विचार/लेख
-महेंद्र सिंह
ऐसा लगता है कि मोहम्मदबिन तुगलक जैसा समय फिर आ गया है। यह सबसे ज्यादा तब लगता है, जब देश में किसानों की स्थिति को देखा जाए। समझ नहीं आता कि देश की राजनीति किसान से अलग हो गई है या किसान राजनीति से अलग हो गया है। किसान क्या सोचता है, अब इससे देश की राजनीति की दिशा तय नहीं होती। किसान भी इन हालात के लिए कम दोषी नहीं है।
यही किसान जो खेती की खराब हालत के कारण लुटा-पिटा जीवन बिताता है, चुनाव के वक्त अपनी हालत भूलकर भ्रामक नारों, भ्रामक जय घोषों, भ्रामक वादों के चक्कर में आसानी से आ जाता है। क्या आज तक स्वामीनाथन कृषि आयोग की रिपोर्ट लागू हुई? क्यों न हुई? क्या किसानों ने कभी इस पर गौर किया?
क्या देश के साधु, संतों ने कभी किसानों के पक्ष में अपनी सहमति व्यक्त की? क्या बाबा रामदेव ने काले धन के बारे में जिस तरह शोर मचाया, कभी किसानों की समस्याओं के बारे में दबाव बनाया? वर्तमान सरकार के 6 वर्ष के शासन काल में किसानों की आय में कितनी वृद्धि हुई है, इस पर किसान गौर करें। वादा था दो गुनी आय वृद्धि का। क्या यह दो गुनी आय का वादा बिना वृद्धि यूं ही चलता रहेगा? बाबा किसान के मुद्दे पर नहीं बोलते, मगर किसान बाबाओं के मुद्दों में शामिल होने के लिए मरा जाता है।
किसान को यह समझना होगा कि धर्म की राजनीति किसान की राजनीति को पीछे कर देती है। किसान सरल व सहज रूप से धर्म का पालन करता है। वह धर्म को ढोंगी बाबाओं से ज्यादा समझता है। किसान के लिए धर्म राजनीति का मुद्दा नहीं है। धर्म उसके जीवन का अंग है। किसानों में सांप्रदयिक विद्वेष नहीं होता। वह दूसरे धर्मावलंबियों से घृणा भी नहीं करता। मगर फिर भी चुनावों के वक्त सांप्रदायिक चालों और दुष्प्रचार में आ जाने से वह अपने ही मुद्दे भुला बैठता है।
मौजूदा किसान बिल पर बाबाओं की राय क्या है? वर्तमान में संसद में कृषि बिल पास होने से देश के किसानों में नाराजगी है। इससे प्रतीत होता है कि कृषि बिल की भाषा भ्रामक है और लोकतंत्र की भावना के विरूद्ध किसानों को नाजायज तरीके से दबाया जा रहा है। संसद में बिल पेश करने से पहले कृषि बिल की भाषा एवं मुद्दों पर क्या किसानों से मशवरा करना लाजिमी नहीं था?
कृषि बिल संसद में पास होने के बाद प्रधानमंत्री द्वारा घोषणा की जा रही है कि मंडी एवं न्यूनतम समर्थन मूल्य वैसे ही रहेंगे, जैसे पहले थे। क्या इस का उल्लेख बिल में है? अगर यह उल्लेख बिल में नहीं है, तो घोषणा को ऐसा समझा जाए, जैसी 2014 के चुनाव के वक्त की गई थी कि कालेधन को समाप्त प्रत्येक व्यक्त के खाते में 15 लाख रुपए जमा कराए जाएंगे। क्या उन के खातों में अब तक कुछ जमा हुआ?
किसान 2019 के संसदीय चुनाव के वक्त भूल गए कि 2014 के संसदीय चुनाव में भाजपा की जीत के बाद केंद्र में बनी एनडाए की सरकार ने अध्यादेश के जरिए किसानों की जमीन उद्योगपतियों व सरकार द्वारा हड़पने का पूरा जोर लगाया, परंतु सरकार की यह तिकड़म सफल नहीं हुई। उस समय राज्यसभा में कांग्रेस और विरोधी पार्टियों का बहुमत होने से सरकार को निराशा हुई थी। अब एनडीए का बहुमत है, इसलिए अपनी मनमर्जी का किसान विरोधी बिल पास करनाने में सफल हो गई।
किसान कृषि बिल में साफ उल्लेख होना चाहिए था कि प्रत्येक वर्ष खरीफ और रबी की फसलों का एमएसपी घोषित किया जाएगा। मंडियों में और उन के बाहर कोई भी व्यापारी अगर घोषित एमएसपी से कम कीमत पर किसानों के अनाज उत्पाद खरीदता है, तो उसे दो वर्ष की सज़ा और जुर्माने से दंडित किया जा सकेगा। एमएसपी से ज्यादा मूल्य में माल बिकने की सूरत में किसान मंडी के बाहर भी बेच सकेंगे। किसान एसोशियनों द्वारा अपना माल विदेशों में बेचने के लिए भी स्वतंत्र होंगे।
किसान चुनाव के वक्त ऐसे सांसदों को ही वोट दें, जिन्होंने कृषि सुधार बिलों में किसानों का पक्ष लिया है। वक्त का तकाजा है कि विपक्ष एक ऐसे राष्ट्रीय विकल्प के आसपास एकजुट हो जाए, जो क्षेत्रीय खिलाडिय़ों को भी गले लगा सके। किसानों को एकजुट होकर राजनीति को अपने पक्ष में करने की कोशिश करनी चाहिए। उसे देखना चाहिए कि उसके साथ कौन से तबके आ सकते हैं, जो अभी अलग-थलग पड़े हैं। बेरोजगार, बेघर, और भूमिहीन आबादी इसस देश में लाचारी में अपना जीवन बिता रही है। दूसरी तरफ देखें तो एक प्रतिशत आबादी के पास राष्ट्रीय संपदा का 52 प्रतिशत हिस्सा है औऱ शीर्ष 9 अरबपतियों की संपत्ति नीचे जीवन जीने वालों की 50 प्रतिशत आबादी के बराबर है।
किसानों में इस नए कृषि बिल के पास होने से हताशा व्याप्त है। खरीफ फसल समाप्ति पर है। थोड़े दिनों में ही पता चल जाएगा कि फसलों का विक्रय किस तरह होगा! मैंने देखा है भारत की 1947 में मिली आजादी से पहले सूदखोर साहूकार और व्यापारी मनमाने ढंग से किसानों को पैदावार खरीदते थे। किसान गरीबी से छुटकारा पाने के लिए तरसते थे। देश में कांग्रेस की सरकार बनने पर फसलों को बेचने के लिए एमएसपी घोषित किए जाने लगे। इस से किसानों की आय में बड़ा सुधार हुआ।
अब मौजूदा हालात में जीवन में सुधार के लिए किसानों को मजबूत संगठन बनाना होगा। प्रत्येक प्रदेश, जिले, ब्लॉक, गाँव और राष्ट्र स्तर पर कार्यकारिणी का निर्माण करना होगा। सभी जातियों के किसान इनमें सदस्य रहेंगे। किसानों को हिंदुत्व के भ्रमजाल, पंडे पुजारी और धर्म प्रचारकों के बेहूदा धार्मिक प्रपंचों से भी छुटकारा पाना होगा। और अपने सीधे, सच्चे धर्म को फिर से पाना होगा। (लेखक सेवानिवृत प्राचार्य हैं।)
पैगंबर का कार्टून दिखाने के बाद मारे गए टीचर को फ्रांस ने श्रद्धांजलि दी है. इस बीच पुलिस ने स्कूल के दो छात्रों और एक अभिभावक पर हत्या में शामिल होने का शुरूआती आरोप लगाया है.
पेरिस के सोबोन यूनवर्सिटी में ताबूत के सामने खड़े राष्ट्रपति इमानुएल माक्रों ने कहा कि पैटी सैमुएल, "गणराज्य का चेहरा" बन गए हैं और साथ ही फ्रांस की, "आतंकवादियों को परास्त करने की प्रतिबद्धता." सैमुएल पैटी को मरणोपरांत फ्रांस के सबसे बड़े नागरिक सम्मान लेजन द ऑनर से सम्मानित किया गया है. शोक सभा के दौरान उनका मेडल उनकी ताबूत पर रखा गया था.
सैमुएल पैटी इतिहास और समाजशास्त्र के टीचर थे और उन्होंने अपनी दो कक्षाओं में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर चर्चा के दौरान पैगंबर मोहम्मद का कार्टून दिखाया था. हालांकि उन्होंने छात्रों से कहा था कि वो चाहें तो नजर फेर सकते हैं या फिर थोड़ी देर के लिए क्लास से बाहर भी जा सकते हैं. स्कूल से थोड़ी दूर पर शुक्रवार को उनकी हत्या कर दी गई और हमलावर पुलिस की कार्रवाई में मारा गया. इस हत्या से पूरा फ्रांस हैरान है. राष्ट्रपति ने राजनीतिक इस्लाम और फिरकापरस्ती को रोकने के खिलाफ पहले से चल रही योजना और कार्रवाई को तेज कर दिया है.
छात्रों और अभिभावकों की जांच
इस बीच मामले की जांच में जुटे अधिकारियों ने स्कूल के कुछ छात्रों पर आरोप लगाया है. मुख्य आतंकवाद विरोधी अभियोजक जाँ फ्रांसोआ रिकार्ड ने कहा है कि पैटी के स्कूल के दो छात्रों ने हत्यारे को उनकी पहचान बताई थी और इसके बदले उन्हें पैसे दिए गए. हत्यारे ने कहा था कि वह पैटी को पीटेगा और उन्हें पैगंबर का कार्टून दिखाने के लिए माफी मांगने पर विवश करेगा.
रिकार्ड ने यह बातें प्रेस कांफ्रेंस में कही और अभी जज की तरफ से इन आरोपों को मंजूरी नहीं मिली है. इस बीच दोनों छात्रों के खिलाफ आतंकवादी हत्या की जांच में शामिल होने के लिए औपचारिक रूप से जांच शुरू हो गई है. उन दोनों को फिलहाल जमानत पर रिहा किया गया है. इसी स्कूल में पढ़ने वाली एक छात्रा के अभिभावक के खिलाफ भी इन्हीं आरोपों में औपचारिक जांच शुरू की गई है. हालांकि अब तक उनसे पूछताछ नहीं की गई है. रिकार्ड का कहना है कि अभिभावक ने एक वीडियो संदेश में पैटी की "टीचर की गुंडागर्दी" कह कर आलोचना की और उन्हें नौकरी से हटाने की मांग की.
इस शख्स ने हिंसा की इच्छा रखने से इंकार किया है हालांकि रिकार्ड का कहना है कि उसके संदेश ने हत्यारे को प्रेरित किया और उसने उससे संपर्क भी किया था. एक इस्लामी कार्यकर्ता इस शख्स के ऑनलाइन कैम्पेन से जुड़ा था और उसके खिलाफ भी जांच की जा रही है. इसके अलावा हत्यारे के दो दोस्तों पर हत्या में शामिल होने और तीसरे दोस्त पर आतंकवादी साजिश में शामिल होने की जांच चल रही है. कार्यकर्ता और हत्यारे के दोस्तों को हिरासत में लिया गया है.
कार्टून बनाना नहीं छोड़ेंगे
सोबोन यूनिवर्सिटी में शोक सभा के दौरान राष्ट्रपति ने पैटी के रिश्तेदारों, दूसरे टीचरों और सरकारी अधिकारियों से कहा कि टीचर की हत्या इसलिए हुई, "क्योंकि इस्लामवादी हमसे हमारा भविष्य लूटना चाहते हैं, हम हर स्कूल में टीचरों को प्रजातंत्रवादी बनाने के लिए ताकत देंगे. हम उस आजादी की रक्षा करेंगे जो आपने सिखाई है और धर्मनिरपेक्षता के झंडे को ऊंचा रखेंगे. दूसरे लोग अगर छोड़ दें तब भी हम कार्टून और चित्र बनाना नहीं छोड़ेंगे."
सैमुएल पैटी की हत्या ऐसे वक्त में हुई है जब 2015 में शार्ली एब्दो पत्रिका के दफ्तर पर हमले के संदिग्ध लोगों को खिलाफ मुकदमा चल रहा है. इस हत्याकांड में 12 लोगों मारे गए थे. इस बीच सरकार के प्रवक्ता ने इस बात की पुष्टि की है कि जिस इस्लामी कार्यकर्ता के खिलाफ जांच चल रही है उसके नेतृत्व में चल रहे अनौपचारिक संगठन को भंग कर दिया गया है. इसके अलावा पेरिस के उपनगर में मौजूद एक बड़ी मस्जिद को भी बंद कर दिया गया है.
राष्ट्रपति माक्रों इससे पहले चेतावनी दे चुके हैं कि इस्लामवादी पूरे फ्रांस में समुदायों के इर्द गिर्द काम कर रहे हैं और वो एक "समानांतर व्यवस्था" बनाने की कोशिश में हैं और फिर समाज पर "पूरा नियंत्रण कर लेना" चाहते हैं. इसके साथ ही राष्ट्रपति ने यह भी कहा कि इस्लामवाद के खिलाफ जंग का फ्रांस के आम मुसलमानों पर असर नहीं होना चाहिए. हालांकि कुछ मुसलमान कार्यकर्ताओं की दलील है कि इस मुद्दे पर राष्ट्रपति, रुढ़िवादियों और धुर दक्षिणपंथी विपक्षी पार्टियों के ध्यान देने का असर उन पर हो रहा है. इस बीच कई शहरों में मस्जिदों और दूसरी इमारतों की विशेष सुरक्षा के आदेश भी दिए गए हैं.
एनआर/एमजे(डीपीए)
अपनी पुस्तक ‘उसने गांधी को क्यों मारा’ में अशोक कुमार पाण्डेय ने गहरे अध्यवसाय से महात्मा गांधी की हत्या और उन पर लगने वाले तमाम आरोपों का सच उजागर किया है
अनुवाद-असम्भव गीत
1989 में भारत भवन द्वारा आयोजित विश्व कविता-समारोह में लातीनी अमरीकी कवियों की बड़ी सशक्त उपस्थिति थी: निकानोर पार्रा, रोबर्तो हुआरोज़, अर्नेस्तो कार्दिनाल, नेन्सी मोरेजान और आमेरो अरिजीज़. यह आकस्मिक नहीं था. यह इस बात का एहतराम करना था कि विश्व कविता में तब स्पहानी क्षण था. कार्दिनाल ने एक लम्बा लेख लिखकर उसे संसार का सबसे बड़ा और सशक्त समारोह क़रार दिया था. कविता को मनुष्य का बुनियादी शब्द बताते हुए हुआरोज़ का कहना था कि इस शब्द को अनेक भाषाओं के माध्यम से फैलाना और समझना बहुत ज़रूरी है. उन्होंने गांधी के विचार से प्रेरणा लेते हुए यह कहा कि कविता वह आयाम है जो इतिहास को अतिक्रमित और पराजित करता है.
अभी कुछ काग़ज़ात नबेरते हुए हुआरोज़ के एक छोटे से इटरव्यू का अंग्रेज़ी अनुवाद मिल गया जो उन्होंने ही भेजा था. उस समय कृष्ण बलदेव वैद ने उनकी कुछ कविताओं के अंग्रेज़ी से अनुवाद किये थे जो उस अवसर पर प्रकाशित पुस्तक ‘पुर्नवसु’ में संकलित हैं. उनमें से ये कुछ अंश देखें:
हर व्यक्ति को चाहिए
एक ऐसा गीत जिसका
अनुवाद असम्भव हो.
इसीलिए शायद जब
आप सोचते हैं
किसी के बारे में तो
शायद आप उसे
बचा रहे होते हैं.
क्या कोई चीज़ है/ हमें नीचे से उठाये हुए/या बनवा लेती है/हमसे कोई पक्षी यह देखने के लिए/कि हवा है या नहीं/या रचवा लेती है हमसे इक संसार यह देखने के लिए/कि ईश्वर है या नहीं/या पहनवा लेती है/हमसे टोपी यह साबित करने के लिए/कि हम हैं.
अब दोनों कवि हुआरोज़ और अनुवादक वैद साहब दिवंगत हैं. हम उनकी बनायी टोपी पहनकर यह साबित कर रहे हैं कि अभी हम हैं.
गांधी-चर्चा
महात्मा गांधी से अधिक पारदर्शी भारतीय पिछले डेढ़ सौ-दो सौ बरसों में दूसरा कोई नहीं हुआ. उनका सोचा-किया-लिखा सब उपलब्ध है. भारत में उनसे ज़्यादा अभिलेखित व्यक्ति भी कोई दूसरा नहीं हुआ. राजनेता से लेकर सन्त तक, लफंगों से लेकर विद्वान तक, सभी आम तौर पर, कुछ-न-कुछ छुपाते हैं. गांधी इस मामले में अनोखे और अभूतपूर्व थे कि उन्होंने राजनेता, सन्त और विचारक होते हुए कुछ नहीं छुपाया, सब कुछ जगज़ाहिर किया या होने दिया. ऐसे पारदर्शी गांधी की हत्या को लेकर पिछले कुछ वर्षों से तरह-तरह के प्रवाद कुछ शक्तियों द्वारा फैलाये जा रहे हैं. जिनमें उनको देश के विभाजन के लिए ज़िम्मेदार बताना शामिल है, उन सारे साक्ष्यों की पूरी तरह से अवहेलना करते हुए, जो सार्वजनिक क्षेत्र में उपलब्ध हैं.
मूलतः लेखक अशोक कुमार पाण्डेय ने, जो इतिहासकार नहीं है, हाल ही में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘उसने गांधी को क्यों मारा’ (राजकमल) में गहरे अध्यवसाय से सारे साक्ष्यों को पूरी सावधानी और प्रामाणिकता से हिसाब में लेते हुए, सारे सन्दर्भों की गहरी छान-बीन करते हुए गांधी की हत्या का सच उजागर किया है और उन पर लगाये गये अनेक निराधार आरोपों का सप्रमाण खण्डन किया है. यह उल्लेखनीय है कि अशोक पाण्डे वामपंथी हैं और वामपंथियों के भी गांधी को लेकर पूर्वग्रह रहे हैं. पर अशोक ने इन पूर्वग्रहों से अपनी तीख़ी और ईमानदार नज़र को प्रभावित नहीं होने दिया है. उनकी पुस्तक में लगभग 30 पृष्ठों की सन्दर्भ-सूची है जिसके आधार पर उसमें तथ्य देने की कोशिश की गयी है. यह पुस्तक सचमुच ‘इतिहास को भ्रष्ट करने वाले दौर में एक बौद्धिक सत्याग्रह’ का दर्जा रखती है. यह सत्याग्रह हिन्दी में हुआ है, यह हिन्दी के लिए अच्छी और ज़रूरी बात है.
लगभग ढाई सौ पृष्ठों की यह पुस्तक बहुत पठनीय है और उसका वृत्तान्त आप एक ही दिन में पूरा पढ़ सकते हैं जैसा कि मैंने किया. सच का, सचाई का अपना आकर्षण, अपनी लय होते हैं और उसका बखान, इस पुस्तक में, बिना किसी लागलपेट या अलंकरण के, औपन्यासिक सम्प्रेषणीयता लिये हुए है. हिन्दी में आधुनिक इतिहास को लेकर ऐसी सुशोधित और पठनीय पुस्तकें इधर कम ही देखने में आयी हैं.
‘उसने गांधी को क्यों मारा’ गांधी की हत्या के असली दोषियों और उस विचारदृष्टि की शिनाख़्त से ताल्लुक रखती है जिसकी मूलवृत्ति हिंसा-हत्या की और भारत में हिन्दू राष्ट्र स्थापित करने की थी. सुरक्षा में लापरवाहियां हुईं और हत्या का अन्देशा बताने वाली सूचनाओं को दुर्लक्ष्य किया गया पर हत्या नाथूराम गोडसे ने की और उसके पीछे एक पूरा समूह था जिसके प्रेरक सावरकर थे. गांधी को लेकर जो प्रवाद फैलाये गये हैं उनका तथ्यपरक और तर्कसंगत प्रत्याख्यान भी पुस्तक में किया गया है. यह सच नहीं है कि गांधी ने भगत सिंह को फांसी दिये जाने से बचाने के लिए कुछ नहीं किया: वायस राय इरविन से गांधी की बातचीत और उन्हें फांसी न देने के पत्र रिकार्ड पर हैं. गांधी ने वह सब किया जो वे कर सकते थे. अशोक ने यह उचित प्रतिप्रश्न किया है कि इस सिलसिले में सावरकर, श्यामाप्रसाद मुखर्जी, गोलवलकर, हेडगेवार, केतकर, मुंजे आदि नेताओं में से किसी ने कुछ क्यों नहीं किया? उन्होंने न कोई बयान दिया, न कोई पत्र लिखा, न कोई प्रदर्शन किया.
इस दुष्प्रचार का भी अशोक ने खण्डन किया है कि गांधी जी का अंतिम उपवास, जिसकी घोषणा 12 जनवरी 1948 को की गयी थी और जो 18 जनवरी को समाप्त हुआ, जब सभी धर्मों के प्रतिनिधियों ने दिल्ली में हिंसा रोक देने के शपथ पत्र पर हस्ताक्षर किये, उसका पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये देने से कोई संबंध था. अनशन शुरू होने से पहले 12 जनवरी की प्रार्थना सभा में जो घोषणा की गयी उसमें इसका कोई ज़िक्र नहीं है. उस समय तो गांधी जी ने उपवास का कारण सीमा के दोनों तरफ़ जारी हिंसा बताते हुए कहा था: ‘अगर पाकिस्तान में दुनिया के सब धर्मों के लोगों को समान हक़ न मिलें, उनकी जान और माल सुरक्षित न रहे और भारत भी उसी की नकल करे तो दोनों का नाश सुनिश्चित है.’ भारतीय कैबिनेट 55 करोड़ रुपये देने का निर्णय 15 जनवरी को ले चुका था पर गांधी जी का उपवास उससे अप्रभावित-असम्बद्ध 18 जनवरी को टूटा.
विभाजन के बारे में गांधी जी की ज़िम्मेदारी को लेकर विवेचन कर बताया गया है कि ‘कहीं एक उदाहरण नहीं दिया जा सकता जहां गांधी ने विभाजन पर आगे बढ़कर सहमति दी हो.’ संघ के विचारक रहे एसवी शेषाद्रि ने भी इस तथ्य की पुष्टि की है कि ‘‘गांधी ने विभाजन रोकने की पूरी कोशिश की थी लेकिन पटेल और नेहरू लीग के साथ मंत्रिमंडल के भयावह अनुभवों से अब उम्मीद छोड़ चुके थे.’’ यह भी स्पष्ट किया गया है कि भारत छोड़ो आन्दोलन के दमन में श्यामाप्रसाद मुखर्जी से लेकर हिन्दू महासभा के तमाम नेता शामिल थे. गांधी के खि़लाफ़ अंग्रेज़ों और मुस्लिम लीग के साथ हिन्दू महासभा भी खड़ी थी. स्वयं डॉ. अम्बेडकर ने एक पत्र में अपनी भावी पत्नी को लिखा था ‘... यह बात सुनने में भले ही विचित्र लगे लेकिन एक राष्ट्र बनाम दो राष्ट्र के प्रश्न पर माननीय सावरकर और जिन्ना साहब के विचार परस्पर विरोधी होने के बजाय एक-दूसरे से पूरी तरह मेल खाते हैं.’ कपूर आयोग ने जब समूचे साक्ष्य के आधार पर सावरकर को गांधी-हत्या के लिए ज़िम्मेदार ठहराते हुए रिपोर्ट दी, तब तक सावरकर दिवंगत हो चुके थे.
पुस्तक के अन्त में अशोक कहते हैं: ‘... देवता कोई नहीं होता. आज़ादी की लड़ाई में शामिल कौन था जिससे ग़लतियां नहीं हुई. अगर क्रूर होकर देखें तो भगत सिंह का क्रान्तिकारी आंदोलन उनके अपने साथियों की गद्दारी के चलते नष्ट हो गया. सुभाष की जल्दबाज़ी ने आज़ाद हिन्द फ़ौज़ का सपना ध्वस्त कर दिया. गांधी की उम्र भर की अहिंसा उस समय क्षतिग्रस्त हुई जब उनकी मौत के बाद उनके अनुयायियों ने महाराष्ट्र में ब्राह्मणों के खिलाफ़ हिंसा की. ... राष्ट्रीय मुक्ति-संग्राम की अलग-अलग धाराओं से मिलकर हमारे भारत का महान विचार जिसमें सर्वधर्मसमभाव, जातिवाद उन्मूलन और लोकतंत्र का वह महान स्वप्न विकसित हुआ जो हमारे संविधान में परिलक्षित है. गांधी के हत्यारे इन सब मूल्यों का प्रतिपक्ष रचते हैं. उनके विरुद्ध दक्षिणपंथ की नफ़रत स्वाभाविक रूप से उस कायरता से उपजती है जिसके कारण वे अंग्रेज़ी साम्राज्य का प्रतिपक्ष नहीं रच सके. (satyagrah.scroll.in)
स्टेट ऑफ ग्लोबल एयर-2020 नाम से प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में वायु प्रदूषण के कारण 5 लाख से अधिक नवजात बच्चों की मौत हो जाती है। रिपोर्ट के अनुसार अत्यधिक प्रदूषण में पलने वाले बच्चे यदि बच भी जाते हैं तो भी उनका बचपन अनेक रोगों से घिरा रहता है.
हाल में ही प्रकाशित स्टेट ऑफ ग्लोबल एयर-2020 नामक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में वायु प्रदूषण के कारण 5 लाख से अधिक नवजात शिशुओं की मौत हो जाती है। रिपोर्ट के अनुसार अत्यधिक प्रदूषण में पलने वाले बच्चे यदि बच भी जाते हैं तब भी उनका बचपन अनेक रोगों से घिरा रहता है.
वायु प्रदूषण का घातक असर गर्भ में पल रहे शिशुओं पर भी पड़ता है, इससे समय से पूर्व प्रसव या फिर कम वजन वाले बच्चे पैदा होते हैं और ये दोनों ही शिशुओं में मृत्यु के प्रमुख कारण हैंI ऐसी अधिकतर मौतें विकासशील देशों में होती हैं. रिपोर्ट के अनुसार बुजुर्गों पर वायु प्रदूषण के असर का विस्तार से अध्ययन किया गया है, पर शिशुओं पर इसके प्रभाव के बारे में अपेक्षाकृत कम पता हैI इस रिपोर्ट को हेल्थ इफेक्ट्स इंस्टिट्यूट नामक संस्था ने प्रकाशित किया है.
वायु प्रदूषण से नवजातों की कुल मृत्यु में से दो-तिहाई का कारण घरों के अन्दर का प्रदूषण है. यहां यह ध्यान रखना आवश्यक है कि भारत समेत तमाम विकासशील देशों में घरों के अन्दर के प्रदूषण स्तर का कोई अध्ययन नहीं किया जाता और ना ही इसके बारे में कोई दिशानिर्देश हैं. घरों के अन्दर वायु प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण बंद घरों के अन्दर की रसोई है, जिसपर लकड़ी, उपले इत्यादि जैव-इंधनों से खाना पकाया जाता है.
पिछले वर्ष अमेरिका के वाशिंगटन में अमेरिकन एसोसिएशन फॉर एडवांसमेंट इन साइंसेज की वार्षिक बैठक में घरों के अन्दर के प्रदूषण पर चर्चा की गई और इसे एक गंभीर समस्या माना गया. यह समस्या तो गंभीर है, पर इसकी हमेशा से उपेक्षा की जाती रही है. यूनिवर्सिटी ऑफ कोलोराडो बोल्डर के वैज्ञानिकों के अनुसार सामान्य घर के कामकाज जैसे खाना पकाना, साफ-सफाई और दूसरे कामों से घरों के अन्दर पार्टिकुलेट मैटर और वोलाटाइल आर्गेनिक कंपाउंड्स (वीओसी) उत्पन्न होते हैं. पार्टिकुलेट मैटर के बारे में तो हम लगातार सुनते रहते हैं पर वीओसी ऐसे रसायनों का समूह है जो केवल घातक ही नहीं है, बल्कि कैंसर-जनक भी है.
वीओसी का स्त्रोत घरों के अन्दर शैम्पू, परफ्यूम, रसोई और सफाई वाले घोल हैं, जबकि पार्टिकुलेट मैटर खाना बनाने और सफाई के दौरान उत्पन्न होते हैं. विश्व स्तर पर वाहनों से गैसों और पार्टिकुलेट मैटर के उत्सर्जन पर बहुत चर्चा की जाती है, पर घरों के अन्दर के इनके स्त्रोतों पर हम चुप्पी साध लेते हैं. इस अध्ययन की अगुवाई मारिया वन्स ने की थी और इस दल ने वर्ष 2018 में कुछ घरों के भीतर प्रदूषण के स्तर का वास्तविक अध्ययन किया था. घरों के अन्दर प्रदूषण का स्तर इन लोगों के अनुमान से अधिक था और प्रदूषण का स्तर पता करने वाले सेंसर्स को कुछ दिनों में ही फिर से कैलिबरेट करना पड़ता था.
