विचार/लेख
-विजय मिश्रा ‘अमित’
कोरोना वायरस के संक्रमण काल ने स्कूल-कॉलेज में भले ही ताला बंदी कर रखा है, लेकिन कोरोना गुरू घंटाल ने लोगों को शिक्षित करने के मामले में देश की आजादी के सत्तर साल को पीछे छोड़ दिया है। देश में शिक्षा के क्षेत्र में जो विकास सात दशकों में नहीं हुआ उससे कहीं ज्यादा कोरोना ने अपने एक साल के कार्यकाल में लोगों को गजब शिक्षित कर दिया है। खासकर अंग्रेजी के शब्दों के ज्ञान के मामले में पिछले एक साल का इतिहास तो देश में स्वर्णिम काल के रूप में जाना जाएगा।
बीते एक वर्ष में जहां अनेक स्कूल-कॉलेज बंद हो गए, वहीं बिना प्रयास के देशभर में चारों ओर कोरोनावायरस का स्कूल खुल गया है। इस स्कूल में छोटे बड़े बूढ़े नौजवान युवक युवती सभी भर्ती हो गए हैं। चौक-चौराहों, पान-गुपचुप ठेलों में खड़े-खड़े लोग कई कठिन अंग्रेजी शब्दों को ऐसी सहजता से बोल रहे हैं मानों सदियों से वे उसका इस्तेमाल करते आ रहे हैं। अंग्रेजी मीडियम के बच्चे की तो छोडि़ए सरकारी हिंदी मीडियम स्कूल के बच्चे और गांव खेड़े के लोग भी कोरोना स्कूल की अंग्रेजी पढ़ाई में अव्वल चल रहे हैं।
कोरोना मैडम द्वारा सिखाए गए अंग्रेजी शब्दों को बोलने की होड़ सी मच गई है। कोरोना स्कूल में अंग्रेजी शब्दों का ज्ञान अनायास हुए बरसात के बाद बाजार में सस्ते हो चले टमाटर के भांति बेभाव मिल रहा है। अंग्रेजी के जिन कठिन कठिन शब्दों को मार मार के स्कूल में रटाए जाते थे, ऐसे अंग्रेजी के शब्दों से भी कहीं ज्यादा ‘टीपिकल और लेटेस्ट’ शब्दों को घर में बैठे-बैठे कोरोना मैडम सबको सीखा दे रहीं हैं। कोरोना स्कूल का शानदार रिजल्ट ‘ग्लो साईन बोर्ड’ की तरह चमक रहा है। कोरोना मैडम के द्वारा लोकप्रिय बनाए गए अंग्रेजी शब्दों का प्रताप धूंआंधार दिखाई दे रहा है। अंधे-गूंगे-बहरे भी इन शब्दों को देख-बोल-सुन पा रहे हैं।
शहरियों की तो छोडि़ए गंवई गांव के लोग भी ठांय-ठांय कोरोनामय अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं। जिसे सुन सुन कर कोरोना स्कूल के हेड मास्टर कोविड महाशय की छाती छप्पन इंच हुए जा रही है। वे गर्व से सीना ठोक-ठोक कर देशवासियों को बता रहे हैं कि भय बिना प्रीत न होई गोपाला।
कोरोना स्कूल ‘चलता-फिरता शिक्षालय (शौचालय)’ की तरह गली मोहल्ले में अंग्रेजी का असामान्य ज्ञान बांटते फिर रहा है। दिन-रात लोगों के आगे पीछे चलते-फिरते कोरोना संबद्ध अंग्रेजी शब्दों को बोलने के लिए सबके सिर पर डंडा बरसा रहा है। जिसका सुपरिणाम है कि सोते जागते आदमी तो आदमी रेडियो, टीवी,और अखबार भी एंटीजन सैंम्पल, आरटीपीएस आर, निगेटिव, पॉजि़टिव, सेनेटाइजर, मास्क, सोशल डिस्टेसिंग, रेमडेसिविर, लॉकडाउन, हैंडवाश, इम्यूनिटी, वेक्सीनेशन, ग्रीन-टी,ग्लब्स, ऑक्सीजन बेड, कोविड केयर सेंटर, होम आइसोलेशन, आक्सीमीटर, ग्लूकोमीटर, थर्मामीटर, क्वांरेटाइन सेंटर, वर्चुअल मीटिंग, होम डिलीवरी, एक्टिव केस, फ्लैग मार्च, रेड अलर्ट,ऑक्सीजन लेवल, ऑक्सीजन कंसट्रेटर, अनलाक, कंटेंटमेंट जोन, वेंटिलेटर फ्रंटलाइन कोरोना वारियर्स, जैसे अंग्रेजी शब्दों से लदे गूंथे पड़े हैं।
उत्तरप्रदेश में तो शिक्षा (व्यवसाय) जगत के किसी डेढ़ होशियार ने बकायदा कोरोना इंटरनेशनल स्कूल भी आरंभ कर दिया है। अस्पतालों में तो कुछ शिशु जन्मदाताओं ने नए नामकरण की अंधी चाहत में नवजात शिशु का नामकरण कोरोना बाई, कोविड सिंह, वेक्सीन कुमार, इम्यूनिटी ठाकुर, कंटेंटमेंट जोन रखना आरंभ कर दिया है। ए सब देख-सुनकर कहना पड़ेगा ‘तेरा क्या होगा रे कालिया।’
- बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कोरोना के विरुद्ध भारत में अब एक परिपूर्ण युद्ध शुरु हो गया है। केंद्र और राज्य की सरकारें, वे चाहे किसी भी पार्टी की हों, अपनी कमर कसके कोरोना को हराने में जुट गई हैं। इन सरकारों से भी ज्यादा आम जनता में से कई ऐसे देवदूत प्रकट हो गए हैं, जिन पर कुर्बान होने को जी चाहता है। कोई लोगों को आक्सीजन के बंबे मुफ्त में भर-भरकर दे रहा है, कोई मरीजों को मुफ्त खाना पहुंचवा रहा है, कोई प्लाज्मा-दानियों को जुटा रहा है और कोई ऐसे भी हैं, जो मरीजों को अस्पताल पहुंचाने का काम भी सहज रुप में कर रहे हैं। हम अपने उद्योगपतियों को दिन-रात कोसते रहते हैं लेकिन टाटा, नवीन जिंदल, अडानी तथा कई अन्य छोटे-मोटे उद्योगपतियों ने अपने कारखाने बंद करके आक्सीजन भिजवाने का इंतजाम कर दिया है। यह पुण्य-कार्य वे स्वेच्छा से कर रहे हैं। उन पर कोई सरकारी दबाव नहीं है। मप्र के मुख्यमंत्री शिवराज चौहान की पहल पर ऑक्सीजन की रेलें चल पड़ी हैं। हजारों टन तरल आक्सीजन के टैंकर अस्पतालों को पहुंच रहे हैं। रेल मंत्री पीयूष गोयल ने ऑक्सीजन -परिवहन का शुल्क भी हटा लिया है। हमारे लाखों डॉक्टर, नर्सें और सेवाकर्मी अपनी जान पर खेलकर लोगों की जान बचा रहे हैं। अब प्रधानमंत्री राहत-कोष से 551 आक्सीजन-संयत्र लगाने की भी तैयारी हो चुकी है।
राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत, उ.प्र. के योगी आदित्यनाथ तथा कुछ अन्य मुख्यमंत्रियों ने मुफ्त टीके की भी घोषण कर दी है। फिर भी एक दिन में साढ़े तीन लाख लोगों का कोरोना की चपेट में आना और लगभग तीन हजार लोगों का दिवंगत हो जाना गहरी चिंता का विषय है। दिल्ली में इसीलिए एक हफ्ते तक तालाबंदी बढ़ा दी गई है। ऑक्सीजन के लेन-देन और आवाजाही को खुला करने की भी पूरी कोशिश की जा रही है। दुनिया के कई देश दवाइयां, उनका कच्चा माल, ऑक्सीजन यंत्र आदि हवाई जहाजों से भारत पहुंचा रहे हैं लेकिन भारत में ऐसे नरपशु भी हैं, जो ऑक्सीजन, रेमडेसवीर के इंजेक्शन, दवाइयों और इलाज के बहाने मरीज़ों की खाल उतार रहे हैं। उन्हें पुलिस पकड़ तो रही है लेकिन आज तक एक भी ऐसे इंसानियत के दुश्मन को फांसी पर नहीं लटकाया गया है। पता नहीं हमारी सरकारों और अदालतों को इस मामले में लकवा क्यों मार गया है ? अस्पताली लूट-पाट के बावजूद मरीज़ तो मर ही रहे हैं लेकिन उनके घरवाले जीते-जी मरणासन्न हो रहे हैं, लुट रहे हैं। हमारे अखबार और टीवी चैनल बुरी खबरों को इतना उछाल रहे हैं कि उनकी वजह से लोग अधमरे-जैसे हो रहे हैं। वे हमारे घरेलू काढ़े, गिलोय और नीम की गोली तथा बड़ (वटवृक्ष) के दूध जैसे अचूक उपायों का प्रचार क्यों नहीं करते ? कोरोना को मात देने के लिए जो भी नया-पुराना, देसी-विदेशी हथियार हाथ लगे, उसे चलाने से चूकना उचित नहीं। (नया इंडिया की अनुमति से)
पत्रकार किशनलाल से कल मालूम हुआ कि छत्तीसगढ़ के राष्ट्रीय पहचान रखते ख्यातनाम कहानीकार विश्वेश्वर का दुखद निधन हो गया। यह नाम मेरे लिए अनजान नहीं है। यह अलग बात है कि विश्वेश्वर से काफी अरसे से संपर्क नहीं हो पाया था। लगभग 1978 की बात है। जब विश्वेश्वर पहली बार मुझसे मिलने दुर्ग आए थे। मैं नगरपालिका परिषद में पार्षद भी था। मेरे कहने पर संस्कृति, कला और क्रीड़ा की गतिविधियों के लिए परिषद ने एक उपसमिति बनाई थी और मुझे ही उसका अध्यक्ष बनाया था। विश्वेश्वर की माली हालत उस समय काफी खस्ता थी। उनके व्यक्तित्व, आंखें, आवाज़ और उनके कहे की कशिश में एक चमक मुझे दिखी थी। दुर्ग के भुला दिए गए बेहद प्रिय गज़लकार जनक दुर्गवी और विश्वेश्वर को मैंने कुछ समय के लिए दुर्ग नगर का इतिहास लिखने के लिए अनुबंधित किया। उन्हें मात्र 300 रुपये महीने नगरपालिका ने देना तय किया। हम जानते थे पुस्तकालयों, किताबों, यात्राओं और अन्य लिपिकीय सुविधाओं के अभाव में इतिहास लेखन जैसा काम समयावधि में करना एक कवि और एक कहानीकार के लिए संभव नहीं होगा। फिर भी हमें उन्हें मदद तो करनी थी। नगरपालिका के नगरनिगम बनते ही हमारा कार्यकाल ही अधूरा हो गया।
विश्वेश्वर लगातार मिलते रहे। हमारे परिवार का एक छोटा मकान पद्मनाभपुर में खाली कराकर विश्वेश्वर को दिया ताकि वे दुर्ग शहर में रहकर गुजरबसर करें। मैंने उनके लिए कुछ और सामान्य व्यवस्थाएं भी की थीं। बाद में महसूस हुआ लेखक को सामाजिक जीवन की चैहद्दी में किसी खूंटे से बंधकर रहना उसकी रुचियों में शामिल नहीं है। उद्दाम पहाड़ी नदी में मैदानी नदी बन जाने के अपने भविष्य तक की ललक, उम्मीद या आश्वस्ति नहीं है। उसे नहीं मालूम कि कहां जा रहा है। इतना लेकिन जानता है कि वह कहीं जा तो रहा है। और यह भी जिं़दगी के ऊबडख़ाबड़ रास्तों पर लहूलुहान होकर चलना ही उसकी नियति है। रचनात्मक प्रतिभा के बावजूद व्यक्तिगत व्यवहार में विश्वेश्वर अव्वल दर्जे का अडिय़ल, सनकी और जिद्दी लोगों को लगता था। मैं उन दिनों वकालत के अतिरिक्त राजनीतिक कामों में भी लिप्त था। लिहाज़ा साहित्यिक या बौद्धिक सहकार के लिए विश्वेश्वर को भी समय देना मेरे लिए कठिन था। वह भी अपनी अनिश्चित मानसिकता लिए कहीं चला गया। कभी कभार की क्षणिक मुलाकातें रिश्ते की डोर बने रहने का आभास देती रहीं।
वर्षों बाद फिर विश्वेश्वर से गंभीर लंबी बातचीत हुई। मैंने उसे एक दूसरा बौद्धिक प्रोजेक्ट दिया जिसे लिखने के लिए रायपुर में रहना जरूरी था क्योंकि वहां अपेक्षाकृत बेहतर सुविधाएं थीं। कॉफी हाउस में एक किराए का कमरा लेकर उसे व्यवस्थित किया। देशबंधु पत्रसमूह के संपादक ललित सुरजन से अनुरोध किया कि कॉफी हाउस प्रबंधन को सूचना देकर आश्वस्त करें कि जो भी खर्च होगा हम पटाएंगे। हमने लेकिन आशंकित खतरा उठाया था। हवाओं के एक बवंडर को कमरे में कैद किया था। पढऩा लिखना उसकी रुचि में था लेकिन वह सरहदों को तोड़ देता था। ललित का फोन आया कि बौद्धिक प्रयोजन के प्रोजेक्ट में वहां खानपान का बिल ज़्यादा बढ़ रहा है, बल्कि पानखान का। आपको सचेत रहना है। विश्वेश्वर से फिर बात की। उसने कहा जिस तरह आपने काम करने का सुझाव दिया है, वह मेरे जीवन को एक नहर की तरह बहाना चाहता है। मुझे नहर बनना होता तो इतने दिन अपने जीवन के साथ प्रयोग नहीं करता होता। मैं बंधना नहीं चाहता लेकिन आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं होने से मैं वह सब नहीं कर पा रहा हूं जो कर पाने की मेरी इंद्रियां मुझे उकसाती हैं। हमारा मिलना फिर स्थगित हो गया।
बहुत बाद फिर कभी मिलने पर उसका स्वास्थ्य कुछ बेहतर लगा, कुछ कपड़े लत्ते भी। मुझे यह देखकर अच्छा लगा। विश्वेश्वर ने अपनी कई किताबें मुझे दे रखी थीं। वे आकार में बहुत मोटी नहीं ही थीं और पढऩे में कठिन भी नहीं। 1978 में ही मैंने पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी की स्मृति में एक समारोह आयोजित करना चाहा था। विश्वेश्वर की पहल पर प्रख्यात लेखक कमलेश्वर से गुज़ारिश की गई। कमलेश्वर ने उलाहना, आश्वस्ति और प्रेम को मिलाकर विश्वेश्वर को लगभग निजी पत्र लिखा था। मुझे उन दोनों की नज़दीकियों का तब तक कोई भान तक नहीं था। बख्शी समारोह अंतत: मैं 1994 में ही कर पाया। तब तक कमलेश्वर से परिचय हो चुका था। मैंने उनके घर दिल्ली में उन्हें आने का निमंत्रण दिया। कमलेश्वर ने पूरे छत्तीसगढ़ में केवल विश्वेश्वर की याद की और कहा उससे मिलने की बहुत इच्छा है।
विश्वेश्वर में जीवन की आग थी। मनुष्य होने की ताब थी लेकिन वह सामाजिक संबंधों के मनोवैज्ञानिक समीकरणों की गणित का फेल विद्यार्थी हो जाता था। उसे पूंजीवाद से सख्त नफरत थी। मुझसे भी कहता आपकी आर्थिक हालत के लिए आपने कई समझौते किए हैं। जो जितना अमीर है, वह उतना ही समझौतापरस्त है। मैं जीवन में बिना समझौता किए अमीर होकर उसका सुख क्यों नहीं उठा पाता? वह असंभव संभावनाओं को अपनी जिरह शैली के जरिए परास्त करना चाहता था। जब राजनीति में मेरे अच्छे दिन आकर सत्ता की कुर्सी मिली तब अपने साहित्यिक गुरु डा0 नन्दूलाल चोटिया की पांडुलिपियां मैं प्रकाशित करना चाहता था लेकिन मुझे नहीं मिल पाईं। विश्वेश्वर को खबर भेजी थी लेकिन वह भोपाल नहीं आना चाहता रहा होगा। उसकी अपेक्षित मदद नहीं कर पाने का मुझे मलाल और दुख है।
