विचार/लेख
-प्रकाश दुबे
केन्द्रीय वित्त मंत्री सीतारामन के कामकाज की धज्जियां उड़ाते हुए सुप्रिया ने चुटकी ली-वित्तीय मामलों का महकमा कैसे संभालना चाहिए यह महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री और वित्त मंत्री अजीत-दादा- पवार से सीखें। अजीत और सुप्रिया के बीच अनबन के किस्से उछलते रहते हैं। अपने दादा को अनमोल रतन बताकर सुप्रिया ने पिता को भी चकित कर दिया।
होली और गाली का तुक ठीक नहीं जमता? मत जमने दो। राजनीतिक बयानबाजी बिना गाली के मज़ा नहीं देती। होली समाजवादी त्यौहार है और देश को अपने कंधों पर ढो रहे रंग-बिरंगे महानुभाव गाली सदाचार में पारंगत है। इस सद् आचरण में सबको छूट है। विरोधियों को आलोचना के साथ कई तरह का प्रसाद मिलता है। छापे, पुलिस केस, गिरफ्तारी आदि-आदि। है गांधी-महात्मा का देश, इसलिए कई बार अच्छी मिसाल मील के पत्थर की तरह गढ़ी जाती है। राजे-रजवाड़ों के राजस्थान में कुछ ऐसा ही कमाल हुआ।
राज्य में चार कन्या महाविद्यालय खोले जा रहे हैं। चारों महाविद्यालय कोविड महामारी के दौरान विदा होने वाले विधायकों को समर्पित हैं। अब, इसमें नई बात क्या है? यह तो श्रद्धांजलि देने का राजनीतिक तरीका है। ऐसा कहने-सुनने वाले गौर करें। राजसमंद में बनने वाला कन्या महाविद्यालय किरण माहेश्वरी को समर्पित हैं। वे भारतीय जनता पार्टी की तरफ से चार बार इसी क्षेत्र से चुनाव जीतीं। प्रदेश में सरकार कांग्रेस की है। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत हैं।
बिरादरी की बात
कूड़ादान और कलम-कंप्यूटर-कैमरावाली बिरादरी के बीच यूं तो कोई समानता नजर नहीं आती। सिवा इसके, कि कचरा दान करने के लिए कूड़ादान। किसी गलती के लिए पत्रकार बिरादरी पर ठीकरा फोड़ दो। ऐसा तब अक्सर होता है, जब खबर की जान-बूझकर कतरब्यौंत की जाए। छपी और कही गई खबर यह है कि पश्चिम बंगाल में सत्तारूढ़ पार्टी के पांच विधायक जनता पार्टी में शामिल हुए। इतना ही नहीं, तृणमूल कांग्रेस की घोषित उम्मीदवार भी पार्टी छोडक़र भाजपा में जा पहुंचीं। दोनों खबरें अर्धसत्य थीं। कुछ कलम चलाने वाले कलाकार इतना बताने से कतरा गए कि पांचों के टिकट उनकी दीदी ने काट दिए थे। इनमें दो विद्यमान विधायकों की आयु 80 वर्ष से कुछ अधिक है इसलिए उम्मीदवारी नहीं मिली। दोनों ने मेट्रोमैन श्रीधरन से प्रेरणा ली। जिस महिला ने पाला बदला, पार्टी ने ऐनमौके पर उसके बजाय अन्य को टिकट थमा दिया। हमारी बिरादरी वालों के पास पूरी कहानी बताने के लिए कागज और समय की कमी नहीं थी। सच की भी नहीं, सोच की कमी रही होगी।
आमार सोनार वोटर
घर बैठे सोशल मीडिया पर नुक्स निकालने वालों को बिना शर्त मंजूर करना चाहिए कि प्रधानमंत्री की सिर्फ दाढ़ी ही बड़ी नहीं है। उनकी प्रचार योजना भी लंबी है। विरोधी दल वाले तुलना में कहीं नहीं ठहरते। उनकी दूरगामी सोच की मिसाल देखो। महिला दिवस पर प्रधानमंत्री ने दस्तकारी का सामान खरीदा। इनमें जूट का फाइल फोल्डर शामिल था। प्रधानमंत्री बताना नहीं भूले कि पश्चिम बंगाल में बने इस फाइल फोल्डर का उपयोग जरूर करेंगे। वहीं असमिया गमूसा भी खरीदा। इसे हिंदी में गमछा कहते हैं। अगले ही दिन वीडियो के जरिये भारत-बांग्लादेश के बीच मैत्री सेतु का उद्घाटन किया। दाढ़ी, बांग्ला के दो वाक्य और खरीदी पर बिना सोचे फब्ती कसने वाले जान लें। मतदान के घमासान के बीच प्रधानमंत्री बांग्लादेश के दौरे पर रहेंगे। वह भी ऐन होली से पहले। बंगाल में बांग्लादेशी घुसपैठ का आरोप कई बार लगा है। किसने लगाया, यह भूलकर सोचो कि बांग्लादेशी घुसपैठियों का रंग दे बसंती चोला होगा कि नहीं?
मेरा अनमोल रतन
जाने कितने लोग हैं जो संसद में होने वाली चर्चा को सुनते हैं? वैसे भी राज्यसभा टीवी के लोकसभा टीवी में विलय के बाद विकल्प घटे हैं। प्रधानमंत्री और कृषि मंत्री ने शरद पवार के कृषि मंत्री की हैसियत से लिखे पत्र के कुछ अंश संसद में पढ़े। पवार को पलटूराम प्रमाणित करना चाहा। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी की सुप्रिया सुले ने पिता शरद पवार के पत्र का वह अंश लोकसभा में पढ़ा, जिसे प्रधानमंत्री छुपा गए थे। सुप्रिया ने प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी के मनरेगा, जीएसटी आदि कुछ फैसलों पर यू टर्न के प्रमाण दिए। इससे अधिक दिलचस्प था, उनका चचेरे भाई अजीत दादा पवार की तारीफ करना। केन्द्रीय वित्त मंत्री सीतारामन के कामकाज की धज्जियां उड़ाते हुए सुप्रिया ने चुटकी ली-वित्तीय मामलों का महकमा कैसे संभालना चाहिए यह महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री और वित्त मंत्री अजीत-दादा- पवार से सीखें। अजीत और सुप्रिया के बीच अनबन के किस्से उछलते रहते हैं। अपने दादा को अनमोल रतन बताकर सुप्रिया ने पिता को भी चकित कर दिया।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
सर्वोच्च न्यायालय ने एक ऐसे कानून पर पुनर्विचार की याचिका स्वीकार कर ली है, जिसका उद्देश्य था-भारत के मंदिर-मस्जिदों के विवादों पर हमेशा के लिए तालाबंदी कर देना। अब से 30 साल पहले जब बाबरी-मस्जिद के विवाद ने बहुत जोर पकड़ लिया था, तब नरसिंहराव सरकार बाबरी मस्जिद के विवाद को तो हल करना चाहती थी लेकिन इस तरह के शेष सभी विवादों को विराम देने के लिए वह 1991 में एक कानून ले आई। इस कानून के मुताबिक देश के हर पूजा और तीर्थ स्थल जैसे हैं, उन्हें वैसे ही बनाए रखा जाएगा, जैसे कि वे 15 अगस्त 1947 को थे। अब इस कानून को एक वकील अश्विन उपाध्याय ने अदालत में चुनौती दी है। उनके तर्क हैं कि मुसलमान हमलावरों ने देश के सैकड़ों-हजारों मंदिरों को तोड़ा और भारत का अपमान किया। अब उसकी भरपाई होनी चाहिए। उसे रोकने का 1991 का कानून इसलिए भी गलत है कि एक तो 15 अगस्त 1947 की तारीख मनमाने ढंग से तय की गई है। उसका कोई आधार नहीं बताया गया।
दूसरा, हिंदू, बौद्ध, सिखों और ईसाइयों पर तो यह कानून लागू होता है लेकिन मुसलमानों पर नहीं, क्योंकि वक्फ-कानून की धारा 7 के अनुसार वे अपनी मजहबी जमीन पर वापिस कब्जे का दावा कर सकते हैं। तीसरा, यह भी कि जमीनी कब्जों के मामले राज्य का विषय होते हैं। केंद्र ने उन पर कानून कैसे बना दिया? उपाध्याय के इन तर्को का विरोध अनेक मुस्लिम संगठनों ने जमकर किया है लेकिन विश्व हिंदू परिषद की इस पुरानी मांग ने फिर जोर पकड़ लिया है।उसकी मांग है कि काशी विश्वनाथ मंदिर और मथुरा की कृष्ण जन्मभूमि पर जो मस्जिदें जबरन बनाई गई थीं, उन्हें भी ढहाया जाए। अब सवाल यही है कि यदि सर्वोच्च न्यायालय 1991 का कानून रद्द कर देगा तो देश की राजनीति में भूचाल आ जाएगा या नहीं? सैकड़ों-हजारों मस्जिदों, दरगाहों और कब्रिस्तानों को तोडऩे के आंदोलन उठ खड़े होंगे। देश में सांप्रदायिकता की आंधी आ जाएगी। मेरी अपनी राय है कि मंदिर-मस्जिद के मामले हिंदू-मुसलमान के मामले हैं ही नहीं। ये मामले हैं— देशी और विदेशी के! विदेशी हमलावर मुसलमान जरुर थे लेकिन उन्होंने सिर्फ मंदिर ही नहीं तोड़े, मस्जिदें भी तोड़ीं।
उन्होंने अपने और पराए मजहब, दोनों को अपनी तलवार की नोंक पर रखा। अफगानिस्तान में बाबर ने, औरंगजेब ने भारत में और कई सुन्नी आक्रांताओं ने शिया ईरान में मस्जिदों को ढहाया है। अफगानिस्तान के प्रधानमंत्री रहे बबरक कारमल (1969 में) मुझे बाबर की कब्र पर ले गए और उन्होंने कहा कि बाबर इतना दुष्ट था कि उसकी कब्र पर कुत्तों से मुतवाने का मन करता है। यह खेल मजहब का नहीं, सत्ता का रहा है। लेकिन सैकड़ों वर्षों के अंतराल ने इसे हिंदू-मुसलमान का सवाल बना दिया है। नेता लोग इसे लेकर राजनीति क्यों नहीं करेंगे ? लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर्वोच्च मुखिया मोहन भागवत का यह कहना काफी ठीक है कि इस मुद्दे पर देशवासी जरा धैर्य रखें, सारे पहलुओं पर विचार करें और सर्वसम्मति से ही फैसला करें। इस मुद्दे पर देश में जमकर विचार-मंथन आवश्यक है। (नया इंडिया की अनुमति से)
-रवीश कुमार
2020 का साहित्य अकादमी पुरस्कार अनामिका को मिला है। कविता की श्रेणी में अनामिका हिन्दी की पहली स्त्री कवि हैं जिन्हें यह पुरस्कार मिला है। इसलिए भी गौरव की बात है। पुरस्कार किसी कवि की रचना संसार के लिए पूर्ण विराम नहीं होता है। एक घंटी होती है जो चारों तरफ बज जाती है कि देखो कि कोई है जो चुपचाप रची जा रही थी। जो उन्हें पढ़ते रहे हैं उनके लिए सिर्फ ख़ुशी की बात हो सकती है लेकिन जो उन्हें जानने पढऩे से रह गए उनके लिए यह घंटी बजी है।
कवि दूसरी दुनिया में नहीं रहते हैं । न अपनी दुनिया में रहते हैं। वे हमारी दुनिया में रहा करते हैं। मुनीम बन कर हमारे अहसासों का हिसाब दर्ज करते हुए। यह भी सीमित सोच है कि कविता अहसासों का दस्तावेज है। कवि ने महसूस किया तो लिख दिया। कवि ने पहले देखा होगा, जाना होगा, उसे अपने भीतर की गहराई तक उतारा होगा, आपके भोगे हुए को अपने भीतर के यथार्थ में परिवर्तित किया होगा तब जाकर निकलती है कविता। इस पूरी प्रक्रिया में कवि कई बार तकलीफों से गुजरता है। गुजरती है। अनामिका के यहाँ भी आपको अपनी ही दुनिया मिलेगी। हैरत भी कि उन्होंने कैसे जान लिया और नोट कर लिया। अनामिका को खूब बधाई।
अनामिका की कुछ कविताएँ कविता कोश नाम की वेबसाइट पर मौजूद हैं। आप उनकी रचनाओं को पढ़ सकते हैं। आज सुबह यही काम सबसे पहले किया। अनामिका की कविताओं का पाठ किया। केवल बधाई देने से काम नहीं चलेगा। हम अक्सर किसी की सफलता के वक्त कहते हैं। लेकिन अगर वाकई आपको अनामिका को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिलने से खुशी हो रही है तो क्या सबसे पहले उनकी रचनाओं का पाठ नहीं करना चाहिए।
अंग्रेजी के लिए साहित्य अकादमी का पुरस्कार अरुंधति सुब्रमण्यम को मिला है। उनके बारे में कल ही जाना। लेकिन अरुंधति हमारे मित्रों की काफी पसंदीदा कवि हैं। उनसे मिली कुछ कविताओं को पढ़ा। वाकई अच्छी कवि हैं। उन्हें भी बधाई।
किसी सोचते हुए आदमी की
आँखों-सा नम और सुंदर था दिन।
पंडुक बहुत खुश थे
उनके पंखों के रोएँ
उतरते हुए जाड़े की
हल्की-सी सिहरन में
उत्फुल्ल थे।
सडक़ पर निकल आए थे खटोले।
पिटे हुए दो बच्चे
गले-गले मिल सोए थे एक पर-
दोनों के गाल पर ढलक आए थे
एक-दूसरे के आँसू।
‘औरतें इतना काटती क्यों हैं ?’
कूड़े के कैलाश के पार
गुड्डी चिपकाती हुई लडक़ी से
मंझा लगाते हुए लडक़े ने पूछा-
‘जब देखो, काट-कूट, छील-छाल, झाड़-झूड़
गोभी पर, कपड़ों पर, दीवार पर
किसका उतारती हैं गुस्सा?’
हम घर के आगे हैं कूड़ा-
फेंकी हुई चीजें भी
खूब फोड़ देती हैं भांडा
घर की असल हैसियत का !
लडक़ी ने कुछ जवाब देने की जरूरत नहीं समझी
और झट से दौडक़र, बैठ गई उधर
जहाँ जुएँ चुन रही थीं सखियाँ
एक-दूसरे के छितराए हुए केशों से
नारियल-तेल चपचपाकर।
दरअसल-
जो चुनी जा रही थीं-
सिर्फ जुएँ नहीं थीं
घर के वे सारे खटराग थे
जिनसे भन्नाया पड़ा था उनका माथा।
क्या जाने कितनी शताब्दियों से
चल रहा है यह सिलसिला
और एक आदि स्त्री
दूसरी उतनी ही पुरानी सखी के
छितराए हुए केशों से
चुन रही है जुएँ
सितारे और चमकुल!
-अनामिका
-शिखा सर्वेश
अरे! बिन बाप का बच्चा है, सिर्फ अकेली मां है, तभी इतना शैतान है।
घर पर कोई आदमी नहीं है न, तभी बच्चे इतने बिगड़े हुए हैं।
कुछ ऐसे ही वाक्यों का ठप्पा लगाया जाता है हमारे पितृसत्तात्मक समाज में उन बच्चों के ऊपर जिनका पालन-पोषण उनकी मां ने अकेले किया है। सदियों से ही यह पितृसत्तात्मक समाज महिलाओं को अबला, असहाय समझता आया है। यह समाज मां दुर्गा को तो देवी और जननी मानता है लेकिन असल में जन्म देने वाली मां को कमजोर समझता है, इतना कमजोर कि एक महिला इनकी नजऱ में बच्चे जन सकती है, नौ महीने उसे अपने पेट में रख सकती है, बच्चा जनने का दर्द अकेले झेल सकती है लेकिन अकेली अपने बच्चे की परवरिश नहीं कर सकती।
इस पितृसत्तात्मक समाज ने हमेशा से ही महिलाओं को पुरुषों पर आश्रित ही देखना चाहा और यही कारण है कि लीक से हटकर अगर किसी महिला ने कोई काम किया तो वह इस समाज में बुरी औरत के ताज से नवाज़ी गई। परंपरागत सामाजिक व्यवस्था पितृसत्तात्मक है, जिसमें समाज से लेकर परिवार तक हर मामले में पुरूषों का नियंत्रण रहा है। यह व्यवस्था पुरूषों को महिलाओं से ज्यादा योग्य और श्रेष्ठ मानती है और उन्हें समाज में विशेष दर्जा और सुविधा प्रदान करती है।
लोगों को जब पता चलता है कि एक अकेली मां बच्चों को पाल रही है और घर में कोई मर्द नहीं है तो उनके चेहरे पर एक अलग भाव होता है। ऐसा भी कई बार हुआ है कि समाज उन्हें तंग करता है और वह यकीनन यही सोचता होगा कि यह तो अबला है, किस से शिकायत करेगी। यह समाज शोषण करने की ताक में बैठा रहेता है। 6 जुलाई 2015 को सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला दिया गया जिसमें कहा गया कि अविवाहित मां अपने बच्चे की अकेली अभिभावक बन सकती है। इसमें उसके पिता की रजामंदी लेने की आवश्यकता नहीं है। यह फैसला उन एकल महिलाओं के लिए मील का पत्थर था जो अपने बच्चों के गार्डियनशिप के लिए लंबे समय से लड़ाई लड़ रही थी।
दरअसल यह पितृसत्तात्मक समाज डरता है जिस दिन महिलाओं के चुनौती भरे जीवन को उसने स्वीकार कर लिया वह उनसे हार जाएगा।
जब से महिलाएं आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होने लगी हैं, पुराने ढाचें चरमराने लगे हैं लेकिन अकेली स्त्री को स्वीकार करना अभी भी समाज में असंभव है। इस पितृसत्तात्मक समाज को यह गवारा नहीं होता कि कोई महिला बिना पुरुष की छाया के जिए और अपने सभी निर्णय स्वतंत्रता के साथ ले सके। महिलाएं चाहे कितने भी बड़े मुकाम छू लें, फिर भी उनका अकेले होना इस समाज को चुभता है। इस समाज में महिला की छवि आत्मनिर्भर की ना हो कर दूसरों पर निर्भर रहने की बनी हुई है। इस समाज ने महिलाओं को लेकर एक छवि गढ़ रखी है जिसमें एकल महिलाएं और सिंगल मदर फिट नहीं बैठती हैं। इस पितृसत्तात्मक समाज में अकेली मांओं का चरित्र हनन करना सबसे आसान होता है।
हाल ही में महिलाओं के मुद्दों पर मुखर होकर बोलने वाली गीता यथार्थ ट्रेंड में है। हुआ कुछ यूे गीता ने अपनी कमोड पर बैठी एक फोटो सोशल मीडिया पर अपलोड किया, उनका मकसद सिंगल मदर्स को बच्चे पालने में आने वाली चुनौतियों के बारे में अवगत कराना था। इस फोटो के अपलोड होते ही लोग दो हिस्सों में बंट गए, कुछ ने इसे स्वीकारा तो कुछ ने बहुत भद्दी टिप्पणियां कीं। इसी मुद्दे पर हमने बात की गीता से। फेमिनिज़म इन इंडिया ने गीता से पूछा कि सिंगल पेरेंटिंग की क्या विशेषताएं हैं? मुश्किलें तो काफी हैं मगर क्या उसके कुछ फायदे भी हैं? साथ ही उन्होंने समाज में किन मुश्किलों का सामना किया?’
