विचार/लेख
दयानिधि
शोधकर्ताओं की एक अंतरराष्ट्रीय टीम ने लोगों के माध्यम से भारी मात्रा में वातावरण में जारी होने वाली नाइट्रोजन के प्रभाव का मूल्यांकन किया है। मूल्यांकन के इस काम में संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन भी शामिल थे। हर साल वातावरण में जारी होने वाली इस नाइट्रोजन का पर्यावरण और स्वास्थ्य पर गहरा प्रभाव पड़ता है।
नाइट्रोजन का उपयोग नाइट्रिक एसिड, अमोनिया बनाने में होता है। अमोनिया से उर्वरक, नायलॉन, दवाओं और विस्फोटकों का उत्पादन किया जाता है।
जैसा कि शोधकर्ताओं ने बताया, पर्यावरण में जारी मानव-संबंधित नाइट्रोजन की मात्रा पिछले कई दशकों से लगातार बढ़ रही है। वायुमंडल में बहुत सी गैसे पहले से ही है, नाइट्रोजन की मात्रा के बढऩे से लोगों का जीवन खतरे में आ गया है। यह शोध पत्र नेचर फूड नामक पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।
इस नए प्रयास में, शोधकर्ताओं ने वातावरण में जारी नाइट्रोजन की मात्रा को मापने का प्रयास किया ताकि यह पता लगाया जा सके कि हम ग्रहों की सीमा (प्लेनेटरी बाउंड्री) के कितने करीब आ रहे हैं। ग्रहों की सीमा (प्लेनेटरी बाउंड्री) एक अवधारणा है जिसमें पृथ्वी में होने वाली प्रक्रियाएं पर्यावरणीय सीमाओं के अंदर होने की बात कही गई है। ग्रहीय सीमाएं स्पष्ट रूप से वैश्विक स्तर के लिए डिज़ाइन की गई हैं। इसका उद्देश्य औद्योगिक क्रांति से पहले मौजूद सुरक्षित सीमाओं के भीतर पृथ्वी को बनाए रखना है। बहुत ज्यादा नाइट्रोजन हानिकारक हो सकती है क्योंकि इसमें से कुछ नाइट्रेट्स के रूप में उत्सर्जित होते हैं, जो जल प्रदूषण के लिए जाने जाते है। इसमें से कुछ को अमोनिया के रूप में भी उत्सर्जित किया जाता है, जो एक ग्रीनहाउस गैस है। नाइट्रोजन पानी में बहकर पानी के स्रोतों तक पहुच जाता है, जिससे वहां अधिक मात्रा में शैवालों को उगने में मदद कर सकती है जो उस क्षेत्र में रहने वाले अन्य सभी प्राणियों के लिए खतरनाक है। मनुष्य विभिन्न स्रोतों के माध्यम से नाइट्रोजन का उत्सर्जन करते हैं, जिनमें उर्वरक के रूप में इसका छिडक़ाव, सीवेज उपचार संयंत्रों, बिजली संयंत्रों और अन्य उद्योग शामिल है। नाइट्रोजन उत्सर्जन के लिए सबसे बड़ी पशुधन श्रृंखला जिम्मेदार है। पशुओं को खिलाने के लिए इस्तेमाल होने वाले भोजन को उगाने के लिए फसल पर भारी मात्रा में नाइट्रोजन युक्त उर्वरक डाला जाता है। उनकी खाद से भारी मात्रा में नाइट्रोजन निकलती है।
शोधकर्ताओं ने अकेले पशुधन श्रृंखला पर अपने प्रयासों को केंद्रित किया। दुनिया भर के आंकड़ों का अध्ययन करने के बाद, उन्होंने गणना की कि पशुओं की वजह से हर साल 65 ट्रिलियन ग्राम नाइट्रोजन पर्यावरण में फैल रही है। यह वह संख्या है जो ग्रह की सीमा (प्लेनेटरी बाउंड्री) के लिए तय की गई गणना से अधिक है।
उन्होंने यह भी पाया कि पशुधन श्रृंखला पर्यावरण में जारी मानव-संबंधित नाइट्रोजन का लगभग एक-तिहाई हिस्से के लिए जिम्मेदार है। शोधकर्ताओं ने भविष्य में आपदा को रोकने के लिए नाइट्रोजन उत्सर्जन को कम करने पर जोर दिया है। (dw.com)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
राजस्थान के राजनीतिक दंगल ने अब एक बड़ा मजेदार मोड़ ले लिया है। कांग्रेस मांग कर रही है कि भाजपा के उस केंद्रीय मंत्री को गिरफ्तार किया जाए, जो रिश्वत के जोर पर कांग्रेसी विधायको को पथभ्रष्ट करने में लगा हुआ था। उस मंत्री की बातचीत के टेप सार्वजनिक कर दिए गए हैं। एक दलाल या बिचैलिए को गिरफ्तार भी कर लिया गया है।
दूसरी तरफ यह हुआ कि विधानसभा अध्यक्ष ने सचिन पायलट और उसके साथी विधायकों को अपदस्थ करने का नोटिस जारी कर दिया है, जिस पर उच्च न्यायालय में बहस चल रही है। पता नहीं, न्यायालय का फैसला क्या होगा लेकिन कर्नाटक में दिए गए अदालत के फैसले पर हम गौर करें तो यह मान सकते हैं कि राजस्थान का उच्च न्यायालय सचिन-गुट के 19 विधायकों को विधानसभा से निकाल बाहर करेगा। यह ठीक है कि सचिन का दावा है कि वह और उसके विधायक अभी भी कांग्रेस में हैं और उन्होंने पार्टी व्हिप का उल्लंघन नहीं किया है, क्योंकि ऐसा तभी होता है जबकि विधानसभा चल रही हो।
मुख्यमंत्री के निवास पर हुई विधायक-मंडल की बैठक में भाग नहीं लेने पर आप व्हिप कैसे लागू कर सकते हैं ? इसी आधार पर सचिन-गुट को दिए गए विधानसभा अध्यक्ष के नोटिस को अदालत में चुनौती दी गई है। कांग्रेस के वकीलों का तर्क है कि दल-बदल विरोधी कानून के मुताबिक अध्यक्ष का फैसला इस मामले में सबसे ऊपर और अंतिम होता है। अभी अध्यक्ष ने बागी विधायकों पर कोई फैसला नहीं दिया है। ऐसी स्थिति में अदालत को कोई राय देने का क्या हक है ? इसके अलावा, जैसा कि कर्नाटक के मामले में तय हुआ था, उसके विधायकों ने औपचारिक इस्तीफा तो नहीं दिया था लेकिन उनके तेवरों से साफ हो गया था कि वे सत्तारुढ़ दल के साथ नहीं हैं यानि उन्होंने इस्तीफा दे दिया है। यदि यह तर्क जयपुर में भी चल पड़ा तो सचिन पायलट-गुट न इधर का रहेगा न उधर का !
यदि अदालत का फैसला पायलट के पक्ष में आ जाता है तो राजस्थान की राजनीति कुछ भी पल्टा खा सकती है। जो भी हो, राजस्थान की राजनीति ने आजकल बेहद शर्मनाक और दुखद रूप धारण कर लिया है। मुख्यमंत्री गहलोत के रिश्तेदारों पर आजकल पड़ रहे छापे केंद्र सरकार के मुख पर कालिख पोत रहे हैं और इस आरोप को मजबूत कर रहे हैं कि भाजपा और सचिन, मिलकर गहलोत-सरकार गिराना चाहते है। इतना ही नहीं, करोड़ों रु. लेकर विधायकगण अपनी निष्ठा दांव पर लगा रहे हैं। वे पैसे पर अपना ईमान बेच रहे हैं। क्या ये लोग नेता कहलाने के लायक हैं ?
भाजपा-जैसी राष्ट्रवादी और आदर्शोन्मुखी पार्टी पर रिश्वत खिलाने का आरोप लगानेवालों के खिलाफ कठोरतम कार्रवाई होनी चाहिए और यदि ये आरोप सच हैं तो भाजपा का कोई भी नेता हो, पार्टी को चाहिए कि उसे तत्काल निकाल बाहर करे और वह राजस्थान की जनता से माफी मांगे। (nayaindia.com) (नया इंडिया की अनुमति से)
-मृणाल पाण्डे
फ्रांसीसी कहावत हैः चीजें जितनी बदलती हैं, उतनी ही पहले जैसी होती जाती हैं। 2019 में बीजेपी ने लोकसभा चुनावों में भारी जीत दर्ज कराई। पर इस बीच जिन विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को बहुमत मिला था, उनको भी मौका पाते ही उसने धर दबोचा। नतीजतन बहुमत के बावजूद गोवा या गुजरात में उसकी बजाय भाजपानीत सरकारें बन गईं। कुछ शपथ लेकर राज-काज संभाल चुकी राज्य सरकारें (कर्नाटक, मध्य प्रदेश की) सामदाम-दंड-भेद से गिरा दी गईं। अभी भी कुछ गिरने की कगार पर बताई जा रही हैं (राजस्थान, महाराष्ट्र)। बंगाल, बिहार के चुनाव सर पर हैं, उनके नतीजे और उन नतीजों के बाद के नतीजे देखना राजनीतिशास्त्र के अध्येताओं के लिए काफी रोचक रहेगा।
कोविड का डरावना असर भी हमारी चुनावी राजनीति का चाल, चरित्र, चेहरा और चिंतन नहीं बदल सका है, इसके दो दुखद उदाहरण हैं: मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया के बीजेपी में जाने और अब राजस्थान में बगावती तेवर देखते हुए राज्य के पार्टी प्रमुख और उपमुख्यमंत्री- जैसे दो महत्वपूर्ण पदों से सचिन पायलट का यकायक हटाया जाना। अब तक एक स्थापित परंपरा बन चली है कि अक्सर चुनावी नतीजों से राज्यवार जिस दल की सरकार और उसके वादों के मुताबिक जैसे आमूलचूल बदलाव की गणनाएं टीवी के पंडित लगाते हैं, वह अक्सर फलीभूत नहीं होते।
कोविड के बीच भी खास तौर से बुक किए विमानों से जो कल के आयाराम थे, किसी रिसॉर्ट ले जाए जाते हैं जहां से राजकचोरी खाकर वे गया राम बन कर निकलते हैं और बिना सुर ताल के कल तक अपनी मातृ पार्टी रही संस्था के सार्वजनिक बखिये उधेड़ने लगते हैं। मध्य प्रदेश में यह मंजर सबसे साफ दिखा, जहां कोविड के बढ़ते सायों के बीच भी काबीना की बनवाई अटकी रही, जब तक कोई टाइगर एक अभयारण्य का वरदहस्त त्याग कर दूसरे अभयारण्य में जाकर पुराने रखवालों के खिलाफ जम कर न दहाड़ने लगा।
अब तक बंगाल में दीदी ने अपने तृणमूल दल को और केरल में विजयन ने सत्ता में मार्क्सवादी गठजोड़ को कस कर जमाए रखा है। असम में पूर्ण बहुमत रखने वाली बीजेपी भी कांग्रेस के लंबे शासन को हटा कर सत्ता में डटी दिखती है। लेकिन कल तक कांग्रेस में रहे उसके शीर्ष नेता पुराने आजमूदा हथकंडों से विपक्षी दल हिलवा कर हिमालयी राज्यों पर केंद्र की जकड़बंदी को और भी सख्त बनाने में जुटे हैं। कोविड की मार न होती तो नागरिक रजिस्टर का विभेदकारी मुद्दा भी जोरों से धुकाया जाता, इसमें संशय नहीं।
उधर, गैर बीजेपी राज्य सरकारों में ईमानदार अंतर्मंथन से सूबे के भीतरी झगड़े समय पर भीतर ही सुलझाने की इच्छा और क्षमता चिंताजनक तौर से कम दिख रही है। ‘जे बिनु काज दाहिने बाएं’ हिसाबी-किताबी किस्म के विश्लेषक जो कहें, शीर्ष पर दो बड़ी पार्टियों के सनातन झगड़ों के बीच राज्यस्तर पर कई महत्वपूर्ण फैसले सलट नहीं पा रहे।
कोविड से जूझने और प्रवासी मजदूरों को अन्न-धन देने की योजनाएं बिना राज्य सरकारों को भरोसे में लिए अगला चुनाव जीतने की नीयत से बनाई जा रही हैं और पुलिस की दमनकारिता को शह देकर जनता की छटपटाहट को लोकतांत्रिक आवाज नहीं मिल रही। सत्ता की मलाई कुछेक केंद्र के चहेते राज्यों के दल और उनके वे एकछत्र नेता काट रहे हैं, जिनके तेवर दिल्ली का मुख देखकर हर पल बदलते रहते हैं।
यह बात सब मानते हैं कि अगले क्षेत्रीय चुनावों में दोनों राष्ट्रीय दलों को मुंह में तिनका दबा कर ताकतवर क्षेत्रीय दलों और उनके वोटों के सौदागरों से चुनावी गठजोड़ के लिए चिरौरी करनी होगी। यह भी नितांत संभव है कि कुछ क्षेत्रीय दल जनता पार्टी युग में लौट कर चुनाव आते-आते अपने ही बीच से किसी एक क्षेत्रीय क्षत्रप को केंद्रीय धुरी बना कर राष्ट्रीय चुनावों में अपना चूल्हा अलग सुलगाने की तैयारी करने लगें।
जब वैचारिकता का राजनीति में चौथा उठाला हो चुका हो तो कैसे वैचारिक मतभेद, कैसे वैचारिक विभाजन? अस्सी पार के अभी भी दमखम वाले शरद पवार इस आशय की बात कह भी चुके हैं कि केंद्र को बड़ी चुनौती देने के लिए सभी विपक्षी दलों को जल्द से जल्द अपना संगठन बना लेना चाहिए।
उत्तर कोविड काल में बीजेपी के प्रचारक प्रकोष्ठ हालांकि शीर्ष नेता की चुनावी पकड़ एकदम पक्की होने का दावा कर रहे हैं, पर 2014 या 2019 की बीजेपी अब पुरानी तहरीरों, सीमा की सुरक्षा के लिए एकजुट होकर देश बचाने के नारों के बीच रंगारंग वक्तृता से जनता को दोबारा उसी तरह रिझा सकेगी इसमें संशय है। थैलियां चाहे जितनी बड़ी हों, कोविड संक्रमण के डर से रैलियां पहले की तरह करना नाममुकिन हो गया है।
दुनिया की आर्थिक हालत खस्ता है और चीन तथा अमेरिका- दो महाशक्तियों के बीच शीतयुद्ध का तनाव गहरा रहा है। चीन का सामूहिक हुक्का-पानी बंद करने का नारा आकर्षक भले हो, पर आसान नहीं। पुरानी चुनावी रैलियों में बीजेपी ने भरोसा दिलाया था कि जैसे-जैसे नई अर्थव्यवस्था और विदेशी निवेश रंग लाएंगे शहरी उद्योगों का विकास होगा, ग्राम समाज की अंधविश्वासी और प्रतिगामी सामाजिक परंपराएं टूटेंगी, खेती की बजाय उद्योग-धंधे आर्थिक धुरी बन जाएंगे। महिलाएं तरक्की करती हुई हर क्षेत्र में पैठ बनाएंगी।
जब लिंग, जाति, क्षेत्र वगैरा के भेदभाव कम होंगे तब सारे समाज में एक नई रोशनी आएगी। बड़ी आर्थिक क्रांति के बाद सामाजिक क्रांति तो खुद-ब-खुद हो जाया करती है इसलिए हम चीन की टक्कर की एशियाई ताकत बन कर उभरेंगे। लेकिन पिछले चार महीनों में हमने इस सपने को धुंधलाते देखा है। देशों के बीच नस्लवादी आर्थिक गुटबंदियां या सोच और सदियों पुरानी साम्राज्यवादी परंपराओं की जड़ें आसानी से नहीं खत्म होतीं।
कई बार ऊपरी छंटाई के बाद बदलाव का भ्रम बन जाता है। कोई बड़ी चुनौती सामने आई नहीं, कि पुरानी सांस्कृतिक जड़ें फिर फुनगियां पत्ते फेंकने लगती हैं: वही श्वेत-अश्वेत टकराव, चीन की वही पड़ोसी सीमा को पार कर जमीन हथियाने की साम्राज्यवादी आदत और यूरोप बनाम मुस्लिम विश्व के सदियों पुराने राग-विराग। घर भीतर देखें तो यहां भी वही मंदिर, मंडल, वही सरकारी खजाने खाली कराने और सरकारी बैंकों को दिवालिया कराने वाली सब्सिडियां, वही लैपटॉप, मिक्सी, टीवी और मुफ्त अनाज का बेशर्म वितरण फिर हो रहा है। विधायकों को रिसॉर्ट भेजकर जबरन तोड़ने की कोशिशें भी जारी हैं।
शंकराचार्य ने कहा था- ब्रह्म ही सच है, जगत मिथ्या है। भारत में भी लगता है चुनाव ही सच है, कोविड और गरीबी मिथ्या। उज्जवला योजना, बेटी पढ़ाओ सरीखी योजनाओं के गुब्बारों से रीझी महिलाओं के सघन वोट बैंक को साम-दाम से समेट कर बीजेपी दूसरी पारी जीत गई और केरल में भी लाल किताब के बाहर जाकर खालिस भारतीय सुपरस्ट्रक्चर के एझवा-ईसाई-नायर-लीगी जैसे वोट बैंकों का महत्व मार्क्सवादी सर माथे रख कर सत्ता में आ गए।
रही मुस्लिम वोट बैंक की बात। बीजेपी तो उसका मोह-छोह कबका त्याग चुकी है। पर मुसलमान क्या सोचता है? खासकर काश्मीर के विभाजन और मंदिर मसले पर सरकारी पक्ष की जीत के बाद? इस पर शेष दलों की नजर है। आजादी के बाद कुछ दशकों तक जो मुसलमान क्रांति कामना रखता था, कम्युनिस्ट बन जाता था। लेकिन नाना थपेड़े खाकर अब वह राज्यवार अलग-अलग तरह से नए भावताव की सोच रहा है।
देश में जिन शब्दों का पिछले दो सालों में सबसे ज्यादा अवमूल्यन हुआ है, धर्मनिरपेक्षता उनमें से एक है। शाब्दिक स्तर पर जिन दलों ने धर्मनिरपेक्ष राजनीति अंगीकार की भी हुई है, जैसे कि जेडीयू, मुसलमान पाता है कि वह उनके राजकाज को कोई आंतरिक धार्मिक संतुलन नहीं देती। न ही उसकी प्रशासकीय मशीनरी में सेक्युलर कर्तव्य का बोध कराती है जो केंद्र से भिन्न हो।
चुनाव आता है तो धर्म की बातें करने वाले भी धर्म के नाम पर कुछ स्वयंभू किस्म के साधु-साध्वियों की अनकहनी बातों को खंडित करने की बजाय हर मंच पर उनकी मौजूदगी सनिुश्चित करने लगते हैं। संगीन आतंकी हमलों के चार्जशीटेड अपराधियों को नई जांच बिठा कर मुक्त करवा दिया गया है, जबकि कई उदारवादी समाजसेवी एकदम पोच किस्म के मुकदमों में फंस कर सलाखों के भीतर हैं।
कुल मिलाकर हमारी महत्तर राजनीति कभी योग और कभी (उप)भोग के रूपों को हिंदुत्ववादी भाषा से जोड़ कर जाहिर कर रही है कि उसे सचमुच के धर्म की गहरी समझ कतई नहीं है। धर्म और धर्मनिरपेक्षता दोनों की सारी बुराइयां चुनावी फायदे के लिए हमारे राजनीतिक दल बेशर्मी से अंगीकार करने लगे हैं। असली मूल्य इतनी बुरी तरह से परे कर दिए हैं कि जब राहुल गांधी सत्यनिष्ठा और अहिंसक आंदोलनों का ज़िक्र करें तो उनकी खिल्ली उड़ाई जाती है और जब अनुराग ठाकुर देश के गद्दारों का विवादास्पद नारा उठाते हैं तो उसे कानून का उल्लंघन नहीं माना जाता, उल्टे उसकी प्रतिध्वनियां गली-कूचों में जल्द ही गूंजने लगती हैं।
यही सब देख-समझ कर अल्पसंख्य समुदायों और दलितों की प्राथमिकता फौरी तौर से ही सही, अपने जान-माल की सुरक्षा और बीजेपी को सत्ता से दूर रखने की सामर्थ्यवाली क्षेत्रीय पार्टी की मदद करने की बन चली है। केंद्र में विपक्षी गठजोड़ को सत्ता में लाने का सपना देखने वालों के आगे जनता का ईमानदार सवाल यह है कि क्या वे इस बात का ठोस सबूत दे सकते हैं कि आने वाले समय में राष्ट्रीय दलों का क्षेत्रीय दलों से समन्वय बन गया, तब ऐसे समय में विपक्षी गठजोड़ क्षेत्रीय और राष्ट्रीय हितों का एक धड़कता हुआ प्राणवान समन्वय किस तरह कायम कर सकेगा?(navjivan)
हमारे देश में बेचने-खरीदने वाले का धंधा कोरोना काल में भी जोरों पर है। इसमें इतना उछाल आया हुआ है कि कामधंधे भले चौपट हो गए मगर सेंसेक्स ऊपर और ऊपर और ऊपर ही चढ़ता जा रहा है। मैंने सेंसेक्स को दोस्त समझकर कहा कि ए, ताऊ, इस हालत में तो इतना ऊपर मत जा, गिरेगा तो तेरे कलपुर्जे भी नहीं मिलेंगे। उसने कहा, ‘अबे हट, बे कलमघिस्सू। तू क्या जाने हमारा खेल! तूने तो कभी एक पैसा भी शेयर बाजार में नहीं लगाया है।कायर कहीं के, बुझदिल, मुझे शिक्षा देता है! तेरी ये मजाल! तू है क्या चीज।आदमी का चोला पाकर तू मुझसे भिडऩे आया है। तू समझता है, तू मुझसे ताकतवर है? बेट्टा मेरे सामने पूरा बाजार, सारे मंत्री-प्रधानमंत्री शीश नवाते हैं जबकि तेरे ऊपर गली का खजेला कुत्ता भी भोंकने को भी तैयार नहीं होगा। जा पहले गंदे नाले के पानी में अपनी शकल धोकर आ, फिर आकर बात करना। हट जा, मेरी नजरों के सामने से वरना तेरा कत्ल कर दूँगा।
क्यों रे गधे, जब देश बेचनेवाले, देश बेच रहे हैं। बेच-बेच कर एमएलए, मंत्री और सरकारें खरीद रहे हैं, तब तू मुझसे कह रहा है, ज्यादा उछल मत। क्यों नहींं उछलूँ? तुझसे पूछ कर उछलूँगा क्या? और नीचे धड़ाम से गिरा भी तो तेरे पिता श्री का क्या जाता है बे। तू अपने काम से काम रख।
सही कहा, ताऊ तुमने। मैं क्षमा माँगता हूँ। क्षमा बडऩ को चाहिए, छोटन को उत्पात। इतना कह कर मैंने मामला शांत करना चाहा।यह सुन कर उसने कहा, अबे ये कौनसी छोटन-बडऩ भाषा बोल रहा है, हिंदी बोल, हिंदी। अंग्रेजी आती हो तो अंग्रेजी बोल।
खैर मैंने किसी तरह राम-राम करते मामला सुलझाया। संकट टलने के पंद्रह मिनट बाद दिमाग थोड़ा शांत हुआ तो सोचा, वाकई ताऊ सही कह रह था। जब बेचनेवाले बैंक बेच रहे हैं, बीमा कंपनियाँँ बेच रहे हैं, तेल कंपनियाँ, विमान सेवा, हवाई अड्डे, ओनजीसी, भारतीय रेल बेच रहे हैं। एयर इंडिया न बिके तो लोहेलंगर के भाव बेचने की कोशिश कर रहे हैं। ऐसे मैं भी सेंसेक्स बेचारा न उछले तो क्या सुस्त पड़ा रहे?
