विचार / लेख

इसलिए छूटने का शोक न करें....
27-Feb-2023 11:52 AM
इसलिए छूटने का शोक न करें....

-दिनेश श्रीनेत
जो अनुपस्थित है हम उसका शोक करते हैं। 

लेकिन कई बार खालीपन हमें भरता भी है। मृत्यु बिछोह का शोक तो देती है मगर स्मृतियों से हमें भर भी देती है। अपने न होने में कोई शख़्स कई बार तमाम जगहों पर मौज़ूद मिलता है। 

किसी का होना सिर्फ उसके अस्तित्व का हिस्सा नहीं होता, बहुधा वह हमारे भी अस्तित्व का हिस्सा बन जाता है। 

जब हम घर बदलते हैं तो फर्नीचर से भरा कमरा जब खाली होता तो उस खालीपन में भी कुछ होना मौजूद होता है। 

अनुपस्थित की उपस्थिति ही हमारे जीवन में रंग भरती है। इसलिए अनुपस्थिति का शोक तो रहेगा मगर उसकी सकारात्मक ऊर्जा को भी हमें अपने भीतर भर लेना चाहिए। 

यादें सिर्फ कचोटती नहीं, यादें हमें भीतर से शीतल भी करती हैं। हमारे मन के घावों को भरती हैं। जब हम किसी खाली कमरे में प्रवेश करते हैं तो भीतर से भी खाली हो जाते हैं। भीतर से खाली हो जाना इतना आसान नहीं है। 

विरक्ति दुनिया से भागना नहीं है, विरक्ति अपने बोझ को एक-एक करते उतारते जाना है। हल्का हो जाना है तमाम तरह के भार से, थोड़ी हवा का अपने चेहरे पर स्पर्श पाना है, थोड़ी सांस गहरी लेनी है और थोड़ा नसों में दौड़ते रक्त का संचार महसूस करना है। 
इसलिए जिन बातों में से हम घबराते या कतराते हैं, सबसे पहले उनके साथ सहज हो जाना चाहिए। 

बिछोह या खोना दु:ख नहीं है, दु:ख तो अपने भीतर का अंतर्द्वंद्व है। खुद के भीतर एक-दूसरे को काटते विरोधी विचार हैं। 

प्रेम और मोह की टकराहट है। प्रेम मुक्त करता है और मोह बांधता है, किसी और को नहीं आप खुद ही मोह की डोरियों से बंधते चले जाते हैं। 

कोई जाता है तो आपको पीड़ा होती है, क्योंकि वह आपके लहू-त्वचा का अंश अपने साथ लेकर जा रहा है। आपके भीतर कुछ टूटकर उसके साथ जा रहा है। अच्छा तो यह हो कि वो ऐसे जाए जैसे पत्ते से पानी की बूंद सरकती है। 

किसी के साथ रहकर, किन्हीं हालातों में रहकर- खुद को निर्दोष रख पाना सबसे बड़ी चुनौती है। अगर यह साध लिया तो हम मुक्त हैं। दरअसल खुद का मुक्त होना दूसरों की मुक्ति में है। 

'जाने देना' निर्मोही होना नहीं है बल्कि बल्कि यह ऐसा प्रेम है जिसमें सामने वाले को अपना जीवन जीने की आज़ादी देना और उसे मुक्त करना शामिल है। 

हमें लगता है कि सब कुछ हम तय कर सकते हैं, जबकि हम यह भूल जाते हैं कि खुद अपने जीवन की तमाम छोटी-बड़ी बातें हमने तय नहीं कीं। 

जो हुआ वह अनजाने ही घटित होता चला गया और हम अघटित के लिए खुद को तैयार करते, संवारते रहे। 

लेकिन हमारे सोचने से न तो दुनिया चली और न ही हम चल सके। हमें लगा कि हमारे पास चयन था, जबकि हमारे पास अधिक से अधिक सिर्फ विकल्प थे।
 
विकल्पों को चुनना भी हमारे हाथ में नहीं था, तर्कसंगत नहीं था, बस हमें चलते जाना था तो विकल्पों को भी चुनते जाना था। 

इसलिए छूटने का शोक न करें, न अपनी उदासियों को दबाएं। उनके साथ जीएं। ट्रेन से छूटते स्टेशन को देखें और साथियों को हाथ हिलाकर विदा करें। 

उनका हाथ हिलाते हुए दूर छूटते जाना आपको अकेला नहीं करता है, आपको ज्यादा मानवीय, ज्यादा उदात्त बनाता है। अपने खालीपन और अकेलेपन की जगर-मगर रोशनी से ही खुद को भर लें। 

जैसा नीला आकाश अपनी रिक्तता से भरा है।

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