विचार/लेख
-मनीष आजाद
जैसे-जैसे ठंड बढ़ रही है, मुझे जेल के अपने लोग याद आ रहे है। जेल में बीमार, बुजुर्ग और गरीबों के लिए सर्दी सबसे बुरा मौसम होता है। फिर यह सोच कर दिल भारी हो जाता है की 90 प्रतिशत विकलांग, नागपुर के ठंडे अंडा सेल में बंद राजनीतिक कैदी जी। एन। साईंबाबा की इस समय क्या स्थिति होगी। अभी ही खबर आयी की रोजाना महज कुछ मिनटों के लिए सूरज की गर्मी पाने के लिए उन्हें इस स्थिति में भी करीब 10 दिन भूख हड़ताल पर जाना पड़ा। मुझे लगता है की विटामिन डी की जरूरत साईबाबा से ज्यादा इस भारतीय ‘लोकतंत्र’ को है जो ‘सूरज’ की रोशनी के अभाव में ‘गठियाग्रस्त लोकतंत्र’ में बदल चुका है और आज अनेको फ्रैक्चर का शिकार हो चुका है। गौरतलब है कि साई बाबा कोर्ट के आदेश के बावजूद बुनियादी सुविधाएं ना मिलने के कारण विगत 26 अक्टूबर से 6 नवंबर तक भूख हड़ताल पर थे। परिवार समेत बाहरी दुनिया को इसकी खबर भी नहीं थी।
हर व्यक्ति की दो माँ होती हैं। एक उसकी माँ और दूसरी उसकी भाषा। इसी साल अगस्त में जब उनकी माँ मृत्यु के कगार पर थी तो न उन्हें उनसे मिलने के लिए पैरोल दी गयी और ना ही काफी आग्रह के बावजूद माँ के साथ उनकी विडियो कांफ्रेंसिंग से मुलाक़ात कराई गयी। माँ की मृत्यु के कई दिनों बाद ही उन्हें यह खबर मिली की अब उनकी माँ इस दुनिया में नहीं रही।
उनकी अपनी भाषा तेलगू में उन्हें न कोई किताब दी जा रही है और न ही तेलगू में किसी पत्र का आदान प्रदान होने दिया जा रहा है। क्या भाषा भी कानूनी और ग़ैर कानूनी होती है? क्या भाषा भी राष्ट्रद्रोही होती है।
जी.एन. साईंबाबा दिल्ली यूनिवर्सिटी के एक कॉलेज में अंग्रेजी साहित्य के अध्यापक थे और कॉलेज के कैंपस में ही अपने परिवार के साथ रहते थे। यह अजीब बात है की उन्हें कानूनी तरीके से गिरफ्तार करने की बजाय कॉलेज से घर आते हुए उन्हें रास्ते से किडनैप किया गया। किसी को तत्काल यह खबर न पता चले, इसलिए उनके ड्राईवर को भी उठा लिया गया। उनके परिवार वालों और दोस्तों को उनकी गिरफ्तारी की खबर तब मिली जब उन्हें नागपुर में कोर्ट में पेश किया गया। ऐसे दृश्य पहले लैटिन अमेरिकन तानाशाही वाले देशों की विशेषता हुआ करते थे। अब हमारे देश की विशेषता बन चुका है। बहरहाल मार्च 2017 में जब उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनायी गयी तो विधि विशेषज्ञों को यह देखकर घोर आश्चर्य हुआ की पुलिस ने उन पर जितनी भी धाराएँ लगायी थी, उन सभी में उनको आजीवन सजा दी गयी है। यह अपवाद है और शायद महाराष्ट्र का पहला केस है, जहाँ सभी धाराओं में आजीवन सजा दी गयी है। इससे सरकार और न्याय व्यवस्था की मिलीभगत का पता चलता है। और न्याय की जगह बदले की भावना नजर आती है।
दरअसल जी.एन. साईंबाबा बहुत पहले से ही सरकार के निशाने पर थे। और इसका कारण था- उनका स्वतंत्र दिमाग। इतिहास गवाह है की दुनिया की सभी फासीवादी-तानाशाही सरकारें स्वतंत्र दिमाग से बेहद खौफ खाती है। जी.एन. साईंबाबा खुद एक इंटरव्यू में कहते है की मुझसे छुटकारा पाने का बस एक ही तरीका उनके पास रह गया है कि मुझे जेल में फेक दिया जाय।
डेविड और गोलियथ के बीच चले युद्ध का मिथकीय किस्सा मैंने पहली बार किसी सन्दर्भ में उन्ही से सुना था। बाद में मुझे जब उनके जीवन-संघर्ष के बारे में पता चला तो जी। एन। साईंबाबा खुद मुझे डेविड नजऱ आने लगे। एक गरीब-दलित परिवार में 90 प्रतिशत विकलांगता के बावजूद वे मध्य भारत के लगभग सभी आदिवासी इलाको में गए। वे खुद बताते है की गाड़ी से उतरने के बाद आदिवासी लोग उन्हें बारी बारी से अपने कन्धों पर उठाते हुए उन्हें दूर दराज के जंगल पहाड़ो में ले गए और उन्हें अपनी कठिनाइयों और संघर्षों से परिचय कराया। इसी प्रक्रिया में सत्ता रूपी शक्तिशाली गोलियथ को हराने का उनका इरादा और दुनिया बदलने का उनका संकल्प चट्टानी शक्ल लेने लगा। यही कारण था की आदिवासियों के खिलाफ जब ‘ऑपरेशन ग्रीन हंट’ व ‘सलवा जुडूम’ के नाम से भारत सरकार ने खुले युद्ध का एलान किया तो इस युद्ध के खिलाफ सबसे मुखर आवाज जी। एन। साईंबाबा की ही थी। ‘फोरम अगेंस्ट वार आन पीपल’ [स्नशह्म्ह्वद्व ्रद्दड्डद्बठ्ठह्यह्ल ङ्खड्डह्म् शठ्ठ क्कद्गशश्चद्यद्ग] के मंच से न सिर्फ वे अपनी आवाज बुलंद कर रहे थे, बल्कि जनता के खिलाफ इस युद्ध के विरोध में एक ‘सामूहिक चेतना’ का निर्माण करने का भी प्रयास कर रहे थे। और यह क्रूर विडम्बना देखिये की खुद जी.एन. साईंबाबा को भारत सरकार के खिलाफ युद्ध छेडऩे का दोषी ठहरा दिया गया।
जी.एन. साईंबाबा के बारे में जज ने कहा कि भले ही उनका शरीर काम न करता हो, लेकिन उनका दिमाग बहुत तेज है। जब मै इस 'लोकतंत्र' के बारे में सोचता हूँ तो मुझे ठीक इसका उल्टा नजऱ आता है। यानी भले ही इस लोकतंत्र का शरीर यानी संस्थाएं काम कर रही हों, लेकिन यह लोकतंत्र ‘ब्रेन डेड’ हो चुका है।
जी.एन. साईंबाबा गोलियथ के खिलाफ संघर्षरत डेविड
ठ्ठ मनीष आजाद
जैसे-जैसे ठंड बढ़ रही है, मुझे जेल के अपने लोग याद आ रहे है। जेल में बीमार, बुजुर्ग और गरीबों के लिए सर्दी सबसे बुरा मौसम होता है। फिर यह सोच कर दिल भारी हो जाता है की 90 प्रतिशत विकलांग, नागपुर के ठंडे अंडा सेल में बंद राजनीतिक कैदी जी। एन। साईंबाबा की इस समय क्या स्थिति होगी। अभी ही खबर आयी की रोजाना महज कुछ मिनटों के लिए सूरज की गर्मी पाने के लिए उन्हें इस स्थिति में भी करीब 10 दिन भूख हड़ताल पर जाना पड़ा। मुझे लगता है की विटामिन डी की जरूरत साईबाबा से ज्यादा इस भारतीय ‘लोकतंत्र’ को है जो ‘सूरज’ की रोशनी के अभाव में ‘गठियाग्रस्त लोकतंत्र’ में बदल चुका है और आज अनेको फ्रैक्चर का शिकार हो चुका है। गौरतलब है कि साई बाबा कोर्ट के आदेश के बावजूद बुनियादी सुविधाएं ना मिलने के कारण विगत 26 अक्टूबर से 6 नवंबर तक भूख हड़ताल पर थे। परिवार समेत बाहरी दुनिया को इसकी खबर भी नहीं थी।
हर व्यक्ति की दो माँ होती हैं। एक उसकी माँ और दूसरी उसकी भाषा। इसी साल अगस्त में जब उनकी माँ मृत्यु के कगार पर थी तो न उन्हें उनसे मिलने के लिए पैरोल दी गयी और ना ही काफी आग्रह के बावजूद माँ के साथ उनकी विडियो कांफ्रेंसिंग से मुलाक़ात कराई गयी। माँ की मृत्यु के कई दिनों बाद ही उन्हें यह खबर मिली की अब उनकी माँ इस दुनिया में नहीं रही।
उनकी अपनी भाषा तेलगू में उन्हें न कोई किताब दी जा रही है और न ही तेलगू में किसी पत्र का आदान प्रदान होने दिया जा रहा है। क्या भाषा भी कानूनी और ग़ैर कानूनी होती है? क्या भाषा भी राष्ट्रद्रोही होती है।
जी.एन. साईंबाबा दिल्ली यूनिवर्सिटी के एक कॉलेज में अंग्रेजी साहित्य के अध्यापक थे और कॉलेज के कैंपस में ही अपने परिवार के साथ रहते थे। यह अजीब बात है की उन्हें कानूनी तरीके से गिरफ्तार करने की बजाय कॉलेज से घर आते हुए उन्हें रास्ते से किडनैप किया गया। किसी को तत्काल यह खबर न पता चले, इसलिए उनके ड्राईवर को भी उठा लिया गया। उनके परिवार वालों और दोस्तों को उनकी गिरफ्तारी की खबर तब मिली जब उन्हें नागपुर में कोर्ट में पेश किया गया। ऐसे दृश्य पहले लैटिन अमेरिकन तानाशाही वाले देशों की विशेषता हुआ करते थे। अब हमारे देश की विशेषता बन चुका है। बहरहाल मार्च 2017 में जब उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनायी गयी तो विधि विशेषज्ञों को यह देखकर घोर आश्चर्य हुआ की पुलिस ने उन पर जितनी भी धाराएँ लगायी थी, उन सभी में उनको आजीवन सजा दी गयी है। यह अपवाद है और शायद महाराष्ट्र का पहला केस है, जहाँ सभी धाराओं में आजीवन सजा दी गयी है। इससे सरकार और न्याय व्यवस्था की मिलीभगत का पता चलता है। और न्याय की जगह बदले की भावना नजर आती है।
दरअसल जी.एन. साईंबाबा बहुत पहले से ही सरकार के निशाने पर थे। और इसका कारण था- उनका स्वतंत्र दिमाग। इतिहास गवाह है की दुनिया की सभी फासीवादी-तानाशाही सरकारें स्वतंत्र दिमाग से बेहद खौफ खाती है। जी.एन. साईंबाबा खुद एक इंटरव्यू में कहते है की मुझसे छुटकारा पाने का बस एक ही तरीका उनके पास रह गया है कि मुझे जेल में फेक दिया जाय।
डेविड और गोलियथ के बीच चले युद्ध का मिथकीय किस्सा मैंने पहली बार किसी सन्दर्भ में उन्ही से सुना था। बाद में मुझे जब उनके जीवन-संघर्ष के बारे में पता चला तो जी। एन। साईंबाबा खुद मुझे डेविड नजऱ आने लगे। एक गरीब-दलित परिवार में 90 प्रतिशत विकलांगता के बावजूद वे मध्य भारत के लगभग सभी आदिवासी इलाको में गए। वे खुद बताते है की गाड़ी से उतरने के बाद आदिवासी लोग उन्हें बारी बारी से अपने कन्धों पर उठाते हुए उन्हें दूर दराज के जंगल पहाड़ो में ले गए और उन्हें अपनी कठिनाइयों और संघर्षों से परिचय कराया। इसी प्रक्रिया में सत्ता रूपी शक्तिशाली गोलियथ को हराने का उनका इरादा और दुनिया बदलने का उनका संकल्प चट्टानी शक्ल लेने लगा। यही कारण था की आदिवासियों के खिलाफ जब ‘ऑपरेशन ग्रीन हंट’ व ‘सलवा जुडूम’ के नाम से भारत सरकार ने खुले युद्ध का एलान किया तो इस युद्ध के खिलाफ सबसे मुखर आवाज जी। एन। साईंबाबा की ही थी। ‘फोरम अगेंस्ट वार आन पीपल’[Forum Against War on People] के मंच से न सिर्फ वे अपनी आवाज बुलंद कर रहे थे, बल्कि जनता के खिलाफ इस युद्ध के विरोध में एक ‘सामूहिक चेतना’ का निर्माण करने का भी प्रयास कर रहे थे। और यह क्रूर विडम्बना देखिये की खुद जी.एन. साईंबाबा को भारत सरकार के खिलाफ युद्ध छेडऩे का दोषी ठहरा दिया गया।
जी.एन. साईंबाबा के बारे में जज ने कहा कि भले ही उनका शरीर काम न करता हो, लेकिन उनका दिमाग बहुत तेज है। जब मै इस 'लोकतंत्र' के बारे में सोचता हूँ तो मुझे ठीक इसका उल्टा नजऱ आता है। यानी भले ही इस लोकतंत्र का शरीर यानी संस्थाएं काम कर रही हों, लेकिन यह लोकतंत्र ‘ब्रेन डेड’ हो चुका है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कैसी विडंबना है कि विश्व की भुखमरी सूची में भारत का स्थान 107 वां है याने दुनिया के 106 देशों से भी ज्यादा भुखमरी भारत में है और दूसरी तरफ हमें गर्व करने की यह खबर आई है कि विश्व की चिकित्सा पद्धतियों में भारत के आयुर्वेद को पहली बार अग्रणी सम्मान मिला है। यह सम्मान दिया है, अमेरिका की स्टेनफोर्ड युनिवर्सिटी और यूरोपीय पब्लिशर्स एल्सेवियर ने! यह सम्मान मिला है, पंतजलि आयुर्वेद के आचार्य बालकृष्ण को! विश्व के प्रतिष्ठित शोधकर्त्ता वैज्ञानिकों की श्रेणी में अब उनकी गणना हो गई है।
यह अकेले आचार्य बालकृष्ण का ही सम्मान नहीं है। यह भारत की प्राचीन और परिणाम सिद्ध चिकित्सा-प्रणाली को मिली वैश्विक मान्यता है। स्वामी रामदेव और आचार्य बालकृष्ण ने देश के करोड़ों लोगों के लिए उत्तम और सुलभ औषधियों का बड़े पैमाने पर निर्माण ही नहीं किया है बल्कि उन्होंने ऐसे बुनियादी अनुसंधान भी किए हैं, जो आयुर्वेद को एलोपेथी से भी अधिक प्रभावशाली और उपयोगी बना देते हैं।
ऐसे कुछ शोध-ग्रंथों का विमोचन कुछ वर्ष पहले मैंने और श्री नितीन गडकरी ने हरिद्वार के एक बड़े समारोह में किया था। अपने भाषण में उस समय मैंने कहा था कि शंहशाहों द्वारा बनाए गए महल और किले तो 5-7 सौ साल में ढेर हो जाएंगे लेकिन बालकृष्णजी के ये ग्रंथ चरक, सुश्रुत, वाग्भट आदि के ग्रंथों की तरह हजारों साल तक मानवता की सेवा करते रहेंगे। यदि भारत पर विदेशी आक्रमण नहीं होते तो हमारा आयुर्वेद आज दुनिया का सर्वश्रेष्ठ उपचार तंत्र बन जाता।
सौ साल पहले तक ऐलोपेथी के डाक्टरों को यह पता ही नहीं था कि आपरेशन के पहले मरीजों को बेहोश कैसे किया जाए? हमारे यहां हजारों साल पहले से चरक-संहिता में इसका विस्तृत विधान है। ऐलोपेथी कुछ वर्षों तक सिर्फ शरीर का इलाज करती थी लेकिन आयुर्वेद का वैद्य जब दवाई देता है तो वह मरीज़ के शरीर, मन, मस्तिष्क और आत्मा का भी ख्याल करता है।
अब ऐलोपेथी भी धीरे-धीरे इस रास्ते पर आ रही है। आयुर्वेद का नाड़ी-विज्ञान आज भी इतना गजब का है कि दिल्ली के स्व. बृहस्पतिदेव त्रिगुणा जैसे वैद्य मरीज़ की सिर्फ नाड़ी देखकर ऐसा विलक्षण रोग-विश्लेषण कर देते थे कि जैसा ऐलोपेथी के आठ यंत्र भी एक साथ नहीं कर सकते हैं। आज सारी दुनिया में ऐलोपेथी लोगों का जितना भला कर रही है, उससे ज्यादा वह उनकी ठगी कर रही है।
भारत के करोड़ों गरीब लोगों को उसकी सुविधा नसीब ही नहीं है। भारत में आयुर्वेद, यूनानी, तिब्बती और होम्योपेथी (घरेलू इलाज) का अनुसंधान बढ़ जाए और आधुनिकीकरण हो जाए तो देश के निर्धन और वंचित लोगों का सबसे अधिक लाभ होगा। हमारे पड़ौसी देशों के लोग भी भारत दौड़े चले आएंगे। भारत के पड़ौसी देशों के लेागों को भारत से जोडऩे का यह सर्वोत्तम साधन है। भारत के वैद्य जिसकी जान बचा देंगे, वह भारत का भक्त हुए बिना नहीं रहेगा।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-डॉ राजू पाण्डेय
राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा मुख्यधारा के मीडिया की सुर्खियों में नहीं है, यह बात अफसोस से अधिक प्रसन्नता की है। इस यात्रा का उद्देश्य जितना पवित्र है एवं जिस प्रकार एकता और प्रेम का संदेश देते हुए यात्रा आगे बढ़ रही है, यह हिंसा और नफरत फैलाने वाले समाचार चैनलों की सुर्खी बन भी नहीं सकती। मुख्यधारा के मीडिया की उपेक्षा इस बात की तसदीक करती है कि राहुल सही दिशा में आगे बढ़ रहे हैं।
दशकों बाद देश का कोई शीर्षस्थ नेता सड़कों पर जनता से संवाद कर रहा है। उसके कदम जमीन पर हैं। धूप, बरसात और हवा उसके साथ साथ चल रहे हैं। राहुल को अनुभव हो रहा होगा कि लोग तो अपना प्यार लुटाने को तैयार बैठे हैं हम ही उनके बीच जाना नहीं चाहते, हिंदुस्तानियत को जीना नहीं चाहते।
राहुल हिंदी में बहुत प्रभावी ढंग से अपनी बात नहीं कह पाते, शायद वे बहुत अच्छे वक्ता भी नहीं हैं। हो सकता है कि तथ्यों और आंकड़ों को स्मरण रखने में भी वे कुछ पीछे हों लेकिन उनकी सहजता और मासूमियत इन कमियों पर भारी पड़ रही हैं। उनकी मोहक निश्छल मुस्कान और हर किसी को स्नेह के बंधन में बांधने के लिए फैली उनकी बाँहें शब्दों के लिए बहुत कम स्थान छोड़ रही हैं। सबसे बड़ी बात जो व्यक्ति देश को जोड़ने निकला है, उससे नफरत कैसे की जा सकती है।
पिछले एक दशक से हम प्रायोजित जनसभाओं की डरा देने वाली भव्यता और कृत्रिमता का सामना करते रहे हैं। 2014 से पहले संकीर्ण और अनुदार छवि वाले श्री नरेंद्र मोदी को भावी प्रधानमंत्री के रूप में स्वीकार्य बनाने के लिए विदेशों में भारतीय समुदाय के जरिये अनेक लाइव शोज़ आयोजित किए गए थे। टीवी पर प्रसारित होने वाले असंख्य लाइव शोज़ की तरह इनमें आडंबर और कृत्रिमता को यथार्थ एवं वास्तविक दिखाने के लिए लंबी और खर्चीली कवायद की जाती थी।
स्वाभाविक ही था कि यह मीडिया निर्मित महानायक प्रधानमंत्री बनने के बाद भी इसी रणनीति का आश्रय लेता। प्रधानमंत्री की अधिकांश जन सभाओं और साक्षात्कारों का स्वरूप टीवी और समाचार पत्रों के प्रायोजित कार्यक्रमों एवं समाचारों जैसा ही रहा है यद्यपि अब जब पूरा मीडिया ही सत्ता और कॉरपोरेट द्वारा प्रायोजित हो गया है तो "विज्ञापन" अथवा "प्रायोजित कार्यक्रम" लिखने का चलन भी समाप्त हो गया है।
यदि प्रधानमंत्री के रूप में दोनों कार्यकालों के इन आठ वर्षों का विश्लेषण करें तो श्री नरेंद्र मोदी उत्तरोत्तर अधिक कटु और आक्रामक हुए हैं। आम जनता और प्रेस से दूरी बनाने की उनकी प्रवृत्ति बढ़ी ही है। इस बात का विश्लेषण किया जाना चाहिए कि प्रधानमंत्री इतने भयभीत क्यों हैं? क्या वे अपनी बौद्धिक क्षमता और ज्ञान की सीमाओं के उजागर होने के भय से चिंतित हैं? क्या वे जानते हैं कि जैसा उदार और महान उन्हें चित्रित किया गया है वस्तुतः वे वैसे हैं नहीं और जनता या प्रेस से सहज संवाद करने पर उनका वह वास्तविक स्वरूप सामने आ जाएगा जिसे इतने प्रयत्नपूर्वक छिपाया गया है? क्या वे स्वीकारते हैं कि नफ़रत और बंटवारा इस देश का मूल स्वभाव नहीं है, इसीलिए वे भय खाते हैं कि जनता से निकटता कहीं उन्हें प्रेम और बंधुता के उस रंग में रंग न ले जो उन्हें नापसंद है? कहीं ऐसा तो नहीं है कि उन पर अगाध विश्वास करने वाली जनता पर खुद प्रधानमंत्री को भरोसा नहीं है? क्या उनके लिए चुनाव जीतना दिल जीतने से अधिक महत्वपूर्ण है? क्या वे केवल उन 37.36 प्रतिशत लोगों के प्रधानमंत्री हैं जिन्होंने 2019 के चुनाव में उन्हें मत दिया था? क्या वे नहीं चाहते कि शेष 62.64 प्रतिशत लोगों के दुःख, शिकायतें और असहमति उनके कानों तक भी पहुंचें?
