विचार/लेख
-गोपा सान्याल
भारतीय संस्कृति का एक प्रमुख पर्व है गोपाष्टमी। माना जाता है आज के दिन ही नन्द नन्दन भगवान श्री कृष्ण ने अपने गोचारण की लीला आरम्भ की थी जिससे उनका नाम "गोपाल" पड़ा। गोमाता विश्व की माता है जो माँ की तरह सबका पोषण करती है। गोमाता से प्राप्त पञ्चगव्य का शास्त्रों में ही नहीं बल्कि आयुर्वेद में भी बड़ा महत्व है।
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से 80 किमी दूर खैरागढ़ में स्थित है कामधेनु मंदिर। गोमाता के संरक्षण के लिए यहाँ संचालित मनोहर गौशाला अच्छी पहल कर रहा है। यहाँ एक अनोखी गोमाता है जिसका नाम है सौम्या। सौम्या का नाम गोल्डन बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में दर्ज है। प्रबंधन के सदस्यों ने बताया कि सौम्या की पूंछ सर्वाधिक लंबी करीब 54 इंच तक है जो कि धरती को स्पर्श करती है और इसकी लंबाई अन्य गायों की तुलना में भीअधिक है। जानकारों के मुताबिक इसके शरीर में शास्त्रों के अनुसार कुछ ऐसे प्रतीक चिन्ह हैं जो कि कामधेनु गाय में होती है। इनके दर्शन के लिए लोग श्रद्धा से यहाँ आते हैं और मनौती मांगते हैं। मनोकामना पूरी होने पर चढ़ावा भी चढ़ाते है। सौम्या को मिले इन्ही चढ़ावे से यहाँ मौजूद करीब 300 अशक्त गायें पल रही हैं।यहाँ कई दृष्टिहीन बछड़े अशक्त गायें हैं जिन्हें सौम्या दूध भी पिलाती है। इस गोशाला में गोअर्क के साथ-साथ गोमूत्र से औषधि भी बनाई जाती है। गोरक्षा के लिए यह गोशाला एक मिसाल है।
-विष्णु नागर
कुछ गुण- अवगुण व्यक्ति में नैसर्गिक रूप से होते हैं। इसका बहुत तीव्र एहसास मुझे अपने बड़े पोते के कारण हुआ। यह बात तब की है, जब जनाब तीन-चार साल के रहे होंगे। एक दिन हमारा पूरा परिवार- बड़ा बेटा, उसकी पत्नी, बड़ा पोता (तब छोटे पोते का जन्म नहीं हुआ था), पत्नी, मैं और हमारा छोटा बेटा- सब समुद्र की तरफ जा रहे थे। तब बेटे का परिवार एक फ्लैट में रहा करता था। हम सब लिफ्ट से नीचे उतर रहे थे। अचानक मेरे पोते जी ने कहा- 'दादाजी, आपके पास यह जो चटाई है, इसे आप दादी को दे दो।' हमने दे दी। तब उन्होंने कहा, 'और ये जो थैला है आपके पास, यह चाचा जी को दे दो।' वह भी दे दिया। मैं बहुत खुश हुआ कि इतना छोटा सा मेरा पोता, मेरा इतना ज्यादा ख्याल रख रहा है!
जैसे ही मैंने यह सब दिया, नीचे खड़े उन पोते जी ने कहा -'अब आप मुझे गोद में उठा लीजिए।' तो जनाब की यह डिप्लोमेसी थी, कूटनीति थी, जिसे हममें से कोई पहले समझ नहीं पाया था।
उनकी डिप्लोमेसी का यह अकेला उदाहरण नहीं है। इस घटना का गवाह मैं नहीं हूं मगर यह किस्सा उसकी मां ने सुनाया था और यह भी लगभग उसी समय का है। इनका पूरा परिवार, हमारी बहू के एक सहयोगी के घर भोजन पर आमंत्रित थे। बात होने लगी।किसी प्रसंग में शायद इन्हीं जनाब ने कहा कि ये अंकल मुझे बहुत अच्छे लगते हैं। उनकी एक विदेशी दोस्त उस समय आई हुई थीं। उससे ये सब पहले भी मिलते रहे थे। उन्होंने पूछा - 'और मैं, कैसी लगती हूं?' जाहिर है कि वह इसे उतनी पसंद नहीं थी, जितने कि वे अंकल या शायद पसंद नहीं थीं। अब यह बात कैसे कही जाए तो जनाब ने बड़ा कूटनीतिक जवाब दिया -'सारी दुनिया के लोग ही मुझे बहुत पसू हैं।' यह जवाब सुनकर सब बहुत देर तक आनंदित हुए -इनकी डिप्लोमेटिक सूझबूझ पर।
इनके ये कूटनीति दांवपेंच घर में भी खूब चलते रहते हैं। कभी-कभी इनका अपनी अम्मा से किसी बात पर झगड़ा हो जाता है। वह कोई चीज मांगता है या कुछ करने की इजाज़त अम्मा से चाहता है और मां किसी कारण से अनुमति देने से मना कर देती है।तो वह भी गरम जाता है और उसकी मां भी। दोनों में बोलचाल बंद हो जाती है। थोड़ी देर तक यह नाराज़गी चलती है। बातचीत बंद रहती है।कुछ ही देर में उसे समझ में आ जाता है कि यह ठीक नहीं हुआ। अम्मा ही तो घर में मेरी शक्ति का मुख्य स्रोत है।वह दो- चार दिन नाराज हो गई तो आगे के दिनों का खेल बिगड़ जाएगा।उसे जो भी चाहिए होगा, उसकी अनुमति तो मां ही देगी। वह तुरंत नाराज मां के गले में हाथ डालकर उनसे झूम जाता है। मां झिड़केगी तो भी बुरा नहीं मानता। बहुत मीठी-मीठी बातें करने लगता है। मां का गुस्सा भी नकली होता है तो थोड़ी देर में वह खुश हो जाती है।मामला हल हो जाता है।वह वायदा करवा लेता है कि उसकी यह मांग आज तो पूरी नहीं होगी मगर फला दिन होगी। इतना काफी है। वह सब भूल जाएगा मगर मां से जो वायदा उसने करवाया था, कभी नहीं भूलेगा।
हमारे छोटे पोते साहब वैसे तो अपने बड़े भाई के बड़े भारी मुरीद हैं मगर वह डिप्लोमेसी नहीं जानते। एकदम सीधी-सच्ची बात करते हैं। वह अपनी अदाओं से, अपनी हाजिरजवाबी से, शैतान हरकतों से, सबके दिल पर कब्जा जमाते हैं। जब भी उनकी दादी उनके पास होती है तो समझो, दादी का मोबाइल उनका अपना होता है। दादी कहीं भी छुपाकर रखें, वह ढूंढ लेते हैं। वापिस दिल्ली आने के कुछ दिन बाद उनकी दादी ने उनसे पूछा- 'क्या तुम्हें दादी की याद आती है? 'थोड़ी देर उसने सोचा,क्या वाकई आती है? फिर सीधा- सच्चा जवाब दिया- 'आपके मोबाइल की याद आती है दादी।'
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
गुजरात के मोरबी में जो पुल टूटा है, उसमें लगभग पौने दौ सौ लोगों की जान चली गई और सैकड़ों लोग घायल हो गए। मृतकों के परिजनों को केंद्र और गुजरात की सरकारें 6-6 लाख रु. का मुआवजा दे रही हैं और घायलों को 50-50 हजार का लेकिन यहां मूल प्रश्न यह है कि क्या सरकार की जिम्मेदारी सिर्फ इतनी ही है? जो लोग मरे हैं, उनके परिजन 6 लाख रु. के ब्याज से अपना घर कैसे चलाएंगे? कई परिवार बिल्कुल अनाथ हो गए हैं। सबसे ज्यादा महिलाएं और बच्चों की मौत हुई है। कोई आश्चर्य नहीं कि उस पुल के हादसे में मृतकों की संख्या अभी और बढ़ जाए।
लगभग 200 साल पुराने इस पुल की हालत काफी खस्ता थी। कई बार उस पर टूट-फूट हो चुकी है। गुजरात सरकार ने इस पुल के संचालन का ठेका एक गुजराती कंपनी को दिया था। पुल पर आने वाले हर यात्री को वह 17 रुपए का टिकट बेचती थी। लगभग 100 लोगों के एक साथ पुल पर जाने की सुविधा थी लेकिन उस दिन कंपनी ने लालच में फंसकर लगभग 500 टिकट बेच दिए। पिछले सात महिने से उसकी मरम्मत का काम जारी था। अब छठ पूजा के नाम पर 26 अक्तूबर को यह पुल यात्रियों के लिए खोल दिया गया।
पिछले चार-पांच दिनों में सैकड़ों लोग उस पुल पर जमा होते रहे लेकिन कल शाम वह अचानक बीच में से टूट गया। सैकड़ों लोग इसलिए मौत के घाट उतर गए और घायल हो गए कि ऐसी दुर्घटना की संभावना के विरुद्ध कोई सावधानी नहीं बरती गई। यह सावधानी किसे रखनी चाहिए थी? गुजरात सरकार को लेकिन गुजरात के अधिकारियों का कहना है कि उस पुल को खोलने की अनुमति उन्होंने नहीं दी थी। ठेकेदार ने अपनी मर्जी से ही पुल खोल दिया था।
यदि ठेकेदार ने पुल खोल दिया तो स्थानीय अधिकारी क्या ऊंघ रहे थे? उन्होंने क्यों नहीं जांच की? क्यों नहीं प्रमाण-पत्र मांगा? क्यों नहीं ठेकेदार के विरुद्ध कार्रवाई की? जाहिर है कि सरकार और ठेकेदार दोनों ही इस सामूहिक हत्याकांड के लिए समान रूप से जिम्मेदार हैं। यह ठीक है कि कल शाम से गुजरात के मुख्यमंत्री और केंद्र सरकार ने भी यात्रियों को बचाने में जमीन-आसमान एक कर रखा है लेकिन इस दुर्घटना ने गुजरात सरकार के मस्तक पर काला टीका लगा दिया है।
इस मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गुजरात के विभिन्न समारोहों में तरह-तरह के भाषण देते फिर रहे हैं लेकिन उनकी कौन सुन रहा है। टीवी दर्शक भी उनके भाषणों के बजाय मोरबी-दुर्घटना के बारे में ज्यादा देखना, सुनना और पढऩा चाह रहे हैं। उनके इन भाषणों से भी ज्यादा उनका वह भाषण इंटरनेट पर करोड़ों लोग सुन रहे हैं, जो उन्होंने पश्चिमी बंगाल में हुए चुनाव के पहले दिया था। उस समय बंगाल में भी एक पुल टूटा था। उस समय मोदी ने कहा था कि यह दुर्घटना ‘गाड’ की नहीं, ममता सरकार के ‘फ्राड’ की है। तुकबंदी के शौकीन मोदी पर यह जुमला काफी भारी पड़ रहा है।
यह असंभव नहीं कि उनके इस भाषण का उपयोग या दुरूपयोग अब ‘आप पार्टी’ गुजरात के आसन्न चुनाव में जमकर करेगी। पक्ष और विपक्ष के नेता मृतकों के प्रति जितनी औष्ठिक सहानुभूति बता रहे हैं, उससे ज्यादा वे एक-दूसरे पर प्रहार करने में जुटे हुए हैं। जो हुआ, सो हुआ लेकिन पुल की संचालक उस कंपनी को न केवल विसर्जित किया जाना चाहिए बल्कि उसके मालिक और दोषी प्रबंधकों को कड़ी सजा मिलनी चाहिए और उसकी सारी संपत्ति छीनकर हताहतों के परिजनों में बांट दी जानी चाहिए। जो स्थानीय सरकारी अधिकारी उपेक्षा के लिए जिम्मेदार हैं, उन्हें भी तत्काल नौकरी से मुक्त किया जाना चाहिए। (नया इंडिया की अनुमति से)
-अमृता राय
छठ मेरे बचपन की यादों का एक ऐसा पर्व है जो माँ के तप के साथ साथ अपनी मुफलिसी की याद दिलाता है। तब नए कपड़े दिवाली पर नहीं छठ पर सिलाए जाते थे। माँ के लिए दो अर्घ्य की दो नयी साडिय़ाँ आती थीं तो पूरे परिवार में नएपन की चकाचौंध हो जाती थी। लगता था हमारे अंदर नई ऊर्जा का संचार हो रहा है। मां की कठोरता से डरते हम बच्चे इन दिनों में उनकी कोमलता के आभास से पिघल जाते थे।
मगर वो सादगी के दिन थे। साल में होली और छठ पर ही नए कपड़े बनते थे। जिसका नया होना ही बहुत था। मुझे अपने लिए माँ की सिली वो हरी फ्रॉक आज भी याद है जो छठ के दिन तक सिली जा रही थी। उस साल शायद माँ कहीं व्यस्त थीं सो मेरे लिए कपड़ा तैयार नहीं कर पायी थीं। पर लगन ऐसी कि तीन दिन से व्रत के बावजूद छठ वाले रोज़ मेरी नयी फ्रॉक तैयार की गयी ताकि मैं उसे ही पहनकर पूजा के लिए जाऊँ। आज माँ की वो लगन और परिवार के प्रति जतन याद आती है।
माँ छठ के लिए रोमांचित रहती थीं। उनके इस रोमांच में पूरा परिवार ही नहीं मोहल्ला शामिल हो जाता था। सभी का सानिध्य इसे बड़े से बड़ा बना देता था।
दिवाली की रौनक़ से इतर छठ में गज़़ब की सादगी और नयापन होता था। घर का कोना कोना चमका दिया जाता था। जर्रे-जर्रे में छठ की भीनी ख़ुश्बू तैरने लगती थी। फिर शुरू होता था गेहूं धोकर सुखाना, हम बच्चों का कौवे उड़ाना, उसे जांते (चक्की) में पीसना, उसका ठेकुआ बनाना। घर में नया चावल, नया गुड़, गन्ने का रस आना और वह बखीर-आह! उसका स्वाद तो आज भी नहीं भूला है। नए चावल और नए गुड से चूल्हे पर बना वह खाना अमृत से कम नहीं होता था।
फिर आता था अर्घ्य का दिन। माँ मंदिर जाते हुए गीत गाती थीं। कांच ही बांस के बहँगिया, बहँगी लचकत जाएज्..पिता जी गन्ने और पूजा का सामान सँभालते थे और हम बच्चे पीछे पीछे दौड़ते से चलते थे। नए नए कपड़ों में त्योहार का रोमांच अलग ही होता था। माँ के जोश से हम उत्साहित रहते थे। बुआ हो या मोहल्ले की चाची जी, चाचा जी (तब हम सभी पड़ोसियों को ऐसे ही पुकारते थे) सब साथ हो लेते थे। लेकिन कोई शोर न था। सब तरफ़ सादगी थी। माँ मंदिर की पचास से ज़्यादा सीढिय़ाँ चढक़र डाला के पहाड़ी पर बने मंदिर में पूजा के लिए जाती थीं। अघ्र्य के लिए वहाँ बने एक तालाब के पानी में उतर जाती थीं। मेरे मन में चिंता होती थी कि माँ की नयी साड़ी गीली हो जाएगी तो पल्लू पकडक़र खड़ी हो जाती थी। पापा अर्घ्य दिलाते थे। फिर शाम घर आते हुए बस सुबह का इंतजार होता था।
अगले दिन भोर तीन बजे से ही सुनहरी सुबह का इंतज़ार करते हम बच्चे ठंड में किसी कंबल में सिकुड़ते बैठ जाते थे।
माँ गीत गाती रहती थीं- उगेले सुरूजमल कहवाँ’
गीत गाते गाते सूर्योदय हो ही जाता था। अघ्र्य के बाद पड़ोस की चाचीजी के लाए थर्मस की चाय माँ बड़े मन से पीती थीं। लगता था जैसे तृप्त हो रही हों। इस बीच हम बच्चे ठेकुआ पाने को बेचैन हो उठते थे। फिर अपने अपने प्रसाद की छँटाई होती थी। प्रसाद में इतने तरह की चीजें होती थीं कि सब अपनी पसंद से कुछ न कुछ अलग कर ही लेते थे।
इसके बाद सारा दिन सभी पड़ोसी चाची जी और आंटी जी के घर प्रसाद बाँटने का सिलसिला शुरू होता था। इस तरह छठ की पूजा संपन्न होती थी और हम नयी गर्मी के साथ सर्दी के स्वागत के लिए तैयार हो जाते थे। माँ बिना आराम किए नए दिन के चूल्हा चौका में लग जाती थीं।
बचपन के उन दिनों में हम छठ हर साल ऐसे ही मनाते रहे। वही छठ आज भी मन मस्तिष्क को भिगोता है। मुझे मेरी हरी फ्रॉक और माँ का गीत मन से बचपन में ले जाता है। मैं नए जमाने के छठ में भी वही पुराना रोमांच ढूँढती रहती हूं।
सोलर पार्क को पर्यावरण स्वीकृति की आवश्यकता नहीं है, जाहिर है इससे पर्यावरण पर पडऩे वाले प्रभावों का कोई अध्ययन नहीं किया जाता।
-महेन्द्र पांडे
हमारे देश में बड़े विशालकाय सोलर पार्क का प्रचलन तेजी से बढ़ा है- दरअसल जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए हमारी सरकार को बस एक यही तरीका नजर आ रहा है। प्रधानमंत्री मोदी स्वयं इसमें दिलचस्पी दिखाते हैं और अब गौतम अडानी के इस बाजार में तेजी से कदम बढ़ रहे हैं। जाहिर है, बड़े सोलर पार्क देश में बड़े पैमाने पर स्थापित किये जाने वाले हैं। सोलर पार्क को कुछ इस तरह से सरकार प्रस्तुत करती है, मानों इनका कोई बुरा प्रभाव समाज और पर्यावरण पर पड़ता ही ना हो। सोलर पार्क को पर्यावरण स्वीकृति की आवश्यकता नहीं है, जाहिर है इससे पर्यावरण पर पडऩे वाले प्रभावों का कोई अध्ययन नहीं किया जाता। दूसरी तरफ अधिकतर विकसित देशों में परियोजनाओं से होने वाले सामाजिक प्रभाव का मूल्यांकन किया जाता है, पर हमारे देश में सामाजिक प्रभावों को नगण्य कर दिया जाता है और इसका मूल्यांकन नहीं किया जाता।
हाल में ही अनेक अध्ययनों से यह स्पष्ट होता है कि सोलर पार्क को स्थापित करने और चलाने के समय यदि पर्यावरण और समाज को नजरअंदाज किया जाता है तब बहुत सारी समस्याएं खड़ी हो सकती हैं। कर्नाटक के तुमकुर जिले में स्थित पवागादा सोलर पार्क दुनिया के सबसे बड़े सोलर पार्क में एक है, जिसकी क्षमता 2 मेगावाट बिजली उत्पन्न करने की है और इसे वर्ष 2019 में चालू किया गया था। इस सोलर पार्क को केंद्र और राज्य सरकार एक आदर्श परियोजना बताती रही है, जिससे स्थानीय आबादी खुशहाल होगी, स्थानीय आबादी में बेरोजगारी ख़त्म हो जायेगी, सस्ती बिजली मिलेगी, आर्थिक सम्पन्नता आयेगी, और प्रतिवर्ष 7 करोड़ टन कार्बन डाइऑक्साइड का वायुमंडल में उत्सर्जन रोका जा सकेगा। अनेक गैर-सरकारी सामाजिक और पर्यावरणीय संस्थाओं ने इस सोलर पार्क का विस्तार से अध्ययन किया है और इसके सामाजिक और पर्यावरणीय प्रभावों का आकलन किया है।
पवागादा सोलर पार्क वाले क्षेत्र में प्रति वर्ग मीटर क्षेत्र में 5.35 किलोवाट घंटा सौर ऊर्जा प्राप्त होती है, जाहिर है यह सौर उर्जा के लिए एक आदर्श स्थान है। इस परियोजना के लिए पांच गाँव के किसानों ने स्वेच्छा से 13000 एकड़ अपनी भूमि सौर ऊर्जा कंपनियों को पट्टे पर दिया है। यह पट्टा 21000 रुपये प्रति एकड़ की दर से दिया गया है और हरेक दो वर्षों में इस दर में 5 प्रतिशत की बृद्धि की जायेगी। यहां तक तो एक आदर्श स्थिति नजर आती है और सरकार इसे प्रचारित भी करती है, और पूरे क्षेत्र के आर्थिक विकास का दावा भी करती है। इन तथ्यों को आप बारीकी से देखें तो इतना तो स्पष्ट हो ही जाएगा कि लाभ में केवल वही किसान रहेंगें जो बड़ी जमीनों के मालिक हैं, क्योंकि वही अपनी जमीन पट्टे पर दे सकते हैं। पर, सामान्यतया गाँव में कुछ किसानों के पास ही अपनी जमीन होती है, जिसपर खेती की जाती है, और गाँव की शेष आबादी श्रमिकों की होती है जो खेत वाले किसानों की जमीन पर श्रम कर अपना पेट भरते हैं। जाहिर है, सोलर पार्क से बहुत छोटे किसानों और खेतिहर श्रमिकों को कोई फायदा नहीं है।
