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आदिवासी भारत में ब्रिटिश वन कानूनों का उद्भव और विकास
20-Jul-2020 8:29 PM
आदिवासी भारत में ब्रिटिश वन कानूनों का उद्भव और विकास

डॉ. गोल्डी एम.जार्ज

वनों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया गया था-आरक्षित वन, संरक्षित वन और ग्रामीण वन। आमजनों का आरक्षित वनों में प्रवेश गैर-क़ानूनी घोषित कर दिया गया और झूम खेती पर और कड़े प्रतिबंध लगा दिए गए।  

भारत में आदिवासीयों का सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक जीवन वनों से गहराई से जुड़ी हैं। लेकिन आज वन क्षेत्रों में पहला हक़-अधिकार किसका है, इस सवाल पर देशव्यापी बहस छिड़ी हुई है। देश के भौगोलिक क्षेत्र का करीब 23 प्रतिशत भू-भाग वनभूमि है। आंकड़ों के अनुसार भारत का कुल वन क्षेत्र 7 करोड़ 70 लाख 10 हजार हेक्टेयर है। पूरे विश्व के कुल वन क्षेत्र का दो प्रतिशत आज भारत में है। वनों की भारत के आदिवासियों के सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक जीवन में महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। यह एक जाना-माना तथ्य है कि अधिकांश आदिवासी भारत के वन क्षेत्रों में सदियों से आपस में मिल-जुल पर्यावरण की सुरक्षा और परिस्थितिकी संतुलन के साथ रहते आए हैं। वनों के साथ उनका सम्बन्ध सहजीवी का है।

मानव सभ्यता सदियों से जंगलों पर निर्भर रही है। बीसवीं सदी के प्रारंभ में सिन्धु घाटी में हुई खुदाई में मिली सीलों और रंगे हुए मिट्टी के पात्रों में पीपल और बबूल के पेड़ों के प्रतीकात्मक चित्रण से यह संकेत मिलता है कि मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की सभ्यता (5000-4000 ई.पू.) में भी इमारतों के लिए लकडिय़ां आदि तमाम वनोपजों का प्रयोग होता था। गुप्तकाल (200-600 ई.) का वनों से संबंधित विवरण, मौर्य काल से मेल खाता है। वहीं मुग़लकाल (1526-1707) में इमारती लकड़ी और खेती के लिए बड़े पैमाने पर जंगलों का सफाया किया गया। ब्रिटिश शासन आने के बाद, सरकार और आदिवासियों में सीधा टकराव शुरू हुआ और वन इसका एक प्रमुख कारण था।

अठारहवीं सदी के मध्य तक अंग्रेजों को यह समझ में आ गया था कि भारत के वनों में अकूत संपदा छिपी हुई है और इसलिए उन्होंने वनों पर अपना नियंत्रण स्थापित करने की कवायद शुरू कर दी। वे या तो सीधे अथवा ज़मींदारों और साहूकारों के जरिए जंगलों को अपने नियंत्रण में लेना चाहते थे। इसका एक कारण यह था कि उन्हें न केवल भारत वरन् इंग्लैंड में भी मकान बनाने और अन्य कामों के लिए इमारती लकड़ी की ज़रुरत थी। उन्होंने ज़मींदारी प्रथा को मज़बूत किया और उसके ढांचे में इस तरह के परिवर्तन किये ताकि वे प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर वन क्षेत्रों पर कब्जा जमा सकें। जाहिर तौर पर इसका खामियाजा स्थानीय रहवासियों को भुगतना पड़ा। अंग्रेजों ने ऐसे इलाकों में घुसपैठ करनी शुरू कर दी जो आदिवासियों के वास स्थल थे और इस कारण उनके बीच सीधा टकराव शुरू हुआ।  

भारत में आदिवासी विद्रोहों के पहले 100 सालों (1760 के दशक से लेकर 1860 के दशक तक) में वन कानून नहीं थे और इस दौरान जंगलों से इमारती लकड़ी और अन्य संसाधनों का अनियंत्रित दोहन हुआ। भारत में रेल सेवा शुरू करने का निर्णय 1832 में लिया गया और इसके लिए मद्रास को चुना गया। रेलों की आवाजाही के लिए जो पटरियां बिछाई जानी थीं उनके स्लीपर इमारती लकड़ी से बनने थे। इसके अलावा, इंजनों और डिब्बों के निर्माण में भी लकड़ी का इस्तेमाल होना था। सन् 1837 में भारत की पहली रेल सेवा- जिसे रेड हिल रेलवे का नाम दिया गया-शुरू हुई। यह एक मालगाड़ी थी, जिसे भाप का रोटरी इंजन खींचता था। यह गाड़ी मद्रास में रेड हिल्स और चिंताद्रिपेट ब्रिज के बीच चलती थी।

सन् 1846 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने कलकत्ता से दिल्ली तक रेल लाइन बिछाने का निर्णय लिया, परन्तु यह योजना अमल में नहीं लाई जा सकी। देश की पहली यात्री रेलगाड़ी 1853 में बम्बई और ठाणे के बीच चली और बाद में, कलकत्ता और मद्रास में भी रेलगाडिय़ां चलने लगीं। रेलवे के निर्माण के इस दौर में, इमारती लकड़ी की मांग बहुत बढ़ गई। यही नहीं, भारत की इमारती लकड़ी पानी के जहाजों के निर्माण के लिए भी मुफीद थी। भारतीय इमारती लकड़ी से बने मज़बूत जहाजों की मदद से ही इंग्लैंड, नेपोलियन के साथ अपने युद्ध (1803-15) में विजय प्राप्त कर सका। 

