विचार/लेख
(1) पंजाब हाईकोर्ट ने 1951 तथा इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 1959 में राजद्रोह को असंवैधानिक घोषित किया। लेकिन केदारनाथ सिंह बनाम बिहार राज्य मामले में 1962 में सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की संविधान पीठ ने राजद्रोह को संवैधानिक कह दिया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा किसी कानून की एक व्याख्या संविधान के अनुकूल प्रतीत होती है और दूसरी संविधान के खिलाफ। तो न्यायालय पहली व्याख्या के अनुसार कानून को वैध घोषित कर सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने 1960 में दि सुपिं्रटेंडेंट प्रिज़न फतेहगढ़ विरुद्ध डाॅ. राममनोहर लोहिया प्रकरण में भी पुलिस की यह बात नहीं मानी थी कि किसी कानून को नहीं मानने का जननेता आह्वान भर करे। तो उसे राजद्रोह की परिभाषा में रखा जा सकता है। बलवंत सिंह बनाम पंजाब राज्य प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट ने खालिस्तान जिंदाबाद नारा लगाने के कारण आरोपियों को राजद्रोह के अपराध से मुक्त कर दिया था। कानून की ऐसी ही व्याख्या बिलाल अहमद कालू के प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट द्वारा की गई।
(2) सबसे चर्चित मुकदमे केदारनाथ सिंह के 1962 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के कारण राजद्रोह का अपराध भारतीय दंड संहिता की आंतों में छुपकर नागरिकों को बेचैन और आशंकित करता थानेदारों को हौसला देता रहता है। बिहार की फाॅरवर्ड कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य केदारनाथ ने कांग्रेस पर भ्रष्टाचार, कालाबाज़ार और अत्याचार सहित कई आरोप बेहद भड़काऊ भाषा में लगाए थे। पूंजीपतियों, जमींदारों और कांग्रेस नेताओं को उखाड़ फेंकने के लिए जनक्रांति का आह्वान भी किया। निचली अदालत और हाईकोर्ट से केदारनाथ को राजद्रोह के अपराध में एक साल की सजा दी गई। मामला आखिरकार सुप्रीम कोर्ट की संविधान बेंच तक पहुंचा। उसमें कई और लंबित पड़े मुकदमे भी जुड़ गए, ताकि राजद्रोह के अपराध की संवैधानिकता पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा एकबारगी सम्यक परीक्षण किया जा सके। चुनौतियां दी गई थीं कि राजद्रोह का अपराध पूरी तौर पर असंवैधानिक होने से उसे बातिल कर दिया जाए। केदारनाथ सिंह के प्रकरण ने सरकारों के प्रति नफरत फैलाने और सरकार के खिलाफ हिंसक कृत्यों के लिए भड़काए जाने की दोनों अलग अलग दिखती मनोवैज्ञानिक स्थितियों की तुलना की। बेंच ने राजद्रोह नामक अपराध की बहुत व्यापक परिभाषाओं में उलझने के बदले कहा कि भड़काऊ मकसदों, उद्देश्योें या इरादों से संभावित लोकशांति, कानून या व्यवस्था के बिगड़ जाने या हिंसा हो जाने की जांच की।
(3) लंबे विचार विमर्श के बाद राजद्रोह के अपराध को दंड संहिता से निकाल फेंकने की अपील पर सुप्रीम कोर्ट ने इन्कार कर दिया। केदारनाथ सिंह ने तो यहां तक कहा था कि सीआईडी के कुत्ते बरौनी के आसपास निठल्ले घूम रहे हैं। कई कुत्ते-अधिकारी बैठक में शामिल हैं। भारत के लोगों ने अंगरेज़ों को भारत की धरती से निकाल बाहर किया है, लेकिन कांग्रेसी गुंडों को गद्दी सौंप दी। आज ये कांग्रेसी गुंडे लोगों की गलती से गद्दी पर बैठ गए हैं। यदि हम अंगरेज़ों को निकाल बाहर कर सकते हैं, तो कांग्रेसी गुंडों को भी निकाल बाहर करेंगे। अन्य कई पहले के फैसलों को भी साथ साथ पलटते सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि चाहे जिस प्रणाली की हो, प्रशासन चलाने के लिए सरकार तो होती है। उसमें उन लोगों को दंड देने की शक्ति भी होनी चाहिए जो अपने आचरण से राज्य की सुरक्षा और स्थायित्व को नष्ट करना चाहते हैं। ऐसी दुर्भावना इसी नीयत से फैलाना चाहते हैं जिससे सरकार का कामकाज और लोक व्यवस्था बरबाद हो जाए। सुप्रीम कोर्ट ने अपने ही कुछ पुराने मुकदमों पर निर्भर करते कहा कि राजद्रोह की परिभाषा में ‘राज्य के हित में‘ नामक शब्दांश की बहुत व्यापक परिधि है। उसकी अनदेखी नहीं की जा सकती। ऐसे किसी कानून को संवैधानिक संरक्षण मिलना ही होगा। सुप्रीम कोर्ट ने कहा यह अपराध संविधान के अनुच्छेद 19 (2) के तहत राज्य द्वारा सक्षम प्रतिबंध के रूप में सुरक्षित समझा जा सकता है।
(4) केदारनाथ सिंह से अलग सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने लोहिया के प्रकरण में इसके उलट आदेश दिया था। पिछली पीठ के चार जज इसी दरमियान रिटायर हो चुके थे। जानना दिलचस्प है कि केदारनाथ सिंह के प्रकरण में सुुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने संविधान सभा द्वारा राजद्रोह की छोड़छुट्टी का तथ्य भी उल्लिखित नहीं किया। इसके और पहले 1951 में सुप्रीम कोर्ट ने रमेश थापर की पत्रिका ‘क्राॅसरोड्स‘ और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुख्य पत्र ‘आर्गनाइज़र‘ में क्रमषः मद्रास और पंजाब की सरकारों द्वारा प्रतिबंध लगाने के खिलाफ बेहतरीन फैसले दिए थे। उनके कारण नेहरू मंत्रिपरिषद को संविधान में संषोधन करते हुए अभिव्यक्ति पर प्रतिबंध लगाने के आधारों को संशोधित करना पड़ा था। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राजद्रोह का अपराध ‘राज्य की सुरक्षा‘ ‘लोकव्यवस्था‘ की चिंता करता हुआ बनाया गया है। इसलिए उसे दंड संहिता से बेदखल नहीं किया जा सकता। यह भी समझना होगा कि कानूनसम्मत सरकार अलग अभिव्यक्ति है। उसको चलाने वाले अधिकारियों को सरकार नहीं माना जा सकता। सरकार कानूनसम्मत राज्य का दिखता हुआ प्रतीक है। सरकार ध्वस्त हो गई तो राज्य का अस्तित्व ही संकट में पड़ जाएगा। इस लिहाज़ से राजद्रोह को दंड संहिता की परिभाषा में रखा जाना मुनासिब होगा, बशर्ते ऐसा कृत्य अहिंसक हो। क्रांति वगैरह की गुहार में हिंसा के तत्व की अनदेखी नहीं की जा सकती। सरकार के खिलाफ कितनी ही कड़ी भाषा का इस्तेमाल करते उसके प्रति भक्तिभाव नहीं भी दिखाया जाए, तो उसे राजद्रोह नहीं कहा जा सकता। जनभावना को हिंसा के लिए भड़काने और लोकव्यवस्था को ऐसे कृत्यों द्वारा खतरे में डालने की स्थिति में ही राजद्रोह के अपराध की संभावना मानी जा सकती है।
(5) दरअसल केदारनाथ सिंह के प्रकरण में बहुत बारीक व्याख्या करने के बावजूद मौजूदा परिस्थितियों में अंगरेजों के जमाने के इस आततायी कानून को जस का तस रखे जाने में संविधान को भी असुविधा महसूस होनी चाहिए। रमेश थापर के प्रकरण में मद्रास सरकार ने कम्युनिस्ट पार्टी को ही अवैध घोषित कर उस विचारधारा से जुड़ी पत्रिका ‘ क्राॅसरोड्स‘ के वितरण पर इसलिए भी प्रतिबंध लगा दिया था कि पत्रिका नेहरू की कड़ी आलोचना करती थी। ‘आर्गनाइज़र‘ के खिलाफ दिल्ली के मुख्य आयुक्त ने यह आदेश दिया था कि उन्हें सभी सांप्रदायिक नस्ल की खबरें और खतरे को पाकिस्तान से जुड़े समाचारों को स्क्रूटनी के लिए भेजना होगा।
-ओम थानवी
सुरेखा (वर्मा) सीकरी नहीं रहीं। अखबार में पहले पन्ने पर खबर देखकर अच्छा लगा। लेकिन मायूसी भी हुई कि उन्हें महज फिल्म-टीवी की अभिनेत्री के रूप में समझा गया। राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार का जिक्र हुआ। संगीत नाटक अकादमी सम्मान का नहीं। न किसी अभिनीत नाटक का।
यह ठीक है कि परदे पर भी उन्होंने अपने अभिनय की अमिट छाप छोड़ी। बालिका वधू ने अन्य अभिनेत्रियों के लिए एक लकीर खींच दी। मगर सुरेखाजी मुंबई बहुत बाद में गईं। रंगकर्म तो उन्होंने आधी शती से भी पहले अपना लिया था।
अलीगढ़ से बीए कर वे साठ के दशक में दिल्ली आईं। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) में इब्राहिम अलकाजी की छाया में अभिनय की दीक्षा ली। सुधा (शर्मा) शिवपुरी ने संस्थान छोड़ा तब उत्तरा बावकर और सुरेखा सीकरी आग हुईं। हालाँकि (हेमा सिंह बताती हैं) सुरेखाजी को ‘स्कूल’ में सीमित अवसर मिले।
1968 में वे एनएसडी से ‘पासआउट’ हुईं और स्वतंत्र मंच पर सक्रिय हो गईं। 1972 में रमेश बक्षी के नाटक देवयानी का कहना है (निर्देशक राजेंद्र गुप्ता) से उन्हें विशेष पहचान मिली। आइफैक्स में हुआ था वह मंचन। अलकाजी देखने आए। अपनी अभिनेत्री को रंगमंडल (एनएसडी रेपर्टरी कंपनी) लिवा लाए, जहां सुरेखाजी को अपार शोहरत मिली। 1987 तक वे वहीं रहीं। सिनेमा-टीवी के बुलावे वहीं रहते आए।
रेपर्टरी में उनकी प्रतिभा का जलवा बुलंदी पर था। मैंने सबसे पहले उन्हें वहीं रिहर्सल करते देखा। फिर कुछ नाटक भी देखे। तुगलक वागीश भाई की मेहरबानी से मुश्किल से मिले ‘टिकट’ पर देख सका। (उन दिनों मैं भी रंगकर्म से गहरे जुड़ा था)। रेपर्टरी में लुक बैक इन ऐंगर और आधे-अधूरे से सुरेखाजी की ख़ूब धाक जमी। फिर मुख्यमंत्री, संध्याछाया, जसमा ओडन, तुगलक, आठवाँ सर्ग, बीवियों का मदरसा, महाभोज, कभी न छोड़ें खेत, चेरी का बगीचा ... सुरेखा सीकरी आगे बढ़ती चली गईं।
उन्होंने कुछ नाटकों का अनुवाद भी किया था। इनमें तीन टके का स्वाँग (बेर्टोल्ट ब्रेष्ट का थ्री पैनी ओपेरा) तो जर्मनी के प्रसिद्ध रंगकर्मी फ्रिट्ज बेनेविट्ज ने दिल्ली में निर्देशित किया।
आज सुबह एनएसडी के पूर्व निदेशक देवेंद्रराज अंकुर से लम्बी बात हुई। वे और सुरेखाजी स्कूल के दिनों के साथी रहे। रंगमंडल में निर्मल वर्मा की कहानियों पर आधारित तीन एकांत अंकुरजी ने ही निर्देशित किया था; वीकेंड में सुरेखाजी का अभिनय था। अंकुरजी भी इससे हैरान लगे कि एक सिद्ध रंगमंच अभिनेत्री के बुनियादी योगदान को कितना जल्दी भुला दिया जा रहा है।
मैं भाग्यशाली हूँ कि मैंने सुरेखाजी को मंच पर अभिनय करते, चरित्रों को जीते हुए करीब से देखा। काश मीडिया को रंगमंच की भी कुछ खबर रहा करे।
-रमेश अनुपम
पिछली कड़ी में मुझसे एक चूक हो गई थी।
मैंने पिछली कड़ी में लिखा था कि सन् 1922 में आर्थिक अभाव के कारण ‘कर्मवीर’ को बंद करना पड़ा। वस्तुत: ‘कर्मवीर’ का प्रकाशन सन् 1924 में बंद हुआ, लेकिन सन् 1925 में उसे पुन: खंडवा से प्रारंभ किया गया।
सन् 1922 में आर्थिक अभाव तथा कर्ज के चलते ‘कर्मवीर’ के प्रकाशन में संकट के बादल जरूर लहराने लगे थे और स्थिति काफी विषम हो चुकी थी। ‘कर्मवीर’ का प्रबंधक मंडल इसके लिए तत्कालीन संपादक माखनलाल चतुर्वेदी को दोषी मान रहा था। नए संपादक की खोज शुरू हो गई थी ।
इसलिए सन् 1922 में ‘कर्मवीर’ का संपादन का दायित्व माधवराव सप्रे के सुझाव पर कुलदीप सहाय को सौंपा गया। कुलदीप सहाय उन दिनों जबलपुर में आयकर निरीक्षक के पद पर कार्य कर रहे थे। ठाकुर छेदीलाल और ई राघवेंद्र राव उनके मित्र थे, उनकी सलाह पर ही उन्होंने सरकारी नौकरी छोडक़र ‘कर्मवीर’ का संपादक पद स्वीकार कर लिया था।
इस तरह कुलदीप सहाय के संपादन और माधवराव सप्रे के कुशल निर्देशन में जबलपुर से ‘कर्मवीर’ का प्रकाशन सन 1924 तक निरंतर होता रहा।
बाद में 4 अप्रैल सन 1925 में माखनलाल चतुर्वेदी ने पुन: इसका प्रकाशन खंडवा से प्रारंभ किया।
माधवराव सप्रे ने देहरादून में सन् 1924 में 9 नवंबर से प्रारंभ तीन दिवसीय हिंदी साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता की। देहरादून से वे लखनऊ होते हुए वापस रायपुर लौटे।
रायपुर लौटकर वे पुन: स्वाधीनता आंदोलन के काम में जुट गए। पंडित रविशंकर शुक्ल माधवराव सप्रे के अनन्यतम प्रशंसक थे, उनके साथ वे भी राष्ट्रीय स्वाधीनता का अलख जगाने के लिए छत्तीसगढ़ के अनेक नगरों की यात्राएं करने लगे थे।
रायपुर में माधवराव सप्रे आनंद समाज लाइब्रेरी में भी नियमित रूप से आया जाया करते थे। रायपुर में सन् 1902 में स्थापित आनंद समाज लाइब्रेरी से वे प्रारंभ से ही अभिन्न रूप से जुड़े हुए थे।
सन् 1925 से उनका स्वास्थ्य निरंतर गिरता चला गया। अनेक चिकित्सकों को दिखाने के बाद भी उनके स्वास्थ्य में सुधार के लक्षण दिखाई नहीं दे रहे थे। जीवन के अंतिम दिनों में उन्हें ज्वर रहने लगा, आंव और दस्त से भी वे परेशान रहने लगे।
मात्र पचपन वर्ष की उम्र में 23 अप्रैल सन् 1926 को रायपुर में हिंदी नवजागरण के इस अग्रदूत का निधन हो गया।
‘छत्तीसगढ़ मित्र’, ‘हिंदीग्रंथ माला’, ‘हिंदी केसरी’ और ‘कर्मवीर’ जैसी पत्रिकाओं के संपादक और प्रकाशक, ‘दासबोध’, ‘महाभारत मीमांसा’, ‘श्रीमद्भगवद्गीता रहस्य’ जैसी कृतियों के अनुवादक, श्री जानकी देवी महिला पाठशाला और रामदासी मठ के संस्थापक माधवराव सप्रे सदा-सदा के लिए अनंत में विलीन हो गए। छत्तीसगढ़ का एक उज्ज्वल नक्षत्र कहीं सुदूर अंतरिक्ष में खो गया।
मेरे मन में एक सवाल बार बार उठता है कि पूरी दुनिया में छत्तीसगढ़ का नाम रोशन करने वाले माधवराव सप्रे के लिए इस युवा राज्य ने क्या किया है ?
सन 1900 में ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ की कल्पना ही अपने आपमें किसी महान घटना से कम नहीं है। सन् 1900 में छत्तीसगढ़ शब्द का प्रयोग ही बहुत बड़ी बात थी ।
‘छत्तीसगढ़ मित्र’ के पहले ही अंक में जो नियमावली प्रकाशित की गई है उसमें क्रमांक 3 में लिखा गया है :
‘छत्तीसगढ़ विभाग में विद्या की वृद्धि करने के लिए, विद्यार्थियों को द्रव्य की सहायता पहुंचाने के लिए और हिंदी भाषा की उन्नति करने के लिए यथामति तन मन धन से प्रयत्न करना यही इस पुस्तक के प्रकाशकों का उद्देश्य है।’
आज से एक सौ बीस पूर्व एक परतंत्र देश के छत्तीसगढ़ जैसे एक अविकसित अंचल में ज्ञान के प्रचार प्रसार को महत्व देने वाले, विद्यार्थियों को द्रव्य की सहायता पहुंचाने की बात करने वाले, हिंदी भाषा की उन्नति का स्वप्न देखने वाले माधवराव सप्रे आज छत्तीसगढ़ में ही उपेक्षित हैं।
राज्य के इकलौते पत्रकारिता विश्वविद्यालय में उनके नाम से एक पीठ की स्थापना और एक स्कूल का नामकरण उनके नाम पर करने के अतिरिक्त हमारे इस राज्य ने और क्या किया है।
कम से कम राज्य के इकलौते पत्रकारिता विश्वविद्यालय का नाम तो उनके नाम पर रखा जा सकता था,पर नहीं रखा गया ।
उनके शिष्य माखनलाल चतुर्वेदी के नाम पर मध्यप्रदेश में एक पत्रकारिता विश्वविद्यालय और दूसरे शिष्य पंडित रविशंकर शुक्ल के नाम पर रायपुर में विश्वविद्यालय हैं, पर गुरु के नाम पर कुछ भी नहीं है।
पूरे छत्तीसगढ़ राज्य में माधवराव सप्रे की एक भी मूर्ति ढूंढने से भी कहीं नहीं मिलेगी। इसे क्या कहा जाए, छत्तीसगढ़ राज्य का दुर्भाग्य या और कुछ।
माधवराव सप्रे की कहानी ‘एक टोकरी भर मिट्टी’ को प्रथम हिंदी कहानी का दर्जा दिलवाने वाले तथा जीवनपर्यंत उनकी रचनाओं को ढूंढ़-ढूंढक़र रचनावली के रूप में प्रकाशित करवाने का स्वप्न देखने वाले श्री देवी प्रसाद वर्मा बच्चू जांजगिरी अब इस संसार में नहीं हैं।
अच्छा तो यह होता कि राज्य सरकार उनके द्वारा संपादित रचनावली के प्रकाशन की ओर ध्यान देती। कम से कम यही इस सरकार की एक उपलब्धि होती ।
माधवराव सप्रे की एक मुकम्मल जीवनी लेखन के काम पर भी अगर सरकार ध्यान दे तो यह बेहतर कार्य होगा, जिससे आने वाली पीढ़ी देश के इस महान सपूत के बारे में बेहतर ढंग से जान पाएगी।
अगले सप्ताह माधवराव सप्रे पर केंद्रित माखनलाल चतुर्वेदी की एक दुर्लभ कविता।
(बाकी अगले हफ्ते)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार से अपील की है कि वह राजद्रोह के कानून को अब खत्म करे। भारतीय दंड संहिता की धारा 124-ए अंग्रेजों ने बनाई थी ताकि किसी भी सत्याग्रही पर बगावत या आतंक का आरोप लगाकर उसे जेल में ठूंस दिया जाए। गांधीजी पर भी यह लागू हुई थी। इसी धारा को आधार बनाकर अंग्रेज सरकार ने बाल गंगाधर तिलक को म्यांमार की जेल में निर्वासित कर दिया था। इस धारा का इस्तेमाल स्वतंत्र भारत में अब भी जमकर इस्तेमाल होता है।
अंग्रेज तो चले गए लेकिन यह धारा नहीं गई। इस धारा के तहत 2014 से 2019 तक 595 लोग गिरफ्तार किए गए लेकिन उनमें से सिर्फ 10 लोगों को दोषी पाया गया। इसी तरह की एक धारा हमारे सूचना-कानून में भी थी। इस धारा 66 ए को कई साल पहले सर्वोच्च न्यायालय ने रद्द कर दिया था लेकिन पुलिस अपनी आदत से मजबूर है। वह इसी धारा के तहत लोगों को गिरफ्तार करती रहती है। ये धाराएं भारतीय लोकतंत्र का कलंक हैं।
अभिव्यक्ति की आजादी की हत्या है। हाल ही में पत्रकार विनोद दुआ, आंध्रप्रदेश के दो टीवी चैनलों और मणिपुर के पत्रकार वांगखेम को भी राजद्रोह में आरेाप में फंसाने की कोशिश की गई थी। यदि कोई व्यक्ति किसी नेता या उसकी सरकार के खिलाफ कोई अश्लील, हिंसा-उत्तेजक, दंगा भड़काऊ या अपमानजनक बयान दे या लेख लिखे तो उसके खिलाफ कानूनी कार्रवाई के लिए दर्जनों तरीके हैं लेकिन ऐसे किसी काम को राजद्रोह कह देने का अर्थ क्या है ? इसका अर्थ यही है कि हमारे नेता अपने को राजा या बादशाह समझ बैठते हैं। जो जनता के सेवक हैं, वे यदि मालिक बन बैठें तो इसे क्या आप लोकतंत्र कहेंगे ?
सत्ता पक्ष का विरोध करना विपक्ष का राजधर्म है। इस पर यदि आप विपक्षियों को गिरफ्तार कर लेते हैं तो इसका अर्थ क्या हुआ ? आप लोकसेवक नहीं, आप राजा हैं। राजा के खिलाफ बोलना राजद्रोह हो गया। इस तरह के कानूनों का जारी रहना यह सिद्ध करता है कि भारत अब भी औपनिवेशिक मानसिकता में जी रहा है। इस कानून पर पुनर्विचार करने की राय अगस्त 2018 में विधि आयोग ने भी भारत सरकार को दी थी। इस बार सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस पर मोहर लगा दी है।
लेकिन एटार्नी जनरल (सरकारी वकील) ने इस कानून की उपयोगिता सिद्ध करने के लिए कई तर्क पेश किए। सरकार की चिंताएं वाजिब हैं लेकिन उनका समाधान इस कानून के बिना भी हो सकता है। आजादी के बाद देश में बनी सरकारों में लगभग सभी राष्ट्रीय पार्टियां रही हैं। उनमें से किसी की भी हिम्मत नहीं हुई कि इस कानून को खत्म करे तो क्यों नहीं हमारा सर्वोच्च न्यायालय ही इसे असंवैधानिक घोषित कर दे?