इस भारत जोड़ो यात्रा के बाद आम जनता को राहुल एकदम अपने जैसे लग रहे हैं, बिलकुल आम आदमी की तरह भूलें करने, उन्हें स्वीकारने और सुधारने वाले; एक ऐसा नेता जिसे जनता छू, देख और महसूस कर सकती है, एक ऐसा जनप्रतिनिधि जो उस जनता को ही अपना बैरी या विरोधी अथवा नादान नहीं समझता जिसकी सेवा करने के लिए वह सार्वजनिक जीवन में आया है। धीरे धीरे जनता महसूस कर रही है कि उसे एक अच्छे दिल वाला नेता चाहिए, भले ही वह राजनीतिक दांवपेंच में कमजोर हो।
चुनावों में हाल के वर्षों में कांग्रेस का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा है। पिछले कुछ सालों में कांग्रेस पार्टी का संगठन कमजोर हुआ है, कार्यकर्त्ताओं में बिखराव आया है, क्षत्रपों में असंतोष बढ़ा है। स्वाभाविक रूप से राहुल गांधी की नेतृत्व क्षमता पर भी सवाल उठे हैं। यह सवाल जायज भी हैं। बहुत सारे प्रेक्षक इस भारत जोड़ो यात्रा को कांग्रेस के पुनरुत्थान से जोड़ रहे हैं और इसे राहुल की नेतृत्व क्षमता के प्रमाण के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। इस प्रकार की अपेक्षा लगाना दो कारणों से गलत है। भारत जोड़ो यात्रा इस बात को सिद्ध करने निकली है कि अमन, भाईचारा और मोहब्बत इस मुल्क की असली तासीर है, इसे किसी व्यक्ति या पार्टी के मास्टर स्ट्रोक के रूप में प्रस्तुत करना इस उद्देश्य की विराटता के साथ न्याय नहीं करता। दूसरे जिन कारणों से कांग्रेस कमजोर हुई है, उनका निदान और समाधान इस यात्रा का अभीष्ट ही नहीं है तो उसके हासिल होने का सवाल ही नहीं उठता। यदि इस यात्रा के बाद कांग्रेस में राहुल का कद नहीं बढ़ता है या आगामी चुनावों में कांग्रेस अच्छा नहीं कर पाती है तो इसके आधार पर इस यात्रा को असफल मानना गलत होगा।
कट्टरपंथी शक्तियां अभी भारत जोड़ो यात्रा को लेकर असमंजस में हैं, लंबे अरसे बाद सेकुलर शक्तियों ने ऐसा कुछ नया और सकारात्मक किया है जिसने इन कट्टरवादियों को सोचने पर मजबूर किया है कि अब वे क्या करें। अन्यथा कट्टरपंथी ताकतें अब तक पहल करने में आगे थीं और सेकुलर शक्तियां बस प्रतिक्रिया देती रह जाती थीं। किंतु जैसे ही इन कट्टरपंथी शक्तियों की दुविधा दूर होगी, वे इस यात्रा में विघ्न डालने और इसे बाधित करने की कोशिश करेंगी। वे इस यात्रा के समर्थकों को भौतिक, बौद्धिक और भाषिक हिंसा के भंवर में धकेलने की चेष्टा करेंगी जो उनकी ताकत है। तब सरकार समर्थक मीडिया की खामोशी भी टूटेगी और वह अपनी धूर्तता के चरम पर होगा। विशेषकर भाजपा शासित राज्यों से गुजरते समय इस यात्रा को कट्टर हिंदुत्ववादियों के प्रतिरोध और आक्रमण का सामना करना पड़ सकता है। यह कहना अनुचित नहीं होगा कि राहुल और उनके साथियों की अग्नि परीक्षा अभी बाकी है।
राहुल कट्टर हिंदुत्ववादियों की कटु आलोचना करने की भूल करते रहे हैं। प्रेम, दया और क्षमा का संदेश देने वाले निरर्थक वाद विवाद में पड़कर अपनी ऊर्जा को नकारात्मक दिशा में नहीं ले जाते। मोहब्बत की जबान तर्कों और विवाद से एकदम परे है और इसे समझना भी बहुत आसान है। राहुल को बस एक ही भाषा बोलनी होगी -प्रेम की भाषा। प्रेम की भाषा शब्दों की भी मोहताज नहीं होती, बस आपको प्रेम के उस आदर्श को पूरी शिद्दत से जीना होता है।
यात्रा में जो संकेत छिपे हैं उन्हें पहचानना और उनकी व्याख्या करना आवश्यक है। सोशल मीडिया की जहरीली आभासी दुनिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के नफरत के संसार से बाहर निकल कर राहुल असली दुनिया में हैं जहां अभी भी अधिकांश लोग मोहब्बत से रहना चाहते हैं, अमन चैन से जीना चाहते हैं।
जो कांग्रेस महात्मा गांधी के रास्ते से बहुत दूर चली गई थी वह कम से कम साधन के तौर पर उनकी विधि का उपयोग कर रही है और जैसा बापू की विधि का जादू है जनता इस यात्रा से भरपूर जुड़ रही है। लेकिन भारत जोड़ने का लक्ष्य यदि इस यात्रा के किसी भी बिंदु पर अपना उदात्त स्वरूप खो देता है और जल्द से जल्द सत्ता पाने जैसे किसी तात्कालिक और तुच्छ उद्देश्य में रिड्यूस हो जाता है तो यह सेकुलर शक्तियों के लिए बहुत नुकसानदेह होगा।
हम दलगत राजनीति और सत्ता की प्राप्ति को ही राजनीति मानने की भूल करते रहे हैं जिसमें कामयाबी का एक ही पैमाना होता है- चुनावों में विजय। लेकिन सच्चाई यह है कि जनपक्षधर राजनीति बिना चुनाव लड़े और जीते भी की जा सकती है और की जानी चाहिए। किसी समाज को शिक्षित करने में, किसी हिंसा पसंद विचारधारा के असामान्य उभार पर नियंत्रण हासिल करने में, अधिनायकवादी और निरंकुश राजसत्ता को जनोन्मुख और उत्तरदायी बनाने में दशकों लग जाते हैं, संघर्ष करते करते पूरा जीवन बीत जाता है। ऐसे संघर्षों का हासिल यही होता है कि हमने संघर्ष किया, हम चुप न बैठे, हमने इंसानियत को बचाने के लिए अपनी कुर्बानी दी।
यह आशा की जानी चाहिए कि कौमी एकता के सारे हिमायती और सभी अमनपसंद लोग- चाहे वे किसी भी क्षेत्र में हों - भारत जोड़ो यात्रा से प्रेरणा लेकर अपने मोहल्ले, ग्राम, कस्बे, शहर, प्रदेश और समूचे देश में शांति, एकजुटता और भाईचारे का संदेश देने के लिए सीधे आम लोगों के रूबरू होंगे।
(रायगढ़, छत्तीसगढ़)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
सउदी अरब आजकल जितने प्रगतिशील कदम उठा रहा है, वह दुनिया के सारे मुसलमानों के लिए एक सबक सिद्ध होना चाहिए। लगभग डेढ़ हजार साल पहले अरब देशों में जब इस्लाम शुरु हुआ था तब की परिस्थितियों में और आज की स्थितियों में जमीन-आसमान का अंतर आ गया है। लेकिन इसके बावजूद दुनिया के ज्यादातर मुसलमान पुराने ढर्रे पर ही अपनी गाड़ी धकाते चले आ रहे हैं। सउदी अरब उनका तीर्थ है। मक्का-मदीना उनका साक्षात स्वर्ग है।
उसके द्वार अब औरतें के लिए भी खुल गए हैं। यह इतिहास में पहली बार हुआ है। वरना, पहले कोई अकेली मुस्लिम औरत हज या उमरा करने जा ही नहीं सकती थी। उसके साथ एक ‘महरम’ (रक्षक) का रहना अनिवार्य था। इसमें कोई बुराई उस समय नहीं थी, जब इस्लाम शुरु हुआ था। उस समय अरब लोग जहालत में रहते थे। औरतों के साथ पशुओं से भी बदतर व्यवहार किया जाता था लेकिन दुनिया इतनी बदल गई है कि अब औरतें अपने पांव पर खड़ी हो रही हैं। उन्हें हर समय अपनी रक्षा के लिए मर्दों की जरुरत नहीं है।
अब वे अकेले ही मक्का-मदीना जा सकेंगी। सउदी अरब में पहले औरतों को घरेलू प्राणी ही समझा जाता था। उन्हें स्कूल तक नहीं जाने दिया जाता था। 1955 में छात्राओं के लिए पहली बार स्कूल खोला गया। उनके लिए विश्वविद्यालय की पढ़ाई की शुरुआत 1970 में हुई। 2001 में पहली बार उनको परिचय-पत्र (आईडेन्टिटी कार्ड) दिए गए। 2015 में उन्हें पहली बार मताधिकार और 2018 में कार चलाने का लाइसेंस दिया गया।
अब लड़कियों की जबरन शादी पर भी प्रतिबंध लग गया है। यह क्या है? यह इस्लामी सिद्धांतों का उल्लंघन नहीं है बल्कि यह अरब की पुरानी और अप्रासंगिक हुई घिसी-पिटी परंपराओं से छुटकारा है। पैगंबर मुहम्मद ने अपने सिद्धांतों और व्यवहार से अरब जगत में उस समय जो नया उजाला फैलाया था, आज उसी को सउदी अरब आगे बढ़ा रहा है।
कोई आश्चर्य नहीं कि शीघ्र ही वह बुर्के और नकाब के बारे में भी कोई प्रगतिशील कदम उठा ले। तीन तलाक पर भारत ने जो क्रांतिकारी कानून बनाया है, उसे सारे इस्लामी देशों में लागू करवाने में भी सउदी अरब को आगे क्यों नहीं आना चाहिए? यदि सउदी अरब और ईरान-जैसे राष्ट्र डेढ़ हजार साल पुराने अपने पुरखों की नकल करते रहे तो वे इस्लाम की कुसेवा ही करेंगे।
ऐसे इस्लाम के प्रति लाखों-करोड़ों मुसलमानों की कुरूचि हो जाएगी। वे पूछेंगे कि अरब शेख आजकल मोटर कारों और जहाजों में यात्रा क्यों करते हैं? वे ऊँटों पर ही सवारी क्यों नहीं करते? वे मदरसों में ही क्यों नहीं पढ़ते? वे ऊँची पढ़ाई के लिए लंदन, पेरिस, न्यूयार्क और बोस्टन के ईसाई विश्वविद्यालयों की शरण में क्यों जाते हैं? अब सारी दुनिया बदल रही है। आगे बढ़ रही है तो इस्लामी लोग भी पीछे क्यों रहें? सउदी अरब में नए इस्लाम का उदय हो रहा है। (नया इंडिया की अनुमति से)
-कृष्ण कांत
मैं शायद आठवीं क्लास में था। वह नवरात्रि पर्व का पहला दिन था। मैंने अपने बाबा से कहा- मैं भी नौ दिन व्रत रहूंगा। उन्होंने कहा - फालतू बात मत करो। मैंने पूछा- सब लोग तो रहते हैं, मैं क्यों नहीं रह सकता? उन्होंने कहा- तुम भी रह सकते हो लेकिन अभी तुम्हारा काम व्रत रखना नहीं, मेहनत से पढ़ाई करना है। वही तुम्हारी पूजा है।
हमारी धार्मिक परंपरा में क्यों कहा गया कि कर्म ही पूजा है? क्योंकि जो जिम्मेदारी आप धारण कर रहे हैं, वही आपका सबसे बड़ा धर्म है। भारतीय दर्शन कहता है - धार्यते इति धर्म: अर्थात जिसे आप धारण करते हैं, वही धर्म है।
सोचिए कि आप बीमारी की हालत में अस्पताल ले जाए गए और डॉक्टर हवन करने बैठ गया। आप का तुरंत इलाज जरूरी है वरना आपकी जान जा सकती है लेकिन डॉक्टर कह रहा है कि वह धार्मिक है और पहले अपनी धार्मिक आस्था के तहत अपनी पूजा संपन्न करेगा। क्या वह सच में धार्मिक है? क्या वह अपना धर्म निभा रहा है? बिल्कुल नहीं।
अगर बच्चा भूखा है तो मां का पहला धर्म है उसे दूध पिलाना।अगर परिवार भूखा है तो परिवार के मुखिया का सबसे बड़ा धर्म है रोटी का इंतजाम करना। अगर देश आर्थिक और सामाजिक रूप से तमाम चुनौतियों का सामना कर रहा है तो देश के मुखिया का पहला काम है इनसे निपटना। यही उसका सबसे बड़ा धर्म है। वह कितने घंटे पूजा करता है, किस-किस धाम में जाता है, कहां-कहां घंटी बजाता है, कहां-कहां चंदन लगाता है, कहां-कहां घंटा बजाता है, इससे ना तो जनता का कोई सरोकार है न ही उसका कोई भला होने वाला है। वह ऐसा जनहित के लिए नहीं कर रहा है। वह अपनी नाकामी छुपाने के लिए धर्म का लबादा ओढ़ रहा है ताकि लोग उसे कुछ कह ना सकें और उसके धर्म में आस्था रखने वाले आम लोग यह सोच कर खुश हो जाएं कि देखिए कितना बड़ा धार्मिक है!
जनहित के मामले में, हर व्यक्ति का अपना काम उसका सबसे बड़ा धर्म है। आपके काम से जितने ज्यादा लोगों का हित जुड़ा है, आपका दायित्व उतना ही बड़ा है। उसे निभाने से बड़ा धर्म दूसरा कोई नहीं है। जो यह नहीं निभा रहा है वह कुछ भी हो पर धार्मिक नहीं हो सकता। राजनीति अगर धार्मिक दिखावे और प्रदर्शन की चीज बनती जा रही है तो इसकी कीमत अंतत: हम-आपको चुकानी है।
जिसे रोज पूजा-अनुष्ठान करना हो, गेरुआ ओढ़ पोज देनी हो, उसे प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री नहीं बनना चाहिए, उसे शंकराचार्य बनना चाहिए, संन्यास लेना चाहिए। आप सत्ता में विफल हैं तो धर्म की आड़ लेकर लोगों को उलझाते हैं। माफ कीजिए, आप न प्रशासक हैं, न संत, न धार्मिक, आप पाखंडी हैं।
देश का नेतृत्व कर रहे व्यक्ति का एकमात्र और सबसे बड़ा धर्म है कि वह 140 करोड़ लोगों की भलाई और प्रगति सुनिश्चित करे।
वह ढहती अर्थव्यवस्था संभाले। अपने दायित्व में विफल व्यक्ति रोज़ कर्मकांड आयोजित कर उसका भव्य प्रदर्शन करे तो वह धार्मिक नहीं, आपकी आस्थाओं का लुटेरा है। आज नहीं तो कल यह फर्क करना पड़ेगा। जिसे जो दायित्व मिला है वही उसका सबसे बड़ा धर्म है। उसे नहीं निभाना अधर्म।
धर्म की दंगाई व्याख्या और राजनीतिक लाभ के लिए धार्मिक उन्माद आप कब तक बर्दाश्त करेंगे? इससे देश और समाज को लाभ क्या होगा?
