विचार / लेख

अवसाद से उबरती कांग्रेस
25-Feb-2023 4:17 PM
अवसाद से उबरती कांग्रेस

डॉ. संजय शुक्ला
छत्तीसगढ़ के राजधानी रायपुर में आयोजित अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के 85 वें महाधिवेशन पर पूरे देश की निगाहें लगी हुई है। 24 से 26 फरवरी तक आयोजित कांग्रेस का यह महाकुंभ आगामी 2024 के आम चुनाव के साथ ही इस साल के नौ राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें कांग्रेस के उस रोडमैप का खुलासा होने की संभावना है जिसका इंतजार विपक्ष सहित देश को है। बिलाशक आने वाला दौर देश में चुनावी गठबंधन का दौर होगा लेकिन कांग्रेस ने यह भी साफ कर दिया है कि आगामी लोकसभा चुनाव में पार्टी की मंशा भाजपा के खिलाफ साझा उम्मीदवार खड़ा करने की नहीं है। महाधिवेशन के ठीक पहले पार्टी के शीर्ष नेताओं के पत्रकार वार्ता पर गौर करें तो यह लग रहा है कि पार्टी लगातार चुनावी हार के सदमे और अवसाद से अब उबर चुकी है तथा वह पूरे आत्मविश्वास के साथ भाजपा से दो-दो हाथ करने के मूड में है। दरअसल पार्टी को यह आत्मविश्वास राहुल गांधी के उस पदयात्रा से मिली है जिसमें पार्टी ने लोगों का स्वस्फूर्त भरोसा पार्टी के प्रति देखा है। अलबत्ता बात यदि देश के उन क्षेत्रीय दलों की करें जो गैर कांग्रेसी मोर्चे के आगामी चुनाव में अपने दम पर चुनौती देना चाहते हैं तो यह असंभव है क्योंकि बिना कांग्रेस भाजपा या मोदी का कोई विकल्प हो ही नहीं सकता। इस बात से इंकार नहीं है कि इन क्षेत्रीय दलों के छत्रपों ने भाजपा और कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय दलों को पटखनी देकर अपना वजूद कायम किया है लेकिन लोकसभा चुनाव में बिना कांग्रेस मोदी और भाजपा को चुनौती देना नामुमकिन है। इसके इतर मीडिया प्रायोजित तमाम सर्वेक्षणों से उलट देश में ऐसी राजनीतिक हवा बह रही है जो सत्ता प्रतिष्ठान के लिए बेचैनी का सबब बनी हुई है हालांकि उपरी तौर पर सब कुछ ठीकठाक होने का स्वांग रचा जा रहा है। यह तो तय है कि आगामी चुनाव मोदी और भाजपा के लिए आसान नहीं होगा।

