विचार/लेख
-शालिनी सहाय
नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी (एनएलडी) के कुछ कार्यकर्ताओं को रात में ले जाया गया और अगले दिन उनके शव परिवारों को भेजे दिए गए। कोई जानकारी नहीं दी गई कि क्या हुआ, कैसे हुआ। मुकदमा, सुनवाई और जेल तो दूर की बात है। चेहरे समेत पूरे शव पर चोट के ढेरों निशान थे।
मैं जिन सोशल मीडिया हैंडल को फॉलो करती हूं, उनकी आवाज गुम हो गई है। हर बीतते दिन के साथ म्यांमार में जमीनी स्तर पर क्या हो रहा है, यह जानना और मुश्किल होता जा रहा है। जो रिपोर्ट छन-छनकर आ रही है, उसके मुताबिक, म्यांमार वायुसेना ने थाईलैंड से लगती सीमा पर बमबारी की है और सेना अंधाधुंध तरीके से आम लोगों को मार रही है। ऐसी स्थिति में भारत के सामने अलग तरह की पसोपेश की स्थिति आ खड़ी हुई है। वह खुलकर विरोध नहीं कर रहा है कि पिछली बार ऐसी ही स्थिति में उसने तो अपने को काट लिया था, लेकिन चीन ने तब म्यांमार से रिश्तों को बेहतर करने का मौका ताडक़र हालत अपने पक्ष में कर लिया था। म्यांमार से जो भी खबरें आ रही हैं, उनमें से एक संगीतकार के हवाले से उभरती तस्वीर दिल को झकझोरने वाली है। विभिन्न प्लेटफार्मों पर आई जानकारी यह अंदाजा लगाने के लिए काफी है कि म्यांमार में आम लोगों की हालत कैसी है। नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी (एनएलडी) पार्टी के कुछ कार्यकर्ताओं को रात में ले जाया गया और अगले दिन उनके शव परिवारों को भेजे दिए गए। कोई जानकारी नहीं दी गई कि क्या हुआ, कैसे हुआ। मुकदमा, सुनवाई और जेल तो दूर की बात है। चेहरे समेत पूरे शव पर चोट के ढेरों निशान थे। एक आदमी के मुंह में कोई दांत नहीं था और उसके शरीर के कई अंग भी गायब थे। वे उसे रात में ले गए थे और परिवार वालों को खबर भिजवाई थी कि आकर शव ले जाएं।
वे छात्रों, प्रदर्शनकारियों को गिरफ्तार कर लेते हैं और पकड़े गए कुछ लोगों को सरेआम सडक़ों-गलियों में सिर पर बंदूक तानकर गोली मार देते हैं, जिससे लोगों में खौफ बने। हम जानते हैं कि उनका मुकाबला ईंट-पत्थरों से नहीं कर सकते। लेकिन हम वह सब कर रहे हैं जो कर सकते हैं। हम बंदूकों से डरकर चुप नहीं बैठना चाहते। हर व्यक्ति लडऩे के लिए तैयार है, और अब हर कोई बंदूक प्राप्त करने की कोशिश कर रहा है।
अब सामान्य जीवन नहीं रह गया है। मेरा मतलब है, सब बंद है। सब कुछ थम गया है। शहर के बाहर से खाने-पीने का कोई सामान नहीं आ रहा है। आने-जाने का कोई साधन नहीं। लोग कैद होकर रह गए हैं। सभी बैंक बंद हैं, हम अपना पैसा भी नहीं निकाल सकते। वही खा रहे हैं जो पास है। लगता है, जल्दी ही भुखमरी की हालत होगी। कोई सुरक्षित नहीं है। वे आपके पर्स की तलाशी लेंगे। पैसे मिले तो रख लेंगे। वे सुरक्षा बलों की तरह तो सलूक ही नहीं कर रहे। लगता है जैसे डाकू हों।
एक बैंड के एक गायक को ले जाया गया। उन्हें एनएलडी समर्थक के रूप में जाना जाता था क्योंकि वे पार्टी के नेताओं और लोकतंत्र को बढ़ावा देते थे। कोई नहीं जानता कि वह अभी कहां हैं। वह रॉक योर वोट नाम के बैंड में थे। यह बैंड लोगों को वोट देने के लिए जागरूक करता था। बैंड का टॉक शो और गीत-संगीत का खासा असर हुआ और युवाओं में वोट के प्रति जागरूकता आई भी। अब बैंड के गायक को उठा लिए जाने से युवाओं में खासा गुस्सा है।
सोशल मीडिया पर एक नागरिक ने कहा कि उन्होंने बर्मी शिक्षा प्रणाली को नष्ट कर दिया है क्योंकि वे तब बेवकूफ लोगों को स्मार्ट लोगों की तुलना में आसानी से नियंत्रित कर सकते हैं। 1988 में मैं सात साल का था। अभी मेरे बेटे की उम्र ठीक इतनी ही है। मेरे बचपन में मुझे समझना-सीखना पड़ा कि संघर्ष कैसे करें, दुनिया के दूसरे हिस्सों के कलाकारों की तुलना में मुझे कितनी अधिक मेहनत करनी होगी। मुझे संतोष था कि मेरे बेटे को वैसे हालात से नहीं गुजरना होगा, क्योंकि चीजें बेहतर दिख रही थीं। अब जब मैं अपने बेटे को देखता हूं तो अफसोस होता है कि उसे भी उन्हीं हालात से दो-चार होना होगा।
बड़े दर्द भरे और नाउम्मीदी में उन्होंने कहा कि शर्तिया है कि हमें यूएन बचाने नहीं आ रहा। यूएन शायद 1,000 और बयान जारी करेगा और शायद बड़ा सख्त भी, लेकिन... सेना कहीं नहीं जाने वाली। अगर गृहयुद्ध होता है, तो वे हम पर बम बरसाएंगे। म्यांमार की सेना युद्ध की तैयारी कर रही है। सेना अस्पतालों, स्कूलों में बलों को तैनात कर रही है। अगर अंतरराष्ट्रीय हवाई हमले होते हैं तो वे इन अस्पतालों और स्कूलों पर कब्जा करके मोर्चा खोलेंगे। (navjivanindia.com)
-बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
सर्वोच्च न्यायालय की यह बात तो बिल्कुल ठीक है कि भारत का संविधान नागरिकों को अपने ‘धर्म-प्रचार’ की पूरी छूट देता है और हर व्यक्ति को पूरा अधिकार है कि वह जिसे चाहे, उस धर्म को स्वीकार करे। हर व्यक्ति अपने जीवन का खुद मालिक है। उसका धर्म क्या हो और उसका जीवन-साथी कौन हो, यह स्वयं उसे ही तय करना है।
यह फैसला देते हुए सर्वोच्च न्यायालय की एक पीठ के अध्यक्ष न्यायमूर्ति रोहिंगटन नारीमन ने अश्विन उपाध्याय की एक याचिका को खारिज कर दिया। उस याचिका में उपाध्याय ने यह मांग की थी कि भारत में जो धर्म-परिवर्तन लालच, भय, ठगी, तिकड़म, पाखंड आदि के जरिए किए जाते हैं, उन पर रोक लगनी चाहिए। धर्म-परिवर्तन पर रोक के कानून देश के आठ राज्यों ने बना रखे हैं लेकिन 1995 के सर्वोच्च न्यायालय के एक फैसले का हवाला देते हुए इस याचिका में मांग की गई थी कि शीघ्र ही एक केंद्रीय कानून बनना चाहिए।
न्यायमूर्ति नारीमन ने न सिर्फ इस याचिका को रद्द कर दिया बल्कि यह कहा है कि याचिकाकर्ता इस याचिका को वापस ले ले, वरना अदालत उस पर जुर्माना ठोक देगी। अश्विन उपाध्याय बिदक गए और उन्होंने अपनी याचिका वापस ले ली। अब वे गृह मंत्रालय, विधि आयोग, विधि मंत्रालय और सांसदों से अनुरोध करेंगे कि वे वैसा कानून बनाएं। मेरी समझ में नहीं आता कि अश्विन उपाध्याय जज की धमकी से क्यों डर गए? वे जुर्माना लगाते तो उन्हें जुर्माना भर देना था और अपने मुद्दे को दुगुने उत्साह से उठाना था। अगर मैं उनकी जगह होता तो एक कौड़ी भी जुर्माना नहीं भरता और जज से कहता कि माननीय जज महोदय आप यदि मुझे जेल भेजना चाहें तो भेज दीजिए। मैं सत्य के मार्ग से नहीं हटूंगा। मैं जेल में रहकर अपनी याचिका पर बहस करुंगा और अदालत को मजबूर कर दूंगा कि देशहित में वह वैसा कानून बनाने का समर्थन करे।
जस्टिस नारीमन से कोई पूछे कि दुनिया में ऐसे कितने लोग हैं, जिन्होंने समझ-बूझकर, पढ़-लिखकर और स्वेच्छा से किसी धर्म को स्वीकार किया है ? एक करोड़ में से एक आदमी भी ऐसा नहीं मिलेगा। सभी आंख मींचकर अपने मां-बाप का धर्म ज्यों का त्यों निगल लेते हैं। जो उसे चबाते हैं, वे बागी या नास्तिक कहलाते हैं। जो लोग भी अपना धर्म-परिवर्तन करते हैं, क्या वे वेद या बाइबिल या जिन्दावस्ता या कुरान या ग्रंथसाहब पढक़र करते हैं ? ऐसे लोग भी मैंने देखे जरुर हैं लेकिन वे अपवाद होते हैं।
ज्यादातर वे ही लोग अपना पंथ, संप्रदाय, धर्म या पूज्य-पुरुष परिवर्तन करते हैं, जो या तो भेड़चाल, अंधविश्वास या लालच या भय या ढोंग के शिकार होते हैं। मैं अंतरधार्मिक, अंतरजातीय, अंतरप्रांतीय विवाहों का प्रशंसक हूं लेकिन उनके बहाने धर्म-परिवर्तन की कुचाल घोर अनैतिक और निंदनीय है। इसीलिए अदालत के मूल भाव से मैं सहमत हूँ लेकिन उक्त याचिका पर उसका फैसला मुझे बिल्कुल तर्कसंगत नहीं लगता। इस मुद्दे पर सर्वोच्च न्यायालय की किसी नई और बड़ी पीठ को विचार करना चाहिए। (नया इंडिया की अनुमति से)
-गिरीश मालवीय
1) पिछली बार सरकार प्रो एक्टिव नजर आ रही थी..... लोगो को पकड़ पकड़ कर टेस्ट करने के लिए ले जा रही थी इस बार नजारा बदल गया है लोग खुद सामने आकर टेस्ट कराने को तैयार है लेकिन सरकार पर्याप्त संसाधन तक उपलब्ध नहीं करवा पा रही है.....टेस्ट कराने के लिए लोग दिन दिन भर इंतजार कर रहे हैं
2) पिछली बार सरकार ने कोविड सेंटर्स खोले थे क्वारंटाइन करने के लिए लोगो को गाड़ियों में भर भर कर वहाँ भेजा जा रहा था, उनके खाने पीने सोने की सारी व्यवस्था की थी.....रेल के डिब्बों को कोविड सेंटर्स में बदला गया, ......लेकिन इस बार कहीं से भी कोई खबर नहीं आ रही कि कहीं भी कोई भी कोविड सेंटर काम कर रहा हो.....बल्कि जो कोविड सेंटर चालू थे उन्हें भी एक एक कर के बन्द करवा दिया गया.... अब जिनके घर मे एक ही रूम है और उनके परिवार का सदस्य पॉजिटिव हो गया है वे लोग पूछ रहे हैं कि हमको अलग रखने के लिये सरकार ने क्या व्यवस्था की है सरकार के पास कोई जवाब नहीं है ?
3) पिछली बार सरकारी अधिकारियों ने लॉक डाउन के दौरान अपने रुकने के लिए महामारी एक्ट के नाम पर शहर के बड़े बड़े होटलों पर कब्जा जमा।लिया था, बाद में जब वो होटल खाली किये गए तो बुरी हालत में ऑनर को मिले ओर सबसे बड़ी बात तो यह कि आज तक होटल के मालिकों को सरकार की तरफ से कोई भुगतान नहीं किया गया, बिल दिए उनको महीने बीत गए हैं....... शायद इसलिए ही इस बार होटल गेस्ट हाउस के अधिग्रहण का कदम अभी तक नहीं उठाया गया है
4) पिछली बार सबसे ज्यादा हल्ला वेंटिलेटर को लेकर मचाया जा रहा था ओर उस हल्ले का फायदा उठाकर घटिया वेंटिलेटर की सप्लाई की गयी जो आज बन्द पड़े हुए हैं....PM केयर के फंड की रकम से गुजरात की कम्पनियो से खूब वेंटिलेटर खरीदे गए और जमकर घोटाला किया इस बार कोई वेंटिलेटर का नाम भी नहीं ले रहा......
5) पिछली बार एक लाख तक रोज मरीज मिल रहे थे लेकिन किसी भी हॉस्पिटल में ऑक्सीजन की सप्लाई को लेकर ऐसी खबरें नहीं आ रही थी जैसी खबरे अब आ रही है कई शहरों में हॉस्पिटल में ऑक्सीजन सप्लाई खत्म होने की कगार पर है....... यहाँ पूरे एक साल में सरकार सोती रही आक्सीजन सप्लाई की व्यवस्था पर कोई ध्यान नहीं दिया गया.
6) पिछली बार सड़को पर मच्छर मारने का धुंआ उड़ाकर कोरोना वायरस को मारने का खूब प्रयास किया गया लेकिन इससे कोरोना वायरस की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ा..... इस बार सरकार ने वैसी कोई बेवकूफी नहीं की......
7) पिछली बार आपको याद होगा कि छूने से कोरोना फैलता है यह बात को खूब फैलाया गया इंदौर जैसे शहर में तो सब्जियों को बिकने से रोक दिया गया, पिछली बार तो आलू प्याज में भी कोरोना वायरस निकल रहा था, इस बार सरकार को थोड़ी अकल आयी है इस तरह की बेवकूफियां नहीं की जा रही, अब यह कहा जा रहा है कि यह सिर्फ साँस के जरिए फैल रहा है बाकी छूने से नहीं फैल रहा है.......
