विचार/लेख
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
गुजरात की विधानसभा ने सर्वसम्मति से जैसा प्रस्ताव पारित किया है, वैसा देश की हर विधानसभा को करना चाहिए। इस प्रस्ताव में कहा गया है कि गुजरात की सभी प्राथमिक कक्षाओं में गुजराती भाषा अनिवार्य होगी। पहली कक्षा से आठवीं कक्षा के छात्रों के लिए गुजराती पढ़ना अनिवार्य होगा। जो स्कूल इस प्रावधान का उल्लंघन करेंगे, उन पर 50 हजार से 2 लाख रु. तक का जुर्माना लगाया जाएगा। जो स्कूल इस नियम का उल्लंघन एक साल तक करेंगे, राज्य सरकार उनकी मान्यता रद्द कर देगी। गुजरात में बाहर से आकर रहनेवाले छात्रों पर उक्त नियम नहीं लागू होगा।
मेरी राय यह है कि गैर-गुजराती छात्रों पर भी यह नियम लागू होना चाहिए, क्योंकि भारत के किसी भी प्रांत से आनेवाले छात्र-छात्राओं के लिए गुजराती सीखना बहुत आसान है। उसकी लिपि तो एक-दो दिन में ही सीखी जा सकती है और जहां तक भाषा का सवाल है, वह भी कुछ हफ्तों में ही सीखना कठिन नहीं है। यह बात सभी भारतीय भाषाओं के बारे में लागू होती है, क्योंकि सभी भारतीय भाषाएं संस्कृत की पुत्री हैं। यह ठीक है कि जिन अफसरों और व्यापारियों को अल्प समय में ही अपना प्रांत बदलना पड़ता है, क्या उनके बच्चों की मुसीबत नहीं हो जाएगी? वे कितनी भाषाएं सीखेंगे? इस तर्क का जवाब यह है कि बचपन में कई भाषाएं सीख लेना काफी आसान होता है। मैंने फारसी लिपि कुछ ही घंटों में सीख ली थी और अंग्रेजी, रूसी, जर्मन और फारसी जैसी विदेशी भाषाएं सीखने में भी मुझे कुछ हफ्ते ही लगे थे। यदि हमारे देश के बच्चों पर स्थानीय भाषा सीखना अनिवार्य कर दिया जाए तो भारत के करोड़ों बच्चे बहुभाषाविद बन जाएंगे। आधुनिक भारत में करोड़ों लोग एक-दूसरे के प्रांतों में रहते और आते-जाते हैं। यह प्रक्रिया राष्ट्रीय एकता को मजबूत बनाएगी और हमारे युवकों की बौद्धिक प्रतिभा को नई धार देगी। यदि भारत में स्थानीय भाषा की अनिवार्य पढ़ाई का नियम लागू हो जाए तो हमारे पड़ौसी देश भी उसका अनुकरण करने लग सकते हैं।
नेपाल में नेपाली और हिंदी, श्रीलंका में सिंहली और तमिल, अफगानिस्तान में पश्तो और दरी तथा पाकिस्तान में पंजाबी, पश्तो, सिंधी और बलूच भाषाओं को एक साथ जाननेवालों की संख्या बढ़ेगी। ऐसा होने पर उन देशों की एकता तो मजबूत होगी ही, उनमें पारस्परिक सदभाव भी बढ़ेगा। जब मातृभाषाओं के प्रति प्रेम बढ़ेगा तो प्रत्येक राष्ट्र की राष्ट्रभाषा या संपर्क भाषा को भी उसका उचित स्थान मिलेगा। भारत में अंग्रेजी की गुलामी क्यों बढ़ती जा रही है? क्योंकि हमने अपनी मातृभाषाओं को अपनी पढ़ाई में नौकरानी का दर्जा दे रखा है। इसीलिए भारत में आज भी अंग्रेजी महारानी बनी हुई है। हमारे बच्चे बी.ए., एम.ए. की पढ़ाई और पीएच.डी. के शोध-कार्य में एक मात्र अंग्रेजी ही नहीं, बल्कि विविध विदेशी भाषाओं का फायदा उठाएं, यह भी जरूरी है लेकिन बचपन से ही मातृभाषा और राष्ट्रभाषा की उपेक्षा किसी भी राष्ट्र को महाशक्ति या महासंपन्न नहीं बना सकती। (नया इंडिया की अनुमति से)
अभी नहीं तो कभी नहीं’
जापान के प्रधानमंत्री फुमियो किशिदा ने अपने देश के लोगों को इसी अंदाज में आगाह किया। वो देश की जन्मदर में तेजी से आ रही कमी को लेकर बात कर रहे थे। प्रधानमंत्री किशिदा ने जापान की जन्मदर में हुई ऐतिहासिक गिरावट पर चिंता जताई और कहा कि इसकी वजह से उनका देश एक समाज के तौर पर संतुलन बनाए रखने में नाकाम हो रहा है।
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक जापान में बीते साल आठ लाख से कम बच्चे पैदा हुए। ऐसा सौ साल में पहली बार हुआ है कि किसी एक साल में इतने कम बच्चों का जन्म हुआ हो।
1970 के दशक में ये संख्या बीस लाख से ज्यादा थी।
विकसित देशों में जन्मदर में कमी की दिक्कत आम है लेकिन जापान में ये समस्या ज़्यादा गंभीर है। हालिया बरसों में औसत आयु बढ़ी है। इसके मायने ये हैं कि बुजुर्गों की संख्या लगातार बढ़ रही है जबकि ऐसे कामकाजी लोगों की संख्या कम है जो उनकी देखभाल कर सकें।
बुजुर्गों की बढ़ती संख्या
वल्र्ड बैंक के आंकड़ों के मुताबिक दुनिया भर में मोनाको के बाद सबसे ज्यादा बुजुर्ग आबादी जापान में है। किसी भी देश के लिए अपनी अर्थव्यवस्था की रफ्तार को बनाए रखना उस स्थिति में बहुत मुश्किल हो जाता है, जहां आबादी का बड़ा हिस्सा रिटायर हो जाता है और कामकाजी आबादी की संख्या घट जाती है। वहां हेल्थ सर्विस और पेंशन सिस्टम अपनी क्षमता के सबसे ऊंचे पायदान को छू लेते हैं।
जापान इसी दिक्कत से जूझ रहा है। इसे देखते हुए प्रधानमंत्री किशिदा ने एलान किया कि वो जन्मदर को बढ़ावा देने के लिए चलाए जा रहे कार्यक्रमों पर सरकार की ओर से खर्च होने वाली रकम को दोगुना कर रहे हैं। इसके जरिए बच्चों की परवरिश में मदद की जाएगी।
इसके मायने ये हैं कि इस क्षेत्र में सरकार का खर्च सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का करीब चार फीसदी बढ़ जाएगा। जापान की सरकार पहले भी ऐसी रणनीतियां आजमा चुकी है लेकिन उन्हें मनचाहे नतीजे हासिल नहीं हुए हैं।
दिक्कत की वजह
जापान में अभी एक महिला औसतन 1.3 बच्चों को जन्म देती है। इस लिहाज से जापान सबसे कम दर वाले देशों में शामिल है। सबसे पीछे दक्षिण कोरिया है जहां ये औसत 0.78 प्रति महिला है। इस वजह से कई तरह के संकट सामने हैं। इनमें से कुछ दुनिया के दूसरे विकिसत देशों में भी दिखते हैं, जबकि कुछ समस्याएं खास जापान तक सीमित हैं।
ऑस्ट्रिया के विएना स्थित इंस्टीट्यूट फॉर डेमोग्राफी के डिप्टी डायरेक्टर टॉमस सोबोत्का कहते हैं कि ये कुछ कारण हैं जिनके इक_ा होने से जन्मदर में कमी आती है। वो कहते हैं, ‘जापान की कार्य संस्कृति ऐसी है कि जहां घंटों तक काम करने की जरूरत होती है। कर्मचारियों से जी जान लगाने और बेहतर प्रदर्शन करने की उम्मीद की जाती है।’ वो बताते हैं, ‘ये साफ़ है कि परिवारों को आर्थिक प्रोत्साहन देने से ये समस्या हल हो जाएगी। इस दिक्कत की अहम वजह देश की जन्मदर में कमी आना है।’ सोबोत्का कहते हैं कि आम आर्थिक उपाय, बच्चों की परवरिश पर होने वाले भारी भरकम खर्च की भरपाई करने में काफी नहीं होंगे।
प्रवासी श्रमिकों से मिलेगी मदद?
कामकाजी लोगों की संख्या में भारी की कमी की भरपाई प्रवासियों के जरिए करने के सुझाव को जापान की सरकार ख़ारिज कर चुकी है। कामकाजी लोगों की संख्या कम होने से स्वास्थ्य और सामाजिक सुरक्षा के ढांचे पर लगातार दबाव बढ़ रहा है।
जापान में बीबीसी के संवाददाता रहे रूपर्ट विंगफील्ड हेज कहते हैं, ‘प्रवासियों को दूर रखने का भाव कम नहीं हुआ है।’
जापान की आबादी का सिर्फ तीन फीसदी हिस्सा बाहर पैदा हुए लोगों का है। ब्रिटेन जैसे दूसरे देशों में ये हिस्सा करीब 15 प्रतिशत है।
रूपर्ट कहते हैं, ‘यूरोप और अमेरिका में दक्षिणपंथी लोग के ऐसे अभियान को नस्लीय शुद्धता और सामाजिक समरसता का उज्जवल उदाहरण बताते हैं लेकिन प्रशंसकों की सोच के उलट जापान में ऐसी नस्लीय शुद्धता नहीं है।’ वो कहते हैं, ‘अगर आप ये देखना चाहते हैं कि जन्मदर में गिरावट की समस्या के समाधान के लिए प्रवासियों के विकल्प को खारिज करने वाले देश का अंजाम कैसा हो सकता है तो ऐसे अध्ययन की शुरुआत के लिए जापान एक अच्छी जगह है।’
यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया में सेंटर फ़ॉर ग्लोबल माइग्रेशन के संस्थापक निदेशक जोवैनी पेरी कहते हैं कि जापान की चुनौती का समाधान प्रवासियों के जरिए ही मिल सकता है।
वो कहते हैं, ‘बड़े पैमाने पर प्रवासी आते हैं तो जनसंख्या और कामकाजी लोगों की कमी समस्या का समाधान प्रभावी तरीके से किया जा सकता है।’ वो आगाह करते हैं, ‘जापान की आबादी बढ़ाने के लिए सरकार बड़े पैमाने पर प्रवासियों को आने देगी, मुझे ऐसा नहीं लगता है।’
जापान उसी दुनियावी संकट का सामना कर रहा है जिससे दूसरे विकसित देश जूझ रहे हैं। पेरी कहते हैं कि अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए प्रवासियों ख़ासकर युवाओं का आना ज़रूरी लगता है। ज़्यादा प्रवासी आएंगे तो श्रमिक बल की संख्या घटने में कमी आएगी। इससे टैक्स के जरिए होने वाली आय भी बढ़ेगी।
पैसे से हल हो सकता है संकट?
जापान की सरकार पहले ही साफ कर चुकी है कि प्रवासियों के जरिए वो समस्या का समाधान नहीं करना चाहती है। वो पैसे खर्च करके दिक्कत दूर करने के इरादे में है। प्रधानमंत्री किशिदा की योजना है कि ‘चाइल्ड केयर’ की मदद के लिए चलाए जाने वाले कार्यक्रमों पर सरकार की ओर से होने वाले खर्च को दोगुना कर दिया जाए।
सिंगापुर की नेशनल यूनिवर्सटी के ली कुआन यू स्कूल ऑफ़ पब्लिक पॉलिसी की स्कॉलर पोह लिन टैन कहती हैं कि एशिया के दूसरे देशों मसलन सिंगापुर में जन्मदर को बढ़ाने के ले ज्यादा पैसे खर्च करने की नीति कारगर नहीं रही। सिंगापुर में सरकार 1980 के दशक से जन्मदर में गिरावट की समस्या से जूझ रही है।
साल 2001 में वहां सरकार ने जन्मदर बढ़ाने के लिए आर्थिक सहूलियतों के एक पैकेज का एलान किया। इसे कई सालों में तैयार किया गया था। पोह बताती हैं कि फिलहाल उस पैकज के तहत वहां पेड मैटरनिटी लीव दी जाती है। चाइल्ड केयर यानी बच्चे की देखभाल के लिए सब्सिडी दी जाती है। टैक्स में छूट और दूसरी रियायतें मिलती हैं। जो कंपनियां कर्मचारियों को माकूल सहूलियतें दे रही हैं, उन्हें कैश गिफ्ट और अनुदान मिलते हैं। वो कहती हैं, ‘इन सब प्रयासों के बावजूद जन्मदर लगातार गिर रही है।’
जन्मदर सिफऱ् जापान और सिंगापुर में नहीं घट रही है। दक्षिण कोरिया, ताइवान, हॉन्ग कॉन्ग और चीन के शंघाई जैसे उच्च आय वाले शहरों में कमी आ रही है।
विरोधाभास की वजह से दिक्कत
सिंगापुर और एशिया के दूसरे देशों में कामयाबी को लेकर एक तरह का विरोधाभास दिखता है। पोह कहती हैं, ‘जन्मदर को बढ़ा न पाने को नीतिगत नाकामी के तौर पर वैसे नहीं देखा जाता है, जैसे कि आर्थिक और समाजिक ढांचे की अभूतपूर्व कामयाबी की तारीफ होती है जहां कामयाबी हासिल करने पर भरपूर इनाम मिलते हैं वहीं सफलता की रेस जीतने की ख्वाहिश न दिखाने पर दंडित किया जाता है।’ वो कहती हैं कि इस वजह से ऐसे बदलाव किए जाने चाहिए जो आर्थिक सहूलियतों पर निर्भर नहीं हों। वो कहती हैं कि इस मामले में एक बेहतर नीति की ज़रूरत है जिससे ऐसे दंपतियों को मदद मिले जो कम से कम दो बच्चे चाहते हैं। ऐसी नीति लाना युवतियों को गर्भधारण करने के लिए प्रोत्साहित करने से बेहतर होगा।
हॉन्ग कॉन्ग यूनिवर्सिटी ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी में सोशल साइंस के प्रोफेसर स्टुअर्ट जिएटल बेस्टन भी इस बात से सहमति जाहिर करते हैं। वो कहते हैं कि जन्मदर बढ़ाने के लिए आपको ऐसे लोगों की मदद करनी चाहिए जिनका एक बच्चा है और उनसे दूसरे बच्चे के बारे में सोचने के लिए कहा जाए। वो कहते हैं, ‘जन्मदर से जुड़ी नीतियों के कारगर न होने की वजह ये है कि ये नीतियां बुनियादी कारणों का समाधान नहीं करती हैं।’
स्टुअर्ट कहते हैं, ‘ये कारण हैं, कामकाज की असुरक्षा, घरेलू कामकाज में लैंगिक असमानता, दफ्तरों में भेदभाव और जीवन यापन पर होने वाला ऊंचा खर्च।’ वो कहते हैं, ‘कम जन्मदर दूसरी दिक्कतों के लक्षणों को जाहिर करती है।’
अतीत में अटका समाज
टॉमस सोबोत्का कहते हैं कि जन्मदर को प्रोत्साहित करने के लिए लोगों के जिंदगी जीने की स्थितियों को बेहतर बनाना जरूरी है। नौकरी की शर्तों में लचीलापन, बच्चों की देखभाल की अच्छी सुविधाएं, अच्छे मानदेय के साथ पैरेंटल लीव की सुविधा और जेब के माकूल मिलने वाले घर जैसे उपाय किए जाने चाहिए। वो आगाह करते हैं कि जापान में जन्मदर बढ़ाने के लिए ये सब करना भी काफी नहीं होगा। वो कहते हैं कि जापान में बड़े बदलाव की ज़रूरत है।
टॉमस कहते हैं, ‘समाज के लैंगिक और पारिवारिक नियम कायदे और अपेक्षाओं की जड़ें अतीत में अटकी हुई हैं।’ वो कहते हैं, ‘तमाम मौकों पर परिवार की देखभाल, घरेलू कामकाज, बच्चों को बड़ा करने और पढ़ाई में उनकी कामयाबी के लिए सिफऱ् मां को जि़म्मेदार मान लिया जाता है।’
टॉमस कहते हैं कि यूरोप के कुछ देशों ने जन्मदर बढ़ाने में कामयाबी हासिल की है। जर्मनी में कुछ हद तक ऐसा हुआ है। बीते 20 साल में वो वहां नीतियां बदली गई हैं। जो लोग बच्चे चाहते हैं, उनके लिए कामकाज और 'चाइल्ड केयर' की स्थितियां बेहतर हुई हैं। उनका कहना है, ‘कम से कम यूरोप में जिन देशों ने दीर्घकालिक फैमिली पॉलिसी में ज़्यादा संसाधन लगाएं हैं, वहां औसतन जन्मदर ज़्यादा है।’ वो कहते हैं कि फ्रांस ने ऐसा किया है। वो सबसे ज़्यादा जन्मदर वाले यूरोपीय देशों में शामिल हैं।
टॉमस अपने शोध से जुड़े अनुभवों के आधार पर बताते हैं कि 'सीमित फोकस' वाली नीतियां काम नहीं करती हैं। ऐसा तब होता है जब सरकारें माता-पिता को आर्थिक सहूलियतें देने के आधार पर जन्मदर बढ़ाने का लक्ष्य तय करती हैं। वो कहते हैं, ‘ये नीतियां तब और कम असरदार होती हैं जब आर्थिक सहूलियत तो हो लेकिन सेक्सुअल हेल्थ और गर्भपात की सुविधा आसानी से न मिले।’
जापान के प्रधानमंत्री किशिदा के जन्मदर बढ़ाने के लिए सरकारी खर्च दोगुना करने की नीति छोटी अवधि में कितनी कारगर होती है, ये आगे पता चलेगा। अगर ये तरीका काम नहीं आया तब हो सकता है कि जापान को लगे कि उन्हें अपने समाज के पारंपरिक मूल्यों को बदलना होगा और एक लचीली प्रवासी नीति बनानी होगी। हालांकि, इसके लिए एक लंबा इंतज़ार करना पड़ सकता है। (bbc.com/hindi)
-लक्ष्मण सिंह देव
शाजी जमा की लिखी किताब अकबर आज पढ़ी। इतिहास का रोचक वर्णन है और ईमानदारी से लिखी है। अकबर का धर्मांध एवं सेकुलर दोनों पक्षो का वर्णन है। सबसे रोचक बात है उस समय के बादशाहों का ज्योतिषियों में विशवास। किताब में लिखा है कि तैमूर की भी कुंडली थी और उसे साहिब किरान कहा जाता था क्योंकि जब वो पैदा हुआ तो उसकी कुंडली में उस समय बृहस्पति और शुक्र का योग था। इब्राहिम लोदी के दरबार में हिन्दू मुसलमान दोनों ही ज्योतिषी थे। अकबर की कुंडली इस किताब में पूरी डिटेल में बताई गई है। पूरे 4 पेज कुंडली और उसके योगों पर ही है। इससे पता चलता है कि मुसलमान भी उस समय ज्योतिष में यकीन करते थे। जहां तक मेरी जानकारी है इस्लाम धर्म में भविष्यवाणी करना हराम है?
