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हीरा ज़रूरी या जंगल: 55,000 करोड़ वाली हीरे की ख़दानों की पड़ताल
22-Oct-2021 8:02 PM
हीरा ज़रूरी या जंगल: 55,000 करोड़ वाली हीरे की ख़दानों की पड़ताल

-नितिन श्रीवास्तव

एक डरावना सा जंगल कैसा होता है, सिर्फ़ किताबों में पढ़ा था और डिस्कवरी चैनल पर ही देखा था.

कहानियाँ भी सुनी थीं, उनकी- जिनकी ज़िंदगी में इस जंगल के सिवा कुछ नहीं होता.

एक दोपहर सन्नाटे को चीरते हुए उस घने जंगल में सागौन के दरख़्तों से निकलकर थोड़ी रोशनी में पहुँचे तो फटे-पुराने कपड़े पहने हुए एक व्यक्ति को कुछ पत्तियाँ और टहनियाँ बीनते हुए पाया.

पता चला वो भगवान दास हैं जिनके पास जंगल और इर्द-गिर्द बसे गाँवों के लोग इलाज के लिए आते हैं क्योंकि वो जड़ी-बूटियाँ इकट्ठी कर बीमार लोगों को देते हैं.

मैंने पूछा, ''अगर इस जंगल में खनन होने लगेगा तो उसके बाद क्या होगा?''

कुछ सेकेंड ठहरकर भगवान दास ने कहा, "उसके बाद जनता मरेगी, यही होगा जी. क्योंकि औषधि वाली पत्तियाँ और पेड़ तो इसी जंगल में मिलते हैं. अब जनता सोचे कि हमको क्या करना है. पंडा ऐसी बूटी ले आता है जो जान बचाती है, वो कहाँ से आएगी? जनता लड़ाई लड़े तो लड़े, हमारे अकेले से क्या होगा?"

जंगल में खनन?
जिस जंगल की बात हो रही है, उसे बक्सवाहा का जंगल कहा जाता है जो मध्य प्रदेश के छतरपुर ज़िले के बीचोंबीच मौजूद है.

इस कहानी की शुरुआत 2002 में हुई. ऑस्ट्रेलिया की नामचीन रियो-टिंटो कंपनी को बक्सवाहा जंगल के नीचे हीरे ढूँढने का काम मिला. इस सिलसिले में कंपनी ने यहाँ अपना प्लांट लगाया.

सालों की खोज के बाद पता चला कि ज़मीन के नीचे 55 हज़ार करोड़ रुपये तक के हीरे दबे हो सकते हैं.

शुरुआत में 950 हेक्टेयर जंगल को माइनिंग के लिए छाँटा गया था जिसके तहत तमाम गाँव आते थे. मगर स्थानीय विरोध और पर्यावरण मामलों के चलते 2016 में रियो टिंटो ने प्रोजेक्ट छोड़ दिया.

उस समय भी इस पर कई सवाल उठे थे कि आख़िर सैकड़ों करोड़ लगाने के बाद कंपनी ने एकाएक इस प्रोजेक्ट से 'पल्ला क्यों झाड़ लिया.'

जानकारों का यही मत है कि एक विदेशी कंपनी ने लिए "स्थानीय अड़चनें ज़्यादा होती जा रहीं थीं.''

बहरहाल, एक नए ऑक्शन के बाद 2019 में हीरों की खदान का नया लाइसेंस मिला- आदित्य बिड़ला ग्रुप की एसेल माइनिंग कंपनी को. इस बार 382 करोड़ हेक्टेयर में डायमंड माइनिंग होनी थी.

दिलचस्प यह भी है कि इलाक़े में रियो टिंटो के समय में कुछ स्थानीय लोगों को रोज़गार भी मिला था और वो आज भी इन्हीं जंगलों के बीच बसे गाँवों में रहते हैं.

आमदनी पर ख़तरा
गणेश यादव ने कई साल उस विदेशी माइनिंग कंपनी के लिए काम किया लेकिन आज भी उनके दिल में एक मलाल है.

उन्होंने बताया, "चाहिए था कि 2004-2005 से ही हमारे बच्चों को सरकार और कंपनियाँ तैयारी करवातीं कि उस काम को करने के लायक बन सकें लेकिन उस पर तो काम किया नहीं. तब से अब तक जो बच्चे 18 साल के हो चुके होत, उनकी कोई डिग्री होती या टेक्निकल काम सीख कर इस क्षेत्र के बच्चे उसके अंदर काम कर सकते थे. अब अगर यहाँ नया प्लांट लग भी जाएगा तो हमारे बच्चे उसमें नौकरी करने के लिए सक्षम ही नहीं हैं".

