विचार/लेख
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
बांग्लादेश में भी शेख हसीना सरकार के खिलाफ उसी तरह प्रदर्शन होने शुरु हो गए हैं, जैसे कि श्रीलंका और म्यांमार की सरकारों के विरूद्ध हुए थे। म्यांमार की फौज ने वहां तो डंडे के जोर पर जनता को ठंडा कर दिया है लेकिन श्रीलंका की सरकार को चुनावों में मात खानी पड़ी है। ‘बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी’ ने दावा किया है कि उसके प्रदर्शनों में दस लाख लोग जमा हुए हैं और उन्होंने हसीना से इस्तीफा मांगा है।
उनका कहना है कि 2024 में चुनाव होने तक ढाका में कोई कार्यवाहक सरकार नियुक्त की जाए। बीएनपी के सातों सांसदों ने अपने इस्तीफों की घोषणा कर दी। उन्होंने मांग की है कि चुनाव तुरंत करवाएं जाएं। शेख हसीना ने हर बार धांधली करके चुनाव जीता है। बीएनपी को बांग्लादेश के कट्टरपंथी मुस्लिम मौलानाओं और जमाते-इस्लामी का भी भरपूर समर्थन है।
बांग्लादेश की बीएनपी की नेता बेगम खालिदा जिया ने घोषणा की है कि शेख हसीना सरकार के राज में मंहगाई आसमान छू रही है, लोग बेरोजगार हो रहे हैं, विदेश व्यापार घट गया है और सरकार भारत के इशारों पर नाचने लगी है। वह बांग्लादेशी मुसलमानों के हितों का बिल्कुल भी ध्यान नहीं करती है। रोहिंग्या मुसलमानों पर म्यांमारी अत्याचार और भारतीय अन्याय पर हसीना सरकार की चुप्पी बहुत ही निंदनीय है। इन सब आरोपों के बावजूद खालिदा जिया की इस रैली के मुकाबले हसीना द्वारा आयोजित चिटगांव और काक्स बाजार की रैलियों में कई गुना लोग शामिल हुए थे।
10 दिसंबर को मानव अधिकार दिवस पर आयोजित इस बीएनपी रैली का उद्देश्य यह भी था कि उसे अमेरिका और यूरोपीय देशों का सहयोग भी मिलेगा लेकिन इन देशों के कई नेताओं और अखबारों ने खालिदा की पार्टी और जमात पर उनके शासन काल में भ्रष्टाचार और आतंकवाद फैलाने के आरोप लगाए थे। इन दोनों पार्टियों को बांग्लादेश की जनता पाकिस्तानपरस्त समझती है। 1971 में पाकिस्तानी फौज के द्वारा की गई हत्याओं, अत्याचार और बलात्कार को बांग्ला जनता अभी भी पूरे दर्द के साथ याद करती है। भारत के प्रति आम बांग्लादेशी जनता में अभी भी आभार का भाव है। भारत ने बहुत-से टापू ढाका को दे दिए थे, यह भी भारत की उदारता है।
प्राकृतिक आपदाओं के दौरान भारत सरकार ने बांग्लादेशियों की सहायता उसी उत्साह से की है, जैसी वह अपने नागरिकों की करता है। हसीना सरकार ने भी भारत के उत्तर-पूर्वी प्रांतों को समुद्र तक पहुंचने की थल-मार्ग सुविधा दे रखी है। जबकि खालिदा-सरकार के जमाने में असम और मणिपुर के आतंकवादियों को ढाका ने भरपूर मदद की थी। खालिदा और जमात के कारनामों से बांग्लादेश के हिंदू बहुत डरे हुए हैं लेकिन ऐसा नहीं लगता कि नेपाल और श्रीलंका की तरह बांग्लादेश में भी सरकार बदलने की परिस्थितियां तैयार हो गई है। (नया इंडिया की अनुमति से)
-रवींद्र पटवाल ·
हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस ने मुख्यमंत्री का फैसला जल्द लेकर आने वाले तूफान को इस बार रोक दिया है. चुनाव के परिणाम जैसे-जैसे आने लगे गोदी मीडिया ने प्रतिभा सिंह को आसमान पर यूं ही उठाना शुरू नहीं कर दिया था.
जो प्रतिभा सिंह सुबह सीटों की ऊपर-नीचे होने पर खुद को कांग्रेस का कर्मठ सिपाही बता रही थी, दोपहर और शाम होते होते वीरभद्र की विरासत को ध्यान में रखने की नसीहत देने लगी थी.
यह सब यूं ही नहीं हो जाता है. इसके पीछे एक महीन जाल लगातार बुना जाता है. और बाकियों को पीछे छोड़ते हुए मीडिया के द्वारा इस जाल को कई गुना दिखाकर हवा दी गई, इसके पीछे दिल्ली में बैठे चाणक्य नीति का जरूर हाथ रहा होगा. लेकिन कांग्रेस इस बार सावधान थी. उसने झट से तीन-तीन लोगों को शिमला भिजवा दिया, चंडीगढ़ और रायपुर विधायकों को ले जाने की बात की गई. लेकिन मामला वहीं सलटा लिया गया.
हिमाचल रोडवेज के ड्राइवर के बेटे सुखविंदर सिंह सुक्खू, जो 4 बार से लगातार विधायक रहे, उससे पहले राजीव गांधी के समय से छात्र संगठन में रहते हुए विभिन्न दायित्व के निर्वहन और तीन बार पार्षद होते हुए कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष की कमान संभाली, के गृह नगर हमीरपुर में पांचों विधानसभा सीट कांग्रेस की जीत को सुरक्षित करा कर इस बार पहुंचे थे. जबकि प्रतिभा सिंह अपने संसदीय क्षेत्र वाले जिले में सिर्फ एक सीट कांग्रेस को दिला पाई, जबकि 9 सीटें भाजपा ले गई. ऐसे कमजोर विकेट पर राज- परिवार का धब्बा भाजपा के मंसूबों को परवान चढ़ाने के लिए काफी मुफीद होता. कांग्रेस की सरकार औंधे मुंह जल्दी गिर जाती. क्योंकि सुखविंदर सिंह के पास 15 से ज्यादा ठोस समर्थक विधायक थे, जबकि प्रतिभा सिंह के पास इक्का-दुक्का ही विधायक समर्थन था, सिर्फ बाहर से हो-हल्ला मचाया जा रहा था.
सुखविंदर के जरिए कांग्रेस ने अपने 50 साल के वीरभद्र सिंह के राज से खुद को मुक्त कर लिया, बल्कि अपने लिए बड़ी संख्या में साधारण लोगों के बीच में नेतृत्व की उम्मीद भी जगा दी है.
वहीं दूसरी तरफ हमीरपुर से लोकसभा सांसद और केंद्रीय मंत्री के रूप में भाजपा के ऊपर ही अब परिवारवाद का ठप्पा हिमाचल प्रदेश में चस्पा हो गया है. पिता चुनाव में भाजपा के बागी तो बेटा केंद्र में मंत्री बना हुआ है और अपनी लोकसभा की सारी सीटें हरवा देता है. कांग्रेस का इस बार का चयन हिमाचल प्रदेश में भाजपा के बिखराव को तेज करने वाला है. आगे आगे देखिए होता है क्या. शुरुआत अच्छी हुई है.
सिर्फ गुजरात जीतने से या गुजरात में सारी सत्ता और धन के केंद्रीकरण से देश में गुस्सा असंतोष बढ़ेगा.
महाराष्ट्र के सारे बड़े उद्योग गुजरात में शिफ्ट करने से महाराष्ट्र के असंतोष को दफन करना बहुत मुश्किल होगा. महाराष्ट्र और कर्नाटक के सीमा विवाद को भड़काने से महाराष्ट्र और कर्नाटक में अपनी सत्ता कैसे बचाई जाए, यह जुगत धीरे-धीरे सभी को समझ में आ रही है. भाजपा के प्रति अभी जो बात समझ में नहीं आ रही है वह अगले 1 साल में सब लोगों को दिखने लगेगी.
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
इस बार राज्यसभा में ऐसे दो निजी विधेयक पेश किए गए हैं, जो पता नहीं कानून बन पाएंगे या नहीं लेकिन उन पर यदि खुलकर बहस हो गई तो वह भी देश के लिए बहुत लाभदायक सिद्ध होगी। पहला विधेयक, सबके लिए समान निजी कानून बनाने के बारे में है और दूसरा है, इलाज में लूट-पाट रोकने के लिए। निजी कानून याने शादी-ब्याह, तलाक, दहेज, उत्तराधिकार संबंधी कानून। इस बारे में मेरी विनम्र राय है कि सारे भारतीय लोगों को एक ही तरह का निजी कानून मानने में ज्यादा फायदा है।
हजारों वर्ष पुराने हिंदू कानून, ईसाई और यहूदी कानून और इस्लामी कानूनों से चिपके रहने की बजाय नई परिस्थितियों के मुताबिक आधुनिक कानून मानने के कारण बहुत-सी परेशानियों से भारत के लोगों को मुक्त होने का मौका सहज ही मिल जाएगा। इसी तरह से अपने देश में लोगों को समुचित इलाज और इंसाफ पाने में बहुत दिक्कत होती है। अस्पताल और अदालत लोगों को लूट डालते हैं। इसीलिए अस्पतालों, डॉक्टरों की फीस, दवाइयों और जांच की कीमतों पर नियंत्रण लगाना बहुत जरुरी हो गया है।
मेरी राय में तो चिकित्सा और शिक्षा या यों कहें कि इलाज और इंसाफ, हर नागरिक को मुफ्त मिलना चाहिए। इसीलिए राज्यसभा के वर्तमान सत्र में यह जो विधेयक इलाज की कीमतों पर नियंत्रण के लिए लाया गया है, इसे सर्वानुमति से पारित करके लोकसभा को भेजा जाना चाहिए। इस विधेयक में शायद यह मांग नहीं की गई है कि गैर-सरकारी अस्पतालों में शल्य-चिकित्सा और कमरों की फीसों में मच रही लूट-पाट को रोका जाए। या तो निजी अस्पताल एकदम खत्म ही कर दिए जाएं और यदि उनको रहने दिया जाए तो उन्हें पांच नहीं, सात सितारा होटलें बनने से रोका जाए।
आजकल स्वास्थ्य-बीमा मध्यम और उच्च वर्ग के रोगियों को कुछ राहत जरुर पहुंचाता है लेकिन वह निजी अस्पतालों की लूट-पाट का नया हथियार बन गया है। निजी अस्पतालों की मोटी फीस और सरकारी अस्पतालों की लापरवाही उनमें भर्ती हुए कई मरीज़ों को पहले से भी ज्यादा बीमार कर देती है। जिस दवा का लागत मूल्य 2 रु. है, वह 100 रु. में बिकती है और जो परीक्षण 50 रु. में हो सकता है, उसके लिए 500 रु. ठग लिएठ्ठजाते हैं।
एक सर्वेक्षण के अनुसार भारत में 2021 में इलाज़ की मंहगाई 14 प्रतिशत बढ़ गई थी। उसके कारण देश के साढ़े पांच करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे आ गए थे। भारत में इलाज पर हमारे नागरिकों को अपने जेब खर्च का 63 प्रतिशत पैसा खर्च करना होता है। भारतीय नागरिकों का स्वास्थ्य बढिय़ा रखने के लिए कई अन्य कदम भी जरूरी हैं लेकिन उनके इलाज़ को सस्ता करने में संसद को कोई झिझक क्यों होनी चाहिए? (नया इंडिया की अनुमति से)
-चिन्मय मिश्र
‘‘हम क्या करते किस राह चलते/हर राह पर काँटे बिखरे थे, उन रिश्तो के जो छूट गए। उन सदियों के यारानों के जो इक-इक करके टूट गए।’’
फैज, (पाँवों से लहू को धो डालों)
भारत जोड़ो यात्रा जारी है। तमिलनाडु, केरल, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र, और मध्यप्रदेश को सहलाते, समझाते, गुदगुदाते और नई उम्मीद जगाते राहुल गांधी और उनके तमाम साथी, राजस्थान में अपना सफर बदस्तूर जारी रखे हुए हैं। यात्राओं से क्या हासिल होना है, यह बेहद जाटिल प्रश्न है। वैसे दुनिया तो फैली ही यात्राओं की वजह से। कभी कोई पहला सेपियन अफ्रीका से चला और.....! दुनिया बसती चली गई। यात्रा से क्या हासिल होता है, यह जानने समझने के लिए व्हेनसांग से अलबरुनी से बर्नियर तक आइये। या गुरुनानक से महात्मा गांधी और राहुल स.तायन की यात्राओं को जानिये समझिये। यात्राएं यात्री के पैरों की छाप छोड़ती जाती है और बदले में तमाम खट्टे-मीठे अनुभव से यात्री को सरोबार कर देती है।
राहुल गांधी की तीन हजार पाँच सो किलोमिटर की यह यात्रा ऐसे समय हो रही है, जबकि भारत सरीखा सैद्धांतिक देश एक किस्म की अपसं.ति के वश में जाता चला जा रहा है। राहुल गांधी को सिर्फ अपना नहीं बल्कि दो वंशों का बोझ भी साथ उठाकर चलना पड़ रहा है। वे कह जरुर रहे हैं, कि राहुल गांधी कहीं छूट गया है, अतीत हो गया है, परन्तु इतिहास में कुछ भी अतीत नहीं होता। यदि होता तो सांप्रदायिकता का वर्तमान स्वरूप इस तरह का नहीं होता।
पिछले 1200 वर्षों को वर्तमान नही बनाया जाता। परंतु इतिहास को वर्तमान बनाया जा रहा है, और वर्तमान को? वर्तमान को खूंखार, जहरीला और असहिष्णु वनाने की कोशिश हो रही है। विरासत के साथ जीना बड़ा कठिन होता है। व्यक्ति की जवाबदेही पिछली पीढिय़ों से भी जोड़ दी जाती है। प्रेमचंद जन्म शताब्दी पर इन्दौर में एक व्याख्यान में उनके पुत्र अमृत राय ने कहा था, ‘‘मैं यह समझता हूँ कि बड़े बाप का बेटा होना एक दुधारी तलवार है। यह किसी को शायद अच्छा भी लग सकता है, लेकिन मुझे नहीं लगता। बुरा इस मायने में लगता है कि हर आदमी, आदमी को उसी शख्स से तौलना चाहता है, भला यह भी कोई न्याय है, और आज उसी बोझ को ढोते-ढोंते मैं मुंशीजी की उम्र को पार कर आया हंू।’’ तो राहुल गांधी भी इस तराजू पर तूल रहे हैं, रोज उनका मूल्यांकन होता है। बहुत से इस यात्रा से भारत के समकालीन इतिहास का पुनरावलोकन कर रहे है और बहुत से भविष्य की भारतीय राजनीति की नई संकल्पना को खोजने की कोशिश कर रहे है।
गौर करिए राहुल गांधी, तमाम तात्कालिक समस्याओं, जैसे बेरोजगारी, स्वास्थ्य, आर्थिक असमानता, सांप्रदायिकता आदि की बात करते हुए, समाधान के लिए दो मूल्यों की बात करते हैं। पहला सत्य का साथ और दूसरा निडरता या डर को छोडऩा! महात्मा गांधी ने आम भारतीयों के मन से अंग्रेजों को लेकर जो डर बैठा था, वह समाप्त कर दिया था। लाखों-लाख लोग घर- व्यापार छोडक़र आजादी की लड़ाई में कूद पड़े थे। और उनका डर इसलिए खत्म हुआ था, क्योंकि उनके साथ सत्य था। बापू ने भारतीयों को कभी भुलावें में नहीं रखा। उन्होंने आजादी का कोई दिन नियत नहीं किया। उन्होंने कभी इस बात के लिए अनशन नहीं किया ‘‘अंगे्रजों भारत को स्वतंत्र करो’’। ऐसा इसलिए कि वे जानते थे कि आजादी पाने के उपकरण या उपाय कुछ और हैं। दांडी यात्रा के बाद 17 वर्ष लगे भारत को आजाद होने में। दांडी यात्रा करीब 390 किलोमीटर की थी और भारत जोड़ो यात्रा करीब 3,500 किलोमीटर की। यानी उससे करीब 10 गुनी लंबी। परंतु यहीं बापू के इस अमरवाक्य को ध्यान में रखना होगा।’’ वे कहते थे, ‘‘आजादी के बाद के हमारे संघर्ष और भी कठिन होंगे, क्योंकि तब हमारे सामने, हमारे द्वारा ही चुनी गई सरकार होगी। वे जानते थे, आजादी के बाद संघर्ष और टकराव की स्थितियां समाप्त नहीं होंगी। राहुल गांधी भी सत्य और निर्भय होने की बात कर रहे हैं। यह संघर्ष चुनाव जीतने पर भी खत्म नहीं होगा। लोकतंत्र में विपक्ष स्थायी होता है, अतएव यह ज्यादा जरूरी है कि विपक्ष से सहिष्णु बने रहना सीखा जाए।
बापू से किसी ने तीन सवाल किए
आप किस धर्म के अनुयायी हैं ?
आप इसके अनुयायी कैंसे बने?
जीवन से इस धर्म का किस प्रकार संबंध बनता है?
