विचार/लेख
खरीफ सीजन की बुवाई के समय हुई ‘अच्छी’ बारिश से यह उम्मीद लगाई जा रही थी कि इस बार अच्छी फसल होगी, लेकिन जब फसल पकने लगी या पक कर तैयार हुई, उस समय हुई बेमौसमी बारिश ने इन उम्मीदों पर पानी फेर दिया। खरीफ सीजन 2020-21 का पहला अनुमान बताता है कि ज्यादातर फसलों का उत्पादन पिछले साल के मुकाबले कम हो रह सकता है। यह अनुमान नेशनल बल्क होल्डिंग कॉरपोरेशन (एनबीएचसी) ने जारी किए हैं। हालांकि 23 सितंबर 2020 को केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय की ओर से जारी आंकड़े इससे अलग है। मंत्रालय ने खरीफ सीजन 2020-21 के पहले अग्रिम अनुमान में फसलों के उत्पादन में वृद्धि का दावा किया था।
एनबीएचसी की यह रिपोर्ट बताती है कि पिछले सीजन के मुकाबले इस सीजन में धान के बुवाई क्षेत्र में लगभग 6.74 प्रतिशत वृद्धि हुई, लेकिन उत्पादन में 2.20 प्रतिशत की कमी रह सकती है। पिछले सीजन में 382.3 लाख हेक्टेयर में धान की बुवाई की गई थी, लेकिन खरीफ सीजन 2020-21 में 408.1 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल में धान की बुवाई की गई। जहां तक उत्पादन की बात है तो 2018-19 में 10.204 करोड़ टन चावल उत्पादन हुआ था, जबकि 2019-20 में 10.198 करोड़ टन चावल उत्पादन हुआ। इस सीजन में यह घटकर 9.974 करोड़ टन रह सकता है। दिलचस्प बात यह है कि सितंबर में केंद्रीय कृषि मंत्रालय द्वारा जारी अग्रिम अनुमान में कहा गया था कि इस साल 10.236 करोड़ टन चावल उत्पादन का दावा किया किया गया था।
कहीं ज्यादा तो कहीं कम हुई बारिश
एनबीएचसी की रिपोर्ट के मुताबिक अगस्त सितंबर में हुई भारी बारिश ने फसलों को नुकसान पहुंचा है। साल 2020-21 के मानसून सीजन में देश भर में सामान्य से 109 फीसदी अधिक बारिश हुई। चार में से तीन महीने सामान्य से अधिक बारिश रिकॉर्ड की गई। जून में सामान्य से 118 प्रतिशत, अगस्त में 127 फीसदी और सितंबर में 104 फीसदी अधिक बारिश हुई, जबकि जुलाई में सामान्य से कम बारिश हुई। अगर क्षेत्रवार देखें तो पूर्वी, उत्तर पूर्वी, मध्य भारत और दक्षिण भारत में सामान्य से अधिक बारिश हुई, जबकि उत्तर पश्चिम भारत में कम बारिश हुई। अच्छी बारिश को देखते हुए इस बार खरीफ की बुवाई भी अधिक हुई। जहां पिछले साल देश में 1085.65 लाख हेक्टेयर में खरीफ की फसलों की बुवाई थी, इस साल यह बढ़ कर 1095.37 लाख हेक्टेयर तक पहुंच गई।
19 राज्यों और केंद्र शासित क्षेत्रों में सामान्य से कम बारिश हुई, जबकि नौ राज्यों में सामान्य से अधिक बारिश हुई, इनमें बिहार, गुजरात, मेघालय, गोवा, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु, कर्नाटक और लक्षद्वीप समूह शामिल हैं। सिक्किम में बहुत ज्यादा बारिश रिकॉर्ड की गई। जबकि नागालैंड, मणिपुर, मिजोरम, त्रिपुरा, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, जम्मू कश्मीर में सामान्य से कम बारिश हुई। लद्दाख में बहुत कम बारिश रिकॉर्ड की गई। दिल्ली में काफी कम बारिश हुई। मानसून के खत्म होने के बाद भी दक्षिण मध्य महाराष्ट्र के कई जिलों में भारी बारिश के बारण बाढ़ आ गई। इससे सोयाबीन, मक्का, गन्ना और तूर की फसल को काफी नुकसान पहुंचा।
2019-20 में 5 लाख टन मक्का का आयात किया गया। ऐसा पॉल्ट्री कारोबार की मांग को देखते हुए किया गया, क्योंकि पिछले साल मक्के का उत्पादन कम हुआ था। इस खरीफ सीजन में बुवाई क्षेत्र की बात करें तो इसमें पिछले साल के मुकाबले 2.31 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, लेकिन मध्य प्रदेश और कर्नाटक में बुवाई के बाद हुई भारी बारिश के कारण मक्के के उत्पादन में 5.71 प्रतिशत की कमी की आशंका है।
ज्वार / बाजरा
इस रिपोर्ट में ज्वार के बुवाई क्षेत्र में 1.17 प्रतिशत की कमी के बावजूद उत्पादन में 9.78 प्रतिशत की वृद्धि की संभावना है। जबकि बाजरा के बुवाई क्षेत्र में 3.71 प्रतिशत की वृद्धि के बावजूद उत्पादन में 14.40 प्रतिशत की कमी हो सकती है।
दलहन
चालू खरीफ सीजन में तूर के बुवाई क्षेत्र में 9.78 प्रतिशत और उत्पादन में 5.48 प्रतिशत वृद्धि का अनुमान लगाया गया है। इस की वजह महाराष्ट्र, गुजरात, तेलंगाना और झारखंड में फसल की स्थिति अच्छी है। महत्वपूर्ण बात यह है कि इस बार उड़द के उत्पादन में भारी वृद्धि का अनुमान है। रिपोर्ट बताती है कि बेशक उड़द के बुवाई क्षेत्र में 1.47 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, लेकिन उत्पादन में 45.38 प्रतिशत की वृद्धि हो सकती है। मूंग के बुवाई क्षेत्र में 19.70 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, लेकिन उत्पादन में 3.91 प्रतिशत कमी का अनुमान लगाया गया है। क्योंकि मूंग उपजाने वाले लगभग सभी बड़े राज्यों में फसल को नुकसान पहुंचा है।
तिलहन
एनबीएचसी की इस रिपोर्ट में कहा गया है कि सितंबर अक्टूबर में भारी बारिश के कारण सोयाबीन के उत्पादन में 15.29 फीसदी की कमी आ सकती है, जबकि बुवाई क्षेत्र में 8.17 फीसदी की वृद्धि हुई थी। इसी तरह मूंगफली के उत्पादन में 14.69 फीसदी की कमी आने की आशंका है।
नगदी फसल
गुजरात और मध्य प्रदेश में हुई भारी बारिश के कारण कपास के उत्पादन में 4.06 फीसदी नुकसान का आकलन किया गया है। लेकिन गन्ने के उत्पादन में 2.72 प्रतिशत की वृद्धि का अनुमान है।(https://www.downtoearth.org.in/hindistory)
भारत सरकार हो या राज्य सरकारें, हर वक्त उनका एक ही नारा होता है आदिवासियों का कल्याण। लेकिन उनका कल्याण करते-करते ये सरकारें अकसर उनको उनके गांव-खेत-खलिहान और उनके जंगलों से बेदखल कर देती हैं। इसका ताजा उदाहरण मध्यप्रदेश का है। यहां जलवायु परिवर्तन से होने वाले दुष्प्रभावों को कम करने, राज्य के जंगलों की परिस्थितिकी में सुधार करने और आदिवासियों की आजीविका को सुदृढ़ करने के नाम पर राज्य के कुल 94,689 लाख हैक्टेयर वन क्षेत्र में से 37,420 लाख हैक्टेयर क्षेत्र को निजी कंपनियों को देने का निर्णय लिया गया है।
इस संबंध में मध्यप्रदेश के सतपुड़ा भवन स्थित मुख्य प्रधान वन संरक्षक द्वारा अधिसूचना जारी की गई है। इस संबंध में भोपाल के पर्यावरणविद सुभाष पांडे ने डाउन टू अर्थ को बताया, “राज्य के आधे से अधिक बिगड़े वन क्षेत्र को सुधारने के लिए जंगलों की जिस क्षेत्र को अधिसूचित किया गया है, वास्तव में वहां आदिवासियों के घर-द्वार, खेत और चारागाह हैं। इसे राज्य सरकार बिगड़े वन क्षेत्र की संज्ञा दे कर निजी क्षेत्रों को सौंपने जा रही है”।
ध्यान रहे कि इस प्रकार के बिगड़े जंगलों को सुधारने के लिए राज्य भर के जंगलों में स्थित गांवों में बकायदा वन ग्राम समितियां बनी हुई हैं और इसके लिए वन विभाग के पास बजट का भी प्रावधान है। इस संबंध में राज्य के वन विभाग के पूर्व सब डिविजन ऑफिसर संतदास तिवारी ने बताया कि जहां आदिवासी रहते हैं तो उनके निस्तार की जमीन या उनके घर के आसपास तो हर हाल में जंगल नहीं होगा। आखिर आप अपने घर के आसपास तो जंगल या पेड़ों को साफ करेंगे और मवेशियों के लिए चारागाह भी बनाएंगे। अब सरकार इसे ही बिगड़े हुए जंगल बताकर अधिग्रहण करने की तैयारी है। जबकि राज्य सरकार का तर्क है कि बिगड़े हुए जंगल को ठीक करके यानी जंगलों को सघन बना कर ही जलवायु परिवर्तन और परिस्थितिकीय तंत्र में सुधार संभव है।
इस संबंध में मध्यप्रदेश में वन क्षेत्रों पर अध्ययन करने वाले कार्यकर्ता राजकुमार सिन्हां ने डाउन टू अर्थ को बताया कि मध्यप्रदेश की सरकार ने 37 लाख हैक्टेयर बिगड़े वन क्षेत्रों को पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशीप (पीपीपी) मोड पर निजी कंपनियों को देने का निर्णय लिया है। वह कहते हैं कि यह कौन सा वन क्षेत्र है? इसे जानने और समझने की जरूरत है। प्रदेश के कुल 52,739 गांवों में से 22,600 गांव या तो जंगल में बसे हैं या फिर जंगलों की सीमा से सटे हुए हैं।
मध्यप्रदेश के जंगल का एक बड़ा हिस्सा आरक्षित वन है और दूसरा बड़ा हिस्सा राष्ट्रीय उद्यान, अभयारण्य, सेंचुरी आदि के रूप में जाना जाता है। शेष क्षेत्र को बिगड़े वन या संरक्षित वन कहा जाता है। इस संरक्षित वन में स्थानीय लोगों के अधिकारों का दस्तावेजीकरण किया जाना है, अधिग्रहण नहीं। यह बिगड़े जंगल स्थानीय आदिवासी समुदाय के लिए बहुत महत्वपूर्ण आर्थिक संसाधन हैं, जो जंगलों में बसे हैं और जिसका इस्तेमाल आदिवासी समुदाय अपनी निस्तार जरूरतों के लिए करते हैं।
एक नवंबर, 1956 में मध्यप्रदेश के पुनर्गठन के समय राज्य की भौगोलिक क्षेत्रफल 442.841 लाख हैक्टेयर था, जिसमें से 172.460 लाख हैक्टेयर वनभूमि और 94.781 लाख हैक्टेयर सामुदायिक वनभूमि दर्ज थी। पांडे ने बताया कि उक्त संरक्षित भूमि को वन विभाग ने अपने वर्किंग प्लान में शामिल कर लिया, जबकि इन जमीनों के बंटाईदारों, पट्टेधारियों या अतिक्रमणकारियों को हक दिए जाने का कोई प्रयास नहीं किया गया।
वह कहते हैं कि वन विभाग ने जिन भूमि को अनुपयुक्त पाया उसमें से कुछ भूमि 1966 में राजस्व विभाग को अधिक अन्न उपजाऊ योजना के तहत हस्तांतरित किया, वहीं अधिकतर अनुपयुक्त भूमि वन विभाग ने “ग्राम वन” के नाम पर अपने नियंत्रण में ही रखा।
ध्यान रहे कि अभी इसी संरक्षित वन में से लोगों को वन अधिकार कानून 2006 के अन्तर्गत सामुदायिक वन अधिकार या सामुदायिक वन संसाधनों पर अधिकार दिया जाने वाला है।
सिन्हां सवाल उठाते हैं कि अगर ये 37 लाख हैक्टेयर भूमि उद्योगपतियों के पास होगी तो फिर लोगों के पास कौन सा जंगल होगा? पांचवीं अनुसूची के क्षेत्रों में पेसा कानून प्रभावी है जो ग्राम सभा को अपने प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण का अधिकार देता है। क्या पीपीपी मॉडल में सामुदायिक अधिकार प्राप्त ग्राम सभा से सहमति ली गई है? वन अधिकार कानून द्वारा ग्राम सभा को जंगल के संरक्षण, प्रबंधन और उपयोग के लिए जो सामुदायिक अधिकार दिया गया है उसका क्या होगा?
विभिन्न नीति एवं कानून के कारण भारत का वन अब तक वैश्विक कार्बन व्यापार में बड़े पैमाने पर नहीं आया है। कई ऐसे गैर सरकारी संगठन हैं जो विश्व बैंक द्वारा पोषित हैं, वे अपने दस्तावेजों में यह कहते हुए नहीं अघाते कि भारत के जंगलवासी समुदाय (आदिवासी प्रमुख रूप से) कार्बन व्यापार परियोजना से लाभान्वित हो सकेंगे। सिन्हा बताते हैं कि ये संगठन आदिवासीयों के बारे में रंगीन व्याख्या कर प्रेरित करते हैं कि उनकी हालत रातों रात सुधर जाएगी।
वहीं, इस संबंध में सीधी जिले के पूर्व वन अधिकारी चंद्रभान पांडे बताते हैं कि कैसे आदिवासी कार्बन व्यापार की जटिलता को समझकर कार्बन भावताव को समझेगा? वह कहते हैं कि कार्बन व्यापार के जरिए (वनीकरण करके) अन्तराष्ट्रीय बाजार से करोड़ों रुपए कमाना ही एकमात्र उद्देश्य निजी क्षेत्र का होगा। वह कहते हैं कि अंत में स्थानीय समुदाय अपने निस्तारी जंगलों से बेदखल हो जाएगा और शहरों में आकर मजूरी कर स्लम बस्तियों की संख्या बढ़ाएगा। एक तरह से सरकार ही अपनी नीतियों के माध्यम से आदिवासियों को उनकी जमीन से विस्थापित कर किसान से मजदूर बनने पर मजबूर कर रही है।(https://www.downtoearth.org.in/hindistory)
-रमेश अनुपम
आज छत्तीसगढ़ के सुपुत्र किशोर साहू का जन्मदिवस है। किशोर साहू जिन्हें देविका रानी से लेकर अपने समय की अनेक नामचीन अभिनेत्रियों के साथ अनेक सुपर-डुपर हिट फिल्मों में काम किया है तथा अनेक सुपर-डुपर फिल्में दी है।
उनके खाते में ‘मयूर पंख’, ‘सिंदूर’, ‘वीर कुणाल’, ‘राजा’, ‘जीवन प्रभात’, ‘सावन आया रेे’ जैसी अनेक फिल्में हैं।
सन 1948 में उन्होंने दिलीप कुमार और कामिनी कौशल को लेकर ‘नदिया के पार’ जैसी हिट फिल्म बनाई जिसमें छत्तीसगढ़ी बोली और गीत-संगीत को प्रश्रय दिया।
तो वहीं दूसरी ओर दिलीप कुमार जैसे अभिनेता को कैरियर संभालने का मौका दिया।
दुर्ग में जन्मे और राजनांदगांव में पढ़े-लिखे किशोर साहू किसी जमाने में हिंदी सिनेमा के सरताज हुआ करते थे।
दिलीप कुमार, राज कपूर और देवानंद जैसी हस्तियां उनके आगे पीछे मंडराती थी। राजकुमार, मनोज कुमार, माला सिन्हा, साधना जैसे अनेक अभिनेता-अभिनेत्रियों को उन्होंने हिंदी फिल्म में प्रवेश दिलवाया और उनके कैरियर को चमकाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया।
ऐसे किशोर साहू को छत्तीसगढ़ शासन ने ही आज भुला दिया है।
आज 22 अक्टूबर है किशोर साहू का जन्मदिन लेकिन इस सरकार को तथा इसके हुक्मरानों को इसका पता ही नहीं है।
छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा किशोर साहू की स्मृति में प्रतिवर्ष प्रदान किए जाने वाले ‘किशोर साहू राष्ट्रीय अलंकरण’ जिसके अंतर्गत 10 लाख रुपए की राशि प्रदान की जाती है उसका भी पिछले दो सालों से कोई अता-पता ही नहीं है।
यह अलग बात है कि राज्य स्थापना दिवस के अवसर पर फिर से इस वर्ष एक नवम्बर को 24 पुरस्कारों के नाम पर दो-दो लाख रुपयों की रेवडिय़ां बांटी जानी है।
पाकिस्तानी फौज को लंबे समय से पाकिस्तान में एक कमजोर नेता की तलाश थी और बिलावल भुट्टो जरदारी मुंहमांगी मुराद साबित होते दिख रहे हैं
-हर्ष वर्धन त्रिपाठी
पाकिस्तान में पिछले एक सप्ताह से जो कुछ हो रहा है, उससे पाकिस्तान में अवाम की बेचैनी बहुत स्पष्ट तौर पर नजर आ रही है। आतंकवाद और आर्थिक संकट से बुरी तरह से जूझ पाकिस्तान का सबसे बड़ा संकट यही है कि इस्लामिक मुल्क पाकिस्तान में कहने के लिए लोकतांत्रिक तौर पर चुनी हुई सरकार है, लेकिन सच यही है कि पाकिस्तानी फौज और वहां की खुफिया एजेंसी ISI ही देश को नियंत्रित करती है।
पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने गुजरांवाला की रैली में वीडियो संदेश के जरिये पाकिस्तान की अवाम से बात करते हुए पाकिस्तानी फौज और खुफिया एजेंसी की हर कारगुजारी को खोलकर रख दिया। पाकिस्तान में आतंकवादियों पर कार्रवाई नहीं हो पा रही है तो इसकी बड़ी वजह यही है कि लोकतांत्रिक तौर पर चुने गए प्रधानमंत्री के पास कोई अधिकार ही नहीं है और इमरान खान अब तक के सबसे कमजोर प्रधानमंत्री साबित हुए हैं।
हालंकि, इमरान खान की कमजोरी इस तरह से सामने आने की बड़ी वजह यह भी है कि पाकिस्तानी फौज के दबाव के अलावा पाकिस्तान के बुरे आर्थिक हालात में चीन का दबाव भी बहुत ज्यादा बढ़ गया है और चीन की कंपनियों के साथ पाकिस्तानी फौज के अधिकारियों के कारोबारी रिश्ते की वजह से भ्रष्टाचार के मामले सामने आने के बावजूद इमरान खान बयानबाजी से आगे बढ़ नहीं सके।
पाकिस्तानी फौज और खुफिया एजेंसी के अधिकारियों को यह भरोसा था कि इमरान खान की क्रिकेट सितारे के तौर पर प्रसिद्धि उनके काम आएगी और भारत के सामने इमरान खान का चेहरा रखकर पाकिस्तानी अवाम को यह समझाने में कामयाब रहेंगे कि भारत की तरफ से ही सारी गड़बड़ हो रही है, लेकिन भारत की स्पष्ट पाकिस्तान नीति की वजह से पाकिस्तानी फौज और ISI की हर शातिराना चाल धरी की धरी रह गई। उस पर दुनिया के हर मंच पर पाकिस्तान लगातार अपमानित होता रहा। इन वजहों से लंदन में रह रहे निर्वासित पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को पाकिस्तान की अवाम का भरोसा जीतने का अवसर दिखने लगा।
पाकिस्तान की अवाम में बढ़ रहे इसी गुस्से का उपयोग कर लेने की मंशा से नवाज शरीफ ने बेटी मरयम नवाज शरीफ के जरिये पूरे पाकिस्तान में जमीन पर आन्दोलन खड़ा किया और जब पाकिस्तान की जनता आतंकवादियों पर कोई कार्रवाई न कर पाने में असहाय दिख रहे प्रधानमंत्री इमरान खान को दुनिया के सामने गिड़गिड़ाते देखा तो उसी समय का इस्तेमाल नवाज शरीफ ने फिर से अपनी जमीन तलाशने के लिए करना शुरू किया।
नवाज शरीफ पर भ्रष्टाचार के बड़े आरोपों के बावजूद पाकिस्तान की जनता मरयम नवाज शरीफ के प्रति सहानुभूति रखती है और पाकिस्तान की अमनपसंद और लोकतंत्र बहाली की इच्छा रखने वाली जनता के मन में कहीं न कहीं यह बात है कि अगर नवाज शरीफ की चलती तो शायद भारत से रिश्ते इतने खराब नहीं होते। बालाकोट सर्जिकल स्ट्राइक करके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दुनिया के साथ पाकिस्तान की अवाम को भी बता दिया कि पाकिस्तान ने कश्मीर के जिस हिस्से पर अवैध कब्जा कर रखा है, उस जमीन का इस्तेमाल सिर्फ आतंकवादियों को तैयार करने में कर रहा है।
इस्लामोफोबिया की बात करके विश्वमंचों पर इमरान खान के पिटने और अमेरिका में जाकर खुद ही चालीस से पचास हजार आतंकवादियों के पाकिस्तानी जमीन पर होने और पाकिस्तान से भारत की भूमि पर आतंकवादियों के भेजने की स्वीकारोक्ति के बाद पाकिस्तानी फौज और आईएसआई के लिए भी इमरान खान बोझ बन चुके हैं। पाकिस्तानी फौज और आईएसआई पिछले 6 महीने से इमरान खान का विकल्प गंभीरता से खोजने में जुट गई थी, लेकिन लोकतंत्र का आवरण ओढ़ाकर प्रधानमंत्री की कुर्सी पर पुतला बैठाने के लिए कोई उचित नेता नहीं मिल पा रहा था।
FATF की ग्रे लिस्ट में होने से पाकिस्तान को आर्थिक मदद नहीं मिल पा रही थी, इससे पाकिस्तान फौज और आईएसआई के आर्थिक हितों पर भी असर पड़ रहा था। आतंकवाद से लड़ाई के नाम पर अमेरिका से मिलने वाली रकम भी अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने बंद कर दी है। इस बीच पाकिस्तानी अवाम नवाज शरीफ की पार्टी के साथ जुड़ती दिख रही थी।
कराची और गुजरांवाला में 11 राजनीतिक दलों के साझा लोकतांत्रिक अभियान की रैली में जबरदस्त भीड़ उमड़ी, लेकिन 11 पार्टियों के नेताओं में सबसे ज्यादा प्रभाव खांटी नेता नवाज शरीफ और उनकी बेटी मरयम नवाज शरीफ का ही दिख रहा था और नवाज शरीफ ने खुलेआम पाकिस्तानी फौज और ISI पर उनका तख्तापलट का आरोप लगाया। पाकिस्तानी अवाम सड़कों पर उतर रही थी, यह पाकिस्तान के लिए कोई नई बात नहीं थी, लेकिन फौज के खिलाफ इस तरह से पाकिस्तानी अवाम का गुस्सा शायद ही कभी इस तरह से दिखा हो।
कराची की सड़कों पर जनता उतर गई थी और गो नियाजी, गो बाजवा के नारे लग रहे थे। सिंध की पुलिस ने सामूहिक इस्तीफा दे दिया था। कराची की सड़कों पर पाकिस्तान की सेना और सिंध पुलिस आमने सामने थी। और, इन सबकी बुनियाद में मरियम नवाज शरीफ के पति कैप्टन सफदर की गिरफ्तारी के लिए सिंध के पुलिस प्रमुख का अपहरण करके उनसे जबरदस्ती कैप्टन सफदर की गिरफ्तारी का आदेश पारित करवाना था। सिंध पुलिस के 10 AIGs, 16 DIGs और 40 SSP ने इस्तीफा दे दिया था।
