अंतरराष्ट्रीय
पोलैंड में लगभग पूरी तरह अबॉर्शन पर प्रतिबंध लगाने वाले कानून के कारण हुई पहली संभावित मौत के बाद देशभर में प्रदर्शनकारी गुस्से में हैं. हालांकि सरकार ने इन दोनों बातों में संबंध होने से इनकार किया है.
मंगलवार को पोलैंड की राजधानी वॉरसा में कॉन्स्टिट्यूशनल ट्राइब्यूनल के सामने प्रदर्शनकारियों ने मोमबत्तियां जलाकर प्रदर्शन किया. ये लोग पिछले साल लागू किए गए उस कानून का विरोध कर रहे हैं, जिसे यूरोप का सबसे सख्त अबॉर्शन कानून माना जाता है.
हाल ही में एक महिला को अस्पताल में भर्ती कराया गया था क्योंकि उसके गर्भ में द्रव्य की कमी थी. चिकित्सा अनाचार के मामलों की विशेषज्ञ वकील योलांटा बड्जोवस्का ने मीडिया को बताया कि डॉक्टरों ने उस महिला का अबॉर्शन करने के बजाय भ्रूण के मर जाने का इंतजार किया. बाद में उस महिला की मौत हो गई.
सोमवार को कुछ प्रदर्शनकारियों को टीवी सीरीज ‘हैंडमेड्स टेल' जैसे लाल चोगे पहने देखा गया था. यह एक प्रतीकात्मक विरोध था क्योंकि इस टीवी सीरीज में एक ऐसा समाज दिखाया गया है जिसमें महिलाओं का सिर्फ प्रजनन के लिए प्रयोग किया जाता है.
कानून पर बहस
अस्पताल का कहना है कि डॉक्टरों और नर्सों ने महिला की जान बचाने के लिए हर संभव कोशिश की. 30 वर्षीय इस महिला की मौत अपनी गर्भावस्था के 22वें सप्ताह में हुई. इजाबेला नाम की इस महिला की मौत तो सितंबर में ही हो गई थी लेकिन यह मामला सार्वजनिक बीते शुक्रवार किया गया.
प्रजनन अधिकार कार्यकर्ताओं का कहना है कि पोलैंड में अबॉर्शन कानून के कारण यह पहली मृत्यु है. हालांकि नए कानून के समर्थकों का कहना है कि महिला की मृत्यु का कारण कानून ही है, ऐसा पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता और कानून विरोधी कार्यकर्ता हालात का फायदा उठा रहे हैं. कानून विरोधी कार्यकर्ताओं ने वॉरसा और कराकाव के अलावा कई जगह प्रदर्शन किए.
जिस अस्पताल में इजाबेला की मौत हुई, उसने मंगलवार को एक बयान जारी कर कहा कि उसे महिला की मृत्यु का अफसोस है और वे इस दुख में शामिल हैं. महिला की एक बेटी और है, जो अब अपने पिता के पास है.
दक्षिणी पोलैंड के इस काउंटी अस्पाल ने कहा, "जो चिकीत्सीय प्रक्रिया अपनाई गई, उसका एकमात्र मकसद मरीज और भ्रूण की सेहत और जीवन की सुरक्षा थी. डॉक्टरों और नर्सों ने मरीज और उसके बच्चे के लिए एक मुश्किल लड़ाई लड़ी और अपनी हर संभव कोशिश की.”
सत्ताधारी पार्टी की एक मुख्य सदस्य मारेक सुस्की ने कहा कि इस मामले का कोर्ट के फैसले से कोई संबंध नहीं है. सरकारी टीवी पर सुस्की ने कहा, "चिकीत्सीय गलतियां होती हैं. दुर्भाग्य से अब भी मांओं की डिलीवरी में मौत होती है. लेकिन इसका ट्राइब्यूनल के फैसले से कोई संबंध निश्चित तौर पर नहीं है.”
डरने लगे हैं डॉक्टर
कानून विरोधी कार्यकर्ताओं का कहना है कि सैद्धांतिक रूप से महिला का अबॉर्शन तभी हो जाना चाहिए था जब गर्भ के कारण उसकी जान को खतरा हुआ लेकिन अबॉर्शन कानून के कारण अब डॉक्टर डरने लगे हैं.
इंटरनेशनल प्लान्ड पैरंटहुड फेडरेशन की आइरीन डोनाडियो ने कहा, "जब कानून बहुत दमनकारी हों और डॉक्टरों पर पांबदियां लगाते हों तो वे कानून की व्याख्या में और ज्यादा कठोरता बरतते हैं ताकि निजी तौर पर खुद किसी खतरे में ना पड़ जाएं.”
नया कानून लागू होने से पहले पोलैंड में महिलाएं तीन परिस्थितियों में अबॉर्शन करा सकती थीं. पहला तब, जबकि गर्भ ठहरने की वजह बलात्कार जैसा कोई अपराध हो. दूसरा यदि महिला की जान खतरे में हो. और तीसरा, भ्रूण में गंभीर विकृतियां हों.
पोलैंड की रूढ़िवादी सत्ताधारी पार्टी के प्रभाव में कॉस्टिट्यूशनल ट्राइब्यूनल ने पिछले साल फैसला दिया कि विकृतियो के कारण होने वाले अबॉर्शन वैध नहीं हैं. महिला अधिकार कार्यकर्ताओं का कहना है कि अब अगर भ्रूण के बचने की संभावना ना हो तो डॉक्टर अबॉर्शन करने के बजाय उसके स्वयं ही मर जाने का इंतजार करते हैं.
वीके/सीके (एपी)
रोबोटों के द्वारा खाना पहुंचाना अब काल्पनिक विज्ञान नहीं रहा. अमेरिका और ब्रिटेन समेत कई देशों में सैकड़ों छोटे छोटे रोबोट कॉलेज के परिसर में और दूसरी जगहों पर भी दिखाई दे रहे हैं.
आपके घुटनों तक पहुंचने वाले ये रोबोट एक बार में करीब चार पिज्जा एक जगह से दूसरी जगह तक पहुंचा सकते हैं. कोरोना वायरस महामारी के आने से पहले तो इन पर सीमित संख्या में परीक्षण चल रहे थे लेकिन अब स्थिति बदल गई है.
रोबोट बनाने वाली कंपनियों का कहना है कि महामारी की वजह से पैदा हुई श्रमिकों की कमी और कॉन्टैक्टलेस डिलीवरी के प्रति लोगों के झुकाव में बढ़त की वजह से रोबोटों को और तेजी से इस्तेमाल में लाया जा रहा है. स्टारशिप टेक्नोलॉजीज ने हाल ही में 20 लाख डिलीवरीयां पूरी कीं.
मांग में उछाल
कंपनी के सीईओ एलेस्टेयर वेस्टगार्थ कहते हैं, "रोबोट की मांग छत फाड़ कर निकल गई. मुझे लगता है यह मांग हमेशा से थी, लेकिन महामारी के असर ने इसे तेज कर दिया." 2019 में स्टारशिप के पास सिर्फ 250 रोबोट थे, लेकिन अब 1,000 से भी ज्यादा हैं. कंपनी जल्द सैकड़ों और रोबोटों को काम पर लगाएगी.
कंपनी इस समय अमेरिका में 20 कलेजे परिसरों के अंदर खाना पहुंचा रही है. इस सूची में जल्द ही 25 और कॉलेज जुड़ेंगे. यही नहीं, कंपनी के रोबोट इंग्लैंड के मिल्टन कीन्स, कैलिफॉर्निया के मॉडेस्टो और कंपनी के गृह शहर एस्तोनिया के तालिन में भी फुटपाथों पर भी काम कर रहे हैं.
रोबोटों के डिजाइन अलग अलग हैं. जैसे कुछ के चार पहिए हैं तो कुछ के छह. लेकिन सामान्य तौर पर फुटपाथ पर चलने के लिए सभी कैमरों, सेंसर, जीपीएस और कभी कभी लेजर स्कैनरों का भी इस्तेमाल करते हैं. ये पांच किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से चलते हैं और अपने आप सड़क भी पार कर लेते हैं.
इस्तेमाल की सीमा
दूर से इन्हें चलाने वाले एक ही समय में कई रोबोटों पर नजर रखते हैं लेकिन उनका कहना है कि उन्हें शायद ही कभी ब्रेक लगाने की या किसी रास्ते में किसी बाधा को पार कराने की जरूरत पड़ती है. जब रोबोट अपने गंतव्य पर पहुंचता है, तब ग्राहक अपने फोन में एक कोड डाल कर रोबोट का ढक्कन खोल सकता है और अंदर से खाना निकाल सकता है.
हालांकि इन रोबोटों में कुछ कमियां जिनकी वजह से इनकी उपयोगिता अभी सीमित है. ये बिजली से चलते हैं इसलिए इन्हें नियमित रूप से चार्ज करने की जरूरत पड़ती है. ये धीमे होते हैं और सामान्य रूप से एक छोटे, पहले से मैप किए गए घेरे में ही रहते हैं. ये स्थिति के अनुरूप ढल भी नहीं सकते.
उदाहरण के तौर पर एक ग्राहक एक रोबोट को खाना दरवाजे के बाहर रखने के लिए नहीं कह सकता है. और न्यू यॉर्क, बीजिंग, सैन फ्रांसिस्को जैसे भीड़ भाड़ वाले फुटपाथ वाले कुछ बड़े शहर तो इनके लिए ठीक हैं भी नहीं.
इसके बावजूद कंसल्टिंग कंपनी गार्टनर के साथ काम करने वाले बिल रे कहते हैं कि रोबोट कॉर्पोरेट या कलेजे परिसरों में या चौड़े फुटपाथों वाले नए स्थानों के लिए बहुत उपयोगी हैं. रे कहते हैं, "ऐसी जगहें जहां आप उन्हें उतार सकें, रोबोट डिलीवरी बहुत तेजी से आगे बढ़ेगी."
रेस्तरां में भी रोबोट
ओहायो के बोलिंग ग्रीन स्टेट विश्वविद्यालय के छात्र पैट्रिक शेक तक सप्ताह में तीन से चार बार स्टारशिप के रोबोट खाना पहुंचाते हैं. शेक कहते हैं, "रोबोट क्लास के लिए निकलने के ठीक पहले आ जाता है और मुझे समय रहते खाना मिल जाता है." बोलिंग ग्रीन और स्टारशिप इस सेवा के लिए हर बार 1.99 डॉलर और अतिरिक्त सेवा शुल्क लेते हैं.
प्रतिद्वंदी कंपनी कीवीबॉट का कहना है कि उसके 400 रोबोट अलग अलग कलेजे परिसरों में खाना पहुंचा रहे हैं. इसके अलावा डिलीवरी कंपनियां भी अब बाजार में उतर रही हैं और रोबोट बनाने वाली कंपनियों के साथ साझेदारी कर रही हैं.
डाटा और कंसल्टिंग सेवाएं देने वाली कंपनी एनपीडी के मुताबिक जून तक एक साल में डिलीवरी आर्डरों में 66 प्रतिशत का उछाल आया. रेस्तरां भी खाना पहुंचाने के लिए कामगारों की कमी झेल रहे हैं. इस वजह से कई रेस्तरां रोबोटों के जरिए इस कमी को पूरा करना चाह रहे हैं.
डॉमिनोज पिज्जा के सीनियर वाईस प्रेजिडेंट डेनिस मलोनी कहते हैं, "इस समय देश में एक भी ऐसा स्टोर नहीं है जिसके पास पर्याप्त संख्या में खाना पहुंचाने वाले लोग हों." उनकी कंपनी ने नूरो नाम की कैलिफॉर्निया की एक कंपनी के साथ साझेदारी की है और उसके छह फुट के स्वचालित पॉड के जरिये खाना पहुंचाने का परीक्षण कर रही है.
मलोनी कहते हैं कि अब सवाल यह नहीं है कि क्या रोबोट और ज्यादा डिलीवरी करने लगेंगे, बल्कि सब सवाल है कि ऐसा वे कब से कर पाएंगे.