मारिया वन्स के अनुसार संभव है कि वीओसी का दुनिया में सबसे बड़ा स्त्रोत घरों के अन्दर की गतिविधियां और घरों के अन्दर इस्तेमाल किये जाने वाले रसायन हों. घरों के अन्दर रसायनों का उपयोग लगातार बढ़ता जा रहा है और इस कारण घरों के अन्दर फॉर्मलडिहाइड, बेंजीन, अल्कोहल और कीटोन जैसे रसायनों की सांद्रता बढ़ती जा रही है. ये सभी रसायन ज्ञात कैंसर जनक हैं.
इस वार्षिक बैठक में ड्यूक यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों द्वारा प्रस्तुत शोधपत्र में बताया गया कि घरों के अन्दर का प्रदूषण बच्चों के स्वास्थ्य को प्रभावित कर रहा है. सोफा सेट, विनाइल फ्लोरिंग और फ्लेम रीटारडेट से खतरनाक रसायनों का उत्सर्जन होता रहता है. यह घर के अन्दर के वातावरण, जिसे वैज्ञानिक एसोस्फेयर कहते हैं, को प्रभावित और प्रदूषित करता है. इन रसायनों के प्रदूषण के कारण श्वसन, चर्म और प्रजनन से संबंधित विकार उत्पन्न होते हैं. विनाइल फ्लोरिंग वाले घरों में रहने वाले बच्चों के मूत्र में बेंजाइल ब्यूटाइल थैलेट की सांद्रता सामान्य घरों के बच्चों की तुलना में 15 गुना अधिक पाया गया.
घरों के अन्दर इलेक्ट्रॉनिक्स उपकरण, फ्लोरिंग और निर्माण सामग्री से लगातार सेमी-वोलाटाइल ऑर्गेनिक कंपाउंड्स का उत्सर्जन होता रहता है और यह स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है. अध्ययन दल की प्रमुख हीथर स्तैप्लेटन के अनुसार इन सभी के अत्यधिक उपयोग करने वाले घरों के बच्चों के रक्त और मूत्र के नमूनों में सेमी-वोलाटाइल ऑर्गेनिक कंपाउंड्स की सांद्रता कई गुना अधिक होती है. फोम में पोलीब्रोमिनेटेड डाईफिनाइल ईथर का उपयोग किया जाता है। इस कारण इनका अधिक उपयोग करने वाले घरों के बच्चों के रक्त में इसकी सांद्रता 6-गुना अधिक हो जाती है. इसके प्रभाव से मोटापा, मस्तिष्क के विकास और एंडोक्राइन तथा थाइराइड कैंसर हो सकता है.
स्टेट ऑफ ग्लोबल एयर 2020 के अनुसार वर्ष 2019 में दुनिया में कुल 67 लाख व्यक्तियों की असामयिक मृत्यु वायु प्रदूषण के कारण हुई है और वायु प्रदूषण दुनिया में मौत के बड़े कारणों में चौथे स्थान पर है. वायु प्रदूषण के कारण नवजात शिशुओं की सबसे अधिक मौतें अफ्रीका में और एशिया में होती हैं. यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफ़ोर्निया की वैज्ञानिक बेट रिट्ज के अनुसार घरों के अन्दर वायु प्रदूषण की सबसे अधिक समस्या भारत, दक्षिण-पूर्व एशिया और अफ्रीका में है. इस रिपोर्ट के अनुसार वायु प्रदूषण से बच्चों के मस्तिष्क और दूसरे अंगों पर भी प्रभाव पड़ता है.
यूनिसेफ द्वारा जून 2018 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार हमारे देश में लगभग सभी जगहों पर वायु प्रदूषण निर्धारित सीमा से अधिक है, जिससे बच्चे सांस के रोगों, फेफड़ों के रोगों, दमा और अल्प विकसित मस्तिष्क के शिकार हो रहे हैं. पांच वर्ष के कम उम्र के बच्चों की मृत्यु में से से दस प्रतिशत से अधिक का कारण सांसों की बीमारियां हैं जो वायु प्रदूषण के कारण होती हैं. यूनिसेफ के अनुसार विश्व में 2 अरब बच्चे खतरनाक वायु प्रदूषण वाले क्षेत्रों में रहते हैं, जिनमे से 62 करोड़ बच्चे दक्षिण एशियाई देशों में हैं.
भारत में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा प्रायोजित एक अध्ययन के अनुसार दिल्ली के एक-तिहाई बच्चों के फेफड़े सामान्य काम नहीं करते. यूनिसेफ द्वारा दिसम्बर 2017 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में अधिकतर बच्चों के मस्तिष्क की कार्य-प्रणाली वायु प्रदूषण के कारण प्रभावित हो रही है.
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 2018 में “एयर पोल्यूशन एंड चाइल्ड हेल्थ” नामक रिपोर्ट प्रकाशित की थी. इसमें बताया गया है कि पूरी दुनिया में वर्ष 2016 के दौरान पांच वर्ष से कम उम्र के 6 लाख बच्चों की मौत वायु प्रदूषण के कारण हुई, इसमें से एक लाख से अधिक बच्चे अकेले भारत के थे. रिपोर्ट के अनुसार हमारे देश में कुल 101788 बच्चों की मौत वायु प्रदूषण के कारण हुई, इसमें 54893 लड़कियां थीं, जबकि 46895 लड़के थे. ये आंकड़े वायु प्रदूषण के घातक प्रभाव के साथ ही लड़के और लड़कियों की परवरिश के भेदभाव को भी उजागर करते हैं.
रिपोर्ट के अनुसार बच्चों के स्वास्थ्य से संबंधित लगभग हरेक अनुसंधान वायु प्रदूषण के घातक प्रभाव बता रहे हैं. बच्चे मंदबुद्धि हो रहे हैं, जन्म के समय कम वजन के बच्चे पैदा हो रहे हैं, गर्भ में भी बच्चे वायु प्रदूषण के प्रभाव से अछूते नहीं हैं, इनका तंत्रिका तंत्र प्रभावित हो रहा है, दमा के मामले बढ़ रहे हैं, ह्रदय रोग के मामले बढ़ रहे हैं, सांस के रोग हो रहे हैं और बच्चे मर रहे हैंI दुनिया भर में लगभग 90 प्रतिशत बच्चे, जिनकी कुल संख्या 1.8 अरब है, ऐसे क्षेत्रों में रहते हैं, जहां वायु प्रदूषण खतरनाक स्तर पर है. भारत जैसे विकासशील देशों में तो हालत और भी खराब है और लगभग 98 प्रतिशत बच्चे अत्यधिक प्रदूषित माहौल में रहते हैं.
हम हमेशा बात करते हैं कि आनेवाली पीढी के लिए कैसी दुनिया छोड़कर जाएंगे, पर यदि वायु प्रदूषण का यही हाल रहा तो सत्य तो यही है कि हम आनेवाली पीढियां ही नहीं छोड़ के जाएंगेI जो जिन्दा रहेंगे उनके भी फेफड़े और मस्तिष्क सामान्य तरीके से काम नहीं कर रहे होंगे. (navjivanindia.com)
डॉयचे वैले पर चारु कार्तिकेय की रिपोर्ट-
चुनावों में कोविड संबंधी सावधानी बरतते हुए कैसे हो अभियान इस सवाल पर चुनाव आयोग और मध्य प्रदेश हाई कोर्ट के बीच ठन गई है. चुनाव आयोग ने अब सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे पर दस्तक दी है.
मामला मूल रूप से मध्य प्रदेश से संबंधित है जहां विधान सभा की 28 सीटों के लिए उप चुनाव होने वाले हैं. चुनावों के लिए अभियान जोरों पर हैं, लेकिन इस बीच रैलियों में आती भारी भीड़ और उससे संक्रमण के फैलने के खतरे को देखते हुए मध्य प्रदेश हाई कोर्ट की ग्वालियर पीठ ने अभियानों पर पाबंदी लगा दी थी.
अदालत ने अपने अधिकार क्षेत्र में आने वाले सभी जिलों के मजिस्ट्रेटों को आदेश दिया था कि वो किसी भी उम्मीदवार या पार्टी को जन सभाएं आयोजित करने के लिए तभी अनुमति दें जब वो यह साबित कर सकें कि वर्चुअल चुनावी अभियान संभव नहीं है.
अदालत ने यह भी कहा था कि रैली की अनुमति तभी दी जाए जब पार्टी या उम्मीदवार इतने पैसे जिला मजिस्ट्रेट के पास जमा करा दें जिनसे रैली में आने वाले सभी लोगों के लिए मास्क और सैनिटाइजर की व्यवस्था की जा सके. इस संबंध में अदालत ने केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर और पूर्व मुख्यमंत्री कमल नाथ के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने का भी आदेश दिया था. अदालत के अनुसार इन दोनों नेताओं ने अपनी रैलियों में कोविड संबंधी सावधानी नहीं बरती थी.
मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर और पूर्व मुख्यमंत्री कमल नाथ के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने का भी आदेश दिया था. अदालत के अनुसार इन दोनों नेताओं ने अपनी रैलियों में कोविड संबंधी सावधानी नहीं बरती थी.
गुरुवार को मध्य प्रदेश सरकार ने भी इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने का फैसला लिया था, लेकिन अब खुद चुनाव आयोग ही इस लड़ाई में कूद गया है. आयोग ने सुप्रीम कोर्ट से कहा है कि चुनाव कराना सिर्फ उसके अधिकार क्षेत्र में आता है और हाई कोर्ट का आदेश उसके अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप कर रहा है. आयोग ने यह भी कहा है कि हाई कोर्ट का आदेश सभी प्रतिद्वंदियों को सामान अवसर देने की अवधारणा पर असर डालेगा और पूरी चुनावी प्रक्रिया को ही पटरी से उतार देगा.
मध्य प्रदेश के लिए ये उपचुनाव बहुत महत्वपूर्ण हैं क्योंकि ये एक बार फिर राज्य में सत्ता पर असर डाल सकते हैं. ये 28 सीटें तब खाली हुई थीं जब कांग्रेस के 25 विधायकों ने पूर्व कांग्रेस नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया के नेतृत्व में अपनी पार्टी से बगावत कर दी थी और विधान सभा से इस्तीफा दे दिया था. इसके बाद राज्य में कमल नाथ के नेतृत्व वाली कांग्रेस की नवनिर्वाचित सरकार गिर गई थी और बीजेपी एक बार फिर सत्ता में आ गई थी. तीन सीटें विधायकों के निधन की वजह से खाली हो गई थीं.
मध्य प्रदेश के साथ साथ इस समय बिहार में भी चुनावी अभियान जोरों पर है. वहां 28 अक्टूबर से तीन चरणों में विधान सभा चुनावों में मतदान होना है. सभी पार्टियां बड़ी बड़ी रैलियां आयोजित कर रही हैं और कई रैलियों में भारी भीड़ भी उमड़ती दिखी है. कोविड संबंधी सावधानियों में से ना एक दूसरे से दूरी बनाए रखने का पालन हो रहा है और ना कोई मास्क पहन रहा है.
ऐसे में यह देखना होगा कि सुप्रीम कोर्ट चुनावी रैलियों पर कोई अंकुश लगाता है या नहीं. (dw)
जल शक्ति मंत्रालय के अधीन सीजीडब्लयूए ने देश के सभी राज्यों और संघ शासित प्रदेशों के साथ नागरिकों को पहली बार यह आदेश जारी किया है।
- Vivek Mishra
अब देश में कोई भी व्यक्ति और सरकारी संस्था यदि भूजल स्रोत से हासिल होने वाले पीने योग्य पानी (पोटेबल वाटर) की बर्बादी या बेजा इस्तेमाल करता है तो यह एक दंडात्मक दोष माना जाएगा। इससे पहले भारत में पानी की बर्बादी को लेकर दंड का कोई प्रावधान नहीं था। घरों की टंकियों के अलावा कई बार टैंकों से जगह-जगह पानी पहुंचाने वाली नागरिक संस्थाएं भी पानी की बर्बादी करती है।
देश में प्रत्येक दिन 4,84,20,000 करोड़ घन मीटर यानी एक लीटर वाली 48.42 अरब बोतलों जितना पानी बर्बाद हो जाता है, जबकि इसी देश में करीब 16 करोड़ लोगों को साफ और ताजा पानी नहीं मिलता। वहीं, 60 करोड़ लोग जलसंकट से जूझ रहे हैं।
सीजीडब्ल्यूए ने पानी की बर्बादी और बेजा इस्तेमाल पर रोक लगाने के लिए 08 अक्तूबर, 2020 को पर्यावरण (संरक्षण) कानून, 1986 की धारा पांच की शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए प्राधिकरणों और देश के सभी लोगों को संबोधित करते हुए दो बिंदु वाले अपने आदेश में कहा है :
1. इस आदेश के जारी होने की तारीख से संबंधित नागरिक निकाय जो कि राज्यों और संघ शासित प्रदेशों में पानी आपूर्ति नेटवर्क को संभालती हैं और जिन्हें जल बोर्ड, जल निगम, वाटर वर्क्स डिपार्टमेंट, नगर निगम, नगर पालिका, विकास प्राधिकरण, पंचायत या किसी भी अन्य नाम से पुकारा जाता है, वो यह सुनिश्चित करेंगी कि भूजल से हासिल होने वाले पोटेबल वाटर यानी पीने योग्य पानी की बर्बादी और उसका बेजा इस्तेमाल नहीं होगा। इस आदेश का पालन करने के लिए सभी एक तंत्र विकसित करेंगी और आदेश का उल्लंघन करने वालों के खिलाफ दंडात्मक उपाय किए जाएंगे।
2. देश में कोई भी व्यक्ति भू-जल स्रोत से हासिल पोटेबल वाटर का बेजा इस्तेमाल या बर्बादी नहीं कर सकता है।
नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने राजेंद्र त्यागी और गैर सरकारी संस्था फ्रैंड्स की ओर से बीते वर्ष 24 जुलाई, 2019 को पानी की बर्बादी पर रोक लाने की मांग वाली याचिका पर पहली बार सुनवाई की थी। डाउन टू अर्थ ने 29 जुलाई, 2019 को इस खबर को प्रकाशित किया था। बहरहाल इसी मामले में करीब एक बरस से ज्यादा समय के बाद 15 अक्तूबर, 2020 के एनजीटी के आदेश का अनुपालन करते हुए केंद्रीय जल शक्ति मंत्रालय के अधीन केंद्रीय भूजल प्राधिकरण (सीजीडब्ल्यूए) ने आदेश जारी किया है।
एनजीटी में याचिकाकर्ताओं की ओर से कानूनी पक्ष रखने वाले अधिवक्ता आकाश वशिष्ट ने डाउन टू अर्थ से कहा कि देश में भू-जल संरक्षण के लिए सीजीडब्ल्यूए का यह आदेश एक ऐतिहासिक कदम है। हमने यह मुद्दा एनजीटी में बीते वर्ष उठाया था, इसके बाद अब यह मामला सही दिशा में बढ़ चुका है। अभी तक आवासीय और व्यावसायिक आवासों से ही नहीं बल्कि कई पानी आपूर्ति करने वाले सरकारी टैंकों से भू-जल दोहन के जरिए निकाला गया पीने योग्य पानी (पोटेबल वाटर) बर्बाद होता रहता है। किसी तरह का प्रावधान न होने से पानी बर्बाद करने वाली संस्थाएं व व्यक्ति को इस बात के लिए दंडित भी नहीं किया जा सकता था।
साफ पानी की बर्बादी और बेजा इस्तेमाल पर दंडात्मक आदेश के जारी करने और केंद्रीय मंत्रालयों व राज्यों से समयबद्ध कार्य योजना मिलने के आश्वासन के बाद एनजीटी ने 31 अगस्त, 2020 को मामले का निस्तारण कर दिया था। वहीं, इससे पहले 15 अक्तूबर, 2019 को एनजीटी में राजेंद्र त्यागी और फ्रैंड्स संस्था का यह मामला जब एनजीटी ने सुना तो पाया था कि केंद्रीय जल शक्ति मंत्रालय और दिल्ली जल बोर्ड के जवाबों में पानी की बर्बादी और बेजा इस्तेमाल को रोकने के लिए कोई प्रभावी नीति का जिक्र नहीं किया गया है। एनजीटी ने कहा था प्राधिकरणों के जवाबी हलफनामे बेहद सामान्य और बेकार हैं। राज्यों और संघ शासित प्रदेशों को पत्र लिखने के बजाए एक समयबद्ध कार्ययोजना और निगरानी के साथ दंडात्मक प्रावधानों वाली प्रभावी कार्रवाई योजना बनाई जानी चाहिए।
एनजीटी ने कहा था कि "पर्यावरण कानून का पालन आदेशों का उल्लंघन करने वाले लोगों से बटोरी गई टोकन मनी की रिकवरी भर से नहीं हो जाता है। ...पॉल्यूटर पेज प्रिंसिपल का कोई विकल्प नहीं है।"
प्रभाकर मणि तिवारी
मिजोरम में किताबों को घर घर पहुंचाने की पहल हो रही है तो अरुणाचल प्रदेश में स्ट्रीट लाइब्रेरी लोगों को अपने बच्चों के साथ किताब पढऩे का मौका दे रहा है। ये पहल लोगों में फिर किताब पढऩे की आदत डालने के लिए हो रही है।कहा जाता है कि किताबें मनुष्य की सबसे अच्छी मित्र होती हैं। कोरोना के मौजूदा दौर में पूर्वोत्तर के दो राज्यों में यह कहावत एक बार फिर चरितर्थ हो रही है। पूर्वोत्तर राज्य मिजोरम के सबसे बड़े सामाजिक संगठन यंग मिजो एसोसिएशन (वाईएमए) ने लॉकडाउन के दौर में लोगों को व्यस्त रखने के लिए राजधानी आइजल के सबसे बड़े मोहल्ले रामलूम साउथ में लोगों को घर-घर उनकी पसंदीदा किताबें पहुंचाना शुरू किया था। मिजोरम की इस पहल से प्रेरणा लेकर पड़ोसी अरुणाचल प्रदेश में भी हाल में सडक़ के किनारे एक ऐसी लाइब्रेरी शुरू हुई है।
इस पहल से एक ओर जहां आम लोगों को लॉकडाउन के दौरान पैदा होने वाली बोरियत दूर करने में मदद मिली, वहीं खासकर युवा तबके में पढऩे की आदत को भी बढ़ावा मिला। अगर इस तथ्य को ध्यान में रखें कि वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक 91।33 प्रतिशत की साक्षरता दर के साथ मिजोरम, केरल और लक्ष्यद्वीप के बाद देश का तीसरा सबसे बड़ा साक्षर राज्य है, तो इस लाइब्रेरी की बढ़ती लोकप्रियता समझना मुश्किल नहीं है। वर्ष 1935 में स्थापित वाईएमए राज्य का सबसे बड़ा और ताकतवर सामाजिक संगठन है।
मिजोरम में पहल
देशव्यापी लॉकडाउन के दौरान इंटरनेट और टीवी चैनलों से ऊब कर लोग किताबों की तलाश कर रहे थे। लेकिन जब तमाम दुकानें और पुस्तकालय बंद हों तो लोग आखिर किताबें लाएंगे कहां से? पूर्वोत्तर राज्य मिजोरम के सबसे बड़े सामाजिक संगठन यंग मिजो एसोसिएशन (वाईएमए) ने इस मुश्किल सवाल का जवाब तलाशने की पहल की। यहां यह सवाल उठना लाजिमी है कि ई-बुक और इंटरनेट के दौर में भला किताबों की क्या कमी है? इस सवाल का जवाब वाईएमए की लाइब्रेरी सब-कमिटी के प्रमुख बी। लालमालसावमा देते हैं। वह कहते हैं, ‘ई-बुक काफी लोकप्रिय हैं। लेकिन मिजो भाषा में ज्यादा ई-बुक्स उपलब्ध नहीं हैं। इसी वजह से लोग किताबों को तरजीह दे रहे हैं। इसके अलावा कई इलाकों में इंटरनेट की कनेक्टिविटी भी ठीक नहीं है।’
वाईएमए की रामलूम दक्षिण शाखा ने लॉकडाउन के दौरान अप्रैल के आखिरी सप्ताह में अंग्रेजी और मिजो भाषा की पुस्तकों के साथ इस कावटकाई लाइब्रेरी की शुरुआत की थी। मिजो भाषा में कावटकाई का अर्थ मोबाइल या भ्राम्यमान होता है। लालमालसावमा बताते हैं कि इस योजना का मुख्य मकसद खासकर युवा तबके में किताबों के प्रति दिलचस्पी पैदा करना और खाली समय का सदुपयोग करना था। लोग घरों में बैठे-बैठे ऊब रहे थे।
आखिर यह लाइब्रेरी काम कैसे करती है? इसके लिए वाईएमए ने व्हाट्सएप्प पर एक ग्रुप बनाया है। उस पर किताबों के कवर और भीतर के दो-चार पन्नों की तस्वीरें डाल दी जाती हैं। उसके बाद लोग अपनी पसंदीदा पुस्तकों का आर्डर करते हैं। लॉकडाउन के दौरान मोहल्ले से आर्डर मिलने के बाद संगठन के वालंटियर सुरक्षा नियमों का पालन करते हुए उन किताबों को घर-घर पहुंचाते रहे। इस योजना के तहत कोई भी व्यक्ति दस दिनों के लिए चार किताबें ले सकता है। लेकिन लालमालसावमा के मुताबिक, ज्यादातर लोग दो दिन में ही पूरी किताब पढ़ लेते हैं। उसके बाद वहां जाकर उन किताबों को वापस ले लिया जाता है। अब तो लोग खुद आकर किताबें ले जाते हैं।
वैसे, बांग्लादेश और म्यामांर की सीमा से सटे इस पर्वतीय राज्य में पढऩे की संस्कृति काफी गहरे रची-बसी है। वर्ष 2019 में मिजो लेखक और पत्रकार लालरुआतलुआंगा चावंग्टे ने आइजल में सडक़ों के किनारे छोटी-छोटी कई लाइब्रेरियों की स्थापना की थी।
इस योजना के तहत खुले में रैक पर पुस्तकें रखी रहती हैं। लोग आकर वहां से अपनी पसंद की किताबें ले जाते हैं और पढ़ कर उनको दोबारा वहीं रख जाते हैं। लोग वहां किताबें दान में भी देते हैं। यह पहल जल्दी ही इतनी लोकप्रिय हुई कि राजधानी को दूसरे इलाकों में भी इसकी शुरुआत हो गई। चावंग्टे कहते हैं, ‘प्रमुख मकसद युवा वर्ग में किताबों के प्रति दिलचस्पी बढ़ाना था। मिजोरम के लोगों में पढऩे की आदत है और राज्य के हर इलाके में कोई न कोई लाइब्रेरी मिल जाएगी।’
अरुणाचल प्रदेश में स्ट्रीट लाइब्रेरी
मिजोरम में इस पहल से प्रभावित होकर एक अन्य पूर्वोत्तर राज्य अरुणाचल प्रदेश में 30 साल की गुरांग मीना ने बीते महीने यानी सितंबर में सडक़ के किनारे एक लाइब्रेरी खोली है। लोग यहां से अपनी पसंदीदा किताबें मुफ्त ले जा सकते हैं। वह लोग पढऩे के बाद उनको फिर उसी जगह रख जाते हैं।
राज्य के निर्जुली शहर में सडक़ के किनारे किताबों से सजी रैक के सामने दो बेंच रखे गए हैं ताकि लोग चाहें तो वहीं बैठ कर पढ़ भी सकें। उन्होंने इसका नाम सेल्फ हेल्प लाइब्रेरी रखा है। लेकिन क्या सडक़ पर किताबें रखने से उनकी चोरी होने का खतरा नहीं है? इस सवाल पर मीना बताती हैं, ‘अब तक तो एक भी किताब चोरी नहीं हुई है। और अगर ऐसा हुआ भी तो किताब किसी न किसी के काम ही आएगी। लोग किताब पढऩे के सिवा उसका कर ही क्या सकते हैं।’
बंगलुरू के एक कालेज से अर्थशास्त्र में ग्रेजुएट मीना स्थानीय सरकारी स्कूल में शिक्षिका हैं। वह बताती हैं, ‘मिजोरम में लाइब्रेरी खुलने के बाद से ही मेरे मन में यहां भी ऐसा करने की योजना थी। लेकिन मौका नहीं मिल रहा था। आखिर मैंने अपने मित्र दिवांग होआसी के साथ मिल कर अपनी कल्पना को मूर्तरूप दिया।’ मीना की लाइब्रेरी में लोगों की बढ़ती दिलचस्पी को ध्यान में रखते हुए अब कई लोग उनको किताबें दान दे रहे हैं। इसके बाद मीना ने अब किताबें पढऩे के लिए उधार देना भी शुरू किया है। इसके लिए कोई पैसा नहीं देना होता। मीना की लाइब्रेरी में स्कूल-कालेज के छात्र भी आने लगे हैं।
निर्जुली शहर राजधानी इटानगर से 19 किमी दूर पापुम पारे जिले में हैं। लेकिन अमूमन लोग किताबें खरीदने के लिए इटानगर नहीं जाते थे। अब मीना की लाइब्रेरी इस खाई को पाटने का प्रयास कर रही है। वह बताती हैं, ‘अरुणाचल प्रदेश में किताबों के मुकाबले शराब की दुकानें ज्यादा हैं। युवा तबके में पढ़ाई की आदत नहीं है। मैंने पढ़ाई की प्रवृत्ति को बढ़ावा देने के लिए ही इस लाइब्रेरी की शुरुआत की है। किताबें पढऩे से नए शब्द और मुहावरे सीखने को मिलते है।’ मीना वारेन बफेट के उस कथन का जिक्र करती हैं कि दुनिया के 88 फीसदी कामयाब लोग बेहद जिज्ञासु पाठक हैं। उनकी इच्छा है कि राज्य के हर वार्ड और मोहल्ले में ऐसी लाइब्रेरियां खुलें ताकि युवा तबके में किताब पढऩे की आदत लग सके। (www.dw.com)
रिचर्ड महापात्रा
भारत में महामारी के बीच पहला चुनाव बिहार में हो रहा है। एक तरफ जहां सभी लोग संक्रामक बीमारी कोविड-19 से बचने और सुरक्षा उपायों पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी ने इसे चुनावी मुद्दा बना दिया है। पार्टी ने घोषणा की है कि अगर वह सत्ता में आई तो बिहार के सभी लोगों को मुफ्त टीका लगाया जाएगा। बीजेपी ने जरूर सोचा होगा कि इस घोषणा से उसे राजनीतिक लाभ मिलेगा।
बीजेपी की इस घोषणा ने वैक्सीन को घोषणापत्र का मुख्य बिंदु और चुनावी मुद्दा बनाया है। धरती की सबसे बड़ी और भीषण महामारी के वक्त यह अपेक्षित भी है। वैक्सीन का चुनावी घोषणापत्र में शामिल होना बताता है कि महामारी ने हमारी राजनीतिक व्यवस्था को किस हद तक प्रभावित किया है।
अब तक परंपरागत चुनावी मुद्दे- रोटी, कपड़ा और मकान रहे हैं, लेकिन अब इसमें वैक्सीन भी शामिल हो गया है। हमारे देश में 80 लाख मामले सामने आ चुके हैं और हम सभी इस वायरस के बचाव के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं। इस संबंध में किया गया वादा सभी लुभाएगा। इस बात की भी पूरी संभावना है कि यह अन्य सभी मुद्दों पर भारी पड़े।
बिहार के लिए बीजेपी की घोषणा के तुरंत बाद तमिलनाडु और मध्य प्रदेश ने भी इस मुद्दे को लपक लिया और बिहार जैसी घोषणा कर दी। इन दोनों राज्यों में भी 28 विधानसभा सीटों के लिए उपचुनाव होने हैं।
हर तरह का हो-हल्ला हमने उस वक्त भी नहीं देखा था जब भारत चेचक, पोलिया और कालरा से जूझ रहा था। इन बीमारियों के संक्रमण को खत्म या नियंत्रित करने के भारत के प्रयासों की दुनियाभर में सराहना की गई थी। भारत ने तमाम अंतरराष्ट्रीय मंचों पर इन बीमारियों से निपटने के लिए अपनी पीठ थपथपाई थी।
कोविड-19 महामारी जैसी आपातकालीन परिस्थितियां राजनीतिक दलों और उनकी राजनीति को हमेशा से प्रभावित करती रही हैं। इतिहास में ऐसे बहुत से उदाहरण हैं, जो बताते हैं कि आपदाओं और आपातकालीन घटनाक्रमों ने कैसे राजनीतिक दलों के लिए उर्वर जमीन तैयार की।
स्पेनिश फ्लू महामारी (1918-20) के बाद दुनियाभर के लोकतांत्रिक देशों ने यूनिवर्सल पब्लिक हेल्थ की तरफ ध्यान दिया। इस महामारी ने बता दिया था कि गरीब और अमीर दोनों की जान को खतरा है और उसकी रक्षा की जानी चाहिए। इसी को देखते हुए पश्चिमी देशों के राजनीतिक दलों ने ऐसा पब्लिक हेल्थ सिस्टम खड़ा कर दिया, जो सबको लुभाता है।
1943 में पड़े बंगाल के अकाल ने भारत में राजनीतिक प्राथमिकता को आकार दिया। भारत सरकार (अंतरिम) के पहले खाद्य एवं कृषि मंत्री ने 15 अगस्त 1947 को ध्वजारोहण करते हुए भूख को देश की सबसे बड़ी राजनीतिक चुनौती माना था। समय-समय पर पड़े सूखे और अकाल चलते भारत भूख और खाद्य असुरक्षा से जूझता रहा। 1966 में बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में भयंकर सूखा पड़ा। फसल खराब होने से फिर खाद्य असुरक्षा मंडराने लगी। अगले साल 1967 में आम चुनाव में इंदिरा गांधी ने ‘रोटी, कपड़ा और मकान’ का लोकप्रिय नारा दिया। उस वक्त पहली बार चुनावी घोषणापत्र में सस्ते भोजन और काम की योजनाओं को जगह मिली। इन्हीं नारों और वादों के दम पर उनकी कांग्रेस पार्टी को दोबारा सत्ता मिली।
अब जब बिहार में मुफ्त वैक्सीन की घोषणा बीजेपी ने कर दी है, तब यह सवाल उठना भी लाजिमी है कि मुफ्त वैक्सीन का वादा सिर्फ बिहार के लिए ही क्यों? और वह भी जब पार्टी सत्ता में आएगी। इस घोषणा के कुछ दिन पहले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्र के नाम अपने छोटे से संदेश में सभी को वैक्सीन के लिए आश्वस्त किया था। अब इस बात की लड़ाई है कि सबसे पहले वैक्सीन किसे और कब मिलेगी। वैश्विक स्तर पर हम वैक्सीन के राष्ट्रवाद को लेकर सजग हैं। बहुत से देश अपनी ताकत का इस्तेमाल करके अपनी आबादी के लिए वैक्सीन हासिल करने की जुगत में हैं। ऐसे में वे लोग इससे वंचित रह सकते हैं जिनके पास ऐसे संसाधन नहीं हैं। क्या इसका यह मतलब है कि वैक्सीन चुनावी प्राथमिकता बन रहा है और भारत उप राष्ट्रवाद का गवाह बनेगा? (downtoearth.org.in)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
आजकल थाईलैंड में जैसे विशाल जनप्रदर्शन हो रहे हैं, वैसे उसके इतिहास में पहले शायद कभी नहीं हुए। लाखों नौजवान बैंकाक के राजमहल को घेरकर प्रधानमंत्री प्रयुत चन ओत्रा को हटाने की मांग तो कर ही रहे हैं, वे थाईलैंड के राजा महावज्र लोंगकार्न के अधिकारों में भी कटौती की मांग कर रहे हैं। 2017 में जो नया संविधान बना था, उसने थाईलैंड की फौज को तो सर्वोच्च शक्ति संपन्न बना ही दिया गया था लेकिन उसमें राजा को भी कई अतिरिक्त शक्तियां और सुविधाएं दे दी गई थीं। 1
932 में जो क्रांति हुई थी, उसमें थाईलैंड के राजा की हैसियत ब्रिटेन के राजा की तरह नाम-मात्र की रह गई थी लेकिन 2014 में सेना के तख्ता-पलट के बाद राजा को सभी कानूनों के ऊपर मान लिया गया और राज्य की अकूत संपत्तियों पर उनके व्यक्तिगत अधिकार को मान्यता दे दी गई। राजा और फौज की सांठ-गांठ थाईलैंड में वैसी ही हो गई, जैसी पाकिस्तान में इमरान खान और फौज की है।
इसका नतीजा यह हुआ कि थाईलैंड की फौज और प्रधानमंत्री प्रयुत निरंकुश हो गए। उन्होंने और उनके परिवार के लोगों ने अपनी अरबों रु. की संपत्तियां खड़ी कर लीं, सारी सरकार में भ्रष्टाचार फैल गया और अर्थ-व्यवस्था चरमरा गई। जब विपक्षी दल ‘फ्यूचर फार्वर्ड पार्टी’ ने लोकतांत्रिक ढांचे को मजबूत बनाने की मांग की और राज के असीमित अधिकारों के विरुद्ध आवाज उठाई तो थाईलैंड के सर्वोच्च न्यायालय ने उस पार्टी को ही भंग कर दिया। थाई नौजवानों ने इस कदम के विरुद्ध जन-आंदोलन छेड़ दिया और अब वह इतना फैल गया है कि फौज के भी नाक में दम हो गया है। थाईलैंड की फौजी सरकार ने कई अखबारों और टीवी चैनलों का गला घोंट दिया है और दर्जनों नेताओं को जेल के सींखचों के पीछे डाल दिया है।
थाईलैंड के राजा महावज्र आजकल जर्मनी के एक होटल में अपनी चार पत्नियों और दर्जनों सुरक्षाकर्मियों के साथ डेरा डाले हुए हैं। वे खुद पर लाखों रु. रोज खर्च कर रहे हैं। उनके कुत्ते को उन्होंने एयर चीफ मार्शल का खिताब दे रखा है। उन्हें थाई जनता से नहीं, उस कुत्ते से बड़ा प्यार है। उसे, अपने साथ टेबल पर बिठाकर वे डिनर खिलाते हैं और उधर थाईलैंड में लोग भूख और बेरोजगारी के मारे बेहाल हो रहे हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि थाईलैंड के नौजवान फौजी प्रधानमंत्री प्रयुत के साथ-साथ राजा महावज्र को हटाने की भी मांग शुरु कर दें।
(नया इंडिया की अनुमति से)
बिहार , 24 अक्टूबर | कोरोना संकट के दौर में देश में पहली बार हो रहे विधानसभा चुनाव में प्रचार के लिए पहली एक्चुअल रैली गया में एनडीए की तरफ से आयोजित की गई जिसे भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने संबोधित किया. इस चुनावी जनसभा के लिए आयोजकों ने कोविड प्रोटोकॉल के अनुसार सुरक्षा के तमाम उपाय किए थे, किंतु उत्साहित समर्थकों की भीड़ के सामने तमाम एहतियात धरे रह गए. मानो नेताओं को सुनने के लिए लोग कोरोना को भूल गए और कंधे से कंधा मिला लिया.