एक रोचक वर्णन में अधम खान से अकबर पूछता है-तूने हमारे अटका को क्यों मारा। पेज के एंड नोट में लिखा है कि अकबर ने यही लाइन कही यह रेकॉर्डेड बात है। बुधवार के दिन अकबर हजरत अली के नाम का रोजा रखता था। एक बार अकबर कहीं से वापस आ रहा था तो आमेर में रुकने पर उसे एक पुच्छल तारा दिखाई दिया।उसने ज्योतिषी से पूछा तो बताया गया कि जिस और तारा दिखा है उस दिशा में किसी राजा की मृत्यु होगी। अकबर इस बात से बहुत डर गया और उसने बहुत दान दिया। बाद में ईरान का राजा शाह तस्मासप मर गया। लोग खुश हुए कि अब तबर्रा नहीं होगा।
शाह कट्टर शिया था, संभवत: इसलिए (तबर्रा= रसूल अल्लाह मुहम्मद साहेब के कुछ चुनिंदा साथियों को कोसना एवं उनकी निंदा करना)। शाह तस्मासप ने हुमायूं को शरण भी दी थी। शाह तस्मासप ने हुमायूं को शिया बनाने की कोशिश की। शाह ने हुमायूं से कहा कि ईरानी स्टाइल में बाल कटवा लो और सफ़वी ताज पहन लो (सफ़वी ताज वस्तुत: एक पगड़ी होती थी। जिसे 12 बार लपेट के पहना जाता था। 12 बार इसलिए क्योंकि इशना असरी शियाओं के इमामो का प्रतीक है, शाह तस्मासप के दादा हैदर को हजरत अली सपने में दिखाई दिए कहा कि एक ताज बनवाओ तो इस पगड़ी को ईजाद किया गया।
अकबर ने चितौड़ को जीतने के बाद वहां कत्लेआम भी करवाया। अकबर के बारे में 2 ऐसे प्रसंग लिखे हैं जहां उसे विवाहित औरतें पसन्द आई तो उसने उनके पतियों से उनके तलाक करवा के उनसे विवाह कर लिया। उन्माद में वह बकता था कि हिन्दू खाये गाय, मुसलमान खाए सुअर, तो कुछ चमत्कार हो वह अक्सर यह बात बड़बड़ाता था। मान सिंह की प्रशंसा में लिखे ग्रंथ मान सिंह रासो के अनुसार अकबर पिछले जन्म में ब्राह्मण था और इस जन्म में वह सनातन की रक्षा करने पैदा हुआ। एक अन्य अफवाह भी उस समय कुछ ब्राह्मणों ने ऐसी ही उड़ाई।
अकबर जब अभियान पर जाता था तो 2 तलों वाले तंबू में रहता था। इब्राहिम लोदी की बूढ़ी माँ द्वारा बाबर को जहर दिए जाने की घटना का भी वर्णन है। शेरशाह सूरी की 4 इच्छाओं का जिक्र है जिसमे एक इच्छा है कि वह पानीपत में इब्राहिम लोदी का मकबरा बनवाये और उसके सामने की मुग़लो की याद में एक स्मारक। दुश्मनों की याद में एक स्मारक बनवाये जिससे वो इतिहास में अमर हो जाये। इसी सिद्धांत पर चलते हुए संभवत: अकबर ने चितौड़ के किले में मुगल सेना का डटकर मुकाबला करने वाले जयमल एवं पत्ता की हाथी पर बैठी संगमरमर की मूर्तियां आगरा के किले के द्वार पर स्थापित करवाई।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
नेपाल में नई सरकार को बने मुश्किल से दो माह हुए हैं और वहां के सत्तारुढ़ गठबंधन में जबर्दस्त उठापटक हो गई है। उठापटक भी जो हुई है, वह दो कम्युनिस्ट पार्टियों के बीच हुई है। ये दोनों कम्युनिस्ट पार्टियां नेपाल में राज कर चुकी हैं। दोनों के नेता अपने आप को तीसमार खां समझते हैं। हालांकि पिछले चुनाव में ये दोनों कम्युनिस्ट पार्टियां नेपाली कांग्रेस के मुकाबले फिसड्डी साबित हुई हैं। नेपाली कांग्रेस को पिछले चुनाव में 89 सीटें मिली थीं. जबकि पुष्पकमल दहल प्रचंड की कम्युनिस्ट पार्टी को सिर्फ 32 और के.पी. ओली की माओवादी कम्युनिस्ट पार्टी को 78 सीटें मिली थीं।
दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों ने कुछ और छोटी-मोटी पार्टियों को अपने साथ जोड़कर भानमती का कुनबा खड़ा कर लिया। शेर बहादुर देउबा की नेपाली कांग्रेस धरी रह गई लेकिन पिछले दो माह में ही दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों में इतने मतभेद खड़े हो गए कि प्रधानमंत्री प्रचंड ने नेपाली कांग्रेस के साथ हाथ मिला लिया और अब राष्ट्रपति पद के लिए ओली की पार्टी को दरकिनार करके उन्होंने नेपाली कांग्रेस के नेता रामचंद्र पौडेल को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बना दिया है। ओली इस बात पर क्रोधित हो गए।
उन्होंने दावा किया कि प्रचंड ने वादाखिलाफी की है। इसीलिए वे सरकार से अलग हो रहे हैं। उनके उप-प्रधानमंत्री सहित आठ मंत्रियों ने इस्तीफा दे दिया है। इन इस्तीफों के बावजूद फिलहाल प्रचंड की सरकार के गिरने की कोई संभावना नहीं है, क्योंकि नए गठबंधन को अभी भी संसद में बहुमत प्राप्त है। नेपाली संसद में इस समय प्रचंड के साथ 141 सांसद हैं जबकि सरकार में बने रहने के लिए उन्हें कुल 138 सदस्यों की जरूरत है। सिर्फ तीन सदस्यों के बहुमत से यह सरकार कितने दिन चलेगी?
अन्य लगभग आधा दर्जन पार्टियां इस गठबंधन से कब खिसक जाएंगी, कुछ पता नहीं। उन्हें खिसकाने के लिए बड़े से बड़े प्रलोभन दिए जा सकते हैं। राष्ट्रपति का चुनाव 9 मार्च को होना है। अगले एक हफ्ते में कोई भी पार्टी किसी भी गठबंधन में आ-जा सकती है। नेपाल की राजनीतिक स्थिति इतनी अनिश्चित हो सकती है कि राष्ट्रपति का चुनाव ही स्थगित करना पड़ सकता है। नेपाल की इस उठापटक में भारत की भूमिका ज्यादा गहरी नहीं है, क्योंकि दोनों कम्युनिस्ट पार्टियां कभी पूरी तरह भारत-विरोधी रही हैं और कभी-कभी मुसीबत में फंसने पर भारत के साथ सहज बनने की कोशिश भी करती रही हैं।
इस संकट के समय नेपाली राजनीति में चीन की भूमिका काफी महत्वपूर्ण रहनेवाली है। दोनों कम्युनिस्ट पार्टियां उत्कट चीन-प्रेमी रही हैं। इस संकट ने यह स्पष्ट कर दिया है कि सत्ता ही ब्रह्म है, विचारधारा तो माया है। भारत की कम्युनिस्ट पार्टियां भी आपस में लड़ती रही हैं लेकिन नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टियों ने यह सिद्ध कर दिया है कि सत्ता ही सर्वोपरि है, चाहे वह हर साल बदलती चली जाए। नेपाल में जैसी अस्थिरता हम पिछले डेढ़-दो दशक में देखते रहे हैं, वैसी दक्षिण एशिया के किसी देश में नहीं रही है। (नया इंडिया की अनुमति से)
गिरीश मालवीय
हिंडनबर्ग की रिपोर्ट को आए अभी 40 दिन भी पूरे नहीं हुए हैं और गौतम अडानी तीसरे से सीधे चालीसवे नंबर पर पहुंच गये है इतने दिन हो गये लेकिन अडानी ने हिंडनबर्ग की रिपोर्ट के खिलाफ़ कही मुकदमा लिखाया हो ऐसी कोई ख़बर नहीं है जाहिर है कि मुकदमे में अदानी को अपनी बात साबित करने को सुबूत देने होंगे और जैसे ही वो सुबूत पेश करेगा खुद अपने जाल में फंस जाएगा।
एक ही महीने में साफ दिख गया है कि इस मामले में हिंडनबर्ग सही था उसने अडानी ग्रुप की कंपनियों के शेयर की 85 प्रतिशत ओवर वैल्यू होने की बात की थी वो बिलकुल सही निकली।
भारत का शेयर बाजार इस रिपोर्ट के बाद झटके पे झटका खा रहा है बीते सात कारोबारी दिन में सेंसेक्स 2,031 अंक यानी 3.4 फीसदी गिर चुका है जबकि निफ्टी में 643 अंक यानी 4.1 फीसदी की गिरावट आई है
शेयरों में रोज गिरावट देखी जा रही है। पिछले एक महीने में अडानी ग्रुप का मार्केट कैप रेकॉर्ड स्तर तक गिर चुका है। 27 फरवरी 2023 को अडानी ग्रुप का मार्केट कैप 19.2 लाख करोड़ रुपये से लुढक़कर 6.8 लाख करोड़ रुपये तक गिर गया है। यानी एक तिहाई ही मार्केट कैप बचा हुआ है।
लेकिन असली संकट तो एलआईसी और सरकारी बैंकों पर नजऱ आ रहा है अदानी पर हिंडनबर्ग रिपोर्ट आने के बाद एलआईसी के शेयर 17 फीसदी तक टूट गए हैं और महीने भर में भारतीय जीवन बीमा निगम का बाजार पूंजीकरण 75 हजार करोड़ से ज्यादा गिर गया है.अडानी समूह की 5 कंपनियों में रुढ्ढष्ट का बड़ा निवेश है। अडानी इंटरप्राइजेज, अडानी टोटल गैस, अडानी ग्रीन एनर्जी, अडानी ट्रांसमिशन और अडानी पोर्ट्स में रुढ्ढष्ट ने निवेश किया हैं। 23 जनवरी को इस निवेश का टोटल वैल्यू 72,193.87 करोड़ रुपये था, जो अब घटकर 25 हजार करोड़ रुपये के भी नीचे पर पहुंच गया है
अदानी को भारतीय स्टेट बैंक ने 27,000 करोड़ रुपये, बैंक ऑफ बड़ौदा ने 5,500 करोड़ रुपये और पंजाब नेशनल बैंक ने 7,000 करोड़ रुपये का लोन दिया है और हिंडनबर्ग रिपोर्ट के बाद से कई सरकारी बैंकों के शेयर टूट गए हैं।
23 जनवरी को एसबीआई के शेयर 604.60 रुपये था, 28 फरवरी को गिरकर 524 रुपये पर बंद हुआ है।इसका शेयर प्राइस 12.66त्न गिर गया है. बैंक ऑफ इंडिया का शेयर 18 फीसदी टूट गया है। इंडियन ओवरसीज बैंक का शेयर 17 फीसदी टूट गया है। पंजाब एंड सिंध बैंक का शेयर 15.6त्न टूटा,सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया का शेयर 16.47त्न टूटा है यूनियन बैंक ऑफ इंडिया का शेयर 16त्न टूटा गया है।
लेकिन इतना होने पर भी मोदी सरकार अडानी के साथ खड़ी हुई है उसने उसकी गलत प्रैक्टिस के खिलाफ़ किसी भी प्रकार की जांच करवाने का आश्वासन तक नहीं दिया है स्पष्ट है कि मोदी आज भी अडानी के साथ खड़े हुए हैं।
हेमंत कुमार झा
अमेरिका के न्यायिक इतिहास में एक मशहूर जज हुए हैं लुइस ब्रैंडिस। एक सौ वर्ष पहले सुप्रीम कोर्ट में दिए गए एक चर्चित फैसले में उन्होंने कहा था, ‘किसी भी देश में लोकतंत्र और चंद हाथों में पूंजी का संकेंद्रण एक साथ नहीं चल सकते। अगर चंद हाथों में पूंजी का संकेंद्रण होगा तो लोकतंत्र महज मखौल बन कर रह जाएगा और अंतत: वह पूंजी के हाथों का खिलौना बन जाएगा।’
हालांकि, कालांतर में खुद अमेरिका में ब्रैंडिस के इस कथन के उलट पूंजी का संकेंद्रण निर्लज्ज तरीके से बढऩे लगा और बावजूद अपनी आंतरिक मजबूती के, अमेरिकी लोकतंत्र और उसकी नीतियों पर कुछ खास पूंजीपतियों का प्रभुत्व कायम हो गया।
अब चूंकि अमेरिका द्वितीय विश्व युद्ध के बाद विश्व महाशक्ति बन कर अंतरराष्ट्रीय पटल पर छा गया तो पूंजीपतियों के इशारों पर बनने वाली उसकी नीतियों का नकारात्मक असर दुनिया के गरीब और कमजोर देशों पर पडऩा स्वाभाविक था।
हालात बेहद संगीन तब होने लगे जब 1950 के दशक में आइजनहावर अमेरिका के राष्ट्रपति बने। असल में पूर्व सैन्य अधिकारी आइजनहावर अमेरिकी हथियार कंपनियों के अप्रत्यक्ष राजनीतिक प्रतिनिधि के रूप में राष्ट्रपति चुनाव में उतरे थे। पहले विश्वयुद्ध से त्रस्त और दूसरे विश्वयुद्ध से ध्वस्त मानवता अंतरराष्ट्रीय शांति की तलाश में थी और सोवियत संघ के भी महाशक्ति बन कर उभरने के बाद दुनिया में रणनीतिक संतुलन जैसा बनने लगा था।
अब...युद्ध हो ही नहीं तो हथियार कंपनियों का व्यापार कैसे फले फूले। तो, उन्होंने चुनाव में आइजनहावर का खुलकर समर्थन किया और जीत के बाद राष्ट्रपति ने भी उन्हें निराश नहीं किया। उन्होंने बढ़ते सोवियत प्रभाव को बहाना बना कर मध्य पूर्व के देशों सहित कई अन्य देशों को सैन्य सहायता के नाम पर बड़े पैमाने पर हथियार मुहैया कराना शुरू किया। अब तो द्वितीय विश्व युद्ध के खत्म होने के बाद सुस्त पड़ी हथियार कंपनियों की चल निकली। उनका व्यापार तेजी से बढऩे लगा।
आइजनहावर ने अमेरिकी-सोवियत शीतयुद्ध को अपनी आक्रामक नीतियों से एक नए मुकाम पर पहुंचाया। अमेरिकी इतिहास में इन नीतियों को ‘आइजनहावर सिद्धांत’ के नाम से जाना जाता है।
1950 के दशक में अमेरिकी राजनीति और अर्थनीति में बड़ी हथियार कंपनियों के बढ़ते प्रभुत्व ने फिर कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। उसके बाद जितने भी राष्ट्रपति आए, सबने बातें तो शांति की की लेकिन दुनिया के हर कोने में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष युद्ध को बढ़ावा देने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। इतनी कि मानवता त्राहि-त्राहि कर उठी।
अमेरिकी अर्थव्यवस्था में हथियार उद्योग की बड़ी भूमिका है और वहां की राजनीति को बड़े हथियार सौदागरों ने हमेशा अपने निर्णायक प्रभावों के घेरे में रखा। नतीजा, उन पूंजीपतियों के असीमित लालच ने दुनिया को फिर कभी चैन और शांति से जीने नहीं दिया। युद्ध पर युद्ध होते रहे, उनका मुनाफा बढ़ता गया। आजकल चल रहे रूस-यूक्रेन युद्ध में भी अमेरिकी-यूरोपीय बहुराष्ट्रीय हथियार कंपनियों के प्रभावों को महसूस किया जा सकता है।
तकनीक के विकास और उसके विस्तार ने पूंजीपतियों के लिए अवसरों के नए द्वार खोले क्योंकि उन्होंने तकनीक पर अपनी पूंजी के बल पर कब्जा कर लिया। धीरे धीरे जनता उनकी गुलाम होती गई और वे देश और दुनिया को हांकने लगे। राजनीति उनके इशारों पर नाचने वाली नृत्यांगना बन गई।
इन वैश्विक रुझानों से भारत जैसे गरीब और विकासशील देशों को भी प्रभावित होना ही था। विशेषकर 1990 के दशक में आर्थिक उदारीकरण की तीव्र होती प्रवृत्तियों ने भारत में भी चंद हाथों में पूंजी के संकेंद्रण को बढ़ावा देना शुरू किया। यद्यपि यहां की राजनीति में भी आजादी के बाद से ही पूंजीपतियों का प्रभाव बना रहा था लेकिन नई सदी तक आते आते यह प्रभाव एक नए मुकाम पर पहुंच गया। क्रोनी कैपिटलिज्म के प्रतीक के रूप में अंबानी घराने के उत्थान ने भारतीय राजनीति के नैतिक पतन का एक नया अध्याय लिखना शुरू किया।
देखते ही देखते अंबानी घराना इस देश का शीर्षस्थ अमीर बन गया। उनकी संपत्ति में इतनी तेजी से बढ़ोतरी कैसे हुई यह आम लोगों ही नहीं, अर्थशास्त्रियों के लिए भी जिज्ञासा का विषय बना रहा। देश की आर्थिक नीतियों के निर्माण पर इस घराने की पकड़ जगजाहिर रही।
लेकिन, क्रोनी कैपिटलिज्म को गैंगस्टर कैपिटलिज्म में बदलते देर नहीं लगी जब नई सदी के दूसरे दशक में राजनीति के मोदी काल ने गौतम अडानी के नाम को कारपोरेट जगत के शीर्ष पर ला खड़ा किया।
नियमित अंतराल पर जारी होती रही ऑक्सफैम सहित अन्य कई रिपोर्ट्स में चेतावनी दी जाती रही कि भारत में चंद हाथों में पूंजी का संकेंद्रण बेहद खतरनाक तरीके से बढ़ता जा रहा है और यह एक कैंसर की तरह भारतीय राजनीति और समाज को अपने घेरे में लेता जा रहा है।
किंतु, मीडिया पर बढ़ते कॉरपोरेट प्रभावों और राजनीति के नैतिक पतन ने आम लोगों को वैचारिक रूप से दरिद्र बनाने का अभियान छेड़ दिया। दुष्प्रचार और गलत बयानी मीडिया का स्थायी भाव बन गया और नवउदारवादी नीतियों की अवैध संतानों के रूप में जन्मे नव धनाढ्य वर्ग ने समाज में नेतृत्व हासिल कर लिया।
समाज में बढ़ती विचारहीनता ने अनैतिक जमातों के नेतृत्व हासिल करने में प्रभावी भूमिका निभाई और भारतीय राजनीति ने पूंजी के कदमों तले बिछने में शर्माना छोड़ दिया। चुने हुए जनप्रतिनिधियों की खरीद फरोख्त अब खुले आम होने लगी और पूंजी राजनीति के सिर चढ़ कर अपने खेल खेलने लगी।
नतीजा, मतदाताओं का निर्णय अपनी जगह, राजनीति और कारपोरेट के अनैतिक गठजोड़ के खेल अपनी जगह। ऐसे में लोकतंत्र को मखौल के रूप में बदलना ही था। अब, ऐसे दृश्य आम हो गए कि मतदाताओं ने किसी सरकार को चुना और सत्ता में कोई अन्य सरकार आ गई। चार्टर्ड हवाई जहाज, उन पर बिकी हुई सामग्रियों की शक्ल में बैठाए और उड़ा कर ले जाए गए जनप्रतिनिधियों के समूह, फाइव स्टार होटलों या सात सितारा रिजार्ट्स में शर्मनाक बैठकों की शक्ल में अनैतिक मोल भाव के अंतहीन सिलसिले...।
सबको पता रहता है कि करोड़ों अरबों की ऐसी राजनीतिक डीलिंग्स में किन पूंजीपतियों का पैसा लग रहा है और अपनी मन माफिक सरकार बनवा लेने के बाद वे क्या करेंगे, लेकिन इन अनैतिक और अलोकतांत्रिक गतिविधियों के विरुद्ध जन प्रतिरोध की कोई सुगबुगाहट कहीं नजर नहीं आती , उल्टे आम लोग टीवी चैनलों के सामने बैठ इन खबरों और विजुअल्स का मजा लेते हैं, उन पर चटखारे लेते हैं। लोगों का वोट ले कर करोड़ों में बिक जाने वाले जनप्रतिनिधि अपने मतदाताओं की हिकारत के पात्र तो नहीं ही बनते।
पूंजी का चंद हाथों में अनैतिक संकेंद्रण, राजनीति का उसकी दासी बन जाना, मीडिया का उसका भोंपू बन जाना अंतत: ऐसे ही विचारहीन, खोखले समाज को जन्म देता है जहां न अन्याय के खिलाफ प्रतिरोध उपजता है न राजनीतिक अनाचार के प्रति कोई जुगुप्सा का भाव उत्पन्न होता है।
अनैतिक पूंजी जब किसी को हीरो बनाती है तो वह समाजोन्मुख या जनोन्मुख हो ही नहीं सकता। उसे उन इशारों पर नाचना ही है जो उनको फर्श से अर्श पर पहुंचाते हैं।
निष्कर्ष में एक नई तरह की गुलामी आती है जिसमें जनता को पता भी नहीं चलता कि वह किन तत्वों की गुलाम बनती जा रही है। अपनी भावी पीढिय़ों के प्रति दायित्व बोध का नैतिक भाव उसके मन से तिरोहित हो जाता है।
आज का भारत इसी रास्ते पर है जहां चंद हाथों में पूंजी का सिमटना अब कोई रहस्य नहीं रह गया है, न यह रहस्य रह गया है कि राजनीति और कारपोरेट के वे खिलाड़ी कौन हैं जो जनता को गुलाम बनाने की साजिशों में शामिल हैं। और...मानसिक रूप से गुलाम होते लोग भला प्रतिरोध की भाषा क्यों बोलेंगे? वे तो प्रतिरोध और विचारों की बात करने वालों का मजाक उड़ाएंगे।
आज के भारत का स्याह सच यही है। एक सौ वर्ष पहले अपने उसी फैसले में अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के जज लुइस ब्रैंडिस ने यह पंक्ति भी लिखी थी, ‘चंद हाथों में पूंजी का संकेंद्रण अंतत: मानवता के खिलाफ अनैतिक शक्तियों को ही मजबूत करेगा।’ आज वह आशंका सच में तब्दील हो कर हमारे सामने एक सामूहिक विपत्ति की तरह खड़ी हो चुकी है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
दिल्ली राज्य के उप-मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया को गिरफ्तार कर लिया गया है। उन पर आरोप है कि उन्होंने दिल्ली के शराब-विक्रेताओं से लगभग 100 करोड़ रु. खाए हैं। भ्रष्टाचार के आरोप में आप पार्टी के वित्तमंत्री सत्येन्द्र जैन पिछले कई महिनों से जेल काट रहे हैं। सिसोदिया पर भ्रष्टाचार के आरोप की जांच सीबीआई, प्रवर्तन निदेशालय कर रहा है। उसने दिल्ली सरकार के कई अफसरों, शराब व्यापारियों और दलालों को पहले से जेल में डाल रखा है।
सीबीआई ने इन लोगों के घरों ओर मोबाइल फोनों पर छापे मारकर कुछ तथाकथित ठोस प्रमाण भी जुटाए हैं लेकिन मनीष सिसोदिया के घर और बैंक में की गई तलाशियों में अभी तक कुछ हाथ नहीं लगा है। फिर भी उन्हें गिरफ्तार इसलिए किया गया है कि उनका एक सहयोगी ही एजेंसी की शरण में चला गया है और उसने सब रहस्य खोल दिए हैं। जाहिर है कि सीबीआई केंद्र सरकार के इशारे के बिना यह कार्रवाई क्यों करता? यह तो सबको पता है कि यदि आपको राजनीति करनी है तो भ्रष्टाचार ही शिष्टाचार है, इस सिद्धांत को आपको सबसे पहले मानना पड़ेगा।
इस तथ्य का मुझे अब से 65 साल पहले ही पता चल गया था, जब इंदौर में 1957 के चुनाव में मैं एक स्थानीय उम्मीदवार के लिए भाषण देते हुए शहर में घूमता फिरता था। केजरीवाल और सिसोदिया तो क्या, यदि गांधी और विनोबा भी चुनावी राजनीति में उलझ जाते तो उन्हें भी मजबूरन वही करना पड़ता, जो सभी नेता आजकल करते हैं। देश में एक नेता भी किसी पार्टी में आपको ऐसा नहीं मिल सकता जो शपथपूर्वक यह कह दे कि उसने कभी भ्रष्टाचार नहीं किया है।
जब चुनावों में करोड़ों-अरबों रु. खर्च होते हैं तो इतना पैसा आप कहां से लाएंगे? कई पार्टियों के शीर्ष नेताओं को मैंने स्वयं देखा है, अपने उम्मीदवारों से यह कहते हुए कि तुम इतने करोड़ रु. पहले लाओ, फिर तुम्हे टिकिट मिलेगा। सरकार के कई बड़े अफसर और यहां तक न्यायाधीशों ने, जो कभी मेरे सहपाठी रहे हैं, मुझसे कहा है कि हमें पैसा खाने के लिए मजबूर किया जाता है, हमारे नेताओं द्वारा! कई खास-खास पदों पर कई चुनींदा लोगों की नियुक्ति भी इसीलिए की जाती है।
वर्तमान मोदी सरकार यदि नेताओं और अफसरों के भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए ये छापे और गिरफ्तारियां कर रही है तो मैं इसका पूर्ण समर्थन करता लेकिन यह तब होता जबकि ये छापे भाजपा के मुख्यमंत्रियों, मंत्रियों और अफसरों पर भी पड़ते। यदि वे निर्दोष होते तो भाजपा की छवि और ज्यादा चमक जाती। जो कार्रवाई बी.बी.सी., पवन खेड़ा और मनीष सिसोदिया वगैरह के खिलाफ हुई है, वही कार्रवाई गौतम अडानी के खिलाफ क्यों नहीं हुई?
