विचार/लेख
-स्मिता
काष्ठ शिल्प के सिद्धहस्त कलाकार, पर्यावरणविद और समाज सुधारक, और इस बरस पद्मश्री से सम्मानित अजय मंडावी कांकेर जिले का गौरव हैं। आदिवासी समुदाय के इस कलाकार की अद्भुत कला और शिल्प से पूरे प्रदेश को नई पहचान मिली है।
एक साधारण आदिवासी गोंड़ परिवार में जन्में मंडावी का रूझान बचपन से ही कला की ओर रहा । गांव में नदी किनारे छोटे छोटे नाव बनाने, गणपति की मूर्ति बनाने से उनकी कला यात्रा की शुरूआत हुई। आने वाले वाले वर्षो में अपने जुनून और प्रतिभा के बल पर उन्होने असंभव दिखने वाले कई कार्यो को मूर्त-रूप दिया।
किसी भी प्रकार के विधिवत प्रशिक्षण और किसी तरह की आर्थिक सहायता के बिना, अपने ही सीमित संसाधनों से उन्होंने कला के क्षेत्र में जिन ऊंचाइयों को उन्होंने छुआ है, वह आने वाली पीढ़ी के लिये निश्चित ही प्रेरणास्पद है।
अजय मंडावी के विरले व्यक्तित्व और अनूठी कला की प्रेरणा, कांकेर के स्थानीय विद्यार्थियों के साथ-साथ जेल में कैद, बंदियों के जीवन की दिशा को सृजनात्मक तरीके से बदलने में भी कारगर सिद्ध हुई। इसी प्रेरणा के सहारे अजय मंडावी ने सीमित संसाधनों के साथ अपने असीमित स्वप्नों को साकार करने की उड़ान भरी। उनकी प्रेरणा से आज लगभग 400 युवाओं ने अपराध और हिंसा का रास्ता छोड़कर शिल्पकला को अपने जीवन का अभिन्न अंग बना लिया है। इस लिहाज से यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी, कि अजय मंडावी, व्यक्तिगत रूप से सैकड़ों कैदियों का पुर्नवास करने वाले देश की इकलौती शख्सियत हैं। इनमें बहुत से माओवादी विचारों से प्रभावित कैदी भी शामल है।
अजय मंडावी जैसे सिद्धहस्त गुरु के सान्निध्य में छैनी-हथौड़ी से एक लकड़ी के टुकड़े पर अक्षर उकेरते हुए बंदियों को प्रत्यक्ष देखकर ऐसा प्रतीत होता है, मानो ये बंदी अपने भीतर की हिंसात्मक मनोवृतियों को भी काट-छांट कर अपने जीवन को सृजनात्मक स्वरूप प्रदान कर रहे है। जब कोई भी कला या शिल्प, एक हिंसक अपराधी के मन-मस्तिष्क को कायांतरित करके संवेदनशील मनुष्य और फिर उससे भी आगे एक बेहतरीन कलाकार बना दे, तो यहीं पर आकर कला अपने उच्चतम शिखर को प्राप्त कर लेती है, जिसे अजय मंडावी ने अकेले ही संभव कर दिखाया है।
अपनी कला की यात्रा में अजय मंडावी ने अनेक सुंदर प्रतिमानों को गढ़ा, और बहुत सी वर्जनाओं को तोड़ा भी । उनकी कला यात्रा में गोल्डन बुक आफ वर्ल्ड रिकार्ड, लिम्का बुक आफ रिकार्ड सहित कामयाबी और शोहरत के बहुत से चमकीले और यादगार मुकाम आते रहे हैं।
लेकिन वे खुद अपना योगदान उसी प्रयास को मानते है, जिसमें कला के माध्यम से कोई भटका हुआ आदिवासी युवा अपराध और हिंसा का रास्ता छोड़कर समाज की मुख्यधारा मे शामिल हो जाता है । उनकी आत्मा की यही सुवास, मद्धिम मुस्कान के साथ उनके चेहरे और जीवन में सहज रूप से परिलक्षित होती है ।
शानदार व्यक्तित्व के धनी और काष्ठशिल्पकार अजय मंडावी कई सौ युवाओं के लिए मार्गदर्शक के रूप में "गुरूजी" के नाम से जाने जाते है । बकौल अजय मंडावी कोई भी कला, अपने सामाजिक सरोकरों से न्याय करते हुए जब व्यापक स्वीकार्यता के उजले धरातल पर गहरी जड़ें जमा लेती है, तभी वह अपने सर्वश्रेष्ठ रूप-सौदर्य के साथ उच्चतम स्तर पर प्रकट हो पाती है।
अजय मंडावी जैसे कलाकार पहली नजर में बेशक एक आम मनुष्य की तरह ही दिखाई देते हैं, लेकिन अपने जुनून, निष्ठा, मेहनत, प्रतिभा और गहरी अंतर्दृष्टि के साथ कला के माध्यम से उन्होंने सामाजिक विकास में जो योगदान दिया है, वह निश्चित ही उन्हें असाधारण बना देता है। उनकी कला यात्रा के प्रारंभिक साक्षी उनका परिवार, आदिवासी समाज, बंदियो का समूह, पुलिस प्रशासन सहित स्थानीय प्रशासन रहे हैं, किन्तु समय के साथ उनकी कला को देश के कोने-कोने और दुनिया के अनेक देशों में भी प्रतिष्ठा मिल चुकी है ।
उनकी कला शिल्प का मुख्य उद्देश्य समाज के भटके हुए (विशेष रूप से बस्तर क्षेत्र के) लोगों का शिल्पकला के माध्यम से सर्वांगीण विकास करना ही रहा है । साथ ही इन स्थानीय लोगों के सामाजिक, मानसिक, बौद्धिक तथा शैक्षणिक स्तर में बढ़ोत्तरी करते हुए इन्हें समाज की मुख्यधारा से जोड़ने में भी वे सफल रहे हैं।
अजय मंडावी के प्रमुख योगदान को हम इन सोपानों में देख सकते है:-
1 वंदे मातरम
18 जनवरी 2018 का दिन कांकेर जेल के लिए एक ऐतिहासिक दिन के रूप में दर्ज हुआ। यह अवसर जेल में कैद बिंदियों का हिंसा और आपराधिक माहौल से इतर सांस्कृतिक पक्ष का एक सशक्त हस्ताक्षर करने का था। कांकेर का जिला जेल, पूरे विश्व में अपनी तरह का पहला जेल है जिसके नाम से गोल्डन बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड है।
"अबकी बार लौटा तो मनुष्यतर लौटूंगा "- कुंवर नारायण
बिल्कुल इसी तर्ज पर अजय मंडावी के मार्गदर्शन में कुल नौ बंदियों ने दिन-रात मेहनत करते हुए 20 फीट चौड़ा, 40 फीट लंबी लकड़ी की तख्ती पर वन्दे मातरम राष्ट्रीय गीत को काष्ठशिल्प के रूप में उकेर दिया ।
18 तारीख की सुबह अपनी नई किरण, नये उजास लेकर आया,जब कंकर जेल के ही 40 कंबलों के उपर अजय मंडावी की टीम ने अपनी कला का प्रदर्शन किया । इस शिल्प को ऐतिहासिक अनुकृति (कल्ट) का दर्जा देते हुए गोल्डन बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड से नवाजा गया।
2- शांता आर्टस स्वयं सहायता समूह
मुख्यतः शांता आर्टस कला समूह, ऐसे बंदी समूह का प्रतिष्ठित नाम है, जिसके अधिकांश सदस्य, अलग अलग समय में नक्सली वारदात से छूटकर कला के माध्यम से समाज की मुख्य धारा में जुड़ गये थे। यह एक ऐसा सेतु है, जो कैदियों के पुनर्वास के लिए, नैतिक विधि से आर्थिक उपार्जन करने के लिए बनाया गया है। इसके प्रशिक्षक और मार्गदर्शक अजय मंडावी रहे, जो कैदियों को कला की शिक्षा देने के साथ ही, उन्हें मनोवैज्ञानिक रूप से भी समाज में एक बेहतर मनुष्य के रूप में गरिमापूर्ण जीवन जीने के लिए तैयार करते हैं ।इतना ही नहीं, वे इन कैदियों को बेहतर सामाजिक वातावरण भी रचते हैं।
-संजय श्रमण
अमत्र्य सेन अपनी प्रसिद्ध कृति ‘द आग्र्यूमेंटेटिव इंडियन’ में दो महत्वपूर्ण धारणाओं के प्रति सावधान करते हैं। उनके अनुसार हमें यह नहीं मान लेना चाहिए कि लोकतंत्र पश्चिम द्वारा दिया गया एक उपहार है जिसे भारत ने आजादी के तुरंत बाद सीधे सीधे अपना लिया है।
वे एक दूसरी धारणा को भी निशाने पर लेते हैं। वह दूसरी धारणा यह है कि भारत अतीत में कभी लोकतान्त्रिक था। अक्सर भारत का महिमा गान करने वाले लोग कहते हैं कि भारत के इतिहास में ऐसा कुछ विशेष है जो भारत को लोकतंत्र के अनुकूल बनाता है। सेन इस दूसरी धारणा को भी बहुत हद तक नकारते हैं।
अमर्त्य सेन द्वारा कही गई इन दो बातों के बहुत गहरे निहितार्थ हैं। इन दो बिंदुओं को ध्यान से देखिए।
वह लोकतंत्र, जिसे आज हम देखते हैं या हासिल करना चाहते हैं, उसका प्राचीन भारत या किसी भी देश में कोई उदाहरण नहीं मिलता। जो उदाहरण प्राचीन साहित्य में उपलब्ध हैं वे लोकतंत्र की धारणा के कुछ निकट आते हैं, वे लोकतंत्र के कुछ आदिम रूपों का इशारा भर देते हैं।
लेकिन यह कह देना कि भारत या कोई अन्य सभ्यता में लोकतंत्र था- यह एक षड्यंत्र है। प्राचीन भारत में हम लोकतान्त्रिक थे, यह कहकर असल में एक खास किस्म की ‘प्राचीन यशगाथा’ को बिना सबूतों के दोहराने की भक्त मानसिकता मजबूत की जाती है। साथ ही हमें यह भी समझना चाहिए कि आधुनिक लोकतंत्र ही नहीं किसी भी तरह का शुभ या सद्गुण किसी एक सभ्यता या समाज के द्वारा दूसरी सभ्यता या समाज को दान में नहीं दिया जा सकता।
अब भारत और भारतीयों की दिक्कत यह है कि एक खास तबका उस प्राचीन यशगाथा को बहुत ही रूमानी बनाकर पेश करता है। वह तबका दुनिया का सारा विकास और शुभ अपने उस सतयुग में ठूँसकर दिखाना चाहता है। वह भी इसलिए ताकि देश और समाज को वास्तविक रूप से सभ्य होने की मेहनत किये बिना सभ्यता का सर्टिफिकेट मिल जाए और फिर उनका जो जी में आए वे इस देश में कर सकें। ये भारतीय सत्ताधीशों की ही नहीं दुनिया के सभी समाजों के धर्म-सत्ता और राजसत्ता के अधिपतियों की पसंदीदा रणनीति रही है।
इस रणनीति के तहत यह कहा जाता है कि सारा शुभ अतीत में कहीं था जो समय की लहर में कहीं बह गया है इसलिए हमें भविष्य में नहीं बल्कि अपने ‘वास्तविक अतीत’ में जाकर खुदाई करनी चाहिए।
यह खतरनाक रणनीति इतनी सफल रहती आई है कि पूरे देश का जनमानस इसके जाल में तुरंत फस जाता है। प्राचीन स्वर्णयुगों की तस्वीर दिखाकर भविष्य के सपने बुनना और इन सपनों के लिए कुर्बानी मांगना– यह सभी देशों और समाजों के तानाशाहों का पसंदीदा खेल रहा है। भारत इस अर्थ मे विशेष रूप से बदनसीब है क्योंकि यहाँ यह खेल राजनीति या सत्ता तक सीमित नहीं है।
गौर से देखिए तो आपको पता चलेगा कि भारत में यह खेल भारत के सबसे बड़े और प्रचलित धर्म और अध्यात्म का भी मूल नियम बन चुका है। इसीलिए डॉ अंबेडकर ने इसे धर्म नहीं राजनीति कहा था।
यह षडय़ंत्रकारी तबका यह कहता है कि समाज का सुख ही नहीं बल्कि व्यक्ति का मोक्ष भी अतीत के स्वर्णयुग या सतयुग में कहीं पीछे छूट गया है। समाज का स्वर्णकाल ही नहीं बल्कि व्यक्ति का निर्वाण भी अतीत के किसी गड्ढे में गिरा पड़ा है। ये दोनों धारणाएं एकसाथ भारत के लोकमानस को परोसी जाती हैं।
इसलिए ताज्जुब नहीं कि जिन लोगों ने भारत के सतयुग को भारत का भविष्य बनाने का प्रोजेक्ट हाथ में लिया है उन्हीं लोगों ने मोक्ष या निर्वाण को व्यक्ति के भविष्य में नहीं बल्कि अतीत में दिखाने वाले बाबाओं की सबसे बड़ी फौज को खड़ा करके उसका इस्तेमाल किया है।
गौर से देखिए, ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जो लोग भारत को एक धर्म विशेष के आधिपत्य में धकेलना चाहते हैं वे सबसे पहले किसी सतयुग को अतीत में खड़ा करते हैं। फिर वे उन बाबाओं और आध्यात्मिक व्याख्याओं का सहारा लेते हैं जो सब तरह के विकास को नकारकर अतीत की आदिम सुरंगों मे वैराग्य, कायाक्लेश, कायोत्सर्ग आदि से जुड़ी मोक्ष की धारणा सिखाते हैं।
ये दोनों रणनीतियाँ एक ही दिशा मे एकसाथ जाती हैं। इस खेल में चलताऊ बाबा ही नहीं बल्कि विवेकानंद, अरबिंदो घोष जैसे स्थापित गुरु और आजकल के ओशो रजनीश और जग्गी बाबा जैसे कल्ट गुरु भी खतरनाक खेल खेलते आए हैं। यह खेल अब अपने शिखर पर पहुँच गया है। इसीलिए आजकल बाबाओं और राजनेताओं में बड़ा भाईचारा नजर आता है।
इस तरह वे लोग जो अतीत में सतयुग और निर्वाण/मोक्ष देखते हैं वे लोग अचानक ही एक बड़ी राजनीतिक शक्ति बनकर खड़े हो जाते हैं। यह सबसे गहरा खेल है जिसका इलाज चलताऊ प्रगतिशीलता और जिंदाबाद मुर्दाबाद के जरिए किसी भी सूरत में नहीं हो सकता।
इसका अब क्या किया जाए?
