विचार/लेख
विनोद कुमार शुक्ल के लिए नांदगांव!
मेरे नगर की मौजूदा नई पीढ़ी को शायद इल्म नहीं होगा कि हिन्दी कविता, उपन्यास और कहानियों का लगभग सबसे महत्वपूर्ण लेखक राजनांदगांव का बेटा है। कुंअर नारायण, केदारनाथ सिंह, वीरेन्द्र डंगवाल, मंगलेश डबराल, सुदामा प्रसाद पांडे ‘धूमिल’ जैसे कई कवि प्रभावित करते चले गए। 1 जनवरी 1937 को पैदा हुए विनोद कुमार शुक्ल के हमउम्र ज्ञानरंजन, नरेश सक्सेना, रमेशचंद्र शाह भी अपनी विधाओं में मूर्धन्य हैं। अप्रतिम कवि होने के साथ उपन्यास और कहानी लेखन में विनोदजी ने असंभाव्य कूबत हासिल कर ली है। स्टेट हाईस्कूल की पढ़ाई के बाद वे जबलपुर, रायपुर जैसे शहरों में रहते राजनांदगांव आना और याद करना भूलते नहीं थे। उन्होंने संस्मरण लिखे हैं। कई जगहों पर इशारों में बातें की हैं। दिलचस्प है कि उनके जन्म के दिन ही राजनांदगांव के सबसे पुराने सिनेमाघर श्री कृष्णा टॉकीज का उद्घाटन हुआ था। उसके मालिक सप्रे बद्रर्स से उनके चाचा और पिता के अच्छे और शायद व्यावसायिक संबंध भी थे। श्री कृष्णा टॉकीज की याद करते अपने परिवार के हमउम्र बच्चों का रेखांकन विनोद जी इस तरह करते हैं ‘सुबह घर के आंगन से नहाता हुआ नंग धड़ंग लडक़ा नहाने से बचने भागते हुए टॉकीज की बंद गेट की सलाख के अंदर घुस जाता तो ताला खुलवाने परिवार के चार पांच लोग चौकीदार को ढूंढऩे निकलते। आते जाते लोग तमाशा देखने खड़े हो जाते। घर के लोगों को डर भी लगता कि सीढ़ी से होकर बालकनी में न पहुंच जाएं। वहां से नीचे न गिर पड़ें। सहायता में सडक़ का खोमचे वाला हाथ में रेवड़ी लेकर सलाख के अंदर हाथ डाल रेवड़ी दिखाता कि रेवड़ी लेने आए तो उसे पकड़ लें।’
विनोदजी के पितामह 1890 के आसपास उत्तरप्रदेश के जगतपुर से नांदगांव आए थे। उसी वर्ष नांदगांव रेल लाइन से जुड़ा। तब तक कलकत्ता से आने वाली रेल केवल रायपुर तक आती जाती थी। बेहद पारिवारिक व्यक्ति होने से घर और परिवार की दुनिया के अंदर पूरा विश्व विनोद जी समेट सकते हैं। पितामह ने मोती हलवाई की दुकान के सामने किराने की छोटी सी दुकान खोली थी। रियासत का दीवान कुतुबुद्दीन रोज शहर का पैदल चक्कर लगाते उनकी दूकान के सामने रुका और पूछताछ की। पितामह ने बैठे-बैठे ही उत्तर दिया। हाथ जोडक़र नमस्कार भी नहीं किया। अकड़ देख दीवान ने उनके पितामह को ठेकेदारी करने की सलाह दी।
बस वहां से परिवार के दिन फिरने शुरू हुए। लखोली गांव में बाबा की खेती थी। कटाई के बाद धान के बोरे बाड़े में रखे जाते। बिकने गंज चले जाते। अलसी की खेती भी होती। अलसी अनाज के कोठे में जमीन के नीचे भर दी जाती। अनाज कोठे में बाबा कमाई के रुपए बदरा में डाल देते। बदरा हाथ से बुनी मजबूत धागों की छोटे छेद वाली थैली होती रुपए रखने के काम आती। अलसी के ढेर में ऊपर से रुपये की थैली डालते। वह अपने आप नीचे तल तक पहुंच जाती। अलसी की कोठी में चोर कूदे तो वह अलसी के तल तक डूब जाता और निकल नहीं पाता। इसलिए रुपये सुरक्षित होते। बाद के वर्षों में अलसी की कोठी की जगह पाखाना बन गया।
घर से लगी हुई गुड़ाखू लाइन तक विनोदजी आते थे। आगे बढक़र फांसी बंगले को ऊपर से देखने में उन्हें डर नहीं लगा। लोगों को स्टेशन से निकलते ही दिल्ली दरवाजा दिखता। वह महारानी विक्टोरिया के भारत आगमन के समय बनाया गया था। दिल्ली दरवाजा के बीच का रास्ता चौड़ाई में कम था। इसलिए आजू बाजू से भी रास्ते बन गए। मुझे अच्छी तरह याद है मेरे घर के सामने से विनोद कुमार शुक्ल धीरे-धीरे चलते अपना बस्ता उठाए घर से स्कूल आते-जाते थे। मेरी यादों में खाकी हाफ पैंट या पतलून ज्यादा पहनते थे। स्कूल के सामने टाउन हॉल की चहारदीवारी के लोहे के ग्रिल में लातीनी वाक्य है ‘मेन्स सेना इन कारपोर सेनो’ अर्थात ‘स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क रहता है।’
रहस्यमयी भाषा में पुश्तैनी घर की याद करते विनोद जी ने लिखा है ‘राजनांदगांव में जो घर था, उसकी पुरानी परछी मेरे रायपुर के घर में है। रायपुर में जो ध्रुव तारा है, वह राजनांदगांव का ध्रुव तारा है। ब्रम्हांड से जो मेरा बचकाना परिचय है वह राजनांदगांव से है।’ जहां मानव मंदिर है, वहां विनोदजी के चाचा का घर था। आर्थिक हालत खराब होने से चाचा ने घर बेच दिया। एक दिन मानव मंदिर में आग लग गई। लाख के मकान की तरह वह जल गया। तब से होटल चौबीसों घंटे खुला रहता है और इसमें एक भी दरवाजा नहीं है। अपनी मां से विनोद कुमार शुक्ल का गहरा लगाव रहा है। वह शायद कहीं ज्यादा संवेनदशील रहा है। वे लिखते हैं अम्मा ने जलेबी लाने के पैसे दिए थे। घर के दाहिनी ओर भारत माता चौक पर मोती हलवाई की दुकान जमाने से रही है। झबरे घुंघराले बाल वाला काला आदमी जलेबी बनाता था। जलेबी की कड़ाही दिखने में मोटे कोयले की बनी अधिक थी। लोहे की कम। तब मैंने उससे पूछा था। आज कड़ाही मांजे की नहीं? पंद्रह साल से नहीं मांजे उसने कहा। उसके झबरे घुंघराले बाल और तेल पसीने के कारण भी मेरा पूछने का मन नहीं था कि आज नहाए कि नहीं। परंतु उसने जवाब दिया था मैं अठारह साल से नहीं नहाया।
एक गुजराती नाई किरायेदार था। वह राजनांदगांव के राजा दिग्विजयदास के बाल काटने लालबाग महल जाया करता। बड़े लोगों के ही बाल काटा करता। बाल काटने वाले चार पांच थे। वह केवल निरीक्षण करता और सिखाता था। वह झक सफेद कमीज और सफेद पतलून पहनता। सुबह सात बजे दुकान खोलता। तब बहुत गोरा लगता। उसकी दूकान में लंबे समय तक हबीब तनवीर के साथ काम करने वाला नाचा का एक कलाकार बाल काटने का काम करता था। चरणदास चोर के चरणदास की पान दूकान भी गुड़ाखू लाइन में थी, लालूराम उसका नाम था। दीना दर्जी हम लोगों के वक्त के राजनांदगांव का बहुत महत्वपूर्ण और लोकप्रिय किरदार रहा है। विनोद कुमार ने अपने संस्मरण में दीना दर्जी का बेहतर वर्णन किया है। ‘‘चाचाजी का दर्जी दीना का हमारे घर से चार पांच घर छोड़ घर था। सामने बरामदे में मशीन लेकर बैठता। नांदगांव के राजा दिग्विजयदास के कपड़े भी वह सिलता था। उसका चश्मा नाक तक खिसका होता और मशीन चलाते चलाते चश्मे के ऊपर से जब हमें देखता तो पुराने कपड़े ठीक कराने की हिम्मत टूट जाती थी। उसका पेट बड़ा था। नांदगांव क्लब में सारे सदस्य उसके ग्राहक थे। क्लब में ब्रिज का खेल होता था। चाचाजी ब्रिज के अच्छे खिलाड़ी थे। दीना दर्जी ने उन्हीं से सीखा, और उनका पार्टनर हो गया। उसके कंधे पर नाप लेने का टेप हमेशा टंगा होता, ब्रिज खेलते समय भी। दीना दर्जी के मशीन के आसपास बिखरी और कोने में रंगबिरंगी कपड़ों की कतरनें पड़ी होती थीं। जीवन की कतरनें भी रचना के कोने में बिखरी दिखायी दे जातीं।‘‘
किशोरीलाल शुक्ल की चर्चा करते विनोद जी ने बताया कि चाचाजी ने दिग्विजय दास को किले में उनके नाम से महाविद्यालय खोलने का प्रस्ताव रखा। दिग्विजय दास ने मना कर दिया। तब चाचाजी ने कहा हम लोग एक झोपड़ी में दिग्विजय दास नाम से महाविद्यालय खोल लेंगे। राजा को शायद लगा झोपड़ी में उनके नाम का महाविद्यालय खुलना ठीक नहीं और उन्होंने किले को दान में दे दिया। विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास नौकर की कमीज में ‘गंगे गुरु’ एक पात्र हैं। राम टॉकीज के पास मानव मंदिर के चौराहे पर उनकी पान की एक दुकान थी। गंगे गुरु मोटी चोटी रखते और तिलक लगाते। वे अधगंजे थे। प्रायमरी स्कूल में उनका लडक़ा संपत विनोदजी का सहपाठी था। संपत भी उनकी रचना में पात्र बना। वह भीडू के नाम से जाना जाता। दोस्त के लिए वह किसी से भी भिड़ जाया करता था। विनोदजी की मां का बचपन बांग्लादेश में बीता था। कानपुर से उनके नाना का परिवार ढाका के पास जमालपुर में बस गया था। वे मिट्टी तेल का व्यापार करते थे। बुढ़ापे में भी मां, बंकिम, शरदचंद्र, टैगोर की किताब मिल जाती तो कुछ अपनी फुरसत में पढ़ लेतीं।
राजनांदगांव को यशस्वी बना गए गजानन माधव मुक्तिबोध से विनोदजी का परिचय छात्र जीवन से था। मुक्तिबोध जब नागपुर आए तब उनके चचेरे भाई बैकुंठनाथ शुक्ल वहां वकालत पढ़ रहे थे। बैकुंठनाथ वकालत करने छत्तीसगढ़ के बैकुंठपुर शहर में बस गए थे।
मुक्तिबोध ने एक दिन बैकुंठनाथ का जिक्र करते कहा ‘हंस’ पत्रिका के ग्राहकों की सूची में जो पता था, उसमें बैकुंठनाथ, बैकुंठपुर पढक़र बहुत अजीब लगता था। बैकुंठनाथ कम्युनिस्ट पार्टी के सक्रिय कार्यकर्ता थे और अंडरग्राउंड भी रहे। शुरू में मुक्तिबोध बसंतपुर में रहते थे। बड़े भाई के कहने से विनोद कुमार शुक्ल अपनी कविता दिखाने जैसे तैसे मुक्तिबोध के पास गए। मुक्तिबोध जलती हुई कंदील लेकर आए ताकि अंधेरा दूर हो। वे पायजामा और सैंडो बनियान पहने थे।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत की कार्यपालिका और न्यायपालिका में आजकल भिड़ंत के समाचार गर्म हैं। भारत के सर्वोच्च न्यायालय का कहना है कि जजों की नियुक्तियों में सरकार का टांग अड़ाना बिल्कुल भी उचित नहीं है जबकि मोदी सरकार के कानून मंत्री किरन रिजिजू का कहना है कि सर्वोच्च न्यायालय की न्यायाधीश-परिषद (कालेजियम) अगर यह समझती है कि सरकार जजों की नियुक्ति में टांग अड़ा रही है तो वह उनकी नियुक्ति के प्रस्ताव उसके पास भेजती ही क्यों है?
कानून मंत्री के इस बयान ने हमारे जजों को काफी नाराज कर दिया है। वे कहते हैं कि जजों की नियुक्ति में सरकार को आनाकानी करने की बजाय कानून का पालन करना चाहिए। कानून यह है कि न्यायाधीश परिषद जिस जज का भी नाम न्याय मंत्रालय को भेजे, उसे वह तुरंत नियुक्त करे या उसे कोई आपत्ति हो तो वह परिषद को बताए लेकिन लगभग 20 नामों के प्रस्ताव कई महिनों से अधर में लटके हुए हैं। न सरकार उनके नाम पर ‘हाँ’ कहती है और न ही ‘ना’ कहती है। अजब पर्दा है कि वह चिलमन से लगी बैठी है।
जबकि सर्वोच्च न्यायालय ने उस 99 वें संविधान संशोधन को 2015 में रद्द कर दिया था, जिसमें राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग को अधिकार दिया गया था कि वह जजों को नियुक्त करे। इस आयोग में सरकार की पूरी दखलंदाजी रह सकती थी। अब पिछले साल सर्वोच्च न्यायालय ने 3-4 माह की समय-सीमा तय कर दी थी, उन नामों पर सरकारी मोहर लगाने की, जो भी नाम न्यायाधीश परिषद प्रस्तावित करती है। इस वक्त सरकार ने 20 जजों की नियुक्ति-प्रस्ताव वापस कर दिए हैं, उसमें एक जज घोषित समलैंगिक हैं और वह भी ऐसे कि जिनका भागीदार एक विदेशी नागरिक है।
इसके अलावा सरकार और सामान्य लोगों को भी यह शिकायत रहती है कि ये जज परिषद अपने रिश्तेदारों और उनके मनपसंद वकीलों को भी जज बनवा देती है। न्यायपालिका में राजनीति की ही तरह भाई-भतीजावाद और भ्रष्टाचार किसी न किसी तरह पनपता रहता है। जजों की नियुक्ति में सत्तारुढ़ नेताओं की भी दखलंदाजी भी देखी जाती है। वे अपने मनपसंद वकीलों को जज बनवाने पर तुले रहते हैं और जो जज उनके पक्ष में फैसले दे देते हैं, उन्हें पुरस्कार स्वरूप पदोन्नतियां भी मिल जाती हैं। ऐसे जजों को सेवा-निवृत्ति के बाद भी राज्यपाल, उप-राष्ट्रपति, किसी आयोग का अध्यक्ष या राज्यसभा का सदस्य आदि कई पद थमा दिए जाते हैं।
सरकारी हस्तक्षेप के ये दुष्प्रभाव तो सबको पता हैं लेकिन यदि न्यायाधीशों की नियुक्ति भी सीधे सरकार करने लगेगी तो लोकतांत्रिक शक्ति-विभाजन के सिद्धांत की घोर अवहेलना होने लगेगी। यदि सरकार को न्यायाधीशों की नियुक्ति का अधिकार दे दिया जाए तो क्या न्यायाधीशों को भी यह अधिकार दिया जाएगा कि वे राष्ट्रपतियों, प्रधानमंत्रियों, मुख्यमंत्रियों और मंत्रियों की नियुक्ति में भी हाथ बंटाएं?
अमेरिका जैसे कुछ देशों में वरिष्ठ जजों की नियुक्ति राष्ट्रपति ही करता है। वे जीवनपर्यंत जज बने रह सकते हैं। भारत की न्यायिक नियुक्तियां अधिक तर्कसंगत और व्यावहारिक हैं। वे संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था के अनुकूल भी हैं। सरकार को जजों की नियुक्ति पर या तो तुरंत मोहर लगानी चाहिए या न्यायाधीश परिषद के साथ बैठकर स्पष्ट संवाद करना चाहिए। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
चीन के राष्ट्रपति शी चिन फिंग और उनकी कम्युनिस्ट पार्टी के खिलाफ आजकल जिस तरह के आंदोलन जगह-जगह हो रहे हैं, वे 1989 में थ्यानमेन चौराहे पर हुए भयंकर नरसंहार की याद ताजा कर रहे हैं। पिछले 33 साल में इतने जबर्दस्त प्रदर्शन चीन में दुबारा नहीं हुए। ये प्रदर्शन तब हो रहे हैं जबकि यह माना जा रहा है कि माओत्से तुंग के बाद शी चीन फिंग सबसे अधिक लोकप्रिय और शक्तिशाली नेता हैं। अभी-अभी उन्होंने अपने आपको तीसरी बार राष्ट्रपति घोषित करवा लिया है लेकिन चीन के लगभग 10 शहरों के विश्वविद्यालयों और सडक़ों पर उनके खिलाफ नारे लग रहे हैं।
ऐसा क्यों हो रहा है? सारे अखबार और टीवी चैनल मानकर चल रहे हैं कि ये प्रदर्शन कोरोना महामारी के दौरान जारी प्रतिबंधों के खिलाफ हो रहे हैं। मोटे तौर पर यह बात सही है। चीन में कोरोना की शुरुआत हुई और वह सारी दुनिया में फैल गया लेकिन दुनिया से तो वह विदा हो लिया किंतु चीन में उसका प्रकोप अभी तक जारी है। ताजा सूचना के मुताबिक 40 हजार लोग अभी भी उस महामारी से पीडि़त पाए गए हैं। चीनी सरकार ने इस महामारी का मुकाबला करने के लिए दफ्तरों, बाजारों, कारखानों, स्कूल-कालेजों और लगभग हर जगह कड़े प्रतिबंध थोप रखे हैं।
उनकी वजह से बेरोजगारी बढ़ी है, उत्पादन घटा है और मानसिक बीमारियां फैल रही हैं। इसीलिए लोग उन प्रतिबंधों का उल्लंघन कर रहे हैं। उन्हें हटाने की मांग कर रहे हैं। लेकिन वे अब इससे भी ज्यादा आगे बढ़ गए हैं। वे नारे लगा रहे हैं कि शी चिन फिंग तुम गद्दी छोड़ो। इसका कारण क्या है? वह कारण महामारी से भी अधिक गहरा है। वह है- चीनी लोगों का तानाशाही से तंग होना। वे अब लोकतंत्र की मांग कर रहे हैं। सोश्यल मीडिया के जरिए यह संदेश घर-घर पहुंच रहा है।
इस मांग का सबसे ज्यादा असर शिनच्यांग (सिंक्यांग) प्रांत में देखने को मिल रहा है। उसकी राजधानी उरूमची में 10 लोगों की जान जा चुकी है। शिनच्यांग में उइगर मुसलमान रहते हैं। उनकी जिंदगी चीनी हान मालिकों के सामने गुलामों की तरह गुजरती है। इस प्रांत में लगभग 30 साल पहले मैं काफी लोगों से मिल चुका हूं। वहां हान जाति के चीनियों के विरुद्ध लंबे समय से आंदोलन चल रहा है। उइगर मुसलमानों के इस बगावती तेवर को काबू करने के लिए लगभग 10 लाख मुसलमानों को सरकार ने यातना-शिविरों में डाल रखा है।
गैर-हान तो चीनी सरकार के विरुद्ध हैं ही, अब हान चीनी भी खुले-आम चीन में तानाशाही के खात्मे की मांग कर रहे हैं। लेकिन चीनी सरकार का कहना है कि यदि वह तालाबंदी खोल देगी तो 80 साल से ज्यादा उम्र के लगभग 50 करोड़ लोगों की जिंदगी खतरे में पड़ जाएगी। यदि महामारी ने विकराल रूप धारण कर लिया तो लाखों लोग मौत के घाट उतर जाएंगे। दोनों पक्षों के अपने-अपने तर्क हैं लेकिन यह आंदोलन बेकाबू हो गया तो कोई आश्चर्य नहीं कि चीन का भी, रूस की तरह, शायद कम्युनिस्ट पार्टी से छुटकारा हो जाए। (नया इंडिया की अनुमति से)
पढ़ें बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक का लिखा-
कल भारत का संविधान-दिवस था और कल ही तमिलनाडु के एक व्यक्ति ने यह कहकर आत्महत्या कर ली कि केंद्र सरकार तमिल लोगों पर हिंदी थोप रही है। आत्महत्या की यह खबर पढक़र मुझे बहुत दुख हुआ। पहली बात तो यह कि किसी ने हिंदी को दूसरों पर लादने की बात तक नहीं कही है। तमिलनाडु की पाठशालाओं में कहीं भी हिंदी अनिवार्य नहीं है। हाँ, गांधीजी की पहल पर जो दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा बनी थी, वह आज भी लोगों को हिंदी सिखाती है। हजारों तमिलभाषी अपनी मर्जी से उसकी परीक्षाओं में भाग लेते हैं। आत्महत्या करनेवाले सज्जन चाहते तो वे इसका भी विरोध कर सकते थे लेकिन विरोध का यह भी क्या तरीका है कि कोई आदमी अपनी या किसी की हत्या कर दे। जो अहिंदीभाषी हिंदी नहीं सीखना चाहें, उन्हें पूरी स्वतंत्रता है लेकिन वे कृपया सोचें कि ऐसा करके वे अपना कौनसा फायदा कर रहे हैं?
