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‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : दुधमुंहे बच्चों की मां का स्मार्टफोन कितना बुरा!
02-Jul-2024 6:27 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : दुधमुंहे बच्चों की मां का  स्मार्टफोन कितना बुरा!

अमरीका की टेक्सास यूनिवर्सिटी के एक रिसर्च से यह पता लगा है कि नवजात और दुधमुंहे बच्चों के साथ वक्त गुजारते हुए जब उनकी मां स्मार्टफोन का इस्तेमाल करती हैं, तो बच्चों से उनकी बातचीत एक चौथाई घट जाती है। इसका नतीजा यह होता है कि बच्चे कम शब्द सीख पाते हैं। उनके लिए यह बात बहुत मायने रखती है कि उनके मां-बाप उनके साथ रहते हुए आपस में बातचीत करें, और बच्चे इन शब्दों को न समझते हुए भी अगर इस बातचीत को सुनते रहते हैं, तो उनके नए शब्द सीखने की क्षमता विकसित होती रहती है। ऐसा न होने पर वे नए शब्द कम सीख पाते हैं। बिना किसी वैज्ञानिक आधार के एक महाभारतकालीन कहानी याद पड़ रही है कि किस तरह मां के गर्भ में रहते हुए अभिमन्यु ने अपने आध्यात्मिक पिता अर्जुन के मुख से चक्रव्यूह को भेदना जान लिया था, लेकिन मां सुभद्रा को नींद पड़ जाने से वे चक्रव्यूह से बाहर आने का तरीका नहीं सुन पाए थे। नतीजा यह निकला कि युद्ध में अभिमन्यु चक्रव्यूह भेदकर भीतर तो चले गए थे, लेकिन बाहर नहीं निकल पाए थे।

मोबाइल फोन के इस्तेमाल के कई तरह के नुकसानों में यह एक और बड़ा नुकसान दर्ज हुआ है कि फोन पर व्यस्त मां-बाप जब आपस में बात नहीं कर पाते, या बहुत छोटे दुधमुंहे बच्चों से भी किसी तरह की बात नहीं करते, तो उन बच्चों की सीखने की क्षमता उससे गंभीर रूप से प्रभावित होती है। इसी बात को हम कुछ दूसरी रिसर्च के नतीजों से जोडक़र देखें, तो पहले भी यह बात सामने आई है कि छोटे बच्चों को अगर टीवी के सामने बिठा दिया जाता है, या उनके हाथ में मोबाइल फोन थमा दिया जाता है, तो उस पर वे एनिमेशन फिल्में देखते हुए वक्त तो गुजार लेते हैं, लेकिन जिस तरह बड़े लोगों के लिए टीवी को इडियट बॉक्स कहा जाता है, उसी तरह छोटे बच्चों के लिए भी टीवी कल्पनाशक्ति, रचनात्मकता, और सीखने की क्षमता सबको बुरी तरह प्रभावित करता है। हमने सोशल मीडिया पर कई बार यह लिखा भी है कि अगर आप एक बच्चे के साथ हैं, और मोबाइल फोन के भी साथ हैं, तो फिर आप बच्चे के साथ नहीं हैं। टेलीफोन, खासकर स्मार्टफोन, दो इंसानों के बीच एक बड़ी ऊंची और चौड़ी दीवार बन चुका है। लोगों की आपस में बातचीत घटती चल रही है, परिवार के भीतर भी लोग छोटी-छोटी बातों को एक-दूसरे से रूबरू करने के बजाय उन्हें स्मार्टफोन के संदेशों पर भेजने लगे हैं, परिवार का एक साथ बैठना घट गया है, और परिवार के वॉट्सऐप ग्रुप बनाकर उसी पर चीजों को डाल देना काफी समझ लिया गया है। नतीजा यह है कि छोटे बच्चे जो कि ऐसे संदेश नहीं देखते हैं, लेकिन जिनके लिए परिवार के सदस्यों की आपस में बातचीत सुनना बहुत अहमियत रखता है, वह बातचीत उन्हें अब कम नसीब होती है। दूसरी तरफ मां-बाप या घर के दूसरे लोग अगर उनके इर्द-गिर्द फोन पर किसी बाहरी व्यक्ति से परिवार से परे काम या कारोबार की बातें करते हैं, तो उनसे भी छोटे बच्चों का कोई रिश्ता कायम नहीं होता है। इसलिए परिवार के सदस्यों के आपस के व्यवहार से उन्हें न समझते हुए भी महज सुनकर बच्चों का जैसा भावनात्मक विकास होता है, वैसा किसी स्मार्टफोन की मौजूदगी में नहीं हो पाता।