खेतिहर श्रमिकों पर बेरोजगारी का संकट खड़ा हो गया है क्योंकि जिन खेतों पर वे श्रमिक का काम करते थे, उनपर अब सोलर पैनल खड़े हैं। इनमें से कुछ श्रमिकों को सोलर पार्क में ही घास काटने, सोलर पैनल की सफाई करने और सुरक्षा गार्ड का रोजगार मिला है, पर उनकी संख्या बहुत कम है। सामाजिक विकास से जुड़े संस्थानों का कहना है कि इस तरह की परियोजनाओं को स्थापित करने से पहले पूरे क्षेत्र की आबादी का विस्तृत आर्थिक और सामाजिक आकलन किया जाता है और खेतिहर श्रमिकों और वंचित समुदाय को प्राथमिकता के आधार पर रोजगार के अवसर और सुविधाएं दी जाती हैं, पर हमारे देश में ऐसी परियोजनाओं का लाभ केवल बड़े जमीन मालिकों में ही सिमट कर रह जाता है। इस तरीके की परियोजनाएं सरकारी प्रचार तंत्र का हिस्सा तो बनती हैं, पर किसी भी स्थानीय समस्या का कोई समाधान नहीं होता। ग्रामीण क्षेत्रों में पारंपरिक तौर पर आर्थिक असमानता का पैमाना जमीन पर मालिकाना हक़ रहा है, और सोलर पार्क जैसी परियोजनाओं से आर्थिक असमानता और विकराल हो रही है।
बड़े किसानों को सोलर पार्क के लिए खेती की जमीन को पट्टे पर देने के कारण उनके पास अचानक बहुत सारी मुद्रा पहुंच गयी, और इस मुद्रा से कुछ बड़े किसान भारी व्याज पर कर्ज देने का धंधा करने लगे हैं। आर्थिक तौर पर कमजोर तबके की एक बड़ी आबादी धीरे-धीरे कर्ज में डूबती जा रही है। सोलर पार्क से पहले इस क्षेत्र की परती सार्वजनिक और सरकारी भूमि मवेशियों के लिए चारागाह का काम करती थी, पर अब सोलर पार्क के अन्दर मवेशियों को चराना मना है। मवेशियों को अब चराने के लिए दूर ले जाना पड़ता है। इन सब समस्याओं से ट्रस्ट होकर कुछ लोगों ने अपने पुश्तैनी गाँव को ही छोड़ दिया है।
विश्व बैंक ने कुछ वर्ष पहले अपनी एक रिपोर्ट में ऐसी सामाजिक समस्याओं के प्रति आगाह किया था, पर हमारे प्रधानमंत्री जी और सरकार की प्राथमिकता सौर ऊर्जा पर अंतर्राष्ट्रीय वाहवाही बटोरना है, जनता नहीं। हमारे प्रधानमंत्री तो वैसे भी हरेक परेशानी को कुछ दिनों की परेशानी ही बताते हैं और उसके बाद स्वार्गिक सुख का सब्जबाग दिखाते हैं। ऐसी परियोजनाएं समाज में सबसे अधिक महिलाओं को आर्थिक तौर पर कमजोर करती हैं। सोलर पार्क से पहले इस क्षेत्र की अधिकतर महिलायें खेतिहर श्रमिक का काम करती थीं, पर अब वे बेरोजगार हैं।
कर्नाटक के इस क्षेत्र में बारिश कितनी कम होती है, इसका अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि पिछले 6 दशकों के दौरान 54 बार इसे सूखा-ग्रस्त क्षेत्र घोषित किया गया है। जाहिर है, इस क्षेत्र में पानी की भयानक किल्लत बनी रहती है। दूसरी तरफ सोलर पैनल की सफाई के लिए भारी मात्रा में पानी की जरूरत पड़ती है। एक मेगावाट बिजली उत्पन्न करने वाले पैनल को एक बार साफ़ करने के लिए 7 हजार से 20 हजार लीटर पानी की जरूरत पड़ती है। हमारे सरकारों की प्राथमिकता पानी के उपयोग के सम्बन्ध में अब पूरी तरह बदल चुकी है और अब पानी के उपयोग में प्राथमिकता उद्योग हो गए हैं। पानी की कमी होने पर अब इस क्षेत्र में कृषि और घरेलु आपूर्ति प्रभावित होगी।
सोलर पार्क स्थापित करने के बाद इलाके के वन्यजीव या तो मर जाते हैं या फिर कहीं और चले जाते हैं। कीट पतंगे और मधुमक्खियां भी कम हो जाते हैं। इनका खेतों में परागण में बहुत योगदान रहता है, और इनकी कमी से कृषि पैदावार कम हो जाती है। पवागादा सोलर पार्क के आसपास के किसान इस समस्या से जूझने लगे हैं। सोलर पार्क के लिए किसानों से पट्टे पर ली गयी जमीन के बारे में अनुबंध में कहा गया है कि उन्हें जमीन वापस पहले जैसी ही मिलेगी। पहले जैसी जमीन वापस करना असंभव है क्योंकि सोलर पैनल का आधार पक्का बनाया जाता है। खेती की जमीन को सीमेंट और ईंट से पक्का करने के बाद उसे वापस पहले की अवस्था में लाना असंभव है। सोलर पार्क स्थापित करने के बाद स्थानीय स्तर पर तापमान भी बढ़ता है, जिससे स्वास्थ्य समस्याएं भी बढ़ सकती हैं। सोलर पैनल की आयु 25 से 30 वर्ष की होती है, और उपयोग के बाद इसका कोई उपयोग नहीं होता और इसका पुन:चक्रण भी नहीं किया जा सकता।
यदि, इसके कचरे का उचित प्रबंधन नहीं किया गया तो इससे अनेक विषाक्त पदार्थ भूमि में मिल सकते हैं। पर, सबसे बड़ा सवाल यह है कि सौर ऊर्जा से हरेक समस्या के समाधान का दावा करने वाली सरकार इन समस्याओं पर कभी विचार करेगी और स्थानीय समस्याओं पर कभी ध्यान देगी? (navjivanindia.com)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत की सरकारों से मेरी शिकायत प्राय: यह रहती है कि वे शिक्षा और चिकित्सा के क्षेत्र में क्रांतिकारी कदम क्यों नहीं उठाती हैं? अभी तक आजाद भारत में एक भी सरकार ऐसी नहीं आई है, जिसने यह बुनियादी पहल की हो। कांग्रेस और भाजपा सरकारों ने छोटे-मोटे कुछ कदम इस दिशा में जरूर उठाए थे लेकिन मोदी के प्रधानमंत्री बनने के पहले मेरा सोच यह था कि यदि वे प्रधानमंत्री बन गए तो वे जरूर यह क्रांतिकारी काम कर डालेंगे लेकिन यह तभी हो सकता है जबकि हमारे नेता नौकरशाहों की गिरफ्त से बाहर निकलें। फिर भी 2018 से सरकार ने जो आयुष्मान बीमा योजना चालू की है, उससे देश के करोड़ों गरीब लोगों को राहत मिल रही है। यह योजना सराहनीय है लेकिन यह मूलत: राहत की राजनीति है याने मतदाताओं को तुरंत तात्कालिक लाभ दो और बदले में उनसे वोट लो।
इसमें कोई बुराई नहीं है लेकिन इस देश का स्वास्थ्य मूल रूप से सुधरे, इसकी कोई तदबीर आज तक सामने नहीं आई है। फिर भी इस योजना से देश के लगभग 40-45 करोड़ लोगों को लाभ मिलेगा। वे अपना 5 लाख रू. तक का इलाज मुफ्त करवा सकेंगे। उनके इलाज का पैसा सरकार देगी। अभी तक देश में लगभग 3 करोड़ 60 लाख लोग इस योजना के तहत अपना मुफ्त इलाज करवा चुके हैं। उन पर सरकार ने अब तक 45 हजार करोड़ रु. से ज्यादा खर्च किया है। देश की कुछ राज्य सरकारों ने भी राहत की इस रणनीति को अपना लिया है लेकिन क्या भारत के 140 करोड़ लोगों की स्वास्थ्य-रक्षा और चिकित्सा की भी योजना कोई सरकार लाएगी?
इसी प्रकार भारत में जब तक प्रांरभिक से लेकर उच्चतम शिक्षा भारतीय भाषाओं के जरिए नहीं होती है, भारत की गिनती पिछड़े हुए देशों में ही होती रहेगी। जब तक यह मैकाले प्रणाली की गुलामी का ढर्रा भारत में चलता रहेगा, भारत से प्रतिभापलायन होता रहेगा। अंग्रेजीदाँ भारतीय युवजन भागकर विदेशों में नौकरियाँ ढूंढेंगे और अपनी सारी प्रतिभा उन देशों पर लुटा देंगे। भारतमाता टूंगती रह जाएगी। इसका अर्थ यह नहीं कि हमारे बच्चे विदेशी भाषाएं न पढ़ें।
उन्हें सुविधा हो कि वे अंग्रेजी के साथ कई अन्य प्रमुख विदेशी भाषाएं भी जरूर पढ़ें लेकिन उनकी पढ़ाई का माध्यम कोई विदेशी भाषा न हो। सारे भारत में किसी भी विदेशी भाषा को पढ़ाई का माध्यम बनाने पर कड़ा प्रतिबंध होना चाहिए। कौन करेगा, यह काम? यह काम वही संसद, वही सरकार और वही प्रधानमंत्री कर सकते हैं, जिनके पास राष्ट्रोन्नति का मौलिक सोच हो और नौकरशाहों की नौकरी न करते हों। जिस दिन यह सोच पैदा होगा, उसी दिन से भारत विश्व-शक्ति बनना शुरु हो जाएगा। (नया इंडिया की अनुमति से)
-शंभुनाथ
मैं जब 8-9 साल का था तो छठ के दिन स्त्रियों के गीत गाने की आवाज मेरी नींद में सेंध मारते हुए घुसती थी। एकदम अंधेरे में बिस्तर से उठकर खिड़की से उन्हें गोल में गीत गाते हुए जाते देखता था। उस समय न डम-डमाडम-डम था और न इतने पटाखे छूटते थे। थोड़ी- थोड़ी देर पर स्त्रियों के गोल आते रहते थे। सड़क की कम रोशनी में स्त्रियां आगे-आगे रहती थीं। पुरुष सिर पर भरी परात और केले के धवद लिए अपूर्व आज्ञाकारी की तरह पीछे- पीछे चलते थे। यह मेरे लिए अनोखा दृश्य था।
बचपन में किसी छठ के दिन जिद करके मैं पहली बार गंगा घाट गया, मेरी एक भक्तिन दादी भोर होने पर ले गई थीं। घाट की गली में चहल- पहल थी, पर ठेलम-ठेल नहीं। देखा, दादी ने खोइचा बनाकर किसी अपरिचित से ठेकुआ मांगा और उसने बड़े सहज भाव से दे दिया। मुझे बुरा लगा और भक्तिन दादी को टोका कि मांग क्यों रही हैं। उन्होंने कहा कि इस तरह मांगा जाता है। सब छठ मइया का है, प्रसाद है!
बाद में समझ में आया, छठ पूजा भक्तों के बीच फर्क मिटा देती है। न देने वाले को लगता है कि वह कुछ दे रहा है, न मांगने वाले को लगता है कि वह कुछ मांग रहा है। क्योंकि यहां सूरज और छठ के संसार में कोई 'दूसरा' नहीं है, कोई 'पर' नहीं है! सूरज किसी को भी 'पर' समझकर अपनी किरणें नहीं रोकता। यह अ-पर का बोध ही भारतीयता है!
भारत के सभी बड़े त्योहारों का संबंध नई फसल से है-- ओणम, पोंगल, बीहू हो या दिवाली- छठ। छठ पूजा में गेहूं और इसका ठेकुआ है, ईख है, चना है, केले के धवद हैं। छठ में सूप- दउरा का बड़ा महत्व है, ये दलितों के घर में बनते हैं। ये सूप अब घरों से ओझल हो गए। बहुत कुछ अब आंखों के सामने नहीं है, पर उसकी छाप है।
छठ पूजा पहले द्विजेतर जातियों में प्रचलित थी, धीरे- धीरे सार्वभौम हो गई। छठ पूजा सारे भेदभाव मिटा देने वाला पर्व है। यह स्वच्छता के साथ प्रेम, आत्मपरिष्कार और बृहत्तर सामाजिकता का संदेश देता है।
इस पूजा की खूबी है कि इसमें पुरोहितों की जरूरत नहीं है, भक्त और ईश्वर के बीच कोई मध्यस्थ नहीं होता। व्रतपारिणी ही सबकुछ है और वह श्रद्धा से देखी जाती है।
स्त्रियों के गान में है, केले के धवद पर सुग्गा मंडरा रहा है। तोता भूख के कारण गुच्छे को जूठा कर देता है और बाण से मारा जाता है। उसकी पत्नी सुगनी वियोग से रोने लगती है, कोई देव सहाय नहीं होता। कथा का संकेत है कि अवमानना की शिकार स्त्री की आवाज अनसुनी है। उसकी पीड़ा को सिर्फ सूर्यदेव समझ सकते हैं। वे भी नहीं सुनेंगे तो कौन सुनेगा। छठ पूजा इसलिए है कि धर्म को पुरोहित तंत्र से मुक्त किया जाए और स्त्रियों की आवाज सुनी जाए!
सदियों से लोग देवताओं से अपने दुख- कष्ट कह रहे हैं। जब तक ऐसा है, मानकर चलना चाहिए कि सरकारें नहीं सुन रही हैं!
छठ से जिस तरह पुरोहितों को अलग रखा गया, यदि पूरे हिंदू धर्म को पुरोहिततंत्र से स्वतंत्र कर देना संभव होता तो इस धर्म में इतना अंधविश्वास, धार्मिक शोषण और कट्टरता नहीं फैलती।
कर्ण नदी में कमर तक डूबकर बिना पुरोहित के सूर्य को अर्घ्य देता था। विश्वास है कि वह सूर्यपुत्र था। वह अनोखा दानी था, बिहार (अंग राज्य) का था। असल दानी वह है जो दाएं हाथ से देता है, पर उसके बाएं हाथ को इसका पता नहीं होता!
आज कोई समर्थ व्यक्ति लोगों के बीच साधारण चीज भी बांटता है, तो कैमरे या मोबाइल से फोटो खिंचा लेता है!
निरीश्वरवादी नागार्जुन की एक कविता है- 'पछाड़ दिया मेरे आस्तिक ने'। इसमें वे खुद अपना मखौल उड़ाने में संकोच नहीं करते। दूसरों पर हँसना आसान है। नागार्जुन अपने पर भी हँस सकते थे! वे एक पोस्टग्रेजुएट नौजवान के साथ निर्मल भाव से गंगा किनारे जाते हैं और सूर्य को नमस्कार करते हुए वैदिक श्लोक पढ़ते हैं। लड़का देखता है, बाबा यह क्या कर रहे हैं! मनुष्य में प्रकृति के प्रति थोड़ी कृतज्ञता होनी चाहिए, अन्यथा वह सिर्फ एक विध्वंसक में बदलता जाएगा।
मुझे छठ प्रिय है, क्योंकि इसमें आवेग और दृढ़ता दोनों चीजें हैं। ये भरोसा देती हैं कि इसी तरह देश के आम लोगों में प्रेम, मैत्री, अहिंसा, सह- अस्तित्व और करुणा को लेकर जो आवेग और दृढ़ता है, इन्हें थोड़ी देर के लिए धूमिल किया जा सकता है, पर मिटाया नहीं जा सकता!
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारतीय विदेश नीति की कल दो उपलब्धियों ने मेरा ध्यान बरबस खींचा। एक तो रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पूतिन द्वारा भारत की सराहना और दूसरी भारत और ब्रिटेन के प्रधानमंत्रियों के बीच मुक्त व्यापार समझौते पर हुई बातचीत! इन मुद्दों पर यह शक बना हुआ था कि भारत की नीति से इन दोनों राष्ट्रों को कुछ न कुछ एतराज जरुर है लेकिन वे संकोचवश खुलकर बोल नहीं रहे थे। अब यह स्पष्ट हो गया है कि रूस और ब्रिटेन, दोनों ही भारत की नीति से संतुष्ट हैं और उनके संबंध भारत से दिनोंदिन घनिष्ट होते चले जाएंगे।
पहले हम रूस को लें। भारत ने यूक्रेन पर रूसी हमले का कभी दबी जुबान से समर्थन नहीं किया लेकिन उसे अमेरिका और यूरोपीय राष्ट्रों की तरह रूस के विरुद्ध आग भी नहीं बरसाई। उसने यूक्रेन से अपने हजारों नागरिकों को सुरक्षित बाहर निकाला, उसे टनों अनाज भेंट किया और कुछ प्रस्तावों पर संयुक्तराष्ट्र संघ में उसका साथ भी दिया। इतना ही नहीं, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शांघाई सहयोग संगठन के शिखर सम्मेलन में साफ-साफ कह दिया कि यह वक्त युद्ध का नहीं है। रूस-यूक्रेन युद्ध तुरंत बंद होना चाहिए।
शायद इसी का असर था कि पूतिन ने परमाणु-युद्ध की आशंका से त्रस्त सारे विश्व को आश्वस्त किया कि उनका इरादा परमाणु बम चलाने का बिल्कुल नहीं है। अब उन्होंने मास्को के एक ‘थिंक टैंक’ में भाषण देते हुए न केवल मोदी की भूरि-भूरि प्रशंसा की बल्कि कहा कि इस संकट के दौरान भारत के साथ रूस का कृषि व्यापार दुगुना हो गया, उर्वरक निर्यात 7-8 गुना बढ़ गया और आपसी व्यापार 13 अरब से कूदकर 18 अरब डॉलर का हो गया। रूसी तैल ने भारत की जरूरत पूरी कर दी। पूतिन ने भारत की स्वतंत्र विदेश नीति की जमकर तारीफ की है। यह तब है जबकि भारत अमेरिका के साथ कई मोर्चों पर पूरी तरह सहयोग कर रहा है।
चीन को इससे काफी जलन हो रही है लेकिन भारत के बारे में रूस का मूल्यांकन सही है। इसी तरह ब्रिटेन-भारत मुक्त व्यापार समझौते के संपन्न होने के पूरे आसार दिखाई पडऩे लगे हैं। ऋषि सुनाक ने प्रधानमंत्री बनते ही अपने विदेश मंत्री को सबसे पहले भारत भेजा है। मोदी और सुनाक की बातचीत से मुक्त व्यापार का रास्ता काफी साफ हुआ है। लंदन में यह डर बताया जा रहा था कि उक्त समझौता यदि हो गया तो ब्रिटेन में भारतीयों की भरमार हो जाएगी और वे ब्रिटिश बाजारों पर कब्जा कर लेंगे।
इसके अलावा ब्रिटेन चाहता है कि उसकी मोटर साइकिलों, शराब, केमिकल्स और अन्य कई चीजों पर भारत ज्यादा टैक्स-ड्यूटी न लगाए। ऐसे ही भारत भी अपने कृषि-पदार्थों, कपड़ों और चमड़े आदि के समान पर ड्यूटी घटवाना चाहता है। उम्मीद है कि कुछ दिनों में यदि उक्त समझौता हो गया तो अन्य कई यूरोपीय देशों के दरवाज़े भी भारतीय माल के लिए खुल जाएंगे। (नया इंडिया की अनुमति से)
-डॉ. राजू पाण्डेय
ऋषि सुनक के ब्रिटिश प्रधानमंत्री बनने के बाद सोशल मीडिया में एक अजीब सा उन्माद देखा गया। कुछ बड़े ही रोचक शीर्षक भी नजरों से गुजरे - ब्रिटेन में ऋषि राज, ऋषि युग लौट आया, सनातनियों के लिए सुनहरा समय, कोहिनूर की वापसी का मार्ग प्रशस्त आदि आदि। अनेक सोशल मीडिया पोस्ट ऐसी भी थीं जिनमें कुछ चर्चित भविष्यवाणियों का जिक्र था जो भारत के विश्व गुरु बनने की ओर संकेत करती हैं और यह कहा गया था कि अब इन भविष्यवाणियों के सच होने की शुरुआत हो गई है। बहुत से व्हाट्सएप संदेश ऐसे भी देखने में आए जो यह पुरजोर तरीके से समझाने का प्रयास कर रहे थे कि ऋषि सुनक के चयन के पीछे मोदी जी का अप्रत्यक्ष योगदान है। इनमें कहा गया था कि दरअसल भारत के प्रधानमंत्री के रूप में मोदी जी के शानदार प्रदर्शन को देखकर दुनिया के अनेक देश अब यह मानने लगे हैं कि कोई भारतवंशी हिन्दू ही उनके देश का उद्धार कर सकता है, अब हर देश में मोदी जी को तो बुलाया नहीं जा सकता इसलिए स्थानीय भारतीय मूल के नेताओं पर विश्वास जताया जा रहा है।
हमारे देश में महंगाई और बेरोजगारी के उच्चतम स्तर, आर्थिक और लैंगिक असमानता की बढ़ती खाई, नागरिक स्वतंत्रता के ह्रास, मीडिया की आजादी में आई कमी, अल्पसंख्यक अधिकारों के हनन तथा बहुसंख्यक वर्चस्व की बढ़ती प्रवृत्ति आदि की निरन्तर चर्चा करने वाले मुझ जैसे बुद्धिजीवियों को यह संदेश विशेषकर भेजे गए, कुछ संदेशों में मेरे लिए पाद टिप्पणी भी जोड़ी गई थी- अब तो समझ जाओ अक्ल के अंधे! मोदी जी के नेतृत्व भारत विश्व गुरु बन रहा है!