(नया इंडिया की अनुमति से)
-डाॅ. लखन चौधरी
देश के पचास करोड़ से उपर मध्यमवर्गीय परिवारों के लिए 'कोविड महामारी’ एक नई संकट, नई त्रासदी का सबब बनती जा रही है। 'महंगाई’ के रूप में एक नई मुसीबत बनकर मध्यमवर्गीय परिवारों के सामने जीवन-यापन की नई-नई चुनौतियां खड़ी कर चुकी है। कोरोना कालखण्ड की महंगाई न सिर्फ मध्यमवर्गीय परिवारों की आर्थिक स्थिति को खोखला कर रही है, बल्कि इन करोड़ों मध्यमवर्गीय परिवारों का 'मध्यमवर्गीय दर्जा’ ही खत्म कर चुकी है। नये-नये अनुसंधान बता रहे हैं कि कोरोना कालखण्ड में उपजी महंगाई की मार से देश के एक-तिहाई मध्यमवर्गीय परिवार ’मध्यमवर्ग से निम्नवर्ग’ में शिफ्ट हो चुके हैं।
रसोई गैस, डीज़ल, पेट्रोल, खाने के तेल, दाल, अनाज, लोहा, सीमेंट, बिजली सामान, खाद, बीज, उर्वरक, दवाईयां, पढ़ाई-लिखाई से जुड़ी वस्तुएं यानि जीवनयापन के सारे जरूरी सामानों की कीमतें लगातार एवं बेतहाशा बढ़ीं हैं, और बढ़ रहीं हैं। इसका सबसे दुर्भाग्यपूर्णं पहलू यह है कि इसकी सर्वाधिक मार मध्यमवर्ग पर पड़ी एवं लगातार पड़ रही है। सरकार कोरोना महामारी के सारे खर्चे एवं बोझ अप्रत्यक्ष करों के द्वारा मध्यमवर्ग पर डालती जा रही है। अर्थव्यवस्था को हुई भारी भरकम नुकसान की भरपाई की जिम्मेदारी मध्यमवर्ग के उपर ऐसे डाल दी गई एवं डाली जा रही है, जैसे कि देश को बचाने एवं बनाने की जिम्मेदारी मध्यमवर्ग की है। जबकि कोरोना कालखण्ड की आपदा को अवसर में बदल कर कमाने का ठेका चंद कारपोरेट घरानों के लिए सुरक्षित कर दिया गया है। आपदा को अवसर के रूप में विदोहन करने के लिए इन चंद कारपोरेट घरानों को सरकार द्वारा बाकायदा खुली छूट दे दी गई है। लोग मर रहे हैं, मगर इनकी संपत्तियां बेहिसाब बढ़ती जा रहीं हैं।
कोरोना कालखण्ड का सबसे बड़ा सवाल, जो अब उठने लगा है कि क्या राष्ट्र निर्माण का बोझ एवं राष्ट्र निर्माण की जिम्मेदारी केवल मध्यमवर्ग की है ? क्या सरकार की जवाबदेही केवल आंकड़ों की सियासत करना है ? क्या सरकार हर सवाल के जवाब में पिछले 70 सालों का हिसाब मांग कर अपनी जिम्मेदारी से बच सकती है ? क्या कोरोना आपदा से निपटने में हुई नाकामी के लिए नेहरू-कांग्रेस की पुरानी सरकारें जिम्मेदार हैं ? कांग्रेस को घेरने के और भी मुद्दे हैं या हो सकते हैं, लेकिन सरकार के समर्थक एवं नुमाइंदे बार-बार पिछली कांग्रेस सरकार को कोस कर क्या साबित करना चाहते हैं, कि मोदी सरकार कोरोना संकट से निपटने में बुरी तरह असफल नहीं रही है ? अब तो सरकार के समर्थकों द्वारा बाकायदा कहा जाने लगा है कि आखिर विकास एवं राष्ट्र निर्माण का खर्च जनता ही तो वहन करेगी। सरकार यदि पेट्रोल-डीज़ल के दाम कम नहीं कर रही है तो सरकार इस पैसे को राष्ट्र निर्माण के लिए ही तो खर्च कर रही है।
यदि ऐसा है तो मध्यमवर्ग को सरकार से शिकवा-शिकायत नहीं करना चाहिए ? आखिरकार सरकार ने राष्ट्र निर्माण जैसे महान कार्यों की जिम्मेदारी मध्यमवर्ग के कंधे पर डाला है, तो इसके पीछे कोई सोची-समझी वजह होगी ? सरकार की इस सोची-समझी वजह को विपक्ष यदि मध्यमवर्ग की नपुंसकता समझ रही है तो शायद यह सही नहीं है ? मध्यमवर्ग की चेतना कोरोना महामारी के बाद भी यदि जाग नहीं पा रही है तो इसकी भी कोई वजह होगी। रोजी-रोटी की जद्दोजहद से जनता बाहर निकले, तभी कुछ सोच-समझ पायेगी। अभी तो स्थिति यह है कि जनता रोजी-रोटी, दवाई-ईलाज एवं महंगाई जैसी रोजमर्रा की चुनौतियों से ही बाहर निकल नहीं पा रही है। फिर जनचेतना कहां से आएगी ? मजे की बात यह है कि सरकार यही तो चाहती है, जनता रोजमर्रा की इसी जद्दोजहद में फंसी रहे।
विश्व की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी का दंभ भरने वाली दल की सरकार अब ’जनहित’ जैसे सरेाकारों से अपना वास्ता अलग कर चुकी है, अब पार्टी की प्राथमिकता राष्ट्रहित, देशहित पहले है, वरना रोज इस तरह के गैर जरूरी, अतार्किक एवं अनैतिक निर्णय नहीं लिये जाते। गांधी-नेहरू की तुलना एवं नेहरु-गांधी परिवार के नाम पर देश में निरर्थक बहसबाजी के बहाने जनमानस को गुमराह करने के प्रयास नहीं होते। देश के जिस मध्यमवर्ग ने इस दल को इतना बड़ा विशाल जनादेश दिया उसे ही खत्म करके सरकार क्या करना चाहती है ? आज शायद इस सरकार को ही मालूम नहीं है।
शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, बिजली, सड़क, पानी, सुरक्षा जैसे बुनियादी मसलों पर काम करने के लिए सरकार बनाई जाती है। मंदिर-मस्जिद, गाय, गोबर, गौमूत्र, तीन तलाक, स्वदेशी, चीन-पाक, सर्जिकल स्ट्राईक, धर्म-जाति जैसे मसलों को हवा देकर सियासत करते रहने के लिए नहीं। विकास की रोज नई-नई बेतुकी परिभाषा गढ़ कर विकास यात्राएं निकालने से तरक्की एवं प्रगति नहीं होती है। विकास के नाम पर तमाम तरह के दिखावे, प्रदर्शन किये जा रहे हंै। विकास को समझाने, दिखाने एवं बताने के लिए हजारों करोड़ के विज्ञापन दिये जा रहे हैं। जनता के खूनपसीने की कमाई आयकर के पैसे को फिजूलखर्ची में बर्बाद किया जा रहा है। याद रहे, विकास के एजेंडे पर काम करने के लिए ठोस नीतियों, कार्यक्रमों, योजनाओं एवं सच्ची नियत की जरूरत होती है, जो इस वक्त इस सरकार के पास दिखती नहीं है।
अर्थव्यवस्था को कोरोना संकट की त्रासदियों से बाहर निकालने के लिए सरकार को प्रत्यक्ष कर ढ़ांचें में फेरबदल करनी चाहिए, और सरकार अप्रत्यक्ष करों में बेतहाशा बढ़ोतरी करके मध्यमवर्ग पर कर का बोझ-भार बढ़ाती जा रही है। राष्ट्र निर्माण के लिए मध्यमवर्ग की बलि मांगने या मध्यमवर्ग की बलि चढ़ाने वाली सरकार भूल रही है कि राष्ट्र केवल भौगोलिक पहचान या अस्तित्व भर नहीं होती है। राष्ट्र लोगों का प्रतिनिधित्व करती है, राष्ट्र में लोगों की आत्माएं बसती हैं, राष्ट्र में लोग निवास करते हैं। एक दूरदर्शी, सम्यक एवं समावेशी सोच से राष्ट्र का निर्माण होता है। जो मध्यमवर्ग विकास, बदलाव एवं परिवर्तन का वाहक, सूत्रधार एवं अगुआ होता है, सरकार इस समय उसे ही खत्म करने में लगी है।
आस्कर वाइल्ड ने बहुत सही कहा है कि ’प्रजातंत्र का सीधा सादा अर्थ है कि प्रजा के डंडे को प्रजा के लिए, प्रजा की पीठ पर तोड़ना।’ इस समय सरकार के कामकाज से यही चरितार्थ होता दिखता है। सरकार राष्ट्र निर्माण का बोझ एवं भार मध्यमवर्ग के कंधे पर डालकर जहां अपनी जिम्मेवारी से बचना चाहती है, वहीं अपनी जायज, जरूरी एवं सार्थक भूमिका में नदारत दिखती है।
-आर. के. विज
हाल ही में, सुप्रीम कोर्ट ने ‘पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज’ (पीयूसीएल) द्वारा दायर एक याचिका पर सुनवाई करते हुए आश्चर्य व्यक्त किया कि छह साल पहले, सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) अधिनियम, 2000 की धारा 66ए को असंवैधानिक घोषित करने के बावजूद पुलिस द्वारा आपराधिक मामले दर्ज किये जा रहे हैं। पीयूसीएल ने अपनी जनहित याचिका में इस बात पर प्रकाश डाला कि वर्ष 2015 से राज्यों द्वारा ऐसे 1,307 मामले दर्ज किए गए हैं और इसलिए अदालत को पुलिस द्वारा प्राथमिकी दर्ज करने के खिलाफ दिशा-निर्देश जारी करने चाहिए।
आईटी अधिनियम की धारा 66ए को सुप्रीम कोर्ट द्वारा ‘श्रेया सिंघल बनाम् भारत संघ’ (2015) में संपूर्ण रूप से असंवैधानिक घोषित करते हुए कहा गया था कि यह धारा, संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) का उल्लंघन है और अनुच्छेद 19 (2) के अंतर्गत इसका बचाव नहीं होता। कोर्ट ने यह भी कहा कि धारा 66ए में इस्तेमाल किए गए शब्द/भाव पूरी तरह से अपरिभाषित थे और इस प्रकार अस्पष्टता की वजह से शून्य। इसलिए, एक बार यदि कानून के किसी भी प्रावधान को असंवैधानिक घोषित कर दिया जाता है तो पुलिस द्वारा ऐसी धारा के तहत प्राथमिकी दर्ज नहीं की जा सकती।
इससे पहले वर्ष 1983 में, भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 303, जिसमें आजीवन सजा के दोषी द्वारा हत्या के लिए मृत्युदंड का प्रावधान था, को ‘मिठू बनाम पंजाब राज्य’ में सुप्रीम कोर्ट द्वारा मनमाना होने के कारण असंवैधानिक करार दिया गया था। कोर्ट ने कहा कि सजा तर्कसंगत सिद्धांत पर आधारित नहीं थी क्योंकि दोषी के लिये न्यायिक विवेक उपलब्ध नहीं था।
‘नवतेज सिंह बनाम् भारत संघ’ (2018) में, सुप्रीम कोर्ट ने आईपीसी की धारा 377 (अप्राकृतिक अपराधों से संबंधित) में कहा कि यह धारा जहाँ तक समान लिंग के वयस्कों के बीच सहमति से यौन आचरण को अपराध बनाती है, असंवैधानिक थी।
इसी तरह, ‘जोसेफ शाइन बनाम् भारत संघ’ (2018) में, सुप्रीम कोर्ट द्वारा आईपीसी की धारा 497 के तहत व्यभिचार को स्पष्ट रूप से मनमाना, भेदभावपूर्ण और महिला की गरिमा का उल्लंघन माना गया और असंवैधानिक करार दिया गया।
नि:संदेह, इन धाराओं के तहत पुलिस द्वारा प्राथमिकी दर्ज करना अवैधानिक है और सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों का उल्लंघन है। हालांकि, मेरा मानना है कि इस तरह के मामले जानबूझकर दर्ज नहीं किए गए हैं, थाना प्रभारियों की लापरवाही पर जल्द रोक लगानी चाहिए। अनुविभाग स्तर पर पर्यवेक्षी पुलिस अधिकारियों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि यदि पुलिस द्वारा थाना स्तर पर ज्ञान की कमी के कारण ऐसी धाराएं लगायी जाती हैं तो उन्हें जल्द-से-जल्द हटा दिया जाये। पुलिस अधीक्षक को गलती करने वाले अधिकारी की जिम्मेदारी तय करनी चाहिए और सुधारात्मक कार्रवाई करनी चाहिए क्योंकि लापरवाही के लिए जिम्मेदार अधिकारी न केवल अवमानना के लिए न्यायालय के प्रति जवाबदेह होगा बल्कि विभागीय कार्रवाई के लिए भी उत्तरदायी होगा। बार-बार चेतावनी के बावजूद अगर थाना प्रभारी और पर्यवेक्षक अधिकारी अपने तरीके नहीं बदलते हैं, तो उनकी वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट, प्रतिकूल प्रविष्टियों से प्रभावित हो सकती है। आईपीसी में नई जोड़ी गई धारा 166ए के तहत भी कार्रवाई शुरू की जा सकती है जो कानून के तहत निर्देशों की अवहेलना करने पर दो साल तक की सजा का प्रावधान करती है। इस प्रकार, दंडात्मक प्रावधानों की कोई कमी नहीं है, जिन्हें लापरवाह अधिकारियों के खिलाफ इस्तेमाल में लाया जा सकता है।
असंवैधानिक धाराओं के तहत अपराधों के पंजीकरण से बचने का सबसे अच्छा तरीका है कि सभी रैंक के पुलिस अधिकारियों को उनके बुनियादी प्रशिक्षण संस्थानों में ऐसे प्रावधानों के बारे में पढ़ाया जाए। दूसरा, जैसा कि भारत के महान्यायवादी केके वेणुगोपाल द्वारा सलाह दी गई है, कि यह विशेष रूप से ‘कोष्ठक में उल्लेख कर दिया जाये की प्रावधान समाप्त कर दिया गया है’, ताकि उन धाराओं के तहत प्राथमिकी दर्ज न हो।
तीसरा, आईटी एक्ट की धारा 66ए और आईपीसी की अन्य असंवैधानिक धाराओं को क्राइम क्रिमिनल ट्रैकिंग नेटवर्क एंड सिस्टम्स (सीसीटीएनएस) में निष्क्रिय किया जा सकता है ताकि सिस्टम में इन धाराओं के तहत एफआईआर दर्ज न हो सके। भारत सरकार की मिशन मोड परियोजना सीसीटीएनएस पिछले कई वर्षों से सभी राज्यों में लागू है। राज्य ऑन-लाईन मोड या ऑफ-लाइन मोड में सीसीटीएनएस में एफआईआर दर्ज कर रहे हैं। सीसीटीएनएस तब भी बहुत काम आया जब सुप्रीम कोर्ट ने 2016 में राज्यों को अपराध पंजीकरण के 24 से 72 घंटों के भीतर आधिकारिक वेबसाइटों पर एफआईआर अपलोड करने का निर्देश दिया था। हमने, छत्तीसगढ़ में, अब इन असंवैधानिक धाराओं को सिस्टम में ही अक्षम कर दिया है। अन्य राज्य भी इसी प्रकार अनुसरण कर सकते हैं।
इस प्रकार पुलिस को यह सुनिश्चित करना होगा कि असंवैधानिक धाराओं के तहत कोई प्राथमिकी दर्ज न हो और थाना प्रभारी की लापरवाहीपूर्ण कार्रवाई के लिए किसी को परेशान न होना पड़े।
(लेखक छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी है और ये उनके निजी विचार है।)
पहले 200 यूनिट की चिंता न करें और खूब बिजली फूंकें. सभी राजनीतिक दल चुनावों से पहले मुफ्त बिजली के वादे कर रहे हैं. मुफ्त बिजली की राजनीति, भारत को अंधकार की तरफ धकेल सकती है.
डॉयचे वैले पर ओंकार सिंह जनौटी की रिपोर्ट
सबको मुफ्त बिजली या हर छत में सौर ऊर्जा को बढ़ावा देना और बिजली की तारों को भूमिगत करना? पहला विकल्प राजस्व को भारी नुकसान पहुंचाता है. कर्ज लेकर, नया टैक्स लगाकर या किसी और जरूरी सेवा के बजट में कटौती कर इसकी भरपाई करनी पड़ती है. चुनाव हारने पर इसका खर्च नई सरकार से सिर फूटेगा. साथ ही अच्छी बिजली सप्लाई के लिए जरूरी इंफ्रास्ट्रक्चर विकसित करने पर भी इसका असर पड़ सकता है.
दूसरा विकल्प यानि, बिजली की तारों को भूमिगत करना और सौर ऊर्जा को बढ़ावा देना. ये खर्चीला है लेकिन इससे गंदी हवा के लिए कुख्यात हो चुके तमाम शहरों में पेड़ों को निर्बाध रूप से बढ़ने का मौका मिलेगा. कोयले से चलने वाले पावर प्लांट बंद करने का मौका मिलेगा. अचानक टूटते तार लोगों और मवेशियों की जान नहीं लेंगे. मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक भारत में हर दिन कम से कम 30 लोग बिजली के झटके से मारे जाते हैं. खुले तारों से होने वाली सप्लाई के दौरान लॉस होने वाली बिजली बचेगी. तूफान और बरसात के दौरान बिजली गुल होने की संभावना बड़ी कम होगी. कटिया मारकर की जाने वाली चोरी रुकेगी. सोलर पैनलों में रियायत देकर करोड़ों इमारतों को काफी हद तक आत्मनिर्भर बनाने में मदद मिल सकती है.
बिजली की असली कीमत
दोनों विकल्प मौजूद हैं. लेकिन चुनाव जीतने के लिए कई नेता पहला विकल्प ज्यादा पसंद कर रहे हैं. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल इसका उदाहरण हैं. देश की राजधानी और ऐतिहासिक शहर होने के साथ ही दिल्ली गंदी यमुना और जहरीली हवा के लिए भी मशहूर है. राज्य को बिजली और पानी की बड़ी सप्लाई दूसरे राज्यों से मिलती है लेकिन राज्य सरकार इसे वोटबैंक के चक्कर में काफी हद तक मुफ्त कर देती है.
2021 की गर्मियों में दिल्ली में बिजली की मांग रिकॉर्ड 7.40 गीगावॉट तक पहुंच गई. देश की राजधानी अंधेरे में हो, ये कोई नहीं चाहता, इसीलिए हर साल गर्मियों में डिमांड पीक पर आते ही राजधानी को बिजली देने के लिए और राज्यों में बिजली कटौती करनी पड़ती है. उत्तराखंड की 20 से ज्यादा छोटी और विशाल बांध परियोजनाओं से जितनी बिजली बनती है वह भी गर्मियों में दिल्ली की आधी डिमांड ही पूरी कर सकती है. लेकिन इस बिजली की कीमत देखिए, बांधों की वजह से डूबी लाखों एकड़ जमीन, हजारों लोगों का विस्थापन और बदली जलवायु से आती प्राकृतिक आपदाएं.
चुनावी माहौल में घुला करंट
अरविंद केजरीवाल अब उत्तराखंड, गुजरात, पंजाब और गोवा की राजनीति में अपनी पार्टी आप की जड़ें जमाना चाहते हैं. इन राज्यों में 2022 में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. चुनावों से पहले ही आप ने एलान कर दिया कि अगर उनकी पार्टी की सरकार बनी तो उत्तराखंड, पंजाब और गोवा में एक हद तक बिजली मुफ्त दी जाएगी. प्रति व्यक्ति बिजली खर्च में मामले में गोवा और पंजाब भारत में तीसरे और पांचवें नंबर पर आते हैं.
आप के राजनीतिक दांव को कमजोर करने के लिए उत्तराखंड की बीजेपी सरकार ने भी सबको मुफ्त बिजली देने का एलान कर दिया. अपनी सत्ता बचाने के लिए बीजेपी ने राज्य में 100 यूनिट बिजली मुफ्त कर दी है. 200 यूनिट के बिल पर 50 फीसदी सब्सिडी दे दी है.
यह घोषणा उस राज्य में हुई है जहां मार्च से रोडवेज के 5,800 कर्मचारियों को वेतन नहीं मिला है. जहां सरकारी अस्पतालों और मेडिकल स्टाफ की भारी कमी है. जहां आए दिन सरकारी स्कूल बंद होते रहते हैं.
राजस्व कम होने के परिणाम
जुलाई 2021 में भारत की बिजली डिमांड 191.24 गीगावॉट के रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गई. लोग जैसे जैसे संपन्न होंगे यह मांग और बढ़ेगी, लेकिन ये बिजली मुफ्त में कैसे और कहां बनेगी? पहले ही भारी दबाव का सामना कर रहे पर्यावरण को आखिरकार इसकी कीमत चुकानी पड़ेगी.
इस बिजली को मुफ्त बांटने से होने वाले नुकसान की भरपाई के लिए कई और सरकारी स्कूल बंद होंगे. जरूरी होने के बावजूद सरकारी अस्पतालों में स्टाफ की भर्ती नहीं होगी. राजस्व के लिए लैंड यूज बदलकर वनों की कटाई के बारे में भी सोचा जा सकता है. अत्यधिक खनन करके पहाड़ों और नदियों को छलनी करने के विकल्प पर भी विचार हो सकता है. अगर ऐसा बिल्कुल न किया जाए तो राज्य सरकार कर्ज के बोझ तले दबेगी और लोन के साथ मिलने वाली शर्तें भी माननी पड़ेंगी. राजधानी होने की वजह से दिल्ली सरकार तमाम वित्तीय संकटों से बच सकती है, लेकिन और राज्य क्या करेंगे?
बिजली की बचत बनाम मुफ्तखोरी
बिजली बचाना आम भारतीयों की जीवनशैली का एक हिस्सा है. जिस कमरे में कोई न हो, वहां लाइट और पंखें ऑन नहीं किए जाते. एयरकंडीशनर और हीटर भी हिसाब लगाकर इस्तेमाल किया जाता है. लेकिन जब बिजली मुफ्त मिलने लगेगी तो पहले 200 यूनिट की चिंता कौन करेगा. रियायत देनी ही है तो घरों में सौर ऊर्जा को बढ़ावा देने में देनी चाहिए.
गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले परिवारों, सिंचाई के लिए किसानों, अस्पतालों और सरकारी स्कूलों को मुफ्त बिजली दी जानी चाहिए लेकिन जो लोग बिल चुका सकते हैं, उन्हें बिजली का बिल देना चाहिए. उस सुविधा के लिए मूल्य चुकाना चाहिए, जिसके खातिर कहीं बांधों ने जमीन डुबाई है, तो कहीं कोयला बिजलीघरों ने राख उड़ेली है. शिक्षा और स्वास्थ्य को निशुल्क करना लोक कल्याण है, लेकिन बाकी सेवाओं के लिए उचित मूल्य लेना भी एक अच्छे सिस्टम के लिए अनिवार्य है. कहीं ऐसा न हो कि सरकारी व्यवस्थाएं इतनी बर्बाद हो जाएं कि तीसरा विकल्प निजीकरण आखिरी उपाय लगने लगे. (dw.com)
-डॉ राजू पाण्डेय
कोविड-19 के कारण स्कूल पिछले एक साल से कमोबेश बंद ही हैं। फरवरी 2021 में अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय द्वारा किए गए एक महत्वपूर्ण सर्वेक्षण के नतीजों ने हम सब का ध्यान आकृष्ट किया था। सर्वेक्षण के अनुसार स्कूलों के लगातार बन्द रहने के कारण विद्यार्थी पिछला पढ़ा लिखा सब भूलने लगे हैं। 54 फीसदी छात्रों की मौखिक अभिव्यक्ति पर विपरीत प्रभाव पड़ा है जबकि 42% छात्रों की पढ़ने की क्षमता पहले से कम हुई है। 40% छात्र ऐसे हैं जिन्हें भाषा लिखने में कठिनाई का अनुभव हो रहा है जबकि 82% छात्र पिछली कक्षाओं में सीखे हुए गणित के पाठों को भूल चुके हैं। अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय ने पांच राज्यों (छत्तीसगढ़, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तराखंड) के सरकारी स्कूलों के कक्षा 2 से कक्षा 6 तक के 16,067 छात्रों को सर्वे में सम्मिलित किया था। लगभग इसी निष्कर्ष पर इंडिया स्पेंड का सर्वेक्षण दल भी पहुंचा जबकि उसके द्वारा सर्वेक्षित चारों जिले उत्तरप्रदेश के थे। अर्थात यह समस्या किसी प्रान्त विशेष तक सीमित नहीं है, इसका स्वरूप राष्ट्रव्यापी है। जब ऑनलाइन कक्षाओं के सुचारू संचालन के दावे केंद्र तथा राज्य सरकारों द्वारा बड़े जोर शोर से लगातार किए जा रहे हैं तब यह यह दुःखद एवं चिंतनीय स्थिति कैसे बन गई है? विगत वर्ष अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय ने इन्हीं 5 राज्यों की शासकीय शालाओं में पढ़ने वाले 80000 विद्यार्थियों पर किए गए एक सर्वेक्षण(मिथ्स ऑफ ऑनलाइन एजुकेशन) के आधार पर यह चौंकाने वाला सच उजागर किया था कि शासकीय शालाओं में अध्ययनरत 60% बच्चों के पास ऑनलाइन शिक्षा हेतु अनिवार्य साधन मोबाइल अथवा लैपटॉप नहीं हैं। भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय द्वारा जुलाई 2020 में केंद्रीय विद्यालय संगठन, नवोदय विद्यालय समिति एवं सीबीएसई को सम्मिलित करते हुए एनसीईआरटी के माध्यम से कराए गए सर्वेक्षण के नतीजे कुछ भिन्न नहीं थे- 27 प्रतिशत विद्यार्थियों ने मोबाइल एवं लैपटॉप के अभाव का जिक्र किया जबकि 28 प्रतिशत ने बिजली का न होना इंटरनेट कनेक्टिविटी का अभाव, इंटरनेट की धीमी गति आदि समस्याओं का जिक्र किया। एकाउंटेबिलिटी इनिशिएटिव तथा सेंटर फॉर पालिसी रिसर्च द्वारा चलाया जा रहा इनसाइड डिस्ट्रिक्ट्स कार्यक्रम भी ऑनलाइन शिक्षा की कमोबेश इन्हीं बाधाओं का जिक्र करता है। एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट 2020 का आकलन भी डिजिटल शिक्षा हेतु संसाधनों और सुविधाओं की कमी को स्वीकारता है।
ह्यूमन राइट्स वॉच ने 17 मई 2021 को जारी "इयर्स डोंट वेट फॉर देम : इंक्रीज्ड इनक्वालिटीज़ इन चिल्ड्रेन्स' राइट टू एजुकेशन ड्यू टू द कोविड-19 पैन्डेमिक" रिपोर्ट में 60 से भी अधिक देशों(जिनमें भारत भी सम्मिलित है) के विद्यार्थियों एवं उनके अभिभावकों से साक्षात्कार के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला है कि कोविड-19 के दौरान स्कूलों के बंद होने का अलग अलग वर्गों और आर्थिक स्तर के विद्यार्थियों पर पृथक पृथक प्रभाव पड़ा।
यदि हम केवल अपने देश की बात करें तो डिजिटल डिवाइड इतनी प्रत्यक्ष है कि इसका अनुभव करने के लिए आंकड़ों के प्रमाण से अधिक संवेदनशील दृष्टि की आवश्यकता है। कोरोना काल में डिजिटलीकरण को अनिवार्य सा बना दिया गया है और डिजिटल डिवाइड ने भारतीय समाज के एक बड़े तबके के लिए शिक्षा के अवसरों को सीमित एवं समाप्त करने का कार्य किया है। संयुक्त राष्ट्र संघ एवं ह्यूमन राइट्स वाच जैसे संगठन उन समूहों को चिह्नित करते रहे हैं जिनकी शिक्षा पर कोविड-19 से उत्पन्न परिस्थितियों का सर्वाधिक विपरीत प्रभाव पड़ेगा- निर्धन अथवा निर्धनता की सीमा पर खड़े परिवारों के बच्चे, विकलांग बच्चे, नृजातीय और नस्लीय अल्पसंख्यक समूहों के बच्चे, लैंगिक असमानता वाले देशों की बालिकाएं, लेस्बियन, गे, बायसेक्सुअल और ट्रांसजेंडर (एलजीबीटी) बच्चे, ग्रामीण क्षेत्रों या सशस्त्र संघर्ष के असर वाले इलाकों के बच्चे तथा प्रवासी, विस्थापित, शरणार्थी एवं शरण की याचना करने वाले बच्चे।
भारत में शिक्षा के स्तर और उपलब्धता को निर्धारित करने वाले कारक विशुद्ध आर्थिक नहीं हैं। यद्यपि यह तो स्पष्ट है कि किसानों और मजदूरों की संतानों के लिए शिक्षा कभी आसान नहीं रही है। माता-पिता की दिनचर्या का स्वरूप और निर्धनता इन्हें शिक्षा से वंचित करने का कार्य करते रहे हैं। शिक्षा के साथ जाति का विमर्श भी जुड़ा हुआ है।
अनुसूचित जाति और जनजाति के बालक-बालिकाओं के लिए शिक्षा की राह ढेर सारी सरकारी कोशिशों एवं योजनाओं के बावजूद कठिन रही है। देश के अनेक जिले नक्सलवाद से प्रभावित हैं। यह शिक्षा की दृष्टि से अत्यंत पिछड़े हैं और यहाँ स्कूलों का बन्द होना नहीं अपितु खुलना एक असाधारण घटना होती है। कश्मीर की परिस्थितियां भी ऐसी नहीं रही हैं जहाँ शिक्षा के लिए स्वतंत्र, उन्मुक्त और भयरहित वातावरण की आशा की जा सके। उदारीकृत मुक्त अर्थव्यवस्था ने हमारे देश में शिक्षा और चिकित्सा के क्षेत्र में असमानता को बढ़ाया है। शासकीय और निजी शिक्षा संस्थानों का अंतर अकल्पनीय रूप से विशाल हो गया है। एक ही देश में हम विश्वस्तरीय एवं उच्चतम सुविधा वाले निजी स्कूलों और बुनियादी सुविधाओं से रहित, संसाधन तथा शिक्षक हीन सरकारी स्कूलों को देखते हैं। असमानताओं के इस विमर्श में लैंगिक गैरबराबरी की शाश्वत एवं सर्वव्यापी उपस्थिति है। चाहे वे संपन्न एवं सशक्त वर्ग हों अथवा निर्धन और कमजोर वर्ग चाहे वह बहुसंख्यक समुदाय हो या अल्पसंख्यक इनमें बालिकाओं की शिक्षा को लेकर पितृसत्तात्मक सोच सदैव निर्णायक रूप से हावी रही है।
कोरोना निर्धन वर्ग एवं वंचित समुदायों के बहुत सारे बालक-बालिकाओं के लिए शिक्षा का अंत सिद्ध हुआ है। यदि कोई अध्ययन किया जाए तो हमें भिक्षावृत्ति और बालश्रम के मामलों में अप्रत्याशित वृद्धि के दस्तावेजी साक्ष्य मिलेंगे। बहुत सारे किशोर तो परिवार की आर्थिक मदद के लिए छोटे मोटे कार्य कर रहे हैं और शाला खुलने पर भी फिर से शाला जाने का उनका कोई विचार नहीं है। कोई आश्चर्य नहीं कि बहुत सारे किशोर अपराध और नशे की राह पर भी चल निकलें। यूनेस्को आकलन है कि कोविड-19 के कारण इस वर्ष एक करोड़ दस लाख बालिकाओं की अब दुबारा कभी स्कूल में वापसी नहीं हो पाएगी। इसमें एक बड़ी संख्या भारतीय बालिकाओं की होगी। राइट टू एजुकेशन फोरम के पॉलिसी ब्रीफ के अनुसार कोविड-19 के कारण एक करोड़ भारतीय बालिकाएं सेकंडरी स्कूलों से ड्राप आउट हो सकती हैं। बालिकाओं के लिए स्कूल छूट जाने का अर्थ होता है- जल्दी और जबरन विवाह, किशोरावस्था में गर्भ धारण करने की विवशता,ह्यूमन ट्रैफिकिंग का शिकार बनना, अंतहीन दैहिक शोषण एवं लैंगिक हिंसा का सामना करना। स्कूल इन बालिकाओं के लिए केवल शिक्षा का केंद्र नहीं हैं, यह दमघोंटू पुरुष वर्चस्व से कुछ घंटों की आजादी दिलाने वाले मुक्ति केंद्र हैं, सामाजिक कुरीतियों के आक्रमण से उन्हें बचाने वाले सुरक्षा कवच हैं, उनकी आत्मनिर्भरता एवं स्वावलंबन की कुंजी हैं।
शालाओं को बंद रखने के पीछे जब बालक-बालिकाओं और उनके अभिभावकों की जीवन रक्षा का तर्क दिया जाता है तो इसके सम्मुख निरुत्तर हो जाना पड़ता है। हम सहज ही कल्पना करने लगते हैं कि हमारे नौनिहाल घर की सुरक्षा और माता पिता के संरक्षण में, टीवी तथा मोबाइल की संगति में आनंदित हैं एवं कोरोना के खतरे से दूर हैं। किंतु यह हमारा सच हो सकता है देश के उन करोड़ों निर्धन तथा निम्न मध्यम वर्गीय परिवारों का नहीं जिन्हें रोज कमाना पड़ता है, जिनके लिए बच्चों को घर पर अकेला, असुरक्षित छोड़ना अथवा कार्य स्थल पर अपने साथ ले जाना यही दो विकल्प होते हैं और विडंबना यह है कि दोनों ही विकल्प बच्चों को महामारी के प्रति वह काल्पनिक सुरक्षा नहीं दे सकते जो हमारे मन-मस्तिष्क में रची बसी है। यह बालक-बालिकाएं नितांत असुरक्षित एवं संक्रामक वातावरण में लगभग निरंकुश से अपना समय व्यतीत करते हैं।
यद्यपि इसका कोई पुख्ता वैज्ञानिक आधार नहीं है किंतु आज तीसरी लहर में बालक-बालिकाओं के प्रभावित होने की चर्चा जोरों पर है। विशेषज्ञों का एक वर्ग 12 वर्ष से कम आयु के बालक-बालिकाओं का टीकाकरण न होने के कारण उन्हें संक्रमण के प्रति अत्यंत संवेदनशील मान रहा है तो दूसरे वर्ग का यह तर्क है यदि इन्हें संक्रमण हुआ भी तो वह प्राण घातक नहीं होगा। इनके माध्यम से अभिभावकों तक संक्रमण पहुंचने की आशंका व्यक्त की जाती रही है। टीकाकरण की धीमी प्रगति के बावजूद इससे अभिभावकों को कुछ न कुछ सुरक्षा तो उपलब्ध होगी ही। एक सुझाव यह है शिक्षक समुदाय और स्कूली कर्मचारियों को फ्रंट लाइन वर्कर मानकर इन्हें युद्ध स्तर पर टीकाकृत किया जाए किंतु इनकी विशाल संख्या, टीकों की कमी तथा शिक्षा का सरकारी प्राथमिकता में निचले पायदान पर होना वे कारण हैं जो इस सुझाव पर अमल को कठिन बना देते हैं। कुल मिलाकर स्कूली शिक्षा का भविष्य अनिश्चित है।
इन परिस्थितियों में स्कूली शिक्षा को जीवित रखकर देश के 26 करोड़ स्कूली छात्रों के भविष्य को किस प्रकार सुरक्षित किया जाए? इस प्रश्न का उत्तर देने से पहले हमें बड़ी बेबाकी एवं ईमानदारी से कुछ स्वीकारोक्तियाँ करनी होंगी। भले ही निजी स्कूलों की सशक्त राजनीतिक लॉबी एवं उसके व्यावसायिक हितों के रक्षक शिक्षाविद यह दावा करते रहें कि डिजिटल शिक्षा पारंपरिक शिक्षा के स्थानापन्न के रूप में उभरी है और कोरोना ने यह बहुप्रतीक्षित परिवर्तन लाने में योगदान दिया है लेकिन सच यह है कि देश के करोड़ों बच्चों तक डिजिटल शिक्षा की पहुँच नहीं है और यह पहुँच रातों रात बनाई भी नहीं जा सकती। वैसे भी डिजिटल शिक्षा कभी भी पारंपरिक शिक्षा को प्रतिस्थापित नहीं कर सकती क्योंकि समाजीकरण और व्यक्तित्व विकास जैसे लक्ष्य इससे प्राप्त नहीं किए जा सकते। दूसरी स्वीकारोक्ति यह है कि शिक्षा की गुणवत्ता के मामले में हम बहुत पीछे हैं। इस बात को लेकर सैकड़ों सर्वेक्षण किए जा चुके हैं कि माध्यमिक स्तर पर पहुंचता विद्यार्थी प्राथमिक स्तर के प्रश्नों को भी हल नहीं कर पाता। ऐसी दशा में कोरोना के कारण यह लंबा व्यवधान बालक बालिकाओं को असाक्षर एवं अशिक्षित भी बना सकता है। तीसरी स्वीकारोक्ति हमें यह करनी होगी कि ड्रॉप आउट की समस्या से हम पहले ही संघर्ष करते रहे हैं और अब यह समस्या विकराल एवं नियंत्रण से बाहर हो सकती है। विशेषकर बालिकाओं पर इसका घातक प्रभाव पड़ने वाला है। चौथा कटु सत्य यह है कि स्कूलों के माध्यम से बालक-बालिकाओं को पोषक आहार प्रदान करने वाली मध्याह्न भोजन जैसी योजनाओं का विकल्प सरकारी कोशिशों के बावजूद नहीं ढूंढा जा सका है और कुपोषण के मामले बढ़ना तय है। पांचवीं सच्चाई यह है कि यह शैक्षिक असमानता बढ़ने का मामला ही नहीं है, हम सामाजिक, आर्थिक एवं लैंगिक असमानता को बढ़ावा दे रहे हैं। छठवां सच यह है कि माता पिता की आर्थिक स्थिति में कोविड -19 के कारण गिरावट ड्रॉप आउट का एक प्रमुख कारण है। अंतिम स्वीकारोक्ति हमें यह करनी होगी कि कोरोना काल में स्कूली शिक्षा को जीवित रखने के लिए हमारे प्रयत्न नाकाफ़ी रहे हैं। हमारे तत्सम्बन्धी अभियान प्रदर्शनप्रियता के शिकार रहे हैं। हमारे प्रयासों में निर्धन और वंचित समुदायों हेतु कुछ भी नहीं है। हमारा आत्ममूल्यांकन आत्मप्रवंचना की सीमा तक गलत रहा है।
हमारी चर्चाएं कोरोना समाप्त होने के बाद छात्रों के लिए ब्रिज कोर्स की व्यवस्था एवं अतिरिक्त घंटों की पढ़ाई आदि पर केंद्रित हैं किंतु मुख्य प्रश्न यह है कि कोरोना के रहते क्या कुछ किया जाए। बहुत सारे सुझाव सामाजिक कार्यकर्ताओं और वरिष्ठ शिक्षा विशेषज्ञों की ओर से आ रहे हैं। अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के कुलपति अनुराग बेहार ने स्कूली विद्यार्थियों हेतु समुदाय आधारित कक्षाओं के आयोजन का महत्वपूर्ण सुझाव दिया है। शिक्षक मोहल्लों में जाएं, वहाँ निवास करने वाले 5 से 15 बच्चों को एकत्रित करें तथा सामुदायिक स्थल में पढ़ाई की जाए। हमें स्कूल विशेष में नामांकित छात्रों के बंधन को तोड़ना होगा। जिन मोहल्लों में संक्रमण अधिक है वहां कक्षाएं आयोजित न हों। हमें स्कूलों को खोलने के विषय में प्रांतीय अथवा राष्ट्रीय स्तर पर निर्णय लिए जाने की प्रक्रिया को त्यागकर स्थानीय परिस्थितियों पर आधारित लचीली निर्णय प्रक्रिया को अपनाना होगा। यदि संक्रमण कम है तो आवश्यक सावधानियों के साथ स्कूल खोले जा सकते हैं।
बतौर नागरिक हम इनके लिए बहुत कुछ कर सकते हैं किंतु शायद हम इसलिए चुप हैं कि हमारी संतानें उन अभागे बालक-बालिकाओं में शामिल नहीं हैं जो शिक्षा की मुख्य धारा से बाहर निकल गए हैं। बतौर सरकार शायद हम इसलिए मौन हैं कि निरीह बच्चे न तो आंदोलन कर सकते हैं, न ही मतदाता हैं, न ही वे जबरदस्त राजनीतिक रसूख और धनबल रखने वाले शिक्षा माफिया की भांति हमारे राजनीतिक दलों का वित्त पोषण कर सकते हैं। यदि हम इन मासूमों को मनुष्य न मानकर मानव संसाधन ही मान लें तब भी भविष्य में बेहतर मानव संसाधनों की उपलब्धता हेतु इनके लिए कुछ करना तो बनता है।
(रायगढ़, छत्तीसगढ़)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
आजकल हमारी न्यायपालिका को कार्यपालिका का काम करना पड़ रहा है। सरकार के कई महत्वपूर्ण फैसलों का अंतिम फैसला अदालतें कर रही हैं। ऐसा ही एक बड़ा मामला कावड़-यात्रा का है। इस यात्रा में 3-4 करोड़ लोग भाग लेते हैं। कई प्रदेशों के लोग कंधे पर कावड़ रखकर लाते हैं और हरिद्वार से गंगाजल भरकर अपने-अपने घर ले जाते हैं। उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार ने इस कावड़-यात्रा की अनुमति दे रखी है जबकि कुछ ही हफ्तों पहले कुंभ-मेले के वजह से लाखों लोगों को कोरोना का शिकार होना पड़ा था, ऐसा माना जाता है।
उ.प्र. सरकार जनता की भावना का सम्मान करके यात्रा की इजाजत दे रही है, यह तो ठीक है लेकिन ऐसा सम्मान किस काम का है, जो लाखों-करोड़ों लोगों को मौत के मुहाने पर पहुंचा दे ? एक तरफ प्रधानमंत्री पूर्वी सीमांत के प्रदेशों में बढ़ती महामारी पर चिंता प्रकट कर रहे हैं और दूसरी तरफ उन्हीं की पार्टी के मुख्यमंत्री यह खतरा मोल ले रहे हैं। स्वास्थ्य मंत्रालय के अधिकारी कह रहे हैं कि महामारी के तीसरे आक्रमण की पूरी संभावनाएं हैं। इसके बावजूद इतने बड़े पैमाने पर मेला जुटाने की क्या जरुरत है ? गंगाजल आखिर किसलिए लोग अपने घर ले जाते हैं ? जब लोग ही नहीं रहेंगे तो यह गंगाजल किस काम आएगा ?
उप्र प्रशासन आश्वस्त कर रहा है कि कावडिय़ों की जांच और चिकित्सा वगैरह का पूरा इंतजाम उसके पास है। ऐसी घोषणाएं तो उत्तराखंड शासन ने कुंभ-मेले के समय भी की थीं लेकिन जो खबरें फूटकर आ रही हैं, वे बताती हैं कि वहां कितना जबर्दस्त फर्जीवाड़ा हुआ था। यों भी आम तौर से लोग लापरवाही का खूब परिचय दे रहे हैं। दिल्ली के बाजारों और पहाड़ों पर पहुंची भीड़ के चित्र देखकर आप अंदाज़ लगा सकते हैं कि कोरोना-नियमों का कितना पालन हो रहा है। उत्तराखंड में भी यद्यपि भाजपा की सरकार है लेकिन उसके नए मुख्यमंत्री पुष्करसिंह धामी की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने न सिर्फ हरिद्वार में प्रतिबंध लगा दिया है बल्कि विभिन्न राज्यों की सरकारों से भी अनुरोध किया है कि वे इस कावड़-यात्रा को रोकें। सर्वोच्च न्यायालय ने उप्र और केंद्र सरकार से पूछा है कि उन्होंने कुंभ-मेले की लापरवाही से कोई सबक क्यों नहीं सीखा ?
क्या उन्हें जनता की परेशानियों से कोई मतलब नहीं है ? संक्रमित कावडि़ए अगर अपने गांवों और शहरों में लौटेंगे तो क्या अन्य करोड़ों लोगों को वे महामारी के तीसरे हमले का शिकार नहीं बना देंगे ? सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र और उप्र के सरकारों से इस प्रश्न का तुरंत उत्तर मांगा है। आशा है कि दोनों सरकारें अदालत की चिंता का सम्मान करेंगी और इस कावड़-यात्रा को स्थगित कर देंगी। इस स्थगन का हिंदू वोट-बैंक पर कोई अनुचित प्रभाव नहीं पड़ेगा। यदि यात्रा जारी रही और महामारी फैल गई तो सरकार को लेने के देने पड़ जाएंगे।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-राघवेंद्र राव
अमेरिका के नेतृत्व वाली पश्चिमी देशों की सेना अफ़ग़ानिस्तान से तेज़ी से लौट रही है और उसी रफ़्तार से तालिबान हर रोज़ नए इलाक़ों पर कब्ज़ा करता जा रहा है.
ऐसी हालत में भारत ख़ुद को एक अजीब स्थिति में पा रहा है. तालिबान को आधिकारिक तौर पर कभी मान्यता नहीं देने वाला भारत अब तालिबान को सत्ता पर काबिज़ होने की ओर बढ़ता देख रहा है.
शायद यही वजह है की भारत अपनी बरसों पुरानी नीति को छोड़कर तालिबान के साथ बैक-चैनल से वार्ता कर रहा है.
जून में जब भारत के विदेश मंत्रालय से पूछा गया कि क्या भारत सरकार तालिबान के साथ सीधी बातचीत कर रही है तो विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने कहा कि भारत अफ़ग़ानिस्तान में "अलग-अलग स्टेकहोल्डरों" के संपर्क में है.
विदेश मंत्रालय ने तालिबान के साथ किसी वार्ता की पुष्टि नहीं की लेकिन उन रिपोर्टों से इनकार भी नहीं किया, जिनमें कहा गया था कि भारत तालिबान के कुछ गुटों के साथ बातचीत कर रहा है.
भारत के अब तक तालिबान के साथ सीधी बातचीत शुरू न करने की बड़ी वजह ये रही है कि भारत अफ़ग़ानिस्तान में भारतीय मिशनों पर हुए हमलों में तालिबान को मददगार और ज़िम्मेदार मानता था.
भारत का तालिबान के साथ बात न करने का एक और बड़ा कारण ये भी रहा है कि ऐसा करने से अफ़ग़ान सरकार के साथ उसके रिश्तों में दिक्क़त आ सकती थी जो ऐतिहासिक रूप से काफ़ी मधुर रहे हैं.
हाल ही में भारत ने कंधार से अपने वाणिज्यिक दूतावास से अपने कर्मचारियों को वापस बुला लिया लेकिन साथ ही ये साफ़ किया कि कंधार में भारत के दूतावास को बंद नहीं किया गया है और कंधार के पास भीषण लड़ाई की वजह से एक "अस्थायी उपाय" के तौर पर ये क़दम उठाया गया है.
पिछले साल अप्रैल में भारत ने हेरात और जलालाबाद वाणिज्यिक दूतावास से अपने कर्मचारियों को बुला लिया था. हालांकि, इसकी वजह कोविड-19 महामारी को बताया गया था.
भारत के विदेश मंत्री डॉ. एस जयशंकर ने हाल ही में मॉस्को में कहा कि हिंसा से अफ़ग़ानिस्तान की स्थिति का समाधान नहीं निकाला जा सकता है और अफ़ग़ानिस्तान में सत्ता पर जो भी काबिज़ हो, वो 'जायज़ तरीके' से होना चाहिए.
भारत का अफ़ग़ानिस्तान में क्या दांव पर
पिछले कई वर्षों में अफ़ग़ानिस्तान में इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं और संस्थानों के पुनर्निर्माण में तीन अरब डॉलर से अधिक का निवेश कर चुका भारत इस बात से चिंतित है कि अगर तालिबान सत्ता हासिल कर लेता है तो इन निवेशों का क्या होगा.
भारत सरकार के अनुसार अफ़ग़ानिस्तान के सभी 34 प्रांतों में भारत की 400 से अधिक परियोजनाएं चल रही हैं. अफ़ग़ानिस्तान के संसद भवन का निर्माण भारत ने किया है और अफ़ग़ानिस्तान के साथ मिलकर भारत ने एक बड़ा बाँध भी बनाया है. शिक्षा और तकनीक के क्षेत्रों में भी भारत लगातार अफ़ग़ानिस्तान को मदद करता रहा है.
पिछले साल नवंबर में भारत ने अफ़ग़ानिस्तान के लिए एक नई विकास पहल की घोषणा की, जिसके तहत वो काबुल को पानी की आपूर्ति के लिए एक बांध बनाएगा और आठ करोड़ डॉलर की लागत से 150 सामुदायिक परियोजनाओं का निर्माण करेगा.
मगर इन निवेशों से कहीं ज़्यादा भारत की चिंता ये है कि तालिबान के अफ़ग़ानिस्तान में सत्ता हासिल कर लेने पर कहीं वो पाकिस्तान के ख़िलाफ़ अपनी सामरिक बढ़त न खो दे.
जो भी भारत, पाकिस्तान और तालिबान के रिश्तों से वाकिफ़ हैं और ये समझते हैं कि तालिबान के राज में जहाँ अफ़ग़ानिस्तान पर भारत की पकड़ कमज़ोर हो सकती है, वहीं पाकिस्तान का दबदबा कई गुना बढ़ सकता है.
पाकिस्तानी फ़ौज के प्रवक्ता मेजर जनरल बाबर इफ्तिखार हाल ही में कह चुके हैं कि अफ़ग़ानिस्तान में भारत का निवेश डूबता दिख रहा है. पाकिस्तान ये दावा करता रहा है कि भारत के अफ़ग़ानिस्तान में क़दम रखने का "असली मक़सद पाकिस्तान को नुक़सान पहुँचाना था."
प्रोफ़ेसर हर्ष वी पंत नई दिल्ली स्थित ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में सामरिक अध्ययन कार्यक्रम के प्रमुख हैं.
बीबीसी से बात करते हुए उन्होंने कहा कि तालिबान के साथ भारत का जुड़ाव कुछ ऐसा है जो अब भी रहस्य में डूबा हुआ है. वे कहते हैं, "हम वास्तव में नहीं जानते कि क्या हो रहा है और तालिबान के साथ भारत किस हद तक जुड़ा है लेकिन यह भारत के लिए संवेदनशील मुद्दा है. तालिबान को खुले तौर पर गले लगाना मुश्किल हो सकता है लेकिन मुझे पूरा यक़ीन है कि बैकचैनल खोल दिए गए हैं और चर्चाएं चल रही हैं."