सीके/एए (एपी)
ह्यूस्टन, 3 नवंबर | अमेरिकी पेट्रोलियम संस्थान (एपीआई) ने 29 अक्टूबर को समाप्त सप्ताह के दौरान अमेरिकी भंडार में 3.594 मिलियन बैरल कच्चे तेल की वृद्धि दर्ज की है।
विश्लेषकों को मंगलवार को सप्ताह के लिए लगभग 1.567 मिलियन बैरल की वृद्धि की उम्मीद की थी।
समाचार एजेंसी सिन्हुआ की रिपोर्ट के अनुसार, एपीआई ने पिछले सप्ताह में 2.318 मिलियन बैरल की वृद्धि दर्ज की।
तेल की कीमतें मंगलवार को मिश्रित रूप से समाप्त हुईं क्योंकि व्यापारियों को अमेरिकी ईंधन स्टॉक डेटा और पेट्रोलियम निर्यातक देशों के संगठन और उसके सहयोगियों की एक प्रमुख बैठक का इंतजार है, जिसे सामूहिक रूप से ओपेक प्लस के रूप में जाना जाता है।
वेस्ट टेक्सास इंटरमीडिएट दिसंबर डिलीवरी के लिए न्यूयॉर्क मर्के टाइल एक्सचेंज में 14 सेंट की गिरावट के साथ 83.91 अमेरिकी डॉलर प्रति बैरल पर बंद हुआ। लंदन आईसीई फ्यूचर्स एक्सचेंज में जनवरी डिलीवरी के लिए ब्रेंट क्रूड 1 फीसदी बढ़कर 84.72 डॉलर प्रति बैरल पर बंद हुआ।
यूएस एनर्जी इंफॉर्मेशन एडमिनिस्ट्रेशन बुधवार को अपनी साप्ताहिक पेट्रोलियम स्थिति रिपोर्ट जारी करने के लिए तैयार है, जबकि ओपेक प्लस के गुरुवार को मिलने की उम्मीद है, जिसमें कच्चे उत्पादन पर अपनी योजना पर चर्चा होगी।
विश्लेषकों के अनुसार, प्रमुख तेल खपत करने वाले देशों के बढ़ते दबाव के बावजूद, गठबंधन को 4,00,000 बैरल प्रति दिन की क्रमिक, मासिक उत्पादन वृद्धि की अपनी योजना पर कायम रहने की उम्मीद है। (आईएएनएस)
काबुल, 3 नवंबर | अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बीच चमन-स्पिन बोल्डक सीमा को दो महीने पहले तालिबान द्वारा बंद किए जाने के बाद पैदल चलने वालों और वाहनों की आवाजाही के लिए खोल दिया गया है। मीडिया ने मंगलवार को इसकी सूचना दी।
मंगलवार को ट्वीट्स की एक श्रृंखला में, काबुल में इस्लामाबाद के राजदूत मंसूर अहमद खान ने कहा, "पाकिस्तान और अफगानिस्तान के सीमा अधिकारियों के बीच चर्चा के बाद, चमन-बोल्डक क्रॉसिंग पॉइंट पर मैत्री द्वार कल सुबह से खुल जाएगा जिससे दोनों पक्ष व्यापार/पारगमन वाहन और लोगों की सुगम आवाजाही सुनिश्चित करेंगे।
"चमन-बोल्डक गेट अब खुला है। पैदल चलने वालों और व्यापारिक वाहनों ने पार करना शुरू कर दिया है। हम पाकिस्तान जाने वाले अफगान फलों के ट्रकों का स्वागत करते हैं। दोनों पक्षों के सभी संबंधितों से लोगों और ट्रकों की सुचारू आवाजाही सुनिश्चित करने के लिए अपनी ऊर्जा समर्पित करने का आग्रह करते हैं।"
इस बीच, कंधार प्रांत के अधिकारियों ने पुष्टि की कि सीमा पार मंगलवार सुबह आठ बजे खुल गई।
22 अक्टूबर को, तोरखम में पाकिस्तान-अफगानिस्तान सीमा पार, जिसे केवल व्यापारिक गतिविधियों के लिए खोलने की अनुमति थी उसने अब अपने द्वार खोल दिए, जिससे हताश अफगान पुरुषों और महिलाओं को पाकिस्तान में प्रवेश करने की अनुमति मिली।
इस साल मई के दौरान, पाकिस्तान सरकार ने कोविड-19 संचरण को रोकने के प्रयास में पैदल चलने वालों की आवाजाही के लिए अफगानिस्तान के साथ अपनी सभी सीमाओं को बंद करने का फैसला किया था।
प्रतिबंधों में इस्लामाबाद के अब शरणार्थियों की आमद की अनुमति देने का निर्णय भी शामिल है, जो तालिबान के अधिग्रहण और अफगानिस्तान में सुरक्षा स्थिति के बीच पाकिस्तान में प्रवेश करना चाहते हैं।
तालिबान के अधिग्रहण के बाद उन्हें विशेष अनुमति दिए जाने के बाद, सैकड़ों अफगान और विदेशी नागरिकों को निकालने के लिए तोरखम सीमा का भी इस्तेमाल किया गया था।(आईएएनएस)
लागोस, 3 नवंबर| नाइजीरिया के आर्थिक केंद्र लागोस शहर में एक 21 मंजिला इमारत के गिरने से मरने वालों की संख्या बढ़कर 20 हो गई है, जबकि कई और लोगों के शव बरामद किए गए हैं। इसकी जानकारी एक आपातकालीन प्रबंधन अधिकारी ने दी। लागोस राज्य में राष्ट्रीय आपातकालीन प्रबंधन एजेंसी (एनईएमए) के समन्वयक इब्राहिम फरिनलोय ने बयान में कहा कि मंगलवार शाम को लागोस शहर के इकोई इलाके में निर्माणाधीन 21 मंजिला इमारत के ढहने के बाद 20 शवों को बरामद कर लिया गया और 9 लोगों को जिंदा बचा लिया गया है।
फरिनलोय ने कहा कि बचाव अभियान अभी जारी है और हादसे के कारणों की जांच जारी है।
इस इलाके में रहने वाले निवासियों ने मंगलवार को सिन्हुआ को बताया कि इमारत एक साल से अधिक समय से निर्माणाधीन थी और 50 से अधिक लोग, जिनमें ज्यादातर निर्माण श्रमिक थे, मलबे में दबे हुए थे।
इससे पहले मंगलवार को, लागोस राज्य के राज्यपाल, बाबाजीदे सानवो-ओलू ने एक बयान में इमारत ढहने की गहन जांच कराने की कसम खाई। राज्य सरकार ने कहा कि पतन के कारणों की जांच के लिए एक स्वतंत्र पैनल का गठन किया जा रहा है।
सानवो-ओलू ने कहा कि पैनल के सदस्य निर्माण के क्षेत्र में पेशेवर निकायों जैसे नाइजीरिया इंस्टीट्यूट ऑफ आर्किटेक्ट्स, नाइजीरियाई इंस्टीट्यूट ऑफ टाउन प्लानर्स और नाइजीरिया सोसाइटी ऑफ इंजीनियर्स से तैयार किए जाएंगे।
उन्होंने कहा, "यह स्वतंत्र रूप से घटना के दूरस्थ और तत्काल कारणों की जांच करेगा और भविष्य की घटनाओं को रोकने के तरीके पर सिफारिशें करेगा। जांच सरकार द्वारा पहले से की जा रही आंतरिक जांच का हिस्सा नहीं है।"
राज्यपाल ने कहा कि सरकार यह पता लगाएगी कि क्या गलत हुआ और दोषी लोगों को दंडित किया जाएगा। उन्होंने पहले कदम के रूप में निर्देश दिया है कि लागोस स्टेट बिल्डिंग कंट्रोल एजेंसी के महाप्रबंधक को तुरंत काम से निलंबित कर दिया जाए।
समाचार एजेंसी सिन्हुआ ने बताया, इस बीच, नाइजीरियाई राष्ट्रपति मुहम्मदु बुहारी ने मंगलवार को जारी एक बयान में लागोस राज्य में अधिकारियों को बचाव प्रयासों को तेज करने का निर्देश दिया।
बुहारी ने कहा, "मैं उन सभी परिवारों के प्रति आभार व्यक्त करता हूं, जिन्होंने लागोस में ढह गई इमारत में अपने प्रियजनों को खो दिया है। यह लागोस राज्य के लोगों और सरकार के लिए एक दुखद घड़ी है।"
नाइजीरियाई नेता ने अस्पतालों सहित आपातकालीन संस्थानों से बचाए गए लोगों के जीवन की सुरक्षा के लिए सभी सहायता प्रदान करने का भी आह्वान किया।
इमारत ढहने की घटनाएं अक्सर नाइजीरिया में होती हैं, क्योंकि कुछ संपत्ति के मालिक और विकासकर्ता कानूनों और विनियमों की योजना और निर्माण का कड़ाई से पालन नहीं करते हैं। ज्यादातर मामलों में, इमारत पर भारी भार डाला जाता है और निर्माण में घटिया सामग्री का उपयोग किया जाता है। (आईएएनएस)
नई दिल्ली, 2 नवंबर | पाकिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) डॉ. मोईद युसूफ ने मंगलवार को कहा कि वह 10 नवंबर को नई दिल्ली में अफगानिस्तान पर आयोजित होने वाले सम्मेलन में शामिल होने के लिए भारत नहीं जाएंगे। एक्सप्रेस ट्रिब्यून की एक हालिया रिपोर्ट में यह दावा किया गया है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि एक संवाददाता सम्मेलन के दौरान एक सवाल के जवाब में युसूफ ने कहा कि कोई 'बिगाड़ने वाला' 'शांतिदूत' की भूमिका नहीं निभा सकता।
भारत ने क्षेत्रीय सम्मेलन में भाग लेने के लिए मोईद को निमंत्रण दिया था। रूस, चीन, उज्बेकिस्तान और ताजिकिस्तान कथित तौर पर भारतीय राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार द्वारा आयोजित सम्मेलन में शामिल होंगे।
रिपोर्ट में कहा गया है कि सितंबर में पाकिस्तान और अक्टूबर में ईरान द्वारा आयोजित सम्मेलन में भारत को आमंत्रित नहीं किया गया था, लेकिन नई दिल्ली मास्को प्रारूप का हिस्सा रही है।
रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि क्षेत्रीय सम्मेलन की मेजबानी करने के भारत के प्रयास को घरेलू दबाव और इस धारणा से दूर करने के प्रयास के रूप में देखा जाता है कि नई दिल्ली को अफगान परामर्श से बाहर रखा गया है।
रिपोर्ट के अनुसार, एक साप्ताहिक समाचार ब्रीफिंग में, पाकिस्तानी विदेश कार्यालय के प्रवक्ता असीम इफ्तिखार ने नई दिल्ली में आगामी सम्मेलन का जिक्र करते हुए कहा कि भारत अफगानिस्तान के संदर्भ में 'कुछ प्रासंगिकता' खोजने की कोशिश कर रहा है।
यह कहते हुए कि अफगान लोगों की खातिर अफगानिस्तान पर समन्वय की आवश्यकता है, मोईद ने कहा कि पाकिस्तान और उज्बेकिस्तान ने अफगानिस्तान पर समान रुख साझा किया है।
उन्होंने कहा कि युद्धग्रस्त देश में मानवीय संकट को टालने के लिए काबुल में तालिबान शासन के साथ रचनात्मक जुड़ाव की जरूरत है। उन्होंने आगे कहा, "काबुल के साथ जुड़ने में दुनिया की विफलता के परिणामस्वरूप मानवीय संकट पैदा होगा।"(आईएएनएस)
सऊदी अरब के रूढ़िवादी समाज में एक महिला 'टॉप गन' फायरिंग रेंज के लिए प्रशिक्षक के रूप में काम करती है. अधिक से अधिक महिलाएं अब रियाद में बंदूक चलाने की ट्रेनिंग ले रही हैं.
सऊदी अरब के पितृसत्तात्मक और रूढ़िवादी समाज में जीवन के कई क्षेत्रों में महिलाओं की भागीदारी से जुड़े क्रांतिकारी परिवर्तन देखने को मिल रहे हैं. अब एक निडर महिला ने एक ऐसे क्षेत्र में अपनी क्षमताओं का प्रदर्शन किया है जिसे अभी तक विशुद्ध रूप से पुरुषों के वर्ग का माना जाता था.
मिलिए 36 साल की मोना अल खुराइस से. उन्हें कम उम्र से ही बंदूकों में गहरी दिलचस्पी थी. उनके पिता छोटी उम्र से ही उन्हें शिकार पर ले जाते थे और उन्होंने खुद ही अपनी बेटी को बंदूक चलाना सिखाया था. पांच साल पहले मोना का जुनून ही उनका पेशा बन गया. उन्होंने देश-विदेश में राइफल शूटिंग का प्रशिक्षण हासिल किया ताकि एक दिन वह बंदूक और राइफल चलाने की प्रमाणित प्रशिक्षक के रूप में जानी जाए.
महिलाएं और बंदूक
वह अब रियाद में महिलाओं को राइफल शूटिंग का प्रशिक्षण दे रही हैं और उनके प्रशिक्षण केंद्र में जाने वाली सऊदी महिलाओं की संख्या बढ़ रही है. वे कहती हैं, "मैं अपने शौक को व्यवहार में लाने, एक कोच और एक सुरक्षा अधिकारी बनने में सक्षम होने के लिए बहुत खुश हूं," वे कहती हैं, "मुझे उम्मीद है कि मैं अपने अनुभव सऊदी लड़कियों के साथ साझा कर सकती हूं."
सऊदी अरब में हर साल शिकार के लिए एक शो आयोजित किया जाता है. यह वास्तव में रियाद में आयोजित विशेष शिकार हथियारों की एक महत्वपूर्ण प्रदर्शनी है. मोना अल खुराइस इस साल के सऊदी फाल्कनरी एंड हंटिंग शो में प्रदर्शकों में से एक हैं, जो शिकार में विशेषज्ञता वाले निर्माताओं के उत्पादों का प्रदर्शन करते हैं. प्रदर्शकों ने अर्ध-स्वचालित हथियारों के साथ-साथ अन्य शिकार उपकरण भी प्रदर्शित किए. केवल बंदूक लाइसेंस वाले ही इस प्रदर्शनी में हथियार खरीद सकते हैं.
इस अति-रूढ़िवादी, पुरुष-प्रधान अरब राजशाही में महिलाओं के साथ व्यवहार करने के तरीके और समाज में उनके स्थान और मान्यता में क्रांतिकारी परिवर्तन हो रहे हैं. देश में अब महिलाओं को हर क्षेत्र में पुरुषों के साथ काम करने की छूट दी जा रही है, जिसके नतीजतन महिलाओं को नौकरी के बाजार में बेहतर भविष्य दिखाई दे रहा है और वे अपने देश के कार्यबल का हिस्सा बन रही हैं. वे विभिन्न व्यवसायों में नौकरी भी पा रही हैं.
हालांकि मोना अल खुराइस को प्रारंभिक अवस्था में पुरुष-प्रधान और एकाधिकार वाले वातावरण में काम करने में बड़ी कठिनाई हुई. मोना कहती हैं, "मेरे पास एकमात्र समस्या खुद महिलाओं की आलोचना थी." वे कहती हैं, "यह मेरे लिए बहुत आश्चर्यजनक था क्योंकि मैं पुरुषों से इस आलोचना की उम्मीद कर रही थी."
जैसे-जैसे अधिक से अधिक सऊदी लड़कियों और महिलाओं को बंदूकें चलाने के लिए प्रशिक्षित किया जा रहा है, मोना की उम्मीदें बढ़ रही हैं और उनका मानना है कि एक दिन महिलाओं की सोच बदलेगी और वह अपने साथी देशवासियों को संगठित करने का एक साधन बनेगी. मोना के मुताबिक, "मेरा लक्ष्य एक दिन ओलंपिक में प्रतिस्पर्धा करने में सक्षम होना है."
एए/सीके (रॉयटर्स)
फेसबुक की व्हिसलब्लोअर ने कहा कि उसके पूर्व बॉस को इस्तीफा देना चाहिए और संसाधनों को एक रीब्रांड के लिए समर्पित करने के बजाय बदलाव की इजाजत देनी चाहिए.
पूर्व फेसबुक कर्मचारी और व्हिसलब्लोअर बनी फ्रांसिस हॉगेन ने सोमवार को फेसबुक के रीब्रांड की कटु आलोचना की. उन्होंने अपने आरोपों को दोहराया कि कंपनी ने लोगों की सुरक्षा के बजाय विस्तार को प्राथमिकता दी. दरअसल हॉगेन ही वह पूर्व कर्मचारी हैं जिन्होंने कंपनी से जुड़े दस्तावेज लीक किए. उसके बाद से ही फेसबुक सीईओ जकरबर्ग की दुनियाभर में आलोचना हो रही है. तमाम आरोपों के बीच अक्टूबर के आखिर में जकरबर्ग ने फेसबुक को रीब्रांड करते हुए उसका नाम मेटा कर दिया.
जकरबर्ग ने कहा है कि कंपनी "मेटावर्स" विकसित करने की ओर अपना ध्यान केंद्रित कर रही है. कंपनी एक आभासी दुनिया पर बाजी लगा रही है, जिसे वह इंटरनेट की अगली पीढ़ी बताती है. मेटावर्स में कल्पना की कोई सीमा नहीं होगी. मिसाल के तौर पर अब आप वीडियो कॉल करते हैं तो मेटावर्स में आप वीडियो कॉल के अंदर होंगे. यानी आप सिर्फ एक दूसरे को देखेंगे नहीं, उसके घर, दफ्तर या जहां कहीं भी हैं, वहां आभासी रूप में मौजूद होंगे.
हॉगेन ने क्या कहा?
हाल के हफ्तों में अमेरिका और ब्रिटेन के सांसदों के सामने पेश हो चुकीं हॉगेन ने लिस्बन में वेब समिट यानी तकनीकी सम्मेलन में अपना पहला सार्वजनिक बयान दिया. उन्होंने कहा कि यह "अनर्थक" है कि कंपनी मौजूदा समस्याओं को ठीक करने पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय "मेटावर्स" विकसित करने की अपनी योजनाओं की तुरही कर रही है.
उन्होंने पुर्तगाली राजधानी में हजारों की संख्या में मौजूद दर्शकों से कहा, "फेसबुक बार-बार नए क्षेत्रों में विस्तार का विकल्प चुनती है, जो उसने पहले ही किया है." उन्होंने कंपनी की नई परियोजना के लिए यूरोप में अपने कर्मचारियों की संख्या का विस्तार करने की योजना का जिक्र है करते हुए कहा, "यह सुनिश्चित करने में निवेश करने के बजाय कि उनके प्लेटफॉर्म न्यूनतम स्तर के सुरक्षित हैं वे वीडियो गेम्स में 10,000 इंजीनियरों की भर्ती करने वाली है."
जब उनसे पूछा गया कि क्या जकरबर्ग को अपने पद से हट जाना चाहिए तो उन्होंने कहा, "मुझे लगता है, फेसबुक किसी ऐसे व्यक्ति के साथ मजबूत होगी जो सुरक्षा पर ध्यान केंद्रित करने को तैयार है, इसलिए हां."
पिछले दिनों भारत में कांग्रेस ने फेसबुक पर भारत के चुनावों को "प्रभावित" करने और लोकतंत्र को "कमजोर" करने का आरोप लगाते हुए इसकी संयुक्त संसदीय समिति से जांच कराने की मांग की है. इस बीच सोमवार को कांग्रेस के नेता शशि थरूर ने कहा कि उनकी अध्यक्षता वाली सूचना एवं प्रौद्योगिकी संबंधी संसद की स्थायी समिति इस महीने के आखिर तक फेसबुक से जुड़े कुछ व्हिसलब्लोअर को भारत बुला सकती है ताकि वे अपना पक्ष रख सकें.
दरअसल फेसबुक के कुछ लीक हुए दस्तावेजों से पिछले दिनों यह खुलासा हुआ कि वेबसाइट भारत में नफरती संदेश, झूठी सूचनाएं और भड़काऊ सामग्री को रोकने में भेदभाव बरतती रही है. इसी पर कांग्रेस जेपीसी की मांग करती आ रही है.