उनका संक्षिप्त उत्तर थाए ‘‘मैं कहा करता था, मैं ईश्वर में विश्वास करता हूँ अब मैं कहता हूँ । मैं सत्य में विश्वास रखता हूँ । पहले मैं, ईश्वर सत्य है, ऐसा कहा करता था अब मैं कहता हूँ सत्य ईश्वर है। ऐसे लोग तो हैं जो ईश्वर के अस्तित्व से इन्कार करते है, किन्तु ऐसा कोई नहीं है, जो सत्य के अस्तित्व से इंकार करता हो सत्य को तो नास्तिक भी मानता है।’’ तो क्या अभी हमारा विश्वास पूरी तरह से सत्य में हो गया है? याद रखिए गांधी जी के आश्रम में रोज सुबह व शाम सर्वधर्म प्रार्थना होती थी। परंतु उनके किसी भी आश्रम मे मंदिर नहीं था।
फैज नज्म में आगे लिखते है, ‘‘यूँ पाँव लहुलुहान हुए सब देखने वाले कहते थे ये कैंसी रीत रचाई है ये मेंहदी क्यों लगवाई है गौरतलब है इस यात्रा के समानान्तर भी यात्राएं चलीं। गुजरात में विधानसभा चुनाव को लेकर अहमदाबद में 35 किलोमिटर का ‘‘रोड शो’’ हुआ। मतदान के दिन भी आचार संहिता के चलते मत डालने के लिए 3 किलोमीटर की यात्रा हुई। इसलिए यात्रा और यात्रा में फक करना आवश्यक है। राहुल गांधी की यात्रा की सफलता का आंकलन करने का पैमाना या मापदंड अभी भी तय नहीं हो पाया है। इक्कीसवीं शताब्दी में जब पैतीस सौ किलोमीटर की दूरी 5 घंटे से कम में तय की जा सकती है तो 5 महीने लगाने का क्या औचित्य है ? बहुत से लोग इसे समय की बार्बादी और अपरिपक्वता कहेंगे। इतना तो तय है कि यह यात्रा गिनीज बुक रिकार्ड में स्थान पाने के लिए तो नहीं ही की जा रही है। इसका मकसद, जो अभी नजर आ रहा है, वह तो यही है कि भारतीय नागरिक समाज के भीतर का डर निकले ।
एक और बात पर गौर करना जरूरी है इस यात्रा का भारतीय मीडिया ने कमोवेश बहिष्कार सा कर रखा है। प्रिंट मीडिया में कभी -कबार कुछ लिख दिया जाता है। वह भी सामान्यतया वहीं के आखबारों में होता है, जहाँ से यह यात्रा गुजरती है।
इन्दौर से जब यात्रा गुजरी तो यहाँ सबसे ज्यादा बिकने वाले अखबार के प्रथम पृष्ठ पर इस यात्रा की न तो कोई खबर थी न एक भी चित्र! वास्तव में यह चकित से ज्यादा दुखी और भयभीत करने वाला वाक्या था, क्योंकि यदि मीडिया इतना डरा और एक पक्षीय हो जाएगा तो लोकतंत्र की राह और भी कठिन होती चली जाएगी। इसके बावजूद यात्रा में व सभा में बड़ी संख्या में इन्दौर के निवासी आए। अगले दिन अखबार का कलेवर एकदम बदला हुआ था। जाहिर है इलेक्ट्रॉनिक मीडिया तो अब समीक्षा का पात्र ही नहीं रह गया है। राहुल गांधी इस यात्रा के दौरान लगातार मीडिया को आड़े हाथ ले रहे हैं, परन्तु इसका ज्यादा असर दिखाई नहीं दे रहा है। मीडिया अब दर्शक या पाठक के लिए नहीं विज्ञापनदाताओं और मालिकों के लिए सक्रिय है। महात्मा गांधी के लिए पत्रकारिता भी सत्य की खोज का माध्यम ही थी। ऐसा नहीं है कि आजादी के पहले मीडिया में सरकारी या अंग्रेजों के खिदमतगार नहीं थे। परंतु राष्ट्रीय आंदोलन के पक्षधर भी थे। गांधी मानते थें, ‘‘शब्द का सही उपयोग योग है और कल्याणकारी है योग की तरह/शब्द का गलत उपयोग भोग है। भोग की तरह’’ जनता के लिए और भस्मासूर है स्वयं के लिए वस्तुस्थिति यह है कि थोडे समय में लोग इसके बिना सहज महसूस करने लगेंगे। वैसे युवा वर्ग तो अब मीडिया से करीब-करीब अलग ही हो गया है, क्योंकि वहां उसके लिए कुछ भी नहीं है। इस यात्रा ने मीडिया को और भी बेनकाब कर दिया।
हमें याद रखना होगा कि लोकतंत्र एक निश्चित दिशा में धीमे-धीमे बढ़ते जाने का साधन है, और इसका अंतिम ध्येय प्रत्येक व्यक्ति की आजादी है। आजादी हर दौर में मनुष्य को प्यारी रही है। इतिहासकार हैरी कामेगर के अनुसार प्रजातंत्र में प्रतिप्रश्न, छानबीन, विरोध, इंकार, मिलना- जुलना, शिक्षण, विज्ञान, राजनीति अर्थात स्वातंत्रय को सार्थक और सिद्ध करने वाली प्रत्येक बात शामिल है। वे कहते हैं कि विरोध को बढ़ावा देना महज वाणी विलास नहीं हैं। यह एकतरह से जीवन मरण का प्रश्न है। साहस एक निजी, नितांत व्यक्तिगत चीज है इसमें भी विचार को व्यक्त करने का व्यक्तिगत साहस। अंत में सारे साहस इसमे जनमते, फूटते और छूटते हैं। क्या आज राहुल गांधी और उनके सभी सहयोगी व्यक्तिगत साहस के प्रतीक नहीं बनते जा रहे हैं? अमेरिकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने सन् 1941 के एटलान्टिक चार्टर में चार आजादी गिनाई थीं, फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन एण्ड स्पीच, फ्रीडम ऑफ वर्शिप, फ्रीडम ऑफ वान्ट एण्ड फ्रीडम फ्रॉम फियर यानी वाणी और अभिव्यक्ति पर पाबंदी न हो, अपने धार्मिक विश्वास पर अडिग रह सकें, कोई भयग्रस्त न हो। गौरतलब है महात्मा गांधी तो इस घोषणा के तीन दशक पहले से इन सब पर अमल कर रहे थे और भारतीय आजादी को इसी परिपेक्ष्य में आकल्पित भी कर रहे थे। भारत का संविधान भले ही उनके सामने न तैयार हो पाया हो, परंतु वह इन मूलभूत स्वतंत्रता का जीवंत प्रतीक तो है ही।
यात्रा अभी जारी है। इस यात्रा ने भारत के सामाजिक व राजनीतिक संसार को नई प्राणवायु दी है। यह अब भविष्य बताएगा कि इस यात्रा से क्या-क्या उभरकर आता है। वैसे इतना असर हो गया है कि कई दक्षिणपंथी राज्य सरकारों की एकाएक ग्रामीण, गरीब, आदिवासी वगैरह दिखाई देने लगे हैं। तमाम तरह की यात्राएं निकलने लगी है। परंतु समस्या यह है कि पिछले एक दशक में जो सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक वातावरण बना है, उसके चलते देश के एक कल्याणकारी राज्य के रूप में परिवर्तित होने की संभावनाएं कमोवेश नष्ट होती जा रही हैं। सबसे खतरनाक यह है कि पूरे देश को हमेशा ‘‘चुनावी मोड’’ में डाले रखा जा रहा है। उत्तेजना इतना स्थायी भाव हो गया है कि सहजता अब डराती है। भारत जोड़ो यात्रा सहजता को लौटा लाने का एक उपक्रम भी साबित हो सकती हैै।
फैज अहमद फैज नज्म के अंत मे कहते हैं,
‘‘वो कहते थे क्यूं कहत-ए-वफा (वफादारी का अकाल)
का ना हक चर्चा करते हो पाँवों से लहू को धो डालो
ये राहें जब अट जायेंगी सौ रास्ते इनसे फूटेंगे।
उस दिल को संभालों जिसमें अभी। सौ तरह के नश्तर टूटेंगे।’’
भारत जोड़ो यात्रा का समापन महज एक पड़ाव भर है। भारत में लोकतंत्र की बहाली बेहद कठिन काम है। चुनाव का जीतना और हारना तब तक कोई मायने नहीं रखता जब तक कि उसमें सबकी राय शामिल न हो। उम्मीद है यात्रा का अंत भारतीय लोकतंत्र में एक नई शुरूआत साबित होगा।
छत्तीसगढ़ की जगह उत्तरप्रेदश या बिहार होता। तो वहां के किसी धरती पुत्र को आजादी की लड़ाई का पहला महानायक सरकारी और दरबारी इतिहासकार घोषित कर देते। छत्तीसगढ़ के सोनाखान के जमींदार, आदिवासी पौरुष के प्रतीक वीर नारायण सिंह ने 1857 के जनयुद्ध के एक वर्ष पहले ही अंगरेजी हुकूमत से अपने दमखम पर जनयुद्ध की चिंगारी की तरह खुद को इतिहास में शामिल कर लिया है। जब मंगल पांडे ने बैरकपुर में विद्रोह की शुरुआत की। तब वीर नारायण सिंह छत्तीसगढ़ के भूखे अकाल पीड़ित किसानों के मसले पर सेठियों की शिकायत पर अंगरेजी हुकूमत के तेवर के मुकाबले खुद को खड़ा कर चुके थे। वे भारत के पहले क्रांतिकारी हैं जिन्होंने आर्थिक मोर्चे पर समाजवादी नस्ल का जनसैलाब लाने की कोशिश की थी। उन्होंने केवल इतना तो कहा था कि अकाल पीड़ित किसानों को जमाखोर और मुनाफाखोर व्यापारी अपना अनाज कर्ज के बतौर दे दें। अगली फसल आने पर वीर नारायण सिंह ब्याज सहित भरपाई कर देंगे।
हुकूमत और सेठियों का गठजोड़ पूरी दुनिया में सड़ांध मार रहा है। छत्तीसगढ़ भी अछूता नहीं रहा। लिहाजा अंगरेजों ने हमला किया और वीर नारायण सिंह को गिरफ्तार कर जानकारी के अनुसार राजद्रोह के मुकदमे में रायपुर के जयस्तंभ चौक के पास फांसी दे दी।
जमाखोरों द्वारा ग्रामीण जनता को लूटे जाने के सरकारी संरक्षण के खिलाफ सोनाखान के जमींदार वीर नारायण सिंह ने डेढ़ सौ बरस पहले सशस्त्र विद्रोह किया था। सरकारी आदेश में भारत विमुखता के कारण मंगल पांडे ने एक जनयुद्ध का सिलसिला शुरू कर दिया था। आज भारतीय जनमानस का लिजलिजापन, अनिर्णय, संशय, अर्कमण्यता और संघर्षविमुखता लोकतंत्र के सबसे बड़े अभिशाप हैं। देश की दौलत पहले ईस्ट इंडिया कंपनी के मार्फत लंदन पहुंची थी। तो गांधी ने बावेला मचा दिया। आज भारत की संपदा यूरो-अमेरिकी पूंजीवाद बेशर्मी से लूट रहा है। उनके भारतीय एजेंट खुद को अंतरराष्ट्रीय नेतागिरी की फेहरिस्त में स्थापित कर रहे हैं। गांधी का सच अधिक खतरे में है। अहिंसा का अर्थ संदिग्ध हो रहा है। उसे कायरता समझा जा रहा है। गांधी विमुख प्रधानमंत्री को लोकतंत्र का नया सूरज समझा जा रहा है। ग्राम्य संस्कृति, इतिहास, परंपराएं, भारतीय दृष्टि आदि को योजनाबद्ध ढंग से नष्ट किया जा रहा है। लोकतंत्र महाभारत के राज दरबार की तरह चुप है। ऐसी चुप्पी इतिहास के लिए बहुत खतरनाक होती है। पता नहीं नए कौटिल्य की समझ में कोई भारत-तत्व बचा भी है अथवा नहीं।
वीर नारायण सिंह को आदिवासियों की अस्मिता , स्वाभिमान और अस्तित्व का प्रतीक बनाकर शंकर गुहा नियोगी ने भी एक आंदोलन चलाया। उनकी लोकप्रियता का मुकाबला करने के लिए नेताओं को सरकारी स्तर पर वीर नारायण सिंह की याद में स्मारकों की घोषणा करनी पड़ी। तब तक नियोगी लोकप्रियता की पायदान चढ़ते, आगे बढ़ते चले जा रहे थे। अंग्रेज सेना के मैगजीन लश्कर अज्ञात हनुमान सिंह ने भी ब्रिटिश सार्जेन्ट की हत्या कर दी। हनुमानसिंह का पता न गोरों को चला और न ही भारतीय इतिहासकारों को। उसके भी पहले बस्तर का भुमकाल आन्दोलन हुआ और राजनांदगांव के निकट डोंगरगांव में विद्रोह हुआ।
सरकारें बड़ी आसानी से विकास का मुखौटा या नकाब ओढ़कर सदियों से बसे हजारों आदिवासियों को उनके वन परिवेश से उखाड़कर उनकी भूमियों को अंगरेजी बुद्धिराज के अधिनियमों के हथियार से बेदखल कर देती हैं। पहले जमीदारों, औपनिवेशिक ताकतों और बड़े किसानों वगैरह की महत्वाकांक्षाओं के कारण, अब यह खनिज ठेकेदारों, वन-शोषकों और बड़े कारखानों वाले उद्योगपतियों के कारण। वैसे भी आदिवासियों के भूमि सम्बन्धी पुश्तैनी अधिकारों का लेखा जोखा सरकारों के पास नहीं रहा है। राजा टोडरमल द्वारा ईजाद की गई भू अधिकार प्रणाली में ब्रिटिश हुकूमत से लेकर अब तक किए गए संशोधनों के बावजूद वनों में उपलब्ध कृषि भूमि के स्वामित्व का सही ब्यौरा अब भी शासकीय दस्तावेजों में दर्ज नहीं है। राज्य भले ही प्रतिदावा करता रहे। पटवारी की कलम चित्रगुप्त का लेख नहीं है। सदियों की कृषि पद्धति, सामाजिक व्यवहार, आर्थिक सोच आदि के आदिवासी अवयवों का लेखा जोखा एक प्रामाणिक पद्धति का आविष्कार सरकारों से मांगता रहा है। ऐसी सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, आर्थिक परिस्थिति के सन्दर्भ में आदिवासी का अपनी धरती से लगभग पशुओं की तरह खदेड़ा जाना कम से कम सभ्य नियामक मूल्यों, समझ और कानूनों की मांग तो कर सकता है। यह बुनियादी मुद्दा इक्कीसवीं सदी की दहलीज पर उत्पन्न, वाचाल और युयुत्सु हुआ है। बाइसवीं सदी की दहलीज पर दुनिया सौ वर्षों में शत प्रतिशत बदल जाएगी। इसके कुचक्र की नफासत का ही नाम तो वैश्वीकरण है।
-अपूर्व गर्ग
कभी सुप्रसिद्ध लेखकों, विचारकों और बुद्धिजीवियों की सालों में मुश्किल से एक पुस्तक आती और आज फेसबुक पोस्ट ही एकत्र कर किताबों में आती रहती हैं।
फेसबुक में विज्ञापन भी दिखता है 15000/- में छपवा लो !
इसका मतलब ये नहीं आज सिर्फ स्तरहीन किताबें ही आ रही हैं बल्कि कई किताबें तो इस दौर की सबसे बेहतरीन किताबें हैं ।
इलेक्ट्रॉनिक जाल के फैलाव को देखते हुए कभी ये डर पुख़्ता हो चुके था कि गए किताबों के दिन। प्रकाशक हताश थे न बिकने की व्यथा को लेकर।
आज इससे बिल्कुल उलट हो रहा। कोविड लॉक डाउन के बाद किताबों का बढ़ता बाजार देखिये, किताबों के पीछे लोगों की दीवानगी इस कदर बढ़ी है कि आज बाजार से कभी न बिक सकने वाली क्लासिकल बुक्स न केवल बिक चुकीं बल्कि अब इन्हें पाने के लिए लोग दुगने दाम तक चुकाने तैयार हैं।
जरा पता करिये सोवियत के प्रगति और रादुगा से कभी प्रकाशित किताबों को लेकर आज लोग कितने दीवाने हैं ।
सोशल मीडिया में इसे लेकर ग्रुप तक बन चुके और ऐसी मांग कि कुछ इन मूल अनुदित किताबों को पुनर्प्रकाशित कर बेहद महंगे दामों में बेच रहे, तब भी जल्दी आउट ऑफ स्टॉक!
बोर्खेस ने कहा था- ‘पुस्तकों का अस्तित्व नहीं मिटेगा। इसलिए कि मनुष्य के आविष्कारों में सबसे विस्मयकारी और चमत्कारिक आविष्कार यही है । दूसरे आविष्कार हमारे शरीर का विस्तार हैं , जबकि पुस्तकें हमारी कल्पना और स्मृति का विस्तार करती हैं।’
आज किताबों की मांग बहुत बढ़ चुकी ।अपने प्रिय लेखकों को सोशल मीडिया में पढऩे के बाद लोग उनकी किताबों के लिए सीधे दौड़ लगाते हैं।
बड़े सोशल मीडिया लेखकों की बढ़ती पॉपुलरिटी से उनकी किताबें भी बहुत बिकने लगीं बल्कि रिकॉर्डतोड़ बिक्री की खबर हैं ।
पर इनमें बहुत से लेखक-प्रकाशक अपने पाठकों के प्रति बहुत बेरहम और निर्मम हैं ।खासतौर पर हिंदी किताबों के मूल्य देखिये जीडीपी (गैस, डीजल, पेट्रोल) से भी ऊंचे...और हर बार बहुत ज्यादा!
इन हिंदी लेखकों-प्रकाशकों से सवाल करिये तो बेरहम जवाब ‘पीजा खा सकते हैं पर किताब में ही दिक्कत’
अब इनसे कौन कहे ज्यादातर पीजा वाले ई- बुक्स में सिमटे हैं।
खैर, यहाँ मैं बात करूँगा सिर्फ हिंदी के सन्दर्भ में वो भी देश भर की हिंदी साहित्य अकादमी की भूमिका पर।
क्या देश भर की हिंदी साहित्य अकादमी की भूमिका सिर्फ चर्चा-परिचर्चा और बुद्धिजीवियों के व्याख्यान तक ही सीमित होनी चाहिए।
क्यों नहीं देश के सारे हिंदी संस्थान ये जि़म्मेदारी लेते कि किताबें लोगों को सस्ती दरों पर उपलब्ध करवाएं।
किताबों को मुनाफाखोरी से क्यों नहीं बचाना चाहिए?
किताबों की बिक्री सिर्फ मेलों और निजी प्रकाशकों के भरोसे क्यों रहे?
हम जानते हैं आज भी 500 रुपये में बिकने वाली किताबों को 50 से 100 तक बेचा जा सकता है।
आज जो हिंदी क्लासिक साहित्य गायब हो चुका उससे नई पीढ़ी का परिचय करवाना ही नहीं चाहिए बल्कि सस्ती दरों में उपलब्ध हों ये भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए।
हिंदी-हिंदी गाने की जगह और राष्ट्रभाषा का क्या हाल...ऐसी चिंताओं से परे ये देखना चाहिए कि हिंदी किताबें इतनी महंगी क्यों?
आप भी जरा सोचिये!
