अंतरराष्ट्रीय
जर्मनी में बड़ी कंपनियों के निदेशक मंडल में महिलाओं का वेतन पुरुषों की तुलना में अधिक है. भले ही उनकी संख्या अभी भी पुरुषों की तुलना में कम है, फिर भी लैंगिक समानता हासिल करना अभी बहुत दूर है.
जर्मनी में व्यापार सलाहकारों और लेखा परीक्षकों के एक समूह ईवाई ने हाल ही में एक सर्वेक्षण किया जिसमें पाया गया कि शेयर बाजार में सूचीबद्ध कंपनियों के कार्यकारी बोर्ड में महिलाएं वेतन वृद्धि के मामले में पुरुषों से आगे हैं. DAX कंपनियों की महिला बोर्ड सदस्यों के वेतन में पिछले साल औसतन 8.2 प्रतिशत की वृद्धि हुई. यह लगभग 2.31 मिलियन यूरो है.
महिलाओं को वरीयता
दूसरी ओर कार्यकारी बोर्ड के पुरुष सदस्यों के वेतन में 2020 में औसतन 1.6 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई, जिसका मूल्य लगभग 1.76 मिलियन यूरो है. पुरुषों और महिलाओं की आय में वृद्धि दर या अंतर 31 प्रतिशत है. सर्वे ग्रुप ईवाई के पार्टनर येंस मासमैन के मुताबिक, "पुरुषों के कार्यकारी बोर्ड में महिलाओं का अनुपात पहले की तुलना में काफी कम है. लेकिन यह धीरे-धीरे बेहतर हो रहा है. वहीं वेतन के मामले में महिला अधिकारी बेहतर स्थिति में हैं."
इस स्थिति में सुधार का एक प्रमुख कारण वरिष्ठ पदों पर महिलाओं को वरीयता देने वाली कंपनियों की नीति है. मासमैन कहते हैं, "उच्च शिक्षित महिला अधिकारी व्यापार लेन-देन और सौदेबाजी में उत्कृष्टता प्राप्त करती हैं."
यूरोपीय संघ में लैंगिक समानता पर एक हालिया रिपोर्ट के मुताबिक पिछले कुछ सालों में इस संबंध में किए गए प्रयासों के परिणाम बहुत असंतोषजनक रहे हैं. नए लिंग समानता सूचकांक में यूरोपीय संघ का औसत स्कोर 100 में से 68 था. इस साल यूरोपियन इंस्टीट्यूट फॉर जेंडर इक्वॉलिटी (EIGE) द्वारा जारी किए गए जेंडर इक्वॉलिटी इंडेक्स में यूरोपीय संघ ने अधिकतम 100 में से केवल 68 अंक हासिल किए.
तुलनात्मक स्तर पर इसका अर्थ यह हुआ कि समग्र रूप से संघ के सदस्य देशों के सूचकांक में पिछले वर्ष केवल 0.6 प्रतिशत का सुधार हुआ और पिछले 11 सालों में प्रगति दर पांच प्रतिशत से कम रही है.
यूरोपियन इंस्टीट्यूट फॉर जेंडर इक्वालिटी की निदेशक कार्लिन शेल ने रिपोर्ट जारी करते हुए कहा कि पिछले कुछ सालों में इस क्षेत्र में सुधार असंतोषजनक रहा है. उनके अनुसार इसका एक कारण यह है कि वैश्विक कोरोना वायरस के प्रभाव से महिलाओं को उबरने में पुरुषों की तुलना में अधिक समय लग रहा है, जिससे बहुत आर्थिक नुकसान हुआ है.
एए/वीके (डीपीए)
अमेरिका में लोकतंत्र पर अपनी तरह का पहला वैश्विक सम्मेलन हो रहा है. लेकिन मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने भारत के नरेंद्र मोदी सहित ऐसे नेताओं को बुलाने पर आपत्ति जताई है जिनका रिकॉर्ड संदिग्ध है.
अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन समिट फॉर डेमोक्रेसी के नाम से आयोजित सम्मेलन में भाषण देने के लिए तैयारी कर रहे हैं. सौ से ज्यादा देशों का यह अपनी तरह का पहला सम्मेलन है जिसमें दुनियाभर में लोकतांत्रिक मूल्यों और मानवाधिकारों के हनन पर बात होनी है. लेकिन बहुत से मानवाधिकार कार्यकर्ता इस सम्मेलन को इसलिए शक की निगाह से देख रहे हैं कि कुछ ऐसे नेताओं को इस सम्मेलन में शामिल होने के लिए बुलाया गया है जिनका अपना रिकॉर्ड संदिग्ध है.
मानवाधिकारों और लोकतंत्र के क्षेत्र में काम करने वाली गैर सरकारी संस्था फ्रीडम हाउस में वाइस प्रेजीडेंट ऐनी बोयाजियान कहती हैं कि बिना लोकतांत्रिक प्रतिबद्धताओं को इस तरह का सम्मेलन अर्थहीन है. उन्होंने कहा, "अगर इस सम्मेलन को एक और बैठक से ज्यादा कुछ होना है तो फिर अमेरिका समेत सारे प्रतिभागियों को आने वाले साल में लोकतंत्र और मानवाधिकारों को लेकर अर्थपूर्ण प्रतिबद्धताएं निभानी होंगी.”
‘समिट फॉर डेमोक्रेसी' दिसंबर के दूसरे हफ्ते में होनी है. अमेरिकी अधिकारियों ने कहा कि यह सम्मेलन लोकतंत्र पर एक लंबी चर्चा की शुरुआत मात्र है और आगामी सम्मेलनों में शामिल होना चाहने वाले देशों को सुधारों के वादे निभाने होंगे.
चुन चुन कर बुलाए गए मेहमान
यह सम्मेलन अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन के उस दावे की भी परीक्षा है जो उन्होंने विदेश नीति के पहले ऐलान के वक्त किए थे. इसी साल फरवरी में दिए इस भाषण में बाइडेन ने कहा था कि अमेरिका वैश्विक नेतृत्व की अपनी भूमिका में लौटेगा और चीन और रूस जैसी ताकतों को जवाब देगा.
अमेरिकी पत्रिका पोलिटिको ने इस सम्मेलन में आने वाले संभावित मेहमानों की एक सूची छापी है. इसमें फ्रांस और स्वीडन जैसे परिपक्व लोकतांत्रिक देश होंगे तो फिलीपींस और पोलैंड भी होंगे जिनके बारे में मानवाधिकार कार्यकर्ता कहते हैं कि वहां लोकतंत्र खतरे में है. एशिया से अमेरिका के सहयोगी देश जापान और दक्षिण कोरिया जैसे देश आमंत्रित हैं लेकिन थाईलैंड और वियतनाम को नहीं बुलाया गया है.
मध्य पूर्व से बहुत कम मेहमान हैं. मसलन, इस्राएल और इराक तो सूची में हैं लेकिन अमेरिका के साथी माने जाने वाले मिस्र और नाटो सदस्य तुर्की का नाम गायब है.
वैसे, मानवाधिकार संगठन इस बात को लेकर बाइडेन की तारीफ कर रहे हैं लोकतांत्रिक अधिकारों को उन्होंने अपनी विदेश नीति की प्राथमिकता बनाया है. खासतौर पर उनके पूर्ववर्ती डॉनल्ड ट्रंप की इस मामले में कम दिलचस्पी और विवादित बयानों के बाद बाइडेन का यह कदम अहमियत रखता है. ट्रंप ने तो मिस्र के राष्ट्रपति अब्देल फतह अल-सीसी और रूस के व्लादीमीर पुतिन की जमकर तारीफ की थी.
भारत पर भी आपत्ति
मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को इस बात को लेकर संदेह है कि खराब रिकॉर्ड वाले नेताओं को बुलाए जाने से इस सम्मेलन की विश्वसनीयता प्रभावित होती है. लेकिन साथ ही यह बात भी कही जा रही है कि यह सम्मलेन चीन और अन्य प्रतिद्वन्द्वियों के खिलाफ एक नया मोर्चा है.
‘प्रोजेक्ट ऑन मिडल ईस्ट डेमोक्रेसी' की शोध निदेशक एमी हॉथोर्न कहती हैं, "साफ है कि चीन को टक्कर देने की रणनीति के चलते ही भारत और फिलीपींस जैसे उसके पड़ोसियों को आमंत्रित किया गया है जिनके यहां लोकतांत्रिक मूल्य लगातार क्षरण की ओर हैं. ऐसा ही इराक को लेकर भी कहा जा सकता है जहां का लोकतंत्र घालमेल का शिकार है लेकिन जो ईरान का पड़ोसी है.”
फिलीपींस के राष्ट्रपति रोड्रीगो डुटेर्टे कह चुके हैं कि वह "मानवाधिकारों की परवाह नहीं करते.” भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बारे में मानवाधिकार संगठन फ्रीडम हाउस का कहना है कि वह भारत को निरंकुशता की ओर ले जा रहे हैं. दोनों नेताओं को सम्मेलन में बुलाया गया है.
सम्मेलन की योजना में शामिल रहे एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा कि दुनिया के अलग अलग हिस्सों से ऐसे नेताओं को बुलाया गया है जिनके लोकतंत्र को लेकर अलग-अलग तरह के अनुभव रहे हैं. इस अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर बताया, "यह किसी को समर्थन नहीं है. आप लोकतंत्र हैं, आप नहीं हैं. इस प्रक्रिया से हम नहीं गुजरे हैं.” उन्होंने कहा कि हमें इस आधार पर चुनाव करना था कि क्षेत्रीय विविधता हो.
वीके/एए (रॉयटर्स)
बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना ने जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से लड़ने के लिए अमीर देशों की कथित खोखली घोषणाओं की आलोचना की है. इनकी बजाय, बांग्लादेश खुद भविष्य में जीरो-कार्बन की एक योजना लेकर सामने आया है.
डॉयचे वैले पर जुबैर अहमद की रिपोर्ट
ग्लासगो में COP26 जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में, बांग्लादेश की प्रधान मंत्री शेख हसीना ने अमीर देशों से ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कटौती करने और कम अमीर देशों को सालाना सौ अरब डॉलर की वित्तीय सहायता प्रदान करने संबंधी वादे को पूरा करने का आह्वान किया है.
शेख हसीना का कहना है कि बांग्लादेश के कार्बन उत्सर्जन को ग्लोबल वॉर्मिंग के महज एक मामूली से हिस्से के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है. विकसित देशों में प्रति व्यक्ति करीब 20 टन की तुलना में बांग्लादेश मौजूदा समय में प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष करीब 0.3 टन कार्बन उत्सर्जित कर रहा है.
1.2 अरब लोगों की सामूहिक आबादी वाले देशों के समूह क्लाइमेट वल्नरेबल फोरम यानी सीवीएफ के लोग वैश्विक उत्सर्जन की केवल 5 फीसद कार्बन ही उत्सर्जित करते हैं, लेकिन जलवायु परिवर्तन के कुछ सबसे बुरे प्रभावों को इन्हीं देशों को भुगतना पड़ता है. इन देशों में समुद्र के बढ़ते जलस्तर और भीषण बाढ़, चक्रवात और गर्मी की लहरों से विस्थापन का भी खतरा है.
उदाहरण के लिए, क्लाइमेट चेंज वल्नरेबिलिटी इंडेक्स के मुताबिक, पिछले दो दशकों में चरम मौसम की घटनाओं की बात करें तो बांग्लादेश सातवां सबसे अधिक प्रभावित देश है. डीडब्ल्यू से बातचीत में अर्थशास्त्री फहमीदा खातून कहती हैं, "बांग्लादेश जैसे देशों पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव बहुत ज्यादा है. यह आपदा की आशंका वाले देशों में पर्यावरण का कहर पैदा करेगा.”
आर्थिक विकास को खतरा
जलवायु परिवर्तन पर अंतरसरकारी पैनल यानी आईपीसीसी की रिपोर्ट बताती है कि यदि धरती का तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाता है तो आने वाले दशकों में तेज गर्मी तो पड़ेगी ही, ग्रीष्म ऋतुएं लंबी और शीत ऋतु छोटी होने लगेगी. रिपोर्ट में पाया गया है कि यदि औसत वैश्विक तापमान में 2 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होती है, तो गर्मी का चरम कृषि और स्वास्थ्य के हानिकारक स्तर तक पहुंच जाएगा.
खातून कहती हैं, "आईपीसीसी की छठी आकलन रिपोर्ट पहले ही दिखा चुकी है कि जितना सोचा गया था उससे कहीं ज्यादा खतरनाक प्रभाव है. यह आर्थिक विकास को भी पलट कर रख देगा. आर्थिक गतिविधियों को व्यापक रूप से बाधाओं का सामना करना पड़ेगा और आवास, स्वास्थ्य और शिक्षा पर इसका नकारात्मक प्रभाव सबसे ज्यादा होगा.”
क्या है जलवायु समृद्धि योजना?
सीवीएफ अध्यक्ष के रूप में अपने दूसरे कार्यकाल में, शेख हसीना ने जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए आर्थिक समृद्धि में बदलाव पर बातचीत शुरू की. बांग्लादेश साल 2031 तक अपनी अर्थव्यवस्था को दोगुना करके इसे 409 अरब डॉलर तक पहुंचाना चाहता है और खुद को मध्य आय वर्ग वाला देश बनाना चाहता है.
अक्टूबर में फाइनेंशियल टाइम्स अखबार में छपे एक लेख में उन्होंने "खोखले वादों” की बजाय "जलवायु समृद्धि योजना” की वकालत की थी. हसीना का कहना है, "बांग्लादेश जलवायु परिवर्तन से लड़ने के लिए समाधान के मार्ग का नेतृत्व करने के लिए प्रतिबद्ध है और ऐसा हम न केवल इसलिए करना चाहते हैं कि हम जलवायु परिवर्तन के सबसे बुरे प्रभाव को टालना चाहते हैं बल्कि यह आर्थिक समझ के अंतर्गत भी आता है. शून्य-कार्बन विकास में निवेश करना अर्थव्यवस्था में रोजगार सृजित करने और यह सुनिश्चित करने का सबसे अच्छा तरीका है कि हमारा देश अधिक समृद्ध बने.”
योजना के तहत, बांग्लादेश का लक्ष्य है कि वो दशक के अंत तक अपनी ऊर्जा का 30 फीसद हिस्सा नवीकरणीय ऊर्जा से प्राप्त कर ले. हसीना लिखती हैं, "हम उत्प्रेरक के रूप में जलवायु परिवर्तन पर कार्रवाई का उपयोग करते हुए लचीलापन बढ़ाएंगे, अपनी अर्थव्यवस्था का विकास करेंगे, रोजगार सृजित करेंगे और अपने नागरिकों के लिए अवसरों का विस्तार करेंगे.”
हरित तकनीक का रास्ता
पांच विषयों पर केंद्रित इस योजना में मौजूदा योजनाओं को पूरा करना, नवीकरणीय ऊर्जा की ओर संक्रमण, कुशल और हरित ऊर्जा केंद्र बनाना, वैश्विक धन तक पहुंच प्रदान करना और देश के युवाओं के हितों में निवेश करना शामिल है. बांग्लादेश के शीर्ष अधिकारियों का मानना है कि इस योजना से देश का सकल घरेलू उत्पाद 6.8 फीसद तक बढ़ सकता है और योजना के तहत 41 लाख नए रोजगार पैदा किए जा सकते हैं. साथ ही बांग्लादेश साल 2030 तक नवीकरणीय ऊर्जा से अपनी एक तिहाई ऊर्जा की जरूरत पूरी कर सकता है.
