सुनील कुमार
मोतीलाल वोरा के बारे में कल बात शुरू हुई, तो किसी किनारे नहीं पहुंच पाई। दरअसल उनके साथ मेरी व्यक्तिगत यादें भी जुड़ी हुई हैं, और उनके बारे में बहुत कुछ सुना हुआ भी है। फिर उनका इतना लंबा सक्रिय राजनीतिक जीवन है कि उनसे जुड़ी कहानियां खत्म होती ही नहीं।
जब वे अविभाजित मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री थे तो उन्हें हटाने के लिए कांग्रेस के भीतर के लोग लगातार लगे रहते थे। वैसे में माधवराव सिंधिया उनके संरक्षक बनकर दिल्ली दरबार में उन्हें बचाए रखते थे। इस बात में कुछ भी गोपनीय नहीं था, और हर हफ्ते यह हल्ला उड़ता था कि वोराजी को हटाया जाने वाला है। नतीजा यह था कि उस वक्त एक लतीफा चल निकला था कि वोराजी जब भी शासकीय विमान में सफर करते थे, तो विमान के उड़ते ही उसका वायरलैस बंद करवा देते थे। उसकी वजह यह थी कि उन्हें लगता था कि उड़ान के बीच अगर उन्हें हटाने की घोषणा हो जाएगी, तो पायलट उन्हें बीच रास्ते उतार न दे।
वोराजी का पांच साल का पूरा कार्यकाल ऐसी चर्चाओं से भरे रहा, और वे इसके बीच भी सहजभाव से काम करते रहे। सिंधिया को छत्तीसगढ़ के अनगिनत कार्यक्रमों में उन्होंने बुलाया, और उस वक्त के रेलमंत्री रहे माधवराव सिंधिया ने छत्तीसगढ़ के लिए भरपूर मंजूरियां दीं। उस वक्त अखबारनवीसी कर रहे लोगों को याद होगा कि इनकी जोड़ी को उस समय मोती-माधव या माधव-मोती एक्सप्रेस कहा जाता था। माधवराव सिंधिया परंपरागत रूप से अर्जुन सिंह के प्रतिद्वंदी थे, और छत्तीसगढ़ के शुक्ल बंधुओं से भी उनका कोई प्रेमसंबंध नहीं था। ऐसे में केन्द्र में ताकतवर सिंधिया को राज्य में मोतीलाल वोरा जैसे निरापद मुख्यमंत्री माकूल बैठते थे, और ताकत में वोराजी की सिंधिया से कोई बराबरी नहीं थी। नतीजा यह था कि ताकत के फासले वाले इन दो लोगों के बीच जोड़ीदारी खूब निभी।
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मुख्यमंत्री रहने के अलावा जब वोराजी को राजनांदगांव संसदीय सीट से उम्मीदवार बनाया गया, तब उन्होंने चुनाव प्रचार में उसी अंदाज में मेहनत की, जिस अंदाज में वे मुख्यमंत्री रहते हुए रोजाना ही देर रात तक काम करने के आदी थे। इस संसदीय चुनाव प्रचार के बीच मैंने उनको इंटरव्यू करने के लिए समय मांगा तो उनका कहना था कि वे सात बजे चुनाव प्रचार के लिए राजनांदगांव से रवाना हो जाते हैं, और देर रात ही लौटते हैं। ऐसे में अगर मैं मिलना चाहता था, तो मुझे सात बजे के पहले वहां पहुंचना था। मैं स्कूटर से रायपुर से रवाना होकर दो घंटे में 7 बजे के पहले ही राजनांदगांव पहुंच गया, वहां वे एक तेंदूपत्ता व्यापारी के पत्ता गोदाम में बने हुए एक गेस्टरूम में सपत्नीक ठहरे थे, और करीब-करीब तैयार हो चुके थे।
वे मेरे तेवर भी जानते थे, और यह भी जानते थे कि उनके प्रति मेरे मन में न कोई निंदाभाव था, और न ही प्रशंसाभाव, फिर भी उन्होंने समय दिया, सवालों के जवाब दिए, और शायद इस बात पर राहत भी महसूस की कि मैंने अखबार के लिए चुनावी विज्ञापनों की कोई बात नहीं की थी। चुनाव आयोग के प्रतिबंधों के बाद चुनावी-विज्ञापन शब्द महज एक झांसा है, हकीकत तो यह है कि अखबार उम्मीदवारों और पार्टियों से सीधे-सीधे पैकेज की बात करते हैं। वह दौर ऐसे पैकेज शुरू होने के पहले का था, लेकिन यह आम बात है कि अखबारों के रिपोर्टर ही उम्मीदवारों से विज्ञापनों की बात कर लेते थे, कर लेते हैं, लेकिन वोराजी से न उस वक्त, और न ही बाद में कभी मुझे ऐसे पैकेज की कोई बात करनी पड़ी, और नजरों की ओट बनी रही।