पाकिस्तानी सेना और सिंध पुलिस के बीच इस संघर्ष में अवाम के पुलिस के साथ खड़े होने के बीच पाकिस्तानी सेना के लिए संकट बढ़ रहा था। उसी बीच बिलावल भुट्टो जरदारी सिंध पुलिस प्रमुख के समर्थन में खड़े हो गए और सिंध पुलिस के अधिकारियों के साथ तस्वीर पोस्ट करते हुए लिखा कि, अभी-अभी मैं सिंध पुलिस के मुख्यालय, कराची पहुंचा हूं और पुलिस जवानों का मनोबल बढ़ाने के लिए सिंध पुलिस के प्रमुख आईजी और दूसरे अधिकारियों के साथ मुलाकात की है। 20 अक्टूबर को 9 बजकर 47 मिनट पर बिलावल भुट्टो जरदारी सिंध पुलिस मुख्यालय से ट्वीट करते हैं कि I
उससे पहले उनकी पार्टी के मीडिया सेल के ट्विटर खाते से 8 बजकर 31 मिनट पर ट्वीट किया गया कि चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ जनरल कमर जावेद बाजवा ने पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के चेयरमैन बिलावल भुट्टो जरदारी से फोन पर कराची में हुई घटना पर बात की। और, अगले ट्वीट में पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की मीडिया सेल ने लिखा कि PPP चेयरमैन ने कराची की घटना पर चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ की तुरंत कार्रवाई के लिए उनकी तारीफ की और उन्होंने भरोसा दिलाया है कि जांच में पूरी तरह पारदर्शिता बरती जाएगी।
इस ट्वीट को बिलावल भुट्टो जरदारी ने रीट्वीट किया और इसके बाद सिंध पुलिस के मुख्यालय गए, वहां से सिंध पुलिस के अधिकारियों के साथ तस्वीर जारी की और 20 अक्टूबर को रात 11 बजकर 42 मिनट पर सिंध पुलिस के ट्विटर खाते से 6 ट्वीट के साथ आईजी सिंध और सिंध पुलिस के सभी अधिकारियों ने छुट्टी पर जाने का फैसला रद्द कर दिया।
पाकिस्तानी फौज और ISI को लंबे समय से पाकिस्तान में एक कमजोर नेता की तलाश थी और बेनजीर भुट्टो के बेटे बिलावल भुट्टो जरदारी पाकिस्तानी फौज और ISI के लिए मुंहमांगी मुराद जैसे साबित होते दिख रहे हैं। अभी पाकिस्तान के हालात बेहद खराब हैं। जनता सरकार के साथ फौज और ISI के खिलाफ खुलेआम बोल रही है। ऐसे में पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के चेयरमैन बिलावल भुट्टो जरदारी में पाकिस्तानी फौज और ISI संभावना देख रही है। (hindi.moneycontrol.com)
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और हिंदी ब्लॉगर हैं)
-पूजा गुप्ता
नई दिल्ली, 11 अक्टूबर (आईएएनएस)| रोजाना दिए गए सिर्फ एक रुपये के स्वैच्छिक योगदान से बिहार के नवादा जिले में युवा लड़कियों ने गरीब लड़कियों की मासिक धर्म की जरूरतों को पूरा करने के लिए सेनेटरी पेड बैंक खोला है।
जब कुछ लड़कियों ने देखा कि पैसे की कमी के कारण कई लड़कियों को सैनिटरी पैड नहीं मिल पाते हैं, तो उन्होंने मिलकर एक पहल की। उन्होंने रोजाना 1-1 रुपये का स्वैच्छिक योगदान इकट्ठा करना शुरू किया और बैंक की स्थापना कर दी।
इंटरनेशनल डे ऑफ गर्ल चाइल्ड (11 अक्टूबर) के मौके पर उन्होंने बताया कि पॉपुलेशन फाउंडेशन ऑफ इंडिया द्वारा शुरू किए गए एक शो 'मैं कुछ भी कर सकती हूं' ने उन्हें यह काम करने की प्रेरणा दी।
अमावा गांव के युवा नेता अनु कुमारी ने कहा, "हम हर दिन एक रुपया जमा करते हैं, यानी एक लड़की हर महीने 30 रुपये जमा करती है। हम इस पैसे से सैनिटरी पैड खरीदते हैं और उन गरीब लड़कियों में बांट देते हैं, जिनके पास इन्हें खरीदने के पैसे नहीं होते हैं।"
नवादा के पूर्व सिविल सर्जन डॉ.श्रीनाथ प्रसाद कहते हैं, "लड़कियां पहले अपने लिए आवाज नहीं उठा पाती थीं, ना वे सैनिटरी पैड के बारे में जानती थीं। लेकिन आज उन्होंने लड़कियों के लिए सैनिटरी पैड का एक बैंक शुरू किया है। आप कल्पना कर सकते हैं कि 'मैं कुछ भी कर सकती हूं' पहल ने कितना प्रभाव डाला है।"
ये लड़कियां यहीं नहीं रुकीं, बल्कि वे अब परिवार नियोजन जैसे अन्य महत्वपूर्ण लेकिन अब तक वर्जित रहे विषयों पर भी संवाद कर रही हैं। हरदिया की 17 वर्षीय मौसम कुमारी कहती हैं, "अब हम गांवों का दौरा करते हैं और महिलाओं को अंतरा इंजेक्शन, कॉपर टी, कंडोम जैसे विकल्पों के बारे में बताती हैं।"
अब युवाओं के लिए स्वास्थ्य क्लीनिकों की स्थापना करने की तैयारी है। जाहिर है, लड़कियों के इन प्रयासों ने पुरुषों की सोच में भी बदलाव लाया है। हरदिया के पूर्व मुखिया भोला राजवंशी कहते हैं, "मुझे लगता है कि अब हमारा समाज बदल गया है। अब लड़कियों और लड़कों के बीच कोई अंतर नहीं है।"
पॉपुलेशन फाउंडेशन ऑफ इंडिया की कार्यकारी निदेशक पूनम मुटरेजा ने कहा, "मुझे खुशी है कि यह शो उनके जीवन को प्रभावित कर रहा है और यही हमारा लक्ष्य है। हमने डॉ. स्नेहा माथुर जैसे प्रेरक चरित्र के जरिए सेक्स, हिंसा, लिंग भेदभाव, स्वच्छता, परिवार नियोजन, बाल विवाह, मानसिक स्वास्थ्य, नशीली दवाओं के दुरुपयोग, पोषण और किशोर स्वास्थ्य के बारे में कठिन लेकिन महत्वपूर्ण मुद्दों पर बातचीत की।"
इस शो के निर्माता, प्रसिद्ध फिल्म और थिएटर निर्देशक फिरोज अब्बास खान कहते हैं, "जब 7 साल पहले मैंने इस शो की अवधारणा लिखी थी, तब मैंने भी नहीं सोचा था कि हम इसके ऐसे प्रभाव देखेंगे। मुझे बहुत खुशी होती है कि 'मैं कुछ भी कर सकती हूं' युवा, किशोर लड़कियों के लिए एक सशक्त नारा बन गया है जो अब जमीनी बदलाव लाने के लिए काम कर रही हैं।"
'मैं कुछ भी कर सकती हूं' एक युवा डॉ.स्नेहा माथुर की प्रेरणादायक यात्रा के इर्द-गिर्द घूमता है, जो मुंबई के अपने आकर्षक कैरियर को छोड़कर अपने गांव में आकर काम करती हैं। बाद उनके नेतृत्व में गांव की महिलाएं सामूहिक तौर पर कई अहम काम करती हैं।
डॉयचे वैले पर ऋतिका पाण्डेय की रिपोर्ट-
यूरोपीय देशों के कृषि मंत्रियों की बैठक में पूरे संघ पर लागू होने वाले कृषि सुधारों पर सहमति बन गई. बड़े स्तर पर लाए जाने वाले बदलावों में सबसे ज्यादा ध्यान इसे पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन के लिहाज से मुफीद बनाने पर रहा. नई कृषि नीति को संघ के सभी 27 देशों ने स्वीकार कर लिया है. अब अगला कदम ब्रसेल्स स्थित यूरोपीय संसद में इसे पास करना होगा. इसी हफ्ते संसद में कृषि सुधारों से जुड़े प्रस्तावों पर मतदान होना है.
ईयू के सभी सदस्य देशों और यूरोपीय संसद को अब से लेकर अगले साल के बीच इस नीति के अंतर्गत आने वाले सभी नियम तय करने होंगे, जिसके बाद जनवरी 2023 से नई नीति अनिवार्य रूप से लागू हो जाएगी. 2021 से शुरु कर पहले दो सालों तक इसका पायलट फेज चलेगा. समझौते के बाद जर्मनी की कृषि मंत्री यूलिया क्लोएक्नर ने पत्रकारों से बातचीत में नई कृषि नीति को पहले से ज्यादा "ग्रीन, फेयर" और सरल बताया.
कैसे दिया जाएगा खेती को 'ग्रीन' बनाने पर जोर
यूरोपीय संघ ने नई कृषि नीति के तहत लाए जाने सुधारों के मद में अगले सात सालों में 387 अरब यूरो (करीब 459 अरब डॉलर) खर्च करने का बजट तय किया है. साझा कृषि नीति पर खर्च होने वाला यह ईयू के कुल बजट का सबसे बड़ा हिस्सा होगा. नई नीति में यह तय किया गया है कि सभी किसानों पर इसका संस्थागत दबाव होना चाहिए कि अगर वे सरकारों से वित्तीय मदद लेना चाहते हैं तो उन्हें पर्यावरण के लिहाज से और भी ज्यादा सख्त नियमों का पालन करना होगा.
छोटे किसानों के लिए प्रशासनिक तामझाम थोड़े कम रखे जाएंगे, जिससे वे प्रक्रियाओं का "कम बोझ उठाएं और पर्यावरण व जलवायु के लक्ष्यों में ज्यादा योगदान दे सकें." भविष्य में आने वाली सभी नई 'ईको-स्कीमों' में किसानों को सरकार से किसी भी तरह की प्रत्यक्ष प्रोत्साहन राशि हासिल करने के लिए पर्यावरण से जुड़े कड़े नियमों का पालन करना अनिवार्य होगा.
यह भी प्रावधान होगा कि अगर कोई किसान जलवायु और पर्यावरण से जुड़ी न्यूनतम शर्तों से भी आगे बढ़कर खेती करता है तो उसे उसी अनुपात में अतिरिक्त प्रोत्साहन राशि भी मिलेगी. इसके लिए ईयू के सभी सदस्य देशों को संघ द्वारा दी जाने वाली राशि का कम से कम 20 फीसदी रिजर्व रखना होगा. इस राशि को लेकर संघ के कई सदस्य देशों के बीच पहले असहमति थी. खासकर पूर्वी यूरोप के कई देशों को डर था कि अगर उनके किसान बढ़ चढ़ कर ईकोफ्रेंडली खेती करने के लिए तैयार नहीं होते हैं तो उन्हें यूरोपीय संघ से मुहैया कराई जाने वाली पूरी प्रत्यक्ष प्रोत्साहन राशि भी नहीं मिल पाएगी. यूरोपीय संसद में कृषि प्रमुख यानुस वोइचिकोव्स्की का कहना है कि इन चिंताओं पर चर्चा करने और उन्हें "अच्छे से निपटाने" पर आगे बातचीत होगी.
क्यों पड़ी नई साझा कृषि नीति की जरूरत
जलवायु परिवर्तन की रफ्तार, जैवविविधता में ह्रास, मिट्टी का क्षरण और जल प्रदूषण जैसी समस्याएं दिन पर दिन गंभीर होती जा रही हैं. यही कारण है कि कृषि नीति में बड़े बदलावों की जरूरत महसूस की जा रही थी. यूरोपीय परिषद ने सन 2018 में कृषि सुधारों की एक विस्तृत रूपरेखा पेश की थी, जिसे 2021 से 2027 के बीच लागू किए जाने का प्रस्ताव था. अब इसमें पहले दो सालों को पायलट फेज मानने और फिर 2023 से इसे अनिवार्य बनाने पर सहमति बनी है.
इसके अलावा, खाने पीने की चीजों का सस्ता होना भले ही अब तक खरीदारों को नहीं खलता था लेकिन इससे यूरोपीय किसानों की आय पर बुरा असर पड़ता आया है और वे अपनी फसल और उपज की क्वालिटी को और सुधारने की हालत में भी नहीं रहते. यूरोप में सरकारी कृषि सब्सिडी के वितरण को लेकर यह समस्या बताई जाती है कि इसका बड़ा हिस्सा केवल बड़े किसानों तक ही पहुंचता है और छोटे किसानों को इसका ज्यादा फायदा नहीं मिलता.
इसी साल मई में यूरोपीय परिषद ने "फार्म टू फोर्क” (F2F) रणनीति पेश की थी जिसका मकसद ऑर्गेनिक खेती को बढ़ावा देना और खेती में कीटनाशकों और रासायनिकउत्पादों के इस्तेमाल को कम करना था. उसका लक्ष्य 2030 तक कीटनाशकों के इस्तेमाल में 50 फीसदी और उर्वरकों के इस्तेमाल में 20 फीसदी की कमी लाना है. इन महत्वाकांक्षी लक्ष्यों को हासिल करने के लिए तमाम विस्तृत नियम भी नई साझा कृषि नीति का हिस्सा होंगे. (dw.com)
पाकिस्तान में इस हफ़्ते एक अजीब तरह की घटना को लेकर सियासत गरमा गई है. ये ऐसी घटना है, जिसमें हमेशा की तरह मंच पर सत्ता पक्ष-विपक्ष के नेता और फ़ौजी तो दिख ही रहे हैं, इस बार मैदान में पुलिस भी उतर आई है.
घटना को अजीब इसलिए कहा जा सकता है, क्योंकि पाकिस्तान के इतिहास में शायद ये पहली बार है, जब ऐसा आरोप लगा है कि पुलिस के एक बड़े अफ़सर को ही 'अग़वा' कर लिया गया और उनसे ज़बरदस्ती एक नेता को गिरफ़्तार करवाने के लिए दस्तख़त करवाए गए.
और वो नेता थे पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ के दामाद और रिटायर्ड फ़ौजी कैप्टन मोहम्मद सफ़दर.
पुलिस वालों ने इसे अपनी इज़्ज़त का मामला बना लिया और फिर अफ़सर और उनके एक दर्जन से ज़्यादा दूसरे अफ़सरों ने दो महीने के लिए छुट्टी पर जाने की दरख़्वास्त डाल दी.
फिर मामले में सेना ने दख़ल दिया और सेना प्रमुख ने मामले की फ़ौरन जाँच कराने का आदेश जारी किया.
इसके बाद पुलिस अफ़सरों ने अपनी छुट्टी की अर्ज़ी को और 10 दिन के लिए टाल दिया है.
इस मामले को लेकर अब सत्ता पक्ष और विपक्ष आमने-सामने आ गए हैं. हालाँकि, दोनों के बीच टकराव इस घटना से कुछ समय पहले ही शुरू हो गया था और इस हफ़्ते जो भी हुआ वो उसी की एक कड़ी है.
पाकिस्तान में विपक्ष ने महँगाई, बिजली नहीं रहने और दूसरे आर्थिक मुद्दों को लेकर इमरान ख़ान सरकार को घेरना शुरू कर दिया है. वहाँ विपक्षी दलों ने मिलकर पाकिस्तान डेमोक्रेटिक मूवमेंट (पीडीएम) नाम का एक गठबंधन बनाया है.
इसमें चार बड़ी पार्टियों पाकिस्तान मुस्लिम लीग (नवाज़), पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी, जमीयत उलेमा-ए-इस्लाम (फ़ज़लुर) और पख़्तूनख़्वाह मिल्ली अवामी पार्टी के अलावा बलोच नेशनल पार्टी और पख़्तून तहफ़्फ़ुज़ मूवमेंट जैसी छोटी पार्टियाँ भी शामिल हैं.
पीडीएम ने सरकार पर हमला बोलते हुए इस महीने दो रैलियाँ कीं. 16 अक्तूबर को पंजाब के गुजरांवाला में और 18 अक्तूबर को सिंध की राजधानी कराची में. और दूसरी रैली के अगले ही दिन एक दूसरा मामला शुरू हो गया.
19 अक्तूबर को क्या हुआ?
18 अक्तूबर को रैली हुई और उसके अगले ही दिन मुँह अंधेरे नवाज़ शरीफ़ के दामाद कैप्टन (रि.) मोहम्मद सफ़दर को पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना की मज़ार का अनादर करने के आरोप में गिरफ़्तार कर लिया गया.
उन्हें बाद में ज़मानत पर छोड़ दिया गया और शाम को वो लाहौर लौट आए.
मोहम्मद सफ़दर रैली वाले दिन यानी 18 अक्तूबर को कराची में अपनी पत्नी मरियम और पार्टी कार्यकर्ताओं के साथ मोहम्मद अली ज़िन्ना की मज़ार पर गए थे और वहाँ उन्होंने घेरे के भीतर जाकर जिन्ना की क़ब्र के पास नारे लगाए थे. इसी वजह से उन्हें अगले दिन गिरफ़्तार कर लिया गया.
नवाज़ शरीफ़ की बेटी मरियम नवाज़ और विपक्षी पार्टियाँ इस गिरफ़्तारी को राजनीतिक बदले की कार्रवाई बता रही हैं और उनका दावा है कि गिरफ़्तारी भले पुलिस ने की, लेकिन इसमें पाकिस्तानी अर्धसैनिक बल रेंजर्स का हाथ है.
मरियम नवाज़ ने आरोप लगाया कि कराची के जिस होटल में वो और उनके पति ठहरे थे, वहाँ पुलिस उनके कमरे की कुंडी तोड़ भीतर चली आई और तब वो लोग सो रहे थे.
मरियम नवाज़ ने एक प्रेस कॉन्फ़्रेंस में कहा, "हम सो रहे थे जब बहुत सुबह मुझे लगा कि कोई किसी का दरवाज़ा पीट रहा है, मैंने अपने पति को उठाया और कहा कि ये आवाज़ हमारे ही दरवाज़े से आ रही है. सफ़दर ने दरवाज़ा खोला तो वहाँ पुलिसवाले थे जिन्होंने कहा कि वो उन्हें गिरफ़्तार करने आए हैं. सफ़दर ने कहा कि वो कपड़े बदलकर और अपनी दवा लेकर आ रहे हैं, लेकिन वो नहीं माने और दरवाज़ा तोड़ भीतर चले आए."
मरियम नवाज़ और लंदन में इलाज करवा रहे उनके पिता नवाज़ शरीफ़ ने ये भी आरोप लगाया है कि "सिंध के पुलिस महानिरीक्षक को अग़वा कर उनसे ज़बरदस्ती गिरफ़्तारी आदेश पर दस्तख़त करवाया गया."
पाकिस्तान के एक पत्रकार ने पीएमएल(एन) के एक वरिष्ठ नेता मुहम्मद ज़ुबैर का एक कथित ऑडियो क्लिप ट्वीट किया, जिसमें वो ये कहते सुने गए कि उन्हें सिंध के मुख्यमंत्री मुराद अली शाह ने बताया कि सिंध के आईजी ने जब गिरफ़्तार करने से मना कर दिया तो रेंजर्स उन्हें सुबह चार बजे अग़वा कर सेक्टर कमांडर के दफ़्तर ले गए, जहाँ अतिरिक्त आईजी को भी बुलाया गया और उनसे ज़बरन आदेश जारी करवाए गए."
सिंध में पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की सरकार है, यानी विपक्ष की ही सरकार है. लेकिन मरियम नवाज़ का कहना है कि उन्हें ज़रा भी संदेह नहीं कि गिरफ़्तारी में पीपीपी का हाथ है, ये घटना विपक्ष में फूट डालने की कोशिश है.
मरियम ने कहा कि सिंध के "पीपीपी प्रमुख बिलावल भुट्टो ने उनसे बात की और वो काफ़ी नाराज़ थे."
उन्होंने कहा, "सिंध के मुख्यमंत्री ने भी उनसे कहा कि उन्हें ऐसी घटना की ज़रा भी उम्मीद नहीं थी."
नवाज़ शरीफ़ के दामाद की गिरफ़्तारी पर हंगामे के अगले दिन सिंध के कई सीनियर पुलिस अधिकारियों ने लंबी छुट्टी पर जाने का आवेदन डाल दिया. इनमें अतिरिक्त आईजीपी (स्पेशल ब्रांच) इमरान याक़ूब मिन्हास भी शामिल थे.
मीडिया में जारी उनकी छुट्टी की अर्ज़ी में लिखा गया, "कैप्टन (रि.) सफ़दर के ख़िलाफ़ एफ़आईआर के हाल के मामले में पुलिस हाईकमान का ना केवल उपहास किया गया और लापरवाही बरती गई, बल्कि इससे सिंध पुलिस के सभी पुलिसकर्मी हताश और स्तब्ध हैं".
उन्होंने आगे लिखा कि ऐसी "तनावपूर्ण" स्थिति में उनके लिए पेशेवर तरीक़े से काम करना मुश्किल है और इसलिए वो दो महीने की छुट्टी चाहते हैं.
सिंध के पुलिस अधिकारियों के इस क़दम की काफ़ी चर्चा हुई और सोशल मीडिया पर इसे सिंध पुलिस का एक "कड़ा जवाब" बताया गया.
पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ ने कहा," मैं सिंध की पुलिस को शाबासी देता हूँ, जिन्होंने ख़ुद्दारी और बहादुरी का सबूत दिया है और इसके ख़िलाफ़ विरोध दिया है और उनका ये क़दम सारे देश को एक राह दिखाता है."
पुलिस अफ़सरों के छुट्टी पर जाने की बात सामने आने के बाद पीपीपी प्रमुख बिलावल भुट्टो ज़रदारी ने एक प्रेस कॉन्फ़्रेंस कर सेना प्रमुख जनरल क़मर जावेद बाजवा और आईएसआई के महानिदेशक जनरल फ़ैज़ हमीद से मामले की जाँच करवाने की माँग की.
बिलावल ने कहा कि सिध के मुख्यमंत्री ने घटना की जाँच के आदेश जारी कर दिए हैं और सेना प्रमुख को भी जाँच करवानी चाहिए क्योंकि "ये पुलिस अधिकारियों की प्रतिष्ठा और आत्मसम्मान का मसला है".
बिलावल की प्रेस कॉन्फ़्रेंस ख़त्म होने के थोड़ी ही देर बाद सेना की ओर से एक बयान जारी कर कहा गया कि सेना प्रमुख ने कराची की घटना पर ग़ौर करते हुए, कोर कमांडर कराची को तत्काल इन परिस्थितियों की जाँच रिपोर्ट जल्द-से-जल्द पेश करने का आदेश दिया है.
जनरल बाजवा के जाँच के आदेश के बाद मंगलवार रात को सिंध के पुलिस अधिकारियों ने बिलावल भुट्टो से कराची में मुलाक़ात की और बाद में अपनी छुट्टी पर जाने की तारीख़ को 10 दिनों के लिए टाल दिया.
सिंध पुलिस ने मंगलवार को देर रात ट्वीट किया, "आईजी सिंध ने अपनी छुट्टी को टालने का फ़ैसला किया है और अपने अफ़सरों से भी अपनी छुट्टियों की अर्ज़ी को देश हित में 10 दिन के लिए टालने का आदेश दिया है, जब तक कि जाँच का निर्णय ना आ जाए."
क्या कह रहे हैं इमरान
इमरान ख़ान ने इस मामले पर अभी कुछ नहीं कहा है. लेकिन उन्होंने विपक्ष की उनकी सरकार के ख़िलाफ़ घेरेबंदी की कोशिश को एक 'सर्कस' का नाम दिया है.
पीडीएम की शुक्रवार की रैली के अगले दिन इमरान ख़ान ने इस्लामाबाद में एक सभा में मरियम नवाज़ और बिलावल भुट्टो पर कटाक्ष करते हुए कहा था, "मैं उन दो बच्चों के बारे में बात नहीं करना चाहता जो भाषण देते हैं. और मैं इसलिए नहीं बात करना चाहता क्योंकि कोई भी इंसान तब तक नेता नहीं बनता, जब तक कि उसने संघर्ष ना किया हो. इन दोनों ने अपनी ज़िंदगी में एक घंटे भी हलाल काम नहीं किया है. आज भाषण दे रहे ये दोनों अपने-अपने पिता की हराम की कमाई पर पले हैं. उनके बारे में बात करना बेकार है."
इसके अगले दिन मरियम नवाज़ ने कराची की रैली में इमरान ख़ान को ये जवाब दिया,"आपने लोकतंत्र की क़ब्र खोदी, पर नवाज़ शरीफ़ ने कभी भी आपका नाम नहीं लिया. आज भी आप चाहते होंगे, पर नवाज़ शरीफ़ आपका नाम नहीं लेंगे, क्योंकि बड़ों की लड़ाई में बच्चों की कोई भूमिका नहीं होती."
बड़ों से मरियम का इशारा पाकिस्तान की सेना और आईएसआई की ओर था. नवाज़ शरीफ़ ये आरोप लगाते रहे हैं कि उन्हें देश से बाहर करवाने में सेना और आईएसआई का हाथ है और इमरान ख़ान उन्हीं की कठपुतली सरकार है.
