विचार/लेख
तुर्की के अधिकारियों ने बुधवार को फ़्रांस की मशहूर व्यंग्य पत्रिका शार्ली एब्दो के कवर पेज पर तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप अर्दोआन के कार्टून के ख़िलाफ़ हमला किया और मैग्ज़ीन पर 'नफ़रत और दुश्मनी का बीज' बोने का आरोप लगाया.
इसके साथ ही तुर्की ने कहा कि वो इस कार्टून के ख़िलाफ़ क़ानूनी और कूटनीतिक क़दम उठाएगा. यह कार्टून तुर्की और फ़्रांस के बीच तनाव को और बढ़ा सकता है. हालांकि इस बीच पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने भी एक ख़त लिखा है, जिसमें उन्होंने मुस्लिम देशों से पश्चिमी देशों के ख़िलाफ़ एकजुट होने की अपील की है.
इन बयानों के बाद भारतीय विदेश मंत्रालय ने भी अपनी प्रतिक्रिया दे दी है. बुधवार को भारतीय विदेश मंत्रालय ने फ़्रांसीसी राष्ट्रपति का समर्थन किया है.
भारतीय विदेश मंत्रालय ने बयान जारी किया है, "अंतरराष्ट्रीय वाद-विवाद के सबसे बुनियादी मानकों के उल्लंघन के मामले में राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों के ख़िलाफ़ अस्वीकार्य भाषा में व्यक्तिगत हमलों की हम निंदा करते हैं. हम साथ ही भयानक तरीक़े से क्रूर आतंकवादी हमले में फ़्रांसीसी शिक्षक की जान लिए जाने की भी निंदा करते हैं. हम उनके परिवार और फ्रांस के लोगों के प्रति संवेदना व्यक्त करते हैं. किसी भी कारण से या किसी भी परिस्थिति में आतंकवाद के समर्थन का कोई औचित्य नहीं है."
भारतीय विदेश मंत्रालय के बयान को भारत में फ़्रांस के राजदूत इमैनुएल लीनैन ने ट्वीट किया है. भारतीय विदेश मंत्रालय का शुक्रिया अदा करते हुए उन्होंने कहा है कि आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई में फ़्रांस और भारत हमेशा एक-दूसरे पर भरोसा कर सकते हैं.
तुर्की अब क्यों ग़ुस्से में
सबसे पहले बात शार्ली एब्दो पत्रिका के कार्टून की जिसके प्रकाशन के बाद एर्दोआन के प्रवक्ता इब्राहिम कालिन ने ट्वीट किया, "हम फ़्रांसीसी पत्रिका में हमारे राष्ट्रपति के बारे में प्रकाशन की कड़ी निंदा करते हैं, इसमें विश्वास, आस्था और मूल्यों का कोई सम्मान नहीं है."
कालिन ने कहा, "नैतिकता और शालीनता रहित इन प्रकाशनों का उद्देश्य नफ़रत और वैमनस्य का बीज बोना है. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को धर्म और आस्था के ख़िलाफ़ शत्रुता में बदलना एक बीमार मानसिकता की उपज ही हो सकती है."
वहीं तुर्की के उपराष्ट्रपति फ़ुआट ऑक्टे ने ट्विटर पर लिखा, "मैं नैतिकता के आधार पर इस घृणा के ख़िलाफ़ बोलने के लिए अंतरराष्ट्रीय समुदाय का आह्वान करता हूं."
क्या है कार्टून में?
फ़्रांसीसी व्यंग्य पत्रिका शार्ली एब्दो ने तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप अर्दोआन का मज़ाक़ उड़ाते हुए एक कार्टून प्रकाशित किया है जिसके बाद तुर्की ने फ़्रांस के ख़िलाफ़ क़ानूनी और कूटनीतिक कार्रवाई की धमकी दे डाली है.
कार्टून में टी-शर्ट और अंडरपैंट में दिख रहे अर्दोआन कुर्सी पर बैठे हैं. उनके दाएं हाथ में बीयर है जबकि बाएं हाथ से वो हिजाब पहने एक महिला की स्कर्ट को पीछे से उठाते दिखाए गए हैं.
पूर्व भूमध्य सागर में तुर्की के प्रतिद्वंद्वी ग्रीस को फ़्रांस से मिल रहे समर्थन पर दोनों देश पहले से ही आपस में उलझे हुए हैं. जब राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने इस्लामी अलगाववाद पर शिकंजा कसने के लिए नए क़दम उठाने की घोषणा की तो तुर्की के राष्ट्रपति अर्दोआन ने कहा कि मैक्रों के मानसिक स्वास्थ्य की जाँच होनी चाहिए.
क्या है ताज़ा मामला?
यह ताज़ा प्रकरण पैग़ंबर मोहम्मद का कार्टून दिखाने वाले सैमुअल पेटी से शुरू हुआ. 16 अक्तूबर को 18 साल के अब्दुल्लाह अंज़ोरोफ़ ने सैमुअल पेटी नामक इस शिक्षक का सिर क़लम कर दिया था.
पेटी के पैग़ंबर मोहम्द के कार्टून को दिखाए जाने के बाद से फ़्रांस में इस्लाम को लेकर जो ताज़ा विवाद शुरू हुआ वो उनकी हत्या के बाद और बढ़ गया.
पेटी पर हमले से दो हफ़्ते पहले राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने कहा था कि इस्लाम ऐसा धर्म है जो संकट में है. उन्होंने इस्लामी अलगाववाद से निबटने के लिए नए क़दम उठाने की घोषणा भी की थी.
सैमुअल पेटी की मौत के बाद फ़्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने कहा कि वो कट्टरवादी इस्लाम से सख़्ती से निबटेंगे और देश की धर्मनिरपेक्षता की रक्षा करेंगे.
हालांकि पैग़ंबर के कार्टून वाले मामले पर समूचे मुस्लिम देशों में नाराज़गी है लेकिन तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप अर्दोआन ने फ़्रांस का खुलकर विरोध किया.
अर्दोआन ने फ़्रांस के सख़्त रुख़ का विरोध करते हुए लोगों से फ़्रांसीसी उत्पाद नहीं ख़रीदने की अपील की थी. उन्होंने कहा, 'फ़्रांसीसी लेबल वाले सामान ना ख़रीदें, उन्हें भाव ना दें.'
टीवी पर प्रसारित अपने संदेश में अर्दोआन ने कहा कि फ़्रांस में मुसलमानों के ख़िलाफ़ ऐसा ही अभियान चलाया जा रहा है जैसा दूसरे विश्व युद्ध से पहले यहूदियों के ख़िलाफ़ चलाया गया था.
उन्होंने कहा कि यूरोपीय देशों के नेताओं को फ़्रांस के राष्ट्रपति से कहना चाहिए कि वो अपना नफ़रत भरा अभियान बंद करें. अर्दोआन इतने पर ही नहीं रुके उन्होंने मैक्रों को निशाने पर लेते हुए यहां तक कहा कि उनके (मैक्रों के) मानसिक स्वास्थ्य की जाँच होनी चाहिए.
तुर्की को यूरोपीय कमीशन की चेतावनी
फ़्रांस के लिए राहत की बात यह रही कि यूरोपीय कमीशन ने खुल कर तुर्की को चेतावनी दी है. कमीशन का कहना है कि तुर्की ने फ़्रांस के सामानों के बहिष्कार का जो आह्वान किया है उससे वो यूरोपीय संघ से अपनी दूरी को ही बढ़ाएगा.
कमीशन के प्रवक्ता ने कहा कि राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप अर्दोआन का बयान तुर्की के लंबे समय से संघ में शामिल होने की महत्वाकांक्षा को एक और झटका है. तुर्की बीते कई सालों से यूरोपीय संघ का सदस्य बनने की कोशिश में लगा है और माना जा रहा है कि बीते 15 सालों में वह इसके बहुत क़रीब पहुँच गया है.
"कट्टरपंथी इस्लामवाद के ख़िलाफ़, मुसलमानों के नहीं"
अर्दोआन के मैक्रों पर 'मानसिक स्वास्थ्य की जाँच' वाले बयान के बाद फ़्रांस के गृह मंत्री जेराल्ड डार्मानिन ने पेरिस में एक रेडियो इंटरव्यू में कहा कि अन्य देशों को फ़्रांस के अंदरूनी मामलों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए.
जेराल्ड डार्मानिन ने कहा, "विदेशी ताक़तें यह सोचती हैं कि फ़्रांस के मुसलमानों का उनसे जुड़ाव है. फ़्रांस के घरेलू मामलों में विदेशी ताक़तों को दख़ल देने का अधिकार किसने दिया?"
जब प्रस्तोता ने उनसे पूछा कि किस 'विदेशी ताक़त' के बारे में आप बात कर रहे हैं?
इस पर डार्मानिन ने कहा, "तुर्की के राष्ट्रपति अर्दोआन के बयान से हम सभी अचंभित हैं, लेकिन और भी देश हैं. उदाहरण के लिए, मैं पाकिस्तान की बात कर रहा हूं जिसने ख़तरे की आशंका जताई है."
फ़्रांस के श्रम मंत्री इलिजाबेथ बोर्ने ने कहा कि फ़्रांस अपने सामानों को बहिष्कार से बचने के लिए अपने मूल्यों को नहीं छोड़ेगा.
उन्होंने कहा, "तथ्य यह है कि सबकुछ बहुत गड़बड़ तरीक़े से पेश किया गया है जो निश्चित ही बहुत अफ़सोसजनक और निंदनीय है. बेशक, हम इन बहिष्कारों को रोकने के लिए वैल्यूज़ को नहीं छोड़ सकते. जो महत्वपूर्ण हैं और जिसे इस देश के लोगों को समझना चाहिए वो यह है कि हम कट्टरपंथी इस्लामवाद के ख़िलाफ़ लड़ना चाहते हैं. लेकिन हम यह मुसलमानों के साथ मिलकर कर रहे हैं उनके ख़िलाफ़ नहीं."
ट्विटर पर भी इस मुद्दे को लेकर कई प्रतिक्रियाएं हैं. एक ट्विटर यूज़र ने लिखा कि अर्दोआन कार्टून पर तो चीख़ रहे हैं लेकिन सैमुअल पेटी के सिर कलम करने पर वो चुप हैं?
इमरान ख़ान ने मुस्लिम देशों को क्या कहा?
इस सब के बीच पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने भी मुस्लिम नेताओं को एक पत्र लिखा है. इसमें उन्होंने इस्लामोफ़ोबिया के ख़िलाफ़ मुस्लिम नेताओं से तत्काल कार्रवाई करने का आग्रह किया है.
दो पन्ने के अपने पत्र को ट्वीट करते हुए इमरान ने लिखा, "मुस्लिम देशों के नेताओं को सामूहिक रूप से ग़ैर-मुस्लिम देशों ख़ासकर पश्चिमी देशों में बढ़ते इस्लामोफ़ोबिया का सामूहिक मुक़ाबला करने के लिए मेरा पत्र. यह दुनिया भर के मुसलमानों में बढ़ती चिंता का कारण बन गया है."
अपने पत्र में उन्होंने लिखा, "आज हम अपने उम्मा (समुदाय) में एक बढ़ती चिंता और बेचैनी का सामना कर रहे हैं क्योंकि वे पश्चिमी देशों में हमारे प्रिय पैग़ंबर पर उपहास और मज़ाक़ के ज़रिए बढ़ते इस्लामोफ़ोबिया और हमलों को देख रहे हैं."
इमरान ने कहा, "इस्लाम, ईसाई धर्म या यहूदी धर्म के किसी भी पैग़ंबर की निंदा हमारे आस्था में अस्वीकार्य थी."
उन्होंने लिखा, "अब समय आ गया है कि मुस्लिम देशों के हमारे नेता इस संदेश को दुनिया के बाक़ी हिस्सों ख़ास कर पश्चिमी दुनिया में एकजुट होकर स्पष्टता के साथ पहुँचाएं ताकि इस्लामोफ़ोबिया, इस्लाम और हमारे पैग़ंबर पर हमले को समाप्त किया जा सके."(bbc)
गिरीश मालवीय
सबसे पहले रिलायन्स की एजीएम में नीता अम्बानी वेक्सीनेशन प्रोग्राम में जियो की महत्वपूर्ण भूमिका का खुलासा करती है फिर भारत के स्वास्थ्य मंत्री हाथ पर लगाने वाले एक स्किन बॉडी सेंसर टैटू का अपने ट्वीट में जिक्र करते हैं फिर किरण मजूमदार शॉ टीकाकरण में क्यूआर कोड को जोडऩे की बात करती है और आज यह बात सामने आ रही है कि वैक्सीन का क्यूआर कोड एक हकीकत है।
कोरोना वैक्सीन को लेकर एक बहुत महत्वपूर्ण खबर आई है। मोदी सरकार जब लोगो को कोरोना वैक्सीन लगाएगी तो उन्हें क्यूआर कोड के रूप में सर्टिफिकेट भी जारी करेगी। संडे एक्सप्रेस को मिली जानकारी के मुताबिक, कोरोना टीकाकरण अभियान का ब्लूप्रिंट तैयार हो चुका है और एक नया ट्रैकिंग प्रोग्राम बनाया गया है जिसे ‘इलेक्ट्रॉनिक वैक्सीन इंटेलिजेंस नेटवर्क’ कहा जा रहा गया है। घरेलू स्तर पर विकसित इस तकनीक से वैक्सीन के स्टॉक की डिजिटल तरीके से निगरानी भी होगी साथ ही इससे वैक्सीन पाने वाले लोगों की भी ट्रैकिंग हो सकेगी। इसके लिए व्यक्ति को वैक्सीन लगने के बाद उसे क्यूआर आधारित डिजिटल सर्टिफिकेट जारी किया जाएगा, जो कि सिस्टम जेनरेटेड होगा
आप ही बताइये कि कोरोना वैक्सीन पाए हुए लोगों की ट्रेकिंग किए जाने का क्या औचित्य है?
कोरोना काल की शुरुआत से ही बता रहा हूँ कि ये वैक्सीन सिर्फ एक वैक्सीन नहीं है यह एक इम्युनिटी पासपोर्ट है जो हमारे कहीं भी मूव करने के लिए एक बेहद जरूरी पंजीकरण है। दरअसल कोरोना के टीके का डिजिटलीकरण करना वैश्विक आईडी 202 के प्रोग्राम का हिस्सा है
क्यूआर कोड के जरिए वेक्सिनाइजेशन सर्टिफिकेट का डिजिटलीकरण करना यह बता रहा है कि यह एक वृहद अंतरराष्ट्रीय षडय़ंत्र है। एक बार यह क्यू आर कोड हमारे पास आ गया तो लोग इसे एक तमगे के बतौर लेकर घूमेंगे.....ओर समाज मे एक नया डिस्क्रिमिनेशन आ जाएगा, जिनके पास यह कोड नही होगा उन्हें मॉल एयरपोर्ट रेलवे स्टेशन जैसी सार्वजनिक जगहों में प्रवेश की अनुमति नहीं दी जाएगी। एक तरह से वे अछूत बना दिए जाएंगे।
15 अगस्त को नरेंद्र मोदी ने नागरिकों के लिए डिजिटल स्वास्थ्य मिशन शुरू करने की घोषणा की थी डिजिटल स्वास्थ्य मिशन के तहत प्रत्येक नागरिक को एक विशिष्ट स्वास्थ्य पहचान नंबर दिया जाएगा। प्रत्येक नागरिक को जो आईडी कार्ड मिलेगा, उसमें उसकी मेडिकल कंडिशन्स की सारी जानकारी होगी। इसमे भी एक क्यूआर कोड की ही बात की गईं थी।
जब इस मिशन का मसौदा रिलीज किया गया तो उसमे बताया गया कि हैल्थ कार्ड के जरिए कलेक्ट किए जाने वाला यह डेटा कैसे ‘व्यक्तिगत और संवेदनशील व्यक्तिगत डेटा’ को कवर करता है !
‘संवेदनशील व्यक्तिगत डेटा’ के रूप में वर्गीकृत किए गए डेटा बिंदुओं में एक व्यक्ति के वित्तीय विवरण, उनके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य, यौन जीवन, चिकित्सा रिकॉर्ड, लिंग और कामुकता, जाति, धार्मिक और राजनीतिक मान्यताओं के साथ-साथ आनुवंशिक और बायोमेट्रिक रिकॉर्ड शामिल हैं।
अब आप स्वयं इस बात का जवाब खोजिए कि हैल्थ डाटा में व्यक्ति के वित्तीय विवरण, यौन जीवन लिंग और कामुकता, जाति, धार्मिक और राजनीतिक मान्यताओं के बारे में जानकारी लेने का क्या मतलब है ?
सबसे पहले रिलायन्स की एजीएम में नीता अम्बानी वेक्सीनेशन प्रोग्राम में जियो की महत्वपूर्ण भूमिका का खुलासा करती है फिर भारत के स्वास्थ्य मंत्री हाथ पर लगाने वाले एक स्किन बॉडी सेंसर टैटू का अपने ट्वीट में जिक्र करते हैं फिर किरण मजूमदार शॉ टीकाकरण में क्यूआर कोड को जोडऩे की बात करती है और आज यह बात सामने आ रही है कि वैक्सीन का क्यूआर कोड एक हकीकत है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
फ्रांस में पैगंबर मोहम्मद के कार्टूनों को लेकर जो हत्याकांड पिछले दिनों हुआ, उसका धुंआ अब सारी दुनिया में फैल रहा है। सेमुएल पेटी नामक एक फ्रांसीसी अध्यापक की हत्या अब्दुल्ला अजारोव नामक युवक ने इसलिए कर दी थी कि उस अध्यापक ने अपनी कक्षा में छात्रों को मोहम्मद साहब के कार्टून दिखा दिए थे।
अब्दुल्ला की भी फ्रांसीसी पुलिस ने गोली मारकर हत्या कर दी। अब यह मामला इतना तूल पकड़ रहा है कि फ्रांस समेत यूरोपीय राष्ट्रों में अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर भारी-भरकम प्रदर्शन हो रहे हैं और इस्लामी उग्रवादियों पर तरह-तरह के प्रतिबंधों की मांग की जा रही है। उधर दुनिया के कई इस्लामी राष्ट्र हैं, जो फ्रांस पर बुरी तरह से बरस रहे हैं और अभिव्यक्ति की इस स्वच्छंदता की भर्त्सना कर रहे हैं। तुर्की के राष्ट्रपति तय्यब एरदोगन ने कहा है कि फ्रांस के राष्ट्रपति अपनी दिमागी जांच कराएं। (कहीं वे पागल तो नहीं हो गए हैं) क्योंकि वे कहते हैं कि इस्लाम फ्रांस के भविष्य को चौपट करने वाला है।
उन्होंने फ्रांसीसी वस्तुओं के बहिष्कार की अपील कर दी है। ऐसी ही अपीलें मलेशिया-जैसे अन्य मुस्लिम राष्ट्र भी कर रहे हैं। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने जरा बेहतर प्रतिक्रिया की है। उन्होंने फ्रांसीसी राष्ट्रपति इमेनुएल मेक्रो से कहा है कि उन्हें इस्लाम-द्रोह फैलाने की बजाय इस दुखद मौके पर ऐसी वाणी बोलनी चाहिए थी, जिससे लोगों के घावों पर मरहम लगता और आतंकवादी कोई भी होता, चाहे वह मुस्लिम या गोरा नस्लवादी या नाजी होता, भडक़ता नहीं। उनके बयान आग में तेल का काम कर रहे हैं। एक तरफ मुस्लिम नेताओं और संगठनों के ऐसे बयान आ रहे हैं और दूसरी तरफ यूरोप के शहरों में पैगंबर मोहम्मद के कार्टूनों के पोस्टर बना-बनाकर दीवारों पर चिपकाए जा रहे हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि कुछ देशों के फ्रांसीसी नागरिकों पर भी जानलेवा हमले शीघ्र ही सुनने में आएं। ये दोनों तेवर मुझे अतिवादी लगते हैं। यदि मुसलमान लोग पैगंबर के चित्र या कार्टून बनाने के विरुद्ध हैं तो उनका सम्मान करने में आपका क्या बिगड़ रहा है ? पैगंबर के कार्टून बनाने से क्या यूरोपीय लोगों को मोक्ष मिल रहा है ?
यही सवाल उन मुसलमानों से पूछा जा सकता है जो हिंदू मूर्तियों और मंदिरों को तोड़ते हैं ? आप बुतपरस्ती मत कीजिए लेकिन क्या बुतशिकन होना जरुरी है ? मुसलमान भाइयों से मैं यह भी कहता हूं कि यदि कुछ उग्रवादी लोग कुछ कार्टून या चित्र बना देते हैं तो उससे क्या इस्लाम का पौधा मुरझा जाएगा ? क्या इस्लाम छुई-मुई का पेड़ है? इस्लाम ने अंधकार में डूबे अरब जगत में क्रांतिकारी प्रकाश फैलाया है। उसे ठंडा न पडऩे दें। (नया इंडिया की अनुमति से)
छह महीने अगर जेल में बिताने पड़ें तो अपने निजी अंगों को किसी को दिखाने का सारा नशा गायब हो जाएगा. फिनलैंड के सांसद देश के यौन दुर्व्यवहार से जुड़े कानूनों में सुधार पर बहस कर रहे हैं. इस दौरान विचार किया जा रहा है कि क्या बिना किसी की अनुमति लिए सेक्स मैसेज भेजने को अवांछित शारीरिक संपर्क की तरह अपराध माना जा सकता है. फिलहाल अवांछित शारीरिक संपर्क के लिए जुर्माने और जेल की सजा का प्रावधान है.
कानून में इस प्रस्तावित बदलाव का मुख्य लक्ष्य बिना मांगे यौन अंगों की तस्वीर भेजने वालों को सबक सिखाना है. डेटिंग साइटों पर बने संपर्क के अलावा भी लोग अपने यौन अंगों की सेल्फी बिना मांगे भेज कर दूसरों को प्रताड़ित करते हैं.
फिनलैंड की सोशल डेमोक्रैटिक पार्टी के सांसद मातियास मैकिनेन ने डीडब्ल्यू से कहा कि कानून बदलने का फैसला कोई मुश्किल काम नहीं है, "यौन दुर्व्यवहार यौन दुर्व्यवहार है, चाहे आप किसी को गलत तरीके से पकड़ें, या फिर गलत बात करें और या फिर गलत तस्वीरें भेजें. इससे फॉर्मेट का कोई लेना देना नहीं है कि आप ने कैसे दुर्व्यवहार किया, आपने इस तरह से व्यहवहार किया जिससे लोगों को पीड़ा हुई."
#Me Too का असर
मैकीमैन संसद की कानून मामलों की समिति में हैं और उनका कहना है कि कानून को तकनीक के साथ विकसित होना चाहिए. उन्होंने कहा कि इंटरनेट और सोशल मीडिया ने लोगों के साथ दुर्व्यवहार के तरीके को बदल दिया और इसे भी कि लोग अलग अलग तरीके के अपराधों के पीड़ित कैसे हो सकते हैं. यह कुछ हद तक 'Me Too' पर हुई चर्चा का नतीजा है. इसके अलावा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बीते सालों में इस पर बहुत चर्चा होती रही है. उम्मीद की जा रही है कि विचार विमर्श की प्रक्रिया का नतीजा सरकार के सामने अगले कुछ महीनों में पेश किया जाएगा और फिर इसके लिए संसद की मंजूरी ली जाएगी.
जर्मन सांसदों ने हाल ही में उन लोगों के लिए सजा का प्रावधान किया है जो बिना सहमति के महिलाओं की क्लीवेज या फिर स्कर्ट के अंदर की तस्वीर लेते हैं. जर्मन संसद के निचले सदन की तरफ से पारित कानून में इस अपराध के लिए जुर्माना या फिर दो साल की सजा देने का प्रावधान किया गया है.
अंतरंग तस्वीरों को अपराध बनाने से क्या बदलेगा?
मेडिकल छात्रा किया किविसिल्ता ने हेलसिंकी के स्कूलों में किशोरियों के लिए कई साल काउंसलिंग की है. वे ऐसे कानून का स्वागत करते हुए कहती हैं कि सजा का प्रावधान करने से ज्यादा सुरक्षा मिलेगी. उन्होंने डीडब्ल्यू से कहा, "यह होना चाहिए - निश्चित रूप से और जितनी जल्दी संभव हो सके उतना जल्दी. मै किसी ऐसे को नहीं जानती जिसे (अनुचित तस्वीरें) ना मिली हों, वास्तव में हर किसी को कम से कम एक बार तो यह मिला ही है. तो यह थोड़ा डरावना है." 24 साल की किया ने बताया कि उन्होंने अवांछित तस्वीर भेजने वाले का सामना किया था लेकिन वो जानती हैं कि वो अपवाद हैं, "कोई लड़की जो 12 या 15 साल की है, वो यह कभी नहीं करेगी क्योंकि उनके पास इतना साहस नहीं होता."