असल समस्या यह है कि आपके समाज में इंसान के जीवन और उसके मौलिक स्वरूप सहित सुख दुख और मोक्ष या निर्वाण की व्याख्या कौन और किस तरह कर रहा है। यह सबसे गंभीर और सूक्ष्म बात है।
अब भारत के बहुजनों को ठीक से समझना होगा कि राजनीतिक बदलावों के पीछे सामाजिक बदलावों का दबाव चाहिए और सामाजिक बदलावों के पीछे सांस्कृतिक धार्मिक बदलाव चाहिए।
भारत के बहुजन सैद्धांतिक रूप से राजनीतिक और सामाजिक बदलाव तक आ चुके हैं, अधिकांश ओबीसी चिंतक दलित और ट्राइबल चिंतक इस बात के प्रति सहमत हो चुके हैं कि राजनीतिक और सामाजिक बदलाव के लिए नई और साझा रणनीति की जरूरत है।
लेकिन दुर्भाग्य से अभी भी ओबीसी, दलित और ट्राइबल समाज भारत में एकमुश्त धार्मिक और आध्यात्मिक बदलाव लाने की दिशा में पहला कदम भी नहीं उठाया गया है।
धर्म और अध्यात्म किसी भी समाज की सबसे बड़ी शक्ति होती है। इसे नजरअंदाज करना आजकल की चलताऊ प्रगतिशीलता का पसंदीदा खेल बन गया है। जो प्रस्तावनाएं स्वयं को आधुनिक और प्रगतिशील कहती हैं वे धर्म और आध्यात्म की शक्ति को नकारते हुए भारत के बहुजनों का सबसे ज्यादा नुकसान करती हैं।
यह एक षडय़ंत्र है जिसमें बहुजनों के सबसे जागरूक और शिक्षित लोग सबसे आसानी से फँसते आए हैं।
धर्म और अध्यात्म की शक्ति और उसके सही इस्तेमाल की संभावना को गैर-बहुजनों के हाथों में दे देने से बहुजन समाज अपने कल्याण के लिए उपयोगी सबसे शक्तिशाली उपकरणों से वंचित हो जाता है।
फिर इन उपकरणों का प्रयोग फिर गैर-बहुजन या अल्पजन करते हैं, और यह इस्तेमाल वे फिर अपने हितों के लिए करते हैं। अब इसमें अल्पजनों को जिम्मेदार ठहराने का कोई मतलब नहीं, जिम्मेदारी उन बहुजनों पर डाली जानी चाहिए जो धर्म और अध्यात्म की शक्ति का इस्तेमाल करने से इनकार करते आए हैं या फिर जिनमें इस इस्तेमाल की कल्पना, समझ और योग्यता नहीं है।
यह बात नोट करके रख लीजिए, भारत को वास्तव में वे लोग बदलेंगे जिन्हें खुद के जीवन मे निर्णायक बदलाव की जरूरत है। वे लोग भारत के बहुजन अर्थात ओबीसी, दलित और ट्राइब्स हैं। इसी बहुजन तबके को इस देश में धार्मिक सांस्कृतिक और आध्यात्मिक बदलाव की निर्णायक पहल करनी होगी। जब तक भारतीय बहुजनों के घर घर में नए धर्म की नई इबारत नहीं पहुँच जाती तब तक लोकतंत्र और समाज में कोई ठोस और निर्णायक बदलाव नहीं आने वाला है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
हमारे सर्वोच्च न्यायालय और केंद्र सरकार के बीच जजों की नियुक्ति पर जो खींचातानी चल रही थी, वह खुले-आम बाजार में आ गई है। सर्वोच्च न्यायालय के चयन-मंडल ने सरकार को जो नाम भेजे थे, उनमें से कुछ पर सरकार ने कई आपत्तियाँ की थीं। इन आपत्तियों को प्रायः गोपनीय माना जाता है लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने उन्हें जग-जाहिर कर दिया है। इस कदम से यह भी पता चलता है कि भारत में किसी भी उच्च पद पर नियुक्त होनेवाले जजों की नियुक्ति में कितनी सावधानी से काम लिया जाता है।
इस बार यह सावधानी जरा जरूरत से ज्यादा दिखाई पड़ी है, क्योंकि एक जज को इसलिए नियुक्त नहीं किया जा रहा है कि वह समलैंगिक है और दूसरे जज को इसलिए कि उसने ट्वीट पर कई बार सरकारी नीतियों का दो-टूक विरोध किया है। जहां तक दूसरे जज का सवाल है, सरकार की आपत्ति से सहमत होना ज़रा मुश्किल है। क्या सोमशेखर सुंदरेशन ने वे सरकार विरोधी ट्वीट जज रहते हुए किए थे? नहीं, बिल्कुल नहीं। वे जज थे ही नहीं। तब वे वकील थे और अब भी वकील हैं।
यदि एक वकील किसी भी मुद्दे पर खुलकर अपनी राय जाहिर नहीं करेगा तो कौन करेगा? भारतीय नागरिक के नाते उसे भी अभिव्यक्ति की पूरी आजादी है। हाँ, अब जज के नाते उन्हें अपनी अभिव्यक्ति पर संयम रखना होगा। सरकार का डर स्वाभाविक है लेकिन उनकी नियुक्ति के पहले उन्हें चेतावनी दी जा सकती है। उनकी नियुक्ति के विरोध से सरकार अपनी ही छवि खराब कर रही है। क्या इसका संदेश यह नहीं निकल रहा है कि सरकार सभी पदों पर ‘जी हुजूरों’ को चाहती है? दू
सरे जज पर यह आपत्ति है कि वह समलैंगिक है और उसका सहवासी एक स्विस नागरिक है। समलैंगिकता न्याय-प्रक्रिया में बाधक कैसे है, यह कोई बताए? दुनिया के कई राजा-महाराजा और प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति समलैंगिक रहे हैं। जहां तक उस जज के सहवासी का विदेशी होना है, कौन नहीं जानता कि भारत के एक प्रधानमंत्री, एक राष्ट्रपति, एक विदेश मंत्री और कई अन्य अत्यंत महत्वपूर्ण लोगों की पत्नियां या पति विदेशी रहे हैं। यह तो मैं अपनी व्यक्तिगत जानकारी के आधार पर कह रहा हूं लेकिन यदि हम खोजने चलें तो ऐसे सैकड़ों मामले सामने आ सकते हैं।
यह ठीक है कि ऐसा होना कोई आदर्श स्थिति नहीं है लेकिन आज की दुनिया इतनी छोटी हो चुकी है कि इस तरह के मामले बढ़ते ही चले जाएंगे। भारतीय मूल के लोग आजकल दुनिया के लगभग दर्जन भर देशों में उनके सर्वोच्च पदों पर प्रतिष्ठित हैं या नहीं? बेहतर तो यही होगा कि चयन-मंडल (कालेजियम) का स्वरूप ही बदला जाए और अगर यह फिलहाल नहीं बदलता है तो सरकार और सर्वोच्च न्यायालय में चल रही मुठभेड़ तुरंत रूके। वरना, दोनों की सही कार्रवाइयों को भी जनता मुठभेड़ का चश्मा चढ़ाकर देखेगी। (नया इंडिया की अनुमति से)
-राजशेखर चौबे
किसी ने भी यह नहीं कहा कि कद में क्या रखा है परंतु जिनका बड़ा नाम है वे ही कह कर चले गए - नाम में क्या रखा है ? खुद तो नाम कमा कर चले गए और दूसरों को ज्ञान बांट गए। यह भी कहा गया है- बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर....। यहां बड़ा का अर्थ बड़ा नहीं ऊँचा है। किसी ने शायद यह भी नहीं कहा कि ऊंचा होने में क्या रखा है. अब ऊंचाई अधिक होने का अर्थ है अधिक ऊंचा होना या कुलीन होना। ऊंचे लोग ऊंची पसंद। बॉलीवुड, टॉलीवुड से लेकर हॉलीवुड तक ऊंचे या लंबे हीरो हीरोइनों का बोलबाला है । ऊंचे लोगों के अधिक सफल होने के दावे भी किए जाते हैं । वैसे ये हीरो हीरोइन भारी मेकअप के साथ-साथ अंदरूनी हील वाले जूते सैंडल आदि पहनते हैं जिनसे इनकी ऊंचाई तीन से छह इंच तक बढ़ जाती है । अब केवल हीरो हीरोइन ही नहीं तमाम वे लोग जो ऊंचे ब्रांड की चीजों का इस्तेमाल करते हैं , अपनी ऊंचाई तीन से छह इंच तक बढ़ा सकते हैं । आप केवल साठ लाख खर्च में ऑपरेशन करवाकर अपनी टांगों की लंबाई तीन से छह इंच तक बढ़वा सकते हैं । इस ऑपरेशन से केवल टांगों की लंबाई बढ़ती है किसी दूसरे अंग की नहीं । इससे भी कुछ अति उत्साही लोग दुखी हो गए हैं । यदि ऑपरेशन से हाथों की लंबाई बढ़ती तो आजानुबाहु लोगों की संख्या में वृद्धि दर्ज हो जाती। महिलाओं में सुंदरता का क्रेज है और पुरुषों में रोबीला होने का अत: पुरुषों का झुकाव इस ऑपरेशन की ओर अधिक है । टेक कर्मचारी गिव एंड टेक में भरोसा रखते हैं इसीलिए वे ही सबसे ज्यादा इस ऑपरेशन को करवा रहे हैं । अब राजपाल सुल्तान की ऊंचाई पा सकते हैं और सुल्तान अपनी पूर्व प्रेमिका के ससुर की ऊंचाई पा सकते हैं । आलिया भी कैटरीना की ऊंचाई हासिल कर अपने पति को खुश कर सकती है । ब्रेस्ट का साइज बढ़ाने के लिए सर्जरी होती रही है लेकिन अभी तक ऐसी सर्जरी नहीं हुई है जो सीने को 36 इंच से 56 इंच का कर दे । यदि ऐसा कोई ऑपरेशन होने लगे तो नेताओं की लाइन लग जाएगी । तब यह भी संभव है कि 56 इंच वाले अपना सीना 76 इंच करवा ले । अति उत्साही और महत्वाकांक्षी राजनीति में ही नहीं बल्कि प्रत्येक क्षेत्र में पाए जाते हैं और साहित्य भी अपवाद नहीं है।
ऐसे ही एक लेखक अमेरिका जाने की तैयारी कर रहे हैं ताकि वो ऑपरेशन करवाकर अपनी ऊंचाई बढ़वा लें और बड़े कद के लेखक बन जाए । राम जाने बड़े कद के लेखक बनने की उनकी यह अभिलाषा कब पूरी होगी ? वैसे भी इन दिनों बहुत सारे साहित्यकार बड़े कद के लेखक बनने के लिए अमेरिका गए हुए हैं।मैं भी बड़े कद का लेखक बनने के लिए अमेरिका प्रस्थान कर रहा हूँ।क्या आप भी बड़े कद के लेखक बनना चाहते हैं तो आप भी अमेरिका प्रस्थान की तैयारी कीजिए।
-अरूण कान्त शुक्ला
कोरोना के कारण शिक्षा पर क्या असर पड़ा ये किसी से छुपा नहीं है, ऑनलाइन क्लासेज की वजह से बच्चों की शारीरिक क्षमता पर असर पडऩे लगा था, जिस पर उस दौरान संबंधित अभिभावकों सहित सभी पक्षों ने चिंता भी जाहिर की थी। ये चिंताएं विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों और सरकारी शिक्ष्ण संस्थाओं में पढने वाले छात्रों को लेकर अधिक थीं क्योंकि ग्रमीण क्षेत्रों के अभिभावकों के पास ऑन लाइन शिक्षण के लिए मोबाइल या लेपटॉप जैसी अन्य सुविधा के अभाव के साथ साथ अबाध इंटरनेट की उपलब्धता भी एक समस्या न केवल अभिभावकों बल्कि शिक्षकों के लिये भी थी। इसीलिये जब स्कूल खुले तो अभिभावकों और छात्रों के साथ शिक्षकों में भी उत्साह देखने मिला था। इन सभी परिस्थितियों की बच्चों की मानसिक स्थिति तथा शारीरिक क्षमता पर कितना असर पड़ा और उनकी बच्चों की पढने तथा समझने और शिक्षकों की पढ़ाने की क्षमता में क्या फर्क आया, इस पर एक स्वतन्त्र सर्वे बहुत आवश्यक हो गया था ताकि उस आधार पर संबंधित पक्ष छात्रों के अध्यन के लिये उचित तरीकों का निर्धारण कर सकें।
अब इसे तरह के सभी बिन्दुओं को समेटते हुए एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन (्रस्श्वक्र 2022) की रिपोर्ट बुधवार 18 जनवरी को जारी की गई है। प्रथम फाउंडेशन की ओर से चार साल बाद यह सर्वेक्षण किया गया है। इससे पहले साल 2018 में असर की रिपोर्ट जारी की गई थी।
साल 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में 780 जि़ले और 6 लाख 40 हज़ार 867 गांव हैं जिसमें ‘असर’ ने 616 ग्रामीण जि़लों के 19,060 गांवों का सर्वे किया है, इसमें 3 से 16 वर्ष तक की आयु वाले 6.9 लाख बच्चों को शामिल किया गया है ताकि उनकी स्कूली शिक्षा की स्थिति दर्ज की जा सके और उनकी बुनियादी पढ़ाई और समझ का आंकलन किया जा सके।
कोरोना के बाद बढ़े नामांकन
राष्ट्रीय स्तर पर शिक्षा की स्थिति को देखकर पता चलता है कि महामारी के दौरान स्कूल बंद हो जाने के बावजूद 6 से 14 वर्ष तक के बच्चों का नामांकन दर पिछले 15 सालों में 95 प्रतिशत से ज़्यादा रहा है। याने वर्ष 2018 में यह 95.2 प्रतिशत था, जो अब बढक़र 98.4 प्रतिशत हो गया है।
3-16 आयु वर्ग के वो बच्चे जिनका वर्तमान में नामांकन दर्ज नहीं है, इनका अनुपात भी जो वर्ष 2018 में 2.8 प्रतिशत था अब घटकर अब 1.6 प्रतिशत रह गया है याने कोरोना के बाद शालाओं में नामांकन बढ़ा है।
सरकारी स्कूलों में नामांकन
सर्वे में पाया गया की सरकारी स्कूलों में 2018 के मुक़ाबले 2022 में तेज़ी से नामांकन हुए हैं, यानी जो नामांकन प्रतिशत 2018 में 65.6 था वो 2022 में बढक़र 72.9 प्रतिशत हो गया है। हालांकि इससे पहले साल 2006 से 2014 तक सरकारी विद्यालयों में नामांकन की दर बेहद कम थी। असर की वर्ष 2014 की रिपोर्ट के मुताबिक़ ये आंकड़ा तब 64.9 प्रतिशत था जो अगले चार सालों तक वैसा ही बना रहा।
बच्चों की बुनियादी साक्षरता, समझ और आंकलन करने की क्षमता में बड़ी गिरावट
कोरोना के कारण लंबे वक्त तक शिक्षण व्यवस्था अन्य सभी व्यवस्थाओं की तरह पुरी तरह ठप्प थी, बल्कि सचाई तो यह है कि यह कुछ अधिक लम्बी अवधी तक व्यवस्थित नहीं हो पाई थी। परिणाम स्वरूप बच्चों की बुनियादी साक्षरता, समझ और आंकलन करने की क्षमता में बड़ी गिरावट दर्ज की गई है। ये सरकारी और प्राइवेट दोनों तरह के स्कूलों पर लागू होता है।
कक्षा 3 की हालत : असर की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2018 में कक्षा तीन के बच्चों का प्रतिशत जो कक्षा दो के स्तर के पाठ्यक्रम को पढ़ सकते थे 27.3 प्रतिशत था जो अब वर्ष 2022 में गिरकर 20.5 रह गया है।
2018 के स्तर से 10 प्रतिशत से ज़्यादा की गिरावट दिखाने वाले राज्यों की बात करें तो केरल 2018 में 52.1 प्रतिशत से 2022 में 38.7 प्रतिशत तक, हिमाचल प्रदेश 47.7 प्रतिशत से 28.4 प्रतिशत तक और हरियाणा में 46.4 प्रतिशत से 31.5 प्रतिशत तक गिरावट आई है।
कक्षा 5 की हालत- असर की रिपोर्ट कहती है कि चाहे वे स्कूल सरकारी हों अथवा प्राईवेट सर्वे में दोनों की हालत दयनीय ही है।
कक्षा पांच में नामांकित बच्चों का अनुपात जो कि कम से कम कक्षा दो के स्तर का पाठ पढ़ सकते हैं, वो 2018 के 50.5 प्रतिशत से गिरकर 2022 में 42.8 प्रतिशत हो गया।
हालांकि कुछ राज्य ऐसे भी हैं जिन्हें ठीकठाक कहा जा सकता है, इनमें बिहार, ओडिशा, मणिपुर और झारखंड के अलावा कुछ और राज्य शामिल हैं। वहीं, 15 प्रतिशत अंकों या उससे ज़्यादा की कमी वाले राज्यों में आंध्र प्रदेश, गुजरात और हिमाचल प्रदेश शामिल हैं। जबकि उत्तराखंड, राजस्थान, हरियाणा, कर्नाटक और महाराष्ट्र में 10 प्रतिशत से अधिक की गिरावट देखी गई है।
आठवीं कक्षा के क्या हालात- रिपोर्ट कहती है कि कक्षा आठवीं के छात्रों में बुनियादी पढऩे की क्षमता में कमी तो दिखाई दे रही है, लेकिन ये कहा जा सकता है कि तीन और पांच कक्षा में देखे गए रुझानों की तुलना में थोड़ा कम हैं। राष्ट्रीय स्तर पर, सरकारी या निजी स्कूलों में कक्षा आठ में नामांकित 69.6 प्रतिशत बच्चे 2022 में कम से कम बुनियादी पाठ पढ़ सकते हैं, जो 2018 में 72.8 प्रतिशत था।
‘घटाना’ नहीं आता- गणित की भाषा में कहें तो कक्षा 3 के वो छात्र जो कम से कम ‘घटाव’ जानते हैं, उनके प्रतिशत में भी गिरावट आई है। यानी ऐसे बच्चों की जो संख्या साल 2018 में 28.2 प्रतिशत थी वो 2022 में 25.9 प्रतिशत हो गई है। हालांकि जम्मू-कश्मीर, उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश में इनके आंकड़ों ने थोड़ी राहत ज़रूर दी है। इन तीनों राज्यों में आंकड़े लगभग स्थिर हैं। जबकि हरियाणा, मिज़ोरम और तमिलनाडु में कऱीब 10 प्रतिशत की गिरावट देखी गई है।
तमिलनाडु में 2018 में ये प्रतिशत 25.9 था जो 2022 में 11.2 हो गया, मिजोरम में 2018 में इसकी संख्या 58.9 थी जो 2022 में घटकर 42 प्रतिशत हो गई, जबकि हरियाणा में भी 10 फ़ीसदी गिरकर 41.8 प्रतिशत हो गई जो 2018 में 53.9 थी।
‘भाग’ के सवाल से भी दिक्कत पर सरकारी स्कूलों में किंचित सुधार- असर की रिपोर्ट कक्षा 8 के बारे में कहती है कि बुनियादी गणित के मामले में प्रदर्शन थोड़ा अलग है। राष्ट्रीय स्तर पर भाग का सवाल हल कर पाने वाले बच्चों का अनुपात थोड़ा बेहतर हुआ है। ये 2018 में 44.1 प्रतिशत था, जबकि 2022 में 44.7 प्रतिशत हो गया है। रिपोर्ट कहती है कि ये जो बहुत थोड़ी सी बढ़ोत्तरी है ये लड़कियों और सरकारी स्कूल के बच्चों की ज़्यादा सीखने की इच्छा के कारण हुआ है। जबकि ‘भाग’ बनाने के सवालों में लडक़ों और निजी स्कूलों की क्षमता में गिरावट हुई है।
