अंतरराष्ट्रीय
तेगुचिगाल्पा, 2 जनवरी | नए साल के जश्न के दौरान होंडुरास में कई हिंसक घटनाओं में 18 लोग मारे गए हैं। होंडुरास की पुलिस ने इसकी जानकारी दी है। समाचार एजेंसी सिन्हुआ की रिपोर्ट के अनुसार, शुक्रवार को एक बयान में नेशनल पुलिस रिगोबटरे के डिप्टी इंस्पेक्टर रिगोबटरे रोड्रिग्ज ने कहा कि हालांकि 2019 की तुलना में यह आंकड़ा कम था, उस साल नए साल के जश्न में 24 लोगों की मौत हुई थी।
अधिकारी ने यह भी कहा कि साल 2020 में हिंसा के कारण कुल 3,482 मौतें हुईं, जबकि 2019 में 4,082 मौतें हुईं थीं।
नेशनल पुलिस के अनुसार, साल 2020 में प्रति 1 लाख निवासियों पर 37 हत्याएं हुईं, जबकि 2019 में प्रति 1 लाख निवासियों पर 44.5 हत्याएं हुईं थीं। (आईएएनएस)
ब्रासीलिया, 2 जनवरी ब्राजील में पिछले 24 घंटों में 462 मामले सामने आने के बाद यहां कुल मौतों की संख्या बढ़कर 1,95,411 हो गई है। समाचार एजेंसी सिन्हुआ की रिपोर्ट के अनुसार, 450 से ज्यादा नई मौतों के अलावा देश में शुक्रवार को 24,605 नए मामले भी दर्ज हुए हैं। इससे कुल मामलों की संख्या 77,00,578 हो गई है।
वर्तमान में ब्राजील दुनिया में मौतों के मामले में दूसरे नंबर पर संक्रमण के मामलों की संख्या में तीसरे नंबर पर है।
जबकि ब्राजील में महामारी के कारण नए साल का उत्सव भी नहीं मनाया गया। वहीं स्थानीय अधिकारी अभी भी जनता को नए साल के मौके पर समुद्र तट पर जाने से रोकने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
साओ पाउलो राज्य के सबसे मशहूर समुद्र तटों में से एक रिवेरा डी साओ लौरेंको में पुलिस ने लोगों को समुद्र तट से दूर रखने के लिए रेत पर धुएं के बम भी फेंके थे। (आईएएनएस)|
बेरुत, 2 जनवरी| नए साल का जश्न मनाने के दौरान हुई फायरिंग से बेरूत हवाई अड्डे पर 3 विमानों को गोलियां लगी हैं। समाचार एजेंसी सिन्हुआ ने एलबीसी टीवी चैनल की रिपोर्ट के हवाले से बताया कि तीनों विमान मध्य पूर्व एयरलाइंस (एमईए) के थे और उनमें से एक विमान शुक्रवार सुबह दुबई के लिए उड़ान भरने वाला था।
लेबनान के लोग नए साल, शादियों और अंतिम संस्कारों समेत कई अवसरों पर गोलियां चलाते हैं, जिसके चलते पहले भी लोगों की मौत होने और गंभीर चोट आने जैसे मामले हुए हैं।
इंटीरियर मिनिस्टर मोहम्मद फहमी ने पहले भी इस तरह की प्रथाओं को रोकने के लिए चेतावनी दी है। ये चेतावनी इस बात के मद्देनजर दी गई है कि देश में बड़ी संख्या में लोगों के पास अवैध हथियार हैं। (आईएएनएस)
शुक्रवार को भारत और पाकिस्तान ने एक-दूसरे के साथ अपने-अपने परमाणु प्रतिष्ठानों और संस्थानों की लिस्ट साझा की.
दरअसल, ये हर साल होने वाली एक प्रक्रिया है जो दोनों देशों के बीच हुए एक समझौते के तहत की जाती है.
भारत के विदेश मंत्रालय की एक जनवरी की प्रेस रिलीज़ के मुताबिक़, "भारत और पाकिस्तान के बीच आज नई दिल्ली और इस्लामाबाद में एक साथ राजनयिकों के ज़रिए उन परमाणु प्रतिष्ठानों और फैसिलिटिज़ की सूची आदान-प्रदान की गई जो भारत-पाकिस्तान के बीच हुई परमाणु प्रतिष्ठान और फैसिलिटिज़ के ख़िलाफ़ हमले की निषेध संधि के तहत आते हैं."
"ये संधि 31 दिसंबर 1988 को हुई थी और 27 जनवरी 1991 से लागू है. इसके तहत भारत-पाकिस्तान आने वाले परमाणु प्रतिष्ठानों के बारे में हर साल एक जनवरी को एक दूसरे को बताते हैं. पहली बार एक जनवरी 1992 को ये जानकारी साझा की गई थी और तब के बाद से लगातार 30वीं बार ये जानकारी साझा की गई."
इस संधि के मुताबिक़ दोनों देश एक-दूसरे के परमाणु प्रतिष्ठानों पर हमला नहीं कर सकते.
पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय ने बताया कि एक जनवरी की सुबह 11 (पाकिस्तान के वक़्त के अनुसार) बजे भारतीय हाई कमिशन के प्रतिनिधि को ये लिस्ट सौंप दी गई और दिल्ली में भारत के विदेश मंत्रालय ने सुबह साढ़े 11 बजे (भारत के वक़्त के अनुसार) पाकिस्तान हाई कमिशन के प्रतिनिधि को अपने परमाणु प्रतिष्ठानों की सूचि सौंप दी.
ये प्रक्रिया ऐसे वक़्त में की गई जब भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव चल रहा है.
फ़रवरी 2019 में पुलवामा हमले की जवाबी कार्रवाई में पाकिस्तान के बालाकोट में एयरस्ट्राइक के बाद से ही दोनों देशों के बीच स्थिति तनावपूर्ण है.
ये तनाव तब और बढ़ा जब भारत सरकार ने जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाते हुए विशेष दर्जा ख़त्म कर दिया.
पाकिस्तान ने तब भारतीय उच्चायुक्त को निष्कासित कर दिया था.
भारत ने इस फ़ैसले को अपना आंतरिक मामला बताते हुए कश्मीर में लगाए गए प्रतिबंधों को सही ठहराया था.
किसके पास कितने परमाणु हथियार
भारत और पाकिस्तान में पिछले दस वर्षों में परमाणु बमों की संख्या दोगुनी से अधिक हो गई है और हाल के वर्षों में पाकिस्तान ने भारत की तुलना में अधिक परमाणु बम बनाए हैं.
दुनिया में हथियारों की स्थिति और वैश्विक सुरक्षा का विश्लेषण करने वाले स्वीडन की संस्था 'स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टिट्यूट' ने अपनी नई सालाना रिपोर्ट में यह बात कही थी.
इंस्टिट्यूट के परमाणु निरस्त्रीकरण, शस्त्र नियंत्रण और अप्रसार कार्यक्रम के निदेशक शेनन काइल ने बीबीसी संवाददाता को बताया था कि दुनिया में परमाणु हथियारों का कुल उत्पादन कम हो गया है, लेकिन दक्षिण एशिया में यह बढ़ रहा है.
उन्होंने कहा था, "वर्ष 2009 में हमने बताया था कि भारत के पास 60 से 70 परमाणु बम हैं. उस समय पाकिस्तान के पास क़रीब 60 परमाणु बम थे, लेकिन दस वर्षों के दौरान दोनों देशों ने अपने परमाणु बमों की संख्या दोगुनी से अधिक कर ली है."
शेनन काइल ने कहा था, ''पाकिस्तान के पास अब भारत से अधिक परमाणु बम हैं. विभिन्न स्रोतों से मिली जानकारी के आधार पर हम कह सकते हैं कि भारत में अब 130 से 140 परमाणु बम हैं, जबकि पाकिस्तान के पास 150 से 160 परमाणु बम हैं. वर्तमान समय में भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव अपने चरम पर है और यह परमाणु बमों की संख्या बढ़ाए जाने की ओर इशारा करता है. हालांकि दोनों देशों के बीच परमाणु हथियारों की ऐसी कोई दौड़ नहीं है जो शीत युद्ध के दौरान अमरीका और रूस के बीच देखने को मिली थी.''
उन्होंने कहा था, "मैं इसे स्ट्रैटिजिक आर्मी कॉम्पिटिशन या रिवर्स मोशन न्यूक्लियर आर्मी रेस कहूंगा. मुझे लगता है कि निकट भविष्य में इस स्थिति में कोई बदलाव देखने को नहीं मिलेगा." (bbc.com)
कार्यकाल के आखिरी दिनों में भी ट्रंप प्रशासन चीन को लेकर चौकन्नी निगाह रखे हुए है. हाल ही में शिनजियांग और ताइवान पर कई सख्त कदम उठाने के बाद तिब्बतन पॉलिसी एंड सपोर्ट ऐक्ट 2020 पर भी डॉनल्ड ट्रंप ने हस्ताक्षर कर दिए.
डॉयचे वैले पर राहुल मिश्र का लिखा-
चीन इस बिल को लेकर काफी सशंकित रहा है और दबी जबान से इसका विरोध भी करता रहा है. हालांकि उसे यह पता है कि अमेरिकी सरकार के पास किये किसी बिल पर या उसके प्रविधानों पर उसका कोई जोर नहीं चलेगा. ट्रंप के हस्ताक्षर की खबर के बाद भी चीन ने इस पर अपना विरोध जताया और कहा है कि अमेरिकी सरकार के इस कदम से दोनों देशों के बीच संबंध और खराब होंगे.
दरसल तिब्बतन पॉलिसी एंड सपोर्ट ऐक्ट 2020 तिब्बत पॉलिसी ऐक्ट 2002 का ही परिमार्जित रूप है. तिब्बत पॉलिसी ऐक्ट 2002 जॉर्ज डब्लू बुश के कार्यकाल में पास किया गया था. 2020 का ऐक्ट पहले से काफी सख्त है और उम्मीद की जाती है कि तिब्बत को लेकर चीन पर दबाव बनाने में भी यह कारगर होगा.
इस बिल के तहत अमेरिका ने इस बात की वचनबद्धता दोहराई है कि चौदहवें दलाई लामा के उत्तराधिकारी के चयन में तिब्बती बौद्ध समुदाय की ही बात सुनी जाय और चीन का उसमें बेवजह और गैरजिम्मेदाराना दखल ना हो. इन दोनों बातों को सुनिश्चहित करने की जिम्मेदारी अब तिब्बती मामलों के अमेरिकी सरकार के विशेष कोऑर्डिनेटर रॉबर्ट डेस्ट्रो को सौंप दी गयी है. अंतरराष्ट्रीय समुदाय में इस बात पर कूटनीतिक समर्थन जुटाना भी अब कोऑर्डिनेटर रॉबर्ट डेस्ट्रो के कार्यक्षेत्र में आएगा. माना जा सकता है कि अगर अमेरिका और चीन के सम्बंध आगे आने वाले दिनों में बदतर होते हैं तो तिब्बत का मुद्दा आग में घी भी बन सकता है और जंगल की आग भी.
दलाई लामा तिब्बती बौद्ध समुदाय के सर्वोच्च धर्म गुरु हैं. वर्तमान दलाई लामा, तेनजिन ग्यात्सो, जो कि तिब्बती बौद्ध समुदाय के चौदहवें दलाई लामा हैं, 1959 में चीन से भारत आ गए थे और तब से भारत में ही निर्वासित जीवन व्यतीत कर रहे हैं. 1959 से 2012 तक वह निर्वासित तिब्बती सरकार – केंद्रीय तिब्बती प्रशासन के सर्वोच्च प्रशासक भी रहे. उनके बाद उनका कार्यभार उनके उत्तराधिकारी लोबसांग सांगे ने सम्भाल लिया है जो हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में प्रधानमंत्री की हैसियत से केंद्रीय तिब्बती प्रशासन का कामकाज देख रहे हैं.