यहां किसी का अपमान करने या मजाक उड़ाने जैसा सतही प्रश्न नहीं है, यह अपना अभीष्ट धर्म न निभाकर 140 करोड़ लोगों के साथ छल करने का गंभीर प्रश्न है। दुनिया के सारे अच्छे लोकतंत्र सेक्युलर क्यों हैं? क्योंकि सेक्युलरिज्म धर्म का समर्थन या विरोध नहीं है। सेक्युलरिज्म धर्म की जकड़बंदी से मुक्त होकर जनहित में अपने फर्ज निभाने का रास्ता है। उम्मीद है कि मेरे मित्रगण इन चिंताओं को अन्यथा न लेकर सही अर्थों में समझेंगे।
साल 2022 के ग्लोबल हंगर इंडेक्स की रिपोर्ट जारी हुई है, जिसमें भारत से बेहतर स्थिति में उसके पड़ोसी देश पाकिस्तान, श्रीलंका, नेपाल और बांग्लादेश हैं।
121 देशों की रैंकिंग को लेकर जारी इस रिपोर्ट में भारत 107वें पायदान पर है जबकि उसका पड़ोसी देश पाकिस्तान 99वें पायदान पर है।
इस सूची में दक्षिण एशिया का सबसे बेहतर स्थिति में देश श्रीलंका है। आर्थिक दिक़्क़तों से जूझ रहे श्रीलंका को इस इंडेक्स में 64वां स्थान दिया गया है।
भारत के पड़ोसी देश नेपाल 81वें स्थान पर जबकि बांग्लादेश 84वें स्थान पर है।
सिर्फ एक पड़ोसी देश अफगानिस्तान को छोडक़र सभी की स्थिति हंगर इंडेक्स में भारत से बेहतर है। अफगानिस्तान इस सूची में 109वें स्थान पर है।
क्या है ग्लोबल हंगर इंडेक्स
ग्लोबल हंगर इंडेक्स (GHI) वैश्विक, क्षेत्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर भूख को व्यापक रूप से मापने और उन पर नजऱ रखने का एक जरिया है।
जीएचआई का स्कोर खासकर के चार संकेतकों के मूल्यों पर मापा जाता है जिनमें कुपोषण, शिशुओं में भयंकर कुपोषण, बच्चों के विकास में रुकावट और बाल मृत्यु दर है।
जीएचआई का कुल स्कोर 100 पॉइंट होता है, जिसके आधार पर किसी देश की भूख की गंभीरता की स्थिति दिखती है। यानी के अगर किसी देश का स्कोर जीरो है तो उसकी अच्छी स्थिति है और अगर किसी का स्कोर 100 है तो उसकी बेहद खराब स्थिति है।
भारत का स्कोर 29.1 है जो कि बेहद गंभीर श्रेणी में आता है।
इसके अलावा कुल ऐसे 17 शीर्ष देश हैं, जिनका स्कोर 5 से भी कम हैं। इन देशों में चीन, तुर्की, कुवैत, बेलारूस, उरुग्वे और चिली जैसे देश शामिल हैं। वहीं मुस्लिम बहुल देशों की स्थिति की बात करें तो यूएई 18वें, उज्बेकिस्तान 21वें, कजाखस्तान 24वें, ट्यूनीशिया 26वें, ईरान 29वें, सऊदी अरब 30वें स्थान पर है।
भारत की क्या है स्थिति
जीएचआई जिन चार पैमानों पर मापा जाता है उसमें से एक बच्चों में गंभीर कुपोषण की स्थिति को देखें तो भारत में इस बार उसे 19.3 फीसदी पाया गया है जबकि 2014 में यह 15.1 फीसदी था। इसका अर्थ है कि भारत इस पैमाने में और पिछड़ा है।
वहीं अगर कुल कुपोषण के पैमाने की बात की जाए तो वो भी काफी बढ़ी है। ये पैमाना देश की कुल आबादी कितना खाना खाने की कमी का सामना कर रही है उसको दिखाता है।
इंडेक्स के मुताबिक, भारत में 2018 से 2020 के बीच जहाँ ये 14.6 फीसदी था वहीं 2019 से 2021 के बीच ये बढक़र 16.3 फीसदी हो गया है। इसके मुताबिक़ दुनिया में कुल 82.8 करोड़ लोग जो कुपोषण का सामना कर रहे हैं उसमें से 22.4 करोड़ लोग सिर्फ भारत में ही हैं।
हालांकि, इस इंडेक्स में भारत के लिए अच्छी भी खबर है। इस इंडेक्स के दो पैमानों में भारत बेहतर जरूर हुआ है।
बच्चों के विकास में रुकावट से संबंधित पैमाने में भारत 2022 में 35.5 फ़ीसदी है जबकि 2014 में यह 38.7 फीसदी था।
वहीं बाल मृत्यु दर 4.6 फीसदी से कम होकर 3.3 फ़ीसदी हो गई है। हालांकि जीएचआई के कुल स्कोर में भारत की स्थिति और खऱाब हुई है। 2014 में जहाँ ये स्कोर 28.2 था वहीं 2022 में यह 29.1 हो गया है।
दुनिया की कुल भूख की स्थिति की बात की जाए तो हालिया सालों में यह स्थिर रही है। साल 2022 की रिपोर्ट में पूरी दुनिया के मामले में भूख की स्थिति को मध्य श्रेणी में रखा गया है। 2014 में जहाँ दुनिया का कुल स्कोर 19।1 था वो 2022 में घटकर 18।2 हुआ है।
इस रिपोर्ट में कुल 44 देश ऐसे हैं जिनकी स्थिति बेहद खतरनाक स्तर पर है जिनमें भारत भी शामिल है।
मोदी सरकार पर निशाना
ग्लोबल हंगर इंडेक्स की रिपोर्ट सामने आने के बाद केंद्र की मोदी सरकार की आलोचनाएं भी शुरू हो गई हैं।
पूर्व वित्त मंत्री और कांग्रेस नेता पी। चिदंबरम ने ट्वीट किया है कि ‘माननीय प्रधानमंत्री कुपोषण, भूख और बच्चों में कुपोषण जैसे असली मुद्दों को कब देखेंगे।’
चिदंबरम ने आगे लिखा कि ‘भारत के 22.4 करोड़ लोगों को कुपोषित माना गया है। भारत की ग्लोबल हंगर इंडेक्स में रैंक लगभग बिल्कुल नीचे है, 121 देशों में 107वें स्थान पर।’
सीपीएम नेता और केरल के पूर्व वित्त मंत्री थॉमस इसाक ने ट्वीट किया है कि ‘भारत को 2022 में ग्लोबल हंगर इंडेक्स में 107वां स्थान मिला है। सिफऱ् अफग़़ानिस्तान दक्षिण एशियाई देशों में हमसे नीचे है। साल 2015 में भारत की रैंक 93 थी। बच्चों के कुपोषण के पैमाने में भारत की स्थिति बिगड़ते हुए 19।3 फ़ीसदी हो गई है जो कि दुनिया में सबसे अधिक है।’
सीपीएम नेता सीताराम येचुरी ने ट्वीट किया है कि ‘2014 के बाद से ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत की तेजी से गिरावट हुई है। मोदी सरकार भारत के लिए विनाशकारी है। साढ़े आठ सालों में भारत को इस अंधेरे के युग में लाने के लिए सरकार को जिम्मेदारी लेनी चाहिए।’
केशव पंथी नामक एक ट्विटर यूजर ने बीजेपी नेता तेजिंदर पाल सिंह बग्गा के एक ट्वीट को रिट्वीट करते हुए लिखा है कि ‘आपकी गंदी राजनीति और आप लोगों के कारण हम ग्लोबल हंगर इंडेक्स में 107वें स्थान पर हैं। आपको शर्म आनी चाहिए।’
भारत दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था भारत सकल घरेलू उत्पाद यानी (जीडीपी) के मामले में ब्रिटेन को पछाडक़र विश्व की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुका है।
ब्लूमबर्ग के आंकड़ों के मुताबिक भारत ने मार्च 2022 के अंत में ब्रिटेन को पीछे छोड़ दिया था। ब्लूमबर्ग ने ये निष्कर्ष अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के आंकड़ों के आधार पर निकाला था।
ब्लूमबर्ग के मुताबिक इस साल मार्च के अंत में भारत की अर्थव्यवस्था 854.7 अरब डॉलर की थी जबकि ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था 816 अरब डॉलर की थी।
ब्लूमबर्ग के अनुमान के मुताबिक अगले कुछ सालों में भारत ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था से और भी आगे निकल जाएगा।
वहीं हाल ही में आईएमएफ की एक ताजा रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया कि 2022 में भारत की अर्थव्यवस्था की विकास दर 6.8 प्रतिशत रहेगी। पहले ये अनुमान 7.4 प्रतिशत था।
आईएमएफ़ का ये भी कहना है कि 2023 में विकास दर और गिर सकती है और इसके 6.1 फीसदी रहने का अनुमान है। हालांकि रिपोर्ट में ये भी कहा गया है कि भारत की अर्थव्यवस्था दुनिया की सभी बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में सबसे तेजी से आगे बढ़ती रहेगी।
साल 2022 की ग्लोबल हंगर इंडेक्स की रिपोर्ट जारी हुई है जिसमें भारत से बेहतर स्थिति में उसके पड़ोसी देश पाकिस्तान, श्रीलंका, नेपाल और बांग्लादेश हैं। (bbc.com/hindi)
कर्नाटक के हुगली से उपजे हिजाब विवाद पर फैसला आधा अधूरा फिलवक्त सुप्रीम कोर्ट से हुआ है। जस्टिस हेमन्त गुप्ता की वरिष्ठता वाली द्विसदस्यीय बेंच में जस्टिस धूलिया का असहमत फैसला है। उम्मीद के मुताबिक जस्टिस हेमन्त गुप्ता ने कर्नाटक सरकार और एक स्कूल प्रबंधन के पक्ष में फैसला किया। वही हाई कोर्ट ने पहले कर दिया था। इन जजों ने माना कि सरकार और स्कूल प्रबंधन को स्कूल में ड्रेस कोड लागू करने का हक है। हिजाब पहनती मुस्लिम समाज की लड़कियां ड्रेस कोड का उल्लंघन नहीं कर सकतीं। इसके बरक्स मुस्लिम लड़कियों ने पहले तो अपमान और हमले सहे। फिर कर्नाटक हाई कोर्ट की ड्योढ़ी पर असफल दस्तक दी। उस फैसले के खिलाफ दाखिल अपील में सुप्रीम कोर्ट ने दोनों पक्षों के बीच आधा आधा फैसला कर दिया। तुर्रा यह कि 133 पृष्ठ के जस्टिस हेमन्त गुन्ता के फैसले की ज्यादा चर्चा नहीं हुई। संवैधानिक नायक की मुद्रा में इलेक्ट्रॉनिक, प्रिंट और सोशल मीडिया में जस्टिस सुधांशु धूलिया का निर्णय चर्चित और वैचारिक रहा।
अब तक सामान्य समझ रही है कि सभी धर्मों मसलन इस्लाम की भी कुछ पारम्परिक नीतियां, हिदायतें और मुमानियत हैं। जो अनुयायी व्यक्ति उन्हें नहीं मानेगा। वह काफिर, तनखैय्या या धर्मच्युत जैसा करार भी दिया जा सकता है। आज कबीलाई समाज भले नहीं हो, लेकिन भारत में जातीय और मजहबी समाजों द्वारा किसी असहमत या विरोधी लगते उसी समूह के सदस्य की जिंदगी दूभर तो की जाती है। पिछले बरसों में खाप पंचायत नाम का अत्याचारी जमावड़ा खासतौर पर हरियाणा के युवक-युवतियों का ऐलानिया कत्लेआम भी करता रहा जो कथित सामाजिक मर्यादाओं को ताक पर रखकर अंतरजातीय या अंतरधार्मिक विवाह अपने दम पर कर लेते रहे। जस्टिस हेमन्त गुप्ता ने पूरा ध्यान फैसले में इस तर्क पर लगाया कि इस्लाम की धार्मिक परंपराओं, प्रक्रियाओं या नसीहतों का मूल इस्लाम धर्म की आंतरिक बनावट नहीं है, जिसकी आड़ में हिजाब पहनने की जिद की जाए। अमूमन यही तर्क अब तक समाज में भी जीवित और वाचाल रहा है।
जस्टिस धूलिया ने इतिहास के ऊसर खेत में लगभग पहली बार उर्वरता का हल चला दिया। उन्होंने मूल स्थापना यही की कि हिजाब पहनने की कथित इस्लामी परंपरा का अपने आप में कोई औचित्य नहीं है। नए जमाने की स्कूल, कॉलेज जाने वाली बच्चियां धर्म अंध होकर हिजाब पहन रही हैं। ऐसा भी नहीं माना जा सकता। जस्टिस धूलिया ने गौरतलब नया तर्क उछाला कि हिजाब पहनने का मूल अधिकार परम्परा से नहीं, संविधान के अनुच्छेद 19 (क), 21 और 25 (2) से उपजता है। अब तक हिजाब पहनना एक तरह से धर्मानुगत आचरण समझा जाता रहा है। उससे जस्टिस धूलिया ने सहमति व्यक्त नहीं की। उन्होंने दो टूक कहा हिजाब पहनना अपनी पसंद का निजी अधिकार है उसका समाजिक प्रतिबंधों, समझाइश या कथित धार्मिक आचरण से क्या लेना देना? पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट की एक बड़ी बेंच ने निजता के अधिकार का फैलाव करते यहां तक कहा ही था कि गरिमामय जीवन जीना निजता के अधिकार पर निर्भर है, किसी संसदीय, सरकारी या सामाजिक छूट या प्रतिबंध के तहत नहीं। हिजाब प्रकरण में भी जज ने कहा कि कोई लड़की हिजाब पहने या नहीं पहने, यह उसका अधिकार है। उसकी पसंद है। यहां ठहरकर उन्होंने उन कठमुल्ला ताकतों को भी इषारा कर दिया कि वे भी मजहबी हुक्मनामे के आधार पर किसी बच्ची को हिजाब पहनने की बंदिष नहीं लगा सकते।
संविधान का अनुच्छेद 21 उसकी आत्मा है। मनुष्य का सबसे बड़ा अधिकार तो उसकी जिंदगी है। यदि वही नहीं रहेगी तो बाकी बकवास में क्या रखा है। अनुच्छेद 21 कहता है किसी व्यक्ति को उसके प्राण या दैहिक स्वतंत्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रकिया के अनुसार ही वंचित किया जाएगा अन्यथा नहीं। उस दैहिक स्वतंत्रता के क्या मायने जहां व्यक्ति को अपनी पसंद के कपड़े तक पहनने की छूट या इजाजत नहीं है? जस्टिस धूलिया के अनुसार हिजाब पहनना उसी बच्ची का अधिकार अपने घर में है। सड़को और बाजार में है। कार्यक्रमों में है और इसी तरह स्कूल प्रांगण और कक्षा के कमरे तक है। निजता का यह मूल अधिकार उसकी देह की आत्मा है। (अर्थात मुझे लगता है धूलिया कह रहे थे यह अधिकार ही देहात्मा है।) सच भी यही है। जस्टिस हेमन्त गुप्ता सहित अब तक बहस अनुच्छेद 25 (1) के तहत होती रही है जो व्यक्तियों को धर्म के अबाध रूप से मानने का हक देता है। उसके बरक्स यही तर्क हुआ कि हिजाब पहनना इस्लाम के बुनियादी आदेषों के तहत नहीं है। वह तो समाज द्वारा ओढ़ी गई एक प्रथा है। जस्टिस धूलिया ने इस धरातल को ही खिसका दिया। उन्होंने लिखा कि धार्मिक आधार पर कोई रीति रिवाज, हुक्मनामा या बंदिश है। उस पर विचार करने की ही जरूरत नहीं है। एक व्यक्ति की निजता को लेकर धर्म को ही क्यों सामने किया जाए? धर्म का काम है अच्छाई को करे। यह तो निजी व्यक्ति का हक है कि वह बुराई से लड़े। उन्होंने दो टूक लिखा कि सभी व्यक्तियों को अंतःकरण की स्वतंत्रता का अधिकार संविधान ने दिया है। यह कैसा अंतःकरण है जो किसी के द्वारा लगाए गए प्रतिबंध को मानता हुआ भी खुद को अंतःकरण कहेगा? किसी भी स्कूल को अनुशासन संहिता लगाने का अधिकार है क्योंकि वह संविधानसम्मत है। लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि ड्रेस कोड अपनाने से याने बिल्कुल एक जैसे कपड़े पहनने से ही अनुशासन कायम होता है। ऐसा कोई भी ड्रेस कोड किसी की निजता और उसके अंतःकरण की स्वतंत्रता या अभिव्यक्ति की आजादी का छीनना सुनिश्चित नहीं कर सकता। हिजाब पहनकर भी लड़कियां अपने स्कूल में अनुषासनपरायण रह सकती हैं।
सबसे महत्वपूर्ण बात धूलिया निर्णय में यह है कि लड़कियों के हिजाब पहनने की आड़ में जो लोग अकादमिक शेखी बघारते हैं। उनके लिए भी मुनासिब चेतावनी पढ़ी जा सकती है। कर्नाटक में हिजाब विवाद पैदा करने से यह भी हुआ है कि कई कम उदार मुस्लिम परिवारों ने अपनी बच्चियों को या तो मदरसा स्कूलों में भर्ती करा दिया जहां पढ़ाई का स्तर उतना अच्छा और वैज्ञानिक नहीं है अथवा उनकी पढ़ाई ही बंद कर दी। यह चेतावनी गौरतलब और जेरेबहस है कि भारतीय निम्न और मध्यवर्गीय परिवारों और खासतौर पर मुस्लिम परिवारों में लड़कियों की संस्थागत पढ़ाइयों में औसत प्रतिषत कम है। यह दुखद हुआ कि हिजाब प्रकरण को इस्लाम की हिदायतें या हिन्दुत्व के कठमुल्ला आग्रहों और आक्रमणों के कारण बच्चियों की पढ़ाई का बेहद नुकसान हुआ और आगे भी यथास्थिति रहने पर नुकसान होने की संभावना बनी हुई है।
संविधान के समतामूलक सिद्धांतों में यह भी शामिल है कि किसी भी कानून या आदेश को शब्दों की दुनिया से बाहर ले जाकर असलियत की दुनिया में देखा परखा जाए। आगे सुप्रीम कोर्ट जो फैसला करे और हिजाब की प्रथा का जो भी हो। मुख्य सवाल यही है कि समाज और अदालतों के आचरण से क्या तरुण उम्र की बच्चियों के शिक्षा भविष्य को बर्बाद तो नहीं किया जाएगा। मुझे लगता है सुप्रीम कोर्ट में अब बहस को जस्टिस धूलिया द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों की बुनियाद पर जिस तरह चाहे विकसित किया जाए लेकिन हिजाब पहनना न तो धामिक आचरण की परिधि में है और न ही वह किसी सरकारी हुक्मनामे का ताबेदार है। एक व्यक्ति की निजता उसके जीवन और अभिव्यक्ति की आजादी सहित अंतःकरण की स्वतंत्रता के आधार पर ही होना चाहिए। जस्टिस धूलिया ने ठीक कहा न तो इससे ज्यादा, न इससे कम।
ईरान से तुलना इसलिए नहीं हो सकती क्योंकि ईरान में एक ही इस्लामिक धर्म शिया है। वहां की युवतियां हिजाब के पक्ष या विरोध के बदले आयातुल्ला खोमैनी के सरकारी फरमान के खिलाफ लड़ रही हैं कि सरकार तय नहीं करेगी हमें क्या पहनना है। भारत में मुसलमान एक सेक्युलर राज्य में हैं लेकिन अल्पसंख्यक हैं। जिस तरह का हिन्दू राष्ट्रवाद हिंसा की सड़कों पर उभारा जा रहा है। वहां हर मस्जिद तक को डर लगता है कि हनुमान चालीसा और जय श्री राम का इस्तेमाल धार्मिक सद्भाव के बदले राजनीतिक प्रभाव बढ़ाने में किया जा रहा है। ईरान के ठीक उलट भारत में यदि हिजाब नहीं पहनने का फरमान होगा तो निजाम के हुक्म के खिलाफ प्रतिकार करने की भारतीय छात्राओं की हिम्मत उन्हें दकियानूस नहीं कह सकती। इन दोनों विपरीत स्थितियों के बीच जस्टिस धूलिया का फैसला एक नई जमीन तोड़ता है। कोई तय मत करे यहां तक कि अदालत भी कि मुस्लिम बच्चियों को या अन्य धर्मावलंबियों को अपनी पसंद की जिंदगी गुजारने से कैसे रोका जा सकता है यदि वे संविधान की आज्ञाओं के तहत आचरण कर रहे हैं। भारतीय संसदीय लोकतंत्र में एक व्यक्ति की गरिमा को उसकी स्वतंत्रता सहित रूढ़िवादी आचरण और निजाम की तुनक के बनिस्बत तरजीह दी जाए। यह भारतीय संविधान की असल ताकत है। वही भारत होने का प्राण तत्व है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
हिजाब को लेकर आजकल सर्वोच्च न्यायालय में जमकर बहस चल रही है। हिजाब पर जिन दो न्यायाधीशों ने अपनी राय जाहिर की है, उन्होंने एक-दूसरे के विपरीत बातें कही हैं। अब इस मामले पर कोई बड़ी जज-मंडली विचार करेगी। एक जज ने हिजाब के पक्ष में फैसला सुनाया है और दूसरे ने जमकर हिजाब के विरोध में तर्क दिए हैं। हिजाब को सही बताने वाला जज कोई मुसलमान नहीं है। वह भी हिंदू ही है। हिजाब के मसले पर भारत के हिंदू और मुसलमान संगठनों ने लाठियां बजानी शुरु कर रखी हैं।
दोनों एक-दूसरे के विरुद्ध बयानबाजी कर रहे हैं। असल में यह विवाद शुरु हुआ कर्नाटक से! इसी साल फरवरी में कर्नाटक के कुछ स्कूलों ने अपनी छात्राओं को हिजाब पहनकर कक्षा में बैठने पर प्रतिबंध लगा दिया था। सारा मामला वहां के उच्च न्यायालय में गया। उसने फैसला दे दिया कि स्कूलों द्वारा बनाई गई पोषाख-संहिता का पालन सभी छात्र-छात्राओं को करना होगा लेकिन मेरा निवेदन यह है कि हमारे नेतागण, हमारे जज महोदय और स्कूलों के अधिकारी हिज़ाब के मसले में बिल्कुल गलत राह पर चल रहे हैं।
उन्होंने सारे मामले को मजहबी बना दिया है। यह मामला ईरान या सउदी अरब में तो मजहबी हो सकता है लेकिन भारत में तो यह शुद्ध पहचान का मामला है। हिज़ाब, उसको पहननेवाली महिला की पहचान को छिपा लेता है। बस, इसीलिए स्वीकार्य नहीं होना चाहिए। हिजाब और बुर्के की आड़ में आतंकी, तस्कर, डकैत, अपराधी लोग भी अपना धंधा चलाते हैं। यदि मुसलमान औरतों पर हिज़ाब अनिवार्य है तो मैं पूछता हूं कि मुसलमान मर्दों पर क्यों नहीं है? यह स्त्री-पुरुष समानता का युग नहीं है क्या?