इन संदेशों ने मुझ पर गहरा असर किया लेकिन उस रूप में नहीं जैसा इनके प्रेषकों को अपेक्षित था। कभी साम्राज्यवाद और रंगभेद के लिए चर्चित रहने वाले ब्रिटेन की लोकतांत्रिक व्यवस्था में अल्पसंख्यकों के बढ़ते प्रतिनिधित्व के विषय में जानने की तीव्र जिज्ञासा हुई। अंततः यूके पार्लियामेंट की हाउस ऑफ कॉमन्स लाइब्रेरी की वेबसाइट में "एथनिक डाइवर्सिटी इन पार्लियामेंट एंड पब्लिक लाइफ" शीर्षक रिपोर्ट ने बहुत कुछ बताया और चौंकाया भी। 1929 में भारतीय मूल के कम्युनिस्ट शाहपुरजी सकलतवाला की बैटरसी सीट से पराजय के उपरांत 1986 तक हाउस ऑफ कॉमन्स में दक्षिण एशियाई या अश्वेत प्रतिनिधित्व नहीं था। किंतु 1987 में अल्पसंख्यक जातीय पृष्ठभूमि रखने वाले डायने एबॉट, पॉल बोटेंग,कीथ वाज़ तथा बर्नी ग्रांट निर्वाचित हुए। यह संख्या उत्तरोत्तर बढ़ती गई और 2010 के बाद से इसमें बड़ी तेजी से वृद्धि हुई। 1992 में 6,1997 में 9, 2001 में 12, 2005 में 15, 2010 में 27, 2015 में 41, 2017 में 52 जबकि 2019 में 65 सांसद अल्पसंख्यक समुदाय से निर्वाचित हुए। इस प्रकार 2019 में हाउस ऑफ कॉमन्स में अल्पसंख्यक जातीय पहचान रखने वाले सांसदों की संख्या दस प्रतिशत तक पहुंच गई है। जबकि सितंबर 2022 की स्थिति में हाउस ऑफ लॉर्ड्स में अल्पसंख्यक सदस्यों की संख्या 55 अर्थात 7.6 प्रतिशत थी। हाउस ऑफ कॉमन्स के 65 अल्पसंख्यक संसद सदस्यों में 41 लेबर पार्टी के जबकि 24 कंज़र्वेटिव पार्टी के हैं, 2 सांसद लिबरल डेमोक्रेट हैं। चौंकाने वाली बात यह है कि 65 अल्पसंख्यक सांसदों में 37 महिलाएं हैं। अल्पसंख्यक महिलाओं को इतना प्रतिनिधित्व शायद उनके मूल देश में भी नहीं मिल पाता होगा।
पिछले कुछ दिनों में अनेक अल्पसंख्यकों को ब्रिटिश मंत्रिमंडल में बहुत महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां भी दी गई हैं। सुएला ब्रेवरमैन,जेम्स क्लेवरली, रानिल जयवर्धने, क्वासी क्वारटेंग, आलोक शर्मा और नदीम जहावी आदि देश के सबसे महत्वपूर्ण मंत्रालयों का कार्यभार संभाल चुके हैं। यह जानना रोचक होगा कि ऋषि सुनक के 31 सदस्यीय मंत्रिमंडल में प्रधानमंत्री समेत केवल 5 मंत्री अल्पसंख्यक पहचान रखते हैं जबकि लिज ट्रस के 31 सदस्यीय मंत्रिमंडल में 7 मंत्री अल्पसंख्यक थे।
सितंबर 2022 की स्थिति में लंदन असेंबली में 32 प्रतिशत अर्थात 8 सदस्य अल्पसंख्यक जातीय पृष्ठभूमि से थे। लंदन के मेयर सादिक खान भी अल्पसंख्यक हैं। लंदन की जनसंख्या में अल्पसंख्यकों की हिस्सेदारी 40.6 प्रतिशत है।
नेशनल हेल्थ सर्विस इंग्लैंड की अगर बात करें तो इसमें 25.2 प्रतिशत की महत्वपूर्ण भागीदारी अल्पसंख्यकों की है। एनएचएस इंग्लैंड में 49.5 प्रतिशत डॉक्टर्स और 41.9 प्रतिशत हॉस्पिटल कंसल्टेंट्स अल्पसंख्यक पहचान रखते हैं। सितंबर 2021 की स्थिति में इंग्लैंड के 23.4 प्रतिशत सामाजिक कार्यकर्ता अल्पसंख्यक थे।
इन आंकड़ों की चर्चा इसलिए कि अल्पसंख्यक वर्ग से ब्रिटिश प्रधानमंत्री का चुना जाना कोई आकस्मिक या असामान्य घटना नहीं है। यह पिछले साढ़े तीन दशक से ब्रिटिश जीवन में आ रहे सकारात्मक बदलावों की परिणति है और इन परिवर्तनों को ब्रिटेन के सामुदायिक जीवन में अल्पसंख्यकों की बढ़ती भागीदारी के रूप में देखा जा सकता है।
यदि हम अपने देश की बात करें तो 2006 में आई सच्चर कमेटी की सिफारिशों के16 वर्ष पूर्ण होने के बाद भी मुस्लिम अल्पसंख्यकों की स्थिति चिंताजनक है, निराश करने वाली बात यह है कि पिछले एक दशक में मानव विकास और सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक भागीदारी के विभिन्न मानकों के अनुसार मुसलमानों की स्थिति में सुधार के बजाए गिरावट देखी गई है। 2011 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार कामकाजी उम्र वाले एक तिहाई मुसलमान ही नौकरियों में हैं, शेष या तो कुछ अपना ही काम कर रहे हैं, अथवा बेरोजगार हैं। मुसलमानों की जनसंख्या देश की कुल आबादी का 14 प्रतिशत है किंतु लोकसभा में उनका प्रतिनिधित्व 4.9 प्रतिशत है। सिविल सेवाओं के इस वर्ष घोषित नतीजों में 685 सफल उम्मीदवारों में पिछले एक दशक में सबसे कम केवल 25 अर्थात 3.64 प्रतिशत मुसलमान हैं। बिहार के अपवाद को छोड़कर जहाँ आमिर सुबहानी मुख्य सचिव हैं 28 राज्यों में कोई भी मुख्य सचिव मुसलमान नहीं है। सुप्रीम कोर्ट के जजों में एस अब्दुल नजीर के रूप में मुस्लिम समुदाय का केवल एक जज है। आईआईटी, आईआईएम तथा एम्स की प्रशासनिक समिति में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व शून्य या नगण्य है। लगभग यही स्थिति निजी क्षेत्र और सार्वजनिक क्षेत्र की श्रेष्ठ कंपनियों और मीडिया हाउसों की है- सर्वोच्च स्तर पर मुस्लिम प्रतिनिधित्व का नितांत अभाव है।
ऋषि सुनक को कंज़र्वेटिव पार्टी ने रिचमंड यॉर्कशायर सीट से चुनाव लड़ाया जो कंज़र्वेटिव पार्टी का गढ़ कही जाती है और 1910 से उसके पास है। क्या हमारे देश में हम यह अपेक्षा कर सकते हैं कि किसी अल्पसंख्यक को संसद में पहुंचाने के लिए कोई राष्ट्रीय पार्टी उसे अपनी सबसे सुरक्षित सीट से चुनाव लड़ाएगी?
प्रधानमंत्री पद के लिए सुनक की दावेदारी के बाद स्वाभाविक था कि उनका विरोध हुआ। लेकिन यह विचारणीय है कि विरोध के मुद्दे क्या थे? उन पर श्रमिक विरोधी होने के आरोप लगे, उनकी अकूत संपत्ति पर सवाल उठे, उनकी पत्नी पर लगे कर अपवंचन के आरोप चर्चा में रहे किंतु उनके भारतीय मूल के होने, हिंदू धर्मावलंबी होने अथवा उनकी अल्पसंख्यक पहचान को लेकर न तो विरोधी दलों ने न ही कंज़र्वेटिव पार्टी के उनके प्रतिद्वंद्वियों ने कोई सवाल उठाया। उनका धर्म और उनकी अल्पसंख्यक पहचान राजनीतिक विमर्श का हिस्सा ही नहीं थी।
ऋषि सुनक के पारंपरिक भगवा गमछा धारण कर मंदिर में सपत्नीक पूजा करते चित्र को देखकर हम गौरव अनुभव कर रहे हैं। लेकिन हम यह भूल रहे हैं कि सुनक के किसी प्रतिद्वंद्वी ने यह नहीं कहा कि उन्हें उनके कपड़ों से ही पहचाना जा सकता है कि वे ब्रिटेन के प्रति वफादार नहीं हैं। ब्रिटेन में अपने प्रतिद्वंद्वी नेता पर ऐसी किसी टिप्पणी की भी कल्पना भी नहीं की जा सकती कि उसने भयवश ऐसे क्षेत्र का चयन किया है जहां बहुसंख्यक समुदाय अल्पसंख्यक है।
क्या हम भारत में भविष्य में होने वाले किसी ऐसे चुनाव की कल्पना कर सकते हैं जिसमें सोनिया गांधी के विदेशी मूल का मुद्दा न उठे? क्या आने वाले दिनों में कोई ऐसा चुनाव होता दिखता है जो बुनियादी मुद्दों पर केंद्रित हो न कि मतदाता को धार्मिक रूप से ध्रुवीकृत करने की जहरीली कोशिशों पर आधारित हो? क्या आज कोई राजनीतिक पार्टी किसी अल्पसंख्यक को मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री के रूप प्रोजेक्ट कर चुनावों में जाने का साहस कर सकती है? हिन्दू मतदाता को हिंसक बहुसंख्यक वर्चस्व का आदी बना देने के बाद यह दलील कितनी खोखली लगती है कि अब मुसलमान प्रत्याशी मतदाताओं की पसंद नहीं रह गए हैं और हारने वाले उम्मीदवार को कोई टिकट नहीं देता। देश में एपीजे अब्दुल कलाम और आरिफ मोहम्मद खान जैसे राष्ट्र भक्त मुसलमानों की कमी के शरारती तर्क का असली अर्थ यह है कि देश के लगभग 20 करोड़ मुसलमान राष्ट्रभक्त नहीं हैं।
भारत के साथ होने वाली ट्रेड डील का विरोध करने वाली, डील के बाद यूके में भारतीय आप्रवासियों की संख्या बढ़ने की आशंका व्यक्त करने वाली और भारतीय आप्रवासियों पर विपरीत टिप्पणी करने वाली लिज ट्रस सरकार की गृह मंत्री सुएला ब्रेवरमैन को ही ऋषि सुनक ने अपना गृह मंत्री बनाया है। ऋषि और सुएला दोनों ही भारतीय मूल के हैं लेकिन उनकी निष्ठा अपनी पार्टी की विचारधारा के प्रति स्पष्ट दिखती है। बतौर देशभक्त ब्रिटिश नागरिक उनकी भारत के प्रति नीतियां भी ब्रिटेन के हितों की रक्षा करने वाली होंगी। लेकिन हमारे देश में बड़ी निर्ममता और निष्ठुरता से अपना व्यापार चलाने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हिन्दू सीईओज की सूची देखकर चरम आनंद प्राप्त करने वाले कट्टरपंथियों के लिए ऋषि सुनक का हिन्दू होना ही काफी है।
ऐसा बिलकुल नहीं है कि ब्रिटेन में रंगभेद समाप्त हो गया है अथवा नस्ली सोच मिट गई है, लेकिन यह भी सच्चाई है कि ब्रिटेन ने पिछले कुछ दशकों में जिस तरह से अपनी सांस्कृतिक और प्रजातीय विविधता को अपनी शक्ति बनाया है उससे वहां उदारता का वातावरण बना है और देश मजबूत हुआ है। धीरे धीरे ऐसी स्थिति बन रही है कि अल्पसंख्यकों का अल्पसंख्यक होना चुनावी मुद्दा नहीं रह गया है। किसी भी आम ब्रिटिश उम्मीदवार की तरह अल्पसंख्यक प्रत्याशी भी अपने चुनावी क्षेत्र और देश की समस्याओं को मुद्दा बनाकर चुनाव लड़ रहे हैं और मतदाता भी उनकी योग्यता और विज़न को देखकर उन्हें चुन रहे हैं न कि उनके अल्पसंख्यक होने के कारण। इसके विपरीत हम हैं कि अपने देश के अल्पसंख्यकों के राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक बहिष्कार की ओर अग्रसर हैं। देश के लगभग 20 करोड़ मुसलमान हमारे लिए संदेह और घृणा के पात्र हैं। हम हिंसा और प्रतिहिंसा के अंतहीन सिलसिले को बस शुरू ही करने वाले हैं।
कहा जाता है कि ग्लोबलाइजेशन के अंत का प्रारंभ हो चुका है। विशेषकर कोविड-19 के बाद से दुनिया भर में संकीर्ण राष्ट्रवाद लोकप्रिय हुआ है और फ़ासिस्ट शक्तियां मजबूत हुई हैं। अनेक देश बाहरी लोगों के लिए अपनी सीमाएं बंद कर रहे हैं। ऐसे में ऋषि सुनक का ब्रिटिश प्रधानमंत्री बनना एक सुखद आश्चर्य है। विडंबना यह है कि ब्रिटेन के जिस उदार वातावरण ने ऋषि सुनक को प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाया है, उस उदारता को संकीर्णता में बदलने की अपेक्षा उनसे की जाएगी। यह देखना होगा कि वे इस अंतर्विरोध के का सामना करते हुए किस तरह सत्ता संचालन करते हैं।
(रायगढ़, छत्तीसगढ़)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत के रक्षामंत्री राजनाथसिंह ने पाकिस्तान के कब्जाए हुए कश्मीर और बल्तिस्तान को आजाद करने का नारा काफी जोर-शोर से लगाया है। उन्होंने 26 अक्टूबर को मनाए जा रहे शौर्य दिवस के अवसर पर कहा है कि तथाकथित ‘आजाद कश्मीर’ के लोगों पर थोपी जा रही गुलामी को देखकर तरस आता है। उन्हें सच्ची आजादी दिलाना बहुत जरुरी है। भारत इस मामले में चुप नहीं बैठेगा।
राजनाथसिंह के पहले हमारी विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने उस कश्मीर को आजाद करने की बात काफी जोरदार ढंग से कही थी। उनके पहले तथाकथित पाकिस्तानी कश्मीर के बारे में हमारे प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री प्राय: कुछ बोलते ही नहीं थे लेकिन मेरी पाकिस्तान-यात्रा के दौरान जब-जब वहां मेरे भाषण और पत्रकार-परिषदें हुईं, मैंने ‘आजाद कश्मीर’ के सवाल को उठाया। पाकिस्तान के राष्ट्रपतियों और प्रधानमंत्रियों से जब-जब मेरी मुलाकातें होती तो वे मुझे कहते कि सबसे पहले आप अपना कश्मीर हमारे हवाले कीजिए, तब ही हमारे आपसी संबंध सुधर सकते हैं।
मैं उनसे पूछता कि आपने संयुक्तराष्ट्र संघ का 1948 का वह प्रस्ताव पढ़ा है या नहीं, जिसमें जनमत-संग्रह के पहले पाकिस्तान को कहा गया था कि आप अपने कब्जे के कश्मीर से अपना एक-एक फौजी और अफसर हटाएँ? ज्यादातर पाकिस्तानी नेता, पत्रकार और फौज के उच्चपदस्थ जनरलों को भी इस शर्त का पता ही नहीं था। प्रधानमंत्री बेनज़ीर भुट्टो को दिखाने लिए तो मैं वह स.रा. दस्तावेज़ जेब में रखकर ले गया था। पाकिस्तानी कश्मीर के तीन तथाकथित प्रधानमंत्रियों से कई बार मेरे लंबे संवाद हुए, इस्लामाबाद, लंदन और वाशिंगटन डी.सी. में। वे लोग दोनों कश्मीरों को मिलाकर आजादी की बात जरुर करते थे लेकिन बात करते-करते वे यह भी बताने लगते थे कि पाकिस्तान की फौज और सरकार उन पर कितने भयंकर अत्याचार करती है।
एक कश्मीरी लेखक की उन्हीं दिनों छपी पुस्तक में कहा गया था कि गर्मी के दिनों में ‘उनके कश्मीर’ को पाकिस्तान के पंजाबी अमीर लोग ‘विराट वेश्यालय’ बना डालते हैं। बेनजीर ने अपने फौजी गृहमंत्री से कहा था कि वे मुझे ‘आजाद कश्मीर’ के प्रधानमंत्री से मिलवा दें तो उन गृहमंत्रीजी ने मुझसे कहा कि वह आजाद कश्मीर का ‘प्रधानमंत्री’ नहीं है वह तो किसी शहर के मामूली महापौर की तरह है। सच्चाई तो यह है कि पाकिस्तान ने 1948 में कश्मीर के जिस हिस्से पर कब्जा कर लिया था, उसे वह अपना गुलाम बनाकर तो रखना ही चाहता है, उसकी कोशिश है कि भारतीय कश्मीर भी उसका गुलाम बन जाए। दोनों कश्मीरियों को आजादी चाहिए। वैसी ही आजादी, जैसे मुझे दिल्ली में है और इमरान खान को लाहौर में है।
यह आजादी किसी मुख्यमंत्री को ‘प्रधानमंत्री’ कह देने से नहीं मिल जाती है। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री भी क्या सचमुच आजाद हैं? वहां फौज जिसको चाहे प्रधानमंत्री की कुर्सी में बिठा देती है और हटा देती है। कश्मीर को सच्ची आजादी तभी मिलेगी, जब दोनों कश्मीर एक हो जाएंगे और दोनों कश्मीर आज भारत और पाकिस्तान के बीच जो खाई बने हुए हैं, वे एक सेतु की तरह काम करेंगे। दोनों कश्मीरों को मिलाकर हम उन्हें भारत के अन्य प्रांतों की तरह आजाद कर सकते हैं। यही कश्मीर की सच्ची आजादी है। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
नई दिल्ली से चीनी राजदूत सन वेइ दोंग की विदाई के समय हमारे विदेशमंत्री जयशंकर और राजदूत सन ने जो बातें कहीं हैं, उन पर दोनों देशों के नेता और लोग भी जऱा गंभीरतापूर्वक विचार करें तो इस 21 वीं सदी में दुनिया की शक्ल बदल सकती है। जयंशकर ने कहा है कि इन दोनों के बीच यदि आपसी संवेदनशीलता, आपसी सम्मान और आपसी हितों को ध्यान में रखकर काम किया जाए तो न केवल इन दोनों देशों का भला होगा बल्कि विश्व राजनीति भी उससे लाभान्वित होगी। उन्होंने कहा कि दोनों देशों के बीच तनाव खत्म करने के लिए यह जरुरी है कि सीमा क्षेत्रों में शांति बनी रहे।