चौदहवें दलाई लामा के उत्तराधिकारी को लेकर चीन और तिब्बती समुदाय में खासा विवाद और मतभेद रहा है. पंद्रहवें दलाई लामा को लेकर अब तक चौदहवें दलाई लामा तेनजिन ग्यात्सो ने कोई ठोस सुराग नहीं दिए हैं ना ही उन्होंने यह साफ किया है कि उनके उत्तराधिकारी की पहचान कैसे हो. चीन इस मुद्दे पर काफी दिलचस्पी के साथ जुटा है. 1995 में ही चीन ने दलाई लामा या तिब्बती बौद्ध समुदाय से बिना किसी बातचीत और बहस मुबाहिसे के 11वें पंचेन लामा की घोषणा कर दी. दलाई लामा ने चीनी पंचेन लामा को यह कह कर अमान्य करार दिया कि अपना उत्तरधिकारी चुनना सिर्फ उनके कार्यक्षेत्र का हिस्सा है जिसे वह खुद और अपने चुने सहयोगियों की मदद से ही करेंगे.
चीनी सरकार ने यह भी कह दिया है कि उसे पंद्रहवें दलाई लामा का चयन करने का हक है. हालांकि एक ऐसी सरकार जिसका किसी धर्म से कोई सरोकार नहीं, उसकी धर्मगुरु के चयन में इतनी रुचि की वजह किसी से छुपी नहीं है.
चीन अपनी मर्जी का धर्मगुरु चुन कर एक तीर से दो शिकार करना चाह रहा है. एक तो यह कि नए धर्मगुरु के जरिए चीन निर्वासित तिब्बती सरकार को विफल करना चाहता है और दूसरा यह भी कि इससे तिब्बत में चीन का दबदबा और बढ़ जाय. चीन को मालूम है कि उसकी तिब्बत समस्या का रामबाण इलाज एक कठपुतली दलाई लामा ही है. तिब्बत के मोर्चे पर विफल और चारों ओर से आलोचना झेल रही चीनी सरकार के लिए इससे बेहतर कुछ हो भी नहीं सकता. यह बात और है कि यह काम चीन के लिए भी आसमान से तारे तोड़ लाने जितना ही कठिन है और चीन इससे वाकिफ भी है. ऐसे में यह अमेरिकी बिल उसके लिए और बड़ी अड़चनों का सबब बनेगा इसमें कोई दो राय नहीं है.
इसके अलावा बिल में अमेरिकी सरकार के ल्हासा में अपना काउंसलेट खोलने की बात भी कही है और यह भी कहा गया है कि जब तक चीन अमेरिका को तिब्बत में अपना काउंसलेट नहीं खोलने देता तब तक अमेरिका में भी चीन को कोई नया काउंसलेट खोलने की अनुमति नहीं होगी. इस मुद्दे पर चीन पहले से ही ऐतराज करता रहा है.
जाहिर है, वर्तमान दलाई लामा और उनके समर्थकों के लिये तिब्बतन पॉलिसी एंड सपोर्ट ऐक्ट 2020 एक बड़ी खबर है. इसकी एक वजह यह भी है कि ऐक्ट एक तरह से केंद्रीय तिब्बती प्रशासन को भी मान्यता देता है. इस संदर्भ में केंद्रीय तिब्बती प्रशासन के प्रधानमंत्री लोबसांग सांगे की नवम्बर 2020 की यात्रा और व्हाइट हाउस में बैठक एक बड़ा कदम था. पिछले साठ वर्षों में वह ऐसा करने वाले निर्वासित केंद्रीय तिब्बती प्रशासन के पहले प्रधानमंत्री थे. बहरहाल, ट्रंप सरकार ने तिब्बत को लेकर बाइडेन सरकार के सामने एक बड़ा रोडमैप रख दिया है. अब देखना यह है कि बाइडेन इसी रास्ते पर चलते हैं या कोई और रास्ता तलाश करने की कवायद करते हैं. फिलहाल इतना तो साफ है कि दोनों ही परिस्थितियां बाइडेन प्रशासन के लिए खासी चुनौतीपूर्ण होंगी.
(राहुलमिश्रमलायाविश्वविद्यालयकेएशिया-यूरोपसंस्थानमेंअंतरराष्ट्रीयराजनीतिकेवरिष्ठप्राध्यापकहैं)
ब्रिटेन-ईयू संबंधों के बदलते परिदृश्य और ब्रिटेन की भूमिका को लेकर सवालों की फेहरिस्त लंबी है और सटीक जवाब किसी के पास नहीं. अहम सवाल यही है कि 2016 में जनमत संग्रह के साथ शुरू हुआ ब्रेक्जिट का बवंडर क्या गुजर चुका है?
डॉयचे वैले पर स्वाति बक्षी का लिखा-
कोविड महामारी से पैदा हुए अभूतपूर्व संकट के बीच आखिरी लम्हों में हुए ब्रेक्जिट के लिए कारोबारी समझौते के साथ ब्रिटेन ने खुद को यूरोपीय संघ से अलग तो कर लिया लेकिन इस आजादी की सामाजिक और आर्थिक कीमत देश के लिए बहुत बड़ा मसला है. व्यापार और आर्थिक सहयोग समझौते से ‘नो डील ब्रेक्जिट' का खतरा टाल दिया गया लेकिन बहुत से सवालों के जवाब अभी ढूंढे जा रहे है और यह सिलसिला जारी रहेगा.
क्या पूरा हुआ ब्रेक्जिट ?
औपचारिक तौर पर ब्रिटेन ने 31 जनवरी 2020 को ईयू से विदा ले ली थी. व्यापार समझौते के लिए 11 महीने का वक्त रखा गया जिसकी समय सीमा यानी 31 दिसंबर से पहले समझौते को अंजाम तक पहुंचा ही दिया गया. सैद्धांतिक तौर पर ब्रिटेन की ईयू से विदाई हो चुकी है लेकिन ये दरअसल कई और समझौतों, सहमतियों और बहसों की लंबी प्रक्रिया की शुरूआत भर है.
उदाहरण के लिए मौजूदा समझौते के तहत ब्रिटेन और ईयू के बीच फिशिंग यानी मछली पकड़ने के मुद्दे पर बनी सहमति पर साढ़े पांच साल के भीतर पुनर्विचार होगा. इसी तरह समझौते में टैरिफ यानी सीमा शुल्क और कोटे की सीमाएं बांधे बिना वस्तुओं के व्यापार की बात कही गई है लेकिन सीमा-शुल्क से इतर अब ब्रिटेन और ईयू के बीच व्यापार में नए सीमा सुरक्षा नियम और कस्टम डिक्लेरेशन जैसी प्रक्रियाएं जुड़ जाएंगी. इसके बारे में भी बातचीत और सहमतियां बनाने का काम अब शुरू होगा.
समझौते में सेवाओं के व्यापार खासकर वित्तीय सेवाओं से संबंधित किसी सहमति का जिक्र नहीं है. उस पर यूरोपिय संघ की तरफ से फैसले का इंतजार है लेकिन अनुमान यही है कि ब्रिटेन में वित्तीय सेवाओं के निर्यात पर भी नकारात्मक असर पड़ सकता है. कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि ब्रिटेन के लिए ब्रेक्जिट का मतलब सिर्फ यूरोपीय यूनियन के नियमों से बाहर निकलना नहीं है बल्कि उन सब राजनैतिक दावों और नारों को अमली जामा पहनाना है जिनकी वकालत बोरिस जॉनसन करते आ रहे हैं. ये प्रक्रिया लंबी है और इसके तनावपूर्ण होने की पूरी गुंजाइश है.
आर्थिक परिदृश्य
ब्रिटिश प्रधानमंत्री भले ही ब्रेक्जिट को ब्रिटेन के लिए अपना भाग्य विधाता बनने का सुनहरा मौका बता रहे हों लेकिन ब्रेक्जिट पर नजर रखने वाले जानकारों के ख्याल इससे अलग हैं. लंदन स्थित स्कूल ऑफ ओरिएंटल ऐंड अफ्रीकन स्टडीज में अंतरराष्ट्रीय मामलों के प्रोफेसर सुबीर सिन्हा कहते हैं कि "मेरे लिए यह कहना बहुत मुश्किल है कि यह किसी भी तरह से ब्रिटेन के लिए फायदे का सौदा है. अगर यह मान भी लिया जाए कि वैश्विक स्तर पर नए व्यापारिक समझौतों और नए संबंधों की गुंजाइश है तब भी अपने पड़ोस में मौजूद एकीकृत बड़े बाज़ार से जुड़े फायदों को दरकिनार कर सैकड़ों मील दूर स्थित देशों में बेहतर संभावनाएं तलाश लेने के दावे बहुत ज्यादा भरोसा नहीं जगाते. क्या उसमें बंधन और अलग किस्म की कीमतें शामिल नहीं होंगी?”
जाहिर है कि कोविड से पैदा हुई भयंकर मुश्किलों के बीच अब आगे आने वाला वक्त आर्थिक मोर्चे पर ब्रिटेन के लिए बड़ी चुनौतियां लेकर आएगा. फिलहाल बिना सीमा-शुल्क और बिना कोटे के व्यापार चलते रहने की सहमति को बड़ी जीत कहा जा रहा है. हालांकि तस्वीर का दूसरा पहलू यह भी है कि ईयू का सदस्य ना रहने के बाद, नॉन-टैरिफ या सीमा-शुल्क से इतर, व्यापारिक संबंधों के लिए जरूरी कायदे-कानून जैसे गुणवत्ता प्रमाणपत्र, पैकेजिंग के तरीके और उन पर की जाने वाली घोषणाएं कुछ ऐसे मसले हैं जो ऊपरी तौर पर नजर ना आ रहे हों लेकिन व्यापार के लिए महंगा सौदा बन सकते हैं.
ब्रिटेन-ईयू संबंधों पर शोध करने वाले संस्थान- यूके इन द चेंजिंग यूरोप के निदेशक और लंदन के किंग्स कॉलेज में प्रोफेसर आनंद मेनन कहते हैं, "आने वाले वक्त में ब्रिटेन-ईयू व्यापार में सीमा-शुल्क के बजाए नॉन-टैरिफ बैरियर जैसे व्यापार के लिए तय कानूनी जरूरतें, सीमाओं पर जांच और कागजी काम में बढ़ोत्तरी होगी. हालांकि बिना समझौते वाले ब्रेक्जिट की तुलना में ये वृध्दि कम होगी लेकिन इसका सीधा अर्थ है लागत में इजाफा और महंगा व्यापार क्योंकि ब्रिटेन ईयू के एकल बाजार नियमों से बाहर निकलकर एक बाहरी देश के तौर पर व्यापार करेगा.
इस पर राजनैतिक बहस भले ही ना हो रही हो लेकिन यह बदलाव ब्रिटेन के लिए बहुत गंभीर स्थितियां पैदा कर सकते हैं”. इस स्थिति का एक दूसरा पहलू यह भी होगा कि आगे अगर ईयू एकल बाजार में व्यापार के लिए नॉन-टैरिफ नियमों को कम करने की दिशा में कदम उठाता है तो ब्रिटेन को उसका कोई फायदा नहीं होगा. कुल मिलाकर यह ब्रिटेन के व्यापारिक वातावरण को प्रभावित करेगा जिसका असर तुरंत भले ही सामने ना हो लेकिन नतीजे दीर्घकालिक होंगे.
प्रवासन
यूरोपीय संघ के सदस्य देशों से प्रवासी नागरिकों का बेरोक-टोक आना, ब्रेक्जिट की पूरी प्रक्रिया के दौरान सबसे विवादास्पद मसला रहा है जिसने ब्रिटिश समाज में दरारों को गहरा किया. कोरोना वायरस के चलते अंतरराष्ट्रीय आवागमन आम तौर पर प्रभावित है इसलिए फिलहाल निश्चित तौर पर ये कहना मुश्किल है कि ब्रिटेन में ईयू नागरिकों के प्रवासन की प्रक्रिया पर ब्रेक्जिट का कितना असर होगा लेकिन कुछ अनुमान लगाए जा रहे हैं.