अरे जब एक सुपर स्टार तेल से लेकर ऐप तक सबकुछ बेच चुका और अभी भी उसका बेचने का हौसला बुलंदी पर है तो सेंसेक्स क्यों मृतप्राय: रहे? अभी वह कोरोना पॉजिटिव हो गया तो इसे भी उसने एक प्राइवेट अस्पताल का विज्ञापन करके भुना लिया। नाम और कमा लिया, नामा इसी से मिलेगा। किसी ने कभी सोचा था कि बेचने वाला स्टार अगर कोरोना पाजिटिव भी हो जाए तो घबराता नहीं, इसे भी बेच देता है! यह पक्का है कि अस्पताल से बाहर आकर, वह कोरोना से लडऩे का अपना ‘साहस’ भी ऊँची कीमत में बेचेगा।इस बीच कोरोना का टीका बन गया तो उसे भी बेचेगा। कोरोना का ब्रांड एंबेसडर वही बनेगा। प्रधानमंत्री की ‘उज्ज्वल छवि’ उसने पहले भी बेची है अब और भी जोरशोर से बेचेगा।
कहानी इन दो पर ही खत्म नहीं होती। क्रिकेट खिलाड़ी तो सरेआम बिकते हैं। फिर उनकी कैप, उनकी शर्ट, उनकी पैंट के घुटने भी बिकती है। बल्ला भी बिकता है।खेल का मैदान भी बिकता है। फिर तरह -तरह के सामान बेचना रह जाता है, तो उसे भी ये खिलाड़ी बेचने लगते हैं। ‘भारतरत्न’ पा जाएँ तो भी ईश्वर की कृपा के वशीभूत होकर ये बेचते रहते हैं।
अभी कुछ युवा कांग्रेसी नेताओं ने भाजपा को अपनी धर्मनिरपेक्षता आस्था बेच दी और सांप्रदायिकता खरीद ली। साथ में राज्यसभा की सीट भी हासिल कर ली। इतना ही नहीं, अपनों को अपने राज्य में मंत्री पद दिलवाकर, अब खुद भी केंद्र में मंत्री बनेंगे। फिर न जाने क्या-क्या खरीदेंगे-बेचेंगे। गैरभाजपाई नेता और एमएलए तो भाजपा मंडी में थोक के भाव खरीदती है। सुनते हैं कि हर विधायकी की कीमत तीस-पैंतीस करोड़ तक है। पचास करोड़ भी हो सकती है और एक राजस्थानी नेता तैयार बैठे हैं। जीवनभर में भी जितनी काली कमाई नहीं होती, वह एक झटके में हो जाती है।ईमान ही तो बेचना होता है, मतदाताओं को धोखा ही तो देना होता है। ईमान कोई कीमती चीज तो है नहीं, दस रुपये के नोट बराबर इसकी वैल्यू है। और धोखा देना तो खैर आज की राजनीतिक शैली है।
खरीदनेवाले में यह आत्मविश्वास होता है कि सबकुछ खरीदा जा सकता है। यह दुनिया एक बाजार के सिवाय कुछ नहीं है। यहाँ न्याय भी खरीदा जा सकता है, गवाह, वकील, जज भी। धर्म, ईमान, इंसानियत सब खरीदे जा सकते हैंं। उन्हें ताज्जुब होता है कि इस दुनिया में ऐसा भी कुछ होता है, जो बिकशनशील नहीं होता, जो खरीदा नहीं जा सकता! उधर जो जितनी जल्दी बिक जाता है, जितनी जल्दी ऊँची सीढिय़ाँ चढ़ जाता है, वह उतना ही ज्यादा गरीबों का हमदर्द होने की घोषणाएँ भी करता रहता है। खुद गरीबी से, पिछड़ी जाति से आने की मुनादी इतनी बुलंद आवाज में करता है कि दूसरे किसी की आवाज सुनाई नहीं देती।वह सत्ता को खरबपतियों को बेच कर आराम से 18-18 घंटे सोता है। वह सोने को ही जागना घोषित कर देता है। हाँ जब कोई अडाणी-अंबानी मोबाइल पर उसे याद करता है तो आधी रात को भी जी सर, कहते-कहते बिस्तर से उठकर खड़ा हो जाता है। जी, जी बस हो गया आपका काम।सुबह हम बेच देंगे, शाम को आप खरीद लेना। नमस्ते-नमस्ते, गुडनाइट, गुडनाइट।
-विष्णु नागर
(इस साल के अंत में होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव को लेकर दरभंगा की रहने वाली पुष्पम प्रिया चौधरी ने विज्ञापन के जरिए खुद को बिहार के मुख्यमंत्री पद की प्रबल दावेदार बताया था। पुष्पम प्रिया ने कुछ समय पहले ‘प्लूरल्स’ नाम के एक राजनीतिक दल के गठन का ऐलान किया था और खुद को प्रदेश के मुख्यमंत्री पद का दावेदार घोषित कर दिया। पुष्पम प्रिया चौधरी दरभंगा की रहने वाली हैं और उन्होंने लंदन से अपनी पढ़ाई पूरी की है। उनके पिता विनोद चौधरी जेडीयू के वरिष्ठ नेता हैं और एमएलसी रह चुके हैं. पुष्पम प्रिया ने जनसंपर्क अभियान की शुरुआत मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के गृह जिला नालंदा से की। जनसंपर्क अभियान की शुरुआत करने के दौरान पुष्पम प्रिया चौधरी ने फेसबुक पर लिखा, उनकी पार्टी ‘प्लूरल्स’ की योजना बहुत स्पष्ट है -अंतरराष्ट्रीय ज्ञान और जमीनी अनुभव की साझेदारी ताकि कृषि क्रांति, औद्योगिक क्रांति और नगरीय क्रांति की नई कहानी लिखी जा सके। (यह जानकारी ‘आजतक’ से) -संपादक, ‘छत्तीसगढ़’)
-पुष्य मित्र
इन दिनों पुष्पम प्रिया चौधरी का नाम सोशल मीडिया में तेजी से फैल रहा है। इस कोरोना काल में भी वह पूरे बिहार में घूम रही हैं, हर इलाके की प्रमुख समस्या को उठा रही हैं। वे जिन मुद्दों को लेकर सोशल मीडिया को लेकर मुखर हैं, वे बिहार के विकास से संबंधित जरूरी सवाल हैं। कई लोग उनमें विकल्पहीन होती बिहार की राजनीति के लिए एक सकारात्मक विकल्प के तौर पर देख रहे हैं।
उनकी यात्राओं से संबंधित पोस्ट देखता हूँ तो मुझे एक रिपोर्टर के तौर पर 2015 के विधानसभा चुनाव और 2019 के लोकसभा चुनाव की गई अपनी यात्राएं याद आती हैं। इनमें से ज्यादातर जगहों पर मैं इस दौरान जा चुका हूँ। बिहार के जो कुछ चुनिंदा घुमंतू रिपोर्टर हैं, वे इन जगहों पर जाते रहते हैं, अपने सीमित संसाधनों में। मगर उनकी कैमरा टीम काफी प्रोफेशनल है, इसलिये उनकी यात्राओं की तस्वीरें काफी प्रभावशाली दिखती हैं।
मगर पुष्पम प्रिया रिपोर्टर नहीं हैं, वे टीवी जर्नलिस्ट भी नहीं हैं। वे राजनीति करने आई हैं और राजनीति में जरूरी मुद्दों की समझ होना काफी नहीं है। यह तो राजनीति का पहला अध्याय है। मुद्दों की समझ के साथ साथ राजनेताओं को इन मुद्दों के लिये संघर्ष करना और संघर्ष के साथियों की टीम बनाना जरूरी होता है। लोग यह भी देखना चाहते हैं कि आपमें समझ के साथ-साथ बदलाव की क्षमता है कि नहीं। बदलाव कैसे आएगा यह विजन है कि नहीं। इस लिहाज से अभी उन्हें काफी काम करना है।
हां, यह कहा जा सकता है कि उनकी शुरुआत सही है। हालांकि इसके बदले यह कहा जाना चाहिए कि उनकी रिसर्च टीम अच्छी है, उनके प्रेजेंटर अच्छे हैं, उनका विजुअल प्रेजेंस बेहतरीन है। उन्होंने अच्छी पीआर टीम हायर की है। मगर इन सबका प्रभाव सिर्फ सोशल मीडिया पर है।
इन दिनों गांव में हूँ और पिछले डेढ़ महीने में किसी को पुष्पम प्रिया के बारे में बात करते नहीं सुना। हो सकता है वे उन्हें जानते हो मगर उनकी यात्राओं के बारे में उन्हें ज्यादा नहीं मालूम। फेसबुक और ट्विटर एक भ्रम है, इसके संदेश जमीन पर बहुत कम पहुंचते हैं। इसके बदले टीवी और वाट्सएप राजनीति के लिहाज से ज्यादा पॉवरफुल और प्रभावी माध्यम है। इन माध्यमों तक उनकी पहुंच नहीं बनी है।
उनकी टीम कार्यकर्ताओं का नेटवर्क बना रही है या नहीं, यह मालूम नहीं। यह सब इसलिये लिख रहा हूँ, क्योंकि देखता हूँ कई मित्र उनसे काफी प्रभावित दिख रहे हैं। मगर उन्हें यह भी समझना चाहिए कि पुष्पम प्रिया आजतक की स्टार रिपोर्टर नहीं हैं, वे बिहार जैसे भदेस राज्य की स्वघोषित मुख्यमंत्री पद की दावेदार हैं। दिल्ली जैसे मेट्रोपोलिटन शहर में भी आम आदमी पार्टी को जमीन बनाने में प्रभावी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के साथ साथ हर मुहल्ले में जाकर संघर्ष करना पड़ा था। उनके पास प्रतिबद्ध युवाओं की एक बेहतरीन टीम थी और वैचारिक लोगों का मार्गदर्शन भी। राजनीति इतनी आसान चीज नहीं है।
जीवन के सरस दस बरस मैंने ‘जनसत्ता’ के चंडीगढ़ संस्करण का संपादन करते हुए बिताए। वास्तुकला में वह शहर दुनिया भर में जाना जाता है, जिसे मूल रूप से स्वीडी, मगर फ्रांस में रहने वाले शार्ल-एदुआ जेनेरे उर्फ ल कार्बूजिए ने आकार दिया था। यानी शहर की योजना और वास्तुशिल्प को उन्होंने अंजाम दिया। उन्हें पं. नेहरू ने पंजाब-हरियाणा की नई राजधानी बनाने का जिम्मा सौंपा था।
कार्बूजिए को पिछली सदी के महान वास्तुकारों में गिना जाता है। उन्होंने वास्तुकला को ‘शुचिता’ का सिद्धांत दिया। आज कई वास्तुकार उनके नक्शे-कदम पर चलते हैं। कुछ वास्तुकार कार्बूजिए सरीखा मोटे घेरे का बड़ा चश्मा लगाते हैं। चाल्र्स कोरिया भी लगाते थे।
इस्ताम्बुल की एक छोटी दुकान में बड़ी किताबों के बीच दुबकी दुर्लभ किताब मुझे मिली — तुर्की वास्तुकला और शहरीकरण, एल-सी की दृष्टि में। कार्बूजिए को अपनापे से लोग ‘एल-सी’ बोलते थे। किताब के लेखक रहे प्रो. (डॉ.) अनीस कोरतन। छोटी-छोटी टिप्पणियाँ। अंगरेजी, तुर्की और फ्रांसीसी में एक साथ।
इस्ताम्बुल से एथेंस के सफर में मैंने किताब को मनोयोग से पढ़ा। चंडीगढ़ में कार्बूजिए के बारे में बहुत सुना-पढ़ा था, मगर यह जिक्र कभी नहीं सुना कि कार्बूजिए ने वास्तुकला का पाठ इस्ताम्बुल में पाया था।
मारियो सल्वादोरी की एक सुंदर उक्ति है: ‘वास्तुकला को पढ़ाया नहीं जा सकता। मगर उसका अध्ययन किया जा सकता है।’ शायद यही वजह हो वास्तुकला के श्रेष्ठ अच्छे शिक्षण संस्थान नहीं हैं; मगर श्रेष्ठ वास्तुकार दुनिया में बहुत हैं।
कार्बूजिए ने कभी वास्तुकला की औपचारिक पढ़ाई नहीं की। मगर स्वैच्छिक अध्ययन खूब किया। बचपन में वे चित्र अच्छे बनाते थे। लडक़पन में वास्तुकला में दिलचस्पी पैदा हुई। रोम, विएना और लियों जाकर मशहूर वास्तुकारों के काम का अध्ययन किया। फिर पेरिस के ऑगस्त पेरे के साथ काम शुरू किया। पैरिस में रहते हुए कला में ‘घनवाद’ का भी गहन अध्ययन कर डाला।
1911 में चौबीस वर्ष की उम्र में कंधे पर झोला लटका कर अपने एक दोस्त के साथ कार्बूजिए जर्मनी, सर्बिया, रोमानिया और बुल्गारिया होते हुए तुर्की पहुंचे। सात महीने के उस शिक्षा-सफर को कार्बूजिए ने ‘पूरब की फलदायी मुसाफिरी’ की संज्ञा दी है।
उन्होंने तुर्की वास्तुशिल्प को देख सौ के ऊपर रेखाचित्र बनाए। और कुछ जलरंग-चित्र भी। 1948 में, जब वे एक वास्तुकार के रूप में प्रसिद्ध हो चुके थे, कुछ रोज के लिए फिर तुर्की गए तो उन्हें लगा कि अच्छा हो वे अपने सैंतीस साल पुराने उस सफर की डायरी के पन्ने भी पलटें। उन्होंने पलटे।
उस पहली यात्रा की डायरी में एक जगह उन्होंने लिखा था: ‘चाहे वास्तुकला हो, चित्रकला हो या मूर्तिकला—सफर में आप अपनी आंख से देखते हैं और हाथ से रेखाचित्र बनाते हुए अपने अनुभव आंकते हैं, दर्ज करते हैं। ...कैमरा तो निठल्लों के लिए है, जो चाहते हैं कि मशीन उनके लिए देखने का काम करे। जब आप अपने हाथ से कुछ उतारते हैं, उकेरते हैं, आकारों को सहेजते हैं, सतह को सुव्यवस्थित करते हैं — इस सबका अर्थ होता है कि आप पहले देखते हैं, फिर निरखते हैं और फिर शायद कुछ उद्घाटित कर पाते हैं। इसी में कुछ सार्थकता है। आविष्कार करना, रचना, अपने पूरे अस्तित्व को सक्रिय करना... इसी सक्रियता का महत्त्व है।’
लगता है रोदाँ के इस सच को कार्बूजिए ने बड़ी जवानी में आत्मसात कर लिया था कि आम आदमी नजर डालता है। जबकि कलाकार देखता है। इसी विचार का कार्बूजिए ने बाद में अपनी किताब ‘नए वास्तुशिल्प की ओर’ (1923) के एक अध्याय में विवेचन किया, जिसका शीर्षक है : ‘जिसे आंखें नहीं देखतीं।’
जाहिर है, तुर्की की यात्रा ने कार्बूजिए के भीतर छिपे कलाकार और चिंतक को बाहर आने में बहुत मदद की।
इस्ताम्बुल पहुंचते ही कार्बुजिए को लगा था कि जिस चीज की तलाश थी वह मिल गई। उन्होंने लिखा, ‘इस्ताम्बुल एक बगिया है, हमारे शहरों की तरह पत्थर की खदान नहीं।’
तुर्की की मसजिदों के बारे में कार्बूजिए ने कहा: ‘अतीत, वर्तमान, उसके पार निर्विकार — गोया आकारों की रंगावली का एक करुण गान’।
उनका कहना था वे मसजिदें काव्य से ओतप्रोत हैं। सरल, सहज और पवित्र।
तुर्की की मसजिदों के अपने हर रेखांकन के नीचे कार्बूजिए ने सुंदर इबारत लिखी है। मसलन, इस्तांबुल में सुल्तान सलीम की मसजिद के रेखांकन पर लिखा : ‘कोमल आकारों का मधुर राग’।
दशकों बाद उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘शहरीकरण’ में ‘दुख या आनंद’ शीर्षक से लिखा कि ‘अगर हम न्यूयार्क से इस्ताम्बुल की तुलना करें तो पाएंगे कि पहला तबाही का रूप है, दूसरा जैसे धरती पर आनंदधाम है। न्यूयार्क सुंदर नहीं है; व्यावहारिक गतिविधियों में भले वह कुछ काम का प्रतीत होता हो, मगर वह हमारे आनंद के संवेदन को आहत करता है।’
इस्ताम्बुल की हरियाली ने कार्बूजिए को भीतर तक छुआ।
कार्बूजिए के वास्तुकला सिद्धांत में तीन तत्तव हैं, जो हर पारंपरिक वास्तुशिल्प में मिलेंगे: सूर्य, आकाश और हरियाली।
-ओम थानवी
शोधकर्ताओं ने नाइट्रोजन को मापने का किया प्रयास
- दयानिधि
शोधकर्ताओं की एक अंतरराष्ट्रीय टीम ने लोगों के माध्यम से भारी मात्रा में वातावरण में जारी होने वाली नाइट्रोजन के प्रभाव का मूल्यांकन किया है। मूल्यांकन के इस काम में संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन भी शामिल थे। हर साल वातावरण में जारी होने वाली इस नाइट्रोजन का पर्यावरण और स्वास्थ्य पर गहरा प्रभाव पड़ता है।
नाइट्रोजन का उपयोग नाइट्रिक एसिड, अमोनिया बनाने में होता है। अमोनिया से उर्वरक, नायलॉन, दवाओं और विस्फोटकों का उत्पादन किया जाता है।
जैसा कि शोधकर्ताओं ने बताया, पर्यावरण में जारी मानव-संबंधित नाइट्रोजन की मात्रा पिछले कई दशकों से लगातार बढ़ रही है। वायुमंडल में बहुत सी गैसे पहले से ही है, नाइट्रोजन की मात्रा के बढ़ने से लोगों का जीवन खतरे में आ गया है। यह शोध पत्र नेचर फूड नामक पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।
इस नए प्रयास में, शोधकर्ताओं ने वातावरण में जारी नाइट्रोजन की मात्रा को मापने का प्रयास किया ताकि यह पता लगाया जा सके कि हम ग्रहों की सीमा (प्लेनेटरी बाउंड्री) के कितने करीब आ रहे हैं। ग्रहों की सीमा (प्लेनेटरी बाउंड्री) एक अवधारणा है जिसमें पृथ्वी में होने वाली प्रक्रियाएं पर्यावरणीय सीमाओं के अंदर होने की बात कही गई है। ग्रहीय सीमाएं स्पष्ट रूप से वैश्विक स्तर के लिए डिज़ाइन की गई हैं। इसका उद्देश्य औद्योगिक क्रांति से पहले मौजूद सुरक्षित सीमाओं के भीतर पृथ्वी को बनाए रखना है।
बहुत ज्यादा नाइट्रोजन हानिकारक हो सकती है क्योंकि इसमें से कुछ नाइट्रेट्स के रूप में उत्सर्जित होते हैं, जो जल प्रदूषण के लिए जाने जाते है। इसमें से कुछ को अमोनिया के रूप में भी उत्सर्जित किया जाता है, जो एक ग्रीनहाउस गैस है। नाइट्रोजन पानी में बहकर पानी के स्रोतों तक पहुच जाता है, जिससे वहां अधिक मात्रा में शैवालों को उगने में मदद कर सकती है जो उस क्षेत्र में रहने वाले अन्य सभी प्राणियों के लिए खतरनाक है।
मनुष्य विभिन्न स्रोतों के माध्यम से नाइट्रोजन का उत्सर्जन करते हैं, जिनमें उर्वरक के रूप में इसका छिड़काव, सीवेज उपचार संयंत्रों, बिजली संयंत्रों और अन्य उद्योग शामिल है। नाइट्रोजन उत्सर्जन के लिए सबसे बड़ी पशुधन श्रृंखला जिम्मेदार है। पशुओं को खिलाने के लिए इस्तेमाल होने वाले भोजन को उगाने के लिए फसल पर भारी मात्रा में नाइट्रोजन युक्त उर्वरक डाला जाता है। उनकी खाद से भारी मात्रा में नाइट्रोजन निकलती है।
शोधकर्ताओं ने अकेले पशुधन श्रृंखला पर अपने प्रयासों को केंद्रित किया। दुनिया भर के आंकड़ों का अध्ययन करने के बाद, उन्होंने गणना की कि पशुओं की वजह से हर साल 65 ट्रिलियन ग्राम नाइट्रोजन पर्यावरण में फैल रही है। यह वह संख्या है जो ग्रह की सीमा (प्लेनेटरी बाउंड्री) के लिए तय की गई गणना से अधिक है।
उन्होंने यह भी पाया कि पशुधन श्रृंखला पर्यावरण में जारी मानव-संबंधित नाइट्रोजन का लगभग एक-तिहाई हिस्से के लिए जिम्मेदार है। शोधकर्ताओं ने भविष्य में आपदा को रोकने के लिए नाइट्रोजन उत्सर्जन को कम करने पर जोर दिया है।(downtoearth)
तो क्या सचिन की बात के अनुसार आउट देना चाहिए या नहीं.
-आदेश कुमार गुप्त
बीते दिनों भारत के पूर्व कप्तान और बल्लेबाज़ सचिन तेंदुलकर ने वेस्टइंडीज़ के पूर्व कप्तान और बल्लेबाज़ ब्रायन लारा के साथ वीडियो चैट के दौरान कहा कि क्रिकेट में तकनीक के इस्तेमाल का मक़सद यही है कि निर्णय सही हों.
सचिन ने उस दौरान अंपायरों के फ़ैसले की समीक्षा प्रणाली यानी डीआरएस से अंपायर्स कॉल को हटाने का सुझाव देते हुए कहा कि एलबीडब्ल्यू में जब गेंद स्टंप्स से टकरा रही हो तो बल्लेबाज़ को आउट दिया जाना चाहिए.
सचिन ने यह साफ़ लहज़े में कहा कि वो एलबीडब्ल्यू को लेकर डीआरएस के फ़ैसले पर आईसीसी से सहमत नहीं हैं. उनका कहना है कि डीआरएस में मैदानी फ़ैसला तभी बदला जा सकता है जब गेंद का 50% हिस्सा स्टंप्स से टकराता दिखे जो सही नहीं है.
सचिन कहते हैं कि जब मामला तीसरे अंपायर के पास जाता है तो इसमें तकनीक का इस्तेमाल करते हैं, फिर तकनीक से ही फ़ैसला तय होना चाहिए, जैसा कि टेनिस में होता है कि गेंद या तो कोर्ट के अंदर है या बाहर. वहां इसके बीच की कोई स्थिति नहीं होती.
सचिन की बात का पूर्व स्पिनर हरभजन सिंह ने भी ट्वीट करके समर्थन किया.
उन्होंने लिखा, "पाजी मैं आपसे सौ फ़ीसदी सहमत हूं कि अगर गेंद स्टंप्स को छूकर भी निकल रही है तो बल्लेबाज़ को आउट दिया जाना चाहिए. इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि गेंद का कितना प्रतिशत हिस्सा स्टंप्स से टकराया. ऐसे में खेल की बेहतरी के लिए नियमों में बदलाव होने चाहिए जिसमें से एक यह होना चाहिए."
क्या कहते हैं यूडीआरएस के नियम
दरअसल, यूडीआरएस नियम के तहत जब खिलाड़ी को अंपायर के किसी फ़ैसले पर एतराज़ होता है तो वह इसकी अपील कर सकता है और तीसरा अंपायर टीवी पर रिकॉर्डिंग देखकर उस फ़ैसले को सही या ग़लत बताता है, लेकिन यूडीआरएस के लिए सिरीज़ से पहले दोनों क्रिकेट बोर्ड की सहमति ज़रूरी है.
पहले भी इस बात को लेकर बहस हो चुकी है कि आईसीसी को सभी देशों में यूडीआरएस को लागू करना चाहिए इससे खेल में सुधार होगा, लेकिन बीसीसीआई इसका विरोध करती रही है.
वैसे यूडीआरएस के लिए ज़रूरी तकनीक सभी देशों के पास नहीं है. जाँच में यह पता चला है कि यूडीआरएस का इस्तेमाल करने से 96% प्रतिशत फ़ैसले सही होते हैं लेकिन उसके बिना भी 92% प्रतिशत फ़ैसले सही होते हैं.
बीसीसीआई का मानना है कि तकनीक सौ प्रतिशत फ़ैसला सही नहीं दे सकती इसलिए इसे लागू करने की ज़रूरत नहीं है.
अंतरराष्ट्रीय अंपायर के. हरिहरन क्या कहते हैं?
इसे लेकर अंतरराष्ट्रीय अंपायर के. हरिहरन कहते हैं, "इसमें दो-तीन बातें महत्वपूर्ण हैं ख़ासकर एलबीडब्लू के मामले में. अंपायर सबसे पहले देखता है कि गेंद कहां पिच हुई यानी टप्पा खाई, पैड पर लगी और सुनिश्चित किया कि बल्ले पर नहीं लगी. इसके बाद कि क्या गेंद स्टंप्स पर लगेगी. अब यह महत्वपूर्ण नहीं है कि गेंद बीस, तीस या पचास प्रतिशत स्टंप्स पर लग रही है, यह एक पहला पॉइंट है."
"दूसरा पॉइंट है कि गेंद स्टंप्स पर लगेगी या नहीं यह बात अगर अंपायर के मन में दुविधा पैदा करती है तो वो डीआरएस निर्णय के लिए तीसरे अंपायर के पास जाते हैं. वो ये देखता है कि गेंद सही जगह पिच हुई है या नहीं. इसके बाद थर्ड अंपायर, फील्ड अंपायर के निर्णय को सुनिश्चित करता है."
"वह देखता है कि गेंद स्टंप्स पर लग रही है या नहीं, इसमें दस, बीस या पचास प्रतिशत महत्वपूर्ण नहीं है. अगर गेंद स्टंप्स से टकरा रही है तो बल्लेबाज़ आउट है. सबसे महत्त्वपूर्ण है गेंद कहां टप्पा खा रही है, गेंद की दिशा और प्रभाव और उसका स्टंप्स से टकराना. अब अगर इनमें से किसी बात पर अंपायर या थर्ड अंपायर के मन में कोई शंका होती है तो वह बल्लेबाज़ को शंका का लाभ देकर नॉटआउट देता है."
के. हरिहरन अंपायर गेंद की पिचिंग कहां हुई यानी कहां टप्पा खाई, इम्पैक्ट यानी गेंद का असर या प्रभाव और हिटिंग यानी स्टंप्स से टकराना, को पूरी तरह से स्पष्ट करते हैं. अगर अंपायर को इनमें से किसी दो बात पर शंका हुई तो वह सौ फ़ीसदी बल्लेबाज़ को नॉटआउट क़रार देगा.