यदि सिर्फ मजहबी होने के कारण हिज़ाब पर प्रतिबंध होना चाहिए तो हिंदू औरतों के टीके, सिंदूर, चूडिय़ों, सिखों के केश और साफे तथा ईसाइयों के क्रॉस पर प्रतिबंध क्यों नहीं होना चाहिए? मुझे तो आश्चर्य यह है कि नेता और अफसर असली मुद्दों पर बहस करने की बजाय नकली मुद्दों पर बहस चला रहे हैं लेकिन हमारे जज भी उन्हीं की राह पर चल रहे हैं। वे तो सुशिक्षित, अनुभवी और निष्पक्ष होते हैं। वे भी सही मुद्दों पर बहस क्यों नहीं चला रहे हैं?
मेरी राय में दोनों जजों और अब जजों की बड़ी मंडली को इस मुद्दे पर बहस को केंद्रित करना चाहिए कि सबको अपनी संस्था की पोषाख-संहिता का पालन तो करना ही होगा लेकिन किसी को भी अपनी पहचान छिपाने की अनुमति नहीं दी जाएगी। दुनिया के ज्यादातर मुस्लिम देशों में भी हिजाब अनिवार्य नहीं है। ईरान में तो हिजाब के खिलाफ खुली बगावत छिड़ गई है।
कुरान शरीफ में कहीं भी हिजाब को अनिवार्य नहीं कहा गया है। हमारी मुसलमान छात्राएं हिजाब के चलते शिक्षा से वंचित क्यों रखी जाएं? क्या मुस्लिम छात्राएं सिर्फ मरदसों में ही पढ़ेंगी? यदि इस मामले को आप सिर्फ मजहबी चश्मे से ही देखेंगे तो देश का बड़ा नुकसान हो जाएगा। (नया इंडिया की अनुमति से)
- बोधिसत्व
मेरा मानना है कि इतिहास को बदला नहीं जा सकता। उसे धुंधला करने की कोशिश करने में भी बहुत कुछ नष्ट करना होगा।
आज बीजेपी अकबर और शिवाजी महाराज के विचारों को लेकर क्या सोच रखती हैं वह जग जाहिर है। लेकिन अकबर और उनकी महानता के बारे में महान शिवाजी क्या सोच रखते हैं उसे उनके एक पत्र से समझा जा सकता है। शिवाजी का यह पत्र बताता है कि अकबर को शिवाजी कहीं से भी सांप्रदायिक और भेदवाद करने वाला या फिरकापरस्त शासक नहीं मानते थे। शिवाजी ने अपनी यह भावना अकबर के ही वंशज बादशाह औरंगजेब से प्रकट की है। अब यदि कोई इतिहास से अकबर के सुकीर्ति को मिटाना चाहे तो शिवाजी के कथनों को जलाना पड़ेगा। मिटाना पड़ेगा।
शिवाजी का यह पत्र यदुनाथ सरकार की किताब से उद्धृत है और लेकिन यहां प्रकाशित अंश राय आनन्द कृष्ण की किताब अकबर से लिया गया है। पत्र में शिवाजी के माध्यम से अकबर के प्रति उनकी प्रजा की भावनाएं भी उजागर होती है। अकबर की प्रजा उनको "जगतगुरु" मानती थी।
शिवाजी के पत्र का अंश-
"अकबर ने इस बड़े राज्य को बावन बरस तक ऐसी सावधानी और उत्तमता से चलाया कि सब फिरकों के लोगों ने सुख और आनन्द पाया। क्या ईसाई, क्या भुसाई, क्या दाऊदी, क्या फलकिये, क्या नसीरिए, क्या दहरिये, क्या ब्राह्मण और क्या सेवड़े, सब पर उनकी समान कृपा दृष्टि रहती थी। इसी सुलह कुल के बर्ताव के कारण सब लोगों ने उन्हें जगत गुरु की पदवी दी थी। इसी प्रभाव के कारण वे (अकबर) जिधर देखते थे, फतह उनके सामने आकर खड़ी हो जाती थी"
जो भावनाएं शिवाजी प्रकट कर रहे हैं उसे उनके नाम पर राजनीति करने वाले लोग कितना मानते हैं यह देखने की बात है। लेकिन ऐतिहासिक तथ्यों को दरकिनार नहीं किया जा सकता।
अकबर के देहांत पर देश की क्या प्रतिक्रिया थी उसका एक प्रमाण विख्यात हिंदी कवि बनारसी दास जैन ने अपनी पुस्तक अर्ध कथानक में लिखा है। वे लिखते हैं कि "प्रजा मानो अनाथ हो गई। उसका स्वामी चला गया। जौनपुर के निवासी भयभीत हो गए, उनका मुख पीला पड़ गया और हृदय व्याकुल हो गया। ऐसी ही प्रीति थी अकबर के प्रति प्रजा में"
बादशाह अकबर के देहावसान की सूचना बनारसी दास जैन को जौनपुर में मिली थी। वे लिखते हैं कि जौनपुर में दस दिन शोक मनाया गया।
कितना आपको बताया जाता है वह अपनी जगह है लेकिन आज आप का फर्ज बनता है कि आप
अपने महान शासकों के बारे में वह जाने जो आपको नहीं बताया जा रहा है।
अगर महान संत तुलसीदास और सूरदास अकबर के समकालीन होकर भी उनके बारे में कोई विरोधी वाक्य नहीं बोलते तो इसमें आश्चर्य कैसा?
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
केरल, तेलंगाना और तमिलनाडु के क्रमश: मुख्यमंत्री, मंत्री और नेताओं ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मांग की है कि उनके प्रदेशों पर हिंदी न थोपी जाए। ऐसा उन्होंने इसलिए किया है कि संसद की राजभाषा समिति ने केंद्र सरकार की भर्ती-परीक्षाओं में हिंदी अनिवार्य करने और आईआईटी तथा आईआईएम शिक्षा संस्थाओं में भी हिंदी की पढ़ाई को अनिवार्य करने का सुझाव दिया है। एक तरफ दक्षिण भारत से हिंदी विरोध की यह आवाज उठ रही है और दूसरी तरफ मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज चौहान ने भारत के भाषाई अंधकार में हिंदी की मशाल जला दी है।
उन्होंने एक गजब का एतिहासिक कार्य करके दिखा दिया है। उनके प्रयत्नों से एमबीबीएस के पहले वर्ष की किताबों के हिंदी संस्करण तैयार हो गए हैं। उनका विमोचन भोपाल में 16 अक्टूबर को गृहमंत्री अमित शाह करेंगे। गृहमंत्री के तौर पर राजभाषा को बढ़ाने के लिए अमित शाह के उत्साह को मैं तहे-दिल से दाद देता हूँ। अब 56-57 साल पहले जब मैंने अपना अंतरराष्ट्रीय राजनीति का पीएच.डी. थीसिस हिंदी में लिखने की मांग की थी तो देश में इतना हंगामा मचा था कि संसद की कार्रवाई कई बार स्थगित हो गई थी।
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रधानमंत्री इंदिरा गांधी सहित सभी शीर्ष विरोधी नेताओं ने मेरा समर्थन किया और उच्च शोध के लिए हिंदी ही नहीं, समस्त भारतीय भाषाओं के द्वार खुल गए लेकिन आज तक भारत में मेडिकल, वैज्ञानिक और तकनीकी पढ़ाई का माध्यम अंग्रेजी ही बना हुआ है। कोई सरकार इस गुलामी से भारत को मुक्त नहीं कर सकी। यह काम मेरे आग्रह पर शिवराज चौहान और उनके स्वास्थ्य-शिक्षा मंत्री विश्वास सारंग ने करके दिखा दिया। म.प्र. के उन मेरे मित्र डॉक्टर बंधुओं का भी हार्दिक अभिनंदन, जिन्होंने एमबीबीएस की हिंदी पुस्तकें तैयार करने में दिन-रात एक कर दिए।
मुझे विश्वास है कि देश के अन्य प्रदेशों की सरकारें अपनी-अपनी भाषाओं में इन अछूते विषयों पर ग्रंथ प्रकाशित करने की प्रेरणा भोपाल से ग्रहण करेंगी। केंद्र सरकार के लिए यह एक चुनौती है। वह हिंदी तथा अन्य भाषाओं में ऐसे ग्रंथ प्रकाशित करने का व्रत क्यों नहीं ले लेती? म.प्र. की चौहान सरकार ने देश के करोड़ों गरीबों, ग्रामीणों और पिछड़ों के बच्चों की प्रगति मार्ग खोल दिया है। जहां तक अ-हिंदीभाषी प्रांतों का प्रश्न है, उन पर हिंदी थोपने की कोई कोशिश नहीं होनी चाहिए।
यदि उनके बच्चों को भी उनकी उच्चतम शिक्षा उनकी मातृभाषा के जरिए दी जाने लगे तो वे हिंदी को संपर्क-भाषा के तौर पर सहर्ष स्वीकार कर लेंगे। दूसरे शब्दों में नरेंद्र मोदी और अमित शाह को हिंदी लाओं का नहीं, अंग्रेजी हटाओ का नारा देना चाहिए, जो काम महर्षि दयानंद, महात्मा गांधी और डॉ लोहिया ने शुरु किया था और जिसे गुरु गोलवलकर जैसे महामनाओं ने भी आगे बढ़ाया था।
यदि अंग्रेजी माध्यम की पढ़ाई पर देश भर में प्रतिबंध लग जाए तो विभिन्न स्वभाषाओं में पढ़े लोग परस्पर संपर्क के लिए कौनसी भाषा का सहारा लेंगे? हिंदी के अलावा वह कौनसी भाषा होगी? वह और कोई भाषा हो ही नहीं सकती। इसीलिए मैं कहता रहा हूं कि कोई स्वेच्छा से अंग्रेजी तथा अन्य विदेशी भाषाएं पढऩा चाहे तो जरुर पढ़े, जैसे कि मैंने कई विदेशी भाषाएं सीखी हैं लेकिन देश में हिंदी तभी चलेगी जबकि स्वभाषाएँ सर्वत्र अनिवार्य होंगी। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
दिल्ली प्रदेश की सरकार के एक मंत्री राजेंद्रपाल गौतम को इसलिए इस्तीफा देना पड़ गया कि उसने आंबेडकर भवन की एक धर्म-परिवर्तन सभा में भाग लिया था। उस सभा में कई हिंदू अनुसूचित लोगों ने बौद्ध धर्म स्वीकार किया था और आंबेडकर ने 1956 में बौद्ध धर्म स्वीकार करते हुए जो प्रतिज्ञा अपने अनुयायियों से करवाई थी, उसे भी वहां दोहराया गया था। उस प्रतीज्ञा में 22 सूत्र थे, जिनमें से पहले पांच सूत्र ऐसे थे, जिनमें ब्रह्म, विष्णु, महेश, राम, कृष्ण, गणेश आदि को भगवान मानने और उनकी पूजा के विरुद्ध संकल्प लिया गया था।
भाजपा के कुछ नेताओं ने इसी बात को भडक़ाऊ मुद्दा बना दिया और केजरीवाल की ‘आप पार्टी’ पर हमला बोल दिया। हिंदू वोट कट न जाएं, इस डर के मारे केजरीवाल सरकार के अनुसूचित जाति के उक्त मंत्री ने इस्तीफा दे दिया। इससे ज्यादा शर्म की बात क्या हो सकती है? यह शर्म की बात भाजपा और ‘आप’, दोनों के लिए है। भाजपा के लिए इसलिए है कि आजकल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आंबेडकर की जितनी माला फेर रहे हैं, उतनी कोई ‘आप’ नेता नहीं फेर रहा।
यदि उस प्रतिज्ञा से आपको इतनी घृणा है तो देश में भाजपा के लोग देश में आंबेडकर-विरोधी अभियान क्यों नहीं चलाते? आंबेडकर की मूर्तियों पर वे माला क्यों चढ़ाते हैं? आंबेडकर की किताबों पर वे प्रतिबंध क्यों नहीं लगाते? आंबेडकर ही नहीं, देश के अन्य महापुरुषों जैसे महावीर, बुद्ध, महर्षि दयानंद सरस्वती आदि की भी आप भर्त्सना क्यों नहीं करते?
वे भी राम, कृष्ण, ब्रह्मा, विष्णु, महेश वगैरह को भगवान नहीं मानते थे। बुद्ध और महावीर तो सृष्टिकर्त्ता ईश्वर की सत्ता से ही इंकार करते हैं। वे निमित्त कारण का निषेध करते हैं। हमारा चार्वाक संप्रदाय तो इनसे भी आगे जाता है। क्या ये सब हिंदू-द्रोही हैं? क्या ये सब देश के दुश्मन हैं?
यदि ऐसा है तो आप पहले इन अनुसूचित बौद्धों और सिखों को और अब अनुसूचित मुसलमानों और ईसाइयों को क्या सोचकर आरक्षण दे रहे हैं? क्या यह ढोंग नहीं है? भाजपा से भी ज्यादा डरपोक निकली आप पार्टी! उसने अपने मंत्री को इस्तीफा क्यों देने दिया? वह डटी क्यों नहीं?
उसने वैचारिक स्वतंत्रता के लिए युद्ध क्यों नहीं छेड़ा? क्योंकि भाजपा, कांग्रेस और सभी पार्टियों की तरह वह भी वोट की गुलाम है। हमारी पार्टियों को अगर सत्य और वोट में से किसी एक को चुनना हो तो उनकी प्राथमिकता वोट ही रहेगा।
(नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत के सर्वोच्च न्यायालय में नफरती भाषणों के खिलाफ कई याचिकाओं पर आजकल बहस चल रही है। उन याचिकाओं में मांग की गई है कि मज़हबी लोग, नेताओं और टीवी पर बहसियों के बीच जो लोग घृणा फैलाने वाले जुमले बोलते और लिखते हैं, उनके खिलाफ सरकार सख्त कानून बनाए और उन्हें सख्त सज़ा और जुर्माने के लिए भी मजबूर करे। असलियत यह है कि भारत में सात कानून पहले से ऐसे बने हैं, जो नफरती भाषण और लेखन को दंडित करते हैं लेकिन नया सख्त कानून बनाने के पहले असली सवाल यह है कि आप नफरत फैलानेवाले भाषण या लेखन को नापेंगे किस मापदंड पर!
आप कैसे तय करेंगे कि फलां व्यक्ति ने जो कुछ लिखा या बोला है, उससे नफरत फैल सकती है या नहीं? किसी के वैसा करने पर कोई दंगा हो जाए, हत्याएं हो जाएं, जुलूस निकल जाएं, आगजनी भडक़ जाए या हड़ताल हो जाए तो क्या तभी उसकी उस हरकत को नफरती माना जाएगा? यह मापदंड बहुत नाजुक है और उलझनभरा है। हमारी अदालतें मामूली मामले तय करने में बरसों खपा देती हैं तो ऐसे उलझे हुए मामले वह तुरंत कैसे तय करेगी?
यदि कोई किसी जाति या मजहब या व्यक्ति या विचार के विरुद्ध कोई-बहुत जहरीली बात कह दे और उस पर कोई दंगा न हो तो अदालत और सरकार का रवैया क्या होगा? ऐसे सख्त कानून का दुष्परिणाम यह भी हो सकता है कि कई मुद्दों पर खुली बहस ही बंद हो जाए। किसी नेता, पार्टी, विचारधारा, धर्मग्रंथ या देवी-देवताओं की स्वस्थ और तर्कसंगत आलोचना का भी लोप हो जाए। यदि ऐसा हुआ तो यह नागरिकों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन तो होगा ही, देश में पाखंड, अंधविश्वास और धूर्त्तता की भी अति हो जाएगी।
ऐसा होने पर महर्षि दयानंद, डॉ. आंबेडकर, बट्रेंड रसेल जैसे सैकड़ों विद्वानों के ग्रंथों पर प्रतिबंध लगाना होगा। इसीलिए भारत में हजारों वर्षों से शास्त्रार्थ की खुली परंपरा चलती रही है, जिसका अभाव हम यूरोप और अरब जगत में सदा से देखते आ रहे हैं। पिछले दो-तीन सौ साल में ईसाई जगत तो काफी उदार हुआ है लेकिन हम अरबों की, नकल क्यों करें? जिसको जिस धर्मग्रंथ या धर्मपुरूष या जाति या पार्टी या नेता के खिलाफ जो कुछ बोलना हो, वह बोले लेकिन उसके जवाबी बोल को भी वह सुने, यह जरुरी है।
बोली का जवाब गोली से देना कहां तक उचित है? जो बोली के जवाब में गोली चलाए, उसको सजा जरुर मिलनी चाहिए लेकिन यदि अभिव्यक्ति पर प्रतिबंध लग जाएगा तो भारत, भारत नहीं रह जाएगा। यदि बोली के जवाब में नागरिक गोली न चलाएं तो सरकार भी अपना गोला क्यों चलाए? गोली और गोला बोली के विरुद्ध नहीं, दंगाइयों के विरुद्ध चलने चाहिए। जो नफरती या घृणास्पद भाषण या लेखन करते हैं, वे अपनी इज्जत खुद गिरा लेते हैं। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
मुलायमसिंहजी और अटलजी से मेरा 55-60 साल पुराना संबंध रहा है। मेरे पिताजी श्री जगदीशप्रसाद वैदिक अटलजी से भी ज्यादा घनघोर जनसंघी थे। जनसंघ और संघ के सारे अधिकारी इंदौर में मेरे घर को अपना ठिकाना ही समझते थे। लेकिन 1962 में इंदौर के छात्र नेता के तौर पर मैंने डॉ. राममनोहर लोहिया को अपने इंदौर क्रिश्चियन कॉलेज में भाषण के लिए बुलवा लिया।
उनके भाषण का प्रभाव मुझ पर इतना गहरा हुआ कि मैं उनके अंग्रेजी हटाओ आंदोलन से जुड़ गया। मैं किसी राजनीतिक दल का कभी सदस्य नहीं बना लेकिन हिंदी आंदोलन में 12 साल की उम्र में ही पहली बार गिरफ्तार हुआ। उधर उप्र में मुलायमसिंह 15-16 की उम्र में गिरफ्तार हुए। जब हम मिले तो दोनों का संबंध अत्यंत घनिष्ट हो गया।
अब से लगभग 20 साल पहले 28 फरवरी 2002 की बात है7 दिल्ली का हैदराबाद हाउस, जहां प्रधानमंत्री की दावतें होती हैं। अफगानिस्तान के राष्ट्रपति हामिद करजई के सम्मान में दावत थी। करजई के पिता अहद साहब काबुल में मेरे मित्र बन गए थे। जैसे ही अतिथिगण भोज-कक्ष में घुसे, प्रधानमंत्री से आमना-सामना हुआ। मैंने पूछा ‘करजई’ को हमने क्या-क्या दिया? वे बोले ‘ये बात तो बाद में हो जाएगी, पहले यह बताइए कि लखनऊ में क्या किया जाए?’