हालांकि निर्वाचन आयोग ने इस मामले में कार्रवाई भी की किंतु इसके बावजूद चुनावी जनसभाओं में हालात जस के तस हैं. सभास्थल की कुर्सियों की दूरी मीटर से घटकर सेंटीमीटर पर आ गई है तो मास्क यदि है भी तो वह नाक से उतरकर ठुड्डी पर या फिर जेब में आ गया है. रैली के व्यवस्थापकों की बार-बार की अपील का भी उत्साहित समर्थकों पर कोई असर नहीं पड़ता है. वे इससे अनजान बने हैं कि उनकी यह अनदेखी कितनी भारी पड़ सकती है. 71 सीटों पर 28 अक्टूबर को होने वाले प्रथम चरण के चुनाव के लिए सभी राजनीतिक दलों ने एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया है. पार्टियों के स्टार प्रचारक रोजाना रैलियां कर रहे हैं.
कहीं कोविड प्रोटोकॉल का अनुपालन तो कहीं अनदेखी
शुक्रवार को राज्य में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी व बहुजन समाज पार्टी की प्रमुख मायावती की रैलियां हुईं. सासाराम में प्रधानमंत्री मोदी ने भोजपुरी भाषा में अपने भाषण की शुरुआत करते हुए सबसे पूर्व केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान व रघुवंश प्रसाद सिंह को श्रद्धांजलि दी तथा कहा कि बिहार के लोग कोरोना का मुकाबला करते हुए लोकतंत्र का महापर्व मना रहे हैं.” प्रधानमंत्री ने कहा, "बिहार ने ठान लिया है कि जिसका इतिहास बिहार को बीमार बनाने का रहा है, उसे आसपास फटकने नहीं देंगे. कृषि बिल को लेकर ये लोग भ्रम फैला रहे हैं, इनके लिए देश हित नहीं दलालों का हित जरूरी है.” गया में पीएम मोदी ने मगही भाषा में अपने भाषण की शुरुआत की. उन्होंने भी सबसे पहले कोरोना के बीच पहले चुनाव की चर्चा करते हुए लोगों से खुद को सुरक्षित रखते हुए लोकतंत्र को मजबूत करने की अपील की. मोदी ने लालू-राबड़ी शासन की याद दिलाते हुए कहा, "90 के दशक में लोग रात में घर नहीं जाते थे. यात्रा करते समय हमेशा अपहरण की आशंका बनी रहती थी. लेकिन अब लालटेन की जरूरत खत्म हो गई है, हरेक घर में उजाला आ गया है.” पीएम मोदी की इन तीन सभाओं में भागलपुर व गया में तो कोरोना प्रोटोकॉल का अनुपालन दिखा, किंतु सासाराम में उत्साही भीड़ कोरोना से बेखौफ रही.
इधर, राहुल गांधी ने नवादा के हिसुआ और भागलपुर के कहलगांव में सभाएं की. उन्होंने पीएम मोदी पर करारा प्रहार करते हुए कहा कि चीन जब हमारी सीमा में घुस आया तो मोदी ने झूठ बोलकर वीरों का अपमान किया कि हमारी सीमा में कोई नहीं घुसा है. वे आज कहते हैं कि मैं उनके आगे सिर झुकाता हूं.” राहुल गांधी ने कहा, "सिर तो वे आपके सामने झुकाते हैं लेकिन काम किसी और के आएंगे. नोटबंदी का फायदा किसे हुआ, क्या अंबानी-अडाणी बैंक के सामने खड़े दिखे. उन्होंने पूछा, जब बिहार के जवान शहीद हुए तब पीएम ने क्या किया. पिछली बार मोदी जी ने कहा था, दो करोड़ लोगों को रोजगार देंगे. क्या किसी को रोजगार मिला.” इन दोनों रैलियों में नेताओं ने तो विरोधियों पर जमकर भड़ास निकाली, किंतु अफसोस यहां भी समर्थक कोरोना से बेखौफ रहे. मास्क व सोशल डिस्टेंशिंग से लोगों का कोई लेना-देना नहीं रहा. मंच पर मौजूद महागठबंधन के नेता भी कोरोना प्रोटोकॉल के अनुपालन का आग्रह करते नहीं देखे गए.
कैमूर जिले के भभुआ में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) व उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (रालोसपा) के गठबंधन की जनसभा हुई. मायावती ने कहा, "आज भी बिहार पिछड़ा हुआ है. इतने दिनों के शासनकाल में नीतीश सरकार राज्य एक भी कल-कारखाना नहीं लगा पाई. लॉकडाउन के दौरान जो भी लोग लौटे, वे रोजगार के अभाव में फिर पलायन कर गए. दलित, महादलित व अल्पसंख्यक के नाम पर लोगों को बांट तो दिया गया किंतु उनकी दुर्दशा आज भी जस की तस है.” इस चुनावी रैली में भी उत्साह से लबरेज श्रोताओं ने कोरोना की खूब अनदेखी की.
काफी हद तक बदल गया चुनाव प्रचार का ट्रेंड
निर्वाचन आयोग के डंडे के डर के कारण जनसंपर्क का तरीका काफी हद तक बदल गया है. प्रत्याशी भरसक कोशिश कर रहे कि आयोग की कार्रवाई का शिकार न बनें. हालांकि कई जगहों पर नामांकन के दौरान आयोग के निर्देशों की धज्जियां उड़ती देखी गई. आचार संहिता व कोविड प्रोटोकॉल के उल्लंघन का मामला भी खूब दर्ज हुआ. गांव-घरों में प्रत्याशियों की गाड़ियों का काफिला नहीं प्रवेश कर रहा. नेताओं की गाड़ी गांव से थोड़ी दूर पर खड़ी हो रही है, किंतु घर-घर घूमने के दौरान सोशल डिस्टेंशिंग का ख्याल नहीं रखा जाता है. पटना के बाढ़ निवासी रामाकिशोर सिंह कहते हैं, "यह पता थोड़े ही रहता है कि फलां प्रत्याशी फलां टाइम में आ रहा है. वे अचानक ही अपने कार्यकर्ताओं के साथ दरवाजे पर आ धमकते हैं. अब घर में तो हर समय कोई मास्क लगाए रहता नहीं है.
यह अव्यावहारिक बात है जिस पर कड़ाई से अमल मुश्किल है.”
वहीं पंडारक के अवध सिंह कहते हैं, "जब इतना ही डर था, कोरोना संक्रमण के फैलने की संभावना थी तो चुनाव की क्या जरूरत थी. राष्ट्रपति शासन भी तो लगाया जा सकता था. कम से कम स्थिति तो सुधर जाती.” सोशल मीडिया पर प्रचार-प्रसार तेजी से चल रहा है, किंतु यही काफी नहीं है. वोटरों की भी अपेक्षा रहती है कि नेताजी दरवाजे पर आएं इसलिए उम्मीदवारों को तो जनसंपर्क करना ही है. किसी न किसी जगह भोज-भात का आयोजन होता ही है. वहां भी लोग मास्क पहनने व सोशल डिस्टेंशिंग जैसे शब्दों से दूर ही रहते हैं. पटना के पालीगंज के अजय कुमार कहते हैं, "हम बिहारियों की इम्युनिटी पॉवर काफी स्ट्रॉन्ग है, इसलिए तो यहां रिकवरी रेट काफी है. बच-बचाकर ही चुनाव प्रचार कर रहे हैं, जब कुछ होगा तो देखा जाएगा.”
भारी पड़ सकती है कोरोना की अनदेखी
चुनावी सभा हो या जनसंपर्क, ऐसी अनदेखी तो भारी ही पड़ेगी. लगातार चुनाव प्रचार कर रहे कई नेता भी तेजी से कोरोना संक्रमित हो रहे हैं. भाजपा के स्टार प्रचारक राजीव प्रताप रूडी और शाहनवाज हुसैन व स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडेय भी कोरोना संक्रमित हो गए हैं. बिहार के उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी भी कोरोना संक्रमित होकर पटना एम्स अस्पताल में भर्ती हैं. कई जगहों के प्रत्याशी भी कोविड की चपेट में आ गए हैं. हालांकि चुनाव आयोग ने भी कोरोना आयोग की गाइडलाइन पर सख्ती दिखाई है. राजनीतिक दलों से कहा गया है कि किसी कीमत पर भीड़ में अनुशासन को बनाए रखा जाए. आयोग ने पार्टियों को जनसभाओं के लिए सशर्त अनुमति दी थी जिसके अनुसार छह फीट की दूरी तथा मास्क व सैनिटाइजर की उपलब्धता जरूरी थी.
लेकिन इन आदेशों पर अमल नहीं किया जा रहा है. केंद्र सरकार की वैज्ञानिकों की नेशनल सुपर मॉडल कमेटी ने भी चेतावनी दी है कि बिहार में चुनाव के कारण असामान्य रुप से कोरोना के मामलों में वृद्धि हो सकती है. और संक्रमण अगर बढ़ेगा तो फरवरी तक कोरोना की दूसरी लहर का सामना करना पड़ सकता है. अतएव हर स्तर पर एहतियात बरतना जरूरी है. वहीं प्रदूषण के कारण भी कोरोना के बढ़ने की संभावना व्यक्त की गई है. इसे देखते हुए आयोग भी काफी सख्त है. चुनाव में प्रचार व जनसभाओं के दौरान कोरोना गाइडलाइन का अनुपालन नहीं करने के आरोप में अबतक 25 एफआइआर दर्ज की जा चुकी है तथा कई अन्य के खिलाफ मामला दर्ज करने की अनुशंसा की गई है. इन प्राथमिकियों का आधार सोशल मीडिया पर दलों या प्रत्याशियों द्वारा किए गए पोस्ट व समाचार पत्रों में प्रकाशित तस्वीरों को बनाया जा रहा है और इसमें उन्हें नामजद किया जा रहा है जिन्होंने सभा की अनुमति ली है.(DW.COM)
31 साल के चंदन कुमार पटना शहर से करीब 40 किलोमीटर दूर चौड़ा गांव में रहते हैं। वह रोज लोकल ट्रेन लेकर पटना शहर में आते थे। यहां उन्हें 400 रुपए दिहाड़ी पर काम मिल जाता था। कोविड-19 को लेकर मार्च के आखिर में लॉकडाउन लगा और ट्रेनें बंद हो गई, तब से वह घर पर बेरोजगार बैठे हुए हैं। 14 सदस्यों के परिवार में वह और उनके भाई कमाने वाले हैं, लेकिन दोनों को ही काम नहीं मिल रहा है।
पटना शहर के अलग-अलग हिस्सों में ऐसी आधा दर्जन जगहें हैं, जहां रोजाना आसपास के इलाकों से चंदन जैसे लोग ट्रेनों से आते थे। इन जगहों को लेबर चौक कहा जाता है। ट्रेन बंद होने से इन लेबर चौकों में वीरानगी पसरी हुई है।
जो अपने गृह राज्य में रह रहे थे, वो तो रोजगार नहीं मिलने से परेशान हैं ही, लेकिन लॉकडाउन के दौरान जो लोग अपने घरों को लौटे थे, उन्हें भी सरकार के तमाम आश्वासनों के बावजूद काम नहीं मिल पा रहा है।
20 साल के सूरज कुमार मई के मध्य में श्रमिक स्पेशल ट्रेन पकड़ कर गुजरात से छपरा में अपने गांव पहुंचे थे। गांव लौटे उन्हें करीब पांच महीने हो गये हैं, लेकिन कोई काम नहीं मिला है। क्वारंटीन सेंटर में रहने के दौरान कहा गया कि उन्हें काम दिया जाएगा। पूछा भी गया था कि गुजरात में क्या करते थे। लेकिन उसके बाद कोई पूछने नहीं आया। सूरज के पिता को भी काम नहीं मिल रहा है।
केंद्रीय श्रम व रोजगार राज्यमंत्री संतोष कुमार गंगवार ने 14 सितंबर को लोकसभा में पूछे गये एक सवाल के जवाब में बताया कि लॉकडाउन के दौरान श्रमिक स्पेशल ट्रेनों से कुल 15,00,612 मजदूर बिहार लौटे थे। हालांकि, अनधिकृत तौर पर बिहार लौटने वाले मजदूरों की संख्या एक करोड़ के आसपास बताई जा रही है।
जब मजदूर बिहार लौटे थे तो केंद्र और राज्य सरकार ने आश्वासन दिया था कि मजदूरों के लिए रोजगार की व्यवस्था की जायेगी। इसके लिए 20 जून को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बिहार के तेलिहर गांव से गरीब कल्याण रोजगार अभियान (जीकेआरए) का भी आगाज किया था। इसमें बाहर से लौट मजदूरों को 125 दिनों का सुनिश्चित रोजगार देने की बात थी। बिहार के 32 जिलों को इस स्कीम में शामिल किया गया था। इसके तहत 25 प्रकार के कामों को शामिल किया गया था।
जीकेआरए के तहत बिहार को 17596.8 करोड़ रु.
इस अभियान के लिए केंद्र सरकार ने 50000 करोड़ रुपए आवंटित किये थे, जिनमें से 17596.8 करोड़ रुपए बिहार को मिले थे। ये अभियान 22 अक्टूबर को खत्म हो जाएगा, लेकिन 13 अक्टूबर तक राज्य सरकार 10006.1 करोड़ रुपए ही खर्च कर पाई है। डाउन टू अर्थ ने कई मजदूरों से बात की, लेकिन ज्यादातर लोगों का कहना था कि उन्हें इस अभियान की कोई जानकारी नहीं है।
जीकेआरए के अलावा सरकार ने महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी एक्ट (मनरेगा) के तहत भी मजदूरों को काम देने का भरोसा दिलाया था। पीपल्स एक्शन फॉर एम्प्लायमेंट गारंटी नाम की संस्था ने बिहार में मनरेगा के प्रदर्शन पर एक अध्ययन किया। इसके मुताबिक, जून में 26.21 लाख घरों ने मनरेगा के तहत काम मांगा, लेकिन 21.49 लाख घरों को ही काम दिया गया। जुलाई में 13.40 लाख घरों ने काम की मांग की, लेकिन 10.44 लाख लोगों को ही काम मिल पाया। अगस्त महीने में सबसे ज्यादा 41.93 घरों ने काम मांगा, लेकिन 34.30 लाख घरों को ही काम मिल पाया। हर घर को 100 दिनों की जगह औसतन 31 दिन ही काम मिल पाया, जबकि प्रति व्यक्ति औसत 27 दिन ही रहा। महज 2136 घरों को ही 100 दिनों का काम मिल सका।
कटिहार जिले के चितोरिया गांव निवासी अरुण यादव दिल्ली से मई में ही लौटे थे। उनकी क्वारंटीन अवधि खत्म हुई, तो मुखिया ने मनरेगा का काम दिलवाया। 30 दिन उन्होंने काम किया, तो बताया गया कि उन्हें 194 रुपए की जगह 50 रुपए प्रतिदिन मिलेंगे। वह कहते हैं, “मैंने मनरेगा के तहत किये एक महीने के काम की मजदूरी मांगी, लेकिन पैसा मुझे नहीं मिला। फिर मैंने गरीब कल्याण रोजगार अभियान के लिए आवेदन किया, लेकिन आवेदन के 50 दिन गुजर जाने के बाद भी कोई काम नहीं मिला है।”
बेरोजगारी बना मुद्दा
सेंटर फॉर मानीटरिंग इंडियन इकोनॉमी की रिपोर्ट के अनुसार बिहार में इस साल मई से अगस्त के बीच ग्रामीण क्षेत्रों में 23.7% और शहरी क्षेत्रों में 23% बेरोजगारी रही। इनमें से सबसे अधिक (60.32%) 20 से 24 साल की उम्र के युवा हैं।
पटना के अर्थशास्त्री डीएम दिवाकर कहते हैं, “सरकार का डिलीवरी सिस्टम काफी कमजोर है, जिस कारण मनरेगा और पीएमजीकेआरए योजनाओं का मजदूरों को लाभ नहीं मिल पाया। मनरेगा में तो बिहार का प्रदर्शन पहले भी खराब रहा है और इस बार भी ऐसा ही हुआ।”
बाहर से लौटे इन मजदूरों को काम नहीं मिलने से उनमें राज्य सरकार के खिलाफ गुस्सा है। सूरज और चंदन ने कहा कि इस लॉकडाउन में उन्हें बहुत परेशानी हुई, लेकिन सरकार की तरफ से उन्हें कोई मदद नहीं मिली।
बेरोजगारी को देखते हुए ही राष्ट्रीय जनता दल ने सरकार बनने पर 10 लाख लोगों को रोजगार देने का वादा किया, तो भाजपा ने भी अपने घोषणापत्र में 19 लाख लोगों को रोजगार देने की बात कही। दिवाकर का कहना है कि रोजगार इस चुनाव में बड़ा मुद्दा होने जा रहा है। उन्होंने कहा, “बाहर से जो लोग लौटे हैं, वे जागरूक मतदाता हैं। उन्हें रोजगार नहीं मिला है जिससे वे राज्य सरकार से नाराज हैं। इस नाराजगी का असर वोटिंग पर भी पड़ेगा।” (https://www.downtoearth.org.in/hindistory)
अमरीका, 24 अक्टूबर | अमरीका का राष्ट्रपति सिर्फ अपने देश का नेता नहीं होता है, बल्कि शायद वह धरती का सबसे ताक़तवर शख़्स भी होता है. अमरीकी राष्ट्रपति के फ़ैसलों का असर दुनिया भर में महसूस किया जाता है. डोनाल्ड ट्रंप भी कोई अपवाद नहीं हैं. ऐसे में यह देखना अहम है कि ट्रंप ने किस तरह से दुनिया में बदलाव किए हैं.
दुनिया अमरीका को किस तरह से देखती है?
राष्ट्रपति ट्रंप ने बार-बार एलान किया है कि अमरीका "दुनिया का सबसे महान देश" है. लेकिन, प्यू रिसर्च सेंटर के 13 देशों के हालिया सर्वे के मुताबिक़, उन्होंने विदेश में इस छवि के लिए ज़्यादा कुछ नहीं किया है.
कई यूरोपीय देशों में अमरीका को लेकर सकारात्मक रुख़ रखने वाले लोगों की तादाद तक़रीबन 20 साल के निचले स्तर पर चली गई है.
अमरीका को लेकर ब्रिटेन में 41 फ़ीसदी लोगों की अनुकूल राय थी, जबकि फ्रांस में यह आंकड़ा 31 फ़ीसदी है जो कि 2003 के बाद सबसे कम है. जर्मनी में यह महज़ 26 फ़ीसदी ही है.
कोरोना वायरस महामारी को लेकर अमरीका के कदम इस बारे में एक बड़ा फैक्टर रहे हैं. जुलाई और अगस्त के आंकड़े बताते हैं कि केवल 15 फ़ीसदी रेस्पॉन्डेंट्स (सर्वे में भाग लेने वालों) को लगता है कि अमरीका ने इस वायरस का सही तरीक़े से मुक़ाबला किया है.
जलवायु परिवर्तन पर राज़ी न होना
राष्ट्रपति ट्रंप पर्यावरण बदलाव को लेकर क्या सोचते हैं उसे तय कर पाना मुश्किल है, क्योंकि वे कभी इसे "बेहद महंगा डर" बताते हैं तो कभी इसे "एक गंभीर विषय" कहते हैं जो कि "उनके दिल के काफ़ी क़रीब है."
लेकिन, जो चीज़ स्पष्ट है वह यह है कि दफ्तर में आने के छह महीने के भीतर ही उन्होंने पेरिस जलवायु संधि से हाथ पीछे खींच लिए थे. इस समझौते पर क़रीब 200 देश दुनिया के तापमान में बढ़ोतरी को दो फ़ीसदी से नीचे रखने के लिए राज़ी थे.
चीन के बाद अमरीका सबसे ज़्यादा ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन करता है. ऐसे में रिसर्च करने वालों का कहना है कि अगर ट्रंप दोबारा राष्ट्रपति बने तो शायद ग्लोबल वॉर्मिंग पर लगाम लगाना मुश्किल हो जाएगा.
पेरिस क्लाइमेट डील से अमरीका का एग्जिट राष्ट्रपति चुनाव होने के अगले दिन 4 नवंबर को औपचारिक रूप से प्रभावी हो जाएगा. जो बाइडन ने वादा किया है कि अगर वे जीत गए तो इस डील से फिर से जुड़ जाएंगे.
कुछ जानकारों का कहना है कि अमरीका के डील से निकलने के चलते ही ब्राज़ील और सऊदी अरब ने कार्बन उत्सर्जन घटाने की कोशिशों को ठंडे बस्ते में डाल दिया है.
कुछ लोगों के लिए सीमाएं बंद
राष्ट्रपति ट्रंप ने पदभार संभालने के एक हफ़्ते के भीतर ही सात मुस्लिम बहुसंख्यक देशों से आने वाले आप्रवासियों के लिए अमरीका के दरवाज़े बंद कर दिए थे. फिलहाल 13 देश इस तरह की ट्रैवल पाबंदियों के अधीन हैं.
दूसरे देशों में पैदा होने और अमरीका में रह रहे लोगों की संख्या 2016 के मुकाबले 2019 में 3 फीसदी ज्यादा थी. लेकिन, अमरीका कौन लोग यहां रहने आए हैं इसमें बदलाव हुआ है.
मेक्सिको में पैदा हुए अमरीकी नागरिकों की फीसदी में संख्या ट्रंप के शासन के दौरान लगातार गिरी है. दूसरी ओर, लातिन अमरीका के बाकी देशों से यहां आने वालों की संख्या बढ़ी है.
अमरीका में स्थाई रूप से बसने का अधिकार देने वाले वीजा में भी सख्ती की गई है. खासतौर पर जिनके रिश्तेदार पहले से अमरीका रह रहे थे उनके लिए ये वीजा हासिल करना मुश्किल हुआ है.
मेक्सिको की अमरीका से लगती सीमा पर दीवार बनाने की शपथ राष्ट्रपति ट्रंप की आप्रवासन नीति का प्रतीक है.
यूएस कस्टम्स एंड बॉर्डर प्रोटेक्शन के मुताबिक, 19 अक्तूबर तक 371 मील लंबी दीवार बनाई जा चुकी थी. लेकिन, ये दीवार अमरीका जाने की चाहत रखने वालों को रोकने में नाकाम रही है.
अमरीका-मेक्सिको बॉर्डर पर पकड़े गए माइग्रेंट्स की संख्या 2019 में अपने 12 साल के चरम पर पहुंच गई थी. इनमें से ज्यादातर लोग ग्वाटेमाला, होंडुरास और अल सल्वाडोर के थे, जहां हिंसा और गरीबी ने लोगों को शरण लेने और दूसरी जगह बसने के लिए मजबूर किया है.
ट्रंप ने ऐसे लोगों की तादाद भी घटाई है जो कि अमरीका में फिर से बस सकते हैं. 2016 में यह आंकड़ा 85,000 का था, जो कि इसके अगले साल घटकर 54,000 रह गया. 2021 में यह संख्या घटकर 15,000 रह जाएगी जो कि 1980 में लॉन्च हुए इस प्रोग्राम का सबसे कम लेवल होगा.