उसने विवाह करने में भी हिन्दू कानूनों और पारंपरिक रिश्तों तथा सामाजिक रूढिय़ों को चुनौती दी थी। ऐसा ही उद्दाम तो अंगरेज़ी के महान कवि लॉर्ड बायरन में भी था। जब मुझसे अकेले में बात करता तो उसमें उत्तेजना, विनम्रता और मासूमियत एक साथ झरती रहतीं। गोष्ठियों में वह दूसरों की बातें सुनकर भी उलझने के साथ साथ स्वगत में कुछ कहता चलता। जैसे शास्त्रीय रागों का कोई गायक खुद की बनाई हुई आरोह अवरोह की जुंबिशों में एकालाप करता है। वह चाहता था लोग उसे समर्थन करें लेकिन कुछ बकझक के बाद विरोध तो क्या असमर्थित होने पर भी उससे कोफ्त होती। वह खीज में भी तब्दील होती। फिर एक तरह के सामाजिक क्रोध में और उसकी विद्रोही निजी तथा लेखकीय अभिव्यक्तियों में भी।
विश्वेश्वर दुर्ग जिले के निपट ग्रामीण परिवेश में जन्मा था। ब्राह्मण परिवार से होने के बाद भी जातीय, आनुवांशिक और वर्णाश्रम के विग्रहों को कुचलने वीरोचित मुद्रा में आ जाता था। कभी कभी अच्छा श्रोता बन जाता था और तत्काल कोई जवाब नहीं भी देता था। फिर कुछ दिनों के बाद मिलने पर पुरानी जिरह को तरोताज़ा कर किश्तों में क्रमश: बनाता चलता था। विश्वेश्वर इलाहाबाद, बनारस जैसी जगहों पर होता तो उसके रचनात्मक कौशल में वहां के पुश्तैनी नस्ल की अभिव्यक्तियों के उस्तादों के संपर्कों से उभार भी आता। कभी कभी लगता है मनुष्य के बौद्धिक, सामाजिक और रचनात्मक विकास में उत्कर्ष का दरवाजा इसलिए बंद हो जाता है क्योंकि वह भूगोल के किसी उपेक्षित इलाके से आया है। क्या हमारा छत्तीसगढ़ बौद्धिकों के श्रेष्ठि वर्ग में ऐसा ही समझा जाता है जिसे विश्वेश्वर का व्यक्तित्व अपनी नियति के कारण नीयत की भाषा में परिभाषित नहीं कर पाया।
- बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत में फैले कोरोना की प्रतिध्वनि सारी दुनिया में सुनाई पड़ रही है। अमेरिका से लेकर सिंगापुर तक के देश चिंतित दिखाई पड़ रहे हैं। जो अमेरिका कल-परसों तक भारत को वैक्सीन या उसका कच्चा माल देने को बिल्कुल भी तैयार नहीं था, आज उसका रवैया थोड़ा नरम पड़ा है। अमेरिका के कई सीनेटरों और चेम्बर आॅफ काॅमर्स ने बाइडन प्रशासन से खुले-आम अनुरोध किया है कि वह भारत को तुरंत सहायता पहुंचाए।
इस समय अमेरिका के पास 30 करोड़ टीके तैयार पड़े हुए हैं लेकिन वह ट्रंप के घिसे-पिटे नारे ‘अमेरिका पहले’ से चिपका पड़ा है। वह भूल गया कि जब कोरोना की मार शुरु हुई थी तो भारत ने ट्रंप के अनुरोध पर कुछ तात्कालिक दवाइयां तुरंत भिजवाई थीं। बाइडन प्रशासन में कमला हैरिस के उपराष्ट्रपति रहते हुए और कई भारतीय मूल के लोगों के अमेरिकी संसद में होते हुए अमेरिका उदासीन रहे यह संभव नहीं है। जर्मनी और फ्रांस ने भी मदद की पहल की है।
सिंगापुर और संयुक्त अरब अमारात से हवाई जहाजों के जरिए ऑक्सिजन का आयात हो रहा है। भारत में ऑक्सिजन की कमी से हो रही मौतों और उनके दृश्यों ने सारी दुनिया का दिल दहला रखा है। जो लोग भारत के प्रति दुश्मनी या ईर्ष्या का भाव रखते हैं, उनके दिल भी पिघल रहे हैं। मुझे पाकिस्तान और चीन से कई नेताओं, विद्वानों और पत्रकारों के फोन आ रहे हैं। जो लोग बहस के दौरान मुझसे भिड़ पड़ते थे, वे भी चिंता और सहानुभूति व्यक्त कर रहे हैं। वे भारत का हाल जानने के लिए उत्सुक हैं।
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान, आसिफ जरदारी और मियां नवाज शरीफ की बेटी मरियम के संदेश पढ़कर ऐसा लगा कि चाहे भारत और पाक एक-दूसरे से युद्ध लड़ते रहते हैं लेकिन ये दोनों देश मूलतः हैं तो एक ही बड़े परिवार के सदस्य। कराची की अब्दुल सत्तार एधी फाउंडेशन ने नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर 50 एंबुलेंस कारें और सेवाकर्मी भेजने का प्रस्ताव किया है। पाकिस्तान के कुछ नामी-गिरामी मित्रों ने यह सुझाव भी दिया कि चीनी टीका सस्ता और पूर्ण कारगर है। आप उसे क्यों नहीं ले लेते ? वे लोग वही टीका ले रहे हैं।
चीनी सरकार ने दुबारा दवा भिजवाने का प्रस्ताव किया है। चीन और पाकिस्तान के इन बयानों को हमारे कुछ लोग इन देशों की कूटनीतिक चतुराई कहकर दरकिनार कर सकते हैं और यह भी मान सकते हैं कि मोदी सरकार की छवि बिगाड़ने के लिए ही यह सब नाटक किया जा रहा है लेकिन हम यह न भूलें कि इसी सरकार ने दर्जनों पड़ौसी और सुदूर देशों को पिछले साल लाखों टीके भिजवाए थे।
अब जबकि भारत में कोरोना-संकट गहराता जा रहा है, दुनिया के राष्ट्र भी दुबकनेवाले नहीं हैं। वे आगे आएंगे। भारत की मदद करेंगे लेकिन फिलहाल जरुरी यह है कि भारत की सभी सरकारें और जनता हिम्मत न हारें, सभी सावधानियां बरतें, परस्पर टांग-खिंचाई की बजाय सहयोग करें और शीघ्र ही इस महामारी से मुक्ति पाएं। (नया इंडिया की अनुमति से)
-कृष्ण कांत
कभी देश के मुखिया ने कहा था कि ‘उन्हें कपड़ों से पहचाना जा सकता है।’ आज हम लोगों को उनके लहू के रंग से पहचान रहे हैं जो एक-दूसरे की रगों में उतरकर हम सबकी जान बचा रहा है। मैं कहना चाहता हूं कि हमें हमारे कपड़ों से मत पहचानो। हमें हमारे लहू के लाल रंग से पहचानो।
कहानी उसी झारखंड की है जहां पर कपड़ों से पहचानने की सलाह दी गई थी। पलामू के मेदिनीनगर में कुछ मुसलमान युवकों को पता चला कि उनके हिंदू दोस्त की मां को कोरोना लील गया। बेचारा बेटा मां की लाश के साथ अकेला पड़ गया था। कोई परिवार साथ नहीं आया था। मरे हुए को कंधा देने के लिए चार कंधे चाहिए होते हैं। ये वक्त बुरा है। जनता को सहारा देने के लिए जालिम हुकूमत ने अपना कंधा खींच लिया है। डर के मारे किसी मरहूम के अपने भी कंधा खींच ले रहे हैं। लेकिन युवक के दोस्त मोसैफ, फैशल, सुहैल, आसिफ, शमशाद जाफर, महबूब सभी श्मशान पहुंच गए।
वे सभी रमजान के महीने में रोजा रखे हुए थे। पर इससे क्या, इंसानी सेवा बड़ी कोई इबाबत नहीं। वे अपने दोस्त के पास पहुंचे। मां के शव को लेकर साथ श्मशान गए। दोस्त को मुश्किल घड़ी में सहारा दिया। मरहूम मां को एंबुलेंस से उतरवाया, कंधा दिया। पूरे हिंदू रीति-रिवाज से अंतिम संस्कार संपन्न हुआ।
ये कोई अकेली मिसाल नहीं है। शामली के आसिफ ने रोजा तोडक़र एक गर्भवती महिला की जान बचाई है। झालावाड़ के आबिद ने रोजा तोडक़र एक 15 दिन की बच्ची की जान बचाई है। उदयपुर के अकील मंसूरी ने रोजा तोडक़र दो हिंदू महिलाओं के लिए प्लाज्मा डोनेट किया है। समाज में रोज हजारों लोग हजारों लोगों की जान बचा रहे हैं। इसके उलट सियासत इस ‘आपदा में भी अवसर’ खोज रही है। इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक, गुजरात के एक श्मशान में कुछ मुस्लिम स्वयंसेवक क्रियाकर्म में सहयोग कर रहे थे तो कुछ बीजेपी के नेताओं ने आपत्ति दर्ज करा दी कि हिंदुओं का अंतिम संस्कार मुसलमान कैसे करा सकते हैं? उन्हें श्मशान पहुंचकर भी नफरत ही सूझी। उनके बताए रास्ते पर मत चलो। उन्हें अपने रास्ते पर लाओ।
समाज मुश्किल में है लेकिन समाज से मानवता खत्म नहीं होगी। इंसान जब तक रहेगा, इंसानियत सिर उठाकर साथ चलती रहेगी। आज इंसानियत निभाने में वायरस का खौफ भी है लेकिन इंसानी साहस और प्रेम का जुनून अब भी मजबूत है।
सोचने पर लगता है कि ये तो आम बात है। इंसान ही इंसान के काम आता है। इसमें नया क्या है? लेकिन फिर लगता है कि जब आपके बच्चों को देश की सियासत पोशाक और हुलिये से पहचान करने जैसी नफरत सिखा रही हो, तब उन्हें ये भी बताना जरूरी हो जाता है कि नहीं, कपड़ों से मत पहचानो, इंसानियत के जज्बे से पहचानो। आपसी मोहब्बत से पहचानो। उस लहू के रंग से पहचानो जो हम सबकी रगों में उतरने से इनकार नहीं करता, बल्कि जिंदगी अता करता है।
-विवेक उमराव
कोविशील्ड (असली नाम आक्सफोर्ड-अस्ट्राजेनेका) वैक्सीन का उत्पादन की गति काफी धीमी है। दुनिया के अनेक देशों की कंपनियों की तरह ही भारत की सीरम कंपनी ने जब अस्ट्राजेनेका वैक्सीन के उत्पादन के अधिकार लिए थे तो उत्पादन की शर्तें तय हुईं थीं।
सीरम ने अस्ट्राजेनेका का नाम तो कोविशील्ड कर दिया (जिन लोगों को जानकारी नहीं, उन लोगों को यह लगता है कि कोविशील्ड की खोज भारत की सीरम कंपनी व इसके वैज्ञानिकों ने की है), लेकिन उत्पादन की शर्तों को पूरा कर पाने में असमर्थ है।
दुनिया के देशों को जब कोविशील्ड वैक्सीन भेजी जाती है तो भारत में बहुत लोगों को यह लगता है कि दुनिया भारत की खोजी वैक्सीन का प्रयोग कर रही है। जबकि ऐसा नहीं है, दुनिया के देश अस्ट्राजेनेका वैक्सीन ले रहे होते हैं, जिसकी आपूर्ति सीरम के कारखाने से की जाती है क्योंकि अस्ट्राजेनेका का उत्पादन भारत की सीरम कंपनी भी कर रही है। वह अलग बात है कि सीरम ने इसका नाम कोविशील्ड कर दिया है (इस कारण बहुत लोगों को कन्फ्यूजन है)।
दुनिया के अनेक देशों की कंपनियां अस्ट्राजेनेका का उत्पादन कर रहीं हैं, लेकिन सीरम कंपनी जैसे अलग से नाम बदल कर नहीं। नो प्राफिट नो लास पर उपलब्ध कराई गई वैक्सीन के लिए इतना तो नैतिक धन्यवाद सीरम कंपनी को दिखाना ही चाहिए था, लेकिन नहीं दिखाया। खैर।
अस्ट्राजेनेका ने दुनिया के अनेक देशों को सप्लाई करने का जो वादा किया है, चूंकि सीरम कंपनी ने उत्पादन का अधिकार हासिल किया है तो दुनिया भर के देशों से अस्ट्राजेनेका को मिले आर्डर की आपूर्ति में भारत की सीरम कंपनी को भी सहयोग करना होगा जैसा कि अन्य देशों की उत्पादन कंपनियां कर रहीं हैं। भारत में बहुत लोग राष्ट्र-गौरव के इस फर्जी दंभ में जी रहे हैं कि उनके देश की खोजी वैक्सीन दुनिया के देशों में लोगों का जीवन बचा रही है।
सीरम कंपनी को जितनी सप्लाई करनी थी उसका पांचवा हिस्सा भी नहीं कर पाई है। इसलिए अस्ट्राजेनेका सीरम कंपनी के खिलाफ कानूनी कार्यवाही भी कर सकती है।
भारत में 135 करोड़ लोग हैं, यदि हर्ड इम्युनिटी के फंडे की गुणा गणित लगाकर कम से कम वैक्सीन की भी बात की जाए और लगभग 110 करोड़ लोगों को भी वैक्सीन लगे तो 220 करोड़ वैक्सीन चाहिए होंगी। सीरम कंपनी यदि सारे काम धाम छोडक़र केवल कोविशील्ड वैक्सीन का ही उत्पादन फुल कैपेसिटी से करे, तब भी 220 करोड़ डोजों का उत्पादन करने में कुछ कम अधिक लगभग डेढ़ साल का समय लगेगा। वह भी तब जब सीरम को दुनिया के अन्य देशों को आपूर्ति नहीं करनी हो।
जाहिर है कि सीरम के उत्पादन का एक बड़ा हिस्सा अन्य देशों को आपूर्ति करनी होगी क्योंकि कोविशील्ड सीरम कंपनी की वैक्सीन नहीं है, अस्ट्राजेनेका वैक्सीन है।
इसलिए भारत में 110 करोड़ लोगों को वैक्सीन लगते-लगते चार-पांच साल लगने हैं। (बायोटेक वाली वैक्सीन को भी जोडक़र, कुछ महीने ऊपर नीचे)।
चार-पांच सालों में कोविड-19 वायरस जैसा बहुत स्मार्ट वायरस कितनी बार खुद को मॉडीफाई करके और ताकतवर बनाते हुए हमला करता रहेगा यह कहा नहीं जा सकता है। वर्तमान वैक्सीन कई बार मॉडीफाई हो चुके वायरस पर कितनी कारगर होगी यह भी नहीं कहा जा सकता है।
-तारन प्रकाश सिन्हा
यानि कानि च मित्राणि, कृतानि शतानि च।
पश्य मूषकमित्रेण, कपोता: मुक्तबन्धना:॥
पंचतंत्र की एक कहानी का यह सार है। हमें सैकड़ों मित्र बनाने चाहिए, ताकि मुसीबत में वे हमारी काम आएं। शिकारी के जाल में फंसा हुआ शेर अपने मित्र चूहों की सहायता से बंधन मुक्त हो गया था।
सैकड़ों मित्र तो बनाने चाहिए, लेकिन इतने सारे मित्र किस तरह बनाए जा सकते हैं? बहुतों के लिए किसी एक की मित्रता पा लेना भी दुर्लभ होता है। असल में, किसी को मित्र बनाने से पहले स्वयं को उसका मित्र बनाना पड़ता है। किसी से मुसीबत में काम आने की उम्मीद करने से पहले स्वयं उनकी मुसीबत में काम आना होता है।
एक दूसरे के काम आना ही परस्परता है। एक-दूसरे के काम आते हुए अपने-अपने लक्ष्यों को प्राप्त कर लेना सहयोग है। परस्परता, सहायता और सहयोग ही मनुष्यता के विकास का मूल मंत्र है।
सृष्टि के प्रारंभ से लेकर अब तक परस्परता और सहयोग के बल पर ही हम अपने अस्तित्व की रक्षा करते आए हैं। जब-जब हमारे अस्तित्व पर संकट आया, हम सबने मजबूती के साथ एक दूसरे का हाथ थाम लिया। एक दूसरे की मदद की।
रामचरित मानस में गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है-
‘परहित सरिस धरम नहीं भाई...’