1 जनवरी 2021 से बदली परिस्थितियों के मुताबिक अब ब्रिटेन में पॉइंट आधारित वीजा व्यवस्था लागू हो चुकी है यानी ईयू और गैर-ईयू नागिरक समान हैं और ईयू नागरिकों को काम करने के लिए वीजा लेना होगा. राजनैतिक बयानों में कहा जाता रहा है कि नए आवागमन और काम करने के अधिकार में आए इन बदलावों को देखते हुए कुशल कामगारों की उपलब्धता को लेकर आशंका बनी हुई है. कुशल कामगारों की संख्या आने वाली कमी का गहरा संबंध उत्पादकता और जीडीपी पर पड़ने वाले असर से है.
एक खास बात ये भी है कि ‘कुशल कामगार' की परिभाषा अस्पष्ट है और आम तौर पर इसका अर्थ विज्ञान, तकनीक, इंजीनियरिंग और गणित या ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था से जुड़े पेशेवरों से लगाया जाता है. हालांकि इस बात पर भी ध्यान देना चाहिए कि खेती बाड़ी खासकर फसल कटाई के मौसम में काम के लिए आने वाले अनुभवी और कुशल यूरोपीय प्रवासियों की कमी भी बड़ा मुद्दा है.
कोविड के चलते आवागमन ठप हो जाने से साल 2020 में ही प्रवासियों का आना मुश्किल हो गया और अब ब्रेक्जिट के बाद आने वाले वक्त में वीजा की जरूरत और उस पर होने वाला खर्च जुड़ जाने से फसल कटाई के अगले मौसम में अनुभवी कृषि कामगारों की जरूरत को घरेलू स्तर पर पूरा करने का सपना दरअसल अपने आप में एक चुनौती है. मीडिया में आई एक रिपोर्ट के मुताबिक ब्रिटेन के राष्ट्रीय किसान यूनियन के आंकड़े बताते हैं कि साल 2020 में, मौसमी कृषि कामगारों की कुल संख्या का महज 11 फीसदी ही ब्रिटेन के रहने वाले थे.
प्रोफेसर सुबीर सिन्हा कहते हैं कि "ब्रिटेन में ऐस्पैरेगस या स्ट्रॉबेरी जैसे नर्म फलों की खेती दशकों से यूरोपीय कृषि कामगारों पर टिकी है. इसे एक झटके में बदल कर घरेलू कामगारो को खोजने की बात करना बेमानी है क्योंकि ये अपने आप में एक कौशल है जो सालों के अनुभव पर आधारित है. अब एकदम से ये उम्मीद करना कि किसी ब्रिटिश कामगार को औजार देकर ये काम करवा लिया जाएगा, नासमझी है.”
खेती-किसानी ब्रिटेन के खानपान उद्योग का आधार है जो करीब 40 लाख लोगों को रोजगार मुहैया कराता है और अर्थव्यवस्था में 120 बिलियन से ज्यादा का योगदान देता है. कामगारों की कमी की समस्या कृषि क्षेत्र के लिए और भी गंभीर तब हो जाती है जब इसे कोविड महामारी की वजह से पैदा हुई रुकावटों और व्यापार के लिए आगे आने वाली नए नियमों जैसे निर्यात के लिए सीमाओं पर अतिरिक्त चेक और कागजात की जरूरतों से मिलाकर देखकर जाए. यह पूरा परिदृश्य अनिश्चितता की स्थिति पैदा करता है जिसके बारे में ब्रिटेन का राष्ट्रीय किसान यूनियन आवाज उठाता रहा है.
शिक्षा जगत
यूरोपीय संघ में छात्रों को एक दूसरे देशों में भेजने के लिए ईरास्मस कार्यक्रम से खुद को बाहर रखने और एक नई वैश्विक योजना लाने के फैसले पर शिक्षा जगत से तीखी प्रतिक्रिया देखने को मिली है. ईरास्मस कार्यक्रम को ब्रिटेन और ईयू के बीच सामाजिक-सांस्कृतिक संबंधों का एक अहम जरिया माना जाता रहा है. इस फैसले ने बरसों से चल रहे उस सिलसिले को तोड़ दिया है.
ईरास्मस से छात्रों को एक दूसरे के विश्वविद्यालयों में जीवन भर काम आने वाले ना सिर्फ अकादमिक हुनर मिले बल्कि यादगार सांस्कृतिक अनुभव और सरहदों के पार दोस्त बनाने के मौके भी मिले जो अब छात्रों को हासिल नहीं होंगे. जर्मन नागरिक एनेट बेकर तकरीबन दो दशक पहले अनुवाद विषय की पढ़ाई कर रही थीं. सितंबर 1998 से मार्च 1999 के अपने ईरास्मस सत्र की पढ़ाई के लिए एनेट एडिनबरा के हेरियट वॉट विश्विद्यालय की छात्रा रहीं. वो कहती हैं कि " मेरे लिए वो वक्त जिंदगी के बेहतरीन अनुभवों में से है. अपने साथियों से हर दिन अंग्रेजी में बात करने की वजह से मेरी भाषा और शब्दज्ञान बहुत समृध्द हुए. मुझे वाकई में लगता है कि उस एक सत्र ने जर्मन से अंग्रेजी भाषा में मेरे अनुवाद कौशल को बहुत तराशा और यह मेरी खासियत बन गई. आम तौर पर लोग विदेशी भाषा से अपनी भाषा में अनुवाद का हुनर सीखते हैं. सिर्फ भाषा पर पकड़ नहीं, मुझे लोगों और संस्कृति को करीब से जानने का भी मौका मिला.”
ना सिर्फ छात्रों के यादगार अनुभव इससे जुड़े हैं बल्कि अलग अलग परिवेश से जाने वाले छात्र अध्यापकों के लिए भी नए नजरिए से दो चार होने की वजह बनते रहे. ब्रिटेन के वेस्टमिंस्टर विश्वविद्यालय में सामाजिक अध्ययन विभाग के प्रमुख, प्रोफेसर दिब्येश आनंद कहते हैं, "मेरे पिछले कई सालों के अध्यापकीय जीवन के दौरान, सीखने की इच्छा से भरपूर और बेहद तत्पर स्नातक छात्र वो रहे हैं जो ईरास्मस के जरिए आने वाले छात्र थे. ब्रिटेन का शिक्षा जगत उनकी गैर-मौजूदगी को महसूस करेगा.”
ईरास्मस की जगह एक नई योजना आ भी जाए तो सरहदों के पार एक दूसरे देश में होने मिलने वाले सांस्कृतिक अनुभवों की भरपाई तो नहीं कर सकती. ईरास्मस दरअसल ब्रिटेन और ईयू के चार दशक से भी ज्यादा समय में प्रगाढ़ हुए सामाजिक-सांस्कृतिक संबंधों का एक प्रतीक था, सामान और सेवाओं के व्यापार से आगे भावनाओं, विचारों और लोगों के आदान-प्रदान का जरिया जिसके ना होने से पड़ने वाले असर को जीडीपी के नंबरों और उस पर पड़ने वाले असर से नापा नहीं जा सकेगा.
ब्रेक्जिट के बाद ब्रिटेन के सामने बहुआयामी चुनौतियों की ये बहुत छोटी सी झलकी है. कोरोना से जूझ रही अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के अलावा ब्रेक्जिट को औपचारिक तौर पर निभाने वाले कंजर्वेटिव राजनैतिक नेतृत्व को उसे हकीकत में बदलने के लिए बहुत ठोस काम करके दिखाना होगा. ब्रेक्जिट के दौरान उपजे तनाव और बंटे हुए देश के लिए, घरेलू और वैश्विक स्तर पर नये सिरे से अपनी भूमिका तलाशने का दबाव है.
ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन के पिता ने कहा है कि अब जब ब्रिटेन ने यूरोपीय संघ से संबंध तोड़ लिए हैं, तो वो फ़्रांस की नागरिकता के लिए आवेदन करेंगे.
स्टेनली जॉनसन ने फ़्रांस के आरटीएल रेडियो को बताया कि वो हमेशा ख़ुद को फ़्रांसीसी के रूप में देखते रहे हैं क्योंकि उसकी माँ फ़्रांस में पैदा हुई थीं.
80 वर्षीय स्टेनली यूरोपीय संसद के कंजर्वेटिव सदस्य रह चुके हैं और 2016 में हुए ब्रेक्सिट जनमत संग्रह में उन्होंने यूरोपीय संघ के साथ रहने के लिए वोट दिया था.
उनके बेटे बोरिस ने संघ से बाहर निकलने के अभियान का नेतृत्व किया था और फिर प्रधानमंत्री के तौर पर ब्रिटेन को यूरोपीय संघ से बाहर लाए.
स्टेनली जॉनसन ने गुरुवार को, ब्रिटेन के यूरोपीय संघ से अलग होने के कुछ घंटे पहले, प्रसारित एक इंटरव्यू में फ़्रासीसी नागरिकता प्राप्त करने के पीछे की वजहें गिनवाईं. उन्होंने कहा, "यह फ़्रेच बनने के बारे में नहीं है,"
"मेरे पास जो पहले से है उसे फिर से हासिल करने के बारे में है"
उन्होंने बताया कि उनकी माँ का जन्म फ़्रांस में हुआ था और एक फ्ऱेंच माँ के बेटे होने के कारण, "मैं हमेशा यूरोपीय रहूंगा.”
स्टेनली जॉनसन यूरोपीय संसद के लिए 1979 में चुने गए थे, तब पहली बार डायरेक्ट चुनाव हुए थे. उसके बाद उन्होंने यूरोपीय कमिशन के लिए काम किया.
इसी कारण बोरिस जॉनसन के बचपन का कुछ समय ब्रसेल्स में बीता. ब्रेक्सिट के मुद्दों ने जॉनसन परिवार के बीच सहमति नहीं बन पाई थी.
प्रधानमंत्री की बहन,पत्रकार रेचल जॉनसन ब्रेक्सिट के विरोध में 2017 के चुनाव से पहले कंज़र्वेटिव पार्टी को छोड़कर लिबरल डेमोक्रेट्स के साथ मिल गई थीं.