मैकीनेन की तरह किया भी मानती हैं कि सोशल मीडिया पर दुर्व्यवहार को अवांछित शारीरिक संपर्क के बराबर माना जाना चाहिए, उन्होंने खुद भी सिटी बस में एक बार इसका समाना किया. हालांकि उनकी चिंता यह है कि उनकी उम्र के या उनसे छोटे लोग अकसर इसे सामान्य बात मान लेते हैं. हालांकि फिनलैंड के स्कूलों में यह छात्रों को नहीं सिखाया जाता. उन्होंने कहा, "अगर इसे अपराध बना दिया गया तो फिर बच्चों को ज्यादा असरदार तरीके से बताया जा सकेगा कि यह उचित नहीं है."
किया का कहना है कि उन्हें नहीं लगता कि जिन महिलाओं को वे जानती हैं, वे उन्हें गंदी तस्वीरें भेजने वालों के खिलाफ अभियोग लगाने का फैसला करेंगी, बल्कि वे बस उन तस्वीरों को डिलीट कर देंगी. उनका मानना है कि किशोरियों को इस बात का डर रहेगा कि गैरजरूरी ध्यान खींचने के लिए उन पर आरोप लगाए जाएंगे.
किया के पार्टनर तिमोथी कोलैंजेलो एक आइटी एक्सपर्ट हैं और उन्होंने फिनलैंड में कई विदेशी छात्रों को काउंसलिंग में मदद दी है. उन्हें भी उम्मीद है कि कड़े कानून गलत काम करने वालों को रोकेंगे क्योंकि वे लोग फिलहाल, "खुद को सुरक्षित महसूस करते हैं क्योंकि वे गुमनाम हैं और कानून कुछ नहीं कर सकता क्योंकि यह निजता का मामला है."
रास्ते और भी हैं
हालांकि कानून से बाहर रह कर भी लोगों के पास यह ताकत है कि वे दूसरों की गलतियां सामने लाएं. 2017 में स्वीडिश ऐप डेवलपर पेर एक्सबॉम ने लिखा था, "बहुत हो चुका, मैंने इसे जिन लोगों के पास अश्लील तस्वीरें आ रही हैं, उन्हें सशक्त बनाने के मौके के रूप में देखा और अलग अलग पक्षों के बीच शक्ति का संतुलन बनाना चाहा." उन्होंने डिक पिक लोकेटर ऐप बनाया जो तस्वीरों की मेटाडाटा निकाल सकता है. जिन लोगों को अश्लील तस्वीरें भेजी जाती हैं, वे उसे सार्वजनिक करना चाहें तो यह ऐप इसमें मददगार है. एक्सबॉम का कहना है, "मैं किसी के गुमनाम रहने की संभावना को बचाए रखने के कई अहम कारण देखता हूं, लेकिन यह उनमें शामिल नहीं है."
मैकिनेन ने बताया कि आम लोगों के इस प्रस्तावित कानून का विरोध करने पर मांगी गई राय की समय सीमा खत्म हो चुकी है और किसी ने दुर्व्यवहार के कानून में सुधार का विरोध नहीं किया है, "मैं ऐसा कोई कारण नहीं देख रहा हूं जिससे कि यह नहीं होगा." उन्हें उम्मीद है कि बाकी यूरोपीय देश भी फिनलैंड की राह पर चलेंगे.(DW.COM)
रिपोर्ट: टेरी शुल्त्स/एनआर
- प्रमोद जोशी
हाल में ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ के स्तंभकार बेन स्मिथ ने अपने ही अखबार की स्टार रिपोर्टर रुक्मिणी कैलीमाची की रिपोर्टों की कड़ी आलोचना की, तो पत्रकारिता की साख से जुड़े कई सवाल एक साथ सामने आए। अप्रैल, 2018 में जब ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ में रुक्मिणी कैलीमाची और एंडी मिल्स की ‘कैलीफैट’ शीर्षक से दस अंकों की प्रसिद्ध पॉडकास्ट सीरीज शुरू हुई थी, अमेरिका के कई पत्रकारों ने संदेह व्यक्त किया था कि यह कहानी फर्जी भी हो सकती है। संदेह व्यक्त करने वालों में ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ के पत्रकार भी थे। इन संदेहों को व्यावसायिक प्रतिद्वंद्विता और ईर्ष्या-प्रेरित मान लिया गया। अब वही अखबार इस बात की जांच कर रहा है कि कहां पर चूक हो गई।
इस विवाद के उभरने के बाद ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ ने अपने मीडिया रिपोर्टर बेन स्मिथ को पड़ताल का जिम्मा दिया है। बेन स्मिथ मशहूर बाइलाइनों की धुलाई करने वाले रिपोर्टर-स्तंभकार माने जाते हैं। विवाद की खबर आने के बाद इसी अखबार के इराक ब्यूरो की पूर्व प्रमुख मार्गरेट कोकर ने ट्वीट किया कि इस सीरीज का नाम अब बदलकर ‘होक्स’ (झूठ) रख देना चाहिए। यह उनके मन की भड़ास थी। पड़ताल के दिनों में कैलीमाची के साथ मतभेद होने पर उन्होंने इस्तीफा दिया था। ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ ने अब वरिष्ठ संपादकों को इस प्रकरण की जांच का जिम्मा दिया है।
विवाद की शुरुआत
संयोग से जिन दिनों यह सीरीज प्रसारित हो रही थी, उन्हीं दिनों डोनाल्ड ट्रंप ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ समेत अमेरिका के तमाम अखबारों पर फेक न्यूज़ फैलाने का आरोप लगा रहे थे। वह आरोप राजनीतिक खबरों को लेकर था। इस विवाद से पत्रकारिता की साख को धक्का तो लगेगा। इस सीरीज के प्रसारण के समय से ही विवाद खड़े होने लगे थे। इस खबर ने कनाडा की पुलिस के कान खड़े कर दिए। दो साल की तफ्तीश के बाद पुलिस ने 25 सितंबर को शहरोज चौधरी उर्फ अबू हुजैफा अल-कनाडी को गिरफ्तार किया, तो सवालों की झड़ी लग गई है। कैलीमाची की सीरीज में शहरोज चौधरी केंद्रीय पात्र था। अबू हुजैफा उसका जेहादी नाम था। पश्चिम एशिया के आतंकवाद में शामिल होने वाले लोगों के नाम किसी ऐतिहासिक योद्धा के नाम पर रख दिए जाते हैं। बहरहाल उसकी गिरफ्तारी जेहादी गतिविधियों में शामिल होने या किसी की गर्दन काटने की वजह से नहीं हुई, बल्कि इसलिए हुई कि उसका यह दावा गलत साबित हुआ कि वह आइसिस का जल्लाद था। उसे होक्स लॉ या झूठी बातें फैलाने के आरोप में गिरफ्तार किया गया है। यह वैसा ही है जैसे पुलिस को किसी विमान में बम रखा होने की झूठी जानकारी देना। इस आदमी ने कई मीडिया हाउसों को बताया था कि वह 2016 में सीरिया गया था, जहां आईसिस में शामिल होकर जेहादी गतिविधियों में शामिल हुआ। जिस वक्त कैलीमाची की स्टोरी की जांच चल रही थी, तब इंटरनेशनल एडिटर माइकल स्लैकमैन और एक और संपादक मैट पडी ने टिप्पणी भी की थी कि अबू हुफैजा का विवरण बहुत भयानक है, पर पुष्ट नहीं है।
संदेह तब भी थे
इस अंदरूनी जांच की वजह से पॉडकास्ट टीम के संवाददाताओं से कहा गया कि वे इस बात की पुष्टि करें कि अबू हुजैफा का विवरण सही है। शायद इसी वजह से एपिसोड-6 के सब-टाइटल में लिखा गया ‘समथिंग वॉज ऑफ’, यानी कुछ गड़बड़ है। छठे एपिसोड में संवाददाताओं ने कहा कि अबू हुजैफा ने घटनाओं की जो सूची दी है, वह सही नहीं है। उसने ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ को बताया कि उसने दो हत्याएं कीं और ‘सीबीसी न्यूज’ बताया कि वह तो मामूली पुलिसवाला था, उसने कोई हत्या नहीं की।
‘सीबीसी’ के रिपोर्टर से उसने कैलीमाची से बात करने के एक साल पहले बात की थी। बहरहाल बावजूद इसके स्टोरी जारी रही। पर ‘सीबीसी’ के रिपोर्टर ने जब बाद में उससे पूछा कि दोनों रिपोर्टों में यह फर्क है, तो उसने कहा कि मैंने ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ को गलत जानकारी दी। अब इस प्रकरण की पड़ताल करते हुए ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ के रिपोर्टर बेन स्मिथ ने लिखा है कि वे संदेह कैलीमाची या पॉडकास्ट टीम की ओर से नहीं आए थे बल्कि दूसरे आंतरिक संपादकों ने व्यक्त किए थे। अगस्त, 2018 में अमेरिकी पत्रिका ‘द बैफलर’ में रफिया जकारिया ने लिखा कि इस पॉडकास्ट सीरीज को इतना महत्व नहीं मिलना चाहिए। जकारिया ने यह भी लिखा कि ‘आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई’ ने शिकारी पत्रकारिता को जन्म दे दिया है। पॉडकास्ट सीरीज के बाद कैलीमाची ने ‘आइसिस फाइल्स’ शीर्षक से एक सीरीज ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ में लिखी। कैलीमाची और उनके साथियों ने इस सीरीज के लिए इराकी सेना के साथ मिलकर काम किया था और 15,000 फाइलें तैयार कीं जिन्हें ‘आइसिस फाइल्स’ कहा जाता है। इनका डिजिटाइजेशन, अनुवाद और विश्लेषण किया गया। ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ और जॉर्ज वॉशिंगटन विश्वविद्यालय ने इनका इसी साल ऑनलाइन प्रकाशन भी किया है। अब कहा जा रहा है कि कैलीमाची ने इराक सरकार से इन दस्तावेजों को हासिल करने की अनुमति नहीं ली थी। आलोचकों का कहना है कि कुल मिलाकर यह पड़ताल से ज्यादा व्यक्ति केंद्रित पत्रकारिता है। उनका कहना है कि इस सीरीज में अबू हुजैफा की जगह कैलीमाची केंद्रीय पात्र बन गई हैं जो अनुचित है। इस विवाद के बाद अब उनकी दूसरी रिपोर्टों पर भी सवाल उठ रहे हैं। उन पर आरोप है कि उन्होंने अमेरिकी पत्रकार जेम्स फोले के साथ दुर्व्यवहार किया था। फोले की सन 2014 में आईसिस ने हत्या की थी। इन दिनों अमेरिकी पत्रकार कैलीमाची की आलोचना करते हुए कॉलम लिख रहे हैं। कुछ साल पहले तक ऐसा संभव नहीं था क्योंकि तब कैलीमाची का सितारा बुलंद था।
स्टार पत्रकारिता के जोखिम
रुक्मिणी कैलीमाची को अल कायदा और इस्लामिक स्टेट की जबर्दस्त रिपोर्टिंग के कारण ख्याति मिली है। उनकी इन रिपोर्टों को पॉडकास्टिंग पत्रकारिता के मील का पत्थर बताया गया था। इन रिपोर्टों को पिछले एक दशक के सबसे उल्लेखनीय पत्रकारीय कर्म में शामिल किया गया है। साथ ही उनकी साख बेहद विश्वसनीय स्टार रिपोर्टर के रूप में स्थापित हो गई थी। फिलहाल दोनों पर सवालिया निशान हैं और अब इस बात की पड़ताल हो रही है कि ऐसा हो कैसे गया।
रुक्मिणी मारिया कैलीमाची रोमानिया मूल की अमेरिकी पत्रकार हैं जो ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ के लिए काम करती हैं। उनका नाम रुक्मिणी इसलिए है क्योंकि उनका परिवार भारत में थियोसोफिकल सोसायटी से जुड़ा था जिसकी नींव भारत में श्रीमती एनी बेसेंट ने रखी थीं। इसी सोसायटी से श्रीमती रुक्मिणी देवी अरुंडेल जुड़ी थीं जिन्होंने चेन्नई में कला क्षेत्र की स्थापना की थी। श्रीमती अरुंडेल के नाम पर उनका नाम रुक्मिणी मारिया कैलीमाची रखा गया था।
इनका परिवार रोमानिया में कम्युनिस्ट शासन के दौरान भागकर अमेरिका आ गया था। पत्रकार के रूप में उन्होंने दिल्ली में भी कुछ समय के लिए काम किया। पर उनका सबसे उल्लेखनीय काम पश्चिम एशिया में आतंकवाद से जुड़ी रिपोर्टिंग का है, खासतौर से अल कायदा और इस्लामिक स्टेट की अंदरूनी जानकारियों को दुनिया के सामने लाने का श्रेय उन्हें जाता है। इसके लिए उन्हें दो बार पुलित्जर पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है।
कैलीमाची को सन 2014 में ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ ने इस्लामी आतंकवाद को कवर करने का जिम्मा दिया। रुक्मिणी न केवल इस इलाके से अच्छी तरह परिचित थीं बल्कि यहां की भाषा का भी उन्हें अच्छा ज्ञान है। इस रिपोर्टिंग के कारण ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ को पुलित्जर पुरस्कार मिला। उनके पॉडकास्ट, यानी ऑडियो रिपोर्टिंग ने पत्रकारिता के नए आयाम स्थापित किए। अप्रैल, 2018 में ‘कैलीफैट’, यानी खिलाफत शीर्षक से उनकी पहली ऑडियो डॉक्यूमेंट्री जारी हुई, जिसमें उन्होंने इस्लामिक स्टेट की गतिविधियों को उजागर किया।
हमारे लिए सबक
खिलाफत वैश्विक इस्लामी साम्राज्य की प्राचीन अवधारणा है जिसे लेकर इस्लामिक स्टेट ने सिर उठाया था। इराक और सीरिया के एक बड़े इलाके पर इस गिरोह ने कब्जा कर लिया था। अपहृत व्यक्तियों और दुश्मनों की हिंसक तरीके से हत्याएं करने के वीडियो यह संगठन जारी करता था। आईएस से कथित रूप से जुड़े अबू हुजैफा अल-कनाडी (द कैनेडियन) का दावा था कि उसने आईएस की ओर से लड़ते हुए तमाम लोगों की हत्या की थी। मई, 2018 में ‘सीबीसी न्यूज’ की टीवी पत्रकार डायना स्वेन ने संदेह व्यक्त किया था कि यह आदमी ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ से झूठ बोल रहा है। और अब सितंबर, 2020 में कनाडा पुलिसने उसी अबू हुजैफा को गिरफ्तार कर लिया है।
इस आदमी का असली नाम है शहरोज चौधरी। पाकिस्तानी मूल के इस व्यक्ति पर होक्स (झूठ) गढ़ने का आरोप है। इस गिरफ्तारी के बाद से ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ ने इस खबर की पड़ताल फिर से कराने का फैसला किया है। और अब ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ और ‘वॉशिंगटन पोस्ट’ से लेकर कोलम्बिया जर्नलिज्म रिव्यू तक उनकी सीरीज की फिर से समीक्षा कर रहे हैं। भारत की पत्रकारिता के लिए भी इसमें कुछ सबक हैं, पर शायद अभी हम जानते नहीं कि कैलीमाची कौन है और उसका विवाद क्या है।(https://www.navjivanindia.com/)
ज़ुबैर अहमद
'धर्म विहीन राज्य' ही फ़्रांस का सरकारी धर्म है. ये आपको भले ही चौंका देने वाला लगे, लेकिन सच ये है कि 'laicite' या लैसिते या 'धर्म से मुक्ति' ही इसकी राष्ट्रीय विचारधारा है.
फ़्रांसी की राजनीति पर गहरी नज़र रखने वाले डॉमिनिक मोइसी ने लैसिते पर टिप्पणी करते हुए एक बार कहा था कि ये ऊपर से थोपी गई एक प्रथा है. उन्होंने कहा था, "लैसिते गणतंत्र का पहला धर्म बन गया है."
'लैसिते' शब्द फ़्रांस में इस समय सबसे अधिक चर्चा में है. हाल ही में फ़्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों के इस्लाम पर दिए गए बयान को इसी पृष्ठभूमि में देखा जा सकता है. उन्होंने पैग़ंबर मोहम्मद के कार्टून दिखाने के एक फ़्रांसीसी शिक्षक के फ़ैसले का समर्थन किया था और शिक्षक की हत्या के बाद कहा था कि इस्लाम संकट में है.
उन्होंने फ़्रांस में इस्लाम को फ़्रांस के हिसाब से ढालने की बात भी कही थी. उसके बाद से उनके और मुस्लिम देशों के कई नेताओं के बीच ठन गई है. कई मुस्लिम देशों में फ़्रांस में बनी चीज़ों के बहिष्कार की मांग की जा रही है.
फ़्रांस में 16 अक्तूबर की घटना ने वहाँ के लोगों को झकझोर कर रख दिया है. पैग़ंबर मोहम्मद का कार्टून दिखाने वाले शिक्षक की 18 साल के एक मुस्लिम लड़के ने दिनदहाड़े हत्या कर दी.
इस हत्या के बाद देश भर में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन भी हुए थे. राष्ट्रपति के बयान ने मुस्लिम देशों के नेताओं और समाज को नाराज़ तो किया ही, साथ ही लैसिते में परिवर्तन को लेकर भी बहस छिड़ गई है.
कट्टर धर्मनिरपेक्षता या लैसिते क्या है?
Laicite फ़्रांसीसी शब्द laity से निकला है, जिसका अर्थ है- आम आदमी या ऐसा शख़्स, जो पादरी नहीं है.
लैसिते सार्वजनिक मामलों में फ़्रांस की धर्मनिरपेक्षता का सिद्धांत है, जिसका उद्देश्य धर्म से मुक्त समाज को बढ़ावा देना है.
इस सोच का विकास फ़्रांसीसी क्रांति के दौरान शुरू हो गया था.
इस विचारधारा को अमलीजामा पहनाने के लिए इसे 1905 में एक क़ानून के तहत सुरक्षित और सुनिश्चित कर दिया गया.
इस क़ानून में धर्म और राज्य को अलग-अलग कर दिया गया. मोटे तौर पर ये विचार संगठित धर्म के प्रभाव से नागरिकों और सार्वजनिक संस्थानों की स्वतंत्रता को दर्शाता है.
सदियों तक यूरोप के दूसरे देशों की तरह फ़्रांस में भी रोमन कैथोलिक चर्च का ज़ोर रहा है.
इस संदर्भ में धर्म से मुक्त समाज का विकास सराहनीय था. 20वीं शताब्दी के शुरू में लैसिते एक क्रांतिकारी सोच थी. लेकिन इसे राष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रिय बनाने में दशकों लग गए. इसे लोगों तक पहुँचाने के लिए राज्य ने एक संस्था बनाई, जिसे फ़्रांसीसी भाषा में 'ऑब्ज़र्वेटॉइर डे लैसिते' या 'धर्मनिरपेक्षता की संस्था' कहा जाता है.
इस संस्था की वेबसाइट पर लैसिते की परिभाषा कुछ इस तरह है- लैसिते अंतरात्मा की स्वतंत्रता की गारंटी देता है.
धर्म का कहाँ है स्थान
इसका मतलब हुआ कि हर किसी को अपने धर्म का अपने तरीक़े से पालन करने की इजाज़त होगी, लेकिन ये क़ानून से बड़ा नहीं होगा, बल्कि उसके दायरे में ही रहेगा.
लैसिते के अंतर्गत धर्म के मामले में राज्य तटस्थ होता है और धर्म या संप्रदाय के आधार पर भेदभाव किए बिना क़ानून के समक्ष सभी की समानता के सिद्धांत को लागू करता है.
ये संस्था आगे कहती है, "धर्मनिरपेक्षता आस्तिक और नास्तिक दोनों ही लोगों को उनकी मान्यताओं की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के समान अधिकार की गारंटी देती है. ये धर्म को मानने या ना मानने या धर्म परिवर्तन के अधिकार को भी सुनिश्चित करता है. ये उपासना के तौर-तरीक़े की आज़ादी देता है, लेकिन साथ ही धर्म से मुक्ति की भी."
यहाँ ये समझना ज़रूरी है कि लैसिते या 'धर्म विहीन होने की सोच' को फ़्रांस के दक्षिणपंथी और वामपंथी दोनों तरह के नेताओं ने अपनाया है और ये अब फ़्रांस की राष्ट्रीय पहचान है.
पिउ रिसर्च के मुताबिक़, 2050 तक फ़्रांस में 'धर्म विहीन होने की सोच' पर यक़ीन रखने वाले लोगों का समूह सारे मजहबी समूहों से ज़्यादा बड़ा बन जाएगा.
फ़्रांस के पूर्व राष्ट्रपति निकोलस सर्कोज़ी ने एक बार कहा था कि लैसिते के साथ कोई सौदा या समझौता नहीं किया जा सकता है.
धर्मनिरपेक्षता को और भी मज़बूत बनाने के लिए फ़्रांस ने 2004 में स्कूलों में हिजाब पर प्रतिबंध लगा दिया था और छह साल बाद सार्वजनिक स्थानों पर चेहरे को ढँकने वाले नक़ाब को प्रतिबंधित कर दिया.
फ़्रांस में इससे भी कड़े क़दम उठाने की मांग की जा रही है और उनकी माँगें जल्द ही पूरी हो सकती हैं.
दो अक्तूबर को राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने एक क़ानून लाने की घोषणा की थी, जिसके तहत 'इस्लामी कट्टरपंथ' का मुक़ाबला करने के लिए फ़्रांस के लैसिते या धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को और भी मज़बूत बनाने की बात कही.
मैक्रों ने इसी भाषण में कहा कि 'इस्लाम संकट में है', जिसका मुस्लिम देशों ने विरोध किया.
धर्मनिरपेक्षता को मज़बूत करने की मांग की वजह
फ़्रांस के मार्से शहर में मोरक्को मूल के एक युवा आईटी प्रोफ़ेशनल यूसुफ़ अल-अज़ीज़ कहते हैं, "मेरे विचार में लैसिते (धर्मनिरपेक्ष मूल्यों) के बचाव और इसे और भी दृढ़ बनाने का प्रयास हवा में नहीं किया जा रहा है. इसका मुख्य कारण फ़्रांस और यूरोप में कट्टर इस्लाम का पनपना है. मैड्रिड या लंदन में आतंकवादी हमले हों या फिर डच फ़िल्म निर्माता थियो वैन गॉग की हत्या या हाल ही में पैग़ंबर मोहम्मद के कार्टून को नापसंद करने पर हिंसा और विरोध. इन घटनाओं को फ़्रांस के धर्मनिरपेक्ष मूल्यों पर हमले की तरह से देखा गया. जब सार्वजनिक जगहों पर हिजाब और बुर्क़े पर प्रतिबंध लगाए गए, तो फ़्रांस के मुसलमानों ने इसे इस्लाम और उनके धर्म पर अंकुश लगाने की तरह से देखा, जिससे मामला और भी उलझ गया."
युसूफ़ अल-अज़ीज़ी कहते हैं, "फ़्रांस के मुसलमानों को लगता है कि लैसिते की आड़ में उन्हें टारगेट किया जाता है. देखिए, ज़रा ग़ौर कीजिए कि फ़्रांस में ईसाइयों के बाद मुसलमान सबसे अधिक संख्या में हैं. हम फ़्रांस की आबादी के 10 प्रतिशत हिस्से से अधिक हैं. वो लगभग सभी अपने मजहब पर चलने वाले हैं. मैं लिबरल हूँ, लेकिन अपने मजहब को मानता हूँ. देश की बाक़ी 90 प्रतिशत आबादी में से बहुमत उनका है, जो किसी धर्म को नहीं मानते. तो ज़ाहिर है कि धर्म को लेकर कोई भी नया क़ानून बनेगा, तो मुस्लिम ये समझेंगे कि ये उनके ख़िलाफ़ है."
यूसुफ़ फ़्रांस में ही पैदा हुए और वहीं पले-बढ़े. उनकी पत्नी गोरी नस्ल की हैं. वो कहते हैं, "मैं फ़्रांस की मुख्यधारा का अटूट हिस्सा हूँ, लेकिन मुझे भी समाज में अरब की तरह से देखा जाता है." उनका तर्क है कि मुसलमानों को शांतिपूर्ण तरीक़ों से अपने धार्मिक विश्वास को व्यक्त करने की अधिक स्वतंत्रता देने से वो फ़्रांस को अपने घर की तरह, अपने वतन की तरह अधिक अपनाएँगे.