क्या वे अपने आप को बहुत संकुचित नहीं कर रहे हैं? सिर्फ तमिल के ज़रिए क्या वे तमिलनाडु के बाहर किसी से कोई व्यवहार कर सकते हैं? यदि 10-15 प्रतिशत तमिल लोग अंग्रेजी सीख लेते हैं तो वे नौकरियां तो पा जाएंगे, क्योंकि केंद्र की सभी सरकारें अभी भी गुलामी का जुआ धारण किए हुए हैं लेकिन वे लोग खुद से पूछें कि भारत की आम जनता के साथ वे किस भाषा में बात करेंगे? इसमें शक नहीं कि भारत की प्रत्येक भाषा उतनी ही सम्मानीय है, जितनी कि हिंदी है लेकिन प्रत्येक भाषाभाषी को यदि अखिल भारतीय स्तर पर काम करना है तो वह हिंदी की उपेक्षा कैसे कर सकता है? जब ह.द. देवेगौड़ा भारत के प्रधानमंत्री बने तब वे हिंदी का एक वाक्य भी ठीक से बोल नहीं पाते थे लेकिन उन्होंने मुझसे आग्रहपूर्वक हिंदी सीखी और सारे उत्तर भारत के कार्यक्रमों में वे अपना भाषण हिंदी में पढक़र देने लगे। हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के बीच कोई विरोध नहीं है।
राजनीतिक बहकावे में आकर कोई भी अतिवादी कदम उठाना उचित नहीं है। अब तो संविधान दिवस पर कानून मंत्री किरन रिजिजू ने घोषणा की है कि अब अदालतों के फैसलों का अनुवाद क्षेत्रीय भाषाओं में करवाने की भी व्यवस्था की जा रही है। मैं तो चाहता हूं कि अदालतों की बहस भी हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं में की जाए ताकि लोग ठगे न जाएं। हिंदीभाषियों को चाहिए कि वे कम से कम एक अन्य भारतीय भाषा का कामचलाऊ ज्ञान तो प्राप्त करें ताकि अहिंदीभाषियों को लगे कि हम उनकी भाषाओं का भी पूरा सम्मान करते हैं। भारत सरकार को चाहिए कि नेहरु-काल के त्रिभाषा-सूत्र की बजाय वह अब द्विभाषा-सूत्र लागू करे और यदि कोई विदेशी भाषा पढऩा चाहे तो उसे अल्पावधि प्रशिक्षण की भी सुविधा दी जाए। (नया इंडिया की अनुमति से)
-अशोक पांडे ·
बाहर से देखने पर मार्शल आर्ट्स फिल्मों का यह नायक आपको बिजली की बनी मांसपेशियों वाला एक खामोश चुम्बक नजर आएगा. उसकी अकल्पनीय तेजी, शर्मीली आक्रामकता और तराशी हुई उसकी देह मिलकर एक ऐसा संयोजन बनाते थे कि 1970 के दशक के शुरुआती सालों में हॉलीवुड में बनाई अपनी पांच फिल्मों के बूते वह बीसवीं शताब्दी के सबसे लोकप्रिय और रहस्यमय मिथकों में शुमार हो गया.
ब्रूस ली को कौन नहीं जानता! मेरी और मुझसे ठीक पहले की पीढ़ी के अनगिनत लडके-लड़कियों ने उसके पोस्टर अपनी दीवारों पर लगाए. ड्रैगन शब्द से हमारा पहला परिचय भी उसी की फिल्मों के माध्यम से हुआ होगा.
उसकी लिखी चिठ्ठियाँ ‘लेटर्स ऑफ़ द ड्रैगन’ नाम की किताब में छपी हैं. इसे पढ़कर आपके सामने एक दूसरा ब्रूस ली आ खड़ा होता है. अपने व्यक्तिगत जीवन में भी यह आदमी उतना ही गहरा और बड़ा था जैसा उसे फिल्मों में दिखाया गया है. बल्कि असल जीवन में वह खुद द्वारा अभिनीत किसी भी कैरेक्टर से बड़ा नज़र आता है.
प्रेम और उदारता से लबालब ब्रूस ली को जीवन के एक भी सेकेण्ड का बरबाद होना गवारा नहीं था. एकांत के अपने हर पल में उसने जीवन का संधान किया. उसे जब मौक़ा मिला उसने दोस्तों को चिठ्ठियाँ लिखीं जिनमें वह अपने जीवन दर्शन के गूढ़तम रहस्यों से साक्षात्कार किया करता था. जीवन के आख़िरी सालों में उसने खुद को संबोधित करते हुए भी अनेक चिठ्ठियाँ लिखीं.
अगर आप समझते हैं कि उसके मूवमेंट्स की आश्चर्यजनक चपलता, जिसके बारे में विख्यात था कि वह अपने से तीन फुट दूर की किसी चीज पर एक सेकेण्ड के 500वें हिस्से में आक्रमण कर सकता था, केवल शारीरिक रियाज से पाई गयी होगी तो खुद को लिखी उसकी चिठ्ठियाँ पढ़िए.
बहुत कम लोग जानते होंगे ब्रूस ली कविताएं भी लिखता था. और शायद यह भी कि अपने जीवन को लेकर उसने जिन लक्ष्यों को तय किया था उन्हें वह बत्तीस साल की आयु तक पा चुका था. तैंतीस साल का होने से पहले वह इस दुनिया से जा चुका था.
उसके समय की सबसे खूबसूरत स्त्रियाँ उसके मोहपाश में बंधीं. अभिनेत्री शैरन फैरेल ने एक इंटरव्यू में बेझिझक कहा था - "वह एक अकल्पनीय प्रेमी था. स्त्री की देह का उसका ज्ञान बहुत विषद था. अपने बाक़ी प्रेमियों के लिए मेरे पास केवल वासना थी. ब्रूस ली सिर्फ और सिर्फ मोहब्बत था!"
कोई आश्चर्य नहीं ब्रूस ली ने कविताएं भी लिखीं - प्रेम और आत्मा के अँधेरे गलियारे उनकी विषयवस्तु बने.
उसे रियाज़ की ताकत का भरोसा था - चाहे कुंग-फू का कोई जटिल दांव हो, चाहे भीतर की तलाश. अपने लेखन में भी उसने भाषा के साथ किसी उस्ताद दार्शनिक-लेखक जैसा बर्ताव किया.
इन माय ओन प्रोसेस - शीर्षक से खुद को संबोधित किये गए एक ख़त के ब्रूस ली ने कम से कम नौ ड्राफ्ट लिखे.
गाबो मार्केज़ ने लिखा है - "मैंने सीखा है कि हर कोई पहाड़ की चोटी पर रहना चाहता है बिना यह जाने कि सच्ची खुशी इस बात में है कि उस पर चढ़ा कैसे गया है."
आज उसका जन्मदिन पड़ता है.
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
असम के महान सेनापति लाचित बरफुकन की 400 वीं जयंति पर बोलते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा है कि भारतीय इतिहास को फिर से लिखा जाना चाहिए। यही बात कुछ दिनों पहले गृहमंत्री अमित शाह ने भी कही थी। उनके इस कथन का अर्थ यह लगाया जा रहा है कि अभी तक भारत का जो प्राचीन, मध्यकालीन और अर्वाचीन इतिहास लिखा गया है, उसे रद्द करके संघी और जनसंघी रंग में रंगकर सारे इतिहास को नए ढंग से पेश करने का षडय़ंत्र रचा जा रहा है। भारत के इतिहास को भी दो खानों में बांटने की कोशिश की जा रही है।
एक वामपंथी और दूसरा दक्षिणपंथी। यह ठीक है कि प्रत्येक इतिहासकार इतिहास की घटनाओं को अपने चश्मे से ही देखता है। इस कारण उसके अपने रूझान, पूर्वाग्रह और विश्लेषण-प्रक्रिया का असर उसके निष्कर्षों पर अवश्य पड़ता है। इसीलिए हम देखते हैं कि एक इतिहासकार अकबर को महान बादशाह बताता है तो दूसरा उसकी ज्यादतियों को रेखांकित करता है, एक लेखक इंदिरा गांधी को भारत के प्रधानमंत्रियों में सर्वश्रेष्ठ बताता है तो दूसरा उन्हें सबसे अधिक निरंकुश शासक सिद्ध करता है। इस तरह के दोनों पक्षों में कुछ न कुछ सच्चाई और कुछ न कुछ अतिरंजना जरुर होती है। यह पाठक पर निर्भर करता है कि वह उन विवरणों से क्या निष्कर्ष निकालता है। भारत में इतिहास-लेखन पर सोवियत संघ, माओवादी चीन और कास्त्रो के क्यूबा की तरह कभी कोई प्रतिबंध नहीं रहा।
यह ठीक है कि मुगल काल और अंग्रेजों के राज में जो इतिहास-लेखन हुआ है, वह ज्यादातर एकपक्षीय हुआ है लेकिन अब बिल्कुल निष्पक्ष लेखन की पूरी छूट है। हमारे इतिहासकार यदि यह बताएं कि विदेशी हमलावर भारत में क्यों सफल हुए और इस सफलता के बावजूद भारत को वे तुर्की, ईरान व अफगानिस्तान की तरह पूरी तरह क्यों नहीं निगल पाए तो उनका बड़ा योगदान माना जाएगा। यदि सरकारी संस्थाएं इतिहास को अपने ढंग से लिखने का अभियान चला रही हैं तो कई गैर-सरकारी संगठन भी इस दिशा में सक्रिय हो गए हैं। इन दोनों अभियानों का ध्यान भारतीय इतिहास के उन नायकों पर भी जाए, जो लाचित बरफुकन की तरह उपेक्षित रहे हैं तो भारतीय जनता के मनोबल में अपूर्व वृद्धि होगी। जैसे मानगढ़ के भील योद्धा गोविंद गुरू, बेंगलूरू के नादप्रभु केंपेगौडा, आंध्र के अल्लूरी सीताराम राजू, बहराइच के महाराजा सुहेलदेव, रांची के योद्धा बिरसा मुंडा, म.प्र. के टंट्या भील और 1857 के अनेक वीर शहीदों का स्मरण किया जाए तो भारतीय इतिहास के कई नए आयाम खुलेंगे।
इसी तरह संपूर्ण दक्षिण, मध्य और आग्नेय एशिया में भारत के साधु-संतों, विद्वानों, वैद्यो और व्यापारियों ने जो अद्भुत छाप छोड़ी है, उस पर भी अभी बहुत काम बाकी है। वह वर्तमान खंडित भारत का नहीं, संपूर्ण आर्यावर्त्त का इतिहास होगा। इसी प्रकार अंग्रेजी-शासन के विरुद्ध भारत के क्रांतिकारियों ने भारत में रहकर और विदेशों में जाकर जो अत्यंत साहसिक कार्य किए हैं, उन पर भी अभी काम होना बाकी है। प्राचीन भारत का प्रभाव पूरे एशिया और यूरोप में कैसा रहा है और हमारी विद्याओं का विश्व के विकास में क्या योगदान रहा है, इसे भी अभी तक ठीक से रेखांकित नहीं किया गया है। इसे सभी रंगों के इतिहासकारों को मिलकर करना होगा। (नया इंडिया की अनुमति से)
पिछले दिनों लंदन में हुई एक महत्वपूर्ण बहस, 'इंडिया डिस्प्यूट 2022', में भारत की सुप्रीम कोर्ट के एक सीनियर वकील रविंद्र श्रीवास्तव ने भी हिस्सा लिया. उन्होंने अदालत से परे मामलों के बातचीत से निपटारे पर अपनी मौलिक बातें रखीं. वे बातें एक लेख के रूप में यहाँ पेश हैं.
-RAVINDRA SHRIVASTAV
Pardon me for beginning with a statement which may perhaps sound cynical to many. It’s that judicial system in India is on the verge of collapse ; reasons, some are evident to the public eye and some are hidden and some are so glaring but people are refusing to see . Courts are unable to cope up with the cases. Huge population, skewed judge population ratio, lack of infrastructure, shortcomings and delays in appointment of judges, compromise in merit and lack of sensitivity on the part of the Bar, are some of the well-known problems. Thus, mediation is the need of the hour; it should be the order of the day and the norm of complete disposition towards administration of justice. In the current scenario it is apposite that I give to you all in India
MEDIATION FIRST- LITIGATION LAST
mediation ecosystem in India
I see no alternative to ADR, I see no alternative to Mediation as ADR. Arbitration has also not proved to be successful in India. From my experience of 42 years of litigation practice, I can confidently say that MEDIATION has huge prospects of success in India. What is needed is a strong will, good intention, robust infrastructure, adequate mediation centres , ample, trained and qualified professionals of full time mediators, effective Court annexed mediation centres, highly credible mediation service providers and more than adequate funds and continuous government engagement. There is a need to have a separate department of ADR, a separate ministry which should solely look after successful implementation and regulation of mediation. The time has come to shun the adversarial system of justice and adopt amicable resolution of disputes with the help of capable mediators. While pre-litigation mediation being made compulsory in commercial disputes is a welcome idea, the success will depend upon the choice of the mediator who will play the most important role. The negotiating skills of the person to act as mediator having knowledge of the nature of disputes is the key to its s uccess.
How mediation can prove to be effective exercise specially in commercial space
In disputes, particularly in the commercial space, it is my belief that parties are generally willing to resolve their differences through an amicable resolution process. They are not only willing, perhaps, they feel more compelled to take recourse to a mediation like process, given the current system of justice which is rife with long delays, unfairly costly litigation and several other ill reputations of the judicial system. Arbitration in India is no better .Skill of successful mediators Laying emphasis on the growing need of mediation the question which arises is that what should be the skill set which a mediator must possess in order to achieve its end since the success of mediation depends largely upon the ability and skills of negotiation, persuasion and perseverance of the mediator to bring the parties to a point of narrowing their differences and amicably settling them. It requires not only the knowledge of the mediator about the nuances of the differences, his ability to perceive the psychological, emotional, factual -legal and practical aspects but the ability to convince the parties of a fair and logical outcome of the dispute. This requires, in the first place, utmost trust of the parties on the mediator which will come from the stature and standing, knowledge and skills of the negotiator - the referee. Rather than imposing or limiting the choice of mediator, the parties should be left free, as far as possible, in the first instance to choose their own mediator of mutual confidence. Only when they cannot, the role of a third authority should step in. Experience guides us that sometimes, a word of wisdom coming from a person of respect and authority, is taken as a command by the parties in difference. Mediator is only a facilitator, neither an adjudicator nor an arbiter. There is no specific academic qualification for a mediator. One needs a person with a good repute and integrity with a sense of fairness and above all, a passion for conflict resolution. He may be a professional, like lawyer, retired judicial officer, engineer, company secretary, chartered accountant, etc. He may also be a retired teacher, clinical psychologist, banker or a housewife. He can start a new profession as a Mediator and start professional practice from the comfort of the office or home. What is of utmost importance is that the mediator must be a good counsel or and listener. And he mediator should not be prohibitively expensive. A culture of pro bono mediation as service to the society needs to be developed. certified mediators in India ? In order to be formally trained as a mediator in India, an individual must undergo a 40-hours' training programme and conduct 20 mediation sessions under the Mediation and Conciliation Project Committee. But this does not seem to be enough. Trainers themselves will require intensive training.
Some problems in the Mediation Bill,
PRE LITIGATION MEDIATION CLAUSE 6&8 ;
MATTERS NOT FIT FOR MEDIATION CLAUSE 7 & FIRST SCHEDULE
This growing need for a formal mediation mechanism led to the introduction of the Mediation Bill. The upcoming law is a welcome step. The Mediation Bill 2021 is pending in the parliament. The parliamentary panel has submitted its report. It recommends ironing out of creases in some provisions. By and large, the model is good. But my concern is about the availability of mediation centres with proper infrastructure and more concerning is the availability of the capable mediators in adequate number. How to incentivise the parties in dispute to honestly and sincerely attempt mediation? These are the areas where the Bill is silent. It can not remain indifferent. The Mediation Council is more likely to become a White elephant as is the usual experience; overburdened and under staffed. Its functioning can tend to be very subjective and opaque. One single body as regulator for a country of 130 billions is of questionable efficacy. It can not manage the demands of the mediation as a system. Also, there is no minimum qualification for mediations prescribed in the Bill. It adopts an ad hoc system. A few hours of training courses cannot produce good mediators. We need full time, honest and committed professionals who are rigorously trained. Making pre litigation Mediation (perhaps the most controversial provision) compulsory is a good idea but lacks support of infrastructure and may result in blockage of access to justice . Mediation can be successful only when it is voluntary and not imposed. Parties should have maximum freedom about the choice of mode, modalities and mediators. An interesting but troubling provision finds place in Clause 7 and the First Schedule of the draft Bill which provides for disputes or matters which are not fit for mediation.
NEED TO BE MORE INCLUSIVE RATHER THAN EXCLUSIVE .
Rather than excluding disputes whole hog from mediation declaring them unfit and thereby, vastly debating the very purpose and intent of reconciliatory process, different legal schemes with different procedures and safeguards can be framed suited to settlement of specified categories of disputes. Rival interests of private parties and public interest and public policy can be balanced. Any restrictive model of Mediation Law is unlikely to serve the purpose. In disputes between the private party and the Government, there are disputes which are both reconciliatory and adjudicatory in nature. The Government should not keep itself away from mediation. Way forward to ensure success of Mediation In order to achieve the desired results the following are the ways to ensure success of Mediation process for amicable settlement of disputes -
COST EFFECTIVENESS; STRICT TIME LINE; GOOD MEDIATORS; GOVT SUPPORT;
MINIMUM COURT INTERVENTION; MAXIMUM ENFORCEMENT; ACTIVE
SUPPORTIVE ROLE OF BAR.
Each of these points do not detract from the idea of mediation, much less as the goal; rather it underscores the imperative need and importance of mediation; the only way to minimize the
horrific miseries of undergoing a costly, dilatory and in dignified litigation ordeal.
All the Good Luck to Mediation in India.
* Writer is a senior practicing lawyer in the Supreme Court of India.