पूछे जाने पर गीता कहती हैं, सिंगल पेरेंटिंग की विशेषताओं की बात करें तो नॉर्मल पेरेंटिंग से अधिक ज्यादा जि़म्मेदारियां बढ़ जाती हैं। बाकी बात करें फायदों की तो सबसे बड़ा फायदा है कि सिंगल पेरेंटिंग में बच्चे को ‘घरेलू हिंसा’ जैसी चीजें नहीं झेलनी पड़ती, उसे लैंगिक भेदभाव नहीं झेलने पड़ते, उसके मन में ‘पापा मम्मी को मारते हैं’ वाला डर नहीं बैठता है। हां, बेशक सिंगल पेरेंटिंग में संघर्ष है लेकिन वह कहते हैं न कि संघर्ष में ही जीवन है तो संघर्ष के साथ-साथ फायदों की लिस्ट भी कम नहीं है। मेरे हिसाब से सिंगल मदर के बच्चे ज्यादा समझदार होते हैं, जल्दी बड़े हो जाते हैं, जिम्मेदार हो जाते हैं। अब बात करूं समाज ने मेरे रास्ते में कितनी मुश्किलें खड़ी की तो जैसा कि हमारे समाज के लिए बिना पति की महिला कमजोर, असहाय है, अबला है और मेरी तरह अगर पति को छोड़ देती है तो समाज की जुबां और दिमाग में एक ही सवाल कि कहीं बाहर अफ़ेयर तो नहीं चल रहा? कहीं ये बच्चा बॉयफ्रेंड का तो नहीं है? इन्हीं सब सवालों को झेलना पड़ा मुझे भी लेकिन मैंने हार नहीं मानी।
फेमिनिज्म इन इंडिया ने यह भी पूछा कि भारत में सिंगल मदर को देखते ही लोग तरह तरह के कयास लगाने लगते हैं। क्या उन्हें भी भारतीय समाज से ऐसा ही रिस्पांस मिला? गीती बताती हैं, ‘रेस्पॉन्स की बात करूं तो जो लोग मुझे नहीं जानते उनसे तो मुझे सकारात्मक और नकारात्मक कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली। लेकिन जो मुझे जानते हैं चाहे वे मेरे दोस्त हो, ऑफिस का स्टाफ हो, चाहे सोशल मीडिया पर बहुत समय से जुड़े हुए लोग हो, उनसे हमेशा मुझे सपोर्ट ही मिला है। मेरे परिवार का मुझे हमेशा साथ ही मिला है, सोशल मीडिया पर मेरे लेखों पर, फोटो पर कमेंट को लेकर मेरे परिवार ने कभी मुझसे कोई सवाल नहीं किया, हमेशा मेरा साथ दिया। बाकी बात करूं इस पितृसत्तात्मक की तो इस समाज ने मुझे तानों की सौगात दी है, जो कि इसका हमेशा का रवैया है। लोगों ने मुझ पर तमाम सवालात उठाए, तोहमतें लगाई और तंज कसे जैसे कि पति से नहीं बनी होगी तभी तलाक ले लिया,कहीं अय्याशी के लिए तो नहीं पति को छोड़ दिया? इन सबके बावजूद मैंने हार नहीं मानी। मैं कमज़ोर नहीं पड़ी। मैंने कदम पीछे नहीं खीचें शायद यही मेरी सबसे बड़ी ताकत है।
यह पितृसत्तात्मक समाज इतनी कुंठित मानसिकता से भरा हुआ है कि महिलाएं अपनी तकलीफ़ें, चुनौतियों के बारे में खुलकर बात नहीं कर सकती। इस समाज ने अपने हिसाब से अच्छी और बुरी महिलाओं का दर्जा रखा है। कोई महिला पीरियड्स के बारे में खुलकर बात करती है तो वह बुरी है, बहुत तेज है। महिलाएं अपने यौन और प्रजनन स्वास्थ्य के मुद्दों पर खुल बात करें तो वह बुरी हैं। दरअसल यह पितृसत्तात्मक समाज डरता है जिस दिन महिलाओं के चुनौती भरे जीवन को उसने स्वीकार कर लिया वह उनसे हार जाएगा। यह समाज जहां शादी में हो रहे बलात्कार को स्वीकार नहीं करता, जो शादीशुदा जीवन में हो रही घरेलू हिंसा को सहना हर औरत का धर्म समझता है, यही समाज किसी महिला को खुले में बच्चे को दूध पिलाने की बात पर आंखे तरेरता है। यह समाज बच्चों को पालने की जिम्मेदारी को पूरी तरह से मां का धर्म समझता है। यह तब तक नहीं सुधर सकता जब तक गीता जैसी कई और महिलाएं इन मुद्दों पर मुखर होकर नहीं बोलेंगी। अपनी चुनौतियों, संघर्ष को लेकर जब तक महिलाएं खुल कर बोलना नहीं शुरू करेंगी तब तक इस पितृसत्तात्मक समाज की व्यवस्था नहीं सुधरने वाली। (feminisminindia.com)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
उत्तराखंड में भाजपा ने अपने मुख्यमंत्री त्रिवेंद्रसिंह रावत को क्यों बदला ?उनकी जगह तीरथसिंह रावत को मुख्यमंत्री क्यों बनाया ? तीरथसिंह विधायक भी नहीं हैं, सांसद हैं, फिर भी उन्हें क्यों लाया गया ? एक रावत की जगह दूसरे रावत को क्यों लाया गया? इन सवालों के जवाब जब हमें ढूंढेंगे तो उनमें से भाजपा ही नहीं, देश के सभी दलों के शीर्ष नेताओं के लिए कई सबक निकलेंगे। सबसे पहला सबक तो यही है कि किसी प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री को यह नहीं समझ बैठना चाहिए कि वह शासक है याने वह बादशाह बन गया है। सारे सांसदों, विधायकों और जनता को उसकी हुकुम उदुली करनी ही है। मोदी ने प्रधानमंत्री बनते ही खुद को देश का प्रधान सेवक कहा था। यही कसौटी है। हर पदारुढ़ नेता को चाहिए कि वह अपने को इसी कसौटी पर कसता रहे।
त्रिवेंद्र राव ने इस कसौटी को ताक पर रख दिया था। उन्होंने उत्तराखंड के आम नागरिकों की गुहार पर कान देना तो बंद कर ही दिया था, वे भाजपा के अपने विधायकों की भी उपेक्षा करने लगे थे। ये भाजपा विधायक इसलिए भी परेशान थे कि कांग्रेस से आए कुछ विधायकों को मंत्री बना दिया गया लेकिन भाजपाई विधायकों को यह मौका नहीं दिया गया जबकि चार मंत्रिपद खाली पड़े रहे।
एक सांसद को भाजपा ने इसलिए मुख्यमंत्री बनाया है कि वह उसे विधायकों में से बना देती तो उनकी आपसी प्रतिस्पर्धा और ईर्ष्या सरकार को ले डूबती। तीरथसिंह रावत को यह मौका इसलिए मिला है कि वे अजातशत्रु हैं। वे विनम्र और शिष्ट व्यक्ति हैं। वे जनता से जुड़े हुए हैं। उत्तराखंड के 70 विधायकों में से 30 गढ़वाल के होते हैं। तीरथ गढ़वालियों के प्रिय नेता हैं। वे अफसरों के हाथ की कठपुतली नहीं हैं। नेताओं और नौकरशाहों में यदि वे ठीक से तालमेल बिठा सके तो 2022 के चुनाव में भाजपा दुबारा जीत सकती है।
तीरथसिंह रावत को अपनी योग्यता की परीक्षा के लिए सिर्फ एक डेढ़ साल ही मिला है। इस अल्प अवधि में उत्तराखंड के विकास के लिए कुछ चमत्कारी कदम उठाना और पार्टी-एकता बनाए रखना, ये बड़ी चुनौतियां उनके सामने हैं। वे उत्तराखंड की भाजपा के अध्यक्ष रहे हैं और बचपन से राष्ट्रीय स्वयंसंघ के प्रचारक रहे हैं। केंद्रीय नेताओं से भी उनके संबंध घनिष्ट हैं। इस चुनावी-चुनौती के दौर में कोई भाजपा-विधायक भी उनका विरोध नहीं कर पाएंगे।अगले चुनाव के बाद उत्तराखंड की भाजपा में कई ऐसे वरिष्ठ नेता हैं, जो मुख्यमंत्री पद पर आसीन होना चाहेंगे। त्रिवेंद्रसिंह रावत भी गढ़वाली हैं। वे अपनी असमय पदमुक्ति को क्या चुपचाप बर्दाश्त कर लेंगे ? वे चाहे जो करें, लेकिन उनकी पदमुक्ति ने देश के सभी पदारुढ़ नेताओं को तगड़ा सबक सिखा दिया है। (नया इंडिया की अनुमति से)
भारत में हर साल करीब 10 लाख टन ई-कचरा निकलता है. कबाड़ बन चुके इलेक्ट्रॉनिक गैजेट हवा, पानी और मिट्टी को दूषित तो करते ही हैं, वे जलवायु परिवर्तन को भी उकसा रहे हैं.
डॉयचे वैले पर शिवप्रसाद जोशी का लिखा-
ई-वेस्ट से आशय पुराने, उम्र पूरी कर चुके, फेंक दिए गए बिजली चालित तमाम उपकरणों से हैं. इसमें कम्प्यूटर, फोन, फ्रिज, एसी से लेकर टीवी, बल्ब, खिलौने और इलेक्ट्रिक टूथब्रश जैसे गैजेट तक शामिल हैं. ई-कबाड़ में लेड, कैडमियम, बेरिलियम, या ब्रोमिनेटड फ्लेम जैसे घातक तत्व पाए जाते हैं. ताजा रिपोर्टें और अध्ययन बताते हैं कि भारत में ई-कचरे को न सही ढंग से इकट्ठा किया जाता है और न ही वैज्ञानिक तरीके उसका निस्तारण हो पाता है. इसके चलते हवा पानी मिट्टी जहरीली और दूषित होती जा रही है और लोगों के स्वास्थ्य पर गंभीर खतरा पैदा हो रहा है.
ई-वेस्ट प्रबंधन और परिचालन नियम 2011 के बदले केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने ई-वेस्ट प्रबंधन नियम 2016 को अधिसूचित किया था. 2018 में इसमें उत्पादकों से जुड़े कुछ मुद्दों को लेकर संशोधन भी किए गए थे. विषैले और खतरनाक पदार्थों के अपशिष्ट (कचरे) के निपटान के लक्ष्य निर्धारत करने के अलावा विस्तारित निर्माता उत्तरदायित्व (एक्सटेन्डेड प्रोड्युसर रिस्पॉन्सिबिलिटी- ईपीआर) योजना बनाई गई है. सरकारी आदेश की भाषा में कहें तो ई-अपशिष्ट संग्रहण लक्ष्यों के मुताबिक 2019-20 में ईपीआर के तहत अपशिष्ट उत्पादन की मात्रा का वजन के हिसाब से 40 प्रतिशत संग्रहण का लक्ष्य रखा गया था. 2021-22 के लिए ये 50 प्रतिशत, 2022-23 के लिए 60 प्रतिशत और उससे आगे के लिए 70 प्रतिशत है. संशोधित नियमों में कहा गया है कि "ई-अपशिष्ट का संग्रहण, भंडारण, परिवहन, नवीकरण, भंजन, पुनर्चक्रण और निपटान प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की गाइडेन्स के अनुसार होगा.”
लेकिन सीपीसीबी की एक हालिया रिपोर्ट में बताया गया है कि पूरे देश में लाखों टन ई-कचरे का महज तीन से दस फीसदी ही इकठ्ठा किया जाता है. एनजीटी में पिछले साल दिसंबर में पेश इस रिपोर्ट के मुताबिक 2017-18 में ई-कचरा कलेक्शन का लक्ष्य था 35422 टन लेकिन वास्तविक कलेक्शन हुआ 25325 टन. इसी तरह 2018-19 में लक्ष्य था 154242 टन लेकिन जमा हुआ 78281 टन. और अगले ही साल यानी 2019-20 का हाल देखिए कि लक्ष्य पर पहुंचना तो दूर भारत में 1014961 टन ई-कचरा पैदा कर दिया गया! यानी दस लाख टन से अधिक! करीब 1630 इलेक्ट्रॉनिक गैजेट निर्माताओं को ईपीआर मिली हुई है जिनके पास बताते हैं कि सात लाख टन से ज्यादा की ई-वेस्ट प्रोसेसिंग की क्षमता है. यानी दायित्व के निर्वाह में वे पीछे हैं. और ऐसा सीपीसीबी की चेतावनी के बावजूद है.
गंभीर स्थिति
ई-कचरे से छुटकारा पाने के लिए एक समयबद्ध और युद्धस्तर की कार्ययोजना की जरूरत है. सरकारी, गैर-सरकारी एजेंसियों, उद्योगों, निर्माताओं, उपभोक्ताओं, स्वयंसेवी समूहों और सरकारों के स्तर पर जागरूकता पैदा करने और उसे बनाए रखने की जरूरत है. ई-कचरे के संग्रहण लक्ष्य और वास्तविक संग्रहण के अंतर को कम किया जाना चाहिए. डिसमैंटल क्षमता को बढ़ाने की जरूरत भी है. पर्यावरणीय लिहाज से जुर्माने या मुआवजा जैसी व्यवस्थाएं रखनी चाहिए, और ई-कचरे को लेकर सतत निगरानी और निरीक्षण की जरूरत भी है.
यह भी जरूरी है कि गैरआधिकारिक और गैरकानूनी स्तर पर चल रही डिसमेन्टिल और रिसाइक्लिंग कारोबार को बंद किया जाना चाहिए, बेहतर होगा कि उन्हें सही दिशा में प्रशिक्षित और जागरूक कर वैध बनाया जाए, लेकिन ये भी ध्यान रखे जाने की जरूरत है कि ऐसे ठिकाने आबादी और हरित क्षेत्र से दूर बनाए जाएं ताकि पर्यावरण पर कम से कम प्रभाव पड़े. एनजीटी का कहना है कि सीपीसीबी को कम से कम छह महीने के एक निश्चित अंतराल पर ई-कचरे के निस्तारण से जुड़ा स्टेटस अपडेट करते रहना चाहिए.
जाहिर है यह काम सभी राज्यों के प्रदूषण बोर्डों के साथ समन्वय से ही संभव हो पाएगा. और राज्यों में भी सभी उत्तरदायी एजेंसियों को इस बारे में न सिर्फ मुस्तैद रहना होगा बल्कि उन ठिकानों को चिन्हित भी करते रहना होगा जो इस अवैध निस्तारण के चलते पर्यावरणीय लिहाज से नाजुक हो रहे हैं. फिर चाहे वो वहां का भूजल हो या वहां की हवा या वहां के लोगों की सेहत.
कैसे कम करें ई-कचरा
इलेक्ट्रॉनिक वेस्ट को सबसे ज्यादा तेजी से बढ़ता हुआ कचरा स्रोत माना गया है. कड़े निर्देशों और कानूनों के अभाव में आज अधिकतर ई-वेस्ट सामान्य कचरा प्रवाह का हिस्सा बन जाता है. यहां तक विकसित देशों के रिसाइकिल होने वाले ई-कचरे का 80 प्रतिशत हिस्सा विकासशील देशों में जाता है. कचरे का ये भूमंडलीकरण पर्यावरण और स्वास्थ्य के लिए घातक है. ई-कचरे के प्रभावी निस्तारण में बहुत लंबा समय लगेगा, ये तय है, लेकिन सबसे आदर्श स्थिति तो यही है कि इन इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों और उपकरणों में ऐसे रसायनों, पदार्थों, खनिजों या विधियों का इस्तेमाल न्यूनतम किया जाए जो पर्यावरणीय और स्वास्थ्य के लिहाज से ही नहीं, बल्कि अंततः एक समूची अर्थव्यवस्था को दीमक की तरह खा जाने की आशंका के लिहाज से बेहद खतरनाक हैं. विज्ञान और प्रौद्योगिकी इतनी तरक्की कर रहे हैं तो क्यों न उनकी रोशनी में ऐसी उपयोगी डिवाइसें और प्रोडक्ट बनाए जाएं जो 100 प्रतिशत पर्यावरण-अनुकूल हों. लेकिन क्या ऐसा हो पाना संभव है? क्या बेइन्तहां और बेकाबू हो चुके उपभोक्तावाद पर लगाम लगा पाना संभव है?
ई-कचरे की नीतिगत कमजोरियों, व्यवस्थागत उदासीनताओं, व्यापारगत अवहेलनाओं और उपभोक्तागत असवाधानियों के बीच केद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का एक ताजा अध्ययन भी चिंता में डालने वाला है. इसके मुताबिक भारत में जहरीले और नुकसानदायक पदार्थो से दूषित और प्रभावित सबसे ज्यादा ठिकाने ओडीशा में पाए गए हैं. देश के ऐसे 112 ठिकानों में सबसे ज्यादा 23 ओडीशा में, 21 उत्तर प्रदेश में और 11 दिल्ली में हैं. 168 ठिकानों को लेकर आशंका है. एनजीटी के आदेश के बाद सात राज्यों के 14 दूषित ठिकानों की सफाई का अभियान शुरू कर दिया गया है. ये राज्य हैं गुजरात, झारखंड, केरल, महाराष्ट्र, ओडीशा, तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश.
भारत में हरित विकास की अवधारणा अभी जोर नहीं पकड़ पाई है और ई-कचरा ही नहीं, प्लास्टिक कचरा, उद्योग फैक्ट्री का रासायनिक कचरा भी पसरता जा रहा है. जलवायु परिवर्तन से निपटने की चुनौतियों में ऐसी बहुत सी अलक्षित, साधारण सी दिखने वाली और लगभग अदृश्य चीजें भी हैं जिन पर सुचिंतित कार्ययोजना की जरूरत बनी हुई है. इस काम में देरी का अर्थ है वैश्विक तापमान में उत्तरोतर वृद्धि, जलवायु परिवर्तन के कारणों को अनचाहा उकसावा और हरित विकास के निर्धारित लक्ष्यों में और दूरी. (dw.com)
-गिरीश मालवीय
क्या आप यकीन कर सकते हैं कि पिछले तीन साल 9 महीनो में मोदी सरकार ने उद्योगपतियों का लगभग साढ़े सात लाख करोड़ रुपये राइट ऑफ कर दिया है !......जबकि मनमोहन सरकार के पूरे 10 सालो में राइट ऑफ की जाने वाली रकम कुल मिलाकर मात्र 2 लाख 20 हजार करोड़ ही थी यानी कहाँ लगभग
साढ़े तीन साल ओर कहा 10 साल ,..... दस साल की तुलना में तीन गुनी से भी कही ज्यादा रकम मोदी सरकार ने राइट ऑफ की है....
जी हाँ !...कल यह जानकारी वित्त राज्य मंत्री अनुराग ठाकुर ने लोकसभा में दी है कि इस वित्त वर्ष के पिछले 9 महीने में कमर्शियल बैंकों ने 1.15 लाख करोड़ के बैड लोन को राइट ऑफ किया है....
रिजर्व बैंक के आंकड़ों के मुताबिक कमर्शियल बैंकों ने साल 2017-18 में 1.62 लाख करोड़, 2018-19 में 2.36 लाख करो रुपए, साल 2019-20 में 2.34 लाख करोड़ रुपए और साल 2020-21 के पहले 9 महीनों में 1.15 लाख करोड़ रुपए के कर्ज को राइट ऑफ किया है.कुल मिलाकर यह रकम लगभग साढ़े सात लाख करोड़ रुपये है...
आपको याद होगा कि राहुल गांधी ने पिछले साल इसी मार्च के मध्य में सदन में नरेंद्र मोदी के मित्र उद्योगपतियों के लोन माफ कर देने का सवाल उठाया था..... उस वक्त उनका मजाक उड़ाया गया लेकिन बाद में आरटीआई में हकीकत सामने आई कि मेहुल चोकसी और विजय माल्या की कंपनियों सहित जानबूझकर बैंकों का कर्ज नहीं चुकाने वाली शीर्ष 50 कंपनियों का 68,607 करोड़ रुपये का बकाया कर्ज तकनीकी तौर पर 30 सितंबर 2019 तक बट्टे खाते में डाला जा चुका है
अब आप यह भी जान लीजिए कि यह सब सिर्फ कोरे फिगर नहीं है आपके हमारे ऊपर इन फिगर्स का सीधा असर होता है राइट ऑफ की गई रकम की भरपाई के लिए बैंक अपने बाकी कमाई के जरियों पर निर्भर रहता है. जैसे कि बाकी लोन्स पर आ रहा ब्याज, सेविंग वगैरह पर दिया जा रहा ब्याज कम करना आदि, .... इसलिए ही आप देखेंगे कि बैंकों द्वारा लगातार सेविंग्स की ब्याज दरों को कम किया जा रहा है ताकि पैसा बचे ओर इस घाटे की पूर्ति की जा सके.....मिनिमम बेलेंस चार्ज ओर अन्य बैंकिंग चार्ज बढ़ा कर इस रकम की पूर्ति की जाती है...
इसके अलावा भी सरकार, आरबीआई या सरकारी वित्तीय संस्थाएं सरकारी बैंकों को मदद के लिए जो रकम देती हैं,वह भी दरअसल आपकी जेब से ही जाता है. यानी आप सोचिए कि आपका पैसा लेकर विजय माल्या, नीरव मोदी और ‘हमारे मेहुल भाई’ जैसे लोग भाग जाएं, ओर बैंक और सरकार उस नुकसान की पूर्ति के लिए आपसे ही इस रकम की वसूली करे...... क्योंकि तेल तो तिलों से ही निकलता है .......और वो तिल हम और आप ही है ...सरकार हमारा ही तेल निकाल रही है.