-रमेश अनुपम
आखिरकार गुरुदेव ने मन ही मन एक युक्ति ढूंढ ही निकाली। उन्होंने रूखमणी से अपने साथ आने के लिए कहा ताकि प्लेटफार्म में किसी दुकान से सौ रुपए का चिल्हर करवा कर वे उसे पच्चीस रुपए दे सकें। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर के इस फैसले को देखकर मृणालिनी देवी प्रसन्न हुई।
गुरुदेव अपने साथ रूखमणी को लेकर प्लेटफार्म की ओर बढ़ गए। थोड़ी दूर जाने के बाद गुरुदेव अपने असली रूप में आ गए। जेब से दो रुपए निकाले और रूखमणी को डांटते हुए बोले तुम मुसाफिरों को लुटती हो मैं अभी तुम्हारी शिकायत करता हूं और तुम्हें जेल भिजवाता हूं। रूखमणी गुरुदेव की डांट से घबरा गई वह उसके चरणों में गिर गई।रूखमणी डर कर कांपने लगी और कहने लगी मुझे कुछ नहीं चाहिए, मुझे जाने दीजिए, मेरी शिकायत मत कीजिए।
यह सारी कथा गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर के शब्दों में ‘फांकि ’ कविता में कुछ इस तरह से है-
‘ऐई बोले सेई मेयेटाके
आड़ा लेते निये गेलेम डेके
आच्छा करेई दिलेम तारे हेंके
केमन तोमार नोकरी थाके
देखबो आमी
पैसेंजरे के ठकीये बेडाओ
घोंचार नाष्टामी
केंदे जखन पडलो पाये धरे
दूई टाका तार हाथे दीये
दिलेम बिदाय करे। ’
(यह बोलकर उस स्त्री को एक आड़ में ले जाकर मैंने उसे अच्छे से डांटा। मैंने उससे कहा कि मैं देखता हूं कि तुम्हारी नौकरी कैसे बचती है, पैसेंजर को तुम ठगती हो। तब रोते हुए उसने पांव पकड़ लिए। उसी समय मैंने उसे दो रुपए का नोट देकर विदा कर दिया। )
रूखमणी को दो रुपए थमाकर उसे विदा करने के बाद गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर वापस यात्री प्रतीक्षालय में पहुंचे। मृणालिनी देवी तो जैसे उनकी प्रतीक्षा ही कर रही थीं, गुरुदेव के आते ही पूछा कि क्या सौ रुपए तुड़वाकर रूखमणी को पच्चीस रुपए दे दिए। गुरुदेव ने मृणालिनी देवी से झूठ बोलते हुए कहा कि हां मैंने सौ रुपए तुड़वाकर रूखमणी को पच्चीस रुपए दे दिए हैं।
मृणालिनी देवी ने खुश होकर कहा कि अब रूखमणी अपनी बेटी की शादी के लिए आभूषण बनवा सकेगी और अपनी बेटी को दुल्हन के रूप में अच्छे से विदा कर सकेगी। यह कल्पना कर ही मृणालिनी देवी का हृदय एक अलौकिक आनंद से भर उठा था। उसे लगा कि उसके जीवन की एक बड़ी साध अब शीघ्र ही पूरी होने वाली है।
पेंड्रा रोड पहुंचकर भी बार-बार मृणालिनी देवी यह सोच-सोच कर मन ही मन आनंदित होती रहती थी कि रूखमणी की बेटी को उसके ब्याह में आभूषण बनवाने के लिए पच्चीस रुपए देकर उन लोगों ने एक बड़े पुण्य का कार्य किया है ।
अपनी बीमारी के पूरे दो महीनों में मृणालिनी देवी कई-कई बार इस घटना का गुरुदेव से उल्लेख करतीं और मन ही मन खुश होती थी। इन दो महीनों में रूखमणी की बेटी के लिए उन्होंने जो कुछ किया था उसका स्मरण कर, मृणालिनी देवी के हृदय में जैसे अमृत का संचार होने लगता था।
अंतत: जब मृणालिनी देवी इस पृथ्वी से विदा ले रही थीं तब भी वे इस घटना को जो उनके जीवन की सबसे मूल्यवान घटना थी, याद कर रहीं थीं। वे अपने अंतिम समय में भी इस घटना को भूल नहीं पा रही थी और बार-बार उसका स्मरण कर रही थीं।
गुरुदेव ने ‘फांकि’ कविता में लिखा है-
‘ऐई दूटी मास सुधाय दिलो भरे। बिदाय नीलेम सेई कथाटी स्मरण करे।’
मृणालिनी देवी के जीवन के ये दो मास जैसे अमृत से भरे हुए थे। जब विदा हो रही थीं तब भी उनके अधरों पर इसी एक घटना का स्मरण था।)
इस समय गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर के हृदय में जो कुछ घटित हो रहा था उसे अभिव्यक्त करने के लिए शब्द भी शायद कम पड़ जायेंगे। उनकी वेदना को प्रदर्शित कर सके, ऐसी शक्ति भी किसी भी शब्द में नहीं थी।
ऐसी मर्मांतक वेदना जो गुरुदेव के हृदय को छलनी किए जा रही थी, उसे प्रकट करने की शक्ति भला किस भाषा में हो सकती थी।
गुरुदेव क्लांत हैं। उनके जीवन के सबसे मार्मिक क्षण यहीं हैं जब उन्हें उनके द्वारा किए गए छल के लिए जो क्षमा प्रदान कर सकती थी आज वही उससे दूर चली गई है।
गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर अंतर्यामी से प्रार्थना कर रहे हैं कि वे मृणालिनी देवी को आज सत्य से परिचित करवाना चाहते हैं। इन दो महीनों में उन्होंने मृणालिनी देवी को जो दुख दिया है, जो कष्ट पहुंचाया है, मात्र पच्चीस रुपए के लिए जो झूठ बोला है, उसके साथ छल किया है, उस जघन्य पाप से से वे मुक्त होना चाहते हैं ।
‘फांकि’ कविता में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर की वेदना कुछ इस तरह से प्रकट हुई है -
‘ओगो अंतर्यामी
बिनूर आज जानाते चाई आमी
सेई दू मासेर अर्धेय आमार विषम बाकी
पंचिस टाकार फांकि ’ ( हे अंतर्यामी ! आज मैं बीनू को बताना चाहता हूं। वे दो मास का अर्ध्य जो विषम है मेरे मन में शेष है ,जो पच्चीस रुपए के लिए मैने छल किया था )
गुरुदेव सोच रहे हैं कि आज रूखमणी को एक लाख रुपए देने पर भी मैं मृणालिनी देवी से किए गए छल से मुक्त नहीं हो पाऊंगा। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर यह सोच-सोच कर द्रवित हो रहें हैं कि मृणालिनी देवी जिन बीते हुए दो महीनों को अपने साथ लेकर गई हैं उसमें वे जान ही नहीं पाई हैं कि मैंने उसके साथ कितना बड़ा छल या धोखा किया है।
गुरुदेव आहत हैं, उनका हृदय अपार वेदना से द्रवित है। गुरुदेव अपने किए गए इस छल से, धोखे से क्षुब्ध हैं। वे इसके लिए हर तरह के प्रायश्चित करने के लिए तैयार हैं।
उन्होंने मृणालिनी देवी से जो छल किया है, उस छल से मुक्त होने के लिए वे अपना सब कुछ अर्पण करने के लिए प्रस्तुत हैं । पर इसे संभव करें तो भला कैसे करें बस इसी एक चिंतन में आकंठ डूबे हुए हैं।
(शेष अगले हफ्ते)
-विनोद कुमार शर्मा
आज (10 अप्रैल) खलील जिब्रान के देहावसान का दिन है। आज ही के दिन 1930 में न्यूयार्क में एक सडक़ दुर्घटना में उनकी मृत्यू हो गई थी। इस समय उनकी उम्र कुल अड़तालीस वर्ष थी। उनका जन्म लेबनान के एक कैथोलिक मान्यता के परिवार में हुआ। इस समय लेबनान तुर्क आथमन वंश के अति कठोर शासन के आधीन था। यहां सब ओर भूख और गरीबी का साम्राज्य ही था। काम की तलाश में परिवार अमेरिका आया पर जिब्रान कुछ समय बाद अपनी मातृभूमि चले आये और बेरूत के एक कॉलेज से उन्होंने आगे की शिक्षा पूरी की । वे अंग्रेजी फ्रांसीसी और अरबी भाषाओं के जानकार थे ।
इक्कीस वर्ष की उम्र में उनकी पहली पुस्तक स्पिरिट्स रिबेलियंस प्रकाशित हुई और लेबनान के धार्मिक कट्टर समाज की जड़ें हिला दीं । कैथोलिक चर्च ने सभी प्रतियों को आग लगाने, एवं खलील जिब्रान को देश तथा धर्म सभी से निष्कासित कर दिया । इस पुस्तक में तीन कहानियां थीं, इसमें से तीसरी कहानी तत्कालीन ईसाई पाखंड की निर्ममता और क्रूरता को उजागर करती थी। कुछ समय जिब्रान अपने पेरिस के चित्रकार मित्र के पास चित्रकला का अभ्यास किया और बाद में न्यूयार्क आ गए। दुर्घटना में मारे जाने के समय तक उनके साहित्य से लोग इतना प्रेम करने लगे थे कि उनके शरीर को लेबनान के राष्ट्रीय झण्डे में लपेट कर लेबनान ले जाया गया। और ईसाई, शिआ, सुन्नी और यहूदियों का जनसैलाब उनको विदा देने आया । आज भी उनकी समाधि उनके प्रेमियों को खींचती है , जहां लगातार यात्री पहुंचते हैं ।
उनकी लगभग पच्चीस पुस्तकें प्रकाशित हैं । वे चित्रकार होने से अपनी पुस्तकों के आवरण और अंदर भी अपने ही चित्रों से सजाते थे । ओशो ने अमेरिका में सार्वजनिक प्रवचन न देने के दिनों में चार पांच मित्रों के बीच दो बातचीत श्रृंखला चलाईं, जिनकी रिकॉर्डिंग से दो पुस्तकें बनी ‘पुस्तकें जिन्हे मैं प्यार करता हूं’ और ‘स्वर्णिम बचपन।’ पहली में उन्होंने अपनी प्रिय पुस्तकों को एक एक करके बताया है कि इस पुस्तक में क्या है और इसे क्यों पढ़ी जाए। दूसरी में उन्होंने अपने बचपन और अपने गांव की बातों को सुनाया है। अपनी प्रिय पुस्तकों के उन्होंने दस दस के समूह में वर्णन किये हैं। उनकी पुस्तक सूची में संभतया पहली तीन पुस्तकों में दस स्पेक जरथुस्त्र है। फिर जब वे अगली दस पुस्तकों की सूची देते हैं तो पहली पुस्तक पैगम्बर ही चुनते हैं । यह कहते हुए कि यह पुस्तक दस स्पेक जरथुस्त्र की ही अनुकृति है । मैं पढऩे में बहुत ढीला होने से यह पुस्तक कभी देख नहीं पाया पर पैगम्बर को जरूर देखने समझने का मौका मिला, उस तरह से देखें तो यह पुस्तक ओशो की पसंद की पुस्तक सूची में भी बिल्कुल ऊपर है ।
इस पुस्तक से जिब्रान को भी बहुत प्रेम था, पूरी हो जाने पर भी चार साल तक इसकी पाण्डुलिपि को और-और अधिक सुन्दर करने का प्रयास करते रहे । इसके अंदर विचारों और अधिक कह पाने के लिये चित्र बनाये । जिब्रान की यह क्षमता थी कि वे काव्य को गद्य की तरह स्थूल और गंभीरता दे सकें और गद्य को काव्य की तरह रहस्य और लोच से भर सकें। जीवन में जिन चीजों को भी लक्ष्य की तरह मानव जाति ने चुना है वे सभी बातें किसी न किसी तरह के आध्यात्मिक लोगों द्वारा ही आदमी से कही गई हैं। यह पुस्तक भी जीवन के यथार्थ और रहस्य को शब्दों में उतार पाती है। बाहर की दुनिया को जानना कह पाना भी अधूरा सा है और केवल अनुभूतियों में डूबते उतराते रहना भी इसे केवल मानसिक करके अनुपयोगी बनाता है।
यहां कोई चीज पूरी है भी नहीं है न तो गणित और न ही दर्शन। विरोधाभासों का मेल ही जीवन है। दो विपरीतताओं को खुला आमंत्रण और इस बात के डर का अभाव कि मैं इसे कैसे सिद्ध कर पाऊंगा या कह पाऊंगा। यह स्वीकृति ही हमें जीवन के थोड़े-बहुत नज़दीक लाती है। नहीं तो यहां है तो सब कुछ बेबूझ। जिब्रान की पुस्तक पैगम्बर का अलमुस्तफा अपने मूल में जाने से पहले लोगों को हर विषय पर अपने विचार देता है, उत्तर की तरह। ये उत्तर धर्मग्रंथों के क्विंटलों कचरे से कुछ एक कीमती चीजें चुनने की तुलना में बिना कचरे वाला सीधा खजाना ही हैं। जो परिशुद्ध है। काम का है। यह भारत के ब्रहृमसूत्र और उपनिषदों के सामने भी कहीं कमजोर नहीं पड़ता, कहना चाहिए और ज्यादा संघनित। जिब्रान को मरे नब्बे साल हो गए। इतने पहले भी धरती पर रहकर खुद को इतना हरा भरा करने के अवसर थे, आज के हम कुपोषित से आदमी जिनके शरीर, मन, बुद्धि तथा आत्मा सब कुछ कुपोषित हैं। सब एकतरफा, बौने और अधूरे से। कोशिश करेंगे कि जिब्रान जैसे लोगों से कुछ तो संपन्नता अर्जित करें, जिससे धरती पर हमारे खाने पीने का कुछ तो बदला हम समाज को दे सकें।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
म्यांमार में सेना का दमन जारी है। 600 से ज्यादा लोग मारे गए हैं। आजादी के बाद भारत के पड़ौसी देशों— पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान, नेपाल, मालदीव— आदि में कई बार फौजी और राजनीतिक तख्ता-पलट हुए और उनके खिलाफ इन देशों की जनता भडक़ी भी लेकिन म्यांमार में जिस तरह से 600 लोग पिछले 60-70 दिनों में मारे गए हैं, वैसे किसी भी देश में नहीं मारे गए।
म्यांमार की जनता अपनी फौज पर इतनी गुस्साई हुई है कि कल कुछ शहरों में प्रदर्शनकारियों ने फौज का मुकाबला अपनी बंदूकों और भालों से किया। म्यांमार के लगभग हर शहर में हजारों लोग अपनी जान की परवाह किए बिना सडक़ों पर नारे लगा रहे हैं। लेकिन फौज है कि वह न तो लोकनायक सू ची को रिहा कर रही है और न ही अन्य छोटे-मोटे नेताओं को! उन पर उल्टे वह झूठे आरोप मढ़ रही है, जिन्हें हास्यास्पद के अलावा कुछ नहीं कहा जा सकता।
यूरोप और अमेरिका के प्रतिबंधों के बावजूद म्यांमार की फौज अपने दुराग्रह पर क्यों डटी हुई है ? इसके मूल में चीन का समर्थन है। चीन ने फौज की निंदा बिल्कुल नहीं की है। अपनी तटस्थ छवि दिखाने की खातिर उसने कह दिया है कि फौज और नेताओं के बीच संवाद होना चाहिए। चीन ऐसा इसलिए कर रहा है कि म्यांमार में उसे अपना व्यापार बढ़ाने, सामुद्रिक रियायतें कबाडऩे और थाईलैंड आदि देशों को थल-मार्ग से जोडऩे की उसकी रणनीति में बर्मी फौज उसका पूरा साथ दे रही है।
भारत ने भी संयुक्तराष्ट्र संघ में दबी जुबान से म्यांमार में लोकतंत्र की तरफदारी जरुर की है लेकिन उसके रवैए और चीन के रवैए में कोई ज्यादा अंतर नहीं है। भारत सरकार बड़ी दुविधा में है। उसकी परेशानी यह है कि वह बर्मी लोकतंत्र का पक्ष ले या अपने राष्ट्रीय स्वार्थों की रक्षा करे? जब म्यांमार से शरणार्थी सीमा पार करके भारत में आने लगे तो केंद्र सरकार ने उन्हें भगाने का आग्रह किया लेकिन मिजोरम सरकार के कड़े रवैए के आगे हमारी सरकार को झुकना पड़ा। सरकार की रोहिंग्या शरणार्थियों को वापस भेजने की नीति का सर्वोच्च न्यायालय ने समर्थन कर दिया है, जो ठीक मालूम पड़ता है लेकिन फौजी अत्याचार से त्रस्त लोगों को अस्थाई शरण देना भारत की अत्यंत सराहनीय नीति शुरु से रही है।