उन दिनों यह असमंजस बना हुआ था कि उत्तरप्रदेश में मुख्यमंत्री किसे बनाया जाए? मैंने कहा ‘मुलायम सिंहजी को।’ अटलजी ने कहा- ‘ठीक है, पहले प्रेम से भोजन कीजिए और फिर बताइए।’ भोजन के बाद सभी अतिथि विदा होने के लिए द्वार के पास नीचे जमा हो गये। प्रधानमंत्री अटलजी ने फिर पूछा ‘तो क्या सोचा आपने?’ मैंने कहा- तर्क वही है, जो आपके लिए दिया गया था। सबसे बड़ी पार्टी के नेता को राष्ट्रपति ने बुला लिया, प्रधानमंत्री की शपथ के लिए। लखनऊ में मुलायमसिंह की समाजवादी पार्टी भी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है। मुख्यमंत्री भी उन्हें ही बनाया जाना चाहिए।
इतने में पूर्व प्रधानमंत्री इंद्र गुजराल हम दोनों के एक दम निकट आ गए। अटल जी ने गुजराल साहब से पूछा- ‘आपकी क्या राय है?’ उन्होंने कहा- ‘वैदिकजी जो कह रहे हैं, वह बिल्कुल सही है।’ अटलजी ने तपाक से कहा- ‘सही हो सकता है लेकिन आप दोनों मुलायमसिंह का समर्थन इसलिए कर रहे हैं कि वे आप दोनों के दोस्त हैं।’ इस चुटकी पर सब हंस दिए। यह वार्तालाप अलग-बगल खड़े कई मंत्री सुन रहे थे।
उनमें से एक ने कहा- ‘भगवन! प्रधानमंत्री जी को यह आप क्या सलाह दे रहे हैं?’ मुख्यमंत्री मुलायम पहले दिन ही हमें अंदर कर देंगे। उन्होंने शंकराचार्य को पकड़ लिया, वह हमें क्यों बख्शेंगे?’ मैंने कहा,- ‘यह जरुरी नहीं। यह भी संभव है कि अटलजी लखनऊ में मुलायमसिंह के गठबंधन को चलने दें और मुलायमसिंहजी दिल्ली में अटलजी के गठबंधन को चलने दें।’ अगर उसी समय यह बात मान ली जाती तो संवैधानिक परंपरा की रक्षा तो होती ही, डेढ़ साल तक भाजपा को बहुजन समाज पार्टी के कचरे को अपने कंधे पर नहीं ढोना पड़ता। (नया इंडिया की अनुमति से)
-पुष्य मित्र
अपने देश में अभिनेता को महानायक और नेता को लोकनायक कहा जाता है। इन दोनों की पहचान एंग्री मैन के रूप में रही है। हालांकि एक ने सिर्फ अभिनय किया, दूसरे ने जीवन जिया। आज दोनों का जन्मदिन है। हालांकि यह पोस्ट जेपी के बारे में है।
समाजवादी कहते रहे हैं कि आजादी के बाद वे ही गांधी के बताये रास्ते पर चलते रहे। मगर सच यह है कि समाजवादियों ने, खासकर जेपी ने आन्दोलन का जो रास्ता अपनाया था, गांधी उससे बहुत सहमत नहीं थे। 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन की कमान मुख्यतः समाजवादियों के हाथ में ही रही। उसमें जयप्रकाश नारायण की मुख्य भूमिका थी। उस आन्दोलन को जिस तरह संचालित किया गया वह गांधी को पसंद नहीं आया और उन्होने कई दफा इसको लेकर असहमति भी जाहिर की।
दरअसल भारत छोड़ो आन्दोलन हो या इमरजेंसी के खिलाफ चला जेपी मूवमेंट, दोनों का पैटर्न लगभग एक ही था। किसी व्यक्ति के खिलाफ हिंसा नहीं करना है मगर सार्वजनिक संपत्ति को भरपूर नुकसान पहुंचाना है। जेपी और दूसरे समाजवादी इसे अहिंसक आन्दोलन का ही एक तरीका मानते थे। मगर गांधी इस तरीके से असहमत थे, वे इसे भी हिंसा का ही दूसरा रूप कहते थे।
हालांकि इसका यह अर्थ बिल्कुल नहीं था कि वे जेपी को पसंद नहीं करते थे। वे कहता थे कि जेपी की वीरता को मैं पसंद करता हूं मगर एक सत्याग्रही के रूप में मुझे उनसे अधिक उनकी पत्नी प्रभावती पसंद आती हैं। यह सच भी है कि जेपी में गजब की ऊर्जा थी। भारत से लेकर नेपाल तक कई आंदोलन उनकी अगुआई में चले। विनोवा भावे के साथ मिलकर उन्होने जो काम किया और जिस तरह डकैतों को आत्मसमर्पण कराया वह भी गांधीवादी अहिंसा का ही बेहतरीन उदाहरण था। मगर वे साधन की पवित्रता को लेकर बार-बार डगमगाते रहे।
जब भारत छोड़ो आन्दोलन शुरू हुआ तब गांधी समेत तमाम बड़े नेता गिरफ्तार हो गये। तब गांधी ने कहा कि इस आन्दोलन का कोई नेता नहीं होगा। हर कोई अपना नेता होगा और अहिंसक तरीके से आंदोलन करेगा। उसके बाद आंदोलन की कमान जेपी, अरुणा आसफ अली और ऐसे ही दूसरे लोगों के हाथ में आ गयी। उस आन्दोलन के दौरान जगह जगह पर लोगों ने रेल की पटरियां उखड़ीं और दूसरे सार्वजनिक प्रतिष्ठानों को क्षतिग्रस्त किया। बाद में पुलिस के भय से ये नेता भूमिगत हो गये।
बाद में जब गांधी नजरबंदी से रिहा हुए तो कुछ भूमिगत समाजवादी नेताओं ने उनसे सम्पर्क किया। तब गांधी ने इस तरीके पर घोर असहमति जताई। जेपी भी सम्भवतः उनसे मिले थे। उन्हें भी गांधी ने कहा था कि चूंकि इस आन्दोलन का नेतृत्व वे खुद नहीं कर रहे थे मगर यह जरूर वे कहना चाहेंगे कि लोगों ने जो किया वह अहिंसा नहीं थी। सार्वजनिक संपत्तियों ने आपका कोई नुकसान नहीं किया था, उसे नष्ट करने का आपको कैसे अधिकार मिल जाता है। सरकार से असहयोग करने का अर्थ यह नहीं कि सरकारी संपत्तियों को बर्बाद कर देना।
बाद में जब बिहार में साम्प्रदायिक दंगे हुए तब भी गांधी ने कहा, उनका बिहार ऐसा हिंसक और अराजक नहीं था। यह भारत छोड़ो आन्दोलन में यहां के लोगों की हिंसक अभिव्यक्ति का ही नतीजा है।
मगर सम्भवतः जेपी ने इस आलोचना को स्वीकार नहीं किया। इमरजेंसी के बाद के जेपी आन्दोलन में हम उसी पैटर्न को देखते हैं। सम्पूर्ण क्रांति कहे जाने वाले उस आंदोलन से कितना बदलाव हुआ यह हम सबके सामने है। अभी हाल में अग्निवीर योजना के खिलाफ जो छात्रों ने अराजक आंदोलन किये उसका पैटर्न भी 1942 और इमरजेंसी के आंदोलनों जैसा था। उसकी परिणति भी हम देख चुके हैं।
गांधी ने हिंसा की वजह से ही असहयोग आंदोलन को वापस ले लिया था। इसकी आज तक आलोचना होती है। मगर आज हम देखते हैं कि कोई भी आन्दोलन जरा भी हिंसक या अराजक होता है, सत्ता की हिंसा के कट्टर समर्थकों को भी उसे खारिज करने का मौका मिल जाता है। गांधी जी जानते थे कि आने वाले वक़्त के आन्दोलन पर्सेप्सन के आन्दोलन होंगे और अहिंसा का प्रभाव सबसे मजबूत होगा। वे सत्ता की प्रवृत्तियों को बदलना चाहते थे। इसलिये वे आंदोलन के हिंसक होने से परहेज करते थे। क्या आज अहिंसक आन्दोलन सबसे प्रभावी नहीं हैं?
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
इधर भारत सरकार ने मुसलमानों, ईसाइयों आदि को भी जातीय आधार पर आरक्षण देने के सवाल पर एक आयोग बना दिया है और उधर राष्ट्रीय स्वयंसेवक के मुखिया मोहन भागवत ने एक पुस्तक का विमोचन करते हुए भारत में ‘जात तोड़ो’ का नारा दिया है। उन्होंने दो-टूक शब्दों में कहा है कि हिंदू शास्त्रों में कहीं भी जातिवाद का समर्थन नहीं किया गया है। भारत में जातिवाद तो पिछली कुछ सदियों की ही देन है। भारत जन्मना जाति को नहीं मानता था। वह कर्मणा वर्ण-व्यवस्था में विश्वास करता था।
कोई भी आदमी अपने कर्म और गुण से ब्राह्मण बनता है। मोहनजी स्वयं ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए हैं। उनकी हिम्मत की मैं दाद देता हूं कि उन्होंने जन्म के आधार को रद्द करके कर्म को आधार बताया है। भगवद्गीता में भी कहा गया है- ‘चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागश:।’ याने चारों वर्णों का निर्माण मैंने गुण और कर्म के आधार पर किया है।
यूनानी दार्शनिक प्लेटो ने भी अपने महान ग्रंथ ‘रिपब्लिक’ में जो तीन वर्ण बताए हैं, वे जन्म नहीं, कर्म के आधार पर बनाए हैं। मनुस्मृति में भी बिल्कुल ठीक कहा गया है कि ‘जन्मना जायते शूद्र:, संस्कारात द्विज उच्यते’ याने जन्म से सभी शूद्र पैदा होते हैं, संस्कार से लोग ब्राह्मण बनते हैं। यजुर्वेद के 40 वें अध्याय में भी कहा गया है कि ईश्वर के मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिय, पेट से वैश्य और पांव से शूद्र पैदा हुए हैं लेकिन शूद्र भी उसी तरह से वंदनीय हैं, जैसे कि अन्य वर्णों के लोग हैं।
इसीलिए भारतीय लोग ‘चरण-स्पर्श’ को सबसे अधिक सम्मानजनक मानते हैं। भारत की यह वैज्ञानिक वर्ण-व्यवस्था इतनी स्वाभाविक है कि दुनिया का कोई देश इससे वंचित नहीं रह सकता। यह सर्वत्र अपने आप खड़ी हो जाती है लेकिन हमारे पूर्वज कुछ सदियों पहले इसे आंख मींचकर लागू करने लगे। यह भ्रष्ट हो गई। इसीलिए निकृष्टतम जातीय व्यवस्था भारत में चल पड़ी है।
मोहन भागवत को चाहिए कि वे इसके खिलाफ सिर्फ बोलें ही नहीं, भारत की जनता को कुछ ठोस सुझाव भी दें। सबसे पहले तो जातीय उपनामों को खत्म किया जाए। जातीय आरक्षण बंद किया जाए। सुझाव तो कई हैं। मैंने 2010 में जब ‘मेरी जाति हिंदुस्तानी’ आंदोलन चलाया था, तब कई ठोस सुझाव देश की जनता को दिए थे। उस आंदोलन के कारण ही प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह और सोनिया गांधी ने जातीय जन-गणना को रूकवा दिया था।
उस आंदोलन में मेरे साथ आगे-आगे रहनेवालों में कई नेता आज राज्यपाल, मंत्री और सांसद हैं। उन दिनों नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे। वे अक्सर मुझे फोन किया करते थे और डटकर समर्थन देते थे लेकिन वोट और नोट की मजबूरी ने हमारी राजनीति की बधिया बिठा दी है। अब यह राष्ट्रवादी सरकार मुसलमानों और ईसाइयों को जातीय आधार पर आरक्षण देने के लिए तैयार हो गई है। मुझे खुशी है कि संघ-प्रमुख राष्ट्रीय एकात्म के लिए खतरनाक बन रहे इस मुद्दे पर कम से कम उंगली तो उठा रहे हैं। (नया इंडिया की अनुमति से)
गृहमंत्री अमित शाह ने बारामूला में हजारों कश्मीरियों को साक्षात संबोधित किया और अपने भाषण में आंकड़ों का अंबार लगाकर मोदी-शासन की सफलता का बखान किया लेकिन उन्होंने अब्दुल्ला, मुफ्ती और नेहरु-परिवार के शासन को काफी निकम्मा सिद्ध करने की कोशिश की। यह बात तीनों परिवारों को काफी चुभ रही है। नेशनल कांफ्रेंस के नेता डॉ. फारूक अब्दुल्ला ने तो तुरंत उसका जवाब देने की कोशिश की। महबूबा मुफ्ती और कांग्रेस भी चुप नहीं बैठेगी। शायद गुलाम नबी आजाद भी कुछ बोल पड़ें तो आश्चर्य नहीं होगा।
अब्दुल्ला ने शाह की तरह न तो कोई आरोप लगाया है और न ही केंद्र की भाजपा सरकार पर कोई आक्रमण किया है। उन्होंने तो अपने बयान में सिर्फ यह बताया है कि उनकी पार्टी नेशनल कांफ्रेंस ने श्रीनगर में कुल 26 साल राज किया है और उन वर्षों में उसने कश्मीर का काया-पलट कर दिया है। उनकी सरकार ने न केवल नए-नए कल-कारखाने लगवाए, कई कॉलेज और विश्वविद्यालय बनवाए, अस्पताल खुलवाए, पंचायती राज स्थापित किया, बिजलीघरों और बांधों का निर्माण करवाया। लाखों लोगों को रोजगार दिया और लोक-कल्याण के लिए कई नए संगठन खड़े किए हैं।
फारूक अब्दुल्ला ने जो तथ्य और आंकड़े पेश किए हैं, उनकी प्रामाणिकता पर संदेह करने का कोई कारण नहीं है लेकिन यह भी तथ्य है कि कश्मीर को केंद्र सरकारों ने जितनी मदद दी है, उसमें से कुछ हिस्सा नेताओं और अफसरों की जेब में जाता रहा है लेकिन यह किस सरकार में नहीं होता? कश्मीरी नेताओं पर भ्रष्टाचार के मुकदमे चल रहे हैं तो देश के कई मुख्यमंत्री और मंत्री जेल की हवा भी खाते रहे हैं लेकिन अमित शाह अपने विरोधियों पर जमकर नहीं बरसें तो वे किसी पार्टी के नेता कैसे माने जाएंगे लेकिन अमित शाह और देश के अन्य सभी नेतागण यह भी सोचें कि अपने विरोधियों की सिर्फ भर्त्सना करना और वह भी तीखी भाषा में, क्या यह ठीक है?
यदि अमित शाह उनकी भर्त्सना करते-करते यह भी, चाहे दबी जुबान से ही, कह देते कि कश्मीर-जैसी बीहड़ जगह में इन पार्टियों का कुछ न कुछ अच्छा योगदान रहा है तो अब जो दंगल शुरु हो रहा है, वह नहीं होता। इन तीनों परिवारों की सरकारों ने कश्मीर को कभी पाकिस्तान के हवाले करने की बात नहीं की। मैं तो यहां तक कहता हूं कि कश्मीर की सभी पार्टियों और अलगाववादियों से भी भारत सरकार सीधी बात क्यों नहीं चलाए? अमित शाह ने यों भी उन्हें आश्वस्त किया है कि वे जम्मू-कश्मीर में शीघ्र चुनाव करवाना चाहते हैं। वे यह भी न भूलें कि धारा 370 हटाते वक्त शाह ने संसद को आश्वस्त किया था कि जम्मू-कश्मीर विधानसभा को फिर से शीघ्र ही चालू किया जाएगा। (नया इंडिया की अनुमति से)
मौजूदा हालात में लेखनी की भूमिका को लेकर देश बहुत उम्मीदजदा है। यह संकुल समय फिलवक्त आज़ाद भारत के निजाम के द्वारा अंधेरे में घनीभूत कर दिया गया है। वैसा तो गुलामी से छूटते आज़ादी के आंदोलन के वक्त भी नहीं रहा था। स्वतंत्रता संग्राम के सिपहसालारों में जनसमर्थन से उन सभी वर्जनाओं से लडऩे का माद्दा और ताब रहा है, जो भारत को उसकी बुनियादी समझ में कमजोर करना चाहती रही थीं। आज लेकिन निजाम की (भी) हरकतों से शह पाकर बुद्धिमयता के इलाके में व्हाट्सएप विश्वविद्यालय का चौकस पहरा सत्तानशीनों द्वारा ही बिठा दिया गया है। भविष्य को संभावित त्रासदी की आशंका में हिचकी आ रही है। उन दिनों कई अखबारों ने भी बौद्धिक उथलपुथल बल्कि क्रांति तक की थी। हम जैसे कुछ लोग गुलामी के दिनों में पैदा होकर नेहरू के प्रधानमंत्री काल में बालिग होते किताबों से साक्षात्कार करने लगे थे।
आज प्रिंट मीडिया को नागरिक लेखन के कॉलम या स्वतंत्र वैचारिक लेखन के योगदान की ज़रूरत नहीं है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया तो ढिंढोरची शब्द का पर्याय है। वह केवल तानाशाह का स्तुति-गायन करता है। वह भी चारण और भाट की मुद्रा, भाषा और शैली में। ऐसे वक्त ‘निरस्त पादपे देशे एरंडोपि द्रुमायते‘ की तरह छोटे छोटे कस्बों में लघु पत्र पत्रिकाएं, सोशल मीडिया के दोहन और यहां वहां हो रही सभाओं, गोष्ठियों में हिन्दुस्तान की धडक़नों को जिंदा रखने की श्लाघनीय कोशिशें हो तो रही हैं। मैं निजी तौर पर ज़्यादातर फेसबुक का ही इस्तेमाल कर पाता हूं क्योंकि औपचारिक मीडिया तो वस्तुपरक, स्वतंत्र विचारों को अब घास नहीं डालता। पहले सैकड़ों, हजारों बुद्धिमित्रों से गलबहियां करना उसको अलबत्ता अच्छा लगता था। बहुत से रचनाकार फिलवक्त अपनी कविताओं, कहानियों, आलोचनात्मक टिप्पणियों, कटाक्ष और पारस्परिक प्रशस्ति वाचन के कथनों वगैरह में ज़्यादा मशगूल हैं। बहुत कम लोग इस बात से पीडि़त नजर आते हैं कि व्यवस्था उनकी जबान पर ताला लगाने को पहले से ज्यादा और लगातार उद्यत हो रही है। ऐसे दोस्त जीवन की चुनौतियों की अनदेखी करते अपने वजूद को टाइम पास नहीं बनाते।
ये ही वे आवाजें हैं, जो वक्त के शोरगुल में सुनी जा रही हैं। शोरगुल और अहंकार के अट्टहास के बावजूद कई कलमकार अपने तेवर और स्टैंड को बदलने के लिए तैयार नहीं हैं। इतिहास को भी उनकी ज़रूरत है। ऐसे लोगों की ज़रूरत हर देश में इतिहास के हर दौर में रहती ही है। वे अलग अलग और एकजुट होकर, गैरसमझौताशील होकर (भी) अपने वस्तुपरक और तटस्थ लेकिन सक्रिय स्वायत्तता को समर्पण करते नहीं डालते। ऐसे मित्र बाकायदा परस्पर आह्वान की मुद्रा में आज भी हैं। जब टिटहरी उलटकर आकाश को अपने पैरों पर थामने का अहसास अपने में भर लेती है। तो हम सबको मिल जुलकर जिंदा रहने का संवैधानिक और सामाजिक जज़्बा भूलना नहीं है। इन दिनों कुछ ताकतों ने देश की छाती पर मूंग दलने का अभियान सघन कर रखा है। उनकी मुखालफत करने फासिस्ट और नाजीवादी विशेषणों के खिलाफ बुद्धिजीवी कहीं न कहीं, लेकिन साफ पाक मकसद से लामबंद हो भी रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय राजनीति को फलसफाई अंदाज में कहना और उसे बूझना एक अच्छा शगल अपनी जगह ठीक है। देश को तो फासीवादी और नाजीवादी ताकतों के भारतीय नुमाइंदों से सीधा खतरा है। जांच, जिरह और जिज्ञासा उनके लिए ज़्यादा ज़रूरी है।
मैं छत्तीसगढ़ से हूं। यहां 32 प्रतिशत आबादी आदिवासियों की है। प्रतिशत के लिहाज से शायद देश में सबसे ज्यादा आदिवासी यहां हैं। आरक्षण की विसंगतियों को लेकर कई मुकदमे एकजाई कर पिछले दस साल से छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट में बिसूर रहे थे। लेटलतीफी और हड़बड़ाहट में जागना यह न्यायालयों के लिए नई परिघटना नहीं है। दस वर्षों अर्थात् वर्ष 2012 तक सरकार के जवाब अदालत की नस्ती में बंधे हुए रहे हैं। उन्हें दुबारा देखने की ज़रूरत 2018 से आ चुकी पार्टी की सरकार को नहीं पड़ी। लिहाजा कुछ तकनीकी खामियों और सरकारी दफ्तर की ढिलाई या लापरवाही के आरोप के लगने के साथ-साथ हाई कोर्ट ने 32 प्रतिशत की आबादी वाले आदिवासियों का नौकरी और शिक्षा में आरक्षण हटाकर पहले ठहराए गए 20 प्रतिशत के आधार पर फिर कायम कर दिया गया है। हाई कोर्ट ने सरकार की असमर्थता पर तीखी टिप्पणी भी की कि उसने अदालत को अपनी जिम्मेदारियों के मद्देनजऱ आश्वस्त नहीं किया। अब करोड़ों रुपए खर्च करके सरकार की ओर से सुप्रीम कोर्ट में सबसे महंगे वकीलों की टीम के जरिए मुकदमा लड़े जाने की बातें तैर रही हैं। सरकारों के विधि मंत्री, विधि सचिव, एडवोकेट जनरल, आदिवासी मंत्रणा परिषद जैसी संस्थाएं सफेद हाथी नहीं हैं। फिर भी उनकी जिम्मेदारी तय नहीं होती।