तुलसीदास जी ने परहित को सबसे बड़ा धर्म बताया है। ऐसा इसलिए क्योंकि किसी और की मदद करते हुए हम मनुष्यता की रक्षा कर रहे होते हैं।
इस समय मनुष्यता पर कोरोना का गहरा संकट छाया हुआ है। हर तरफ निराशा ही निराशा दिखती है। लेकिन निराशा की इस बर्फ के नीचे परस्परता की नदी अब भी बह रही है। एक वायरस हर रोज सैकड़ों लोगों की जान ले रहा है, तो दूसरी तरफ हजारों-हजार लोग एक-दूसरे का हाथ थामे हर रोज हजारों लोगों को मौत के मुंह से बाहर निकाल रहे हैं। परिचितों-अपरिचितों के लिए हजारों लोग रोज ऑक्सीजन का इंतजाम कर रहे हैं, दवाइयों का इंतजाम कर रहे हैं, भोजन की व्यवस्था कर रहे हैं, अस्पतालों में बिस्तरों का इंतजाम कर रहे हैं। मंदिरों को अस्पतालों में बदला जा रहा है, हज-हाउस कोविड-सेंटर में तब्दील हो रहे हैं, गुरुद्वारों में ऑक्सीजन का लंगर लगाया जा रहा है। सोशल मीडिया पर मददगार दिन-रात सक्रिय है। सैकड़ों लोग फेसबुक-पेज और व्हाट्स एप ग्रुप बनाकर एक दूसरे की मदद कर रहे हैं। मनुष्य, मनुष्यता को बचाने के लिए एकजुट संघर्ष कर रहा है।
कोरोना की ताकत मनुष्य के हौसले से बढक़र नहीं हो सकती। भारत एक असाधारण देश है। थोड़ी देर के लिए हम लडख़ड़ाए जरूर हैं, लेकिन दौडऩा भूले नहीं हैं। हम जल्द संभलेंगे और फिर दौड़ेंगे। बस एक दूसरे का हाथ थामकर हमें एक दूसरे को गिरने से बचाना होगा।
इस कोरोना के संकट ने हम सबको सैकड़ों मित्र बनाने का अवसर दिया है। जब संकट छंट जाएगा तो हम सब पहले से भी अधिक ताकतवर हो चुके होंगे।
एक-दूसरे की मदद करते रहिए, एक-दूसरे का कुशल-क्षेम पूछते रहिए। थोड़ी सी सहृदयता, थोड़ी सी सहानुभूति, छोटी सी मदद और छोटा सा फोन-काल भी इस दुनिया को बचाने के लिए काफी होगा।
-बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पिछले दो-तीन दिनों में कोरोना ने ऐसा जुल्म ढाया है कि पूरा देश कांप उठा है। जो लोग मोदी-सरकार के अंधभक्त थे, वे भी डर और कटुता से भरने लगे है। सवा तीन लाख लोगों का कोरोना ग्रस्त होना, हजारों लोगों का मरना, ऑक्सीजन का अकाल पड़ना, दवाइयों और ऑक्सीजन सिलेंडरों की दस गुनी कीमत पर कालाबाजारी होना, राज्य-सरकारों की आपसी खींचातानी और नेताओं के आरोपों-प्रत्यारोपों ने केंद्र सरकार को कंपा दिया था। लेकिन इस सबका फायदा यह हुआ है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बंगाल के लालच को छोड़कर कोरोना पर अपना ध्यान जमाया है।
अब रातोंरात अस्पतालों को ऑक्सीजन के बंबे पहुंच रहे हैं, हजारों बिस्तर वाले तात्कालिक अस्पताल शहरों में खुल रहे हैं, कालाबाज़ारियों की गिरफ्तारी बढ़ गई है और 80 करोड़ गरीब लोगों के लिए प्रति माह 5 किलो अनाज मुफ्त बटने लगा है। आशा है कि एक-दो दिन में ही कोरोना के टीके की कीमत को लेकर शुरु हुई लूटमार पर भी सरकार रोक लगा देगी। कोरोना के टीके और अन्य दवाइयों के लिए जो कच्चा माल हम अमेरिका से आयात कर रहे थे, उसे देने में अमेरिका अभी आनाकानी कर रहा है लेकिन ब्रिटेन और फ्रांस– जैसे देशों ने आगे बढ़कर मदद करने की घोषणा की है।
जर्मनी ने ऑक्सीजन की चलायमान मशीनें भेजने की घोषणा कर दी है। सबसे ज्यादा ध्यान देने लायक तथ्य यह है कि चीन और पाकिस्तान ने भी भारतीय जनता को इस आफतकाल से बचाने का इरादा जाहिर किया है। पाकिस्तान की कई समाजसेवी संस्थाओं ने कहा है कि संकट के इस समय में आपसी रंजिशों को दरकिनार किया जाए और एक-दूसरे की मदद के लिए आगे बढ़ा जाए। सबसे अच्छी बात तो यह हुई है कि सिखों के कई गुरुद्वारों में मुफ्त ऑक्सीजन देने का इंतजाम हो गया है।
हजारों बेरोजगार लोगों को वे मुफ्त भोजन भी करवा रहे हैं। कई मस्जिदें भी इसी काम में जुट गई हैं। ये सब किसी जाति, मजहब या भाषा का भेदभाव नहीं कर रहे हैं। यही काम हिंदुओं के मंदिर, आर्यसमाज और रामकृष्ण मिशन के लोग भी करें तो कोरोना का युद्ध जीतना हमारे लिए बहुत आसान हो जाएगा। इन संगठनों को उन व्यक्तियों से प्रेरणा लेनी चाहिए, जो व्यक्तिगत स्तर पर अप्रतिम उदारता और साहस का परिचय दे रहे हैं। मुंबई के शाहनवाज शेख नामक युवक अपनी 22 लाख रु. कार बेचकर उस पैसे से जरुरतमंद रोगियों को ऑक्सीजन के बंबे उपलब्ध करा रहे हैं।
जोधपुर के निर्मल गहलोत ने श्वास-बैंक बना दिया है, जो ऑक्सीजन के बंबे उनके घर पहुंचाएगा, नाममात्र के शुल्क पर! एक किसान ने अपना तीन मंजिले घर को ही कोरोना अस्पताल बना दिया हैं। गुड़गांव के पार्षद महेश दायमा ने अपने बड़े कार्यालय को ही मुफ्त टीकाकरण का केंद्र बना दिया है। यदि हमारे सभी राजनीतिक दलों के लगभग 15 करोड़ कार्यकर्ता इस दिशा में सक्रिय हो जाएं तो कोरोना की विभीषिका को काबू करना कठिन नहीं होगा। (नया इंडिया की अनुमति से)
-बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
हिंदी के सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले पत्रकार। हिंदी के लिए आंदोलन करने और अंग्रेजी के मठों और गढ़ों में उसे उसका सम्मान दिलाने, स्थापित करने वाले वाले अग्रणी पत्रकार। लेखन और अनुभव इतना व्यापक कि विचार की हिंदी पत्रकारिता के पर्याय बन गए। कन्नड़ भाषी एचडी देवगौड़ा प्रधानमंत्री बने उन्हें भी हिंदी सिखाने की जिम्मेदारी डॉक्टर वैदिक ने निभाई। डॉक्टर वैदिक ने हिंदी को साहित्य, समाज और हिंदी पट्टी की राजनीति की भाषा से निकाल कर राजनय और कूटनीति की भाषा भी बनाई। ‘नई दुनिया’ इंदौर से पत्रकारिता की शुरुआत और फिर दिल्ली में ‘नवभारत टाइम्स’ से लेकर ‘भाषा’ के संपादक तक का बेमिसाल सफर।
कोरोना महामारी ने इतना विकराल रुप धारण कर लिया है कि सर्वोच्च न्यायालय को वह काम करना पड़ गया है, जो किसी भी लोकतांत्रिक देश में संसद को करना होता है। सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार को आदेश दिया है कि वह उसे एक राष्ट्रीय नीति तुरंत बनाकर दे, जो कोरोना से लड़ सके। मरीज़ों को ऑक्सीजन, इंजेक्शन, दवाइयाँ आदि समय पर उपलब्ध करवाने की वह व्यवस्था करे। न्यायपालिका को यह क्यों करना पड़ा ? इसीलिए कि लाखों लोग रोज़ बीमार पड़ रहे हैं और हजारों लोगों की जान जा रही है। रोगियों को न दवा मिल रही है, न ऑक्सीजन मिल रही है, न पलंग मिल रहे हैं। इनके अभाव में बेबस लोग दम तोड़ रहे हैं। टीवी चैनलों पर श्मशान घाटों और कब्रिस्तानों में लगी लाशों की भीड़ को देखकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। कोरोना की दवाइयों, इंजेक्शनों और अस्पताल के पलंगों के लिए जो कालाबाजारी चल रही है, वह मानवता के माथे पर कलंक का टीका है। अभी तक एक भी कालाबाजारी को चौराहे पर सरे-आम नहीं लटकाया गया है।
क्या हमारी सरकार और हमारी अदालत के लिए यह शर्म की बात नहीं है? होना तो यह चाहिए कि इस आपात्काल में, जो भारत का आफतकाल बन गया है, कोरोना के टीके और उसका इलाज बिल्कुल मुफ्त कर दिया जाए। पिछले बजट में जो राशि रखी गई थी और प्रधानमंत्री परवाह-कोष में जो अरबों रु. जमा हैं, वे कब काम आएंगे ? निजी अस्पताल भी यदि दो-चार महिने की कमाई नहीं करेंगे तो बंद नहीं हो जाएंगे। यह अच्छी बात है कि हमारी फौज और पुलिस के जवान भी कोरोना की लड़ाई में अपना योगदान कर रहे हैं। बंगाल की चुनावी सभाओं और कुंभ के मेले पर सरकार ने जो ढिलाई दिखाई है, उसी का नतीजा है कि 56 इंच का सीना सिकुड़कर अब 6 इंच का दिखाई पड़ रहा है। अब भारत को दूसरे देशों के सामने दवाइयों के लिए झोली पसारनी पड़ रही है। यदि महामारी इसी तरह बढ़ती रही तो कोई आश्चर्य नहीं कि अर्थव्यवस्था का भी भट्ठा बैठ जाए और करोड़ों बेरोजगार लोगों के दाना-पानी के इंतजाम के लिए भी संपन्न राष्ट्रों के आगे हमे गिड़गिड़ाना पड़े। चीन ने तो हमें दवाइयां दान करने की पहल कर ही दी है। इस नाजुक मौके पर यह जरुरी है कि हमारे विभिन्न राजनीतिक दल आपस में सहयोग करें और केंद्र तथा राज्यों की विपक्षी सरकारें भी सांझी रणनीति बनाएं। एक-दूसरे की टांग खींचना बंद करें। किसान नेताओं के प्रति पूर्ण सहानुभूति रखते हुए भी उनसे अनुरोध है कि फिलहाल वे अपने धरने स्थगित करें। राजनीतिक दलों के करोड़ों कार्यकर्ता मैदान में आएं और आफत में फंसे लोगों की मदद करें। यह काल आपातकाल से भी बड़ी आफत का काल है। आपातकाल में सिर्फ विपक्षी नेता तंग थे लेकिन इस आफतकाल में हर भारतीय सांसत में है। (नया इंडिया की अनुमति से)
-रमेश अनुपम
गुरुदेव तो गुरुदेव थे। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने यूं ही उन्हें गुरुदेव की उपाधि से विभूषित नहीं किया था। कवि हृदय गुरुदेव करुणा के विशाल सिंधु थे, मानवीय संवेदना के क्षीरसागर, जिसका कोई ओर-छोर ही नहीं था।
वे न किसी को दुख दे सकते थे और न ही किसी के साथ कोई छल कर सकते थे। उन्हें वैसे ही विश्वकवि के आसन पर नहीं बिठाया जाता है, कवि तो बहुत हुए पर विश्वकवि का दर्जा केवल रवींद्रनाथ ठाकुर को ही मिल सका।
सो गुरुदेव ने तय किया कि वे बिलासपुर जायेंगे और रूखमणी से मिलकर उनसे क्षमा मांगेंगे। यही नहीं बल्कि केवल कोलकाता वापसी के लायक पैसे अपने पास रखकर, जितनी भी राशि उनके पास होगी, वह सारी राशि रूखमणी के हाथों में रख देंगे।
यह गुरुदेव का अंतिम निर्णय था। सब कुछ बदल सकता था, पर गुरुदेव का यह निर्णय कदापि नहीं। कोलकाता से बिलासपुर तक का रास्ता गुरुदेव के लिए आसान नहीं था। रास्ते भर उनका मन व्याकुल पाखी की भांति यहां-वहां भटकता रहा। उनका हृदय मृग शावक की तरह न जाने कहां-कहां विचरता रहा।
गुरुदेव ही गुरुदेव की व्यथा-कथा को बूझ सकते थे। जैसे-जैसे बिलासपुर स्टेशन निकट आता जा रहा था, गुरुदेव की उत्कंठा बढ़ती ही जा रही थी। अंतत: बिलासपुर स्टेशन पर ट्रेन रुकी। गुरुदेव ट्रेन से नीचे उतरे। गुरुदेव को लगा यही उनका तीर्थ है, यही उनका गंतव्य। उनके भटकते हुए हृदय पाखी को जैसे नीड़ मिल गया हो । बिलासपुर स्टेशन पर पांव रखते ही गुरुदेव की आंखें रूखमणी के संधान में लग गईं।
गुरुदेव रूखमणी को हर जगह ढूंढ रहें हैं। स्टेशन के प्रथम श्रेणी यात्री प्रतीक्षालय से लेकर प्लेटफार्म के चप्पे-चप्पे में रूखमणी की तलाश कर रहे हैं। स्टेशन में वे हर किसी से रूखमणी के बारे में ही पूछ रहें हैं।
गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर अपनी कविता ‘ फांकि’ में लिखते हैं-
‘बिलासपुरे नेमे आमी
शुधाई सबार काछे। ंरूखमणी से कोथाय आछे? प्रश्न सुने अबाक माने
रूखमणी के ताई बा कजन जाने।’
(बिलासपुर स्टेशन में उतरकर मैं सबसे पूछता हूं
रूखमणी कहां है ?
प्रश्न सुनकर सब अवाक रह जाते हैं
रूखमणी कौन है ?
इसे कितने लोग जानते हैं। )
रूखमणी को स्टेशन में नहीं पाकर गुरुदेव बिलासपुर स्टेशन के बड़े बाबू के पास पहुंचे। बड़े बाबू से रूखमणी के बारे में पूछा। बड़े बाबू ने अपने दिमाग पर जोर डालकर कहा अच्छा-अच्छा झमरू कुली की पत्नी। फिर उसने कहा अब वे लोग यहां नहीं रहते हैं। गुरुदेव ने आशंकित मन से पूछा कि वे लोग मुझे अब कहां मिलेंगे। स्टेशन के बड़े बाबू गुरुदेव के इस सवाल से क्रोधित होकर बोले ‘वे कहां गए इसकी खबर कौन जानता है ’।
गुरुदेव ने इस दारुण प्रसंग का सजीव चित्रण ‘फांकि’ कविता में कुछ इस प्रकार किया है-
‘अनेक भेबे झामरू कुलिर बाऊ बललेम सेई
बलले सबे ‘एखन तारा एखाने के ऊ नेई’
शुधाई आमी कोथाय पाबो ताके ?
स्टेशनरे बड़ा बाबू रेगे बोलेन
‘से खबर के राखे’
(अनेक बार सोचने के उपरांत बड़े बाबू को याद आया कि गुरुदेव उनसे झमरू कुली की पत्नी के बारे में पूछ रहें हैं। बड़े बाबू ने कहा वे लोग इस समय यहां काम नहीं करते हैं। गुरुदेव ने पूछा कि वे लोग अब कहां मिल सकते हैं ? बड़े बाबू ने गुस्से में कहा वे कहां मिलेंगे इसकी जानकारी भला कौन रख सकता है )
गुरुदेव को सन 1902 में भला कौन जानता था। बंगाल में भी उन्हें जानने वाले लोग नहीं के बराबर थे। हालांकि उनकी ‘मानसी’ , ‘चित्रांगदा’ , ‘सोनार तरी’ जैसी अमूल्य कृतियां प्रकाशित हो चुकी थी, पर वे अभी लोकप्रिय नहीं हुई थी।
स्वयं गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर भी उस समय तक लोकप्रिय कहां हुए थे। लोकप्रियता और अपार ख्याति अभी उनसे थोड़ी दूर थी।
रवींद्रनाथ ठाकुर को लोकप्रियता और अपार ख्याति सन 1910 में बांग्ला में लिखी गई कविताओं के संग्रह ‘गीतांजलि’ से मिली और सच कहा जाए तो उन्हें अपार ख्याति सन 1912 में ‘गीतांजलि’ के अंग्रेजी में अनुवाद के पश्चात् तथा सन 1913 में उस पर मिले विश्व के सर्वोच्च सम्मान नोबेल पुरस्कार से मिली।
इसलिए बिलासपुर स्टेशन में बड़े बाबू को रवींद्रनाथ ठाकुर एक सामान्य बंगाली भद्र लोक से ज्यादा और कुछ नहीं लगे।
वे कहां जानते थे कि जो भद्र लोक उनसे एक कुली की पत्नी के बारे में पूछ-ताछ कर रहा है वह कोई साधारण मनुष्य नहीं, बल्कि भविष्य में विश्वगुरु के नाम से संपूर्ण विश्व में पूजे जाने वाले और नोबेल पुरस्कार जैसे विश्व प्रसिद्ध पुरस्कार से पुरुस्कृत किये जाने वाले असाधारण मानव कविगुरु रवींद्रनाथ ठाकुर हैं। शेष अगले हफ्ते
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
ऑक्सीजन की कमी के कारण नासिक के अस्पताल में हुई 24 लोगों की मौत दिल दहलानेवाली खबर है। ऑक्सीजन की कमी की खबरें देश के कई शहरों से आ रही हैं। कई अस्पतालों में मरीज सिर्फ इसी की वजह से दम तोड़ रहे हैं। कोरोना से रोज हताहत होने वालों की संख्या इतनी बढ़ गई है कि कई देशों के नेताओं ने अपनी भारत-यात्रा स्थगित कर दी है।
कुछ देशों ने भारतीय यात्रियों के आने पर प्रतिबंध लगा दिया है। लाखों लोग डर के मारे अपने गांवों की तरफ दुबारा भाग रहे हैं। नेता लोग भी डर गए हैं। वे तालाबंदी और रात्रि-कफ्र्यू की घोषणाएं कर रहे हैं लेकिन बंगाल में उनका चुनाव अभियान पूरी बेशर्मी से जारी है। ममता बेनर्जी ने बयान दिया है कि ‘कोविड तो मोदी ने पैदा किया है।’ इससे बढक़र गैर-जिम्मेदाराना बयान क्या हो सकता है ? यदि मोदी चुनावी लापरवाही के लिए जिम्मेदार है तो उससे ज्यादा खुद ममता जिम्मेदार है। ममता यदि हिम्मत करतीं तो मुख्यमंत्री के नाते चुनावी रैलियों पर प्रतिबंध लगा सकती थीं। उन्हें कौन रोक सकता था?
यह ठीक है कि बंगाल में कोरोना का प्रकोप वैसा प्रचंड नहीं है, जैसा कि वह मुंबई और दिल्ली में है लेकिन उसकी चुनाव-रैलियों ने सारे देश को यही संदेश दिया है कि भारत ने कोरोना पर विजय पा ली है। डरने की कोई बात नहीं है। जब हजारों-लाखों की भीड़ बिना मुखपट्टी और बिना शारीरिक दूरी के धमाचौकड़ी कर सकती है तो लोग बाजारों में क्यों नहीं घूम सकते हैं, कारखानों में काम क्यों नहीं कर सकते हैं, अपनी दुकाने क्यों नहीं चला सकते हैं और यात्राएं क्यों नहीं कर सकते हैं ? उन्हें भी बंगाली भीड़ की तरह बेपरवाह रहने का हक क्यों नहीं है ? लोगों की यह लापरवाही ही अब वीभत्स रुप धारण करती जा रही है।
इस जनता के जले पर वे लोग नमक छिडक़ रहे हैं, जो रेमजेदेविर का इंजेक्शन 40 हजार रु. और आक्सीजन का सिलेंडर 30 हजार रु. में बेच रहे हैं। ऐसे कालाबाजारियों को सरकार ने पकड़ा जरुर है लेकिन वह इन्हें तत्काल फांसी पर क्यों नहीं लटकाती और टीवी चैनलों पर उसका जीवंत प्रसारण क्यों नहीं करवाती ताकि वह भावी नरपशुओं के लिए तुरंत सबक बने। जहां तक ऑक्सीजन की कमी का सवाल है, देश में पैदा होनेवाली कुल ऑक्सीजन का सिर्फ 10 प्रतिशत ही अस्पतालों में इस्तेमाल होता है।
सरकार और निजी कंपनियां चाहें तो कुछ ही घंटों में सारे अस्पतालों को पर्याप्त ऑक्सीजन मुहैय्या हो सकती है। इसी तरह कोरोना के टीके यदि मुफ्त या सस्ते और सुलभ हों तो इस महामारी को काबू करना कठिन नहीं है। महामारी के अप्रत्याशित प्रकोप के कारण सरकार ने अपनी पीठ खुद ठोकनी बंद कर दी है लेकिन यह सही समय है, जब जनता आत्मानुशासन, अभय और आत्मविश्वास का परिचय दे। यह भी जरूरी है कि नेतागण कोरोना को लेकर दंगल करना बंद करें।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-अव्यक्त
जो राजनेता हर वक्त सत्ता जाने के भय से ग्रस्त रहते हों, क्या वे बच्चों को परीक्षा के भय से मुक्त होना सिखा सकते हैं?