प्राइवेट ट्यूशन का बोलबाला- ग्रामीण भारत में कक्षा 1 से 8 तक बच्चों को प्राइवेट ट्यूशन पढ़ाने के मामले में भी बढ़ोत्तरी हुई है। सरकारी हो या ग़ैर सरकारी, दोनों ही स्कूलों में पढऩे वाले बच्चों को प्राइवेट ट्यूशन पढ़ाया जा रहा है। फीस देकर ट्यूशन पढऩे वालों का अनुपात साल 2018 में 26.4 प्रतिशत से बढक़र 2022 में 30.5 प्रतिशत हो गया है। उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड में तो 8 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है।
स्कूलों में सुविधाएं- लड़कियों के शौचालय का जो अनुपात 2018 में 66.4 प्रतिशत था, वो 2022 में 68.4 प्रतिशत हुआ है, हालांकि जरूरी प्रसाधनों के हिसाब से इसे बहुत बड़ी वृद्धि नहीं कहा जा सकता। पेयजल वाले स्कूलों में भी वृद्धि देखने को मिली है, ये साल 2018 में 74.8 प्रतिशत थे जो 2022 में बढक़र 76 प्रतिशत हो गए।
हालांकि गुजरात जैसे राज्य में पेयजल वाले स्कूलों की संख्या में गिरावट आई है, यहां ये संख्या 88 प्रतिशत से घटकर 71.8 प्रतिशत हो गई है, और कर्नाटक में भी 76.8 प्रतिशत से घटकर 67.8 प्रतिशत हो गई है।
कर्नाटक, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल किए गए सर्वे का तुलनात्मक विश्लेषण
शिक्षा के स्तर में आई उपरोक्त बड़ी गिरावटों के बावजूद, कर्नाटक, छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल में सीखने के परिणामों के तुलनात्मक विश्लेषण से सामने आया कि एक बार स्कूलों के फिर से खुलने के बाद इन राज्यों में खोई हुई जमीन को वापस पाने का प्रयास किया गया है। उदाहरण के लिए, छत्तीसगढ़ में, कक्षा 3 के बच्चों का अनुपात जो कक्षा 2 की पाठ्यपुस्तक पढ़ सकते हैं, जो 2018 में 29.8 प्रतिशत से नीचे था, 2021 में 12.3 प्रतिशत तक गिर गया था, वह 2022 में 24.2 प्रतिशत तक वापस आ गया। पश्चिम बंगाल में, यह 2021 में 29.5 प्रतिशत से बढक़र 2022 में 33 प्रतिशत हो गया।
गणित के मामले में, छत्तीसगढ़ में कक्षा 3 में बुनियादी गणित प्रश्नों को हल करने की क्षमता वाले बच्चों की हिस्सेदारी 2018 के 19.3त्न से गिरकर 2021 में 9त्न हो गई थी , जो 2022 में बढक़र 19.6त्न हो गई है। कर्नाटक में 2021 के 17.3त्न से बढक़र यह 2022 में 22.2त्न और पश्चिम बंगाल में 2021 के 29.4त्न से बढक़र 2022 में 34.2त्न हो गया है।
निजी स्कूलों से सरकारी स्कूलों में दाखिले का रुझान : सर्वे में यह भी पाया गया कि ग्रमीण तथा अर्द्धशहरी स्थानों में निजी स्कूलों को छोडक़र सरकारी स्कूलों में नामांकन की तरफ रुझान बढ़ा है। प्रथम फाउंडेशन की सीईओ रुक्मिणी बनर्जी ने के अनुसार निजी स्कूलों से सरकारी स्कूलों की तरफ जाने का जो रुझान अभी दिखाई पड़ रहा है उसके पीछे अनेक कारक रहे हैं, जिसमें महामारी की वजह से नौकरी छूटना और ग्रामीण क्षेत्रों में बजट की कमी की वजह से निजी स्कूलों का बंद होना भी शामिल है।
उनका कहना था कि अगर परिवार की आय कम हो जाती है या अधिक अनिश्चित हो जाती है, तो संभावना है कि माता-पिता निजी स्कूल की फीस वहन करने में सक्षम नहीं होंगे। इसलिए उनके पास इसके अलावा अन्य कोई चारा नहीं होगा कि वे अपने बच्चों को निजी स्कूलों से निकालकर सरकारी स्कूलों में दाखिल करायें। इसके अलावा, ग्रामीण क्षेत्रों में, अधिकांश निजी स्कूल कम लागत या कम बजट वाले ही होते हैं और उनमें से अनेक को कोविड के दौरान बंद करना पड़ा।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
सन् 2023 में भारत के जिन नौ राज्यों में चुनाव होने हैं, उनका डंका बज गया है। उत्तर-पूर्व के तीन राज्यों- त्रिपुरा, मेघालय और नगालैंड में अगले माह चुनाव होनेवाले हैं। इन तीनों राज्यों में भाजपा स्वयं अपने दम पर सत्तारूढ़ नहीं है लेकिन तीनों में वह सत्तारूढ़ गठबंधन की सदस्य है। तीनों राज्यों की 60-60 विधानसभा सीटों पर फरवरी में चुनाव होने हैं। इन 60 सीटों में से 59 सीटें नगालैंड में, 55 मेघालय में और 20 त्रिपुरा में अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित हैं।
इन राज्यों में कुल मतदाताओं की संख्या सिर्फ 6 लाख 28 हजार है लेकिन शेष राज्यों में होनेवाले चुनाव भी इन राज्यों के चुनाव परिणामों से कुछ न कुछ प्रभावित जरूर होंगे। भाजपा की मन्शा है कि जैसे उत्तर भारत के राज्यों और केंद्र में भाजपा का नगाड़ा बज रहा है, वैसे ही सीमांत के इन प्रांतों में भी भाजपा का ध्वज फहराए। इसीलिए भाजपा के चोटी के नेता कई बार इस दूर-दराज के इलाके में अपना प्रभाव जमाने के लिए जाते रहे हैं। इन तीनों राज्यों की गठबंधन सरकारों में शामिल हर बड़े दल की इच्छा है कि इस बार वह स्पष्ट बहुमत प्राप्त करे और अकेला ही सत्तारूढ़ हो जाए।
जो भाजपा का लक्ष्य है, वह ही बाकी सभी का लक्ष्य है। जाहिर है कि वे दल भाजपा के मुकाबले ज्यादा मजबूत हैं। उनका जनाधार काफी बड़ा है लेकिन इन सीमांत राज्यों की एक महत्वपूर्ण प्रवृत्ति यह रही है कि केंद्र में जो भी सरकार बने, वे उसके रंग में रंग जाने की कोशिश करते हैं, क्योंकि वे अपनी अर्थ-व्यवस्था के लिए केंद्र सरकार की दया पर निर्भर रहते हैं। ऐसे में कोई आश्चर्य नहीं कि इन सारे स्थानीय दलों के नेता टूट-फूटकर भाजपा में शामिल हो जाएं और वहां भाजपा की सरकारें बन जाएं।
भाजपा इस लक्ष्य को पाने पर इतनी आमादा है कि प्रधानमंत्री ने अपने पिछले पार्टी-अधिवेशन में मुसलमानों और ईसाइयों के भले की बात उठाई है। गोमांस-भक्षण पर भी संघ और भाजपा ने कड़ा रूख नहीं अपनाया है। ईसाई मतदाता इस इलाके में बहुत ज्यादा हैं। वैसे इन राज्यों में यदि सभी सरकारें भाजपा की बन गईं तो यह भरोसा नहीं है कि शेष राज्यों में भी उसी की सरकारें बनेंगी, क्योंकि हर राज्य के अपने-अपने राजनीतिक समीकरण हैं।
तेलंगाना में हुए विशाल जन-प्रदर्शन में कम्युनिस्ट, समाजवादी और आप पार्टियों के नेताओं ने विरोधी गठबंधन का बिगुल काफी जोर से बजाया है लेकिन इस गठबंधन से कांग्रेस, ममता बनर्जी, नीतीशकुमार, कुमारस्वामी जैसे विपक्षी नेता अभी भी बाहर हैं। यदि यही हाल जारी रहा तो भाजपा का पाया अगले चुनावों में भी मजबूत बनकर उभरेगा। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
इस बार भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की जो बैठक हुई है, उसकी भूमिका एतिहासिक हो सकती है, बशर्ते कि उसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जो कहा है, उस पर अमल किया जाए। मोदी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखिया मोहन भागवत के मंत्र को अमली जामा पहनाने की बात कही है। मोहनजी बार-बार कह चुके हैं कि हिंदू-मुसलमानों का डीएनए एक ही है। मोदी ने इसी मंत्र को व्यावहारिक रूप देते हुए कहा है कि पसमांदा वर्ग के अल्पसंख्यकों याने मुसलमानों, केरल के ईसाइयों और देश के पिछड़े लोगों को साथ लेकर चलने का संकल्प किया जाना चाहिए। भाजपा के प्रधानमंत्री और संघ के तपस्वी स्वयंसेवक के मुंह से ऐसी बात सुनकर कौन गदगद नहीं हो जाएगा?
मैं पिछले तीन-चार दिन से दुबई और अबू धाबी में कई अरब शेखों से मिला और हमारी सभी पार्टियों व विचारधाराओं के लोगों से मेरा खुला संवाद हुआ। मुझे ऐसा लगा कि जिन लोगों के पास दूरदृष्ष्टि है, वे यह महसूस करते हैं कि यदि भारत में सांप्रदायिक दुर्भाव चलता रहा तो अगले 50-60 साल में भारत के इस बार फिर दो नहीं, सौ टुकड़े भी हो सकते हैं। इस आशंका को निरस्त करने का शंखनाद भाजपा ने अब कर दिया है। यदि भाजपा सरकार सांप्रदायिक सदभाव पैदा करने और देश के पिछड़ों को आगे बढ़ाने के लिए कुछ बुनियादी उपायों पर ध्यान दे तो भारत सिर्फ एक दशक में ही दुनिया का महासंपन्न और महाशक्तिशाली राष्ट्र बन सकता है। भारत का दुर्भाग्य यह रहा कि हमारी अब तक की सरकारों के नेताओं को वह चाबी हाथ ही नहीं लगी, जो सदियों से बंद पड़े भारत के ताले को खोल सकती है। वह चाबी है, शिक्षा और चिकित्सा में मूल सुधार ताकि देश का मन और तन बलवान बन जाए। ये मूल सुधार करने की बजाय हमारी सभी सरकारें रेवड़ियां बांटने की चुनावी रणनीतियां अपनाती रही हैं। मोदी सरकार ने इस मामले में भी जबर्दस्त उस्तादी दिखाई है। मोदी ने कहा है कि हमें वोटों के लिए नहीं, लेकिन राष्ट्रीय सुद्दढ़ता के लिए मुसलमानों, ईसाइयों और पिछड़ों की सेवा करनी है। यह बात तो अति उत्तम है लेकिन इसे ठोस रूप कैसे देंगे? इसे समझने के लिए हमारे नेताओं में इतनी विनम्रता होनी चाहिए कि वे चिंतकों और बुद्धिजीवियों के साथ बैठकर खुला संवाद करें।
सिर्फ नौकरशाहों के इशारों पर नाचने से आप सत्ता तो प्राप्त कर सकते हैं लेकिन देश की दशा नहीं बदल सकते। भाजपा के अध्यक्ष जगतप्रकाश नड्डा को लगातार दूसरी बार भी अध्यक्ष पद से सम्मानित किया गया है, यह सर्वथा उचित है, क्योंकि वे ऐसे पार्टी-अध्यक्ष हैं, प्रायः जिनके बयान और आचरण आपत्तिजनक और कटु विवादास्पद नहीं होते हैं और जो सभी को साथ लेकर चलने की इच्छा रखते हैं। अब प्रधानमंत्री से भी ज्यादा उनकी जिम्मेदारी है कि वे भाजपा को एक ऐसा रूप प्रदान करें, जो आजादी के तुरंत बाद कांग्रेस का रहा है। यदि भाजपा सर्वसमावेशी बन जाए और बुनियादी परिवर्तनों पर ध्यान दे तो दुनिया की वर्तमान सदी भारत की सदी बन सकती है। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शाहबाज़ शरीफ आजकल प्रधानमंत्री कम, प्रधानभिक्षु बनकर देश-विदेश के चक्कर लगा रहे हैं। कुछ दिन पहले उन्हें सउदी अरब जाकर अपना भिक्षा-पात्र फैलाना पड़ा। तीन-चार दिन पहले वे अबू धाबी और दुबई आए हुए थे। संयोग की बात है कि दो-तीन दिन के लिए मैं भी दुबई और अबू धाबी में हूं। यहां के कई अरबी नेताओं से मेरी बात हुई। पाकिस्तान की दुर्दशा से वे बहुत दुखी हैं लेकिन वे पाकिस्तान पर कर्ज लादने के अलावा क्या कर सकते हैं?
उन्होंने 2 बिलियन डाॅलर जो पहले दे रखे थे, उनके भुगतान की तिथि आगे बढ़ा दी है और संकट से लड़ने के लिए 1 बिलियन डाॅलर और दे दिए हैं। शाहबाज़ की झोली को पिछले हफ्ते भरने में सउदी अरब ने भी काफी उदारता दिखाई थी। लेकिन पाकिस्तान की झोली में इतने बड़े-बड़े छेद हैं कि ये पश्चिम एशियाई राष्ट्र तो क्या, उसे चीन और अमेरिका भी नहीं भर सकते। इन छेदों का कारण क्या है? इनका असली कारण है- भारत।
भारत के विरूद्ध पाकिस्तान की फौज और सरकार ने इतनी नफरत कूट-कूटकर भर दी है कि उस राष्ट्र का ध्यान खुद को संभालने पर बहुत कम लग पाता है। इसी नफरत के दम पर पाकिस्तानी नेता चुनावों में अपनी गोटी गरम करते हैं। वे कश्मीर का राग अलापते रहते हैं और फौज को अपने सिर पर चढ़ाए रखते हैं। आम जनता रोटियों को तरसती रहती है लेकिन उसे भी नफरत के गुलाब जामुन कश्मीर की तश्तरी में रखकर पेश कर दिए जाते हैं। पिछले हफ्ते शाहबाज शरीफ, कजाकिस्तान और संयुक्त अरब अमारात गए। वहां भी उन्होंने कश्मीर का राग अलापा।
उन्होंने भारत के प्रधानमंत्री से बात करने की पहल की, जो कि अच्छी बात है लेकिन साथ में ही यह धमकी भी दे डाली कि अगर दोनों देशों के बीच युद्ध हो गया तो कोई नहीं बचेगा। दोनों के पास परमाणु बम हैं। शाहबाज ने अबू धाबी के शासक से कहा कि भारत से आपके रिश्ते बहुत अच्छे हैं। आप मध्यस्थता क्यों नहीं करते? एक तरफ वे मध्यस्थता की बात करते हैं और दूसरी तरफ, वे भारत से कहते हैं कि आप संयुक्तराष्ट्र संघ के प्रस्ताव के मुताबिक कश्मीर हमारे हवाले कर दो।
पाकिस्तान के दो-तीन प्रधानमंत्रियों से मेरी बहुत ही मैत्रीपूर्ण बातचीत में मुझे पता चला कि उन्होंने संयुक्तराष्ट्र के उस प्रस्ताव का मूलपाठ कभी पढ़ा ही नहीं है। उन्हें यह पता ही नहीं है कि उस प्रस्ताव में कहा गया है कि पाकिस्तान पहले तथाकथित ‘आज़ाद कश्मीर’ को खाली करे। शाहबाज को चाहिए था कि वे आतंकवाद के विरूद्ध भी कुछ बोलें। लेकिन ऐसा लगता है कि अबू धाबी में उन्होंने जो कुछ कहा है, वह यहां के शासकों को खुश करने के लिए कहा है।
यह शाहबाज़ शरीफ की ही नहीं, सभी पाकिस्तानी नेताओं की मजबूरी है कि जो लोग उनकी झोली में कुछ जूठन डाल देते हैं, उन्हें कुछ न कुछ महत्व तो देना ही पड़ता है। आखिर में खाली भिक्षा-पात्र को भरा जाना ही है, हर शर्त पर! इसीलिए दोनों नेताओं के संयुक्त वक्तव्य में शाहबाज़ के उक्त बयान का जिक्र तक नहीं है। (नया इंडिया की अनुमति से)
-गीता प्रसाद
आप किसी भी लडक़े से उसका पसंदीदा रंग पूछिए, उत्तर में आपको अधिकतर नीला, काला, सफेद, ग्रे या खाकी जैसे रंगों का ही जि़क्र मिलेगा। अच्छा ये बताइए, आपने कितने लडक़ों को गुलाबी शर्ट या टीशर्ट पहने देखा है?
शायद एक भी नहीं। तो क्या उन्हें गुलाबी रंग से कुछ परहेज है? किसी भी रंग के प्रति हमारी रुचि या अरुचि, हमारे व्यक्तित्व और गुणों के बारे में बहुत कुछ बताती है। तो क्या गुलाबी रंग जो कि कोमलता, सौम्यता, मृदुलता का प्रतीक है; क्या ये सभी गुण लडक़ों में उपस्थित नहीं?
इसका उत्तर मैंने खोजने का प्रयास किया... पहलेपहल मुझे बमुश्किल एक ही चेहरा याद आया। थोड़ा और चिंतन करने के बाद मुझे बहुत सारे ‘गुलाबी लडक़े’ नजर आने लगे। वो लडक़े, जिन्होंने गुलाबी रंग को भले ही अपने वॉर्डरोब में जगह न दी हो, मगर उसे सदैव अपने हृदय में संचित, पोषित और जीवित रखा है।
मेरे ख्याल में... गुलाबी हैं वो लडक़े, जो आज भी हर लडक़ी को दिल तो क्या, दिल वाली इमोजी भी भेजने में कई बार सोचते हैं।
गुलाबी हैं वो लडक़े, जो घर में बहनों के अभाव में मेहमानों के लिए सलीके से ट्रे में पानी ले आते हैं। गुलाबी हैं वो लडक़े जिन्हें कभी मां-बाप, बहन- भाई की, गाली देना नहीं आया।
गुलाबी हैं वो लडक़े भी, जो रसोई से खाना लेते समय अक्सर देख लिया करते कि मां के लिए सब खत्म ना हो जाए ।
गुलाबी हैं वो लडक़े भी, जो अपनी दोस्त के पहले क्रश की कहानियां ध्यान से सुनते और उनसे कभी नहीं कहते कि वह भी उनसे प्यार कर बैठे हैं।
मैं कहती हूँ, बहुत गुलाबी हैं वो लडक़े, जिन्होंने लोकल ट्रेन या राह चलते किसी लडक़ी को छेड़छाड़ से बचाया है।
और बहुत बहुत गुलाबी हैं वो लडक़े जिन्होंने, किसी बलात्कार या एसिड अटैक विक्टिम से प्रेम या विवाह किया।
गुलाबी हैं वो लडक़े भी तो जिनकी आँखें, अपनी दोस्त, प्रेमिका या पत्नी के सामने अपने कठिन दौर को याद करते समय नम हो गयीं।
सुनो, गुलाबी हैं वो लडक़े भी, जो खुद चाय प्रेमी ना होने के बावजूद, कामकाजी पार्टनर के लिए एक कप चाय बनाने की नापतौल में, रोज़ डेढ़ कप चाय बना बैठते और बेमन से ही सही, रोज आधा कप चाय संग में पी लिया करते। और यक़ीन मानिए, गुलाबी थे, हैं और हमेशा रहेंगे, वो लडक़े ... जो अपनी पहली संतान एक बेटी चाहते हैं, जो बिल्कुल उनके जैसी दिखती हो।
मैं दावे से कह सकती हूँ कि ये ‘गुलाबी लडक़े’ किसी के भी जीवन को हर रंग से भरने में सक्षम हैं। दिल से शुक्रिया...! सभी ‘गुलाबी लडक़ों’ का..., बाहर से चाहे जैसे दिखो, मगर सदैव बचाये रखना इस गुलाबी रंग को अपने कोमलतम हृदय में...!!!