शेख हसीना का कहना है कि बांग्लादेश मैंग्रोव जंगलों को पुनर्जीवित करने के लिए अपने तट के साथ पवन खेतों का विकास करेगा जो कि बदलते तटों को स्थिर करने में मदद करते हैं और देश को तूफान और बाढ़ से बचाते हैं. वह लिखती हैं, "हम बैंकों को जीवाश्म ईंधन मुक्त बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के लिए अनुकूल शर्तों की पेशकश करने और हरित हाइड्रोजन जैसे क्षेत्रों में विकसित देशों के साथ सहयोग करने के लिए सशक्त करेंगे.”
बांग्लादेश के पर्यावरणविद कमरुज्जमां मजूमदार ने डीडब्ल्यू को बताया कि देश में हरित वित्तपोषण का उपयोग करके प्रौद्योगिकी के हस्तांतरण पर जोर दिया जाएगा. मजूमदार कहते हैं, "जलवायु परिवर्तन ने जो आर्थिक अवसर पैदा किया है, उसे बांग्लादेश लेना चाहता है.”
अर्थशास्त्री फहमीदा खातून भी कहती हैं कि बांग्लादेश आगामी दशकों में हरित तकनीकी पर ध्यान केंद्रित करेगा. वह कहती हैं, "कृषि से लेकर उद्योग तक या ऊर्जा उत्पादन से लेकर कार्बन उत्सर्जन कम करने तक, कुशल और हरित प्रौद्योगिकी का कार्यान्वयन विकास की कुंजी होगी. लेकिन इसके लिए बांग्लादेश को भारी-भरकम निवेश करना होगा.”
बांग्लादेश को उम्मीद है कि सीवीएफ के सदस्यों के नेतृत्व में आने वाले वर्षों में दूसरे विकासशील देश भी ऐसी योजनाओं को अपनाएंगे.
विविधता, पारदर्शिता और जवाबदेही
बांग्लादेश वर्तमान में जलवायु परिवर्तन से संबंधित अनुकूलन उपायों पर सालाना करीब 2 अरब डॉलर खर्च करता है और इस खर्च का 75 हिस्सा उसके घरेलू स्रोतों से आता है. देश को अपने जलवायु लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए साल 2050 तक अनुकूलन वित्त के रूप में करीब तीन गुना राशि की जरूरत होगी.
खातून कहती हैं, "सबसे पहले, विकसित देशों ने जिस जलवायु कोष का वायदा किया था, वहां तक पहुंच पहले से ही एक कठिन काम है. अन्य विकास निधियों की तरह इसकी कार्रवाई भी धीमी और नौकरशाही के भंवर में फंसी हुई है. वे जितनी राशि लेकर आए हैं, उसमें से 60 फीसद से ज्यादा राहत कार्यों के लिए है, जो कि जलवायु परिवर्तन से लड़ने का उनका तरीका है. लेकिन, बांग्लादेश जैसे देशों के लिए अनुकूलन के लिए अधिक धन की आवश्यकता है.”
सीवीएफ देशों ने मांग की है कि फंड को अपने संसाधनों का 50 फीसदी राहत के लिए और शेष राशि अनुकूलन उपायों के लिए आवंटित करना चाहिए.
खातून कहती हैं, "धन के स्रोत अलग-अलग होने चाहिए. निजी क्षेत्रों को भी हरित प्रौद्योगिकी में निवेश करना चाहिए. इसके लिए बांग्लादेश को व्यापार के अनुकूल माहौल बनाने की जरूरत है. समृद्धि योजना के कार्यान्वयन में पारदर्शिता और दक्षता भी बांग्लादेश के लिए चुनौतियां खड़ी कर सकती है.”
वह आगे कहती हैं, "बांग्लादेश को निधियों के साथ व्यवहार करते समय जवाबदेही और पारदर्शिता सुनिश्चित करनी होगी. उन्हें गुणवत्तापूर्ण मानव संसाधनों की भी जरूरत होगी जो नई तकनीकों से निपटने में सक्षम हों.” (dw.com)
ग्लासगो में इंडोनेशिया ने कॉप-26 के समझौते पर दस्तखत तो कर दिए लेकिन अब उसके बयान बदल गए हैं. इंडोनेशिया को अब लग रहा है कि ये वादे व्यवहारिक नहीं हैं. ऐसा क्यों?
डॉयचे वैले पर राहुल मिश्र की रिपोर्ट
स्कॉटलैंड के शहर ग्लासगो में बीते दिनों संयुक्त राष्ट्र संघ का जलवायु सम्मेलन हुआ जिसका उद्देश्य था जलवायु परिवर्तन के तमाम मुद्दों पर गंभीरता के साथ बात-चीत और उसके जरिये किसी ठोस नतीजे पर पहुंचने की कवायद.
पर्यावरण संरक्षण और जलवायु परिवर्तन के अहम सवालों के इर्द गिर्द केंद्रित इस बैठक में 'कॉन्फ्रेंस ऑफ द पार्टीज' यानी कॉप-26 के महत्वपूर्ण मसौदे पर हस्ताक्षर भी हुए. 100 से अधिक देशों ने इस सम्मेलन में शिरकत की और पर्यावरण संरक्षण के वादों को अमली जामा पहनाने की बातें भी कहीं.
इंडोनेशिया भी इस सम्मेलन में मौजूद था. लेकिन इस बैठक के बाद इंडोनेशिया और वहां की सरकार ने कई चौंकाने वाले बयान दिए हैं. दुनिया के लगभग एक तिहाई वर्षा-वनों की मिल्कियत रखने वाले इंडोनेशिया ने कहा है कि वनोन्मूलन न करने के वादे विकास की राह में रोड़े नहीं अटका सकते. ब्राजील और कांगो के बाद इंडोनेशिया में वर्षा-वनों का सबसे बड़ा फैलाव है. दुनिया के 85 प्रतिशत वर्षावन इन्हीं तीन देशों में हैं.
गौरतलब है कि कुछ ही दिनों पहले इंडोनेशिया उन 128 देशों की फेरहिस्त में था जिन्होंने कॉप-26 मसौदे को मंजूरी दी थी और इस पर बाकायदा हस्ताक्षर भी किये थे. लेकिन अब वहां के नीतिनिर्धारकों का कहना है कि कॉप-26 के निर्धारित लक्ष्यों को पूरा नहीं किया जा सकता.
क्यों पीछे खींचे पांव?
इंडोनेशिया और वियतनाम दक्षिणपूर्व एशिया के दो मात्र ऐसे देश हैं जिन्होंने इन मसौदों को मंजूरी दी है. ऐसे में इंडोनेशिया का पैर पीछे खींचना अच्छी खबर नहीं है. इस संदर्भ में आधिकारिक बयान खुद इंडोनेशिया की पर्यावरण मंत्री सिती नूरबाया बकर की तरफ से आये, जिन्होंने कहा कि कॉप-26 के नियमों के तहत इंडोनेशिया को वन-कटाई के स्तर को शून्य पर लाना अनुचित और असंगत है.
नूरबाया का बयान सीधे तौर पर राष्ट्रपति जोको विडोडो के नेतृत्व में बनी उनकी सरकार की नीतियों से जुड़ा है. विडोडो के शासनकाल में इंडोनेशिया ने विकास के क्षेत्र में काफी प्रगति की है. यह विकास खास तौर पर इंफ्रास्ट्रक्चर के क्षेत्र में हुआ है.
इंडोनेशिया की राजधानी जकार्ता से पूर्वी कालीमंतान स्थानांतरित करने के पीछे भी इंडोनेशिया की जोकोवी सरकार का बड़ा हाथ है. इस एक कदम का ही पर्यावरण पर अच्छा खासा असर पड़ेगा. एक सुदूर छोटे से शहर को राजधानी बनाने और अंतरराष्ट्रीय स्तर की सुविधाओं से लैस करने में काफी मेहनत-मशक्कत करनी होगी और इस प्रक्रिया में पर्यावरण सम्बन्धी जोखिम भी उठाने होंगे. चाहे- अनचाहे वन-कटाई भी इसका हिस्सा बनेगा.
नूरबाया बकर ने भी यह बात कही कि अपने नागरिकों का विकास उनकी सरकार की पहली प्राथमिकता है और कॉप-26 के वादों को पूरा करना उनके लिए संभव नहीं है. इस सन्दर्भ में उन्होंने बुनियादी जरूरतों जैसे सड़क बनाने और फसल उगाने के लिए नए वन्यक्षेत्रों की कटाई की ओर भी इशारा किया. इसी सिलसिले में जोकोवी सरकार के उप विदेश मंत्री ने भी बयान दिया और कहा कि वन-कटाई को पूरी तरह रोकने का वादा झूठा और गुमराह करने वाला है.
खुश नहीं पश्चिम
पश्चिमी टिप्पणीकार मानते हैं कि इंडोनेशिया जैसे देश पर्यावरण संरक्षण में पर्याप्त योगदान नहीं दे रहे हैं. इसके पीछे वह इंडोनेशिया में खेती की परम्परा - झूम कृषि और पाम आयल के बड़े पैमाने पर उत्पादन को दोषी मानते हैं. यह सच है कि आजाद इंडोनेशिया के शुरुआती दशकों के मुकाबले आज वहां वर्षावनों का क्षेत्रफल घट कर आधा रह गया है, लेकिन इन दशकों में इंडोनेशिया ने गरीबी और बेरोजगारी पर भी काबू पाया है.
इंडोनेशिया जैसे विकासशील देशों पर लगाए यह आरोप इसलिए भी थोड़े बेतुके साबित होते हैं क्योंकि पिछले इन्ही सात-आठ दशकों में अमेरिका, फ्रांस, ब्रिटेन और तमाम विकसित देशों ने अंधाधुंध औद्योगीकरण के साथ-साथ शहरीकरण और उसके साथ रोजमर्रा के आराम के तमाम संसाधनों का बेपरवाह इस्तेमाल बढ़ाया है. एयर कंडीशन, मोटर गाड़ियां, और हवाई जहाजों का बेतकल्लुफ इस्तेमाल गैर-पश्चिमी देशों में पिछले कई दशकों से हो रहा है. इंडोनेशिया, भारत और मलयेशिया जैसे गैर पश्चिमी देशों में यह सुविधाएं ज्यादातर 21वीं सदी की ही देन हैं.
दोस्ताना दखल की जरूरत
इंडोनेशिया जैसे देशों में अरक्षणीय कृषि की मुख्य वजह यह है कि इन देशों के गरीब किसानों के पास कृषि उपज का और कोई बेहतर उपाय नहीं है. सरकारों के पास न इतना धन है, न वैज्ञानिक संसाधन, और न ही इतनी इच्छाशक्ति कि पर्यावरण के लिए इतनी मेहनत कर सकें. पाम आयल पर सवाल उठाने के साथ हमें यह भी देखना होगा कि यह फसलें खुद उपनिवेशवादी युग और पश्चिमी उपनिवेशवादी साम्राज्यों की देन थीं.
इंडोनेशिया और मलेशिया पाम आयल और रबर के इतने बड़े उत्पादक खुद नहीं बने थे, उन्हें गुलाम बना कर रबर, टिन, पाम आयल, और चीनी उत्पादन में लगाया गया था ताकि साम्राज्यों के गोदाम भर सकें. विश्व युद्ध के बाद ये देश धीरे धीरे आजाद तो हो गये लेकिन कृषि परम्पराएं वैसी की वैसी ही रहीं.
आर्थिक तौर पर कमजोर, और व्यापार और निवेश के तौर पर पश्चिमी देशों जैसी समझ न रखने वाली इंडोनेशिया की सरकारें आर्थिक परिदृश्य में व्यापक परिवर्तन नहीं कर सकीं और नतीजा आज सामने है.
इंडोनेशिया के मंत्रियों के बयानों से साफ है कि अंतरराष्ट्रीय व्यापक सहयोग और दोस्ताना दखल के बिना इन देशों में जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण संरक्षण के मुद्दे हमेशा विकास के सवालों के आगे धूमिल पड़ेंगे - और इसके जिम्मेदार सिर्फ इंडोनेशिया जैसे देश और वहां की जनता नहीं होंगे. पश्चिमी देशों की भी इसमें बराबर की भूमिका होगी. विकसित देशों पर यह नैतिक जिम्मेदारी है कि वह कार्बन उत्सर्जन कम करने और पर्यावरण संरक्षण में ज्यादा जिम्मेदार भूमिका निभाएं क्योंकि ऐतिहासिक रूप से ग्लोबल वॉर्मिंग के लिए वो ज्यादा जिम्मेदार हैं और उनके प्रति व्यक्ति कार्बन पदचिन्ह विकासशील देशों से कहीं ज्यादा बड़े हैं.
भविष्य का रास्ता
अभी भी सब कुछ बिगड़ा नहीं है और पर्यावरण को बचाने की कवायद भी जारी है. इस दिशा में एक बड़ा कदम तब उठाया गया जब ग्लास्गो में ही भारत, इंडोनेशिया, फिलीपींस, और दक्षिण अफ्रीका को क्लाइमेट इन्वेस्टमेंट फंड की तरफ से एक्सेलरेटिंग कोल ट्रांजीशन (एक्ट) प्रोग्राम में शामिल करने की घोषणा की गई. क्लाइमेट इन्वेस्टमेंट फंड्स (CIF) की अरबों डॉलर की यह योजना कोयले को छोड़कर नवीकरणीय ऊर्जा संसाधनों की ओर जाने को गति देने का हिस्सा है.
अरबों डॉलरों की यह परियोजना जी -7 देशों के समर्थन से चलेगी जिसका मूल उद्देश्य है कि भारत, इंडोनेशिया, फिलीपींस, और दक्षिण अफ्रीका में कोयले की खपत कम की जाय, इन देशों में कोयला - आधारित संयंत्रों के बदले स्वच्छ ऊर्जा-आधारित संयंत्र लगाए जाएं ताकि स्वच्छ ऊर्जा के उपयोग की राह प्रशस्त हो सके.
यह निस्संदेह एक अच्छी शुरुआत है. जी -7 के बड़े विकसित देशों से उम्मीद की जाती है कि वह विकाशील देशों के साथ इसी तरह की परियोजनाएं कृषि क्षेत्र में व्यापक स्तर पर शुरू करेंगे. पर्यावरण संरक्षण सभी देशों की साझा जिम्मेदारी है. लेकिन इसका निर्वहन विकसित देशों के सकारात्मक नेतृत्व और हैंडहोल्डिंग के बिना नहीं हो सकता. (dw.com)
अंगेला मैर्केल पदमुक्त हो रही हैं. उन्होंने डॉयचे वेले से अपनी सफलताओं, चुनौतियों और भावी संभावनाओं पर विस्तार से बात की. पढ़िए, डॉयचे वेले को दिए इस एक्सक्लूसिव इंटरव्यू का कुछ खास हिस्सा.
अंगेला मैर्केल जा रही हैं. चांसलर पद पर उनके आखिरी दिन चल रहे हैं. 16 साल लंबे अपने कार्यकाल के बारे में जब डॉयचे वेले के समाचार प्रमुख माक्स हॉफमन से उन्होंने बर्लिन के चांसलर कार्यालय में बातचीत की तो एक तनाव मुक्त मुस्कुराहट लगातार उनके चेहरे पर बनी रही. इस बातचीत में उन्होंने अपनी दो सबसे बड़ी चुनौतियों, निराशाओं और अपने संभावित उत्तराधिकारी ओलाफ शॉल्त्स के बारे में विस्तार से चर्चा की.
अक्टूबर में यूरोपीय संघ के नेताओं की अपनी आखिरी बैठक में मैर्केल पर आरोप लगा कि वह ‘समझौते करने वाली मशीन' हैं. मैर्केल कहती हैं, "बेशक मैं मशीन नहीं हूं, लेकिन इंसान तो हूं."
अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में नीतिनिर्माण को लेकर अपने रवैये के बारे में वह कहती हैं, "ऐसी बातचीत में मैं हमेशा खुले दिमाग से शामिल होती हूं." मैर्केल ने यह भी बताया कि ऐसे नेताओं से बात करते वक्त वह क्या सोचती हैं, जिनके मूल्य उनसे अलग हैं. वह कहती हैं, "मैं यह जरूर कहना चाहूंगी कि अगर कोई दुनिया को आपसे एकदम भिन्न तरीके से देखता है तो भी आपको उसकी बात सुननी चाहिए. अगर हम एक दूसरे को सुनेंगे ही नहीं तो हम कभी हल भी नहीं खोज पाएंगे."
मिसाल बने जर्मनी
बातचीत के दौरान कार्यवाहक चांसलर ने उन बातों पर जोर दिया जिन्हें लेकर उन्हें गर्व है, जैसे कि अपने सहयोगियों के साथ मजबूत रिश्ते बनाए रखना या फिर जर्मनी में कोयले की विदाई की शुरुआत करना. लेकिन वह उन मुद्दों पर बात करने से भी नहीं झिझकीं, जो उन्हें लगता है कि अलग तरह से हो सकती थीं.
पर्यावरण के लिए उठाए गए कदमों पर मैर्केल ने कहा, "अन्य देशों से तुलना की जाए तो हम जर्मनी में ठीकठाक कर रहे हैं लेकिन हम ओद्यौगिकीकरण के अगुआ देशों में से हैं और यह जर्मनी की जिम्मेदारी है कि नई तकनीक व वैज्ञानिक सूझबूझ के साथ उदाहरण बनकर नेतृत्व करे."
वैसे मैर्केल ने यह भी कहा कि जर्मनी की राजनीतिक व्यवस्था ऐसी है कि नेता को नया कानून लाने से पहले आम सहमति बनानी पड़ती है. वह कहती हैं, "हमें अपने फैसलों के लिए हमेशा बहुमत की जरूरत होती है. यह ऐसा मुद्दा है जिस पर मैं पर्यावरण कार्यकर्ताओं के साथ बार-बार बात करती हूं. वे कहते हैं कि ऐसा तो आपको अभी करना होगा. और मैं कहती हूं कि मुझे बहुमत तो जुटाना ही होगा. समाज की बहुत सारी अपेक्षाए हैं, बहुत सारे भय हैं. मैं इसके लिए प्रतिबद्ध रही, फिर भी मैं आज ऐसा नहीं कह सकती कि नतीजे संतोषजनक रहे."
ग्लासगो के जलवायु सम्मेलन के बारे में वह कहती हैं कि वहां बहुत से नतीजे हासिल किए गए हैं लेकिन युवाओं के नजरिए से देखा जाए तो प्रक्रिया बहुत धीमी है.
अफगानिस्तान पर निराशा
अंगेला मैर्केल को लगता है कि अफगानिस्तान में नतीजा अलग रहता तो अच्छा होता. वह कहती हैं, "बेशक, हम इस बात को लेकर बेहद निराश हैं कि जो हम हासिल करना चाहते थे वो नहीं कर पाए. खास तौर पर अपने पैरों पर खड़ा हो सकने वाली एक राजनीतिक व्यवस्था, एक ऐसी व्यवस्था जिसमें लड़कियां स्कूल जा सकें, महिलाएं अपनी इच्छाएं पूरी कर सकें और शांति स्थायी तौर पर बनी रहे."
अफगानिस्तान पर बात करते वक्त वह कुछ देर के लिए गंभीर हो जाती हैं. वह कहती हैं, "बातचीत के दौरान अक्सर मैं पूछती हूं कि क्यों इतने सारे अफगान लड़के यहां आना चाहते हैं जबकि हमारे सैनिक वहां तैनात हैं. फिर भी, हमें यह तो स्वीकार करना ही होगा कि सदिच्छाओं के बावजूद हम वैसी व्यवस्था नहीं बना पाए जैसी हम वहां देखना चाहते थे. इसका इल्जाम अकेले जर्मनी के सिर पर नहीं है. अफगान भी अपनी जिम्मेदारी नहीं निभा पाए. बस यह बहुत अफसोस की बात है."
सबसे ज्यादा मुश्किल वक्त
नेता के तौर पर वे दो सबसे बड़े मरहले क्या रहे, जब उन्हें सबसे ज्यादा संघर्ष करना पड़ा? इस सवाल पर मैर्केल कहती हैं, "दो बड़ी घटनाएं जो निजी तौर पर मुझे बहुत चुनौतीपूर्ण लगीं, वे थीं (2015 में) बड़ी तादाद में यहां शरणार्थियों का आना जिसे मैं संकट कहना पसंद नहीं करती क्योंकि लोग तो लोग होते हैं. एक तो दबाव था कि सीरिया और उसके पड़ोसी देशों से बड़ी संख्या में लोग भाग रहे थे. और अब यह कोविड-19 महामारी. शायद ये वे दो संकट थे जब मैंने देखा कि लोग कैसे एकदम सीधे तौर पर प्रभावित हो रहे थे, जिंदगियां मुश्किल में थीं. मेरे लिए ये सबसे बड़ी चुनौतियां थीं."
चांसलर कहती हैं कि यूरोपीय संघ को अभी भी माइग्रेशन और शरणार्थियों के बारे में एक साझा व्यवस्था बनाने की जरूरत है. उन्हें लगता है कि जहां से शरणार्थी आते हैं और जहां सबसे पहले पहुंचते हैं, इन देशों के बीच एक स्वतः संभावित संतुलन बनाने की जरूरत है ताकि शरणार्थियों को मदद भी मिले और लोगों के भागने की वजह भी दूर की जा सकें.
2015 में जब शरणार्थी जर्मनी पहुंच रहे थे तो अंगेला मैर्केल का एक बयान बहुत चर्चित रहा था. उन्होंने कहा था, "हम यह कर सकते हैं." आज मैर्केल मानती हैं कि सब वैसा नहीं रहा जैसा होना चाहिए था. हालांकि जर्मनी ने जितनी बड़ी तादाद में शरणार्थियों पनाह दी, उसे मैर्केल एक बड़ी सफलता मानती हैं. उनमें से बहुत से शरणार्थी अब देश में स्थायी तौर पर रहते और काम करते हैं.
वह कहती हैं, "हां ये हमने कर तो दिया. लेकिन यहां हम से अर्थ उन जर्मनों से है जिन्होंने ऐसा करने में मदद की. बहुत से मेयर, बहुत से स्वयंसेवक और वे लोग जो आज भी मदद कर रहे हैं जैसे कि उन लोगों के नए दोस्त, पड़ोसी और सहकर्मी."
उत्तराधिकारी पर भरोसा
अपने उत्तराधिकारी का जिक्र आने पर अंगेला मैर्केल के चेहरे पर एक खास तरह की मुस्कुराहट उभरती है. शॉल्त्स को वह अपने साथ जी20 की बैठक में रोम भी ले गई थीं. हालांकि वह कहती हैं कि ऐसा करने में उनके बड़प्पन जैसी बात नहीं थी क्योंकि वित्त मंत्री होने के नाते शॉल्त्स को यूं भी बैठक में होना ही था. लेकिन यह भी सच है कि मैर्केल शॉल्त्स को बंद दरवाजों के पीछे होने वालीं कई बैठकों में लेकर गईं, जो सद्भावना का एक प्रतीक था.
शॉल्त्स और मैर्केल अलग-अलग राजनीतिक दलों से आते हैं. शॉल्त्स वामपंथी झुकाव वाली सोशल डेमोक्रैटिक पार्टी से हैं, लेकिन मैर्केल को अपने उत्तराधिकारी पर पूरा भरोसा है. वह कहती हैं, "मुझे लगा कि ओलाफ शॉल्त्स का द्विपक्षीय चर्चाओं का हिस्सा होना एक जरूरी संकेत था. इस तरह मैं कह सकती थी कि वहां जो शख्स बैठा है, अगली बैठक में जर्मन सरकार के मुखिया के रूप में संभवतया आप उससे बात करेंगे. मुझे लगा ये जरूरी था."
वह कहती हैं कि यह संकेत देना भी जरूरी था कि जर्मनी के मौजूदा और भावी चांसलर के बीच अच्छे रिश्ते हैं. उन्होंने कहा, "डगमगाती दुनिया में यह संकेत भरोसा जगाता है. मुझे लगा कि ऐसा करना सही था."
आखिर में चांसलर से पूछा गया कि 16 साल बाद चांसलरी में किसी और को देखना कैसा होगा, तो उनके चेहरे पर वही तनावमुक्त मुस्कुराहट लौट आई. उन्होंने कहा, "आपको इसकी आदत हो जाएगी."
बीजिंग. चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग जल्द ही तीसरे कार्यकाल के लिए नामित होने वाले हैं. इसके लिए कम्युनिस्ट पार्टी इस हफ्ते एक अहम सम्मेलन करने जा रही है. बीजिंग में शुरू होने वाली एक उच्च स्तरीय बैठक में पार्टी के 100 साल के इतिहास का आधिकारिक तौर पर पुनर्मूल्यांकन करने वाला एक संकल्प जारी किया जाएगा. जिसके बाद शी जिनपिंग को जो माओत्से तुंग और देंग शियाओपिंग के बाद चीन का एक युगांतरकारी नेता घोषित किया जा सकता है. यह बैठक 11 नवंबर तक चलेगी.
न्यूजीलैंड में स्थित चीन के इतिहासकार गेरेमी आर बर्मे ने कहा कि हाल के दिनों में कोई भी चीनी नेता शी जिनपिंग की तरह चीन के इतिहास में वैसी जगह नहीं बना पाया है. यह बैठक कम्युनिस्ट पार्टी और शी जिनपिंग के इर्द-गिर्द चीन के लिए एक नया टाइमस्केप बनाने के बारे में है. पार्टी अतीत के विकास को लेकर भविष्य में उनके लिए और जनाधार बढ़ाना चाहती है.
68 साल के शी जिनपिंग इस दशक में चीन के सबसे बड़े नेता बनकर उभरे हैं. उन्होंने देश में फैले भ्रष्टाचार और गरीबी के खिलाफ निर्णायक काम भी किया है. चीन की ताकत को दुनिया के सामने पेश करने के लिए शी जिनपिंग को व्यापक जनसमर्थन भी मिला है. युगांतकारी नेता घोषित होने के बाद शी जिनपिंग के खिलाफ बयानबाजी को चीन में अपराध की श्रेणी में डाला जा सकता है. ऐसे में उनके खिलाफ उठी हर आवाज को दबा दिया जाएगा. कम्युनिस्ट पार्टी के मुखपत्र पीपुल्स डेली में शी जिनपिंग को हीरो की तरह चित्रित किया जा रहा है.
शी जिनपिंग से पहले रहे सभी राष्ट्रपति पांच साल के दो कार्यकाल या 68 साल की आयु होने के अनिवार्य नियम के बाद सेवानिवृत्त हो चुके हैं. हालांकि, 2018 में संविधान में हुए एक अहम संशोधन के मद्देनजर शी जिनपिंग को तीसरे कार्यकाल के लिए चुने जाने की संभावना है. सीपीसी की अगले साल होने वाली कांग्रेस से पहले पूर्ण सत्र आयोजित किया जा रहा है. कांग्रेस में नये नेता की नियुक्ति हो सकती है. शी को छोड़कर पार्टी के अन्य सभी पदाधिकारी दो कार्यकाल पूरा होने के बाद सेवानिवृत्त हो सकते हैं जिनमें प्रधानमंत्री ली क्विंग भी शामिल हैं.
शी जिनपिंग चीनी साम्यवादी पार्टी के एक पुराने नेता शी झोंगशुन के बेटे हैं. साम्यवादी पार्टी के अपने शुरुआती दौर में उन्होंने फ़ूज्यान प्रांत में काम किया. उसके बाद उन्हें पड़ोस के झेजियांग प्रांत का पार्टी नेता नियुक्त किया गया. इसके बाद शंघाई में चेन लियांगयू के भ्रष्टाचार के आरोपों पर सेवा से निकाले जाने पर उन्हें उस महत्वपूर्व क्षेत्र का पार्टी प्रमुख बनाया गया. शी भ्रष्टाचार पर अपने कड़े रुख़ और राजनैतिक व आर्थिक व्यवस्था में सुधार लाने के लिए दो टूक बातें करने के लिए जाने जाते हैं. उन्हें चीनी साम्यवादी पार्टी के नेतृत्व की पांचवी पीढ़ी का प्रधान कहा जाता है.
-माइकल वाइल्ड
अशोक कुमार उत्तर-पूर्वी इंग्लैंड का संसद में प्रतिनिधित्व करने वाले पहले अश्वेत सांसद थे.
नस्लवाद और व्यक्तिगत चुनौतियों का सामना करने वाले भारतीय मूल के रसायन इंजीनियर अशोक कुमार ब्रितानी संसद के सबसे सम्मानित सांसदों में से एक बने.
तीस साल पहले हुए उप-चुनाव में जीत हासिल करके अशोक कुमार ने सबको चौंका दिया था.
मार्च 2010 की उस दोपहर नॉर्थ यॉर्क मूर्स की पत्थर से बनी सड़कों पर एक शवयात्रा निकल रही थी. लोग समूहों में दुकानों के दरवाज़ों पर खड़े थे. कुछ के हाथों में शॉपिंग बैग थे तो कुछ ने कसकर रूमाल पकड़े हुए थे.
शववाहन के आगे एक बुज़ुर्ग चल रहा था, उसकी कमर और सिर झुके हुए थे. पीछे-पीछे परिवार के दूसरे लोग चल रहे थे. इन सबके पीछे उनके सांसद बेटे अशोक कुमार का ताबूत था.
अशोक कुमार की शवयात्रा
गाइसबोरो के लाल ईंटों से बने मेथोडिस्ट चर्च में हुई प्रार्थना सभा में लेबर पार्टी के मंत्री हैरियट हर्मन ने अशोक कुमार को याद करते हुए कहा कि वो बहुत कम उम्र में चले गए. रवि कुमार ने अपने भाई को याद करते हुए कहा कि वो दूसरे के दर्द को महसूस करते थे.
कुमार बचपन में अपने दो भाइयों और माता-पिता के साथ भारत के हरिद्वार से इंग्लैंड पहुंचे थे. उनके पिता एक पोस्टमास्टर थे जिन्हें काम खोजने के लिए बहुत संघर्ष करना पड़ा था. कुमार ने पहले स्थानीय सेकेंड्री स्कूल में पढ़ाई की और फिर एस्टन यूनिवर्सिटी से केमिकल इंजीनियर की डिग्री ली और आगे चलकर पीएचडी भी की.
1980 के दशक में कुमार इंपीरियल कॉलेज लंदन के साथ तीन साल काम करने के बाद टीसाइड में ब्रिटिश स्टील के साथ रिसर्च साइंटिस्ट के तौर पर जुड़ गए.
उनके अपने मज़बूत राजनीतिक विचार थे और काम के बाद वो स्थानीय मुद्दों पर समुदाय के बीच काम करते थे. 1987 में वो मिडिल्सबोरो के अकेले एशियाई मूल के काउंसलर थे.
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कंज़र्वेटिव सांसद रिचर्ड होल्ट की 1991 में अचानक मौत के बाद पास की ही संसदीय सीट लैंगबार्फ़ खाली हो गई थी. कुमार के समर्थक चाहते थे कि उप-चुनाव की रेस में वो भी शामिल हों.