क्या अफ़ग़ानिस्तान के प्रति भारत के रुख़ में दूरदर्शिता की कमी रही है? इसके जवाब में पंत कहते हैं, "जब आप अफ़ग़ानिस्तान जैसे देश में निवेश कर रहे हैं, और अपने संबंधों को सुरक्षित करने के इच्छुक नहीं हैं तो यह भी एक समस्या है क्योंकि आज बड़ा सवाल यह है कि आप अफ़ग़ानिस्तान में अपने निवेशों की रक्षा कैसे करते हैं."
पंत कहते हैं कि भारत का लक्ष्य अफ़ग़ानिस्तान में राजनीतिक समझौता देखना है और अगर तालिबान आज जीत भी जाता है, तो अफगानिस्तान अंततः एक अराजक स्थिति में पहुँच सकता है.
वे कहते हैं, "तालिबान की जीत पिछली बार की तरह निर्णायक नहीं होने वाली है. 1990 के दशक में वे 70 प्रतिशत अफ़ग़ानिस्तान पर शासन कर रहे थे लेकिन वो एक गृहयुद्ध था. इसी तरह इस बार भी आप वही चीजें होते हुए देखने वाले हैं. ऐसे में यह भारत के लिए परेशानी का सबब बनने वाला है."
जहाँ तालिबान रूस और चीन जैसे बड़े देशों की चिंताओं को लेकर उन्हें आश्वस्त कर रहा है वहीं भारत की चिंताओं को लेकर उसने कोई आश्वासन नहीं दिए हैं. इसका क्या मतलब निकला जाए?
पंत कहते हैं कि यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि तालिबान अपने दोस्त पाकिस्तान को इनाम देगा. वे कहते हैं, "तालिबान का चीन को दोस्त कहना कोई हैरानी की बात नहीं है. भारत के लिए एक स्थिर और समृद्ध या लोकतांत्रिक अफ़ग़ानिस्तान का विचार ही अंतिम लक्ष्य रहा है. दूसरे देशों की उम्मीदें इससे काफ़ी कम रही हैं. ईरान के लिए मुख्य चिंता उनकी सीमा है, जहाँ से वे नहीं चाहते कि शरणार्थी ईरान में आएं."
दूसरे देशों की चर्चा करते हुए पंत कहते हैं, "रूस के लिए मसला मध्य एशिया की स्थिरता है क्योंकि रूस चाहता है कि अफ़ग़ानिस्तान से लगने वाले देशों की सीमाएं सुरक्षित रहें. चीन ने बड़े-बड़े दावे किए हैं और अफ़ग़ानिस्तान में निवेश की बात करता रहा है लेकिन धरातल पर कुछ नहीं हुआ. चीन के लिए इस समय सबसे महत्वपूर्ण फॉल्ट-लाइन शिनजियांग है और वे चाहते हैं कि उस सीमा को सुरक्षित किया जाए."
पंत कहते हैं कि तालिबान के लिए रूस को यह कहना आसान है कि वे मध्य एशिया में कोई ख़तरा पैदा होने नहीं देंगे. इसी तरह उनके लिए चीन को संतुष्ट करना आसान है. लेकिन भारत को यह भरोसा दिलाना कि तालिबान ने इरादे बदल दिए हैं या कि तालिबान बड़े पैमाने पर समस्याएँ पैदा नहीं कर रहा है, इसमें ज़मीनी स्तर पर काम करके दिखाना होगा जो तालिबान के लिए आसान नहीं है.
वे कहते हैं, "अगर हम ऐसी स्थिति की कल्पना करते हैं जहां भारत तालिबान के साथ काम कर रहा है, तो भारत कुछ खास चीज़ों को करने के लिए कुछ निश्चित समय सीमा की मांग करेगा. मुझे नहीं लगता कि तालिबान की इसमें दिलचस्पी होगी."
पंत यह भी कहते हैं कि चूंकि अफ़ग़ानिस्तान में भारत के प्रवेश का ज़रिया हमेशा वहां की सरकार ही रही है इसलिए तालिबान का उस देश में सत्ता में आ जाना भारत के लिए एक समस्या बनने वाला है.
क्या अफ़ग़ानिस्तान में भारत हाशिये पर पहुँच गया
राजनयिक अमर सिन्हा अफ़ग़ानिस्तान में भारत के राजदूत रहे हैं. बीबीसी ने उनसे पूछा कि क्या आज भारत खुद को अफ़ग़ानिस्तान में हाशिये पर पाता है?
सिन्हा ने कहा कि वे ऐसा नहीं मानते. वे कहते हैं, "लोग तर्क दे सकते हैं कि यह एक झटका है लेकिन हमें यह याद रखना होगा कि अफ़ग़ानिस्तान में जो हो रहा है वह भारत का युद्ध ही नहीं था."
सिन्हा के मुताबिक अमेरिकियों के साथ हुए समझौते ने तालिबान को वैधता दी और दूसरे देशों को उनसे बात करने के लिए प्रोत्साहित किया और अब तालिबान पिछले दरवाजे से सत्ता में आने की कोशिश कर रहा है. वे कहते हैं कि अमेरिकियों को इस बात में कोई दिलचस्पी नहीं है कि उनके जाने के बाद अफ़ग़ानिस्तान में क्या होता है.
सिन्हा कहते हैं, "ऐसा नहीं था कि भारत अफ़ग़ानिस्तान को चला रहा था या भारत सबसे ज़्यादा हताहत हुआ है" लेकिन भारत की चिंता अब यह है कि अगर एक कट्टरपंथी इस्लामी सरकार अफ़ग़ानों को मारकर या जनसंहार करके सत्ता में आती है तो क्या होगा.
हमने पूर्व राजदूत अमर सिन्हा से पूछा कि क्या भारत पिछले साल के दोहा समझौते के बाद तालिबान के प्रति अपनी नीति में कुछ बदलाव ला सकता था?
इसके जवाब में उन्होंने कहा, "अंतत: आप उन लोगों से बात करते हैं जिन तक आपकी पहुंच है. अब उनका मुख्य नेतृत्व पेशावर और क्वेटा में स्थित है. तालिबान के दोहा कार्यालय में वो लोग शामिल थे जो कभी अमेरिका की ग्वांतानामो जेल में रहे थे और जिन्हें दोहा में एक कोर बनाने के लिए रखा गया था लेकिन निर्णय लेने का काम क्वेटा में हो रहा था."
सिन्हा के मुताबिक तालिबान तक पहुंचना आसान नहीं था और चीन और रूस भी तालिबान से बात सिर्फ़ पाकिस्तान के सहयोग से कर पा रहे थे. वे कहते हैं कि तालिबान को शांति की उम्मीद में कई देशों की जो प्रारंभिक स्वीकृति मिली थी वो तालिबान के सरकार बनाने की स्थिति में पूर्ण राजनयिक मान्यता में तब्दील नहीं हो सकती है.
वे कहते हैं, "तालिबान यह भी जानते हैं कि उनका हिंसा से सत्ता हथियाना पूरी तरह से नाजायज़ होगा. उनकी न तो घरेलू और न ही अंतरराष्ट्रीय मान्यता होगी. तो अब हम जो देख रहे हैं वह उनकी शर्तों पर अंतिम वार्ता के लिए अपने फायदे बढ़ाने का उनका प्रयास हो सकता है."
सिन्हा का मानना है कि तालिबान शासन ईरानी मॉडल की ओर बढ़ सकता है जहां मौलवियों की एक बड़ी भूमिका होती है. वे कहते हैं, "मुझे नहीं लगता कि उन्होंने किसी सरकार में सिर्फ मंत्री या उप मंत्री बनने के लिए यह लड़ाई लड़ी है. वे पूर्ण नियंत्रण चाहते हैं."
तो अफ़गानिस्तान पर भारत की विदेश नीति क्या होनी चाहिए? सिन्हा के मुताबिक ये इस बात पर निर्भर करेगा कि अफ़ग़ानिस्तान के मौजूदा हालात से क्या परिणाम निकलता है और वहां बनने वाली सरकार का स्वरूप क्या होगा.
वे कहते हैं, "मुझे नहीं लगता कि तालिबान के सरकार में शामिल होने से भारत को कोई वैचारिक कठिनाई है. भारत के पास विदेश नीति के कई विकल्प हैं, लेकिन ज़ाहिर है कि इसमें भारत का युद्ध क्षेत्र में उतरना शामिल नहीं है."
आने वाले वक़्त पर नज़र
आने वाले कुछ महीनों में ये साफ हो जायेगा कि अफ़ग़ानिस्तान के हालात किस दिशा में मुड़ते हैं. ऐसे में भारत भी अफ़ग़ानिस्तान के राजनीतिक घटनाक्रम पर पैनी नज़र बनाए रखना चाहेगा.
हर्ष पंत कहते हैं कि अगर तालिबान को सत्ता हासिल होती है तो भारत उनके साथ संबंध स्थापित करने वाले देशों में पहला नहीं होगा. वे कहते हैं, "भारत का नज़रिया ये होगा कि हम एक कदम पीछे हटें और कहें कि हम इस सरकार को तुरंत मान्यता नहीं देंगे और देखेंगे कि क्या होता है. बहुत सारे देश भी यही करने जा रहे हैं. अगर कोई राजनीतिक समझौता होना है तो भारत की भूमिका अधिक संवेदनशील है."
अगले कुछ महीने अफ़ग़ानिस्तान के भविष्य के लिए निर्णायक साबित हो सकते हैं और बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि अफ़ग़ानिस्तान में वास्तव में होता क्या है.
पंत कहते हैं, "मुझे लगता है कि तालिबान यह स्पष्ट कर रहे हैं कि उन्हें राजनीतिक समझौते की परवाह नहीं है क्योंकि उन्हें लगता है कि वे जीत गए हैं. मुद्दा यह है कि क्या तालिबान की वैचारिक प्रतिबद्धता उनकी व्यावहारिक प्रवृत्ति पर हावी होगी?"
पंत कहते हैं, "अगर वे व्यावहारिक हैं तो तालिबान को इस क्षेत्र के कुछ देशों तक हाथ बढ़ाना होगा. यही व्यावहारिकता भारत के प्रति उनकी सोच में झलक रही है. जब अनुच्छेद 370 का मुद्दा उठा तो पाकिस्तान ने इसे कश्मीर से जोड़ा लेकिन तालिबान ने कहा कि उन्हें इस बात की परवाह नहीं है कि भारत कश्मीर में क्या करता है."
पंत का कहना है कि तालिबान ने बार-बार ये दिखाने की कोशिश की है कि वे बदल रहे हैं लेकिन भारत के दृष्टिकोण से बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि अफ़ग़ानिस्तान में सरकार कैसे बनती है.
वे कहते हैं, "ज़्यादातर लोग इस बात से सहमत हैं कि यह तालिबान के प्रभुत्व वाली सरकार होगी और यह देखा जाना बाकी है कि इसमें और कौन शामिल होगा. विदेश मंत्री जयशंकर ने वैधता की बात की है. भारत वैधता की बात की ज़मीन तैयार कर रहा है. अगर एक मध्यकालीन शैली की तालिबान सरकार बनती है तो मुझे नहीं लगता कि भारत उसे मान्यता देगा."
दूसरी तरफ अमर सिन्हा कहते हैं कि वे इस धारणा से सहमत नहीं हैं कि तालिबान सत्ता में आएगा "क्योंकि अफ़ग़ानिस्तान में कड़े मुकाबले की तैयारियाँ चल रही हैं". (bbc.com)
-विनीत खरे
चुनाव प्रबंधक के तौर पर मशहूर प्रशांत किशोर के कांग्रेस में जाने की चर्चा जोर-शोर से हो रही है लेकिन कोई नहीं जानता कि उनके इरादे क्या हैं? साल 2014 में एक प्रोफेशनल सलाहकार के तौर पर बीजेपी के चुनाव मैनेजमेंट की जिम्मेदारी संभालने वाले प्रशांत किशोर इन दिनों राहुल गांधी, प्रियंका गांधी, और दूसरे विपक्षी नेताओं के साथ मुलाकातों को लेकर एक बार फिर चर्चा में हैं।
एक चुनावी रणनीतिकार के तौर एक बात प्रशांत किशोर को दूसरों से अलग करती है, वो ये है कि वे एक ‘पेड प्रोफेशनल कंसल्टेंट’ के तौर पर अपनी सेवाएँ देते हैं, उनके पास एक पूरी रिसर्च टीम है और वे किसी एक राजनीतिक दल से बंधे नहीं हैं। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी को मिली चुनावी जीत के बाद उनका रुतबा इन दिनों बढ़ा हुआ है क्योंकि तृणमूल कांग्रेस बीजेपी की चुनौती से कैसे निबटे, इस पर भी वे लगातार सलाह दे रहे थे, कुछ लोग मान रहे हैं कि उनकी सलाह ममता के काम आई। बंगाल विधानसभा चुनाव से फारिग होते ही अब उनके कांग्रेस में शामिल होने के लेकर कयास भी लगाए जा रहे हैं। इसके ठीक पहले वे एक बार और चर्चा में थे जब उन्हें ‘विपक्षी एकता का सूत्रधार’ बताया जा रहा था, शरद पवार से उनकी मुलाकात को लेकर तरह-तरह की अटकलें लगाई जा रही थीं।
बिहार के भोजुपरी भाषी इलाके से ताल्लुक रखने वाले 44 वर्षीय प्रशांत किशोर अब तक नरेंद्र मोदी, नीतीश कुमार, ममता बनर्जी, पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह, आंध्र प्रदेश में जगन रेड्डी और तमिलनाड़ु में डीएमके नेता एमके स्टालिन को अपनी प्रोफ़ेशनल सेवाएँ दे चुके हैं।
दो मई को 2021 को एक टीवी इंटरव्यू में उन्होंने यह कहकर सबको चौंका दिया कि वे अब पेशेवर राजनीतिक सलाहकार की भूमिका निभाना बंद कर रहे हैं, उनकी इस घोषणा के बाद यह अटकल और बढ़ गई कि वे शायद खुद राजनीति में उतरना चाहते हैं।
वैसे वे राजनीति में हैं या नहीं, इसको लेकर हमेशा संशय का माहौल बना रहा है, अगर कोई व्यक्ति किसी पार्टी का उपाध्यक्ष रहा हो तो उसके बाद भी उसके राजनीति में होने को लेकर शक की क्या बात हो सकती है, लेकिन प्रशांत किशोर सियासत के कोच हैं या खिलाड़ी इसको लेकर स्थिति कभी साफ नहीं हो सकी।
ऐसे में कांग्रेस में उनके शामिल होने को लेकर जारी कयास से फिर वही सवाल उठ रहा है कि लोगों की नब्ज समझने का दावा करने वाली राजनीतिक पार्टियाँ क्यों एक ‘इलेक्शन मैनेजर’ को खुद से जोडऩे के लिए बेताब हैं।
यहाँ यह याद रखना जरूरी है कि उन्होंने कांग्रेस-सपा गठबंधन के रणनीतिकार की भूमिका निभाई थी और उत्तर प्रदेश के पिछले विधानसभा चुनाव में उन्हें बुरी तरह नाकामी का सामना करना पड़ा था। इसके अलावा आम तौर पर उन्हें काफ़ी सफल चुनाव प्रबंधक माना जाता है।
बंगाल चुनाव में ममता बनर्जी की टीएमसी की भाजपा की कड़ी चुनौती के बावजूद जीत से प्रशांत किशोर का कद बढ़ा है और उनके हर कदम का बारीकी से आकलन किया जाता है।
ऐसे में शरद पवार और कांग्रेस नेताओं से साथ मुलाकातों पर अनुमान लग रहे हैं कि वो 2024 में नरेंद्र मोदी के खिलाफ़ विपक्ष को एकजुट करने की तैयारी कर रहे हैं।
मुंबई में लेखक और पत्रकार धवल कुलकर्णी को लगता है कि प्रशांत किशोर बीजेपी के ख़िलाफ़ विपक्ष को साथ लाने की मुहिम में जुटे हैं, हालाँकि भारतीय राजनीति में विपक्ष को साथ लाना टेढ़ी खीर रही है।
चेन्नई में वरिष्ठ पत्रकार डी सुरेश कुमार पूछते हैं, ‘अगर कोई ममता बनर्जी को प्रधानमंत्री बनाना चाहता है तो क्या दूसरे नेता तैयार होंगे? क्या शरद पवार इस पर विचार करेंगे? साल 2019 में भी हमने देखा कि हर गैर-एनडीए राजनीतिक दल का कहना था कि भाजपा को हटाने की जरूरत है लेकिन वो साथ नहीं आ पाए। सिर्फ स्टालिन ने कहा था कि राहुल गांधी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे।’
एनडीटीवी से बातचीत में प्रशांत किशोर कह चुके हैं कि उन्हें नहीं लगता कि तीसरा या चौथा मोर्चा भाजपा का मुक़ाबला कर सकता है। विपक्ष को साथ लाने की सोच के तहत ये भी कयास लग रहे हैं कि प्रशांत किशोर शरद पवार को देश का अगला राष्ट्रपति बनवाने के सहमति जुटाने के मकसद से नेताओं से मिल रहे हैं। धवल कुलकर्णी के मुताबिक ऐसे में जब शरद पवार के लिए प्रधानमंत्री बनने का सपना धूमिल हो चला है, उनकी निगाहें अगले साल होने वाले राष्ट्रपति पद के चुनाव पर हैं लेकिन अभी तक ये बातें मात्र कयास ही हैं क्योंकि शरद पवार ने इस पर कुछ नहीं कहा है।
प्रशांत किशोर की जरूरत क्यों?
चुनावी मैनेजरों का राजनीतिक पर्दे के पीछे काम विवादों से परे नहीं रहा है। उनका काम होता है चुनाव के समय नेता के आसपास एक ऐसा माहौल बनाना कि वो चुनाव में आगे निकल जाए, कहा जाता है कि मुद्दों, चुनावी क्षेत्रों के गणित और पब्लिक के मूड को भाँपने में वे माहिर हैं।
पंजाब में राजनीतिक विश्लेषक डॉक्टर जगरूप सैखों के मुताबिक प्रशांत किशोर जैसे चुनावी मैनेजरों की बढ़ती पैठ राजनीति के खोखले होते जाने का सबूत है।
वो कहते हैं, ‘ये राजनीतिक व्यवस्था, खासकर राजनीतिक दलों में दीवालियापन है, जब ताकत कुछ लोगों को दे दी जाती है जो मैनेजरों की तरह काम करते हैं।’
डॉक्टर जगरूप सैखों के मुताबिक ये इस बात का भी परिचायक है कि आज के नेता किस तरह से जमीन से कटे हुए हैं और पंजाब में राजनेता इतने ज्यादा बदनाम हैं कि कई लोग उन्हें अपने गांवों में घुसने तक नहीं देते।
बंगाल चुनाव के दौरान कोलकाता में बीबीसी संवाददाता अमिताभ भट्टासाली को टीएमसी नेताओं ने बताया कि किस तरह पिछले कुछ सालों में जमीनी भ्रष्टाचार की वजह से लोग पार्टी से कट गए थे। प्रशांत किशोर ने ये बात नेताओं को बताई क्योंकि ममता बनर्जी के नजदीकी लोग ये बातें ठीक से उनके सामने नहीं रख पाए थे।
अमिताभ बताते हैं कि प्रशांत किशोर किस तरह हर छोटी से छोटी चीज को खुद मैनेज करते थे, इसका उदाहरण ये है कि उनकी टीम के लोग इलाकों में घूमते रहते थे और किस नेता को कहाँ, क्या कहना है, ये बताते थे।
प्रशांत किशोर की देखरेख में बंगाल में लाखों की संख्या में ‘बांग्ला निजेर मेके चाय’, यानी ‘बांग्ला अपनी बेटी को चाहता है’ के लाखों पोस्टर लगाए गए। इसके अलावा ‘दीदी को बोलो’ हेल्पलाइन कार्यक्रम शुरू हुआ जिससे लोग नल में पानी नहीं है, से लेकर गंदगी तक की शिकायत सीधे फ़ोन पर बताते थे जिस पर स्थानीय प्रशासन कार्रवाई करता था। ‘द्वारे सरकार’ के अंतर्गत इलाक़ों में लोगों की समस्याओं के समाधान के लिए पब्लिक डिपार्टमेंट कैंप लगाते थे।
अमिताभ भट्टासाली के मुताबिक़ इन कार्यक्रमों से ममता बनर्जी के पक्ष में वोट खींचने में मदद मिली लेकिन इन कार्यक्रमों को सुझाने के लिए प्रशांत किशोर की ज़रूरत तो नहीं थी।
पत्रकार जयंत घोषाल कहते हैं, ‘प्रणब मुखर्जी मुझे बोलते थे कि कांग्रेस की हालत इसलिए खऱाब हो गई है क्योंकि ये ड्राइंगरूम पार्टी हो गई जिसकी वजह से वो आम लोगों से कट गई। एलियनेशन कहाँ है, किसका है, प्रशांत किशोर उसे स्टडी करते हैं। इस वजह से कई लोगों को टिकट नहीं मिलते।’
चेन्नई में पत्रकार डी सुरेश कुमार जयललिता का उदाहरण देते हैं जो सोशल मीडिया पर भी नहीं थीं लेकिन उनके पास आत्मविश्वास था और लोगों में उनके प्रति आकर्षण था, हालांकि वो कुछ चुनिंदा लोगों की मदद से ही शासन करती थीं। वो कहते हैं, ‘जब नेताओं में आत्मविश्वास नहीं होता, जब उन्हें लगता है कि वो खुद जीत हासिल नहीं कर सकते तब वो स्ट्रैटेजिस्ट का सहारा लेते हैं। साथ ही, नेता मानते हैं कि नरेंद्र मोदी सलाहकारों की मदद से इतने लोकप्रिय नेता बनकर उभरे हैं, लेकिन ये सच नहीं है।
एक रणनीतिकार भाषण लिख सकता है, लेकिन ये एक नेता होता है, जिस जबर्दस्त अंदाज में भाषण देना होता है। एक स्पीकर के तौर पर नरेंद्र मोदी बहुत अच्छे हैं। लोगों को उनकी यह बात पसंद आती है।’
मुंबई में लेखक और पत्रकार धवल कुलकर्णी के मुताबिक प्रशांत किशोर जैसे कैंपेन मैनेजर दलों और नेताओं को बेहद जरूरी बड़ी तस्वीर से आगाह करवाते हैं। वो कहते हैं, ‘राजनीतिज्ञ हमेशा व्यस्त होते हैं और वो एक कदम पीछे जाकर नहीं देख पाते कि क्या किया जाना चाहिए।’
प्रशांत किशोर की राजनीतिक आकांक्षाएं?