म्यांमार की फौजी सरकार ने अपने लंदन स्थित राजदूत क्याव जवार मिन्न को रातोंरात अपदस्थ कर दिया है। उन्हें दूतावास में घुसने से रोक दिया गया है। शायद उनका घर भी वहीं है। उन्होंने अपनी कार में ही रात गुजारी। ब्रिटिश सरकार ने इस पर काफी नाराजी जाहिर की है लेकिन उसे कूटनीतिक नयाचार को मानना पड़ेगा। राजदूत मिन्न ने फौजी तख्ता-पलट की निंदा की थी। अमेरिका ने हीरे-जवाहरात का व्यापार करने वाली सरकारी बर्मी कंपनी पर प्रतिबंध लगा दिया है।
भारत को अपने राष्ट्रहितों की रक्षा जरुर करनी है लेकिन यदि वह फौजी तख्ता-पलट के विरुद्ध थोड़ी दृढ़ता दिखाए तो उसकी अन्तरराष्ट्रीय छवि तो सुधरेगी ही, म्यांमार में आंशिक लोकतंत्र की वापसी में भी आसानी होगी। भारत फौज और नेताओं की बीच सफल मध्यस्थ सिद्ध हो सकता है। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
रूसी विदेश मंत्री सर्गेइ लावरोव और पाकिस्तानी विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने कल इस्लामाबाद में बड़ी चतुराई दिखाने की कोशिश की। दोनों ने दुनिया को यह बताने की कोशिश की कि रूस और पाकिस्तान आतंकवाद से लडऩे के लिए कटिबद्ध हैं। रूस ने वादा किया कि वह पाकिस्तान को ऐसे विशेष हथियार देगा, जो आतंकवादियों के सफाए में उसके बहुत काम आएंगे। यहां पहली बात यह कि वह कौनसा आतंकवाद है, जिसे रूस खत्म करना चाहता है? क्या तालिबान का? क्या कश्मीरियों का? क्या बलूचों का? क्या पठानों का? इनमें से किसी का भी नहीं।
रूस की चिंता उसके चेचन्या-क्षेत्र में चल रहे मुस्लिम आतंकवाद की हो सकती है लेकिन उसका कोई प्रभाव पाकिस्तान में नहीं है। उसकी जड़ों में तो व्लादीमीर पूतिन ने पहले ही से म_ा डाल रखा है। सच्चाई तो यह कि इधर रूस का फौजी उद्योग जरा ढीला पड़ गया है। उसके सबसे बड़े शस्त्र-खरीददार भारत ने अपनी खरीद एक-तिहाई घटा दी है। पूर्वी यूरोप के देश भी उसके हथियार कम खरीद रहे हैं। यदि ये हथियार पाकिस्तान को रूस अगर मुक्त रुप से बेचेगा तो भारत को नाराजगी हो सकती है।
इसीलिए लावरोव ने आतंकवाद की ओट ले ली है। आतंकियों को मारने के लिए कौन-से मिसाइलों की जरुरत होती है ? पाकिस्तान की फौज उन्हें चाहे तो बाएं हाथ से ढेर कर सकती है। जहां तक तालिबान का सवाल है, वे अभी भी अफगानिस्तान में लगभग रोज ही खून बहा रहे हैं। लेकिन रूस तो उन्हें पटाने में लगा हुआ है। वह उन्हें मास्को बुला-बुलाकर बिरयानी खिलाने में जुटा हुआ है। लावरोव को पता है कि रुस के हथियार सिर्फ भारत के खिलाफ ही इस्तेमाल होंगे। फिर भी वह उन्हें पाकिस्तान को बेचने पर डटे हुए हैं।
लावरोव की लौरी पर ताल ठोकते हुए पाक सेनापति कमर जावेद बाजवा ने भी डींग मार दी। उन्होंने कह दिया कि पाकिस्तान की किसी भी देश के साथ कोई दुश्मनी नहीं है। दक्षिण एशिया क्षेत्र में वह शांति और सहयोग का वातावरण बनाना चाहता है। उनसे कोई पूछे कि फिर कश्मीर को हथियाने की माला आप क्यों जपते रहते हैं ? लावरोव ने आर्थिक, राजनीतिक और सामरिक मामलों में पाकिस्तान को पूर्ण सहयेाग का वादा किया है। शांघाई सहयोग संगठन के सदस्य होने के नाते अब रूस चाहेगा कि पाकिस्तान को रुस और चीन की गलबहियों में लपेट लिया जाए और अफगानिस्तान और ईरान को भी।
ईरान के साथ चीन का 25 वर्षीय समझौता हो ही चुका है। यह अघोषित गठबंधन दक्षिण एशिया में अमेरिकी रणनीति की काट करेगा। ‘एशियाई नाटो’ की टक्कर में अब ‘एशियाई वारसा-पेक्ट’ की नींव पड़ रही है। भारत से उम्मीद यही है कि वह इन दोनों अघोषित गठबंधनों से खुद को मुक्त रखेगा। (नया इंडिया की अनुमति से)
-गोपाल राठी
जाति और उपजाति में बटे भारतीय समाज में जाति एक सच्चाई है जिसे आप नकार नहीं सकते। जाति के आधार पर ही आप सम्मान या तिरस्कार पाने के अधिकारी बन जाते है। हमारे समाज मे जातीय विषमता का हमें कदम कदम पर साक्षात्कार होता है। भारतीय व्यक्ति सामने वाले व्यक्ति का नाम और ठांव पूछने के पहले जाति जानने की कोशिश करता है और उनके आपसी सम्बन्ध और व्यवहार जाति के आधार पर ही निर्धारित होते हैं । एक दूसरे से बिल्कुल अपरिचित और भाषा और संस्कृति के लिहाज से अलग अलग व्यक्ति अगर सजातीय होते है तो उनकी आंखों में चमक आ जाती है और भाव भंगिमा बदल जाती है।
नर्मदा की परिक्रमा हजारों साल से की जा रही है । परिक्रमा वासियों के ठहरने और भोजन की व्यवस्था जगह जगह पर रहती है । कहीं किसी आश्रम में या कही गांव में सामूहिक रूप से यह व्यवस्था चल रही है ।
परिक्रमा में मेरा जो अवलोकन रहा वह यह है कि नर्मदा तट के हर गांव में परिक्रमा को एक तपस्या माना जाता है और परिक्रमा करने वाले को तपस्वी। इस भावना के कारण नर्मदा परिक्रमा वासियों को हर जगह श्रद्धा पूर्वक सम्मान मिलता है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यह सम्मान किसी को उसकी जाति देखकर नहीं मिलता। रास्ते मे हम चाय आदि के लिए कई जगह।के तो दुकानदार ने हमसे पैसे ही नहीं लिए । दुकानदार ने ना हमारा नाम पूछा ,ना जाति पूछी ,ना गांव पूछा । उसके लिए हमारा परिकमा वासी होना ही पर्याप्त था । बड़वानी जिले के परसूद में तो चाय वाले के बाजू में एक मुस्लिम भाई की पान की दुकान थी उसने भी हमसे पान के पैसे नहीं लिए बल्कि रास्ते के लिए पान के चार बीड़े बनाकर रख दिए।
हमने सिवनी जिले के कहानी ग्राम में रात्रि विश्राम किया । वहां ग्राम पंचायत भवन में ठहरे हम सभी परिक्रमा वासियों का रात्रि भोजन एक परिवार में था । वहां हमारे साथ गए सभी परिकमा वासियों को भोजन उपरांत एक नारियल और दस ।पये भेंट के साथ परिवार के सदस्यों ने हम सबके बारी बारी से पांव पड़े । इस तरह पांव पढ़वाने से हम थोड़े असहज हुए ,थोड़ा पीछे हटे लेकिन कोई नहीं माना । सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हम परिक्रमा वासियों के समूह में एक सज्जन आदिवासी समाज के जो उदयपुरा तहसील जिला रायसेन के निवासी थे और एक दम्पत्ति दलित समाज से थे जो दमोह जिले के रहने वाले थे । हम सबको "महाराज" के संबोधन से पुकारा जा रहा था । जात पांत की कोई बात ही नहीं थी । आगे अन्य आश्रमों में भी जात पांत पूछे बिना भोजन और आवास की व्यवस्था हो गई ।
नर्मदा परिक्रमा जैसे धार्मिक अनुष्ठान में कोई पूछता ही नहीं है कि तुम कौन जात हो ? जातिगत भेदभाव से मुक्त परिक्रमा के इस पक्ष से हमें अत्यंत खुशी हुई । ऐसा लगा कि जैसे जाति विहीन ,वर्ग विहीन समाज बनाने का हमारा सपना साकार हो गया है ।
हमारे संत भी तो यही कहते रहे हैं ।
जात-पात पूछे ना कोई,
हरि को भजे सो हरि का होई
*जाति न पूछो साधु की,
पूछ लीजिये ज्ञान,
मोल करो तरवार का,
पड़ा रहन दो म्यान।
बीजापुर में रिहा किये गए जवान को सकुशल वापिस लाने के पीछे जो शख्स हैं, वह है 92 साल के युवा और बस्तर के ताऊ जी धर्मपाल सैनी। उन्हें बस्तर का गांधी कहा जाता है।
वे कोई 45 साल पहले अपनी युवावस्था में बस्तर की लड़कियों से जुड़ी एक खबर पढ़ कर इतने विचलित हुए कि यहां आए और यहीं के हो गए।
अपने गुरु विनोबा भावे से डोनेशन के रूप में 5 रुपए लेकर वे 1976 में बस्तर पहुंचे। वह युवा पिछले 40 सालों से बस्तर में है। पद्मश्री धरमपाल सैनी अब तक देश के लिए 2000 से ज्यादा एथलीट्स तैयार कर चुके हैं।
मूलतः मध्यप्रदेश के धार जिले के रहने वाले धरमपाल सैनी विनोबा भावे के शिष्य रहे हैं।
60 के दशक में सैनी ने एक अखबार में बस्तर की लड़कियों से जुड़ी एक खबर पढ़ी थी। खबर के अनुसार दशहरा के आयोजन से लौटते वक्त कुछ लड़कियों के साथ कुछ लड़के छेड़छाड़ कर रहे थे।लड़कियों ने उन लड़कों के हाथ-पैर काट कर उनकी हत्या कर दी थी।
यह खबर उनके मन में घर कर गई। उन्होंने बस्तर की लड़कियों की हिम्मत और ताक़त को सकारात्मक बनाने की ठानी।
कुछ सालों बाद अपने गुरु विनोबा भावे से बस्तर आने की अनुमति मांगी लेकिन शुरू में वे नहीं माने। कई बार निवेदन करने के बाद विनोबा जी ने उन्हें 5 रुपए का एक नोट उन्हें थमाया और इस शर्त के साथ अनुमति दी कि वे कम से कम दस साल बस्तर में ही रहेंगे।
आगरा यूनिवर्सिटी से कॉमर्स ग्रेजुएट सैनी खुद भी एथलीट रहे हैं।
वे बताते हैं कि जबवे बस्तर आए तो देखा कि छोटे-छोटे बच्चे भी 15 से 20 किलोमीटर आसानी से चल लेते हैं। बच्चों की इस क्षमता को खेल और शिक्षा में इस्तेमाल करने की योजना उन्होंने बनाई।
उनके डिमरापाल स्थित आश्रम में हजारों की संख्या में मेडल्स और ट्रॉफियां रखी हुई हैं।आश्रम की छात्राएं अब तक स्पोर्ट्स में ईनाम के रूप में 30 लाख से ज्यादा की राशि जीत चुकी हैं।
धर्मपाल जी को बालिका शिक्षा में बेहतर योगदान के लिए 1992 में सैनी को पद्मश्री सम्मान से नवाजा गया। 2012 में 'द वीक' मैगजीन ने सैनी को मैन ऑफ द इयर चुना था। श्री सैनी के बस्तर में आने के बाद साक्षरता का ग्राफ 10 प्रतिशत से बढ़कर 50 प्रतिशत के करीब पहुंच चुका है।
उनके विद्यालय की बच्चियां एथलीट, डॉक्टर और प्रशासनिक सेवाओं में जा चुकी हैं ।
आज सैनीजी 92 साल के हैं और राकेश्वर सिंह को सकुशल लाने का अनुरोध मुख्यमंत्री भूपेश्वर बघेल ने किया था।
खबर तो यह भी है कि वे कई महीने से नक्सलियों से शांति वार्ता के लिए प्रयास कर रहे थे। वार्ता के शुरू होने से पहले केंद्रीय बलों ने यह दबिश दी और वार्ता को पटरी से नीचे उतार दिया। बहरहाल सैनी जी के प्रति आभार। उनकी सहयोगी मुरुतुण्डा की सरपंच सुखमती हक्का का भी आभार। चित्र में खड़ी सुखमती बानगी है कि बस्तर में औरत कितनी ताकतवर है।
(पत्रकार पंकज चतुर्वेदी के फेसबुक पेज से )
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
रूसी विदेश मंत्री सर्गेइ लावरोव और भारतीय विदेश मंत्री जयशंकर के बीच हुई बातचीत के जो अंश प्रकाशित हुए हैं और उन दोनों ने अपनी पत्रकार-परिषद में जो कुछ कहा है, अगर उसकी गहराई में उतरें तो आपको थोड़ा-बहुत आनंद जरुर होगा लेकिन आप दुखी हुए बिना भी नहीं रहेंगे। आनंद इस बात से होगा कि रूस से हम एस-400 प्रक्षेपास्त्र खरीद रहे हैं, वह खरीद अमेरिकी प्रतिबंधों के बावजूद जारी रहेगी।
रूस भारत से साढ़े सात करोड़ कोरोना-टीके खरीदेगा। यद्यपि इधर भारत ने रूसी हथियार की खरीद लगभग 33 प्रतिशत घटा दी है लेकिन लावरोव ने भरोसा दिलाया है कि अब रूस भारत को नवीनतम हथियार-निर्माण में पूर्ण सहयोग करेगा। उत्तर-दक्षिण महापथ याने ईरान और मध्य एशिया होकर रूस तक आने-जाने का बरामदा और चेन्नई-व्लादिवस्तोक जलमार्ग तैयार करने में भी रूस ने रूचि दिखाई है। लावरोव ने भारत-रूस सामरिक और व्यापारिक सहयोग बढ़ाने के भी संकेत दिए हैं।
उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है कि भारत किसी भी देश के साथ अपने संबंध घनिष्ट बनाने के लिए स्वतंत्र है। उनका इशारा इधर भारत और अमेरिका की बढ़ती हुई घनिष्टता की तरफ रहा होगा लेकिन उन्होंने कई ऐसी बातें भी कही हैं, जिन पर आप थोड़ी गंभीरता से सोचें तो लगेगा कि वे दिन गए, जब भारत-रूस संबंधों को लौह-मैत्री कहा जाता था। क्या कभी ऐसा हुआ है कि कभी कोई रूसी नेता भारत आकर वहां से तुरंत पाकिस्तान गया हो ? कल नई दिल्ली में पत्रकार-परिषद खत्म होते ही लावरोव इस्लामाबाद पहुंच गए।
रूस का रवैया भारत के प्रति अब लगभग वैसा ही हो गया है, जैसा कभी अमेरिका का था। वे इस्लामाबाद क्यों गए ? इसलिए कि वे अफगान-संकट को हल करने में जुटे हुए हैं। सोवियत रूस ने ही यह दर्द पैदा किया था और वह ही इसकी दवा खोज रहा है। लावरोव ने साफ-साफ कहा कि तालिबान से समझौता किए बिना अफगान-संकट का हल नहीं हो सकता। जयशंकर को दबी जुबान से कहना पड़ा कि हाँ, उस हल में सभी अफगानों को शामिल किया जाना चाहिए।
यह हमारी सरकार की घोर अक्षमता है कि हमारा तालिबान से कोई संपर्क नहीं है। हम यह जान लें कि तालिबान गिलजई पठान हैं। वे मजबूरी में पाकिस्तानपरस्त हैं। वे भारत-विरोधी नहीं हैं। यदि उनके जानी दुश्मन अमेरिका और रूस उनसे सीधा संपर्क रख रहे हैं तो हम क्यों नहीं रख सकते? हमें हुआ क्या है? हम किससे डर रहे हैं? या मोदी सरकार के पास योग्य लोगों का अभाव है ? लावरोव ने तालिबान से रूसी संबंधों पर जोर तो दिया ही, उन्होंने ‘इंडो-पेसिफिक’ की बजाय ‘एशिया-पेसिफिक’ शब्द का इस्तेमाल किया।