ट्रेड यूनियन कुमार का समर्थन कर रही थीं और उनके पास स्टील उद्योग की समस्याओं की जानकारी भी थी लेकिन लेबर पार्टी के कुछ लोगों को आशंका थी कि वोटर एक एशियाई उम्मीदवार को वोट देंगे या नहीं.
लैंगबार्फ़ लेबर पार्टी के गढ़ रहे हार्टलपूल, मिडिल्सबोरो, स्टॉक्टन नॉर्थ और रेडकार सीटों से कुछ ही मील दूर थी लेकिन ये अलग ही दुनिया थी.
इस सीट में स्किनग्रोव और लोफ्टस जैसे कई ओद्योगिक क़स्बे थे और साथ ही क्लीवलैंड वे और जेनटील तटीय रिजॉर्ट साल्टबर्न के दूरस्थ कृषि समुदाय भी थे.
ये इंग्लैंड की सर्वाधिक गोरे वोटों वाली सीट भी थी. कुमार के व्यक्तित्व को लेकर भी कुछ चिंताएं थीं. कुछ समय बाद ही राष्ट्रीय चुनाव थे ऐसे में देशभर के मीडिया की नज़रें भी इस सीट पर थीं.
कुमार एक विनम्र व्यक्ति थे जो कम ही बोलते थे. वो अधिकतर शामें अकेले अपने घर में राजनीतिक सिद्धांत पढ़ते हुए और जैज़ संगीत सुनते हुए बिताते थे. ऐसे में गरम राजनीतिक माहौल इस शांत काउसंलर के बहुत अनुकूल नहीं था.
लेकिन स्टील और कोयला उद्योग की गहन जानकारी की वजह से पार्टी के नेता उन्हें पसंद करते थे और जल्द ही उनकी उम्मीदवारी पर मुहर लग गई.
लेकिन उप-चुनाव जितना उन्होंने लोगों ने सोचा था उससे कहीं ज़्यादा मुश्किल साबित हुआ.
चुनावी अभियान की हर सुबह एक जैसी ही होती थी. उम्मीदवार अस्थाई मंच पर होते थे, अगल-बगल में शैडो मंत्री खड़े होते थे और सभी ने लाल गुलाब लगाया होता था.
मार्गेरेट बैकेट, जॉन प्रैसकोट, जॉन स्मिथ, गोर्डन ब्राउन जैसे विपक्ष के बड़े नेता उत्तर-पूर्व के इस इलाक़े के दौरे कर रहे थे. स्थानीय कॉलेजों और नर्सिंग केंद्रों में फोटो खिंचवाए जाते थे.
आमतौर पर शांत रहने वाले अशोक कुमार मीडिया के सामने पार्टी के दूसरे नेताओं को पेश करके ख़ुश थे. लेकिन सोमवार 19 अक्तूबर को जब प्रचार का तीसरा दिन ही था तब प्रेसवार्ता में कुमार की सीट खाली थी.
हैरियट हर्मन ने संक्षिप्त बयान देते हुए बताया कि उनकी मां का देहांत हो गया है और वो अपने घर चले गए हैं. लेकिन चुनाव अभियान में कोई बदलाव नहीं किया गया. हर्मन योजनानुसार मतदाताओं से मिलने गाइसबोरो के अस्पताल में चली गईं.
कुमार भी अगले दिन चुनाव अभियान में लौट आए थे. इसी बीच कंज़र्वेटिव पार्टी इस बात पर ज़ोर दे रही थी कि उनके सामने एक कमज़ोर उम्मीदवार है.
लेबर पार्टी के चुनाव प्रचार में कुमार की जिस संख्या में तस्वीरें प्रकाशित हो रहीं थीं उतनी ही कंज़र्वेटिव पार्टी भी अपने राजनीतिक साहित्य में इस्तेमाल कर रही थी. ऐसा उनके भारतीय मूल पर ध्यान केंद्रित करने के लिए किया जा रहा था.
कंज़र्वेटिव पार्टी ने नारा दिया था- 'योर लोकल टोरी- योर स्ट्रेट च्वाइस'. लेबर पार्टी ने इसे कुमार के व्यक्तिगत जीवन पर निशाना माना था. कुमार के बीवी-बच्चे नहीं थे. हालांकि कंज़र्वेटिव पार्टी ने इन आरोपों को खारिज किया था. अनाधिकारिक पर्चे भी बांटे गए थे जिनमें भद्दी भाषा का इस्तेमाल किया था और नस्लवादी टिप्पणियां की गईं थीं.
लंबे थकाऊ और विवादित चुनाव अभियान के बाद कुमार ने जीत तो दर्ज की लेकिन अंतर सिर्फ़ 1975 वोटों का ही रहा. कुमार ने जीत के बाद पत्रकारों से कहा था कि व्यक्तिगत हमलों ने उन्हें दुख पहुंचाया और ये बहुत 'पीड़ादायक' चुनाव अभियान था.
सच ये था कि कुमार का दुख इससे भी कहीं गहरा था. वो अपनी मां के देहांत से पीड़ा में थे. वो उनकी मौत का ग़म मना भी नहीं पाए थे कि उन्हें लेबर के नए सांसद के रूप में वेस्टमिंस्टर पहुंचना पड़ा.
संसद में उनका कार्यकाल बहुत लंबा नहीं रहा. मार्च 1992 में जॉन मेयर ने संसद भंग करके आम चुनावों की घोषणा कर दी. इस बार कंज़र्वेटिव पार्टी के माइकल बेट्स ने जीत हासिल की और कुमार ब्रिटिश स्टील के साथ नौकरी पर लौट गए.
चार साल बाद जब संडरलैंड से सांसद क्रिस मलिन की कुमार से मुलाक़ात हुई तो वो नई बनी मिडिल्सबोरो साउथ एंड ईस्ड क्लीवलैंड सीट के उम्मीदवार नामित हो चुके थे.
अपनी डायरी में मलिन ने लिखा था कि कुमार अपनी जीत को लेकर बहुत आशंकित थे. लेकिन उन्हें इतनी चिंता करनी नहीं चाहिए थे. उन्होंने टोनी ब्लेयर के नेतृत्व में लेबर पार्टी की 1997 की लहर में 10 हज़ार से अधिक वोटों से ये सीट जीत ली.
अशोक कुमार धर्मनिर्पेक्ष थे और ब्रिटिश ह्यूमैनिस्ट एसोसिएशन से जुड़े थे लेकिन मौके पर वो हिंदुओं के हित में बोलते थे. 2005 के हमलों के बाद जब हिंदुओं पर टिप्पणियां की गईं तो उन्होंने खुलकर इसकी आलोचना की.
अशोक कुमार पर नस्लीय हमले होते रहे, साल 2004 में दक्षिणपंथी समूहों ने उन्हें जान से मारने की धमकी दी.
लेकिन व्यक्तिगत स्तर पर उनका सबसे बड़ा संघर्ष इराक़ युद्ध को लेकर था जिसका उन्होंने समर्थन किया था जबकि उनकी अपनी लेबर पार्टी के बहुत से सदस्य इसके विरोध में थे.
कुमार ऐसे सांसद थे जो संसद की लाइब्रेरी में अधिक समय बिताते थे और पब और दूसरी सामाजिक जगहों पर कम ही दिखते थे. मिलनसार ना होने की कीमत भी उन्हें चुकानी पड़ी और वो कभी बैकबैंच से आगे निकलकर मुख्य भूमिका में नहीं आ पाए.
2010 में चुनाव अभियान के बीच ही हार्ट अटैक से उनकी मौत हो गई. वो शुक्रवार को वेस्टमिंस्टर से मार्टन में अपने घर के लिए निकले थे, जहां वो अकेले रहते थे. सोमवार को जब उनके दफ़्तर के कर्मचारी उनसे संपर्क नहीं कर पाए तो उन्हें लेकर चिंता हुई. बाद में उनकी मौत के बारे में पता चला.
टोनी ब्लेयर ने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए कहा कि नज़दीकी सीट से सांसद के रूप में वो उत्तर-पूर्वी इंग्लैंड के लिए उनकी प्रतिबद्धता को जानते थे.
तत्कालीन प्रधानमंत्री गोर्डन ब्राउन ने कहा कि वो टीसाइड के लोगों के शुभचिंतक थे और उनके मुद्दों को उठाते थे.
उनकी मौत के बाद उनके दफ़्तर में सैकड़ों लोगों ने फ़ोन किया और स्थानीय अख़बारों में उनके बारे में पत्र लिखे गए.
अशोक कुमार अपने क्षेत्र के लोगों के मुद्दों को उठाने के लिए हरसंभव प्रयास करते थे. उनके पास अनुभवी और समर्पति लोगों की टीम थी.
उप-चुनाव में जीतने के कुछ महीने बाद ही सीट हारने के बाद ही उन्हें समझ आ गया था कि वो अपने समर्थकों को हल्के में नहीं ले सकते हैं. यही वजह थी कि वो अपने मतदाताओं से व्यक्तिगत स्तर पर जुड़े.
उनकी मौत के बाद शोक प्रकट करते हुए एक स्थानीय निवासी ने एक पत्रकार से कहा था कि कुमार हर किसी के लिए खड़े रहते थे, उनके लिए ये मायने नहीं रखता था कि उनके पास आया व्यक्ति कौन है या किस नस्ल से है.
कुमार ने स्टील उद्योग से जुड़े लोगों के हितों के लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाया था.
उनके एजेंट और दोस्त डेविड वॉल्श ने कहा था कि कुमार ना ही कभी वेस्टमिंस्टर के प्रभावशाली गुटों का हिस्सा रहे. वो अपने आप को वैज्ञानिक जगत में भी अलग-थलग ही पाते थे.
वो कहते हैं, "उस दौर में विज्ञान जगत में भी अधिकतर उच्च पदों पर गौरे लोग ही थे. उन्होंने बौद्धिक स्तर पर महान उपलब्धियां हासिल की थीं लेकिन उन्हें लगता था कि कभी-कभी उन्हें सिर्फ़ एक भारतीय रसायनिक ही समझा जाता है."
मेक्सिको सिटी, 7 नवंबर | मध्य मैक्सिको में चाल्को नगर पालिका के पास एक राजमार्ग पर कई वाहनों के टकरा जाने से 19 लोगों की मौत हो गई । इस हादसे में तीन लोग घायल हो गए।
मेक्सिको के फेडरल रोड्स एंड ब्रिजेज एंड रिलेटेड सर्विसेज (कैपुफे) के अनुसार, दुर्घटना तब हुई जब एक कार्गो ट्रक के ब्रेक में अचानक. खराबी आने से राजमार्ग पर एक टोल बूथ पर अन्य छह वाहनों से टकरा गई।
समाचार एजेंसी सिन्हुआ ने कैपुफे के हवाले से बताया कि मरने वालों में ट्रक चालक भी शामिल है और घायलों को नजदीकी चिकित्सा क्लीनिक भेजा गया है।
हादसों में कई वाहनों में आग लग जाने के कारण वाहनों को हटाने का काम कई घंटे तक चला। (आईएएनएस)
यूरोप और मध्य एशिया में अगले साल फरवरी तक पांच लाख लोगों की मौत हो सकती है. सर्दी का मौसम इन क्षेत्रों में कहर बरपा सकता है.
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने आशंका जताई है कि यूरोप और मध्य एशिया में अगले साल फरवरी तक पांच लाख लोगों की मौत हो सकती है. डबल्यूएचओ के यूरोपीय निदेशक ने कहा है कि यूरोप और मध्य एशिया एक बार फिर कोविड-19 का केंद्र बन गए हैं और 1 फरवरी तक लाखों और लोग मर सकते हैं.
क्षेत्रीय निदेशक डॉ. हांस क्लूगे ने कहा कि पिछले एक महीने में इस क्षेत्र में आ रहे कोरोनावायरस के मामलों में 55 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. इसकी मुख्य वजह टीकाकरण की धीमी रफ्तार और रोकथाम के उपायों की कमी बताई गई है. क्लूगे ने कहा कि इस कारण बीते चार हफ्ते में यूरोप और मध्य एशिया दुनियाभर में 59 प्रतिशत कोविड मामलों और 48 प्रतिशत मौतों के लिए जिम्मेदार रहा.
सर्दी के मौसम में कोरोना वायरस का कहर और तीव्र होने की आशंका है. क्लूगे के मुताबिक सर्द मौसम में लोगों का बंद जगहों में ज्यादा संख्या में जमा होना, मास्क का कम इस्तेमाल करना और डेल्टा वेरिएंट भी इस बढ़त के लिए जिम्मेदार हैं.
बचाई जा सकती हैं जानें
डबल्यूएचओ के विशेषज्ञों के मुताबिक इस क्षेत्र में एक अरब टीके लगाए जा चुके हैं लेकिन करीब 47 प्रतिशत आबादी ही पूरी तरह टीकाकृत है. क्लूगे ने बताया कि क्षेत्र के आठ देश ऐसे हैं जिनकी 70 प्रतिशत आबादी पूरी कोविड वैक्सीन ले चुकी है जबकि अन्य देशों में यह आंकड़ा 10 प्रतिशत से नीचे है. उन्होंने कहा कि अगर यूरोप और मध्य एशिया के 95 प्रतिशत लोग मास्क का इस्तेमाल करें तो वे अगले चार महीने में एक लाख 88 हजार जानें बचा सकते हैं.
डब्ल्यूएचओ के आपातकाल दल की डॉ कैथरीन स्मॉलवुड के मुताबिक इन क्षेत्रों में संक्रमण की दर बहुत ज्यादा है. उन्होंने कहा, "सिर्फ किसी एक देश में नहीं बल्कि यूरोपीय क्षेत्र में संक्रमण की दर बहुत ज्यादा है. बेशक, यूरोप एक महाद्वीप के तौर पर बहुत ज्यादा जुड़ा हुआ है और यह महामारी के फिर से फैलने की वजह हो सकता है.”
यूरोप में वैक्सीन को लेकर झिझक
विशेषज्ञों के मुताबिक पूर्वी यूरोप में वैक्सीनेश की दर चिंताजनक रूप से कम है और वहां कई देश वायरस को रोक पाने में संघर्ष कर रहे हैं. डॉ स्मॉलवुड ने बताया कि इन देशों में बड़ी संख्या में गर्भवती महिलाएं कोविड ग्रस्त हैं और अस्पतालों में भर्ती हैं, जिन्हें कोविड वैक्सीन के बारे में और ज्यादा जागरूक किए जाने की जरूरत है.
डबल्यूएचओ यूरोप क्षेत्र में 53 देशों को गिनता है. इनमें यूरोपीय देशों के अलावा तुर्की, यूक्रेन और रूस समेत मध्य एशिया के देश भी शामिल हैं.
इस क्षेत्र में संक्रमण की दर को लेकर विशेषज्ञ खासे चिंतित हैं. डॉ क्लूगे चेताते हैं कि अब ढिलाई बरतने की गुंजाइश नहीं है. उन्होंने कहा कि अब वायरस को रोकने के लिए पहले से ज्यादा तरीके और संसाधन उपलब्ध हैं और उन्हें समुदाय तक पहुंचाए जाने की जरूरत है ताकि बड़े नुकसान को रोका जा सके.
वीके/एए (डीपीए, एपी)
जेम्स वेब अंतरिक्ष दूरबीन के लॉन्च होने के साथ हमें कई सारे सवालों के जवाब मिल सकते हैं. "प्रारंभिक ब्रह्मांड कैसा दिखता था?" ये सवाल भी उनमें से एक है.