एए/वीके (एएफपी, रॉयटर्स)
नई दिल्ली, 1 नवंबर| तालिबान के आत्मघाती हमलावरों और उनके 'बलिदानों' को 'सम्मान' देने के लिए हाल ही में आयोजित एक कार्यक्रम की अफगान नागरिकों ने भारी आलोचना की है। डीडब्ल्यू की एक रिपोर्ट में यह जानकारी दी गई है। आत्मघाती हमले में मारे गए लोगों के रिश्तेदारों ने डीडब्ल्यू को बताया कि वे हत्यारों के महिमामंडन से घृणा महसूस कर रहे हैं।
रिपोर्ट में कहा गया है कि 20 अक्टूबर को तालिबान के अंतरिम आंतरिक (गृह) मंत्री सिराजुद्दीन हक्कानी ने उन आत्मघाती हमलावरों के 'बलिदान' की सराहना की थी, जिन्होंने देश पर 20 साल के अमेरिकी कब्जे के दौरान अफगानिस्तान में अनगिनत हिंसक हमले किए।
काबुल के एक होटल में एक समारोह में मंत्री ने आत्मघाती हमलावरों के परिजनों को नकद और जमीन देकर पुरस्कृत किया।
गृह मंत्रालय के प्रवक्ता कारी सईद खोस्ती ने एक ट्वीट में कहा कि तालिबान आत्मघाती हमलावरों की मदद के बिना सत्ता में वापस नहीं आ सकता था।
रिपोर्ट में कहा गया है कि तालिबान द्वारा आत्मघाती हमलावरों का महिमामंडन करने से कई अफगान नाराज हो गए हैं, खासकर वह लोग नाराज हैं, जिन्होंने आत्मघाती हमलों में अपने प्रियजनों को खो दिया है।
19 वर्षीय शरीफा ने तालिबान द्वारा अपने आत्मघाती हमलावरों के परिवारों को 'सम्मान' देने की खबर जैसे ही सुनी, वो फूट-फूट कर रोने लगीं, क्योंकि काबुल में 2018 के आत्मघाती हमले में उन्होंने अपने पिता को खो दिया था।
शरीफा ने कहा, "यह घाव में नमक रगड़ने जैसा है।"
शरीफा ने फोन पर डीडब्ल्यू को बताया, "जब मैंने सुना कि हमारी मदद करने के बजाय, वे (तालिबान) उन लोगों की प्रशंसा कर रहे हैं, जिन्होंने जानबूझकर खुद को और दूसरों को मार डाला, तो मेरा दिल टूट गया।"
2018 में एक तालिबान आत्मघाती हमलावर ने काबुल में गृह मंत्रालय को निशाना बनाया था, जिसमें 95 लोग मारे गए थे और कम से कम 185 घायल हो गए थे। मृतकों में शरीफा के पिता भी शामिल थे।
रिपोर्ट के अनुसार, शरीफा ने आगे गया, "हमारे पिता की मृत्यु के बाद हमारा जीवन बर्बाद हो गया। मेरी मां और भाई मानसिक रूप से अस्थिर हो गए।"
आत्मघाती हमलावरों को सम्मानित करने के काबुल समारोह ने न केवल पीड़ितों के परिवारों को नाराज किया है, बल्कि अफगानिस्तान के सोशल मीडिया पर भी इसकी व्यापक आलोचना हुई है।
रिपोर्ट के अनुसार, एक पूर्व खोजी पत्रकार सैयद तारिक मजीदी ने ट्विटर पर एक व्यंग्यात्मक संदेश पोस्ट करते हुए कहा, "निकट भविष्य में, काबुल में आत्मघाती हमलावरों के लिए एक नए आवासीय शहर का दौरा किया जा सकता है।" (आईएएनएस)
विशाल गुलाटी
नई दिल्ली, 1 नवंबर| लगभग सभी 200 देशों को जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के अनुकूल बनाने और 2015 के पेरिस समझौते की जरूरत के मुताबिक, औसत वैश्विक तापमान में वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के लिए एक साझा उद्देश्य के तहत एक मंच पर लाने के पीछे एक भारतीय मूल के ब्रिटेन के मंत्री हैं।
आगरा में हिंदू माता-पिता के घर जन्मे और 1972 में ब्रिटेन चले गए आलोक शर्मा को 8 जनवरी को 26वें संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन, सीओपी26 के लिए अध्यक्ष नियुक्त किया गया। तब से शर्मा ग्लोबल वार्मिग को कम करने के लिए व्यस्त हैं और शिखर सम्मेलन के लिए एजेंडा निर्धारित करने के लिए दुनियाभर में यात्रा कर रहे हैं।
इस साल सीओपी ब्रिटेन की अध्यक्षता में आयोजित किया जा रहा है और 31 अक्टूबर से 12 नवंबर तक ग्लासगो में आयोजित किया जा रहा है। यह ब्रिटेन द्वारा आयोजित अपनी तरह का सबसे बड़ा आयोजन है। जलवायु परिवर्तन से निपटने को लेकर समन्वित कार्रवाई के लिए सहमत होने के लिए जलवायु वार्ता राष्ट्र के प्रमुखों, जलवायु विशेषज्ञों और प्रचारकों को एक मंच पर साथ लेकर आई है।
जलवायु शिखर सम्मेलन में, जो उन रिपोर्ट्स और अध्ययनों की एक श्रृंखला के बीच शुरू हुआ है, जिनमें चेतावनी दी गई थी कि पेरिस समझौते के वैश्विक औसत तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के लक्ष्य को पहुंच के भीतर रखने के लिए तत्काल कार्रवाई की आवश्यकता है। ब्रिटेन औपचारिक वार्ता का नेतृत्व करेगा और राजनीतिक घोषणाओं सहित समग्र सीओपी पैकेज और विजन की निगरानी करेगा।
जलवायु वार्ताकारों ने आईएएनएस को बताया कि शर्मा के लिए यह एक बड़ा काम है, जो प्रधानमंत्री के समर्थन के साथ मिलकर काम कर रहे हैं, ताकि देशों को जलवायु संकट से निपटने के लिए नए वादों के लिए प्रतिबद्ध किया जा सके। वह इस दिशा में विकासशील देशों को सक्षम करने के लिए भी काम कर रहे हैं, जिन्हें तकनीकी और वित्तीय सहायता की आवश्यकता होती है, ताकि वे इस पर काम कर सकें और जलवायु प्रभावों के प्रति अपने काम में लचीलापन ला सकें।
संसद में प्रवेश करने से पहले, शर्मा ने कूपर्स एंड लाइब्रांड डेलॉइट के साथ एक चार्टर्ड एकाउंटेंट के रूप में योग्यता प्राप्त की और फिर बैंकिंग में 16 वर्षो तक काम किया।
शर्मा जलवायु कार्रवाई पर सहयोग पर उद्योग और नागरिक समाज के मंत्रियों और नेताओं के साथ चर्चा के लिए अगस्त में नई दिल्ली में थे।
उस समय, यूके कैबिनेट कार्यालय में राज्य मंत्री का पद संभालने वाले शर्मा ने कहा था कि पेरिस समझौते के तहत नए सिरे से कार्रवाई करने के लिए भारत की महत्वपूर्ण भूमिका है।
उन्होंने कहा, "अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन (आईएसए) और आपदा प्रतिरोधी बुनियादी ढांचे (सीडीआरआई) के लिए गठबंधन सहित भारत का नेतृत्व बेहद महत्वपूर्ण है, क्योंकि हम सीओपी26 से पहले और उससे आगे वैश्विक लचीलापन लाना चाहते हैं।"
2019 में स्पेन में पिछली जलवायु वार्ता में भारत, चीन, ब्राजील और कुछ विकासशील देश दुनिया को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कार्बन क्रेडिट के व्यापार के लिए नियम विकसित करने के लिए मनाने में विफल रहे थे, जो उन्हें कम लागत पर अर्थव्यवस्थाओं को डीकार्बोनाइज करने में मदद करते हैं।
कार्बन बाजार प्रणाली से संबंधित महत्वपूर्ण पेरिस समझौते नियम पुस्तिका के अनुच्छेद 6 पर देश सर्वसम्मति से सहमत होने में विफल रहे, क्योंकि दो सप्ताह की लंबी वार्ता आधिकारिक समय सीमा से दो दिन पहले ही समाप्त हो गई थी।
पेरिस समझौते का अनुच्छेद 6 जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए दुनिया के आर्थिक टूलबॉक्स के एक प्रमुख घटक के रूप में अंतरराष्ट्रीय जलवायु बाजार कैसे काम करेगा, इस पर दिशानिर्देश प्रदान करता है।
भारत जैसे कई देश नए जलवायु लक्ष्यों को पूरा करने के लिए कंपनियों द्वारा अर्जित पुराने कार्बन क्रेडिट को भी आगे बढ़ाने की मांग कर रहे हैं। कार्बन क्रेडिट कंपनियों को अपने ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन की भरपाई करने की अनुमति देता है।
जलवायु विशेषज्ञों ने आईएएनएस को बताया कि यह समय ब्रिटेन, विशेष रूप से भारतीय मूल के सीओपी अध्यक्ष शर्मा के लिए विकसित देशों को कार्बन व्यापार तंत्र को पूरी तरह से अस्वीकार नहीं करने के लिए मनाने का है, जो पेरिस जलवायु परिवर्तन समझौते के पूर्ण संचालन के लिए एक प्रमुख घटक है। (आईएएनएस)
अगरतला, 2 नवंबर| त्रिपुरा के पांच आदिवासी संगठनों के सदस्यों ने सोमवार को यहां बांग्लादेश के सहायक उच्चायोग के सामने पड़ोसी देश के कॉक्स बाजार जिले में टेकनाफ के तहत कटखाली वन बौद्ध मठ पर हमले और आग लगाने की निंदा की। पांच आदिवासी संगठनों के एक संयुक्त बयान में सोमवार को कहा गया कि 24 अक्टूबर को हुए हमले के दौरान चकमा समुदाय से संबंधित महिलाओं सहित कम से कम 8 स्वदेशी व्यक्ति घायल हो गए।
इन संगठनों ने सहायक उच्चायुक्त मोहम्मद जोबायद होसेन के माध्यम से बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना को एक ज्ञापन सौंपा।
ज्ञापन में कहा गया है कि कटखाली वन बौद्ध मठ पर हमला 13 अक्टूबर से मंदिरों, दुर्गा पूजा पंडालों और हिंदू अल्पसंख्यकों पर हमले की घटनाओं की एक श्रृंखला के बाद हुआ, जो दर्शाता है कि देश में धार्मिक अल्पसंख्यकों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए बांग्लादेश सरकार ने कोई कार्रवाई नहीं की है।
ज्ञापन में कहा गया है, "ऐसा इसलिए है, क्योंकि बांग्लादेश सरकार 2012 में चटगांव के रामू, कॉक्स बाजार और पटिया में 19 बौद्ध मंदिरों और लगभग 100 घरों को नष्ट करने वालों को दंडित करने में विफल रही है।"
इन संगठनों ने अपने बयान में कहा, "बांग्लादेश सरकार की जिम्मेदारी है कि वह धार्मिक अल्पसंख्यकों के जीवन, संपत्ति और उनके धर्म का पालन करने के अधिकार की रक्षा करे।"
आदिवासी संगठनों ने कटखाली वन बौद्ध मठ पर हमले और चकमा समुदाय के कम से कम आठ स्वदेशी व्यक्तियों पर हमले के अपराधियों को न्याय के लिए लाने और रामू, कॉक्स के 19 बौद्ध मंदिरों और लगभग 100 घरों को नष्ट करने वालों के खिलाफ मुकदमा चलाने की मांग की। 2012 में फास्ट ट्रैक कोर्ट के माध्यम से चटगांव के बाजार और पाटिया।
सोमवार को प्रदर्शन करने वाले आदिवासी संगठनों में चकमा नेशनल काउंसिल ऑफ इंडिया, चकमा बौद्ध वेलफेयर सोसाइटी, यंग चकमा एसोसिएशन, त्रिपुरा चकमा स्टूडेंट्स एसोसिएशन और त्रिपुरा रेज्यो चकमा गबुच्य जोडा शामिल हैं। (आईएएनएस)
अपने चीनी समकक्ष के साथ एक बैठक के दौरान अमेरिकी विदेश मंत्री ने बीजिंग से प्रशांत क्षेत्र में तनाव कम करने का आह्वान किया. ताइवान पर हाल ही में अमेरिकी बयानों की चीन ने तीखी आलोचना की है.
अमेरिकी विदेश विभाग ने एक बयान में कहा कि विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकेन ने अपने चीनी समकक्ष वांग यी से मुलाकात की और बीजिंग को ताइवान के खिलाफ किसी भी एकतरफा कार्रवाई से परहेज करने की सलाह दी. इटली की राजधानी रोम में जी20 शिखर सम्मेलन के दौरान दोनों नेताओं की मुलाकात हुई, जिसमें चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने भाग नहीं लिया.
दोनों नेताओं के बीच क्या बातचीत हुई?
अमेरिकी विदेश मंत्री ने अपने चीनी समकक्ष वांग यी से कहा कि ताइवान के प्रति अमेरिका की "वन चाइना" नीति में कोई बदलाव नहीं किया गया है. अमेरिकी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता नेड प्राइस के मुताबिक ब्लिंकेन ने कहा कि अमेरिका "पूर्व और दक्षिण चीन सागर और ताइवान में हमारे मूल्यों और हितों का उल्लंघन करने वाली किसी भी कार्रवाई का विरोध करता है, जिसमें शिनजियांग, तिब्बत और हांग कांग में मानवाधिकार शामिल हैं."
उन्होंने कहा कि चीन और अमेरिका "उत्तर कोरिया, म्यांमार, ईरान, अफगानिस्तान और पर्यावरण संकट जैसे मुद्दों पर मिलकर काम कर सकते हैं."
चीनी विदेश मंत्रालय ने एक बयान में कहा कि ब्लिंकेन के साथ बातचीत के दौरान वांग यी ने अमेरिका से चीन के साथ विभिन्न मुद्दों पर अपने "गलत दृष्टिकोण" को ठीक करने का आग्रह किया. चीनी विदेश मंत्री ने कथित तौर पर अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकेन से कहा है कि ताइवान में स्वतंत्रता-समर्थक बलों के लिए अमेरिकी समर्थन प्रशांत क्षेत्र में तनाव का मुख्य कारण है.
हाल ही में अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने एक बयान में कहा था कि अगर चीन ताइवान पर हमला करता है तो अमेरिका ताइवान की रक्षा करेगा. अमेरिकी राष्ट्रपति ने कहा कि ताइवान के लिए अमेरिकी प्रतिबद्धता "चट्टान की तरह ठोस" है. चीन उनके बयान से नाराज था और चीनी विदेश मंत्रालय ने जवाब दिया कि अमेरिका ताइवान जलडमरूमध्य में "अपनी ताकत का परीक्षण" करने की कोशिश कर रहा है.
अमेरिकी विदेश मंत्री ने हाल ही में एक बयान में कहा था कि ताइवान को संयुक्त राष्ट्र जैसे और अधिक अंतरराष्ट्रीय निकायों में शामिल होने की जरूरत है. चीन ने भी कड़ी प्रतिक्रिया देते हुए कहा "चीन इसका कड़ा विरोध करता है."
अमेरिका और चीन के बीच एक लंबे समय से चले आ रहे समझौते के तहत, वॉशिंगटन "एक-चीन" नीति का अनुसरण कर रहा है. इस राजनीतिक स्थिति के मुताबिक अमेरिका ताइवान की राजधानी ताइपे को आधिकारिक रूप से मान्यता देने के बजाय बीजिंग के साथ सभी मुद्दों को निपटाने के लिए बाध्य है.
ताइवान खुद को एक स्वतंत्र देश मानता है, लेकिन चीन इसे अपने देश का हिस्सा मानता है. चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने हाल ही में ताइवान के साथ "पूर्ण एकीकरण" के लिए अपनी प्रतिबद्धता दोहराई है.
एए/सीके (एपी, रॉयटर्स)
रेस्तराओं में खाना बनाते और परोसते वक्त रबर के दस्तानों का इस्तेमाल दुनियाभर में किया जा रहा है. लेकिन इस कारण खाने में जहरीले तत्व भी घुल जाते हैं. ये तत्व बेहद खतरनाक साबित हो सकते हैं.
डॉयचे वैले पर जुल्फिकार ऐबैनी की रिपोर्ट
बच्चों को फास्ट फूड बहुत पसंद होता है. और बड़ों को भी. पर इसे बनाने के दौरान विनाइल दस्तानों से जहरीले केमिकल्स बर्गर और पेस्ट्री में घुल जाते हैं. और यह जहर फिर लोगों को शरीर में पहुंच रहा है.
कोविड महामारी के दौरान मुंह पर मास्क और हाथों में दस्ताने हर उद्योग का एक जरूरी अंग बन चुके हैं. दो साल पहले आपके स्थानीय कैफे या हेयर ड्रेसर दस्ताने पहने तो नहीं दिखते थे. लेकिन महामारी ने आदतें और जरूरतें बदल दी हैं.
नतीजा यह हुआ है कि रबर के ये दस्ताने रेस्तराओं की रसोइसयों में भी पहुंच गए हैं. अब सलाद परोसना हो या बर्गर बनाने हों, किचन में काम करने वाले लोग रबर के दस्तानों के बिना खाना नहीं छूते. जाहिर है, ऐसा कोरोना वायरस को फैलने से रोकने के लिए हो रहा है. लेकिन इस कारण जो फैल रहा है वह भी कम खतरनाक नहीं है. वे हैं जहरीले रसायन जो इस दस्तानों से खाने में और खाने से इन्सानों में जा रहे हैं.