फ़ेक न्यूज़ में इजाफ़ा
डोनाल्ड ट्रंप ने 2017 में एक इंटरव्यू में कहा था, "मुझे लगता है कि मैं जिन शब्दों से रूबरू हुआ हूं उनमें सबसे बड़ा शब्द 'फ़ेक' है." हालांकि, फ़ेक न्यूज़ की खोज निश्चित तौर पर ट्रंप ने नहीं की, लेकिन यह कहा जा सकता है कि उन्होंने इसे लोकप्रिय जरूर बनाया है.
फैक्सबीए.एसई के मॉनिटर किए जाने वाले सोशल मीडिया पोस्ट्स और ऑडियो ट्रांसक्रिप्ट्स के मुताबिक़, दिसंबर 2016 में पहली बार ट्वीट किए जाने के बाद से ट्रंप ने इस शब्द का इस्तेमाल क़रीब 2,000 बार किया है.
फ़ेक न्यूज़ के लिए गूगल सर्च करने पर आपको पूरी दुनिया से 1.1 अरब से ज़्यादा रिजल्ट मिलेंगे. चार्ट के तौर पर देखें तो आपको पता चलेगा कि कैसे 2016-17 की सर्दियों में अमरीका की दिलचस्पी इसमें बढ़ी है और यह ट्रंप के "फ़ेक न्यूज़ अवॉर्ड" का खुलासा करने वाले हफ्ते में ऊपर चला गया. ये ऐसी स्टोरीज़ की लिस्ट है जिसे ट्रंप झूठी खबरें मानते हैं.
2016 में राष्ट्रपति पद की दौड़ के दौरान फ़ेक न्यूज़ का मतलब ग़लत ख़बरों से था जैसे कि एक ख़बर थी जिसमें कहा गया था कि पोप फ्रांसिस ने ट्रंप की दावेदारी का समर्थन किया है. लेकिन, जैसे-जैसे यह आम इस्तेमाल में बढ़ा, इसका मतलब केवल ग़लत सूचना होने से शिफ्ट हो गया.
राष्ट्रपति ने ऐसी ख़बरों को फ़ेक न्यूज़ बताना शुरू कर दिया है जिनसे वे इत्तेफाक नहीं रखते हैं. फरवरी 2017 में वे और आगे बढ़ गए और उन्होंने कई न्यूज़ आउटलेट्स को "अमरीकी लोगों का दुश्मन बता दिया."
अमरीका के अंतहीन युद्ध और मिडल ईस्ट डील
अपने फरवरी 2019 के स्टेट ऑफ द यूनियन संबोधन में राष्ट्रपति ट्रंप ने सीरिया से सैनिकों की वापसी का वादा किया. उन्होंने एलान किया था, "महान राष्ट्र अंतहीन युद्ध नहीं लड़ा करते."
लेकिन, आंकड़े एक दूसरी ही कहानी कहते हैं. कुछ महीनों बाद ही ट्रंप ने तेल कुओं की रखवाली के लिए सीरिया में 500 सैनिक रखने का फैसला किया.
राष्ट्रपति ने अफ़ग़ानिस्तान में सैन्य मौजूदगी कम की है और ऐसा ही इराक़ और सीरिया में भी किया गया है. लेकिन, अमरीकी सेनाएं अभी भी उस हर जगह मौजूद हैं जहां वे उनके राष्ट्रपति बनने के दौरान थीं.
निश्चित तौर पर बिना सेनाओं के भी मध्य पूर्व पर असर डाला जा सकता है. ट्रंप ने 2018 में अमरीकी दूतावास को इसराइल के तेल अवीव से यरूशलम शिफ्ट कर दिया और इस तरह से उनके पहले के राष्ट्रपति की आपत्तियां दरकिनार कर दीं.
पिछले महीने उन्होंने संयुक्त अरब अमीरात और बहरीन के इसराइल के साथ रिश्ते बहाल करने के समझौते करने को "एक नए मध्य पूर्व का सवेरा" क़रार दिया. ये समझौते अमरीकी मदद से ही मुमकिन हुए और इसे ट्रंप प्रशासन की शायद सबसे बड़ी कूटनीतिक उपलब्धि कहा जा सकता है.
ट्रेड डील की कला
ट्रंप ऐसी डील्स को रद्दी की टोकरी में डालने के लिए जाने जाते हैं जो उन्होंने नहीं की थीं. दफ्तर में आने के पहले दिन ही उन्होंने ट्रांस-पैसिफिक पार्टनरशिप को रद्द कर दिया. यह 12 देशों की ट्रेड डील थी जिसे ओबामा ने मंजूरी दी थी.
इस डील से बाहर निकलने से सबसे ज़्यादा फ़ायदा चीन को हुआ. लेकिन, अमरीका में जिन लोगों को लग रहा था कि इस डील से अमरीकी नौकरियां चली जाएंगी उन्होंने इस डील से हटने का जश्न मनाया.
ट्रंप ने कनाडा और मेक्सिको के साथ नॉर्थ अमरीकन फ्री ट्रेड एग्रीमेंट पर फिर से सौदेबाज़ी की. वे इसे "सबसे बुरी डील" मानते थे. नई डील में ज़्यादा कुछ नहीं बदला, हालांकि, लेबर प्रावधान सख़्त कर दिए.
ट्रंप की पूरी कोशिश यह रही है कि किस तरह से दुनिया भर के साथ ट्रेड डील्स से अमरीका को फ़ायदा हो सकता है. इस मुहिम ने चीन के साथ एक कड़वी ट्रेड जंग शुरू कर दी. दोनों देशों को इसका नुक़सान हुआ.
2 दिसंबर 2016 को ट्रंप ने एक बड़ा अप्रत्याशित कदम उठाया और ताइवान के राष्ट्रपति के साथ सीधे बातचीत की. इस तरह से 1979 में ताइवान के साथ औपचारिक संबंध तोड़े जाने की परंपरा को तोड़ दिया.
साउथ चाइना सी पर चीन के दावों को अमरीका ने अवैध क़रार दिया. चीन के टिकटॉक और वीचैट जैसे एप्स बैन कर दिए गए और चीनी टेलीकॉम दिग्गज ख्वावे को ब्लैकलिस्ट कर दिया गया.
ईरान के साथ तक़रीबन जंग के हालात
2019 में नए साल पर ट्रंप ने ट्वीट किया था, "हमारी किसी भी इकाई को होने वाले नुक़सान या किसी के मरने के लिए ईरान पूरी तरह से ज़िम्मेदार होगा. उन्हें बहुत बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ेगी. यह चेतावनी नहीं है, यह धमकी है."
कुछ दिन बाद दुनिया को चौंकाते हुए अमरीका ने ईरान के सबसे ताक़तवर जनरल कासिम सुलेमानी की हत्या कर दी. ईरान ने जवाबी प्रतिक्रिया देते हुए इराक़ में दो अमरीकी ठिकानों पर दर्जन भर से ज़्यादा मिसाइलें दाग दीं. 100 से ज़्यादा अमरीकी सैनिक इसमें घायल हुए. दोनों देश इससे युद्ध की कगार पर पहुंच गए.
युद्ध न होने के बावजूद निर्दोषों की जानें जाना जारी रहा. ईरान की मिसाइलों के हमलों के चंद घंटों के भीतर ही इसकी सेना ने यूक्रेन के एक पैसेंजर जहाज़ को मिसाइल से ग़लती से उड़ा दिया. इस में 176 लोग मारे गए.
मई 2018 में ट्रंप ने 2015 में ईरान के साथ हुई न्यूक्लियर डील को रद्द कर दिया. ईरान पर भारी आर्थिक प्रतिबंध लगा दिए गए. इससे ईरान की अर्थव्यवस्था बुरे संकट में चली गई और परेशान ईरानी लोगों को विरोध-प्रदर्शनों पर उतारू होना पड़ा.(https://www.bbc.com/hindi)
आज हमें ब्रिटेन से यह सीखने की आवश्यकता है कि राष्ट्रनिर्माण में अल्पसंख्यकों के योगदान को किस तरह मान्यता दी जाए। भारत के लिए भी यह जरूरी है कि वह अपनी विविधता को स्वीकार करे, उसे सम्मान दे और उसे और मजबूत और गहरा बनाने के लिए हरसंभव प्रयास करे।
एक समाचार के अनुसार, ब्रिटेन के चांसलर ऑफ़ द एक्सचेकर ऋषि सुनाक ने 17 अक्टूबर 2020 को 50 पेन्स का एक नया सिक्का जारी किया। सिक्के को ‘डायवर्सिटी चइन’ का नाम दिया गया है और इसे ब्रिटेन के बहुवादी इतिहास का उत्सव मनाने और देश के निर्माण में अल्पसंख्यकों की महत्वपूर्ण भूमिका को रेखांकित करने के लिए जारी किया गया है। सिक्के पर अंकित है ‘डायवर्सिटी बिल्ट ब्रिटेन (विविधता से ही बना है ब्रिटेन)।’
इस सिक्के की पृष्ठभूमि में है ‘वी टू बिल्ट ब्रिटेन (हमारा भी ब्रिटेन के निर्माण में योगदान है)’ समूह का अभियान। यह सिक्का नस्लीय अल्पसंख्यकों के ब्रिटेन के निर्माण में योगदान को सम्मान देने की प्रस्तावित श्रृंखला की पहली कड़ी है। ब्रिटेन में रहने वाले अल्पसंख्यकों, जिनमें दक्षिण एशिया के निवासियों की बड़ी संख्या है, ने इस देश को अपना घर बना लिया है और वहां की प्रगति व कल्याण में अपना भरपूर योगदान दिया है।
यह अभियान सेम्युल हटिंगटन के ‘‘सभ्यताओं के टकराव’’ के सिद्धांत को नकारता है। सोवियत संघ के पतन के बाद प्रतिपादित इस सिद्धांत के अनुसार, दुनिया में विभिन्न सभ्यताओं के बीच टकराव अवश्यंभावी है। उन्होंने कहा था ‘मेरी यह मान्यता है कि आज के विश्व में टकराव का आधार न तो विचारधारात्मक होगा और ना ही आर्थिक। मानव जाति को बांटने वाला सबसे महत्वपूर्ण कारक है संस्कृति और यही टकराव का मुख्य कारण होगी, हालांकि राष्ट्र-राज्य विश्व के रंगमच के मुख्य पात्र बने रहेंगे, परंतु अंतरराष्ट्रीय राजनीति में संघर्ष, मुख्य रूप से अलग-अलग सभ्यताओं वाले राष्ट्रों और उनके समूहों के बीच होगा। सभ्यताओं के बीच टकराव, अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर हावी रहेंगे। सभ्यताओं की सीमा रेखाएं ही आने वाले दिनों में युद्ध का मोर्चा बनेंगी।’
अमेरिका में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर 9/11 के हमले के बाद से इस सिद्धांत का जलवा पूरी दुनिया में कायम हो गया। ओसामा बिन लादेन ने इस हमले को जेहाद बताया था। अफगानिस्तान पर अमरीकी हमले को जार्ज बुश ने क्रूसेड बताया था। ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर ने पश्चिम एशिया के देशों पर हमले के पीछे ‘दैवीय कारण’ बताए थे।
सभ्याताओं के टकराव के सिद्धांत ने अमेरिका और उसके सहयोगी देशों के सैन्य अभियानों को सैद्धांतिक आधार प्रदान किया। ये हमले दरअसल केवल और केवल कच्चे तेल के उत्पादक क्षेत्रों पर कब्जा जमाने के लिए किए गए थे। सभ्यताओं के टकराव के सिद्धांत ने अमेरिका और उसके साथियों द्वारा अंतरराष्ट्रीय कानून के खुल्लम खुल्ला उल्लंघन को औचित्यपूर्ण ठहराने में मदद की। पहले साम्राज्यवादी देशों ने दुनिया के कमजोर मुल्कों को अपना उपनिवेश बनाकर उनका खून चूसा। अब यही काम वे वैश्विक अर्थव्यवस्था पर काबिज होकर अंजाम दे रहे हैं। इसके विरूद्ध विचारधारात्मक स्तर पर एक बहुत मौजूं टिप्पणी तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ के आर नारायणन ने की थी। उन्होंने कहा था, ‘सभ्यताएं नहीं टकरातीं, बर्बरताएं टकराती हैं।’
तत्समय संयुक्त राष्ट्रसंघ का नेतृत्व कोफी अन्नान के हाथों में था जो उसके महासचिव थे। उन्होंने एक उच्चस्तरीय अंतरराष्ट्रीय समिति का गठन किया जिसमें विभिन्न धर्मों और राष्ट्रों के प्रतिनिधि शामिल थे। इस समिति से कहा गया कि वह आज के विश्व को समझने के लिए एक नई दृष्टि का विकास करे और विभिन्न सभ्यताओं, संस्कृतियों और देशों के बीच शांति बनाए रखने के उपायों के संबंध में अपनी सिफारिशें दे। इस समिति ने अपनी सिफारिशों को जिस दस्तावेज में संकलित और प्रस्तुत किया, उसका शीर्षक अत्यंत उपयुक्त था- ‘एलायंस ऑफ़ सिविलाईजेशन्स (सभ्यताओं का गठजोड़)’। इस वैश्विक अध्ययन के संबंध में दुर्भाग्यवश दुनिया में अधिक लोग नहीं जानते। यह दस्तावेज बताता है कि किस प्रकार लोग एक स्थान से दूसरे स्थान, एक राष्ट्र से दूसरे राष्ट्र गए और उन्होंने अपने नए घरों को बेहतर और सुंदर बनाने में अपना योगदान दिया।
जहां तक भारत का प्रश्न है, विविधता हमेशा से हमारी सभ्यता और संस्कृति का हिस्सा रही है। भारत में ईसाई धर्म का प्रवेश आज से 1900 वर्ष पूर्व ही हो गया था। भारत में इस्लाम सातवीं-आठवीं सदी में मलाबार तट के रास्ते आया। इसे अरब व्यापारी भारत लाए। बाद में जाति और वर्ण व्यवस्था के पीडि़तों ने बड़ी संख्या में इस्लाम को अंगीकार कर लिया। जिन मुस्लिम आक्रांताओं ने उत्तर-पश्चिम से भारत में प्रवेश किया, वे यहां अपने धर्म का प्रचार करने नहीं वरन् इस देश पर कब्जा जमाने और यहां की संपदा को लूटने के लिए आए थे। बौद्ध धर्म भारत से विभिन्न दक्षिण एशियाई देशों में गया। बड़ी संख्या में भारतीय दूसरे देशों में जा बसे। इसके पीछे मुख्यत: आर्थिक कारण थे। इंग्लैंड में आज भारतीयों की खासी आबादी है। अमेरिका, आस्ट्रेलिया और कनाडा में भी बड़ी संख्या में भारतीय रहते हैं। शुरूआती दौर में भारत से कई प्रवासी मॉरिशस, श्रीलंका और कैरेबियन देशों में भी गए।
प्रवासी समुदाय अपने मूल देश को पूरी तरह विस्मृत नहीं कर पाते परंतु इसके साथ ही वे अलग-अलग तरीकों से अपने नए देश के समाजों के साथ जुड़ते भी हैं। आज खाड़ी के देशों में काफी बड़ी संख्या में भारतीय रहते हैं। भारत के साम्प्रदायिक तत्व, विदेशों में रहने वाले भारतीयों के भारत से जुड़ाव की प्रशंसा करते नहीं अघाते, परंतु वे ईसाई धर्म और इस्लाम को विदेशी बताते हैं! सच तो यह है कि हिन्दू धर्म में भी अनेकानेक विविधताएं हैं। भारतीय संस्कृति विविधवर्णी है जिस पर भारत के अलग-अलग क्षेत्रों के निवासियों, अलग-अलग धर्मों के मानने वालों और अलग-अलग भाषाएं बोलने वालों का प्रभाव है। हमारा साहित्य, हमारी कला, हमारी वास्तुकला, हमारे संगीत सभी पर विविध सांस्कृतिक धाराओं का प्रभाव है। हमारे देश में अलग-अलग सभ्यताओं और संस्कृतियों के लोग मिलजुलकर रहते आए हैं।
अक्सर मिलीजुली संस्कृति वाले देशों को ‘मेल्टिंग पॉट (आपस में घुलकर अपनी अलग पहचान खो देना)’ बताया जाता है। मेरे विचार से इसके लिए एक बेहतर शब्द है ‘सलाद का कटोरा’। सलाद अलग-अलग सब्जियों से मिलकर बनता है परंतु उसके सभी घटक अपनी अलग पहचान बनाए रखते हैं। हमारा साहित्य भी हमारे समाज और हमारी संस्कृति को प्रतिबिंबित करता है। हमारे वरिष्ठ साहित्यकार भी भारत के इसी स्वरूप पर जोर देते आए हैं। विविधता हमारे स्वाधीनता संग्राम का भी आधार थी जो समाज के विभिन्न तबकों को एक मंच पर लेकर आई। इसके विपरीत, साम्प्रदायिक धाराएं उर्दू-मुस्लिम-पाकिस्तान और हिन्दी-हिन्दू-हिन्दुस्तान जैसी संकीर्ण अवधारणाओं को बढ़ावा देती आई हैं। तथ्य यह है कि अनेकता में एकता ही हमारे देश की असली ताकत है। पंडित नेहरू की प्रसिद्ध पुस्तक ‘डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’ इसी विविधता का उत्सव मनाती है।
आज हमें ब्रिटेन से यह सीखने की आवश्यकता है कि राष्ट्रनिर्माण में अल्पसंख्यकों के योगदान को किस तरह मान्यता दी जाए। भारत के लिए भी यह जरूरी है कि वह अपनी विविधता को स्वीकार करे, उसे सम्मान दे और उसे और मजबूत और गहरा बनाने के लिए हरसंभव प्रयास करे। (navjivanindia.com)
(लेखक आईआईटी, मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं)
भारतीय जनता पार्टी की असली नीति क्या है? उनका दिशा-दर्शक कौन है? इस बारे में थोड़ा भ्रम का माहौल बना दिख रहा है। दो दिन पहले ही प्रधानमंत्री मोदी ने जनता को आश्वासन दिया था कि सरकार प्रयास करेगी कि कोरोना का ‘टीका’ आते ही उसे देश के सभी लोगों तक पहुंचाया जाए। प्रधानमंत्री टीके का वितरण करते समय कहीं भी जाति, धर्म, प्रांत, राजनीति बीच में नहीं लाए। लेकिन अब बिहार विधानसभा प्रचार में भाजपा नेताओं ने विचित्र कदम उठाया है। कोरोना के टीके का उत्पादन शुरू होने पर बिहार की जनता के लिए टीका मुफ्त में उपलब्ध होगा, ऐसा वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा ही है। लेकिन भाजपा के घोषणापत्र में भी ऐसा वचन पहले क्रमांक पर दिख रहा है। बिहार विधानसभा चुनाव कोरोना संक्रमण काल में होने वाला पहला बड़ा चुनाव है। वर्चुअल सभाएं होंगी और पारंपरिक कार्यक्रम नहीं होंगे, ऐसा वातावरण बन गया था। लेकिन बिहार के मैदान की सभाएं सारे सोशल डिस्टेंसिंग के नियमों को ताक पर रखकर हो रही हैं। नेताओं के हेलीकॉप्टर उड़ रहे हैं और प्रचंड भीड़ के कार्यक्रम शुरू हैं। इस भीड़ में हो सकता है ‘कोरोना’ की दबकर मौत हो जाए और राजनीतिक क्रांति हो जाए, ऐसी तस्वीर बिहार में दिख रही है। लोगों को कोरोना का डर नहीं रहा। उन्हें बिहार में सत्ता बदलनी है। बिहार में जो निर्णय आना होगा, वह आएगा लेकिन भाजपा ने लोगों के मन में कोरोना का डर बढ़ाकर मुफ्त टीके की सुई लगाने का ‘फोकट’ उद्योग शुरू किया है। अर्थात ‘तुम हमें वोट दो हम तुम्हें कोरोना का टीका मुफ्त में लगाएंगे’, यह इस प्रकार का सौदा है। मतदाताओं को डरा कर टीका लगाने की यह बात चुनाव आयोग की नजर से वैससे छूट गई? आजादी के पहले ‘तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा’ का मंत्र था जो कि भारत मां का आक्रोश था। उसी तरह ‘तुम मुझे वोट दो हम तुम्हें टीका देंगे’! का नारा दिया गया दिख रहा है। सत्ता पाने के लिए और मतदाताओं को बहलाने के लिए नैतिकता वाली पार्टी कौन से निचले स्तर तक जा सकती है, अब पता चल गया। मुफ्त में टीका सिर्फ बिहार को ही क्यों? पूरे देश को क्यों नहीं? पहले इसका उत्तर दो। पूरे देश में कोरोना का तांडव मचा है। यह आंकड़ा 75 लाख से ज्यादा तक पहुंच चुका है। लोग रोज अपनी जान गंवा रहे हैं। ऐसे में एक ऐसे राज्य में जहां विधानसभा चुनाव हो रहे हैं, वहां इस प्रकार की राजनीति होना धक्कादायक है। बिहार के चुनाव से ‘विकास’ गुम हो चुका है। रोटी, कपड़ा, मकान और रोजगार के मुद्दे नहीं चलते क्योंकि उसके बारे में अकाल पड़ा है। हर तरफ बेरोजगारी और गरीबी का कहर मचा है। उस पर काट के रूप में मुफ्त टीका लगाने का प्रयोग शुरू हुआ है। पूरे देश में कोरोना के टीके की आवश्यकता है। टीके की खोज तीसरे चरण में पहुंच चुकी है। लेकिन ‘टीका’ पहले बिहार में भाजपा को मतदान करने वालों को मिलेगा। लेकिन मान लीजिए कि बिहार में सत्ता बदल गई तो भाजपा बिहार को टीका नहीं देगी क्या? कई राज्यों में भाजपा की सरकारें नहीं हैं। उन्हें भी ‘टीका’ देने के मामले में केंद्र सरकार हाथ ऊपर कर लेगी क्या? विरोधी दल के एकाध विधायक को कोरोना आदि हो गया तो भाजपा की ओर से कहा जाएगा, ‘टीका लगाना होगा तो पहले अपनी पार्टी बदल लो, नहीं तो चिल्लाते बैठो!’ इसलिए कोरोना पर मुफ्त टीके को लेकर लोगों में भ्रम की स्थिति बनी है। ‘गांव बसा ही नहीं और’ कहावत की तरह बाजार में टीका आया ही नहीं और इनकी मारामारी शुरू हो गई। पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, झारखंड, छत्तीसगढ़, ओडिशा, पंजाब और राजस्थान जैसे राज्यों में भाजपा के विचारों की सरकार नहीं है। दिल्ली प्रदेश में केजरीवाल भाजपा विरोध का झंडा लेकर खड़े हैं। इन राज्यों की सरकारों को पुतिन से टीका मंगवाना है क्या? देश की 130 करोड़ जनता को टीका देने के लिए केंद्र सरकार के लगभग 70 हजार करोड़ रुपए लगनेवाले हैं। नागरिकों को बचाए रखने की जिम्मेदारी से केंद्र सरकार इनकार नहीं कर सकती। बिहार देश का ही एक भाग है। बिहार ने केंद्र से विशेष दर्जा देने की हमेशा से मांग की क्योंकि नीतीश कुमार मुख्यमंत्री भले हों लेकिन राज्य हमेशा पिछड़ा ही रहा। लोग बिना भोजन, भुखमरी के कारण कीड़े-मकोड़े की तरह मर रहे हैं। ऐसी रिपोर्ट वैश्विक संगठन ने प्रकाशित की है। बिहार को ‘टीका’ मिले, इसमें कोई दो राय नहीं लेकिन अन्य राज्य पाकिस्तान में नहीं हैं। कोरोना टीका का मुद्दा भाजपा के बिहारी घोषणापत्र में आना ठीक नहीं है। टीके का वितरण सरकार की और राष्ट्रीय भूमिका होनी चाहिए। यह एक प्रकार से भेदभाव है। राष्ट्रीय एकता के लिए नए टीके की आवश्यकता है!