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
राहुल गांधी की मध्यप्रदेश-यात्रा सर्वाधिक सफल रहने की उम्मीद है। पिछले तीन-चार दिनों में मुझे यहां के कई शहरों और गांवों से गुजरने का अवसर मिला है। जगह-जगह राहुल, कमलनाथ, दिग्विजयसिंह और स्थानीय नेताओं के पोस्टरों से रास्ते सजे हुए हैं। लेकिन राहुल के कुछ बयान इतने अटपटे होते हैं कि वे इस यात्रा पर पानी फेर देते हैं। जैसे जातीय जन-गणना और सावरकर पर कुछ दिन पहले दिए गए बयानों ने यह सिद्ध कर दिया था कि वह अपनी दादीजी और माताजी की राय के भी विरूद्ध बोलने का साहस कर रहे हैं। ये कथन सचमुच साहसिक होते तो प्रशंसनीय भी शायद कहलाते। लेकिन वे साहसिक कम अज्ञानपूर्ण ज्यादा थे। इसके लिए असली दोष उनका है, जो राहुल को पर्दे के पीछे से प_ी पढ़ाते रहते हैं। अब मप्र के महान स्वतंत्रता-सेनानी टंट्या भील के जन्म स्थान पर पहुंचकर उन्होंने कह दिया कि टंट्या भील ने अंग्रेजों के विरुद्ध लडक़र अपनी जान दे दी, जबकि आरएसएस अंग्रेजों की मदद करता रहा। उन्होंने संघ द्वारा आदिवासियों को वनवासी कहने पर भी आपत्ति की, क्योंकि आदिवासियों की सेवा करनेवाले संघ के संगठन इसी नाम का इस्तेमाल करते हैं। राहुल से कोई पूछे कि क्या ये आदिवासी शहरों में रहते हैं? जो वनों में रहते हैं, उन्हें वनवासी कहना तो एकदम सही है।
आदिवासी शब्द का इस्तेमाल ‘कबाइली’ या ट्राइबल के लिए हुआ करता था लेकिन उस समय यह सवाल भी उठा था कि क्या सिर्फ आदिवासी लोग भारत के मूल निवासी हैं? बाकी सब 80-90 प्रतिशत लोग क्या बाहर से आकर भारत में बस गए हैं? मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान को इस बात का श्रेय है कि उन्होंने टंट्या भील को एक महानायक का सम्मान दिया है। इसी प्रकार संघ को अंग्रेज का समर्थक बताना भी अपने इतिहास के अज्ञान को प्रदर्शित करना है। राहुल का भोलापन अद्भुत है। उस पर कुर्बान जाने का मन करता है। देश की स्वाधीनता का ध्वज फहरानेवाली महान पार्टी कांग्रेस के पास आज कोई परिपक्व नेता नहीं है, यह देश का दुर्भाग्य है। यह ठीक है कि हमारे देश में कुछ नेता प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंच गए लेकिन उनका ज्ञान राहुल जितना या उससे भी कम रहा होगा लेकिन उनकी खूबी यह थी कि वे अपने चारों तरफ ऐसे लोगों को सटाए रखते थे, जो उन्हें लुढक़ने से बचाए रखते थे। कांग्रेस के पास आज मोदी के विकल्प के तौर पर न तो कोई नेता है और न ही नीति है लेकिन इस अभाव के दौरान राहुल की यह भारत-यात्रा बेचारे निराश कांग्रेसियों में कुछ आशा का संचार जरुर कर रही है लेकिन यदि अपने बयानों में राहुल थोड़ी रचनात्मकता बढ़ा दें और किसी के भी विरुद्ध निराधार अप्रिय टिप्पणियां न करें तो यह यात्रा उन्हें शायद जनता से कुछ हद तक जोड़ सकेगी। (नया इंडिया की अनुमति से)
-राजशेखर चौबे
लोकतंत्र यदि वास्तविक है और लोकतांत्रिक व्यवस्था मजबूत है तो हम स्वयं अपना नेता या शासक चुनते हैं और हमें उनसे कोई शिकायत नहीं होना चाहिए। वैसे भी कहा गया है- ‘हम जैसे हैं वैसे ही शासक या नेता भी डिजर्व करते हैं’, अत: आप, आपके द्वारा पहले या अभी चुने गए नेता पर शोक मत कीजिए। जनता नेता को प्राय: पांच साल में एक बार नसीहत देती है परंतु नेता जनता को पांच साल तक और कभी-कभी दस साल तक लगातार नसीहत देते हैं। आजादी के 75 वर्ष पूर्ण होने पर हमारे लोकप्रिय व यशस्वी प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदीजी ने लाल किले की प्राचीर से सार्थक और उपयोगी उद्बोधन दिया है। इसमें उन्होंने जनता से पांच प्रण का आव्हान किया है। उन्होंने 2047 तक देश को विकसित राष्ट्र बनाने का संकल्प दोहराया है । उन्हें साधुवाद। जनता प्राय: भेड़चाल चलती है और उसे नेताओं के मार्गदर्शन की जरूरत पड़ती है। जनता अपने नेताओं का अनुसरण करती है इसीलिए नेताओं को सुधारना शायद ज्यादा जरूरी है। नेताओं को हम नसीहत तो नहीं दे सकते , हो सकता है वे बुरा मान जाएं। जनता उन पांच प्रण के अनुसार आचरण करें और नेतागण मेरे सुझाए पांच संकल्पों पर अमल करें तो आजादी की सौवीं सालगिरह तक हमें विकसित राष्ट्र बनने से कोई भी रोक नहीं सकता। प्राय: लोकतांत्रिक देशों ने ही विकसित देश का रुतबा हासिल किया है। हम भी लोकतंत्र और लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा कर ही विकसित देश का दर्जा पा सकेंगे। मेरे पांच संकल्प किसी एक दल या एक नेता के लिए नहीं है बल्कि देश के तमाम राजनीतिक दलों एवं नेताओं के लिए ये संकल्प हैं। मेरे पांच संकल्प या सुझाव निम्नानुसार हैं-
शिक्षा व कौशल विकास को बढ़ावा देना
शिक्षा व कौशल विकास सफलता का द्वार है। इन दोनों ही क्षेत्रों में हम अत्यंत पिछड़े हुए हैं। सुनियोजित तरीके से शिक्षा का भ_ा बैठाया जा रहा है । ‘पूरे देश में केवल दो नेता जो मुख्यमंत्री भी हैं , शिक्षा की बात करते हैं लेकिन लोग उनका भी मजाक उड़ाते हैं।’ शिक्षा में निजी क्षेत्र की घुसपैठ ने उसे महंगा बना दिया है। यहां तक कि सरकारी इंजीनियरिंग व मेडिकल कॉलेज और आईआईटी, एम्स आदि की फीस में भी बेतहाशा वृद्धि की गई है। सरकारें रेवडिय़ाँ बांटने में गुरेज नहीं करती पर शिक्षा के नाम पर कुछ भी खर्च नहीं करना चाहती। स्कूलों में कम वेतन में ‘अग्निवीरों’ (शिक्षाकर्मी, शिक्षा मित्र, गुरुजी आदि) की व्यवस्था बरसों से चल रही है। स्कूलों व कॉलेजों में हजारों पद खाली पड़े हैं। हमारा ध्यान शिक्षित करने और शिक्षा देने में नहीं है। हम केवल आंकड़ा बढ़ाकर वाहवाही लूटना चाहते हैं। छात्र नवमीं पास हो जाता है पर वह ठीक से पढ़ लिख नहीं पाता है। आखिर ऐसी शिक्षा का क्या मतलब है? जनरल प्रमोशन को तुरंत बंद किया जाना चाहिए। आज ग्लोबलाइजेशन का जमाना है। अत: अंग्रेजी शिक्षा को अनिवार्य करने की भी जरूरत है। शिक्षा के बजट को बढ़ाना होगा। बारहवीं तक मुफ्त व अच्छी शिक्षा और कॉलेज में कम फीस में अच्छी शिक्षा की व्यवस्था करनी होगी। शिक्षकों को सम्मानजनक वेतन भत्ता देना होगा।
इसी तरह कौशल विकास केअंतर्गत इलेक्ट्रिशियन, प्लंबर ,मिस्त्री, कम्प्यूटर ऑपरेटर आदि की ट्रेनिंग दी जानी चाहिए जिससे युवाओं को रोजगार की कमी न रहे। हमारे देश में युवा शक्ति बड़ी मात्रा में उपलब्ध है। इन्हें सही दशा और दिशा की जरूरत है। सरकार की यह मुख्य प्राथमिकता होना चाहिए। युवाओं को बेरोजगारी भत्ता या दूसरी रेवडिय़ों के बदले सस्ती व अच्छी शिक्षा और कौशल विकास के अवसर उपलब्ध कराने पर ही देश प्रगति की राह पर अग्रसर होगा।
भ्रष्टाचार,परिवारवाद, भाई-भतीजावाद पर अंकुश
हम सभी जानते हैं कि देश में भ्रष्टाचार, परिवारवाद, भाई भतीजावाद का बोलबाला है । भ्रष्टाचार को रोकने के लिए संवैधानिक संस्थाओं खासकर नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक को वास्तविक अधिकार देना जरूरी है। ‘सूचना का अधिकार’ कानून के कारण बहुतेरे भ्रष्टाचार उजागर हुए परंतु अब उसे भी लगभग दंत विहीन कर दिया गया है। अधिकारियों ने इस से बचाव के रास्ते ढूंढ लिए हैं। भ्रष्टाचार के खात्मे के लिए पारदर्शिता बेहद जरूरी है। अत: सभी विभागों को टेंडर आदि की पूरी जानकारी तीन दिन के भीतर अपने वेबसाइट पर अपलोड करना अनिवार्य होना चाहिए। कार्यालयों का कार्य जैसे-जैसे ऑनलाइन होगा भ्रष्टाचार में निश्चित रूप से कमी आएगी। भ्रष्टाचार पर अंकुश के लिए भ्रष्टाचारियों के मन में शासन और प्रशासन का डर जरूरी है। केंद्रीय एजेंसियों को निष्पक्षता और बिना किसी डर के अपना काम करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। भ्रष्टाचार से देश का नुकसान होता ही है परंतु ऊपर लेवल का भ्रष्टाचार अत्यंत नुकसानदेह है। इसमें करोड़ों नहीं अरबों का लेनदेन होता है और इसे पकडऩा भी टेढ़ीखीर है।भ्रष्टाचार के जड़ पर प्रहार जरूरी है।
देश के अधिकांश दल परिवारवाद, भाई भतीजावाद से पीडि़त है और वह निर्लज्जता से इसका प्रदर्शन भी करते हैं और अपने लोगों को बढ़ाते और बचाते भी हैं। जनता समय-समय पर इन्हें सबक सिखाती है । इन सबका चेहरा उजागर हो चुका है ।
अधिकांश नेता अपने दल को ही अपना परिवार मानते हैं और अपने दल के नेताओं और कार्यकर्ताओं को अपना भाई भतीजा ही मानते हैं। ये नेता इन्हें हमेशा ही शरीफ और ईमानदार बताते हैं। यहां तक कि दूसरे दलों के गुंडे, बेईमान, भ्रष्टाचारी नेता भी इन दलों में आने के बाद शरीफ और ईमानदार माने जाने लगते हैं। इस तरह के परिवारवाद और भाई भतीजावाद पर भी रोक जरूरी है। देश का शासक पूरे देश का शासक होता है और उसके द्वारा किसी भी तरह का भेदभाव गैरवाजिब है।
रेवड़ी कल्चर की समाप्ति
जनता को दी जाने वाली रेवडिय़ों पर उच्चतम न्यायालय के साथ-साथ शासन ने भी कड़ा रुख अख्तियार किया है । नेताओं और जनप्रतिनिधियों को दी जाने वाली रेवडिय़ों की फेहरिस्त काफी लंबी है । जनता को जागरूक होकर इन पर अपनी आपत्ति दर्ज कर इन्हें समाप्त करवाना चाहिए।
(i) नेताओं के पेंशन की समाप्ति
यदि कोई नेता पार्षद, महापौर, विधायक और सांसद रह चुका है तो वह एक नहीं चारों पदों के पेंशन का हकदार है। दिल्ली की आप पार्टी की सरकार ने एक पेंशन का कानून लागू किया है और वे बधाई के पात्र हैं। इसे पूरे देश में लागू करना होगा। एक सरकारी कर्मचारी 35-40 वर्ष सरकारी सेवा के बाद पेंशन का पात्र होता था वहीं जनप्रतिनिधि पद की शपथ लेते ही पेंशन का पात्र हो जाता है। अब 35-40 वर्ष सरकार की सेवा करने वाला कर्मचारी भी पेंशन से वंचित हो चुका है। नेता सेवा भाव से राजनीति में आते हैं परंतु अधिकांश नेता मेवा पा जाते हैं और उन्हें इस पेंशन की खास जरूरत नहीं होती है।देश के विकास की खातिर मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री, उपराष्ट्रपति और राष्ट्रपति को छोडक़र बाकी सब के पेंशन को बंद किया जाना चाहिए ।
(II) विधान परिषद व गैरजरूरी पदों की समाप्ति
आमतौर पर विधान परिषद की विशेष उपयोगिता नहीं है और अधिकांश राज्यों की विधानसभाएं बिना विधान परिषद के शानदार काम कर रही हैं। इसका उपयोग असंतुष्टों को मनाने व संतुष्ट करने का ही रह गया है । यह सफेद हाथी की तरह है। द्वितीय सदन के संबंध में एक विद्वान की राय विधान परिषद पर एकदम फिट बैठती है उनका कहना है ‘यदि द्वितीय सदन प्रथम सदन से असहमत है तो यह लोकतंत्र के विरुद्ध है और यदि वह सहमत है तो फिर उसकी उपयोगिता ही क्या है?’
अत: विधान परिषद का खात्मा किया जाना चाहिए। इसी तरह संसदीय सचिवों विभिन्न आयोगों के अध्यक्ष का पद भी असंतुष्टों को संतुष्ट करने के ही काम आ रहा है । इनकी भी समाप्ति जरूरी है ।
(3) सांसदों , विधायकों व अन्य जनप्रतिनिधियों के भत्तों पर रोक
जो भी जनप्रतिनिधि (सांसद विधायक आदि) अपने काम से सदन से अनुपस्थित रहे, उसे उस दिन का भत्ता नहीं देना चाहिए । इसी तरह सांसद या विधायक निधि से कम खर्च करने वालों को आगामी वर्ष में उतनी ही राशि दी जानी चाहिए। गैर जरूरी अन्य भत्तों पर भी रोक जरूरी है ।
(4) आपसी सद्भाव व भाईचारा कायम रखना
यदि आपके परिवार की मासिक आय 25000 है तो आप देश के टॉप 10त्न में शामिल है और यदि आपकी पारिवारिक मासिक आय एक लाख है तो आप टॉप 1त्न में शामिल हो सकते हैं । यहां अमीर और अमीर व गरीब और गरीब होता जा रहा है। अमीर व गरीब के बीच खाई बढ़ती जा रही है। अत: शासन करने के लिए भावनात्मक मुद्दे जरूरी है। धर्मान्धता, जातिवाद, राष्ट्रवाद जैसे भावनात्मक मुद्दों को हवा दी जा रही है। इससे सामाजिक ताना-बाना टूट रहा है। यह पूरे देश के लिए घातक है। इतिहास गवाह है जिस देश में भी आपसी सद्भाव और भाई चारा खत्म होता है वहां प्रगति अवरुद्ध हो जाती है। विदेशी निवेश, देश के भीतर व्यापार उद्योग आदि के विकास के लिए देश के भीतर शांति और सद्भाव को कायम रखना बेहद जरूरी है । इस बात से शायद ही कोई इनकार करेगा कि पिछले वर्षों में आपसी सद्भाव में कमी व विद्वेष में वृद्धि हुई है। हो सकता है कि आपसी मनमुटाव व द्वेष से किसी नेता व दल को त्वरित लाभ मिल जाए परंतु यह समाज व देश के लिए खतरनाक है। जिस देश में भी धर्मान्धता, अंधविश्वास और धार्मिक कठमुल्लापन है उस देश का पिछडऩा तय है। इन बुराइयों को हर हाल में रोकना होगा अन्यथा विकास की बात करना बेमानी है।
(5) कथनी और करनी में अंतर न हो
देखा गया है कि नेतागण बातें अच्छी अच्छी करते हैं परंतु प्राय: काम बुरे बुरे ही करते हैं। वे अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग बातें करते हैं और इनमें विरोधाभास पाया जाता है। वे गैर जरूरी मुद्दों पर बोलते हैं परंतु ज्वलंत मुद्दों पर चुप्पी साध लेते हैं। वे भ्रष्टाचार पर जीरो टॉलरेंस की बात करेंगे परंतु मंत्रिमंडल में भ्रष्ट मंत्रियों को भी जरूर रखेंगे। महिला अधिकारों की बात करेंगे पर बलात्कारी नेता का महिमामंडन करेंगे। यकीन मानिए जिस देश में हत्यारों और बलात्कारियों का अभिनंदन होने लगे उस देश का पतन सुनिश्चित है। हमें इन जघन्य अपराधियों को धर्म व जात के चश्मे से नहीं देखना चाहिए। यदि नेतागण अपनी कथनी पर अमल करें तो हमारी आधी समस्या तुरंत हल हो सकती है।
उपरोक्त पांच संकल्पों के अलावा भी कुछ बातों का ध्यान रखना जरूरी है। किसानों व सामान्य उपभोक्ताओं के हितों का ध्यान रखना होगा क्योंकि उनमें जागरूकता की कमी है। किसान देश की रीढ़ हैं परंतु इन दिनों मुसीबत में है। उनकी मांगों पर सहृदयता पूर्वक विचार करने की जरूरत है। पंचायती राज व अन्य उपायों द्वारा सत्ता का विकेंद्रीकरण किया गया परंतु इससे भ्रष्टाचार का भी विकेंद्रीकरण हो गया। भ्रष्टाचार गांव-गांव तक पहुंच गया है। इस पर भी पुनर्विचार की जरूरत है। अंग्रेजों ने उपनिवेशों पर अपनी मजबूत पकड़ बनाकर शोषण के लिए साम्राज्यवादी नीतियों का सृजन किया। आजादी के 75 वर्ष बाद भी हम उसी पद्धति से देश का शासन चला रहे हैं। इस शासन पद्धति ने दंभी अधिकारियों और नेताओं की फौज खड़ी कर दी है जो अपने आपको दूसरों से श्रेष्ठ समझते है। इनका एक ‘कुलीन वग’ बन गया है जो अपनी सुविधा अनुसार देश को चला रहे हैं। आम गरीब जनता के दुख दर्द से इन्हें कोई मतलब नहीं है । इस शासन व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन की आवश्यकता है। इस हेतु एक आयोग गठित करना होगा जिसके सदस्य निष्पक्ष व ईमानदार हों। आप विश्वास कीजिए यदि इन उपायों को नहीं अपनाया गया तो अगले 25 वर्ष भी वैसे ही गुजर जाएंगे जैसे पिछले 75 वर्ष गुजरे हैं खासकर देश की 98त्न गरीब व निरीह जनता के लिए ।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और किसी भी लोकतंत्र की श्वास-नली होती है- चुनाव। उसमें होनेवाले लोक-प्रतिनिधियों के चुनाव निष्पक्ष हों, यह उसकी पहली शर्त है। इसीलिए भारत में स्थायी चुनाव आयोग बना हुआ है लेकिन जब से चुनाव आयोग बना है, उसके मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य आयुक्तों की नियुक्ति पूरी तरह से सरकार के हाथ में है। हमारे चुनाव आयोग ने सरकारी पार्टियों के खिलाफ भी कई बार कार्रवाइयां की हैं लेकिन माना यही जाता है कि हर सरकार अपने मनपसंद नौकरशाह को ही इस पद पर नियुक्त करना चाहती है ताकि वह लाख निष्पक्ष दिखे लेकिन मूलत: वह सत्तारुढ़ दल की हित-रक्षा करता रहे। इसी आधार पर सर्वोच्च न्यायालय में अरूण गोयल की ताजातरीन नियुक्ति के विरुद्ध बहस चल रही है। गोयल 17 नवंबर तक केंद्र सरकार के सचिव के तौर पर काम कर रहे थे लेकिन उन्हें 18 नवंबर को स्वैच्छिक सेवा-निवृत्ति दी गई और 19 नवंबर को उन्हें मुख्य चुनाव आयुक्त बना दिया गया।
उसके पहले अदालत इस विषय पर विचार कर रही थी कि चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति प्रक्रिया में सुधार कैसे किया जाए। किसी भी अफसर को स्वैच्छिक सेवा-निवृत्ति के पहले तीन माह का नोटिस देना होता है लेकिन क्या वजह है कि सरकार ने तीन दिन भी नहीं लगाए और गोयल को मुख्य चुनाव आयुक्त की कुर्सी में ला बिठाया? इसका अर्थ क्या यह नहीं हुआ कि दाल में कुछ काला है? इसी प्रश्न को लेकर सर्वोच्च न्यायालय ने अब सरकार की तगड़ी खिंचाई कर दी है। अदालत ने सरकार को आदेश दिया है कि गोयल की इस आनन-फानन नियुक्ति के रहस्य को वह उजागर करे। नियुक्ति की फाइल अदालत के सामने पेश की जाए। अदालत की राय है कि चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति सिर्फ सरकार द्वारा ही नहीं की जानी चाहिए।
विरोधी दल के नेता और सर्वोच्च न्यायाधीश को भी नियुक्ति-मंडल में शामिल किया जाना चाहिए। अदालत की यह मांग सर्वथा उचित है लेकिन अदालत को फिलहाल यह अधिकार नहीं है कि वह किसी नियुक्ति को रद्द कर सके। वास्तव में गोयल की नियुक्ति को अदालत रद्द नहीं करना चाहती है लेकिन वह दो बात चाहती है। एक तो यह कि नियुक्ति-मंडल में सुधार हो और दूसरा चुनाव आयुक्तगण कम से कम अपनी छह साल की कार्य-सीमा पूरी करें। सबसे लंबे 5 साल तक सिर्फ टीएन शेषन ने ही काम किया, जबकि ज्यादातर चुनाव आयुक्त कुछ ही माह में सेवा-निवृत्त हो गए, क्योंकि उनकी आयु-सीमा 65 वर्ष है। अदालत चाहती है कि भारत के चुनाव आयुक्त निष्पक्ष हों और वैसे दिखें भी और उन्हें पर्याप्त समयावधि मिले ताकि वे हमारी चुनाव-प्रक्रिया में अपेक्षित सुधार भी कर सकें। (नया इंडिया की अनुमति से)
-सेसिलिया बारिया
मेटा (फेसबुक), ट्विटर और अमेज़न जैसी बड़ी टेक्नोलॉजी कंपनियां इतिहास में पहली बार एक साथ हज़ारों लोगों की छंटनी कर रही हैं.