अगर हो जाती तो दूध का दूध और पानी का पानी सामने आ जाता। इसमें शक नहीं है कि आप पार्टी भाजपा के लिए इस समय बड़ी चुनौती नहीं है लेकिन इस तरह के छापे डलवाकर आप पार्टी के प्रति भाजपा सहानुभूति की लहर उठवा रही है। कोई आश्चर्य नहीं कि मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भी कुछ दिनों बाद अंदर भेज दिए जाएं लेकिन ऐसी कार्रवाइयां एकतरफा होती रहीं तो यह भाजपा के लिए 2024 के चुनाव में बड़ा सिरदर्द बन सकती है। (नया इंडिया की अनुमति से)
गणेश एन देवी
आजादी की पूर्व संध्या पर, अपनी विराट सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि और आर्थिक स्थिति के बावजूद समस्त भारतवासियों के लिए सम्माजनक स्थान बनाना भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के लिए एक बड़ी लेकिन विनम्र राजनीतिक चुनौती थी। उनके पास ठंडे बस्ते में डालने के लिए कुछ नहीं था- उन्हें देश को और ज्यादा विखंडन से बचाने और ‘राज्यों के एक संघ’ के रूप में इसकी अखंडता की रक्षा करनी ही थी, जिसका आजादी बाद की पीढ़ी के लिए एक स्वाभाविक उपक्रम मान बैठना सहज था। सौभाग्यवश उनके पास, भारत के पास- कांग्रेस के अंदर और उसके बाहर भी ऐसे बौद्धिक दिग्गज उपलब्ध थे, जो इन मसलों को अपने ज्ञान और अंतर्दृष्टि के साथ तोल सकते थे और देश के युवा लोकतंत्र के वाजिब सवालों से टकराने में सक्षम थे। इन्हीं पेचीदा चुनौतियों में एक सवाल भाषा का भी था।
कुछ यूरोपीय देशों के विपरीत भारत कभी ‘एकभाषी’ नहीं था। यह धरती हमेशा, हर ऐतिहासिक दौर में बहुभाषी रही है। भारत को एक भाषी राष्ट्रवाद पर मजबूर करने से निश्चित रूप से इसका विखंडन होता, और राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया के नाम पर यह किसी भी तरह की भाषाई अराजकता को तो अनुमति दे नहीं सकता था। अपने स्वयं और हम सभी को एक साथ बांधे रखने के राजनीतिक उद्देश्य के लिए अपने भाषाई वैविध्य और समृद्धि को पोषित करना न सिर्फ नाजुक बल्कि मुश्किल कवायद भी थी। देश की एकता की रक्षा करते हुए भारत की बहुभाषिक स्वायत्तता बनाए रखने के लिए यह संतुलन संविधान की अनुसूचियों और विभिन भाषा-भाषिक राज्यों से हासिल किया गया था।
26 नवंबर, 1949 को जब संविधान सभा ने भारत का संविधान अंगीकार किया, उस वक्त संविधान की आठवीं अनुसूची में 14 भाषाएं सूचीबद्ध थीं। बोलने वालों की आबादी के क्रम में उनका क्रम कुछ ऐसा था: हिन्दी, तेलुगु, बंगाली, मराठी, तमिल, उर्दू, गुजराती, कन्नड़, मलयालम, उडिय़ा, पंजाबी, कश्मीरी, असमिया और संस्कृत। पिछले 55 वर्षों में आठवीं अनुसूची में तीन संशोधन हुए हैं और मौजूदा समय में इसमें 22 भाषाएं दर्ज हैं।
हैदराबाद और पंजाब के भाषाई आंदोलनों के बाद इनके जवाब में आंशिक रूप से राज्य पुनर्गठन आयोग का गठन हुआ। लेकिन यह एक नए उभरते राष्ट्र के संघीय ढांचे को परिभाषित करने की आवश्यकता का प्रतिफल भी था। कहना न होगा कि आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, पंजाब,
महाराष्ट्र और कर्नाटक के भाषाई आंदोलनों का न सिर्फ एक मजबूत भावनात्मक आधार था बल्कि इन्हें व्यापक जनसमर्थन भी हासिल था। इतिहास के उस कालखंड में हमारे पास जनजातीय भाषाओं में ऐसे आंदोलन खड़े करने की क्षमता नहीं थी। वह क्षमता दशकों बाद आई और सन 2000 में झारखंड-छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों का अस्तित्व में आना उसी का प्रतिफल है। भाषाई सरकारों का गठन दरअसल भारत की बहुभाषिक गरिमा का स्वीकार तो था ही, उन सभी को ‘राज्यों के संघ’ के तौर पर भारत के विचार प्रति प्रतिबद्ध भी बनाए रखना था। इसने संघीय राष्ट्र के रूप में भारत के हमारे विचार का आधार तैयार किया।
आधुनिकता और राष्ट्रवाद पर नेहरू की समझ की छाप इन दोनों कार्रवाइयों में साफ देखी जा सकती है। प्रधानमंत्री के रूप में अपने कार्यकाल में उन्होंने इस बात का खास ध्यान रखा कि औपनिवेशिक युग की तुलना में जनगणना की कवायद कहीं ज्यादा व्यापक और उपयोगी हो सके। अक्सर भुला दिया जाता है कि यह एकमात्र भारत ही था जिसकी जनगणना में हर मातृभाषा को शामिल किया गया था और यह काम 1961 में नेहरू के समय में ही हुआ था। इससे पहले या बाद में भी कभी किसी भी जनगणना में भारत का भाषाई परिदृश्य इतनी व्यापकता और ऐसी पारदर्शिता के साथ प्रस्तुत नहीं हुआ। 1961 की जनगणना में ‘मातृभाषाओं’ की सूची में 1,652 प्रविष्टियां दर्ज थीं।
आजादी के बाद से भारतीयों ने हमारी भाषाई विविधता को एक सामाजिक मानदंड और इस राष्ट्र की एक अविछिन्न विशेषता के तौर पर स्वीकार किया है। नागरिकों के रूप में, हम अन्य भाषाओं के प्रति अपनी सहिष्णुता, अपना सम्मान जताने का कोई भी अवसर नहीं छोड़ते हैं। 19वीं सदी में जब यूरोप में राष्ट्रवाद का उदय हो रहा था, तो इसे एक ‘राष्ट्रीय भाषा’ के अनुरूप नागरिकता की विशेषता के तौर पर देखा गया। हालांकि यूरोपीय राष्ट्रवाद के विचारों से प्रेरित, भारत की आजादी का संघर्ष किसी भी तरह के भाषाई रूढि़वाद में कभी नहीं उलझा।
1971 की जनगणना में तत्कालीन सरकार ने सिर्फ वही भाषाएं सूचीबद्ध करने का फैसला लिया जिन्हें 10,000 से अधिक लोग बोलते थे: उस सूची में 108 प्रविष्टियां थीं और 109वीं पर ‘शेष सभी’ था। कट-ऑफ आंकड़े की इस परिपाटी ने पहले से ही हाशिये पर पड़ी छोटी भाषाओं को और अलग-थलग कर दिया। धीरे-धीरे वे राजनीतिक विमर्श से भी लुप्त होने लगे और स्वाभाविक रूप से इसका असर सामाजिक जीवन में इसके क्षरण के रूप में सामने आया और यह वहां से भी लुप्त होने लगे।
इसका दूरगामी असर होना ही था और उन इलाकों में जहां हाशिये की ये भाषाएं बोली जाती हैं, वहां से वैसे इलाकों के लिए पलायन शुरू हो गया जहां मुख्यधारा की भाषाएं बोली जाती थीं। यह भारत की भाषाई विविधता में व्यापकता की भावना को ठेस पहुंचाने वाला था। पीपुल्स लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया की रिपोर्ट बताती है कि बीते पचास सालों के दौरान अनुमानत: 250 भाषाएं हमारे नक्शे से गायब ही हो गई हैं। दूसरे शब्दों में, ऐसा लगता है कि स्वतंत्रता के बाद से भारत ने अपने ‘विश्व विचारों’ का लगभग एक चौथाई हिस्सा कहीं खो दिया है।
2018 में जारी हुए पिछली जनगणना (2011) के आंकड़े के अनुसार, भारत के नागरिकों ने अपनी ‘मातृभाषाओं’ के तौर पर 19,569 नाम दिए जिन्हें तकनीकी तौर पर ‘रॉ रिटर्न’ का नाम दिया गया है। पहले से उपलब्ध भाषाई और समाजशास्त्रीय जानकारी के आधार पर अधिकारियों ने फैसला किया कि इनमें से 18,200 किसी भी ज्ञात स्रोत या जानकारी से ‘तार्किक रूप’ से मेल नहीं खाते। भाषाओं के नाम के तौर पर कुल 1,369 नाम या ‘लेबल’ तकनीकी रूप से ज्ञात के आधार पर चुने गए थे। छोड़ दिए गए ‘रॉ रिटर्न’ में लगभग 6 लाख की भाषाई नागरिकता को समाप्त कर दिया गया। इन्हें विचार के लायक भी नहीं समझा गया।
इस आकलन में चुने गए 1,369 ‘मातृभाषा’ नामों के अलावा भी 1,474 अन्य नाम मातृभाषा के तौर पर शामिल थे। उन्हें सामान्य लेबल ‘अन्य’ के तहत रखा गया था क्योंकि वर्गीकरण प्रणाली उनके द्वारा बोली जाने वाली भाषाओं की पहचान नहीं कर सकती थी। भाग्यशाली 1,369 को कुल 121 ‘समूह लेबल’ के तहत एक साथ रखा गया और इन्हें देश के सामने ‘भाषा’ के रूप में प्रस्तुत किया गया। इनमें से 22 भाषाओं को संविधान की 8वीं अनुसूची में शामिल किया गया है जिन्हें तथाकथित ‘अनुसूचित भाषाएं’ कहा जाता है। शेष 99 को ‘गैर अनुसूचित’ भाषाओं के रूप में व्याख्यायित किया गया था।
इनमें से अधिकांश समूहों को मजबूर किया गया था। उदाहरण के लिए, ‘हिन्दी’ के अंतर्गत लगभग 50 अन्य भाषाएं भी थीं। 50 लाख से ज्यादा लोगों द्वारा बोली जाने वाली और अपना खुद का सिनेमा, रंगमंच, साहित्य और शब्दावली वाली भोजपुरी को ‘हिन्दी’ के रूप में दर्शाया गया। राजस्थान की लगभग 30 लाख आबादी की अपनी भाषाएं थीं लेकिन उनकी मातृभाषा के नाम पर भी हिन्दी ही दर्शाई गई। महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में आदिवासियों की पावरी उसी तरह हिन्दी से जुड़ी थी, जैसे उत्तराखंड की कुमाउनी।
जमीनी सच्चाई के विपरीत रिपोर्ट में दर्शाया गया कि 528,347,193 (528 लाख से ज्यादा) लोग अपनी मातृभाषा के तौर पर हिन्दी बोलते हैं। 2011 की जनगणना राजनीतिक कारणों से जिस तरह स्थगित रखी गई है, उससे कम-से-कम 2024 तक तो इसके होने के आसार नहीं ही
हैं। 2031 तक भी इसे इसी तरह खींच लिया जाए तो हैरानी नहीं होगी। मान लेना चाहिए कि तब तक तो छोटी भाषाओं का एक बहुत बड़ा हिस्सा और जिस विविधता का वह प्रतिनिधित्व करते हैं, उसका सफाया ही हो चुका होगा!