डॉयचे वैले पर एस्तेबान पार्दो की रिपोर्ट
कल्पना कीजिए कि आप अपने पुराने फैमिली अल्बम को पलट रहे हैं. आप पीछे से शुरू करते हैं. अपने चौथे जन्मदिन से आप प्लैनेट पिनाटा पार्टी की तस्वीरों तक पहुंचते हैं और आप में से कुछ उस समय बच्चे ही हैं. लेकिन तभी आप महसूस करते हैं कि इससे पहले की कोई तस्वीर ही नहीं है. आपके जीवन की तस्वीरें तभी से उतारी गई हैं जबसे आप शैशव से बाहर निकले थे.
तभी कोई आता है और आपकी शैशव काल की कुछ पुरानी तस्वीरें दिखाने की पेशकश करता है. शायद आपका उन्हें देखने का मन हो.
अब कल्पना कीजिए कि समूचे ब्रह्मांड की ऐसी तस्वीरें देखने का मौका आपको मिल जाता है. नई और आकर्षक जेम्स वेब अंतरिक्ष दूरबीन ठीक यही कर रही है. 28 दिसंबर 2021 को इसे लॉन्च किया जाना है. ये दूरबीन ब्रह्मांड के बारे में हमारी समझ को पूरी तरह बदल कर रख सकती है.
दूरबीनों की मदद से हम दूरस्थ पिंडों को देख सकते हैं. ज्यादातर दूरबीनें प्रकाश को जमा करने और उसे फोकस करने के लिए आईनों का इस्तेमाल करती हैं. जितना बड़ा शीशा होगा, दूरबीन भी उतनी शक्तिशाली होगी. आप उन्हें पहाड़ों पर और रेगिस्तानों में देख सकते हैं और उपग्रहों के ऊपर भी वे लगी रहती हैं. अंतरिक्ष में होने का मतलब ये है कि धरती के वायुमंडल से किसी किस्म का अवरोध नहीं रहता है. इसके चलते बिल्कुल साफ और हाई रिजोल्युशन वाली छवियां मिलती हैं.
लेकिन अंतरिक्ष दूरबीनें अहम क्यों हैं, और हमें इसकी परवाह क्यों होनी चाहिए? हबल अंतरिक्ष दूरबीन की उपलब्धियां शायद हमें कुछ विश्वास करने लायक वजहें दे सकती हैं. इसके अलावा, हबल के बारे में बात किए बिना, जेम्स वेब के बारे में बात करना कठिन होगा.
हबल की विरासत
हम में से बहुत से लोगों के लिए हबल दूरबीन, अंतरिक्ष की हमारी खिड़की की तरह थी. उसके जरिए हमने देखा कि ब्रह्मांड कितना अविश्वसनीय तौर पर विशाल, जगमगाता और कभी कभार विचित्र और डरावना भी हो सकता है. हमें विभिन्न किस्मों और आकारों की आकाशगंगाएं और गैस के बादलों की स्तब्ध करने वाली ऐसी रंगीन तस्वीरें हासिल हुईं जिन्हें देखकर हमें पशुओं और अन्य छवियों की याद आई.
लेकिन हबल ने हमें सिर्फ तस्वीरें ही नहीं दी, और भी बहुत कुछ दिया. हमें ब्रह्मांड की उम्र का एक बेहतर अंदाजा मिल पाया, करीब 13.8 अरब वर्ष. हबल के जरिए ही इस बात की पुष्टि हुई कि ब्रह्मांड एक त्वरित दर से फैल रहा है जबकि बहुत से वैज्ञानिक पहले ऐसा नहीं मानते थे.
हबल अंतरिक्ष दूरबीन
फोटो अल्बम में लौटते हैं. गहरे उतर कर खींची गई हबल की तस्वीरों ने हमें अरबों प्रकाश वर्ष दूर, ब्रह्मांड के सबसे पुराने और दूरस्थ स्थित पिंडों की अभूतपूर्व छवियां मुहैया कराई हैं. क्योंकि प्रकाश को लंबी दूरियां तय करने में समय लगता है, हम बहुत दूर स्थित पिंडों को उनकी अरबों साल पहले की स्थिति में देख रहे होते हैं. हबल की मदद से हम ब्रह्मांड की शैशवावस्था की तस्वीरों तक ही जा सकते थे. यानी महाविस्फोट के बाद करीब 40 करोड़ साल पहले.
अगर हबल के जरिए हमने ये हासिल किया तो अब तक की सबसे बड़ी और सबसे जटिल और सबसे विस्तृत नई जेम्स वेब दूरबीन के जरिए हम कितनी ही निराली नई चीजें देख और सीख सकते हैं.
ब्रह्मांड की शिशु तस्वीरें
जेम्स वेब की मौलिक लॉन्च की तारीख को करीब 20 साल हो चुके हैं. दूरबीन को पूरा करने के लिए बहुत सारे तकनीकी प्रगति और यहां तक कि नये आविष्कारों की जरूरत थी. प्रोजेक्ट के समक्ष कई चुनौतियां और देरियां आई लेकिन अब ये तैयार है और इंतजार भी बेकार नहीं गया. ऐसा क्यों? आइए जानते हैं.
वेब दूरबीन में अंतरिक्ष में जाने वाला अब तक का सबसे बड़ा प्राथमिक आईना लगा है. 18 स्वर्ण-जड़ित षट्कोणीय छोटे दर्पण लगे हैं, और ये हबल से छह गुना से ज्यादा आकार के हैं. लेकिन इससे बारीक चीजों को पकड़ पाने की खूबी में सुधार आया है और वो इंफ्रारेड प्रकाश में भी देख सकती है. जबकि हबल दूरबीन मुख्यतः दृष्टिगोचर प्रकाश को ही देख पाती है, जैसे कि हम लोग.
सभी गर्म पिंड, इंफ्रारेड विकिरण उत्सर्जित करते हैं. मैं और आप भी. इंफ्रारेड प्रकाश का इस्तेमाल टीवी रिमोटों, नाइट विजन कैमरों और मौसमी उपग्रहों में भी किया जाता है. इंफ्रारेड प्रकाश में देख सकने का अर्थ ये है कि वेब ज्यादा दूर की और ज्यादा पुरानी चीजों को भी देख सकती है. ऐसा इसलिए क्योंकि, और आंशिक रूप से हबल का शुक्रिया, कि हम ये जानते हैं कि ये ऑब्जेक्ट हमसे जितना दूर होंगे, उतना ज्यादा उनका प्रकाश इंफ्रारेड की ओर मुड़ेगा. पिछली खोजों के आधार पर नयी चीजों की तलाश, विज्ञान यही है.
अगर हम बहुत प्रारंभिक तारों और गैलेक्सियों को देखना चाहते हैं, तो हमें उन्हें इंफ्रारेड रोशनी में देखने की जरूरत पड़ेगी. वेब दूरबीन पहली होगी जो दूरस्थ गैलेक्सियों को देख पाएगी और ये झलक दिखा पाएगी कि महाविस्फोट के 25 से 10 करोड़ साल पहले ब्रह्मांड कैसा दिखता था, यानी हमें ब्रह्मांड की पहली शिशु तस्वीरें ही नहीं संभवतः पहली आकाशगंगाओं की तस्वीरें भी मिल सकेंगीं.
इन बादलों में छोटे छोटे कण, दिखने वाले प्रकाश को रोकने में बहुत अच्छे हैं. हम अपनी आंखों से उनके पार नहीं देख सकते हैं, जैसे कि हम यहां किसी घने बादलों वाली रात में तारों-नक्षत्रों को नहीं देख सकते हैं. और हबल भी नहीं देख सकती है. लेकिन इंफ्रारेड प्रकाश पर काफी कम असर पड़ता है इसलिए जेम्स वेब दूरबीन के जरिए हम इन धूल के बादलों के पार जाकर न सिर्फ हम ये देख सकते हैं कि उनके पीछे क्या है बल्कि तारों और ग्रहों के गठन पर भी बेहतर निगाह डाल सकते हैं.
वेब का विशालकाय आकार एक बड़ी चुनौती पेश करता है. साढ़े छह मीटर (21 फुट) चौड़े दर्पण को अंतरिक्ष में भेजना आसान काम तो नहीं है, खासकर जब उसे ले जाने वाला रॉकेट अरियाने-5, पांच मीटर से ज्यादा चौड़ी किसी चीज को ले जाने में असमर्थ है.
इसलिए दूरबीन को इस तरह से डिजाइन किया गया है कि वो एक विशालकाय हाईटेक अरबों डॉलर वाले ओरीगामी टुकड़े की तरह फोल्ड हो सके और रॉकेट में फिट की जा सके. इसके अलावा क्योंकि दूरबीन सिर्फ करीब परमशून्य तापमानों (-223 डिग्री सेल्सियस) पर ही काम कर सकती है, तो उसे टेनिस कोर्ट के आकार वाली पांच परतों की सनशील्ड की जरूरत भी है जो उसे धूप से बचाए रख सके. और वो सनशील्ड भी फोल्ड की जा सकने वाली होनी चाहिए और फिर एक बार जगह पर बैठ जाने के बाद अनफोल्ड भी हो सके. ये एक दूसरी पेचीदा इंजीनियरिंग समस्या है.
लॉन्च के फौरन बाद, दूरबीन अपनी जटिल और सुंदर मुद्रा में खुलने लगेगी. उसकी इस निराली धज को पूरा खुलने में तीन सप्ताह लग जाएंगे. इस दौरान धरती पर स्थित नियंत्रण टीम को वेब के पहले हिस्से दूर से ही खोलने होंगे, ये वो ऑपरेशन है जिसे बहुत बारीकी और टाइमिंग के साथ अंजाम देना होता है. हर चीज मुकम्मल ढंग से होनी चाहिए, लॉन्च की गहमागहमी और हंगामे के बाद भी. गलती की कोई गुंजायश नहीं है, क्योंकि दूरबीन का आखिरी गंतव्य धरती से 15 लाख किलोमीटर दूर है. अगर किसी चीज ने ठीक से काम नहीं किया या वो खराब हुई तो मरम्मत का कोई मौका नहीं मिलेगा.
वेब जैसी दूरबीनें हमें ब्रह्मांड के अनदेखे हिस्सों, अदृश्य छिपे हुए तारों और ग्रहों और नई दुनियाओं तक पहुंच हासिल कराती हैं. और हमें नयी खोजों के मौके भी मुहैया कराती हैं. गैलेक्सियों के गठन के साथ साथ सितारों और ग्रहों के जन्म और बहुत शुरुआती ब्रह्मांड का रंगरूप दिखाने के वादे के अलावा वेब मिशन दिलचस्प और निराली अंतर्दष्टि भी मुहैया करा सकता है.
वेब दूरबीन निश्चित रूप से गहराई में उतरेगी और ब्रह्मांड के बारे में हमारी समझ, उसकी उत्पत्ति और प्रारंभिक दिनों को लेकर हमारी समझ को भी बदल सकती है. और कौन सी नई चीज़ें हम खोज पाएंगे? कौन सी नयी हैरानी भरी तस्वीरें अगली पीढ़ी के खगोलविदों और विज्ञान में रुचि रखने वालों को प्रेरित करेंगी? तो ये तारीख याद रखिए, 18 दिसंबर 2021, और इंतजार कीजिए कि सब कुछ अच्छे से हो जाए. क्योंकि यही वो दिन होगा जब ब्रह्मांड के बारे में हमारा नजरिया हमेशा के लिए बदल सकता है. (dw.com)
करंजी गाबा ब्रिटेन के पहले अफगान-सिख मॉडल हैं. ब्रिटेन में बहुत से सिख रहते हैं, लेकिन एक गैर-भारतीय सिख के तौर पर उनका पेशेवर सफर, सांस्कृतिक पहचान के संकट से जूझते एक युवा की कहानी है.
डॉयचे वैले पर स्वाति बक्शी की रिपोर्ट
लंदन में एक बड़ी फैशन रीटेल कंपनी के स्टोर में पगड़ी पहने एक सिख मॉडल की तस्वीर दिखना किसी अनोखी घटना से कम नहीं है. हालांकि तस्वीर ये नहीं बता सकती कि दीवार पर चस्पा उस शख्स ने ये सफर कैसे तय किया.
यह सफर है नौ साल की उम्र में अफगानिस्तान की सरहदें पार कर ब्रिटेन में कदम रखने वाले करंजी गाबा का. अब 23 साल के हो चुके करंजी ब्रिटेन में पहला अफगान-सिख फैशन मॉडल बनकर अपने जैसे युवाओं के सपनों को हवा दे रहे हैं. वह इस पहचान के साथ आगे बढ़ने का इरादा रखते हैं लेकिन एक अफगान-सिख रिफ्यूजी के तौर पर ब्रिटिश शहरों में बीते 14 सालों ने उन्हें कुछ ऐसे अनुभव करवाए जिसने उनके नजरिए को तराशा.
सोलहवीं सदी से अफगानिस्तान में रहने वाले सिखों के परिवार राजधानी काबुल समेत गजनी, जलालाबाद और बहुत सीमित रूप से कंधार में रहते हैं. 1980 के दशक में अफगान-सिखों की जनसंख्या लाखों में अनुमानित है जो नब्बे के दशक में हिंसाग्रस्त देश से हुए पलायन के चलते अब पांच सौ परिवारों से भी कम बताई जाती है.
अफगान-सिख पहचान का संकट
अफगान-सिखों के ब्रिटेन में पनाह लेने का सिलसिला नब्बे के दशक में तालिबान के सत्ता में काबिज होने के बाद से चल रहा है. करंजी बताते हैं कि उनका परिवार जलालाबाद शहर में कई पुश्तों से रह रहा था लेकिन 2007 में उनके पिता ने हिंसा के डर से देश छोड़कर ब्रिटेन में शरण लेने का फैसला किया. रिफ्यूजी बन कर आए नौ साल के करंजी ने पहले कुछ महीने लिवरपूल शहर में बिताए. बाद में वुल्वरहैंप्टन से होते हुए लंदन में उनका परिवार साउथॉल में बस गया जहां उन्हीं जैसे कई अफगान-सिख परिवार रहते हैं.
अपने शुरुआती अनुभव बांटते हुए करंजी कहते हैं "मुझे पता ही नहीं था मैं क्या कर रहा हूं. अंग्रेजी आती नहीं थी, ऊपर से मेरा पग पहनना स्कूल में मुसीबत बना रहा. मेरे पिता पर लोगों ने सड़क पर पत्थर फेंके. छह महीने के बाद हम वुल्वरहैंप्टन पहुंचे जहां मैंने अंग्रेजी बोलना सीखा. वहीं पहली बार मेरे दो-तीन दोस्त भी बने.”
अफगानिस्तान से आए सिख के तौर पर ब्रिटेन में जीना इतना मुश्किल होगा इसका अंदाजा करंजी के परिवार को नहीं था. अफगानी, गैर-मुसलमान और गैर-भारतीय, ये पहचान ब्रिटेन में लोगों को समझा पाना आसान नहीं था.
जिस बात ने उन्हें सबसे ज्यादा उलझन में डाला, वो थी भारतीय सिखों का व्यवहार. अफगानी परिवार होने के नाते करंजी के घर में हिंडको बोली जाती है, पंजाबी नहीं. रस्मो-रिवाज भी अलग हैं और तौर-तरीके भी. ऐसे में एक तरफ पराए देश में ब्रिटिश जीवन-शैली में ढलने का दबाव था और दूसरी तरफ भारतीय सिख ना होने के चलते जातीय पहचान की दुविधा.