अलबत्ता इसमें दो राय नहीं है कि लगातार राजनीतिक जमीन छीनने के बावजूद देश में कांग्रेस की जड़ें काफी गहरी और फैली हुई है भले ही वक्त ने इन जड़ों को सूखा दिया है लेकिन जान अब भी बाकी है। लोकतंत्र के लिहाज से इस बूढ़े दरख़्त की जड़ों पर पानी डालने की जरूरत है ताकि पेड़ की टहनियों से न?ई कोपलें फूटे। पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष और नेता राहुल गांधी ने 137 साल पुराने इस दरख़्त को फिर से हरा-भरा करने का बीड़ा उठा लिया है और अपने पसीने से इसकी जड़ों को सींचने लगे हैं। राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ ने न केवल पार्टी को उस अवसाद से उबारने में सफलता पाई है जो लगातार चुनावी हार के कारण पार्टी के शीर्ष नेताओं से लेकर लाखों जमीनी कार्यकर्ताओं के दिलों दिमाग में घर कर गया था वहीं इस यात्रा देश के करोड़ों लोगों में राहुल के प्रति भरोसा जगाया है। गौरतलब है कि भारत के इतिहास और भूगोल में सर्वधर्म समभाव और सद्भावना नीहित है जिसे किसी भी तरह से जुदा नहीं किया जा सकता। बिलाशक बीते दशकों में देश के सांप्रदायिक और धार्मिक समरसता को छिन्न भिन्न करने की तमाम राजनीतिक कोशिशें हुईं हैं लेकिन कांग्रेस इन कोशिशों को खारिज करने में लगातार जुटी रही है। राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ इन्हीं कोशिशों की पूर्णाहुति है जिसने देश के सांप्रदायिक सद्भावना की बुनियाद को एक बार फिर से मजबूत किया है। राहुल की इस पदयात्रा से जहां कांग्रेस और जनता के बीच संवाद के डोर एक बार फिर से जुड़े हैं वहीं इस यात्रा ने राहुल की छवि को एक जननेता के तौर पर उभार दिया है। इस यात्रा से वे और उनकी पार्टी स्वाभाविक तौर पर मोदी और भाजपा का विकल्प बनकर उभरे हैं। बीते पांच सालों के दौरान गांधी परिवार को न केवल पार्टी के बाहर से चुनौती मिली है बल्कि पार्टी के भीतर भी कथित जी-23 समूह द्वारा उनके नेतृत्व पर लगातार सवाल खड़े किए गए हैं। तमाम चुनौतियों और का अंतर्विरोधों के बावजूद पार्टी के आम कार्यकर्ता आज भी गांधी परिवार के साथ खड़े दिखाई दे रहे हैं। दरअसल कांग्रेस के लिए गांधी परिवार न केवल जरूरी है बल्कि मजबूरी भी है क्योंकि यह परिवार ही पार्टी को एकजुट रख सकता है। इन सबके बावजूद अभी भी कांग्रेस पार्टी के पास मोदी और भाजपा के तिलिस्म को तोडऩा काफी टेढ़ी खीर है वह भी तब जब राष्ट्रीय मीडिया एक पक्षीय भूमिका में है तथा देश के चुनावी बहस में महंगाई, बेरोजगारी, शिक्षा, स्वास्थ्य और विकास की जगह धर्म और मंदिर प्रमुख मुद्दे बन चुके हैं। लिहाजा पार्टी को आत्ममंथन की जरूरत है, कुछ महत्वपूर्ण मसलों पर पार्टी को अपना स्टैंड काफी साफ रखना होगा। कार्यकर्ताओं को वैचारिक तौर प्रशिक्षण की जरूरत है चूंकि आज पूरा राजनीतिक अभियान सोशल मीडिया पर सिमट चुका है लिहाजा पार्टी को सशक्त आ?ईटी सेल की भी जरूरत है।

बहरहाल साल 2014 और 2019 के आम चुनाव से लेकर अनेक राज्यों के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के करारी पराजय के बावजूद कांग्रेस आज भी राजनीतिक धुरी बनी हुई है। ‘कांग्रेसमुक्त भारत’ का जुमला देने वाली राजनीतिक पार्टी यह बात बखूबी जानती है कि कांग्रेस देश के बुनियाद में है लिहाजा उनका यह सपना कभी पूरा नहीं होने वाला। दरअसल कांग्रेस उस फिनिक्स चिडिय़ा की मानिंद है जो अपने ही राख से फिर जी उठता है। किसी पार्टी के जनाधार को मापने का पैमाना यदि चुनावी नतीजे हैं भी तो कांग्रेस इस मिथक को तोडऩे में निश्चित तौर पर सफल होगी क्योंकि कांग्रेस एक राजनीतिक विचारधारा नहीं अपितु आंदोलन है जो देश के आजादी के संघर्ष से उपजी है। कांग्रेस ने न केवल आजादी के आंदोलन में अपना बलिदान दिया है वरन् स्वातंत्र्योत्तर भारत में देश की एकता और अखंडता के लिए इस पार्टी के लोगों ने शहादत दिया है। कांग्रेस पर परिवारवाद का आरोप लगाकर इस विचारधारा को रौंदने का मंसूबा पालने वालों को समझना होगा कि लोकतंत्र में जनता ही जनार्दन होता है जो किसी पार्टी या राजनेता का भाग्य नियंता होता है लिहाजा यह करोड़ों देशवासियों पर निर्भर है कि वह ऐसे आरोपों पर कितनी गंभीरता दिखाती है? कांग्रेस आज भी दलित, शोषित, वंचित, किसान, गरीब और सर्वहारा वर्ग की पार्टी है। यदि राजनीतिक इतिहास के किताब के पन्ने पलटें तो देश की जनता ने तमाम आशंकाओं के बीच इसी नेहरू-गांधी पर भरोसा जताया है। लिहाजा कांग्रेस की हार कोई स्थाई हार नहीं बल्कि इस पराजय से सबक लेने का अवसर है जिस पर राहुल गांधी और उसकी पार्टी काफी संजीदा है। पार्टी ने संगठन का राष्ट्रीय नेतृत्व गैर गांधी मल्लिकार्जुन खडग़े को सौंप कर विपक्ष के हाथ से सबसे बड़ा राजनीतिक हथियार छीन लिया है। अलबत्ता तमाम सियासी बहस-मुबाहिसों के यह सौ टका सच है कि कांग्रेस का चेहरा राहुल गांधी ही बने रहेंगे। 

