विचार / लेख

एक आदिवासी के साथ-साथ चलती छत्तीसगढ़ और मध्य भारत की कहानी
22-Feb-2023 4:20 PM
एक आदिवासी के साथ-साथ चलती छत्तीसगढ़ और मध्य भारत की कहानी

-डॉ. परिवेश मिश्रा
कांग्रेस पार्टी के रायपुर में होने वाले राष्ट्रीय अधिवेशन की इन दिनों बहुत चर्चा है। इससे पहले ऐसा ही अधिवेशन रायपुर में अक्टूबर 1960 में हुआ था। स्थान था साइंस कॉलेज का विशाल खेल मैदान।

साइंस कॉलेज नये विकसित हो रहे भिलाई के मार्ग पर शहर के छोर पर स्थित था। आसपास बसाहट नहीं थी। शहर की दिशा में कॉलेज कैम्पस की सीमा के सामने का हिस्सा आयुर्वेदिक कॉलेज से और पीछे का राजकुमार कॉलेज से जुड़ा था। राजकुमार कालेज की सीमा पर एक गेट था जो उपयोग में न होने के कारण बंद रखा जाता था। इसे कॉलेज का पूर्वी गेट कहते थे। शहर की ओर एक पश्चिमी गेट भी था। दरअसल इन दोनों गेट के बीच में बंद हो चुकी सडक़ का वह हिस्सा था जिसे अंग्रेज़ ‘द ग्रेट ईस्टर्न रोड’ कहते थे।

1817 में नागपुर में मुधोजी राव भोंसले और अंग्रेज़ों के बीच हुए युद्ध हुआ था। लोकमान्यता के अनुसार इस स्थान का नामकरण सत्रहवीं सदी में रहे यहां के दो यदुवंशी शासकों शीतला प्रसाद और बद्रीप्रसाद ग्वाली की याद में शीतलाबद्री किया गया था किन्तु अंग्रेज़ी भाषा में इस लड़ाई को ‘बैटल ऑफ़ सीताबर्डी’ के रूप में याद किया जाता है।

इस युद्ध के बाद नागपुर से दस मील दूर कामठी में  एक छावनी बनाकर फ़ौज को रखा गया। कुछ सालों के बाद इस फ़ौज के एक हिस्से को जबलपुर और दूसरे को सम्बलपुर की ओर रवाना किया गया। सम्बलपुर की ओर मार्च करने वाली फ़ौज के कदमों के साथ साथ सदियों में उपयोग में आ रहे मार्ग ने ‘द ग्रेट ईस्टर्न रोड’ के रूप में अवतार लेना शुरू कर दिया था।

इसी ग्रेट ईस्टर्न रोड के हिस्से पर मुझे पण्डित जवाहर लाल नेहरू को पहली बार देखने और गुलाब का फूल पकड़ाने का अवसर मिला था। 1960 के कांग्रेस अधिवेशन के दौरान वे राजकुमार कॉलेज के प्रिंसिपल (श्री रघुराज सिंह) के आवास में रह रहे थे। कॉलेज का पूर्वी गेट खोल दिया गया था और उसी से निकल कर कर वे खुली गाड़ी में रास्ते के किनारे बच्चों का अभिवादन स्वीकार करते हुए अधिवेशन स्थल पर आना जाना करते थे। मेरा घर पुराने ग्रेट ईस्टर्न रोड के उस छोटे से हिस्से के किनारे था जो तब तक साइंस कॉलेज कैम्पस का हिस्सा बन चुका था।

ये सारी बातें याद आयीं जब श्री सुदीप ठाकुर की लिखी बेहतरीन पुस्तक ‘लाल श्याम शाह : एक आदिवासी की कहानी’ में इस अधिवेशन के बारे में पढ़ा और जाना कि मेरे साथ साथ हजारों आदिवासी भी उनमें शामिल थे जो नेहरू को पहली बार देख सुन रहे थे। कोई तीस-चालीस हजार आदिवासी छत्तीसगढ़, विदर्भ, और उड़ीसा के बड़े दायरे से निकलकर अलग अलग जत्थों में पैदल चलते हुए रायपुर पहुंचे थे।

सुदीप ठाकुर लिखते हैं ‘क्या बड़े क्या महिलाएं और क्या बच्चे, गाते-बजाते सब चल पड़े थे....सिर्फ पैदल चलते जाना और कहीं रास्ते में खाना बनाने के लिए रुक जाना...... देश के मध्य भाग में घने जंगलों के बीच से होकर गुजरने वाली आदिवासियों की इस यात्रा को दर्ज करने के लिए तब कोई पत्रकार या इतिहासकार मौजूद नहीं था। छह दशक पहले छत्तीसगढ़ का यह हिस्सा घने जंगलों से घिरा था। सडक़ों का विस्तार नहीं हुआ था। बताते हैं जिन रास्तों से दिन रात चलने वाले आदिवासियों के जत्थे निकले, सुबह लोगों ने देखा वहां पैरों से कुचलकर सांप-बिच्छू तक मरे पड़े हैं।’

श्री सुदीप ठाकुर की यह पुस्तक मेरे पास काफ़ी पहले आ चुकी थी। मुझे अफ़सोस यही है कि इसे पढऩे में मैंने इतना समय क्यों लगा दिया। शीर्षक से भ्रम हुआ था कि पुस्तक व्यक्ति केन्द्रित होगी। व्यक्ति केन्द्रित तो यह बेशक है। किन्तु केन्द्र का दायरा इतना व्यापक है कि इतिहास का बहुत बड़ा - महत्वपूर्ण और रोचक - हिस्सा इसमें समाया हुआ है।