जयंशकर के जवाब में बोलते हुए चीनी राजदूत सन ने कहा कि दोनों राष्ट्र पड़ौसी हैं। पड़ौसियों के बीच मतभेद और अनबन कोई अनहोनी बात नहीं है। यह स्वाभाविक प्रक्रिया है। चीन और भारत एक-दूसरे के महत्वपूर्ण पड़ौसी हैं। उन्हें अपने मतभेदों को आपसी संवाद द्वारा समाप्त करना चाहिए। दोनों की शासन-व्यवस्थाओं का चरित्र भिन्न है और दोनों की विकास-प्रक्रिया भी अलग-अलग है लेकिन यदि दोनों राष्ट्र एक-दूसरे का सम्मान करें और उनकी आंतरिक व्यवस्थाओं में हस्तक्षेप न करें तो दोनों के संबंध सहज हो सकते हैं। दोनों राष्ट्रों के संबंधों में इधर जो उतार-चढ़ाव आए हैं, उन्हें दूर करना मुश्किल नहीं है।
नई दिल्ली से चीनी राजदूत सन वेइ दोंग की विदाई के समय हमारे विदेशमंत्री जयशंकर और राजदूत सन ने जो बातें कहीं हैं, उन पर दोनों देशों के नेता और लोग भी जऱा गंभीरतापूर्वक विचार करें तो इस 21 वीं सदी में दुनिया की शक्ल बदल सकती है। जयंशकर ने कहा है कि इन दोनों के बीच यदि आपसी संवेदनशीलता, आपसी सम्मान और आपसी हितों को ध्यान में रखकर काम किया जाए तो न केवल इन दोनों देशों का भला होगा बल्कि विश्व राजनीति भी उससे लाभान्वित होगी। उन्होंने कहा कि दोनों देशों के बीच तनाव खत्म करने के लिए यह जरुरी है कि सीमा क्षेत्रों में शांति बनी रहे।
जयंशकर के जवाब में बोलते हुए चीनी राजदूत सन ने कहा कि दोनों राष्ट्र पड़ौसी हैं। पड़ौसियों के बीच मतभेद और अनबन कोई अनहोनी बात नहीं है। यह स्वाभाविक प्रक्रिया है। चीन और भारत एक-दूसरे के महत्वपूर्ण पड़ौसी हैं। उन्हें अपने मतभेदों को आपसी संवाद द्वारा समाप्त करना चाहिए। दोनों की शासन-व्यवस्थाओं का चरित्र भिन्न है और दोनों की विकास-प्रक्रिया भी अलग-अलग है, लेकिन यदि दोनों राष्ट्र एक-दूसरे का सम्मान करें और उनकी आंतरिक व्यवस्थाओं में हस्तक्षेप न करें तो दोनों के संबंध सहज हो सकते हैं। दोनों राष्ट्रों के संबंधों में इधर जो उतार-चढ़ाव आए हैं, उन्हें दूर करना मुश्किल नहीं है।
नई दिल्ली से चीनी राजदूत सन वेइ दोंग की विदाई के समय हमारे विदेशमंत्री जयशंकर और राजदूत सन ने जो बातें कहीं हैं, उन पर दोनों देशों के नेता और लोग भी जऱा गंभीरतापूर्वक विचार करें तो इस 21 वीं सदी में दुनिया की शक्ल बदल सकती है। जयंशकर ने कहा है कि इन दोनों के बीच यदि आपसी संवेदनशीलता, आपसी सम्मान और आपसी हितों को ध्यान में रखकर काम किया जाए तो न केवल इन दोनों देशों का भला होगा बल्कि विश्व राजनीति भी उससे लाभान्वित होगी। उन्होंने कहा कि दोनों देशों के बीच तनाव खत्म करने के लिए यह जरुरी है कि सीमा क्षेत्रों में शांति बनी रहे।
जयंशकर के जवाब में बोलते हुए चीनी राजदूत सन ने कहा कि दोनों राष्ट्र पड़ौसी हैं। पड़ौसियों के बीच मतभेद और अनबन कोई अनहोनी बात नहीं है। यह स्वाभाविक प्रक्रिया है। चीन और भारत एक-दूसरे के महत्वपूर्ण पड़ौसी हैं। उन्हें अपने मतभेदों को आपसी संवाद द्वारा समाप्त करना चाहिए। दोनों की शासन-व्यवस्थाओं का चरित्र भिन्न है और दोनों की विकास-प्रक्रिया भी अलग-अलग है लेकिन यदि दोनों राष्ट्र एक-दूसरे का सम्मान करें और उनकी आंतरिक व्यवस्थाओं में हस्तक्षेप न करें तो दोनों के संबंध सहज हो सकते हैं। दोनों राष्ट्रों के संबंधों में इधर जो उतार-चढ़ाव आए हैं, उन्हें दूर करना मुश्किल नहीं है।
कुछ बौद्ध चीनियों ने मुझे कहा कि रोज सुबह वे अपनी प्रार्थना में कहते हैं कि हमारा अगला जन्म अगर हो तो वह बुद्ध के देश भारत में ही हो। हमारे विदेश मंत्री जयशंकर चीन में हमारे राजदूत भी रह चुके हैं। वे यदि थोड़ी पहल करें और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उन्हें वैसा करने दें तो कोई आश्चर्य नहीं कि भारत और चीन के संबंध सिर्फ सामान्य ही नहीं हो जाएंगे, ये दोनों महान राष्ट्र मिलकर 21 वीं सदी को एशिया की सदी भी बना सकते हैं। (नया इंडिया की अनुमति से)
-ललित गर्ग
भारतीय मूल के ऋषि सुनक एक नया इतिहास रचते हुए ब्रिटेन के नए प्रधानमंत्री की शपथ ले चुके हैं। उन्होंने पेनी मोरडॉन्ट को मात देते हुए जीत हासिल की है। कंजरवेटिव पार्टी का नेतृत्व करने की रेस ऋषि सुनक जीत चुके हैं। पार्टी ने उन्हें अपना नया नेता चुन लिया है। यह पहली बार हुआ है जब कोई भारतीय मूल का व्यक्ति ब्रिटेन का प्रधानमंत्री बना है। हालांकि इससे ब्रिटेन पर छाए राजनीतिक और आर्थिक संकट के बादल कितने कम होंगे, यह भविष्य के गर्भ में हैं। लेकिन सुनक के बहाने यदि ब्रिटेन आर्थिक संकट से उबरने में सक्षम हो सका तो यह न केवल सुनक के लिये बल्कि भारत के लिये गर्व का विषय होगा। भले ही सुनक के सामने कई मुश्किल चुनौतियां और सवाल हैं, लेकिन उन्हें एक सूरज बनकर उन जटिल हालातों से ब्रिटेन को बाहर निकालना है।
भारत में सुनक की जीत पर काफी खुशी मनाई जा रही है, यह दीपावली का विलक्षण एवं सुखद तोहफा इसलिये है कि भारत पर दो सौ वर्षों तक राज करने वाले ब्रिटेन पर अब भारतवंशी का राज होगा। सुनक के रूप में उस ब्रिटेन को भारतीय मूल का पहला प्रधानमंत्री मिलने से निश्चित ही भारत का गौरव दुनिया में बढ़ा है। 42 साल के सुनक आधुनिक दौर में ब्रिटेन के सबसे कम उम्र के प्रधानमंत्री हैं। किंग चार्ल्स तृतीय के ऑफिस ने उनके नाम पर मुहर लगा दी है। सुनक का ब्रिटेन का प्रधानमंत्री बनना इस मायने में भी बेहद अहम बात है कि ब्रिटेन में भारतीय मूल के लोग अल्पसंख्यक हैं। उनकी आबादी कम है। इसके बावजूद सुनक को ब्रिटेन में प्रधानमंत्री बनने का मौका मिल गया है। एक और खास बात यह है कि सुनक को ऐसी पार्टी ने अपना नेता चुना है, जो रूढि़वादी विचारों के लिए जानी जाती है। प्रवासी लोगों के लिए कंजर्वेटिव पार्टी का रुख उदार नहीं रहा है। दुनिया में बढ़ रही कट्टरता और अल्पसंख्यकों को निशाना बनाए जाने की बढ़ती हरकतों के बीच ब्रिटेन और वहां की कंजर्वेटिव पार्टी ने जो फैसला किया है, वह दुनिया को एक नई राह दिखाएगा, यह उम्मीद की जानी चाहिए। यह दुनिया की बदलती सोच का भी परिचायक है, वही दुनिया में भारत की सर्व-स्वीकार्यता का भी द्योतक है।
ब्रिटेन गहरे आर्थिक संकट की ओर बढ़ता दिख रहा है। महंगाई 40 साल के उच्चतम स्तर पर है। बैंक ऑफ इंग्लैंड का अनुमान है कि इस साल इंफ्लेशन 11 प्रतिशत के ऊपर जा सकती है। ऋषि सुनक इससे पहले बोरिस जॉनसन सरकार में वित्त मंत्री रह चुके हैं। उनके मंत्री रहते ब्रिटेन में महंगाई 40 साल के उच्चतम स्तर पर पहुंच गई थी। टैक्स भी बढ़ाए गए थे। जॉनसन मंत्रिमंडल से इस्तीफा देते हुए सुनक ने लिखा था कि कम टैक्स रेट और ऊंची ग्रोथ रेट वाली इकॉनमी तभी बनाई जा सकती है, जब ‘हम कड़ी मेहनत करने, कुर्बानियां देने और कड़े फैसले करने को तैयार हों। मेरा मानना है कि जनता सच सुनने को तैयार है। आम-जनता को यह बताया जाना चाहिए कि बेहतरी का रास्ता है, लेकिन यह आसान नहीं है।‘ सुनक ने तब जिस कड़ी मेहनत की बात की थी, वह अब उन्हें खुद करके दिखानी होगी। उनके पास जीये गये राजनीतिक कड़वे अनुभव है। उन अनुभवों से यदि वे ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था को उबार सके तो यह समूची दुनिया के लिये एक रोशनी होगी।
निश्चित ही सुनक ने एक कांटों भरा ताज पहना है। ब्रिटेन की आर्थिक स्थिति बेहद चुनौतीपूर्ण है। इन असाधारण चुनौतियों से पार पाना सुनक की सबसे बड़ी अग्नि-परीक्षा है। ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था के आपूर्ति पक्ष में कमजोरी अब एक तत्काल चिंता का विषय है। जबकि उत्पादन इसकी पूर्व-कोविड प्रवृत्ति से 2.6 प्रतिशत से कम है। ऐसे में सकल घरेलू उत्पाद को अतिरिक्त 1.4 प्रतिशत की दर से बढ़ाना होगा। अर्थव्यवस्था के सामने व्यापार की शर्तें भी बड़ी चुनौती है। आने वाले दिनों में इससे घरेलू और कॉर्पोरेट दोनों क्षेत्रों पर असर पड़ेगा। आर्थिक रूप से कमजोर लोग इससे और परेशान हो सकते हैं। प्रमुख नीतिगत सवाल यह है कि इस नुकसान को कैसे आवंटित किया जाए। मांग गिरने से निकट भविष्य में बेरोजगारी बढऩे की आशंका है। भविष्य में बढऩे वाली बेरोजगारी पर काबू पाना एवं बढ़ती महंगाई को नियंत्रित करना भी आसान नहीं है। अध्ययन के मुताबिक, 2023 तक महंगाई उच्च स्तर पर पहुंच सकती है, जिससे निपटना चुनौतीपूर्ण होगा। एक तरफ खुदरा महंगाई दर दोहरे अंकों में होने से जीवनयापन का संकट है। दूसरी ओर रुकी हुई आर्थिक वृद्धि की समस्या है, जो बदले में कम राजस्व और उच्च ऋण की ओर ले जाती है। अब अगर सरकार मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के लिए खर्च पर अंकुश लगाती है, तो यह आर्थिक विकास को और नीचे ले जाएगी। आईएफएस की रिपोर्ट कहती है कि यह किसी भी ब्रिटिश नीति निर्माता के लिए सबसे अधिक चिंताजनक है।
इन आर्थिक चुनौतियों के साथ-साथ ऋषि सुनक के सामने सबसे पहली राजनीतिक चुनौती तो यही है कि उन्हें साबित करना है कि वह पार्टी को नियंत्रित कर सकते हैं। कंजरवेटिव पार्टी के पास संसद में बहुमत है लेकिन वह ब्रेग्जिट समेत तमाम मुद्दों पर बंटी हुई है। ऐसे में पार्टी को एक करना भी एक चुनौती है। आने वाले दिनों में पार्टी के ही कुछ लोगों द्वारा हाई टैक्स का विरोध किया जा सकता है। लोग स्वास्थ्य और रक्षा जैसे क्षेत्रों के खर्च में कटौती का भी विरोध कर सकते हैं। सुनक को ऐसे स्वरों को भी संभालना होगा, संतुलित राजनीति का नया अध्याय लिखते हुए ब्रिटेन पर छाये निराशा के बादल का छांटना होगा। गहन समस्याओं एवं निराशाओं के बीच प्रधानमंत्री का ताज धारण करके सुनक ने साहस एवं हौसलों का परिचय दिया है। एक कर्मयोद्धा की भांति इन सब समस्याओं को सुलझाने के लिये अभिनव उपक्रम करने होंगे।
ऋषि सुनक स्वयं को भारतीय एवं हिंदू कहकर गर्व महसूस करते हैं और अपनी धार्मिक पहचान को लेकर वह काफी मुखर रहते हैं। वह नियमित रूप से मंदिर जाते हैं और उनके बेटियों, अनुष्का और कृष्णा की जड़ें भी भारतीय संस्कृति से जुड़ी हैं। सुनक जब सांसद बने थे तब उन्होंने भगवत गीता की शपथ ली थी। एक रैली में सुनक ने कहा था कि भले ही वह एक ब्रिटिश नागरिक हैं, उन्हें अपने ‘हिंदू होने पर गर्व’ है। कैलिफोर्निया की स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी में एमबीए की पढ़ाई के दौरान सुनक की मुलाकात उनकी फैशन डिजाइनर अक्षता मूर्ति से हुई थी। अगस्त 2009 में अक्षता और ऋषि शादी के बंधन में बंध गए। अक्षता इंफोसिस के को-फाउंडर और भारत के सबसे अमीर लोगों की सूची में शामिल नारायण मूर्ति की बेटी हैं। सुनक कई बार इसका जिक्र कर चुके हैं कि उन्हें अपने सास और ससुर पर बेहद गर्व है। ऋषि सुनक को हाउस ऑफ कॉमन्स में सबसे अमीर शख्स कहा जाता है जिनकी कुल संपत्ति 730 मिलियन पाउंड है। कुछ रिपोर्ट्स तो यहां तक दावा करती हैं उनकी पत्नी ब्रिटेन के सम्राट से भी ज्यादा अमीर हैं। माना जाता है कि दंपति की कुल संपत्ति का एक बड़ा हिस्सा इंफोसिस की हिस्सेदारी से आता है। हालांकि 2015 में राजनीति में कदम रखने से पहले फाइनेंस के क्षेत्र में सुनक िका एक सफल करियर रहा है। दंपति के पास लंदन, कैलिफोर्निया, सैंटा मोनिका और यॉर्कशायर में कई घर हैं। अक्सर सुनक और अक्षता मूर्ति अपनी संपत्ति को लेकर सुर्खियां बटोर चुके हैं।
साल 2015 में यॉर्कशायर की रिचमंड सीट जीतकर टोरी नेता ऋषि सुनक का राजनीतिक सफर शुरू हुआ। फरवरी 2020 में साजिद जाविद के इस्तीफे के बाद सुनक चांसलर ऑफ एक्सचेकर के पद पर पहुंच गए। सुनक के कम अनुभव को लेकर कुछ लोगों को उन पर संदेह था लेकिन कोविड महामारी के दौरान आर्थिक मोर्चे को सफलतापूर्वक संभालकर उन्होंने अपने आलोचकों को गलत साबित कर दिया। कुछ महीनों पहले तक सुनक बोरिस जॉनसन कैबिनेट में वित्तमंत्री थे लेकिन उनके इस्तीफे ने ब्रिटेन में एक राजनीतिक परिवर्तन की नींव रखी। आज टैक्स-कटौती के लुभावने वादों के बजाय महंगाई को कम करने और अर्थव्यवस्था को बेहतर स्थिति में लाने की अपनी रणनीतिक की बदौलत ऋषि सुनक ब्रिटेन के प्रधानमंत्री जा रहे हैं।
आधुनिक उदारवादी लोकतंत्र में परंपरावादी राजनीतिक दलों के अंतर्द्वंद्व कितने चुनौतीपूर्ण हो सकते हैं, इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण ब्रिटेन है। डेढ़ महीना पहले ब्रिटेन की प्रधानमंत्री बनीं लिज ट्रस ने आर्थिक अस्थिरता के दौर में देश की अपेक्षाओं पर खरा न उतर पाने की आशंका जाहिर करते हुए अपने पद से इस्तीफा दे दिया। पिछले कुछ वर्षों में ब्रिटिश राजनीति आप्रवासन और महंगाई जैसे मुद्दों पर अनिर्णय की स्थिति में रही है, जिसके चलते देश की अर्थव्यवस्था कमजोर और राजनीतिक अस्थिरता बढ़ी है। 2019 में तत्कालीन प्रधानमंत्री टेरीजा मे ने ब्रेक्जिट को लेकर यूरोपीय संघ के साथ समझौते को संसद से पास न करा पाने की वजह से इस्तीफा दिया था। फिर बोरिस जानसन प्रधानमंत्री बने थे। उसके बाद कोरोना और रूस-यूक्रेन युद्ध से उपजी समस्याओं का सामना ब्रिटेन की जनता को करना पड़ा। उनकी नीतियों को लेकर कंजर्वेटिव पार्टी में ही सवाल खड़े हुए और अंतत: उन्हें इस वर्ष जुलाई में पद से हटना पड़ा। उनके बाद कंजर्वेटिव पार्टी ने लिज ट्रस को अपना नेता चुना, जिनकी प्राथमिकता राष्ट्रीय स्वास्थ्य योजना, आप्रवासन और महंगाई को लेकर देश में बनी ऊहापोह की स्थिति को दूर करना था। राष्ट्रीय स्वास्थ्य योजना के अंतर्गत छियासठ लाख से ज्यादा लोग आते हैं, लेकिन उनका मुफ्त इलाज सुनिश्चित नहीं हो रहा है और इससे लोग नाराज हैं। देश में सरकारी कर बढ़ाने की आशंकाओं के बाद सत्तारूढ़ कंजर्वेटिव पार्टी का विरोध बढ़ा है। इसका एक प्रमुख कारण कंजर्वेटिव पार्टी के भीतर आपसी विवाद भी रहे हैं, जो राजनीतिक अदूरदर्शिता के रूप में सामने आते हैं।
वैश्विक सहयोग और विविधता को स्वीकार न कर पाने के चलते उदारवादी लोकतंत्र, ब्रिटेन गहरे संकट में फंसता दिखाई दे रहा है। कंजर्वेटिव पार्टी की वैश्विक बदलावों के साथ सामंजस्य बिठा पाने में नाकामी देश में राजनीतिक अस्थिरता के रूप में सामने आयी और मंदी से परेशान ब्रिटिश जनता देश में मध्यावधि चुनाव भी नहीं चाहती, लेकिन सत्तारूढ़ कंजर्वेटिव पार्टी के अंतर्द्वंद्व से देश की समस्याओं में इजाफा ही हो रहा है। इन समस्याओं के बीच सुनक एक रोशनी के रूप में उभरे हैं, देखना है कि उनका शासन काल ब्रिटेन को नयी शक्ति, नया वातायन दे पाता है या नहीं? 200 साल तक भारत पर राज करने वाले अंग्रेजों के मुल्क को अब एक भारतवंशी किस रूप में चला पायेगा?
