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आज के साहित्य को इतिहास के रनवे से उडऩे की जरूरत
04-Dec-2022 3:36 PM
आज के साहित्य को इतिहास के रनवे से उडऩे की जरूरत

छत्तीसगढ़ में अभी मुक्तिबोध पर एक और सरकारी कार्यक्रम हुआ, जिसमें देश के कई जाने-माने साहित्यकार भी पहुंचे। मुक्तिबोध पर दरअसल पिछले दिनों दो अलग-अलग कार्यक्रम हुए, एक कार्यक्रम एक सरकारी कॉलेज के छात्र-छात्राओं के बीच मुक्तिबोध के बेटे, दिवाकर मुक्तिबोध की यादों का था, जिसमें उन्होंने मुक्तिबोध के पारिवारिक जीवन से अपना पूरी जिंदगी का रूबरू वास्ता बखान किया। यह कार्यक्रम तो बिना किसी खर्च के कॉलेज की एक नियमित गतिविधि की तरह हुआ, और दिवाकर की यादों को सुनना एक यादगार मौका रहा होगा क्योंकि उन बातों को और तो कोई कह नहीं सकते थे। लेकिन दूसरा कार्यक्रम छत्तीसगढ़ की सरकारी संस्था, साहित्य परिषद के बैनर पर हुआ, और जाहिर है कि वह दो दिनों तक सरकारी खर्च पर ही चला होगा। इसलिए आज की यह बातचीत इसी आयोजन को लेकर है।

मैंने पिछले हफ्ते मुक्तिबोध प्रसंग के इस मौके पर एक छोटी सी बात फेसबुक पर लिखी थी कि वर्तमान का अतीत पर इस हद तक परजीवी हो जाना शायद मुक्तिबोध को न सुहाता। यह बात एक किस्म से मेरे एक पुराने और बड़े काबिल अखबारनवीस साथी ईश्वर सिंह दोस्त के लिए थी जो कि इस कार्यक्रम के दो आयोजकों में से एक थे। ईश्वर और मैंने एक अखबार में बरसों काम किया, और आज वे इस सरकार में छत्तीसगढ़ साहित्य अकादमी के अध्यक्ष भी हैं। इस किस्म में किसी भी सरकारी संस्थान के लिए वे वैचारिक रूप से बड़े काबिल भी हैं। उनका लिखा हुआ छापने में मुझे बड़ी खुशी भी होती है। लेकिन उनके आयोजनों से मेरी इस मायने में असहमति रहती है कि वे अतीत पर सवार रहते हैं। क्या 21वीं सदी के इस दूसरे दशक में साहित्यकारों और रचनाकारों के सामने बहस के लिए, सीखने के लिए, और विचारमंथन के लिए महज मुक्तिबोध या उस पीढ़ी के, उनके कुछ पहले के और उनके कुछ बाद के साहित्यकार काफी हैं? 

साहित्य के इतिहास का अपना एक महत्व है। लेकिन किसी भी दूसरे इतिहास की तरह साहित्य का इतिहास भी एक सीमा तक ही वर्तमान का मददगार हो सकता है। मुक्तिबोध के पहले से भी, और साहित्यकारों के परे से भी कार्ल माक्र्स की सोच दुनिया के साहित्यकारों के काम आती रही है। लेकिन क्या आज के आयोजन माक्र्स की विचारधारा तक सीमित रहकर कुछ हासिल कर सकते हैं? साहित्य से परे देखें तो कुछ लोग विवेकानंद, कुछ लोग गांधी, और कुछ लोग नेहरू तक सिमटकर रह गए हैं, और घूम-फिरकर, जहाज के पंछी की तरह वे अपने उन्हीं पसंदीदा किरदारों पर लौटते हैं, क्योंकि उन्हें उनमें महारत हासिल है, और वहां पर उनका ज्ञान औरों से ऊपर है। लेकिन क्या आज की रचनाधर्मिता, और आज का साहित्य इतिहास पर एक परजीवी की तरह अंतहीन जिंदा रह सकता है? यह बात खासकर इसलिए जरूरी है कि आज का यह दौर जिसमें लोकतंत्र, तथाकथित इंसानियत, धर्मनिरपेक्षता, जातिवाद, आरक्षण, आर्थिक असमानता किस्म के सैकड़ों मुद्दे लोगों की जिंदगी पर हावी हैं। आदिवासी अपने जंगलों से खदेड़े जा रहे हैं, दलित, जनगणना के मकसद से हिंदुओं में गिने जा रहे हैं, बाकी वक्त उनकी नंगी पीठ पर चमड़े के हंटर सडक़ों पर बरसाए जा रहे हैं। जब एक महाशक्ति पड़ोसी देश पर हर इंसान को खत्म कर देने की नीयत से हमला किए हुए है, जब एक देश में महिलाओं के बुनियादी हक पूरी तरह छीन लिए गए हैं, जब हिंदुस्तान में एक हिंदू प्रोफेसर इंजीनियरिंग कॉलेज में एक मुस्लिम छात्र को आतंकी कसाब के नाम से बुलाता है, तब मुक्तिबोध कितनी मदद कर सकते हैं?