जब मैदानी अंपायर के मन में शंका होती है तभी वह थर्ड अंपायर के पास जाता है. तकनीक कहती है कि अगर गेंद स्टंप्स से टकरा रही है तो बल्लेबाज़ को आउट दे दो.
सचिन के उठाए सवाल पर क्या बोले हरिहरन
अब सवाल तो यही है कि अगर टीवी रीप्ले में गेंद स्टंप्स को केवल छूकर या स्टंप्स से ऊपर जा रही है तो बल्लेबाज़ को नॉटआउट क्यों दिया जाता है?
जवाब में अंपायर के. हरिहरन कहते हैं कि कई बार देखा गया है कि गेंद के स्टंप्स पर लगने के बाद भी गिल्लियाँ नहीं गिरतीं और बल्लेबाज़ आउट नहीं होता. वहीं कई बार हल्का सा छूकर निकलने पर भी गिर जाती हैं और बल्लेबाज़ आउट हो जाता है. लिहाज़ा डीआरएस में ऐसी स्थिति आने पर बल्लेबाज़ को आउट नहीं देते.
तो क्या सचिन तेंदुलकर की बात के अनुसार बल्लेबाज़ को आउट देना चाहिए या नहीं.
जवाब में अंपायर के. हरिहरन कहते हैं कि आउट तो देना चाहिए लेकिन तीन अलग-अलग तरह की विविधता पिचिंग, इम्पैक्ट और हिटिंग द स्टंप्स में पिचिंग में थोड़ा बहुत बाहर भी चलेगा. इम्पैक्ट में बल्लेबाज़ विकेट के सामने होना चाहिए और हिटिंग द स्टंप्स अंपायर्स का कॉल है, केवल इसके आधार पर बल्लेबाज़ को आउट दिया जा सकता है.
दूसरी तरफ़ यूडीआरएस तकनीक को अपनाना न तो सस्ता है और न ही हर देश के पास यह सुविधा उपलब्ध है.
इसे लेकर अंपायर के. हरिहरन तीखा जवाब देते हैं कि क्रिकेट भी खेलना चाहते हैं और तकनीक भी इस्तेमाल करना चाहते हैं तो इसमें सस्ता-महंगे का सवाल कहां से आ गया.
तो क्या इस तकनीक पर विवाद होते रहेंगे?
के. हरिहरन इसे विवाद न मानते हुए कहते हैं कि खिलाड़ी ही अंपायर के निर्णय को मानने को तैयार नहीं है.
इस तकनीक के 96 फ़ीसदी कामयाब होने को लेकर के. हरिहरन कहते हैं कि यह तो सही है लेकिन एलबीडब्लू वाले मामले में हिटिंग द स्टंप्स का अनुमान सबसे महत्वपूर्ण है. इसका अनुमान अंपायर भी लगाता है और कैमरा भी. इस तकनीक को ही 100 फ़ीसदी सही करने की कोशिश होनी चाहिए. हरिहरन अपनी बात को समाप्त करते हुए कहते हैं कि यह निर्णय तो दोनों टीमों के लिए है एक के लिए नहीं.
'क्रिकेट को तकनीक पर छोड़ा गया तो रोमांच चला जाएगा'
क्रिकेट समीक्षक विजय लोकपल्ली कहते हैं कि सचिन सही कह रहे हैं. अब अगर गेंद स्टंप्स पर लग रही है लेकिन अगर अंपायर ने नॉटआउट दे दिया तो यह अंपायर्स कॉल है.
बेल्स के मामले में लोकपल्ली कहते हैं कि क्रिकेट में ऐसा बहुत कम हुआ है.
वो कहते हैं, "कई बार तेज़ हवा से बेल्स गिरे हैं लेकिन अब ये पहले से अधिक भारी हैं. ऐसे में क्रिकेट अंपायर पर छोड़ दो. लेकिन ये भी नहीं हो सकता क्योंकि क्रिकेट पर बहुत पैसा लगा है और जनता देख रही है. तकनीक है तो इस्तेमाल करो लेकिन अगर इसे तकनीक आधारित ही बना दिया तो इस खेल का रोमांच चला जाएगा."
विजय लोकपल्ली कहते हैं कि अगर सचिन तेंदुलकर जैसा बल्लेबाज़ कह रहा है तो सोचिए इसमें कितनी दुविधा है. आईसीसी को सोचना चाहिए कि एक महान खिलाड़ी क्रिकेट को लेकर चिंतित है, कुछ बदलाव होना चाहिए. पहले तो गेंदबाज़ को एलबीडब्लू मिलता ही नहीं था अब वह सोच तो सकता है. आईसीसी के सामने क्रिकेट को बचाने की चुनौती है, उसे सचिन तेंदुलकर की बात पर विचार करना चाहिए.
कमेंटेटर आकाश चोपड़ा क्या कहते हैं
वहीं पूर्व सलामी बल्लेबाज़ और कमेंटेटर आकाश चोपड़ा कहते हैं कि जब हम देखते हैं कि गेंद बल्लेबाज़ के पैड पर लगी है तो दस में से नौ बार आपको भी पता चल जाता है कि बल्लेबाज़ आउट है या नहीं या क़रीबी मामला है. रही बात सचिन की बात की तो यह तो सिर्फ़ अनुमान दिखाया जाता है कि गेंद स्टंप्स से टकराएगी क्योंकि बीच में पैड आ जाते हैं. अब ऐसे में सचिन ऐसा क्यों कह रहे हैं इसे समझा जा सकता है कि अगर गेंद स्टंप्स पर लगेगी तो बेल्स गिरेगी और खेल ख़त्म.
अब ऐसा क्यों कि गेंद अगर पचास प्रतिशत से अधिक स्टंप्स पर लगे तो आउट और बीस प्रतिशत लगे तो नॉटआउट?
आकाश चोपड़ा कहते हैं, "तकनीक में कुछ कमियाँ हैं. शंका यह है कि अगर तकनीक पचास प्रतिशत से अधिक गेंद स्टंप्स पर टकराती दिखाती है तो 99% वह स्टंप्स पर लगने वाली है लेकिन अगर उससे कम दिखाती है तो फिर संभावना कम होती है. यहां तक तो मामला ठीक है. अब इसमें मुश्किल यह है कि 50% से कम होते ही अंपायर्स कॉल आ जाती है. यह समझ से बिलकुल परे है."
"अगर पचास प्रतिशत से अधिक गेंद स्टंप्स पर लग गई तो अंपायर ने आउट दिया या नहीं इससे फ़र्क़ नहीं पड़ता लेकिन नियम कहते हैं 5% भी गेंद अगर स्टंप्स पर लग गई और अंपायर ने आउट दे दिया तो उसे माना जाएगा. लेकिन अगर अंपायर ने नॉटआउट दे दिया तो उस निर्णय को पलट नहीं सकते. यही एक बड़ी ग़लती है."
क्या सचिन तेंदुलकर की बात को माना जाएगा?
आकाश चोपड़ा साफ़ साफ़ कहते हैं कि सचिन की बात को नहीं माना जाएगा क्योंकि इसमें बुनियादी कमी है. हो सकता है आने वाले दिनों में यह नियम आ जाए कि अगर अंपायर्स कॉल है तो उसे आउट माना जाएगा या नॉटआउट क्योंकि इसमें दो बातें नहीं हो सकती. एक नियम बनाना पड़ेगा.
आकाश चोपड़ा यह भी कहते हैं कि यहां एक परेशानी यह भी है कि अगर अंपायर ने आउट दिया तो आउट और नॉटआउट दिया तो नॉटआउट जबकि गेंद उतना ही स्टंप्स पर लगती नज़र आ रही है तो शायद यह नियम बदल जाए लेकिन अगर कोई यह सोचे कि पांच फ़ीसदी भी गेंद अगर विकेट पर लगे और बल्लेबाज़ को आउट दे दिया जाए ऐसा नहीं होगा. तकनीक में जब तक कमी है, शंका है तब तक बल्लेबाज़ अपना विकेट इतनी आसानी से नहीं गँवा सकते.
बैडमिंटन या टेनिस से तुलना पर आकाश चोपड़ा कहते हैं कि वहाँ अनुमान नहीं है. क्रिकेट में पिच पर बल्लेबाज़ है, उसके बाद गेंद पैड या शरीर पर लग गई तो लग गई, तो उसके बाद क्या होगा इसे कोई देख नहीं सकता बस अनुमान लगाया जाता है या सोचा जाता है.
अब देखना है सचिन तेंदुलकर की सलाह भविष्य में क्या रंग लाती है.(bbc)
-आकाश शुक्ला
घुमावदार लोकतंत्र के रेत में से तेल निकालने वाले बिन पेंदी के महारथी विधायक जब इस्तीफा देकर मंत्री बन कर दोबारा चुनाव में आते हैं तो अपनी विचारधारा में परिवर्तन के ऐसे-ऐसे कुतर्क जनता के सामने रखते हैं, की जनता भी घुमावदार लोकतंत्र की घुमावदार बातों में आ जाती है और तमाम नैतिक अनैतिक बातों को छोड़कर ऐसे ढुलमुल घुमावदार लोकतंत्र के सिपहसालार उम्मीदवार को दोबारा जिताकर घुमावदार लोकतंत्र की जय जयकार करती है।
हमारे देश का लोकतंत्र घुमावदार हो गया है घुमावदार के साथ साथ एक पार्टी का पर्याय हो गया है। घुमावदार लोकतंत्र की विशेषता है, वोट किसी भी पार्टी को दो सरकार एक पार्टी की ही बन ही जाती है। पूर्ण बहुमत हो, आधा बहुमत हो या अल्पमत हो यह घुमावदार लोकतंत्र जनता की भावना समझता ही नहीं है। पूरे समय मनमानी में लगा रहता है घूम फिर कर एक पार्टी की सरकार हर राज्य में बना देता है। इसीलिए अब वह पार्टी भी जनता के हितों से विमुख होकर यह समझ गई है की जनता से ज्यादा जनता के चुने हुए लोगों को बस में करना आसान है और यह आज के घुमावदार लोकतंत्र में सरकार बनाने का आसान तरीका है ।
वैसे इस अकेली पार्टी को इन सब के लिए जिम्मेदार नहीं माना जा सकता । क्योंकि जब तक दूसरी पार्टियों में लालची और अवसरवादी नेता और विधायक नहीं रहेंगे तब तक उनको खरीदने वाला तो बेकार ही बैठा रहेगा।
घुमावदार लोकतंत्र ने दो प्रथाओं को जन्म दिया है, पहली प्रथा मंत्रिमंडल के गठन की परिपाटी बदल गईं है अब विधायक मुंह देखते रह जाता और विधायक से इस्तीफा देने वाले मंत्री बन जाता है और जनता को यह समझना मुश्किल हो जाता है, की उसने उम्मीदवार को विधायक बनने के लिए चुना था के विधायक के पद से इस्तीफा देने के लिए। निर्दलीयों छोटी पार्टियों के विधायकों का वजन भी इस घुमावदार लोकतंत्र में बढ़ा है, उनके मंत्री बनने की संभावनाएं बढ़ी है। पहले निर्दलीय या 5-10 सदस्यों वाली पार्टियों के विधायकों का मंत्री बनना असंभव था परंतु घुमावदार लोकतंत्र में दल बदल कानून का प्रभाव कम पढ़ने की उज्जवल संभावना के कारण मंत्री बनने की संभावना बड़े दलों के उम्मीदवार से अधिक रहती है।
दूसरी प्रथा चाहे कोई भी दल कितना भी बहुमत में रहे वह यह नहीं बता सकता की सरकार 5 साल चलेगी कि नहीं, इसलिए कम समय में सरकार का दोहन अधिक से अधिक कैसे किया जा सकता है इसमें राजनीतिक दल माहिर हो गए है। अब कोई भी पार्टी दूरगामी योजनाओं के आधार पर सरकार नहीं चलाती।
घुमावदार लोकतंत्र के माहिर खिलाड़ी आर्थिक रूप से भी संपन्न हो जाते हैं, विधायक से इस्तीफा देकर भी करोड़ों कमाते हैं बाद में मंत्री बन कर भी सत्ता का पूरा दोहन करते हैं, ऐसे लोगों को नुकसान की संभावना बहुत कम रहती है क्योंकि उनके राजनैतिक विरोधी भी दलबदल करने पर उनके तलवे चाटने पर मजबूर होते हैं। जनता समझने की कोशिश करे तो यह समझ आता है की ढुलमुल और बिन पेंदी के लोटो का जमाना आ गया है, घुमावदार लोकतंत्र में सबसे अच्छा विधायक वही है जिस पर सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ही भरोसा ना कर सके, ऐसे गैर भरोसेमंद विधायकों की मंत्री बनने की संभावना 100% के करीब रहती है।
घुमावदार लोकतंत्र के रेत में से तेल निकालने वाले बिन पेंदी के महारथी विधायक जब इस्तीफा देकर मंत्री बन कर दोबारा चुनाव में आते हैं तो अपनी विचारधारा में परिवर्तन के ऐसे-ऐसे कुतर्क जनता के सामने रखते हैं, की जनता भी घुमावदार लोकतंत्र की घुमावदार बातों में आ जाती है और तमाम नैतिक अनैतिक बातों को छोड़कर ऐसे ढुलमुल घुमावदार लोकतंत्र के सिपहसालार उम्मीदवार को दोबारा जिताकर घुमावदार लोकतंत्र की जय जयकार करती है।
इस घुमावदार लोकतंत्र में पार्टी की विचारधारा पर जिंदगी कुर्बान करने वाले कार्यकर्ता और नेताओं को अपने आप को इसके अनुरूप अभ्यस्त करने मैं परेशानी महसूस हो रही है क्योंकि उन्हें यह समझ नहीं आता की विपक्षी उम्मीदवारों का विरोध किस स्तर तक करना है, क्योंकि विपक्षी उम्मीदवार उनकी पार्टी के भविष्य की संभावना भी हो सकता है ,इस पहलू पर उसका विरोध करने से पहले विचार करना आवश्यक हो गया है। उनके अपनी पार्टी में राजनीतिक कद बढ़ने के विकल्प भी खत्म करने में घुमावदार लोकतंत्र के माहिर खिलाड़ी पारंगत होते है, बरसों पुराने विचारधारा से बंधे हुए कार्यकर्ताओं से भी अपनी जय जयकार करवा लेते हैं।
इस घुमावदार लोकतंत्र में किसी भी पार्टी में आयातित उम्मीदवारों का स्वागत ऐसे उत्साह से किया जाता है जैसे कोई अपने बच्चे को जन्म देने के बाद जवान और काबिल कर उसे घर जमाई बनने के लिए किसी और को सौंपता हैऔर उसका स्वागत होता है। वर्तमान में कई राजनीतिक दलों के हालात आयातित नेताओं के कारण ऐसे हो गए है, जैसे घर जमाई ससुर की संपत्ति पर कब्जा कर लेता है।
पूरे घुमावदार लोकतंत्र में जनता की स्थिति सबसे बेबस और दयनीय है । क्योंकि एक बार वोट देने के बाद उसकी उपयोगिता, उसका मूल्य, कीमत शुन्य और दो कौड़ी की रह जाती है। वोट मांगने तक तो लोकतंत्र जनता का, जनता के लिए, जनता के द्वारा शासन होता है लेकिन एक बार जहां सरकार बन गई तो उसके बाद लोकतंत्र नेता का, नेता के लिए, नेताओं के द्वारा शासन हो जाता है। मेरे देश के ऐसे करामाती, हरकती, घुमंतू, ढुलमुल नेताओं के प्रति वफादार और चक्रव्यूही, घुमावदार लोकतंत्र को बारंबार प्रणाम।(सप्रेस )
मंगलेश डबराल
पाब्लो पिकासो की आखिरी पत्नी और चित्रकार फ्रांस्वा जिलों ने अपने संस्मरणों की किताब ‘लाइफ विद पिकासो’ में लिखा है कि एक दिन पिकासो अपने गहरे मित्र और जाने-माने चित्रकार आनरी मातिस के घर में बैठे थे। उनकी रसोई में एक भेड पकाई जा रही थी। पिकासो ने पूछा-तो आज भेड़ पक रही है तुम्हारे यहाँ? पक गई है क्या?
मातिस ने कहा-अभी पकी नहीं।
भेड़ के पकने की खुशबू रह-रहकर पिकासो के नथुनों में प्रवेश कर रही थी। दो मिनट बाद वे मातिस से बोले-जरा देख कर आओ। पक गयी होगी।
मातिस ने भावहीन तरीके से कहा-पूरी नहीं पकी है।
दो मिनट बाद पिकासो फिर बोले-भई, अब तुम देख कर ही आओ। कहीं ज्यादा न पक जाए। मातिस ने पिकासो की अधीरता की अनदेखी करते हुए कहा-अभी कुछ कसर बाकी है।
कहते हैं ऐसी ही बेसब्री और बेचैनी महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टाइन में भी वायलिन के बारे में थी। वे वायलिन बजाते थे निहायत अधकचरे ढंग से। लेकिन वायलिन वादन की सभाओं में वे अपना हाथ आजमाने के लिए आतुर हो उठते और संगीतकार भी उनका मान रखने के लिए वाद्य उनके हाथ में दे देते। दो-तीन मिनट बजाने के बाद आइन्स्टाइन संतुष्ट होकर बैठ जाते, लेकिन पांच मिनट बाद ही फिर अपनी सीट से उठकर कहते--क्या थोडा सा और बजा सकता हूँ? बार-बार सुर छेडऩे के लिए मचल उठने की उनकी यह आदत कभी गयी नहीं। इस ढंग से कुछ संगीत सभाओं को बर्बाद करने का श्रेय भी उन्हें दिया जाता है।
यह अधीरता,और बेचैनी बहुत प्रिय लगती है। महान लोगों की बौड़म बेसब्री। महानता की कोई फिक्र, उसका कोई मुगालता नहीं है, फिर भी महान लोगों की एकाधिक खब्तें और आतुरताएं नक़ल कर ली जाएँ तो क्या हजऱ्! सो आज सुबह जब संयुक्ता मूंग के पकौड़े तलने जा रही थी तो पांच मिनट बाद ही मैं अधीर हो उठा। रसोई में जाकर पूछा-पकोड़े बन गए?
उसने कहा-अरे, अभी कहाँ! सामान तैयार कर रही हूँ।
कुछ ही वक्त बीता था कि फिर से दरयाफ्त की, बन गए?
अभी नहीं। तेल गरम हो रहा है अभी, उसने कहा।
चीजें अनुपस्थित होने के बावजूद अपनी गंध, रंग, स्पर्श, स्वाद आदि भेजती रहती हैं। जब मुझसे रहा नहीं गया तो फिर से रसोईं में जाकर कहा-अभी भी नहीं तैयार हुए।
संयुक्ता ने कहा--बस, थोड़ी ही देर में।
अधीरता के प्रतिवाद के तौर पर एक किस्सा यह भी है कि एक बार जवाहर लाल नेहरू ने कुछ दोस्तों को दावत पर बुलाया। जब मेज पर चिकन परोसा जाने लगा तो मेहमान बेचैन हो उठे। नेहरू ने चुटकी ली-भई, कुछ सब्र कीजिये। सभी मुर्गे मरे हुए हैं। वे उडकऱ कहीं नहीं जाएंगे!
