का कार्बूजिए ने बाद में अपनी किताब ‘नए वास्तुशिल्प की ओर’ (1923) के एक अध्याय में विवेचन किया, जिसका शीर्षक है : ‘जिसे आंखें नहीं देखतीं।’
जाहिर है, तुर्की की यात्रा ने कार्बूजिए के भीतर छिपे कलाकार और चिंतक को बाहर आने में बहुत मदद की।
इस्ताम्बुल पहुंचते ही कार्बुजिए को लगा था कि जिस चीज की तलाश थी वह मिल गई। उन्होंने लिखा, ‘इस्ताम्बुल एक बगिया है, हमारे शहरों की तरह पत्थर की खदान नहीं।’
तुर्की की मसजिदों के बारे में कार्बूजिए ने कहा: ‘अतीत, वर्तमान, उसके पार निर्विकार — गोया आकारों की रंगावली का एक करुण गान’।
उनका कहना था वे मसजिदें काव्य से ओतप्रोत हैं। सरल, सहज और पवित्र।
तुर्की की मसजिदों के अपने हर रेखांकन के नीचे कार्बूजिए ने सुंदर इबारत लिखी है। मसलन, इस्तांबुल में सुल्तान सलीम की मसजिद के रेखांकन पर लिखा : ‘कोमल आकारों का मधुर राग’।
दशकों बाद उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘शहरीकरण’ में ‘दुख या आनंद’ शीर्षक से लिखा कि ‘अगर हम न्यूयार्क से इस्ताम्बुल की तुलना करें तो पाएंगे कि पहला तबाही का रूप है, दूसरा जैसे धरती पर आनंदधाम है। न्यूयार्क सुंदर नहीं है; व्यावहारिक गतिविधियों में भले वह कुछ काम का प्रतीत होता हो, मगर वह हमारे आनंद के संवेदन को आहत करता है।’
इस्ताम्बुल की हरियाली ने कार्बूजिए को भीतर तक छुआ।
कार्बूजिए के वास्तुकला सिद्धांत में तीन तत्तव हैं, जो हर पारंपरिक वास्तुशिल्प में मिलेंगे: सूर्य, आकाश और हरियाली।
-ओम थानवी