विचार / लेख
-मनीष सिंह
अस्सी और नब्बे के दशक में नलिनी सिंह की रिपोर्टिंग, उस दौर में दूरदर्शन देखने वालों को जरूर याद होंगी। बिहार के अंदरूनी इलाकों में हिंसा, भय और मारकाट के बाद बाहुबलियों द्वारा बूथ कब्जा करने की लोमहर्षक कथाओं ने हमारे रोंगटे खड़े किए थे।
आज यह चीजें किसी और लोक, किसी और देश की बात लगती है। भारत के पहले चुनाव आयुक्त टीएन शेषन को इस पर रोक लगाने का श्रेय है। उनके प्रयासों पर बात करने के पूर्व ये बताना जरूरी है, की उन्हें पहला इलेक्शन कमिश्नर क्यों कहा। इसलिए कि उनसे पहले इस कुर्सी पर जो आये, वो चूं चूं के मुरब्बे थे।
टीएन शेषन कोई पांच साल इस पद पर रहे। जब आये थे, फर्जी वोटिंग, बूथ कैप्चरिंग और तमाम इलेक्टोरल फंदेबाजी का बोलबाला था। शेषन ने मतदाता पहचान पत्र लागू कराये।
पूरे देश मे हर वोटर को इलेक्शन कमीशन द्वारा जारी वोटर आई डी जारी किया गया। आज फोटोयुक्त पहचान पत्र के बगैर आप वोट नही दे सकते। यह नियम शेषन की देन है, जिसने फर्जी वोटिंग पर एकदम से रोक लगा दी।
दूसरी प्रक्रिया, सेंट्रल फोर्सेस की तैनाती थी। इसके पहले पोलिंग की सुरक्षा स्थानीय बल करते थे। याने पुलिस, फारेस्ट गार्ड, राज्य के सशस्त्र बल, होम गार्ड आदि, ये सारे बल स्टेट गवर्नमेंट के अधीन होते।
इलेक्शन कोड ऑफ कंडक्ट तब कोई नही जानता था। तो राज्य की सरकार में बैठे पावरफुल लोग काफी प्रभावित कर सकते थे।
कोड ऑफ कंडक्ट लागू होने के बाद , ग़ैरनिरपेक्ष अफसरों के ट्रान्सफर इलेक्शन कमीशन ने करना शुरू किया। ऑब्जर्वर नियुक्त किये, उन्हें असीमित पावर दी। और लगाई सेंट्रल फोर्सेस, भारी मात्रा में ..
हर जगह लगाने लायक फोर्स नही, तो एक स्टेटमे चुनाव दो-तीन चरण में कराने की प्रथा आयी। जिससे फोर्स को एक जगह चुनाव निपटा कर दूसरी जगह रवाना कर दिया जाता। कम जगह पोलिंग होने से उपलब्ध फोर्स से काम बन जाता। अब हर जगह पोलिंग के वक्त फोर्स की भारी तैनाती होती है। ऐसे खतरनाक हथियारों के साथ कि किसी मामूली गुंडे की हिम्मत न हो, पोलिंग बूथ की ओर आंख उठाकर देखने की..
बूथ कैप्चरिंग बंद हो गई
ईवीएम एक फर्जी मशीन है, अपारदर्शी है, और इसके जस्टिफिकेशन के लिए दिए जाने वाले तमाम तर्कों में एक यह भी है कि फर्जी वोटिंग और बूथ कैप्चरिंग रूक गई है।
यह बकवास, और निरर्थक तर्क है। जिसे बूथ लूटकर 1000 मतपत्र पर अपना ठप्पा लगाकर, मोडक़र डब्बे में डालने की हिम्मत है, उसमे 1000 बार बटन दबाने की भी हिम्मत है।
दोनों ही प्रोसेस में डेढ़ दो धंटे लगेंगे। मतपेटी में स्याही डालकर उसे खराब करने की जगह मशीन को हथोड़े से कूटपीस दिया जा सकता है। तो फर्क मतपत्र से मशीन के आने से नही पड़ा।
फर्क पड़ा है सिक्योरिटी फोर्सेज के डिप्लॉयमेंट से। जिन लोकल बॉडी इलेक्शन में आज भी ऐसी घटनाएं होती है, उन जगहों पर न केंद्रीय चुनाव आयोग का दखल होता है, न सेंट्रल फोर्सेज का। इस फर्क को नकार कर कोई कहे कि मशीनों ने बूथ कैप्चरिंग रोक दी, तो मान लें कि आपके सामने एक महामूर्ख बैठकर बकवास कर रहा है।
या मशीन के बने रहने में उसका कोई वेस्टेड इंटरेस्ट है।