एक वक़्त था जब कोरोना महामारी के समय ये कंपनियां सफलता के झंडे गाड़ रही थीं. सिलिकॉन वैली की कई कंपनियां नए लोगों को काम पर रख रही थीं. उन्होंने अपनी तरक़्क़ी के लिए नई योजनाओं पर काम शुरू कर दिया था, इस उम्मीद से कि हवा का रुख़ उनके पक्ष में ही बहता रहेगा.
पिछले दिनों फ़ेसबुक, इंस्टाग्राम और व्हॉट्सऐप की मालिक कंपनी मेटा के प्रेसिडेंट और सीईओ मार्क ज़करबर्ग ने कंपनी के 11 हज़ार कर्मचारियों को नौकरी से निकाले जाने के फ़ैसले को वाजिब ठहराते हुए कहा, "मैं ग़लत था और मैं इसकी ज़िम्मेदारी लेता हूं."
ये 11 हज़ार कर्मचारी मेटा के 13 फ़ीसदी वर्कफ़ोर्स के बराबर हैं. टेक्नोलॉजी सेक्टर की कंपनियों के पिछले महीने आए वित्तीय नतीजों से ये साफ़ हो गया था कि चीज़ें उस तरह से नहीं हो पाई हैं जैसी उम्मीद की जा रही थी.
साल 2021 में मेटा जब अपने पीक पर थी जो उसका बाज़ार मूल्य एक ट्रिलियन डॉलर था, लेकिन उसके बाद से कंपनी की क़ीमत में सैकड़ों अरब डॉलर की गिरावट हो चुकी है.
एलन मस्क के नेतृत्व में ट्विटर ने कंपनी के वर्कफ़ोर्स में 50 फ़ीसदी तक की कटौती का एलान किया है. ई-कॉमर्स कंपनी अमेज़न ने इसी हफ़्ते छंटनी की एक बड़ी योजना पर काम शुरू कर दिया है जिससे कंपनी के दस हज़ार कर्मचारी प्रभावित हो सकते हैं.
हालांकि सभी कंपनियों के पास अपनी-अपनी वजहें हैं. जिन कंपनियों ने अपने यहां छंटनी का एलान किया है, उनमें नेटफ़्लिक्स, स्ट्राइप, स्नैप, रॉबिनहुड, पेलोटोन, लिफ़्ट और कॉइनबेस जैसी कंपनियां शामिल हैं.
टेक्नोलॉजी सेक्टर की इन कंपनियों का प्रदर्शन सालों की असाधारण समृद्धि के बाद कोरोना महामारी के समय अपने शिखर पर पहुंच गया था.
अनुमान है कि हाल के हफ़्तों में सिलिकॉन वैली की बड़ी कंपनियों ने 20 हज़ार से ज़्यादा लोगों को नौकरी से निकाला है.
अगर अमेज़न भी छंटनी की अपनी योजना पर अमल शुरू करता है तो ये आंकड़े और बढ़ सकते हैं.
'अच्छे दिन आ ही जाते हैं...'
"चाहे आप ज़्यादा खा लें या ज़्यादा पी लें या फिर कुछ भी हद से ज़्यादा हो जाए तो अगले दिन की सुबह ख़राब हो जाती है और हम उसी मोड़ पर पहुंच गए हैं."
टेक्नोलॉजी सेक्टर की एक्सपर्ट लाइज़ बायर कहती हैं कि सिलिकॉन वैली की कई कंपनियां इन्हीं हालात से गुजर रही हैं.
बीबीसी मुंडो से बातचीत में उन्होंने कहा, "निवेशकों ने अपना पैसा आहिस्ता-आहिस्ता इन टेक्नोलॉजी कंपनियों में बेइंतेहा झोंका. उन्होंने ये भी नहीं देखा कि अब इन कंपनियों के कारोबार में मुनाफे की कितनी गुंजाइश बची रह गई है. इन कंपनियों ने बीते सालों में बेहिसाब मुनाफ़ा कमाया था और इस वजह से इन कंपनियों का बाज़ार मूल्य बेतहाशा बढ़ गया था."
अब यही कंपनियां जब कारोबार के मोर्चे पर मुश्किलों का सामना कर रही हैं, तो वे अपने हज़ारों कर्मचारियों से पीछा छुड़ा रही हैं.
अमेरिका में महंगाई पिछले 40 सालों के रिकॉर्ड स्तर पर है और ब्याज दरों में इज़ाफ़े के कारण दुनिया भर में क़र्ज़ लेना महंगा होता जा रहा है.
लाइज़ बायर कहती हैं, "अब होश में आने का और ये समझने का समय आ गया है कि कंपनी के मुनाफ़ा कमाने की संभावना वाक़ई मायने रखती है."
उनके नज़रिये से देखें तो हम 2000 के दशक की शुरुआत में डॉटकॉम बबल की ख़ुमारी उतरने के समय जैसे हालात थे, वैसी स्थितियों से इस बार रूबरू नहीं होने जा रहे हैं.
उस वक़्त भी टेक्नोलॉजी कंपनियां अपने बुरे दौर से गुजर रही थीं और कई तो कारोबार से ही ग़ायब हो गईं क्योंकि उनका बाज़ार मूल्य और शेयर क़ीमतें रसातल में पहुंच गई थीं.
लाइज़ बायर कहती हैं, "हम बिना किसी ठोस वजह के कंपनियों के लगातार बर्बाद होने जैसी स्थिति से रूबरू नहीं होने जा रहे हैं. बड़ी टेक्नोलॉजी कंपनियां अभी बर्बाद नहीं होने वाली हैं."
उनका कहना है कि ये सही है कि कंपनियों की बाज़ार क़ीमत में ज़रूरत से ज़्यादा उछाल दर्ज किया गया है और निवेशकों स्टार्टअप्स को ये संदेश दे दिया गया है कि उन्हें केवल ग्रोथ से मतलब है, भले ही उन्हें नुक़सान ही क्यों न हो रहा हो.
वो ये भी कहती हैं कि हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि सिलिकॉन वैली में समय का चक्र चलता है और हम फ़िलहाल इस चक्र के बुरे समय से गुज़र रहे हैं, लेकिन जैसा कि हर बार होता है, अच्छे दिन आ ही जाते हैं.
'मूर्खताएं अब जगज़ाहिर हो गई हैं...'
कई जानकारों का कहना है कि पिछले कुछ दशकों से वॉल स्ट्रीट में टेक्नोलॉजी इंडस्ट्री का ख़ास दर्जा रहा था, लेकिन बीते कुछ हफ़्तों से इस सेक्टर की चमक धुंधली पड़ गई है. कल तक इस सेक्टर को अपराजेय बताया जा रहा था, लेकिन अब जिस तरह से हज़ारों लोगों को नौकरी से निकाला जा रहा है, उससे इस सिस्टम की कमियां उजागर हो गई हैं.
पिछले बीस साल में टेक्नोलॉजी सेक्टर के उछाल ने मार्क ज़करबर्ग, एलन मस्क, जैक डोर्सी और जेफ़ बेज़ोस जैसे अरबपति हमारे बीच दिए.
यूनिवर्सिटी ऑफ़ जॉर्जिया में इतिहास के प्रोफ़ेसर स्टीफ़न मिह्म का कहना है कि ये बिज़नेस लीडर 21वीं सदी के स्वप्नद्रष्टा नहीं हैं जैसा कि उन्हें पेश किया जाता रहा है.
प्रोफ़ेसर स्टीफ़न का कहना है, "जिस तरह से ये छंटनियां हुई हैं, उससे ऐसा लगता है कि बदनाम रही कॉर्पोरेट रणनीति की वापसी हो गई है और अगर यही सिलसिला जारी रहता है तो ये टेक लीडर अपनी कंपनियों को बुरी स्थिति में पहुंचा देंगी."
'क्राइसिस इकोनॉमिक्स: ए क्रैश कोर्स इन द फ़्यूचर ऑफ़ फ़ाइनेंस' किताब के सह-लेखक प्रोफ़ेसर स्टीफ़न कहते हैं, "इनकी मूर्खताएं अब जगजाहिर हो गई हैं."
मौजूदा आर्थिक परिदृश्य
जब से एलन मस्क ने ट्विटर की कमान संभाली है तब से कंपनी विवादों में रही है. नौकरियों में छंटनी के एलान के बाद से कंपनी के बचे कर्मचारियों को लगातार चौंकाने वाले संदेश भेजे जा रहे हैं.
पिछले दिनों उनसे कहा कि कंपनी के दफ़्तर को तत्काल प्रभाव से अस्थाई रूप से बंद किया जा रहा है. ट्विटर ने इसकी कोई वजह नहीं बताई और न ही बीबीसी के सवालों का कोई जवाब ही दिया.
इस बीच कंपनी से लगातार इस्तीफ़ा देने वालों का सिलसिला जारी है.
ब्लूमबर्ग से जुड़ी विश्लेषक पार्मी ओल्सन कहती हैं कि बीस साल पहले डॉटकॉम बबल के बाद से बड़ी टेक्नोलॉजी कंपनियों के इतिहास का ये सबसे बुरा दौर है.
हालांकि दूसरे विश्लेक पार्मी ओल्सन और प्रोफ़ेसर स्टीफ़न की राय से सहमत नहीं दिखते हैं. उनका कहना है कि हरेक इंडस्ट्री में उतार-चढ़ाव आता है और छंटनी की कार्रवाई केवल हिसाब-किताब को दुरुस्त करने की कार्रवाई है.
कैलिफोर्निया स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ़ सांता क्लारा के प्रोफ़ेसर जो एलेन कहते हैं, "छंटनी की इन कार्रवाईयों का ये मतलब नहीं है कि ये कंपनियां वाक़ई किसी बड़ी मुश्किल में हैं. ये मौजूदा आर्थिक परिदृश्य को देखते हुए संसाधनों के बेहतर इस्तेमाल की दिशा में उठाया गया क़दम है."
आख़िर पैसा कहां गया?
विशेषज्ञों का कहना है कि बड़ी टेक्नोलॉजी कंपनियों के इस हंगामे में कई और भी ताक़तें उतर गई हैं. महामारी के समय इन कंपनियों ने बड़े पैमाने पर हायरिंग की. उस वक़्त लॉकडाउन के कारण इन कंपनियों का कारोबार बढ़ गया था. उस दौर में जब दूसरी कंपनियों का कारोबार ठप हो रहा था, टेक्नोलॉजी कंपनियां उफ़ान पर थीं.
कोरोना महामारी के बाद स्टॉक मार्केट में इन कंपनियों की स्थिति सुधरी और फिर ऐसा वक़्त भी आया जब वॉल स्ट्रीट में इन कंपनियों के शेयरों ने शानदार प्रदर्शन किया.
लेकिन एक दिन ये सिलसिला रुक गया. महंगाई आसमान छूने लगी. यूक्रेन और रूस की जंग शुरू हो गई और सभी आर्थिक अनुमान नई वास्तविकताओं को ध्यान में रखकर लगाए जाने लगे.
दूसरी वजह मौजूदा वैश्विक आर्थिक संकट से जुड़ी हुई है. दुनिया भर में महंगाई अपने रिकॉर्ड स्तर पर है और कई बड़ी अर्थव्यवस्थाएं गहरी परेशानी में हैं.
इस पर रोकथाम के लिए अमेरिका में ब्याज दर तेज़ी से बढ़ रही है और दूसरे देश जीवनयापन के ख़र्चे में हुई ऐतिहासिक बढ़ोतरी को नियंत्रित करने के लिए अपनी कोशिशें कर रहे हैं.
टेक्नोलॉजी कंपनियों पर दबाव
ऊंची ब्याज दरों के कारण क़र्ज़ लेना महंगा हो गया है. ज़्यादा जोख़िम उठाने वाले निवेशकों के लिए सस्ते पैसे का दौर ख़त्म हो गया है.
क्वींस यूनिवर्सिटी, बेलफ़ास्ट के प्रोफ़ेसर विलियम क्विन कहते हैं, "ब्याज दर बढ़ रही है. इससे टेक्नोलॉजी कंपनियों पर दबाव बढ़ गया है क्योंकि उनके लिए निवेश जुटाना मुश्किल होता जा रहा है."
उन्होंने बीबीसी मुंडो से कहा, "कुछ जमी-जमाई और मुनाफा कमा रही कंपनियां कटौती कर रही हैं, लेकिन दूसरी कंपनियां मुश्किल में हैं. जब ये लहर थमेगी तो आपको पता चल जाएगा कि कौन कितने पानी में था."
और सबसे आखिरी वजह विज्ञापन राजस्व से जुड़ी हुई है. सोशल नेटवर्किंग कंपनियों के लिए आमदनी का सबसे बड़ा ज़रिया विज्ञापनों से होने वाली यही कमाई है.
हालांकि ऐसा भी नहीं है कि टेक्नोलॉजी सेक्टर की सभी कंपनियां इसी मुश्किल का सामना कर रही है.
टेक्नोलॉजी कंपनी एप्पल, गूगल, माइक्रोसॉफ़्ट या इंटेल ने अभी तक छंटनी की किसी योजना का एलान नहीं किया है जबकि वैश्विक कारोबारी चुनौतियां उनके सामने भी है.
प्रोफ़ेसर विलियम क्विन कहते हैं, "छंटनी का हर मामला अपने आप में अलग है. मुझे लगता है कि आने वाले समय में टेक्नोलॉजी सेक्टर में सुस्ती छाई रहेगी."
आने वाले महीनों में टेक इंडस्ट्री में चाहे जो कुछ भी हो, ये साफ़ है कि छंटनी की ख़बरें इससे जुड़े लोगों को उद्वेलित करती रहेंगी.
कुछ लोगों के लिए ये केवल बही-खातों को दुरुस्त करने की कवायद है तो कुछ लोगों के लिए ये टेक्नोलॉजी सेक्टर के ग्रोथ की सुपरफ़ास्ट ट्रेन के अपने आख़िरी पड़ाव पर पहुंचने जैसा है.
इन लोगों का कहना है कि वो दौर ख़त्म हो गया जब सिलिकॉन वैली में पैसा पहाड़ों से निकले दरिया की तरह बह रहा था.