-सुदीप ठाकुर
आम आदमी पार्टी को गुजरात विधानसभा के चुनावों में यों तो कोई बड़ी सफलता नहीं मिली, लेकिन उसने जितनी सीटी जीतीं (5)और उसे जितने मत (12.92%) मिले उसके आधार पर वह अब एक राष्ट्रीय पार्टी बन चुकी है। दिल्ली और पंजाब में उसकी सरकारें हैं और गोवा विधानसभा के चुनाव में उसने 6.8 फीसदी वोट हासिल कर लिए थे। किसी भी दल को राष्ट्रीय पार्टी की मान्यता मिलने का एक आधार कम से कम चार राज्यों के विधानसभा चुनावों में छह फीसदी वोट हासिल करना भी है। और यह कमाल आम आदमी पार्टी कर चुकी है।
आम आदमी पार्टी की चर्चा इसलिए है, क्योंकि महज एक दशक पहले ही उसका गठन किया गया था। 2011 में भ्रष्टाचार के खिलाफ और लोकपाल की नियुक्ति को लेकर इंडिया अगेंस्ट करप्शन ने यह आंदोलन शुरू किया था, जिसके मुख्य किरदार अरविंद केजरीवाल थे और चेहरा थे अन्ना हजारे। तब केंद्र में यूपीए की सरकार थी।
इस आंदोलन की वजह से यूपीए की लोकप्रियता न्यूनतम स्तर पर आ गई। आंदोलन के महज सालभर के भीतर ही अरविंद केजरीवाल ने 2012 में आम आदमी पार्टी के नाम से एक नई पार्टी का गठन कर लिया। 2013 में दिल्ली के विधानसभा चुनाव में 28 सीटें जीत कर आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाई थी। जो भले ही अधिक नहीं चली, लेकिन आम आदमी पार्टी ने एक राजनीतिक दल के रूप में अपनी पहचान बना ली।
भारतीय राजनीति में यह सचमुच विरल घटना है कि कोई दल महज एक दशक में राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा हासिल कर ले। लेकिन ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। कुछ ऐसा ही कमाल 1962 में हुए तीसरे लोकसभा चुनाव में पहली बार चुनाव जीतकर स्वतंत्र पार्टी ने किया था।
स्वतंत्रता मिलने के महज 12 साल बाद सात जून, 1959 में अस्तित्व में आई स्वतंत्र पार्टी को कांग्रेस के विकल्प के तौर पर पेश किया गया। स्वतंत्रता सेनानी सी. राजगोपालाचारी इसके संस्थापक थे। मीनू मसानी, एन. जी रंगा, दर्शन सिंह फेरुमान और के एम मुंशी जैसे दिग्गज इसमें शामिल थे। इस पार्टी के एक अहम किरदार थे वीपी मेनन जो कि देश के पहले गृह मंत्री और रियासतों को विलय में उनके सहयोगी रहे थे।
यों तो उस समय भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, जनसंघ और प्रजा सोशलिस्ट पार्टी जैसी पार्टियां भी थीं, लेकिन स्वतंत्र पार्टी ने हलचल पैदा कर दी थी। बाजार आधारित अर्थव्यवस्था की हिमायती यह पार्टी पूंजीवाद की समर्थक थी और मिजाज में दक्षिणपंथी थी।
अपने गठन के महज तीन साल के भीतर 1962 के चुनाव में स्वतंत्र पार्टी ने 18 सीटें जीतीं थीं और उसे सात फीसदी से अधिक मत मिले थे। कांग्रेस को 361 सीटें मिली थीं। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को 29 सीटें मिली थीं और वह दूसरे नंबर की पार्टी थी। भारतीय जनसंघ को सिर्फ 14 सीटें मिली थीं। इस तरह अपने पहले चुनाव में ही स्वतंत्र पार्टी लोकसभा में तीसरे नंबर की पार्टी बन गई।
गौर करने वाली बात यह भी है कि स्वतंत्र पार्टी से जीतकर आने वालों में अधिकांश पूर्व राजा महाराजा और महारानियां थीं! वास्तव में स्वतंत्र पार्टी के इस उभार में पूर्व रियासतों की अहम भूमिका थी।
1967 के चुनाव में इस पार्टी ने कमाल ही कर दिया। उस चुनाव में कांग्रेस की सीटें घटकर 283 हो गई थीं। स्वतंत्र पार्टी ने 44 सीटें और करीब नौ फीसदी वोट हासिल किए और वह सबसे बड़े विपक्षी दल के रूप में उभरी। तब तक कम्युनिस्ट पार्टी का
विभाजन हो चुका था। उस चुनाव में भाकपा (भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी) ने 23 सीटें और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) ने 19 सीटें जीतीं। भारतीय जनसंघ ने 35 सीटें जीतीं और वह तीसरे नंबर की पार्टी थी।
1967 के चुनाव को संयुक्त विपक्षी दल (संविद) के कारण भी जाना जाता है, जिसकी वजह से अनेक प्रमुख राज्यों में कांग्रेस को सत्ता से बेदखल होना पड़ा था। लेकिन स्वतंत्र पार्टी की कामयाबी इसलिए अहम थी, क्योंकि उसके गठन को महज एक दशक हुए थे।
आम आदमी पार्टी की मौजूदा सफलता को स्वतंत्र पार्टी के चश्मे से भी देखने की जरूरत है। यों तो दोनों के बीच कोई सीधी तुलना नहीं हो सकती। स्वतंत्र पार्टी के गठन के पीछे सी राजगोपालाचारी जैसे स्वतंत्रता सेनानी थे।
लेकिन इन दोनों पार्टियों में एक समानता तो यह है ही कि दोनों अपने मिजाज में दक्षिणपंथी हैं। स्वतंत्र पार्टी तो भाजपा के पूर्व अवतार भारतीय जनसंघ की सहयोगी की तरह रही है। बेशक, आम आदमी पार्टी आज भारतीय जनता पार्टी के घनघोर विरोधी की तरह व्यवहार करती है, लेकिन हिंदुत्व के उभार से लेकर कश्मीर मसले, सीएए ( नागरिकता संशोधन कानून) और आर्थिक नीतियों तक वह उसके साथ खड़ी नजर आती है। वह यदि खुद को आज भाजपा के विकल्प की तरह देखती है, तो यह नहीं भूलना चाहिए कि उसका गठन कांग्रेस को चुनौती देने के लिए हुआ था!
स्वतंत्र पार्टी और भारतीय जनसंघ के रिश्ते कैसे थे? इसे समझने के लिए एक उदाहरण काफी है। 1967 के आम चुनावों में लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव भी साथ-साथ हुए थे। उस चुनाव में विजयाराजे सिंधिया ने मध्य प्रदेश की गुना लोकसभा सीट से स्वतंत्र पार्टी के रूप में चुनाव लड़ा और विजयी हुई थीं। लेकिन उसी दौरान उन्होंने मध्य प्रदेश में ही ग्वालियर क्षेत्र के करेरा विधानसभा क्षेत्र से भारतीय जनसंघ के उम्मीदवार के रूप में चुनाव जीता था! विजयाराजे सिंधिया ने लोकसभा से इस्तीफा दे दिया और अपनी विधानसभा की सदस्यता कायम रखी। उसके बाद से वह भारतीय जनसंघ और उसके बाद भारतीय जनता पार्टी से जुड़ी रहीं।
जो स्वतंत्र पार्टी 1967 में सबसे बड़े विपक्षी दल के रूप में उभरी थी, उसका सफर 1971 के लोकसभा चुनाव के बाद तकरीबन खत्म हो गया। 1971 का चुनाव इंदिरा गांधी का चुनाव था, जिसमें उनके सामने तीन प्रमुख पार्टियां थीं, स्वतंत्र पार्टी, भारतीय जनसंघ और कांग्रेस से टूटकर बनी संगठन कांग्रेस, जिसके अहम किरदार थे के कामराज और मोरारजी देसाई। स्वतंत्र पार्टी, भारतीय जनसंघ और संगठन कांग्रेस तीनों मिजाज से दक्षिणपंथी पार्टी थीं। इसलिए एक समय में एक से अधिक दक्षिणपंथी पार्टियों को देखकर हैरत नहीं होनी चाहिए।
स्वतंत्र पार्टी का सफर तकरीबन एक दशक में खत्म हो गया। आम आदमी पार्टी का सफर अभी शुरू हुआ है। यह आने वाला वक्त बताएगा कि दक्षिणपंथी राजनीति के उभार के इस दौर में वह कितनी दूर तक जाती है। यह इस पर भी निर्भर करेगा कि दक्षिणपंथी राजनीति का केंद्र राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, जिसका कॉडर देशभर में फैला हुआ है, उसे कितनी छूट देता है।
-बादल सरोज
दुनिया की 60 फीसद आबादी वाला एशिया इस वर्ल्डकप से भी बाहर हो चुका है। फीफा इतिहास में मोरक्को पृथ्वी पर दूसरी सबसे अधिक आबादी वाले महाद्वीप अफ्रीका की चौथी टीम है जो क्वार्टर फाइनल में पहुंची है।
इसके पहले 1990 में कैमरून, 2002 में सेनेगल और 2010 में घाना की टीम क्वार्टर फाइनल में पहुँच चुकी हैं।
1990 में कैमरून की टीम क्वार्टर फाइनल में पहुँचने वाली पहली अफ्रीकी टीम थी। इसने ग्रुप मैच में अर्जेंटीना - तब मैराडोना की अर्जेंटीना - को एक गोल से हराकर दुनिया को चौंका दिया था।
कैमरून की इस टीम के नायक थे #रोजर_मिल्ला जिन्होंने उस वर्ल्ड कप में 38 वर्ष की उम्र में 4 और 1994 के वर्ल्ड कप में 42 वर्ष 39 दिन की उम्र में रूस के खिलाफ भी एक गोल किया था ; फीफा मुकाबलों में वे आज भी सबसे अधिक उम्र में गोल करने वाले फुटबॉलर हैं। हर गोल करने के बाद उसकी ख़ुशी मनाते समय किया जाने वाला उनका डांस उनके गोलों से भी ज्यादा आनंददायी होता था। गजब के थिरकते थे रोजर मिल्ला - उनका पूरा शरीर नाचता था।
भले अफ्रीकी देश फीफा में फाइनल्स में न हों - मगर फुटबॉल में वे ही वे हैं। पिछली 2018 की विजेता, मौजूदा चैंपियन फ्रांस की टीम के 78.3% खिलाड़ी (23 में से 14) का मूल 11 अफ्रीकी देश हैं । उसकी तब 19 साल की और आज 23 साल की उम्र के सबसे बड़ी ताकत और तब के एमबाप्पे कैमरूनी पिता और अलजीरियन माँ की संतान हैं ।
पिछले फाइनल में पहुंचाने वाला गोल दागने वाले उमतीति भी अफ्रीकी हैं। फीफा 2018 में तीसरी जगह के लिए भिड़ी इंग्लैंड टीम के 23 में से 11 और बेल्जियम की टीम में करीब आधे (47.8%) खिलाड़ी अफ्रीकी मूल के हैं ।
बेल्जियम की जीत में जिन रोमेलु लुकाकु और विंसेंट कोम्पानी का पसीना और गोल जुड़े हैं वे कांगो मूल के हैं । यहां जर्मनी इत्यादि का जिक्र नही कर रहे हैं ।
मैराडोना ने ठीक ही पिछले वर्ल्डकप को आप्रवासियों का विश्वकप बताया था।
अमीर देश और उनके अमीर क्लब्स अफ्रीका से सिर्फ सोना-हीरा-खनिज और सम्पदा चुराकर ही नहीं ले जाते। इन अफ्रीकियों की देह के बल के दम पर खिताब भी जीतते हैं। मगर एक दिन आएगा जब सेमीफाइनल और फाइनल में एशिया और अफ्रीका होंगे ;
हम इन्तजार करेंगे !!
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
वर्तमान चुनावों में तीनों पार्टियां एक-एक जगह से जीत गईं लेकिन दो-दो जगह से हार गईं। इन मुख्य चुनावों के अलावा कुछ उप-चुनाव भी अलग-अलग प्रांतों में हुए। उनमें सबसे ज्यादा चर्चित रहा मेनपुरी से डिंपल यादव का चुनाव लोकसभा के लिए। डिंपल अखिलेश यादव की पत्नी और मुलायमसिंह की बहू हैं। वे लगभग 3 लाख वोटों से जीती हैं। उन्होंने भाजपा के उम्मीदवार को हराया है लेकिन भाजपा का एक उम्मीदवार रामपुर से जीत गया है, यह भी भाजपा की उल्लेखनीय उपलब्धि है। डिंपल को हराने के लिए भाजपा ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी थी। डिंपल के खिलाफ ऐसे उम्मीदवार को खड़ा किया था, जो पहले सपा का नामी-गिरामी नेता रहा था। इसके अलावा मुलायमसिंह पिछले चुनाव में सिर्फ 94 हजार वोट से जीते थे जबकि बहुजन समाज पार्टी उनके साथ थी।
इस बार अखिलेश यादव ने डिंपल को अपने दम पर लड़ाकर जितवाया है। यह एक उम्मीदवार की मामूली जीत नहीं है। यह अखिलेश की समाजवादी पार्टी के पुनरोदय का शंखनाद है। यह जीत उ.प्र. ही नहीं, पूरे देश की राजनीति को नई दिशा दे सकती है। यह मुलायमसिंह जैसे विलक्षण नेता को जनता द्वारा दी गई भावभीनी श्रद्धांजलि है जैसे कि 1984 में राजीव गांधी की अपूर्व जीत इंदिरा गांधी को दी गई जनता की श्रद्धांजलि थी। इस चुनाव के दौरान यह भी अच्छा हुआ कि अखिलेश और उनके चाचा शिवपाल यादव के बीच सुलह हो गई और दोनों की पार्टी का विलय हो गया। अब देखना यह है कि अगले लोकसभा चुनाव में होता क्या है? योगी आदित्यनाथ ने कुछ पहल इतनी जबर्दस्त की हैं कि उनके कारण जनता के दिलों में उन्होंने गहरा स्थान बना लिया है लेकिन मेनपुरी की जीत समाजवादी पार्टी में नई जान फूंक सकती है बशर्ते कि अखिलेश और शिवपाल सिर्फ कुर्सी और रेवड़ी की राजनीति में न फंसे रहें। इस वक्त अकेली भाजपा है, जो अपनी विचारधारा पर चलने की कोशिश जैसे-तैसे करती रहती है, शेष सभी पार्टियां वोट और नोट के झांझ पीटती रहती हैं। मुलायमसिंह को भी यह सब करना पड़ता था लेकिन वे डॉ. राममनोहर लोहिया के सच्चे अनुयायी की तरह भी आचरण करने की कोशिश करते थे।
उन्होंने लोहिया की सप्तक्रांति के अनेक सूत्रों को लागू करने की भरपूर कोशिश की थी। उन्होंने मेरे साथ मिलकर अंग्रेजी हटाओ आंदोलन और भारत-पाक महासंघ के सवालों पर काफी काम किया था। वे कुर्सी की राजनीति में तो प्रवीण थे ही लेकिन सिद्धांतों और विचारधारा पर भी उनका पूरा ध्यान था। वे उ.प्र. के मुख्यमंत्री नहीं बनते तो भी उनका नाम देश के बड़े नेताओं में गिना जाता। वे अपने सैद्धांतिक आंदोलनों में मेरे साथ जुडक़र सभी पार्टियों के नेताओं के साथ मिल-बैठने में जरा भी संकोच नहीं करते थे। कुर्सी पकडऩा अच्छा है लेकिन यही अंतिम लक्ष्य नहीं होना चाहिए। कुर्सी खिसकने के बाद दुनिया के बड़े-बड़े नेता इतिहास के कूड़ेदान में जा समाते हैं। अखिलेश-जैसे नौजवान नेताओं से यह आशा करना अनुचित नहीं होगा कि वे सप्तक्रांति और जन-दक्षेस (बृहद् भारत) जैसे मुद्दों पर भी काम करें ताकि भारत सशक्त, संपन्न और समतामूलक तो बने ही, साथ ही प्राचीन आर्यावर्त्त के पड़ौसी देशों का भी उद्धार हो। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
गुजरात, दिल्ली और हिमाचल के चुनाव परिणामों का सबक क्या है? दिल्ली और हिमाचल में भाजपा हार रही है और गुजरात में उसकी एतिहासिक विजय हुई है। हमारी इस चुनाव-चर्चा के केंद्र में तीन पार्टियाँ हैं- भाजपा, कांग्रेस और आप! इन तीनों पार्टियों के हाथ एक-एक प्रांत लग गया है। दिल्ली का चुनाव तो स्थानीय था लेकिन इसका महत्व प्रांतीय ही है। दिल्ली का यह स्थानीय चुनाव प्रांतीय आईने से कम नहीं है।