लगभग तय हो चुका है कि सबसे अधिक प्रभावित होने वाले समुदाय आदिवासी और खनाबदोश होंगे जिनकी संख्या अपेक्षाकृत काफी कम है। हालांकि ऐसे समुदायों की कुल संख्या जिनकी भाषाएं अगली जनगणना में दर्ज भी नहीं होंगी, चिंता पैदा करने के लिए काफी बड़ी हैं। जाहिर है, इन समुदायों के लोगों को अन्य भाषाओं, मुख्य रूप से हिन्दी के तकनीकी आंकड़ों में शामिल कर लिया जाएगा, क्योंकि आदिवासी समुदायों का बड़ा वर्ग हिन्दी भाषी क्षेत्रों के हाशिये पर ही तो रहता है। संविधान भले ही अभिव्यक्ति के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में स्वीकर करता हो, कोई फर्क नहीं पड़ता कि भाषा जो हम इंसानों के लिए अभिव्यक्ति का प्राथमिक साधन है, ‘हिन्दी-हिन्दू राष्ट्रवाद की सेवा में’ भारत में आदिवासियों और घुमंतू खानाबदोश समुदाय की सैकड़ों भाषाओं को आधिकारिक रिकार्ड से ही समाप्त कर दिए जाने की आशंका सामने है। मुगालते में न रहें, एक ‘बहुभाषी राष्ट्र वाला भारत’ का वह महान सोच (नजरिया) अब खतरे में आ चुका है। (नवजीवनइंडिया)
(जीएन देवी भाषाविद और सांस्कृतिक कार्यकर्ता हैं)
दिल्ली की शराब नीति में कथित घोटाले की जांच कर रही सीबीआई ने रविवार को दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया को गिरफ़्तार कर लिया। महीनों से चल रही जांच में रविवार को केंद्रीय जांच एजेंसी ने सिसोदिया को पूछताछ के लिए बुलाया था।
‘आप’ के एक अन्य नेता और दिल्ली सरकार के कैबिनेट मंत्री सत्येंद्र जैन पहले ही तिहाड़ जेल में बंद हैं।
सत्येंद्र जैन को कथित मनी लॉन्ड्रिंग मामले में ईडी ने पिछले साल मई में गिरफ्तार किया था और तबसे वो जेल में बंद हैं।
रविवार को सीबीआई पूछताछ में शामिल होने से पहले सिसोदिया को अपनी गिरफ़्तारी की आशंका थी और उन्होंने अपने भावनात्मक संबोधन में ‘जेल भेजे जाने’ की बात कही थी।
दिल्ली के मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल ने सिसोदिया को बेकसूर बताया तो वहीं बीजेपी ने गिरफ़्तारी को सही ठहराया है।
आम आदमी पार्टी ने गिरफ़्तारी को ‘तानाशाही’ करार देते हुए ‘लोकतंत्र के लिए काला दिन’ कहा। पार्टी ने कहा कि बीजेपी ने ये गिरफ्तारी राजनीतिक द्वेष के चलते की।
बीते कुछ सालों में कई विपक्षी नेताओं पर सीबीआई और ईडी का शिकंजा कसा है और विपक्षी नेताओं ने राजनीतिक बदले की कार्रवाई का आरोप लगाया है।
पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, झारखंड, छत्तीसगढ़ में विपक्षी सरकारों के शीर्ष नेताओं पर छापे पड़े, पूछताछ की गई, उनमें से कई को जेल भेजा गया।
पिछले साल इंडियन एक्सप्रेस ने अपनी एक पड़ताल में बताया था कि 2014 के बाद आठ सालों में नेताओं के ख़िलाफ़ ईडी के इस्तेमाल में चार गुना बढ़ोतरी हुई है। इस दौरान 121 राजनेता जांच के दायरे में आए जिनमें 115 विपक्षी नेता हैं। यानी इस दौरान 95 प्रतिशत विपक्षी नेताओं पर कार्रवाई हुई।
आइए जानते हैं उन प्रमुख विपक्षी नेताओं के बारे में जिन पर पिछले सालों में ईडी और सीबीआई ने शिकंजा कसा:-
महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के कऱीबी और शिवसेना के नेता संजय राउत को मुंबई में एक अगस्त 2022 को प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने गिरफ्तार किया था।
ईडी ने उन पर मुंबई के गोरेगांव में सिद्धार्थ नगर के एक चॉल में 672 फ़्लैटों के पुनर्निमाण के मामले में जमीन के हेरफेर का आरोप लगाया था। करीब तीन महीने बाद उन्हें 10 नवंबर 2022 को सशर्त ज़मानत दी गई। तब संजय राउत ने कहा था कि महाराष्ट्र की ‘महाविकास
अघाड़ी सरकार न गिराने पर जांच एंजेंसियों ने उन्हें परेशान’ किया। इससे पहले ईडी ने महाराष्ट्र के पूर्व गृहमंत्री और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) के वरिष्ठ नेता अनिल देशमुख को नवंबर 2021 में गिरफ्तार किया था। उन्हें प्रीवेंशन ऑफ मनी लॉन्ड्रिंग एक्ट की धारा 19 के तहत गिरफ्तार किया गया। उस समय वो महाराष्ट्र सरकार में गृहमंत्री थे।
महाराष्ट्र सरकार के एक अन्य मंत्री और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के नेता नवाब मलिक को भी ईडी ने 24 फरवरी को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया था। पिछले साल ही एकनाथ शिंदे 40 से अधिक विधायकों को लेकर शिवसेना से अलग हो गए और बीजेपी के साथ मिलकर सरकार बना ली।
इंडियन एक्सप्रेस ने बीते सितम्बर में की गई अपनी पड़ताल में बताया कि एनसीपी के 11 और शिवसेना के 8 नेताओं पर जांच एजेंसियों ने कार्रवाई की थी।
इस समय हिमंत बिस्वा सरमा असम के मुख्यमंत्री हैं। वो पहले असम में कांग्रेस का प्रमुख चेहरा थे। शारदा चिटफंड घोटाला मामले में सीबीआई और ईडी ने जांच शुरू की और इस सिलसिले में उनके घर पर छापा भी मारा गया और पूछताछ भी हुई।
बाद में वे बीजेपी में शामिल हो गए और पार्टी ने उन्हें असम का मुख्यमंत्री बना दिया।
इसी तरह नारदा स्टिंग ऑपरेशन मामले में तृणमूल कांग्रेस और ममता बनर्जी के दो कऱीबी नेता शुभेंदु अधिकारी और मुकुल रॉय पर भी सीबीआई और ईडी ने शिकंजा कसा।
पश्चिम बंगाल में 2021 में विधानसभा चुनाव होने वाले थे, उससे पहले दोनों ही नेताओं ने बीजेपी ज्वाइन कर लिया। बाद में मुकुल रॉय टीएमसी में लौट आए।
इंडियन एक्सप्रेस की पड़ताल के अनुसार, टीएमसी के 19 नेताओं पर सीबीआई और ईडी की कार्रवाई चल रही है।
बिहार में राजद नेताओं पर छापेमारी
पिछले साल अगस्त में बिहार में नीतीश सरकार के फ्लोर टेस्ट के बीच कथित नौकरी के बदले जमीन घोटाले में आरजेडी नेताओं के घर सीबीआई की छापेमारी हुई।
सीबीआई ने जिन आरजेडी नेताओं के घर पर छापेमारी की उनमें लालू यादव के कऱीबी माने जाने वाले और एमएलसी सुनील सिंह, सांसद अशफाक करीम, फैयाज अहमद और पूर्व एमएलसी सुबोध राय शामिल थे।
बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और राजद के अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव को पहले ही चारा घोटाला समेत कई मामलों में सज़ा हो चुकी है।
आरजेडी के पांच नेता ईडी और सीबीआई की जांच के घेरे में हैं।
झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरन पर ईडी का शिकंजा
झारखंड के मुख्यंत्री हेमंत सोरन पर बीजेपी नेता और पूर्व मुख्यमंत्री रघुबर दास ने फऱवरी 2022 में आरोप लगाया कि हेमंत सोरेन ने मुख्यमंत्री और खनन मंत्री रहते हुए अपने पद का कथित तौर पर दुरुपयोग किया है।
राज्यपाल रमेश बैस ने इस शिकायत की प्रति चुनाव आयोग को भेजी और आयोग ने हेमंत सोरेन पर अपना फ़ैसला एक लिफ़ाफ़े में बंद कर राज्यपाल को भेजा था जो अब तक सार्वजनिक नहीं हो सका है।
ईडी ने हेमंत सोरेन को 3 नवंबर 2022 को पूछताछ के लिए समन भेजा था।
इन सबके बीच एक समय तो झारखंड में अस्थिरता की नौबत आ गई थी।
कांग्रेस नेताओं पर छापेमारी
रायपुर में कांग्रेस का 85वां अधिवेशन 24-26 फऱवरी को था। इससे पहले छत्तीसगढ़ के कई कांग्रेसी नेताओं के यहां ईडी के छापे पड़े।
20 फरवरी को छत्तीसगढ़ में कांग्रेस पार्टी के कोषाध्यक्ष रामगोपाल अग्रवाल, कांग्रेस विधायक देवेंद्र यादव और चंद्रदेव राय समेत आधा दर्जन कांग्रेस नेताओं के घर-दफ्तर पर ईडी ने छापा मारा था। कांग्रेस ने आरोप लगाया कि अधिवेशन को रोकने के लिए सरकार ईडी का इस्तेमाल कर रही है।
छत्तीसगढ़ की भूपेश बघेल सरकार पर लगातार जांच एजेंसियों का दबाव बना हुआ है। बीते दिसम्बर में भूपेश बघेल की ओएसडी सौम्या चौरसिया को ईडी ने गिरफ़्तार कर लिया था।
जून 2022 में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और राहुल गांधी को ईडी ने नेशनल हेराल्ड मामले में समन भेज कर पूछताछ के लिए बुलाया था।
बीते सितम्बर तक जांच एजेंसियों के घेरे में कांग्रेस के 24 नेता थे।
इंडियन एक्सप्रेस की पड़ताल में कहा गया है कि सितम्बर तक डीएमके के 6, बीजू जनता दल के 6, समाजवादी पार्टी के पांच, बसपा के पांच, आम आदमी पार्टी के तीन, वाईएसआरसीपी के तीन, आईएनएलडी के तीन, सीपीएम के दो, पीडीपी के दो और टीआरस, एआईएडीएमके, एमएनएस के एक-एक नेता के खिलाफ जांच एजेंसियां जांच कर रही हैं। (बीबीसी)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अपने रायपुर अधिवेशन में सोनिया गांधी ने अपने राजनीतिक संन्यास की घोषणा बहुत ही मर्यादित ढंग से कर दी है और उन्होंने अपने काल की उपलब्धियों और हानियों का जिक्र भी काफी खुलकर किया है लेकिन कांग्रेसियों का भक्तिभाव भी अद्भुत है। वे बार-बार कह रहे हैं कि इसे आप सोनियाजी का संन्यास क्यों मान ले रहे हैं? वे अब भी कांग्रेस की सर्वोच्च नेता हैं। यह कथन बताता है कि सोनिया गांधी के प्रति कांग्रेसियों में कितनी अंधभक्ति है?
क्या आपने कभी अटलजी या आडवाणीजी के प्रति ऐसा भक्तिभाव भाजपा में देखा है? सभी लोकतांत्रिक देशों की पार्टियां समय-समय पर अपने नेताओं को बदलती रहती हैं लेकिन हमारी कांग्रेस पार्टी को आजादी के बाद जड़ता ने ऐसा घेरा है कि वह पार्टी नहीं, प्राइवेट लिमिटेड कंपनी बन गई है, जैसे कि हमारी प्रांतीय पार्टियां हैं। अब कांग्रेस कह रही है कि उसी के नेतृत्व में मोदी-विरोधी मोर्चा बनाना चाहिए।
यदि कांग्रेस के बिना कोई तीसरा गठबंधन बनेगा तो मोदी को हटाना आसान नहीं होगा। वोट बंट जाएंगे लेकिन तृणमूल कांग्रेस, आम आदमी पार्टी, भारत राष्ट्र समिति, समाजवादी पार्टी, कम्युनिस्ट पार्टी आदि पार्टियां क्या कांग्रेस को अपना नेता स्वीकार कर लेंगी? मल्लिकार्जुन खड़गे तो नाममात्र के अध्यक्ष हैं। असली कमान तो राहुल गांधी के हाथ में है। क्या इन सभी पार्टियों के वरिष्ठ नेता राहुल को अपना नेता मान लेंगे? उम्रदराज लोग राहुल को जरूर नेता मान लेते लेकिन वैसे गुण राहुल में हैं क्या?
खड़गे का यह कहना ठीक है कि 2004 से 2014 तक कई दलों ने कांग्रेस के साथ सफल गठबंधन किया हुआ था लेकिन उस समय कांग्रेस सत्ता में थी और अब तो यह उम्मीद भी नहीं है कि संसद में इस समय उसके जितने सदस्य हैं, उतने भी 2024 के बाद भी रह पाएंगे। कांग्रेस अध्यक्ष का यह कहना कि 2024 में भाजपा के सांसदों की संख्या 100 से नीचे हो जाएगी, कोरी कपोल कल्पना ही है। जो पार्टियां कांग्रेस के साथ मिलकर 2024 का चुनाव लड़ना चाहती हैं, उनमें गजब का लचीलापन है।
कांग्रेस उन पर मुग्ध है लेकिन क्या कांग्रेस यह भूल गई कि नीतीश का जनता दल, शरद पवार की एन.सी.पी. और डी.एम.के. जैसी पार्टियां कब पलटा खा जाती हैं और कब इधर से उधर खिसक जाती हैं, किसी को कुछ पता नहीं। विरोधी दलों का मोर्चा बनने में जितनी देर लगेगी, वह उतना ही कमजोर और अविश्वसनीय होगा। विरोधी दलों का मोर्चा किसी तरह बन भी गया तो भी वह नरेंद्र मोदी की कृपा के बिना कभी सफल नहीं हो सकता।
यदि मोदी सरकार विपक्ष पर वैसी ही कृपा कर दे, जैसी कि इंदिरा गांधी ने आपातकाल लाकर की थी या राजीव गांधी ने बोफोर्स के जरिए की थी तो हमारे लकवाग्रस्त विपक्ष में थोड़ी-बहुत जान जरूर पड़ सकती है। अब भारत की राजनीति से विचारधारा का तो अंत हो गया है लेकिन हमारे विपक्ष के पास न कोई मुद्दा है, न कोई नीति है और न ही कोई नेता है। वह भाग्य के भरोसे झूल रहा है। (नया इंडिया की अनुमति से)
-दिनेश श्रीनेत
जो अनुपस्थित है हम उसका शोक करते हैं।
लेकिन कई बार खालीपन हमें भरता भी है। मृत्यु बिछोह का शोक तो देती है मगर स्मृतियों से हमें भर भी देती है। अपने न होने में कोई शख़्स कई बार तमाम जगहों पर मौज़ूद मिलता है।
किसी का होना सिर्फ उसके अस्तित्व का हिस्सा नहीं होता, बहुधा वह हमारे भी अस्तित्व का हिस्सा बन जाता है।
जब हम घर बदलते हैं तो फर्नीचर से भरा कमरा जब खाली होता तो उस खालीपन में भी कुछ होना मौजूद होता है।
अनुपस्थित की उपस्थिति ही हमारे जीवन में रंग भरती है। इसलिए अनुपस्थिति का शोक तो रहेगा मगर उसकी सकारात्मक ऊर्जा को भी हमें अपने भीतर भर लेना चाहिए।
यादें सिर्फ कचोटती नहीं, यादें हमें भीतर से शीतल भी करती हैं। हमारे मन के घावों को भरती हैं। जब हम किसी खाली कमरे में प्रवेश करते हैं तो भीतर से भी खाली हो जाते हैं। भीतर से खाली हो जाना इतना आसान नहीं है।
विरक्ति दुनिया से भागना नहीं है, विरक्ति अपने बोझ को एक-एक करते उतारते जाना है। हल्का हो जाना है तमाम तरह के भार से, थोड़ी हवा का अपने चेहरे पर स्पर्श पाना है, थोड़ी सांस गहरी लेनी है और थोड़ा नसों में दौड़ते रक्त का संचार महसूस करना है।
इसलिए जिन बातों में से हम घबराते या कतराते हैं, सबसे पहले उनके साथ सहज हो जाना चाहिए।
बिछोह या खोना दु:ख नहीं है, दु:ख तो अपने भीतर का अंतर्द्वंद्व है। खुद के भीतर एक-दूसरे को काटते विरोधी विचार हैं।
प्रेम और मोह की टकराहट है। प्रेम मुक्त करता है और मोह बांधता है, किसी और को नहीं आप खुद ही मोह की डोरियों से बंधते चले जाते हैं।
कोई जाता है तो आपको पीड़ा होती है, क्योंकि वह आपके लहू-त्वचा का अंश अपने साथ लेकर जा रहा है। आपके भीतर कुछ टूटकर उसके साथ जा रहा है। अच्छा तो यह हो कि वो ऐसे जाए जैसे पत्ते से पानी की बूंद सरकती है।
किसी के साथ रहकर, किन्हीं हालातों में रहकर- खुद को निर्दोष रख पाना सबसे बड़ी चुनौती है। अगर यह साध लिया तो हम मुक्त हैं। दरअसल खुद का मुक्त होना दूसरों की मुक्ति में है।
'जाने देना' निर्मोही होना नहीं है बल्कि बल्कि यह ऐसा प्रेम है जिसमें सामने वाले को अपना जीवन जीने की आज़ादी देना और उसे मुक्त करना शामिल है।
हमें लगता है कि सब कुछ हम तय कर सकते हैं, जबकि हम यह भूल जाते हैं कि खुद अपने जीवन की तमाम छोटी-बड़ी बातें हमने तय नहीं कीं।
जो हुआ वह अनजाने ही घटित होता चला गया और हम अघटित के लिए खुद को तैयार करते, संवारते रहे।
लेकिन हमारे सोचने से न तो दुनिया चली और न ही हम चल सके। हमें लगा कि हमारे पास चयन था, जबकि हमारे पास अधिक से अधिक सिर्फ विकल्प थे।
विकल्पों को चुनना भी हमारे हाथ में नहीं था, तर्कसंगत नहीं था, बस हमें चलते जाना था तो विकल्पों को भी चुनते जाना था।
इसलिए छूटने का शोक न करें, न अपनी उदासियों को दबाएं। उनके साथ जीएं। ट्रेन से छूटते स्टेशन को देखें और साथियों को हाथ हिलाकर विदा करें।
उनका हाथ हिलाते हुए दूर छूटते जाना आपको अकेला नहीं करता है, आपको ज्यादा मानवीय, ज्यादा उदात्त बनाता है। अपने खालीपन और अकेलेपन की जगर-मगर रोशनी से ही खुद को भर लें।
जैसा नीला आकाश अपनी रिक्तता से भरा है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कांग्रेस पार्टी का 85 वां अधिवेशन अभी पूरा नहीं हुआ है लेकिन अभी तक रायपुर में जो कुछ हुआ है, उसके बारे में क्या कहें? ढाक के वही तीन पात! इंदिरा गांधी के ज़माने से देश की इस महान पार्टी के आकाश से आतंरिक लोकतंत्र का जो सूर्य अस्त हुआ था, वह अब भी अस्त ही है। इसमें कांग्रेेस के वर्तमान नेतृत्व का दोष उतना नहीं है, जितना उसके अनुयायिओं का है। राहुल गांधी का तो मानना है कि कांग्रेस की कार्यसमिति चुनाव के द्वारा नियुक्त होनी चाहिए लेकिन रायपुर अधिवेशन में पार्टी की संचालन समिति ने सर्वसम्मति से तय किया है कि यह नियुक्ति कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ही करेंगे।
जिन दो-तीन नेताओं ने शुरू में थोड़ी हिम्मत की और बोला कि कार्यसमिति के लिए चुनाव करवाए जाएं, उन्होंने भी झुण्ड के आगे मुण्ड झुका दिया। खड़गे ने भी कह दिया कि वह सोनिया, राहुल और प्रियंका से सलाह करके कार्यसमिति की घोषणा करेंगे। कांग्रेस के असली मालिक तो ये मां-बेटा और बेटी ही हैं। बाकी सब लोग तो कांग्रेस के अंग्रेजी संक्षिप्त नाम (एनसी) को चरितार्थ करते हैं। एनसी का अर्थ हुआ ‘‘नौकर-चाकर कांग्रेस’’। ये तीनों उस समय बैठक में जानबूझकर उपस्थित नहीं रहे, जब संचालन समिति कार्यसमिति के मुद्दे पर विचार कर रही थी।