समस्या पुरानी है
जर्नल ऑफ एक्सपोजर साइंस एंड एन्वायर्नमेंटल एपिडेमियोलॉजी में प्रकाशित एक अध्ययन में यह खुलासा हुआ है. वैसे तो यह भी एक कड़वा सच है कि खाने में ही कई जहरीले रसायन शामिल होते हैं. उगाने के दौरान केमिकलों के छिड़काव से लेकर प्रोसेसिंग के दौरान कई चरणों में खाना इन जहरीले रसायनों के संपर्क में आता है.
अब से पहले हुए अध्ययन बताते हैं कि कैसे टूथपेस्ट में शामिल माइक्रोप्लास्टिक समुद्रों में पहुंच रहा है. वहां से यह मछलियों में पहुंचता है, जिन्हें मनुष्य खाते हैं. और फिर शॉपिंग के लिए इस्तेमाल होने वाले बैग, खाने के डिब्बे और न जाने कितनी चीजें ऐसी हैं जो खाने में जहरीले रसायन पहुंचा रही हैं.
अध्ययन यह भी बता चुके हैं कि खाद्य पदार्थों के उत्पादक और सुपरमार्केट खाने को पैक करने के लिए जो पैकेजिंग इस्तेमाल करते हैं, वे भी जहरीले रसायनों का स्रोत होती हैं. यानी, समस्या तो पहले से ही गंभीर है.
लेकिन नए अध्ययन में शोधकर्ताओं ने रबर यानी विनाइल से खाने में आने वाले रसायनों पर ध्यान केंद्रित किया. खासकर रेस्तराओं में खाना बनाते और परोसते वक्त इस्तेमाल होने वाले दस्तानों पर.
कितने खतरनाक हैं रसायन
वैसे यह अध्ययन शुरुआती ही है. इसके शोधकर्ता कहते हैं कि वे अमेरिका के फास्ट फूड रेस्तराओं में खाने में ऑर्थो-फ्थालेट और प्लास्टिसाइजर्स के स्तर का अध्ययन करना चाहते थे. फ्थालेट्स और प्लास्टिसाइजर्स वे रासयन हैं जो रबर के दस्ताने बनाते वक्त विनाइल में मिलाए जाते हैं ताकि वे नरम महसूस हों.
शोधकर्ताओं ने पाया कि हैमबर्गर, चिकन नगेट्स, बरितोज और अन्य फास्ट फूड इन रसायनों से भरपूर थे. यह खतरनाक है क्योंकि इन रसायनों पर प्रतिबंध लगा हुआ है.
एक फ्थालेटडिसे डीबीपी के नाम से जाना जाता है, फर्श के लिए प्रयोग होने वाले पीवीसी कवरिंग और प्रिंटिंग की स्याही आदी में काम आता है. लेकिन इसे बच्चों के लिए बनाए जाने वाले सभी उत्पादों के लिए प्रतिबंधित किया हुआ है क्योंकि इसे कार्सियोजेनिक माना जाता है.
शोधकर्ता लिखते हैं, "हमें खाने के सभी नमूनों में ऑर्थो फ्थालेट्स मिले. डीबीपी सबसे ज्यादा पाया गया. 81 प्रतिशत चीजों में डीबीपी मिला है." शोधकर्ताओं ने डीईएचटी नाम का एक प्लास्टिसाइजर भी पाया जो बोतलों के ढक्कन, कन्वेयर बेस्ट और जलरोधी कपड़े आदि बनाने में प्रयोग होता है.
शोधकर्ताओं ने टेंडर नामक एक योजना का हवाला दिया है जिसमें पाया गया था कि फ्थालेट के संपर्क से बच्चों में सीखने, ध्यान देने और व्यवहार संबंधी समस्याएं आती हैं. (dw.com)
एक मीडिया वॉचडॉग ने कहा कि पिछले दो महीनों में अफगान पत्रकारों के खिलाफ हिंसा और धमकियों के 30 से अधिक मामले दर्ज किए गए हैं, जिनमें से लगभग 90 प्रतिशत तालिबान द्वारा किए गए हैं.
अफगानिस्तान राष्ट्रीय पत्रकार संघ द्वारा दर्ज किए गए 40 फीसदी से अधिक मामले पिटाई के हैं और 40 प्रतिशत के करीब के मामले मौखिक धमकी वाले हैं. संघ के प्रमुख मासोरो लुत्फी ने कहा कि अन्य मामलों में पत्रकारों को एक दिन के लिए कैद किया गया और एक पत्रकार की मौत हुई.
संघ का कहना है राजधानी काबुल के बाहर पूरे अफगानिस्तान में सितंबर और अक्टूबर में अधिकांश मामले दर्ज किए गए थे लेकिन हिंसा के 30 मामले राजधानी में हुए. लुत्फी ने संवाददाता सम्मेलन में कहा कि हिंसा की अधिकाशं घटनाएं या हिंसा की धमकियां तालिबान के सदस्यों द्वारा की गई थीं लेकिन 30 में से तीन मामलों को अज्ञात लोगों द्वारा अंजाम दिया गया.
यह रिपोर्ट ऐसे समय में आई है जब अफगानिस्तान के तालिबान शासक अंतरराष्ट्रीय समुदाय के साथ राजनयिक चैनल खोलने की कोशिश कर रहे हैं. हालांकि अंतरराष्ट्रीय समुदाय औपचारिक रूप से तालिबान के शासन को मान्यता देने के लिए अनिच्छुक नजर आ रहा है. तालिबान की कोशिश है कि वह खुद को जिम्मेदार शासक के रूप में स्थापित करे और वह सभी के लिए सुरक्षा का वादा कर रहा है.
तालिबान के प्रवक्ता जबीउल्लाह मुजाहिद का कहना है कि वह पत्रकारों के साथ हिंसा की वारदात से वाकिफ हैं और दोषियों को सजा देने के लिए मामले की जांच कर रहे हैं. उन्होंने समस्या को सुलझा लेने का वादा किया.
अक्टूबर की शुरुआत में पूर्वी नंगरहार प्रांत में एक हमले पत्रकार सैयद मरूफ सादत और उनके चचेरे भाई समेत दो तालिबानी लड़ाके मारे गए थे, इस हमले की जिम्मेदारी इस्लामिक स्टेट समूह ने ली थी. अगस्त के अंत में अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना की वापसी के बाद से अफगानिस्तान में सादत समेत तीन पत्रकार मारे गए हैं. राहा न्यूज एजेंसी की रिपोर्टर अलीरेजा अहमदी और जहान ए सेहत टीवी चैनल की एंकर नजमा सादिकी की निकासी के दौरान काबुल हवाईअड्डे पर आत्मघाती हमले में मौत हो गई थी.
तालिबान ने बार-बार मीडिया से इस्लामी कानूनों का पालन करने का आग्रह किया है, लेकिन विस्तार से बताए बिना. लुत्फी ने कहा कि उनका समूह मीडिया आउटलेट्स और तालिबानी अधिकारियों के साथ एक बिल पर काम कर रहा है ताकि मीडिया अपने दैनिक कार्यों को जारी रख सके.
अफगानिस्तान लंबे समय से पत्रकारों के लिए खतरनाक देश रहा है. द कमेटी टु प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स ने सितंबर की शुरुआत में कहा था कि 53 पत्रकार 2001 से देश में मारे गए हैं. इसी साल जुलाई महीने में पुलित्जर विजेता भारतीय पत्रकार दानिश सिद्दीकी की मौत तालिबान और अफगान सुरक्षाबलों की झड़प को कवर करते हुई थी.
एए/वीके (एपी)
जर्मनी के एक स्त्री रोग विशेषज्ञ पर अपनी पत्नी का खतना करने के आरोप दर्ज किए गए हैं. आरोप हैं कि इस डॉक्टर ने अपने हनीमून पर सामान्य कैंची से ही पत्नी का खतना कर दिया.
हेल्मश्टेट शहर में अदालत के अधिकारियों ने पुष्टि की है कि डॉक्टर पर मारपीट और जोर-जबर्दस्ती करने का मुकदमा दर्ज करने की प्रतिक्रिया शुरू की गई है. आरोप है कि इस डॉक्टर ने होटल के कमरे में ही यह सर्जरी की. इसके लिए अनस्थीसिया तक इस्तेमाल नहीं किया गया. इस कारण महिला को भयंकर पीड़ा सहनी पड़ी और बहुत मात्रा में रक्तस्राव भी हुआ.
प्रॉसीक्यूटर्स ऑफिस के हान क्रिस्टियान वॉल्टर्स ने बताया कि महिला उस वक्त 31 वर्ष की थी. वॉल्टर्स के मुताबिक महिला इस सर्जरी के लिए इसलिए राजी हुई क्योंकि उसे तलाक की धमकी दी गई थी, जिसका अर्थ उसके लिए सामाजिक बहिष्कार होता.
अधिकारियों के मुताबिक ये दोनों पति-पत्नी जर्मन हैं लेकिन उनका संबंध अन्य संस्कृतियों से है. जब महिला ने पुलिस में शिकायत दर्ज कराई तो अधिकारियों ने जांच शुरू की. वैसे कोर्ट के एक प्रवक्ता ने बताया है कि औपचारिक तौर पर आरोप दर्ज करने को लेकर फिलहाल कोई फैसला नहीं किया गया. आरोपी डॉक्टर ने इस मामले पर फिलहाल कोई टिप्पणी नहीं की है.
कड़वी हकीकत है महिला खतना
दुनियाभर में कई संस्कृतियों में महिला खतना की परंपरा है. हालांकि कई सरकारें इस परंपरा को खत्म करने के लिए कानूनी और अन्य तरीके आजमा रही हैं. जर्मनी में अगर कोई महिला खतने का दोषी पाया जाता है तो उसे कम से कम एक साल की जेल हो सकती है.
फीमेल जेनिटल म्यूटिलेशन (एफजीएम) या आसान भाषा में कहें तो महिला खतना पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर रोक के बावजूद दुनिया के कई देशों में यह एक हकीकत है. विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इस परंपरा के खिलाफ लंबा अभियान चलाया है. इसके बावजूद दुनिया भर में लगभग 20 करोड़ महिलाओं और लड़कियों का खतना हुआ है. माना जाता है कि अफ्रीका में हर साल तीस लाख लड़कियों पर इसका खतरा मंडरा रहा है.
समझा जाता है कि कम से कम 30 अफ्रीकी देशों, यमन, इराकी कुर्दिस्तान और इंडोनेशिया में महिला खतना ज्यादा चलन में है. वैसे भारत समेत कुछ अन्य एशियाई देशों में भी इसके मामले मिले हैं. औद्योगिक देशों में बसी प्रवासी आबादी के बीच भी महिला खतना के मामले देखे गए हैं. यानि नए देश और समाज का हिस्सा बनने के बावजूद कुछ लोग अपनी पुरानी रीतियों को जारी रखे हुए हैं. जिन देशों में लगभग सभी महिलाओं को खतना कराना पड़ता है, उनमें सोमालिया, जिबूती और गिनी शामिल हैं. ये तीनों ही देश अफ्रीकी महाद्वीप में हैं.
क्या होता है महिला खतना?
महिला खतना कई तरह का होता है. लेकिन इसमें आम तौर पर क्लिटोरिस समेत महिला के जननांग के बाहरी हिस्से को आंशिक या पूरी तरह हटाया जाता है. कई जगह योनि को सिल भी दिया जाता है. लड़कियों का खतना शिशु अवस्था से लेकर 15 साल तक की उम्र के बीच होता है. आम तौर पर परिवार की महिलाएं ही इस काम को अंजाम देती हैं. साधारण ब्लेड या किसी खास धारदार औजार के जरिए खतना किया जाता है. हालांकि मिस्र और इंडोनेशिया जैसे देशों में अब मेडिकल स्टाफ के जरिए महिलाओं का खतना कराने का चलन बढ़ा है.
महिला खतने का चलन मुस्लिम और ईसाई समुदायों के अलावा कुछ स्थानीय धार्मिक समुदायों में भी है. आम तौर पर लोग समझते हैं कि धर्म के मुताबिक यह खतना जरूरी है लेकिन कुरान या बाइबिल में ऐसा कोई जिक्र नहीं है. माना जाता है कि महिला की यौन इच्छा को नियंत्रित करने के लिए उसका खतना किया जाता है. लेकिन इसके लिए धर्म, परंपरा या फिर साफ सफाई जैसे कई और कारण भी गिनाए जाते हैं.
बहुत से लोग मानते हैं कि खतने के जरिए महिलाएं पवित्र होती हैं, इससे समुदाय में उनका मान बढ़ता है और ज्यादा कामेच्छा नहीं जगती. जो लड़कियां खतना नहीं करातीं, उन्हें समुदाय से बहिष्कृत कर दिया जाता है.
क्या हैं समस्याएं?
महिला खतने के कारण लंबे समय तक रहने वाला दर्द, मासिक धर्म से जुड़ी समस्याएं, पेशाब का संक्रमण और बांझपन जैसी समस्याएं हो सकती हैं. कई लड़कियों की ज्यादा खून बहने से मौत भी हो जाती है. खतने के कारण उस महिला को मां बनने के समय बहुत सी जटिलताओं का सामना करना पड़ सकता है. इसके कारण कई तरह की मानसिक समस्याएं और अवसाद भी हो सकता है.
बहुत सारे अफ्रीकी देशों में महिला खतने पर प्रतिबंध है. लेकिन अकसर इस कानून को सख्ती से लागू नहीं किया जाता है. वहीं माली, सिएरा लियोन और सूडान जैसे देशों में यह कानूनी है. महिला खतने से कई अंतरराष्ट्रीय संधियों का उल्लंघन होता है. 2012 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने महिला खतने को खत्म करने के लिए एक प्रस्ताव स्वीकार किया था.
वीके/सीके (डीपीए)
इटली के रोम में हुआ जी20 सम्मेलन कोई विशेष प्रगतिशील कदम साबित नहीं हो पाया क्योंकि दुनिया के सबसे ताकतवर 20 देश कोई बड़ा वादा नहीं कर पाए. अब ये नेता ग्लासगो में COP26 सम्मलेन के लिए जमा हो चुके हैं.
रोम में जी20 नेताओं ने इतना तो कहा कि वे पृथ्वी के तापमान को सदी के अंत तक 1.5 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा न बढ़ने देने के लक्ष्य पर टिके रहेंगे. लेकिन कार्बन उत्सर्जन रोकने की कोई समयसीमा तय नहीं की गई है.
जी20 नेताओं ने यह स्वीकार किया कि सम्मेलन के दौरान कोई खास प्रगति नहीं हो पाई. सम्मेलन के बाद आयोजित एक प्रेस वार्ता में इटली के प्रधानमंत्री और जी20 के मौजूदा अध्यक्ष मारियो द्रागी ने जलवायु संकट के बारे में कहा कि बहुपक्षीय कोशिशों के बिना हम कुछ भी हासिल नहीं कर पाएंगे.
यूएन महासचिव अंटोनियो गुटेरेश ने जी20 सम्मेलन में कोई ठोस कदम उठाने पर सहमति ना बनने पर निराशा जाहिर की. उन्होंने कहा, "यद्यपि मैं इस बात का स्वागत करता हूं कि जी20 ने वैश्विक हल खोजे जाने को लेकर अपनी प्रतिबद्धता दोहराई है. लेकिन मैं रोम से अधूरी इच्छाओं के साथ जा रहा हूं. लेकिन, कम से कम वे दफन तो नहीं हुई हैं.”
कोयले की कालिख पोंछने पर कुछ नहीं
ट्विटर पर अपनी टिप्पणी में गुटेरेश ने COP26 सम्मेलन से उम्मीद जताई. उन्होंने लिखा, "अब ग्लासगो की ओर. 1.5 डिग्री सेल्सियस का लक्ष्य जिंदा रखने के लिए और वित्त उपलब्ध कराने व लोगों और ग्रह के लिए बदलाव लाने के वादे निभाने के लिए.”
बयान के मुताबिक जी20 देशों के नेता कोयले से बिजली बनाने को खत्म करने के बारे में किसी तरह की तसल्ली नहीं दे सके. बयान में कहा गया, "हम नए कोयला बिजली संयंत्र बनाने से रोकने की भरपूर कोशिश करेंगे लेकिन उसके लिए देश के राष्ट्रीय हालात के मद्देनजर फैसले लिए जाएंगे और उसी हिसाब से कोयले से दूर जाने के लिए और पेरिस समझौते के लक्ष्य हासिल करने के बारे में निर्णय होंगे.”