-डॉ. संजय शुक्ला
आर्थिक उदारीकरण और संचार क्रांति ने सबसे ज्यादा क्रांतिकारी परिवर्तन सूचना माध्यमों में लाया है लेकिन इसका नाकारात्मक स्वरूप भी सामने है। हाल ही में देश के शीर्ष अदालत सुप्रीम कोर्ट के दो सदस्यीय बेंच ने ‘हेट स्पीच’ पर रोक लगाने संबंधी याचिका पर सुनवाई के दौरान कहा है कि भारत में टेलीविजन न्यूज चैनल समाज में दरार पैदा कर रहे हैं तथा ये चैनल अपने नियत एजेंडे पर चलते हैं। जजों ने यह भी कहा कि ये चैनल्स सनसनीखेज खबरों के लिए प्रतिस्पर्धा करते हैं तथा अपने एजेंडे के तहत नफरत फैलाने वाले खबरें प्रसारित करते हैं। अदालत ने समाचार एंकरों के खिलाफ कार्रवाई की मंशा जाहिर करते हुए यह भी कहा कि नफरती भाषण एक राक्षस है जो सबको निगल जाएगा।पीठ ने केंद्र सरकार से पूछा है कि समाज में नफरत फैलाने वाले प्रसारण को कैसे नियंत्रित किया जा सकता है? जवाब में सरकार ने कहा है कि नफरती भाषण से निबटने के लिए भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता 'सीआरपीसी' में व्यापक संशोधन की योजना बनाई जा रही है। हालांकि सरकार अदालत को ऐसा भरोसा बीते कई सालों से दे रही है लेकिन नतीजा सिफर ही है।
बहरहाल सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी सच की अभिव्यक्ति है जिसे बहुसंख्यक देशवासी महसूस कर रहे हैं। यह कहना गैर मुनासिब नहीं होगा कि पत्रकारिता की मर्यादा और जवाबदेही को सबसे ज्यादा खंडित इलेक्ट्रॉनिक न्यूज चैनल्स ने ही किया है जो टीआरपी की भूख मिटाने किसी भी सीमा को लांघने में गुरेज नहीं कर रहे हैं। भारत में पत्रकारिता का एक उजला इतिहास रहा है जिसने देश के स्वतंत्रता आंदोलन से लेकर स्वातंत्र्योत्तर भारत में अपनी प्रतिष्ठापूर्ण भूमिका का निर्वहन किया है फलस्वरूप मीडिया यानि पत्रकारिता को लोकतंत्र के चौथे स्तंभ का दर्जा दिया गया। हाल के वर्षों में जब समूचे समाज में नैतिक मूल्यों का क्षरण बड़ी तेजी से हो रहा है तब पत्रकारिता भी इससे अछूता नहीं है। मीडिया में जारी अधोपतन का खामियाजा देश के उस तबके को भोगना पड़ रहा है जिसके लिए खबरिया चैनल ?????आंख और कान हैं। यह कहना भी गलत नहीं होगा कि मीडिया जगत में जारी भरोसे के संकट के बीच आज भी प्रिंट मीडिया यानि अखबारों के प्रति लोगों में विश्वसनीयता कायम है। बहरहाल संचार क्रांति के इस दौर में जब इंटरनेट आम आदमी के जीवन का अहम हिस्सा बन चुका है तब यह माध्यम फेक और नफरती खबरें बांटने में अव्वल साबित हो रहा है। गौरतलब है कि कुछ अर्सा पहले सुप्रीम कोर्ट ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म और वेब मीडिया पर फर्जी और लोगों को बदनाम करने वाली खबरों के चलन पर चिंता जाहिर करते हुए सरकार को ऐसे खबरों को रोकने के लिए जरूरी उपाय करने का निर्देश दिए थे।
बीते सालों के दौरान अदालतों ने न्यूज चैनल्स के गैर जिम्मेदाराना रवैए पर क?ई बार सख्ती दिखाई थी लेकिन इस मनमानी पर अब तक रोक नहीं लग पाया है बिलाशक इसके लिए राजनीतिक संरक्षण ही जिम्मेदार है। हाल के वर्षों में मीडिया पर सत्ता प्रतिष्ठान को खुश रखने के लिए पक्षपाती होने और निष्पक्ष मीडिया हाउस के कर्ताधर्ताओं को सरकारी एजेंसियों के माध्यम से दबाव में लाने के आरोप लगातार लग रहे हैं। विपक्षी नेताओं की मानें तो देश में मीडिया पर अघोषित सेंसरशिप लागू है।दरअसल देश में अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर टेलीविजन न्यूज चैनल ऐसी खबरें परोस रहीं हैं जिससे देश में सांप्रदायिक सौहार्द लगातार बिगड़ रहा है फलस्वरूप कानून और व्यवस्था की स्थिति निर्मित हो रही है। एक न्यूज एजेंसी के सर्वे के मुताबिक टीवी चैनलों में शाम 5 बजे से रात 10 बजे तक हो रहे बहसों में 70 फीसदी बहस धार्मिक, सांप्रदायिक, पाकिस्तान के अंदरूनी मामलों पर होते हैं। इन चैनलों में देश की ज्वलंत समस्या महंगाई, बेरोजगारी, भुखमरी और बीमारी पर कोई सार्थक बहस नहीं देखी गई।यह कहना गैर मुनासिब नहीं होगा कि मुल्क में मजहबी उन्माद फ़ैलाने के लिए जितना जिम्मेदार राजनीतिक और धार्मिक संगठन हैं उतना ही जिम्मेदार इलेक्ट्रॉनिक न्यूज मीडिया भी है।
अधिकांश टीवी चैनल्स में सलेक्टिव धार्मिक मुद्दों पर दोनों मजहबों के बीच हिंसा भडक़ाने और वैमनस्य बढ़ाने वाले निरर्थक बहस का चलन बढ़ा है। टीवी एंकर ऐसे पार्टी प्रवक्ताओं, मजहबी नेताओं, साधु-साध्वियों और मौलवियों को बैठाकर आक्रामक बहस के लिए प्रेरित करते हैं जिन्हें हिंदू धर्म या इस्लाम की भलिभांति जानकारी ही नहीं है और बल्कि वे एक नियत एजेंडे पर बहस करते हैं। गौरतलब है कि बीते साल नूपुर शर्मा विवाद के जड़ में भी ऐसा ही टीवी डिबेट था, इस बहस में एंकर की भूमिका गैर जिम्मेदाराना थी एंकर चाहती तो नुपुर शर्मा को आपत्तिजनक टिप्पणियां करने से रोक सकती थीं अथवा खुद टीवी चैनल भी इस प्रसारण को रोक सकती थीं लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। इस बहस का परिणाम आज भी देश भोग रहा है और विदेशों में भारत की छवि अलग प्रभावित हुई। इन टीवी चैनलों के पक्षपाती रवैए की झलक विभिन्न राजनीतिक मुद्दों पर होने वाले चर्चा के दौरान भी दिखाई पड़ती है जब टीवी एंकर सत्ता से जुड़े राजनीतिक दल के प्रवक्ता को अपनी बात रखने के लिए सुविधाजनक समय देते हैं लेकिन विपक्षी दलों के प्रवक्ताओं के तर्क और तथ्य रखने के दौरान कभी समय का बहाना बना कर अथवा ब्रेक लेकर उनके साथ पक्षपात करते हैं। आलम यह रहता है कि अनेक बार खुद एंकर विपक्षी प्रवक्ताओं पर हावी होने की कोशिश करते हैं जो किसी भी लिहाज से स्वस्थ पत्रकारिता नहीं है। अलबत्ता टीवी चैनलों के बहस में केवल धर्म और साम्प्रदायिकता पर ही भडक़ाऊ बातें नहीं की जा रही है बल्कि देश के संविधान, अदालतों, जांच एजेंसियों और विपक्षी नेताओं के बारे में भी आपत्तिजनक टिप्पणियां की जा रही है। टीवी चैनल किसी मामले पर जिस तरह मीडिया ट्रायल प्रसारित करतीं हैं मानो देश में अब पुलिस और अदालतों की कोई जरूरत ही नहीं रह गई है। फिल्म अभिनेता सुशांत राजपूत के आत्महत्या और शाहरूख खान के बेटे आर्यन खान से संबंधित ड्रग्स मामले में टीवी चैनलों के मीडिया ट्रायल ने पुलिस और अदालत को भी हैरत में डाल दिया था जबकि नतीजा कुछ और निकला। नवंबर 2008 में मुंबई हमले के दौरान क?ई न्यूज चैनल्स के हमले के लाइव कवरेज का आतंकियों ने फायदा उठाया था। टेलीविजन न्यूज चैनल्स केवल देश के अंदरूनी मामलों में ही पक्षपाती बहस और खबरें नहीं प्रसारित कर रहे हैं बल्कि अंतरराष्ट्रीय मामलों में भी गैर जिम्मेदाराना रवैया अपना रही है। मीडिया का बुनियादी दायित्व युद्ध,आपदा, महामारी और अशांति में समाज में शांति और साकारात्मकता कायम करना है लेकिन टेलीविजन न्यूज चैनल्स अपने इन दायित्वों के प्रति हर विभिषिका में गैर जिम्मेदाराना रवैया ही अपनाता रहा है। पाठकों को स्मरण में होगा कि न्यूज़ चैनलों ने रुस-यूक्रेन युद्ध के शुरूआत में अपने स्टुडियो को युद्ध के मैदान में तब्दील कर दिया था और पूर्व सैन्य प्रमुखों तथा रक्षा विशेषज्ञों को बिठाकर बेफजूल की बहस प्रसारित कर रहे थे।तब इन टीवी चैनल्स के एंकर और स्टुडियो में मौजूद सैन्य विशेषज्ञू ने तीसरे विश्वयुद्ध शुरू होने की बकायदा समय भी तय कर चुके थे। विभिन्न नेशनल न्यूज चैनल्स लगातार इस युद्ध की विभीषिका की लाइव तस्वीरें दिखाते रहे जिसने दर्शकों के दिमाग में गहरा असर डाला। कोरोना महामारी के दौरान कतिपय न्यूज चैनलों ने देश में भय, दहशत, आक्रोश और धार्मिक वैमनस्यता परोसने में कोई कसर नहीं छोड़ी। भारत में महामारी के शुरूआत में पहले देशव्यापी लॉकडाउन के दौरान मजदूरों के पैदल घर वापसी की लाइव समाचार प्रसारित कर देश में अफरातफरी और दहशत कायम करने में लगे रहे। न्यूज़ चैनलों ने देश में कोरोना के शुरूआती संक्रमण के लिए दिल्ली में तबलीगी जमात के धार्मिक आयोजन को जिम्मेदार मानते हुए अल्पसंख्यक समुदाय को कठघरे में खड़ा करने और इस समुदाय द्वारा मेडिकल टीम के साथ पथराव और दुर्व्यवहार की खबरों को लगातार चलाया फलस्वरूप देश में सांप्रदायिक तनाव पैदा हुआ। महामारी के दूसरी लहर के दौरान न्यूज चैनलों ने देश के अस्पतालों में ऑक्सीजन और बिस्तर की कमी के कारण अस्पतालों के बाहर गलियारों और आटोरिक्शा में दम तोड़ते लोगों और रोते- बिलखते परिजनों की लगातार खबरें प्रसारित कर एक बड़ी आबादी में बेचैनी और डर पैदा कर दिया। बहरहाल टीवी चैनल्स अभी भी चीन में कोरोना महामारी के दहशत भरे खबरें चलाने से बाज नहीं आ रहे हैं।
निराशाजनक यह कि कतिपय टीवी चैनल टीआरपी की होड़ में सनसनीखेज कार्यक्रम प्रसारित कर मीडिया के लिए जरूरी अनुशासन और
जवाबदेही की पाबंदियां लगातार लांघ रहे हैं। यहां यह भी विचारणीय है कि है कि अदालतों और सरकार ने जब -जब मीडिया की निरंकुशता पर अंकुश लगाने की कोशिश की तब-तब मानवाधिकार संगठनों और कथित बुद्धिजीवियों ने इसे बोलने की आजादी पर हमला बताते हुए हल्ला मचाया। बहरहाल अभिव्यक्ति की आजादी और प्रेस की स्वतंत्रता के नाम पर टीवी न्यूज चैनल्स द्वारा प्रसारित किए जा रहे ‘हेट स्पीच’ को किसी भी लिहाज से स्वीकार नहीं किया जा सकता लिहाजा ऐसे मनमानी पर अंकुश लगाना आवश्यक है।अभिव्यक्ति की आजादी की पैरवी करने वालों को यह बात जेहन में रखना चाहिए कि संविधान के अनुच्छेद 19 (1) ए के तहत प्राप्त बोलने की आजादी अनियंत्रित नहीं है बल्कि उस पर भी कानूनी पाबंदियां हैं। विचारणीय है कि मीडिया यानि पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है यदि यही आधार देश के सांप्रदायिक सौहार्द और कानून व्यवस्था के लिए खतरा बनने लगे तो यह निश्चित ही चिंताजनक है। बहरहाल हर समस्या का समाधान केवल अदालतों के भरोसे संभव नहीं है बल्कि इसके लिए सरकार और मीडिया जगत को भी सामने आना होगा। महात्मा गांधी का मानना था कि कलम की निरंकुशता खतरनाक हो सकती है लेकिन उस व्यवस्था पर अंकुश और ज्यादा खतरनाक हो सकती है लिहाजा वे पत्रकारिता में स्व-नियमन और स्व-अनुशासन के पक्षधर थे।उक्त के मद्देनजर टीवी चैनलों और एंकरों को खुद अपने लिए एक लक्ष्मण रेखा तय करनी चाहिए ताकि पत्रकारिता की आत्मा जिंदा रहे आखिरकार यह जवाबदेही भी उनकी ही है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
आजकल हम भारतीय लोग इस बात से बहुत खुश होते रहते हैं कि भारत शीघ्र ही दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने जा रहा है। लेकिन दुनिया के इस तीसरे सबसे बड़े मालदार देश की असली हालत क्या है? इस देश में गरीबी भी उतनी ही तेजी से बढ़ती जा रही है, जितनी तेजी से अमीरी बढ़ रही है। अमीर होनेवालों की संख्या सिर्फ सैकड़ों में होती है लेकिन गरीब होनेवालों की संख्या करोड़ों में होती है। आॅक्सफाॅम के ताज़ा आंकड़ों के मुताबिक पिछले दो साल में सिर्फ 64 अरबपति बढ़े हैं। सिर्फ 100 भारतीय अरबपतियों की संपत्ति 54.12 लाख करोड़ रु. है याने उनके पास इतना पैसा है कि वह भारत सरकार के डेढ़ साल के बजट से भी ज्यादा है।
सारे अरबपतियों की संपत्ति पर मुश्किल से 2 प्रतिशत टैक्स लगता है। इस पैसे से देश के सारे भूखे लोगों को अगले तीन साल तक भोजन करवाया जा सकता है। यदि इन मालदारों पर थोड़ा ज्यादा टैक्स लगाया जाए और उपभोक्ता वस्तुओं का टैक्स घटा दिया जाए तो सबसे ज्यादा फायदा देश के गरीब लोगों को ही होगा। अभी तो देश में जितनी भी संपदा पैदा होती है, उसका 40 प्रतिशत सिर्फ 1 प्रतिशत लोग हजम कर जाते हैं जबकि 50 प्रतिशत लोगों को उसका 3 प्रतिशत हिस्सा ही हाथ लगता है। अमीर लोग अपने घरों में चार-चार कारें रखते हैं और गरीबों को खाने के लिए चार रोटी भी ठीक से नसीब नहीं होती। ये जो 50 प्रतिशत लोग हैं, इनसे सरकार जीएसटी का कुल 64 प्रतिशत पैसा वसूलती है जबकि देश के 10 प्रतिशत सबसे मालदार लोग सिर्फ 3 प्रतिशत टैक्स देते हैं।
इन 10 प्रतिशत लोगों के मुकाबले निचले 50 प्रतिशत लोग 6 गुना टैक्स भरते हैं। गरीब और मध्यम वर्ग के लोगों को अपनी रोजमर्रा के जरूरी चीजों को खरीदने पर बहुत ज्यादा टैक्स भरना पड़ता है, क्योंकि वह बताए बिना ही चुपचाप काट लिया जाता है। इसी का नतीजा है कि देश के 70 करोड़ लोगों की कुल संपत्ति देश के सिर्फ 21 अरबपतियों से भी कम है। साल भर में उनकी संपत्तियों में 121 प्रतिशत का इजाफा हुआ है। अब जो नया बजट आनेवाला है, शायद सरकार इन ताजा आंकड़ों पर ध्यान देगी और भारत की टैक्स-व्यवस्था में जरुर कुछ सुधार करेगी। देश कितना ही मालदार हो जाए लेकिन यदि उसमें गरीबी और अमीरी की खाई बढ़ती गई तो वह संपन्नता किसी भी दिन हमारे लोकतंत्र को परलोकतंत्र में बदल सकती है। यह हमने पिछली दो सदियों में फ्रांस, रूस और चीन में होते हुए देखा है। (नया इंडिया की अनुमति से)
-जे. सुशील
‘बहुत साल पहले पोलैंड के एक लेखक हुए जोसेफ कोनराड। कोनराड पोलिश थे तो उन्होंने अंग्रेजी देर से सीखी लेकिन तय किया कि अंग्रेजी में ही लिखेंगे। कहते हैं कि बाईस साल में उन्होंने अंग्रेजी में लिखना शुरू किया था। लेखन के अलावा वो दुनिया के अलग अलग जगहों (खास कर अफ्रीका) में बहुत लंबे समय तक रहे और ब्रितानी जहाजों पर ही यात्राएं कीं। उनकी किताबें इन यात्राओं से जुड़ी हुई हैं। जिसमें से एक किताब को बेहतरीन किताब माना गया- हार्ट ऑफ डार्कनेस। यह कांगो की यात्रा पर थी। जैसा कि नाम से जाहिर है यह एक आपत्तिजनक किताब होनी चाहिए थी लेकिन चूंकि वो समय साम्राज्यवाद का था तो किसी ने कुछ कहा नहीं। यह किताब मकबूल हुई इतनी कि ब्रितानी न होने के बावजूद अंग्रेजी साहित्य के कैनन में यह शामिल हो गई।
हालांकि इस किताब में साम्राज्यवाद की भी आलोचना है लेकिन उसमें अफ्रीकी लोगों का जो डेपिक्शन है वो बहुत खराब है। दुनिया के सभी अंग्रेजी के क्लासेस में ये पढ़ाई जाती रही। बीसवीं सदी में चालीस से लेकर साठ के दशक में एशिया और अफ्रीका में उपनिवेशवाद को उखाड़ फेंका गया। पचास के दशक में चिनुआ अचेबे, साठ के दशक में न्गूगी वा थियोंगो ने जो उपन्यास लिखे उनकी पृष्ठभूमि में हार्ट ऑफ डार्कनेस के बरक्स एक नैरेटिव खड़ा करना ही था।