शुरुआत में अंग्रेज़ इमारती लकड़ी की अपनी ज़रुरत बर्मा के जंगलों से पूरी करते थे। सन् 1826 में वे तेनास्सेरिम पर कब्ज़े के बाद से मौल्में में इमारती लकड़ी का व्यापार करने लगे। बाद में, इमारती लकड़ी के लालच में ही उन्होंने पेगू प्रांत पर कब्जा किया। परन्तु समय के साथ, उन्होंने भारत के जंगलों का दोहन शुरू कर दिया।

सन् 1850 के दशक की शुरुआत में अंग्रेजों ने तेजी से भारत के उन वन क्षेत्रों में घुसपैठ करनी शुरू कर दी, जहां आदिवासी रहते थे। रेलवे के विस्तार के लिए इमारती लकड़ी की जरूरत बढ़ती जा रही थी। सन् 1855 के संथाल विद्रोह के मद्देनजर, 1856 में गवर्नर जनरल लार्ड डलहौज़ी ने एक स्थाई वन नीति बनाने पर जोर दिया ताकि इमारती लकड़ी के लिए वनों का दोहन करने में आ रही दिक्कतें दूर हो सकें। सन् 1857 के गदर से उपजी अस्थिरता पर काबू पाने के बाद, 1860 में अंग्रेजों के आदिवासियों द्वारा झूम खेती किए जाने को प्रतिबंधित कर दिया और 1864 में इम्पीरियल फॉरेस्ट डिपार्टमेंट की स्थापना की।

सन् 1855 में भारत के पहले वन कानून-इंडियन फॉरेस्ट एक्ट, 1855-के जरिए अंग्रेजों ने देश के संपूर्ण वन क्षेत्र पर अपने अधिपत्य की घोषणा कर दी। सन् 1876 में इस अधिनियम में संशोधन किया गया और नये संशोधनों के साथ फॉरेस्ट एक्ट, 1878 लागू किया गया। इसके अंतर्गत, वनों के सामुदायिक उपयोग की सदियों पुरानी परिपाटी पर कई तरह की रोकें लगा दी गईं और सरकार को यह अधिकार दे दिया गया कि वह सार्वजनिक उपयोग के लिए वनों का अधिग्रहण कर सकती है। इस अधिनियम के ज़रिए एक ओर वनों पर राज्य का लगभग एकाधिकार स्थापित हो गया तो दूसरी ओर यह संदेश दिया गया कि ग्रामीणों द्वारा वनों  का उपयोग किया जाना उनका ‘अधिकार’ नहीं, बल्कि एक ‘रियायत’ है जिसे ब्रिटिश सरकार कभी भी वापस ले सकती है। 

वहीं सन् 1894 में अपनी वन नीति के आधार पर अंग्रेजों ने वनों को चार श्रेणियों में विभाजित किया-अ) वे वन, जिनका आवश्यक रूप से संरक्षण किया जाना है। ब) वे वन, जिनका इमारती लकड़ी के लिए व्यावसायिक दोहन किया जा सकता है। स) लघु वन और ड) चारागाह। सन् 1878 के अधिनियम के प्रावधानों को रद्द करते हुए, इस नीति के अंतर्गत कुछ सुरक्षा उपायों के साथ वन भूमि पर खेती की इजाजत दी जा सकती थी। इस नीति का यह प्रावधान कि आरक्षित वनों के बाहरी क्षेत्र का ग्रामीण अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए प्रयोग कर सकते हैं, आदिवासियों और अन्य मूल निवासियों के लिए राहत का एकमात्र राहत था। परन्तु, कुल मिलाकर, इस नीति का सार यही था कि राज्य के हितों को जनता के हितों पर प्राथमिकता मिलेगी।

सन् 1927 का इंडियन फॉरेस्ट एक्ट, सन 1878 में वनों के दोहन के लिए बनाई गई नीति के अनुरूप था। इसका लक्ष्य अंग्रेजों की इमारती लकड़ी की ज़रुरत को पूरा करना था और इसमें वनों के संरक्षण के लिए कोई प्रावधान नहीं थे। इसके अंतर्गत, वनों को राज्य की संपत्ति घोषित कर, इमारती लकड़ी के दोहन का रास्ता साफ़ कर दिया गया और पारंपरिक वनाधिकारों और वन प्रबंधन प्रणालियों को दरकिनार कर दिया गया। इस अधिनियम में वनों की कोई सुस्पष्ट परिभाषा नहीं दी गई थी। वनों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया गया था-आरक्षित वन, संरक्षित वन और ग्रामीण वन। आमजनों का आरक्षित वनों में प्रवेश गैर-क़ानूनी घोषित कर दिया गया और झूम खेती पर और कड़े प्रतिबंध लगा दिए गए। हां, इसमें वनों को अनारक्षित करने का प्रावधान जरूर था। तब से अब तक वनों से जुड़े सारे कानून और नीतियां इसी अधिनियम पर आधारित हैं।

(लेखक एक सामाजिक कार्यकर्ता है, तथा वर्तमान में फॉरवर्ड प्रेस नई दिल्ली में सलाहकार संपादक है।)

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