उनके भाई और कंजर्वेटिव सांसद जो जॉनसन ने यूरोपीय संघ के साथ निकट संबंधों का समर्थन करते हुए 2018 में कैबिनेट से इस्तीफ़ा दे दिया था. (bbc)
मैड्रिड, 2 जनवरी | स्पेन ने शुक्रवार को ब्रिटेन से हवाई मार्ग और समुद्र के रास्ते आने वाले यात्रियों के प्रवेश को 19 जनवरी तक के लिए प्रतिबंधित कर दिया है। प्रवेश प्रतिबंध की घोषणा की जानकारी आधिकारिक स्टेट गजट में दी गई है। हालांकि इस दौरान स्पेनिश नागरिकों और स्पेन में कानूनी तौर पर रहने वाले लोगों को प्रवेश की अनुमति दी जाएगी।
समाचार एजेंसी सिन्हुआ की रिपोर्ट के अनुसार गजट में कहा गया है, "सार्स-कोव-2 के नए वैरिएंट के दायरे को लेकर अनिश्चितता के चलते यूनाइटेड किंगडम में महामारी की स्थिति के विकास को लेकर अधिक जानकारी की जरूरत होगी।"
ब्रिटेन में सबसे पहले सामने आए कोरोनावायरस के नए वैरिएंट को 70 फीसदी तक अधिक संक्रामक बताया गया है। इसके चलते 22 दिसंबर से ही स्पेन ने ट्विटर पर एक रिलीज जारी करके स्पेन के नागरिकों या स्पेन में कानूनी तौर पर रहने वाले निवासियों को छोड़कर ब्रिटेन के सभी नागरिकों के प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया था।
प्रवेश प्रतिबंध की समय सीमा 5 जनवरी को खत्म होने वाली थी, जिसे बढ़ा दिया गया है। इसमें आगे कहा गया है, "जिब्राल्टर में सीमा नियंत्रण (स्पेन के दक्षिण तट पर ब्रिटिश की ओवरसीज टेरिटरी) को भी मजबूत किया जाएगा।"
सोमवार तक स्पेन के 6 क्षेत्रों में कोरोनावायरस के नए स्ट्रेन के 19 मामलों की पुष्टि हो चुकी है। इनमें से कई लोग प्रतिबंध लगने से पहले ब्रिटेन से स्पेन में आए थे।
--आईएएनएस
वाशिंगटन, 2 जनवरी | अमेरिकी कांग्रेस ने राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के रक्षा खर्च पर लाए गए एक विधेयक के वीटो को पलट दिया है। ऐसा पहली बार उनके राष्ट्रपति पद पर रहते हुए हुआ है। रिपब्लिकन नियंत्रित सीनेट ने इस पर बहस करने के लिए नए साल के पहले दिन सत्र आयोजित किया, जिसे पहले से ही प्रतिनिधि सभा द्वारा वोट दिया गया था। बीबीसी ने बताया कि 740 बिलियन डॉलर का बिल आने वाले साल के लिए रक्षा नीति को बढ़ावा देगा।
ट्रंप, जो कुछ हफ्तों में कार्यालय छोड़ने वाले हैं, ने बिल में कुछ प्रावधानों पर आपत्ति जताई थी।
सीनेट ने राष्ट्रीय रक्षा प्राधिकरण अधिनियम (एनडीएए) के लिए 81-13 से मतदान किया। दोनों सदनों में राष्ट्रपति के वीटो को पलटने के लिए दो-तिहाई बहुमत की आवश्यकता होती है।
ट्रंप ने उन प्रावधानों का मुद्दा उठाया था जो अफगानिस्तान और यूरोप से सेना की वापसी को सीमित करती हैं और कन्फेडरेट नेताओं के नामों को सैन्य ठिकानों से हटा देती हैं।
वह यह भी चाहते थे कि बिल सोशल मीडिया कंपनियों के लिए देयता शील्ड को निरस्त कर दे।
बहस शुरू होने से पहले, सीनेट रिपब्लिकन नेता मिच मैककोनेल ने कहा कि वह बिल पारित करने के लिए संकल्पित हैं।
इस बात पर सीनेट का ध्यान केंद्रित है कि - उस वार्षिक रक्षा कानून को पूरा करना जो हमारे बहादुर पुरुषों और महिलाओं की देखभाल करता है, जो वर्दी पहनना चाहते हैं।
उन्होंने कहा, हमने इस कानून को 59 वर्षों से पारित किया है। और एक तरह से हम 60वें वार्षिक एनडीएए को पूरा करने जा रहे हैं और रविवार को इस कांग्रेस के समापन से पहले इसे कानून बनाएंगे।
बाद में ट्रंप ने विशेष रूप से देयता संरक्षण के मुद्दे पर वोट का जवाब दिया।
उन्होंने ट्विटर पर कहा, हमारे रिपब्लिकन सीनेट धारा 230 से छुटकारा पाने का अवसर चूक गए, जो बिग टेक कंपनियों को असीमित शक्ति देता है। दयनीय!
--आईएएनएस
लंदन, 2 जनवरी | ब्रिटेन में कोरोनावायरस के 53,285 नए मामले सामने आए हैं, जिसके बाद देश में मामलों की कुल संख्या 25,42,065 हो गई है। समाचार एजेंसी सिन्हुआ के मुताबिक, वहीं 613 लोगों की मौत के बाद ब्रिटेन में कोरोनावायरस से संबंधित कुल मौतों की संख्या 74,125 हो गई है।
ये नए आंकड़े तब सामने आए हैं जब ब्रिटिश सरकार के सलाहकारों ने नए कोविड-19 वैरिएंट को नियंत्रित करने के लिए दफ्तरों, स्कूलों और भीड़-भाड़ वाले सभी बाहरी स्थानों पर फेस मास्क पहनना अनिवार्य कर दिया है। यह नया वैरिएंट 70 प्रतिशत ज्यादा तेजी से फैलता है।
ब्रिटिश ऑफिस ऑफ नेशनल स्टैटिस्टिक्स के आंकड़ों के मुताबिक, वायरस का नया स्ट्रेन मामलों की संख्या को इंग्लैंड में 63 फीसदी और लंदन में 77 फीसदी तक बढ़ा सकता है।
वहीं साइंटिफिक एडवाइजरी ग्रुप ऑफ इमरजेंसीज (एसएजीई) को रिपोर्ट करने वाले बिहेवियरल साइंस ग्रुप की रिपोर्ट के अनुसार, वैरिएंट के संचरण के जोखिम से बचने के लिए सोशल डिस्टेंसिंग और स्वच्छता उपायों में कठोरता बरतने की जरूरत होगी।
लंदन और इंग्लैंड के कई अन्य हिस्सों में पहले से ही सबसे अधिक सख्त टियर-4 प्रतिबंध लागू हैं, जिसके चलते यहां के निवासियों को घर से निकलने के लिए बहुत कम छूट दी गई है।
--आईएएनएस
वाशिंगटन, 2 जनवरी | वैश्विक स्तर पर कोरोनावायरस मामलों की कुल संख्या 8.39 करोड़ तक पहुंच गई है, जबकि मौतें 18.2 लाख से अधिक हो गई हैं। यह जानकारी जॉन्स हॉपकिन्स विश्वविद्यालय ने शनिवार को दी। विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर सिस्टम साइंस एंड इंजीनियरिंग (सीएसएसई) ने शनिवार सुबह अपने नवीनतम अपडेट में खुलासा किया कि वर्तमान वैश्विक मामले और मृत्यु संख्या क्रमश: 83,957,701 और 1,827,121 है।
सीएसएसई के अनुसार, अमेरिका दुनिया का सबसे अधिक कोविड प्रभावित देश है, जहां संक्रमण के कुल मामले 20,128,359 और 347,787 मौतें दर्ज की गई हैं।
संक्रमण के मामलों के हिसाब से भारत 10,286,709 मामलों के साथ दूसरे स्थान पर है, जबकि देश में कोविड से मरने वालों की संख्या 148,994 है।
सीएसएसई के अनुसार, दस लाख से अधिक पुष्ट मामलों वाले अन्य देश ब्राजील (7,700,578), रूस (3,153,960), फ्रांस (2,697,014), ब्रिटेन (2,549,689), तुर्की (2,220,855), इटली (2,129,376), स्पेन (1,928,265), जर्मनी (1,762,504), कोलम्बिया (1,654,880), अर्जेंटीना (1,629,594), मेक्सिको (1,437,185), पोलैंड (1,305,774), ईरान (1,231,429), यूक्रेन (1,096,855), दक्षिण अफ्रीका (1,073,887), और पेरू (1,015,137) हैं।
कोविड से हुई मौतों के मामले में अमेरिका के बाद ब्राजील वर्तमान में 195,411 आंकड़ों के साथ दूसरे नंबर पर है।
वहीं 20,000 से अधिक मौत दर्ज करने वाले देश मेक्सिको (126,507), इटली (74,621), ब्रिटेन (74,237), फ्रांस (64,892), रूस (56,798), ईरान (55,337), स्पेन (50,837), कोलंबिया (43,495), अर्जेंटीना (43,319), पेरू (37,680), जर्मनी (33,885), पोलैंड (28,956), दक्षिण अफ्रीका (28,887), इंडोनेशिया (22,329) और तुर्की (21,093) हैं।
--आईएएनएस
इस्लामाबाद, 2 जनवरी | यहां की एक संसदीय समिति ने फैसलाबाद में एक नाबालिग ईसाई लड़की के अपहरण की नए सिरे से जांच के आदेश दिए। समिति इस बात से सहमत हो गई है कि पुलिस ने मामले को सही तरह से नहीं संभाला। द डॉन के रिपोर्ट के अनुसार, कई मुस्लिम लोगों ने कथित तौर पर एक 13 साल की नबालिग ईसाई लड़की का अपहरण कर लिया और जबरन धर्म परिवर्तन करने के बाद उनमें से एक ने इस लड़की से शादी कर ली। बाद में पांच महीने बाद उस लड़की को मुक्त कर दिया।
यह आदेश गुरुवार को जारी किया गया।
सीनेट फंक्शनल कमेटी ऑन ह्यूमन राइट्स की एक बैठक सीनेटर मुस्तफा नवाज खोखर की अध्यक्षता में हुई।
फैसलाबाद के पुलिस अधिकारियों ने समिति को बताया कि उन्हें लड़की के परिवार से शिकायत मिली थी कि खेसर हयात ने लड़की का कथित तौर पर अपहरण कर लिया है। लेकिन लड़की द्वारा दिया दर्ज बयान कुछ और ही कहता है।
पुलिस ने कहा कि लड़की ने मजिस्ट्रेट के सामने दर्ज अपने बयान में कहा कि उसने स्वेच्छा से अपना घर छोड़ दिया और इस्लाम धर्म अपना लिया और शादी कर ली। पुलिस अधिकारियों ने समिति को बताया कि लड़की का मेडिकल परीक्षण भी हुआ था और डॉक्टर की रिपोर्ट के अनुसार उसकी उम्र 16 से 17 वर्ष के बीच है।
लड़की के पिता ने समिति में पुलिस के व्यवहार के बारे में भी शिकायत दर्ज की, जिस पर समिति ने खेद व्यक्त किया है।
समिति के अध्यक्ष ने नाबालिग लड़की के परिवार से माफी मांगी और परिवार को उचित सुरक्षा देने की मांग की।
सीनेटर खोखर ने कहा, "जांच अधिकारी ने पाकिस्तान की छवि को धूमिल किया है।"
समिति ने वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक (एसएसपी) फैसलाबाद को पूरे मामले की जांच करने और 6 जनवरी को समिति को एक रिपोर्ट देने का निर्देश दिया है।
--आईएएनएस
फ्लोरिडा में पत्नी मेलानिया के साथ छुट्टी मना रहे राष्ट्रपति ट्रंप को बीच में ही वापस व्हाइट हाउस लौटना पड़ा है
अमेरिका की कांग्रेस ने रक्षा खर्च फंड पर राष्ट्रपति ट्रंप के वीटो को खारिज कर दिया है. ट्रंप के राष्ट्रपति काल में ऐसा पहली बार हुआ है.
रिपब्लिकन पार्टी के नियंत्रण वाली सीनेट ने नए साल के पहले दिन दुर्लभ सत्र आयोजित करते हुए इस मुद्दे पर चर्चा की.
अमेरिकी कांग्रेस के निचले सदन हाउस ऑफ रेप्रेसेंटेटिव में इस पर पहले ही वोट किया जा चुका था.
740 अरब डॉलर के इस विधेयक के जरिए अगले एक साल तक अमेरिका की रक्षा नीति पर ख़र्चा किया जाना है.
कुछ ही सप्ताह में राष्ट्रपति पद छोड़ने जा रहे डोनल्ड ट्रंप ने इस विधेयक के कुछ प्रावधानों का विरोध किया था.
सीनेट ने 81-13 के मतविभाजन से नेशनल डिफेंस ऑथोराइज़ेशन एक्ट (एडीएए) को पारित किया. राष्ट्रपति के वीटो को खारिज करने के लिए दो-तिहाई बहुमत होना अनिवार्य है.
ये घटनाक्रम नई कांग्रेस के शपथ लेने से दो दिन पहले हुआ है.
राष्ट्रपति ट्रंप ने उन नीतियों का विरोध किया है जो अफ़ग़ानिस्तान और यूरोप से अमेरिकी सैनिकों को हटाने की संख्या को सीमित करती हैं.
वो विधेयक के सोशल मीडिया कंपनियों की ज़िम्मेदारी तय करने वाले प्रावधान को भी हटाना चाहते थे.
बहस शुरू होने से पहले सदन में रिपब्लिकन नेता मिच मैककोनेल ने कहा था कि वो विधेयक को पारित कराने को लेकर आश्वस्त हैं.
कांग्रेस को ये क़दम क्यों उठाना पड़ा है?
राष्ट्रपति ट्रंप का कहना है कि अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका सैनिकों की मौजूदगी ख़र्चीली और निष्प्रभावी है
कांग्रेस से पारित विधेयक के क़ानून बनने के लिए राष्ट्रपति के हस्ताक्षर अनिवार्य हैं.
कुछ दुर्लभ परिस्थितियों में राष्ट्रपति विधेयक पर हस्ताक्षर नहीं करते हैं या उसे वीटो कर देते हैं. ऐसा नीतिगत मामलों में मतभेद की वजह से होता है.
लेकिन सदन के सदस्य दोनों सदनों में दो-तिहाई से अधिक बहुमत से विधेयक पारित कराकर राष्ट्रपति के वीटो को खारिज करा सकते हैं और विधेयक को क़ानून बना सकते हैं.