स्मार्टफोन के असर से थक-हारकर अब पश्चिम के कुछ विकसित देशों ने कंपनियों और सरकारों पर ऐसी रोक लगाई है कि हफ्ते में काम के आखिरी दिन, शुक्रवार के बाद सोमवार तक कर्मचारियों को न कोई ईमेल किया जाए, न संदेश भेजा जाए, और न ही दफ्तर के काम से संबंधित कोई फोन किया जाए। कुछ कंपनियों ने तो काम के नशे में डूबे कर्मचारियों को काम से जबर्दस्ती दूर रखने के लिए कंपनी के ईमेल तक उनकी पहुंच रोक दी है। इन सब चीजों से लोग भी छुट्टी के वक्त काम और दफ्तर से दूर रहें, ताकि वे परिवार के साथ अधिक वक्त गुजार सकें। आज की बात की शुरूआत तो हमने बहुत छोटे बच्चों से की, लेकिन यह बात परिवार के बड़े लोगें पर भी बराबरी से लागू होती है। आज हाल यह है कि घर के हर सदस्य सोशल मीडिया पर अपना एक अलग किस्म का परिवार बनाए रखते हैं, और बहुत से लोगों के लिए वह परिवार असल परिवार से अधिक अहमियत रखने लगता है। अब फेसबुक का परिवार असल जिंदगी के दिक्कतों से बहुत दूर रहता है, इसलिए तनावमुक्त भी रहता है। लोग उसी को असल जिंदगी का एक विकल्प मान लेते हैं, और परिवार से अधिक वक्त फेसबुक या इंस्टाग्राम पर गुजारने लगते हैं। इससे परिवार के छोटे बच्चों का वक्त तो छिनता ही है, बड़े लोगों का वक्त भी गायब हो जाता है, और विकास का दौर छोटे बच्चों का ही अधिक महत्वपूर्ण रहता है, इसलिए उन पर भावनात्मक नामौजूदगी का सबसे बुरा असर पड़ता है।

अब अमरीकी विश्वविद्यालय की यह ताजा शोध भाषा को लेकर सामने आई है कि मां, या मां-बाप बहुत छोटे बच्चों के इर्द-गिर्द अगर बात नहीं करते हैं, जिसकी वजह इन दिनों स्मार्टफोन ही मानी जा रही है, तो ऐसे बच्चों का भाषा-ज्ञान कमजोर होता है, और एक स्वाभाविक रफ्तार से नहीं बढ़ता। लोगों को घर के भीतर मोबाइल फोन या इंटरनेट का इस्तेमाल, या टीवी के सामने बैठे रहना इस हिसाब से भी दुबारा सोचना चाहिए कि परिवार में बातचीत की कमी का नुकसान उस बातचीत का मतलब न समझने वाले बच्चों को भी इतना अधिक झेलना पड़ रहा है। स्मार्टफोन के चलते दुनिया में अब सिर्फ की-पैड वाले, बिना कैमरे, बिना इंटरनेट वाले साधारण फोन को डम्ब फोन कहा जा रहा है, यानी एक तरफ स्मार्टफोन, दूसरी तरफ डम्ब यानी मूर्ख-फोन। हकीकत यह सामने आ रही है कि स्मार्टफोन सबको डम्ब बनाते चल रहा है, और डम्ब फोन लोगों को स्मार्ट बनने की एक गुंजाइश दे रहा है।

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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