वरिष्ठ पत्रकार जयंत घोषाल को लगता है कि प्रशांत किशोर की राजनीतिक आकांक्षाएं हैं और वो राज्यसभा सदस्य बनने तक सीमित नहीं हैं। जयंत घोषाल कहते हैं, ‘प्रशांत किशोर साल 2024 के चुनाव में मिली-जुली सरकार के किंगमेकर बनना चाहते हैं।’ लेकिन घोषाल के मुताबिक इस बारे में बहुत कुछ उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजों पर निर्भर करेगा, और उसके बाद ही उनके इरादे साफ़ पता चलेंगे।
प्रशांत किशोर की राजनीतिक मुलाक़ातें ऐसे वक्त हो रही हैं जब भारत में कोविड से मरने वालों की आधिकारिक संख्या चार लाख को पार कर गई है, कोविड से निपटने को लेकर कई मोदी समर्थक भी उनसे ख़ुश नहीं हैं, अर्थव्यवस्था खस्ताहाल है, बेरोजग़ारी और महंगाई बढ़ रही है। जयंत घोषाल कहते हैं, ‘प्रशांत किशोर किसी पार्टी में शामिल भी हो सकते हैं। उनके पास वो विकल्प है। वो चाहें तो राज्यसभा सांसद बन सकते हैं लेकिन वो राज्यसभा नहीं चाहते हैं। घोषाल कहते हैं, ‘अभी तृणमूल की दो राज्यसभा सीटें ख़ाली हैं। भाजपा की ओर से भी उन्हें खींचने की कोशिश चल रही है क्योंकि उनके भाजपा के साथ भी रिश्ते बुरे नहीं हैं।’
उधर चेन्नई में वरिष्ठ पत्रकार डी सुरेश कुमार प्रशांत किशोर की विचारधारा पर सवाल उठाते हैं।कुमार कहते हैं, ‘वो एक चुनाव में एक दक्षिणपंथी पार्टी की तरफ थे। दूसरे चुनाव में एक दूसरी विचारधारा के पक्ष में। एक बार वो तमिल पार्टी की तरफ़ थे, एक दूसरे वक्त एक तेलगू पार्टी की तरफ़। अगर उन्हें नेता के तौर पर उभरना है तो उन्हें ज़मीन पर कड़ी मेहनत करनी होगी। उन्हें अपने आप को साबित करना होगा। वो किसी पार्टी में पैराशूट होकर नेता के तौर पर नहीं उभर सकते।’
प्रशांत किशोर पर सवाल भी कम नहीं
प्रशांत किशोर को लेकर सवाल उठते हैं कि जब वो इतने ही बड़े जादूगर हैं तो उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के पक्ष में उनके जादू ने काम क्यों नहीं किया? ऐसे में उनके बचाव में एक जवाब आता है कि कांग्रेस ने उनकी बताई बातों पर अमल नहीं किया जिसके कारण पार्टी की ये दुर्दशा हुई। इसके अलावा कई विश्लेषक मानते हैं कि 2014 में नरेंद्र मोदी की जीत में प्रशांत किशोर के योगदान को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया। उनका कहना है कि उस वक्त आम लोग कांग्रेस में कथित स्कैंडल, भ्रष्टाचार से वैसे ही इतना
परेशान हो चुके थे कि उन्होंने देश की बागडोर
नरेंद्र मोदी के हाथों में सौंप दी, उसके लिए किसी प्रशांत किशोर की जरूरत नहीं थी। पत्रकार डी सुरेश कुमार के मुताबिक तमिलनाडु में प्रशांत किशोर फैक्टर के अलावा भी दूसरे कारण स्टालिन की जीत के लिए जिम्मेदार थे। वो कहते हैं कि जगन मोहन रेड्डी की जीत की एक वजह ये भी थी कि लोग चंद्रबाबू नायडू से ख़ुश नहीं थे।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
नासिक में अभी-अभी लव जिहाद का दुखद लेकिन बड़ा रोचक किस्सा सामने आया है। वह रोचक इसलिए है कि 28 साल की एक हिंदू लड़की रसिका के माता-पिता ने सहमति दी कि वह अपने पुराने सहपाठी आसिफ खान के साथ शादी कर ले। आसिफ के माता-पिता की भी इससे सहमति थी। यह सहमति इसलिए हुई कि रसिका में थोड़ी विकलांगता थी और उसे कोई योग्य वर नहीं मिल रहा था।
उसके पिता ने, जो कि जवाहरात के संपन्न व्यापारी हैं, आसिफ के माता-पिता से बात की और वे अपने बेटे की शादी रसिका के साथ करने के लिए राजी हो गए। 18 जुलाई 2021 की तारीख तय हो गई। मराठी भाषा और देवनागरी लिपि में निमंत्रण छप गए। उन पर 'वक्रतुंड महाकायÓ वाला मंत्र भी छपा था और हवन के साथ सप्तपदी (सात फेरे) से विवाह-संस्कार संपन्न होना था। लेकिन ज्यों ही यह निमंत्रण-पत्र बंटा, नासिक में खलबली मच गई। रसिका के पिता प्रसाद अडगांवकर को धमकियां आने लगीं।
इस शादी को लव-जिहाद की संज्ञा दी गई और तरह-तरह के आरोप लगने लगे। रसिका के पिता ने अपने रिश्तेदारों और मित्रों से सलाह की तो ज्यादातर ने सलाह दी कि शादी का कार्यक्रम रद्द किया जाए। वह तो रद्द हो गया, क्योंकि उसे लव-जिहाद का मुद्दा बनाकर उसके खिलाफ कुछ लोगों ने जबर्दस्त अभियान चला दिया था। सात फेरे वाली हिंदू-पद्धति की शादी तो रद्द हो गई लेकिन रोचक बात यह हुई कि नासिक की अदालत में रसिका और आसिफ की शादी कानूनी तौर पर पहले ही पंजीकृत हो चुकी थी। अब बिचारे लव-जिहाद विरोधी हाथ मलते ही रह जाएंगे।
वे यह क्यों नहीं समझते कि इस तरह की शादियां शुद्ध इंसानियत का प्रमाण हैं, शुद्ध प्रेम की प्रतीक हैं। उनमें मजहब, देश, भाषा, जाति, हैसियत वगैरह कुछ भी आड़े नहीं आता है। मेरे कम से कम पचास हिंदू मित्र ऐसे हैं, जिनकी पत्नियां मुसलमान हैं लेकिन उनकी गृहस्थी बहुत प्रेम से चल रही है और इसी तरह कुछ मुसलमान मित्रों की पत्नियां हिंदू हैं लेकिन मैंने उनमें कभी भी मजहब को लेकर कोई तनाव नहीं देखा। वे दोनों अपने-अपने मजहबी त्यौहारों को मनाते हैं और एक-दूसरे के त्यौहारों में बराबरी की भागीदारी भी करते हैं।
सूरिनाम और गयाना के क्रमश: प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री की मुस्लिम पत्नियों को कृष्ण-भजन गाते हुए मैंने सुना है और मुस्लिम पत्नियों के हिंदू पतियों को मैंने रमजान में रोज़े से भी बड़े उपवास रखते हुए देखा है। हमारे अंडमान-निकोबार में तो ऐसे दर्जनों परिवार आपको देखने के लिए मिल जाएंगे। यदि हम भारत को महान और एकीकृत देश के रुप में देखना चाहते हैं तो हमें अपने जन्म की सीमाओं को मानते हुए उनसे ऊपर उठना होगा। पशु और मनुष्य में यही तो फर्क है। पशु अपने जन्म की सीमाओं में सदा कैद रहता है लेकिन मनुष्य जब चाहे, उनका विस्तार कर सकता है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
स्लोवेनिया इस समय यूरोपीय संघ का अध्यक्ष है. स्ट्रासबुर्ग में यूरोपीय सांसदों ने जब स्लोवेनिया के प्रधानमंत्री यानेस यांसा से प्रेस स्वतंत्रता और कानून के शासन पर हो रहे हमलों पर सवाल पूछे तो प्रधानमंत्री दबाव में दिखे.
डॉयचे वैले पर जैक पैरॉक की रिपोर्ट
यूरोपीय संसद में सांसदों के सवालों का जवाब देने स्ट्रासबुर्ग पहुंचने पर यांशा का स्वागत एक विरोध चिह्न के साथ किया गया, जिसमें उनकी सरकार से ‘कानून के शासन की रक्षा करने' की मांग की गई थी. उन्होंने अपने ट्विटर अकाउंट पर स्वतंत्र पत्रकारों पर हमला बोला था और पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के इस दावे का समर्थन किया था कि पिछले साल नवंबर में अमेरिका में हुए चुनावों में धांधली हुई थी.
यूरोपीय संसद के भीतर सांसदों ने स्लोवेनिया के छह महीने के यूरोपीय संघ के अध्यक्षता की प्राथमिकताओं की रूपरेखा के बारे में यांशा की बातें सुनीं. बहस के दौरान, कई सांसदों ने प्रेस स्ववंत्रता और कानून के शासन पर उनके घरेलू रिकॉर्ड के बारे में कठोर शब्द भी कहे.
यूरोपीय संघ के एक और पाखंडी नेता?
यूरोपीय संसद के सदस्य और नीदरलैंड लिबरल रीन्यू ग्रुप के उपाध्यक्ष मलिक अजमानी ने यांशा पर आरोप लगाया कि वो यूरोपीय संसद में उस "सिनिस्टर क्लब” का हिस्सा बनना चाहते हैं जो कानून के शासन की इज्जत नहीं करता. उनका इशारा हंगरी और पोलैंड के प्रधानमंत्रियों की ओर था, जिन्होंने प्रेस की स्वतंत्रता पर प्रतिबंधात्मक उपायों के मामले में ब्रसेल्स का विरोध किया है और राजनीतिक झुकाव वाले न्यायाधीशों को नियुक्त करने के लिए कदम उठाए हैं.
इस तरह की आलोचना का लगातार विरोध करने वाले स्लोवेनियाई प्रधानमंत्री ने जोर देकर कहा कि जब भी वो प्रधान मंत्री होते हैं, तो प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक पर देश की रैंकिंग में हमेशा सुधार होता है. यांशा तीसरी बार स्लोवानिया के प्रधानमंत्री बने हैं. यूरोपियन पीपुल्स पार्टी यूरोपीय संघ में वह राजनीतिक समूह है जिसमें यांशा की स्लोवेनियाई डेमोक्रेटिक पार्टी भी शामिल है. इस समूह के सांसदों ने भी उन पर सतर्क रहने का दबाव डाला है.
भ्रष्टाचार पर दवाब में स्लोवेनिया के नेता
स्पेनी राजनीतिज्ञ और यूरोपीयन संसद के सदस्य डॉलर्स मोंसेराट का कहना था, "राष्ट्रवाद और लोकलुभावनवाद हमेशा संकट के समय का उपयोग इन अधिकारों पर हमला करने के लिए करते हैं. अत्याचार के रास्ते से तभी बचा जा सकता है जब हम कानून के शासन को मजबूत करें.” यूरोपीय संसद के सदस्यों द्वारा अक्सर उठाए गए मुद्दों में से एक यह भी है कि स्लोवेनिया ने अभी तक यूरोपीय लोक अभियोजक कार्यालय के लिए दो अभियोक्ताओं का मनोनयन नहीं किया है.
यूरोपीय लोक अभियोजक कार्यालय ईपीपीओ का गठन यूरोपीय संघ के बजट से धन के दुरुपयोग को रोकने के लिए किया गया है. कई आलोचकों ने यूरोपीय परिषद से यांशा सरकार को दिए गए यूरोपीय संघ के 750 अरब यूरो के कोविड-19 रिकवरी पैकेज को तब तक के लिए निलंबित करने का आह्वान किया है, जब तक कि वो इस दायित्व को पूरा नहीं करते हैं.
स्लोवेनिया यूरोपीय संघ के 27 में से 22 सदस्य देशों में शामिल है जिसने इस प्रस्ताव पर हस्ताक्षर किए हैं. यांशा ने इस बात पर हैरानी जताते हुए सवाल किया कि आखिर सारा दबाव उन्हीं पर क्यों बनाया जा रहा है, "जबकि उन पांच देशों के बारे में कोई भी बात नहीं कर रहा है जो ईपीपीओ में शामिल नहीं हुए, फिर भी ईयू फंड का लाभ उठा रहे हैं.” आयरलैंड, पोलैंड, हंगरी, स्वीडेन और डेनमार्क ईपीपीओ में शामिल नहीं हैं.
मतदाताओं को लुभाने की कोशिश
न्याय मंत्री को बदले जाने की घटना को यांशा ने प्रत्यायोजित अभियोजकों के नामांकन में देरी के लिए दोषी ठहराया है. उन्होंने यूरोपीय संसद के सदस्यों को आश्वस्त करने की कोशिश की कि स्लोवेनिया इस साल सर्दियों तक अभियोजकों को मनोनीत कर देगा. यूरोपीय संघ के कुछ पर्यवेक्षकों का मानना है कि यूरोपीय मंच पर यांशा जो विरोधी तेवर दिखा रहे हैं, वह मुख्य रूप से उनके देश में अपने समर्थकों की ओर लक्षित है.
डीडब्ल्यू से बातचीत में ब्रसेल्स स्थित रॉबर्ट शुमान फाउंडेशन के प्रमुख एरिक मॉरिस कहते हैं, "वे इस तरह की पाखंडी स्थिति का आनंद ले रहे हैं, अन्यथा वो अलग तरह से काम करते. वे इस तरह से सत्ता में फिर से आए हैं और यह उनके लिए कम से कम घरेलू स्तर पर उपयोगी है कि वे यूरोपीय संघ में चीजें बदल रहे हैं.”
फिलहाल, यांशा ने पत्रकारों और न्यायपालिका पर अपने हमलों को शब्द वाणों तक सीमित कर दिया है. पोलैंड और हंगरी के विपरीत, उन्होंने अभी तक न्यायिक अथवा संवैधानिक सुधारों को पेश नहीं किया है जो स्लोवेनिया के लोकतंत्र की प्रकृति को बदल सकें.
स्लोवेनिया के एजेंडे पर यूरोपीय संघ का विस्तार
हालांकि स्लोवेनिया की ईयू अध्यक्षता का प्रमुख एजेंडा कोविड-19 वैक्सीन की सप्लाई को सुनिश्चित करना और आर्थिक सुधार को बढ़ावा देने के लिए यूरोपीय संघ के धन वितरण में भाग लेना है, लेकिन यांशा यूरोपीय संघ के विस्तार की जरूरत बताने के लिए काफी उत्सुक थे.
अल्बानिया और उत्तरी मैसेडोनिया ने कई मौकों पर यूरोपीय संघ में शामिल होने के लिए बातचीत की शुरुआत में देरी का सामना किया है. फ्रांस, नीदरलैंड, डेनमार्क और अन्य देशों को डर है कि यूरोपीय संघ को पहले से ही आंतरिक भ्रष्टाचार से लड़ने में पर्याप्त परेशानी हो रही है, सदस्यता में विस्तार होने से दिक्कतें और बढ़ेंगी.
यूरोपीय संघ की अध्यक्षता का मतलब यह नहीं है कि स्लोवेनिया मामले पर प्रगति की गारंटी दे सकता है लेकिन यांशा को इसे सुर्खियों में बनाए रखने की संभावना देता है. बहस के बाद पत्रकारों से बातचीत में यांशा ने कहा, "अगर हम एजेंडे में चीजों को आगे बढ़ाते हैं तो हमारे पास ठोस कदम उठाने में सक्षम होने के लिए वास्तविक समय होगा.” (dw.com)
असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा अपने विवादास्पद बयानों और एजेंडे को लेकर लगातार सुर्खियां बटोर रहे हैं. इस मामले में वो पूर्व मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल से बिल्कुल अलग हैं.
हिमंत बिस्वा सरमा ने चुनाव से पहले कहा था कि सत्ता में आने पर पार्टी गो रक्षा के साथ ही लव जिहाद कानून भी बनाएगी जो हिंदू-मुसलमान दोनों पर लागू होगा. उसके बाद कुर्सी संभालते ही उन्होंने अल्पसंख्यकों की आबादी को नियंत्रित करने के लिए दो बच्चों वाली नीति को कानूनी जामा पहनाने का एलान किया.
हाल ही में उन्होंने पुलिस एनकाउंटर में अपराधियों का मार गिराने को सही ठहरा कर भी विवाद खड़ा कर दिया. कांग्रेस समेत कई संगठनों ने मुख्यमंत्री के बयान की आलोचना की है. असम के एक एडवोकेट ने राज्य में दो महीने के दौरान होने वाली मुठभेड़ों और उनमें करीब एक दर्जन कथित अपराधियों की मौतों के मामले की मानवाधिकार आयोग से शिकायत भी की है. इसी बीच सरकार ने गो रक्षा विधेयक सदन में पेश कर दिया है. मुख्यमंत्री का कहना है कि अब दो बच्चों वाली नीति और लव जिहाद कानून भी जल्दी ही पेश किया जाएगा.
गोरक्षा विधेयक
असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व सरमा ने मवेशी का वध, उपभोग और परिवहन विनियमित करने के लिए एक विधेयक सोमवार को असम विधानसभा में पेश किया. सरमा ने कहा कि नए कानून का मकसद सक्षम अधिकारियों की ओर से चिन्हित जगहों के अलावा बाकी जगहों पर गोमांस की खरीद-फरोख्त पर रोक लगाना है. इस नए कानून के तहत सभी अपराध संज्ञेय और गैर-जमानती होंगे. कानून का उल्लंघन करने की स्थिति में दोषियों को कम से कम आठ साल की कैद और 5 लाख रुपए तक के जुर्माने का प्रावधान है. नए कानून के तहत अगर कोई व्यक्ति दूसरी बार दोषी पाया जाता है तो सजा दोगुनी हो जाएगी.
इस कानून के कारण पूर्वोत्तर के ईसाई-बहुल राज्यों में गोमांस की सप्लाई में बाधा पहुंचने का अंदेशा है. नागालैंड और मिजोरम ने तो फिलहाल इस पर कोई टिप्पणी नहीं की है, लेकिन मेघालय के मुख्यमंत्री कोनराड के संगमा ने कहा है कि अगर इस कानून का असर राज्य में पशुओं की सप्लाई पर पड़ा तो वे केंद्र के समक्ष यह मुद्दा उठाएंगे. ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (एआईयूडीएफ) के विधायक अमीनुल इस्लाम कहते हैं, "बीजेपी ध्रुवीकरण के मकसद से इस कानून के जरिए एक खास तबके को निशाना बना रही है.” अखिल असम अल्पसंख्यक छात्र संघ ने सरकार से लोगों की खान-पान की आदतों में दखल नहीं देने को कहा है.
दो बच्चों की नीति
असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा का कहना है कि राज्य में सरकारी योजनाओं का लाभ उठाने के लिए दो बच्चों वाला नियम अनिवार्य किया जाएगा. यानी जिनको दो से ज्यादा बच्चे होंगे उनको सरकार की विभिन्न योजनाओं का लाभ नहीं मिल सकेगा. हालांकि अनुसूचित जाति, जनजाति और चाय बागान के आदिवासी मजदूरों को इससे छूट दी गई है. इस फैसले पर विवाद हो रहा है. माना जा रहा है कि उनके निशाने पर राज्य के अल्पसंख्यक हैं. इससे पहले मुख्यमंत्री ने अल्पसंख्यकों से जनसंख्या पर नियंत्रण के लिए परिवार नियोजन उपायों को अपनाने की सलाह दी थी.
मुख्यमंत्री ने बीते दिनों इस मुद्दे पर राज्य के करीब डेढ़ सौ अल्पसंख्यक नेताओं के साथ बैठक की थी. उसके बाद इस मुद्दे पर सिफारिशों के लिए आठ उप-समितियां बनाने का फैसला किया गया था. कांग्रेस समेत तमाम अल्पसंख्यक संगठन सरकार के इस फैसले की आलोचना कर रहे हैं. इसके जरिए एक खास समुदाय को निशाना बनाने के आरोप लग रहे हैं. जमीयत-ए-उलेमा ने कहा है कि सरकार ने अगर मुसलमानों में दो बच्चों वाली नीति को जबरन लागू करने का प्रयास किया तो इसका विरोध किया जाएगा. उधर मुख्यमंत्री ने अपने बयान का बचाव करते हुए कहा है कि यह गरीबी उन्मूलन के लिए जरूरी है और इसके पीछे कोई सांप्रदायिक मकसद नहीं है.
लव जिहाद कानून
मुख्यमंत्री हिमंत ने अब कहा है कि राज्य सरकार शीघ्र एक कानून लाएगी जिसके तहत वर-वधू को शादी से एक महीने पहले आधिकारिक तौर पर अपने धर्म और आय का खुलासा करना होगा. उनकी दलील है कि इस कानून का मकसद लव जिहाद के खतरे को रोकना है और यह हिंदू व मुसलमान दोनों तबकों पर समान रूप से लागू होगा. मुख्यमंत्री की दलील है कि लव जिहाद का मतलब सिर्फ एक मुसलमान की ओर से एक हिंदू को धोखा देना ही नहीं है. अगर कोई हिंदू लड़का किसी हिंदू लड़की को फंसाने और उससे शादी करने के लिए संदिग्ध तरीकों का इस्तेमाल करता है तो यह भी लव जिहाद का ही एक रूप है.
मुठभेड़ पर बयान विवादों में
मुख्यमंत्री इससे पहले मुठभेड़ पर भी बयान देकर विवादों में आ चुके हैं. असम में बीते दो महीने में कथित तौर पर हिरासत से भागने का प्रयास कर रहे करीब 12 संदिग्ध अपराधियों को मार गिराया गया है. विपक्ष की ओर से उठे सवालों के बाद इसे उचित ठहराते हुए मुख्यमंत्री ने कहा कि आरोपी पहले गोली चलाए या भागने की कोशिश करे तो कानूनन पुलिस को गोली चलाने का अधिकार है.
असम के एक एडवोकेट ने दो महीने पहले हिमंता बिस्वा शर्मा के नेतृत्व वाली सरकार के सत्ता में आने के बाद से हुई तमाम मुठभेड़ों को लेकर असम पुलिस के खिलाफ राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) में शिकायत दर्ज कराई है और इन घटनाओं की जांच करने का भी अनुरोध किया है.
असम के कांग्रेस प्रमुख रिपुन बोरा ने कहा है कि मुख्यमंत्री के गोली मार देने वाले बयान के गंभीर नतीजे होंगे और असम पुलिस राज्य में बदल जाएगा. मानवाधिकार कार्यकर्ता मंजीत भुइयां कहते हैं, "कांग्रेस से आकर बीजेपी सरकार के मुख्यमंत्री बनने वाले हिमंत लगता है कि संघ का एजेंडा लागू करने की हड़बड़ी में हैं. इसलिए सत्ता संभालने के बाद से ही अपने बयानों और कामकाज के जरिए वे लगातार सुर्खियां बटोर रहे हैं.” समाजशास्त्रियों का कहना है कि खासकर दो बच्चों वाली नीति पर मुख्यमंत्री भले अल्पसंख्यक समुदाय के नेताओं को साथ लेकर चलने का दावा कर रहे हैं लेकिन उनका एजेंडा पहले से तय है. इससे समाज में हिंदू-मुस्लिम तबके के बीच खाई और बढ़ेगी.
उत्तर प्रदेश के जनसंख्या नियंत्रण कानून के मसौदे के मुताबिक दो बच्चों की नीति का उल्लंघन करने वालों को तमाम सुविधाओं से वंचित करने का प्रावधान है. उनके सरकारी नौकरियों के लिए आवेदन करने और प्रमोशन पाने पर भी रोक होगी.
डॉयचे वैले पर अविनाश द्विवेदी की रिपोर्ट
भारत के उत्तर प्रदेश राज्य में जनसंख्या नियंत्रण के लिए 'दो बच्चों की नीति' लागू करने की बात सरकार ने कही है. इसके लिए उत्तर प्रदेश पॉपुलेशन (कंट्रोल, स्टेबलाइजेशन एंड वेलफेयर) बिल का मसौदा तैयार कर लिया गया है. इसके मुताबिक दो बच्चों की नीति का उल्लंघन करने वालों को तमाम सुविधाओं से वंचित करने का प्रावधान है. बिल के मुताबिक दो से ज्यादा बच्चे पैदा करने वाले स्थानीय चुनावों में हिस्सा नहीं ले सकेंगे. उनके सरकारी नौकरियों के लिए आवेदन करने और प्रमोशन पाने पर भी रोक होगी और उन्हें सरकार से सब्सिडी का लाभ भी नहीं मिलेगा. राज्य के स्वास्थ्य मंत्रालय के बजाए कानून मंत्रालय की ओर से तैयार किया गया यह जनसंख्या नियंत्रण कानून का प्रस्ताव जबरदस्त चर्चा का विषय बना हुआ है.
वैसे उत्तर प्रदेश ऐसा करने वाला भारत का पहला राज्य नहीं है. यहां असम, महाराष्ट्र, ओडिशा, राजस्थान, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश जैसे कई राज्यों में पहले ही दो बच्चों की नीति लागू है. हालांकि इनमें कुछ छूट भी मिलती रही है. लेकिन फिलहाल चिंता की बात यह है कि भारत सरकार की ओर से हाल ही में जारी किए गए राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (2019-20) के मुताबिक भारत के 22 में से 19 राज्यों में पहले ही जनसंख्या में गिरावट आ रही है. यानी 15 से 49 साल की महिलाओं के दो से कम बच्चे हैं. ऐसे में हाल ही में कई बीजेपी शासित राज्यों की ओर से ऐसे कानूनों को प्रस्तावित किया जाना गले नहीं उतरता.
भारत को जनसंख्या नियंत्रण की कितनी जरूरत
साल 2019-20 में स्वास्थ्य मंत्रालय की एक रिपोर्ट में कहा गया था कि 2025 तक भारत में प्रजनन दर गिरकर 1.9 हो जाएगी. जबकि जनसंख्या स्थिरता के लिए इसे कम से कम 2.1 होना चाहिए. कोरोना के चलते इसमें और गिरावट आ सकती है. इसके बावजूद सरकारें जनसंख्या नियंत्रण कानून क्यों चाहती हैं. जानकार कहते हैं कि राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (2015-16) के मुताबिक भारत में अब भी 40% लड़कियों की शादियां 18 साल से कम उम्र में हो जाती है. जिससे उनके प्रजनन की उम्र 15-49 के बीच कई बार मां बनने का खतरा है. इसे रोकने और उनके बच्चों के बीच अंतर को बढ़ाने में जनसंख्या नियंत्रण नीति की जरूरत होती है. अंतरराष्ट्रीय जनसंख्या विज्ञान संस्थान (IIPS), मुंबई में रिसर्च स्कॉलर अजीत कनौजिया कहते हैं, "अगर हम जनसंख्या के जिलेवार वितरण पर नजर डालें तो कई इलाकों के लिए दो बच्चों की नीति अब भी काम की हो सकती है."