उन्हें पता था कि वहां उपस्थित सभी तथाकथित नेताओं की हिम्मत ही नहीं है कि वे अपने दम पर कोई फैसला कर सकेंगे लेकिन इस तथ्य के बावजूद यह सत्य काबिले-तारीफ है कि तीन बुजुर्ग नेताओं ने कार्यसमिति के चुनाव का आग्रह किया। इस मुद्दे पर ढाई घंटे बहस चली। यह बहस कुछ आशा बंधाती है। इससे जाहिर होता है कि सोनिया-परिवार थोड़ी छूट दे दे तो कांग्रेस का आतंरिक लोकतंत्र फिर से जिंदा हो सकता है। राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का तर्क काफी जानलेवा था।
उन्होंने कहा कि जब कांग्रेस की प्रांतीय और राष्ट्रीय समिति का ही चुनाव नहीं होता है तो कार्यसमिति का चुनाव कैसे करवाया जा सकता है। कुछ हद तक यह ठीक भी है, क्योंकि कांग्रेस अभी अगले साल के आम चुनाव की तैयारी करे या आतंरिक दंगल में उलझ जाए? इस अधिवेशन का यह फैसला भी उसी दिशा में है कि अबकी बार 50 प्रतिशत सीटें अनुसूचितों, औरतों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों और 50 साल से कम उम्र के लोगों के लिए रखी जाएंगी।
जैसे राहुल गांधी ने नरेंद्र मोदी की नकल कर अपनी दाढ़ी बढ़ा ली है, उसी तरह राजनीतिक दांव—पेंचों में भी कांग्रेस मोदी का अनुकरण करती रहती है। मोदी ने पिछली बार पिछड़ों का राष्ट्रपति बनाया और इस बार एक आदिवासी महिला को यह पद दे दिया तो अब कांग्रेस भी भाजपा के मुकाबले वोट—बैंक की रणनीति अपना रही है। (नया इंडिया की अनुमति से)
डॉ. संजय शुक्ला
छत्तीसगढ़ के राजधानी रायपुर में आयोजित अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के 85 वें महाधिवेशन पर पूरे देश की निगाहें लगी हुई है। 24 से 26 फरवरी तक आयोजित कांग्रेस का यह महाकुंभ आगामी 2024 के आम चुनाव के साथ ही इस साल के नौ राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें कांग्रेस के उस रोडमैप का खुलासा होने की संभावना है जिसका इंतजार विपक्ष सहित देश को है। बिलाशक आने वाला दौर देश में चुनावी गठबंधन का दौर होगा लेकिन कांग्रेस ने यह भी साफ कर दिया है कि आगामी लोकसभा चुनाव में पार्टी की मंशा भाजपा के खिलाफ साझा उम्मीदवार खड़ा करने की नहीं है। महाधिवेशन के ठीक पहले पार्टी के शीर्ष नेताओं के पत्रकार वार्ता पर गौर करें तो यह लग रहा है कि पार्टी लगातार चुनावी हार के सदमे और अवसाद से अब उबर चुकी है तथा वह पूरे आत्मविश्वास के साथ भाजपा से दो-दो हाथ करने के मूड में है। दरअसल पार्टी को यह आत्मविश्वास राहुल गांधी के उस पदयात्रा से मिली है जिसमें पार्टी ने लोगों का स्वस्फूर्त भरोसा पार्टी के प्रति देखा है। अलबत्ता बात यदि देश के उन क्षेत्रीय दलों की करें जो गैर कांग्रेसी मोर्चे के आगामी चुनाव में अपने दम पर चुनौती देना चाहते हैं तो यह असंभव है क्योंकि बिना कांग्रेस भाजपा या मोदी का कोई विकल्प हो ही नहीं सकता। इस बात से इंकार नहीं है कि इन क्षेत्रीय दलों के छत्रपों ने भाजपा और कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय दलों को पटखनी देकर अपना वजूद कायम किया है लेकिन लोकसभा चुनाव में बिना कांग्रेस मोदी और भाजपा को चुनौती देना नामुमकिन है। इसके इतर मीडिया प्रायोजित तमाम सर्वेक्षणों से उलट देश में ऐसी राजनीतिक हवा बह रही है जो सत्ता प्रतिष्ठान के लिए बेचैनी का सबब बनी हुई है हालांकि उपरी तौर पर सब कुछ ठीकठाक होने का स्वांग रचा जा रहा है। यह तो तय है कि आगामी चुनाव मोदी और भाजपा के लिए आसान नहीं होगा।
अलबत्ता इसमें दो राय नहीं है कि लगातार राजनीतिक जमीन छीनने के बावजूद देश में कांग्रेस की जड़ें काफी गहरी और फैली हुई है भले ही वक्त ने इन जड़ों को सूखा दिया है लेकिन जान अब भी बाकी है। लोकतंत्र के लिहाज से इस बूढ़े दरख़्त की जड़ों पर पानी डालने की जरूरत है ताकि पेड़ की टहनियों से न?ई कोपलें फूटे। पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष और नेता राहुल गांधी ने 137 साल पुराने इस दरख़्त को फिर से हरा-भरा करने का बीड़ा उठा लिया है और अपने पसीने से इसकी जड़ों को सींचने लगे हैं। राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ ने न केवल पार्टी को उस अवसाद से उबारने में सफलता पाई है जो लगातार चुनावी हार के कारण पार्टी के शीर्ष नेताओं से लेकर लाखों जमीनी कार्यकर्ताओं के दिलों दिमाग में घर कर गया था वहीं इस यात्रा देश के करोड़ों लोगों में राहुल के प्रति भरोसा जगाया है। गौरतलब है कि भारत के इतिहास और भूगोल में सर्वधर्म समभाव और सद्भावना नीहित है जिसे किसी भी तरह से जुदा नहीं किया जा सकता। बिलाशक बीते दशकों में देश के सांप्रदायिक और धार्मिक समरसता को छिन्न भिन्न करने की तमाम राजनीतिक कोशिशें हुईं हैं लेकिन कांग्रेस इन कोशिशों को खारिज करने में लगातार जुटी रही है। राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ इन्हीं कोशिशों की पूर्णाहुति है जिसने देश के सांप्रदायिक सद्भावना की बुनियाद को एक बार फिर से मजबूत किया है। राहुल की इस पदयात्रा से जहां कांग्रेस और जनता के बीच संवाद के डोर एक बार फिर से जुड़े हैं वहीं इस यात्रा ने राहुल की छवि को एक जननेता के तौर पर उभार दिया है। इस यात्रा से वे और उनकी पार्टी स्वाभाविक तौर पर मोदी और भाजपा का विकल्प बनकर उभरे हैं। बीते पांच सालों के दौरान गांधी परिवार को न केवल पार्टी के बाहर से चुनौती मिली है बल्कि पार्टी के भीतर भी कथित जी-23 समूह द्वारा उनके नेतृत्व पर लगातार सवाल खड़े किए गए हैं। तमाम चुनौतियों और का अंतर्विरोधों के बावजूद पार्टी के आम कार्यकर्ता आज भी गांधी परिवार के साथ खड़े दिखाई दे रहे हैं। दरअसल कांग्रेस के लिए गांधी परिवार न केवल जरूरी है बल्कि मजबूरी भी है क्योंकि यह परिवार ही पार्टी को एकजुट रख सकता है। इन सबके बावजूद अभी भी कांग्रेस पार्टी के पास मोदी और भाजपा के तिलिस्म को तोडऩा काफी टेढ़ी खीर है वह भी तब जब राष्ट्रीय मीडिया एक पक्षीय भूमिका में है तथा देश के चुनावी बहस में महंगाई, बेरोजगारी, शिक्षा, स्वास्थ्य और विकास की जगह धर्म और मंदिर प्रमुख मुद्दे बन चुके हैं। लिहाजा पार्टी को आत्ममंथन की जरूरत है, कुछ महत्वपूर्ण मसलों पर पार्टी को अपना स्टैंड काफी साफ रखना होगा। कार्यकर्ताओं को वैचारिक तौर प्रशिक्षण की जरूरत है चूंकि आज पूरा राजनीतिक अभियान सोशल मीडिया पर सिमट चुका है लिहाजा पार्टी को सशक्त आ?ईटी सेल की भी जरूरत है।
बहरहाल साल 2014 और 2019 के आम चुनाव से लेकर अनेक राज्यों के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के करारी पराजय के बावजूद कांग्रेस आज भी राजनीतिक धुरी बनी हुई है। ‘कांग्रेसमुक्त भारत’ का जुमला देने वाली राजनीतिक पार्टी यह बात बखूबी जानती है कि कांग्रेस देश के बुनियाद में है लिहाजा उनका यह सपना कभी पूरा नहीं होने वाला। दरअसल कांग्रेस उस फिनिक्स चिडिय़ा की मानिंद है जो अपने ही राख से फिर जी उठता है। किसी पार्टी के जनाधार को मापने का पैमाना यदि चुनावी नतीजे हैं भी तो कांग्रेस इस मिथक को तोडऩे में निश्चित तौर पर सफल होगी क्योंकि कांग्रेस एक राजनीतिक विचारधारा नहीं अपितु आंदोलन है जो देश के आजादी के संघर्ष से उपजी है। कांग्रेस ने न केवल आजादी के आंदोलन में अपना बलिदान दिया है वरन् स्वातंत्र्योत्तर भारत में देश की एकता और अखंडता के लिए इस पार्टी के लोगों ने शहादत दिया है। कांग्रेस पर परिवारवाद का आरोप लगाकर इस विचारधारा को रौंदने का मंसूबा पालने वालों को समझना होगा कि लोकतंत्र में जनता ही जनार्दन होता है जो किसी पार्टी या राजनेता का भाग्य नियंता होता है लिहाजा यह करोड़ों देशवासियों पर निर्भर है कि वह ऐसे आरोपों पर कितनी गंभीरता दिखाती है? कांग्रेस आज भी दलित, शोषित, वंचित, किसान, गरीब और सर्वहारा वर्ग की पार्टी है। यदि राजनीतिक इतिहास के किताब के पन्ने पलटें तो देश की जनता ने तमाम आशंकाओं के बीच इसी नेहरू-गांधी पर भरोसा जताया है। लिहाजा कांग्रेस की हार कोई स्थाई हार नहीं बल्कि इस पराजय से सबक लेने का अवसर है जिस पर राहुल गांधी और उसकी पार्टी काफी संजीदा है। पार्टी ने संगठन का राष्ट्रीय नेतृत्व गैर गांधी मल्लिकार्जुन खडग़े को सौंप कर विपक्ष के हाथ से सबसे बड़ा राजनीतिक हथियार छीन लिया है। अलबत्ता तमाम सियासी बहस-मुबाहिसों के यह सौ टका सच है कि कांग्रेस का चेहरा राहुल गांधी ही बने रहेंगे।
गौरतलब है कि राहुल को नेहरू के बाद इंदिरा या इंदिरा के बाद राजीव गांधी बनने का अवसर नहीं मिला बल्कि उनके किस्मत में वह पथरीली राह है जिस पर चलकर उन्हें पार्टी की वजूद फिर से स्थापित करना है। बिलाशक भारत जोड़ो यात्रा ने देश को एक ऐसे राहुल से रुबरु कराया है जो आज के दौर में जब सियासत और जनता के बीच संवाद लगभग बंद है तब राहुल हजारों मील पैदल चलकर लोगों से खुद संवाद कर रहे हैं। आज जब सत्ता का संवाद एक तरफा चल रहा है और सत्ता प्रतिष्ठान से सवाल पूछने पर अघोषित पाबंदी हो तब राहुल खुद मीडिया के बरास्ते राजनीतिक सत्ता से सवाल-जवाब कर रहे हैं। आज जब संसद में बहुमत के बाहुबल पर विपक्ष की बाहें मरोड़ी जा रही है तब राहुल सवालों का ऐसा कठघरा तैयार कर रहे हैं जिसमें सत्ता मौन होकर उनके सवालों से नजरें चुरा रही है।
आज के हालात में जब विपक्ष ईडी, सीबीआई और आईटी के दबिश के डर से मुंह सिले हुए है तब राहुल सत्ता के जबड़े में हाथ डाल रहे हैं। अकेले राहुल हैं जो इंडो-चाइना बार्डर, अडानी-अंबानी और सरकारी उपक्रमों के निजीकरण के मुद्दे पर केंद्रीय सत्ता को खुलकर चुनौती दे रहे हैं।बेबस जनता महंगाई, बेरोजगारी और गरीबी से कराह रही है तब राहुल संसद से लेकर सडक़ तक इस रूदन की आवाज बने हुए हैं। विपक्षी दलों के आईटी सेल और चंद मीडिया समूहों के तमाम नकारात्मक कोशिशों के बावजूद राहुल गांधी की स्वीकार्यता न केवल पार्टी में बढ़ी है वरन् विपक्ष भी उसमें भविष्य देख रहा है। हाल के दिनों में कांग्रेस के तेवर में काफी बदलाव आया है जिन मुद्दों पर पार्टी के उपर पलायन वादी रूख अपनाने के आरोप लगते रहे हैं अब पार्टी इन मसलों को आक्रामक ढंग से उठा रही है। भारत जोड़ो यात्रा के कामयाबी के बाद कांग्रेस संगठन में जबरदस्त जोश देखा जा रहा है और पार्टी महंगाई, बेरोजगारी,अमीरी-गरीबी की बढ़ती खा?ई, सरकारी संस्थाओं के दुरुपयोग और राजनीतिक तानाशाही के खिलाफ काफी आक्रामक है वहीं सत्ता प्रतिष्ठान रक्षात्मक मुद्रा में दृष्टिगोचर हो रहा है। बहरहाल भारत जैसे विशाल लोकतांत्रिक देश में राजनीतिक ज्वार और भाटा कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय दल के लिए रसातल में जाने का प्रारब्ध कतई नहीं बन सकता। भारत जैसे विशाल लोकतंत्रिक देश में कोई भी चुनावी जीत या हार स्थाई नहीं हो सकता लिहाजा राहुल और उनकी पार्टी के भविष्य पर सवालिया निशान लगाना जल्दबाजी होगी। बिलाशक लोकतंत्र में जनता के पास सत्ता का विकल्प और सशक्त विपक्ष सदैव होना चाहिए अन्यथा सत्ता निरंकुश हो जाता है लिहाजा कांग्रेस अब इस भूमिका में अपने आपको सौ टका खरा साबित करने के लिए कमर कस चुकी है। रायपुर में आयोजित होने वाले इस महाधिवेशन के विचार मंथन से निश्चित तौर पर पार्टी को एक न?ई दिशा मिलने की उम्मीद है जो लोकतंत्र के साथ देश की एकता और अखंडता को भी नई मजबूती प्रदान करेगा।
आशुतोष भारद्वाज
गांधी ब्रह्मचर्य के तेरहवें वर्ष में थे, उम्र का पचासवां वर्ष था, जब उन्हें अपनी हमउम्र सरलादेवी चौधरानी से प्रेम हुआ। सभी नियमों को चीरता हुआ। दोनों ने एक-दूसरे को गहन प्रेम में डूबे खत लिखे, गांधी ने उन्हें अपनी ‘आध्यात्मिक पत्नी’ कहा, उनके लेख ‘यंग इंडिया’ में प्रमुखता से प्रकाशित किये। यह संसर्ग दैहिक मिलन की कगार पर जा ठहरा कि गांधी के सहकर्मी कांग्रेसी नेताओं ने उन्हें यह समझा पीछे खींच लिया कि यह संबंध न सिफऱ् गांधी बल्कि समूचे स्वतंत्रता संग्राम को शर्मसार कर सकता है।
गांधी पीछे हट गये। कुछ समय बाद उन्होंने सत्य के साथ अपने प्रयोगों पर आत्मकथा लिखी, अपने जीवन के तमाम अंतरंग क्षणों को लिख दिया, विफलताओं और ग्लानियों को साहसपूर्वक स्वीकार किया लेकिन सरलादेवी के साथ अपना हालिया प्रेम छुपा ले गये। वह महात्मा जिसने अपने सार्वजनिक और निजी जीवन में कोई फर्क नहीं किया, जिसने अपना प्रत्येक कर्म सूर्य के प्रकाश को समर्पित किया, वह इस प्रेम को क्यों न लिख सका?
इसकी कई व्याख्यायें हो सकती हैं। पहली, गांधी में शायद साहस न था कि अपने विवाहेत्तर प्रेम को लिख पाते। कस्तूरबा के प्रति अपनी कामना को लिखना आसान था, सरलादेवी के प्रति कामेच्छा को लिखना नहीं। दूसरी, गांधी को लगा कि उनका व्यक्तिगत प्रेम उस राष्ट्र से कहीं कमतर है जिसका नेतृत्व वे कर रहे थे। अगर उनके किसी सार्वजनिक स्वीकार से राष्ट्रीय आन्दोलन को क्षति पहुँचती है, तो उससे बचा जा सकता है।
या शायद गांधी को अपने आप पर, अपने प्रेम पर भरोसा न था। उन्हें शायद एहसास होने लगा था कि जिस भाव को हम अक्सर प्रेम घोषित करते हैं, वह अतिरेक और अतिश्योक्ति से निर्मित होता है, कि दरअसल कई बार औदात्य की आड़ में प्रेम दूसरे पर ईर्ष्यालु एकाधिकार चाहता है, कि विचारधारा के झंडे तले हुई हिंसा की तरह प्रेम के नाम पर हुई क्रूरता का आक्रांता को बोध नहीं होता, कि प्रेम की घोषणायें करते वक्त हम ख़ुद को धीमे-से फुसलाते हैं, अपनी चेतना को सुला देते हैं, इस उम्मीद में कि हम शब्दों से अपना समर्पण साबित कर देंगे जिसके लिये हम सर्वथा अयोग्य थे।
क्योंकि महान प्रेम-पत्र भी उन्हीं शब्दों से रचे जाते हैं, जिनके सहारे हमने अपने पिछले प्रेम को चुपचाप छला था।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कांग्रेस के प्रवक्ता पवन खेड़ा ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पिताजी के लिए जिस नाम का प्रयोग किया है, वह घोर आपत्तिजनक है। उसने नरेंद्र दामोदर दास मोदी की जगह ‘नरेंद्र गौतम दास’ शब्द का प्रयोग किया याने आजकल जो उद्योगपति गौतम अडानी का मामला चल रहा है, उसमें उसने अडानी के नाम का इस्तेमाल मोदी के पिताजी की जगह कर दिया। दूसरे शब्दों में यह अपमानजनक कथन यदि भूलवश भी किया गया है तो यह बताता है कि कांग्रेस कितनी दिवालिया हो गई है।
उसे अब सोनिया गांधी और राहुल गांधी नहीं बचा सकते। केवल गौतम अडानी ही बचा सकता है। इसीलिए आजकल सारे कांग्रेसी अडानी के नाम की माला जपते रहते हैं। जैसे कई तथाकथित ‘अनपढ़ हिंदुत्ववादी’ यह प्रचारित करने में जरा भी संकोच नहीं करते कि जवाहरलाल नेहरु और शेख अब्दुल्ला सगे भाई थे। इस तरह के निराधार और फूहड़ बयानों से आजकल भारत की राजनीति अत्यंत त्रस्त है। यह अच्छा हुआ कि खेड़ा ने अपने बयान पर माफी मांग ली है और कहा है कि वह वाक्य अनजाने ही उसके मुंह से निकल गया था।
लेकिन यह भी गौर करने लायक है कि भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने सिर्फ दो-तीन घंटे में ही खेड़ा को गिरफ्तारी से मुक्त कर दिया, जमानत दे दी और सारे मामले को सुनवाई के लिए अगले हफ्ते तक आगे बढ़ा दिया। इस मामले की पैरवी प्रसिद्ध वकील अभिषेक सिंघवी ने की थी। सिंघवी ने भी खेड़ा के बयान को अनुचित बताया और क्षमा-याचना की बात कही।
लेकिन सिंघवी ने खेड़ा के पक्ष में बड़े मजबूत तर्क दिए। उन्होंने कहा कि जिन पांच धाराओं के तहत खेड़ा को गिरफ्तार किया गया है, उनमें से एक धारा भी उस पर लागू नहीं होती है। खेड़ा के बयान से न तो धार्मिक विद्वेष फैलता है, न राष्ट्रीय एकता भंग होती है और न ही देश में अशांति फैलती है। सर्वोच्च न्यायालय ने खेड़ा को जमानत पर तो छोड़ दिया है लेकिन उनके कथन पर काफी अप्रसन्नता जाहिर की है, जो कि ठीक है। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या असम सरकार की पुलिस ने दिल्ली सरकार की मदद से जो कुछ किया है, क्या वह ठीक है?