नवाज़ शरीफ़ को भ्रष्टाचार के कई मामलों में जुलाई 2018 में 10 साल जेल की सज़ा हुई थी. अगले साल उन्हें इलाज के लिए ज़मानत दे दी गई जिसके बाद से वो लंदन में हैं.(bbc)
डॉयचे वैले पर शिवप्रसाद जोशी की रिपोर्ट-
दिल्ली विश्वविद्यालय के दाखिलों में 100 प्रतिशत की सीलिंग, छात्रों के बेहतर प्रदर्शन के अलावा कॉलेजों की कमी और गुणवत्ता के स्तर की ओर भी इशारा करती है. अन्य राज्यों के छात्रों की ‘दिल्ली चलो’ की चाहत आखिर क्या कहती है?
कोरोना के चलते अधिकांश विश्वविद्यालयों में दाखिले की प्रक्रिया ऑनलाइन है. दिल्ली विश्वविद्यालय में दाखिले की कटऑफ अधिकांश विषयों में 98 और 100 प्रतिशत के बीच है. बहुत से विषयों में तो 100 प्रतिशत की पहली कटऑफ के साथ दाखिले बंद हो चुके हैं. दिल्ली विवि में स्नातक कक्षाओं के लिए 70 हजार सीटें हैं और पचास प्रतिशत सीटें पहली सूची के आधार पर भरी जा चुकी हैं. हो सकता है इस बार भी हजारों छात्रों को मायूसी हाथ लगे. दाखिलों को लेकर वैसे ये घमासान कोई पहली बार नहीं हुआ है. इस वर्ष कुछ ज्यादा इसलिए नजर आ रहा है क्योंकि महामारी के बीच अंक निर्धारण पद्धति में किए गए बदलावों और उनके तहत दी गयी राहतों के फलस्वरूप 12वीं के नतीजे अप्रत्याशित और रिकॉर्ड स्तर पर बढ़े हुए आए हैं.
सुप्रीम कोर्ट के आदेशानुसार विद्यार्थियों ने जिन विषयों में सबसे अच्छा प्रदर्शन किया था, उसके आधार पर अंक दिए गए क्योंकि कुछ विषयों के पेपर रद्द भी करने पड़े थे. इस वर्ष सीबीएसई की 12वीं की परीक्षा देने वाले करीब 12 लाख छात्रों में साढ़े दस लाख से कुछ अधिक छात्र पास हुए थे. 95 प्रतिशत और उससे अधिक नंबर लाने वाले छात्रों की संख्या पिछले साल 17690 थी, इस बार थी 38686. यानी सौ प्रतिशत से भी ज्यादा. 90 से 95 प्रतिशत अंक लाने वाले छात्रों की संख्या इस बार करीब एक लाख 58 हजार थी, जबकि पिछले साल थी 94 हजार. अंकों में ये उछाल सिर्फ सीआईसीएसई और आईबी बोर्डों के साथ साथ राज्य सरकारों के शिक्षा बोर्डों में भी हैं जिनकी परीक्षाओं में पास प्रतिशत की दर इस बार बढ़ी हुई थी. सभी बोर्डो के तहत कुल एक करोड़ से अधिक छात्र 12वीं परीक्षा में बैठे थे.
लोकप्रिय हैं कुछ कॉलेज और यूनिवर्सिटी
जब अंकों की ये बरसात हो रही थी तो ये मुद्दा तभी उभर आया था कि इस बार दिल्ली विवि जैसे संस्थानों में दाखिले की होड़ मचेगी. 91 कॉलेजों, 86 विभागों, 20 केंद्रों, 3 संस्थानों और 70 हजार सीटों वाले दिल्ली विश्वविद्यालय में करीब ढाई लाख बच्चों ने दाखिले के लिए अर्जी दी. ऊंची कटऑफ की एक वजह इंजीनियरिंग, मेडिकल और लॉ कॉलेजों की प्रवेश परीक्षाओं में देरी को भी बताया जा रहा है. एक वजह ये भी बतायी गयी है कि विदेशी विश्वविद्यालयों में दाखिला लेने वाले संभावित छात्रों ने इस बार महामारी के चलते दिल्ली यूनिवर्सिटी जैसे घरेलू प्रतिष्ठित संस्थानों का ही रुख किया. माना तो ये भी जा रहा था कि सुरक्षा और सुविधा देखते हुए छात्र अपने अपने शहरों या राज्यों में ही दाखिला लेंगे लेकिन इतने अधिक आवेदनों को देखते हुए ये बात सही नहीं निकली. ऑनलाइन आवेदन की सुविधा और महामारी के चलते निकट भविष्य में ऑनलाइन पढ़ाई की संभावना ने भी छात्रों को दिल्ली यूनिवर्सिटी की ओर आकर्षित किया. धारणाएं ये भी है कि दिल्ली में अधिक सहज, सुगम, साधनसंपन्न सामाजिक और शैक्षणिक पर्यावरण मिल सकता है और डीयू की डिग्री का मतलब रोजगार के बेहतर अवसर है.
डीयू के मोह से ये भी स्पष्ट होता है कि इस दिशा में केंद्र और राज्यों की ओर से पर्याप्त और प्रभावी पहल नहीं हुई है जिससे छात्रों का अनावश्ययक माइग्रेशन यथासंभव रोका जा सके. एक बात ये भी है कि अगर 12वीं की परीक्षा के नतीजे बहुत अच्छे आ रहे हैं तो सीटें और कॉलेजों की संख्या भी उस हिसाब से बढ़नी चाहिए. एक आंकड़े के मुताबिक दिल्ली में हर साल करीब ढाई लाख विद्यार्थी 12वीं की परीक्षा पास करते हैं. उनमें से करीब सवा लाख छात्रों को ही दिल्ली के कॉलेजों में दाखिला मिल पाता है. सीटें कम हैं और छात्रों की संख्या अधिक. ये हाल कमोबेश सभी राज्यों में हैं, उन राज्यों के सरकारी विश्वविद्यालयों में तो दाखिले की वैसी ही होड़ है जो अकादमिक रुतबे और संसाधनों की सुविधा के मामले में डीयू के समान या उससे भी अव्वल हैं.
80-90 प्रतिशत या शत-प्रतिशत अंक न ला पाने वाले विद्यार्थियों के प्रति अघोषित नाइंसाफी आखिर कैसे दूर होगी. शिक्षा न सिर्फ बढ़ते खर्च के बोझ से बल्कि अंकों के खौफ से भी डगमगा रही है. ज्यादा से ज्यादा अंकों की ये मारामारी एक डरा हुआ और व्यग्र समाज बना चुकी है. अंकों में अंतर उच्च शिक्षा में एक नया विभाजन भी पैदा करता रहा है. इसे सब जानते हैं सरकार से लेकर अकादमिक विशेषज्ञों तक, लेकिन सभी लाचार नजर आते हैं. समस्या के कई बिंदु हैं, सीटों की तुलना में आवेदनों की अधिक संख्या, 12वीं की मूल्याकंन पद्धति की कमजोरियां, ओवर एडमिशन से बचने के लिए कॉलेजों की ऊंची कटऑफ, गुणवत्तापूर्ण सरकारी विश्वविद्यालयों की कमी.
दिल्ली में नए कॉलेजों की समस्या
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने नए कॉलेजों की स्थापना के लिए 1927 के दिल्ली विश्वविद्यालय अधिनियम में संशोधन की मांग की है. उनके मुताबिक अधिनियम में लिखा है कि अगर दिल्ली में कोई नया कॉलेज खुलता है तो वो डीयू से ही संबंद्ध किया जा सकता है, किसी और यूनिवर्सिटी से नहीं. लेकिन पिछले 30 साल में डीयू ने कोई नया कॉलेज नहीं खोला है और ये संभव भी नहीं है कि क्योंकि उनकी क्षमता पूरी हो चुकी है. एक मामूली सा संशोधन 1998 में हुआ था जिसके मुताबिक डीयू के अलावा नए कॉलेज आईपी यूनिवर्सिटी से भी संबद्ध किए जा सकते हैं. लेकिन वहां भी क्षमता पूरी हो चुकी है.
सरकारी विश्वविद्यालयों और संस्थानों की गुणवत्ता को बेहतर बनाया जाए, राज्य उच्च शिक्षा में और अधिक संसाधन लगाने और निवेश के लिए आगे आएं. हर राज्य अपने यहां कम से कम दो या तीन नामीगिरामी विश्विविद्यालयों को खड़ा करने या संवारने का एक वृहद और संवेदनशील खाका शिक्षा विशेषज्ञों, अकादमिकों, शिक्षकों और नीति नियोजकों के साथ मिलकर तैयार करे. यानी ये काम इतने व्यापक, बहुआयामी और गहन स्तर पर किए जाने की जरूरत है कि छात्र डीयू, जेएनयू या किसी और प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय का मुंह न ताके बल्कि अपने राज्य में ही दाखिले के लिए उत्सुक बनें. इस काम में अकादमिक और शैक्षणिक अनुभवों वाले नयी और पुरानी पीढ़ी के जानकार शिक्षकों की एक समन्वित और पारदर्शी टीम भी गठित की जा सकती है, जो उच्च शिक्षा के बारे में और विषयों के बारे में एक जागरूकता अभियान छात्रों के बीच चला सके. कुछ इस तरह का अभियान जिसमें सिर्फ 90 या सौ अंक लाने वालों की जगह न हो बल्कि उत्साही और बेहतरी का सपना संजोने वाले सभी विद्यार्थियों को समावेशित किया जा सके.
क्या व्यावहारिक रूप से ऐसा हो पाना संभव है कि उच्चशिक्षा के क्षेत्र में चुनिंदा संस्थानों और उच्च अंकों का वर्चस्व टूट सके. इस विभाजन को खत्म करने के लिए जरूरी है कि सरकारें प्रतिबद्धता दिखाते हुए शिक्षा का बजट बढ़ाएं, शिक्षा को सार्वभौम बनाएं और उसके निजीकरण की आंधी को हवा न दें. जाहिर है इसकी शुरुआत प्राथमिक शिक्षा के स्तर से ही करनी होगी. सवाल यही है कि क्या सरकारें शिक्षा के लिए इतना समय और संसाधन खर्च करने को तैयार हैं? क्या एनईपी 2020 में ये भावना परिलक्षित होती है?(dw.com)
-पवन वर्मा
पश्चिमी दुनिया और भारत के तकरीबन 2000 व्यंजनों के विश्लेषण से पता चला है कि भारतीय खाना इतना स्वादिष्ट क्यों होता है।
कहा जाता है कि खाना और उसका स्वाद संस्कृति का हिस्सा होते हैं और संस्कृति बदलने पर वे भी बदल जाते हैं। लेकिन पंजाब का पनीर टिक्का हो, गुजरात का फाफड़ा या फिर तमिलनाडु का इडली डोसा, ये व्यंजन भारत ही नहीं, पूरी दुनिया को अपने स्वाद का मुरीद बनाए हुए हैं। भारत के कई और व्यंजनों के बारे में भी यही बात कही जा सकती है।
यानी संस्कृति से इतर भी कुछ वजह है जिससे अलग-अलग देशों के लोग भारतीय खाने की तरफ आकर्षित होते हैं। लेकिन क्या? यह गुत्थी कुछ समय पहले हुए एक अनुसंधान से सुलझी है। भारतीय खाने के इस विशिष्ट स्वाद की वजह इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी (आईआईटी) जोधपुर के तीन छात्रों के शोध से सामने आई। कुछ साल पहले हुए इस शोध के अंतर्गत पश्चिमी दुनिया और भारत के तकरीबन 2000 व्यंजनों का अध्ययन किया गया। इन सभी व्यंजनों में तकरीबन 200 खाद्य सामग्रियां और मसाले इस्तेमाल किए जाते हैं।
‘स्पाइसेज फॉर्म द बेसिस ऑफ फूड पेयरिंग इन इंडियन क्विजीन’ शीर्षक से प्रकाशित इस शोधपत्र में पाक कला के सबसे बुनियादी तर्क को आधार बनाकर निष्कर्ष निकाले गए हैं। यह तर्क कहता है किसी व्यंजन में एक-दूसरे से बिलकुल अलग और एक समान स्वाद वाले पदार्थों का मेल तय करता है कि उसका स्वाद लोगों को कितना लुभाएगा।
शोध के मुताबिक यदि हम पश्चिमी व्यंजनों को देखें तो उनमें तकरीबन एक जैसे स्वाद वाली सामग्रियां ही पड़ती है। पश्चिम में पाककला का विकास इसी बुनियादी सिद्धांत पर हुआ है कि एक व्यंजन में बिल्कुल अलग स्वाद वाली खाद्य सामग्रियां न रहें। इसके विपरीत भारतीय पाककला बिलकुल अलग स्वाद वाले मसालों को एक साथ मिलाकर व्यंजन बनाने के आधार पर विकसित हुई है। शोध के मुताबिक यही वजह है कि भारतीय खाना अलग-अलग संस्कृति और देशों के लोगों को इतना लुभाता है।
कैसे हुआ शोध
हर एक खाद्य सामग्री को उसकी रासायनिक संरचना के आधार पर बांटा जा सकता है। यह संरचना ही उसके स्वाद को तय करती है। शोध करने वाली टीम ने पहले सभी खाद्य सामग्रियों को उनके स्वाद के आधार पर अलग-अलग बांटा। इसके बाद उन्होंने विदेशी और भारतीय व्यंजनों में पडऩे वाली खाद्य सामग्री का विश्लेषण किया।
इस विश्लेषण के निष्कर्ष चौंकाने वाले हैं। इनके अनुसार भारतीय व्यंजनों में सबसे ज्यादा इस्तेमाल होने वाले 10 मसालों - लाल मिर्च, हरी मिर्च, धनिया, गरम मसाला, तेज पत्ता, इमली, लहसुन, अदरक, इमली और लहसुन, में से नौ ऐसे हैं जिन्हें पश्चिमी पाक कला के हिसाब से एक साथ इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए। जबकि भारतीय खानपान में इनका एक साथ ही प्रयोग होता है। इस आधार यह निष्कर्ष निकाला गया है कि मसालों का यह मेल ही भारतीय खाने में अनोखे स्वाद की मुख्य वजह है। (satyagrah.scroll.in)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत में दो क्रांतियों की तत्काल जरुरत है। इन दो क्रांतियों को करने के लिए सबसे पहले भारत को एक राष्ट्र बनाना होगा। भारत इस वक्त एक राष्ट्र नहीं है। वह ऊपर-ऊपर से एक राष्ट्र दिखता है लेकिन वास्तव में वह एक नहीं, दो राष्ट्र है। एक भारत है और दूसरा ‘इंडिया’ है। इन दो राष्ट्रों में भारत का बंटना 1947 के भारत-विभाजन से भी ज्यादा खतरनाक है। 1947 में भारत के दो टुकड़े करने के लिए हम गांधी और नेहरु को दोषी ठहराते हैं लेकिन भारत और इंडिया के विभाजन का दोषी कौन नहीं है?
दिल्ली में बनी अब तक की सभी सरकारें हैं, हमारी सभी पार्टियां हैं और सभी नेतागण हैं। कौनसी ऐसी प्रमुख पार्टी है, जो केंद्र या प्रदेशों में सत्तारुढ़ नहीं रही है लेकिन किसी ने भी आज तक शिक्षा और स्वास्थ्य में कोई बुनयादी परिवर्तन नहीं किया। सभी अपनी रेलें अंग्रेजों की बनाई पटरी पर चलाते रहे हैं। वर्तमान सरकार ने नई शिक्षा नीति बनाई है। उसमें कुछ सराहनीय मुद्दे हैं लेकिन वे लागू कैसे होंगे ? हमारे बच्चे भारतीय भाषाओं के माध्यम से पढ़ेंगे लेकिन नौकरियां उन्हें अंग्रेजी के माध्यम से मिलेंगी। सिर्फ मजबूर लोग ही अपने बच्चों को बेकारी की खाई में ढकेलेंगे। जो अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में पढ़ेंगे, वे नौकरियों, रुतबे और माल-मत्ते पर कब्जा करेंगे।
ये ‘इंडिया’ के लोग होंगे। इनमें से जिसको भी मौका मिलेगा, वह विदेश भाग खड़ा होगा। जरुरी यह है कि सारे देश में शिक्षा की पद्धति एक समान हो। नैतिक शिक्षा, व्यायाम और ब्रह्मचर्य पर जोर दिया जाए। गैर-सरकारी स्कूलों-कालेजों को खत्म नहीं किया जाए लेकिन उनमें और सरकारी स्कूल-कालेजों में कोई फर्क न हो। न फीस का, न माध्यम का और न ही गुणवत्ता का! सरकारी नौकरियों में से अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त हो।
यही क्रांति स्वास्थ्य और चिकित्सा के क्षेत्र में जरुरी है। चिकित्सा के मामले में भारत बहुत पिछड़ा हुआ है। इंडिया बहुत आगे है। इंडिया के लोग 25-25 लाख रु. खर्च करके कोरोना का इलाज करवा रहे है। लेकिन ग्रामीण, गरीब, दलित, आदिवासी लोगों को मामूली दवाइयां भी नसीब नहीं हैं। तो क्या करें ? करें यह कि सभी गैर-सरकारी अस्पतालों पर कड़े कायदे लागू करें ताकि वे मरीजों से लूटपाट न कर सकें। कई नेताओं और अफसरों ने मुझसे पूछा कि गैर-सरकारी अस्पतालों और स्कूलों पर ये प्रतिबंध लगाए जाएंगे तो शिक्षा और चिकित्सा का स्तर क्या गिर नहीं जाएगा ?
वे सरकारी अस्पतालों और स्कूलों की तरह निम्नस्तरीय नहीं हो जाएंगे ? इसका बेहद असरदार इलाज मैं यह सुझाता हूं कि राष्ट्रपति से लेकर नीचे तक सभी कर्मचारियों और चुने हुए जन-प्रतिनिधियों के लिए यह अनिवार्य कर दिया जाए कि वे अपने बच्चों को सिफ्र सरकारी स्कूलों में ही पढ़ाएं और अपने परिवार का इलाज सिर्फ सरकारी अस्पतालों में ही कराएं। देखें, रातोंरात भारत की शिक्षा और चिकित्सा में क्रांति होती है या नहीं ? (नया इंडिया की अनुमति से)
- रजनीश कुमार
बिहार के दो युवा. एक 30 साल के तेजस्वी यादव और दूसरे 38 साल के चिराग पासवान. तेजस्वी यादव क्रिकेटर बनना चाहते थे, लेकिन क्रिकेट की दुनिया में ग़ुमनाम से रहे. चिराग पासवान अभिनेता बनना चाहते थे, लेकिन वे अभिनय की दुनिया में अनजान रह गए.
अब दोनों के पास अपने-अपने पिता की राजनीतिक विरासत है और उसी के सहारे वो नेता बन चुके हैं.
रोहन गावसकर के पास पिता सुनील गावसकर के क्रिकेट की विरासत थी, लेकिन वे चाहकर भी क्रिकेट में स्थापित नहीं हो पाए. लेकिन राजनीति में व्यक्तिगत परफ़ॉर्मेंस का मसला भारतीय लोकतंत्र से ग़ायब है, इसलिए नेता बनना क्रिकेटर बनने की तरह मुश्किल नहीं है.
तेजस्वी बताते हैं कि उनमें क्रिकेट की ललक इस क़दर थी कि उन्होंने नौंवी क्लास के बाद पढ़ाई छोड़ दी.
तेजस्वी का क्रिकेट प्रेम
सबा करीम तब अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट से संन्यास ले चुके थे. साल 2001 था. लालू प्रसाद यादव बिहार क्रिकेट असोसिएशन के अध्यक्ष थे. सबा करीम और राम कुमार क्रिकेट को लेकर लालू यादव से उनके आवास पर मिलने गए थे.
लालू यादव के सामने सबा करीम और राम कुमार ने बिहार की प्रतिभाओं को क्रिकेट में जगह देने के लिए कई तरह के प्रस्ताव रखे थे.
सबा करीम कहते हैं, ''लालू जी ने हमारी बातें ध्यान से सुनीं. वो हमारे प्रस्तावों को लेकर बहुत ही सकारात्मक थे. बातचीत के दौरान ही उन्होंने अपने बेटे तेजस्वी से मिलवाया. तब तेजस्वी की उम्र 10-12 साल रही होगी. लालू जी ने कहा कि देखो, ये मेरा छोटा बेटा है और क्रिकेट को लेकर बहुत उतावला रहता है. थोड़ा इस पर भी ध्यान दो. हमने 2002 में पटना में एक कैंप लगाया. उसमें 100 बच्चों को चुना गया. इन 100 में एक तेजस्वी यादव भी थे. हमें लालू यादव ने कहा था कि इसको थोड़ा देख लो और मदद करो. लालू तेजस्वी के क्रिकेट को लेकर बहुत गंभीर थे.''
सबा करीम कहते हैं कि तेजस्वी के साथ क्रिकेट की विरासत नहीं थी, लेकिन उनकी चाहत थी. हालांकि तेजस्वी चाहत के साथ लंबे समय तक नहीं रह पाए और उन्हें अपनी विरासत की ओर रुख़ करना पड़ा.
सबा कहते हैं कि लालू ने उस वक़्त उनसे तेजस्वी का बैट देखने को भी कहा था और सलाह माँगी थी कि उन्हें किस तरह के बैट से खेलना चाहिए.
लालू प्रसाद यादव से उस मुलाक़ात को याद करते हुए राम कुमार कहते हैं, ''तेजस्वी तब स्कूल का बच्चा था, लेकिन क्रिकेट को लेकर उसका सेंस बहुत अच्छा था. हम दोनों ने तेजस्वी से बात की थी. उससे क्रिकेट को लेकर बात हुई और उसने एक्सप्लेन किया था और लालू जी ने हमें क्रिकेट सिखाने के लिए कहा था.''
'वीरेंदर सहवाग की तरह बैटिंग'
राम कुमार कहते हैं, ''शुरुआत में हमने पटना में क्रिकेट सिखाना शुरू किया. एक अणे मार्ग में ही ट्रेनिंग शुरू कर दी, वहीं नेट लगाया गया. हमने देखा तो लगा कि लड़के में क्षमता है. उसकी समझ बहुत अच्छी थी. बल्लेबाज़ी और गेंदबाज़ी में जो हम तकनीक बताते, उसे वो बहुत जल्दी सीख लेता. उसके अंदर ललक थी. तेजस्वी में लगातार सुधार हो रहा था. फिर हमें लगा उसे ओपन जगह पर खेलना चाहिए, तो हम उसे बाहर आम क्रिकेटरों के साथ मिक्स-अप करने लगे. बाद में लोगों ने भीड़ लगाना शुरू कर दिया. तेजस्वी के बारे में लोगों को पता चल गया था कि वे मुख्यमंत्री के बेटे हैं.''
राम कुमार बताते हैं कि 2003 में तेजस्वी को दिल्ली शिफ़्ट करना पड़ा. वहाँ वे नेशनल स्टेडियम में प्रैक्टिस करने लगे. दिल्ली जाने के बाद उन्हें और भी एक्सपोजर मिला.
राम कुमार कहते हैं कि तेजस्वी वीरेंदर सहवाग की तरह बैटिंग करना चाहते थे.
तेजस्वी यादव के एक और कोच अशोक कुमार कहते हैं, ''तेजस्वी टीम मैन थे. व्यक्तिगत प्रदर्शन को लेकर बहुत उतावले नहीं होते थे. दिल्ली डेयरडेविल्स में उन्हें दो बार मौक़ा मिला. बेहतर खिलाड़ी थे, लेकिन सब कुछ इतनी जल्दी नहीं हो जाता है. जो तेजस्वी के क्रिकेट का मज़ाक उड़ाते हैं, उन्हें क्रिकेट की समझ नहीं है. मैं इसे एक उदाहरण के ज़रिए समझाता हूँ. झारखंड रणजी टीम की राजीव कुमार राजा ने कप्तानी की. राजीव छह इनिंग्स में बिल्कुल नहीं खेल पाए. अगले सीज़न में राजीव कुमार राजा ने बेहतरीन परफ़ॉर्म किया. तेजस्वी ने महज एक रणजी ट्रॉफ़ी मैच और विजय हज़ारे ट्रॉफी के दो मैच खेले और उसमें वो अच्छा नहीं खेल पाए, लेकिन इतने कम मैचों के आधार पर किसी का आकलन करना नाइंसाफ़ी है.''