जब लोग (फेसबुक पर तो बिना क्रेडिट दिए) इस वाक्य को कोट करते हैं कि जब तक शेर का इतिहास लिखने वाला कोई नहीं होगा तब तक शिकारी की वीरता के किस्से ही लोग सुनेंगे। (मूल कोट- until the lions have their own historians, the history of the hunt will always glorify the hunter) उन्हें ये नहीं पता होगा कि इस वाक्य की पृष्ठभूमि क्या है। अचेबे ने अपने इंटरव्यूज में यह स्पष्ट किया है कि जब वो कॉलेज में कोनराड की किताब पढ़ रहे थे तो वो इस बात से बहुत दुखी हुए थे और नाराज़ कि इस किताब में अफ्रीका के लोगों को किस तरह से दिखाया गया है।
वो ये भी कहते हैं कि उन्होंने अपना उपन्यास लिखा भी इसी कारण से था। थिंग्स फॉल अपार्ट एक कालजयी उपन्यास है इसमें कोई शक नहीं रहा। आगे चलकर एडवर्ड सईद ने भी जोसेफ कोनराड पर ही पीएचडी की और सत्तर के दशक में उनकी किताब ओरिएन्टलिज़्म में भी कोनराड की इस किताब की गंभीर आलोचना है और कहा गया है कि कोनराड की दृष्टि में साम्राज्यवाद खराब तो था लेकिन उनके मन में अफ्रीकी लोगों के प्रति दुर्भाव भी स्पष्ट दिखता है। लेकिन यह लिखते हुए सईद कहीं भी यह नहीं कहते कि कोनराड घटिया आदमी थे या वो घटिया लेखक थे। सईद कहते हैं कि आदमी आलोचना उसी चीज की करता है जिससे वो बहुत प्रेम करता है। आप जिस टेक्सट से प्रेम में होंगे उसी की आलोचना करेंगे और यह ठीक भी है। किसी टेक्सट से घृणा कर के उसकी आलोचना नहीं हो सकती है।
साठ और सत्तर के दशक में कोनराड को रिडिफाईन किया गया। अस्सी के दशक में इस संदर्भ में चिनुआ अचेबे का एक अभूतपूर्व लेख है एन इमेज ऑफ अफ्रीका के नाम से। यह एक भाषण था जो उन्होंने अमेरिका की एक यूनिवर्सिटी में दिया था जो बाद में मैसाचुसेट्स रिव्यू में छपा। इस लेख का पूरा टाइटल बहुत मजेदार है- 'An Image of Africa: Racism in Conrad's 'Heart of Darkness'
स्पष्ट है कि वो क्या चिन्हित कर रहे हैं लेकिन पूरे लेख में वो कहीं भी कोनराड पर कोई व्यक्तिगत हमला नहीं कर रहे हैं। उनकी नस्ल पर कटाक्ष नहीं कर रहे हैं लेकिन उस लेख में जो आलोचना की गई है उससे कोई असहमत भी नहीं हो सकता है।
अब सवाल यह है- अगर कोनराड का लेखन नस्लभेदी था जो बहुत हद तक प्रमाणित है तो क्या कोनराड को पढ़ाया जाना बंद कर दिया गया यूनिवर्सिटियों में? नहीं। कोनराड अब भी पढ़ाए जाते हैं बस उसका संदर्भ बदल गया। अब ज्यादातर यूनिवर्सिटियों में उनकी किताब पढ़ाते हुए यह बताया जाता है कि कैसे उनके उपन्यास में अफ्रीकी लोगों को दर्शाया गया है जो प्रॉब्लमैटिक है। कई बार बहस में ग्रेजुएशन के बच्चे कहते हैं- कोनराड रेसिस्ट हैं जिस पर प्रोफेसर उन्हें टोकते हैं और कहते हैं हो सकता है वो रेसिस्ट हों लेकिन हमें उनके टेक्सट पर बात करनी चाहिए और बेहतर होगा ये कहना कि उनके टेक्सट में रेसिज्म दिखता है।
लेकिन ये महीन बात है। लोगों को इतना धैर्य नहीं है। तुलसीदास को बिना पढ़े उनके लिखे में से चार-पांच-दस लाइनें निकाल कर उन्हें जातिवादी, स्त्रीद्वेषी और न जाने क्या क्या कहा जा रहा है। किसी भी टेक्स्ट को उसके टाइम और स्पेस में भी देखा जाना चाहिए। यह कहा ही जा सकता है कि तुलसीदास के टेक्सट में स्त्रीद्वेषी पंक्तियां हैं लेकिन क्या इन पंक्तियों से उनके लेखन को खारिज किया जा सकता है पूरी तरह।
क्या ये बात याद नहीं रखी जानी चाहिए कि संस्कृत के प्रभुत्व के समय में वो अवधी में लिख रहे थे तो उन्हें उच्च वर्ग के लोगों से तिरस्कार मिला था। चीजों को संदर्भ में देखना समझना चाहिए। आलोचना तो होनी ही चाहिए इसमें क्या शक है लेकिन सुदीर्घ आलोचना हो। ये मैं कुछ अधिक उम्मीद कर रहा हूं शायद।
फेसबुक के जमाने में कथित पढ़े-लिखे लोग भी चार लाइन में तुलसी को निपटा कर आगे बढ़ जाते हैं। क्योंकि फिर कल सूर्यकुमार यादव करना है परसों मीडिया पर भाषण देना है नरसों किसी और को गरियाना है।
खैर। इस पोस्ट पर अब कोई मुझे भी ब्राम्हणवादी घोषित करेगा। ऐसा मैं अनुभव से कह रहा हूं। यह सामान्य है फेसबुक पर।’
‘तुलसीदास अवधी के महाकवि थे। विचारधारा उनकी वर्णव्यवस्था के पक्ष में थी। लेकिन माक्र्सवादी साहित्य चिंतन ने मुझे छात्र जीवन में ही सिखा दिया था, और नामवर सिंह के व्याख्यानों ने यह समझने में मदद की थी, कि किसी लेखक की विचारधारा उसकी विश्वदृष्टि का एक अवयव होती है। महत्वपूर्ण उसकी समूची विश्वदृष्टि है जिसके आलोक में उसके कृतित्व को समझा जाना चाहिए। आजकल खारिज करने का फैशन चल पड़ा है । कोई नागार्जुन को खारिज कर रहा है तो कोई तुलसी और निराला को। प्रेमचंद को तो सतीसमर्थक तक बताया जा चुका है। मेरा तो सिर्फ यह कहना है। अगर किसी लेखक को नहीं पढऩा चाहते हो तो न पढ़ो। प्रेमचंद को या निराला को या तुलसी-सूर को नहीं पढ़ोगे तो इनका तो कोई नुकसान होने वाला है नहीं। तुम्हारा ही होगा। और हाँ, जो कबीर इतने फैशन में हैं, नारी पर उनके विचार भी पढ़ लेना । ’ -कुलदीप कुमार
‘मैं किसी पुस्तक को जलाने के पक्ष में नहीं हूं, वह मनुस्मृति हो या ‘बंचेज आप थाट्स’ हो। पढ़ सकें तो पढिय़े, गुनिये-समझिये और बढिय़ा बहस कीजिए। तर्क से खारिज करना पुस्तक जलाने से अधिक प्रभावशाली होगा। तर्क के धनी हैं तो ‘जला दो, मिटा दो’ वाला नकारात्मक रास्ता क्यों चुन रहे हैं? यदि पुस्तक जलाने की संस्कृति सही है तो केवल मनुस्मृति और रामचरितमानस जलाने तक ही यह अभियान नहीं रुकेगा, कल को ‘एनिहिलेशन ऑफ कास्ट’ और ‘दास कैपिटल’ भी इसकी जद में आ सकते हैं।’ ‘प्रेमचंद की रचनावली (जनवाणी प्रकाशन, दिल्ली) में संकलित, प्रेमचंद की ओर से उनकी बेटी के भावी ससुर को लिखे गये एक विवादास्पद पत्र, जो स्त्री की दृष्टि से अत्यंत आधुनिकता-विरोधी है, पर चली बहस में प्रेमचंद के पक्ष में हिंदी के प्रखर, प्रतिबद्ध और पाठकों के बीच बहुत पसंद किये जाने वाले आलोचक वीरेंद्र यादव ने एक बहुत महत्वपूर्ण बात की थी कि ‘ख्याल रहे, नहलाने के बाद बाथ-टब से केवल मैला पानी बहाना है। ऐसा न हो कि पानी के साथ बेबी को भी बहा दें।’ मुझे लगता है तुलसीदास पर बात करते हुए भी उनकी यह बात हमें याद रखनी चाहिए।’
-सूर्य नारायण (प्रोफेसर, इलाहाबाद विश्वविद्यालय)
अशोक पांडे
मशीनों ने दलाई लामा को बचपन से ही आकर्षित किया। पोटाला महल में जो भी मशीन दिखाई देती, पेंचकस वगैरह लेकर उसके उर्जे-पुर्जे खोलकर अलग करना और उन्हें फिर से जोडऩे का खेल उन्हें पसंद था। ल्हासा में तब कुल तीन कारें थीं। तीनों उन्हीं की थीं। उन्होंने इन कारों को भी कई दफा खोला-जोड़ा।
ऑस्ट्रियाई पर्वतारोही हाइनरिख हैरर एक बेहद मुश्किल और दुस्साहस-भरे अभियान के बाद 1946 में जब तिब्बत पहुंचे तो उनकी मुलाकात किशोर दलाई लामा से हुई। यह मुलाकात एक बेहद अन्तरंग मित्रता में तब्दील हुई और 2006 में हुए हैरर के देहांत तक बनी रही। हैरर ने तिब्बत के अपने अनुभवों को ‘सेवेन ईयर्स इन तिब्बत’ के नाम से प्रकाशित किया। इस बेस्टसेलर पर इसी नाम से फिल्म भी बनी है।
हाइनरिख हैरर और दलाई लामा के बीच पच्चीस साल का फासला था। दोनों की जन्मतिथि इत्तफाकन एक ही थी-6 जुलाई। किशोर दलाई लामा के लिए हैरर एक ऐसी खिडक़ी बन गए जिसकी मदद से आधुनिक संसार को देखा-समझा जा सकता था। हैरर को तिब्बत सरकार में बाकायदा नौकरी दी गई और बहुत सारे महत्वपूर्ण काम सौंपे गए। उन्हें विदेशी समाचारों का अनुवाद करना होता था, महत्वपूर्ण अवसरों के फोटो खींचने होते थे और दलाई लामा को ट्यूशन पढ़ाना होता था। इस तरह खेल-विज्ञान के ग्रेजुएट हाइनरिख हैरर तिब्बत के किशोर धर्मगुरु के अंग्रेज़ी, भूगोल और विज्ञान अध्यापक बने। हैरर ने दलाई लामा के लिए स्केटिंग रिंक तैयार करने के अलावा एक सिनेमा हॉल भी बनाया जिसके प्रोजेक्टर को जीप इंजिन की सहायता से चलाया जाता था।
उधर अमेरिका किसी तरह भारत के रास्ते चीन तक सडक़ बनाने के मंसूबे देख रहा था। तिब्बत से होकर जाने वाले रास्ते में उसे संभावना दिखाई दी तो तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने अपने दो प्रतिनिधियों को ल्हासा भेजा। प्रसंगवश इन दो में से एक आदमी रूसी मूल का था जिसका नाम इल्या था और वह लियो टॉलस्टॉय का पोता था। रूजवेल्ट ने बालक दलाई लामा के लिए एक विशेष उपहार भेजा। जेनेवा की मशहूर घड़ीसाज़ कम्पनी पाटेक फिलिप ने उस एक्सक्लूसिव मॉडल की 1937 और 1950 के बीच कुल 15 घडिय़ाँ बनाई थीं। ऐसी एक घड़ी 2014 में पांच लाख डॉलर में नीलाम हुई थी।
बहरहाल पोटाला महल की एक-एक घड़ी के अस्थि-पंजर ढीले कर चुके दलाई लामा ने इस घड़ी के साथ भी वही सुलूक किया। हैरर की संगत में अब वे एक एक्सपर्ट बन चुके थे। उसके बाद से पुरानी घडिय़ों को इकठ्ठा करना और उनकी मरम्मत करना दलाई लामा का सबसे बड़ा शौक है।
चीन के दुष्ट साम्राज्यवादी मंसूबों के कारण उन्हें अपना देश छोडऩा पड़ा। उनका तिब्बत आज भी बीसवीं शताब्दी में मानवीय विस्थापन की सबसे बड़ी त्रासदियों में से एक है।
दुनिया भर में फैले अपने अनुयायियों के बीच भगवान की हैसियत रखने वाले, संसार की सबसे मीठी हंसी के स्वामी दलाई लामा को दुनिया भर के मसले निबटाने के बाद आज भी फुर्सत मिलती है तो वे घडिय़ाँ ठीक करते हैं। कभी-कभी इनमें बेहद आम लोगों की घडिय़ाँ भी होती हैं।
‘अगर मैं भिक्षु नहीं बनता तो मुझे पक्का इंजीनियर बनना था’ वे अक्सर कहते हैं।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
सर्वोच्च न्यायालय का सरकार से यह आग्रह बिल्कुल उचित है कि नफरती बयानों पर रोक लगाने के लिए वह तुरंत कानून बनाए। यह कानून कैसा हो और उसे कैसे लागू किया जाए, इन मुद्दों पर सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि संसद, सारे जज और न्यायविद् और देश के सारे बुद्धिजीवी मिलकर विचार करें। यह मामला इतना पेचीदा है कि इस पर आनन-फानन कोई कानून नहीं बनाया जा सकता, क्योंकि देश के बड़े से बड़े नेता, नामी-गिरामी बुद्धिजीवी, कई धर्मध्वजी और टीवी पर जुबान चलानेवाले दंगलबाज- सभी अपने बेलगाम बोलों के लिए जाने जाते हैं।
कभी वे दो टूक शब्दों में दूसरे धर्मों, जातियों, पार्टियों और लोगों पर हमला बोल देते हैं और कभी इतनी घुमा-फिराकर अपनी बात कहते हैं कि उसके कई अर्थ निकाले जा सकते हैं। वैसे अखबार तो इस मामले में जरा सावधानी बरतते हैं। यदि वे स्वयं सीमा लांघें तो उन्हें पकड़ना आसान होता है लेकिन टीवी चैनल और सामाजिक मीडिया में सीमाओं के उल्लंघन की कोई सीमा नहीं है।
अकेले उत्तर प्रदेश में सिर्फ पिछले एक साल में ऐसे मामलों की 400 प्रतिशत बढ़ोतरी हो गई है। वहां और उत्तराखंड में 581 ऐसे मामले सामने आए हैं। 2008 से लेकर अब तक हमारे टीवी चैनलों पर ऐसे आपत्तिजनक बयानों पर 4000 शिकायतें दर्ज हुई हैं। अखबार में छपे हुए नफरती बयानों से कहीं ज्यादा असर टीवी चैनलों पर बोले गए बयानों का होता है। करोड़ों लोग उन्हें सुनते हैं और उस पर उनकी प्रतिक्रिया तुरंत होती है। उदयपुर में एक दर्जी की हत्या कैसे हुई और कुछ प्रदेशों में दंगे कैसे भड़के?
ये सब टीवी चैनलों की मेहरबानी के कारण हुआ। हमारे ज्यादातर टीवी चैनल अपनी दर्शक-संख्या बढ़ाने के लिए कोई भी दांव-पेंच अख्तियार कर लेते हैं। उन्हें न राष्ट्रहित की चिंता होती है और न ही वे सामाजिक सद्भाव की परवाह करते हैं। ऐसे मर्यादाहीन चैनलों को दंडित करने के लिए कड़े कानून बनाए जाने चाहिए। यदि ऐसे कानून बन गए तो ये चैनल हर वाद-विवाद को रेकार्ड करके पहले संयमित करेंगे और फिर उसे अपने दर्शकों को दिखाएंगे। इससे भी ज्यादा करूण कहानी तथाकथित सामाजिक मीडिया (सोश्यल मीडिया) की है।
इसका नाम ‘सामाजिक’ है लेकिन यह सबसे ज्यादा ‘असामाजिक’ हो जाता है। यदि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अद्भुत मंच है लेकिन इसका जितना दुरूपयोग होता है, किसी और माध्यम का नहीं होता। इसको मर्यादित करने के लिए भी कई उपाय किए जा सकते हैं। सरकार ने अश्लीलता के विरुद्ध तो कुछ सराहनीय कदम उठाए हैं लेकिन नफरती सामग्री के खिलाफ भी सख्त कार्रवाई की जरूरत है। (नया इंडिया की अनुमति से)
-रूचिर गर्ग
भूपेन हजारिका याद हैं? जिन्होंने हुंकार लगाई थी-
‘ओ गंगा तुम
ओ गंगा बहती हो क्यूं?’
पूरा सुनिए, फिर से सुनिए, फिर फिर सुनिए।
गंगा और समाज के रिश्ते को समझिए, गंगा और इस देश के बीच जिंदगी की कडिय़ों को जोडि़ए, उन चुनौतियों की शिनाख्त कीजिए जिन्हें महसूस कर भूपेन दा गंगा का आह्वान कर पूछते हैं-
‘नैतिकता नष्ट हुई,मानवता भ्रष्ट हुई,
निर्लज्ज भाव से बहती हो क्यूं’
गंगा जी और सभ्यता के विकास की कहानियां पढि़ए, गंगाजी के तट पर लिखी किसी कवि की कविता को ढूंढिए, गंगा जी और समाज-संस्कृति को सहेजने वाले यात्रा वृत्तांत पढि़ए, गंगा जी के तट पर घंटों पानी में पैर डालकर सुकून पाने वाले लोगों की स्मृतियों को टटोलिए, गंगा जी पर आश्रित जन के पसीने और गंगा जल के पवित्र रिश्ते की महक महसूस कीजिए।
गंगा जी को पंडों की नजर से मत देखिए...वो तो चुप हैं और चुप रहेंगे! वो तो आर्यों की प्रभुता के ही वाहक हैं। गंगा जी और मानव सभ्यता को भूपेन दा के इस आह्वान से जानिए-
‘इतिहास की पुकार, करे हुंकार
ओ गंगा की धार, निर्बल जन को
सबलसंग्रामी, समग्रोगामी
बनाती नहीं हो क्यूं?’
क्रूज पर शैम्पेन उड़ाने वाले प्रभु समाज के लिए नदियां तो ऐसी ही अश्लील विजयों की प्रतीक हैं, नदियों को रौंदने वाले इस समाज की ही संस्कृति की वाहक सत्ता के लिए भी गंगा जी केवल एक बहता पानी है, लेकिन भूपेन दा के इस गीत के जरिए पूछिए गंगा जी से-
‘व्यक्ति रहे व्यक्ति केन्द्रित
सकल समाज व्यक्तित्व रहित
निष्प्राण समाज को छोड़ती ना क्यूं?’
ये शुद्धतावाद नहीं है लेकिन जब गंगा जी की सभ्यता की छाती रौंदी जा रही होगी, उस क्रूज पर जाम टकरा रहे होंगे तब भूपेन दा को याद करते हुए गंगा जी से पूछिए-
‘गंगे जननी, नव भारत में
भीष्मरूपी सुतसमरजयी जनती नहीं हो क्यूं?’