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वोराजी खुद भी एक वक्त कम से कम एक अखबार के लिए तो काम कर ही चुके थे, और उनके छोटे भाई गोविंदलाल वोरा छत्तीसगढ़ के एक सबसे बुजुर्ग और पुराने अखबारनवीस-अखबारमालिक थे, इसलिए वोराजी को हर वक्त ही छत्तीसगढ़ के मीडिया की ताजा खबर रहती थी, भोपाल में मुख्यमंत्री रहते हुए भी, और केन्द्र में मंत्री या राष्ट्रपति शासन में उत्तरप्रदेश को चलाते हुए। जितनी मेरी याददाश्त साथ दे रही है, उन्होंने कभी अखबारों को भ्रष्ट करने, या उनको धमकाने का काम नहीं किया। वह एक अलग ही दौर था।
मोतीलाल वोरा मुख्यमंत्री रहे, अविभाजित मध्यप्रदेश के प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रहे, लेकिन छत्तीसगढ़ में वे अपने कोई सहयोगी नहीं बना पाए। दुर्ग में दो-चार लोग, और रायपुर में पांच लोग उनके नाम के साथ गिने जाते थे। रायपुर में तो उनके करीबी पांच लोगों की शिनाख्त इतनी जाहिर थी कि उन्हें पंच-प्यारे कहा जाता था। इन लोगों के लिए भी वोराजी कुछ जगहों पर मनोनयन से बहुत अधिक कुछ कर पाए हों, ऐसा भी याद नहीं पड़ता। लेकिन उनकी एक खूबी जरूर थी कि वे छत्तीसगढ़ के हजारों लोगों के लिए बिना देर किए सिफारिश की चिट्ठी लिखने को तैयार हो जाते थे।
यूपीए सरकार के दस बरसों में देश में उनका नाम बड़ा वजनदार था। एक दोस्त की बेटी मुम्बई के एचआर कॉलेज में ही दाखिला चाहती थी। उस कॉलेज में दाखिला बड़ा मुश्किल भी था। उनके साथ मैं वोराजी के पास दिल्ली गया, दिक्कत बताई, तो वे सहजभाव से सिफारिश की चिट्ठी लिखने को तैयार हो गए। हम लोगों को कमरे में बिठा रखा, चाय और पान से स्वागत किया, पीछे के कमरे में जाकर अपने टाईपिस्ट के पास खड़े रहकर चिट्ठी लिखवाई उसे मुम्बई कॉलेज में फैक्स करवाया, और फैक्स की रसीद के साथ चिट्ठी की एक कॉपी मुझे दी, और कॉलेज के संस्थापक मुंबई के एक बड़े बिल्डर हीरानंदानी से फोन पर बात करने की कोशिश भी की, लेकिन बात हो नहीं पाई।
चिट्ठी के साथ जब मैं अपने दोस्त और उनकी बेटी के साथ मुंबई गया, तो एचआर कॉलेज के बाहर मेला लगा हुआ था। उस भीड़ के बीच भी हमारे लिए खबर थी, और कुछ मिनटों में हम प्रिंसिपल के सामने थे। इन्दू शाहणी, मुंबई की शेरिफ भी रह चुकी थीं। उनकी पहली उत्सुकता यह थी कि मैं वोराजी को कैसे जानता हूं, उन्होंने सैकड़ों पालकों की बाहर इंतजार कर रही कतार के बाद भी 20-25 मिनट मुझसे बात की, जिसमें से आधा वक्त वे वोराजी और छत्तीसगढ़ के बारे में पूछती रहीं। सबसे बड़ी बात यह रही कि जिस दाखिले के लिए 10-20 लाख रूपए खर्च करने वाले लोग घूम रहे थे, वह वोराजी की एक चिट्ठी से हो गया। लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ कि बाद में उन्होंने कभी चुनाव के वक्त या किसी और राजनीतिक काम से कोई खर्च बताया हो। वे उसे सज्जनता के साथ भूल गए, और दीवाली पर मेरे दोस्त मेरे साथ सिर्फ मिठाई का एक साधारण डिब्बा लेकर उनके घर दुर्ग गए, तो भी उनका कहना था कि अरे इसकी क्या जरूरत थी।