जी20 का यह बयान लक्ष्य हासिल करने की दिशा में बड़ी बाधा है क्योंकि भारत जैसे कई देश कह चुके हैं कि वे कोयले का इस्तेमाल बंद नहीं करेंगे. भारत ने तो कार्बन उत्सर्जन रोकने के लिए लक्ष्य तय करने तक से इनकार कर दिया है.
सब सहमत तो हुए
जर्मनी की चांसलर अंगेला मैर्केल ने इस बात पर खुशी जाहिर की है कि पेरिस समझौते से डिगा नहीं जाएगा. मैर्केल के अलावा अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने भी रोम में बैठक को लेकर सकारात्मक रुख अपनाया. उन्होंने कहा कि दुनिया की सबसे मजबूत 20 अर्थव्यवस्थाओं का यह कहना है कि पेरिस समझौते के 1.5 डिग्री सेल्सिय के लक्ष्य पर वे सहमत हैं, एक "बहुत बहुत अच्छा नतीजा है” और जी20 नेताओं ने ग्लासगो सम्मेलन से पहले एक अच्छा संकेत दिया है.
डॉयचे वेले संवाददाता आलेग्जांडर फोन नामेन ने कहा कि मैर्केल इस बात से खुश हैं कि सभी नेताओं ने साझा बयान पर दस्तखत किएग. नामेन ने बताया, "हमें इस बात को ध्यान में रखना होगा कि पिछले जी20 सम्मेलन में साझा बयान पर 19 सदस्यों ने ही दस्तखत किए थे.” अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने इस बयान पर दस्तखत करने से इनकार कर दिया था.
अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने कहा कि जी20 के नेताओं ने जलवायु परिवर्तन पर ठोस प्रगति की है. हालांकि उन्होंने रूसी राष्ट्रपति व्लादीमीर पुतिन और चीनी राष्ट्रपति शी जीन पिंग की गैरहाजरी पर अफसोस जताया. उन्होंने कहा कि यह निराशाजनक है कि रूस और चीन प्रतिबद्धताएं दिखाने नहीं आए.
वीके/एए (एपी, डीपीए)
अमेरिका के मिशिगन के अधिकारियों ने कुछ ही सप्ताह पहले एक अपातकालीन घोषणा में बंटन हार्बर के शहरियों से कहा है कि वो घरों तक नलों से पहुंचने वाले जल का इस्तेमाल खाना बनाने, सब्जियां धोने और ब्रश करने के लिए न करें.
अमेरिकी शहर शिकागो से कुछ घंटों की दूरी पर स्थित बेंटन हार्बर में कम से कम पिछले तीन सालों से हालात ऐसे रहे हैं कि सप्लाई के पानी के इस्तेमाल का मतलब रहा है बीमारी को दावत देना.
आख़िर नल से आने वाला जल इतना ज़हरीला कैसे है, दरअसल इस पानी में सीसे की मात्रा काफ़ी ज़्यादा हो गई है.
बेंटन हार्बर कम्यूनिटी वाटर काउंसिल के चेयरमैन रेवेरेंड एडवर्ड पिंकने ने बीबीसी वर्ल्ड को बताया, "2018 से ही पाया गया कि इलाक़े की जल आपूर्ति में सीसे की मात्रा बहुत अधिक है- ख़तरनाक के स्तर से बहुत ज़्यादा. लेकिन इसके उपयोग पर अबतक रोक नहीं लगाई गई थी."
साल 2018 में प्रकाशित आंकड़ों के मुताबिक़ इलाक़े के पानी में सीसे की मात्रा 22 पार्टस प्रति अरब मौजूद थी, जो जनवरी से जून, 2021 के दौरान बढ़कर 24 पार्टस प्रति अरब हो चुकी है.
नई दिल्ली, 31 अक्टूबर | नकदी की तंगी से जूझ रहा तालिबान शासन अफगान किसानों को उनकी जमीन और फसल पर तथाकथित धर्मार्थ (जकात) कर चुकाने के लिए कह रहा है।
आरएफई/आरएल के मुताबिक, पूरे अफगानिस्तान में युद्ध, सूखा और कोविड ने किसानों को तबाह कर दिया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि अब, पिछले एक साल में फसल उगाने की कोशिश में पैसा गंवाने वाले अफगान किसानों का कहना है कि तालिबान उन्हें एक और गंभीर झटका दे रहा है।
चैरिटी कर इस तथ्य के बावजूद एकत्र किए जा रहे हैं कि किसान स्वयं 1.4 करोड़ अफगानों में से हैं, जो पहले से ही तीव्र भूख का सामना कर रहे हैं।
किसानों का कहना है कि तालिबान के कर संग्रहकर्ताओं ने उनकी संपत्ति के मूल्य का अनुमान लगाया है कि उन्हें उस मूल्य पर 2.5 प्रतिशत 'जकात' कर देना होगा।
तालिबान अपने धर्मार्थ करों को इस्लाम के पांच स्तंभों में से एक के रूप में सही ठहराता है, जिन्हें सभी मुसलमानों के लिए दायित्व माना जाता है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि जकात दयालुता या उदारता से धर्मार्थ उपहार देने के स्वैच्छिक कार्य से अलग है।
यह उन लोगों के लिए अनिवार्य है, जो एक निश्चित राशि से अधिक आय अर्जित करते हैं, और यह एक व्यक्ति की आय के साथ-साथ उनकी संपत्ति के मूल्य पर आधारित है।
जकात के प्राप्तकर्ता गरीब और जरूरतमंद, संघर्षरत इस्लाम अपनाने वाले, गुलाम या कर्ज में डूबे लोग, फंसे हुए यात्री और मुस्लिम समुदाय की रक्षा के लिए लड़ने वाले सैनिक होते हैं।
जकात जमा करने वालों को उनके काम का मुआवजा भी दिया जाता है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि जकात के आलोचकों में इस्लामी विद्वान और सहायता कर्मी शामिल हैं, जो इस बात पर ध्यान देते हैं कि यह प्रथा मुस्लिम दुनिया में गरीबी को कम करने में विफल रही है। उनका तर्क है कि धन अक्सर बर्बाद और कुप्रबंधित होता है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि घोर प्रांत के निवासी मंत्रालय के इस दावे का खंडन करते हैं कि तालिबान कर भुगतान सूचनाएं नहीं दे रहा है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि तालिबान की कर वसूली प्रक्रिया तब शुरू हुई, जब स्थानीय आतंकवादियों ने स्थानीय मस्जिदों और आवासीय परिसर की दीवारों पर तथाकथित रात्रिकालीन पत्र पोस्ट किए।
मध्य अफगान प्रांत के किसानों का यह भी कहना है कि तालिबान बंदूकधारियों ने दशमांश और धर्मार्थ कर का भुगतान करने की मांग को लेकर रात में उनके घरों पर धावा बोल दिया है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि जिनके पास भुगतान करने के लिए पैसे नहीं हैं, उनके परिवारों को आने वाले महीनों में मानवीय सहायता पर और भी अधिक निर्भर रहना होगा। उनका कहना है कि तालिबान ने उनके पशुओं को भी जब्त कर लिया है।
काबुल में तालिबान के नेतृत्व वाली सरकार के कृषि मंत्रालय का कहना है कि वह राजस्व बढ़ाने और देश की 'आत्मनिर्भरता' बढ़ाने के लिए किसानों, पशुपालकों और छोटे बगीचे वाले लोगों से दान कर एकत्र कर रहा है।(आईएएनएस)
-संजीव शर्मा
नई दिल्ली, 30 अक्टूबर| तालिबान के वाइस मैनुअल में निर्धारित की गई रोकथाम लोगों को काफिरों की मदद करने और दोस्ती करने से हतोत्साहित करती है। अफगानिस्तान के प्रांतों में तालिबान अधिकारी एक नियमावली (मैनुअल) का उपयोग कर रहे हैं, जो काबुल में उनके नेताओं द्वारा घोषित अपमानजनक नीतियों की तुलना में और अधिक कठोर नियम लागू करती है। ह्यूमन राइट्स वॉच (एचआरडब्ल्यू) ने अपने एक बयान में कहा कि तालिबान के अधिकारी अक्सर उन अधिकारों की सुरक्षा का पालन नहीं करते हैं, जो तालिबान के वाइस और वर्चू मंत्रालय के मैनुअल में निर्धारित किए गए हैं।
ह्यूमन राइट्स वॉच की सहयोगी महिला अधिकार निदेशक हीथर बर्र ने कहा, तालिबान का विश्व ²ष्टिकोण और अपमानजनक व्यवहार अपेक्षाकृत सुसंगत रहा है, जैसा कि यह मैनुअल प्रदर्शित करता है।
उन्होंने कहा, जिन देशों ने पिछले 20 वर्ष अफगानिस्तान में मानवाधिकारों को बढ़ावा देने में बिताए हैं, उन्हें तालिबान के साथ बातचीत करने की आवश्यकता है, ताकि महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ बिगड़ते अधिकारों के उल्लंघन को समाप्त करने का प्रयास किया जा सके।
मैनुअल धार्मिक नेताओं को पुरुषों को अपनी दाढ़ी बढ़ाने की सलाह देने का निर्देश देता है। जो लोग धार्मिक दायित्वों के अनुसार आवश्यक रूप से प्रार्थना या उपवास करने में विफल रहते हैं, उन्हें सूचित करने का प्रावधान है। यह पार्टियों और घर के बाहर संगीत, सिनेमा, जुआ, और टेप कैसेट, डिश एंटीना, कंप्यूटर और मोबाइल के अनुचित उपयोग को प्रतिबंधित करता है।
तालिबान ने 2021 में कानून के संबंध में एक संशोधित संस्करण जारी किया था, जब यह देश के बढ़ते क्षेत्रों को नियंत्रित कर रहा था। 15 अगस्त को तालिबान के काबुल पर कब्जा करने के बाद से मंत्रालय ने कई प्रांतों में इसका इस्तेमाल किया है।
एचआरडब्ल्यू ने कहा कि मैनुअल काफी हद तक वाइस के खिलाफ नियमों को लागू करने के लिए समर्पित है, लेकिन इसके अंतिम अध्यायों में महिलाओं और लड़कियों के आचरण पर सख्त प्रतिबंध सहित सभी अफगानों और तालिबान सदस्यों के लिए दिशानिर्देश निर्धारित किए गए हैं।
यह धार्मिक नेताओं को लोगों को यह सिखाने का निर्देश देता है कि कौन से पुरुष परिवार के सदस्य महिलाओं और बड़ी लड़कियों के लिए महरम (एक संरक्षक) के रूप में कार्य कर सकते हैं और इसमें कहा गया है कि महिलाओं को गैर-महरम का सामना करने पर मुंह ढंकना होगा।
एक अन्य प्रावधान में कहा गया है कि महिलाओं को सार्वजनिक रूप से गैर-महरम के खिलाफ हिजाब और घूंघट को लेकर प्रतिबंधित किया जाएगा, लेकिन साथ ही कहा गया है कि इन जनादेशों को एक आसान और दयालु तरीके से लागू किया जाना चाहिए।
मैनुअल व्यक्तिगत स्वतंत्रता और अन्य स्वतंत्रताओं पर अपमानजनक प्रतिबंध भी लगाता है। यह विवाह के बिना सेक्स को प्रतिबंधित करता है। मैनुअल में यह भी कहा गया है कि हर किसी को महिलाओं के अधिकारों का सम्मान करना चाहिए, जिसमें शादी के लिए जबरदस्ती न करने का अधिकार भी शामिल है।
एचआरडब्ल्यू ने कहा कि तालिबान ने लड़कियों के माध्यमिक विद्यालयों को बंद करके और विश्वविद्यालयों में जाने वाली महिलाओं पर सख्त नए प्रतिबंध लगाकर, जबरन शादी के जोखिम को बहुत बढ़ा दिया है।
दुनिया भर के शोध बाल विवाह के प्रमुख जोखिम कारकों में से एक के रूप में लड़कियों के लिए शिक्षा तक पहुंच की कमी की पहचान करते हैं। बाल विवाह को लेकर एक अन्य कारक गरीबी भी है। इसी बीच अफगानिस्तान की सहायता पर निर्भर अर्थव्यवस्था भी धराशाही हो गई है, क्योंकि दानदाताओं ने तालिबान द्वारा लड़कियों के माध्यमिक विद्यालयों को बंद करने सहित कारणों से धनराशि पर रोक लगी दी है। (आईएएनएस)
ब्रिटेन में अस्पताल नर्सों की कमी से जूझ रहे हैं. इस गंभीर स्थिति को यूरोपीय यूनियन (ईयू) से आने वाले नर्सिंग स्टाफ के वापिस लौट जाने से जोड़ा जा रहा है.
डॉयचे वैले पर स्वाति बक्शी की रिपोर्ट
कोविड महामारी की शुरुआत में स्वास्थ्यकर्मियों के योगदान पर तालियां बजा रहे ब्रिटेन में अब चिंता है नर्सों की भयंकर कमी से उपजने वाली खराब स्थिति पर. आंकड़ों के मुताबिक राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा यानी एनएचएस अस्पतालों में नर्सों के लगभग चालीस हजार पंजीकृत पद खाली पड़े हैं. कोविड से बाहर निकलने की कोशिशों को इससे बड़ा झटका लग सकता है. इसका एक उदाहरण स्कॉटलैंड में देखने को मिला जहां कोविड के मद्देनजर नर्सों की जरूरत को पूरा करने के लिए हाल ही में सैन्यकर्मियों की तैनाती करनी पड़ी.
सामान्य स्वास्थ्य विभाग हों या आपात सेवाएं, समूचे ब्रिटेन के ज्यादातर अस्पतालों में एक शिफ्ट के दौरान नर्सों की जरूरी संख्या को पूरा कर पाना एक चुनौती बन गया है. ऑक्सफोर्ड शहर के जॉन रैडक्लिफ अस्पताल में नवजात शिशु विभाग के डॉक्टर अमित गुप्ता ने बातचीत में बताया कि "बाकी ब्रिटेन की तरह हमारे यहां भी काफी दिक्कत है. हमारा अस्पताल कमी को पूरा करने के लिए ब्रिटेन के बाहर से नर्सिंग स्टाफ भर्ती कर रहा है.”
नया नहीं है नर्सिंग संकट
नर्सिंग का ये संकट नया नहीं है. पिछले कुछ सालों में ब्रिटेन में बार-बार इस बात की चर्चा होती रही है कि महामारी के दौरान नर्सों की कमी से निपटा नहीं गया तो नतीजे बुरे होंगे. पिछले साल संसद की पब्लिक अकाउंट्स कमेटी ने कहा था कि देश के स्वास्थ्य विभाग को खबर ही नहीं है कि राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा एनएचएस में कितनी, कहां और किस तरह की विशेषज्ञता वाला नर्सिंग स्टाफ चाहिए. सरकार ने 2025 तक पचास हजार नर्सों की भर्ती का वादा किया था लेकिन समिति का कहना था कि इसके लिए किसी तरह का सरकारी प्लान है ही नहीं.
प्रधानमंत्री बॉरिस जॉनसन की सरकार पर स्वास्थ्य जरूरतों को लेकर लगातार दबाव बना हुआ है. एक तरफ कोविड की चुनौती बरकरार है तो दूसरी तरफ इन सर्दियों में फ्लू से पंद्रह हजार से साठ हजार मौतों का अनुमान लगाती एकेडमी ऑफ मेडिकल साइसेंज की चेतावनी. हालात इशारा करते हैं कि नर्सों की कमी आगे ज्यादा भयानक रूप ले सकती है.
पिछले दिनों लॉरी ड्राइवरों की कमी के चलते पेट्रोल की किल्लत और खाने-पीने के सामान की आमद पर हुए असर से ब्रेक्जिट के जमीनी असर की एक झलक दिखाई दी. ब्रेक्जिट के आम जीवन पर असर का एक और चिंताजनक उदाहरण नर्सों की कमी को भी कहा जा सकता है. ब्रिटेन में पेशेवर नर्सों की नियामक संस्था नर्सिंग ऐंड मिडवाइफरी काउंसिल के आंकड़े बताते हैं कि यूरोपीय आर्थिक क्षेत्र से आकर ब्रिटेन में काम करने वाली नर्सों की संख्या में नब्बे फीसदी गिरावट आई है. काउंसिल रजिस्टर के मुताबिक मार्च 2016 तक ये संख्या 9,389 थी जो मार्च 2021 में गिरकर 810 तक पहुंच गई.
