विचार/लेख
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
ऐसा लगता है कि भारत और दक्षिण अफ्रीका की पहल अब शायद परवान चढ़ जाएगी। पिछले साल अक्तूबर में इन दोनों देशों ने मांग की थी कि कोरोना के टीके का एकाधिकार खत्म किया जाए और दुनिया का जो भी देश यह टीका बना सके, उसे यह छूट दे दी जाए। विश्व व्यापार संगठन के नियम के अनुसार कोई भी किसी कंपनी की दवाई की नकल तैयार नहीं कर सकता है।
प्रत्येक कंपनी किसी भी दवा पर अपना पेटेंट करवाने के पहले उसकी खोज में लाखों-करोड़ों डॉलर खर्च करती है। दवा तैयार होने पर उसे बेचकर वह मोटा फायदा कमाती है। यह फायदा वह दूसरों को क्यों उठाने दें? इसीलिए पिछले साल भारत और द. अफ्रीका की इस मांग के विरोध में अमेरिका, यूरोपीय संघ, ब्रिटेन, जापान, स्विट्जरलैंड जैसे देश उठ खड़े हुए।
ये समृद्ध देश अपनी गाढ़ी कमाई को लुटते हुए कैसे देख सकते थे लेकिन पाकिस्तान, मंगोलिया, केन्या, बोलिविया और वेनेजुएला- जैसे देशों ने इस मांग का समर्थन किया। अब खुशी की बात यह है कि अमेरिका के बाइडन प्रशासन ने ट्रंप की नीति को उलट दिया है।
अमेरिका यदि अपना पेटेंट छोडऩे को तैयार है तो अन्य राष्ट्र भी उसका अनुसरण क्यों नहीं करेंगे? अब ब्रिटेन और फ्रांस जैसे राष्ट्रों ने भी भारत के समर्थन की इच्छा जाहिर की है। क्यों की है? क्योंकि अब दुनिया को पता चल गया है कि कोरोना की महामारी इतनी तेजी से फैल रही है कि मालदार देशों की आधा दर्जन कंपनियां 6-7 अरब टीके पैदा नहीं कर पाएंगी। अब केनाडा, बांग्लादेश और दक्षिण कोरिया जैसे लगभग आधा दर्जन देश ऐसे हैं, जो कोरोना का टीका बना लेंगे। लेकिन यह जरुरी है कि उन्हें पेटेंट का उल्लंघन न करना पड़े। विश्व स्वास्थ्य संगठन के 164 सदस्य-देशों में से अगर एक देश ने भी आपत्ति कर दी तो यह अनुमति उन्हें नहीं मिलेगी।
जर्मनी आपत्ति कर रहा है। उसका तर्क यह है कि दुनिया की कई कंपनियां ये टीके नहीं बना पाएंगी, क्योंकि उनके पास इसका कच्चा माल नहीं होगा, तकनीक नहीं होगी और कारखाने नहीं होंगे। डर यही है कि अधकचरे और नकली टीकों से दुनिया के बाजार भर जाएंगे और मरनेवाले मरीजों की संख्या दिन दूनी, रात चौगुनी हो जाएगी। यह तर्क निराधार नहीं है लेकिन जिस देश की कंपनी भी ये टीके बनाएगी, वह मूल कंपनी के निर्देशन में बनाएगी और उस देश की सरकार की कड़ी निगरानी में बनाएगी। उन टीकों की कीमत भी इतनी कम होगी कि गरीब देश भी अपने नागरिकों को उन्हें मुफ्त में बांट सकेंगे। इस समय उन्नत देशों से आशा की जाती है कि वे दरियादिली दिखाएंगे। वे अपनी कंपनियों से पूछें कि क्या कोरोना से उन्होंने कोई सबक नहीं सीखा? अपने एकाधिकार से वे पैसे का अंबार जरुर लगा लें लेकिन ऊपर से बुलावा आ गया तो वे उस पैसे का क्या करेंगे? वे जरा भारत का देखें। भारत ने कई जरुरतमंद देशों को करोड़ों टीके मुफ्त में बांट दिए या नहीं? कोरोना की इस महामारी का महासंदेश यही है कि आप सारे विश्व को अपना कुटुम्ब समझकर काम करें। वसुधेवकुटुम्बकम् या विश्व-परिवार।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-रमेश अनुपम
गुरुदेव जान रहे हैं कि अब उन्हें अपने द्वारा किए गए छल के बोझ को एकाकी ही वहन करना होगा। गुरुदेव कैसे भुला सकते हैं कि मृत्यु पूर्व दो माह मृणालिनी ने इस सुख में बिताए हैं कि रूखमणी की बेटी के ब्याह में आभूषण बनवाने के लिए उसे पच्चीस रुपए देकर उन लोगों ने कितना पुण्य का काम किया है।
मृणालिनी की स्मृति गुरुदेव की आंखों की कोरो को सजल कर रही थी। चोखेर जल थमने का नाम नहीं ले रहे थे। गुरुदेव इस सबके लिए स्वयं को कोस रहे हैं।
गुरुदेव ने ‘फांकि’ कविता में अपनी हृदय की वेदना को शब्दों के पुष्पमाला में इस तरह से पिरोकर प्रस्तुत किया हैं-
‘ऐई दूटी मास सुधाय दिले भरे
बिनुर मुखेर शेष कथा
सेई बईबो केमन करे
रये गेलेम
दायी
मिथ्या आमार हलो चीर
स्थायी’
बिलासपुर रेल्वे स्टेशन बिल्कुल वैसा ही है जैसे गुरुदेव ने दो मास पहले देखा था। प्लेटफार्म से लेकर सारा कुछ जस का तस। न दीवारें बदली है न टिकट खिडक़ी और न ही स्टेशन मास्टर, टिकट बाबू का कमरा ही। इन दो महीनों में कुछ भी तो नहीं बदला है। गुरुदेव के माथे पर चिंता की लकीरें गहरी होती जा रहीं हैं।
गुरुदेव सोच रहे हैं केवल रूखमणी नहीं है, पर उसके न होने से जैसे बिलासपुर रेल्वे स्टेशन कितना सूना, कितना निष्प्राण सा लग रहा है। किसी के नहीं होने से जगहें भी कितनी अधूरी और प्राणहीन लगती हैं, गुरुदेव को जीवन में यह पहली बार आभास हो रहा है।
अब गुरुदेव के सामने कोई विकल्प नहीं है सिवाय इसके कि वे वापस कोलकाता लौट जाएं। पर इस तरह से लौटना उनके हृदय को छलनी कर रहा था। उनका स्वप्न टूट चुका था। गुरुदेव की इस वेदना को भला कौन समझ सकता है कि बिलासपुर रेल्वे स्टेशन तक पहुंचकर भी उन्हें भग्न हृदय और खंडित स्वप्न लिए वापस लौटना होगा।
गुरुदेव थककर रेल्वे स्टेशन की बेंच में बैठकर सोच रहे हैं। कोलकाता वापस जाने वाली ट्रेन के समय का पता कर चुके हैं। प्रथम श्रेणी की टिकट भी ले ली है। बस प्रतीक्षा है ट्रेन की।
जीवन में इस तरह की यात्रा का कोई अनुभव उन्हें नहीं था। पर यह यात्रा तो एक महायात्रा थी जिसमे मृणालिनी देवी से किए गए छल से मुक्ति और प्रायश्चित की भावना ही प्रमुख थी। यह महायात्रा कितनी शीघ्र एक विफल यात्रा में बदल गई है।
अभी भी ट्रेन के आने में विलम्ब है पर यह विपदा, यह दुख, यह वेदना ट्रेन में बैठ जाने के बाद भी क्या समाप्त हो जायेगी ? क्या जोडासांको या कोलकाता पहुंच जाने पर ही इस अभिशाप से मुक्त हो जायेंगे या जीवन भर दागी ही रह जायेंगे?
गुरुदेव का हृदय दग्ध है और दोनों चोख अश्रुजल से भरे हुए। ट्रेन प्लेटफार्म पर लग चुकी है। गुरुदेव भारी मन से उठकर प्रथम श्रेणी बोगी की ओर बढ़ रहे हैं। पांव में न स्फूर्ति है न शक्ति। भारी कदमों से वे अपनी बोगी तक जैसे तैसे पहुंच भर गए हैं।
गार्ड ने सीटी बजा दी है। ट्रेन बिलासपुर रेल्वे स्टेशन से छूट रही है। गुरुदेव की आंखें अब भी खिडक़ी के बाहर रूखमणी को खोज रही हैं। और अंत में यह मेरे लिए अद्भुत और स्वर्णिम संयोग है कि आज जब मैं गुरुदेव पर लिखी अपनी अंतिम कड़ी और छत्तीसगढ़ एक खोज की 16 वीं कड़ी लिख रहा हूं ( 7 मई 2021) वह कोई साधारण दिन न होकर गुरुदेव के पृथ्वी पर अवतरण की तिथि है ।
भारतीय भाषा और बांग्ला के महान कवि , लेखक, चित्रकार, विचारक, संगीत मर्मज्ञ, शांति निकेतन के शिल्पी रवींद्रनाथ ठाकुर को भला कौन भुला सकता है। बंगाल का ऐसा कौन सा अभागा घर होगा जहां गुरुदेव की कोई तस्वीर और साथ में ‘संचयिता’ देखने को न मिले। ऐसा कौन सा बाड़ी होगा जो संध्या बेला में रवींद्र संगीत की स्वर लहरियां से न गमक रहा हो।
आज गुरुदेव के जन्म दिवस पर उनकी स्मृति को सादर नमन करते हुए, ढेर सारे पुष्प उनके चरणों में अर्पित करते हुए मैं स्वयं को अत्यंत सौभाग्यशाली मानते हुए उनकी स्मृति को सादर नमन करता हूं।
मैं यह अपना सौभाग्य मानता हूं कि उनकी कविताओं को मूल बांग्ला में पढ़ सका, रवींद्र संगीत सुन और गा सका, शांति निकेतन जाकर वहां की रांगार माटी को अपने माथे पर लगा सका।
‘छत्तीसगढ़ एक खोज’ को पसंद करने वाले दोस्तों और शुभचिंतकों, ‘फांकि’ कविता संबंधी अपनी स्थापनाओं को, अपनी खोज या शोध को आप सबके समक्ष रखे बिना ‘जब गुरुदेव ने किया अपनी पत्नी से छल’ को समाप्त करना गुरुदेव तथा आप सबके साथ अन्याय करना होगा।
इसलिए सत्रहवीं कड़ी में मैं उन सारे तथ्यों से पर्दा हटाने की कोशिश करूंगा जिसके फलस्वरूप मैं ‘फांकि’ कविता के मर्म तक पहुंचने की सफल या असफल चेष्टा करता रहा हूं।
मैं पिछले बीस वर्षों से इस कविता का, गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर का और मृणालिनी देवी का पीछा करता रहा हूं।
जब भी कोलकाता जाना हुआ, एक चक्कर कालेज स्ट्रीट का लगाकर मृणालिनी देवी से संबंधित कोई बांग्ला बोई न खरीदूं ऐसा कभी संभव नहीं हुआ।
श्यामा बाजार से ट्राम पर बैठकर कॉलेज स्ट्रीट तक के सफर का मोह भी इसमें जरूर शामिल रहता था।
इसलिए सत्रहवीं कड़ी में मैं उन सारे तथ्यों से पर्दा हटाने का काम करूंगा जिसके फलस्वरूप मैं ‘फांकि’ कविता के मर्म तक पहुंचने की कोशिश करता रहा हूं। वैसे कभी-कभी तो मुझे यह भी लगता रहा है कि इसे लिखने लिए जैसे स्वयं गुरुदेव ही मुझे प्रेरित करते रहे हों। अन्यथा .....
शेष अगले हफ्ते ‘फांकि’ शुधु’ फांकि’
-प्रकाश दुबे
आंध्र प्रदेश में सत्तारूढ़ वायएसआरकांग्रेस ने ईसाई धर्मावलंबी को तिरुमला तिरुपति देवस्थानम का मुखिया बनाया। तिरुपति लोकसभा उपचुनाव में विपक्ष ने इस मुद्दे पर सरकार की जमकर लानत-मलामत की। इसके बावजूद जगन्मोहन रेड्डी की पार्टी के नए नवेले उम्मीदवार डॉ. गुरुमूर्ति ने दो पूर्व केन्द्रीय मंत्रियों को भारी अंतर से हराया। दोनों दलबदलू। पनबाका लक्ष्मी कांग्रेस छोडक़र तेलुगु देशम पार्टी की उम्मीदवार बनीं। ढाई लाख मतों के अंतर से हारीं। नरसिंहराव सरकार में राज्यमंत्री रहे चिंतामोहन दस हजार वोट के लिए तरसे। जमानत जब्त हुई। धर्म के बजाय श्रद्धा को महत्व और बालाजी का आर्शीवाद मिला। लोकसभा का एक और उपचुनाव दक्षिणी छोर पर कन्याकुमारी में हुआ। एकनाथ रानाडे ने आजीवन मेहनत की।
कन्याकुमारी में स्वामी विवेकानंद शिला तैयार हुई। हिंदू धर्म की महत्ता और उदारता के व्याख्याकार दिग्विजयी स्वामी को खास चश्मे में कैद करन आसान नहीं है। लोकसभा चुनाव-2019 में केन्द्रीय राज्यमंत्री पोन राधाकृष्णन पराजित हुए। राधाकृष्णन को उपचुनाव में जिताने के लिए सत्तारूढ़ राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन ने साम, दाम, दंड, भेद का सहारा लिया। नाडार वोट पर नजर रखते हुए तमिल सौंदर्याराजन को तेलंगाना का राज्यपाल बनाया। पुदुचेरी में ऐन चुनाव के मौके पर उपराज्यपाल का अतिरिक्त प्रभार सौंपा। पुदुचेरी हासिल किया।
कन्याकुमारी के मतदाताओं ने स्वामी विवेकानंद की सीख अपनाई-एक समय आता है, जब मनुष्य अनुभव करता है कि थोड़ी सी मानव सेवा करना लाखों जप-ध्यान से बढक़र है। राधाकृष्णन ने फिर पटखनी खाई। रणनीतिकार चुनावी जीत के लिए धर्म को आसान नुस्खा मानते हैं। न्यायपालिका ने सबरीमाला में महिलाओं की प्रवेशबंदी को अनुचित ठहराया। भारतीय जनता पार्टी ने इसे धर्मविरोधी बताकर केरल सहित देश भर को मथने का प्रयास किया।
प्रदेश अध्यक्ष सुरेन्द्रन को कोनी विधानसभा से उम्मीदवार बनाया। देश का हर बड़ा नेता सबरीमाला में दर्शन के बहाने प्रचार करने गया। दिलचस्प संयोग है कि कांग्रेस पार्टी की राय भाजपा से अधिक अलग नहीं थी, सिवा इसके कि वह आंदोलन से दूर रही। कोनी से माक्र्सवादी कम्युनिस्ट जेनिश कुमार ने जीत हासिल की। अद्भ़ुत संयोग है कि मलयाली फिल्मकार जिओ बेबी ने इसी पृष्ठभूमि पर हाल में दि ग्रेट इंडियन किचन फिल्म बनाई। सबरीमाला में समता के पक्ष में निर्णय सुनाने वाले उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश धनंजय चंद्रचूड़ को फिल्म पसंद आई। सबरीमाला में विराजमान आराध्य को समता के विवादास्पद विचार को लागू करने वाली पार्टी के उम्मीदवार और सरकार की जीत भाई। उडऩखटोले पर घूमने वाले सुरेन्द्रन दोनों चुनाव क्षेत्रों से पराजित हुए।
वोट की खातिर धर्म की याद दिलाने वाले लपक कर पहुंच जाते हैं। ओबेसी बिहार में मौजूद थे। मध्यप्रदेश का रुख करने से पता नहीं किसने रोका?अजमेर शरीफ के बाद श्रद्धालुओं के दूसरे आस्था केन्द्र पश्चिम बंगाल के फुरफुरा शरीफ में महीनों पहले पहुंचकर चुनावी बिसात बिछाई। कर्ताधर्ताओं में फुट पड़ी। आप में से किसी ने मतगणना के दिन धर्मपरस्त सियासती ओवैसी या उनकी पार्टी का नाम सुना? केरल में के एम मणि ने ईसाई मतावलम्बियों की पार्टी केरल कांग्रेस बनाई। सत्ता में कांग्रेस के साथ भागीदारी पाई। मणि के निधन के बाद बेटे जोस ने पाला बदलकर इस चुनाव में वाममोर्चे का दामन थामा। ईसाई प्रभावक्षेत्र वाले पाला विधानसभा क्षेत्र से बेटा जोस मणि ही चुनाव हार गया।
गुरुवयूर के मंदिर और गायक येसुदास को कोई नहीं भूल सकता। गोरी तेरा गांव बड़ा प्यारा के गायक ने भज रे मन कृष्णमुरारी और जगवंदित जगपूजित दाता जैसे भजन गाए। ईसाई येसुदास को गुरुवयूर में प्रवेश नहीं करने दिया। गुरुवयूर और येसुदास के घर कोचि में मतदाता की पसंद के उम्मीदवार और दल विजयी रहे। आराध्य खास धर्म के लिए कपाट बंद नहीं करते। कपाट बंद रहे-धर्म के राजनीतिक प्रयोग और हर तरह की धर्माधंता के लिए।
धर्म का ढोल पीटने वाले भूल जाते हैं कि सभी धर्मों में पंथ और उपपंथ हैं। हिंदु धर्म की तरह जाति, उपजाति का प्रभाव है। हिंदु धर्म में अनुसूचित मतुआ समुदाय को महतो भी कहा जाता है। मतुआ समुदाय का बांग्लादेश में प्राचीन मंदिर है।
ऐन विधानसभा चुनाव के दिनों में प्रधानमंत्री मोदीबांग्लादेश के ओराकांडी मंदिर में माथा टेकने पहुंचे। भारत का इलेक्ट्रानिक मीडिया इसका सीधा प्रसारण कर सोनार बांग्ला के मतदाताओं की श्रद्धा जगाने से नहीं चूका। दूसरी तरफ मतुआ समुदाय के प्रभावशाली नेता छत्रधर महतो को एनआईए ने गिरफ्तार किया। ममता बनर्जी सरकार ने छत्रधर को कुछ समय पहले रिहा किया था। छत्रधर को जेल में और मतुआ देव को बांग्लादेश में नतीजों की खबर है। 90 प्रतिशत से अधिक हिंदू आबादी वाले झाडग़्राम से तृणमूल कांग्रेस के वीरवाह हंसदा जीते। मतुआ समुदाय को भिक्षुक कहने वाली तृणमूल की सुजाता मंडल का विरोध हुआ। कुछ गांवों में उन्हें घुसने नहीं दिया। आरामबाग विधानसभा क्षेत्र से सुजाता पराजित हुईं।
काली कलकत्ते वाली का कालीघाट में मंदिर है। बरस पहले मैंने ममता बनर्जी का घर देखा था। लघुशंका निवारण की खस और टाट से कच्ची व्यवस्था की गई थी। भारतीय जनता पार्टी ने गढ़ जीतने के लिए सियाचिन में पहरेदारी करने वाले लेफ्टिनेंट जनरल सुब्रत साहा को दांव पर लगाया। विधायक बनने के लिए उत्सुक साहा निहत्थे ताकते रह गए। रासबिहारी क्षेत्र से तृणमूल कार्यकर्ता देवशीष कुमार जीते।
जनम भर के करमों पर नेकनीयती भारी पड़ती है। यह साधारण सी सीख हमारे गले नहीं उतरती।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
सर्वोच्च न्यायालय ने महाराष्ट्र में मराठा लोगों के आरक्षण को बढ़ानेवाले कानून को असंवैधानिक घोषित कर दिया है। महाराष्ट्र विधानसभा ने एक कानून सर्वसम्मति से पारित करके सरकारी नौकरियों और शिक्षा-संस्थाओं में प्रवेश के लिए मराठा जाति का कोटा 16 प्रतिशत बढ़ा दिया याने कुल मिलाकर जातीय आरक्षण 68 प्रतिशत हो गया, जो कि 50 प्रतिशत की सीमा का स्पष्ट उल्लंघन है।
जातीय आरक्षण की यह उच्चतम सीमा 1992 में सर्वोच्च न्यायालय ने तय की थी। सिर्फ महाराष्ट्र ही नहीं, कई अन्य प्रांतों में अपने आप को पिछड़ा वर्ग कहनेवाले जाट, कापू, गूजर, मुसलमान आदि जाति-संगठनों ने अपने लिए आरक्षण बढ़ाने के लिए आंदोलन चला रखे हैं। महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र, बिहार, तमिलनाडु, पंजाब और राजस्थान आदि कई राज्यों ने तथाकथित पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण की सीमा का पहले ही उल्लंघन कर रखा है या करना चाहते हैं। इन सब राज्यों ने अदालत से अनुरोध किया था कि वह उन्हें 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण की अनुमति दे दे। इन राज्यों की इस मांग का समर्थन सभी दलों ने किया। देश के एक भी नेता या दल की हिम्मत नहीं पड़ी कि वह इस अमर्यादित मांग का विरोध करे। वे विरोध कर ही नहीं सकते, क्योंकि इस मांग के पीछे उन्हें थोक वोट मिलने का लालच है। भारत की राजनीति इसीलिए लोकतांत्रिक कम और जातितांत्रिक ज्यादा है। आम आदमी अपना वोट डालते समय उम्मीदवार की योग्यता पर कम, अपनी और उसकी जाति पर ज्यादा विचार करता है। इस दूषित प्रक्रिया के कारण हमारा लोकतंत्र तो कमजोर होता ही है, सरकारी प्रशासन भी अपंगता का शिकार हो जाता है। उसमें नियुक्त होनेवाले 50 प्रतिशत अफसर यदि अपनी योग्यता नहीं, जाति के आधार पर नियुक्त होंगे तो क्या ऐसी सरकार लंगड़ी नहीं हो जाएगी ? इस जातीय आरक्षण का सबसे ज्यादा नुकसान तो उन्हीं अनुसूचित और पिछड़ी जातियों के लोगों को ही होता है, क्योंकि उनमें से निकले हुए मु_ीभर परिवारों का इन नौकरियों पर पीढ़ी दर पीढ़ी कब्जा हो जाता है जबकि इस आरक्षण का उद्देश्य था, भारत में एक समतामूलक समाज का निर्माण करना। लेकिन अब भी करोड़ों अनुसूचित और पिछड़े परिवार शिक्षा और उचित रोजगार के अभाव में हमेशा की तरह सड़ते रहते हैं।
सरकार की जातीय आरक्षण नीति बिल्कुल खोखली सिद्ध हो गई है। अब नई नीति की जरुरत है। अब जाति के आधार पर नहीं, जरुरत के आधार पर आरक्षण दिया जाना चाहिए। अब नौकरियों में नहीं और उच्च-शिक्षा में नहीं लेकिन सिर्फ माध्यमिक शिक्षा तक सिर्फ जरुरतमंदों को आरक्षण दिया जाना चाहिए। 50 क्या, 70 प्रतिशत तक दिया जा सकता है। देखिए, भारत का रुपांतरण होता है या नहीं ?