- मृणाल पाण्डे
शारदीय नवरात्रि की धूमधाम इस साल कुछ दबी-दबी-सी भले हो लेकिन श्रद्धालु हमेशा की तरह शक्ति स्वरूपिणी मां को सादर धरती पर सपरिवार पधारने को न्योत रहे हैं। इस वजह से हर तरह की उद्दंड राक्षसी प्रवृत्ति का विनाश करने वाली दशभजी दुर्गा की कई मधुर स्तुतियां हो रही हैं। लेकिन दुर्गा को शक्ति का आदि प्रतीक मानने वालों के देश में हाड़-मांस की स्त्रियों पर हो रही हिंसा की खबरें मधुर स्तुतियों या ‘नार्यस्तु यत्र पूज्यंते रमंते तत्र देवता’ नुमा पारंपरिक नारों से नहीं मिट सकतीं।
हाथरस सामूहिक बलात्कार की घटना की याद अभी ताजा है। पर निर्भया कांड की ही तरह इस वीभत्स मौत के बाद भी जब काफी हो-हल्ला मचा, तो पहले इसे राजनीति या जातिवादी सोच से प्रेरित बताकर रफा-दफा करने की कोशिश हुई। वह असफल रही, तो कहा गया कि लड़की का चाल-चलन जरूर शंकास्पद रहा होगा। कुछ गैर जिम्मेदार बयानों के अनुसार, यह हत्या का मामला था, बलात्कार का नहीं। मारपीट भले हुई हो, पर लड़की के साथ आरोपियों का यौन संसर्ग का प्रमाण नहीं मिला, वगैरा। जब ये सब हथियार भी उल्टे पड़े, तब प्रदेश पुलिस ने असुरक्षा बढ़ने का हवाला देते हुए मृतका के घरवालों की आज्ञा के बिना फटाफट आधी रात को ही लड़की का शव जलाकर बात को समाप्त करना चाहा।
यह सब देख-पढ़ कर निर्भया कांड के साक्षी रहे अधिकतर लोगों को दु:ख भले हुआ हो, अचंभा नहीं हुआ होगा। जिस राज-समाज में इस घटना के बाद भी लगभग हर दिन चार बरस की बच्ची से लेकर कई बच्चों वाली महिलाओं तक के साथ इतने गैंग रेप और हत्या की वारदातें हो रही हैं, वहां कहीं ज्यादा अचंभे की बात यह है कि उस गरीब दलित लड़की के उत्पीड़कों को उनके इलाकाई जाति भाइयों की तमाम धमकियों के बाद राज्य की पुलिस ने अंतत: गिरफ्तार कर लिया।
इस मुहिम में मीडिया का रोल सकारात्मक रहा। पर अधिकतर हिंदी मीडिया इस बदसलूकी को सिर्फ हाथरस के या उत्तर प्रदेश के समाज की पतनशील जातिवादी दृष्टि और पुलिस की असंवेदनशीलता का ताजा प्रमाण मान कर भावुक छिछलेपन से ‘यह समाज कब बदलेगा? कब?’ नुमा सतत सवाल पूछता रह गया। इससे कोई फायदा नहीं, वरना भारत में हर कहीं बाहर सड़क या खेत में ही नहीं, सारे उत्तर भारत के घरों के भीतर भी हर तरह की स्त्री विरोधी हिंसा लगातार इतनी तेजी से नहीं बढ़ती।
गौरतलब है कि लड़कियों की अकाल मौतों की एक बड़ी वजह तथाकथित लव जिहाद के शक में की जाने वाली ऑनर किलिंग्स की तादाद भी कम नहीं। पुलिस में औपचारिक तौर से दर्ज किए जाने से पहले ही इन अपराधों पर अक्सर (घर-परिवार की इज्जत, उत्पीड़कों के राजनीतिक रसूख या पुलिसिया असंवेदनशीलता की वजह से साक्ष्य मिटवा कर) पर्दा डाल दिया जाता है। इसके बाद भी ताजा राष्ट्रीय आंकड़े दहलाने वाले हैं। वे साफ दिखाते हैं कि घर के भीतर महिलाएं और बच्चे कितने असुरक्षित हैं, जब बलात्कार या यौन उत्पीड़न के अधिकतर मामलों में उनके कथित रक्षक या पारिवारिक मित्र ही उसके सबसे खतरनाक भक्षक साबित होते हैं।
राष्ट्रीय अपराध शोध प्रकोष्ठ (एनसीआरबी) के अनुसार, साल 2019 में महिला उत्पीड़न को रोकने वाली धारा 498 ए के बावजूद कुल दर्ज 1,25,298 मामलों में औरतों पर सबसे अधिक हिंसक मारपीट उनके अपने घरों में, अपने परिजनों (प्राय: ससुराल वालों) द्वारा की गई थी। हर उम्र की महिला पर बाहर सड़कों या कार्यक्षेत्र में हिंसक हमलों और अगवा किए जाने की घटनाएं भी बढ़ रही हैं और बेहद नृशंस किस्म के सामूहिक रेप भी।
इसकी बड़ी वजह यह है कि अधिकतर मामलों में पुलिस की दबंगई तथा समझदारी और पीड़िता की नासमझी और कमजोर सामाजिक स्थिति की वजह से ज्यादातर अपराधी देर-सबेर जमानत पर छूट जाते हैं। लंबी अदालती कार्रवाई का हश्र यह है कि 2019 में अदालतों में दर्ज करीब 25 हजार मामलों की पहली सुनवाई में 6 महीने लगे और लगभग 18 हजार मामलों की सुनवाई में तो पूरा साल निकल गया।
उत्तर प्रदेश हो कि दिल्ली, पुलिस ही नहीं, डॉक्टरों और महिला हित से जुड़ी गैर सरकारी संस्थाओं, सबका यही अनुभव है कि अपने ही घर की चारदीवारी के भीतर परिवारजनों के हाथों बरपा की जाने वाली हिंसा हमारी महिलाओं की शारीरिक और मानसिक असुरक्षा और टूटन का सबसे बड़ा स्रोत है। इन दिनों दर्जनों मामले रोज सामने आकर समाज में बढ़ रहे गहरे अवसाद, नर्वस ब्रेक डाउन, आत्महत्या के मामलों में भारी उछाल की सूचना दे रहे हैं उसकी असली वजह भी यही है।
पारिवारिक हिंसा से जुड़े मामलों में लगातार बढ़ोतरी के बाद भी समय-समय पर जनमत के दबाव से किए गए 498 ए या नए यौन शोषण निरोधक काननू (2013) सरीखे कदम परिवारों या न्यस्त स्वार्थी गुटों के प्रबल विरोध की वजह से बहुत कम जमीनी स्तर पर लागू हो पाते हैं। जाति-बिरादरी वालों और धर्मगुरुओं के गुट तथा कई बार तो इलाकाई विधायक या सांसद- ये सब भी बेहतर नहीं। वे तो कई बार अपराधियों को खुला समर्थन देते दिखते हैं। रसूखदार परिवारों के बलात्कारियों का आसानी से छूटना और फिर अभियोजन पक्ष पर घात लगाकर हमले करना भी काफी आम है।
घरेलू हिंसा हमेशा तभी प्रकाश में आती है जब किसी मामले में पानी सर से ऊपर गजर गया हो, वर्ना आम तौर पर बात-बेबात महिलाओं पर हाथ उठाने या उनको लगातार शाब्दिक क्रूरता का निशाना बनाने को हमारे पुरुष नीत राज-समाज से (जिसमें पुलिस, न्यायिक व्यवस्था के सदस्य और जनप्रतिनिधि सभी शामिल हैं) परंपरा के नाम पर सांस्कृतिक स्वीकृति मिलती रही है।
अचरज क्या कि ऐसे माहौल में पले-बढ़े अधिकतर लड़कों ही नहीं, लड़कियों तक को पुरुषों का गुस्से में या नशे में गाली-गलौज करना और कभी-कभार हाथ छोड़ना पौरुष का प्रतीक लगता है और उसे चुपचाप सह लेना नारीत्व का। और जब तक मारपीट लगभग जानलेवा न हो, पुलिस तथा परिवारजन सभी पीड़ित महिला को स्थिति से तालमेल बिठाने की नेक सलाह देते हैं। यह गांवों से उपजी एक कबीलाई सोच हर पड़ोसी को अंकल-आंटी या भाई साहब-भाभी जी कहने वाले महानगरीय मध्य वर्ग के मन में भी गहराई से पैठी हुई है।
यहां पर सोशल मीडिया पर खासकर कम उम्र लड़कियों के बीच दिख रही नारीवाद की अधकचरी समझ के खतरों के बारे में भी बात कर लेना उचित होगा। हमारे अधिकाधिक दर्शक और विज्ञापन खींचने को आतुर मीडिया का हर अंग- टीवी हो या मुख्यधारा का प्रिंट या फिर सोशल मीडिया, ऐसी किशोरियों, युवतियों (जिनमें बॉलीवुड, टीवी जगत की लड़कियां भी शामिल हैं) को तुरंत प्रसिद्धि और भरपूर कमाई का चारा फेंक कर अपने कार्यक्रमों, विज्ञापनों में खींच लाता है। उनके लक्षित उपभोक्ता छोटे-बड़े शहरों के औसत भारतीय हैं, जिनके मनों में औरतों और सेक्स को लेकर आज भी कई तरह की कुंठा व्याप्त है।
कम उम्र लड़कियों में हर तरह की अदाओं से बड़ी आडियंस के बीच आकर फिल्म या मॉडलिंग की दुनिया के किसी बड़े किरदार की नजरों में आने और रातोंरात सितारा बनने, दौलत और लाखों फेसबुकिया फैन कमाने की ललक रहती है। पर जो वे नहीं समझ पातीं, वह यह कि यह करना उनके ही नहीं, तमाम और लड़कियों के लंबे शोषण की राह भी खोल देता है।
यौन शोषण के खिलाफ जब मी-टू सरीखे आंदोलन उठे तो उनसे उम्मीद बनी थी कि अब स्थिति बदलेगी। पर आंदोलन तर्कसंगत तरीके से आगे बढ़ कर नारी विरोधी सोच का तोड़ नहीं बन सका। चटपटे नारों के नाम पर हमारी मध्यवर्गीय शहरी लड़कियां मीडिया पर आकर अपने हकों के लिए आवाज उठाना, मोमबत्ती जलाना ही करती रहती हैं, पर उनमें अपने हकों का जिम्मेदारी से इस्तेमाल करना और सबसे अधिक हिंसा की शिकार निचले तबके की महिलाओं को भी अपने साथ लेकर चलना बहुत कम दिखता है।
अपने आप में नारीवाद एक समग्र और एकतापरक दर्शन है। 70 के दशक से अब तक भारतीय राज-समाज में हर आय और आयु वर्ग की महिलाओं की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक समता बहाल करने को अनगिनत नारीवादियों (जिनमें कई पुरुष भी शामिल रहे) ने बहुत गंभीरता और जिम्मेदारी से इस दर्शन को उजागर करते हुए कई क्षेत्रों पर काम किया और कई कुर्बानियां दी हैं।
उसी का फल है कि आज की युवा महिलाओं को (सीमित अर्थों में ही सही) घर और बाहर अपनी निजता कायम रखने लायक गरिमा और अपने मानवाधिकारों की सार्थक मांग उठाने-पाने लायक आत्मविश्वास मिल सके हैं। नई पीढ़ी की लड़कियों को समझना होगा कि अपनी गरिमा और लोकतांत्रिक चयन क्षमता की अनमोल धरोहर को सार्वजनिक मंचों पर फिर से एक भोग्या बनकर सिर्फ शरीर चटपटी और क्षणिक प्रसिद्धि या पैसा पाने को कुर्बान कर देना सयानापन नहीं, मूर्खता है।(navjivan)
डॉयचे वैले पर विवेक शर्मा की रिपोर्ट-
आखिर साढ़े छह करोड़ साल पहले ऐसा क्या हुआ था कि विशालकाय जीव डायनासोर विलुप्त हो गए. ये सवाल सभी के मन में उठता होगा. भारत में भी ऐसे इलाके हैं जहां डायनासोर के जीवाश्म मिलते रहे हैं.
जिस पर्यावरण बदलाव ने अतीत में इन जीवों का नामो-निशान मिटा दिया, क्या ऐसा बदलाव भविष्य में भी हो सकता है, जिससे कई और जीव विलुप्त हो जाए? इन सवालों का जवाब जीवाश्मों (फॉसिल) के अध्ययन से मिलता है. मध्यप्रदेश के धार जिले की कुक्षी तहसील के पास विश्व प्रसिद्ध बाग गुफाओं वाले इलाके में कई वर्षों से डायनासोर के अंडे, नेस्टिंग साईट, हड्डियां और दांतों के जीवाश्म मिल रहे हैं. ये पहली बार नहीं है कि मध्यप्रदेश में डायनासोर के जीवाश्म मिले हैं. साल 1828 में जबलपुर के पास पहली बार डायनसोर के जीवाश्म मिले थे. वहां मांसाहारी डायनासोर पाए गए थे जिनके 60-70 घोंसले वहां मौजूद थे.
डायनासोर के अंडे और अतीत का अध्ययन
धार जिले के बाग इलाके के महत्व के बारे में भारत के मशहूर भूविज्ञानी प्रोफेसर अशोक साहनी बताते हैं, "1990 में मध्यप्रदेश की हथिनी नदी मैंने काफी काम किया है. 30 साल पहले मैंने डायनासोर का पहला जीवाश्म ढूंढा था. बाग ही ऐसा स्थान है जहां डायनासोर के घोंसले, हड्डियां और दांत मिले हैं. लंबे पेड़ भी हैं जो ये बताते हैं कि साढ़े छह करोड़ साल पहले कैसा पर्यावरण रहा होगा. विज्ञान का मकसद रिकंस्ट्रक्शन का होता है. पर्यावरण को रिकंस्ट्रक्ट करने में बाग के जीवाश्म मदद देते हैं. ये बहुत बड़ी विरासत है जो हमें संरक्षित करना चाहिए.” प्रोफेसर अशोक साहनी काफी समय से डायनासोर पर शोध करते रहे हैं और साल 2020 में उन्हें जियोलाजी, पेंलेटियोलॉजी में लाईफटाइम अचीवमेंट अवार्ड से नवाजा गया है.
धार जिले की बाग वाली साईट पर 2014 से रिसर्च कर रहे दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जीवीआर प्रसाद बताते हैं. "ये साईट पृथ्वी से लुप्त होने के ठीक पहले की है. तो उस समय पर्यावरण में ऐसा क्या बदलाव हुआ कि डायनोसोर गायब हो गए? इस बात पर शोध करने के लिए ये साईट बहुत अहम है. भारत में सिर्फ दो ही ऐसी जगहें हैं, बाग और बालासिनोर जहां सबसे ज्यादा नेस्टिंग साईट मिलते हैं.” प्रोफेसर प्रसाद के मुताबिक, "डायनासोर के अंडे का आकार आम रेप्टाइल्स से बड़ा होता है. 20 सेंटीमीटर के व्यास के काफी बड़े अंडों की बाहरी सतह कैल्शियम कार्बोनेट से बनी होती है. उसका क्रॉस सेक्शन बताता है कि यहां पाए जाने वाले सभी डायनासोर शाकाहारी थे और उनकी प्रजाति टायटेनोसोर सायरोपोड थी.”
धार में 10 करोड़ साल पहले समुद्र था
मजेदार बात ये है कि इस इलाके में ना केवल डायनासोर आकर अंडे देते थे बल्कि उससे कई करोड़ साल पहले यहां समुद्र होने के भी प्रमाण मिलते हैं. जानकारों के मुताबिक उस समय पृथ्वी पर ऐसी घटनाएं हुई जिससे समुद्र भारत के मध्य भाग तक आ गया. कच्छ से एक भुजा समुद्र की अंदर आ गई और वो लाख वर्षों तक रही. और उसके जीव भी यहां पर आ गए. दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर प्रसाद कहते हैं इस इलाके में 10 करोड़ वर्ष पहले समुद्र था इसलिए डायनासोर के अलावा यहां समुद्री जीवों के जीवाश्म भी मिलते हैं.
इस इलाके में समुद्री जीवों के जीवाश्म पर काम कर रहे जंतुविज्ञानी प्रोफेसर विपुल कीर्ति ने मिजोजोइक काल के आखिरी दौर का जीवाश्म साल 2010 में खोजा और प्रोफेसर के सम्मान में इस जीवाश्म का नाम स्टीरियो-सिडेरिस "कीर्ति” रखा गया. प्रोफेसर कीर्ति बताते हैं, "जीवाश्म साढ़े सात करोड़ साल पुराना है. सी अर्चिन के जीवाश्म, धार की मनावर तहसील के सीतापुरी गांव से मिला है. इस तरह की स्टार फिश समुद्र में ही पाई जाती है. यहां पर सी अरचिन (बगैर भुजा वाली स्टार फिश) की वो प्रजाति मिली है जो विश्व में कभी नहीं मिली. नेचुरल हिस्ट्री म्यूजियम लंदन के सीनियर वैज्ञानिक रहे डा एंड्र्यू स्मिथ ने धार जाकर इस बात की पुष्टि भी की. प्रोफेसर कीर्ति द्वारा खोजी गई प्रजाति डायनासोर की तरह ही विलुप्त हो चुकी है.
डायनासोर के जीवाश्मों का संग्रह
समुद्री जीवाश्म एक्सपर्ट प्रोफेसर विपुल को भी अपनी रिसर्च के दौरान यहां डायनासोर के अंडे मिल चुके हैं. उनके मुताबिक "डायनासोर बाग वाले इलाके में रहते नहीं थे केवल यहां पर अंडे देने आते थे. ये उनकी मनपसंद साईट थी. डायनासोर जब जिंदा थे उस समय कार्बनडायआक्साइड का हिस्सा ज्यादा था और आक्सीजन का कम था और ऐसा ही भविष्य में होने जा रहा है. ये अच्छा तरीका है कि हम अतीत की स्टडी करें जिससे भविष्य समझ में आए. 7 करोड़ साल पहले ग्लोबल वार्मिंग थी और अब हम फिर से ग्लोबल वार्मिंग की तरफ बढ़ रहे है.”
मध्य प्रदेश के धार जिले में दशकों से डायनासोर के अवसेष मिलते रहे हैं
करीब 30 वर्षों से इन जीवाश्मों को इकट्ठा कर रहे धार जिले के रहने वाले शौकिया जीवाश्म शोधकर्ता और पेशे से भोतिकशास्र टीचर विशाल वर्मा बताते हैं, "मांडू में फॉसिल म्यूजियम में मैंने कई जीवाश्म डोनेट किए है. 2007 में मुझे पहली बार बाग में पूरी साईट मालूम पड़ी थी, हम लोग इस साईट को बचाने के लिए काम करते हैं क्योंकि वो बहुत सुंदर है. इन्हें प्रोटेक्ट करना जरूरी होता है उसके बाद शोध होता है. मैंने एक ही जिले से चार अलग-अलग काल खंड के जीवाश्म खोजे हैं. जब समुद्र नहीं था, जब समुद्र आ गया, तीसरा जब डायनासोर किनारे पर आकर अंडे देने लगे और चौथा जब ज्वालामुखी विस्फोट हो रहे थे और उसके बाद भी डायनासोर कई हजार सालों तक बचने में सफल हुए.”
टूरिज्म : नेशनल पार्क और म्यूजियम
तो क्या इन डायनासोर के अंडों को आम आदमी और पर्यटक देख सकते हैं. इसी मकसद से बाग में "डायनासोर जीवाश्म नेशनल पार्क” भी आकार ले चुका है. लेकिन पर्यटकों को इसमें घूमने के लिए थोड़ा इंतजार करना पड़ेगा. कुल 89 हेक्टेयर में फैले इस नेशनल पार्क में एक म्यूजियम बनाने की कोशिश भी जारी है जिसमें विशालकाय पेड़ों और डायनासोर के अंडों के जीवाश्म उनके मूल स्वरुप में जस के तस रखे जाएंगे, ताकि शोधकर्ता उसी स्थिति में जीवाश्मों को देख सके. धार जिले के जिला वन अधिकारी अक्षय राठौर के मुताबिक, "डायनासोर फॉसिल नेशनल पार्क का नोटिफिकेशन हो चुका है, फेंसिंग हो गई है, उसमें काफी नेस्टिंग है और जीवाश्म भी मौजूद है लेकिन इसे डेवलप करना बाकी है. फिलहाल यह वीरान सा है, एक मास्टर प्लान तैयार होना बाकी है जिससे अगले कुछ वर्षों में कैसा डेवलप किया जाए इसकी योजना बन जाए.” जिला वन अधिकारी के मुताबिक इस नेशनल पार्क का मुख्य गेट भी अभी बनना बाकी है, लेकिन फेंसिंग की वजह से काफी जीवाश्म संग्रहित हो पा रहे हैं. नेशनल पार्क में मार्च 2021 से टूरिस्ट आना शुरु हो सकते हैं..
स्थानीय जिला प्रशासन भी पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए नेशनल पार्क से बाहर के इलाके में म्यूजियम को नया रुप देने की कोशिश में है. इस इलाके का मशूहर पर्यटक स्थल मांडू है और उसके पास ही डायनासोर संग्रहालय फिर से शुरु होने को तैयार है, ताकि पर्यटक मांडू के साथ ही संग्रहालय भी देख सकें. धार जिले के कलेक्टर आलोक कुमार सिंह के मुताबिक "म्यूजियम वाला हिस्सा बना दिया है, पार्क और गार्डन उसमें डेवलप किया गया है, दो महीने बाद डायनसोर संग्रहालय की ओपनिंग करेंगे, इसके लिए 20 रुपए का टिकट होगा. पार्किंग और एंटरटेनमेंट की भी व्यवस्था की गई है. साथ ही डायनासोर के शेप में और अंडों के शेप में कुछ कमरे भी डेवलप किए जा रहे हैं जिसमें पर्यटक रुक सकेंगे, डायनासोर का इतिहास जानेंगे. लाइड एंड साउंड शो भी शुरु करने की तैयारी कर रही है और काकड़-खो की दीवार पर पूरी स्टोरी दिखाई जाएगी जहां पर नीचे नदी है सामने झरना गिरता है.”
भारत का जुरासिक पार्क
भारत का पहला डायनासोर म्यूजियम एवं फॉसिल पार्क गुजरात के महिसागर जिले के रायोली गांव के बालासिनोर इलाके में है. जून, 2019 में इसके उद्घाटन के बाद इसे पर्यटकों के लिए खोला गया. बालासिनोर की साईट पर डायनासोर को खोजने का काम कर चुके जियोलॉजिकल सर्वे आफ इंडिया के पूर्व डायरेक्टर एवं भूवैज्ञानिक सुरेश श्रीवास्तव ने पुरानी यादें ताजा करते हुए बताते हैं, "1982-83 के सत्र में मैंने इस क्षेत्र का मानचित्र बनाया और इस पूरे क्षेत्र का गहन अध्ययन किया. खुदाई के दौरान डायनासोर की 400 हड्डियां मिली, जिसमें पैर, हाथ, मुंह, पूंछ, रीढ़ की हड्डी और दांत के जीवाश्म मिले. साथ ही अमेरिका के जाने-माने भूवैज्ञानिक, प्रो. पॉल सेरेनो, डॉ. जेफ्री विल्सन और डॉ. अशोक साहनी के साथ मिलकर डायनासोर का आंशिक कंकाल बनाया जिसमें ब्रेन केस, हिप, पांव और पूंछ की हड्डियों के आधार पर एक नए मांसाहारी भारतीय डायनासोर की खोज की जिसका नाम ‘राजसोरस नर्मदेन्सिस' रखा गया जो लगभग 22 फीट लंबा था और उसके सिर पर एक सिंग भी था. इसका मॉडल बालासिनोर के डायनासोर म्यूजियम में रखा गया है.”
डायनासोर के इन जीवाश्मों का शैक्षणिक महत्व भी है. दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर प्रसाद के मार्गदर्शन में इस विषय पर छात्र ये जानने के लिए पीएचडी कर रहे हैं कि आखिर किस पर्यावरण में डायनासोर रहते थे. प्रोफेसर प्रसाद के मुताबिक "जब छात्रों ने बाग की साईट पर विजिट किया तो पेलेंटोलॉजी में रिसर्च में रुचि बढ़ गयी. छात्रों को प्रोत्साहित करने के लिए ये काफी अहम हैं." प्रोफेसर विपुल कीर्ति का मानना है कि इसे "सिलेबस में डालना चाहिए. पाठ्य पुस्तकों में इन सभी बातों को शामिल करना चाहिए. कई लोकल छात्रों ने अंडे नहीं देखे हैं जबकि विदेशों से लोग आ रहे हैं. इसका मतलब पूरे विश्व में इस चीज का आकर्षण है. जब पढ़ाई के रूप में आकर्षण बढ़ता है तो लोग ज्यादा आते हैं अध्ययन करते हैं.”(dw.com)
ध्रुव गुप्त
कल रात फिल्म ‘बैजू बावरा’ का एक गीत सुनते हुए मध्ययुग के इस रहस्यमय गायक और संगीतकार की स्मृतियां उभर आई। लोकमानस में गहराई तक धंसे बैजू बावरा के बारे में ज्यादातर लोगों का मानना है कि यह एक काल्पनिक चरित्र का नाम है जिसे सदियों से चली आ रही किंवदंतियों और 1952 की हिंदी फिल्म ‘बैजू बावरा’ ने लोकप्रिय बना दिया था। ऐतिहासिक तथ्य यह है कि बैजू बावरा मुग़ल सम्राट अकबर के महान दरबारी गायक तानसेन के समकालीन विख्यात ध्रुपद गायक थे। 1542 की शरद पूर्णिमा को चंदेरी में जन्मे बैजू बावरा का असली नाम पंडित बैजनाथ मिश्र और घरेलू नाम बैजू था। बचपन से ही संगीत में उनकी बेपनाह रुचि थी। चंदेरी की एक युवती कलावती से वे अथाह प्रेम करते थे और उसे अपने संगीत की प्रेरणा मानते थे। कलावती के प्रति जऩून के कारण उन्हें लोगों ने बावरा नाम दिया। प्रेम को संगीत का आठवां सुर मानने वाले बैजू ने यह नाम सहर्ष स्वीकार भी कर लिया। बैजनाथ मिश्र ने तानसेन के साथ ही वृंदावन के स्वामी हरिदास से संगीत की शिक्षा पाई थी। शिक्षा पूरी होने के बाद तानसेन अकबर के दरबार में पहुंच गए और बैजू पहले चंदेरी के राजा और फिर ग्वालियर के महाराजा मानसिंह के दरबारी गायक बने। ग्वालियर के जयविलास महल में उपलब्ध ऐतिहासिक विवरणों के अनुसार पं. बैजनाथ मिश्र की गायन प्रतिभा विलक्षण थी। वे राग दीपक गाकर दीये जला देते थे और राग मेघ मल्हार गाकर बादलों को आमंत्रित करते थे। इन विवरणों में अतिशयोक्ति हो सकती है, लेकिन इनसे उनकी गायकी के स्तर का पता तो चलता ही है।
उस काल के दो महानतम गायकों तानसेन और बैजू बावरा के बीच गायिकी का मुकाबला एक ऐतिहासिक तथ्य है। अकबर के दरबार के इतिहासकार अबुल फज़ल और औरंगज़ेब के दरबार के इतिहासकार फक़़ीरुल्लाह ने अकबर के दरबार में आयोजित उस संगीत प्रतियोगिता का जि़क्र किया है जिसमें बैजू बावरा की गायिकी से प्रभावित होकर अकबर ने उन्हें सम्मानित किया था। वर्ष 1613 में लंबी बीमारी के चलते बैजू बावरा का निधन हुआ था। चंदेरी में उनकी समाधि मौज़ूद है जहां हर साल शरद पूर्णिमा को ध्रुपद समारोह का आयोजन होता है।
भारतीय संगीत के इस पुरोधा की स्मृतियों को नमन !
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पाकिस्तान में पिछले दो-तीन दिनों में जो घटनाएं घटी हैं, उनका विस्तृत ब्यौरा सामने नहीं आ रहा है, क्योंकि वे घटनाएं ही इतनी पेचीदा और गंभीर हैं। यह घटना है, पाकिस्तान की फौज और पुलिस के बीच हुई टक्कर की। यह टक्कर हुई है, कराची में। पाकिस्तान के विरोधी दलों की ओर से जिन्ना के मजार पर एक प्रदर्शन किया गया था। यह प्रदर्शन ‘इमरान हटाओ’ आंदोलन के तहत था।
इसका नेतृत्व मियां नवाज शरीफ के दामाद सफदर अवान और उनकी पत्नी मरियम कर रही थी। सफदर के खिलाफ आरोप यह था कि उन्होंने जिन्ना की मज़ार की दीवारें फांदकर कानून-कायदों का उल्लंघन किया है। उन्हें रात को उनकी होटल से गिरफ्तार किया गया, उनके कमरे का दरवाजा तोडक़र! असली मुद्दा यहां यह है कि उन्हें किसने गिरफ्तार किया? क्या सिंध की पुलिस ने ? नहीं, उन्हें गिरफ्तार किया, पाकिस्तानी फौज और केंद्रीय खुफिया एजेंसी के लेागों ने।
सिंध की पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार करने से मना कर दिया था, क्योंकि सिंध में पाकिस्तान पीपल्स पार्टी की सरकार है और उसके नेता बिलावल भुट्टो तो इस आंदोलन के प्रमुख नेता हैं। लेकिन इमरान सरकार के इशारे पर कराची के सबसे बड़े पुलिस अफसर (आईजीपी) को फौज ने लगभग चार घंटे तक अपना बंदी बना लिया ताकि जब वह सफदर को गिरफ्तार करे, तब कराची की पुलिस हाथ पर हाथ धरे बैठी रहे। यही हुआ लेकिन सिंध की पुलिस में हडक़ंप मच गया।
लगभग कई बड़े पुलिस अफसरों ने केंद्र सरकार और फौज के इस हस्तक्षेप के विरोधस्वरूप छुट्टी ले ली। पाकिस्तान की पुलिस ने इतना बागी और साहसी तेवर शायद पहली बार दिखाया है। पूरे कराची में उथल-पुथल मच गई। लोगों ने कई सरकारी दफ्तरों और फौजी ठिकानों में आग लगा दी। किसी बड़े फौजी के एक विशाल मॉल को भी नेस्तनाबूद कर दिया।
अफवाह है कि फौज और पुलिस की मुठभेड़ में भी कई लोग मारे गए हैं लेकिन संतोष का विषय है कि सेनापति कमर जावेद बाजवा ने सारे मामले पर जांच बिठा दी है और कराची के पुलिस अफसरों ने अपनी छुट्टी की अर्जियां भी वापिस ले ली हैं। यह मामला यहीं खत्म हो जाए तो अचछा है, वरना यह सिंध के अलगाव को तूल दे सकता है। यों भी सिंधी, बलूच और पठान लोगों के बीच अलगाववादी आंदोलन की चिन्गारियां 1947 से ही सुलग रही हैं। इमरान को बचाते-बचाते कहीं पाकिस्तान का बचना ही मुश्किल में न पड़ जाए। यदि पाकिस्तान टूटकर चार-पांच देशों में बंट जाए तो दक्षिण एशिया की मुसीबतें काफी बढ़ सकती हैं। कराची की घटनाओं के कारण विपक्षी-आंदोलन को नई थपकी मिली है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
- आरिफ़ शमीम
"नई जगहों पर जाना और शानदार दृश्य देखना तो बहुत अच्छा लगता है. लेकिन मैं आपको यह भी बता दूं कि साइकिलिंग एक ऐसा शौक़ है जिसमें कभी-कभी बहुत अकेलापन भी महसूस होता है. आप जंगलों और रेगिस्तान में सैकड़ों मील साइकिल चला रहे होते हैं. कभी-कभी तो जानवरों या पक्षियों की आवाज़ भी नहीं सुनाई पड़ती हैं. अकेलापन काटने को दौड़ता है. अगर आप इसे बर्दाश्त कर सकते हैं, तो आइए और पैडल चलाइये.'
ये कामरान अली के शब्द हैं जिन्हें आमतौर पर 'कामरान ऑन बाइक' के नाम से जाना जाता है. वो कहते हैं, "मैं सोच रहा हूं कि क़ानूनी तौर पर भी अपना नाम बदल कर कामरान ऑन बाइक रख लूं."
पिछले नौ वर्षों में कामरान ने 50 हज़ार किलोमीटर साइकिल चलाकर 43 देशों की यात्रा की है. आज कल कोविड-19 के कारण पाकिस्तान में रुके हुए हैं और इंतज़ार कर रहे है कि कब उन्हें हरी झंडी मिले और वो अपनी साइकिल के पैडल पर पैर रखें.
हालांकि, इस समय भी, वह ख़ाली नहीं बैठे हैं. अपनी पिछली यात्राओं में ली गई अनगिनत तस्वीरों में से, अच्छी तस्वीरों को अपने सोशल मीडिया अकॉउंट पर शेयर करते रहते हैं और उनके बारे में ब्लॉग लिखते रहते हैं. यानी यात्रा अभी भी नहीं रुकी है और "पिक्चर अभी बाक़ी है, मेरे दोस्त."
बीबीसी उर्दू के साथ एक वर्चुअल इंटरव्यू में कामरान ने अतीत की कुछ यादें साझा की हैं जो हम आपके सामने पेश कर रहे हैं.
साइकिल का जुनून और घर वालों की मार?
मेरा जन्म दक्षिण पंजाब के शहर लेह में हुआ था. मेरे पिताजी की पुराने टायरों की एक दुकान थी जहां वे टायर में पंक्चर लगाने का काम करते थे.
मैं भी दुकान पर उनका हाथ बंटाता था. मेरे पिता चाहते थे कि मैं पढ़ लिख जाऊं और उनकी तरह पंक्चर बनाने का काम न करूं. इसलिए मैंने लेह से ही इंटरमीडिएट किया और फिर मुल्तान चला गया. जहां मैंने बहाउद्दीन ज़करिया विश्वविद्यालय से कंप्यूटर साइंस में बीएससी और फिर एमएससी की. उसके बाद जर्मनी में मेरा एडमिशन हो गया. वहां जाकर मैंने मास्टर्स की और पीएचडी पूरी की.
बचपन में जब मैं 12 या 13 साल का था, तो मैं एक बार अपने एक दोस्त के साथ साइकिल से 12 रबी-उल-अव्वल (अरबी महीना, इस दिन पैग़ंबर मोहम्मद का जन्म हुआ था और उनकी मृत्यु भी इसी दिन हुई थी) के दिन चौक आज़म गया. यह लेह से 26 किलोमीटर दूर एक छोटी सी जगह है. वहां 12 रबी-उल-अव्वल का एक प्रोग्राम हो रहा था.
