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CHIRANTANA BHATT
राघवेंद्र राव और तेजस वैद्य
जिस दिन भारत अपनी आज़ादी की 76वीं सालगिरह मना रहा था उसी दिन गुजरात में एक सामूहिक बलात्कार और सात लोगों की हत्या के मामले में उम्रकैद की सज़ा पाने वाले 11 दोषियों की सज़ा माफ़ करके उन्हें जेल से रिहा कर दिया गया.
ये 11 लोग साल 2002 के गुजरात दंगों के दौरान बिलकिस बानो के सामूहिक बलात्कार और उनके परिवार के सात सदस्यों की हत्या के मामले में उम्रकैद की सज़ा काट रहे थे और गोधरा जेल में बंद थे.
इनकी सजा माफ़ करने का फ़ैसला गुजरात सरकार ने एक ऐसे समय पर लिया है जब केंद्र सरकार ने सज़ा भुगत रहे कैदियों की सज़ा माफ़ी के बारे में सभी राज्यों को जून के महीने में लिखी एक चिट्ठी में ये कहा था कि उम्रकै़द की सज़ा भुगत रहे और बलात्कार के दोषी पाए गए क़ैदियों की सज़ा माफ़ नहीं की जानी चाहिए.
केंद्रीय गृह मंत्रालय ने 10 जून को सभी राज्यों को पत्र लिखकर बताया था कि भारत की आज़ादी की 76वीं सालगिरह पर मनाये जा रहे आज़ादी के अमृत महोत्सव के दौरान कुछ श्रेणियों के बंदियों की सज़ा माफ़ कर उन्हें तीन चरणों में रिहा करने का प्रस्ताव है: पहला चरण 15 अगस्त 2022 होगा, दूसरा चरण 26 जनवरी 2023 और तीसरा चरण 15 अगस्त 2023 होगा.
साथ ही ये भी बताया था कि किन श्रेणियों के क़ैदियों की सज़ा माफ़ नहीं की जा सकती है. इसमें बलात्कार के दोषी और उम्रकै़द की सज़ा भुगत रहे क़ैदी शामिल थे.
गुजरात की 2014 की सज़ा माफ़ी की नीति
गुजरात के गृह विभाग ने 23 जनवरी 2014 को कै़दियों की सज़ा माफ़ी और समय से पहले रिहाई के लिए दिशानिर्देश और नीति जारी की थी जिसमें भी ये साफ़ तौर पर कहा गया था कि दो या दो से अधिक व्यक्तियों की सामूहिक हत्या के लिए और बलात्कार या सामूहिक बलात्कार के दोषी सज़ायाफ़्ता कैदियों की सज़ा माफ़ नहीं की जाएगी.
इस नीति में ये भी कहा गया था कि जिन क़ैदियों को दिल्ली स्पेशल पुलिस एस्टैब्लिशमेंट एक्ट, 1946 के तहत की गई जांच में अपराध का दोषी पाया गया, उनकी सज़ा भी माफ़ नहीं की जा सकती और न ही उन्हें समय से पहले रिहा किया जा सकता है.
गौरतलब है कि सेंट्रल ब्यूरो ऑफ़ इन्वेस्टीगेशन (सीबीआई) को मामलों की जांच करने की शक्ति दिल्ली स्पेशल पुलिस एस्टैब्लिशमेंट एक्ट, 1946 के तहत दी गई है और इस मामले में सीबीआई ने बिलकिस बानो मामले की जांच की और 11 लोगों का अपराध सिद्ध किया था.
इस बारे में बीबीसी ने गुजरात के अतिरिक्त मुख्य सचिव (गृह) राज कुमार से बात की.
उन्होंने कहा, "ये समय से पहले रिहाई का नहीं बल्कि सज़ा माफी का मामला था. उनको जब दोषी ठहराया गया था तब उन्हें उम्रकैद की सज़ा सुनाई गई थी. जब 14 साल पूरे हो जाते हैं तो कोई भी सज़ा माफ़ी की दरख़्वास्त कर सकता है. उन्होंने भी ये दरख़्वास्त की थी. 2014 की जो मौजूदा नीति थी उसके तहत उनको माफ़ी नहीं मिल सकती थी. तो ये मामला फिर सुप्रीम कोर्ट में लड़ा गया और सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जिस दिन कन्विक्शन हुआ था और ये लोग दोषी पाए गए थे, उस दिन जो नीति अमल में थी उसके अधीन आप निर्णय लें. ऐसा सुप्रीम कोर्ट का आदेश आया था."