-अरूण माहेश्वरी
कल इस सूचना ने मन को सचमुच गहरी ख़ुशी दी कि ‘द गुड डॉक्टर’ टेलीविजन शो के मुख्य अभिनेता फ्रेडी हाइमोर ( शॉन मर्फी) को गोल्डेन ग्लोब पुरस्कारों में सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के लिए चुना गया है। इस शो के अब तक 100 एपिसोड पूरे हो गए हैं। नेटफ्लिक्स पर चल रहे इस लंबे शो ने सचमुच हमें भी बुरी तरह से बांध रखा है। इसे मिल रही अंतरराष्ट्रीय मान्यता से हमारी पसंद की पुष्टि से हम सचमुच ख़ुश है।
एक अस्पताल की दुनिया में डाक्टरों और रोगियों के जीवन की अनगिनत कहानियों से तैयार किए गए इस शो का केंद्रीय चरित्र है डॉक्टर शॉन मर्फी। वह ऑटिज्म का रोगी है। खुद में बेहद सच्चा, पर अन्य से संवाद के मामले में उतना ही कच्चा। मनुष्य के शरीर के अंग-अंग से गहराई से परिचित, पर अन्य संपूर्ण मनुष्य से उतना ही अपरिचित। वह अंगों की पर्त दर पर्त को पहचानता है, उनकी क्रिया-प्रतिक्रियाओं का सटीक पूर्वानुमान कर पाता है, और इसीलिए रोग के इलाज तरीकों के बारे में दृढ़ मत भी रखता है, पर मनुष्य के व्यवहार की परतें उसे कभी समझ में नहीं आती, जबकि चिकित्साशास्त्र में रोगी के प्रति चिकित्सक का व्यवहार भी चिकित्सा के अन्य उपायों से कम महत्वपूर्ण नहीं माना जाता है।
डॉ. मर्फी एक श्रेष्ठ सर्जन के रूप में अस्पताल की पूँजी हैं, तो अपने सरल और मुँहफट व्यवहार के कारण एक कमजोरी भी। डॉ. मर्फी को एक अच्छे डॉक्टर की नैतिकता का पूरा अहसास है और वह उसके प्रति निष्ठा से जरा भी समझौता नहीं कर सकता है। इसीलिए अंतत: वहीं सबकी आँखों का तारा बनता है। इस प्रकार, मर्फी का मनोरोग उसके मानवीय गुण को प्रभावित करने का विषय नहीं है, बल्कि सारी समस्या खुद को उपस्थापित करने से जुड़ी हुई है।
मर्फी बचपन से ही ऑटिज्म की बीमारी का शिकार है। उसके सभी साथी डॉक्टर इसे जानते हैं। डॉक्टर होने के नाते वे इस चरित्र की संरचनात्मक कमजोरी और विशिष्टता, दोनों को अच्छी तरह से जानते हैं। वे जानते हैं कि यह एक प्रमाता के रूप में इसके विकासक्रम में ऐसा व्यतिक्रम है कि जिसमें वह अपने को उस रूप में नहीं पेश कर पाता है, जैसे बाक़ी सामान्य लोग किया करते हैं। जॉक लकान ने ऐसे संदर्भ में विचार का एक बिल्कुल नया नज़रिया पेश किया था, रोगी में दोष के बजाय उसके उपस्थापन का संदर्भ। ऐसे रोगियों के लिए उपस्थापन के क्लिनिक की जरूरत होती है, न कि उनके दोष के क्लीनिक की। मनोरोगी के दोष को देखने वाला उसके व्यवहार के पीछे उस दोष को बता कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेता है, लेकिन जो उसमें है, उसके प्रति उसकी कोई दिलचस्पी नहीं होती है। ‘द गुड डॉक्टर’ का अस्पताल, डॉ. मर्फी के संगी डॉक्टर संयुक्त रूप में एक आटिज्म के शिकार मनोरोगी के साथ सही व्यवहार का अनूठा उदाहरण पेश कर रहे हैं।
ऑटिस्ट व्यक्ति अमूमन चुप रहता है, क्योंकि ‘अन्य’ उसके लिए अनुपस्थित हो जाया करता है। वह वार्तालाप में सिर्फ मुद्दे की सटीक बात कह कर खामोश हो जाता है । उसके इस प्रकार ज़्यादा न बोलने को भी अन्य लोग उसके अस्वीकार के रूप में ले लिया करते हैं। जॉक लकान ने ऑटिस्ट की संरचना का जिक्र करते हुए कहा है कि वह ‘अन्य’ को विभाजित करके, उसे अपूर्ण रूप में देखता है, और इसीलिए अनायास ही अपने व्यवहार से अनेक प्रकार के अस्वाभाविक दृश्य उपस्थित कर देता है।
डॉ. मर्फी के चरित्र में ऑटिस्ट चरित्र के इस प्रकार के तमाम लक्षण जैसे प्रकट होते हैं, उनसे यह शो चिकित्सा संबंधी उत्तेजनाओं के अलावा और भी बहुत आकर्षक बन जाता है ।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
साढ़े चार लाख लोगों को मुफ्त मकान बांटते वक्त प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जो भाषण दिया, वह कई बुनियादी सवाल खड़े कर रहा है। उन्होंने कहा कि (राज्य) सरकारें जनता को जो मुफ्त की रेवड़ियाँ बांटती है, उससे देश के करदाताओं को बहुत कष्ट होता है। मोदी ने बताया कि उनके पास लोगों की ढेरों चिट्ठियां आती हैं। उनमें लिखा होता है कि हम अपने खून-पसीने की कमाई करके उसमें से टैक्स भरते हैं और नेता लोग वोटों के लालच में उन्हें मतदाताओं को रेवड़ियों की तरह बांट देते हैं।
रेवड़ियाँ कौन-कौनसी हैं। ये हैं- कंप्यूटर, साइकिलें, गैस—सिलेंडर, जेवर, बिजली, पानी, नाइयों को उस्तरे, धोबियों को प्रेस मशीनें, स्कूली बच्चों को भोजन, प्रेशर कुकर, टेलिविजन सेट, वाशिंग मशीन आदि-आदि! ये सब चीजें मतदाताओं को मुफ्त में देने का वादा इसलिए किया जाता है कि चुनाव के वक्त नेताओं को थोक वोट कबाड़ने होते हैं। यह काम सबसे पहले तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता ने शुरु किया। उनकी देखादेखी लगभग सभी मुख्यमंत्रियों ने, चाहे वे किसी भी पार्टी के हों, रेवड़ियाँ लुटाने में एक-दूसरे को मात कर दिया।
अब हालत यह है कि लगभग हर प्रांत इन रेवड़ियों के चलते कर्जदार और भिखमंगा बन रहा है। वह केंद्र और बैंकों के कर्जों में डूब रहा है लेकिन वह अपनी हरकत से बाज़ नहीं आ रहा है। उन राज्यों की विधानसभा में बैठे उनके विरोधी परेशान हैं लेकिन वे भी बगलें झांक रहे हैं। उनकी बोलती बंद है। उन्हें भी वोटों के लालच ने गूंगा बना रखा है लेकिन मुझे खुशी है कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह इस रेवड़ी संस्कृति के खिलाफ खुलकर बोल रहे हैं लेकिन वे अपने आपको इससे ऊपर बता रहे हैं।
मोदी ने कल साढ़े चार लाख लोगों को मुफ्त मकान बाँटे। इसी तरह से करोड़ों लोगों को कोरोना-काल के नाम पर अब तक मुफ्त अनाज बांटा जा रहा है। इसे वह लोक-कल्याण का काम कहते हैं। इसे वे रेवड़ियाँ नहीं मानते। क्यों नहीं मानते? ये रेवड़ी ही नहीं हैं, मेरी राय में ये च्रेवड़ाज् हैं क्योंकि इन पर करदाताओं के करोड़ों नहीं, अरबों रु. खर्च किए गए हैं। मोदी का कहना है कि इस खर्च का मकसद वह नहीं है, जो राज्यों द्वारा बांटी गई रेवड़ियों का है? यदि नहीं है तो मोदी ज़रा यह बताएं कि इसका नाम च्प्रधानमंत्री आवास योजनाज् क्यों रखा गया है?
प्रधानमंत्री क्या अपनी जेब से यह पैसा लगा रहे हैं? अन्य मुख्यमंत्रियों की तरह प्रधानमंत्री भी इस बंटरबाट का फायदा अपनी पार्टी के लिए पटा रहे हैं। जहां तक मुफ्त अनाज और मुफ्त मकान देने का सवाल है, क्या यह मतदाताओं को दी जानेवाली सबसे मोटी रिश्वत नहीं है? क्या यह करदाताओं पर कमरतोड़ हमला नहीं है? कोरोना-काल में मुफ्त अनाज की बात तो समझ में आती है लेकिन किसी आदमी को रोटी, कपड़ा और मकान के लिए सरकार या किसी अन्य पर निर्भर रहना पड़े तो उसमें और किसी पशु में क्या अंतर रह जाता है?
नेताओं को बस अपने वोटों की चिंता है, चाहे वोट देनेवाले मानव हों या पशु हों। नेताओं को यदि कुछ करना हो तो भारत की शिक्षा और चिकित्सा को मुफ्त करें। ये लोगों की ठगी के दो सबसे बड़े साधन बन गए हैं। आज तक देश में कोई सरकार ऐसी नहीं बनी है और ७५ साल में कोई ऐसा नेता भारत में पैदा नहीं हुआ है, जो इन दो बुनियादी सुविधाओं को सर्वसुलभ बना दे। अभी तो रेवड़ियों ने सभी नेताओं और पार्टियों को एक ही थाली के चट्टे-बट्टे बना दिया है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-ललित गर्ग
भारतीय मूल के ऋषि सुनक एक नया इतिहास रचते हुए ब्रिटेन के नए प्रधानमंत्री की शपथ ले चुके हैं। उन्होंने पेनी मोरडॉन्ट को मात देते हुए जीत हासिल की है। कंजरवेटिव पार्टी का नेतृत्व करने की रेस ऋषि सुनक जीत चुके हैं। पार्टी ने उन्हें अपना नया नेता चुन लिया है। यह पहली बार हुआ है जब कोई भारतीय मूल का व्यक्ति ब्रिटेन का प्रधानमंत्री बना है। हालांकि इससे ब्रिटेन पर छाए राजनीतिक और आर्थिक संकट के बादल कितने कम होंगे, यह भविष्य के गर्भ में हैं। लेकिन सुनक के बहाने यदि ब्रिटेन आर्थिक संकट से उबरने में सक्षम हो सका तो यह न केवल सुनक के लिये बल्कि भारत के लिये गर्व का विषय होगा। भले ही सुनक के सामने कई मुश्किल चुनौतियां और सवाल हैं, लेकिन उन्हें एक सूरज बनकर उन जटिल हालातों से ब्रिटेन को बाहर निकालना है।
भारत में सुनक की जीत पर काफी खुशी मनाई जा रही है, यह दीपावली का विलक्षण एवं सुखद तोहफा इसलिये है कि भारत पर दो सौ वर्षों तक राज करने वाले ब्रिटेन पर अब भारतवंशी का राज होगा। सुनक के रूप में उस ब्रिटेन को भारतीय मूल का पहला प्रधानमंत्री मिलने से निश्चित ही भारत का गौरव दुनिया में बढ़ा है। 42 साल के सुनक आधुनिक दौर में ब्रिटेन के सबसे कम उम्र के प्रधानमंत्री हैं। किंग चार्ल्स तृतीय के ऑफिस ने उनके नाम पर मुहर लगा दी है। सुनक का ब्रिटेन का प्रधानमंत्री बनना इस मायने में भी बेहद अहम बात है कि ब्रिटेन में भारतीय मूल के लोग अल्पसंख्यक हैं। उनकी आबादी कम है। इसके बावजूद सुनक को ब्रिटेन में प्रधानमंत्री बनने का मौका मिल गया है। एक और खास बात यह है कि सुनक को ऐसी पार्टी ने अपना नेता चुना है, जो रूढ़िवादी विचारों के लिए जानी जाती है। प्रवासी लोगों के लिए कंजर्वेटिव पार्टी का रुख उदार नहीं रहा है। दुनिया में बढ़ रही कट्टरता और अल्पसंख्यकों को निशाना बनाए जाने की बढ़ती हरकतों के बीच ब्रिटेन और वहां की कंजर्वेटिव पार्टी ने जो फैसला किया है, वह दुनिया को एक नई राह दिखाएगा, यह उम्मीद की जानी चाहिए। यह दुनिया की बदलती सोच का भी परिचायक है, वही दुनिया में भारत की सर्व-स्वीकार्यता का भी द्योतक है।
ब्रिटेन गहरे आर्थिक संकट की ओर बढ़ता दिख रहा है। महंगाई 40 साल के उच्चतम स्तर पर है। बैंक ऑफ इंग्लैंड का अनुमान है कि इस साल इंफ्लेशन 11 प्रतिशत के ऊपर जा सकती है। ऋषि सुनक इससे पहले बोरिस जॉनसन सरकार में वित्त मंत्री रह चुके हैं। उनके मंत्री रहते ब्रिटेन में महंगाई 40 साल के उच्चतम स्तर पर पहुंच गई थी। टैक्स भी बढ़ाए गए थे। जॉनसन मंत्रिमंडल से इस्तीफा देते हुए सुनक ने लिखा था कि कम टैक्स रेट और ऊंची ग्रोथ रेट वाली इकॉनमी तभी बनाई जा सकती है, जब ‘हम कड़ी मेहनत करने, कुर्बानियां देने और कड़े फैसले करने को तैयार हों। मेरा मानना है कि जनता सच सुनने को तैयार है। आम-जनता को यह बताया जाना चाहिए कि बेहतरी का रास्ता है, लेकिन यह आसान नहीं है।‘ सुनक ने तब जिस कड़ी मेहनत की बात की थी, वह अब उन्हें खुद करके दिखानी होगी। उनके पास जीये गये राजनीतिक कड़वे अनुभव है। उन अनुभवों से यदि वे ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था को उबार सके तो यह समूची दुनिया के लिये एक रोशनी होगी।
निश्चित ही सुनक ने एक कांटों भरा ताज पहना है। ब्रिटेन की आर्थिक स्थिति बेहद चुनौतीपूर्ण है। इन असाधारण चुनौतियों से पार पाना सुनक की सबसे बड़ी अग्नि-परीक्षा है। ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था के आपूर्ति पक्ष में कमजोरी अब एक तत्काल चिंता का विषय है। जबकि उत्पादन इसकी पूर्व-कोविड प्रवृत्ति से 2.6 प्रतिशत से कम है। ऐसे में सकल घरेलू उत्पाद को अतिरिक्त 1.4 प्रतिशत की दर से बढ़ाना होगा। अर्थव्यवस्था के सामने व्यापार की शर्तें भी बड़ी चुनौती है। आने वाले दिनों में इससे घरेलू और कॉर्पाेरेट दोनों क्षेत्रों पर असर पड़ेगा। आर्थिक रूप से कमजोर लोग इससे और परेशान हो सकते हैं। प्रमुख नीतिगत सवाल यह है कि इस नुकसान को कैसे आवंटित किया जाए। मांग गिरने से निकट भविष्य में बेरोजगारी बढ़ने की आशंका है। भविष्य में बढ़ने वाली बेरोजगारी पर काबू पाना एवं बढ़ती महंगाई को नियंत्रित करना भी आसान नहीं है। अध्ययन के मुताबिक, 2023 तक महंगाई उच्च स्तर पर पहुंच सकती है, जिससे निपटना चुनौतीपूर्ण होगा। एक तरफ खुदरा महंगाई दर दोहरे अंकों में होने से जीवनयापन का संकट है। दूसरी ओर रुकी हुई आर्थिक वृद्धि की समस्या है, जो बदले में कम राजस्व और उच्च ऋण की ओर ले जाती है। अब अगर सरकार मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के लिए खर्च पर अंकुश लगाती है, तो यह आर्थिक विकास को और नीचे ले जाएगी। आईएफएस की रिपोर्ट कहती है कि यह किसी भी ब्रिटिश नीति निर्माता के लिए सबसे अधिक चिंताजनक है।
इन आर्थिक चुनौतियों के साथ-साथ ऋषि सुनक के सामने सबसे पहली राजनीतिक चुनौती तो यही है कि उन्हें साबित करना है कि वह पार्टी को नियंत्रित कर सकते हैं। कंजरवेटिव पार्टी के पास संसद में बहुमत है लेकिन वह ब्रेग्जिट समेत तमाम मुद्दों पर बंटी हुई है। ऐसे में पार्टी को एक करना भी एक चुनौती है। आने वाले दिनों में पार्टी के ही कुछ लोगों द्वारा हाई टैक्स का विरोध किया जा सकता है। लोग स्वास्थ्य और रक्षा जैसे क्षेत्रों के खर्च में कटौती का भी विरोध कर सकते हैं। सुनक को ऐसे स्वरों को भी संभालना होगा, संतुलित राजनीति का नया अध्याय लिखते हुए ब्रिटेन पर छाये निराशा के बादल का छांटना होगा। गहन समस्याओं एवं निराशाओं के बीच प्रधानमंत्री का ताज धारण करके सुनक ने साहस एवं हौसलों का परिचय दिया है। एक कर्मयोद्धा की भांति इन सब समस्याओं को सुलझाने के लिये अभिनव उपक्रम करने होंगे।
ऋषि सुनक स्वयं को भारतीय एवं हिंदू कहकर गर्व महसूस करते हैं और अपनी धार्मिक पहचान को लेकर वह काफी मुखर रहते हैं। वह नियमित रूप से मंदिर जाते हैं और उनके बेटियों, अनुष्का और कृष्णा की जड़ें भी भारतीय संस्कृति से जुड़ी हैं। सुनक जब सांसद बने थे तब उन्होंने भगवत गीता की शपथ ली थी। एक रैली में सुनक ने कहा था कि भले ही वह एक ब्रिटिश नागरिक हैं, उन्हें अपने ‘हिंदू होने पर गर्व’ है। कैलिफोर्निया की स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी में एमबीए की पढ़ाई के दौरान सुनक की मुलाकात उनकी फैशन डिजाइनर अक्षता मूर्ति से हुई थी। अगस्त 2009 में अक्षता और ऋषि शादी के बंधन में बंध गए। अक्षता इंफोसिस के को-फाउंडर और भारत के सबसे अमीर लोगों की सूची में शामिल नारायण मूर्ति की बेटी हैं। सुनक कई बार इसका जिक्र कर चुके हैं कि उन्हें अपने सास और ससुर पर बेहद गर्व है। ऋषि सुनक को हाउस ऑफ कॉमन्स में सबसे अमीर शख्स कहा जाता है जिनकी कुल संपत्ति 730 मिलियन पाउंड है। कुछ रिपोर्ट्स तो यहां तक दावा करती हैं उनकी पत्नी ब्रिटेन के सम्राट से भी ज्यादा अमीर हैं। माना जाता है कि दंपति की कुल संपत्ति का एक बड़ा हिस्सा इंफोसिस की हिस्सेदारी से आता है। हालांकि 2015 में राजनीति में कदम रखने से पहले फाइनेंस के क्षेत्र में सुनक िका एक सफल करियर रहा है। दंपति के पास लंदन, कैलिफोर्निया, सैंटा मोनिका और यॉर्कशायर में कई घर हैं। अक्सर सुनक और अक्षता मूर्ति अपनी संपत्ति को लेकर सुर्खियां बटोर चुके हैं।
साल 2015 में यॉर्कशायर की रिचमंड सीट जीतकर टोरी नेता ऋषि सुनक का राजनीतिक सफर शुरू हुआ। फरवरी 2020 में साजिद जाविद के इस्तीफे के बाद सुनक चांसलर ऑफ एक्सचेकर के पद पर पहुंच गए। सुनक के कम अनुभव को लेकर कुछ लोगों को उन पर संदेह था लेकिन कोविड महामारी के दौरान आर्थिक मोर्चे को सफलतापूर्वक संभालकर उन्होंने अपने आलोचकों को गलत साबित कर दिया। कुछ महीनों पहले तक सुनक बोरिस जॉनसन कैबिनेट में वित्तमंत्री थे लेकिन उनके इस्तीफे ने ब्रिटेन में एक राजनीतिक परिवर्तन की नींव रखी। आज टैक्स-कटौती के लुभावने वादों के बजाय महंगाई को कम करने और अर्थव्यवस्था को बेहतर स्थिति में लाने की अपनी रणनीतिक की बदौलत ऋषि सुनक ब्रिटेन के प्रधानमंत्री जा रहे हैं।
आधुनिक उदारवादी लोकतंत्र में परंपरावादी राजनीतिक दलों के अंतर्द्वंद्व कितने चुनौतीपूर्ण हो सकते हैं, इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण ब्रिटेन है। डेढ़ महीना पहले ब्रिटेन की प्रधानमंत्री बनीं लिज ट्रस ने आर्थिक अस्थिरता के दौर में देश की अपेक्षाओं पर खरा न उतर पाने की आशंका जाहिर करते हुए अपने पद से इस्तीफा दे दिया। पिछले कुछ वर्षों में ब्रिटिश राजनीति आप्रवासन और महंगाई जैसे मुद्दों पर अनिर्णय की स्थिति में रही है, जिसके चलते देश की अर्थव्यवस्था कमजोर और राजनीतिक अस्थिरता बढ़ी है। 2019 में तत्कालीन प्रधानमंत्री टेरीजा मे ने ब्रेक्जिट को लेकर यूरोपीय संघ के साथ समझौते को संसद से पास न करा पाने की वजह से इस्तीफा दिया था। फिर बोरिस जानसन प्रधानमंत्री बने थे। उसके बाद कोरोना और रूस-यूक्रेन युद्ध से उपजी समस्याओं का सामना ब्रिटेन की जनता को करना पड़ा। उनकी नीतियों को लेकर कंजर्वेटिव पार्टी में ही सवाल खड़े हुए और अंततः उन्हें इस वर्ष जुलाई में पद से हटना पड़ा। उनके बाद कंजर्वेटिव पार्टी ने लिज ट्रस को अपना नेता चुना, जिनकी प्राथमिकता राष्ट्रीय स्वास्थ्य योजना, आप्रवासन और महंगाई को लेकर देश में बनी ऊहापोह की स्थिति को दूर करना था। राष्ट्रीय स्वास्थ्य योजना के अंतर्गत छियासठ लाख से ज्यादा लोग आते हैं, लेकिन उनका मुफ्त इलाज सुनिश्चित नहीं हो रहा है और इससे लोग नाराज हैं। देश में सरकारी कर बढ़ाने की आशंकाओं के बाद सत्तारूढ़ कंजर्वेटिव पार्टी का विरोध बढ़ा है। इसका एक प्रमुख कारण कंजर्वेटिव पार्टी के भीतर आपसी विवाद भी रहे हैं, जो राजनीतिक अदूरदर्शिता के रूप में सामने आते हैं।
वैश्विक सहयोग और विविधता को स्वीकार न कर पाने के चलते उदारवादी लोकतंत्र, ब्रिटेन गहरे संकट में फंसता दिखाई दे रहा है। कंजर्वेटिव पार्टी की वैश्विक बदलावों के साथ सामंजस्य बिठा पाने में नाकामी देश में राजनीतिक अस्थिरता के रूप में सामने आयी और मंदी से परेशान ब्रिटिश जनता देश में मध्यावधि चुनाव भी नहीं चाहती, लेकिन सत्तारूढ़ कंजर्वेटिव पार्टी के अंतर्द्वंद्व से देश की समस्याओं में इजाफा ही हो रहा है। इन समस्याओं के बीच सुनक एक रोशनी के रूप में उभरे हैं, देखना है कि उनका शासन काल ब्रिटेन को नयी शक्ति, नया वातायन दे पाता है या नहीं? 200 साल तक भारत पर राज करने वाले अंग्रेजों के मुल्क को अब एक भारतवंशी किस रूप में चला पायेगा?