(नया इंडिया की अनुमति से)
पहली तस्वीर दिल्ली के युवा इरतिज़ा कुरैशी की है। दूसरी तस्वीर दिल्ली के बुरारी के लक्ष्मण तिवारी और उनके 4 साल के बेटे की है। पिछले दिनों लक्ष्मण तिवारी के माँ -बाप दोनों का एक ही दिन कुछ घंटों के अंतराल में डेथ हो गया था। मां को दिए जा रहा ऑक्सीजन खत्म हो चुका था। एक घंटे तक हांफने, तेजी से घरघराहट, छटपटाहट और बेटे द्वारा पम्पिंग के बाद भी उनके मां की मौत हो गई।
बमुश्किल कुछ घंटे बाद ही जब तक लक्ष्मण तिवारी इस दु:ख को संभाल पाते, उनके पिता भी ऑक्सीजन के लिए हांफने लगें। हताश बेटे ने अपने पिता की छाती को पंप करना शुरू किया। लेकिन उनके पिता ने भी साथ छोड़ दिया। माँ-बाप की मौत लक्ष्मण और उनके चार साल के बेटे के आँखों के सामने हो गई। लक्ष्मण के ऊपर जैसे वज्रपात हो गया। पत्नी हॉस्पिटल में भी गंभीर थी । रोये कि बच्चे को सम्हाले ,कि माँ -बाप की लाश को अंतिम संस्कार के लिए ले जाये। लक्ष्मण ने पास के पड़ोसियों के यहाँ दौड़ लगाना शुरू किया। सबसे मदद मांगी। लेकिन एक आदमी लक्ष्मण और उसके बच्चों को सहारा देने नहीं आया।
लक्ष्मण ने रिश्तेदारों को फ़ोन लगाया ,लेकिन कोई नहीं आया।15 घण्टे तक दोनों माँ -बाप का शव घर में पड़ा रहा। यह खबर किसी तरह दिल्ली के 35 साल के युवा इरतिज़ा कुरैशी तक पहुंचती है। इरतिज़ा सुबह 4 बजे ही बुरारी थाने पहुंच जाते हैं और इस परिवार की मदद के लिए गुहार लगाते हैं।लेकिन पुलिस की तरफ से कहा जाता है, “हमारे पास ऐसी कोई सुविधा नहीं है। 102 या 112 पर कॉल करें।“ वो 102 नंबर पर कॉल करता है तो उसे जवाब मिलता है, "हमारे पास कोविड मरीजों के शवों के लिए कोई व्यवस्था नहीं है। हम केवल जीवित रोगियों के मामलों को हैंडल करते हैं।” 112 नंबर डायल करने पर उन्हें अजीबोगरीब चीजें बताई जाती है, "आप जस्टडायल के लिए प्रयास क्यों नहीं करते और नंबर क्यों नहीं लेते हैं?"
इरतिज़ा सामाजिक संगठनों की मदद मांगते हैं। एक संगठन तैयार होता है तो शर्त लगा देता है, शव को श्मसान के बाहर छोड़ आएंगे।ड्राइवर हाथ लगाएगा तो 8 हज़ार लगेगा। परिवार की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं थी कि वे इसे वहन कर सकें। शव भी गर्मी की वजह से खराब होना शुरू हो गया था। इरतिज़ा फिर पुलिस से गुहार करता है प्लीज़ इस परिवार में चार साल का बच्चा है,उसकी मनोदशा समझिए कुछ कीजिए। पुलिस मदद करने से फिर इंकार कर देता है और इरतिज़ा को सलाह देते हैं श्मसान घाट जाकर देखिये वहाँ कोई एम्बुलेंस होगा। इरतिज़ा तुरंत निगमबोध घाट जाते हैं। वहाँ बुरी स्थिति थी, वे घण्टों इंतजार नहीं कर सकते थे। उन्होंने वेब पोर्टल हिंदुस्तान लाइव के फरहान याहिया से मदद मांगी साथ ही डीसीपी नार्थ दिल्ली को टैग किया। वेब पोर्टल ने लाइव किया ।
एक करोड़ लोगों ने देखा। लेकिन मदद को एक ही आया, उसका भी धर्म इस्लाम था। करीब 22 घंटे की कड़ी मशक्कत, दुख और निराशा के बाद लक्ष्मण के माता-पिता को आखिरकार 'सम्मानजनक' विदाई मिलती है। चार साल का बच्चा करीब पूरे एक दिन अपने दादा-दादी की क्षत-विक्षत लाशों को देखता है और उसके पिता मदद की भीख माँगते हैं फिर भी एक आदमी मदद को नहीं आता है। यही समाज बनाया है हमने। इस तिवारी परिवार के दर्जनों मिश्र,शुक्ला, पांडेय,चौबे आदि से नाता जरूर रहा होगा । इरतिज़ा उस चार साल के बच्चे के लिए किसी सुपरहीरो से कम नहीं है। जब नफ़रत बोई जाएगी इरतिज़ा के कौम के खिलाफ तो मुझे पूरी उम्मीद है लक्ष्मण तिवारी का चार साल का बेटा आगे आकर प्रतिकार करेगा। इरतिज़ा जिंदाबाद.
-डॉ. संजय शुक्ला
महामारी के भयावहता के बीच देश में गंगा-जमुनी तहजीब के उदाहरण मिल रहे हैं। अनेक मुस्लिम युवकों ने रमजान का पवित्र रोजा तोडक़र कोरोना के बहुत गंभीर मरीजों को अपना प्लाज्मा डोनेट कर उनकी जीवन रक्षा किया है तो यह कौम जरूरतमंदों को मुफ्त ऑक्सीजन सिलेंडर भी उपलब्ध करा रहा है। राजनीतिक, धर्मार्थ, सामाजिक और युवा संगठनों से जुड़े कार्यकर्ताओं द्वारा भी महामारी की जोखिम के बावजूद कोरोना संक्रमितों को चौबीसों घंटे अस्पताल पहुंचाने, ऑक्सीजन उपलब्ध कराने, प्लाज्मा डोनेट करने और लोगों को सूखा अनाज, भोजन व दवाईयां बांटने जैसे कार्य कर रहे हैं।
भारत सदियों से समूची दुनिया के लिए मानवता, अहिंसा, परोपकार और सेवा-सुश्रुषा जैसे मानवीय गुणों के प्रेरणास्रोत रहा है। देश इन दिनों कोरोना महामारी के भीषण त्रासदी के दौर से गुजर रहा है। कोरोना महामारी जहाँ बीते एक साल से धर्म और विज्ञान को लगातार चुनौती दे रहा है वहीं यह आपदा मनुष्यता और मानवता की भी कड़ी परीक्षा ले रहा है। त्रासदी भरे दौर में लोग जहाँ अपनों के सांसों के लिये जद्दोजहद कर रहे हैं वहीं ऑक्सीजन और दवाई के आभाव में अपने प्रिय को दम तोड़ते भी देख रहे हैं।
इस खौफनाक मंजर के बीच कुछ लोगों का अमानवीय चेहरा भी समाज के सामने है जो बेहद पीड़ादायक है। देश की अमूमन पूरी आबादी इस महामारी की संत्रास को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर पर भोग रहा है। विडंबना है कि महामारी की दूसरी लहर ‘आपदा में अवसर’ तलाशने वाले कुछ लोगों के लिए इंसानियत का गला घोंटकर पैसा कमाने का जरिया बन चुका है इनके करतूतों से मानवता शर्मसार हो रही है। यह महामारी चिकित्सा क्षेत्र से जुड़े कुछ लोगों के लिए के लिए जमाखोरी, मुनाफाखोरी और कालाबाजारी का अवसर लेकर आया है। दुखद यह कि कुछ लोगों के कारण चिकित्सा जैसा मुकद्दस पेशा बदनाम हो रहा है जबकि धरती के भगवान यानि डॉक्टर और मेडिकल स्टॉफ बीते एक साल से लोगों की सांस थामने दिनरात अस्पतालों में जूझ रहे हैं।
गौरतलब है कि कोरोना संक्रमितों के बढ़ते मामलों के कारण सबसे ज्यादा दबाव स्वास्थ्य क्षेत्र से जुड़े अस्पतालों, टेस्टिंग लैब,ऑक्सीजन प्रदाता कंपनियों, दवा कंपनियों और विक्रेताओं, एंबुलेंस सेवाओं पर पड़ा है। अस्पतालों में बिस्तर, ऑक्सीजन,वेंटिलेटर और जीवन रक्षक दवाओं के आभाव में सैकड़ों लोगों के सांसों की डोर टूट रही है, परंंतु इस त्रासदी के बीच कुछ अस्पताल और डायग्नोस्टिक सेंटर कोरोना संक्रमितों और उनके परिजनों से अवैध पैसे ऐंठ रहें हैं। केंद्र और राज्य सरकारों ने कोविड मरीजों के टेस्टिंग और उपचार के लिए निजी क्षेत्रों के लिए दरें तय कर दी है लेकिन शायद ही देश के किसी शहर में इन दरों पर टेस्टिंग और उपचार हो रहा है। कोविड संक्रमण के जांच के लिए जरूरी आरटीपीसीआर ,एंटीजन और सीटी स्कैन की शुल्क सरकार द्वारा तय दर से तिगुना और पांच गुना वसूल रहे हैं।देश के कतिपय निजी अस्पतालों द्वारा कोविड मरीजों से ऑक्सीजन बेड और वेंटिलेटर के नाम पर लाखों रुपये वसूलने और पैसों के आभाव में मृतकों के शवों को बंधक बनाने जैसे अमानवीय खबरें मन को विचलित कर रही हैं। इन अस्पतालों में फार्मेसी और डिस्पोजेबल आइटम्स के नाम पर अनाप-शनाप शुल्क लिए जा रहे हैं जिसमें पारदर्शिता का आभाव है। देश और प्रदेश में कोविड संक्रमितों के जीवन रक्षा के लिए जरूरी रेमडेसिविर इंजेक्शन की काफी किल्लत है तथा इसके कालाबाजारी और जमाखोरी की खूब शिकायतें आ रहीं हैं। मध्यप्रदेश और राजस्थान के कुछ शहरों से चंद पैसों के लालच में नकली रेमडेसिविर इंजेक्शन बनाने और बेचने जैसी खबरें समाज में नैतिक पतन की पराकाष्ठा को इंगित कर रहा है। आश्चर्यजनक तौर पर मरीजों के सांसों का सौदा करने वालों में असमाजिक तत्वों के साथ डॉक्टर, मेडिकल स्टॉफ, दवा विक्रेता और मेडिकल रिप्रेंजेटेटिव की संलिप्तता उजागर हो रही है। दूसरी ओर सांसों के संकट को अवसर मान कर ऑक्सीजन की कालाबाजारी करने वालों का गोरखधंधा बदस्तूर जारी है। ऑक्सीजन सिलेंडर दुगने - तिगुने दाम पर बिक रहे हैं, संकट इतना है कि अनेक शहरों से ऑक्सीजन सिलेंडर के लूट की खबरें आ रही हैं। आपदा को कमाई का अवसर मानने वालों में एंबुलेंस संचालक भी पीछे नहीं है और वे मरीजों को अस्पताल पहुंचाने का मनमाना किराया वसूल रहे हैं तो कोरोना संक्रमितों या शवों का किराया प्रशासन द्वारा निर्धारित दर से छह गुना वसूल रहे हैं। हाल ही में एक राष्ट्रीय इलेक्ट्रॉनिक चैनल के दिल्ली में स्टिंग ऑपरेशन के दौरान एंबुलेंस संचालकों द्वारा कोरोना मरीज को घर से अस्पताल पहुंचाने के एवज में 25,000 से 50,000 रूपये वसूलने का वाकया प्रकाश में आया है।बहरहाल इस आफत ने देश के उस मिथक को तेजी से तोड़ा है जिसमें चिकित्सा को सबसे बड़ा पुण्यप्रद सेवा का क्षेत्र माना जाता था।
हालांकि स्वास्थ्य क्षेत्र में जारी मुनाफाखोरी और लूट के लिए सीधे तौर पर डॉक्टरों को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है क्योंकि अधिकांश बड़े निजी अस्पतालों का संचालन कार्पोरेट घराने या व्यवसायिक समूह कर रहें हैं जिनका उद्देश्य अर्थ उपार्जन है।
बहरहाल देश के लोग इस विभिषिका के दौर में केवल सेहत के नाम पर ही नहीं लूट रहे हैं बल्कि अन्य कारोबारियों के लूट से भी वे हलाकान हैं। कालाबाजारी रोकने के तमाम प्रशासनिक दावों के बावजूद लॉकडाउन के ठीक पहले अनाज, तेल, मसालों, जरूरी समानों, सब्जियों और फलों के कारोबारियों ने उपभोक्ताओं से जमकर मुनाफाखोरी की लेकिन प्रशासनिक अमला उदासीन बना रहा। हालिया लॉकडाउन के दौरान भी जब प्रशासन ने फेरीवालों के द्वारा राशन, अनाज, सब्जी और फल बेचने की अनुमति दी है किराना कारोबारी और स्ट्रीट वेंडर राशन सहित आलू-प्याज, सब्जियां और फल मनमाने दर पर बेच रहे हैं लेकिन प्रशासन स्ट्रीट वेंडरों पर कार्रवाई का कोई प्रावधान नहीं होने का दलील दे रही है। बहरहाल महामारी के इस आपदाकाल में जरूरत की उपभोक्ता वस्तुएं और फल व सब्जी की कीमतों में बीस से तीस फीसदी का इजाफा हो चुका है। महंगाई और मुनाफाखोरी का यह बोझ उन परिवारों के लिए बेहद त्रासदीदायक साबित हो रहा है जिनका रोजगार और व्यवसाय इस महामारी ने छीन लिया है। बहरहाल आज के दौर में सिर्फ लोगों की सिर्फ सांसें ही नहीं टूट रही है बल्कि मानवता और व्यवस्था से भी उनका भरोसा टूटने लगा है। प्रशासनिक व्यवस्था जहाँ इस लूट के सामने किंकर्तव्यविमूढ़ है वहीं समाज के हिस्से से संवेदनशीलता, सहानुभूति, सहयोग , परोपकार और उदारता के भाव लगातार क्षीण हो रहे हैं।
हालांकि इस मुश्किल दौर में ‘पीडि़त मानवता की सेवा ही सबसे बड़ा धर्म है’ इस मान्यता को साकार करने के लिए भी समाज के कुछ हाथ उठे हैं जो इस आपदा में सुकून दिला रहे हैं। महामारी के भयावहता के बीच देश में गंगा-जमुनी तहजीब के उदाहरण मिल रहे हैं अनेक मुस्लिम युवकों ने रमजान का पवित्र रोजा तोडक़र कोरोना के बहुत गंभीर मरीजों को अपना प्लाज्मा डोनेट कर उनकी जीवन रक्षा किया है तो यह कौम जरूरतमंदों को मुफ्त ऑक्सीजन सिलेंडर भी उपलब्ध करा रहा है। राजनीतिक, धर्मार्थ, सामाजिक और युवा संगठनों से जुड़े कार्यकर्ताओं द्वारा भी महामारी की जोखिम के बावजूद कोरोना संक्रमितों को चौबीसों घंटे अस्पताल पहुंचाने, ऑक्सीजन उपलब्ध कराने, प्लाज्मा डोनेट करने और लोगों को सूखा अनाज, भोजन व दवाईयां बांटने जैसे कार्य कर रहे हैं। बहरहाल हालिया दौर में मुनाफाखोरी और कालाबाजारी करने वाले मानवता के दुश्मनों के खिलाफ कड़ी कार्यवाही करने कि लिए देश में कानूनों को सख्ती से अमल में लाने और ऐसे मामलों के लिए फास्टट्रैक कोर्ट की जरूरत है।
( लेखक शासकीय आयुर्वेद कालेज, रायपुर में एसोसिएट प्रोफेसर हैं)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
मैंने कल लिखा था कि देश के राजनीतिक दल और नेता यदि अपने करोड़ों कार्यकर्ताओं को सक्रिय कर दें तो ऑक्सीजन घर-घर पहुंच सकती है। इंजेक्शन और दवाइयों के लिए लोगों को दर-दर भटकना नहीं पड़ेगा। कालाबाजारियों के हौंसले पस्त हो जाएंगे। उन्हें पकडऩा आसान होगा। मेरे सुझावों का बहुत-से पाठकों ने बहुत स्वागत किया है लेकिन आप देख रहे हैं कि हमारे नेताओं का मुख्य ध्यान किधर लगा हुआ है ?
कोरोना की तरफ नहीं, बंगाल की तरफ ! बंगाल में दर्जन भर कार्यकर्ता आपस में लड़ मरे, वह नेताओं के लिए पहला राष्ट्रीय संकट बन गया लेकिन चार हजार लोग कोरोना से मर गए, इसकी कोई चिंता उन्हें दिखाई नहीं पड़ी। बंगाल में जो हिंसा हो रही है, वह सर्वथा निंदनीय है और केंद्र सरकार की चिंता भी अनुचित नहीं है लेकिन क्या यह कोई राष्ट्रीय संकट है?
क्या यह कोरोना से भी अधिक गंभीर समस्या है? अदालतें तो सरकार को झाड़ रही हैं, उसकी लापरवाही के लिए लेकिन रोज कालाबाजारी की खबरें गर्म हो रही हैं। फर्जी इंजेक्शन और सिलेंडर पकड़े जा रहे हैं। अस्पताल के पलंगों के लिए धोखाधड़ी हो रही है। लोग अस्पतालों की सीढिय़ों पर दम तोड़ रहे हैं लेकिन हमारी उच्च और सर्वोच्च अदालतें सिर्फ चेतावनियां जारी कर रही हैं, सरकारों से कह रही हैं कि वे उनकी मानहानि न करें लेकिन उनमें इतना साहस भी नहीं है कि कालाबाजारियां और ठगों को लटकाने के आदेश जारी कर सकें।
वे यह क्यों नहीं समझतीं कि यदि हालात इसी तरह से बिगड़ते रहे तो लाचार और कुपित लोग सीधी कार्रवाई पर भी उतारु हो सकते है। मैं उन्हें फ्रांसीसी राज्य-क्रांति की याद दिलाऊं क्या? हमारी राजनीति और न्याय-व्यवस्था जैसी है, वैसी है लेकिन हमारे धर्म-ध्वजियों का क्या हाल है ? उनका हाल नेताओं से भी बुरा है। नेता लोग तो नोट और वोट के लालच में डर के मारे कभी लोक-सेवा का ढोंग भी करने लगते हैं लेकिन हमारे साधु-संत, मुल्ला और पादरी लोगों ने कौनसा अच्छा उदाहरण पेश किया है?