खेड़ा को पुलिस ने हवाई जहाज से उतारकर गिरफ्तार किया। क्या उसने कोई इतना संगीन अपराध किया था? कांग्रेसियों का मानना है कि उसने गौतम अडानी का नाम लेकर मोदी की दुखती रग पर हाथ धर दिया था जैसा कि बीबीसी ने मोदी पर फिल्म बनाकर किया था, इसीलिए असम और दिल्ली की पुलिस ने यह असाधारण कदम उठा लिया। इस कदम ने उक्त आपत्तिजनक कथन को देशव्यापी तूल दे दिया। हताश और निराश कांग्रेसियों के अतिवादी बयानों पर आजकल कौन ध्यान देता है लेकिन सत्तारुढ़ भाजपा की ऐसी उग्र प्रतिक्रिया का असर क्या उल्टा नहीं होता है ? (नया इंडिया की अनुमति से)
राजशेखर चौबे
उस जमाने के सोवियत रूस के साथ-साथ छत्तीसगढ़ के दुर्ग शहर में भी शतरंज काफी लोकप्रिय था। सडक़ किनारे खेलने वालों की भीड़ होती और एक शक्तिशाली प्लेयर के विरुद्ध हम जैसे दसों लोग खेलते फिर भी वही जीतता था। आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विरुद्ध विपक्ष की हालत भी वैसी ही है। विपक्ष कमजोर है और हमेशा कमजोर का साथ देना चाहिए इसलिए मैं विपक्ष के साथ हूँ। विपक्ष की भलाई इसी में है कि वे यह समझ ले कि वह पांच मैचों में पहले दो मैच हार चुके हैं और बचे हुए तीनों मैच उन्हें जीतना है। मोदी जी बढ़त ले चुके हैं। प्रमुख विपक्षी दल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस भारत जोड़ो यात्रा को लेकर अति उत्साह में दिख रही है लेकिन 2024 के आम चुनाव में इसका विशेष असर नहीं होगा। जिससे आपको लडऩा है आपको उनकी ताकत और कमजोरी पता होना चाहिए। पहले हम भाजपा के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (हृष्ठ्र) के ताकत की चर्चा करेंगे।
नरेंद्र मोदीजी के नेतृत्व में इस सरकार ने हिंदुत्व को बढ़ावा दिया जिसके अंतर्गत अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण, धारा 370 की समाप्ति , काशी कॉरिडोर का निर्माण, सीएएएनआरसी का केवल विधेयक पारित करना आदि है। मौजूदा सरकार की दूसरी ताकत है रेवड़ी यानी फ्रीबिस का वितरण। लगभग 80 करोड़ गरीब लोगों को अभी भी मुफ्त राशन दिया जा रहा है , प्रधानमंत्री आवास योजना, उज्जवला योजना जैसे कई योजनाएं हैं। इस सरकार की तीसरी ताकत है आक्रामक राष्ट्रवाद का हिमायती होना। कार्ल माक्र्स ने धर्म को अफीम बताया था लेकिन मैं इसमें उग्र राष्ट्रवाद को भी जोडऩा चाहूंगा। उग्र राष्ट्रवाद का रास्ता घृणा से होकर गुजरता है। इस सरकार की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि और ताकत है मीडिया का अधिग्रहण। आज प्रत्येक निष्पक्ष नागरिक यह जानता है कि कुछ गिने-चुने अखबारों को छोडक़र पूरा मीडिया सरकार के कब्जे में है। सोशल मीडिया खासकर व्हाट्सएप का इस सरकार ने बेहतर इस्तेमाल किया है और अपना एजेंडा आगे बढ़ाने का काम किया है। इस सरकार को मोदी जी की मनमोहक छवि का भी लाभ मिल रहा है। इस छवि को गढऩे में मीडिया का विशेष रोल है हालांकि वे उन्हें इसका श्रेय नहीं देते हैं। अब हम मौजूदा सरकार की कमजोरियों की चर्चा करेंगे। इस सरकार की सबसे बड़ी कमजोरी है गरीबी महंगाई और बेरोजगारी का बढऩा । इस सरकार की आर्थिक नीतियां खासकर नोटबंदी जीएसटी तालाबंदी ने आम जनता की कमर ही तोड़ दी है। केंद्र सरकार को जी एस टी का लाभ हुआ है परंतु राज्य सरकारों की केंद्र पर निर्भरता बढ़ी है और वे याचक की भूमिका में आ गए हैं। पिछले नौ वर्षों में गरीब और गरीब हुआ है और अमीर और अमीर हुआ है इसे कोई नकार नहीं सकता। प्रतिवर्ष दो करोड़ रोजगार का वादा किया गया परंतु इन नौ वर्षों में एक लाख बेरोजगारों को भी रोजगार नहीं मिला है। इस सरकार की दूसरी कमजोरी है कारपोरेट का हिमायती होना। पहले कारपोरेट छिपकर अपना काम करते थे। अब वे छुपकर चंदा ( इलेक्टोरल बांड ) देते हैं परंतु खुलकर अपना काम करते हैं। कोविड के दौरान पूरी दुनिया की दौलत कम हुई परंतु देश के कारपोरेट घरानों के धन में बेतहाशा वृद्धि हुई। कॉरपोरेट टैक्स घटाकर सरकार ने अपनी पक्षधरता बता दी है। कॉरपोरेट के द्वारा सरकार ने मीडिया पर कब्जा जमा रखा है । आज गरीबी महंगाई बेरोजगारी की बात करने वालों को देशद्रोही करार दिया जा रहा है। इस सरकार से मुस्लिम ,अनुसूचित जाति , अनुसूचित जनजाति और पिछड़े समुदाय का एक बड़ा तबका नाराज है। उन्हें लगता है कि उनके साथ सौतेला व्यवहार किया जा रहा है । सरकारी एजेंसियों का दुरुपयोग केवल विरोधियों को निशाना बनाने के लिए किया जा रहा है। सत्ता पक्ष के किसी भी नेता पर आज तक कोई भी कार्रवाई नहीं हुई है, जनता इन बातों से वाकिफ है। इस सरकार में भी भ्रष्टाचार में कोई कमी नहीं आई है। आज भाजपा को विश्व की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी बताया जा रहा है।
भाजपा की चुनावी रैलियों और अन्य खर्चों को देखकर आप अंदाजा लगा सकते हैं कि उन्हें धन की कोई कमी नहीं है। आज वह सबसे धनवान पार्टी है। इलेक्टोरल बांड से भी उसे ही सबसे अधिक धन मिला है। आप यह भी नहीं जान सकते कि किसने उन्हें चंदा दिया है। क्या ईमानदारी से ऐसे चुनाव लड़े जा सकते हैं और क्या जनप्रतिनिधियों की इस पैमाने पर खरीद-फरोख्त की जा सकती है? जन प्रतिनिधियों को धमकाने व डराने के लिए केंद्रीय एजेंसियों की मदद जगजाहिर है। संवैधानिक संस्थाएं जैसे चुनाव आयोग, नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक भी दबाव में नजर आ रहे हैं। न्यायपालिका के निर्णय भी विभिन्न कारणों से प्रभावित होते रहे हैं। कॉलेजियम को समाप्त कर न्यायपालिका पर भी कब्जे का प्रयास प्रारंभ हो गया है। विरोध में लिखने और बोलने वाले मीडिया संस्थानों को डराया व दबाया जा रहा है। बीबीसी पर छापा इसका ताजा उदाहरण है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बाधित किया जा रहा है। इन वर्षों में हमें एक भी प्रेस कॉन्फ्रेंस के लायक नहीं समझा गया।
इस समय विपक्ष के पास कोई ताकत नहीं है केवल सत्ता पक्ष की कमजोरी ही विपक्ष की ताकत है। विपक्ष में सभी विरोधी दल शामिल हैं। ये सभी विरोधी दल यह समझ लें कि यदि वे 2024 में नहीं जीत सके तो 2029 में भी नहीं जीत सकेंगे। भारतीय जनता पार्टी के पुराने सहयोगी शिवसेना और अकाली दल राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन से अलग हो चुके हैं । अभी जो भी सहयोगी एन डी ए से जुड़े हुए हैं वे या तो डर से जुड़े हैं या लालच से। जिस दिन यह डर व लालच खत्म हो जाएगा वे भी अलग हो जाएंगे। एनडीए का अर्थ केवल और केवल भारतीय जनता पार्टी है। भाजपा जिन क्षेत्रों में मजबूत है वहां बेहद मजबूत है और जहां कमजोर है वहां काफी कमजोर है।
भाजपा प्राय: हिंदीभाषी क्षेत्र, कर्नाटक और गुजरात में मजबूत है । इस क्षेत्र में लोकसभा की 250 सीटें हैं । बची हुई 293 सीट पर भाजपा कमजोर है। इन 293 सीटों में भाजपा को अधिकतम 60 सीट मिल सकती हैं। बची हुई 250 सीटों में यदि विपक्ष 65त्न यानी लगभग 163 सीटों पर भाजपा को रोक ले तो वह भाजपा को 2024 में बेदखल कर सकता है। इस तरह भाजपा को 223 सीट पर रोका जा सकता है। सत्ता की मुख्य लड़ाई का केंद्र वही 250 सीट है जिस पर भाजपा मजबूत है । विपक्ष को उसी पर मुख्य ध्यान देना होगा।
सबसे पहले विपक्ष को वही करना होगा जो भाजपा करती आई है यानी कुछ मुद्दों को छोडऩा होगा जैसे धारा 370 की समाप्ति, समान नागरिक संहिता, जनसंख्या नियंत्रण कानून सीएएएनआरसी कानून आदि। लगभग पूरे विपक्ष को एकजुट होना होगा। सीटों के लिए सबको दिल बड़ा रखना होगा। जिस राज्य में जो विपक्षी पार्टी अधिक ताकतवर है उसे ही कमान संभालनी होगी। उत्तर प्रदेश में लोकसभा की 80 सीटें हैं यदि 75 सीटों पर समझौता हो जाता है तो पांच सीटों पर फ्रेंडली कंटेस्ट भी हो सकता है। कांग्रेस जब सत्ता में थी तब यही कहा जाता था कि विपक्ष एक साल से अधिक न तो साथ साथ रह सकता है और न ही अलग-अलग। यह बात अब भी लागू होती है। विपक्ष को चुनाव पूर्व अपना नेता चुनने की गलती नहीं करनी चाहिए अन्यथा क्या होगा हम सभी जानते हैं। मोदीजी के सामने कोई भी विपक्षी चेहरा टिकने वाला नहीं है। किसी चेहरे को चुनने का मतलब है मोदी जी को वाकओवर देना। यह अधिक अच्छा होगा कि राहुल गांधी जी यह घोषणा कर दें कि मैं या गांधी परिवार का कोई भी सदस्य 2024 में प्रधानमंत्री पद की रेस में नहीं है। 1977 और 1989 का आम चुनाव 2024 में विपक्ष के लिए सबक हो सकता है। यदि इन चुनावों में चुनाव पूर्व नेता चुना जाता तो वह विपक्ष का ही नेता बनता। भाजपा भी इस मुद्दे पर मुखर नहीं हो सकती क्योंकि 2017 में उत्तरप्रदेश के चुनाव के बाद ही योगी जी को नेता चुना गया था। सोशल मीडिया प्रचार का सशक्त माध्यम बन गया है। भाजपा ने इसकी ताकत को भांप लिया है। विपक्ष को भी इस पर ध्यान केंद्रित करना होगा। आम आदमी को समझाना होगा कि यह सरकार क्रोनी कैपिटलिज्म वाली सरकार है और अमीरों के हित में ही फैसले लिए जा यह हैं। इस सरकार से गरीब किसी चीज की उम्मीद न करें सिवाय खैरात के। अमीरों की बढ़ती अमीरी और गरीबों की बढ़ती गरीबी इस बात का प्रमाण है।
2019 के लोकसभा चुनाव के पूर्व कांग्रेस ने प्रत्येक गरीब परिवार को प्रतिवर्ष 72000 देने का वादा किया था । विपक्ष इस तरह के अविश्वसनीय वादों से परहेज करे। ऐसे वादे प्राय: हारने वाला दल ही करता है। पंद्रह लाख प्रत्येक परिवार को देने का वादा कर और कुछ भी न देकर दो बार चुनाव जीतने वाले बिरले ही होते हैं। आप जो वादे पूरे कर सके वही वादे किए जाने चाहिए। सत्ता पक्ष की मुख्य कमजोरी गरीबी महंगाई बेरोजगारी पर विपक्ष को पूरा जोर लगाना होगा। भाजपा को ध्रुवीकरण का लाभ मिलता है और इसके लिए वे प्रयास भी कर सकते हैं। इसके लिए विपक्ष को तैयार रहना होगा और विपक्ष के बयानवीरों को जुबान पर लगाम लगाना होगा। वर्ष 1977 में जनता दल का गठन अभूतपूर्व प्रयोग था जिसमें अधिकांश विपक्षी दल एक ही छतरी के नीचे आ गए थे। इसी तरह 1989 के चुनाव में भाजपा और कम्युनिस्ट एक साथ थे और कांग्रेस के विरुद्ध मिलकर लड़े थे। 2024 में भी भारतीय राष्ट्रीय पार्टी (क्चक्रस्) जैसी किसी पार्टी का गठन अधिकांश विपक्षी दल मिलकर कर सकते हैं। भूले भटके यदि विपक्ष सत्ता में आ गया तो उसके लिए एक जरूरी संदेश है कि भ्रष्टाचार पर हर हालत में नियंत्रण पाना होगा।
किसान आंदोलन ने किसानों की ताकत का एहसास करा दिया है । अब आम व गरीब आदमी की बारी है। अभी भी देश में कुछ हद तक लोकतंत्र कायम है और आम और गरीब आदमी अपने वोट के सहारे बहुत कुछ बदल सकता है। कारण चाहे जो भी हो लेकिन आम आदमी त्रस्त है और उसकी कहीं भी सुनवाई नहीं है। भले ही राहुल, ममता, अरविंद, नीतीश आदि 2029 तक इंतजार कर सकते हैं लेकिन आम आदमी 2029 तक इंतजार करने के मूड में नहीं है जरूरत है उसे नेतृत्व प्रदान करने की । विपक्ष को ऐसा मौका दोबारा नहीं मिलेगा। देखना होगा क्या विपक्ष आम जनता की उम्मीदों पर खरा उतरेगा अन्यथा जैसे दस वर्ष बीते हैं वैसे ही और पांच वर्ष भी ‘अच्छे दिन’ की आस में गुजर जाएंगे।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अमेरिका के सिएटल नामक शहर में जाति-आधारित भेदभाव पर प्रतिबंध लग गया है। सिएटेल के नगर निगम ने यह घोषणा उसकी एक सदस्य क्षमा सावंत के प्रस्ताव को स्वीकार करते हुए की है। इस घोषणा ने सिएटल को अमेरिका का ऐसा पहला शहर बना दिया है, जहां जातीय भेदभाव अब समाप्त हो जाएगा। सिएटल अमेरिका के सुंदर शहरों में गिना जाता है। मैं उसमें रह चुका हूं। वहां के एक प्रसिद्ध बाजार में भारतीयों, पाकिस्तानियों और नेपालियों की कई दुकानें हैं। उस शहर में लगभग पौने दो लाख लोग ऐसे हैं, जो दक्षिण एशियाई मूल के हैं।
आप सोचते होंगे कि भारत में सदियों से चली आ रही यह जातिवादी भेदभाव की बीमारी अमेरिका में कैसे फैल गई है? विदेशों में भी रहकर भारतीय और पड़ौसी देशों के लोगों में यह तथाकथित ‘हिंदुआना हरकत’ कैसे फैली हुई है। पाकिस्तान में जातिवाद और मूर्तिपूजा को लोग ‘हिंदुआना हरकत’ ही कहते हैं लेकिन देखिए इस हरकत का चमत्कार कि यह भारत, पाकिस्तान और पड़ौसी देशों के मुसलमानों, ईसाई और सिखों में भी ज्यों की त्यों फैली हुई है। यहां तक कि अफगानों में भी यह किसी न किसी रूप में फैली हुई हैं।
वहां भी मजहब के मुकाबले जाति की महत्ता कहीं ज्यादा है। अब से 50-55 साल पहले जब मैं अमेरिका में पढ़ता था, तब भारतीयों की संख्या वहां काफी कम थी। तब किसी की जांत-पांत का कोई खास महत्व नहीं होता था। न्यूयार्क के बाजारों में दिन भर में एक-दो भारतीय दिख जाते थे तो उन्हें देखकर मन प्रसन्न हो जाता था लेकिन अब तो अमेरिका के छोटे शहरों और कस्बों में भी आपको भारतीय लोग अक्सर मिल जाते हैं। उनमें अब आपसी प्रतिस्पर्धा और ईर्ष्या-द्वेष भी काफी बढ़ गया है।
वे सभी क्षेत्रों में बड़े-बड़े पदों पर भी विराजमान हैं। वहां भी अब जातिवाद का जहरीला पौधा पनप रहा है। ‘इक्वेलिटी लेव’ नामक संस्था ने जो आंकड़े इकट्ठे किए हैं, वे चौंकानेवाले हैं। उसके अनुसार नौकरियों और शिक्षा में तो जातीय भेदभाव होता ही है, सार्वजनिक शौचालयों, बसों, होटलों और अस्पतालों में भी यह फैल रहा है। सिएटल नगर निगम ने इस पर जो प्रतिबंध लगाए हैं, उनका कुछ प्रवासी संगठनों ने स्वागत किया है लेकिन लगभग 100 प्रवासी संगठनों ने क्षमा सावंत की इस पहल का विरोध किया है।
इस पहल को उन्होंने बेबुनियाद कहा है। इसे दक्षिण एशिया और विशेषकर भारत को बदनाम करने का हथकंडा भी माना जा रहा है। इस मामले में सबसे अच्छा तो यह हो कि भेदभाव के ठोस आंकड़े और प्रमाण इक्ट्ठे किए जाएं और यदि वे प्रामाणिक हों तो उनके विरूद्ध प्रवासियों में इतनी जन-जागृति पैदा की जाए कि कानूनी कार्रवाई की जरूरत ही न पड़े। (नया इंडिया की अनुमति से)
फेसबुक मित्रों के बीच जिज्ञासा उठी है कि रायपुर में क्या कभी अखिल भारतीय कांग्रेस सम्मेलन हुआ था। या इस वर्ष 2023 में पहली बार हो रहा है। इस सिलसिले में ‘अमर उजाला’ से संबद्ध पत्रकार सुदीप ठाकुर की किताब ‘लाल श्याम शाह: एक आदिवासी की कहानी’ से उद्धरण आए हैं। उससे भी जानकारी लेकर डा0 परिवेश मिश्रा ने कल ही एक बेहतर लेख लिखा है। अपूर्व गर्ग ने जिज्ञासा जाहिर की है कि शायद नेहरू जी पहली बार इंजीनियरिंग कॉलेज का उद्घाटन करने के नाम पर रायपुर 1963 में ही आए थे। फिर सबने चाहा कि मैं इस संबंध में कुछ कहूं क्योंकि मैं उस सम्मेलन का चश्मदीद गवाह रहा हूं।
शुरू में कह देना चाहिए शायद 1960 की अक्टूबर में रायपुर में हुआ अखिल भारतीय कांग्रेस का सम्मेलन वैसा औपचारिक अधिवेशन नहीं था जिसे कांग्रेस कार्यसमिति के फैसले के तहत आयोजित किया जाता है। लेकिन अपने कलेवर और रखरखाव के लिहाज से वह विशेष अधिवेशन अखिल भारतीय कांग्रेस सम्मेलन ही था। उसमें नेहरू के साथ साथ कांग्रेस के तमाम बड़े नेता और मंत्रिगण शामिल हुए थे।
मैं उस वक्त बीएससी फाइनल का छात्र था और हॉस्टल नंबर 1 में प्रीफेक्ट था। उसका बाद में नामकरण कॉलेज के संस्थापक प्राचार्य रहे उमादास मुखर्जी के नाम पर हो गया है। सभी हॉस्टल और कई प्रोफेसरों के निवास स्थान खाली करा लिए गए थे क्योंकि वहां कॉलेज के डेलीगेट्स और अतिथियों को ठहराना था। अपने निजी कारणों से मैं हॉस्टल खाली नहीं कर सकता था। लिहाजा मित्र ललित तिवारी और कवि राधिका नायक आदि की मदद से मैं रायपुर के विधायक तथा स्वागताध्यक्ष शारदाचरण तिवारी से मिला। उन्होंने बीच का रास्ता निकाला और मुझे अपने हॉस्टल में ठहरने वाले अतिथियों की देखभाल के लिए स्वागत सचिव बना दिया।
अचानक मेरे हॉस्टल में एक बड़ी सी बस में भरकर कई कांग्रेस कार्यकर्ता उत्तरप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री चंद्रभानु गुप्त की अगुवाई में उतरे। चंद्रभानु गुप्त धाकड़ नेता थे। चुस्त पाजामा कुरता और सिर पर टोपी पहने मुझसे मुखातिब हुए। कहा कि इन सब साथियों को कमरे दिखाओ। मुझे अच्छी तरह याद है नेहरू प्रणीत राष्ट्रीय एकीकरण की मुहिम के चलते वहां कई राज्यों के डेलिगेट्स को ठहरना था। चंद्रभानु गुप्त अड़ गए। बोले तुम्हारी व्यवस्था कुछ भी हो। मेरे सब साथी यहीं ठहरेंगे। मैं क्या कर सकता था। बाकी साथियों को पीछे छोडक़र वे मेरे साथ हॉस्टल में आए और कहा कि जो सबसे बड़ा कमरा है। वहां हम एक साथ बैठेंगे। तो मैंने उनको संभवत: सामने की ओर का कोने का 9 नंबर का कमरा दिखाया। वे अपने साथ कपड़े का बैनर लाए थे। मुझसे हथोड़ी और खीले मांगे। उसे ठोककर साथियों को बुलाया और कहा ये अपना दफ्तर है। सब कमरे इनसे देखकर घुस जाओ। सारी व्यवस्था तहस नहस हो गई।
उनके आने के कुछ पहले पंडित कमलापति त्रिपाठी कुछ चुनिंदा लोगों के साथ आए थे। पूरी तौर पर पहले उन्होंने एक छोटे कमरे में अपने निवास का प्रबंध किया और पूजा पाठ की व्यवस्था भी चाक चौबंद कर ली। शायद पूर्वमुखी कमरे 47 और 48 लिए थे। पूरा हॉस्टल उत्तरप्रदेश के डेलिगेट्स से भर गया। बाकी भारत को जहां जाना है जाए।
हॉस्टल से बाहर निकलकर एक खाली पड़े ड्रम पर गुुप्त जी स्थापित हो गए। मुझसे पूछा। मैं कहां का रहने वाला हूं। उन्हें खुश करने की गरज से मैंने कहा। मेरे पूर्वज कानपुर के हैं। गुप्त जी ने मेरी पीठ ठोकी और कहा। तुम तो घर के लडक़े हो। हम सही जगह आए हैं। अचानक उसी बीच एक कार साइंस कॉलेज के हमारे प्रो. सुरेन्द्रदेव मिश्र के निवास की ओर से मुडक़र हॉस्टल के सामने आ गई। ड्राइवर ने रोककर मुझसे पूछा। कागज की परची में प्रो. डीडी शर्मा का नाम लिखा था कि यह क्वार्टर कौन सा है। हॉस्टल नंबर 1 और हॉस्टल नंबर 2 के बीच प्रो. डीडी शर्मा और उनसे लगा हुआ क्वार्टर प्रो. एसके मिश्रा का था। कार चली गई। मैंने गौर नहीं किया था। चंद्रभानु गुप्त बुदबुदा कर बोले। कार में लाल बहादुर शास्त्री थे। वे प्रो. डी.डी. शर्मा के खाली कर दिए गए क्वार्टर में ठहरे।
शास्त्रीजी का नाम सुनकर मुझे अंदर से कीड़े ने काटा कि उनका ऑटोग्राफ लिया जाए। उस वक्त शायद वे बिना विभाग के मंत्री थे। वे तैयार होकर अखबार और कुछ कागजात पढ़ रहे थे। मुझे बाहर सोफे पर बिठा दिया गया। बेहद विनम्र शास्त्रीजी मुखातिब हुए। मैंने उनसे विनम्रता में ऑटोग्राफ देने कहा। भारत का एक केन्द्रीय नेता कितना विनम्र था! उन्होंने ऊपर से नीचे मुझे देखते पूछा। किस कक्षा में पढ़ते हो। बीएससी फाइनल को एक बड़ी क्लास समझाते मैंने कहा। मैं गणित का विद्यार्थी हूं। विनम्रता में दूसरा हथियार दिखाया। वे बोले। आप तो काफी ऊंची कक्षा में हैं। इतना तो मैं नहीं पढ़ पाया। फिर धीरे से आजादी के आंदोलन की ओर इशारा करते पूछा। क्या आप खादी नहीं पहनते। मेरे इंकार करने पर वे समझाते हैं कि आप जैसे युवक अगर एक जोड़ी खादी के कपड़े ही पहनने लगें। तो खादी ग्राम उद्योग की काया पलट सकती है। पराजित होकर मैं कहता हूं। कि मैं खादी के कपड़े पहनकर आता हूं। तभी ऑटोग्राफ लूंगा। एक दोस्त से उधार लेकर बेंसली रोड/ मालवीय रोड के खादी भंडार से किसी तरह एक जोड़ी कुरता पाजामा का जुगाड़ करता हूं। हालांकि उस समय पूरी तरह फिट नहीं हुआ। शास्त्रीजी ने ऑटोग्राफ दिया। संयोगवश उसी समय उनके पास एक फोन आया। जो राजकुमार कॉलेज से नेहरूजी के किसी सहायक ने किया होगा। उन्होंने अपनी विनम्रता में लेकिन जवाब दिया कि नहीं नहीं मैं यहीं ठीक हूं। वहां बड़े-बड़े आदमियों के पास ठहकर मैं क्या करूंगा। यहां कोई तकलीफ नहीं है। फोन बंद हुआ। दुबारा फिर आया। उन्होंने फिर अपना उत्तर दोहराया। मुझे लगा अच्छा हुआ। मैंने खादी पहनने की उस व्यक्ति की बात मान ली जो व्यक्ति विनम्र दिखने पर भी नेहरूजी के आमंत्रण नहीं मांगता। मुझे याद है चंद्रभानु गुप्त उनकी गुजरती मोटर देखकर सिहर उठे थे। पता नहीं शास्त्रीजी क्या थे?