अब से कोई 2400 साल पहले यूनानी दार्शनिक प्लेटो ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘द रिपब्लिक’ में कहा था कि राजा को दार्शनिक होना चाहिए या कि दार्शनिकों को भी राजा बनना चाहिए. प्लेटो की शर्त थी कि ऐसे राजा का जीवन एकदम सादगीपूर्ण होना होगा. मोटे तौर पर जिसे हम भारतीय परंपरा मानकर चलते हैं उसमें राजा का ज्ञानी होना अपेक्षित माना गया, लेकिन ज्ञानी मात्र का स्थान राजा से ऊपर रखा गया. राजा कितना भी शक्तिशाली हो और धनवान हो, लेकिन उसके ज्ञानियों, संतों और फकीरों के सामने झुककर उनसे परामर्श और मार्गदर्शन लेने की परंपरा रही. कहा गया कि ‘विद्वत्वं च नृपत्वं च नैव तुल्यं कदाचन. स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते…’ यानी विद्वान और राजा दोनों की तुलना कभी नहीं हो सकती, क्योंकि राजा की पूजा केवल अपने देश में होती है जबकि विद्वान की पूजा हर जगह होती है.
लेकिन यदि राजा या किसी भी प्रकार के शासक को यह अहंकार हो जाए कि वही सबसे बड़ा ज्ञानी है, तो वह अनर्थकारी ही सिद्ध होगा. बहुत से विद्वानों ने 20वीं सदी में नई प्रकार की तानाशाही या सर्वसत्तावादी शासकों के उदय के लिए प्लेटो के ‘दार्शनिक राजा’ वाले सिद्धांत को भी जिम्मेदार ठहराया है. एडोल्फ़ हिटलर और जोसेफ़ स्टालिन का उदाहरण ऐसे ही शासकों के रूप में दिया जाता है जिन्होंने जीवन के हर क्षेत्र को आधिकारिक रूप से प्रभावित करने की कोशिश में अपनी सनक थोपने से भी गुरेज नहीं किया. उन्होंने स्वयं को सुचिंतित दर्शन और महान सिद्धांतों का प्रणेता मान लिया और उन अनर्थकारी विचारों का प्रसार करने और उन्हें अमल में लाने की जिद में भयावह हिंसा से भी गुरेज नहीं किया.
बच्चों का मार्गदर्शक कौन हो, इस बारे में दुनिया के लगभग सभी समाजों में माता, पिता और आचार्य के नाम पर सहमति रही है. लेकिन वह भी सशर्त रही है. भारतीय परंपरा में आचार्य के लिए यह कठोर शर्त है कि ‘अचिनोति अर्थान्. अचिरति. आचारं कारयति.’ यानी जो सब विषयों का अध्ययन करता है, खुद आचरण करता है, और इस आधार पर दूसरों से आचरण करा पाने में सक्षम है, उसका नाम है ‘आचार्य’. संस्कृत में आचार्य ‘चर’ धातु से बना है. इसी चर धातु से ‘चारित्र्य’ और Cha-ra-cter जैसे शब्दों का बनना माना जाता है. कहने का मतलब यह कि ‘परोपदेश पांडित्यम’ को कोई भी पीढ़ी स्वीकार नहीं करती है. तो हमें क्या लगता है कि आज की पीढ़ी किसी भी ओहदे के व्यक्ति की आचरणरहित गपड़-सपड़ को गंभीरता से लेगी?
वेद में शिक्षक या मार्गदर्शक को ‘पथिककृद् विचक्षणः’ बताया गया है. पथिककृद् यानी पाथ-फाइंडर – रास्ता ढूंढ़ने वाला. आज जो राजनीति खुद रास्ता भटक चुकी है उसके झंडाबरदार भला कैसे ‘पथिककृद्’ बनेंगे? और पथिककृद के लिए भी शर्त रखी गई कि जो ‘विचक्षण’ होगा, वही ‘पथिककृद्’ बन सकेगा. विचक्षण मतलब क्या? विचक्षण माने चक्षण करने वाला, चारों ओर देखने वाला, व्यापक मानवीय दृष्टि वाला, विज़न वाला. केवल इस गुण से युक्त मनुष्य ही किसी के भी मार्गदर्शन का अधिकारी है. क्या आज की हमारी राजनीति इस तरह की व्यापक मानवीय दृष्टि रखती है? वह तो खंड-खंड में सिर्फ अपने हितों को पोसने वाली चीजों को देखने की आदी हो चुकी है. जाति, धर्म, पंथ, राष्ट्रीयता जैसी विभाजनकारी प्रवृत्तियों के आधार पर सत्ता को प्राप्त करना और फिर उसे कायम रखना ही आज उसे अपना प्रमुख उद्देश्य लगता है. इस तरह की राजनीति का अभ्यास करने वाले राजनेता हमारे बच्चों के सच्चे मार्गदर्शक कैसे बन सकते हैं?
आचार्य या मार्गदर्शक के लक्षण माने गए कि वह शीलवान, प्रज्ञावान और करुणावान होगा. यानी कि उसके चरित्र में संतों की भांति साधुता होगी. वह केवल विषय-वस्तु का ही ज्ञाता नहीं होगा, बल्कि उसकी प्रज्ञा भली प्रकार जागृत होगी. और उसके भीतर एक मां के जैसी करुणा भी होगी. ये तीनों गुण जिसमें एक साथ होंगे, केवल वही मार्गदर्शक बनने का अधिकारी होगा. यह एक खेदजनक तथ्य है कि आज के हमारे राजनेताओं में इन तीनों ही प्रकार के गुणों का सर्वथा अभाव पाया जाता है. न उनमें शील है, न प्रज्ञा. करुणा का तो मानो लोप ही हो चुका है. आज की राजनीति में ‘साधन की पवित्रता’ के सिद्धांत को ताक पर रख दिया गया है. राजनीतिक संगठनों के पास जो करोड़ों-अरबों की संपत्ति जमा हो चुकी है, उसका स्रोत किसी को मालूम नहीं है. बल्कि कानून बनाकर ऐसे स्रोत को गुप्त रखने की ढिठाई अमल में आ चुकी है. ऐसे गुप्त और अपवित्र साधनों के जरिए जो लोग सत्ता में आकर शीर्ष पदों पर बैठ गए हैं, हम उनके मानवीय गुणों के बारे में कैसे आश्वस्त हो सकते हैं?ऐसे लोग हमारे बच्चों के मार्गदर्शक कैसे हो सकते हैं?
अमेरिका के प्रसिद्ध राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने अपने बेटे के शिक्षक को एक बहुत मार्मिक चिट्ठी लिखी थी. उन्होंने शिक्षक से अनुरोध किया था कि ‘आप मेरे बच्चे को सिखाइएगा कि मेहनत से कमाया गया एक डॉलर, सड़क पर मिलने वाले पांच डॉलर के नोट से ज़्यादा कीमती होता है. … आप उसे किताबें पढ़ने के लिए तो कहिएगा ही, लेकिन साथ ही उसे आकाश में उड़ते पक्षियों को, धूप में हरे-भरे मैदानों में खिले फूलों पर मंडराती तितलियों को निहारने की याद भी दिलाते रहिएगा.’ पता चलता है कि उन्होंने पत्र के आखिर में यह भी लिख दिया कि अनुरोध के साथ-साथ ‘यह एक आदेश भी है’. यानी यह पत्र उन्होंने केवल एक बच्चे के पिता के रूप में नहीं, बल्कि एक शासनाध्यक्ष के रूप में भी लिखा था. आधुनिक समय में शिक्षकों और मार्गदर्शकों की सबसे दुःखद स्थिति यही है कि उन्हें अधिकारियों के पैरों तले रखा गया है, जहां उनकी स्वतंत्रचेतना छटपटाती रहती है. उन्हें परमुखापेक्षी बनाकर रख दिया गया है. वे एक वेतनभोगी कर्मचारी बनकर रह गये हैं. वे भला कैसे भावी पीढ़ियों का आत्मविश्वासपूर्वक मार्गदर्शन कर सकेंगे? जो भला खुद ही डर-डरकर जीता हो, वह कैसे एक निर्भयी और निष्पक्ष विश्वमानुष का निर्माण करेगा?
एक और उदाहरण जवाहरलाल नेहरू का दिया जाता है, जो प्रधानमंत्री बनने के बाद भी बच्चों से लगातार संवाद में रहते थे. लेकिन देखने की बात है नेहरू जी का प्रधानमंत्रित्व उनके व्यक्तित्व का एक छोटा पहलू था और उनके जीवनकाल का अंतिम पड़ाव था. भारतीय जनमानस के साथ उनका सुदीर्घ और प्राथमिक संबंध एक विद्वान और मार्गदर्शक के रूप में ही रहा था. बच्चों के साथ भी उनका संबंध ‘चाचा नेहरू’ के रूप में रहा, न कि ‘माननीय प्रधानमंत्री जी’ के रूप में. यानी बच्चों के साथ संवाद करने के उनके अधिकार का स्रोत सहज मानवीय संबंध था, न कि कोई शासकीय पदवी. नेहरू के बच्चों के साथ संवाद के जो भी दस्तावेज़ और वीडियो फुटेज उपलब्ध हैं उनमें उनकी देहभाषा की सहजता देखनी चाहिए. वे बच्चों से बच्चों के स्तर पर आकर या उन्हीं में से एक बनकर संवाद करते हैं. वहां कोई ज्ञानबघारू आडंबर दिखाई नहीं देता. वहां केवल मंच और स्रोता वाला संबंध नहीं है. ये सब देखने-समझने की बातें हैं.
आज राजनीति में हर प्रकार की मर्यादा भंग हो चुकी है. हमारे राजनेताओं का अपनी वाणी पर बिल्कुल भी नियंत्रण नहीं बचा है. संसद के भीतर और बाहर कहीं भी उनका व्यवहार अनुकरणीय नहीं है. चुनावों के दौरान तो उनका द्वेष, ईर्ष्या, परस्पर चरित्र-हनन, अनर्गल व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप और पाखंडपूर्ण प्रलाप अपने चरम पर होता है. किसी भी तरह सत्ता हासिल करने का लोभ और सत्ता छिन जाने का भय उनके चेहरे पर स्पष्ट दिखाई देने लगता है. दिखावटी अति-आत्मविश्वास के बावजूद उनकी हताशा उनकी बोली और व्यवहार में स्पष्ट झलकने लगती है. ऐसे लोग क्या ही हमारे बच्चों को परीक्षा के भय से निपटना सिखाएंगे? ऐसे लोग क्या ही हमारे बच्चों को बोली और व्यवहार की मर्यादा सिखाएंगे?
अब तो हल्के-फुल्के अंदाज में यह भी कहा जाने लगा है कि हमारे बच्चे राजनेताओं की तरह व्यवहार करने लगे हैं. उनकी मासूमियत खो रही है और उनमें राजनेताओं जैसी ही चतुराई आने लगी है. वे अपनी बात मनवाने के लिए कोई भी नाटक रच सकते हैं. अपने प्रतियोगी को पछाड़ने के लिए वे भी उचित-अनुचित कोई भी कसर नहीं छोड़ना चाहते. वे भी झूठे वादे करने लगे हैं. वे भी सौदेबाजी में माहिर हो रहे हैं. वे भी एक प्रकार से घूसखोरी की प्रवृत्ति के शिकार हो रहे हैं (यानी शांत रहने या बात मानने के एवज में अपनी जिद पूरा करवा रहे हैं). वे भी राजनेताओं की तरह दिखावाबाज़ और खर्चीले हो रहे हैं. वे भी वास्तव में होते कुछ और हैं लेकिन दिखते कुछ और हैं. लेकिन सोचने की बात है कि ऐसा क्यों हो रहा है? इसका कारण है कि बच्चा जिस तरह के पारिवारिक, सामाजिक और राजनीतिक परिवेश में पलता-बढ़ता है, वैसी ही प्रवृत्तियां उसमें आती हैं. और चूंकि आज के समय में हमने राजनीतिक सत्तामात्र को अपना ईष्ट बना रखा है, सामाजिक व्यवस्था की बागडोर भी राजनेताओं के भरोसे छोड़ दी है, तो आखिरकार यही होना है.
हम अक्सर भूल जाते हैं कि आज की राजनीति और शासनतंत्र की जो विद्रूपताएं हैं, वे हमारे बच्चों से छिपी नहीं हैं. आज यदि हमारे बच्चों को हास्य-कथा या व्यंग्य लिखने को कहा जाए, तो वे सबसे पहले राजनीति और राजनेताओं पर ही लिखना चाहेंगे. आज जब दुनिया महायुद्धों के कगार पर खड़ी है, राजनेताओं की अदूरदर्शिता की वजह से जल, वायु और मिट्टी की शुद्धता ही नहीं, बल्कि पूरी धरती ही अपना अस्तित्व बचाने के संकट से जूझ रही है, ऐसे समय में तो होना यह चाहिए था कि हमारे राजनेता हमारे बच्चों से उनकी सहजता, सरलता, निष्कपटता, अहिंसा, एकता, वैश्विकता, साझेदारी और संरक्षण जैसी बातें सीखते.
यह अनायास नहीं है कि ग्रेटा तुन्बेर्ग नाम की एक बच्ची विनाशकारी शक्तियों से लैस दुनिया के राष्ट्राध्यक्षों को रोज ही धरती की रक्षा का पाठ पढ़ाती दिखाई देती है. सच तो यह है कि हमारे राजनेता स्वयं ही लोकतंत्र और शुचितापूर्ण जीवन की परीक्षा में बुरी तरह विफल साबित हुए हैं. वे हमारे बच्चों को परीक्षा इत्यादि पर भला क्या ही ज्ञान देंगे? बच्चे हमारी बात शिष्टाचारवश चुपचाप सुन रहे हैं तो इसका मतलब यह कदापि नहीं निकालना चाहिए कि उन्हें हमारे बारे में कुछ भी मालूम नहीं है. वे सबकुछ जानते हैं. यही उनकी विडंबना भी है और संभावना भी. (satyagrah.com)
- बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कोरोना महामारी इतना विकराल रुप आजकल धारण करती जा रही है कि उसने सारे देश में दहशत का माहौल खड़ा कर दिया है। भारत-पाकिस्तान युद्धों के समय भी इतना डर पैदा नहीं हुआ था, जैसा कि आजकल हो रहा है। प्रधानमंत्री को राष्ट्र के नाम संबोधन देना पड़ा है। उन्हें बताना पड़ा है कि सरकार इस महामारी से लड़ने के लिए क्या-क्या कर रही है। आॅक्सीजन, इंजेक्शन, पलंगों, दवाइयों की कमी को कैसे दूर किया जाएगा। विरोधी नेताओं ने सरकार पर लापरवाही और बेफिक्री के आरोप लगाए हैं। लेकिन उन्हीं नेताअेां को कोरोना ने दबोच लिया है। कोरोना किसी की जाति, हैसियत, मजहब, प्रांत आदि का भेद-भाव नहीं कर रहा है। सभी टीके के लिए दौड़े चले जा रहे हैं। रक्षा मंत्री राजनाथसिंह ने फौज से भी अपील की है कि वह त्रस्त लोगों की मदद करे। लेकिन यहां बड़ा सवाल यह है कि रोज़ लाखों नए लोगों में यह महामारी क्यों फैल रही है और इसका मुकाबला कैसे किया जाए ?
इसका सीधा-सादा जवाब यह है कि लोगों में असवाधानी बहुत बढ़ गई थी। दिल्ली, मुंबई, कलकत्ता, पुणें जैसे शहरों को छोड़ दें तो छोटे शहरों, कस्बों और गांवों में आपको लोग बिना मुखपट्टी लगाए घूमते हुए मिल जाएंगे। शादियों, शोकसभाओं और सम्मेलनों में अच्छी-खासी भीड़ आप देखते रहे हैं। बाजारों में लोग एक-दूसरे से सटकर चलते रहे हैं। यहां तक कि रेलों और बसों में भी शारीरिक दूरी बनाए रखने और मुंहपट्टी लगाए रखने में लोग लापरवाही दिखाते रहे हैं तो कोरोना क्यों नहीं फैलेगा ? शहरों से गांवों की तरफ भागनेवाले लोग अपने साथ कोरोना के कीटाणु भी लेते जा रहे हैं। ऐसे में लाखों लोगों के लिए अस्पतालों में रोज जगह कैसे मिल सकती है ? सरकार ने ढिलाई जरुर की है। उसे अंदाज ही नहीं था कि कोरोना का दूसरा हमला इतना भयंकर भी हो सकता है। वह जी-तोड़ कोशिश कर रही है कि वह इस नए आक्रमण का मुकाबला कर सके। कुछ प्रांतीय सरकारें दुबारा तालाबंदी घोषित कर रही हैं तो कुछ रात्रि-कर्फ्यू लगा रही हैं। वे डर गई हैं। उनके इरादे नेक हैं लेकिन क्या वे नहीं जानतीं कि बेरोजगार लोग भूखे मर जाएंगे, अर्थ-व्यवस्था चौपट हो जाएंगी और संकट दुगुना हो जाएगा? सर्वोच्च न्यायालय और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तालाबंदी को अनावश्यक बताकर ठीक ही किया है। अभी तो सबसे जरुरी यह है कि लोग मुखपट्टी लगाए रखें, शारीरिक दूरी बनाए रखें और अपने सारे नित्य-कार्य करते रहें। जरुरी यह है कि लोग डरे नहीं। कोरोना उन्हीं को हुआ है, जो उक्त सावधानियां नहीं रख पाए हैं। (नया इंडिया की अनुमति से)
-सुसंस्कृति परिहार
उफ! अब तो कोरोना वैक्सीन कोविशील्ड भी मंहगाई की चपेट में आ गई है अभी तक तो सरकारी अस्पतालों में नि:शुल्क थी और निजी संस्थानों में 200 में लग रही थी उसे आज देश के सबसे बड़े उत्पादक सिरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया ने मंहगा करने की घोषणा करते हुए कहा है कि प्राइवेट मार्केट में कोरोना वैक्सीन कोविशील्ड की कीमत 600 और राज्य सरकार को दिए जाने वाले वैक्सीन की कीमत 400 प्रति डोज रखी गई है. यानि दो खुराकों का ख़र्चा 800 और 1200 होगा।सिरम इंस्टीट्यूट के सीईओ अदार पूनावाला ने कहा, अगले 2 महीने तक हम वैक्सीन प्रोडक्शन की क्षमता बढ़ाते रहेंगे और सीमित संख्या में ही वैक्सीन की आपूर्ति कर पाएंगे. पूनावाला ने कहा, "आगे चलकर हमारी वैक्सीन निर्माण क्षमता का आधा भारत सरकार के टीकाकरण अभियान में दिया जाएगा जबकि बाकी बचा हुआ हिस्सा हम राज्य सरकार और निजी हॉस्पिटल को सप्लाई करेंगे. सीरम इंस्टीट्यूट ने कोविशील्ड की कीमतों पर से भी पर्दा उठा दिया है.सिरम इंस्टीट्यूट ने कहा है कि उसकी कोरोना वैक्सीन इस समय बाजार में सबसे सस्ती है इंस्टीट्यूट ने कहा है कि अमेरिकन दवा कंपनी फाइजर और मॉडर्ना की कोरोना वैक्सीन की कीमत 1500 प्रति डोज है, जबकि रूस की कोरोनावायरस इन स्पूतनिक भी की कीमत 750 प्रति डोज है. सिरम इंस्टीट्यूट वास्तव में इस समय अपनी दवा उत्पादन क्षमता को भी अगले दो महीने में 7 करोड़ से 10 करोड़ तक भी करने जा रही है.