वे तो ईश्वर, अल्लाह और गाड के अलावा किसी के भी सामने जवाबदेह नहीं हैं। उन्हें किसी का डर नहीं है। बस, देश के सिक्ख लोग ऐसे हैं, जिनके आचरण से ये सब धर्मध्वजी सबक ले सकते हैं। सिक्खों ने सारे पाखंडियों, ढोंगियों और स्वयंसेवियों के विपरीत कोरोना मरीजों की गजब की सेवा की है।
कुंभ में डुबकी लगवा कर करोड़ों अंधभक्तों के जरिए कोरोना को गांवों तक पहुंचवाने वाले ये साधु-संत अपने मठों-मंदिर में क्यों छिपे बैठे हैं ? देश के लाखों मंदिरों, मस्जिदों, गिरजों, मठों को तात्कालिक अस्पतालों में अभी तक क्यों नहीं बदला गया है? करोड़ों-अरबों का चढ़ावा क्या दूध दे रहा है? वह कब काम आएगा ? साधु-संतों की यह अकर्मण्यता उनकी दुकानदारी तो खत्म करेगी ही, आम आदमी का ईश्वर-विश्वास भी हिला देगी।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-डॉ राजू पाण्डेय
क्या सरकार को कोविड-19 की इस विनाशक दूसरी लहर की पूर्व सूचना थी? यह प्रश्न अब भी अनुत्तरित है। पिछले कुछ दिनों से मीडिया के एक वर्ग द्वारा इस प्रश्न को यह कहते हुए महत्वहीन बनाया जा रहा है कि यह समय पिछली बातों को कुरेदने का नहीं है, अभी तो वर्तमान संकट से मुकाबला करने पर हमें सारा ध्यान केंद्रित करना है। किंतु इस प्रश्न से बचा नहीं जा सकता। बिना गलतियों को जाने, स्वीकार किए और सुधारे हम भला कैसे इस संकट का सामना कर सकते हैं? इस प्रश्न से ढेर सारे प्रश्न जुड़े हुए हैं। बेड, ऑक्सीजन और दवाओं की प्राणघातक कमी का जिम्मेदार कौन है? वैक्सीनेशन प्रक्रिया में असाधारण अव्यवस्था के लिए किसे उत्तरदायी ठहराया जाए? कुंभ तथा पाँच राज्यों में विधानसभा चुनावों के आयोजन की अनुमति किस मनोदशा में किसने दी? यदि हम "यह समय गलतियां निकालने का नहीं है" जैसी शातिर और चतुर व्यावहारिकता की आड़ में इन जरूरी सवालों को दरकिनार कर देंगे तो हजारों लोगों की दर्दनाक मौत के लिए जिम्मेदार निरंकुश शासन तंत्र और बेरहम सत्ताधीशों पर नियंत्रण कैसे स्थापित होगा? हम "सिस्टम" जैसी अमूर्त अभिव्यक्ति का प्रयोग कर रहे हैं। हममें कम से कम इतना साहस होना चाहिए कि इस संवेदनहीन और अकुशल तंत्र के कर्ताधर्ताओं से कुछ जरूरी सवाल तो पूछें और उनकी जिम्मेदारी तय करें जिससे भविष्य में ऐसी आपराधिक लापरवाही की पुनरावृत्ति न होने पाए।
प्रधानमंत्री जी के वैज्ञानिक सलाहकार के. विजय राघवन ने सरकार का पक्ष रखा है। उनका कहना है कि स्वदेशी और विदेशी वैज्ञानिकों दोनों का मानना था कि सेकंड वेव पहली वेव के बराबर या उससे कमजोर होगी। विजय राघवन के अनुसार इन सारे अनुमानों को गलत सिद्ध करते हुए यदि सेकंड वेव भयानक सिद्ध हुई है तो संभवतः इसके पीछे तीन कारण हैं। सबसे पहले तो प्रथम वेव के दौरान अनेक वर्ग जो कोरोना वायरस के एक्सपोज़र से बचे हुए थे, इस सेकंड वेव में प्रभावित हुए हैं। दूसरा कारण नए वैरिएंट्स की उपस्थिति है। तीसरा कारण लोगों द्वारा कोविड एप्रोप्रियेट बिहेवियर का पालन न करना है। श्री विजय राघवन के अनुसार पहली लहर के पूर्व की गई भविष्यवाणियों में इसे अत्यंत घातक बताया गया था और इसी को आधार मानकर हमारी प्रतिक्रिया भी त्वरित और प्रभावी रही। किंतु वैक्सीन की उपलब्धता, पहली लहर का कमजोर पड़ना तथा केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा स्वास्थ्य अधोसंरचना को नया रूप देकर विकसित करने से उत्पन्न आत्मविश्वास शायद वे कारक थे जिनके कारण हम दूसरी लहर के आकार एवं तीव्रता का अनुमान नहीं लगा पाए और इसकी भयानकता ने हमें आश्चर्य में डाल दिया। उन्होंने कहा कि मेट्रो सिटीज में किए गए सीरोपोजिटीवीटी टेस्ट्स से यह ज्ञात हुआ था कि कोविड 19 से बहुत सारे ठीक हुए लोग अब संभवतः इम्युनिटी विकसित कर चुके हैं किंतु इन आंकड़ों को पूरे महानगर की विशाल जनसंख्या का प्रतिनिधि मानना गलत था।
श्री विजयराघवन द्वारा प्रस्तुत तथ्यों के अतिरिक्त और भी तथ्य पब्लिक डोमेन में हैं जो कुछ दूसरी तस्वीर प्रस्तुत करते हैं। केंद्र सरकार द्वारा देश में कोविड-19 के प्रसार की संभावनाओं का आकलन करने के लिए एक त्रिसदस्यीय समिति का गठन किया गया है। इस समिति के अध्यक्ष एम विद्यासागर(प्रोफेसर आईआईटी हैदराबाद) ने एक साक्षात्कार में बताया है कि उन्होंने सरकार को सूचित किया था कि कोविड-19 की दूसरी लहर बन रही है। यह लहर मई माह के मध्य तक चरम बिंदु पर पहुंचेगी। उन्होंने कहा कि हमने सरकार को बताया था कि हम इस सेकंड वेव के पीक करने की तिथि के विषय में निश्चित हैं किंतु यह कितनी तीव्र होगी इसका अंदाजा हमें पूर्ण रूप से नहीं है। जब हमने अपनी रिपोर्ट तैयार की थी तब हमारा सुझाव यही था कि हमारी पहली प्राथमिकता त्वरित प्रतिक्रिया होनी चाहिए। श्री विद्यासागर ने यह स्वीकार किया कि यह सेकंड वेव उनके अनुमान से ज्यादा बड़ी है। उन्होंने कहा कि अनौपचारिक रूप से उन्होंने इस विषय में सरकार से मार्च के पहले सप्ताह में राय साझा की थी और उन्होंने अपना औपचारिक अभिमत 2 अप्रैल 2021 को सरकार को दिया था। श्री विद्यासागर का मानना है कि संभवतः सरकार इस दूसरी लहर की भयंकरता से चकित रह गई।
रॉयटर्स की तीन मई 2021 की एक रिपोर्ट के अनुसार सार्स कोविड-2 जेनेटिक्स कंसोर्टियम के 5 वैज्ञानिकों ने रॉयटर्स को बताया कि उन्होंने मार्च 2021 के प्रारंभ में ही सरकारी अधिकारियों को घातक नए वैरिएंट के विषय में जानकारी दे दी थी। किंतु सरकार ने इसके प्रसार को रोकने की दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाए और लोगों के एकत्रीकरण एवं आवाजाही पर किसी तरह के कोई प्रतिबंध नहीं लगाए गए।
देश के शीर्षस्थ वायरोलॉजिस्ट टी जैकब जॉन(पूर्व प्रोफेसर तथा एचओडी, क्लीनिकल वायरोलॉजी एंड माइक्रोबायोलॉजी, चेन्नई क्रिश्चियन कॉलेज वेल्लोर) के अनुसार कथित यूके वैरिएंट का पता सितंबर 2020 में चल गया था, साउथ अफ्रीकन वैरिएंट की जानकारी अक्टूबर 2020 में मिल गई थी और ब्राजीलियन वैरिएंट भी दिसंबर 2020 में ही डिटेक्ट हो गया था। जापान द्वारा की जा रही रूटीन जीनोम सीक्वेंसिंग से यह जानकारी मिली थी। यह हमारे लिए एक चेतावनी थी कि हम महत्वपूर्ण वैरिएंट्स के बारे में सतर्क हो जाते और उनका व्यवस्थित अध्ययन करते। दिसंबर 2020 में लैब कंसोर्टियम भी बना किंतु कुल केसेस में से 5 प्रतिशत की जीन सीक्वेंसिंग के कार्य को जरा भी गंभीरता से नहीं लिया गया। डॉ जॉन के अनुसार अब तक 30 प्रतिशत लोगों का भी टीकाकरण पूरा नहीं हो पाया है इसलिए सरकार और सरकार की सहायता कर रहे वैज्ञानिकों को अलर्ट मोड में ही रहना चाहिए था।
अनेक वैज्ञानिकों का यह कहना है कि जब हम यूरोप और अमेरिका की दूसरी अधिक विनाशक लहर को देख चुके थे और विश्व में महामारियों के इतिहास से भी अवगत थे (जिसमें दूसरी लहरों की घातकता का जिक्र मिलता है) तब कोई सामान्य मेधा वाला व्यक्ति भी यह समझ सकता था कि भारत में भी कोविड19 की यह दूसरी लहर अवश्य ही आएगी और पहले से ज्यादा घातक होगी।
इस परिप्रेक्ष्य में यह जानना आवश्यक है कि जब सरकारें दिल्ली, मुम्बई और अन्य महानगरों में पहली लहर के दौरान तैयार किए गए विशाल चिकित्सा केंद्रों को हटा रही थीं तब क्या प्रधानमंत्री जी के वैज्ञानिक सलाहकारों ने उन्हें यह बताया था कि यह अनुचित कदम है और अधिक भयानक दूसरी लहर के दौरान हमें संकट में डाल सकता है। इसी प्रकार राज्यों में प्रवासी मजदूरों के लिए बनाए गए क्वारन्टीन सेंटर्स को भी हटा दिया गया और अब वापसी कर रहे प्रवासी मजदूरों के माध्यम से संक्रमण ग्रामों में फैलने का खतरा है।
इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के उपाध्यक्ष डॉ नवजोत दहिया ने एक दैनिक समाचार पत्र को दिए गए साक्षात्कार में इस बात पर खेदमिश्रित आश्चर्य व्यक्त किया है कि जब चिकित्सक समुदाय लगातार लोगों को कोविड एप्रोप्रियेट बिहेवियर का पालन करने की हिदायत दे रहा था तब प्रधानमंत्री जी मास्किंग और सोशल डिस्टेन्सिंग की धज्जियां उड़ाते हुए विशाल चुनावी रैलियों का आयोजन कर रहे थे। उत्तराखंड में विशाल कुम्भ मेले का आयोजन हो रहा था जिसमें लाखों लोग कोविड प्रोटोकॉल का खुला उल्लंघन कर रहे थे। डॉ दहिया प्रधानमंत्री जी की आश्चर्यजनक प्राथमिकताओं का जिक्र करते हैं- जब पूरा विश्व कोरोना से निपटने की रणनीतियों पर विचार कर रहा था तब हमारे देश में फरवरी 2020 में राष्ट्रपति ट्रम्प के सम्मान में एक लाख लोगों की भीड़ इकट्ठा कर अहमदाबाद में एक चाटुकारितापूर्ण आयोजन हो रहा था जिसमें सामाजिक दूरी का मखौल बनाया जा रहा था।
कोविड-19 के आक्रमण के एक वर्ष बाद भी जहाँ प्रधानमंत्री जी चुनावी रैलियों के दौरान अपने आचरण से कोविड-19 को गंभीरता से न लेने का संदेश देते दिख रहे थे वहीं गृह मंत्री जी की मान्यता यह थी कि कोरोना की दूसरी लहर के लिए चुनावों का आयोजन उत्तरदायी नहीं है। जबकि उत्तराखंड के मुख्यमंत्री जी माँ गंगा की कृपा पर इतने आश्रित थे कि मानवीय प्रयत्नों और सतर्कता उपायों का उनकी दृष्टि में कोई महत्व नहीं था। इधर उत्तरप्रदेश में नृशंसतापूर्वक पंचायत चुनावों का आयोजन हो रहा था जिसके बाद लगभग 135 चुनाव कर्मियों की कोरोना संक्रमण से मृत्यु और चुनाव ड्यूटी में लगे लगभग 2000 पुलिस कर्मियों के संक्रमित होने के समाचार हैं। इलाहाबाद हाइकोर्ट को स्वतः संज्ञान लेकर राज्य चुनाव आयोग को नोटिस जारी करना पड़ा है। यदि अन्य राज्यों की भांति उत्तरप्रदेश सरकार अधिकाधिक टेस्टिंग पर भरोसा करती तो संक्रमित लोगों तथा संक्रमण से जान गंवाने वाले लोगों की सही संख्या के विषय में अंदाजा होता किंतु दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो रहा है। गांवों में संक्रमण के खतरनाक विस्तार और ऑक्सीजन की कमी से लोगों की मौतों की खबरों के बीच उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री जी का एक असंवेदनशील बयान चर्चा में है जिसके अनुसार उत्तरप्रदेश के किसी भी निजी और सरकारी अस्पताल में ऑक्सीजन की कमी नहीं है, कहीं कोई अव्यवस्था नहीं है और अफवाह फैलाकर माहौल बिगाड़ने वालों पर एनएसए के तहत कार्रवाई कर उनकी संपत्ति जप्त की जाए।
के. विजयराघवन यदि कहते हैं कि जनता पहली लहर के कमजोर पड़ने के बाद कोविड एप्रोप्रियेट बिहैवियर के प्रति लापरवाह हो गई और वैक्सीन आ जाने के बाद देश में निश्चिंतता का माहौल बन गया जिसके कारण दूसरी लहर विकराल बन गई तो यह सवाल भी अवश्य पूछा जाएगा कि प्रधानमंत्री जी और उनकी मंत्रिपरिषद के सदस्यों ने कोविड को समाप्त मानकर अपनी कामयाबी का जश्न मनाना प्रारंभ कर दिया, क्या इससे जनता में गलत संदेश नहीं गया?
आदरणीय प्रधानमंत्री जी ने 28 जनवरी 2021 को वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की बैठक में दम्भोक्ति करते हुए कहा - "महामारी से निपटने की भारत की क्षमता के बारे में प्रारंभिक ग़लतफहमियों के बावजूद, भारत अति सक्रिय और भागीदारी समर्थक दृष्टिकोण के साथ आगे बढ़ा है और कोविड विशिष्ट स्वास्थ्य अवसंरचना को सुदृढ़ बनाने के लिए काम कर रहा है, उसने महामारी से निपटने के लिए अपने मानव संसाधन को प्रशिक्षित किया है और बड़े पैमाने पर तकनीक का इस्तेमाल कर मामलों की टेस्टिंग और ट्रैकिंग कर रहा है। भारत में कोरोना के खिलाफ जंग एक जन आंदोलन बन गई है और भारत अपने ज्यादा से ज्यादा नागरिकों की जान बचाने में सफल रहा है । भारत की इस सफलता का वैश्विक असर होगा क्योंकि विश्व की 18 प्रतिशत आबादी वहां रहती है और यहां महामारी पर प्रभावी नियंत्रण ने मानवता को एक बहुत बड़ी त्रासदी से बचा लिया है। उन्होंने इस बात का जिक्र किया कि 150 से ज्यादा देशों को टीकों की आपूर्ति की गई और भारत आज कई देशों को ऑनलाइन प्रशिक्षण देकर, पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों की जानकारी देकर, टीके और टीकों की अवसंरचना मुहैया कराकर उनकी मदद कर रहा है । उन्होंने बताया कि दो मौजूदा “मेड इन इंडिया” टीके उपलब्ध कराने के अलावा और टीकों पर भी काम चल रहा है जिनके बाद भारत विश्व की ज्यादा बड़े पैमाने पर और ज्यादा तेजी से मदद करने में सक्षम हो जाएगा।"
निश्चित ही यदि आदरणीय प्रधानमंत्री जी कुछ कम आत्ममुग्ध होते तो हम आज टीकों की कमी से जूझ रहे अस्तव्यस्त टीकाकरण अभियान को लेकर चिंतित नहीं होते जो अनेक कारणों से विवादों में है। हमने इंग्लैंड, अमेरिका और यूरोपीय संघ की भांति वैक्सीन के अग्रिम ऑर्डर्स दिए होते और वैक्सीन विषयक अनुसंधान को अतिरिक्त फण्ड देकर बढ़ावा दिया होता। हम कोविड 19 टीकाकरण हेतु आदरणीया वित्त मंत्री जी द्वारा प्रावधान किए गए 35,000 करोड़ रुपयों का पारदर्शी इस्तेमाल कर रहे होते और यह सुनिश्चित करते कि देश के प्रत्येक नागरिक को निःशुल्क वैक्सीन पहली प्राथमिकता के आधार पर यथाशीघ्र मिलेगी।
अभी तो हम लगभग 25 लाख डोज़ प्रतिदिन बना रहे हैं। यदि हम 90 करोड़ लोगों का टीकाकरण करना चाहते हैं तो हमें 180 करोड़ खुराक की जरूरत होगी। वर्तमान उत्पादन क्षमता के अनुसार हमें इसमें 720 दिन लगेंगे। जब हमारी उत्पादन क्षमता सीमित है तब क्या हमें 18-45 वर्ष आयु के लोगों के लिए टीकाकरण 1 मई से प्रारंभ करने की घोषणा करनी थी। आज स्थिति यह है कि 14 राज्यों में यह अभियान टीकों की कमी के कारण बाधित हो गया है।
क्या 18-45 वर्ष आयु के लोगों में कोई निर्धन नहीं है? फिर इनके लिए निःशुल्क वैक्सीन का प्रावधान क्यों नहीं किया गया है? इस आयु वर्ग के लोगों को निःशुल्क वैक्सीन देने का जिम्मा क्यों राज्य सरकारों पर छोड़ा गया है?क्या इस आयु वर्ग के लोग केवल राज्यों के नागरिक हैं देश के नहीं? क्या केंद्र सरकार की नीतियां 50 प्रतिशत वैक्सीन की प्राप्ति के लिए राज्य सरकारों के बीच अनुचित प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा नहीं दे रही हैं? क्या वैक्सीन के लिए अब प्राइवेट सेक्टर और राज्य सरकारों में होड़ नहीं मचेगी?