कांग्रेस में डेमोक्रेट पार्टी की सबसे शक्तिशाली सदस्य और हाउस स्पीकर नैंसी पलोसी ने कहा है कि ट्रंप के इस क़दम से अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा ख़तरे में थी.
राष्ट्रपति ट्रंप ने बुधवार को इस विधेयक को वीटो किया था. उनके सलाहकारों ने उनसे विधेयक के ख़िलाफ़ न जाने के लिए चेताया भी था.
इससे पहले राष्ट्रपति ट्रंप ने आठ विधेयकों को वीटो किया है. वो सभी वीटो प्रभावी रहे थे.
राष्ट्रपति ट्रंप का कार्यकाल बीस जनवरी को समाप्त को हो रहा है. उसी दिन डेमोक्रेट पार्टी नेता और 2020 राष्ट्रपति चुनावों के विजेता जो बाइडेन शपथ लेंगे. (bbc)
बीजिंग, 2 जनवरी | चीन के पारिस्थितिकी पर्यावरण मंत्रालय, वाणिज्य मंत्रालय, राष्ट्रीय विकास व रूपांतरण कमेटी, जनरल कस्टम ब्यूरो द्वारा जारी 'व्यापक रूप से ठोस कचरे के आयात पर प्रतिबंध लगाने से जुड़ी विज्ञप्ति' के अनुसार 1 जनवरी 2021 से चीन ने हर तरह के ठोस कचरे के आयात पर प्रतिबंध लगा दिया है। साथ ही चीन के बाहर से आए ठोस कचरे की डंपिंग, स्टॉकिंग और निपटान पर भी पाबंदी होगी। यह कदम उठाने के बाद पारिस्थितिकी पर्यावरण मंत्रालय ठोस कचरे को आयात करने की अनुमति नहीं देगा। अगले चरण में चीन संसाधनों की किफायत और गहन उपयोग को मजबूत करेगा। घरेलू ठोस कचरे के हानि-रहित उपचार और संसाधन उपयोग के स्तर को उन्नत किया जाएगा। और धीरे-धीरे घरेलू संसाधनों के अंतर को भरा जाएगा। साथ ही संबंधित विभाग ठोस कचरे के वितरण व भंडारण केंद्रों के प्रबंध को मजबूत करेंगे, और कानून के आधार पर ठोस कचरे के प्रसंस्करण और संबंधित उद्योगों की अवैध कार्रवाई पर लगाम कसी जाएगी।
(साभार- चाइना मीडिया ग्रुप, पेइचिंग)
-- आईएएनएस
सीरिया से लेकर लीबिया तक के संघर्षों में शामिल तुर्की रूस के साथ रक्षा साझेदारी में किसी तरह नाजुक संतुलन बनाए हुए है. आर्थिक दिक्कतों और पश्चिमी देशों से टकराव के बीच दुनिया के मंच पर आखिर कब तक उसकी सेना डटी रह सकेगी.
तुर्क, 1 जनवरी | घरेलू मोर्चे पर आर्थिक मुश्किलों और पश्चिमी देशों से तनातनी के बीच भी तुर्क राष्ट्रपति रेचप तैयप एर्दोवान किसी तरह दुनिया के सबसे कड़े सैन्य संघर्षों में अपनी सेना भेजने की महत्वाकांक्षा पूरी कर ले रहे हैं. सोमालिया और कतर में सैन्य अड्डे तो सीरिया और लीबिया में सीधे युद्ध में शामिल तुर्की की सेना फिलहाल दुनिया के कम से कम 12 देशों में मौजूद है. तुर्की दक्षिणी कॉकेशस के इलाके में विवादित नागोर्नो कारबाख में भी अपनी शांति सेना भेजने जा रहा है. इसके अलावा तुर्की की नौसेना पूर्वी भूमध्यसागर के विवादित तेल और गैस क्षेत्र की निगरानी कर रही है. इसकी वजह से उस पर यूरोपीय संघ का विरोध और ग्रीस, साइप्रस और फ्रेंच सैनिकों से संघर्ष का भी खतरा मंडरा रहा है.
यह सब कुछ 2016 के नाकाम सैन्य तख्तापलट के साए में ही चल रहा है जब हजारों अनुभवी सैनिकों की सेना से छुट्टी कर दी गई. तो आखिर एर्दोवान किस वजह से सैन्य दुस्साहसों को जारी रखे हुए हैं? इस सवाल का जवाब कुछ हद तक देश में उभरते राष्ट्रवाद में छिपा है. ये वो ट्रंपकार्ड है जिसके दम पर बीते सत्रह सालों में एर्दोवान ने घरेलू राजनीतिक लाभ कमाना सीख लिया है.
एर्दोवान का अस्तित्व और सेना
वॉशिंगटन इंस्टीट्यूट फॉर नियर ईस्ट पॉलिसी में तुर्क रिसर्च प्रोग्राम के निदेशक सोनार कागाप्ते कहते हैं, "एर्दोवान ने वो युद्ध नहीं शुरू किए जिसमें वो फिलहाल शामिल हैं बल्कि वह अपना अस्तित्व और तुर्की की सीमा पर सुरक्षा की चिंताओं को आपस में जोड़ रहे हैं. कागाप्ते बताते हैं, "बहुत से तुर्क इस नई विदेश नीति से अभिभूत हैं जो तुर्की को उसकी सीमाओं से आगे ले जा रही है. तो इन सारे विदेशी मामलों में झगड़ालू रुख से एर्दोवान अपने घरेलू समर्थकों को संतुलित कर रहे हैं जो नौकरी जाने, क्रय शक्ति घटने और महंगाई की ऊंची दर से परेशान हैं.
वैश्विक महामारी के दौर में आर्थिक समस्याएं आसमान पर हैं, तुर्की की मुद्रा लीरा 2020 की शुरुआत से अब तक अमेरिकी डॉलर के मुकाबले 30 फीसदी कीमत खो चुकी है लेकिन फिर भी एर्दोवान का जादू उनके देश में कायम है. विश्लेषकों को कहना है कि तुर्की भले ही आर्थिक रूप से पूरी तरह संकट में ना घिरा हो लेकिन धीमा विकास और बढ़ती बेरोजगारी का उस पर आने वाले दिनों में असर होगा. आर्थिक रूप से कमजोरी के अलावा एर्दोवान के सैन्य अभियानों के लिए एक बड़ा खतरा तुर्की की अमेरिका और जर्मनी में बने हथियारों पर निर्भरता भी होगी.
रक्षा मामलों से जुड़े एक सूत्र ने समाचार एजेंसी डीपीए को बताया कि तुर्की की वायु सेना का पूरा हमलावर दस्ता या तो अमेरिका में बना है या फिर अमेरिका से आने वाले पुर्जों पर चलता है. इसी बीच तुर्की के आधे से ज्यादा टैंक और नौसेना के आधे से ज्यादा दस्ते भी अमेरिका में बने हैं और बाकी आधे का संबंध जर्मनी से है.
रक्षा उत्पादों में आत्मनिर्भरता
एर्दोवान अकसर स्थानीय फर्मों को तुर्की में रक्षा निवेश बढ़ाने का आग्रह करते रहे हैं. हालांकि इन कोशिशों में घरेलू हथियार बनाने वालों की विदेशी पुर्जों पर निर्भरता भारी पड़ जाती है. यह जानते हुए भी और पश्चिम के साथ रिश्तों में आए तनाव को देखते हुए तुर्की अब अपने लिए रक्षा उपकरण खुद तैयार करने की कोशिश में है. इनमें सबसे प्रमुख है बेहद उन्नत टीबी2 ड्रोन. इस्तांबुल के थिंक टैंक ईडीएएम के निदेशक जान कारापोग्लु बताते हैं, "तुर्क सेना को ड्रोन में पारंगत करने से सीमा पार की कार्रवाइयों के लिए मजबूती आ गई है. ये किफायती हैं, नुकसान को घटाते हैं और पैसा वसूल हैं. इसके साथ ही यह निर्यात के लिए भी बढ़िया है."
रक्षा विशेषज्ञ हाकान किलिज कहते हैं, "तुर्की के बायराक्तार टीबी2 ड्रोन ने इस साल सीरिया, लीबिया और नागोर्नो काराबाख में सफल अभियान पूरे कर दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचा." टीबी2 ड्रोन की कीमत के बारे में किलीज का अनुमान है कि 27 घंटे उड़ान भरने में सक्षम ड्रोन की कीमत करीब 70 लाख डॉलर है. यह एक आधुनिक एफ-16 लड़ाकू विमान की कीमत का मात्र दसवां हिस्सा है. जबकि एफ 16 लड़ाकू विमान औसतन महज तीन घंटे के लिए ही उड़ान भर सकता है.
कासापोग्लू का कहना है कि एर्दोवान की सैन्य महत्वाकांक्षाओं पर तुलनात्मक रूप से नरम ही सही लेकिन अमेरिकी प्रतिबंधों का बुरा असर हुआ है. ये प्रतिबंध 2017 के सीएएटीएसए एक्ट के तहत रूस से एस 4000 एयर डिफेंस सिस्टम खरीदने की प्रतिक्रिया में लगाए गए और यह रक्षा क्षेत्र में तुर्की की क्रय शक्ति पर बुरा असर डाल सकता है. अमेरिका एफ-35 विमान संयुक्त रूप से बनाने के कार्यक्रम को स्थगित कर पहले ही तुर्की की हवाई हमलों की क्षमता बढ़ाने की कोशिशों को बड़ा झटका दे चुका है. किलीज के मुताबिक इसकी वजह से तुर्की के 10 कांट्रैक्टरों को 12 अरब डॉलर की चपत लगी है.
उम्मीद की किरण बाइडेन
हालांकि तुर्की के लिए अभी उम्मीद की एक किरण अमेरिका के निर्वाचित राष्ट्रपति जो बाइडेन के रूप में बची हुई है. माना जा रहा है कि वो सीरिया और लीबिया में तुर्की का समर्थन करने के साथ ही दक्षिणी कॉकेशस में शांति की कोशिशों के लिए भी साथ देंगे. राजनीतिक विश्लेषक कागाप्ते कहते हैं, "मुझे लगता है कि अमेरिकी सेना इस बात को पसंद करती है कि तुर्की ने इन देशों के ज्यादातर हिस्से को मुख्य रूप से रूसी नियंत्रण में जाने से रोका है." इसके साथ ही कागाप्ते ने यह भी कहा कि एर्दोवान का रूसी राष्ट्रपति व्लादीमिर पुतिन के साथ "टिकाऊ रिश्ता" भी उन्हें संकट के प्रमुख इलाकों में सक्रिय रहने का मौका दे रहा है. हालांकि वो सावधान भी करते हैं कि रूस पर मध्यम अवधि के लिए निर्भरता बोझ बन सकती है.
कासापोग्लु एक और अहम बात बताते हैं कि तुर्की देश के बाहर रणनीतिक रूप से अग्रिम मोर्चे पर सेना की तैनाती के बारे में कोई वचन देने में सावधानी रख रहा है और ज्यादातर सहयोगी की भूमिका में ही सामने आ रहा है. इस चतुराई वाली दूरदृष्टि और वैश्विक स्तर पर अमेरिकी नेतृत्व में परिवर्तन का मतलब हो सकता है कि एर्दोवान का सैन्य साहस कुछ और समय के लिए जारी रहे.
एनआर/एमजे (डीपीए)
नेपाल के राजनीतिक संकट का साया चीन की रणनीतिक बेल्ट एंड रोड परियोजना पर पड़ने की आशंका से चीन को चिंता में है. चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के दूत हिमालयी राज्य में कम्युनिस्ट पार्टी में विभाजन को रोकने की कोशिश कर रहे हैं.
नेपाल, 1 जनवरी | नेपाल में संकट 20 दिसंबर को शुरू हुआ. प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने फैसला कर लिया कि वो सत्ताधारी नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर चल रही गुटबाजी के बीच काम नहीं कर सकते. यह पार्टी मार्क्सवादी लेनिनवादी और माओवादी पार्टी के विलय से 2018 में बनी. 2017 के चुनाव में इन पार्टियों को जीत मिली थी. केपी शर्मा ओली के कार्यकाल में अभी दो साल का वक्त बाकी है. इसके पहले ही ओली ने संसद भंग कर दी और नए चुनाव कराने का प्रस्ताव रख दिया.