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अमेरिका के ट्रंप प्रशासन ने शीर्षासन करने में जऱा भी देर नहीं लगाई। हमारे जो भी छात्र अमेरिका में पढ़ रहे थे, वे यदि अपनी शिक्षा ई-क्लासेस के द्वारा ले रहे थे तो ट्रंप प्रशासन ने उनके वीजा रद्द कर दिए थे और उन्हें भारत लौटने का आदेश दे दिया गया था। मैंने उसका स्पष्ट विरोध किया था। मुझे खुशी है कि ट्रंप ने अपना आदेश वापस ले लिया है।
ट्रंप को भारत की नहीं, दोस्ती की नहीं, सिर्फ अपनी चिंता है। उन्हें यह चिंता भी नहीं थी कि लाखों विदेशी छात्रों से मिलनेवाले करोड़ों डालरों से अमेरिकी शिक्षा-संस्थाएं वंचित हो जाएंगी। उन्हें तो अपने गोरे अमेरिकी मतदाताओं को यह कहकर लुभाना था कि देखो, मैं तुम्हारे रोजगारों की रक्षा के लिए इन विदेशियों को निकाल बाहर कर रहा हूं। यह काम तो अभी रुक गया लेकिन यह हमें यह सोचने के लिए मजबूर कर रहा है कि हमारे लाखों छात्र-छात्राएं अपनी पढ़ाई पूरी करके अमेरिका और यूरोप क्यों चले जाते हैं और वहां जाकर एक-दो परीक्षाएं पास करके वहीं नौकरी क्यों करने लगते हैं और वहीं क्यों बस जाते हैं।
इस समय अमेरिका में 38 लाख के करीब भारतीय हैं। इनमें से 9 लाख 50 हजार तो वैज्ञानिक और इंजीनियर्स ही हैं। अमेरिका में पढऩेवाले हमारे छात्र लगभग 11 बिलियन डॉलर फीस अमेरिकी संस्थाओं को देते हैं। वे जाते हैं, पढऩे के लिए लेकिन उनका असली उद्देश्य वहां जाकर मोटी कमाई करने का होता है। भारत में उनके माता-पिता जब तक जीवित होते हैं तो कुछ लोग डॉलर वगैरह भारत भेजते रहते हैं लेकिन बाद में उन लोगों की दूसरी पीढ़ी भारत को लगभग भूल जाती है। इस समय सारी दुनिया में ऐसे लगभग दो करोड़ भारतीय बसे हुए हैं। हमारे जो मजदूर और कर्मचारी खाड़ी देशों में हैं, वे तो अपनी बचत का हिस्सा भारत भेजते रहते हैं लेकिन अमेरिका और यूरोप में रहनेवाले भारतीयों को बस अपनी ही चिंता रहती है। यह कितने दुख की बात है कि भारत उनकी शिक्षा और पालन-पोषण पर इतना पैसा खर्च करता है और उनका फायदा विदेशी उठाते हैं। विदेशी सरकारें और कंपनियां भी भारतीयों को नौकरी देना इसलिए ज्यादा पसंद करती हैं कि वे कम पैसों पर राजी हो जाते हैं।
अब से 50 साल पहले जब मैं न्यूयार्क की कोलंबिया युनिवर्सिटी में पढ़ता था, तब मुझे भी कई प्रस्ताव मिले, राजनीतिक पदों के लिए भी, लेकिन मैंने साफ मना कर दिया लेकिन मेरे साथ के कई ईरानी और जापानी छात्रों ने अपने लिए कुछ काम पकड़ लिए, क्योंकि शाह के ईरान और तत्कालीन जापान में अमेरिका की भोगवादी संस्कृति की पकड़ बढ़ती जा रही थी। यदि हम भारतीय संस्कृति के मूल्यों की रक्षा करना चाहते हैं और भारत की सर्वविध उन्नति चाहते हैं तो इस प्रतिभा-पलायन (ब्रेन-ड्रेन) पर रोक लगाने या इसे बहुत सीमित करने पर सरकार को विचार करना चाहिए। (nayaindia.com)
(नया इंडिया की अनुमति से)
-चैतन्य नागर
शिक्षा अकादमिक विषयों की पढ़ाई तक सीमित होकर रह गयी है| खेल-कूद, और हॉबी क्लासेज के लिए ऑनलाइन पढ़ाई में कोई जगह नहीं रह गयी है| अब बच्चा संगीत कैसे सीखेगा बच्चा, खेल-कूद की बारीकियां कहाँ से सीखेगा, पेंटिंग और गायन जैसी ललित कलाएं कहाँ से सीखेगा? इनके लिए तो शिक्षक की भौतिक उपस्थति अत्यावश्यक है| हालाँकि संगीत और पेंटिंग जैसे विषय ऑनलाइन पढाये जा रहे हैं, पर यह सब कुछ कितना सीमित होगा यह कोई भी समझ सकता है| इससे जुड़ी और भी कई समस्याएं शिक्षकों के सामने हैं| ऑनलाइन शिक्षा ने शिक्षक को भी बहुत असुरक्षित बना दिया है| वह तनाव में रहता है और इसका असर उसके अध्यापन पर भी पड़ता है|
पहले स्कूल और शिक्षक और माता-पिता बच्चों को लगातार मोबाइल और लैपटॉप से दूर रहने की सलाह देते थे| मुख्यधारा के स्कूलों में तो यह हिदायत इतनी सख्त नहीं थी, क्योंकि वहां बच्चों के साथ शिक्षक थोडा वक्त ही बिताते हैं, पर वैकल्पिक शिक्षा के हिमायती स्कूलों में और ख़ास तौर पर रिहायशी स्कूलों में तो मोबाइल और कंप्यूटर के प्रयोग के खिलाफ बड़ी सख्त पाबंदी रहती है| विडम्बना है कि अब महामारी की वजह से शिक्षा लैपटॉप या स्मार्ट फ़ोन तक ही सिमट गयी है| शिक्षकों और बड़े बच्चों के अलावा ख़ास कर छह से बारह साल के बच्चों पर ऑनलाइन पढ़ाई का बड़ा गंभीर असर पड़ता दिखाई है|
छोटे बच्चों को स्कूल जाने में रूचि इसलिए नहीं होती क्योंकि वे पढ़ना चाहते हैं| स्कूल जाने के उनके कारण बौद्धिक और तकनीकी न होकर भावनात्मक होते हैं| बच्चे उन शिक्षकों के कारण स्कूल जाते हैं, जो उन्हें प्यार देते हैं| हालांकि एक कक्षा में सत्तर या उससे अधिक बच्चों को पढ़ाने वाले बच्चों के शिक्षक के मन में तनाव ज्यादा प्यार कम ही बचता होगा, पर कुछ मुख्यधारा के स्कूलों में भी ऐसे शिक्षक देखा गए हैं जिन्हें देख कर ही बच्चे खुश हो जाते हैं, और अगले दिन भी उनसे मिलने की प्रतीक्षा में रहते हैं| गौरतलब है कि बच्चे अपने मन में किसी विषय और शिक्षक के बीच फर्क नहीं करते| जो शिक्षक उन्हें खुशी देता है और सुरक्षित महसूस कराता है, उसके विषय को वह जाने-अनजाने में पसंद करने लगते हैं|
दूसरा मुख्य कारण जो बच्चों को स्कूल जाने के लिए प्रेरित करता है, वह है दूसरे बच्चों का साथ और खेल-कूद| खेल कूद बच्चों के लिए उतना ही जरूरी है जितना कि सांस लेना| इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं| शहर के छोटे फ्लैट्स और ख़ास कर ऐसे दिनों में जब लोग एक दूसरे को देख कर ही दूर छिटकते हैं, बच्चों को खेलना नसीब हो पा रहा| महामारी का यह बहुत ही क्रूर पहलू है जिसका शिकार छोटे बच्चे हुए हैं| शिक्षा अकादमिक विषयों की पढ़ाई तक सीमित होकर रह गयी है| खेल-कूद, और हॉबी क्लासेज के लिए ऑनलाइन पढ़ाई में कोई जगह नहीं रह गयी है| अब बच्चा संगीत कैसे सीखेगा बच्चा, खेल-कूद की बारीकियां कहाँ से सीखेगा, पेंटिंग और गायन जैसी ललित कलाएं कहाँ से सीखेगा? इनके लिए तो शिक्षक की भौतिक उपस्थति अत्यावश्यक है| हालाँकि संगीत और पेंटिंग जैसे विषय ऑनलाइन पढाये जा रहे हैं, पर यह सब कुछ कितना सीमित होगा यह कोई भी समझ सकता है|
इससे जुड़ी और भी कई समस्याएं शिक्षकों के सामने हैं| ऑनलाइन शिक्षा ने शिक्षक को भी बहुत असुरक्षित बना दिया है| वह तनाव में रहता है और इसका असर उसके अध्यापन पर भी पड़ता है| ऑनलाइन शिक्षा में एक शिक्षक यह महसूस करता है कि जब पढ़ाई इसी तरह होनी है, तो स्कूल या कॉलेज किसी बहुत ही मशहूर एवं शुद्ध रूप से पेशेवर शिक्षक की ऑनलाइन सेवाएँ भी ले सकता है और इस तरह नियमित शिक्षकों की तो छुट्टी ही हो जायेगी| यह डर बेबुनियाद नहीं| आप अखबारों में ऐसे स्तम्भ देखते हैं जिसे एक ही लेखक कई अख़बारों को भेजता है और सभी अखबार उसे इसके लिए पैसे देते हैं| इन सिंडिकेटेड स्तम्भों की तरह सिंडिकेटेड व्याख्यान भी हो सकते हैं एक ही अनुभवी प्रोफेसर एक ही विषय पर अपने व्याख्यान कई स्कूल और कॉलेज को दे सकता है, सबसे अलग अलग रकम वसूल करके| क्यों नहीं हो सकता ऐसा? और कौन सा शैक्षिक संस्थान यह नहीं चाहेगा कि उसके यहाँ दुनिया के सबसे अच्छे शिक्षक उपलब्ध हों| अच्छे शिक्षक की तलाश में वह देश से बाहर ताकेगा और ऐसे कई कारोबारी शिक्षक उसे मिल जायेंगें| ऐसे में ख़ास कर निजी स्कूलों और कॉलेज में शिक्षकों को नौकरी जाने की चिंता बहुत सता रही है| लगातार अपनी नौकरी के बारे में चिन्तित शिक्षक पढ़ायेगा क्या? यह सवाल देर-सवेर हमारे सामने आएगा ही| निजी स्कूलों के लिए अपने शिक्षकों को नियुक्त करने, उनकी कई जिम्मेदारियां संभालने और उनकी अनुपस्थिति की समस्याओं से बचने का यह अच्छा अवसर होगा और वे तो इसका खूब फायदा उठायेंगें|
एक और गंभीर चुनौती शिक्षकों के सामने है और वह यह कि ऑनलाइन शिक्षा में उन्हें बेहतर तरीके से पढ़ाने के लिए बहुत ज्यादा मेहनत करने की जरुरत होगी| ऐसा इसलिए क्योंकि जिन स्त्रोतों का उपयोग अभी तक वे करते आये थे वे अब बच्चों को भी उपलब्ध हैं| पहले शिक्षक आराम से यू ट्यूब, और अलग-अलग वेबसाइट्स से मदद लेकर अपने व्याख्यान तैयार करते थे, और अब ये सभी छात्रों को भी सरलता से उपलब्ध हैं| तो एक तरह से छात्र के सामने दोनों विकल्प हैं, शिक्षक भी और वे स्त्रोत भी जिसका शिक्षक उपयोग करता है| अब वह किसे चुने? इससे शिक्षा की गुणवत्ता नहीं सुधरी है, बल्कि शिक्षक ज्यादा असुरक्षित हो गया है|
अब इस समस्या का एक और पहलू देखें| महानगरों को छोड़ कर देश के कई हिस्सों में बिजली की सप्लाई अनियमित है, बिजली है भी तो बगैर पूर्व सूचना के बीच-बीच में कटती रहती है| छोटे शहरों और गाँवों में लोग अपने फ़ोन तक चार्ज नहीं कर पाते| ऑनलाइन कक्षाओं के लिए स्मार्ट फ़ोन चाहिए या फिर लैप टॉप| गरीब बच्चों के पास लैप टॉप नहीं होता| घर में हो सकता है एक ही स्मार्ट फ़ोन हो, जो कि अक्सर उस पिता के पास होता है, जो काम पर गया होता है| बच्चा कैसे पढ़ेगा? या तो फ़ोन नहीं, लैपटॉप नहीं, या तो बिजली नहीं| ऐसे बच्चे क्या करेंगें, यह एक बड़ा सवाल है| यदि सब कुछ है भी तो फिर डेटा का खर्च अलग से होगा| ब्रॉड बैंड के लिए हर महीने अलग से बिल आएगा, और डेढ़ जीबी के आस पास रोज़ मिलने वाला डेटा एक ही कक्षा में ख़त्म हो जाएगा| फिर बच्चे क्या करें? स्कूल की फीस भी भरें और डेटा पर भी खर्च करें हर माह? घर में पढने वाले एक से अधिक बच्चे हुए तो एक ही फ़ोन या कंप्यूटर को लेकर रोज़ होने वाले झगड़ों से घरेलू तनाव भी अधिक बढ़ेगा| इन सवालों से जूझना पड़ेगा ऑनलाइन शिक्षा की नयी पद्धति को| बच्चों को लगातार स्क्रीन को ताकते रहने के खतरे अलग से झेलने होंगें| ख़ास कर छोटे बच्चों के समेकित विकास पर, उनके सामाजिक विकास पर इसके बहुत बुरे प्रभाव पड़ते दिखाई दे रहे हैं| छोटे बच्चों को लैप टॉप या मोबाइल के साथ अकेले छोड़ने के भी कई दुष्परिणाम हैं| उनकी देख-रेख के लिए किसी वयस्क पारिवारिक सदस्य को लगातार उनके साथ रहना पड़ता है| बच्चों को लगातार किसी वयस्क की मदद की जरुरत भी पड़ती है मोबाइल या लैप टॉप का सही ढंग से उपयोग करने के लिए| महामारी की वजह से बड़ों को भी घर से काम करना पड़ रहा है, ऐसे में कोई अपना काम करे, बच्चों की मदद करे या फिर उन्हें नयी तकनीक से परिचित कराये|
ज़ाहिर है इन परिस्थितियों में आतंरिक क्लेश बहुत बढ़ता होगा| ख़ास कर जब संसाधन सीमित हों और डिजिटल पढ़ाई के लिए पर्याप्त बुनियादी सुविधाएं न हों| एक बड़ी समस्या उन छात्रों को लेकर भी है जिनकी विशेष जरूरतें हैं, मसलन दृष्टि बाधित या किसी और वजह से सीमित दैहिक क्षमताओं वाले बच्चे| वे इस नए सिस्टम में कैसे खुद को ढाल पायेंगे, यह भी एक बड़ा सवाल है| मानसिक परेशानियों वाले बच्चे भी ऑनलाइन शिक्षा से फायदा नहीं उठा पायेंगें, क्योंकि उन्हें बहुत ही व्यक्तिगत स्तर पर पढ़ाने और सिखाने की जरुरत पड़ती है| उनके लिए शिक्षक भी ख़ास तौर पर प्रशिक्षित होते हैं|
गौरतलब है कि स्कूल सिर्फ अकादमिक विषयों की पढाई के लिए नहीं होते, वहां बच्चा आपसी संबंधों से बहुत कुछ सीखता है| अपने घर से निकलकर पहली बार वह अजनबियों के संपर्क में आता है और उसे कई नए, सुखद और दुखद अनुभव होते हैं| अपने घर की चारदीवारी में कैद होकर पढना शुरू में उसे दिलचस्प लग सकता है, पर धीरे-धीरे जब इसके दुष्प्रभाव उसपर पड़ेंगे तब नयी तरह की चुनौतियां परिवारों और समाज के सामने आयेंगीं|
यह सही है कि यह सब कुछ कोई खुशी-खुशी नहीं कर रहा, महामारी से जन्मी परिस्थितियों ने मजबूर कर दिया है और इसलिए स्कूल वगैरह छोड़ कर बच्चों को घरों में कैद होना पड़ा है, पर इस पर बहुत अधिक ध्यान देने की जरुरत है| एक समस्या का हल ढूँढने के फेर में हम कई नयी समस्याओं को न्योत रहे हैं, इस तथ्य को नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता| थोड़ी सजगता और दूरदर्शिता हमें इसने निपटने की ऊर्जा अवश्य देगी| पढ़ाई-लिखाई पूरी तरह मशीनों के जिम्मे हो जायेगी तो बच्चों के भी मशीन में तब्दील होने के खतरे बढ़ जायेंगें| पहले ही यह कम नहीं थे|(सप्रेस )
-मनीष सिंह
राहुल का लेटेस्ट वीडियो देखा क्या? एगजेक्टली जो राहुल मैं अपने जेहन में देखता हूँ, तमाम आलोचनाओं, चमचे, कांगी, वामी और तटस्थ न होने की तोहमतों के बावजूद, राहुल के जिस इंटेलक्ट के पक्ष में बात करता हूँ, लिखता हूँ.. वो आपको भी इस वीडियो में साफ साफ दिखेगा।
राहुल को लेकर बहुत अच्छी इमेज मेरे दिमाग मे नही थी। सबसे बड़ा कारण था, वो पथेटिक इन्टरव्यू, जो अर्नब ने लिया था, 2014 इलेक्शन के जस्ट पहले। लगभग लडख़ड़ाते, सकपकाते, कन्फ्यूज्ड राहुल की वही इमेज फ्रीज थी।
अक्टूबर या नवंबर 2018 में मुझे आमंत्रित किया गया, नागेन्द्र भाई के द्वारा जो कांग्रेस के अच्छे पद पर हैं। राहुल छतीसगढ़ इलेक्शन के सिलसिले में दौरे पर थे, खास खास लोगो से मिल रहे थे। मैं उस दौरान बड़ा भयंकर आपिया था, और फिर सेलेब्रिटीज से मिलने की मेरी इच्छा नही। मगर भाई साहब के बुलावे, दोबारा कॉल, और पासेज के इंतजाम आदि को देख, लिहाज में गया। तमाम एसपीजी चक्र पार कर हॉल में पहुंचा। सबसे आगे की रो में सीट मिली। मुझे भाई साहब ने कहा था- तू सवाल जरूर करना।
राहुल आये। कुछ मिनट के इंट्रोड्क्टरी स्पीच के बाद सवाल आमन्त्रित किये। पहला सवाल मेरा था, उत्तर दिया गया। कोई सात आठ मिनट, धाराप्रवाह, अर्टिकुलेटेड, एकदम सही शब्दो मे। सही शब्द के लिए उनका सेकेंड भर रुकना, और फिर निकलने वाले शब्द परफेक्ट होगा..। यह बन्दे की समूची पर्सनालिटी को समझने की चाबी है। बन्दा जरा थम लेगा, विचार कर लेगा, मगर फांस मारकर आगे नहीं बढ़ेगा।
वो वीडियो भी होगा मेरी वाल पर। उन साथ आठ मिनट में उनकी वीक कम्युनिकेटर की मेरी धारणा का परखच्चे उड़ गए। सोशल मीडिया के युग में, जब आपकी बात मेनस्ट्रीम मीडिया नहीं दिखा रहा, राहुल के छोटे-छोटे वीडियोज का ये तरीका मास्टरस्ट्रोक है। यकीन कीजिये, ये वीडियो छाने वाले हैं।
आलोचक कह सकते हैं, कि ये स्क्रिप्टेड है, रटाया हुआ है। मैं अपने अनुभव से साफ नकार सकता हूँ। इस वीडियो को बनाने में 20-30 मिनट से ज्यादा नहीं लगे होंगे। कन्टेन्ट उनका खुद का है, ये उसकी ओरिजनल समझ है, बात करने का तरीका है। अगला इंग्लिश में सोचता है, उसमें बड़े आराम से बोलता है। हिंदी में भी अब ठीक ही है। भाषा नहीं, कन्टेन्ट पर जाएंगे, तो जरूर आनंद आएगा।
अर्टिकुलेटेड थिंकिंग किसे कहते हैं, क्रिटिकल एनालिसिस क्या होता है, मैनेजमेंट के स्टूडेंट इस वीडियो से प्रेजेंटेशन का ट्यूटोरियल ले सकते हैं। वीडियो अब तक नहीं देखा, तो जरूर देखें। सरसरी देखा हो, तो दोबारा देखें।
Since 2014, the PM's constant blunders and indiscretions have fundamentally weakened India and left us vulnerable.
— Rahul Gandhi (@RahulGandhi) July 17, 2020
Empty words don't suffice in the world of geopolitics. pic.twitter.com/XM6PXcRuFh
सनलाइट के अलावा विटामिन-डी से भरपूर
कोरोना वायरस और अन्य बीमारियों से लडऩे के लिए शरीर में रोग प्रतिरोध क्षमता का होना जरूरी होता है। ऐसे में प्रकृति में मौजूद जैव विविधता पर्यावरण के साथ ही शरीर के लिए विभिन्न पोषक तत्व प्रदान करती है। बरसात के मौसम में गरज और बारिश में उगने वाला मशरूम दीमक की बामियों, पैरा, साल के पेड़ों और बांसों की ढेर में निकलता है। जंगलों और खेत खिलहानों में प्राकृतिक और कृत्रिम रूप से उत्पादन किए जाने वाले औषधीय गुणों व पोषक तत्व से भरपूर मशरूम यानी फुटू सब्जी का स्वाद बहुत ही लजीज होता है।
छत्तीसगढ़ में यह फुटू (पुटू) नाम से जाना जाता है जिसको आयुर्वेद में धरती का फूल कहा जाता है। मशरूम में कई ऐसे जरूरी पोषक तत्व मौजूद होते हैं जिनकी शरीर को बहुत आवश्यकता होती है। सूर्य की धूप के बाद पोषण आहार के रुप में विटामिन-डी तथा फाइबर यानी रेशे का यह एक अच्छा स्रोत है। कई बीमारियों में मशरूम का इस्तेमाल औषधि के तौर पर किया जाता है। मशरूम में विभिन्न प्रकार के पोषक तत्व जैसे खनिज एवं विटामिन पाया जाता है जो शरीर का प्रतिरक्षा तंत्र मजबूत करता है और रोगों से लडऩे की क्षमता में वृद्धि होती है। मशरूम में एक खास पोषक तत्व पाया जाता है जो मांसपेशियों की सक्रियता और याददाश्त बरकरार रखने में बेहद फायदेमंद रहता है।
विटामिन और मिनरल्स है भरपूर
प्राकृतिक तौर पर जंगलों में मिलने वाली यह सब्ज़ी (फंगस) मशरूम में गुड फैट, स्टार्च, शुगर फ्री, विटामिन और खनिज तत्व के साथ प्रोटीन पाया जाता है। इसमें कैलोरीज ज्यादा नहीं होतीं। नॉनवेज पसंद नहीं करने वालों के लिए पनीर की तरह प्रोटीनयुक्त शुद्व शाकाहारी है। महंगे प्राणीज पदार्थ के स्थान पर मशरूम का उपयोग लाभकारी होगा, क्योंकि इसमें विटामिंन और मिनरल्स पाये जाते हैं जो 100 ग्राम मशरूम में पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध रहता है। विटामिन-बी6, सी, डी, आयरन, काबोहाइड्रेट, फाइबर, प्रोटीन, पोटेशियम, मैग्निशियम मशरुम में मिलते हैं।
पोषण व औषधिय गुणों से भरपूर है मशरूम
डिग्री गल्र्स कॉलेज की फूड एवं न्यूट्रेशन विभाग की प्रोफेसर डॉ. अभ्या आर. जोगलेकर बताती हैं सावन-भादों के मौसम में मशरूम प्राकृतिक रुप से जंगलों व खेतों में मिलती है। मशरूम की पौष्टिकता का रोग निवारण में प्रभाव देते हैं जैसे- बीपी, शुगर, कब्ज, हृदय रोग, मोटापा, कैंसर, एड्स, हड्डी रोग, कुपोषित बच्चे, कमजोर व्यक्तियों, एनिमिक व गर्भवती महिलाएं के लिए मशरूम में मौजूद तत्व रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाते हैं। इससे सर्दी-जुकाम जैसी बीमारियां जल्दी-जल्दी नहीं होती। मशरूम में मौजद सेलेनियम इम्यूनिटी सिस्टम के रिस्पॉन्स को बेहतर करता है। मशरूम विटामिन डी का भी एक बहुत अच्छा माध्यम है। यह विटामिन हड्डियों की मजबूती के लिए बहुत जरूरी होता है। इसमें बहुत कम मात्रा में कार्बोहाइड्रेट्स होते हैं, जिससे वह वजन और ब्लड शुगर लेवल नहीं बढ़ाता। मशरूम में एंटी-ऑक्सीडेंट भूरपूर होते हैं। इसके अलावा मशरूम को बालों और त्वचा के लिए भी काफी फायदेमंद माना जाता है। वहीं कुछ स्टडीज में मशरूम के सेवन से कैंसर होने की आशंका कम होने की बात तक कही गई है।
70 फीसदी महिलाओं में हडडी से संबंधित रोग-
शासकीय आयुर्वेदिक कॉलेज पंचकर्म विभाग के एचओडी डॉ. रंजीप कुमार दास का कहना है अस्पताल की ओपीडी में आने वाली 40 वर्ष की उम्र पार कर चुके महिलाओं में हड्डी, कमर दर्द और कैल्शियम की कमी की समस्या प्रमुख रूप से पाई जाती है। इस तरह की बीमारियों की शिकायत लेकर आने वाली 70 फीसदी महिलाओं में अर्थराइटिस और ऑस्टियो-पोरोसिस की समस्याएं होती है। इसके लिए मशरूम में मिलने वाला पोषक तत्व और विटामिन-डी हड्डी से संबंधित रोगों से लडऩे के लिए कारगर होता है।
प्राकृतिक मशरूम के उत्पादन के लिए हो रहा रिसर्च-
इंदिरागांधी कृषि विश्वविद्यालय के प्लांट पैथोलॉजी विभाग के प्रोफेसर डॉ. सीएस शुक्ला ने बताया मशरूम की अलग-अलग प्रजातियों का बीज तैयार कर कृत्रिम रुप से व्यवसायिक उत्पादन के लिए अखिल भारतीय मशरूम अनुसंधान परियोजना के तहत रिसर्च कार्य चल रहा है। डॉ. शुक्ला ने बताया छत्तीसगढ की जलवायु मशरुम के लिए अनुकूल होने की वजह से यहां 30 से 35 प्रजातियां खाने योग्य है। कुछ औषधीय मशरूम पर भी कृषि विवि में रिसर्च चल रहा है।
प्राकृतिक रुप से कनकी फुटू, भिंभोरा फुटू, बोडा, पेहरी एवं अन्य प्रकार के मशरुम मिलते हैं। वहीं कृत्रिम रुप से आयस्टर, पैरा फुटू, बटन, सफेद दुधिया मशरूम की खेती की जा रही है। डॉ. शुक्ला ने बताया, दुनियाभर में मशरुम की 42,000 प्रजातियां हैं जिसमें से 800 प्रजातियों की पहचान भारत में कर ली गई है। सीड तैयार कर मशरूम की कृत्रिम खेती घर के अंदर सरलता से वर्षभर की जा सकती है। प्राकृतिक मशरूम को सब्जी बनाने से पहले घर के बुजुर्गों से खादय मशरूम की पहचान कराने के बाद ही खाना चाहिए।
-अनिल गोस्वामी
उन्हें किसी भी दिन बनारस शहर के अन्नपूर्णा होटल में पच्चीस रुपए की थाली का खाना खाते हुए देखा जा सकता है। इसके साथ ही वह आज भी बीएचयू में अपनी चिकित्सा सेवा नि:शुल्क जारी रखे हुए हैं। डॉ. लहरी को आज भी एक हाथ में बैग, दूसरे में काली छतरी लिए हुए पैदल घर या बीएचयू हास्पिटल की ओर जाते हुए देखा जा सकता है।
लोगों का नि:शुल्क इलाज करने वाले बीएचयू के जाने-माने कार्डियोथोरेसिक सर्जन पद्म डॉ. टी.के. लहरी (डॉ. तपन कुमार लहरी) ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से उनके घर पर जाकर मिलने से इंकार कर दिया है। योगी को वाराणसी की जिन प्रमुख हस्तियों से मुलाकात करनी थी, उनमें एक नाम डॉ. टी के लहरी का भी था। मुलाकात कराने के लिए अपने घर पहुंचने वाले अफसरों से डॉ. लहरी ने कहा कि मुख्यमंत्री को मिलना है तो वह मेरे ओपीडी में मिलें। इसके बाद उनसे मुलाकात का सीएम का कार्यक्रम स्थगित कर दिया गया। अब कहा जा रहा है कि मुख्यमंत्री चाहते तो डॉ. लहरी से उनके ओपीडी में मिल सकते थे लेकिन वीवीआईपी की वजह से वहां मरीजों के लिए असुविधा पैदा हो सकती थी।