देश के स्वास्थ्य मंत्री जी ने 7 मार्च 2021 को कहा- वी आर इन द एंड गेम ऑफ द कोविड-19 पैनडेमिक इन इंडिया। इस दिन का उनका वक्तव्य प्रधानमंत्री जी की दूरदर्शिता और वैक्सीन मैत्री की पहल को समर्पित था।
इससे बहुत पहले भी 24 अप्रैल 2020 को प्रधानमंत्री जी द्वारा लगाए गए अविचारित लॉक डाउन की उपयोगिता सिद्ध करने की हड़बड़ी में भारत सरकार ने एक प्रेजेंटेशन दिया था। इस प्रेजेंटेशन में नीति आयोग के सदस्य और कोविड-19 का मुकाबला करने हेतु बनाए गए 11 एम्पॉवर्ड ग्रुप्स में से ग्रुप1 के प्रमुख डॉ वी के पॉल ने एक ऐसी स्लाइड का प्रयोग किया था जिसके अनुसार लॉक डाउन से मिले लाभों के कारण हम कोविड-19 कर्व को फ्लैटन करने में कामयाब होंगे। मई 2020 के पहले सप्ताह से कोविड-19 के केसेस में गिरावट प्रारंभ होगी तथा 16 मई 2020 को भारत में कोविड केसेस की संख्या शून्य होगी। 16 मई 2020 को भारत में कोविड19 के 4987 मामले थे। आगे जो कुछ हुआ वह दुःखद इतिहास का एक भाग है। बाद में डॉ वी के पॉल ने (जो अब केंद्र सरकार की कोविड19 कमेटी ऑन मेडिकल इमरजेंसी के प्रमुख हैं) इस स्लाइड पर सफाई भी दी।
बहरहाल यह तो तय है कि सरकार की आत्ममुग्धता का दौर लंबे समय तक जारी रहा है और अब कुछ रिपोर्टों के हवाले से खबर आ रही है कि फरवरी और मार्च 2021 में जब देश बड़ी तेजी से कोविड-19 की दूसरी लहर की गिरफ्त में आता जा रहा था तब सरकार को इस विषय पर सलाह देने के लिए गठित नेशनल साइंटिफिक टास्क फोर्स ऑन कोविड-19 की कोई बैठक तक आयोजित नहीं हुई। रिपोर्टों के अनुसार वर्ष 2021 में 11 जनवरी को इस टास्क फोर्स की बैठक हुई फिर इसकी अगली बैठकें 15 एवं 21 अप्रैल को हुईं लेकिन तब तो देश दूसरी लहर की चपेट में आ चुका था। रिपोर्ट में यह भी बताया गया गया है कि आईसीएमआर द्वारा कोविड-19 का ट्रीटमेंट प्रोटोकाल 3 जुलाई 2020 के बाद से अपडेट नहीं किया गया है। तब रेमडेसेवीर इन्वेस्टिगेशनल थेरेपी का एक भाग थी। बाद में डब्लूएचओ ने नवंबर 2020 में एक स्टेटमेंट जारी कर कहा कि वह कोविड-19 के इलाज में रेमडेसेवीर के प्रयोग के विरुद्ध है। उसने कहा कि इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि रेमडेसेवीर कोविड19 के रोगियों की जान बचाने या अन्य फायदे देने में समर्थ है। रिपोर्ट के अनुसार यदि आईसीएमआर द्वारा ट्रीटमेंट प्रोटोकाल अपडेट कर लिया गया होता तो शायद रेमडेसेवीर की किल्लत और कालाबाजारी की स्थितियां नहीं बनतीं। इन रिपोर्टों में बताए गए तथ्य अत्यंत महत्वपूर्ण हैं और यदि ये गलत हैं तो सरकार को इनका खंडन करना चाहिए।
यह भी आश्चर्यजनक है कि लगभग एक वर्ष पूर्व जब कोविड मामलों की कुल संख्या केवल 2000 प्रतिदिन के आसपास थी, नीति आयोग के चेयरमैन और एम्पॉवर्ड ग्रुप -6 के अध्यक्ष श्री अमिताभ कांत और उनके सहयोगी सदस्यों ने 1 अप्रैल 2020 को हुई ग्रुप की दूसरी बैठक में ऑक्सीजन की कमी की आशंका जताई थी। इसके बाद डिपार्टमेंट फॉर प्रमोशन ऑफ इंडस्ट्री एंड इंटरनल ट्रेड को ऑक्सीजन सप्लाई सुनिश्चित करने का जिम्मा दिया गया और इसके सचिव श्री गुरुप्रसाद महापात्रा की अध्यक्षता में 9 सदस्यीय समिति भी बनाई गई थी। आज जब हम लगभग पौने चार लाख मामले प्रतिदिन की स्थिति पर हैं तब सरकार को यह बताना चाहिए कि उसने ऑक्सीजन का उत्पादन और वितरण सुनिश्चित करने हेतु एक वर्ष में कौन से कदम उठाए। यह महत्वपूर्ण विषय श्री रामगोपाल यादव(सांसद, समाजवादी पार्टी) की अध्यक्षता में हुई पार्लियामेंट्री स्टैंडिंग कमेटी ऑन हेल्थ की बैठक में 16 अक्टूबर 2020 को भी उठाया जा चुका था। बहुचर्चित और विवादित पीएम केअर फण्ड का उपयोग कोविड-19 से लड़ाई के दौरान ऑक्सीजन के निर्माण और आपूर्ति, वेंटिलेटर एवं अन्य आवश्यक उपकरणों की खरीद तथा अन्य कोविड विषयक अधोसंरचना के निर्माण हेतु किस प्रकार किया गया, इस विषय में भी सरकार को विस्तृत जानकारी देनी चाहिए।
कोविड-19 की दूसरी लहर को विनाशक बनाने में सरकार की आत्ममुग्धता, लापरवाही और कुप्रबंधन की महती भूमिका रही है। जो तथ्य, आंकड़े और दृश्य आदरणीय प्रधानमंत्री जी को रुचिकर लगते हैं वही उनके सम्मुख प्रस्तुत किए जा रहे हैं। न प्रधानमंत्री जी में सच सुनने का साहस है, न उनके सलाहकारों में सच बताने का। यह स्थिति देश के लिए चिंताजनक है।
(रायगढ़, छत्तीसगढ़)
-गिरीश मालवीय
कल शाम IDBI बैंक को बेचने पर मुहर लगा दी गयी आईडीबीआई एक सरकारी बैंक था, जो 1964 में देश में बना था. शेयर बाजार के मित्र बता रहे हैं कि जमकर इनसाइडर ट्रेडिंग हुई है. कुछ लोगो को पहले से मालूम था कि आज IDBI के डिसइन्वेस्टमेंट की घोषणा होने वाली है. कल प्रधानमंत्री ने कैबिनेट की बैठक की तो लगा कोरोना काल में जनता को राहत देने वाला कोई फैसला होगा तब ऐसा फैसला लिया है.
एक बात बताइये ये फैसला आपने दो साल पहले क्यों नहीं लिया ?....जब आपने LIC के सर पे बंदूक रख कर उससे 21000 करोड़ रुपये का निवेश करवाया था और उसे जबरदस्ती 51 फीसदी हिस्सेदारी खरीदने को मजबूर किया था ?......तब ही बेच देते ! लेकिन तब कैसे बेचते ? क्योंकि तब तो IDBI बैंक एनपीए के मामले में सबसे खराब प्रदर्शन करने वाला बैंक बन गया था, उस वक्त आईडीबीआई बैंक का सकल एनपीए 27.95% तक पहुंच गया था जिसका मतलब है कि बैंक द्वारा लोन किए गए प्रत्येक 100 रुपये में से 28 रुपये एनपीए में बदल गया. तब आपने LIC को आगे कर दिया कि इसे बचाओ नहीं तो बैंक डूबने का सिलसिला शुरू हो जाएगा. उसे लगातार चार सालों से घाटा हो रहा था ओर इस साल उसे सालो बाद फायदा होना शुरू हुआ तो झट से उसे बीच चौराहे पर बोली लगाने की वस्तु बना दिया गया.
LIC से IDBI में हिस्सेदारी खरीदवाने के लिए भी खूब खेल खेले गए .......दरअसल एलआईसी उस वक्त आईडीबीआई के शेयर नहीं खरीद सकती। उस पर किसी एक कंपनी में अधिकतम 15 फीसदी शेयर खरीदने की शर्त लागू थी और एलआईसी के पास आईडीबीआई के 10.82 प्रतिशत हिस्सेदारी पहले से ही थी. लेकिन सारे नियम बदल दिए गए.... उसकी भागीदारी 51 प्रतिशत करवा दी गयी और उस से 21 हजार करोड़ डालने का दबाव बनाया गया.
ये पैसा आप और हम ही मिलकर के भरते हैं जब हम पॉलिसी का प्रीमियम चुकाते है. एलआईसी पॉलिसीधारकों के पैसे से ही खड़ा हुआ है और उस पैसे की सुरक्षा उसका प्राथमिक दायित्व हैं, तो एक डूबते हुए बैंक में नियंत्रण की हिस्सेदारी खरीदना एक समझदारी भरा निर्णय नहीं हो सकता था. लेकिन उस वक़्त भी घाटे के सौदे मे हमारे खून पसीने की बचत को होम किया गया.
एलआईसी सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में पहले से ही एक बड़ा निवेशक रहा है और भारत के 21 सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में से 16 में 9% से अधिक हिस्सेदारी रखता है तो उसके बावजूद उसे सर्वाधिक NPA वाले बैंक में इतनी बड़ी हिस्सेदारी के लिए मजबूर किया गया.
जब एलआईसी के बड़ी हिस्सेदारी खरीदने पर सेबी के पूर्व चेयरमैन एम दामोदरन से पूछा गया तो उन्होंने स्पष्ट कहा कि, इससे ना तो एलआईसी को फायदा होगा ना आईडीबीआई बैंक को ...आज उनकी बात सच निकली.. पता नहीं लोग अब भी क्यों नहीं समझ पा रहे हैं.
-कृष्ण कांत
कल इलाहाबाद हाईकोर्ट में जो हुआ, वह भारत के हर नागरिक को जरूर जानना चाहिए।
यूपी सरकार ने अस्पतालों में लेवल 2 और लेवल 3 के खाली बेड की संख्या बताने के लिए पोर्टल शुरू किया है। कोविड सिचुएशन पर सुनवाई के दौरान सरकार ने हाईकोर्ट को बताया कि प्रदेश में आइसोलेशन, आईसीयू व एसडीयू बेड की कोई कमी नहीं है।
जब कोर्ट सुनवाई कर रही थी, उस समय भी पोर्टल पर खाली बेड दिखाए जा रहे थे। कोर्ट ने अदालत में ही वकील अनुज सिंह से हेल्पलाइन नंबर पर फोन करने को कहा। उन्होंने नंबर डायल किया गया और कोर्ट के सामने ही एक अस्पताल ने जवाब दिया कि कोई बेड खाली नहीं है। जबकि पोर्टल दिखा रहा था कि अस्पताल में बेड खाली हैं। यानी इस पोर्टल में गलत जानकारी दी जा रही थी। बीच अदालत योगी सरकार का झूठ पकड़ा गया।
सरकार के दावे और जमीनी हकीकत में ये अंतर देख हाईकोर्ट ने सख्त टिप्पणियां करते हुए कहा अस्पतालों में ऑक्सीजन की कमी से मरीजों की मौत आपराधिक कृत्य है। यह किसी नरसंहार से कम नहीं है।
आपको ये भी जानना चाहिए कि झूठ का ये कारोबार पूरे देश की सरकारें कर रही हैं। दिल्ली से लेकर बेंगलुरु तक हर जगह पोर्टल बनाकर उस पर गलत सूचनाएं दी जा रही हैं। योगी तो कह रहे हैं कि किसी चीज की कोई कमी नहीं है और जो भी सुविधाओं की कमी की ‘अफवाह’ फैलाएगा, उसकी संपत्ति जब्त कर लेंगे। लेकिन वे जो कर रहे हैं, उसे कोर्ट ने नरसंहार जैसा कृत्य बताया है।
हाईकोर्ट ने ठीक कहा है कि यह नरसंहार है और देश की केंद्र सरकार से लेकर सभी ज्यादातर राज्य सरकारें इसमें शामिल हैं। हमारे आपके नेता हमारी कल्पनाओं से ज्यादा बर्बर और निकृष्ट हो चुके हैं।
-गिरीश मालवीय
विदेश से जो मेडिकल मदद आ रही है उसको लेकर मोदी सरकार कितनी लापरवाह है ये भी समझ लीजिए 25 अप्रैल को मेडिकल हेल्प पहली खेप भारतीय बंदरगाहों पर पुहंच गयी थी उसके वितरण के नियम यानि SOP स्वास्थ्य मंत्रालय ने 2 मई को जारी किए। यानी एक हफ्ते तक आई मेडिकल मदद एयरपोर्ट, बंदरगाहों पर यूं ही पड़ी रही। यानि केंद्र में बैठी मोदी सरकार को इस बारे में SOP बनाने में ही सात दिन लग गए कि इसे कैसे राज्यों और अस्पतालों में वितरण करे जबकि अगर आमद के साथ ही यह राज्यों में पहुंचना शुरू हो जाती तो कई मरीजों की जान बचाई जा सकती थी।
एक ओर बात है भारत सरकार विदेशों से आ रही मेडिकल मदद रेडक्रॉस सोसायटी के जरिए ले रही है, जो एनजीओ है। मेडिकल सप्लाई राज्यों तक न पहुंच पाने के सवाल पर रेडक्रॉस सोसायटी के प्रबंधन का कहना है कि उसका काम सिर्फ मदद कस्टम क्लीयरेंस से निकाल कर सरकारी कंपनी एचएलएल (HLL) को सौंप देना है। वहीं, HLL का कहना है कि उसका काम केवल मदद की देखभाल करना है। मदद कैसे बांटी जाएगी, इसका फैसला केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय करेगा। स्वास्थ्य मंत्रालय इस बारे में चुप्पी साधे हुए है......
अभी भाई Dilip Khan की पोस्ट पर पढ़ा कि गुजरात के गांधीधाम के SEZ में जहा देश के कुल दो तिहाई ऑक्सीजन सिलेंडर बनते हैं वहा पिछले 10 दिनों से SEZ के सभी प्लांट्स में ताला बंद है. वजह ये है कि सरकार ने औद्योगिक ऑक्सीजन के इस्तेमाल पर पाबंदी लगाई थी. लेकिन, आदेश में इन सिलेंडर निर्माता ईकाइयों को भी शामिल कर लिया गया. अभी हालत ये है कि सरकार विदेशों से भीख मांग रही है या फिर दोगुने-चौगुने दाम पर ऑक्सीजन सिलेंडर ख़रीद रही है. जो अपने कारखाने हैं, वहां ताला जड़कर बैठी हुई है.
मतलब आप सिर पीट लो कि ऐसे क्राइसिस में भी लालफीताशाही किस तरह से हावी है।
-प्रकाश दुबे
परदे के पास बैठकर सिनेमा देखने वाले दर्शकों के प्रिय अभिनेता मिथुन चक्रवर्ती टोपी लगाकर बांकी अदा में चुनाव प्रचार करते पाए गए। अचानक तबियत बिगडऩे पर ऊटी के अपने घर-होटल में आराम करने खिसक गए। मतगणना के दो दिन पहले सहसा कोलकाता के राजभवन में प्रकट हुए। फिलमी कयास अफवाह बनकर लोगों की जबान पर पहुंचा-मिठुदा को मुख्यमंत्री बनाया जा सकता है। गुलूबंद इशारा यह, कि ममता की रवानगी तय है।
राजभवन में मिथुन की आवभगत भी रोबदार तरीके से हुई। शहर कोलकाता और वहां भी राजभवन पहुंचने की चटपटी चर्चा को मतगणना का दीमक चट कर गया। आप जानें कि नक्सलबाड़ी आंदोलन के समर्थन की वैचारिक शुरुआत छोडक़र डिस्को डांसर बनकर ठुमके लगाने वाला कलाकार राजभवन काहे जा पहुंचा? तबियत बिगडऩे पर चिंतित राज्यपाल ने मिथुन की मिजाजपुर्सी की थी। ठीक होने पर चाय पीने बुलाया था। चुनावी फिल्म खत्म होने से पहले चाय पर चर्चा कर ली। इस बहाने प्रचार हुआ कि तबियत की अनदेखी कर जीत के लिए कोश्प्चािश् की। श्रेय याद दिलाने और भावी मुख्यमंत्री के रूप में प्रचार का अलबत्ता किसी को फायदा नहीं हुआ।
छोड़ मीठा गुड़, तू वहां तक उड़
बंबइया फिल्मों में सुर नहीं जमा। दिल्ली वालों की सियासी-सरगम में शामिल होकर बाबुल सुप्रियो लोकसभा सदस्य और राज्यमंत्री बने। अच्छे दिन कट रहे थे। अचानक दिल्ली वालों का आदेश मिलने पर टालीगंज के चुनावी कीचड़ में कूदना पड़ा। बुझे मन से भद्रलोक के बांग्ला चित्रलोक पहुंचे। ममता बनर्जी सरकार के सूचना मंत्री अरूप बिश्वास से चुनावी पटखनी खाकर बाबुल प्रसन्न हैं। राज्यमंत्री की कुर्सी बची।
बाबुल की तरह चुनाव मैदान में उतारे गए लगभग सभी सांसद पहलवान हारकर खुश हैं। पार्टी और अपनी हार से दिल्ली का घर बचा। अंग्रेजी के आधा दर्जन अखबारों में काम करने और भाजपा पक्ष में किताबें लिखने वाले स्वपन दासगुप्त एकमात्र अपवाद हैं। तारकेश्वर से विधानसभा चुनाव लडऩे के लिए राज्यसभा सदस्यता से त्यागपत्र दिया। दुनियादारी नहीं सीखी? अजी, मुफ्त में नैतिकता का पुण्य मिला। गनीमत है कि उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडु ने राज्यसभा से त्यागपत्र मंजूर नहीं किया।
थाम तुरही, छोडक़र मीठा पपइया
भाषण देने और रैली करने से किसी को रोका नहीं था। इसका मतलब यह नहीं, कि लुटियन के टीले पर रहने वालों को संसद और सांसदों की सेहत की चिंता नहीं होती। कोरोना महामारी के डर से लुटियन इलाके में संसद अधिवेशन और संसदीय समितियों की बैठकों में कटौती हो जाती है। संसद की वर्तमान इमारत कुछ सालों की मेहमान है। चुनाव लडऩे वाले और लड़ाने वाले भी इन दिनों फुर्सत हैं। हालात की बदहाली के बावजूद कुछ सांसद देश की बेहाली पर चर्चा की मांग उठा रहे हैं। समितियों की बैठक के लिए सभापति बार बार पत्र लिखते हैं। खतोकिताबत कर परेशान करने वालों में जयराम रमेश शामिल हैं। दिल्ली के अस्पतालों में बिस्तर और प्राणवायु यानी आक्सीजन के लिए हाहाकार मचा है। मंत्रियों और कुछ सांसदों के महामारी के चपेट में आने के बावजूद ये नादान मांग करने से बाज नहीं आते।
काट तन मोटी व्यवस्था का
आस्ट्रेलिया दोस्त देश है। वहां के अखबार ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की कार्यकुशलता पर तीखी कलम चलाई। भारतीय उच्चायुक्त ने तुरंत अखबार को चिट्ठी लिखकर प्रतिवाद किया। न अखबार ने ध्यान दिया और न अभिव्यक्ति की आजादी के हिमायती देश की सरकार ने। बल्कि भारत से हवाई यातायात पर रोक लगा दी। गाजियाबाद वासी कवि गजलकार कुंअर बेचैन महामारी की चपेट में आए। शब्द और भाव के धनी कवि का बेटा प्रगीत आस्ट्रेलिया से आने के लिए छटपटाता रहा। न तो प्रगीत की प्रधानमंत्री से दोस्ती है और न विदेशमंत्री जयशंकर को उनकी गुहार सुनने की फुर्सत मिली।
कवि के प्रशंसकों के प्रयास परवान नहीं चढ़े। कवि और कारोबारी में यही अंतर है। इस भेद को कुंअर बेचैन भलीभांति जानते थे। चल ततइया रचना में कवि ने कहा था-काट तन मोटी व्यवस्था का जो धकेले जा रही है देश का पइया। चल ततइया, है जहां पर कैद पेटों में रुपइया। व्यवस्था का पहिया नहीं हिला। बेटे की राह तकते कवि के प्राण पखेरू उड़ गए।
भास्करवारी के सारे शीर्षक उनकी रचना चल ततइया से। कवि की स्मृति को समर्पित हैं।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
-गोपाल राठी
तस्वीर में महिला सीधी-सादी लग रही है न। लगती है न एक साधारण सी महिला। रसायन शास्त्र में स्नातक। वर्ष 2004 तक एक हाईस्कूल में पढ़ाया। फिर राजनीति में शामिल। वर्तमान में, केरल की वामपंथी सरकार की स्वास्थ्य मंत्री-के.के.शैलजा। पूरे केरल में इन्हें टीचर अम्मा के नाम से जाना जाता है, शैलजा टीचर। 2018 के निपाह वायरस को संक्रमण से होने वाले मौत के जुलूस को मजबूती से रोक दिया था। फिर इसके ठीक दो साल बाद, जिस तरह कोरोना का मुकाबला कर केरल मॉडल को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता हासिल करवाई- वह निश्चित ही इतिहास में दर्ज होगा।
इस कोरोना काल में वे रात 12 बजे कार्यालय छोड़ती है। सभी अधिकारियों को रवाना कर फिर खुद प्रस्थान करती है। घर पर भी रात 2.30-3.00 बजे तक फाइलें देखती-निपटाती है। फिर सुबह सात बजे ऑफिस पहुंच जाती है। उनका व्यक्तिगत मोबाइल नंबर न जाने कितने ही आम लोगों को पता है। निपाह के दौरान ही केरल के राज्यभर में चमगादड़ों का आतंक पैदा हुआ। अब कोरोना के दौरान बिल्ली तक को देख तो आस-पड़ोस के लोग घबराकर फोन करने लगें। उन्होंने स्वयं फोन उठाकर सभी को आश्वस्त किया।
किसी को साथ में लेने के बजाय अकेले ही तमाम अस्पतालों में घूमती है। बस चेहरे पर एक हल्की सी मुस्कान। प्रचार की रौशनी से सैकड़ों कदम दूर। एक नियम के तौर पर, रोजाना केवल एक बार पत्रकारवार्ता बुलाती हैं। छिपाने के लिए नहीं, बल्कि जानकारी देने के लिए। श्रेय भी नहीं लेना चाहती। बस कहती है, 'I don’t do anything special. I have a degree in chemistry so I have some knowledge about molecules and medicines. Otherwise, it is always a team effort' (मैं कुछ भी विशेष नहीं कर रही हूं। मेरे पास रसायन शास्त्र की डिग्री है, इसलिए मुझे अणुओं और दवाओं के बारे में कुछ जानकारी है। अन्यथा, यह हमेशा एक टीम प्रयास है।)
ब्रिटेन की प्रतिष्ठित मैगजीन ने केरल की स्वास्थ्य मंत्री के के शैलजा को ‘टॉप थिंकर 2020’ चुना, कोरोना काल में उनके प्रयासों से पाया ये सम्मान मिला। इससे पहले भी शैलजा द्वारा कोरोना को रोकने की दिशा में किए गए प्रयासों को तारीफ मिली है।
शैलजा ने कोरोना अभियान में आम लोगों का साथ देकर इस बीमारी को मिटाने का हरसंभव प्रयास किया।
ब्रिटिश पत्रिका प्रोस्पेक्ट ने पूरी दुनिया में केरल की स्वास्थ्य मंत्री के के शैलजा को ‘टॉप थिंकर 2020’ के रूप में नामित किया है। इस मैगजीन में दार्शनिकों, बुद्धिजीवियों, कलाकारों, वैज्ञानिकों और लेखकों को पाठकों द्वारा मतदान के आधार पर और विशेषज्ञों व संपादकों की पैनल की राय के आधार पर चुना गया है।
प्रोस्पेक्ट की लिस्ट में न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री जेसिंडा आर्डर्न को नंबर 2 पर रखा गया है। (बाकी पेज 5 पर)
शैलजा का नाम कोरोना काल के दौरान राज्य में समय रहते उचित कदम उठाने के लिए शामिल किया गया। पत्रिका के अनुसार, इस लिस्ट को अंतिम रूप देने के लिए 20,000 से अधिक वोट डाले गए। केके शैलजा इस लिस्ट में एकमात्र भारतीय महिला हैं। इस मैगजीन ने शैलजा की प्रशंसा करते हुए लिखा, ‘साल 2018 में भी शैलजा ने केरल में फैले निपाह वायरस का डटकर सामना किया था।’
ब्रिटेन के प्रतिष्ठित अखबार ‘द गार्जियन’ ने भी कोरोना काल में शैलजा द्वारा किए गए कामों की प्रशंसा की थी। संयुक्त राष्ट्र ने ष्टह्रङ्कढ्ढष्ठ-19 महामारी की सीमाओं पर काम कर रहे लोक सेवकों को सम्मानित करने के लिए आयोजित एक कार्यक्रम में अपनी बात रखने के लिए शैलजा को आमंत्रित किया था। यह भारत के एक प्रांत केरल की स्वास्थ्य मंत्री की कहानी है जो अभी हाल ही में हुए विधानसभा चुनाव में वामपंथी मोर्चे की उम्मीदवार के रूप में 61000 मतों से विजयी हुई है।
कॉमरेड शैलजा टीचर अम्मा को बहुत-बहुत बधाई।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
दिल्ली के पास फरीदाबाद के विधायक नीरज शर्मा का एक वीडियो देखकर मैं दंग रह गया। नीरज ने बड़ी हिम्मत की और वे एक ऐसे गोदाम में घुस गए, जहां ऑक्सीजन के दर्जनों सिलेंडर खड़े हुए थे। उन्हें देखते ही उस गोदाम के चौकीदार भाग खड़े हुए। नीरज ने अपने वीडियो में यह सवाल उठाया है कि फरीदाबाद और गुडग़ांव में लोग ऑक्सीजन के अभाव में दम तोड़ रहे हैं और यहां इतने सिलेंडरों का भंडार कैसे जमा हुआ है?