ईयू नागरिकता रखने वाले नर्सिंग स्टाफ में गिरावट की तस्दीक हाउस ऑफ कॉमंस लाइब्रेरी के आंकड़े भी करते हैं जिसके मुताबिक जून 2016 में ईयू से नर्सों की संख्या कुल नर्सों का 7.4 प्रतिशत थी. मार्च 2021 में संख्या गिरकर 5.6 प्रतिशत पर पहुंच गई. दिक्कतें यहीं नहीं थमी. जुलाई 2020 में रॉयल कॉलेज ऑफ नर्सिंग (आरसीएन) के एक सर्वे में ये सामने आया कि महामारी के तनाव भरे अनुभव के बाद हर तीन में से एक नर्स ने एक साल के भीतर एनएचएस छोड़ देने की इच्छा जताई. इसमें कम तनख्वाह के साथ-साथ नर्सों के योगदान को जरूरी सम्मान ना मिलने से उपजी हताशा भी सामने आई.
बद से बदतर होते हालात पर बात करते हुए आरसीएन की इंग्लैंड निदेशक पैट्रिशिया मार्किस ने हाल ही में बीबीसी से कहा कि "हम विदेश से आने वाले नर्सिंग स्टाफ का स्वागत करते हैं. वे ब्रिटेन के लिए बेहद अहम हैं लेकिन सरकार को देखना ये चाहिए कि जिन नर्सों ने महामारी के दौरान काम किया है उनकी शारीरिक और मानसिक स्थिति क्या है.” अस्पतालों में स्टाफ की कमी के चलते मरीजों की लंबी होती प्रतीक्षा और स्वास्थ्यकर्मियों के खिलाफ हिंसा की खबरें भी इस तस्वीर का एक और पहलू है जिसके खिलाफ ब्रिटेन की सबसे बड़ी नर्सिंग ट्रेड यूनियन यूनिसन समेत छह मेडिकल संस्थानों ने हाल ही में आवाज उठाई थी.
एक तरफ जहां यूरोपीय नर्सों की संख्या कम हुई है वहीं ईयू के अलावा दूसरे देशों से नर्सों की संख्या खासी बढ़ी है. एनएचएस अपने अस्पतालों में नर्सों की कमी पूरा करने के लिए ब्रिटेन और ईयू के बाहर से स्टाफ लेने की कोशिश में लगा है. इन देशों में भारत और फिलीपींस सबसे आगे हैं. हाउस ऑफ कॉमंस लाइब्रेरी के मुताबिक इस साल मार्च तक दर्ज आंकड़ों के मुताबिक चौंतीस हजार पांच सौ दस नर्सें एशियाई हैं और इनमें लगभग पचास फीसदी यानी सत्रह हजार आठ सौ बावन की नागरिकता भारतीय है.
कोविड की शुरूआत से लेकर अब तक लगातार ड्यूटी पर रहने वाली नीना जोसी, साल 2005 में केरल से लंदन आईं. रॉयल लंडन हॉस्पिटल में काम करने वाली नीना बताती हैं कि कोविड की पहली वेव के लिए कोई भी तैयार नहीं था. कम स्टाफ के साथ काम करने, और इतनी मौतें देखने के बाद परेशान होना लाजमी है लेकिन नौकरी छोड़ने का ख्याल कभी नहीं आया. वो दलील देती हैं कि "हम भारत में अपने परिवार छोड़कर यहां नौकरी करने ही तो आए थे. फिर यही जिंदगी बन गया, अब इसे छोड़कर दूसरा कोई काम करना मुमकिन नहीं है.”
नर्सों की कमी के दूसरे कारण
कोरोना से जूझने में गुजरे बेहद मुश्किल दिनों को याद करते हुए केरल से आईं एक और नर्स शैंटी जॉर्ज ने स्टाफ कम होते चले जाने के कई कारण गिनाए. लंदन के ही एक बड़े एनएचएस अस्पताल में नर्स शैंटी कहती हैं, "कुछ नर्सों को खुद बीमारियां थीं जिनके चलते उनका कोविड के दौरान काम करना सुरक्षित नहीं था. जो लोग रिटायरमेंट के करीब थे वो घबरा गए. जो महिला नर्स गर्भवती थीं उनको भी बुलाना नामुमकिन हो गया. ऐसे में दिक्कतें तो होनी ही थीं. जिन स्वास्थ्यकर्मियों को नर्सों की कमी पूरा करने के लिए लगाया भी जा रहा था वो प्रशिक्षित नहीं थे. अब नए लोग आ रहे हैं तो शायद हालात सुधरें”.
स्थिति सुधरने की आस में अपनी जिम्मेदारियों को निभाते चले जाने वाले नर्सिंग स्टाफ के सामने ज्यादा विकल्प हैं भी नहीं. डॉक्टर गुप्ता मानते हैं कि ब्रिटेन को इस मोड़ से आगे ले जाने के लिए नर्सों की बेहतर तनख्वाह, घरेलू प्रशिक्षित स्टाफ की संख्या बढ़ाना और विदेशी भर्तियों का मिला-जुला मॉडल अपनाना होगा. इस बीच फिलींपींस से नर्सों का एक नया जत्था ब्रिटेन पहुंच चुका है. जब तक सरकारी स्तर पर लंबी-अवधि के उपाय नहीं किए जाते तब तक ब्रिटेन की जमीन पर हर नर्स उम्मीद की एक किरण है. (dw.com)
चीनी पर लगे टैक्स की वजह से पुर्तगाल में तस्करों का एक नया समूह उभर कर सामने आया है. यह समूह स्पेन की सीमा पर मौजूद बॉर्डर क्रॉसिंग के जरिए सोडा की तस्करी करता है. पुर्तगाल को चीनी पर टैक्स लगाने की जरूरत ही क्यों पड़ी?
डॉयचे वैले पर योआखेन फागेट की रिपोर्ट
सीमा शुल्क अधिकारी हेल्डर मेंडेस को यह याद नहीं है कि उन्होंने इस साल अक्टूबर महीने में हर दिन कितने ट्रकों को रोका और उनकी जांच की. मेंडेस की ड्यूटी स्पेन और पुर्तगाल की सीमा पर स्थित विलर फॉर्मोसो पर लगी हुई है. यह पुर्तगाल की सबसे व्यस्त सीमा चौकियों में से एक है.
आज अक्टूबर महीने का ही एक दिन है. सुबह के सात बजे हैं. मेंडेस अपने पांच सहयोगियों के साथ स्पेन से आने वाले ट्रकों की जांच कर रहे हैं. वह एक ट्रक को रोकते हैं, "नमस्ते, अपने कागज दिखाइए. इस ट्रक में क्या है? इसका वजन कितना है?" सीमा शुल्क के अधिकारी ट्रकों में एक प्रतिबंधित वस्तु की तलाश कर रहे हैं, जिसकी इन दिनों काफी ज्यादा मात्रा में तस्करी की जा रही है. वह वस्तु है, सॉफ्ट ड्रिंक.
पुर्तगाल में सॉफ्ट ड्रिंक पर चीनी टैक्स लागू होता है जबकि, स्पेन में इस पर सिर्फ वैट (वैल्यू ऐडेड टैक्स) लगता है. इसकी वजह से पुर्तगाल में सॉफ्ट ड्रिंक की कीमत ज्यादा है. नतीजा, सॉफ्ट ड्रिंक को अवैध रूप से स्पेन से पुर्तगाल में लाया जाने लगा है. इसने एक नए संगठित अपराध को जन्म दिया है. हालांकि, पुर्तगाल सरकार देश की सीमाओं पर स्थित सभी सीमा चौकियों पर गहन जांच अभियान चलाकर अवैध रूप से लाए जा रहे सॉफ्ट ड्रिंक को जब्त कर रही है, ताकि इसकी तस्करी पर लगाम लगाई जा सके.
पुर्तगाल ने 2017 में सॉफ्ट ड्रिंक पर टैक्स लगाया था. पुर्तगाली जीएनआर राष्ट्रीय पुलिस के आपराधिक जांच विभाग के प्रमुख और सीमा शुल्क जांच अधिकारी हेल्डर फर्नांडीस कहते हैं, "पिछले दो सालों के दौरान न सिर्फ सॉफ्ट ड्रिंक की तस्करी बढ़ी है बल्कि अब यह संगठित पेशा बन गया है."
डेढ़ साल पहले एक तलाशी अभियान ने साबित कर दिया था कि तस्कर कितने पेशेवर हो गए हैं. उस समय पुलिस ने 600 हेक्टोलीटर (15,850 गैलन) से अधिक बिना टैक्स वाला सोडा जब्त किया था. यह अब तक की सबसे बड़ी जब्ती थी. इतने सोडा पर करीब 40,000 यूरो का टैक्स बनता है.
यूरोपीय संघ में टैक्स को लेकर असमानता
फर्नांडीस कहते हैं, "समस्या यह है कि यूरोपीय संघ में टैक्स को लेकर कोई समानता और सामंजस्य नहीं है. यह वैट से लेकर चीनी पर लगने वाले टैक्स सभी के लिए है. चीनी-टैक्स लगाने का मकसद इसके इस्तेमाल को कम करना है. यह टैक्स भले ही कम है, लेकिन जब ज्यादा मात्रा में इस्तेमाल करना होता है, तो फर्क पड़ता है."
इसलिए, मेंडेस और उनके सहयोगी ट्रकों की तलाशी लेते हैं. वे सामानों से लदे पैलेट की जांच करते हैं, टैंकर ट्रकों पर चढ़कर बिना टैक्स वाले ड्रिंक की तलाश करते हैं, और अपने लैपटॉप पर टैक्स फॉर्म के साथ लोडिंग दस्तावेजों का मिलान करते हैं.
मेंडेस कहते हैं, "यह सब करना आसान काम नहीं है. हमें काफी सारे डेटा का मिलान करना पड़ता है." मेंडेस और उनके सहयोगियों को यह पता लगाना होता है कि स्पैनिश वैट पहले ही ले लिया गया है या नहीं, पुर्तगाल में लगने वाले वैट का भुगतान किया गया है या नहीं, और क्या सबूत है कि चीनी पर लगने वाले टैक्स का भुगतान कर दिया गया है?
मेंडिस और उनके सहयोगी सीमाओं पर जो समय खर्च करते हैं उसका सकारात्मक प्रभाव पूरे देश में पड़ा है. स्वास्थ्य मंत्रालय के अनुसार, कई सोडा पॉप उत्पादकों ने अपने ड्रिंक में चीनी की मात्रा कम कर दी है और खपत में गिरावट आई है. चीनी पर प्रति हेक्टोलीटर सिर्फ 1 यूरो का टैक्स लगता है, इसके बावजूद इस टैक्स की वजह से मधुमेह और मोटापे सहित अन्य बीमारियों से लड़ने में सफलता मिल रही है.
मेंडेस कहते हैं, "जो लोग टैक्स को गंभीरता से नहीं लेते हैं, वही लोग ज्यादातर स्पेन से आने वाले सस्ते ड्रिंक का इस्तेमाल करते हैं. आखिर, लोग बच्चों के जन्मदिन की पार्टी के लिए सॉफ्ट ड्रिंक खरीदने स्पेन नहीं जाते हैं. हम उन पेशेवरों को पकड़ने का काम कर रहे हैं जो बड़े पैमाने पर तस्करी कर रहे हैं."
स्पेन से अवैध रूप से सॉफ्ट ड्रिंक लाकर पुर्तगाल में बेचना मुनाफे का सौदा बन गया है. फर्नांडीस एक ऐसे मामले को याद करते हैं जहां कैफीन वाले नींबू पानी के एक कैन की कीमत 50 सेंट थी जबकि, आमतौर पर इसकी कीमत यूरो में होती है. उन्होंने कहा कि विक्रेताओं को काफी ज्यादा फायदा होता था. इसी तरह, तस्करी करके लाए गए सोडे से काफी ज्यादा मुनाफा होता है. इसलिए, जांच की प्रक्रिया अब सिर्फ बॉर्डर क्रांसिंग तक ही सीमित नहीं है. वह कहते हैं, "अब हम देश में और दुकानों पर लगे हुए ट्रकों की भी नियमित तौर पर जांच करते हैं."
दोपहर के बाद का समय हो चुका है. सीमा-शुल्क के 48 अधिकारी करीब 500 ट्रकों की जांच कर चुके हैं. हालांकि, उन्हें अभी तक किसी ट्रक से अवैध तरीके से लाया जा रहा सॉफ्ट ड्रिंक नहीं मिला. अब मेंडेस और उनकी टीम के लोग बॉर्डर को छोड़कर अपने घर आराम करने जा रहे हैं. कल सुबह फिर वे इसी काम में लग जाएंगे. (dw.com)
जापान के फुकुशिमा हादसे के बाद कई देश परमाणु संयंत्रों को बंद करने पर काम कर रहे हैं. वहीं, फ्रांस छोटे मॉड्यूलर परमाणु रिएक्टरों को स्थापित कर रहा है. फ्रांस की मंशा क्या है? ऊर्जा की जरूरतों को पूरा करना या कुछ और?
डॉयचे वैले पर लीजा लुईज की रिपोर्ट
करीब 10 साल पहले जापान के फुकुशिमा में परमाणु उर्जा संयंत्र में हुए हादसे के बाद कई देशों ने परमाणु उर्जा पर अपने रुख की समीक्षा की. जैसे, जर्मनी और बेल्जियम जैसे देश क्रमश: 2022 और 2025 तक परमाणु उर्जा के इस्तेमाल को बंद करने का इरादा कर चुके हैं. इटली की 95 प्रतिशत आबादी परमाणु उर्जा के इस्तेमाल के खिलाफ है.
हालांकि फिनलैंड, संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस और फ्रांस जैसे देशों ने अभी भी मौजूदा परमाणु संयंत्रों को चालू रखने का फैसला किया है. साथ ही, हाल के वर्षों में इसके विस्तार की भी योजना बनाई है.
फ्रांस के एक कानून में कहा गया है कि देश में फिलहाल कुल उर्जा में 70 प्रतिशत हिस्सेदारी परमाणु उर्जा की है. इसे 2035 तक कम करके 50 प्रतिशत तक लाना है. राष्ट्रपति इमानुएल माक्रों ने कुछ समय पहले इस लक्ष्य को ‘अवास्तविक' बताया था. अब जब देश छोटे मॉड्यूलर रिएक्टरों (एसएमआर) की दिशा में आगे बढ़ रहा है, तो विशेषज्ञों का मानना है कि यह फ्रांस का छिपा हुआ एजेंडा हो सकता है.
दरअसल, आज से 10 साल पहले 2011 में जापान में आए विनाशकारी भूकंप और सुनामी ने फुकुशिमा स्थित परमाणु संयंत्र को ध्वस्त कर दिया था. यह हादसा आधुनिक इतिहास की एक बड़ी त्रादसी थी. इसकी वजह से वहां रेडियोधर्मिता इतनी ज्यादा है कि इंसानों का उसके करीब जाना खतरे से खाली नहीं है. वहां आज भी सफाई के लिए रोबोट का इस्तेमाल किया जा रहा है. इस घटना के बाद से ही कुछ देशों में परमाणु संयंत्रों को बंद करने की होड़ शुरू हो गई. हालांकि, कुछ देशों का मानना है कि फुकुशिमा के नुकसान को काफी बढ़ा-चढ़ा कर दिखाया गया है.
एक बिलियन यूरो निवेश की योजना
हाल ही में फ्रांस के राष्ट्रपति ने तथाकथित छोटे मॉड्यूलर रिएक्टरों (एसएमआर) में निवेश करने की योजना की घोषणा की. उन्होंने कहा कि इससे परमाणु उर्जा के क्षेत्र में नए परिवर्तन का आगाज होगा. यह घोषणा तब की गई जब माक्रों ने एलिसी पैलेस में 30 बिलियन यूरो की ‘फ्रांस 2030 निवेश रणनीति' का खुलासा किया. जाहिर है कि नए रिएक्टर से फ्रांस को CO2 का उत्सर्जन कम करने में मदद मिलेगी.
इस समारोह के दौरान राष्ट्रपति ने कहा, "हमारे पास प्रतियोगियों से आगे बढ़ने का बेहतर समय है. हमारे पास ऐतिहासिक मॉडल हैं और मौजूदा परमाणु उर्जा संयंत्र हैं." नए रणनीति के तहत हाइड्रोजन पावर के विकास के लिए 8 बिलियन यूरो और एसएमआर के लिए 1 बिलियन यूरो आवंटित किए गए हैं. इसके बावजूद, माक्रों ने छोटे प्लांट को ‘पहला लक्ष्य' के तौर पर विकसित करने की घोषणा की है.