ख़ुद फ़्रांस में आज ये चर्चा हो रही है कि लैसिते काम नहीं कर रहा है.
हाई स्कूल शिक्षिका मार्टिन ज़िबलेट के अनुसार, "अगर एक तरफ़ इस्लामी कट्टरपंथ में उछाल आया है, तो दूसरी तरफ़ मेरे समाज में (गोरी नस्ल के फ़्रांसीसी समाज में) इस्लाम विरोधी विचार बढ़ा है." उनके अनुसार इस्लामी कट्टरपंथ को रोकने के उपाय तो किए जा रहे हैं, लेकिन इस्लामोफ़ोबिया को रोकने के लिए कोई क़ानून नहीं बनाया गया है.
यूसुफ़ इनसे सहमत हैं. वो कहते हैं कि उनके समाज में ये बात आमतौर से महसूस की जाती है कि लैसिते का सहारा लेकर राज्य उनके साथ भेदभाव करता है.
फ़्रांस के एक पूर्व मंत्री बुनुआ अपारु को आपत्ति इस बात पर है कि जिस मजहबी कट्टरपंथ के ख़िलाफ़ लैसिते को आगे बढ़ाया गया है, वो कट्टरपंथ ख़ुद सेक्युलर लोगों में मौजूद है. उन्होंने हाल में एक इंटरव्यू में लैसिते को धर्मनिरपेक्ष अधिनायकवाद कहा था.
बुनुआ अपारु का कहना है,"सहिष्णुता (दमन नहीं) एक ऐसी नीति है, जो एक बहुसांस्कृतिक समाज के साथ वास्तव में तालमेल बिठाती है."
फ़्रांसीसी संस्कृति और समाज में लैसिते की गहरी जड़ों को देखते हुए, ये काम आसान नहीं होगा. जैसा कि राष्ट्रपति मैक्रों कहते हैं, "लैसिते गणतंत्र का एक मूलभूत सिद्धांत है."
दक्षिणपंथी नेशनल फ़्रंट पार्टी, जो मरीन ले पेन के नेतृत्व में हाल के चुनावों में फली-फूली है, बड़े पैमाने पर ख़ुद को लैसिते के रक्षक के रूप में पेश करके सफल हुई है.
इसी देश के कुछ सियासी विशेषज्ञ इस्लाम पर राष्ट्रपति के बयान को एक सियासी बयान मानते हैं, क्योंकि राष्ट्रपति का चुनाव डेढ़ साल में होने वाला है और मरीन ले पेन की लोकप्रियता बढ़ती जा रही है. मरीन ले पेन के आलोचक मानते हैं कि उनका लैसिते 'इस्लामोफ़ोबिया के विरुद्ध केवल एक मखौटा है', लेकिन उनकी बढ़ती लोकप्रियता सत्ता में आने का रास्ता खोल सकती है. (bbc.com/hindi)
-बादल सरोज
और जरा सी गर्मी पकड़ते ही मध्यप्रदेश का अभियान भी घसीटकर अपनी पसंदीदा पिच पर ले आया गया। आमफहम भाषा में कहें, तो दोनों प्रतिद्वंदी दलों की राजनीति अपनी औकात पर आ गई और निशाना स्त्री बन गई।
पूर्व मुख्यमंत्री 73 वर्षीय कमलनाथ को कल तक उन्हीं के मंत्रिमंडल की सदस्य रही, अब दलबदल कर फिर से मंत्री बन चुनाव लड़ रही डबरा की महिला उम्मीदवार ‘आइटम’ नजर आने लगी, तो इस पर कुछ घंटों का मौनव्रत रखकर नौ सौ चूहे खाने वाली बिल्ली भाजपा भी हज के लिए निकल पड़ी। स्त्री सम्मान के लिए सज-धजकर उतरी भाजपा और शिवराज सिंह सहित उसके नेताओं के मौन-पाखण्ड वाली नौटंकी के शामियाने भी नहीं खुले थे कि उन्हीं की पार्टी के चिन्ह से उपचुनाव लड़ रहे दलबदल कर मंत्री बने बिसाहू लाल सिंह ने बाकायदा कैमरों और मीडिया के सामने अपने प्रतिद्वंद्वी की पत्नी के खिलाफ निहायत आपत्तिजनक और भद्दी टिप्पणी कर दी।
इन दोनों ही मामलों में दो उजागर अंतर थे और वो ये कि कमलनाथ के बयान की उनकी पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने निंदा की, मगर बिसाहूलाल सिंह के कहे की भत्र्सना करने के लिए राष्ट्रीय तो छोडिय़े, प्रदेश भाजपा अध्यक्ष या मुख्यमंत्री तक ने जुबान नहीं खोली। दूसरा फर्क यह था कि इन अमर्यादित कथनों पर पर्याप्त थुक्का-फजीहत होने के बाद भी दोनों में से एक ने भी अपने कहे को वापस नहीं लिया। कमलनाथ ने जहां ‘अगर किसी को बुरा लगा हो तो’ कहकर इतिश्री मान ली, तो बिसाहूलाल अपने कहे को दोहराकर उसे सही साबित करने की कोशिश में आज तक हैं।
नारियों के लिए बेहूदा और अक्सर अश्लील टिप्पणियां करने के मामले में भारत के राजनेताओं-पूंजीवादी-भूस्वामी राजनीति के पुरोधाओं का कलुषित और कलंकित रिकॉर्ड भरापूरा है। इनका दस्तावेजीकरण किया जाए, तो यह इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका के अब तक के सारे खण्डों से ज्यादा बड़े आकार का ग्रन्थ बन सकता है।
नरेंद्र मोदी के शीर्ष पर आने के बाद इसे और समृद्ध बनाने में खुद उन्होंने भी विकट योगदान दिया है। बुंदेली कहावत ‘जैसे जाके नदी नाखुरे तैसे ताके भरिका-जैसे जाके बाप महताई तैसे ताके लरिका’ की तर्ज पर उनकी पार्टी के कारकूनों और भक्तों ने भी इस मामले में जमकर गंदगी फैलाई है। सारे का सारा राजनीतिक बतकहाव स्त्री को लज्जित करने वाले रूपकों, मुहावरों, बिम्बों और उपमाओं की कीच में सना और लिथड़ा हुआ है। सोनिया गांधी से सफूरा जरगर तक, बृन्दा करात से सुभाषिणी अली तक, मायावती से ममता बनर्जी तक आलोचनाएं और विमर्श उनकी नीति या राजनीति पर नहीं, उनके स्त्रीत्व पर केंद्रित रहे हैं।
भाजपा ने उसे नई नीचाई दी है। उसने अपने इस अभियान से उन स्त्रियों को भी नहीं बख्शा, जो अब इस दुनिया में नहीं रहीं। वे चाहें इंदिरा गांधी हों या 50 करोड़ की गर्ल फ्रेंड बताई गई सुनन्दा पुष्कर हों या हाल में हाथरस में सामूहिक बलात्कार के बाद मार डाली गई मनीषा वाल्मीकि हो। भाजपाई इस महिला धिक्कार और तिरस्कार के मामले में पूरी तरह दलनिरपेक्ष हैं। उन्होंने इस तरह के दुष्प्रचार में अपनी ही नेता रही (और तनिक व्यवधान के बाद अब फिर उनकी ही नेता) उमा भारती से लेकर अपनी ही बाकी नेत्रियों की निजता को भी नहीं छोड़ा।
भारत की राजनीति में जाति श्रेष्ठता हो या राजनीति, विजय का ध्वजारोहण हमेशा स्त्री देह में गाड़ कर ही किया जाता है। जीते कोई भी, हराई हमेशा औरत ही जाती है।
यह सिर्फ यौनकुंठा का मनोरोग नहीं है। यह पोलियो के साथ जन्मे, गर्भनाल से ही कुपोषित और हमेशा वेंटीलेटर पर रहे राजनीतिक लोकतंत्र और कभी साँस न ले पाए सामाजिक लोकतंत्र की मौजूदा अवस्था की एक्सरे और पैथोलॉजी रिपोर्ट है। यह पितृसत्तात्मकता (सही शब्द होगा पुरुष सत्तात्मकता) की गलाजत का दलदल है-जिन्हें कथित धर्मग्रंथों ने खूब महिमामण्डित किया है, मनु जैसों की स्मृतियों ने संहिताबद्ध किया है और देश-प्रदेश के सर्वोच्च पदों पर डटे नेताओं और संवैधानिक कहे जाने वाले व्यक्तियों ने अपने मुखारबिन्द से दोहरा दोहरा कर गौरवान्वित किया है।
नतीजे में यह इतनी संक्रामक है कि जनता के बड़े हिस्से खासकर पुरुषों के विराट बहुमत हिस्से को बिल्कुल भी खराब या गलत नहीं लगती। उनकी खुद की समझदानी के आकार में इतनी फिट बैठती है कि वे इसे सहज और सच्चा मान लेते हैं। इसका रस लेते हैं। यही वजह है कि राहुल गांधी के क्षोभ जताने की टिप्पणी को कमलनाथ ‘यह उनकी निजी राय है’ कहकर टाल देते हैं। भाजपा अपने नेताओं की इस तरह की बातों का संज्ञान तक नहीं लेती। उन्हें पता है कि ‘उनकी जनता’ इस तरह की बातों का बुरा नहीं मानती। इसलिए असली समस्या ये बदजुबानदराज नेता या इस तरह की बातें करने वाले ‘बड़े’ नहीं है।
सारी समस्या है जनता की वह चेतना, जिसे ये ‘अपनी’ कहते-मानते हैं और उसे अपनी तरह का बनाये रखने में जी-जान से भिड़े रहते हैं। असल सवाल है उस सामाजिक लोकतांत्रिक चेतना की कायमी का, जिसमें एक ऐसी मानवीय चेतना पल्लवित की जाए कि खार और काँटों के लिए जगह ही नहीं बचे। यह अपने आप में होने वाला काम नहीं है। आसान काम तो बिलकुल भी नहीं है।
इसके लिए सदियों पुराने कूड़े और करकट को झाड़-बुहार-समेट कर आग के हवाले करना होगा, बंजर बना दिए गए सोच-विचार की जमीन को उर्वरा बनाना होगा, अंधविश्वासों और कुरीतियों की झाड़-झंखाड़ साफ करके वैज्ञानिक मानवीय रुझानों के खाद-बीज रोपने होंगे। बोलने-सोचने-समझने की पूरी वर्तनी, उसमे लिखी गई कथा-कहानियाँ, मुहावरे-लोकोक्तियाँ बदलनी होंगी। स्त्री और सामाजिक शोषितों के साथ हुए ऐतिहासिक धतकरम अन्याय थे, यह स्वीकारना होगा।
जो वर्तमान, इतिहास की गलतियों के लिए हाथ जोडक़र माफी मांगता है, वही अपने पाँवों से अच्छे भविष्य की ओर सरपट दौड़ लगाने की क्षमता से परिपूर्ण होता है। और ठीक यही काम है, जो आजादी के बाद भारत की सत्ता में आया शासक वर्ग नहीं कर सका/नहीं कर सकता।
कम्युनिस्टों को छोड़ दें, जिन्होंने हमेशा पितृसत्ता और मनुवाद के सांड़ को सींगों से पकडऩे की कोशिश की है, तो उनके अलावा भारत की राजनीतिक धारा में सिर्फ बाबा साहेब आंबेडकर थे, जिन्होंने लोकतांत्रिक समाज के निर्माण की दिशा में महिला प्रश्न को जरूरी तवज्जोह दी और उसे सर्वोच्च प्राथमिकता पर रखा। यह बात अलग है कि खुद को उनका अनुयायी मानने वालों ने ही वोट की तराजू का पलड़ा भारी रखने के लिए महिलाओं से जुड़े प्रश्नो की तलवार उठाने वाले अम्बेडकर को गहरे में दफना दिया और स्त्री को शूद्रातिशूद्र बताने वाले मनु का तिलक लगा लिया।
जाहिर है, यह काम अब लोकतंत्र और संविधान बचाने की लड़ाई लडऩे वालों को अपने हाथ में लेना होगा। कारपोरेट की लूट, जाति-श्रेणीक्रम आधारित सामाजिक शोषण के विरुद्ध लड़ते-लड़ते महिला मुक्ति के सवाल पर भी लडऩा होगा। स्त्री को हेय और दोयम समझने की मानसिकता को झाड़ बाहर करना होगा। अपने अंदर भी और बाहर भी!
(लेखक सीपीएम के मध्यप्रदेश के एक वरिष्ठ नेता हैं, पाक्षिक लोकजतन के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।)
-डॉ. संजय शुक्ला
सोशल मीडिया प्लेटफार्म फेसबुक के भारत के पब्लिक पॉलिसी डायरेक्टर आंखी दास के फेसबुक से इस्तीफा देने की खबर आज के अखबारों की सुर्खियां बनींं। गौरतलब है कि आंखी दास पिछले कुछ दिनों से देश के विपक्षी सियासी दलों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और पत्रकारों के निशाने पर थीं। इनका आरोप था कि फेसबुक भाजपा नेताओं के हेट स्पीच, आपत्तिजनक सामग्रियों को प्लेटफार्म से हटाने में पक्षपात और कोताही बरत रही है और इसमें आंखी की भूमिका है। इस मामले में वे हाल ही में संसदीय समिति के सामने पेश भी हुई थीं।
बहरहाल वैश्विक महामारी कोरोना के मौजूदा दौर में जब आम लोगों तक पारंपरिक मीडिया की पहुँच सीमित है और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की भूमिका पक्षपातपूर्ण और अतिरंजित हैतब सोशल मीडिया की भूमिका एक बार फिर सवालों के घेरे में है। आम आदमी का संसद माने जाने वाली सोशल मीडिया अब देश के राजनीतिक, सांप्रदायिक, सामाजिक और सांस्कृतिक सौहार्द्र के लिए अनेक मुसीबतें खड़ी कर रही है।
हाल ही मेंं केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट मेंं कहा है कि डिजिटल मीडिया जिसकी पहुंच सोशल मीडिया मेंं काफी तेज है अपने आपत्तिजनक और अश्लील वेब सीरिज, सांप्रदायिक और जातिगत आरक्षण पर केंद्रित कार्यक्रमों के कारण अनियंत्रित है। दूसरी ओर सोशल मीडिया प्लेटफार्म मेंं वायरल हो रहे अनेक आपत्तिजनक और अश्लील कंटेंट्स , फोटो व मीम, फेक न्यूज, हिंसात्मक गतिविधियों को उकसाने व अशिष्ट आचरण के कारण देश का राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक सौहार्द्र बिगड़ रहा है।
बहरहाल यह पहला अवसर नहीं है जब सोशल मीडिया के निरंंकुशता पर सरकार और अदालतों ने चिंता जाहिर की हो पहले भी इस मीडिया पर नकेल कसने की कवायद हुई थी लेकिन नतीजा सिफर रहा है। सोशल मीडिया से जुड़े शीर्षस्थ अधिकारी की मानें तो यह मीडिया किसी सुचारू रूप से चल रहे लोकतांत्रिक ढांचे को बहुत हद तक नुकसान पहुंचा सकता है। उपरोक्त तथ्यों की पुष्टि देश में घटित कुछ सांप्रदायिक और जातिवादी हिंसा और राजनीतिक घटनाओं में सोशल मीडिया की भूमिका से होती है।
गौरतलब है कि इंटरनेट क्रांति के वर्तमान दौर में सोशल मीडिया का वर्चस्व बड़ी तेजी से बढ़ते जा रहा है, आज हर आयु वर्ग के महिला और पुरुष इस मीडिया से जुड़े हैं लेकिन युवाओं की तदाद काफी ज्यादा है। साल २०१४ की तुलना में अब देश में इंटरनेट यूजर्स की संख्या में १०८ फीसदी और सोशल मीडिया यूजर्स में १५५ फीसदी का इजाफा हुआ है। यह एक ऐसा माध्यम है जिसने दशकों पुराने पारंपरिक मीडिया को पीछे छोड़ दिया है परंतु अब इस मीडिया का नकारात्मक स्वरूप सामने आने लगा है।
देश की अनेक विपक्षी राजनीतिक पार्टियों ने पहले भी यह आरोप लगाया था कि सोशल मीडिया प्लेटफार्म फेसबुक और व्हाट्सऐप पर आरोप लगा रहीं हैं कि ये प्लेटफार्म सरकार नियंत्रित और पक्षपाती हैं तथा फेक न्यूज और नफरत फैला रहे हैं। गौरतलब है कि देश में ३४ करोड़ फेसबुक और ४० करोड़ व्हाट्सऐप यूजर्स है, भारत फेसबुक का सबसे बड़ा बाजार है।
गौरतलब है कि कोरोना लॉकडाउन के दौर में जब लोग घरों में कैद थे और सोशल मीडिया में अपना ज्यादातर समय बीता रहे हैं तब यह प्लेटफार्म असहनशील और संवेदनहीन समाज की तस्वीर पेश कर नफरत बांट रहा था। बानगी यह कि मार्च महीने में जब देश में कोरोना ने दस्तक दी और तबलीगी जमात के मरकज के आपराधिक गलती की वजह से देश के विभिन्न हिस्सों में संक्रमण फैला तब कतिपय सोशल मीडिया यूजर्स ने समूचे मुस्लिम समुदाय को अपने निशाने में ले लिया। प्रतिवाद स्वरूप मुस्लिम समाज के कुछ सिरफिरों ने देश के कई शहरों मेंं डॉक्टरों व मेडिकल स्टॉफ के साथ पथराव और बदसलूकी किया। इस घटना को कतई उचित नहीं ठहराया जा सकता।
इन घटनाओं से देश की सांप्रदायिक सद्भाव पर प्रभाव पड़ा जबकि देश का एक बड़ा अमन और तरक्की पसंद मुस्लिम तबका इस प्रकार के गतिविधियों और जमात से इत्तेफाक नहीं रखता। लॉकडाउन के बाद हजारों प्रवासी मजदूरों के भूखे-प्यासे पैदल घर वापसी के दौरान सडक़ हादसों में कई मजदूरोंं के दर्दनाक मौत के बाद सोशल मीडिया में अनेक यूजर्स के संवेदनहीन प्रतिक्रिया और इस मौत के लिए मजदूरों को ही जिम्मेदार ठहराने की वाकये ने निष्ठुरता की पराकाष्ठा ही पार कर दी।
सोशल मीडिया में असंवेदनशीलता मशहूर फिल्म अभिनेताओं ऋषिकपूर, इरफान खान, सुशांत राजपूत के मौत पर भी देखने को मिली, अनेक यूजर्स द्वारा संवेदना की जगह ऋषिकपूर को बीफ खाने तो इरफान को मुस्लिम होने की वजह से लानत और उलाहना के शब्द परोसा गए। युवा अभिनेता सुशांत राजपूत के खुदकुशी पर कई यूजर्स ने इसे कायरता पूर्ण हरकत बताते हुए उनके लिए ओछी टिप्पणियां भी पोस्ट की थी।
मौत और बीमारी पर हर्ष मिश्रित पोस्ट का दौर यहीं नहीं थमा बल्कि सप्रसिद्ध शायर डॉ. राहत इंदौरी और सोशल एक्टिविस्ट स्वामी अग्निवेश के मौत के बाद भी इस प्रकार के पोस्ट सोशल मीडिया में देखी गई। सोशल मीडिया में शब्दों और विचारों के मर्यादा राजनेताओं के बीमारी और मौत पर भी टूट रही हैं आलम यह है कि अनेक राजनेताओं के गंभीर रूप से बीमार होने पर विपरीत राजनीतिक विचारधारा के कतिपय यूजर्स द्वारा संवेदना और स्वास्थ्य लाभ के कामना की जगह अशिष्टतापूर्ण व नफरत वाले संवेदनहीन कमेंट्स पोस्ट किए जाते हैं।
गौरतलब है कि हाल के दिनों सोशल मीडिया में महिलाओं के प्रति असहनशीलता और आपत्तिजनक कन्टेंट में काफी बढ़ोतरी हुई है। सुशांत राजपूत के खुदकुशी के बाद अभिनेत्री रिया चक्रवर्ती और कंगना रनौत के राजनीतिक मोहरा बनने के बाद इनके साथ-साथ अन्य अभिनेत्रियों के ड्रग्स के नाम पर जिस तरह सोशल मीडिया पर चरित्र हनन जारी है वह महिलाओं के निजता और मर्यादा को भी तार-तार कर रहा है ।
गौरतलब है कि सोशल मीडिया के इसी दुरूपयोग के मद्देनजर डब्ल्यू. डब्ल्यू. डब्ल्यू. के खोजकर्ता टिम बर्नर्स ने कहा था कि च्इंटरनेट नफरत फैलाने वालों का अड्डा बन गया है।
बहरहाल सोशल मीडिया मेंं महापुरूषों, राजनेताओं और अन्य विशिष्ट क्षेत्रों से जुड़े लोगों के बारे मेंं आपत्तिजनक और मिथ्या खबरें फैलाने, परस्पर भला-बुरा कहने व गालीगलौज करने, धर्म विशेष को बदनाम करने, महिलाओं के खिलाफ अशिष्टता की घटनाओं ने अभिव्यक्ति की आजादी पर भी सवाल खड़ा किया है आखिरकार बुनियादी मुद्दा व्यक्तिगत निजता और मर्यादा का भी है।
कोरोनाकाल मेंं सोशल मीडिया केवल असहनशीलता और नफरत को ही बढ़ावा नहीं दे रहा बल्कि यह कोरोना संक्रमण और उपचार से संबंधित गलत जानकारियां भी परोस रहा है जो महामारी के इस दौर में परेशानियां पैदा कर रहा है। यह आभाषी मीडिया पारिवारिक और मित्रता के रिश्तों में भी खलल डाल रहा है, इस मीडिया की बढ़ती लत दांपत्य जीवन पर प्रतिकूल असर डाल रहा है अथवा विवाहेत्तर संबंधों को बढ़ावा दे रहा है जिसकी परिणति तलाक, खुदकुशी, हत्या, अवसाद और नशाखोरी के रूप मेंं सामने आ रहा है।
विडंबना है कि जो तकनीक हमें दशकों से बिछड़े यार से मिलाती है, नये दोस्त बनाती है आखिरकार वह अपनों से क्यों जुदा कर रही है? इस त्रासदीकाल में बेंगलुरू में घटित सांप्रदायिक हिंसा और आगजनी के लिए सोशल मीडिया पोस्ट ही जवाबदेह रहा है। बहरहाल सोशल मीडिया जब मानव समाज के लिए वरदान की जगह अभिशाप साबित हो रहा है तब इस प्लेटफार्म मेंं टूटती मर्यादा और बढ़ती असहिष्णुता पर विचार आवश्यक है।
दरअसल इसके पृष्ठभूमि मेंं मानवीय और कानूनी परिस्थितियां जिम्मेदार है, राजनीतिक, धार्मिक और जातिगत पूर्वाग्रह से ग्रस्त लोग अपनी प्रतिक्रिया में इतने अमर्यादित हो जाते हैं कि वे शिष्टता की सारी सीमाएं लांघ जाते हैं वह इसे व्यक्तिगत चुुुनौती मानकर असभ्यता और गाली-गलौज तक पहुंच जाते है जिसकी परिणति एकाउंट से अनफ्रेंड होती है। देश मे सोशल मीडिया और इंटरनेट कानून दशकों पुराने हैं जिसमें बदलाव की दरकार है। सोशल मीडिया कंपनियों को यूजर्स के वेरिफिकेशन, निजता, आपत्तिजनक और गाली-गलौज रोकने संबंधी नियमों को सख्त और पारदर्शी बनाना होगा तभी सोशल मीडिया का स्वरूप सोशल होगा।
( लेखक शासकीय आयुर्वेद कालेज ,रायपुर में सहायक प्राध्यापक हैं। )
- हर्षल अकुर्डे
कुछ दिनों से सोशल मीडिया पर स्कूली बच्चों के लिए कोडिंग कोर्स का विज्ञापन दिख रहा था. व्हाइट हैट नाम की कंपनी के इन विज्ञापनों में 6 से 14 साल के बच्चों के लिए कोडिंग के फ़ायदों को लेकर कुछ दावे किए गए हैं. इसमें यह भी दावा किया गया है कि सरकार ने छठी क्लास और उससे ऊपर के बच्चों के लिए कोडिंग सीखना अनिवार्य कर दिया है.