-कुंदन पाण्डेय
पेसा यानी पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) क़ानून 1996 में आया था। इस कानून को आदिवासी-बहुल क्षेत्र में स्व-शासन (ग्राम सभा) को मजबूती प्रदान करने के उद्देश्य से लाया गया था।
इस कानून के वर्तमान स्थिति का अनुमान इस एक तथ्य से लगाया जा सकता है कि पच्चीस साल होने को है पर कुल दस में से चार राज्यों ने इसके लिए जरूरी नियम ही नहीं बनाये। एक राज्य ने तो अपने पंचायत कानून को कॉपी-पेस्ट करके काम चला लिया। इससे पेसा के प्रति राज्यों की बेरुखी का पता चलता है।
राज्य सरकारों और आला-अफसरों के इस बेरुखी के साथ कुछ और भी वजहें हैं जिससे पैसा की प्रासंगिकता कम हुई है। इस कानून के आने के बाद कई और भी कानून बन गए जिसमें पेसा के प्रावधानों को मजबूती से शामिल कर लिया गया।
पेसा यानी पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) क़ानून को आए पच्चीस साल पूरे होने वाले हैं। आदिवासी बहुल इलाकों में स्थानीय समाज को मजबूती देने के लिए लाया गया यह कानून आज खुद की प्रासंगिकता के सवालों से जूझ रहा है।
जब यह कानून आया था तो इसे देश के तकरीबन नौ प्रतिशत आबादी वाले आदिवासी समाज के पक्ष में लाया गया अब तक का सबसे मजबूत कानून माना गया था। इसको लागू करने की जिम्मेदारी राज्य सरकार और स्थानीय प्रशासन के जिम्मे था। इन्होंने या तो इसमें दिलचस्पी नहीं दिखाई या बेमन से जिम्मेदारियों का निपटारा किया। आलम यह है कि दस में से चार राज्यों ने पच्चीस साल में पेसा कानून को लागू करने के लिए जो जरूरी नियम बनाने थे, नहीं बनाये। इन राज्यों में छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्य प्रदेश और ओडिशा शामिल हैं। यह बात सरकारी रिकॉर्ड के आधार पर कही गई है।
इस कानून के महत्व को बताते हुए अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के आयुक्त रहे बीडी शर्मा ने वर्ष 2010 में राष्ट्रपति को एक पत्र लिखा था। आदिवासी समाज पर अपने काम के लिए मशहूर रहे शर्मा ने लिखा, “जब पेसा कानून बना और इसके प्रावधान सामने आए तो ऐसा प्रतीत हुआ कि यह जनजातीय समुदाय के साथ किए गए ऐतिहासिक अन्याय को मिटाने के लिए बनाया गया है। इस कानून के आने से पूरे देश के आदिवासी समाज का उत्साह अभूतपूर्व तरीके से बढ़ा। इन लोगों को लगा कि इस कानून के आने से उनकी गरिमा और स्व-शासन का अधिकार पुनः बहाल होगा। ‘मावा नाटे मावा राज’ की तर्ज पर। इसका तात्पर्य है ‘हमारा गांव हमारा शासन’।
हालांकि उसी पत्र में उन्होंने इस कानून के पंद्रह साल की यात्रा को समझाते हुए बड़े सख्त लहजे में लिखा था कि आदिवासी समाज का यह उत्साह खत्म हो गया है। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि सत्तारूढ़ अभिजात वर्ग पेसा के मूल भावना को मानने को तैयार ही नहीं है।
इस पत्र को लिखे भी दस साल उसे अधिक हो गया। पर ऐसा प्रतीत होता है कि स्थिति जस की तस बनी रही। झारखंड के आदिवासी समाज पर दशकों से काम कर रही दयामनी बारला कहती हैं कि जब यह कानून अस्तित्व में आया था तब पांचवी अनुसूची के क्षेत्र में रहने वाले लोगों में खासा उल्लास था। उन्हें लगा कि इस कानून की बदौलत स्थानीय संसाधनों पर उनका नियंत्रण सुरक्षित रह सकेगा। जमीन हो, खनिज संपदा हो या लघु वनोपज हो। लेकिन पच्चीस साल के बाद भी स्थिति वैसी कि वैसी ही रही। अभी भी इन संसाधनों पर इलाके के अमीर लोगों का ही कब्जा है। आमजन अगर अपने हक की बात करते हैं तो उनपर कार्यवाही की जाती है। सरकारें बिना ग्राम सभा के अनुमति के भूमि-अधिग्रहण किये जा रही हैं, बारला कहती हैं।
झारखंड की कुल आबादी में करीब 26 प्रतिशत आदिवासी हैं फिर भी इस राज्य में पेसा के क्रियान्वयन के लिए जरूरी नियम नहीं बनाये गए। यह तब है जब इस राज्य की स्थापना ही आदिवासी समाज के साथ हुए अन्याय के आधार पर किया गया था।
जंगल से वनोपज इकट्ठा कर हाट में बेचने ले जाती छत्तीसगढ़ की आदिवासी महिलाएं। वन संपदा पर आदिवासियों के अधिकार सुरक्षित रखने में पेसा कानून के तहत ग्राम सभा को शक्तियां प्रदान की गई हैं। तस्वीर- डीपीआर छत्तीसगढ़
स्व-शासन को मजबूती देने के लिए लाया गया था यह कानून
अप्रैल 24, 1993 को संविधान (तिहत्तरवां संशोधन) अधिनियम, 1992 से पंचायती राज को संस्थागत रूप दिया गया। इसके लिए संविधान में ‘पंचायत’ नाम से नया भाग-IX जोड़ा गया। पांचवी अनुसूची के क्षेत्र में इस कानून को विस्तार देने के लिए पेसा अस्तित्व में आया। कुछ संशोधन और कुछ नए प्रावधान के साथ। वर्तमान में पांचवी अनुसूची झारखंड, छत्तीसगढ़, ओडिशा, आंध्र प्रदेश, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान और तेलंगाना में लागू है।
इसके ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को बताते हुए मध्य प्रदेश में कई सालों से इन मुद्दों पर काम कर रहे अधिवक्ता अनिल गर्ग बताते हैं कि उन दिनों केंद्र सरकार स्थानीय स्थानीय शासन को सुदृढ़ करने पर जोर दे रही थी। इसीलिए 73वें संशोधन कानून के साथ पंचायत को कानूनी जामा पहनाया गया। लेकिन अनुसूचित क्षेत्र या कहें आदिवासी बहुल वाले क्षेत्र में यह लागू नहीं हुआ। इन क्षेत्र में स्व-शासन की मांग तो थी ही और ये क्षेत्र काफी पिछड़े भी थे। इसे देखते हुए केंद्र सरकार ने 1994 में एक कमेटी बनायी। मध्य प्रदेश से सांसद दिलीप सिंह भूरिया के अध्यक्षता में इस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट 1995 में सौंपी जिसमें आदिवासी समाज के साथ किये गए शोषण की चर्चा की गई थी। इस कमेटी के अनुशंसा के मद्देनजर केंद्र सरकार ने पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों के लिए विस्तार) (पेसा) अधिनियम, 1996 कानून बनाया। इस कानून के साथ से अनुसूची पांच के क्षेत्र में आने वाले ग्राम सभा को काफी सशक्त किया गया।
इसके तहत ग्राम सभा को आदिवासी समाज की परंपराएं और रीति-रिवाज, और उनकी सांस्कृतिक पहचान, समुदाय के संसाधन और विवाद समाधान के लिए परंपरागत तरीकों के इस्तेमाल के लिए सक्षम बनाया गया। ग्राम सभा को भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और विस्थापित व्यक्तियों के पुनर्वास में अनिवार्य परामर्श का अधिकार दिया गया। इन्हें खान और खनिजों के लिए संभावित लाइसेंस/पट्टा, रियायतें देने के लिए अनिवार्य सिफारिशें देने का अधिकार भी दिया गया। और भी कई अधिकार दिए गए।
इसी कानून का हवाला देते हुए वर्ष 2013 में सर्वोच्च न्यायालय ने ओडिशा सरकार को कालाहांडी और रायगढ़ जिले में बॉक्साइट खनन के लिए ग्राम सभा से अनुमति लेने को कहा था। स्थानीय लोगों से पूछा गया कि बॉक्साइट के खनन से क्या उनके सांस्कृतिक और धार्मिक अधिकार को नुकसान होगा! इन लोगों ने नियमगिरि पर्वत पर खनन करने की सहमति नहीं दी और इस तरह ग्राम सभा के इतिहास में यह एक मील का पत्थर बना।
यह पेसा कानून एक बड़ी उपलब्धि रही। पर इसके अतिरिक्त यह कानून जमीनी स्तर पर अपनी छाप छोड़ने में लगभग नाकाम ही रहा है।
झारखंड के विभिन्न जिलों में ऐसे शिलालेख के माध्यम से ग्राम सभा का अधिकार बताने का आंदोलन चला जो ओडिशा और छत्तीसगढ़ में भी फैला। यह आंदोलन सरकार के द्वारा भूमि अधिग्रहण की कोशिशों के खिलाफ चलाया जा रहा था। तस्वीर- झारखंड जनाधिकार महासभा
पेसा की वर्तमान स्थिति
इस कानून के अब तक की उपलब्धि पर इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ पब्लिक ऐड्मिनिस्ट्रैशन ने एक अध्ययन किया था। वर्ष 2016-17 में। इसमें तीन राज्यों के छः जिलों को शामिल किया गया। तीन राज्य थे- झारखंड, छत्तीसगढ़ और ओडिशा। इस अध्ययन में पता चला कि झारखंड के खूंटी जिले में 65 प्रतिशत लोग जिनकी जमीन का अधिग्रहण किया, उनसे अनुमति नहीं ली गई है। गुमला में ऐसे 26 प्रतिशत लोग थे।
वर्ष 2016-17 में यह अध्ययन किया गया जब झारखंड में राज्य सरकार दो पुराने कानूनों में संशोधन कर जमीन अधिग्रहण को आसान करना चाह रही थी। छोटा नागपूर काश्तकारी अधिनियम, 1908 और संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम 1949 में संशोधन के प्रयास किये जा रहे थे। तब लोगों ने पेसा कानून के प्रावधानों का इस्तेमाल करते हुए विरोध दर्ज कराया, दयामनी बारला कहती हैं। इसी खूंटी जिले से पत्थलगढ़ी आंदोलन ने जोर पकड़ा। यह आंदोलन राज्य अन्य जिलों से होते हुए पड़ोसी राज्य ओडिशा और छत्तीसगढ़ में पहुंच गया। इसमें लोग पत्थरों पर ग्राम सभा के अधिकार लिखकर गांव के प्रवेशद्वार पर लगा देते थे।
बारला कहती हैं कि राज्य सरकार ने ग्राम सभा की अहमियत को समझने के बजाय करीब दस हजार लोगों पर केस दर्ज कर दिया।
इस कानून को लेकर सरकारी अधिकारियों के तेवर ने भी बड़ा नुकसान किया, कहते हैं श्रीचरण बेहारा जो कैम्पैन फॉर सर्वाइवल एण्ड डिग्निटी नामक संस्था के ओडिशा चैप्टर से जुड़े हैं। इनके अनुसार अगर ग्राम सभा का आयोजन हो भी रहा है तो भी आखिरी फैसला स्थानीय अधिकारी ही लेते हैं। ओडिशा में कई संस्थाएं मुहिम चलाकर ग्राम सभा चलाने के पारंपरिक तरीके को स्थापित करने की कोशिश कर रही हैं। राजस्थान में भी यही स्थिति है, कहते हैं मान सिंह सिसोदिया जो मजदूर और किसानों के मुद्दे पर कई साल से काम कर रहे हैं।
इनके अनुसार राज्य सरकार ने पेसा कानून को लागू करने के लिए जरूरी नियम तो 2011 में बना लिए। पर जमीनी हकीकत नहीं बदली। राज्य सरकार को इस कानून के बेहतर क्रियान्वयन के लिए कई स्थानीय कानून में संशोधन करना था जो नहीं किया गया। इसका नतीजा यह निकला कि पेसा कानून के क्रियान्वयन अधिकारियों और पंचायत के हाथों में ही रहा। स्थानीय वांगड़ मजदूर किसान संगठन ने इस बाबत 2019 में राज्यपाल को एक पत्र भी लिखा था।
अन्य राज्यों में भी लगभग यही स्थिति है। गुजरात भी एक अलहदा उदाहरण है। इसने जरूरी नियम बनाये लेकिन ये गुजरात पंचायत राज अधिनियम 1993 का कॉपी-पेस्ट है, हाल ही में प्रकाशित एक रिपोर्ट कहती है। इसके तहत स्थानीय पंचायत की भूमिका की बात तो की गई पर छोटे गांव-खेड़ा की भूमिका पर कुछ नहीं कहा गया।
पेसा कानून पर काम कर रहे लोग मानते हैं कि यह कानून तो अच्छा है पर तभी तक, जब इसके क्रियान्वयन से जुड़े लोग इसको गंभीरता से लेते हैं।
पेसा कानून के प्रावधानों का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। इसका क्रियान्वयन केंद्र सूची, समवर्ती सूची और राज्य से जुड़े सूची में बनने वाले कानूनों पर निर्भर करता है, संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम का एक पॉलिसी पेपर यह कहता है।
इस पैमाने पर देखा जाए तो सभी राज्यों में बहुत काम किया जाना बाकी है। आंध्र प्रदेश ने छः के छः क्षेत्र में जरूरी बदलाव नहीं किये हैं। इन क्षेत्र के नाम है भूमि अधिग्रहण, आबकारी, वनोपज, खान और खनिज, कृषि हाट और अर्थ। महाराष्ट्र ने छः में से पांच क्षेत्रों में जरूरी बदलाव नहीं किया है। ऐसी ही स्थिति कमोबेश सभी राज्यों की है। यह केंद्र सरकार के आंकड़े हैं।
पेसा कानून के इस परिणति के लिए कई चीजें जिम्मेदार
अनिल गर्ग कहते हैं कि ये कानून लगभग असफल रहा। सरकार ने कानून तो बना दिया पर नियम नहीं बनाये। “ऐसे में अगर ग्राम सभा ने निर्णय ले भी लिया तो कलक्टर इत्यादि ने उसकी बात नहीं मानी। ग्राम सभा ने प्रस्ताव पास किया कि शराब दूकान नहीं खुलेगी पर अधिकारियों ने उस प्रस्ताव को नहीं माना,” गर्ग कहते हैं।
आगे कहते हैं, “सरकार ने पेसा कानून में जो अधिकार ग्राम सभा को दिए उन अधिकारों के क्रियान्वयन की प्रक्रिया निर्धारित नहीं की। जिन राज्यों में पेसा कानून लागू है वहां लघु वनोपज के अधिकार ग्राम सभा को सौंपे नहीं गए। यह एक उदाहरण इस कानून की स्थिति बताने के लिए काफी है।”
इसका एक दूसरा पहलू भी है। पेसा कानून लाने के बाद केंद्र सरकार ने कुछ और कानून बनाये। उन कानूनों में पेसा के प्रावधानों को बड़ी मजबूती से शामिल किया गया। जैसे भूमि अधिग्रहण अधिनियम 2013 बनाकर उन्होंने ने केवल पेसा के क्षेत्र ही नहीं बल्कि गैर-पेसा क्षेत्र के भी ग्राम सभाओं को मजबूती प्रदान की। आदिवासी क्षेत्रों के लिए अलग से प्रावधान किए। ऐसे ही 2006 में वन अधिकार कानून आया। इस कानून में भी जंगल, जमीन, लघु वनोपज से जुड़े अधिकार समाज को दे दिए। फिर यहां भी पेसा कानून अप्रासंगिक हो गया। इन दो दृष्टिकोण से पच्चीस वर्ष के सफर को देखना होगा, गर्ग कहते हैं।
इसी तरह अपने अध्ययन में आईआईपीए की डॉक्टर नूपुर तिवारी ने पेसा से जुड़ी कुछ समस्याओं का जिक्र किया है। जैसे इस कानून में यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि इसको लागू करने का नियम बनाने की जिम्मेदारी किसकी है और नियम कब तक बन जाना चाहिए इसको लेकर कोई समय सीमा निर्धारित नहीं की गयी है। इस कानून में कुछ ऐसे शब्दों का प्रयोग किया गया है कि उसकी व्याख्या कानून के मूल विचार के खिलाफ ही कर लिया जाता है। (mongabay.com)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
हमारा सर्वोच्च न्यायालय अब नेताओं से भी आगे निकलता दिखाई दे रहा है। उसने सभी राज्यों को निर्देश दिया है कि वे बताएं कि सरकारी नौकरियों में जो आरक्षण अभी 50 प्रतिशत है, उसे बढ़ाया जाए या नहीं ? कौन राज्य है, जो यह कहेगा कि उसे न बढ़ाया जाए? सभी नेता और पार्टियाँ वोट और नोट की गुलाम होती हैं। लगभग आधा दर्जन राज्यों ने 1992 में अदालत द्वारा बांधी गई आरक्षण की सीमा (50 प्रतिशत) का उल्लंघन कर दिया है। महाराष्ट्र में तो सरकारी नौकरियों में 72 प्रतिशत आरक्षण हो गया है। सर्वोच्च न्यायालय से उम्मीद थी कि वह इस बेलगाम जातीय आरक्षण पर कठोर अंकुश लगाएगा बल्कि जातीय आरक्षण को असंवैधानिक घोषित करेगा। जातीय आधार पर आरक्षण शुरु में सिर्फ 10 साल के लिए दिया गया था लेकिन वह हर दस साल के बाद द्रौपदी के चीर की तरह बढ़ता ही चला जा रहा है। उसका नतीजा क्या हुआ है ?
क्या इस आरक्षण के कारण देश के लगभग 100 करोड़ गरीब, पिछड़े, ग्रामीण, दलित-वंचित लोगों को न्याय और समान अवसर मिल रहे हैं? कतई नहीं। इन 100 करोड़ों लोगों में से सिर्फ कुछ हजार लोग ऐसे हैं, जिन्होंने सरकारी नौकरियों पर पीढ़ी दर पीढ़ी कब्जा जमा रखा है। उसका आधार उनकी योग्यता नहीं, उनकी जाति है। ये कुछ हजार दलित, आदिवासी और पिछड़े लोग नौकरियों के योग्य हों न हों लेकिन अपनी जाति के कारण वे नौकरियां हथिया लेते हैं। इसके कारण देश के प्रशासन में प्रमाद और भ्रष्टाचार तो बढ़ता ही है, जातिवाद-जैसी कुत्सित प्रथा भी प्रबल होती रहती है। इस प्रवृत्ति ने एक नए शोषक-वर्ग को जन्म दे दिया है। इसका नाम हैं- ‘क्रीमी लेयर’ याने मलाईदार वर्ग। इस वर्ग में अयोग्यता के साथ-साथ अहंकार भी पनपता है। इन लोगों ने अपना नया सवर्ण वर्ग बना लिया है। यह सवर्णों से भी आगे ‘अति सवर्ण वर्ग’ है। देश के 100 करोड़ वंचितों को ऊपर उठाने की चिंता इन लोगों को उतनी ही है, जितनी परंपरागत सवर्ण वर्ग को है।
यदि हम भारत को सबल और संपन्न बनाना चाहते हैं तो इन 100 करोड़ लोगों को आगे बढ़ाने की चिंता हमें सबसे पहले करनी चाहिए। उसके लिए जरुरी है कि आरक्षण जाति के नहीं, जरुरत के आधार पर दिया जाए और नौकरियों में नहीं, शिक्षा और चिकित्सा में दिया जाए। जो भी दलित, वंचित, अक्षम, गरीब हो, उसके बच्चों को मुफ्त शिक्षा और मुफ्त भोजन दिया जाए और उसकी मुफ्त चिकित्सा हो। उसकी जाति न पूछी जाए। ऐसे जरुरतमंदों को वे किसी भी जाति के हों, यदि उन्हें शिक्षा और चिकित्सा में 80 प्रतिशत आरक्षण भी दिया जाए तो इसमें कोई बुराई नहीं है। ये बच्चे अपनी योग्यता और परिश्रम से भारत को महाशक्ति बना देंगे।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-रमेश अनुपम
आज इस बात पर यकीन कर पाना थोड़ा मुश्किल साबित हो सकता है कि एक ऐसा जीनियस कभी इस शहर की शान हुआ करते थे ,जिनकी प्रतिभा का लोहा पूरी दुनिया मानती थी।
ऐसे जीनियस थे अद्भुत प्रतिभा के धनी महान भाषाविद हरिनाथ डे।
कोतवाली से कालीबाड़ी चौक की ओर जाने वाले मार्ग पर आज भी डे भवन अपना सिर ऊंचा कर खड़ा हुआ है। इसी डे भवन में इस जीनियस का बचपन और किशोरावस्था व्यतीत हुआ है ।मुख्य सडक़ पर स्थित डे भवन में भीतर घुसते ही बाईं ओर जो पत्थर लगा हुआ है उसमें उन छत्तीस भाषाओं का उल्लेख आज भी पढ़ा जा सकता है, जिसके ज्ञाता महान जीनियस हरिनाथ डे थे।
क्या आप किसी ऐसे शख्स की कल्पना कर सकते हैं जिसे मात्र चौंतीस वर्षों का छोटा सा जीवन मिला हो और जो दुनिया की छत्तीस भाषाओं का ज्ञाता हो। जिसकी शिक्षा-दीक्षा ,लालन-पालन रायपुर शहर में हुआ हो तथा जो रायपुर नगर के गौरव रायबहादुर भूतनाथ डे जैसे विद्वान पिता के मेधावी संतान हों।
लैटिन, ग्रीक, हिब्रू, स्पेनिश, फ्रेंच, जर्मन, इटालियन, रशियन, पुर्तगीज, पोलिश, जापानी, टर्किश, अरबिक, पर्शियन,चीनी जैसी दुनिया की छत्तीस मशहूर और क्लिष्ट भाषा में निष्णात होना अपने आप में कोई कम दुष्कर या असंभव कार्य नहीं है।
आज इस बात पर यकीन कर पाना मुश्किल हो सकता है कि एक ऐसा ही जीनियस का संबंध रायपुर शहर से रहा है।
रायबहादुर भूतनाथ डे के इस महान प्रतिभाशाली सुपुत्र हरिनाथ डे की कीर्ति गाथा के लिए शायद मेरे पास उस तरह के शब्द या भाषा नहीं है जिसके महान हरिनाथ डे उत्तराधिकारी हैं।
ऐसे महान शख्शियत पर कुछ लिखते हुए कलम भी कुछ देर ठहर कर सोचने लग जाती है कि क्या ऐसा संभव है ? क्या कोई ऐसा शख्स भी कभी कोई रहा होगा ? जिसकी वाणी से छत्तीस भाषाएं कभी फूल की पंखुड़ी की तरह झरती रहीं होंगी?
जिस महान जीनियस से यह शहर, यह छत्तीसगढ़ राज्य पूरी तरह से अपरिचित है ,उस महान जीनियस के विषय में तत्कालीन गवर्नर जरनल इंडिया, लॉर्ड कर्जन तथा एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल डॉ.ए.ए. सुहरावर्दी ने क्या कहा था, उसे भी जानना आवश्यक है। बिना जाने हम उस महान शख्शियत के अवदान को नहीं जान पाएंगे।
लॉर्ड कर्जन ने कहा था ‘इस समय भारत में जो ढाई जीनियस हैं उनमें से में एक पूरा जीनियस मैं हरिनाथ डे को मानता हूं। ‘डॉक्टर ए.ए.सुहरावर्दी ने कहा था कि " महाराजा आते-जाते रहते हैं, पर हरिनाथ डे जैसे जीनियस हमेशा जीवित रहेंगे।आज, कल और सदियां उन जैसे जीनियस को याद करेगी। ’
महान जीनियस हरिनाथ डे की ऐसी प्रतिभा से प्रभावित होकर अंग्रेज सरकार द्वारा उन्हें कोलकाता स्थित प्रसिद्ध लाइब्रेरी इंपीरियल लाइब्रेरी ( वर्तमान में नेशनल लाइब्रेरी ) का लाइब्रेरियन नियुक्त किया गया।
यह उसी हरिनाथ डे की विरल गाथा है जो मां श्रीमती एलोकेशी डे की गोद में लेटे हुए मात्र छ: माह के शिशु थे जब रायबहादुर भूतनाथ डे अपने मित्र विश्वनाथ दत्त और उसके पूरे परिवार को जिसमें, ग्यारह वर्षीय नरेंद्रनाथ दत्त भी शामिल थे जो कालांतर में स्वामी विवेकानन्द के नाम से विश्व प्रसिद्ध हुए, उन्हें बैलगाडिय़ों में लेकर नागपुर से रायपुर आए थे।
इसी शिशु को अपनी गोद में लेकर किशोर नरेंद्र डे भवन में घूमा करते थे।
शेष अगले रविवार... महान जीनियस हरिनाथ डे की शिक्षा - दीक्षा और जीवनी.