 गौरतलब है कि राहुल को नेहरू के बाद इंदिरा या इंदिरा के बाद राजीव गांधी बनने का अवसर नहीं मिला बल्कि उनके किस्मत में वह पथरीली राह  है जिस पर चलकर उन्हें पार्टी की वजूद फिर से स्थापित करना है। बिलाशक  भारत जोड़ो यात्रा ने देश को एक ऐसे राहुल से रुबरु कराया है जो आज के दौर में जब सियासत और जनता के बीच संवाद लगभग बंद है तब राहुल हजारों मील पैदल चलकर लोगों से खुद संवाद कर रहे हैं। आज जब सत्ता का संवाद एक तरफा चल रहा है और सत्ता प्रतिष्ठान से सवाल पूछने पर अघोषित पाबंदी हो तब राहुल खुद मीडिया के बरास्ते राजनीतिक सत्ता से सवाल-जवाब कर रहे हैं। आज जब संसद में बहुमत के बाहुबल पर विपक्ष की बाहें मरोड़ी जा रही है तब राहुल सवालों का ऐसा कठघरा तैयार कर रहे हैं जिसमें सत्ता मौन होकर उनके सवालों से नजरें चुरा रही है। 

आज के हालात में जब विपक्ष ईडी, सीबीआई और आईटी के दबिश के डर से मुंह सिले हुए है तब राहुल सत्ता के जबड़े में हाथ डाल रहे हैं। अकेले राहुल हैं जो इंडो-चाइना बार्डर, अडानी-अंबानी और सरकारी उपक्रमों के निजीकरण के मुद्दे पर केंद्रीय सत्ता को खुलकर चुनौती दे रहे हैं।बेबस जनता महंगाई, बेरोजगारी और गरीबी से कराह रही है तब राहुल संसद से लेकर सडक़ तक इस रूदन की आवाज बने हुए हैं। विपक्षी दलों के आईटी सेल और चंद मीडिया समूहों के तमाम नकारात्मक कोशिशों के बावजूद राहुल गांधी की स्वीकार्यता न केवल पार्टी में बढ़ी है वरन् विपक्ष भी उसमें भविष्य देख रहा है। हाल के दिनों में कांग्रेस के तेवर में काफी बदलाव आया है जिन मुद्दों पर पार्टी के उपर पलायन वादी रूख अपनाने के आरोप लगते रहे हैं अब पार्टी इन मसलों को आक्रामक ढंग से उठा रही है। भारत जोड़ो यात्रा के कामयाबी के बाद  कांग्रेस संगठन में जबरदस्त जोश देखा जा रहा है और पार्टी महंगाई, बेरोजगारी,अमीरी-गरीबी की बढ़ती खा?ई, सरकारी संस्थाओं के दुरुपयोग और राजनीतिक तानाशाही के खिलाफ काफी आक्रामक है वहीं सत्ता प्रतिष्ठान रक्षात्मक मुद्रा में दृष्टिगोचर हो रहा है। बहरहाल भारत जैसे विशाल लोकतांत्रिक देश में  राजनीतिक ज्वार और भाटा कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय दल के लिए रसातल में जाने का प्रारब्ध कतई नहीं बन सकता। भारत जैसे विशाल लोकतंत्रिक देश में कोई भी चुनावी जीत या हार स्थाई नहीं हो सकता लिहाजा राहुल और उनकी पार्टी के भविष्य पर सवालिया निशान लगाना जल्दबाजी होगी। बिलाशक लोकतंत्र में जनता के पास सत्ता का विकल्प और सशक्त विपक्ष सदैव होना चाहिए अन्यथा सत्ता निरंकुश हो जाता है लिहाजा कांग्रेस अब इस भूमिका में अपने आपको सौ टका खरा साबित करने के लिए कमर कस चुकी है। रायपुर में आयोजित होने वाले इस महाधिवेशन के विचार मंथन से निश्चित तौर पर पार्टी को एक न?ई दिशा मिलने की उम्मीद है जो लोकतंत्र के साथ देश की एकता और अखंडता को भी नई मजबूती प्रदान करेगा।

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