दिल्ली में आप पार्टी को भाजपा के मुकाबले ज्यादा सीटें जरूर मिली हैं लेकिन उसकी विजय को चमत्कारी नहीं कहा जा सकता है। भाजपा के वोट पिछले चुनाव के मुकाबले बढ़े हैं लेकिन आप के घटे हैं। आप के मंत्रियों पर लगे आरोपों ने उसके आकाशी इरादों पर पानी फेर दिया है। भाजपा ने यदि सकारात्मक प्रचार किया होता और वैकल्पिक सपने पेश किए होते तो उसे शायद ज्यादा सीटें मिल जातीं। भाजपा ने तीनों स्थानीय निगमों को मिलाकर सारी दिल्ली का एक स्थानीय प्रशासन लाने की कोशिश इसीलिए की थी कि अरविंद केजरीवाल के टक्कर में वह अपने एक मजबूत महापौर को खड़ा कर दे।
भाजपा की यह रणनीति असफल हो गई है। कांग्रेस का सूंपड़ा दिल्ली और गुजरात, दोनों में ही साफ हो गया है। गुजरात में कांग्रेस दूसरी पार्टी बनकर उभरेगी, यह तो लग रहा था लेकिन वह इतनी दुर्दशा को प्राप्त होगी, इसकी भाजपा को भी कल्पना नहीं थी। कांग्रेस के पास गुजरात में न तो कोई बड़ा चेहरा था और न ही राहुल गांधी वगैरह ने चुनाव-प्रचार में कोई सक्रियता दिखाईं। सबसे ज्यादा धक्का लगा, आम आदमी पार्टी को! गुजरात में आम आदमी पार्टी ने बढ़-चढक़र क्या-क्या दावे नहीं किए थे लेकिन मोदी और शाह ने गुजरात को अपनी इज्जत का सवाल बना लिया था।
मुझे याद नहीं पड़ता कि भारत के किसी प्रधानमंत्री ने अपने प्रांतीय चुनाव में इतना पसीना बहाया हो, जितने मोदी ने बहाया है। आप पार्टी का प्रचारतंत्र इतना जबर्दस्त रहा कि उसने भाजपा के पसीने छुड़ा दिए थे। अरविंद केजरीवाल का यह पैंतरा भी बड़ा मजेदार है कि दिल्ली का स्थानीय प्रशासन चलाने में उन्होंने मोदी का आशीर्वाद मांगा है। इस चुनाव में आप पार्टी को अपेक्षित सफलता नहीं मिली लेकिन उसकी अखिल भारतीय छवि को मजबूती जरुर मिली है।
ऐसा लगता है कि 2024 के आम चुनाव में मोदी के मुकाबले अरविंद केजरीवाल का नाम सशक्त विकल्प की तरह उभर सकता है। फिर भी इन तीनों चुनावों में ऐसा संकेत नहीं मिल रहा है कि 2024 में मोदी को अपदस्थ किया जा सकता है। दिल्ली और हिमाचल में भाजपा की हार के असली कारण स्थानीय ही हैं। मोदी को कांग्रेस जरुर चुनौती देना चाहती है लेकिन उसके पास न तो कोई नेता है और न ही नीति है।
हिमाचल में उसकी सफलता का असली कारण तो भाजपा के आंतरिक विवाद और शिथिल शासन है। जब तक सारे प्रमुख विरोधी दल एक नहीं होते, 2024 में मोदी को कोई चुनौती दिखाई नहीं पड़ती। इन तीनों चुनावों ने तीनों पार्टियों को गदगद भी किया है और तीनों को सबक भी सिखा दिया है। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पिछले साल काबुल पर तालिबान का कब्जा होते ही भारत सरकार बिल्कुल हतप्रभ हो गई थी। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे? हमारे विदेश मंत्री ने कहा था कि हम बैठे हैं और देख रहे हैं। उसी समय मैंने तालिबान के कब्जे के एक-दो दिन पहले ही लिखा था कि भारत सरकार को अत्यंत सतर्क रहने की जरुरत है लेकिन मुझे खुशी है कि हमारे कुछ अनुभवी अफसरों की पहल पर भारत सरकार ने ठीक रास्ता पकड़ लिया। उसने दोहा (कतर) में स्थित तालिबानी तत्वों से संपर्क बढ़ाया, अफगानिस्तान को हजारों टन गेहूं और दवाइयां भेजने की घोषणा की और तालिबान सरकार से भी संवाद किया।
काबुल स्थित अपने दूतावास को भी सक्रिय कर दिया। उधर तालिबान नेताओं और प्रवक्ता ने भारत की मदद का आभार माना, हालांकि भारत सरकार ने उनकी सरकार को कोई मान्यता नहीं दी है। इस बीच इस साल जनवरी में प्रधानमंत्री मोदी ने मध्य एशिया के पांचों गणतंत्रों के मुखियाओं के साथ सीधा संवाद भी कायम किया था। उन्होंने शांघाई सहयोग संगठन के सम्मेलन में अफगानिस्तान के बारे में भारत की चिंता को व्यक्त किया था। अफगानिस्तान में आतंकवादी शक्तियां अब ज्यादा सक्रिय न हो जाएं, इस दृष्टि से भारत ने कई पड़ौसी देशों के प्रतिनिधियों का सम्मेलन भी किया था लेकिन हमारे राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित दोभाल बधाई के पात्र हैं कि जिन्होंने नई दिल्ली में कल पांचों मध्य एशिया राष्ट्रों— तुर्कमेनिस्तान, कजाकिस्तान, उजबेकिस्तान, ताजिकिस्तान और किरगिजिस्तान— के सुरक्षा सलाहकारों का पहला सम्मेलन आयोजित किया। इस सम्मेलन में मुख्य विषय यही था कि अफगानिस्तान को आतंकवाद का अड्डा बनने से कैसे रोका जाए? पाकिस्तान के ज्यादातर आतंकवादी संगठन अफगानिस्तान के कबाइली इलाकों से अपना जाल फैलाते हैं।
न पाकिस्तान और न ही अफगान सरकार उन पर काबू कर पाती है। उनकी शक्ति का असली स्त्रोत वह पैसा ही है, जो इस्लामी देशों से आता है और अफीम की खेती है। सभी सुरक्षा सलाहकारों ने इन स्त्रोतों पर कड़ी रोक लगाने की घोषणा की है। सभी प्रतिनिधियों ने तालिबान सरकार से मांग की है कि वह इन आतंकियों को किसी भी तरह की सुविधा न लेने दे। अपने इस आग्रह को उन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रस्ताव न. 2593 के अनुसार ही बताया है। भारत सरकार की इस पहल का कुछ न कुछ ठोस असर जरूर होगा लेकिन यह तो तात्कालिक समस्या का तात्कालिक उपचार है। फिलहाल जरूरत है, संपूर्ण दक्षिण एशिया और मध्य एशिया के राष्ट्रों के बीच यूरोपीय संघ की तरह एक साझी संसद, साझी न्यायपालिका, साझा बाजार, साझी मुद्रा, मुक्त व्यापार और मुक्त आवागमन की व्यवस्था कायम हो। यदि भारत इसकी पहल नहीं करेगा तो कौन करेगा? सरकारें करें या न करें, इन देशों की जनता, जिसमें ईरान, म्यांमार और मोरिशस को भी शामिल कर ले तो इन 16 राष्ट्रों को मिलाकर ‘जन-दक्षेस’ नामक संगठन के जरिए एक युगांतरकारी संगठन खड़ा किया जा सकता है। यदि भारत की पहल पर यह संगठन बन गया तो एशिया अपने 10 वर्षों में ही यूरोप से अधिक समृद्ध हो सकता है। (नया इंडिया की अनुमति से)
बढ़ती महंगाई से आम भारतीयों को निजात दिलाने ब्याजदरें बढ़ाने का निर्णय कितना सही है अथवा कितना सटीक निकलेगा ? यह तो समय बतायेगा लेकिन वर्तमान परिस्थितियों में भारतीय रिजर्व बैंक का यह निर्णय अव्यावहारिक एवं असफल ही सिद्ध होगा क्योंकि इससे महंगाई रूकेगी नहीं अपितु विकासदर धीमी जरूर पड़ जायेगी। सारे कर्ज महंगे हो जाने से बाजार पर भी इसका विपरीत प्रभाव पड़ेगा।
-डॉ. लखन चौधरी
बढ़ती महंगाई से चिंतित भारतीयों को ढ़ांढ़स बधाने के लिए भारतीय रिजर्व बैंक ने रेपो रेट यानि व्यावसायिक बैंकों को दी जाने वाली उधार की रकम की ब्याजदरों में 0.35 फीसदी का इजाफा कर दिया है। इससे भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा व्यावसायिक बैंकों को दी जाने वाली उधारी या कर्ज की ब्याजदरें बढ़ जायेंगी। इसका मतलब है कि व्यावसायिक बैंकों द्वारा आम लोगों को दी जाने वाली उधारी या कर्ज पर भी ब्याजदरें बढ़ जायेंगी। महंगाई इससे कितनी रूकेगी, थमेगी या कम होगी ? इसके बारे में कोई सटीक आंकलन नहीं लगाया जा सकता है, लेकिन इससे महंगाई जरूर बढ़ेगी। इसमें कोई दो मत नहीं है।
भारतीय रिजर्व बैंक की रेपो रेट अब 5.90 फीसदी से बढ़कर 6.25 फीसदी हो गई है। यानि तत्काल होम लोन से लेकर ऑटो, पर्सनल लोन सब कुछ महंगा हो जाएगा और अब आम आदमियों को इसके लिए ज्यादा ब्याजदरें चुकानी होगीं। इससे देश के करोड़ों आम लोगों का घर का बजट बिगड़ जायेगा। यह तय है, क्योंकि इसकी वजह से अब बहुत कुछ महंगी हो जाने वाली है। इधर भारतीय रिजर्व बैंक यह अनुमान लगाये बैठे है कि इससे महंगाई कम हो जायेगी।
उल्लेखनीय है कि इस वित्त वर्ष की पहली बैठक अप्रैल में हुई थी। तब भारतीय रिजर्व बैंक ने रेपो रेट को 4 फीसदी पर स्थिर रखा था। बाद में भारतीय रिजर्व बैंक ने 2 और 3 मई को इमरजेंसी मीटिंग बुलाकर रेपो रेट को 0.40 फीसदी बढ़ाकर 4.40 फीसदी कर दिया था। 22 मई 2020 के बाद रेपो रेट में ये बदलाव हुआ था। इसके बाद 6 से 8 जून को हुई मीटिंग में रेपो रेट में 0.50 फीसदी इजाफा किया गया। इससे रेपो रेट 4.40 फीसदी से बढ़कर 4.90 फीसदी हो गई थी। फिर अगस्त में 0.50 फीसदी बढ़ाया गया, जिससे यह 5.40 फीसदी पर पहुंच गई, जिससे सितंबर में ब्याजदरें 5.90 फीसदी हो गई थी। अब इसमें .35 फीसदी की बढ़ोतरी फिर से कर दी गई है, जिससे ब्याजदरें 6.25 फीसदी पर पहुंच गई हैं। यानि आठ-नौ महिने में ही भारतीय रिजर्व बैंक ने रेपो रेट में सवा दो फीसदी की बढ़ोतरी कर दी है।
इसके बावजूद अब महंगाई पर लगाम लग जायेगी ? इसकी कल्पना भी करना मूखर्ता से कम नहीं है। दूसरी बात यह है ब्याजदरों को लगातार इस तरह बढ़ाने से विकासदर यानि ग्रोथ पर भी इसका बुरा या विपरीत प्रभाव पड़ना लाजिमी है, क्योंकि इसके कारण होम, कार, पर्सनल सहित तमाम लोन महंगे हो जायेंगे। इसका विपरीत असर निवेश पर भी पडे़गा। महंगाई की वजह से व्यक्तिगत उपभोग, खपत एवं खर्चे पहले से ही बुरी तरह बाधित हैं। सरकारी खर्च एवं निवेश को सरकार ने पहले ही रोक रखा है। ऐसे हालात में बाजार पर इसका नकारात्मक असर होना स्वाभाविक है।
अर्थशास्त्र में मान्यता है कि किसी भी देश की केन्द्रीय बैंक के पास रेपो रेट के रूप में महंगाई से लड़ने का एक शक्तिशाली टूल या हथियार यानि उपाय रहता है। जब महंगाई बहुत ज्यादा होती है तो केन्द्रीय बैंकें रेपो रेट बढ़ाकर अर्थव्यवस्था यानि इकोनॉमी में मुद्राप्रवाह यानि मनीफ्लो जिसे मुद्रा के लेनदेन की चलन गति कहते हैं; को कम करने की कोशिश करती हैं। इसका मतलब है कि रेपो रेट अधिक होने पर बैंकों को केन्द्रीय बैंकों से मिलने वाला कर्ज महंगा हो जाता है। बदले में बैंक अपने ग्राहकों के लिए कर्ज, यानि ब्याजदरें या लोन महंगा कर देती हैं। इससे इकोनॉमी में मनीफ्लो कम हो जाता है, जिससे बाजार में मांग यानि डिमांड में कमी आ जाती है, और धीरे-धीरे महंगाई कम होने या घटने लगती है।
लेकिन यह एक सैद्धांतिक मान्यता है, जो भारत जैसे में लागू नहीं होता है। दरअसल में ब्याजदरें बढ़ाने भर से महंगाई रूकती नहीं हैं। इस समय भारतीय अर्थव्यवस्था में भी ब्याजदरें बढ़ाने भर से महंगाई थमने वाली नहीं है। इसके लिए सरकार की नीतियों एवं सोच में बदलाव की दरकार है, जिसके लिए सरकार तैयार नहीं है।
-शुमाएला जाफरी
तकरीबन महीने भर से पाकिस्तान में चर्चा में रहा ‘हकीकी आजादी’ मार्च 26 नवंबर को समाप्त हुआ। इस दिन पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने अपना सडक़ मार्च रोकने का जो एलान किया, वो हैरान कर देने वाला था।
इमरान खान की तरफ से पाकिस्तान में जल्द आम चुनाव कराने की मांग करने वाले इस मार्च को ख़ासा जनसमर्थन मिल रहा था। इसे देखते हुए तमाम राजनीतिक विशेषज्ञ ये मान कर चल रहे थे कि इमरान ख़ान या तो राजधानी इस्लामाबाद में धमाकेदार एंट्री करेंगे या फिर हजारों लोगों के साथ अनिश्चितकालीन धरने पर बैठ जाएंगे।
लेकिन इमरान की इस घोषणा से सिफऱ् राजनीतिक विशेषज्ञ ही नहीं, उनके राजनीतिक विरोधी भी हक्के-बक्के रह गए जब उन्होंने आक्रोश से भरे लंबे भाषण के बाद ये एलान किया- ‘हम सभी असेंबली से ख़ुद को अलग कर रहे हैं। हम मुल्क में अव्यवस्था फैलाने से बेहतर इस भष्ट तंत्र को इसके हाल पर छोडऩा समझते हैं।’
विरोध प्रदर्शन का स्टैंड अचानक कैसे बदला?
इमरान खान ने अपनी पार्टी की सत्ता वाली सभी असेंबली से हटने का एलान तो कर दिया, लेकिन इन्हें भंग करने की कोई तय तारीख़ नहीं बताई। इस पर अंतिम निर्णय के सवाल पर इमरान खान ने कहा कि वो पंजाब और खैबर पखतूनख्वा जैसे प्रांतों में, जहां उनकी पार्टी की सरकार है, अपने मुख्यमंत्रियों और पार्टी की संसदीय कमेटी से सलाह मश्विरा करेंगे।
उसके बाद से ही इमरान ख़ान अपनी पार्टी और गठबंधन के नेताओं से मिल रहे हैं। उन्होंने दोनों पंजाब और ख़ैबर पख़्तूनख्वा प्रांत के मुख्यमंत्रियों के साथ भी बैठकें की हैं। इन बैठकों के बाद इमरान का दावा है कि 'सबने आम सहमति से उन्हें असेंबली भंग करने पर अंतिम फ़ैसला लेने के लिए अधिकृत कर दिया है। अगर सत्ताधारी गठबंधन पाकिस्तान में जल्द से जल्द आम चुनाव कराने की घोषणा नहीं करता, तो वो प्रातीय सरकारें कभी भी भंग कर सकते हैं।’
पाकिस्तान में अगले आम चुनाव अक्टूबर 2023 में होने हैं। लेकिन अविश्वास प्रस्ताव के जरिए प्रधानमंत्री पद से हटाए गए इमरान खान उससे पहले ही चुनाव कराने की मांग पर अड़े हुए हैं। इमरान खान का कहना है कि मौजूदा सरकार को पाकिस्तान की सत्ता में बने रहने का कोई नैतिक आधार नहीं हैं।
बहरहाल, इमरान के विरोधी उनकी इस मांग के आगे झुकने को तैयार नहीं दिखते। सत्तारूढ़ दल ये बार-बार दोहरा रहे हैं कि जब तक इमरान खान का रवैया और बात रखने का तरीका ठीक नहीं होगा, तब तक उनकी मांगों पर कोई ध्यान नहीं दिया जाएगा। शहबाज शरीफ सरकार ने ये भी साफ कर दिया कि इमरान और उनकी पार्टी तहरीक-ए-इंसाफ के साथ पहले से शर्त रखकर कोई बातचीत नहीं की जाएगी।
इसके बाद बीते हफ़्ते से ही इमरान के रुख में नरमी के संकेत मिलने लगे थे। पहले वो अपनी मांग को लेकर कोई समझौता करने को तैयार नहीं दिखते थे, यहां तक कि अपने विरोधियों से किसी तरह की बातचीत के भी मूड में नहीं थे।
एक इंटरव्यू में इमरान ने साफ़ कहा था कि ‘वो इस सरकार को जवाब देने के लिए सिर्फ कुछ दिनों का ही समय देंगे। वो किसी भी कीमत पर मार्च के पहले चुनाव कराना चाहते हैं। अगर वो इसके लिए तैयार होते हैं तो हम अपना प्रदर्शन रोक देंगे, वर्ना प्रांतीय असेंबली को भंग कर देंगे।’
‘मार्च’ इमरान का सियासी झांसा?