ये विज्ञापन मां-बाप और अभिभावकों में भ्रम की स्थिति पैदा कर रहा है इसलिए महाराष्ट्र की शिक्षा मंत्री वर्षा गायकवाड़ से इसे लेकर सवाल पूछे गए हैं. उन्होंने भी इस विज्ञापन का संज्ञान लिया है और लोगों से अपील की है कि वे इस तरह के दावों में ना फंसे.
इसे लेकर विवाद पैदा होने के बाद 'कोडिंग को अनिवार्य बताने वाले' विज्ञापन पर रोक लग गई है लेकिन इसे लेकर कई सवाल उठ खड़े हुए हैं. मसलन कोडिंग क्या है? क्या सिर्फ़ छह साल के बच्चों को कोडिंग सिखाना अनुचित है? क्या इससे इतनी कम उम्र के बच्चों पर कोडिंग जैसे जटिल विषय को सीखने का अतिरिक्त दबाव नहीं पड़ेगा? ऐसे तमाम सवाल पूछे जा रहे हैं.
कोडिंग क्या है?
जब हम कंप्यूटर इस्तेमाल करते हैं तो सिर्फ़ उसके बाहरी प्रोसेस से ही अवगत होते हैं लेकिन इस प्रोसेस के पीछे एक सिस्टम काम कर रहा होता है जिसे 'कोडिंग' कहते हैं. हम इसे बाहरी तौर पर नहीं देख सकते हैं.
कोडिंग को हम प्रोग्रामिंग भी कह सकते हैं या इसे सरल भाषा में कंप्यूटर की भाषा भी कह सकते हैं. जो कुछ भी हम कंप्यूटर पर करते हैं वो सब कोडिंग के माध्यम से ही होता है. कोडिंग का इस्तेमाल कर कोई वेबसाइट, गेम या फिर ऐप तैयार कर सकता है. कोडिंग का इस्तेमाल आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और रोबोटिक्स में भी किया जा सकता है.
कोडिंग की कई भाषाएँ होती है जैसे C, C++, जावा, एचटीएमएल, पाइथॉन वगैरह. इनमें से कुछ भाषाओं का इस्तेमाल वेबसाइट और एंड्रॉयड ऐप डिज़ाइन करने में किया जाता है. अगर हमारे पास इन भाषाओं की जानकारी है तो हम एक ऐप या गेम को डिजाइन करने की प्रक्रिया को समझ सकते हैं.
कंपनी का दावा और अभिभावकों में पैदा हुआ भ्रम
कंपनी ने दावा किया कि बच्चों को अगर कोडिंग कम उम्र में सिखाई जाए तो उनके मस्तिष्क का विकास तेज़ी से होगा. ये एकाग्रता को भी बढ़ाता है. कोडिंग भविष्य में सुनहरे मौके मुहैया कराने की कुंजी है. हम अपने बच्चों को इस कोर्स की मदद से सफल उद्यमी और व्यापारी बना सकते हैं.
विज्ञापन में यह भी दावा किया गया है कि भविष्य में 60 से 80 फ़ीसद मौजूदा नौकरियाँ नहीं रहने वाली है इसलिए बच्चों को अभी कोडिंग सिखा कर उन्हें तेज़ बनाना चाहिए. इसके अलावा यह दावा भी किया गया कि भारत सरकार ने अपनी नई शिक्षा नीति में छठी क्लास और उससे ऊपर के बच्चों के लिए कोडिंग सीखना अनिवार्य कर दिया है.
वीरेंद्र सहवाग, शिखर धवन, माधुरी दीक्षित और सोनू सूद जैसे कई सेलेब्रिटी इस विज्ञापन में अपने बच्चों के साथ दिखाई देते हैं लेकिन इस विज्ञापन को लेकर आरोप लगाया गया है कि इसमें आपत्तिजनक चीजें दिखाई गई हैं. कंपनी पर लोगों को दिग्भ्रमित करने का भी आरोप लगाया गया है.
लेकिन इससे लोगों में भ्रम की स्थिति बनी है. इतनी कम उम्र में कोडिंग की पढ़ाई कितनी उचित है इसे लेकर बहस शुरू हो गई है. लोग सवाल खड़ा कर रहे हैं कि कैसे इसे अनिवार्य कर दिया गया. मामले को बढ़ता देख महाराष्ट्र की शिक्षा मंत्री ने दखल दिया.
शिक्षा विभाग ने साफ़ किया- कोडिंग अनिवार्य नहीं
कोरोना को लेकर छह महीनों से स्कूल बंद पड़े हुए थे. इस बीच कई स्कूलों ने ऑनलाइन कक्षाएँ शुरू कीं. अभिभावकों को इस बात को लेकर भ्रम हुआ कि कहीं कोडिंग 'ऑनलाइन एजुकेशन' का हिस्सा तो नहीं.
इस बीच विज्ञापन की वजह से और भ्रम की स्थिति बन गई. एक ट्विटर यूज़र रीमा कथाले ट्वीट कर पूछती हैं, "फेसबुक पर हर रोज विज्ञापन दिख रहा है. आज वो एक और कदम आगे बढ़ गए हैं. वे दावा कर रहे हैं कि कोडिंग छठी क्लास और उससे ऊपर के क्लास के बच्चों के लिए अनिवार्य कर दिया गया है? ये कब हुआ? किसने इसे अनिवार्य कर दिया? या तो मैं इस बारे में कुछ नहीं जानती या फिर ये विज्ञापन ग़लत है. वे माता-पिता को क्यों दिग्भ्रमित कर रहे हैं?"
सूचना और तकनीकी मंत्री सतेज पाटिल ने रीमा कथाले की इस पोस्ट पर ध्यान दिया और उन्होंने इसे रीट्वीट कर शिक्षा मंत्री वर्षा गायकवाड़ को टैग कर स्पष्टीकरण का अनुरोध किया.
वर्षा गायकवाड़ ने साफ़ किया कि, "नई शिक्षा नीति के मुताबिक राष्ट्रीय और राजकीय स्तर पर अभी पाठ्यक्रम तैयार नहीं हुआ है. इसलिए राज्य सरकार या महाराष्ट्र स्टेट काउंसिल फॉर एजुकेशनल रीसर्च एंड ट्रेनिंग (एसीईआरटी) ने अब तक कोई ऐसा फ़ैसला नहीं लिया है."
उन्होंने छात्रों और उनके माता-पिता से ऐसे विज्ञापनों के झांसे में नहीं आने की भी अपील की.
नई शिक्षा नीति में सिर्फ़ ज़िक्र भर
इस साल तैयार हुई नई शिक्षा नीति में सिर्फ़ इस बात का ज़िक्र है कि कोडिंग स्कूल स्तर पर पढ़ाया जा सकता है. स्कूली शिक्षा विभाग की सचिव अनीता करवाल ने कहा है कि इस बात का ख्याल रखते हुए कि एक कौशल के तौर पर 21वीं सदी की यह जरूरत है, छठी क्लास से बच्चों को कोडिंग पढ़ाया जा सकता है.
लेकिन अभिभावकों को इस पर ध्यान देना चाहिए कि शिक्षा नीति में कहीं भी यह नहीं कहा गया है कि कोडिंग पढ़ाना अनिवार्य है.
'यह सिर्फ़ मार्केटिंग है'
यूट्यूब और फेसबुक जैसे सोशल मीडिया पर कोडिंग से जुड़े इस विज्ञापन को खूब दिखाया गया. इसलिए इसने लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचा. प्राइवेट ट्यूशन के इस तरह की मार्केटिंग पर भी सवाल खड़े किए गए.
बाल मनोचिकित्सक डॉक्टर भीषण शुक्ल कहते हैं, "मुझे लगता है कि यह चतुर मार्केटिंग विशेषज्ञों के द्वारा आकर्षक बातों की मदद से फालतू चीज़ें बेचने और उसमें लोगों के फंसने का मामला है."
पुणे में क्रिएटिव पेरेंट्स एसोसिएशन चलाने वाले चेतन एरांडे का कहना है, "हमारे समाज में एक आम अवधारणा है कि बच्चे अगर कम उम्र में कोडिंग सीखना शुरू कर देंगे तो आगे चल कर वो बड़े प्रोग्रामर बनेंगे और फिर वो बहुत पैसे कमाएंगे. कोडिंग क्लास चलाने वालों से जानबूझ कर इस धारणा को और बढ़ावा दिया है."
बीबीसी मराठी ने व्हाइट हैट जूनियर कंपनी से इस मामले में उनका पक्ष जानने के लिए भी संपर्क किया.
व्हाइट हैट कंपनी के मीडिया प्रतिनिधि सुरेश थापा ने बातचीत में कहा, "हमने वो विज्ञापन वापस ले लिया है इसलिए इस बारे में बात करना सही नहीं होगा."
लेकिन सुरेश थापा कहते हैं कि आने वाले वक्त में कोडिंग बहुत अहम होने जा रहा है.
वो कहते हैं, "हालांकि अभी कोडिंग एक अनिवार्य विषय नहीं है. लेकिन यह आने वाले वक्त में निश्चित तौर पर पाठ्यक्रम में शामिल होगा. दुनिया भर में बच्चों को कम उम्र में कोडिंग सिखाई जा रही है. हम भविष्य को देखते हुए लोगों में इसे लेकर जागरूकता फैला रहे है."
कम उम्र के बच्चों पर 'कोडिंग' का दबाव
भूषण शुक्ल कहते हैं कि, "जिन बच्चों को अपनी ख़ुद की साफ़-सफ़ाई के लिए अपनी मां की मदद की ज़रूरत पड़ती है, वो कोडिंग कैसे समझ पाएंगे? यह संभव है कि इससे उनके ऊपर नकारात्मक ही असर पड़े. कंपनी का दावा है कि कोडिंग मस्तिष्क के विकास को बढ़ाता है. लेकिन कोडिंग तो हाल ही में ईजाद हुआ है. मुझे नहीं लगता कि इसका मानव के विकास या फिर बौद्धिक विकास में कोई भूमिका है."
डॉक्टर समीर दलवई भी इस बात से सहमत नज़र आते हैं. वो मुंबई में न्यू हॉरिजन्स चाइल्ड डेवलपमेंट सेंटर में बाल रोग विशेषज्ञ हैं.
वो कहते हैं, "बच्चे पहले से ही कई तरह की तकनीक की मार से घिरे हुए हैं. कोडिंग कोर्स से यह और बढ़ेगा ही. कोई निवेशक आपके दरवाज़े पर कोडिंग सीखाने के बाद सात साल के बच्चे के तैयार किए गए ऐप को खरीदने नहीं आ रहा है. कोडिंग सीखने के लिए दबाव बनाने के बजाए उन्हें खेल-कूद में हिस्सा लेने दें."
इस कोर्स की फ़ीस को लेकर भी सवाल उठे हैं.
चेतन एरांडे कहते हैं, "अगर कुछ हज़ार रुपये फीस देने के बाद बच्चा क्लास करने से मना करता है तो मां-बाप को दुखी नहीं होना चाहिए. उन्हें कुछ हज़ार रुपयों के लिए बच्चों पर दबाव नहीं बनाना चाहिए. अगर बच्चों को समझने में दिक्कत हो रही है तो उन्हें आसानी से कोर्स छोड़ने देना चाहिए."
हालाँकि, व्हाइट हैट के सुरेश थापा क्लास करने के लिए बच्चों पर दबाव डालने की संभावना से इंकार करते हैं.
वो कहते हैं, "कोडिंग क्लास बच्चों को प्रेरित करता है. कोर्स के दौरान बच्चे कई तरह की गतिविधियाँ करते हैं. उनका ध्यान सिर्फ क्लास में ही होता है. इससे एकाग्रता बढ़ाने में मदद मिलती है. क्लास एक घंटे से ज्यादा की नहीं होती है. इसलिए बच्चे आनंदपूर्वक सीख सकते हैं."
आगे वो कहते हैं,"कोडिंग सीखाने का तरीका जो बच्चे पहली क्लास में है और जो बच्चे दसवीं क्लास में हैं उन दोनों के लिए अलग-अलग होता है. हर किसी को उसकी उम्र के हिसाब से सिखाया जाता है. हम किसी बच्चे पर अपनी क्लास में दबाव नहीं डालते हैं. "
अब सवाल उठता है कि क्या कम उम्र के बच्चों को कोडिंग सीखना चाहिए?
चेतन इसका जवाब देते हुए कहते हैं, "उन्हें ज़रूर सीखना चाहिए लेकिन जिस तरह से कोडिंग सिखाया जाता वो अलग होना चाहिए. प्रोग्रामिंग लैंग्वेज की तकनीक तेज़ी से बदल रही है. अगर बच्चे कोई चीज़ कम उम्र में सीखते हैं तो कोई ज़रूरी नहीं कि भविष्य में किसी काम आए. लेकिन बच्चों के लिए कोडिंग सीखना सिर्फ़ प्रोग्रामिंग की भाषा सीखने से ज्यादा महत्वपूर्ण है. हमें यह भी जानने की जरूरत है कि हमारे बच्चों की वाकई इसमें रुचि है कि नहीं."
व्हाइट हैट का कहना है कि, "हम ये नहीं कह रहे हैं कि लोगों को हमारा क्लास ज्वाइन ही करना चाहिए. जिन्हें इसमें दिलचस्पी है वो इसे अभी सीख सकते हैं."
बच्चों की दिलचस्पी कैसे पता करें?
अभिभावक अपने बच्चों के करियर को किसी तरह का नुकसान नहीं पहुँचाना चाहते हैं. इसके लिए वो हज़ारों या लाखों रुपये तक खर्च करने को तैयार रहते हैं. लेकिन बाद में बता चलता है कि उनके बच्चे का किसी दूसरे क्षेत्र के प्रति रुझान है.
पीएनएच टेक्नॉलॉजी के निदेशक प्रदीप नरायणकार एक रास्ता बताते हैं कि कैसे इससे बचा जा सकता है. उनकी कंपनी सॉफ्टवेयर डेवलपमेंट और रोबोटिक्स ट्रेनिंग के क्षेत्र में काम करती है.
वो कहते हैं, "लोग अपने बच्चों को लेकर आते हैं जो टीवी रिमोट या फिर बिगड़ गए उपकरणों को हैंडल करने में दिलचस्पी लेते हैं. लेकिन वाकई में उन बच्चों को कोडिंग में दिलचस्पी नहीं होती है. कुछ बच्चे ये काम जिज्ञासावश भी कर सकते हैं."
वो आगे कहते हैं, "अभिभावकों को सबसे पहले बच्चों के अंदर किसी खास विषय में रुचि है कि नहीं ये देखना चाहिए. अमरीका की संस्था एमआईटी बुनियादी कोर्स करवाती है. गूगल, माइक्रोसॉफ्ट, इडेक्स और कोर्सेरा जैसी कंपनियाँ भी मुफ्त में ये कोर्स करवाती है. पहले बच्चों से ये कोर्स करवाने चाहिए और देखना चाहिए कि उन्हें कितनी कामयाबी मिलती है. हम विशेषज्ञों से भी इस बाबत राय ले सकते हैं बजाए कि विज्ञापन देख कर महंगे कोर्स के झांसे में फंसने के."(bbc)
डॉयचे वैले पर मनीष कुमार की रिपोर्ट-
बिहार में किसी भी चुनाव में जीत-हार का निर्णायक फैसला देने में सक्षम महिलाओं को आखिरकार विधान सभा में प्रतिनिधित्व क्यों नहीं मिल रहा? राजनीतिक दल उन्हें उम्मीदवारों की सूची में भी यथोचित हिस्सेदारी नहीं दे रहे.
महिलाओं को पंचायतों और नगरपालिकाओं में 50 प्रतिशत आरक्षण के प्रावधान के बावजूद बिहार की राजनीति में उन्हें बराबरी की हिस्सेदारी नहीं मिली हैं. स्थानीय निकायों में आरक्षण की व्यवस्था के तहत 2006 से अबतक करीब 200000 महिलाएं चुनीं गईं जो राज्य की करीब 8000 स्थानीय निकायों में आज आधे से अधिक का सफल संचालन कर रही हैं. लेकिन विधान सभा के संदर्भ में इनकी स्थिति ठीक इसके विपरीत है. 28 अक्टूबर, 2020 से शुरू होने वाले विधानसभा चुनाव को देखें तो साफ है कि राजनीतिक दलों द्वारा महिलाओं को 30 प्रतिशत उम्मीदवारी भी नहीं दी गई है. 243 सीटों पर होने वाले चुनाव के लिए ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ' का नारा देने वाली राष्ट्रीय पार्टी भाजपा ने अपने हिस्से की 108 सीटों में से महज 13 सीट पर महिलाओं को प्रत्याशी बनाया है जबकि भाजपा के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ रही जनता दल यूनाइटेड ने अपने हिस्से की 115 सीटों में से 22 सीटों पर महिला उम्मीदवार खड़े किए हैं.
प्रमुख विपक्षी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल ने 144 में 16 सीटों पर तथा इनकी सहयोगी कांग्रेस ने अपने कोटे की 70 सीट में महज सात पर महिलाओं को टिकट दिया है. वहीं 134 सीट पर लड़ रही लोक जनशक्ति पार्टी ने 23 और सीपीआई ने 19 में महज एक सीट पर महिलाओं पर भरोसा जताया है. जाहिर है, महिलाओं को 30 फीसद सीट किसी पार्टी ने नहीं दी है. इससे पहले 2015 में भाजपा ने 157 सीटों में 14, जदयू ने 101 में 10, राजद ने 101 में 10, लोजपा ने 42 में चार, कांग्रेस ने 38 में चार, बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ने 228 में 17, वामपंथी दलों ने 239 में 12 सीटों पर महिला उम्मीदवार खड़े किए थे. रही बात 2015 के विधानसभा चुनाव में महिलाओं की जीत की तो 28 महिलाएं चुनाव जीतने में सफल हुई थीं. इनमें जदयू की नौ, राजद की 10, भाजपा की चार, कांग्रेस की चार व एक निर्दलीय थीं. जबकि चुनाव मैदान में कुल 278 महिलाएं जोर-आजमाइश के लिए उतरीं थीं. वहीं अगर विधानसभा में महिला सदस्यों की संख्या देखी जाए तो 2010 में यह 34 थी जो 2015 में घटकर 28 हो गई. जो क्रमश: 14 व 11.5 फीसद रहा.
महिला वोटरों का टर्नआउट पुरुषों से अधिक
वाकई, ये आंकड़े चिंताजनक हैं. वह भी उस परिस्थिति में जब राज्य में महिला वोटरों का टर्न आउट पुरुषों की तुलना में अधिक है. 2010 में महिलाओं का वोटिंग प्रतिशत 54.49 था जबकि पुरुषों का 51.12 रहा. इसी तरह 2015 में 60 फीसदी से ज्यादा महिलाओं ने वोटिंग में भाग लिया जबकि पुरुषों का मतदान प्रतिशत सिर्फ 53 रहा. जबकि 2010 में मतदान का प्रतिशत 52.67 तथा 2015 में 56.66 था. वोटिंग प्रतिशत में इतने अंतर पर समाजशास्त्र के व्याख्याता वीके सिंह कहते हैं, "कहीं न कहीं सरकारी योजनाओं से मिलने वाला लाभ इसका एक प्रमुख कारण है. नीतीश सरकार ने महिलाओं के हित में कई फैसले लिए हैं. शराबबंदी की भी इसमें अहम भागीदारी है. इससे सरकार व महिलाओं, दोनों ने एक-दूसरे की ताकत को पहचाना. वहीं पुरुषों के बढ़ते पलायन से भी यह गैप ज्यादा हुआ है और पलायन की क्या स्थिति है, यह तो लॉकडाउन के दौरान प्रवासियों की वापसी से जाहिर है." नीतीश सरकार की छात्राओं को साइकिल-पोशाक देने की घोषणा तो अहम थी ही, 2015 में जब उन्होंने शराबबंदी को लागू करने का वादा किया तो महिलाओं ने उनकी झोली में जमकर वोट डाले. इसका ही नतीजा था कि नीतीश की अगुवाई वाले महागठबंधन को 2015 में 243 में 178 सीटें मिलीं.
समाजशास्त्री रमेश रोहतगी कहते हैं, "महिलाएं अब यह समझने लगीं हैं कि उन्हें किसे वोट देना है और किसे नहीं. स्थानीय निकायों में मिले 50 प्रतिशत आरक्षण से राजनीति में उनकी भागीदारी बढ़ी है. इन निकायों में महिलाएं अच्छी-खासी संख्या में काबिज हैं. इसी आरक्षण ने उत्प्रेरक का काम करते हुए चुनाव लड़ने और जीतने की संख्या में खासा इजाफा किया है." स्थानीय निकाय महिलाओं के लिए राजनीति में ट्रेनिंग का काम कर रहे हैं. यही वजह है कि इस बार भी कई महिला मुखिया विधानसभा चुनाव लड़ रहीं हैं. भोजपुर जिले के जगदीशपुर विधानसभा क्षेत्र से बतौर जदयू उम्मीदवार चुनाव लड़ रहीं दावन पंचायत की मुखिया सुषुमलता कुशवाहा कहती हैं, "मुखिया रहते मैंने बहुत कुछ सीखा है. अगर आप जमीनी स्तर पर काम कर चुके होते हैं तो आपको ऊपरी स्तर पर काम करने में काफी सहूलियत होती है. आपका विजन क्लियर होता है." वहीं मधुबनी जिले की पीरोखर पंचायत की मुखिया मंदाकिनी चौधरी का कहना है, "मुखिया के चुनाव में जीत ने मुझे गरीबों-पिछड़ों के लिए और काम करने को प्रोत्साहित किया है. मैं प्रचार में विश्वास नहीं करती, मेरा काम बोलेगा."
आधी हिस्सेदारी की मांग हुई तेज
जाहिर है, महिलाएं सजग हो रहीं हैं. जागरूकता का आलम यह है कि शक्ति नामक एक स्वयंसेवी संगठन के बैनर तले महिलाओं ने पंचायत चुनाव के बाद अब राजनीतिक दलों से विधानसभा चुनाव में 50 प्रतिशत हिस्सेदारी की मांग शुरू कर दी है. इनका कहना है कि जब 50 फीसद महिला वोटर हैं तो 11 प्रतिशत महिला विधायक क्यों? इसी कड़ी में बिहार विधानसभा चुनाव के मद्देनजर बीते सितंबर माह में सेल्फी विद अस कैंपेन के तहत 25 पार्टियों को आंकड़ों के साथ मांग पत्र भेजा गया. दावा है कि विभिन्न क्षेत्रों से जुड़े करीब 35 लाख लोगों ने इस अभियान को अपना समर्थन दिया है. जानकार बताते हैं कि बिहार में बीते 68 साल में महज 277 महिलाएं ही विधायक बन पाईं हैं. 90 प्रतिशत सीट पर पुरुषों का कब्जा रहा है.
एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स की एक रिपोर्ट के अनुसार 2006 से 2016 के बीच संपन्न लोकसभा, विधानसभा या विधानपरिषद के चुनावों में कुल 8163 प्रत्याशियों में केवल 610 यानि सात फीसद ही महिलाएं थीं. एक राजनीतिक दल के नेता नाम नहीं प्रकाशित करने की शर्त पर कहते हैं, "महिला उम्मीदवारों की जीत की संभावना एक महत्वपूर्ण मुद्दा है. इसी वजह से पार्टियां इन्हें प्रत्याशी बनाने से हिचकतीं हैं. समान परिस्थितियों में भी महिलाओं के विजयी होने की संभावना पुरुषों के मुकाबले कम ही रहती है." वहीं लोजपा की संगीता तिवारी कहती हैं, "चुनाव में महिलाओं का वोट तो सभी पार्टियों को चाहिए, लेकिन आधी आबादी को उनकी संख्या के अनुपात में टिकट देने में सभी कंजूसी करते हैं." राजनीति शास्त्र की रिटायर्ड प्रोफेसर डॉ. वंदना कहतीं हैं, "पितृ सत्तात्मक समाज कहीं न कहीं इसमें बड़ी रुकावट है. पुरुष इतनी आसानी से अपने हाथों से नियंत्रण जाने देना पसंद नहीं करेंगे. इसलिए वाजिब भागीदारी मिलने में समय तो लगेगा ही."