विदेशी राजनयिकों का कहना है कि ओली के इस कदम ने चीन को हैरान कर दिया और देश की तीन करोड़ की आबादी भी अनिश्चय की आशंका में घिर गई. ओली मंत्रिमंडल के सात मंत्रियों ने इस्तीफा दे दिया. महामारी के इस दौर में जब अर्थव्यवस्था बुरे हाल में है तब राजनीतिक उठापटक और अंदरूनी कलह ने लोगों को गुस्सा भड़का दिया. नेपाल में प्रदर्शन हो रहे हैं और प्रधानमंत्री के पुतले जलाए गए हैं.
नेपाल में चीन के दूत
आनन फानन में चीन ने अपने दूत गुओ येझुओ को काठमांडू भेज दिया. चीन की कम्युनिस्ट पार्टी में अंतरराष्ट्रीय संपर्क विभाग के उप मंत्री येझुओ विदेशों में सत्ताधारी से लेकर विपक्ष तक हर तरह की राजनीतिक पार्टियों से संपर्क का काम देखते हैं. एक वरिष्ठ यूरोपीय राजनयिक ने समाचार एजेंसी रॉयटर्स से कहा, "यह साफ है कि महामारी के दौर में ओली के अचानक उठाए कदम से चीन नाराज हुआ है... उन्हें अपने भारी निवेश की चिंता है जिसका उन्होंने वादा किया है." यूरोपीय राजनयिक ने नाम जाहिर नहीं करने का अनुरोध किया क्योंकि उन्हें मीडिया से बात करने के लिए अधिकृत नहीं किया गया है. उनका कहना है, "वो हैरान हैं कि ओली कैसे इतना बड़ा राजनीतिक कदम पहले से विचार विमर्श किए बगैर कैसे उठा सकते हैं."
ओली ने कहा है कि चुनाव दो चरणों में अप्रैल और मई में कराए जाएं. हालांकि आगे क्या होगा, यह सुप्रीम कोर्ट तय करेगा क्योंकि विरोधियों ने संसद भंग करने की कार्रवाई को संविधान के खिलाफ माना है और सुप्रीम कोर्ट जनवरी में इस मामले की सुनवाई करेगा. गुआ ने ओली और कम्युनिस्ट पार्टी में उनके विरोधियों के साथ ही दूसरे दलों के नेताओं से अलग अलग बैठक की है ताकि सभी पक्षों की कहानी सुन सकें.
काठमांडू में चीनी दल के दौरे के बारे में चीन के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता का कहना है कि चीन को उम्मीद है, "नेपाल की सभी पार्टियां राष्ट्रहित और संपूर्ण परिस्थिति को सबसे ऊपर रखेंगी और वहां से आगे बढ़ कर आंतरिक मतभेदों को ठीक से सुलझा कर राजनीतिक स्थिरता और देश के विकास के लिए काम करेंगी."
नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री और नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (एनसीपी) में ओली के प्रमुख आलोचक माधव कुमार नेपाल का नाम गुओ के मुलाकातियों की लिस्ट में ऊपर था. इसके साथ ही एनसीपी के विदेश मामलों के उप प्रमुख राम कार्की ने भी गुओ से मुलाकात की है. कार्की ने चीनी दल से मुलाकात के बारे में कहा, "वो बोलने से ज्यादा सुनना चाहते हैं. वो उन कारणों को जानना चाहते हैं जिसकी वजह से पार्टी में फूट पड़ी." कार्की का यह भी कहना है, "चीन हमेशा से नेपाल में स्थिरता चाहता है. चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के साथ एनसीपी का भाइचारे का संबंध हैं इसलिए वो मौजूदा स्थिति को लेकर चिंता में हैं. वे यह जानने की कोशिश में हैं कि क्या पार्टी को एकजुट करने की कोई संभावना है."
असल चिंता निवेश की
गुओ ने विपक्षी नेपाली कांग्रेस पार्टी के नेता और पूर्व प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा से भी मुलाकात की. बैठक में मौजूद दिनेश बट्टराई ने समाचार एजेंसी रॉयटर्स को बताया, "नेपाल में कोई भी बदलाव हो, चीन हमेशा सभी राजनीतिक दलों से अपने रिश्ते और ट्रांस हिमालयन मल्टी डायमेंसनल कनेक्टिविटी नेटवर्क के लिए आर्थिक सहयोग जारी रखना चाहता है.
इस नेटवर्क में बंदरगाहों, सड़कों, रेलवे, उड्डयन और संचार निर्माण शामिल है. इसके लिए अक्टूबर 2019 में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के नेपाल दौरे पर सहमति बनी थी. अरबों डॉलर का यह निवेश नेपाल की बीमार अर्थव्यवस्था में जान फूंक सकता है.
हालांकि इसके बाद भी नेपाल में विदेशी राजनयिक गुओ के दौरे को नेपाल के आंतरिक मामले में चीन के बढ़ते दखल के रूप में देख रहे हैं. एक वरिष्ठ पश्चिमी राजनयिक ने कहा, "महामारी के दौर में कोई देश अपने प्रतिनिधिमंडल को इतनी जल्दबाजी में पड़ोसी देश में क्यों भेजेगा. साफ जाहिर है कि वे नेपाल की अंदरूनी राजनीति को नियंत्रित करना चाहते हैं क्योंकि भविष्य में वो वहां निवेश बढ़ाना चाहते हैं."
भारत और चीन के बीच नेपाल
एक एशियाई राजनयिक ने भी लगभग यही बातें दोहराई, "वे जमीन खरीद रहे हैं, बड़े स्तर पर बुनियादी ढांचे की परियोजनाओं में निवेश कर रहे हैं साथ ही सत्ताधारी दल और विपक्ष पर कड़ा नियंत्रण रख रहे हैं. बीजिंग का बहुत कुछ दांव पर है."
भारत और चीन के बीच फंसे नेपाल का चीन की तरफ झुकाव भारत के लिए भी चिंता बढ़ा रहा है. ओली ने नेपाल और भारत के बीच सीमा विवाद का मुद्दा ऐसे समय में उठाया जब भारत पहले से ही कई दशकों में चीन के साथ सबसे बड़े तनाव का सामना कर रहा था. नई दिल्ली के थिंक टैंक सेंटर फॉर सोशल एंड इकोनॉमिक प्रोग्रेस के विश्लेषक कोंस्टानटिनो जेवियर का कहना है, "नेपाल में दखल देने का भारत का इतिहास रहा है लेकिन इस बार वह पीछे खड़ा है, ऐसे में नेपाली लोगों के बढ़ते असंतोष के सामने ज्यादा चीन है."
लंदन के स्कूल ऑफ ओरिएंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज में रिसर्च फैजी इस्माइल मानते हैं कि अगर चीन ओली को राजनीतिक स्थिरता की उम्मीद में ओली को समर्थन जारी रखता है तो उसे निराशा हाथ लगेगी. इस्माइल ने कहा, "ओली के तानाशाही रवैये और नागरिक अधिकारों पर बंदिशों के खिलाफ प्रदर्शन तेज होने की आशंका है."
एनआर/एके(रॉयटर्स)
फ्रांस और इस्लाम का रिश्ता बीते सालों में एक मुश्किल दौर देख रहा है. कोई इसके लिए ऐतिहासिक वजहों को जिम्मेदार ठहराता है तो कोई फ्रेंच समाज के ज्यादा खुलेपन को.
फ्रांस, 1 जनवरी | फ्रेंच समाज में इस्लाम की क्या भूमिका है? फ्रांस के राष्ट्रपति इमानुएल माक्रों ने लंबे समय से विवादित रहे इस मुद्दे पर नई बहस छेड़ दी है. अक्टूबर में दो भयानक हमलों के बाद इस्लामी चरमपंथ एक बार फिर चर्चा के केंद्र में है. हालांकि 2020 में जो मुद्दे उठे हैं, उन पर बहुत पहले से चर्चा होती रही है. ऐसे में पूछा जा रहा है कि इस बार की बहस से क्या कोई समाधान निकलेगा?
माक्रों का बदला रुख
साल 2020 में फ्रांस एक बार फिर देश के मुस्लिम अल्पसंख्यकों के साथ अपने संबंधों को लेकर विवाद में घिरा. यह लड़ाई कहीं खत्म होगी, क्या इसका किसी तरह से कोई समाधान निकलेगा? फ्रांस के इतिहास से यह मुद्दा बहुत लंबे समय से जुड़ा है. खासतौर से मुस्लिम बहुल उत्तरी और पश्चिमी अफ्रीका में फ्रांस के औपनिवेशिक इतिहास और स्वतंत्रता संग्राम के जख्मों की इसमें भूमिका है. इन देशों से फ्रांस की फैक्ट्रियों में काम करने आए लोगों को भी यहां कोई खास तवज्जो नहीं मिली. इन उद्योगों का जब पतन हुआ तो कामगारों का एक बड़ा तबका उपनगरों की खराब सुविधाओं और बदहाल व्यवस्थाओं के बीच फंस गया. श्रम बाजारों में भेदभाव से परेशान युवा कठोर और भेदभाव करने वाली पुलिस व्यवस्था के कारण और अलग थलग पड़ गए.
1990 के दशक में अल्जीरियाई गृह युद्ध से जुड़े आतंकी हमले और पूरे इस्लामिक जगह में पुनर्जीवित हुई फ्रांस की धार्मिकता ने भेदभाव, आप्रवासन, राष्ट्रीय पहचान और धर्मनिरपेक्षता से जुड़ी दलीलों को और ज्यादा संवेदनशील बना दिया. शायद यह थोड़ा हैरान करने वाला है कि इस बार इस मुद्दे को सामने लाने वाले फ्रेंच राष्ट्रपति इमानुएल माक्रों 2017 के चुनाव से पहले तक बड़ी कठोरता से उन लोगों की आलोचना करते थे जो उनके मुताबिक देश के धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों का इस्तेमाल "इस्लाम के खिलाफ हमले" के लिए करते हैं.
हालांकि समय बदला. अक्टूबर में पेरिस के उपनगर में एक भाषण के दौरान माक्रों ने एलान किया कि फ्रांस को इस्लामी अलगाववाद से लड़ना होगा और "सारे मुसलमानों को कलंकित करने के जाल" में फंसने से भी बचना होगा. एक नए कानून के मसौदे में उन उपायों का जिक्र है जिनका मकसद बच्चों को भूमिगत धार्मिक स्कूलों में जाने और धार्मिक संस्थाओं को संदिग्ध विदेशी संस्थाओं से मदद लेने और इन्हें चरमपंथियों के हाथ में जाने से रोकना है.
अलगाववादी समानांतर समाज
आधिकारिक मान्यता वाले काउंसिल ऑफ इस्लामिक ऑर्गनाइजेशंस को इस बात के लिए मनाया जा रहा है कि वह इमामों के लिए प्रमाणपत्र देने की योजना शुरू करे. माक्रों को लगता है कि इस्लामी समस्याओं से घिरे शहरी इलाकों में रहने वाले आप्रवासी मूल के लोगों के साथ एक "अलगाववादी" समानांतर समाज बनाना चाहते हैं.माक्रों की योजना में इसी से निपटने पर पूरा ध्यान दिया गया है.
माना जाता है कि माक्रों के कुछ प्रस्तावों की प्रेरणा इंस्टीट्यूट मोंटेग्ने के हाकिम अल कारुई की रिसर्च से मिली है. हाकिम अल कारुई का कहना है कि फ्रेंच मुसलमानों में एक चौथाई लोगों के साथ सचमुच समस्या है. इनमें से बहुत सारे युवा हैं, "जो इस्लाम को बहुत कठोर निरंकुशता के साथ अपनी पहचान बनाना चाहते हैं." समाचार एजेंसी डीपीए से बातचीत में उन्होंने कहा, "आक्रामक अलगाववाद में 50 हजार या एक लाख लोग शामिल हैं, लेकिन 'फ्रांस हमें प्यार नहीं करता और हमें अपने अंतर को मजबूती से रखना है' ऐसी सोच रखने वाले मुसलमान तकरीबन 10 लाख हैं." अल कारुई का कहना है कि इस तरह धार्मिक पहचान को मजबूती से सामने रखने का चलन दूसरे धर्मों में भी उभर रहा है: यही बात यहूदी समुदाय में भी देखी जा सकती है. इवैंजेलिक ईसाई समुदाय भी समस्या वाले शहरी इलाकों में तेजी से फैल रहे हैं.