बताना ज़रूरी है कि छत्तीसगढ़ के आदिवासियों से ज़्यादा अन्यायग्रस्त, व्यवस्था पीडि़त और कुपोषित तथा यंत्रणा भोगता आबादी का और कोई हिस्सा देश में शायद ही हो। कॉरपोरेट-सरकार गठजोड़ का घिनौना, वीभत्स चेहरा देखना हो। तो आइए छत्तीसगढ़! यहां कॉरपोरेट-सरकार गठजोड़ आपसे कहेगा ‘यह छत्तीसगढ़ है। आइए मुस्कराइए।‘ सबसे बड़े आदिवासी भौगोलिक क्षेत्र बस्तर में आदिवासियों की छाती पर लोहे की खदानें खोदी ही जाती रही हैं। उससे आदिवासी का कोई सीधा आर्थिक या मालिकी हक का संबंध नहीं हो पाया। बड़ी मुश्किल से टाटा जैसे भारी भरकम कॉरपोरेट को अपना कारखाना खोलने से बस्तर में रोका जा सका। बहुत पहले इंदिरा गांधी ने शाल वनो के द्वीप बस्तर में पाइन परियोजना को खारिज कर बायो डाइवर्सिटी के मानक प्रतिमानों का बचाव कर दिया था। बोधघाट परियोजना को लेकर प्रदेश की हर सरकार की एक के बाद एक लार टपकती रही हैै। इसमें करोड़ों, अरबों का निवेश जो हो सकता है। बस्तर के कुदरती जल स्त्रोतों की कीमत पर वहां से बाहर भी पानी का उपयोग सिंचाई या अन्य कामों के लिए किए जा सकने के सरकारी आश्वासन, प्रलोभन और ऐलान वाचाल रहे हैं।
यह बस्तर है जो भारत में सबसे बड़ा नक्सल लैंड है। कांग्रेस के शासनकाल में केन्द्रीय गृह मंत्री रहे पी. चिदंबरम ने माओवादी लाल क्रांति के मुकाबले सरकारी सेना के दम पर ‘ग्रीन हंट‘ नाम का हिंसक शब्द ईजाद किया था। ऐसा कहा जाता है। (शायद) 700 से ज्यादा गांव अब भी नक्सली खौफ में वर्षों से खाली हो चुके हैं। सलवा जुड़ूम नाम का कांग्रेस-भाजपा का औरस पुत्र सरकार, कॉरपोरेट और पुलिस की तिहरी ताकत के बल पर नक्सलियों की आड़ में आदिवासियों को नेस्तनाबूद करता रहा। भला हो समाजशास्त्री नंदिनी सुंदर और अन्य जागरूक नागरिकों का जिनकी याचिका के कारण सुप्रीम कोर्ट के आलिम फाजि़ल और प्रबुद्ध जज सुदर्शन रेड्डी ने सलवा जुडूम के मनुष्य विरोधी आचरण का अपने फैसले के जरिए पर्दाफाश कर छत्तीसगढ़ को राहत तो दी। साथ ही 16 वर्ष से छोटे आदिवासी बच्चें को पुलिसिया नौकरी में गैर मानवीय आधारों पर भर्ती करते रहने की सरकारी मुहिम को चोट भी की। सूरते हाल यह रहा है कि कभी बस्तर में वहां के वनोत्पाद एक किलो चिरौंजी को एक किलो नमक के बदले व्यापारी खरीदते रहे हैं। अब तो वनोत्पाद सहित खनिज और जल और अन्य सभी उत्पादों पर सरकार का अधिकार और नियंत्रण है। यही हाल अन्य आदिवासी बहुल जिलों सरगुजा संभाग में और रायगढ़ जिले वगैरह में भी है। आदिवासी जिस हाल में हैं, वह कविता नहीं है। भयानक दौर का वीभत्स चेहरा है।
यह समझना है कि आदिवासियों को जितना पुश्तैनी संवैधानिक हक मिलना था, वह दरअसल नहीं ही मिला। आदिवासियों की लंबी जद्दोजहद के बाद राजीव गांधी के प्रधानमंत्री काल में संविधान के 73 वें संशोधन के जरिए और फिर बाद में 1996 में पेसा (अधिनियम) बनवाकर आदिवासियों के हक की संवैधानिकता को अर्थमयता देने की शुरुआत की गई। तर्क यह है कि आदिवासी भारत के सबसे पुराने नागरिक हैं। वन क्षेत्र में उनका पुश्तैनी अधिकार केवल सीमित होकर सांस्कृतिक और कलागत होने में नहीं है। इन इलाकों में उनका मालिकी, कृषि संबंधी और वनोत्पाद पर भी शुरुआत से हक रहा है। पेसा (अधिनियम) में आर्थिक, सामाजिक अधिकारों पर कटौती कर उनके सांस्कृतिक और पारंपरिक लक्षणों भर को समझने की आधी अधूरी बात कही गई है। राज्य सरकार ने पेसा में थोड़ा बहुत आधे अधूरे अधिकार आदिवासी इलाकों की ग्राम सभाओं को बरायनाम दिए हैं। उन्हें भी अमल में लाने के नाम पर ढांचागत कटौती कर छीन लिए जाने जैसी स्थिति बना दी गई है। उससे आदिवासियों के संवैधानिक अधिकारों को लेकर वही ढाक के तीन पात जैसी हालत है। अंगरजों के वक्त से हर दस वर्ष में होने वाली जनगणना में ‘जातीय/धर्म‘ के कॉलम में आदिवासी अपने नाम के आगे ‘आदिवासी‘ या ‘सरना धर्म‘ लिखते रहे हैं।
फिलवक्त वह कॉलम ही मिटा दिया गया है। आदिवासी को धर्म के कॉलम में हिन्दू धर्म लिखने की बाध्यता के प्रावधान का यह तिलिस्म है। यह एक राष्ट्रवादी-सांस्कृतिक या सांस्कृतिक-राष्ट्रवादी प्रक्षेपण का नमूना है।
एक अन्य छत्तीसगढ़ी आदिवासी क्षेत्र हसदेव कछार में अवांछित अतिथि कॉरपोरेटी गौतम अडानी की धमक के साथ योजना पर अमल शुरू हो गया है। कोरबा, सरगुजा इत्यादि इलाके के घने वन क्षेत्र में वन्य पशुओं के जीवन और रहवास की कीमत पर पहले से कार्यरत दक्षिण पूर्वी कोल फील्ड्स की खदानों को अडानी को भी कोयला आपूर्ति करने के लिए खोला जा रहा है। इस सिलसिले में हजारों लाखों तरह तरह के पेड़ काट डाले जाएंगे। आदिवासियों बल्कि पालतू और वन्य पशुओं का जीवनयापन भी खतरे के निशान तक पहुंच चुका है। सरकारी फरमान है कि कोयले से बिजली बनाई जाएगी जिसे करार के अनुसार राजस्थान विद्युत मंडल को अदानी कम्पनी के मार्फत देना है क्योंकि कथित तौर पर राजस्थान में बिजली की आपूर्ति में कमी है। छत्तीसगढ़ और राजस्थान की कांग्रेस सरकारों का केन्द्र की भाजपा सरकार के साथ अदानी के लिए पारस्परिक एका है। हजारों किसान और आदिवासी वर्षों से अहिंसक प्रदर्शन और सत्याग्रह कर रहे हैं। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने भी उनके पक्ष में अभिवचन दो टूक किया ही है। फिर भी पुलिसिया बल लगाकर हजारों पेड़ अभी तक काट दिए गए हैं। सरकार को कॉरपोरेटियों की सलाह और शह पर हजारों के बाद लाखों की संख्या गिनना भी आता है। देश का सबसे हरा भरा इलाका कॉरपोरेटी लिप्सा के कारण सरकार की ताकत के बल पर एक रेगिस्तान में बदल सकता है। मौसम और जलवायु परिवर्तन तो होगा ही। सूखा भी आएगा। सारा कोयला खुद जाएगा। तो भूकंप को भी न्योता दिया जा सकेगा। क्या ज़रूरत है इस तरह और इतना विनाश करने और उसे विकास का नाम देने की? आज़ाद भारत में सरकार तो वह है जो स्वतंत्रता संग्राम के दौरान के नागरिक अधिकारों को अंगरेजों से भी ज्यादा कू्ररता के साथ कुचल दे। आलोक शुक्ला जैसे कई एक्टिविस्ट हैं जो जी जान से छत्तीसगढ़ को बचाने के लिए लड़ रहे हैं, हजारों आदिवासियों के साथ।
बस्तर जैसी अति संवेदनशील इन्सानी बसाहट में लंबे अरसे से राष्ट्रीय जनजागरण के लिए अपना सब कुछ खतरे में डालते कुछ अभिव्यक्तिकारों के योगदान को लोग जानते रहें। वर्षों तक बस्तर में कलेक्टर और बाद में भारत सरकार के आदिम जाति आयोग के कमिश्नर रहे ब्रह्मदेव शर्मा ने आदिवासियों के उत्थान के लिए असाधारण योगदान किया है। कांग्रेस, भाजपा और उद्योगपति नेता-तिकड़ी ने इतनी असभ्यता की कि डॉ. शर्मा को निर्वस्त्र कर जगदलपुर की सडक़ों पर चलाया गया। आदिवासी विषयों के अध्येता के रूप में केन्द्र सरकार ने बार बार उनका सहयोग लिया। बस्तर की महिला नेत्री सोनी सोरी की त्रासदायक कथा से परिचित होना बुद्धिजीवियों के लिए ज़रूरी है। उन्हें किस तरह पुलिसिया दमन, अनाचार और अत्याचार का शिकार बनाया गया। वह छत्तीसगढ़ शासन के लिए कलंक है। बस्तर के आदिवासियों और खासतौर पर गर्भवती माताओं और शिशुओं के कुपोषण का सरकार घोषित इंडेक्स भारत में सबसे ऊंचा है। वहां कोई डॉक्टर इलाज के लिए नानुकुर करते नहीं जाता। बेला भाटिया और मनीष कुंजाम और पत्रकार आलोक पुतुल आदि जैसे कुछ जागरूक लोग लगातार आदिवासी हितों के लिए लांछन झेलते भी लड़ते रहते हैं। उनकी लेखकों और रचनाकारों की अभिव्यक्तियों में पूछ परख होना जागरूक नागरिक संवाद की जरूरत है। जुझारू बनावट के गांधीवादी कार्यकर्ता हिमांशु कुमार वर्षों से जीवन को खतरे में डालकर बस्तर के आदिवासियों के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं। फिलवक्त सोशल मीडिया में सक्रिय होने के कारण उनकी संघर्षधर्मी इलाकों में पूछ परख हो रही है। यह एक अच्छा शकुन है। फिर भी यह गौरतलब है कि बस्तर के पीडि़त आदिवासियों के लिए उनकी ओर से दायर सुप्रीम कोर्ट की एक याचिका में शिकायतकुनिंदा को ही खलनायक मान लिया गया और हिमांशु कुमार सहित आदिवासी याचिकाकर्ताओं पर 5 लाख रुपए का हर्जाना लगा दिया गया। अन्यथा उन्हें जेल की सजा भुगतने का उसी आदेश में परंतुक भी पढ़ा जा सकता है।
ऐसे नाज़ुक वक्त में रचनात्मक लेखन भी इन बातों से गाफिल कैसे रह सकता है? या अपने को इन जिम्मेदारियों से फारिग हो गया समझ सकता है? छत्तीसगढ़ का व्यापक नागरिक जीवन जहरीला और श्वास अवरोधक हो जाएगा। तब रचनात्मक साहित्य लेखन के भी जरिए उसे अपने पुराने दौर में कैसे लौटाया जाएगा? फासिज्म का आ रहा खतरा यूरो-अमेरिकी इजारेदारों और वहां के हिंसक समाज से तो है। ‘नाटो‘ नहीं हो तो रूस को भी यूक्रेेन पर हमला करने की क्यों ज़रूरत हो? कब तक जर्मनी की याद करेंगे कि कोई वहां हिटलर था या इटली में कोई मुसोलिनी भी हुआ जिसके पास दीक्षा भाव से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक सरसंघचालक हेडगेवार तथा विनायक दामोदर सावरकर के भी गुरु समझे जाते डा. बी.एस0 मुंजे मिलने गए थे। वह परिघटना संघ-भाजपा के सोच में केन्द्रीय वायरस की तरह अब तक महसूस की जाती है। देश के लाखों किसान साल भर तक कथित गांधी शैली में अहिंसा के आधार पर भारत की राजधानी में सत्याग्रह तो करते ही रहे हैं। यह हिटलर की जुबान थी (याने फासीवाद/नाजीवाद की) जिसने भारत के वाइसरॉय रहे लॉर्ड हेलिफैक्स की जर्मनी यात्रा के समय उनसे कहा था कि गांधी से बातचीत या जिरह करने के बदले उसे गोली मार दो। उसके पीछे यदि उसके सैकड़ों कांग्रेसी समर्थक आते हैं। तो उनको भी गोली से उड़ा दो। यह संदेश भी कहीं न कहीं ईथर में भारतीय निजाम के आचरण के लिए तैरता रहता है। फिलवक्त खतरा इटली, जर्मनी या अन्य इलाकों से आने वाले किसी हिंसक विदेशी वायरस का नहीं है। उसका भारतीयकरण सरकार और देसी कॉरपोरेटियों ने संभाल ही लिया है।
यक्ष प्रश्न है इनके खिलाफ और इनको लेकर देश के रचनात्मक हस्ताक्षर क्या कुछ कर पा रहे हैं या करना भी चाहते हैं। गैर भाजपाई सरकारों से आर्थिक या अन्य तरह का सहयोग और संरक्षण लेकर केन्द्रीय निजाम के खिलाफ आवाज़ें उठती भी हैं। उन गैर भाजपाई सरकारों की नैतिक और नीतिगत दशा भी परीक्षण के लिए उपलब्ध है ही। दोनों बड़ी राजनीतिक पार्टियां अरबपति, खरबपति कॉरपोरेटियों के कल्याण के लिए अलग अलग रास्ते पर कहां हैं? कोई जानना क्यों नहीं चाहता कि संसद में किसी विधिक अधिनियम के पारित हुए बिना केवल सरकार याने प्रधानमंत्री की तुनक पर राष्ट्रीयकृत बैंकों में भारत की जनता के द्वारा जमा किया गया धन कॉरपोरेटियों को बिना जन इजाजत के पहले कर्ज में दे दिया जाए। फिर उसे बिना किसी जनअंकेक्षण के माफ कर दिया जाए। उसका खमियाजा प्रकारांतर से फिर जनता को भुगतना पड़ेे, जिसके लिए उसे मिलने वाले वायदा किए हुए ब्याज की दर में लगातार कटौती की जाती रहे। फिर उस आर्थिक गफलत या हेराफेरी पर परदा डालने के लिए नोटबंदी की जाए। काला धन को उगलत निगलत की शैली में कायम रखते विदेशों से कथित रूप से वापस लाने का शिगूफा छेड़ा जाए और फिर गृह मंत्री कह दें कि वह तो प्रधानमंत्री का जुमला था।
विज्ञापनखोर, (वह भी प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों की निजी सामन्ती नस्ल की सनक पर) सुविधाभोगी, सरकारपरस्त और लगातार भ्रष्ट और अय्याश होता गोदी मीडिया संसार के इतिहास में सबसे बड़ा बौद्धिक कहा जाता खलनायक हो चुका मुखौटा है। इस ओर भी सचेत रहना बुद्धिजीवियों का फर्ज दिखाई देता है। सरकार की आलोचना करती बड़ी से बड़ी कुछ राष्ट्रीय जन-परिघटना को किसी भी कीमत पर प्रकाशित नहीं करना गोदी मीडिया का सबसे विध्वंसक कारनामा है। जनअभिव्यक्तियों पर इस तरह लगाए जा रहे सेंसर के पीछे सरकार से गठजोड़ के कारण प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर मु_ी भर खरबपतियों का मालिकी कब्जा है। ‘लोहे से लोहा कटता है‘ की शैली में यदि स्वतंत्रचेता नागरिक अपनी अभिव्यक्तियों को प्रखर बनाएं तो इस दिशा में संभावनाएं दिखाई पडऩी शुरू हो सकती हैं। अन्यथा भी क्या होगा!
एक बहुत चिन्ताजनक दौर से हिन्दुस्तान घिसटता हुआ गुजऱ रहा है। करीब करीब सभी संवैधानिक संस्थाओं में लोक न्याय का कॉंसेप्ट लकवाग्रस्त हो गया है। उस रोग से मुक्त होने की संभावनाएं अभी तो इलाज की हलचल में नहीं हैं। जनप्रतिनिधियों के संसदीय चुनाव तो कॉमेडी के दुखान्त नाटक हैं। सत्ताशीन राजनीतिक पार्टी ने उसके द्वारा कबाडऩे वाला चंदा (इलेक्टोरल फंड) का हिसाब इस तरह अपनी मु_ी में कर लिया है कि वह वसूली कानून की जांच के परे हो गई है। कोरोना के राष्ट्रीय अभिशाप से भी फायदा उठाते पी.एम. केयर्स फंड बनाकर इतना और इतनी तरह से चंदा कबाड़ लिया है, जिसकी जानकारी संवैधानिक संस्थाओं को भी उनके द्वारा दिए जाने की आनाकानी और इन्कार की कानूनी जुगत बना ली गई है। सडक़ों पर हिंसा फिल्मी कथाओं की तरह निर्देशित और अभिनीत की जा रही है। संसार के सबसे ज़्यादा मजहबों को अपनी आगोश में आयातित/आयमित करने वाले देश में डरा दिया गया बहुसंख्यक वर्ग अल्पसंख्यकों को समान नागरिक अधिकारों सहित जीने तक में परहेज करता है। अब तो आलम यह है कि इस बात का शोध किया जा रहा है कि राष्ट्रीय जीवन के हर लक्षण में खासतौर पर मुसलमान शब्द को इस तरह रेखांकित और परिभाषित किया जाए कि देश के बहुसंख्यक लोग हिंसा नफरत और खूंरेजी से भरते रहें। फिर उनके मनोविकारों को वोट बैंक का आधार बना दिया जाए, जिससे सेक्युलर लोकतंत्र को ही उसकी जड़ों से बेदखल किया जा सके।
सवाल यही है कि ऐसी हालत में क्या और कितना भारत जीवित रहेगा? जनमत लोकतंत्र का प्राण है। अब तो आलम है कि लोकमत ही दूषित कर दिया गया है। बुद्धिजीवी लेखक, रचनाकार, एक्टिविस्ट बेहद अल्प संख्या में हैं। उनकी मुश्कें हर तरह से बांधी जा रही हैं। मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के लिए ‘अर्बन नक्सल’ नाम का जहरीला शब्द ईजाद कर उन्हें गिरफ्तार कर जमानत देने तक से इन्कार किया जाने के जतन हैं। उसकी कोई अंतरराष्ट्रीय तथा मानवीय या कानूनी अधिमान्यता भी नहीं है। यूरो-अमेरिकी संवैधानिक और कानूनी अवधारणाओं से प्रेरित भारतीय न्यायिक समझ में मनुष्य की आज़ादी का कोई विकृत अर्थ निजाम के कारण व्यवस्था के हलक में ठूंसा जा रहा है। तमाम पुलिसिया संस्थाओं मसलन सीबीआई, ईडी, एन आई ए, इनकम टैक्स आदि को असहमति की आवाज का गला घोंटने के लिए सरेआम इस्तेमाल किया जा रहा है। अवाम है कि चुप है। डरा हुआ है। दहशत में है। बदलाव के लिए मानसिक रूप से तैयार भी नहीं दिखता।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
गृहमंत्री अमित शाह ने बारामूला में 10 हजार से ज्यादा लोगों की सभा को संबोधित किया, यही अपने आप में बड़ी बात है। उनका यह भाषण एतिहासिक और अत्यंत प्रभावशाली था। हमारे नेता लोग तो डर के मारे कश्मीर जाना ही पसंद नहीं करते लेकिन इस साल कश्मीर में यात्रियों की संख्या 22 लाख रही जबकि पिछले कुछ वर्षों में 5-6 लाख से ज्यादा लोग वहां नहीं जाते थे।
बारामूला की जनसभा और यात्रियों की बढ़ी हुई संख्या ही इस बात के प्रमाण हैं कि कश्मीर के हालात अब बेहतर हुए हैं, खास तौर से 2019 में धारा 370 के हटने के बाद से! लगभग सभी कश्मीरी नेताओं ने धारा 370 हटाने का बहुत जमकर विरोध किया था लेकिन आजकल उनकी हवा निकली पड़ी है, क्योंकि कश्मीर के हालात में पहले से बहुत सुधार है। मनोज सिंहा के उप-राज्यपाल रहते हुए कश्मीर में अब भ्रष्टाचार करने की किसी की हिम्मत ही नहीं पड़ती।
कश्मीर में बगावत का झंडा उठाने वाले और राज करने वाले स्थानीय नेतागण केंद्र से मिलने वाली अरबों-खरबों की धनराशि का जितना इस्तेमाल लोक-कल्याण के लिए करते थे, उससे कई गुना ज्यादा अब होने लगा है। अमित शाह ने कहा है कि पिछले 70 साल में कश्मीर में केंद्र की ओर से सिर्फ 15000 करोड़ रू. लगाए गए थे जबकि अब पिछले तीन साल में 56000 करोड़ रुपयों का विनिवेश हुआ है। कई अस्पताल, विश्वविद्यालय, स्कूल, पंचायत भवन आदि खड़े कर दिए गए हैं।
पहले कश्मीर का लोकतंत्र सिर्फ 87 विधायकों, 6 सांसदों और दो-तीन परिवारों तक ही सीमित था लेकिन अब 30,000 पंचों और सरपंचों को भी स्थानीय विकास के अधिकार मिल चुके हैं। आतंकवादियों ने कुछ पंचों की हत्या भी कर दी थी लेकिन पंचायत के चुनावों में जन-उत्साह देखने लायक था। अमित शाह ने अपने भाषण में कश्मीर के पिछड़ेपन के लिए तीन परिवारों को जिम्मेदार ठहराया है। गांधी-नेहरु परिवार, अब्दुल्ला और मुफ्ती परिवार!