60 फीसद युवा व महिला वोटर
1957 में अविभाजित बिहार में हुए चुनाव में 30 महिलाएं विधानसभा पहुंची थीं. 1962 में यह संख्या 25 और 1967 में छह हो गई और फिर इसके बाद 2000 तक आंकड़ा 20 से कम ही रहा. जबकि विभाजन के बाद 2005 के चुनाव में मात्र तीन महिलाएं ही जीत सकीं. फिर 2010 में 25 और 2015 में 28 महिलाएं विधायक बनने में सफल रहीं. इस बार होने वाले विधानसभा चुनाव में मतदाताओं की कुल संख्या 7.29 करोड़ है जिनमें महिला वोटरों की संख्या 3.44 करोड़ तथा पुरुष वोटरों की संख्या 3.85 करोड़ है. इन वोटरों की कुल संख्या में युवाओं व महिलाओं की संख्या 60 प्रतिशत से ज्यादा है. जाहिर है, जिनकी ओर इनका रुझान होगा, उसका पलड़ा भारी हो जाएगा. यही वजह है कि इस बार भी हरेक राजनीतिक दल के घोषणा पत्र में युवाओं व महिलाओं के कुछ न कुछ खास है और सभी इन्हें लुभाने की पुरजोर कोशिश कर रहे हैं. किंतु टिकट के बंटवारे से यह स्पष्ट है कि जिन महिलाओं पर पार्टियों ने भरोसा किया है, वह जीत की संभावनाओं को देखते हुए ही.
इस बार भाजपा ने जमुई से पूर्व केंद्रीय मंत्री दिग्विजय सिंह की पुत्री व मशहूर निशानेबाज श्रेयसी सिंह, बेतिया से रेणु देवी व नरकटियागंज से रश्मि वर्मा को टिकट दिया है वहीं राजद ने सीतामढ़ी के परिहार से सिंहवाहिनी पंचायत की चर्चित मुखिया रीतू जायसवाल, सहरसा से पूर्व सांसद लवली आनंद, जबकि जदयू ने गया के अतरी से मनोरमा देवी, खगड़िया से पूनम यादव व कांग्रेस ने मधेपुरा जिले के बिहारीगंज से दिग्गज नेता शरद यादव की पुत्री सुभाषिणी यादव को चुनाव मैदान में उतारा है. जाहिर है इन सबों की जीत की संभावना प्रबल है.
महिला वोटरों की संख्या और इनके वोट प्रतिशत की तुलना में इस बार भी महिलाएं आखिरकार ठगी ही गईं. सामाजिक कार्यकर्ता रूबीना बेगम कहतीं हैं, "महिला, दलित, मुस्लिम व पिछड़े सभी दलों के घोषणा पत्र का अहम हिस्सा होते हैं, किंतु चुनाव के बाद सब इसे भूल जाते हैं. जब तक नीति निर्धारकों में महिलाओं की संख्या नहीं बढ़ेगी तबतक स्थिति में सुधार की कल्पना करना बेमानी है." धीरे-धीरे ही सही चुनावों में महिला प्रत्याशियों की संख्या बढ़ी है जो एक सकारात्मक संकेत है. .(dw.com)
डॉयचे वैले पर मनीष कुमार की रिपोर्ट-
बिहार विधानसभा चुनाव के लिए होने वाले पहले चरण के लिए मतदान बुधवार को शुरू हो रहा है. 28 अक्टूबर को 16 जिलों में 243 सदस्यीय विधानसभा की 71 सीटों के लिए वोट डाले जा रहे हैं.
कोरोना संकट के दौरान देश में पहली बार बिहार विधानसभा चुनाव के पहले चरण में 1066 उम्मीदवारों के भाग्य का फैसला होना है, जिनमें 952 पुरुष तथा 114 महिलाएं हैं. इस चरण में कुल 1354 उम्मीदवारों ने नामांकन का पर्चा भरा था. चुनाव मैदान में सबसे कम प्रत्याशी बांका जिले के कटोरिया सुरक्षित विधानसभा क्षेत्र में हैं जबकि सबसे ज्यादा उम्मीदवारों की संख्या गया टाउन में है. 28 अक्टूबर को होने वाली वोटिंग में 31,371 मतदान केंद्रों पर 2,14,84,787 वोटर अपने मताधिकार का उपयोग करेंगे जिनमें एक करोड़ 12 लाख 76 हजार 396 पुरुष तथा एक करोड़ 12 लाख नौ हजार 101 महिलाएं एवं 599 ट्रांसजेंडर हैं. 71 में नक्सल प्रभावित 35 सीटों पर शाम चार बजे तक ही मतदान होगा जबकि अन्य जगहों पर सुबह सात बजे से सायं छह बजे तक वोट डाले जा सकेंगे.
आयोग ने वोट डालने के लिए मतदाता पहचान पत्र के अलावा आधार कार्ड, पैन कार्ड व ड्राइविंग लाइसेंस समेत 11 विकल्प दिए हैं, जिनके आधार पर वोट डाले जा सकेंगे. इस चरण के चुनाव प्रचार में सभी पार्टियों के दिग्गज नेताओं व स्टार प्रचारकों ने मतदाताओं को रिझाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तीन सभाएं कीं जबकि पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने दो जगहों पर चुनावी सभा को संबोधित किया. इधर, कोरोना संक्रमण में भी तेजी आई है. बीते बीस दिनों में उन छह जिलों में कोरोना संक्रमितों की संख्या बढ़ी है जहां पहले चरण में चुनाव होना है.
आठ मंत्रियों की प्रतिष्ठा दांव पर
16 जिलों में 71 सीटों पर होने वाले इस चुनाव में भाजपा नीत गठबंधन के नीतीश सरकार के आठ मंत्रियों की प्रतिष्ठा दांव पर है. इन मंत्रियों में जहानाबाद विधानसभा क्षेत्र से शिक्षा मंत्री कृष्णनंदन वर्मा, गया टाउन से कृषि मंत्री डॉ. प्रेम कुमार, जमालपुर से ग्रामीण कार्य मंत्री शैलेश कुमार, दिनारा से विज्ञान व प्रावैधिकी मंत्री जयकुमार सिंह, बांका से राजस्व मंत्री रामनारायण मंडल, चैनपुर से खनन मंत्री बृजकिशोर बिंद, लखीसराय से श्रम संसाधन मंत्री विजय कुमार सिंह तथा राजपुर से परिवहन मंत्री संतोष कुमार निराला शामिल हैं, जिनके भाग्य का फैसला पहले चरण के चुनाव में ही हो जाएगा. इनके अलावा जो प्रमुख हस्तियां पहले चरण के चुनाव में अपना भाग्य आजमा रहीं हैं उनमें पूर्व मुख्यमंत्री व हिन्दुस्तानी अवाम मोर्चा (हम) प्रमुख जीतनराम मांझी, ख्यात निशानेबाज श्रेयसी सिंह (भाजपा), बाहुबली अनंत सिंह (कांग्रेस), बागी भाजपा नेता रामेश्वर चौरसिया (लोजपा) तथा बागी भाजपा नेता राजेंद्र सिंह (लोजपा) शामिल हैं.
बहुकोणीय मकाबलों में मतदाताओं का दिल जीतने की कोशिश
पहले चरण के लिए अलग-अलग गठबंधनों के तहत राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के 42, जनता दल यू के 35, भारतीय जनता पार्टी के 29, कांग्रेस के 21, माले के आठ, हिन्दुस्तानी अवाम मोर्चा के छह, विकासशील इंसान पार्टी (वीआइपी) के एक,, राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के 43, लोक जनशक्ति पार्टी के 42, बहुजन समाज पार्टी के 27 प्रत्याशी मैदान में हैं. वर्तमान में 25 सीट पर राजद, 23 पर जदयू, 13 पर भाजपा, आठ पर कांग्रेस, एक पर हम तथा एक-एक सीट पर माले व निर्दलीय का कब्जा है. जातिगत तौर पर देखें तो इन 71 सीटों में से 22 पर यादव, सात-सात पर राजपूत,कुशवाहा व भूमिहार जाति के विधायकों का कब्जा है. पार्टियों ने जिस तरह की रणनीति अपनाई है इस बार भी जीत-हार में जाति निर्णायक फैक्टर होगा. पार्टियों ने भी इसी हिसाब से उम्मीदवार उतारे हैं और इसे ही ध्यान में रख गोलबंदी भी की जा रही है.
नीतीश की खिलाफत कर रही लोजपा
लोजपा ने जिन 42 उम्मीदवारों को उतारा है उनमें 35 जनता दल यू, छह हिन्दुस्तानी अवाम मोर्चा, एक वीआइपी के खिलाफ खड़े हैं. तात्पर्य यह कि लोजपा प्रमुख व पूर्व केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान के पुत्र चिराग पासवान ने अपनी घोषणा के अनुसार भाजपा के खिलाफ एक भी उम्मीदवार नहीं दिया है, किंतु मुख्यमंत्री नीतीश कुमार व उनके सहयोगियों के खिलाफ माहौल बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है.
मुख्यमंत्री पर सत्ता बचाने का दबाव
इस चरण में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) या महागठबंधन के दलों ने जितने भी उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है, उनमें पांच सीटें ऐसी हैं जहां दोनों ओर से महिला प्रत्याशी ही आमने-सामने हैं. इनमें कटोरिया सुरक्षित सीट पर राजद की स्वीटी सीमा हेम्ब्रम भाजपा की निक्की हेम्ब्रम से, मसौढ़ी सीट पर राजद की रेखा देवी जदयू की नूतन पासवान से, बाराचट्टी सीट पर राजद की समता मांझी हम की ज्योति देवी से, कोढ़ा सुरक्षित सीट पर कांग्रेस की पूनम पासवान भाजपा की कविता पासवान से तथा परिहार सीट पर राजद की रितु जायसवाल भाजपा की गायत्री देवी से लोहा लेंगी. लोगों की नजर बाहुबली अनंत सिंह और जदयू के बागी प्रत्याशी ददन पहलवान पर भी है. अनंत पटना जिले के मोकामा से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव मैदान में हैं तो वहीं बक्सर जिले की डुमरांव विधानसभा सीट से जदयू विधायक ददन पहलवान इस बार पार्टी द्वारा बेटिकट किए जाने से निर्दलीय ही ताल ठोंक रहे हैं. जदयू ने ददन की जगह पार्टी की प्रवक्ता अंजुम आरा को उम्मीदवार बनाया है.
319 प्रत्याशियों का है क्रिमिनल रिकॉर्ड
प्रथम चरण में होने वाले चुनाव में जो 1066 उम्मीदवार अपनी किस्मत आजमाने उतरे हैं, उनमें 319 यानी करीब 30 प्रतिशत प्रत्याशियों पर आपराधिक मुकदमे दर्ज हैं. इनमें सबसे अधिक दस आपराधिक मामले वाले प्रत्याशी गया जिले की गुरुआ विधानसभा सीट से हैं. पार्टीवार देखें तो राजद ने 73 प्रतिशत तथा भाजपा ने 72 फीसद ऐसे लोगों को प्रत्याशी बनाया है जिनका क्रिमिनल रिकॉर्ड है.
अपराध के मुद्दे पर दिन-रात राजद को कोसने वाली भाजपा भी पाक साफ नहीं है. हालांकि भाजपा के नेता इसे ‘लोहे का काट लोहे से' की संज्ञा देते हैं. प्रथम चरण के चुनाव प्रचार की प्रक्रिया समाप्त होने से पहले शिवहर जिले से जनता दल राष्ट्रवादी पार्टी के उम्मीदवार तथा उनके एक समर्थक की जनसंपर्क के दौरान हत्या कर दी गई तथा उन्हें गोली मारने वाले अपराधियों में एक को पकड़ कर लोगों ने पीटकर मार डाला.
कई करोड़पति हैं मैदान में
एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिकॉर्ड्स (एडीआर) की रिपोर्ट के अनुसार प्रथम चरण के चुनाव में मैदान में उतरे एक तिहाई उम्मीदवार करोड़पति हैं जिनकी संपत्ति एक करोड़ से ज्यादा है. 1066 प्रत्याशियों में ऐसे उम्मीदवारों की संख्या 375 है. जिनकी संपत्ति औसतन करीब दो करोड़ है. इनमें सबसे अधिक अमीर कांग्रेस के टिकट पर पटना जिले के मोकामा से चुनाव मैदान में उतरे बाहुबली अनंत सिंह हैं जिनकी संपत्ति 68 करोड़ है. इनके अलावा गया जिले की अतरी सीट से जदयू उम्मीदवार मनोरमा देवी व कुटुम्बा से कांग्रेस प्रत्याशी राजेश कुमार हैं जिन्होंने हलफनामे में अपनी संपत्ति क्रमश: 53 व 33 करोड़ घोषित की है. आंकड़ों के मुताबिक इस चरण में राजद में सर्वाधिक 98 फीसद, जदयू में 89, भाजपा में 83, लोजपा में 73, बहुजन समाज पार्टी में 46 प्रतिशत करोड़पति उम्मीदवार हैं.
पहले चरण में सबसे कम उम्र की प्रत्याशी मुंगेर जिले के तारापुर विधानसभा क्षेत्र से राजद की दिव्या प्रकाश हैं, जिनकी आयु महज 28 साल है. दिव्या पूर्व केंद्रीय मंत्री जयप्रकाश यादव की बेटी हैं. जमुई से भाजपा की उम्मीदवार श्रेयसी सिंह उम्र में इनसे दो साल बड़ी हैं. वहीं सिकंदरा सुरक्षित सीट से बतौर निर्दलीय प्रत्याशी चुनाव लड़ रहे 79 वर्षीय रामेश्वर पासवान सबसे उम्रदराज हैं. पत्रकार राजीव रंजन कहते हैं, "इतना तो साफ है कि 2005 तथा 2010 में लालू राज के खिलाफ व सुशासन के मुद्दे पर तथा 2015 में भाजपा को हराने के मुद्दे पर चुनाव लड़ा गया, किंतु इस बार किसी एक मुद्दे पर चुनाव नहीं लड़ा जा रहा. इस बार क्षेत्रवार मुद्दे हावी रहेंगे जिन्हें आप एंटी इन्कमबैंसी की संज्ञा भी दे सकते हैं." इसके अलावा कोरोना संकट भी है. कहीं न कहीं यह एक हद तक मतदान प्रतिशत को तो प्रभावित करेगा ही. वैसे इस बार भी युवाओं व महिलाओं की भूमिका ही निर्णायक रहेगी.(dw.com)
शोध के अनुसार यह वायरस अपने आप में बदलाव कर अधिक स्थिर बनने की कोशिश कर रहा है, जिससे यह हर वातावरण में अपने आप को विकसित कर सके
- Lalit Maurya
कोरोनावायरस जो दिसंबर 2019 में पहली बार चीन के वुहान में सामने आया और देखते ही देखते पूरी दुनिया में फैल गया। वैज्ञानिकों का मानना है कि यह वायरस फैलने के लिए अपनी कॉपी (प्रतिकृति) बनाता जाता है। जिसकी मदद से यह तेजी से एक इंसान से दूसरे में फैल जाता है। यूनिवर्सिटी ऑफ इलिनोइस के शोधकर्ताओं ने इस बारे में एक और चौंकाने वाला खुलासा किया है। उनके अनुसार यह वायरस अपने आप में बदलाव कर अधिक स्थिर बनने की कोशिश कर रहा है, इसके लिए वह उन युक्तियों को अधिक बेहतर कर रहा है जिसकी मदद से वो नए क्षेत्रों के भी अनुकूल बन सके और वहां फैलने में सफल रहे। यह शोध जर्नल इवोल्यूशनरी बायोइनफॉरमैटिक्स में प्रकाशित हुआ है।
वायरस में आ रहे इन बदलावों को समझने के लिए शोधकर्ताओं ने वायरस के प्रोटीओम में आ रही म्युटेशन को ट्रैक किया है। गौरतलब है कि प्रोटीओम वायरस में जेनेटिक मैटेरियल से घिरा प्रोटीन का भंडार होता है। इस वायरस सार्स-कोव-2 का पहला जीनोम जनवरी में छपा था उसके बाद मई तक इसके करीब 15,300 से अधिक जीनोम की खोज हो चुकी है।
शोधकर्ताओं के अनुसार अभी भी कुछ क्षेत्रों में वायरस में नए म्युटेशन हो रहे हैं। जिसका मतलब है कि यह वायरस नए क्षेत्रों के अनुकूल बनने की कोशिश कर रहा है। जबकि इसके विपरीत कुछ क्षेत्रों में इसकी म्युटेशन की दर धीमी हो गई है और वो प्रमुख प्रोटीन के आसपास सिमट रही है। इस शोध से जुड़े वरिष्ठ शोधकर्ता गस्टावो कैटानो-एनोलेस के अनुसार सबसे बुरा यह है कि यह वायरस बदल रहा है और बदलता ही चला जा रहा है, लेकिन वह उन चीजों को अपना रहा है जो उसके फैलने और विकसित होने के लिए उपयोगी और मददगार हैं। हालांकि उनमें कुछ अन्य प्रोटीन स्थिर हो रहे हैं, जो उसके इलाज में मददगार हो सकते हैं।
रिसर्च टीम के अनुसार कोरोनावायरस में आए बदलाव (म्युटेशन) की दर शुरू में काफी तेज थी। पर अप्रैल के बाद उसकी रफ्तार में कमी आ गई है। इसमें कोरोनावायरस के स्पाइक में मौजूद प्रोटीन में आई स्थिरता भी शामिल है। यह स्पाइक कोविड-19 के ऊपरी हिस्से में उभरे होते हैं जो उसे ताज का रूप देते हैं। शोधकर्ताओं को पता चला है कि स्पाइक की साइट 614 में मौजूद अमीनो एसिड, दूसरे (एस्परिक एसिड से ग्लाइसिन) में बदल गया था। यह बदलाव मार्च से अप्रैल के बीच ज्यादातर वायरसों में आया था। वैज्ञानिकों के अनुसार पहले की तुलना में स्पाइक में अब बिलकुल अलग तरीके का प्रोटीन है।
स्पाइक में मौजूद प्रोटीन दो तरह से काम करता है, पहला वो मानव कोशिकाओं से वायरस को जुड़ने में मदद करता है। दूसरा यह वायरस में मौजूद जेनेटिक मैटेरियल 'आरएनए' को वायरस की नक़ल में पहुंचाता है। 614 में आया यह म्युटेशन स्पाइक में अलग-अलग डोमेन और प्रोटीन सब यूनिट्स के बीच के महत्वपूर्ण सम्बन्ध को खत्म कर देता है। कैटानो-एनोलेस के अनुसार कुछ कारणों से यह म्युटेशन वायरस को फैलने में मदद करता है।
इससे पहले भी किए गए शोध में 614 में आया म्युटेशन वायरस को फैलने और उसकी बढ़ती संक्रामकता के लिए जिम्मेवार पाया गया था। हालांकि इस म्युटेशन का बीमारी की गंभीरता पर कोई प्रभाव नहीं देखा गया था। हालांकि एक अन्य शोध में इससे वायरस से होने वाली मृत्यु की दर में बढ़ोतरी देखी गई थी।
इस म्युटेशन से बीमारी का असर कितना बढ़ता है इस पर अभी और शोध होना बाकी है, लेकिन एक बात तो स्पष्ट है कि म्यूटेशन की वजह से वायरस मेजबान की कोशिकाओं में प्रवेश कर पाता है। इसलिए इस वायरस के संचरण और प्रसार को समझने के लिए यह एक महत्वपूर्ण कड़ी है। इसके अलावा प्रोटीन की दो जगहों में भी अप्रैल से म्युटेशन देखी गई थी। जिनमें एनएसपी12 पोलीमरेज़ प्रोटीन, जो आरएनए को डुप्लिकेट करता है, और एनएसपी13 हेलीकेस प्रोटीन शामिल हैं, जो डुप्लिकेट किए गए आरएनए स्ट्रैंड्स को ठीक करता है।
कैटानो-एनोलेस ने बताया कि “यह तीनों म्युटेशन एक दूसरे से जुड़ी हुई है। यह अलग-अलग अणुओं में होती हैं, लेकिन एक ही तरह से विकसित होती हैं।" शोधकर्ताओं ने वायरस प्रोटीओम के उन क्षेत्रों का भी पता लगाया है जिनमें समय के साथ बदलाव आने की सबसे ज्यादा सम्भावना है। जिससे यह समझा जा सकता है कि कोविड-19 के साथ आगे क्या होने की उम्मीद है।
शोध से पता चला है कि न्यूक्लियोकैप्सिड प्रोटीन में सबसे ज्यादा म्युटेशन हो रहा है। यह प्रोटीन मेजबान सेल में प्रवेश करने के बाद वायरस के आरएनए को इकठ्ठा करता है। दूसरा 3ए वायरोपोरिन प्रोटीन है जो होस्ट सेल में छेद बना देता है, जिसकी मदद से वायरस उसमें पहुंचकर, अपनी कॉपी बनाता है और उसे आक्रामक बना देता है।
ऐसे में शोधकर्ताओं का मानना है कि इस पर विशेष ध्यान देने की जरुरत है क्योंकि इन प्रोटीन में आ रहा बदलाव स्पष्ट रूप से दिखाता है कि यह वायरस तेजी से अपने प्रसार में सुधार करने के तरीके तलाश रहा है। यह दो प्रोटीन हमारे शरीर के वायरस से मुकाबला करने के तरीके में हस्तक्षेप करते हैं। जिस वजह से हमारा शरीर इन वायरस का मुकाबला नहीं कर पाता।
गौरतलब है कि दुनिया भर में 43 करोड़ से ज्यादा लोग इस वायरस की चपेट में आ चुके हैं। जबकि यह अब तक 11,66,174 लोगों की जान ले चुका है। भारत में भी इस वायरस के चलते अब तक 119,502 लोगों की मौत हो चुकी है। जबकि यह 79 लाख से भी ज्यादा लोगों को अपनी गिरफ्त में ले चुका है। यह वायरस कितना गंभीर रूप ले चुका है इस बात का अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि यह दुनिया के 215 देशों में फैल चुका है और शायद ही इस धरती पर कोई ऐसा होगा जिसे इस वायरस ने प्रभावित न किया हो।(dwontoearth)
क्या हमने अमेरिका से नजदीकियां बढ़ाने की कीमत का हिसाब लगाया है जो घोषित तौर पर अमेरिका फर्स्ट की बात करता है? पिछले कुछ वर्षों में हमने अमेरिका के साथ जो संबंध बनाए हैं, क्या अमेरिकी राष्ट्रपति से यह सुनने के लिए कि ‘भारत कोविड के आंकड़े छिपा रहा है’?