अशोक कुमार कहते हैं, ''तेजस्वी ने दिल्ली अंडर-19 में भी खेला और उन्होंने एक बार 62 गेंद पर 100 रनों की पारी खेली थी. तेजस्वी एक अनुशासित खिलाड़ी थे. मेरा मानना है कि भले तेजस्वी ने डिग्री वाली पढ़ाई नहीं की, लेकिन उन्होंने क्रिकेट सीखने के क्रम में बहुत कुछ जाना और समझा. इसी दौरान उन्हें एक्सपोजर भी मिला. तेजस्वी ने क्रिकेट में बहुत मेहनत की थी. तेजस्वी में किसी भी चीज़ को अपनाने की क्षमता क़ाबिल-ए-तारीफ़ थी. दिल्ली आने के बाद तेजस्वी डीपीएस आरके पुरम में पढ़ाई कर रहे थे.''
अशोक कुमार 2010 में झारखंड प्रीमियर लीग के कोच बनकर गए. तेजस्वी जमशेदपुर जांबाज़ टीम में शामिल हुए. हालाँकि यहाँ भी वो कुछ ख़ास नहीं कर पाए.
शाम का वक़्त है. विपिन राम पटना के स्टेट गेस्ट हाउस में एक कुर्सी पर बैठ लालू यादव के पुराने वीडियो देख रहे हैं. वीडियो देखते हुए वे हँसते जाते हैं.
तभी बिहार के एक वरिष्ठ पत्रकार के साथ हमलोग वहाँ पहुँचते हैं. वीडियो में लालू की आवाज़ सुनते ही हमारे साथ आए वरिष्ठ पत्रकार ने हँसते हुए कहा- 'का जी, तुमको नौकरी नीतीश कुमार ने दी और वीडियो लालू यादव का देखते हो.'
इतना सुनते ही विपिन राम मोबाइल वीडियो बंद कर देते हैं और कहते हैं, ''सर, लालू जी को देख पुरानी बातें याद आती हैं, बहुत हँसी आती है. ये बात सच है कि नौकरी नीतीश कुमार ने दी, पर हँसाता तो लालू जी का ही भाषण है.''
विपिन राम स्टेट गेस्ट हाउस में नीतीश कुमार के मुख्यमंत्री बनने से पहले से ही रूम सर्विस का काम करते थे.
हालाँकि तब उनकी नौकरी पक्की नहीं थी और सैलरी भी महज़ 1700 रुपए मासिक थी.
नीतीश कुमार के मुख्यमंत्री बनने के बाद विपिन की नौकरी पक्की हो गई और आज की तारीख़ में विपिन हर महीने 26 हज़ार रुपए कमाते हैं.
विपिन से जब अकेले में बात की, तो उन्होंने बताया, ''सर, मैंने लालू जी की बहुत सेवा की है. हाथ-पैर ख़ूब दबाए हैं. जाते ही लालू जी कहते थे- अरे विपिनवा हाथ पैर दबाओ. हालाँकि नौकरी तो नीतीश कुमार ने दी. अगर लालू जी ही दे दिए होते, तो मेरे परिवार की स्थिति बेहतर होती. लंबा समय तो 1700 की सैलरी में बिता दिए.''
विपिन कहते हैं, "वो लालू जी का ज़माना था. उनके घर का दरवाज़ा कभी ग़रीबों के लिए बंद नहीं हुआ. उनके बेटे क्रिकेट खेलते थे तो हम गेंद फेंकते थे.''
विपिन हँसते हुए कहते हैं, "लेकिन वो हमसे केवल बॉलिंग करवाते थे, बैटिंग नहीं देते थे. अब भी घर जाते हैं, तो तेज प्रताप पहचान लेते हैं और हालचाल पूछते हैं, लेकिन तेजस्वी नहीं पहचानते हैं."
विपिन राम को भले लालू यादव ने नौकरी नहीं दी, लेकिन वो पुराने दिन याद कर आज भी भावुक हो जाते हैं. विपिन को शिकायत है कि लालू यादव की तरह उनके बेटे नहीं हैं.
तेजस्वी यादव में कई लोग उनके पिता लालू यादव को खोजने की कोशिश करते हैं. लेकिन जो भी ऐसा करते हैं, उन्हें निराशा हाथ लगती है और फिर कहते हैं कि लालू यादव कोई दूसरा नहीं हो सकता.
लेकिन क्या पिता के व्यक्तित्व में बेटे को देखना किसी के आकलन का सही तरीक़ा है?
इस पर आरजेडी के वरिष्ठ नेता शिवानंद तिवारी कहते हैं कि पिता से बेटे की तुलना करना बिल्कुल नाइंसाफ़ी है.
वे कहते हैं, ''अगर मेरी तुलना कोई मेरे पिता रामानंद तिवारी से करे, तो मैं तो उनके चरणों की धूल बराबर नहीं हूँ. मेरा बेटा भी मुझसे बिल्कुल अलग है. गांधी से उनके बेटे की तुलना नहीं की जा सकती. ये बात महत्वपूर्ण है कि आप अपनी संतान को कैसी परवरिश देते हैं, उसका असर बच्चों पर पड़ता है. तेजस्वी का व्यक्तित्व अलग है और वे अभी बनने की प्रक्रिया में हैं. हम लालू यादव से उनकी तुलना कैसे कर सकते हैं.''
जहाँ विपिन राम कहते हैं कि लालू के ज़माने में उनके घर का दरवाज़ा कभी बंद नहीं होता था, वहीं उनका कहना है कि 'तेजस्वी से मिलना अब इतना आसान नहीं रहा.'
बिछड़े सभी बारी-बारी
कभी आरजेडी में रहे और अब बीजेपी सांसद रामकृपाल यादव के बेटे अभिमन्यु दिल्ली में दो साल तक तेजस्वी के साथ बिहार निवास में रहे. तब राबड़ी देवी बिहार की मुख्यमंत्री थीं.
अभिमन्यु और तेजस्वी दिल्ली में 2002 से 2004 तक साथ थे. जब लालू यादव रेल मंत्री बन गए, तब तेजस्वी अपने पिता को मिले सरकारी घर में शिफ़्ट हो गए.
अभिमन्यु से हमने पूछा कि तेजस्वी को लेकर उनका क्या अनुभव रहा? तेजस्वी ने स्कूल की पढ़ाई बीच में ही क्यों छोड़ दी? तेजस्वी को एक नेता के तौर पर वो कितना परिपक्व मानते हैं?
तो जवाब में अभिमन्यु ने कहा, ''तेजस्वी मेरे बड़े भाई की तरह रहे. उनके साथ जब तक था, तब तक उन्होंने मेरा उसी रूप में ध्यान रखा. हमने अपने जीवन के बेहतरीन पल साथ गुज़ारे हैं. साथ में फ़िल्में, रेस्तरां, ट्रिप और क्रिकेट. ऐसा कभी नहीं लगा कि आने वाले दिनों में हालात इस क़दर बदलेंगे कि हमारे बीच बात ही बंद हो जाएगी.''
अभिमन्यु कहते हैं, ''उनका पूरा ध्यान क्रिकेट पर था. इसलिए उन्होंने पढ़ाई नहीं की. क्रिकेट को वो सबसे ज़्यादा वक़्त देते थे. एक नेता के रूप में उन्हें अभी बहुत कुछ करना है. लालू जी संघर्ष के दम पर नेता बने थे, लेकिन तेजस्वी को बहुत कुछ किया हुआ मिला है. लालू जी इन्हीं संघर्षों के दम पर जन-नेता बने थे, जबकि तेजस्वी के आसपास जो लोग हैं, वो उनसे ही घिरे हुए हैं. मेरा मानना है कि तेजस्वी की पढ़ाई पूरी हो गई होती, तो वो और अच्छे नेता बनते.''
अभिमन्यु और तेजस्वी के रिश्ते जितने मधुर थे, अब उतने ही ख़राब हो गए हैं.
रामकृपाल यादव लंबे समय तक लालू यादव के सबसे पक्के वफ़ादारों में से एक रहे. साल 2014 में पाटलिपुत्र लोकसभा क्षेत्र से वो आरजेडी का टिकट चाहते थे, लेकिन वहाँ से लालू यादव की बेटी मीसा भारती को टिकट मिला. अभिमन्यु कहते हैं कि यह उनके पिता के लिए किसी झटके से कम नहीं था.
अभिमन्यु ने कहा, ''बात लोकसभा टिकट की नहीं थी. सम्मान की थी. पापा ने यहाँ तक कह दिया था कि अगर यहाँ से राबड़ी जी चुनाव लड़ती हैं, तो उन्हें कोई दिक़्क़त नहीं. पापा आरजेडी के लिए बहुत मेहनत करते थे. बल्कि लालू जी के परिवार की ख़ातिर भी हमेशा समर्पित रहते थे. ऐसे में सांसद बनने की तमन्ना भला क्यों नहीं रहती. हालाँकि पापा के बीजेपी में जाने के पीछे कारण केवल टिकट का मामला नहीं है. पापा का अपमान हुआ था और ये असहनीय था. मैंने पापा से कहा कि जहाँ सम्मान ना मिले, उनके साथ रहने का कोई मतलब नहीं."
अभिमन्यु की 2017 में शादी हुई. लालू यादव को आमंत्रित किया गया, लेकिन वो नहीं आए.
लालू प्रसाद यादव और रामकृपाल यादव की फ़ाइल फ़ोटो
अभिमन्यु कहते हैं, ''मैंने तेजस्वी को आमंत्रित नहीं किया था. इससे पहले वो मेरी बहन की शादी में नहीं आए थे. उसके बाद आमंत्रित करने का कोई मतलब नहीं था.''
क्या तेजस्वी ने रामकृपाल यादव को मनाने की कोशिश नहीं की? अभिमन्यु कहते हैं कि तब तेजस्वी पार्टी में बहुत सक्रिय नहीं थे और सब कुछ लालू जी ही देखते थे. अभिमन्यु लालू परिवार से अपने रिश्तों को याद करते हैं, तो जितना कुछ कहना चाहते हैं वो अनकही सी रह जाती है.
साल 2019 के अप्रैल में हमने रामकृपाल यादव का एक इंटरव्यू किया था. हम उनके बेडरूम में बैठे थे. बिस्तर के ठीक सामने की दीवार पर लालू और राबड़ी की एक तस्वीर टंगी थी.
इसके अलावा कोई और तस्वीर नहीं थी. रामकृपाल यादव से पूछा कि आपने केवल इनकी ही तस्वीर रखी है? ये पूछने पर वो भावुक हो गए और कहा कि उनके लिए दिल में जगह है और हमेशा रहेगी.
तेजस्वी की राजनीति
तेजस्वी यादव 2015 के विधानसभा चुनाव में राघोपुर से विधायक चुने गए. यह उनका पहला चुनाव था.
तब नीतीश कुमार और लालू यादव ने मिलकर चुनाव लड़ा था. चुनाव में इसी गठबंधन को जीत मिली और तेजस्वी पहली बार में ही प्रदेश के उप-मुख्यमंत्री बन गए.
दो साल भी नहीं हुए कि नीतीश कुमार फिर से बीजेपी के साथ चले गए और तेजस्वी को 16 महीने बाद उप-मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़नी पड़ी. उसके बाद वो विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष बने.
इस छोटे से राजनीतिक करियर में तेजस्वी यादव पर भ्रष्टाचार के भी आरोप लगे. आईआरसीटीसी लैंड स्कैम केस में उन्हें अगस्त 2018 में बेल मिली थी.
ये मामला पटना में तीन एकड़ ज़मीन को लेकर है. इस ज़मीन पर एक मॉल प्रस्तावित है. लालू यादव पर आरोप है कि उन्होंने 2006 में रेल मंत्री रहते हुए एक निजी कंपनी को होटल चलाने का कॉन्ट्रैक्ट दिया और इसके बदले उन्हें महंगा प्लॉट मिला.
सीबीआई का कहना है कि यह ज़मीन पहले आरजेडी के एक नेता की पत्नी के नाम पर ट्रांसफ़र की गई और बाद में कौड़ी के भाव राबड़ी देवी और तेजस्वी यादव के नाम पर ज़मीन दे दी गई.
नीतीश कुमार ने पूरे मामले पर तेजस्वी यादव को स्पष्टीकरण देने के लिए कहा था, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. जबकि लालू यादव ने बीजेपी पर फँसाने का आरोप लगाया था.
पूरे मामले में तेजस्वी का नाम एक साज़िशकर्ता के तौर पर है. तेजस्वी का कहना था कि ज़मीन तब मिली, जब उनकी उम्र बहुत ही कम थी.
उन्होंने कहा था कि तब तो उनकी मूँछ भी नहीं निकली थी. नीतीश कुमार ने इन्हीं आरोपों का हवाला देकर आरजेडी से गठबंधन तोड़ दिया था.
तेजस्वी कितने आधुनिक?
2018 में तेजस्वी यादव से एक इंटरव्यू को दौरान हमने पूछा था कि क्या वो अंतरजातीय विवाह कर लेंगे? इस सवाल के जवाब में उन्होंने कहा था कि शादी माँ-बाप के मन से होता है और वो जो कहेंगे वही होगा.
कुछ दिन पहले ही चिराग पासवान से पूछा कि उनकी ज़िंदगी में धर्म और जाति की कितनी जगह है? इस सवाल के जवाब में चिराग ने कहा कि बिल्कुल नहीं. हालाँकि वो दलित राजनीति पर अपने पिता की तरह अब भी अपना अधिकार जताते हैं.
कई हलकों में मुलायम सिंह यादव के बेटे अखिलेश यादव से तेजस्वी की तुलना की जाती है. कई लोग मानते हैं कि अखिलेश अपने पिता से भी ज़्यादा समझदार हैं और वो हिम्मती भी हैं.
अखिलेश ने अपने पिता की राजनीति को चुनौती भी दी. अखिलेश यादव की राजनीति अपने पिता की छाया से बाहर हो चुकी है, जबकि तेजस्वी यादव के साथ ऐसा नहीं है.
समाजवादी पार्टी के प्रवक्ता घनश्याम तिवारी कहते हैं, ''अखिलेश यादव हिम्मती हैं. उन्होंने जितना बेबाक फ़ैसला अपने निजी जीवन में लिया, उतना ही राजनीतिक जीवन में भी. इतनी हिम्मत सबके वश की बात नहीं. अखिलेश यादव ने 90 के दशक की पार्टी को 21वीं सदी की पार्टी बनाया. वो जाति और धर्म की राजनीति नहीं करते. अखिलेश को आप इस रूप में भी देख सकते हैं कि उनकी टीम बहुत ही विविध होती है.''
तेजस्वी में लोग लालू को खोजते हैं, लेकिन अखिलेश में मुलायम सिंह यादव को क्यों नहीं खोजते?
इस पर वरिष्ठ पत्रकार सुनीता एरॉन कहती हैं, ''अखिलेश यादव पाँच साल मुख्यमंत्री रह चुके हैं. उन्होंने आते ही समकालीन राजनीति की. डीपी यादव को टिकट नहीं दिया. मेट्रो बनाई. लैपटॉप बाँटे और एक्सप्रेस-वे बनाया. अंग्रेज़ी को लेकर भी अपने पिता से अलग लाइन ली. तेजस्वी तो 16 महीने ही उपमुख्यमंत्री रहे और पार्टी में अब भी लालू प्रसाद यादव का पूरा दख़ल है. मुझे तो तेजस्वी यादव भी ब्राइट दिखते हैं. तेजस्वी यादव को मौक़ा मिलेगा, तो वे ख़ुद को साबित करके दिखाएँगे. अखिलेश यादव को भी मुलायम सिंह की छाया से बाहर निकलने में वक़्त लगा था.''
इस बार तेजस्वी ने बाहुबली अनंत सिंह, रामा सिंह की पत्नी वीणा सिंह और आनंद मोहन के बेटे चेतन आनंद को उम्मीदवार बनाया है.
रघुवंश प्रसाद सिंह जब तक ज़िंदा रहे, तब तक रामा सिंह की एंट्री का विरोध किए, लेकिन अब रामा सिंह और उनकी पत्नी दोनों आरजेडी में हैं.
नेतृत्व तेजस्वी को ही क्यों मिला?
सुनीता एरॉन कहती हैं, ''टिकट बँटवारे को उस वक़्त की चुनावी रणनीति के लिहाज़ से भी देखा जाना चाहिए. डीपी यादव को अखिलेश ने टिकट नहीं दिया तो इससे उनका कोई नुक़सान नहीं हुआ, लेकिन बिहार में लालू यादव का परिवार अपनी खोई राजनीति ज़मीन वापस करने में जुटा है.''
अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी में उनको चुनौती देने वाला अब कोई नहीं है, जबकि तेजस्वी के सामने उनके भाई तेज प्रताप यादव हैं. पिछले साल लोकसभा चुनाव में तेज प्रताप ने अपने लोगों को पार्टी से टिकट नहीं मिलने पर अलग से लालू-राबड़ी मोर्चा बना लिया था.
लालू प्रसाद यादव के नौ बेटे-बेटियाँ हैं. मीसा भारती सबसे बड़ी बेटी हैं और तेज प्रताप सबसे बड़े बेटे. लेकिन आरजेडी का नेतृत्व तेजस्वी को ही क्यों मिला?
इस सवाल के जवाब में आरजेडी नेता प्रेम कुमार मणि कहते हैं कि तेजस्वी लालू यादव की सभी संतानों में सबसे समझदार हैं.
वे कहते हैं, ''लोगों का मानना है कि राहुल गांधी से ज़्यादा समझदार प्रियंका गांधी हैं, लेकिन सोनिया गाँधी ने राहुल के पिछड़ने के डर से प्रियंका को जान-बूझकर पीछे रखा. लेकिन लालू जी के साथ ऐसा नहीं है. मीसा भारती को भी लालू जी ने मौक़ा दिया है. दो बार से वो चुनाव हार रही हैं और अभी राज्यसभा सांसद हैं. तेज प्रताप के तेवर से लोग परिचित ही हैं. ऐसे में तेजस्वी का चुनाव स्वाभाविक था.''(bbc)
राष्ट्रीय महिला आयोग के मुताबिक़, "इस दौरान उन्होंने राज्यपाल से राज्य के कोविड सेंटर्स में महिला मरीज़ों के साथ बलात्कार और छेड़छाड़, वन स्टॉप सेंटर की निष्क्रियता और लव जिहाद के मामलों में बढ़ोतरी पर चर्चा की."
आयोग की एक प्रेस विज्ञप्ति और न्यूज़ एजेंसी पीटीआई के मुताबिक़, रेखा शर्मा ने राज्यपाल से कहा कि महाराष्ट्र में 'लव जिहाद' के मामले बढ़ रहे हैं.
बातचीत में उन्होंने आपसी सहमति से दो अलग धर्मों के लोगों के विवाह और लव जिहाद के बीच अंतर को रेखांकित किया और कहा कि इसपर ध्यान दिए जाने की ज़रूरत है.
यहाँ विवाद इस बात पर उठ खड़ा हुआ कि उन्होंने 'लव जिहाद' टर्म का इस्तेमाल किया.
दरअसल केंद्र की मोदी सरकार फरवरी में ख़ुद संसद में कह चुकी है कि मौजूदा क़ानूनों में 'लव जिहाद' टर्म परिभाषित नहीं है और किसी भी केंद्रीय एजेंसी ने इससे जुड़े केस को रिपोर्ट नहीं किया है.
संसद में लिखित सवाल पूछा गया था कि क्या सरकार को जानकारी है कि केरल हाई कोर्ट ने कहा है कि लव जिहाद किसी चीज़ को कहा ही नहीं जाता है.
इस सवाल के जवाब में 4 फरवरी 2020 को केंद्रीय गृह राज्य मंत्री जी किशन रेड्डी ने कहा था- लव जिहाद शब्द को मौजूदा क़ानूनों के तहत परिभाषित नहीं किया गया है. 'लव जिहाद' का कोई मामला किसी केंद्रीय एजेंसी ने रिपोर्ट नहीं किया है."
इस दौरान सरकार की ओर से ये भी कहा गया कि संविधान ने सभी को किसी भी धर्म को अपनाने और उसका प्रचार करने की आज़ादी दी है.
हालाँकि कई दक्षिण पंथी समूह हिंदू लड़की और मुसलमान लड़के के बीच शादी के लिए 'लव जिहाद' शब्द का इस्तेमाल करते हैं और आरोप लगाते हैं कि हिंदू लड़कियों को बहला-फुसलाकर धर्मांतरण करवाकर शादी कर ली जाती है.
यही वजह है कि इस बात को लेकर बहस छिड़ गई कि महिला आयोग की प्रमुख कैसे इस शब्द का इस्तेमाल कर रही हैं और किन आँकड़ों के आधार पर 'लव जिहाद' के मामले बढ़ने की बात कह रही हैं, जबकि केंद्र सरकार ख़ुद इस बात से इनकार कर चुकी है.
सोशल मीडिया पर घिरीं
राष्ट्रीय महिला आयोग ने रेखा शर्मा और राज्यपाल कोश्यारी की मुलाक़ात की तस्वीरें और जानकारी ट्विटर पर शेयर की थी. जिसके कुछ वक़्त बाद सोशल मीडिया पर रेखा शर्मा सवालों से घिर गईं.
कई सोशल मीडिया यूज़र्स ने कड़ी प्रतिक्रया दी है. एक ट्विटर यूज़र देबिप्रसाद मिश्रा ने आयोग के ट्वीट पर जवाब देते हुए लिखा, "क्या एनसीडब्ल्यू और उसकी प्रमुख ये स्पष्ट करेंगी कि 'लव जिहाद' से उनका क्या मतलब है? क्या आप इसे उसी अर्थ के साथ इस्तेमाल कर रही हैं, जैसे कुछ अतिवादी समूह कर रहे हैं? अगर हाँ, तो क्या आप बिना किसी क़ानूनी आधार के उनकी विचारधारा का समर्थन कर रही हैं?"
पल्लवी नाम की यूज़र ने सवाल उठाया कि क्या भरोसा किया जा सकता है कि राष्ट्रीय महिला आयोग उन मामलों को उठाएगी, जिनमें दूसरे धर्म में शादी करने के लिए महिलाओं पर हमला किया जाता है और उन्हें मार तक दिया जाता है.
पल्लवी ने ये भी लिखा, "ये अपमानजनक है, महिलाओं और अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ अपराधों के लिए राज्य की उदासीनता के साथ अतिवाद और असहिष्णुता बढ़ रही है. क्या वास्तव में किसी धर्म को निशाना बनाने के लिए 'लव जिहाद' शब्द का इस्तेमाल करना संवैधानिक है?"
वहीं एक अन्य यूज़र शाहना यास्मीन ने लिखा, "एनसीडब्ल्यू को कौन-से 'लव जिहाद' के मामले मिले हैं. क्या रेखा शर्मा 5 दिखा सकती हैं?"
अभिनेत्री उर्मिला मतोंडकर ने भी ट्वीट किया है कि इस देश में महिलाएँ कभी भी सुरक्षित कैसे हो सकती हैं, जब ऐसा सिलेक्टिव एजेंडा चलाने वाली महिला ऐसे आयोग का नेतृत्व कर रही हैं?
कथित पूराने ट्वीट ने बढ़ाई और मुश्किलें
रेखा शर्मा की मुश्किलें उस वक़्त और बढ़ गई जब कुछ सोशल मीडिया यूज़र्स ने कुछ विवादित ट्वीट शेयर कर दावा किया कि ये उनके कई साल पहले पुराने ट्वीट्स हैं.
इनमें से कुछ कथित ट्वीट्स नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने से पहले यानी 2012, 2014 के हैं, जिनमें महिलाओं और महिला नेताओं और अन्य नेताओं को लेकर आपत्तिजनक बातें लिखी हुई हैं. इन्हें शेयर करके लोग उनकी भाषा और मानसिकता पर सवाल उठा रहे हैं.
रेखा शर्मा दरअसल अगस्त 2015 में राष्ट्रीय महिला आयोग से जुड़ी थीं. आयोग की वेबसाइट के मुताबिक़, रेखा शर्मा ने 7 अगस्त 2018 को राष्ट्रीय महिला आयोग की चेयरपर्सन का पदभार संभाला था.
राष्ट्रीय महिला आयोग में शामिल होने से पहले वो बीजेपी से सक्रिय रूप से जुड़ी थीं. वो हरियाणा में बीजेपी की ज़िला सचिव और मीडिया प्रभारी थीं.
सोशल मीडिया पर बहस तेज़ होने के बाद #SackRekhaSharma भी ट्विटर पर ट्रेंड करने लगा था और उन्हें राष्ट्रीय महिला आयोग के अध्यक्ष पद से हटाने की मांग की जाने लगी. विपक्षी दल कांग्रेस भी रेखा शर्मा के इस्तीफ़े की मांग की.
