विचार / लेख
-अपूर्व गर्ग
वैलेंटाइन डे क्या ?
सिर्फ़ प्रेम का इज़हार और हँसी ख़ुशी के पल
इस पर भी जिस समाज में लट्ठ चले, तनाव पैदा किया जाए समझ लीजिये भावना शून्य ही नहीं असहनशील होता जा रहा है वो समाज.
वैलेंटाइन डे तो दूर की बात हास्य- परिहास और सेंस ऑफ़ ह्यूमर ख़तम होता जा रहा.
गांधी ने कहा था कि 'सेंस ऑफ़ ह्यूमर' के बिना मैं आत्महत्या कर लेता ...मुझे नहीं पता आज संसद से लेकर सड़क तक जब 'सेंस ऑफ़ ह्यूमर' की चिड़िया विलुप्त हो चुकी है , तब आज गाँधी जी होते तो क्या करते !!
जवाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा में लिखा है- 'जिसने महात्माजी की हास्य मुद्रा नहीं देखी, वह बेहद कीमती चीज़ देखने से वंचित रह गया है.'
बर्मिंघम के बिशप ने एक बहस के दौरान गाँधीजी से कहा था 'मैं तो दिन भर में केवल एक घंटे शारीरिक काम करता हूं और बाकी वक्त बौद्धिक काम में लगा
रहता हूं.' इस पर गांधीजी ने हंसते हुए कहा, 'मैं जानता हूं. लेकिन अगर सभी लोग बिशप बन जाएंगे तो आपका धंधा ही चौपट हो जाएगा.'
गांधीजी के सैकड़ों किस्से हैं बड़ा कमाल का सेंस ऑफ़ ह्यूमर था गांधीजी का . सिर्फ़ गांधीजी ही नहीं नेहरूजी का इतिहास भी जोरदार सेंस ऑफ़ ह्यूमर के किस्सों का है.
दरअसल, सेंस ऑफ़ ह्यूमर इंसान के ज़िंदा होने यानी ज़िंदादिली का सबूत है और गाँधी -नेहरू पूरे ज़िंदा दिल थे.
पी.डी .टंडन बताते है किसी पार्टी में नेहरूजी ने देखा एक व्यक्ति की प्लेट नॉन वेग से लबा -लब भरी है .नेहरूजी खुद को रोक नहीं पाए उसके पास गए और धीमे से कहा 'प्यारे दोस्त, ये जीव तो बेचारे मरे हुए हैं, इन्हे थोड़ा-थोड़ा, चैन से खाइये, ये भाग कर कहीं नहीं जा रहे हैं.'
लाल बहादुर वर्मा सर ने सेंस ऑफ़ ह्यूमर की ज़रूरत पर बहुत सुंदर टिप्पणी करी है. वो लिखते हैं, वास्तव में सेंस ऑफ़ ह्यूमर मानसिक ही नहीं शारीरिक स्वास्थ्य के लिए भी बेहद ज़रूरी है. कम्युनिस्ट बनने के लिए दो बातें बेहद ज़रूरी हैं सेंस ऑफ़ बैलेंस और सेंस ऑफ़ ह्यूमर.
वैसे दक्षिण पंथियों में भावनाएं ही नहीं हैं तो हास्य बोध क्या होगा पर आजकल नयी वाम पीढ़ी भी सेंस ऑफ़ ह्यूमर की 'डेफिशियेंसी' से अच्छी खासी जूझ रही है.
भैया मेरे,
इंसान का रूप पाना ही पूर्णता नहीं है, इंसान की तरह पूरे गुण भी होने चाहिए वर्ना गांधीजी का कहा मान लो. सेंस ऑफ़ ह्यूमर इंसानों में होना ही चाहिए वर्ना खाना पीना, सोना और क्रोधित होना तो जानवर भी जानता है ...जस्ट चिल यार..
अब देखिये एक गर्म सुबह पंतजी इलाहबाद में उठते हैं और बच्चनजी पर सारी गर्मी निकाल कर मज़े लेते हुए 1-5-64 को लिखते हैं-
''आशा है सपरिवार प्रसन्न हो. तुम्हारे नौकर चले गए दुःख है. कहो तो अपनी बुढ़िया को भेज दूँ, वह तुम्हे पालना भी झुलाएगी और दूध की शीशी भी भरकर तुम्हारे मुँह पर लगा देगी ......''
पाकिस्तान पर विजय के बाद जिस सभा में अटलजी ने इंदिरा गाँधी को नवदुर्गा कहा था उसी में बच्चन जी इंदिरा जी से यह कहने से न चूके ---
''उस की बेटी ने उठा रक्खी है दुनिया सर पर
यह तो अच्छा हुआ अँगूर के बेटा न हुआ''
गोरखपुर के हिंदी साहित्य सम्मलेन में सभापति गणेश शंकर विद्यार्थी जी ने बनारसी दास चतुर्वेदी से मज़ाक कर कहा 'अरे भाई, तुमने ये क्या घासलेट का झगड़ा खड़ा कर दिया है.'
न चूकते हुए चतुर्वेदीजी ने कहा-- "एक औरत थी. उसने नया कंगन बनवाया. किसी ने पूछा भी नहीं! बस उसने अपनी झोपड़ी में आग लगा दी. और हाथ उठा - उठाकर आग बुझाने के लिए चिल्लाने लगी.
लोग बुझाने आये... एक ने पूछा तुमने ये कंगन कब बनवाया? उस औरत ने कहा अगर ये तुम पहले ही पूछ लेते तो झोपड़ी में आग क्यों लगती ?'
सो आप पहले ही पूछ लेते तो यह घासलेट आंदोलन क्यों खड़ा होता?
यह सुन कर विद्यार्थी जी खूब खिल-खिलाकर हँसते रहे .."
तो भाइयों,
ज़िंदा हैं तो ज़िंदा दिली रखिये . इंसान हैं तो इंसानियत रखिये और सेंस ऑफ़ ह्यूमर इंसानियत का आवश्यक लक्षण है .ज़िंदगी ज़िंदा-दिली का है और आपका हास्य बोध दूसरों को भी ज़िंदा रखता है, भूलिए मत..
'दिलों में ज़ख़्म होंठों पर तबस्सुम
उसी का नाम तो ज़िंदा-दिली है'