इमरान खान के विरोधियों का दावा कुछ ऐसा ही है। उनके मुताबिक ‘लॉन्ग मार्च’ की नाकामी इमरान खान को साफ दिख गई। इसी के बाद से वो प्रांतीय असेंबलियों को भंग करने की धमकी देने लगे। पाकिस्तान के गृह मंत्री राणा सनाउल्लाह ने तो यहां तक कह दिया- ‘इमरान ख़ान जनादेश के अपमान की हद पार कर चुके हैं।’
राणा सनाउल्लाह ने ये भी कहा कि पीडीएम के नेतृत्व वाली सरकार संवैधानिक व्यवस्था के मुताबिक काम करती रहेगी और जो भी हालात सामने हैं उनका राजनैतिक समाधान निकालेगी।
उन्होंने कहा, ‘संवैधानिक दायरे में रहते हुए हम अगले चुनावों को जितनी देर के लिए हो सकता है टालेंगे। हम ये कतई नहीं चाहेंगे कि हमारा गठबंधन सिर्फ दो प्रांतों के चुनाव में शामिल हो।’
सनाउल्लाह के बयान का मतलब ये हुआ कि इमरान ख़ान की पार्टी की कोई भी मांग पूरी नहीं होगी। अगर असेंबली भंग करते हैं तो दो प्रांतों में सरकार उन्हीं की जाएगी।
इमरान की पार्टी पीटीआई ने नेशनल असेंबली से अपने सदस्यों का इस्तीफा दिलवा दिया है, लेकिन इसके बाद की क़ानूनी कार्रवाइयां पूरी नहीं होने की वजह से ये इस्तीफे अब भी लंबित हैं।
इमरान खान के ज़्यादातर सांसदों के इस्तीफे इसलिए पेंडिंग है क्योंकि इनका पर्सनल वेरिफिकेशन अभी तक नहीं हुआ है। इस्तीफे की मंजूरी के लिए हर सांसद को नेशनल असेंबली के स्पीकर के पास खुद जाना होता है।
पाकिस्तान की वरिष्ठ पत्रकार असमां शिराजी के मुताबिक, ‘सत्ताधारी पीडीएम पूरे हालात में ‘वेट एंड वॉच’ की रणनीति अपना रही है। इमरान के असेंबली भंग करने के बाद पैदा हुए हालात में उनके पास क्या विकल्प होंगे, इस पर लगातार नजर बनाए हुए हैं।’
शिराजी मानती हैं कि पीडीएम के सभी घटक इस बात को लेकर आश्वस्त हैं कि इमरान असेंबली भंग करने जैसा कोई कदम नहीं उठाने जा रहे। अगर वो ऐसा करते हैं तो इससे निपटने के लिए राजनीतिक विकल्प उनके पास भी तैयार हैं।
असमां शिराज़ी के मुताबिक, ‘इमरान खान के बारे में आम धारणा ये है कि उनकी नजऱ रावलपिंडी पर टिकी हुई है। उन्हें नई सरकार की तरफ से किसी संकेत का इंतजार है। लेकिन अब वो किसी तरह, बिना शर्त के भी मसले को सुलझाने के लिए बेकरार हैं।’
राजनीतिक जानकारों का कहना है ख़ैबर पख़्तूनख्वा और पंजाब में सरकार भंग करने का मतलब है, केन्द्रीय सरकार को अस्थाई सरकार बनाने की दावत देना ताकि इसकी निगरानी में असेंबली चुनाव कराए जा सकें।
जानकारों का कहना है कि इस मसले पर खुद इमरान की पार्टी के अंदर ही आगे की रणनीति को लेकर मतभेद हैं। पार्टी के एक तबके को लगता है कि सरकार भंग करने का फ़ैसला हमारे लिए ज़्यादा नुकसानदेह हो सकता है।
शहजाद इकबाल जैसे सीनियर जर्नलिस्ट इस हालात को अलग नजरिए से देखते हैं। इन्हें लगता है कि इमरान की पार्टी नहीं सत्तारुढ पीडीएम गठबंधन बैकफुट पर है।
शहजाद कहते हैं, ‘पीडीएम के लोग पहले कह रहे थे कि अगर इमरान जल्द चुनाव चाहते हैं तो उनकी पार्टी के लोगों को प्रांतीय असेंबली से इस्तीफा दे देना चाहिए। अब इमरान ने ऐसा करने का ऐलान कर दिया, तो पीडीएम के लोग कहने लगे हम ऐसा कतई नहीं होने देंगे। यानी ये लोग भी असमंजस में हैं।’
शहज़ाद बताते हैं कि सरकार और इस रस्साकशी के बीच इमरान की पार्टी और सरकार के नुमाइंदे पिछले दरवाज़े से बातचीत में भी मशगुल हैं। इमरान की पार्टी के कुछ नेताओं ने संकेत दिया है कि वो इस बातचीत के नतीजे का इंतजार कर रहे हैं। अगर सरकार मई में भी चुनाव कराने पर राज़ी हो जाती है तो प्रांतीय सरकारें भंग करने की नौबत नहीं आएगी।
वहीं कुछ राजनीतिक विश्लेषकों को लगता है कि ‘प्रांतीय सरकारों से हटने का एलान इमरान ने अपनी साख बचाने के लिए किया है। ऐसा इसलिए है क्योंकि अपनी मांग पूरी करवाने के लिए उन्हें जो भी करना था वो कर चुके हैं, लेकिन इन सबके बावजूद उनके हाथ कुछ नहीं लगा।
हालांकि अपने लगातार विरोध प्रदर्शनों की वजह से उनकी लोकप्रियता काफी बढ़ी। इस आधार पर अगले चुनाव में उनके जीतने की संभावना काफी बढ़ जाती है। लेकिन असेंबलियों से बाहर निकलने की उनकी मांग अनसुनी हो गई लगती है।’
क्या चरमरा जाएगी लोकतांत्रिक व्यवस्था?
ये सवाल बेहद अहम है क्योंकि सरकार की उम्मीदों के उलट अगर इमरान प्रांतीय असेंबली भंग करने का फैसला कर लेते हैं तो क्या होगा कहना मुश्किल है।
प्रांतीय सरकारों के साथ इस्लामाबाद में केन्द्रीय सरकार क्या स्थिर रह पाएगी?
जानकारों के मुताबिक ऐसे हालात से निपटने के लिए कई सारे विकल्प मौजूद हैं। इसमें प्रांतों में गवर्नर रूल लगाने के साथ खैबर पख़्तूनख्वा और पंजाब के मुख्यमंत्रियों के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव जैसे विकल्प शामिल हैं।
इस टास्क को पूरा करने में पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी ने पहले ही आसिफ अली जऱदारी को लगा दिया है। जरदारी पीपीपी के उपाध्यक्ष हैं और पाकिस्तान में अपनी राजनैतिक साठ-गांठ के लिए जाने जाते हैं। जऱदारी निर्दलीय सदस्यों के साथ इमरान समर्थक दलों के नेताओं से संपर्क साध रहे हैं ताकि इन्हें अपने पाले में लेकर इमरान का पूरा प्लान नाकाम कर दिया जाए।
खैबर पख़्तूनख्वा और पंजाब में सरकार भंग करने का मतलब है पाकिस्तान में 66 फीसदी असेंबली सीटें खाली हो जाएंगी। इससे जाहिर है राजनीतिक संकट बड़ा हो जाएगा। ऐसे हालत को सत्तारुढ़ पीडीएम भले ही राजनीतिक विकल्पों के साथ साध लेने का दावा करे, लेकिन इससे पाकिस्तान की पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था चरमरा जाएगी।
अगर ऐसा हुआ तो इसकी वजह से पैदा होने वाला आर्थिक संकट पाकिस्तान की मौजूदा सरकार को झुकने पर मजबूर कर देगा। पाकिस्तान में जारी मौजूदा अस्थिरता की वजह से ही अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के साथ बातचीत लगातार टल रही है।
ऋण की अगली किश्त को लेकर ये बातचीत नवंबर में ही होनी थी। लेकिन राजनीतिक अस्थिरता की वजह से आर्थिक मदद देने से पहले दूसरी अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाएं भी आईएमएफ़ के ग्रीन सिग्नल का इंतज़ार कर रही हैं। लिहाज़ा अगर हालात ऐसे ही बने रहे तो मौजूदा व्यवस्था का टिके रहना नामुमकिन नहीं तो मुश्किल ज़रूर हो जाएगा।
मशहूर स्तंभकार मलीहा लोधी के मुताबिक़, ‘निरंतर राजनीतिक टकराव की वजह से देश की पूरी व्यवस्था कमज़ोर हो चुकी है, लेकिन राजनीतिक टकराव में कमी आने के कोई संकेत नहीं दिख रहे। हर आंदोलन में राजनेता कहते हैं कि ये पाकिस्तान के लिए निर्णायक होगा। लेकिन ये लड़ाई कभी खत्म नहीं होती।’
मलीहा के मुताबिक़, ‘पाकिस्तान के लिए सबसे चिंताजनक ये बात है कि मौजूदा हालात में पाकिस्तान को कोई राहत मिलती नजऱ नहीं आती। ना ऐसी राजनीति से, ना शासन की गंभीर चुनौतियों से और ना ही अदूरदर्शी आर्थिक प्रबंधन से। इस हालत में सरकारी संस्थानों में आम लोगों का भरोसा भी डगमगाता दिख रहा है।’ (bbc.com/hindi)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
नेपाल में हुए आम चुनावों में जिन सत्तारुढ़ पार्टियां ने पहले से गठबंधन सरकार बनाई हुई थीं, वे फिर से जीत गई हैं। उन्हें 165 में से 90 सीटें मिल गई हैं। अब नेपाली कांग्रेस के नेता शेर बहादुर देउबा फिर प्रधानमंत्री बन जाएंगे। हालांकि उनकी पार्टी को 57 सीटें मिली हैं और प्रचंड की कम्युनिस्ट पार्टी को सिर्फ 18 सीटें मिली हैं लेकिन जहां तक वोटों का सवाल है, प्रचंड की पार्टी को 27,91,734 वोट मिले हैं जबकि नेपाली कांग्रेस को सिर्फ 26,66,262 वोट ही मिल पाए।
इसका अर्थ क्या हुआ? अब कम्युनिस्ट पार्टी का असर ज्यादा मजबूत रहेगा। अब देउबा की सरकार में कम्युनिस्ट पार्टी का सिक्का जरा तेज दौड़ेगा। देउबा प्रधानमंत्री तो दुबारा बन जाएंगे लेकिन उन्हें अब उन कम्युनिस्टों की बात पर ज्यादा ध्यान देना होगा, जो कभी नेपाली कांग्रेस के कट्टर विरोधी रह चुके हैं। उन्होंने अपनी बगावत के दौरान नेपाली कांग्रेस के कई कार्यकर्ताओं की निर्मम हत्या भी की थी और उनके पार्टी घोषणापत्रों में भारत के विरुद्ध विष-वमन में भी कोई कमी नहीं रखी जाती थी। यह हमारे दक्षिण एशिया की राजनीतिक मजबूरी है कि सत्ता में आने के लिए घनघोर विरोधी भी गल-मिलव्वल करने लगते हैं।
जहां तक देउबा का प्रश्न है, प्रचंड और ओली इन दोनों के मुकाबले वे अधिक अनुभवी और संयत स्वभाव के हैं। इन तीनों नेपाली प्रधानमंत्रियों के साथ मेरा भोजन और खट्टा-मीठा वार्तालाप भी हुआ है। देउबा अभी कुछ माह पहले भारत-यात्रा पर भी आए थे। वे चीन से अपने संबंध खराब किए बिना भारत को प्राथमिकता देते रहेंगे। भारत भी नेपाली कांग्रेस को, जिसके कोइराला आदि नेतागण प्राय: भारतप्रेमी ही रहे हैं, पूरी सहायता करने की कोशिश करेगा।
यदि देउबा और प्रचंड में सदभाव बना रहेगा तो यह सरकार अपने पांच साल भी पूरे कर सकती है। नेपाली लोकतंत्र की यह पहचान बन गई है कि वहां सरकारें पलक झपकते ही उलट-पलट जाती हैं। लेकिन यह नेपाली लोकतंत्र की विशेषता भी है कि वहां न तो राजशाही का बोलबाला दुबारा हो पाता है और न ही वहां कभी फौजशाही का झंडा बुलंद होता है। (नया इंडिया की अनुमति से)
दलित सामाजिक वैचारिकी को राष्ट्रीय स्तर पर वाचाल करने का दारोमदार मुख्यतः डाॅ. भीमराव अम्बेडकर पर है। हिन्दू धर्म की रूढ़ियों से पीड़ित अम्बेडकर ने लाखों अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया। उससे समतामूलक समाज भूमि पर खड़ा होने का मौका दलित वर्ग को मिला। अम्बेडकर ने दो टूक कहा उन्हें अनुकूल तत्व हिन्दू धर्म में दिखाई नहीं पड़ते क्योंकि वह जाति प्रथा की गिरफ्त में है। हिन्दू धर्म पर आक्रमण के पीछे बुद्ध की शिक्षाओं के अलावा पष्चिम के ज्ञानशास्त्र से उपजा नवउदारवाद भी था।
जाति-समस्या हिन्दू धर्म की आंतरिकता ही हो गई है। उसका ज़हर दलितों में वर्षों से घुल रहा है। गांधी तक सोचते थे समाज के कथित उच्च वर्गों की जिम्मेदारी है कि दलितों को सामाजिक रूप से काबिल बनाने बढ़ें। विवेकानन्द और गांधी के अनोखे और पुरअसर तर्क थे कि जाति प्रथा और वर्णाश्रम व्यवस्था के सकारात्मक पक्ष भी हैं। उन्हें ठीक से समझा नहीं गया है। अम्बेडकर ने यह तर्क कतई मंजूर नहीं किया। उन्होंने जाति प्रथा की सड़ी गली रूढ़ि के खिलाफ जेहाद फूंका।
इसमें शक नहीं भारत में धर्म एक प्रमुख सामाजिक ताकत, ज़रूरत और उपस्थिति है। धर्म का झुनझुना बजाकर लोगों को ग़ाफिल किया जाता है। शंख बजाकर लोगों में घबराहट पैदा की जाती है। राजनीति में धर्म का इस्तेमाल नहीं करने के वायदे के बावजूद धर्म ने राजनीति को खिलौना बना लिया है। उसके समर्थन में हिन्दू मान्यताओं का फतवा दिया जाता है।
दलित और स्त्रियां मिलकर देश की आधी से ज्यादा आबादी हैं। अम्बेडकर इन मुफलिसों को ऐसे पड़ाव पर खड़ा कर देना चाहते थे जो नई राह का प्रस्थानबिन्दु हो। सावधानी चुस्ती और चालाकी के कारण राजसत्ता सदैव उच्च वर्गों के हाथ ही रही। दलित, आदिवासी, पिछड़ों को सामाजिक, धार्मिक और निजी आयोजनों में साथ बैठने, भोजन करने और बराबरी के आधार पर सम्मान के अवसर देने की परंपरा हिन्दू धर्म में अम्बेडकर को नहीं दिखी। संघ परिवार इस बात की कभी ताईद नहीं करेगा कि वह अपने खास सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक आयोजनों में दलितों और आदिवासियों को सम्मानजनक बराबरी के साथ भागीदारी करके दिखा दे। जातिवाद के चलते वैवाहिक रिश्तों, शिक्षा, इलाज और अन्य सामाजिक स्थितियों में ढाक के तीन पात हैं। ऐसा नहीं है कि अम्बेडकर ने समाज के लिए धर्म की आवश्यकता प्रतिपादित नहीं की।
तल्ख चिंतकों में कार्ल मार्क्स के बाद डाॅ. भीमराव अम्बेडकर के दर्शन में करुणा की कविता के साथ धारदार तर्क भी हैं। गांधी के आग्रह पर अम्बेडकर और डाॅ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी को संविधान सभा में सम्मानजनक ढंग से शामिल किया गया। गांधी और अम्बेडकर दोनों की लेकिन दुर्गति है कि उनके शिष्य या तो अंधश्रद्धा के कायल हैं अथवा उनकी उपेक्षा करते हैं। अम्बेडकर पुरअसर दिमाग थे और दलितों के लिए दिल भी। अम्बेडकर मंे पैने तर्कों के संवैधानिक नश्तर बनाकर कई पुराने बिगड़े घावों का इलाज करने की कोशिश की। अम्बेडकर की तल्खी और बेबाक बयानी संविधान सभा की आखिरी बैठक में प्रकट हुई। उन्होंने आत्मस्वीकार किया कि तमाम कोशिशों के बावजूद संविधान सभा ने भले ही त्रुटिहीन दस्तावेज नहीं बनाया हो, फिर भी वह जनता के भविष्य का फिलवक्त तो षिलालेख है।
बाबा साहब ने कहा राजनीति में दखल रखते कई लोग ‘भारत की जनता‘ जैसे शब्दांश की अनदेखी करते ‘भारतीय राष्ट्र‘ शब्द को अहमियत देते थे। हम ‘एक राष्ट्र‘ जैसे शब्द में सामूहिक यकीन करने के नाम पर बड़े मायाजाल में खुद को फंसा रहे हैं। हज़ारों जातियों में बंटे लोग किस तरह एक राष्ट्र कहला सकते हैं? जितनी जल्दी अहसास कर लें कि अभी सामाजिक और मनोवैज्ञानिक अर्थ में भारत एक राष्ट्र नहीं हैं, उतना बेहतर होगा। उन्होंने गरीबी, उपेक्षा, तिरस्कार, अपमान और जातीय अहंकार के मनोविज्ञान के विकारों को आत्मा के ताप के साथ सहा था। इस बात की मुखालफत नहीं की जा सकती कि देश में राजनीतिक सत्ता लम्बे समय तक केवल कुछ लोगों के अधिकार में रही है। अधिकांश लोग बोझ ढोने वाले पशु तक समझे गए और अब भी हैं।
अम्बेडकर की शोहरत संविधान की धड़कन के जरिए लोकशक्ति के रूप में है। उनकी राजनीतिक दृष्टि विवादग्रस्त रही है। संवैधानिक बुद्धि उपजाऊ नहीं होती तो संविधान की फसल का उगाया जाना मुमकिन नहीं हो सकता था। अम्बेडकर ने वक्त के माथे पर नई लकीरें खींचीं। आलोचक कहते हैं अम्बेडकर प्रारूप समिति के अध्यक्ष भर की सीमित भूमिका में रहे। पत्रकार तथा पूर्व भाजपा नेता अरुण शौरी ने अपनी पुस्तक ‘वर्शिपिंग फाॅल्स गाॅड्स‘ में अम्बेडकर की निंदा करने में कोताही नहीं की। अम्बेडकर ने साफ कहा था बहुसंख्यक वर्ग ने अल्पसंख्यक वर्ग का वजूद मंजूर नहीं किया। अल्पसंख्यक वर्ग ने खुद को अल्पसंख्यक ही बनाए रखा। अल्पसंख्यक भयंकर विस्फोटक पदार्थ के समान होते हैं। अगर फटे तो सारे राजकीय ढांचे को तहस नहस कर सकते हैं।
अम्बेडकर नहीं होते तो आईन की आयतें इस तरह स्थिर नहीं की जा सकती थीं। नेहरू और अम्बेडकर आधुनिक हिन्दुस्तान तेवर का बनाना चाहते थे। अम्बेडकर का यश उपलों की दीवार नहीं, जिसे धक्के से गिरा दिया जाए। बाबा साहब बुद्ध नहीं, बुद्धिमय बौद्ध थे।
अम्बेडकर का हुनर था कि उन्होंने फेडरल और यूनिटरी शासन प्रबंधों और संविधानों के मर्म को अपनी आलोचनात्मक तथा मौलिक भाषा में भविष्य के आचरण के लिए सिद्ध कर दिया। उन्होंने कहा ‘संविधान सभा में अनुसूचित जातियों के अधिकारों की रक्षा कराने से ज़्यादा बड़े इरादों को लेकर नहीं आया था। सपने में भी भान नहीं हुआ था कि ज़्यादा बड़े कामों को हाथ में लेने आमंत्रित किया जायगा। जब संविधान सभा ने मसौदा समिति में मनोनीत कर फिर उसका सभापति चुना तो मुझे अधिक अचरज हुआ।‘ बाबा साहब का साफ कहना था हिन्दी को एकबारगी पूरे देश की राजकाज की भाषा नहीं बना दिया गया, तो उसका विकास संदिग्ध भी हो सकता है।