देश में कोरोना संक्रमण के मामले रोजाना तीन लाख के करीब पहुंच चुके हैं जबकि मरने वाले लोगों की संख्या रोजाना दो हजार को पार कर गई है. मोदीजी ने पिछले मंगलवार को राष्ट्र को संबोधित करते हुए कहा था कि अब राज्य सरकारें टीके को सीधे खरीद सकेंगी, जबकि केंद्र सरकार अपना इनोक्यूलेशन ड्राइव जारी रखेगी। हाल ही में प्रधानमंत्री ने कोरोना संक्रमण को देखते हुए एक बैठक की थी। इस बैठक में निर्णय लिया गया था कि एक मई से देश में कोराना वैक्सीनेशन का चौथा चरण शुरू किया जाएगा। इस चरण में 18 वर्ष से अधिक उम्र वाले लोग भी टीका लगवा सकेंगे।
महत्वपूर्ण बात यह है कि एक तरफ सरकार ने टीकोत्सव के ज़रिए लोगों को टीका लगाने पूरे चार दिन उत्सव मनाया जिसका भरपूर प्रचार प्रसार किया गया।अब युवाओं के लिए एक मई की ये घोषणा भी हो गई। शासकीय विज्ञापनों की तो बाढ़ ही आ गई। इस बीच लोगों में टीके के प्रति सजगता भी आई और सरकारी आंकड़ों के मुताबिक बड़ी संख्या में टीके लगाए भी गए और बहुसंख्यक लोग कोविशील्ड के बुरे परिणामों के बावजूद भी निर्भीक होकर इसे लगवाने तत्पर नज़र आ रहे हैं ।
लेकिन यह तो वैसा ही हुआ जैसे मोबाइल और गैसचूल्हा फ्री में पकड़ा कर सिम और गैस के रेट आसमान पर उछाल दिए। बिहार में चुनाव प्रचार के दौरान बिहार की जनता को फ्री में टीका लगाने का आश्वासन दिया था।वोट के बाद क्या हुआ सब ज़ाहिर है।अब रेट बढ़ जाने के बाद लोगों की छटपटाहट बढ़ गई क्योंकि कोरोना के बचाव में इसके कारगर होने का अभूतपूर्व प्रचार हुआ।कई दिग्गजों के फोटो और वीडियो भी वायरल हुए।जब लोगों ने टीके की मानसिकता बना ली तब अचानक नि:शुल्क टीका की कीमत का इस कदर बढ़ाना बहुसंख्यक रियाया के देश साथ छल करना है।
गरीबगुरबे तो इस विषय में सोचना ही बंद कर देंगे जिन्हें बामुश्किल दो जून की रोटी नसीब हो रही थी वह भी दैनंदिन काम करने वालों की कोरोना ने छीन रखी है उन पर यह कैसा वज्रपात ?क्या देश ऐसे ही गरीबों को मारकर कोरोना मुक्त होने की तैयारी कर रहा है।आज टीके के दाम कम करवाने का विकल्प यदि नहीं मिलता है तो राज्य सरकारों को कम से कम गरीबों के लिए नि:शुल्क व्यवस्था करनी ही होगी ।एक परिवार में पांच तो कम से कम और अधिकतम आठ दस लोगों को टीका की ज़रूरत होगी।यह भी विचार करना होगा इससे पूर्व पूर्ववर्ती सरकारों ने अब तक लोगों से किसी भी टीका लगवाने के लिए शुल्क नहीं लिया था तब भी टीका लगाने कितने अभियान चलाने पड़े फिर शुल्क देने पर तो करोड़ों करोड़ लोग वंचित रह जायेंगे।अच्छा हो सरकार और कंपनी जनहित में नि:शुल्क टीके का ही इंतज़ाम करे।
-आनंद बहादुर
आज रामनवमी है, आज मैं दिन भर राम के बारे में सोचता रहता हूं। वैसे तो मैं हमेशा उनके बारे में सोचता रहता हूं- वो कौन हैं, हमारे कौन लगते हैं, हम उनके कौन हैं, वो हमारी फिक्र करते हैं कि हम उनकी फिक्र करते हैं, हम उनके लिए लड़ते हैं कि वे हमारे लिए लड़ते हैं, सबसे अधिक, उन्हें हमारी जरूरत है कि हमें उनकी जरूरत है? वे मनुष्य हैं कि ईश्वर, अगर वे मनुष्य हैं तो हम इतनी शिद्दत से उनकी पूजा क्यों करते हैं, यदि वे ईश्वर हैं तो फिर उनका जन्म कैसे हो सकता है? ईश्वर तो अनादि अनंत हैं! मेरे सामने हमेशा राम नाम के अनेक माडल उपस्थित रहते हैं। वे अक्सर परस्पर विरोधी भी होते हैं। सबको एक साथ स्वीकार करना असम्भव है। इनमें से कौन माडल मेरे चित्त को भाता है, मैं किसे आत्मसात करूं, किसे त्यागूं?
मुख्यतः मेरे सामने राम के दो मॉडल हैं- एक तुलसी के राम दूसरे कबीर के राम। मैं हमेशा कबीर के राम और तुलसी के राम की तुलना करता रहता हूं। सारे जगत में तुलसी के राम ख्यात हैं। वे, "धर्म धुरीन धीर नयनागर, सत्य सनेह सील सुखसागर/ देसकाल लखि साम समाजू, नीति, प्रीति पालक रघुराजू" हैं। वे, "कंदर्प अगणित अमित छवि नव नील नीरद सुंदरम/ पट पीट मानहु तड़ित रुचि शुचि नामि जनकसुता वरम्" हैं। वे सारे जगत में विख्यात राम हैं, आज पूरी दुनिया में उन्हीं का डंका बज रहा है, लोग जोर जोर से जय श्रीराम कहकर उन्हीं को पुकारते हैं। घर-घर में, गांव-गांव में, नगर नगर में, जिस नाम को भजा जा रहा है वह तुलसी के राम का नाम ही है, शायद ही कोई हो जो कबीर के राम को भज रहा हो। यहां तक कि कबीर के अनुयायी होने की घोषणा करते रहने वाले भी अधिकांश घोर कर्मकांडी, अवतारवादी, पुनर्स्थापनावादी हो गए हैं, और ऐसा होना कबीर से विमुख होना है।
तो एक तरफ वे राम हैं जिनकी नवमी हो सकती है। दूसरी तरफ कबीर के राम हैं। कबीर के राम और ही हैं। वे खुद कहते हैं- 'दसरथ सुत तिहुं लोक बखाना, राम नाम के मरम है आना।'
कबीर के राम दसरथ सुत नहीं हैं, उनका तो मरम ही कुछ और है। अपने राम के बारे में वे कहते हैं--
सगुण राम और निर्गुण रामा, इनके पार सोई मम नामा।
सोई नाम सुख जीवन दाता, मैं सबसों कहता यह बाता।।
ताही नाम को चेन्नहु भाई, जासो आवागमन मिटाई।
पिंड ब्रह्मांड में आतम राम, तासु परें परमातम नाम।।
इसीलिए कबीर के राम को लेकर कहीं कोई लड़ाई-झगड़ा नहीं है। उनका कोई भवन कहीं नहीं बनाया जाना है। उनको कोई भेंट उपहार नहीं चढ़ाना है। उनके नाम पर कहीं कोई शोर नहीं मचाना है। उनके नाम को चिल्लाते हुए किसीसे डरने-डराने की जरूरत नहीं है। उनका कोई अपमान नहीं होता है। वे मान अपमान के परे हैं क्योंकि वे परमेश्वर हैं, जो घट घट में बसते हैं और जिनको दुनिया भूल गई है-- दुनिया देखै नाहीं।
कबीर मुझे तत्व मीमांसा की परंपरा के साधक लगते हैं। तत्व मीमांसा और अर्थ मीमांसा प्राचीन भारत में बहुत प्रचलित थे। मुझे लगता है यह मीमांसा की शक्ति ही रही होगी जिसने हमें प्राचीन काल में, खासकर पूर्व वैदिक काल तक सोचने विचारने तथा अर्थ की प्रतिछायाओं को ढूंढने वाली सभ्यता बनाया था। इसी परम्परा ने हमें विश्वगुरु बनाया होगा। कबीर इसी परंपरा की उपज हैं, जैसे काकभुशुण्डी, कुम्भकर्ण, रैदास आदि भी हैं। फिर धीरे-धीरे इस विवेकवादी तर्कशील परंपरा का क्षरण होने लगता है और हम स्थूल ऐन्द्रिक मूर्तियों की पूजा करने वाले पैसिव लोगों की सभ्यता में बदल कर रह जाते हैं। हम तर्क करने, सवाल पूछने की अपनी क्षमता को खो बैठते हैं। कबीर हमेशा प्रश्न पूछते हैं। पत्थर पूजने से क्या मिलेगा? वह पूछते हैं। ऊंची मीनार पर चढ़कर चिल्लाने से क्या खुदा सुन लेगा? वे पूछते हैं। वे शिकायत करते रहते हैं-- दुनिया देखै नाही! इस मामले में जो व्यक्ति मुझे कबीर के सबसे निकट लगता है वह हैं गालिब। "वो हर इक बात पर कहना, कि यूं होता तो क्या होता!"
तो कहना ना होगा कि कबीर और तुलसी दो अलग-अलग परंपराओं के वाहक हैं। देश की ज्ञानात्मक परंपरा, उसके अंतर्गत बाह्य रूप को वेध कर तत्व को देखने की क्षमता पर भरोसा किया गया है। कबीर वहीं से आते हैं। यह देश जो अतीत में इसी परंपरा का उज्जवल और प्रवहमान स्रोत था, जाने कैसे एक बंद तोता रतंटवादी परंपरा के घेरे में आ गया, जो सवालों से कतराता है। जो यथास्थिति को अपना पाथेय मानता है। जो चंद नामों को रट भर लेने को धर्म और आध्यात्म का केंद्र बताता है। जो मानता है कि पाप और पुण्य गणित के जोड़-घटाव जैसे होते हैं। दस पाप कर लिए तो एक बार कथा करा लो, पाप कट जाएगा। यह नहीं सोचता कि हृदय में पछतावा या अफसोस उत्पन्न हुए बिना, आत्मग्लानि पैदा हुए बगैर, सिर्फ तथाकथित पवित्र नदियों का स्नान कर लेने और ढेर सारे कर्मकांडों को कर लेने से पाप कैसे कट सकता है? कबीर ऐसे लोगों के गुरु कतई नहीं हो सकते हैं कबीर तो ऐसे ही लोगों के गुरु हो सकते हैं जो बाह्य आवरण को फाड़कर अंतरात्मा में झांकने के लिए लालायित हैं। वहां, उस घट घट में जहां कबीर के राम रहते हैं। कबीर में गमन तुलसी से पलायन है।
तो मित्रो, रामनवमी की शुभकामना। मैं अपने राम को भजता हूं, आप भी अपने राम को भजिए। सभी अपने अपने राम को भजें। साथ में सीता मइया को भी भजें। 'जय श्री राम' कहना चाहें तो कहें, या फिर 'सियाबर रामचंद्र की जय!' बोलें।
68 साल के इदरीस डेबी चाड की सत्ता पर तीन दशक से भी अधिक समय से काबिज थे.
चाड के राष्ट्रपति इदरिस डेबी देश के उत्तरी इलाक़े में विद्रोहियों के साथ हुए संघर्ष में मारे गए हैं.
चाड की सेना के अनुसार, इस संघर्ष में वे घायल हो गए थे, जिसके बाद में उनकी मौत हो गई. उनकी मौत अस्थायी चुनाव परिणाम आने के एक दिन बाद हुई है. इसमें अनुमान लगाया गया था कि वे राष्ट्रपति का चुनाव छठी बार जीत सकते हैं.
चाड की सरकार और संसद दोनों को भंग कर दिया गया है. चाड में कर्फ्यू का ऐलान किया गया है और सीमाओं को बंद कर दिया गया है.
68 साल के डेबी चाड की सत्ता पर तीन दशक से भी अधिक समय से काबिज थे. वह अफ्ऱीका के सबसे लंबे समय तक सत्तारूढ़ रहने वाले नेताओं में से एक थे.
वह पहले सेना के एक अधिकारी थे. 1990 में सशस्त्र विद्रोह के ज़रिए उन्होंने सत्ता अपने हाथों में ली. वे अफ्ऱीका के साहेल इलाक़े में जिहादी समूहों के ख़िलाफ़ लड़ाई में फ्रांस और अन्य पश्चिमी शक्तियों के लंबे समय से सहयोगी रहे थे.
सेना के एक जनरल ने मंगलवार को चाड के सरकारी टीवी पर कहा कि डेबी ने संप्रभु राष्ट्र की रक्षा करते हुए युद्ध के मैदान में अंतिम सांस ली.
वे सप्ताहांत में राजधानी एनजमेना के कई सौ किलोमीटर उत्तर सेना के मोर्चे पर गए थे. वहाँ पर सेना और विद्रोही संगठन फैक्ट (द फ्रंट फॉर चेंज एंड कॉनकॉर्ड इन चाड) के बीच लड़ाई चल रही है.
बताया गया है कि चाड के राष्ट्रपति डेबी का अंतिम संस्कार शुक्रवार को राजकीय सम्मान के साथ होगा.
डेबी की मौत के बाद फ़ैसला लिया गया है कि उनके 37 वर्षीय बेटे महामत इदरीस डेबी इट्नो के नेतृत्व में बनी एक सैन्य परिषद अगले 18 महीनों तक शासन करेगी. महामत डेबी सेना में अभी 'फोर स्टार जनरल' हैं.
सेना ने अपने बयान में कहा कि महामत डेबी सैन्य परिषद का नेतृत्व करेंगे. संक्रमण काल से गुजर जाने के बाद चाड में "स्वतंत्र और लोकतांत्रिक" चुनाव कराए जाएंगे. सेना ने बाद में 14 अन्य जनरलों का नाम लेते हुए एक और बयान जारी किया और बताया कि ये लोग गवर्निंग बॉडी का हिस्सा होंगे.
बीबीसी मॉनिटरिंग के एक पत्रकार ने सेना की नोटिस की कॉपी को ट्वीट किया है. इस ट्वीट में कहा गया है- चाड के नए नेता महामत इदरिस डेबी ने 15 जनरलों को संक्रमण काल की सैन्य परिषद (टीएमसी) के सदस्यों के रूप में नियुक्त किया है. यह परिषद चाड पर अगले 18 महीनों के लिए शासन करेगी.
हालाँकि विशेषज्ञों ने बीबीसी और अन्य मीडिया संस्थानों से कहा है कि यह क़दम असंवैधानिक है. नियम के अनुसार, चुनाव होने के पहले ही यदि किसी राष्ट्रपति की मृत्यु हो जाती है तो मौजूदा संसद के स्पीकर को पदभार संभालना चाहिए.
इससे पहले, 11 अप्रैल को चुनाव से पहले डेबी ने इलाक़े में शांति और सुरक्षा लाने के लिए एक अभियान चलाया था. चुनाव के अस्थायी यानी प्रोविजिनल नतीजों से पता चला है कि चुनाव में उन्हें 80 फ़ीसदी वोट मिले हैं.
हालांकि चाड के तेल संसाधनों के प्रबंधन को लेकर उनकी सरकार से नाराज़गी बढ़ रही थी.
'इस मौत ने चाड में एक ख़ालीपन ला दिया है'
बीबीसी के अफ्ऱीका संवाददाता एंड्रयू हार्डिंग ने कहा है कि इदरिस डेबी में एक दुर्लभ बात थी, तभी उन्हें एक सच्चे योद्धा राष्ट्रपति के रूप में जाना जाता है. पूर्व विद्रोही और प्रशिक्षित पायलट रहे डेबी किसी जनरल के विपरीत स्वभाव के इंसान थे.
वे चाड जैसे एक विशाल राष्ट्र के 30 साल से अधिक समय तक प्रमुख रहे. सहारा क्षेत्र में फैले चाड के चारों ओर अफ्ऱीका के सबसे कठिन संघर्ष चल रहे हैं. और डेबी का हर संघर्ष में हाथ था. चाहे डारफुर, लीबिया, माली, नाइजीरिया और मध्य अफ्ऱीकी गणराज्य को ही ले लें. उसके सैनिक दुनिया के सबसे लड़ाके सैनिकों में से हैं.