कांग्रेस की राष्ट्रीय प्रवक्ता सुप्रिया श्रीनेत ने ट्वीट किया, "इस बारे में बहुत बहस हो रही है कि निम्न स्तर के विचार रखने वाली एक सेक्सिस्ट महिला राष्ट्रीय महिला आयोग की प्रमुख कैसे हो सकती हैं. लेकिन नरेंद्र मोदी और बीजेपी को देखते हुए ये समझा जा सकता है कि इसकी क्या वजह है. आप जितना ज़हर निकालेंगे, उतना ही इस इको-सिस्टम में फले-फूलेंगे. शर्मनाक."
ये ख़बर लिखे जाने तक रेखा शर्मा ने अपने अपनी ट्विटर अकाउंट को लॉक कर लिया है. उनके अकाउंट पर जाने पर लिखा आ रहा है कि उनके 'ट्वीट प्रोटेक्टेड हैं' यानी उनके ट्ववीट्स सिर्फ़ वही लोग देख सकते हैं, जिन्हें वो इजाज़त देंगी.
बीबीसी ने रेखा शर्मा से संपर्क करने की कोशिश की. लेकिन उनसे बात नहीं हो सकी.
ख़बरों के मुताबिक़, रेखा शर्मा ने इससे पहले ट्वीट किया था कि किसी ने उनका अकाउंट हैक कर लिया है और उनके अकाउंट से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़ ट्वीट कर दिए हैं.
साथ ही उन्होंने लिखा, "जब ये ट्वीट हुए, तब मैं फ़्लाइट में थी. लोग कितने दुष्ट हैं. महाराष्ट्र से आ रही हूँ और समझ सकती हूँ कि ये क्यों हुआ होगा."
महाराष्ट्र सरकार से नाराज़गी
दरअसल राज्यपाल से मुलाक़ात के दौरान राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष रेखा शर्मा ने महाराष्ट्र में महिला सुरक्षा को लेकर कड़ी नाराज़गी जताई थी. पत्रकारों से बातचीत में रेखा शर्मा ने कहा था कि प्रदेश में नई सरकार बनने के बाद राज्य महिला आयोग का गठन नहीं हुआ है.
उन्होंने कहा कि राज्य महिला आयोग का अध्यक्ष पद ख़ाली होने की वजह से महिलाओं की शिकायतों से संबंधित चार हज़ार मामलों की सुनवाई लटकी हुई है, इसलिए हमने राज्यपाल से कहा है कि जब तक राज्य महिला आयोग का गठन नहीं होगा, तब तक राष्ट्रीय महिला आयोग की एक सदस्य हर महीने सुनवाई के लिए मुंबई आएँगी.
मंगलवार को मुंबई आईं रेखा शर्मा राज्यपाल भगतसिंह कोश्यारी से राजभवन में मुलाक़ात के बाद दिल्ली लौट गईं थी. लेकिन राज्य की महिला व बाल विकास मंत्री यशोमति ठाकुर से नहीं मिली.
इस पर यशोमति ठाकुर ने कड़े लहज़े में कहा कि महिला सुरक्षा के बारे में रेखा शर्मा का केवल राजनीतिक एजेंडा नज़र आ रहा है.
उन्होंने कहा, "मैंने महिला आयोग की अध्यक्ष को मुलाक़ात के लिए मंगलवार की सुबह 11 बजे का समय दिया था और उन्होंने कहा था कि राज्यपाल से मिलने के बाद मैं मिलने आऊँगी, लेकिन मैं इंतज़ार करती रह गई और वो नहीं आईं." (bbc)
डॉयचे वैले पर ऋतिका पाण्डेय की रिपोर्ट-
पेरिस स्थित 'फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स' 21 से 23 अक्टूबर की बैठक के बाद फैसला सुनाएगी कि आतंकवाद के खिलाफ उठाए गए पाकिस्तान के हालिया कदमों को संस्था काफी मानती है या नहीं.
हाफिज सईद आतंकवादी संगठन 'लश्कर ए तैयबा' का संस्थापक और 'जमात उद दावा' का प्रमुख है.
हाफिज सईद आतंकवादी संगठन 'लश्कर ए तैयबा' का संस्थापक और 'जमात उद दावा' का प्रमुख है.
कोरोना महामारी के चलते पहले जून में होने वाली इस बैठक को टाल दिया गया था और इसके कारण पाकिस्तान को दुनिया भर में आतंकवादी और भ्रष्टाचार के खिलाफ काम करने वाले अंतरराष्ट्रीय संगठन, एफएटीएफ की शर्तों को पूरा करने के लिए चार महीने का अतिरिक्त समय मिल गया. इसी साल फरवरी में हुई बैठक में संस्था ने पाकिस्तान को चेतावनी दी थी कि आतंकवाद को प्रायोजित करने वाली सारी गतिविधियां रोकने के लिए उसे दी गई अंतिम समयसीमा पार हो गई है.
फरवरी में एफएटीएफ ने कहा था कि पाकिस्तान ने उसे दिए गए 27 में से केवल 14 मुद्दों पर ही कुछ काम किया है और एक्शन प्लान में शामिल बाकी कदम नहीं उठाए हैं. उसके बाद, सितंबर में संपन्न हुई एफएटीएफ के क्षेत्रीय सहयोगी एशिया-पैसिफिक ग्रुप (एपीजी) की बैठक में पाया गया कि काले धन से निपटने और आतंकवाद को प्रायोजित ना करने से जुड़े एफएटीएफ के कुल 40 सुझावों में से पाकिस्तान ने केवल दो पर ही पूरी तरह अमल किया है.
क्या होती है ग्रे लिस्ट
दुनिया भर में आतंकवाद और भ्रष्टाचार के खिलाफ काम करने वाले अंतरराष्ट्रीय संगठन एफएटीएफ ने 2018 में पाकिस्तान को इस तथाकथित "ग्रे लिस्ट" में डाला था. तकनीकी तौर पर इसे "जूरिसडिक्शन अंडर इनक्रीज्ड मॉनीटरिंग” कहा जाता है, जिसमें वे देश रखे जाते हैं जो आतंकी गुटों की वित्तीय मदद रोकने के लिए पर्याप्त कदम नहीं उठाते. इस सूची में फिलहाल विश्व के 18 देश शामिल हैं, जिनमें पाकिस्तान पर आतंक के वित्त पोषण का भी आरोप है जबकि पनामा पेपर लीक मामले से जुड़े देश पनामा और मॉरीशस तथा आइसलैंड जैसे देशों के बारे में ज्यादातर मनी लॉन्ड्रिंग से जुड़ी शिकायतें हैं.
ग्रे लिस्ट में होने की वजह से पाकिस्तान के लिए अंतरराष्ट्रीय बाजार से कर्ज लेना और मुश्किल हो जाता है. वैसे तो इस लिस्ट की कोई कानूनी बाध्यता नहीं है मगर ऐसे देशों को कर्ज देने से पहले अंतरराष्ट्रीय नियामक और वित्तीय संस्थान कहीं ज्यादा सतर्क रहते हैं. पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था पहले ही बहुत अच्छी हालत में नहीं है और ऐसे में इन अतिरिक्त मुश्किलों के कारण देश के व्यापार और निवेश पर बुरा असर पड़ सकता है.
मोसुल में अल-नूरी मस्जिद
इराक के मोसुल में स्थित ऐतिहासिक अल-नूरी मस्जिद और उसकी मीनार अल-हदबा को आईएस ने तबाह कर दिया है. इसी मस्जिद से 2014 में अबू बकर अल बगदादी ने इस्लामी खिलाफत की घोषणा की थी. यह मीनार पीसा की प्रसिद्ध मीनार की ही तरह झुकी हुई थी और 840 सालों से वहां खड़ी थी. हालांकि आईएस इसे गिराने का इल्जाम अमेरिका के सिर रख रहा है.
इससे भी बुरा हो सकता है हाल
पेरिस स्थित एफएटीएफ के पास 'ग्रे लिस्ट' से भी बुरी एक 'ब्लैक लिस्ट' होती है, जिसका तकनीकी नाम है "हाई-रिस्क जूरिसडिक्शंस सब्जेक्ट टू अ कॉल फॉर एक्शन.” फिलहाल इसमें केवल दो देश ईरान और उत्तर कोरिया ही रखे गए हैं. आतंकवादी गतिविधियों को वित्तीय समर्थन रोकने के लिए यह संस्था 2001 से विशेष ध्यान देती आई है और यह संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के वित्तीय प्रावधानों को लागू करवाने में भी मदद करती है.
इसका काम ग्रे लिस्ट में शामिल देशों के साथ साल में कई बार बैठकें करना और स्टेटस रिपोर्ट की समीक्षा कर उन्हें एक्शन प्लान पर अमल करवाने का दबाव बनाना भी है. इस साल कोविड वायरस के कारण फैली महामारी के चलते इसमें कुछ कमी आई है. फिर भी संस्था ने पाकिस्तानी सरकार पर दबाव बनाने की कोशिश की ताकि वह यूएन के प्रतिबंधों को लागू करवाने के लिए कानून बनाए, सरकारी संस्थानों और कानून व्यवस्था के लिए जिम्मेदार एजेंसियों के बीच सहयोग को बेहतर बनाने के लिए काम करे और आतंक के लिए वित्तीय मदद जुटाने वाले आतंकवादियों को कड़ी से कड़ी सजा दिलाए.
पाक-साफ साबित होने के लिए पाकिस्तान के कदम
पाकिस्तान ने इस साल लश्कर ए तैयबा के संस्थापक हाफिज सईद और कुछ दूसरे आतंकवादियों को गिरफ्तार किया और कईयों को सजा भी सुनाई. फरवरी में ही सईद को साढ़े पांच साल की जेल की सजा सुनाई गई थी. देश में आतंकी गुटों की संपत्ति को 'फ्रीज एंड सीज' कर जब्त करने और आतंकवाद को वित्तीय मदद पहुंचाने वालों के लिए जुर्माने और जेल की सजा के प्रावधान वाले भी कम से कम 10 नए कानून बनाए गए.
दूसरी तरफ, इसी साल पाकिस्तान ने करीब 3,800 नामों को आतंकवाद की वॉच लिस्ट से ही हटा दिया, जिसकी पश्चिमी देशों में खासतौर पर काफी आलोचना हुई. काउंटर टेररिज्म पर इसी साल 24 जून को जारी हुई अमेरिकी सरकार की रिपोर्ट में बताया गया कि कैसे पाकिस्तान ने अपनी सीमाओं में आतंकियों को पाल कर ना केवल भारत को बल्कि अफगानिस्तान को भी निशाने पर रखा. अमेरिकी विदेश मंत्रालय की आतंकवाद पर जारी इस रिपोर्ट में कहा गया कि पाकिस्तान अब भी लश्कर ए तैयबा और जैश ए मुहम्मद जैसे आतंकवादी गुटों को अपनी जमीन पर सुरक्षित ठिकाना देता है, जो भारत जैसे पड़ोसी देशों को निशाना बनाते आए हैं.
एफएटीएफ के कुल 39 सदस्य देशों में से केवल कुछ ही देश पाकिस्तान को ब्लैक लिस्ट से बाहर रखे जाने का समर्थन करते आए हैं. चीन इसका पुरजोर समर्थन करता रहा है तो वहीं पिछले कुछ सालों में पाकिस्तान ने मलेशिया, सऊदी अरब और तुर्की से अपने लिए समर्थन जुटाने की पूरी कोशिश की है. एफएटीएफ की अध्यक्षता इस समय जर्मनी के पास है और यह पद इससे पहले चीन के पास था. जर्मनी के डॉक्टर मार्कुस प्लेयर ने 1 जुलाई 2020 से अगले दो सालों के लिए अध्यक्ष का पद संभाला है. एफएटीएफ का रुख किस तरफ मुड़ता है यह इसी से साफ होगा कि वह पाकिस्तान को किस सूची में रखने का फैसला करता है.(dw)
चीनी युवाओं में बेहद लोकप्रिय होने के कारण देश में सेक्स खिलौनों का बाजार 15 अरब डॉलर का हो गया है. क्या केवल कोरोना महामारी के कारण अलग थलग पड़े युवाओं की मजबूरी ही है इस बाजार के इतना फैलने की वजह या वाकई बदल गया चीन?
अकेली और घर में बंद रहने को मजबूर 27 साल की एमी (बदला हुआ नाम) खुद को बहुत अकेला महसूस कर रही थी. कोरोना महामारी के काल में चीन की राजधानी बीजिंग में बाहर निकल कर डेटिंग करने की कोई संभावना नहीं बची थी. ऐसी ही बोरियत के एक दौर में कुछ ऑनलाइन चैटरूमों में हिस्सा लिया करती थीं. यहां होने वाली चैट में उनके ही जैसी कुछ दूसरी महिलाओं ने सेक्स टॉयज का जिक्र किया.
सेक्स से दूर रहने की मजबूरी के चलते उनमें से कई महिलाओं ने एमी को भी सेक्स टॉयज इस्तेमाल करने के लिए प्रेरित किया. एमी कहती हैं, "पहले मैं थोड़ा डरती थी और इन्हें इस्तेमाल करने में संकोच भी होता था." लेकिन एक बार इन्हें इस्तेमाल करना शुरु करने के बाद एमी को लगा कि उसके सामने "कोई नई दुनिया खुल गई है." और अब वह ऐसे और टॉयज अपने जीवन में शामिल करने का मन बना रही हैं.
एक्सपोर्टर से यूजर बने चीनी
दुनिया में सबसे ज्यादा आबादी वाले पूरे चीन में ऐसे सेक्स टॉयज की मांग बढ़ रही है. इसके पहले बेडरूम में इस्तेमाल होने वाली ऐसी डिवाइसों का चीन सबसे बड़ा निर्यातक होता था. कोरोना महामारी के चलते देश के भीतर अनगिनत जोड़े अलग अलग रहने को मजबूर हो गए थे और मनोरंजन के ज्यादातर सार्वजनिक ठिकाने भी लंबे समय तक बंद रहे जहां लोग एक दूसरे से मिलते थे. इसके अलावा एक दूसरी वजह देश की संस्कृति में आए बदलाव भी रहे जिनके चलते युवा पीढ़ी ऐसे खिलौनों के इस्तेमाल के लिए ज्यादा खुली हुई है.
सेक्स और संबंधों पर सलाह देने वाली एक प्रसिद्ध चीनी ब्लॉगर यी हेंग का कहना है कि यौन रूप से सक्रिय बहुत सारी महिलाओं में आजकल सेक्स टॉयज के इस्तेमाल को लेकर बहुत ही खुली सोच है. वह बताती हैं कि ऐसी महिलाएं इसे "बहुत प्राकृतिक और सामान्य" मानती हैं. चीन के ट्विटर जैसे प्लेटफॉर्म वाइबो पर 700,000 फॉलोअरों वाली यी सेक्स और टॉयज के बारे में नियमित रूप से चर्चा करती हैं. उनका मानना है कि चीनी महिलाओं के कारण ही देश में सेक्स टॉयज का बाजार नई ऊंचाइयां छू रहा है.
क्या बदल गई है चीन की पुरानी सोच
आम तौर पर चीन में सेक्स को लेकर काफी दकियानूसी धारणा रही है. देश में पोर्नोग्राफी पर पूरी तरह से प्रतिबंध है. ऑनलाइन प्लेटफॉर्मों से "अश्लील" कंटेट को हटाने के लिए चीनी प्रशासन हर कुछ दिनों के बाद छापे मारता रहता है. चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने साइबरस्पेस को "साफ और सच्चा" बनाने पर जोर दिया है.
इसके अलावा चीनी प्रशासन समाज में शादी और पारिवारिक संबंध के मूल्यों को बढ़ावा देने पर काम कर रहा है क्योंकि देश की जन्म दर कम है. देश में तलाक दर रिकॉर्ड ऊंचाई पर पहुंच गई है और 2019 में 31 लाख तलाक दर्ज हुए. इससे भी चीन के पारंपरिक समाज में आते बड़े बदलावों का पता चलता है.
जैसे जैसे युवा लोग बेडरूम में अपनी जरूरतों को लेकर जागरुक हो रहे हैं, सेक्स टॉयज को लेकर उनकी स्वीकार्यता बढ़ती दिख रही है. चीन में इस बाजार का नेतृत्व सबसे ज्यादा महिलाएं और मिलेनियल पीढ़ी के युवा कर रहे हैं. मिलेनियल पीढ़ी में वो लोग शामिल हैं जिनका जन्म 1980 के 2000 के बीच हुआ है. चीन का घरेलू सेक्स टॉय बाजार अब भी कई पश्चिमी देशों और यहां तक की जापान के बाजार से भी छोटा है. चीनी रिसर्च फर्म का अनुमान है कि देश इसका बाजार अभी ही 14.7 अरब डॉलर को पार कर चुका है.
शंघाई स्थित मार्केट रिसर्च फर्म डैक्स कंसल्टिंग में विश्लेषक स्टेफी नोएल बताती हैं कि इस साल जनवरी से जून के बीच में देश के गूगल यानि बाइडू सर्च इंजिन में "सेक्स टॉयज" कीवर्ड खूब इस्तेमाल हुआ. उनका अनुमान है कि कोरोना की पाबंदियों के कारण जो उछाल देखने को मिला है वह उसके बाद जारी नहीं रहने वाला. नोएल बताती हैं कि सेक्स टॉयज के कई नए खरीदार बने लेकिन उनमें से "70 फीसदी" के उससे आगे बढ़ कर कुछ और खरीदने की संभावना बेहद कम है. वहीं विश्व भर में इसकी मांग पूरी करने वाला चीन इस समय कुल वैश्विक निर्यात के करीब 70 फीसदी का उत्पादन करता है. इनकी सबसे ज्यादा मांग "फ्रांस, इटली और अमेरिका" जैसे देशों में है. आरपी/एनआर (एएफपी)
-गुरप्रीत सैनी
साप्ताहिक टीआरपी यानी टेलीविज़न रेटिंग प्वाइंट जारी होते ही तमाम न्यूज़ रूम मैनेजर या एडिटर के बीच चर्चा शुरू हो जाती है कि पहले, दूसरे, तीसरे नंबर पर रहे फ़लाने चैनल को किस तरह के कंटेंट से फ़ायदा हुआ. विश्लेषण किया जाता है कि उनके ख़ुद के आधे या एक घंटे के प्रोग्राम कितनी टीआरपी बटोर पा रहे हैं.
ये देखने के बाद तय किया जाता है कि इस तरह का कंटेंट उन्हें आगे भी अपने यहां चलाना चाहिए या नहीं. जिस तरह का कंटेंट ज़्यादा टीआरपी लेकर आता है उसे बढ़ा दिया जाता है और जिस कंटेंट में दर्शकों की रुचि नहीं होती या कम होती है वो चैनलों से ग़ायब हो जाता है.
कुछ वरिष्ठ टीवी पत्रकारों के मुताबिक़, टीआरपी के आंकड़े ही तय करते हैं कि न्यूज़ चैनलों के दर्शक आने वाले दिनों में क्या देखेंगे.
लेकिन हाल में रेटिंग प्रणाली में छेड़छाड़ के आरोपों के बाद भारत में टेलीविज़न रेटिंग जारी करने वाली संस्था ब्रॉडकास्ट ऑडियंस रिसर्च काउंसिल (बार्क) ने 15 अक्टूबर से न्यूज़ चैनलों की रेटिंग पर तीन महीनों के लिए अस्थाई रोक लगा दी है.
इससे टीआरपी सिस्टम में गंभीर ख़ामियों की बात सामने आई है, जिसे बार्क ने ठीक करने की बात कही है.
हालांकि ये रोक सिर्फ़ 12 हफ़्ते के लिए है और एक आधिकारिक बयान में बार्क ने कहा है कि इस दौरान उसकी तकनीकी समिति डेटा को मापने और रिपोर्ट करने के वर्तमान मानकों की समीक्षा करेगी और उसमें सुधार करेगी.
टीवी न्यूज़ चैनल कितने बदलेंगे
इस बीच सवाल ये है कि इस टीआरपी बैन और इस रेटिंग प्रणाली में सुधार की कोशिशों से टीवी न्यूज़ चैनल कितने बदलेंगे?
साफ़ तौर पर टीआरपी न्यूज़ चैनलों को मिलने वाले विज्ञापनों पर असर डालती है. इसलिए इसका सीधा असर न्यूज़ कंटेंट पर देखने को मिलता है और हमेशा ये आरोप लगे हैं कि टीआरपी की लालसा में न्यूज़ चैनल दर्शकों के सामने जो सामग्री परोस रहे हैं, वो पत्रकारिता के स्तर को गिराने का काम कर रही है.
कई टीवी चैनलों में शीर्ष पदों पर रह चुके वरिष्ठ पत्रकार अजीत अंजुम कहते हैं कि टीआरपी बंद नहीं हुई है बल्कि महज़ 12 हफ़्तों के लिए स्थगित हुई है, इसलिए इससे बहुत बदलाव आने की उम्मीद नहीं की जा सकती.
लेकिन उनका कहना है कि रेटिंग स्थगित होने से कुछ फ़र्क़ पड़ना चाहिए.
वो कहते हैं, "अब थोड़ा फ़र्क़ ये आ सकता है कि अगर कोई चैनल या कोई एडिटर सिर्फ़ मजबूरी में रेटिंग में प्रतिस्पर्धा के लिए कोई ऐसी सामग्री चला रहा है जो वो नहीं चलाना चाहता तो उसके पास ये मौक़ा है कि वो प्रयोग कर सकता है और कुछ हफ़्ते प्रेशर के बिना दर्शकों को कुछ बेहतर दिखा सकता है."
हालांकि वो कहते हैं कि ऐसा नहीं है कि ये फ़र्क़ सबमें देखने को मिलेगा. उनके मुताबिक़, "जो चैनल पूरी आस्था के साथ एजेंडा चला रहे हैं उनमें बहुत ज़्यादा फ़र्क़ नहीं आएगा, क्योंकि ये अब उनकी फ़ितरत बन गई है और उनके डीएनए में शामिल हो गया है. 6-7 साल पहले तक यानी 2014 से पहले और अब में ये फ़र्क़ आया है कि पहले सिर्फ़ रेटिंग के लिए सामग्री बनती थी, लेकिन अब एक एजेंडा भी चलता है, इसलिए सिर्फ़ रेटिंग स्थगित होने से वो एजेंडा तो नहीं रोकेंगे."
उनका ये भी मानना है कि 12 हफ़्तों में बेहतर कंटेट देने की सोचने वालों को ये डर भी रहेगा कि इन हफ़्तों के लिए सामग्री बदली तो दर्शक छोड़कर दूसरे चैनल पर न चले जाएं और फिर बाद में उन्हें वापस लाना मुश्किल हो जाए.
रेटिंग सिस्टम की ख़ामियों को दूर करने से बनेगी बात?
टीआरपी, टीवी न्यूज़ और बाज़ार का एक ऐसा आपसी रिश्ता बन गया है, जिसमें सुधार के लिए निर्णायक क़दम उठाए जाने की माँग होती रही है. कई मीडिया विश्लेषकों का कहना है कि असली समाधान यही हो सकता है कि टेलीविज़न रेटिंग प्वाइंट के इस सिस्टम को पूरी तरह से बंद कर दिया जाए.
हालांकि बार्क ने टीआरपी सिस्टम की ख़ामियों को ठीक करने की बात कही है.
बीबीसी हिंदी के साथ साझा किए गए एक बयान में बार्क इंडिया के सीईओ सुनील लुल्ला ने कहा, "बार्क में हम बहुत ही ज़िम्मेदारी के साथ सच्चाई और ईमानदारी से बताते हैं कि भारत क्या देख रहा है. हम सुनिश्चित करते हैं कि दर्शकों के अनुमान (रेटिंग) को उसी तरह से सबके सामने रखें."
साथ ही उन्होंने कहा कि हम ऐसे और विकल्प तलाश रहे हैं, जिससे टीआरपी में गड़बड़ी की इस तरह की ग़ैर-क़ानूनी गतिविधियों पर पूरी तरह रोक लगाई जा सके.
हालांकि बार्क की तकनीकी समिति (टैक कॉम) मौजूदा सिस्टम की समीक्षा करेगी. इसका मतलब डेटा इकट्ठा करने वाले सिस्टम को ठीक किया जाएगा और बैरोमीटर वाले जिन घरों की पहचान हो जा रही है, उसे रोकने के उपाय किए जाएंगे.
लेकिन विश्लेषकों का कहना है कि ये सुधार सिर्फ़ तकनीकी पहलू पर होंगे. उनका मानना है कि असल सुधार टीआरपी के मूल चरित्र में होना चाहिए.