करंजी कहते हैं कि "भारतीय-सिखों ने हम जैसे अफगानी-सिखों के शरणार्थी के तौर पर यहां आने को लेकर बहुत टीका-टिप्पणियां कीं. मुझे गुरुद्वारे के अंदर जाने से भी रोका गया. गुरुनानक ने समानता के जिन मूल्यों का संदेश दिया, भारतीय-सिख समुदाय ठीक उसका उल्टा कर रहा था. समझ नहीं आता था कि मैं हूं कौन- भारतीय नहीं हूं पर सिख हूं, अफगानी रिवाज मेरे वजूद का हिस्सा हैं लेकिन मैं अफगानी भी नहीं हूं." करंजी ने अपनी इसी उलझी हुई पहचान को आधार बनाकर ही प्रोफेशनल दुनिया में आगे बढ़ने का फैसला किया.
सिख पहचान और फैशन
फैशन में ज्यादा दिलचस्पी आम दक्षिण एशियाई घरों में बच्चों के बिगड़ने का सबब मानी जाती है. करंजी का घर भी इससे जुदा नहीं था. कपड़ों की तरफ उनके जबरदस्त रुझान को देखते हुए माता-पिता टीका-टिप्पणी करते और कोई ढंग की नौकरी करने की हिदायत देते. लेकिन करंजी ने अपने कदम बढ़ा दिए थे मॉडलिंग के रास्ते पर. ऐसा नहीं था कि एकदम से लोगों ने उन्हें हाथों-हाथ ले लिया हो. काम मिलने से पहले खींची गईं शुरुआती तस्वीरें करीब दो साल तक सोशल मीडिया पर पड़ी रहीं लेकिन एक बार जो लंदन फैशन वीक में शिरकत का मौका मिला तो करियर की गाड़ी चल पड़ी.
फैशन मॉडल के तौर पर काम करने को लेकर करंजी का नजरिया उनकी सांस्कृतिक पहचान को लेकर जिए गए उन सालों ने तराशा है जिनमें उनके वजूद पर सवाल उठे. वो बहुत स्पष्ट तरीके से बताते हैं कि कैमरे के सामने मॉडल बनकर खड़े होने में उनका मकसद खुद को अपनी ऐतिहासिक-सांस्कृतिक पहचान के साथ सामने रखना है. वो दुनिया को बताना चाहते हैं कि उनकी सांस्कृतिक पहचान में इतिहास की परतें छिपी हैं जिनके बारे में ब्रिटेन में समझ पैदा किए जाने की जरूरत है. करंजी को मालूम है कि वो सिर्फ अपना निजी करियर नहीं बना रहे बल्कि एक ऐसा रास्ता तैयार कर रहे हैं जिससे उन जैसे युवाओं के सपनों की राह आगे शायद थोड़ी आसान हो जाए. यही वजह रही कि किसी खास फोटो शूट के सिलसिले में एक बार जब उन्हें अपने बाल काटने को कहा गया तो उन्होंने साफ इंकार कर दिया.
मॉडलिंग के अलावा करंजी फिल्में बनाते हैं और फोटोग्राफी का भी शौक रखते हैं. ब्रिटेन आने के बाद से उन्होंने अफगानिस्तान में कदम नहीं रखा क्योंकि उनका वीजा इसकी इजाजत नहीं देता लेकिन जड़ों से जुड़े रहने का कोई एक नुस्खा नहीं है. करंजी ने अपने इरादों की कामयाबी से ये साबित कर दिया है कि फैशन की चकाचौंध का इस्तेमाल प्रवासी जिंदगी की मुश्किलों और चुनौतियों को भुलाने की बजाए उन पर रोशनी डालने के लिए किया जा सकता है. ये मुश्किल हो सकता है लेकिन नामुमकिन बिल्कुल नहीं है. (dw.com)
-फ़िलिपा रॉक्सबी
वैज्ञानिकों का कहना है कि अतीत की तुलना में इंसानों के लंबे होने और युवावस्था के तक पहले ही पहुंच जाने की पहेली को अब इंसानी दिमाग में मौजूद एक सेंसर के ज़रिए समझाया जा सकता है.
बीसवीं सदी में पोषण संबंधी स्वास्थ्य में सुधार होने से ब्रिटेन के लोगों की औसत ऊंचाई 3.9 इंच (10 सेंटीमीटर) बढ़ी है जबकि अन्य देशों के लोगों की 7.8 इंच (20 सेंटीमीटर) तक बढ़ी है.
लेकिन असल में ऐसा होता कैसे है, इसे अब तक समझा नहीं जा सका था. ब्रिटेन के यूके के शोधकर्ताओं का कहना है कि इस खोज से मांसपेशियों को मज़बूत करने और देर से लंबाई बढ़ाने वाली दवाएं बनाने का रास्ता निकल सकता है.
वैज्ञानिकों को बहुत पहले से पता है कि अच्छे खानपान और नियमित आहार लेने वाले इंसान लंबे और जल्द परिपक्व होते हैं. उदाहरण के लिए, दक्षिण कोरिया के एक ग़रीब मुल्क से विकसित देश बन जाने पर वहां के वयस्क लोगों की ऊंचाई पहले के मुक़ाबले बढ़ गई. वहीं दक्षिण एशिया और अफ्रीका के कई हिस्सों के लोग अभी भी सौ साल पहले की तुलना में थोड़े ही लंबे हैं.
'बहुत सारे बच्चे पैदा करो'
इस बात की जानकारी पहले से ही है कि दिमाग के एक हिस्से 'हाइपोथैलेमस' तक भोजन से संकेत पहुंचते हैं. ये संकेत दिमाग़ को शरीर के पोषण संबंधी स्वास्थ्य के बारे में बताता है और शरीर के विकास को तेज़ करता है.
विज्ञान और शोध की पत्रिका 'नेचर' में इस बारे में एक नया अध्ययन प्रकाशित हुआ है. ये शोध कैंब्रिज यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों के नेतृत्व में हुआ. इसमें लंदन की क्वीन मैरी यूनिवर्सिटी, ब्रिस्टल यूनिवर्सिटी, मिशिगन यूनिवर्सिटी और वेंडरबिल्ट यूनिवर्सिटी की टीमों ने भी सहयोग किया है.
इस शोध के ज़रिए इस प्रक्रिया की वजह बनने वाले रिसेप्टर की खोज की है, जिसे 'एमसी3आर' नाम से जाना जाता है. भोजन और यौवन के साथ शरीर की लंबाई बढ़ने के बीच ये रिसेप्टर अहम कड़ी है.
इस अध्ययन के लेखक और कैंब्रिज के प्रोफ़ेसर सर स्टीफन ओराहिली ने बताया, "ये शरीर को बताता है कि शरीर बढ़िया स्थिति में हैं, शरीर में बहुत सारा भोजन है, इसलिए जल्दी बढ़ो, जल्दी जवान बनो और ढेर सारे बच्चे पैदा करो."
ओराहिली कहते हैं, "ये सिर्फ जादू नहीं है. ये होता कैसे है, इसका पूरा खाका हमारे पास है."
आख़िर ऐसा होता कैसे है?
शोध करनेवालों ने पाया कि जब दिमागी रिसेप्टर इंसानों में सामान्य ढंग से काम नहीं करता, तो लोगों की लंबाई कम रह जाती है. साथ ही, दूसरों की तुलना में वो देर से जवान होते हैं.
इस टीम ने यूके बायोबैंक (आनुवंशिक और स्वास्थ्य डेटा का डेटाबेस) के साथ जुड़े क़रीब पांच लाख स्वयंसेवकों की आनुवंशिक बनावट का अध्ययन किया और पुष्टि की कि उनकी खोज का नतीजा सही है.
शोध में कई बच्चों के जीन में म्यूटेशन (बदलाव) देखा गया, जिसने उनके दिमागी रिसेप्टर को बाधित किया था. ऐसे सभी बच्चों में जीन का असर कम उम्र में ही दिखना शुरू हुआ और ये बच्चे कद में छोटे और वजन में कम थे.
शोध करने वाली टीम को एक व्यक्ति भी मिला जिसे एमसी3आर की जीन की दोनों कॉपी में म्यूटेशन पाया गया. ये बदलाव अत्यंत दुर्लभ और हानिकारक है. ये व्यक्ति कद में बहुत छोटा था और उसमें यौवन में आने बदलाव 20 साल के बाद ही आना शुरू हुए थे.
लेकिन ऐसा केवल इंसानों में ही होता है ऐसा नहीं है. शोधकर्ताओं ने इसके लिए चूहों का भी अध्ययन किया और पुष्टि की कि जानवरों में भी ये बात सही साबित होती है.
इस खोज से बच्चों के कम विकास और बहुत देर से युवावस्था शुरू होने जैसी समस्याओं के निदान के साथ ही गंभीर बीमारियों से पीड़ित और दुबले बच्चों की मांसपेशियों को विकसित करने में मदद मिल सकती है.
प्रोफ़ेसर ओराहिली ने बताया, "भविष्य में होनेवाले शोध में ये पता लगाया जाना चाहिए कि बीमार लोगों की शारीरिक क्षमता सुधारने के लिए, एमसी3आर को सक्रिय करने वाली दवाओं के ज़रिए क्या कैलोरी का बेहतर उपयोग कर मांसपेशियों को मज़बूत बनाया जा सकता है."
वैज्ञानिकों ने पहले ही एक ब्रेन रिसेप्टर की पहचान कर ली थी, जो भूख को नियंत्रित करता है. इसे एमसी4आर कहा जाता है. जिन लोगों में इसकी कमी होती है आमतौर पर वे मोटे होते हैं.
क्या लोग लगातार लंबे होते रह सकते हैं?
इंसान के लंबा होने की भी एक सीमा होती है. लोग तब तक लंबा होते जाते हैं, जितनी उनकी आनुवंशिक क्षमता होती है. ये क्षमता कितनी होगी, इसे तय करने में स्वास्थ्य और आहार जैसे कारकों का बहुत बड़ा प्रभाव रहता है.
ग़रीब परिवारों के बच्चों को भी पर्याप्त भोजन और कैलोरी मिलने पर वे अपने माता-पिता और दादा-दादी से विरासत में मिली लंबाई तक बढ़ सकते हैं. लंबे लोग आम तौर पर लंबे समय तक जीते हैं. उन्हें दिल की समस्याओं से पीड़ित होने की आशंका भी कम होती है. साथ ही, उनके अधिक कमाने की भी संभावना होती है.
हालांकि इंसानों की लंबाई हमेशा बढ़ती नहीं रह सकती. पिछली सदी में यूरोप के कई दूसरे देशों की तरह ब्रिटेन के लोगों की भी औसत लंबाई बढ़ी है. लेकिन पिछले 10 सालों के संकेत हैं कि अब औसत लंबाई नहीं बढ़ रही.
पिछली सदी में दुनिया में सबसे अधिक लंबाई दक्षिण कोरिया की महिलाओं और ईरान के पुरुषों की बढ़ी है.
वैसे दुनिया में सबसे लंबे लोग नीदरलैंड में पैदा होने वाले मर्द (182.4 सेंटीमीटर) होते हैं. वहीं सबसे छोटे लोग ग्वाटेमाला में पैदा होने वाली महिलाएं (140 सेंटीमीटर) होती हैं. (bbc.com)
पश्चिमी अफ़्रीका के देश सिएरा लियोन की राजधानी फ्रीटाउन में एक भीषण विस्फोट में 90 से अधिक लोगों के मारे जाने की रिपोर्ट है.
इस घटना में दर्जनों लोगों के घायल होने की ख़बरें मिल रही हैं. शहर के एक व्यस्त चौराहे पर एक तेल टैंकर की एक गाड़ी से टक्कर के कारण ये धमाका हुआ.
स्थानीय मीडिया की ओर से जारी की गई तस्वीरों और वीडियो फुटेज में टैंकर के इर्द-गिर्द सड़कों पर बुरी तरह से क्षत-विक्षत शव देखे जा सकते हैं.
शहर की मेयर यवोन अकी-सावयेर ने इन फुटेज को 'खौफ़नाक' करार दिया है लेकिन उन्होंने ये भी कहा है कि धमाके से हुए नुक़सान को लेकर स्थिति अभी पूरी तरह से स्पष्ट नहीं है.
उन्होंने अपने फ़ेसबुक पोस्ट में कहा है कि 100 से अधिक लोगों के जान गंवाने की अफवाहें हैं लेकिन आधिकारिक रूप से मरने वालों की संख्या पर कोई बयान नहीं दिया गया है.
सरकारी मुर्दाघर के मैनेजर ने समाचार एजेंसी रॉयटर्स को बताया कि वहां अभी तक 91 लोगों के शव पहुंचे हैं.
ऐसी रिपोर्टें हैं कि शुक्रवार को ग्रीनविच मीन टाइम के अनुसार रात के दस बजे शहर के वेलिंगटन इलाके के एक व्यस्त सुपरमार्केट के बाहर एक चौराहे पर ये धमाका हुआ.
सिएरा लियोन के नेशनल डिजास्टर मैनेजमेंट एजेंसी के प्रमुख ब्रीमा बुरेह सेसेय ने स्थानीय मीडिया को बताया कि ये घटना बेहद हृदय विदारक है.
फ्रीटाउन की आबादी दस लाख से ज़्यादा की है. हाल के सालों में इस शहर ने कई गंभीर आपदाओं का सामना किया है.
इसी साल मार्च के महीने में शहर की एक झुग्गी-झोपड़ी वाले इलाके में आग लगने से 80 से अधिक लोगों की मौत हो गई थी. उस घटना में पांच हज़ार से अधिक विस्थापित हुए थे.
साल 2017 में भारी बारिश के कारण एक हज़ार से अधिक लोगों की मौत हो गई थी. उस वक़्त पूरे शहर में कीचड़ फैल गया था और लगभग 3000 लोग बेघर हो गए थे. (bbc.com)
अमेरिकी प्रांत टेक्सास के ह्युस्टन शहर में आयोजित एक म्यूज़िक फेस्टिवल में बीती रात भगदड़ मचने से कम से कम आठ लोगों की मौत हो गयी है.
आपातकालीन सेवाएं देने वाले अधिकारियों ने बताया है कि ये म्यूज़िक फेस्टिवल की पहली रात थी और लोग फ्रंट स्टेज की ओर बढ़ रहे थे.
इस दौरान लोगों में घबराने और भगदड़ मचने से गंभीर हालात पैदा हो गए.
अधिकारियों ने 11 लोगों को कार्डियक अरेस्ट की स्थिति में अस्पताल पहुंचाया जिनमें से आठ लोगों की मौत हो गयी.
इसके साथ ही लगभग 300 लोग घायल हुए हैं. इस कार्यक्रम में 50 हज़ार लोग शामिल हुए थे.
ह्युस्टन फायर चीफ़ सैमुअल पेना ने बताया है, “भीड़ धीरे धीरे स्टेज की ओर बढ़ने लगी जिससे लोग घबराने लगे.”
पेना कहते हैं कि जब भगदड़ की वजह से लोगों को चोटें लगने लगीं तो लोगों में घबराहट काफ़ी बढ़ गयी.
इस फेस्टिवल के आयोजकों ने घटना की गंभीरता को देखते हुए शो रद्द कर दिया है.
अमेरिकी कांग्रेस ने बुनियादी ढांचे के विकास के लिए एक खरब डॉलर के पैकेज को मंज़ूरी दे दी है.
इसे अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन के लिए बड़ी उपलब्धि माना जा रहा है. इस पैकेज पर राष्ट्रपति बाइडन के हस्ताक्षर के बाद ये क़ानून का रूप ले लेगा.
इस पैकेज के तहत 550 अरब डॉलर की राशि को अगले आठ सालों में हाईवे, सड़क और पुलों के निर्माण पर खर्च किया जाएगा. साथ ही शहर में परिवहन प्रणाली और यात्री रेल नेटवर्क को आधुनिक बनाया जाएगा.