अब तो ये समय ही बताएगा कि ये कहानी किस मोड़ पर जाकर ख़त्म होगी. (bbc.com/hindi)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पाकिस्तान की फौज को दुनिया की सबसे ज्यादा भ्रष्ट फौज माना जाता है। पाकिस्तान का हर महत्वाकांक्षी नौजवान फौज में भर्ती होना चाहता है, क्योंकि वहां मूंछों पर ताव देकर रहना और पैसा बनाना सबसे आसान होता है। पाकिस्तान के लोग फौजियों का जरूरत से ज्यादा सम्मान करते हैं या उनसे बहुत ज्यादा डरते हैं, कहा नहीं जा सकता। अब से लगभग 40 साल पहले जब मैं पहली बार पाकिस्तान गया तो रावलपिंडी में फौज के मुख्यालय के पास एक दुकान में किताबें खरीदने गया।
मुझे देखते ही उस दुकान के मालिक और सारे कर्मचारी मुझे सेल्यूट मारने लगे, क्योंकि उन दिनों मैं सफारी सूट पहना करता था और मूंछें भी थोड़ी बड़ी रखता था। किताबें चुनने के बाद जब मैंने बिल मांगा तो मालिक बोला, सर आप कैसी बात कर रहे हैं? मैं किताबें आपकी कार में रखवा चुका हूँ। मैं पाकिस्तान के कई राष्ट्रपतियों, प्रधानमंत्रियों और बड़े उद्योगपतियों के घरों में भी गया हूं लेकिन जो ठाठ-बाठ मैंने सेनापतियों और फौजियों के घरों में देखा, वैसा भारत के किसी फौजी के घर में नहीं देखा।
इस वक्त जनरल क़मर बाजवा पाकिस्तान के सेनापति हैं। उनकी कुल निजी संपत्ति लगभग 500 करोड़ रु. की आंकी जा रही है। इसका पता तो उनके खिलाफ प्रचार कर रही एक वेबसाइट ने दिया है। यह भी एक कारण बताया जा रहा है, उनके स्वेच्छया सेवा-निवृत्त होने का! इसमें थोड़ी बहुत अतिशयोक्ति भी हो सकती है लेकिन इनकी तुलना ज़रा हमारे सेनापतियों से करें। वे बेचारे अपनी पेंशन पर किसी तरह गुजारा करते हैं। पाकिस्तान के कई फौजियों के जैसे आलीशान मकान मैंने लंदन, न्यूयार्क, फ्रेंकफर्ट और दुबई में देखे हैं, वैसा एक भी मकान किसी भारतीय सेनापति का मैंने आज तक विदेशों में कभी नहीं देखा।
पाकिस्तान में फौज ने भारत का ऐसा भयंकर डर पैदा कर रखा है कि पाकिस्तानी जनता उसे अपना सर्वेसर्वा बनाने पर मजबूर हो जाती है। वह किसी भी बड़े फौजी को अपना तानाशाह स्वीकार कर लेती है। वह जुल्फिकार अली भुट्टो, बेनज़ीर और नवाज शरीफ जैसे लोकप्रिय नेताओं को जब चाहे कान पकड़कर बाहर कर देती है। इमरान खान जैसे नेता का जीना भी हराम हो जाता है। इतना ही नहीं, पाकिस्तान की फौज ने सत्ता के साथ पत्ता (नोट) को भी अपने काबू में ले लिया है।
वह राजपूती दिखाते-दिखाते बनियागीरी भी करने लगी है। उसने लगभग डेढ़ लाख करोड़ रु. का कारोबार चला रखा है। उसमें बैंकिंग, मेडिकल सर्विसेज़, खाद, बीज, तेल, पेट्रोल पंप, बिजली घर, एयरपोर्ट सर्विसेज आदि दुनिया भर के धंधे खोल रखे हैं। इन धंधों के संगठनों को कई नाम दे रखे हैं लेकिन उन्हें फौजी ही चलाते हैं। बड़े फौजियों के अपने निजी धंधे हैं।
पाकिस्तान में और विदेशों में भी! अरबों रु. के इन धंधों तथा स्विस बैंकों में चल रहे इनके गुप्त खातों पर लंदन और न्यूयार्क के अखबारों में अक्सर भांडाफोड़ होता रहता है लेकिन पाकिस्तान की जनता इनके खिलाफ खुलकर बगावत इसीलिए नहीं करती कि उसके दिल में यह बात बिठा दी गई है कि भारत तो पाकिस्तान को खत्म करना ही चाहता है लेकिन यह सर्वशक्तिमान फौज ही है, जिसकी कृपा से वह बचा हुआ है। पाकिस्तानियों के मन से जिस दिन भारत का भय निकल गया, उसी दिन से यह फौज अपनी पटरी पर चलने लगेगी। यदि फौज पटरी पर चलने लगे तो पाकिस्तान भी भारत की तरह एक लोकतांत्रिक देश बन सकता है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-आशुतोष भारद्वाज
रायपुर में एक रिहायशी कॉलोनी है हिमालयन हाइट्स। जगदलपुर हाइवे पर बनी बहुमंजिला इमारतों की इस कॉलोनी में करीब बारह सौ घर हैं । बीस नवंबर की शाम इस कॉलोनी में रहती वरिष्ठ पत्रकार सुश्री ममता लांजेवार के घर में बजरंग दल के आठ-दस लोग घुस आये, बीसेक करीब नीचे नारे लगा रहे थे। ममता उस वक्त घर में अकेली थीं।
कुछ लोग इस कॉलोनी के पार्क में एक मंदिर बना कर रहे हैं। कॉलोनी के कई निवासी बच्चों के खेलने की जगह पर मंदिर बनाये जाने के पक्ष में नहीं हैं, लेकिन एकाध को छोड़ किसी में इतना साहस नहीं कि गुंडई का विरोध कर सकें। जब ममता लांजेवार ने आपत्ति जतायी, बजरंगी लोगों ने ममता के घर आ उन्हें घेर लिया। जब बात बढ़ने लगी, ममता ने फोन का वीडियो चालू किया कि शायद कैमरे को देख वे लौट जायें, लेकिन गुंडे उन्हें धमकाते रहे।
अगले दिन हुई एफआईआर में साफ लिखा था कि गुंडे ममता लांजेवार के घर में जबरदस्ती घुस आये और उन्हें जान से मारने की धमकी दी। लेकिन एफआईआर में सिर्फ़ दो धाराएँ लगीं—452 और 506। आप भारतीय दण्ड संहिता खोल कर इन दोनों धाराओं को पढ़ सकते हैं कि ये कितनी मामूली हैं। आठ गुंडे किसी अकेली लड़की के घर अँधेरा होने पर घुस जाते हैं, उनके बीसेक साथी नीचे खड़े हैं। इसकी गंभीरता को बगैर लिखे भी समझा जा सकता है।
खैर, कुछेक लोगों की गिरफ़्तारी होती है। एक अभियुक्त पुलिस की वैन में अदालत जाते वक्त मजे से फ़ोन में अपना वीडियो बनाता है, जय श्री राम कहते हुए उसे वायरल कर देता है। कुछ ही घंटों में सबको जमानत मिल जाती है। उनका मालाओं से स्वागत किया जाता है, बजरंगी फेसबुक पर उनकी रिहाई का उत्सव मनाते हैं। भाजपा बजरंगियों का भरपूर समर्थन करती है।
राज्य की पुलिस बजरंगियों के सामने बेबस नजर आयी है। जब बीस की शाम पुलिस दो-तीन लोगों को पकड़ थाने ले गयी, करीब सौ बजरंगी थाने को घेर कर ‘जेहादी पत्रकार मुर्दाबाद’ के नारे लगाने लगे।
तमिलनाडु से बड़े राज्य छत्तीसगढ़ में उँगलियों पर गिने जाने योग्य महिला पत्रकार हैं। एंकर मिल जायेंगीं, लेकिन फील्ड रिपोर्टर बहुत कम हैं। ममता लांजेवार शायद राज्य की श्रेष्ठतम महिला पत्रकार हैं—स्वाभिमानी, निर्भीक, संवेदनशील। चंदूलाल चंद्राकर सम्मान पत्रकारिता का राज्य का सर्वोच्च पुरस्कार है। खुद मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने यह सम्मान उन्हें दो बरस पहले दिया था।
चार साल पहले मुख्यमंत्री बनने के तुरंत बाद भूपेश बघेल जब पहली बार दिल्ली जा रहे थे, ममता ने उनसे हवाई अड्डे पर एक प्रश्न पूछा था। जब भूपेश विधायक थे, ममता उनसे अमूमन छत्तीसगढ़िया में बात करती थीं, लेकिन अब वे मुख्यमंत्री हो चुके थे। उस दिन ममता ने भूपेश बघेल को शुद्ध हिंदी में ‘सर’ संबोधित करते हुए प्रश्न पूछा और उन्होंने तुरंत अधिकार से ममता का माइक थाम लिया: “नोनी, मैं ह तोर सर कब से हो गे हों, पहले मोला भैया बोल तभेच जवाब दूं हूं। में ह काली घलो तोर बड़े भाई रेहेव अऊ आज भी वई सने बड़े भाई हों। (बिटिया, मैं तेरा ‘सर’ कब से हो गया? मैं तभी जवाब दूँगा, जब भैया बोलेगी। मैं पहले भी तेरा बड़ा भाई था, आज भी बड़ा भाई हूँ।)”
सभी पत्रकारों के सामने रायपुर हवाई अड्डे पर भूपेश बघेल ने ममता को बाध्य किया कि वे फिर से अपना प्रश्न पूछें।
मुख्यमंत्री से अपेक्षा है कि अपने दायित्व का निर्वाह करें, एफ़आईआर में उचित धारायें जोड़ने का आदेश दें, सुनिश्चित करें कि राज्य में किसी गुंडे की फिर ऐसी हिम्मत न हो।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
ईरान में हिजाब के मामले ने जबर्दस्त तूल पकड़ लिया है। पिछले दो माह में 400 लोग मारे गए हैं, जिनमें 58 बच्चे भी हैं। ईरान के गांव-गांव और शहर-शहर में आजकल वैसे ही हिंसक प्रदर्शन हो रहे हैं, जैसे कि अब से लगभग 50 साल पहले शंहशाहे-ईरान के खिलाफ होते थे। इसके कारण तो कई हैं लेकिन यह मामला इसलिए भड़क उठा है कि 16 सितंबर को एक मासा अमीनी नामक युवती की जेल में मौत हो गई।
उसे कुछ दिन पहले गिरफ्तार कर लिया गया था और जेल में उसकी बुरी तरह से पिटाई हुई थी। उसका दोष सिर्फ इतना था कि उसने हिजाब नहीं पहन रखा था। हिजाब नहीं पहनने के कारण पहले भी कई ईरानी स्त्रियों को बेइज्जती और सजा भुगतनी पड़ी है। कई युवतियों ने तो टीवी चैनलों पर माफी मांग कर अपनी जान बचाई है। यह जन-आक्रोश तीव्रतर रूप धारण करता जा रहा है। अब लोग न तो आयतुल्लाहों के फरमानों को मान रहे हैं और न ही राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी के धमकियों की परवाह कर रहे हैं।
ईरानी फौज के प्रमुख मेजर जनरल हुसैन सलामी ने पिछले दिनों एक बयान में कहा है कि यह जन-आक्रोश स्वाभाविक नहीं है। ईरान की जनता पक्की इस्लामी है। वह हिजाब को बेहद जरुरी मानती है लेकिन अमेरिका, सउदी अरब, यू.ए.ई. और इस्राइल जैसे ईरान-विरोधी देशों ने ईरानी जनता को भड़का दिया है। लेकिन असलियत तो यह है कि ईरान में इस्लामी राज्य शुद्ध डंडे के जोर पर चल रहा है। 80 प्रतिशत से भी ज्यादा जनता वहाँ हिजाब के विरुद्ध है।
पिछले 50-55 साल में मुझे ईरान में कई बार रहकर पढ़ने और पढ़ाने का मौका मिला है। शहंशाह के ज़माने में ईरान की महिलाएं अपनी वेशभूषा और व्यवहार में यूरोपीय महिलाओं से भी अधिक आधुनिक लगती थीं लेकिन ईरान के दर्जनों गांवों में मैं तब भी हिजाब, नकाब और बुर्काधारी महिलाओं को जरुर देखता था। जब से आयतुल्लाह खुमैनी का शासन (1979) ईरान में आया है, ईरानी महिलाओं का दम घुट रहा है।
पहले भी दो बार इस तथाकथित इस्लामी शासन के खिलाफ बगावत का माहौल बना था लेकिन अमीनी का यह मामला इतना तूल पकड़ लेगा, इसका किसी को अंदाज भी नहीं था। कल-परसों तो फुटबाल के विश्व कप टुर्नामेंट में ईरान की टीम ने अपने राष्ट्रगीत को गाने से भी मना कर दिया था। ईरानी लोग अपनी इस टीम को राष्ट्रीय सम्मान का प्रतीक मानते हैं।
हिजाब के विरोध ने आर्थिक कठिनाइयों में फंसे ईरान के कोढ़ में खाज का काम किया है। इस्लामपरस्त लोग भी खुले-आम कह रहे हैं कि कुरान शरीफ में कहीं भी हिजाब को औरतों के लिए अनिवार्य नहीं बताया गया है। भारत में चाहे हिजाब के लिए हमारी कुछ मुस्लिम बहनें काफी शोर मचा रही हैं लेकिन यूरोप के कई देशों ने तो उस पर प्रतिबंध लगा दिया है। (नया इंडिया की अनुमति से)
-चैतन्य नागर
कॉलेज में अध्यापन के दौरान अजीब अनुभव हुआ। एक दिन बी.ए. की दूसरे वर्ष की एक छात्रा अचानक किसी बात पर फूट-फूटकर रोने लगी। सभी सहपाठी परेशान हो गए। बाद में अलग से बहुत पूछने पर उसने बताया कि उसका बॉय फ्रेंड उसे बहुत पीटता है, एक बार तो उसका हाथ भी तोड़ दिया था। ‘तो फिर तुम उसके साथ क्यों रहती हो?’ इस सवाल के जवाब में वह चुप रही। थोडा रुक कर बोली-‘थोड़ी-बहुत खुशी तो मिलती ही है रिश्ते में’। यह ‘थोड़ी-बहुत खुशी’ रिश्तों में उम्मीद की लौ जगाये रखती है पर साथ भी यह फिक्र भी लगी रहती है कि यदि यह थोड़ी खुशी भी चली गई तो दूसरे किसी रिश्ते में हो सकता है इतनी भी नसीब न हो। इसी उम्मीद और दुश्चिंता के बीच कई रिश्ते डोलते रहते हैं। यदि निर्भरता सिर्फ भावनात्मक हो तो शोषण होता ही है, और यदि आर्थिक और भौतिक हो तो फिर शोषण की संभावना कई गुना बढ़ जाती है। अलग-अलग किस्म की निर्भरता रिश्तों को व्यक्त और अव्यक्त वेदनाओं से भर देती है। रिश्ते जितने आत्मीय हों, निर्भरता और शोषण की आशंका उतनी ही ज्यादा बढ़ती है।
जिद्दू कृष्णमूर्ति की दार्शनिक अंतर्दृष्टियों का व्यवहारिक महत्व भी कम नहीं। मानवीय संबंधों के बारे में उनकी दो बातें तो बड़ी ही कीमती हैं- एक तो यह कि संबंधों में कोई सुरक्षा नहीं होती। मनोवैज्ञानिक स्तर पर सुरक्षा जैसी कोई चीज होती ही नहीं। हम इंसानों में, रोमांटिक प्रेम में, चीजों में और विचारधाराओं में समय और ऊर्जा निवेश करते हैं, उनमें सुरक्षा ढूँढते हैं पर वास्तव में ऐसी कोई सुरक्षा होती ही नहीं। दूसरी बात उन्होंने यह कही कि जहाँ भी भावनात्मक या और किसी किस्म की निर्भरता होगी, वहां शोषण जरूर होगा।
दिल्ली में श्रद्धा नाम की युवती और उसके साथ लिव इन में रहने वाले आफताब से जुडी घटनाओं की खबरें चार-पांच दिनों से लगातार सोशल मीडिया और अन्य प्रसार माध्यमों पर ट्रेंड कर रही हैं। मन को व्यथित कर रही हैं। देश के अलग अलग हिस्सों से भी इस तरह की खबरें आ रही हैं। प्रेम संबंधों में पड़ी युवतियों की उनके तथाकथित प्रेमी ही जान ले लेते हैं। यह कैसा प्रेम है? किस आवरण में छिपा है कि युवतियां प्रेम के इस भयावह पहलू को देख भी नहीं पातीं, और रिश्तों में इतनी आगे तक चलती चली जाती हैं कि उनके आशिक उन्हें मौत के घाट भी उतार देते हैं? इन सब खबरों को सुन पढ़ कर बार-बार कई तरह के दुश्चिंताओं से भरा आता है। जिनकी अपनी बेटियां हैं वे ज्यादा परेशान हो रहे हैं। लगभग सभी वर्ग के बच्चे इन दिनों बड़े होकर बड़े शहरों में चले जाते हैं। बड़े शहरों में रहने वाले दूसरे शहरों में चले जाते हैं। एक बार घर से बाहर निकलते ही कई तरह की आजादियाँ तो मिलती हैं, पर उनके साथ उसी अनुपात में जिम्मेदारी का अहसास नहीं आ पाता। कई तरह के प्रलोभन, भौतिक और मानसिक प्लेजर का चौतरफा हमला मन पर होता है। ये बातें लडक़ों और लड़कियों दोनों पर समान रूप से लागू होती है। समाज में हिंसा और साथ ही क्षणिक सुख की खोज इतने बड़े पैमाने पर बढ़ गई है कि अपनी नई आजादी के विस्फोटक उन्माद में बच्चे विवेक खो बैठते हैं। मां बाप की बातें अप्रासंगिक लगती हैं; इंटरनेट की दुनिया और साथी संगी नए अभिभावक बन जाते हैं।
किसी का साथी बहुत हिंसक और आक्रामक निकल जाए तो दुर्भाग्य की बात तो है ही, पर ऐसा किसी के साथ भी हो सकता है। और जब तक इसका आभास हो, तब तक हो सकता है रिश्ता इतनी आगे तक बढ़ गया हो कि वापस लौटना मुश्किल और जटिल हो जाए। यदि ऐसे में युवक युवतियां मां बाप की इच्छाओं के खिलाफ जाकर साथ रहने या विवाह करने का फैसला करते हैं तो मामला और भी जटिल बन जाता है। क्योंकि एक बार संबंध विफल हुए या उसमें हिंसा का आगमन हुआ, तो फिर खासकर स्त्रियाँ माता पिता का सहारा और समर्थन भी खो बैठती हैं। खासकर तब जब वे आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर न हों।
विवेकपूर्ण होना, समझदारी से काम लेना, घर परिवार के लोगों के साथ कम्युनिकेशन बनाये रखना, वगैरह इस तरह की समस्याओं के कुछ पहलू हैं। पर इनके गहरे पहलू भी हैं। क्या हमें स्कूलों और परिवारों में परतंत्र न रहने की शिक्षा दी जा सकती है? क्या किसी पर भी निर्भर न रहने की शिक्षा दी जा सकती है? क्या हमें भीतर से इतना आजाद रहना सिखाया जा सकता है कि हम किसी को खुद के साथ मानसिक और भौतिक हिंसा करने की इजाजत ही न दें? हादसों की बात अलग है। कोई मानसिक रुग्णता का शिकार हो जाए, यह बात भी अलहदा है। पर आम तौर पर क्या हम खुद यह सीख सकते हैं, और अपने साथ के लोगों को भी सिखा सकते हैं कि किसी भी व्यक्ति, वस्तु पर इतना निर्भर न रहा जाए, कि जाने अनजाने में हम शोषण और आखिरकार भयावह हिंसा तक का शिकार हो जाएं?
भावनात्मक निर्भरता होती क्यों है? अक्सर किसी पर बुरी तरह निर्भर करने वाले लोग खुद को बहुत छोटा, क्षुद्र समझते हैं। उनमे असुरक्षा का गहरा भाव होता है और आत्मविश्वास की कमी होती है। अपने ‘कम होने को’ वह किसी और की मदद से, उसके साथ से पूरा करने की कोशिश करते हैं। पिछले रिश्तों का अनुभव भी इसमें भूमिका निभाता है। कभी-कभी तो यह निर्भरता आजीवन बनी रहती है। असुरक्षित महसूस करने की आदत बन जाती है। किसी के साथ चिपके रहने की भी उतनी ही गहरी आदत बन जाती है। ऐसे लोगों के लिए जरूरी है कि वे व्यक्तिगत विकास पर जोर दें, आत्मविश्वास बनाये रखें। किसी पर इतना अधिक निर्भर न करें, कि अपना आत्मसम्मान खोकर भी उसके सामने प्रेम की भीख मांगनी पड़ जाए। हम भीतर से जितने मजबूत होंगे, बाहरी लोगों और वस्तुओं पर हमारी निर्भरता वैसे ही कम होती जाएगी। आत्मीयता का अपना एक भयावह किस्म का आतंकवाद होता है और यह भले ही छोटे पैमाने पर हो, पर इसकी तीव्रता और वेदना उतनी ही दुखदायी होती है, जितनी कि बड़े पैमाने पर होने वाले आतंकवाद की। इसमें भरोसे की निर्मम हत्या होती है और किसी रिश्ते में भी भरोसे का टूटना कई ऐसे रिश्तों में संदेह के बीज बो देता है जो साफ-सुथरे होते हैं, हिंसा और फरेब की गंदगी से मुक्त होते हैं।
गांधीजी का एक महामंत्र इससे संबंधित ही था। वह कहते थे कि मेरे इजाजत के बगैर कोई अपने गंदे पाँव लेकर मेरी चेतना से होकर नहीं गुजर सकता। श्रद्धा के साथ हुआ वह तो एक भयावह हादसा था और उसके बॉय फ्रेंड ने जो किया वह अक्षम्य है, पर यदि हमारी दूसरों पर निर्भरता कम हो जाए तो जाने अनजाने में होने वाले कई तरह के भावनात्मक, मानसिक और भौतिक रक्तपात से हम स्वयं को बचा सकते हैं। आत्मबल और दृढ़ता के साथ प्रेम करने का अपना अलग सौदर्य है। स्वयं को किसी का गुलाम मान लेना, और किसी को खुद का आका बना लेना, भले ही वह कितना ही निर्दयी क्यों न हो, यह प्रेम नहीं, उसका एक बहुत ही कमजोर और सस्ता रूप है। यह प्रेम न होकर एक तरह का व्यसन बन जाता है।
डिपेंडेंस होने पर प्रेम नहीं बढ़ता। न ही डिपेंडेंस खत्म होने पर प्रेम खत्म होता है। इस बात को मिल बैठ कर खंगाला जाना चाहिए।
-प्रकाश दुबे
जिस देश में लोग पुण्यतिथि पर शुभेच्छा देने की चाह रखते हों, वहां प्रेस दिवस तो बड़ा उत्सव है। सीध्रे-आड़े, नाम से जुड़े पत्रकार भी इसे त्योहार की तरह मनाने लगे हैं। ऐसा ही उत्सव दिल्ली में हुआ जिसमें दो दशक पहले की राजनीति के दमदार सितारे योगानंद शास्त्री हाजिर थे। कभी दिल्ली विधानसभा अध्यक्ष थे। मुख्यमंत्री बनने का सपना था। मंच पर राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश सिंह को शास्त्रीजी बार-बार हरिवंश राय कह कर संबोधित कर रहे थे। धडक़ता दिल लिए आयोजक दुआ कर रहे थे कि वे बच्चन न जोड़ दें। शास्त्रीजी अपने युग को कैसे भूलते? उन्होंने हरिवंश राय बच्चन जी कह ही दिया। वरिष्ठ पत्रकार हरिवंश ने दूसरे की बाइलाइन नहीं चुराई। यानी दूसरे के लेख पर अपना नाम चिपकाना पसंद नहीं किया। अमिताभ का पितृत्व कैसे स्वीकार करते? उन्होंने वक्ता की बात काट कर विनम्रता से कहा-मैं हरिवंश हूं। बच्चन नहीं। वक्त की मधुशाला का सुरूर गहरा होता है। शास्त्रीजी ने इस बात का सबूत तो दे ही डाला।
प्रत्येक नागरिक
राष्ट्रीय प्रेस दिवस के आयोजन में राष्ट्रपति को सुनने की तमन्ना रखने वाले निराश हुए। बताया जाता है कि वे अनुकूल थीं परंतु बहुत विलंब से सचिवालय ने सूचित किया कि उनका आना संभव नहीं है। राष्ट्रपति बात अलग है। भारतीय प्रेस परिषद में पांच सांसद सदस्य रहते हैं। तीन लोकसभा और दो राज्यसभा से। डेढ़ बरस से लोकसभा सदस्यों के नाम पर विचार जारी है। राज्यसभा से नामजद दो सदस्यों में से लगातार तीन बैठकों में गैरहाजिर रहने वाले की सदस्यता छिन गई। दूसरे दिल्ली के बाहर थे। सूचना-प्रसारण मंत्री के जल्दी जाने की सूचना से निराश पत्रकारों के प्रति अनुराग सिंह ठाकुर ने अनुराग दिखाया। पूरे समय रुके। बाइट और सेल्फी चाहकों की तमन्ना पूरी की। परिषद अध्यक्ष और सदस्यों के साथ अलग से बातचीत की। लोकसभा और राज्यसभा सदस्य के एक एक सदस्य उपस्थित रहे। अनुराग लोकसभा से। राज्यसभा से स्वपन दासगुप्ता? नहीं। उनका कार्यकाल समाप्त हो चुका है। सूचना-प्रसारण राज्यमंत्री मुरुगन मध्यप्रदेश से राज्यसभा सदस्य हैं।
लेखन, मुद्रण, चित्र या...
