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‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : बंगाल की शर्मनाक घटना, पर पहला पत्थर मारे कौन?
01-Jul-2024 6:22 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय :  बंगाल की शर्मनाक घटना,  पर पहला पत्थर मारे कौन?

अपने आपको दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहते हुए जो हिन्दुस्तानी फूला नहीं समाता है उसकी असलियत बड़ी कमजोर और शर्मिंदगी भरी हुई है। लोकतंत्र का मतलब बहुमत के बाहुबल से चलती संसद, सूचना के अधिकार से बचती हुई सरकार, काम के बोझ से लदकर तकरीबन बेअसर हो चुकी अदालत, और आत्मा को मंडी में बेच चुका मीडिया नहीं होता। लोकतंत्र विशाल मन की दरियादिली से गौरवशाली परंपराओं को खुद होकर मानने का नाम होता है, और लोकतंत्र एक ऐसी लचीली व्यवस्था होता है जिसमें अपने से अधिक दूसरों के अधिकारों का सम्मान, और दूसरों से अधिक अपनी सामाजिक जिम्मेदारी का ख्याल रखा जाता है। भारत इन मामलों में एकदम ही पिछड़ा हुआ देश है, और यहां के अधिकांश राजनीतिक दल पूरी तरह बेशर्म हो चुके हैं।

अब आज हिन्दुस्तान के इस पहलू पर चर्चा करने की जरूरत बंगाल की एक ताजा घटना से आ खड़ी हुई है। वहां पर सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस के एक नेता ने एक औरत और आदमी पर विवाहेत्तर संबंध रखने का आरोप लगाते हुए जनता के बीच जनसुनवाई की और इन दोनों को बहुत बुरी तरह पीटा। इसके वीडियो जब चारों तरफ फैले तो हंगामा हुआ, चारों तरफ थू-थू हुई, और अब ममता बैनर्जी की पुलिस ने अपने पार्टी के इस नेता को गिरफ्तार किया है। लेकिन यह अकेला मामला नहीं है, जिस राज्य में जिस पार्टी की सरकार रहती है वहां पार्टी या नेताओं की मनमर्जी से लोकतंत्र नाम के प्राणी को हांका जाता है। भाजपा के सांसद रहे भारतीय कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष बृजभूषण शरण सिंह पर अंतरराष्ट्रीय और ओलंपिक मैडल लेकर आने वाली आधा दर्जन महिला पहलवानों ने देहशोषण के आरोप लगाए, तो न उनकी पार्टी भाजपा के किसी नेता ने इस पर मुंह खोला, और न ही केन्द्र सरकार के मातहत काम करने वाली दिल्ली पुलिस ने चैंपियन पहलवान लड़कियों की शिकायत पर कोई जुर्म दर्ज किया। वह तो भला हो सुप्रीम कोर्ट का जिसने दखल देकर दिल्ली पुलिस से इस पर एफआईआर करवाई, लेकिन कदम-कदम पर बृजभूषण शरण सिंह अपनी पार्टी और पार्टी की सरकार की ऐसी शरण में बने रहे कि उनका कुछ नहीं बिगड़ा, बदनामी चूंकि सिर से ऊपर निकल चुकी थी, इसलिए लोकसभा के चुनाव में उनको टिकट न देकर भाजपा ने उनके बेटे को टिकट दे दिया, और चुनावी काफिले की गाड़ी की छत पर बैठे बृजभूषण शरण सिंह प्रचार करते रहे।

भारतीय लोकतंत्र में पिछले कुछ अरसे से लगातार संसद सिर्फ बहुमत के बाहुबल से काम करते आ रही है, और विपक्ष को अपनी बात कहने का मौका मिलना ही कम हो गया है। आज एक जुलाई से देश में जो तीन नए आपराधिक कानून लागू हुए हैं, उनके बारे में कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडग़े ने आज ही ट्वीट किया है कि इन तीनों कानूनों को जबरन पारित करने के लिए 146 सांसदों को सस्पेंड किया गया था, और बुलडोजर की तरह उन्हें पास किया गया था। लोगों को याद होगा कि कुछ ऐसा ही किसान कानूनों के साथ भी हुआ था जिनके खिलाफ आंदोलन इतना लंबा और इतना व्यापक हुआ कि सरकार को सहमकर अपने तीनों कानून वापिस लेने पड़े थे। इससे परे भी लोकसभा में जिस अंदाज में विपक्ष के साथ लोकसभा अध्यक्ष का हिकारत का बर्ताव चल रहा है, वह बताता है कि किसी संसदीय परंपरा की गरिमा की कोई जरूरत नहीं है क्योंकि बहुमत का बाहुबल कैसा भी बर्ताव करने का विशेषाधिकार दे देता है।