जानकार ऐसा भी बताते हैं कि यदि कहीं मुख्यमंत्री सचमुच मिलने के लिए ओपीडी में पहुंच गए होते तो डॉ. लहरी उनसे भी मरीजों के क्रम में ही मिलते और मुख्यमंत्री को लाइन में लगकर इंतजार करना पड़ता। बताया जाता है कि इससे पहले डॉ. लहरी तत्कालीन प्रधानमंत्री चंद्रशेखर को भी इसी तरह न मिलने का दो टूक जवाब देकर निरुत्तरित कर चुके हैं। सचमुच धरती के भगवान जैसे डॉ. लहरी वह चिकित्सक हैं, जो वर्ष 1994 से ही अपनी पूरी तनख्वाह गरीबों को दान करते रहे हैं। अब रिटायरमेंट के बाद उन्हें जो पेंशन मिलती है, उसमें से उतने ही रुपए लेते हैं, जिससे वह दोनो वक्त की रोटी खा सकें। बाकी राशि बीएचयू कोष में इसलिए छोड़ देते हैं कि उससे वहां के गरीबों का भला होता रहे।
उन्हें किसी भी दिन शहर के अन्नपूर्णा होटल में पच्चीस रुपए की थाली का खाना खाते हुए देखा जा सकता है। इसके साथ ही वह आज भी बीएचयू में अपनी चिकित्सा सेवा नि:शुल्क जारी रखे हुए हैं। डॉ. लहरी को आज भी एक हाथ में बैग, दूसरे में काली छतरी लिए हुए पैदल घर या बीएचयू हास्पिटल की ओर जाते हुए देखा जा सकता है। वह इतने स्वाभिमानी और अपने पेशे के प्रति इतने समर्पित रहते है कि कभी उन्होंने बीएचयू के बीमार कुलपति को भी उनके घर जाकर देखने से मना कर दिया था।
ऐसे ही डॉक्टर को भगवान का दर्जा दिया जाता है। तमाम चिकित्सकों से मरीज़ों के लुटने के किस्से तो आए दिन सुनने को मिलते हैं लेकिन डॉ. लहरी देश के ऐसे डॉक्टर हैं, जो मरीजों का नि:शुल्क इलाज करते हैं। अपनी इस सेवा के लिए डॉ. लहरी को भारत सरकार द्वारा वर्ष 2016 में चौथे सर्वश्रेष्ठ नागरिक पुरस्कार पद्मश्री से सम्मानित किया जा चुका है। डॉ. लहरी ने सन् 1974 में प्रोफेसर के रूप में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में अपना करियर शुरू किया था और आज भी वह बनारस में किसी देवदूत से कम नहीं हैं। बनारस में उन्हें लोग साक्षात भगवान की तरह जानते-मानते हैं। जिस ख्वाब को संजोकर मदन मोहन मालवीय ने बीएचयू की स्थापना की, उसको डॉ. लहरी आज भी जिन्दा रखे हुए हैं।
वर्ष 2003 में बीएचयू से रिटायरमेंट के बाद से भी उनका नाता वहां से नहीं टूटा है। आज, जबकि ज्यादातर डॉक्टर चमक-दमक, ऐशोआराम की जिंदगी जी रहे हैं, लंबी-लंबी मंहगी कारों से चलते हैं, मामूली कमीशन के लिए दवा कंपनियों और पैथालॉजी सेंटरों से सांठ-गांठ करते रहते हैं, वही मेडिकल कॉलेज में तीन दशक तक पढ़ा-लिखाकर सैकड़ों डॉक्टर तैयार करने वाले डॉ. लहरी के पास खुद का चारपहिया वाहन नहीं है। उनमें जैसी योग्यता है, उनकी जितनी शोहरत और इज्जत है, चाहते तो वह भी आलीशान हास्पिटल खोलकर करोड़ों की कमाई कर सकते थे लेकिन वह नौकरी से रिटायर होने के बाद भी स्वयं को मात्र चिकित्सक के रूप में गरीब-असहाय मरीजों का सामान्य सेवक बनाए रखना चाहते हैं। वह आज भी अपने आवास से अस्पताल तक पैदल ही आते जाते हैं। उनकी बदौलत आज लाखों गऱीब मरीजों का दिल धडक़ रहा है, जो पैसे के अभाव में महंगा इलाज कराने में लाचार थे। गंभीर हृदय रोगों का शिकार होकर जब तमाम गरीब मौत के मुंह में समा रहे थे, तब डॉ. लहरी ने फरिश्ता बनकर उन्हें बचाया।
डॉ. लहरी जितने अपने पेशे के साथ प्रतिबद्ध हैं, उतने ही अपने समय के पाबंद भी। आज उनकी उम्र लगभग 75 साल हो चुकी है लेकिन उन्हें देखकर बीएचयू के लोग अपनी घड़ी की सूइयां मिलाते हैं। वे हर रोज नियत समय पर बीएचयू आते हैं और जाते हैं। रिटायर्ड होने के बाद विश्वविद्यालय ने उन्हें इमेरिटस प्रोफेसर का दर्जा दिया था। वह वर्ष 2003 से 2011 तक वहाँ इमेरिटस प्रोफेसर रहे। इसके बाद भी उनकी कर्तव्य निष्ठा को देखते हुए उनकी सेवा इमेरिटस प्रोफेसर के तौर पर अब तक ली जा रही है। जिस दौर में लाशों को भी वेंटीलेटर पर रखकर बिल भुनाने से कई डॉक्टर नहीं चूकते, उस दौर में इस देवतुल्य चिकित्सक की कहानी किसी भी व्यक्ति को श्रद्धानत कर सकती है।
रिटायर्ड होने के बाद भी मरीजों के लिए दिलोजान से लगे रहने वाले डॉ. टी के लहरी को ओपन हार्ट सर्जरी में महारत हासिल है। वाराणसी के लोग उन्हें महापुरुष कहते हैं। अमेरिका से डॉक्टरी की पढ़ाई करने के बाद 1974 में वह बीएचयू में 250 रुपए महीने पर लेक्चरर नियुक्त हुए थे। गरीब मरीजों की सेवा के लिए उन्होंने शादी तक नहीं की। सन् 1997 से ही उन्होंने वेतन लेना बंद कर दिया था। उस समय उनकी कुल सैलरी एक लाख रुपए से ऊपर थी। रिटायर होने के बाद जो पीएफ मिला, वह भी उन्होंने बीएचयू के लिए छोड़ दिया। डॉ. लहरी बताते हैं कि रिटायरमेंट के बाद उन्हें अमेरिका के कई बड़े हॉस्पिटल्स से ऑफर मिला, लेकिन वह अपने देश के मरीजों की ही जीवन भर सेवा करने के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ हैं। वह प्रतिदिन सुबह छह बजे बीएचयू पहुंच जाते हैं और तीन घंटे ड्यूटी करने के बाद वापस घर लौट आते हैं। इसी तरह हर शाम अपनी ड्यूटी बजाते हैं। इसके बदले वह बीएचयू से आवास के अलावा और कोई सुविधा नहीं लेते हैं।
अंधेरे में तलवार चलाकर नुकसान करने पर आमादा
-तथागत भट्टाचार्य
अतुल्य बागराबोंड उत्तरी कर्नाटक के एक किसानस के बेटे हैं। इस साल फरवरी तक उन्होंने मैंगलोर में एक बीपीओ ऑपरेशंस सेंटर में काम किया जहां वह महीने में 24,000 रुपये कमा लेते थे। लॉकडाउन में नौकरी जाती रही। अतुल्य पिछले तीन महीने से दोबारा किसी बीपीओ में नौकरी पाने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। हताश आवाज में वह कहते हैं, “कहीं कोई नौकरी नहीं। एक ऑफर मिला भी तो वह बेंगलुरू के लिए था और वे 18,000 रुपये देने की बात कर रहे थे। इतने से आप बेंगलुरू में तो नहीं रह सकते। मेरे कई पूर्व सहयोगियों को नौकरी से निकाल दिया गया, कई के वेतन में 30-30 प्रतिशत की कटौती कर दी गई है।”
अतुल्य की दिक्कत यह है कि उन्होंने साइड बिजनेस करने की कोशिश पहले ही की थी, पर वह सफल नहीं हो पाए। अतुल्य को कुत्तों से बड़ा प्रेम है और उन्होंने हमेशा से एक केनेल (कुत्ताघर) और कुत्ते का प्रजनन केंद्र खोलने का सपना देखा था। पिछले दो वर्षों के दौरान उन्होंने धीरे-धीरे करके इसके लिए लगभग एक लाख रुपये जमा भी कर लिए थे। उन्होंने फरवरी में आठ पिल्ले लिए और मार्च में लॉकडाउन की घोषणा होने तक वह दो पिल्लों को बेच भी चुके थे। वह कहते हैं, “बता नहीं सकता कि यह सब कैसा रहा। मैंने अपनी सारी बचत पिल्लों पर तो खर्चकर ही दी, पिता से भी कुछ पैसे मांगने पड़े। 1 जून के बाद, मैंने एक पूर्व सहकर्मी से कहा कि वह हमें हमारे गांव तक छोड़ दे। तब से यहीं गांव में हूं। गांव आने से पहले मेरे दो पूर्व सहयोगियों ने मुझसे एक-एक कुत्ता खरीदा था। अब मैं चार कुत्तों के साथ अपने माता-पिता के घर ही रह रहा हूं।”
लेकिन यह सिर्फ अतुल्य का किस्सा नहीं है। इन दिनों आप लोगों से मिलें, तो लोग घुमा-फिराकर यही सब सुनाने लगते हैं। दरअसल, आम तौर पर कम उम्र के लोग कम स्किल, कम वेतन वाली नौकरियों पर कब्जा कर लेते हैं। कंपनियां इन्हें प्रशिक्षण देने पर बहुत कम खर्च करती हैं और जब मुश्किल समय आता है तो इन्हें हटा देना उनके लिए अपेक्षाकृत आसान होता है। जॉब्स पोर्टल नौकरी डॉट कॉम के अनुसार, पिछले साल मई की तुलना में इस साल मई में पूरे देश में भर्ती आधी रह गई। होटल, रेस्तरां, यात्रा-पर्यटन और एयरलाइंस उद्योगों में तो भर्तियों में 91 फीसदी की गिरावट आई। अटलांटिक काउंसिल थिंक टैंक की रिपोर्ट के अनुसार, खुदरा, आतिथ्य और पर्यटन-जैसे क्षेत्रों में काम करने वाले लोगों पर खास तौर पर इस महामारी के समय बहुत बुरा असर पड़ा है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन(आईएलओ) ने मई में चेतावनी दी थी कि महामारी कई युवाओं को पीछे धकेल सकती है और उन्हें स्थायी रूप से नौकरी बाजार से बाहर कर सकती है। साथ ही आगाह किया था कि वायरस की विरासत अब हमारे साथ दशकों तक रहने वाली है।
आईएलओ का अनुमान है कि महामारी के बाद से दुनिया भर में हर छह में से एक व्यक्ति ने अपनी नौकरी खो दी है। भारत में हम इस बात को अपनी ताकत बताते हैं जिसमें काम करने वाले युवाओं की आबादी काफी अधिक है लेकिन महामारी के इस काल का दुष्प्रभाव भी इसी तबके पर सबसे ज्यादा पड़ा है। सीएमआईई की रिपोर्ट में कहा गया है कि अप्रैल में 20-30 साल के बीच के 2.7 करोड़ लोगों की नौकरी चली गई। रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि 15 से 29 साल के 41 फीसदी लोगों के पास इस साल मई में काम नहीं था जबकि 2018-19 में इसी आयु वर्ग के केवल 17.3 प्रतिशत लोग काम से बाहर थे।
भारत में आईटी कंपनियों में भी जोर-शोर से छंटनी हो रही है, हालांकि यह मोटे तौर पर खराब प्रदर्शन से जुड़ी हुई है। कुछ को इसलिए हटा दिया गया कि कंपनी के पास प्रोजेक्ट नहीं रहा। पुणे में आईटी और आईटीईएस मैन पावर फर्म चलाने वाले प्रभात द्विवेदी ने कहा, “खास तौर पर आईबीएम और कॉग्निजेंट में जो छंटनी का दौर चला है, उसका कारण अनिश्चित कारोबारी माहौल में काम करने वालों की संख्या को न्यूनतम कर देना है।” टाटा समूह के एक सूत्र ने कहा कि उनके यहां भी ऑटोमोबाइल, विमानन, एयरोस्पेस और खुदरा डिवीजनों में काम करने वालों की संख्या को कम करने की योजना तैयार की जा रही है।
मुकेश अंबानी की अगुवाई वाली रिलायंस इंडस्ट्रीज ने 30 अप्रैल को ही तेल और गैस डिवीजन के शीर्ष कर्मचारियों के वेतन में 50 प्रतिशत तक की कटौती की घोषणा कर दी। प्रति वर्ष 15 लाख रुपये से अधिक कमाने वाले कर्मचारियों को 10 फीसदी कटौती का सामना करना पड़ा जबकि वरिष्ठ अधिकारियों के वेतन में 30 से 50 प्रतिशत तक कटौती की गई। भारत में छंटनी करने वाली अन्य प्रमुख कंपनियां हैंः कैब चलाने वाली ओला और उबेर, फूड डिलीवरी क्षेत्र की अग्रणी कंपनियां- स्विगी और जोमाटो और अंतरराष्ट्रीय कार्य क्षेत्र शेयरिंग फर्म- वेवकोर इत्यादि।
भारतीय मीडिया में भी बड़ी संख्या में लोगों को निकालने, वेतन में कटौती-जैसे कदम उठाए गए। कोविड-19 के प्रभाव पर द इकोनॉमिक टाइम्स द्वारा कराए गए ऑनलाइन सर्वेक्षण के अनुसार, 3,074 लोगों में से 39 प्रतिशत ने कहा कि उनके वेतन में कटौती हो गई है जबकि 15 फीसदी ने बताया कि उन्हें नौकरी से निकाल दिया गया है। छंटनी और वेतन कटौती का दौर ऐसी अर्थव्यवस्था में चल रहा है जो पहले से ही मंदी की मार झेल रही थी, इसलिए जाहिर है इसका असर तो और बुरा होने जा रहा है। अब मांग में और कमी आएगी क्योंकि प्रभावित होने वाले घर न्यूनतम जरूरी सामान ही खरीद रहे हैं।
सबसे बड़ा मुद्दा यह है कि भारत सरकार भी स्थिति को बेहतर बनाने में मदद नहीं कर रही है। एयर इंडिया में कर्मचारियों के वेतन में कटौती की घोषणा हुई। इसके बाद, भारत में सबसे अधिक नौकरियां देने वाले भारतीय रेलवे ने अब देश भर में कोई भी नई भर्ती नहीं करने का फैसला किया है। पिछले नवंबर में रेल मंत्री पीयूषगोयल ने घोषणा की थी कि रेलवे ने लगभग 2.93 लाख पदों को भरने के लिए प्रक्रिया शुरू कर दी है। लेकिन लॉकडाउन के बाद खर्चे को कम करने की रणनीति के तहत रेलवे बोर्ड ने अब जोनल रेलवे और उत्पादन इकाइयों को अगले आदेश तक सुरक्षा श्रेणी को छोड़कर नए पद सृजित करने से मना कर दिया है। इतना ही नहीं, जोनल रेलवे को यह भी कहा गया है कि वे पिछले दो वर्षों के दौरान सृजित पदों की भी समीक्षा करें और अगर किन्हीं पदों पर अभी नियुक्ति नहीं हुई है तो उसे रोक दें। इसके अलावा, मैकेनिकल, इलेक्ट्रिकल और सिग्नल और दूरसंचार विभागों सहित गैर-सुरक्षा श्रेणियों में मौजूदा रिक्तियों को भी 50 प्रतिशत कम करने को कहा गया है। रेलवे कर्मचारी संघ के एक पदाधिकारी ने कहा, “कई महत्वपूर्णपद जो पिछले कुछ महीनों में सेवानिवृत्त कर्मचारियों से भरे गए थे, वे लॉकडाउन के दौरान पदों से मुक्त हो जाने के बाद खाली हो गए हैं। रेलवे को जल्द-से-जल्द रिक्तियों को भरने की कोशिश करनी चाहिए।”
केंद्र सरकार के कर्मचारी संघ से जुड़े हुए भारतीय विमानपत्तन प्राधिकरण के एक कर्मचारी ने नाम न छापने की शर्त पर बताया, “हमें पता है कि शीर्ष स्तर पर हुई बैठक के बाद केंद्र सरकार के कर्मचारियों के वेतन में फिलहाल 35 प्रतिशत की कमी करने का प्रस्ताव है। सरकार का कहना है कि उसके पास अभी पैसे नहीं हैं और जब भी सरकार के राजस्व की स्थिति सुधरेगी, कर्मचारियों का कटा हुआ वेतन एरियर के तौर पर उन्हें वापस दे दिया जाएगा। हम सेल, गेल, एलआईसी, ऑयल इंडिया लिमिटेड, ओएनजीसी, एनटीपीसी और अन्य सार्वजनिक उपक्रमों के लोगों के साथ बातचीत कर रहे हैं कि अगर सरकार ने इस प्रस्ताव को मंजूरी दे दी तो हम कैसे-क्या करेंगे”।
ऐसे समय सरकार को रोजगार सृजन योजनाओं में सरकारी खर्च में अच्छी-खासी वृद्धि करनी चाहिए, सरकारी पदों को भरना चाहिए और मांग को बढ़ाने के लिए मनरेगा के आवंटन में भी भारी वृद्धि करनी चाहिए। यही एकमात्र उपाय है। लेकिन लगता है कि नरेंद्र मोदी सरकार मौजूदा संकट से निकलने के लिए हरसंभव गलत उपाय ही कर रही है। ऐसे समयमें वह क्रेडिट रेटिंग के बारे में ज्यादा परेशान दिखती है जब उसका फोकस अर्थव्यवस्था में पैसे के प्रवाह और आर्थिक गतिविधियों को वापस पटरी पर लाने पर होना चाहिए था। इसका खामियाजा देश की श्रम शक्ति को उठाना पड़ रहा है और हर बीतते दिन के साथ स्थिति और खराब होती जा रही है।
यह बात बिल्कुल साफ नजर आ रही है कि बढ़ती बेरोजगारी और आर्थिक मंदी से निपटने का कोई रोडमैप सरकार के पास नहीं है। वह अंधेरे में तलवार चलाकर सबका नुकसान करने पर आमादा है(navjivan)
डॉ. मुजफ्फर हुसैन गजाली
बाल श्रम विधेयक 2016 में खतरनाक उद्योगों की संख्या 83 से घटाकर 3 कर दी गई है। अब केवल खनन, अग्निशामक और विस्फोटक को ही खतरनाक माना गया है, तो क्या जऱी, प्लास्टिक, चूड़ी उधोग, कपड़े, कालीन बनाने, दुकान, कारखाने, खेत खल्यान में कीटनाशकों और रसायनों के बीच काम करना बच्चों के लिए सुरक्षित है? क्या बीड़ी बनाने, रंग पेंट करने, ईंट के भट्टों में काम करना उनके लिए ठीक है? क्या कचरा चुनना या ढोना उनके स्वास्थ्य के लिए सही है?
प्राकृतिक आपदा, बाढ़, हिंसक संघर्ष और विस्थापन का बच्चों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। यदि बच्चे का संबंध गरीब, सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग से हो तो उसकी हालत और दयनीय होती है। भोजन, स्वच्छ पेयजल, चिकित्सा, सुरक्षित आवास, कुछ भी उपलब्ध नहीं होता। माइग्रेशन के कारण उन का स्कूल छूट जाता है। अनिश्चितता, कठोर परिस्थिति और गरीबी में हंसता खेलता बचपन श्रम के बोझ तले दब जाता है। अंतरराष्ट्रीय समुदाय द्वारा 2015 में सतत विकास के जो लक्ष्य निर्धारित किये गये थे हर प्रकार के बाल श्रम का उन्मूलन उनमें से एक था। दुनिया को 2030 तक गरीबी, बीमारी, अशिक्षा, पर्यावरण के लक्ष्य को प्राप्त करना है। बाल श्रम सहित मानव दासता को 2025 तक खत्म करना है। इस लक्ष्य को हासिल करने में केवल साढ़े चार साल बाकी हैं। लेकिन वैश्विक महामारी के चलते इस लक्ष्य तक पहुंचना आसान नहीं होगा।
कोरोना संकट केवल स्वास्थ्य और अर्थव्यवस्था से जुड़ा मामला नहीं है। यह बच्चों के भविष्य का संकट भी है। साल 2000 में, दुनिया में 26 करोड़ बच्चे ऐसे थे जिन की उम्र 14 वर्ष से कम थी, उन का वक्त कॉपी किताबों और दोस्तों के बीच नहीं बल्कि होटलों, घरों, कारखानों, उद्योगों, खेत-खलिहानों, बर्तन बनाने, पोलिश करने वाली फैक्टरीयों और उपकरणों के बीच गुजर रहा था। संयुक्त प्रयासों के कारण, उनकी संख्या घटकर अब 15 करोड़ रह गई है। बच्चों के द्वारा सब से ज्यादा सामान भारत, बांग्लादेश और फिलीपींस में बनाए जाते हैं। दुनिया के कुछ देशों में, श्रम के लिए कोई आयु सीमा नहीं है और कुछ ने खतरनाक कामों की सूची भी नहीं बनाई है। बाल श्रम दुनिया भर में एक बड़ी समस्या है। पिछले साल, अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के प्रबंध निदेशक गाय राइडर ने एक कार्यक्रम में चिंता व्यक्त करते हुए कहा था कि जिस गति से बाल श्रम पर काम हो रहा है, उस से अनुमान है कि 2025 में भी 12 करोड़ बाल श्रमिक बच जाएंगे। नोबेल पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी ने अपनी प्रतिक्रया देते हुए कहा था कि दुनिया बाल श्रम को समाप्त करने में पूरी तरह सक्षम है। वहां मौजूद कई बुद्धिजीवियों ने इस बात का समर्थन करते हुए माना था कि योजनाबद्ध तरीके से इस बुराई को मिटाया जा सकता है।
कैलाश सत्यार्थी के अनुसार कोरोना वायरस एक बड़ी चुनौती लेकर आया है। इससे बाल श्रम, बाल विवाह, यौन शोषण और बाल उत्पीडऩ का खतरा बढ़ गया है। इसलिए अब हमें और अधिक ठोस और त्वरित समाधान खोजने की जरूरत है। विकास और दासता साथ साथ नहीं चल सकते। लिहाजा गुलामी का खात्मा तो करना ही पड़ेगा। कोरोना से इस वर्ष लगभग 6 करोड़ नए बच्चे अत्यधिक गरीबी में धकेले जा सकते हैं। जिन में से बड़ी संख्या बाल मजदूर बन जाएंगी।
1991 की जनगणना के अनुसार, भारत में बाल श्रम का आंकड़ा 11.3 मिलियन था। बच्चों के लिए काम करने वाली एनजीओ के अनुसार, इन में से 50.2 प्रतिशत बच्चे सप्ताह में सातों दिन काम करते हैं।
53.22 प्रतिशत मासूम यौन शोषण का शिकार होते हैं। 50 प्रतिशत खतरनाक परिस्थितियों में काम करते हैं। उनका जीवन गुलामों से भी बदतर है। उनसे दिन-रात काम लिया जाता है और मजदूरी का भुगतान भी नहीं किया जाता। और काम न करने पर उन्हें शारीरिक कष्ट सहना पड़ता है। अनुमान है कि नियोजित बाल श्रमिकों में एक तिहाई लड़कियां हैं। बाल श्रम में लगे ज्यादातर बच्चे एशियाई देशों के हैं। खास तोर पर भारत में इस समस्या ने कोरोना संकट के कारण गंभीर रूप धारण कर लिया है।
जब भी बच्चों के अधिकारों की बात आती है, तो बहाने बनाये जाने लगते हैं। छोटे बच्चों को शिक्षा का अधिकार देने के लिए गोपाल कृष्ण गोखले ने 1911 में इंपीरियल विधान परिषद में एक विधयक पेश किया था। यह विधयक किशोरों की शिक्षा तक ही सीमित था लेकिन फिर भी पारित नहीं हो सका। 1986 में, जब संसद ने कानून बनाया कि 18 साल से कम आयु के बच्चों से मजदूरी नहीं कराई जा सकती, तब भी यह सवाल उठा था कि गरीब परिवारों के लिए मुश्किल हो जाएगी। इसका मतलब साफ है कि जो गरीब हैं वे अपनी आजीविका में उलझे रहें। इस से बहार निकल कर उन्हें सोचने का मौका न मिले और न ही उनका देश के किसी मामले से कोई सरोकार हो। बाल श्रम, गरीबी और अशिक्षा के बीच त्रिकोणीय संबंध है। वे एक-दूसरे को जन्म देते हैं, जो सतत विकास, सामाजिक एवं आर्थिक न्याय और मानव अधिकारों के लिए सबसे बड़ी बाधा है।
सुप्रीम कोर्ट में चले कई मुकदमों, शोध रिपोर्टों और सैकड़ों सामाजी व कल्याणकारी संगठनों की मेहनत और कोशिशों के परिणाम स्वरूप बने राजनीतिक दबाव के कारण 2009 में कांग्रेस सरकार ने अनिवार्य शिक्षा के अधिकार का कानून बनाया। इसके तहत 6 से 14 वर्ष की आयु के प्रत्येक बच्चे को मुफ्त शिक्षा का मूल अधिकार मिला। इस कानून की बड़ी विशेषता यह थी कि इसमें छोटी लड़कियां शामिल थीं। इसी के सहारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को बेटी बचाओ बेटी पढाई योजना शुरू करने का अवसर मिला। जबकि पिछड़े और वंचित वर्गों को यह सबक पढ़ाया जाता रहा है कि बालिका को जन्म से ही घर के कामों में हाथ बटाने का प्रशिक्षित दिया जाये। यह हमारी सभ्यता का हिस्सा है। सात- आठ साल की लडक़ी घर कि साफ सफाई, खाना बनाने जैसे दैनिक कामों में सहायता करने के अलावा उस काम में भी दाखिल हो चुकी होती है जो जात के अनुकूल उसका परिवार करता है। लडक़ी को स्कूल भेजने और स्कूल में उसकी शिक्षा की गुणवत्ता को मापने की कोशिश करने वाला कानून एक सपने जैसा था। इस सपने के साकार होने में सांस्कृतिक कांटे और सरकारी चट्टानें पहले से ही बाधा थीं, फिर 2016 के नए बाल श्रम कानून ने उनके सपने को दशकों आगे खिसका दिया। अर्थव्यवस्था को सुधारने और निवेशकों को आकर्षित करने के लिए श्रम कानूनों को अधिक लचीला बनाने पर सरकारों का जोर रहा है। कोरोना संकट के दौरान भी कई राज्य सरकारों ने श्रम कानूनों में संशोधन किये हैं।