जानकारों के मुताबिक असली समस्या अब लोगों को इस बात पर जागरुक करने की नहीं है कि उन्हें दो ही बच्चे पैदा करने चाहिए बल्कि यह जागरुकता लाने की है कि तीसरे बच्चे से कैसे बचें. अब ज्यादातर माता-पिता दो ही बच्चे चाहते हैं लेकिन उनको इस बात की जानकारी नहीं होती कि तीसरे गर्भ से कैसे बचना है. जिसके चलते महिला तीसरी बार भी गर्भवती हो जाती है. गर्भवती होने के बाद भी इस बच्चे से बचने का तरीका उसे नहीं पता होता और अंतत: उन्हें तीसरे बच्चे को भी पालना पड़ता है. सही तरीकों के बारे में अज्ञानता के चलते महिलाएं चौथी और पांचवी बार भी गर्भवती हो जाती है.
कानून बनाने के बजाए वर्तमान नीतियों पर ध्यान
जनसंख्या नीति का समर्थन करने के बावजूद जानकार इसे कानून बनाकर सख्ती से लागू कराने के खिलाफ हैं. उनका मानना है कि राज्यों को पहले से मौजूद सिस्टम पर ध्यान देना चाहिए. फिलहाल ग्रामीण इलाकों में परिवार नियोजन का काम आशा, आंगनवाड़ी और एएनएम स्वास्थ्य कर्मियों के जिम्मे होता है. जिन्हें बच्चा पैदा होने के बाद माता-पिता को परिवार नियोजन के बारे में जानकारी देनी होती है. 1-2 हफ्ते के अंदर यह मीटिंग जरूरी होती है क्योंकि बच्चे को जन्म देने के 3-4 हफ्ते के अंदर महिला फिर गर्भवती हो सकती है. जानकार बताते हैं कि यह प्रक्रिया जमीन पर सही से काम नहीं कर रही और सिर्फ कागजी हो गई है.
उनके मुताबिक ठेकेदारी की प्रक्रिया के चलते सरकारी उपायों की घटिया गुणवत्ता ने सरकारी अस्पतालों में मौजूद गर्भनिरोध के उपायों से लोगों का विश्वास उठाया है. नेशनल न्यूट्रिशन मिशन के तहत महिला और बाल स्वास्थ्य पर उत्तर प्रदेश के कई जिलों में काम कर चुके विनय कुमार कहते हैं, "नसबंदी के लिए लगाए जाने वाले सरकारी कैंप में आशा कार्यकर्ता के पास लोगों की संख्या पूरी करने के टारगेट होते हैं और कई बार वे लोगों को बिना पूरी जानकारी दिए इनमें ले आती हैं. यह बात खुलने पर एक पूरे समुदाय में नसबंदी के प्रति डर का माहौल बन जाता है. खराब गुणवत्ता के चलते अब कॉपर टी, माला डी और निरोध जैसे उपाय भी अप्रभावी और अप्रासंगिक हो गए हैं."
इंडिया स्पेंड की एक रिपोर्ट में इसका प्रभाव दिखा. रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 2008 से 2016 के बीच कंडोम के इस्तेमाल में 52 फीसदी की और पुरुष नसबंदी में 73 फीसदी की कमी आई. जिससे देश में कराए जाने वाले गर्भपातों की संख्या बढ़ी. रिपोर्ट में बताया गया कि भारत में अब भी आधे से ज्यादा गर्भपात असुरक्षित तरीकों से कराए जाते हैं. जानकार कहते हैं, सरकारी गर्भनिरोधक उपायों से भी लोग बेवजह भयभीत नहीं होते. इससे जुड़ी बुरी खबरें अक्सर आती रहती हैं. मसलन 2014 में छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में एक ही दिन में 83 महिलाओं की नसबंदी की गई थी, जिसमें से 13 की मौत हो गई थी.
सेक्स एजुकेशन से आ सकता है बड़ा बदलाव
जानकारों के मुताबिक जनसंख्या के नियंत्रण का सबसे अच्छा और सबसे सही तरीका है सेक्स एजुकेशन. उत्तर प्रदेश के कानून में इसके लिए प्रावधान नहीं है. इसमें हाईस्कूल लेवल से ही 'जनसंख्या नियंत्रण पर जागरुकता' की पढ़ाई कराने की बात कही गई है लेकिन सेक्स एजुकेशन का जिक्र नहीं है. विनय कुमार कहते हैं, "हर किशोर-किशोरी को इंसानी प्रजनन की पूरी जानकारी होना जरूरी है. इसके बिना जनसंख्या नियंत्रण के सारे उपाय नाकाम रहेंगे. लेकिन समस्या यह है कि वर्तमान बीजेपी सरकारों में जब मंत्री खुलकर इसके बारे में बात ही नहीं कर सकते तो यह जागरुकता कहां से आएगी? वे जमीनी उपाय नहीं करते और एक दिन अचानक जनता को दोषी ठहराकर बलपूर्वक जनसंख्या पर लगाम लगाना चाहते हैं."
आंकड़े भी इस बात का समर्थन करते हैं. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (2015-16) के आंकड़ों के मुताबिक देश में 15 से 49 साल के बीच की 3 करोड़ में से 13 प्रतिशत महिलाएं अपनी प्रेग्नेंसी में अंतर को बढ़ाना या उसे रोकना चाहती थीं लेकिन रोकथाम के उपायों तक उनकी पहुंच नहीं थी. विनय कुमार कहते हैं, "ऐसे हवा-हवाई कदमों के चलते ही सरकार पर आरोप लग रहे हैं कि यह कदम राजनीतिक दांव है और मुस्लिम समुदाय को निशाना बनाने की कोशिश है." भारत में आज भी मुस्लिम समुदाय में बहुविवाह का प्रचलन है. और उत्तर प्रदेश के कानून में खासतौर से स्पष्ट किया गया है कि दो शादियों से भी दो से ज्यादा बच्चे पैदा होने पर ऐसे लोग तमाम सरकारी लाभों से वंचित कर दिए जाएंगे.
बुरा असर डालेगा ये कानून
सभी एक्सपर्ट ये मानते हैं कि परिवार नियोजन को जब भी बलपूर्वक लागू कराने की कोशिश की जाएगी, यह लिंग की पहचान कर गर्भपात कराने में बढ़ोतरी करेगा. यह भारत के महिला-पुरुष अनुपात को भी बिगाड़ने का काम करेगा. जनसंख्या के तेजी से बूढ़े होने में भी इसकी भूमिका होगी. इससे महिलाओं की तस्करी और जबरदस्ती कराए जाने वाले देह व्यापार के मामले भी बढ़ सकते हैं. यह भी हो सकता है कि महिलाएं गर्भपात के लिए गैरकानूनी दवाओं का इस्तेमाल करें, जिनके बुरे प्रभाव उन्हें जीवन भर झेलने पड़ें. वे गर्भपात कराने के लिए फर्जी डॉक्टर के चंगुल में भी फंस सकती हैं. जिससे उनकी प्रजनन क्षमता खत्म होने का भी डर रहेगा.
अजीत कनौजिया कहते हैं, "अगर दो से ज्यादा बच्चे पैदा होने पर सरकारी लाभ खत्म किए जाने की बात होगी तो पहले बच्चे पर कोई खास असर नहीं होगा लेकिन दूसरे बच्चे के तौर पर लोग किसी भी हाल में लड़का ही चाहेंगे और इससे निश्चित तौर पर गर्भपात बढ़ेंगे. जिससे दूसरे बच्चे का लिंगानुपात और खराब होगा. जो पहले ही भारत में बहुत खराब है." हाल ही में की गई एक रिसर्च में सामने आया था कि दूसरे और तीसरे बच्चों के मामले में लड़कियों का लिंगानुपात तेजी से गिर रहा है.
हाशिए पर पड़े समुदायों को पहुंचेगा नुकसान
इस कदम से समाज में हाशिए पर मौजूद लोगों को ज्यादा नुकसान का डर भी है. जानकारों के मुताबिक ज्यादातर लोग जो सरकारी नौकरियों में आ रहे हैं, वे एक-दो बच्चे ही पैदा करना चाहते हैं क्योंकि ऐसे ज्यादातर लोग मध्यवर्गीय परिवारों से आते हैं और एक पीढ़ी पहले से ही घर में दो या ज्यादा से ज्यादा तीन बच्चों को देख रहे हैं. विनय कुमार कहते हैं, "जिनकी प्रगति इस कानून से बाधित होगी वो अपने परिवार में पहली बार ग्रेजुएट और पोस्टग्रेजुएट हुए लोग हैं. यह उनके लिए एंट्री बैरियर का काम करेगा."
एक समस्या यह भी है कि जब भारत में राज्यों की ओर से जनसंख्या नियंत्रण कानून बनाने की बात जोरों-शोरों से हो रही है, केंद्र सरकार पिछले साल ही सुप्रीम कोर्ट से कह चुकी है कि वह दो बच्चों की नीति को अनिवार्य नहीं बनाएगी. दुनिया भर में जनसंख्या की प्राकृतिक वृद्धि को जबरदस्ती बदलने की योजनाओं का बुरा असर ही हुआ है. चीन का उदाहरण पूरी दुनिया के सामने है. एक बड़ी युवा जनसंख्या के बिना भारत को विनिर्माण क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाने का सपना भी पूरा नहीं कर पाएगा. ऐसे में जनसंख्या नियंत्रण का कानून बनाने से अच्छे के बजाए बुरे प्रभाव ज्यादा होना तय है. (dw.com)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
बिहार सरकार के एक मंत्री जमा खान ने अपनी आठ सौ साल की विरासत को याद किया और अपनी खुद की मिसाल पेश करके कहा कि सर संघचालक मोहन भागवत ने जो कहा है, वह बिल्कुल ठीक है। मोहनजी ने पिछले दिनों कहा था कि भारत के हिंदुओं और मुसलमानों का डीएनए एक ही है। डीएनए को लेकर वैज्ञानिकों ने मतभेद प्रकट किए हैं लेकिन मोहनजी के मूल आशय से कौन असहमत हो सकता है ?
यह ठीक है कि इस्लाम और ईसाइयत का जन्म भारत के बाहर हुआ है और अभारतीय लोग ही इन दोनों मजहबों को भारत में लाए हैं। इन मजहबों के बारे में एतिहासिक तथ्य ये भी हैं कि इन्हें लोगों ने लालच, भय, द्वेष या सत्ता-मोह के कारण ही स्वीकार किया है। कोई कुरान या बाइबिल पढ़कर मुसलमान या ईसाई बना हो, इसके उदाहरण नगण्य हैं। जो अपने आपको हिंदू या जैन या बौद्ध कहते हैं, वे भी इन धर्मों के ग्रंथों को पढ़कर या इनके आदि महापुरुषों के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर इन धर्मों को थोड़े ही मानते हैं। सारे मजहबों के मानने के पीछे अक्सर पारिवारिक भेड़चाल ही होती है।
अलग-अलग मजहबों को मानने का अर्थ यह कभी नहीं होता कि उनके अनुयायी भी अलग-अलग हैं। एक ही भारतीय परिवार में शैव, शाक्त और वैष्णन होते हैं। पौराणिक, आर्यसमाजी, राधास्वामी, रामभक्त और कृष्णभक्त होते हैं। इसी तरह एक ही देश के हिंदू, मुसलमान, यहूदी— सभी एक ही परिवार के सदस्य हैं। यह ठीक है कि यहूदी, ईसाई और इस्लाम धर्म बाहर से आए हैं लेकिन बाहर से आए लोग यहीं के लोगों में घुल-मिल गए हैं और उनकी मूल संख्या कितनी रही होगी?
मुश्किल से कुछ सौ या कुछ हजार ! अब उनके लाखों और करोड़ों अनुयायिओं को भी हम विदेशी मानने लगें, यह हमारी बड़ी भूल होगी। मैं अपने कश्मीर, ईरान, अफगानिस्तान और पाकिस्तान में ऐसे कई बड़े-बड़े मुसलमानों से मिला हूँ जो पक्के मुसलमान हैं लेकिन वे अपने आप को आर्य या ब्राह्मण कहने में गर्व महसूस करते हैं। पाकिस्तान के दो-तीन प्रधानमंत्रियों ने मुझसे खुद कहा कि वे मूलत: हिंदू या राजपूत या जाट परिवार से हैं, जैसा कि बिहार के मंत्री जमा खान ने दावा किया है कि उनके परिवार की एक शाखा अभी भी हिंदू है और वे दोनों परिवार, दोनों धर्मों के धार्मिक उत्सव मिल-जुलकर मनाते हैं। कहने का अभिप्राय: यह कि कोई भी देशी या विदेशी विचारधारा या धर्म को माने लेकिन उसकी भारतीयता सर्वोच्च है और अमिट है। हम सबका खून एक ही है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
कामथ ने उन भारतीय बुद्धिजीवियों की खिल्ली उड़ाई जो आजाद भारत की रचनात्मक बुनियाद में विदेशों से आयातित मूल्यों के प्रति अपनी नतमस्तकता का बौद्धिक आडम्बर में डूबकर प्रचार करते रहे। उन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ में भारतीय प्रतिनिधि श्रीमती विजय लक्ष्मी पण्डित के उस कथन का भी प्रतिवाद किया जिसके अनुसार श्रीमती पण्डित ने संयुक्त राष्ट्र संघ के सम्मेलन में गौरवान्वित होकर यह कहा था कि भारत स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के आदर्शों को फांस से ग्रहण कर कृतज्ञ है। उन्होंने नये भारत के निर्माण की पृष्ठभूमि में सुविकसित भारतीय मूल्यों की पुष्टि का अहसास तक नहीं कराया।
कामथ ने कहा कि अम्बेडकर आभिजात्य शहरी भद्रपुरुषों की नकचढ़ी वृत्ति के प्रतीक हैं। यदि इस तरह के दृष्टिकोण से भारत के संविधान की रचना की गई तो इस देश का भगवान ही मालिक है । उन्होंने कहा कि गांधी ने पंचायत राज के आखिरी मंत्र के द्वारा इस देश की नई तवारीख लिखने का आह्वान हमसे किया है। कामथ ने आरोप लगाया कि संविधान लिखने की उपसमिति के सभी सदस्यों के कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी के अपवाद को छोडक़र भारतीय आज़ादी के सिपाही नहीं रहने के कारण उनकी आत्मा में देश के लिए वह गरमी ही नहीं रही है, जिस ऊष्मा ने गांधी का रूप धारण कर पूरे देश को अभिभूत किया है।
कामथ ने अपने भाषण में अम्बेडकर से असहमति का इजहार किया। उन्होंने कहा- ‘‘मेरे विचार से उन्होंने यह कहने में गौरव समझा कि इस विधान में बहुत कुछ भारत शासन अधिनियम से लिया गया है और यथेष्ट मात्रा में ब्रिटेन, अमरीका, आस्ट्रेलिया के विधानों और कदाचित् कनाडा के विधान में से भी लिया गया है। मैं उनसे यह आशा करता था कि वे हमें यह बताते कि हमारे राजनैतिक अतीत से भारतीय जनता की अपूर्व राजनैतिक तथा आध्यात्मिक प्रतिभा से क्या लिया गया है। इस बारे में सम्पूर्ण भाषण में एक भी शब्द नहीं था।’’ ...एक बात में मैं डॉ. अम्बेडकर का विरोध करता हूं। उन्होंने गांवों का उल्लेख ‘‘स्थानीयता की गंदी नालियां तथा अज्ञानता, विचार संकीर्णता और साम्प्रदायिकता की कन्दराओं’’ के रूप में किया है और ग्रामीण जनता के लिए हमारे करुण विश्वास का श्रेय किसी मेटकाफ नाम के व्यक्ति को दिया है।
मैं यह कहूंगा कि यह श्रेय मेटकाफ को नहीं है, वरन् उससे कहीं ज्यादा उस महान व्यक्ति को है जिसने अभी हमें हाल ही में स्वतंत्र कराया है। गांवों के लिये जो प्रेम हमारे हृदय में लहरा रहा है, वह तो हमारे पथप्रदर्शक तथा राष्ट्रपिता के कारण पैदा हुआ था। उन्हीं के कारण ग्राम जनतंत्र में तथा अपनी देहाती जनता में हमारा विश्वास बढ़ा और हमने अपने सम्पूर्ण हृदय से उसका पोषण किया। यह महात्मा गांधी के कारण है। यह आपके कारण है और यह सरदार पटेल, पंडित नेहरू और नेताजी बोस के कारण है कि हम अपने देहाती भाईयों को प्यार करने लगे हैं।‘‘
बुनियादी सुविधाओं और डिजिटलीकरण की कमी से जूझते सरकारी स्कूलों में टीचर भी कम हो रहे हैं. ये हाल तब है जबकि कोरोना काल में ऑनलाइन पढ़ाई के दबाव और जरूरतों ने सरकारी स्कूलों के बच्चों को सबसे ज्यादा प्रभावित किया है.
डॉयचे वैले पर शिवप्रसाद जोशी की रिपोर्ट
भारत के कुल 15 लाख से कुछ अधिक स्कूलों में से 68 प्रतिशत स्कूल सरकारी हैं लेकिन वहां शिक्षकों की घोर कमी बनी हुई है. इन स्कूलों में 50 प्रतिशत से भी कम शिक्षक तैनात हैं. जबकि नई शिक्षा नीति में छात्र और शिक्षक का अनुपात 30: 1 रखने को कहा गया है. स्कूली शिक्षा पर केंद्र सरकार की एक ताजा रिपोर्ट में ये बताया गया है. इन स्कूलों में से 30 प्रतिशत स्कूलों के पास कंप्यूटर चलाने वाला या उसकी जानकारी रखने वाला शिक्षक भी नहीं है जबकि डिजिटलीकरण और ऑनलाइन एजुकेशन जैसी बातें इधर शिक्षा ईकोसिस्टम में केंद्रीय जगह बनाती जा रही हैं. सरकारी स्कूलों की बदहाली देश की अर्थव्यवस्था, सामाजिक स्थिति और जीडीपी के लिहाज से भी चिंताजनक है.
केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय की रिपोर्ट
2019-20 के लिए यूनिफाइड डिस्ट्रिक्ट इंफॉर्मेशन सिस्टम फॉर एजुकेशन प्लस (यूडीआईएसई+) की इस रिपोर्ट में बताया गया है कि निजी गैर-सहायता प्राप्त स्कूलों के मुकाबले सरकारी स्कूलों में शिक्षकों का अनुपात काफी कम है. केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय के स्कूली शिक्षा और साक्षरता विभाग की ओर से जारी इस रिपोर्ट के मुताबिक देश में 15 लाख से कुछ अधिक स्कूल हैं जिनमें से 10 लाख 32 हजार स्कूलों को केंद्र और राज्य सरकारें चलाती हैं. 84,362 स्कूल सरकार से सहायता प्राप्त है, तीन लाख 37 हजार गैर सहायता प्राप्त निजी स्कूल हैं और 53,277 स्कूलों को अन्य संगठन और संस्थान चलाते हैं.
देश के तमाम स्कूलों में करीब 97 लाख टीचर नियुक्त हैं. इनमें से 49 लाख से कुछ अधिक शिक्षक सरकारी स्कूलों में, आठ लाख सरकारी सहायता प्राप्त स्कूलों में, 36 लाख निजी स्कूलों में और शेष अन्य स्कूलों में कार्यरत हैं. देश के कुल स्कूलों में से 22.38 प्रतिशत स्कूल निजी गैर सहायता प्राप्त हैं तो 68.48 प्रतिशत स्कूल सरकारी हैं. 37.18 प्रतिशत अध्यापक, निजी स्कूलों मे तैनात हैं. लेकिन सरकारी स्कूलों में आधी संख्या में शिक्षक नियुक्त हैं, 50 प्रतिशत पद खाली हैं. देश में सरकारी सहायता प्राप्त स्कूल साढ़े पांच फीसदी हैं और वहां करीब साढ़े आठ फीसदी शिक्षक हैं, जबकि अन्य स्कूलों में 3.36 प्रतिशत शिक्षकों की तैनाती है.
छात्र शिक्षक अनुपात अकेली समस्या नहीं
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में छात्र-शिक्षक अनुपात (पीटीआर) 30:1 रखने का जिक्र किया गया है यानी हर तीस शिक्षार्थियों के लिए एक शिक्षक. प्राइमरी कक्षाओं में 30 से ऊपर की पीटीआर वाले राज्य दिल्ली और झारखंड हैं. अपर प्राइमेरी लेवल में सभी राज्यों का पीटीआर 30 से नीचे हैं. लेकिन सेकंडरी और हायर सेकंडरी कक्षाओं में ये स्थिति उतनी अच्छी नहीं हैं. बिहार में प्राइमरी कक्षा में पीटीआर 55.4 का है तो सेकेंडरी में 51.8 का. हायर सेकेंडरी में ओडीशा का पीटीआर चिंताजनक रूप से 66.1 का है.
पीटीआर की दयनीय स्थिति के अलावा इस विभागीय रिपोर्ट से ये भी पता चलता है कि कुल स्कूलों में से 30 प्रतिशत स्कूलों में ही कम से कम एक टीचर को ही कम्प्यूटर चलाना और क्लास में उसका इस्तेमाल करना आता है. ध्यान रहे कि कोविड-19 के संकट में ऑनलाइन पढ़ाई पर जोर है और बच्चे करीब दो साल से स्कूल की चारदीवारी में नहीं दाखिल हो पाए हैं. वे या तो घर से पढ़ने को विवश हैं और सरकारी स्कूलों की हालत तो ये रिपोर्ट बता ही रही है. बेशक कई घरों में कम्प्यूटर, लैपटॉप, इंटरनेट कनेक्शन, स्मार्टफोन आदि का अभाव है लेकिन ये भी सच्चाई है कि बहुत से स्कूलों में सुविधाएं नहीं हैं और बहुत से स्कूली शिक्षक कम्प्यूटर नहीं जानते. ये भी सही है कि किसी एक चीज की कमी या किल्लत की आड़ में भी ऑनलाइन सीखने सिखाने की जद्दोजहद के कन्नी काटने की प्रवृत्तियां भी दिखती हैं.
सरकारी स्कूलों की जर्जरता का जिम्मेदार कौन
और इन तमाम मुद्दों के साथ ये भी उतना ही सही है कि निजी स्कूलों के पास बेहतर सुविधाएं, उपकरण और संसाधनों के अलावा अनुभवी और प्रशिक्षित टीचर हैं वहीं सरकारी स्कूलों में हालात 21वीं सदी के दो दशक बाद भी नहीं सुधर पाए हैं और वे बुनियादी संसाधनों से लेकर शिक्षकों की कमी तक- समस्याओं के बोझ तले दबे हुए हैं. समस्या छात्र शिक्षक अनुपात की तो है ही- पद खाली पड़े हुए हैं और टीचर या तो हैं नहीं और अगर हैं भी तो जहां उन्हें होना चाहिए वहां नहीं हैं. इसके अलावा पाठ्यक्रमों की विसंगति तो पूरे देश में एक विकराल समस्या के रूप में उभर कर आई है.
2016 में तत्कालीन केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा के बारे में संसद में रिपोर्ट पेश की थी जिसके अनुसार देश में एक लाख स्कूल ऐसे हैं जहां सिर्फ एक शिक्षक तैनात है. इसमें मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार और उत्तराखंड के हाल सबसे बुरे बताए गए थे. नई रिपोर्ट एक तरह से पुराने हालात को ही बयान करती है. वैसे सार्वभौम प्राइमरी शिक्षा के सहस्राब्दी लक्ष्य पर यूनेस्को की 2015 की रिपोर्ट ने भारत के प्रदर्शन पर संतोष जताया था. लेकिन शिक्षा की गुणवत्ता और वयस्क शिक्षा के हालात अब भी दयनीय हैं. करीब 21 साल पहले 164 देशों ने सबके लिए शिक्षा के आह्वान के साथ इस लक्ष्य को पूरा करने का संकल्प लिया था. लेकिन एक तिहाई देश ही इस लक्ष्य को पूरा कर पाए हैं. (dw.com)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने जनसंख्या नियंत्रण के लिए जो विधेयक प्रस्तावित किया है, उसकी आलोचना विपक्षी दल इस आधार पर कर रहे हैं कि यह मुस्लिम-विरोधी है। यदि वह सचमुच मुस्लिम-विरोधी होता तो वह सिर्फ मुसलमानों पर ही लागू होता याने जिस मुसलमान के दो से ज्यादा बच्चे होते, उसे तरह-तरह के सरकारी फायदों से वंचित रहना पड़ता, जैसा कि मुगल-काल में गैर-मुस्लिमों के साथ कुछ मामलों में हुआ करता था लेकिन इस विधेयक में ऐसा कुछ नहीं है। यह सबके लिए समान है। क्या हिंदू, क्या मुसलमान, क्या सिख, क्या ईसाई और क्या यहूदी!