कथा नायक लाल श्याम शाह राजकुमार कॉलेज में शिक्षा प्राप्त गोड़ ज़मींदार भी थे और विधानसभा और लोकसभा के सदस्य भी रह चुके थे। हस्ताक्षर में अपने नाम के साथ वे बहुधा ‘आदिवासी’ लिखते थे। भारत के विशाल मध्य भाग के रहने वाले आदिवासियों का उन्हे अपार स्नेह, प्रेम और विश्वास प्राप्त हुआ था। लोग उन्हे लाल श्याम शाह महाराज कहते थे। और उन्होंने अपने आप को आदिवासियों की हित-रक्षा के संघर्ष में झोंक दिया था।

आदिवासियों को आज़ाद भारत में न्याय पूर्ण जीवन जीने का अधिकार दिलाने के लिये लाल श्याम शाह के द्वारा किये गये संघर्षों को बताने के साथ साथ श्री सुदीप ठाकुर उन अन्यायों का विस्तार से वर्णन करते हैं जिनसे आदिवासियों को मुक्ति दिलाना उनके संघर्ष के मूल कारण बने थे। और इस बहाने बेहद रोचक शैली में वे अनेक नयी जानकारियों को सामने ले आते हैं।

भारत के अधिकांश घने जंगल इसी मध्य भाग में थे। आज़ादी से पहले तक ये जंगल राजाओं और ज़मींदारों के नियंत्रण में थे। आज़ादी के बाद खेत तो उन पर काबिज़ किसानों के हो गये किन्तु खेत की मेढ़ों के अलावा आस पास की खुली भूमि पर लगे बेशकीमती वृक्षों की मिल्कियत पर किसी का ध्यान नहीं गया था। यह वह दौर था जब ‘मालिक-मकबूजा’ शब्द का इस्तेमाल रातों रात बढ़ गया था। मान लिया गया कि जिसकी ज़मीन है वही वृक्ष का मालिक भी है। सैकड़ों हजारों रुपयों के मूल्य वाले वृक्ष आदिवासियों से कौडिय़ों के भाव खरीद कर रातों रात काट लिये गये। यही वह काल था जब उत्तर भारत से अनेक ऐसे परिवारों का छत्तीसगढ़ आगमन हुआ जो सिर्फ लकड़ी का कारोबार करने आये थे और फिर यही बस गये। सुदीप ठाकुर बस्तर की एक घटना लिखते हैं जिसमें एक आदिवासी ने अपनी ज़मीन के विशाल वृक्ष बेचने के लिए सहमति दे दी। कीमत के रूप में ठेकेदार ने उसे तथा उसकी बेटियों को रायपुर लाकर सिनेमा दिखाया था। अंतत: 1956 में कानून बना और बिना कलेक्टर की अनुमति के वृक्ष कटाई पर रोक लगी।

मालिक मकबूजा से जुड़ा इतिहास का यह महत्वपूर्ण अध्याय पुस्तक में वर्णित है क्योंकि इसके तार लाल श्याम शाह से सीधे जुड़े थे। 1956 के आदेश यूं ही सामने नहीं आये थे। सरकार का इस ओर ध्यान आकर्षित करने के लिए लाल श्याम शाह को अपनी विधान सभा सदस्यता से इस्तीफा देना पड़ा था।

1960 के कांग्रेस अधिवेशन के दौरान हजारों आदिवासियों को पैदल मार्च का आह्वान कर रायपुर बुलाने के पीछे भी लाल श्याम शाह का उद्देश्य ज्ञापन देकर पण्डित जवाहर लाल नेहरू का ध्यान  आदिवासियों की  समस्याओं की ओर आकृष्ट करना ही था।

1956 में राज्य पुनर्गठन हुआ और विदर्भ का हिस्सा छत्तीसगढ़ के हिस्से से अलग हो गया। एक झटके में छत्तीसगढ़ के किसानों के लिये बैलगाडिय़ों में लादकर गोंदिया, भण्डारा जैसे स्थानों में ले जाकर धान और चावल बेचने का काम अवैध घोषित हो गया।

इस तरह के तमाम वे मुद्दे हैं जो आज विस्मृत हो चुके हैं किन्तु उस काल में गांवों और जंगलों में रहने वाले लोगों के लिए बहुत महत्वपूर्ण विषय थे। इन सब ने सतत रूप से लाल श्याम शाह को आंदोलन के लिए मजबूर किया। इन सब की पृष्ठभूमि में एक विषय जो पुस्तक में बार बार आता है वह है इस मध्य भाग के निवासियों के लिये छत्तीसगढ़ (या गोंडवाना) के रूप एक अलग राज्य की आवश्यकता का जिसके लिए मांग की प्रभावी शुरुआत करने वाले व्यक्तियों में लाल श्याम शाह अग्रणी थे।

पुस्तक लिखने में श्री सुदीप ठाकुर ने जितना गहन रिसर्च किया है, सरकारी दस्तावेजों, किताबों और रिपोर्टिंग्स को खंगाला है, जितने लोगों से साक्षात्कार किया है, यह सब हर पन्ने पर नजऱ आता है। पुस्तक की प्रस्तावना में मशहूर इतिहासकार और लेखक रामचंद्र गुहा लिखते हैं ‘बहुत सावधानीपूर्वक किये गये शोध के साथ बहुत प्यारे ढंग से लिखी गयी यह किताब एक असाधारण भारतीय को एक बेहतरीन श्रद्धांजलि है’।

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