विदेश जाने और विदेशी मेहमानों से मिलने की आतुरता का जिक्र होते ही अपने नरेन्दर भाई का नाम याद आता है। इस गलतफहमी को हाशिये पर रखें। प्रधानमंत्री ने इस सप्ताह दो धाकड़ मेहमानों से मुलाकात टाली। एसियान देशों के राष्ट्रप्रमुखों से मिलने प्रधानमंत्री को पड़ोसी पुरबिया देश की यात्रा पर जाना था। अपनी जगह उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ को कम्बोडिया रवाना किया। प्रधानमंत्री मोहम्मद बिन सलमान का भारत आना भी टला। बड़ी बात यह है कि सलमान सउदी अरब के भावी शासक हैं। विरोधी यही कहेंगे कि नूपुर की विवादास्पद कर्कश ध्वनि के कारण सलमान का दौरा टला। सउदी अरब का संविधान कुरान है। नूपुर की बड़बड़ का वहां कड़ा विरोध हुआ। सोच समझकर निशाना साधने वाले सलमान भारत और पाकिस्तान दोनों की यात्रा करना चाहते थे। प्रधानमंत्री ने तरीका निकाला। गुजरात में चुनाव प्रचार किया। राजकुमार से प्रधानमंत्री मुलाकात करेंगे। अमेरिका में नहीं। वैसे दोनों को वहां जाने की खास छूट मिली है। जी-20 के दौरान बाली में।
विचारों और विश्वासों को व्यक्त करने का अधिकार
मध्यप्रदेश और बरार के पहले राज्यपाल मंगल दास पकवासा की पोती सोनल ओडिशी और भरतनाट्यम की नामी नृत्यांगना हैं। सोनल मानसिंह की थिरकन से प्रभावित प्रधानमंत्री की सिफारिश पर राष्ट्रपति ने राज्यसभा के मंच पर बुला लिया। मूलत : राजस्थान के बैरागी परिवार में जन्मे ओडिशा के नौकरशाह अश्विनी वैष्णव पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की पसंद थे। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी उन्हें पसंद करते हैं। सोनल और अश्विनी दोनों की अपने अपने काम में महारत और शोहरत है। दोनों की मकबूलियत का अपने-पराए लोहा मानते हैं। राजनीतिक कलुष, कोहरे और कंपकंपी वाली दिल्ली में रेलमंत्री वैष्णव को सोनल मानसिंह ने खास किस्म के लड्डू खिलाए। अलग स्वाद की मिठास से संचार मंत्री थिरक उठे। सोनल मानसिंह ने चौंकाया-बाजरे के लड्डू हैं। शक्कर की जगह इनमें खांडसारी का प्रयोग किया गया है। वैष्णव की जगह लालू प्रसाद होते तो रेल यात्रियों के लिए लड्डू पहुंचाने का इंतजाम कर देते। वैसे उम्मीद कर सकते हैं। हरियाणा में लड्डू बनाने में मशगूल महाशय कभी रिलांयस में बड़े ओहदे पर थे।
संविधान का अनुच्छेद 19 (1) (ड्ड)- बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, प्रत्येक नागरिक को भाषण द्वारा लेखन, मुद्रण, चित्र या किसी अन्य तरीके से स्वतंत्र रूप से किसी के प्रदान करती है। सभी शीर्षक अनुच्छेद-19 से लिए गए हैं। (लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
भारत में कई बार अपनी मर्जी से जीवनसाथी चुनने का मतलब मां बाप से रिश्ते का खत्म हो जाना होता है.ऐसे हालात में अगर पार्टनर साथ छोड़ दे तो लड़कियों की मदद के लिए दूसरे रास्ते भी बंद हो जाते हैं.
डॉयचे वैले पर कौशिकी कश्यप की रिपोर्ट-
"तुम्हारी शादी हम नहीं कराएंगे, तुम उसके साथ कैसे गई," "मेरी बेटी मर गई है, मुझे बेटी नहीं चाहिए.” मां-पिता से यह सुनने के बाद 25 साल की कैटरीना ने अपना घर छोड़ने और बॉयफ्रेंड से शादी कर उसके साथ रहने का फैसला किया.
इसे भारत का समाज 'भागकर शादी करने' का नाम देता है. कैटरीना ने अपने परिवार और समुदाय के दिए गए मानदंडों और नियमों का पालन नहीं किया, इसलिए उन्होंने परिवार से संबंध खो दिए और इसके साथ ही अधिकार भी खो दिये.
स्वीडन की लुंड यूनिवर्सिटी की काइसा नाइलिन ने एक थीसीस स्टडी में बेंगलुरु की दस महिलाओं के प्रेम-विवाह के अनुभवों और उनके असर का जिक्र किया है. यह कहानी उसी का एक हिस्सा है. दरअसल, कैटरीना का यह अनुभव सामाजिक बहिष्कार और अलगाव का अनुभव है, जिससे अक्सर अपनी पसंद का पार्टनर चुनने पर लड़कियों को गुजरना पड़ता है. यह खुलेआम भारतीय समाज में दिखता है.
दिल्ली में 27 साल की श्रद्धा वॉकर की बर्बर हत्या का इतने महीनों बाद पर्दाफाश होना इन मामलों का एक और भयानक उदाहरण है. हत्या का मामला करीब 6 महीने बाद खुला. मुंबई की रहने वाली श्रद्धा की हत्या का आरोप उसके लिव-इन पार्टनर 28 साल के आफताब अमीन पूनावाला पर है. अब सामने आई जानकारी के मुताबिक आरोपी ने शव को छिपाने के लिए उसके टुकड़े कर दिये. वे दोनों दिल्ली में रह रहे थे और करीब तीन साल तक लिव-इन पार्टनर रहे. सोशल मीडिया पर लोग इसे प्यार का डरावना रूप बता रहे हैं.
श्रद्धा और उन जैसी लड़कियों को ऐसी कीमत इसलिए भी चुकानी पड़ती है क्योंकि अपनी मर्जी से शादी का फैसला लेने के लिए उन्हें बहुत कुछ दांव पर लगाना पड़ता है. श्रद्धा की अपने पिता से आखिरी बार साल 2021 में फोन पर बातचीत हुई थी. मां बाप बच्चों के लिए एक सपोर्ट सिस्टम हैं, जो आसानी से उपलब्ध होते हैं. लेकिन श्रद्धा अपने परिवार से कट गई थी, क्योंकि उसके रिश्ते को मां-बाप ने स्वीकार नहीं किया था.
प्रेम विवाह को सफल बनाने का दबाव
अलग धर्म या अलग जाति में या अपनी मर्जी से शादी करने वाली महिलाओं के लिए घरेलू दुर्व्यवहार, हिंसा के खिलाफ मदद लेना मुश्किल होता है, क्योंकि ज्यादातर मामलों में, परिवार उन्हें 'अस्वीकार' कर देता है. आगे चलकर अगर पति या पार्टनर अच्छा बर्ताव करने वाला इंसान नहीं निकला तो लड़कियों में अपराधबोध पैदा होता है कि वे एक गलत कदम उठा चुकी हैं.
वे डर और संकोच के मारे अपने साथी के बारे में शिकायत नहीं करतीं क्योंकि ये उनके परिवार की 'चेतावनी' और पूर्वाग्रहों की पुष्टि करेगा. लड़कियां इस दबाव से गुजरती हैं कि उन्हें किसी तरह रिश्ते को ठीक बनाए रखना है क्योंकि ''...हमने तो पहले ही कहा था कि ऐसा होगा.'' कहने वाले परिवार और रिश्तेदारों को नकार कर उन्होंने अपने दम पर एक मुश्किल फैसला लेने का साहस किया होता है.
पीड़ितों को अलगाव का नुकसान
मीडिया से बात करते हुए श्रद्धा के 59 साल के पिता मदन वॉकर ने कहा है कि आफताब और श्रद्धा का रिश्ता उन्होंने नकार दिया था क्योंकि दोनों का धर्म अलग था. वे कहते हैं, ''मैं उसे कई बार समझा चुका था, लेकिन उसने कभी मेरी बात नहीं मानी. सलिए मैंने उससे बात नहीं की.'' उन्होंने कहा है कि श्रद्धा उनकी बात मान लेती तो जिंदा होती.
श्रद्धा ने एक मुश्किल फैसला लिया था क्योंकि उसके पास और कोई विकल्प नहीं था. दूसरी तरफ आफताब ने मां-बाप के इसी रवैये का फायदा उठाया. श्रद्धा की मां की मौत हो चुकी थी. आफताब को पता था कि कोई भी श्रद्धा तक पहुंचने की कोशिश नहीं करेगा- ना तो उसका परिवार और ना ही उसके दोस्त, क्योंकि वह उनसे कटी हुई थी.
प्रेम विवाह यानी जोखिम भरा फैसला?
ऑनलाइन मैचमेकिंग सर्विस ट्रूली मैडली के भारत में 1.1 करोड़ से भी ज्यादा यूजर हैं. इसे भारतीय समाज के ताने-बाने के बीच बड़ा आंकड़ा माना जा सकता है. ऐसे और भी कई ऐप हैं जो खूब चलन में हैं, लेकिन जोड़ों का प्रेम विवाह तक नहीं पहुंच पाता. 2018 में 160,000 से ज्यादा परिवारों के सर्वे में, 93% विवाहित भारतीयों ने कहा कि उनकी शादी अरेंज यानी मां-बाप की मर्जी से हुई थी. सिर्फ 3% ने "लव मैरिज" की थी और अन्य 2% ने "लव-कम-अरेंज्ड मैरिज" की थी. 2021 की पीयू रिसर्च बताती है कि भारत में 80% मुसलमानों की राय है कि उनके समुदाय के लोगों को दूसरे धर्म में शादी करने से रोकना महत्वपूर्ण है. वहीं ऐसी ही राय 65% हिंदू रखते हैं.
हालांकि, कुछ दशक पहले की तुलना में अब लड़कियों को फैसले लेने के मौके मिल रहे हैं. वे अपने शहर-गांवों में या बाहर निकल कर आसानी से मर्जी और पसंद के काम कर र ही हैं. इसका श्रेय शैक्षिक विस्तार, डेटिंग ऐप जैसे तकनीकी परिवर्तन और विदेशी प्रभाव को दिया जाता है. कई लोग इसे सामाजिक-आर्थिक बदलाव की एक बड़ी प्रक्रिया के अनिवार्य हिस्से के तौर पर भी देखते हैं. स्थानीय मान्यताओं और संस्कृतियों की कई परतें हैं जिनसे समाज और परिवार के बुजुर्ग अब तक बाहर नहीं निकल सके हैं. ऐसे में लड़कियों को ये आजादी जोखिमों के साथ मिल रही है. (dw.com)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
आज सारी दुनिया में ‘विश्व टेलिविजन दिवस’ मनाया जाता है, क्योंकि 26 साल पहले संयुक्त राष्ट्र संघ ने इस दिवस की घोषणा की थी। उस समय तक अमेरिका, यूरोप और जापान आदि देशों में लगभग हर घर में टेलिविजन पहुंच चुका था। भारत में इसे दूरदर्शन कहते हैं लेकिन सारी दुनिया में निकट-दर्शन का आज भी यही उत्तम साधन माना जाता है, हालांकि इंटरनेट का प्रचलन अब दूरदर्शन से भी ज्यादा लोकप्रिय होता जा रहा है। यह दूरदर्शन है तो वह निकटदर्शन बन गया है।
आप जेब से मोबाइल फोन निकालें और जो चाहें, सो देख लें। दूरदर्शन या टीवी ने सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया है, अखबारों को! हमारे देश में अभी भी अखबार 5-7 रु. में मिल जाता है लेकिन पड़ौसी देशों में उसकी कीमत 20-30 रु. तक होती है और अमेरिका व यूरोप में उसकी कीमत कई गुना ज्यादा होती है। हमारे अखबार ज्यादा से ज्यादा 20-25 पृष्ठ के होते हैं लेकिन ‘न्यूयार्क टाइम्स’ जैसे अखबार इतवार के दिन 100-150 पेज के भी निकलते रहे हैं।
उनके कागज, छपाई और लंबे-चौड़े कर्मचारियों के खर्चे भी किसी टीवी चैनल से ज्यादा ही होते हैं। जब से टीवी चैनल लोकप्रिय हुए हैं, दुनिया के महत्वपूर्ण अखबारों की प्रसार-संख्या भी घटी है, उनकी विज्ञापन आय में टंगड़ी लगी है और बहुत से अखबार तो स्वर्ग भी सिधार गए हैं। लेकिन टीवी के दर्शकों की संख्या करोड़ों में है उनके पत्रकारों की तनख्वा लाखों में है और उनके बोले हुए शब्द कितने ही हल्के हों लेकिन अखबारों के लिखे हुए शब्दों की टक्कर में वे काफी भारी पड़ जाते हैं।
उनके कार्यक्रम तो सद्य:ज्ञानप्रदाता होते हैं लेकिन असली प्रश्न यह है कि ये टीवी चैनल आम लोगों को कितना जागरुक करते हैं और उन्हें आपस में कितना जोड़ते हैं? अखबारों के मुकाबले इस बुनियादी काम में वे बहुत पिछड़े हुए हैं। उनमें गली-मोहल्ले, गांव, शहर-प्रांत और जीवन के अनेक छोटे-मोटे दुखद या रोचक प्रसंगों का कोई जिक्र ही नहीं होता। उनमें अखबारों की तरह गंभीर संपादकीय और लेख भी नहीं होते। पाठकों की प्रतिक्रिया भी नहीं होती।
उनकी मजबूरी है। न तो उनके पास पर्याप्त समय होता है, न ही उनके सैकड़ों संवाददाता होते हैं और इन मामलों में कोई उत्तेजनात्मक तत्व भी नहीं होता, जो कि उनकी प्राणवायु है। इसीलिए गंभीर प्रवृत्ति के लोग टीवी देखने के लिए अपना कीमती समय नष्ट नहीं करते हैं लेकिन करोड़ों साधारण लोग टीवी के त्वरित प्रवाह में बहते रहते हैं।
टीवी पर आजकल जो बहसें भी होती हैं, कुछ अपवादों को छोडक़र, वे शाब्दिक दंगल के अलावा क्या होती हैं? उनमें निष्पक्ष बौद्धिक भाग लेना पसंद नहीं करते हैं। आजकल उनकी जगह विभिन्न पार्टियों के दंगलबाजों को भिड़ा दिया जाता है। इसीलिए टीवी चैनलों को अमेरिका में बुद्धू-बक्सा या मूरख बक्सा या इडियट बॉक्स भी कह दिया जाता है लेकिन यह कथन भारतीय चैनलों पर पूरी तरह लागू नहीं होता है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
किस्त-10
ईसा मसीह ने अपना मिशन घोषित किया था। वैसे ही ‘हिन्द स्वराज’ गांधी के विचार घोषणा-पत्र का उद्घाटन पर्व है। इसमें गांधी के शेष जीवन का एजेंडा सुविचारित ढंग से सुभाषित है। यह पुस्तक तेज गति के लेखन का भी नायाब नमूना है। इंग्लैंड से निराश लौटते गांधी ने 30 हजार षब्दों की यह पुस्तिका 13 से 22 नवंबर 1909 के बीच पानी के जहाज ‘किल्डोनन कैसल’ में बैठकर लिखी थी। 275 हस्तलिखित पृष्ठों के 40-50 पृष्ठ बाएं हाथ से लिखे गए थे क्योंकि दाएं हाथ ने जवाब दे दिया था। (इस नाते गांधी कम से कम पंद्रह प्रतिशत वामपंथी तो माने जा सकते हैं।) सवाल उठाया जाता है क्या ‘हिन्द स्वराज’ निखालिस भारतीय संदर्भ या तत्कालीन चुनौतियों के विचार-पत्र के रूप में लिखी गई, अथवा यह अपने समय और भूगोल के परे जाकर भी प्रासंगिक रह सकती है।
पहली नजर में यही लगता है कि एक खीझे हुए नवयुवक बैरिस्टर ने मालिक सभ्यता के दमन के लिए उसकी बदनीयती का कच्चा चि_ा तैयार किया है। ‘हिन्द स्वराज’ संभवत: अकेली किताब है जो इतनी सरल भाषा में लिखी गई है। उसे स्कूली पाठ्यक्रम में रखा जा सकता है और इस कृति को बार बार पढऩे से अर्थों के नए नए तिलिस्मी दरवाजे खुलते हैं। गांधी कहते हैं मैं यहां पाठकों को एक अप्रस्तुत प्रसंग भी बताऊं। इंग्लैंड में रहते हुए उनदिनों मेरी बातचीत बहुत से अराजकतावादियों से हुई। वहां मैंने उन सबके तर्कों का खंडन किया था। दक्षिण अफ्रीका में भी मैंने ऐसे कुछ लोगों की षंकाओं का समाधान किया था। मेरे ‘हिन्द स्वराज्य’ का जन्म इंग्लैंड में हुई इस चर्चा के आधार पर ही हुआ।
अपने जीवन के संध्याकाल में श्ी महात्मा गांधी ने आभार स्वीकार करते हुए कहा था: ‘रूस ने मुझे तॉल्स्तॉय के रूप में शिक्षक दिया जिनसे मुझे अपनी अहिंसा के लिए युक्तिसंगत आधार प्राप्त हुआ।’ उन्होंने तॉल्स्तॉय को विस्तार से एक पत्र 1 अक्टूबर 1909 को लंदन से श्ेजा गया था जहां गांधी ब्रिटिश सरकार के मंत्रियों से वार्ता के लिए पहुंचे थे।
उन्होंने दक्षिण अफ्रीकी नस्लवादियों के शासन में अपने देषवासियों की दूभर जिंदगी के बारे में तफसील से बताया और जोर देकर यह श्ी लिखा कि मुश्किलें और मुसीबतें चाहें कैसी श्ी क्यों न उठानी पड़ें, वे हिन्दुस्तानियों को किस्मत के आगे घुटने टेकने पर मजबूर नहीं कर सकतीं। तॉल्स्तॉय के विचारों से सीधे-सीधे मेल खानेवाली एकमात्र बात है ‘निष्क्रिय प्रतिरोध’ की धारणा जिसका संसार में प्रचार गांधी एकदम आवश्यक समझते थे।
‘हिन्द स्वराज’ संक्षिप्त पुस्तक है। उसमें बड़े बड़े सवाल सूत्रों में पिरोए गए हैं। पुस्तक में लेकिन उपन्यास का विस्तार भी है। गांधी ने अपने दिमाग के सयानेपन का इस्तेमाल किया है कि विषयवस्तु तत्कालीन होने के साथ साथ सर्वकालीन हो गई है। एक साथ उनके गुरु गोपालकृष्ण गोखले और षिष्य जवाहरलाल नेहरू ने पुस्तक को खारिज किया। गांधी के विचार नेहरू के नेतृत्व में न तो राज्य-सत्ता का आधार बने और न ही उन्हें किसी कार्य योजना से संपृक्त किया। सत्ता-तंत्र के लिए गांधी पूरी तौर पर असुविधाजनक और असंगत नजर आते रहे। औद्योगीकरण, सार्वजनिक क्षेत्र, योजना आयोग, शहरीकरण और वैश्वीकरण के दबावों के चलते गांधी की हाइपोथीसिस तिरस्कृत विचार-पत्र लगती है। ‘हिन्द स्वराज’ के पूरे आग्रह में नैष्ठिक और नैतिक जीवन की ष्वास है। गांधी का (एक तरह का) देहाती और लगभग अर्धसभ्य दिखता तर्क तिरस्कृत ही हो सकता है। गांधी के शिष्य जवाहरलाल नेहरू और उनके सहयोगियों ने यूरोप का चश्मा चढ़ाकर बाइस्कोप में जो रंगीनियां देखी थीं। उनके बदले गांधी की पुरानी आंखों से श्वेत श्याम बल्कि रंगहीन कोई नैतिक फिल्म देखना उन्हें गवारा नहीं हो सकता था।
गांधी निर्विकल्प नहीं हैं। कोई भी व्यक्ति, विचार या व्यवस्था निर्विकल्प नहीं है। मौजूदा हालातों में गांधी एक बेहतर विकल्प हैं-यह बात धीरे-धीरे दुनिया पर हावी होती जा रही है। गांधी के विकास का अधिकांश बल्कि असली युवा समय दक्षिण अफ्रीका में बीता। वहां उन्हें भारत से दूर रहकर एक अकल्पित, परोक्ष और व्याख्यात्मक समझ मिली।
गोरी हुकूमत से दो-दो हाथ करते बैरिस्टर गांधी दक्षिण अफ्रीकी जनसमुदाय से, जिनमें आप्रवासी भारतीय भी शामिल थे, पूरी तौर पर घुल मिल गए थे। उन्हें कई अंग्रेजों और ईसाई मित्रों का समर्थन और सहयोग मिला। गांधी अध्ययनशील और अध्यवसायी थे। उनकी पैनी दृष्टि ने ईसाई बनाम आधुनिक (पश्चिमी) सभ्यता के बीच भेद करना समझ लिया था। उन्होंने कहा कि विज्ञान जनित सभ्यता ने ‘माइट इज राइट’ और ‘सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट’ नामक दो घातक नारे उछाले हैं। उनका ईसाइयत के मूल्यों से कुछ लेना-देना नहीं है। गांधी ने इतिहास को धर्म की तरह नहीं लेकिन धर्म को इतिहास की तरह समझने, पढऩे और रेखांकित करने की लगातार कोशिशें कीं।
बहुत सा गांधी सहजता से पचता भी नहीं है। उसमें धरती की सोंधी गमक अलबत्ता है। 1925 के आसपास हिन्दू महासभा, कम्युनिस्ट पार्टी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और मुस्लिम लीग आदि की स्थापना हुई। 1931 में भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव की शहादत को स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास का सबसे घुमावदार मोड़ समझा जा सकता है।
क्रांतिकारियों की शहादत ने गांधी के अहिंसा विचार की व्यावहारिकता की समझ को तहस नहस कर दिया था। यही वजह है कि कांग्रेस का वामपंथी धड़ा जवाहरलाल और सुभाष बोस सहित क्रांतिकारियों के मामले में गांधी से अलग थलग हो गया। नेहरू और सुभाष अपनी तमाम गांधी समझ के बावजूद धीरे धीरे उनसे अलग मुकाम ढूंढने का उपक्रम भी रचते रहे। 1942 के प्रसिद्ध भारत छोड़ो आंदोलन में अहिंसा के व्यवहार को युवकों के जोश के कारण आहत भी होना पड़ा। भारत पाक विभाजन और हिंदुत्व के लगातार विरोध के मुहाने पर गांधी का कत्ल किया गया।
गांधी जब सोलह वर्ष के हुए, तब कांग्रेस का जन्म हुआ। गांधी को गए पचहत्तर वर्ष हो रहे हैं। कांग्रेस देश की सत्ता पर काबिज हुई। ‘गांधी’ उपनाम कांग्रेस से उसी तरह चिपका है जैसे प्राणी की त्वचा होती है। इंदिरा गांधी, फीरोज, राजीव, संजय, सोनिया, राहुल और प्रियंका-एक लंबी फेहरिश्त है। इसमें गुजरात के गांधी के वंशज शामिल नहीं है। मूल गांधी नहीं हैं। ‘मोहन’ के ‘बदले’ मनमोहन की सरदारी में कांग्रेस वक्त की दीवार पर लिखे असली गांधी को मिटाने की पूरी कोशिश करती रही है। गांधी का रचनात्मक कार्यक्रम कांग्रेस के नाबदान में फेंक दिया गया। मनरेगा का प्रयोग गांधी के नाम पर तो है लेकिन गांधी का सोच नहीं है। कुटीर उद्योगों का जाल बिछाने के बदले खेतिहर और सडक़ मजदूरों की फौज खड़ी करने को उसके ही सर माथे फोड़ा जा रहा है। दांडी के नमक सत्याग्रह के प्रणेता ने कहा था कि हर गांव को आत्मनिर्भर होना चाहिए। उसे केवल मिट्टी तेल और नमक के लिए ही शहरों पर निर्भर होना चाहिए। गांधी का नमक टाटा परिवार की तिजोरी में है। टाटा परिवार एक जमाने में देशसेवक था। अब कोयला और लोहा से लेकर टूजी स्पेक्ट्रम की सबसे बड़ी दलाली करने का उसने राष्ट्रीय रिकार्ड बनाया है।
गांधी कहते थे साठ वर्ष की उम्र के बाद सत्ता पर नहीं बैठना चाहिए। हर पार्टी के असली कर्णधार साठ वर्ष के ऊपर हैं। चल नहीं सकते, सुन नहीं सकते, दिमाग उन्हें मतदाताओं की तरह छोड़ रहा है। फिर भी सत्ता का नारद मोह भारतीय राजनीति का सबसे आकर्षक रोमांस है। गांधी ने सविनय अवज्ञा, सत्याग्रह वगैरह के लोकतांत्रिक हथियार धरती की छाती पर रोपे। गांधी ने अनशन किए लेकिन जन लोकपाल नहीं, जनशक्ति के मुद्दे को लेकर आज सरकार आंदोलनकारी की पीठ पर सीबीआई, इन्कम टैक्स और पुलिस आदि के हाथों से छुरा मारने में गुरेज नहीं करती। गांधी की मूर्ति को जगह जगह खंडित किया गया। संसद में इस तरह चर्चा हुई मानों स्कूल के किसी बच्चे की स्लेट या कापी चोरी हो गई। गांधी ने खादी पहनना कांग्रेस के लिए अनिवार्य किया था। कांग्रेसियों की देह तो क्या उनकी रसोई तथा साफ-सफाई के काम में भी खादी के कपड़े नहीं आते। गांधी ने मद्यनिषेध को अपने देष और पार्टी का मकसद बनाया था। हालत यह है कि जो शराब नहीं पीता उसे कांग्रेस में बड़े पद ही नहीं मिलते। अपवाद जरूर हैं लेकिन धीरे धीरे उनकी संख्या कम होती जा रही है। अनिवार्य शराबखोरी और खादी निषेध यदि दस्तूर बन जाएगा तो गांधी का क्या होगा?
