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‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : शहरों की धडक़न जारी रखना आसान काम नहीं
30-Jun-2024 4:02 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय :  शहरों की धडक़न जारी  रखना आसान काम नहीं

मुम्बई शहर में फुटपाथों पर कारोबार करने वाले लोग शायद दिल्ली के मुकाबले भी कुछ अधिक होंगे, और देश के किसी भी दूसरे शहर के मुकाबले भी। इसकी एक वजह यह है कि मुम्बई में लोगों को सडक़ पर खासा चलना पड़ता है, और अधिकतर लोग स्कूल-कॉलेज या दफ्तर-कारोबार आते-जाते फुटपाथों से गुजरते हैं, और वे एक स्वाभाविक ग्राहक लगते हैं। इसलिए फुटपाथों पर कारोबार खूब चलता है। दूसरी बात यह भी कि मुम्बई में जगह की बड़ी मारामारी है, और इसलिए लोग जहां बैठने की जगह मिले, वहीं कोई न कोई काम करने लगते हैं। ऐसे में बाम्बे हाईकोर्ट ने खुद ही जनहित में एक मुकदमा शुरू किया, और राज्य सरकार और मुम्बई महानगर पालिका से जवाब लिया कि फुटपाथों को लोगों के लिए कैसे खाली कराया जा सकता है जिसके लिए कि वे बने हैं। हाईकोर्ट ने एक कड़ी टिप्पणी करते हुए कहा कि जब प्रधानमंत्री या वैसे ही दूसरे खास लोग निकलते हैं, तो सडक़ों और फुटपाथों को एक दिन के लिए खाली करा दिया जाता है। ऐसा बाकी दिनों मेंं आम जनता के लिए क्यों नहीं कराया जा सकता? अदालत ने यह भी कहा कि राज्य सरकार को कुछ सख्त कार्रवाई करने की जरूरत है जिससे कि एक बार हटाए गए फेरीवाले दुबारा लौटकर न आएं।

लोगों के चलने की जगह पर जब फेरीवाले स्थाई रूप से कारोबार करने लगते हैं, तो शहरी जिंदगी में एक दिक्कत तो खड़ी होती ही है। दूसरी बात यह भी है कि बेरोजगारी से भरे हुए इस देश में लोग अगर जिंदा रहने के लिए किसी भी तरह का कानूनी रोजगार कर रहे हैं, तो उन्हें बेदखल करने के पहले यह भी सोचना चाहिए कि क्या सरकार या म्युनिसिपल के पास इनके लिए कोई वैकल्पिक योजना है, या फिर उन्हें बेदखल और बेरोजगार एक साथ ही कर दिया जाएगा? आज हिन्दुस्तान में हालत यह है कि जहां बड़ी-बड़ी इमारतों में महंगे शोरूम के लिए जगह बनती है, वहां पर आसपास कोई भी जगह चायठेला और पानठेला जैसे छोटे कारोबारों के लिए नहीं रहती। दूसरी बात यह भी कि व्यस्त इलाकों में जहां पर कि छोटे कारोबारियों और फेरीवालों को ग्राहक कुछ आसानी से मिलते हैं, वहां पर सरकार या स्थानीय संस्थाएं कोई योजना नहीं बनातीं। जब जनता की जरूरत और छोटे कारोबारियों की मजबूरी के बीच कोई तालमेल सरकारी योजनाएं नहीं बना पातीं, तो फिर ऐसी ही नौबत आती है। हम मुम्बई की बात छोड़ अपने ही शहर को देखें, तो यहां भी सरकार से लेकर म्युनिसिपल तक सबकी दिलचस्पी बहुत बड़ी-बड़ी योजनाओं में रहती है, और बहुत छोटे-छोटे फुटपाथी कारोबारी, या फेरीवाले हर कुछ बरसों में अपनी जगह से खदेड़ दिए जाते हैं, उनका कोई कानूनी हक नहीं रहता, और वे बिना गैरकानूनी काम के रोजी-रोटी चलाने से बेदखल कर दिए जाते हैं। 

दरअसल शहरों की योजना बनाने वाले जानकार लोग तो छोटे-बड़े सभी किस्म के कारोबारियों के महत्व को समझते होंगे, लेकिन जब शहर बहुत घने बस जाते हैं, तो फिर सरकारें चाहकर भी वहां सबसे गरीब कारोबारियों के लिए कोई जगह नहीं निकाल पातीं। दूसरी बात यह भी होती है कि राज्य सरकार हो या म्युनिसिपल, जिसके कब्जे की जो जमीन रहती है, उससे अधिक से अधिक कमाई करके उससे दूसरी योजनाएं चलाने की प्राथमिकता रहती है। ऐसे में छोटे कारोबारियों से अधिक कमाई नहीं हो सकती, और बड़े लोगों के बाजार बनाने से एकमुश्त मोटी कमाई हो जाती है, इसलिए भी शहरों में गरीबों के लिए निर्माण कम से कम होते हैं, सबसे महंगी दुकान खरीदने वाले लोगों के लिए सरकार के सभी स्तरों पर योजनाएं बनती हैं। 