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
सरकार ने ज्यों ही 25 फरवरी को दूरसंचार तंत्र को नियंत्रित करने की आचार संहिता जारी की, इंटरनेट, अखबारों और टीवी चैनलों पर हायतौबा मच गई। वह तो मचनी ही थी, क्योंकि लोगों के मन में यह भाव पहले से ही बैठा हुआ है कि सरकार सारे खबरतंत्र को अपनी कठपुतली बनाकर रखना चाहती है लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने इस भाव को ही अभाव में बदल दिया है। उसने सरकार को उलटे डांट लगाई कि आपने जो आचार-संहिता जारी की है, वह निरर्थक है, क्योंकि उसमें दोषियों को सजा का न तो कोई प्रावधान है और उसमें न तो यह बताया गया है कि इंटरनेट पर चलनेवाले असंख्य अश्लील चित्र और कहानियों को रोकने का क्या इंतजाम है? अपनी आचार-संहिता में सरकार ने यह भी नहीं बताया है कि यदि इन सूचना-माध्यमों पर कोई आपत्तिजनक या अपमानजनक सामग्री भेजी जाती है तो उसके पास ऐसे कौन से तरीके हैं, जिनके द्वारा वह उन्हें रोक सकेगी?
एक तरफ सर्वोच्च न्यायालय ने यह कडक़ मांग की है और दूसरी तरफ देश के खबरतंत्र में यह डर फैल गया है कि अब जबकि यह आचार-संहिता कानून का रूप ले लेगी तो भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दम घुट जाएगा। यह डर स्वाभाविक है लेकिन हमें यह भी पता होना चाहिए कि दूरसंचार माध्यमों का दुरुपयोग अन्य देशों में बहुत पहले से ही इतने भयंकर रूप में हो रहा था कि उन्हें उसे रोकने के लिए सख्त कानून बनाने पड़े हैं। ऑस्ट्रेलिया, सिंगापुर, यूरोपीय देशों और अमेरिका आदि में इन आधुनिक सूचना-माध्यमों पर निगरानी के लिए कठोर कानून काफी पहले से लागू हैं।
मैं स्वयं यह मानता हूं कि इंटरनेट पर उपलब्ध अश्लील सामग्री पर पूर्ण प्रतिबंध होना चाहिए। उसके कारण देश में दुराचार और यौन अपराधों में वृद्धि हो रही है। बच्चे और नौजवान संस्कारहीन होते जा रहे हैं। सरकार को आतंकवादियों, तस्करों, पेशेवर अपराधियों, सामूहिक हिंसकों और विदेशी जासूसों आदि के टेलिफोन, ई-मेल, व्हाट्सऐप आदि पर कड़ी निगरानी रखनी चाहिए लेकिन यह काम बहुत ही संकोच और सावधानीपूर्वक होना चाहिए। इसमें पूरी जवाबदेही की जरूरत है। यह गंभीर और नाजुक कार्रवाई एक संसदीय कमेटी की देख-रेख में हो तो बेहतर रहेगा ताकि मंत्री या अफसर अपनी मनमानी न कर सकें।
जहां तक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सवाल है, उस पर किसी प्रकार की रोक-टोक का सवाल ही नहीं उठता, बशर्ते कि वह अपने संवैधानिक दायरे में रहे। देशद्रोह संबंधी धारा 124ए में संशोधन नितांत आवश्यक है। स्वतंत्र भारत में वह गुलामी की प्रतीक है। उसका उपयोग कम और दुरुपयोग ज्यादा होता है।
सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय को आश्वस्त किया है कि देश के सूचना तंत्र को सन्मार्ग पर चलाने के लिए वह शीघ्र ही नया आदेश जारी करेगी या कानून बनाएगी। बेहतर तो यह हो कि संसद के इसी सत्र में पूरी और खुली बहस के बाद एक ऐसा कानून पारित किया जाए, जो भारत के सूचना तंत्र को अभिव्यक्ति की मर्यादा और स्वतंत्रता का पर्याय बना दे।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-कनक तिवारी
डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने अल्पसंख्यक अधिकारों की उपसमिति में 17 अप्रेल 1947 को सुझावों का एक नोट दिया था। मौजूदा भाजपा नेतृत्व को ये सुझाव चुनौती के साथ पेश किए जाएं तो दुनिया का अपने को सबसे बड़ा कहता कथित दल अपने पितृपुरुष को तर्पण तक नहीं कर पाएगा। डाॅ. मुखर्जी ने मुख्यतः भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के 1931 के प्रस्तावों को समर्थन देते अपनी सिफारिशें लिखी थीं। उन्होंने उस देश के संविधान पर भी ज़्यादा भरोसा किया जो भारत में नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में हमलावर बनकर घुस आया है। डाॅ. मुखर्जी ने चीन के संविधान सहित सोवियत संविधान और कैनेडा तथा आयरलैंड के संविधानों की कंडिकाओं का भी उद्धरण और समर्थन दिया।
डाॅ. मुखर्जी के लिखित नोट में है किसी व्यक्ति को किसी अदालत के आदेश या मुनासिब तौर पर बनाए गए कानून के अभाव में गिरफ्तार, प्रतिबंधित, निरोधित या दंडित नहीं किया जाए और न ही उसकी कोई संपत्ति ऐसे आरोप लगाकर सरकार द्वारा जप्त की जा सके। उत्तरप्रदेश की योगी सरकार इसके ठीक उलट आचरण मूंछों पर ताव देकर कर रही है और डाॅ. मुखर्जी की याद भी उसे नहीं होगी। नागरिक अधिकारों पर डकैती करते कानून उत्तरप्रदेश में बना है। जो पार्टी भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने का शोशा छोड़ती रहती है, क्या उसने पढ़ा है डाॅ. मुखर्जी ने लिखा था कि भारत का कोई एक खास (राष्ट्रीय) धर्म नहीं होगा। यह राज्य की जवाबदेही है कि वह सभी धर्मों से बराबरी का बर्ताव करेगी। क्या भाजपा में हिम्मत है कि कहे वह डॉ. मुखर्जी से असहमत है? यह भी कहा कि हर नागरिक को सरकार को सम्बोधित याचिका और शिकायत देने का अधिकार होगा और उसके खिलाफ मुकदमा करने का भी। (ब्रिटिश तथा चीनी संविधान से उद्धृत)।
यह भी मुखर्जी ने लिखा कि हर नागरिक को अपने पत्र व्यवहार की गोपनीयता बनाए रखने का अधिकार होगा। कोई नरेन्द्र मोदी सरकार से पूूछे कि पूरी दुनिया में अपनी फजीहत भी कराते मौजूदा सरकार नागरिकों की आज़ादी की गोपनीयता को किस तरह तार तार कर रही है। आधार कार्ड का प्रकरण हो। बैकों से संव्यवहार हो। सोशल मीडिया हो। इंटरनेट हो या अन्य जो भी तकनीकी ज्ञान के अवयव होते हैं। वहां घुसकर मोदी सरकार ने निजता के कानून का क्रूर उल्लंघन कई बार किया है और अब भी आमादा है। सुप्रीम कोर्ट तक को इस संबंध में संविधान पीठ बनाकर फैसला करना पड़ा है। सरकार का यह कृत्य तो डाॅ. मुखर्जी के अनुसार चीनी संविधान के अनुच्छेद 12 के खिलाफ है।
दिलचस्प है भाजपा सरकार और पार्टी संगठन को बताना ज़रूरी है कि डाॅ. मुखर्जी ने अपने नोट में लिखा था कि कोई लोकसेवक गैरकानूनी तरीके से किसी व्यक्ति की आज़ादी या अधिकार में दखल देता है तो उसके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्यवाही तो हो। इसके अलावा उसे फौजदारी और दीवानी कानून में भी आरोपी बनाया जाए। पीड़ित नागरिक चाहे तो ऐसे कृत्यों के लिए वह संबंधित सरकार से हर्जाने का दावा कर सकता है। (अनुच्छेद 26 चीनी संविधान)। देश में एक तो क्या लाखों प्रकरण हैं जिनमें मौजूदा केन्द्र सरकार की नकेल डाॅ. मुखर्जी के नोट की इमला में कसी जा सकती है। चाहे किसान आंदोलन हो। श्रमिक यूनियनों का खात्मा हो। आदिवासियों का विस्थापन हो। महिलाओं का रसूखदार नेताओं द्वारा बलात्कार हो या कोरोना पीड़ित लाखों गुमनाम देशवासियों की बेबसी और लाचारी के सरकारी कारण हों। मीडिया और नागरिक अधिकारों के कार्यकर्ताओं की जबरिया गिरफ्तारी हो। क्या हो रहा है डा0 मुखर्जी? हिन्दू-मुसलमान करने वाली भाजपा के पितृपुरुष ने कांग्रेस के प्रस्तावों पर निर्भर होकर कहा था कि अल्पसंख्यकों की संस्कृति, भाषा और लिपि की पूरी रक्षा की जाएगी। उन्हें अपनी शिक्षण और अन्य संस्थाएं चलाने और धर्म का पालन करने की पूरी आज़ादी होगी। क्या कहती है भाजपा उर्दू भाषा और मदरसों को लेकर? अब तो गुरुमुखी पढ़ने वालों को आतंकी और खालिस्तानी भी कहा जा रहा है!
मुखर्जी ने तो यह भी कहा था कि सरकारी नौकरी के 50 प्रतिशत पदों को योग्यता के आधार पर भरा जाए और बाकी पदों को प्रत्येक समुदाय से आबादी के अनुपात में उम्मीदवार लेकर भरा जाए। क्या देश नौकरियों में यह अनुपात भाजपा लाने का वचन दे सकती है? यह भी डाॅ. मुखर्जी ने अपने नोट में लिखा था कि विधायिका और अन्य स्वायत्तशासी संस्थाओं में अल्पसंख्यकों का मुनासिब आनुपातिक संख्या में निर्वाचन या मनोनयन किया जाए। भाजपा तो कभी कभी पूरे राज्य में लोकसभा या विधानसभा चुनाव में एक भी टिकट अल्पसंख्यकों को नहीं देती। 14 वर्ष तक बच्चों को मुफ्त शिक्षा देने के अधिकार की सिफारिश करते उन्होंने लिखा था प्रदेश, जिला या नगरपालिक संस्थाओं के बजट में हर हालत में शिक्षा पर कुल बजट का 30 प्रतिशत खर्च किया जाए। है हिम्मत किसी भी सरकार की जो शिक्षा पर बजट का लगभग तिहाई तो क्या चौथाई खर्च करने की कहे भी? यह भी कि राज्य किसी को कोई उपाधि नहीं देगा। सावरकर जी का क्या होगा? राष्ट्रीय राजमार्ग पर धार्मिक भावना या भवन आदि बना रहा हो तो लोगों के यातायात में कोई दिक्कत पैदा नहीं करे। (कांग्रेस प्रस्ताव)।
महत्वपूर्ण है उन्होंने यह भी लिखा था कि भारत के हर नागरिक को हथियार रखने का अधिकार उस संबंध में बनाए गए विनियमों और आरक्षण आदि के आधार पर दिया जाएगा। सोचिए आज हर नागरिक के हाथ में हथियार होता! सरकारी अनुदान प्राप्त शिक्षण संस्थाओं में किसी भी विद्यार्थी को अपना धर्म छोड़कर अन्य धर्म संबंधी शिक्षा या औपचारिकता को लेकर कोई प्रतिबंध नहीं होगा। भारत में यदि रहना होगा, वन्देमातरम् कहना होगा का क्या होगा? महत्वपूर्ण है उन्होंने कहा था कि अल्पसंख्यकों द्वारा स्थापित स्कूल, काॅलेज, तकनीकी और अन्य संस्थाओं को राज्य से सहायता पाने का बराबर का अधिकार होगा जितना अन्य उसी तरह की सार्वजनिक संस्थाओं या बहुसंख्यक वर्ग की संस्थाओं के लिए दिया जा सकता है। किसी धार्मिक समुदाय को लेकर कोई विधेयक या प्रस्ताव विधायिका में प्रस्तुत किया जाना है, तो यदि उस प्रभावित धर्म के विधायकों में तीन चौथाई विरोध करें तो उस पर कोई कार्रवाई नहीं होगी।
सौ साल के सफर में बिहार विधानसभा कई घटनाक्रमों की गवाह बनी। अंग्रेजों के विदेशी शासन के दौरान बनी विधानसभा ने सौ सालों में कानूनी स्तर पर बड़े बड़े बदलाव देखे जिससे लोकतंत्र आहिस्ता-आहिस्ता मजबूत हुआ।
डॉयचे वैले पर मनीष कुमार की रिपोर्ट-
बिहार विधानसभा फरवरी में सौ साल की हो गई। अपने भवन में इसकी पहली बैठक वर्ष 1921 की सात फरवरी को हुई थी। तब इसे बिहार-उड़ीसा विधान परिषद के नाम से जाना जाता था। बिहार विधानसभा ने सौ साल के सफर बहुत सी घटनाएं देखी हैं। देश की आजादी से लेकर राज्य के विभाजन तक। इस दौरान कई ऐतिहासिक फैसले लिए गए जो देशभर में चर्चित हुए। इसी सदन में बिहार-उड़ीसा के पहले राज्यपाल ने लोगों से स्वदेशी उद्योगों को प्रोत्साहित करने के लिए स्वदेशी चरखा अपनाने की अपील की थी जो बाद में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के जनांदोलन का हिस्सा बनी।
इन फैसलों में बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह के कार्यकाल में पारित किया गया जमींदारी उन्मूलन अधिनियम आजाद भारत में सबसे अहम रहा। इसी के आधार पर बाद में चकबंदी एक्ट लाया गया जिसके तहत अधिकतम जमीन रखने की सीमा तय की गई। इसके अतिरिक्त शराबबंदी कानून, पंचायती राज में महिलाओं को पचास फीसद आरक्षण तथा पर्यावरण को बचाने के लिए जल-जीवन-हरियाली अभियान जैसे कई ऐसे फैसले हुए जिसे विधायकों ने एक सुर में पारित किया। देश में पहली बार बिहार में पंचायती राज में महिलाओं के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई थी जिसे कई राज्यों ने बाद में अपनाया। ये ऐसे फैसले थे जिनके प्रभाव व्यापक व दूरगामी रहे। शताब्दी समारोह के मौके पर आयोजित कार्यक्रमों का सिलसिला सालभर चलेगा।
बिहार को मिला अलग
राज्य का दर्जा
बिहार में विधायिका के इतिहास के झरोखे में झांक कर देखें तो साल 1911 काफी महत्वपूर्ण रहा। इसी साल 12 दिसंबर को बिहार-उड़ीसा को बंगाल से अलग कर पूर्ण राज्य का दर्जा दिया गया। 22 मार्च,1912 को विधायी परिषद गठित हुई जिसके 43 सदस्य थे। इनमें मात्र 24 सदस्य ही निर्वाचित थे जबकि शेष सदस्यों का मनोनयन किया जाता था। अलग राज्य बनने के बाद विधान परिषद की पहली बैठक पटना कालेज के सभागार में 20 जनवरी,1913 को हुई थी। चूंकि परिषद का अपना कोई सचिवालय या सभागार नहीं था इसलिए इसकी बैठक अलग-अलग जगहों पर होती रही। बंगाल से अलग होने के बाद परिषद के लिए एक सचिवालय की जरूरत तो महसूस की ही जा रही थी।
विधानसभा भवन के सौ साल पूरे होने के मौके पर सालभर चलने वाले शताब्दी समारोह हो रहे हैं। वर्ष 1920 में विधान परिषद का अपना भवन बनकर तैयार हो गया। यही इमारत बिहार विधानसभा का मौजूदा भवन है। सौ साल पहले सात फरवरी,1921 को तत्कालीन राज्यपाल सत्येंद्र प्रसन्न सिन्हा ने विधान परिषद के पहले भवन का उद्घाटन किया था। इस मौके पर आयोजित बैठक को राज्यपाल सिन्हा ने संबोधित किया था और वॉल्टर मॉड सदन के अध्यक्ष थे। तब सदन के सदस्यों को मात्र 2404 लोग चुनते थे। बाद में इनकी संख्या तीन लाख से अधिक हो गई जिनमें यूरोपियन, जमींदार और विशेष निर्वाचन क्षेत्र के वोटर भी शामिल थे। वर्ष 1935 में पारित अधिनियम के तहत बिहार और उड़ीसा को अलग राज्य बनाया गया तथा बिहार में विधानमंडल के तहत दो सदनों, विधान परिषद और विधानसभा की व्यवस्था अस्तित्व में आई। 1936 में उड़़ीसा भी बिहार से अलग हो गया। इस लोकतांत्रिक संस्था के सतत विकास को इससे ही समझा जा सकता है कि आज सात करोड़ से अधिक मतदाता विधानसभा के 243 सदस्यों को चुनते हैं। झारखंड के अलग होने के पहले बिहार विधानसभा के सदस्यों की संख्या 324 थी जो विभाजन के बाद 243 रह गई है।
इतालवी आर्किटेक्चर
का नायाब नमूना
मौजूदा विधानसभा भवन के आर्किटेक्ट एएम मिलवुड थे। इतालवी रेनेसां शैली में बनी यह इमारत कई मायने में बेमिसाल है। बीच के वर्षों में इस भवन का विस्तार भी किया गया। जहां आज विधानमंडल के संयुक्त अधिवेशन की बैठक होती है, उसे सेंट्रल हॉल का नाम दिया गया है। विशिष्ट श्रेणी की इस इमारत में समानुपातिक गणितीय संतुलन के साथ ही सादगी व भव्यता का अद्भुत समन्वय है। अर्द्ध वृताकार मेहराब व गोलाकार स्तंभ इसकी खास विशेषता में शुमार है जो इसे रोमन शैली से प्रभावित दर्शाती है।
विधानसभा का सभा कक्ष आयताकार ब्रिटिश पार्लियामेंट से इतर रोमन एम्फीथियेटर की तर्ज पर अर्द्ध गोलाकार शक्ल में बनाया गया है। मूल सभा कक्ष की आंतरिक संरचना साठ फीट लंबी व पचास फीट चौड़ी है जिसका विस्तार भवन की दोनों मंजिलों में है। विधानसभा भवन के अगले हिस्से पर जो प्लास्टर किया गया है उस पर एक निश्चित अंतराल पर कट मार्क बनाया गया है जिससे इसकी खूबसूरती काफी बढ़ जाती है। वास्तुविद इसे इंडो सारसेनिक पद्धति का उदाहरण मानते हैं।
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने विधायकों को एक-दूसरे का सम्मान करने की अपील की
विधायकों को अपराध से
दूर रहने की सीख
विधानसभा भवन के सौ साल पूरे होने के मौके पर सालभर चलने वाले शताब्दी समारोह हो रहे हैं। औपचारिक बैठक में सदन के सुव्यवस्थित संचालन के अलावा विधायकों की भूमिका तथा लोक महत्व के मामलों को सदन में उठाने की प्रक्रिया विमर्श के केंद्र में रही। जनहित के सवालों पर सकारात्मक चर्चा के साथ बिहार का विकास मुख्य मुद्दा रहा। इन सबसे दीगर बिहार विधानसभा अध्यक्ष विजय कुमार सिन्हा ने सबसे अहम बात कही कि अब विधायक अपने घर में बाहर यह लिखेंगे कि उनके परिवार का अपराध और नशे से कोई नाता नहीं है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने विधायकों को एक-दूसरे का सम्मान करने की अपील की कहा कि सबसे महत्वपूर्ण है कि सबकी बात सुनी जाए।
नाम नहीं प्रकाशित करने की शर्त पर वृद्ध हो चुके एक पूर्व विधायक ने कहा, ‘बाकी बहुत कुछ तो नहीं बदला है, किंतु मुझे नहीं लगता कि जनप्रतिनिधियों का व्यवहार उतना शालीन रह गया है। लगता है जैसे धैर्य चूक रहा है। मजबूत लोकतंत्र के लिए सत्ता व विपक्ष के बीच स्वस्थ विमर्श की परंपरा का निर्वहन जरूरी है।’ कुछ ऐसा ही खगडिय़ा जिले के बेलदौर से पांचवीं बार विधायक चुने गए पन्नालाल पटेल का भी कहना है। वे कहते हैं, ‘सदस्यों के व्यवहार में रूखापन आया है। विपक्षी सदस्यों का व्यवहार बदला दिखता है। अब तो निजी हमले तक किए जाते हैं।’ शायद यही वजह रही होगी कि उपमुख्यमंत्री रेणु देवी ने भी कहा कि सार्वजनिक व व्यक्तिगत जीवन में व्यवहार ऐसा रखना चाहिए कि जनप्रतिनिधियों के प्रति आमलोगों का विश्वास का कायम रहे।
सदन के सौ साल तो पूरे हो गए किंतु लोकतंत्र के संबंध में तत्कालीन राज्यपाल सिन्हा के कहे शब्द आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं कि अपने मतभेद भुलाकर अधिक से अधिक मुद्दों पर आपसी सहमति स्थापित करें। तथा राजनीतिक तंत्र का उपयोग कर दलितों की स्थिति उन्नत करने का साथ ही जाति, नस्ल तथा शत्रुतापूर्ण स्वार्थों की दीवारें गिरा दें। सौ साल की लोकतांत्रिक परंपराओं के बावजूद ये समस्याएं ज्यों कि त्यों हैं, जाति, नस्ल और स्वार्थ की दीवारें और मजबूत हो गई हैं। (डायचे वैले)
-संजय श्रमण
जब देश में, अर्थव्यवस्था और राजनीति ठीक चल रही होती है तब समाज में बाबा लोग बहुत सक्रिय रहते हैं।
शहरीकरण, वैश्वीकरण और आधुनिकीकरण से जन्मी सुविधा और सुरक्षा का सबसे ज्यादा लाभ उठाते हुए ये धूर्त परजीवी इन्हीं उपलब्धियों को गालियां देते हुए आत्मा-परमात्मा की बकवास करते हैं।
फिर जैसे ही समाज में पैसा आता है और लोगों के पास खाली समय होता है वैसे ही ये परजीवी उन्हें आत्मा-परमात्मा, ध्यान-समाधि-निर्वाण आदि सिखाने निकाल पड़ते हैं। लेकिन जैसे ही राजनीति अस्थिर होती है, अर्थव्यवस्था खतरे मे ंपड़ती है, वैसे ही ये नालायक धूर्त अचानक गायब हो जाते हैं।
फिर मज़े की बात ये कि इनको पूजने वाली पब्लिक भी इनसे सवाल नहीं पूछती कि बाबाजी आपकी शिक्षाओं का क्या परिणाम हो रहा है?