हो सकता है कि ये सिलेंडर किसी ऑक्सीजन पैदा करने वाली कंपनी के हों और किसी कालाबाजारी दलाल के न हों लेकिन नीरज शर्मा की पहल का परिणाम यह हुआ कि उस गोदाम के मालिक ने वे सिलेंडर तुरंत ही हरियाणा सरकार के एक अस्पताल को समर्पित कर दिए। नीरज ने उस गोदाम पर छापा इसलिए मारा था कि उनके विधानसभा क्षेत्र के कई लोगों ने आकर शिकायत की थी कि उनके परिजन ऑक्सीजन के अभाव में दम तोड़ रहे हैं और फलां जगह सिलेंडर का भंडार भरा हुआ है।
यहां असली सवाल यह है कि हमारे देश के पंच, पार्षद, विधायक और सांसद नीरज शर्मा की तरह सक्रिय क्यों नहीं हो जाते? सारे राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं की संख्या लगभग 15 करोड़ है। यदि ये सब एक साथ जुट जाएं तो एक कार्यकर्ता को सिर्फ 14-15 लोगों की देखभाल करनी होगी। याने अपने अड़ोस-पड़ोस के सिर्फ 3-4 घरों की जिम्मेदारी वे ले लें तो सारा देश सुरक्षित हो सकता है।
वे मरीजों के लिए ऑक्सीजन, इंजेक्शन, पलंग और दवाई का पर्याप्त इंतजाम कर सकते हैं। प्रशासनिक अधिकारी उनकी मांग पर अपेक्षाकृत जल्दी और ज्यादा ध्यान देंगे। आम लोगों का मनोबल भी अपने आप ऊंचा हो जाएगा। लगभग इसी तरह का काम अलवर (राजस्थान) के एक विधायक संजय शर्मा ने किया है। उन्होंने कलेक्टर के दफ्तर पर धरना देकर मांग की है कि अलवर के अस्पतालों में ऑक्सीजन तुरंत पहुंचाई जाए। यदि हमारे जन-प्रतिनिधि सक्रिय हो जाएं तो कालाबाजारी पर भी तुरंत लगाम लग सकती है।
हमारी अदालतें और सरकारें इस भयंकर अपराध पर सिर्फ जबानी जमा-खर्च कर रही हैं। इस तरह के जनशत्रुओं को कैसे दंडित किया जाता है, यह मैंने अपनी आंखों से अफगानिस्तान में देखा है। अरब देशों में ऐसे नरपशुओं को सरेआम कोड़ों से पीटा जाता है, उनके हाथ काट दिए जाते हैं और उन्हें फांसी पर लटका दिया जाता है। उनकी दुर्गति देखकर भावी अपराधियों की रुह कांपने लगती है। यदि हमारी सरकारें और पार्टियां इन जनशत्रुओं का इलाज तुरंत नहीं करेंगी तो उसके सारे इलाज-इंतजाम नाकाम हो सकते हैं।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-रवीश कुमार
सबसे पहले अदालत डॉ. हर्षवर्धन से पूछे कि वे किन वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर महामारी के खात्मे का एलान कर रहे थे जब महामारी उसी वक्त दस्तक दे रही थी? क्या डॉ हर्षवर्धन व्हाट्स एप यूनिवर्सिटी का फार्वर्ड पढ़ कर यह बयान दे रहे थे? इसी एक सवाल पर उनसे घंटों पूछा जा सकता है। जब देश का स्वास्थ्य मंत्री ही कहेगा कि महामारी ख़ात्मे पर है तो जनता को बेपरवाह होने का दोष नहीं दिया जा सकता है।
सुप्रीम कोर्ट को अब स्वास्थ्य के मामले में केंद्र सरकार के वकीलों से बात बंद कर देनी चाहिए। उनसे पूछे जाने वाले सवाल दीवार से पूछे जाने के जैसा है। सुप्रीम कोर्ट जल्दी अपने इजलास में देश के स्वास्थ्य मंत्री डॉ हर्षवर्धन को बुलाए और हर दिन घंटों खड़ा रखे। डॉ हर्षवर्धन से पूछे गए सवालों के जवाब से जनता को सही जानकारी मिलेगी। हम सभी को पता चलेगा कि हजारों करोड़ों के मंत्रालय के शीर्ष पर बैठा यह शख्स क्या कर रहा था और इस वक्त क्या कर रहा है। अब बात आमने-सामने होनी चाहिए। सबसे पहले अदालत डॉ. हर्षवर्धन से पूछे कि वे किन वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर महामारी के खात्मे का ऐलान कर रहे थे। जब महामारी उसी वक्त दस्तक दे रही थी? क्या डॉ हर्षवर्धन व्हाट्स एप यूनिवर्सिटी का फार्वर्ड पढ़ कर यह बयान दे रहे थे? इसी एक सवाल पर उनसे घंटों पूछा जा सकता है। जब देश का स्वास्थ्य मंत्री ही कहेगा कि महामारी ख़ात्मे पर है तो जनता को बेपरवाह होने का दोष नहीं दिया जा सकता है।
सुप्रीम कोर्ट अपने सामने डॉ हर्षवर्धन से जब सवाल करेगा तो सरकार के झूठ की परतें खुलेंगी। हमारे जज साहिबान डॉ हर्षवर्धन को बुलाकर पूछें कि जब पिछले साल महामारी आई तब से लेकर अब तक केंद्र सरकार के अस्पतालों में कितने नए डॉक्टर और अन्य हेल्थ वर्कर भर्ती किए गए? फार्मा से लेकर नर्सिंग के लोगों को कितनी नौकरियां दी गईं? कितने वेंटिलेटर वाले एंबुलेंस का इंतज़ाम किया गया? इस वक्त केंद्र सरकार के अस्पतालों और मेडिकल कालेजों में डॉक्टरों की कितनी वेकेंसी है ? इस वक्त केंद्र सरकार के अस्पतालों में कितने वेंटिलेटर हैं? पिछले एक साल में इन अस्पतालों में कितने वेंटिलेटर खऱीद कर लगाए गए? चालू हैं? कितने गोदाम में पड़े हैं? खरीदें गए और लगाने के सवाल अलग होने चाहिए। एक वेंटिलेटर को चलाने के लिए एक पूरी टीम होती है। क्या उस टीम की नियुक्ति हुई? ऐसे कितने लोगों को केंद्र सरकार ने अपने अस्पतालों में बहाल किया है?
सुप्रीम कोर्ट डॉ. हर्षवर्धन से पूछे कि किसी बड़े अस्पताल को बिना आक्सीजन उत्पादन के प्लांट लगाए कैसे लाइसेंस दिया जाता है? जब अस्पताल अपना प्लांट लगा सकते हैं तो पहले से प्लांट क्यों नहीं लगाए गए? कोविड आने के बाद इस बात की कब कब समीक्षा की गई, कितने निर्देश दिए गए? दिल्ली के बड़े अस्पतालों के पास अपना प्लांट क्यों नहीं था? पीएम केयर के जरिए प्लांट लगाने के फैसले की नौटंकी से अलग स्वास्थ्य मंत्री से सीधा सवाल किया जाना चाहिए। उनके मंत्रालय ने क्या किया? पीएम केयर इस देश का स्वास्थ्य मंत्री नहीं है? यह भी पूछा जाना चाहिए कि कोविड को लेकर हमारे देश में कितने रिसर्च पेपर छपे हैं? सरकार ने कितने रिसर्च किए है? हम वायरस के बारे में नई समझ क्या रखते हैं? इन सब सवालों के लिए अलग सा दिन रखे। हमें क्यों नहीं पता चला कि यह वायरस इतनी बड़ी तबाही लाने वाला है और जनता को क्यों नहीं अलर्ट किया गया?
और अंत में एक बात। हम आभारी हैं अपनी अदालतों के। जज साहिबानों के। उन्होंने उस वक्त ख़ुद को कहने बोलने से नहीं रोका जब लोग बेआवाज दम तोड़ गए। अस्पताल के बाहर आक्सीजन और वेंटिलेटर के लिए तड़प-तड़प कर मर गए। यह हत्या है जज साहिबान। हत्या की गई है भारत के नागरिकों की। उन्हें मार दिया गया। आपकी आवाज में इसकी दर्द तो है मगर इंसाफ नहीं है। हमें दर्द नहीं चाहिए। इंसाफ चाहिए। लोग अस्पताल की कमी के कारण मार दिए गए उनकी मौत का इंसाफ आपकी कुर्सी से आती आवाज से नहीं हो रहा है। इतने लोग मर गए और किसी एक को सज़ा नहीं हुई है। यह नरसंहार है। यह वक्त कविता लिखने और नारे गढऩे का नहीं है। मैं देश की अदालतों की दहलीज पर खड़ा होकर पूछना चाहता हूं कि इंसाफ कहां है?
यह सही है कि अगर अदालतें न बोलतीं तो एक अरब से अधिक की आबादी वाला देश चुपचाप श्मशान में बदल जाता। इस निराश क्षण में जजों की आवाज़ ने आक्सीजऩ का काम किया मगर जान नहीं बची। आज अस्पताल में ऑक्सीजन नहीं है। अदालत में है। लेकिन जान तो वहां बचनी है जहां ऑक्सीजन होना चाहिए था। अफसोस हमारे जज साहिबान की चीखों, चित्कारों और नाराजगी का जीरो असर हुआ है। लोग फिर भी मर रहे हैं। इसलिए हमारी अदालतें जो इस वक्त कह रही हैं वो राहत से अधिक कुछ नहीं है।
उसी तरह की राहत है जैसे मैं लोगों की मदद की अपील फेसबुक पर पोस्ट कर देता हूं। मदद मांगने वालों को अच्छा लगता है मगर ज्यादातर मामलों में कुछ नहीं होता है। हम जजों के आभारी हैं लेकिन उनका काम केवल आवाज बनने के स्तर तक ही सीमित रहा। एक जिद्दी, नकारी और हत्यारी सरकार को अपनी जगह से हिलाना कितना असंभव है यह आप देख रहे होंगे अगर दिखाई दे रहा होगा तो। यह एक तथ्य है कि लोग बिना ऑक्सीजन और वेंटिलेटर के मर गए और अब भी मर रहे हैं।जो नहीं मरे हैं वो लाश में बदल गए हैं। उनसे दवा से लेकर टेस्ट की अनाप-शनाप कीमतें वसूली जा रही हैं। लोग मिट ही नहीं गए, बिक भी गए जज साहब। लूट मची है चारों तरफ।
सुप्रीम कोर्ट से एक नागरिक की गुजारिश है। आप अपने इजलास में स्वास्थ्य मंत्री डॉ हर्षवर्धन को खड़ा करें। और खड़ा ही रखें। कुर्सी पर न बैठने दें। ऑनलाइन सुनवाई में भी। हर दिन छह घंटे खड़ा रखें। सवाल करें।
-कृष्ण कांत
बिहार में अब तक कोरोना से 96 डॉक्टरों की मौत हो चुकी है। पहली लहर में यहां 50 डॉक्टरों की मौत हुई थी। दूसरी लहर में अब तक 46 डॉक्टर जान गवां चुके हैं। देश भर का यही हाल है। सरकारों द्वारा लाई गई इस त्रासदी में डॉक्टर भी दयनीय स्थितियों में जान गवां रहे हैं।
बिहार के मधुबनी सदर अस्पताल की एक नर्स की कोरोना से मौत हो गई। नालंदा की रहने वाली नर्स 7 माह की गर्भवती थी और ड्यूटी के दौरान उसे कोरोना हो गया था और उसकी हालात बेहद खराब हो गई थी। नाजुक हालात में उन्हें डीएमएसएच रेफर कर दिया गया लेकिन ऑक्सीजन सिलेंडर और बेड न मिलने के कारण उसकी मौत हो गई। इस घटना से दुखी सदर अस्पताल के डॉक्टर और नर्स हड़ताल पर चले गए। उनकी मांग है कि कोविड केयर सेंटर और अस्पतालों में सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम कराए जाएं। पानी, ग्लब्स, और कोरोना काल में में ड्यूटी भत्ता दिया जाए, तभी वे काम पर लौटेंगे।
साल भर में ये निकम्मी सरकारें ग्लब्स और ऑक्सीजन जैसी मामूली व्यवस्था नहीं कर पाई हैं और नेता भाषणबाजी करते हैं कि वे भारत को दुनिया का सिरमौर बना देंगे।
इलाहाबाद के नामी डॉक्टर जेके मिश्रा जिस स्वरूपरानी अस्पताल में पांच दशक तक लोगों का इलाज किया, जिनके पढ़ाए हुए तमाम छात्र उसी अस्पताल में डॉक्टर हैं, उन्हें कोरोना हुआ तो देखभाल के लिए कोई डॉक्टर तक नहीं मिला। उनकी डॉ. पत्नी रमा मिश्रा के हिस्से आया ये दुख ज्यादा बड़ा है कि न उनके छात्र उनके काम आए, न ही मैं एक डॉक्टर के तौर पर उनकी जान बचा सकी। उनके सामने ही उनके पति ने दम तोड़ दिया।
डॉ रमा मिश्रा बताती हैं, ‘पॉजिटिव आने के बाद हम लोग होम क्वारंटीन में ही थे। उनका ऑक्सीजन लेवल कम था। डॉक्टरों ने ही सलाह दी कि अस्पताल में भर्ती करा दीजिए। बेड की बहुत किल्लत थी। बेड का तो इंतजाम कर दिया, लेकिन उसके बाद के जो हालात थे, वो बेहद डरावने थे। अस्पताल के कोविड वॉर्ड में सिर्फ एक ही बेड मिल सका। उस रात मैं फर्श पर ही पड़ी रही। अगले दिन बेड मिला। वहां रात में हमने जो देखा, वो बेहद डरावना था। रात भर मरीज चिल्लाते रहते थे। कोई उन्हें देखने वाला नहीं था। बीच-बीच में जब नर्स या डॉक्टर आते थे, तो डांटकर चुप करा देते थे या कोई इंजेक्शन दे देते थे। उनमें से कई लोग सुबह सफेद कपड़े में लपेटकर बाहर कर दिए जाते थे, यानी उनकी मौत हो चुकी होती थी।’
पटना के पुनपुन प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र के प्रभारी डॉक्टर अमीरचंद प्रसाद ने 23 तारीख को बेटी की शादी की थी। फिर कोरोना संक्रमित हो गए। रविवार की रात पटना के इंदिरा गांधी आयुर्विज्ञान संस्थान में उनका निधन हो गया।
दिल्ली के मैक्स अस्पताल के डॉक्टर विवेक ने कुछ दिन पहले ही आत्महत्या कर ली। हाल ही में उनकी शादी हुई थी। पत्नी दो महीने के गर्भ से है। बताया गया कि डॉ विवेक आईसीयू में तैनात थे, वहां लगातार मरीजों की मौत हो रही थी। डॉ. विवेक इससे बहुत परेशान थे।
कोई डॉक्टर सिर्फ भगवान नहीं होता। ऐसा तो डॉक्टरों के सम्मान में बोला जाता है। डॉक्टर भी हमारी तरह इंसान हैं। उनका भी अपना परिवार होता है। वे भी नागरिक होते हैं। उसकी भी जान वैसी ही होती है जैसी किसी दूसरे व्यक्ति की। लेकिन एक डॉक्टर तमाम लोगों की जान बचा सकता है, इसलिए वह ज्यादा खास है।
डॉक्टर लोगों की जान बचाते हैं। डॉक्टर की जान कौन बचाए? जान बचाने के लिए दवा चाहिए, ऑक्सीजन चाहिए। इन्हीं चीजों की कमी से डॉक्टर लोगों की जान नहीं बचा पा रहे हैं। इन्हीं चीजों की कमी से डॉक्टर अपने साथियों की जान नहीं बचा पा रहे हैं।
यह विचित्र देश है। हमारा लोकतंत्र ठगों, चोरों, लुटेरों, बहुरुपियों और जल्लादों का स्वर्ग है। दो सवा दो लाख मौतों के बाद भी किसी की जवाबदेही तय नहीं हो पा रही है। कोई नहीं पूछ रहा है कि अस्पताल के डॉक्टर एक साल बाद भी दस्ताने और मास्क के लिए हड़ताल क्यों कर रहे हैं? इसका जिम्मेदार कौन है?
गोदी मीडिया के कब्र पर लेटकर भी नेताओं का भजन करने से ज्यादा कुछ नहीं कर सकते! लेकिन आप नागरिक हैं। ये देश आपका है। आपको राजनीति नहीं करनी है। व्यवस्था सबसे पहले जान आपकी ही लेती है। आप सवाल क्यों नहीं पूछते?
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पांच राज्यों के चुनाव परिणामों के बाद आशा थी कि सरकार, संचार माध्यमों और जनता का ध्यान पूरी तरह से कोरोना को काबू करने पर लगेगा लेकिन आज भी हताहतों के जो आंकड़े आ रहे हैं, वे दुखद और निराशाजनक हैं। यह ठीक है कि जगह-जगह तालाबंदी होने से मरीजों की संख्या में थोड़ी कमी बताई जा रही है लेकिन वह कितनी सही है, कुछ पता नहीं।
हजारों-लाखों लोग तो ऐसे हैं, जिन्हें पता ही नहीं चल रहा है कि वे संक्रमित हुए हैं या नहीं ? वे डर के मारे डाक्टरों के पास ही नहीं जा रहे हैं। ज्यादातर लोगों के पास पैसे ही नहीं हैं कि वे डाक्टरों की हजारों रु. की फीसें भर सकें। अस्पतालों में उनके भर्ती होने का सवाल ही नहीं उठता। अस्पतालों का हाल यह है कि सेवा-निवृत्त राजदूत, जाने-माने फिल्मी सितारे और नेताओं के रिश्तेदार तक अस्पताल में भर्ती होने के इंतजार में दम तोड़ रहे हैं।
जो लोग अपने रसूख के दम पर किसी अस्पताल में पलंग पा जाते हैं, वे भी कराह रहे हैं। जो लोग महलनुमा बंगलों में रहने के आदी हैं और घर से बाहर वे पांच-सितारा होटलों में ही रुकते हैं, ऐसे लोग या तो कई मरीजों वाले कमरों में पड़े हुए हैं या अस्पताल के बरामदे में लेटे हुए हैं। कई लोग भर्ती नहीं हो पाते तो वह अपनी कार या ठेले पर पड़े-पड़े ऑक्सीजन लेकर अपनी जान बचा रहे हैं लेकिन अफसोस है कि परेशानी के इस माहौल में हमारे देश में ऐसे नरपशु भी हैं, जो दवा और इंजेक्शनों की कालाबाजारी बड़ी बेशर्मी से कर रहे हैं।
पिछले 15-20 दिनों में ऐसी खबरें रोज आ रही हैं। लोग ऑक्सीजन की कमी से कई शहरों में रोज मर रहे हैं और उसके सिलेंडरो की सरे-आम कालाबाजारी हो रही है। मेरी समझ में नहीं आता कि हमारी अदालतें और सरकारें क्या कर रही हैं? वे विशेष अध्यादेश जारी करके इन लोगों को फांसी पर तुरंत क्यों नहीं लटकाती?
