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पाकिस्तानी फ़ौज के ख़िलाफ़ खड़े होने वाले और मुशर्रफ़ को सज़ा-ए-मौत देने वाले जज
23-Nov-2020 10:41 AM
पाकिस्तानी फ़ौज के ख़िलाफ़ खड़े होने वाले और मुशर्रफ़ को सज़ा-ए-मौत देने वाले जज

peshawar high court

पाकिस्तान,23 नवम्बर | कोरोना संक्रमण की वजह से मौत का शिकार होने वाले जस्टिस वक़ार अहमद सेठ पाकिस्तान के उन चंद विरले जजों में से थे, जो अपनी बेबाकी के लिए जाने जाते थे और वहाँ की ताक़तवर फ़ौज को भी चुनौती पेश करते थे.

जस्टिस वक़ार अहमद सेठ को श्रद्धांजलि देने वाले उन्हें बेबाक, निडर और आज़ाद बताते हुए याद कर रहे हैं. वो 59 साल के थे.

पेशावर हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के तौर पर उन्होंने ऐसे फ़ैसले दिए थे, जिसने फ़ौज और सरकार दोनों को ही नाराज़ कर दिया था. उन्होंने जो फ़ैसले सुनाए थे उनमें निर्वासन झेल रहे जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ को सुनाई गई मौत की सज़ा भी शामिल है.

यह फ़ैसला दुनिया भर की मीडिया में सुर्ख़ियाँ बनकर छाया रहा था.

जस्टिस वक़ार अहमद सेठ ने मानवाधिकार के मुद्दे पर भी सरकार की आलोचना की और उस क़ानून को निरस्त किया जिसके तहत फ़ौज गुप्त तौर पर नज़रबंद केंद्रों को चला रही थी. उन्होंने आतंकवाद रोधी क़ानून के तहत सुबूतों के बिना जेलों में बंद दर्जनों लोगों को रिहा किया था.

जस्टिस सेठ की मौत को पाकिस्तान में एक बड़े नुक़सान के तौर पर देखा जा रहा है. ख़ासकर तब जब अभी हाल के सालों में फ़ौज ने अपने प्रभाव को फिर से बढ़ाना शुरू किया है. देश भर के वकील इस्लामाबाद में 13 नवंबर को हुई उनकी मौत के बाद से ग़मज़दा हैं

पाकिस्तान के स्वतंत्र मानवाधिकार आयोग (एचआरसीपी) के सेक्रेटरी जनरल हारिस ख़ालिक़ ने जस्टिस सेठ की मौत को 'पाकिस्तान की जम्हूरियत में एक आज़ाद न्यायपालिका को लेकर चलने वाली जद्दोजहद के लिए गहरा धक्का' बताया है.

जस्टिस ख़ालिक़ ने बीबीसी से बातचीत में कहा कि जस्टिस सेठ एक कर्तव्यनिष्ठ और निडर जजों की परंपरा का प्रतिनिधित्व करते थे जो दुर्भाग्य से हमेशा कम ही रहे हैं.

पूर्व सीनेटर अफ़रासियाब खातक ने अपने एक ट्वीट में लिखा है कि जस्टिस सेठ का क़द सिर्फ़ उनके उल्लेखनीय फ़ैसलों की वजह से नहीं ऊंचा उठा था बल्कि जिन हालात में उन्होंने ये फ़ैसले दिए थे उसके लिए बहुत साहस की ज़रूरत थी.

सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष अब्दुल लतीफ़ अफ़रीदी ने जस्टिस सेठ के बारे में पाकिस्तानी अख़बार डॉन से बातचीत में कहा है कि, "वो साहसी और कभी समझौता न करने वाले शख़्स थे. वो कभी फ़ौज का सामने करने में नहीं हिचके और उन्हें इसकी क़ीमत भी चुकाई."

अब्दुल लतीफ़ ने बताया कि कैसे सीनियर होने के बावजूद उन्हें तीन बार सुप्रीम कोर्ट जज नहीं बनने दिया गया.

फ़ौज को नाराज़ करने वाले फ़ैसले

जस्टिस सेठ की अगुवाई वाली तीन सदस्यीय विशेष बेंच ने उस वक़्त ऐतिहासिक फ़ैसला दिया जब उन्होंने निर्वासित जनरल मुशर्रफ़ को पिछले साल देशद्रोह के मामले में मौत की सज़ा सुनाई.

मुशर्रफ़ को संविधान को निरस्त कर 2007 में ग़ैर संवैधानिक तरीक़े से इमरजेंसी शासन लगाने के मामले में दोषी पाया गया था. यह पहली बार था जब संविधान में वर्णित देशद्रोह का मामला किसी पर लागू हुआ था. यह और भी ख़ास इसलिए था क्योंकि यह एक ऐसे देश में हुआ था, जहाँ आज़ादी के बाद से ज़्यादातर वक़्त फ़ौज ने ही राजनीति को प्रभावित कर रखा हो.