इनसे कोई नहीं पूछता कि आपके ध्यान समाधि इत्यादि की बकवास के बावजूद इस देश में लोग अपने पड़ोसी का घर क्यों जला रहे हैं?
इन अनपढ़ और अंधविश्वासी बाबाओं से कोई नहीं पूछता कि अध्यात्म और धर्म की शक्ति इतने बड़े देश को सभ्यता कब तक सिखा पाएगी?
जब भी देश में आग लगती है, तब सबसे पहले इन बाबाओं की गर्दन पकड़ी जानी चाहिए। ये ही वे असली लोग हैं जो एक अंधविश्वासी और प्रतिगामी राजनीति को समर्थन देकर गुंडों और बलात्कारियों को संसद में पहुंचाते हैं।
जब महंगाई बढ़े और देश में दंगे हों इन बाबाओं को पकडक़र पूछिए कि आपके प्रवचनों और साधनाओं ने इस देश को क्या दिया है?
जिस धर्म या आध्यात्म से समाज को कोई लाभ नहीं उसे भी एक नालायक सरकार की तरह ही उखाड़ कर फेंक देना चाहिए।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अमेरिका के बाइडन-प्रशासन ने दो-टूक शब्दों में घोषणा की है कि वह कश्मीर पर ट्रंप-प्रशासन की नीति को जारी रखेगा। अपनी घोषणा में वह ट्रंप का नाम नहीं लेता तो बेहतर रहता, क्योंकि ट्रंप का कुछ भरोसा नहीं था कि वह कब क्या बोल पड़ेंगे और अपनी ही नीति को कब उलट देंगे। ट्रंप ने कई बार पाकिस्तान की तगड़ी खिंचाई की और उसके साथ-साथ ही कश्मीर पर मध्यस्थता की बांग भी लगा दी, जिसे भारत और पाकिस्तान, दोनों देशों ने दरकिनार कर दिया। ट्रंप तो अफगानिस्तान से अपना पिंड छुड़ाने पर आमादा थे। इसीलिए वे कभी पाकिस्तान पर बरस पड़ते थे और कभी उसकी चिरौरी करने पर उतर आते थे लेकिन बाइडन-प्रशासन काफी संयम और संतुलन के साथ पेश आ रहा है, हालांकि उनकी ‘रिपब्लिकन पार्टी’ के कुछ भारतवंशी नेताओं ने कश्मीर को लेकर भारत के विरुद्ध काफी आक्रामक रवैया अपनाया था। उस समय रिपब्लिकन पार्टी विपक्ष में थी।
उसे वैसा करना उस वक्त जरूरी लग रहा था लेकिन बाइडन-प्रशासन चाहे तो कश्मीर-समस्या को हल करने में महत्वपूर्ण रोल अदा कर सकता है। उसने अपने अधिकारिक बयान में कश्मीर के आंतरिक हालात पर वर्तमान भारतीय नीति का समर्थन किया है लेकिन साथ में यह भी कहा है कि दोनों देशों को आपसी बातचीत के द्वारा इस समस्या को हल करना चाहिए। गृहमंत्री अमित शाह ने स्वयं संसद में कहा है कि जम्मू-कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा दुबारा शीघ्र ही मिल सकता है, बशर्ते कि वहां से आतंकवाद खत्म हो। बाइडन-प्रशासन से मैं उम्मीद करता था कि वह कश्मीर में चल रही आतंकी गतिविधियों के विरुद्ध जऱा कड़ा रूख अपनाएगा। इस समय पाकिस्तान की आर्थिक हालत काफी खस्ता है और उसकी राजनीति भी डांवाडोल हो रही है।
इस हालत का फायदा चीन को यदि नहीं उठाने देना है तो बाइडन-प्रशासन को आगे आना होगा और पाकिस्तान को भारत से बातचीत के लिए प्रेरित करना होगा। चीन के प्रति अमेरिका की कठोरता तभी सफल होगी, जब वह प्रशांत-क्षेत्र के अलावा दक्षिण एशिया में भी चीन पर लगाम लगाने की कोशिश करेगा। यदि भारत और पाक के साथ अमेरिका घनिष्ट संबंध बनाएगा तो उसे अफगानिस्तान में भी फंसे रहने से छुटकारा मिल सकता है। जोजफ़ बाइडन चाहें तो आज दक्षिण एशिया में वही रोल अदा कर सकते हैं, जो 75-80 साल पहले यूरोपीय ‘दुश्मन-राष्ट्रों’ को ‘नाटो’ में बदलने के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रूमेन और आइजनहावर ने अदा किया था।
(लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं) (नया इंडिया की अनुमति से)
जुबैर अहमद
भारत में शायद पहली बार पेट्रोल की कीमत कुछ शहरों में 100 रुपए प्रति लीटर हो गई हैं। अगर अंतरराष्ट्रीय बाजारों में कच्चे तेल की कीमतों के हालिया रुझान को देखें, तो तेल और भी महँगा हो सकता है।
तो क्या आम उपभोक्ताओं को जल्द राहत नहीं मिलने वाली है? क्या हमें तेल और डीजल पर धीरे-धीरे निर्भरता कम करनी होगी?
तेल की आसमान छूती कीमतों पर विपक्ष सरकार की लगातार आलोचना कर रहा है। कांग्रेस नेता अभिषेक मनु सिंघवी ने कुछ दिन पहले एक प्रेस कॉंफ्रेंस में कहा था कि सरकार को पेट्रोल और डीजल पर अतिरिक्त करों को तुरंत हटाना चाहिए। इससे कीमतों को नीचे लाने में मदद मिलेगी।
उन्होंने कहा कि मोदी सरकार लोगों के लिए सबसे महंगी सरकार रही है, जिसने लोगों पर भारी कर लगाया है।
क्या घट सकती हैं कीमतें?
खबर ये है कि केंद्र सरकार एक्साइज ड्यूटी को थोड़ा कम करने पर विचार कर रही है। सूत्रों के मुताबिक इस पर वित्तीय और तेल मंत्रालयों में आम सहमति अब तक नहीं बन सकी है।
लेकिन अगर सरकार थोड़ा बहुत एक्साइज ड्यूटी कम कर भी देती है, लेकिन दूसरी तरफ अंतरराष्ट्रीय बाजारों में कच्चे तेल का दाम बढ़ता ही जाता है, जिसकी पूरी संभावना है, तो भारत में उपभोक्ताओं को अधिक राहत नहीं मिलेगी।
अगले कुछ हफ्तों और महीनों में पेट्रोल और डीज़ल के दाम में उतार-चढ़ाव आ सकता है, लेकिन विशेषज्ञ कहते हैं कि आने वाले समय में दाम में काफी उछाल आएगा।
इन दिनों अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल का दाम लगभग 66-67 डॉलर प्रति बैरल है। तो क्या इस साल ये 100 डॉलर तक पहुँच सकता है?
सिंगापुर में भारतीय मूल की वंदना हरी पिछले 25 सालों से तेल उद्योग पर गहरी नजऱ रखती हैं। वो कहती हैं, ‘100 (डॉलर) क्या 100 (डॉलर) से ज़्यादा भी बढ़ सकता है।’
केंद्र सरकार तेल के दाम को नियंत्रण में करने की कोशिश जरूर कर रही है, लेकिन सत्तारुढ़ भारतीय जनता पार्टी के आर्थिक मामलों के राष्ट्रीय प्रवक्ता गोपाल कृष्ण अग्रवाल के विचार में सरकार के हाथ बँधे हैं।
वो कहते हैं, ‘कुल मिलाकर सरकार के रेवेन्यू कलेक्शन (राजस्व संग्रह) में 14.5 प्रतिशत की कमी आई है। इस अवधि में सरकार का खर्च 34.5 प्रतिशत बढ़ गया है। इसके बावजूद सरकार ने टैक्स नहीं बढ़ाया है। इसके कारण राजकोषीय घाटा 9.5 प्रतिशत हो गया है। सकल घरेलू उत्पाद उधार का 87 प्रतिशत है। तो मुझे केंद्र की ओर से कोई राहत देने की गुंजाइश नजर नहीं आती। राज्य सरकारों को राहत देनी चाहिए।’ लेकिन अगर केंद्र सरकार के हाथ बँधे हैं, तो राज्य सरकारें भी मजबूर हैं। तेल से होने वाली कमाई में केंद्र का हिस्सा सबसे ज़्यादा है। हर 100 रुपए के तेल पर केंद्र और राज्य सरकारों के कर और एजेंट के कमीशन को जोड़ें, तो 65 रुपए बनते हैं जिनमे 37 रुपए केंद्र का है और 23 रुपए पर राज्य सरकारों का हक है।
लॉकडाउन के दौरान जब अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल का भाव बुरी तरह से गिर कर 20 डॉलर प्रति बैरल तक पहुँच आया था, तब लोगों को उम्मीद थी कि पेट्रोल और डीजल के दाम कम होंगे, लेकिन ये बढ़ते ही गए। ऐसा क्यों हुआ?
वंदना हरी कहती हैं, ‘पिछले साल जब अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दाम काफ़ी कम हो गए थे, लेकिन आपके (देश में) दाम इसलिए कम नहीं हुए, क्योंकि केंद्र सरकार ने तेल पर टैक्स दो बार बढ़ा दिए थे।’
उनका कहना है कि पिछले साल आम लोगों पर इसका इतना असर नहीं हुआ, क्योंकि कच्चे तेल का बेस प्राइस (20 डॉलर) काफी कम था। अब ये 67 डॉलर है, यानी ये 80 प्रतिशत महँगा है।
देश में पेट्रोल पंप पर मिलने वाले पेट्रोल और डीजल के दाम अंतरराष्ट्रीय बाजार के भाव से जुड़े होते हैं। इसका मतलब ये हुआ कि अगर अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल का दाम घटे या बढ़े, तो भारत में भी इसी तरह का उतार-चढाव नजर आना चाहिए। लेकिन पिछले छह साल में ऐसा हुआ नहीं।
आयल एंड नेचुरल गैस कॉरपोरेशन लिमिटेड (ओएनजीसी) के पूर्व अध्यक्ष आरएस शर्मा कहते हैं, ‘2014 में जब यह सरकार सत्ता में आई, तो तेल की कीमत 106 डॉलर प्रति बैरल थी। उसके बाद से कीमतों में कमी आ रही है। हमारे पीएम ने भी मजाक में कहा था कि मैं भाग्यशाली हूँ कि जब से मैं सत्ता में आया हूँ, तेल की दरें कम हो रही हैं। उस समय पेट्रोल की कीमत 72 रुपए प्रति लीटर थी। सरकार ने भारत में कीमत कम नहीं होने दीं, इसके बजाय सरकार ने उत्पाद शुल्क में वृद्धि की।’
आम आदमी को राहत देने के नुस्खे
तो क्या आगे चल कर पेट्रोल और डीजल के दाम बढ़ते ही जाएँगे और जनता को अब कोई राहत नहीं मिलेगी? विशेषज्ञ पेट्रोल और डीजल के दाम को कम करने के कई नुस्खे बताते हैं, लेकिन वो सारे कठिन हैं।
पहला, केंद्र और राज्य सरकारें तेल पर लगाए एक्साइज ड्यूटी कम करें, लेकिन दोनों ऐसा करने के मूड में नहीं हैं।
दूसरा सब्सिडी बहाल करने का सुझाव, जो मोदी सरकार की आर्थिक विचारधारा के खिलाफ है।
बीजेपी के राष्ट्रीय प्रवक्ता गोपाल कृष्ण अग्रवाल कहते हैं, ‘सब्सिडी पीछे की ओर लौटने वाला कदम है। सोचिए अगर पेट्रोल की कीमतें घटती हैं, तो अमीरों को भी फायदा होगा, न केवल गरीबों को। गैस में हम ऐसा कर पाए। पीएम कहते हैं कि अच्छी अर्थव्यवस्था, अच्छी राजनीति है और लोग इसे महसूस कर रहे हैं।’
वंदना हरी ये आइडिया आजमाने की सलाह देती हैं कि स्कूटर इत्यादि चलाने वालों को पेट्रोल में सब्सिडी दी जाए जैसे कि एलपीजी सिलेंडर में बड़े रेस्टोरेंट और होटलों को सब्सिडी नहीं दी जाती है, केवल गरीबों को दी जाती है।
लोगों को राहत पहुँचाने का एक तीसरा विकल्प भी है। तेल को जीएसटी के अंतर्गत लाने का विकल्प। लेकिन ये एक सियासी मुद्दा है और जैसा कि ओएनजीसी के पूर्व अध्यक्ष आरएस शर्मा ने कहा कि राज्य सरकारों ने इसी शर्त पर जीएसटी बिल पर हामी भरी थी कि शराब और तेल को जीएसटी से बाहर रखा जाए।
इसकी वजह ये है कि शराब और पेट्रोल, डीजल इत्यादि पर एक्साइज ड्यूटी लगा कर राज्य सरकारें खूब पैसे कमाती हैं। प्रधानमंत्री से लेकर मंत्रिमंडल के सभी मंत्री पेट्रोल और डीजल को जीएसटी के अंतर्गत लगाने की भरपूर वकालत करते रहे हैं
तेल सस्ता करने का और कोई विकल्प
बीजेपी के गोपाल कृष्णा अग्रवाल एक और विकल्प की बात करते हैं और वो ये है कि भारत सरकार ईरान और वेनेजुएला से कच्चा तेल खरीदने की कोशिश कर रही है। इन दोनों देशों पर अमेरिकी प्रतिबंधों के कारण ये आयात खटाई में पड़ा है। ईरान से भारत डॉलर की बजाय रुपए में तेल खरीदने का इरादा रखता है, जिसके लिए ईरान तैयार है।
कुछ विशेषज्ञ ये भी सलाह देते हैं कि भारत तेल के अपने स्ट्रेटेजिक रिजर्व भंडार को बढाए। फिलहाल देश में तेल की पूरी तरह से आयात रूेकने पर लोगों की जरूरतों के लिए इन भंडारों में 10 दिनों की जरूरत का तेल मौजूद है। निजी कंपनियों के पास कई दिनों के लिए तेल के भंडार हैं।
सरकार 10 दिनों से 90 दिनों तक के लिए रिजर्व बढ़ाना चाहती है, जिस पर काम शुरू हो गया है। हालाँकि स्ट्रेस्ट्रेटेजिक रिज़र्व आपातकालीन समय के लिए होता है, लेकिन अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में आपदा या युद्ध के कारण अगर तेल के दाम आसमान छूने लगे, तो भंडार में जमा किए गए तेल का इस्तेमाल किया जा सकता है।
इस समय दुनिया में ऐसे सबसे बड़े भंडार अमेरिका ने बना रखे हैं। अमेरिका और चीन के बाद तेल का सबसे अधिक आयात भारत करता है। इसलिए विशेषज्ञ जोर देकर रिजर्व को बढ़ाने की बात करते हैं।
आयात पर निर्भरता
भारत में पेट्रोलियम और गैस जरूरत से बहुत कम मात्रा में उपलब्ध हैं, इसीलिए इनका आयात होता है। देश को पिछले साल अपने खर्च का 85 प्रतिशत हिस्सा पेट्रोलियम उत्पाद को विदेश से आयात के लिए करना पड़ा था, जिसकी लागत 120 अरब डॉलर थी।
विशेषज्ञों के बीच एक विचार काफ़ी समय से बहस का मुद्दा है और वो ये कि भविष्य में विशेषज्ञ लंबे अरसे के लिए हल ढूँढें और तेल पर निर्भरता कम करें। मोदी सरकार लंबे अरसे से हल के लिए कई योजनाओं को शुरू करने का इरादा रखती है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 17 फरवरी को तमिलनाडु में एक भाषण में ऊर्जा में विविधता और इस पर निर्भरता को कम करने पर काफी जोर भी दिया था।
तेल पर निर्भरता कम करने की कोशिश
सिंगापुर में वंदा इनसाइट्स संस्था की संस्थापक वंदना हरी के मुताबिक भारत सरकार को आगे के लिए सोचना चाहिए। उनकी सलाह थी कि 10-15 सालों को सामने रख कर योजनाएँ बनानी चाहिए।
वो कहती हैं, ‘अंत में तेल का इस्तेमाल कम होगा। हम इलेक्ट्रिक वाहनों की तरफ बढ़ रहे हैं, हाइड्रोजन की तरफ बढ़ रहे हैं या प्राकृतिक गैस की तरफ बढ़ रहे हैं, जो अच्छी बात है। लेकिन ये 2030-35 से पहले ये मुमकिन नहीं।’
वंदना मेट्रो जैसे पब्लिक ट्रांसपोर्ट के विस्तार की भरपूर वकालत करती हैं। लंबे अरसे बाद तेल के उपभोक्ताओं को राहत तो मिल सकती है, लेकिन आने वाले कुछ महीनों और सालों में शायद कोई राहत न मिले।
लेकिन आरएस शर्मा की दो बातें यहाँ अहम हैं- एक ये कि उनके अनुसार सरकारें आम तौर पर पाँच साल की अवधि को लेकर चलती हैं और उसी हिसाब से योजनाएँ बनाती हैं। 15 साल के लंबे अरसे को लेकर योजनाएँ नहीं बनाई जातीं।
उनका दूसरा तर्क ये है कि लंबे अरसे से तेल पर निर्भरता घटाने के सारे उपायों पर अमल करने के बाद भी निर्भरता केवल 15 प्रतिशत कम होगी। हाँ इसके बावजूद वो उन लोगों में शामिल हैं, जो तेल पर निर्भरता को कम करने और ऊर्जा के विविधिकरण के पक्ष में हैं।
फिलहाल गोपाल कृष्ण अग्रवाल पेट्रोल और डीजल के दामों में कमी ‘न करने के फ़ैसले को सही करार देते हैं।’ लोग इसे सरकार की मजबूरी कह सकते हैं और च्वाइस भी।
वे कहते हैं, ‘अगर हम एक्साइज ड्यूटी घटाकर पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतें कम करते हैं, तो हमें कर में कुछ बढ़ोतरी करनी होगी। यह तो एक ही बात है। इसलिए च्वाइस के साथ सरकार ने ऐसा नहीं किया है।’
‘जैसा कि वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण कहती हैं ये एक धर्म संकट है। अभी सबसे अच्छा विकल्प यही है। अगर राजस्व संग्रह बढ़ता है, तो कीमतों में कमी आ सकती है।’
भारत की विशाल अर्थव्यवस्था के विकास में तेल ईंधन का काम करता है। अगर तेल की कीमतें बढ़ती रहीं, तो मुद्रा स्फीति, जीडीपी और चालू खाता पर दबाव बढ़ेगा। जिससे अर्थव्यवस्था की सेहत खराब हो सकती है और इसका गंभीर असर माँग पर पड़ सकता है और फिर आर्थिक विकास भी प्रभावित होगा। (bbc.com)
-डॉ राजू पाण्डेय
सरकार के नए इंफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी (इंटरमीडियरी गाइडलाइंस) नियम 2021 को लेकर बहुत कुछ अस्पष्ट है, संभवतः यह अस्पष्टता सायास और सप्रयोजन है और यह सरकार को अपनी सुविधानुसार इन नियमों की मनमानी व्याख्या करने की सुविधा प्रदान करेगी। बहरहाल नए इंफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी (इंटरमीडियरी गाइडलाइंस) नियम 2021 के विषय में जो कुछ स्पष्ट है वह भी कम चिंताजनक नहीं है- मसलन सरकार की नीयत और इस नए नियम की घोषणा की टाइमिंग।
कॉरपोरेट घरानों द्वारा नियंत्रित मीडिया के माध्यम से अघोषित सेंसरशिप की स्थिति बना देने की सरकारी रणनीति अब तक कामयाब रही थी। अनावश्यक एवं आभासी मुद्दों पर विमर्श को केंद्रित करने का करतब बड़े मीडिया हाउसेस बड़ी खूबी से अंजाम दे रहे थे। विपक्ष पर हमलावर होता और अपनी इच्छानुसार नायक तथा खलनायक गढ़ता मुख्यधारा का मीडिया सरकार के सबसे सशक्त और वफादार सहयोगी की भूमिका निभा रहा था। किंतु किसान आंदोलन ने पूरा परिदृश्य ही बदल दिया। किसान आंदोलन के विषय में मुख्यधारा के मीडिया के एक बड़े हिस्से द्वारा की गई षड्यंत्रपूर्ण कवरेज अपने नापाक इरादों में नाकामयाब रही। इस आंदोलन को राष्ट्र विरोधी, खालिस्तानी, पाकिस्तान प्रायोजित तथा हरियाणा-पंजाब के संपन्न किसानों का आंदोलन सिद्ध करने की शरारती कोशिशें असफल रहीं। दरअसल इस बार किसान आंदोलन की जमीनी कवरेज करते जांबाज और साहसी पत्रकारों की व्यक्तिगत कोशिशों एवं जनपक्षधर पत्रकारिता पर विश्वास करने वाले न्यूज़ पोर्टल्स के ईमानदार प्रयासों से किसान आंदोलन का शांतिप्रिय और अहिंसक स्वरूप आम लोगों के सम्मुख बड़ी मजबूती और पारदर्शिता के साथ रखा गया। ट्रॉली टाइम्स जैसे अखबारों ने जन्म लिया और किसान आंदोलन को वह स्पेस प्रदान किया जिससे उसे मुख्यधारा के मीडिया द्वारा वंचित किया गया था। अनेक यू ट्यूब चैनल अस्तित्व में आए जिन पर किसानों और किसानी से संबंधित खबरें दिखाई जाने लगीं। इन स्वतंत्र पत्रकारों और न्यूज़ पोर्टल्स द्वारा आंदोलन की जो कवरेज की गई वह किसी भी तरह एकपक्षीय नहीं थीं। किसान आंदोलन में राजनीतिक दलों के प्रवेश का मसला या ट्रैक्टर रैली के दौरान हुई हिंसा का मामला या बॉर्डर पर स्थानीय लोगों के आक्रोश का सवाल और ऐसे ही हर ज्वलंत मुद्दे बड़ी बेबाकी से इन पत्रकारों एवं पोर्टल्स द्वारा उठाया गए। किसान नेताओं से चुभते हुए सवाल भी पूछे गए और जनता की आशंकाओं एवं आकांक्षाओं को उन तक पहुंचाया भी गया। इसका परिणाम यह हुआ कि लोग न केवल किसान आंदोलन बल्कि बुनियादी मुद्दों से जुड़ी अन्य खबरों के लिए भी इस वैकल्पिक मीडिया की ओर उन्मुख होने लगे। जब जनता में इन न्यूज़ पोर्टल्स और यू ट्यूब चैनलों की लोकप्रियता बढ़ने लगी तो अनेक युवा पत्रकार इस ओर उन्मुख होने लगे और वैकल्पिक मीडिया बहुत तेजी से अपनी जड़ें जमाने लगा। यह सरकार के लिए किसी झटके से कम नहीं था।