- सलमान खुर्शीद
पिछले कुछ वर्षों के दौरान अमेरिका को लेकर हमारी नीतियों में कुछ विरोधाभास रहा है। गुटनिरपेक्ष आंदोलन (नाम) की बढ़ती अप्रासंगिकता, सोवियत संघ के विखंडन, चीन के एक ताकत के तौर पर उभरने और अंततः अमेरिका की समझ में यह बात आ जाने के बाद कि पाकिस्तान की धरती पर फलता-फूलता आतंकवाद अकेले भारत के लिए खतरा नहीं, वाशिंगटन में इस्लामाबाद के दबदबे में आई कमी ने विदेश नीति में काफी कुछ बदल दिया है। पहले हमारी विदेश नीति ने हमें मजबूत स्थिति में रखा लेकिन बदलते हालात में आज जब हम अपनी नीतियों को नया रूप दे रहे हैं और इस संदर्भ में रबड़-पेंसिल लेकर अपनी आकांक्षाओं को आकार देने की कोशिश कर रहे हैं तो जाहिर है, उभर रही तस्वीर को लेकर तरह-तरह के सवाल उठ रहे हैं।
आज हमारी नई विदेश नीति के केंद्र में यह जरूरी सवाल होना चाहिए कि अमेरिका-भारत रिश्तों की उभरती नई शक्ल क्या भारत की वैश्विक आकांक्षाओं और चिंताओं के अनुकूल है? अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के दौरान हुए परमाणु परीक्षण के बाद मनमोहन सिंह सरकार के दौरान भारत और अमेरिका के बीच हुए असैनिक परमाणु समझौते ने दोनों देशों के आर्थिक, सांस्कृतिक, वैज्ञानिक और बौद्धिक रिश्तों को एक नया रणनीतिक आयाम दिया।
पहले चाहे एनडीए की सरकार हो या फिर यूपीए की, जान- बूझकर अमेरिका के साथ रणनीतिक और सैन्य भागीदारी की दिशा में कदमताल करने से परहेज किया गया। लेकिन हाल के समय में भारत सरकार ने अमेरिका के साथ कई समझौते किए हैं- लॉजिस्टिक्स सपोर्ट एग्रीमेंट (एलएसए), कम्युनिकेशंस एंड इनफॉर्मेशन सिक्योरिटी मेमोरेंडम ऑफ एग्रीमेंट (सिसमोआ) और अब बेसिक एक्सचेंज एंड कोऑपरेशन एग्रीमेंट (बेका)। अमेरिका को लेकर भारत में जो आम राय रही है, ये समझौते उसके एकदम उलट हैं। यह दलील दी जा सकती है कि ये समझौते यूपीए सरकार के समय की नीतियों की ही स्वाभाविक परिणति हैं लेकिन हालिया घटनाक्रम को देखते हुए यह मान लेना बेवकूफी ही होगी कि ये समझौते भारत के लिए यह हर दृष्टि से अच्छे ही होंगे और इनका कोई प्रतिकूल असर नहीं होगा।
इन समझौतों पर एक नजर डालना जरूरी होगा। एलएसए एक दूसरे की सुविधाओं के नियमित उपयोग की सुविधा देता है। यह विशेष रूप से भारत को रसद की मदद देने के लिए बाध्य तो नहीं करता लेकिन अमेरिका इस दिशा में इसके इस्तेमाल के एक कदम के रूप में जरूर देख सकता है। साझा लोकतांत्रिक मूल्यों के बावजूद अमेरिका जिस तरह की भूमिका दुनिया के विभिन्न हिस्सों में निभाता रहा है, उस पर भारत को हमेशा से आपत्ति रही है लेकिन इन समझौतों से भारत- अमेरिका में भू-राजनीतिक समीकरण बनते दिख रहे हैं और यह पहले के भारत-सोवियत साझेदारी से बिल्कुल अलग है। अपनी रक्षा जरूरतों के लिए अमेरिका के सैन्य-उद्योगों पर बढ़ती निर्भरता हमारी नीतियों में बड़ा बदलाव है।
लेकिन क्या अमेरिका से इन समझौतों का मतलब यह है कि पहले हम जिस तरह इराक और अफगानिस्तान में ऑपरेशन से सायास अलग रहे, उसके अब बदलने की संभावना है? क्या ये समझौते भारत को अमेरिकी संघर्षों में करीबी भागीदारी और सत्ता परिवर्तन जैसे अभियानों में शामिल होने के लिए बाध्य करेंगे? यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत के लोग कभी नहीं चाहेंगे कि विदेश के किसी युद्ध में शामिल होकर हमारे लोग बॉडी बैग में वापस आएं।
इस बात के ठोस संकेत मिल रहे हैं कि अमेरिका चाहता है कि चीन को काबू करने में भारत अहम भूमिका निभाए। भारत को कथित तौर पर ‘मोतियों की माला’ से घेरने से लेकर चीन का जवाब देने की जवाबी रणनीति अब भी काफी हद तक दूर की कौड़ी ही लगती है। एलएसी पर अभी हम उलझे हुए हैं। क्या हमें एक परमाणु पड़ोसी के साथ युद्ध में पड़ना चाहिए? बेशक, भारत अपनी गरिमा और संप्रभुता की रक्षा के लिए युद्ध से पीछे नहीं हटेगा लेकिन यह बात भारत के लोगों के गले नहीं उतरती कि अपना बदला लेने के लिए हम सुदूर के किसी देश की मदद लें।
इसमें शक नहीं कि 2020 का भारत 1962 का भारत नहीं है लेकिन हमें अपनी आर्थिक वृद्धि और सैन्य तैयारियों के बारे में व्यावहारिक होने की आवश्यकता है, खास तौर पर एक साथ दो-मोर्चे पर लड़ाई को लेकर। अमेरिका की महत्वाकांक्षी योजना भारत-प्रशांत समुद्री क्षेत्र में भारत की सक्रिय भागीदारी के बूते अपनी पकड़ मजबूत करने की है। क्वाड समुद्री अभ्यास इसी कड़ी में है जिसमें हम शामिल हो चुके हैं। इससे चीन खुश तो नहीं होगा।
भारत के तत्काल हित अमेरिकी हितों से मेल नहीं खाते। और निश्चित रूप से जो हम अब तक उत्तर में जमीन पर करने की स्थिति में नहीं, उसे समुद्र में आजमाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। इसके अलावा, हमें यह भी समझना होगा कि अमेरिकी बेस के इस्तेमाल की स्थिति में आने के लिए हमें नौसेना पर मोटा पैसा खर्च करना पड़ेगा। संयुक्त अभ्यास अलग बात है और अमेरिकी सेना के साथ मिलकर लड़ना और, जैसा कि ब्रिटेन और आस्ट्रेलिया ने कई बार किया है।
हमें अमेरिका से सीखना चाहिए कि जब तक सफलता की गारंटी न हो, उलझने से बचना चाहिए। हो सकता है कि अमेरिका आगे अपने दुस्साहस से पीछे हट जाए लेकिन भारत ऐसे अभियान का हिस्सा बनकर अपने लिए उल्टी स्थिति पैदा नहीं कर सकता। उधर एलएसी पर सैन्य स्तर पर थकाऊ बातचीत अब भी चल रही है और अमेरिका से हमारी भागीदारी जिसमें उच्च प्रौद्योगिकी तक पहुंच मिलती है, उसकी भी हमें बड़ी कीमत चुकानी पड़ रही है।
देखने वाली बात है कि हम काफी सस्ते में निर्णय लेने की अपनी स्वतंत्रता का त्याग कर रहे हैं। और फिर तेजी से आक्रामक हो रहे चीन या फिर रूस-चीन-पाकिस्तान गठजोड़ से निपटने के लिए अमेरिका पर हमारी निर्भरता की कीमत क्या है,यह भी देखने की जरूरत है।
अमेरिका के साथ व्यापक जुड़ाव अपरिहार्य है और कई मायनों में यह स्वागत योग्य भी है लेकिन जैसा कि राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने एक बार कहा था, क्या पूंछ कुत्ते को हिलाती है? हमें निश्चित रूप से यह ध्यान रखना होगा कि हम वैसी महत्वाकांक्षा नहीं पालें। हाल के वर्षों में ‘हाउडी मोदी’ और ‘नमस्ते ट्रंप’ के बावजूद इस मुद्दे पर आश्वास्ति नहीं मिलती।
कुल मिलाकर यही कह सकते हैं कि क्या हमने ऐसे प्रशासन के साथ नजदीकियां बढ़ाने की कीमत का हिसाब लगाया है जो घोषित तौर पर अमेरिका फर्स्ट की बात करता है? जाहिर है, ऐसे में भारत का स्थान तो हर हाल में दूसरा ही रहेगा। क्या पिछले कुछ वर्षों में हमने अमेरिका के साथ जो संबंध विकसित किए हैं, अमेरिकी राष्ट्रपति की ओर से यह सुनने के लिए कि ‘भारत कोविड के आंकड़े छिपा रहा है’?
(सलमान खुर्शीद यूपीए सरकार में विदेश मंत्री रह चुके हैं ) (navjivan)
कृष्ण कांत
आलू के गोदाम भरे पड़े हैं, फिर भी खुदरा आलू 50 से 60 रुपये किलो तक बिक रहा है। उधर, प्याज की कीमत 100 रुपये तक पहुंच गई है।
अलग-अलग खबरों का सार यही है कि ये महंगाई नहीं है। ये कालाबाजारी के जरिये जबरन थोपी गई महंगाई है। आलू और प्याज के बढ़े दामों का किसानों को कोई फायदा नहीं मिल रहा है। बिचौलिये ये माल उड़ा रहे हैं। नारे में कहा जा रहा है कि हम बिचौलियों को हटा रहे हैं, लेकिन असल में बिचौलिये चांदी काट रहे हैं।
उत्तरप्रदेश से अमर उजाला ने लिखा है कि आलू और प्याज को आवश्यक वस्तु अधिनियम से बाहर करने पर मुश्किलें बढ़ गई हैं। रिकॉर्ड के मुताबिक, कोल्ड स्टोरेज में 30 लाख मीट्रिक टन आलू है। आलू की नई फसल आने तक सिर्फ 10 लाख मीट्रिक टन की खपत होगी। फिर भी दाम आसमान छू रहे हैं।
नये कानून के मुताबिक, अब सरकार इसकी निगरानी नहीं करेगी कि किसने कितना स्टॉक जमा किया है। इससे कालाबाजारी आसान हो गई है। आलू और प्याज के दाम में आग लगी है।
अभी-अभी तीन कृषि विधेयक पास किए गए थे। कहा गया कि किसानों के हित में हैं।
धान की फसल अभी-अभी तैयार हुई है। धान का न्यूनतम समर्थन मूल्य भी घोषित किया गया है। लेकिन किसान कौडिय़ों के भाव धान बेचने को मजबूर हैं।
दैनिक भास्कर ने लिखा है कि धान का न्यूनतम समर्थन मूल्य 1868 रुपए है, लेकिन मध्यप्रदेश के श्योपुर मंडी में 1200 रुपए प्रति क्विंटल का ही भाव मिल रहा है।
पत्रकार ब्रजेश मिश्रा ने लिखा है कि ‘यूपी में धान किसान बदहाल हैं। धान की कीमत कौडिय़ों के भाव है। सरकारी क्रय केंद्रों पर दलालों का साया है। किसी को एमएसपी मिल जाये तो किस्मत की बात होती है। धान 800-1000 प्रति कुंतल पर बेचने को बेबस है किसान। भारत समाचार ने हेल्पलाइन शुरू कर रखी है। अब तक 14 हजार शिकायतें मिल चुकी है।’
उत्तरप्रदेश के कई जिलों से एमएसपी पर धान खरीद नहीं होने की खबरें हैं। इसी मुद्दे को लेकर किसानों का आंदोलन चल रहा है। कल दशहरे पर पंजाब और हरियाणा में रावण की जगह प्रधानमंत्री का पुतला जलाया गया।
सरकार किसानों से कह रही है कि आपको बरगलाया जा रहा है। हम तो आपको अमीर बनाने का जुगाड़ कर रहे हैं। लेकिन जमीन पर तो वही हो रहा है जिसकी आशंका जताई गई।
जागरण ने मध्यप्रदेश के बारे में खबर छापी है कि मक्का का एमसपी तय नहीं है। किसान औने पौने भाव में मक्का बेचने पर मजबूर हैं। इकोनॉमिक टाइम्स के मुताबिक, किसानों को मक्के का भाव न्यूनतम समर्थन मूल्य से 40-50 फीसदी कम मिल रहा है।
उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश से खबरें हैं कि मक्का 7 से 9 रुपये प्रति किलो बिक रहा है।
ये सब देखकर ऐसा महसूस होता है कि हमारी सरकारें किसी संगठित गिरोह की तरह काम कर रही हैं। अमीर लोग चांदी काट रहे हैं और आम जनता की जेब कट रही है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अमेरिका दुनिया का सबसे समृद्ध और शक्तिशाली राष्ट्र है। वहां की जनता भी सुशिक्षित है लेकिन वह डोनाल्ड ट्रंप- जैसे आदमी को राष्ट्रपति चुन लेती है। इसमें अमेरिका के आम मतदाता को हम दोषी नहीं ठहरा सकते। उसने तो ट्रंप की प्रतिद्वंदी हिलेरी क्लिंटन को 2016 में 30 लाख वोट ज्यादा दिए थे लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति इन सीधे वोटों से नहीं चुना जाता है। ये वोटर अपने-अपने क्षेत्र के प्रतिनिधि को चुनते हैं और फिर वे प्रतिनिधि मिलकर राष्ट्रपति का चुनाव करते हैं।
वह प्रतिनिधि जितने वोटों से जीतता है, उतने वोट तो राष्ट्रपति के उम्मीदवार को मिल ही जाते हैं। उस क्षेत्र के वे वोट भी उस प्रतिनिधि को मिले हुए मान लिए जाते हैं, जो उसके विरुद्ध भी गिरते हैं। इस विचित्र प्रक्रिया के चलते ही ट्रंप राष्ट्रपति बन गए। अब ‘इलेक्टोरल कॉलेज’ में 538 प्रतिनिधि होते हैं। इनमें से जिसे 270 का समर्थन मिले वह जीत जाता है। पिछली बार ट्रंप को जिताने में सबसे बड़ी भूमिका उन गोरे मतदाताओं की थी, जो कम पढ़े-लिखे और निम्न वर्ग के अमेरिकी लोग हैं। ट्रंप उन्हीं के सच्चे प्रतिनिधि हैं। उनके बोल-चाल भी उनके-जैसी ही है।
इस बार ट्रंप के विरुद्ध जौ बाइडन राष्ट्रपति का चुनाव लड़ रहे हैं। उनके साथ उप-राष्ट्रपति पद के लिए भारतीय मूल की कमला हैरिस खड़ी हैं। दोनों के जीतने की संभावनाएं प्रबल दिखाई दे रही है। चुनाव-पूर्व सर्वेक्षणों से पता चलता है कि बाइडेन को 72 प्रतिशत मतदाताओं का समर्थन है जबकि ट्रंप को सिर्फ 22 प्रतिशत का है। इधर ट्रंप के भारतीय मतदाता भी खिसक रहे हैं। मोदी और ट्रंप की परस्पर खुशामद के कारण ट्रंप को ऐसा लगता था कि अमेरिका में भारतीय मूल के 19 लाख वोट उनकी जेब में हैं लेकिन डेमोक्रेटिक पार्टी ने कमला हैरिस को अपना उप-राष्ट्रपति का उम्मीदवार बनाकर तुरूप कार्ड चल दिया है। ट्रंप के खिलाफ भारतीय मूल के मतदाताओं ने अब ऐसी कमर कस ली है कि ट्रंप के लिए अब मोदी-कार्ड भी बेकार हो गया है।
इधर चुनाव के एक हफ्ते पहले ट्रंप ने अपने विदेश और रक्षा मंत्री को भारत भेजकर अपने वोटरों को पटाने के लिए एक दांव मारा है लेकिन उनकी बेलगाम जुबान ने उस पर भी पानी फेर दिया है। उन्होंने अपनी चुनाव-सभा में प्रदूषण पर अमेरिका की तारीफ करते हुए भारत के बारे में बोल दिया कि देखो, ‘भारत की तरफ देखो। वह कितना गंदा है। उसकी हवा कितनी गंदी है।’’उनके ये शब्द अमेरिका के भारतीय मतदाताओं के कान में अंगारों की तरह गिरे हैं। यह ठीक है कि ज्यादातर देशों के नेताओं का बौद्धिक स्तर ट्रंप-जैसा ही होता है लेकिन ट्रंप को अपने परम मित्र नरेंद्र मोदी से सीखना चाहिए कि भाषण कैसे देना है, प्रश्नकर्ताओं और पत्रकारों से कैसे बचना है और अपने पद की गरिमा बनाए रखने के लिए कब-कब चुप रहना है। वैसे तो अब जनवरी 2021 के बाद उनको किसी से कुछ सीखने की जरुरत ही नहीं रहेगी। अमेरिका के राष्ट्रपति पद का बोझ उनके कंधों से उतर ही जाएगा।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-विक्टोरिया गिल
अमरीकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने घोषणा की है कि उसे चंद्रमा पर पानी होने के सुबूत मिले हैं.
नासा ने अपनी एक नई और अचंभित करने वाली खोज के बारे में घोषणा की है कि उन्हें कुछ दिनों पहले चांद की सतह पर पानी होने के निर्णायक सुबूत मिले हैं.
चंद्रमा की सतह पर पानी के अणुओं के मिलने की पुष्टि से नासा के वहां बेस बनाने की योजना को लेकर भी उम्मीदें बढ़ी हैं. इस बेस को चंद्रमा पर मौजूद प्राकृतिक संसाधनों के इस्तेमाल से ही संचालित करने का लक्ष्य है.
इस खोज को साइंस जर्नल नेचर एस्ट्रोनॉमी में दो अलग-अलग शोधपत्रों में प्रकाशित किया गया है.
हालांकि इससे पहले भी चंद्रमा की सतह पर पानी होने के संकेत मिले थे लेकिन इससे पहले जो खोज हुई थीं उनमें चांद के हमेशा छाया में रहने वाले भाग में पानी के होने के संकेत मिले थे लेकिन इस बार वैज्ञानिकों को चांद के उस हिस्से में पानी के होने के साक्ष्य मिले हैं जहां सूर्य का सीधा प्रकाश पड़ता है.
एक वर्चुअल टेलीकॉन्फ्रेंसिंग के दौरान बोलते शोध-पत्र की सह-लेखिका केसी होनिबल ने कहा, "वहाँ जो पानी है वो चांद पर लगभग एक क्यूबिक मीटर मिट्टी में 12 औंस की एक बोतल के बराबर पानी है." यानी चांद के लगभग एक क्यूबिक मीटर आयतन या क्षेत्र में आधे लीटर से भी कम (0.325 लीटर) पानी है. होनिबल मैरीलैंड स्थित नासा के गोडार्ड स्पेस फ़्लाइट सेंटर में पोस्टडॉक्टरल फ़ेलो हैं.
होनिबल के नासा सहयोगी जैकब ब्लीचर का कहना है कि शोधकर्ताओं को जल-जमाव की प्रकृति समझने की ज़रूरत है. उनका मानना है कि इससे उन्हें यह तय करने मे मदद मिलेगी कि अगर भविष्य में चांद पर किसी तरह की खोज की जाती है तो यह प्राकृतिक संसाधन कितनी मात्रा में सुलभ होंगे.
चंद्रमा पर पानी होने के संकेत और तथ्य पहले भी मिले हैं लेकिन इस नई खोज से यह पता चलता है कि यह पहले की खोज के अनुमान से कहीं अधिक मात्रा में मौजूद है.
मिल्टन केन्स स्थित ओपन यूनिवर्सिटी की ग्रह वैज्ञानिक हनाह सर्जेंट के मुताबिक़, "इस खोज ने हमें चांद पर पानी के संभावित स्रोतों के और अधिक विकल्प दे दिये हैं."
"चंद्रमा पर बेस कहां हो यह बहुत हद तक इस बात पर निर्भर करेगा कि पानी कहां है. "
स्पेस एजेंसी का कहना है कि उनकी योजना के मुताबिक़ वे साल 2024 तक पहली महिला और अगले पुरुष को चांद की सतह पर भेजेंगे. यह योजना साल 2030 में नासा के मंगल पर मानव के 'अगले बड़े क़दम' की तैयारी की एक कड़ी है.
वैज्ञानिकों को चंद्रमा पर कैसे मिला पानी?
इस खोज के लिए सबसे पहले एक एयरबोर्न-इंफ़्रारेड टेलीस्कोप बनाया गया, जिसे सोफ़िया नाम दिया गया है. यह एक ऐसी वेधशाला है जो वायुमंडल के काफ़ी ऊपर उड़ती है और एक बड़े पैमाने पर सौर मंडल का काफ़ी स्पष्ट दृश्य उपलब्ध कराती है. इंफ्रारेड टेलीस्कोप की मदद से शोधकर्ताओं ने पानी के अणुओं के 'सिग्नेचर कलर' की पहचान की.
शोधकर्ताओं का अनुमान है कि यह लूनर ग्लास के बुलबुलों में या फिर सतह पर मौजूद कणों के बीच जम गया और यही कारण है कि यह कठोर वातावरण होने के बावजूद भी मौजूद है.
एक अन्य अध्ययन में वैज्ञानिकों ने हमेशा अंधेरे में रहने वाले क्षेत्र का अध्ययन किया, इसे ठंडे जाल के रूप में जाना जाता है. यहां पानी जमा होने या फिर स्थायी तौर पर मौजूद होने की संभावना हो सकती है. वैज्ञानिकों को दोनों ध्रुवों पर ये ठंडे जाल मिले और उन्होंने इनके आधार पर निष्कर्ष निकाला कि "चंद्रमा की सतह का क़रीब 40 हज़ार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पानी को बांधकर करने की क्षमता रखता है."
इस खोज के क्या मायने हैं?
डॉ. सर्जेंट के मुताबिक़, इस खोज के साथ ही उन जगहों की सूची और बड़ी हो जाएगी जहां बेस बनाया जा सकेगा.
आने वाले सालों में चांद के ध्रुवीय क्षेत्रों में कई मिशन भेजे जाने की योजना है लेकिन आने वाले सालों में चांद पर स्थायी आवास बनाने की भी योजना है. यह एक दीर्घकालिक और महत्वाकांक्षी योजना है.
ओपन यूनिवर्सिटी के शोधकर्ता के मुताबिक़, "निश्चित तौर पर यह कुछ प्रभाव डाल सकता है. इससे हमे कुछ शोध करने के लिए समय मिलता है."
"हालांकि हमारे पास ज़्यादा समय नहीं क्योंकि हम पहले से ही चंद्रमा पर बेस तैयार करने की योजना पर काम कर रहे हैं और हम इस ओर आगे भी बढ़ रहे हैं लेकिन निश्चित तौर पर यह आशाजनक है."
विशेषज्ञों का कहना है कि अगर हम एक बार यह समझ जाएं कि इसे निकालना कैसे है तो चांद की सतह पर मौजूद यह बर्फ़ीले पानी की सतह चंद्रमा पर अर्थव्यवस्था के लिए आधार को तैयार करने में मददगार साबित हो सकती है.
अगर ऐसा हो पाता है तो धरती से चंद्रमा पर किसी रॉकेट को भेजने की तुलना में, चंद्रमा पर रॉकेट ईंधन बनाना सस्ता हो जाएगा. तो ऐसे में अगर भविष्य में चंद्रमा पर शोध करने वाले धरती पर लौटना चाहेंगे तो वे पानी से हाइड्रोजन और ऑक्सीजन को अलग कर सकेंगे और ईंधन के तौर पर इस्तेमाल कर सकेंगे. (bbc)
यमन के कुछ हिस्सों में बच्चे तीव्र कुपोषण के शिकार हो रहे हैं. यूएन की रिपोर्ट में कहा गया है कि देश जल्द ही कड़े खाद्य सुरक्षा संकट के करीब पहुंच सकता है. कोरोना वायरस महामारी से हालात और कठिन हो गए हैं.
यमन संकट को सात साल हो रहे हैं लेकिन इसका हल अब तक नहीं निकल पाया है. सालों से जारी संकट ने सबसे ज्यादा नुकसान बच्चों को पहुंचाया है. बच्चे कुपोषण के शिकार हो रहे हैं और कोविड-19 का भी खतरा मंडरा रहा है. मंगलवार, 27 अक्टूबार को संयुक्त राष्ट्र की जारी रिपोर्ट में देश में कुपोषण के उच्चतम स्तर को लेकर चेतावनी दी गई है. इस रिपोर्ट में कहा गया है कि देश भीषण खाद्य संकट की ओर बढ़ रहा है.
साल 2020 यमन में बच्चों के लिए सबसे ज्यादा दुख देने वाला रहा. पहले तो कोरोना वायरस महामारी से देश की हालत खराब हुई उसके बाद गिरती अर्थव्यवस्था तो चिंता का विषय बना ही हुआ है एक और संकट है बढ़ता संघर्ष. पिछले छह से साल देश युद्ध की मार झेल रहा है और इस साल सहायता राशि में कमी भी भूख से लड़ने के उपायों को कमजोर कर रहे हैं.
यमन के लिए यूएन की मानवीय समन्वयक लिजे ग्रांडे कहती हैं, "हम जुलाई से ही चेतावनी दे रहे हैं कि यमन एक भयावह खाद्य सुरक्षा संकट की कगार पर है. अगर अब युद्ध खत्म नहीं होता है तो हम एक अपरिवर्तनीय स्थिति में पहुंच जाएंगे जहां यमन के छोटे बच्चों की पूरी पीढ़ी खत्म होने का जोखिम है."
यूएन के एकीकृत खाद्य सुरक्षा चरण वर्गीकरण (आईपीसी) के मुताबिक दक्षिण यमन में पांच साल के कम उम्र के बच्चों में तीव्र कुपोषण के मामलों में साल 2020 में 10 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है और यह आंकड़ा पहुंचकर पांच लाख के करीब पहुंच गया है.
गंभीर तीव्र कुपोषण के शिकार बच्चों की संख्या में 15.50 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है और ढाई लाख गर्भवती महिलाएं या स्तनपान कराने वाली मांओं को भी कुपोषण उपचार की भी जरूरत है. दक्षिण यमन में 5 वर्ष से कम आयु के लगभग 14 लाख बच्चे रहते हैं, जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त यमन सरकार के नियंत्रण में आता है. हालांकि उत्तर यमन के लिए आईपीसी डाटा अब तक उपलब्ध नहीं हो पाया है, यहां पर ईरान के प्रति झुकाव रखने वाले हूथी विद्रोही का नियंत्रण है.
यमन में अकाल को कभी आधिकारिक रूप से घोषित नहीं किया गया है. यूएन कहता आया है कि यमन दुनिया का सबसे बड़ा मानवीय संकट झेल रहा है. देश की 80 फीसदी जनसंख्या मानवीय सहायता पर ही निर्भर है.