हालांकि, इस समझौते में स्वच्छ पेजयल, तेज़ गति इंटरनेट और इलैक्ट्रिक वाहन चार्जिंग प्वाइंट का राष्ट्रव्यापी नेटवर्क शामिल नहीं है.
यह अमेरिकी सरकार का देश के बुनियादी ढांचे में दशकों में किया गया सबसे बड़ा निवेश है.
जो बाइडन ने एक बयान में कहा,"आज रात, हमने एक राष्ट्र के रूप में एक महत्वपूर्ण कदम आगे बढ़ाया है. अब से पीढ़ियां, लोग पीछे मुड़कर देखेंगे और जानेंगे कि ये वो समय है जब अमेरिका ने 21वीं सदी के लिए आर्थिक प्रतिस्पर्धा जीती थी." (bbc.com)
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने शुक्रवार को दावा किया है कि पाकिस्तान में अभी भी पेट्रोल और डीज़ल की कीमतें क्षेत्रीय देशों की तुलना में सबसे कम हैं.
उन्होंने कहा, “भारत में भी इस समय पेट्रोल के दामों को लेकर विरोध किया जा रहा है. और पेट्रोल की कीमत 250 रुपये प्रति लीटर है. वहीं, बांग्लादेश में प्रति लीटर पेट्रोल के दाम 200 रुपये हैं. जबकि पाकिस्तान में सबसे कम 146 रुपये प्रति लीटर हैं.”
पाकिस्तानी अख़बार डॉन में प्रकाशित ख़बर के मुताबिक़, इमरान ख़ान ने ये बात एक जनसभा को संबोधित करते हुए कही. उन्होंने कहा कि पाकिस्तान में तेल के दाम इतने कम इसलिए हैं क्योंकि सरकार ने अपने शुल्कों और करों को हटा लिया है.
ख़ान ने कहा कि तेल के दामों में बढ़त कोविड 19 महामारी की वजह से आई है क्योंकि महामारी के चलते लॉकडाउन, आपूर्ति में कमी, व्यापारों की बंदी, और ख़रीद-बिक्री में कमी देखने को मिली.
उन्होंने कहा, “(महामारी का) सबसे बड़ा असर तेल के दामों पर पड़ा जो पहले कम हुए और बीते तीन महीनों में तेल की कीमतें दोगुनी हो गयी है. और जब तेल के दाम बढ़ते हैं तो हर चीज़ के दाम बढ़ जाते हैं.” (bbc.com)
जर्मनी की राजधानी बर्लिन में स्थित रूसी दूतावास के बाहर एक राजनयिक का शव मिलने की ख़बर सामने आ रही है.
जर्मनी की न्यूज़ वेबसाइट डेर स्पीगल के मुताबिक़, बर्लिन दूतावास परिसर की सुरक्षा करने वाले पुलिसकर्मियों को बीती 19 अक्टूबर को दूतावास के बाहर एक व्यक्ति का शव मिला था.
वेबसाइट के मुताबिक़, इस व्यक्ति के पहली मंज़िल से गिरने की आशंका जताई जा रही है, लेकिन अब तक यह स्पष्ट नहीं है कि यह घटना किन हालात में हुई.
रूसी दूतावास ने इस राजनयिक का नाम बताए बग़ैर इसे एक दुखद घटना बताया है.
जर्मनी के विदेश मंत्रालय ने भी इस व्यक्ति की मौत होने की पुष्टि की है लेकिन इससे ज़्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं कराई है.
बर्लिन पुलिस की ओर से भी अब तक इस घटना पर सार्वजनिक बयान नहीं दिया गया था. और इस घटना से जुड़ी पहली ख़बर शुक्रवार को ही सामने आई है.
ख़बरों के मुताबिक़, मृतक की उम्र लगभग 35 वर्ष थी और वह एक रूसी राजनयिक थे. और रूसी दूतावास में सेकेंड सेक्रेटरी के पद पर कार्यरत थे.
हालांकि, कुछ ख़बरों में मृतक के एक रूसी जासूस होने की आशंका भी जताई जा रही है.
समाचार एजेंसी रॉयटर्स ने बताया है कि डेर स्पीगल की ख़बर के मुताबिक, जर्मनी की सिक्योरिटी सर्विस मानती है कि रूसी दूतावास के बाहर सड़क पर मृत पाए गए शख़्स रूस की ख़ुफिया एजेंसी एफएसबी इंटेलिजेंस सर्विस के अंडर कवर एजेंट थे.
इसके साथ ही इंवेस्टिगेटिव वेबसाइट बेलिंगकैट ने बताया है कि वह ओपन सोर्स डेटा की मदद से इस नतीजे पर पहुंची है कि मरने वाला शख़्स रूस की ख़ुफिया एजेंसी एफएसबी के उप-निदेशक का बेटा था. (bbc.com)
युवा पर्यावरण कार्यकर्ता ग्रेटा थनबर्ग ने ब्रिटेन के ग्लासगो शहर में जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर आयोजित हुए सम्मेलन सीओपी26 को एक 'असफलता' करार दिया है.
ग्लासगो में पर्यावरण प्रेमियों की एक विशाल जनसभा को संबोधित करते हुए उन्होंने ये बात कही है.
थनबर्ग ने कहा, “ये बात कोई राज़ नहीं है कि सीओपी26 एक असफलता है. ये बात स्वत: समझ में आनी चाहिए कि हम एक समस्या को उन तरीकों से नहीं सुलझा सकते जिनकी वजह से ये समस्या पैदा हुई है.”
थनबर्ग ने ये बात ग्लासगो में युवा पर्यावरण प्रेमियों द्वारा आयोजित फ्राइडेज़ फॉर फ़्यूचर मार्च के दौरान कही.
उन्होंने कहा, “हमें तत्काल प्रभाव से (कार्बन की) वार्षिक उत्सर्जन दर में उतनी कमी करने की ज़रूरत है जितनी दुनिया में पहले कभी नहीं हुई.”
जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर हाल ही में संपन्न हुए शिखर सम्मेलन में दुनिया भर के तमाम नेताओं ने शिरकत की थी.
इस सम्मेलन में नेताओं ने अपने-अपने देश में जलवायु परिवर्तन को रोकने की दिशा में कदम उठाने की शपथ ली है. (bbc.com)
-हमजा अमीर
इस्लामाबाद, 5 नवंबर| अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने हाल ही में डोनाल्ड आर्मिन को पाकिस्तान में नए राजदूत के रूप में नामित किया है। इस बीच अब पाकिस्तान ने भी अमेरिका में अपने वर्तमान राजदूत को बदलकर आजाद जम्मू-कश्मीर (एजेके) के पूर्व राष्ट्रपति सरदार मसूद खान को यह जिम्मेदारी देने का फैसला किया है।
बता दें कि पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर (पीओके) को पड़ोसी देश आजाद जम्मू-कश्मीर कहता है।
वर्तमान राजदूत असद मजीद खान जल्द ही अपना कार्यकाल पूरा करने वाले हैं और रिपोर्टों से पता चलता है कि इस्लामाबाद ने पहले ही सरदार मसूद खान के नाम को उनके प्रतिस्थापन के रूप में सुझाया है।
राजदूत खान ने जनवरी 2019 में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड को अपना परिचय पत्र प्रस्तुत किया था और तीन साल की अवधि के लिए उन्होंने पद संभाला था।
अब, उनका कार्यकाल समाप्त होने के साथ, सरदार मसूद खान उनकी जगह वाशिंगटन में नए राजदूत की जिम्मेदारी संभालेंगे। यह निर्णय कई लोगों के लिए एक आश्चर्य के रूप में आया है क्योंकि मसूद खान वह व्यक्ति हैं, जिन्होंने राष्ट्रपति के रूप में एजेके में सर्वोच्च राजनीतिक पद संभाला है और अब वह वाशिंगटन में राजदूत का पद स्वीकार करने के लिए तैयार हैं।
विश्लेषकों का मानना है कि सरदार मसूद खान को अमेरिका में राजदूत नियुक्त कर पाकिस्तान एक कड़ा संकेत देना चाहता है कि वह कश्मीर के मुद्दे को उजागर करना चाहता है।
भारत के खिलाफ कश्मीर के मुद्दे पर समर्थन जुटाने के पाकिस्तान के कूटनीतिक प्रयासों ने अतीत में अच्छा काम नहीं किया है। पाकिस्तान के विदेश कार्यालय ने भी बाइडेन और प्रधानमंत्री इमरान खान के बीच संपर्क बनाने में विफल रहने के लिए अमेरिका में अपने राजदूत की विफलता पर अपनी अस्वीकृति व्यक्त की है।
हालांकि, सरदार मसूद खान की नियुक्ति का समय इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि अमेरिका वर्तमान में अफगानिस्तान में बदलती स्थिति पर ध्यान केंद्रित कर रहा है।
अमेरिकी प्रतिनिधि सभा और सीनेट में हाल ही में एक सुनवाई में, सांसदों ने तालिबान की जीत में पाकिस्तान की कथित भूमिका पर गंभीर आपत्ति जताई है। दिलचस्प बात यह है कि बाइडेन प्रशासन ने भी इस प्रस्ताव का विरोध नहीं किया।
हालांकि, अभी सरदार मसूद खान की नियुक्ति की प्रक्रिया चल रही है और वाशिंगटन में पाकिस्तानी दूतावास को उनका नामांकन पत्र मिल गया है। विवरण के अनुसार, सोमवार को अमेरिकी विदेश विभाग को कागजात जमा करने की उम्मीद है।
जहां सरदार मसूद खान के अमेरिका में राजदूत बनने के लिए नामांकन पर सवाल उठे हैं, वहीं इस कदम को कश्मीर के मुद्दे को उठाने और भारत के खिलाफ अपना मामला बनाने के लिए अमेरिका के साथ मजबूत जुड़ाव के पाकिस्तान के प्रयासों के रूप में देखा जा रहा है। (आईएएनएस)
वाशिंगटन, 6 नवंबर| अमेरिकी दवा निर्माता फाइजर ने शुक्रवार को घोषणा की कि कोविड-19 के खिलाफ उसकी नई एंटीवायरल गोली अस्पताल में भर्ती होने और होने वाली मौतों को काफी कम कर सकती है। मर्क के मोलनुपिरवीर के बाद यह दूसरी एंटीवायरल गोली है, जिसने जोखिम को आधा कर दिया है।
कंपनी ने एक बयान में कहा कि फाइजर की पैक्सलोविड नामक गोली गंभीर बीमारी के विकास के उच्च जोखिम वाले वयस्कों के लिए अस्पताल में भर्ती होने और मृत्यु के जोखिम को 89 प्रतिशत तक कम कर सकती है, यदि इसे तीन दिनों के भीतर दिया जाए।
इसने कहा कि यह आपातकालीन उपयोग प्राधिकरण के लिए 'जितनी जल्दी हो सके' खाद्य एवं औषधि प्रशासन (एफडीए) को अपना डेटा जमा करने की योजना बना रहा है।
फाइजर के अध्यक्ष और मुख्य कार्यकारी अधिकारी अल्बर्ट बौर्ला ने बयान में कहा, "आज की खबर इस महामारी की तबाही को रोकने के वैश्विक प्रयासों में एक वास्तविक गेम-चेंजर है।"
उन्होंने कहा, "अगर नियामक अधिकारियों द्वारा अनुमोदित या अधिकृत किया जाता है, तो रोगियों के जीवन को बचाने, कोविड-19 संक्रमण की गंभीरता को कम करने और दस में से नौ अस्पतालों को खत्म करने की क्षमता होती है।"
परिणाम एक नैदानिक परीक्षण पर आधारित हैं, जिसमें 1,219 वयस्क शामिल थे, जो कोविड-19 से संक्रमित थे और जिनमें हल्के या मध्यम लक्षण थे।
प्रतिभागियों को बेतरतीब ढंग से या तो प्लेसीबो गोलियों या सक्रिय दवा का एक कोर्स लेने के लिए सौंपा गया था। सक्रिय दवा समूह के तीन लोगों को अस्पताल में भर्ती कराया गया और किसी की मृत्यु नहीं हुई। प्लेसीबो समूह में 27 लोगों को अस्पताल में भर्ती कराया गया और सात की मौत हो गई।
कंपनी ने कहा कि गोली ने चिंता के परिसंचारी रूपों के साथ-साथ अन्य ज्ञात कोरोनविर्यूज के खिलाफ इन व्रिटो गतिविधि में शक्तिशाली एंटीवायरल का प्रदर्शन किया है, जो कई प्रकार के कोरोनावायरस संक्रमणों के लिए चिकित्सीय के रूप में इसकी क्षमता का सुझाव देता है।
इस एंटीवायरल थेरेपी को विशेष रूप से मौखिक रूप से प्रशासित करने के लिए डिजाइन किया गया है, ताकि इसे संक्रमण के पहले संकेत पर रोगियों को गंभीर बीमारी से बचने में मदद की जा सके। (आईएएनएस)
बच्चों के जन्म के बाद उनके अंगों को मजबूत करने के लिए मालिश की जाती है, उन्हें अच्छे से अच्छे प्रोडक्ट के इस्तेमाल से विकसित बनाया जाता है. हर कोई चाहता है कि बच्चा सुंदर और स्वस्थ रहे, लेकिन शायद ही कोई बच्चों के सिर पर इसलिए हेलमेट लगाकर रखता होगा, कि उनका सिर गोल रहे.
चीन में इस वक्त माता-पिता एक अजीबोगरीब चलन फॉलो कर रहे हैं. छोटे-छोटे बच्चों की नरम खोपड़ी को आकार देने के लिए यहां के बच्चों को एक खास किस्म का हेलमेट पहनाया जा रहा है. दावा किया जा रहा है कि ये हेलमेट बच्चों की खोपड़ी को गोल रखता है और उन्हें देखने में सुंदर बनाता है. हालांकि इससे एक बच्चे को दिन भर कितना अजीब लगता होगा, इसकी परवाह किसी को नहीं है.
कंपनियां उठा रही हैं फायदा
चाइनीज़ कंपनियां भी इस अजीबोगरीब सोच का फायदा भी खूब उठा रही हैं. वे हेड करेक्शन के लिए तरह-तरह प्रोडक्ट बनकर पैसे कमा रही हैं. इन प्रोडक्ट्स में हेलमेट से लेकर स्पेशल मैट और पिलो डिज़ाइन की गई हैं. दावा किया जा रहा है कि ऐसे प्रोडक्ट से बच्चों का सिर चपटा होने से बचेगा और गोल दिखेगा. इससे भी ज्यादा दिलचस्प बात ये है कि एक वक्त था, जब बच्चों का चपटा सिर सौभाग्य का प्रतीक माना जाता था और बच्चों इस तरह सुलाया जाता था कि उनका सिर चपटा हो जाए. Tencent News के मुताबिक इस वक्त चीन में ये ट्रेंड खूब पॉपुलर हो चुका है.
Online है ऐसे प्रोडक्ट्स की भरमार
माता-पिता के मनोविज्ञान को समझते हुए इस वक्त दुकानों से लेकर ऑनलाइन तक हेडगियर्स की भरमार है. इन स्पेशल हेलमेट्स को बच्चे दिन में ज्यादा से ज्यादा वक्त लगाए रखते हैं, ताकि उनके सिर का शेप सही रहे. चाइनीज़ माताओं के मुताबिक दांतों के लिए जो काम ब्रेसेज़ करते हैं, वही हेलमेट सिर कर लिए करता है. ज्यादातर महिलाएं अपनी बेटियों के लिए सिर को गोल करने वाले हेलमेट खरीद रही हैं, क्योंकि इससे आगे चलकर उनकी सुंदरता बढ़ेगी. एक हेलमेट की कीमत 3 लाख 20 हज़ार तक जाती है, हालांकि इसकी सस्ती रेंज भी बाज़ार में मौजूद है. बताया जा रहा है कि 3 महीने की उम्र से अगर ये हेलमेट बच्चों को लगाए जाते हैं को 1 महीने में ही रिजल्ट दिखने लगते हैं.