वरिष्ठ पत्रकार और सत्य हिंदी डॉट कॉम के सह-संस्थापक क़मर वहीद नक़वी कहते हैं, "सीधी बात है कि तीन महीने के बैन के बाद तो टीआरपी वही आएगी. आप सिर्फ़ उसका सिस्टम ठीक करोगे, जिसकी वजह से डेटा चोरी और गड़बड़ी संभव हो पा रही थी. साथ ही उस गड़बड़ी को दूर करेंगे जिसकी वजह से उन घरों की पहचान करके उन्हें पैसे देकर कहा जा रहा है कि आप हमारा चैनल बड़ी देर तक देखो, ताकि हमारी टीआरपी बढ़ जाए."
वो कहते हैं कि बार्क सिर्फ़ यही रोक सकता है. "हालांकि जब तक ये सामने नहीं आता कि वो कैसे रोकेंगे, तब तक हम बहुत आश्वस्त हो भी नहीं सकते कि ये रुक पाएगा या नहीं."
टीआरपी को पूरी तरह बंद करने से होगा सब ठीक?
वहीं वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश कहते हैं कि असल बदलाव तभी आएगा जब टीआरपी सिस्टम को पूरी तरह से बंद कर दिया जाए और उसकी जगह एक नई व्यवस्था लाई जाए.
उनका कहना है कि मौजूदा टीआरपी सिस्टम फ़ेक, बेबुनियाद, अवैज्ञानिक और पूरी तरह से हेरफेर पर आधारित लगता है.
उनका मानना है कि इसकी जगह एक स्वतंत्र मेकैनिज़्म होना चाहिए. वो कहते हैं कि 'कोई स्वतंत्र शिकायत आयोग हो या स्वतंत्र मीडिया कमीशन बनाया जाना चाहिए.'
कुछ ऐसी ही सिफ़ारिश 2013 में एक संसदीय समिति की ओर से पेश रिपोर्ट में भी की गई थी. उस समय कांग्रेस की सरकार थी और रिपोर्ट तैयार करने वालों में अलग-अलग दलों के प्रतिनिधि शामिल थे. रिपोर्ट पेश करने वाली समिति के चैयरमैन मौजूदा बीजेपी नेता राव इंद्रजीत सिंह थे. इस रिपोर्ट में एक मीडिया काउंसिल की वकालत की गई थी.
उर्मिलेश कहते हैं, "इस मामले में किसी वरिष्ठ पत्रकार, पार्टी या सरकार की बात पर ना भी जाया जाए लेकिन संसद की बात मानी जानी चाहिए जो सुप्रीम बॉडी है और जिसमें सभी दलों का प्रतिनिधित्व है. इसलिए संसद की रिपोर्ट को लागू कर मीडिया काउंसिल बनाया जाना चाहिए."
वो कहते हैं, "मीडिया काउंसिल में सरकारी नियंत्रण ना हो. उसमें सूचना और प्रसारण मंत्रालय का भी प्रतिनिधि रखिए. दो बड़े पत्रकारों को लीजिए. जो पार्टी बंदी वाले ना हों बल्कि स्वतंत्र तरह के लोग हों. इसके अलावा न्यायपालिका से शीर्ष लोगों को लीजिए. उन्हीं को आप चेयरमैन बना दीजिए. इसके अलावा बड़े बुद्धिजीवियों को लीजिए, जो गणमान्य हों यानी बीजेपी या कांग्रेस से उनका जुड़ाव ना हो. इस तरह का एक स्वतंत्र मीडिया काउंसिल बने. ये काउंसिल तय करे कि न्यूज़ चैनलों पर क्या चलेगा और न्यूज़ चैनल पर ख़बरों और विज्ञापन का अनुपात कितना होगा."
टीआरपी बंद करने से निकलेगा समाधान?
न्यूज़ चैनलों पर पत्रकारिता को ताक पर रखने के जो आरोप लगते हैं उसकी बड़ी वजह टीआरपी को माना जा रहा है, जिसका सीधा संबंध विज्ञापन यानी चैनलों की कमाई से होता है.
तो ऐसे में सवाल ये भी उठता है कि अगर ये रेटिंग सिस्टम विश्वसनीय नहीं है तो विज्ञापनदाता और मार्केटिंग समुदाय क्यों इसमें सुधार की या इसे बंद करने की माँग नहीं करते?
टीवी चैनलों पर लंबे वक़्त से नज़र रखने वाले और मार्केट को समझने वाले एक्सचेंज फ़ॉर मीडिया के संस्थापक और बिज़नेस वर्ल्ड के एडिटर इन चीफ़ अनुराग बत्रा कहते हैं कि हर चीज़ के लिए टीआरपी को ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है.
उनके मुताबिक़ ये समझना ज़रूरी है कि विज्ञापनदाता इस इको-सिस्टम का अहम हिस्सा हैं, क्योंकि न्यूज़ चैनल फ्री टू एयर हैं जिसके लिए दर्शक पैसा नहीं देते.
उनका कहना है कि विज्ञापनदाता रेटिंग ज़रूर देखते हैं लेकिन गुणवत्ता पर भी ध्यान देने लगे हैं. वो कहते हैं कि वो चैनल की विश्वस्नीयता और बैलेंस भी देखते हैं और इनोवेशन भी देखते हैं.
वो कहते हैं, "टीआरपी सिस्टम को पूरी तरह बंद कर देना कोई रास्ता नहीं है, क्योंकि हर चीज़ के मापदंड की ज़रूरत होती है. इसके बजाए रेटिंग को पुख़्ता बनाने की ज़रूरत है. साथ ही सैंपल साइज़ को पुख़्ता बनाने की ज़रूरत है. इसके लिए तकनीक की मदद लेनी होगी."
अनुराग बत्रा मानते हैं कि इस वक़्त समुद्र मंथन हो रहा है और उम्मीद जताते हैं कि आने वाले हफ़्तों में रेटिंग सिस्टम बेहतर हो जाएगा.
देखने वाली बात होगी कि 12 हफ़्तों बाद रेटिंग सिस्टम में क्या तकनीकी बदलाव आता है और क्या कभी टीआरपी की इस जंग का कोई स्थाई समाधान निकल पाएगा? या विज्ञापनदाता आगे आकर इस मसले के हल में अपनी भूमिका निभाएंगे? (bbc)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
आज पांडुरंग शास्त्री आठवलेजी का 100 वां जन्मदिन है। मैं उनकी तुलना किससे करुं? पिछले 100 वर्षों में ऐसे कई महापुरुष हुए हैं, जिनके नाम विश्व इतिहास में स्वर्णाक्षरों में दर्ज हुए हैं लेकिन अकेले आठवलेजी ने वह चमत्कारी काम कर दिखाया है, जो बस उन्होंने ही किया है, किसी और ने नहीं। महाराष्ट्र और गुजरात में खास तौर से और भारत तथा अन्य लगभग 30 देशों में उनके 50 लाख से भी ज्यादा अनुयायी रहे हैं। अब से लगभग 25 साल पहले मेरे वरिष्ठ सहपाठी डॉ. रमन श्रीवास्तव और गांधीवादी सज्जन श्री राजीव वोरा ने आठवलेजी के ‘स्वाध्याय आंदोलन’ को देखने-परखने का आग्रह मुझसे किया। उनके आग्रह पर मैंने आठ दिन महाराष्ट्र के जंगलों, समुद्र-तटों और पहाडिय़ों में बिताए। वहां आदिवासियों, दलितों, ग्रामीणों, मुसलमानों, अशिक्षित गरीबों और मछुआरों से रोज भेंट होती थी और रोज रात को दादा (आठवलेजी) के भक्तों के बीच मेरा भाषण होता था।
मैं यह देखकर दंग रहा जाता था कि गांवों के ये सब लोग शाकाहारी बन गए थे। मछुआरों ने भी मछली खाना छोड़ दिया था। कई डाकुओं ने डाकाजनी, हत्या और चोरी-चकारी छोडक़र ‘स्वाध्याय’ के भक्तिमार्ग को अपना लिया था। अपने भाषणों में जो प्रतिक्रिया मेरी होती थी, उसे मुंबई के श्री महेश शाह दादा को रोज रात को फोन पर बता दिया करते थे। यह मुझे तब पता चला, जब मैं एक बड़े समारोह में पहली बार दादा से मुंबई में मिला। दादा ने मुझसे कहा कि ‘स्वाध्याय’ के बारे में आपकी प्रतिक्रिया वही है, जो कभी डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन की थी।उसके बाद दादा जब तक जीवित रहे (2003), वे मुझे हर समारोह में विशेष अतिथि के तौर पर बुलाते थे। उनके साथ मैंने मुंबई, राजकोट, पुणे आदि में कई सभाओं को संबोधित किया। उनके वार्षिक उत्सवों में 20 से 25 लाख भक्तों की उपस्थिति साधारण बात थी। इतने लोग तो मैंने किसी प्रधानमंत्री की सभा में भी नहीं देखे और न ही सुने। उनकी सभा के लिए साल भर पहले से या तो समुद्र में हजारों नावों की व्यवस्था की जाती थी या फिर जंगलों को साफ-सूफ किया जाता था। मंच पर प्राय: वे और मैं ही बैठते थे।
मैंने उनकी सभाओं में कई सांसदों, मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों, राज्यपालों और उप-प्रधानमंत्री को भी नीचे बैठे हुए देखा है। वे परम विद्वान और अदभुत वक्ता थे। उन्होंने कई ग्रंथों की रचना की है। वे अत्यंत प्रेमल और भावुक व्यक्ति थे। उनका मूल-मंत्र बस एक ही था कि मेरे हृदय में भी वही भगवान बैठा है जो तेरे हृदय में है। इसीलिए तू हिंसा मत कर, चोरी मत कर, झूठ मत बोल, धोखा मत दे। 2003 में जब मधुमेह के कारण उनका एक पांव डॉक्टरों को आधा काटना पड़ा तो उन्होंने मुझे फोन किया। उस दिन मैं दुबई में था। दूसरे दिन जब मैं उनसे मुंबई में मिला तो उन्होंने कहा कि इस स्वाध्याय आंदोलन को मैं आपके जिम्मे करता हूं। इसे आप चलाएं। इसके 50 लाख भक्त हैं। इसकी 400 करोड़ रु. की संपत्तियां हैं और यह कई देशों में फैला हुआ है। दादा का यह उत्तराधिकार लेने से मेरे मना करने पर यह उन्होंने अपनी भतीजी जयश्री तलवलकर को सौंप दिया। आज ‘दादा’ जैसे महापुरुषों की देश को सख्त जरुरत है। उन्हें मेरा हार्दिक और विनम्र प्रणाम !
(नया इंडिया की अनुमति से)
-श्वेता चौहान
इतिहास ऐसी महिलाओं के हौसले से भरा हुआ है जिन्होंने असाधारण काम कर अपना नाम इतिहास के सुनहरे अक्षरों में अंकित करवाया। आज का हमारा लेख ऐसी ही एक महिला के बारे में है जिन्हें हाल फिलहाल में एक ऐतिहासिक सम्मान से नवाज़ा गया है। नूर इनायत खान अभी कुछ दिनों पहले तब चर्चा में आई, जब उन्हें ब्रिटेन में एक ऐतिहासिक सम्मान दिया गया। आपको बता दें कि नूर इनायत लंदन में ब्लू प्लाक स्मारक से सम्मानित होने वाली भारतीय मूल की पहली महिला हैं।
पेशे से जासूस नूर इनायत का जन्म साल 1914 में मॉस्को में भारतीय मूल के पिता हज़रत इनायत खान और अमेरिकी मां ओरा रे बेकर के घर हुआ था। नूर इनायत खान के माता-पिता की शादी अमेरिका के रामकृष्ण आश्रम में हुई थी जिसके बाद उनकी मां ने शारदा अमीना खान का नाम अपनाया था। वह 18वीं शताब्दी में मैसूर के राजा रहे टीपू सुल्तान की वंशज थी क्योंकि नूर के पिता हज़रत इनायत खान मैसूर के राजा टीपू सुलतान के परपोते थे। खान परिवार पहले रूस, फिर ब्रिटेन और फ्रांस आ गए। नूर पेरिस के एक उपनगरीय इलाके में ‘फज़ल मंज़िल’ नामक एक प्रेम घर में पली बढ़ी। जहां आज भी फ़्रांसिसी उन्हें सम्मान देने के लिए एक सैन्य बैंड बैस्टिल डे पर उस घर के बाहर बजाते हैं।
तस्वीर साभार: Mens XP
आखिरी वक्त में भी जब जर्मन सैनिकों ने नूर पर वार करने के लिए अपने हथियार उठाए तो नूर का आखिरी शब्द था ‘आजादी’।
नूर एक प्रतिभाशाली लड़की थी, उन्होंने पेरिस कंज़र्वेटरी एंड चाइल्ड साइकोलॉजी में संगीत का अध्ययन किया। वह काफी अच्छी फ्रेंच भी बोल लेती थीं। जिस वक्त दूसरा विश्व युद्ध शुरू हुआ, नूर सिर्फ 25 साल की थीं और इसी 25 साल की उम्र में उन्होंने ‘TWENTY JATAKA TALES’ नामक किताब लिखी जो बुद्ध के पूर्व जीवन से जुड़ी है। नूर अपने भाई बहनों में सबसे बड़ी थी। 1927 में अपनी भारत यात्रा के दौरान उन्होंने अपने पिता हज़रत इनायत खान को खो दिया जिसके बाद घर में सबसे बड़े होने की नाते उन्हें जिम्मेदारी संभालना अच्छे से आ गया। उनके व्यक्तिगत जीवन के बारे में ऐसा भी कहा जाता है कि नूर का किसी यहूदी मूल के पियानोवादक से संबंध था और बाद में किसी ब्रिटिश अधिकार के साथ उनके संबंधों की चर्चा की गई।
तस्वीर साभार: The Better India
नूर ने 25 साल की उम्र में वायरलेस ऑपरेटर के रूप में प्रशिक्षण के लिए ब्रिटेन की रॉयल एयर फोर्स की ही एक शाखा वुमेंस ऑक्सीलियरी एयर फोर्स को ज्वाइन कर लिया। यहाँ उन्हें एक कोडनेम ‘मेडलिन’ दिया गया और विंस्टन चर्चिल के स्पेशल ऑपरेशन एक्जीक्यूटिव द्वारा पेरिस भेजी जानी वाली वह पहली रेडियो ऑपरेटर बनीं जिन्हें नाजी द्वारा कब्ज़ा किये गए फ्रांस में भेजा गया था। फ्रांस जाकर उन्होंने बड़ी ही तेजतर्रार महिला के तौर पर काम किया वह पकड़े गए वायुसेना कर्मियों को ब्रिटेन भागने में मदद किया करती थीं। लंदन तक सारी खुफिया जानकारियां पहुंचाती थीं।
इस दौरान उन्हें फ्रांस में जासूसी करने में उन्हें कई खतरों का सामना करना पड़ा लेकिन नूर ने हार नहीं मानी। यहां तक कि जब एसओई सदस्यों को नाजी पुलिस धड़ाधड़ गिरफ्तार कर रही थी, तब भी वह लंदन संदेश भेजती रही क्योंकि नूर अपनी समझदारी और कौशल से हर बार बच निकली। पैरिस के एजेंट्स और लंदन के बीच वह अकेली कड़ी थी जो सभी जानकारी पहुंचाया करती थी।
आखिरकार 13 अक्टूबर, 1943 को फ्रांस की एक महिला के धोखा देने के चलते उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें कई यातनाएं भी दी गईं लेकिन उन्होंने अपने सीक्रेट मिशन से जुड़ी कोई जानकारी नाजियों को साझा नहीं की। उन्होंने भागने की कोशिश की लेकिन पकड़े जाने पर उन्हें ‘बेहद खतरनाक’ बताकर एक काल-कोठरी में डाल दिया गया और अंततः साल 1944 में उन्हें दखाऊ कंसन्ट्रेशन कैंप में भेज दिया गया। 13 सितंबर की सुबह उन्हें सिर के पीछे गोली मार दी गई। आखिरी वक्त में भी जब जर्मन सैनिकों ने नूर पर वार करने के लिए अपने हथियार उठाए तो नूर का आखिरी शब्द था ‘आजादी’।
तस्वीर साभार: Amazon
नूर की मां अमीना बेगम की 101 कविताओं का संग्रह तैयार था, लेकिन दूसरे विश्व युद्ध के दौरान उस संग्रह की कुछ कविताएं खो गई थीं जो कि बाद में सिर्फ 54 ही बच सकीं। शायद उन्हीं में से एक कविता ‘नूर’ भी थी। ब्रिटेन में वह 1946 तक गुमनाम रहीं लेकिन 1946 में पूर्व गेस्टपो ऑफिसर क्रिस्चियन ऑट से पूछताछ के बाद उनकी कहानी दुनिया के सामने आ ही गई। नूर की कहानी पत्रकार शरबानी बसु ने 2008 में किताब स्पाई प्रिंसेस के तौर पर छापी। शरबानी बसु ने ही ब्रिटिश करंसी पर नूर का चेहरा छापे जाने का अभियान चलवाया था। उनके इस समर्पण के लिए 1949 में उन्हें ब्रिटेन के दूसरे सबसे बड़े सम्मान जॉर्ज क्रॉस से सम्मानित किया गया।
(यह लेख पहले फेमिनिज्मइनइंडियाडॉटकॉम पर प्रकाशित हुआ है।)
- Sonali Khatri
“अब अगर ऐसा दोबारा हुआ तो टांगे तोड़ दूंगा तुम्हारी”, “हिम्मत कैसे हुई तुम्हारी इस तरीके से अपने बड़ों से बात करने की, आगे से ऐसा हुआ, तो एक थप्पड़ पड़ेगा”। आए दिन हम अपने घरों में ऐसी बातें सुनते रहते हैं। सामान्य सी लगने वाली ये बातें बच्चों के मन पर गहरा असर छोड़ देती हैं। जहां एक ओर वे मानने लगते हैं कि हिंसा सामान्य बात है। वहीं, दूसरी ओर घर का ऐसा हिंसात्मक माहौल उन्हें अपनों से दूर कर देता है। अक्सर ऐसे घरवालों से वे नफरत तक करने लगते है। हाल ही में आई UNICEF की एक स्टडी के मुताबिक भारतीय घरों में 0 से 6 साल के बच्चों को लगभग 30 अलग-अलग तरीकों से शोषित किया जाता है। बच्चों के ख़िलाफ़ घरों में होने वाली हिंसा को हम मुख्य तौर पर तीन भागों में बांट सकते हैं।
शारीरिक शोषण : इसमें शामिल है बच्चे पर हाथ उठाना, छड़ी-बेल्ट-रॉड-स्केल से आदि से मारना, इत्यादि।
मौखिक शोषण : इसमें शामिल है बच्चे को दोष देना, उसकी आलोचना करना, उस पर चीखना-चिल्लाना, उनसे अभद्र भाषा में बात करना।
भावनात्मक शोषण : इसमें शामिल है बच्चे का आना-जाना बंद कर देना, उसे घर से बाहर न निकलने देना, उसे खाना न देना, उसके साथ भेदभाव करना, उसे डराकर रखना आदि।
ऐसे व्यवहार को यह कहकर उचित ठहराया जाता है कि ऐसा बच्चों को अनुशासित करने के लिए जरूरी है। इस रिपोर्ट में यह भी पाया गया कि कोरोना महामारी के इस दौर में छोटे बच्चे हिंसा, दुर्व्यवहार और उपेक्षा ज्यादा अनुभव करते है क्योंकि परिवारों के लिए कोरोना के इस संघर्ष से गुजरना बेहद ही मुश्किल हो रहा है।
बच्चों पर हिंसा न सिर्फ उनके बचपन की मासूमीयत को छीन लेता है, बल्कि एक हिंसक वयस्क की नींव भी रखता है। हिंसा किसी भी लोकतांत्रिक समाज या देश की प्रगति में एक बहुत बड़ी रुकावट है।
जो बच्चे बचपन में हिंसा को इतनी करीब से देख लेते हैं, उसका नकारात्मक प्रभाव उस बच्चे के शारीरिक विकास, आत्मसम्मान, भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक स्वास्थ्य पर भी पड़ता है। कभी कभी तो यह तक पाया गया है कि घरों में होने वाली हिंसा की वजह से कुछ बच्चे समय से पहले बड़े हो जाते है और कुछ बच्चे अपनी उम्र से कम ही रह जाते है। 2006 की UNGA रिपोर्ट के मुताबिक़, जो बच्चे बचपन में अधिक हिंसा झेलते हैं, उनमें आगे जाकर नशीले पदार्थो के सेवन और यौन व्यवहार की भी जल्दी शुरू होने की संभावनाएं काफी ज्यादा होती हैं। साथ ही यह भी पाया गया है कि ऐसे बच्चों को आजीवन सामाजिक और भावनात्मक रूप से हानि होती है। ऐसे बच्चों में अवसाद, निराशा और चिंता के लक्षण भी दूसरे बच्चों की तुलना में अधिक पाए गए है। सार में कहे तो, “हिंसक घरों का बच्चों के दिमाग पर वही प्रभाव पड़ता है जो युद्ध का सैनिक पर”।
कुछ मामलों में तो ये भी पाया गया है कि ऐसे बच्चे आगे जाकर असामाजिक / आपराधिक गतिविधियों में अधिक शामिल होते हैं। यूनिसेफ अंतरराष्ट्रीय बाल विकास केंद्र की एक विस्तृत रिपोर्ट के अनुसार, “यह निस्संदेह बात है कि जो बच्चे बचपन में हिंसा का प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं, उनमे आगे जाकर हिंसक व्यवहार की संभावनाएं काफी हद तक बढ़ जाती हैं।” घर पर होने वाली हिंसा से कुछ बच्चे सब से अलग-थलग रहने लग जाते है। अपने ही घरवालों से भी वे दूरियां बनाने लगते हैं। कभी मौजूदा दोस्त छूट जाते हैं और कभी नए दोस्त नहीं बन पाते। ऐसे बच्चे बहुत ही अकेले पड़ जाते हैं और अपनी ही नजरों में उनका आत्मसम्मान बहुत ही गिर जाता है। ऐसे बच्चों में नशीली दवाओं और शराब की लत, किशोर गर्भावस्था, घर से भागना, आत्महत्या, किशोर अपराध करने का खतरा भी ज्यादा होता है। वहीं, कुछ बच्चे खुद ही को नुकसान तक पहुंचाने लगते हैं।
साफ़ तौर पर, बच्चों पर हिंसा न सिर्फ उनके बचपन की मासूमीयत को छीन लेता है, बल्कि एक हिंसक वयस्क की नींव भी रखता है। हिंसा किसी भी लोकतांत्रिक समाज या देश की प्रगति में एक बहुत बड़ी रुकावट है। न सिर्फ इसकी कीमत कुछ लोगों को चोट या नुकसान देकर चुकानी पड़ती है, बल्कि पूरे समाज को अपनी शांति से समझौता करना पड़ता है। इसीलिए हमें जरूरत है हमारे समाज की सबसे छोटी और महत्वपूर्ण ईकाई, ‘परिवार’ की इस हिंसा में भूमिका समझने की। जब तक हम ये नहीं समझेंगे, तब तक बदलाव की उम्मीद रखना भी गलत होगा।
हमें इस प्रकार के ज्यादा से ज्यादा कार्यक्रम करने होंगे जिनके माधयम से परिवारजनों और अभिभावकों को बाल शोषण एवं बाल हिंसा के बारे में, इसके कई रूपों के बारे में, बच्चों पर इसके प्रभावों के बारे में बताया जाए, जागरूक किया जाए। इस पूरी प्रक्रिया में ये अहम है कि अभिभावकों को साफ़ तौर पर ये बताया जाए कि उनका कौन-सा ऐसा व्यवहार है जिसे उन्हें बदलने की ज़रूरत है। जब तक हम घरों में इस प्रकार की समस्यात्मक बातों, बर्तावों को साफ़ तौर पर पहचान नहीं पाएंगे, तब तक बदलाव बेहद मुश्किल ही रहेगा। इसीलिए बाल शोषण को रोकने के लिए जागरूकता फैलाने वालों को विशेष मेहनत करनी होगी, तभी हम मन-मुताबिक़ परिणाम देख पाएंगे।
(यह लेख पहले फेमिनिज्मइनइंडियाडॉटकॉम पर प्रकाशित हुआ है।)
18 वैज्ञानिकों ने एक समूह ने 1950 से लेकर अब तक हुई ऊर्जा खपत का विश्लेषण किया है
-दयानिधि
एक नए अध्ययन में कहा गया है कि ऊर्जा का बढ़ता उपयोग, आर्थिक उत्पादकता और बढ़ती वैश्विक आबादी की गति ने पृथ्वी को एक नए भूवैज्ञानिक युग की ओर धकेल दिया है, जिसे एंथ्रोपोसीन के रूप में जाना जाता है। शोध में पाया गया कि वर्ष 1950 के आसपास पृथ्वी की सतह की परतों में भौतिक, रासायनिक और जैविक परिवर्तन शुरू हुए थे।
सीयू बोल्डर की प्रोफेसर एमेरिटा और इंस्टीट्यूट ऑफ अल्पाइन आर्कटिक रिसर्च (इन्स्टार) के पूर्व निदेशक जया सिवित्स्की की अगुवाई में किया गया अध्ययन नेचर कम्युनिकेशंस अर्थ एंड एनवायरनमेंट में प्रकाशित हुआ है। पिछले 11,700 वर्षों से पर्यावरण में बदलाव करने वालों को होलोसीन युग के रूप में जाना जाता है। 1950 के बाद से इसमें नाटकीय तरीके से मानव जनित बदलाव हुए। ऐसे व्यापक परिवर्तन से महासागरों, नदियों, झीलों, तटीय इलाकों, वनस्पति, मिट्टी, रसायन और जलवायु में परिवर्तन हुए हैं।
सिवित्स्की ने कहा कि यह पहली बार है कि जब वैज्ञानिकों ने इतने व्यापक पैमाने पर लोगों द्वारा किए गए बदलाव का दस्तावेजीकरण किया है।
11,700 वर्ष पहले की गई ऊर्जा खपत को हम लोग पिछले 70 वर्षों में ही पार कर कर चुके हैं। इसमें बड़े पैमाने पर जीवाश्म ईंधन का उपयोग किया गया है। ऊर्जा खपत में इस भारी वृद्धि ने तब मानव आबादी, औद्योगिक गतिविधि, प्रदूषण, पर्यावरणीय गिरावट और जलवायु परिवर्तन में नाटकीय वृद्धि की है।
यह अध्ययन एंथ्रोपोसीन वर्किंग ग्रुप (एडब्ल्यूजी) द्वारा किए गए काम का परिणाम है। यह वैज्ञानिकों का एक ऐसा समूह है जो पृथ्वी पर भारी मानव प्रभाव की विशेषता वाले आधिकारिक भूवैज्ञानिक समय के भीतर एंथ्रोपोसीन को एक नया युग बनाने के लिए मामले का विश्लेषण करता है।
एन्थ्रोपोसीन शब्द भूगर्भीय रूप से परिभाषित लंबे समय को निर्दिष्ट करने के लिए उपयोग किया जाता है। वर्तमान में मानव पृथ्वी प्रणालियों पर हावी हो रहा है।
भूवैज्ञानिक समय, एक युग एक आयु से अधिक है, लेकिन एक अवधि से कम है, जिसे लाखों वर्षों में मापा जाता है। होलोसीन युग के भीतर, कई युग हैं- लेकिन एंथ्रोपोसीन को पृथ्वी के ग्रह के इतिहास के भीतर एक अलग युग के रूप में प्रस्तावित किया गया है।
एंथ्रोपोसीन के स्पष्ट निशान
18 अध्ययनकर्ताओं ने मौजूदा शोध को संकलित किया, जो 1950 से अब तक ऊर्जा की खपत और अन्य मानवीय गतिविधियों के कारण ग्रह पर पड़ने वाले 16 प्रमुख प्रभावों को उजागर कर रहे हैं।
1952 से 1980 के बीच मनुष्यों ने वैश्विक परमाणु हथियार परीक्षण को लेकर जमीन के ऊपर 500 से अधिक थर्मोन्यूक्लियर विस्फोट किए, जिसने पूरे ग्रह की सतह पर या उससे अधिक परमाणु ऊर्जा वाले रेडियोन्यूक्लाइड्स-परमाणुओं को धरती पर छोड़ा।
लगभग 1950 के बाद से मनुष्यों ने कृषि के लिए औद्योगिक उत्पादन के माध्यम से ग्रह पर निश्चित नाइट्रोजन की मात्रा को दोगुना कर दिया है। उद्योगों से भारी पैमाने पर क्लोरोफ्लोरोकार्बन (सीएफसी) वातावरण में रिलीज हुई जिसने ओजोन परत को काफी नुकसान पहुंचाया। जीवाश्म ईंधन से ग्रह पर ग्रीनहाउस गैसों का स्तर बढ़ा। जिसके कारण जलवायु परिवर्तन हुआ और इसने पृथ्वी पर प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले हजारों सिंथेटिक खनिज जैसे यौगिकों का निर्माण किया और दुनिया भर में लगभग 20 फीसदी नदियों का तलछट (सेडीमेंट ) बांधों, जलाशयों के कारण अब समुद्र तक नहीं पहुंच रहा है।
अध्ययन के अनुसार मानव ने 20वीं शताब्दी के मध्य से हर साल इतने टन प्लास्टिक का उत्पादन किया है कि आज हर जगह माइक्रोप्लास्टिक्स बढ़ता जा रहा है।
सिवित्स्की ने कहा हम लोगों ने सामूहिक रूप से खुद को इस मुसीबत में डाल लिया है, हमें इन पर्यावरण प्रवृत्तियों को बदलने के लिए एक साथ काम करने और खुद को इससे बाहर निकालने की जरूरत है। (downtoearth.org.in)
- विग्नेश ए.