पोषण आहार और अन्य सेवाएं देने वाली एजेंसियां जो लाखों लोगों को भुखमरी से बचाती हैं इस साल फंडिंग की कमी के कारण बंद हो रही हैं. यूएन का कहना है कि उसको मध्य अक्टूबर तक सिर्फ 1.43 अरब डॉलर ही मिले हैं.
मार्च 2015 के मानवीय त्रासदी और खराब हो गई जब सऊदी अरब ने यहां दखल दिया, सऊदी ने सरकारी सेना के समर्थन में अपनी सेना उतार दी. हूथी बागियों को रियाद के कट्टर प्रतिद्वंद्वी ईरान का समर्थन हासिल है. हवाई हमलों और युद्ध के कारण लाखों लोगों की मौत हो चुकी हैं जिनमें सैकड़ों बच्चे भी शामिल हैं.
-भारत डोगरा
विभिन्न देशों और अन्तरराष्ट्रीय संस्थानों ने विषमता कम करने के लिए समुचित कदम उठाए होते तो कोविड के दौर में कमजोर तबकों को इतना दुख-दर्द न सहना पड़ता, जितना उनको सहना पड़ा है।
वैसे तो विषमता कम करना सभी स्थितियों में महत्तवपूर्ण है, पर अधिक कठिन समय में भूख और गरीबी कम करने के लिए यह और भी जरूरी हो जाता है। इस समय कोविड-19 के कारण दुनिया ऐसे ही कठिन दौर से गुजर रही है। इन दिनों विषमता के हालात पर आक्सफैम व डेवेलैपमेंट फिनेक्स इंटरनेशनल के नए विश्लेषण ने चिंता व्यक्त की है कि कोविड-19 के दौर में विश्व स्तर पर विषमता कम करने में कोई उल्लेखनीय प्रगति नहीं की है।
इतना ही नहीं इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि पहले विभिन्न देशों व अन्तरराष्ट्रीय संस्थानों ने विषमता कम करने के लिए समुचित कदम उठाए होते तो कोविड के दौर में कमजोर तबकों को इतना दुख-दर्द न सहना पड़ता जितना उनको सहना पड़ा है। पर हाल के वर्षों में विषमता कम करने में अधिकांश देशों में विफलता या कम सक्रियता देखी गई, व इसकी महंगी कीमत कोविड दौर में चुकानी पड़ी।
यह विषमता केवल आर्थिक स्तर पर ही नहीं है अपितु सामाजिक स्तर पर यानि जाति, धर्म, नस्ल, रंग, लिंग आदि स्तर पर भी है। उदाहरण के लिए, संयुक्त राज्य अमेरिका में श्वेत परिवारों में 10 में से 7 को स्वास्थ्य बीमा उपलब्ध है जबकि अफ्रीकन-अमेरिकन (ब्लैक) परिवारों में 10 में से मात्र 1 परिवार को ही स्वास्थ्य बीमा उपलब्ध है।
कुछ देशों ने कोविड के दौर में विषमता कम करने के स्थान पर विषमता बढ़ाने वाले कदम उठाए हैं। केन्या ने सबसे धनी व्यक्तियों व बिजनेस पर इसी दौर में टैक्स कम कर दिए जिससे निर्धन वर्ग की सहायता के लिए कम संसाधन उपलब्ध होंगे। अधिकांश देशों में स्वास्थ्य के लिए बजट कम होने, सामाजिक सुरक्षा कमजोर होने व मजदूर अधिकारों को मजबूती न देने के कारण निर्धन वर्ग अधिक विकट स्थिति में है जिससे कोविड के दौरान निर्धन वर्ग को बहुत गंभीर समस्याएं सहनी पड़ी हैं।
अभी दुनिया कठिन दौर से बाहर नहीं निकली है और यह बहुत जरूरी है कि इस दौर का दुख-दर्द कम करने के लिए सभी सरकारें और अन्तरराष्ट्रीय संस्थान विषमता कम करने की नीतियों को अपनाएं। इस समय विश्व की जो स्थिति है उसमें तो यह लग रहा है कि इस दौर में विषमताएं पहले से और बढ़ रही हैं अत: नीतिगत स्तर पर उचित व न्यायसंगत फैसले लेकर शीघ्र ही विभिन्न सरकारों व अन्तरराष्ट्रीय संस्थानों को विषमता कम करने के असरदार व ठोस कदम उठाने चाहिए।
उन्हें टैक्स, सार्वजनिक खर्च व मजदूर नीतियों में इस संदर्भ में जरूरी सुधार करने चाहिए। अधिक धनी कंपनियों व व्यक्तियों पर टैक्स बढऩे चाहिए व टैक्स चोरी को रोकना चाहिए। स्वास्थ्य, शिक्षा व सामाजिक सुरक्षा पर सार्वजनिक निवेश बढ़ाना चाहिए। सरकारी खर्च में पारदर्शिता बढ़ानी चाहिए व ऐसे अन्य प्रयास होने चाहिए जिनसे खर्च उचित प्राथमिकताओं के अनुकूल हो। महिलाओं के कार्य के लिए सुरक्षा कम होती है अत: उनके रोजगार की सुरक्षा व व्यापक हितों पर विशेष ध्यान देना चाहिए। आर्थिक विषमता के साथ लिंग-आधारित विषमता व अन्य तरह की सामाजिक विषमता (जैसे जाति, धर्म, नस्ल व रंग आदि पर आधारित विषमता) को दूर करने पर भी समुचित ध्यान देना चाहिए।
नीति स्तर पर विषमता को अधिक व असरदार स्थान देने के लिए यह भी जरूरी है कि विभिन्न तरह की विषमता पर ठीक व प्रमाणिक जानकारी उपलब्ध हो। यह जानकारी व आंकड़ों का आधार उपलब्ध करवाने के लिए जरूरी प्रयास करने चाहिए। विभिन्न प्रस्तावित नीतियों का आंकलन इस दृष्टि से भी होना चाहिए कि इनका विषमता पर क्या असर पड़ेगा तथा इस आंकलन के आधार पर विषमता कम करने वाली नीतियों को प्रोत्साहित करना चाहिए।
इस संदर्भ में विभिन्न सरकारों व अन्तरराष्ट्रीय संस्थानों का सहयोग बढऩा चाहिए। विशेष तौर पर अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा संस्थान जैसे प्रमुख संस्थानों को निर्धन व विकासशील देशों को कर्ज में राहत देने के लिए व इन देशों का कर्ज व ब्याज अदायगी का बोझ कम करने के लिए प्रभावी कदम उठाने चाहिए। अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर भी विषमताएं कम होनी चाहिए।
विषमता कम करने का एजेंडा इन दिनों बहुत महत्वपूर्ण हो गया है और इसे एक मुख्य प्राथमिकता बनाना चाहिए। विषमता कम होने से केवल सबसे गरीब वर्गों को राहत ही नहीं मिलती है अपितु उनके हाथ में क्रय शक्ति आने से व क्रय शक्ति का आधार अधिक व्यापक होने से आर्थिक संवृद्धि की संभावनाएं भी बेहतर होती हैं। भारत सहित अनेक विकासशील देशों में इस समय इसकी बहुत जरूरत भी महसूस की जा रही है। (navjivanindia.com)
-राजू सजवान
उत्तर प्रदेश ने इस खरीफ सीजन में 56 लाख टन धान की सरकारी खरीद का लक्ष्य रखा है, लेकिन अब तक खरीद का काम काफी धीमी गति से चल रहा है।
एक ओर जहां केंद्र सरकार दावा कर रही है कि पिछले साल के मुकाबले इस साल धान की सरकारी खरीद अब तक 20 फीसदी से अधिक की जा चुकी है, लेकिन कुल खरीद में उत्तरप्रदेश की हिस्सेदारी 2 फीसदी से भी कम है।
26 अक्टूबर को जारी सरकारी विज्ञप्ति के मुताबिक 25 अक्टूबर तक पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु, चंड़ीगढ़, जम्मू-कश्मीर, गुजरात और केरल में धान की खरीद चल रही है और इन राज्यों 151.17 लाख क्विंटल धान की सरकारी खरीद हो चुकी है, जबकि पिछले साल 125.05 लाख टन खरीद की गई थी। यानी कि इस साल अब 20.89 प्रतिशत अधिक धान खरीदी जा चुकी है।
हालांकि प्रेस इंफॉर्मेशन ब्यूरो (पीआईबी) की इस विज्ञप्ति के में यह तो बताया गया है कि कुल खरीद में से 100.89 लाख टन धान पंजाब से खरीदी गई है, जो पिछले साल के मुकाबले लगभग 66.71 लाख टन अधिक है, लेकिन अन्य राज्यों की जानकारी नहीं दी गई है। दरअसल अब तक जो खरीदारी की गई है, उसमें पंजाब और हरियाणा की हिस्सेदारी प्रमुख है। इससे पहले भी ऐसा ही होता रहा है। यह बात इसलिए भी अहम हो जाती है, क्योंकि पश्चिम बंगाल के बाद उत्तर प्रदेश ऐसा राज्य है, जहां धान का उत्पादन बहुत ज्यादा होता है, लेकिन उत्तर प्रदेश में धान की खरीदारी बहुत कम होती है।
इस बार जब नए कृषि कानून बने तो उत्तर प्रदेश के किसानों ने भी विरोध किया था, तब तुरत-फुरत में उत्तरप्रदेश सरकार द्वारा जारी बयान में कहा गया कि राज्य में बड़े स्तर पर धान की सरकारी खरीद जाएगी। राज्य सरकार ने इस साल 550 लाख टन धान खरीदने का लक्ष्य रखा है। लेकिन उत्तरप्रदेश की वेबसाइट के मुताबिक 26 अक्टूबर की शाम सात बजे तक 41387 किसानों से 2.91 लाख क्विंटल धान खरीदी गई है। जबकि उत्तरप्रदेश की वेबसाइट पर 5,75,135 किसान धान की बिक्री के लिए रजिस्ट्रेशन करा चुके हैं। अगर देश भर में अब तक हुई कुल खरीद (151 लाख क्विंटल) से तुलना की जाए तो अभी उत्तरप्रदेश में 2 फीसदी से भी कम धान खरीदी गई है और जबकि लक्ष्य से तो कोसों दूर हैं।
राज्य में सरकारी खरीद में ढिलाई का खामियाजा किसानों को भुगतना पड़ रहा है। सरकारी खरीद न होने के कारण किसान अपनी धान 800 से 1,000 रुपए प्रति क्विंटल से भी कम कीमत पर बेचने को मजबूर हैं। जबकि धान का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) 1868 रुपए और 1888 रुपए प्रति क्विंटल है। ऐसी स्थिति में अच्छी कीमत पाने के लिए उत्तर प्रदेश के किसान हरियाणा और पंजाब की मंडियों में पहुंच रहे हैं। जहां उन्हें विरोध का सामना भी करना पड़ रहा है। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, उत्तर प्रदेश से आ रहे धान से भरे ट्रकों को किसान पकड़ रहे हैं।
दरअसल, उत्तर प्रदेश में सरकारी खरीद बहुत कम होने के कारण वहां के व्यापारी भी कम कीमत पर खरीद करते हैं। उत्तर प्रदेश के छाता से हरियाणा की अनाज मंडी में धान बेचने आए किसान गंगा लाल बताते हैं कि उनके गांव से कुछ ही दूरी पर कोसी अनाज मंडी है। वहां सरकारी खरीद न के बराबर होती है, इस बार जब हमने वहां के व्यापारी से बात की तो उसने बताया कि वह 900 से 1,000 रुपए क्विंटल के रेट से खरीदेगा। इसलिए हम होडल आकर अपनी धान बेच रहे हैं। जहां व्यापारी (आढ़ती) भी उत्तरप्रदेश के व्यापारियों से अधिक कीमत देता है।
राष्ट्रीय किसान मजदूर संगठन के संयोजक वीएम सिंह बताते हैं कि पंजाब-हरियाणा जितना धान उत्पादन करता है, उससे अधिक उत्तर प्रदेश में धान होता है, लेकिन सरकार की मंशा न होने के कारण यहां सरकारी खरीद होती ही नहीं है। यही वजह है कि इस बार तो किसान 800 रुपए क्विंटल धान बेचने को मजबूर है।
सिंह बताते हैं कि पीलीभीत जिले में धान की सरकारी खरीद नहीं होती थी तो उन्होंने साल 2000 में अदालत का दरवाजा खटखटाया। हाईकोर्ट के निर्देश पर धान की खरीद शुरू हुई थी। उस समय अदालत ने पूरे प्रदेश में मानकों को पूरा करने वाली धान की सरकारी खरीद के निर्देश दिए थे, लेकिन अदालत में बार-बार हलफनामा देने के बावजूद सरकार धान की खरीद करती ही नहीं है। इसका खामियाजा किसान को भुगतना पड़ता है। इसलिए हम लगातार एमएसपी अधिकार की मांग को लेकर आंदोलन कर रहे हैं। अगर सरकार तय कर दे कि चाहे सरकारी खरीद हो या प्राइवेट, एमएसपी से कम कीमत पर नहीं खरीदी जाएगी तो ही किसान को घाटे से बचाया जा सकता है। (downtoearth.org.in/hindi)
-ध्रुव गुप्त
मैसेंजर और व्हाट्सएप सोशल मीडिया की सबसे खतरनाक जगहों में तब्दील होते जा रहे हैं। बहुत कम लोग हैं जो इनका इस्तेमाल सार्थक संवाद के लिए करते हैं। आमतौर पर शातिर लोग मौज-मजे के लिए शिकार की तलाश में यहां भटकते देखे जाते हैं।
औरतें यहां धोखे और ब्लैकमेलिंग की सबसे ज्यादा शिकार होती हैं। वे ऐसी औरतें हैं जो चैटिंग के दौरान भावुकता के कमज़ोर पलों में या क्षणिक यौन संतुष्टि के लिए कामुक संवादों अथवा तस्वीरों का आदान-प्रदान कर जाती हैं जिनका स्क्रीनशॉट बाद में उन्हें धमकाकर उनका मनचाहा इस्तेमाल करने के काम आता है।
मैं नहीं कहता कि आपके इनबॉक्स में आने वाले तमाम लोग गलत होते हैं, लेकिन आप व्यक्तिगत रूप से जिन्हें नहीं जानतीं, उनकी बातों पर भरोसा कर उनके साथ अपनी नितांत व्यक्तिगत बातें आप कैसे शेयर कर सकती हैं ? शायद मेरी पुलिसिया पृष्ठभूमि की वजह से हर महीने ब्लैकमेल की शिकार दो-चार महिला मित्र मुझसे सलाह मांगती है। ज्यादातर मामले संवादों या अश्लील तस्वीरों के स्क्रीनशॉट सार्वजनिक करने की धमकी देकर अकेली मिलने के लिए बाध्य करने के होते हैं।
आभासी दुनिया प्रेम की तलाश की सही जगह नहीं है। बहुत कम भाग्यशाली लोगों की तलाश यहां पूरी होती है। इस मंच ने बहुत लोगों को ठगा और छला है और कुछ को तो आत्महत्या तक के लिए मजबूर कर दिया है। अपवादों की बात अलग है, लेकिन प्रेम अगर आपको मिलेगा तो वास्तविक जीवन में ही मिलेगा। मैसेंजर और व्हाट्सएप से सावधान रहें, सुरक्षित रहें!
नामदेव अंजना
बिहार विधानसभा चुनाव के पहले चरण का मतदान 28 अक्टूबर को है। सभी पार्टियों के बड़े नेता बिहार में रैलियां करने में जुटे हैं।
बिहार जीतना सभी दलों के लिए एक चुनौती बन गया है। लेकिन कभी इसी बिहार में पुणे के एक मराठी व्यक्ति ने छह बार चुनाव लड़ा था, और चार बार जीत कर संसद पहुंचा था, ये बात आश्चर्यचकित करती है, लेकिन सच है।
इस आदमी का नाम था- मधु लिमये।
लिमये जब संसद में होते थे, तो सत्तापक्ष को डर सताता रहता था कि कब उनपर तीखे सवालों की बौछार हो जाएगी। शतरंज के चैंपियन लिमये के सवाल साक्ष्य और सबूत के साथ किसी को भी फँसाने के लिए काफ़ी थे।
चार बार सांसद रहे
मधु लिमये मूल रूप से पुणे के थे। एक मराठी व्यक्ति का बिहार से चार बार चुनाव जीतना अपने आप में अनोखा है।
राज्यसभा में ऐसे कई दूसरे नेता हुए हैं, लेकिन लोकसभा में ऐसे उदाहरण कम ही देखे गए हैं। लिमये का बचपन महाराष्ट्र में बीता, उनकी पूरी पढ़ाई भी वहीं से हुई, वो महाराष्ट्र की राजनीति में भी सक्रिय थे।
लिमये समाजवादी विचारधारा से आते थे और गोवा लिबरेशन जैसे अनेक आंदोलनों का भी हिस्सा बने थे।
लेकिन जब राष्ट्रीय राजनीति में उन्होंने क़दम रखा तो चुनाव लडऩे के लिए बिहार ही चुना। पहली बार वो 1964 में मुंगेर से चुनाव जीतकर संसद पहुंचे थे।
1964 में, सोशलिस्ट पार्टी और प्रजा सोशलिस्ट पार्टी का विलय हुआ और यूनाइटेड सोशलिस्ट पार्टी बनी थी। मधु लिमये पहली बार यूनाइटेड सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर लोकसभा गए थे। इस जीत के बाद, वह यूनाइटेड सोशलिस्ट पार्टी के संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष भी बने।
1967 के चुनावों में, लिमये ने यूनाइटेड सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर मुंगेर से जीत हासिल की। हालाँकि, बाद में वो पार्टी से अलग हो गए। 1973 में, लिमये ने बिहार के बांका से चुनाव जीता। इस बीच आपातकाल की घोषणा कर दी गई। उस समय जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में, इंदिरा गांधी विरोधी अधिकांश दलों ने एक साथ आकर जनता दल का गठन किया। जयप्रकाश नारायण इसके प्रमुख बने थे।
लिमये ने 1977 में जनता पार्टी की टिकट पर बांका से चुनाव लड़ा और फिर जीत हासिल की।
हालांकि 1971 में मुंगेर से और 1980 में बांका से लिमये चुनाव हार भी गए थे। 1980 के बाद से उनका राजनीतिक करियार ढलान की तरफ बढऩे लगा और 1982 आते आते वो सक्रिय राजनीति से बाहर हो गए।
बिहार से कैसे जीते लिमये?
बिहार के एक वरिष्ठ पत्रकार मणिकांत ठाकुर कहते हैं, ‘बिहार की राजनीति को दो भागों में विभाजित किया जाना चाहिए। मंडल आयोग से पहले का बिहार और मंडल आयोग के बाद का बिहार। जाति से ज़्यादा बिहार में समाजवादी विचारधारा की राजनीति थी। कर्पूरी ठाकुर इस राजनीति के आखिरी नेता हैं।’
मधु लिमये साठ और सत्तर के दशक में बिहार से लड़ रहे थे। ठाकुर कहते हैं, ‘समाजवादी विचारधारा राम मनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण द्वारा बिहार की मिट्टी में निहित थी। मधु लिमये उसी दशक में बिहार से चुनाव लड़ रहे थे। इसलिए, विचारधारा जाति से अधिक महत्वपूर्ण थी और इसका उन्हें फायदा मिला।’
वरिष्ठ पत्रकार वेद प्रताप वैदिक के मधु लिमये के साथ पारिवारिक रिश्ते थे। बीबीसी मराठी से बात करते हुए, वैदिक ने बताया, ‘साठ और सत्तर के दशक में, अधिकांश राजनीतिक नेताओं में ‘राष्ट्रीय आकर्षण’ था, मधु लिमये को राष्ट्रीय नेता माना जाता था।’
यह पूछने पर कि क्या मधु लिमये जैसा महाराष्ट्र का कोई नेता आज बिहार से जीत सकता है, मणिकांत ठाकुर ने हँसते हुए कहा, ‘वो विचारधारा का दौर था, लोग विचारधारा और मुद्दों पर वोट देते थे, क्या अब ये होता है?’
ईमानदारी की मिसाल थे लिमये
मधु लिमये ने महाराष्ट्र से भी चुनाव लड़ा था। संयुक्त महाराष्ट्र के गठन से पहले, उन्होंने 1957 में मुंबई में बांद्रा क्षेत्र से चुनाव लड़ा था लेकिन वो वहां हार गए थे।
गोवा की मुक्ति और लोगों के जोडऩे के लिए उनके किए आंदोलन के कारण लोग उनकी ओर आकर्षित हुए थे। बावजूद इसके वो चुनाव नहीं जीत पाए थे।
वेद प्रताप वैदिक बताते हैं, ‘एक बार मैं उनके घर में अकेला था। डाकिए ने घंटी बजाकर कहा कि उनका 1000 रुपए का मनीऑर्डर आया है। मैंने दस्तख़त करके वो रुपए ले लिए। शाम को जब वो आए तो वो रुपए मैंने उन्हें दिए। पूछने लगे कि ये कहाँ से आए। मैंने उन्हें मनीऑर्डर की रसीद दिखा दी। पता ये चला कि संसद में मधु लिमये ने चावल के आयात के सिलसिले में जो सवाल किया था उससे एक बड़े भ्रष्टाचार का भंडाफोड़ हुआ था और उसके कारण एक व्यापारी को बहुत लाभ हुआ था और उसने ही कृतज्ञतावश वो रुपए मधुजी को भिजवाए थे।’
मधु लिमये को ग़ुस्सा आया, उन्होंने वैदिक से कहा, ‘क्या आप कुछ व्यापारियों के लिए दलाल हैं? इस पैसे को उस व्यापारी को वापस भेज दें।’
वेद प्रताप वैदिक अगले दिन पोस्ट ऑफि़स गए और व्यापारी को पैसे लौटा दिए। मधु लिमये के सहयोगी रघु ठाकुर ने बीबीसी हिंदी से बात करते हुए उनसे जुड़ा एक किस्सा बताया।
रघु ठाकुर बताते हैं, ‘वो कभी-कभी हमारे स्कूटर की पिछली सीट पर बैठकर जाया करते थे। इतनी नैतिकता उनमें थी कि जब उनका संसद में पाँच साल का समय ख़त्म हो गया तो उन्होंने जेल से ही अपनी पत्नी को पत्र लिखा कि तुरंत दिल्ली जाओ और सरकारी घर ख़ाली कर दो।’
‘चंपाजी की भी उनमें कितनी निष्ठा थी कि वो मुंबई से दिल्ली पहुँची और वहाँ उन्होंने मकान से सामान निकाल कर सडक़ पर रख दिया। उनको ये नहीं पता था कि अब कहाँ जाएं। एक पत्रकार मित्र जो समाजवादी आंदोलन से जुड़े हुए थे, वहाँ से गुजर रहे थे, उन्होंने उनसे पूछा कि आप यहाँ क्यों खड़ी हैं? जब उन्होंने सारी बात बताई तो वो उन्हें अपने घर ले गए।’
रघु ठाकुर कहते हैं, ‘न केवल उन्होंने अपने जीवनकाल में पेंशन ली, बल्कि उन्होंने अपनी पत्नी से भी कहा कि वह उनकी मौत के बाद भी पेंशन न लें।’ (bbc.com/hind)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
हर विजयदशमी को याने दशहरे के दिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखिया नागपुर में विशेष व्याख्यान देते हैं, क्योंकि इस दिन संघ का जन्म-दिवस मनाया जाता है। इस बार संघ-प्रमुख मोहन भागवत का भाषण मैंने टीवी चैनलों पर देखा और सुना। सबसे पहले तो मैं इस बात से प्रभावित हुआ कि उनकी भाषा याने हिंदी इतनी शुद्ध और सारगर्भित थी कि दिल्ली में तो ऐसी आकर्षक हिंदी सुनने में भी नहीं आती और वह भी तब जबकि खुद मोहनजी हिंदीभाषी नहीं हैं। वे मराठीभाषी हैं। हमारी सभी पार्टियों, खास तौर से भाजपा, जदयू, राजग, सपा, बसपा के नेता वैसी हिंदी या उससे भी सरल हिंदी क्यों नहीं बोल सकते ? उस भाषण में जो राजनीतिक और सैद्धांतिक मुद्दे उठाए गए, उनके अलावा भारत के नागरिकों को अपने दैनिक जीवन में क्या-क्या करना चाहिए, ऐसी सीख हमारे नेता लोग भी क्यों नहीं देते ? कुछ नेताओं को लत पड़ जाती है कि वे टीवी चैनलों पर राष्ट्र को गाहे ब गाहे संबोधित करने का बढ़ाना ढूंढ निकालते हैं या कुछ खास दिवसों पर अफसरों के लिखे भाषण पढ़ डालते हैं। इन नेताओं को आज पता चला होगा कि भारत के सांस्कृतिक और सैद्धांतिक सवालों पर सार्वजनिक बहस कैसे चलाई जाती है।
मोहन भागवत के इस विचार का विरोध कौन कर सकता है कि भारत में बंधुत्व ही सच्चा हिंदुत्व है। यह विचार इतना उदार, इतना लचीला और इतना संविधानसम्मत है कि इसे सभी जातियों, सभी पंथों, सभी संप्रदायों, सभी भाषाओं के लोग मानेंगे। हिंदुत्व की जो संकीर्ण परिभाषा पहले की जाती थी और जो अब तक समझी जा रही है, उस छोटी लकीर के ऊपर मोहनजी ने एक लंबी लकीर खींच दी है। उनके हिंदुत्व में भारत के सारे 130 करोड़ लोग समाहित हैं। पूजा-पद्धति अलग-अलग हो जाने से कोई अ-हिंदू नहीं हो जाता। अ-हिंदू वह है, जो अ-भारतीय है। याने हिंदू और भारतीय एक ही है। मोहन भागवत के इस विचार को संघ का प्रत्येक स्वयंसेवक और प्रत्येक भारतीय आत्मसात कर ले तो सांप्रदायिकता अपने आप भारत से भाग खड़ी होगी।
मोहन भागवत ने कोरोना महामारी, कृषक नीति, शिक्षा नीति और पड़ौसी नीति आदि पर भी अपने विचार प्रकट किए। शिक्षा नीति पर बोलते हुए यदि वे राज-काज, भर्ती और रोजगार से अंग्रेजी को हटाने की बात करते तो बेहतर होता। मातृभाषा में शिक्षा की बात तो उत्तम है लेकिन जब रोजगार और वर्चस्व अंग्रेजी देती है तो मातृभाषा में कोई क्यों पढ़ेगा ? इसी प्रकार पड़ौसी देशों को एक सूत्र में बांधने में दक्षेस (सार्क) विफल रहा है। यह महान कार्य राष्ट्रपतियों और प्रधानमंत्रियों के बस का नहीं है। उनकी औपचारिक महिमा सिर्फ तब तक है, जब तक वे कुर्सी पर हैं। संपूर्ण आर्यावर्त्त (अराकान से खुरासान तक) को एक करने का कार्य इन देशों की जनता को करना है। जनता को जोडऩे का काम समाजसेवी संगठन ही कर सकते हैं।
(नया इंडिया की अनुमति से)
ध्रुव मिश्रा
उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में बसे गाँवों में रोज़गार एवं अन्य सुविधाओं के अभाव के चलते लोगों का पलायन एक बड़ी समस्या रही है.