इस यात्रा में एक और क्लासमेट भी शामिल हो गए. एक आगे बैठा और एक पीछे और मैं 12 साल की उम्र में दो लड़कों को साइकिल पर बिठा कर निकल पड़ा.
रास्ते में हम नहरों पर रुके, फल तोड़ कर खाये, बहुत मज़ा आया. इस तरह, मेरी पहली साइकिल यात्रा 52 किलो मीटर की थी, जिसमें आना और जाना शामिल था. इससे मुझे एक अजीब सा आनंद आया. और कहते हैं न कि, 'जैसे पर लग जाते हैं' मुझे भी ऐसा ही लगा.
उसके बाद मैंने घर वालों से छिप-छिप कर लेह से मुल्तान की यात्रा की, जो कि 150 या 160 किमी दूर था. उसके बाद मैं लेह से लाहौर भी गया जो दो दिन की यात्रा थी. हर एक यात्रा के बाद जब परिवार को पता चलता था तो मार भी पड़ती थी कि मैं पढ़ने के बजाय क्या कर रहा हूं.
उसके बाद मैंने बताना ही बंद कर दिया. वो कहते थे कि आपको अपनी पढ़ाई पर ध्यान देना चाहिए, हम आप पर इतना पैसा ख़र्च कर रहे हैं, और आप यह कर रहे हैं. सीधे हो जाओ नहीं तो, फिर दुकान पर ही बिठा देंगे.
जर्मनी की यात्रा
इसके बाद मेरा जर्मनी में कंप्यूटर साइंस में एडमिशन हो गया. हालात तो मुश्किल थे, लेकिन बड़ी मुश्किल से लोगों से पैसे मांग कर इकट्ठा किये और जर्मनी की यात्रा शुरू की.
यह 16 अक्टूबर 2002 की बात है. इस्लामाबाद से फ्रैंकफ़र्ट तक पीआईए की फ्लाइट थी. इस महीने 16 अक्टूबर को इस यात्रा को 18 वर्ष हो जायेंगे. जैसे ही विमान तुर्की के ऊपर से गुज़रा, खिड़की से बाहर देखते हुए, नदी, नाले, सड़क आदि सब कुछ मुझे आड़ी तिरछी लाइनों की तरह दिख रहे थे.
पहाड़ ऐसे लग रहे थे जैसे पुराने काग़ज़ों में सिलवटें पड़ी हुई हों. मुझे लगा कि इतना विशाल और सुंदर परिदृश्य है, लोग यहां कैसे रहते होंगे, वे किस बारे में बात करते होंगे, इनकी संस्कृति क्या होगी.
मैं सोचता रहा लेकिन मुझे उस समय इसका जवाब नहीं मिल रहा था. मैंने उस समय सोचा, क्यों न मैं इन रास्तों पर ख़ुद चल कर यह सब देखूं.
विमान अभी तक जर्मनी उतरा भी नहीं था. मैंने वहीं बैठे-बैठे ख़ुद से वादा किया कि एक दिन मैं जर्मनी से पाकिस्तान साइकिल पर जाऊंगा. जर्मनी में उतरने के बाद, अपने सपने को पूरा करने में नौ साल लग गए.
जर्मनी में ज़िन्दगी और ग़रीबों की सवारी
वहां पहुँचने के बाद, बस जीवन एक बार फिर से व्यस्त हो गया. पहले अपनी एम.एस.सी, की. इसके बाद जो क़र्ज़ लेकर आया था,धीरे धीरे वो क़र्ज़ चुकाया. फिर पीएचडी में दाख़िला मिल गया तो पीएचडी करने लगा. फिर परिवार की जिम्मेदारियों को पूरा करते करते नौ साल बीत गए.
जब मैंने अपने परिवार को बताया कि मैं साइकिल पर वापस आना चाहता हूं, तो उन्होंने कहा, "हमने आपको इतनी दूर जर्मनी इतना ख़र्च करके पढ़ने के लिए भेजा और आप वही ग़रीबों की सवारी साइकिल की ही बात कर रहे हैं.
मैंने फिर अपनी मां को इमोशनल ब्लैकमेल किया और इस तरह मुझे इजाज़त मिली.
जर्मनी से पाकिस्तान - एक सपना जो अधूरा रह गया
2011 में मैंने जर्मनी से पाकिस्तान की यात्रा शुरू की. पूरा यूरोप तो बस देखते देखते ही गुज़र गया. दिन में सौ दो सौ किलो मीटर और कभी-कभी तो 250 किलो मीटर भी हो जाते थे. जब मैं तुर्की पहुंचा तो मुझे मेरे भाई का फ़ोन आया कि मेरी माँ बहुत बीमार है और अस्पताल में है. उन्हें दिल का दौरा पड़ा है इसलिए मैं जल्दी घर पहुँचू.
मैंने वहां एक जगह अपनी साइकिल खड़ी की, इस्तांबुल पहुंचा और वहां से पाकिस्तान के लिए फ्लाइट ली. आने के बाद, मैं कुछ समय के लिए अस्पताल में रहा, फिर मेरी माँ का निधन हो गया. वह बहुत बड़ा दुख था क्योंकि एक सपना था कि साइकिल से पाकिस्तान जाऊंगा और मां से मिलूंगा. वह देखेगी कि बेटा जर्मनी से साइकिल पर भी आ सकता है.
इसलिए 2011 में जर्मनी लौटने के बाद, मेरा दिल इतना भारी हो गया था कि मैंने यह भी सोचा कि अब दोबारा साइकिलिंग नहीं करनी. माँ की मृत्यु और अधूरी यात्रा से एक तरह से दिल ही टूट गया था. लेकिन दिल का क्या करें, एक साल बाद फिर से सपने आने लगे.
अधूरा सपना बहुत परेशान करता था, जब मैं नक़्शे को देखता, तो ऐसा लगता था कि कुछ रह गया. हमारी रसोई में दुनिया का एक नक़्शा लगा हुआ था. जब भी मैं वहां खाना खाने बैठता था, तो ऐसा लगता था कि नक़्शे पर एक बिंदु चलना शुरू हो गया और जैसे ही वह चलता तो तुर्की में रुक जाता था. लेकिन यह बिंदु कुछ समय के लिए रुक कर फिर से चलना शुरू कर देता और चलता-चलता पाकिस्तान आकर रुकता.
इसी तरह, जब मैं ऑफ़िस जाता था, तो मेरे बॉस मुझे कंप्यूटर का कोई डायग्राम समझाते थे तो मुझे वहां भी वह बिंदु दिखना शुरू हो जाता था. धीरे-धीरे यह पागलपन जैसी स्थिति मुझे परेशान करने लगी और आख़िरकार मैं अपने बॉस के पास गया और कहा कि यह समस्या है और मुझे छुट्टी चाहिए.
उन्होंने मुझे छह महीने की छुट्टी देने से इंकार कर दिया और कहा कि वे मुझे केवल तीन महीने की छुट्टी दे सकते हैं.
उस छह और तीन महीने के चक्कर में, मैंने मार्च 2015 में उस नौकरी को ही छोड़ दिया. कुछ सामान को स्टोरेज में रखवा दिया, कुछ फेंक दिया था. एक छोटी सी कार थी वो भी बेच दी. यानी, चार साल बाद दोबारा सब कुछ छोड़ छाड़ कर मैं अपनी यात्रा की तैयारी कर रहा था. मैंने अपनी यात्रा दोबारा वहीं से शुरू की जहां पर मैं रुका था,रात भी तुर्की के उसी होटल में गुज़ारी जहां मैं 2011 में रुका था.
अधूरी यात्रा पूरी लेकिन रास्ता अलग
जब मैंने फिर से यात्रा शुरू की, तो सीधे ईरान जाने के बजाय, मैंने मध्य एशियाई देशों के रास्ते से पाकिस्तान जाने का फ़ैसला किया.
मैं मध्य एशिया से होते हुए खंजराब के रास्ते पाकिस्तान आया. ईरान से तुर्कमेनिस्तान, फिर उज़्बेकिस्तान, तज़ाकिस्तान, किर्गिस्तान और फिर चीन और वहां से खंजराब दर्रे के रास्ते पाकिस्तान पहुँचा.
मैंने जुलाई 2015 को पाकिस्तान में प्रवेश किया. इस तरह, इस सपने के आने और इसे सच करने में कुल 13 साल लग गए.
'मैं गिरगिट की तरह रंग बदलता हूं'
जब लोग मुझसे पूछते हैं कि क्या मैं एक कंप्यूटर इंजीनियर हूं, एक पर्यटक हूं, एक साइकिल चालक या एक ब्लॉगर हूं, तो मेरा जवाब यह है, 'बुल्ला की जाना मैं कौन?' मैं जिस मोड़ में बैठा होता हूं वही बन जाता हूं.
कंप्यूटर क्षेत्र के लोगों से बात करते समय, कंप्यूटर इंजीनियर, जब फ़ोटोग्राफ़रों के बीच हूं तो फ़ोटोग्राफ़र और साइकिल चालकों के बीच हूं तो साइकिल चालक. इस तरह मैं भी गिरगिट की तरह अपना रंग बदलता रहता हूं.मैंने कभी अपनी कोई निश्चित पहचान नहीं रखी, क्योंकि मुझे लगता है कि यह आपकी एक निश्चित मानसिकता बना देती है. मैंने तो अपने इंस्टाग्राम "2015 से बेरोज़गार" भी लिख रखा है.
यात्रा का ख़र्च कौन उठाता है?
शुरुआत में, मैं अपनी सारी बचत इस पर ख़र्च करता था. पहली यात्रा और दूसरी यात्रा की शुरुआत 13 साल तक जर्मनी में रहते हुए की गई बचत से हुई थी, लेकिन बाद में जब मैंने दक्षिण अमरीका की यात्रा की तो, सारे पैसे ख़त्म हो गए थे.
यह यात्रा अर्जेंटीना से शुरू की और मुझे अपने ख़र्चों को पूरा करने के लिए बहुत सारे अजीब काम भी करने पड़े. कभी-कभी पत्रिकाएं मेरी तस्वीरें ख़रीद लेती हैं, कभी-कभी ऑनलाइन डाली हुई टी-शर्ट बिक जाती हैं, कभी-कभी मैं ट्रेवल या बाईसाइकिल मैगज़ीन्स के लिए लेख लिख देता हूं.
मुफ़्त खाने और मुफ़्त रहने के लिए सड़कों पर मजदूरी की है. उदाहरण के लिए, एक बार मुझे कहा गया था कि यदि आप चार घंटे काम करते हैं, तो मुफ़्त में रहने के लिए जगह मिलेगी. प्लेटें धोई हैं, वेटर की तरह खाना परोसा है और कंप्यूटर साइंस का काम भी फ्रीलांस किया है.
रास्ते में रुक कर ग्राफ़िक डिज़ाइनिंग और वेबसाइट डिज़ाइनिंग भी की है. और क्योंकि मैं यात्रा के दौरान अपनी पोस्ट डालता रहता था, तो लोगों को भी मेरे बारे में पता चलने लगा था, और कभी-कभी लोग चंदा भी दे देते थे. किसी ने 20 डॉलर भेज दिए तो किसी ने 50 डॉलर.
जब, मैं दक्षिण अमरीका की यात्रा समाप्त कर उत्तरी अमरीका की तरफ़ चला, तो मुझे वहां पहुंचने के लिए नाव से जाना था और मेरे पास नाव की यात्रा के लिए पैसे नहीं थे. वहां मैंने क्राउडफंडिंग शुरू की.
मैंने अपने फंडिंग कैंपेन में लिखा था कि 'मैं यात्रा कर रहा हूं, जिसके बारे में मैं लिख रहा हूं और इसके चित्र भी भेज रहा हूं, अगर आपको मेरी यह यात्रा पसंद आती है तो, मुझे फाइनेंस करें, इससे भी मुझे थोड़े बहुत पैसे मिलने शुरू हो गए.
इन यात्राओं के बारे में दिलचस्प बात यह है कि कई बार रास्ते में खड़े अजनबियों ने भी पैसे दिए.
अगर आप अर्जेंटीना के नक़्शे को देखें, तो यह दक्षिण अमरीका का सबसे दक्षिणी भाग है. वहां से बोलीविया और अन्य देशों से होते हुए पेरू और फिर चिली. यह जनवरी 2016 की बात है.
ऐसी हज़ारों घटनाएं हैं जिन्हें साझा किया जा सकता है, पन्नें ख़त्म हो जाएंगे, घटनाएं नहीं. इन देशों में जाने से पहले मुझे इनके बारे में कुछ नहीं पता था.जाने से पहले, मैंने डिक्शनरी से स्पेनिश भाषा में हैलो वगैरह सीखा था. जब वहां पहुंचा तो देखा कि यहां तो अंग्रेजी में कोई बात ही नहीं करता.फिर जल्दी जल्दी स्पेनिश सीखना शुरू की.
दक्षिण अमरीका में, अगर प्राकृतिक दृश्यों की बात करें तो वहां जैसा नज़ारा कहीं नहीं है. उनमें एक से बढ़ कर एक देश हैं, ऐसी सुंदरता जो आपको कहीं नहीं दिखती. लेकिन इससे भी ज़यादा, जिस तरह के लोग हैं उसकी कहीं और से तुलना नहीं की जा सकती.
शुरुआत करते हैं अर्जेंटीना से. अर्जेंटीना के जिस शहर में मैं उतरा,उसे ऐशवाया कहा जाता है और इसे दुनिया का सबसे दक्षिणी शहर कहा जाता है. जब हम रात में सड़कों पर घूम रहे थे, एक आदमी ने पूछा कि हम यहां क्या कर रहे हैं. हमने कहा हम यात्री हैं और यहां से साइकिल से यात्रा शुरू करनी है. उसने कहा, "मेरे साथ आओ." हम दो या तीन साइकिल चालक थे. उनके घर गए जहां उसने हमारा बहुत ख्याल रखा, मुझे पता भी वह कि उसने हमें क्या क्या बना कर खिलाया. यह हमारी यात्रा की बस अभी शुरुआत थी.
साइकिल चालकों के साथ समस्या यह है कि वे अपने साथ बहुत सारा भोजन नहीं ले जा सकते हैं. ज़यादा पानी नहीं ले जा सकते.रहने की भी हमेशा समस्या रहती है.दक्षिण का जो भाग है वहां के एक क्षेत्र को पम्पास कहा जाता है. पम्पा का अर्थ है तराई क्षेत्र और अर्जेंटीना में इसमें, ब्यूनस आयर्स, ला पम्पा, सांता फे, एंट्रे रोस और कॉर्डोबा के क्षेत्र शामिल हैं.
उनमें से एक, पेटागोनिया में एक ऐसा क्षेत्र है जहां कोई पेड़ नहीं हैं और वहां हवाएं सौ-डेढ़ सौ किलो मीटर की गति से चलती और अगर टेंट लगाएं तो, तुरंत उड़ जाता है. जिसका मतलब है कि वहां सिर छिपाने के लिए कोई जगह नहीं मिलती. वहां, अगर हमें कहीं दूर भी आबादी या कोई घर दिखाई देता, तो हम सीधे जाते और उनके दरवाज़े पर दस्तक देते थे कि हमें अपना सिर छिपाने के लिए थोड़ी जगह मिल सके.
वहां, जब भी मौसम की परेशानी की वजह से किसी के घर का दरवाज़ा खटखटाया, किसी को कभी बुरा नहीं लगता था. हमेशा अंदर आने को कहा और खाना भी खिलाया और रहने के लिए जगह भी दी.
ऐसी ही एक घटना याद आई. हम ख़राब मौसम से बचने के लिए किसी जगह की तलाश कर रहे थे कि एक घर दिखाई दिया. उस घरवालों ने हमें रहने के लिए जगह दी और गरम-गरम अपनी ख़ास चाय भी पिलाई. अब सुनिए चाय की कहानी. उनकी चाय को माते कहा जाता है. और वो इस तरह की नहीं होती कि अगर पांच मेहमान हैं तो पांच कप बनेंगे, नहीं, बल्कि केवल एक ही बड़ा कप होता है, जिसमें से हर कोई स्ट्रा से एक-एक करके चाय पीता है.
पहले मेज़बान ने तीन या चार घूंट लिए और फिर उन्हें एक दूसरे को घेरे के हिसाब से दे दिया. मेरी दक्षिण एशियाई मानसिकता के कारण, मुझे लगा कि यह बुरी बात है कि पहले मेज़बान पी रहा है और फिर मेहमानों को पेश की जा रही है.
मुझसे रहा नहीं गया और मैंने पूछा कि हमारी संस्कृति में, पहले मेहमानों को खिलाया जाता है और फिर मेज़बान खाता है. तब मेज़बान ने हंसते हुए कहा, "भाई, पहले कुछ घूंट हम इसलिए लेते हैं क्योंकि हमारी चाय की ऊपर की परत बहुत कड़वी होती है और कोई भी अजनबी इसे नहीं पी सकता. हम पहले उस कड़वाहट को पीते हैं ताकि दूसरा उसे आराम से पी सके."
एक घटना पेरू की भी है जो हमेशा याद रहेगी. वहां मैं एक बार साइकिल से जा रहा था मैंने देखा कि ऊपर पहाड़ पर हल्का-हल्का शोर हो रहा है.
जब मैं ऊपर गया, तो मैंने देखा कि कुछ लोग आग के चारों ओर खड़े थे, वो सब लंबे-लंबे कपड़े पहने हुए थे. उनके बाल भी बहुत लंबे थे और वो हाथ उठाकर दुआएं मांग रहे थे.
बाद में, जब उनसे बात की, तो उन्होंने बताया कि वे इसराइली हैं जो यीशु को मानते हैं और उनका विश्वास हैं कि यीशु यहां आएंगे. "हमारा येरूशलम यहीं पेरू में बनेगा."
उन्होंने कहा यहीं रुको, कल हम 24 घंटे का उपवास करेंगे और उसके बाद बली देंगे और दावत भी होगी. आप हमारे साथ रुको. मैंने भी कुछ नहीं खाया और 24 घंटे का उपवास किया.
वह एक ग़रीब समुदाय था. उनके पास छह भेड़ थी.उन्होंने मुझे बताया कि वे छह दिनों के धार्मिक उत्सव में छह भेड़ों की बली देंगे.
पहले दिन,उन्होंने एक भेड़ की बली दी, उसकी खाल उतारी, जैतून का तेल, जड़ी बूटी और नमक लगाया. इसे देखते ही मेरी भूख और तेज हो गई और मैं शाम को अपना उपवास तोड़ने के बाद एक स्वादिष्ट बारबेक्यू की प्रतीक्षा करने लगा. शाम को सभी लोग एक साथ आए और आग जलाकर उस पर भेड़ों को भूनने लगे.
आग से मीठी और सुगंधित गंध आने लगी और भूख तेज हो रही थी. लेकिन उसी समय मैंने देखा कि लोग एक-एक करके वापस जाने लगे. भेड़ आग पर थी और अब जलने लगी थी. मैंने सोचा कि शायद वे अधिक भुनी हुई या जली हुई भेड़ खाते होंगे. मेरी चिंता और भूख दोनों अपने चरम पर थे.
थोड़ी देर बाद सभी लोग चले गए और जलने की गंध और ज़्यादा आने लगी. मैं दौड़ते हुए एक आदमी के पास गया और उससे पूछा कि भाई भेड़ तो अब जल रही है, तो इसके साथ क्या करना है. उसने कहा कि हम ऐसे ही बली देते हैं. हम बली नहीं खाते हैं, यह भगवान के लिए है और यह धुएं के माध्यम से उस तक पहुंचता है.
ईश्वर को खाना तो नहीं, लेकिन उसकी सुगंध आकाश तक ज़रूर पहुंच जाती है. फिर वे मुझे एक रसोई में ले गए और बड़ी कढ़ाई से सारी बोटियां मेरी प्लेट में डाल दी और कहा कि खाना यहां है.
मैं बहुत शर्मिंदा था लेकिन उन्होंने कहा कि यह आपके लिए है आराम से खाओ. इतनी ग़रीबी के बावजूद, उन्होंने मुझे पेट भर के खिलाया और मुझे एक और रात बिताने के लिए भी जगह दी.
कमज़ोर नज़र को नहीं बनने दिया रास्ते की रुकावट
अगले दिन जाते समय, मैंने सोचा कि उन लोगों के अहसान के बदले, मुझे उनके लिए कुछ करना चाहिए और उन्हें कुछ पैसे देने चाहिए.
मैं दो रातों तक उनके साथ रहा और उन्होंने इतनी देखभाल की है. फिर मेरे मन में विचार आया कि पैसे तो मेरे पास भी बहुत कम बचे हैं, अगर मैं इन्हें दे दूं तो बिलकुल ही ख़त्म हो जायेंगे, इसलिए मैंने अपने दिल से पैसा देने का विचार निकाल दिया.
अगले दिन जब मैं जा रहा था तो, एक बूढ़ा व्यक्ति मेरे पास आया और हाथ मिलाया. जैसे ही उसने अपना हाथ हटाया, मैंने देखा कि उसने मेरे हाथ में कुछ छोड़ दिया है.
यह दस पेरुवियन सोलेस (पेरू की मुद्रा) का नोट था. मैंने कहा, "यह क्या है?" बूढ़े व्यक्ति ने उत्तर दिया, "यार, आप एक यात्री हैं और यह आपकी यात्रा के लिए एक छोटी सी रक़म है. इससे कुछ लेकर खा लेना." उन्होंने अपनी मेहरबानी और उदारता में मुझे पूरी तरह से हरा दिया.
साइकिल ने खोली नई उड़ान की राह ,पाकिस्तान की आयशा की कहानी
मैं अपनी नज़रों में बहुत शर्मिंदा हुआ. जिस विचार को मैंने कुछ समय पहले ख़ारिज कर दिया था, उन्होंने बड़ी सहजता से उसे आकार दे दिया. इसने मुझे एक बहुत अच्छा सबक सिखाया कि जब भी आप कुछ अच्छा करना चाहते हैं, उसे तुरंत करें, इंतजार न करें.
ग्वाटेमाला से प्यार क्यों?
ग्वाटेमाला मध्य अमरीका में मेरा पसंदीदा देश है, इसकी बुनियादी वजह इसका परिदृश्य है. जब तीन ज्वालामुखी एक छोटे से शहर के ऊपर खड़े होते हैं, तो ऐसा लगता है कि यह शहर एक राजा है और यह इसके रक्षक हैं. इन रक्षकों में से एक अक्सर डायनासोर की तरह आग भी उगल रहा होता है.
ग्वाटेमाला से प्यार करने का एक और कारण यह है कि मैं वहां लंबे समय तक रहा और स्पैनिश भाषा का कोर्स किया और स्थानीय परिवारों के साथ रह कर भाषा सीखी.
दो महिलाएं थीं जिन्होंने हमें पढ़ाया. एक के साथ मैं और कुछ लोग तीन घंटे तक स्पैनिश व्याकरण सीखते थे. और फिर दूसरी महिला के साथ हम तीन घंटे के लिए शहर जाते थे और इस व्याकरण का उपयोग करते थे. यानी जो कुछ सुबह सीखा तीन घंटे बाद उसे स्थानीय लोगों से बात करके उपयोग किया.
वहीं एक दिन जब मैं तस्वीरें ले रहा था, एक महिला मेरे पास आई और कहा कि क्या आप मेरी तस्वीर ले सकते हैं. उन्होंने कहा कि उनके पास उनके आईडी कार्ड के अलावा उनकी कोई तस्वीर नहीं है.
मैंने इनकी एक तस्वीर ली और अगले दिन इसे प्रिंट करके दे दी. वह वहां हाथों से बनाई हुई स्थानीय चीज़ें बेचने आया करती थीं. अगले दिन वह अपने साथ और लोगों को ले आई और धीरे धीरे, मैंने तीस या चालीस लोगों की तस्वीरें ले लीं.
इसका फ़ायदा यह हुआ कि इस छोटे से शहर में अपना माल बेचने के लिए दूर-दूर से आए सभी लोग मेरे मित्र बन गए. वो ज़िद करके मुझे अपने अपने गांव लेकर जाते रहे. जिससे मैंने उनकी संस्कृति को बहुत नज़दीक से देखा. शायद इसलिए मैं ग्वाटेमाला से प्यार करता हूं. मैं उनके धार्मिक, सामाजिक यहां तक कि सभी प्रकार की रस्मो रिवाज में शामिल हुआ.
ये ऐसे-ऐसे दूर दराज़ के क्षेत्र थे जहां पर्यटक भी नहीं जाते और न ही उन लोगों को बाहरी दुनिया के बारे में ज़्यादा जानकारी थी. पाकिस्तान की तो बिल्कुल नहीं. सैकड़ों दृश्यों, संस्कृति और बेहतरीन लोगों के कारण, मैं इस छोटे से देश के छोटे-छोटे क्षेत्रों में कुल तीन महीने तक रहा. वहां के लोग इतने मेहमान नवाज़ हैं कि, शायद ही कहीं और के लोग हों.
इसी तरह, अमरीका के ग्रांड कैन्यन में एक सुनसान पहाड़ पर एक महिला मिली, जो 800 मील के एरिजोना ट्रेल पर अपनी बहन की याद में यात्रा कर रही थी.
उन्होंने मुझे बताया कि उनकी बहन ने आत्महत्या कर ली थी और इसलिए उन्होंने फ़ैसला किया कि बहन की याद में घर बैठ कर शोक मनाने और फिर अवसाद में जाने से अच्छा है कि मैं अपनी बहन के लिए कुछ करूं.
उन्होंने अपनी बहन की अस्थियां ग्रैंड कैन्यन के अंत में कोलोराडो नदी में प्रवाहित करने का फ़ैसला किया. "ग्रैंड कैनियन उनकी पसंदीदा जगह थी. इसलिए मैं यहां आई हूं. यह उनके लिए है. "
उसने मुझे भी कुछ राख दी ताकि अगर मैं पहले वहां पहुंचू, तो मैं भी उसे नदी में प्रवाहित कर दूं. जब मैं कुछ दिन बाद नदी पर पहुंचा, तो मैंने राख नदी में प्रवाहित कर दी. देखिये मैं अपने शौक़ को पूरा करने और तस्वीरें लेने के लिए ग्रैंड कैन्यन गया था और इसने कैसे मुझे एक भावनात्मक कहानी का हिस्सा बना दिया.
कभी अकेले डर नहीं लगता?
मैंने अब तक कम से कम 50 हज़ार किलो मीटर की यात्रा की है. इसमें से लगभग दो हजार किलो मीटर लोगों के साथ, जबकि बाकी सब यात्रा अकेले ही की है. कहीं कहीं डर ज़रूर लगता है.
आबादी वाले इलाके में ट्रैफ़िक से डर लगता है और सुनसान बयाबान स्थान पर जानवरों और चोरों से डर लगता है. देखिए, साइकिल चालक बहुत कमज़ोर होता है, उसके साथ कुछ भी हो सकता है.
सड़क पर मेरे साथ कभी कुछ नहीं हुआ, लेकिन जब शहर में कहीं थोड़ी देर के लिए साइकिल छोड़ी तो, कुछ न कुछ ज़रूर हो जाता था.
उदाहरण के लिए, कोलंबिया में, मेरा लैपटॉप बैग जिसमें मेरा पासपोर्ट, क्रेडिट कार्ड और इमरजेंसी कैश था, चोरी हो गया था. मेरी क़िस्मत अच्छी थी कि वो मुझे बाद में वापिस मिल गया.
इसी तरह, कहीं जंगली शेरों का डर तो कहीं जंगली भालू का डर, चाहे आप कितने भी सावधान क्यों न हों, लेकिन अंधेरे में डर जरूर महसूस होता है. आपको बस ये बर्दाश्त करना आना चाहिए.
अगर किसी को साइकिल चलाने में दिलचस्पी है, तो वो कहां से शुरू करे?
शौक़ अपने रास्ते ढूंढ लेता है. मैंने कभी नहीं सोचा था कि मैं दुनिया के इतने ज़्यादा देशों में साइकिल चलाऊंगा. अगर आप पाकिस्तान में हैं तो आपके पास पाकिस्तान में भी साइकिल चलाने की जगहें हैं.
मैं तो बस यही कहूंगा कि छोटे से शुरू करें और बस फिर करते जाएं. लेकिन यह भी बता दूं कि यह एक बहुत ही अकेला और मानसिक और शारीरिक रूप से थका देने वाला शौक़ है.
यह भी सच है कि एक तरह से एक आज़ादी भी है. सैकड़ों मील के क्षेत्र में पहाड़, घाटियां और परिदृश्य आपके इंतजार में हैं. लेकिन साथ ही, इन हज़ारों मील में जो कठिनाइयां, सर्दी, गर्मी, बारिश, तूफान है वो भी एक हक़ीक़त हैं.
आप दस-दस दिनों तक स्नान नहीं करते हैं, खाना ख़त्म हो जाता है, पानी कम हो रहा है. बार-बार एक ही तरह का खाना खाना पड़ रहा है, पिज्जा के सपने आ रहे हैं. कई लोग तो इन्हें बर्दाश्त ही नहीं कर सकते हैं और बीच में छोड़ कर चले जाते हैं.
क्या साइकिल के अलावा किसी को साथी बनाने का इरादा हैं?