फ्रांस के मौजूदा रिएक्टर की क्षमता 1450 मेगावाट तक की है. हालांकि, एसएमआर की क्षमता 50 से लेकर 500 मेगावाट तक होगी. साइटों की कुल क्षमता बढ़ाने के लिए क्लस्टरों में एसएमआर बनाए जाने हैं.
इस बड़े निवेश के बावजूद, परमाणु चैंपियन फ्रांस एसएमआर की दौड़ में सबसे आगे नहीं है. सबसे आगे है अमेरिका. पोर्टलैंड स्थित स्टार्टअप न्यू-स्केल पावर दुनिया की पहली कंपनी है जिसके एसएमआर डिज़ाइन को मंजूरी मिली है. यह कंपनी 2027 में अपना पहला 60 मेगावाट की क्षमता वाले प्लांट को पूरा करने की योजना पर काम कर रही है. वहीं, रूस की सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी रूस्तम ने 2028 में अपना पहला एसएमआर प्लांट बनाने का लक्ष्य रखा है.
फ्रांस का पहला संयंत्र 2030 में पूरा होने वाला है. इसके बावजूद, पेरिस स्थित फाउंडेशन फॉर स्ट्रैटेजिक रिसर्च के निकोलस माजुची को लगता है कि देश इस क्षेत्र का नेतृत्व कर सकता है. उन्होंने डॉयचे वेले को बताया, "हमारे पास इस क्षेत्र से जुड़ी पर्याप्त जानकारी है. अगर निजी क्षेत्र निवेश करने के लिए आगे बढ़ता है, तो हम निश्चित तौर पर 2030 में बड़े पैमाने पर उत्पादन कर सकते हैं."
माजुची का मानना है कि परमाणु ऊर्जा फ्रांस की ऊर्जा का हिस्सा बनी रहनी चाहिए. वह कहते हैं, "इस प्रकार से पैदा होने वाली उर्जा स्थिर और अनुमानित होती है. पवन उर्जा जैसी नवीकरणीय उर्जा इसकी तुलना में कहीं नहीं हैं. और मौजूदा परमाणु उर्जा संयंत्र से शायद ही CO2 का उत्सर्जन होता है."
वह यह भी कहते हैं कि फ्रांस में परमाणु हादसे की संभावना न के बराबर है, क्योंकि यहां बेहतर तरीके से इसकी निगरानी की जाती है. साथ ही, देश के पास परमाणु कचरे से निपटने की बेहतर टेक्नोलॉजी भी है.
खर्चीला और धीमा
हालांकि, माइकल श्नाइडर को लगता है कि परमाणु उर्जा की मदद से जलवायु आपातकाल के खिलाफ लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती. वे इसे ‘खर्चीला और धीमा' बताते हैं. श्नाइडर वर्ल्ड न्यूक्लियर इंडस्ट्री स्टेट्स रिपोर्ट (WNISR) के संपादक हैं. इस रिपोर्ट में दुनिया भर के परमाणु उर्जा उद्योग के रूझानों का आकलन किया जाता है.
उन्होंने डॉयचे वेले को बताया, "एसएमआर को लेकर होने वाली चर्चा गर्म हवा की तरह होती है. पिछले साल 250 गीगावाट से अधिक नवीकरणीय उर्जा को ग्रिड में जोड़ा गया. इसमें महज 0.4 गीगावाट ही परमाणु उर्जा थी. इस तरह देखें, तो परमाणु उर्जा का हकीकत में काफी कम योगदान रहा."
श्नाइडर का कहना है कि परमाणु उर्जा संयंत्र केवल नवीकरणीय ऊर्जा की तुलना में अधिक विश्वसनीय प्रतीत होते हैं. फ्रांस के परमाणु रिएक्टरों को 2020 में औसतन एक तिहाई समय तक बंद रखना पड़ा. ऐसा रखरखाव की वजह से किया गया था, क्योंकि ये रिएक्टर करीब 35 वर्षों से अधिक समय से इस्तेमाल में हैं.
उन्होंने कहा कि नवीकरणीय ऊर्जा को विभिन्न ऊर्जाओं के गुलदस्ते के रूप में देखा जाना चाहिए. मांग के मुताबिक, एक प्रकार की ऊर्जा की जगह दूसरे प्रकार की ऊर्जा का इस्तेमाल किया जा सकता है. पर्यावरणविद अक्सर यह भी कहते हैं कि परमाणु ऊर्जा संयंत्र के निर्माण के दौरान काफी ज्यादा कार्बन फुटप्रिंट होते हैं.
श्नाइडर कहते हैं, "परमाणु ऊर्जा का संयंत्र बनाने में लंबा समय लगता है. 1986 में चेरनोबिल परमाणु हादसे के बाद फ्रांसीसी यूटिलिटी ईडीएफ और सीमेंस ने ईपीआर विकसित करना शुरू कर दिया. यह पानी के दबाव वाले रिएक्टर की तीसरी पीढ़ी का डिजाइन है. और इसके 35 साल बाद भी अभी तक फ्रांस में कोई ईपीआर नहीं है."
ईडीएफ उत्तरी फ्रांस में पिछले 9 साल से 1.6 गीगावाट वाले ईपीआर का निर्माण कर रहा है. शुरुआत में इसकी लागत 3.3 बिलियन यूरो थी, जो बढ़कर 11 बिलियन तक पहुंच जाएगी. अगले साल तक इस ईपीआर के पूरा होने की संभावना है. इन सब के बावजूद, राष्ट्रपति माक्रों जल्द ही फ्रांस में छह अतिरिक्त ईपीआर बनाने की योजना की घोषणा कर सकते हैं.
अमेरिका में येल विश्वविद्यालय में पर्यावरण और ऊर्जा अर्थशास्त्र के प्रोफेसर केनेथ गिलिंगम को इस तरह की देरी पर हैरानी होती है. वह कहते हैं कि क्या इस तरह की देरी के बावजूद, परमाणु क्षेत्र में निवेश करना आर्थिक रूप से सही है.
उन्होंने डीडब्ल्यू से कहा, "नए परमाणु संयंत्रों के लिए सुरक्षा की इतनी सख्त जरूरत होती है कि उनका निर्माण करना काफी महंगा होता है. मुझे वाकई नहीं समझ आता कि एसएमआर पर पैसा क्यों खर्च किया जा रहा है, खासकर उस स्थिति में जब पक्के तौर पर नहीं पता कि यह काम करेगा या नहीं."
हालांकि, दक्षिणी इंग्लैंड में यूनिवर्सिटी ऑफ ससेक्स स्कूल ऑफ बिजनेस के रिसर्च फेलो फिलिप जॉनस्टोन का मानना है कि एसएमआर का पैमाना अर्थशास्त्र के तर्क से अलग है. जॉनस्टोन ने डीडब्ल्यू को बताया, "हमें हमेशा बताया गया था कि बड़े परमाणु संयंत्रों के निर्माण से कई अन्य प्रभावों की वजह से होने वाले खर्चों में कमी होगी. और अब अचानक लगता है कि यह दूसरी तरह से काम करने वाला है?”
उनका मानना है कि फ्रांस के पास परमाणु ऊर्जा में निवेश जारी रखने के अन्य कारण भी हैं. उन्होंने माक्रों के दिसंबर 2020 के एक भाषण की ओर इशारा करते हुए कहा, "जो देश परमाणु उर्जा से जुड़े होते हैं वे अक्सर परमाणु हथियार संपन्न देश होते हैं. जैसे, अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस वगैरह."
माक्रों ने परमाणु क्षेत्र की प्रशंसा करते हुए कहा था, "असैनिक परमाणु शक्ति के बिना कोई सैन्य परमाणु शक्ति नहीं और सैन्य परमाणु शक्ति के बिना कोई असैन्य परमाणु शक्ति नहीं." फ्रांस में करीब 2,20,000 लोग परमाणु से जुड़े क्षेत्र में काम करते हैं.
जॉनस्टोन कहते हैं, "एसएमआर में निवेश सबसे पहले और सबसे महत्वपूर्ण एक रणनीतिक निर्णय लगता है, भले ही इसका मतलब बहुत समय और पैसा बर्बाद करना है." (dw.com)
संयुक्त राष्ट्र की नई रिपोर्ट से पता चलता है कि दुनिया इस सदी में 2.7 डिग्री सेल्सियस तापमान तक की बढ़ोत्तरी के रास्ते पर है. COP26 से पहले संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि सदस्य देशों को इस पर तत्काल कार्रवाई करनी चाहिए.
डॉयचे वैले पर जीनेटे स्विएंक की रिपोर्ट
"गर्मी बढ़ना जारी है”. संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम यानी यूएनईपी ने मंगलवार को इसी शीर्षक से नई उत्सर्जन गैप रिपोर्ट को पेश किया है. यह रिपोर्ट 120 देशों की अद्यतन राष्ट्रीय जलवायु योजनाओं का विश्लेषण करती है, जिन्हें राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान यानी एनडीसी के रूप में जाना जाता है.
एनडीसी पेरिस जलवायु समझौते के मूल में हैं. इस समझौते पर हस्ताक्षर करने वाले सभी देशों को राष्ट्रीय जलवायु लक्ष्य निर्धारित करने और उनके कार्यान्वयन और नए लक्ष्यों पर नियमित रूप से रिपोर्ट करने की बाध्यता होती है.
यूएनईपी की नवीनतम रिपोर्ट का यह शीर्षक बहुत कुछ कहता है और इसके निष्कर्ष बेहद गंभीर हैं. एनडीसी के अद्यतन निष्कर्षों के मुताबिक, साल 2030 तक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में सिर्फ 7.5 फीसद की कमी देखी जाएगी. लेकिन पेरिस समझौते के लक्ष्य को प्राप्त करने और ग्लोबल वॉर्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के लिए, ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को 55 फीसद तक कम करना होगा.
समय तेजी से आगे बढ़ रहा है
दूसरे शब्दों में, दुनिया को साल 2030 तक प्रति वर्ष 28 गीगाटन कार्बन डाइऑक्साइड के समतुल्य (GtCO2e) उत्सर्जन में कटौती करनी चाहिए. उत्सर्जन को 2 फीसद तक सीमित करने के लिए, देशों को अभी भी अपने जलवायु-हानिकारक उत्सर्जन को 30 फीसद या 13 GtCO2e कम करना होगा.
यूएनईपी की इक्जीक्यूटिव डायरेक्टर इंगर एंडरसन इस रिपोर्ट में लिखती हैं, "बहुत स्पष्ट होने की जरूरत है. हमारे पास योजनाएं बनाने, नीतियां बनाने, उन्हें लागू करने और आखिरकार कटौती करने के लिए सिर्फ आठ साल हैं. मतलब, घड़ी जोर से टिक-टिक कर रही है. समय बहुत तेजी से आगे बढ़ रहा है.”
हालांकि, यदि देश केवल अपने राष्ट्रीय जलवायु लक्ष्यों पर टिके रहते हैं, जिन्हें पेरिस समझौते के तहत उन्हें व्यक्तिगत रूप से निर्धारित करने की अनुमति है, तो साफ है कि दुनिया 2.7 डिग्री सेल्सियस तक की तापमान वृद्धि के रास्ते पर है, जो खतरनाक है.
कोलोन स्थित गैर लाभकारी शोध संस्थान के निदेशक और नीदरलैंड की वेगनिंजेन यूनिवर्सिटी में जलवायु संरक्षण के प्रोफेसर निकलास होने कहते हैं, "इसके परिणामस्वरूप भयावह जलवायु परिवर्तन होगा जिसका हम बिल्कुल भी सामना नहीं कर पाएंगे. इसे हर कीमत पर टाला जाना चाहिए.”
महामारी में बड़ी चूक हो गई
यूएनईपी की रिपोर्ट में निराशा व्यक्त की गई है कि कोरोना वायरस महामारी के बाद अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहित करने के लिए किए गए निवेशों में जलवायु संरक्षण का ध्यान बहुत कम रखा गया था. रिपोर्ट के मुताबिक, रिकवरी पैकेज के पांचवें हिस्से से भी कम राशि ऐसी है जिसका इस्तेमाल ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने में होना है.
साल 2020 में, COVID-19 महामारी के कारण दुनिया भर में नए उत्सर्जन में 5.4 फीसद की गिरावट आई. हालांकि, विश्व मौसम विज्ञान संगठन, संयुक्त राष्ट्र की मौसम और जलवायु एजेंसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक, इसी दौरान, वातावरण में ग्रीनहाउस गैसों की साद्रता भी एक नई ऊंचाई पर पहुंच गई.
रिपोर्ट में कहा गया है कि पिछले साल की तुलना में यह वृद्धि पिछले एक दशक की औसत वृद्धि से भी अधिक थी. यूएनईपी की रिपोर्ट कहती है, "पिछले करीब बीस लाख वर्षों में किसी भी समय की तुलना में कार्बन डाइऑक्साइड की साद्रता अधिक है.”
यूएनईपी के मुताबिक, संयुक्त राज्य अमेरिका, जापान, चीन और यूरोपीय संघ सहित कई देशों द्वारा किए गए नेट जीरो संकल्प से महत्वपूर्ण अंतर आ सकता है.
नेट जीरो का मतलब है मानव जितनी मात्रा में ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कर रहा है, उतनी ही मात्रा में इन गैसों को वातावरण से हटा देना चाहिए. कृत्रिम और प्राकृतिक ग्रीनहाउस गैस सिंक, जैसे कि पीटलैंड या जंगल इन ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को संतुलित कर सकते हैं.
यूएनईपी की रिपोर्ट कहती है, "यदि मजबूती से बनाया गया और पूरी तरह से लागू किया गया तो नेट जीरो लक्ष्य ग्लोबल वॉर्मिंग से अतिरिक्त 0.5 डिग्री सेल्सियस तापमान कम कर सकते हैं. इस वजह से अनुमानित तापमान वृद्धि घटकर 2.2 डिग्री सेल्सियस तक ही रह सकती है.”
हालांकि, यहां यह भी महत्वपूर्ण तथ्य है कि कई देश साल 2030 के बाद तक नेट-जीरो के लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में काम करने की योजना नहीं बना रहे हैं.
दो डिग्री की बढ़ोतरी भी घातक है
सदस्य देशों को इस मामले में आगे बढ़ने और एनडीसी समझौते को देखते हुए नेट जीरो पर तेजी से काम करने की जरूरत है. यूएनईपी की इक्जीक्यूटिव डायरेक्टर एंडरसन इस रिपोर्ट की भूमिका में लिखती हैं, "यह सब पांच साल या तीन साल बाद नहीं हो सकता. इस पर तत्काल अमल करने की जरूरत है.”
न्यू क्लाइमेट इंस्टीट्यूट के निकलास होने कहते हैं कि भले ही ग्लोबल वॉर्मिंग को 2 डिग्री सेल्सियस पर रोक दिया गया हो, आने वाले दिनों में दुनिया एक बदली हुई जगह होगी. वो कहते हैं, "वर्तमान में हम तापमान में 1 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि कर रहे हैं और हम इसके परिणाम के रूप में सूखा, बाढ़ और पूरी दुनिया में जंगल में आग की घटनाएं देख रहे हैं. तापमान में 2 डिग्री की वृद्धि का साफ मतलब है कि ये सभी घटनाएं और भी भयावह रूप में दिखेंगी और मौसम की चरम घटनाएं साल में कई बार दिखाई पड़ेंगी.”
यूएनईपी रिपोर्ट मीथेन उत्सर्जन में कमी के माध्यम से जलवायु लक्ष्यों और वर्तमान वास्तविकता के बीच की खाई को पाटने के लिए एक अवसर के तौर पर देखती हैं.
मीथेन न केवल जीवाश्म ईंधन के निष्कर्षण के दौरान निकलती है, बल्कि जैविक कचरे के अपघटन, अपशिष्ट जल के उपचार और पशुधन की खेती और चावल की खेती के माध्यम से भी उत्पन्न होती है.
हालांकि मीथेन वातावरण में महज 12 साल तक मौजूद रहती है जबकि इसकी तुलना में कार्बन डाइऑक्साइड सदियों तक वातावरण में रहती है. अपेक्षाकृत कम जीवनकाल के दौरान यह जलवायु के लिए बहुत अधिक शक्तिशाली और इसलिए ज्यादा हानिकारक है. रिपोर्ट के मुताबिक, मीथेन उत्सर्जन में तेजी से कमी, कार्बन डाइऑक्साइड में गिरावट की तुलना में तापमान में बढ़ोत्तरी को जल्दी सीमित कर सकती है.