बीड़ी के पत्ते हों या महुवा और आँवले के फल, इन्हें बीन और बेचकर जंगल और इर्द-गिर्द, क़रीब 10,000 लोग पेट भरते हैं. गाँव वालों से पता चला कि महुवा-आँवला मिलाकर बाज़ार में बेचने पर एक साधारण परिवार भी सालाना 60,000-70,000 रुपये कमा लेता है.

जंगल किनारे एक गाँव शहपुरा पहुँचे तो मिट्टी से पुते अपने घरों से मोहब्बत और गहरी मिली लेकिन ज़्यादातर चेहरों की रौनक़ फीकी है क्योंकि आमदनी का सिलसिला बंद भी हो सकता है.

'हमें सिर्फ़ धूल मिलेगी, हीरे नहीं'
तीन बच्चों की माँ पार्वती अपनी खपड़ैल वाली कुटिया की साफ़-सफ़ाई में तो लगीं थी, लेकिन उनके मन के भीतर जैसे एक समुद्र-मंथन जारी था.

नम आँखों के साथ उन्होंने कहा, "हम सभी जाते हैं जंगल में बीनने के लिए तभी ख़र्च चलता है. कट जाएगा तो फिर हम लोग क्या करेंगे? हमारे पास कोई खेती-बाड़ी तो है नहीं कि उसमें धंधा चलाकर बच्चे पाल सकें. हम तो जंगल के भरोसे पर हैं.

बक्सवाहा में कुछ ऐसे भी लोग मिले जिन्हें हीरों में न पहले दिलचस्पी थी, न आज है.

हमारी मुलाक़ात कीर्ति ठाकुर से हुई जो अपने जंगल की सीमा पर बने एक मंदिर पर दान-पुण्य के लिए पहुँची थीं.

उन्होंने कहा, "जंगल खुदेगा तो जो धूल उड़ेगी, वो ही मिलेगी हमें. हीरे थोड़ी मिलने वाले हैं हमें. जितने इस इलाक़े के लोग हैं, उन्हें वहाँ नौकरी थोड़ी मिलने वाली है. हमें तो सिर्फ़ उसकी धूल मिलेगी"

डायमंड माइनिंग
इस बीच 'बंदर माइनिंग प्रोजेक्ट' या बक्सवाहा डायमंड माइंस के प्रस्तावित खनन पर मध्य प्रदेश सरकार की राय और सोच बिल्कुल अलग है.

हमारी बातचीत राज्य के खनिज मंत्री बृजेंद्र प्रताप सिंह से हुई.

उन्होंने कहा, "सभी गाँव वालों के बीच हम गए थे, एक भी आदमी ने विरोध नहीं किया है. सब लोग जानते हैं कि इससे रोज़गार मिलेगा".

बीबीसी के इस सवाल पर कि काफ़ी लोगों ने खुल कर कैमरे पर कहा है कि वो लोग डरे हुए हैं की जंगल काट जाएगा, खनिज मंत्री ने जवाब दिया, "ऐसी बात हमारे सामने तो नहीं आई, अब आपके सामने कहा है तो मुझे नहीं मालूम.''

उन्होंने कहा, ''माननीय मुख्यमंत्री जी ने भी अपनी तरफ़ से टीम भेजी थी, हम लोग भी गए थे और व्यक्तिगत और खुले रूप से भी पूछा गया था. बाहर के लोग ज़रूर कह रहे हैं लेकिन स्थानीय विरोध नहीं कर रहे हैं".

मध्य प्रदेश सरकार के खनिज मंत्री बृजेंद्र प्रताप सिंह का एक और दावा है.

उन्होंने कहा, ''आपने देखा होगा, आपने लोकल में विज़िट किया है, ज़मीन जंगल की ज़रूर है लेकिन जंगल उतना घना नहीं हैं, घनत्व नहीं है. और फिर हम लोग 10 लाख नए पेड़ भी लगा रहे हैं.''

मगर हक़ीक़त उनके इस बयान से बिलकुल विपरीत है.

बीबीसी की टीम कई घंटों तक ट्रैक करके जंगल के बीचोंबीच उस जगह पर पहुँची जहाँ से डायमंड माइनिंग की शुरुआत होनी है.

जिस जंगल को सरकार कम घना बता रही है वो दरअसल इतना घना है कि तीन-चार किलोमीटर भीतर दाख़िल होने के लिए आपको घंटों चलना पड़ता है, वो भी जंगली जानवरों के बीच.

