विचार / लेख

श्रवण गर्ग लिखते हैं- लता मंगेशकर यानी ख़ुशबू के शिलालेख पर लिखी प्रकृति की कविता
07-Feb-2022 2:39 PM
श्रवण गर्ग लिखते हैं- लता मंगेशकर यानी ख़ुशबू के शिलालेख पर लिखी प्रकृति की कविता

लताजी पर मैंने कोई बीस-इक्कीस वर्ष पहले एक आलेख लिखा था। अवसर था इंदौर में ‘माई मंगेशकर सभागृह ‘के निर्माण का। उसमें मैंने लताजी के साथ उसके भी सोलह वर्ष पूर्व(1983) इंदौर की एक होटल में तब उनके साथ हुई भेंटवार्ता का जिक्र किया था। उस आलेख का शीर्षक दिया था ‘खुशबू के शिलालेख पर लिखी हुई प्रकृति की कविता’। आलेख की शुरुआत कुछ इस तरह से की थी- ‘लता एक ऐसी अनुभूति हैं जैसे कि आप पैरों में चंदन का लेप करके गुलाब के फूलों पर चल रहे हों और प्रकृति की किसी कविता को सुन रहे हों।’ अपने बचपन के शहर इंदौर की उनकी यह आखिरी सार्वजनिक यात्रा थी। (वे बाद में कोई पंद्रह साल पहले स्व.भय्यू महाराज के आमंत्रण पर उनके आश्रम की निजी आध्यात्मिक यात्रा पर इंदौर आईं थीं)। इंदौर और उसका प्रसिद्ध सराफा बाजार उनकी यादों में हमेशा बसा रहता था जिसका कि वे मुंबई में भी जिक्र करती रहती थीं।

वर्ष 1983 की इस मुलाकात के बाद लताजी से फोन पर कोई बारह-तेरह साल पहले बात हुई थी। तब मैंने ‘दैनिक भास्कर’ के एक आयोजन में समारोह में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया था और उन्होंने अपने खराब स्वास्थ्य का हवाला देते हुए असमर्थता व्यक्त कर दी थी। उनकी 1983 की इंदौर यात्रा कई मायनों में अविस्मरणीय कही जा सकती है। मैं तब ‘नई दुनिया’ हिंदी दैनिक को छोड़ देने के बाद अंग्रेजी दैनिक ‘फ्री प्रेस जर्नल’ के साथ काम कर रहा था।

लताजी तब इंदौर के एकमात्र अच्छे होटल श्रीमाया में ठहरी हुईं थीं। मैं उनके साथ जिस समय चर्चा कर रहा था, उनके नाम के साथ जुडक़र होने जा रहे लता मंगेशकर समारोह का तब के बहुत बड़े कांग्रेस नेता स्व.सुरेश सेठ विरोध कर रहे थे। सेठ साहब का विरोध लताजी के प्रति नहीं बल्कि समारोह के आयोजक समाचार पत्र (नई दुनिया) के प्रति था। सेठ साहब का विरोध अपनी चरम सीमा पर था। होटल के बाहर काफी हलचल थी। खासा पुलिस बंदोबस्त था। अर्जुन सिंह तब प्रदेश के मुख्यमंत्री थे। सेठ साहब (शायद) उनकी सरकार में वरिष्ठ मंत्री भी थे।

बहरहाल, श्रीमाया होटल के अपने छोटे से कमरे में प्रशंसकों से घिरी हुईं स्वर साम्राज्ञी के चेहरे पर बाहर जो कुछ चल रहा था उसके प्रति कोई विक्षोभ नहीं था। मन अंदर से निश्चित ही दुखी हो रहा होगा। मैं सवाल पूछता गया और वे अपनी चिर-परिचित मुस्कान के साथ जवाब देती रहीं। वे जब तक जवाब देतीं, सोचना पड़ता था कि अगला प्रश्न क्या पूछा जाए। लताजी को जैसे पहले से ही पता चल जाता था कि आगे क्या पूछा जाने वाला है। वे जानतीं थीं कि दुनिया भर के पत्रकार एक जैसे ही सवाल पूछते हैं। प्रत्येक साक्षात्कार का पहला सवाल भी यही होता है कि आपको यहाँ (इंदौर) आकर कैसा लग रहा है ?