यह ठीक है कि मुसलमानों में जनसंख्या के बढऩे का अनुपात ज्यादा है लेकिन उसका मुख्य कारण उनकी गरीबी और अशिक्षा है। हिंदुओं में भी उन्हीं समुदायों में बच्चे ज्यादा होते हैं, जो गरीब हैं, अशिक्षित हैं और मेहनतकश हैं। जो शिक्षित और संपन्न मुसलमान हैं, उनके भी परिवार आजकल प्राय: सीमित ही होते हैं लेकिन भारत में जो लोग सांप्रदायिक राजनीति करते हैं, वे अपने-अपने संप्रदाय का संख्या-बल बढ़ाने के लिए लोगों को उकसाते हैं।
ऐसे लोगों को हतोत्साहित करने के लिए उत्तरप्रदेश का यह कानून बहुत कारगर सिद्ध हो सकता है। इस विधेयक में एक धारा यह भी जोड़ी जानी चाहिए कि इस तरह से उकसाने वालों को सख्त सजा दी जाएगी। इस विधेयक में फिलहाल जो प्रावधान किए गए हैं, वे ऐसे हैं, जो आम लोगों को छोटा परिवार रखने के लिए प्रोत्साहित करेंगे, जैसे जिसके भी दो बच्चों से ज्यादा होंगे, उसे सरकारी नौकरी नहीं मिलेगी, उसकी सरकारी सुविधाएं वापस ले ली जाएंगी, उसे स्थानीय चुनावों में उम्मीदवारी नहीं मिलेगी।
जिसका सिर्फ एक बच्चा है, उसे कई विशेष सुविधाएं मिलेंगी। नसबंदी कराने वाले स्त्री-पुरुषों को एक लाख और 80 हजार रु. तक मिलेंगे। ये सभी प्रावधान ऐसे हैं, जिनका फायदा पढ़े-लिखे, शहरी और मध्यम वर्ग के लोग तो जरुर उठाना चाहेंगे लेकिन जिन लोगों की वजह से जनसंख्या बहुत बढ़ रही है, उन लोगों को न तो सरकारी नौकरियों से कुछ मतलब है और न ही चुनावों से। इस कानून से वे अगर नाराज हो गए तो भाजपा सरकार को मुसलमानों के वोट तो मिलने से रहे, गरीब और अशिक्षित हिंदुओं के वोटों में भी सेंध लग सकती है।
दो बच्चों की यह राजनीति मंहगी पड़ सकती है। लेकिन भाजपा यदि इस मुद्दे पर चतुराई से काम करे तो उत्तरप्रदेश में ही नहीं, सारे देश में थोक वोटों का ध्रुवीकरण हो सकता है और लोकसभा में उसकी सीटें अब से भी काफी ज्यादा बढ़ सकती हैं। जनसंख्या-नियंत्रण का बेहतर तरीका तो यह है कि शादी की उम्र बढ़ाई जाए, स्त्री शिक्षा बढ़े, परिवार-नियंत्रण के साधन मुफ्त बांटे जाएं, शारीरिक श्रम की कीमत ऊँची हो, जाति और मजहब के वोटों की राजनीति का खात्मा हो।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-डॉ. अमिता नीरव
अमृता प्रीतम की ये पंक्तियाँ मुझे हमेशा याद रहती है कि ‘दुनिया की हर लड़ाई औरतों की छाती पर लड़ी जाती है।’ मैं इसमें जोड़ती हूँ हर नफरत, हर तरह की संकीर्णता, हर तरह की कट्टरता का पहला शिकार औरतें होती हैं। इस देश में जहाँ बहुसंख्यक कथित तौर पर साल में दो बार औरतों की पूजा करता है, वहाँ #सुल्ली_डील_एप बनाया जाता है और उस पर कमाल ये है कि एक बेवसाइट का संस्थापक संपादक उसे सगर्व ट्वीट करता है।
ये वही लोग हैं जो साल में दो बार नवरात्र मनाते होंगे। नौ दिन व्रत भी करते होंगे और कन्या पूजन भी। यही लोग एप बनाते भी हैं और उसका प्रचार भी करते हैं। मैं पहले भी कहती रही हूँ कि सत्ता की लड़ाई में औरतें हमेशा दोनों तरफ से इस्तेमाल होती हैं। अपने दोस्तों से भी इस सिलसिले में मैं कई बार लड़ चुकी हूँ कि यदि आप किसी औऱ के साथ हो रहे गलत को गलत नहीं कहती हैं तो यह गलत आप तक भी आएगा। इस सिलसिले में मैं पिछले साल गार्गी कॉलेज वाली घटना भूल नहीं पाती हूँ।
मैं यह मानती हूँ कि अपनी लड़ाई में औरतें अमूमन अकेली ही होती हैं। उसकी मदद करने कोई धर्म, कोई जाति, कोई संस्था, कोई राज्य, कोई परिवार नहीं आता है। कई उदाहरण अपने इर्दगिर्द देख-सुन चुकी हूँ कि यदि किसी स्त्री ने अपने साथ हुई अभद्रता की शिकायत परिवार में की है तो अच्छे-खासे पढ़े-लिखे औऱ आधुनिक परिवारों में सबसे पहला शक उस पीड़ित स्त्री पर किया जाएगा। पूरा समाज पितृसत्ता के कीचड़ में डूब उतरा रहा है। उस पर धर्मांधता की गंदगी अलग से है।
सुल्ली डील एप वाले मसले को आप कई एंगल से देख सकते हैं। सबसे पहला मुस्लिम महिलाओं को टारगेट किया जा रहा है। ये राष्ट्रवादी हिंदू धर्मांधता का सबसे गलीज रूप है। दूसरा इसमें उन पढ़ी-लिखी और सार्वजनिक जीवन में दमदारी से अपनी बात रखती महिलाओं को टारगेट किया जा रहा है जो हर तरह से सत्ता और समाज के पारंपरिक ढाँचे में सेंध लगा रही हैं। इस एक तीर से कई शिकार किए जा रहे हैं।
इस सिलसिले में न जाने कहाँ से एक नई बहस आ गई है कि मुस्लिम महिलाओँ को सोशल मीडिया पर सक्रिय नहीं रहना चाहिए, उन्हें अपनी फोटो नहीं डालनी चाहिए। मतलब इस निहायत ही घटिया हरकत के खिलाफ महिलाओं के साथ आने की बजाए उन्हें ही नसीहत दी जा रही है? यह बहुत खराब बात है, लेकिन अपनी बात को ताकत से कहती महिलाएँ चाहें इस तरफ की हो या उस तरफ की पुरुषों की सत्ता के लिए खतरा है।
इसलिए ये लड़ाई सिर्फ मुस्लिम महिलाओं की नहीं है, ये लड़ाई महिलाओं की है। उस समाज से जिसकी नींव उनके बोलने-कहने, हँसने, घूमने यहाँ तक कि उसके स्वतंत्रता से साँस लेने से दरकती है। ये लड़ाई सिर्फ आज के लिए नहीं है, यह आने वाले वक्त के लिए भी है। ये लड़ाई किसी एक की नहीं है, ये लड़ाई हमारी है, आपकी भी औऱ मेरी भी। यदि आज इसका विरोध नहीं किया तो कल आपकी भी बारी आ सकती है।
साथ आइए, विरोध कीजिए, लड़िए, सरकार पर कार्रवाई के लिए दबाव बनाइए।
- प्रकाश दुबे
एकं सत्यं विप्रा- बहुधा वदंति। एक ही सत्य को ज्ञानी अलग अलग तरह से कहते हैं। यानी मनचाहा अर्थ लगाने की स्वतंत्रता है।बशर्ते दलील देकर भिडऩे का माद्दा हो। विप्र याने ब्राह्मण या ज्ञान देने वाला? अपनी पसंद का अर्थ लगा सकते हैं। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघचालक की मुसलमानों के बारे में राय दी। राजनीतिक दलों सहित सबने अपने अपने तरीके से व्याख्या की। कहते हैं न-मुंडे मुंडे मर्तिभिन्ना। मुसलमान सहित विभिन्न धार्मिक मत मानने वालों को मंत्रिपरिषद में शामिल किया। डॉ. मोहन भागवत के कथन की यह अधूरी झलक है। मुसलमानों के सम्मान में मंत्री गिरिराज सिंह, टू इन वन सांसद-साध्वी प्रज्ञा आदि के मनभावन कथन याद होंगे। संघ प्रमुख की बात को चुटकुला मानने वालों का आसन नहीं डगमगाता। सुभाषित सुनें। सुनाएं और आनंद लें।
फब्ती
लुंगी बनाने वाली कंपनी इस वक्त बच्चों के कपड़े बनाने में दुनिया में तीसरे नंबर पर है। वाहवाही कराने पर खर्च करने के बजाय कंपनी ने कारपोरेट सामाजिक दायित्व सीएसआर की रकम केरल में कोचि के कारखाना परिसर में खर्च की। गांवों में पेयजल, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, शराबमुक्ति आदि में मदद की। 20-20 नाम की स्वैच्छिक संस्था ने सहयोग किया। पंचायत चुनाव में 69 प्रतिशत वोट पाने वाली संस्था को कंपनी के मालिक साबू जेकब का आर्शीवाद मिला। विधानसभा चुनाव में ट्रवेंटी ट्वेंटी संगठन ने उम्मीदवार उतारे। राजनीतिक दल खफा हुए। कंपनी ने केरल में नया उद्योग लगाने का इरादा मुल्तवी किया। तेलंगाना सरकार ने कंपनीवालों को लाने हवाई जहाज भेजा। एक अरब करोड़ रुपए की लागत से तेलंगाना में परिधान बनेंगे। मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव और कंपनी के मालिक साबू जानते हैं कि फब्ती कसने के लिए शब्दों का प्रयोग जरूरी नहीं है।
मजाक
राष्ट्रपति की लायकी रखने वाले कुछ महानुभाव भगवान के प्यारे हो गए। प्रधानमंत्री ने मुप्पवरपु वेंकय्य नायुडु, थावरचंद गहलोत आदि के नाम लेकर बताया था कि सरकार को उनकी इतनी जरूरत है कि राष्ट्रपति नहीं बना सकते। भलमनसाहत में वेंकय्य जी कह गए- मैं पुष्पापति और मंत्री बनकर संतुष्ट हूं। श्रीमती नायडु का नाम पुष्पा है। प्रधानमंत्री को राष्ट्रपति से अधिक महत्वपूर्ण काम के लिए उनकी जरूरत आन पड़ी। उपराष्ट्रपति नायडु ने एक जुलाई को जन्मदिन मनाया।17 जुलाई 2022 को उपराष्ट्रपति के रूप में कार्यकाल का अवसान होगा। नया उपराष्ट्रपति भवन बन रहा है। उसमें रहने का अवसर मिलने के बारे में भगवान जानें या प्रधानमंत्री जानें। कर्नाटक में विधायकों को भगवा बाना पहनाने के साल भर बाद ज्योतिरादित्य सिंधिया तिरंगा लगी गाड़ी पाई। अब राज्यपाल ही मध्यप्रदेश का होगा। थावरचंद गहलोत की सरकार और राज्यसभा से अधिक जरूरत कर्नाटक में है। कर्नाटक के राजभवन में वजूभाई वाला ने सात साल बिताए। राज्यपाल थावर भाई इससे बड़ा ओहदा पा सकते हैं। भगवान जानते होंगे। बताएंगे तो प्रधानमंत्री ही।
कटाक्ष
राम मनोहर लोहिया, मधु लिमये, ज्योतिर्मय बसु, पीलू मोदी, आचार्य कृपलानी, अटल बिहारी वाजपेयी आदि की खट्टी-मीठी और तीखी चुटकियां याद की जाती हैं। लोहिया ने 1962 में ग्वालियर से कांग्रेस उम्मीदवार विजयाराजे सिंधिया के विरुद्ध सफाईकर्मी सुक्खो रानी को लोकसभा उम्मीदवार बनाया। उन्होंने इस चुनाव को पंडित नेहरू के चुनाव से अधिक महत्वपूर्ण बताया। समता के मत युद्ध में महारानी के विरुद्ध मेहतरानी तो हार गई। शपथ ग्रहण समारोह में सात बार के सांसद डा वीरेन्द्र कुमार को ज्योतिरादित्य सिंधिया से पहले शपथ दिलाई गई। छह दशक बाद मंत्रिमंडल फेरबदल में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का कटाक्ष दल बदल और वफादारी के बारे में नहीं था। इसे जातीय विषमता पर कटाक्ष मानें। खटीक समाज में जन्मे वीरेन्द्र कुमार ने बाल श्रम पर शोध किया है।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
-बादल सरोज
हैरी केन के इंग्लैंड के कप्तान होने और 1 मिनट 57 सेकंड में ही लूक शॉ के पहला गोल दाग देने और करीब एक घंटे तक 1-0 का स्कोर टँगे रहने के बावजूद मैच के शुरू से ही इटली के साथ थे।
पेनल्टी शूटआउट की जीत धुप्पल की जीत - फ्लूक - नहीं होती। यह तो बिलकुल नहीं क्योंकि इसी यूरो कप का सेमीफाइनल भी इटली ने शूटआउट में स्पेन को हराकर जीता था।
कितनी मजबूर रगों की जरूरत होती होगी अकेले गोल मुहाने पर खड़े कीपर की ; सारी शिराओं की ताकत निचुड़कर समा जाती होगी हाथ और पाँव और निगाहों में ; यह जीत यकीनन डोनारामा की जीत है। माराडोना के साथ सिर्फ ध्वनिसाम्य ही नहीं इस युवा खिलाड़ी के नाम में। एकदम क्रिटिकल समय की इसकी तस्वीरों को ज़ूम करके देखने से पता लग जाता है कि कुछ है जो इसे बाकियों से अलग और विशेष बनाता है।
कहावत है कि हर महान फूटबाल टीम के पीछे एक विश्व-स्तरीय गोलकीपर होता है। आज सुबह तड़के ढाई बजे के करीब इटली के डोनारामा Gianluigi Donnarumma ने इसे एक बार फिर साबित करके दिखा दिया। यह संयोग ही नहीं है कि सारे फुटबॉल विशेषज्ञों के मत में अब तक के सर्वश्रेष्ठ गोलकीपर जो बुफोन माने जाते हैं उनका पहला नाम भी डोनारामा जैसा ही था Gianluigi Buffon.
जिन गोलकीपर्स के बचावों को देखने की सुध है उनमे ओलिवर_खान Oliver Kahn कमाल ही थे - एकदम पहलवान जैसा शरीर, हिरण जैसी चपलता और पूरे स्टेडियम (और टीवी स्क्रीन्स के जरिये पूरी दुनिया) को थरथरा देने हाथी जैसी चिंघाड़। वे दुनिया के - संभवतः - अकेले गोलकीपर हैं जिन्हे गोल्डन बूट अवार्ड मिला। यह अवार्ड फीफा वर्ल्डकप आदि में सबसे ज्यादा गोल करने वाले खिलाड़ियों को दिया जाता है।
रिनात_दसायेव की गोलकीपरी अलग ही थी। सोवियत रूस की टीम भले कोई जलवा नहीं दिखा पाई लेकिन Rinat Dasayev की चमक शीर्ष के कीपर्स में कायम है। देखने को मैनुअल नुएर और हेराल्ड शूमेकर को भी खेलते देखे हैं। अर्जेन्टीना फैन हैं सो पॉम्पीदू की याद है।
लेकिन सबसे मजेदार लगे वर्ल्डकप फाइनल के पेनल्टी शूटआउट में इटली की दो पेनल्टीज को रोकने वाले ब्राजील के क्लॉडिओ टफरेल Claudio Taffarel ;
यूं तो फुटबॉल के सारे महान खिलाड़ी सचमुच में महान होते हैं। (चक दे इंडिया के डायलॉग में कहें तो इसलिए कि फुटबॉल में -- - - - - नहीं होते।) वे खेल के जरिये की हर तरह की कमाई का इस्तेमाल लोगों की शक्ति भर मदद करने के लिए करते हैं।
वे अपनी लोकप्रियता धन सम्पदा को मानवता के कल्याण में लगाते हैं। हाल ही में क्रिस्टिआनो रोनाल्डो इसकी झलक दिखा चुके हैं। कंपनियों के माल ढोने वाले गधे नहीं होते। इस ब्राज़ीली गोलकीपर टफरेल और उनकी पत्नी ने 15 अनाथ बच्चे गोद लिए थे।
अगले साल होने वाले वाले फीफा वर्ल्ड कप 2022 के सेमी फाइनल्स की टीम्स तय हो गयी हैं ; कंपनियों के माल ढोने वाले गधे नहीं होते। अर्जेंटीना, इंग्लैंड, इटली, ब्राजील !
(कोपा_अमेरिका American Cup टूर्नामेंट पर कुछ लिखना संभव नहीं है। ब्राजील और अर्जेंटीना दोनों के बीच मुकाबला होता है तो गत सेरेना और वीनस के पिता रिचर्ड विलियम्स जैसी हो जाती है।)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
परसों तक ऐसा लग रहा था कि अफगानिस्तान में हमारे राजदूतावास और वाणिज्य दूतावासों को कोई खतरा नहीं है, लेकिन हमारा कंधार का दूतावास कल खाली हो गया। लगभग 50 कर्मचारियों और कुछ पुलिसवालों को आनन-फानन जहाज में बिठाकर नई दिल्ली ले जाया गया है।
वैसे काबुल, बल्ख और मजारे-शरीफ में हमारे कूटनीतिज्ञ अभी तक टिके हुए हैं लेकिन कोई आश्चर्य नहीं कि वे दूतावास भी तालिबान के घेरे में शीघ्र ही चले जाएं। जो ताजा खबरें आ रही हैं उनसे तो ऐसा लगता है कि अफगानिस्तान के उत्तरी और पश्चिमी जिलों में तालिबान का कब्जा बढ़ता जा रहा है। एक खबर यह भी है कि तालिबानी हमले का मुकाबला करने की बजाय लगभग एक हजार अफगान सैनिक ताजिकिस्तान की सीमा में जाकर छिप गए।
चीन पहुंचे हुए तालिबान प्रवक्ता ने पेइचिंग में घोषणा की है कि 85 प्रतिशत क्षेत्र पर तालिबान का कब्जा हो चुका है जबकि राष्ट्रपति अशरफ गनी का कहना है कि अफगान फौज और पुलिस तालिबान आतंकवादियों को पीछे खदेड़ती जा रही है। उन्होंने यह भी कहा है कि अफगानिस्तान के विभिन्न जिलों में रोज लगभग 200 से 600 लोग मारे जा रहे हैं। यह गृह-युद्ध की स्थिति नहीं है तो क्या है ?
जो चीन पाकिस्तान का इस्पाती दोस्त है और तालिबान का समर्थक है, वह भी इतना घबराया हुआ है कि उसने अपने लगभग 200 नागरिकों से काबुल खाली करवाया है। चीन इन बुरे हालात का दोष अमेरिका के सिर मढ़ रहा है लेकिन आश्चर्य की बात है कि काबुल में पाकिस्तानी राजदूत मंसूर अहमद खान ने दुनिया के देशों से अपील की है कि वे अफगान फौजों की मदद करें, वरना तालिबानी हमलों के कारण लाखों शरणार्थी दुबारा पाकिस्तान के सीने पर सवार हो जाएंगे।
पाकिस्तान के नेता एक तरफ अफगानिस्तान की गनी सरकार को काफी दिलासा दिला रहे हैं और दूसरी तरफ उनका गुप्तचर विभाग और फौज तालिबान के विभिन्न गिरोहों की पीठ थपथपा रहे हैं। तालिबान के इस दावे पर संदेह किया जा सकता है कि 85 प्रतिशत अफगान भूमि पर उनका कब्जा हो गया है लेकिन यह सत्य है कि उन्होंने ईरान की सीमा पर स्थित शहर इस्लाम किला और वाखान क्षेत्र में चीन से जुड़े अफगान इलाकों पर कब्जा कर लिया है।
तालिबान नेताओं ने चीनी नेताओं को भरोसा दिलाया है कि वे सिंक्यांग के उइगर मुसलमानों को नहीं भड़काएंगे और उनकी सरकार चीनी आर्थिक सहायता को सहर्ष स्वीकार करेगी। कश्मीर के बारे में वे कह चुके हैं कि वे उसे भारत का आतंरिक मामला मानते हैं। ये बातें सत्ताकामी शक्ति के संयम और संतुलन को बताती हैं लेकिन जिन जिलों पर तालिबान कब्जा कर चुके हैं, उनमें उन्होंने अफगान महिलाओं पर अपने पुराने इस्लामी प्रतिबंध थोप दिए हैं। अफगान गृह-युद्ध का सबसे बुरा असर पाकिस्तान और भारत पर होगा लेकिन देखिए कि ये दोनों ही बगलें झांक रहे हैं।
(लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं)
(नया इंडिया की अनुमति से)
उत्तर प्रदेश में जनसंख्या नियंत्रण के लिए ‘दो बच्चों की नीति’ लागू किए जाने को लेकर बहस शुरू हो गई है। असम की बीजेपी सरकार ऐसी नीति को लागू कर चुकी है।
उत्तर प्रदेश सरकार की राय है कि प्रस्तावित मसौदे का हर कोई स्वागत करेगा। वहीं विपक्ष ने इसे चुनाव के पहले लोगों का ‘ध्यान भटकाने की एक कोशिश’ बताया है।
राज्य के विधि आयोग ने चर्चा में आये ‘उत्तर प्रदेश पॉपुलेशन (कंट्रोल, स्टेबलाइज़ेशन एंड वेलफेयर) बिल’ का मसौदा तैयार किया है।
मसौदे में इस बात की सिफारिश की गई है कि ‘दो बच्चों की नीति’ का उल्लंघन करने वालों को स्थानीय निकाय के चुनाव में हिस्सा लेने की इजाज़त नहीं हो।
उनके सरकारी नौकरी में आवेदन करने और प्रमोशन पाने पर रोक लगाई जाये। उन्हें सरकार की ओर से मिलने वाली किसी भी सब्सिडी का लाभ नहीं मिले।
आयोग ने जो ड्राफ़्ट तैयार किया है, उसे अपनी वेबसाइट पर अपलोड किया है और लोगों से कहा गया है कि वो 19 जुलाई तक इसपर अपनी राय रखें। अपने सुझाव भी दें।
उत्तर प्रदेश के उप-मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य ने कहा है कि इस नीति को तैयार करने का मकसद है कि उत्तर प्रदेश का ‘सर्वांगीण विकास हो।’
उत्तर प्रदेश, देश का सबसे ज़्यादा जनसंख्या वाला राज्य है।
बिल में क्या हैं प्रस्ताव?
बिल में कहा गया है कि राज्य के सतत विकास के लिए जनसंख्या नियंत्रण बेहद जरूरी है।
बिल के मसौदे में जनसंख्या नीति पर अमल करने वालों को इंसेटिव (अतिरिक्त सुविधाएं) देने की सिफारिश की गई है।
समाचार एजेंसी पीटीआई ने बताया है कि मसौदे के अनुसार, ‘दो बच्चों के नियम का पालन करने वाले सरकारी कर्मचारियों को सेवा काल के दौरान दो अतिरिक्त इनक्रीमेंट (वेतन वृद्धि) मिलेंगे। माँ या पिता बनने पर पूरे वेतन और भत्तों के साथ 12 महीने की छुट्टी मिलेगी। नेशनल पेंशन स्कीम के तहत नियोक्ता के अंशदान में तीन फीसदी का इजाफा होगा।’
ड्राफ्ट के मुताबिक, दो से ज़्यादा बच्चे पैदा करने वाले लोग सरकार की कल्याणकारी योजनाओं से वंचित हो जायेगें। उनके परिवार को सिर्फ चार सदस्यों के हिस्से का राशन मिलेगा।
अगर सरकार ज़रूरी समझे तो नियम का उल्लंघन करने वालों को दूसरी सरकारी योजनाओं से मिलने वाले लाभ भी खत्म कर सकती हैं।
दो से अधिक बच्चे पैदा करने वाले लोग स्थानीय, निकाय और पंचायत चुनाव नहीं लड़ पाएंगे। वो सरकारी नौकरियों के लिए योग्य नहीं होंगे और सरकारी सब्सिडी का फायदा नहीं उठा पाएंगे।
कहा गया है कि स्कूलों में जनसंख्या नियंत्रण की जागरूकता की पढ़ाई हाईस्कूल लेवल पर अनिवार्य होगी और पाठ्यक्रम में पढ़ाया जायेगा।
रिपोर्टों के अनुसार, इस ड्राफ्ट में कहा गया है कि अगर कोई आम दंपत्ति सिर्फ एक बच्चे की नीति अपनाकर नसबंदी करा लेते हैं तो सरकार उन्हें बेटे के लिए एक मुश्त 80,000 रुपये और बेटी के लिए 1,00,000 रुपये की आर्थिक मदद देगी।
अधिनियम का पालन कराने के लिए ‘पॉपुलेशन फंड’ बनाया जाएगा। प्रस्तावित मसौदे में राज्य सरकार के कर्तव्यों का भी जिक्र किया गया है।
इसके मुताबिक, सभी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों पर प्रसूति केंद्र बनाये जाएंगे। परिवार नियोजन का प्रचार किया जाएगा और ये तय किया जाएगा कि पूरे राज्य में गर्भधारण करने, जन्म और मृत्यु का पंजीकरण अनिवार्य रूप से हो।
मसौदे में कहा गया है कि ‘उत्तर प्रदेश में पारिस्थितिकी और आर्थिक संसाधनों की मौजूदगी सीमित है। सभी नागरिकों को मानव-जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं, जैसे भोजन, साफ़ पानी, अच्छा घर, गुणवत्ता वाली शिक्षा, जीवन यापन के अवसर और घर में बिजली मिलनी चाहिए।’
आखिरकार किस पर निगाह रखेगा ये कानून?
