विचार / लेख
आशुतोष भारद्वाज
गांधी ब्रह्मचर्य के तेरहवें वर्ष में थे, उम्र का पचासवां वर्ष था, जब उन्हें अपनी हमउम्र सरलादेवी चौधरानी से प्रेम हुआ। सभी नियमों को चीरता हुआ। दोनों ने एक-दूसरे को गहन प्रेम में डूबे खत लिखे, गांधी ने उन्हें अपनी ‘आध्यात्मिक पत्नी’ कहा, उनके लेख ‘यंग इंडिया’ में प्रमुखता से प्रकाशित किये। यह संसर्ग दैहिक मिलन की कगार पर जा ठहरा कि गांधी के सहकर्मी कांग्रेसी नेताओं ने उन्हें यह समझा पीछे खींच लिया कि यह संबंध न सिफऱ् गांधी बल्कि समूचे स्वतंत्रता संग्राम को शर्मसार कर सकता है।
गांधी पीछे हट गये। कुछ समय बाद उन्होंने सत्य के साथ अपने प्रयोगों पर आत्मकथा लिखी, अपने जीवन के तमाम अंतरंग क्षणों को लिख दिया, विफलताओं और ग्लानियों को साहसपूर्वक स्वीकार किया लेकिन सरलादेवी के साथ अपना हालिया प्रेम छुपा ले गये। वह महात्मा जिसने अपने सार्वजनिक और निजी जीवन में कोई फर्क नहीं किया, जिसने अपना प्रत्येक कर्म सूर्य के प्रकाश को समर्पित किया, वह इस प्रेम को क्यों न लिख सका?
इसकी कई व्याख्यायें हो सकती हैं। पहली, गांधी में शायद साहस न था कि अपने विवाहेत्तर प्रेम को लिख पाते। कस्तूरबा के प्रति अपनी कामना को लिखना आसान था, सरलादेवी के प्रति कामेच्छा को लिखना नहीं। दूसरी, गांधी को लगा कि उनका व्यक्तिगत प्रेम उस राष्ट्र से कहीं कमतर है जिसका नेतृत्व वे कर रहे थे। अगर उनके किसी सार्वजनिक स्वीकार से राष्ट्रीय आन्दोलन को क्षति पहुँचती है, तो उससे बचा जा सकता है।
या शायद गांधी को अपने आप पर, अपने प्रेम पर भरोसा न था। उन्हें शायद एहसास होने लगा था कि जिस भाव को हम अक्सर प्रेम घोषित करते हैं, वह अतिरेक और अतिश्योक्ति से निर्मित होता है, कि दरअसल कई बार औदात्य की आड़ में प्रेम दूसरे पर ईर्ष्यालु एकाधिकार चाहता है, कि विचारधारा के झंडे तले हुई हिंसा की तरह प्रेम के नाम पर हुई क्रूरता का आक्रांता को बोध नहीं होता, कि प्रेम की घोषणायें करते वक्त हम ख़ुद को धीमे-से फुसलाते हैं, अपनी चेतना को सुला देते हैं, इस उम्मीद में कि हम शब्दों से अपना समर्पण साबित कर देंगे जिसके लिये हम सर्वथा अयोग्य थे।
क्योंकि महान प्रेम-पत्र भी उन्हीं शब्दों से रचे जाते हैं, जिनके सहारे हमने अपने पिछले प्रेम को चुपचाप छला था।