उन्होंने अमेरिका, भारत, जापान और आस्ट्रेलियाई चौगुटे को ‘एशियन नाटो’ भी कह डाला। चीन और पाकिस्तान के साथ मिलकर रूस अब अमेरिकी वर्चस्व से टक्कर लेना चाहेगा। लेकिन भारत के लिए यह बेहतर होगा कि वह किसी भी गुट का पिछलग्गू नहीं बने। यह बात जयशंकर ने स्पष्ट कर दी है लेकिन दक्षिण एशिया की महाशक्ति होने के नाते भारत को जो भूमिका अदा करनी चाहिए, वह उससे अदा नहीं हो पा रही है। (नया इंडिया की अनुमति से)
-गिरीश मालवीय
अनिल अंबानी के बड़े बेटे अनमोल ने ट्वीट कर कहा है कि ‘एक्टर्स, क्रिकेटर्स,राजनीतिज्ञों को अपना काम बिना किसी रोक-टोक के करने दिया जा रहा है, लेकिन कारोबार पर प्रतिबंध लगाया जा रहा है।’ प्रोफेशनल एक्टर्स अपनी फिल्मों की शूटिंग जारी रख सकते हैं. प्रोफेशनल क्रिकेटर देर रात तक खेल सकते हैं. प्रोफेशनल राजनीतिज्ञ भारी भीड़ के साथ अपनी रैलियां कर सकते हैं. लेकिन आपका कारोबार आवश्यक सेवाओं में नहीं आता।’
इंदौर की कल की खबर है कि स्वच्छता सर्वेक्षण के नाम पर कुछ दिनों पहले शहर की शाहराहो पर ठेले लगाकर जो व्यापार कर रहे थे उन्हें हटा दिया गया और जब उन्होंने दुबारा उसी जगह पर ठेले लगाने चाहे तो लगाने नही दिये जा रहे। उन्होंने नगर निगम के गेट पर अपना रोजगार वापस बहाल करने को लेकर प्रदर्शन किया तो उनके खिलाफ केस दर्ज कर गिरफ्तारी के आदेश निकाल दिए गए।
अनिल अंबानी के बेटे ने अपने ट्वीट में जो एक आशंका जताई है उस पर हमें ध्यान देने की जरूरत है उन्होंने कहा कि ये लॉकडाउन्स स्वास्थ्य को लेकर नहीं हैं। ये नियंत्रण करने के लिए हैं और मुझे लगता है कि हम में से कई अनजाने में बेहद बड़े और भयावह प्लान के जाल में फंस रहे हैं।
विश्व भर की सरकारे दरअसल पूरी तरह से कंट्रोल हासिल कर लेना चाहती है पब्लिक हैल्थ तो एक बहाना है। अगर आपने कल बीबीसी पर रिलीज की गई ‘वेक्सीन पासपोर्ट’ की रिपोर्ट नही देखा है तो एक बार उसे जरूर देखिए आपको पूरा खेल समझ मे आ जाएगा कि क्या गजब तरीके से जनता को एक ट्रैप में फँसाया जा रहा है। इस रिपोर्ट ने बीबीसी जैसे निष्पक्ष समझे जाने वाले मीडिया संस्थानों के असली इरादे जाहिर कर दिए हैं। हर रिपोर्ट में दूसरा पक्ष क्या कह रहा है इसकी जरूर बात की जाती है लेकिन रिपोर्ट के आखिरी चंद सेकंड में ब्रिटेन के सांसदों की राय बताई गई और प्रोग्राम अचानक से खत्म कर दिया गया।
वैक्सीन पासपोर्ट को एकमात्र उपाय के रूप में पब्लिक के दिमाग मे ठूँसा जा रहा है यहाँ ये कहने की कोशिश की जा रही है कि सरकारे तो लॉक डाउन लगाना नहीं चाहती लेकिन यदि आपको ऐसी स्थिति में अर्थव्यवस्था को खोलना हैं तो वैक्सीन सर्टिफिकेट ही एकमात्र उपाय है विकसित देशों में यह खेल शुरू हो गया है और मोदीजी को ऊपर से चाबी भर दी गयी है कि जितना जल्दी हो वो यहाँ पर वैक्सीन रोल आउट के प्रोग्राम चलाए। देश के सारे कलेक्टर्स को निर्देश है कि अपने अपने जिले में जितने अधिक से अधिक लोगो को वेक्सीन लगवाए उतना अच्छा
इस बार सरकार का ध्यान बीमारी से ज्यादा वेक्सीन के रोल आउट पर है।
अच्छा एक बात बताइये कि कोई बीमारी होती है तो मार्केट में उसकी दवा पहले आती है कि वैक्सीन पहले आती है? यह दुनिया की ऐसी पहली बीमारी है जिसकी दवा नहीं है लेकिन वेक्सीन है।
-अरुण कान्त शुक्ला
शनिवार 3 अप्रैल को बीजापुर जिले के तर्रेम इलाके के पास सीआरपीएफ, कोरबा बटालियन और पुलिस के जवानों पर घात लगाकर नक्सलियों द्वारा किया गया हमला जिसमें 23 जवान मारे गए, 31 घायल हुए और एक नक्सलियों की पकड़ में है, पिछले 15 दिनों में सुरक्षा बलों पर किया गया तीसरा हमला है। इसके पूर्व भी 21 मार्च, 2021 को सुकमा में हुई मुठभेड़ में 17 जवान शहीद हुए थे और फिर 23 मार्च, 2021 को माओवादियों ने नारायणपुर में एक बस को उड़ा दिया था जिसमें 5 पुलिसकर्मी शहीद और 13 घायल हुए थे। पिछले एक दशक में बस्तर, सुकमा, दंतेवाड़ा, बीजापुर, नारायणपुर जिलों के गांवों के आसपास एक दर्जन से अधिक बड़े नक्सल हमले सुरक्षा जवानों पर हो चुके हैं। 25 मई 2013 को बस्तर जिले की दरभा घाटी में हुए नक्सली हमले में महेंद्र कर्मा, कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष नन्द कुमार पटेल,पूर्व केंद्रीय मंत्री विद्याचरण शुक्ल समेत 30 से अधिक कांग्रेस कार्यकर्ताओं को जान से हाथ धोना पड़ा था। अभी तक ऐसे हमलों में लगभग 350 से अधिक सुरक्षाकर्मी अपनी जान से हाथ धो चुके होंगे। इतनी ही संख्या में अथवा इससे अधिक माओवादी भी सुरक्षा कर्मियों के हमले में मारे गए होंगे।
शहरी क्षेत्र में एक आम धारणा बन चुकी है कि माओवाद अब कोई क्रांतिकारी आंदोलन न होकर अराजक आतंकवाद बन कर रह गया है। मैंने यहाँ उन घटनाओं का जिक्र नहीं किया है जिनमें आम आदमी याने आदिवासी अथवा अर्ध-नगरीय क्षेत्र में रहने वाला नागरिक या किसी राजनीतिक दल का कार्यकर्ता जो माओवादियों का विरोध करता हो, पुलिस का मुखबिर होने के शक में माओवादियों के द्वारा तड़पा तड़पा कर मार दिया जाता है। अनेक बार ऐसा भी होता है जब जैसे सुरक्षाकर्मियों को गलत जानकारी मिलती है या शक होता है और उनके हाथों निर्दोष लोग मारे जाते हैं वैसे ही माओवादी भी गलती से अथवा शक में आम निर्दोष लोग मारे जाते हैं। स्वाभाविक है अपनी इस गलती को दोनों पक्षों में से कोई स्वीकार नहीं करता है। इन घटनाओं की जितनी भी निंदा की जाए कम है। यदि प्रदेश के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल अपना असम दौरा बीच में छोड़कर वापस आए और घायल जवानों से मिले तो केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह भी बंगाल का चुनाव छोड़कर आए और घायल जवानों से मिले। स्वाभाविक तौर पर उनसे वे ही रटे रटाये जुमले सुनने मिले जो प्रत्येक गृहमंत्री और मुख्यमंत्री से अभी तक प्रत्येक घटना के बाद सुनने मिलते हैं। जवानों की शहादत व्यर्थ नहीं जायेगी। हमने नक्सलियों को सबक सिखाया और उनकी योजना चौपट की वगैरह।
इस लेख का विषय फोर्स की क्या गलती थी या उनसे कहाँ चूक हुई, इसका शोध करना नहीं है। हम सिर्फ यह चाहते हैं कि माओवादी सक्रियता के लगभग 6 दशकों के बाद माओवादी इस पर विचार करें कि वे किसकी मदद कर रहे हैं और किसको नुकसान पहुंचा रहे हैं। यदि आतंक फैलाकर या बनाए रखकर ही माओवाद को ज़िंदा रखना माओवादियों का मकसद है, तो वे अपने मकसद में फौरी तौर पर इसलिए कामयाब दिख सकते हैं की आतंक फैलाने में वे कामयाब हो गए हैं| पर, यदि वे यह सोचते हैं कि वे इस तरह के हमला करके देश में कायम व्यवस्था को कमजोर कर पाए हैं या उसे बदलने की दिशा में माओवाद को तनिक भी दूर आगे बढ़ा पाए है, तो वे पूरी तरह गलत है| या, वे यह सोचते हैं कि वे नगरीय इलाके के जनमानस को यह सन्देश देने में कामयाब हुए हैं की माओवाद ताकतवर होकर बहुत आगे बढ़ आया है और अब बारी आ गयी है कि अर्बन जनता भी हथियार उठाकर उनके साथ हो ले, तो भी वे पूरी तरह गलत हैं क्योंकि इस हिंसा के फलस्वरूप पैदा होने वाली व्यग्रता का पूरा फायदा देश का शासक वर्ग ही उठा रहा है|
माओवादी जिस हथियारबंद संघर्ष के जरिये तथाकथित क्रान्ति का सपना आदिवासियों को दिखाते हैं, उसका कभी भी सफल न होना, दीवाल पर लिखा एक ऐसा सत्य है, जिसे माओवादी पढ़ना नहीं चाहते हैं| जिस देश में अभी तक मजदूर-किसान के ही एक बड़े तबके को, जो कुल श्रम शक्ति का लगभग 98% से अधिक ही होगा, संगठित नहीं किया जा सका हो| जिस देश में नौजवानों और छात्रों के संगठन लगभग मृतप्राय: पड़ गए हों और वामपंथी शिक्षा कुल शिक्षा से तो गायब ही हो, स्वयं वामपंथ की शैक्षणिक गतिविधियां लगभग शून्य की स्थिति में आ गई हों, वहाँ, शैक्षणिक सुविधाओं से वंचित आदिवासी समाज को जंगल में क्रान्ति का पाठ पढ़ाकर, बन्दूक थमा कर क्रान्ति का सपना दिखाना एक अपराध से कम नहीं है| इस बात में कोई शक नहीं कि जितनी हिंसा माओवाद के नाम पर राज्य सत्ता स्वयं देश के निरपराध और भोले लोगों पर करती है और सेना-पुलिस के गठजोड़ ने जो अराजकता, हिंसा,बलात्कार विशेषकर बस्तर के आदिवासी समाज पर ढा कर रखा है, उसकी तुलना में माओवादी हिंसा कुछ प्रतिशत भी न हो, पर, भारतीय समाज का अधिकाँश हिस्सा आज भी हिंसा को बर्दाश्त नहीं कर पाता है| राज्य अपनी हिंसा को क़ानून, शांति कायम करने के प्रयासों, देशद्रोह, राष्ट्रवाद जैसे नारों के बीच छुपा जाता है, वहीं, माओवादियों के हर आक्रमण को या उनके नाम पर प्रायोजित आक्रमण को बढ़ा-चढ़ा दिखाता है, यह हम पिछले लंबे समय से देख रहे हैं|
पिछले कुछ वर्षों में एक सोची समझी साजिश के तहत अर्बन-नक्सल की थ्योरी प्रचारित की जा रही है जिसकी आड़ में देश के बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों, रंगकर्मियों और शिक्षाविदों को निशाना बनाकर उन्हें राष्ट्र-द्रोह के मामलों में फंसाकर या तो जेल में डाला जा रहा है या आम देशवासियों की नजर में उनकी छवि देशद्रोही की बनाई जा रही है। आज देश के शोषितों का बहुत बड़ा हिस्सा किसान सरकार के साथ सीधे-सीधे दो-दो हाथ कर रहा है और सरकार तथा उसके नुमाईंदे उस किसान समूह को आतंकवादी से लेकर राष्ट्र-द्रोही तक सिद्ध करने पर उतारू हैं। जैसे ही 3 अप्रैल की माओवादी घटना हुई, शासक पार्टी की आईटी सेल ने सोशल मीडिया में और सरकार के इशारे पर आज के इस बिक चुके डिजिटल मीडिया ने देश के बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों, रंगकर्मियों और शिक्षाविदों, विश्वविद्यालयओं को माओवाद के लिए जिम्मेदार ठहराना शुरू कर दिया। इसका एक नमूना सोशल मीडिया में घूमता यह संदेश है;
"शहीद हुए जवानों पर हथियार भले ही नक्सलियों ने ताने थे मगर उनके हाथों में वो हथियार देश की किसी सेंट्रल यूनिवर्सिटी में पढ़ा रहे "ज्ञानी" प्रफ़ेसर ने पहुंचाए हैं। किसी "आला" दर्जे के साहित्यकार ने उन नक्सलियों की ट्रेनिंग का खर्चा उठाया है। रंगमंच के रंगों में सिर से पैर तक डूबे किसी "क्रांतिकारी" रंगकर्मी ने नक्सलियों के हमले की स्क्रिप्ट लिखी है। किसी "टॉप क्लास" फिल्मकार ने उन नक्सलियों के रहने-खाने की व्यवस्था की है। किसी एसी रूम में बैठकर खबर के खोल में संपादकीय बांच रहे किसी "निष्पक्ष" पत्रकार ने उन नक्सलियों की बंदूकों में गोलियाँ भरी हैं। उन जवानों ने हिडमा के साथियों से प्रत्यक्ष युद्ध में बलिदान नहीं दिया है, उन्होंने हमारे-आपके आस-पास मौजूद इन नामी-गिरामी हस्तियों से चल रहे परोक्ष युद्ध में बलिदान दिया है।"
यह एक जाना माना तथ्य है कि एक ऐसी व्यवस्था में, जैसी व्यवस्था में हम रह रहे हैं, एक ऐसी फासिस्ट सत्ता काबिज है जो किसी भी तरह की बौद्धिकता से आम देशवासी को दूर रखना चाहती है। उसे एन 5 राज्यों के चुनाव के समय इस घटना ने एक बड़ा अवसर दे दिया है। पूंजीवाद मात्र एक शासन की व्यवस्था नहीं है, वह एक जीवन शैली भी है और वह पैदा होने के साथ ही मनुष्य को अपने साँचे में ढालना शुरू कर देती है। यही कारण है कि उससे घृणा करने वाले ही उसे जीवन रस भी देते रहते हैं। इसे हथियार से नहीं जन-आंदोलनों से ही बदला जा सकता है।
माओवादियों को सोचना होगा कि उनकी इन सभी गतिविधियों से आखिर किसकी मदद होती है? आज इस देश के अमन पसंद लोगों के सामने सबसे बड़ी समस्या एक ऐसी सत्ता से छुटकारे पाने की है, जिसने इस देश की सदियों पुरानी सहिष्णुता और भाईचारे को नष्ट करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है| जो, खुले आम, आम जनता के खिलाफ पूंजीपतियों के पक्ष में तनकर खड़ी है और जिसने अपना एकमात्र कार्य केवल किसी भी प्रकार से विरोधियों को समाप्त करके देश में फासीवाद को स्थापित करना घोषित करके रखा है| उस समय माओवादियों के ये आक्रमण अंतत: उसी सत्ता की मदद करने वाले हैं जिससे छुटकारा पाने की जद्दोजहद में इस देश के शांतिप्रेमी लोग लगे हैं|
-द्वारिका प्रसाद अग्रवाल
बात दूकानों में लगे बोर्ड से शुरू हुई थी इसलिए वहीं ख़त्म की जाए। ‘एक मात्र दूकान’ होने का दावा उनका थोथा दावा होता है क्योंकि वैसी दूकानें और भी होती हैं। ऐसा लिखने के पीछे आशय यह होता है कि ग्राहक इधर-उधर न देखे, सीधे उनकी दूकान में घुस जाए और अपनी जेब ढीली कर दे।
पूरे देश में भ्रमण के दौरान मैंने दूकानों में लगे विज्ञापन बोर्डों पर अक्सर यह लिखा पाया, ‘...मिलने का एकमात्र स्थान।’
यद्यपि वह सामान आसपास की अनेक दूकानों में उपलब्ध रहता है लेकिन हर किसी का दावा होता है कि कथित सामान का एक मात्र विक्रेता वही है।
दावा करना हमारी आदत में शामिल है। जो भी हम कहते हैं वो दावे के साथ कहते हैं। दावा करने का अर्थ है, अपनी बात की सत्यता को स्थापित करना और अपनी बात पर टिके रहना।