-अजीत साही
ब्रिटेन के नए प्रधानमंत्री ऋषि सुनक सत्ता में अगर एक साल भी टिक जाएँ तो बड़ी बात होगी. उनके, उनकी सरकार के और उनकी पार्टी के सितारे पाताल में पड़े हैं जहाँ से निकल पाना लगभग असंभव है.
ब्रिटेन के आर्थिक हालात बेहद ख़स्ता हो चुके हैं और सरकारी कामकाज ठप्प पड़ चुका है. देश की आम जनता सत्ताधारी पार्टी से इस क़दर पक चुकी है कि सर्वेक्षणों के मुताबिक वहाँ अगर आज आम चुनाव हो जाएँ तो सुनक की कंज़र्वेटिव पार्टी भारी वोटों और सीटों से हार जाएगी.
सुनक की हालात इसलिए और भी नाज़ुक है क्योंकि वो जनता का वोट पाकर नहीं बल्कि पार्टी के भीतर तिकड़मबाज़ी करके पीएम बने हैं. जनता के बीच उनकी ज़रा भी पैठ नहीं है. आश्चर्य नहीं होगा अगर पहले दिन से पार्टी के तमाम गुट उनको हर वक़्त दबाते मिलें.
सुनक के पीएम बनने की वजह ये है कि उनकी कंज़र्वेटिव पार्टी का कोई बड़ा नेता इस बर्बादी में अपना करियर दांव पर लगाने को तैयार नहीं है. सबको मालूम है ये सरकार ख़स्ताहाल हो चुकी है. आज ब्रिटेन का प्रधानमंत्री बनना राजनीतिक आत्महत्या करने के बराबर है. इसीलिए पिछले महीने लिज़ ट्रस जैसी हल्की-फुल्की नेता पीएम बन सकीं. और अब सुनक, जिनका चुनावी राजनीति में कोई वजूद ही नहीं है. ये कहना ग़लत नहीं होगा कि सुनक लिज़ ट्रस से भी हल्के हैं, क्योंकि लिज़ ने उनको कुछ हफ़्तों पहले ही पार्टी के नेता के चुनाव में हरा दिया था.
क्योंकि कंज़र्वेटिव पार्टी पिछले बारह साल से लगातार देश में सत्ता में है, देश की जनता अब इस पार्टी से पूरी तरह धीरज खो चुकी है. एक पल के लिए भी जनता इस पार्टी के किसी प्रधानमंत्री को हनीमून पीरियड देने को तैयार नहीं है. यही लिज़ ट्रस के साथ हुआ.
सुनक क्या, किसी के भी पास कोई जादुई छड़ी है नहीं कि घुमा दें और और अर्थव्यवस्था सुधर जाए. जनता और पार्टी दोनों की उम्मीद है कि सुनक देश को सुधार सकेंगे लेकिन रास्ता किसी को नहीं मालूम.
पिछले बारह सालों की कहानी ये है कि कंज़र्वेटिव पार्टी ने 2010 से लगातार चार आम चुनाव जीते हैं लेकिन उसकी हर सरकार लगातार क्राइसिस में फँसी रही.
जैसे तैसे सिर्फ़ पहली सरकार ने पाँच साल का टर्म पूरा किया था. 2015 के बाद से अब तक चार प्रधानमंत्री हो चुके हैं. रह रह कर सरकार इतनी लचर होती रही कि 2017 और 2019 में टर्म ख़त्म होने से बहुत पहले ही आम चुनाव करवाने पड़े.
2019 में तो पार्टी भारी बहुमत से जीत कर आई. विपक्षी लेबर पार्टी को बहुत बड़ी हार का मुँह देखना पड़ा. लगता था कि उस चुनाव को जीतने वाले प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन अब ब्रिटेन के बेताज बादशाह बन कर रहेंगे.
लेकिन महीने नहीं बीते कि उनकी सरकार भी एक के बाद एक क्राइसिस में आ गई. कोरोनावायरस तो एक वजह थी ही. लेकिन रूस ने जब यूक्रेन पर हमला बोला तो पूरे यूरोप की अर्थव्यवस्था पर असर पड़ने लगा. ज़ाहिर है ब्रिटेन भी अछूता नहीं रहा.
लेकिन ब्रिटेन की असली समस्या है ब्रेक्सिट - Brexit. यानी Britain का European Union से exit.
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
आज की बड़ी खबरों में कई खबरें हैं। जैसे नफरती भाषणों के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय की फटकार, आतंकवाद के खिलाफ प्रधानमंत्री और गृहमंत्री की गुहार और इमरान खान के चुनाव लडऩे पर पांचवर्षीय प्रतिबंध आदि लेकिन मेरा ध्यान चार खबरों ने सबसे ज्यादा खींचा। वे हैं- नकली प्लेटलेट, नकली जीरा, नकली घी और नकली तेल के बारे में। दिवाली के मौके पर गरीब से गरीब आदमी भी खाने-पीने की चीजें दिल खोलकर खरीदना चाहता है लेकिन जो चीजें बाजार में उसे मिलती हैं, उनमें से कई नकली तो होती ही हैं, वे उसके लिए प्राणलेवा भी सिद्ध हो जाती है।
प्रयागराज के एक निजी अस्पताल में भर्ती मरीज की मौत इसलिए हो गई कि डाक्टरों ने उसकी नसों में प्लाज्मा चढ़ाने की बजाय मौसम्बी का रस चढ़ा दिया। इस नकली प्लाज्मा की कीमत 3 हजार से 5 हजार रु. है। नकली प्लाज्मा ने मरीज की जान ले ली। प्रयागराज की पुलिस ने दस लोगों को गिरफ्तार कर लिया है। लगभग इसी तरह का काम गोरखपुर में नकली तेल बेचने का, दिल्ली में नकली जीरा खपाने का और कुछ शहरों में नकली घी और दूध भी पकड़ा गया है।
दिवाली के मौके पर पड़े इन छापों से पता चला है कि ये नकली चीजें, असली चीजों के मुकाबले ज्यादा बिकती हैं, क्योंकि उनकी कीमत लगभग आधी होती है और दुकानदारों को मुनाफा भी ज्यादा मिलता है। जो लोग इन चीजों को खरीदते हैं, उन्हें पता ही नहीं चलता है कि वे असली हैं या नकली हैं, क्योंकि उनके डिब्बे इतने चिकने-चुपड़े होते हैं कि उनके सामने असली चीजों के डिब्बे या पेकेट पानी भरते नजर आते हैं।
कई नकली चीजें न कोई फायदा करती हैं न नुकसान करती हैं, लेकिन कुछ नकली चीजें उन्हें सेवन करनेवालों की जान ले लेती हैं और कई चीजें इतने धीरे-धीरे जान का खतरा बन जाती हैं कि उसके उपभोक्ताओं को उसका पता ही नहीं चलता। यह मामूली अपराध नहीं है। यह हत्या से भी भयंकर जुर्म है। यह सामूहिक हत्या है। यह कुकर्म सिर्फ खाने-पीने की चीजों में ही नहीं होता, यह अक्सर दवाइयों में भी बड़ी चालाकी से किया जाता है। इस तरह के मिलावटखोरों को पकडऩे के लिए सरकार ने अलग विभाग बना रखा है और ऐसे अपराधियों के विरुद्ध कानून के कई प्रावधान भी हैं।
2006 के ‘खाद्य सुरक्षा और मानक अधिनियम’ के अनुसार ऐसे अपराधियों पर 10 लाख रु. तक जुर्माना और छह माह से लेकर उम्र कैद तक की सजा भी हो सकती है। लेकिन मैं पूछता हूं कि आज तक कितने लोगों को यह कठोरतम दंड मिला है? हमारी सरकारों और अदालतों को अपूर्व सख्ती से पेश आना चाहिए। मेरी राय में यह कठोरतम दंड भी बहुत नरम है। इन सामूहिक हत्या के अपराधियों को सजा-ए-मौत होनी चाहिए। और वह मौत भी ऐसी कि हर भावी अपराधी के वह रोंगटे खड़े कर दे।
ऐसे अपराधियों को तत्काल फांसी पर लटका दिया जाना चाहिए और फांसी का जीवंत प्रसारण सारे टीवी चैनलों पर अनिवार्य रूप से दिखाया जाना चाहिए। नकली खाद्य पदार्थों के कारखानों के कर्मचारियों और उस माल को बेचनेवाले व्यापारियों को भी कम से कम पांच साल की सजा होनी चाहिए। यह सब लोग हत्या के उस जघन्य अपराध में भागीदार रहे होते हैं। यदि देश में दो-चार मिलावटखोरों को भी फांसी हो जाए तो करोड़ों लोगों की जीवन-रक्षा अपने आप हो जाएगी। (नया इंडिया की अनुमति से)
-बादल सरोज
गुजरा सप्ताह भारत की न्यायिक प्रणाली के लिए ख़ास रहा। छुट्टी के दिन सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस एम आर शाह ने एक प्रस्थापना दी कि- ‘दिमाग ही सारे झगड़े की जड़ है, इसलिए भले हाईकोर्ट द्वारा रिहा किया गया अभियुक्त देह से 90 फीसदी विकलांग हो, उसका दिमाग काम कर रहा है। इसलिए उसे जेल में ही रखना चाहिए।’ यह तत्व ज्ञान उनकी और जस्टिस बेला एम त्रिवेदी की खंडपीठ ने एक दिन पहले बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर खंडपीठ द्वारा निर्दोष करार दिए गए दिल्ली यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर जी एन साईंबाबा के मामले में महाराष्ट्र की भाजपा सरकार की अपील पर सुनवाई के दौरान दिया ।
प्रो. साईंबाबा कथित आपराधिक विचार रखने और सत्ता की नई वर्तनी के हिसाब से अर्बन नक्सल होने के जुर्म में 2014 से ही जेल में थे। महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले की एक सत्र अदालत ने उन्हें और 6 अन्य को दोषी करार दिया था। शुक्रवार 14 अक्टूबर को जस्टिस राहुल देव और अनिल पानसरे की बेंच ने प्रोफेसर को रिहा करने का आदेश जारी कर दिया, 15 अक्टूबर छुट्टी के दिन सुप्रीम कोर्ट की इस विशेष रूप से गठित खंडपीठ ने उसे रोक दिया।
हालांकि महाराष्ट्र सरकार रिहा किये जाने का आदेश जारी होते ही आनन-फानन में शुक्रवार की शाम को ही सुप्रीम कोर्ट में पहुँच गई थी और भावी चीफ जस्टिस चंद्रचूड़ की अदालत में इस आदेश को स्थगित करने की याचिका पेश कर दी थी। लेकिन जस्टिस चंद्रचूड़ ने इसे अत्यावश्यक मानने से इंकार करते हुए सुनने से मना कर दिया और कहा कि इसे दो दिन शनिवार-इतवार की छुट्टियों के बाद सोमवार को भी प्रस्तुत किया जा सकता है। बहरहाल सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता के ज्यादा अडऩे पर चंद्रचूड़ ने मामला वर्तमान चीफ जस्टिस के विवेक पर छोड़ दिया और उन्होंने छुट्टी के दिन शनिवार को विशेष सुनवाई करने के लिए एक आपात बेंच गठित कर दी।
दिमाग की सक्रियता को आतंकवादी कार्यवाहियों का मुख्य स्रोत बताने वाली ऊपर लिखी टिप्पणी जस्टिस एम आर शाह ने उस वक़्त की, जब उनके ध्यान में लाया गया कि प्रोफेसर साईंबाबा तो चल फिर भी नहीं सकते, उनका शरीर 90 फीसद से ज्यादा निष्क्रिय है, उनका कोई नया-पुराना आपराधिक रिकॉर्ड भी नहीं है, इसलिए सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई पूरी होने तक घर में ही नजरबन्द रखा जा सकता है। मामला यहीं तक नहीं रुका, जो सर्वोच्च खंडपीठ बॉम्बे हाईकोर्ट के रिहाई के फैसले पर सुनवाई असामान्य और अत्यावश्यक मान रही थी, उसी ने उस रिहाई के आदेश को रोकने के बाद अगली सुनवाई की तारीख तीन हफ्ते बाद की, 8 दिसंबर निर्धारित की है। एक और फैसला दिल्ली हाईकोर्ट का है, जिसे 9 सितम्बर को सुरक्षित कर लिया था, मगर सुनाया 18 अक्टूबर को और जेएनयू के पूर्व छात्र उमर खालिद की जमानत याचिका एक बार फिर निरस्त कर दी गयी है, क्योंकि पुलिस के अनुसार उसने दिल्ली दंगों से पहले ‘कुछ मीटिंगों में भाग लिया था।’ यह बात अलग है कि दंगा कराने वाले खुद यह दावा करते हुए घूम रहे हैं कि दंगा उन्होने ही किया था।
भारत का संविधान सुनिश्चित करता है कि नागरिक स्वतन्त्रता सिर्फ भारत के नागरिकों की ही नहीं, भारत की धरती पर रहने वाले विदेशी नागरिकों सहित सभी मनुष्यों के लिए है। जब तक दोष सिद्ध नहीं हो जाता, तब तक अभियुक्त को निर्दोष मानने की अवधारणा पर टिकी भारत की न्याय व्यवस्था के इस सर्वोच्च संवैधानिक संस्थान की यह असाधारण टिप्पणी पिछले सप्ताह न्यायपालिका के गलियारों से निकली अकेली शीतलहर नहीं हैं।
इससे ठीक उलट साबित प्रमाणित अपराधी के दोषी पाए जाने पर उसे ‘सजा सुनाये जाने’ का भी है। दादरी के अख़लाक़ हत्याकांड के मामले में योगी के उत्तरप्रदेश के ग्रेटर नोएडा के कोर्ट में करीब 7 साल से बिसाहड़ा कांड मामले में बीजेपी के पूर्व विधायक संगीत सोम पर मुकदमा चल रहा था। वे उस वक्त मेरठ के सरधना से बीजेपी के विधायक हुआ करते थे। 28 सितंबर 2015 की रात गोकशी का आरोप लगाकर भीड़ ने अखलाक की हत्या कर दी गयी थी। अखलाक के बेटे दानिश को भी भीड़ ने पीट-पीटकर अधमरा कर दिया था। इस घटना के बाद बीजेपी के पूर्व विधायक संगीत सोम ने ग्रेटर नोएडा के दादरी के बिसाहड़ा गांव में जाकर धारा-144 का उल्लंघन किया था और दंगा करने के लिए भीड़ को भडक़ाया था। इस आरोप के सत्य सिद्ध पाए जाने पर अपर मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट-2 की अदालत ने सजा सुनाई है। इसमें संगीत सोम को दोषी तो ठहराया गया है, मगर सजा सिर्फ 800 रुपये के जुर्माने की दी गयी है।
होने को तो गुजरात के तुलसी राम प्रजापति और सोहराबुद्दीन शेख और उसकी पत्नी कौसर बी के फर्जी एनकाउंटर से लेकर इनकी सुनवाई करने वाले जस्टिस लोया की सन्देहास्पद मौत के बारे में सुप्रीम कोर्ट के फैसले, एहसान जाफरी मामले को खारिज करते में मानवाधिकार कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ और पूर्व डीजीपी श्रीकुमार के मामले में सुप्रीमकोर्ट के ‘निर्देश’, गुजरात दंगों की सुनवाई के हाल से लेकर बिलकिस बानो प्रकरण के दोष साबित अपराधियों की फूल, माला, तिलक और गाजे-बाजे के साथ रिहाई जैसे अनगिनत मामले हैं, जो चिंता पैदा करते हैं। न्यायप्रणाली में जनता के विश्वास को प्रभावित करते हैं। मगर एक ही सप्ताह में आये यह दो तरह के एकदम परस्पर विरोधी फैसले बहुत कुछ कहते हैं। इन फैसलों से निकले संदेशे अनेकानेक अंदेशों से भरे हैं। थोड़ा रूककर सोचने के लिए विवश करते हैं।
सुप्रीम कोर्ट के जानेमाने जस्टिस वी आर कृष्ण अय्यर ने कहा था कि ‘यह भारत का सर्वोच्च न्यायालय - सुप्रीम कोर्ट ऑफ़ इंडिया - नहीं है, यह सभी भारतीयों का सर्वोच्च न्यायालय - सुप्रीम कोर्ट ऑफ़ इंडियन्स - है।’ इन दोनों फैसलों और एक ‘सजा’ ने उनके इस कथन पर सवालिया निशान खड़े कर दिए हैं। ‘न्याय सब के लिए बराबर है’ की धारणा पर प्रश्नचिन्ह खड़ा कर दिया है। यह सचमुच में गंभीर बात है। इस पर चर्चा होनी चाहिए, होगी भी - यह चर्चा जरूरी इसलिए भी है कि इसमें यदि कोई सुधार हो सकता है, तो वह उन भारतीयों की पहलकदमी पर हो सकता है, जिनका यह न्यायालय है और जिनके पास अब जो थोड़ा-बहुत शेष है, तो यह न्यायप्रणाली ही है।
इसी बीच हत्याओं सहित अन्य जघन्य अपराधों में 20 साल के आजीवन कारावास की सजा पाए गुरमीत राम रहीम को एक बार फिर पैरोल मिल गयी है। इस बाबा का यह पहला पैरोल नहीं है। वर्ष 2021 में यह तीन बार और 2022 में फरवरी और जून में दो बार लम्बे-लम्बे पैरोल पर छूट चुका है। इस बार यह पैरोल 40 दिन की है और इन चालीस दिनों में यह बाबा हवन नहीं करेगा - वही करेगा, जिसके लिए रिहा किया गया है : भाजपा के लिए चुनाव प्रचार और अपने डेरे के मतांधों का उनके लिए धु्रवीकरण। हरियाणा के पंचायत चुनावों और हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनावों की घोषणा के बाद इन्हे पैरोल मिलने की आशंका थी भी। मोदी और खट्टर की और बाकी भाजपा सरकारे आशाओं और उम्मीदों पर भले कभी खरी न उतरें, आशंकाओं पर हमेशा खरी उतरती हैं।
यह वही सरकार है, जिसने फादर स्टेन स्वामी को अत्यंत गंभीर बीमारी में भी पैरोल नहीं दिया था, वे जेल में ही मर गए। वरवरा राव जैसे कवि को पैरोल नहीं दिया - मौजूदा प्रकरण वाले प्रो. जी एन साईंबाबा की माँ के मरने पर भी उन्हें पैरोल नहीं दिया। नताशा नरवाल को मृत्यशय्या पर पहुंचे उनके पिता के अंतिम दर्शन करने के लिए भी छूट नहीं दी।
यह वह समय है जब तानाशाही अपने बघनखे खोलकर न्याय, संविधान और लोकतंत्र की ताजी हवा के सारे रास्ते बंद करने पर आमादा है। जो घोषित इमरजेंसी में भी नहीं हुआ, उसे बिना इमरजेंसी का एलान किये कर रही है। मगर हर बार तानाशाह इतनी सी बात भूल जाते हैं कि अंतत: यह जनता होती है, जो आखिऱी इन्साफ करती है और अपना फैसला सुनाती है।
(लेखक ‘लोकजतन’ के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।)
-डॉ. दिनेश मिश्र
वास्तव में धनतेरस का उस धन सम्पत्ति से कोई सम्बन्ध नही है,जिसके विज्ञापनों से सारा बाजार, सारा मीडिया पटा हुआ है। आज ही के दिन आयुर्वेदाचार्य एवं चिकित्सक धन्वन्तरि का हुए थे इन्होंने ही वनस्पतियों से औषधियों निकालने की परिकल्पना को मूर्त रूप दिया था। इसलिए ही इनके एक हाथ में अमृत कलश और दूसरे हाथ में वनस्पतियों से चिकित्सा या आयुर्वेद की अवधारणा की गई है।
"धन तेरस का धन से कोई संबंध नहीं है !"