-रमेश अनुपम
ज्ञानरंजन हमारी पीढ़ी के लिए किसी प्रकाश स्तंभ से कम नहीं हैं। आठवें दशक में छत्तीसगढ़ में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना में उनकी सर्वाधिक और महत्वपूर्ण भूमिका को कभी भुलाया नहीं जा सकता है।
ज्ञानरंजन की पहल के फलस्वरूप आठवें दशक के प्रारंभ में ही ‘पहल’ जैसी इस महादेश की अनिवार्य पत्रिका का संपादन-प्रकाशन जबलपुर से प्रारंभ हो चुका था। आपातकाल में ज्ञानरंजन और ‘पहल’ दोनों सरकार के निशाने पर थे। ‘पहल’ का वैचारिक ताप बड़े घरानों से निकलने वाली पत्रिकाओं और उनके संपादकों को रास नहीं आ रहा था। सो ज्ञानरंजन को निशाना बनाया जाना उनके लिए जरूरी ही था
‘पहल’ ने हम जैसे अनेक युवाओं को एक नई रोशनी दी और वामपंथ की शानदार समझ भी प्रदान की।
बहरहाल ‘पहल’ के शानदार 125 अंक अब हिंदी साहित्य की धरोहर है। व्यक्तिगत प्रयासों से हिंदी साहित्य में कोई साहित्यिक पत्रिका के 125 अंक निकाल पाया हो और वह भी एक उत्कृष्ट और संग्रहणीय रूप में, जिसमें हर श्रेष्ठ लेखक और कवि प्रकाशित होना चाहे मेरी जानकारी में दूर-दूर तक नहीं है।
ज्ञानरंजन आठवें दशक से हम लोगों के हीरो हैं। मैं सन 1975 में एम. ए. हिंदी का विद्यार्थी था। दुर्गा कॉलेज का नियमित छात्र। मुझे एक दिन क्लास में मेरे प्राध्यापक विभु कुमार जो स्वयं अच्छे लेखक थे ने बताया कि ज्ञानरंजन जी रायपुर आए हुए हैं और वे मुझसे मिलना चाहते हैं साथ में यह सूचना भी दी कि वे कटोरा तालाब में विनोद कुमार शुक्ल के घर पर ठहरे हुए हैं।
ज्ञान जी से तब तक मेरे पत्र व्यवहार का सिलसिला शुरू हो चुका था। पहल’ 3 से मैं ‘पहल’ का पाठक बन चुका था। जयस्तंभ चौक पर कोटक बुक स्टॉल से मैं नियमित रूप से ‘पहल’ और ’कल्पना’ खरीद लेता था।
मैं क्लास समाप्त होते ही विनोद जी के घर भागा। उन दिनों विनोद कुमार शुक्ल डॉक्टर श्रीवास्तव के मकान में किराए से रहते थे। मैं उनके घर जाकर एकाधिक बार मिल भी चुका था। विनोद जी के घर पर ज्ञानरंजन जी से रू-ब-रू यह मेरी पहली मुलाकात थी।
इसके बाद ज्ञानरंजन जी से मुलाकातों और खतों का सिलसिला परवान चढऩे लगा। ज्ञानरंजन की सक्रियता और खतों का जलवा ऐसा कि छत्तीसगढ़ का हर पढऩे-लिखने वाला युवा ज्ञान जी का मुरीद हो चला। ‘पहल’ पढऩा और उस पर चर्चा करना हमारी प्राथमिकता में शामिल होती चली गई।
यह ज्ञान जी के मोहब्बत का ही असर था कि मुझ जैसे आलसी और नकारा से अरुंधति रॉय के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘अपार खुशी का घराना’ पर लंबी समीक्षा लिखवा ली। इसी तरह अशोक कुमार पाण्डेय की किताब ‘कश्मीर और कश्मीरी पंडित’ तथा रणेंद्र के उपन्यास ‘गूंगी रुलाई का कोरस’ पर भी लिखवा कर छोड़ा।
ज्ञानरंजन जी का साहित्यिक अवदान अद्भुत है। उनके कहानियों के बिना हिंदी कथा साहित्य का मूल्यांकन अधूरा है। प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना और सक्रियता में उनके योगदान को भुला पाना मुश्किल है। ज्ञान जी स्वयं अपने आप में एक संगठन हैं।
काश और काश छत्तीसगढ़ प्रगतिशील लेखक संघ ज्ञानरंजन पर एकाग्र कोई सुंदर सा आयोजन रायपुर या भिलाई या बिलासपुर में आयोजित करता। हम सबके बेहद अजीज़ और बेमिसाल शख्सियत ज्ञान जी पर।
बहरहाल आज ज्ञानरंजन जी का जन्मदिन है। ज्ञानरंजन जी को इस देश के तमाम तरक्की पसंद साहित्यकार, संस्कृतिकर्मी उनके 87 वें जन्मदिन पर सलाम करते हैं और खूब सारी बधाई देते हैं। बहुत-बहुत बधाई ज्ञान जी। आप हमारे लिए आज भी एक रौशन स्तंभ हैं और हमेशा रहेंगे।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
थोक वोट कबाडऩे के लिए हमारे राजनीतिक दल आजकल ऐसे-ऐसे पैंतरे अपना रहे हैं और बेसिर-पैर की दलीलें दे रहे हैं कि कई बार मुझे आश्चर्य होता है कि वे देश को किस दिशा में ले जा रहे हैं। आजकल कुछ प्रदेशों में विधानसभा और स्थानीय निकायों के चुनावों हो रहे हैं। गुजरातियों और मुसलमानों के थोक वोट पटाने के लिए यदि कांग्रेस वीर सावरकर को बदनाम कर रही है तो आफताब-श्रद्धा कांड को भाजपा के कुछ नेता ‘लव जिहाद’ का नाम दे रहे हैं ताकि वे हिंदू वोट पटा सकें।
वास्तव में आफताब ने श्रद्धा की जो बर्बरतापूर्ण हत्या की है, उसकी जितना निंदा की जाए, वह कम है। आफताब को तुरंत इतनी कड़ी सजा इस तरीके से दी जानी चाहिए कि हर भावी हत्यारे के रोंगटे खड़े हो जाएं लेकिन उसे ‘लव जिहाद’ कहने की तो कोई तुक नहीं है। आफताब और श्रद्धा के बीच न ‘लव’ था और न ही ‘जिहाद’। दोनों के बीच प्रेम होना तो अपने आप में बड़ी बात है, अगर उनमें थोड़ी भी आत्मीयता होती तो उनके पिछले तीन साल में क्या बार-बार इतने जानलेवा झगड़े होते?
जब सचमुच का प्रेम होता है तो प्रेमी और प्रेमिका एक-दूसरे के लिए अपने प्राण भी न्यौछावर कर देते हैं। और जहां तक जिहाद का सवाल है, जिहादे-अकबर का अर्थ होता है- अपने काम, क्रोध, मद, लोभ और वासनाओं पर विजय पाना। यह, जो दोनों के बीच सहवास संबंध हुआ (लिविंग टुगेदर), वह जिहाद का एकदम उल्टा है। यदि जिहादे-असगर का अर्थ आप को यह लगता है कि धर्म-परिवर्तन के लिए मुसलमान लोग हिंदू लड़कियों को अपने चक्कर में फंसा लेते हैं तो इसमें ज्यादा दोष किसका है?
क्या वह व्यक्ति मूर्ख नहीं है जो ऐसे चक्कर में फंस जाता है? ऐसे मूर्खों की हानि पर कोई अफसोस क्यों व्यक्त करे? लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि सारी अंतरधार्मिक शादियां ‘लव’ के नाम पर ‘जिहाद’ ही होती हैं। मैं भारत और विदेशों में ऐसे दर्जनों परिवारों को निकट से जानता हूं, जिनमें पति और पत्नी विभिन्न धर्मों के हैं लेकिन उनमें कोई विवाद नहीं होता। या तो वे लोग सभी धर्मों को पाखंड मानते हैं या फिर वे अपने आप को इनसे ऊपर उठा लेते हैं।
जो लोग धर्मनिष्ट होते हैं, वे अपने-अपने धर्म को सहज भाव से मानते हैं लेकिन आजकल पश्चिमी राष्ट्रों की नकल पर हमारे यहां भी ‘लिव इन रिलेशनशिप’ (सहवास) का रिवाज चल पड़ा है। याने शादी किए बिना साथ-साथ रहना। श्रद्धा और आफताब का मामला भी वैसा ही था। ऐसे मामलों में ‘लव-जिहाद’ के नाम पर वासना की भूमिका ज्यादा तगड़ी होती है। ऐसा संबंध व्यभिचार और दुराचार को बढ़ाता है।
यह परिवार नामक पवित्र संस्था का विलोम है। ऐसे संबंधों का समर्थन किसी भी धर्म में नहीं है। समानधर्मी लोगों के बीच ऐसे संबंध कहीं ज्यादा होते हैं। इसीलिए सभी धर्मानुयायियों को एक-दूसरे की टांग खींचने के बजाय परिवार नामक संस्था की रक्षा के लिए कटिबद्ध होना चाहिए। (नया इंडिया की अनुमति से)
किस्त-9
गांधी की बौद्धिक शख्सियत के निर्माण की शुरुआत 1888 से समझी जाती है। तब वे कानून के विद्यार्थी की हैसियत से पढऩे के लिए इंग्लैंड गए। उस हैसियत का अहसास 1915 में उनके भारत लौटने पर भारतीयों को हुआ। गांधी ने भूमिका में ही स्वीकार किया है कि उन्होंने इस ‘अदर वेस्ट’ से क्या ग्रहण किया है। उन्होंने कहा ‘जो विचार यहां रखे गये हैं, वे मेरे हैं और मेरे नहीं भी हैं। वे मेरे हैं, क्योंकि उनके मुताबिक बरतने की मैं उम्मीद रखता हूं। वे मेरी आत्मा में गढ़े-जड़े हुए जैसे हैं। वे मेरे नहीं हैं, क्योंकि सिर्फ मैंने ही उन्हें सोचा हो सो बात नहीं। कुछ किताबें पढऩे के बाद वे बने हैं। दिल में भीतर ही भीतर मैं जो महसूस करता था, उनका इन किताबों ने समर्थन किया।’ इनमें से तॉलस्तॉय को गांधी ने अपना आध्यात्मिक गुरु स्वीकार किया है। यह सुखद है कि गांधी ने पुस्तक के मूल गुजराती पाठ का अंग्रेजी अनुवाद खुद ही किया। गांधी की अंग्रेजी भाषा अपनी सादगी, सटीकता, तर्क और प्रत्यक्षता के लिए ईष्र्या का विषय रही है।
गांधी एक मानव आयाम हैं। उनसे वैचारिकता के झुरमुटों में रोषनी अब भी फैल रही है। यह सूत्र स्थिर होता है जब गांधी की करुणाजनित बौद्धिकता को लेकर भारत तथा बाहर हुए अकादेमिक और विश्वविद्यालयीन षोध समीक्षित किए जाते हैं। आशीष नंदी, भीखूभाई पारिख, राघवन, निर्मल वर्मा और सुधीरचंद्र जैसे चुने हुए हिन्दुस्तानी गवेशणाकारों ने महात्मा गांधी की प्रसरणषीलता के हेतु रहे आत्मबिम्बों का मानवीय सरोकारों के साथ परीक्षण किया। इस अर्थ में गांधी के मरने का अब सवाल नहीं है। यही वजह है कि गांधी की मृत्यु के बाद जॉर्ज ऑरवेल और बर्टेऊण्ड रसेल जैसे चिंतकों ने उन पर गंभीर होकर लिखा।
अमेरिका के सुसेन और लॉयड रुडोल्फ दंपत्ति ने एक दशक से ज्यादा गांधी के राजनीतिक दर्शन और उपलब्धियों को समझने में व्यतीत किया। उनकी महत्वपूर्ण किताब का शीर्षक ही है ‘मॉर्डनिटी ऑफ टेऊडिशन’ अर्थात परंपरा की आधुनिकता। भीखूभाई पारिख ने भी यही कुछ कहते हुए खुलासा किया है कि गांधी ने भारत के अतीत की आध्यात्मिक समझ को धर्म के वितंडावाद और कर्मकांड से अलग कर उसे पश्चिम की आधुनिक भाषा अंगरेजी और बाइबिल की षिक्षाओं के अक्स में सानकर नई रसोई का उत्पाद बनाकर परोसा। कैलगरी विश्वविद्यालय केनेडा के प्रोफेसर एंथोनी जे. पारेल ने ‘हिन्द स्वराज’ के संपादन, आकलन और पुनर्मूल्यांकन को लेकर शायद सबसे महत्वपूर्ण कार्य किया है। ‘हिन्द स्वराज’ के विश्व प्रसिद्ध टीकाकार एंथोनी पारेल के अनुसार गांधी कथा का उत्कर्ष सत्रहवें अध्याय में है जहां गांधी सत्याग्रह और आत्मबल की आंखों से भारत के सांस्कृतिक इतिहास और तत्कालीन राजनीतिक फलितार्थ को देखते हैं। इसके बरक्स गांधी के अधिकारी विद्वान अद्भुत इतिहासकार और भारतीयत्व के प्रस्तोता धर्मपाल ‘हिन्द स्वराज’ के चौदहवें अध्याय को गांधी कथा की अंतिम उपपत्ति बताते हैं।
मारग्रेट चटर्जी के अनुसार गांधी विचारों का यह बुनियादी दस्तावेज है। बलराम नंदा इसे गांधी विचारों का स्वीकारनामा कहते है। एरिकसन के लिए यह एक आस्थावान घोषणा-पत्र है। डेनिस डॉल्टन के अनुसार यह वैचारिक आजादी की घोषणा के समान है। जुडिथ ब्राउन का कहना है कि यह गांधी की राजनीतिक थ्योरी का एक फलीभूत उत्पाद है। जॉर्ज कैटलिन ‘हिन्द स्वराज’ की तुलना सेंट इग्नेशियस लोयोला की ‘स्पिरिचुअल एक्सरसाइजेज’ से करते हैं। ‘हिन्द स्वराज’ की तुलना नई बाइबिल में सेंट मेथ्यू और सेंट ल्यूक के कथनों से भी की जाती है। गांधी पर तोहमत भी लगाई जाती है कि उनका सिक्का भारत से ज्यादा विदेशों में चलता है। अपने देश में गांधी को समझने, स्वीकारने और विचार करने की वांछित जहमत भारतीयों ने तो उठाई ही नहीं है। 1980 के दशक में गांधी की छबि और प्रतिष्ठा को लेकर भारत में गांधी के पुनर्मूल्यांकन की सघनता दिखाई पड़ी। आशीष नंदी की पुस्तक ‘ऐट द ऐज ऑफ साइकोलाजी: एसेज इन पॉलिटिक्स एण्ड कल्चर’ तथा ‘द इन्टीमेट एनेमी : लॉस एण्ड रिकवरी ऑफ सेल्फ अंडर कोलोनियलिजम’, मकरंद परांजपे की ‘दि कोलोनाइजेशन एण्ड डेवलपमेंट : हिन्द स्वराज रीविजन्ड’, नागेश्वर प्रसाद द्वारा संपादित ‘हिन्द स्वराज: ए फ्रेश लुक’ वगैरह का इस सिलसिले में उल्लेख किया जाना चाहिए। वैसे 1969 में गांधी की जन्मशताब्दी के समय प्राण चोपरा की किताब ‘द सेज इन रिवोल्ट: ए रिमेम्बरेन्स’ बहुत महत्वपूर्ण रही है। 1997 में केनेडा के विद्वान एंथोनी पारेल ने अपनी प्रसिद्ध कृति ‘गांधी, हिन्द स्वराज एण्ड अदर राइटिंग्स’ प्रकाशित कर एक नये विमर्श को अंतरराष्ट्रीय आमंत्रण दिया।
हिन्दुस्तान के बहुत से प्रखर विचारकों ने कभी एक साथ तो कभी अलग अलग उत्तर-आधुनिक युग में गांधी को ढूंढऩे की कोशिशें की हैं। रजनी कोठारी, रामाश्रय रॉय, आशीष नंदी, भीखू पारेख और पार्थ चटर्जी वगैरह ने गांधी का एक उत्तर आधुनिक नवभाष्य पढऩे बल्कि गढऩे की भी अभिनव कोषिषें की हैं।
गांधी के एक बड़े अध्येता भीखू पारेख उनकी कुछ कमियों की ओर भी इशारा करते हैं। उनका तर्क है कि आधुनिक सभ्यता की गांधी-समीक्षा कुछ उपलब्धियों की अनदेखी करती है। उत्तर आधुनिक ऐतिहासिकता के सन्दर्भ में भी गांधी उल्लेखनीय हैं। एक सदी से ज्यादा पहले लिखी उनकी कृति ‘हिन्द स्वराज’ में की गई पश्चिमी सभ्यता की समीक्षा आज उत्तर आधुनिकता द्वारा की जा रही सभ्यता-समीक्षा की पूर्वज ही है। स्टीफन टोलमिन अपनी पुस्तक ‘कॉस्मोपोलिस, दी हिडन एजेण्डा ऑफ माडर्निटी’ में आधुनिक सभ्यता की ऐतिहासिकता की जांच करते हैं। उन्हें आधुनिकता का गर्भगृह देकार्ते के आधुनिक दर्शन, न्यूटन के आधुनिक विज्ञान और होब्स के आधुनिक राज्य सिद्धांत में प्रतीत होता है। अपनी कृति ‘पोस्ट मॉडर्निज्म एंड इट्स क्रिटिक्स’ में जॉन मॅक गोवन भी तो यही पूछते हैं ‘उत्तर आधुनिकता शब्द का अर्थ आखिर क्या है?’