यूएनईपी रिपोर्ट तैयार करने वालों ने लिखा है कि गरीब देशों को मुआवजा भुगतान या स्पष्ट रूप से परिभाषित और ठीक से डिजाइन किए गए कार्बन बाजारों जैसे उपायों से भी जलवायु संरक्षण के लिए प्रेरित किया जा सकता है.
होने कहते हैं, "हमने जलवायु संरक्षण के उपायों में इतनी देर कर दी है कि यह जरूरी है कि विकसित देश घरेलू प्रयासों के अलावा, विकासशील देशों को जितनी जल्दी हो सके उत्सर्जन कम करने में मदद करें. उत्सर्जन का अंतर इतना बड़ा है कि कोई भी देश पीछे नहीं बैठ सकता.”
यूएनईपी की एंडरसन ने लिखा है कि इस साल की एमिशन गैप रिपोर्ट न केवल विफलताओं पर प्रकाश डालती है, बल्कि अधिक जलवायु कार्रवाई की विशाल क्षमता पर भी प्रकाश डालती है. उदाहरण के लिए, साल 2010 और 2021 के बीच लागू की गई नीतियां साल 2030 में वार्षिक उत्सर्जन को 11 GtCO2e कम कर देंगी.
एंडरसन कहती हैं कि इसलिए हमें जागना होगा और बिना किसी भेदभाव के इस पर आगे बढ़ना होगा. उनके मुताबिक, "एक प्रजाति के रूप में हम जिस आसन्न संकट का सामना कर रहे हैं, उसके प्रति हमें सचेत रहना है. हमें दृढ़ रहने की जरूरत है, हमें तेजी से आगे बढ़ने की जरूरत है, और हमें इसे अभी करना शुरू करना होगा.” (dw.com)
अफगानिस्तान में लड़कियों के स्कूल तालिबान के आने से बंद हैं. लेकिन कुछ लड़कियां आसमान में उड़ना चाहती हैं, पढ़ना चाहती हैं और एक कामयाब इंसान बनना चाहती हैं. इसके लिए वह जोखिम के बावजूद भी पढ़ाई कर रही हैं.
अफगानिस्तान के हेरात में घर में कैद जैनब मुहम्मदी को कोडिंग क्लास के बाद कैफेटेरिया में अपने दोस्तों के साथ गपशप मारने की याद सताती है. अब वह हर दिन गुपचुप से ऑनलाइन क्लास में शामिल होती है.
अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे के बाद जैनब का स्कूल बंद हो गया लेकिन यह जैनब को सीखने से रोक नहीं पाया. जैनब कहती हैं, "मेरे जैसी लड़कियों के लिए खतरा और जोखिम है. अगर तालिबान को पता चलता है तो वह मुझे सजा दे सकता है. वह पत्थर से मारकर मुझे मौत के घाट उतार सकता है." जैनब ने सुरक्षा कारणों से अपना असली नाम नहीं बताया.
25 वर्षीय जैनब ने वीडियो कॉल पर थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन को बताया, "लेकिन मैंने अपनी उम्मीद या आकांक्षा नहीं छोड़ी है. मैं पढ़ाई जारी रखने के लिए दृढ़ हूं." तालिबान द्वारा स्कूल बंद करवाए जाने के बावजूद वह अनुमानित सैकड़ों अफगान लड़कियों और महिलाओं में से एक हैं जो लगातार सीख रही हैं - कुछ ऑनलाइन और अन्य अस्थायी स्कूलों में.
अफगानिस्तान की पहली महिला कोडिंग अकादमी कोड टू इंस्पायर की सीईओ फरेशतेह फोरो ने एन्क्रिप्टेड वर्चुअल क्लासरूम स्थापित किया है. उन्होंने स्टडी मैटेरियल अपलोड किए. जैनब की तरह 100 लड़कियों को लैपटॉप और इंटरनेट पैकेज मुहैया भी कराए.
वह कहती हैं, "आप घर पर बंद हो सकते हैं और बिना किसी झिझक के भौगोलिक चिंताओं के बिना वर्चुअल दुनिया का पता लगा सकते हैं. यही तकनीक की खूबसूरती है." सितंबर में सरकार ने कहा कि बड़े लड़के फिर से स्कूल शुरू कर सकते हैं लेकिन बड़ी लड़कियां जिनकी आयु 12-18 वर्ष के बीच है, उन्हें घर पर ही रहना होगा.
तालिबान, जिसने लगभग 20 साल पहले अपने आखिरी शासन के दौरान लड़कियों की शिक्षा पर रोक लगा दी थी उसने वादा किया है कि वह उन्हें स्कूल जाने की अनुमति देगा क्योंकि वह दुनिया को दिखाना चाहता है कि वह बदल गया है. यूनिसेफ के मुताबिक 2001 में तालिबान के बेदखल होने के बाद स्कूल में उपस्थिति तेजी से बढ़ी, 2018 तक 36 लाख से अधिक लड़कियों का नामांकन हुआ. विश्वविद्यालय जाने वालों की संख्या, जो अब लाखों में है. उसमें भी वृद्धि हुई. 2020 में लगभग 6 फीसदी महिलाएं शिक्षा प्राप्त कर रही थीं, जो 2011 में सिर्फ 1.8 प्रतिशत था.
एए/सीके (थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन)
-सिकंदर किरमानी
हर कुछ दिनों में अफ़ग़ानिस्तान के पूर्व में बसे जलालाबाबाद शहर के बाहरी इलाक़ों में सड़कों के किनारे लाशें देखी जा रही हैं.
किसी को गोली मारी गई थी तो किसी को फांसी पर लटकाया गया है, कई लोगों के सिर कलम कर दिए गए हैं.
इनमें से कई शवों के पास हाथ से लिखे नोट्स रखे गए हैं, जिनमें लिखा है कि इनका ताल्लुक इस्लामिक स्टेट (आईएस) की अफ़ग़ानिस्तान शाखा से था.
ये वो एक्स्ट्रा-जूडिशल और बर्बर हत्याएं हैं, जिनकी अब तक किसी ने ज़िम्मेदारी नहीं ली है. लेकिन माना जा रहा है कि इन हत्याओं के लिए तालिबान ज़िम्मेदार है.
आईएस तालिबान का कट्टर विरोधी माना जाता है. इसी साल अगस्त के महीने में आईएस ने राजधानी काबुल में मौजूद एयरपोर्ट के बाहर एक आत्मघाती बम धमाकों को अंजाम दिया था, जिसमें 150 लोगों की मौत हुई थी.
ये दोनों समूह अब एक ख़ूनी संघर्ष में उलझ गए हैं, जिसकी आँच जलालाबाद में महसूस की जा सकती है
तालिबान के विद्रोह के ख़त्म होने के बाद अब अफ़ग़ानिस्तान अधिक शांतिपूर्ण है. लेकिन जलालाबाद में स्थिति अलग है. यहाँ लगभग रोज़ाना ही दोनों समूहों के लड़ाकों को हमलों का सामना करना पड़ रहा है.
आईएस जिसे स्थानीय स्तर पर लोग "दाएश" कहते हैं, उसके लड़ाके हमला कर छिप जाने की रणनीति का इस्तेमाल कर रहे हैं. इससे पहले अफ़ग़ानिस्तान की पूर्व सरकार पर हमले करने के लिए तालिबान सफलतापूर्वक इसी तरह की रणनीति अपना चुका है, जिसमें सड़कों के किनारे बम लगाना और छिप कर हत्याएं करना शामिल है.
इस्लामिक स्टेट का आरोप है कि तालिबान "विश्वासघाती" है क्योंकि वह इस्लाम को लेकर कट्टर नहीं है, वहीं तालिबान आईएस पर विधर्मी और चरमपंथी होने का आरोप लगाता है.
जलालाबाद शहर नांगरहार प्रांत में है, जहाँ के तालिबान के ख़ुफ़िया प्रमुख डॉक्टर बशीर हैं. डॉक्टर बशीर अपने सख़्त रुख़ के लिए जाने जाते हैं. इससे पहले उन्होंने कुनार में आईएस के बनाए गढ़ से उसे बाहर निकालने में मदद की थी.
डॉक्टर बशीर कहते हैं कि शहर के बाहर सड़कों के किनारे लोगों के देखने के लिए रखे गए शवों से तालिबान का कोई नाता नहीं है. हालांकि वो गर्व से कहते हैं कि उनके लड़ाकों में इस्लामिक स्टेट के दर्जनों सदस्यों को पकड़ा है. जिस वक़्त तालिबान अफ़ग़ानिस्तान पर कब्ज़ा कर रहा था, उस वक़्त मची अफ़रातफरी के बीच जेलों में बंद इस्लामिक स्टेट के कई लड़ाके भाग गए थे.
अफ़ग़ानिस्तान में 'नहीं है इस्लामिक स्टेट'
सार्वजनिक तौर पर तालिबान और डॉक्टर बशीर, इस्लामिक स्टेट के ख़तरे को कम कर बता रहे हैं. उनका कहना है कि अफ़ग़ानिस्तान में युद्ध अब ख़त्म हो चुका है और वो देश में शांति और सुरक्षा लाएंगे और तालिबान के इस उद्देश्य को जो कमज़ोर करता है वो स्वीकार्य नहीं है.
अफ़ग़ानिस्तान में इस्लामिक स्टेट के ख़िलाफ़ कई सबूत होने के बावजूद डॉक्टर बशीर दावा करते हैं कि देश में औपचारिक तौर पर इस्लामिक स्टेट की मौजूदगी नहीं है.
वो कहते हैं, "दाएश नाम सीरिया और इराक़ की तरफ इशारा करता है, यहाँ अफ़ग़ानिस्तान में दाएश नाम का कोई ऐसा विद्रोही समूह नहीं है."
वो कहते हैं कि वो इन लड़ाकों को "विश्वासघातियों का ऐसा समूह मानते हैं, जिन्होंने इस्लामिक सरकार के ख़िलाफ़ विद्रोह किया है."
दरअसल, न केवल आईएस औपचारिक तौर पर अफ़ग़ानिस्तान में मौजूद है बल्कि समूह ने देश के प्राचीन नाम का इस्तेमाल करते हुए यहाँ के लिए अपनी एक अलग शाखा ही बना ली है, जिसका नाम है इस्लामिक स्टेट खुरासान (आईएस-के).
इस समूह ने सबसे पहले 2015 में अफ़ग़ानिस्तान में अपनी मौजूदगी दर्ज कराई थी और उसके बाद आने वाले सालों में घातक हमलों को अंजाम दिया. लेकिन तालिबान के एक बार फिर सत्ता में आने के बाद इस समूह ने ऐसे इलाक़ों में आत्मघाती हमलों को अंजाम देना शुरू कर दिया है, जहाँ इसके लड़ाके पहले कभी नहीं जाते थे.
इस महीने की शुरुआत में इस्लामिक स्टेट ने देश के उत्तर में बसे कुंदूज़ शहर में शिया अल्पसंख्यक समुदाय के मस्जिदों पर और तालिबान का गढ़ माने जाने वाले कंधार पर हमले किए.
आईएस से निपटने को तालिबान तैयार
हालाँकि डॉक्टर बशीर ज़ोर देकर कहते हैं कि चिंता की कोई बात नहीं है.
वो कहते हैं, "हम दुनिया से यही कहते हैं कि चिंता न करें. अगर विश्वासघातियों का एक छोटा समूह सिर उठाता है और इस तरह के हमले करता है.... अल्लाह की मंशा रही तो जिस तरह हमने लड़ाई के मैदान में 52 देशों के गठबंधन को हराया था, इन्हें भी हरा देंगे."
दो दशकों तक अफ़ग़ानिस्तान में विद्रोह में शामिल रहे डॉक्टर बशीर कहते हैं कि, "हमारे लिए गुरिल्ला युद्ध को रोकना आसान होगा."
लेकिन सालों तक युद्ध और रक्तपात देख चुके अफ़ग़ान, पश्चिमी मुल्क और अफ़ग़ानिस्तान के पड़ोसी इस्लामिक स्टेट के पैर पसारने को लेकर चिंतित हैं. अमेरिकी अधिकारी पहले ही चिंता जता चुके हैं कि अफ़ग़ानिस्तान में इस्लामिक स्टेट विदेशी मुल्कों पर हमले करने के लिए छह महीनों से एक साल के भीतर तैयार हो सकता है.
फ़िलहाल इस्लामिक स्टेट अफ़ग़ानिस्तान के किसी इलाक़े पर कब्ज़ा नहीं कर पाया है. इससे पहले आईएस ने नंगरहार और कुनार प्रांतों में अपना बेस बना लिया था लेकिन तालिबान और अमेरिकी हवाई हमलों की मदद से अफ़ग़ान सेना ने उसे यहाँ से बाहर खदेड़ दिया था.
तालिबान की तुलना में इस समूह में अब कम ही लड़ाके हैं. जहाँ तालिबान के सत्तर हज़ार सदस्य हैं जो अब अमेरिकी हथियारों से लैस हैं, वहीं आईएस के लड़ाकों की संख्या अब कुछ हज़ार लड़ाकों तक सिमट गई है.
जलालाबाद में तालिबान का एक सदस्य. इस बात का डर जताया जा रहा है कि इस्लामिक स्टेट केंद्रीय एशिया और पाकिस्तानी विदेशी लड़ाकों की मदद ले सकता है.
लेकिन इस बात की डर भी जताया जा रहा है कि आईएस देश में मौजूद दूसरे केंद्रीय एशिया और पाकिस्तानी विदेशी लड़ाकों को अपना सदस्य बना सकता है. साथ ही ये डर भी है कि अगर भविष्य में तालिबान के सदस्यों में मतभेद हुआ और ये समूह टूटा तो नाराज़ सदस्य भी आईएस का दामन थाम सकते हैं.
अमेरिका को उम्मीद है कि वो इस्लामिक स्टेट को निशाना बनाने के लिए अफ़ग़ानिस्तान के बाहर से हमले करना जारी रख सकेगा. हालांकि इस मामले में तालिबान उत्साहित है और मानता है कि वो अकेले विद्रोहियों का मुक़ाबला कर सकता है.
इस्लामिक स्टेट के कई सदस्य समूह छोड़ कर तालिबान और पाकिस्तान तालिबान में शामिल हो गए हैं. पाकिस्तान तालिबान, तालिबान से जुड़ा समूह है लेकिन उससे अलग है.
तालिबान के एक अधिकारी ने मुस्कुराते हुए मुझे बताया, "हम उन्हें अच्छे से जानते हैं और वो भी हमें बढ़िया से जानते हैं."
हाल के दिनों में नंगरहार में आईएस के दर्जनों लड़ाकों ने डॉक्टर बशीर के सैनिकों के सामने आत्मसमर्पण किया है. इनमें से एक जो पहले तालिबान में शामिल थे उन्होंने बताया कि इस्लामिक स्टेट में शामिल होने के बाद उनका मोहभंग हो गया.
वो कहते हैं कि जहाँ तालिबान बार-बार इस बात पर ज़ोर देता है कि उनका उद्देश्य अफ़ग़ानिस्तान में 'इस्लामिक अमीरात' कायम करने का है, वहीं इस्लामिक स्टेट के इरादे वैश्विक स्तर पर पैर फैलाने के हैं.
वो कहते हैं, "आईएस दुनिया भर में सभी के लिए ख़तरा है. वो पूरी दुनिया पर अपना शासन चाहता है. लेकिन उसके कहने और करने में फ़र्क़ है. वो इतना ताक़तवर भी नहीं है कि अफ़ग़ानिस्तान पर कब्ज़ा कर सके."
कई अफ़ग़ान नागरिक आईएस के बढ़ रहे हमलों को देश में एक "नए खेल" की शुरुआत के रूप में देख रहे हैं.
जलालाबाद में केवल तालिबान को ही निशाना नहीं बनाया जा रहा है. इस महीने की शुरुआत में सामाजिक कार्यकर्ता अब्दुल रहमान मावेन एक शादी में शामिल होने के बाद से घर लौट रहे थे जब उनकी कार पर हमला किया गया. उनके दोनों बेटे छिप गए लेकिन अब्दुल को गोली मार दी गई. इस हत्या की ज़िम्मेदारी इस्लामिक स्टेट ने ली.
उनके भाई शाद नूर हताश हैं. वो कहते हैं, "तहे दिल से कह रहा हूँ, जब तालिबान ने देश पर कब्ज़ा किया तो हम ख़ुश थे और आशावादी थे कि भ्रष्टाचार, हत्याएं, बम धमाके अब ख़त्म हो जाएंगे."
"लेकिन अब हमें इस बात का अहसास हो रहा है कि हमारे सामने एक नया चेहरा आ गया है, जिसका नाम दाएश है." (bbc.com)