मुझे अमेरिका, चीन, यूरोप और जापान आदि देशों में बसे भारतीय मित्रों ने बताया कि वे करोड़ों रु. इक_ा करके सैकड़ों ऑक्सीजन-यंत्र और इंजेक्शन भेज रहे हैं, हमारे उद्योगपतियों ने अपने कारखानों की ऑक्सीजन अस्पतालों के लिए खोल दी है और सरकार दावा कर रही है कि ऑक्सीजन की कमी नहीं है, फिर भी देश के अस्पतालों में अफरा-तफरी क्यों मची हुई है ?
अब यह कोरोना शहरों से निकलकर गांवों तक पहुंच गया है और मध्यम और निम्न वर्ग में भी उसकी घुसपैठ हो गई है। जिन लोगों के पास खाने को पर्याप्त रोटी भी नहीं है, उनके इलाज का इंतजाम मुफ्त क्यों नहीं होता और तुरंत क्यों नहीं होता ? देश के करोड़ों समर्थ लोग आगे क्यों नहीं आ रहे हैं ? क्या कोरोना से उन्होंने कोई सबक नहीं सीखा ? सब यहीं धरा रह जाएगा। खाली हाथ ही ऊपर जाना है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-पंकज मुकाती
बंगाल में दो मई को पश्चिम से सूरज निकला (भाजपाइयों और मोदी समर्थकों के लिए)। क्योंकि वे सब तो पूर्व दिशा की तरफ मुंह किये हाथों में जल लिए खड़े थे। उन्हें भरोसा नहीं अति भरोसा था अपने 'देवता' पर। उनकी सभाओं पर। उनके उस प्रवचन पर जिसमे उन्होंने दावा किया था कि दो मई दीदी गई। हाथों में जल का वो कलश धरा ही रह गया क्योंकि सूरज पश्चिम से उदय हुआ।
ममता की तृणमूल कांग्रेस भारी मतों से जीती। सीधे दो सौ पार। भाजपा के साथ खुद ममता भी हैरान। शाम होते-होते कमल दल ने इस बात से संतुष्टि कर ली कि खुद ममता तो हार गई। और हमें भी ठीक ठाक सीट मिली। इसमें कोई शक भी नहीं। पर जब अश्वमेघ यज्ञ की घोषणा हो और उसमे सिर्फ धुंआ और थोड़ी चिंगारी निकलेगी तो मज़ाक तो उड़ेगा ही। नहीं तो अंधेरे में चिंगारी भी शाबाशी का ही काम है।
पश्चिम बंगाल चुनाव में दरससल ममता नहीं जीती। मोदी ने उन्हें जितवा दिया। ममता के नाम के स्टार प्रचारक तो खुद मोदी साबित हुए। हर सभा में मोदी ने जिस अंदाज़ में ममता, दीदी की हुंकार भरी, उतना ही ममता का नाम और ऊपर उठता गया। वे सभाओं में ममता का नाम सौ से ज्यादा बार लेते रहे।
मोदी ने ममता को इस कदर लपेटा कि आम बंगाली भी ममता के पिछले सारे कुशासन को भूल सिर्फ दीदी और बंगाली गर्व को देखने लगा। हमेशा कि तरह मोदी ने विरोधी को दुष्ट बताने कि कोशिश की और अपने हर काम की तरह दुष्टता के बखान में भी शीर्ष पर गए। आम बंगाली ने इसे अपना अपमान माना। और ममता के प्रति सहानुभूति से ज्यादा वो मोदी और उनके करीबियों में दुश्मन देखने लगा। यदि बंगाल की ममता के प्रति सहानुभूति या सम्मान होता तो ममता खुद नहीं हारती। उनके सामने खड़े सुवेंदु अधिकारी की जमानत जब्त हो जाती।
नरेंद्र मोदी जब भाजपा के स्टार प्रचारक के रूप में होते हैं, तो वे फिर अपने पद की गरिमा और देश के प्रति जिम्मेदारी भूल सिर्फ और सिर्फ भाजपा के एक ऐसा नेता बन जाते हैं, जिसे सिर्फ जीत चाहिए। इसकी कीमत चाहे जो हो। पद की गरिमा, शब्दों के संयम, राजनीतिक मर्यादा सब कुछ वे दांव पर लगा देते हैं।
ऐसे वक्त में जब पूरे देश में कोरोना संक्रमण से लोग तड़प रहे थे, मोदी ने खुद को भाजपा के सेनापति के रूप में बनाये रखा। वे सभाएं करते रहे, लोगों को
वोट देने का न्योता देते रहे। लोकतंत्र के जश्न में शामिल होने के ट्वीट करते रहे। उनकी ये जो युद्धनीति थी वो बीजेपी के सेनापति के रूप में भले उचित थी, पर प्रधानमंत्री के तौर पर उनकी छवि गैर जिम्मेदार और लापरवाह की बनती गई। जिसे वे अंत तक समझ ही नहीं पाए। इसने भी उनकी छवि को तगड़ा झटका दिया। उनके प्रति मतदाताओं में सम्मान घटा। इस घटे सम्मान से ही ममता की जीत की राह आसान हुई।
पश्चिम बंगाल का उपमुख्यमंत्री मुस्लिम होगा, कोलकाता का मेयर भी मुस्लिम होगा। बंगाल मुस्लिमों के हवाले होगा। ऐसे जुमलों ने भी भाजपा को नुकसान पहुँचाया। इस नीति ने भी बहुत काम नहीं किया। बंगाल में 82 सीटें मुस्लिम बहुल है। उस राज्य में हिन्दू-मुस्लिम बंटवारा संभव ही नहीं।
क्योंकि बंगाल में भाजपा के माँ दुर्गा और ताज़िये के जुलुस का जो मामला खड़ा हुआ, इसे किसी भी बंगाली ने गंभीरता से नहीं लिया। क्योंकि वो इस मामले में ममता के साथ ही था। स्थानीय नेताओं के साथ मुद्दों को समझने के बजाय शाह-मोदी ने बंगाल में भी मुद्दे ऊपर से फेंके जो नहीं चले। इसके पहले भी दिल्ली, झारखण्ड और बिहार में ऐसे मुद्दों से वे मात खा चुके हैं। भाजपा को इस पर सोचना चाहिए था कि ममता के सामने कौन ? कोई नहीं? इसने एक खाली मैदान दिया। मोदी देश के नेता हो सकते हैं, पर राज्यों में उनके प्रति भरोसा नहीं है। राज्यों में स्थानीय नेता जरुरी है।
भाजपा ने बंगाल में भी वही हिन्दू-मुस्लिम, मुख्यमंत्री को दुष्ट बताने और बाहरी और स्थानीय जैसे मुद्दों से खेलने की कोशिश की। पर हिन्दू -मुस्लिम कार्ड ने मुस्लिमों को ममता के प्रति और मजबूत किया। दूसरा बाहरी और स्थानीय वाले मुद्दे में भी ममता ने पटकनी दे दी। बंगाली जन को वो ये समझाने में सफल रही कि बाहरी तो भाजपा है। भाजपा के रणनीतिकारों ने भी गैर बंगालियों पर कुछ ज्यादा ही फोकस कर लिया। हिंदीभाषी मतदाताओं में से कितनों ने भाजपा को वोट दिया इसका विश्लेषण अभी बाकी है, पर बंगालियों को ममता से चिढ के बावजूद तृणमूल से जोड़े रखा।
इस चुनाव के नतीजों के बाद क्या उम्मीद की जाए कि नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री वाले जिम्मेदार रूप में लौटेंगे। देश को कोरोना संकट से निजात दिलाने की कोशिश तेज करेंगे। हालांकि बंगाल का परिणाम आते ही रात को उन्होंने मीटिंग करके इस बात के संकेत दे दिए कि प्रधानमंत्री कार्यालय फिर सक्रिय हो गया है।
बेहतर तो ये होता कि वे खुद को तीसरे चरण के बाद ही चुनाव प्रचार से बाहर कर लेते। प्रधानमंत्री के पास भी बेहतर सलाहकार नहीं है या फिर वे किसी की सुनते नहीं। यदि वे तीसरे चरण के बाद खुद ये घोषणा करते कि मैं पश्चिम बंगाल चुनाव प्रचार से खुद को अलग कर रहा हूँ। इस वक्त देश को मेरी ज्यादा जरुरत है। इस एक घोषणा से उनके प्रति पश्चिम बंगाल में भी सम्मान बढ़ता। पर वे चूक गए। वैसे भी कोई भी प्रधानमंत्री राज्यों के चुनाव में उतना अंदर तक नहीं उतरता जितना नरेंद्र मोदी। अब भी वक्त है आगे के चुनावों में वे खुद के लिए एक सीमा तय कर लें। हालाँकि उनके आसपास जमे उनकी स्तुतिगान करने वाले कभी ऐसा होने नहीं देंगे। (POLITICSWALA.COM)
-चिन्मय मिश्र
"अब नहीं कोई बात खतरे की
अब सभी को सभी से खतरा है |"
जौन एलिया
ऐसा माना जाता है कि संकट में ही व्यक्ति और समाज का असली चेहरा सामने आता है | कोविड महामारी के इस दूसरे दौर ने भारतीय समाज के उस भ्रम को पूरी तरह से तोड़ दिया है कि हमारा समाज एक सभ्य, शिष्ट, संस्कारवान व अहिंसक समाज है | इस महामारी ने हमें समझाया है कि भारतीय का समाज का एक तबका/वर्ग अब पहले से अधिक दानवी, अशिष्ट, असभ्य, हिंसक व खूंखार होने के साथ ही साथ निर्लज्जता की सीमाओं को लांघ चुका है ! निम्न चार घटनाओं पर गौर करिए |
पहली है आगरा की | जहाँ पर एक तस्वीर में एक महिला, अपने पति को बचाने के लिये, उसके मुँह से मुँह लगाकर साँस देते हुए उसे जीवित रखने की असफल कोशिश कर रही है | वह एक दर्जन से ज्यादा अस्पताल घूम आई है | कुछ हाथ नहीं आया | उसे मालूम ही होगा कोरोना बेहद संक्रामक है | इस तरह से सांस देने से स्वयं की जान खतरे में पड़ जाएगी | पर प्रेम में विचार की गुंजाइश, नहीं होती वहां तो सिर्फ भावना होती है | साथ जीने और मरने की | यह तस्वीर एक मायने में सिर्फ नए आगरा, जिसे अभी तक अपने ताजमहल पर नाज था, की ही नहीं बल्कि पूरे भारत के लिए एक नया प्रतीक है, कि कैसे एक अस्पताल के ठीक बाहर व्यक्ति बिना आक्सीजन के मर सकता है | क्या भारतीय शासन-प्रशासन (सिस्टम नहीं) में अपने नागरिकों को लेकर वैसी तड़प नहीं है जैसी इस तस्वीर में रेणु सिंघल की अपने पति रवि सिंघल के लिए दिखाई पड़ रही है ?
दूसरी घटना भी उत्तरप्रदेश की ही है | यहां एक अत्यंत वृद्ध व्यक्ति अपनी मृत पत्नी को साईकिल पर पैडल के ऊपर कुछ इस तरह लादकर (जी हां लादकर ही ठीक शब्द है) ले जा रहे हैं, जैसे कि किसी मृत पशु या सामान भरे बोरे को ले जाया जाता है | मृतका का शरीर जमीन से घिसट रहा है | यह बुजुर्ग भारतीय नागरिक किस मनःस्थिति में होंगे इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती | आजादी के सात दशक बाद शव को ले जाने तक की कोई व्यवस्था नहीं | यहाँ पर शासन-प्रशासन ही नहीं, समाज भी असफल और निर्दयी नजर आ रहा है | याद रखिये अपवाद हर जगह होते हैं |
तीसरी घटना या स्थिति तो पूरे भारत में व्याप्त है | यह है श्मशान गृहों व घाटों में लाशों के जलने का न टूटने वाला सिलसिला | पहले बनारस का मणिकर्णिका घाट ही अपवाद था, जहाँ पर कि लगातार चौबीसों घंटे चिताएं प्रज्जवलित रहती हैं | अब पूरे भारत के लिए यह सामान्य घटना हो गई है | शवदाह गृह छोटे पड़ रहे हैं, युद्धस्तर पर नए प्लेटफार्म बनाए जा रहे हैं | बिजली से चलने वाले शवदाह गृहों की भट्टियां स्वयं ही जल गई हैं और लगातार शवदाह की वजह से चिमनियां गरम होकर पिघल गई हैं, गिर गई हैं | परन्तु मृत्यु के सरकारी आंकड़े इस सबको झुठला रहे हैं |
चौथी घटना भी बेहद त्रासद है | दिल्ली में अब कुत्तों के लिए निर्मित शवदाह गृह में मनुष्यों का अंतिम संस्कार होगा | कोरोना ने प्राणियों के बीच का अंतर ही समाप्त कर दिया, खासकर मृत्यु के बाद | यह एक अकल्पनीय स्थिति है और इसके बावजूद सरकारी आकड़े स्वीकार कर ही नहीं रहे हैं कि इतनी अधिक संख्या में मौते हुई हैं | तो अब मनुष्य और कुत्ते के बीच का भेद भी खत्म हो गया है | वैसे पहले भी आम जनता को मनुष्य समझने की गलती हमारा अधिकांश शक्तिशाली वर्ग जिसके पास सत्ता व समृद्धि है नहीं करता था | वर्ना लोग इस महामारी में वापस अपने घर जो कि सैकड़ों किलोमीटर दूर हैं, क्यों लौटते ? घटनाएं तो अनगिनत हैं |
पश्चिम में महामारियों की व्यापकता और वीभत्स्ता दिखने के लिए अक्सर पिशाचों/चुडैलों का सहारा लिया जाता रहा है | हम उन्हें एक काल्पनिक प्राणी की संज्ञा देते हैं | परन्तु भारत की वर्तमान स्थिति को देखते हुए लगता है कि अब पिशाच होने के लिए मृत्यु जरुरी नहीं है | कोई व्यक्ति जीते जी पिशाच हो सकता है | वह मनुष्य का रक्तपान कर सकता है | अपने आसपास नजर दौड़ाइये, हर तरफ पिशाचनुमा मनुष्य नजर आएँगे | ऐसा लगने लगा है कि पिशाच अब मनुष्य से अलग कोई योनि नहीं बल्कि मनुष्यों की ही एक प्रजाति है | यह तय है कि वे संख्या में कम हैं, अपवाद हैं, परन्तु कमोवेश उनका पूरी मानवता पर कब्जा हो गया है | पिशाचों के बारे में विस्तार में जाएं तो पता चलता है कि, "पिशाच यूं तो एक काल्पनिक प्राणी है, जो प्राणियों के जीवन-सार खाकर जीवित रहते हैं, आमतौर पर उनका खून पीकर | हालांकि विशिष्ट रूप से इनका वर्णन मरे हुए किन्तु अलौलिक रूप से अनुप्रमाणित जीवों के रूप में किया गया | कुछ अप्रचलित परंपराएं विश्वास करती थीं कि पिशाच (रक्त चूषक) जीवित लोग थे |" अगर हम इसकी आखिरी पंक्ति में यह परिवर्तन कर दें कि, "कुछ वर्तमान प्रचलित परंपराएं विश्वास करती हैं कि पिशाच (रक्त चूषक) जीवित लोग हैं |" तो क्या यह आपत्तिजनक है ? जैसा कि मैंने पहले भी लिखा कि यहाँ सामान्यीकरण नहीं किया जा रहा है | नव पिशाच मनुष्यों में से निकला एक वर्ग है |
सोचिए | लोग आक्सीजन के बिना मर रहे हैं | वहीं दूसरी ओर आक्सीजन का एक सिलेंडर 1 लाख रु. तक में बेचा जा रहा है | शासन के स्तर पर आरोप प्रत्यारोप लगाए जा रहे हैं | एक राज्य दूसरे राज्य में जा रहे आक्सीजन टेंकर को जबरन रोक रहा है | सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय तक हैरान हैं | ऐसा तब जबकि अधिकांश सरकारी विज्ञप्तियां बता रहीं है कि देश में आक्सीजन की कोई कमी नहीं है | और आगे बढ़िये अस्पताल पहुंचिए | वैसे तो वहां जगह मिल जाए तो, अपनी किस्मत को सराहिये | अन्दर जाने के पहले ही निजी अस्पताल के शुल्क देखते ही हम किस्मत को कोसने लगते हैं | अपवादों को छोड़ दें, तो जिस तरह का अनापशनाप लाभ कमाया जा रहा है और संवेदनाओं को ताक पर रखा जा रहा है, वह किसी साधारण मनुष्य का काम नहीं है, उसके लिए तो (आप समझ ही गए होंगे) वही बनना पड़ता है | परन्तु कोई विकल्प नहीं है | सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं को जिस तरह से पिछले वर्षों में नष्ट किया गया, उसके परिणाम हमारे सामने हैं | हर ओर मौत ही मौत है, और मर्मातक चीत्कारें हैं | पर कुछ लोगों पर इस सबका कोई प्रभाव नहीं पड़ता | क्यों ? आप ही बताइये |
जब अस्पताल पहुंचेंगे तो दवाइयां भी लगेगीं | 800 रु. वाला इंजेक्शन 15000 रु. से लेकर 50,000 रु. में भी मिल जाए तो गनीमत | इससे कम का मिलेगा तो उसमें पुरानी बोतल में ग्लूकोज भरा होगा | साँस लेने में मददगार सारे उपकरण 5 गुना से ज्यादा महंगे हो चुके हैं| परन्तु केंद्र शासन, राज्य शासन और स्थानीय प्रशासन की और से अब तक कोई भी ठोस कार्यवाही सामने नहीं आई | इन नव पिशाचों की बन आई है | अब शवदाह भी ठेके पर देना शुरू हो गया है, प्रशासन इसे नकार रहा है | कंधे देने के लिए 5000 रु. तक मांगे जा रहे हैं | तो क्या इन्हें मनुष्य कहा जा सकता है ? सोचिए और खुद को ही उत्तर दीजिए | यहीं पर इस बात पर गौर करना आवश्यक है कि यह पैशाचिकी प्रवृत्ति समाज के ऊपरी तबके या सतह तक सीमित नहीं रह गई है | इसकी एक व्यापकता वास्तव में झुरझुरी पैदा कर देती है | सांस तोड़ते मरीज को अस्पताल ले जाने के लिए एम्बुलेंस वाले औसतन 300 रु. प्रति किलोमीटर मांग रहे हैं, खासकर दिल्ली जैसे महानगरों में | महामारी से पहले यह 12 रु. प्रति किलोमीटर था | घर से 50 किलोमीटर दूर ले जाने का 15000 से 25000 रु. तक | क्या कोई सामान्य मनुष्य एक दम तोड़ते व्यक्ति से मोलभाव कर सकता है | उसकी उखड़ती सांसें भी अब विचलित नहीं कर पा रहीं हैं |
इस सबके बाद, या कहें तो सबसे पहले सरकार और प्रशासन पर बात करना चाहिए | परन्तु उन पर क्या बात करें | वे दूरदर्शी लोग हैं कुछ भी अनजाने में नहीं करते | कोरोना की पहली लहर के बाद से ही यह तय था कि यह जल्दी जाने वाला नहीं है | कम से कम सन् 2022 तक तो बना ही रहेगा | पर आज जो परिस्थितियां हमारे आपके सामने हैं, उसे देखकर साफ लगता है कि शासन-प्रशासन की प्राथमिकता में से जनता नदारद है | वैसे एक और तबका है, हमारे वैज्ञानिकों का | कोरोना को लेकर यह आजतक किसी एक बात पर सहमत नहीं हुआ | एक दवाई की कमी हुई तो उसे अनुपयोगी ठहरा दिया गया | आक्सीजन की कमी हुई तो समझाया गया कि इसका दुरूपयोग हो रहा है | अस्पताल में बिस्तरों कि कमी हुई तो कहा गया कि भर्ती होने की जरुरत ही नहीं है | यह सब पहले से तय क्यों नहीं था ?