इसकी आधिकारिक वेबसाइट का कहना है, "हम कणों की मूलभूत संरचना की जांच करते हैं जो हमारे चारों ओर मौजूद सब कुछ बनाते हैं. हम दुनिया के सबसे बड़े और सबसे जटिल वैज्ञानिक उपकरणों का इस्तेमाल करते हैं."
'गॉड पार्टिकल' कहे जाने वाले हिग्स बोसोन की मौजूदगी को भी महज एक परिकल्पना माना जाता था, जब तक कि साल 2012 में लार्ज हैड्रॉन कोलाइडर नाम के एक पार्टिकल एस्केलेटर का इस्तेमाल करके इसके होने की पुष्टि नहीं कर दी गई.
मानव सभ्यता के इतिहास में इस तरह का महत्व रखने वाली संस्था के परिसर में हिंदू देवता शिव के नटराज स्वरूप की प्रतिमा लगी है.
इस प्रतिमा को 18 जून 2004 में सीईआरएन के परिसर में स्थापित किया गया था. यह महज एक संयोग हो सकता है कि सोशल मीडिया की दिग्गज कंपनी फ़ेसबुक और तत्कालीन सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ऑरकुट की स्थापना भी उसी साल हुई थी.
इंटरनेट के आने से सोशल मीडिया धरती पर करोड़ों लोगों तक पहुंच गया है और इसी तरह फ़ेक न्यूज़ भी. नटराज की इस मूर्ति को लेकर भी काफ़ी फ़ेक न्यूज़ फैली.
आइए देखते हैं कि सीईआरएन के परिसर में स्थिति नटराज की मूर्ति को लेकर क्या-क्या झूठी ख़बरें फैलीं और इसके वहां लगाए जाने के पीछे असल वजह क्या थी?
कुछ सोशल मीडिया यूज़र्स का कहना है कि नटराज की मूर्ति परमाणु की संरचना का वर्णन करती है और इसलिए जो वैज्ञानिक ऐसा मानते हैं उन्होंने सीईआरएन परिसर में इसे रखने का फ़ैसला किया है.
एक और फ़ेक न्यूज़ में कहा गया है कि इस प्रतिमा में नटराज 'आनंद तांडवम' मुद्रा में डांस कर रहे हैं जिसे विदेशी वैज्ञानिक 'कॉस्मिक डांस' कहते हैं. यह मुद्रा परमाणु के अंदर उप-परमाणुओं की गति के समान है.
फ़ेक न्यूज़ में यह दावा भी किया गया, "नटराज पूरे ब्रह्मांड का प्रतीक हैं, यह घोषित करने के लिए सीईआरएन के वैज्ञानिकों ने इस प्रतिमा को वहां स्थापित करने का फ़ैसला किया."
हिंदू देवी-देवतीओं की मूर्ति को लेकर तथ्यों और वैज्ञानिक रूप से ग़लत ऐसी तमाम कहानियां सोशल मीडिया और इंटरनेट पर मौजूद हैं.
सीईआरएन परिसर में इसकी स्थापना के असल कारण को जानने से पहले हम इससे जुड़े कुछ दिलचस्प तथ्य जान लेते हैं.
इसे नास्तिक मूर्तिकार ने बनाया
इस मूर्ति को बनाने वाले कलाकार नास्तिक हैं और वो तमिलनाडु से हैं. 'सिर्पी' (शिल्पकार) के नाम से चर्चित राजन तमिल सोशल मीडिया सर्कल में पेरियार के सिद्धांतों के सक्रिय समर्थकों में से एक हैं.
तमिलनाडु में अंधविश्वास, जाति व्यवस्था, धार्मिक विश्वास और ज्योतिष आदि की आलोचना करने वाले उनके वीडियो अक्सर दक्षिणपंथी समर्थकों और कार्यकर्ताओं के निशाने पर आ जाते हैं.
बीबीसी तमिल से बातचीत में राजन ने कहा कि उन्हें भारतीय विदेश मंत्रालय की ओर से साल 1998 में सेंट्रल कॉटेज इंडस्ट्रीज़ इंपोरियम ने इसका ऑर्डर दिया था.
कभी तमिलनाडु के कुंभकोणम में रहने वाले राजन बीते कुछ सालों से अब इस कारोबार में नहीं हैं.
वो कहते हैं, "साल 1980 के दशक से मैं लगातार दिल्ली और उत्तरी राज्यों में जाता था और सेंट्रल कॉटेज इंडस्ट्रीज़ इंपोरियम के साथ प्रोफेशनल कारणों से संपर्क में था. उन्होंने मुझे यह मूर्ति बनाने का ऑर्डर दिया था."
मूर्तिकार और मूर्तिकला के पेशे में दलित कामगारों को शामिल करने वाले राजन कहते हैं, "मेरे सिद्धांत और मेरे पेशे का आपस में कोई टकराव नहीं है."
फिर क्या वजह है इस मूर्ति को लगाने की
सीईआरएन की 39 और 40 नंबर बिल्डिंग के बीच में स्थायी रूप से लगाई गई यह शिव प्रतिमा रिसर्च संस्थान को भारत सरकार ने भेंट की थी.
सीईआरएन की वेबसाइट पर सोशल मीडिया के एक सवाल के जवाब में इसका ज़िक्र किया गया, "शिव की यह मूर्ति सीईआरएन के साथ अपने जुड़ाव का जश्न मनाने के लिए भारत की ओर से एक तोहफ़ा था. वो संबंध जो 1960 के दशक में शुरू हुआ और आज भी मज़बूत बना हुआ है."
हालांकि भारत यूरोपीय देश नहीं है लेकिन करीब छह दशकों से वो सीईआरएन का सदस्य है. भारत सरकार ने यह मूर्ति सीईआरएन को कूटनीतिक कारणों से तोहफ़े में दी थी न कि वैज्ञानिक कारणों से.
सीईआरएन के मुताबिक, "हिंदू धर्म में भगवान शिव नटराज नृत्य करते हैं जो शक्ति या जीवन शक्ति का प्रतीक है. इस देवता को भारत सरकार ने एक रूपक की वजह से चुना था जो नटराज के लौकिक नृत्य और उप-परमाणविक कणों के 'कॉस्मिक डांस' के आधुनिक अध्ययन के बीच पनपा था."
यह सिर्फ़ पौराणिक कथाओं और विज्ञान के बीच भारत सरकार द्वारा तैयार किया गया एक रूपक है, जिसे कई सालों से बिना किसी तथ्य या तार्किक समर्थन के वैज्ञानिक कारण के तौर पर पेश किया जा रहा है.(bbc)
शायद ही कोई ऐसा इंसान हो, जिसने हरसिंगार के फूलों की मनमोहक आभा को महसूस न किया हो
-स्वास्ति पचौरी
बीते दिन पारिजात का पेड़ बहुत चर्चा में रहा। इस पेड़ को हरिसंगार के नाम से भी जाना जाता है। 2017 में एक ट्रेनिंग के दौरान, किन्ही सज्जन से मुलाकात हुई थी, जिनका नाम पारिजात था। वे बचपन से ही अमेरिका में रहे थे। लोगों के पूछने पर उन्होंने बहुत ही मधुर वाणी में अपने नाम का मतलब हिंदी में समझाया था और मैंने तभी जाना था कि हरसिंगार को ही पारिजात कहा जाता है! आजकल इस पेड़ पर फिर फूलों की बहार आयी है। ट्विटर और फेसबुक पर हर कोई हरसिंगार के लुभावने चित्र लगा रहा है। इस पेड़ के फूलों को 'शेओली' और 'प्राजक्ता' के नाम से भी जाना जाता है। शायद ही कोई ऐसा इंसान हो, जिसने इन फूलों की मनमोहक आभा को महसूस न किया हो।
मेरे घर के सामने एक हरसिंगार का खूबसूरत पेड़ था। बचपन से ही एक अनूठा रिश्ता सा रहा है, मेरा हरसिंगार के साथ। अक्टूबर-नवंबर की ठंड में हरसिंगार के मोती जैसी फूलों से सजी हुई घर के सामने की वह सड़क। सुबह-सुबह, सीमेंट-कंक्रीट की हलकी काली सड़कों को हरसिंगार अपने फूलों से भर दिया करता। जैसे मानो, तारों से भरे काले आकाश का एक टुकड़ा कोई नीचे ले आया हो। हरसिंगार के फूल तो लगते भी तारे जैसे हैं। वैसे भी श्वेत रंग के फूलों की बात ही कुछ और होती है। पॉपुलर कल्चर में अनगिनत कहानियां, कविताएं एवं संगीत इन फूलों को समर्पित हैं। फिर चाहे चंपा हो, या चमेली, मोगरा, रजनीगंधा। या फिर अपना हरसिंगार!
घर के नीचे सुजाता आंटी रहा करती थीं। हरसिंगार का यह पेड़ बिलकुल उनके घर के सामने था। सुबह-सुबह मैं एक प्लेट लेकर झट से नीचे जाती और इन फूलों को बीन लाती। गजरा बनाने के लिए। भैया चीखते, स्कूल के लिए लेट हो जाओगी। लेकिन मुझे इसकी कहां परवाह होती थी। वैसे भी गलती चाहे किसी की भी हो, छोटे होने के नाते सारी डांट-डपट तो बड़े भाई- बहनों को ही पड़ा करती है। मेरे सामने तो बस एक ही लक्ष्य होता। जल्दी से सारे हरसिंगार बटोर लाऊं। कितनी ही बार पापा को आवाज दिया करती कि आकर जरा इस पेड़ की शाखाओं को झकझोर जाओ, ताकि सारे फूल एक ही बार में नीचे गिर जाएं, लेकिन वे ऐसा नहीं करते, क्योंकि ऐसा करने से क्या पता उस पेड़ को कोई तकलीफ होती हो?
एक बार सुजाता आंटी ने मुझे बांस की छोटी टोकरी दी और कहा इसमें फूल रख लो तो और भी सुन्दर लगेंगे। फूल बीनने के बाद मैं सुई-धागे से गजरा बना लेती और हर रोज़ किसी न किसी टीचर को वह गजरा गिफ्ट में दे दिया करती। हरसिंगार के फूल अत्यंत ही सौम्य होते हैं। इसलिए गजरा बहुत ध्यान से बनाना होता। गजरा बनाना मुझे लक्ष्मी दीदी, जो हमारे यहां मदद करने आया करती थीं, उन्होंने सिखाया था। वह बालों में मोगरा के फूलों का गजरा लगाती थीं, और मेरे लिए भी कई बार ले आती थीं।
फूल बीनने का यह सिलसिला कुछ सालों चला। फिर फिजिक्स, केमिस्ट्री, मैथ्स में जिंदगी उलझती चली गई। इंजीनियरिंग करनी है, कि आर्ट्स पढ़नी है? रेसनिक हॉलीडे कितनी सुलझा ली? ठंड के मौसम में रात में रेडियो सुनते-सुनते इंटीग्रेशन और केमिस्ट्री के न्यूमेरिकल्स सुलझाते हुए, मुझे याद भी नहीं रहा था वो हरसिंगार, जिसको एक समय में मैं कितना हक से अपना माना करती थी।
मैं धीरे-धीरे उस पेड़ को भूल गयी थी।
एक बार मुंबई से वापिस आयी तो चाय पीते हुए उस कोने पर नजर एकाएक ही पड़ी थी। वहां कुछ मिस्त्री कंक्रीट का काम कर रहे थे।सुजाता आंटी भी घर छोड़ कर जा चुकी थीं। मेरी नजर धीरे-धीरे जब उधर से गुजरी तो मैंने पाया था कि मेरा वो हरसिंगार तो अब वहां था ही नहीं। थोड़ी बेचैनी हुई थी। दिल न जाने क्यों भर सा आया था। शाम को मां जब ऑफिस से वापिस आयीं तो मैंने पूछा कि वह पेड़ कहां गया? मां कुछ लिखते हुए बोली थीं कि उसको किन्ही कारणों की वजह से वहां से लोगों ने 'हटा' दिया। यानी शायद काट दिया। मां ने 'काट' शब्द का इस्तेमाल इसीलिए नहीं किया था, क्योंकि वो तो शायद हमारे परिवार का ही एक हिस्सा बन चुका था।
मन व्यथित हो उठा। थोड़ा इसलिए कि पता नहीं, उस पेड़ को वहां से क्यों हटाया गया? या पता नहीं, उसको कितनी पीड़ा हुई होगी? पापा तो उसकी शाख तक छेड़ने को राजी नहीं होते थे, लेकिन ज़्यादा व्याकुल अपनी शर्मिंदगी के कारण हो उठी थी। इसलिए कि उस पेड़ के साथ-साथ मेरे बचपन का एक बहुत अहम अंश भी मुझसे अलग हो गया था, मेरे खुद के कारण, क्योंकि मैंने एक स्वार्थी इंसान होने की भूमिका बखूबी निभाई थी। इतने सालों में मुझे क्या मतलब रहा था उससे? कभी उस पेड़ के बारे में सोचा तक नहीं, उसे याद तक नहीं किया। जिसके साथ इतने अनगिनत मौन संवाद और निःशब्द कड़ियों के बीच मैंने अपना बचपन संवारा था। मुझे क्या मतलब किसी पेड़ से! मैं तो उड़ान भरते-भरते चली गयी थी न यहां से! ऐसे किस-किस को याद रखती फिरुं?
स्वार्थ खोजना कोई मुश्किल नहीं। स्वयं के प्रतिबिम्बों में यदि झांक के टटोला जाए, तो आसानी से मिल जाया करते हैं स्वार्थ। फिर मूक वृक्ष, पेड़, पौधे, पक्षी हमसे कभी कुछ कहते ही कहां हैं? लेकिन हमें अपना साथ अवश्य ही दे जाते हैं। सिर्फ अपने होने भर से, बिना कुछ कहे, हमें आश्वासित कर जाते हैं। चाहे हमारी सुबह की चाय को अपनी हरीतिमा से और सुहाना ही बनाना क्यों न हो, या कंक्रीट की सड़कों के बीचों-बीच हमें "कोएक्सिस्टेंस" का मतलब ही समझाना क्यों न हो? या फिर चंद मिनटों के लिए हमें " अर्बन फार्मिंग" या "अर्बन फॉरेस्ट्री" से रूबरू ही कराना क्यों न हो!
आजकल इन 'मास्क' के पीछे होने वाले मौन अनुभवों के बीच ऐसे तमाम हरसिंगारों की याद आया करती है। उस पेड़ ने मुझे सिर्फ गजरा बनाना नहीं सिखाया था, मुफ्त ही अपनी बाहों की छाया तले सींचा भी था। मेरी तमाम अनुभूतियों के समक्ष सबसे ज़्यादा गहरी यादें तो उन्हीं मौन संवादों की थीं जो आंखों से हुआ करते थे। जब हम किसी की पीड़ा को बिना कुछ कहे-सुने ही अपनी आँखों से समझ लेते हैं। इस सन्दर्भ में तो हरसिंगार ने ही मुझे बिना कुछ कहे-सुने समझा था। मैं उसको देख बड़ी हुई थी, तो क्या उसने भी कभी मुझे महसूस किया होगा? क्या उसने जाने से पहले मुझे याद किया होगा? या क्या उसकी आवाज़ ही मेरे कानों तक नहीं पहुंची थी? या अगर पहुंची भी हो, तो क्या जानबूझ के मैंने उन आवाजों को अनसुना कर दिया था? मुझे नहीं समझ आता। आखिर आजतक उसने मुझसे मांगा ही क्या था?
प्रकृति की नीरव शान्ति को आँखों, आवाजों एवं स्पर्श से ही महसूस किया जा सकता है। ख़ास तौर पर कोरोना में लॉकडाउन में ऐसे इकतरफा, निःशब्द संवाद बालकनी से या खिड़कियों से कितनी ही बार महसूस करने को मिले। वैसे भी आजकल की टीवी पर बहस और चीखने- चिल्लाने के शोर ने इस शान्ति को और नीरस बना दिया है। कोरोना से पहले भी तो सड़क पर चलते किसी व्यक्ति से आँखें मिल जाया करती थीं, सफर करते वक़्त किसी की बात को सुनकर अमूमन मुस्कुरा दिया करते थे, और फिर आँखों से ही उस शख्श को देख उस संवाद से विदा ले लिया करते थे!
शायद इसीलिए हरसिंगार जैसे पेड़ हमें इन्हीं अनकही, मानवीय संवेदनाओं को सिखाने के लिए हमसे रूबरू हुआ करते हैं। जिन्हें हम भूल जाते हैं,या अनदेखा कर देते हैं। या तभी याद करते हैं, जब स्वार्थ हमें स्वार्थ से मिलाता है कभी, और मजबूर कर देता है जीवन की लय को उस अनंत मौन की गहराईयों के बीच महसूस करने के लिए।
शायद इसलिए उन हरसिंगरों को आज हरदम ढूंढ़ा करती हूं, लेकिन ढूंढ़ते नहीं मिलते वो हरसिंगार! (downtoearth.org.in)
- वात्सल्य राय
क्रिकेट वही है. आईपीएल का टूर्नामेंट वही है. टीम के ज़्यादातर खिलाड़ी भी वही हैं और सबसे बढ़कर कप्तान भी वही हैं, महेंद्र सिंह धोनी. लेकिन, चेन्नई की टीम वहां नहीं है, जहां बीते 12 साल से दिखती थी.
नौ बार फ़ाइनल खेल चुकी और तीन बार ट्रॉफी पर अपना नाम लिखा चुकी चेन्नई सुपर किंग्स आईपीएल की उन टीमों में शुमार रही है, जो अमूमन टॉप पोजीशन के आसपास रहती हैं.
लेकिन, आईपीएल-13 में सोमवार को चेन्नई सबसे नीचे यानी आठवें नंबर पर पहुंच गई.
धोनी भी वहां नहीं दिखते, जहां वो थे. उनके हाथ से कैच फिसल रहे हैं. रन लेते वक़्त दौड़ते समय वो हांफते दिखते हैं और वो रन आउट भी हो रहे हैं. उनका बल्ला पहले की तरह गेंद से संपर्क नहीं कर पा रहा है. उनके हाथ से 'बेस्ट फिनिशर' का टैग फिसला जा रहा है. अब वो पिच पर नाबाद खड़े रह जाते हैं और टीम को हार का मुंह देखना पड़ता है.
और, टीम की साख? साख भले ही 'रसातल' तक न पहुंची हो, लेकिन रुतबे पर चोट गहरी हुई है और आलोचक बर्छियां और भाले लेकर तैयार खड़े हैं.
जब भी चेन्नई सुपर किंग्स साख के पैमाने पर कोई पायदान फिसलती है, वो चोट मार देते हैं. कम से कम पूर्व क्रिकेटर और आईपीएल में कमेंट्री कर रहे आकाश चोपड़ा ने तो ट्विटर पर ऐसा ही इशारा किया है.
चेन्नई के जहाज में छेद?
टीम जहां और जिस हाल में है, उससे चेन्नई के कप्तान धोनी अनजान हों, ऐसा भी नहीं है. ट्रोल्स की फ़ौज या आलोचक जो बात कह रहे हैं, उसे एक 'सच' के रूप में धोनी ख़ुद भी बयान कर चुके हैं.