सरकार जिस दूसरी बात से घबराई वह किसान आंदोलन के संचालन एवं इसके प्रचार प्रसार में सोशल मीडिया का सधा हुआ उपयोग था। सोशल मीडिया का प्रयोग किसी भी अभियान के संगठित एवं सुचारु संचालन हेतु किया जाना आजकल एक सामान्य प्रक्रिया है और इसमें कुछ भी असाधारण नहीं है। असाधारण तो सरकार की प्रतिक्रिया है जिसने दिशा रवि जैसी सामान्य सामाजिक कार्यकर्ता को केवल इस कारण प्रताड़ित करने का प्रयास किया कि उसने किसान आंदोलन के लिए पूरी दुनिया में सामाजिक सरोकारों और किसानों के हक के लिए काम करने वाले लोगों और संगठनों का समर्थन हासिल करने की कोशिश की थी।
प्रायः सभी राजनीतिक दल, बड़ी बड़ी कंपनियां एवं अलग अलग लक्ष्यों के लिए कार्य करने वाले समूह जब भी किसी अभियान को संचालित करते हैं तब उनके सोशल मीडिया सेल टूल किट का प्रयोग अनिवार्यतः करते हैं। टूल किट दरअसल उस अभियान से जुड़े लोगों के मध्य कार्य योजना के महत्वपूर्ण बिंदुओं और अभियान के भावी स्वरूप को साझा करने हेतु प्रयुक्त होती है। इसमें न केवल अभियान को सोशल मीडिया में लोकप्रिय बनाने संबंधी सुझाव और निर्देश होते हैं बल्कि अभियान के जमीनी स्तर पर क्रियान्वयन की रणनीति का भी जिक्र होता है। सोशल मीडिया एवं मार्केटिंग स्ट्रेटेजी के जानकारों के अनुसार, टूलकिट का प्रमुख उद्देश्य किसी मुहिम से जुड़े लोगों एवं उस मुहिम के समर्थकों के मध्य समन्वय स्थापित करना होता है। सामान्यतया टूलकिट में इस बात से संबंधित निर्देश होते हैं कि अभियान से जुड़े लोगों द्वारा सोशल मीडिया पर क्या लिखा जाए, किस हैशटैग का प्रयोग किया जाए, ट्वीट और सोशल मीडिया पोस्ट करने का सर्वाधिक उपयुक्त और लाभकारी समय कौन सा है और किन्हें ट्वीट्स अथवा फ़ेसबुक पोस्ट्स में टैग करने से लाभ होगा। जब किसी अभियान से जुड़े लोग और उनके समर्थक सोशल मीडिया पर एक साथ सक्रिय होते हैं तो वह अभियान या मुहिम सोशल मीडिया पर ट्रेंड करने लगती है और समूचे विश्व का ध्यान इसकी ओर जाता है। कई बार जमीनी स्तर पर होने वाले धरना-प्रदर्शन-भूख हड़ताल आदि की जानकारी भी टूलकिट में होती है। स्वाभाविक रूप से आज के आंदोलनकारी सोशल मीडिया का खुलकर प्रयोग करते हैं और टूलकिट इस आंदोलन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होती है।
हाल के वर्षों में ऐसे कितने ही आंदोलन हैं जिनमें सोशल मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका रही है बल्कि अनेक आंदोलन ऐसे भी हैं जो सोशल मीडिया की ही पैदाइश थे। अरब स्प्रिंग, कनाडा की मेपल स्प्रिंग, चिली और वेनेजुएला के छात्र आंदोलन, बांग्लादेश का शाहबाग आंदोलन, यादवपुर विश्विद्यालय के छात्रों का होक कलरव आंदोलन यह सारे सोशल मीडिया पर किसी न किसी रूप से आधारित थे। यदि हम केवल वर्ष 2020 की बात करें तो क्लाइमेट स्ट्राइक कैंपेन, एन्टी लॉक डाउन प्रोटेस्ट, द ब्लैक लाइव्स मैटर मूवमेंट, द ब्लैक फ्राइडे अमेज़न प्रोटेस्ट्स, अमेरिकी राजधानी की घेरेबंदी, हांगकांग और शाहीनबाग के विरोध प्रदर्शन जैसे अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं जिनमें जन आंदोलनों में सोशल मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। यदि सोशल मीडिया के उभार के बाद के आंदोलनों के इतिहास पर नजर डालें तो हम अनेक सत्ता विरोधी और सत्ता समर्थक जन आंदोलनों को सोशल मीडिया द्वारा प्रेरित, नियंत्रित और संचालित होता देखते हैं। इनमें से अनेक आंदोलन हिंसक भी हुए हैं और इनमें जनहानि भी हुई है किंतु इनमें हुई हिंसा के लिए अकेले सोशल मीडिया को उत्तरदायी ठहराना उचित नहीं है। आंदोलन के नेतृत्व की प्राथमिकताएं और गलतियां तथा अनेक बार सरकार द्वारा की गई दमनात्मक और उकसाने वाली कार्रवाई भी हिंसा भड़कने के लिए जिम्मेदार रही हैं। अतः किसी ऐसे सामान्यीकरण का सहारा लेना ठीक नहीं है जो सारे आंदोलन हिंसक और राष्ट्र विरोधी होते हैं या सोशल मीडिया हमेशा ही हिंसा फैलाने वाला और शत्रु देशों के षड्यंत्र का एक भाग होता है जैसी मिथ्या पूर्वधारणाओं पर आधारित होता है।
हमें प्रत्येक आंदोलन और उससे जुड़े सोशल मीडिया एक्टिविस्ट्स की पृथक केस स्टडी करनी होगी। साथ ही संबंधित सरकारों के असहमत स्वरों के साथ किए जा रहे व्यवहार के पैटर्न को भी समझना होगा। दिशा रवि को जमानत देते हुए दिल्ली के पटियाला हाउस कोर्ट कॉम्प्लेक्स के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश धर्मेंद्र राणा की टिप्पणी वर्तमान सरकार के अहंकार, अलोकतांत्रिक सोच एवं दमनकारी रवैये को समझने में सहायक है। माननीय न्यायाधीश ने लिखा- "मेरे विचार से नागरिक एक लोकतांत्रिक देश में सरकार पर नजर रखते हैं। केवल इस कारण कि वे राज्य की नीतियों से असहमत हैं, उन्हें कारागार में नहीं रखा जा सकता। राजद्रोह का आरोप इसलिए नहीं लगाया जा सकता कि सरकार को उनकी असहमति या विरोध से चोट पहुंची है। मतभेद, असहमति, अलग विचार, असंतोष, यहां तक कि अस्वीकृति भी राज्य की नीतियों में निष्पक्षता लाने के लिए आवश्यक उपकरण हैं। एक सजग एवं मुखर नागरिकता एक उदासीन या विनम्र नागरिकता की तुलना में निर्विवाद रूप से एक स्वस्थ और जीवंत लोकतंत्र का संकेत है। संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत असंतोष का अधिकार बहुत सशक्त रूप से दर्ज है। महज पुलिस के संदेह के आधार पर किसी नागरिक की स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है। मेरे विचार से बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में ग्लोबल ऑडियंस तलाशने का अधिकार सम्मिलित है। संचार पर किसी प्रकार की कोई भौगोलिक बाधाएं नहीं हैं। प्रत्येक नागरिक के पास विधि के अनुरूप संचार प्राप्त करने के सर्वोत्तम साधनों का उपयोग करने का मौलिक अधिकार है। यह समझ से परे है कि प्रार्थी पर अलगाववादी तत्वों को वैश्विक मंच देने का लांछन किस प्रकार लगाया गया है? एक लोकतांत्रिक देश में नागरिक सरकार पर नजर रखते हैं, केवल इस कारण से कि वे सरकारी नीति से असहमत हैं, उन्हें कारागार में नहीं रखा जा सकता। देशद्रोह के कानून का ऐसा उपयोग नहीं हो सकता। सरकार के घायल अहंकार पर मरहम लगाने के लिए देशद्रोह के मुकदमे नहीं थोपे जा सकते। हमारी पांच हजार साल पुरानी सभ्यता अलग-अलग विचारों की कभी भी विरोधी नहीं रही। ऋग्वेद में भी पृथक विचारों का सम्मान करने विषयक हमारे सांस्कृतिक मूल्यों का उल्लेख है। ऋग्वेद के एक श्लोक के अनुसार- हमारे पास चारों ओर से ऐसे कल्याणकारी विचार आते रहें जो किसी से न दबें, उन्हें कहीं से भी रोका न जा सके तथा जो अज्ञात विषयों को प्रकट करने वाले हों।"
दिशा रवि की सोशल मीडिया गतिविधियों पर भी माननीय न्यायाधीश की टिप्पणी अत्यंत महत्वपूर्ण है-' मुझे नहीं लगता कि एक वॉट्सऐप ग्रुप का निर्माण करना अथवा किसी हानिरहित टूलकिट का एडिटर होना कोई अपराध है। तथाकथित टूलकिट से यह ज्ञात होता है कि इससे किसी भी प्रकार की हिंसा भडक़ाने की चेष्टा नहीं की गई थी।' किंतु सरकार के नए इंफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी (इंटरमीडियरी गाइडलाइंस) नियम 2021 के प्रावधान इस प्रकार से बनाए गए हैं कि असहमति और विरोध के स्वरों को सहजता से कुचला जा सके।
ऐसा प्रतीत होता है कि इन नियमों के क्रियान्वयन के बाद डिजिटल मीडिया से जुड़े मसलों पर निर्णय लेने की न्यायालयीन शक्तियां कार्यपालिका के पास पहुँच जाएंगी और सरकार के चहेते नौकरशाह डिजिटल मीडिया कंटेंट के बारे में फैसला देने लगेंगे। समसामयिक विषयों पर आधारित कोई भी प्रकाशन न केवल संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत प्राप्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से संबंधित होता है बल्कि यह नागरिक के सूचना प्राप्त करने के अधिकार और भिन्न भिन्न विचारों और दृष्टिकोणों से अवगत होने के अधिकार का भी प्रतिनिधित्व करता है। कार्यपालिका को न्यूज़ पोर्टल्स पर प्रकाशित सामग्री के विषय में निर्णय लेने का पूर्ण और एकमात्र अधिकार मिल जाना संविधान सम्मत नहीं है। यह लोकतंत्र की मूल भावना के विपरीत है।
इसी प्रकार मानहानि के संबंध में न्यायिक सिद्धांतों के अनुरूप अदालतों में सुनवाई और विधिक प्रक्रिया के बाद ही कोई निर्णय होता है। किंतु इन नियमों के क्रियान्वयन के बाद मानहानि से संबंधित मामलों में केंद्र सरकार द्वारा चयनित और नियंत्रित नौकरशाहों का एक समूह यह निर्णय कर सकेगा कि समसामयिक मामलों से संबंधित कोई समाचार या आलेख क्या अनुपयुक्त है और इसे ब्लॉक भी कर सकेगा। इसी प्रकार कोई सामग्री पोर्नोग्राफी की श्रेणी में आती है या नहीं, इसका निर्णय भी न्यायालय के स्थान केंद्र सरकार द्वारा निर्मित ब्यूरोक्रेट्स का एक समूह करेगा। सरकार अनुच्छेद (19)(2) का हवाला दे रही है जिसके अनुसार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से किसी भी तरह देश की सुरक्षा, संप्रभुता और अखंडता को नुकसान नहीं होना चाहिए। इन तीन चीजों के संरक्षण के लिए यदि कोई कानून है या बन रहा है, तो उसमें भी बाधा नहीं आनी चाहिए। किंतु यदि ऐसे गंभीर विषयों पर निर्णय सरकार के हित के लिए कार्य करने वाले कुछ नौकरशाह करने लगें और न्यायपालिका की भूमिका लगभग खत्म कर दी जाए तो डिजिटल मीडिया के लिए कार्य करना असंभव हो जाएगा। लिखित समाचार माध्यमों के विषय में व्यापक और पर्याप्त न्यायिक सिद्धांत उपस्थित हैं जो एक स्वर से यह कहते हैं कि इन्हें कार्यपालिका या प्रशासन तंत्र के किसी भी प्रकार के नियंत्रण से पूर्णतः मुक्त होना चाहिए। समसामयिक समाचारों को स्थान देने वाला न्यूज़ पोर्टल भी एक प्रकार का समाचार पत्र ही है, अंतर केवल इतना है कि यह डिजिटल फॉर्मेट में होता है। प्रेस काउंसिल का गठन भी समाचार पत्रों को कार्यपालिक अथवा प्रशासनिक नियंत्रण से मुक्त रखने और आत्म अनुशासन को सशक्त बनाने के ध्येय से किया गया था। यही स्थिति टेलीविजन की है जहाँ न्यूज़ ब्रॉडकास्टिंग स्टैंडर्ड्स अथॉरिटी जैसी संस्थाएं अस्तित्व में हैं। फिर डिजिटल मीडिया पर सरकारी नियंत्रण की हड़बड़ी का कोई कारण नहीं दिखता।
आईटी एक्ट 2000 अपने संरचनात्मक स्वरूप में किसी भी प्रकार डिजिटल मीडिया को समाहित नहीं करता। समाचार पत्र, प्रकाशक एवं समाचार तथा समसामयिक विषयों पर केंद्रित सामग्री जैसी अभिव्यक्तियाँ और परिभाषाएं इस एक्ट का हिस्सा नहीं हैं। ऐसी दशा में यह कहाँ तक उचित है आईटी एक्ट के दायरे में डिजिटल मीडिया को लाया जाए जबकि इस हेतु यह निर्मित ही नहीं हुआ है। यह प्रयास इसलिए और भी असंगत लगता है जब हमारे पास डिजिटल मीडिया को नियंत्रित करने के लिए नियमों और प्रक्रियाओं का एक सक्षम ढांचा मौजूद है।
यही कारण है कि डिजिपब न्यूज इंडिया फाउंडेशन की अगुवाई में ऑनलाइन प्रकाशनों ने इन नए नियमों को अनुचित, इनके नियमन की प्रक्रिया को अलोकतांत्रिक तथा इनके क्रियान्वयन की विधि को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन बताते हुए सूचना और प्रसारण मंत्री को पत्र लिखा है जिसमें इन सारी आशंकाओं का उल्लेख है। इन ऑनलाइन प्रकाशकों ने यह भी कहा है कि इन नियमों को तैयार करते वक्त उनसे कोई भी सलाह मशविरा नहीं किया गया था।
सोशल मीडिया के महत्व और उसकी शक्ति को प्रधानमंत्री जी और उनकी भाजपा से बेहतर कौन जानता है। गुजरात के विवादास्पद मुख्यमंत्री को देश और दुनिया के सबसे चर्चित और ताकतवर नेता की छवि प्रदान करने वाला सोशल मीडिया ही रहा है। आज भी प्रधानमंत्री जी को अलौकिक एवं अविश्वसनीय गुणों से विभूषित करने वाली ढेरों पोस्ट्स रोज परोसी जा रही हैं। प्रधानमंत्री जी के विवादास्पद निर्णयों और उनकी विफलताओं को उनकी चमकीली उपलब्धियों के रूप में प्रस्तुत करने का हुनर भी सोशल मीडिया के पास ही है।
देश की गंगा जमनी तहजीब को खंडित करने लिए ऐतिहासिक तथ्यों और सत्यों के साथ खिलवाड़ कर तैयार की गई सोशल मीडिया पोस्ट्स एक नफ़रत पसंद समाज बनाने की ओर अग्रसर हैं। महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू की चरित्र हत्या करने वाली और इन्हें देश की दुर्दशा के लिए उत्तरदायी ठहराने वाली पोस्ट्स की संख्या हजारों में है। गांधी और सुभाष , गांधी और आंबेडकर एवं गांधी और पटेल को एक दूसरे के विरुद्ध खड़ा करने वाली पोस्ट्स की संख्या इससे कम नहीं है। प्रमुख विरोधी दलों के नेताओं के चरित्र को कलंकित करने वाली नई पोस्ट्स रोज तैर रही हैं जिनमें ये भ्रष्ट, चरित्रहीन, आलसी, प्रमादी और विदूषकों के रूप में प्रस्तुत किए जा रहे हैं। भारतीय स्वाधीनता संग्राम के इतिहास के नए हिंसक पाठ को तेजी से जन स्वीकृति दिलाने का कार्य भी सोशल मीडिया ने ही किया है। साम्प्रदायिक और जातीय वैमनस्य को बढ़ावा देकर घृणा तथा हिंसा फैलाने वाली पोस्ट्स की दुनिया बहुत डरावनी है। मुसलमानों को हिंदुओं की दुर्दशा के लिए उत्तरदायी ठहराया जा रहा है। दलितों को सवर्णों की बदहाली के जिम्मेदार बताया जा रहा है। अल्पसंख्यक राष्ट्रद्रोही के रूप में प्रस्तुत किए जा रहे हैं। लोगों को धीरे धीरे उस बिंदु तक पहुंचाया जा रहा है जब हिंसक प्रतिशोध उन्हें सहज लगने लगे।
यदि कानून मंत्री आदरणीय रविशंकर प्रसाद के शब्दों का प्रयोग करें तो यह जानना आवश्यक है कि यह सारी खुराफात कहाँ से प्रारंभ हुई है। भाजपा का आई टी सेल तो जाहिर है कि इन जहरीली पोस्ट्स से साफ किनारा कर लेगा। फिर हम सच तक कैसे पहुंचेंगे? क्या उन जन चर्चाओं का सत्य कभी भी सामने नहीं आएगा जिनके अनुसार भाजपा के आईटी सेल को जितना हम जानते हैं वह विशाल हिम खण्ड का केवल ऊपर से दिखाई देने वाला हिस्सा है? अब तो प्रत्येक राजनीतिक पार्टी का आई टी सेल है। दुर्भाग्य से अधिकांश राजनीतिक पार्टियां भाजपा को आदर्श मान रही हैं और इनके आई टी सेल नफरत का जवाब नफरत और झूठ का उत्तर झूठ से देने की गलती कर रहे हैं। सारी पार्टियां फेक एकाउंट्स की अधिकतम संख्या के लिए प्रतिस्पर्धा कर रही हैं, नकली फॉलोवर्स की संख्या के लिए होड़ लगी है। ऐसी दशा में क्या फेसबुक और ट्विटर से सच्चाई सामने आ पाएगी? जब सरकार यह कहती है कि इन सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स के व्यापार का एक बड़ा भाग भारत से होता है और इन्हें भारत के कानून के मुताबिक चलना होगा तो क्या इसमें यह संकेत भी छिपा होता है कि इन प्लेटफॉर्म्स को सरकार के हितों का ध्यान रखना होगा और सत्ता विरोधी कंटेंट से दूरी बनानी होगी?
सूचना और प्रसारण मंत्री एवं कानून मंत्री अपनी पत्रकार वार्ता में आक्रामक दिखे और उन्होंने इन नियमों को कठोर निर्णय लेने वाली मजबूत सरकार के अगले कदम के रूप में प्रस्तुत करने की चेष्टा की। किंतु वास्तविकता यह है कि सरकार भयभीत है। सरकार का विरोध करने वाले पत्रकारों और बुद्धिजीवियों पर ईडी, इनकम टैक्स और सीबीआई के छापे डाले जा रहे हैं। यह अलग बात है कि इससे इन संस्थाओं की विश्वसनीयता ही कम हुई है और ऐसी कार्रवाइयों के प्रति लोगों का भय भी घटा है। असहमत स्वरों पर राजद्रोह के मुकदमे कायम किए जा रहे हैं किंतु अधिकांश मामलों में दोष सिद्ध नहीं हो पा रहा है। डिजिटल मीडिया ऐसा सच दिखा रहा है जो सरकार की नाकामियों को उजागर करता है। इसीलिए सरकार बौखलाई हुई है। किंतु नियंत्रण, दमन और दंड द्वारा न तो विरोध को समाप्त किया जा सकता है न ही सच की आवाज़ दबाई जा सकती है। जनता विरोध के नए तरीके तलाश लेगी। बढ़ता जनाक्रोश गलत दिशा भी ले सकता है। यह हमारे लोकतंत्र के लिए घातक होगा। सरकार को चाहिए कि वह असहमति का आदर करे और समावेशी एवं सहिष्णु लोकतंत्र की स्थापना की ओर प्रयत्नशील हो।
(रायगढ़, छत्तीसगढ़)
-गिरीश मालवीय
मध्यप्रदेश में शिवराज सरकार की वापसी हुई है तो व्यापम जैसे घोटाले दुबारा होने शुरू हो गए हैं। मध्यप्रदेश में फरवरी के मध्य में हुई कृषि विभाग अधिकारी के लिए हुई परीक्षा में टॉप 10 स्थानों पर कब्जा जमाने वाले उम्मीदवारों को सामान्य ज्ञान की परीक्षा में ना केवल बराबर नंबर मिले हैं, बल्कि सबकी गलतियां भी एक जैसी हैं।
है न कमाल?