गौरतलब है कि विधेयक के पृष्ठ 12-15 में बहु-विवाहित जोड़ों पर इस कानून की कई शर्तों को काफी विस्तार से लिखा गया है।
वैसे तो इसके दायरे में हर धर्म के लोग आएंगे, लेकिन जगजाहिर है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ बहुविवाह की इजाजत देता है।
मसलन, एक शख्स की अगर दो पत्नियाँ हैं तो इस कानून के मुताबिक दोनों पत्नियों से इस परिवार में कुल दो बच्चे ही मान्य रहेंगे।
दोनों पत्नियों से अगर दो-दो बच्चे हों, तो फिर उसे सरकारी सुविधाओं के लाभार्थी होने के नजरिये से गैर-कानूनी माना जायेगा, और परिवार सरकारी सुविधाओं के दायरे से बाहर हो जायेगा।
कानून को लेकर उठते सवाल
इन उलझाने वाले प्रावधानों से इस कानून की मंशा और नीयत पर भी सवाल उठे हैं।
वरिष्ठ पत्रकार शरत प्रधान के मुताबिक इसकी टाइमिंग चुनावी है और इस कानून का स्वरूप तानाशाही से भरपूर है।
उन्होंने बताया, ‘मुझे लगता है कि ये रणनीति के तहत किया गया है। सरकार ने लॉ कमीशन के सहारे एक कानून बनाया है ताकि बढ़ती जनसंख्या के ऊपर एक विवाद हो और मुसलमानों की और इशारा हो। ये एक धारणा बनाई जा रही है, झूठ के आधार पर, ताकि सामाजिक ध्रुवीकरण हो सके। मान लिया कि बढ़ती आबादी एक समस्या है, लेकिन क्या आबादी की समस्या से निपटने का यह तरीका है? तानाशाही कानून बनाकर? यह बरसों तक चलने वाला काम है, यह कानून रातों-रात क्यों आया है? अगर जनसंख्या नियंत्रण करना हो तो जन मानस में जागरूकता फैलाइये, स्कूली शिक्षा में सिखाइये। सिर्फ सरकारी इश्तहारों से काम नहीं चलेगा। यह काम कभी गंभीरता से नहीं हुआ है। अभी कौनसी आफत आ गई है ये कानून बनाने की?’
विधेयक के मुख्य अंश को बेहतर समझने के लिए बीबीसी हिन्दी ने उत्तर प्रदेश के विधि आयोग के अध्यक्ष जस्टिस ए के मित्तल से फोन पर बात करने की कोशिश की, लेकिन उनसे संपर्क नहीं हो सका।
हालांकि समाचार एजेंसी एएनआई से बात करते हुए जस्टिस मित्तल ने कहा कि आयोग इस विधेयक (ड्राफ्ट) को अगस्त महीने के दूसरे सप्ताह में योगी सरकार को सौंपने की तैयारी कर रहा है। साथ ही उन्होंने कहा कि प्रस्तावित कानून लाभार्थी की स्वेच्छा से ही लागू किया जायेगा।
क्या वाकई जरूरत है ऐसे कानून की?
जानकारों की मानें तो देश में प्रजनन दर यानी फर्टिलिटी रेट लगभग सभी प्रदेशों में गिरा है।
पिछले साल दिसंबर में 23 राज्यों का राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 (हृस्न॥स्-5) का आंकड़ा जारी हुआ था, लेकिन इसमें उत्तर प्रदेश में प्रजनन दर के आंकड़े शामिल नहीं थे। अभी उत्तर प्रदेश के आंकड़ों का इंतजार है। हालांकि, उत्तर प्रदेश में भी इसके कम होने की उम्मीद है।
पॉपुलेशन फाउंडेशन ऑफ इंडिया की कार्यवाहक निदेशक पूनम मुत्तरेजा आश्चर्य जताती हैं कि लॉ कमीशन को ऐसा ड्राफ्ट विधेयक (बिल) बनाने को क्यों कहा गया। उनके मुताबिक ये काम तो मूलत: स्वास्थ्य विभाग का है।
मुत्तरेजा ने कहा, ‘सवाल ये है कि क्या ये जनसंख्या विधेयक स्वास्थ्य से जुड़े आँकड़ों के आधार पर बनाया गया है? राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के आंकड़े आने वाले हैं, और अगर बिहार में फर्टिलिटी रेट गिर रहा है तो उत्तर प्रदेश में भी गिरने की उम्मीद है। केरल और देश के कई राज्यों को देखें तो बिना इस तरह की कठोर नीतियों और कानूनों के ही फर्टिलिटी रेट कम हो रहा है।’
‘राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 के पूरे आंकड़े अभी नहीं आये हैं लेकिन अगर राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-4 की बात करें तो पूरे देश से यही पता चल रहा है कि अधिकतर लोग दो से ज़्यादा बच्चे नहीं चाहते हैं। अगर देश भर से यही आँकड़े मिल रहे हैं तो फिर हम दो बच्चों वाला कठोर कानून कैसे जस्टिफाई कर सकते हैं?’
उन्होंने कहा, ‘सुप्रीम कोर्ट में भी जब दो बच्चों की नीति से जुड़ी एक पीआईएल की सुनवाई हुई, तो केंद्र सरकार ने बहुत शानदार हलफनामा दायर किया था कि भारत में परिवार नियोजन के लिए किसी भी बलपूर्वक तरीक़े की जरूरत नहीं है। भारत में ये अधिकार का मुद्दा है और परिवार नियोजन के लिए एक राइट्स बेस्ड अप्रोच ही बेहतर है। कमीशन ने सुझाव देने का मौका दिया है तो हम उसका स्वागत करते हैं और अपने सुझाव देंगे, हम डेटा भी देंगे, सबूत भी देंगे कि इस तरह के कानून की ज़रूरत नहीं है और उम्मीद करते हैं कि सरकार एक ऐसी नीति बनाये जो महिलाओं को ध्यान में रखेगी और उनके अपने शरीर पर अधिकार का सम्मान करेगी।’
राजनीतिक दलों ने क्या कहा?
उत्तर प्रदेश सरकार ने जनसंख्या नियंत्रण नीति के मसौदे को सही दिशा में बढ़ाया गया क़दम बताया है।
उत्तर प्रदेश के उप-मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य ने कहा है कि ‘मुझे लगता है सब इसका स्वागत करेंगे। राजनीति के लिए कोई विरोध भले ही करे।’
वहीं, प्रदेश सरकार के मंत्री मोहसिन रज़ा ने कहा कि ये प्रयास जनता के हित के लिए है।
उन्होंने कहा, ‘इस मसौदे पर जनता से सुझाव माँगा गया है। जब ये 19 जुलाई के बाद सरकार के पास आएगा तो हम कानून लाएंगे।’
दूसरी तरफ समाजवादी पार्टी और कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश सरकार की मंशा पर सवाल उठाये हैं।
समाजवादी पार्टी के नेता अनुराग भदौरिया ने कहा कि ‘बढ़ती जनसंख्या देश के लिए समस्या है, इसमें कोई दो राय नहीं। लेकिन बीजेपी की सरकार ने अब तक कुछ नहीं किया। अब चुनाव आ गया है तो असल मुद्दों से ध्यान हटाने के लिए मार्केटिंग इवेंट किया जा रहा है।’
वहीं, कांग्रेस नेता पीएल पूनिया ने भी कहा कि ये मुद्दा चुनाव को ध्यान में रखकर उठाया जा रहा है।
उत्तर प्रदेश लॉ कमीशन के विवादित क़ानूनों का सिलसिला
जस्टिस ए के मित्तल की अध्यक्षता में उत्तर प्रदेश विधि आयोग पहले भी विवादित क़ानूनों के विधेयक बना चुका है।
2019 में आयोग ने 286 पन्नों वाला ‘लव जिहाद कानून’ प्रस्तावित किया था। बाद में इसी की बुनियाद पर योगी सरकार ने दिसंबर 2020 में अध्यादेश जारी कर इसे धर्म परिवर्तन के खिलाफ कानून बनाया जिसके तहत दोषी पाये जाने पर 10 साल तक की सजा हो सकती है।
तीन महीने पहले जस्टिस मित्तल ने ये ऐलान किया था कि वो जुए के खिलाफ सख्ती वाला विधेयक लाने जा रहे है।
उन्होंने इंटरनेट युग में जुए से युवाओं को होने वाले नुकसान पर चिंता जताई थी और कहा था कि विधि आयोग संगठित जुए को एक गैर जमानती जुर्म बनाने पर भी विचार कर रहा है। (bbc.com/hindi)
अतिरिक्त रिपोर्टिंग-अनंत झणाणे, लखनऊ से
-डॉ राजू पाण्डेय
कोविड-19 के बाद देश में मानसिक रोगों के मामले चिंताजनक रूप से बढ़े हैं। कोविड-19 एक अदृश्य शत्रु है। यह रूप बदलने वाला है। यह कब प्रकट होगा, कब समाप्त होगा और कितना विनाशकारी होगा इसका अनुमान लगाना अब तक असंभव है। यही अनिश्चितताजन्य भय एवं असुरक्षा की भावना मानसिक रोगों हेतु उत्तरदायी रही है।
कुछ मनोरोग विशेषज्ञ तो कोविड-19 को फियरोडेमिक की संज्ञा दे रहे हैं। नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेन्टल हेल्थ एंड न्यूरोसाइंसेज(निमहान्स) बेंगलुरु के विशेषज्ञों के अनुसार अपने स्वजनों और मित्रों से दूर किसी अपरिचित वातावरण में मृत्यु का भय लोगों को मानसिक रूप से कमजोर बना रहा है। मीडिया में लगातार दिखाए जाने वाले अंतिम संस्कार हेतु लंबी कतारों एवं सामूहिक अंतिम संस्कार आदि के भयानक दृश्य तथा बेड, ऑक्सीजन एवं दवाओं की कमी से मौतों के समाचार लोगों में मृत्यु भय उत्पन्न कर रहे हैं। एथिक्स एंड मेडिकल रजिस्ट्रेशन बोर्ड,निमहान्स, इंडियन साइकाइट्री सोसाइटी तथा एम्स के अनेक डॉक्टर्स ने 28 अप्रैल 2021 को लिखे एक पत्र में मीडिया द्वारा इस तरह के दृश्यों के प्रसारण के कारण स्वस्थ और कोविड संक्रमित व्यक्तियों दोनों के मनोबल पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभावों के विषय में आगाह किया है।
मानसिक स्वास्थ्य के संबंध में हमारी स्थिति कोविड-19 के पूर्व से ही गंभीर थी। वर्ष 2017 में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने अपने एक संबोधन में कहा था कि भारत एक संभावित मानसिक स्वास्थ्य महामारी का सामना कर रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि वर्ष 2012 से 2030 के बीच मानसिक स्वास्थ्य की समस्याओं के कारण भारत को 1.03 ट्रिलियन डॉलर का भारी भरकम आर्थिक नुकसान हो सकता है।कोविड-19 के बाद तो मानसिक स्वास्थ्य की स्थिति चिंताजनक रूप से खराब हुई है। इंडियन साइकाइट्री सोसायटी के एक सर्वेक्षण के अनुसार कोविड-19 महामारी के प्रारंभ के बाद से 20% ज्यादा लोग खराब मानसिक स्वास्थ्य से पीड़ित थे। आईसीएमआर और पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया की 2019 की एक रिपोर्ट बताती है कि देश में 19 करोड़ 73 लाख लोग मानसिक रोगों से ग्रस्त हैं।
‘सुसाइड प्रिवेंशन इन इंडिया फाउंडेशन’ के संस्थापक नेल्सन मोसेज़ का आकलन है कि कोविड-19 के कारण अधिकांश लोग निराशा, हताशा एवं अवसाद का अनुभव कर रहे हैं और अब मानसिक रोगों का फैलाव घर घर तक हो गया है।
दूसरी लहर के दौरान कोविड-19 के नए नए सांघातिक वैरिएंट्स की उपस्थिति, इन वैरिएंट्स द्वारा उत्पन्न विभिन्न एवं विरोधाभासी लक्षण, इलाज के विषय में बदलते प्रोटोकॉल, कोविड संक्रमण से मुक्त होने के बाद दुबारा कोविड ग्रस्त होने की आशंका और म्यूकोरमाइकोसिस जैसे जानलेवा संक्रमण का खतरा आम लोगों के भय हेतु उत्तरदायी रहे हैं तथा इनके कारण मानसिक तनाव एवं मानसिक व्याधियों में असाधारण वृद्धि हुई है।
कोविड-19 की चिकित्सा के दौरान भी एकाकी होने का एहसास लोगों को भयग्रस्त करता रहा है। स्थिति गंभीर होने पर किसी आत्मीय जन के निकट न होने की कल्पना लोगों को कमजोर बनाती रही है। होम आइसोलेशन में रहने वाले कोविड रोगी इस बात को लेकर चिंतित रहे हैं कि यदि उनका स्वास्थ्य अधिक खराब हुआ तो क्या उन्हें सही इलाज मिल पाएगा?
कोविड-19 के कारण मृत परिजनों के अंतिम संस्कार में सम्मिलित न हो पाना, मृत्योपरांत होने वाले पारंपरिक कार्यक्रमों का सम्पादन न कर पाना, किसी आत्मीय की मृत्यु के दुःख को अकेले सहन करने की विवशता तथा शोक के पलों में मित्रों एवं परिजनों की अनुपस्थिति आदि भी मानसिक रोगों को जन्म देने वाले रहे हैं।
स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़े लोगों के लिए कोविड-19 का यह दौर भयानक रहा है। उन्होंने मृत्यु को बहुत करीब से देखा है। उन्हें लगातार बिना अवकाश के घंटों काम करना पड़ा है और ड्यूटी की समाप्ति के बाद आइसोलेशन में रहना पड़ा है। पूरे विश्व में हुए अनेक अध्ययन यह दर्शाते हैं कि चिकित्सक, नर्सिंग स्टॉफ तथा स्वास्थ्य सेवाओं में कार्यरत स्वच्छता कर्मी भयानक मानसिक अवसाद और थकान के शिकार हुए हैं।
चाहे वे स्कूलों और कॉलेजों के विद्यार्थी हों या प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में लगा युवा वर्ग, बार बार स्थगित होती परीक्षाओं के फलस्वरूप निर्मित अनिश्चितता का वातावरण तथा खुलते बंद होते स्कूल-कॉलेज-कोचिंग संस्थानों के कारण अनियमित हुई दिनचर्या इनके मानसिक तनाव का कारण बने हैं। परीक्षाओं को कभी भौतिक उपस्थिति द्वारा तो कभी डिजिटल रूप में संपन्न किया गया है। मूल्यांकन की बदलती विधियों ने विद्यार्थियों को चिंता में डाला है।
यूनिसेफ का आकलन है कि दक्षिण एशियाई देशों में कोरोना वायरस महामारी के बढ़ते प्रकोप का असर बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ रहा है। यूनिसेफ ने इस संकट को अभूतपूर्व बताया है। यूनिसेफ के अनुसार दक्षिण एशियाई देशों में कोरोना वायरस के कारण मार्च 2020 से स्वास्थ्य सेवाओं पर अत्यधिक दबाव पड़ा है। यूनिसेफ का मानना है कि कोरोना की पहली लहर के दौरान ही दक्षिण एशियाई देशों में दो लाख बच्चों और हजारों माताओं को आवश्यक स्वास्थ्य सेवाओं की अनुपलब्धता के संकट से गुजरना पड़ा।कोरोना काल में अनेक बच्चे अचानक अनाथ हो गए हैं जबकि अनेक बच्चों ने माता या पिता को खोया है।
कोविड-19 को नियंत्रित करने हेतु बार बार लगाए जाने वाले लॉक डाउन के कारण आर्थिक गतिविधियां बुरी तरह प्रभावित रही हैं। लोग आजीविका छिनने की आशंका से ग्रस्त हैं। असुरक्षित भविष्य का भय उन्हें सता रहा है। निजी क्षेत्र में बहुत से लोगों ने नौकरियां गंवाईं हैं और बहुत सारे लोगों की आय में कमी आई है। आर्थिक अनिश्चितता मानसिक तनाव का कारण बनी है। प्रवासी मजदूरों के लिए यह समय कठिन रहा है, अपनों से दूर किसी अनजाने स्थान में मृत्यु का डर एवं रोजी रोटी छिनने का दर्द दोनों इनके मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले रहे हैं।
कोरोना काल में महिलाओं को सर्वाधिक मानसिक दबाव झेलना पड़ रहा है। वर्क फ्रॉम होम करने वाली महिलाएं घरेलू कार्य के बढ़ते बोझ से परेशान हैं। लॉक डाउन के कारण परिवार के सभी सदस्य घर पर हैं, बाहर से कोई मदद हासिल नहीं हो सकती। ऐसे हालातों में इन कामकाजी महिलाओं को परिवार एवं नौकरी में संतुलन बनाए रखने हेतु घोर मानसिक तनाव का सामना करना पड़ा है। निर्धन ग्रामीण परिवारों में प्रवासी मजदूरों की घर वापसी के बाद सदस्य संख्या बढ़ी है और कई बार तो सबसे अंत में भोजन करने वाली गृहणी को भूखा रहना पड़ता है। परिवार के पुरुष रोजगार छिनने और आय में कमी के कारण परेशान हैं और अपनी हताशा की अभिव्यक्ति वे घरेलू महिलाओं पर अत्याचार के रूप में कर रहे हैं। कोरोना के दौर में घरेलू हिंसा के मामले बेतहाशा बढ़े हैं जिससे महिलाएं तनाव एवं असुरक्षा की भावना से ग्रस्त हैं।
संपूर्ण विश्व में चिकित्सक इस प्रकार के मामलों की सूचना दे रहे हैं जिनमें कोविड-19 संक्रमण होने के बाद अचानक रोगियों के मानसिक स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ा है। इस संबंध में अमेरिका, ब्रिटेन और स्पेन जैसे देशों में अनेक अध्ययन भी किए जा रहे हैं। ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में हुए एक अध्ययन के अनुसार कोरोना के कारण लोग मानसिक तौर पर भी अस्वस्थ हो सकते हैं। शोधकर्ताओं द्वारा 2,36,000 से अधिक कोरोना से पीड़ित रोगियों के इलेक्ट्रॉनिक स्वास्थ्य रिकॉर्ड्स की जांच की गई। इस जांच में यह तथ्य ज्ञात हुआ कि कोरोना वायरस से संक्रमित होने के छह महीने के भीतर 34 प्रतिशत रोगियों में किसी न किसी प्रकार का मानसिक रोग देखा गया। यूनिवर्सिटी ऑफ मिशिगन के इंस्टीट्यूट फॉर हेल्थकेयर पॉलिसी एंड इनोवेशन इन यूएस द्वारा 50 से 80 वर्ष आयु वर्ग के दो हजार से भी अधिक लोगों पर जनवरी 2021 में किए गए एक सर्वे के अनुसार यह सभी अधेड़ एवं वृद्धजन अनिद्रा, तनाव, बेचैनी एवं घबराहट आदि किसी न किसी मानसिक समस्या से पीड़ित थे।
मानसिक रोगों की चिकित्सा हेतु सुविधाओं के विषय में हम पहले ही बहुत पिछड़े हुए हैं। देश में मनोचिकित्सकों का अभाव है। हमारी प्रति एक लाख आबादी पर केवल एक मेन्टल हेल्थ केअर प्रोफेशनल उपलब्ध है। मनोचिकित्सा बहुत महंगी है। किसी महानगर में एक घण्टे की काउंसलिंग का औसत शुल्क 1500 रुपए है।
वर्ष 2020 में कोविड-19 के प्रारंभ से पूर्व पेश किए गए स्वास्थ्य बजट में मानसिक स्वास्थ्य की हिस्सेदारी नाममात्र की अर्थात 0.05 प्रतिशत थी। जबकि विकसित देशों में औसतन स्वास्थ्य बजट का 5 प्रतिशत हिस्सा मानसिक स्वास्थ्य के लिए आरक्षित होता है। इंडियन जर्नल ऑफ साइकाइट्री के अनुसार मेन्टल हेल्थ केयर एक्ट 2017 को लागू करने हेतु सरकार को 94073 करोड़ रुपए का अनुमानित वार्षिक व्यय करना होगा किंतु जो वास्तविक खर्च हुआ है वह नहीं के बराबर है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के महानिदेशक टैड्रॉस एडहेनॉम ग़ैबरेयेसस ने चेतावनी भरे लहजे में कहा कि है कि कोविड-19 ने विश्व भर में मानसिक सेवाओं में ऐसे समय में व्यवाधान पैदा कर दिया है, जब इन सेवाओं की सर्वाधिक आवश्यकता है। उन्होंने विश्व नेताओं से अपील की है कि महामारी के दौरान और उसके बाद के समय में, जीवनरक्षक मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रमों में और अधिक संसाधन निवेश करने के लिये निर्णायक व त्वरित कार्रवाई करनी होगी।
केंद्र सरकार ने कोविड-19 के बाद गहराते मानसिक स्वास्थ्य संकट के मद्देनजर सितंबर 2020 में 13 भाषाओं में मानसिक समस्याओं हेतु मार्गदर्शन देने वाली 24x7 मेन्टल हेल्थ रिहैबिलिटेशन हेल्प लाइन प्रारंभ की है। कोविड-19 के दौरान छात्रों को मनोवैज्ञानिक सहायता प्रदान करने के उद्देश्य से सरकार ने 'मनोदर्पण' नामक एक ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म भी प्रारंभ किया है जिसमें ऑनलाइन चैट विकल्प, मेन्टल हेल्थ केयर प्रोफेशनल्स की एक डायरेक्टरी और एक हेल्पलाइन नंबर सम्मिलित है। इसके अतिरिक्त अपने माता पिता को कोविड-19 के कारण खोने वाले बच्चों की सहायता एवं सशक्तिकरण के लिए पीएम केयर्स फॉर चिल्ड्रन योजना का प्रारंभ भी किया गया है। किंतु कोविड-19 के दौर में मानसिक स्वास्थ्य का संकट जितना गंभीर है उसे देखते हुए यह प्रयत्न नितांत अपर्याप्त हैं। हमें मानसिक स्वास्थ्य को प्राथमिकता के एजेंडे में ऊपर रखना होगा। हमें कम से कम जिला स्तर पर एक मानसिक स्वास्थ्य केंद्र उपलब्ध कराना होगा जो मानसिक रोगों हेतु मुफ्त काउन्सलिंग एवं मार्गदर्शन दे। हमें क्षेत्रीय भाषाओं में काउन्सलिंग करने में सक्षम चिकित्सकों का प्रादेशिक स्तर पर एक पूल बनाना होगा। हमें निर्धन और अशिक्षित वर्ग तक पहुंच कर उनकी मानसिक समस्याओं को समझना और सुलझाना होगा। मनोचिकित्सकों और अन्य विशेषज्ञों को चाहिए कि वे देशहित को आर्थिक हितों से ऊपर रखें। उन्हें स्वयं को निःशुल्क सेवाएं देने तथा समयदान हेतु तैयार करना होगा। समाजसेवी संस्थाओं तथा समाज के अग्रणी व्यक्तियों को पहलकदमी करते हुए आम जन को हताशा, निराशा, अवसाद, चिंता तथा भय से मुक्ति दिलाने हेतु प्रयत्न करना होगा। सभी के समवेत प्रयास से हम इस कठिन समय में अपना मनोबल और मानसिक स्वास्थ्य बरकरार रख सकते हैं।
(रायगढ़, छत्तीसगढ़)