बच्चे के जन्म से दावा करना आरम्भ होता है। बच्चे के पिता का दावा होता है कि बच्चा ‘उसका’ है जबकि असलियत केवल बच्चे की मां जानती है। बच्चे को देखकर अनुमान लगाया जाता है कि वह किस पर गया है? यदि मां सामने होगी तो वह मां पर गया होता है और यदि बाप सामने होता है तो वह बाप पर गया, ऐसा दावा किया जाता है। जब दोनों सामने हों तो चतुर लोग चुप्पी साध लेते हैं कि कौन झंझट में पड़े।
इसके बाद बच्चा बड़ा होता है। यदि शांत स्वभाव का है तो दोनों खुद को ‘क्रेडिट’ देते हैं और अगर उद्दंड होता है तो मां पिता को श्रेय देती है वहीँ पर पिता मां को। यह सिलसिला बच्चे के गुण-अवगुण के आधार पर निरंतर चलता रहता है। दोनों एक-दूसरे पर मजबूती से अपने दावे प्रस्तुत करते हैं और बहस चलती रहती है।
यह दावों का खेल पति-पत्नी के बीच भी चलते रहता है। पत्नी का दावा रहता है कि पूरे परिवार का भार वह उठा रही है जबकि पति को यह ग़लतफ़हमी रहती है कि भार उसके मत्थे पर है। सही बात तो यह है कि दोनों मिलकर इस भार को उठाते हैं लेकिन जब दोनों के बीच किसी वज़ह से बहस छिड़ जाती है तो दोनों एक-दूसरे को नाचीज़ सिद्ध करने में आमादा हो जाते हैं। पत्नी का दावा होता है कि दिन भर घर में वह रहती है, बच्चों की देखरेख करती है, तीन समय का भोजन तैयार करती है लेकिन पति क्या करता है? उसे बच्चों से कोई मतलब नहीं, उसे किचन से कोई लेना-देना नहीं, उसे घर से कोई सरोकार नहीं। गौर से देखा जाए तो पत्नी की दावों में दम है और पति इन दावों के सामने बेदम नजऱ आएगा।
इसी प्रकार की स्थिति राजनीतिक दलों में भी होती है। हर दल इस बात का दावा करता है कि वही देश को रास्ते में लाने में सक्षम है जबकि उनके सत्ता पर आसीन होते ही असलियत सामने आने लगती है। यह बात किसी से छुपी हुई नहीं है कि इन दलों के नेताओं से खुद अपना घर नहीं संभलता जबकि ये इतने बड़े देश को सँभालने का दावा करते हैं। इन सबकी नजऱ में दूसरा अयोग्य है लेकिन अपनी अयोग्यता इन्हें नजऱ नहीं आती।
खैर, बात दूकानों में लगे बोर्ड से शुरू हुई थी इसलिए वहीं ख़त्म की जाए। ‘एक मात्र दूकान’ होने का दावा उनका थोथा दावा होता है क्योंकि वैसी दूकानें और भी होती हैं। ऐसा लिखने के पीछे आशय यह होता है कि ग्राहक इधर-उधर न देखे, सीधे उनकी दूकान में घुस जाए और अपनी जेब ढीली कर दे। बिल्कुल उसी प्रकार, जिस प्रकार से घर में पति आत्मसमर्पण करते हैं, मतदाता अपना वोट देकर मूर्ख बनते हैं और ग्राहक कथित दूकानदार से सामान खरीदने के बाद अपना सिर धुनते हैं।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
छत्तीसगढ़ के टेकलगुड़ा के जंगलों में 22 जवान मारे गए और दर्जनों घायल हुए। माना जा रहा है कि इस मुठभेड़ में लगभग 20 नक्सली भी मारे गए। यह नक्सलवादी आंदोलन बंगाल के नक्सलबाड़ी गांव से 1967 में शुरु हुआ था। इसके आदि प्रवर्तक चारु मजूमदार, कानू सान्याल और कन्हाई चटर्जी जैसे नौजवान थे। ये कम्युनिस्ट थे लेकिन माओवाद को इन्होंने अपना धर्म बना लिया था। मार्क्स के ‘कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो’ के आखिरी पेराग्राफ इनका वेदवाक्य बन गया है।ये सशस्त्र क्रांति के द्वारा सत्ता-पलट में विश्वास करते हैं। इसीलिए पहले बंगाल, फिर आंध्र व ओडिशा और फिर झारखंड और मप्र के जंगलों में छिपकर ये हमले बोलते रहे हैं और कुछ जिलों में ये अपनी समानांतर सरकार चलाते हैं। इस समय छत्तीसगढ़ के 14 जिलों में और देश के लगभग 50 अन्य जिलों में इनका दबदबा है। ये वहां छापामारों को हथियार और प्रशिक्षण देते हैं और लोगों से पैसा भी उगाहते रहते हैं।
ये नक्सलवादी छापामार सरकारी भवनों, बसों और नागरिकों पर सीधे हमले भी बोलते रहते हैं। जंगलों में रहने वाले आदिवासियों को भडक़ा कर ये उनकी सहानुभूति अर्जित कर लेते हैं और उन्हें सब्जबाग दिखा कर अपने गिरोहों में शामिल कर लेते हैं।
ये गिरोह इन जंगलों में कोई भी निर्माण-कार्य नहीं चलने देते हैं और आतंकवादियों की तरह हमले बोलते रहते हैं। पहले तो बंगाली, तेलुगु और ओडिय़ा नक्सली बस्तर में डेरा जमाकर खून की होलियां खेलते थे लेकिन अब स्थानीय आदिवासी जैसे हिडमा और सुजाता जैसे लोगों ने उनकी कमान संभाल ली है।केंद्रीय पुलिस बल आदि की दिक्कत यह है कि एक तो उनको पर्याप्त जासूसी सूचनाएं नहीं मिलतीं और वे बीहड़ जंगलों में भटक जाते हैं। उनमें से एक जंगल का नाम ही है—अबूझमाड़। इसी भटकाव के कारण इस बार सैकड़ों पुलिसवालों को घेर कर नक्सलियों ने उन पर जानलेवा हमला बोल दिया। 2013 में इन्हीं नक्सलियों ने कई कांग्रेसी नेताओं समेत 32 लोगों को मार डाला था।
ऐसा नहीं है कि केंद्र और राज्य सरकारों ने अपनी आंख मींच रखी है। 2009 में 2258 नक्सली हिंसा की वारदात हुई थी लेकिन 2020 में 665 ही हुईं। 2009 में 1005 लोग मारे गए थे जबकि 2020 में 183 लोग मारे गए। आंध्र, बंगाल, ओडिशा और तेलंगाना के जंगलों से नक्सलियों के सफाए का एक बड़ा कारण यह भी रहा है कि वहां की सरकारों ने उनके जंगलों में सडक़ें, पुल, नहरें, तालाब, स्कूल और अस्पताल आदि बनवा दिए हैं।बस्तर में इनकी काफी कमी है। पुलिस और सरकारी कर्मचारी बस्तर के अंदरुनी इलाकों में पहुंच ही नहीं पाते। केंद्र सरकार चाहे तो युद्ध-स्तर पर छत्तीसगढ़-सरकार से सहयोग करके नक्सल-समस्या को महिने-भर में जड़ से उखाड़ सकती है। यह भी जरुरी है कि अनेक समाजसेवी संस्थाओं को सरकार आदिवासी क्षेत्रों में सेवा-कार्य के लिए प्रेरित करे।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-गिरीश मालवीय
जैसा कि कहा था वही हो रहा है वैक्सीन लगवाना ऐच्छिक नही अनिवार्य ही बनाया जा रहा है। कल इंदौर कलेक्टर ने आदेश दिया है सरकारी दफ्तर में जाने वाले 45 साल से ज्यादा उम्र के लोगों को अपने साथ वैक्सीनेशन का सर्टिफिकेट लाना अनिवार्य होगा। तभी उन्हें सरकारी दफ्तरों में एंट्री मिलेगी। इंदौर में सरकार कर्मचारियों को वैक्सीन लगवाना जरूरी है, अगर किसी सरकारी कर्मचारी ने वैक्सीन नहीं लगवाई तो उसे सरकारी दफ्तर में आने की अनुमति नहीं रहेगी।
बिहार सरकार ने पुलिस कर्मियों के लिए कोरोना वैक्सीन लेना लेना अनिवार्य कर दिया गया है। कोरोना को टीका नहीं लेने वाले पुलिस कर्मियों के वेतन पर रोक लगा दी जाएगी। बिहार में सरकार ने जिला शिक्षा अधिकारियों को निर्देश दिया है कि बिहार में सभी शिक्षकों का भी कोरोना टीकाकरण किया जाये कुछ जिलों में तो यह आदेश निकाल दिए गए हैं कि अगर किसी दुकानदार के पास भीड़ अधिक है और उसने कोरोना की वैक्सीन नहीं ली है, तो उस पर कार्रवाई की जाए इसके साथ ही दुकानदार से जुर्माना वसूला जायेगा।
छत्तीसगढ़ सरकार ने तो वैक्सीन नहीं तो पेंशन नहीं तक की मुनादी करवाना शुरू करवा दी है यह मुनादी होते ही लाताकोडो ग्राम पंचायत के अपात्र ग्रामीण भी वैक्सीन लगवाने के लिए पिकअप वाहन में बैठकर ब्लॉक मुख्यालय पहुंच गए।
सूरत शहर ने तो ओर कमाल किया है बिना वैक्सीन लिए मार्केट में प्रवेश नहीं करने का फरमान भी जारी कर दिया है।मनपा ने कहा है कि टेक्सटाइल, डायमंड यूनिट, हीरा बाजार, कॉमर्शियल शॉपिंग कॉम्प्लेक्स, मॉल में कार्यरत वे सभी लोग जो 45 साल से अधिक उम्र के हाईरिस्क में आते हैं अगर उन्होंने वैक्सीन नहीं ली हो और 45 साल से कम उम्र के लोग आरटीपीसीआर या रैपिड टेस्ट की निगेटिव रिपोर्ट नहीं लेकर आए तो उन्हें प्रवेश नहीं दिया जाएगा।
सूरत में सारे नियमो को धता बताए हुए 45 साल से कम उम्र वालो को भी वैक्सीन लगाई जा रही है।
मुंबई के माल्स में तभी प्रवेश मिलेगा जब आप वैक्सीनेशिन का सर्टिफिकेट गेट पर प्रस्तुत कर पाएंगे। यानी कुछ ही दिनों में न सिर्फ एयरपोर्ट, रेलवे स्टेशन बल्कि हर छोटी छोटी जगहों पर वेक्सीन सर्टिफिकेट मांगा जाएगा। जो नहीं लगवाएगा उसे समाज का दुश्मन बता कर कठघरे में खड़ा कर दिया जाएगा।
मात्र एक ही महीने में लोग भी अब इस सबके लिए मेंटली प्रिपेयर हो गये है कि हां यह सही कदम है ! ऐसा ही होना चाहिए। उन्हें इसमें कोई गलती नजर नहीं आ रही है।
हम जानते हैं कि वैक्सीन लगवा चुके लोगो के पास यह वैक्सीन सर्टिफिकेट डिजिटल फॉर्म में रहता है उनके स्मार्ट फोन में सेव है। कल को इन्ही लोगो को यदि कहा जाए कि देखिए स्मार्टफोन के साथ रिस्क है कभी आप इसे लाना ही भूल जाए या इसकी बैटरी लो हो जाए तो आप क्या करेंगे ? ऐसा करते हैं कि आपकी हथेली के पीछे हम एक RFID चिप इम्प्लांट कर देते हैं जिसमें वैक्सीनेशिन के सारी जानकारी सेव रहेंगी तो लोग इसके लिए खुशी-खुशी तैयार हो जाएंगे।
यानी ये तो वही हुआ न जिसके बारे में हम जैसे कई लोग आपको साल भर से बता रहें कि यह एक तरह आईडी 2020 योजना को लागू किया जा रहा है यह घटते हुए हम देख रहे हैं तब भी हम जैसे लोग जो आपको इसके बारे में चेतावनी दे रहे थे उन्हें कांस्पिरेसी थ्योरिस्ट बोला जा रहा हैं।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
चुनावों के दौरान सत्तारुढ़ और विपक्षी दलों के बीच भयंकर कटुता का माहौल तो अक्सर हो ही जाता है लेकिन इधर पिछले कुछ वर्षों में हमारी राजनीति का स्तर काफी नीचे गिरता नजर आ रहा है। केंद्र सरकार के आयकर-विभाग ने तृणमूल कांग्रेस के नेताओं पर छापे मार दिए हैं और उनमें से कुछ को गिरफ्तार भी कर लिया है। तृणमूल के ये नेतागण शारदा घोटाले में पहले ही कुख्यात हो चुके थे। इन पर मुकदमे भी चल रहे हैं और इन्हें पार्टी-निकाला भी दे दिया गया था लेकिन चुनावों के दौरान इनको लेकर खबरें उछलवाने का उद्देश्य क्या है ? क्या यह नहीं कि अपने विरोधियों को जैस-तैसे भी बदनाम करवाकर चुनाव में हरवाना है ? यह पैंतरा सिर्फ बंगाल में ही नहीं मारा जा रहा है, कई अन्य प्रदेशों में भी इसे आजमाया गया है। अपने विरोधियों को तंग और बदनाम करने के लिए सीबीआई और आयकर विभाग को डटा दिया जाता है। इसके कई उदाहरण हमारे सामने हैं। बंगाल में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के भतीजे की पत्नी रुचिरा बेनर्जी और उनके दूसरे कुछ रिश्तेदारों से एक कोयला-घोटाले के बारे में पूछताछ चल रही है और चिट-फंड के मामले में दो अन्य मंत्रियों के नाम बार-बार प्रचारित किए जा रहे हैं। इन लोगों ने यदि गैर-कानूनी काम किए हैं और भ्रष्टाचार किया है तो इनके खिलाफ सख्त कार्रवाई जरुर की जानी चाहिए लेकिन चुनाव के दौरान की गई सही कार्रवाई के पीछे भी दुराशय ही दिखाई पड़ता है।
इस दुराशय को पुष्ट करने के लिए विपक्षी दल अन्य कई उदाहरण भी पेश करते हैं। जैसे जब 2018 में आंध्र में चुनाव हो रहे थे, तब टीडीपी के सांसद वाय.एस. चौधरी के यहां छापे मारे गए। अगले चुनाव में चौधरी भाजपा में आ गए। कर्नाटक के प्रसिद्ध कांग्रेसी नेता शिवकुमार के यहां भी 2017 में दर्जनों छापे मारे गए। उन दिनों वे अहमद पटेल को राज्यसभा चुनाव में जिताने के लिए गुजराती विधायकों की मेहमाननवाजी कर रहे थे। पिछले दिनों जब राजस्थान की कांग्रेस संकटग्रस्त हो गई थीं, केंद्र सरकार ने कांग्रेसी मुख्यमंत्री अशोक गहलौत के भाई और मित्रों पर छापे मार दिए थे। लगभग यही रंग-ढंग हम केरल के कम्युनिस्ट और कांग्रेसी नेताओं के खिलाफ इन चुनावों में देख रहे हैं। कई तमिल नेता और उनके रिश्तेदारों को सरकारी एजेंसिया तंग कर रही हैं। द्रमुक पार्टी ने भाजपा पर खुलकर आरोप भी लगाया है कि वह अपने गठबंधन को मदद करने के लिए यह सब हथकंडे अपना रही है। पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान मप्र के कांग्रेसी मुख्यमंत्री कमलनाथ के रिश्तेदारों को भी इसी तरह तंग किया गया था। 2018 में प्रादेशिक चुनावों के पहले कांग्रेसी नेता भूपेश बघेल (आजकल मुख्यमंत्री) को भी एक मामले में फंसाने की कोशिश हुई थी। इस तरह के आरोप अन्य प्रदेशों के कई विरोधी नेताओं ने भी लगाए हैं। चुनाव के दौरान की गई ऐसी कार्रवाइयों से आम जनता पर क्या अच्छा असर पड़ता है ? शायद नहीं। गलत मौके पर की गई सही कार्रवाई का असर भी उल्टा ही हो जाता है। (नया इंडिया की अनुमति से)
-रमेश अनुपम
मृणालिनी देवी सब कुछ भूलकर यहां तक कि अपनी बीमारी को भी भूलाकर जिस तरह से रूखमणी के बारे में गुरुदेव को बताती जा रही थी, गुरुदेव के सामने उसे सुनने के सिवाय और कोई दूसरा चारा नहीं था। अभी असली कहानी के बारे में गुरुदेव को जानना शेष था।
गुरुदेव मन ही मन उस कहानी का केवल अंदाजा भर लगा पा रहे थे कि न जाने इस कहानी का अंत किस दारुण विपदा से हो। किसी के अंतर्मन में झांक पाना इतने बड़े कवि के लिए भी संभव कहां था ?