बाल श्रम कानून को 2012 और फिर 2016 में नरम किया गया। तत्कालीन श्रम और रोजगार मंत्री बंडारु दत्तात्रेय ने बाल श्रम संशोधन विधेयक 2016 को ऐतिहासिक व मील का पत्थर बताया था। उनके अनुसार, इसका उद्देश्य बाल श्रम को पूरी तरह से समाप्त करना था। इस विधेयक में 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों के लिए पारिवारिक कार्यों को छोड़ कर विभिन्न श्रेणियों में काम करने पर पूर्ण प्रतिबंध का प्रावधान किया गया है। उन्होंने कहा कि जब कोई कानून जमीन से जुड़ा होता है तभी टिकता है और न्याय देता है। इसे शिक्षा के अधिकार अधिनियम 2009 से भी जोड़ा गया है। नया विधेयक कहता है कि कोई भी बच्चा किसी भी काम में नहीं लगाया जाएगा, लेकिन कानून तब लागू नहीं होगा जब बच्चा अपने परिवार या परिवार के काम में मदद कर रहा हो, स्कूल के बाद या छुट्टियों के दौरान और काम खतरनाक न हो। बंडारु दत्तात्रेय ने तर्क दिया कि पारिवारिक व्यवसाय में मालिक-मजदूर का संबंध नहीं होता। यह बड़ी सरल बात लगती है कि बच्चे घर के कामों में मदद करें। सवाल यह है कि बच्चे स्कूल के बाद या छुट्टियों के दौरान काम करेंगे तो सैर व तफरी कब करेंगे? पढ़ेंगे कब? खेलेंगे कब? क्या यह उनके मानसिक विकास के लिए यह ठीक होगा? क्या उनके नाजुक शरीर पर किसी भी तरह के श्रम का बोझ लादना सही होगा? और यह कौन निर्धारित करेगा कि बच्चा परिवार के काम में मदद कर रहा है? या वह अपने माता-पिता के कर्ज का भुगतान करने के लिए बंधुआ मजदूर बन गया है।
बाल श्रम विधेयक 2016 में खतरनाक उद्योगों की संख्या 83 से घटाकर 3 कर दी गई है। अब केवल खनन, अग्निशामक और विस्फोटक को ही खतरनाक माना गया है, तो क्या जऱी, प्लास्टिक, चूड़ी उधोग, कपड़े, कालीन बनाने, दुकान, कारखाने, खेत खल्यान में कीटनाशकों और रसायनों के बीच काम करना बच्चों के लिए सुरक्षित है? क्या बीड़ी बनाने, रंग पेंट करने, ईंट के भट्टों में काम करना उनके लिए ठीक है? क्या कचरा चुनना या ढोना उनके स्वास्थ्य के लिए सही है? क्या फिल्म, टीवी धारावाहिक और विज्ञापनों में कलाकार के रूप में काम करने से बच्चों में तनाव पैदा नहीं होता है? क्या यह उनके मानसिक विकास के लिए अच्छा है? कुछ लोग ट्रैफिक सिग्नल पर किताबें, अखबार, फूल, खिलौने, मोबाइल चार्जर बेचकर अपना जीवन यापन करते हैं, तो क्या उनके बच्चों को ट्रैफिक सिग्नल पर सामान बेचने की अनुमति होगी? पारिवारिक कार्यों में बच्चों के सहयोग के पीछे तर्क यह है कि यह बच्चों को गृहकार्य और कौशल सिखा सकता है, लेकिन यह जाति व्यवस्था को मजबूत करने का एक षड्यंत्र है। विशेषज्ञ इसके विरुद्ध हैं, उनका मानना है कि इससे स्कूल छोडऩे वालों की संख्या बढ़ेगी। सवाल यह है कि बच्चे को माता-पिता के पेशे को क्यों अपनाना चाहिए? वास्तव में, बच्चों को माता-पिता के व्यवसाय से जोडऩे का मतलब है उद्योगों के लिए सस्ते श्रम की व्यवस्था करना। मोदीजी ने दुनिया भर में घूम -घूम कर वादा किया है कि यदि आप हमारे देश में औद्योगीकरण करते हैं, तो सस्ते श्रमिक हम प्रदान करेंगे। बाल कल्याण एवं अधिकारों के लिए काम करने वालों का मानना है कि अगर बाल श्रम को देश से समाप्त करना है, तो बाल श्रम कानूनों में ढील नहीं दी जानी चाहिए। क्योंकि इस से असंगठित श्रेणी के श्रमिकों में गरीबी और बाल श्रम में इजाफा होगा।
कोरोना संकट के कारण बाल श्रम में सुधार के बजाए हालत और बिगडऩे की संभावना है। कोड- 19 से सब से अधिक सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ा कमज़ोर वर्ग प्रभावित हो रहा है। उन में गरीबी और बेरोजगारी बढ़ रही है, जिसका ख़मयाज़ा उनके बच्चों को भुगतना पड़ेगा। इसका परिणाम बाल श्रम के रूप में सामने आ सकता है। सरकार 30 करोड़ बच्चों को मिड-डे मील या स्कूल जाने के बदले उनके माता-पिता को नकद रक़म देती है। लॉकडाउन और बीमारी के डर से स्कूल बंद हैं। लंबे समय के लिए स्कूल छूट जाने के बाद, अधिकांश गरीब बच्चे दोबारा स्कूल नहीं लौटते। उनके मजदूर बनने की संभावना बढ़ जाती है। भारत के लाखों प्रवासी श्रमिकों के बच्चों के साथ भी ऐसा ही कुछ हो सकता है। यदि समाज, सरकार, उद्योगपति, व्यवसायी बच्चों को काम पर जाने से रोकने के लिए ठोस पहल करें तो बच्चों को श्रम की बेडिय़ों से बचाया जा सकता है। सुरक्षित और समृद्ध बचपन से ही एक सुरक्षित और समृद्ध देश का निर्माण संभव है। आज यदि हम अपने बच्चों को बेहतर जीवन नहीं दे पाए, तो कल पूरी पीढ़ी की बर्बादी के दोषी कहलाएंगे।
गोपाल राठी
बीजू मतलब बीज द्वारा उगने वाले और कलमी मतलब कलम रोपड़ से उगने वाले। ये बहुत सिंपल परिभाषा है आरएसएस मूल से आये और गैर संघी पृष्ठभूमि से आये भाजपा नेताओं की। इस अंतर को हमें समझाया था कभी समाजवादी पृष्ठभूमि के एक भाजपाई विधायक ने। उनसे हम और हमारे दिवंगत समाजवादी साथी सुनील सौजन्य मुलाकात के लिए गए थे। तवा विस्थापितों की समस्या पर चर्चा के दौरान उन्होंने कहा हम हैं तो भाजपा के विधायक लेकिन कलमी है आप अपनी समस्या के लिए किसी बीजू विधायक से मिल लें मंत्री और मुख्यमंत्री उन्हें ज़्यादा महत्व देते है। तात्कालिक लाभहानि के चक्कर में कांग्रेस या अन्य पार्टियों के नेताओं के भाजपा में हो रहे दलबदल के बीच यह वाकया याद आ गया।
जो लोग भी अपने उज्ज्वल कैरियर के लिए भाजपा में जा रहे है उन्हें यह अच्छी तरह जान लेना चाहिए कि वहां सिर्फ संघी पृष्ठभूमि के लोगों की ही चलती है। बाकी कांग्रेस और अन्य पार्टियों के दलबदलूओं का सिर्फ इस्तेमाल होता है। आपका प्रभाव जब तक रहेगा तब तक वे आपको पर्याप्त महत्व देंगे और जब आपका उनके लिए कोई उपयोग ना हो तो वे दूध में मक्खी की तरह लात मार कर बाहर का रास्ता दिखा देंगे। यह दलबदलू कांग्रेसी कितना ही प्रयास कर लें लेकिन उन्हें भाजपा के आम कार्यकर्ता में वो सम्मान नहीं मिल सकता जो संघ से आए भाजपाई नेता को मिलता है।
मणिपुर गोवा बिहार कर्नाटक एमपी राजस्थान में दलबदल सत्ता और स्वार्थ पर आधारित है। जिसमे खरीद-फरोख्त की संभावना से कोई इंकार नहीं कर सकता। जिन राज्यों के चुनाव में जनता ने भाजपा को नकार दिया था वहां व्यापक दलबदल द्वारा जनमत का सरेआम मजाक बना दिया गया। इस तरह का सामूहिक दलबदल अनैतिक है।
दलबदल हो या धर्म परिवर्तन अगर वह स्वार्थ और लोभ पर आधारित ना होकर विचारों पर आधारित हो तो उसे गलत नहीं कहा जा सकता। दलित समुदाय में जन्मे डॉ अंबेडकर ने हिन्दू धर्म त्यागने के बहुत पहले यह घोषणा कर दी थी कि उन्होंने हिन्दू धर्म में जन्म अवश्य लिया है लेकिन इस धर्म में मरेंगे नहीं। आंबेडकर ने हिंदू धर्म छोडऩे की घोषणा 1936 में ही अपने भाषण जातिभेद का उच्छेद यानी एनिहिलेशन ऑफ कास्ट में कर दी थी लेकिन उन्होंने धर्म परिवर्तन 1956 में जाकर किया। इस बीच उन्होंने सभी धर्मों का अध्ययन किया और फिर अपने हिसाब से श्रेष्ठ धर्म का चयन किया। उन्होंने अपने लाखों अनुयायियों के साथ नागपुर में बौद्ध धम्म ग्रहण किया ।
गहन विचार-मंथन के बाद विचारों के आधार पर किये गए एक सर्वश्रेष्ठ दल बदल का उदाहरण मैंने देखा है। जीवन भर कांग्रेस के कटु आलोचक रहे प्रखर सांसद प्रकाश वीर शास्त्री ने 1977 में तब काँग्रेस का दामन थामा तो सब लोगों को आश्चर्य हुआ क्योंकि उस समय बड़े-बड़े कांग्रेसी नेता कांग्रेस छोडक़र जा रहे थे। काँग्रेस में शामिल होते ही वे पिपरिया मे मंगलवारा चौराहे पर कांग्रेस की आमसभा संबोधित करने के लिए आए थे। वे पूरी जिंदगी कांग्रेस के विरोध में बोलते और लिखते रहे लेकिन इस चुनाव में वे कांग्रेस की तरफ से प्रचार के लिए आए थे।
सटीक और तर्क के साथ प्रभावपूर्ण प्रस्तुति उनके भाषण की विशेषता थी। कांग्रेस विरोधी मानसिकता के हम जैसे बहुत से लोग उनकी भाषण शैली के कायल हुए बिना नहीं रह सके। आर्य समाज से जुड़े प्रकाशवीर शास्त्री तीन बार (दूसरी, तीसरी और चौथी) लोकसभा के स्वतंत्र सांसद रहे।
हिन्दी सेवी प्रकाशवीर शास्त्री संयुक्त राष्ट्रसंघ में हिन्दी बोलने वाले पहले भारतीय थे जबकि दूसरे अटल बिहारी वाजपेयी। प्रकाशवीर के भाषणों में तर्क बहुत शक्तिशाली होते थे। उनके विरोधी भी उनके प्रशंसक बन जाते थे। एक बार भारत के पूर्व प्रधानमंत्री और भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था कि प्रकाशवीर जी उनसे भी बेहतर वक्ता थे। इसी तरह मध्यप्रदेश के प्रसिद्ध समाजवादी नेता यमुनाप्रसाद शास्त्री अपने जीवन के अंतिम वर्षों में माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हो गए थे। किसी ने उनकी नीयत पर उंगली नहीं उठाई।
भाजपा की बड़ी हुई ताकत को और बढ़ाने के लिए भाजपा में शामिल होने वाले कांग्रेसी नेताओं और कार्यकर्ताओं को इस पार्टी में वह हैसियत और विश्वास कभी नहीं मिल सकती जो उन्होंने अपनी मूल पार्टी में रहकर अर्जित किया है। सत्ता, स्वार्थ और धन के लिए किए गए दलबदल का तात्कालिक लाभ भले ही मिल जाये लेकिन दीर्घकाल में यह एक आत्मघाती कदम ही सिद्ध होगा।
इस पार्टी से उस पार्टी में या उस पार्टी से इस पार्टी में आने वालों पर जिंदगी भर दलबदलू होने का तमगा लगा ही रहेगा। दलबदल का यह कलंक लेकर वे नई पार्टी में अपने लिए कितना स्पेस बना पाते है यह आने वाला समय बताएगा।
वैसे भाजपा में बीजू और कलमी का अंतर बना रहेगा।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कल के मेरे लेख हमारे ‘ढोंगी लोकतंत्र’ पर प्रतिक्रियाओं की बरसात हो गई। लोग पूछ रहे हैं कि भारत को सच्चा लोकतंत्र कैसे बनाएं ? कुछ सुझाव दीजिए। सबसे पहले देश की सभी पार्टियों में आंतरिक लोकतंत्र हो याने किसी भी पद पर कोई भी नेता बिना चुनाव के नियुक्त न किया जाए।
पार्टी के अध्यक्ष तथा सभी पदाधिकारियों का सीधा चुनाव हो, गुप्त मतदान द्वारा। दूसरा, किसी को भी नगर निगम, विधानसभा या संसद का उम्मीदवार घोषित करने के पहले यह जरुरी हो कि वह पार्टी-सदस्य पहले अपनी पार्टी के आतंरिक चुनाव में बहुमत प्राप्त करे। नेताओं द्वारा नामजदगी एकदम बंद हो। तीसरा, यह भी किया जा सकता है कि पार्टी अध्यक्ष, महासचिव और सचिवों को दो बार से ज्यादा लगातार अपने पद पर न रहने दिया जाए।
चौथा, पार्टी के आय और व्यय का पूरा हिसाब हर साल सार्वजनिक किया जाए। हमारी पार्टियों को रिश्वत और दलाली के पैसों से परहेज करना सिखाया जाए। पांचवां, अपराधियों को चुनावी उम्मीदवार बनाना तो दूर की बात है, ऐसे गंभीर आरोपियों को पार्टी सदस्यता भी न दी जाए और अगर पहले दी गई हो तो वह छीन ली जाए। छठा, ऐसा कानून बने कि कोई भी दल-बदलू अगले पांच साल तक न तो चुनाव लड़ सके और न ही किसी सरकारी पद पर रह सके। सातवां, जो भी व्यक्ति किसी दल का सदस्य बनना चाहे, उसके लिए कम से कम एक साल तक आत्म-प्रशिक्षण अनिवार्य होना चाहिए। वह दल के इतिहास, नेताओं के जीवन, दल के आदर्शों, सिद्धांतों, नीतियों और कार्यक्रमों से भली-भांति परिचित हो जाए, इसके लिए उसे बाकायदा एक परीक्षा पास करनी चाहिए। आठवां, थोक वोट या वोट बैंक की राजनीति पर प्रतिबंध होना चाहिए। किसी भी दल को जाति या संप्रदाय के आधार पर राजनीति नहीं करने दी जानी चाहिए। यदि इस नियम का कड़ाई से पालन हो तो देश के कई राजनीतिक दलों को अपना बिस्तर-बोरिया गोल करना पड़ेगा। नौवां, किसी भी दल के उच्च पदों पर एक परिवार का एक ही सदस्य रहे, उससे ज्यादा नहीं। इस प्रावधान के कारण हमारे राजनीतिक दल प्राइवेट लिमिटेड कंपनियां बनने से काफी हद तक बच सकेंगे। दसवां, सत्तारुढ़ दल जागरुक रहे और विरोधी दल रचनात्मक भूमिका निभाते रहें, इसके लिए जरुरी है कि सभी राजनीति दल अपने सभी कार्यकर्ताओं के लिए तीन-दिवसीय या पांच-दिवसीय प्रशिक्षण शिविर लगाएं, जिनमें उनके साथ विचारधारा, सिद्धांतों और नीतियों पर खुला विचार-विमर्श हो। ग्यारहवां, सभी दलों के पदाधिकारी और चुने गए नेताओं के लिए यह अनिवार्य होना चाहिए कि वे अपनी और अपने परिवार की चल-अचल संपत्ति का ब्यौरा हर साल सार्वजनिक करें। ताकि देश को पता चले कि:
राजनीति है सेवा का घर, खाला का घर नाय।
जो सीस उतारे कर धरे, सो पैठे घर माय ।।
(नया इंडिया की अनुमति से) (nayaindia.com)
-डॉ राजू पाण्डेय
मध्यप्रदेश के गुना में दलित दंपत्ति के साथ पुलिस की बर्बरता संवेदनहीन भारतीय समाज और शासन व्यवस्था की कार्यप्रणाली का स्थायी भाव है। प्रशासन और पुलिस के जिन उच्चाधिकारियों के तबादले हुए उन्होंने अपनी प्रारंभिक प्रतिक्रिया में इस घटना को न्यायोचित ठहराने का प्रयास किया था। यह हमारे प्रशासन तंत्र की उस मानसिकता को दर्शाता है जिसमें असहाय पर अत्याचार करना और शक्ति सम्पन्न के सम्मुख शरणागत हो जाना सफलता का सूत्र माना जाता है। इन उच्चाधिकारियों को अपने आचरण में कुछ आपत्तिजनक नहीं लगा। उन्होंने दलित दंपति की फसल उजाड़ने वाले, इन्हें बेरहमी से पीटने वाले, इनकी मासूम संतानों के साथ दुर्व्यवहार करने वाले और अंततः इन्हें आत्महत्या के लिए विवश करने वाले पुलिस और प्रशासनिक अमले के आचरण को सही ठहराया। इन अधिकारियों का तर्क था कि मॉडल कॉलेज के लिए दी गई जमीन पर बेजा कब्जा कर खेती कर रहे दलित दंपति ने बेजा कब्जा हटाने गए अमले के कार्य में बाधा डाली और इन पर हल्का बल प्रयोग अनुचित नहीं कहा जा सकता। यह भी कहा गया कि इस दंपति ने विषपान कर लिया था और भीड़ इन्हें अस्पताल नहीं ले जाने दे रही थी इस कारण भी बल प्रयोग किया गया। पुलिस ने इस दंपति के विरुद्ध धारा 353, 141 और 309 के तहत मामला भी दर्ज कर लिया है। जैसा कि इस तरह के अधिकांश मामलों में होता है सरकार बड़े धीरज और शांति से इस बात की प्रतीक्षा कर रही है कि मीडिया कोई नई सुर्खी ढूंढ ले और बयानबाजी कर रहे विरोधी दल इस मामले से अधिकतम राजनीतिक लाभ लेने के बाद अधिक सनसनीखेज और टिकाऊ मुद्दा तलाश लें। जब मीडिया और विपक्षी पार्टियों का ध्यान इस मुद्दे से हट जाएगा तब भी यह धाराएं कायम रहेंगी और दलित दंपत्ति को पुलिस महकमे और न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार के बीच अपनी हारी हुई लड़ाई लड़नी होगी। मध्यप्रदेश सरकार ने पुलिस और प्रशासन के संबंधित उच्चाधिकारियों का तबादला कर दिया है किंतु यदि कोई यह सोचता है कि यह तबादला उनकी अमानवीयता और असंवेदनशीलता के मद्देनजर हुआ है तो यह उसकी भूल है। अधिक से अधिक उन्हें इस बात की सजा दी गई है कि वे एक दीन हीन, लाचार और असहाय दलित परिवार तक से बिना शोरगुल के जमीन खाली करवाने में नाकामयाब रहे और उन्होंने अपनी लापरवाही से मीडिया और विपक्षी दलों को सरकार पर निशाना साधने का मौका दे दिया है - वह भी ऐसे समय में जब उपचुनावों की तैयारी चल रही है।
यह पूरा घटनाक्रम देश के लाखों निर्धनों और दलितों के जीवन में व्याप्त असहायता, अनिश्चितता और अस्थिरता का प्रतिनिधित्व करता है। सरकारी जमीन पर वास्तविक कब्जा उस क्षेत्र के एक बाहुबली पूर्व पार्षद या स्थानीय नेता का था। उससे यह भूमि संभवतः कृषि कार्य के लिए बंटाई पर इस दलित परिवार द्वारा ली गई थी। यह कोई असाधारण घटना नहीं है। हर कस्बे, हर शहर और हर महानगर में रसूखदार और बाहुबली जनप्रतिनिधि इस तरह के निर्धन लोगों को अपने आर्थिक लाभ हेतु या वोटों की राजनीति के लिए सरकारी जमीनों पर गैरकानूनी रूप से बसाते हैं। जो गरीब ऐसी सरकारी भूमि पर अपनी झोपड़ी या दुकान या ठेला लगाते हैं उन्हें अधिकांशतया यह पता भी नहीं होता कि यह भूमि सरकारी है। पुलिस, नगरीय निकाय और स्थानीय प्रशासन के भ्रष्ट कारिंदे एक नियमित अंतराल पर इनसे अवैध वसूली करते रहते हैं। भ्रष्टाचार का इन निर्धनों के जीवन में ऐसा और इतना दखल है कि यह वसूली इन्हें गलत नहीं लगती क्योंकि अपने हर वाजिब हक के लिए भी इन्हें भ्रष्ट तंत्र शिकार होना पड़ता है। इस तरह अवैध बस्तियां बसती हैं। फिर एक दिन अचानक विकास का वह बुलडोजर जो ताकतवर और सत्ता से नजदीकी रखने वाले लोगों की अवैध संपत्तियों को गिराने में अपनी नाकामी की तमाम खीज समेटे होता है इन बस्तियों तक पहुंचता है और बेरहमी से विकास का मार्ग प्रशस्त करने लगता है। गुना के दलित परिवार पर निर्दयतापूर्वक लाठियां बरसाते पुलिस कर्मियों के प्रहारों के पीछे असली अपराधियों का कुछ न बिगाड़ पाने की हताशा को अनुभव किया जा सकता है। आज भी हमारे देश में लाखों गरीबों की जिंदगी साधन संपन्न लोगों के लिए गुड्डे गुड़ियों के खेल की तरह है- इन्हें जब चाहा बसाया और जब चाहा उजाड़ा जा सकता है। उजड़ने के बाद इनकी सहायता के लिए देश का सरकारी अमला और देश का कानून कभी सामने नहीं आते। इन्हें फिर किसी बाहुबली या फिर किसी भ्रष्ट जनप्रतिनिधि की प्रतीक्षा करनी पड़ती है जो इन्हें किसी ऐसी जगह पर बसाता है जहां से विस्थापित किया जाना इनकी नियति होती है।
गुना में दलित परिवार के साथ जो कुछ घटा वह अपवाद नहीं है। अपवाद तो तब होता जब भूमि सुधारों के क्रियान्वयन द्वारा इन्हें खेती के लिए किसी छोटी सी जमीन का मालिकाना हक मिल जाता, राज्य और केंद्र सरकार की किसी ऋण योजना के अधीन -इन्हें बिना ब्याज का या कम ब्याज दरों पर ही- ऋण मिल जाता। इनके द्वारा उपजाए गए अन्न को कोई बिचौलिया नहीं बल्कि स्वयं सरकार समर्थन मूल्य पर खरीद लेती और बिना देरी इनके खाते में भुगतान भी कर दिया जाता। अपवाद तब भी होता जब कृषि मजदूरों को कृषक का दर्जा और मान-सम्मान दिया गया होता और तब शायद प्रचार तंत्र द्वारा गढ़े गए आभासी लोक में सफलता के नए कीर्तिमान बना रही प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना और प्रधानमंत्री फसल बीमा योजनाओं का लाभ इस परिवार को मिल रहा होता। शायद तब प्रधानमंत्री के कोरोना राहत पैकेज में घोषित तथा सरकारी अर्थशास्त्रियों द्वारा गेम चेंजर के रूप में प्रशंसित ऋण योजनाओं की जद में भी यह परिवार आ जाता। किन्तु मीडिया द्वारा गढ़े गए चमकीले और रेशमी आभासी लोक से एकदम अलग यथार्थ की अंधेरी और पथरीली दुनिया है जहां दूसरों के खेतों पर आजीवन बेगार करना और सूदखोरों का कभी खत्म न होने वाला कर्ज लेना किसान की नियति है। अब ऐसे अपवादों की आशा करना भी व्यर्थ है। भारतीय राजनीति में अब जनकल्याण कर वोट बटोरने का चलन कम होता जा रहा है। इसका स्थान घृणा, दमन, हिंसा और विभाजन की रणनीति ने लिया है जो चुनाव जीतने के लिए ज्यादा कारगर लगती है।
विकास के हर पैमाने पर दलितों की स्थिति चिंताजनक है। देश के 68 प्रतिशत लोगों पर निर्धनता की छाया है, इनमें से 30 प्रतिशत लोग तो गरीबी रेखा से नीचे हैं। प्रतिदिन 70 रुपए से भी कम कमाने वाले इन लोगों में 90 प्रतिशत दलित हैं। देश में बंधुआ मजदूरों की कुल संख्या का 80 प्रतिशत दलित ही हैं। नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि देश में हर 15 मिनट में कोई न कोई दलित अपराध का शिकार होता है। प्रतिदिन 6 दलित महिलाएं बलात्कार की यातना और पीड़ा भोगने के लिए विवश होती हैं। शहरी गंदी बस्तियों में रहने वाले 56000 दलित बच्चे प्रतिवर्ष कुपोषण के कारण मौत का शिकार हो जाते हैं। वैसे भी मध्यप्रदेश उन राज्यों में शामिल है जहां दलितों पर होने अत्याचारों में चिंताजनक वृद्धि देखी गई है। आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2014 से 2018 की अवधि में दलितों पर होने वाले अत्याचारों में सर्वाधिक 47 प्रतिशत की वृद्धि उत्तरप्रदेश में दर्ज की गई। जबकि गुजरात 26 प्रतिशत के साथ दूसरे तथा हरियाणा एवं मध्यप्रदेश 15 तथा 14 प्रतिशत की वृद्धि के साथ असम्मानजनक तीसरे और चौथे स्थान पर रहे। क्या इन सब राज्यों का भाजपा शासित होना महज संयोग ही है? या फिर भाजपा जिस समरसता की चर्चा करती है उसमें समता के लिए कोई स्थान नहीं है- इस बात पर चिंतन होना चाहिए।
नेशनल दलित मूवमेंट फ़ॉर जस्टिस की 10 जून 2020 की एक प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार विभिन्न मीडिया सूत्रों के जरिए एकत्रित डाटा यह दर्शाता है कि लॉक डाउन की अवधि में दलितों पर अत्याचार की 92 घटनाएं हुईं। यह घटनाएं छुआछूत, शारीरिक और यौनिक हमले, पुलिस की क्रूरता, हत्या, सफाई कर्मियों के लिए पीपीई किट की अनुपलब्धता, भूख से मृत्यु, श्रमिक स्पेशल ट्रेनों में मौत तथा प्रवासी मजदूरों की मृत्यु से संबंधित हैं। प्रायः यह देखा जाता है कि महामारी या अन्य किसी भीषण प्राकृतिक आपदा के दौरान जो आर्थिक-सामाजिक संकट उत्पन्न होता है वह उन समुदायों के लिए सर्वाधिक विनाशकारी सिद्ध होता है जो पहले से हाशिए पर होते हैं। कोरोना काल की वर्तमान परिस्थितियां इसी ओर संकेत कर रही हैं।
इस घटना पर राजनेताओं और राजनीतिक दलों के बयान आ रहे हैं। एक बयान पूर्व मुख्यमंत्री श्री कमलनाथ का है जिनके परिजन स्वयं उद्योगपति हैं तथा जिनके उद्योगपतियों से पारिवारिक संबंध हैं और इसी कारण जिन्हें उद्योगों की स्थापना के लिए छल-कपट, प्रलोभन, बल प्रयोग एवं शासकीय तंत्र के दुरुपयोग द्वारा ग्रामीणों से जमीनें खाली कराने का विशद अनुभव अवश्य होगा। एक बयान सुश्री मायावती जी का है जो बसपा को सवर्ण मानसिकता से संचालित दलित राजनीति की धुरी बनाने में लगी हैं और दलित हितों को उससे कहीं अधिक नुकसान पहुंचा रही हैं जितना सवर्ण नेतृत्व प्रधान मुख्य धारा का कोई दल पहुंचा सकता था। बयान हाल ही में दल बदल कर नए नए भाजपाई बने श्री ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भी दिया है। उन्हें लगता होगा उनके राजनीतिक जीवन के इस सर्वाधिक महत्वपूर्ण काल में उपचुनावों की चर्चा के बीच उनके किसी राजनीतिक शत्रु ने ही यह घातक दांव चला है। स्वाभाविक है कि इन बयानों में नैतिक बल नहीं है। बयान शिवराज सरकार के मंत्रियों की ओर से भी आ रहे हैं। इन बयानों में पीड़ा से अधिक निश्चिंतता झलकती है। आखिर निश्चिंतता हो भी क्यों न। मंदसौर में जून 2017 में किसानों पर हुई फायरिंग में 6 किसानों की मौत के बाद हुए विधानसभा चुनावों में जनता द्वारा नकार दिए गए शिवराज आज पुनः सत्तासीन हैं। चुनावों का परिणाम कुछ भी हो सत्ता वापस हासिल कर लेने का हुनर जिसे पता हो वह तो निश्चिंत रहेगा ही।