अम्बेडकर भी गांधी और नेहरू की तरह केवल दिमागी रोबोट या मशीन नहीं थे। ऐसा नहीं है कि धार्मिक कठमुल्लापन को लेकर अम्बेडकर ने मुसलमान कूपमंडूकता पर विचार व्यक्त नहीं किया। यह अलग बात है कि उनके ऐसे उल्लेख को बीन बीनकर दक्षिणपंथी तत्व संकीर्ण हिन्दुओं का रहनुमा बनाने की निंदनीय कोशिशें करते हैं। यह जानने में रोमांचकारी लगता है कि डाॅ. अम्बेडकर ने ही उद्देशिका में देश के संकल्प को ’ईश्वर के नाम पर’ घोषित करने की अपील की थी। सदन में गर्मागर्म बहस के बाद उनके प्रस्ताव को 41 के मुकाबले 68 वोटों से खारिज कर दिया गया था। यही अम्बेडकर बाद में नास्तिकता के बौद्ध धर्म में अन्तरित हो गए। ‘हम भारत के लोग‘ अभिव्यक्ति के आविष्कारक अम्बेडकर की आत्मा के साए तले बैठकर संविधान बांच रहे हैं। आईन की इबारतों में अम्बेडकर की जेहनियत दर्ज़ है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
ईरान में हिजाब के विरुद्ध इतना जबर्दस्त जन-आंदोलन चल पड़ा है कि मुल्ला-मौलवियों और आयतुल्लाहों की सरकार को घुटने टेकने पड़ गए हैं। उसने घोषणा की है कि वह ‘गश्त—ए-इरशाद’ नामक अपनी मजहबी पुलिस को भंग कर रही है। इस पुलिस की स्थापना 2006 में राष्ट्रपति महमूद अहमदनिजाद ने इसलिए की थी कि ईरानी लोगों से वह इस्लामी कानूनों और परंपराओं का पालन करवाए।
देखिए, ईरान की कथा भी कितनी विचित्र है। सउदी अरब और यूएई जैसे सुन्नी और अरब राष्ट्रों से ईरान की हमेशा ठनी रहती है लेकिन फिर भी वह हिजाब-जैसे सुन्नी और अरबी रीति-रिवाजों को उनसे भी ज्यादा सख्ती से लागू करने पर आमादा रहता है। ईरान तो आर्य राष्ट्र है। उसके शहंशाह को ‘आर्यमेहर’ कहा जाता था। लेकिन ईरान अपने भव्य भूतकाल को भूलकर अब अरबों की नकल करता है और दूसरी तरफ वह अपने शिया होने पर इतना गर्व करता है कि सुन्नी राष्ट्रों का वह इजराइल से भी बड़ा दुश्मन बना हुआ है।
ईरान की इस पोंगापंथी को मैं ईरान में रहकर कई बार देख चुका हूं। वहां सुन्नियों, बहाइयों, वहाबियों और सिखों की हालत तो दयनीय रहती ही है, वहां की इस्लामी सरकारें अपने शिया नागरिकों पर जुल्म करने से भी बाज़ नहीं आती। अभी लगभग दो माह पहले एक कुर्द जाति की युवती महसा अमीनी को इसलिए गिरफ्तार कर लिया गया था कि उसने हिजाब नहीं पहन रखा था। जेल में उसकी हत्या हो गई। सारे ईरान में इतना आंदोलन भडक़ गया जितना कि 1979 में शंहशाहे-ईरान के खिलाफ भडक़ गया था।
एक अनुमान के अनुसार अब तक लगभग 500 लोग मारे गए हैं और सैकड़ों लोग गिरफ्तार हो गए हैं। लोग सिर्फ हिजाब के विरुद्ध ही नहीं बल्कि आयतुल्लाह खामेनई के खिलाफ भी खुलकर बोल रहे हैं। वे इस्लामी शासन के अंत की मांग कर रहे हैं। अगले तीन दिन तक सारे व्यापार और बाजारों को बंद रखने की घोषणा इन आंदोलनकारियों ने कर दी है।
वर्तमान राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी की कुर्सी हिलने लगी है। उन्हें पता है कि शहंशाह को भगाने के लिए ईरानी जनता ने कितने साहस और बलिदान का प्रमाण दिया था। इसीलिए अब इस ‘गश्ते इरशाद’ याने नैतिक पुलिस को भंग करने की घोषणा उनकी सरकार को करनी पड़ी है। सरकार का कहना है कि यह आंदोलन अमेरिका और इजराइल के इशारों पर हो रहा है।
उसकी इस बात पर न तो ईरानी लोग भरोसा करते हैं और न ही अन्य मुस्लिम राष्ट्रों के नागरिक भी! इस आंदोलन में हिजाब तो एक बहाना है। असलियत यह है कि ईरान की जनता, जो शहंशाह के काल में कई मामलों में अत्यंत आधुनिक हो गई थी, अब आयतुल्लाहों के राज में उसका दम घुट रहा है। (नया इंडिया की अनुमति से)
राज्य में पहाड़ी मैना सहित अन्य पक्षियों की जनगणना का प्रथम चरण पूरा
-अनिल अश्विनी शर्मा
छत्तीसगढ़ के राज्य पक्षी पहाड़ी मैना का संरक्षण नहीं किया गया तो यह विलुप्त हो जाएगी। पहाड़ी मैना के संरक्षण के लिए इसकी संख्या जानना भी जरूरी है। इसीलिए छत्तीसगढ़ वन विभाग ने तेजी से कम होती पहाड़ी मैना के प्राकृतिक आवास रहे कांगेर घाटी उद्यान में नवंबर, 2022 के आखिरी हफ्ते में पहले चरण का पक्षी जनगणना कार्य किया गया है। विभाग का कहना है कि यह कार्य भविष्य में भी लगातार जारी रहेगा। पहले चरण की समाप्ति के बाद गणना की प्रारंभिक रिपोर्ट में पहाड़ी मैना की संख्या के बढ़ोतरी के संकेत बताए गए हैं। हालांकि इसके बढ़ने के संकेत पर वन विभाग का दावा है कि पिछले कुछ सालों में उनके द्वारा मैना के पुनर्वास के लिए किए गए कई प्रकार के प्रयासों का ही नतीजा है। गणना के बाद 215 प्रजाति के अन्य पक्षियों की पहचान भी की गई, घाटी में पूर्व में यह संख्या 200 थी। वन विभाग के अनुसार यह गणना राज्य के नक्सल प्रभावित बस्तर जिले में देश भर के 11 राज्यों से आए 56 पक्षी विशेषज्ञों द्वारा किया गया है।
कांगेर घाटी उद्यान के निदेशक धम्मशील गणवीर ने डाउन टू अर्थ को बताया कि हम इस सर्वें में राज्य पक्षी पहाड़ी मैनाओं की संख्या जानने की भी कोशिश की गई है और साथ ही इनकी संख्या को बढ़ाने के लिए क्या किया जा सकता है, इसके उपायों पर भी विचार किया गया। उन्होंने बताया कि पार्क के विभिन्न हिस्सों, जैसे वुडलैंड, वेटलैंड, रिपेरियन फॉरेस्ट और स्क्रबलैंड में पक्षियों के सर्वेक्षण के लिए प्रतिभागियों को अलग-अलग समूहों में बांटा गया था। इस दौरान घने जंगलों में 50 से अधिक पगडंडियों को कवर किया गया। सर्वेक्षण के दौरान स्पॉट-बेलिड ईगल सहित उल्लुओं की नौ प्रजातियों का पता चला। इसके अलावा 10 प्रकार के शिकारी पक्षी, 11 तरह के कठफोड़वा का भी पता चला। ध्यान रहे कि जैव विविधता के लिहाज से यह जगह दुनिया की सबसे समृद्ध जगहों में से एक मानी जाती है। गणवीर ने बताया कि सर्वें में तितलियों की 63 प्रजातियां का भी पता चला।
गहरा काला रंग, नारंगी चोंच और पीले रंग के पैर और कलगी, यह पहचान है पहाड़ी मैना की। वन विभाग के अनुसार पहाड़ी मैना को इंसानों से दूर घने जंगल में रहना पसंद है। लेकिन इंसानों के संपर्क में आने पर ये पक्षी उनकी हूबहू नकल कर सकते हैं। यही कारण है कि इंसानों की नकल करने की कला ने इस पक्षी को पिंजड़े का पक्षी बना दिया है। इन्हें अक्सर बंद पिंजड़े में गैरकानूनी पशु-पक्षी के बाजारों में बिकता हुआ देखा जा सकता है। कांगेर घाटी का घना जंगल पहाड़ी मैना का सबसे पसंदीदा ठिकाना हुआ करता है। छत्तीसगढ़ के कांगेर घाटी के इलाके को 1983 में पहाड़ी मैना के लिए संरक्षित क्षेत्र घोषित किया था। इसके बाद वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम 1972 में वर्ग एक में शामिल इस चिड़िया को छत्तीसगढ़ शासन ने वर्ष 2002 में राजकीय पक्षी का दर्जा दिया। लेकिन 18 साल बीत जाने के बावजूद भी इस पक्षी के अस्तित्व पर अब भी संकट मंडरा रहा है। पक्षी विशेषज्ञों का कहना है कि तोते और कठफोड़वा की तरह ही पहाड़ी मैना को विशाल पेड़ों की खोह में रहना पसंद है। सूखे साल के पेड़ों में कठफोड़वा द्वारा बनाए गए खोह में भी पहाड़ी मैना को रहते देखा जाता है। कांगेर घाटी में ऐसे 14 स्थान हैं जहां ये पक्षी फल लगने वाले मौसम में खाने और रहने के लिए आते हैं। जंगल की कटाई के साथ-साथ वन विभाग द्वारा जंगलों में न के बराबर गश्त की वजह से भी पक्षी की आबादी कम हो रही है। राज्य सरकार ने इनकी संख्या स्थिर रखने के लिए जगदलपुर स्थित संरक्षण केंद्र में पिंजड़े में प्रजनन की कोशिश चल रही है। पहाड़ी मैना भारत के अलावा इस पक्षी को चीन, नेपाल, भूटान, श्रीलंका, इंडोनेशिया, थाईलैंड आदि देशो में भी देखा जा सकता है।
आजादी की लड़ाई का दायरा उतना ही बड़ा है जितना बड़ा इस देश का भूगोल और उसकी संस्कृति। बंगाल की भवानी महतो उस समय भूमिगत क्रांतिकारियों के लिए खाना बनाती थीं जब सूबा विश्व-कुख्यात अकाल से जूझ रहा था। भवानी महतो का काम सिर्फ रसोई में खाना बनाना नहीं बल्कि खेतों में अनाज उपजाना भी था। मुख्यधारा की इतिहास की किताबों में भवानी महतो जैसी स्वतंत्रता सेनानियों के लिए तो जगह नहीं ही है बल्कि वे खुद भी नहीं मानती कि वे आजादी की लड़ाई जैसे किसी आंदोलन का हिस्सा रही हैं, क्योंकि यह उनके सहज जीवन और गृहस्थी से जुड़ा था। जिसे हम आजादी की लड़ाई कह रहे हैं वो उनके लिए बुनियादी काम था। देश की आजादी की कहानी किस तरह जंगलों, गांवों, गृहणियों, किसानों के बीच छुपी हुई है उसे खोजने की कोशिश है पी साईनाथ की किताब ‘द लास्ट हीरोज’। इन संदर्भों का इतिहास जानने के लिए पी साईनाथ से अनिल अश्विनी शर्मा ने बातचीत की।
सवाल: इतिहास की किताबों का नायक कौन होगा यह लिखने वाले पर निर्भर करता है। पिछले दशकों में इतिहास के कई केंद्र उभरे हैं और इतिहास की किताबों में हाशिए पर रखा गया तबका नए इतिहास लेखन की मांग कर रहा है। आप इसे कैसे देखते हैं?
उत्तर: अगर हम इतिहास की किताब पढ़ेंगे तो लगता है कि औपनिवेशिक गुलामी के खिलाफ आजादी की लड़ाई केवल उत्तर भारत में लड़ी गई। लेकिन, पूर्वी भारत में प्लासी युद्ध के तीन साल के अंदर-अंदर ही विद्रोह शुरू हो गया था। आदिवासी लोग ऐसे पहले स्वतंत्रता सेनानी थे जिन्होंने औपनिवेशिक शासन के खिलाफ अपनी शहादत दी। पूर्वी भारत के जंगल महल में चुहाड़ विद्रोह हुआ, यह संघर्ष 1760 से 1806 ई. तक चला। वहीं 1857 के संग्राम के पहले भी संथाल विद्रोह हुआ था। इतिहास की मुख्यधारा की किताब में इन्हें बस छू भर दिया गया है। इन्हें पढऩे और समझने के लिए मुकम्मल जगह नहीं मिली। इतिहास की किताबों में जो स्वतंत्रता सेनानी अगुआई कर रहे हैं उनमें आक्सफोर्ड-कैंब्रिज से आने वाले लोग ही शामिल हैं। वास्तविकता यह है कि स्वतंत्रता की लड़ाई में देश के आमजनों ने संघर्ष किया। उनमें किसान, मजदूर, खानसामा, गृहिणी, कूरियर तक शामिल हैं। इन लोगों ने अपना सब कुछ ताक पर रख कर यह खतरा उठाया था। उनके साथ औपनिवेशिक सत्ता कुछ भी कर सकती थी। हर तरह के अत्याचार से लेकर उनकी हत्या तक हो सकती थी। ये अपने मन की आवाज से ही आजादी की मांग कर रहे थे। इन आम लोगों की चेतना के बिना आजादी की लड़ाई पूरी हो ही नहीं सकती थी। लेकिन इतिहास की किताबों में सिर्फ खास लोगों को जगह मिली।
सवाल: आपकी किताब में औपनिवेशिक आजादी के इतिहास को किस नजरिए से देखा गया है?
उत्तर- आज का युवा क्या पढ़ रहा है? आजादी का 75वां साल सरकार आजादी के अमृत महोत्सव के रूप में मना रही है। लेकिन आप गौर से सरकार की अमृतमहोत्सव की वेबसाइट देखेंगे तो पाएंगे कि वे स्वतंत्रता सेनानी जो आज भी जिंदा हैं उनके बारे में एक शब्द भी नहीं लिखा गया है। सरकारों को भी जिंदा स्वतंत्रता सेनानियों के बारे में पता है लेकिन सब खामोश हैं। मैंने 15 ऐसे स्वतंत्रता सेनानियों से मुकालकात की। लेकिन, सरकारी वेबसाइट में देखिए तो बस प्रधानमंत्री का नाम छाया हुआ है। आप देश के किसी स्कूल या कालेज में जाकर देखें और पूछें कि आजादी की लड़ाई के नायकों के नाम बताएं तो सभी पाठ्यपुस्तकों में पढ़ाए गए चार-पांच नामों की खानापूर्ति कर देंगे। अभी हालात ऐसे हैं कि हमारी नई पीढ़ी आजादी का अमृतमहोत्सव की वेबसाइट देखेगी तो उन्हें यही लगेगा कि प्रधानमंत्री ही हमारे स्वतंत्रता सेनानी हैं। क्या इतिहास ऐसे बनता है? मैं इस बात से चिंतित हूं कि अगले पांच या छह सालों में इस देश की आजादी के लिए लडऩे वाला एक भी व्यक्ति जीवित नहीं होगा। अभी सबसे कम्र उम्र के स्वतंत्रता सेनानी 97 साल के हैं तो सबसे बड़ी उम्र के 104 साल के हैं। युवा भारतीयों की नई पीढ़ी को भारत के स्वतंत्रता सेनानियों से कभी आमने-सामने मिलने, देखने, बोलने या सुनने का मौका नहीं मिलेगा। इसलिए मैंने भारत की इस युवा पीढ़ी के लिए यह पुस्तक लिखी है।
सवाल-किताब के किरदार चुनते वक्त आपकी प्राथमिकता क्या रही?
उत्तर- मैंने पूरी किताब में जितने चरित्रों से बातचीत की हैं उनमें उत्तर, पूर्व, पश्चिम, दक्षिण से लेकर पूर्वोत्तर सभी क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व है। उत्तर भारत से केवल एक ही चरित्र को जानबूझ कर लिया है। किताब में दक्षिण से तीन, पश्चिम से तीन और पूर्व से आठ हैं। पंजाब से भगत सिंह जुग्यान हैं। फिर शोभाराम गहढ़वाल की बात है। कैप्टन बाउ पर आधारित फिल्म युवाओं को दिखाई तो वे रो पड़े कि हमारी आजादी के लिए लोगों ने कैसी कुर्बानी दी है। किताब में बंगाल की भवानी महतो का जिक्र है जो बंगाल के अकाल के समय क्रांतिकारियों के लिए खाने का इंतजाम कर रहीं थीं। आजाद भारत की युवा पीढ़ी को उनके इतिहास से वंचित किया जा रहा है, उन्हें इस बात की कोई जानकारी नहीं है कि आजादी की लड़ाई का दायरा कितना बड़ा है। किन-किन लोगों ने अपना सब कुछ कुर्बान कर देश की आजादी के लिए लडऩा चुना।
प्रश्न- आपने अपनी किताब में भवानी महतो के बारे में बताया है जो अपने पति और उनके साथियों के लिए खाना पहुंचाती थीं जो भूमिगत रहकर अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे थे। यहां हम देखते हैं कि किस तरह एक पूरा परिवार स्वतंत्रता सेनानी होता है। भवानी महतो से जब आप मिले तो उनकी क्या प्रतिक्रिया थी।
उत्तर- उनकी सादगी का यह आलम है कि अपने योगदान को मानती ही नहीं हैं। पश्चिम बंगाल के पुरलिया जिले की भवानी महतो की शादी मात्र नौ वर्ष में हो गई थी। शादी करने के बाद वे अपने स्वतंत्रता सेनानी पति और बीस से अधिक भूमिगत आंदोलनकारियों के लिए ढाई दशक तक खाना बनाती रहीं। इसके साथ ही अपने घर, खेत और मवेशी को भी संभाला। उनसे मैंने पूछा कि आपको भारत छोड़ो आंदोलन से जुड़े होने का श्रेय मिलने पर कैसा लगता है? भवानी महतो ने कहा कि उससे या किसी भी दूसरे आंदोलन से मेरा क्या लेना-देना? भवानी आगे बताती हैं कि उस आंदोलन से मेरा कोई लेना-देना नहीं था, मेरे पति वैद्यनाथ महतो का जरूर था। मैं तो एक बड़े से परिवार की देखभाल करने में बहुत व्यस्त रहती थी। इतने सारे लोगों के लिए मुझे खाना बनाना पड़ता था। मेरा खाना बनाने का काम बढ़ता ही जाता। इसके साथ ही मुझे अपनी खेती व मवेशी भी देखने होते थे। फिर 1940 का दौर था जब बंगाल में भीषण अकाल पड़ा। अब आज आप बंगाल के अकाल के समय की दुर्दशा याद कीजिए और देखिए कि एक स्त्री उतने सारे क्रांतिकारियों के लिए खाने का इंतजाम कर रही है। उसे सिर्फ खाना बनाना नहीं था बल्कि अनाज खेत से उपजाना भी था। और, इन्हें इस बात का इल्म भी नहीं कि वे देश की आजादी की भागीदार हैं।
सवाल: आजादी हासिल हुए 75 साल हो गए हैं। आजाद भारत में स्वाधीनता संग्राम के मूल्यों को किस तरह देखते हैं?