यह सुविधापूर्वक कहा जाता है कि ‘हिन्द स्वराज’ ने पश्चिमी सभ्यता की निर्मम समीक्षा और चुनौती के नवयुग का उद्घाटन किया। इसके बरक्स गांधी खुद कहते हैं कि यह काम तो उनसे पहले तॉल्स्तॉय, जॉन रस्किन, एमर्सन और थोरो वगैरह ने भी किया है। मार्टिन ग्रीन अपनी पुस्तकों में साफ लिखते हैं कि ऐसा करने में गांधी किसी नवयुग के उद्घाटक नहीं थे क्योंकि तॉल्स्तॉय इस पूरे सभ्यता विमर्र्श को लेकर उनके अगुआ अर्थात वरिष्ठ थे। नंद किशोर आचार्य ‘हिन्द स्वराज’ को समझने के लिए अपनी एक नई तर्कदृष्टि प्रस्तुत करते हैं। ‘हिन्द स्वराज’ को एक किताबी पाठ की तरह समझकर उसके निष्कर्षों को राजनीतिक शब्दावली, प्रयोगधर्मिता और सैद्धांतिक बहस में उलझाकर रखने के बदले आचार्य के अनुसार यह देखना ज्यादा मुनासिब होगा कि जिस भारतीय समाज का प्रतिनिधित्व करते हुए गांधी ने उसके नैतिक उत्कर्षों को लेकर दृढ़ मान्यताएं स्थापित की थीं क्या वे भारतीय वंशज गांधी के आकलन के अनुकूल हैं भी या नहीं। कई बार लगता है कार्ल माक्र्स और गांधी में विरोधाभासों के अवयव ऊपरी तौर पर ही वाचाल हैं।
महात्मा के साथ दिक्कत है। उन्हें जब-जब और जितनी दफा पढ़ा जाए, लगता है कोई विचार-दलदल है। वहां से ऊपर आने की कोशिश करना अंदर अंदर धंसते जाने का जतन है।
एक घटना गांधी के जीवन में घटित हुई थी। किल्डोनन कैसल के दक्षिण अफ्रीका पहुंचते पहुंचते अति उत्साह में गांधी के समर्थकों ने दक्षिण अफ्रीका स्थित ‘फीनिक्स आश्रम’ का नाम बदलकर गांधी-आश्रम करने का एक तरह का अभ्यावेदन कर दिया। गांधी को यह स्वाभाविक ही मंजूर ही नहीं हुआ। एक तो गांधी उस अंगरेजी शब्द को अपने नाम की स्थानापन्नता में बदलना ही नहीं चाहते थे। लेकिन उसका निहितार्थ या दार्शनिक पेंच कुछ और था। फीनिक्स पक्षी वही पौराणिक प्रतीक है जो आग में राख हो जाने के बावजूद दुबारा जी उठने की क्षमता लिए हुए होता कहा जाता है। ‘हिन्द स्वराज’ के अर्थ में फीनिक्स शब्द का रूपांतरण इतिहास के शोध का विषय है। ‘हिन्द स्वराज’ गांधी विचार का फीनिक्स आश्रम है। उसमें लगातार आधुनिक सभ्यता की आंच में जलते रहने के बावजूद दुबारा उठ खड़े होने का अंतर्निहित साहस और संकल्प संजोया हुआ है।
‘भारत जोड़ो यात्रा’ दो सप्ताह बाद तीन महीने पूरे कर लेगी। राहुल गांधी तब तक यात्रा के निर्धारित लक्ष्य का आधे से ज़्यादा फ़ासला तय कर चुके होंगे। अद्भुत नज़ारा है कि लोगों के झुंड बावन-वर्षीय नेता के आगे और पीछे टूटे पड़ रहे हैं। सत्तारूढ़ भाजपा सहित विपक्षी दलों के नेता हतप्रभ हो देश के भावी राजनीतिक परिदृश्य का अनुमान लगा रहे हैं। यात्रा के सहभागियों को लेकर अब तो प्रधानमंत्री ने भी राहुल पर हमलों की शुरुआत कर दी है। उन्होंने इसकी शुरुआत गुजरात से की है जहां राहुल के कदम पड़ना अभी बाक़ी हैं। कांग्रेस के नेताओं के बीच होड़ मची है कि राहुल का हाथ थामकर साथ चलते का कोई फ़ोटो मीडिया में जगह पा जाए। उनके लिए पार्टी में अपनी हैसियत उजागर करने का अब यही आधार कार्ड बन गया है।
दूसरी ओर, वह जनता जो यात्रा के गुज़र जाने के बाद सड़कों पर पीछे छूटती जा रही है और जिसे आने वाले दिनों में पहले की तरह ही ज़मीनी हक़ीक़तों से जूझना है, उसके मन में एक महत्वपूर्ण सवाल उठ रहा है ! सवाल यह है कि तीन हज़ार सात सौ पचास किलो मीटर या उससे ज़्यादा चल लेने, महात्मा गांधी की नज़रों से असली भारत देख लेने, लाखों लोगों के ‘मन की बात’ और तकलीफ़ें सुन-समझ लेने के बाद यात्रा जब एक दिन पूरी हो जाएगी, सभी सहयात्री अपने ठिकानों के लिए रवाना हो जाएँगे, राहुल के कदम किस दिशा की तरफ़ पड़ने वाले हैं ? तब तक उन्हें यह भी पता चल जाएगा कि दिन सड़कों पर और कंटेनरों में कष्ट-साध्य रातें बिताने के बाद जितना भी पुण्य उन्होंने अर्जित किया है वह हिमाचल और गुजरात के चुनावों में पार्टी के लिए कितनी सीटों में तब्दील हुआ है। परिस्थितियों के मुताबिक़ जवाब के लिए इस तर्क को तो सुरक्षित रखा ही जा सकता है कि यात्रा राजनीतिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए थी ही नहीं !
राहुल प्रधानमंत्री को तो जनता के ‘मन की बात’ भी सुनने की चुनौती दे रहे हैं पर ख़ुद अपनी आधी यात्रा के बाद भी जनता के मन में उठ रहे सवाल का कोई यक़ीनी जवाब देने से कतरा रहे हैं। वे कहते हैं यात्रा के बाद क्या करना है इसका उत्तर कांग्रेस अध्यक्ष से पूछिए ! वे जैसा भी आदेश देंगे। राहुल इस बारे में भी कोई भविष्यवाणी नहीं करना चाहते हैं कि यात्रा से कांग्रेस को कितना लाभ मिलेगा। राहुल के मुताबिक़, कांग्रेस को इतना ज़रूर लगता है कि यात्रा से रास्ता निकलता है।
कांग्रेस और स्वयं के भविष्य को लेकर बात करने से राहुल चाहे जितना बचना चाह रहे हों, यात्रा की समाप्ति के दिन जैसे-जैसे नज़दीक आ रहे हैं, पार्टी में उनके लिए कामों का ढेर जमा होता जा रहा है जबकि उन्होंने अपने आप को सभी ज़िम्मेदारियों से आज़ाद कर रखा है। मसलन, राजस्थान में यात्रा के प्रवेश के ठीक पहले अजय माकन ने राज्य के प्रभारी पद से यह कहते हुए इस्तीफ़ा दे दिया कि इतने दिनों के बाद भी नए पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के समर्थक बग़ावती नेताओं के ख़िलाफ़ कोई अनुशासनात्मक कार्रवाई नहीं की। ऐसे में अपमानजनक तरीक़े से राज्य का प्रभारी बने रहने का कोई औचित्य नहीं है। इस बीच खड़गे ने एक काम अवश्य कर दिखाया :
‘भारत जोड़ो यात्रा’ के हैदराबाद पड़ाव के दौरान एक नवंबर को हुई एक जनसभा में खड़गे ने घोषणा कर दी कि कांग्रेस राहुल गांधी के नेतृत्व में 2024 में केंद्र में सरकार बनाएगी। यानी राहुल संयुक्त विपक्ष के पीएम उम्मीदवार होंगे। राहुल गांधी इस अवसर पर उपस्थित थे। उन्होंने खड़गे के कहे पर कोई टिप्पणी नहीं की। ‘भारत जोड़ो यात्रा’ जब हैदराबाद पार कर महाराष्ट्र के अकोला पहुँची तो 2024 में पीएम पद की उम्मीदवारी को लेकर पत्रकार वार्ता में पूछे गए एक सवाल के जवाब में उनका उत्तर था : हम अभी इस बारे में नहीं सोच रहे हैं । हमारा काम अभी भारत जोड़ो यात्रा है।
इस सवाल को लेकर चिंता ज़ाहिर करना प्रारंभ हो जाना कि चाहिए कि अपनी महत्वाकांक्षी यात्रा की समाप्ति के बाद राहुल गांधी कांग्रेस और देश को किस तरह का नेतृत्व और दिशा प्रदान करने वाले हैं ! वे देश की जनता को निराश तो नहीं करने वाले हैं ? राहुल गांधी द्वारा अचानक से उठा लिए जा सकने वाले कदमों को लेकर कांग्रेस और देश में हमेशा धुकधुकी बनी रहती है। इसमें यह भी शामिल है कि छुट्टियाँ मनाने के लिए वे किसी विदेश यात्रा पर तो नहीं निकल जाएँगे ?
इस बात से संदेह दूर हो जाना चाहिए कि ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के ज़रिए राहुल ने 137-वर्षीय पुरानी कांग्रेस को अब अपने अस्तित्व के लिए पूरी तरह से अपने ऊपर निर्भर कर दिया है। वे कांग्रेस के नरेन्द्र मोदी बन गए हैं। आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि 26 अक्टूबर को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष पद का कार्यभार ग्रहण कर लेने के बाद से खड़गे ने कोई भी साहसपूर्ण निर्णय नहीं लिया है। क्या निर्णयों के लिए खड़गे ,राहुल की दिल्ली वापसी की प्रतीक्षा कर रहे है ?
महाराष्ट्र के एक प्रतिष्ठित नेता और पूर्व मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण ने ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के अपने राज्य में प्रवेश के दौरान राहुल गांधी से मुलाक़ात के बाद एक महत्वपूर्ण खुलासा किया था। बहुत लोगों ने उस पर ध्यान नहीं दिया। चव्हाण ने कहा था कि राहुल का इरादा मोदी सरकार के ख़िलाफ़ एक मज़बूत ‘जन आंदोलन’ खड़ा करने का है। चव्हाण ने यह भी कहा था राहुल नहीं चाहते हैं कि ‘भारत जोड़ो यात्रा’ कांग्रेस आधारित आंदोलन हो। सवाल यह है कि क्या चव्हाण द्वारा किया गया खुलासा सही है ? उस पर भरोसा किया जा सकता है ? ऐसा तो नहीं होगा कि अपनी किसी अगली पत्रकार वार्ता में राहुल इस संबंध में पूछे जाने वाले प्रश्न का भी उसी तरह से जवाब पेश कर दें जैसा उन्होंने अकोला में अपनी पीएम पद की उम्मीदवारी को लेकर दिया था ?
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
सर्वोच्च न्यायालय में आए एक ताजा मामले ने हमारी न्याय-व्यवस्था की पोल खोलकर रख दी है लेकिन उसने देश के सारे न्यायालयों को नया रास्ता भी दिखा दिया है। हमारी बड़ी अदालत में 1965 में डा. राममनोहर लोहिया ने अंग्रेजी का बहिष्कार करके हिंदी में बोलने की कोशिश की थी लेकिन कल शंकरलाल शर्मा नामक एक व्यक्ति ने अपना मामला जैसे ही हिंदी में उठाया, सर्वोच्च न्यायालय के दो जजों ने कहा कि वे हिंदी नहीं समझते।
उनमें से एक जज मलयाली के एम. जोजफ थे और दूसरे थे बंगाली ऋषिकेश राय। उनका हिंदी नहीं समझना तो स्वाभाविक था और क्षम्य भी है लेकिन कई हिंदी भाषी जज भी ऐसे हैं, जो अपने मुवक्किलों और वकीलों को हिंदी में बहस नहीं करने देते हैं। उनकी भी यह मजबूरी मानी जा सकती है, क्योंकि उनकी सारी कानून की पढ़ाई-लिखाई अंग्रेजी में होती रही है। उन्हें नौकरियां भी अंग्रेजी के जरिए ही मिलती हैं और सारा काम-काज भी वे अंग्रेजी में ही करते रहते हैं।
संविधान ने हिंदी को राजभाषा का नकली ताज पहना रखा है और कई अन्य भारतीय भाषाओं को भी मान्यता दे रखी है लेकिन इस ताज और इन भाषाओं को आज तक मस्तक पर धारण करवाने की हिम्मत कोई सरकार नहीं कर सकी है। देश की छोटी-मोटी अदालतों में तो फिर भी यदा-कदा हिंदी में बहस की इजाजत मिल जाती है लेकिन एक-दो अपवादों को छोड़कर सभी फैसले अंग्रेजी में होते हैं। जिन लोगों को आजन्म कैद और फांसी की सजा हो जाती है, उन बेचारों को भी यह पता नहीं चलता कि उनके वकील ने उनके पक्ष में क्या कहा है और जो फैसला आया है, उसमें जजों ने किस आधार पर उन्हें दंडित किया है।
यह कैसा न्याय है? इसके अलावा विदेशी भाषा में चली बहसें और फैसले बरसों-बरस खा जाते हैं। वकील और जज कई बार सिर्फ शब्दों की खाल उधेड़ते रहते हैं। भारत जैसे लगभग सभी पूर्व-गुलाम देशों का यही हाल है लेकिन बड़े संतोष का विषय यह है कि उक्त मुद्दे पर मलयाली और बंगाली जजों ने बड़ी उदारता और व्यावहारिकता दिखाई।
उन्होंने वादी शर्मा को एक अनुवादक वकील दिलवा दिया, जो बिना फीस लिए ही उनकी हिंदी बहस का अंग्रेजी अनुवाद जजों को सुना रहा था और जजों व शर्मा के बीच सोलिसिटर जनरल माध्वी दीवान भी आकर अनुवाद कर रही थीं। जब तक भारत की इस औपनिवेशिक न्याय व्यवस्था का भारतीयकरण नहीं होता, यदि अनुवाद की उक्त सुविधा भी सभी अदालतों में शुरु हो जाए तो भारत की न्याय व्यवस्था अधिक पारदर्शी, अधिक जनसुलभ और अधिक ठगीरहित बन सकती है। (नया इंडिया की अनुमति से)
-रीवा एस. सिंह
लड़कियों को टॉक्सिसिटी में जीने की ऐसी आदत होती है कि कई बार जिंदगी के आखिरी दम तक ये नहीं समझ पातीं कि वे जिस स्थिति में जी रही हैं वह सामान्य नहीं है। समझ भी जाती हैं तो सब कुछ ठीक करने का भार स्वत: ही उठा लेती हैं।
लड़कियाँ जि़द में भी अक्सर त्याग ही चुनती हैं, चुन लेती हैं सुधारगृह होना कि मैं हर हाल में ठीक कर लूंगी।
दुश्वारियों में अमूमन सोच लेती हैं कि किसी दिन तो उसे फर्क पड़ेगा, कभी तो सब कुछ अच्छा होगा।
मैंने अल्हड़-मस्त लड़कियों को एकाएक शान्त होते देखा है। ठहाके लगाकर हँसने वाली चंचल महिलाओं को झूठी मुस्कुराहट ओढ़े देखा है। स्वयं से स्व का विलुप्त होना किसी त्रासदी से कम नहीं है।
फिनांशिअल फ्रीडम (आर्थिक स्वतंत्रता) बेहद जरूरी है, यह आपको जिंदगी के फैसले चुनने का ढंग देती है लेकिन सिर्फ इसके बूते हर लडक़ी अपने जीवन के कठिन फैसले नहीं ले पाती। मैंने देखा है घर के सारे बिल्स भरने वाली लड़कियों को भी प्रेम में होने पर सभी शर्तों को बिना सवाल किये पीते हुए।
वो लड़कियाँ जो समाज को ठेंगे पर रखती हैं, घरवालों की एक नहीं सुनती हैं, जब अपने पार्टनर की तमाम बातें और हरकतें मूक होकर और कई बार अनुयायी की तरह स्वीकारती जाती हैं तो पतझड़-सी लगती हैं। इन लड़कियों ने मुहब्बत के नाम पर भी अपनी जिंदगी में वही गुलामी बो दी है जो इनकी दादी-नानी त्याग के लिहाफ में निभाती आ रही थीं।
शिक्षा, रोजगार, ऐडल्टहुड, पैसा... ये सारे महत्वपूर्ण स्तम्भ हैं लेकिन लड़कियाँ ऐसी टॉक्सिसिटी की आदी हैं कि उन्हें आत्मबल देने के लिये, कई बार अपर्याप्त हो जाते हैं।
देश के बेहतरीन कॉलेज से डिग्री लेकर भी, लाखों की तन्ख्वाह लेकर भी, घर की सारी जि़म्मेदारियाँ उठाकर भी लड़कियाँ अपने हिस्से के सुकून के लिये कठिन फैसले लेने की स्थिति में धराशायी हो जाती हैं और यह जटिलता विवाहित व अविवाहित दोनों के लिये एक-सी है।
पहले ही दिन कोई किसी के 30 टुकड़े नहीं कर देता, न पहले दिन किसी को आग के हवाले किया जाता है। लड़कियाँ टॉक्सिसिटी स्वीकार लेती हैं तो इन भेडिय़ों का मनोबल बढ़ता है। लड़कियाँ स्वीकारती हैं क्योंकि मुहब्बत में होती हैं। मुहब्बत के लिये सबसे लड़ जाने वाली लड़कियाँ रिश्तों में अधमरी होकर भी क्यों निभाती चली जाती हैं? उतनी ही हिम्मत के साथ ऐसे जहरीले रिश्ते से बाहर क्यों नहीं निकल पातीं।
काश कि उन्हें स्वयं को चुनना आता। काश कि वो एक बार, बस एक बार फिर से, सबकुछ दरकिनार कर अपने लिये फैसले लेतीं। मासूम लड़कियों की जिंदगी पर पड़े छाले देखकर दुख होता है, हिम्मती लड़कियों को निर्बल देखना मुझे तोड़ देता है।
लड़कियों, सबकुछ सीख लेने के बाद भी, सबका खयाल रखने के बाद भी, प्लीज़ अपने लिये बचाकर रखो बेशुमार मुहब्बत, अनगिनत सपने और खुला आसमान। किसी रिश्ते के टूटने से दुनिया नहीं खत्म होती, दुनिया तबतक है और रहेगी जबतक तुम हो। अपने लिये भी मुट्ठी भींचकर उठना सीख लो न, प्लीज। मत सोचो कि सामने कौन है, आत्मसम्मान को सबसे पहले रखना है!
Nothing before your dignity, darling! NEVER!