किसी निजी आयोजन से मेरी कोई उम्मीद नहीं है, लेकिन जब सरकारी खर्च पर कोई आयोजन होता है तो उसे इतिहास से उबरकर आज के कड़वे, कड़े, और खुरदुरे वर्तमान पर चलना चाहिए। लेखकों और साहित्यकारों को महज पुराने लेखन और साहित्य तक सीमित क्यों रहना चाहिए? उन्हें आज के आरक्षण के मुद्दे, आज के निजीकरण के मुद्दे, सांप्रदायिकता के खतरे, आर्थिक असमानता पर चर्चा क्यों नहीं करनी चाहिए? जब आज के साहित्यकार बीते कल के साहित्य और साहित्यकारों तक सीमित रह जाते हैं, तो उनका आज का साहित्य भी आज के जलते-सुलगते मुद्दों से कटा रह जाता है। ऐसे आयोजनों से बेहतर दलित लेखकों के वे आयोजन हैं जो कि आज के दलित मुद्दों पर चर्चा कर रहे हैं। और दलितों का जिक्र महज एक मिसाल के तौर पर है, दुनिया के दूसरे देशों में दूसरे किस्म के तबके उनके हाशियों पर हैं, और उनके साहित्य पर चर्चा होती है। अंग्रेजी में शेक्सपियर पर चर्चा के बजाय काले लेखकों के आज के साहित्य पर चर्चा अधिक प्रासंगिक होगी।

लेकिन कुछ मिसालों को गिनाने का एक खतरा यह भी रहता है कि लोग बहुत सी दूसरी मिसालें गिना सकते हैं कि उनका नाम यहां पर क्यों नहीं लिया जा रहा है। आज इस पर यहां चर्चा का एक बड़ा छोटा सा मकसद यह है कि जनता के पैसों से जो आयोजन होते हैं, उन्हें इतिहास से जुड़े रहने के बजाय जनता के वर्तमान के मुद्दों से जुडऩा चाहिए। मुक्तिबोध की महानता इतिहास में अच्छी तरह दर्ज है, और लोगों को पढऩे के लिए हासिल भी है। कुछ वैसा ही पे्रमचंद और दूसरे महान लेखकों के साथ भी है। आज के साहित्य के आयोजनों को इतिहास से उबरने की जरूरत है, आज समाज में बेइंसाफी इस कदर सिर चढक़र बोल रही है कि लेखकों, रचनाकारों, और दीगर कलाकारों को इन मुद्दों से सीधे जुडऩे की जरूरत है। आज के साहित्य के आयोजन या तो आज के साहित्य पर केंद्रित हों, या आज के मुद्दों पर केंद्रित हों। बीते कल की जगह इतिहास में अच्छी तरह दर्ज है, आज के लेखक और साहित्यकार उस इतिहास की बड़ी गौरवशाली बहसों में आराम से गौरवान्वित हो सकते हैं, लेकिन वे इससे परे आज के जलते-सुलगते मुद्दों की आंच में अपने माद्दे को भी आंक सकते हैं कि क्या वे आज भी गौरव के लायक कुछ कर सकते हैं? 

यह बात सिर्फ साहित्य के साथ नहीं है, अखबारनवीसी के आयोजन भी इस पेशे के इतिहास के गौरवगान से लदे रहते हैं। आज जब जरूरत आज की चुनौतियों पर चर्चा की है, आज निजीकरण और बाजार के हमले के बीच किस तरह अखबारनवीसी जिंदा भी रह सकती है, उस दौर में भी अगर लोग गणेश शंकर विद्यार्थी के गौरवगान तक सीमित रह जाएंगे, तो अपने ऐसे वंशजों पर विद्यार्थीजी को भी गर्व नहीं होगा। 

साहित्य, खासकर हिंदी का आज का साहित्य अपनी ही हरकतों से अप्रासंगिक होते चल रहा है, उसे किताब कारोबार की फिक्र नहीं है, ग्राहक और पाठक की फिक्र नहीं है, समाज के आज के असल मुद्दों पर चर्चा की फिक्र नहीं है, वह महज साहित्य के इतिहास, और इतिहास के साहित्य पर चर्चा में मगन है। कम से कम सरकारी खर्च के आयोजनों को इससे उबरना चाहिए। साहित्य के निजी कार्यक्रम कितने बाजारू हो सकते हैं, इसकी फिक्र मेरा आज का मुद्दा नहीं है। आज के साहित्य की उड़ान के लिए मुक्तिबोध और पे्रमचंद एक रनवे हो सकते हैं, लेकिन वहां से उड़ान भरने के बाद आज के लोगों को खुले आसमान पर जाना होगा, तभी उसे उड़ान कहा जाएगा। विमान आसमान के मुकाबले रनवे पर अधिक महफूज महसूस कर सकते हैं, लेकिन विमान महज रनवे के लिए नहीं बने रहते हैं।

 (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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