मोतीलाल वोरा राजनीति में लगातार बढ़ती चली जा रही कुटिलता के बीच सहज व्यक्ति थे। वे बहुत अधिक साजिश करने के लिए कुख्यात नेताओं से अलग दिखते थे, और अभी भी अलग दिखते हैं। उनकी पसंद अलग हो सकती है, लेकिन अपनी पसंद को बढ़ावा देने के लिए, या नापसंद को कुचलने के लिए वे अधिक कुछ करते हों, ऐसा कभी सुनाई नहीं पड़ा।
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छत्तीसगढ़ में अभी कांग्रेस की सरकार बनी, तो दिल्ली से ऐसी चर्चा आई कि वोराजी की पहल पर, और उनकी पसंद पर ताम्रध्वज साहू को मुख्यमंत्री बनाना तय किया गया था, और इस बात की लगभग घोषणा भी हो गई थी, लेकिन इसके बाद भूपेश बघेल और टी.एस. सिंहदेव ने एक होकर, एक साथ लौटकर जब यह कह दिया कि वे ताम्रध्वज के साथ किसी ओहदे पर कोई काम नहीं करेंगे, तो ताम्रध्वज का नाम बदला गया, और भूपेश बघेल का नाम तय हुआ। ये तमाम बातें वैसे तो बंद कमरों की हैं, लेकिन ये छनकर बाहर आ गईं, और इनसे मोतीलाल वोरा और भूपेश बघेल के बीच एक दरार सी पड़ गई।
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अभी जब छत्तीसगढ़ से राज्यसभा के कांग्रेस उम्मीदवार तय होने थे, तब मोतीलाल वोरा से जिन्होंने जाकर कहा कि उन्हें राज्यसभा में रहना जारी रखना चाहिए, तो आपसी बातचीत में उन्होंने यह जरूर कहा था कि भूपेश बघेल उनका नाम होने देंगे? और हुआ वही, हालांकि यह नौबत शायद छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री के दरवाजे तक नहीं आई, और कांग्रेस पार्टी ने दिल्ली में ही यह तय कर लिया कि वोराजी का उपयोग अब राज्यसभा से अधिक संगठन के भीतर है, और केटीएस तुलसी जैसे एक सीनियर वकील की पार्टी को इस मौके पर अधिक जरूरत है।
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वोराजी का बहुत बड़ा कोई जनाधार कभी नहीं रहा, वे पार्टी के बनाए हुए रहे, और जनता के बीच अपने सीमित असर वाले नेता रहे। लेकिन उनके बेटों की वजह से कभी उनकी कोई बदनामी हुई हो, ऐसा नहीं हुआ, और राजनीति में यह भी कोई छोटी बात तो है नहीं। छत्तीसगढ़ की एक मामूली नौकरी से लेकर वे कांग्रेस पार्टी में उसके हाल के सबसे सुनहरे दस बरसों में सबसे ताकतवर कोषाध्यक्ष और पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी के सबसे करीबी व्यक्ति रहे, आज भी हैं। आज दिन सुनहरे नहीं हैं, कांग्रेस पार्टी, सोनिया परिवार, और इन दोनों से जुड़ी हुई कुछ कंपनियां लगातार जांच और अदालती मुकदमों का सामना कर रही हैं, और उनमें मोतीलाल वोरा ठीक उतने ही शामिल हैं, ठीक उतनी ही दिक्कत में हैं, जितने कि सोनिया और राहुल हैं। किसी एक नाव पर इन दोनों के साथ ऐसे सवार होना भी कोई छोटी बात नहीं है, और रायपुर की एक बस कंपनी के एक मुलाजिम से लेकर यहां तक का लंबा सफर खुद मेरे देखे हुए बहुत सी और यादों से भरा हुआ है, लेकिन उनके बारे में किसी अगली किस्त में।
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-सुनील कुमार