भारत के अधिकतर शहरों के साथ एक दिक्कत यह भी है कि वे बड़ी पुरानी बसाहट के इर्द-गिर्द ही बुने गए हैं, और बड़े घने रहते आए हैं। ऐसे में शहरी योजनाकारों के सामने न सिर्फ सडक़ और बाजार की, बल्कि नाली-पानी से लेकर बिजली, और बगीचों से लेकर मैदानों तक की हर किस्म की दिक्कत रहती है। भारत में पूरी तरह से योजनाबद्ध नए शहर उंगलियों पर गिनने जितने हैं। चंडीगढ़, गांधीनगर, ओडिशा के भुवनेश्वर में नई राजधानी, छत्तीसगढ़ में नया रायपुर, जैसे गिने-चुने शहर पूरी योजना के साथ बसाए गए हैं। इनके अलावा अंग्रेजों के समय जहां-जहां पर फौजी छावनियां रहती थीं, या बड़े रेलवे स्टेशन रहते थे, उन शहरों में भी खुले इलाके अभी खूब दिख जाते हैं जिनमें जबलपुर, नागपुर, जैसे दर्जनों शहर हैं। लेकिन इनसे परे बाकी का हिन्दुस्तान पुरानी बसाहट वाला है, और वहां पर फुटपाथों का उस तरह से इंतजाम है नहीं जो कि अभी बाम्बे हाईकोर्ट में बहस का सामान बना हुआ है। यह भी समझने की जरूरत है कि मुम्बई अपनी कारोबारी संभावनाओं के चलते हुए बाहर से आकर काम करने वाले लोगों के मामले में ऐसा विकराल महानगर हो चुका है कि वहां बड़े सुधार और विकास के बजाय उसका बाहर विस्तार ही कोई जरिया हो सकता है। अब यह अपने आपमें एक शहर से ऊपर एक प्रदेश या देश की शहरी योजना का मामला है कि किस तरह अगले सौ-पचास बरस के लिए ऐसा विकास हो सकता है जो कि एक-दो पीढिय़ों में ही फिर थककर न बैठ जाए। 

अब किसी देश-प्रदेश की शहरी-विकास योजनाओं के साथ टेक्नॉलॉजी के विकास की बात भी जुड़ी रहती है, और आने वाले भविष्य में जिंदगी, आवाजाही, और कारोबार किस तरह के रह जाएंगे, यह बात भी जुड़ी रहती है। आज से बीस बरस पहले किसने सोचा था कि हिन्दुस्तान के अधिकतर शहरों में लोगों का बाजार जाकर सामान खरीदना इस हद तक कम हो जाएगा, और ऑनलाईन खरीदी इतनी बढ़ जाएगी। इसी तरह खाने के लिए बाहर जाना घट जाएगा, और मोबाइल फोन से ऑर्डर देकर दुपहिए वाले से घर पर डिलिवरी ले लेना इतना आसान रहेगा। इसी तरह चिट्ठियों की आवाजाही, और बैंक चेक की आवाजाही बहुत ही कम बच गई है, अधिकतर काम ऑनलाईन होने लगा है। तो ऐसे में क्या अगले पचास बरस सडक़ों, फुटपाथों, पब्लिक पार्किंग, और मेट्रो-बस की जरूरतें लगातार बढ़ती रहेंगी, या घटती चली जाएंगी? बाकी दुनिया के साथ-साथ हिन्दुस्तान में भी अगले चालीस बरस में आबादी घटना शुरू हो जाएगी। ऐसे में शहरों की हर किस्म की जरूरत बढऩा भी रूक जाएगी। लेकिन ये चालीस बरस बहुत लंबा वक्त है, और ऐसे में तीन चीजों को बढ़ाते चलना जरूरी रहेगा, यह भी एक कठिन सवाल है। 

हमने मुम्बई के फुटपाथों पर फेरीवालों के कब्जे पर बाम्बे हाईकोर्ट की फिक्र से यह बात चालू की थी, लेकिन वह शहरी योजना के बाकी पहलुओं तक भी बिखर गई। हिन्दुस्तान के मौजूदा शहरों को लेकर एक बड़ी सोच जरूरी है कि क्या इन्हीं पर अधिक मेहनत करनी चाहिए, या फिर नए शहरों के विकल्प खड़े करने चाहिए, ताकि मौजूदा शहरों पर बोझ बढऩा थम जाए, और उनके मौजूदा ढांचे से ही काम चलाया जा सके। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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