हार्डिंग के अनुसार, धीरे-धीरे वे चाड के निरंकुश प्रमुख बन गए थे. उनकी ताजा चुनावी जीत में लगभग 80 फीसदी वोट मिलने का दावा किया गया है. हालांकि यह स्पष्ट नहीं है कि ग़रीब, सामंती और कमज़ोर चाड में सत्ता का सहजता से बदलाव हो पाएगा या नहीं. इसे लेकर बहुत सी चिंताएं हैं. पूर्व राष्ट्रपति डेबी माली, नाइजर और अन्य जगहों पर इस्लामी चरमपंथियों के ख़िलाफ़ युद्ध में सालों तक पश्चिम के अपरिहार्य सहयोगी बने रहे. उनकी मौत से एक ख़ालीपन आया है जिसे भरने के लिए कई लोग संघर्ष कर सकते हैं.
दुनिया उन्हें याद कर रही
फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुअल मैक्रों ने अपने एक बयान में डेबी को "बहादुर दोस्त" के रूप में याद किया और कहा कि उन्होंने चाड में स्थिरता लाने के लिए काफ़ी प्रयास किया. फ्रांस ने सालों से डेबी के विरोधियों को पीछे धकेलने के लिए अपनी सेना और लड़ाकू विमान तैनात किए हैं.
साहेल क्षेत्र में इस्लामी कट्टरपंथियों से लड़ रहे सैन्य बलों, जिन्हें "जी 5" देशों का समर्थन हासिल है, में चाड की सेना को सबसे असरदार माना जाता है.
बीबीसी की कैथरीन ब्यारूहांगा के अनुसार, चाड ने इस इलाक़े में जहाँ लीबिया, सूडान और मध्य अफ्ऱीकी गणराज्य हैं, अक्सर स्वयं को सबसे स्थिर देश साबित किया है. इस इलाक़े में कई सशस्त्र समूह स्वतंत्र रूप से घूमते हैं और हथियारों और आकर्षक संसाधनों का व्यापार करते हैं. इसका नतीजा इलाक़े में तनाव के रूप में सामने आता है.
डेबी से नाराज़ पूर्व सैन्य अधिकारियों द्वारा 2016 में बनाए गए विद्रोही समूह 'फैक्ट' ने राष्ट्रपति डेबी पर चुनाव में दमन का आरोप लगाया था. फैक्ट विद्रोहियों ने लीबिया में टिबेस्टि के पहाड़ों में अपना आधार बनाया है. यह उत्तरी चाड और दक्षिणी लीबिया के हिस्से में फैला है.
चुनाव वाले दिन, इस समूह ने एक सीमा चौकी पर हमला करके धीरे-धीरे एनजमेना की ओर आगे बढ़ा. ताजा संघर्ष शनिवार को शुरू हुआ. चाड की सेना के एक जनरल ने समाचार एजेंसी रॉयटर्स को बताया है कि 300 विद्रोहियों को मार दिया गया जबकि 150 को पकड़ लिया गया है. उन्होंने कहा कि चाड के पांच सैनिक इस मुक़ाबले में मारे गए और 36 घायल हो गए हैं. हालांकि इन आँकड़ों को अभी प्रमाणित नहीं किया जा सका है.
राजधानी का माहौल अभी ठीक है
इस बीच राजधानी एनजमेना के कुछ विदेशी दूतावासों ने अपने कर्मचारियों को चाड छोड़ने का आग्रह किया है.
एनजमेना में बीबीसी के एक पूर्व पत्रकार महामत एडेमोऊ ने बताया है कि राजधानी के हालात अपेक्षाकृत शांत है. उन्होंने कहा, "लोगों से मिल रही ख़बरों से पता चल रहा है कि राजधानी एनजमेना का माहौल अभी शांत है. राष्ट्रपति डेबी की मौत की ख़बर सुनकर लोग चौंक गए हैं. बहुत से लोग तो यह भी नहीं जानते थे वे घायल हो गए थे या वे सीमा पर गए हुए थे."
"शहर में सड़क पर बख्तरबंद वाहन हैं जो प्रमुख चौराहों पर तैनात हैं. लोग सोच रहे हैं कि आगे क्या होगा. हालांकि इससे ज्यादा कुछ यहां नहीं सोचा जा रहा है."
एनजमेना पहले भी विद्रोहियों के हमलों की जद में आ चुका है. सोमवार को शहर में दहशत का माहौल था. अभिभावक जब अपने बच्चों को स्कूल से घर ला रहे रहे थे, तब सड़कों के किनारे टैंक तैनात कर दिए गए थे.
चाड के बारे में पाँच प्रमुख बातें:
1) इसका नाम एक झील चाड के नाम पर रखा गया है. यह अफ्रीका की दूसरी सबसे बड़ी झील है. हालांकि 1960 के बाद यह 90 फीसदी तक सिकुड़ गई है. इसका जल अधिग्रहण क्षेत्र नाइजीरिया, नाइजर, चाड और कैमरून के कुछ हिस्सों को कवर करता है. यह झील दो से तीन करोड़ लोगों के लिए एक प्रमुख जल स्रोत है.
2) सहारा रेगिस्तान देश के लगभग एक तिहाई हिस्से को कवर करता है. उत्तर का अधिकांश भाग रेगिस्तानी है, जहाँ चाड की महज एक फीसदी एक फ़ीसदी आबादी रहती है. दक्षिण में जंगली सवाना के व्यापक फैलाव है.
3) यहां 2001 में सत्तर लाख साल पुराने मानव जैसे जीव या होमिनिड के अवशेष जिसे "टूमई" कहा जाता है, पाया गया. इसे खोजने वालों ने बताया कि ये सबसे पुराना होमिनिड है.
4) चाड 2003 में एक तेल-उत्पादक राष्ट्र बना. अटलांटिक तट पर बने टर्मिनलों से इसके तेल क्षेत्रों को जोड़ने के 4 बिलियन डॉलर की लागत से पाइपलाइन बिछाई गई. हालांकि यह उद्योग भ्रष्टाचार के आरोपों से काफी त्रस्त है.
5) यहां के अधिकतर लोगों की आजीविका का साधन कृषि है. दक्षिणी भाग में कपास उगाया जाता है, जिसे यूरोप और अमेरिका को निर्यात किया जाता है. (bbc.com)
-बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पाकिस्तान में इमरान-सरकार की मुसीबतें एक के बाद एक बढ़ती ही चली जा रही हैं। उसे तहरीके-लबायक पाकिस्तान नामक राजनीतिक पार्टी पर प्रतिबंध भी लगाना पड़ गया और प्रतिबंध के बावजूद उससे बात भी करनी पड़ रही है। इस पार्टी पर इमरान-सरकार ने प्रतिबंध इसलिए लगाया है कि उसने पाकिस्तान के शहरों और गांवों में जबर्दस्त आंदोलन खड़ा कर दिया। कोरोना के बावजूद हजारों लोग सड़कों पर डटे हुए हैं। वे मांग कर रहे हैं कि फ्रांसीसी राजदूत को पाकिस्तान सरकार निकाल बाहर करे। क्यों ? क्योंकि फ्रांस में सेमुअल पेटी नामक एक अध्यापक ने पैगंबर मुहम्मद का कार्टून अपनी कक्षा में छात्रों को खोलकर दिखाया था।
इस पर चेचन्या मूल के एक मुस्लिम नौजवान ने उसकी हत्या कर दी थी। उसे लेकर फ्रांसीसी सरकार ने मस्जिदों और मदरसों पर तरह-तरह के प्रतिबंध लगा दिए थे। पिछले साल हुए इस कांड के समय से ही तहरीके-लबायक मांग कर रही थी कि फ्रांस और यूरोपीय देशों के इस इस्लाम-विरोधी रवैए का पाकिस्तान डटकर प्रतिकार करे। प्रधानमंत्री इमरान खान ने यूरोपीय राष्ट्रों के इस रवैए की आलोचना भी की लेकिन उन्होंने फ्रांस से राजनयिक संबंध तोड़ने का समर्थन नहीं किया। इसीलिए अब तहरीके-लबायक ने इमरान-सरकार के खिलाफ देश-व्यापी आंदोलन छेड़ दिया है। 2015 में खादिम रिज़वी ने इस संगठन को खड़ा किया था और अब उनका बेटा साद रिजवी इसे चला रहा है। इस संगठन का जन्म मुमताज कादरी पर चले मुकदमे के दौरान हुआ था। कादरी ने लाहौर के राज्यपाल सलमान तासीर की इसलिए हत्या कर दी थी कि वे ईश-निंदा कानून का विरोध कर रहे थे। इस संगठन को शुरु में पाकिस्तानी फौज और सरकार का पूरा समर्थन रहा है। पाकिस्तान के सुन्नी कट्टरपंथी और शिया व अहमदिया-विरोधी तत्वों ने इसे जमकर हवा दी है। हालांकि पाकिस्तान की संसद और विधानसभाओं में इसके सदस्य कम हैं लेकिन इसका जनाधार काफी व्यापक है। इसीलिए एक ईसाई महिला आसिया बीवी को 2018 में जब ईश-निंदा के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के तीन जजों ने रिहा कर दिया तो रिजवी ने उन तीनों के खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया था।
उनकी हत्या की मांग भी की थी। इमरान सरकार ने लबायक के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की लेकिन आसिया बीवी को चुपचाप हालैंड भी भिजवा दिया। तहरीके-लबायक की जमीनी पकड़ इतनी मजबूत है कि उसके नेता पाकिस्तानी सेनापति क़मर जावेद बाजवा को ‘अहमदिया’ कहकर लांछित करते हैं लेकिन उनका कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता है। इसीलिए पाकिस्तान की सरकार, चाहे वह मियां नवाज की हो या इमरान की हो, लबायक के नेताओं के साथ हमेशा हकलाती रहती है। पैगंबर के कार्टूनों को लेकर अन्य इस्लामी देशों ने भी अपना क्रोध प्रकट किया है लेकिन जैसी नौटंकी पाकिस्तान में चल रही है, उसे मोहम्मद अली जिन्ना देख लेते तो वे अपना माथा ठोक लेते। क्या यह जिन्ना के सपनों का पाकिस्तान है? बेचारे इमरान की बड़ी मुसीबत है। उनकी सरकार ने तहरीके-लबायक़ के मजहबी अतिवाद की आलोचना नहीं की है। उसे सिर्फ आतंकवादी बताकर अवैध घोषित किया है ताकि पाकिस्तान की दम तोड़ती अर्थ-व्यवस्था से अंतरराष्ट्रीय वित्तीय कोश मुंह न मोड़ ले।
-संजीव गुप्ता
ये जो लोग अस्पताल, दवाई, ऑक्सीजन, वेंटिलेटर और इलाज के अभाव में मर रहे हैं न, यह केवल तुम्हारे लिए एक इंसान, एक वोटर या एक संख्या मात्र हो सकते हैं। लेकिन यह अपने परिवार के लिए पूरी दुनिया थे। ये वो लोग हैं जिन्होंने अपनी खून पसीने की कमाई से टैक्स दिया। इस उम्मीद से कि इसे और इसके परिवार को इलाज के लिए अस्पताल मिले। बच्चों को स्कूल मिले। इसने इस उम्मीद से टैक्स दिया कि इसके साथ साथ गरीब परिवारों का भला हो सके। सबका भला हो सके। लेकिन तुमने क्या दिया ?
हे सरकारों !
तुम बार बार देश की तरक्की की बात करते हो न। अपने किए पर घमंड करते हो न। क्या दिया तुमने इन 70 सालों में ? यदि तुम देश की सभी जनता को दो वक्त की रोटी, पहनने के कपड़े, रहने को मकान, बेहतर शिक्षा और स्वास्थ्य नहीं दे सकते तो किस बात की तरक्की कर ली तुमने। तुमको क्या लगता है, चमचमाती सड़कें, बड़े बड़े स्टेडियम, बड़ी बड़ी अट्टालिकाएं बना लिए तो तरक्की हो गई। ऐसी तरक्की किस काम की कि आम आदमी इलाज के अभाव में अपने परिवार के सामने हांफते हुए दम तोड़ दे।
हे सरकारों !
ये लोग मरे हैं न उन्हें पूरा अधिकार था जीने का। जैसे तुम इसके वोट पर अपना अधिकार समझते हो। इस पर हुक्म चलाते हो और इन्हें अपने हिसाब से हांकते हो। इसने अपने वोट का इस्तेमाल इसलिए किया कि तुम उसका ख्याल रखो, उनके परिवारों का ख्याल रखो। वह खुद छोटे से मकान में रहा लेकिन तुम्हे रहने लिए बड़े—बड़े बंगले दिए। इसका परिवार खतरे में रहता है लेकिन वह तुम्हें लाव लश्कर देता हैा। वह खुद पैदल चलता है लेकिन तुम्हें अपनी कमाई की गाड़ी में बिठाता है। उसके परिवार के बच्चे सिर्फ तस्वीरों में जहाज देखते हैं जिनकी कमाई से तुम उड़ते फिरते हो।
हे सरकारों !
ये जो लोग मर रहे हैं न अकेले नहीं मर रहे हैं। उनके साथ परिवार की उम्मीद, मां की ममता, भाई का प्यार, पिता की छाया, पत्नी का ख्याल और बहन की राखी भी मर रही है। तुम इनके मरने पर किसी भी गलती ठहरा सकते हो, मरने वाले की गलती भी निकाल सकते हो। क्योंकि तुम सरकार हो। तुम्हें नींद भी आती होगी ? पता नहीं कैसे आती होगी ?
और अंत में — हे जनता !
अब की बार ये सरकारें तुम्हारे पास आएं हमेशा की तरह, पांच साल में एक बार। तो इस बार प्लीज अपनी जात, बिरादरी, धर्म और कुछ पाने की लालच में मत आना। प्लीज इस बार अपने गांव में अपने बच्चों के लिए अच्छा स्कूल और अपने परिवार के लिए अच्छा अस्पताल मांग लेना।
-कनक तिवारी
राम का असर हिन्दुस्तान के अवाम पर सबसे ज्यादा है। राम ऐसे राजपुत्र हैं जिनका सगापन सौतेली माता के लिए ज़्यादा है। वे संयोग या नीयतन दलित वर्ग के नायक बनकर ब्राहाणों के राक्षसत्व का विनाश करते हैं। सबसे प्रामाणिक एकनिष्ठ पति होकर भी सीता के निर्वासन और अग्नि परीक्षा के लिए पत्नीपीड़क राम को दुनिया की तमाम औरतेें माफ नहीं कर पा रही हैं। राम से ज़्यादा इतिहास में अन्य किसी ने सब कुछ खोया भी नहीं है।
राम लोकतंत्र का थर्मामीटर और मर्यादा का बैरोमीटर हैं। वे जनतंत्रीय उपेक्षित प्रश्नों के अनाथालय है। वे कुतुबनुमा हैं। जिधर राम होते हैं, उधर ही उत्तर है। भारतीय दार्शनिक या़त्रा के मील के पत्थर हैं। उनके अक्स को समझे बिना साम्प्रदायिक दृष्टिकोणों से लड़ाई नहीं जीती जा सकती। राम पहले भारतीय के रूप में उत्तर दक्षिण एकता के नायक हैं। सदियों बाद कृष्ण पूरब पष्चिम एकता की धुरी बने। इस लिहाज से राम भारत के देशांश और कृष्ण अक्षांश हैं। देशांशों से अक्षांशों की संख्या दुगुनी होती है। सुनते हैं राम विष्णु की आठ कलाओं और कृष्ण सोलह कलाओं से बने थे। राम एकांगी और कृष्ण बहुआयामी थे।
राम के पास सच का हथियार था। वे देश को राजनीतिक भाषा का ककहरा पढ़ाने वाले विश्वविद्यालय हैं। आज के राजनेता इस बीजगणित को कितना समझते हैं? रामनवमी के कार्यक्रम में राजभोगी मुख्य अतिथि के मुंह से मदिरा की गंध नहीं आए तो वह सहयोगियों की दृष्टि में तुच्छ लगता है। संसद में अश्लीलता का पिछले बरसों से मंत्रोच्चार हो रहा है। राम के लोकतंत्र को बचाए रखने का जनसंकट पैदा हो गया है।
राम के लिए बेकार मध्यवर्गीय नवयुवकों की भीड़ के द्वारा धोबी के मकान पर हमला करवाने के बाद जिन्दाबाद के नारे लगवा लेना कठिन नहीं था। अदना व्यक्ति के द्वारा राजसत्ता की लक्ष्मी पर आधारहीन आरोप शंका के आधार पर लगाए जाने की खतरनाक शुरुआत का ही सफाया किए जाने की शुरुआत हो सकती थी। राम ने ऐसा नहीं किया। इतिहास में अपनी जगह सुरक्षित रखने के बदले राम ने नियमों और मर्यादाओं के नाम पर दाम्पत्य जीवन, पुत्रमोह, परिवार सुख और सत्ता की बलि चढ़ा दी। शिकायत करने का सार्वजनिक अधिकार राम की वजह से जिन्दा है। हर मुसीबतजदा, अन्यायग्रस्त, व्यवस्थापीड़ित व्यक्ति के दिल में प्रज्वलित साहस में राम की बाती है।
राम के साथ दोहरी जिम्मेदारियां थीं। वे राष्ट्रपति तथा प्रधानमंत्री की भूमिका सम्हाले हुए थे। उच्चतम न्यायालय भी खुद थे। उन्होंने अपना सब कुछ नष्टकर लोकनीति और न्यायिक निष्कपटता सुनिश्चित की। वे अपने दरबार में किसी ऐसे व्यक्ति को गृहमंत्री बने नहीं रहने देते जिस पर धार्मिक अपराध करने सम्बन्धी अपराध कायम होता। एक व्यक्ति द्वारा लिए गए निर्णयों के खतरे ज्यादा होते हैं। इसके बावजूद राम ने उस अंतिम व्यक्ति से संवाद कर निर्णय किए जिसे रस्किन ने गांधी की चिन्ता के खाते में डाला था। सामन्तवादी व्याख्याकार प्रधानमंत्री का विशेषाधिकार बताते हैं कि जिसे चाहें अपना मंत्री बनाए। प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री रामदरबार की नकल करते मंत्रिपरिषद की अध्यक्षता करते हैं। राम मन्दिर में धार्मिक व्यक्ति की शक्ल में सर झुकाने वाले राजनेता अपने काबीना मंत्रियों को सहयोगी समझने के बदले ‘यसमैन‘ बनाकर इतिहास में खुद को महिमामंडित करना चाहते हैं। यह राम का रास्ता नहीं है।
अपनी विद्या का गलत प्रयोग करने के बावजूद रावण के पास राम ने भाई लक्ष्मण को शिष्टाचार सीखने भेजा। राजनीति में कितने राम हैं जो अपने लक्ष्मणों को भ्रष्टाचार, धोखाधड़ी, बलात्कार, हत्या आदि के प्रकरणों से बचाने के लिए राजसत्ता का दुरुपयोग करते हैं। ऐसे राम हैं जो अपने लक्ष्मणों से अपनी ही पार्टी के दुश्मनों को निपटने के लिए बयान दिलवाते हैं। फिर खुद मध्यस्थ की भूमिका अदा कर राम को धन्यवाद देते हैं कि उनका भी लक्ष्मण आज तक कम से कम आज्ञाकारी तो है।
राम परिवारवादी नहीं थे। लक्ष्मण और सीता को छोड़कर लंका विजय तक कोई रिश्तेदार उनके साथ नहीं था। उन्होंने दलितों का साथ लिया। आदिवासियों को लोकतंत्र के युद्ध का साहसिक पुर्जा बनाया। राजनेता अपने परिवारजनों के कारण मारे जा रहे हैं। जीतने का कीर्तिमान रचने वाले, शराबी पुत्र के कुलक्षणों पर पर्दा डालने, सरकारी जंगलों की लकड़ी कटाई के आरोपों को लेकर नेता सांसत में हैं। सत्ताधीश खुद के खर्च से प्रायोजित मौसमी संस्थाओं की नकली उपाधियों से विभूषित अपनी रामलीला में रमे हैं। बुद्धिजीवियों को बीन बीनकर राज्य व्यवस्था बाहर कर रही है। अभियुक्त न्याय सिंहासन पर काबिज हैं। यशस्वी पिताओं द्वारा रचित ग्रन्थों के पठन, प्रकाशन तक की राजनेताओं को चिन्ता नहीं है। विद्वानों का स्थान नवरत्नों की शक्लों में सेवानिवृत्त, त्यागपत्रित और बर्खास्त नौकरशाही धीरे धीरे ले रही है। वे रामराज्य के धोबी की लोकभाषा नहीं बल्कि शासन का अहंकार बनते हैं।
-विजदान मोहम्मद कवूसा
अप्रैल की शुरुआत में भारत और पाकिस्तान के द्विपक्षीय रिश्ते एक बार फिर सुर्खय़िों में आ गए थे और इसकी वजह थी पाकिस्तान के वित्त मंत्री का भारत के साथ दो साल से चले आ रहे एकतरफ़ा प्रतिबंध को वापस लिया जाना।
हालाँकि, पाकिस्तान की कैबिनेट ने अगले ही दिन इस फैसले को पलट दिया। भारत पहले भी संकेत दे चुका है कि वह व्यापार जारी रखने को तैयार है, लेकिन उसने इसकी जिम्मेदारी पाकिस्तान पर छोड़ दी है।
इसके बावजूद हालिया दशकों में दोनों देश बड़े व्यापारिक साझेदार नहीं हैं, जबकि कुछ उद्योग और बाज़ार एक-दूसरे पर निर्भर करते हैं और व्यापार पर रोक के कारण इन पर भारी मार पड़ रही है।
व्यापारिक कठिनाइयाँ बेहद छोटे स्तर पर बड़ी भूमिका निभाती हैं और हज़ारों लोगों की जि़ंदगियों को भी प्रभावित करती हैं।
साल 2018 में आई विश्व बैंक की एक रिपोर्ट का कहना था कि अगर दोनों देश हाई टैरिफ़, कठिन वीज़ा नीतियों और बोझिल प्रक्रियाओं को हटा देते हैं, तो उनके बीच व्यापार 2 अरब डॉलर से बढक़र 37 अरब डॉलर का हो सकता है।
क्यों रुका व्यापार?