एक बार तो तज़ाकिस्तान में एक परिवार जिसके साथ मैं रुका था, उसने मुझे अपनी बेटी से शादी करने के लिए कहा. एक बार अफ़ग़ानिस्तान और तज़ाकिस्तान के बीच वखान घाटी में, पंज नदी के साथ जहां नदी बहुत सिकुड़ती है, नदी के उस पार से एक लड़के ने मुझे दर्री भाषा में आवाज़ दी कि, "क्या तुम शादीशुदा हो?" मैंने कहा नहीं. उसने पास खड़ी एक लड़की की ओर इशारा किया और कहा, "यह मेरी बहन है. इससे शादी कर लो."
पूरा परिवार वहां था, एक महिला, एक बच्चा, वो लड़की और उसका भाई. लेकिन उन्हें इसमें कुछ अजीब नहीं लगा. जब मैंने लड़की की तरफ़ देखा, तो उसने मुझसे दर्री भाषा में कुछ कहा जिसका मतलब था 'आई लव यू'. मुझे थोड़ा आश्चर्य हुआ और फिर मैंने हिम्मत करके उसी वाक्य को दोहरा दिया. बस बात यहीं पर ही ख़त्म हो गई. और मैं नदी के पार नहीं गया, और न ही वह मेरी सोहनी बानी. "आई लव यू" की आवाज़ मेरे दिमाग़ में कई दिनों तक गूंजती रही.
वैसे, मैंने तो साइकिल से ही शादी कर ली है.(bbc)
- शुज़ा मलिक
पाकिस्तान के पेट्रोलियम मामलों में प्रधानमंत्री के विशेष सलाहकार नदीम बाबर ने पाकिस्तान में बचे गैस भंडार के बारे में कहा है कि, 'यदि देश में कोई नए बड़े भंडार नहीं खोजे गए तो, केवल अगले 12 से 14 वर्षों की गैस बची है.'
बीबीसी के साथ एक विशेष इंटरव्यू में नदीम बाबर ने कहा कि, 'इस साल सर्दियों में गैस की क़ीमत बिलकुल नहीं बढ़ाई जाएगी. इस वित्तीय वर्ष के अंत तक यानी जून 2021 तक, उपभोक्ताओं को मौजूदा क़ीमत पर ही गैस उपलब्ध कराई जाएगी.'
नदीम बाबर ने कहा कि वर्तमान सरकार पिछली सरकार की तुलना में विश्व बाज़ार से सस्ती गैस ख़रीद रही है. यही वजह है कि, इस साल प्राकृतिक गैस के उपभोक्ताओं के बिलों में गैस के दाम नहीं बढ़ेंगे.
याद रहे कि प्रधानमंत्री इमरान ख़ान पहले ही कह चुके हैं कि इस साल सर्दियों के मौसम में देश में गैस की कमी होगी.
इकोनॉमिक सर्वे ऑफ़ पाकिस्तान के अनुसार, पाकिस्तान में गैस का वार्षिक प्रोडक्शन चार अरब क्यूबिक फ़ीट है. जबकि इसकी खपत लगभग 6 अरब क्यूबिक फ़ीट है.
इस कमी को पूरा करने के लिए, देश एलएनजी (जोकि तरल रूप में होता है जिससे दोबारा गैस बनाया जाता है) का आयात करता है. लेकिन एलएनजी देश में गैस की कमी को पूरी तरह से समाप्त नहीं करती है.
पाकिस्तान में इस समय 1.2 बिलियन क्यूबिक फ़ीट की कुल क्षमता वाले दो एलएनजी टर्मिनल काम कर रहे हैं.
लेकिन पाकिस्तान में गैस की कमी क्यों है? इस सवाल के जवाब में नदीम बाबर का कहना है कि पाकिस्तान में स्थानीय गैस का उत्पादन बहुत तेज़ी से घट रहा है.
"पिछली सरकार ने एक अच्छा काम किया कि, एलएनजी को सिस्टम में शामिल किया और एक बुरा काम किया कि स्थानीय उत्पादन पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए था जो कि नहीं किया."
उन्होंने कहा, "पिछली सरकार के पांच वर्षों में कोई नया ब्लॉक एवार्ड नहीं किया गया और ड्रिलिंग की जितने तेज़ी से रिप्लेसमेंट होनी चाहिए थी उतनी तेजी से नहीं की गई." परिणामस्वरूप, स्थानीय उत्पादन में गिरावट आती रही और उधर मांग में वृद्धि होती रही. इस अंतर को अस्थायी रूप से बंद करने के लिए एलएनजी का आयात शुरू कर लिया गया था."
"लेकिन मांग तो बढ़ती जा रही है और एलएनजी की एक सीमा है कि हम कितनी एलएनजी ला सकते हैं. यही कारण है कि आपूर्ति और मांग के बीच फ़र्क़ बढ़ता जा रहा है. कोई भी ऊर्जा विशेषज्ञ आपको पांच साल पहले यह बता सकता था कि ऐसा होने जा रहा है. मैं ख़ुद यह बात तब से कह रहा हूं जब मैं सरकार में नहीं था. '
अगर विशेषज्ञों को पांच साल पहले पता था कि यह होने जा रहा है, तो पीटीआई को भी सत्ता में आये दो साल हो चुके हैं. इस बीच उन्होंने क्या क़दम उठाए हैं?
इस सवाल के जवाब में, नदीम बाबर ने कहा कि, "इस बीच, हमने (स्थानीय उत्पादन बढ़ाने के लिए) ई एंड पी यानी एक्सप्लोरेशन एंड प्रोडक्शन सेक्टर पर ध्यान दिया है. लेकिन इसके परिणाम तीन से चार साल बाद सामने आएंगे जब आप नई ड्रिलिंग शुरू करेंगे, नए भंडार की खोज करेंगे, इसमें कुछ साल लगते हैं."
इमरान ख़ान ने कहा है कि इस साल सर्दियों में गैस की क़िल्लत हो सकती है
"लेकिन इस बीच, आयात ही एकमात्र विकल्प बचा है. इस संबंध में, हमने कहा कि यह राज्य का काम नहीं है कि वह एलएनजी को ख़ुद से आयात करे और क़र्ज़ को बढ़ाते जाएं. हमने एलएनजी सेक्टर को खोल दिया है. पांच कंपनियों ने कहा कि वे टर्मिनल लगाना चाहती हैं, हमने पांचों को अनुमति दे दी है. इनमें से दो कंपनियां उस चरण में पहुंच गई हैं कि, अगले दो से तीन महीनों में उनके टर्मिनल पर ज़मीनी स्तर पर काम शुरू हो जाएगा.साल या सवा साल के अंदर अंदर ये दोनों टर्मिनल लग जाएंगे."
अगर टर्मिनल के निर्माण में एक साल या सवा साल ही लगना था तो, पीटीआई सरकार ने 2018 में सत्ता में आते ही यह कार्य क्यों नहीं किया, ताकि आज यह संकट न होता?
"देखिये एक दम से यह कार्य नहीं हो सकता. इसमें क़ानूनों को बदलने की आवश्यकता थी, अनुमतियां प्राप्त करने की आवश्यकता थी, नियामक संरचना को बदलने की आवश्यकता थी, लेकिन इसमें यह भी देखें कि पहले एलएनजी टर्मिनल जब लगे थे, उनके लगने में आठ साल लगे थे.
आमतौर पर, सर्दियों के आते ही पाकिस्तान में गैस की क़ीमत बढ़ा दी जाती है. क़ीमत की बात की जाये तो, वर्तमान सरकार ने पिछली सरकार के एलएनजी समझौतों की बहुत आलोचना की है. पूर्व प्रधानमंत्री शाहिद ख़ाक़ान अब्बासी भी इस संबंध में एनएबी की जांच का सामना कर रहे हैं. लेकिन क्या इस सरकार को सस्ती गैस मिल रही है?
नदीम बाबर का कहना है कि मौजूदा सरकार पिछले समझौतों की तुलना में सस्ता एलएनजी ख़रीद रही है.
"क़तर की सरकार के साथ हमारा जो समझौता है उसमें हम कच्चे तेल की क़ीमत का 13.37 प्रतिशत ख़रीद रहे हैं. लेकिन पिछली सरकार के समझौतों के अलावा, हम जो अतिरिक्त एलएनजी ख़रीद रहे हैं, वह सर्दियों में पांच से दस प्रतिशत सस्ता ख़रीद रहे हैं और गर्मियों में ये लगभग 40 प्रतिशत सस्ता रहेगी."
इसका मतलब तो यह हुआ कि, इस साल उपभोक्ताओं के लिए गैस महंगी नहीं होगी? बाबर कहते हैं, "बिल्कुल नहीं, अगले जुलाई तक पाकिस्तान में गैस की क़ीमतों में कोई अंतर नहीं होगा."
लेकिन पिछली सरकार के तहत लंबी अवधि के समझौतों के पक्ष में विशेषज्ञों का कहना है कि इस तरह के समझौते वैश्विक बाज़ार में कीमतों में तेज़ उतार-चढ़ाव से आपको बचा लेते हैं. आज तो सरकार को सस्ती गैस मिल रही है, कल नहीं मिली तो?
इस संबंध में, नदीम बाबर का कहना है कि समझौतों की एक सूचकांक दर निश्चित होती है और दुनिया में बहुत कम एलएनजी समझौते होंगे जहां क़ीमत तय की गई हो. क़तर सरकार के साथ हमारे समझौते में भी कच्चे तेल की क़ीमत का 13.37 प्रतिशत मूल्य निर्धारित किया गया है. लेकिन कच्चे तेल की क़ीमत तो हर दिन ऊपर नीचे जा रही है.
इमरान ख़ान के ये नुस्खे कितने कारगर होंगे?
एक तरफ़, सरकार देश में निर्माण क्षेत्र को विकसित करने की कोशिश कर रही है और इस संबंध में, इस क्षेत्र को प्रोत्साहन दिया जा रहा है. दूसरी ओर, ऐसी रिपोर्टें हैं कि सरकार नए गैस कनेक्शनों पर प्रतिबंध लगा रही है? लेकिन नदीम बाबर का इस बारे में कहना है कि मुश्किलें हैं, लेकिन कोई प्रतिबंध नहीं.
"दुनिया भर में पाइप के माध्यम से गैस घर पर आना एक लग्ज़री होती है. आमतौर पर गैस की आपूर्ति सिलेंडर या अन्य स्रोतों से की जाती है. हमारे देश में, 27 प्रतिशत उपभोक्ताओं को पाइप के माध्यम से गैस मिलती है, लगभग 27 से 28 प्रतिशत ऐसे लोग हैं जो एलपीजी पर चलते हैं और बाकी अन्य प्रकार के ईंधन का उपयोग करते हैं."
उन्होंने कहा, "स्थानीय स्तर पर गैस का उत्पादन करने के लिए हमें 700 रुपये का ख़र्च आता है, जबकि हम उपभोक्ताओं से लगभग 275 रुपये से 300 रुपये वसूलते हैं. वर्तमान में, हमारे देश में 90 प्रतिशत उपभोक्ता सब्सिडी से लाभान्वित हो रहे हैं. दूसरी ओर, हमारी आपूर्ति घट रही है. अब इस मामले में, यदि हम नए कनेक्शन देते हैं, तो हम इसमें गैस कहां से डालेंगे? लेकिन फिर भी नए कनेक्शन पर प्रतिबंध नहीं है."
उन्होंने आगे कहा कि, "ओजीआरए ने घटती आपूर्ति के मद्देनजर प्रत्येक वर्ष के लिए एक सीमा निर्धारित की है कि आप इतने कनेक्शन दे सकते हैं. इस वर्ष की सीमा चार लाख हैं. जैसा कि आप जानते हैं कि, वर्तमान में हमारे पास 28 लाख कनेक्शन के आवेदन पड़े हैं. नई सोसायटी जितनी चाहें बना लें, उनसे एलएनजी की क़ीमत वसूल कर लें फिर तो कोई समस्या ही नहीं,जितनी चाहिए होगी आयात कर लेंगे ... हां, लेकिन उस स्थिति में उपभोक्ता को तीन गुना बिल देना होगा. हमें कीमतों, आपूर्ति और नए कनेक्शन सबको संतुलित करके चलना है."
पाकिस्तान में केवल 12 से 14 साल की गैस बची है
देश में बाक़ी बचे गैस भंडार के बारे में नदीम बाबर ने कहा कि. अगर देश में नए बड़े भंडार की खोज नहीं की गई तो, केवल अगले 12 से 14 वर्षों की गैस बची है.
उन्होंने बताया कि देश में पिछले दस से बारह वर्षों में कोई बड़ी खोज नहीं हुई है और पिछले पांच वर्षों में देश में 90 भंडार की खोज हुई है. इस सरकार में पिछले दो वर्षों में 26 भंडार की खोज हुई हैं, लेकिन वो सभी बहुत छोटे हैं.
"उनकी कुल मात्रा 250 मिलियन क्यूबिक फीट है, जबकि इसी दौरान अन्य भंडार की आपूर्ति में चार सौ मिलियन क्यूबिक फीट से अधिक की कमी आई है."
लेकिन नदीम बाबर का कहना था कि वह इससे निराश नहीं हैं क्योंकि पाकिस्तान में अभी भी इस संबंध में बहुत क्षमता हैं.
उन्होंने कहा कि सुरक्षा कारणों से पिछले एक दशक में देश के पश्चिमी हिस्से में कोई खोज नहीं हुई थी और तट के पास समुद्री इलाकों में भी कोई खोज नहीं हुई थी.
उन्होंने बताया कि, "हमारे देश में लगभग 30 से 35 प्रतिशत ऐसा क्षेत्र है जहां पर तेल और गैस की खोज की जानी चाहिए. लेकिन अभी तक हमने केवल 8 या 9 प्रतिशत क्षेत्र को ही लीज़ पर दिया है. जिस पर वास्तव में ज़मीन पर काम हो रहा है वह केवल 5 या 6 प्रतिशत है."
कराची इलेक्ट्रिक का कहना है कि सरकार उन्हें पूरी गैस उपलब्ध नहीं कराती है, इसीलिए उन्हें लोड शेडिंग करनी पड़ती है. लेकिन नदीम बाबर का कहना है कि यह सरकार कराची इलेक्ट्रिक को पूरी गैस दे रही है.
कराची में गैस की कमी की स्थिति यह है कि स्थानीय उत्पादन पिछले साल की तुलना में लगभग साढ़े नौ प्रतिशत कम है. सिंध सरकार और केपी सरकार कहती है कि संविधान के अनुच्छेद 158 के तहत, वे केवल स्थानीय गैस लेंगे. परिणामस्वरूप, जब तक एलएनजी को उनके सिस्टम में नहीं जोड़ा जायेगा, केवल स्थानीय गैस ही जा सकती है. जिसका मतलब है कि लगभग 160 मिलियन क्यूबिक फ़ीट गैस कम थी."
"इसका सबसे ज़्यादा नुक़सान कराची इलेक्ट्रिक को हुआ. लेकिन हमने इसे ठीक करने के लिए कराची इलेक्ट्रिक को एलएनजी देना शुरू कर दिया. हम उन्हें पिछले तीन महीनों से लगभग 100 से 150 मिलियन क्यूबिक फ़ीट गैस दे रहे हैं.''
उन्होंने कहा कि लोड शेडिंग की स्थिति यह है कि पिछले कई वर्षों से उनकी मांग बढ़ रही है. लेकिन ग्रिड से अधिक बिजली लेने के लिए जो 500 केवीए के स्टेशन उन्हें लगाने चाहिए थे, वो उन्होंने नहीं लगाए.
"आज हम ग्रिड से जितनी वो चाहें उतनी बिजली देना चाहते हैं. लेकिन उनके पास बिजली लेने की वो व्यवस्था ही नहीं है, जिससे वो बिजली उठा सकें. ग्रिड से बिजली प्राप्त करने में जो रुकावट है, वह कराची इलेक्ट्रिक को ख़ुद हटानी है, जिसे उन्होंने नहीं हटाई.(bbc)
- ज़ुबैर अहमद
फ़्रांस इन दिनों एक गंभीर मंथन से गुज़र रहा है. इसका कारण 18 साल के चेचन मूल के एक लड़के की बर्बरता है जिसने 16 अक्टूबर को हाई स्कूल के एक शिक्षक की सिर काटकर हत्या कर दी. 47 वर्षीय शिक्षक सैमुअल पैटी छात्रों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बारे में पढ़ा रहे थे और इसी सिलसिले में उन्होंने शार्ली एब्दो के कार्टूनों का ज़िक्र किया था.
फ़्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने इसे "इस्लामिक आतंकवादी" हमला कहा और उनकी सरकार ने "इस्लामिक आतंकवाद" के ख़िलाफ़ लड़ाई छेड़ दी है. देश में इस समय कम ही लोग ऐसे होंगे जो राष्ट्रपति के इस बयान से असहमत हों. विपक्ष के एक नेता ने कहा "हमें आँसू नहीं, हथियार चाहिए". पूरे देश में भावनाएँ इस समय उफ़ान पर हैं.
पुलिस ने हमले के बाद कुछ 40 जगहों पर छापा मारा और 16 लोगों को हिरासत में ले लिया लेकिन बाद में छह को छोड़ दिया गया, सरकार ने एक मस्जिद भी बंद करने का आदेश दिया है. उस मस्जिद के ख़िलाफ़ आरोप है कि उसने पैटी की हत्या से पहले वहाँ से फ़ेसबुक पर वीडियो साझा किया गया और उस स्कूल का नाम-पता बताया गया जहाँ पैटी पढ़ाते थे.
पैग़ंबर मोहम्मद के ख़िलाफ़ बयान और उनके चित्र को दिखाना मुसलमानों के लिए धार्मिक रूप से संवेदनशील मामला है क्योंकि इस्लामिक परंपरा स्पष्ट रूप से मोहम्मद और अल्लाह (भगवान) की छवियों को दिखाने से मना करती है.
यह मुद्दा फ़्रांस में विशेष रूप से 2015 में उस समय से चर्चा में है जब से व्यंग्य पत्रिका 'शार्ली ऐब्दो' ने पैग़ंबर मोहम्मद के कार्टून प्रकाशित करने का निर्णय लिया, फ़्रांस में कार्टून के प्रकाशन के बाद पत्रिका कार्यालय पर हमला करके 12 लोगों को मार डाला गया था.
तथाकथित इस्लामिक स्टेट स्टाइल वाली हत्या के बाद फ़्रांस में राष्ट्रीय एकता का ज़ोरदार प्रदर्शन देखने को मिल रहा है. लेकिन विश्लेषक कहते हैं कि इस हत्या के बाद देश के कुछ हिस्सों में धर्मनिरपेक्षता और बोलने की स्वतंत्रता के मामले में सालों से दबा अंसतोष बाहर आ गया है.
फ़्रांस की राष्ट्रीय पहचान का केंद्र है सरकार की सख़्त धर्मनिरपेक्षता, ये उतना ही अहम है जितना कि "स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व" की अवधारणाएं जो फ़्रांसीसी क्रांति के बाद से देश, समाज और उसके संविधान का आधार रही हैं.
फ़्रांस में सार्वजनिक स्थान, चाहे स्कूल हों, अस्पताल या दफ़्तर, सरकारी नीति के हिसाब से वे किसी भी धर्म के प्रभाव से पूरी तरह मुक्त होने चाहिए, फ़्रांस नीतिगत तौर पर मानता है कि किसी भी धर्म की भावनाओं की रक्षा करने की कोशिश, स्वतंत्रता और देश की एकता में बाधक है.
दरअसल, इस हत्या से दो सप्ताह पहले यानी दो अक्टूबर को राष्ट्रपति मैक्रों ने अपने एक भाषण में 'इस्लामिक कट्टरपंथ के ख़िलाफ़ युद्ध' के तौर पर एक क़ानून का प्रस्ताव रखा था, अगर क़ानून पास हो गया तो विदेश के इमाम फ़्रांस की मस्जिदों में इमामत नहीं कर सकेंगे, और छोटे बच्चों को घरों में इस्लामी शिक्षा नहीं दी जा सकेगी.
दक्षिण फ़्रांस में एक हाई स्कूल की शिक्षिका मार्टिन जिब्लट को इस बिल के कुछ प्रावधानों पर सख़्त आपत्ति है. वो कहती हैं, "आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई के बारे में मैक्रों के भाषण से मुझे जो चोट लगी, वह थी घर के भीतर दी जाने वाली धार्मिक शिक्षा पर प्रतिबंध. ये मुझे स्वतंत्रता की हत्या करने वाला प्रावधान लगा. मैं कई माताओं-पिताओं को जानती हूँ जो ऐसा करते हैं. उनके घरों पर नियमित रूप से शिक्षा अधिकारियों के दौरे होते हैं कि वो घर में अपने बच्चों को क्या पढ़ा रहे हैं."
उन्होंने सरकार और मीडिया पर झूठ फैलाने का आरोप लगाया, "सरकार से इतने झूठ सुनने को मिलते हैं कि मैंने पहले से ही फ़्रेंच मुख्यधारा के समाचार चैनल को देखना बंद कर दिया था, वे दर्शकों में डर पैदा करते हैं जो लोगों का ब्रेनवॉश करने का सबसे अच्छा तरीक़ा है."
लेकिन राष्ट्रपति मैक्रों के मुताबिक़, उनके क़ानून का मक़सद ये है कि "फ़्रांस में एक ऐसे इस्लाम को बढ़ाया जाए जो आत्मज्ञान के अनुकूल हो." तो क्या राष्ट्रपति के इस बयान का मतलब ये निकाला जाए कि फ़्रांस के स्टेट सेकुलरिज्म के साथ वहां के मुसलमानों के धार्मिक विचारों का तालमेल नहीं है?
अमरीका में सैन डिएगो यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर और 'इस्लाम, अथॉरिटेरियनिज़्म एंड अंडरडेवलपमेंट' के लेखक अहमत कुरु कहते हैं कि ज़मीनी हक़ीक़त बहुत जटिल है. उनके मुताबिक़, "सेक्युलर फ़्रांस ने वास्तव में कैथोलिक लोगों के लिए कई अपवाद हैं, सरकार निजी कैथोलिक स्कूलों को पर्याप्त सार्वजनिक धन मुहैया कराती है, और फ़्रांस में 11 आधिकारिक छुट्टियों में से छह कैथोलिक महत्त्व वाले दिन हैं. वहाँ अक्सर धर्मनिरपेक्षता का मतलब मुसलमानों के धार्मिक मुद्दों को अस्वीकार करना होता है."
प्रोफ़ेसर कुरु के अनुसार पिछले कुछ सालों में फ़्रांस में एक ऐसे सेक्युलरिज़्म की मांग बढ़ी है जिसमे बहुसंस्कृतिवाद को जगह दी जाए. वो कहते हैं, "उदाहरण के तौर पर प्रख्यात विद्वान ज्यां बॉबरो एक "बहुलवादी धर्मनिरपेक्षता" की वकालत करते हैं, एक ऐसे सिस्टम की वकालत जो सार्वजनिक संस्थानों में कुछ धार्मिक प्रतीकों को सहन कर सके."
डेनमार्क की आरहूस यूनिवर्सिटी में भारतीय मूल के प्रोफ़ेसर और लेखक डॉक्टर ताबिश ख़ैर सालों से यूरोप में रह रहे हैं और भारत में इस्लामी कट्टरपंथ और यूरोप में इस्लाम विरोधी नस्लवाद दोनों की हिंसा का निजी तौर पर अनुभव कर चुके हैं. उन्होंने फ़्रांस में जारी संकट पर कहा, "हमें सबसे पहले फासीवादी हिंसा के किसी भी ऐसे कार्य की तुरंत निंदा करनी चाहिए जो किसी धर्म, राष्ट्र या विचारधारा के नाम पर हो. दूसरी बात यह है कि इस काम को कोई लेबल नहीं देना चाहिए."
फ़्रांस के राष्ट्रपति ने शिक्षक की हत्या को 'इस्लामिक आतंकवाद' का नाम दिया है जिसे ताबिश ख़ैर सही नहीं मानते, वो कहते हैं, "यह आतंक का एक कार्य है, आतंकवाद का नहीं, अगर किसी समूह ने इसकी योजना नहीं बनाई तो यह भ्रामक है. कुछ मायनों में, यह बदतर है. यह दिखाता है कि अचानक कोई भी व्यक्ति, जो धार्मिक कट्टरपंथी और क्रोध से प्रेरित है, इस तरह के घिनौने अपराध कर सकता है".
ताबिश मानते हैं कि इस तरह की घटनाओं के बाद किसी एक धर्म या समुदाय के लोगों को कटघरे में खड़ा करना किसी तरह से सही नहीं है. वे कहते हैं, "मुसलमानों को बलि का बकरा बनाने के पीछे राजनीतिक नेतृत्व का मक़सद अपनी नाकामियों को छिपाना ही होता है."
प्रोफ़ेसर अहमत कुरु के अनुसार, इस्लाम के सामने "संकट" मुस्लिम दुनिया की ऐतिहासिक और राजनीतिक विफलताओं में निहित है, इस्लाम धर्म में ही नहीं."
वो कहते हैं, "मिस्र, ईरान और सऊदी अरब जैसे कई मुस्लिम देशों में लंबे समय से स्थायी सत्तावादी शासन और पुराना पिछड़ापन है. दुनिया के 49 मुस्लिम बहुल देशों में से 32 में, ईशनिंदा के क़ानून के तहत लोगों को दंडित किया जाता है, छह देशों में, ईशनिंदा की सज़ा मौत है. ये क़ानून, जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को अवरुद्ध करते हैं, इस्लाम के रूढ़िवादी आलिमों और सत्तावादी शासकों के हितों में होते हैं, इस्लाम धर्म के हित में नहीं. वे वास्तव में क़ुरान की उन आयतों का उल्लंघन हैं जिनमें मुसलमानों से अन्य धर्मों के लोगों के ख़िलाफ़ ज़बरदस्ती या जवाबी कार्रवाई नहीं करने का आग्रह किया गया है."
दूसरी तरफ़, इस्लामोफ़ोबिया (इस्लाम से डर) भी आज फ़्रांस और यूरोप में एक हक़ीक़त है. दक्षिण फ़्रांस के शहर 'नीस' के निकट इटली की सरहद से सटे एक क़स्बे 'मोंतों' की रहने वाली एक फ़्रेंच युवती मार्गेरिटा मरीनकोला कहती हैं कि इस घटना को इस्लाम से जोड़ना ठीक नहीं है, "मेरा नज़रिया फ़्रांस में बहुत लोकप्रिय नहीं है, बेशक फ़्रांस में जो हुआ है उसकी मैं पूरी तरह से निंदा करती हूं और बोलने की आज़ादी के ख़िलाफ़ हिंसा की भी निंदा करती हूँ. लेकिन ये कार्य किसी भी तरह से इस्लाम और मुसलमानों का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं और मुझे डर है कि यहाँ इस बात को अच्छी तरह से समझा नहीं गया है."
वो आगे कहती हैं, "एक फ़्रासीसी नागरिक के रूप में मैं पूरी तरह से बोलने की स्वतंत्रता का समर्थन करती हूं लेकिन किसी भी तरह से इसका लेना-देना व्यंग्य पत्रिका शार्ली ऐब्दो से नहीं है जो फ़्रेंच मॉडल से अलग हर चीज़ का लगातार अपमान करता है, बहुत अहंकार भरे तरीक़े से."
कुछ फ़्रांसीसी मुसलमानों का कहना है कि वे अपने धार्मिक विश्वास के कारण नस्लवाद और भेदभाव के निशाने पर लगातार रहे हैं और ये एक ऐसा मुद्दा है जिसने लंबे समय से देश में तनाव पैदा कर रखा है, कुछ कहते हैं कि जान-बूझ कर उन्हें उकसाने की कोशिश सालों से जारी है.
दिल्ली में फ़्रेंच दूतावास में काम करने वाली एक राजनयिक के अनुसार उनके देश में मामला पेचीदा है. वो कहती हैं, "फ़्रांस के दक्षिणपंथियों के अनुसार उन्हें समस्या उन मुसलमानों से है जो रहते फ़्रांस में हैं, पैदा वहाँ हुए लेकिन उनके रहने का अंदाज़ और उनकी विचारधारा उनके पूर्वजों के देशों से प्रेरित है, जो फ़्रांस के सेक्युलर माहौल से मेल नहीं खाता है."
लेकिन हाई स्कूल शिक्षक मार्टिन कहती हैं, "बोलने की आज़ादी का ये मतलब नहीं कि किसी के धार्मिक विचारों को जान-बूझ कर ठेस पहुँचाया जाए.
पश्चिमी यूरोप में मुसलमानों की सबसे अधिक आबादी फ़्रांस में रहती है जो देश की कुल आबादी का 10 प्रतिशत है. ये लोग मोरक्को, अल्जीरिया, माली और ट्यूनीशिया जैसे देशों से आकर फ़्रांस में आबाद हुए हैं, जहाँ फ़्रांस ने 19वीं और 20वीं शताब्दी में हुकूमत की थी. इनकी पहली पीढ़ी को नस्लवाद की समस्या को झेलना पड़ा लेकिन शायद बाद की पीढ़ियों ने इसे स्वीकार नहीं किया और अपनी अलग पहचान बनाए रखने के लिए सिस्टम को चुनौती देना शुरू कर दिया. सेक्युलरिज़्म की पॉलिसी के अंतर्गत एक ऐसा फ़्रेंच मॉडल पनपा जिसमें अल्पसंख्यक आबादी को देश की मुख्यधारा में पूरी तरह से जोड़ने की कोशिश की गई.