गंगा मां के बेटे वो प्रजा है जो दोनों पार बसती है।
वो ‘अनपढ़ जन अक्षरहिन
अनगीन जन खाद्यविहीन’ गंगा मां के बेटे हैं जो दोनों पार बसते हैं ।
जब लाखों रुपए खर्च कर इस क्रूज पर बैठ शैम्पेन उड़ाते, वहीं पाखाना करते ये लोग इन तटों से गुजरेंगे तब कहीं भूपेन दा पूछ रहे होंगे-
‘विस्तार है अपार, प्रजा दोनों पार
करे हाहाकार नि:शब्द सदा
ओ गंगा तुम
ओ गंगा बहती हो क्यूं?’
भूपेन दा के सवाल इस देश के करोड़ों जन के सवाल हैं, हमारे भी हैं।
हमने गंगा जी को जीया है, गंगा जी की पुण्य संस्कृति में अपने कदम डुबो कर हम भी गंगा नहाए हैं। हम भी गंगा जी की बारीक चमकीली बालू से लिपटे लोग हैं। हमने गंगा जी के तट पर मिलने वाले पत्थरों पर इस पवित्र नदी के भावों की थोड़ी सी चित्रकारी की है...और उन्हें पेपरवेट की तरह इस्तेमाल नहीं किया बल्कि हरिद्वार निवासी हमारी अरुणा मौसी ने उन्हें सहेज रक्खा था ।
हमारे लिए भी गंगा जी मान और अपमान का सवाल हैं ।
जिनके लिए नहीं हैं वो फिर लाइन में लगेंगे और गंगा मां के नकली पुत्रों को वोट देकर आयेंगे!...और शायद हम फिर पूछेंगे- ‘ओ गंगा तुम बहती हो क्यूं?’
(लेखक छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री के मीडिया सलाहकार हैं)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पाकिस्तान के आजकल जैसे हालात हैं, मेरी याददाश्त में भारत या हमारे पड़ोसी देशों में ऐसे हाल न मैंने कभी देखे और न ही सुने। हमारे अखबार पता नहीं क्यों, उनके बारे में न तो खबरें विस्तार से छाप रहे हैं और न ही उनमें उनके फोटो देखे जा रहे हैं लेकिन हमारे टीवी चैनलों ने कमाल कर रखा है। वे जैसे-तैसे पाकिस्तानी चैनलों के दृश्य अपने चैनलों पर आजकल दिखा रहे हैं। उन्हें देखकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं, क्योंकि पाकिस्तानी लोग हमारी भाषा बोलते हैं और हमारे जैसे ही कपड़े पहनते हैं।
वे जो कुछ बोलते हैं, वह न तो अंग्रेजी है, न रूसी है, न यूक्रेनी। वह तो हिंदुस्तानी ही है। उनकी हर बात समझ में आती है। उनकी बातें, उनकी तकलीफें, उनकी चीख-चिल्लाहटें, उनकी भगदड़ और उनकी मारपीट दिल दहला देनेवाली होती है। गेहूं का आटा वहां 250-300 रु. किलो बिक रहा है। वह भी आसानी से नहीं मिल रहा है। बूढ़े, मर्द, औरतें और बच्चे पूरी-पूरी रात लाइनों में लगे रहते हैं और ये लाइनें कई फर्लांग लंबी होती हैं। वहां ठंड शून्य से भी काफी नीचे होती है।
आटे की कमी इतनी है कि जिसे उसकी थैली मिल जाती है, उससे भी छीनने के लिए कई लोग बेताब होते हैं। मार-पीट में कई लोग अपनी जान से भी हाथ धो बैठते हैं। पाकिस्तान के पंजाब को गेहूं का भंडार कहा जाता है लेकिन सवाल यह है कि बलूचिस्तान और पख्तूनख्वाह के लोग आटे के लिए क्यों तरस रहे हैं? यहां सवाल सिर्फ आटे और बलूच या पख्तून लोगों का ही नहीं है, पूरे पाकिस्तान का है। पूरे पाकिस्तान की जनता त्राहिमाम-त्राहिमाम कर रही है, क्योंकि खाने-पीने की हर चीज के दाम आसमान छू रहे हैं।
गरीब लोगों के तो क्या, मध्यम वर्ग के भी पसीने छूट रहे हैं। बेचारे शाहबाज़ शरीफ प्रधानमंत्री क्या बने हैं, उनकी शामत आ गई है। वे सारी दुनिया में झोली फैलाए घूम रहे हैं। विदेशी मुद्रा का भंडार सिर्फ कुछ हफ्तों का ही बचा है। यदि विदेशी मदद नहीं मिली तो पाकिस्तान का हुक्का-पानी बंद हो जाएगा। अमेरिका, यूरोपीय राष्ट्र और सउदी अरब ने मदद जरुर की है लेकिन पाकिस्तान को कर्जे से लाद दिया है।
ऐसे में कई पाकिस्तानी मित्रों ने मुझसे पूछा कि भारत चुप क्यों बैठा है? भारत यदि अफगानिस्तान और यूक्रेन को हजारों टन अनाज और दवाइयां भेज सकता है तो पाकिस्तान तो उसका एकदम पड़ौसी है। मैंने उनसे जवाब में पूछ लिया कि क्या पाकिस्तान ने कभी पड़ौसी का धर्म निभाया है? फिर भी, मैं मानता हूं कि नरेंद्र मोदी इस वक्त पाकिस्तान की जनता (उसकी फौज और शासकों के लिए नहीं) की मदद के लिए हाथ बढ़ा दें तो यह उनकी एतिहासिक और अपूर्व पहल मानी जाएगी। पाकिस्तान के कई लोगों को टीवी पर मैंने कहते सुना है कि ‘इस वक्त पाकिस्तान को एक मोदी चाहिए।’ (नया इंडिया की अनुमति से)
-पुष्य मित्र
शरद यादव के बारे में कल से बहुत सारे किस्से कहे गये हैं, मगर इस किस्से का जिक्र बहुत कम आया कि कैसे एक बार उन्हें राजीव गांधी के खिलाफ चुनावी मैदान में उतार दिया गया था।
यह 1981 की बात है। संजय गांधी के निधन के बाद अमेठी की सीट खाली हुई थी। जनता पार्टी की दोनों सरकारों के गिर जाने के बाद इंदिरा गांधी की अच्छे खासे बहुमत से सत्ता में वापसी हो चुकी थी। मनमौजी हरकतें करने वाले अपने एक बेटे के चले जाने के बाद वे अब अपने दूसरे और बड़े बेटे पर दाव खेलना चाहती थीं, इसलिए राजीव गांधी को अमेठी उपचुनाव में उतार दिया गया था।
तब तक पूर्व हो चुके प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह और जनसंघ के नेता नानाजी देशमुख चाहते थे कि शरद यादव अमेठी से राजीव गांधी को टक्कर दें। राजीव गांधी का वह पहला चुनाव था, मगर जबलपुर में 1974 में ही जनता का उम्मीदवार बनकर शानदार जीत हासिल कर चुके शरद यादव उन दिनों देश में किसी चमकदार सितारे की तरह मशहूर हो गये थे। समाजवादी पार्टी के तमाम दिग्गज नेताओं के वे चहेते थे।
चरण सिंह और नानाजी देशमुख को लगता था कि शरद आसानी से राजीव गांधी को पटखनी दे देंगे। मगर शरद यादव को समझ आ रहा था कि यह मुकाबला आसान नहीं होगा। उनके राजनीतिक कैरियर के लिए खतरनाक भी हो सकता है। वे इनकार कर रहेे थे। तब चरण सिंह उन्हें एक ज्योतिषी के पास ले गये, उस ज्योतिषी ने कहा कि शरद यादव यह चुनाव जीत जायेंगे और इसके बाद इंदिरा गांधी की सरकार गिर जायेगी। मगर शरद यादव फिर भी नहीं माने।
एक बार चरण सिंह तो ढीले पडऩे लगे, मगर नानाजी देशमुख ने उन पर दवाब बनाना शुरू कर दिया। फिर चरण सिंह ने उन्हें यह भी कह दिया कि तुम डरपोक हो। मजबूरन शरद यादव को वह चुनाव लडऩा पड़ा। चुनाव में शरद यादव बुरी तरह हारे और उन्हें 21 हजार के करीब वोट मिले। फिर उन्होंने अगला चुनाव बदायूं से लड़ा, जहां उन्हें जीत मिली। फिर मधेपुरा आये तो यहीं के रह गये।
एक जमाने में फायरब्रांड युवा नेता के रूप में मशहूर शरद यादव फिर किंगमेगर बने। पहले लालू को सीएम बनाया, फिर नीतीश के साथ जुड़े। कहते हैं कि दोनों ने उन्हें धोखा दिया, मगर सच तो यह है कि ये खुद दोनों के लिए असहज स्थिति पैदा करते थे। वे हमेशा कोशिश करते थे कि जिन्हें उन्होंने सीएम बनाया है वे उनकी मर्जी से चलें। हर बात उनके हिसाब से करें। कहते हैं, एक बार तो उन्होंने लालू यादव को हटाकर रामसुंदर दास को सीएम बनाने की भी प्लानिंग कर ली थी।
शरद दिल्ली के पत्रकारों के बहुत प्रिय रहे हैं, समाजवादी विचारों के आईडियोलॉग रहे हैं। मगर इसके बावजूद उन्हें भाजपा और संघ से कभी परहेज नहीं रहा। मगर उनके राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी चूक रही, जब उन्होंने महिला आरक्षण के मसले पर सदन में यह टिप्पणी कर दी कि यह सिर्फ परकटी औरतों की लड़ाई है। महिला आरक्षण में आरक्षण के भीतर आरक्षण की मांग तर्कसंगत हो सकती है, मगर उन्होंने औरतों को लेकर जो टिप्पणी की, उस पर उन्हें संभवत: बाद में खुद भी ग्लानि होती होगी।
पिछले दिनों पटना में महिला आरक्षण की प्रबल पैरोकार गीता मुखर्जी की याद में आयोजन हुआ था। गीता मुखर्जी वही महिला थीं जिन्होंने विधायिका में महिला आरक्षण के लिए केंद्रीय मंत्री तक का पद ठुकरा दिया था। पिछली सदी के आखिरी दशक में जब इस आरक्षण को लेकर सबसे अधिक सक्रियता थी, तब वे पार्टी के दायरे से बाहर निकलकर हर सांसद से इस आरक्षण को समर्थन देने कहती थीं। मगर आरक्षण लागू नहीं हुआ, आज तो वह ठंडे बस्ते में चला गया है। तब शरद यादव जैसे नेता चाहते तो सहमति के साथ महिला आरक्षण लागू हो सकता था। मगर उन्होंने महिलाओं के आरक्षण के सवाल को परकटी औरतों का मुद्दा कहकर उसकी खिल्ली उड़ायी।
खैर, हर नेता से चूक होती है। हमारे दौर का एक अनूठा नेता कल अपना भरा-पूरा जीवन जीकर चला गया। उसके जीवन में कई रंग थे। उन रंगों से गुजरते हुए आज की पीढ़ी बहुत कुछ सीख सकती है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
उप-राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के बयान पर हमारे विपक्षी नेता बुरी तरह से बिफर पड़े हैं। कांग्रेसी नेता उन्हें भाजपा सरकार का भौंपू बता रहे हैं और उन्हें उपराष्ट्रपति पद की प्राप्ति ममता-विरोध के फलस्वरूप बता रहे हैं और कुछ विपक्षी नेता उन्हें आपातकाल की जननी इंदिरा गांधी का वारिस बता रहे हैं। जैसे इंदिरा गांधी ने सर्वोच्च न्यायालय की इज्जत को 1975 में तहस-नहस कर दिया था, वैसा ही आरोप धनखड़ पर लगाया जा रहा है।
इस तरह के आरोप लगानेवाले यह बताएं कि इंदिरा गांधी की तरह धनखड़ को क्या किसी अदालत ने कटघरे में खड़ा कर दिया है? वे अपना कोई मुकदमा तो सर्वोच्च न्यायालय में नहीं लड़ रहे हैं। वे स्वयं प्रतिभाशाली वकील रहे हैं। वे प्रखर वक्ता भी हैं। उन्होंने यदि संसदीय अध्यक्ष सम्मेलन में संसद की सर्वोच्चता पर अपने दो-टूक विचार व्यक्त कर दिए तो यह उनका हक है। यदि वे गलत हैं तो आप अपनी बात सिद्ध करने के लिए जोरदार तर्क क्यों नहीं देते? आप तर्क देने की बजाय शब्दों की तलवार क्यों चला रहे हैं?
संविधान की पवित्रता और मान्यता पर धनखड़ ने प्रश्न चिन्ह नहीं लगाया है। उन्होंने जो मूल प्रश्न उठाया है, वह यह है कि सर्वोच्च न्यायालय सर्वोच्च है या संसद सर्वोच्च है? देश के सारे न्यायालयों में तो सर्वोच्च न्यायालय सर्वोच्च है। इसमें किसी को कोई शक नहीं है। लेकिन वह संसद से भी ऊँचा कैसे हो गया? संसद चाहे तो एक ही झटके में सारे जजों को महाभियोग चलाकर पदमुक्त कर सकती है। संविधान ने ही उसे यह अधिकार दिया हुआ है। जहां तक संविधान के ‘मूल ढांचे’ का प्रश्न है, किस धारा में उसे अमिट, अटल, और अपरिवर्तनीय लिखा है?