धन्वंतरि का जन्म त्रयोदशी के दिन होने के कारण इसे धनतेरस बोला जाता है। पर बढ़ते हुए वैश्विक बाजारीकरण एवं भौतिकतावाद की अंध दौड़ ने इसके रूप को गलत ढंग से प्रेषित किया है। और कुछ लोगों ने एक कदम आगे बढ़ कर इसे तारों, ग्रहो नक्षत्रों को भी बाजार से जोड़कर खरीदी, बिक्री के अनुकूल बता दिया।
धन्वंतरी ने औषधीय वनस्पतियों के ज्ञाता होने के कारण उन्होंने यह बताया कि समस्त वनस्पतियाँ औषधि के समान हैं उनके गुणों को जानकर उनका सेवन करना व्यक्ति के शरीर के अंदर निरोगिता लाएगा जो स्वस्थ रहने में सहायक है, इसीलिए अमृत भी कहा जा सकता है।
प्रकृति से जो औषधीय गुण अनेक वनस्पतियों को प्राप्त हुए हैं, वह बेमिसाल हैं।
धन्वंतरि को वनस्पतियों पर आधारित आयुर्वेद की चिकित्सा करनें वाले वैद्य आरोग्य का देवता कहते हैं। इन्होंने ही वनस्पतियों को ढूंढ-ढूंढकर अनेक औषधियों की खोज की थी। बताया जाता है, इनके वंश में दिवोदास हुए जिन्होंने 'शल्य चिकित्सा' का विश्व का पहला विद्यालय काशी में स्थापित किया, जिसके प्रधानाचार्य सुश्रुत बनाये गए थे।
सुश्रुत दिवोदास के ही शिष्य और ॠषि विश्वामित्र के पुत्र थे। उन्होंने ही सुश्रुत संहिता लिखी थी। सुश्रुत विश्व के पहले सर्जन (शल्य चिकित्सक) माने जाते हैं, धन्वंतरि की स्मृति में ही इस दिन को "राष्ट्रीय आयुर्वेद दिवस" के रूप में भी मनाया जाता है।
याद रहे, उत्तम स्वस्थ्य एवम निरोगी शरीर ही जीवन की अमूल्य पूँजी और धन का प्रतीक है इसलिए आज का दिन धनतेरस के रूप में जाना जाता है।
ध्यान दें धनतेरस का इस प्रकार भौतिक सम्पत्ति, धनराशि, बहुमुल्य सम्पतियों, सोने चाँदी, वाहनों से कोई संबंध नहो है। इन कोरोना काल में जब पूरा विश्व कोविड की महामारी से लड़ रहा है, इस धनतेरस पर सभी नागरिकों के अच्छे स्वास्थ्य, मानसिक एवं शारीरिक समृद्धि की कामना।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
ब्रिटेन में आजकल कुछ ऐसा हो रहा है, जो दुनिया में किसी भी लोकतंत्र में कभी नहीं हुआ। ब्रिटेन में लगभग दो सौ साल पहले ऐसा तो हुआ है कि जार्ज केनिग नामक प्रधानमंत्री के निधन के कारण 119 दिन बाद ही नए प्रधानमंत्री को शपथ लेनी पड़ी थी लेकिन अब तीन माह में ही लंदन में तीन प्रधानमंत्री आ जाएं, ऐसा पहली बार होगा। अभी डेढ़ महिना ही हुआ है लिज़ ट्रस को प्रधानमंत्री बने हुए और उन्हें अब इस्तीफा देना पड़ गया। उनके पहले बोरिस जानसन ने प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दिया था। उनके कई मंत्रियों ने बगावत कर दी थी। उनके खिलाफ उन्होंने बयान देने शुरु कर दिए थे और एक के बाद एक उनके इस्तीफों की झड़ी लगने लगी थी।
जानसन को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर उनकी कंजर्वेटिव पार्टी के सांसदों ने नहीं, ब्रिटेन की जनता ने आम चुनाव जिताकर बिठाया था। लेकिन लिज़ ट्रस को पार्टी के सांसदों ने चुनकर बिठा दिया था। उनकी टक्कर में जो उम्मीदवार थे, वे भारतीय मूल के ऋषि सुनाक थे। सुनाक ने जानसन के मंत्रिमंडल से इस्तीफा देकर उनकी कुर्सी को हिला दिया था लेकिन लिज़ ट्रस ने पहले दिन से अपनी कुर्सी को खुद ही हिलाना शुरु कर दिया था। उन्होंने ब्रिटेन की लंगड़ाती हुई अर्थ व्यवस्था को अपने पांव पर खड़े करने की जो घोषणा की थी, उसका मूल आधार था- टैक्स में भारी कटौती!
उन्हें भरोसा था कि टैक्स में भारी कटौती से बाजारों में उत्साह का संचार होगा, उत्पादन बढ़ेगा, बेरोजगारी और मंहगाई घटेगी। जानसन के जमाने में जो मंदी आई थी, वह घट जाएगी। उन्होंने सरकार बनाते ही 50 बिलियन डालर की टैक्स-कटौती की घोषणा कर दी। यह घोषणा उन्होंने अपने वित्त मंत्री क्वासी क्वारतंग से करवाई। क्वारतंग को तीन हफ्तों में ही पद-त्याग करना पड़ा, क्योंकि सारा ब्रिटेन त्राहि-माम त्राहि-माम करने लगा। टैक्स-कटौती के कारण सरकार का खर्च कैसे चलता?
उसने लोगों से बैंकों में पैसा जमा करने की अपील कर दी। जमा-पूंजी पर ब्याज घटने लगा, बेरोजगारी बढ़ गई, मंहगाई तेज हो गई, पाउंड की कीमत डालर के मुकाबले नीचे खिसकने लगी और सरकार के पास पैसे की आवक भी घट गई। बड़े-बड़े पूंजीपति तो टैक्स-कटौती से खुश हुए लेकिन आम लोग परेशान होने लगे। सत्तारुढ़ पार्टी के सांसदों को लगा कि 2025 के चुनाव में उनका सूपड़ा साफ हो जाएगा। असंतोष का ज्वालामुखी फूट पड़ा। पहले ट्रस ने अपने वित्तमंत्री को बाहर किया।
अब नए वित्तमंत्री ने भी इस्तीफा दे दिया। अन्य मंत्री भी खिसकते नजऱ आए। ब्रिटेन के सारे टीवी चैनल और अखबार भी ट्रस पर बरस पड़े। इसके पहले कि उनकी और ज्यादा बेइज्जती हो, अपने आप को ‘लौह महिला’ माननेवाली लिज़ ट्रस ने इस्तीफे की पेशकश कर दी। अब अगले आठ दिन में लंदन में नया प्रधानमंत्री आ जाएगा। वह जनता के द्वारा नहीं चुना जाएगा।
उसे कंजर्वेटिव पार्टी के सांसद चुनेंगे। कौन चुना जाएगा, इस बारे में सिर्फ अंदाजी घोड़े ही दौड़ाए जा सकते हैं। जॉनसन और सुनक के नाम भी चल रहे हैं लेकिन एक तथ्य तो पत्थर की लकीर बन गया है कि 2025 के चुनाव में कजर्वेटिव पार्टी का सूपड़ा साफ हो जाएगा। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
गुजरात के स्कूलों में 5 जी की तकनीक के बारे में बोलते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कमाल कर दिया। उन्होंने प्रधानमंत्री की हैसियत से ‘अंग्रेजी की गुलामी’ के खिलाफ जो बात कह दी है, वह बात आज तक भारत के किसी प्रधानमंत्री की हिम्मत नहीं हुई कि वह कह सके। मोदी ने ‘अंग्रेजी की गुलामी’ शब्द का प्रयोग किया है, जिसके बारे में पिछले 60-70 साल से मैं बराबर बोलता और लिखता रहा हूँ और अपने इस विचार को फैलाने की खातिर मैं जेल भी काटता रहा हूँ और अंग्रेजी्भक्तों का कोप-भाजन भी बनता रहा हूँ।
देश की लगभग सभी पार्टियों के सर्वोच्च नेताओं और प्रधानमंत्रियों से मैं अनुरोध करता रहा हूं कि हिंदी थोपने की बजाय आप सिर्फ अंग्रेजी हटाने का काम करें। अंग्रेजी हटेगी तो अपने आप हिंदी आएगी। उसके अलावा कौनसी भाषा ऐसी है, जो भारत की दो दर्जन भाषाओं के बीच सेतु का काम कर सकेगी? लेकिन हमारे नौकरशाहों और बुद्धिजीवियों के दिमाग पर अंग्रेजी की गुलामी इस तरह छाई हुई है कि उनकी देखादेखी किसी प्रधानमंत्री या शिक्षामंत्री की आज तक हिम्मत नहीं पड़ी कि वह ‘अंग्रेजी हटाओ’ की बात करे।
अंग्रेजी हटाओ का अर्थ अंग्रेजी मिटाओ बिल्कुल नहीं है। इसके सिर्फ दो अर्थ हैं। एक तो अंग्रेजी की अनिवार्यता हर जगह से हटाओ और दूसरा विदेश नीति, विदेश व्यापार और अनुसंधान के लिए हम सिर्फ अंग्रेजी पर निर्भर न रहें। अंग्रेजी के साथ-साथ अन्य विदेशी भाषाओं का भी इस्तेमाल करें। यदि ऐसा हो तो भारत को महाशक्ति और महासंपन्न बनने से कोई ताकत रोक नहीं सकती। प्रधानमंत्री के अंग्रेजी-विरोध का आशय केवल इतना ही है लेकिन तमिलनाडु विधानसभा ने सरकार की भाषा नीति के विरुद्ध प्रस्ताव पारित करके वास्तव में तमिलनाडु का बड़ा अहित किया है।
गृहमंत्री अमित शाह ने अपने भाषणों में हिंदी थोपने की बात कभी नहीं की है लेकिन देश के हिंदी-विरोधी नेता मनगढंत तथ्यों के आधार पर उनकी बातों का विरोध कर रहे हैं। मुझे तो आश्चर्य है कि इस मुद्दे पर कांग्रेस-जैसी पार्टी चुप क्यों है? कम से कम वह गांधी नाम की इज्जत बचाए। महात्मा गांधी ने तो यहां तक कहा था कि स्वतंत्र भारत की संसद में जो अंग्रेजी में बोलेगा, उसे हम छह माह की जेल करा देंगे। समाजवाद के पुरोधा डॉ. राममनोहर लोहिया ने तो देश में बाकायदा अंग्रेजी हटाओ आंदोलन चला दिया था लेकिन उ.प्र. की समाजवादी पार्टी भी इस मुद्दे पर मौन धारण किए हुए है।
सर्वत्र अंग्रेजी के एकाधिकार के कारण भारत के गरीब, विपन्न, ग्रामीण और मेहनतकश लोगों की हालत कार्ल मार्क्स के शब्दों में सर्वहारा की बनी हुई है लेकिन इन सर्वहारा की लूट पर मार्क्सवादियों की बोलती बंद क्यों है? मोदी ने जो कहा है, यदि वे वह करके दिखा दें तो दक्षिणपंथी कहे जानेवाले भाजपाई और संघी लोग वामपंथियों से भी अधिक प्रगतिशील साबित होंगे। यदि देश की सर्वोच्च शिक्षा और सर्वोच्च नौकरियां भी भारतीय भाषाओं के जरिए मिलने लगें तो देश के करोड़ों लोगों को सच्ची आजादी मिलेगी। जाति के नाम पर आरक्षण की चूसनियाँ लटकाकर उन्हें पटाने की जरुरत ही नहीं पड़ेगी। (नया इंडिया की अनुमति से)
-इमरान कुरैशी
राहुल गांधी इन दिनों भारत जोड़ो यात्रा के जरिए अपनी उस छवि से उबारने की कोशिश कर रहे हैं, जो भारतीय जनता पार्टी ने उनका मजाक उड़ाते हुए बना दी थी। उनकी कोशिश एक जननेता की इमेज बनाने की दिख रही है। एक ऐसा नेता जिसके पीछे भीड़ एकत्रित हो सकती है।
लोगों के बीच उनकी इस यात्रा को लेकर क्या असर दिख रहा है, इसकी झलक बीजेपी शासित राज्य कर्नाटक में दिखी है। कन्याकुमारी से कश्मीर तक की 3570 किलोमीटर लंबी यात्रा में से राहुल गांधी 1000 किलोमीटर की दूरी तय कर चुके हैं। इस यात्रा में कर्नाटक ऐसा पहला राज्य है जहां बीजेपी शासन में है।
कर्नाटक में राहुल गांधी की यात्रा को उन इलाकों में भी जनसमर्थन मिला है, जहां कांग्रेस की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। इस वजह से राज्य के बीजेपी नेताओं को राजनीतिक और प्रशासनिक तौर पर सक्रिय होना पड़ा।
बीजेपी ने मुख्यमंत्री बासवराज बोम्मई और पूर्व मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा के नेतृत्व में आनन फानन में जनसंकल्प यात्रा की घोषणा की। इससे पहले भारत जोड़ो यात्रा के कर्नाटक पहुंचने पर बोम्मई ने मीडिया से कहा, ‘महात्मा गांधी के बारे में बात कीजिए, फर्जी गांधी के बारे में नहीं।’
लेकिन जल्दी ही बीजेपी की राज्य सरकार के व्यवहार में नाटकीय परिवर्तन दिखा।
राहुल गांधी ने अपनी यात्रा के दौरान राज्य सरकार की आलोचना करते हुए कहा कि बीजेपी की राज्य सरकार एससी/एसटी समुदाय के लोगों के लिए आरक्षण बढ़ाने संबंधी जस्टिस नागमोहन दास की अनुशंसाओं को दबा रही है।
इसके 24 घंटे के भीतर बोम्मई सरकार ने सर्वदलीय बैठक बुलाई, इस बैठक में नेता प्रतिपक्ष सिद्धारमैया और जनता दल सेक्यूलर के नेता एवं पूर्व मुख्यमंत्री एचडी कुमारास्वामी शामिल हुए। इस बैठक में आरक्षण बढ़ाने की स्थिति में उत्पन्न क़ानूनी मसलों पर चर्चा हुई।
अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षण की सीमा बढ़ाने से राज्य में कुल आरक्षण की सीमा सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित 50 प्रतिशत से अधिक हो जाएगी। इस बैठक में सिद्धारमैया ने ज़ोर देते हुए कहा कि राज्य की कैबिनेट को अगले दिन इस पर प्रस्ताव पास करके नौवीं अनुसूची में शामिल करने के लिए केंद्र सरकार को भेजना चाहिए। बोम्मई सरकार ने ठीक यही किया।
राजनीतिक विश्लेषक और जागरण लेकसाइड यूनिवर्सिटी भोपाल के उप कुलपति डॉ। संदीप शास्त्री ने बताया, ‘अब तक बीजेपी एजेंडा सेट करती रही थी और कांग्रेस एजेंडे के मुताबिक प्रतिक्रिया जताती थी लेकिन अब यह उलट दिख रहा है। राहुल गांधी एजेंडा सेट कर रहे हैं और उस पर बीजेपी प्रतिक्रिया जता रही है। यह एक महत्वपूर्ण बदलाव है। एक तरह से यह अपने कार्यकर्ताओं में उत्साह भरने की कोशिश हो सकती है। अगर कुछ नहीं भी हुआ तो कम से कम कार्यकर्ता तो उत्साहित होंगे।’
लोगों को कितना समर्थन मिल रहा है
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ एडवांस्ड स्टडीज़ के प्रोफेसर नरेंद्र पानी, राहुल गांधी की यात्रा को मिल रहे समर्थन को लेकर बहुत अचरज में नहीं हैं। वे कहते हैं, ‘बीजेपी के राष्ट्रीय नेतृत्व को कई मुद्दों पर चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। आठ साल पहले जिस तरह मुद्दों को लेकर जो उम्मीद थी, वह अब कहीं नहीं है।’
‘अगर आप अतीत को देखेंगे तो आपको महसूस होगा कि सत्ता में वापसी के बाद गिरावट का दौर शुरू होता है। दूसरे कार्यकाल तक लोगों की उम्मीदें भी बढ़ जाती है तो मोहभंग होने लगता है। ऐसा हर किसी के साथ हुआ है। इंदिरा गांधी जब 1980 में सत्ता में लौटीं तो महज ढाई साल के अंदर उन्हें कर्नाटक में हार का सामना करना पड़ा था, जबकि इससे पहले कांग्रेस इस राज्य में कभी नहीं हारी थी।’
नरेंद्र पानी यह भी कहते हैं, ‘आज विपक्ष नहीं है तो चुनौती ज़मीनी स्तर पर आम लोगों से ही आएगी। राष्ट्रीय स्तर पर चुनौतियों के सामने आने में राहुल गांधी की यात्रा अहम पड़ाव साबित हो रही है। जो भी बीजेपी का विरोध कर रहे हैं या फिर हिंदुत्व की राजनीति का विरोध करते हैं, उन सबके लिए इस यात्रा ने उम्मीद जगाई है। उन्होंने मुद्दों की बात शुरू करके, बीजेपी से असंतुष्ट लोगों को भी जोडऩे की कोशिश कर रहे हैं।’
पानी के दूसरे अहम बिंदु की ओर भी इशारा करते हुए कहते हैं, ‘अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कुछ देशों ने हमारे लिए मुश्किलें बढ़ानी शुरू कर दी है। दो साल से अमेरिका ने भारत में अपना राजदूत तैनात नहीं किया है। जबकि इसी दौरान अमेरिका पाकिस्तान को एफ-16 विमान दे रहा है। भारतीय लोगों के लिए अमेरिकी वीज़ा के लिए इंतज़ार 400 से ज़्यादा दिनों का हो चुका है, जबकि चीन के नागरिकों के लिए यह महज तीन दिन में उपलब्ध है। ऐसे में भारतीय छात्र करियर संबंधी मौके गंवा रहे हैं। छात्रों पर सबसे ज़्यादा असर पड़ेगा।’
बारिश में भीग कर दिया गया राहुल का भाषण कर्नाटक में कांग्रेस को कितना फायदा पहुंचाएगा
राहुल गांधी के भारतीय जनता पार्टी के नेताओं को चुनौती देने की बात पर डॉ। शास्त्री मानते हैं, ‘राहुल गांधी अभी उस तरह से चुनौती नहीं दे रहे हैं जिस तरह से बीजेपी के नेताओं को दी जानी चाहिए। वे उनके एजेंडा का जवाब भी नहीं दे रहे हैं, बल्कि वे एक वैकल्पिक एजेंडा तैयार कर रहे हैं। वे मुद्दों के आधार पर सत्तारूढ़ दल को चुनौती दे रहे हैं। वे नेता को चुनौती नहीं दे रहे हैं कि क्योंकि अगर लीडरशिप के मुद्दे पर वे सवाल करेंगे तो लड़ाई हार जाएंगे।’
डॉ. शास्त्री ने कहा, ‘बीजेपी ने उन्हें पप्पू कह कर प्रचारित किया और एक तरफ़ ये हैं तो दूसरी ओर हमारे पास मोदी हैं। लेकिन अब परिस्थितियां बदल गई हैं। राहुल गांधी किसी पद पर नहीं है। इसलिए आप जो भी चाहें उन्हें कह सकते हैं, उसका कोई असर नहीं होगा।’
पद यात्रा से कितना फ़ायदा होगा
मैसूर यूनिवर्सिटी के कला विभाग के डीन प्रोफेसर मुजफ्फ़ऱ असादी ने बताया, ‘महात्मा गांधी और पंडित जवाहर लाल नेहरू जिस तरह से खुद को आम लोगों से जोड़ा था, उसी तरीके को राहुल गांधी अपनाने की कोशिश कर रहे हैं। महात्मा गांधी खुद तो सत्ता से दूर रहे थे लेकिन पार्टी में वे सबसे ताक़तवर बने रहे। मेरा ख्याल है कि अगर राहुल गांधी की पदयात्रा से कांग्रेस को बहुत फायदा नहीं भी हुआ तो भी यह समाज में मनमुटाव को कम करके भारत की मदद करने वाला होगा।’
असादी कहते हैं, ‘राहुल गांधी भारतीय राजनीति में नया मुहावरा गढ़ रहे हैं। वे महज भाषणबाजी नहीं कर रहे हैं, बल्कि अनुभवों की बात कर रहे हैं। वे आम आदमी की भाषा शैली को चलन में ला रहे हैं। यह भी सच्चाई है कि अगर जनता उनको देखने और सुनने पहुंच रही है तो देश में एक नए नेता के उभरने की जगह मौजूद है, ऐसे नेता की जो हर किसी की बात सुनने को तैयार हो।’
हालांकि असादी एक कमी की ओर भी इशारा करते हैं, ‘उन्हें सडक़ किनारे ताल्लुका स्तर पर लोगों से मिलने के बदले गांवों में जाना चाहिए था।’
बहरहाल, राहुल गांधी की यात्रा एक तरह से लोगों से जुडऩे का कार्यक्रम है, जो वे कई साल बाद कर रहे हैं। पार्टी के सदस्य अनौपचारिक चर्चा में बताते रहे हैं कि उनके नेता सुरक्षाकर्मियों के साथ-साथ वरिष्ठ नेताओं के घेरे के चलते आम पार्टी कार्यकर्ता से नहीं मिल पाते थे। राहुल गांधी 2017 से 2019 के बीच कांग्रेस के अध्यक्ष भी रहे लेकिन वे उस दौरान पार्टी कार्यकर्ताओं की नब्ज उस तरह से नहीं पकड़ पाए थे, जिस तरह से इन दिनों पकड़ रहे हैं।
राहुल गांधी ने कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष पद से 2019 में इस्तीफ़ा दिया था। जबकि उनकी पार्टी को 543 सदस्यीय लोकसभा में महज 52 सीटें हासिल हुई थीं, जबकि बीजेपी को 303 सीटों पर जीत मिली थी। कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता ने गोपनीयता की शर्त पर कहा, ‘बड़ी चुनौती लीडरशिप को लेकर ही है। यह बीजेपी के मनगढंत अभियान से बने छवि की लड़ाई भर नहीं है। क्या वे खुद को सक्षम नेता के तौर पर साबित कर पाएंगे? क्या वे खुद को नए सिरे से तैयार कर पाएंगे? उम्मीद है कि इन सबका जवाब इस यात्रा में मिल जाएगा।’
क्या राहुल लोगों की सुनते हैं?