जवाब: औपनिवेशिक लड़ाई का हासिल हमारे भारत के संविधान के सिद्धांतों में मिलता है। स्वतंत्रता संग्राम के बाद ही हमने हमारे संविधान का निर्माण किया। स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व के मूल्य इसमें समाहित हैं। सबके लिए न्याय, आर्थिक और सामाजिक आजादी की बात इसमें की गई है। पिछले दिनों नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ जो स्वत: स्फूर्त नागरिक आंदोलन हुआ वह संविधान के इन्हीं बुनियादी मूल्यों की मांग को लेकर हुआ था। हम तकनीकी रूप से सिर्फ औपनिवेशिक स्वाधीनता हासिल कर पाए हैं। अभी आर्थिक, सामाजिक आजादी हासिल करना बाकी है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अमेरिका ने एक रिपोर्ट अभी-अभी जारी की है। उसके अनुसार दुनिया के 14 देशों में धार्मिक स्वतंत्रता को खतरा है। यह खुशी की बात है कि 14 देशों में भारत का आगे-पीछे कहीं भी नाम नहीं है। हमारे तथाकथित अल्पसंख्यक संप्रदायों के नेता, कांग्रेसी और कम्युनिस्ट लोग इसे अमेरिका की लापरवाही कहेंगे या वे यह मानकर चलेंगे कि अमेरिका ने इन देशों के साथ भारत का नाम इसलिए नहीं जोड़ा है कि वह उसे चीन के विरुद्ध इस्तेमाल करना चाहता है।
इस रपट में रूस, चीन और पाकिस्तान के नामों पर विशेष जोर दिया गया है। यदि अमेरिका ने भारत को चीन के खिलाफ डटाए रखने की इच्छा के कारण ही इस सूची में भारत का नाम नहीं जोड़ा है तो मैं पूछता हूं कि उसमें सउदी अरब का नाम क्यों जोड़ा गया है? सउदी अरब से तो अमेरिका के संबंध काफी घनिष्ट हैं। इसी प्रकार अब वह पाकिस्तान से भी उत्तम संबंध बनाने के अवसर नहीं छोड़ रहा है। जहां तक रूस और चीन का सवाल है, इन दोनों देशों से उसके संबंध तनावपूर्ण हैं लेकिन वहां धार्मिक आजादी के दावों पर सच में अमल नहीं हो रहा है।
‘जिहोवाज विटनेस’ संप्रदाय के लोगों पर रूस में कड़ा प्रतिबंध है। उन्हें कठोर सजाएं भी मिलती रहती हैं जबकि रूस अपने आप को कम्युनिस्ट नहीं, धर्म-निरपेक्ष राष्ट्र कहता है। चीन भी धार्मिक स्वतंत्रता का दावा करता है। उसने बौद्ध, इस्लाम, ताओ, केथोलिक और प्रोटेस्टेंट ईसाई धर्मों को मान्यता दे रखी है लेकिन दस लाख उइगर मुसलमानों को यातना-शिविरों में पटक रखा है और तिब्बती बौद्धों को वहां सदा शक की नजर से देखा जाता है। जहां तक ईरान का सवाल है, वहां कट्टरपंथी शिया आयतुल्लाहों का बोलबाला है। ईरान में सुन्नी, बहाई और पारसी लोगों का जीवन दूभर है।
पाकिस्तान में हिंदू, बहाई, सिख, यहूदी और ईसाइयों का जीना हराम है। सरकारें तो उनके साथ न्याय करना चाहती हैं लेकिन समाज इसके लिए तैयार नहीं है। कई अफ्रीकी और एशियाई देशों में तो अनेकानेक नरम और सख्त धार्मिक प्रतिबंध जारी हैं। दुनिया के लगभग 40-45 देश ऐसे हैं, जिनमें भारत या अमेरिका की तरह धार्मिक स्वतंत्रता नहीं है। भारत में इस धार्मिक स्वतंत्रता का भयंकर दुरुपयेाग भी होता है। हमारे नेता मजहब और धर्म के नाम पर हमेशा थोक वोट कबाडऩे की फिराक में रहते हैं।
इसके अलावा लालच और भय के आधार पर भारत में बड़े पैमाने पर धर्म-परिवर्तन का धंधा भी चला हुआ है। इस छूट का सबसे बड़ा कारण हिंदू धर्म है, जिसमें सैकड़ों परस्पर विरोधी संप्रदाय हैं। एक ही घर में कई संप्रदायों को माननेवाले लोग साथ-साथ रहते हैं और एक-दूसरे को बर्दाश्त भी करते हैं। इसीलिए भारत को उक्त सूची में शामिल नहीं करना सर्वथा उचित दिखाई देता है। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भाजपा कई वर्षों से लगातार वादा कर रही है कि वह सारे देश में सबके लिए निजी कानून एक-जैसा बनाएगी। वह समान नागरिक संहिता लागू करने की बात अपने चुनावी घोषणा-पत्रों में बराबर करती रही है। निजी मामलों में समान कानून का अर्थ यही है कि शादी, तलाक, उत्तराधिकार, दहेज आदि के कानून सभी मजहबों, जातियों और क्षेत्रों में एक-जैसे हों। भारत की दिक्कत यह है कि हमारे यहां अलग-अलग मज़हबों में निजी-कानून अलग-अलग तो हैं ही, जातियों और क्षेत्रों में अलग-अलग से भी ज्यादा परस्पर विरोधी परंपराएं बनी हुई हैं। जैसे हिंदू कोड बिल के अनुसार हिंदुओं में एक पत्नी विवाह को कानूनी माना जाता है लेकिन शरीयत के मुताबिक एक से ज्यादा बीवियाँ रखने की छूट है। भारत के कुछ उत्तरी हिस्से में एक औरत के कई पति हो सकते थे। भारत के दक्षिणी प्रांतों में मामा-भानजी की शादी भी प्रचलित रही है। आदिवासी क्षेत्रों में बहु पत्नी प्रथा अभी भी प्रचलित है। इसी तरह से पति-पत्नी के तलाक संबंधी परंपराएं भी अलग-अलग हैं।
यही बात पैतृक संपत्ति के उत्तराधिकार पर भी लागू होती है। इन सवालों पर संविधान सभा में काफी बहस हुई और नीति निदेशक सिद्धांतों में समान सिविल कोड की बात कही गई लेकिन आज तक किसी केंद्र या प्रादेशिक सरकार की हिम्मत नहीं पड़ी कि सबके लिए एक-जैसा निजी कानून बना दे। अब खुशी की बात है कि उ.प्र., गुजरात, असम और उत्तराखंड की सरकारों के साथ-साथ म.प्र. की सरकार भी समान आचार संहिता लागू करनी की तैयारी कर रही है। वैसे भारत में जन्मे धर्मों- हिंदू, जैन, सिख, बौद्ध आदि मतावंलबियों पर तो यह पहले से लागू है लेकिन ईसाई, मुसलमान, यहूदी आदि विदेशों में जन्मे धर्म के लोग अपने मजहबी कानूनों को ही लागू करने पर अड़े हुए हैं। इसे वे भाजपा की हिंदूकरण की रणनीति ही मानते हैं। ऐसे लोगों से मुझे यही पूछना है कि आप अपने धर्म का पालन करना चाहते हैं या विदेशियों की नकल करना चाहते हैं? क्या इस्लाम, ईसाइयत, यहूदी और पारसी धर्म का पालन तभी होगा, जब हमारे मुसलमान अरबों की, हमारे ईसाई यूरोपियों की, हमारे यहूदी इस्राइलियों की और हमारे पारसी ईरानियों की नकल करें? जब हमारे हिंदुओं ने राजा दशरथ की तीन पत्नियों और द्रौपदी के पांच पतियों को परंपरा को त्याग दिया तो हमारे मुसलमानों को भी डेढ़ हजार साल पुरानी अरबों की पोंगापंथी परंपराओं के अंधानुकरण की क्या जरुरत है?
(नया इंडिया की अनुमति से)
गैस त्रासदी की बरसी पर
डॉ. परिवेश मिश्रा
एक डॉक्टर के रूप में पहली बार किसी मरीज की मृत्य की आधिकारिक घोषणा करने का क्षण उस डॉक्टर की स्मृतियों में मील के पत्थर की तरह स्थापित हो जाए यह स्वाभाविक है। मरीज अबोध शिशु हो, डॉक्टर असहाय खड़े उसे मौत के मुंह में जाते देख रहा हो, चिकित्सीय सहायता तो दूर, डॉक्टर को उस क्षण तक मरीज की बीमारी भी समझ में न आयी हो तो उसके बाकी जीवन में यह स्मृति कितनी पीड़ादायक हो जाती है, इसे मैं समझता हूं। मेरे साथ यह आज ही के दिन हुआ था। अड़तीस वर्ष पहले मैं ही वह डॉक्टर था।
उस दिन की शुरुआत तब हो गयी थी जब रात पूरी बीती नहीं थी। कोई साढ़े तीन - चार बजे जब लगातार होती खटखटाहट ने मुझे नींद से निकल कर दरवाजा खोलने पर मजबूर किया था।
मैं उन दिनों गांधी मेडिकल कॉलेज के एक हॉस्टल में रहता था। कॉलेज के ही कुछ वरिष्ठ प्रोफेसर इन हॉस्टलों के वार्डन थे। किन्तु सिर्फ नाम के। परम्परा रही कि अपने अपने विभाग के किसी डिमॉन्स्ट्रेटर या पी.जी. कर रहे विद्यार्थी को असिस्टेंट वॉर्डन के पद के साथ जिम्मेदारियां सौंपकर सीनियर प्रोफेसर अस्पताल और कॉलेज के अपने काम में व्यस्त हो जाते थे। इनमें से 'ई' ब्लॉक होस्टल इन्टर्नशिप और हाऊस जॉब कर रहे युवा डॉक्टरों के लिए था। रेडियोलॉजी के विभागाध्यक्ष इस हॉस्टल के वॉर्डन थे और चूंकि मैं उनके विभाग में एम.डी. के विद्यार्थी के रूप में अपने टर्म के अन्त के करीब था सो असिस्टेंट वॉर्डन होने के धर्म का निर्वाह कर रहा था।
किन्तु यह सुबह अप्रत्याशित थी। दरवाज़ा खोला तो सामने डॉ. ओ. पी. शर्मा सर को खड़े पाया था। डॉ. ओ. पी. शर्मा ऑर्थोपीडिक्स के विभागाध्यक्ष होने के साथ साथ कॉलेज के डीन भी थे। उन्हें कमरे के सामने देख कर पहले कुछ क्षण शांत खड़े रह कर में मैंने सुनिश्चित किया कि मैं नींद से पूरी तरह बाहर आ चुका हूं। किसी प्रोफेसर को किसी होस्टल में इससे पहले मैंने कभी नहीं देखा था। दिन में भी नहीं।
डॉ. शर्मा का चेहरा बता रहा था कि बात कुछ गंभीर है। उन्होंने उस समय केवल इतना ही कहा कि एक मेजर एमर्जेंसी आन पड़ी है। मरीज अप्रत्याशित रूप से बढ़ रहे हैं और डॉक्टर कम पड़ गये हैं। उन्हे वॉलेन्टियर डॉक्टरों की सख्त जरूरत हैं। उन्होंने मुझे जिम्मा दिया कि सभी कमरों से सोते हुओं को नींद से उठाकर शीघ्र अस्पताल पहुंचूं। अस्पताल याने हमीदिया अस्पताल जो कि हमारे कॉलेज का संबद्ध अस्पताल था।
होस्टल से निकल कर कॉलेज बिल्डिंग पार कर अस्पताल की ओर जाने की दिशा में ढाल है। एक लम्बा कॉरीडोर था जो लगभग पूरे अस्पताल से गुजऱता हुआ दूर तक जाता था। डॉक्टर और मरीज इसी कॉरीडोर का उपयोग करते थे। भवन के बाहर और इस गलियारे के समानांतर एक पक्की सडक़ थी।
उस दिन मेरे पंहुचने तक कॉरीडोर में चलने फिरने की जगह नहीं बची थी इसलिए सडक़ की ओर से आगे पंहुचने का प्रयास किया लेकिन उसमें भी सफलता नहीं मिली। पूरी सडक़ बदहवास लोगों की भीड़ से पटी थी। सडक़ पर लोग जमीन पर लेटे भी थे, बैठे भी थे। मैं आगे बढ़ पाता उसके पहले गोद में एक दो साल के बच्चे को लिए एक व्यक्ति सामने आ गया। साथ में एक महिला थी जो शायद बच्चे की माँ थी। पिता की गोद में बच्चा शांत लेटा था और माँ उसकी आँखों में आई-ड्रॉप्स जैसा कुछ डालते जा रही थी। पिता ने मुझे रोक कर बच्चे की जांच करने का आग्रह किया।
उस रात लगभग डेढ़ बजे भोपाल की यूनियन कार्बाइड फैक्टरी से एक जहरीला गैस लीक हुई थी। कड़ाके की ठंड की उस रात जब सांस लेने में तकलीफ शुरू हुई तो लोगों ने घरों से निकल कर भागना शुरू किया। देखते देखते कोई दो लाख लोग अपने घरों को छोड़ भाग चुके थे। मेरे हॉस्टल के आस-पास रहने वाले भी प्रभावित हुए थे किन्तु उनके बीच हमारे अपेक्षाकृत कम प्रभावित होने का एक कारण था कड़ाके की ठंड। हॉस्टल में रहने वाले युवा छात्र रजाईयां खरीदने में पैसा खर्च करने की अपेक्षा खिड़कियां पूरी तरह से बंद कर इलेक्ट्रिक हीटर से कमरे को गर्म रखने में अधिक विश्वास करते थे (हॉस्टल में बिजली का बिल किसी छात्र से नहीं वसूला जाता था)। बंद खिड़कियों ने हमें गैस से बचाने में मदद की।
घटना के दो तीन घंटों तक किसी को कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि क्या हुआ है और आगे क्या करना है। गैस छूटी है - हवा में बस यही शब्द थे जो तैर रहे थे। गैस कौन सी है और उसकी केमिस्ट्री या एन्टीडोट क्या है इसके बारे में सिर्फ अटकलें थीं। उस समय तक अस्पताल में मरीजों की बाढ़ आना बस शुरू ही हुई थी। जो शुरुआती मरीज आए उनमें लगभग सभी ने आंखों में तेज जलन की शिकायत की थी और तत्काल अस्पताल की ओर से उन्हे आई-ड्रॉप्स दे दिये गये थे। सांस फूलने की शिकायत भी थी लेकिन चूंकि लोग मीलों दूर से दोड़ते भागते आ रहे थे इसलिए किसी संभावित मेडिकल समस्या के रूप में अनेक लोगों का इस तकलीफ की ओर ध्यान नहीं गया। पहले वॉर्ड भरे, फिर गलियारे और मेरे पंहुचने तक मरीज सडक़ पर काबिज होने लगे थे।
उन्ही के बीच यह बच्चा भी था। मेरा हाथ बच्चे की नब्ज़ तक जाता उसके पहले मैने पाया मैं गोद में बच्चे लिए तीन या चार माता-पिता से घिर चुका हूं।
पिता शायद जानता था कि उसकी गोद में जिस बच्चे की आंख में माँ आई-ड्रॉप्स डाले जा रही थी वह बच्चा कब का दम तोड़ चुका था। फिर भी एक डॉक्टर की पुष्टि के बिना शायद वह भी आस नहीं छोडऩा चाहता था। उनकी आस का धागा तोडऩे का दुख मेरे भाग्य में लिखा था।
(बाद में पता चला भोपाल में उस रात (3 दिसम्बर 1984) यूनियन कार्बाइड फैक्टरी से मीथाईल आईसोसायनेट या रूढ्ढष्ट नामक अत्यधिक ज़हरीली गैस का रिसाव हुआ था। पांच लाख लोग इससे प्रभावित हुए। लगभग 2400 मौतें तत्काल हुईं और हज़ारों कुछ समय के बाद। गैस के अनुवांशिक प्रभावों का कष्ट बाद की पीढिय़ों ने भी झेला है।)
-अनिल जैन
गुजरात विधानसभा चुनाव के साथ ही दिल्ली नगर नगर निगम के भी चुनाव कराने का भाजपा का दांव सफल होता दिख रहा है। आम आदमी पार्टी के ज्यादातर नेता गुजरात छोड़ कर दिल्ली आ गए है या दिल्ली आने वाले है। एक तरह से पार्टी ने गुजरात का चुनाव अभियान पूरी तरह से प्रदेश के दो नेताओं गोपाल इटालिया और पार्टी के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार इसुदान गढ़वी पर छोड़ दिया है। पूरी पार्टी का ध्यान अब गुजरात से ज्यादा दिल्ली के चुनाव पर केंद्रित है, क्योंकि पार्टी के लिए दिल्ली जीतना ज्यादा अहम है।
जब तक दिल्ली नगर निगम के चुनाव घोषित नहीं हुए तब तक आम आदमी पार्टी ने अपनी पूरी ताकत गुजरात में झोंक रखी थी। खुद पार्टी सुप्रीमो और दिल्ली और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल लगातार गुजरात के दौरे कर रैलियां और रोड शो कर रहे थे। उनके अलावा पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान और दिल्ली के उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया भी गुजरात का दौरा कर रहे थे। लेकिन अब सब का ध्यान दिल्ली पर केंद्रित है। हालांकि केजरीवाल बीच-बीच में गुजरात भी आ रहे हैं चुनावी सभाओं को संबोधित कर रहे हैं, लेकिन पहले की तरह अब आम आदमी पार्टी के नेता गुजरात में डेरा डाले हुए नहीं हैं।
पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान की भी अब ज्यादा रैलियां और रोड शो दिल्ली में होंगे और वे गुजरात शायद ही आए। गुजरात मे आम आदमी पार्टी के प्रभारी और सह प्रभारी गुलाब यादव और राघव चड्ढा को भी दिल्ली में ही ज्यादा समय बिताना है क्योंकि पार्टी के लिए दिल्ली नगर निगम का चुनाव बहुत अहम हो गया है और उसे यह भी अंदाजा हो गया है कि गुजरात में उसे बहुत ज्यादा हासिल होने वाला नहीं है। सो, ऐसा लग रहा है कि भाजपा अपने मकसद मे कामयाब हो गई है।