और वह कथा जो मृणालिनी देवी सुनाने वाली थी उसी मूल कथा का गुरुदेव को इंतजार था, पर गुरुदेव को इसका तनिक भी आभास नहीं था कि वह मूलकथा कुछ अधिक ही महंगी सिद्ध होने वाली है।
‘फांकि’ कविता में इस घटना का चित्रण करते हुए गुरुदेव ने लिखा है :
‘आसाल कथा शेष छिलो
सेईटी किछू दामी।
कुलीर मेयेर बिए होबे ताई।
पेंचे ताबिज बाजूबंध गाडिये देअया चाई। अनेक टेने टूने ताबे पंचीश टका खरचे हबे तराई।’
(असली कहानी समाप्त हुई, जो गुरुदेव के लिए काफी महंगी साबित हुई। कुली की बेटी का ब्याह होने वाला है, इसलिए उसके लिए बाहों में पहने जाने वाले आभूषण बाउटी, ताबीज तथा बाजूबंद बनवाने के लिए रूखमणी को पच्चीस रुपए देना होगा)
रूखमणी की बेटी का ब्याह होने वाला है पर रूखमणी के पास इतने रुपए नहीं हैं कि वह अपनी प्यारी सी बेटी के लिए आभूषण बनवा सके।
रेल्वे स्टेशन पर झाड़ू पोंछा करने वाली तथा जिसका पति रेल्वे में कुली का काम करता हो, वह अपनी बेटी को उसकी शादी में भला क्या दे सकती थी। जैसे तैसे शादी हो जाए यही उनके लिए बहुत बड़ी बात थी।
पर बेचारे गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर भी करें तो क्या करें। उनकी मुसीबत भी कोई कम नहीं थी।
गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर चिकित्सा के लिए पेंड्रा रोड जा रहे थे, जहां उन्हें कब तक रहना पड़ेगा और इसमें कितने रुपए खर्च होंगे इसका कोई अनुमान ही नहीं था। ऐसी विपदा के समय आदमी ठोक बजा कर ही अपनी गांठ से रुपए निकालता है।
गुरुदेव यह भी जानते थे कि पेंड्रा रोड एक अपरिचित जगह है, जहां मुसीबत पडऩे पर कोई उसकी सहायता करने वाला नहीं मिलेगा। सन 1902 में पच्चीस रुपए कोई मामूली रकम भी नहीं थी।
इतनी बड़ी राशि वह भी परदेश में और वह भी जब ईलाज करवाने के लिए टी.बी. सेनेटोरियम जा रहे हों, गुरुदेव ने देना उचित नहीं समझा।
गुरुदेव मृणालिनी देवी के कोमल हृदय और उनकी करुणा से भली-भांति परिचित थे। वे जानते थे कि उन्हें हमेशा किसी की मदद करने में अपार सुख और संतोष मिलता है। इसलिए गुरुदेव उनकी भावनाओं का हमेशा ख्याल रखते थे।
पर बिलासपुर स्टेशन में जो कुछ घटित हो रहा था, उसे वे उचित नहीं मान पा रहे थे। मन ही मन वे रूखमणी देवी पर झुंझला भी रहे थे और इस विपदा से किस तरह से बाहर निकला जाए इसका जुगाड़ भी लगा रहे थे।
वे किसी भी कीमत में रेल्वे स्टेशन पर झाड़ू पोंछा करने वाली को पच्चीस रुपए जैसी बड़ी रकम नहीं देना चाहते थे। गुरुदेव यह भी सोच रहे थे कि रूखमणी भोली भाली मृणालिनी को अपनी बातों में फंसा कर उसे लूट रही है।
गुरुदेव सोच रहे थे कि ऐसे ही वह रुपए लुटाता रहा तो क्या होगा ?
गुरुदेव ने इससे बचने के लिए मृणालिनी देवी से झूठ बोला कि उसके पास सौ-सौ रुपए के नोट हैं, खुदरा राशि नहीं है।
इस प्रसंग के विषय में गुरुदेव
‘फांकि’ कविता में लिखते हैं :
‘जात्री घरेर करे झाड़मोंछा। पंचिस टका दिताई होबे ताके। एमन होले देउले होतो कोय दिन बाकी थाके।
अच्छा-अच्छा होबे-होबे।
आमी देखछी मोट।
एक सौ टकार आछे एकटा नोट।
(जो यात्री प्रतीक्षालय में झाड़ू पोंछा कर रही है, उसे अगर पच्चीस रुपए देना होगा तो उसके पास रखी जमा पूंजी ऐसे कितने दिन चलेगा।
अच्छा-अच्छा देखता हूं पर अरे मेरे पास तो सौ रुपए का नोट भर है, चिल्हर नहीं है)
पर मृणालिनी देवी तो मृणालिनी देवी थी, गुरुदेव के इस झांसे में भला कैसे आ जाती। उन्होंने गुरुदेव से कहा स्टेशन में कहीं से भी इस सौ रुपए को तुड़वाओ और रूखमणी को पच्चीस रुपए दो।
गुरुदेव अब करते तो क्या करते ?उनका शतरंज का दांव ही उल्टा पड़ गया था। गुरुदेव समझ गए थे कि अब मृणालिनी देवी को इधर उधर की बातों में उलझाए रखना और शतरंज की बिसात पर उन्हें बहलाए रखना कठिन है।
वह तो जैसे रूखमणी की बेटी के आभूषण बनवाने के लिए पच्चीस रुपए देने की जिद पर ही अड़ गई थी। गुरुदेव अब भला करते तो क्या करते ?
शेष अगले रविवार...
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
मैंने चार-पांच दिन पहले लिखा था कि म्यांमार (बर्मा) में चल रहे नर-संहार पर भारत चुप क्यों है ? उसका 56 इंच का सीना कहां गया लेकिन अब मुझे संतोष है कि भारत सरकार ने संयुक्त राष्ट्र संघ और दिल्ली, दोनों स्थानों से म्यांमार में चल रहे फौजी रक्तपात पर अपना मुंह खोलना शुरु कर दिया है। 56 इंच का सीना अभी न तो भारत ने दिखाया है और न ही भिड़ाया है। अभी तो उसने सिर्फ सीने की कमीज के बटनों पर उंगलियां छुआई भर हैं।
इसमें शक नहीं कि म्यांमार में अभी जो कुछ हो रहा है, वह उसका आतंरिक मामला है। भारत को उससे कोई ऐसा सीधा नुकसान नहीं हो रहा है कि उससे बचने के लिए भारत अपना खांडा खडक़ाए लेकिन सैकड़ों निहत्थे और निर्दोष लोगों का मारा जाना न केवल लोकतंत्र की हत्या है बल्कि मानव-अधिकारों का भी हनन है। म्यांमार में फिलहाल ऐसी स्थिति नहीं बनी है, जैसी कि गोआ और पूर्वी पाकिस्तान में बन गई थी। लेकिन दो माह तक भारत की चुप्पी आश्चर्यजनक थी।
उसके कुछ कारण जरुर रहे हैं। जैसे बर्मी फौज के खिलाफ बोल कर भारत सरकार उसे पूरी तरह से चीन की गोद में धकेलना नहीं चाहती होगी। बर्मी फौज के खिलाफ बोलकर राजीव गांधी ने 1988 में जिस आपसी कटुता का सामना किया था, उसके कारण भी भारत सरकार की झिझक बनी हुई थी। बर्मी फौज ने इधर पूर्वांचल के प्रादेशिक बागियों को काबू करने में हमारी सक्रिय सहायता भी की थी। इसके अलावा बर्मी फौज भारत को बर्मा के जरिए थाईलैंड, कंबोडिया आदि देश के साथ थल-मार्ग से जोडऩे में भी मदद कर रही है।
अडानी समूह जैसी कई भारतीय कंपनियां बर्मा में बंदरगाह जैसे विभिन्न निर्माण-कार्यों में लगी हुई हैं। यदि भारत सरकार फौज का सीधा विरोध करती तो ये सब काम भी ठप्प हो सकते थे। लेकिन इस मौके पर चुप रहने का मतलब यही लगाया जा रहा था कि भारत बर्मी फौज के साथ है। यह ठीक है कि फौज को बर्मा में जैसा विरोध आजकल देखना पड़ रहा है, वैसा उग्र विरोध उसने पहले कभी नहीं देखा। 1962 से चला आ रहा फौजी वर्चस्व अभी जड़-मूल से हिलता हुआ दिखाई पड़ रहा है।
बर्मी फौज को अक्सर बौद्ध संघ का समर्थन मिलता रहा है, जैसा कि पाकिस्तानी फौज को कट्टर इस्लामी तत्वों का मिलता रहता है लेकिन इस बार बर्मी बौद्ध संघ भी तटस्थ हो गया है। अमेरिकी और यूरोपीय प्रतिबंधों के कारण म्यांमार की आर्थिक स्थिति बदतर होती चली जाएगी। ऐसी स्थिति में भारत चाहे तो बर्मी फौज को किसी शांतिपूर्ण समाधान के लिए मना सकता है।
दूसरी तरफ बर्मी जनता की लोकतांत्रिक भावनाओं के प्रति पूर्ण सम्मान दिखाते हुए भारत को चाहिए कि फौज द्वारा पीडि़तों की वह खुलकर सहायता करे। बर्मी शरणार्थियों को वापस भगाने का अपना निर्णय रद्द करना केंद्र सरकार का सराहनीय कार्य है। यदि भारत सरकार अपनी जुबान हिलाने के साथ-साथ कुछ कूटनीतिक मुस्तैदी भी दिखाए तो म्यांमारी संकट का समाधान सामने आ सकता है।
(लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं)(नया इंडिया की अनुमति से)
-ललित मौर्य
जीनोम सीक्वेंसिंग से पता चला है कि कोरोनोवायरस के नए वेरिएंट की उपस्थिति के चलते संक्रमण के मामले में वृद्धि हो सकती है
सार्स-कोव-2 वायरस जो कोविड-19 महामारी के लिए जिम्मेवार है। उसके हजारों नमूनों की जीनोम सीक्वेंसिंग से पता चला है कि कोरोनोवायरस के नए वेरिएंट की उपस्थिति के चलते संक्रमण के मामले में वृद्धि हो सकती है। यह जानकारी यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया द्वारा किए एक नए शोध में सामने आई है जोकि जर्नल साइंटिफिक रिपोर्टस में प्रकाशित हुआ है।
यह जानकारी इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि हाल ही में भारतीय सार्स कोव-2 जीनोमिक्स कंसोर्टियम (आईएनएसएसीओजी) द्वारा भारत में कोविड-19 के नमूनों की जीनोम सीक्वेंसिंग से पता चला था कि भारत में कोरोना वायरस के 771 चिंताजनक और एक नए तरह का वैरिएंट भी मौजूद है। इस जीनोम सीक्वेंसिंग में ब्रिटेन के वायरस बी.1.1.7 के 736 पॉजिटिव नमूने, दक्षिण अफ्रीकी वायरस लिनिएज (बी.1.351) के 34 पॉजिटिव नमूने और ब्राजील लिनिएज (पी.1) वायरस का एक नया मामला सामने आया था।
गौरतलब है कि पिछले कुछ समय में भारत में कोरोना के मामलों में भी तेजी से वृद्धि हो रही है। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी ही है कि क्या इन नए वैरिएंट का भारत में मिलना और मामलों का बढऩा बस एक संयोग है या इनके पीछे इन नए वैरिएंट का हाथ है। जिसका जवाब शायद इस नए शोध से मिल सकता है।
यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया में प्रोफेसर और इस शोध से जुड़े बार्ट वीमर के अनुसार जैसे ही वैरिएंट उभरता है, इसका मतलब है कि आप नए प्रकोप का सामना करने जा रहे हैं। जीनोमिक्स के साथ क्लासिकल महामारी विज्ञान का संगम एक उपकरण प्रदान करता है जिसका उपयोग महामारी के बारे में भविष्यवाणी करने के लिए किया जा सकता है। फिर चाहे वो कोरोनावायरस हो या इन्फ्लूएंजा या कुछ नए रोगजनक हो।
हालांकि इसमें सिर्फ 15 जीन हैं इसके बावजूद सार्स-कोव-2 वायरस लगातार म्युटेट हो रहा है। हालांकि इन परिवर्तनों में बहुत कम ही अंतर होता है। लेकिन इससे कभी-कभी वायरस बहुत ज्यादा और कभी बहुत कम भी फैल सकता है।
क्या कुछ निकलकर आया अध्ययन में सामने
इस शोध में शोधकर्ताओं ने शुरुवात में सार्स-कोव-2 के 150 उपभेदों के जीनोम का विश्लेषण किया था, जो ज्यादातर 1 मार्च, 2020 से पहले एशिया में फैले थे। साथ ही उन्होंने इनकी एपिडेमियोलॉजी और फैलने का भी विश्लेषण किया था। उन्होंने रोगजनक जीनोम की पहचान के लिए इससे जुड़ी सभी जानकारी को एक मीट्रिक जेएनआई में डालकर विश्लेषित किया था। जिससे पता चला है कि जैसे ही इनमें आनुवांशिक भिन्नता आई थी उसके तुरंत बाद मामले में भी तेजी से वृद्धि हुई थी। उदाहरण के लिए फरवरी के अंत में दक्षिण कोरिया में और सिंगापुर में, हालांकि वायरस में आई भिन्नता छोटे प्रकोप से जुड़ी थी जिसे स्वास्थ्य अधिकारी जल्दी से नियंत्रण में लाने में सक्षम थे।
शोधकर्तओं ने फरवरी से अप्रैल 2020 के बीच यूके से एकत्र किए वायरस के करीब 20,000 नमूनों का जीनोम सीक्वेंसिंग किया था और उन्हें मामलों से सम्बन्धी आंकड़ों के साथ जोडक़र देखा था। उन्हें पता चला कि मामों की संख्या में वृद्धि के साथ जेएनआई में परिवर्तन के स्कोर के साथ मामलों की संख्या भी बढ़ी थी।
मार्च के अंत में जब ब्रिटिश सरकार ने लॉकडाउन कर दिया था तो नए मामलों का बढऩा रुक गया था, लेकिन इसके बावजूद जेएनआई स्कोर में वृद्धि हुई थी। इससे पता चलता है कि वायरस के तेजी से विकसित होने की स्थिति में बीमारी को फैलने से रोकने के लिए लोगों को इकठ्ठा होने से रोकना, मास्क का उपयोग और सामाजिक दूरी जैसे उपाय काफी प्रभावी हैं।
साथ ही यह ‘सुपरस्प्रेडर’ की घटनाओं को समझाने में भी मदद कर सकता है। जहां सावधानी में ढील दिए जाने पर बड़ी संख्या में लोग एक ही व्यक्ति और घटना के चलते संक्रमित हो जाते हैं। वीमर को उम्मीद है कि स्वास्थ्य अधिकारी वायरस की भिन्नता को मापने और इसे स्थानीय स्तर पर फैलने से जोडऩे का दृष्टिकोण अपनाएंगे। इस तरह से नए प्रकोप के आने से बहुत पहले ही प्रारंभिक चेतावनी प्राप्त कर सकते हैं। (downtoearth.org.in)
-मनीष सिंह
अस्सी और नब्बे के दशक में नलिनी सिंह की रिपोर्टिंग, उस दौर में दूरदर्शन देखने वालों को जरूर याद होंगी। बिहार के अंदरूनी इलाकों में हिंसा, भय और मारकाट के बाद बाहुबलियों द्वारा बूथ कब्जा करने की लोमहर्षक कथाओं ने हमारे रोंगटे खड़े किए थे।
आज यह चीजें किसी और लोक, किसी और देश की बात लगती है। भारत के पहले चुनाव आयुक्त टीएन शेषन को इस पर रोक लगाने का श्रेय है। उनके प्रयासों पर बात करने के पूर्व ये बताना जरूरी है, की उन्हें पहला इलेक्शन कमिश्नर क्यों कहा। इसलिए कि उनसे पहले इस कुर्सी पर जो आये, वो चूं चूं के मुरब्बे थे।
टीएन शेषन कोई पांच साल इस पद पर रहे। जब आये थे, फर्जी वोटिंग, बूथ कैप्चरिंग और तमाम इलेक्टोरल फंदेबाजी का बोलबाला था। शेषन ने मतदाता पहचान पत्र लागू कराये।
पूरे देश मे हर वोटर को इलेक्शन कमीशन द्वारा जारी वोटर आई डी जारी किया गया। आज फोटोयुक्त पहचान पत्र के बगैर आप वोट नही दे सकते। यह नियम शेषन की देन है, जिसने फर्जी वोटिंग पर एकदम से रोक लगा दी।
दूसरी प्रक्रिया, सेंट्रल फोर्सेस की तैनाती थी। इसके पहले पोलिंग की सुरक्षा स्थानीय बल करते थे। याने पुलिस, फारेस्ट गार्ड, राज्य के सशस्त्र बल, होम गार्ड आदि, ये सारे बल स्टेट गवर्नमेंट के अधीन होते।
इलेक्शन कोड ऑफ कंडक्ट तब कोई नही जानता था। तो राज्य की सरकार में बैठे पावरफुल लोग काफी प्रभावित कर सकते थे।
कोड ऑफ कंडक्ट लागू होने के बाद , ग़ैरनिरपेक्ष अफसरों के ट्रान्सफर इलेक्शन कमीशन ने करना शुरू किया। ऑब्जर्वर नियुक्त किये, उन्हें असीमित पावर दी। और लगाई सेंट्रल फोर्सेस, भारी मात्रा में ..