राहुल गांधी अपनी यात्रा के दौरान सामाजिक कार्यकर्ता, जन स्वास्थ्य के मुद्दे पर काम करने वाले प्रोफेशनल्स, वस्त्र उद्योग के श्रमिकों, कुटीर उद्योग चलाने वालों और खानाबदोश जनजाति के लोगों से मुलाकात कर चुके हैं। क्या वे इन लोगों की बातों को सुनते हैं? सामाजिक कार्यकर्ता तारा कृष्णास्वामी बताती हैं, ‘राहुल गांधी छोटे समूहों में जिन लोगों से मिलते हैं, उनकी बातों को ध्यानपूर्वक सुनते हैं। उसके बाद एक मुद्दे को पकड़ते हैं और उस पर बोलते हैं। फिर लोगों से उसका समाधान पूछते हैं।’
‘उदाहरण के लिए वे महिलाओं और जन स्वास्थ्य के मुद्दे पर काम करने वाले प्रोफेशनल्स से मिले। मैंने उनसे कहा कि आधी आबादी को साथ लिए बिना भारत जोड़ो संभव नहीं है। जब उन्हें इसके असर के बारे में बताया गया तो उन्होंने मुस्कुराते हुए सहमति जताई। हमलोगों ने कहा कि जब केवल पुरुषों की सुनी जाएगी तो वे सैनेटरी नैपकिन पर 15 प्रतिशत जीएसटी लगाएंगे और सॉफ्ट ड्रिंक पर कोई जीएसटी नहीं लगेगी। कोविड संकट के दौरान महिलाओं की स्वास्थ्य से जुड़ी सभी वस्तुओं को आवश्यक वस्तुओं की सूची में नहीं रखा गया था।’
तुमाक्कुरु पदयात्रा के दौरान मांड्या में जन स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं से वे चर्चा तो नहीं कर पाए लेकिन इन लोगों को उनकी यात्रा में शामिल होने का मौक़ा मिला।
जनस्वास्थ्य कार्यकर्ता गुरूमूर्ति ने बीबीसी हिंदी को बताया, ‘हमने उनसे कहा कि राजस्थान में स्वास्थ्य का अधिकार विधेयक लाया गया है। स्वास्थ्य का अधिकार, स्वास्थ्य की देखभाल के अधिकार से अलग होता है। स्वास्थ्य की देखभाल के जरूरत लोगों को कोविड संकट में महसूस हुई।’
‘हमलोगों ने सुझाव दिया कि प्रवासी मज़दूर सबसे ज़्यादा प्रभावित हुए और उन्हें इस के दायरे में लाना चाहिए। उन्होंने इस पर होने वाले ख़र्च के बारे में पूछा। उन्हें बताया कि भारत जीडीपी का 0.7 प्रतिशत राशि ही स्वास्थ पर ख़र्च करता है, स्वास्थ्य की देखभाल को शामिल करने पर यह जीडीपी का तीन प्रतिशत होगा। करीब 2.6 से लेकर तीन लाख करोड़ रुपये ख़र्च होंगे, जो माफ किए गए कारपोरेट टैक्स से भी कम है। उन्होंने ध्यान से सुना।’
क्या आप राहुल के प्रशंसक रहे चुके हैं?
गुरुमूर्ति ने बताया, ‘मैं उनका प्रशंसक नहीं हूं। लेकिन वे काफी गंभीर शख्स लगे। वे एक अच्छे इंसान भी हैं। वे स्मार्ट नेता भले नहीं हों लेकिन उनके ख़िलाफ़ जो अभियान चलाया गया, वे वैसे बिलकुल नहीं हैं। ये बात स्पष्ट हो गई है।’
राहुल गांधी बेल्लारी में कपड़ा उद्योगों के श्रमिकों से भी मिले। यहां बड़े पैमाने पर जींस वैगरह तैयार किए जाते हैं। अपनी कंपनी चलाने वाले श्रीनिवास रेड्डी बताते हैं, ‘मैं दक्षिण भारतीय बाज़ार में कपड़े सप्लाई करता हूं। मैंने उन्हें बताया कि हमारे साथ जो श्रमिक काम करते थे वे कोविड संकट के दौरान दिहाड़ी मजदूरी करने लगे थे। कुशल श्रमिक भी यहां से चले गए थे। हमारी श्रमिक प्रधान इंडस्ट्री है, उन्हें इस पहलू के बारे में पता नहीं था।’
अगले दिन कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव के चलते आराम का दिन था और रेड्डी तब अचरज में पड़ गए जब उन्हें पता चला कि राहुल गांधी कपड़ा उद्योग के श्रमिकों से मिलने पहुंच गए थे। रेड्डी बताते हैं, ‘वे चार-पांच मशीनों के साथ काम करने वाली महिलाओं से मिलने के लिए पहुंचे थे, ताकि उनकी समस्याओं को समझ सकें। यह बताता है कि वे गंभीरता से हमलोगों के लिए कुछ करना चाहते हैं।’ (बीबीसी)
-शिशिर सोनी
देश के कई इलाकों में तेजी से स्वघोषित धर्म गुरुओं की सेना बढ़ी है। ये माफिया सा बर्ताव कर रहे हैं। धर्म के ठेकेदार बन रहे हैं। भोलीभाली परेशान जनता ठगी जा रही है। सरकारें मंद मंद मुस्का रही है। सियासत को ऐसे ही ‘बाड़े’ की तलाश होती है। जहाँ एक साथ वोटर को एक दिशा में हाँका जा सके। यही वजह है कि ऐसे राजनेताओं के संरक्षण में पल रहे बाबाओं की भीड़ से कभी राम रहीम पैदा होता है तो कभी आसाराम तो कभी रामपाल जैसे कुसंस्कारी लोग।
बाबा के शक्ल में कुकृत्य के कैसे कैसे आरोप इन पर चस्पा हुए! फिर भी न तो ऐसे बाबाओं की संख्या कम हो रही, न ही जय जयकार करती कुपढ भक्तों की भीड़ में कोई कमी हुई। कोई डेरा चला रहा है। कोई आश्रम। कोई गद्दी चला रहा है तो कोई दरबार सजा रहा है। सोशल मीडिया इनके प्रचार का साधन बन गया है। नेता, अभिनेता को मैनेज कर बुलाया जाता है। माहौल बना कर ऐसा शमा बाँधा जाता है कि ऊपर भगवान और नीचे बाबा के अलावा कुछ न दिखाई दे, न कुछ समझ आये। जब तक समझ आये तब तक सब कुछ लुटा चुकी जनता एक वोटर के सिवा कुछ नहीं बचती।
हज़ारों की भीड़ में पर्ची लिखी जा रही है। सातवी फेल बाबा के शक्ल में खुद को अल्लाह/भगवान का दूत बताने वाले ये लोग दावा करते हैं आप पर भूत का साया है। फिर कहते हैं - सेनापति इनको चिमटे से पिटाई करो। और जोर से मारो। फिर वो व्यक्ति जोर जोर से उछलने लगा है। उछल कूद करते वक़्त वो व्यक्ति अपना पैंट संभालता है। औरत है तो साडी संभालती है। अब जिस पर प्रेत का साया है वो कपड़े क्या संभालेगा? मगर सब चल रहा है। पर्ची पर पहले से लिखा जा रहा है कौन क्या पूछने आया है। सरेआम किसी महिला के बारे में उसके रिश्तों के बारे में झूठ सच का बखान कर चिरकुटों की फौज खुद को महिमामंडित करवा रही है।
सजा-धजा पगड़ी मुकुट पहने एक अनपढ़ बड़े से सिंहासन पर बैठा है। एक पर्ची पर लिख कर तम्बू में आये भक्त के आधार नंबर बता रहा है। कितने रुपये के नोट तुम्हारे पास हैं उसका क्या नंबर है, ये बता रहा है। लोग पागल हुए जा रहे हैं। जयकारे लग रहे हैं। अजीब अजीब दरबार चल रहे हैं।
मोगैम्बो टाइप दिखने वाला एक बाबा दरबार में सबको हवन करने की सलाह दे रहा है। परिवार का ष्ठहृ्र जोड़ रहा है। उसका दावा है हवन मात्र से सभी कष्टों का निवारण संभव है। फिर कोई किसी तरह की तकलीफ लेकर उसके पास आये। वो पल भर में उसकी शल्य चिकित्सा करने को किसी और से नहीं आयुर्वेद के प्रणेता ऋषि धनवंतरी से कहता है। माइक पर आदेश देता है। इनको यहाँ से काटा जाए, यहाँ जोडा जाए, पट्टी कर दी जाए.... ओम शिव, इनकी बीमारी की स्मृतियाँ पीछे कर दी जाएं, बाकी चील कौओं को खिला दी जाए। माइक पर खड़े होकर अपनी पीड़ा साझा करने वाले उस बीमार व्यक्ति का आत्मविश्वास इतना बढ़ा दिया जाता है कि वो खुशी से सब के सामने कहे कि वो ठीक महसूस कर रहा है। बदले में हज़ारों स्वाहा!
ऐसे सभी बाबा की शक्लों में लुटेरे हर तरह से देश को लूट रहे हैं। आर्थिक, बौद्धिक तौर पर परेशान जनता को लूटा जा रहा है। ऐसी पागल जनता सुअर के बाड़े में तब्दील हो रही है। भक्ति भाव में लीन बेसुध होकर एक बड़े वोट बैंक में तब्दील हो रही है। अधिकांश कुपढ बाबाओं की जमात जमकर वसूली कर रही है। उगाही कर रही है। राजनेताओं की काली कमाई को सफेद करने का बड़ा माध्यम है ये देश में चलने वाले टैक्स फ्री आश्रम। समाज को आगे आना होगा। उन्हें समझना होगा। समझाना होगा। हर मर्ज को ठीक करने का दावा करने वाले बाबा के शक्ल में चिरकुट चिरंजी लाल को पहचानना होगा। उनसे बचना होगा। बचाना होगा।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कांग्रेस को 24 साल बाद सोनिया परिवार के बाहर का एक अध्यक्ष मिला है। क्यों मिला है? क्योंकि सोनिया-गांधी परिवार थक चुका था। उसने ही तय किया कि अब कांग्रेस का मुकुट किसी और के सिर पर धर दिया जाए। माँ और बेटे दोनों ने अध्यक्ष बनकर देख लिया। कांग्रेस की ताकत लगातार घटती गई। उसके महत्वपूर्ण नेता उसे छोड़-छोडक़र अन्य पार्टियों में शामिल होते जा रहे हैं।
ऐसे में कुछ नई पहल की जरुरत महसूस की गई। दो विकल्प सूझे। एक तो भारत जोड़ो यात्रा और दूसरा ढूंढें कोई ऐसा कंधा, जिस पर कांग्रेस की बुझी हुई बंदूक रखी जा सके। भारत कहाँ से टूट रहा है, जिसे आप जोडऩे चले हैं? वह वास्तव में टूटती-बिखरती कांग्रेस को जोड़ो यात्रा है। इसमें शक नहीं कि इस यात्रा से राहुल को प्रचार काफी मिल रहा है लेकिन कांग्रेस से टूटे हुए लोगों में से कितने अभी तक जुड़े हैं? कोई भी नहीं।
खैर, यात्रा अच्छी है। उससे कांग्रेस को कुछ फायदा हो या न हो, राहुल गांधी के अनुभव में जरुर वृद्धि होगी। लेकिन जो बंदूक नए अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडग़े के कंधे पर रखी गई है, वह तो खाली कारतूसों वाली ही है। यह तो सबको पता था कि शशि थरुर को तो हारना ही है लेकिन उनको हजार से ज्यादा वोट मिल गए, यही बड़ी बात है। इतने वोट सोनिया के विरुद्ध जितेंद्रप्रसाद को नहीं मिले थे। उन्हें तो लगभग 8 हजार के मुकाबले 100 वोट भी नहीं मिले थे।
इसका कारण है, जितेंद्रप्रसाद, जिसके विरुद्ध अध्यक्ष का चुनाव लड़ रहे थे, वह महिला अपने पांव पर खड़ी थी लेकिन खडग़े तो बैसाखी पर फुदक रहे थे। चुनाव अभियान के दौरान खडग़े ने कई बार यह स्पष्ट कर दिया की वे रबर की मुहर बनने में ही परम प्रसन्न होंगे। थरुर भी खडग़े को चुनौती दे रहे थे और उन्होंने उन्हें टक्कर भी अच्छी दे दी लेकिन दबी जुबान से वे भी स्वामीभक्ति प्रकट करने में नहीं चूक रहे थे।
याने गैर-गांधी अध्यक्ष आ जाने के बावजूद कांग्रेस जहां की तहां खड़ी है और वह ऐसे ही खड़ी रहेगी, ऐसी आशंका है। क्या थरुर के पास कोई नए विचार, नई नीतियां, नई रणनीति, नया कार्यक्रम और नए कार्यकर्त्ता हैं, जो इस अधमरी कांग्रेस में जान फूंक सकें? थरुर में ऐसी किसी क्षमता का परिचय आज तक नहीं मिला। ऐसी स्थिति में यह क्यों नहीं मान लिया जाए कि खडग़े को जो भी आदेश ऊपर से मिलेगा, कांग्रेस उसी रास्ते पर चलती रहेगी।
शशि थरुर भी जितेंद्रप्रसाद की तरह खडग़े के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने लगेंगे। हाँ, राहुल गांधी जो कि इस प्राइवेट लिमिटेड कंपनी के मालिक हैं, यदि वे चाहें तो अपनी पार्टी में प्राण फूंक सकते हैं। वे ही अंतिम आशा हैं लेकिन यह तभी होगा जबकि वे थोड़ा पढ़े-लिखें, जन-सम्पर्क बढ़ाएं और पार्टी तथा बाहर के भी अनुभवी लोगों से परामर्श करें और मार्गदर्शन लें। यदि यह नहीं हुआ तो कांग्रेस का हाल भी वही होगा, जो लोहिया की समाजवादी पार्टी और राजाजी की स्वतंत्र पार्टी जैसी कई पार्टियों का हुआ है। यदि ऐसा हुआ तो भारतीय लोकतंत्र के निरंकुश होने में कोई कसर बाकी नहीं रहेगी। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पाकिस्तान संसद की आठ सीटों के लिए हुए उप-चुनाव में इमरान खान ने छह सीटें जीत लीं। उनकी पार्टी ‘पाकिस्तान तहरीके-इंसाफ’ ने कुल सात सीटों पर चुनाव लड़ा था। इन सातों सीटों पर उसका बस एक ही उम्मीदवार था। उसका नाम था- इमरान खान! क्या आपने कभी सुना है कि भारत, पाकिस्तान या दुनिया के किसी देश में एक ही उम्मीदवार सात सीटों पर एक साथ खड़ा हुआ है? कभी नहीं।
यह पहली बार पाकिस्तान में ही हुआ है। भारत और पाकिस्तान में उम्मीदवारों को यह छूट है कि वे एक से ज्यादा सीटों पर एक साथ चुनाव लड़ सकते हैं लेकिन इमरान खान की खूबी यह है कि वे छह सीटें जीतने के बावजूद पाकिस्तान की संसद में पांव भी नहीं रखेंगे। उनकी पार्टी संसद का बहिष्कार कर रही है। उनका कहना है कि शाहबाज शरीफ की यह सरकार विदेश से आयातित है या फौज के द्वारा थोपी गई है। अब जो संसद पाकिस्तान में चल रही है, वह भी फर्जी है। असली संसद और असली सरकार तभी बनेगी, जबकि चुनाव होंगे और जनता उनको चुनेगी।
यों तो चुनाव 2023 में होने हैं लेकिन इमरान की मांग है कि वे तुरंत होने चाहिए। इमरान जबसे अपदस्थ हुए हैं, वे अनवरत आंदोलनकारी बन गए हैं। पूरे पाकिस्तान में घूम-घूमकर वे सभाएं और प्रदर्शन आयोजित कर रहे हैं। सरकार भी उनका जमकर पीछा कर रही है। इमरान की सभाओं में लाखों लोग आ रहे हैं और उनको सभी प्रांतों में भारी जन-सहयोग मिल रहा है। इमरान पठान हैं लेकिन उनका पंजाब, सिंध और बलूचिस्तान में भी पख्तूनख्वाह की तरह गर्मजोशी से स्वागत हो रहा है।
उन्होंने कहा है कि यदि सरकार जल्दी ही चुनाव नहीं करवाएगी तो वे धरने, प्रदर्शन और सत्याग्रह आदि का जबर्दस्त आयोजन करेंगे। उनका आरोप है कि सरकार उन्हें कुछ आपराधिक मामलों में भी फंसाने की कोशिश कर रही है लेकिन उसकी दाल नहीं गल पा रही है। वे शाहबाज सरकार को ‘भ्रष्ट और भगोड़ों’ की सरकार कहकर संबोधित करते हैं। जिस फौजी नाराजी के कारण इमरान की सरकार गिरी थी, वह फौज भी तटस्थ दिखाई पड़ रही है।
इस समय पाकिस्तान की आर्थिक हालत खस्ता हो गई है। भयंकर बाढ़ ने कोढ़ में खाज का काम किया है। मंहगाई और बेरोजगारी आसमान छू रही है। शाहबाज शरीफ पंजाब प्रांत के सफल और यशस्वी मुख्यमंत्री रह चुके हैं लेकिन उनकी बदकि़स्मती है कि उनका प्रधानमंत्री-काल इतना संकटापन्न है। इस उप-चुनाव में इमरान की प्रचंड विजय ने उनकी सरकार की चूलें हिला दी हैं। (नया इंडिया की अनुमति से)