इससे भी बड़ी बात यह है कि इनकी जाति, कॉलेज और अकादमिक प्रदर्शन भी लगभग एक जैसे हैं। और सभी चंबल क्षेत्र के हैं।
इंदौर से एक परीक्षार्थी रंजीत रघुनाथ ने कहा, ‘यह तो घोटाले का छोटा हिस्सा है। परीक्षा में टॉप टेन स्टूडेंट चंबल डिवीजन से हैं और इनमें से 9 एक ही जाति के हैं। इन्होंने बीएससी (कृषि विज्ञान) राजकीय कृषि कॉलेज ग्वालियर से की है। लगभग सभी स्टूडेंट्स ने चार साल की डिग्री को पांच या अधिक सालों में पूरा किया।’ रघुनाथ ने कहा, ‘उन्हें 200 में से 195 और 194 अंक मिले हैं जो कि परीक्षा के इतिहास में सर्वाधिक है।’
एक ओर परीक्षार्थी सचित आनंद ने कहा, ‘कैंडिडेट्स को सामान्य ज्ञान की परीक्षा में फुल माक्र्स मिले, लेकिन शक उस समय बढ़ गया जब व्यापम ने आंसर शीट जारी की और तीन सवालों के गलत जवाब दिए। दिलचस्प यह है कि टॉप स्कोरर परीक्षार्थियों ने भी उन्हीं तीनों सवालों के गलत जवाब दिए हैं। हम नहीं जानते कि यह संयोग है या साजिश, लेकिन यह कैसे संभव है कि उन्होंने समान गलत उत्तर दिए खासकर बेसिक सवाल का जो कक्षा 11 में पढ़ाया जाता है।’ आनंद ने कहा कि टॉप स्कोरर में से एक को गणित में फुल माक्र्स मिले है, लेकिन सांख्यिकी की परीक्षा में कम से कम चार बार फेल हुआ था और 8 साल में उसकी डिग्री पूरी हुई।
ग्वालियर कृषि कॉलेज के एक प्रोफेसर ने भी इन उम्मीदवारों के नंबर पर हैरानी जाहिर की। नाम गोपनीय रखने की शर्त पर उन्होंने कहा, ‘हो सकता है कि रातों-रात उन्होंने ज्ञान अर्जन कर लें और चलिफाई हो जाएं, लेकिन यह विश्वास करना मुश्किल है कि उन्हें सर्वाधिक नंबर मिले हैं।’
इस घोटाले से पर्दा तब उठा जब कुल 862 पदों पर हुई परीक्षा की आंसर शीट 17 फरवरी को जारी की गई ओर साथ ही संभावित चयनित उम्मीदवारों की सूची भी जारी की गई।
इस परीक्षा में 2 पेपर हुए थे पहले पेपर ने सामान्य ज्ञान सामान्य हिंदी, सामान्य अंग्रेजी, गणित, सामान्य तर्कशक्ति परिक्षण, सामान्य विज्ञान, सामान्य कम्प्यूटर विज्ञानं से संबंधित प्रश्न पूछे गए थे तथा दूसरे पेपर में परीक्षार्थियों द्वारा चुने गए विषय से संबंधित प्रश्न पूछे गए थे दोनों पेपर भी 100 रूड्डह्म्द्मह्य के थे
सवाल पहले पेपर को लेकर उठ रहे हैं
स्टूडेंट्स का कहना है कि व्यापम ने ब्लैक लिस्टेड कंपनी हृस्श्वढ्ढञ्ज को परीक्षा के आयोजन के लिए चुना। यह वही कंपनी है जिसे यूपी में 2017 सब इंस्पेक्टर के लिए हुई परीक्षा में पेपर लीक की वजह से ब्लैक लिस्ट कर दिया गया था।
मध्यप्रदेश का व्यापमं घोटाला शिक्षा जगत में अब तक का सबसे बड़ा घोटाला माना जाता है इसमें 55 केस दर्ज हुए, 2,530 आरोपी बनाए गए और करीब 1,980 लोगों को गिरफ्तार किया गया। घोटाले का पर्दाफाश होने से लेकर अब तक 42 ऐसे लोगों की संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हो चुकी है, सीएम शिवराज सिंह विधानसभा में स्वीकार कर चुके हैं कि 1000 भर्तियां अवैध रूप से हुईं हैं, घोटाले में जब आरएसएस के सरसंघचालक केसी सुदर्शन और सुरेश सोनी जैसे बड़े नेताओं के नाम आए थे लेकिन सब दबा दिया गया।
कांग्रेसी विधायकों और सूबे के बड़े नेताओं को तोडक़र सत्ता हासिल की गई है। शिवराज सरकार द्वारा ऐसे में इस तरह के घोटाले तो होंगे ही।
- ध्रुव गुप्त
स्वर्गीय फणीश्वर नाथ रेणु को हिंदी कहानी में देशज समाज की स्थापना का श्रेय प्राप्त है। उनके दो उपन्यासों- ‘मैला आंचल’, ‘परती परिकथा’ और उनकी दर्जनों कहानियों के पात्रों की जीवंतता, सरलता, निश्छलता और सहज अनुराग हिंदी कथा साहित्य में संभवत: पहली बार घटित हुआ था। हिंदी कहानी में पहली बार लगा कि शब्दों से सिनेमा की तरह दृश्यों को जीवंत भी किया जा सकता है और संगीत की सृष्टि भी की जा सकती है।
रेणु ने लोकगीत, ढोल-खंजड़ी, लोकनृत्य, लोकनाटक, लोक विश्वास और किंवदंतियों के सहारे बिहार के कोशी अंचल की जो संगीतमय और जीती-जागती तस्वीर खींची है, उससे गुजऩा एक बिल्कुल अलग और असाधारण अनुभव है। उनकी तुलना अक्सर कथासम्राट प्रेमचंद से की जाती है। एक अर्थ में रेणु प्रेमचंद से आगे के कथाकार हैं। प्रेमचंद में गांव का यथार्थ है, रेणु में गांव का संगीत। प्रेमचंद को पढऩे के बाद हैरानी होती है कि इतनी विपरीत परिस्थितियों में भी किसान अपने गांव और अपने खेत से बंधा कैसे रह जाता है।
रेणु का कथा-संसार यह रहस्य खोलता है कि जीवन से मरण तक गांव के घर-घर से उठते संगीत और मानवीय संवेदनाओं की वह नाजुक डोर है जो लोगों में अपनी मिट्टी और रिश्तों के प्रति असीम राग पैदा करती है। उनकी कहानी ‘मारे गए गुलफाम’ पर आधारित गीतकार शैलेंद्र द्वारा निर्मित, बासु भट्टाचार्य द्वारा निर्देशित और राज कपूर-वहीदा रहमान द्वारा अभिनीत फिल्म ‘तीसरी कसम’ को हिंदी सिनेमा का मीलस्तंभ माना जाता है।
आज रेणु की जयंती पर उनकी स्मृतियों को नमन!
भारत में पर्यावरण के हाल का सबसे विस्तृत ब्यौरा देने वाली स्टेट ऑफ एनवायरनमेंट (एसओई) रिपोर्ट के मुताबिक पर्यावरण से जुड़े 50 हजार से ज्यादा मामले अदालतो में लंबित हैं. फैसलों में देरी का असर पर्यावरण पर पड़ता है.
पढ़ें डॉयचे वैले पर शिवप्रसाद जोशी की रिपोर्ट-
रिपोर्ट में आधिकारिक आंकड़ों के हवाले से बताया गया है कि अदालतों में आने वाले नए मामलों की तुलना में मामलों को निपटाने की दर बहुत कम है. और इससे लंबित मामलों का ढेर ऊंचा होता जा रहा है. 2019 में पर्यावरण से जुड़े करीब 35 हजार अपराध दर्ज किए गए थे. सात हजार से ज्यादा मामलों की पुलिस जांच चल रही है और करीब 50 हजार मामले अदालत में सुनवाई पूरी होने और फैसले का इंतजार कर रहे हैं. पर्यावरण से जुड़े विशेषज्ञों ने चिंता जताई है कि जिस रफ्तार से पर्यावरणीय अपराध बढ़ रहे हैं, उनकी सुनवाई और निपटारों की प्रक्रिया सुस्त और बोझिल है. पर्यावरण की प्रतिष्ठित संस्था सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) और विज्ञान और पर्यावरण की उसकी पत्रिका 'डाउन टू अर्थ' मिलकर हर साल यह स्टेट ऑफ इंडियाज एनवायरमेंट (एसओई) रिपोर्ट तैयार करते हैं.
अभी तक उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक देश में 2019 और 2020 के बीच वन्यजीव अपराधों की संख्या में गिरावट आई थी. इसके बावजूद भारत में हर रोज दो मामले दर्ज किए जाते हैं. कुल वन्यजीव अपराधों के 77 प्रतिशत मामले उत्तर प्रदेश, राजस्थान और महाराष्ट्र में दर्ज किए गए. जिन राज्यों में ऐसे अपराध बढ़े उनमें गुजरात, बिहार, पश्चिम बंगाल और पूर्वोत्तर राज्य भी बताए जाते हैं. मामलों की कछुआ चाल पर डाउन टू अर्थ का कहना है, "एक साल में मौजूदा बैकलॉग खत्म करने के लिए अदालतों को हर रोज 137 मामले निपटाने होंगे.” अदालतों पर दबाव का आलम यह है कि 2019 में औसतन करीब 85 मामले निपटाए जा सके थे. पर्यावरण संरक्षण अधिनियम के तहत दर्ज मामलों को निपटाने में अदालतों को 20 साल से ज्यादा समय लग सकता है. वन्यजीव संरक्षण अधिनियम के मामलों के लिए 13 साल चाहिए.
अगर थोड़ा पीछे जाएं तो इस निराशाजनक सिलसिले का पता चलता है. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) का डाटा बताता है कि 2016 और 2017 के बीच पर्यावरणीय अपराधों में आठ गुना वृद्धि हुई थी. एनसीआरबी के अपराध डाटा के मुताबिक 2016 मे पुलिस ने 4,732 पर्यावरणीय अपराध दर्ज किए थे. 2017 में ये मामले बढ़कर 42,143 हो गए. करीब 30 हजार मामले तो तंबाकू कानून के थे. उसकी तुलना में वायु और जल प्रदूषण के 36 मामले ही दर्ज हो पाए. जबकि एक सच्चाई यह भी है कि दुनिया के 20 सबसे प्रदूषित शहरों में से 14 भारत में ही है. ध्वनि प्रदूषण की नई श्रेणी के तहत पुलिस ने 8,400 मामले दर्ज किए. पुलिस ने अगर अन्य कानूनों के तहत अपराध दर्ज भी किए हैं तो वे जंगलों में रहने वाली जनजातियों और आदिवासियों पर ही अधिक हैं. वन अधिनियम और वन्यजीव संरक्षण अधिनियम के तहत 3,842 मामले दर्ज हुए थे.
अक्सर यह सवाल पूछा जाता है कि अगर जंगलों, संरक्षित वनों, अभ्यारण्यों और आरक्षित क्षेत्रों में अवैध कटान, अवैध खनन, अवैध निर्माण, अवैध शिकार, वन उत्पाद और जानवरों के अंगों की तस्करी आदि गैरकानूनी और अपराध माना जाता है, तो फिर कुदरती लैंडस्केप और पर्यावरण और पारिस्थितिकी के अत्यंत नाजुक तानेबाने को छिन्नभिन्न करने वाले और कई संवेदनशील प्राकृतिक हलचलों को ट्रिगर कर देने वाले कथित निर्माण को क्या कहेंगे. विकास के लिए कुछ समझौते करने पड़ते हैं या कुछ कीमत चुकानी होती है जैसी दलीलें उस कोप से नहीं बचा सकती हैं जो प्रकृति अपने भीतर दबाए रहती है और रह रह कर उसे हमारी ओर फेंकती रहती है. विकास के पक्षधर कह सकते हैं कि अगर इसे अपराध कह देंगे तो फिर देश कैसे तरक्की करेगा. लेकिन बुनियादी चिंताओं की अनदेखी एक किस्म का नैतिक अपराध तो है ही. पर्यावरणीय नैतिकता या पर्यावरणीय आचार की हिफाजत भी कोई कोरी या खोखली बातें नहीं हैं, उनके वास्तविक अर्थ हैं.
विकास कही जाने वाली वो चीज आखिर किस कीमत पर हासिल होती है, यह छिपी बात नहीं हैं. कुदरती तबाहियों से हम जानते हैं, इसीलिए बात सिर्फ शहरों के प्रदूषण, गंदगी और कूड़े के ढेर, वाहनों के शोर, हाईजीन, पेयजल, सैनिटेशन, सीवेज आदि की नहीं है, बात पहाड़ों, नदियों, जंगलों और उनके जीव-जंतुओं और वनस्पतियों और जंगल में रहने वाली जनजातियों और आदिवासी समुदायों के अस्तित्व की भी है. इसीलिए अनापशनाप विकास की होड़ के बीच बार बार समावेशी विकास पर जोर देने की बात की जाती रही है. जानकारों का कहना है कि अंततः उसी से सतत और टिकाऊ विकास संभव है. सुप्रीम कोर्ट भी समय समय पर अपनी टिप्पणियों और फैसलों के जरिए इस बारे में आगाह कराता रहा है.
पेड़ों को बचाने के ऐतिहासिक चिपको आंदोलन के लिए प्रसिद्ध उत्तराखंड के रैणी गांव के पास छोटी नदियों पर जलबिजली परियोजनाओं का निर्माण हो चुका था, हो रहा था. लेकिन पिछले दिनों वहां आया जल प्रलय क्या सिर्फ कुदरती कोप कहकर टाल दिया जाएगा या उस परिघटना के मूल कारणों की तलाश करते हुए यह देखा जाएगा कि वह आपदा मानव निर्मित भी हो सकती है और एक तरह का अपराध ही है. लेकिन ऐसा नहीं माना जाता. केदारनाथ हादसा हो या भूस्खलन की घटना या बाढ़ या भूकंप. बेशक कुदरत की यह कभी स्वाभाविक कभी अस्वाभाविक करवटें हैं, लेकिन इस अस्वाभाविकता को भड़काने वाले फैक्टरों की जांच भी तो आखिर की जानी चाहिए.
इसके अलावा पर्यावरणीय अपराध का मुकम्मल डाटा हासिल करने के लिए सभी राज्यों के प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों और तमाम पर्यावरणीय नियामक संस्थाओं का सोर्स डाटा भी लिया जाना चाहिए. विशेषज्ञों के मुताबिक एनसीआरबी के पास इतने कम पर्यावरणीय अपराधों का डाटा इसलिए हैं क्योंकि वह सिर्फ आपराधिक मामलों को दर्ज करता है, जबकि पर्यावरण से जुड़े कई मामले सिविल प्रकृति के होते हैं. संयुक्त राष्ट्र कह चुका है कि पर्यावरणीय अपराध सतत विकास और राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरे में डालने की क्षमता रखते हैं. (dw.com)
-अपूर्व भारद्वाज
यह वो ही कपिल सिब्बल है जिनके उलूल-जुलूल बयानों से कांग्रेस गाहे-बगाहे परेशानी में फंसती रहती है। जिन्होंने दिल्ली के एक लोकसभा सीट को छोडक़र कभी जमीनी राजनीति नहीं की। जिन्होंने अपना प्रोफेशन राजनीति के लिए कभी नहीं छोड़ा। जिन्होंने केवल अपने लोकसभा सीट के गणित के लिए पूरी कॉंग्रेस को तुष्टिकरण की तरफ मोड़ दिया। आज वो भगवा पगड़ी पहने कांग्रेस को सेक्युलिरिज्म सीखा रहे हैं।
जिन्होंने 0 लास की थ्योरी दी थी और कांग्रेस का बेड़ा गर्क कर दिया था। जिसे मीडिया ने दिन-रात चलाया और अण्णा जैसे आंदोलनजीवी को सँजीवनी दे दी और पूरा करप्शन का परसेप्शन यूपीए के विरूद्ध बन गया, पहचाना की नहीं..!!!
आनंद शर्मा ने शायद ही कभी लोकसभा चुनाव लड़ा हो लेकिन वीरभद्र सिंह जैसे खांटी जमीनी नेता को सदा राजनीति के पाठ पढ़ाते रहते थे। कांग्रेस ने उनको हिमाचल प्रदेश जैसी छोटी प्रदेश के बाद राज्यसभा सांसद से लेकर केंद्रीय मंत्री तक बनाया। वो आज कांग्रेस को बंगाल में राजनीति का ककहरा सीखा रहे हैं। यह इतने दोगले हैं कि इन्हें केरल में मुस्लिम लीग से गठबंधन नजर नहीं आ रहा था लेकिन वाम दलों का ढ्ढस्स्न को सीट देना आज अखर रहा है।
अब बात करें ‘गुलाम’ साहब की जिन्होंने पूरी जिंदगी नेहरू और गांधी की कृपा से निकाल दी लेकिन आज इनके अंदर का लोकतंत्र जग गया है। इन्हें कांग्रेस का वंशवाद नजर आ रहा है। गुजरात दंगों के समय साहब में इनको शैतान नजर आ रहा था। अब एक राज्यसभा की सीट के लिए भगवान नजर आ रहा है। मतलब जिस पार्टी ने आपको बनाया उसे ही नीचे दिखा रहे हैं। ऐसी नकली आजादी से पार्टी की गुलामी ही ठीक है।
राज बब्बर, मनीष तिवारी जैसे नेताओं के बारे में बात करना पोस्ट को लंबा करना होगा। कांग्रेस को इस मामले में बीजेपी से सीखना चाहिए। वो वक्त पडऩे पर जसवंत सिंह और कल्याण सिंह जैसे नेताओं को निकाल बाहर कर देती है। सत्ता में हो या न हो लेकिन अनुशासन से कोई समझौता नहीं करती हैं। अब समय आ गया है राहुल गाँधी को पार्टी रूपी नदी की सारी कीचड़ और गंदगी साफ कर देना चाहिए। देर से ही सही इस सुखी नदी में निर्मल और स्वच्छ जल तो आएगा।
- बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
हम लोग कितने बड़े ढोंगी हैं? हम डींग मारते हैं कि हमारे भारत में नारी की पूजा होती है। नारी की पूजा में ही देवता रमते हैं। ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते तत्र रमन्ते तत्र देवताः।’ अभी-अभी विश्व बैंक की एक रपट आई है, जिससे पता चलता है कि नारी की पूजा करना तो बहुत दूर की बात है, उसे पुरूष के बराबरी का दर्जा देने में भी भारत का स्थान 123 वां है। याने दुनिया के 122 देशों की नारियों की स्थिति भारत से कहीं बेहतर है।190 देशों में से 180 देश ऐसे हैं, जिसमें नर-नारी समानता नदारद है। सिर्फ दस देश ऐसे हैं, जिनमें स्त्री और पुरुषों के अधिकार एक-समान हैं। ये हैं–बेल्जियम, फ्रांस, डेनमार्क, लातविया, लग्जमबर्ग, स्वीडन, आइसलैंड, कनाडा, पुर्तगाल और आयरलैंड ! ये देश या तो भारत के प्रांतों के बराबर हैं या जिलों के बराबर ! इनमें से एक देश भी ऐसा नहीं है, जिसकी संस्कृति और सभ्यता भारत से प्राचीन हो।
ये लगभग सभी देश ईसाई धर्म को मानते हैं। ईसाई धर्म में औरत को सभी पापों की जड़ माना जाता है। यूरोप में लगभग एक हजार साल तक पोप का राज चलता रहा। इसे इतिहास में अंधकार-युग के रूप में जाना जाता है लेकिन पिछले ढाई-तीन सौ साल में यूरोप ने नर-नारी समता के मामले में क्रांति ला दी है लेकिन भारत, चीन और रूस जैसे बड़े देशों में अभी भी शासन, समाज, अर्थ-व्यवस्था और शिक्षा आदि में पुरूषवादी व्यवस्था चल रही है। केरल और मणिपुर को छोड़ दें तो क्या वजह है कि सारे भारत में हर विवाहित स्त्री को अपना उपनाम बदलकर अपने पति का नाम लगाना पड़ता है ? पति क्यों नहीं पत्नी का उपनाम ग्रहण करता है? विवाह के बाद क्या वजह है कि पत्नी को अपने पति के घर जाकर रहना पड़ता है ? पति क्यों नहीं पत्नी के घर जाकर रहता है ? पैतृक संपत्ति तो होती है लेकिन ‘मातृक’ संपत्ति क्यों नहीं होती?