वैसे पिशाच की एक और परिभाषा है, "एक प्रकार का भूत या प्रेत जिनकी गणना हीन देव योनियों में होती है तथा जो वीभत्स कार्य करने वाले माने जाते हैं | उक्त के आधार पर वीभत्स तथा जघन्य कार्य करने वाला व्यक्ति | किसी काम या बात के सन्दर्भ में वैसा ही उग्र और भीषण रूप रखने वाला जैसा पिशाचों का होता है |" तो अपने आस पास देखिए | मूल्यांकन कीजिए और पहचानिए | इतना जरुर करिए कि जो हो रहा है उसे भूलने की कोशिश न करें | बहुत घबड़ाहट हो तो आगरा के प्रौढ़ युगल के असीम प्रेम वाली तस्वीर को याद करिए | बेहद सुकून मिलेगा | पर यह भी याद रखिए कि इस कलयुग में सावित्रियां भी अपने सत्यावानों को नहीं बचा पा रहीं हैं | ऐसा इसलिए क्योंकि मनुष्यता पर पैशाचिक प्रवृत्ति हावी होती जा रही है |
-गिरीश मालवीय
बायो बबल फूट गया। केकेआर के दो खिलाड़ी कोरोना पॉजिटव हुए। आज का मैच पोस्टपोन किया गया।
इस बार के आईपीएल में खिलाडिय़ों के कोरोना से बचाव के लिए एक फुलप्रूफ व्यवस्था की गई थी जिसे बहुत सुरक्षित बताया जा रहा था इसे बायो बबल कहा जा रहा है
दरअसल बायो-बबल (Bio-bubble) एक ऐसा वातावरण है जिसमें रहने वाले लोग पूरी तरह से बाहरी दुनिया से कट जाते हैं। आईपीएल के सफल आयोजन के लिए भी इसी तकनीक का इस्तेमाल किया जा रहा हैं इस व्यवस्था में खिलाड़ी, सपोर्ट स्टाफ, होटल स्टाफ के साथ ही आयोजन से जुड़े हुए सभी व्यक्ति को कोरोना टेस्ट कर के निगेटिव आने पर बाहरी लोगों के संपर्क से दुर रखा जाता है। सीरीज शुरू होने से पहले भी इन्हें सात दिनों के लिए क्वरैंटाइन किया जाता है। जब तक सीरीज खत्म नहीं हो जाता तब तक इन्हें किसी से भी मिलने की इजाजत नहीं होती है।
ये खिलाड़ी बायो बबल एरिया में रहें और जो एरिया निर्धारित की गई है उससे बाहर न जाएं। इस पर नजर रखने के लिए सभी खिलाडिय़ों को ट्रैकिंग डिवाइस दी गई थी।
यह डिवाइस रिस्ट बैंड या चेन के रूप में है जो हमेशा खिलाडिय़ों को होटल कमरे से बाहर निकलने पर पहननी होती है। इससे खिलाडिय़ों को पता चलेगा कि उन्हें किन जगहों पर जाना है और कौन सी जगह बायो-बबल के तहत आते हैं। जैसे ही खिलाड़ी बायो-बबल एरिया से बाहर जाएंगे इस डिवाइस से आवाज आएगी और खिलाड़ी अलर्ट हो सकते है।
यही नहीं जिन होटलों में खिलाड़ी ठहरे हैं, वहां के सभी कर्मचारी और खिलाडिय़ों की बस के ड्राइवर को 14 दिन का क्वारंटाइन रखा गया था। इस बीच उनकी नियमित कोरोना जांच भी की गई। नेगेटिव रिपोर्ट आने पर ही इनकी ड्यूटी लगाई गई। पूरे आईपीएल के दौरान ये बायो बबल से बाहर नहीं जा सकते हैं। अपने घर भी उन्हें जाने की इजाजत नही थी
इतनी कड़ी व्यवस्था भी महीने भर नही चल पाई ओर कोरोना वायरस ने बायो बबल ब्रेक कर दिया तो आपका हमारा घर कौन सी बड़ी चीज है।
ममता की जीत से कांग्रेस और कम्युनिस्ट पाटियों का सूपड़ा साफ हो जाना लोकतंत्र के लिए हार्ट अटैक से छोटी घटना मैं नहीं मानता। 1997 के उस कांग्रेस सम्मेलन में मैं हाजिर था जहां समानांतर सम्मेलन तृणमूल कांग्रेस स्थापित होने की शुरुआत की सुगबुगाहट देते ममता के नेतृत्व में ब्रिगेड परेड मैदान में चल रहा था। यह कांग्रेस को सोचना रहा है कि उसके अंदर कौन सी बुराइयां लोगों को दिख रही हैं कि मैदानी ताकत के नेता उससे छिटकते रहे हैं। ममता भी हालात की स्वार्थमय मजबूरी के कारण अटल बिहारी वाजपेयी की कूटनीति के चलते भाजपा के साथ जुड़ गई थीं। हालांकि वह सैद्धांतिक रूप से गलत था। इसी तरह जगन रेड्डी आंध्रप्रदेश में, नवीन पटनायक उड़ीसा में, शरद पवार महाराष्ट्र में तथा अन्य कई नेता कांग्रेस की मूल प्रवृत्ति के हैं। कांग्रेस तो हार गई लेकिन तृणमूल कांग्रेस की संस्कृति मूल कांग्रेसी संस्कृति से बहुत जुदा नहीं है, बल्कि उत्तराधिकार में है। अन्यथा ममता ने अपने दम पर पार्टी बनाते वक्त कांग्रेस शब्द छोड़ दिया होता। उनकी पार्टी के नाम में कांग्रेस तो लिहाफ है जिसमें तृणमूल कार्यकर्ताओं को अहमियत है, कुर्सी तोड़ने वालों की नहीं। ममता को लाखों के कार्यकर्ताओं को समर्थन के बावजूद बंगाल के धाकड़ अध्यक्ष सोमेन मित्रा की तिकड़मों से पहले सीताराम केशरी और बाद में सोनिया गांधी का संरक्षण नहीं मिल पाया।
बंगाल में साम्यवादियों का पतन प्रगतिशील राष्ट्र के भविष्य के लिए काला धब्बा लेकर आया है। नंदीग्राम और सिंगूर में ही टाटा का नैनो कारखाना और मलेशिया के सलीम संस्थान जैसे कारखाने को प्रश्रय देने के कारण युवा ममता बनर्जी एक छत्रप बनकर उभरी थीं। वहां आधा बीघा एक बीघा जोत के जमीन के किसान और खालिस गरीब मुस्लिम आबादी को प्रताड़ित और विस्थापित होना पड़ रहा था। लोकतंत्र में यदि ममता द्वारा इस तरह का विरोध महात्मा गांधी की शिक्षाओं के अनुकूल नहीं रहा है तो क्या कांग्रेस पार्टी को इस ओर से भी आंख मूंद लेना चाहिए था? ऐसे भी नेता हैं जो कांग्रेस में राष्ट्रीय महासचिव या पर्यवेक्षक बनकर उत्तरप्रदेश, तेलंगाना, आंध्रप्रदेश और बंगाल वगैरह में कबाड़ा करते हैं लेकिन हाईकमांड की आंख का सुरमा बनते रहे हैं। कौन बचाएगा गांधी- नेहरू-इंदिरा के रास्ते पर चलकर देश की सबसे बड़ी प्रतिनिधि पार्टी के भविष्य को?
विधानसभा में लगभग चौथाई सीटें जीत लेने के बाद भाजपा का आश्वस्त होना जरूरी है कि पांच साल बाद क्या क्या गुल वह खिला पाएगी। 3 सीट से 77 सीट तक पहुंचना एक राजनीतिक अजूबा तो है। हालांकि वह लोकसभा में 128 सीटों की बढ़त के मुकाबिले 51 सीट नीचे गिरी है। यह वह करिश्मा है जिसकी कीमत कांग्रेस और कम्युनिस्टों ने चुकाई है। उनके ढीले ढाले मैदानी प्रतिनिधित्व के कारण उनका ही वोट बैंक भाजपा की झोली में फिलहाल कुछ वर्षों के लिए चला ही गया है। उन्हें तो अंकगणित के प्राथमिक पाठ पढ़ने होंगे वर्ना बंगाल में इन दोनों पार्टियों का यश फिलहाल तो भाजपा ने पोंछ दिया है। संयुक्त मोर्चे का कथन बेमानी है कि उनका वोट बैंक ममता को गया है। तो फिर भाजपा के पास किसका वोट बैंक आया? भारतीय राजनीति में विषैला दलबदल अभियान भाजपा ने कर रखा है। वह लोकतंत्र के नाम पर संसार की सबसे बड़ी चुनौती है।
कांग्रेस के उदार नेता राजीव गांधी ने कुछ गलतियां सद्भावना या बहकावे में आकर कर दी होंगी। राममंदिर का ताला खुलवाना, मुस्लिम महिलाओं को पुरुषों के अत्याचार से बचाने के मामले में कठमुल्ला ताकतों के सामने शाहबानो प्रकरण में दब जाना और लोकसभा में 80 प्रतिशत बहुमत होने पर भी भाजपा के भी सहयोग से दलबदल के उदार कानून को पास कराकर राजीव गांधी ने राजनीतिक चिंतन और नेकनीयती का परिचय दिया। कड़ियल राजनीति की कुटिल चाल में उनकी सद्भावना बस इतनी ही काम आई कि उनका जन्मदिन सद्भावना दिवस के रूप में मनाया जाए। उनके राजनीतिक वंशज निश्चित रूप से शाइस्तगी और शराफत के प्रतीक हैं लेकिन मौजूदा दौर में ममता बनर्जी जैसी खुद्दार मैदानी नेताओं की कांग्रेस को जरूरत है। यह तो लालू यादव जैसे प्रतिबद्ध समाजवादी को न्यायिक अन्याय की अमरबेल में फंसाकर उनकी सेहत टूटने तक जेल में रखा गया। वरना बिहार में नीतीश कुमार जैसे नेताओं को पानी पिलाने में दिक्कत नहीं होती। उत्तरप्रदेश के अखिलेश यादव, दिल्ली के केजरीवाल, महाराष्ट्र के उद्धव ठाकरे बिल्कुल ही अलग फितरत के हैं। लेकिन महाबली से लड़ने के लिए उनके पास कूटनीतिक सफलता के अलग अलग हथियार हैं। पता नहीं देश का भविष्य क्या होगा?
राष्ट्रीय आंदोलन की प्रतिनिधि पार्टी कांग्रेस की केन्द्रीय भूमिका की इतिहास को जरूरत है। सत्ता के नज़रिए से पार्टियों को देखने का काम राजनीति के सिद्धांत में नहीं होता। राष्ट्रीय आंदोलन में लोकतंत्र, व्यक्ति की गरिमा, समान अवसर, समाजवाद, सेक्युलरिज़्म सबको पाल पोसकर बड़ा किया गया है। मुझे कहने में गुरेज़ नहीं है कि राहुल गांधी और प्रियंका गांधी लड़ते जरूर हैं लेकिन जनता को क्यों लगता है कि प्रतीकात्मक तौर पर लड़ रहे हैं। एक साथ पूरी पार्टी उठकर क्यों खड़ी नहीं होती? तब तो नतीजा मिल सकता है। नेता और कार्यकर्ताओं के बीच यदि कांग्रेस फासला बढ़ाती लगती प्रचारित होती रहेगी तो कार्यकर्ताओं को लोग पिछलग्गू और अनुयायी कहने लगेंगे। यहीं से पतन के बिन्दु की शुरुआत होती है। कांग्रेस के मुख्यमंत्री अचानक इतने मजबूत भी हो गए हैं और उन्हें मीडिया प्रचारित लोकप्रियता भी मिल रही है। इससे भी एक राष्ट्रीय पार्टी के संविधान के तहत ढांचागत आचरण के लिए सवाल भी पैदा हो सकते हैं।
विश्व प्रेस स्वतन्त्रता दिवस विशेष (3 मई)
-डॉ राजू पाण्डेय
अंतरराष्ट्रीय संस्था रिपोर्टर्स विथाउट बॉर्डर्स(मुख्यालय-पेरिस) द्वारा जारी प्रेस फ्रीडम इंडेक्स 2021 में हम 142 वें स्थान पर हैं। वर्ष 2016 से हमारी रैंकिंग में जो गिरावट प्रारंभ हुई थी वह अब तक जारी है। तब हम 133 वें स्थान पर थे। आरएसएफ के विशेषज्ञों ने भारत के प्रदर्शन के विषय में अपनी टिप्पणी को जो शीर्षक दिया है वह अत्यंत महत्वपूर्ण है-"मोदी टाइटन्स हिज ग्रिप ऑन द मीडिया"। यह टिप्पणी निम्नानुसार है- "वर्ष 2020 में अपने कार्य को लेकर चार पत्रकारों की हत्या के साथ भारत अपना काम सही रूप से करने का प्रयास कर रहे पत्रकारों हेतु विश्व में सबसे खतरनाक मुल्कों में से एक है। इन्हें हर प्रकार के आक्रमण का सामना करना पड़ा है- संवाददाताओं के साथ पुलिस की हिंसा, राजनीतिक कार्यकर्ताओं के साथ मुठभेड़ एवं आपराधिक समूहों तथा स्थानीय भ्रष्ट अधिकारी-कर्मचारियों द्वारा प्रेरित प्रतिशोधात्मक कार्रवाई। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की भारतीय जनता पार्टी को 2019 के वसंत में हुए आम चुनावों में मिली भारी सफलता के बाद से ही मीडिया पर हिन्दू राष्ट्रवादी सरकार की विचारधारा एवं नीतियों का अनुसरण करने हेतु दबाव बढ़ा है। उग्र दक्षिणपंथी हिन्दू राष्ट्रवाद को बढ़ावा देने वाली हिंदुत्व की विचारधारा का समर्थन करने वाले भारतीय अब कथित राष्ट्र विरोधी चिंतन की हर अभिव्यक्ति को सार्वजनिक विमर्श से हटाने की चेष्टा कर रहे हैं। हिंदुत्व के समर्थकों में खीज पैदा करने वाले विषयों पर लिखने और बोलने का साहस करने वाले पत्रकारों के विरुद्ध सोशल मीडिया पर चलाई जा रही समन्वित हेट कैंपेन्स डरावनी हैं और इनमें सम्बंधित पत्रकारों की हत्या करने तक का आह्वान किया जाता है। विशेषकर तब जब इन अभियानों का निशाना महिलाएं होती हैं, इनका स्वरूप हिंसक हो जाता है। सत्ताधीशों की आलोचना करने वाले पत्रकारों का मुँह बन्द रखने के लिए उन पर आपराधिक मुकद्दमे कायम किए जाते हैं, कुछ अभियोजक दंड संहिता के सेक्शन 124ए का उपयोग करते हैं जिसके अधीन राजद्रोह के लिए आजीवन कारावास का प्रावधान है। वर्ष 2020 में सरकार ने कोरोना वायरस के संकट का लाभ उठाकर समाचारों की कवरेज पर अपने नियंत्रण को मजबूत किया और सरकारी पक्ष से भिन्नता रखने वाली सूचनाएं प्रसारित करने वाले पत्रकारों पर मुकद्दमे कायम किए। कश्मीर में स्थिति अब भी चिंताजनक है जहाँ पत्रकारों को प्रायः पुलिस और अर्धसैनिक बलों द्वारा प्रताड़ित किया जाता है, पत्रकारों को समाचारों की विषय वस्तु के संबंध में ओरवेलियन कंटेंट रेगुलेशन्स(सरकार द्वारा जनजीवन के प्रत्येक पक्ष पर अपना नियंत्रण सुनिश्चित करने हेतु निर्मित नियम) का पालन करने को मजबूर किया जाता है और जहाँ मीडिया आउटलेट्स का बन्द होना तय है जैसा कि घाटी के प्रमुख समाचार पत्र कश्मीर टाइम्स के साथ हुआ।"
भारत इस इंडेक्स में बैड केटेगरी में है। हम आरएसएफ द्वारा प्रयुक्त चारों पैमानों पर खरे नहीं उतरे हैं- बहुलवाद, मीडिया की स्वतंत्रता,कानूनी ढांचे की गुणवत्ता और पत्रकारों की सुरक्षा। हमारे दक्षिण एशियाई पड़ोसी नेपाल(106),श्रीलंका(127), म्यांमार(140,सैन्य विद्रोह के पहले की स्थिति)प्रेस की स्वतंत्रता के विषय में हमसे बेहतर कर रहे हैं। जबकि पाकिस्तान में हालात हमसे थोड़े खराब हैं वह 145 वें और बांग्लादेश कुछ और गिरावट के साथ 152 वें स्थान पर है।
इससे पहले मार्च 2021 में अमेरिकी थिंक टैंक फ्रीडम हाउस ने भारत का दर्जा स्वतंत्र से घटाकर आंशिक स्वतंत्र कर दिया था। फ्रीडम हाउस के अनुसार जब से नरेन्द्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री बने हैं तब से राजनीतिक अधिकारों और नागरिक स्वतन्त्रता में गिरावट आई है और यह गिरावट 2019 में मोदीजी के दुबारा चुने जाने के बाद और तेज हुई है। दिसंबर 2020 में अमेरिका के कैटो इंस्टीट्यूट और कनाडा के फ्रेजर इंस्टीट्यूट द्वारा जारी ह्यूमन फ्रीडम इंडेक्स 2020 में हम 162 देशों में 111 वें स्थान पर रहे। वर्ष 2019 में हम 94 वें स्थान पर थे। स्वीडन के वी डेम इंस्टीट्यूट ने 22 मार्च 2021 को जारी डेमोक्रेसी रिपोर्ट में भारत के दर्जे को डेमोक्रेसी से इलेक्टोरल ऑटोक्रेसी में तब्दील कर दिया था।
इन सारे सूचकांकों का जिक्र महज इसलिए कि आरएसएफ के इन आंकड़ों को भारत के विरुद्ध षड्यंत्र की भांति प्रस्तुत करने की सत्ता समर्थकों की कोशिशों से कोई भ्रमित न हो जाए। पिछले अनेक महीनों से विश्व के अलग अलग देशों की एजेंसियां भारत के लोकतंत्र में आ रही गिरावट की ओर संकेत करती रही हैं और प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में भारत की रैंकिंग को इन सारी स्वतंत्र अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा समय समय पर किए गए आकलन की पुष्टि करने वाली अगली कड़ी के रूप में देखा जाना चाहिए।
इस आलेख में जैसा पहले ही लिखा गया है आरएसएफ की टिप्पणी का शीर्षक बहुत उपयुक्त और सारगर्भित है। शीर्षक में भारत सरकार या उसके प्रधानमंत्री का जिक्र नहीं है, यह श्री नरेंद्र मोदी हैं जो मीडिया पर अपना शिकंजा और मजबूत कर रहे हैं। उनका व्यवहार विश्व के विशालतम लोकतंत्र के निर्वाचित प्रधानमंत्री की भांति नहीं है अपितु वे उग्र दक्षिणपंथ की राह का सफर खतरनाक तेजी से तय करती भाजपा के कप्तान की भूमिका में हैं। जैसा कि आदर्श लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में होता है हमारे देश में भी सत्ता अर्जित करने के बाद राजनीतिक दल अपनी वैचारिक प्रतिबद्धताओं और पूर्वाग्रहों को एक सीमा तक नियंत्रित कर लेते थे और लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुरूप सरकार का संचालन करते थे। शायद ऐसा इसलिए भी था कि देश में लंबे समय तक शासन करने वाली कांग्रेस ने स्वाधीनता संग्राम में भाग लिया था और उसे लोकतांत्रिक स्वतन्त्रता का मूल्य पता था। कांग्रेस को अपदस्थ करने वाले गठबंधनों की वैचारिक भिन्नता और गठबंधन धर्म का पालन करने की विवशता किसी एक विचारधारा के अतिरेक से रक्षा करने वाली और लोकतंत्र को परिपुष्ट करने वाली ही सिद्ध हुई थी।
भारतीय राजनीति का मोदी युग सरकार, पार्टी और मीडिया के फ्यूज़न के लिए जाना जाएगा। हम आज मीडिया के एक बड़े भाग को सरकार और पार्टी के प्रवक्ता के रूप में व्यवहार करता देखते हैं, वह सरकार का रक्षक है और सहायक भी। कभी मीडिया भाजपा के लिए एक रणनीतिकार का कार्य करता दिखता है तो कभी पार्टी की रणनीतियों के क्रियान्वयन का जिम्मा उठा लेता है। भाजपा पार्टी कभी सरकार की भांति अहंकारी बनकर लचीलापन खोती दिखती है तो कभी मीडिया की भांति आक्रामक होकर प्रोपेगंडा और वैचारिक छद्म रचती दिखती है। सरकार गवर्नेंस छोड़कर सारे काम करती दिखती है। प्रायः वह पार्टी की भांति संकीर्ण और पक्षपाती बन जाती है और पार्टी के लिए चुनाव केंद्रित शासन करने लगती है। हम उसे मीडिया की भांति इवेंट बनाते और मैनेज करते देखते हैं जिसमें जमीनी कामकाज पर नगण्य और आंकड़ेबाजी तथा विजुअल्स पर अधिक जोर होता है। सत्ता में होने के बावजूद भाजपा पार्टी और उसकी सरकार दोनों ही मीडिया की भांति एक सशक्त विपक्ष की भूमिका में दिखते हैं। यद्यपि इनके द्वारा अपने प्रतिद्वंद्वियों को शत्रु समझकर की गई उनकी आलोचना अतार्किक और अनैतिक होने के कारण द्वेषजनित निंदा का रूप ले लेती है तथा इसका स्वरूप मारक एवं हिंसक बन जाता है।