दरअसल अरविंद केजरीवाल और उनकी पूरी टीम को गुजरात से निकालने के लिए ही गुजरात विधानसभा के साथ दिल्ली नगर निगम के चुनाव की घोषणा की गई। गुजरात में एक और पांच दिसंबर को मतदान होगा और उसके बीच चार दिसंबर को दिल्ली में नगर निगम की 250 सीटों के लिए वोट डाले जाएंगे।
भाजपा को पता था कि दिल्ली नगर निगम के चुनाव की घोषणा हुई तो केजरीवाल गुजरात छोड़ेंगे क्योंकि उनके लिए दिल्ली नगर निगम बहुत अहम है। हालांकि भाजपा को उनकी जरूरत गुजरात में भी थी। भाजपा चाहती थी कि वे गुजरात में कांग्रेस के कुछ वोटों में सेंध लगा लें ताकि भाजपा आसानी से जीत सके। शुरू में केजरीवाल ने ऐसा करते दिखे भी। केजरीवाल सरकार के विज्ञापनों से उपकृत टीवी चैनलों ने भी माहौल ऐसा ही प्रस्तुत किया कि गुजरात में मुकाबला भाजपा बनाम आम आदमी पार्टी है और कांग्रेस मुकाबले से बाहर है। लेकिन केजरीवाल के हिंदू कार्ड खेलने और मुफ्त सुविधाओं की घोषणा से जब भाजपा को अपने वोटों में सेंध लगती दिखी तो उसने रणनीति बदल दी।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत, चीन और अमेरिका के बीच आजकल जो कहा-सुनी चल रही है, वह बहुत मजेदार है। उसके तरह-तरह के अर्थ लगाए जा सकते हैं। चीनी सरकार के प्रवक्ता ने एक बयान देकर कहा है कि उत्तराखंड में भारत-चीन सीमा पर अमेरिकी और भारतीय सेना का जो ‘युद्धाभ्यास’ चल रहा है, वह बिल्कुल अनुचित है और वह 1993 और 1996 के भारत-चीन समझौतों का सरासर उल्लंघन है। सच्चाई तो यह है कि मई 2020 में चीन ने गलवान-क्षेत्र में अपने सैनिक भेजकर ही उक्त समझौतों का उल्लंघन कर दिया था। वास्तव में भारत-अमेरिका का यह युद्धाभ्यास चीन-विरोधी हथकंडा नहीं है। दोनों राष्ट्र इस तरह के कई युद्धाभ्यास जगह-जगह कर चुके हैं। यह चीन को धमकाने का कोई पैंतरा भी नहीं है। यह तो वास्तव में हिमालय-क्षेत्रों में अचानक आनेवाले भूंकप, बाढ़, पहाड़ों की टूटन, जमीन फटने जैसी विपत्तियों का सामना करने का पूर्वाभ्यास है।
प्राकृतिक संकट से ग्रस्त लोगों की मदद के लिए अस्पताल तुरंत कैसे खड़े किए जाएं, हेलिपेड कैसे बनाए जाएं, पुल और सडक़ें आनन-फानन कैसे तैयार किए जाएं, और घायलों की जीवन-रक्षा कैसे की जाए- इन सब कामों का अभ्यास ये दोनों सेनाएं मिलकर कर रही हैं। यह सब क्रिया-कर्म चीन की सीमा से लगभग 100 मील दूर भारत की सीमा में हो रहा है लेकिन लगता है कि चीन इसीलिए चिढ़ा हुआ है कि अमेरिका के साथ उसके संबंध आजकल काफी कटुताभरे हो गए हैं। यह तथ्य चीनी प्रवक्ता के इस कथन से भी सत्य साबित होता है कि अमेरिका की कोशिश यही है कि भारत और चीन के रिश्तों में बिगाड़ हो जाए। चीन नहीं चाहता कि उसके पड़ौसी भारत के साथ उसके रिश्ते खराब हों।
यदि सचमुच ऐसा है तो चीनी शासकों से पूछा जाना चाहिए कि हिंदमहासागर क्षेत्र में चीन अपने जंगी जहाज क्यों अड़ाए रखता है? वह श्रीलंका, मालदीव, म्यांमार और नेपाल में भी अपना सामरिक वर्चस्व कायम करने की कोशिश क्यों कर रहा है? पाकिस्तान तो चीनी मदद के दम पर ही भारत पर खम ठोकता रहता है। क्या वजह है कि चीन का 2021 का फौजी बजट, जो कि 209 बिलियन डॉलर का था, वह भारत, जापान, दक्षिण कोरिया और ताइवान के कुल बजटों के जोड़ से भी ज्यादा था। चीन का एक तरफ यह कहना कि वह भारत से अपने संबंध अच्छा बनाना चाहता है और दूसरी तरफ वह अपने अमेरिका-विरोधी रवैए को बीच में घसीट लाता है। भारत की नीति तो यह है कि वह अमेरिका और चीन तथा अमेरिका और रूस के झगड़ों में तटस्थ बना रहता है। न तो वह चीन-विरोधी और न ही वह रूस-विरोधी बयानों का समर्थन करता है। अमेरिका से उसके द्विपक्षीय संबंध शुद्ध अपने दम पर हैं। इसीलिए चीन का चिंतित होना अनावश्यक है। (नया इंडिया की अनुमति से)
ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था पर मंडराते संकट के बादलों की कई तात्कालिक वजहें हैं लेकिन इन परिस्थितियों की जड़ में है ब्रेक्जिट का स्थायी और दूरगामी नकारात्मक असर.
डॉयचे वैले पर स्वाति बक्शी तिवारी का लिखा-
ब्रिटेन के सुपर बाजारों से नदारद सामान और खाली रैक अर्थव्यवस्था के बड़े संकट की छोटी तस्वीर दिखा रहे हैं। अंतर्राष्ट्रीय संस्था-आर्थिक सहयोग और विकास संगठन ने हाल ही में कहा है कि दुनिया के सात सबसे अमीर देशों में ब्रिटेन अकेला है जिसकी अर्थव्यवस्था साल 2023 में और सिकुड़ जाएगी। देश की कंजरवेटिव सरकार भले ही इसे पूरी तरह रूस-यूक्रेन युद्ध से जोडक़र दिखा रही है लेकिन अर्थव्यवस्था के कुछ खास क्षेत्रों जैसे खाद्य वस्तुओं की कमी का सीधा संबंध ब्रेक्जिट से है।
करीब दो साल पहले यूरोपीय संघ से विदाई के बाद से ही इस बात की चिंताएं जाहिर की जाती रही हैं कि ब्रिटेन खाद्य संकट के संघर्ष भरे दौर में प्रवेश कर रहा है। सरकारी खर्च में कटौती और टैक्स में बढ़ोतरी के जरिए हालात पर काबू पाने की कोशिशें हो रही हैं लेकिन जानकार मानते हैं कि इस संकट के मूल में अगर कोई एक कारक है तो वो ब्रेक्जिट है।
खाद्य आपूर्ति संकट
दरअसल बाजार से गायब खाद्य सामग्री, ब्रेक्जिट के बाद उपजी सप्लाई चेन से जुड़ी दिक्कतों का मूर्त रूप है। इसमें खाना उगाने से लेकर उसे बाजार तक पहुंचाने की पूरी प्रक्रिया के विविध चरण शामिल हैं। यूरोपीय नागरिकों के लिए ब्रिटेन में रहने और काम करने के नियमों के नये ढांचे ने श्रम-बाजार का संकट खड़ा कर दिया जो लगातार जारी है। इस श्रम-संकट का सबसे ज्यादा असर झेलने वालों में खाने-पीने से जुड़े व्यवसाय जैसे होटल, सामान पहुंचाने की प्रक्रिया में शामिल व्यावसायिक ट्रक ड्राइवर, फल-सब्जियां उगाने वाले उद्योग व किसान शामिल हैं।
ब्रिटेन में खाने-पीने के सामान की आपूर्ति के लिए आयात पर निर्भरता है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक साल 2020 में खाद्य वस्तुओं के करीब 46 फीसदी हिस्से का आयात हुआ। यूरोपियन यूनियन ब्रिटेन का सबसे बड़ा व्यापारिक साझीदार है। खासकर फल-सब्जियों और मांस का आयात यूरोपीय देशों से होता आया है।
यूरोपीय संघ की एकीकृत बाजार व्यवस्था से बाहर आने के बाद से ही सीमा पार ट्रकों की आवाजाही की दिक्कतों ने खाद्य सामान का संकट पैदा किया। कोविड के दौरान ड्राइवरों की भयंकर कमी और ब्रेक्जिट के बाद कागजात की बदली जरूरतों ने हालात को और जटिल बनाया। ब्रिटेन के भीतर सामान पहुंचाने के लिए जरूरी ड्राइवरों की संख्या जरूरत से तकरीबन एक लाख कम है। यानी सामान को बाजारों तक पहुंचने की प्रक्रिया में तगड़ी दिक्कतें हैं।
खेतीहर कामगारों की कमी
वीजा व्यवस्था में हुए बदलावों ने खेतीहर कामगारों का भी बड़ा संकट पैदा किया है जिसका बुरा असर फल-सब्जियों की खेती पर हुआ है। उदाहरण के लिए नर्म फलों को चुनने के लिए यूरोपीय कामगारों पर परंपरागत निर्भरता के चलते तुरत-फुरत में देसी मानवीय संसाधन जुटाना संभव नहीं है। इसी तरह मांस से जुड़े व्यवसायों में कसाइयों समेत मांस प्रसंस्करण से जुड़े कामगारों की बेहद कमी दर्ज की गई। कोविड के दौरान यूरोपीय कामगार अपने देश वापस चले गए और वापसी में आड़े आया महामारी के साथ ब्रेक्जिट के नियम-कायदों का नया दौर।
सितंबर 2021 में एक गैर-सरकारी संगठन इंस्टिट्यूट फॉर गवर्नमेंट के एक कार्यक्रम में ब्रिटेन की फूड ऐंड ड्रिंक एसोसिएशन के प्रमुख इयन राइट ने चेताया था कि ब्रिटेन की खाद्य आपूर्ति चेन में करीब 5 लाख कामगारों की कमी है। सीमाओं पर पहले जहां व्यापारिक संबंधों में आसानियां थीं वहां अब लालफीताशाही और कानूनों का बोलबाला है। यूरोपियन यूनियन से लोगों को नौकरी पर रखना अब आसान नहीं है। सीमाएं पार कर काम ढूंढने की स्वतंत्रता के साथ ही अब यूरोपीय नागरिकों के लिए भी, अन्य देशों के नागिरकों की तरह अंग्रेजी भाषा ज्ञान और तनख्वाह के मानकों की कसौटी लागू होती है। वर्तमान संकट की जड़ में ये सब अहम कारक हैं।
रूस-यूक्रेन युद्ध ने पहले से ही पस्त अर्थव्यवस्था पर ऊर्जा संकट का बोझ डालकर हालात को इतना चिंताजनक बना दिया कि नए प्रधानमंत्री ऋषि सुनक के सत्ता संभालते ही सरकारी खर्च में कटौती के कायदे-कानून लागू करने की नौबत पैदा हो गई।
ब्रेक्जिट पर सरकारी चुप्पी
आर्थिक दिक्कतें ब्रिटेन की यूरोपीय संघ से विदाई के नकारात्मक असर के सूबूत भले ही दे रही हों लेकिन सरकार उस पर जुबान खोलने को तैयार नहीं है। ऋषि सुनक और चांसलर जेरमी हंट लगातार इस बात पर जोर देते रहे हैं कि ब्रिटेन का घरेलू संकट दरअसल वैश्विक संकट का असर है लेकिन विशेषज्ञों की राय अलग है। ब्लूमबर्ग टीवी को दिए एक इंटरव्यू में बैंक ऑफ इंग्लैंड की वित्तीय नीति कमेटी के पूर्व सदस्य माइकल सॉन्डर्स ने कहा कि ‘ब्रेक्जिट की वजह से ब्रिटेन को सरकारी खर्च में कटौती के दौर में प्रवेश करना पड़ रहा है। ब्रिटिश अर्थव्यवस्था को ब्रेक्जिट की वजह से स्थायी आघात पहुंचा है।’
चाहे पक्ष हो या विपक्ष, इस बहस को हवा देने का जोखिम कोई उठाने को तैयार नहीं है। चांसलर हंट ने नवंबर में अपने संसदीय भाषण में तमाम आर्थिक दिक्कतों और लोगों के दैनिक-जीवन पर उसके असर का जिक्र करते हुए सिर्फ एक बार ब्रेक्जिट का नाम लिया। इससे पहले लेबर पार्टी ने सितंबर महीने में ये साफ किया कि पार्टी का इरादा यूरोपीय संघ के बाहर ब्रिटेन के लिए एक सकारात्मक दृष्टि पैदा करना है। लेबर नेता पीटर काइल ने ब्रेक्जिट पर पूछे गए एक सवाल के जवाब में जोर देकर कहा कि ‘नकारात्मकता पर ध्यान लगाने, उसमें डूबे रहने से चुनाव नहीं जीता जा सकता’।
कुल मिलाकर ब्रिटेन में पैदा हुए आर्थिक संकट को ब्रेक्जिट से ना जोडऩे की रणनीतिक मजबूरी के पीछे पार्टियों की भीतरी राजनीति भी है। अगर ये बहस दोबारा छिड़ती है तो सत्ता और विपक्ष दोनों के भीतर गुटबाजी और उथल-पुथल मचने की पूरी आशंका है। हालांकि सरकारी खामोशी का मतलब ये नहीं कि लोगों की राय नहीं बदली है। गैर-सरकारी संगठन यूगव के ताजा सर्वेक्षण के नतीजे बताते हैं कि ब्रेक्जिट के हक में वोट करने वाले हर पांच में से एक व्यक्ति को अब लगता है कि उसका फैसला गलत था।
ब्रिटेन में ‘बीती ताहि बिसार दे' कि नीति पर चलने की चाहे जितनी कोशिश की जा रही हो लेकिन पटरी से उतरी अर्थव्यवस्था आखिरकार सिर्फ नंबरों का खेल नहीं है। ब्रेक्जिट पर बहस हो या ना हो, उसकी कीमत आम इंसान हर दिन चुका रहा है। (dw.com)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
लोकतंत्र में सभी नेताओं और दलों को स्वतंत्रता होती है कि यदि वे करना चाहें तो हर किसी की आलोचना करें लेकिन आजकल नेता लोग एक-दूसरे की निंदा करने और नकल करने में नए-नए प्रतिमान कायम कर रहे हैं। राहुल गांधी को देखकर लगता है कि नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी भाई-भाई हैं। हालांकि दोनों के बौद्धिक स्तर में ज्यादा फर्क नहीं है लेकिन मोदी के आलोचक भी मानते हैं कि राहुल के मुकाबले मोदी बहुत अधिक प्रभावशाली वक्ता हैं। वे जो बात भी कहते हैं, वह तर्कसंगत और प्रभावशाली होती है जबकि राहुल का बोला हुआ लोगों की समझ में ही नहीं आता। कई बार राहुल के मुंह से ऐसी बातें निकल जाती हैं, जो कांग्रेस पार्टी की परंपरागत नीति के विरुद्ध होती हैं। फिर भी राहुल की हरचंद कोशिश होती है कि वह मोदी के विकल्प की तरह दिखने लगें। राहुल ने मोदी की तरह अपनी दाढ़ी बढ़ा ली है। और बिल्कुल मोदी की तरह धोती लपेटकर मूर्ति के आगे साष्टांग दंडवत करना, पूजा-पाठ करना तिलक कढ़वाना और प्रसाद खाना वगैरह की अदाएं ऐसी लगती हैं कि जैसे कोई नेता मोदी की प्रामाणिक नकल कर रहा है।
एक तरफ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर खुलकर प्रहार करना ताकि मुस्लिम वोट थोक में पट सकें और दूसरी तरफ उज्जैन के महाकाल जैसे मंदिर में जाकर लेट जाना ताकि भाजपा के हिंदू वोटों में सेंध लग सके लेकिन भारत के आम लोग भी क्या इन नौटंकियों की असलियत को नहीं समझते हैं? क्या आपको याद पड़ता है कि कभी आपने नेहरु जी और अटलजी जैसे बड़े नेताओं को ऐसी नौटंकी करते देखा है? राहुल तो राजनीति के कच्चे खिलाड़ी हैं लेकिन कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडग़े को आप क्या कहेंगे? उन्होंने मोदी की तुलना रावण से कर दी है और वह भी कहां? गुजरात में और वह भी एक चुनावी सभा में। अच्छा हुआ कि राहुल का बड़ा दौरा गुजरात में नहीं हुआ। वरना पता नहीं कि वहां वे क्या गुल खिलाते?
सोनिया गांधी ने मोदी को मौत का सौदागर कह दिया था। उसका नतीजा सामने आ गया। मोदी की आलोचना करते वक्त यदि कांग्रेसी नेता अपने तर्को, तथ्यों और शब्दों पर जऱा ध्यान दें तो लोग उनकी बात सुनेंगे जरुर लेकिन दुर्भाग्य है कि देश के एकमात्र अखिल भारतीय दल के पास आज न तो कोई प्रभावशाली वक्ता है और न ही सम्मानीय नेता है। राहुल की भारत जोड़ो यात्रा से भारत कितना जुड़ रहा है, कुछ पता नहीं लेकिन अर्धमृत हुए कांग्रेसी कार्यकर्ताओं में कुछ उत्साह का संचार जरुर हुआ है। राहुल अगर यह समझ ले कि मोदी की नकल उसे अखबारों और टीवी चैनलों पर प्रचार तो दिलवा सकती है लेकिन नेता नहीं बनवा सकती तो कांग्रेस का ज्यादा भला होगा। राहुल को नकल से नहीं, अकल से काम लेना होगा। तभी कांग्रेस का बेड़ा पार हो सकेगा। (नया इंडिया की अनुमति से)