भालू के खोदे हुए गड्ढों के अलावा नीलगाय, जंगली बैल और सैंकड़ों क़िस्म की चिड़िया तो हमने ख़ुद देखी.

अनुमान है कि प्रस्तावित डायमंड माइन को प्रतिदिन 16,050 क्यूबिक मीटर पानी की ज़रूरत होगी और ध्यान देने वाली बात है कि यह प्रोजेक्ट जिस दिन से शुरू होगा उसके बाद पूरे 14 वर्ष तक चलेगा.

राज्य सरकार जंगल काटने के बदले 10 लाख पेड़ लगाने की बात तो कह रही है लेकिन उन्हें भी तो पानी चाहिए.

सबसे बड़ा मसला यही है कि पूरे बुंदेलखंड इलाक़े में पानी का ज़बरदस्त अभाव है और लोगों को डर है कि अख़िरकार माइनिंग में ग्राउंडवॉटर हाई इस्तेमाल किया जा सकता है जिसके परिणाम 'भयावह' होंगे.

बक्सवाहा जंगलों में पर्यावरण संरक्षण के लिए एक लंबे अरसे से काम करने वाले कार्यकर्ता अमित भटनागर से हमारी मुलाक़ात बक्सवाहा के पास बिजावर में हुई.

उन्होंने कहा, "इस एरिया को अगर पानी के लिहाज़ से देखें तो इसे सेमी-क्रिटिकल एरिया घोषित किया गया है. इस प्रोजेक्ट में 60 लाख लीटर पानी लगना है जिसके लिए गेल नदी को बाँध बना कर डायवर्ट किया जा रहा है. इससे गेल नदी ख़त्म हो जाएगी.''

भटनागर ने कहा, ''आप ये देखिए इसमें दो लाख 15 हज़ार 875 पेड़ काटने हैं, जिससे यहाँ के कई झरने ख़त्म हो जाएँगे और पानी को लेकर ज़बरदस्त क़िल्लत झेलनी पड़ेगी.''

'इंसानों की क़ब्र पर औद्योगिक विकास नहीं'
हज़ारों जानवरों के साथ-साथ इस जंगल में कई आदिवासी जनजातियाँ भी सैंकड़ों वर्षों से रहती रही हैं और अब वो विस्थापन के डर से सशंकित हैं.

पेड़ काटने से लेकर पानी, आदिवासी लोगों से लेकर जानवरों तक के विस्थापन से जुड़े अहम सवाल लिए हमने एसेल माइनिंग एंड इंडस्ट्रीज़ लिमिटेड का दरवाज़ा खटखटाया. लेकिन उन्होंने मामले पर बात करने से इनकार कर दिया.

एसेल माइनिंग को मिले कांट्रैक्ट के ख़िलाफ़ फ़िलहाल कई मामले अदालतों और नैशनल ग्रीन ट्राइब्यूनल में सुने जा रहे हैं. माइनिंग होनी है या नहीं ये अदालत के फ़ैसले पर निर्भर है.

कई याचिकाकर्ताओं में से एक नेहा सिंह से हमारी मुलाक़ात दिल्ली में हुई जो कुछ महीनों पहले ही कोविड-19 से ग्रसित होकर ठीक हुई हैं.

बक्सवाहा में खनन के ख़िलाफ़ एनजीटी में दायर अपनी याचिका की बात से पहले ही उन्होंने कहा, "कोविड होने के बाद मुझे साफ़ हवा और ऑक्सिजन की अहमियत का और ज़्यादा एहसास हो चुका है. वैसे एनजीटी पहले ही एक ऐतिहासिक फ़ैसला दे चुकी है कि इंसानों की क़ब्र पर नहीं हो सकता औद्योगिक विकास".

भविष्य का पता नहीं
इन जंगलो में कुछ ऐसा भी हैं जो ख़त्म हो गया तो हमेशा के लिए होगा. ज़ाहिर है, अगर बड़े पैमाने पर माइनिंग हुई तो इनके भविष्य का पता नहीं.

भारत के पुरातत्व विभाग के मुताबिक़ बक्सवाहा का जंगलों से सटी गुफ़ाओं पर मिली चित्रकारी 25,000 साल पुरानी हो सकती है.

अच्छा या बुरा, पूर्व ऐतिहासिक काल के लोगों का हर पहलू यहाँ पेंटिंग की शक़्ल में मौजूद है.

हर तस्वीर जैसे आपसे कह रही हो, यहाँ हज़ारों साल पहले भी इंसान थे और आज भी हैं. कब तक रहेंगे, पता नहीं. (bbc.com)

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