श्री वसंत साठे और मैंने तो लगभग 30 साल पहले देश में अध्यक्षीय शासन लाने का अभियान भी चलाया था। मैं तो आजकल चुनाव पद्धति का भी विकल्प ढूंढ रहा हूं। आप मूल ढांचे पर आंसू बहा रहे हैं, संसद चाहे तो पूरे संविधान को ही रद्द करके नया संविधान बना सकती है। क्या हमारा संविधान सर्वोच्च न्यायालय ने बनाकर संसद को थमाया है? सर्वोच्च न्यायालय तो अपने न्यायालयों के और अपने ही कई फैसले रद्द करता रहता है। उसके अपने फैसलों में सारे जजों की सर्वानुमति नहीं होती है।
‘मूल ढांचे’ के फैसले में भी सात जज एक तरफ और छह जज दूसरी तरफ थे। भारतीय संविधान का मूल ढांचा क्या है, इसे सिर्फ अदालत को तय करने का अधिकार किसने दिया है? यदि संसद चाहे तो वह एकदम नया संविधान ला सकती है, जैसा कि हमारे कई पड़ौसी राष्ट्रों में हुआ है। हिटलर के मरने के बाद जर्मनी ने डर के मारे जो प्रावधान अपने संविधान के लिए किया था, उसकी अंधी नकल हमारे नेता और न्यायाधीश क्यों करें? हमारे देश में हिटलरी चल ही नहीं सकती और हमारा संविधान इतना लचीला है कि पिछले सात दशकों में उसमें लगभग सवा सौ संशोधन हो चुके हैं। इसीलिए इतने उत्थान-पतन के बावजूद वह अभी तक टिका हुआ है लेकिन संविधान संविधान है, कोई ब्रह्मवाक्य नहीं है। (नया इंडिया की अनुमति से)
-राजेन्द्र चतुर्वेदी
जब 1999 में विष्णु प्रयाग में अलकनंदा नदी पर बांध बनने का काम शुरू हुआ था, तब ज्योतिर्मठ और द्वारका शारदा पीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती जी ने जनता से अनुरोध किया था कि इस बांध के खिलाफ प्रबल आंदोलन छेड़ा जाए। अगर ये बांध बन गया तो जोशीमठ को निगल जाएगा।
तब शंकराचार्य के अनुयायियों ने एक आंदोलन की शुरुआत की भी थी, उस आंदोलन को कमजोर करने के लिए एक सांस्कृतिक संगठन आगे आया, उसके स्वयंसेवक घर घर गए। जनता को समझाया कि विकास के लिए बांध जरूरी है।
जनता को यह भी समझाया गया कि शंकराचार्य इसलिए विरोध कर रहे हैं, क्योंकि वे वामपंथी शंकराचार्य हैं, कांग्रेसी शंकराचार्य हैं, इसलिए नहीं चाहते कि एक राष्ट्रवादी सरकार विकास का कोई काम करे।
और जनता की समझ में बात आ गई। आंदोलन खत्म हो गया। विकास इतनी तेजी से शुरू हुआ कि नदियों की धाराओं को मोडऩे के लिए सुरंगें तक बना दी गईं। जिस सुरंग ने काम नहीं किया, उसे वैसा का वैसा छोड़ दिया गया, अधबना।
अब विकास के इस दौर में मीडिया का यह कर्तव्य है कि वह देश को इस बात की भनक तक न लगने दे कि जोशीमठ कस्बे के ठीक नीचे से एक सुरंग निकाली गई है और जब अलकनंदा का पानी उससे नहीं निकाला जा सका, तो उस सुरंग को वैसा ही छोड़ दिया गया, जो भू-धसान का एक बड़ा कारण बन गई है।
चेतन भगत जैसे विद्वान लेखकों, विचारकों, कॉलमिस्ट का फर्ज है कि वे विष्णु प्रयाग में बंधे विनाशकारी बांध की तरफ देश का ध्यान न जाने दें और जोशीमठ के विनाश का ठीकरा केवल और केवल पर्यटन पर फोड़ दें।
इससे आम के आम और गुठलियों के दाम।
एक तरफ तो जनता का ध्यान बांध की तरफ नहीं जाएगा, और वह बांध को हटाने की मांग नहीं करेगी, दूसरी तरफ यह लिखकर सरकार की चापलूसी भी की जा सकेगी कि देश में प्रतिव्यक्ति आय बढ़ गई है, जिससे पहाड़ों पर ज्यादा पर्यटक पहुंचने लगे हैं।
लेखक को और क्या चाहिए। ऊपर से कृपा आती रहे और जीवन धन्य।
दो खुल्ले रुपैया वाले आईटीसैलियों और फोकट में भड़ैती करने वाले फ्रिंज एलिमेंट्स का फर्ज यह है कि जोशीमठ के संकट के लिए जहां भी कोई व्यक्ति अटल श्रद्धेय की भूमिका पर सवाल उठाए, वे फौरन वहां कूद पड़ें और पूछें कि 10 साल तक मनमोहन सिंह क्या करते रहे। जरूरत पड़े तो श्रद्धेय पर सवाल उठाने वालों को 10-20 गालियां तो छूटते ही दे मारें।
और जोशीमठ की जनता की नियति है कि वह अपनी जड़ों से कटे, विस्थापित हो। आंदोलन करने से अब कुछ नहीं होगा। आंदोलन तो उस दिन करना चाहिए था, जिस दिन शंकराचार्य (अब ब्रह्मलीन) स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती जी ने आवाज दी थी।
अब कुछ नहीं हो सकता। ‘जब जागो, तभी सबेरा’ वाला मामला नहीं है यह। देर से जागे, इसलिए चीजें हाथ से निकल गई हैं।
अब सरकार विष्णु प्रयाग का बांध हटाने और पहाड़ों की छाती में किए गए छेद मूँदने के लिए भी अगर तैयार हो जाए तो भी जोशीमठ को सामान्य होने में 20 साल से ज्यादा का समय लगेगा।
-अभय शुक्ला
2011 की जनगणना के अनुसार भारत में 2.68 करोड़ विकलांग हैं। यह संख्या देश की आबादी की 2.21 फीसदी है। यह एक बड़ी संख्या है लेकिन समाज और सरकार-दोनों ने ही उनकी खास जरूरतों का ध्यान रखने और मुख्यधारा के जीवन में उन्हें सहजता के साथ शामिल करने की दिशा में कम ही काम किया है।
जिन क्षेत्रों से उन्हें पूरी तरह बाहर रखा गया है, उनमें से एक है स्वास्थ्य बीमा। यह जानना हैरान करने वाला हो सकता है कि बीमा कंपनियां किसी भी विकलांग व्यक्ति को स्वास्थ्य बीमा देने से साफ मना कर देती
हैं, चाहे वह कितना भी स्वस्थ क्यों न हो। और तो और, यह जानने के बाद कि बीमा कवर मांगने वाला व्यक्ति विकलांग है, बीमा कंपनियां इस पर विचार करने को भी तैयार नहीं होतीं। जबकि ऐसे कानून और अंतरराष्ट्रीय समझौते हैं जो साफ कहते हैं कि वे इस तरह का व्यवहार नहीं कर सकते। वे किसी सक्षम और अक्षम व्यक्ति के बीच भेदभाव नहीं कर सकते।
बीमा कंपनियां इस तरह की लापरवाही करके बचती रहीं क्योंकि विकलांगों के हितों की रक्षा के लिए सरकार द्वारा नियुक्त मुख्य आयुक्त और आईआरडीएआई (भारतीय बीमा विनियामक और विकास प्राधिकरण)
अपनी जिम्मेदारी निभाने में विफल रहे। उपेक्षा के साये में जी रहे इन 2.68 करोड़ लोगों के लिए हाईकोर्ट का फैसला ऐतिहासिक रूप से अहम होने जा रहा है। लेकिन पहले इस मामले की थोड़ी पृष्ठभूमि।
दिल्ली हाईकोर्ट में इस मामले में याचिकाकर्ता सौरभ हैं जो एक निवेश विश्लेषक और सलाहकार हैं। 2011 में 26 साल की छोटी उम्र में एक दुर्घटना में उन्हें रीढ़ की हड्डी में गंभीर चोट लगी और वह हमेशा के लिए व्हील चेयर के मोहताज हो गए। हालांकि इस अक्षमता के अलावा वह किसी और बीमारी से कभी पीडि़त नहीं रहे, कभी किसी बीमारी के कारण अस्पताल में भर्ती नहीं हुए और वह एक सफल वित्तीय विश्लेषक के रूप में घर से काम करते हैं।
सौरभ को ठीक होने में तीन साल लग गए और उसके बाद वह और उनके पिता ने कम-से-कम आधा दर्जन बीमा कंपनियों (सरकारी और निजी दोनों) के चक्कर काटे लेकिन कोई भी उन्हें कवर देने को तैयार नहीं हुआ। सौरभ को बीमा कवर नहीं देना है, यह फैसला करने के पहले उन्होंने टेस्ट कराके यह जानने की कोशिश भी नहीं की कि उन्हें किसी तरह की कोई बीमारी है भी या नहीं। सौरभ ने विकलांगों के हित के लिए नियुक्त मुख्य आयुक्त से शिकायत की और आयुक्त ने उनकी शिकायत को आईआरडीएआई को भेजकर अपने दायित्व को पूरा मान लिया।
इसके बाद आईआरडीएआई ने सौरभ की शिकायत को बीमा कंपनियों को भेज दिया और इस पर बीमा कंपनियों ने जवाब दिया कि उन्होंने सरकार की नीतियों के अनुरूप ही इनकार किया था। आईआरडीए ने कंपनियों के इस ‘स्पष्टीकरण’ को सौरभ को इस टिप्पणी के साथ भेज दिया कि बीमाकर्ताओं को पॉलिसी जारी करते समय वाणिज्यिक पहलू पर विचार करना होता है। इस तरह उसने कंपनियों के अवैध और अनैतिक कार्यों पर मुहर लगा दी।
इसके बाद सौरभ ने कंपनियों के इनकार और सरकारी एजेंसियों के असहयोगी रवैये के खिलाफ 2019 में दिल्ली हाईकोर्ट में याचिका दायर की। इस मामले की पैरवी सिद्धार्थ नाथ ने की थी जिस पर अदालत ने विकलांगों समेत कुछ अन्य वंचित श्रेणियों के लिए पॉलिसी तैयार करने का निर्देश दिया।
न्यायमूर्ति प्रतिभा सिंह ने अपने फैसले में कहा कि स्वास्थ्य और स्वास्थ्य सेवा का अधिकार जीवन के अधिकार का ही अभिन्न अंग है। विकलांग व्यक्ति पीडब्ल्यूडी (विकलांग व्यक्तियों के अधिकार अधिनियम) और विकलांगों पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन के तहत स्वास्थ्य बीमा कवरेज के हकदार हैं और स्वास्थ्य बीमा के मामले में विकलांग व्यक्तियों के साथ उनकी आय और सामाजिक स्थिति के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जा सकता। भारत ने भी इस अंतरराष्ट्रीय समझौते पर हस्ताक्षर किया है।
अदालत ने न केवल उन दो बीमा कंपनियों को जो मुकदमे में पक्षकार थीं, (मैक्स बूपा और ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी), बल्कि दो सरकारी नियामकों, विशेष रूप से आईआरडीए को भी कड़ी फटकार लगाई। जज ने यह तक कहा कि ‘इस तरह आईआरडीए ने समस्या की ओर से आंखें मूंद लीं और बीमा कंपनियों का बचाव किया।’
अदालत ने दोनों प्रतिवादी कंपनियों को सौरभ के आवेदन पर पुनर्विचार करने और अगली सुनवाई की तारीख तक एक प्रस्ताव प्रस्तुत करने के लिए कहा है। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि इसने आईआरडीएआई को सभी बीमा प्रदाताओं की एक बैठक बुलाने और पीडब्ल्यूडी और अन्य वंचित श्रेणियों के लिए एक उपयुक्त बीमा उत्पाद तैयार करने और उन्हें जल्द से जल्द पेश करने का निर्देश दिया है। सुनवाई की अगली तारीख 17 मार्च, 2022 है और तब तक इस पर स्थिति रिपोर्ट प्रस्तुत करनी होगी।
दिल्ली हाईकोर्ट का यह आदेश भारत की 2 फीसदी आबादी के लिए ऐतिहासिक है। अदालत का यह फैसला सौरभ द्वारा मांगी गई राहत से परे है। इस मामले में नियामक की गलती पकड़ी गई है। यह फैसला स्वास्थ्य कवर का लाभ उठाने के लिए लाखों लोगों के लिए दरवाजे खोल देगा, यह सभी बीमा कंपनियों को सभी पीडब्ल्यूडी को स्वास्थ्य कवर देने के लिए मजबूर करेगा।
एजेंसियों को भी यह ध्यान में रखना होगा कि कमजोर लोगों के प्रति उनका लापरवाह और असंवेदनशील रवैया अदालतें बर्दाश्त नहीं करेंगी। इस मामले में एक विडंबना है जो मार्मिक और सकारात्मक दोनों है- हालांकि सौरभ खुद चल नहीं सकते लेकिन उन्होंने अपने जैसे लोगों के जीवन की गुणवत्ता में सुधार की दिशा में एक बड़ा कदम उठाया है।
वैसे, क्या मैंने जिक्र किया कि सौरभ मेरा छोटा बेटा है?
(अभय शुक्ला सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी हैं।) (navjivanindia.com/)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
उप-राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने भारतीय न्यायपालिका को दो-टूक शब्दों में चुनौती दे दी है। वे संसद और विधानसभाओं के अध्यक्षों के 83 वें सम्मेलन को संबोधित कर रहे थे। वे स्वयं राज्यसभा के अध्यक्ष हैं। आजकल केंद्र सरकार और सर्वोच्च न्यायालय के बीच जजों की नियुक्ति को लेकर लंबा विवाद चल रहा है। सर्वोच्च न्यायालय का चयन-मंडल बार-बार अपने चुने हुए जजों की सूची सरकार के पास भेजता है लेकिन सरकार उस पर ‘हाँ’ या ‘ना’ कुछ भी नहीं कहती है।
सर्वोच्च न्यायालय का कहना है कि सरकार का यह रवैया अनुचित है, क्योंकि 1993 में जो चयन-मंडल (कालेजियम पद्धति) तय हुई थी, उसके अनुसार यदि चयन-मंडल किसी नाम को दुबारा भेज दे तो सरकार के लिए उसे शपथ दिलाना अनिवार्य होता है। इस चयन-मंडल में पांचों चयनकर्त्ता सर्वोच्च न्यायालय के जज ही होते हैं। और कोई नहीं होता। इस पद्धति में कई कमियाँ देखी गईं। उसे बदलने के लिए संसद ने 2014 में 99 वां संविधान संशोधन पारित किया था लेकिन उसे सर्वोच्च न्यायालय ने असंवैधानिक घोषित कर दिया, क्योंकि उसमें जजों के नियुक्ति-मंडल में कुछ गैर-जजों को रखने का भी प्रावधान था।
यह मामला तो अभी तक अटका ही हुआ है लेकिन धनखड़ ने इससे भी बड़ा सवाल उठा दिया है। उन्होंने 1973 के केशवानंद भारती मामले में दिए हुए सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को संसदीय लोकतंत्र के विरूद्ध बता दिया है, क्योंकि उस फैसले में संसद के मुकाबले न्यायपालिका को निरंकुश बना दिया गया था। उसे संसद से भी ज्यादा अधिकार दे दिए गए थे। वह किसी भी संसदीय कानून को उलट सकती है।
संसद को कह दिया गया था कि वह संविधान के मूल ढांचे को अपने किसी भी कानून से बदल नहीं सकती है। याने संसद नीचे और अदालत ऊपर। याने जनता नीचे और जज ऊपर। संसद बड़ी है या अदालत? धनखड़ ने पूछा है कि जब संसद अदालती फैसले नहीं कर सकती तो फिर अदालतें कानून बनाने में टांग क्यों अड़ाती हैं? संसद की संप्रभुता को चुनौती देना तो लोकतंत्र का अपमान है। अदालत को यह अधिकार किसने दे दिया है कि वह संविधान के मूल ढांचे को तय करे?
मैं पूछता हूं कि क्या हमारा संविधान अदालत में बैठकर इन जजों ने बनाया है? केशवानंद भारती मामले में भी यदि 7 जजों ने उक्त फैसले का समर्थन किया था तो 6 जजों ने उसका विरोध किया था। व्यावहारिकता तो इस बात में है कि किसी भी संसदीय लोकतंत्र की सफलता के लिए विधानपालिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के अधिकारों में संतुलन और नियंत्रण बहुत जरूरी है। जहां तक संसद का सवाल है, सीधे जनता द्वारा चुने होने के कारण उसे सबसे अधिक शक्तिशाली होना चाहिए। न्यायाधीशों की नियुक्ति में यदि सरकार और संसद की कोई न कोई भूमिका रहेगी तो वह अधिक विश्वसनीय होगी। बेहतर तो यही होगा कि इस मसले पर भारत के मुख्य न्यायाधीश और प्रधानमंत्री के बीच सीधी और दो-टूक मंत्रणा हो। अन्यथा, यह विवाद अगर खिंचता गया तो भारतीय लोकतंत्र का यह बड़ा सिरदर्द भी साबित हो सकता है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागव ने ‘पांचजन्य’ साप्ताहिक को दी गई एक भेंट वार्ता में ऐसी कई बातें कही हैं, जिन पर देश के लोगों और खास तौर से संघ के स्वयंसेवकों को विशेष ध्यान जाना चाहिए। उन्होंने पहली बात यह कही है कि भारत के मुसलमानों को किसी से डरने की जरुरत नहीं है। उन्हें वैसे ही निर्भय रहना चाहिए, जैसे अन्य भारतीय रहते हैं।
आजकल देश और विदेशों के कई बुद्धिजीवी यह महसूस करते हैं कि जब से मोदी सरकार कायम हुई है, भारत के मुसलमान बहुत डर गए हैं। कुछ हद तक यह बात सही है लेकिन इसका मूल कारण यह सरकार उतना नहीं है, जितना कि कुछ सिरफिरे ‘हिंदुत्ववादी लोग’ हैं, जो कि नफरत फैलाते हैं और अपने व्यवहार से लोगों में डर पैदा करते हैं। भाजपा सरकार को इन उग्रवादी और तथाकथित ‘हिंदुत्ववादियों’ के खिलाफ सख्त कदम उठाने में कोताही क्यों करनी चाहिए?
सच्चाई तो यह है कि वे हिंदुत्व की मूल भावना को समझते ही नहीं हैं। उनमें यूरोप और अरब देशों की मजहबी अतिवादिता दिखाई पड़ती है। मजहब के नाम पर उन मुल्कों में अब भी भयंकर अत्याचार जारी हैं। यह विदेशी मजहबी अंधापन आप भारत में भी देख सकते हैं। कोई यहोवा या अल्लाह को माने, इसमें कोई बुराई नहीं है लेकिन इसके लिए अरबों और गोरों की नकल करना क्या जरुरी है? कोई व्यक्ति किसी धर्म या विचारधारा को माने लेकिन उसके पहले वह अपने आप को सच्चा और पक्का भारतीय बनाए, क्या यह जरुरी नहीं है?
अब आप देखें कि सउदी अरब के वर्तमान शासक शाहजादे सलमान ने तथाकथित अरबी और इस्लामी परंपराओं में कितने बड़े बदलाव कर दिए हैं। मोहन भागवत हमारे मुसलमानों से भी यह बराबर कहते रहे हैं कि उनका और हिंदुओं का डीएनए एक ही है। क्या किसी हिंदू या मुसलमान नेता ने आज तक ऐसी बात कही है? उनकी इस बात से कई पोंगापंथी मुसलमान और हिंदू चिढ़ भी सकते हैं लेकिन भारत ही नहीं, संपूर्ण दक्षिण और मध्य एशिया के देशों को जोड़ने में यह कथन निर्णायक भूमिका निभाएगा।
मोहन भागवत मस्जिदों में गए और इमामों से उन्होंने संवाद किया, क्या यह कम बड़ी बात है? यह ठीक है कि भारत के मुसलमानों ने कई मजबूरियों में इस्लाम को कुबूल कर लिया लेकिन वे विदेशी आंक्रांताओं के वारिस नहीं हैं। उन आक्रांताओं की संतानें भी अब पूर्णरूपेण भारतीय हो गई हैं। यह ठीक है कि लगभग हजार साल तक विदेशी आक्रमणकारियों ने भारत को दबाने की कोशिश की है और उसके विरुद्ध भारतीय लोग लगातार लड़ते रहे हैं लेकिन वह वैमनस्य और वह अहंकार किसी भी रूप जिंदा नहीं रहना चाहिए।
मोहनजी ने इस बात पर भी जोर दिया है कि भारतीयों पर इस समय कोई विदेशी आक्रमण तो नहीं हो रहा है लेकिन भारत विदेशियों का नकलची बन रहा है। वह उनकी भोगवादी प्रवृत्तियों को अपना रहा है। मोहन भागवत के इस कथन पर हमारे देश के तथाकथित नेता गण, खासकर भाजपा के लोग ध्यान दें, यह जरुरी है। सच्ची भारतीयता तो ‘त्येन त्यक्तेन भुंजीथा’ याने त्याग के साथ उपभोग में ही निवास करती है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-रजनीश कुमार
नेपाल, 11 जनवरी । नेपाल की संसद में मंगलवार को जो कुछ हुआ, उसे वहाँ के संसदीय लोकतंत्र में लंबे समय तक याद रखा जाएगा.
25 दिसबंर को पुष्प कमल दाहाल प्रचंड तीसरी बार नेपाल के प्रधानमंत्री बने थे और मंगलवार को उन्हें बहुमत साबित करना था.
275 सदस्यों वाली नेपाल की प्रतिनिधि सभा में प्रचंड को बहुमत साबित करने के लिए 138 सदस्यों के समर्थन की ज़रूरत थी, लेकिन उन्हें 268 सांसदों ने समर्थन में वोट किया.
प्रतिनिधि सभा में कुल 270 सांसद मौजूद थे और इनमें से 268 ने प्रचंड के समर्थन में वोट किया. केवल दो सांसदों ने प्रचंड के ख़िलाफ़ वोट किया.
यह हुआ कैसे?
प्रचंड ने 2022 के नवंबर महीने में हुआ आम चुनाव नेपाली कांग्रेस के साथ लड़ा था. नेपाली कांग्रेस चुनाव में 89 सीटें जीत सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी.
प्रचंड की कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ नेपाल (माओवादी सेंटर) के महज़ 32 सांसद हैं. प्रचंड को केपी शर्मा ओली की पार्टी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ नेपाल (एकीकृत मार्क्सवादी-लेनिनवादी) का समर्थन मिला है. ओली की पार्टी के पास 78 सीटें हैं.
ऐसा माना जा रहा था कि नेपाली कांग्रेस के नेता शेर बहादुर देउबा ही प्रधानमंत्री रहेंगे, लेकिन प्रचंड ने ऐन मौक़े पर पाला बदल लिया.
प्रचंड चाहते थे कि नेपाली कांग्रेस उन्हें प्रधानमंत्री बनाए, लेकिन उनकी मांग नहीं मानी गई थी.
ओली और प्रचंड के हाथ मिलाने के बाद नेपाली कांग्रेस विपक्ष में हो गई थी. ऐसा माना जा रहा था कि नेपाली कांग्रेस 10 जनवरी को पुरज़ोर कोशिश करेगी कि प्रचंड संसद में बहुत हासिल न कर पाएं.
लेकिन हुआ ठीक उल्टा. नेपाली कांग्रेस के 89 सदस्यों ने भी प्रचंड के समर्थन में वोट कर दिया.
नेपाली कांग्रेस के इस रुख़ से नेपाल का लोकतंत्र फ़िलहाल पूरी तरह से विपक्ष विहीन हो गया है. लेकिन यह केवल विपक्ष विहीन होने का मामला नहीं है.