इन तीनों परिवारों ने कश्मीर पर अपना लगभग एकाधिकार बना रखा था, यह तथ्य है लेकिन हम यह न भूलें कि इनमें से किसी ने भी कश्मीर को भारत से अलग करने का नारा नहीं दिया है। वरना, कांग्रेस और भाजपा इनके साथ मिलकर वहां सरकारें क्यों बनातीं? कश्मीर के अलगाववादी नेताओं से भी मेरा गहन संपर्क रहा है, उनमें से एकाध अपवाद को छोडक़र कभी किसी ने कश्मीर को पाकिस्तान में मिलाने की बात नहीं की है। अमित शाह ने सरकार की इस नीति को दो-टूक शब्दों में दोहराया है कि जब तक आतंकवाद जारी है, पाकिस्तान से भारत बात नहीं करेगा।
मेरी राय यह है कि जब पांडव और कौरव महाभारत युद्ध के दौरान बात करते थे और अब नरेंद्र मोदी यूक्रेन के सवाल पर पूतिन और झेलेंस्की से बात करने का आग्रह कर रहे हैं तो हम पाकिस्तान से बात बंद क्यों करें? मैं तो शाहबाज शरीफ और नरेंद्र मोदी दोनों से कहता हूं कि वे बात करें। वे खुद बात करने के पहले कुछ गैर-सरकारी माध्यमों के जरिए संपर्क करें। जैसे हमने संकटग्रस्त श्रीलंका और तालिबानी अफगानिस्तान की मदद की, वैसी ही मुसीबत में फंसे पाकिस्तानी लोगों की मदद के लिए भी हाथ आगे बढ़ाएं। (नया इंडिया की अनुमति से)
-अमिता नीरव
2011 में जब फ्रांस में इमैनुएल मैक्रां ने हिजाब को प्रतिबंधित किया था, तब रवीश ने एक प्रोग्राम किया था। उस प्रोग्राम में फ्रांस में रिसर्च कर रही एक मुस्लिम लडक़ी से बात की थी। याद नहीं है कि वो लडक़ी किस देश की थी, लेकिन यह याद है कि उसने बात करने के दौरान हिजाब डाल रखा था।
वह लडक़ी शायद हिजाब, बुरका या नकाब के इतिहास पर ही रिसर्च कर रही थी। उसने बताया कि यह पुरानी परंपरा है और अरब देशों से निकलकर इस्लाम के साथ चस्पां हो गई है। उसने कई सारे फोटो बताए जिसमें अरबी पुरुष भी खुद को पूरी तरह से ढँके हुए थे।
फ्रांस में हिजाब पर प्रतिबंध के सिलसिले में जिस तरह से मुस्लिम विरोध में उतरे थे उस पर उसका तर्क था कि हिजाब यहाँ इस्लाम की धार्मिक या सांस्कृतिक परंपरा से आगे आ गया है। अब ये यहाँ की मुस्लिम महिलाओं की आयडेंटिटी का हिस्सा हो गया है।
इस लिहाज से यह प्रतिबंध उनकी आयडेंटिटी पर हमला है। उस वक्त मुझे उस लडक़ी का यह तर्क समझ ही नहीं आया कि क्यों कोई लडक़ी बिना दबाव के भी हिजाब या नकाब लगाए रहने की जिद करती है। कुछ दिनों बाद आयडेंटिटी का मसला समझ आया।
ईरान में इन दिनों हिजाब के खिलाफ महिलाएँ प्रदर्शन कर रही हैं। सोशल मीडिया पर अपने बाल काटते हुए फोटो पोस्ट कर रही हैं। पिछले दिनों हिजाब ठीक से न पहनने पर कुर्द यजीदी लडक़ी महसा अमीनी की मौत ने ईरान की महिलाओं को सडक़ पर उतरने के लिए मजबूर कर दिया है।
महसा अपने भाई के साथ तेहरान आई हुई थी तभी उसे मॉरल पुलिस ने हिजाब ठीक से न पहनने को लेकर गिरफ्तार किया, जब उसे अस्पताल लाया गया तब तक वह कोमा में चली गई थी। अस्पताल में बाद में उसकी मौत हो गई। उसकी मौत के बाद ईरान में हिजाब के खिलाफ प्रदर्शन होने लगे।
महसा जिस कम्यूनिटी का हिस्सा है, वहाँ हिजाब पहनना या न पहनना व्यक्तिगत चुनाव है। ईरान में हिजाब पहनने या न पहनने का चुनाव करने का कोई विकल्प नहीं है। वहाँ हर महिला को अनिवार्यत: हिजाब पहनना होता है। ये वहाँ के बहुसंख्यकों की सामाजिक-धार्मिक परंपरा भी है।
ईरान के प्रदर्शनों का हवाला देते हुए हमारे यहाँ कर्नाटक हिजाब विवाद में दलीलें दी जा रही हैं। कर्नाटक सरकार सुप्रीम कोर्ट में कह रही है कि ईरान जैसे देश में महिलाएँ हिजाब के खिलाफ प्रदर्शन कर रही है औऱ भारत में महिलाएँ हिजाब के लिए लड़ रही है।
इसी संदर्भ में मुझे फ्रांस में पढ़ती उस मुस्लिम लडक़ी की याद आ गई जो हिजाब को आयडेंटिटी का हिस्सा बता रही थी। पिछले दिनों कई अलग-अलग तरह की चीजें पढ़ीं, सुनी, समझी। देर से सही मगर एक चीज समझ आई कि बिना सामाजिक मनोविज्ञान समझे हम चीजों की ठीक-ठाक समझ नहीं पा सकते हैं।
स्वतंत्रता का मसला चुनाव से जुड़ा हुआ है, थोपा हुआ कुछ भी स्वतंत्रता का हिस्सा नहीं हो सकता है। ईरान में मुस्लिम महिलाएं हिजाब के खिलाफ प्रदर्शन कर रही हैं और इसके उलट भारत में हिजाब के समर्थन को लेकर कोर्ट में केस चल रहा है। ठीक बात है कि हिजाब, नकाब, बुरका या फिर किसी भी तरह का पर्दा पितृसत्ता के दमन का प्रतीक है।
एक दूसरी बात भी उतनी ही महत्वपूर्ण है कि स्वतंत्रता का संबंध भी चुनाव से है। इन दोनों ही घटनाओं में कई सारे एंगल है। सबसे पहला तो यही चुनाव की आजादी...। दूसरा एंगल है बहुसंख्यकवाद का। चाहे कोई कितनी ही लोकतांत्रिक व्यवस्था हो बहुसंख्यक वर्ग अल्पसंख्यकों को अपनी तरह से संचालित करने का प्रयास करेगा।
यही मसला ईरान का है, यही मसला भारत का भी है। ईरान में भी कुर्द यजीदियों को ईरान के इस्लामिक कानूनों (चाहे वो कानून हो या फिर सामाजिक व्यवहार) के अधीन रहना आवश्यक है और भारत में भी गैर हिंदुओं को हिंदू सामाजिक व्यवहार के अधीन रहना आवश्यक है।
भारत के मसले में एक तीसरी बात है, जिस पर इस सिलसिले में लिखी गई पोस्ट पर कई लोगों से लंबी बहसें हुई है, वह है हर हाल में लड़कियों के पढऩे की सहूलियत। यदि लड़कियों को हिजाब में भी पढऩे के लिए भेजा जा रहा है तो हमें उसे स्वीकारना होगा।
हिजाब या नकाब हटाने को अहम का प्रश्न नहीं बनाया जाना चाहिए, क्योंकि कानून बना देने से सामाजिक व्यवहार में बदलाव नहीं लाए जा सकते हैं। सामाजिक परंपराओं और व्यवहार में परिवर्तन बहुत धीरे-धीरे होने वाली प्रक्रिया है। किसी वक्त में गर्ल्स स्कूल कॉलेज हुआ करते थे।
हमारे वक्त में सारी लड़कियाँ गर्ल्स स्कूल और कॉलेजों में पढ़ा करती थी। यदि कोई विषय गर्ल्स कॉलेज में नहीं होता था तो लड़कियाँ वह विषय ही नहीं लेती थी, किसी दूसरे विषय से पढ़ लिया करती थी। आज मैंने बहुत सारे लोगों को लड़कियों को जानबूझकर कोएड में पढ़ाते हुए देखा है।
एक सीधा-सा तर्क होता है उनका कि स्कूल-कॉलेज में हम उसे लड़कियों के साथ पढ़ा देंगे, दुनिया में तो उसे लडक़ों के साथ भी रहना होगा, काम करना होगा न? सोचिए ये परिवर्तन एकाएक नहीं आया है। कर्नाटक हिजाब मामले में अब जबकि यह अहम की लड़ाई हो गई है, लड़कियों की शिक्षा दाँव पर लगी हुई है।
ईरान की महिलाओं का संघर्ष तारीफ के काबिल है। यह एक तरह से पूरबी महिलाओं के अपने हक के लिए लडऩे का ऐलान है। यह भी कि आखिरकार पूरब में ही महिलाएँ जागरूक हो रही हैं, अपने अधिकारों के लिए, अपने इंसान समझे जाने के संघर्षों के लिए तैयार हो रही हैं।
उम्मीद है कि यही आग आसपास के देशों में भी फैलेगी। भारत में भी महिलाएँ हिजाब जलाएँगी, लेकिन पहले उन्हें इस सोच तक आने तो दीजिए। उनकी पढ़ाई-लिखाई और समझ को प्राथमिकता पर तो आने दीजिए। यदि हिजाब पहनने के एवज में उन्हें शिक्षा से ही वंचित किया गया तो वे क्या लड़ेंगी!
जिस तरह से चूजे को अंडे का खोल खुद ही तोडक़र बाहर आने के लिए ताकत हासिल करनी होती है, उसी तरह लड़कियों को लड़ाई लडऩे के लिए पहले ताकत तो हासिल करने दीजिए। देखिएगा कि तब वे खुद ही इन परंपराओं से निजात पाने के लिए उठ खड़ी होंगी।
चयन को ही स्वतंत्रता का मापदंड बने रहने दें, मजबूरी को स्वतंत्रता का नाम न दें।
-सतीश जायसवाल
कहीं बाहर नहीं गया था। अपने शहर में ही था। घर के पास एक होटल में शरण लिए हुआ था। आवाजों से आक्रान्त होकर घर से बाहर भागा था। डीजे फुल वॉल्यूम में बजते रहते। और उनकी आवाजें सुबह से रात डेढ़-दो बजे तक घर के बाहर-भीतर तक घुसकर हमले कर रही थी। दो दिनों से सो नहीं सका और नींद जरूरी थी।
किसी को कोई दिक्कत नहीं थी क्योंकि ये आवाजें साधारण आवाजें नहीं, देवी आराधना के गीतों की थीं और लोग धर्म-प्राण। ये कौन लोग थे? सब जानते हैं। लेकिन कोई कुछ नहीं कहता। मैंने भी कुछ नहीं कहा। बस, चुपचाप निकल गया। फिर भी एक डर था। कहीं विधर्मी न मान लिया जाऊँ। फतवा जारी हो जायेगा या उन लोगों के निशाने पर न आ जाऊँ। वो कौन लोग? सब जानते हैं, चंदा भी देते हैं। लेकिन उलझने से बचते हैं।
मैंने भी अपनी हैसियत से चंदा दिया। अष्टमी के दिन पंडाल में गया। देवी दर्शन किया। पंडितजी को शाल, श्रीफल भेंट किया और निकल आया।
आज, लौटा हूँ। देवी प्रतिमा के बिना पंडाल सूना है। एक विषाद है। घेर रहा है। लेकिन पंडाल से बाहर ढँका-मुँदा डीजे निस्तेज पड़ा है। कोई आवाज नहीं हो रही है। साँस तक नहीं ले रहा है। निष्प्राण डी.जे. ऐसा दिख रहा है जैसे सब कुछ तहस-नहस कर चुकने के बाद अब अगली तबाहियों के लिये विश्राम करता बुलडोजर।
हाँ, डीजे ऐसा ही शक्तिशाली है। जब जागता है तो घर थर्राने लगते हैं, दरवाजे-खिड़कियां काँपने लगती हैं। ऐसे में मनुष्य की क्या औकात? आक्रान्ता आवाजें दिल को दहला देती हैं। मालूम नहीं दिल के कितने मरीजों की जानें जा चुकी होंगी। लेकिन कोई रिपोर्ट नहीं इसलिए ऐसी कोई घटना नहीं मानी जायेगी।
हर त्यौहार और उत्सव के मौसम में इस घातक ध्वनि यंत्रों पर प्रतिबंध की बात उठती है। और इस जानलेवा यंत्र के व्यापारियों का प्रतिनिधि मंडल शासन-प्रशासन को ज्ञापन सौंपकर रोजी-रोटी कमाने का अधिकार माँगता है। जानलेवा रोजगार से अपना जीवन चलाने का अधिकार माँगता है।अपने जीवन के लिये औरों का जीवन लेने का अधिकार ?
अधिकार मिल जाता है। लोकतंत्र में समूह शक्ति का सम्मान सुरक्षित होता है। बात ‘पापी वोट’ से जुड़ी हुई है।
तब हिन्दी में कहानी-कविता लिखकर पेट पालने वाले एक साहित्यकार की आवाज कहाँ सुनी जाएगी? तो बस, ऐसे ही चुपचाप एक लेखक ने अपना घर छोड़ा और एक होटल में शरण लिया। अब घर लौट आया।लेकिन यह कोई ऐसी घटना नहीं हुई जिसका कोई अर्थ हो...
-रवीश कुमार
अच्छी बात है कि चीन को ठीक से समझने की शुरुआत हो रही है। पिछले दो साल में चीन पर कई किताबें आई हैं। विजय गोखले की इस किताब से गुजरते हुए चीन के आर्थिक सुधारों के दौर को समझने का मौका मिला। इस सुधार के लिए चीन के गाँवों के लोगों ने बहुत बड़ी कीमत अदा की, जो भारत के गाँवों से विस्थापित लोग चुका रहे हैं। वहाँ उन्हें जबरन और मजबूरन विस्थापित होकर शहर आना पड़ा और कम मजदूरी में काम करना पड़ा। इससे पूँजी और मुनाफे का निर्माण हुआ। उनके सस्ते और बेगार श्रम के लालच में दुनिया भर से निवेशक चीन गए। यह समझ में आता है कि जब तक आबादी के एक बड़े हिस्से को न्यूनतम मजदूरी से भी कम पर खटाया नहीं जाएगा तब तक शहर में विकास दिखाने के लिए इमारतें और कंपनियाँ खड़ी नहीं हो सकतीं। विजय गोखले की किताब का मुख्य तर्क नहीं है, मगर मुझे यह मुख्य रूप से दिखा।
यह किताब आर्थिक सुधारों की परतों में चीन की सामरिक और कूटनीतिक नीतियों की सफलता की कहानी कहती है। यह सफलता झूठ और झाँसे पर आधारित है। जिसके चंगुल में अमरीका और यूरोप दोनों आए। अपनी पूँजी और तकनीक दोनों चीन में ठेलते गए और चीन बीस वर्षों तक डबल डिजिट का आर्थिक विकास दर हासिल करता रहा। विजय गोखले चीन की कम्युनिस्ट पार्टी और सेना में आए पैसे और रिश्वत के खेल को रेखांकित करते हैं। जिस समय चीन आर्थिक रूप से तरक्की कर दुनिया को हैरान कर रहा था, उस समय उसकी सेना में पैसे लेकर पद बिक रहे थे और पार्टी के लोगों को ही विकास का ठेका मिल रहा था। सब मालामाल हो रहे थे।
मगर असली झूठ और झाँसा यह था कि चीन लोकतंत्र की तरफ बढ़ रहा है। दुनिया से जुड़ रहा है। उसके नियम कायदों को अपना रहा है। लेखक ने दिखाया है कि इस मामले में वह हर किसी को चकमा देता है। जिस वक्त अमरीका बेगार की मजदूरी से पूँजी बनाने की लालच में चीन गया, जरूर उस माहौल का असर भारत पर पड़ा होगा और भारत की तरफ से सीमा विवाद को लेकर कई पहल की गई। चीन ने लंबे समय तक सकारात्मक संदेश देकर झाँसा दिया और चुप्पी साध ली। अब चीन एक बड़ी आर्थिक शक्ति है। इस दौरान उसने आर्थिक रूप से संपन्न कई शहर और केंद्र बना लिए हैं। विजय गोखले यह नहीं बताते कि चीन को हमेशा संदिग्ध निगाह से ही देखें मगर साफ़-साफ़ दिखा देते हैं कि चीन को तीन से पाँच दशक के स्केल पर देखा और समझा जाना चाहिए।
इस किताब में मोदी दौर की झूला-झुलाओ कूटनीति का जिक्र नहीं है। क्यों नहीं है? क्या इसलिए कि लेखक ने किताब के लिए अलग कालखंड चुना है? हो सकता है लेकिन उस चैप्टर में संक्षेप में हो सकता था, जिसमें राजीव गांधी, नरसिम्हा राव, वाजपेयी से लेकर मनमोहन सिंह की चीन नीतियों की समीक्षा की गई है। इसके बाद भी विजय गोखले दिखा ही देते हैं कि हेडलाइन के लिए और तात्कालिक रूप से की गई पहल से आप चीन को प्रभावित नहीं कर सकते। बारीक तर्कों के बीच यह दिखता है कि वाजपेयी काल में परमाणु परीक्षण बाद दुनिया भर के नेताओं को लिखे पत्र में चीन को नाहक शत्रु की तरह पेश किया गया। यहाँ से चीन हमेशा के लिए चिढ़ जाता है। वह भारत के साथ एक ही व्यवहार करता है। चुप रहकर नजरअंदाज कर देता है।
मुझे यह किताब अच्छी लगी। हार्पर कॉलिन्स की है। कीमत 390 की। ऐसी किताबें हिन्दी में भी तुरंत आनी चाहिए ताकि हिन्दी के पाठक चीन को फुलझडिय़ों और मोबाइल एप के विरोध से आगे देख सकें। इसमें पाठकों का क़सूर नहीं है। हिन्दी के अखबार और चैनलों ने जो कूड़ा फैलाया है, अब लोगों में समझने का मानक ही वही कूड़ा बन गया है। तो उसे ही प्रस्थान बिंदु बनाकर नई जानकारियों के लिए रास्ते खोले जा सकते हैं।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रय होसबोले ने भारत की आर्थिक स्थिति के बारे में जो बयान दिया है, उससे विरोधी दलों के नेता चाहे कितने ही खुश होते रहें लेकिन उसे सरकार-विरोधी नहीं कहा जा सकता है। वह वास्तव में सरकार को जगाए रखने की घंटी की तरह है। वास्तव में सरकारें अपनी पीठ खुद ही ठोकती रहती हैं और ज्यादातर अखबार और टीवी चैनल खरी-खरी बात लिखने और बोलने का साहस नहीं जुटा पाते हैं।
ऐसे में अगर संघ का उच्चाधिकारी कोई आलोचनात्मक टिप्पणी करता है तो वह कड़वी जरुर होती है लेकिन वह सच्ची दवा भी होती है। होसबोले ने यही तो कहा है कि देश में गरीबी और अमीरी के बीच खाई बढ़ती जा रही है। हमारी खबरपालिका यह तो प्रचारित करती रहती है कि देश के फलां सेठ दुनिया के अमीरों के कितने ऊँचे पायदान पर पहुँच गए हैं लेकिन वह यह नहीं बताती कि देश में अभी भी करोड़ों लोग ऐसे हैं, जिन्हें भरपेट रोटी भी नहीं मिलती। वे बिना इलाज के ही दम तोड़ देते हैं।
लगभग डेढ़ सौ करोड़ के इस देश में कहा जाता है कि सिर्फ 20 करोड़ लोग ही गरीबी रेखा के नीचे हैं। सच्चाई क्या है? मुश्किल से 40 करोड़ लोग ही गरीबी के रेखा के ऊपर है। लगभग 100 करोड़ लोगों को क्या भोजन, वस्त्र, निवास, शिक्षा, चिकित्सा और मनोरंजन की पर्याप्त सुविधाएं उपलब्ध हैं? क्या वे हमारे विधायकों और सांसदों की तरह जीवन जीते हैं? जो हमारे प्रतिनिधि कहलाते हैं, वे किस बात में हमारे समान हैं?