हालांकि 2015-16 में 230 लोगों की जान लेने वाले इस्लामी आतंकवाद का इतिहास बताता है कि मुसलमानों में इसकी अभिव्यक्ति बहुत ज्यादा संवेदनशील मसला है. फ्रेंच नेशनल सेंटर फॉर साइंटिफिक रिसर्च के रिसर्चर मारवान मोहम्मद भी दूसरे धर्मों में "अलगाव के प्रकारों" की ओर इशारा करते हैं. इसके साथ ही एक बड़ा तबका अमीर आबादी का है "जो समाज के बाकी लोगों से ज्यादा मेलजोल नहीं रखना चाहता."
ज्यादा खुलापन
हालांकि संख्या को लेकर वो कुछ संदेह जताते हैं. फ्रेंच मुसलमानों में "समाज के बाकी लोगों के प्रति किसी तरह की दुर्भावना" या फिर कहें कि "जिहादियों से सहानुभूति" रखने वालों की "असाधारण रूप से एक बहुत छोटी संख्या" है जो आमतौर पर बाकी मुस्लिम समुदाय से अलग थलग रहते हैं. उनका यह भी कहना है कि लोगों से धार्मिक कानूनों को देश के कानून से ऊपर रखने के बारे में किए सर्वे से भी बहुत अनुमान लगाना सही नहीं है. उनके मुताबिक हम जानते हैं कि किसी भी पक्के समर्थक के लिए निश्चित रूप से जो पवित्र है वह बेहद जरूरी है लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि... आप देश के कानून या समाज के दूसरे घटकों को खारिज कर देंगे.
अमेरिका मीडिया की इस दलील को फ्रांस बड़े गुस्से से खारिज कर देता है कि वह धर्म के रूप में इस्लाम के प्रति दमनकारी रुख अपना रहा है. ऐसे में सवाल उठता है कि दूसरे यूरोपीय देशों की तुलना में फ्रांस में यह मुद्दा क्यों इतना विवादित है. फ्रांस में बहुत लोग दलील देते हैं कि देश का धर्मनिरपेक्षता के प्रति जो रुख है उसे देश के बाहर ठीक से समझा नहीं गया है. हालांकि अल कारुई और मोहम्मद दोनों फ्रांस की धर्मनिरपेक्षता के बजाय इसके एकीकरण के मॉडल की ओर ऊंगली उठाते हैं. कारुई की दलील है यह मॉडल एक बेहद खुलेपन का मॉडल है जिसमें भारी संख्या मिलीजुली शादियों की है. उन्होंने कहा कि यह बहुत ज्यादा मांग करने वाला मॉडल भी है. खासतौर से अंग्रेजी बोलने वाले देशों या फिर जर्मनी की तुलना में. कारुई बताते हैं: फ्रेंच समाज आप्रवासियों से कहता है,"अगर तुम औरों की तरह फ्रेंच बनना चाहते हो तो ... तुम्हें फ्रेंच जैसा बनना होगा."
अल कारुई का कहना है कि इस्लामवाद के बारे में माक्रों के सुझाए उपाय नपे तुले हैं और उनसे नाराजगी पैदा नहीं होनी चाहिए. हालांकि उन्होंने कट्टर धर्मनिरपेक्ष लोगों की तरफ उंगली उठाते हुए कहा, "ज्यादा जोखिम तो उसके साथ दिए जाने वाले उपदेशों से है." उनका कहना है, "जब भी किसी आस्थावान मुस्लिम महिला के हिजाब पहनने पर बवाल होता है तो मुसलमानों को यही लगता है कि हमारे साथ हमेशा यही होगा."
संस्कृति के चंगुल में मुसलमान
इसी बारे में मोहम्मद थोड़ा और आगे जा कर कहते हैं, असल भेदभाव के साथ ही व्यापक रूप से खारिज करने के उपदेश देने वालों के कारण फ्रेंच मुसलमान आसानी से चंगुल में फंस जाते हैं, यह इतना ज्यादा है कि उन्हें लगता है कि वो कहीं और इससे तो बेहतर ही रहेंगे वो चाहे ब्रिटेन हो, उत्तरी अमेरिका या फिर अरब देश.
उनका कहना है कि फ्रेंच समाज की इस्लाम के साथ एक "ऐतिहासिक समस्या" है. इसके बाद देश में "समावेशीवाद" की संस्कृति है जो पूरी तरह नागरिक बनने के लिए यह जरूरी बनाता है कि, "आप अपनी धार्मिक पहचान और रिवाजों को छोड़ें या फिर स्वाभाविक रूप से संबद्ध चीजों या धार्मिक या सांस्कृतिक जुड़ाव को छोड़ें."
अल कारुई का कहना है कि फ्रेंच इस्लाम के लिए एक बेहतर ढंग से काम करने वाला और ज्यादा पारदर्शी संगठन का होना जरूरी है, जो एकीकरण में मदद करेगा. धार्मिक संस्थाओं के नवीनीकरण से जिहादियों का अंत नहीं होगा. उनकी दलील है कि बहुत नीचे के स्तर से धर्मिक और वैचारिक प्रभावों पर काम करके उनसे निपटना होगा.
हालांकि यह काम कितना जटिल है इसका एक उदाहरण देखिए. सामाजिक कार्यकर्ताओं के गुट कलेक्टिव अगेंस्ट इस्लामोफोबिया इन फ्रांस यानी सीसीआईएफ ने आरोप लगाया कि राष्ट्रपति का भाषण, "स्पष्ट रूप से चरमपंथ से प्रेरित था और उसने फ्रांस के लोकतांत्रिक सिद्धांतों और बुनियादी आजादी पर सवाल उठाया है." इसके कुछ ही हफ्तों बाद स्कूल टीजर की हत्या के बाद जब सरकार ने कई संगठनों को बंद कर दिया तो उसमें सीसीआईएफ भी शामिल था.
संगठन पर गई गलत कामों के आरोप लगे. इनमें कट्टरपंथी इस्लामी लोगों से संपर्क रखने और पहले के आतंकवाद रोधी उपायों को इस्लामोफोबिक दिखा कर नफरत फैलाने के आरोप भी शामिल हैं. ये सारे आरोप विवादित हैं. कट्टरपंथी धर्मनिरपेक्ष लोगों ने इस कदम का स्वागत किया लेकिन कुछ घरेलू और देश के बाहर सक्रिय कुछ सामाजिक संगठनों ने इसकी आलोचना की. मानवाधिकार संस्था ह्यूमन राइट्स वॉच ने तो इसे टीचर की हत्या की प्रतिक्रिया में "आजादी पर व्यापक हमले का हिस्सा" कहा.
एनआर/एके (डीपीए)
हमजा अमीर
लंदन, 1 जनवरी | पाकिस्तान की राष्ट्रीय जवाबदेही ब्यूरो (एनएबी) को ब्रॉडशीट एलएलसी मामले में जुर्माना राशि जमा करने में देरी के कारण दंडित किया गया है।
पाकिस्तान संस्था एनएबी अक्सर विवादों में रहती है और उस पर कई गंभीर आरोप भी लगते रहे हैं। मानवाधिकार से लेकर धनशोधन (मनी लॉन्ड्रिंग) के आरोपों का सामना करनी वाली एनएबी की 2.1 करोड़ डॉलर की जुर्माना राशि में देरी करने को लेकर मुश्किलें अब और भी बढ़ गई हैं।
लंदन में एक हाईकोर्ट ने विदेशी संपत्ति रिकवरी कंपनी ब्रॉडशीट एलएलसी को पाकिस्तान के राष्ट्रीय जवाबदेही ब्यूरो द्वारा जुर्माने का भुगतान नहीं करने पर लंदन में पाकिस्तान उच्चायोग के खातों से कम से कम 2.87 करोड़ डॉलर निकालने का आदेश दिया है।
अदालत के आदेश के अनुसार, राशि को ब्रिटेन में पाकिस्तान उच्चायोग के खातों से 30 दिसंबर तक डेबिट किया जाना था।
इसकी पुष्टि पाकिस्तान विदेश कार्यालय के सूत्रों द्वारा भी की गई है, जिन्होंने कहा कि लंदन ने पाकिस्तान उच्चायोग के खातों से लाखों डॉलर के डेबिट का आदेश दिया है।
अदालत के आदेश का हवाला देते हुए, यूनाइटेड बैंक लिमिटेड यूके ने भी 29 दिसंबर को पाकिस्तान उच्चायोग को एक पत्र लिखा था, जिसमें दो करोड़ 87 लाख 6,533.35 डॉलर के सुचारू लेन-देन को सुनिश्चित करने के लिए डेबिट खाते के विवरण के साथ लिखित भुगतान निर्देश प्रदान करने का अनुरोध किया गया था।
बैंक ने पाकिस्तान उच्चायोग को यह भी सूचित किया था कि 30 दिसंबर तक लिखित भुगतान निर्देश प्राप्त नहीं होने पर भी बैंक अदालत के आदेशों को पूरा करने के लिए उच्चायोग के खाते से राशि डेबिट करने का काम करेगा।
दूसरी ओर, उच्चायोग ने यह कहते हुए बैंक को जवाब दिया कि भुगतान के लिए उनके खातों से राशि निकालने के किसी भी तरह के एकतरफा प्रयास अंतराष्र्ट्ीय कानून का उल्लंघन होगा। इसने कहा कि इसके साथ ही यह विश्वास का भी उल्लंघन होगा, जो बैंक के साथ भविष्य के संबंधों को प्रभावित करेगा।
विश्वसनीय सूत्रों के अनुसार, मामले और मुद्दे की संवेदनशीलता के प्रति एनएबी की अनदेखी के कारण पाकिस्तान को लाखों डॉलर का नुकसान हुआ है। (आईएएनएस)
टोरंटो, 1 जनवरी | कनाडा के एक मंत्री, जो बुधवार को कैरिबियन में क्रिसमस की छुट्टी का आनंद लेते हुए पकड़े गए थे, जबकि उनके देश में लोग कोविड -19 लॉकडाउन के तहत हैं, ने वापस आने के बाद अपने पद से इस्तीफा दे दिया। लोगों की आलोचना के बाद ओंटेरियो के वित्त मंत्री रॉड फिलिप्स को छुट्टियों को समाप्त कर फौरन लौटने का आदेश उनके प्रीमियर डौग फोर्ड द्वारा दिया गया था। उन्होंने गुरुवार को इस्तीफा दे दिया।
रिकॉर्ड संख्या में कोरोना के मामले दर्ज होने के बाद ओंटेरियो 26 दिसंबर से अपने दूसरे लॉकडाउन में है।
मंत्री फिलिप्स छुट्टियों का आनंद लेने के लिए 14 दिसंबर को चुपचाप कनाडा से बाहर निकल गए थे।
अपनी छुट्टियों के दौरान, मंत्री ने यह संकेत दिया कि वह ओंटेरियो में थे।
16 दिसंबर को अपने हॉलिडे रिसॉर्ट से एक वीडियो कॉल में, उन्होंने ओंटेरियो असेंबली बिल्डिंग की नकली पृष्ठभूमि का उपयोग करके लोगों को बेवकूफ बनाने की कोशिश की थी।
टोरंटो में आने के बाद इस्तीफा देते हुए, मंत्री ने कहा कि लॉकडाउन के दौरान छुट्टी पर जाना बड़ी गलती थी और इसके लिए माफी मांगता हूं। मुझे अफसोस है।
--आईएएनएस
ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन के पिता स्टेनली जॉनसन का कहना है कि वह यूरोपीय संघ से ब्रिटेन के निकलने के बाद फ्रांस की नागरकिता के लिए आवेदन करेंगे. बोरिस जॉनसन ब्रेक्जिट समर्थक माने जाते हैं.