चीन ने एक बार फिर अमेरिका पर आरोप लगाया है कि वो पिछले महीने साउथ चाइना सी में एक नौसैनिक पनडुब्बी की टक्कर के बारे में खुलकर सारी बात नहीं बता रहा है.
पिछले महीने अमेरिका के एक न्यूक्लियर सबमरीन की टक्कर की इस घटना के बारे में अमेरिकी अधिकारियों ने तब कहा था कि यूएसएस कनेक्टिकट नाम की ये पनडुब्बी पानी के भीतर किसी अज्ञात वस्तु से टकरा गई थी, जिससे उनके कुछ नौसैनिक घायल हो गए.
अमेरिकी नौसेना की ओर से जारी बयान में ना तो जगह की जानकारी दी गई और ना ही ये बताया गया कि कितने लोग घायल हुए.
लेकिन तब कुछ अधिकारियों के हवाले से अमेरिकी मीडिया में ये भी ख़बर चली थी कि ये टक्कर दक्षिण चीन सागर में अंतरराष्ट्रीय जल क्षेत्र में हुई और इसमें 11 नौसैनिक घायल हुए.
कुछ अधिकारियों के हवाले से ये भी ख़बर चली कि दुर्घटना के वक्त पनडुब्बी अपने नियमित अभियान पर थी और नेवी ने सुरक्षा को ध्यान में रखकर इस घटना को पहले सार्वजनिक नहीं किया.
अमेरिकी नौसेना ने घटना के लगभग एक महीने बाद फिर से एक बयान जारी किया है, जिसमें कहा गया है कि यूएसएस कनेक्टिकट की इस घटना की जाँच में पता चला है कि ये पनडुब्बी "एशिया-प्रशांत क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीय जल क्षेत्र में काम करते हुए समुद्र के भीतर एक नामालूम टीले (अनचार्टर्ड सीमाउंट) पर रूक गई".
चीन सरकार ने अब इसके बाद इसी घटना को लेकर अमेरिका पर पारदर्शिता और ज़िम्मेदारी नहीं दिखाने का आरोप लगाया है.
वांग वेनबिन ने कहा कि अमेरिका ने अपने बयान में जान-बूझकर दुर्घटनास्थल की जगह को एशिया-प्रशांत क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीय जल क्षेत्र बताया, और गंभीर चिंता की बातों का जवाब नहीं दिया, जैसे कि वो पनडुब्बी वहाँ क्या कर रही थी, और क्या उससे किसी और देश की जल सीमा में किसी तरह का कोई परमाणु लीकेज हुआ, और क्या इससे समुद्र के पर्यावरण को कोई नुक़सान पहुँचा है.
प्रवक्ता ने कहा, "हम एक बार फिर अमेरिका से उस घटना का विस्तार से ब्यौरा देने का आग्रह करते हैं."
वांग वेनबिन ने कहा, "ज़रूरी बात ये है कि अमेरिका को हर जगह जंगी जहाज़ और लड़ाकू विमान भेजना बंद करना चाहिए, अपनी सैन्य धौंस दिखाना बंद करना चाहिए और दूसरे देशों की सुरक्षा का उल्लंघन नहीं करना चाहिए. अगर ऐसा नहीं होता, तो ऐसी घटनाएँ बार-बार होंगी."
इस घटना के बारे में सिंगापुर स्थित एक सुरक्षा विशेषज्ञ अलेक्ज़ेंडर नील ने बीबीसी को बताया था कि जिस संख्या में लोग घायल हुए हैं, उससे ऐसा लगता है कि ये पनडुब्बी "बहुत तेज़ी से" जा रही थी और "किसी बड़ी चीज़" से टकराई.
उन्होंने कहा कि ऐसी घटना "सामान्य नहीं है लेकिन ऐसा नहीं कि पहले नहीं हुई है" और इससे पता चलता है कि ये इलाक़ा सैन्य गतिविधियों के हिसाब से कितना व्यस्त है.
अलेक्ज़ेंडर नील ने कहा, "साउथ चाइना सी में दुनिया के कई देशों के नौसैनिक जहाज़ भरते जा रहे हैं. पानी के ऊपर शक्ति प्रदर्शन तो दिखता रहता है, लेकिन पानी के भीतर जो सक्रियता है वो नज़र नहीं आती."
बाद में बताया गया कि ये पनडुब्बी गुआम की ओर जा रही था जो अमेरिकी क्षेत्र है.
इस पर चीन, फिलीपींस, वियतनाम, मलेशिया, ताइवान और ब्रुनेई अपना दावा करते रहे हैं.
हाल के सालों में चीन ने वहाँ कृत्रिम रूप से बनाए गए टापुओं पर सैन्य अड्डे स्थापित कर लिए हैं. वो दलील देता है कि इन इलाक़ों पर उसका सदियों पुराना अधिकार है.
लेकिन फिलीपींस के अलावा ब्रुनेई, मलेशिया, ताइवान और वियतनाम जैसे देश चीन के इन दावों पर आपत्ति जताते हैं.
इन देशों में इस इलाक़े को लेकर विवाद कई दशकों से जारी है, लेकिन हाल के सालों में इसे लेकर तनाव में तेज़ी से इज़ाफा हुआ है. इस दौरान समुद्र में कई बार टकराव हुए हैं.
क़ुदरती ख़ज़ाने से भरपूर इस समुद्री इलाक़े में जीवों की सैकड़ों प्रजातियाँ पाई जाती हैं.
ये प्रशांत महासागर और हिंद महासागर के बीच स्थित बेहद अहम कारोबारी इलाक़ा भी है. दुनिया के कुल समुद्री व्यापार का 20 फ़ीसदी हिस्सा यहाँ से गुज़रता है.
इस इलाक़े में अक़्सर अमेरिकी जंगी जहाज़ गश्त लगाते हैं, ताकि समुद्री व्यापार में बाधा न पहुँचे.
लेकिन, चीन इसे अमेरिका का आक्रामक रवैया कहता है. (bbc.com)
नई दिल्ली, 4 नवंबर| अफगानिस्तान में सत्ता परिवर्तन के बाद गरीबी इस हद तक बढ़ गई है कि राजधानी काबुल में रोजाना दर्जनों महिलाएं रोटी मांगने और अपने बच्चों को जीवित रखने के लिए बेकरियों के सामने लाइन लगाती हैं। काबुल के चरही कंबार इलाके की रहने वाली सेपना एक विधवा है जो अपने छह बच्चों के जीवित रहने के लिए रोज भीख मांगती है। उसने कहा, "मैं हर दिन भीख मांगती हूं, लेकिन अक्सर कोई मुझे पैसे नहीं देता। मैं देर शाम तक बेकरी के सामने रहती हूं, इसलिए कोई मुझे कुछ रोटी दान कर देता है, क्योंकि मेरे बच्चे रात में भूखे रहते हैं, मैं यह अपनी जिम्मेदारी के कारण करती हूं।"
उसने कहा, "मेरे पति एक पुलिसकर्मी थे जिनकी मौत हो गई। मैं एक व्यवसायी के घर में काम करता था, जो पिछली सरकार के पतन के बाद अफगानिस्तान से भाग गया था।"
सेपना अकेली नहीं है जो अपने बच्चों को बचाने के लिए बेकरी के सामने खड़ी है। रिपोर्ट में कहा गया है कि उनके बगल में कई अन्य महिलाएं बैठी हैं, जो उनके लिए रोटी खरीदने के लिए इंतजार कर रही हैं।
काबुल के कोटा-ए-संगी इलाके की रहने वाली बनफशाह काली चादर पहनकर दूसरे पुलिस जिले काबुल में एक बेकरी के सामने अन्य गरीब महिलाओं के साथ अपने बच्चों का पेट भरने के लिए रोटी ढूंढ़ने बैठी थी। रिपोर्ट के अनुसार, "मैं यहां शाम 5 बजे से पहले आती हूं और शाम 7 बजे तक यहां रहती हूं, जब तक कि मुझे 10 ब्रेड नहीं मिल जातीं, तब मैं घर जाती हूं।"
अपने दस लोगों के परिवार में इकलौती कमाने वाली बनफशाह कहती है कि उसके पति विकलांग हैं और काम करने में असमर्थ हैं।
उसने कहा, "मेरे बच्चे कई दिनों तक भूखे रहते हैं, क्योंकि गरीबों को कोई चंदा नहीं देता, पिछली सरकार में अच्छा था, लोग अच्छे से रहते थे। लेकिन अब लोगों की हालत खराब है, मैं बेकरी में आने को मजबूर हूं।"
काबुल शहर के दहन-ए-बाग इलाके में एक बेकरी के मालिक सुहराब ने कहा, "(अशरफ) गनी सरकार के पतन से पहले, कुछ भिखारी हर दिन आते थे, लेकिन अब आप देख सकते हैं कि वे लाइनों में खड़े हैं, हर बेकरी के सामने।"
उन्होंने कहा, "हम दिन में तीन बार रोटी सेंकते हैं, और हम निश्चित रूप से हर तीन बार उनकी मदद करेंगे। अन्य अच्छे लोग भी हैं जो इन भिखारियों को रोटी दान करते हैं।"
रिपोर्ट में कहा गया है कि काबुल के परवान-ए-ड्वोम इलाके के एक बेकर शोभनल्लाह ने भी कहा कि दर्जनों महिलाएं हर दिन अपनी बेकरी के सामने लाइन लगाती हैं, इसलिए उन्हें कुछ रोटी दान में दी जाती है।
"हमारी बेकरी में हर दिन 30 से 40 महिलाएं कुछ रोटी लेने के लिए कतार में बैठती हैं। हम उनमें से प्रत्येक को रोटी की कुछ रोटियों के साथ मदद करते हैं, हम कुछ कर सकते हैं, इनमें से अधिकतर महिलाएं गरीब और विधवा हैं।" (आईएएनएस)
तालिबान सरकार ने अफ़ग़ानिस्तान में विदेशी करेंसी पर बैन लगा दिया है. पहले से ही चरमराई अर्थव्यवस्था इस क़दम के बाद और बदहाल हो सकती है.
तालिबान के प्रवक्ता ज़बीउल्लाह मुजाहिद ने ऐलान किया है कि अब से घरेलू लेन-देन में अगर कोई व्यक्ति विदेशी करेंसी का प्रयोग करता है तो उसपर कार्रवाई की जाएगी.
अपने बयान में प्रवक्ता ने कहा, “देश के आर्थिक हालात और अन्य हितों के लिए हर अफ़ग़ान नागरिक को सिर्फ़ अफ़ग़ानी का ही इस्तेमाल करना है. इस्लामी अमीरात सभी नागरिकों, दुकानदारों, व्यापारियों और आम लोगों को सभी लेन-देन अफ़ग़ानी में करने का आदेश देती है. और विदेशी मुद्रा के प्रयोग पर पाबंदी लगाती है.”
15 अगस्त को देश पर कब्ज़ा करने के बाद अफ़ग़ानिस्तान की करेंसी ‘अफ़गानी’ की क़ीमत बहुत गिर गई है.
देश की विदेशी मुद्रा के भंडार अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने फ़्रीज़ कर दिए हैं. बैंक करेंसी के अभाव का सामना कर रहे हैं और दुनिया फ़िलहाल नई सरकार को मान्यता देने की मूड में नहीं है.
मौजूदा वक़्त में अफ़ग़ानिस्तान के भीतर कई व्यापारिक लेन-देन अमेरिकी डॉलर के ज़रिए हो रहे हैं. और पाकिस्तान की सीमा से सटे इलाक़ों में पाकिस्तान रुपया चलन में है.(bbc.com)
अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने जलवायु परिवर्तन पर चल रही COP26 बैठक में चीन और रूस के शीर्ष नेताओं के नहीं शामिल होने की आलोचना की है.
मंगलवार की रात अपने भाषण में बाइडन ने कहा कि जलवायु एक बहुत बड़ा मसला था और चीन और रूस इसमें दिखाई नहीं दे रहे हैं, वे इससे दूर चले गए.
बाइडन ने कहा, "वास्तविकता यह है कि चीन जो स्पष्ट तौर पर वर्ल्ड लीडर के रूप में ख़ुद की एक नई भूमिका पर ज़ोर देने की कोशिश करता है- वो दिखाई नहीं दे रहा."
उन्होंने कहा कि जिनपिंग ने नहीं आ कर "एक बड़ी ग़लती की है."
पुतिन के बारे में बाइडन ने कहा कि रूस के जंगलों में लगी आग पर राष्ट्रपति "खामोश रहे."
चीन, रूस और सऊदी अरब सहित अन्य देशों ने अब तक बातचीत में क्या भूमिका निभाई है, ये पूछे जाने पर अमेरिकी राष्ट्रपति ने अपनी ये नाराज़गी ज़ाहिर की.
चीन और रूस हैं बड़े कार्बन उत्सर्जक देश
रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग दोनों ही COP26 की इस बैठक में शामिल नहीं हुए हैं.
हालांकि स्कॉटलैंड के सबसे बड़े शहर ग्लासगोव में 120 से अधिक नेताओं की 14 नवंबर तक हो रही इस बैठक में दोनों ही देशों ने अपने अपने प्रतिनिधिमंडल भेजे हैं.
चीन दुनिया का सबसे बड़ा कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जक है. जबकि अमेरिका, भारत और यूरोपीय संघ के बाद पांचवें स्थान पर रूस है.
बैठक में शामिल देशों ने 2030 तक मीथेन के स्तर को कम करने के साथ साथ जंगलों की कटाई को रोकने पर भी अपनी प्रतिबद्धता जताई है. और जिन देशों ने यह प्रतिबद्धता जताई है उसमें चीन और रूस भी शामिल हैं.
बाइडन के भाषण से पहले रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने भी COP26 शिखर सम्मेलन में वन प्रबंधन पर बैठक में अपना वर्चुअल भाषण दिया. इसमें उन्होंने कहा कि "रूस जंगलों के संरक्षण के लिए सबसे दृढ़ और तेज़ी से उपाय करता है."
पुतिन के प्रवक्ता दिमित्री पेसकोन ने अक्तूबर में जब राष्ट्रपति (पुतिन) के इस सम्मेलन में नहीं आने की घोषणा कर रहे थे तब उन्होंने इसकी वजह नहीं बताई थी. हालांकि तब उन्होंने ये कहा था कि जलवायु परिवर्तन रूस की प्राथमिकताओं में एक महत्वपूर्ण विषय है.
अक्तूबर में ही ब्रिटेन के प्रधानमंत्री को अधिकारियों ने आगाह किया था कि चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के इस सम्मेलन में शामिल होने की उम्मीद नहीं है. क्योंकि बीते क़रीब 20 महीने से जिनपिंग रूस से बाहर नहीं निकले हैं.
चीन, रूस और कार्बन उत्सर्जन के नेट ज़ीरो का लक्ष्य
चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने सितंबर में कहा था कि उनका देश 2060 तक कार्बन उत्सर्जन को नेट ज़ीरो करने के लक्ष्य को हासिल कर लेगा.
रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने भी 2060 तक शून्य कार्बन उत्सर्जन हासिल करने का वादा किया है.
नेट ज़ीरो का मतलब होता है कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन को पूरी तरह से ख़त्म कर देना जिससे धरती के वायुमंडल को गर्म करनेवाली ग्रीनहाउस गैसों में इसकी वजह से और वृद्धि न हो.