वे हमारी तरह तो बिल्कुल नहीं रहते। सरकारी आकड़े बताते हैं कि देश में सिर्फ 4 करोड़ लोग बेरोजगार हैं। क्या यही असलियत है? रोजगार तो आजकल बड़े-बड़े उद्योगपतियों की कंपनियां दे रही हैं, क्योंकि वे जमकर मुनाफा सूंत रही है, लेकिन छोटे उद्योगों और खेती की दशा क्या है? सरकार सर्वत्र डंका पीटती रहती है कि उसे इस साल जीएसटी और अन्य टैक्सों में इतने लाख करोड़ रु. की कमाई ज्यादा हो गई है लेकिन उससे आप पूछें कि टैक्स देने लायक लोग याने मोटी कमाई वाले लोगों की संख्या देश में कितनी है?
10 प्रतिशत भी नहीं है। शेष जनता तो अपना गुजारा किसी तरह करती रहती है। सरकारी अफसरों, मंत्रियों और नेताओं के एक तरफ ठाठ-बाट देखिए और दूसरी तरफ मंहगाई से अधमरी हुई जनता की बदहाली देखिए तो आपको पता चलेगा कि देश का असली हाल क्या है? जनता के गुस्से और बेचैनी को काबू करने के लिए सभी सरकारें जो चूसनियां लटकाती रहती हैं, उनका स्वाद तो मीठा होता है लेकिन उनसे पेट कैसे भरेगा? (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कोलकाता के दुर्गा-पूजा पंडाल में ‘असुर’ की जगह एक ऐसा चित्र लगा दिया गया, जो एकदम गांधीजी की तरह दिखाई पड़ता है। यह चित्र अ.भा. हिंदू महासभा की बंगाल शाखा ने लगाया है। हिंदू महासभा के नेताओं ने कहा कि वह असुर गांधी-जैसा दिखता है तो हम क्या करें? यह तो जो हुआ है, वह संयोगवश हो गया है? इन नेताओं की इस सफाई पर कौन विश्वास करेगा? लेकिन इस बात से यह सिद्ध हो रहा है कि ये लोग दब्बू और कायर हैं। झूठे भी हैं।
यदि वे अपने आप को हिंदू कहते हैं तो वे वास्तव में दुनिया के हिंदुओं को शर्मिंदा कर रहे हैं। वे क्या यह नहीं सिद्ध कर रहे हैं कि हिंदुत्व के नामलेवा लोग डरपोक और कायर होते हैं? वे अपने आप को नाथूराम गोड़से का प्रशंसक कहते हैं लेकिन अगर गोड़से जिंदा होता तो वह भी इन पर थूक देता। वह इनसे कहता कि मैं तुम्हारी तरह कायर होता तो गोली-चलाने के बाद भाग खड़ा होता या अदालत में झूठ बोलने लगता और दावा करता कि मैंने गांधी को नहीं मारा।
बंगाली हिंदू सभाइयों ने गांधीजी को असुर या राक्षस बताने की जो कोशिश की है, वह पहली और एक मात्र नहीं है। गांधीजी की प्रतिमा को कई लोगों ने भारत और विदेशों में भी भंग किया है और ग्वालियर में गोड़से की मूर्ति भी बनाई गई है। अदालत में दिए गए गोड़से के बयान को पुस्तक के रूप में छपाकर गुपचुप बांटा भी जाता है।
इसके मूल में दो तत्व काम कर रहे हैं। एक तो मुस्लिम-विरोधी भाव और दूसरा कांग्रेस से घृणा! जहाँ तक आज की कांग्रेस का सवाल है, उसका महात्मा गांधी से कुछ लेना-देना नहीं है। वह फिरोज-इंदिरा गंधी (गांधी नहीं) परिवार है। आपको उससे भिडऩा है तो जरूर भिड़ें लेकिन गांधीजी पर बरसने का कोई कारण नहीं है। जहां तक मुस्लिम-घृणा का सवाल है, पिछले 75 साल में भारत बहुत बदल गया है। उसमें न तो कोई मुस्लिम लीग है और न ही कोई जिन्ना है।
अब मुस्लिम लीग को टक्कर देने के लिए किसी हिंदू महासभा की जरुरत भी नहीं रह गई है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत के इस एतिहासिक कथन पर ध्यान दीजिए कि हिंदुओं और मुसलमानों का डीएनए एक ही है। यदि हिंदुओं के नाम पर बना संगठन-हिंदू महासभा- ऐसा बर्ताव करे, जैसा कि इस्लाम के नाम पर अरब आक्रामक बादशाह और ईसा के नाम पर रोम के पोप किया करते थे तो अब आप वैसा ही करके क्या भारत या हिंदुत्व की प्रतिष्ठा बढ़ा रहे हैं?
गांधीजी मनुष्य थे। गलतियां उनसे भी हुई हैं लेकिन गांधी जैसा मनुष्य इस पृथ्वी पर कोई दूसरा अभी तक तो पैदा नहीं हुआ है, उसे आप ‘राक्षस’ या ‘असुर’ बताकर दुनिया को क्या संदेश देना चाहते हैं? आपके कुछ भी कहने से गांधी का तो कुछ भी नहीं बिगडऩे वाला है लेकिन जो आक्षेप आप गांधी पर लगा रहे हैं, क्या वह आप ही चस्पां नहीं हो रहा है? (नया इंडिया की अनुमति से)
-शंभुनाथ
बंगाल दुर्गा पूजा के अवसर पर मानो सुरापान कर लेता है, इतना आनंदातिरेक शायद ही किसी अन्य राज्य में किसी त्योहार के अवसर पर हो। यहां की एक बड़ी खूबी धर्म और कलाओं का सम्मिलन है, जो धर्म के सौंदर्य को सार्वभौम बना देता है। पूरा मामला आस्था और अनास्था से ऊपर उठ जाता है। स्त्री, बच्चे, बुजुर्ग और नौजवान नए परिधान, नए जोश और प्रेमोन्माद में होते हैं! हिंसा के एक पुराने बिंब का पूरी तरह आनंदोत्सव में बदल जाना, यह कलाओं का कमाल है! इससे कला की शक्ति का बोध होता है।
इस अवसर पर दो- चार बातें दिमाग में उभर रही हैं। पहली बात यह कि दुर्गा अब शाक्त परंपरा और बंगाल के हिंसक जमींदारों की शक्तिपूजा तक सीमित न होकर काफी रूपांतरित हो गई हैं। वह देवी से ज्यादा एक उत्सव हैं-- सामूहिकता का उत्सव।
ध्यान देना चाहिए कि दुर्गा अपने आपमें कुछ नहीं है। उसकी कल्पना एक ऐसी शक्ति के रूप में की गई है, जो विभिन्न देवताओं की शक्ति लेकर निर्मित होती है । भारत भी विभिन्न जातियों, भाषाओं और संस्कृतियों से ऐसे ही बना है। हमारी हिंदी भी तमाम बोलियों, उपभाषाओं और स्थानीय भाषाओं से शक्ति लेकर ऐसे ही बनी है। दरअसल सामूहिक असहमति में ही शक्ति है, अन्यथा सब अरण्यरोदन है!
दुर्गा का दूसरी सदी से पहले कोई अस्तित्व नहीं है। दूसरी से चौथी सदी की मिली मूर्तियों में वह चार हाथ वाली देवी हैं। किसी में वह छह या आठ हाथ वाली हैं। काफी बाद में वह दस हाथ वाली देवी बनती हैं। छठी सदी की एलोरा की मूर्ति में दुर्गा ने एक पूर्ण महिष पर अपना दाहिना पैर रखा है। बोस्टन म्यूजियम में रखी 10वीं सदी की एक अष्टभुजा मूर्ति में दुर्गा महिष के दो सींगों सहित कटे सिर पर खड़ी हैं। पौराणिक कथा और मूर्तिकला के संबंध के अध्ययन से बहुत सी बातें साफ होती हैं!
दुर्गा की एक व्याख्या इस रूप में की जा सकती है कि यह स्त्री के 'ना' कहने के अधिकार की कथा है। पुरुष उत्पीड़न और वर्चस्व के प्राचीन युग में एक ऐसी स्त्री की भारतीय कल्पना सम्भव हुई है, जिसमें एक स्त्री अपनी यौनिकता पर अपना अधिकार रखना चाहती है। किसी ने अपनी ताकत प्रदर्शित करते हुए प्रेम निवेदन कर दिया तो स्त्री को उसके निवेदन के आगे झुकना होगा, इस नियति को दुर्गा चुनौती देती हैं। वह बलात्कार के विरुद्ध एक शक्ति है, जो हर स्त्री के भीतर है!
एक अनोखी बात वैष्णो देवी को लेकर है। दुर्गा का यहां वैष्णो देवी नाम इसलिए है कि वह शिव की जगह विष्णु से जुड़ी हैं! आज ही दल नहीं बदला जाता, पहले भी दल- बदल होता था!
इस कल्पना में देखा जाता है कि महिषासुर की जगह भैरव दुर्गा के पीछे पड़ता है और दुर्गा भागती है। यह भी स्पष्ट यौन उत्पीड़न का मामला है! जम्मू के वैष्णो देवी के मंदिर के पास ही भैरव का भी मंदिर है।
ऐसी ही बहुत सारी बातें हैं। नवमी सामने है। दुर्गा पूजा अब हर प्रान्त में होने लगी है। विदेशों में होने लगी है। इस जमाने में पूजा का मतलब है खाना- पीना और मनोरंजन! अब धर्म को ढूंढना हो तो वह सिर्फ राजनीति की गुफ़ाओं में मिलेगा।
दशहरा में भी रावण दहन का महान दायित्व उसे दिया जाता है, जिसने दशहरा उत्सव में सबसे ज्यादा चंदा दिया है! अब आज राम कहां मिलें!!
तो सभी को विजयादशमी की शुभकामनाएं! और निराला की ये यादगार पंक्तियां :
होगी जय होगी जय, हे पुरुषोत्तम नवीन,
कह महाशक्ति राम के वदन में हुई लीन!
दुर्गा को कलाओं की शक्ति से नए- नए रूप में देखना होगा और खुद को नवीन करना होगा-- सिर्फ फैशन के नए कपड़े और नए जूते भर नहीं---- नई जीवन दृष्टि भी चाहिए!
-ध्रुव गुप्त
दशहरे में भगवान राम के विजयोत्सव के साथ रावण के पुतला दहन की परंपरा भी है।ऐसा क्यों है यह समझ नहीं आता। युद्ध में मारे गए किसी योद्धा को एक कर्मकांड की तरह बार-बार जलाकर मारना मनुष्यता के विपरीत कर्म है। इस परंपरा पर पुनर्विचार की आवश्यकता कभी किसी ने महसूस नहीं की। बेशक रावण का अपराध गंभीर था। उसके द्वारा देवी सीता के अपहरण को इसीलिए न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता कि उसने ऐसा अपनी बहन शूर्पणखा के अपमान का बदला लेने के उद्देश्य से किया था। शूर्पणखा का अपमान सीता ने नहीं किया था। यह अपमान राम और लक्ष्मण ने किया था। बदला भी उन्हीं से लिया जाना चाहिए था। अपने पक्ष की किसी स्त्री के अपमान का प्रतिशोध शत्रुपक्ष की स्त्री का अपमान करके लेना स्त्री को पुरुष की वस्तु या संपत्ति समझने की पुरुषवादी मानसिकता की उपज है। निसंदेह रावण ने अक्षम्य अपराध किया था लेकिन इस अपराध के बीच रावण के चरित्र का एक उजला पक्ष भी सामने आया था। रावण ने अपनी बहन की नाक के एवज में सीता की नाक काटने का प्रयास नहीं किया। सीता के साथ उसका आचरण मर्यादित रहा था। उनकी इच्छा के विरुद्ध रावण ने उनसे निकटता बढ़ाने का प्रयास नहीं किया। स्वयं 'रामायण' के रचयिता महर्षि बाल्मीकि ने इस तथ्य की पुष्टि करते हुए लिखा है - राम के वियोग में व्यथित सीता से रावण ने कहा कि यदि आप मेरे प्रति काम-भाव नहीं रखती हैं तो मैं आपका स्पर्श भी नहीं कर सकता।
विजयादशमी का दिन राम के हाथों रावण की पराजय और मृत्यु का दिन है। हमारी संस्कृति में किसी युद्ध में एक योद्धा के लिए विजय और पराजय से ज्यादा बड़ी बात उसका पराक्रम माना जाता रहा है। रावण अपने जीवन के अंतिम युद्ध में एक योद्धा की तरह ही लड़ा था। राम ने उसे मारकर उसे उसके अपराध का दंड दिया। बात वहीं समाप्त हो जानी चाहिए थी। उसके इस अपराध को छोड़ दें तो रावण में गुणों की कमी नहीं थी। वह वीर, तेजस्वी, प्रतापी और पराक्रमी होने के अलावा वास्तुकला और संगीत सहित कई विद्याओं का जानकार था। महर्षि बाल्मीकि कुछ दुर्गुणों के बावजूद रावण को चारों वेदों का ज्ञाता, महान विद्वान और धैर्यवान बताते हैं। वीणा बजाने में उसे विशेषज्ञता हासिल थी। उसने भगवान शिव के तांडव की धुन को वीणा पर बजाकर उन्हें सुनाया था। इससे प्रसन्न होकर शिव ने उसे एक शक्तिशाली खड्ग उपहार में दिया था। उसने एक वाद्य यंत्र का आविष्कार भी किया था जिसे रावण हत्था कहा जाता है। उसे मायावी भी कहा गया क्योंकि वह इंद्रजाल, तंत्र, सम्मोहन जैसी गुप्त विद्याओं का भी ज्ञाता था।
राम ज्ञानी थे। रावण के अहंकार और अपराध के बावजूद वे उसकी विद्वता और ज्ञान का सम्मान करते थे। उसकी मृत्यु पर दुखी भी हुए थे। उसके मरने से पहले उन्होंने ज्ञान की याचना के लिए अपने भ्राता लक्ष्मण को उसके पास भेजा था। इसका अर्थ यह है कि स्वयं राम ने मान लिया था कि रावण को उसके किए अपराध का दंड मिल चुका है। अब उससे शत्रुता का कोई अर्थ नहीं। फिर हम कौन हैं जो सहस्त्रों सालों से रावण को निरंतर जलाए जा रहे हैं ? हमारी संस्कृति में तो युद्ध में लड़कर जीतने वालों का ही नहीं, युद्ध में लड़कर मृत्यु को अंगीकार करने वाले योद्धाओं को भी सम्मान देने की परंपरा रही है। मरने के बाद भी एक योद्धा को बार-बार मारना और मारने के बाद उसकी मृत्यु का उत्सव मनाना हर युग और हर संस्कृति में अस्वीकार्य है।
अब रावण में कितनी अच्छाई थी और कितनी बुराई , इस पर बहस होती रहेगी।हां, एक बड़ी शिकायत इस देश के चित्रकारों और मूर्तिकारों से रहेगी। वे लोग रावण के ऐसे कुरूप और वीभत्स पुतले, चित्र, मूर्तियां क्यों बनाते हैं ? रावण कुरूप तो बिल्कुल नहीं था। उसके दस सिर भी नहीं थे। दस सिर की कल्पना यह दिखाने के लिए की गई थी कि उसमें दस लोगों के बराबर बुद्धि और बल था। जैसा कि हमारी रामलीला, फिल्मों या टीवी सीरियल्स में चित्रित किया जाता रहा है, वह सदा प्रचंड क्रोध से भी नहीं भरा रहता था और न मूर्खों की भांति बात-बेबात अट्टहास ही करता था। 'रामायण' में ऐसे प्रसंग भरे पड़े हैं जिनसे यह अनुमान होता है कि अहंकार के बावजूद रावण में गंभीरता थी और स्थितियों के अनुरूप आचरण का विवेक भी। देखने में भी वह राम से कम रूपवान नहीं था। उसके रूप, सौंदर्य और शारीरिक-सौष्ठव के उदाहरण दिए जाते थे। हनुमान स्वयं पहली बार रावण को देखकर मोहित हो गए थे। 'वाल्मीकि रामायण' का यह श्लोक देखें - अहो रूपमहो धैर्यमहोत्सवमहो द्युति:। अहो राक्षसराजस्य सर्वलक्षणयुक्तता॥' अर्थात रावण को देखते ही हनुमान मुग्ध होकर कहते हैं कि रूप, सौंदर्य, धैर्य और कांति सहित सभी लक्षणों से युक्त रावण में यदि अधर्म बलवान न होता तो वह देवलोक का भी स्वामी बन सकता था।
वैसे भी देश-दुनिया के लंबे इतिहास में रावण अकेला अपराधी नहीं था। उससे भी बड़े- बड़े अभिमानी, दुराचारी और हत्यारे हमारे देश में हुए हैं। उनके पुतले कभी नहीं जलाए गए। एक अकेले रावण के प्रति हमारा ऐसा दुराग्रह क्यों ? कहीं ऐसा तो नहीं कि रावण को लंपट और वीभत्स दिखाकर, उसकी हत्या का वार्षिक समारोह मनाकर वस्तुतः हम अपने भीतर के काम, क्रोध, अहंकार और भीरुता से ही आंखें चुराने का प्रयास कर रहे होते हैं ? मरे हुए रावण के पुतलों को जलाने में कोई शौर्य नहीं है। उसे उसके किए का दंड हजारों सालों पहले मिल चुका है। जलाना है तो अपने ही भीतर छुपी लंपटता, कामुकता और बलात्कारी मानसिकता जैसे मनुष्यता के शत्रुओं को जलाकर राख कर डालिए ! एक सभ्य समाज की कल्पना को साकार करने की दिशा में यह एक सच्ची पहल होगी।