स्टेनली जॉनसन का कहना है कि वह भी 27 देशों वाले यूरोपीय संघ से ब्रिटेन के निकलने का समर्थन करते हैं. बावजूद इसके वह फ्रांस की नागरिकता लेना चाहते हैं. हालांकि जब 2016 में ब्रेक्जिट जनमतसंग्रह हुआ तो उन्होंने यूरोपीय संघ में बने रहने के हक में वोट दिया था. लेकिन उसके बाद उन्होंने अपना रुख बदल लिया.
फ्रेंच रेडियो स्टेशन आरटीएल के साथ बातचीत में स्टेनली जॉनसन ने कहा कि वह तो "पहले से ही फ्रेंच" हैं. उन्होंने बताया कि उनकी दादी फ्रेंच थीं और उनकी मां फ्रांस में पैदा हुईं. उन्होंने कहा, "यह तो पक्का है कि मैं हमेशा यूरोपीय रहूंगा.. आप किसी इंग्लिश व्यक्ति से यह नहीं कह सकते हैं कि तुम यूरोपीय नहीं हो. यूरोपीय संघ से संपर्क रखना जरूरी है."
80 वर्षीय स्टेनली जॉनसन यूरोपीय संसद के सदस्य रह चुके हैं. हालांकि पिछले साल द टाइम्स को दिए एक इंटरव्यू में कहा था कि उन्होंने अपना मन बदल लिया है और अब वह यूरोपीय संघ से निकलने के हक में हैं.
दूसरी तरफ, ब्रिटेन के सांसदों ने ब्रेक्जिट के बाद यूरोपीय संघ के साथ व्यापार के तौर तरीकों को निर्धारित करने वाली डील को मंजूरी दे दी है. इसके तहत अब ब्रिटेन के लोगों को यूरोपीय संघ के देशों में बेरोकटोक रहने और काम करने की अनुमति नहीं होगी.
अक्टूबर 2019 में कंजरवेटिव पार्टी के सम्मलेन में ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन ने कहा था कि उनकी मां शारलोटे जॉनसन वाल ने यूरोपीय संघ से निकलने के समर्थन में वोट दिया था. वाल को 1979 में तलाक देने वाले स्टेलनी इस बात पर बोरिस जॉनसन की पार्टनर की तरफ देखकर बोले,, "मुझे यह नहीं पता था."
पिछले साल अक्टूबर में स्टेनली ने उस वक्त माफी मांगी जब ब्रिटेन में लागू पाबंदियों के बावजूद वह बिना मास्क पहने शॉपिंग कर रहे थे. अक्टूबर में ही ग्रीस की यात्रा करने के लिए भी उनकी आलोचना हुई थी, जबकि ब्रिटेन की सरकार ने अपने नागरिकों से कहा था कि सिर्फ बहुत जरूरी होने पर ही विदेश की यात्रा करें.
एके/एए (एएफपी, एपी, डीपीए, रॉयटर्स)
इस्लामाबाद, 1 जनवरी पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने शुक्रवार को कहा कि नया साल देश के लिए आर्थिक वृद्धि का साल होगा। उन्होंने कहा कि देश पहले से ही आवश्यक औद्योगिक बढ़त के साथ सही दिशा में आगे बढ़ रहा है। समाचार पत्र डॉन की रिपोर्ट के अनुसार, इस्लामाबाद में एक कार्यक्रम में बोलते हुए, प्रधानमंत्री खान ने कहा कि विनिर्माण उद्योग पहले से ही प्रगति कर रहा है, जो देश में सीमेंट की बढ़ती बिक्री से स्पष्ट भी हुआ है।
उन्होंने कहा, "जब सीमेंट की बिक्री बढ़ रही है तो यह स्पष्ट संकेत है कि निर्माण गतिविधि बढ़ रही है।"
इमरान ने कहा कि कपड़ा उद्योग कई वर्षों में पहली बार अपनी क्षमता से उत्पादन कर रहा है।
प्रधानमंत्री ने कहा कि ये संकेत इस ओर इशारा कर रहे हैं कि देश सही दिशा में है और पाकिस्तान उन राष्ट्रों में शामिल है, जो 'कोविड-19 महामारी से सबसे तेजी से उबरा।' (आईएएनएस)
न्यूयार्क, 1 जनवरी | संयुक्त राष्ट्र बाल कोष (यूनिसेफ) ने शुक्रवार को कहा कि नए साल के पहले दिन दुनिया भर में अनुमानित 3,71,504 बच्चे पैदा होंगे, लगभग 60,000 बच्चों का जन्म अकेले भारत में होने की उम्मीद है। कुल मिलाकर, अनुमानित 140 मिलियन यानी 14 करोड़ बच्चे 2021 में पैदा होंगे।
इस नए साल पर प्रशांत क्षेत्र में फिजी 2021 में सबसे पहले बच्चे का स्वागत करेगा, जबकि अमेरिका सबसे आखिरी बच्चे का।
यूनिसेफ ने कहा, विश्व स्तर पर नए साल के पहले दिन आधे से अधिक बच्चे 10 देशों में पैदा होने का अनुमान है: जिसमें भारत में (59,995), चीन (35,615), नाइजीरिया (21,439), पाकिस्तान (14,161), इंडोनेशिया (12,336), इथियोपिया ( 12,006), यूएस (10,312), मिस्र (9,455), बांग्लादेश (9,236) और कांगो लोकतांत्रिक गणराज्य में 8,640 बच्चे शामिल हैं।
यूनिसेफ ने कहा, "भारत में शुक्रवार को पैदा होने वाले बच्चे 80.9 वर्ष तक जीवित रह सकते हैं।"
इस साल यूनिसेफ अपना 75वां वर्षगांठ मना रहा है। (आईएएनएस)
यमनी शहर अदन के हवाई अड्डे पर हुए बम धमाके के एक दिन बाद लड़ाकू विमानों ने राजधानी सना में कई ठिकानों पर बमबारी की. बुधवार को सऊदी अरब से यमन की नई सरकार के मंत्रियों को लेकर आए विमान के उतरने के बाद बड़ा धमाका हुआ था.
सऊदी नेतृत्व वाले गठबंधन के लड़ाकू विमानों ने गुरुवार 31 दिसंबर को जवाबी कार्रवाई में राजधानी सना पर कई हवाई हमले किए. सना वर्तमान में ईरानी समर्थित हूथी विद्रोहियों के नियंत्रण में है. चश्मदीदों के मुताबिक गठबंधन सेनाओं ने सना के हवाई अड्डे समेत शहर के आसपास के कई स्थानों को निशाना बनाया.
अल-मसिरा टेलीविजन, जो हूथी विद्रोहियों द्वारा चलाया जाता है, उसका कहना है कि गठबंधन के लड़ाकू विमानों ने सना में कम से कम 15 अलग-अलग ठिकानों को निशाना बनाया है. हमले में कितने लोग मारे गए हैं, इसकी पुष्टि नहीं हो पाई है.
एयरपोर्ट पर हमला
यमन के दक्षिणी शहर अदन में हवाई अड्डे पर हमले के दूसरे दिन सना पर जवाबी कार्रवाई की गई. यमन की नव गठित कैबिनेट के सदस्यों को लेकर आए विमान के उतरने के कुछ देर बाद बुधवार को भीषण धमाका हुआ था, जिसमें कम से कम 25 लोगों की मौत हो गई थी और दर्जनों घायल हुए थे. इस हमले के कुछ घंटे बाद राष्ट्रपति के महल के पास एक और धमाका हुआ था. हालांकि नई सरकार के सदस्य सुरक्षित तरीके से महल में दाखिल हो गए थे.
हूथी विद्रोहियों की तरफ से गठबंधन के हवाई हमलों पर तत्काल कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है, उन्होंने हवाई अड्डे पर हमलों की जिम्मेदारी से इनकार किया है. यमन की नई गठबंधन सरकार ने गुरुवार को कहा कि वह युद्धग्रस्त देश में स्थिरता के लिए काम करेगी. विदेश मंत्री अहमद बिन मुबारक ने एएफपी को बताया, "सरकार अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करने और यमन में स्थिरता लाने के लिए लिए प्रतिबद्ध है. यह आतंकवादी हमले हमें रोक नहीं सकते."
यमन की नई गठबंधन सरकार
यमन की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त सरकार और दक्षिणी अलगाववादियों ने 18 दिसंबर को एक नए संयुक्त मंत्रिमंडल का गठन किया था. राष्ट्रपति अबेद रब्बो मंसूर हादी और दक्षिणी अलगाववादी सऊदी अरब के नेतृत्व वाले गठबंधन के सहयोगी हैं.
गठबंधन की लड़ाई हूथी विद्रोहियों के साथ चल रही है, हूथी विद्रोहियों ने साल 2014 पर सना पर कब्जा कर लिया था. लेकिन अलगाववादी दक्षिणी ट्रांजिशनल काउंसिल (एसटीसी) ने इस साल अदन में स्वतंत्रता की घोषणा की थी और तब से दक्षिण के क्षेत्र में दोनों गुटों के बीच लड़ाई चल रही है. देश में युद्धविराम की कोशिश इस वजह से और जटिल होती जा रही है.
यमन में सऊदी के नेतृत्व वाले गठबंधन द्वारा किए गए हवाई हमलों में अब तक आम नागरिकों समेत हजारों लोग मारे जा चुके हैं.
एए/एके (रॉयटर्स, एएफपी)
करक, 1 जनवरी | पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा प्रांत में करक जिले के टेरी गांव में हिंदू मंदिर में आगजनी और तोड़फोड़ के मामले में पुलिस ने गुरुवार को जमीयत उलेमा-ए-इस्लाम-फजल (जेयूआई-एफ) के नेताओं सहित 31 लोगों को गिरफ्तार किया है।
डॉन न्यूज की रिपोर्ट के मुताबिक, पुलिस अधिकारियों ने बताया कि गिरफ्तार किए गए लोगों में जेयूआई-एफ के वरिष्ठ नेता रहमत सलाम खट्टक भी शामिल रहे हैं। उन्हें तख्त-ए-नुसरती तहसील के चोकारा इलाके में उनके आवास से गिरफ्तार किया गया है। जेयूआई-एफ में शामिल होने से पहले वह पीएमएल-एन के प्रांतीय महासचिव के रूप में काम कर चुके हैं।
अधिकारियों ने कहा कि उनके द्वारा उन लोगों के घर पर छापेमारी की गई, जो हमले में शामिल रहे थे। हालांकि गिरफ्तार होने से खुद को बचाने के लिए इनमें से कई लोग अंडरग्राउंड हो गए।
टेरी पुलिस ने पूजा स्थल की मयार्दा को भंग करने, धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने, लूटपाट करने, आगजनी और नुकसान पहुंचाने के चलते हमले में शामिल लोगों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की है। प्राथमिकी में आतंकवाद विरोधी अधिनियम की धारा 7 भी शामिल है।(आईएएनएस)
क्वेटा, 1 जनवरी | शक्तियों के दुरुपयोग के मामले में बलूचिस्तान के पूर्व मुख्यमंत्री असलम रायसानी और अन्य आरोपियों के खिलाफ अदालत ने गिरफ्तारी वारंट जारी किया है। ये लोग मामले में सुनवाई के लिए अदालत में पेश नहीं हुए थे।
डॉन की रिपोर्ट के मुताबिक एनएबी बलूचिस्तान ने पिछले महीने रायसानी, उनके छोटे भाई पूर्व सीनेटर लश्करी रायसानी, पूर्व सचिव वित्त दोस्तेन जमालदिनी और 5 अन्य के खिलाफ मामला दर्ज किया था। इसमें आरोप लगाया गया था कि आरोपी को मेहरगढ़ संग्रह स्थल के पुनर्वास और मुआवजे के लिए 817 मिलियन पाकिस्तानी रुपये मिले थे। यह साइट 2 जनजातियों के बीच हुई झड़प के दौरान बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गई थी।
आरोपियों ने शक्तियों का दुरुपयोग करके संबंधित अधिकारियों पर दबाव डालकर नुकसान का गलत अनुमान तैयार करके यह राशि प्राप्त की थी। (आईएएनएस)