हर जगह लगाने लायक फोर्स नही, तो एक स्टेटमे चुनाव दो-तीन चरण में कराने की प्रथा आयी। जिससे फोर्स को एक जगह चुनाव निपटा कर दूसरी जगह रवाना कर दिया जाता। कम जगह पोलिंग होने से उपलब्ध फोर्स से काम बन जाता। अब हर जगह पोलिंग के वक्त फोर्स की भारी तैनाती होती है। ऐसे खतरनाक हथियारों के साथ कि किसी मामूली गुंडे की हिम्मत न हो, पोलिंग बूथ की ओर आंख उठाकर देखने की..
बूथ कैप्चरिंग बंद हो गई
ईवीएम एक फर्जी मशीन है, अपारदर्शी है, और इसके जस्टिफिकेशन के लिए दिए जाने वाले तमाम तर्कों में एक यह भी है कि फर्जी वोटिंग और बूथ कैप्चरिंग रूक गई है।
यह बकवास, और निरर्थक तर्क है। जिसे बूथ लूटकर 1000 मतपत्र पर अपना ठप्पा लगाकर, मोडक़र डब्बे में डालने की हिम्मत है, उसमे 1000 बार बटन दबाने की भी हिम्मत है।
दोनों ही प्रोसेस में डेढ़ दो धंटे लगेंगे। मतपेटी में स्याही डालकर उसे खराब करने की जगह मशीन को हथोड़े से कूटपीस दिया जा सकता है। तो फर्क मतपत्र से मशीन के आने से नही पड़ा।
फर्क पड़ा है सिक्योरिटी फोर्सेज के डिप्लॉयमेंट से। जिन लोकल बॉडी इलेक्शन में आज भी ऐसी घटनाएं होती है, उन जगहों पर न केंद्रीय चुनाव आयोग का दखल होता है, न सेंट्रल फोर्सेज का। इस फर्क को नकार कर कोई कहे कि मशीनों ने बूथ कैप्चरिंग रोक दी, तो मान लें कि आपके सामने एक महामूर्ख बैठकर बकवास कर रहा है।
या मशीन के बने रहने में उसका कोई वेस्टेड इंटरेस्ट है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पाकिस्तान ने गजब की पलटी खाई है। यह किसी शीर्षासन से कम नहीं है। उसके मंत्रिमंडल की आर्थिक सहयोग समन्वय समिति ने परसों घोषणा की कि वह भारत से 5 लाख टन शक्कर और कपास खरीदेगा लेकिन 24 घंटे के अंदर ही मंत्रिमंडल की बैठक हुई और उसने इस घोषणा को रद्द कर दिया। यहां पहला सवाल यही है कि उस समिति ने यह फैसला कैसे किया? उसके सदस्य मंत्री लोग तो हैं ही, बड़े अफसर भी हैं। क्या वे प्रधानमंत्री से सलाह किए बिना भारत-संबंधी कोई फैसला अपने मनमाने ढंग से कर सकते हैं ? बिल्कुल नहीं। उन्होंने प्रधानमंत्री इमरान खान की इजाजत जरुर ली होगी। लेकिन जैसे ही परसों दोपहर उन्होंने यह घोषणा की, पाकिस्तान के विरोधी दलों ने इमरान सरकार पर हमला बोलना शुरू कर दिया। उन्हें कश्मीरद्रोही कहा जाने लगा।
कट्टरपंथियों ने इस फैसले के विरोध में प्रदर्शनों की धमकी भी दे डाली। इमरान इतने मजबूत आदमी हैं कि वे इन धमकियों की भी परवाह नहीं करते, क्योंकि उन्हें अपने कपड़ा-उद्योग और आम आदमियों की तकलीफों को दूर करना था। कपास के अभाव में पाकिस्तान का कपड़ा उद्योग ठप्प होता जा रहा है, लाखों मजदूर बेरोजगार हो गए हैं और शक्कर की मंहगाई ने पाकिस्तान की जनता के मजे फीके कर दिए हैं। ये दोनों चीजें अन्य देशों में भी उपलब्ध हैं लेकिन भारत के दाम लगभग 25 प्रतिशत कम हैं और परिवहन-खर्च भी नहीं के बराबर है। इसके बावजूद इमरान को इसलिए दबना पड़ रहा है कि फौज ने कश्मीर को लेकर सरकार का गला दबा दिया होगा। क्योंकि जब तक कश्मीर का मसला जिंदा है, फौज का दबदबा कायम रहेगा।
इमरान, भला फौज की अनदेखी कैसे कर सकते हैं ? इसीलिए मानव अधिकार मंत्री शीरीन मज़ारी ने अपने वित्तमंत्री हम्माद अजहर की घोषणा को रद्द करते हुए कहा है कि जब तक भारत सरकार कश्मीर में धारा 370 और 35 ए को फिर से लागू नहीं करेगी, आपसी व्यापार बंद रहेगा। आपसी व्यापार 9 अगस्त 2019 से इसलिए पाकिस्तान ने बंद किया था कि 5 अगस्त को कश्मीर से इन धाराओं को हटा दिया गया था। इसके पहले ही भारत ने पाकिस्तानी चीज़ों के आयात पर 200 प्रतिशत का तटकर लगा दिया था। पाकिस्तान को भारत के निर्यात में 60 प्रतिशत कमी हो गई थी और भारत में पाकिस्तानी निर्यात 97 प्रतिशत घट गया था।
पिछले एक साल में कपास का निर्यात लगभग शून्य हो गया है। अब पाकिस्तान सरकार ने खुद अपने फैसले को उलट दिया। भारत सरकार को हाँ या ना कहने का मौका ही नहीं मिला। पाकिस्तान की इस घोषणा से यह सिद्ध होता है कि पाकिस्तान की जनता को तो भारत से व्यवहार करने में कोई एतराज नहीं है लेकिन फौज उसे वैसा करने दे, तब तो ! इसीलिए मैं कहता हूं कि भारत और पाकिस्तान की फौजें और सरकारें जो करना चाहें, करती रहें लेकिन दोनों मुल्कों और सारे दक्षिण और मध्य एशिया के देशों की आम जनता का एक ऐसा लोक-महासंघ खड़ा किया जाना चाहिए, जो भारत के सभी पड़ोसी-देशों का हित-संपादन कर सके और फौजी व सरकारी दबावों का मुकाबला कर सके।
(लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं)(नया इंडिया की अनुमति से)
दुनिया में कीटनाशकों का संकट स्वास्थ्य, जैव विविधता और खाद्य सुरक्षा के लिये गंभीर संकट बन रहा है. भारत को इसे लेकर अपने घिसे-पिटे कानून को बदलने की जरूरत है.
डॉयचे वैले पर हृदयेश जोशी की रिपोर्ट-
फसलों में रासायनिक कीटनाशकों का इस्तेमाल न केवल आपके स्वास्थ्य के लिये नुकसानदेह है बल्कि वह खेतों में काम कर रहे किसानों और मजदूरों के लिये भी जानलेवा होता है. इसके अलावा कीटनाशकों से भूजल और हवा प्रदूषित होती है और मिट्टी में भी लम्बे समय तक इसका असर रहता है. अब नेचर जियोसाइंस में छपा शोध बताता है कि पूरी दुनिया में कृषि भूमि के 64 फीसदी हिस्से पर कीटनाशकों का कुप्रभाव पड़ रहा है जिससे मानव स्वास्थ्य के साथ जैव विविधता को खतरा बढ़ेगा. जानकार बताते हैं कि यह हालात भारत जैसे देश के लिये खासतौर पर चिन्ता का विषय है जहां कीटनाशकों को नियंत्रित करने के लिये कोई प्रभावी कानून नहीं है.
क्या कहता है नया शोध?
इस रिसर्च में शोधकर्ताओं ने 168 देशों में नब्बे से अधिक कीटनाशकों के प्रभाव का अध्ययन किया और पाया कि दुनिया की करीब दो तिहाई कृषि भूमि (245 लाख वर्ग किलोमीटर) पर कीटनाशकों के कुप्रभाव दिख रहे हैं. इसमें से लगभग 30 प्रतिशत भूमि पर यह खतरे कहीं अधिक गहरे हैं. शोध में रूस और यूक्रेन जैसे देशों में कीटनाशकों के प्रभाव को लेकर चेतावनी दी गई है तो भारत और चीन भी उन देशों में हैं जहां जहरीले छिड़काव का खतरा सर्वाधिक है.
कीटनाशकों हवा और मिट्टी को प्रदूषित करने के साथ नदी, पोखर और तालाबों जैसे जलस्रोतों और भूजल (ग्राउंड वॉटर) को भी प्रदूषित कर रहे हैं. रासायनिक कीटनाशक फसलों के ज़रूरी मित्र कीड़ों को मार कर उपज को हानि पहुंचाते हैं और तितलियों, पतंगों और मक्खियों को मारकर परागण की संभावना घटा देते हैं जिससे जैव विविधता को हानि होती है. यह गंभीर चिंता का विषय है क्योंकि दुनिया की आबादी साल 2030 तक 850 करोड़ को पार कर जायेगी और कीटनाशकों के असर खाद्य सुरक्षा के लिये गंभीर संकट पैदा कर सकते हैं.
भारत में अब भी घिसा-पिटा कानून
भारत में जनसंख्या दबाव और घटती कृषि योग्य भूमि के कारण कीटनाशकों का इस्तेमाल नियंत्रित किये जाने की ज़रूरत है लेकिन समस्या ये है कि यहां इसके लिये कोई प्रभावी नियम नहीं हैं क्योंकि देश में अब तक पांच दशक पुराना "इन्सेक्टिसाइड एक्ट – 1968” चल रहा है. इसमें किसी कीटनाशक के पंजीकरण से लेकर अप्रूवल, मार्केटिंग और इस्तेमाल के सख्त नियम नहीं हैं.
भारत अमेरिका, जापान और चीन के बाद दुनिया में कीटनाशकों का चौथा सबसे बड़ा उत्पादक है. साल 2014-15 और 2018-19 के बीच भारत में कीटनाशकों का उत्पादन 30,000 टन बढ़ गया. भारत में कुछ बेहद हानिकारक कीटनाशकों (जिन्हें क्लास-1 पेस्टिसाइड की श्रेणी में रखा गया है) के कृषि में इस्तेमाल करने की भी अनुमति है जिन्हें दूसरे कई देशों में प्रयोग करने की इजाजत नहीं हैं.
वर्तमान बिल की जगह एक नया बिल लाने की कोशिश यूपीए-1 सरकार के वक्त 2008 में की गई लेकिन तब बिल संसद में पेश नहीं किया जा सका. उसके बाद साल 2017 में नरेंद्र मोदी सरकार ने बिल संसद में पेश किया लेकिन पास नहीं हो सका. पिछले साल सरकार ने फिर से "पेस्टिसाइड मैनेजमेंट बिल -2020” संसद में पेश किया. दिल्ली स्थित सेंटर फॉर साइंस एंड इन्वायरेंमेंट (सीएसई) में फूड सेफ्टी और टॉक्सिन के प्रोग्राम हेड अमित खुराना कहते हैं, "प्रस्तावित बिल को आदर्श क़ानून तो नहीं कहा जा सकता लेकिन कम से कम आज के हालात से निबटने के लिये यह 1968 के क़ानून की तुलना में बेहतर है. पिछले चार साल से नया क़ानून लाने की कोशिश ही हो रही है और वह पास नहीं हो रहा जबकि कीटनाशकों के कुप्रभाव हम सबके लिये गहरी चिंता के विषय बने हुये हैं.”
जैविक खेती की ओर
साल 2018-19 में देश में 72,000 टन से अधिक रासायनिक कीटनाशकों का इस्तेमाल हुआ. देश के 8 राज्य कुल कीटनाशकों में का 70 प्रतिशत इस्तेमाल करते हैं. महाराष्ट्र, यूपी और पंजाब कीटनाशकों को इस्तेमाल करने वाली लिस्ट में सबसे ऊपर हैं. करीब 57 प्रतिशत कीटनाशक सिर्फ दो फसलों – कपास और धान – में इस्तेमाल होते हैं. इससे पता चलता है कि कीटनाशकों का उपयोग अवैज्ञानिक और अनियंत्रित तरीके से हो रहा है.
भारत में 1968 का जो कानून अभी लागू है उसके तहत उल्लंघन करने पर केवल 2000 रुपये का जुर्माना और 3 साल तक की सज़ा का प्रावधान है जबकि प्रस्तावित कानून में 5 लाख रुपये तक का जुर्माना हो सकता है और अपराधी को 5 साल की कैद हो सकती है. जानकार कहते हैं कि नया कानून बनने के बाद भी सरकार का काम कीटनाशकों को अनुमित देने भर का नहीं होना चाहिये बल्कि वह ऐसी कृषि नीति अपनाये जिससे कीटनाशकों का खेती में इस्तेमाल कम से कम हो.
जैविक खेती यानी ऑर्गेनिक फार्मिंग इस दिशा में एक प्रभावी और टिकाऊ हल है लेकिन विशेषज्ञ कहते हैं कि इसके लिये सरकार को अधिक सक्रिय होना होगा. भारत में अब तक जैविक खेती चुनिंदा किसान आंदोलनों और सिविल सोसायटी के भरोसे आगे बढ़ी है. हालांकि केंद्र सरकार ने 2015-16 में परम्परागत कृषि विकास योजना शुरू की लेकिन पूर्ण रूप से ऑर्गेनिक फार्मिंग करने वाले सूबे के रूप में एक राज्य सिक्किम का नाम ही गिनाया जाता है.
वैसे हिमाचल प्रदेश 2022 तक और आंध्र प्रदेश साल 2027 तक पूरी तरह नेचुरल खेती वाले राज्य बनने का दावा कर रहे हैं लेकिन अभी पूरे देश में कुल कृषि भूमि के महज़ 2 प्रतिशत पर ही जैविक खेती हो रही है. जानकार कहते हैं कि किसानों को अपनी ज़मीन को जैविक खेती के लिये तैयार करने (कन्वर्जन) में मदद चाहिये और सस्ते दामों में बायो प्रोडक्ट और जैविक खाद उपलब्ध करानी होगी. उन्हें उत्पादों के सर्टिफिकेशन और उचित दामों सुनिश्चित करने वाले बाज़ार से जोड़ना ज़रूरी है.