अतिरिक्त मुख्य सचिव (गृह) राज कुमार ने साथ ही ये भी कहा कि कन्विक्शन के समय जो नीति थी वो साल 1992 की थी.
उन्होंने कहा, "उस पॉलिसी में कोई वर्गीकरण नहीं था. कन्विक्शन कौन से सेक्शन के तहत हुआ है, उसका कोई वर्गीकरण नहीं था. उसमें सिर्फ इतना कहा गया है कि 14 साल पूरे कर लिए गये हैं तो ऐसे मामलों पर विचार किया जा सकता है. सुप्रीम कोर्ट ने पाया है कि 2014 कि जो नीति है वो नीति इस मामले में लागू नहीं होती."
अतिरिक्त मुख्य सचिव (गृह) राज कुमार ने यह भी कहा कि चूंकि इस मामले की जांच सीबीआई ने की थी, इसलिए गुजरात सरकार ने भारत सरकार से परामर्श किया कि इस मामले में कौन सी सरकार सज़ा माफ़ी के लिए कम्पीटेंट होगी: केंद्र की या राज्य की?
उन्होंने कहा, "उनका कहना था इस मामले में सज़ा माफ़ी के मुद्दे पर फैसला लेने में राज्य सरकार कम्पीटेंट होगी."
क्या 2014 की सज़ा माफ़ी की नीति को नज़रअंदाज़ किया जा सकता है?
इस मामले में दोषियों की सज़ा माफ़ करने के लिए गुजरात सरकार की 1992 की नीति को आधार बनाया जाना और 2014 की नीति को नज़रअंदाज़ किया जाना सही है?
इसी सवाल का जवाब जानने के लिए हमने मेहमूद प्राचा से बात की जो एक वकील हैं और दिल्ली दंगों जैसे महत्वपूर्ण मामलों से जुड़े रहे हैं.
वे सामूहिक बलात्कार का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि पहले सामूहिक बलात्कार की सज़ा मृत्युदंड नहीं थी तो अगर ऐसे में किसी ने सामूहिक बलात्कार किया और बाद में सामूहिक बलात्कार की परिभाषा और सज़ा बदल गयी तो इसका पूर्वव्यापी प्रभाव नहीं हो सकता. आसान शब्दों में कहें तो किसी सामूहिक बलात्कार के दोषी को बाद में ये कह कर मृत्युदंड नहीं दिया जा सकता कि अब क़ानून बदल गया है. अपराध करने के समय जो क़ानून था उसी के मुताबिक सज़ा होगी.
लेकिन प्राचा के मुताबिक सज़ा माफ़ी के मामले में ऐसा नहीं है.
मेहमूद प्राचा कहते हैं, "किसी भी आधार पर सज़ा माफ़ी एक प्रक्रिया से जुड़ी बात है. आप प्रक्रिया बदल सकते हैं और इसका पूर्वव्यापी प्रभाव हो सकता है. इसलिए सज़ा माफ़ी प्रक्रिया से जुड़ा एक पहलू है और यह अपराध की सज़ा को मूल रूप से नहीं बदलता है."
उनके मुताबिक सज़ा की एक निश्चित अवधि पूरी करने के बाद ही सज़ा माफ़ी का सवाल उठेगा. इसलिए कोई गोलपोस्ट नहीं बदला जा रहा है.
वे कहते हैं, "सज़ा माफ़ी का सवाल तब उठता है जिस दिन आप सज़ा माफ़ी का आवेदन करने के योग्य होते हैं. उस दिन सज़ा माफ़ी का जो क़ानून लागू होता है, उसी के आधार पर सज़ा माफ़ी के आवेदन पर फ़ैसला लेना होगा."
बिलकिस बानो मामले से जुड़े दोषियों की सज़ा माफ़ी के बारे में प्राचा कहते हैं, "अगर 2014 के बाद छूट के लिए आवेदन किया गया है तो 2014 की नीति मार्गदर्शक सिद्धांत होनी चाहिए थी."
क्या है मामला?
साल 2002 में हुए गुजरात दंगों के दौरान अहमदाबाद के पास रनधिकपुर गांव में एक भीड़ ने पांच महीने की गर्भवती बिलकिस बानो के साथ सामूहिक बलात्कार किया था. उनकी तीन साल की बेटी सालेहा की भी बेरहमी से हत्या कर दी गई थी.