अपने हॉस्टल की जिम्मेदारियों के बावजूद मैं एकाध बार सम्मेलन में भाषण सुनने गया था। हालांकि सब कुछ भूल सा गया है कि कौन क्या बोला। नेहरूजी भाषण देने के बाद कॉलेज के अंदर की सडक़ से जीई रोड अर्थात नेशनल हाइवे की ओर खुली जीप पर बढ़ रहे थे। तो भीड़ के कारण जीप बहुत धीरे चल रही थी। टाइम्स ऑफ इंडिया का एक संवाददाता नेहरू से मुखातिब पीछे की ओर दौड़ता हुआ उनकी तस्वीर लेना चाहता था। लेकिन एक इंस्पेक्टर उसे धकिया देता था। एक जगह सघन नारेबाजी और फूलों के हार नेहरूजी की ओर फेंके जाने के करतब के कारण जीप खड़ी हो गई। तो उस पत्रकार ने लगभग चीखकर पुलिस के सबसे बड़े अधिकारी का नाम लेकर कहा। रूस्तम जी योर डॉग डज़ नॉट नो हाउ टू बिहेव विथ ए प्रेस मैन। (तुम्हारा श्वान नहीं जानता कि एक पत्रकार से किस तरह का सलूक करना चाहिए।) नेहरूजी के चले जाने के बाद उस पत्रकार ने मुझसे मदद मांगी थी कि मैं उसके लिए टैक्सी का प्रबंध कर दूं। ताकि वो शहर जा सके। उन दिनों के रायपुर में तत्काल टैक्सी की कहीं से भी सुविधा कहां थी? मैंने अपने एक परिचित को वहां देखकर उनके वाहन के जरिए उस पत्रकार को शहर की ओर रवाना कर दिया।
मुझे लगता है नेहरू जी रायपुर में दो दिन रुके थे और अधिवेशन तीसरे दिन समाप्त होने को था। यह तो कांग्रेस कमेटी के पास रेकॉर्ड होना चाहिए कि यह कौन सा सम्मेलन था। उसके स्थानीय पदाधिकारी कौन थे। किसकी क्या भूमिका थी। उस वक्त की सबसे बड़ी राष्ट्रीय पार्टी के पास अपना कोई विश्वस्त रेकॉर्ड तो होना चाहिए। मेरी सीमा अपने हॉस्टल और शास्त्रीजी की देखभाल तक सीमित थी। उस वक्त का एक युवा छात्र नेहरू समेत कांग्रेस के बड़े धाकड़ नेताओं से बेतकल्लुफ होकर मिलने की मानसिकता में कहां था? सुदीप ठाकुर की किताब में कुछ तथ्यपरक उल्लेख हैं। जो उन्होंने कई महत्वपूर्ण नेताओं से निजी बातचीत के बाद विस्तारित किए हैं। स्मरण शक्ति और तथ्यों के वेरिफिकेशरन की विश्वसनीयता तो होती है। बाकी कांग्रेस के कर्णधार जानें।
रायपुर कांग्रेस सम्मेलन के ठीक एक साल बाद मैं साइंस कॉलेज यूनियन का प्रेसिडेंट बना। तब नई दिल्ली के तालकटोरा गार्डन्स में आयोजित अंतरविश्वविद्यालयीन यूथ फेस्टिवल में वाद विवाद प्रतियोगिता में मैं स्वामी आत्मानंद के छोटे भाई और बाद में भूपेश बघेल के ससुर बने डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा के साथ हिस्सेदार था। उसी वक्त मैंने जवाहरलाल नेहरू से एक छोटा इंटरव्यू भी लिया था। छत्तीसगढ़ में यह भी बहुत प्रचारित किया गया है कि 1920 में गांधीजी पहली बार छत्तीसगढ़ में धमतरी और कंदेल ग्राम आए थे। इस संबंध में कोई विश्वसनीय साक्ष्य नहीं मिलता। लेकिन स्थानीय लोगों ने कई लेख लिखे हैं। पुरातत्वविद राहुल कुमार सिंह ने इस संबंध में बेहतर खोज की है। इतिहास के तथ्यों और वस्तुओं को सुरक्षित रखने में हमारी निर्ममता और अनदेखी है कि यह भी कांग्रेस कमेटी के पास नहीं है कि 1960 में क्या हुआ था, जबकि सरकार के स्तर पर भी तमाम तरह का सहयोग तो दिया ही गया था। वह भी तो सरकारी कागजों में कहीं न कहीं दर्ज होगा।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अब से लगभग 65 साल पहले मैंने इंदौर में एक आंदोलन चलाया था कि सारे दुकानदार अपने नामपट हिंदी में लगाएं। अंग्रेजी नामपट हटाएं। दुनिया के सिर्फ ऐसे देशों में दुकानों और मकानों के नामपट विदेशी भाषाओं में लिखे होते हैं, जो उन देशों के गुलाम रहे होते हैं। भारत को आजाद हुए 75 साल हो रहे हैं लेकिन भाषाई गुलामी ने हमारा पिंड नहीं छोड़ा है। जो हाल हमारा है, वही पाकिस्तान, श्रीलंका और म्यांमार का भी है। नेपाल, बांग्लादेश और अफगानिस्तान जैसे देशों में ऐसी गुलामी का असर काफी कम दिखाई पड़ता है।
इस मामले में पंजाब की आप पार्टी की सरकार ने कमाल कर दिया है। उसने अब यह नियम कल (21 फरवरी) से लागू कर दिया है कि दुकानों पर सारे नामपट पंजाबी भाषा में होंगे और सारी सरकारी वेबसाइट भी पंजाबी भाषा में होंगी। जो इस नियम का उल्लंघन करेगा, उसे 5 हजार रु. तक जुर्माना भरना पड़ेगा। इससे भी सख्त नियम महाराष्ट्र में लागू हैं। वहां नामपट यदि मराठी भाषा और देवनागरी लिपि में नहीं होंगे तो एक लाख रु. तक जुर्माना ठोका जा सकता है। तमिलनाडु में भी जुर्माने की व्यवस्था है। कर्नाटक में भी नामपटों को कन्नड़ भाषा में लिखने का आंदोलन जमकर चला है।
यदि सारे भारत के प्रांत इसी पद्धति का अनुकरण करें तो कितना अच्छा हो। सबके घरों और दुकानों पर नामपट मोटे-मोटे अक्षरों में अपनी प्रांतीय भाषाओं में हों और छोटे-छोटे अक्षरों में राष्ट्रीय संपर्क भाषा हिंदी में हों और यदि कोई किसी विदेशी भाषा में भी रखना चाहें तो रखें। यदि यह नियम सारे देश में लागू हो जाए तो एक-दूसरे की भाषा सीखना भी काफी सरल हो जाएगा। यदि पंजाब की आप सरकार इतनी हिम्मत दिखा रही है तो दिल्ली में केजरीवाल की सरकार भी यही पहल क्यों नहीं करती?
दिल्ली अगर सुधर गई तो उसका असर सारे देश पर होगा। हमारे सभी राजनीतिक दल आजकल वोट और नोट के चक्कर में पागल हुए हैं। उन्हें समाज-सुधार से कोई मतलब नहीं है। भाषा के सवाल पर कानून बनाने की जरूरत ही क्यों पड़ रही है? यह तो लोकप्रिय जन-आंदोलन बनना चाहिए। जैसे 5-7 साल पहले मैंने ‘‘स्वभाषा में हस्ताक्षर’’ अभियान चलाया था। अब तक लगभग 50 लाख लोगों ने अपने हस्ताक्षर अंग्रेजी से बदलकर स्वभाषाओं में करवा लिए हैं।
भारत के लोगों में स्वभाषा-प्रेम कम नहीं है लेकिन उसे जागृत करने का जिम्मा हमारे राजनीतिक दल और नेता लोग ले लें तो भारत को महाशक्ति बनने में देर नहीं लगेगी। दुर्भाग्य है कि हमारे साधु-संत, मौलवी और पादरी लोग भी भाषा के मुद्दे पर मौन रहते हैं। क्या उन सब पर मैं यह रहस्य उजागर करूं कि कोई भी राष्ट्र विदेशी भाषा के दम पर महाशक्ति नहीं बना है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-रोहित देवेन्द्र
‘हमारे पिता बहुत बड़े डायरेक्टर-प्रोड्यूसर थे। मैं बहुत बड़ा डायरेक्टर था। हमारे पास सक्सेजफुल फिल्म स्टूडियो था। बावजूद इसके हम अपने छोटे भाई को स्टार नहीं बना सके। मतलब साफ है कि जिसे पब्लिक नहीं पसंद करती उसे उस पर थोपा नहीं जा सकता’ यह बात आदित्य चोपड़ा अपने भाई उदय चोपड़ा के लिए कह रहे हैं। आदित्य ऐसी कई सारी बातें कहते हैं जो नई हैं। उससे नया यह है कि हम पहली बार उन्हें कैमरे पर कुछ कहता हुआ देख रहे हैं।
नेटफ्लिक्स पर 4 एपिसोड की एक मिनी सीरीज ‘द रोमांटिक्स’ के नाम से स्ट्रीम हुई है। उसे फिल्म कहें? यशराज फैमली पर बनी डाक्यूमेंट्री कहें या यशराज द्वारा खुद के पैसों से खुद की आरती उतारने का उपक्रम कहें। यह आप पर निर्भर करता है। इस मिनी वेब सीरीज में यश चोपड़ा की पहली फिल्म से लेकर यशराज बैनर की अंतिम फिल्म पठान तक पहुंचने की कहानी बताई गई है। इस बैनर से अब तक जो फिल्में आई हैं उनके पीछे के कुछ किस्से हैं। फिल्मों को चुनने के पीछे की फिलॉसफी है। कई दर्जन फिल्म स्टार्स के छोटे-छोटे इंटरव्यू हैं। इस पूरे कहानी को एक तरह से एंकर आदित्य चोपड़ा कर रहे हैं।
आदित्य ऐसे निर्माता-निर्देशक रहे हैं जो मीडिया फैमिलियर नहीं रहे हैं। मैंने उन्हें कभी इंटरव्यू देते नहीं देखा। एक प्रोड्यूसर की तरह फिल्म प्रमोट करते नहीं देखा। वीकेंशन की फोटो शेयर करते नहीं देखी। अपनी फिल्मों की एक्ट्रेसेस के साथ अफेयर की गॉसिप नहीं सुनी। रानी मुखर्जी के साथ नाम जुडऩे की गॉसिप से पहले शादी की तारीख आ गई थी। तो एक तरह से इस सीरीज का सबसे बड़ा हासिल आदित्य को बोलते हुए देखना है।
आदित्य एक बड़े और लोकप्रिय फिल्मी घराने के मालिक हैं। कई सारी सुपरहिट फिल्में खुद भी डायरेक्ट की हैं। सैकडों फिल्म स्टार्स को लॉन्च किया है। बहुत सारे निर्देशकों को पहले निर्देशक और फिर क्रिएटिव प्रोड्यूसर बनने के मौके दिए हैं। हिंदी सिनेमा के स्पॉट लाइट में खड़े उस व्यक्ति को देखते हुए अच्छा लगता है। सुनकर लगता है कि आदित्य के पास फिल्मों की मैथमेटिक्स, रसायन शास्त्र, समाजशास्त्र और मनोविज्ञान को समझने की बेहतर समझ है। कला की समझ तो है ही।
कई दफे यह एहसास हो सकता है कि यह खुद पर पुष्प वर्षा के लिए बनाई गई फिल्म है। लेकिन जब आप यशराज बैनर की फिल्मोग्राफी देखते हैं। सिनेमा को दिए गए उनके योगदान का वजन करते हैं तो पाते हैं कि थोड़ा शो ऑफ करना बनता है। फिल्म की एडीटिंग अच्छी की गई है। यशराज फिल्म के बहुत सारे गानों और दृश्यों को सही जगह यूज किया गया है।
किसी फिल्मकार की सफलता को बताने का यह थोड़ा महंगा और अमीरी वाला तरीका है। जावेद अख्तर ने जी के साथ मिलकर क्लासिक लीजेंड नाम का एक शो किया है। उसके कई सारे सीजन आ चुके हैं। जावेद उसमें जिस अधिकार से किसी फिल्ममेकर, एक्टर, गीतकार, संगीतकार के बारे में बताते हैं वह सुनकर सच सा लगता है।
सच यह डाक्यूमेंट्री भी लगती है लेकिन उतना सच यह भी है कि कई जगह यह सिर्फ आरती भी लगती है...
-डॉ. परिवेश मिश्रा
कांग्रेस पार्टी के रायपुर में होने वाले राष्ट्रीय अधिवेशन की इन दिनों बहुत चर्चा है। इससे पहले ऐसा ही अधिवेशन रायपुर में अक्टूबर 1960 में हुआ था। स्थान था साइंस कॉलेज का विशाल खेल मैदान।
साइंस कॉलेज नये विकसित हो रहे भिलाई के मार्ग पर शहर के छोर पर स्थित था। आसपास बसाहट नहीं थी। शहर की दिशा में कॉलेज कैम्पस की सीमा के सामने का हिस्सा आयुर्वेदिक कॉलेज से और पीछे का राजकुमार कॉलेज से जुड़ा था। राजकुमार कालेज की सीमा पर एक गेट था जो उपयोग में न होने के कारण बंद रखा जाता था। इसे कॉलेज का पूर्वी गेट कहते थे। शहर की ओर एक पश्चिमी गेट भी था। दरअसल इन दोनों गेट के बीच में बंद हो चुकी सडक़ का वह हिस्सा था जिसे अंग्रेज़ ‘द ग्रेट ईस्टर्न रोड’ कहते थे।
1817 में नागपुर में मुधोजी राव भोंसले और अंग्रेज़ों के बीच हुए युद्ध हुआ था। लोकमान्यता के अनुसार इस स्थान का नामकरण सत्रहवीं सदी में रहे यहां के दो यदुवंशी शासकों शीतला प्रसाद और बद्रीप्रसाद ग्वाली की याद में शीतलाबद्री किया गया था किन्तु अंग्रेज़ी भाषा में इस लड़ाई को ‘बैटल ऑफ़ सीताबर्डी’ के रूप में याद किया जाता है।
इस युद्ध के बाद नागपुर से दस मील दूर कामठी में एक छावनी बनाकर फ़ौज को रखा गया। कुछ सालों के बाद इस फ़ौज के एक हिस्से को जबलपुर और दूसरे को सम्बलपुर की ओर रवाना किया गया। सम्बलपुर की ओर मार्च करने वाली फ़ौज के कदमों के साथ साथ सदियों में उपयोग में आ रहे मार्ग ने ‘द ग्रेट ईस्टर्न रोड’ के रूप में अवतार लेना शुरू कर दिया था।
इसी ग्रेट ईस्टर्न रोड के हिस्से पर मुझे पण्डित जवाहर लाल नेहरू को पहली बार देखने और गुलाब का फूल पकड़ाने का अवसर मिला था। 1960 के कांग्रेस अधिवेशन के दौरान वे राजकुमार कॉलेज के प्रिंसिपल (श्री रघुराज सिंह) के आवास में रह रहे थे। कॉलेज का पूर्वी गेट खोल दिया गया था और उसी से निकल कर कर वे खुली गाड़ी में रास्ते के किनारे बच्चों का अभिवादन स्वीकार करते हुए अधिवेशन स्थल पर आना जाना करते थे। मेरा घर पुराने ग्रेट ईस्टर्न रोड के उस छोटे से हिस्से के किनारे था जो तब तक साइंस कॉलेज कैम्पस का हिस्सा बन चुका था।
ये सारी बातें याद आयीं जब श्री सुदीप ठाकुर की लिखी बेहतरीन पुस्तक ‘लाल श्याम शाह : एक आदिवासी की कहानी’ में इस अधिवेशन के बारे में पढ़ा और जाना कि मेरे साथ साथ हजारों आदिवासी भी उनमें शामिल थे जो नेहरू को पहली बार देख सुन रहे थे। कोई तीस-चालीस हजार आदिवासी छत्तीसगढ़, विदर्भ, और उड़ीसा के बड़े दायरे से निकलकर अलग अलग जत्थों में पैदल चलते हुए रायपुर पहुंचे थे।
सुदीप ठाकुर लिखते हैं ‘क्या बड़े क्या महिलाएं और क्या बच्चे, गाते-बजाते सब चल पड़े थे....सिर्फ पैदल चलते जाना और कहीं रास्ते में खाना बनाने के लिए रुक जाना...... देश के मध्य भाग में घने जंगलों के बीच से होकर गुजरने वाली आदिवासियों की इस यात्रा को दर्ज करने के लिए तब कोई पत्रकार या इतिहासकार मौजूद नहीं था। छह दशक पहले छत्तीसगढ़ का यह हिस्सा घने जंगलों से घिरा था। सडक़ों का विस्तार नहीं हुआ था। बताते हैं जिन रास्तों से दिन रात चलने वाले आदिवासियों के जत्थे निकले, सुबह लोगों ने देखा वहां पैरों से कुचलकर सांप-बिच्छू तक मरे पड़े हैं।’
श्री सुदीप ठाकुर की यह पुस्तक मेरे पास काफ़ी पहले आ चुकी थी। मुझे अफ़सोस यही है कि इसे पढऩे में मैंने इतना समय क्यों लगा दिया। शीर्षक से भ्रम हुआ था कि पुस्तक व्यक्ति केन्द्रित होगी। व्यक्ति केन्द्रित तो यह बेशक है। किन्तु केन्द्र का दायरा इतना व्यापक है कि इतिहास का बहुत बड़ा - महत्वपूर्ण और रोचक - हिस्सा इसमें समाया हुआ है।
कथा नायक लाल श्याम शाह राजकुमार कॉलेज में शिक्षा प्राप्त गोड़ ज़मींदार भी थे और विधानसभा और लोकसभा के सदस्य भी रह चुके थे। हस्ताक्षर में अपने नाम के साथ वे बहुधा ‘आदिवासी’ लिखते थे। भारत के विशाल मध्य भाग के रहने वाले आदिवासियों का उन्हे अपार स्नेह, प्रेम और विश्वास प्राप्त हुआ था। लोग उन्हे लाल श्याम शाह महाराज कहते थे। और उन्होंने अपने आप को आदिवासियों की हित-रक्षा के संघर्ष में झोंक दिया था।
आदिवासियों को आज़ाद भारत में न्याय पूर्ण जीवन जीने का अधिकार दिलाने के लिये लाल श्याम शाह के द्वारा किये गये संघर्षों को बताने के साथ साथ श्री सुदीप ठाकुर उन अन्यायों का विस्तार से वर्णन करते हैं जिनसे आदिवासियों को मुक्ति दिलाना उनके संघर्ष के मूल कारण बने थे। और इस बहाने बेहद रोचक शैली में वे अनेक नयी जानकारियों को सामने ले आते हैं।
भारत के अधिकांश घने जंगल इसी मध्य भाग में थे। आज़ादी से पहले तक ये जंगल राजाओं और ज़मींदारों के नियंत्रण में थे। आज़ादी के बाद खेत तो उन पर काबिज़ किसानों के हो गये किन्तु खेत की मेढ़ों के अलावा आस पास की खुली भूमि पर लगे बेशकीमती वृक्षों की मिल्कियत पर किसी का ध्यान नहीं गया था। यह वह दौर था जब ‘मालिक-मकबूजा’ शब्द का इस्तेमाल रातों रात बढ़ गया था। मान लिया गया कि जिसकी ज़मीन है वही वृक्ष का मालिक भी है। सैकड़ों हजारों रुपयों के मूल्य वाले वृक्ष आदिवासियों से कौडिय़ों के भाव खरीद कर रातों रात काट लिये गये। यही वह काल था जब उत्तर भारत से अनेक ऐसे परिवारों का छत्तीसगढ़ आगमन हुआ जो सिर्फ लकड़ी का कारोबार करने आये थे और फिर यही बस गये। सुदीप ठाकुर बस्तर की एक घटना लिखते हैं जिसमें एक आदिवासी ने अपनी ज़मीन के विशाल वृक्ष बेचने के लिए सहमति दे दी। कीमत के रूप में ठेकेदार ने उसे तथा उसकी बेटियों को रायपुर लाकर सिनेमा दिखाया था। अंतत: 1956 में कानून बना और बिना कलेक्टर की अनुमति के वृक्ष कटाई पर रोक लगी।