पिता की संपत्ति का बंटवारा उसके बेटों को तो होता है, बेटियों को क्यों नहीं ? बच्चों के नाम के आगे सिर्फ उनके पिता का नाम लिखा जाता है, माता का क्यों नहीं? दुनिया के कितने देशों में राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री महिलाएं हैं ? इंदिराजी भारत में प्रधानमंत्री इसलिए नहीं बनीं कि वे महिला थीं, बल्कि इसलिए बनीं कि वे नेहरूजी की बेटी थीं। भारत में कुछ ऋषिकाएं और साध्वियां जरूर हुई हैं लेकिन दुनिया के देशों और धर्मों में लगभग सभी मसीहा और पैगंबर पुरुष ही हुए हैं। दुनिया के सभी समाजों में बहुपत्नी व्यवस्था चलती है, बहुपति व्यवस्था क्यों नहीं ? स्त्रियां ही ‘सती’ क्यों होती रहीं, पुरूष ‘सता’ क्यों न हुए ? इस पुरुषप्रधान विश्व का रूपांतरण अपने आप में महान क्रांति होगी।
(नया इंडिया की अनुमति से)
- ईश्वर सिंह दोस्त
कांग्रेस में तेईस नेताओं का समूह कहलाने वाले नेताओं में से कुछ ने जम्मू में इकट्ठे होकर जो किया है, उसे बगावत का बिगुल कहा जाता है। अब तक समझा जा रहा था कि ये नेता कांग्रेस को फिर से एक देशव्यापी मजबूत पार्टी बनाने के लिए बेचैन हैं और इसके लिए ज्यादा आंतरिक जनतंत्र की मांग कर रहे हैं। मगर जम्मू के तुरंत बाद ही गुलाम नबी आजाद और आनंद शर्मा के बयानों से यह शक भी होने लगा है कि कहीं इनकी दाल किसी और के ईंधन पर तो नहीं पक रही है। एकजुट होकर चिट्ठी लिखने या कोई मांग उठाने से आगे जाकर यह समूह एक धड़े की शक्ल में उभर आया है, जो जम्मू के बाद हिमाचल और हरियाणा में अपनी ताकत का प्रदर्शन करना चाहता है।
इस समूह के नेताओं की राहुल से नहीं बनती, यह अब जगजाहिर है। इशारों में इसके पहले राहुल गांधी के बयानों पर भी इस समूह के कुछ नेता हमला बोल चुके हैं। यह सब तब हो रहा है जब पाँच राज्यों में चुनाव हो रहे हैं। अप्रैल तक इन नेताओं को सब्र नहीं है तो इसके पीछे यह डर है कि चुनावों में राहुल के अच्छे प्रदर्शन से उनका कांग्रेस अध्यक्ष बनना कहीं तय न हो जाए। लगता है कि इनमें से कुछ नेता यह मन बना चुके हैं कि राहुल अध्यक्ष बनते हैं तो दूसरी पार्टी या गठबंधन बनाया जाए।
इन नेताओं में से भूपिंदर सिंह हुड्डा और आजाद को छोड़कर कोई भी न तो बड़ा क्षेत्रीय नेता है और न अखिल भारतीय स्तर पर कांग्रेस में उसकी स्वीकार्यता है। इसलिए अगर ये कांग्रेस छोड़ते हैं और राजग का हिस्सा नहीं बनते हैं तो एकमात्र चारा संग-साथ होकर असंतुष्टों को इकट्ठा करने और तीसरे मोर्चे जैसे किसी गठबंधन की राह पकड़ने का हो सकता है। यह बात इसलिए कि भले ही कांग्रेस अभी इन पर कोई अनुशासन की कार्रवाई कर इन्हें शहादत देना न चाहती हो, मगर अनुशासन की लक्ष्मण रेखा को कुछ नेता शायद समझते-बूझते हुए ही पार कर चुके हैं।
इन नेताओं में से एक पीजे कुरियन ने 2 मार्च को कहा भी कि कांग्रेस में सुधार होना चाहिए, मगर लक्ष्मण रेखा पार नहीं की जानी चाहिए। इसी तरह की बातें तीन और नेताओं वीरप्पा मोइली, संदीप दीक्षित और अजय सिंह ने कही। पृथ्वीराज चौहान, शशि थरूर, जितेन प्रसाद आदि पहले ही जी-23 से किनारा कर चुके हैं। अब अजीब नजारा है। कुछ नेता लक्ष्मण रेखा के उस पार चले गए हैं। कुछ रेखा पर हैं और कुछ रेखा के पहले ठिठक गए हैं।
राज्यसभा से गुलाम नबी आजाद की विदाई के वक्त मोदी के बहाए आंसूओं से रिश्ते की जिस जमीन को सींचा गया था, आजाद ने मोदी को सत्यवादी बता कर उसमें खाद डाल दी है। इसी तरह आनंद शर्मा के बयान हैं, जो कांग्रेस के बाहर से दिए गए नजर आते हैं। हालांकि बहुत से नेताओं के इस समूह से किनारा कर लेने के कारण यह असल में जी-23 से जी-10 हो चुका है। जम्मू में भी आजाद, आनंद, हुड्डा, सिब्बल, राज बब्बर, विवेक तन्खा और मनीष तिवारी ही जुटे थे। 23 तो वे थे, जिन्होंने कांग्रेस में चुनाव और आंतरिक जनतंत्र के लिए सोनिया को खत लिखा था। इसके बाद इनकी सोनिया के साथ बैठक हो चुकी है और जून में अध्यक्ष पद के चुनाव पर सहमति बन चुकी है।
कांग्रेस के भीतर की ऐसी असंतुष्ट गतिविधि में सत्तारूढ़ दल की खासी रुचि हो सकती है, जिसने कांग्रेस-मुक्त राजनीति की अपनी आकांक्षा को कभी छिपाया नहीं है। कोई बड़ी बात नहीं होगी यदि इसके पीछे कॉर्पोरेट हित भी हों, क्योंकि कांग्रेस के अमरिंदर सिंह, भूपेश बघेल और अशोक गहलोत जैसे जमीनी पकड़ वाले नेताओं की किसान समर्थक राजनीति की आंच कॉर्पोरेटी हितों तक पहुंच रही है। कांग्रेस का अतीत जो भी रहा हो, मगर आज की राजनीति में कार्पोरेट के हित में यही है कि कांग्रेस और कमजोर हो जाए।
कांग्रेस भले ही कम सीटों पर सिमट गई हो, मगर अपने अखिल भारतीय प्रसार के अलावा यह अब भी विमर्शों के शतरंज में भाजपा से आमने-सामने की स्थिति में है। इसलिए केंद्र सरकार के खिलाफ बिखरे हुए असंतोष को एक राजनीतिक कहानी में अगर कभी गूंथा गया तो कांग्रेस की भूमिका बनेगी। यह स्वयं भाजपा के नेहरू और गांधी परिवार को मुख्य निशाना बनाए रखने से जाहिर है। इसीलिए पहले कांग्रेस के समर्थन में नहीं रहे कई विश्लेषक भी अब यह मानते हैं कि कांग्रेस का और कमजोर होना भारत में लोकतंत्र के भविष्य के लिए ठीक नहीं है।
सवाल सिर्फ लक्ष्मण रेखा का नहीं, बल्कि इन नेताओं के इरादों का भी है। सिंधिया के सफल और पायलट के असफल प्रयासों के बाद एक रुझान यह भी हो गया है कि व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षाओं लिए पार्टी के नेतृत्व के सामने ब्लैकमेल जैसी स्थिति निर्मित की जाए। फिर कांग्रेस की विचारधारा की कसमें खाते हुए कदम भाजपा की तरफ लड़खड़ाते जाएं! इन नेताओं को सहानुभूति भी मिल जाती है कि बेचारे कांग्रेस में कितने घुट रहे थे और गांधी परिवार इतने समर्पित, होनहार और भोले नेताओं को संभाल कर नहीं रख पा रहा है। आज जब पाला बदलने के लिए बड़ा समर्थन मूल्य उपलब्ध हो, तब कांग्रेस नेतृत्व की भी जिम्मेदारी बनती है कि वह लक्ष्मण रेखा के पार चले गए और लक्ष्मण रेखा में रहकर आंतरिक सुधार की बात उठाने वाले नेताओं में फर्क करे और उनसे वास्तविक व प्रभावी संवाद कायम करे।
ध्रुव गुप्त
प्रेम, विरह, सौंदर्य और जिंदगी की खूबसूरती तथा तल्खियों के बेहतरीन शायर रघुपति सहाय ‘फिराक’ गोरखपुरी का जिक्र शायरी के एक अलग अहसास, एक अलग आस्वाद का जिक्र है। उन्हें उर्दू के महानतम आधुनिक शायरों में एक माना जाता है। वे उन शायरों में एक थे जिन्होंने शायरी में नई परंपरा की बुनियाद रखी थी। जिस दौर में उन्होंने लिखना शुरू किया, उस दौर की शायरी का एक बड़ा हिस्सा परंपरागत रूमानियत और रहस्यों से बंधा था। समय की सच्चाई और लोकजीवन के विविध रंग उसमें लगभग अनुपस्थित थे। नजीर अकबराबादी और इल्ताफ हुसैन हाली की तरह फिराक ने इस रिवायत को तोडक़र शायरी को नए मसलों, नए विषयों और नई भाषा के साथ जोड़ा। उनकी गजलों में सामाजिक दुख-दर्द व्यक्तिगत अनुभूति बनकर ढला है। वहां रूमान के साथ जि़न्दगी की कड़वी सच्चाइयां भी हैं और आने वाले कल की उम्मीद भी। उर्दू गजल की बारीकी, नाजुकमिजाजी और सौंदर्य को देश की संस्कृति और प्रतीकों से जोडक़र फिराक ने अपनी शायरी का एक अनूठा महल खड़ा किया था। अदबी दुनिया में फिराक की बेबाकी, दबंगई और मुंहफटपन के किस्से खूब कहे-सुने जाते हैं। अपनी शायरी की अनश्वरता पर खुद उनका आत्मविश्वास किस कदर गहरा था, यह उनके इस शेर से समझा जा सकता है- आने वाली नस्लें तुम पर रश्क करेंगी हमअसरों जब भी उनको ध्यान आएगा तुमने फिराक को देखा है।
आज फिराक गोरखपुरी की पुण्यतिथि पर उनकी स्मृतियों को नमन, उनकी एक गजल के चंद अशआर के साथ !
सितारों से उलझता जा रहा हूं
शब-ए-फ़ुरक़त बहुत घबरा रहा हूं
यक़ीं ये है हक़ीक़त खुल रही है
गुमां ये है कि धोखे खा रहा हूं
तेरे पहलू में क्यों होता है महसूस
कि तुझसे दूर होता जा रहा हूं
जो उलझी थी कभी आदम के हाथों
वो गुत्थी आज तक सुलझा रहा हूं
मुहब्बत अब मुहब्बत हो चली है
तुझे कुछ भूलता-सा जा रहा हूं
ये सन्नाटा है मेरे पांव की चाप
‘फिराक’अपनी ही आहट पा रहा हूं।
-कमलेश
समलैंगिक विवाह को लेकर दायर की गईं याचिकाओं के जवाब में केंद्र सरकार ने दिल्ली हाई कोर्ट में अपना जवाब दाखिल किया है.
सरकार ने समलैंगिक विवाह को मंजूरी दिए जाने का विरोध किया है. गुरुवार को सरकार ने कहा कि समलैंगिक जोड़ों के पार्टनर की तरह रहने और यौन संबंध बनाने की तुलना भारतीय पारिवारिक इकाई से नहीं की जा सकती.
इन याचिकाओं में हिंदू विवाह अधिनियम 1955, विशेष विवाह अधिनियम 1954 और विदेशी विवाह अधिनियम 1969 के तहत समलैंगिक विवाह को मान्यता देने की मांग की गई है. साथ ही समलैंगिक विवाह को मान्यता न देना मौलिक अधिकारों का उल्लंघन बताया गया है.
न्यायाधीश राजीव सहाय एंडलॉ और अमित बंसल की बेंच ने इस पर सरकार ने अपना जवाब दाखिल करने के लिए कहा था.
सरकार ने कहा कि समलैंगिक जोड़ों के पार्टनर की तरह रहने और यौन संबंध बनाने की तुलना भारतीय पारिवारिक इकाई से नहीं की जा सकती जिसमें एक जैविक पुरुष को पति, एक जैविक महिला को पत्नी और दोनों के बीच मिलन से उत्पन्न संतान की पूर्व कल्पना है.
हलफ़नामे में कहा गया कि संसद ने देश में विवाह क़ानूनों को केवल एक पुरुष और एक महिला के मिलन को स्वीकार करने के लिए तैयार किया है. ये क़ानून विभिन्न धार्मिक समुदायों के रीति-रिवाजों से संबंधित व्यक्तिगत क़ानूनों/ संहिताबद्ध क़ानूनों से शासित हैं. इसमें किसी भी हस्तक्षेप से देश में व्यक्तिगत क़ानूनों के नाजुक संतुलन के साथ पूर्ण तबाही मच जाएगी.
सरकार ने आगे कहा कि भारत में विवाह से "पवित्रता" जुड़ी हुई है और एक "जैविक पुरुष" और एक "जैविक महिला" के बीच का संबंध "सदियों पुराने रीति-रिवाजों, प्रथाओं, सांस्कृतिक लोकाचार और सामाजिक मूल्यों" पर निर्भर करता है. केंद्र सरकार ने इसे मौलिक अधिकार के तहत भी मान्य नहीं माना है.
क्या हैं याचिकाएं
याचिका दायर करने वाले एक याचिकाकर्ता जोड़े की शादी को विदेशी विवाह अधिनियम के तहत रजिस्ट्रेशन सर्टिफिकेट नहीं दिया गया. वहीं, दूसरे जोड़े को विशेष विवाह अधिनियिम के तहत शादी की इजाजत नहीं दी गई.
इन याचिकाओं में कहा गया कि विशेष विवाह अधिनियम और विदेशी विवाह अधिनियम की व्याख्या इस तरह कि जाए कि वो समलैंगिक विवाह पर भी लागू हो सके.
एक अन्य याचिकाकर्ता उदित सूद ने विशेष विवाह अधिनियम को जेंडर न्यूट्रल बनाने की मांग की ताकि वो सिर्फ़ महिला और पुरुष की बात न करे.
करनजवाला एंड कंपनी ने उनकी तरफ से याचिका दायर की है जिसमें कहा गया है कि इस समय विशेष विवाह अधिनियम जिस तरह बनाया गया है उसमें एक दूल्हे और एक दुल्हन की ज़रूरत होती है. ये व्याख्या हमारे शादी करने के संवैधानिक अधिकार का उल्लंघन करती है. विशेष विवाह अधिनियम की व्याख्या इस तरह की जानी चाहिए जो लैंगिक पहचान और सेक्शुएलिटी को लेकर निष्पक्ष हों.
उदित सूद कहते हैं, “किसी के लिए अपना घर छोड़ना आसाना नहीं होता. भारत के भेदभावपूर्व क़ानूनों के कारण हमें एक सम्मानजनक ज़िंदगी के लिए अपना देश छोड़ना पड़ा.”
याचिक दायर करने की वजह को लेकर वह कहते हैं कि भारतीय एलजीबीटी समुदाय के सभी लोगों को परिवार, दोस्त और कार्यस्थल पर सहयोग नहीं मिल पाता. लेकिन, जिन्हें वो सहयोग मिला है उन्हें दूसरों की मदद के लिए इसका उपयोग करना चाहिए.
कहां हैं अड़चनें
सितंबर 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से हटा दिया था. इसके अनुसार आपसी सहमति से दो व्यस्कों के बीच बनाए गए समलैंगिक संबंधों को अपराध नहीं माना जाएगा. इसमें धारा 377 को चुनौती दी गई थी जो समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी में लाती है.
अब मसला समलैंगिकों के विवाह का है. लेकिन, सरकार के जवाब के मुताबिक विवाह से जुड़े मौजूदा क़ानूनों के तहत समलैंगिक विवाह मान्य नहीं ठहराया जा सकता.
वहीं, याचिकाकर्ता इन क़ानूनों में बदलावों की मांग करते हैं ताकि उन्हें भी शादी का अधिकार मिल सके.
लेकिन, मौजूदा व्यवस्था में क्या ये संभव है और इसके लिए कितना लंबा रास्ता तय करने की ज़रूरत है.
"पूरी क़ानूनी संरचना बदलनी पड़ेगी"
सुप्रीम कोर्ट के वकील विराग गुप्ता कहते हैं कि शादी की व्यवस्था अलग-अलग क़ानूनों से मिलकर बनी है. अगर इसमें बदलाव होता है तो वो बहुत व्यापक और क्रांतिकारी बदलवा होगा.
उन्होंने बताया, “भले ही थर्ड जेंडर को क़ानूनी मान्यता मिली है, पर मान्यता मिलने और अधिकार मिलने में फर्क है. अधिकार मिलने के लिए ज़रूरी है कि उन परंपरागत क़ानूनों में बदलाव किया जाए जिनमें शादी को स्त्री और पुरुष के बीच संबंध माना गया है. साथ ही इनसे जुड़े अन्य क़ानूनों जैसे घरेलू हिंसा, गुजारा भत्ता, उत्तराधिकार और मैरिटल रेप आदि में भी बदलाव करना होगा. लेकिन, इसमें कई सवाल और जटिलताएं सामने आती हैं.”
“जैसे अगर एक ही जेंडर के लोग शादी करेंगे तो गुजारा भत्ता कौन किसको देगा? घरेलू हिंसा में अगर एक ही जेंडर के लोग हैं तो इसमें पीड़ित और अभियुक्त पक्ष कौन होगा? ससुराल-मायका, पितृधन और मातृधन क्या है, इस पर विचार करना पड़ेगा. उसी तरीके से, मैरिटल रेप के भी प्रावधान हैं. इन सभी बातों का आपस में एक संबंध है. एक पूरी क़ानूनी संरचना बदलनी पड़ेगी क्योंकि विवाह के क़ानून की जड़ में स्त्री-पुरुष के संबंधों को ही निर्धारित किया गया है.”
विराग गुप्ता कहते हैं कि अब अगर इसको मान्यता देनी है तो सिर्फ़ संसद के माध्यम से दी जा सकती है. कोई क़ानून ग़लत है या नहीं ये कोर्ट तय कर सकता है लेकिन पूरी क़ानून व्यवस्था को बदलने के लिए कोर्ट निर्देश दे भी दे, तो भी बदलाव संसद के माध्यम से ही संभव है. विवाह क़ानूनों और उनसे जुड़े अन्य क़ानूनों में बदलाव करना होगा तभी सही अर्थों में मांग पूरी हो पाएगी. ये बहुत ही क्रांतिकारी बात होगी.
मौलिक अधिकार का उल्लंघन
दिल्ली हाई कोर्ट में दायर याचिकाओं में कहा गया है कि समलैंगिकों को शादी का अधिकार न मिलना उन्हें समानता के मौलिक अधिकार से वंचित करता है.
याचिकाकर्ता उदित सूद कहते हैं कि हमारी याचिका विवाह की समानता को लेकर है. अपनी पसंद के किसी व्यक्ति से शादी करना आधारभूत मानवाधिकार है जो भारत के संविधान में सभी को मिला हुआ है. समलैंगिक भी इसके पूरे हकदार हैं.
उनकी याचिका में जिन मौलिक अधिकारों की बात की गई है वो हैं-
● राज्य किसी नागरिक के खिलाफ धर्म, मूल, वंश, जाति, लिंग, जन्मस्थान या इनमें से किसी के आधार पर कोई भेद नहीं कर सकता है. भारतीय क़ानून सभी नागरिकों पर समान रूप से लागू होते हैं.
● अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
● किसी भी व्यक्ति को उसके जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता से क़ानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के बिना वंचित नहीं किया जाएगा.
लेकिन, सरकार इसे मौलिक अधिकार का मसला नहीं मानती.
सरकार का पक्ष है कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत मौलिक अधिकार क़ानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अधीन है और समलैंगिक विवाह के मौलिक अधिकार को शामिल करने के लिए इसका विस्तार नहीं किया जा सकता है. समलैंगिक विवाह "किसी भी व्यक्तिगत क़ानून या किसी भी सांविधिक वैधानिक क़ानून में मान्यता प्राप्त या स्वीकृत नहीं हैं.
समलैंगिक विवाह और मौलिक अधिकारों को लेकर विराग गुप्ता कहते हैं, “दरअसल, मौलिक अधिकार भी उसी चीज़ के लिए बनता है जिसके लिए देश में क़ानून हो. जिसके लिए क़ानून ही नहीं है उसके लिए मौलिक अधिकार कैसे बन जाएगा.”
“मौलिक अधिकार के तहत अगर वो अपनी पसंद का पार्टनर चुनते भी हैं तो भी वो शादी कैसे करेंगे क्योंकि उनकी शादी के लिए कोई क़ानून ही नहीं है. शादी की आज़ादी है लेकिन अगर आप क़ानूनी शादी करना चाहते हैं तो क़ानून के अनुसार ही करनी पड़ेगी. ऐसे में मौलिक अधिकार का उल्लंघन कैसे होगा. हालाँकि, विवाह संबंधी क़ानूनों में बदलाव करके ज़रूर इस अधिकार को पाया जा सकता है.”
यही याचिकाकर्ताओं की मांग भी है, कि समलैंगिकों की समानता के अधिकार को सुनिश्चित करने के लिए विवाह क़ानूनों में बदलाव किया जाए.
दुनिया भर में 29 देश ऐसे हैं जहाँ ऐसे ही क़ानूनी उलझनों के बावजूद समलैंगिक विवाह को मंज़ूरी दी गई है. कुछ देशों में कोर्ट के ज़रिए ये अधिकार मिला तो कुछ में क़ानून में बदलाव करके तो कुछ ने जनमत संग्रह करके ये अधिकार दिया.
शादी से जुड़े अन्य क़ानूनों को लेकर अब भी चर्चा जारी है जैसे समलैंगिकों के लिए घरेलू हिंसा के क़ानून के तहत मामला दर्ज कराने में समस्या आती है. लेकिन, उनकी शादी को मान्यता मिली हुई है.
इसे लेकर समानाधिकार कार्यकर्ता हरीश अय्यर कहते हैं कि जिस तरह विवाह क़ानून में बदलाव अन्य क़ानूनों को प्रभावित करेगा उसी तरह विवाह का अधिकार नहीं मिलने से समलैंगिकों के कई और अधिकार भी प्रभावित हो रहे हैं.
उन्होंने बताया, “शादी को मान्यता नहीं मिलने से होता ये है कि वो कपल शादी से जुड़े अन्य अधिकारों से भी वंचित हो जाता है. जैसे किडनी देने की इज़ाजत परिवार के ही सदस्य को होती है. अगर समलैंगिक जोड़े में किसी एक को किडनी की ज़रूरत है और दूसरा देने में सक्षम और इच्छुक भी है तो भी वो किडनी नहीं दे सकता क्योंकि वो क़ानूनी तौर पर शादीशुदा नहीं हैं.”
“इसी तरह आप उत्तराधिकार के अधिकार से वंचित हो जाते हैं. मेडिक्लेम, इंश्योरेंस और अन्य दस्तावेजों में भी अपने पार्टनर का नाम नहीं लिख सकते. जबकि मेरा पार्टनर कौन है इससे कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए. समलैंगिक जोड़ा प्यार, समर्पण, इच्छा होने पर भी एक-दूसरे को परिवार नहीं बना सकता.”
इस मामले पर सरकार के रुख को लेकर हरीश अय्यर का कहते हैं, “हमें सरकार से इसी तरह के जवाब की उम्मीद थी क्योंकि उन्होंने धारा 377 के समय पर भी कोई पक्ष लेने से इनकार कर दिया था. सरकार ने कभी नहीं कहा कि वो एलजीबीटी के साथ है. हाँ, व्यक्तिगत तौर पर सरकार में शामिल नेताओं ने एलजीबीटी के समर्थन में बयान दिया है लेकिन सरकार के स्तर पर समर्थन नहीं मिला है.”
“बस हम ये चाहते हैं कि समलैंगिक विवाह को क़ानूनी दर्जा दिलाने का कोई तरीका ढूंढे, कोई प्रावधान करें या सिविल पार्टनरशिप ही करें. क़ानून ऐसा हो कि जेंडर और सेक्शुएलिटी के परे कोई भी दो लोग शादी कर सकें.”
इस मामले में सरकार को अभी कुछ और याचिकाओं पर भी कोर्ट में जवाब दाखिल करना है. मामले की अगली सुनवाई 20 अप्रैल को होगी. (bbc.com)