बीती 10 अक्तूबर को रॉयल चैलेंजर्स बैंगलोर के हाथों चेन्नई को हार को मिली तो धोनी ने कहा, "(चेन्नई सुपर किंग्स के) जहाज में कई छेद हो चुके हैं."
अब से दस दिन पहले ये बयान उस शख्स ने दिया, जिन्हें सिर्फ़ चेन्नई सुपर किंग्स और आईपीएल ही नहीं बल्कि 21वीं सदी के क्रिकेट इतिहास के सबसे कामयाब और करिश्माई कप्तानों में गिना जाता है.
जिन्होंने क्रिकेट के हर फॉर्मेट में, ज़्यादातर टूर्नामेंट्स और आईपीएल में भी लगभग हारी हुई बाजियां जीतने का कमाल किया है. ऐसे ही कमाल और करिश्मों के दम पर उन्हें 'मैजिकल' जैसे उपनाम मिले और फैन्स ने 'जो जीता वो धोनी' जैसे जुमले गढ़ लिए.
शिखर से फिसले?
लेकिन, लगता यही है कि सुनहरे दिनों की विदाई की आहट धोनी ने भी सुन ली थी. 15 अगस्त को अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट से संन्यास का एलान शायद इसी का नतीजा था.
फिर भी आईपीएल शुरू हुआ तो ब्रांड धोनी का करिश्मा रत्ती भर हिला नहीं था. तब भी जब उनके ही साथ अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट को अलविदा कहने वाले चेन्नई सुपर किंग्स के स्टार बल्लेबाज़ सुरेश रैना और अनुभवी स्पिनर हरभजन सिंह ने आईपीएल-13 से अलग होने का एलान किया.
आखिर, धोनी ने साल 2018 में टीम को आईपीएल चैंपियन बनाया था और बीते सीजन में भी उनकी टीम रनर्स अप थी. ट्रॉफी और उनकी टीम के बीच सिर्फ़ एक रन का फ़ासला रह गया था. फैन्स भी चाहते थे, क्रिकेट से 'संपूर्ण विदाई' के पहले मैदान पर 'माही मैजिक' का दीदार हो जाए.
जीत शुरुआत से, फिर हार ही हार
साल 2020 में धोनी की टीम ने आईपीएल-13 में अपने अभियान की शुरुआत डिफेंडिंग चैंपियन मुंबई इंडियन्स को हराकर की. दूसरे मैच में राजस्थान रॉयल्स से चेन्नई की टीम हारी लेकिन 200 रन बनाकर.
लेकिन, इसी मैच से चेन्नई ख़ासकर कप्तान पर सवाल उठने लगे. बैटिंग ऑर्डर में धोनी के नीचे खेलने पर सवाल उठे. हर हार के साथ सवाल तीखे होते गए. टॉप ऑर्डर ख़ासकर शेन वॉटसन की नाकामी को लेकर भी सवाल हुए. मिडिल ऑर्डर के बेजान होने और केदार जाधव को 'ढोते जाने' को लेकर कप्तान को कठघरे में खड़ा किया गया.
वॉटसन ने दो मैचों में बल्ले का दम दिखाया. किंग्स इलेवन पंजाब के ख़िलाफ़ उनकी पारी ने चेन्नई को जीत दिला दी. कोलकाता नाइट राइडर्स के ख़िलाफ़ उनकी हाफ सेंचुरी के बाद भी टीम 10 रन से हार गई.
कुछ फिट नहीं-कुछ हिट नहीं
फ़ाफ डू प्लेसी चेन्नई के सबसे कामयाब बल्लेबाज़ हैं. 375 रनों के साथ वो सीज़न के तीसरे सबसे कामयाब बल्लेबाज़ हैं, लेकिन उनके बल्ले में वॉटसन, धोनी या रैना वाला वो ज़ोर नहीं है जो चेन्नई की कश्ती को जीत के किनारे तक ले जा सके.
फिटनेस फैक्टर ने भी कप्तान के गेम प्लान पर असर डाला है और चेन्नई को चोट दी है. मुंबई के ख़िलाफ़ पहले मैच में जीत की पटकथा लिखने वाले अंबाती रायुडू उसी मैच में अनफिट हो गए और अगले दो मैचों में नहीं खेल पाए. दोनों मैचों में चेन्नई को हार मिली.
ड्वेन ब्रावो दिल्ली के ख़िलाफ़ मैच के दौरान अनफिट हो गए और आखिरी ओवर में गेंदबाज़ी के लिए मौजूद नहीं रहे और इसे चेन्नई की हार की बड़ी वजह माना गया. दिल्ली को आखिरी ओवर में जीत के लिए 17 रन बनाने थे जो रवींद्र जडेजा की गेंद पर अक्षर पटेल ने आसानी से बना लिए.
साथ नहीं किस्मत?
धोनी ने सीमित विकल्पों को अदल-बदल कर टीम की किस्मत पलटने की कोशिश भी की लेकिन ऐसे ज़्यादातर प्रयोग नाकाम साबित हो रहे हैं.
मसलन सैम करन ओपनिंग में नहीं चल पा रहे हैं. जहां राशिद ख़ान, युजवेंद्र चहल, अक्षर पटेल, श्रेयस गोपाल और राहुल तेवतिया जैसे स्पिनर कामयाब हो रहे हैं, वहीं पीयूष चावला जैसे स्पिनर बेअसर साबित हो रहे हैं.
डू प्लेसी के अलावा चेन्नई का कोई बल्लेबाज़ आईपीएल-10 के सबसे ज़्यादा रन बनाने वाले दस बल्लेबाज़ों में नहीं है. इसी तरह सबसे ज़्यादा विकेट लेने वाले 10 गेंदबाज़ों मे चेन्नई का कोई बॉलर नहीं है.
धोनी के दांव चलते या करीबी मैचों के नतीजे चेन्नई के ख़िलाफ़ न जाते तो इस सीजन में भी धोनी के धमाल की चर्चा हो रही होती.
सवाल ही सवाल
लेकिन अब टीम की 'सामूहिक नाकामी' को लेकर सबसे ज़्यादा सवाल धोनी से पूछे जा रहे हैं. आलोचकों की राय में रैना और हरभजन के विकल्प नहीं तलाशकर, वॉटसन और ब्रावो जैसे उम्रदराज़ खिलाड़ियों पर ज़्यादा भरोसा दिखाकर, पिछले सीजन के कामयाब गेंदबाज़ इमरान ताहिर और युवा खिलाड़ियों को मौके न देकर कप्तान के तौर पर धोनी ने ग़लतियां कीं और टीम को खामियाजा उठाना पड़ा.
धोनी ने मुताबिक युवाओं को मौके न देने से जुड़ी आलोचना, "जायज है. इस साल हम ऐसा नहीं कर पाए. शायद हमें अपने कुछ युवा खिलाड़ियों में वो चमक नहीं दिखी. हो सकता है, आने वाले मैचों में हम उन्हें मौका दें और वो बिना दबाव के खेल सकें."
धोनी भविष्य की बात कर रहे हैं. वो भी तब जब आईपीएल-13 में चेन्नई की टीम 10 मैच खेल चुकी है और अब ज़्यादा मौके बचे नहीं हैं. लेकिन, सोमवार को ही राजस्थान के ख़िलाफ़ मैच में धोनी ने संजू सैमसन का कैच एक हाथ से थामकर दिखाया कि वो अब भी मुश्किल मौकों को पकड़ना जानते हैं.
नंबर 7 का जादू
शायद इसीलिए 'सात नंबर के सिकंदर' कहे जाने वाले धोनी की टीम को सात विकेट से हराने में नाबाद 70 रन का योगदान देने वाले विकेटकीपर बल्लेबाज़ जोस बटलर, मैच के बाद मैन ऑफ़ द मैच की ट्रॉफी के बजाए धोनी की सात नंबर की जर्सी दिखाते नज़र आए.
वजह है, इस जर्सी से जुड़ा जादू. जिसे फैन्स भी देखना चाहते हैं और धोनी भी ढूंढना चाहते हैं.(bbc)
बोतल से दूध पीने वाले शिशु हर दिन लाखों से अधिक माइक्रोप्लास्टिक्स निगल सकते हैं. एक नए शोध में हमारे खाद्य उत्पादों में प्लास्टिक की बहुतायत को उजागर किया गया है.
इस बात के बढ़ते सबूत हैं कि इंसान बड़ी संख्या में प्लास्टिक के छोटे कणों का अनजाने में उपभोग करता है, लेकिन बहुत कम लोगों को इसके स्वास्थ्य पर होने वाले असर के बारे में पता है. ये छोटे कण तब बनते हैं जब प्लास्टिक के बड़े टुकड़े टूट जाते हैं. आयरलैंड में शोधकर्ताओं ने शिशुओं के 10 तरह की बोतलों या पॉलीप्रोपाइलीन से बने एक्सेसरीज के टूटने की दर पर शोध किया. यह खाद्य कंटेनरों के लिए सबसे अधिक इस्तेमाल किया जाने वाला प्लास्टिक है.
शोधकर्ताओं ने दूध को बनाने और बोतल को स्टेरलाइज करने के बताए विश्व स्वास्थ्य संगठन के आधिकारिक दिशा-निर्देशों का पालन किया.
21 दिनों की परीक्षण अवधि में टीम ने पाया कि बोतलों ने 13 लाख से लेकर 1.62 करोड़ प्लास्टिक के माइक्रोपार्टिकल्स प्रति लीटर के बीच छोड़े. इसके बाद शोधकर्ताओं ने इस डाटा का इस्तेमाल स्तनपान की राष्ट्रीय औसत दरों के आधार पर बोतल से शिशुओं को दूध पिलाने के दौरान संभावित माइक्रोप्लास्टिक्स के वैश्विक जोखिम मॉडल तैयार करने के लिए किया.
उन्होंने अनुमान लगाया कि बोतल से दूध पीने वाले शिशु औसत हर रोज 10.60 लाख माइक्रो पार्टिकल अपने जीवन के पहले 12 महीनों के दौरान निगल लेते हैं. यह शोध नेचर फूड जर्नल में छपा है और शोधकर्ताओं का कहना है कि स्टेरलाइजेशन और पानी के उच्च तापमान माइक्रोप्लास्टिक के टूटने का मुख्य कारण है.
शोध के लेखकों ने समाचार एजेंसी एएफपी को बताया कि शोध का लक्ष्य बोतल से निकले वाले माइक्रोप्लास्टिक के संभावित स्वास्थ्य जोखिमों के बारे में "माता पिता को चिंता में डालना नहीं" है.
टीम के सदस्यों का कहना है, "हमने बहुत जोर देकर बताया है कि शिशुओं के माइक्रोप्लास्टिक के कण निगल लेने के संभावित जोखिमों के बारे में हमें नहीं पता है. यह ऐसा विषय है जिस पर और अधिक गहराई से शोध की जरूरत है और हम इस पर लगातार आगे बढ़ रहे हैं."
लेखकों ने उल्लेख किया कि विकसित देशों में शिशु सबसे अधिक माइक्रोप्लास्टिक के कण निगल रहे हैं. बीस लाख से अधिक कण उत्तरी अमेरिका में और उसके बाद यूरोप में सबसे अधिक 26 लाख कण प्रति दिन. शोध में इन अमीर देशों में शिशुओं के कण निगलने का कारण स्तनपान की दर में कमी बताया गया.
एए/सीके (एएफपी)
- सलमान रावी
पूर्वोत्तर राज्य मिज़ोरम का अपने दो पड़ोसी राज्यों से तनाव के कारण केंद्र सरकार को हस्तक्षेप करने की नौबत आ पड़ी.
अब दावा किया जा रहा है कि हालात क़ाबू में हैं.
मिज़ोरम के दो पड़ोसी राज्य हैं असम और त्रिपुरा, जिनके साथ उसका विवाद है.
केंद्रीय गृह सचिव अजय भल्ला ने सोमवार को असम और मिज़ोरम के मुख्य सचिवों के साथ वीडियो कॉन्फ़्रेंसिंग के ज़रिये बातचीत की.
दोनों ही मामलों में राज्यों की सीमा को लेकर ही विवाद है जो अभी तक निर्धारित नहीं है और जिसे लेकर समय-समय पर तनाव बढ़ जाता है.
असम के साथ विवाद
असम और मिज़ोरम की सरकारों का कहना है कि वो बातचीत से संतुष्ट हैं और हालात को सामान्य बनाने की दिशा में दोनों ही राज्य पूरी कोशिश कर रहे हैं.
असम और मिज़ोरम के बीच बस एक छोटी सी बात ने बड़े तनाव का रूप ले लिया था जिसके बाद शनिवार की देर शाम हिंसक वारदातों की ख़बर आने लगी.
दक्षिण असम के पुलिस उप-महानिरीक्षक दिलीप कुमार डे के अनुसार असम के लैलापुर में मिज़ोरम के सरकारी अधिकारियों ने कोविड-19 की जाँच के लिए एक शिविर बनाया ताकि राज्य में प्रवेश करने से पहले ट्रक चालकों और अन्य कर्मचारियों के साथ-साथ राज्य में प्रवेश करने वाले आम लोगों की कोरोना जाँच हो सके.
असम सरकार को इसपर आपत्ति थी कि अपने राज्य की बजाय दूसरे राज्य में कोई सरकार ऐसा कैसे कर सकती है?
लैलापुर के ज़िलाधिकारी एच लाथिंगा के अनुसार जब असम के प्रशासनिक अधिकारियों ने इसका विरोध किया तो "कुछ मिज़ो युवक" वहां पहुँचे और उन्होंने ट्रकों में तोड़ फोड़ के साथ-साथ कुछ मकानों और दुकानों को नुक़सान भी पहुँचाया. उनके अनुसार इस घटना में सात लोगों के घायल होने की बात कही जा रही है.
घटना को तूल पकड़ना ही था
मिज़ोरम सरकार द्वारा जारी किये गए बयान में कहा गया है कि असम की पुलिस ने मुख्य राजमार्ग के 'तीन पॉइंट' पर नाकेबंदी कर दी और आवश्यक वस्तुएं लेकर आने वाले वाहनों को रोक दिया.
मिज़ोरम सरकार ने अपने बयान में उन तीन स्थानों को चिन्हित किया जहां असम की सरकार ने वाहनों का आवागमन रोका था. ये स्थान हैं थिन्घलुन, साईहाईपुई और वायरेंगटे.
इसपर मिज़ोरम की सरकार के मंत्रिमंडल की आपात बैठक बुलाई गई जिसके बाद मुख्यमंत्री ज़ोरामथांगा ने असम के मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल से फ़ोन पर बात भी की. बाद में उन्होंने अपनी बातचीत को कारगर बताया और सोनोवाल की तरफ़ से की गई पहल की तारीफ़ भी की. सोनोवाल ने भी ट्वीट कर ऐसा ही किया.
असम में एक मुस्लिम दंपति मंदिरों और रास्तों को संवार रहा है
असम के वन और पर्यावरण मंत्री परिमल सुकला ने हिंसा वाले इलाक़े का दौरा किया और वहां मौजूद पत्रकारों से बातचीत में कहा कि हालात पूरी तरह से सामान्य हो गए हैं.
त्रिपुरा के साथ विवाद
मिज़ोरम का जो विवाद त्रिपुरा के साथ हुआ उसकी जड़ में भी सीमा का विवाद ही है.
त्रिपुरा के अतिरिक्त गृह सचिव अनिन्दिया भट्टाचार्य के अनुसार मामित ज़िले में मिज़ोरम के कुछ जनजातीय युवक एक मंदिर बनाने का प्रयास कर रहे थे, लेकिन ज़िला प्रशासन ने इसकी अनुमति नहीं दी.
घटना को लेकर बढ़ रहे तनाव को देखते हुए मिज़ोरम की सरकार ने इलाक़े में धारा 144 के तहत निषेधाज्ञा लगा दी. लेकिन सीमा का सही तरीक़े से रेखांकन नहीं होने की वजह से मिज़ोरम ने त्रिपुरा के मामित ज़िले में भी इसे लागू करने का अध्यादेश निकाल दिया.
इसपर दोनों राज्यों के बीच ठन गई और बाद में वरिष्ठ अधिकारियों के हस्तक्षेप से ये मामला फ़िलहाल शांत हो गया है, ऐसा सरकारें दावा कर रही हैं.
असम के साथ मिज़ोरम की सीमा लगभग 165 किलोमीटर की है. लेकिन इसको सही तरीक़े से चिन्हित नहीं किया गया है जिसको लेकर समय-समय पर बड़े विवाद पैदा हो जाते हैं. सरकारी सूत्र कहते हैं कि सीमा को चिन्हित करने का प्रयास वर्ष 1995 से ही चल रहा है जो अब तक लंबित है.
असम का लैलापुर ज़िला भी इसमें से एक है जिसके बड़े इलाक़े पर मिज़ोरम दावा करता रहा है. स्थानीय लोगों के लिए ये परेशानी का ज़रिया बन गया है क्योंकि बहुत सारे ऐसे लोग हैं जो सीमा निर्धारण नहीं होने की वजह से कई सरकारी सुविधाओं से वंचित हैं.
असम सरकार के एक अधिकारी ने नाम नहीं लिखने की शर्त पर कहा, "भारत में भी कई लद्दाख हैं, जहां सीमाओं का विवाद सदियों से चला रहा है. और, पता नहीं कब तक चलता रहेगा."(bbc)
अपने बच्चों को भी किसान बनते देखना चाहते हैं 34 फीसदी किसान, जबकि 51 फीसदी ने माना उनके लिए फायदेमंद है खेती
- Lalit Maurya
किसान और किसान संगठनों का एक वर्ग नए कृषि कानूनों का पुरजोर विरोध कर रहा है। इन नए अधिनियमों पर किसानों की राय जानने के लिए गांव कनेक्शन ने एक सर्वेक्षण किया था, जिसके नतीजे 'द एग्रीकल्चर फार्मर्स पर्सेप्शन ऑफ द न्यू एग्री लॉज' नामक रिपोर्ट के रूप में आज प्रकाशित किए हैं| इन कानूनों में अन्य बातों के साथ-साथ किसानों को खुले बाजार में अपनी फसल बेचने की आजादी देने का वादा किया गया है| आइये जानते हैं इस सर्वेक्षण में क्या कुछ निकलकर सामने आया है|
सर्वे के अनुसार हर दूसरा किसान इन तीनों कानूनों का विरोध करता है, जबकि 35 फीसदी किसानों ने इन कानूनों का समर्थन किया है| हालांकि जिन 52 फीसदी किसानों ने इन कानूनों का विरोध किया है उसमें से 36 फीसदी को इन कानूनों के बारे में जानकारी ही नहीं है| इसी तरह इस कानून का समर्थन करने वाले 35 फीसदी किसानों में से 18 फीसदी को इनके बारे में कोई जानकारी नहीं है| ऐसे में उनकी राय कितनी मायने रखती है यह सोचने का विषय है| यह सर्वेक्षण 3 से 9 अक्टूबर के बीच देश के 16 राज्यों के 53 जिलों में किया गया था।
57 फीसदी किसानों को डर है कि इन नए कानूनों के चलते वे अपनी उपज को कम कीमत पर खुले बाजार में बेचने को मजबूर हो जाएंगे| जबकि 33 फीसदी किसानों को डर है कि कहीं सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था को ख़त्म तो नहीं कर देगी| वहीं 59 फीसदी किसानों की मांग है एमएसपी पर एक अनिवार्य कानून बनाया जाना चाहिए| एक और जहां छोटे और सीमान्त किसान (जिनके पास पाँच एकड़ से कम भूमि है) इन कानूनों का समर्थन करते हैं, वहीं दूसरी ओर बड़े किसान इन कानूनों के विरोध में हैं|
28 फीसदी ने माना किसान विरोधी है मोदी सरकार
इस सर्वे में एक दिलचस्प बात यह सामने आई की जहां आधे से अधिक (52 फीसदी) किसान इन कानूनों के विरोध में हैं लेकिन उनमें से 36 फीसदी को यह नहीं पता की यह कानून क्या हैं| मोदी सरकार के विषय में 44 फीसदी किसानों की राय थी कि वो किसानों के हितेषी हैं जबकि 28 फीसदी का कहना था कि यह सरकार 'किसान विरोधी' है। एक अन्य सवाल के जवाब में जहां अधिकांश (35 फीसदी) किसानों ने माना कि मोदी सरकार को किसानों की चिंता है, जबकि लगभग 20 फीसदी ने कहा कि सरकार ने व्यापारिक घरानों और निजी कंपनियों का समर्थन किया है।
क्या हैं वो तीनों विवादित कानून
गौरतलब है कि संसद के पिछले मानसून सत्र में तीन नए कृषि बिल पारित किए थे, जिसे बाद में 27 सितंबर को राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद के हस्ताक्षर के बाद कानून का दर्जा दे दिया गया था| इसमें पहला कानून किसान उत्पादन व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) अधिनियम, 2020 है| इस कानून के तहत किसान अपनी उपज को कृषि उपज बाजार समिति (एपीएमसी) द्वारा निर्धारित बाजार यार्ड के बाहर भी बेच सकते हैं| यह नियम किसानों को उनकी उपज को बेचने की आजादी देता है|
दूसरा कानून किसान (सशक्तीकरण और संरक्षण) अनुबंध मूल्य एश्योरेंस एंड फार्म सर्विसेज एक्ट, 2020 किसानों को पहले से ही तय मूल्य पर भविष्य की उपज को बेचने के लिए कृषि व्यवसायी फर्मों, प्रोसेसर, थोक विक्रेताओं, निर्यातकों और बड़े खुदरा विक्रेताओं के साथ अनुबंध करने का अधिकार देता है। जबकि तीसरे कानून, आवश्यक वस्तु (संशोधन) अधिनियम, 2020 का उद्देश्य अनाज, दलहन, तिलहन, प्याज, और आलू जैसी वस्तुओं को आवश्यक वस्तुओं की सूची से हटाना और स्टॉक होल्डिंग सीमा को लागू करना है।
सर्वेक्षण से पता चला है कि करीब 67 फीसदी किसानों को नए कृषि कानूनों के बारे में जानकारी है। जबकि दो-तिहाई को देश में चल रहे किसानों के विरोध के बारे में पता है। इस तरह के विरोध के विषय में उत्तर-पश्चिम क्षेत्र के किसान कहीं अधिक जागरूक हैं| जहां इस बारे में 91 फीसदी किसानों को जानकारी है| जिसमें पंजाब, हरियाणा और हिमाचल प्रदेश शामिल हैं। वहीं पूर्वी क्षेत्र (पश्चिम बंगाल, ओडिशा, छत्तीसगढ़) में इस बारे में बहुत कम जागरूकता है| वहां 46 फीसदी से कम किसान इस बारे में जानकारी रखते हैं।
इन कानूनों का समर्थन करने वाले 47 फीसदी किसानों का मानना है कि इन कानूनों की वजह से उन्हें देश में कहीं भी अपनी उपज बेचने की आजादी मिल जाएगी| जबकि इसके विपरीत इसका विरोध करने वाले 57 फीसदी किसानों का मानना है कि इन कानूनों की वजह से उन्हें खुले बाजार में कम कीमत पर अपनी फसल बेचने के लिए मजबूर किया जाएगा|
39 फीसदी किसानों का मत है कि नए कृषि कानूनों के चलते देश में मंडी / एपीएमसी प्रणाली पूरी तरह ध्वस्त हो जाएगी| वहीं 46 फीसदी किसानों का मानना है कि इन कानूनों के चलते किसानों का शोषण करने वाली बड़ी और निजी कंपनियों को बढ़ावा मिलेगा। जबकि 39 फीसदी का कहना है कि इन कानूनों के चलते भविष्य में न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रणाली पूरी तरह ख़त्म हो जाएगी|
लगभग 63 फीसदी किसानों का कहना है कि वो अपनी फसल को एमएसपी पर बेचने में कामयाब रहे थे| यह आंकड़ा दक्षिण क्षेत्र (केरल, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश) में 78 फीसदी था| वहीं उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र (पंजाब, हरियाणा और हिमाचल प्रदेश) में 75 फीसदी रहा| 36 फीसदी किसानों के लिए सरकारी मंडियां और एपीएमसी उपज बेचने का सबसे पसंदीदा माध्यम है। उत्तरपश्चिम क्षेत्र में करीब 78 फीसदी किसान इनके माध्यम से अपनी उपज बेचना पसंद करते हैं|
जहां 36 फीसदी किसानों का मानना है कि नए कृषि कानूनों से उनकी स्थिति में सुधार आएगा, वहीं 29 फीसदी किसानों ने बताया कि उन्हें विश्वास है कि यह कानून 2022 तक उनकी आय को दोगुना करने में मदद करेंगे। (downtoearth)