अमित खुराना के मुताबिक, "भारत सरकार को परम्परागत कृषि विकास योजना जैसे कार्यक्रम से आगे बढ़कर अधिक महत्वाकांक्षी होना होगा. इस कार्यक्रम का बजट कुछ सौ करोड़ का ही है जो कि रासायनिक खादों को दी जाने वाली 70,000 करोड़ रुपये की सब्सिडी के आगे कुछ नहीं है. कोई हैरत की बात नहीं कि ऑर्गेनिक और नेचुरल फार्मिंग बहुत छोटे दायरे में सीमित है. इसे जन-आंदोलन बनाने के लिये एक मज़बूत नीतिगत फ्रेमवर्क और लागू करने में आने वाली अड़चनों से निपटने के लिये प्रोग्राम बनाना होगा.” (dw.com)
- तारण प्रकाश सिन्हा
इस समय हम सब कोविड-19 की दूसरी लहर का सामना कर रहे हैं। सालभर पहले जब पहली लहर आई थी तो हमने बहुत सफलतापूर्वक उसका सामना किया था, और अंततः संक्रमण को नियंत्रित भी कर लिया था। तब पूरे विश्व के साथ-साथ भारत के सामने भी अभूतपूर्व परिस्थितियां उठ खड़ी हुई थीं। देश ने पहली बार इतना लंबा लाकडाउन झेला था। लाखों लोगों के सामने रोजी-रोटी का संकट उठ खड़ा हुआ था। तब हम इस वायरस के बारे में कुछ भी नहीं जानते थे। इससे कैसे निपटा जाए, यह भी नहीं जानते थे। डाक्टरों को न तो इसके इलाज का तरीका पता था, न वैज्ञानिकों को वायरस के स्वरूप का। इस महामारी ने हम सबको अचानक एक अंधकार में ला खड़ा किया था, जिसमें टटोल-टटोल कर ही आगे बढ़ा जा सकता था। लेकिन उस अंधकार में हम सबने तुरंत एक-दूसरे का हाथ थाम लिया, ताकि एक-दूसरों को किसी भी तरह की ठोकर से बचाया जा सके। डाक्टरों, नर्सों, पुलिस के जवानों, प्रशासन के अधिकारियों-कर्मचारियों, जनप्रतिनिधियों, समाज-सेवियों ने मिलकर मोर्चा संभाला और अंततः फतह हासिल की।
कोविड-19 ने दूसरी बार हमला किया है। यह ठीक वैसा ही है जैसे जंग जीत कर सुस्ता रहे सैनिकों पर मौके का फायदा उठाते हुए दुश्मन दुबारा हमला कर दे। पहली लहर पर मिली जीत के बाद हम सब भी सुस्ता ही रहे थे। थोड़े लापरवाह, थोड़े निश्चिंत और बहुत ज्यादा आत्मविश्वासी भी हो गए थे। निश्चित ही इसीलिए इस महामारी ने फिर सेंधमारी कर दी है। यह भी तय है कि पिछली बार की तुलना में इस बार कोविड-19 को हम ज्यादा तेजी से परास्त करने वाले हैं। अब हम इस वायरस को भी जानते हैं, इसके इलाज के बेहतर तरीके जानते हैं और वायरस को नख-दंत विहीन करने की क्षमता भी हमारे पास है। हम हमारे पास वैक्सीन के रूप में एक मजबूत सुरक्षा-कवच है।
कोविड-19 की दूसरी लहर से मुकाबला करने के लिए हम सबको कवच धारण करना ही होगा। हम सबको वैक्सीन लगवानी ही होगी। जैसी एकजुटता पिछली लहर से मुकाबले के लिए नजर आई थी, वैसी ही एकजुटता अब स्वयं की सुरक्षा के लिए दिखानी होगी। मानवता की रक्षा के लिए इस समय सबसे बड़ा धर्म यही है कि हम स्वयं को बचाएं और दूसरों को भी प्रेरित करें। पहली लहर के दौरान हम लोगों के सामने वायरस के साथ-साथ तरह-तरह की अफवाहों ने भी चुनौतियां खड़ी की थीं, इस दूसरी लहर के दौरान भी वैसी ही कोशिशें की जा रहीं हैं, हालांकि अब हम सब ज्यादा अनुभवी और ज्यादा जागरुक हैं।
देश में अब तक 6 करोड़ से ज्यादा लोगों को कोरोना का टीका लग चुका है। ये आबादी छोटे-मोटे दो तीन देशों के बराबर तो हो ही जाती है। इतनी बड़ी आबादी के सफलतापूर्वक टीकाकरण के बाद अब इसके साइड इफेक्ट को लेकर किसी भी तरह की शंका की गुंजाइश नहीं रह जाती। छत्तीसगढ़ में भी जोर-शोर से टीकाकरण चल रहा है, और अब तो हमारे-आपके किसी न किसी परिचित ने भी टीका लगवा लिया है। बहुतों ने तो दूसरा डोज भी लगवा लिया है। हम लोगों को उनके अनुभवों को सुनना चाहिए, टीकाकरण के बाद उनके भीतर आए आत्मविश्वास को महसूस करना चाहिए।
कोविड की दूसरी लहर जितनी तेज है, उससे ज्यादा तेजी के साथ टीकाकरण हो रहा है। इस दूसरी जंग में यही रणनीति ही कारगर साबित हो सकती है। जितनी तेजी से टीकाकरण होगा, हम वायरस को उतनी तेजी से पीछे धकेल पाएंगे। इसके लिए जरूरी है कि जो-जो व्यक्ति टीकाकरण के लिए पात्र हैं, वे सबसे पहले स्वयं टीका लगवाएं और अपने आस-पास के लोगों को भी ऐसा करने के लिए प्रेरित करें। दूसरे चरण के टीकाकरण में अब 45 साल से अधिक उम्र के सभी लोगों को टीके लगाए जा रहे हैं।
इस दूसरी जंग में हमें यह बात अच्छी तरह याद रखनी होगी कि आत्मविश्वास अच्छी बात होती है, लेकिन अति-आत्मविश्वास नुकासन भी पहुंचा सकता है। टीकाकरण के बाद हमें फिर से लापरवाह नहीं हो जाना है। मास्क, सैनेटाइजिंग, सोशल डिस्टेंसिंग जैसे अस्त्रों को अपने साथ बनाए रखना है। हमारे सुरक्षा-कवच में कोरोना के लिए कहीं पर भी सुराख नहीं होना चाहिए।
लगातार विफल रही नीलामी प्रक्रिया के बावजूद मोदी सरकार ने कमर्शियल कोल माइनिंग के लिये दूसरे चरण की नीलामी प्रक्रिया शुरु कर 67 खदानों को बोली पर लगाया है, जिसमें छत्तीसगढ़ की 18 खदानें शामिल हैं । हालांकि कोयला खदानों की नीलामी वर्ष 2012 से होती आयी है, लेकिन बिना अंत-उपयोग निर्धारित किए मात्र निजी मुनाफे के लिये यह दूसरी बार प्रक्रिया चलाई जायेगी । गौरतलब है कि पिछले चरण की प्रक्रिया में आधी से कम खदानें ही आवंटित हुई, और विश्लेषकों ने कम बोलीदारों की संख्या तथा गैर-प्रतिस्पर्धात्मक प्रक्रिया के चलते कम बोली दरों पर कई सवाल उठाए थे । ऐसे में पिछली प्रक्रियाओं से सीख लिये बिना ही और बिना किसी बुनियादी ज़रूरत के बगैर नई नीलामी प्रक्रिया की शुरुआत और उसमें और भी लचीले नियम सरकार की मंशा पर गम्भीर सवाल उठाता है – क्या इसकी कड़ी देश की सभी आर्थिक और प्राकृतिक सम्पदा को बेच निकलने की मोदी सरकार की नीतियों से जुड़ी है ? क्या नियमों को बेहद लचीला बनाकर और गैर-प्रतिस्पर्धात्मक प्रक्रिया के ज़रिये कुछ चुनिंदा कॉरपोरेट घरानों को फायदा पहुंचाने की यह साज़िश है ? क्या यह कोरोना काल की आपदा को खनन कंपनियों के लिए अवसर में बदलने की एक और कोशिश है ? या फिर अपनी आर्थिक नीतियों की विफलताओं को छुपाकर किसी भी तरह लाभ-धन जुटाने का एक और भद्दा प्रयास है ?
क्या थे पिछ्ली प्रक्रिया के अनुभव?पिछ्ले साल जून माह में कोरोना के चरम-सीमा पर पहुंचने के बीचों-बीच व्यापक प्रचार-प्रसार से मोदी सरकार ने कमर्शियल कोल माइनिंग के लिये प्रथम चरण की नीलामी की घोषणा की थी । उस समय दावे किए थे कि खदान नीलामी आत्मनिर्भर भारत और अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने की ओर एक क्रांतिकारी कदम है । हालांकि इसके तुरंत बाद सभी ओर से इसका विरोध शुरु हो गया – विश्लेषकों ने बतलाया कि यह गलत समय है और भारत को इस पैमाने पर कोयला ज़रूरत ही नहीं है, जनांदोलनों और मीडिया ने इससे जुड़े पर्यावर्णीय तथा सामाजिक सवालों को उठाकर प्रक्रिया पर गम्भीर आरोप लगाये, 3 राज्य सरकारों ने इसका पुरज़ोर विरोध किया और इस सम्बंध में झारखण्ड सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगाई जो केस अभी तक लम्बित है । यहां तक कि कई खनन कंपनियों ने भी कोयला की मांग-पूर्ति की स्थिति का हवाला देकर प्रक्रिया पर चिंतायें जताईं । सभी तरफ़ से विरोध के बीच केंद्र सरकार ने 6 खदानों को, यह मानते हुए कि इससे बहुत गम्भीर पर्यावर्णीय दुषप्रभाव होंगे, नीलामी सूची से बाहर भी किया । परंतु फिर भी नीलामी के लिये 38 खदानों के लिये बोलियां आमंत्रित की गयी जिनमें बहुत सी खदानें संवेदनशील इलाकों में थी और अनेकों जगह भारी जन-विरोध था।
ऐसे में जैसा कि छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन ने पूर्वानुमान लगाया था, यह नीलामी प्रक्रिया पूरी तरह अपने सभी कथित उद्देश्यों पर विफल रही । जिन 38 खदानों के लिये बोलियां आमंत्रित की गई, उनमें से केवल आधे यानी 19 खदानों पर ही न्यूनतम बोलीदार सामने आए जिसके कारण बाकी खदानों की प्रक्रिया को रद्द करना पड़ा । गौरतलब है कि इस बार नियमों को लचीला बनाने हेतु न्यूनतम बोलिदारों की संख्या मात्र 2 रखी गई थी जो कि पिछले नीलामी प्रक्रिया से भी कम है । वही दूसरी ओर यदि नीलामी की बोली- दरों पर नज़र डालें तो साफ है कि बाकी की 19 खदानों को कौड़ी के भाव पर बेच दिया गया । अधिकांश खदानों के लिये बोली अनुसार केवल 10-30% आय का हिस्सा ही राज्य सरकारों को दिया जायेगा जो कि पिछली नीलामी की दर तथा कोयले के वास्तविक मूल्य से बहुत कम है । स्पष्ट रूप से जब आवंटित और संचालित कोल ब्लॉक से ही देश की जरूरत का कोल उपलब्ध है उस स्थिति में इस नीलामी प्रक्रिया की कोई आवश्यकता नही थी। यह सिर्फ बहुमूल्य खनिज संसाधनो को कारपोरेट को सौपने की कोशिश है जिसका छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन पुरजोर विरोध करता है।
क्यूं विफल हुई नीलामी ?
नीलामी प्रक्रिया के विफलताओं के अनेक कारण हैं – 1) देश में इतने पैमाने पर कोयले की ज़रूरत ही नहीं है जिसका जिक्र CEA, कोल इंडिया लिमिटेड vision-2030, तथा अन्य विश्लेषकों ने किया है । गौरतलब है कि 2015 के बाद आवंटित 72 में से सिर्फ 20 खदानें ही चालू हो पाई हैं जबकि 50 से अधिक खदानें अभी तक खनन शुरु नहीं कर पाई हैं । यदि ये खदानें शुरु हुई तो लगभग 320 मिलियन टन का उत्पादन बढ़ जायेगा जो कि भारत की वर्तमान कोयला ज़रूरतों से बहुत ज़्यादा है । 2) कोयला क्षेत्र की अधिकांश कंपनियाँ या तो दिवालिया हो चुकी हैं या आर्थिक संकट से जूझ रही हैं । वहीं विदेशी कंपनियों ने भी कोरोना के समय में कोई रुचि नहीं दिखायी । ऐसे में बोलीदारों का अभाव रहा जिसके कारण केवल 4 खदानों को ही 5 से अधिक बोलियां मिली जबकि कुल 10 के लिये ही 3 से अधिक बोलियां लगाई गई । 3) नीलामी में रखी ज़्यादातर खदानों के पास पर्यावरण तथा वन स्वीकृतियाँ नहीं थी जिससे बोलीकारों को अधिक जोखिम उठाना पड़ रहा था । 4) नीलामी की विफलता का एक कारण यह भी था की सरकार ने MDO के जरिये चुनिन्दा कंपनियों के लिए पिछले दरवाज़े का रास्ता खोला जिसमें जोखिम कम और मुनाफा अधिक था | 5) कोविड के इस संकट में जब विश्व कि अर्थव्यवस्था लगभग मृतप्राय हो, कॉरपोरेट अपने लिये पॅकेज कि मांग कर रहे हैं, उस स्थिति में नीलामी के सफल होने की उम्मीद वैसे भी कम ही थी, इसी कारण झारखंड समेत कई राज्यों ने इसे स्थगित करने की पहले ही मांग की थी |
क्या है वर्तमान निलामी प्रक्रिया का असली सबब ?
निलामी से जुड़े सभी तथ्यों से यह तो स्पष्ट है कि इस प्रक्रिया का सम्बंध तथाकथित देश की या जन-समुदाय की आत्मनिर्भरता से कोई लेना-देना नहीं है । ना ही भारत की कोयला ज़रूरतों या आर्थिक हितों को ध्यान में रखा गया है । ना ही राज्यों से कोई चर्चा – सहमति ली गई है । ना ही प्रतिस्पर्धा बढ़ाकर कोयले के असली मूल्य निकालकर राज्यों को आर्थिक-हित देने का कोई भी प्रयास है – इस प्रक्रिया में तो यूं माने कि पूर्णतया प्रतिस्पर्धा खत्म ही कर दी गई है । रोलिंग यानि नित्य प्रक्रिया के चलते अब जो कंपनी जब चाहे तब न्यूनतम बोलीदार एकत्रित कर मनचाहे दामों पर खदान ले सकेगी ।
ऐसे में साफ है कि इसका उद्देश्य कुछ निजी कंपनियों को आपदा को अवसर में बदलने का एक और मौका दिया जा रहा है और सरकार देश की सारी धन-संपदा को चुनिंदा कॉरपोरेट साथियों को बेचने की नीति में एक और प्रयास कर रही है । वहीं दूसरी ओर सबसे ज़्यादा दुष्प्रभाव खदान क्षेत्रों के पर्यावरण तथा आदिवासी समुदायों के विस्थापन पर पड़ेंगे | साथ ही यहाँ की ग्राम सभाएं अपने संवैधानिक अधिकारों का प्रयोग कर लगातार खनन का विरोध करती आई हैं, और पांच्वी अनुसूची क्षेत्रों में ज़ाहिर है कि जन-विरोध को दरकिनार कर की हुई यह निलामी प्रक्रिया अपने आप में कानून और संविधान की धज्जियां उडाने समान है | अब ऐसे में देख यह है कि छत्तीसगढ़ राज्य सरकार इस पर क्या रुख उठाती है – क्या वह छत्तीसगढ़ राज्य तथा यहां के गरीब-आदिवासी समुदाय के हक में आवाज़ उठायेगी या फिर वह भी कॉरपोरेट घरानों और केंद्र सरकार के सामने अपने घुटने टेक देगी ।
आलोक शुक्ला, नंदकुमार कश्यप, प्रियांशु गुप्ता
छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन
-रितेश मिश्रा
फिऱाक़ साहेब पीने के बाद थोड़ा बहक जाते थे। एक बार हॉलैंड हॉल में फिऱाक़ साहेब को एक जिरह में बुलाया गया। चूँकि फिऱाक़ साहेब ने शराब पी थी तो उन्होंने जिरह के शुरुआत में ही उस समय के कुलपति अमर नाथ झा को उल्टा सीधा कहने लगे। सुबह जब झा साहेब को पता लगा तो उन्होंने एक आदेश निकाला कि अगर फिऱाक़ साहेब को किसी आयोजन में बुलाया जाय तो दिन में ही और दिन ढलने के बाद उनको किसी भी आयोजन का निमंत्रण न दिया जाय। न फिऱाक़ ने कभी वो आदेश माना न किसी और ने। सब को फिऱाक़ साहेब को सुनना बहुत पसंद था।
एक किस्सा और है । 1950 में एक बार अली सरदार जाफरी साहेब एक मुशायरे में शिरकत करने इलाहाबाद आये। पहले तो फिऱाक़ साहेब और जाफरी ने पी और उसके बाद जब मुशायरे में पहुंचे। अली सरदार जब बोलने लगे तो फिऱाक़ साहेब उनको पीछे से गरियाने लगे। शायद कोई गज़़ल पे मसला हो गया था। आयोजकों ने बहुत समझाया फिऱाक़ साहेब को, माने नहीं और अंत में फिऱाक़ साहेब को घर छोड़ दिया गया।
बहुत देर तक जब फिऱाक़ साहेब की आवाज़ जाफरी साहेब के कानों में नहीं आई तो उन्होंने आयोजकों से पूछा तो उन्हें बताया गया कि फिऱाक़ घर छोड़ दिया गया है। उस समय माइक्रोफोन उनके हाथ में था और उन्होंने मंच से कहा ‘हरामजादों, वो मुझे गाली दे रहा था या तेरे माँ -बाप को, उसका हक़ है मुझे गाली देना, तुम बीच में कौन होते हो। तेरे मुशायरे की ऐसी कि तैसी मुझे मेरे फिऱाक़ के पास ले चलो’
जाफरी साहेब ने मुशायरा वहीं छोड़ दिया और फिऱाक़ के घर पहुंचे। फिऱाक़ साहेब अपने लॉन में टहल रहे थे। जाफरी साहेब उनके पास पहुंचते ही उनको गले लगा लिया। दोनों रोने लगे। जाफरी साहेब बोले ‘हरामज़ादे, न हम दोनों को गाली देने देते हैं , न हंॅसने देते हैं न रोने देते हैं।’ दोनों तब तक गले मिलते रहे जब तक पड़ोसी अपने घर से बाहर नहीं निकल आये।