जहाँ मार्गरीटा मरीनकोला रहती हैं उसके आस-पास के शहरों में मार्से और नीस शामिल हैं जो मुस्लिम अरबों की आबादी और संस्कृति के लिए जाने जाते हैं. वो कहती हैं कि एकीकरण का फ़्रेंच मॉडल काम नहीं कर रहा है. वे कहती हैं, "मेरे विचार में समस्या एकीकरण का फ़्रेंच मॉडल है, यह काम नहीं कर रहा है और अपराधी आसानी से ऐसे लोगों को ब्रेनवॉश कर रहे हैं, जो अब इस्लाम के बहाने इस्तेमाल हो रहे हैं."
एकीकरण की नीति काम नहीं कर रही है इसकी चिंता फ़्रेंच समाज को भी है. 16 अक्टूबर को शिक्षक पर हमला करने वाला चेचन शरणार्थी 18 साल का था. फ़्रांस में इस उम्र के लोगों के अंदर अपनी पहचान को लेकर सवाल हैं, काली नस्ल और अरब मुस्लिम बच्चों के दिमाग़ में ये सवाल बार-बार उठते हैं.
छह साल पहले नीस शहर के निकट मुझे एक हाई स्कूल के लड़के और लड़कियों से तीन दिनों तक क्लास में बातचीत करने का अवसर मिला था. मुझसे कहा गया कि मैं विद्यार्थियों से भारत के बहुसांस्कृतिक समाज में रहने के अपने अनुभव उनसे साझा करूँ, मैंने ये महसूस किया कि बच्चों के मन में अनेक सवाल थे और वो अधिकतर उनकी अपनी पहचान से जुड़े थे. और शायद स्कूल के अधिकारियों ने इसे महसूस किया और मेरे अनुभव से कुछ बच्चों को दिशा मिले, इसीलिए मुझे वहां बुलाया.
स्कूल के विद्यार्थी सभी नस्ल और सभी धर्मों के थे. अरब मूल के कुछ लड़कों ने मुझसे कहा कि वो भारत को इसलिए पसंद करते हैं क्योंकि वहां सभी धर्मों को समानता दी जाती है. उन्होंने बॉलीवुड की फ़िल्में देख रखी थीं और एक ख़ुशहाल बहु-सांस्कृतिक भारत की उनकी कल्पना शाहरुख़ ख़ान की फ़िल्मों पर आधारित थीं. उन्होंने कहा कि उनके गोरे दोस्त इस्लाम के बारे में कुछ नहीं जानते और इस्लाम विरोधी विचारधारा रखते हैं एंटी-इस्लाम बातें अक्सर करते रहते हैं.
ऐसे माहौल में इस्लाम विरोधी बयान और काम इस्लामोफोबिया को हवा देते हैं और मुस्लिम समाज पर तंज़ और ताने बढ़ने लगते हैं, दूसरी तरफ़ प्रवासी अरब आबादी में भयंकर बेरोज़गारी और ग़रीबी की वजह से इस्लामी चरमपंथियों का काम आसान हो जाता है और वे उन्हें बरगला पाते हैं.
स्विट्ज़रलैंड में जीनेवा इंस्टीट्यूट ऑफ़ जियोपॉलिटिकल स्टडीज के अकादमी निदेशक एलेक्जेंडर लैम्बर्ट के विचार में न केवल फ़्रांस बल्कि यूरोप भर में ग़ैर-ईसाई धर्मों को बर्दाश्त करने की क्षमता कम होती जा रही है, "दरअसल, यूरोप में बहुसंस्कृतिवाद को अपनाने के लिए संवैधानिक-क़ानूनी ढांचे नहीं हैं, मध्य-पूर्व और दक्षिण-पूर्व यूरोप सहित कई देशों में, राष्ट्रीयता और नागरिकता किसी न किसी तरह से ईसाई धर्म, आम तौर पर कैथोलिक या ऑर्थोडॉक्स ईसाई धर्म से जुड़ी रहती है और बाहर से आए, दूसरे धर्मों को मानने वाले लोगों से वैचारिक टकराव होता ही है."
बराबरी के लिए प्रदर्शन करते फ़्रांस के मुसलमान
प्रोफ़ेसर एलेक्ज़ेंडर लैम्बर्ट स्विट्ज़रलैंड के नागरिक हैं, वे कहते हैं कि उनके देश में मस्जिदों की मीनारों के निर्माण पर सरकारी तौर पर पाबंदी लगी है. सरकार ने ये पाबंदी जनता से पूछकर लगाई है. हमारे देश में मुसलमान तुलनात्मक रूप से अच्छी तरह घुले-मिले हैं, और ग़ैर-मुस्लिमों के साथ उनका कोई तनाव नहीं है, स्वदेशी ईसाई बहुसंख्यक समुदायों के साथ भी नहीं. इसके अलावा, स्विट्ज़रलैंड में यहूदी समुदाय को ख़तरा नहीं है, जो दुर्भाग्य से फ़्रांस में फिर से उभर रहा है".
फ़्रांस में बुर्क़े पर लगाए गए प्रतिबन्ध को देश के मुसलमानों ने सकारात्मक तरीक़े से नहीं लिया और इसे इस्लाम पर और अपनी पहचान पर प्रहार के रूप में देखा.
प्रोफ़ेसर एलेक्जेंडर लैम्बर्ट कहते हैं कि यूरोप की (गोरी नस्ल की) आबादी घटती जा रही है. "यूरोपीय जनसंख्या सिकुड़ रही है. पूर्वानुमानों के अनुसार 2050 तक यूरोप में मुसलमानों की आबादी का काफ़ी बढ़ सकती है क्योंकि वास्तव में मूल यूरोपीय आबादी घट रही है जबकि मुस्लिम आबादी बढ़ रही है."
प्रोफ़ेसर लैम्बर्ट का कहना है कि इस सच को विश्वविद्यालयों में पढ़ाना चाहिए, ये यूरोप में रहने वालों के लिए असुरक्षा और चिंता का माहौल बनाता है जिसके नतीजे में मुस्लिम और यूरोपीय समाज में तनाव होना लाज़मी है. अब लोग ये कह रहे हैं कि फ़्रांस हो या यूरोप के दूसरे देश, मुस्लिम आबादी देश में इंटीग्रेट (एकीकृत) करने लिए एक कामयाब फ़ार्मूला निकालना वक़्त की ज़रुरत है.(bbc)
ध्रुव गुप्त
शहीद अशफाक उल्लाह खां भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रखर क्रांतिकारी सेनानियों में एक और ‘हसरत’ उपनाम से उर्दू के अज़ीम शायर थे। उत्तर प्रदेश के कस्बे शाहजहांपुर में जन्मे अशफाक ने अपने ही शहर के क्रांतिकारी शायर राम प्रसाद बिस्मिल से प्रभावित होकर अपना जीवन वतन की आज़ादी के लिए समर्पित कर दिया था।
वे क्रांतिकारियों के उस प्रमुख जत्थे के सदस्य थे जिसमें राम प्रसाद बिस्मिल, चंद्रशेखर आज़ाद, मन्मथनाथ गुप्त, राजेंद्र लाहिड़ी, शचीन्द्रनाथ बख्सी, ठाकुर रोशन सिंह, केशव चक्रवर्ती, बनवारी लाल, मुकुंदी लाल शामिल थे। चौरी चौरा की घटना के बाद असहयोग आंदोलन वापस लेने के महात्मा गांधी के फैसले से क्षुब्ध इस जत्थे ने एक अहम बैठक में हथियार खरीदने के लिए ट्रेन से सरकारी खजाने को लूटने की योजना बनाई।
उनका मानना था कि वह धन अंग्रेजों का नहीं था, अंग्रेजों ने उसे भारतीयों से हड़पा था। 9 अगस्त, 1925 को अशफाक उल्लाह खान और पंडित राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में आठ क्रांतिकारियों के दल ने सहारनपुर-लखनऊ पैसेंजर ट्रेन पर हमला कर वह खजाना लूट लिया। अंग्रेजों को हिला देने वाले काकोरी षडय़ंत्र के नाम से प्रसिद्ध इस कांड में गिरफ्तारी के बाद अशफ़ाक को यातनाएं देकर उन्हें सरकारी गवाह बनाने की हर मुमकिन कोशिश हुईं। अंग्रेज अधिकारियों ने उनसे यह तक कहा कि हिन्दुस्तान यदि आज़ाद हो भी गया तो उस पर मुस्लिमों का नहीं, हिन्दुओं का राज होगा और मुस्लिमों को कुछ नहीं मिलने वाला। इसके जवाब में अशफ़ाक़ ने कहा था - ‘तुम लोग हिन्दू-मुस्लिमों में फूट डालकर आज़ादी की लड़ाई को अब नहीं दबा सकते। अपने दोस्तों के खिलाफ मैं सरकारी गवाह कभी नहीं बनूंगा।’
संक्षिप्त ट्रायल के बाद अशफाक, राम प्रसाद बिस्मिल, राजेंद्र लाहिड़ी और ठाकुर रोशन सिंह को फांसी की सजा और बाकी लोगों को चार साल से लेकर आजीवन कारावास तक की सज़ा सुनाई गई। अशफ़ाक को 19 दिसंबर, 1927 को फैज़ाबाद जेल में फांसी दी गई। फांसी के पहले अशफाक ने वजू कर कुरआन की कुछ आयतें पढ़ी, कुरआन को आंखों से लगाया और खुद जाकर फांसी के मंच पर खड़े हो गए। वहां मौजूद जेल के अधिकारियों से कहे गए उनके आखिरी शब्द थे- ‘मेरे हाथ इंसानी खून से नहीं रंगे हैं। खुदा के यहां मेरा इन्साफ होगा।’ उसके बाद उन्होंने अपने हाथों फंदा गले में डाला और फांसी पर झूल गए।
यौमे पैदाईश (22 अक्टूबर) पर शहीद अशफ़ाक़ को कृतज्ञ राष्ट्र की श्रद्धांजलि, उनकी लिखी एक नज्म की कुछ पंक्तियों के साथ !
बिस्मिल हिन्दू हैं, कहते हैं
फिर आऊंगा, फिर आऊंगा
फिर आकर ऐ भारत माता
तुझको आज़ाद कराऊंगा
जी करता है मैं भी कह दूं
पर मज़हब से बंध जाता हूं
मैं मुसलमान हूं पुनर्जन्म की
बात नहीं कर पाता हूं
हां ख़ुदा अगर मिल गया कहीं
अपनी झोली फैला दूंगा
और जन्नत के बदले उससे
एक पुनर्जन्म ही मांगूंगा !
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पंजाब की विधानसभा ने सर्वसम्मति से एक ऐसा कानून बना दिया है, जिसका उद्देश्य है कि किसानों को उनकी फसल के उचित दाम मिलें। इस कानून का समर्थन भाजपा के दो विधायकों के अलावा सभी पार्टियों के विधायकों ने किया है। इस कानून के लागू होने पर कोई भी गेहूं और धान की फसलों को सरकारी मूल्यों से कम पर न बेच सकेगा और न ही खरीद सकेगा। जो भी इस कानून का उल्लंघन करेगा, उसको तीन साल की जेल हो जाएगी। मोटे तौर पर ऐसा लगता है कि इस कानून से किसानों को बड़ी सुरक्षा मिलेगी। लेकिन इस चिकनी सडक़ पर कई गड्ढे भी दिखाई पड़ रहे हैं।
पहली बात तो यह कि यह कानून सिर्फ गेहूं और धान की खरीद-फरोख्त पर लागू होगा, अन्य फसलों पर नहीं। जो किसान, ज्वार, बाजरा, मक्का, बासमती चावल आदि पैदा करते हैं, यह कानून उनके बारे में बिल्कुल बेखबर है। फलों और सब्जियां उगानेवाले किसानों को भी इस कानून से कोई फायदा नहीं है। दूसरा, यह जरूरी नहीं है कि हर किसान अपनी गेहूं और धान की उपज मंडियों में ही लाए। यदि उन्हें वह खुले बाजार में कम कीमत पर बेचे और नकद पैसे ले ले तो सरकार उसे कैसे पकड़ेगी ?
यदि सरकारी समर्थन मूल्य से ज्यादा पर बेचने के कारण किसी किसान को नहीं पकड़ा जाता तो कम मूल्य पर बेचने पर उसे कैसे और क्यों पकड़ा जाएगा ? अपने घर में फसल को सड़ाने की बजाय किसान उसे किसी भी मूल्य पर बेचना चाहेगा। तीसरा, पंजाब का किसान अपना माल हरियाणा या हिमाचल में ले जाकर बेचना चाहे तो भी यह कानून उस पर लागू नहीं होगा। चौथा, यह जरुरी नहीं कि किसानों का सारा गेहूं और धान सरकार खरीद ही लेगी। ऐसे में वे क्या करेंगे? वे उसे किसी भी कीमत पर बेचना चाहेंगे। पांचवां, सरकारी या समर्थन मूल्य को कानूनी रुप देना कहीं बेहतर है। उसके विकल्प पर सजा देना जरा ज्यादती मालूम पड़ती है।
पंजाब की कांग्रेसी सरकार के इस कानून से पंजाब के किसान राहत जरुर महसूस करेंगे तथा राजस्थान और छत्तीसगढ़ की कांग्रेसी सरकारें भी ऐसे कानून पास करना चाहती हैं। इन सरकारों के इस तर्क में कुछ दम जरूर है कि खेती तो राज्य का विषय है। केंद्र सरकार उस पर कानून बनाकर संघात्मक संविधान की भावना का उल्लंघन कर रही है। उधर राज्यपाल और राष्ट्रपति इस पंजाब के कानून पर अपनी मुहर लगाएंगे या नहीं, यह भी महत्वपूर्ण सवाल है लेकिन कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर की प्रतिक्रिया काफी संतुलित है।
उन्होंने कहा है कि केंद्र इस कानून पर धैर्यपूर्वक विचार करेगा। बेहतर तो यह होगा कि कृषि-कानून को हमारे नेता राजनीतिक फुटबॉल न बनाएं। वास्तव में सर्वदलीय बैठक में इस विषय पर खुला विचार-विमर्श होना चाहिए कि किसानों को तो उनकी उपज का उचित मूल्य मिले ही लेकिन उपभोक्ताओं को भी अपनी खरीदारी पर लुटना न पड़े। हमारे नेतागण यदि इस अवसर पर डॉ. राममनोहर लोहिया की ‘दाम बांधो’ नीति पर कुछ पढ़ें-लिखें और विचार करे तो किसानों के साथ-साथ 140 करोड़ उपभोक्ताओं का भी कल्याण हो जाए। (नया इंडिया की अनुमति से)
खरीफ सीजन की बुवाई के समय हुई ‘अच्छी’ बारिश से यह उम्मीद लगाई जा रही थी कि इस बार अच्छी फसल होगी, लेकिन जब फसल पकने लगी या पक कर तैयार हुई, उस समय हुई बेमौसमी बारिश ने इन उम्मीदों पर पानी फेर दिया। खरीफ सीजन 2020-21 का पहला अनुमान बताता है कि ज्यादातर फसलों का उत्पादन पिछले साल के मुकाबले कम हो रह सकता है। यह अनुमान नेशनल बल्क होल्डिंग कॉरपोरेशन (एनबीएचसी) ने जारी किए हैं। हालांकि 23 सितंबर 2020 को केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय की ओर से जारी आंकड़े इससे अलग है। मंत्रालय ने खरीफ सीजन 2020-21 के पहले अग्रिम अनुमान में फसलों के उत्पादन में वृद्धि का दावा किया था।
एनबीएचसी की यह रिपोर्ट बताती है कि पिछले सीजन के मुकाबले इस सीजन में धान के बुवाई क्षेत्र में लगभग 6.74 प्रतिशत वृद्धि हुई, लेकिन उत्पादन में 2.20 प्रतिशत की कमी रह सकती है। पिछले सीजन में 382.3 लाख हेक्टेयर में धान की बुवाई की गई थी, लेकिन खरीफ सीजन 2020-21 में 408.1 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल में धान की बुवाई की गई। जहां तक उत्पादन की बात है तो 2018-19 में 10.204 करोड़ टन चावल उत्पादन हुआ था, जबकि 2019-20 में 10.198 करोड़ टन चावल उत्पादन हुआ। इस सीजन में यह घटकर 9.974 करोड़ टन रह सकता है। दिलचस्प बात यह है कि सितंबर में केंद्रीय कृषि मंत्रालय द्वारा जारी अग्रिम अनुमान में कहा गया था कि इस साल 10.236 करोड़ टन चावल उत्पादन का दावा किया किया गया था।
कहीं ज्यादा तो कहीं कम हुई बारिश
एनबीएचसी की रिपोर्ट के मुताबिक अगस्त सितंबर में हुई भारी बारिश ने फसलों को नुकसान पहुंचा है। साल 2020-21 के मानसून सीजन में देश भर में सामान्य से 109 फीसदी अधिक बारिश हुई। चार में से तीन महीने सामान्य से अधिक बारिश रिकॉर्ड की गई। जून में सामान्य से 118 प्रतिशत, अगस्त में 127 फीसदी और सितंबर में 104 फीसदी अधिक बारिश हुई, जबकि जुलाई में सामान्य से कम बारिश हुई। अगर क्षेत्रवार देखें तो पूर्वी, उत्तर पूर्वी, मध्य भारत और दक्षिण भारत में सामान्य से अधिक बारिश हुई, जबकि उत्तर पश्चिम भारत में कम बारिश हुई। अच्छी बारिश को देखते हुए इस बार खरीफ की बुवाई भी अधिक हुई। जहां पिछले साल देश में 1085.65 लाख हेक्टेयर में खरीफ की फसलों की बुवाई थी, इस साल यह बढ़ कर 1095.37 लाख हेक्टेयर तक पहुंच गई।
19 राज्यों और केंद्र शासित क्षेत्रों में सामान्य से कम बारिश हुई, जबकि नौ राज्यों में सामान्य से अधिक बारिश हुई, इनमें बिहार, गुजरात, मेघालय, गोवा, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु, कर्नाटक और लक्षद्वीप समूह शामिल हैं। सिक्किम में बहुत ज्यादा बारिश रिकॉर्ड की गई। जबकि नागालैंड, मणिपुर, मिजोरम, त्रिपुरा, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, जम्मू कश्मीर में सामान्य से कम बारिश हुई। लद्दाख में बहुत कम बारिश रिकॉर्ड की गई। दिल्ली में काफी कम बारिश हुई। मानसून के खत्म होने के बाद भी दक्षिण मध्य महाराष्ट्र के कई जिलों में भारी बारिश के बारण बाढ़ आ गई। इससे सोयाबीन, मक्का, गन्ना और तूर की फसल को काफी नुकसान पहुंचा।
2019-20 में 5 लाख टन मक्का का आयात किया गया। ऐसा पॉल्ट्री कारोबार की मांग को देखते हुए किया गया, क्योंकि पिछले साल मक्के का उत्पादन कम हुआ था। इस खरीफ सीजन में बुवाई क्षेत्र की बात करें तो इसमें पिछले साल के मुकाबले 2.31 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, लेकिन मध्य प्रदेश और कर्नाटक में बुवाई के बाद हुई भारी बारिश के कारण मक्के के उत्पादन में 5.71 प्रतिशत की कमी की आशंका है।
ज्वार / बाजरा
इस रिपोर्ट में ज्वार के बुवाई क्षेत्र में 1.17 प्रतिशत की कमी के बावजूद उत्पादन में 9.78 प्रतिशत की वृद्धि की संभावना है। जबकि बाजरा के बुवाई क्षेत्र में 3.71 प्रतिशत की वृद्धि के बावजूद उत्पादन में 14.40 प्रतिशत की कमी हो सकती है।
दलहन
चालू खरीफ सीजन में तूर के बुवाई क्षेत्र में 9.78 प्रतिशत और उत्पादन में 5.48 प्रतिशत वृद्धि का अनुमान लगाया गया है। इस की वजह महाराष्ट्र, गुजरात, तेलंगाना और झारखंड में फसल की स्थिति अच्छी है। महत्वपूर्ण बात यह है कि इस बार उड़द के उत्पादन में भारी वृद्धि का अनुमान है। रिपोर्ट बताती है कि बेशक उड़द के बुवाई क्षेत्र में 1.47 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, लेकिन उत्पादन में 45.38 प्रतिशत की वृद्धि हो सकती है। मूंग के बुवाई क्षेत्र में 19.70 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, लेकिन उत्पादन में 3.91 प्रतिशत कमी का अनुमान लगाया गया है। क्योंकि मूंग उपजाने वाले लगभग सभी बड़े राज्यों में फसल को नुकसान पहुंचा है।
तिलहन
एनबीएचसी की इस रिपोर्ट में कहा गया है कि सितंबर अक्टूबर में भारी बारिश के कारण सोयाबीन के उत्पादन में 15.29 फीसदी की कमी आ सकती है, जबकि बुवाई क्षेत्र में 8.17 फीसदी की वृद्धि हुई थी। इसी तरह मूंगफली के उत्पादन में 14.69 फीसदी की कमी आने की आशंका है।
नगदी फसल
गुजरात और मध्य प्रदेश में हुई भारी बारिश के कारण कपास के उत्पादन में 4.06 फीसदी नुकसान का आकलन किया गया है। लेकिन गन्ने के उत्पादन में 2.72 प्रतिशत की वृद्धि का अनुमान है।(https://www.downtoearth.org.in/hindistory)
भारत सरकार हो या राज्य सरकारें, हर वक्त उनका एक ही नारा होता है आदिवासियों का कल्याण। लेकिन उनका कल्याण करते-करते ये सरकारें अकसर उनको उनके गांव-खेत-खलिहान और उनके जंगलों से बेदखल कर देती हैं। इसका ताजा उदाहरण मध्यप्रदेश का है। यहां जलवायु परिवर्तन से होने वाले दुष्प्रभावों को कम करने, राज्य के जंगलों की परिस्थितिकी में सुधार करने और आदिवासियों की आजीविका को सुदृढ़ करने के नाम पर राज्य के कुल 94,689 लाख हैक्टेयर वन क्षेत्र में से 37,420 लाख हैक्टेयर क्षेत्र को निजी कंपनियों को देने का निर्णय लिया गया है।
इस संबंध में मध्यप्रदेश के सतपुड़ा भवन स्थित मुख्य प्रधान वन संरक्षक द्वारा अधिसूचना जारी की गई है। इस संबंध में भोपाल के पर्यावरणविद सुभाष पांडे ने डाउन टू अर्थ को बताया, “राज्य के आधे से अधिक बिगड़े वन क्षेत्र को सुधारने के लिए जंगलों की जिस क्षेत्र को अधिसूचित किया गया है, वास्तव में वहां आदिवासियों के घर-द्वार, खेत और चारागाह हैं। इसे राज्य सरकार बिगड़े वन क्षेत्र की संज्ञा दे कर निजी क्षेत्रों को सौंपने जा रही है”।
ध्यान रहे कि इस प्रकार के बिगड़े जंगलों को सुधारने के लिए राज्य भर के जंगलों में स्थित गांवों में बकायदा वन ग्राम समितियां बनी हुई हैं और इसके लिए वन विभाग के पास बजट का भी प्रावधान है। इस संबंध में राज्य के वन विभाग के पूर्व सब डिविजन ऑफिसर संतदास तिवारी ने बताया कि जहां आदिवासी रहते हैं तो उनके निस्तार की जमीन या उनके घर के आसपास तो हर हाल में जंगल नहीं होगा। आखिर आप अपने घर के आसपास तो जंगल या पेड़ों को साफ करेंगे और मवेशियों के लिए चारागाह भी बनाएंगे। अब सरकार इसे ही बिगड़े हुए जंगल बताकर अधिग्रहण करने की तैयारी है। जबकि राज्य सरकार का तर्क है कि बिगड़े हुए जंगल को ठीक करके यानी जंगलों को सघन बना कर ही जलवायु परिवर्तन और परिस्थितिकीय तंत्र में सुधार संभव है।
इस संबंध में मध्यप्रदेश में वन क्षेत्रों पर अध्ययन करने वाले कार्यकर्ता राजकुमार सिन्हां ने डाउन टू अर्थ को बताया कि मध्यप्रदेश की सरकार ने 37 लाख हैक्टेयर बिगड़े वन क्षेत्रों को पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशीप (पीपीपी) मोड पर निजी कंपनियों को देने का निर्णय लिया है। वह कहते हैं कि यह कौन सा वन क्षेत्र है? इसे जानने और समझने की जरूरत है। प्रदेश के कुल 52,739 गांवों में से 22,600 गांव या तो जंगल में बसे हैं या फिर जंगलों की सीमा से सटे हुए हैं।
मध्यप्रदेश के जंगल का एक बड़ा हिस्सा आरक्षित वन है और दूसरा बड़ा हिस्सा राष्ट्रीय उद्यान, अभयारण्य, सेंचुरी आदि के रूप में जाना जाता है। शेष क्षेत्र को बिगड़े वन या संरक्षित वन कहा जाता है। इस संरक्षित वन में स्थानीय लोगों के अधिकारों का दस्तावेजीकरण किया जाना है, अधिग्रहण नहीं। यह बिगड़े जंगल स्थानीय आदिवासी समुदाय के लिए बहुत महत्वपूर्ण आर्थिक संसाधन हैं, जो जंगलों में बसे हैं और जिसका इस्तेमाल आदिवासी समुदाय अपनी निस्तार जरूरतों के लिए करते हैं।
एक नवंबर, 1956 में मध्यप्रदेश के पुनर्गठन के समय राज्य की भौगोलिक क्षेत्रफल 442.841 लाख हैक्टेयर था, जिसमें से 172.460 लाख हैक्टेयर वनभूमि और 94.781 लाख हैक्टेयर सामुदायिक वनभूमि दर्ज थी। पांडे ने बताया कि उक्त संरक्षित भूमि को वन विभाग ने अपने वर्किंग प्लान में शामिल कर लिया, जबकि इन जमीनों के बंटाईदारों, पट्टेधारियों या अतिक्रमणकारियों को हक दिए जाने का कोई प्रयास नहीं किया गया।
वह कहते हैं कि वन विभाग ने जिन भूमि को अनुपयुक्त पाया उसमें से कुछ भूमि 1966 में राजस्व विभाग को अधिक अन्न उपजाऊ योजना के तहत हस्तांतरित किया, वहीं अधिकतर अनुपयुक्त भूमि वन विभाग ने “ग्राम वन” के नाम पर अपने नियंत्रण में ही रखा।
ध्यान रहे कि अभी इसी संरक्षित वन में से लोगों को वन अधिकार कानून 2006 के अन्तर्गत सामुदायिक वन अधिकार या सामुदायिक वन संसाधनों पर अधिकार दिया जाने वाला है।
सिन्हां सवाल उठाते हैं कि अगर ये 37 लाख हैक्टेयर भूमि उद्योगपतियों के पास होगी तो फिर लोगों के पास कौन सा जंगल होगा? पांचवीं अनुसूची के क्षेत्रों में पेसा कानून प्रभावी है जो ग्राम सभा को अपने प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण का अधिकार देता है। क्या पीपीपी मॉडल में सामुदायिक अधिकार प्राप्त ग्राम सभा से सहमति ली गई है? वन अधिकार कानून द्वारा ग्राम सभा को जंगल के संरक्षण, प्रबंधन और उपयोग के लिए जो सामुदायिक अधिकार दिया गया है उसका क्या होगा?
विभिन्न नीति एवं कानून के कारण भारत का वन अब तक वैश्विक कार्बन व्यापार में बड़े पैमाने पर नहीं आया है। कई ऐसे गैर सरकारी संगठन हैं जो विश्व बैंक द्वारा पोषित हैं, वे अपने दस्तावेजों में यह कहते हुए नहीं अघाते कि भारत के जंगलवासी समुदाय (आदिवासी प्रमुख रूप से) कार्बन व्यापार परियोजना से लाभान्वित हो सकेंगे। सिन्हा बताते हैं कि ये संगठन आदिवासीयों के बारे में रंगीन व्याख्या कर प्रेरित करते हैं कि उनकी हालत रातों रात सुधर जाएगी।
वहीं, इस संबंध में सीधी जिले के पूर्व वन अधिकारी चंद्रभान पांडे बताते हैं कि कैसे आदिवासी कार्बन व्यापार की जटिलता को समझकर कार्बन भावताव को समझेगा? वह कहते हैं कि कार्बन व्यापार के जरिए (वनीकरण करके) अन्तराष्ट्रीय बाजार से करोड़ों रुपए कमाना ही एकमात्र उद्देश्य निजी क्षेत्र का होगा। वह कहते हैं कि अंत में स्थानीय समुदाय अपने निस्तारी जंगलों से बेदखल हो जाएगा और शहरों में आकर मजूरी कर स्लम बस्तियों की संख्या बढ़ाएगा। एक तरह से सरकार ही अपनी नीतियों के माध्यम से आदिवासियों को उनकी जमीन से विस्थापित कर किसान से मजदूर बनने पर मजबूर कर रही है।(https://www.downtoearth.org.in/hindistory)