मुशर्रफ़ ने हमेशा अपने ऊपर लगे आरोपों से इनकार किया है. यह सज़ा शायद ही कभी जनरल मुशर्रफ़ को मिले. 2016 में मेडिकल आधार पर उन्हें पाकिस्तान छोड़ कर जाने की इजाज़त दी गई थी.

फ़ैसले में कहा गया है कि अगर मौत की सज़ा दिए जाने से पहले उनकी मौत हो जाती है तो उनकी लाश को इस्लामाबाद में संसद के बाहर घसीट कर तीन दिनों तक लटकाया जाए. इस फ़ैसले को लेकर नाराज़गी भी ज़ाहिर की गई थी.

सरकार ने जस्टिस सेठ को अयोग्य ठहराने की भी मांग की थी और क़ानून के विशेषज्ञों ने इसे ग़ैर-संवैधानिक भी क़रार दिया था. स्वभाविक है कि फ़ौज ने भी इस पर आपत्ति दर्ज करते हुए एक बयान जारी किया था कि यह फ़ैसला काफ़ी पीड़ादायी है. जनरल मुशर्रफ़ निश्चित तौर पर कभी देशद्रोही नहीं हो सकते हैं.

हारिस ख़ालिक़ इस फ़ैसले को लेकर कहते हैं कि कुछ लोगों को निश्चित तौर पर जस्टिस सेठ के शब्दों को लेकर आपत्ति हो सकती है लेकिन एक फ़ौजी शासक को संविधानसम्मत देशद्रोह के मामले में सज़ा देना वाक़ई में एक ऐतिहासिक काम था. इस फ़ैसले को अब भी कई कोर्ट में चुनौती दी जा रही है लेकिन जस्टिस सेठ के सुनाए गए फ़ैसलों में यह अकेला ऐसा फ़ैसला नहीं था जिससे फ़ौज नाराज हुई थी.

जून, 2018 में पेशावर हाई कोर्ट के चीफ़ जस्टिस बनने के फ़ौरन बाद उन्होंने फ़ौज के कोर्ट की ओर से गोपनीय सुनवाई में दोषी क़रार दिए गए 200 नागरिकों को रिहा करने का फ़ैसला सुनाया था.

दिसंबर 2014 में पेशावर के आर्मी स्कूल में पाकिस्तान तालिबान की ओर से किए बच्चों के नरसंहार के बाद बनाए गए मिलिट्री कोर्ट में ये फ़ैसले लिए गए थे. लेकिन जस्टिस सेठ ने इन नागरिकों को रिहा करते हुए अपने फ़ैसले में सुनाया कि इन मामलों में सुबूतों का अभाव है और तथ्यों और क़ानून के साथ छेड़छाड़ की गई है.

पिछले साल अक्टूबर में उन्होंने ख़ैबर पख्तूनख्वा में उस क़ानून को निरस्त करने वाला फ़ैसला दिया जिसके तहत फ़ौज को इस बात की इजाज़त थी कि वो हिरासत में लिए गए नागरिकों को बिना किसी न्यायिक और प्रशासनिक कार्रवाई के ख़ुफ़िया तौर पर नज़रबंद करने वाले केंद्रों पर रख सकते थे.

पेशावर में डॉन अख़बार के क़ानूनी संवाददाता वसीम अहमद शाह कहते हैं, "जब मिलिट्री कोर्ट की ओर से दोषी ठहराए गए लोगों को छोड़ने का उन्होंने फ़ैसला सुनाया तो कुछ लोगों में इसे लेकर खलबली मची लेकिन जब उन्होंने नज़रबंद केंद्रों को लेकर बनाए गए क़ानून के ख़िलाफ़ फ़ैसला सुनाया तो यह सबके लिए साफ़ हो गया कि वो किसी से डरने वाले नहीं हैं और सत्ता के केंद्रों को किसी भी तरह की मुरव्वत नहीं देने वाले."

"बाद में उन्हें जनरल मुशर्रफ़ के मामले में तीन सदस्यीय विशेष अदालत का प्रमुख नियुक्त किया गया जिस मामले को कई लोग बिल्कुल एकतरफ़ा मामला मान कर चल रहे थे लेकिन ज़्यादातर लोगों को पता था क्या उम्मीद करनी चाहिए."

सरल और सपाट व्यक्तित्व वाले

वक़ार अहमद सेठ का जन्म 16 मार्च, 1961 को डेरा इस्माइल ख़ान शहर के मध्यम वर्गीय परिवार में हुआ था. जहाँ उनका जन्म हुआ था, उसे आज की तारीख़ में ख़ैबर पख्तूनख्वा के नाम से जाना जाता है.

उन्होंने अपनी ज़्यादातर पढ़ाई पेशावर में पूरी की थी. उन्होंने क़ानून और राजनीतिक विज्ञान में 1985 में स्नातक किया. इसी साल उन्होंने प्रैक्टिस करने के लिए ख़ुद को पंजीकृत करवाया.