दोनों देशों के बीच व्यापार 2019 से बंद है, जब भारत प्रशासित कश्मीर से जुड़ी दो घटनाएँ हुईं।
कश्मीर के पुलवामा में चरमपंथी हमले में 40 सुरक्षाबलों की मौत हुई थी, जिसके लिए भारत पाकिस्तान को जिम्मेदार बताता है। इसके बाद भारत सरकार ने पाकिस्तान का मोस्ट फेवर्ड नेशन का दर्ज छीन लिया और वहाँ से आयात होने वाली चीजों पर कस्टम ड्यूटी 200 फ़ीसदी तक बढ़ा दी।
इसका प्रभाव इतना गंभीर था कि जनवरी से लेकर मार्च के बीच पाकिस्तान से होने वाला आयात 91 फीसदी गिर गया।
भारतीय वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय के मासिक आँकड़ों के अनुसार, भारत ने जनवरी में 3।23 करोड़ डॉलर का सामान आयात किया, जो फऱवरी में 1।86 करोड़ डॉलर और मार्च में 28 लाख डॉलर हो गया।
इसके बाद अगस्त 2019 में जब भारत ने जम्मू-कश्मीर का विशेष राज्य का दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 को समाप्त कर दिया, तो पाकिस्तान ने भारत से आयात पर प्रतिबंध लगा दिया। जिसके कारण जुलाई और सितंबर में भारत से पाकिस्तान में होने वाले निर्यात में 90त्न की गिरावट हुई।
भारत ने जुलाई में 12.03 करोड़ डॉलर का सामान निर्यात किया था, जिसके बाद अगस्त में यह सिर्फ 5.23 करोड़ डॉलर और सितंबर में 1।24 करोड़ डॉलर था।
भारत ने अप्रैल 2019 में नियंत्रण रेखा पर जम्मू-कश्मीर से होने वाले व्यापार पर भी रोक लगा दी थी। भारत का दावा है कि ऐसी खुफिया रिपोर्टें थीं कि पाकिस्तान स्थित चरमपंथी गुट इसके जरिए अवैध हथियार, जाली नोट और नशीले पदार्थों की तस्करी कर सकते हैं।
अर्थव्यवस्था पर प्रतिबंध का असर
दोनों देशों के बीच व्यापार रद्द होने से ऐसा दिखाई देता है कि इससे इनके कुल आयात और निर्यात बाजार पर अधिक असर नहीं पड़ा है, क्योंकि दोनों देशों के व्यापार में इसका बेहद मामूली हिस्सा है।
हालाँकि, पाकिस्तान की व्यापार के मामले में भारत पर थोड़ी अधिक निर्भरता देखने को मिलती है।
संयुक्त राष्ट्र कॉमट्रेड के आँकड़ों के अनुसार, बीते 15 सालों में 2018 तक भारत का दुनिया भर से आयात 5.2 लाख करोड़ डॉलर का था, लेकिन पाकिस्तान से सिर्फ 5.5 अरब डॉलर का ही आयात था। यह देश के कुल आयात का सिर्फ 0.1 फीसदी था। इसी समय में भारत से पाकिस्तान होने वाला निर्यात उसके कुल निर्यात का सिर्फ 0.7 फीसदी था।
इस दौरान किसी भी साल में भारत के कुल आयात में पाकिस्तान का हिस्सा 0.16 फीसदी से अधिक नहीं रहा। वहीं भारत के कुल निर्यात में उसका हिस्सा कभी 1.1 फीसदी से आगे नहीं बढ़ पाया।
वहीं, भारत से आयात करने के मामले में पाकिस्तान के कुल आयात का हिस्सा 3.6 फीसदी रहा है, जबकि निर्यात करने के मामले में भारत के कुल निर्यात का हिस्सा 1.5 फीसदी रहा है। इस दौरान पाकिस्तान के कुल आयात में भारत का हिस्सा 4.4 फीसदी तक पहुँच गया जबकि उसकी देश के कुल निर्यात में हिस्सेदारी 2.1 फीसदी थी।
पाकिस्तान के कपड़ा और
चीनी उद्योग पर असर
दोनों देशों के बीच व्यापार रद्द होने से कुछ क्षेत्रों में काफी असर हुआ है। पाकिस्तान में जहाँ कपड़ा उद्योग और चीनी का बाजार इससे प्रभावित हुआ है, वहीं भारत में इसके कारण सीमेंट उद्योग, छुहारे और सेंधा नमक के बाजार पर असर पड़ा है।
अंग्रेजी अखबार द इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, इस प्रतिबंध से पाकिस्तान पर ख़ासा असर होगा, क्योंकि उसकी भारत पर कपड़े और दवा उद्योग के कच्चे माल के लिए भारी निर्भरता है।
रिपोर्ट कहती है कि पाकिस्तान का कपास और चीनी पर आयात प्रतिबंध हटाने का फैसला कपड़ा उद्योग के कच्चे माल की कमी और घरेलू बाजार में चीनी के बढ़ते दाम के कारण लिया गया था।
पाकिस्तान का कपड़ा उद्योग बड़े औद्योगिक क्षेत्रों में से एक है और उसके कुल आयात में इसकी भागीदारी 60 फीसदी है। कपड़े के बाद चीनी उद्योग देश में सबसे बड़ा कृषि आधारित उद्योग है।
पाकिस्तान के वित्त मंत्री हम्माद अज़हर ने जब भारत के साथ सीमित व्यापार दोबारा शुरू करने की घोषणा की थी, तो उन्होंने कहा था कि पाकिस्तान में कपास की ज़्यादा मांग है, क्योंकि कपास की कम घरेलू पैदावार के बीच कपड़ा निर्यात बढ़ चुका है। वहीं, दूसरे देशों की तुलना में भारत में चीनी के दाम बेहद कम हैं।
कॉमट्रेड डाटाबेस के अनुसार, पाकिस्तान ने भारत से 2018 में जितनी भी वस्तुओं का आयात किया, उनमें कपास का कुल हिस्सा 24 फीसदी था। इसके बाद के साल में भी इस व्यापार पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा था। उस साल पाकिस्तान का भारत से कपास का कुल आयात 37 फीसदी था।
साल 2018 में पाकिस्तान भारत से 9त्न चीनी और चीनी के अन्य उत्पाद आयात करता था। आउटलुक पत्रिका के अनुसार, पाकिस्तान ने जब भारत के साथ व्यापार प्रतिबंधित किया, उसके बाद उसने ब्राजील, चीन और थाइलैंड से चीनी आयात करना शुरू कर दिया। इसके कारण चीनी की सप्लाई कम हो गई और घरेलू बाजार में इसके दाम बढ़ गए।
2018 में भारत से पाकिस्तान और भी चीज़ें आयात करता था जो कि अधिकतर कपड़ा उद्योग से जुड़ी हुई थीं। इनमें कुछ जैविक रसायन, जीरा, धनिया और सरसों शामिल थीं।
डॉयचे वेले की एक रिपोर्ट में नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ सिंगापुर के इंस्टीट्यूट ऑफ़ साउथ एशियन स्टडीज़ में रिसर्च फैलो अमित रंजन कहते हैं, ‘इस तरह के संबंध तोड़ लेना व्यावहारिक नहीं होते हैं क्योंकि कमज़ोर अर्थव्यवस्था से जूझ रहे पाकिस्तान पर इसने भारी बोझ डाला है। भारत से सामान लेना किसी भी देश की तुलना में बेहद सस्ता होता है।’
भारत में छुहारा, सेंधा नामक और सीमेंट बाजार पर असर
पाकिस्तान से भारत आयात होने वाली चीज़ों को लेकर यह एक दूसरी तस्वीर है, क्योंकि भारत तीन मुख्य चीजों को छोडक़र पाकिस्तान पर बहुत अधिक निर्भर नहीं है।
हालाँकि, ये ऐसी चीजें हैं, जिसके लिए भारत पाकिस्तान पर निर्भर है और व्यापार रद्द होने से इस पर ख़ासा असर पड़ा है।
दिल्ली स्थित कंसल्टिंग ऑर्गनाइज़ेशन ब्यूरो ऑफ़ रिसर्च ऑन इंडस्ट्री एंड इकोनॉमिक फंडामेंटल्स (क्चक्रढ्ढश्वस्न)की एक रिपोर्ट के अनुसार, द्विपक्षीय व्यापार रद्द होने से भारत में छुहारों के खुदरा दामों में तीन गुना वृद्धि हुई है क्योंकि वह इसके आयात के लिए पाकिस्तान पर निर्भर है।
भारत सरकार के आँकड़ों के अनुसार, 2018-19 में भारत का खजूर और छुहारों का पाकिस्तान से आयात 40 फीसदी था, छुहारों के मामले में यह आँकड़ा 99.3 फीसदी तक है। भारत ने जब पाकिस्तान के आयात पर 200 फीसदी की ड्यूटी लगाई, तो भारत में छुहारे आम उपभोक्ताओं के लिए बेहद महंगे हो गए।
2019-20 में भारत का पाकिस्तान से छुहारों का आयात सिर्फ 0.25 फीसदी ही रह गया।
क्चक्रढ्ढश्वस्न की एक रिपोर्ट के अनुसार, पाकिस्तान से सीमा साझा करने वाले भारतीय शहर अमृतसर में व्यापार रुकने के बाद सेंधा नमक के दाम दोगुने हो गए थे। 2018-19 में पाकिस्तान से भारत का सेंधा नमक का आयात प्रतिशत 99.7 फीसदी था, अगले साल यह घटकर 28 फीसदी हो गया था।
इसी तरह से पाकिस्तान से भारत आयात होने वाली सीमेंट का प्रतिशत 2018-19 में 86त्न था। क्चक्रढ्ढश्वस्न की रिपोर्ट के अनुसार, कस्टम ड्यूटी बढ़ाने से पहले पाकिस्तान से सीमेंट और जिप्सम आयात करना बेहद आसान होता था।
आम इंसान को हो रहा नुक़सान
मीडिया रिपोर्टों में देखा जाता है कि व्यापार प्रतिबंध अर्थव्यवस्था पर गहरा असर डालता है, लेकिन यह आम लोगों पर अलग तरह से असर डालता है।
क्चक्रढ्ढश्वस्न में एसोसिएट डायरेक्टर निकिता सिंगला ने न्यूज वेबसाइट ‘द वायर’ में व्यापार रुकने के कारण मानवीय नुकसान पर लिखा है। वो बताती हैं कि भारत और पाकिस्तान दोनों देशों के मीडिया में यह बताया जाता है कि व्यापार रुकने से उनके देशों की अर्थव्यवस्था पर कोई ख़ास असर नहीं पड़ रहा है, जबकि इसके कारण कई लोग अपनी आजीविका खो चुके हैं।
सिंगला लिखती हैं, ‘मैं उन बच्चों से मिली हूँ, जिन्हें निजी स्कूलों से निकाल लिया गया, क्योंकि उनके पिता का व्यापार चौपट हो चुका था। अटारी ट्रक यूनियन के एक ट्रक मालिक से मैं मिलीं जिन्होंने 2010 में अमृतसर से हांगकांग आने का फ़ैसला किया था, क्योंकि उन्हें वाघा-अटारी सीमा पर व्यापार में संभावनाएँ दिखी थीं और उन्होंने 30 ट्रक खऱीदे थे।’
कश्मीर और आर्टिकल 370 से लेह-लद्दाख को क्या थी परेशानी?
‘मैं एक पिता से मिली थी, जो अपने तीन बेटों के साथ ट्रकों में सामान चढ़ाने और उतारने का काम किया करते थे और उसके ज़रिए अपनी आजीविका चला रहे थे। वे सभी अब बेरोजगार हैं, उनमें से उनका एक ‘पढ़ा-लिखा’ बेटा रोजगार ढूँढने में सफल हो पाया, जो एक गुरुद्वारा साहिब में ग्रंथी हैं और उन्हें सिर्फ दो घंटे का काम मिलता है।’
क्चक्रढ्ढश्वस्न की रिपोर्ट का अनुमान है कि द्विपक्षीय व्यापार पर असर पडऩे से घर में इकलौते कमाने वाले व्यक्ति के कारण सिर्फ अमृतसर शहर में 9,354 परिवारों पर सीधा असर पड़ा है।
उन्होंने इसमें व्यापारी, सीमा शुल्क एजेंट, ट्रक मालिक और ड्राइवर, मजदूर, दुकानदार, पेट्रो पंप कर्मी और मैकेनिक जैसे अन्य लोग शामिल किए हैं। (bbc.com)
-राजेश प्रियदर्शी
रमज़ान का महीना शुरू हो चुका है। पाकिस्तान में जनरल जिय़ा के दौर में भाषा और संस्कृति के अरबीकरण पर बहुत ज़ोर होता था। वही दौर था जब रेडियो पाकिस्तान ने ‘ख़ुदा हाफिज़़’ की जगह ‘अल्लाह हाफिज़़’ कहना शुरू किया था। अक्सर रमज़ान और रमादान में कौन सही है इसकी चर्चा छिड़ जाती है। अरब दुनिया में घूमने पर पता चला कि वे पाकिस्तान को ‘बाकिस्तान’ कहते हैं और पेप्सी को बेब्सी। मुझे भी तकऱीबन हर जगह रादेश ही पुकारा गया।
बहरहाल, यह एक पुराना कि़स्सा जिसे लंदन में किसी पाकिस्तानी दोस्त ने बरसों पहले सुनाया था, अब नाम याद नहीं आ रहा। अरबी क़ुरआन शरीफ़ की भाषा है तो फ़ारसी रूमी और सादी की, कोई कम नहीं है, बस समझ का फेर है।
बहरहाल, इस कि़स्से के जिय़ा साहब जनरल जिय़ा नहीं हैं, उनसे इतनी ज़बानदराज़ी कौन करता? तो कि़स्सा यूँ है—‘जिय़ा साहब हाथों में थालियाँ लिए जा रहे थे। हमारे सामने से गुजऱे हमने कह दिया, जिय़ा साहब, ‘रमज़ान मुबारक’! रुके, पास बुलाया और बोले, ‘रमादान होता है सही लफ्ज़़, रमज़ान नहीं, अरबी का लफ्ज़़ है, अरबी की तरह बोला जाना चाहिए।’
मैंने भी कहा, आप सही कह रहे हैं दिया साहब। फ़ौरन चौंके-कहने लगे ‘ये दिया कौन है’ मैने कहा आप। कैसे भई, मैं तो जिय़ा हूँ... मैंने कहा जब रमज़ान रमादान हो गया तो फिर जिय़ा भी तो दिया हो जाएगा। ये भी तो अरबी का लफ्ज़़ है!