मालिक मकबूजा से जुड़ा इतिहास का यह महत्वपूर्ण अध्याय पुस्तक में वर्णित है क्योंकि इसके तार लाल श्याम शाह से सीधे जुड़े थे। 1956 के आदेश यूं ही सामने नहीं आये थे। सरकार का इस ओर ध्यान आकर्षित करने के लिए लाल श्याम शाह को अपनी विधान सभा सदस्यता से इस्तीफा देना पड़ा था।
1960 के कांग्रेस अधिवेशन के दौरान हजारों आदिवासियों को पैदल मार्च का आह्वान कर रायपुर बुलाने के पीछे भी लाल श्याम शाह का उद्देश्य ज्ञापन देकर पण्डित जवाहर लाल नेहरू का ध्यान आदिवासियों की समस्याओं की ओर आकृष्ट करना ही था।
1956 में राज्य पुनर्गठन हुआ और विदर्भ का हिस्सा छत्तीसगढ़ के हिस्से से अलग हो गया। एक झटके में छत्तीसगढ़ के किसानों के लिये बैलगाडिय़ों में लादकर गोंदिया, भण्डारा जैसे स्थानों में ले जाकर धान और चावल बेचने का काम अवैध घोषित हो गया।
इस तरह के तमाम वे मुद्दे हैं जो आज विस्मृत हो चुके हैं किन्तु उस काल में गांवों और जंगलों में रहने वाले लोगों के लिए बहुत महत्वपूर्ण विषय थे। इन सब ने सतत रूप से लाल श्याम शाह को आंदोलन के लिए मजबूर किया। इन सब की पृष्ठभूमि में एक विषय जो पुस्तक में बार बार आता है वह है इस मध्य भाग के निवासियों के लिये छत्तीसगढ़ (या गोंडवाना) के रूप एक अलग राज्य की आवश्यकता का जिसके लिए मांग की प्रभावी शुरुआत करने वाले व्यक्तियों में लाल श्याम शाह अग्रणी थे।
पुस्तक लिखने में श्री सुदीप ठाकुर ने जितना गहन रिसर्च किया है, सरकारी दस्तावेजों, किताबों और रिपोर्टिंग्स को खंगाला है, जितने लोगों से साक्षात्कार किया है, यह सब हर पन्ने पर नजऱ आता है। पुस्तक की प्रस्तावना में मशहूर इतिहासकार और लेखक रामचंद्र गुहा लिखते हैं ‘बहुत सावधानीपूर्वक किये गये शोध के साथ बहुत प्यारे ढंग से लिखी गयी यह किताब एक असाधारण भारतीय को एक बेहतरीन श्रद्धांजलि है’।
-ध्रुव गुप्त
मनचाहा प्यार, वशीकरण, पारिवारिक कलह, सौतन से मुक्ति, मुकदमे में जीत, गुप्त खजाने के लिए संपर्क करें फलां बाबा से। सफलता की सौ प्रतिशत गारंटी। ऐसे विज्ञापन अखबारों के वर्गीकृत विज्ञापनों और स्थानीय टीवी चैनलों पर अक्सर दिखाई दे जाते हैं।
ऐसा ही एक विज्ञापन देख एक दिन ख्याल आया कि क्यों न आज किसी बाबा से थोड़ा-बहुत मनोरंजन कर लिया जाय। एक तंत्र सम्राट को चुनकर मैंने नंबर डायल कर दिया। उधर से बड़ी मुलायम आवाज आई- ‘क्या चाहिए बच्चा?’ मैंने कहा- ‘आप सर्वज्ञाता हैं, बाबा। मेरी समस्या आप खुद समझ लें। मुझे कहने में संकोच हो रहा है।’ बाबा हंसे- ‘मनचाहा प्यार?’ मेरे हां कहने पर बाबा ने मेरी उम्र और वैवाहिक स्थिति पूछी। मैंने अपनी असली उम्र बताते हुए कहा- ‘बीवी के दिन-रात के झगड़ों से परेशान हूं। शादी तो मुझे नहीं करनी, लेकिन कहीं से थोड़ा प्यार मिल जाय तो मेरा आगे का जीवन आसान हो। क्या इस उम्र में मनचाहा प्यार पाने की कोई गुंजाइश बची है, बाबा?’ बाबा ने कहा- ‘तुम्हारी उम्र को देखते हुए काम मुश्किल है। मुझे लंबी और कठिन तांत्रिक साधना करनी होगी। बहुत सारी सामग्री लगेगी। तीस-चालीस हजार का खर्च बैठेगा।’ बड़ी मिन्नतों के बाद यह सौदा बीस हज़ार पर आकर फाइनल हुआ।
बाबा ने कहा- ‘तत्काल सरसो के कुछ दाने लो और 10 दिनों में एक लाख’? हूं ‘मंत्र से सिद्ध कर रख लो। तुम्हारे पैसे मिल जाने के बाद मेरी साधना शुरू होगी। उसके बाद वह मंत्रसिद्ध सरसो तुम जिसके सिर पर डाल दोगे, वह चौबीस घंटों में तुम्हारे पीछे दौड़ी आएगी। काम न हुआ तो पैसे वापसी की फुल गारंटी।’ मैंने कहा- ‘बाबा रिटायर्ड आदमी हूं।
20 हजार का बड़ा जुआ खेलने में थोड़ा डर लगता है। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि आप पहले मेरा काम करा दो, पैसे मैं काम होते ही दे दूंगा। मेरी तरफ से भी फुल गारंटी है।’
गुस्साए बाबा ने शुद्ध उर्दू में मुझे पांच-दस श्राप देकर फोन काट दिया। अगले दिन मैंने एक दूसरे नंबर से फोन लगाकर बाबा को शुद्ध भोजपुरी में दस-बीस गालियां दीं और कहा कि आपका नंबर अब पुलिस के पास है। मेरा मनचाहा प्यार आपने नहीं दिलाया, अब आप अनचाहे पुलिसिया रोमांस के लिए तैयार रहिए!
पिछले कई दिनों से बाबा का नंबर बंद है।
-प्रकाश दुबे
बाबा वेलेंटाइन के भक्तों को भिगोता पूर्वोत्तर में बहार का सप्ताह आरंभ हुआ। गौरा के साथ नटराज महाशिवरात्रि बूटी प्रसादी बांटने आ पहुंचे। जुडऩे और जी जुड़ाने के मौसम में कामरूप में सूर्योदय के साथ अनोखा ऐलान हुआ-आप सबको प्रेम के त्यौहार वेलेंटाइन दिवस की शुभकामना। अवयस्क रिश्तेदारों की विवाह बाद गिरफ्तारी के बाद घबराए यात्रियों के चेहरों पर भी मुस्कान पुत गई। विमान यात्रियों को देशभक्तों की सूचना दी जाती है। 1857 के सेनानायक तात्या टोपे की जयंती पर श्रद्धांजलि देते हुए बताया गया- फिरंगियों की मदद कर रहे सिंधिया के ग्वालियर इलाके पर तात्या टोपे ने कब्जा कर लिया था। गोरिल्ला युद्ध विशेषज्ञ तात्या टोपे के बारे में हवाई अड्डों पर जारी घोषणाओं की नागरिक उड्डयन मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया को जानकारी भले न हो, विमानतल पर उनकी होर्डिंग कंपकंपाई होगी। होर्डिंग में मुस्कराते मंत्री माल ढुलाई यानी कार्गो कार्यालय खुलने पर पूर्वोत्तर की जनता को बधाई देते नजऱ आ रहे थे। अरुणाचल, मिजोरम 20 फरवरी को राज्य बने।
तिथि और मुहूर्त का अमृत बाजार
अंक गणित में प्रधानमंत्री को अच्छे नंबर मिलते थे या ममता बनर्जी को? हो सकता है, इस जानकारी के आड़े राष्ट्रीय गोपनीयता कानून डंडा लेकर खड़ा हो। आंकड़ों के खेल में दोनों अंकशास्त्रियों को मात देते हैं। दोनों के जासूस एक दूसरे की शतरंजी चाल पर बारीक नजऱ रखते हैं। प्रधानमंत्री कार्यालय की पहल के कारण 16 फरवरी से आदि महोत्सव शरू हुआ। वह भी राजीव गांधी के नामपट्ट पोत कर हाकी के जादूगर ध्यानचंद को समर्पित स्टेडियम में। विधानसभा चुनाव और 2024 की लोकसभा तैयारी में इसका महत्व समझते हुए देश के दूरदराज इलाकों से जनजातीय कारीगर, उद्योजक, कलाकार, पाक विशेषज्ञ बुलाए गए हैं। मुख्यमंत्री ममता ने उसी दिन पश्चिम बंगाल के जंगलमहल क्षेत्र में बांकुरा में जल धरो, जल भरो योजना में चार सौ पोखर सहित चार अरब रुपए की योजनाएं शुरु कीं। पश्चिम मेदिनीपुर में सात सौ करोड़ लागत वाली 96 योजनाएं पहले ही शुरु की जा चुकी हैं। वर्ष 2019 में जंगल महल की सारी लोकसभा सीटें प्रधानमंत्री की पार्टी के पास चली गई थीं। ममता उनकी वापसी चाहती हैं। अमृत बाजार पत्रिका का स्थापना दिवस
स सडक़ का
डॉ. टी आर पारिवेंदर को संसद में भले लोकसभा सदस्य के रूप में जाना जाता हो, उनकी असली पहचान शिक्षाशास्त्री की है। तमिलनाडु के एस आर एम विज्ञान और प्रौद्योगिकी संस्थान को विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने विश्वविद्यालय के समकक्ष मान्यता दी है। पेरम्बलूर से चुनाव लड़ते समय संस्थापक-कुलपति पारिवेंदर ने जरूरतमंद विद्यार्थियों को मुफ्त शिक्षा देने का वादा किया था। हर बरस तीन सौ विद्यार्थी के हिसाब से आंकड़ा हजार के आसपास है। बर्मिंघम विवि से मानद डाक्टरेट पाने वाले सांसद पारिवेंदर ने विशेष दीक्षांत समारोह में गाजियाबाद केंपस में राष्ट्रीय राजमार्ग और सडक़ परिवहन मंत्री नितीन गडकरी को मानद डाक्टरेट से विभूषित किया। उसी दिन केन्द्रीय सहकारिता मंत्री अमित शाह ने चीनी मिल में इथानाल संयंत्र का शिलान्यास किया। हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल ने अमित भाई की मौजूदगी और प्रधानमंत्री की तस्वीरों से काम चलाया। पानीपत से मराठे वापस लौटते हैं। इथानाल के लिए अभियान चलाने वाले गडकरी समारोह से करीब सौ किलोमीटर दूरी पर थे। प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की ऐतिहासिक लाहौर बस यात्रा का दिन।
नन्हे मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है
राजनीति में डिग्री के बजाय फब्तियां सहने के लिए गैंडे के लिए गैंडे की चमड़ी अधिक मूल्यवान होती है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के खुराफात करने की अतिरिक्त योग्यता है। उन्होंने सूचना अधिकार के अंतर्गत गुजरात विश्वविद्यालय से प्रधानमंत्री की स्नातकोत्तर डिग्री मांगी। 1983 में दी गई एम ए की कथित डिग्री देने का निर्देश दिया गया, यह पहला अचम्भा। गुजरात में लंबे समय पत्रकारिता कर चुके उदय माहोरकर इन दिनों केन्द्रीय सूचना सलाहकार हैं। वे ही बता सकते थे। दूसरा अचम्भा यह, कि गर्वीले गुजरात के दिल्ली जा बसे सालिसिटर जनरल तुषार मेहता गुजरात उच्च न्यायालय में विवि की तरफ से जिरह करने पहुंचे। तुषार भाई ने दलील दी, उस पर किसी को अचम्भा नहीं हुआ। उन्होंने सवाल किया-केजरीवाल कहते हैं कि मैं अपनी डिग्री दिखाता हूं। प्रधानमंत्री अपनी दिखाएं। बचकानेपन भरी उत्सुकता की खातिर सूचना के अधिकार का उपयोग किया जा सकता है? इससे कौन सा सार्वजनिक हित सधेगा? बात में दम है। तभी सारी दलीलें सुनने के बाद उच्च न्यायालय ने कहा-फैसला बाद में सुनाएंगे।
ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली ने 1947 में 20 फरवरी को भारत आजाद करने की घोषणा की थी। आजादी मिली-15 अगस्त को।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन की यूक्रेन-यात्रा ने सारी दुनिया को आश्चर्यचकित कर दिया है। वैसे पहले भी कई अमेरिकी राष्ट्रपति जैसे जार्ज बुश, बराक ओबामा और डोनाल्ड ट्रंप इराक और अफगानिस्तान में गए हैं लेकिन उस समय तक इन देशों में अमेरिकी फौजों का वर्चस्व कायम हो चुका था लेकिन यूक्रेन में न तो अमेरिकी फौजें हैं और न ही वहां युद्ध बंद हुआ है। वहां अभी रूसी हमला जारी है। दोनों देशों के डेढ़ लाख से ज्यादा सैनिक मर चुके हैं। हजारों मकान ढह चुके हैं और लाखों लोग देश छोड़कर परदेश भागे चले जा रहे हैं। यूक्रेन फिर भी रूस के सामने डटा हुआ है। आत्म-समर्पण नहीं कर रहा है।
इसका मूल कारण अमेरिका का यूक्रेन को खुला समर्थन है। अमेरिका के समर्थन का अर्थ यही नहीं है कि अमेरिका सिर्फ डालर और हथियार यूक्रेन को दे रहा है, उसकी पहल पर यूरोप के 27 नाटो राष्ट्र भी यूक्रेन की रक्षा के लिए कमर कसे हुए हैं। बाइडेन तो युद्ध शुरु होने के साल भर बाद यूक्रेन पहुंचे हैं लेकिन फ्रांस के राष्ट्रपति इम्नुएल मेक्रों, जर्मन चासंलर ओलफ शुल्ज, कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन त्रूदो और ब्रिटेन के प्रधानमंत्री जाॅनसन और ऋषि सुनाक भी यूक्रेन की राजधानी कीव जाकर वोलोदोमीर झेलेंस्की की पीठ थपथपाए हैं।
राष्ट्रपति बाइडन का कीव पहुंचना इसलिए भी आश्चर्यजनक रहा कि इस समय रूसी हमला बहुत जोरों पर है और बाइडन के जीवन को कोई भी खतरा हो सकता था। इसीलिए यह यात्रा बिल्कुल गोपनीय रही लेकिन अमेरिकी शासन ने यात्रा के कुछ घंटे पहले मास्को को चेताया कि बाइडन कीव जा रहे हैं ताकि इस युद्ध को समाप्त किया जा सके। लेकिन बाइडन ने वहां जाकर क्या किया?
झेलेंस्की की पीठ ठोकी और 500 मिलियन डालर के हथियार और सौंप दिए। इसके अलावा उन्होंने रूस और चीन को चेतावानियां दे डालीं। अमेरिकी प्रवक्ता ने चीन पर आरोप लगाया कि वह रूस को हथियार सप्लाय कर रहा है। चीन ने इस आरोप को रद्द कर दिया और अमेरिका से कहा कि वह यूक्रेन को भड़काने की बजाए समझाने का काम करे।
अमेरिका के भी कुछ रिपब्लिकन नेता बाइडन की नीतियों को गलत बता चुके हैं। मुझे संदेह है कि बाइडन ने झेलेंस्की को कोई ऐसे सुझाव दिए होंगे, जिनसे यह युद्ध बंद हो सके। वास्तव में विश्व महाशक्ति बनते हुए चीन से अमेरिका ने ऐसा पंगा ले रखा है कि वह इस युद्ध को चलते रहना ही देखना चाहता है। इससे अमेरिका का शास्त्रास्त्र उद्योग भी परम प्रसन्न रहता है। इस मौके पर भारत की भूमिका बेजोड़ हो सकती है, लेकिन भारत के पास उस स्तर का कोई नेता या कोई कूटनीतिज्ञ होना जरूरी है। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कांग्रेस पार्टी का वृहद अधिवेशन रायपुर में होने जा रहा है। इसमें कांग्रेस कमेटी के 1800 सदस्य और लगभग 15 हजार प्रतिनिधि भाग लेंगे। इस अधिवेशन में 2024 के आम चुनाव की रणनीति तय होगी। इस रणनीति का पहला बिंदु यही है कि कांग्रेस और बाकी सभी विरोधी दल एक होकर भाजपा का विरोध करें, जैसा कि 1967 के आम चुनाव में डाॅ. राममनोहर लोहिया की पहल पर हुआ था। उस समय सभी कांग्रेस-विरोधी दल एक हो गए थे। न तो नेताओं की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं आड़े आईं और न ही विचारधारा की बाधाएँ खड़ी हुईं। इस एकता को कुछ राज्यों में सफलता जरूर मिल गई लेकिन वे सरकारें कितने दिन टिकीं। यह अनुभव 1977 में भी हुआ, जब आपात्काल के बाद मोरारजी देसाई और चरणसिंह की सरकारें बनीं। इससे भी कटु हादसा हुआ, विश्वनाथ प्रतापसिंह और चंद्रशेखर की सरकारों के दिनों में। विरोधी दलों की इस अस्वाभाविक एकता के दुष्परिणाम इतने कष्टदायी रहे हैं कि भारत की जनता क्या इस कृत्रिम एकता से 2024 में प्रभावित होकर मोदी को अपदस्थ करना चाहेगी?
इसके अलावा पिछले गठबंधनों के समय आपात्काल और बोफोर्स ने जैसी भूमिका अदा की थी, वैसा कोई मुद्दा अभी तक विपक्ष के हाथ नहीं लगा है। जहां तक अडानी के मामले का प्रश्न है, विपक्ष उसे अभी तक बोफोर्स का रूप नहीं दे पाया है। इसके अलावा आज विपक्ष के पास न तो लोहिया, न जयप्रकाश या चंद्रशेखर या वी.पी. सिंह जैसा कोई नेता है। नीतीश में वह संभावना थोड़ी-बहुत जरूर है लेकिन कांग्रेस अपने सामने किसी को भी क्यों टिकने देगी? उसके लिए तो राहुल गांधी ही सबसे बड़ा नेता है। लेकिन देश का कोई भी महत्वपूर्ण राष्ट्रीय या प्रांतीय पार्टी राहुल को नेता मानने के लिए तैयार नहीं है। राहुल ने भारत-जोड़ो यात्रा के द्वारा थोड़ा-बहुत आत्म-शिक्षण जरूर किया है लेकिन कांग्रेस के कार्यकर्त्ताओं के मन में भी राहुल को लेकर दुविधा है।
कांग्रेसी नेता जयराम रमेश का यह कहना बिल्कुल ठीक है कि कांग्रेस के बिना विपक्ष की एकता संभव ही नहीं है, क्योंकि आज भी देश के हर शहर और हर गांव में कांग्रेसी कार्यकर्त्ता सक्रिय हैं। मोदी सरकार चाहे देश में कोई क्रांतिकारी और बुनियादी परिवर्तन अभी तक नहीं कर सकी है लेकिन उसने अभी भी देश की जनता के मन पर अपना सिक्का जमा रखा है। कांग्रेस जैसी महान पार्टी का दुर्भाग्य यह है कि उसके पास न तो आज कोई सक्षम नेता है और न ही कोई आकर्षक नीति है। उसके पास ‘गरीबी हटाओ’ जैसा कोई फर्जी नारा तक नहीं है। कांग्रेस में अनुभवी नेताओं की कमी नहीं है लेकिन यदि कांग्रेस के असली मालिक खुद को थोड़ा पीछे हटा लें, अपने आप को मार्गदर्शक की भूमिका में डाल लें, पार्टी में आतंरिक लोकतंत्र ले आएं और अनुभवी नेताओं को पार्टी की कमान सौंप दें और वे वैकल्पिक रणनीति तैयार कर लें तो इस बार कांग्रेस खत्म होने से बच सकती है। (नया इंडिया की अनुमति से)