उनके साथी वकील जो उन्हें जानते हैं वो बताते हैं कि वो दिल से समाजवादी थे. सेठ वामपंथी रुझान वाली पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के छात्र संगठन में सक्रिय रहे थे. उन्होंने अपने दफ्तर में कार्ल मार्क्स, लेनिन और ट्रॉटस्की की तस्वीरें लगा रखी थीं.

पेशावर के उनकी क़रीबी दोस्त और वकील शाहनवाज़ ख़ान बताते हैं, "उन्होंने हमेशा ख़ुद को साधारण रखा और कभी भी पीएचसी बार की राजनीति में सक्रिय नहीं हुए जिसका इस्तेमाल कई लोग अपना व्यक्तिगत प्रभाव बढ़ाने में करते हैं."

"इसके बदले वो अपने केस पर ध्यान देते थे. वो उन मामलों को लेने से मना कर देते थे जिन्हें वो अयोग्य समझते थे जबकि दूसरे वकील बिना मामले के मेरिट देखे कोई भी केस ले लिया करते हैं जब तक कि मुद्दई मुक़दमे का फ़ीस देता रहे."

जस्टिस सेठ अपने वकालत के दिनों में एक ऐसे वकील के तौर पर जाने जाते थे जिन्हें अगर यह लग जाए कि कोई केस उन्हें ज़रूर लड़ना चाहिए तो वो फ़ीस माफ़ कर देते थे.

जनवरी, 2019 में इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ़ जस्टिस ने पाकिस्तान के मिलिट्री कोर्ट के ऊपर जारी एक पेपर में इस बात का उल्लेख किया था कि जहाँ 2016 में पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट ने मिलिट्री कोर्ट की ओर से दोषी ठहराए गए लोगों की फ़रियाद सुबूतों के अभाव की दुहाई देते हुए ठुकरा दी थी तो वहीं 2018 में इन्हीं फ़रियादियों को जस्टिस सेठ की कोर्ट से राहत मिली थी.

कई लोगों को लगता था कि वो 'ओसामा बिन लादेन के तथाकथित डॉक्टर शकील अफ़रीदी' की अपील पर उन्हें छोड़ कर सत्ता को एक और धक्का दे सकते थे. डॉक्टर शकील ने लादेन को पाकिस्तान की ज़मीन पर घुसकर मार गिराने में अमेरिका की मदद की थी.

पाकिस्तान अपनी ज़मीन पर हुई इस कार्रवाई को लेकर काफ़ी शर्मिंदा था. कइयों को लगता है कि शकील अफ़रीदी को बली का बकरा बनाया गया था. उनके ऊपर देशद्रोह का मुक़दमा चलाया गया.

हालाँकि डॉक्टर अफ़रीदी पर कभी भी 2011 में लादेन के मारने वाले ऑपरेशन में भूमिका को लेकर मामला नहीं चलाया गया है बल्कि उन्हें दूसरे मामलों में दोषी ठहराया गया है. डॉक्टर शकील की दलील है कि उनके साथ न्याय नहीं हुआ है.

वसीम अहमद शाह कहते हैं कि, "जस्टिस सेठ के जाने के साथ ही उनकी रिहाई की उम्मीद कम हो गई है जब तक कि कोई दूसरा जज अपने निजी हितों से ऊपर उठकर इस मामले में फ़ैसला ना दे."

आम आदमी की तरह रहने की आदत

कई लोगों को लगता था कि जस्टिस सेठ के फ़ैसले उन्हें मुसीबत में डाल सकते हैं लेकिन शायद ही किसी ने सोचा होगा कि उनकी मौत कोरोना वायरस की वजह से होगी.

मुशर्रफ़ को लेकर जब उन्होंने फ़ैसला सुनाया था तब उनके ख़िलाफ़ हेट कैंपेन चलाया गया था जिसके बारे में माना जाता है कि वो अधिकारियों की शह पर हुआ था.

शाहनवाज़ ख़ान कहते हैं कि जिस तरह से वो अपनी सुरक्षा व्यवस्था को लेकर लपरवाह थे उसे देखकर लगता था कि वो अपनी जान जोखिम में डाल रहे हैं जबकि कई वरिष्ठ अधिकारी ऐसी सुरक्षा व्यवस्था के लिए ललायित रहते हैं.

शाहनवाज़ ख़ान बताते हैं कि वो हमेशा दफ़्तर आने-जाने के लिए अपनी पर्सनल कार इस्तेमाल करते थे और अक्सर अपने परिवार के साथ बाज़ार में ख़रीदारी करते हुए दिखाई दे जाते थे. किसी आम आदमी की तरह वो किसी कैफ़े में किसी पुराने दोस्त के साथ चाय पीते हुए भी दिखाई पड़ते थे.(https://www.bbc.com/hindi)

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