राज्य में कई ऐसे गाँव हैं जहां से लोग पलायन करके शहरों में जा बसे हैं और गाँव के गाँव खाली हो चुके हैं. लेकिन इसी उत्तराखंड में एक गांव ऐसा भी है जहाँ से आज के समय में एक भी व्यक्ति पलायन करके नहीं गया है.
यहाँ पलायन लगभग शून्य के बराबर है.
मसूरी से करीब 20 किलोमीटर दूर टिहरी ज़िले के जौनपुर विकास खंड स्थित रौतू की बेली गाँव उत्तराखंड में पनीर विलेज के नाम से मशहूर है. करीब 1500 लोगों की आबादी वाले इस गाँव में 250 परिवार रहते हैं और गाँव के सभी परिवार पनीर बनाकर बेचने का काम करते हैं.
रौतू की बेली गांव के पूर्व ब्लॉक प्रमुख कुंवर सिंह पंवार ने ही इस गांव में सबसे पहले पनीर बनाने का काम 1980 में शुरू किया था.
कुंवर सिंह बताते हैं, "1980 में यहाँ पनीर पाँच रुपये प्रति किलो बिकता था. उस समय पनीर यहाँ से मसूरी स्थित कुछ बड़े स्कूलों में भेजा जाता था. वहाँ इसकी डिमांड रहती थी."
उनके मुताबिक़ 1975-76 में इस इलाके में गाड़ियाँ चलनी शुरू हुईं थीं तब यहाँ से बसों और जीपों में रखकर पनीर मसूरी भेजा जाता था.
यहाँ आसपास के इलाकों में तब पनीर नहीं बिकता था क्योंकि लोग पनीर के बारे में इतना जानते नहीं थे. यहाँ के लोग ये भी नहीं जानते थे कि पनीर की सब्ज़ी क्या होती है.
कुंवर सिंह बताते हैं, "पहले यहाँ पनीर का उत्पादन ख़ूब होता था. करीब 40 किलो पनीर एक दिन में यहाँ हो जाया करता था. फिर धीरे-धीरे उत्पादन में कमी आने लगी लेकिन 2003 के बाद फिर से उत्पादन में तेज़ी देखने को मिली."
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देहरादून तक पहुंचा गाँव का पनीर
कुंवर सिंह बताते हैं, "2003 में उत्तराखंड राज्य बनने के बाद इस गांव को उत्तरकाशी ज़िले से जोड़ने वाली एक रोड बनी जिसकी वजह से यहाँ के लोगों को काफ़ी फ़ायदा हुआ. उत्तरकाशी जाने वाली रोड के बन जाने की वजह से इस गाँव से होकर देहरादून और उत्तरकाशी आने-जाने वाले लोगों की संख्या बढ़ी है."
"यहां का पनीर पहले से ज़्यादा प्रचलित हुआ. इस रोड से आने-जाने वाले लोग अक्सर यहीं से आकर पनीर ख़रीदने लगे यहाँ लोगों का पनीर अलग अलग गाँव में बिकने लगा. रौतू की बेली गाँव के पनीर में मिलावट न होने और सस्ता होने की वजह से देहरादून तक के लोग इसको ख़रीदने लगे."
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गाँव में सबसे कम पलायन
कुंवर सिंह बताते हैं कि उत्तराखंड के बाक़ी इलाकों की तुलना में अगर देखें तो टिहरी ज़िले में यह पहला गाँव है जहां सबसे कम पलायन है.
कुछ 40-50 युवा ही गाँव से बहार पलायन करके काम करने के लिए बाहर गए थे लेकिन कोरोना महामारी के दौरान वापस घर लौट आए.
गाँव में कम पलायन का सबसे बड़ा कारण यह है की यहाँ के लोग अपनी थोड़ी बहुत आजीविका चलाने के लिए पनीर का काम करते हैं. थोड़ी-बहुत खेती बाड़ी भी लोग कर लेते हैं जिसकी वजह से पलायन करने की ज़रूरत महसूस नहीं होती.
इसी गाँव में रहने वाले भागेंद्र सिंह रमोला बताते हैं कि अगर सारे ख़र्चे को मिलाकर भी देखें तो वो यहां करीब 6000-7000 रुपये तक बचा लेते हैं क्योंकि यहां जानवरों के लिए घास घर की महिलाएं जंगलों से ले आतीं हैं और थोड़ा बहुत ख़र्चा भैंस के चोकर के लिए होता है.
हालाँकि जब अप्रैल के महीने में घास नहीं मिलती है तब यहाँ घास ख़रीदनी पड़ती है जिसमें ज़्यादा ख़र्च थोड़ा ज़्यादा हो जाता है.
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मुश्किल है पनीर बनाना
कुंवर सिंह बताते हैं कि पहाड़ पर पनीर बनाना बहुत कठिन काम है.
यहाँ अगर किसी के पास एक भैंस है अगर वह भैंस बिल्कुल नई है तो उसे साल भर पालना पड़ता है. यहां गांव के पास में भैंस के लिए चारा नहीं मिलता है.
चारा लाने के लिए गांव की बहू-बेटियों को दूर पहाड़ों पर चढ़कर जाना पड़ता है, कभी कभी यहाँ चारे की भी कमी पड़ जाती है जिसके लिए काफी दूर दूसरे गाँवों तक जाना पड़ जाता है.
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रौतू की बेली गांव में रहने वाली मुन्नी देवी बतातीं हैं, "पशुओं के लिए घास और जलाने के लिए लकड़ी जंगल से लाते हैं. जो लकड़ी जंगल से लाते हैं उसी को चूल्हे में जलाने के लिए उपयोग में लाते हैं उसी से पनीर बनता है. जंगल बहुत दूर हैं, आसपास कहीं भी घास नहीं मिलती है.''
''बहुत दूर पहाड़ पर जाना पड़ता है. सुबह नौ बजे जंगल में घास और लकड़ियां लेने जाते हैं और फिर शाम को चार बजे घास और लकड़ियां लेकर वापस आते हैं. शाम को दूध निकालकर पनीर बनाना शुरू करते हैं."
यहाँ के लोगों के मुताबिक़, अगर सरकार भैंस ख़रीदने में लोन की व्यवस्था कर दे और चारा अगर मुफ़्त में या सब्सिडी में उपलब्ध हो जाए तो लोगों को यहां थोड़ी राहत मिल सकती है.
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गाँव वालों की सरकार से माँग
रौतू की बेली गाँव के ग्राम प्रधान बाग़ सिंह भंडारी बताते हैं कि "हम लोग गांव में अलग-अलग जगह पर रहते हैं. ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों पर अलग अलग जगह पर निवास होता है.''
''जिन जगहों पर हमारी कास्तकारी होती है या हमारा उत्पादन होता है वो जगहें मुख्य मार्ग से काफी दूर और ऊँचाइयों पर हैं इन जगहों तक रोड नहीं पहुंची हैं."
भंडारी ने बताया, "यहां रहने वाले लोग अपने उत्पाद घोड़े खच्चरों के माध्यम से नीचे मुख्य मार्ग तक ले जाते हैं जिसमें कि 150 रुपये तक एक चक्कर का भाड़ा लग जाता है.''
''इस रोड को बनवाने के लिए पिछले 10 से 15 सालों से लोग प्रयास कर रहे हैं, ख़ुद मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत साल 2011 में जब कृषि मंत्री थे तब इस रोड का शिलान्यास कर चुके हैं लेकिन ये रोड अभी तक तैयार नहीं हुई है."
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उत्तराखंड के वरिष्ठ पत्रकार योगेश भट्ट ने बीबीसी हिंदी से कहा, "गाँव आबाद हों इसके लिए हमें गांवों को केंद्र में रखकर योजनाओं को बनाने की ज़रूरत है. गांवों की योजनाओं को बनाने के अधिकार ग्राम प्रधानों के पास होने चाहिए."
मुन्नी देवी के मुताबिक पनीर बनाने से बहुत आमदनी तो नहीं होती लेकिन ख़र्चा-पानी निकल आता है.
उन्होंने कहा कि सर्दियां आने वाली हैं और बर्फ़ वाली ठंडक में जंगल से घास लाना कितना मुश्किल होता है, इसका अंदाज़ा आप लगा सकते हैं. बावजूद इन चुनौतियों के इस गांव का हर परिवार पनीर बना रहा है और उसे बाज़ार तक पहुंचा रहा है. (bbc.com)
-महेंद्र सिंह
ऐसा लगता है कि मोहम्मदबिन तुगलक जैसा समय फिर आ गया है। यह सबसे ज्यादा तब लगता है, जब देश में किसानों की स्थिति को देखा जाए। समझ नहीं आता कि देश की राजनीति किसान से अलग हो गई है या किसान राजनीति से अलग हो गया है। किसान क्या सोचता है, अब इससे देश की राजनीति की दिशा तय नहीं होती। किसान भी इन हालात के लिए कम दोषी नहीं है।
यही किसान जो खेती की खराब हालत के कारण लुटा-पिटा जीवन बिताता है, चुनाव के वक्त अपनी हालत भूलकर भ्रामक नारों, भ्रामक जय घोषों, भ्रामक वादों के चक्कर में आसानी से आ जाता है। क्या आज तक स्वामीनाथन कृषि आयोग की रिपोर्ट लागू हुई? क्यों न हुई? क्या किसानों ने कभी इस पर गौर किया?
क्या देश के साधु, संतों ने कभी किसानों के पक्ष में अपनी सहमति व्यक्त की? क्या बाबा रामदेव ने काले धन के बारे में जिस तरह शोर मचाया, कभी किसानों की समस्याओं के बारे में दबाव बनाया? वर्तमान सरकार के 6 वर्ष के शासन काल में किसानों की आय में कितनी वृद्धि हुई है, इस पर किसान गौर करें। वादा था दो गुनी आय वृद्धि का। क्या यह दो गुनी आय का वादा बिना वृद्धि यूं ही चलता रहेगा? बाबा किसान के मुद्दे पर नहीं बोलते, मगर किसान बाबाओं के मुद्दों में शामिल होने के लिए मरा जाता है।
किसान को यह समझना होगा कि धर्म की राजनीति किसान की राजनीति को पीछे कर देती है। किसान सरल व सहज रूप से धर्म का पालन करता है। वह धर्म को ढोंगी बाबाओं से ज्यादा समझता है। किसान के लिए धर्म राजनीति का मुद्दा नहीं है। धर्म उसके जीवन का अंग है। किसानों में सांप्रदयिक विद्वेष नहीं होता। वह दूसरे धर्मावलंबियों से घृणा भी नहीं करता। मगर फिर भी चुनावों के वक्त सांप्रदायिक चालों और दुष्प्रचार में आ जाने से वह अपने ही मुद्दे भुला बैठता है।
मौजूदा किसान बिल पर बाबाओं की राय क्या है? वर्तमान में संसद में कृषि बिल पास होने से देश के किसानों में नाराजगी है। इससे प्रतीत होता है कि कृषि बिल की भाषा भ्रामक है और लोकतंत्र की भावना के विरूद्ध किसानों को नाजायज तरीके से दबाया जा रहा है। संसद में बिल पेश करने से पहले कृषि बिल की भाषा एवं मुद्दों पर क्या किसानों से मशवरा करना लाजिमी नहीं था?
कृषि बिल संसद में पास होने के बाद प्रधानमंत्री द्वारा घोषणा की जा रही है कि मंडी एवं न्यूनतम समर्थन मूल्य वैसे ही रहेंगे, जैसे पहले थे। क्या इस का उल्लेख बिल में है? अगर यह उल्लेख बिल में नहीं है, तो घोषणा को ऐसा समझा जाए, जैसी 2014 के चुनाव के वक्त की गई थी कि कालेधन को समाप्त प्रत्येक व्यक्त के खाते में 15 लाख रुपए जमा कराए जाएंगे। क्या उन के खातों में अब तक कुछ जमा हुआ?
किसान 2019 के संसदीय चुनाव के वक्त भूल गए कि 2014 के संसदीय चुनाव में भाजपा की जीत के बाद केंद्र में बनी एनडाए की सरकार ने अध्यादेश के जरिए किसानों की जमीन उद्योगपतियों व सरकार द्वारा हड़पने का पूरा जोर लगाया, परंतु सरकार की यह तिकड़म सफल नहीं हुई। उस समय राज्यसभा में कांग्रेस और विरोधी पार्टियों का बहुमत होने से सरकार को निराशा हुई थी। अब एनडीए का बहुमत है, इसलिए अपनी मनमर्जी का किसान विरोधी बिल पास करनाने में सफल हो गई।
किसान कृषि बिल में साफ उल्लेख होना चाहिए था कि प्रत्येक वर्ष खरीफ और रबी की फसलों का एमएसपी घोषित किया जाएगा। मंडियों में और उन के बाहर कोई भी व्यापारी अगर घोषित एमएसपी से कम कीमत पर किसानों के अनाज उत्पाद खरीदता है, तो उसे दो वर्ष की सज़ा और जुर्माने से दंडित किया जा सकेगा। एमएसपी से ज्यादा मूल्य में माल बिकने की सूरत में किसान मंडी के बाहर भी बेच सकेंगे। किसान एसोशियनों द्वारा अपना माल विदेशों में बेचने के लिए भी स्वतंत्र होंगे।
किसान चुनाव के वक्त ऐसे सांसदों को ही वोट दें, जिन्होंने कृषि सुधार बिलों में किसानों का पक्ष लिया है। वक्त का तकाजा है कि विपक्ष एक ऐसे राष्ट्रीय विकल्प के आसपास एकजुट हो जाए, जो क्षेत्रीय खिलाडिय़ों को भी गले लगा सके। किसानों को एकजुट होकर राजनीति को अपने पक्ष में करने की कोशिश करनी चाहिए। उसे देखना चाहिए कि उसके साथ कौन से तबके आ सकते हैं, जो अभी अलग-थलग पड़े हैं। बेरोजगार, बेघर, और भूमिहीन आबादी इसस देश में लाचारी में अपना जीवन बिता रही है। दूसरी तरफ देखें तो एक प्रतिशत आबादी के पास राष्ट्रीय संपदा का 52 प्रतिशत हिस्सा है औऱ शीर्ष 9 अरबपतियों की संपत्ति नीचे जीवन जीने वालों की 50 प्रतिशत आबादी के बराबर है।
किसानों में इस नए कृषि बिल के पास होने से हताशा व्याप्त है। खरीफ फसल समाप्ति पर है। थोड़े दिनों में ही पता चल जाएगा कि फसलों का विक्रय किस तरह होगा! मैंने देखा है भारत की 1947 में मिली आजादी से पहले सूदखोर साहूकार और व्यापारी मनमाने ढंग से किसानों को पैदावार खरीदते थे। किसान गरीबी से छुटकारा पाने के लिए तरसते थे। देश में कांग्रेस की सरकार बनने पर फसलों को बेचने के लिए एमएसपी घोषित किए जाने लगे। इस से किसानों की आय में बड़ा सुधार हुआ।
अब मौजूदा हालात में जीवन में सुधार के लिए किसानों को मजबूत संगठन बनाना होगा। प्रत्येक प्रदेश, जिले, ब्लॉक, गाँव और राष्ट्र स्तर पर कार्यकारिणी का निर्माण करना होगा। सभी जातियों के किसान इनमें सदस्य रहेंगे। किसानों को हिंदुत्व के भ्रमजाल, पंडे पुजारी और धर्म प्रचारकों के बेहूदा धार्मिक प्रपंचों से भी छुटकारा पाना होगा। और अपने सीधे, सच्चे धर्म को फिर से पाना होगा। (लेखक सेवानिवृत प्राचार्य हैं।)
पैगंबर का कार्टून दिखाने के बाद मारे गए टीचर को फ्रांस ने श्रद्धांजलि दी है. इस बीच पुलिस ने स्कूल के दो छात्रों और एक अभिभावक पर हत्या में शामिल होने का शुरूआती आरोप लगाया है.
पेरिस के सोबोन यूनवर्सिटी में ताबूत के सामने खड़े राष्ट्रपति इमानुएल माक्रों ने कहा कि पैटी सैमुएल, "गणराज्य का चेहरा" बन गए हैं और साथ ही फ्रांस की, "आतंकवादियों को परास्त करने की प्रतिबद्धता." सैमुएल पैटी को मरणोपरांत फ्रांस के सबसे बड़े नागरिक सम्मान लेजन द ऑनर से सम्मानित किया गया है. शोक सभा के दौरान उनका मेडल उनकी ताबूत पर रखा गया था.
सैमुएल पैटी इतिहास और समाजशास्त्र के टीचर थे और उन्होंने अपनी दो कक्षाओं में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर चर्चा के दौरान पैगंबर मोहम्मद का कार्टून दिखाया था. हालांकि उन्होंने छात्रों से कहा था कि वो चाहें तो नजर फेर सकते हैं या फिर थोड़ी देर के लिए क्लास से बाहर भी जा सकते हैं. स्कूल से थोड़ी दूर पर शुक्रवार को उनकी हत्या कर दी गई और हमलावर पुलिस की कार्रवाई में मारा गया. इस हत्या से पूरा फ्रांस हैरान है. राष्ट्रपति ने राजनीतिक इस्लाम और फिरकापरस्ती को रोकने के खिलाफ पहले से चल रही योजना और कार्रवाई को तेज कर दिया है.
छात्रों और अभिभावकों की जांच
इस बीच मामले की जांच में जुटे अधिकारियों ने स्कूल के कुछ छात्रों पर आरोप लगाया है. मुख्य आतंकवाद विरोधी अभियोजक जाँ फ्रांसोआ रिकार्ड ने कहा है कि पैटी के स्कूल के दो छात्रों ने हत्यारे को उनकी पहचान बताई थी और इसके बदले उन्हें पैसे दिए गए. हत्यारे ने कहा था कि वह पैटी को पीटेगा और उन्हें पैगंबर का कार्टून दिखाने के लिए माफी मांगने पर विवश करेगा.
रिकार्ड ने यह बातें प्रेस कांफ्रेंस में कही और अभी जज की तरफ से इन आरोपों को मंजूरी नहीं मिली है. इस बीच दोनों छात्रों के खिलाफ आतंकवादी हत्या की जांच में शामिल होने के लिए औपचारिक रूप से जांच शुरू हो गई है. उन दोनों को फिलहाल जमानत पर रिहा किया गया है. इसी स्कूल में पढ़ने वाली एक छात्रा के अभिभावक के खिलाफ भी इन्हीं आरोपों में औपचारिक जांच शुरू की गई है. हालांकि अब तक उनसे पूछताछ नहीं की गई है. रिकार्ड का कहना है कि अभिभावक ने एक वीडियो संदेश में पैटी की "टीचर की गुंडागर्दी" कह कर आलोचना की और उन्हें नौकरी से हटाने की मांग की.
इस शख्स ने हिंसा की इच्छा रखने से इंकार किया है हालांकि रिकार्ड का कहना है कि उसके संदेश ने हत्यारे को प्रेरित किया और उसने उससे संपर्क भी किया था. एक इस्लामी कार्यकर्ता इस शख्स के ऑनलाइन कैम्पेन से जुड़ा था और उसके खिलाफ भी जांच की जा रही है. इसके अलावा हत्यारे के दो दोस्तों पर हत्या में शामिल होने और तीसरे दोस्त पर आतंकवादी साजिश में शामिल होने की जांच चल रही है. कार्यकर्ता और हत्यारे के दोस्तों को हिरासत में लिया गया है.
कार्टून बनाना नहीं छोड़ेंगे
सोबोन यूनिवर्सिटी में शोक सभा के दौरान राष्ट्रपति ने पैटी के रिश्तेदारों, दूसरे टीचरों और सरकारी अधिकारियों से कहा कि टीचर की हत्या इसलिए हुई, "क्योंकि इस्लामवादी हमसे हमारा भविष्य लूटना चाहते हैं, हम हर स्कूल में टीचरों को प्रजातंत्रवादी बनाने के लिए ताकत देंगे. हम उस आजादी की रक्षा करेंगे जो आपने सिखाई है और धर्मनिरपेक्षता के झंडे को ऊंचा रखेंगे. दूसरे लोग अगर छोड़ दें तब भी हम कार्टून और चित्र बनाना नहीं छोड़ेंगे."
सैमुएल पैटी की हत्या ऐसे वक्त में हुई है जब 2015 में शार्ली एब्दो पत्रिका के दफ्तर पर हमले के संदिग्ध लोगों को खिलाफ मुकदमा चल रहा है. इस हत्याकांड में 12 लोगों मारे गए थे. इस बीच सरकार के प्रवक्ता ने इस बात की पुष्टि की है कि जिस इस्लामी कार्यकर्ता के खिलाफ जांच चल रही है उसके नेतृत्व में चल रहे अनौपचारिक संगठन को भंग कर दिया गया है. इसके अलावा पेरिस के उपनगर में मौजूद एक बड़ी मस्जिद को भी बंद कर दिया गया है.
राष्ट्रपति माक्रों इससे पहले चेतावनी दे चुके हैं कि इस्लामवादी पूरे फ्रांस में समुदायों के इर्द गिर्द काम कर रहे हैं और वो एक "समानांतर व्यवस्था" बनाने की कोशिश में हैं और फिर समाज पर "पूरा नियंत्रण कर लेना" चाहते हैं. इसके साथ ही राष्ट्रपति ने यह भी कहा कि इस्लामवाद के खिलाफ जंग का फ्रांस के आम मुसलमानों पर असर नहीं होना चाहिए. हालांकि कुछ मुसलमान कार्यकर्ताओं की दलील है कि इस मुद्दे पर राष्ट्रपति, रुढ़िवादियों और धुर दक्षिणपंथी विपक्षी पार्टियों के ध्यान देने का असर उन पर हो रहा है. इस बीच कई शहरों में मस्जिदों और दूसरी इमारतों की विशेष सुरक्षा के आदेश भी दिए गए हैं.
एनआर/एमजे(डीपीए)