मीडिया, सत्ताधारी दल और सरकार के इस फ्यूज़न का परिणाम यह है कि प्रेस की स्वतंत्रता के संकट का समाधान अब प्रेस बिरादरी के आंतरिक उपचारों, उपायों और नियामकों द्वारा नहीं हो सकता। प्रेस की आजादी अब सम्पूर्ण परिवर्तन द्वारा ही संभव है। यह सत्ता परिवर्तन ही नहीं होगा बल्कि इलेक्टोरल ऑटोक्रेसी को डेमोक्रेसी की ओर ले जाने वाला विचारधारात्मक परिवर्तन होगा।
प्रेस की आजादी का सवाल इस कारण भी जटिल बन गया है क्योंकि अब यह दमनकारी सरकार और पीड़ित जनता के पक्ष में खड़ी पत्रकार बिरादरी जैसा आसान मुद्दा नहीं है। नव फासीवाद ने जनता के बड़े हिस्से में अलोकतांत्रिक संस्कार डालने में सफलता पाई है और पहली बार हम बहुमत को लोकतंत्र विरोधी आचरण करता देख रहे हैं। लोकतंत्र और बहुसंख्यक की तानाशाही के बीच की स्पष्ट और गहरी विभाजन रेखा को धुंधला करने में नव फ़ासिस्ट शक्तियों को मिली सफलता के बाद अब धार्मिक ध्रुवीकरण करने वाली, नफरत और बंटवारे को बढ़ावा देने वाली, साम्प्रदायिक एवं जातीय उन्माद पैदा करने वाली, हिंसा की ओर धकेलने वाली तथा बुनियादी मुद्दों से लोगों का ध्यान हटाने वाली खबरों को इस रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है जैसे ये प्राकृतिक न्याय की स्थापना की सहज प्रक्रिया का कोई हिस्सा हों । यह दर्शाया जा रहा है कि धर्मनिरपेक्षता, बंधुत्व,अहिंसा तथा समानता जैसे मूल्य आरोपित और अन्यायपूर्ण थे जिनका स्थान अब नए मूल्य ले रहे हैं।
बंटवारे और नफरत का जहर सूचना और विचारों के आदान प्रदान से जुड़े लोगों(इन्हें सामान्य रूप से पत्रकार कह दिया जाता है जो सही नहीं है, यह राजनीतिक-सामाजिक-धार्मिक कार्यकर्ता हैं, किसी विभाजनकारी एवं हिंसक विचारधारा के घोषित-अघोषित समर्थक हैं, स्पष्ट व्यावसायिक और राजनीतिक एजेंडे वाले समाचार चैनलों पर खबरों को पढ़ने वाले एंकर हैं, वे सभी लोग हैं जो डिजिटल और कुछ हद तक प्रिंट मीडिया का उपयोग अपने एजेंडे के प्रचार प्रसार में कर रहे हैं, इन्हें पत्रकारिता के बुनियादी मूल्यों से कोई वास्ता नहीं है और न ही सच्ची, प्रामाणिक, वस्तुनिष्ठ सूचना को बिना मिर्च मसाले के प्रस्तुत करना इनका ध्येय है। ये जनपक्षधर तो कतई नहीं हैं।) में इस प्रकार फैल गया है कि वैचारिक, भाषिक और कई बार शारीरिक हिंसा भी देखने में आ रही है।
सोशल मीडिया का जन्म उन्मुक्त और स्वछंद रहने के लिए हुआ है और यह अपनी प्रकृति में अनुशासन और नियंत्रण का विरोधी है। इसके अराजक और आज़ादी पसंद स्वभाव को नव फ़ासिस्ट शक्तियों ने बहुत चतुराई से अपने पक्ष में दिशा दी है और हजारों असंबद्ध और अनर्गल लगने वाली वायरल पोस्टों के माध्यम से जनमानस को हिंसा और घृणा के विमर्श का अभ्यस्त बनाया है। इस हिंसा के आकर्षण से नव फ़ासिस्ट शक्तियों के विरोधी भी अछूते नहीं रहे हैं।
अनेक बार हम देखते हैं कि सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर किसी आवश्यक,जनोपयोगी और बुनियादी मुद्दे पर चल रही बहस केवल इस कारण से पटरी से उतर जाती है क्योंकि भाषा का संयम टूट जाता है, हम भाषिक हिंसा पर उतर आते हैं, हम आरोप प्रत्यारोप तथा गाली गलौज की उस भाषा का प्रयोग करने लगते हैं जिस पर नफरतजीवियों का विशेषाधिकार है।
किसान आंदोलन की शुचिता पर प्रश्नचिह्न लगाने के ध्येय से कवरेज कर रहे मुख्यधारा के षड्यंत्रकारी मीडिया के किसी नफरतजीवी पत्रकार के साथ धक्का मुक्की और दिल्ली दंगे की वास्तविक सच्चाई दिखाने की कोशिश कर रहे किसी साहसी पत्रकार के साथ मारपीट बिल्कुल अलग घटनाएं हो सकती हैं। संभव है कि पहली हिंसा झूठ दिखाने से रोकने के लिए की गई हो और दूसरी हिंसा सच दिखाने से रोकने के लिए की गई हो। किंतु जब पहली घटना को हिंसक किसानों की गुंडागर्दी और दूसरी घटना को भावनात्मक रूप से उद्वेलित भीड़ की सहज प्रतिक्रिया के रूप में प्रस्तुत किया जाता है तब आघात सत्य एवं न्याय हेतु चल रहे संघर्ष को ही लगता है। अच्छे उद्देश्य की प्राप्ति के लिए चल रहे संघर्ष में भी भूल से ही सही जब हम हिंसा का आश्रय लेते हैं तब भी हम आतताइयों को एक अवसर प्रदान कर देते हैं कि वह अपनी हिंसा को न्यायोचित ठहराएं। और हम पर हिंसक होने का आरोप लगाकर हमारी स्वतन्त्रता का अपहरण करें।
यही स्थिति पत्रकारिता में है। हम उग्र दक्षिणपंथी शक्तियों के विरोध में इतने लीन हो जाते हैं कि हमें पता ही चलता कि कब हम उनकी तरह घृणा की भाषा बोलने लगे हैं, कब हमारे प्रतिरोध में हिंसा और प्रतिशोध के तत्व घुस आए हैं। हम स्वयं को स्वतंत्र और निर्भीक पत्रकारिता का पैरोकार समझ रहे होते हैं और उग्र दक्षिणपंथी शक्तियां इस बात का जश्न मना रही होती हैं कि हम उनके द्वारा दिए गए मुद्दों पर उन्हीं की भाषा में उनकी भांति ही सोचने के लिए धीरे धीरे प्रशिक्षित किए जा रहे हैं।
हमें पत्रकारिता के गैंगवार का हिंसाप्रिय अपराधी बनाने की कोशिश हो रही है और जैसे ही हम भाषिक एवं वैचारिक हिंसा का आश्रय लेंगे सरकारों का दमन चक्र प्रारंभ हो जाएगा और हम उनकी संगठित हिंसा का मुकाबला नहीं कर पाएंगे।
हाल ही में संकीर्ण और असमावेशी उग्र दक्षिणपंथी विचारधारा का प्रचार प्रसार करने वाले एक नामचीन टीवी एंकर के असामयिक दुःखद निधन पर हममें से अनेक लोगों की प्रतिक्रिया अतिरंजित और अमर्यादित थी। यदि उन्होंने अपनी प्रतिभा और लोकप्रियता का दुरुपयोग समाज में घृणा और विभाजन का विष फैलाने हेतु किया है तो आने वाली पीढियां उन्हें उसी रूप में याद रखेंगी। हो सकता है कि किसी अप्रिय और कष्टप्रद अनुभव की भांति उन्हें विस्मृत कर दिया जाए। किंतु हमें तो चाहिए था कि एक युवा जीवन के आकस्मिक अवसान पर शोक व्यक्त करते और इस बात पर अफसोस व्यक्त करते कि हमें इतना समय नहीं मिल पाया कि हम उन्हें सहिष्णुता, समावेशन,अहिंसा और सर्व धर्म समभाव जैसे मूल्यों के वास्तविक महत्व से परिचित करा पाते। हमें तो इस बात की कामना करनी थी कि समाज को घृणा और विभाजन की ओर धकेलने वाली विचारधारा के समर्थन की जो भूल उनसे हुई थी वह कोई अन्य प्रतिभावान नवयुवक दुबारा न करे। किंतु हमने उनके निधन पर हर्ष व्यक्त कर उसी नफरत को मजबूती दी जिसके विरोध का हम दावा करते हैं।
हम स्वयं को मौलिक और स्वतंत्र पत्रकारिता का पोषक तभी कह सकते हैं जब हम घृणा की भाषा और विभाजनकारी मुद्दों का बहिष्कार करें। चाहे वह सरकारी दमन हो या उग्र दक्षिणपंथी शक्तियों की हिंसा हो या सूचना एवं विचारधारा के प्रचार-प्रसार से जुड़े व्यक्तियों के आक्रमण हों, इन सभी के दो उद्देश्य होते हैं- पहला प्रकट उद्देश्य होता है कि भय उत्पन्न कर सत्यान्वेषण और जनपक्षधर पत्रकारिता को बाधित किया जाए किंतु दूसरा अप्रकट उद्देश्य अहिंसा,सहिष्णुता और संयम की राह से भटकाकर हिंसा और असहिष्णुता की ओर ले जाने का होता है। जब यह दूसरा उद्देश्य कामयाब हो जाता है तब हमारा विरोध भी इन नव फ़ासिस्ट शक्तियों को मजबूती देता है।
(रायगढ़, छत्तीसगढ़)
-बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पांच अहिंदीभाषी राज्यों में हुए ये चुनाव थे तो प्रांतीय लेकिन इन्हें राष्ट्रीय स्वरुप देने का श्रेय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह को है। भाजपा के जितने नेता अकेले पश्चिम बंगाल में डटे रहे, आज तक किसी भी प्रांतीय चुनाव में राष्ट्रीय स्तर के इतने नेता कभी नहीं डटे। इसलिए अब इसके नतीजों का असर भी राष्ट्रीय राजनीति पर पड़ना अवश्यम्भावी है। ममता बेनर्जी अब नरेंद्र मोदी के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन जाएंगी। अभी तक मोदी की टक्कर का एक भी नेता विपक्ष में उभर नहीं पाया था। दो पार्टियां अखिल भारतीय हैं। एक कांग्रेस और दूसरी मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी। कम्युनिस्ट पार्टी सिर्फ केरल में है। वह मलयाली उपराष्ट्रवाद का ज्यादा, मार्क्सवाद का कम प्रतिनिधित्व करती है। वह मोदी को कोई चुनौती नहीं दे सकती। हाँ, कांग्रेस जरुर एक अखिल भारतीय पार्टी है और इन पांच राज्यों के चुनाव में बंगाल के अलावा सर्वत्र वह अस्तित्ववान है लेकिन उसके पास प्रांतीय नेता तो हैं लेकिन उसके पास ऐसे अखिल भारतीय नेता का अभाव है, जो मोदी को चुनौती दे सके। कांग्रेस में अनेक अत्यंत अनुभवी और दक्ष नेता हैं, जो मोदी पर भारी पड़ सकते हैं लेकिन कांग्रेस का माँ-बेटा नेतृत्व उन्हें आगे नहीं आने देगा।
आज भी देश के लगभग हर जिले में कांग्रेस का संगठन है लेकिन उसकी हैसियत अब प्राइवेट लिमिटेड कंपनी की एक शाखा से ज्यादा नहीं है। ऐसी हालत में प. बंगाल के चुनाव ने ममता बेनर्जी को लाकर मोदी की टक्कर में खड़ा कर दिया है। ममता के समर्थन में कांग्रेस और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता सामने नहीं आए और उन्होंने तृणमूल कांग्रेस के विरोध में अपने उम्मीदवार भी खड़े किए थे लेकिन देश की लगभग सभी प्रांतीय पार्टियों के नेता ममता को जिताने के लिए बंगाल गए थे। हालांकि ममता नंदीग्राम में खुद हार गई हैं लेकिन पूरे बंगाल में वे विजय पताका फहरा रही हैं। अब ममता को अखिल भारतीय नेता मानने में उन्हें ज्यादा दिक्कत नहीं होगी। हो सकता है कि कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टियां भी इस उदीयमान गठबंधन में शामिल हो जाएं। फिर भी हो सकता है कि इस गठबंधन को किसी जयप्रकाश नारायण की जरुरत हो, हालांकि नरेंद्र मोदी की हैसियत इंदिरा गांधी-जैसी नहीं है लेकिन यह भी सत्य है कि आज नरेंद्र मोदी की हालत वैसी भी नहीं हुई है, जैसी कि 1977 में इंदिरा गांधी की हो गई थी। कोरोना की बदहाली ने केंद्र सरकार के प्रति व्यापक असंतोष जरुर पैदा कर दिया है लेकिन देश की जनता मोदी के मुकाबले ममता को स्वीकार तभी करेगी, जबकि ममता बंगाली उपराष्ट्रवाद से ऊपर उठेंगी और वे देश के अन्य खुर्राट नेताओं के साथ ताल-मेल बिठाने की कला में प्रवीणता हासिल कर लेंगी। (नया इंडिया की अनुमति से)
-गोपाल राठी
तस्वीर में महिला सीधी सादी लग रही है न। लगती है न एक साधारण सी महिला। रसायन शास्त्र में स्नातक। वर्ष 2004 तक एक हाईस्कूल में पढ़ाया। फिर राजनीति में शामिल। वर्तमान में, केरल की वामपंथी सरकार की स्वास्थ्य मंत्री - के.के.शैलजा। पूरे केरल में इन्हें टीचर अम्मा के नाम से जाना जाता है, शैलजा टीचर। 2018 के निपाह वायरस को संक्रमण से होने वाले मौत के जुलूस को मजबूती से रोक दिया था। फिर इसके ठीक दो साल बाद, जिस तरह कोरोना का मुकाबला कर केरल मॉडल को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता हासिल करवाई - वह निश्चित ही इतिहास में दर्ज होगा।
इस कोरोना काल में वे रात 12 बजे कार्यालय छोड़ती है। सभी अधिकारियों को रवाना कर फिर खुद प्रस्थान करती है। घर पर भी रात 2.30 - 3.00 बजे तक फाइलें देखती -निपटाती है। फिर सुबह सात बजे ऑफिस पहुंच जाती है। उनका व्यक्तिगत मोबाइल नंबर न जाने कितने ही आम लोगों को पता है। निपाह के दौरान ही, केरल के राज्य भर में चमगादड़ों का आतंक पैदा हुआ। अब कोरोना के दौरान बिल्ली तक को देख तो आस पड़ोस के लोग घबरा कर फोन करने लगें। उन्होंने स्वयं फोन उठाकर सभी को आश्वस्त किया।
किसी को साथ में लेने के बजाय अकेले ही तमाम अस्पतालों में घूमती है। बस चेहरे पर एक हल्की सी मुस्कान। प्रचार की रौशनी से सैकड़ों कदम दूर। एक नियम के तौर पर, रोजाना केवल एक बार पत्रकार वार्ता बुलाती हैं। छिपाने के लिए नहीं, बल्कि जानकारी देने के लिए। श्रेय भी नहीं लेना चाहती। बस कहती है, “I don’t do anything special. I have a degree in chemistry so I have some knowledge about molecules and medicines. Otherwise, it is always a team effort" (मैं कुछ भी विशेष नही कर रही हूं। मेरे पास रसायन शास्त्र की डिग्री है, इसलिए मुझे अणुओं और दवाओं के बारे में कुछ जानकारी है। अन्यथा, यह हमेशा एक टीम प्रयास है।)
ब्रिटेन की प्रतिष्ठित मैगजीन ने केरल की स्वास्थ्य मंत्री के के शैलजा को 'टॉप थिंकर 2020' चुना, कोरोना काल में उनके प्रयासों से पाया ये सम्मान मिला
इससे पहले भी शैलजा द्वारा कोरोना को रोकने की दिशा में किए गए प्रयासों को तारीफ मिली है।शैलजा ने कोरोना अभियान में आम लोगों का साथ देकर इस बीमारी को मिटाने का हर संभव प्रयास किया।
ब्रिटिश पत्रिका प्रोस्पेक्ट ने पूरी दुनिया में केरल की स्वास्थ्य मंत्री के के शैलजा को 'टॉप थिंकर 2020' के रूप में नामित किया है। इस मैगजीन में दार्शनिकों, बुद्धिजीवियों, कलाकारों, वैज्ञानिकों और लेखकों को पाठकों द्वारा मतदान के आधार पर और विशेषज्ञों व संपादकों की पैनल की राय के आधार पर चुना गया है।
प्रोस्पेक्ट की लिस्ट में न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री जेसिंडा आर्डर्न को नंबर 2 पर रखा गया है। शैलजा का नाम कोरोना काल के दौरान राज्य में समय रहते उचित कदम उठाने के लिए शामिल किया गया।
पत्रिका के अनुसार, इस लिस्ट को अंतिम रूप देने के लिए 20,000 से अधिक वोट डाले गए। केके शैलजा इस लिस्ट में एकमात्र भारतीय महिला हैं। इस मैगजीन ने शैलजा की प्रशंसा करते हुए लिखा, '' साल 2018 में भी शैलजा ने केरल में फैले निपाह वायरस का डटकर सामना किया था''।
ब्रिटेन के प्रतिष्ठित अखबार 'द गार्जियन' ने भी कोरोना काल में शैलजा द्वारा किए गए कामों की प्रशंसा की थी।
संयुक्त राष्ट्र ने COVID-19 महामारी की सीमाओं पर काम कर रहे लोक सेवकों को सम्मानित करने के लिए आयोजित एक कार्यक्रम में अपनी बात रखने के लिए शैलजा को आमंत्रित किया था।
यह भारत के एक प्रांत केरल की स्वास्थ्य मंत्री की कहानी है जो अभी हाल ही में हुए विधानसभा चुनाव में वामपंथी मोर्चे की उम्मीदवार के रूप में 61000 मतों से विजयी हुई है l
कॉमरेड शैलजा टीचर अम्मा को बहुत-बहुत बधाई
-कृष्ण कांत
मुसलमान कोरोना फैलाते हैं, ये घृणा अभियान था। मुसलमान इस देश के सुख-दुख में हिस्सेदार हैं, ये अंतिम सच है।
सूबा महाराष्ट्र। जिला यवतमाल। नाम अब्दुल जब्बार, शेख अहमद, शेख अलीम और आरिफ खान। ये चारों लडक़े इस कोरोना काल में यवतमाल के एक श्मशान घाट में रात-दिन एक करके लोगों को मुखाग्नि देते हैं। ये चारों मुस्लिम लडक़े अब तक 800 से ज्यादा हिंदुओं का दाह-संस्कार कर चुके हैं। यही नहीं, वे हिंदुओं के अंतिम संस्कार में हिंदू रीति-रिवाजों का भी ख्याल रखते हैं।
ऐसे समय में जब तमाम लोग अपने परिजनों तक का अंतिम संस्कार करने से दूर भाग रहे हैं, ये चारों नौजवान पूरी शिद्दत से इस सामाजिक कार्य में जुटे हैं। इनको पता है कि श्मशान भूमि में आने वाली ज्यादातर लाशें कोरोना संक्रमित हैं, लेकिन वे अपनी जान की परवाह किये बगैर रात-दिन अपना काम कर रहे हैं।
मेरठ में सुषमा अग्रवाल की अचानक तबियत बिगड़ी और मौत हो गई। उनके पति अमित अग्रवाल किसी काम से बनारस गए थे। बेटा और बेटी दिल्ली में रहते हैं। मौत के वक्त घर में सुषमा की एक भांजी और एक नौकर ही मौजूद थे। मौत की खबर सुनने के बाद भी शहर में रहने वाले रिश्तेदार, करीबी लोग और पड़ोसियों में से कोई नहीं पहुंचा।
मेरठ के रहने वाले तहसीन अंसारी को सुषमा की मौत की खबर मिली। तहसीन अंसारी ने रात को एक बजे फोन पर सुषमा के पति से बात की तो उन्होंने बताया कि वो सुबह तक मेरठ पहुंच जाएंगे। सुबह अमित अग्रवाल और उनका बेटा मेरठ पहुंचे। लेकिन वहां सुषमा की अर्थी को कंधा देने के लिए सगे-संबंधियों, पड़ोसियों में से कोई भी नहीं पहुंचा।
सुबह साढ़े ग्यारह बजे तक इंतजार होता रहा, लेकिन कोई नहीं आया तो तहसीन अपने कुछ साथियों के साथ वहां पहुंचे। मुस्लिम समाज से ही आसपास के कुछ और लोग आगे आए और यही लोग अर्थी को कंधा देकर श्मशान घाट तक ले गए। उन्होंने हिंदू परंपरा के मुताबिक ‘राम नाम सत्य है’ बोलते हुए सुषमा की अंतिम यात्रा संपन्न कराई। इधर कुछ सालों से नेता ‘नेशन फस्र्ट’ का नारा लगाकर समाज को बांट रहे थे। लोग पार्टियों के लिए या नेताओं के कहने पर आपस में खूब लड़ रहे थे। महामारी ने हम सबको एकजुट रहने का सबक दे दिया। अब हिंदुओं और मुसलमानों का खून एक-दूसरे की रंगों में उतरकर हम सबकी जान बचा रहा है।
दुआएं कीजिए कि ये प्रेमभाव बना रहे।