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![दिल्ली उच्च न्यायालय ने जमानत बॉन्ड स्वीकार करने में देरी पर स्वत: संज्ञान मामला शुरू किया दिल्ली उच्च न्यायालय ने जमानत बॉन्ड स्वीकार करने में देरी पर स्वत: संज्ञान मामला शुरू किया](https://dailychhattisgarh.com/uploads/article/1709138468h_n.jpg)
नयी दिल्ली, 28 फरवरी। दिल्ली उच्च न्यायालय ने कैदियों को रिहा करने के लिए जेल अधिकारियों द्वारा जमानत बॉन्ड स्वीकार करने में कथित देरी किए जाने पर स्वत: संज्ञान लेते हुए एक मामला शुरू किया और कहा कि किसी को एक दिन के लिए भी स्वतंत्रता से वंचित करना ठीक नहीं है।
न्यायमूर्ति अमित महाजन ने कहा कि जमानत देने और सजा निलंबित करने का उद्देश्य किसी आरोपी या दोषी को कारावास से रिहा करना है तथा जेल अधीक्षक की ओर से जमानत बॉन्ड स्वीकार करने में देरी अदालत की अंतरात्मा को स्वीकार्य नहीं है।
अदालत ने यह आदेश तब पारित किया जब उसे सूचित किया गया कि चेक बाउंस मामले में एक दोषी को अंतरिम जमानत पर रिहा करने के लिए उसके जमानत बॉन्ड को स्वीकार करने से जुड़ी औपचारिकताओं में जेल अधीक्षक को एक से दो सप्ताह तक का समय लगेगा।
न्यायमूर्ति महाजन ने कहा कि कई बार तत्काल रिहाई की सुविधा के लिए जमानत बॉन्ड को संबंधित अधीनस्थ अदालत के बजाय सीधे जेल अधीक्षक को प्रस्तुत करने का आदेश दिया जाता है, और कुछ मामलों में, चिकित्सा आधार या अन्य अत्यावश्यकताओं पर अंतरिम जमानत दी जाती है।
अदालत ने एक हालिया आदेश में कहा, ‘‘ऐसे परिदृश्य में, यह अदालत यह समझने में विफल है कि जेल अधीक्षक द्वारा जमानत बॉन्ड स्वीकार करने के लिए एक से दो सप्ताह की अवधि क्यों ली जाए। माननीय उच्चतम न्यायालय ने बार-बार इस सिद्धांत को दोहराया है कि किसी को एक दिन के लिए भी स्वतंत्रता से वंचित करना ठीक नहीं है।’’
अदालत ने आदेश दिया, "जमानत बॉन्ड स्वीकार करने में जेल अधीक्षक की ओर से देरी इस अदालत की अंतरात्मा को स्वीकार्य नहीं है। मामले को स्वत: संज्ञान याचिका के रूप में दर्ज किया जाए और क्रमांकित किया जाए।"
इसने जेल महानिदेशक से मामले में "उचित हलफनामा" दाखिल करने को कहा।
अधिकारियों की ओर से पेश अतिरिक्त स्थायी अधिवक्ता ने कहा कि अदालत द्वारा उद्धृत देरी का मामला संभवतः एक भूल थी और देरी सामान्य तौर पर जेल अधीक्षक की ओर से नहीं होती है।
मामले में अगली सुनवाई मार्च में होगी। (भाषा)