यह पूरा घटनाक्रम जिस परिस्थिति की ओर संकेत कर रहा है उसे लिखने और स्वीकारने का साहस नहीं हो पा रहा है- यदि आप निर्धन हैं, दलित हैं और ऊपर से किसान भी हैं तो नए भारत की विकास धारा में आपका वैसा ही स्वागत होगा जैसा गुना के इस दलित परिवार का हुआ।
रायगढ़, छत्तीसगढ़
-कुमार सिद्धार्थ
प्रतिदिन 550.9 टन चिकित्सा अपशिष्ट उत्सर्जित करने वाला और 70 प्रतिशत इलेक्ट्रॉनिक कचरे को पैदा करने वाला अपना देश दुनिया का पाँचवां सबसे बड़ा देश है। मोबाइल फोन, कंप्यूटर और ढेरों इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स की रद्दी में भरमार हैं, लेकिन इन से मनुष्य और पर्यावरण को होने वाला नुकसान ज्यों का त्यों बना रहता है। भारत में हर साल पैदा होने वाले 18.5 लाख टन ई-वेस्ट और चिकित्सा अपशिष्ट को ठिकाने लगाना एक बड़ी समस्या है। इन अपशिष्टों के सुरक्षित और प्रभावी प्रबंधन सुनिश्चित करने के लिए कड़ी निगरानी और मूल्यांकन ढांचे के जरूरत है।
औद्योगिक संगठन एसोचैम और वेलोसेटी के एक संयुक्त अध्ययन से जानकारी मिली है कि भारत में सन् 2020 तक प्रतिदिन 775.5 टन चिकित्सा अपशिष्ट पैदा होने की संभावना है। वर्तमान में प्रतिदिन 550.9 टन अपशिष्ट उत्सर्जित होता है। हर साल उत्सर्जित होने वाले चिकित्सा अपशिष्ट में सात प्रतिशत की बढ़ौत्री संभावित है। ‘अनअर्थिंग द ग्रोथ कर्व एंड नसेसिटी ऑफ बायो मेडिकल वेस्ट मैनेजमेंट इन इंडिया 2018’ नामक इस अध्ययन में कचरे के सुरक्षित और प्रभावी प्रबंधन सुनिश्चित करने के लिए कड़े निगरानी और मूल्यांकन ढांचे के जरूरत पर जोर दिया गया है।
अध्ययन के मुताबिक अपशिष्ट प्रबंधन का बाजार अपने देश में सन् 2025 तक 136.20 करोड़ अमेरिकी डॉलर तक पहुँचने की संभावना है। चिकित्सा अपशिष्ट के खराब प्रबंधन के कारण आमजन के स्वास्थ्य को खतरा हो सकता है। गौरतलब है कि चिकित्सा अपशिष्ट के अलावा अपना देश भारत 70 प्रतिशत इलेक्ट्रॉनिक कचरे को पैदा करने वाला दुनिया का पाँचवां सबसे बड़ा देश है। मोबाइल फोन, कंप्यूटर और ढेरों इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स देखते-देखते बेकार होकर रद्दी हो जाते हैं, लेकिन इनसे मनुष्य और पर्यावरण को होने वाला नुकसान ज्यों का त्यों बना रहता है। भारत में हर साल पैदा होने वाले 18.5 लाख टन ई-वेस्ट को ठिकाने लगाना एक बड़ी समस्या है।
वायु और जल प्रदूण बढ़ाने में चिकित्सा और ई-वेस्ट अहम भूमिका निभा रहे हैं। दरअसल, बायोमेडिकल वेस्ट के निस्तारण को लेकर बनाए गए नियम कायदों से खुद चिकित्सा क्षेत्र से जुड़े व्यक्ति जागरूक नहीं है। खतरनाक और संक्रमण फैलाने वाले वेस्ट का निस्तारण अलग ढंग से होता है जबकि सामान्य वेस्ट का अलग ढंग से। इसी तरह ई-वेस्ट के निस्तारण को लेकर भी जागरूकता का अभाव है। इलेक्ट्रॉनिक कचरे को कहां फेंका जाना है, किस स्तर पर और कैसे इसका निस्तारण होना है, इसकी जानकारी ज्यादातर लोगों को नहीं है।
एसोचैम और केपीएमजी का अध्ययन बताता है कि जनसंख्या के विस्तार,बढ़ते शहरीकरण और बाजार संस्कृति के चलते ई-वेस्ट इतना बढ़ गया है कि इससे वैश्विक स्तर पर पर्यावरण के लिए खतरा पैदा होने लगा है। हाल में किए गए एक अध्ययन के मुताबिक ई-वेस्ट मैनेजमेंट के मामले में मौजूदा हालात अच्छे संकेत नहीं दे रहे। दुनिया में हर रोज 26 लाख टन ई-वेस्ट ठिकाने लगाने की स्थिति संभवतः 2075 तक ही बन पाएगी। कनाडा में पिछले चार बरसों में ई-वेस्ट तीन गुना बढ़ चुका है। अनेक देशों में इसके लिए रचनात्मक प्रयास जारी हैं।
वहीं दूसरी ओर पर्यावरण मंत्रालय ने इलेक्ट्रॉनिक कचरे (ई-वेस्ट) और बायो मेडिकल कचरे के प्रबंधन के लिए नए नियम अधिसूचित किए हैं। ये नियम पिछले नियमों से बेहतर हैं लेकिन उनके क्रियान्वयन में कठिनाइयां बनी रहेगी। इन नए नियमों के मुताबिक ई-वेस्ट प्रबंधन के मामले में सरकार ने इलेक्ट्रॉनिक वस्तुओं के निर्माता, आयातकों और अन्य आपूर्तिकर्ताओं को पहले साल यानी वर्ष 2017-18 में अपने कुल कचरे का 10 फीसदी निपटाने की जवाबदेही होगी । इसके बाद 2023 तक यह हर साल 10 फीसदी बढ़ेगी। सन् 2023 के बाद सालाना लक्ष्य 70 फीसदी होगा। लेकिन स्वास्थ्य और पर्यावरण से जुड़े जोखिम कम करने का लक्ष्य इससे आंशिक रूप से ही हासिल होगा। जो कचरा निपटाया नहीं जाएगा वह इकट्ठा होता रहेगा क्योंकि व्यक्तिगत तौर पर और छोटे पैमाने पर इनका इस्तेमाल जारी रहेगा।
हम जान लें कि देश में ई-वेस्ट का 95 फीसदी कूड़ा-कचरा बीनने वाले लोगों से आता है। ऐसे में स्वैच्छिक संगठनों और नागरिकों के स्तर पर जागरूकता और सक्रियता जरूरी है। उत्पाद निर्माण करने वाली कंपनियों को ऐसे नियम बनाना चाहिए कि वे स्वयं उपयोग में न आने वाले इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों को वापस ले सके। इन उपकरणों की रिसाइकलिंग ऐसे उपयुक्त स्थान पर की जाए, जहां किसी प्रकार की जनहानि या पर्यावरण को नुकसान न हो। इसके अलावा कबाड़ में फेंके गए इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के उचित तरीके से ठिकाने लगाने के लिए असंगठित क्षेत्र से जुड़े लोगों के व्यापक प्रशिक्षण के प्रबंध भी आवश्यक है।
हम सब जानते है कि बायोमेडिकल कचरा मनुष्यों और वन्य प्राणियों के स्वास्थ्य के लिए ई-कचरे से भी अधिक नुकसानदेह हो सकता है। सरकार ने नई नीति में क्लोरिनेटेड प्लास्टिक बैग, दास्तानों और ब्लड बैग के रूप में ऐसा कचरा उत्पादित करने वाली चीजों के निपटान के लिए और वक्त दिया है। साथ ही विश्व स्वास्थ्य संगठन के निर्देशों के अनुरूप ही इसे संक्रमणहीन करने की सुविधा भी स्थापित की जा रही है। अस्पताल, पशु चिकित्सालय तथा अन्य स्वास्थ्य केंद्रों आदि को एक वर्ष का समय दिया गया है कि वे बार कोडिंग और जीपीएस के साथ ऐसी व्यवस्था बना लें जिससे केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के दिशा-निर्देशों के मुताबिक जरूरत पड़ने पर उनके चिकित्सकीय कचरे को ट्रैक किया जा सके।
केवल गाइडलाइंस बना देने से लक्ष्य हासिल नहीं किया जा सकता। इसके लिए संबंधित पक्षों को जागरूक किया जाना भी उतना ही जरूरी है। एक तरफ अपनी आने वाली पीढियों के लिए हम बेहतर शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार इत्यादि की कामना के साथ अग्रसर हैं लेकिन उनको एक बेहतर और सुरक्षित पर्यावरण देना भी हमारा ही कर्तव्य है। (सप्रेस)
-डॉ.कश्मीर उप्पल
भारत में लोगों को रोजगार देने वाली पूंजी का कानूनी और गैर-कानूनी तरीके से देश से पलायन जारी है। नरेन्द्र मोदी बहुत तेजी से'विकास' की रेल दौड़ा रहे हैं। वातानुकूलित डिब्बों में बैठे लोग चाहते हैं कि रेल और तेज चले परन्तु किसानों, बेरोजगारों और अन्य गरीबों के डिब्बों में आग लगी हुई है। गरीब चाहते हैं उनके जीवन में लगी आग बुझे, पर पूंजीवादी वर्ग चाहता है कि रेल और तेज दौड़े। वहीं दूसरी ओर भारत की रोजगार की दर गिर रही है। यदि हम आरक्षण और रोजगार की सरकारी अर्थनीति को समझ नहीं सके तो आरक्षण सदा के लिए अंधों का हाथी बना रहेगा।
हम यह भूल गये हैं कि हमारे संविधान में नागरिकों के बीच गैर-बराबरी हटाने के प्रावधान है। अंग्रेजों के लगभग 200 वर्षों के शासकाल में भारत का हजारों सालों में बना सामाजिक ताना-बाना ढह गया था। अंग्रेजी शासन के फलस्वरुप देश का, जो सबसे बड़ा नुकसान हुआ वही सामाजिक-आर्थिक और धार्मिक विमता के रुप में हमें विरासत में मिला था।
हमें स्मरण करना चाहिए कि भारत में अंग्रेजों के आने के पूर्व के शासनों में एक ताब्दी में औसतन केवल तीन अकाल पड़ते थे। इसका अर्थ है औसतन 33 वर्ष बाद एक अकाल पड़ता था। वारेन हेसंिटग्ज ने जमींदारी को नीलाम करना शुरु कर दिया। सन् 1815 तक सबसे ऊँचीं बोली बोलने वाले को किसानों से लगान वसूलने का हक देना शुरु कर दिया।इसके फलस्वरुप कस्बों के धनी लोगों ने जमींदारी खरीदना शुरु कर दिया।
नये जमींदार किसानों से बढ़ा हुआ लगान क्रूरतापूर्वक वसूलते। जमींदारों ने किसानों के हित में किये जाने वाले कल्याणकारी कार्य बन्द कर दिये। इन नीतियों के कारण सन् 1800 से 1900 के बीच 22 अकाल पड़े। अंग्रेज इतिहासकार विलियम डिग्बी लिखते हैं ‘मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि हमने जो कुछ किया या न किया ये 22 अकाल हमारे शासन के फलस्वरुप है।
अंग्रेजी शासन की नीति वस्त्र उद्योग, खनन, रेल्वे, बैंक, बीमा और अन्य क्षेत्रों में भी शोषणकारी थी। अकेले रेल्वे सेवा में लगे कुछ सौ यूरोपियों को लाखों पौंड वेतन के रुप में दिये गये। वहीं हजारों भारतीय रेल कर्मचारियों का वेतन अंग्रेजों को दिये वेतन से अत्यंत कम था।
महात्मा गांधी भी लिखते हैं कि अंग्रेजों की विदेशी कपड़ा नीति के कारण करोड़ों बुनकरों से उनकी आजीविका के साधन छिन गए थे। अंग्रेजी शासन की नीतियों के फलस्वरुप गांवों से किसानों और कारीगरों का पलायन शुरु हो गया।
आजकल पुनः ग्रामीण क्षेत्रों से हरों की ओर पलायन बहुत तेजी से बढ़ गया है। पलायन का अर्थ है मृत्यु से जीवन की ओर की यात्रा।
भारत सरकार ने 1991 में स्वतंत्र व्यापार की नीतियों को स्वीकार कर लिया। आज के देश के नये आर्थिक-परिदृश्य में कहा जा रहा है कि डॉ० मनमोहन सिंह एक सुस्त प्रधानमंत्री थे क्योंकि उन्होंने विदेशी पूंजी निवे और निजीकरण की रेल को धीरे-धीरे चलाया था।
आजकल प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी उसी रेल को देश के पूंजीपतियों के ईंधन से फुल-स्पीड में दौड़ा रहे हैं। नरेन्द्र मोदी ने प्रधानमंत्री के रुप में पथ लेने के बाद अपने प्रथम निर्णयों से भारतीय योजना आयोग की व्यवस्था को समाप्त कर दिया। एक अन्य निर्णय में सुप्रीम कोर्ट की रोक के बाद भी सरदार सरोवर बांध की ऊँचाई बढ़ाने का निर्णय लेकर देश और दुनिया के पूंजीपतियों को हरी झंडी दे दी।
इस निर्णय से नर्मदा नदी से उद्योगपतियों को पानी और बिजली मिल रही है। इसके साथ ही मध्यप्रदे और गुजरात के ग्रामीण क्षेत्रों में बहुत बड़ी संख्या में विस्थापन और पलायन बढ़ा है। हजारों साल पुरानी सभ्यता और संस्कृति नष्ट हो रही है
सरकार की इन आर्थिक नीतियों के परिणामस्वरुप देश के 1 फीसदी लोगों के पास देश की कुल सम्पत्ति का 73 फीसदी भाग एकत्रित हो गया है। इसका आय है कि देश की 73 फीसदी सम्पदा के प्रबंध एवं परिचालन का अधिकार 1 फीसदी लोगों के हाथों में दे दिया गया है।
विगत कुछ वर्षों में देश के लगभग 400 करोड़पतियों ने अमेरिका,यूरोप, आस्टेªलिया और कनाडा आदि देशों की नागरिकता ग्रहण कर ली है। स्मरणीय है कि अन्तर्राष्ट्रीय मापदंडों के अनुसार करोड़पति वही है जिसके पास 10मिलियन या 1 करोड़ डॉलर की पूंजी होती थी। अंग्रेज भारत का धन लूटकर अपने देश ले गये थे। आज के भारत के करोड़पति विदेशी नागरिकता अधिकार खरीदकर भारत की पूंजी विदे ले जा रहे हैं।
भारत में लोगों को रोजगार देने वाली पूंजी के कानूनी और गैर-कानूनी तरीके से देश से पलायन जारी है। नरेन्द्र मोदी बहुत तेजी से विकास की रेल दौड़ा रहे हैं। वातानुकूलित डिब्बों में बैठे लोग चाहते हैं कि रेल और तेज चले परन्तु किसानों, बेरोजगारों और अन्य गरीबों के डिब्बों में आग लगी हुई है। गरीब चाहते हैं उनके जीवन में लगी आग बुझे पर पूंजीवादी वर्ग चाहता है कि रेल और तेज दौड़े। वे भूल जाते हैं कि सामान्य लोगों के डिब्बों में लगी आग कभी वातानुकूलित डिब्बों तक भी पहुँच सकती है।
यह देखा जाता है कि अक्सर गरीब लोग अपने मालिक द्वारा दिये गए कपड़ों और हैट को पहनकर अपना रौब दिखाते हैं। इसी तरह विकासशील देश विकसित देशों की बुलेट ट्रेन और स्मार्टहरों की नकल कर विकास का टोप पहन विकसित देश नहीं कर सकता है। विकास का आभासी दुनिया का जादू देर तक नहीं चलता है।
सरकार का ध्यान बड़े और बहुराष्ट्रीय संगठित क्षेत्र को आगे बढ़ाने पर केन्द्रित मॉडल है। हमारे दे को 80 प्रतित रोजगार असंगठित क्षेत्र देता है। यह क्षेत्र नोटबंदी और जीएसटी की मार से जर्जर अवस्था में पहुंच चुका है
आजकल निजी क्षेत्र उत्पादन के लिए ऑटोमेन तकनीक का उपयोग कर रहा है। रोबोट कभी कुछ नहीं मांगता न वेतन और न पेंन। हमारे देश में रोबोट का सबसे अच्छा उदाहरण पैसा निकालने और जमा करने की एटीएम मशीनें हैं।
सरकारी संस्थानों का विनिवेशीकरण, ठेका प्रणाली और पीपीपी मॉडल रोजगार के साधनों को न्यूनतम कर रहा है। शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्र के बहुत कम बजट के कारण गरीबों में आरक्षण की योग्यता की कमी होती जा रही है। सेना और पुलिस के शारीरिक मापदंड को कुपोषित परिवारों के बच्चे पूरा नहीं कर पा रहे हैं। सेना और पुलिस का काम रोबोट नहीं कर सकते इसलिए इनकी सबसे अधिक भर्ती होती है।
संसद के ग्रीष्मकालीन सत्र में सरकार द्वारा बताया गया है कि एससी, एसटी और ओबीसी वर्ग के 28713 पद रिक्त हैं। केन्द्र सरकार की में अनुसूचित जाति का 17.49, अनुसूचित जनजाति का 8.47 और अन्य पिछड़ा वर्ग का 21.5 फीसदी का प्रतिनिधित्व है। यदि इसमें राज्यों में पड़े खाली पदों को भी जोड़ दिया जाये तो आरक्षण की भयावह तस्वीर सामने आ जायेगी।
विश्व बैंक ने हाल में ही कहा है कि भारत में हर महीने 13 लाख लोग कामकाज की उम्र में प्रवेश करते हैं। भारत की रोजगार की दर गिर रही है। भारत को सालाना 81 लाख रोजगार के अवसर पैदा करने होंगे परन्तु यह केवल निजीकरण से संभव नहीं है। केन्द्रीय श्रम मंत्रालय ने भी रोजगार में कम वृद्धि की बात स्वीकार की है।
हम यदि आरक्षण और रोजगार की सरकारी अर्थनीति को समझ नहीं सके तो आरक्षण सदा के लिए अंधों का हाथी बना रहेगा। हमें इस राजनीति को समझना चाहिए कि भारतीय सामाजिक व्यवस्था के ताने-बाने को नष्ट करके अंग्रेजों ने जो व्यवस्था बनाई थी, हमने उसी को अपना आदर्श मान लिया है। इस समय महात्मा गांधी की ‘शैतानी सभ्यता’ की अवधारणा को एक बार फिर समझना होगा।
अंग्रेजों के जाने के 70 वर्षों बाद देश पुनः अमेरिका और यूरोप की नकल कर विकास की नीतियों को अपना रहा है। ये नीतियां हमें कभी भी आर्थिक समानता और रोजगार के अवसर नहीं देंगी। अतः आरक्षण की नीति पर बहस करने से कुछ नहीं होगा। हम सभी को देश की पूंजीवादी नीतियों के विरुद्ध एकजुट होकर एक नया सत्याग्रह आन्दोलन चलाना होगा। यही केवल एक और अंतिम मार्ग है।(सप्रेस)
भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारी कमेटी के सदस्य और ऑर्गेनाइजर के पूर्व संपादक शेषाद्री चारी ने अपनी पार्टी को आगाह किया है कि पार्टी के अंदर एक सीमित वर्ग से उठ रही जोरदार आवाज भाजपा आलाकमान को चेता रही है कि वह हर उस बागी को जगह न दे जो उसका दरवाजा खटखटाता है, विशेषकर उन्हें जो कड़ी मेहनत, वैचारिक प्रतिबद्धता या निस्वार्थ सेवा और बलिदान के जरिये हासिल करने के बजाये ‘विरासत’ में मिली नेतृत्वशीलता को अपना उत्तराधिकार समझते हों।
उनका कहना है कि भाजपा जैसी कैडर-आधारित पार्टी के लिए बहुत बाद में और पिछले दरवाजे से आने वाले विपक्षी खेमे के नेताओं के कुछ मायने नजर नहीं आते हैं। यह राजस्थान में और भी ज्यादा प्रासंगिक है, जहां भाजपा के पास अच्छी कैडर क्षमता, व्यापक जनाधार वाले और हर स्तर पर लोकप्रिय नेता हैं।भाजपा को ध्यान में रखना चाहिए कि हर राज्य असम नहीं हो सकता, जहां कांग्रेस से आए हेमंत बिस्व सरमा ने पार्टी को 2016 में पहली बार सत्ता में लाने के लिए स्थितियों को एकदम बदलकर रख दिया था। असम एक अलग किस्म का मामला है।
एक वेबसाइट, ‘द प्रिंट’ पर लिखे एक लेख में शेषाद्री चारी ने राजस्थान के सचिन पायलट के भाजपा प्रवेश के सन्दर्भ में यह बातें लिखीं हैं।
उन्होंने लिखा- अपने ‘युवा और होनहार नेता’ सचिन पायलट को राजस्थान के उपमुख्यमंत्री और राज्य इकाई के अध्यक्ष के पद से हटाने के 24 घंटे के भीतर ही कांग्रेस ने उनसे पार्टी में लौटने और मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के साथ जो भी ‘कोई मतभेद’ हों उन्हें सुलझाने की अपील कर दी। फिलहाल तो सचिन पायलट ने यह स्पष्ट कर दिया है कि वह भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) में शामिल नहीं हो रहे हैं, जो कांग्रेस नेता के साथ ही संभवत: 15 विधायक जो उनका समर्थन कर रहे हैं, को अपने पाले में लाने के लिए बेहद उत्सुक थी। लेकिन कुछ बातें हैं जो भाजपा को अवश्य ही ध्यान में रखनी चाहिए। यह किसी से छिपा नहीं है कि कांग्रेस में कई ऐसे असंतुष्ट तत्व हैं जो ‘डूबते जहाज’ को छोडऩे की मंशा रखते हैं। ऐसा लगता है कि खुद कांग्रेस ही भाजपा के ‘कांग्रेस-मुक्त भारत’ के संकल्प को पूरा करने में लगी है। ऐसे में, सचिन पायलट के ऐलान को शपथ लेकर की गई दृढ़ प्रतिज्ञा जैसा नहीं माना जा सकता है। जैसे-जैसे घटनाक्रम आगे बढ़ेगा, कुछ चौंकाने वाली बातें सामने आ सकती है। ऐसे परिदृश्य में भाजपा के लिए आंतरिक चेतावनियों को सुनना ही ज्यादा बेहतर रहेगा।
सतर्क भाजपा
चारी का कहना है- फिलहाल अभी, पार्टी के अंदर एक सीमित वर्ग से उठ रही जोरदार आवाज भाजपा आलाकमान को चेता रही है कि वह हर उस बागी को जगह न दे जो उसका दरवाजा खटखटाता है, विशेषकर उन्हें जो कड़ी मेहनत, वैचारिक प्रतिबद्धता या निस्वार्थ सेवा और बलिदान के जरिये हासिल करने के बजाये ‘विरासत’ में मिली नेतृत्वशीलता को अपना उत्तराधिकार समझते हों। भाजपा जैसी कैडर-आधारित पार्टी के लिए बहुत बाद में और पिछले दरवाजे से आने वाले विपक्षी खेमे के नेताओं के कुछ मायने नजर नहीं आते हैं। यह राजस्थान में और भी ज्यादा प्रासंगिक है, जहां भाजपा के पास अच्छी कैडर क्षमता, व्यापक जनाधार वाले और हर स्तर पर लोकप्रिय नेता हैं। भाजपा को ध्यान में रखना चाहिए कि हर राज्य असम नहीं हो सकता, जहां कांग्रेस से आए हेमंत बिस्व सरमा ने पार्टी को 2016 में पहली बार सत्ता में लाने के लिए स्थितियों को एकदम बदलकर रख दिया था। असम एक अलग किस्म का मामला है।
उन्होंने लिखा-आमतौर पर भाजपा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करिश्माई नेतृत्व और गृह मंत्री अमित शाह की शानदार रणनीतियों के बलबूते चुनाव जीतती रही है। नवागंतुक शायद ही इस मामले में पार्टी में कोई योगदान दे पाते हैं। भाजपा वैसे उन चुनाव क्षेत्रों में अपनी जीत की संभावनाएं बेहतर कर सकती है, जहां बागी नेता का खासा प्रभाव है और जैसे चुनाव नजदीक आएगा। इसका दामन थामने के इच्छुक बागियों की संख्या निश्चित रूप से बढ़ेगी। लेकिन पार्टी को अभी अनपेक्षित नतीजों पर नजर रखनी चाहिए और पार्टी के अंदर उठ रही आवाजों को सुनना चाहिए।
कांग्रेस के लिए एक और संकट
लेख में आगे लिखा है- कांग्रेस के लिए राजस्थान संकट काफी समय से गहरा रहा था। वास्तव में, अशोक गहलोत को 2018 में जब मुख्यमंत्री बनाया गया था, तब ऐसा माना जा रहा था कि ऐसी सहमति बनी है कि एक-दो साल बाद ही सचिन पायलट, जिन्हें राज्य में कांग्रेस की जीत का श्रेय दिया जाता है, मुख्यमंत्री से कमान अपने हाथ में ले लेंगे। लेकिन तथ्य यह है कि गहलोत के योगदान को नजरअंदाज नहीं किया गया, यह देखते हुए कि पुराने योद्धा को रणनीतिक रूप से और शासन क्षमता का गहरा अनुभव है। उनके ‘जादू’ (गहलोत के बारे में माना जाता है कि उन्होंने अपने पिता से जादू के गुर सीखे थे) ने तो महाराष्ट्र में भी काम किया था, जहां उनके अनुसार, कांग्रेस ने चुनाव से पहले ही हार मान ली थी। एक कार्यक्रम को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था, ‘यह मानकर कि पार्टी सफल नहीं हो सकती, उन्होंने (महाराष्ट्र और हरियाणा कांग्रेस) ने विधानसभा चुनाव जीतने की कोई कोशिश करनी भी बंद कर दी थी। जबकि पार्टी को अपनी पूरी क्षमता और ऊर्जा के साथ चुनाव लडऩा चाहिए, न कि पराजित मानसिकता के साथ।’
चारी ने लिखा-एक समय जब उनके केंद्र में पार्टी के लिए अहम भूमिका निभाने की उम्मीद थी, उन्हें राजस्थान भेज दिया गया और उन्हें अपने वर्चस्व के लिए संघर्ष करना पड़ा। अशोक गहलोत ने राज्य का बजट को पेश करने के बाद एक संवाददाता सम्मेलन में कहा था, ‘मैं मुख्यमंत्री पद का हकदार था। यह स्पष्ट था कि किसे मुख्यमंत्री बनना चाहिए और किसे नहीं। जनभावना का सम्मान करते हुए कांग्रेस अध्यक्ष के नाते राहुल गांधी ने मुझे मौका दिया।’ जाहिर है इसके आगे पायलट संकट बहुत ही मामूली नजर आता है।
कांग्रेस में क्या बचा?