सरकारों के कामकाज को देखें तो जिस अंदाज में केन्द्र सरकार की जांच एजेंसियां काम कर रही हैं, और जिस तरह चुनिंदा नेताओं पर तब तक निशाने लगाए जाते हैं जब तक कि वे सत्ता के साथ न आ जाएं। और जो लोग सत्ता के खिलाफ हैं, या विपक्षी पार्टियों के हैं, उनके साथ जांच एजेंसियों का बर्ताव पुलिस, जज, और जल्लाद तीनों का मिलाजुला रहता है। हालत यह है कि बहुत कम लोगों को जांच एजेंसियों की साख पर भरोसा रह गया है। जो लोग पूरी तरह सत्ता के साथ हैं, उन्हें भी जांच एजेंसियों की हकीकत का पूरा अंदाज है। यही हाल राज्यों का है जहां पर प्रदेश सरकार के मातहत काम करने वाली पुलिस, और दूसरी जांच एजेंसियां सत्तारूढ़ पार्टी के सक्रिय पदाधिकारी बनकर सत्ता को नापसंद लोगों के पीछे लग जाती हैं। लोकतंत्र बहुमत की मनमानी, तानाशाही, और गुंडागर्दी का नाम कभी नहीं हो सकता। लोकतंत्र तो दरियादिली से चलने वाली एक लचीली व्यवस्था है जिसमें धर्मनिरपेक्षता, सर्वधर्म समभाव, संविधान की शपथ का सम्मान, और इंसाफ की इज्जत होती है। आज जब तक देश की कोई बड़ी अदालत सरकार की बांह मरोडक़र उसे सही राह पर चलने को मजबूर न करे तब तक सरकारें चुनाव प्रचार के सबसे घटिया दौर की तरह घटिया बातें करते हुए, उसी दर्जे की कार्रवाई करती दिखती हैं, जो कि दुनिया के किसी भी विकसित लोकतंत्र के पैमानों पर लोकतंत्र नहीं कही जा सकतीं।

एक दूसरा खतरा इस देश के सामने आ खड़ा हुआ है कि एक पार्टी को देखकर मानो दूसरी पार्टी उसी के टक्कर के अलोकतांत्रिक काम करने में जुट जाती है। नतीजा यह होता है कि कहीं कीचड़ उछालने का मुकाबला चारों तरफ कमर तक गंदगी फैला देता है, तो कहीं खूनी टकराव होता है, और लाशें गिरने लगती हैं। फिर अपने-अपने मवालियों को बचाने की खुली और बेशर्म नीति देश के सामने बहुत ही खराब मिसालें खड़ी करती है जिससे फिर आगे भी लोगों में शर्म और झिझक खत्म हो जाती हैं। इसलिए बंगाल की इस ताजा घटना से और भी बहुत सी बातें याद आती हैं, सत्ता की मदमस्त ताकत, संसद का बाहुबल, बेअसर बनाकर रखी गई अदालतें, और अपने आपको लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहने की नाजायज घोषणा करने वाला मीडिया अब अपनी आत्मा को बेचकर अपने कारोबार को बड़ा करने में लगा हुआ है। लोकतंत्र का पतन चारों तरफ इतने दूर-दूर तक, इतने बड़े पैमाने पर हो गया है कि अब हर किसी के सामने एक-दूसरे की गंदी मिसालें गिनाकर अपने आपको अपेक्षाकृत साफ-सुथरा साबित करना आसान हो गया है।

यह नौबत देखकर पाकिस्तान के बड़े मशहूर शायर जौन एलिया की यह लाईन याद आती है- अब नहीं कोई बात खतरे की, अब सभी को सभी से खतरा है। हिन्दुस्तानी लोकतंत्र का हर पहलू अब दूसरे पहलू को अपने आपसे अधिक शर्मनाक बता रहा है।  (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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