नेपाली कांग्रेस के प्रचंड को समर्थन करने से केपी शर्मा ओली भी असहज हो गए हैं. संसद में यह नज़ारा देख मंगलवार को ओली ने नेपाली कांग्रेस पर तंज़ किया और कहा कि देउबा ने जिस उम्मीद से समर्थन किया, उसमें निराशा ही हाथ लगेगी.
ओली ने प्रचंड पर भी शक़ किया कहीं खेल कुछ और तो नहीं हो रहा है.
नेपाली कांग्रेस ने ऐसा क्यों किया?
नेपाली कांग्रेस के संयुक्त महासचिव महेंद्र यादव ने प्रचंड के समर्थन पर मीडिया से कहा कि पार्टी ने सर्वसम्मति से मंगलवार को फ़ैसला किया था कि विश्वासमत के समर्थन में वोट करेंगे, लेकिन सरकार में शामिल नहीं होंगे.
हालांकि प्रचंड को समर्थन करने पर नेपाली कांग्रेस बुरी तरह से बँटी हुई बताई जा रही है. सोमवार को प्रचंड नेपाली कांग्रेस के अध्यक्ष शेर बहादुर देउबा से मिलने उनके आवास पर गए थे और उन्होंने मंगलवार के विश्वासमत में समर्थन में वोट करने का आग्रह किया था.
नेपाली कांग्रेस को जब प्रचंड के समर्थन में ही वोट करना था तब गठबंधन क्यों टूटने दिया? इसके पीछे की रणनीति क्या है?
नेपाल के प्रतिष्ठित अख़बार कांतिपुर के संपादक उमेश चौहान को लगता है कि नेपाली कांग्रेस पहली ग़लती ठीक करने के चक्कर में दूसरी ग़लती कर बैठी है.
उमेश चौहान कहते हैं, ''नेपाली कांग्रेस शुरू में प्रधानमंत्री की कुर्सी के लिए अड़ी रही. इसका नतीजा यह हुआ कि प्रचंड ने ओली से हाथ मिला लिया. इसके बाद नेपाली कांग्रेस को लगा कि बड़ी पार्टी होने के बावजूद वह ख़ाली हाथ रह गई.
उसे अपनी ग़लती का एहसास हुआ कि प्रचंड को प्रधानमंत्री बना देना चाहिए था. लेकिन तब तक बहुत देर हो गई थी. मुझे लगता है कि नेपाली कांग्रेस को अब विपक्ष की भूमिका में रहना चाहिए था लेकिन उसने लालच में प्रचंड को समर्थन कर दूसरी ग़लती कर दी है.''
उमेश चौहान कहते हैं, ''अभी राष्ट्रपति का चुनाव होना है. प्रतिनिधि सभा के स्पीकर का चुना जाना बाक़ी है. उपराष्ट्रपति भी चुने जाएंगे. नेपाली कांग्रेस के मन में यह लालच है कि कम से कम राष्ट्रपति और स्पीकर का पद मिल जाए. लेकिन यह आसान नहीं होगा.
नेपाल की सिविल सोसाइटी और आम लोगों में यही इम्प्रेशन गया है कि यहाँ की सारी पार्टियां सत्ता के लिए कुछ भी कर सकती हैं. मुझे लगता है कि पूरे घटनाक्रम में प्रचंड भी संदिग्ध बनकर उभरे हैं. ओली के साथ एक ठोस रोडमैप बन चुका था. सत्ता में हिस्सेदारी का भी ब्लूप्रिंट तैयार था. ऐसे में उन्हें देउबा के पास समर्थन के लिए नहीं जाना चाहिए था.''
उमेश चौहान कहते हैं, ''अगर प्रचंड को लग रहा है कि उनके पास ओली और देउबा दोनों का समर्थन है तो वह मुग़ालते में हैं. मेरा मानना है कि उनके पास 268 सांसदों का समर्थन है भी और नहीं भी है. यहाँ कोई तीसरा खेल भी हो सकता है.
ओली और प्रचंड दोनों नेपाली कांग्रेस को सरकार में बनाने गठबंधन के लिए सबसे मुफ़ीद सहयोगी मानते हैं. प्रचंड की गुगली के जवाब में ओली और देउबा में सरकार बनाने के लिए बात चल सकती है. दोनों संपर्क में भी हैं. संभव है कि दोनों एक साथ प्रचंड से समर्थन वापस ले लें और प्रचंड को कुर्सी छोड़नी पड़े. मैं मानता हूँ कि प्रचंड 268 सांसदों के समर्थन पाकर भी बहुत दिनों तक सत्ता में नहीं रह पाएंगे.''
संसद में बहुमत हासिल करने के बाद प्रचंड ने मंगलवार को कहा, ''हमारी सरकार की प्रतिबद्धता सामाजिक न्याय, सुशासन और संपन्नता के प्रति है. एक प्रधानमंत्री के रूप में मैं सहमति, सहयोग, आपसी विश्वास और प्रतिशोध रहित मंशा से काम करूंगा. राष्ट्रवाद, राष्ट्रीय सुरक्षा और विदेश नीति में राष्ट्रीय सहमति का कोई विकल्प नहीं है.''
ख़ास बातें:-
प्रचंड ने चुनाव नेपाली कांग्रेस के साथ लड़ा था, लेकिन सरकार केपी शर्मा ओली के साथ बनाई
275 सदस्यों वाली प्रतिनिधि सभा में प्रचंड के महज़ 32 सांसद हैं और प्रधानमंत्री बन गए
नेपाली कांग्रेस ने अचानक से विश्वासमत के दौरान प्रचंड का समर्थन कर दिया
नेपाली कांग्रेस 89 सासंदों के साथ सबसे बड़ी पार्टी है और ओली की पार्टी 78 सांसदों के साथ दूसरे नंबर पर है
नेपाली कांग्रेस के समर्थन के बाद संसद विपक्ष विहीन हो गई है
नेपाल के नागरिक आंदोलनों में सक्रिय रहने वाले और वरिष्ठ पत्रकार युग पाठक से पूछा कि नेपाली संसद का विपक्षी विहीन होना वहाँ के लोकतंत्र के लिए कैसा होगा?
युग पाठक कहते हैं, ''नेपाल संसदीय लोकतंत्र की तमाम बुराइयों से बहुत जल्दी ग्रस्त हो गया है. लोकतंत्र में विपक्ष का होना अनिवार्य होता है लेकिन सत्ता में हिस्सेदारी पाने के लिए सारी पार्टियां एक हो गई हैं. यह तो ऐसा ही है कि भारत में कांग्रेस, बीजेपी और वामपंथी पार्टियों तीनों एक साथ आ जाएं.''
युग पाठक कहते हैं, ''नेपाली कांग्रेस के समर्थन देने से प्रचंड की मंशा घेरे में है और ओली भी सशंकित हैं. ओली का डर बढ़ गया है कि प्रचंड अब उस तरह से तवज्जो नहीं देंगे क्योंकि नेपाली कांग्रेस का भी समर्थन है.
प्रचंड भले अभी शह-मात के खेल में ऊपर दिख रहे हैं लेकिन उन्हें अपनी हक़ीक़त पता होगी कि महज़ 32 सांसदों के दम पर पीएम बने हुए हैं. जब ओली और शेरबहादुर देउबा 32 सांसद वाली पार्टी को पीएम की कुर्सी दे सकते हैं तो दोनों के पास क्रमशः 78 और 89 सांसद हैं और ये ख़ुद को भी पीएम बना सकते हैं.''
युग पाठक कहते हैं, ''प्रचंड जब ओली के साथ गए तो नेपाली कांग्रेस को अपनी ग़लतियों का एहसास हो गया था. लेकिन जब उसने विपक्ष में रहने का फ़ैसला किया था तो रहना चाहिए था.
नेपाली कांग्रेस ने विपक्ष में रहने के बजाय प्रचंड को समर्थन कर सिविल सोसाइटी में अपनी इज़्ज़त खोई है. नेपाल की सिविल सोसाइटी में यह बात भी कही जा रही थी कि भारत नेपाली कांग्रेस को सत्ता में भागीदार देखना चाहता था. ऐसे में शेर बहादुर देउबा के प्रचंड के साथ जाने को इस रूप में भी देखा जा रहा है.''
युग पाठक से पूछा कि अब नेपाल में प्रचंड विश्वासमत जीत चुके हैं. उनके पास ओली और देउबा का भी समर्थन है. ऐसे में भारत के प्रति प्रचंड का रुख़ कैसा रहेगा?
युग पाठक कहते हैं, ''भारत का राष्ट्रवाद स्वतंत्रता की लड़ाई से निकला और आकार लिया. अंग्रेज़ चले गए तो राष्ट्रवाद पाकिस्तान विरोध के ईर्द-गिर्द घूमने लगा. भारत अपने दो पड़ोसियों चीन और पाकिस्तान से युद्ध कर चुका है. ऐसे में भारत के लोकप्रिय राष्ट्रवाद के लिए पर्याप्त मसाला है.
नेपाल में इस मसाले का अभाव है. नेपाल कोई उपनिवेश रहा नहीं. राजशाही को बेदखल किया जा चुका है. चुनावी राजनीति में वोट लेने के लिए राष्ट्रवाद शॉर्टकर्ट होता है. भारत नेपाल का पड़ोसी है. ऐसे में भारत से जुड़े कुछ विवादों को राष्ट्रवाद की चाशनी में पेश किया जाता है. संभव है कि आने वाले वक़्त में ऐसी चीज़ें बढ़ेंगी.''
भारत से विवाद शुरू?
काठमांडू पोस्ट की ख़बर के मुताबिक़ प्रचंड के नेतृत्व वाली सत्ताधारी गठबंधन सरकार ने भारत से लिंपियाधुरा, कालापानी और लिपुलेख को 'वापस' लेने का वादा किया है.
इस ख़बर के मुताबिक़ सत्ताधारी गठबंधन का कॉमन मिनिमम प्रोग्राम सोमवार को सार्वजनिक हुआ और इसी में यह वादा किया गया है.
काठमांडू पोस्ट की ख़बर के अनुसार, प्रचंड सरकार नेपाल की संप्रभुता, एकता और स्वतंत्रता को लेकर प्रतिबद्ध है. हालांकि कॉमन मिनिमम प्रोग्राम में चीन से लगी सरहद पर चुप्पी है.
मई 2020 में भारत के रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने उत्तराखंड में धारचुला से चीन की सीमा लिपुलेख तक एक सड़क का उद्घाटन किया था. नेपाल का दावा है कि सड़क उसके क्षेत्र से होकर गई है. अभी यह इलाक़ा भारत के नियंत्रण में है.
2019 के नवंबर महीने में भारत ने जम्मू-कश्मीर के विभाजन के बाद अपने राजनीतिक मानचित्र को अपडेट किया था, जिसमें लिपुलेख और कालापानी भी शामिल थे. नेपाल ने इसे लेकर कड़ी आपत्ति जताई थी और जवाब में अपना भी नया राजनीतिक नक़्शा जारी किया.
अपने नए नक़्शे में नेपाल ने लिपुलेख और कालापानी को नेपाल में दिखाया था. नेपाल के तत्कालीन रक्षा मंत्री ईश्वर पोखरेल ने राइजिंग नेपाल को दिए इंटरव्यू में यहाँ तक कह दिया कि अगर ज़रूरत पड़ी तो नेपाल की सेना लड़ने के लिए तैयार है.
कालापानी में इंडो-तिब्बत बॉर्डर पुलिस की भी तैनाती है. पूरे विवाद पर भारत के तत्कालीन सेना प्रमुख जनरल मनोज नरवणे ने कहा था कि नेपाल सरहद पर चीन की शह में काल्पनिक दावा कर रहा है.
नेपाल एक लैंडलॉक्ड देश है और वो भारत से अपनी निर्भरता कम करना चाहता है. 2015 में भारत की तरफ़ से अघोषित नाकाबंदी की गई थी और इस वजह से नेपाल में ज़रूरी सामानों की भारी किल्लत हो गई थी. कहा जाता है कि तब से दोनों देशों के बीच संबंधों में वो भरोसा नहीं लौट पाया है. (bbc.com/hindi)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
दस जनवरी विश्व हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस दिन मैं अपने विचार व्यक्त करूं, इससे बेहतर यह होगा कि हमारे भारतीय और विदेशी महापुरूषों और विद्वानों द्वारा हिंदी के बारे में जो कुछ कहा गया है, उसे संक्षेप में आपके लिए प्रस्तुत कर दूं।
हिन्दी द्वारा सारे भारत को एक सूत्र में पिरोया जा सकता है। मेरी आँखें उस दिन को देखने के लिए तरस रही हैं जब कश्मीर से कन्याकुमारी तक सब भारतीय एक ही भाषा को समझने और बोलने लगेंगे। (महर्षि दयानन्द सरस्वती)
यदि मैं तानाशाह होता तो आज ही विदेशी भाषा में शिक्षा दिया जाना बंद कर देता। सारे अध्यापकों को स्वदेशी भाषाएं अपनाने को मजबूर कर देता। जो आनाकानी करते उन्हें बरखास्त कर देता। मैं पाठ्य पुस्तकों के तैयार किए जाने का इन्तज़ार न करता। अंग्रेजी को हम गालियाँ देते हैं कि उन्होंने हिन्दुस्तान को गुलाम बनाया, लेकिन उनकी अंग्रेजी भाषा के तो हम अभी तक गुलाम बने बैठे हैं । (महात्मा गांधी)
हिन्दी में, मैं इसलिए लिखता और प्रवचन देता हूँ क्योंकि इस भाषा में विचारों को स्पष्टतः से सामने लाने की अद्भुत क्षमता है। मैं तो चाहता हूं कि देवनागरी लिपि में ही देश की सब भाषाएँ लिखी जायें। इससे दूसरी भाषाएं सीखना आसान हो जाएगा। …केवल अंग्रेजी सीखने में जितना श्रम करना पड़ता है, उतने श्रम में हिन्दुस्तान की सभी भाषाएं सीखी जा सकती हैं। …..मैं दुनिया की सब भाषाओं की इज्जत करता हूं परंतु मेरे देश में हिन्दी की इज्जत न हो, ये मैं नहीं सह सकता। (संत विनोबा भावे)
जब एक बार शराब पीने की आदत पड़ जाती है तो किसी न किसी रूप में कानून का सहारा लेना पड़ता है। आज अंग्रेजी शराब से भी ज्यादा नुकसान कर रही है और अंग्रेजीबन्दी शराबबन्दी से भी ज़्यादा ज़रूरी है। (डॉ. राममनोहर लोहिया)
जब तक भारतीय संसद के वाद-विवाद अंग्रेजी में चलते रहेंगे, देश की राजनीति का जनता से कोई सरोकार नहीं होगा और वह एक छोटे से वर्ग की बपौती बनकर रह जाएगी। (गुन्नार मिर्डल,स्वीडन के प्रसिद्ध समाजशास्त्री)
विदेशी भाषा के माध्यम से शिक्षा किसी सभ्य देश में प्रदान नहीं की जाती। विदेशी भाषा के माध्यम से शिक्षा देने से छात्रों का मन विकारग्रस्त हो जाता है और वे अपने ही देश में परदेशी के समान मालूम पड़ते हैं। (रवीन्द्रनाथ टैगोर)
भारत में अनेक भाषाएं बोली जाती हैं। उस भाषाओं के बीच में अंग्रेजी कैसे सम्पर्क भाषा बन सकती है, क्या दिल्ली का रास्ता लंदन से होकर गुजरता है, अंग्रेजी अलगाव पैदा करती है- जनता और नेता के बीच, राजा और प्रजा के बीच। अंग्रेजी हटेगी तो उत्तर भारत के लोग भी दक्षिण की भाषा सीखेंगे। (आलफंस वातवेल,हालैंड) (नया इंडिया की अनुमति से)
- विष्णु नागर
राहुल गांधी क्या कभी देश के प्रधानमंत्री बन सकेंगे? मुझे शक है। इसकी वजहें हैं।एक तो वे अंबानी-अडाणी पर लगातार हमलावर हैं और ये देश के दो सबसे बड़े थैलीशाह हैं।ये कभी ऐसे आदमी को प्रधानमंत्री बनते हुए देखना नहीं चाहेंगे,जो आज उनकी सख्त आलोचना करता हो और जो अपनी आलोचनाओं में गंभीर भी दिखता हो। जो पैदल चल कर गरीब जनता का दुख- दर्द किताबों से नहीं, अपने प्रत्यक्ष अनुभव से जान रहा हो। संभव है सत्ता आने पर कुछ ऐसा करने की कोशिश भी करे,जो इनके बुनियादी हितों के खिलाफ जाए!और कुछ करने की फिर भी कोशिश करे तो उनकी पार्टी ही उनका साथ न दे!
दूसरा अगर आज जैसी गंभीरता राहुल गांधी दिखा रहे हैं, उसके प्रति अगर वह सच्चे रह पाते हैं तो वह अकेले ऐसे राजनीतिक व्यक्ति होंगे, जिसे गरीबों का दुख-दर्द वाकई सालता हुआ लगता है। जो तीन गरीब बच्चियों को फटे कपड़ों में ठंड से कांपता देखकर इतना पिघल जाता है कि खुद भी तय करता है कि तब तक मैं ऊनी कपड़े नहीं पहनूंगा, जब तक कांपने नहीं लग जाता, जब तक ठंड बर्दाश्त से बाहर नहीं हो जाती! जिस दिन इनके शरीर पर स्वेटर होगा, मेरे शरीर पर भी होगा!
और जो अपने साथ चल रहा एक यात्री जब गर्व से कहता है कि हम तीन हजार किलोमीटर चल चुके हैं। तो राहुल गांधी उससे कहते हैं कि सुनो, तुम-हम दिन में तीन बार खाते हैं। गरीब मजदूर इससे भी ज्यादा चलता है और आधी रोटी खाकर चलता है। वास्तविक समस्या यह है कि लोगों की तपस्या का इस देश में मोल नहीं है। और भी बुरी बात यह है कि इन करोड़ों लोगों की तपस्या का फल कुछ लोग हड़प जाते हैं।
जब इस देश को गरीबों का नकली हमदर्द, अमीरों का अमीरों से अधिक असली हमदर्द नेता मिला हुआ है,जो नफरत, हिंसा और झूठ का खेल खेलने में बेहद माहिर है, वाक्चातुर है, तो अमीरउमरा मिलकर राहुल गांधी को क्यों प्रधानमंत्री बनाना चाहेंगे? अपने नोटों का खेल फिर से क्यों नहीं दिखाएंगे। क्यों नफरत का चक्र तेजी से नहीं घुमवाएंगे?
वैसे भारत का आदमी हमेशा उम्मीद में जीता है और हमेशा ठगा जाता है, यह भी एक कटु सत्य है।