उनका कहना है-क्या कांग्रेस एक और विभाजन के कगार पर खड़ी है? कहीं ऐसा तो नहीं कि बड़ा आंतरिक झगड़ा ‘हिलाकर रख देने वाले’ अंजाम तक पहुंचा सकता हो? सीधा नतीजा यह हो सकता है कि सिंधिया की तरह, कांग्रेस की युवा पीढ़ी के कई बागी भाजपा की तरफ कदम बढ़ा सकते हैं, जो हमेशा ऐसे लोगों के स्वागत में रेड कार्पेट बिछाने को तैयार रहती है। इन नेताओं में से अधिकांश में यह भावना बढ़ रही है कि ऐसी पार्टी में बने रहना निरर्थक है जिसका कम से कम हाल-फिलहाल तो कोई राजनीतिक भविष्य नहीं है। एक राजनीतिक व्यक्ति जो सार्वजनिक जीवन पर अपना लंबा समय और बहुत कुछ व्यय करता है, जाहिर है इसे लेकर चिंतित जरूर होगा कि बदले में हासिल क्या है और इसलिए भाजपा में सुनहरा भविष्य तलाशेगा।
शेषाद्री चारी ने लिखा है-कांग्रेस में वंशवाद की राजनीति पर बोलते हुए सचिन पायलट ने एक टेलीविजन इंटरव्यू में सुझाव दिया था कि प्रियंका गांधी वाड्रा को पार्टी का नेतृत्व संभालने के लिए आगे लाया जाना चाहिए। उन्हें और कुछ अन्य युवा नेताओं को ‘प्रियंका लाओ, कांग्रेस बचाओ’ लॉबी का हिस्सा माना जाता रहा है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि बगावत प्रकरण में राहुल गांधी एकदम पीछे रहे। प्रियंका, बीच-बचाव की भूमिका में रहीं, ने कथित तौर पर चार बार पायलट से बात की और उन्हें पार्टी न छोडऩे के लिए समझाया जबकि वह मुख्यमंत्री गहलोत की बुलाई बैठकों में भाग नहीं ले रहे थे।
उनका कहना है- राजनीतिक दल विचारधारा-आधारित रहने के बजाय तेजी से नेता-उन्मुख होते जा रहे हैं। लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों के विपरीत नेतृत्व की अपरिहार्यता बढ़ती जा रही है। कांग्रेस का प्रथम परिवार पार्टी के लिए उत्तरदायित्व साबित हो रहा है। भिन्न स्तर पर, अत्यधिक प्रतिभाशाली लोग साथ छोडक़र एक दूसरे मंच पर दूसरे नेता की छत्रछाया में नया अवतार ले सकते हैं। गांधी परिवार जितनी जल्दी इस बात को समझकर एक प्रतिभाशाली टीम को कमान सौंपता है, कांग्रेस के लिए उतना ही अच्छा होगा। (hindi.theprint.in)
-देवेंद्र वर्मा
संसदीय प्रणाली मैं संख्या बल ही सबसे अधिक महत्वपूर्ण है।संख्या के आधार पर ही न केवल सरकार का गठन होता है, अपितु सदन में होने वाली प्रत्येक प्रक्रिया, चाहे वह वित्तीय कार्य हो अथवा विधिक कार्य,या सरकार की जवाबदेही सुनिश्चित करना हो, आशय यह कि संसदीय प्रणाली का मूलाधार किसी राजनीतिक दल में सदस्यों की संख्या है। सभा में प्रक्रिया एवं कार्य संचालन नियमों के अंतर्गत किसी प्रस्ताव या किसी विषय का प्रस्तुत किया जाना अथवा उसका पारित होना अथवा स्वीकृत होना इसी बात पर निर्भर होता है कि उस प्रस्ताव अथवा किसी भी विषय के पक्ष अथवा विपक्ष में कितने सदस्य हैं और इस सदस्य संख्या के आधार पर ही अध्यक्ष यह निर्णय करते हैं कि कोई प्रस्ताव अथवा कोई विषय सभा के द्वारा स्वीकृत हुआ अथवा नहीं ?
सभा में प्रक्रिया एवं कार्य संचालन नियमों के अंतर्गत ऐसे अनेक विषय होते हैं जब किसी प्रस्ताव के अथवा किसी विषय के बहुमत के द्वारा स्वीकृत ना होने की स्थिति में सरकारें अपदस्थ भी हो सकती है।यही कारण है कि सत्ता पक्ष और प्रति पक्ष सदन में यह प्रयास करते हैं कि उनके समस्त सदस्य ऐसे मतदान के अवसर पर सभा में उपस्थित रहे ताकि मतदान के दौरान किसी भी पक्ष को अप्रिय स्थिति का सामना नहीं करना पड़े, विशेष कर सत्ताधारी दल को।
हमारे देश की राजनीति में साठ के दशक में दल बदल के ऐसे एकाधिक मामले हुए जब सदस्यों द्वारा अन्यान्य कारणों से जिसमें मुख्य रुप से स्वयं को लाभान्वित करना रहा सभा में अपने दल अर्थात जिस दल की विचारधारा एवं प्रत्याशी के रूप में वे निर्वाचित हुए हैं,के विरुद्ध मतदान करने के कारण जनादेश द्वारा चुनी हुई,सरकारें अपदस्थ हुई।
सदस्यों द्वारा इस प्रकार एक दल से दूसरे दल में जाने वापस आने के दिन प्रतिदिन होने वाले, प्रजातांत्रिक एवं संसदीय प्रणाली के विरुद्ध आचरण को रोकने, और जनादेश प्राप्त सरकारों को अपदस्थ करने की प्रवृत्ति पर लगाम लगाने के लिए के लिए वर्ष 1985 में संविधान को संशोधित करते हुए दसवीं अनु सूची सम्मिलित की गई जिसे सामान्य बोलचाल की भाषा में दल बदल कानून कहते हैं।
दल बदल को रोकने हेतु दल बदल कानून में जो अन्य दूसरे प्रावधान किए गए, उनके साथ ही पैरा दो दल परिवर्तन के आधार पर निरर्हरता (disqualification on ground of defection) पेरा (1) (ख) मैं यह प्रावधान किया गया कि यदि कोई सदस्य जिस राजनीतिक दल का सदस्य है उसके द्वारा अथवा दल द्वारा प्राधिकृत किसी व्यक्ति या प्राधिकारी की पूर्व अनुज्ञा के बिना ऐसे सदन में मतदान करता है या मतदान करने से विरत रहता है और ऐसे मतदान या मतदान करने से विरत रहने को ऐसे राजनीतिक दल व्यक्ति या प्राधिकारी ने ऐसे मतदान या मतदान करने से विरत रहने की तारीख से 15 दिन के भीतर माफ नहीं किया है तो उसे दल बदल कानून के पैरा (1) (ख) के अंतर्गत सदस्यता से निर्रहरित (disqualify) किया जा सकेगा।
सभा की कार्यवाही के दौरान जब सभा विभिन्न कार्यों का संपादन करती है कार्य संपादन के समय/ चर्चा के समय राजनीतिक दलों के सदस्य उपस्थित रहे इस उद्देश्य से राजनीतिक दलों द्वारा उनके दल के वरिष्ठ विधायकों में से chief whip नियुक्त किए जाते हैं। और उनकी सहायता के लिए यदि आवश्यक हो तो एक अथवा एक से अधिक विधायकों को राजनीतिक दलों द्वारा व्हिप नियुक्त किया जाता है.
व्हिप (सचेतक) का मुख्य कार्य होता है कि वह अपने दल के सदस्यों की उपस्थिति सदन में अथवा सदन के आसपास ही सुनिश्चित करें ताकि अचानक सभा में होने वाले मतदान के समय, मतदान में उस राजनीतिक दल के सभी सदस्य हिस्सा ले सकें और ऐसी अप्रिय स्थिति निर्मित ना हो कि सत्ताधारी दल का कोई प्रस्ताव पारित ही ना हो सके क्योंकि ऐसी स्थिति सत्ताधारी दल के लिए शर्मनाक मानी जाती है, और कुछ मामलों में सरकारें अपदस्थ भी हो जाती हैं।
वर्ष 1985 में संविधान में दसवीं अनु सूची का समावेश किया गया जिसे सामान्य बोलचाल की भाषा में दल बदल कानून भी कहा जाता है और दल बदल कानून में किसी राजनीतिक दल द्वारा जारी व्हिप के संबंध में भी कुछ प्रावधान किए गए।.
दल परिवर्तन के आधार पर निर्रहरता (disqualification) के संबंध में पैरा दो ध्यान देने योग्य है। पैरा (2) के अनुसार कोई सदस्य सदन का सदस्य होने के लिए डिसक्वालीफाई होगा यदि वह ऐसे राजनीतिक दल जिसका वह सदस्य है अथवा उसके द्वारा निमित्त प्राधिकृत किसी व्यक्ति या प्राधिकारी द्वारा दिए गए किसी ने निदेश के विरुद्ध ऐसे राजनीतिक दल व्यक्ति या प्राधिकारी की पूर्व अनुज्ञा के बिना ऐसे सदन में मतदान करता है या मतदान करने से विरत रहता है, और ऐसे मतदान या मतदान करने से विरत रहने को ऐसे राजनीतिक दल व्यक्ति या प्राधिकारी ने ऐसे मतदान या मतदान करने से विरत रहने की तारीख से 15 दिन के भीतर माफ नहीं किया है तो ऐसा समझा जाएगा कि वह ऐसे राजनीतिक दल का,यदि कोई हो सदस्य है, और निर्वाचन के लिए अभ्यर्थी के रूप में खड़ा किया था, सदस्य बने रहने के लिए अयोग्य हो गया है।
उपरोक्त से यह संदेह रहित है, कि व्हिप का प्रयोग केवल और केवल सभा से संबंधित कार्यों के लिए ही होता है किसी राजनीतिक दल के अंदर होने वाली दिन प्रतिदिन की कार्यवाही या घटनाएँ आदि के संबंध में यदि व्हिप जारी की भी जाती है तो वह प्रभावी नहीं होती और उसे दसवीं अनु सूची के अंतर्गत जारी की गई नहीं मानी जा सकती।वह दल के अंदर अनुशासन बनाए रखने संबंधी पत्राचार की श्रेणी में ही आता है।
विगत कुछ वर्षों में राजनीतिक दलों के मध्य सत्ता प्राप्त करने के लिए संसदीय प्रक्रियाओं के अलावा अन्य तरीके इजाद करते हुए जो प्रयास किए जा रहे हैं वस्तुतः इन्हीं के कारण राजनीतिक दलों द्वारा दसवीं अनु सूची के अंतर्गत प्रावधान का पालन नहीं करने पर अयोग्यता जैसे प्रावधानों का प्रयोग भी सदस्यों को अनुशासित रखने, और लोभ,लालच के कारण अन्य दलों में जाने से रोकने के लिए किया जाने लगा है। क्योंकि यदि कोई सदस्य व्हिप का उल्लंघन करता है अर्थात व्हिप को नहीं मानता है तो उसे अपनी सदस्यता से हाथ धोना पड़ सकता है।किंतु जैसा पूर्व पैरा में उल्लेख किया है यह केवल दल के अंदर अनुशासन बनाए रखने संबंधी पत्राचार की श्रेणी में ही आता है।
वस्तुतः अध्यक्ष व्हिप जारी करने हेतु प्राधिकृत व्यक्ति नहीं रहता बल्कि प्रत्येक राजनीतिक दल अर्थात विधायक दल का मुख्य सचेतक/सचेतक (Chief Whip/whip) ही व्हिप जारी करने के लिए अधिकृत रहता है। व्हिप सभा से संबंधित कार्यों के अतिरिक्त राजनीतिक दलों की बैठकों में जिसमें विधायक दल की बैठक भी सम्मिलित है,यदि जारी की भी जाती है, और यदि कोई सदस्य उसका पालन नहीं करता है अथवा व्हिप के अनुरूप व्यवहार नहीं करता है ऐसी स्थिति में दल बदल कानून के अंतर्गत उस पर किसी प्रकार की कार्यवाही नहीं की जा सकती, अपितु दल में अनुशासन के आधार पर राजनीतिक दल यथा आवश्यक कार्यवाही कर सकता है।
यह अवश्य है कि, यदि किसी राजनीतिक दल के सदस्य द्वारा दल-बदल कानून के अंतर्गत किसी प्रकार की अर्जी अध्यक्ष को प्राप्त होती है, तब अर्जी पर निर्णय करने के पूर्व,यदि अध्यक्ष आवश्यक समझे, जिन सदस्यों के विरुद्ध अर्जी प्राप्त हुई है उनसे वस्तु स्थिति ज्ञात करने के लिए नोटिस जारी कर सकते हैं।
संसदीय प्रणाली में अध्यक्ष का पद विधायिका का सर्वोच्च पद है, वह सभा एवं इसके सदस्यों के अधिकारों एवं विशेष अधिकारों का संरक्षक है, और सदस्यों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे अध्यक्ष के पद का मान सम्मान एवं प्रतिष्ठा कायम रखें। क्योंकि सदस्यों का मान सम्मान एवं प्रतिष्ठा भी अध्यक्ष की प्रतिष्ठा में समाहित है। यदि अध्यक्ष ने किसी प्रकार का कोई नोटिस जारी भी किया है तो सदस्यों का यह दायित्व है कि वह उस नोटिस का जवाब अध्यक्ष को दे।
विगत वर्षों में यह देखने में आ रहा है कि प्रत्येक मामलों में राजनीतिक दलों के सदस्य न्यायालय में जा रहे हैं और न्यायालय सभा की कार्यवाही किस प्रकार से संचालित हो बैठक कब हो और कब नहीं हो, बैठकों में क्या-क्या व्यवस्थाएं की जाए और मतदान कैसे हो, आदि निर्देश भी न्यायालय के द्वारा जारी किए गए हैं। राजनीतिक दलों एवं इसके सदस्यों के इस प्रकार के कार्य व्यवहार से विधायिका की प्रतिष्ठा जन साधारण के दिलो-दिमाग में दिन प्रतिदिन कम होती जा रही है।
जिस प्रकार न्यायालय से किसी भी व्यक्ति को उनके विरुद्ध दायर किसी पिटीशन पर उत्तर देने हेतु सूचना प्राप्त होती है और न्यायालय का सम्मान करते हुए उस सूचना पर प्रति उत्तर निर्धारित अवधि में प्रत्येक नागरिक प्रस्तुत करता है, उसी प्रकार यदि सदस्यों को अध्यक्ष से किसी प्रकार का कोई नोटिस प्राप्त होता है तब सदस्यों का भी यह दायित्व है, वे अध्यक्ष के पद का मान सम्मान एवं प्रतिष्ठा के प्रति निष्ठा एवं विश्वास का भाव रखते हुए प्राप्त नोटिस का प्रति उत्तर अध्यक्ष को दें और इसी में न केवल विधायिका की अपितु विधायिका के प्रत्येक पदाधिकारी और सदस्यों की प्रतिष्ठा एवं मान सम्मान अक्षुण्ण बना रहेगा।
(पूर्व प्रमुख सचिव, छत्तीसगढ़ विधानसभा, संसदीय एवं संविधानिक विशेषज्ञ)
लांसेट जर्नल में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार, 2100 तक भारत सर्वाधिक जनसंख्या और प्रवास वाला देश बन जाएगा
-रिचर्ड महापात्रा
इस वक्त हम एक नए युग को घोषित करने की प्रक्रिया में है। इस युग का नाम है एंथ्रोपोसीन। यह युग प्रकृति पर इंसानों के असर का परिणाम है। ठीक इसी समय हमारी जनसंख्या भी प्राकृतिक रूप से घट रही है। आबादी घटने की दर आगे चलकर इतनी तेज होगी कि रिकवरी मुश्किल हो जाएगी। लांसेट जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन में दावा किया गया है कि 2064 में दुनिया की आबादी 9.73 बिलियन हो जाएगी। यह आबादी का चरम होगा। इसके बाद अगले 36 सालों में यानी सदी के अंत तक यह आबादी घटकर 8.79 बिलियन रह जाएगी।
इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ मेट्रिक्स और वाशिंगटन विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं द्वारा किए गए इस अध्ययन में अलग मॉडल का उपयोग किया गया है। उन्होंने सतत विकास लक्ष्य (एसडीजी) और मृत्युदर व प्रजनन दर से अलग जनसंख्या के प्रवास के संकेतकों का इस्तेमाल किया। इस अध्ययन में 2018-2100 की अवधि के लिए 195 देशों को शामिल किया गया।
अध्ययन के शोधकर्ता क्रिस्टोमर मरे ब्रिटिश मीडिया को बताया कि बड़ी बात यह है कि दुनिया के अधिकांश देश जनसंख्या में प्राकृतिक कमी के संक्रमण काल से गुजर रहे हैं। अनुमान के मुताबिक, वैश्विक प्रजनन दर (टीएफआर) 2017 में 2.4 के मुकाबले 2100 में 1.7 प्रतिशत रह जाएगी।
अध्ययन में कहा गया है कि 2100 तक भारत दुनिया की सबसे बड़ी आबादी वाला देश होगा और चीन तीसरे नंबर पर पहुंच जाएगा। भारत के बाद नाइजीरिया की आबादी सबसे अधिक होगी। जनसंख्या के मामले में चौथे नंबर पर अमेरिका और पांचवे नंबर पर पाकिस्तान होगा। 2050 के बाद भारत की जनसंख्या तेजी से घटेगी, बावजूद इसके वह सबसे बड़ी आबादी वाला देश बन जाएगा।
अध्ययन के अनुसार, भारत और चीन की आबादी 2050 से पहले अपने उच्चतम स्तर पर पहुंच जाएगी। इसके बाद 2100 तक चीन की आबादी में 51.1 प्रतिशत और भारत की आबादी में 68.1 प्रतिशत की गिरावट आएगी।
अध्ययन के अनुसार, भारत की कुल प्रजनन दर 2018 में पहले ही प्रतिस्थापन के स्तर से नीचे पहुंच गई है। 2040 तक यह दर तेजी से कम होगी और 2100 तक 1.29 प्रतिशत हो जाएगी।
इसी के साथ जनसांख्यकीय में भी तेजी से बदलाव होगा। वर्तमान में कहा जाता है कि धरती पर इस समय किसी भी समय से अधिक युवा आबादी है। लेकिन अध्ययन की मानें तो 2100 में स्थिति उलट होगी। सदी के अंत तक 2.37 बिलियन लोग 65 साल से अधिक उम्र के होंगे जबकि 20 साल से कम उम्र के युवाओं की आबादी 1.70 बिलियन होगी। इस अवधि में 80 साल से अधिक उम्र के लोगों की आबादी 866 मिलियन हो जाएगी। 2017 में यह आबादी 141 मिलियन थी।
अध्ययन में कहा गया है कि जैसे-जैसे बुजुर्गों की आबादी बढ़ेगी, वैसे-वैसे बच्चों की आबादी घटती जाएगी। 2017 से 2100 के बीच पांच साल से कम उम्र के बच्चों की आबादी 41 प्रतिशत कम हो जाएगी।
हालांकि सब सहारा अफ्रीका, उत्तर अफ्रीका और मध्य पूर्व क्षेत्रों में सदी के बाद भी आबादी बढ़ती जाएगी। मध्य यूरोप, पूर्वी यूरोप, और मध्य एशिया के क्षेत्रों में आबादी 1992 में ही उच्चतम स्तर पर जा चुकी है। यहां की आबादी में पूरी शताब्दी गिरावट जारी रहेगी। अध्ययन के मुताबिक, दक्षिण एशिया, दक्षिण पूर्व एशिया, पूर्वी एशिया, ओसेनिया, मध्य यूरोप, पूर्वी यूरोप और मध्य एशिया में आबादी में गिरावट की दर सबसे गंभीर होगी।
अध्ययन में भविष्य में होने वाले प्रवास का भी अनुमान लगाया गया है और यह काफी चिंताजनक है। अनुमान के मुताबिक, 2100 में 195 में से 118 देशों में प्रवास की दर 1000 लोगों में 1 के बीच होगी। इसके अलावा 44 देशों में प्रति 1000 की आबादी पर यह दर इससे दोगुनी होगी। तीन देशों- अमेरिका, भारत और चीन में अप्रवासियों की संख्या सबसे अधिक होगी। दूसरी तरफ सोमालिया, फिलिपींस और अफगानिस्तान से सबसे अधिक लोग देश छोड़ेंगे। (downtoearth)