21 जनवरी, 2008 को मुंबई की एक विशेष सीबीआई अदालत ने बिलकिस बानो के साथ गैंगरेप और परिवार के सात सदस्यों की हत्या के आरोप में 11 अभियुक्तों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी. बाद में बॉम्बे हाई कोर्ट ने उनकी सज़ा को बरकरार रखा था.
15 साल से अधिक की जेल की सज़ा काटने के बाद दोषियों में से एक राधेश्याम शाह ने सज़ा माफ़ी के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था और सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात सरकार को सज़ा माफ़ी के मुद्दे पर गौर करने का निर्देश दिया था.
इसके बाद गुजरात सरकार ने एक कमेटी का गठन किया. इस कमेटी ने मामले के सभी 11 दोषियों की सज़ा माफ़ करने के पक्ष में सर्वसम्मत फ़ैसला लिया और उन्हें रिहा करने की सिफ़ारिश की. आख़िरकार 15 अगस्त को इस मामले में उम्रकै़द की सजा भुगत रहे 11 दोषियों को जेल से रिहा कर दिया गया.
सुप्रीम कोर्ट में कार्यरत वकील प्योली स्वतिजा कहती हैं कि ये उनकी समझ से बाहर है कि किस तरह गुजरात सरकार की कमिटी ने इस मामले के दोषियों की सज़ा माफ़ करके उन्हें रिहा करने का फै़सला किया.
वे कहती हैं, "एक बार जब सुप्रीम कोर्ट ने कह दिया कि सज़ा माफ़ी का फ़ैसला गुजरात सरकार ही कर सकती है तो गुजरात सरकार ने जो कमिटी बनाई उसके पास शक्तियां थीं लेकिन वो उन शक्तियों का इस्तेमाल आँख मूंदकर नहीं कर सकती थी. उनको ये ज़रूर देखना चाहिए था कि अपराध की प्रकृति क्या थी. इन पहलुओं को देखना ही होता है कि न केवल क़ैदी का व्यवहार कैसा है पर अपराध की प्रकृति क्या है. अगर अपराध की प्रकृति देखी जाती तो मुझे नहीं लगता कि एक अच्छे अंतःकरण वाली कमिटी कैसे इस तरह का फ़ैसला ले सकती थी."
प्रधानमंत्री पर विपक्ष का निशाना
इस मामले में 11 दोषियों के रिहा किये जाने को "अप्रत्याशित" बताते हुए कांग्रेस ने प्रधानमंत्री पर सीधा हमला बोला है.
कांग्रेस के प्रवक्ता पवन खेड़ा ने कहा, "कल प्रधानमंत्री जी ने लाल क़िले की प्राचीर से बड़ी-बड़ी बातें की... नारी सुरक्षा, नारी सम्मान, नारी शक्ति... अच्छे अच्छे शब्द इस्तेमाल किये. कुछ घंटों के बाद गुजरात सरकार ने एक ऐसा निर्णय लिया जो अप्रत्याशित था, जो कभी नहीं हुआ."
खेड़ा ने गुजरात सरकार के उस बयान पर भी निशाना साधा जिसमें इस मामले के दोषियों के 14 साल की सज़ा को भुगत लेना, उनके अच्छे व्यवहार और अपराध की प्रकृति को उनकी रिहाई की वजहें बताया गया था.
खेड़ा ने कहा, "अगर अपराध की प्रकृति की ही बात करें तो क्या बलात्कार उस श्रेणी में नहीं आता जिसमें कड़ी से कड़ी सज़ा मिले उनको? जितनी कड़ी सज़ा मिले उतनी कम मानी जाती है."
इस मामले में दोषी ग्यारह लोगों के जेल से छूटने के बाद के चित्रों और वीडियो को लेकर भी कांग्रेस ने प्रधानमंत्री पर निशाना साधा.
कांग्रेस पवन खेड़ा ने कहा, "फिर आज हमने ये भी देखा कि जो रिहा हुए हैं, उनकी आरती उतारी जा रही है, उनको तिलक किया जा रहा है, उनका अभिनंदन किया जा रहा है. ये है अमृत महोत्सव? ये है प्रधानमंत्री की कथनी और करनी में अंतर? या तो प्रधानमंत्री की सुननी बंद कर दी है उनके लोगों ने, उनकी अपनी सरकारों ने... या फिर प्रधानमंत्री जी देश को कुछ और कहते हैं और फ़ोन उठाकर अपनी राज्य सरकारों को कुछ और कहते हैं." (bbc.com/hindi)