इतने वर्षों के बाद सोचता हूँ कि इंदौर की बेटी को उसके शहर में आकर कैसा लगा होगा, क्या यह भी कोई पूछने की बात थी? शायद इसलिए थी कि उन्हें अपने ही गृह-नगर में इस तरह के विरोध की उम्मीद नहीं रही होगी। और निश्चित ही डरते-डरते पूछा गया आखिरी सवाल भी वही था जो उनसे लाखों बार पूछा गया होगा-‘आप पर आरोप लगता रहता है कि आप नई गायिकाओं को आगे बढऩे का मौका नहीं देतीं?’ चेहरे पर कोई शिकन नहीं। हरेक सवाल का जवाब वैसे ही दे दिया जैसे किसी ने निवेदन कर दिया हो कि अपनी पसंद का कोई गाना या भजन गुनगुना दीजिए। और फिर एक खिलखिलाहट, पवित्र मुस्कान जिसके सामने आगे के तमाम प्रश्न बिना पूछे ही खत्म हो जाते हैं।

भारत के ख्यातिप्राप्त क्रांतिकारी कवि, साहित्यकार और अपने जमाने की प्रसिद्ध पत्रिका ‘कर्मवीर’ के सम्पादक पंडित माखनलाल चतुर्वेदी से मैं उनके निधन (30 जनवरी,1968) के पहले खंडवा में जाकर मिला था। वे उन दिनों वहाँ एक अस्पताल में भर्ती थे। बातों ही बातों में उन्होंने लताजी का जिक्र किया। उनका कहना था कि ‘ईथर वेव्ज’ के रूप में लता (जी) आज हमारे चारों ओर उपस्थित हैं। उनके कहने का आशय था कि हमारे हृदय में अगर रेडियो की तरह कोई रिसीवर हो तो हम चौबीसों घंटे हर स्थान पर सुनते रह सकते हैं। स्वर साम्राज्ञी के प्रति इससे बड़ा सम्मान और क्या हो सकता था!

थोड़े दिनों बाद उक्त वार्ता मैंने माखनलालजी के अभिन्न सहयोगी रहे प्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार स्व. रामचंद्र जी बिल्लोरे को इंदौर में सुनाई। वे तब इंदौर क्रिश्चियन कॉलेज में हिंदी के विभागाध्यक्ष थे। डॉ. बिल्लोरे ने लताजी के प्रति माखनलाल जी के स्नेह और सम्मान का एक और प्रसंग याद करके मुझे बताया-
‘दादा (माखनलालजी) के बैठक कक्ष में दीवार पर दो तस्वीरें लगी हुईं थीं। इनमें एक महात्मा गांधी की थी और दूसरी किसी अन्य महापुरुष की थी। एक स्थान खाली था। दादा से पूछा गया कि खाली स्थान पर वे किसकी तस्वीर लगाएँगे तो उन्होंने जवाब दिया था कि लता मंगेशकर की।’
मराठी के प्रसिद्ध साहित्यकार विजय तेंडुलकर ने लताजी के बारे में एक बार कहा था-‘लडक़ी एक रोज गाती है। गाती रहती है-अनवरत। यह जगत व्यावहारिकता पर चलता है, तेरे गीतों से किसी का पेट नहीं भरता। फिर भी लोग सुनते ही जा रहे हैं पागलों की तरह।’
और लताजी गाए ही जा रही हैं-बिना रुके ,बिना थके। और लोग सुनते ही जा रहे हैं, पागलों की तरह। (सप्रेस)

 

अन्य पोस्ट

Comments

chhattisgarh news

cg news

english newspaper in raipur

hindi newspaper in raipur
hindi news