जिय़ा साहब जाने लगे तो हमने टोक दिया ‘कल इफ़्तारी में बकौड़े बनवाइएगा तो हमें भी भेज दीजिएगा।.
..फ़ौरन फडफ़ड़ा के बोले ‘ये बकौड़े क्या चीज़ है’...हमने कहा अरबी में ‘पे’ तो होता नहीं तो पकौड़े बकौड़े ही हुए...पेप्सी भी बेब्सी हो गई’ एकदम ग़ुस्से में आ गए ...तुम पागल हो गए हो...हमने कहा पागल नहीं बागल बोलिए अरबी में तो बागल ही हुआ...बहुत ग़ुस्से में आ गए कहने लगे अभी चप्पल उतार के मारूँगा...मैने कहा चप्पल नहीं शब्बल कहिए, अरबी में च भी नहीं होता...और ग़ुस्से में आ गए कहने लगे अबे गधे बाज़ आ। मैंने कहा बाज़ तो मैं आ जाऊँगा मगर गधा नहीं जधा कहिए, अरबी में ग भी नहीं होता...अब उनका पारा सातवें आसमान पर था...गरज के पूछा तो आखिर अरब में होता क्या है?’
कम हम भी नहीं हैं...कह दिया-आप जैसे दाहिल।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कोरोना की महामारी के दूसरे हमले का असर इंतना तेज है कि लाखों मजदूर अपने गांवों की तरफ दुबारा भागने को मजबूर हो रहे हैं। खाने-पीने के सामान और दवा-विक्रेताओं के अलावा सभी व्यापारी भी परेशान हैं। उनके काम-धंधे चौपट हो रहे हैं। इस दौर में नेता और डॉक्टर लोग ही जऱा ज्यादा व्यस्त दिखाई पड़ते हैं। बाकी सभी क्षेत्रों में सुस्ती का माहौल बना हुआ है। पिछले साल करीब दस करोड़ लोग बेरोजगार हुए थे। उस समय सरकार ने गरीबों का खाना-पीना चलता रहे, उस लायक मदद जरुर की थी लेकिन यूरोपीय सरकारों की तरह उसने आम आदमी की आमदनी का 80 प्रतिशत भार खुद पर नहीं उठाया था। अब विश्व बैंक के आंकड़ों के आधार पर ‘प्यू रिसर्च सेंटर’ का कहना है कि महामारी के कारण भारत की अर्थ-व्यवस्था में इतनी गिरावट हो गई है कि भारत के गरीबों की बात जाने दें, जिसे हम मध्यम वर्ग कहते हैं, उसकी संख्या लगभग 10 करोड़ से घटकर करीब 7 करोड़ रह गई है। तीन करोड़ तीस लाख लोग मध्यम वर्ग से फिसलकर निम्न वर्ग में चले गए हैं। मध्यम वर्ग के परिवारों का दैनिक खर्च 750 रुपए से 3750 रु. तक का होता है। यह आंकड़ा ही अपने आप में काफी दुखी करनेवाला है। यदि भारत का मध्यम वर्ग 10 करोड़ का है तो गरीब वर्ग कितने करोड़ का है ? यदि यह मान लें कि उच्च मध्यम वर्ग और उच्च आय वर्ग में 5 करोड़ लोग हैं या 10 करोड़ भी हैं तो नतीजा क्या निकलता है? क्या यह नहीं कि भारत के 100 करोड़ से भी ज्यादा लोग गरीब वर्ग में आ गए हैं ? भारत में आयकर भरनेवाले कितने लोग हैं ? पांच-छह करोड़ भी नहीं याने सवा सौ करोड़ लोगों के पास भोजन, वस्त्र, निवास, शिक्षा, चिकित्सा और मनोरंजन के न्यूनतम साधन भी नहीं हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि आजादी के बाद भारत ने कोई उन्नति नहीं की। उन्नति तो उसने की है लेकिन उसकी गति बहुत धीमी रही है और उसका फायदा बहुत कम लोगों तक सीमित रहा है। चीन भारत से काफी पीछे था लेकिन उसकी अर्थव्यवस्था आज भारत से पांच गुना बड़ी है। कोरोना फैलाने के लिए वह सारी दुनिया में बदनाम हुआ है लेकिन उसकी आर्थिक प्रगति इस दौरान भी भारत से कहीं ज्यादा है। अन्य महाशक्तियों के मुकाबले कोरोना का काबू करने में वह ज्यादा सफल हुआ है। भारत का दुर्भाग्य है कि दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहलवाने के बावजूद दिमागी तौर पर वह आज भी अंग्रेजों का गुलाम बना हुआ है। उसकी भाषा, उसकी शिक्षा, उसकी चिकित्सा, उसका कानून, उसकी जीवन-पद्धति और उसकी शासन-प्रणाली में भी उसका नकलचीपना आज तक जीवित है। मौलिकता के अभाव में भारत न तो कोरोना की महामारी से जमकर लड़ पा रहा है और न ही वह संपन्न महाशक्ति बन पा रहा है। (नया इंडिया की अनुमति से)
इस लॉकडाउन में मेरे मन की बात कुछ ऐसी है, मुझे ऐसा लग रहा है जैसे कोरोना एक परीक्षा है और हमें उस परीक्षा में पास होना बहुत आवश्यक है। तभी हम नेस्ट लेवल में या ऐसे कहें कि हम आगे की दुनिया देख पायेगें और मुझे नहीं लगता कि ये परीक्षा ज्यादा कठिन है, क्योंकि कक्षा की पढ़ाई में बहुत से विषय होते हैं और बहुत सारी बातें याद करनी होती हैं। परन्तु इस परीक्षा में हमारे पास केवल एक ही विषय है और वह विषय ’’कोरोना वायरस’’ है और इसमें सीखने वाली बस कुछ ही बातें हैं जिसे याद रखते हुए हमें पास और कोरोना को फेल करना है। मुझे मेरे दादा जी ने बताया कि हमारे देश के वीरों को तो खून बहाकर देश की रक्षा करनी पड़ी परन्तु हमें तो सिर्फ सामान्य सी बातों को ध्यान में रखते हुए देश की रक्षा करनी है।
इस लॉकडाउन कि वजह से आज मेरा भारत कितना स्वच्छ नजर आ रहा है। अगर हम लॉकडाउन ना समझ कर इसे अपनी जिन्दगी का एक हिस्सा समझकर पालन करें, अपने आस-पास को साफ रखें, पर्यावरण का ध्यान रखें और जीव-जन्तु की रक्षा करें तो हमें दोबारा कभी किसी वायरस का सामना नहीं करना पड़ेगा। सच तो यह है कि मुझे लॉकडाउन के बारे में कुछ पता नहीं था लेकिन मैंने जबसे यह शब्द अपने टीवी न्यूज चैनल पर सुना तब से मुझे इस लॉकडाउन के बारे में जानने कि बड़ी इच्छा हुई और मैंने इसे समझने के लिए अपने मम्मी-पापा कि सहायता ली। उन्होंने मुझे कहानी के रुप में बड़े सरल शब्दों में ऐसा समझाया कि मुझे इसे समझ कर बहुत खुशी हुई और थोड़ा दुख भी हुआ। परन्तु जब पूरे परिवार के साथ पूरा समय रहने को मिला तब बहुत अच्छा लगा। मैंने पूरे 7 साल में पापा के साथ इतना समय कभी नहीं रह पाया था। परन्तु इस लॉकडाउन की वजह से मैंने अपना पूरा समय घर वालों के साथ और पापा के साथ बहुत मजे किए। बहुत कुछ सीखने को मिला, किस परिस्थिति में कैसे खुश रहना है सीखा। ऑनलाइन पढ़ाई करने का अनुभव हुआ। पढ़ते हुए खेलना और खेलते हुए पढ़ना भी मजेदार था। मम्मी की सहायता करना सीखा। छोटी बहन के साथ खेलना और उसे पढ़ना सिखाना और अपनी बचपन की हरकतों को याद करना आदि। मम्मी-पापा के साथ बैठकर उनकी शादी का वीडियो देखना और दादा-दादी, नाना-नानी से मिलने का इन्तजार करना। लॉकडाउन में डिजिटल तकनीक का बेहतर उपयोग कर घर में बैठकर पढ़ाई कर पा रहा हूॅ। घर बैठे अपने दादा-दादी, नाना-नानी से वीडियो कॉल से अपनी क्रियाओं को दिखाता हूॅं। साथ ही दादी-नानी ने भी बताया कि घर के खाने में कितना स्वाद होता है। पहले मैं बहुत जीद करता था, बाहर का व्यंजन खाने के लिए लेकिन मेरी मम्मी ने वो हर व्यंजन बनाई और खिलाई जो मैंने कहा तब मुझे अहसास हुआ कि बाहर के खाने से ज्यादा स्वादिष्ट और सेहतमंद तो घर में बने व्यंजन ही होता है।
एक और बात 2020 में कोरोना वायरस का फैलना एक बहुत बड़ी सीख है। इसकी वजह से बहुत सारे नुकसान हुए हैं, लेकिन इसी के वजह से आज भारत कितना स्वच्छ हो गया है। हमारी धरती के लिए वरदान साबित हो रहा है। लॉकडाउन के कारण लोगों का बारह आना जाना रुक गया, जिससे मोटर गाड़ियॉ बंद रहीं, फैक्ट्रीयॉं बंद हो गये, इससे उत्पन्न होने वाले विषैली गैसे वातावरण में फैलना लगभग बंद हो गया और प्रकृति पुनः स्वच्छ हो गयी। नदियों के जल स्वच्छ हो गये क्योंकि जो कारखानों से उत्सर्जित होने वाले गंदा पानी नदियों में बहाया जाता था अभी बंद है।
इस खतरनाक महामारी को ध्यान में रखते हुए देश की सरकार ने जो हमें इसके संक्रमण से बचने के लिए जो उपाय सुझायें हैं जिसमें मुख्यतः बार-बार अपने हाथों को साबुन या हैण्डवॉस से कम से कम 20 सेकण्ड तक धोना, बाहर निकलने पर फेस मॉस्क लगाना, सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करना आदि शामिल हैं। इन सभी नियमों का पालन करते हुए हम सभी विद्यार्थियों को अपनी आगे की पढ़ाई जारी रखनी हैं और कोरोना को हराना है। देश कि रक्षा हम सब को मिलकर करना है।
!!जय जोहार, जय किसान, जय छत्तीसगढ़!!
(भारत माता सीनियर सेकण्ड्री स्कूल, रायपुर)
-कनुप्रिया
वायुमण्डल मे ऑक्सीजन का अनुपातिक सन्तुलन बनाए रखने का काम हरे वृक्षों का है, क्योंकि हरे वृक्ष ही पूरे संसार मे एकमात्र जीव हैं जो प्रकाश संशलेषण की प्रक्रिया द्वारा भोजन बनाते हैं और पूरी फ़ूड चेन का आधार हैं. इस प्रक्रिया में वो कार्बन डाई ऑक्साइड लेते हैं और वायुमण्डल को ऑक्सीजन लौटाते हैं. वायुमण्डल को ऑक्सीजन लौटाने का काम हरे वृक्षों के सिवा कोई नही करते, बाक़ी श्वसन के दौरान ऑक्सीजन लेकर कार्बन डाई ऑक्साइड वाली हवा लौटाने का काम वृक्षों सहित हर जीव जंतु करता है.
वही कार्बन डाई ऑक्साइड जो मुख्य ग्रीन हाउस गैस है, जो ग्रीन हाउस की तरह पृथ्वी को वॉर्म रखती है, जो ग्रीन हाउस की तरह सूर्य की ऊष्मा को रोक कर रखती है, विकिरण के माध्यम से पूरी तरह निर्वात में जाने नही देती और पृथ्वी पर जीवन के लिये जरूरी ऊष्मा का संतुलन बनाए रखती है. यही कॉर्बन दाई ऑक्साइड जिसके वायुमंडल में ज़रूरत से ज़्यादा होने के कारण पृथ्वी का तापमान लगातार बढ़ रहा है, 50 सालों में ही 0.5 डिग्री तक बढ़ चुका है और विकास की यही रफ्तार रही तो सदी के अंत तक एक से डेढ़ डिग्री तक बढ़ सकता है, जिससे ग्लेशियर पिघल रहे हैं और समुद्र का जल स्तर बढ़ रहा है. साथ ही वो जीवाणु और विषाणु (बैक्टीरिया और वायरस) जो एक निश्चित तापमान के बाद ही सक्रिय होते हैं, उनके सक्रिय होने की संभावना भी बढ़ जाती है.
हम माँग ऑक्सीजन रहे हैं मगर चुनते विकास को हैं, वो विकास जो जीवन की शर्त पर हो रहा है, जिसके कारण हज़ारों हेक्टेयर जंगल काटे जारहे हैं. वो जंगल जो उस ऑक्सीजन के बनने की प्राकृतिक लैब हैं , जो संसार की फ़ूड चेन को थामे हुए हैं, जो कार्बन डाई ऑक्साइड की वृद्धि को रोके हुए हैं , जिनका कटना हमारे लिए महज़ एक ख़बर होती है जिसपर हम ग़ौर करना भी ज़रूरी नहीं समझते.
अगर हमें ऑक्सीजन चाहिए तो वक़्त आ गया है कि हम धर्म और विकास की जगह विज्ञान और वृक्षों को वोट करें वरना अपनी मृत्यु के दस्तावेज पर हम ख़ुद ही हस्ताक्षर कर रहे हैं औऱ ये याद रहे कि सिलेंडर में बंद ऑक्सीजन वायुमंडल की ऑक्सीजन की तरह मुफ़्त और सर्वसुलभ नही है, आने वाले समय मे जीने की क़ीमत होगी जो हम दूसरों की मृत्यु से चुकाएँगे.
-देव
रोज की तुलना में मेट्रो आज सूनी है। इतना सूनापन डराता है। हालांकि आज दिल्ली में कफ्र्यूू है लेकिन जिंदगी तो चल ही रही है और कुछ जिंदगियाँ लडख़ड़ा रही हैं तो उन्हें संभालने की कोशिश में कई जिंदगियाँ लगी हैं। इस क्रूर समय में यही एक खूबसूरत बात है।
मेट्रो में एक लडक़ा हैरान-परेशान है। बार-बार पानी पी रहा है। लगातार कहीं फोन मिलाने की कोशिश कर रहा है, खीझ रहा है। बात नहीं हो पा रही है। एकाध जगह बात हुई तो ‘सलाम वालेकुम’ के आगे नहीं हो पाई। मास्क के ऊपर आँखें गीली हैं?माथे पर पसीने की सीलन है। एक जगह बात होने लगी, लडक़े के स्वर में घबराहट, गिड़गिड़ाहट थी- ‘सलाम वालेकुम भाई। आकिब बोल रहा हूँ। हाँ भाई, एक काम था भाई। हाँ अम्मी हार्ट पेशेंट हैं ना। हाँ तो आज साँस लेने में प्रॉब्लम हो रही है। हाँ डॉक्टर ने कहा कि ऑक्सीजन सिलेंडर का इंतज़ाम करो। घर पर ही रखो।
ऐसे वक्त में कहीं ले जाने में भी खतरा ही है। हाँ भाई...नहीं... हमारी तरफ तो सात-आठ हजार देने पर भी नहीं मिल रहा ना। अरे उस वक्त तो साढ़े चार में ही हो गया था। नहीं भाई, कुछ कीजिए, प्लीज, मैं इंतजार करूँगा!’
इस फोन के बाद उसके माथे की एक-दो लकीरें कम हो गईं। उसने फिर पानी पीया। और मोबाइल में ही कुछ टाइप करने लगा। सामने बैठे एक अंकलजी लगातार उसे नोटिस कर रहे थे। उन्होंने थोड़ी देर तक देखने के बाद कहीं फोन मिलाया- ‘हैलो.. हाँ रजत भाई...और बता कैसा है यार। अच्छा सुन ऑक्सीजन सिलेंडर का इंतज़ाम कर देगा क्या भाई, है कोई जरूरतमंद, हाँ! सामने बैठा आकिब चौंक जाता है और उम्मीद भरी निगाहों से अंकल की तरफ देखने लगता है। अंकल ने पाँचों उँगलियों से इशारा करके बताया ‘पाँच हजार का एक पड़ेगा।’ आकिब ने हाथ जोडक़र हामी भरी। अंकल फोन पर बोले- ‘ठीक है... दो मिनट में वापिस कॉल करता हूँ। चल.. ओके...!’
आकिब हाथ जोड़े खड़ा हो गया। अंकल ने कहा- ‘बेटा... मैं एड्रेस देता हूँ। चला जा... अपना नाम और नंबर दे दे मुझे। मैं रजत को बोल देता हूं। जाकर माँ की सेवा कर। भगवान सब ठीक करेगा...!’ आकिब की आँखों में आँसू आ गये। वो हाथ जोड़े खड़ा रहा। अंकल ने उठकर उसके हाथ पकड़े और कहा - ‘बेटा... मुश्किल समय है... गुजऱ ही जायेगा...!’ आकिब ने अपना नंबर और पता बताया। अंकल ने रजत को मैसेज भेजकर फोन कर दिया और सामने बैठे आकिब की हथेली पर अपनी जेब से सैनिटाइजऱ निकालकर टपकाया और खुद भी लगाया और बोले- ‘हिम्मत रख बेटे, ये करोना जायेगा ही कभी ना कभी....!’
आकिब ने शुक्रिया अदा किया। तो चचा बोले- ‘अरे तू फोन पर बात ना करता तो पता ही ना चलती तेरी परेशानी। ये मास्क के पीछे सबने अपनी-अपनी प्रॉब्लम छुपा रखी है!’
मेट्रो में पसरे सूनेपन को जि़ंदगी ने मानो ठोकर मार दी।